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तत्वार्थवृत्ति प्रस्तावना
नियतिवादवृष्टि विच एकबार 'ईश्वरवाद के विरुद्ध छात्रोंने एक प्रहसन खेला था। उसमें एक ईश्वरवादी राजा था जिसे यह विश्वास था कि ईश्वर समस्त दुनियाके पदार्थों का कार्यक्रम निश्चित कर दिया है। प्रत्येक पदार्थकी अमुक समयमें यह दशा होगी इसके बाद यह सब सुनिश्चित है। कोई अकार्य होना वो राजा सदा यह कहता था कि हम पा कर सकते है? ईश्वरने ऐसा ही नियत किया था। ईश्वरके नियतिक्रमे हमारा हस्तक्षेप उचित नहीं "ईश्वरकी मर्जी" एकबार कुछ गुण्होंने राजाके सामने ही गनीका अपहरण किया। जब रानीने रक्षार्थ चिल्लाहट शुरू की और राजाको शेष आया तब गुण्डोके सरदारने जोरसे कहा- "ईश्वरको मर्जी" राजाके हाथ ढीले पड़ते हैं और वे मुण्डे रानीको उसके सामने ही उठा ले जाते हैं। गुण्डे रानीको भी समझाते हैं कि 'ईश्वरकी मर्जी यही थी' रानी भी 'विधिविधान' में अटल विश्वास रखती थी और उन्हें आत्म समर्पण कर देती है। राज्यमें अव्यवस्था फैलती है और परचक्रका आमार्गदर्शक :- आचार्य आस्तविधिना की हम दुश्मनकी जो तलवार घुसती है वह भी 'ईश्वरकी मर्जी इस जहरीले
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राजाकी विश्वासविषसे भी हुई थी और जिने राजाने विधिविधान मानकर ही स्वीकार किया था। राजा और रानी गुण्डों और शत्रुओं के आक्रमणके समय "ईश्वरकी मर्जी" "विधिका विधान" इन्हीं ईश्वरास्त्रोका प्रयोग करते थे और ईश्वरसे ही रक्षाकी प्रार्थना करते थे। पर न मालूम उस समय ईश्वर क्या कर रहा था ? ईश्वर भी क्या करता ? मन्डे और शत्रुओंका कार्यक्रम भी उसीने बनाया था और वे भी ईश्वरकी मर्जी' और 'विधिविधान की दुहाई दे रहे थे । इस ईश्वरवादमें इतनी गुंजाइश थी कि यदि ईश्वर चाहता तो अपने विधानमें कुछ परिवर्तन कर देता। आज श्री कानजी स्वामीकी 'वस्तुविज्ञानसार' पुस्तकको पलटते समय उसकी याद आ गई और ज्ञात हुआ कि यह नियतिवादका बालकूट 'ईश्वरवाद से भी भयंकर है। ईश्वरवादमें इतना अवकाश हूँ कि यदि ईश्वरकी भक्तिकी जाय या सत्कार्य किया जाय तो ईश्वरके विधान में हेरफेर हो जाता है। ईश्वर भी हमारे सत्कर्म और दुष्कर्मो के अनुसार ही फलका विधान करता है। पर यह नियतिवाद जर्भय है। आश्चर्य तो यह है कि इसे 'अनन्त पुरुषार्थ का नाम दिया जाता है। यह कामकूट कुन्दकुन्द अध्यात्म सवंश, सम्यग्दर्शन और धर्मको शक्कर में लपेट कर दिया जा रहा है। ईश्वरवादी सांपके जहरका एक उपाय ( ईश्वर ) तो है पर उस नियतिवादी कालकूटका इस भीषण दृष्टिविषका कोई उपाय नहीं क्योंकि हर एक की हर रामकी नियत है।
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समन्ति वेदना तो तब होती है जब इस मिथ्या एकांत विषको अनंकान्त अमृतके नामसे कोमलमति नई को मिलाकर उन्हें अनन्त पुरुषार्थी कलकर महाके लिए पुरुषार्थसे विमुख किया जा रहा है।
पुण्य और पाप क्यों? जब प्रत्येक जीवका प्रतिसमयका कार्यक्रम निश्चित है, अर्थात् पत्तो है ही नहीं, साथ ही स्वय भी नहीं है तब क्या पुष्य और क्या पाप ? किसी मुसलमानने जंगप्रतिमा समय प्रतिमाको तोड़ना ही था. प्रतिमाको उस समय टूटना तोड़ी, तो जब मुसलमानको उस ही था. सब कुछ नियत था तो विचारे मुसलमान का क्या अपराध ? वह तो नियमित दास था। एक यामिक ब्राह्मण बकरेगी बलि चढ़ाता है तो क्यों उसे हिंसक कहा जाय 'देनीकी ऐसी ही पर्याय होनी थी, बकरेके गलेको कटना ही था, छुरेको उसकी गर्दन के भीतर घूराना ही था, ब्राह्मणके हमें मांस जाना ही था, वेदमें ऐसा लिखा ही जाना था।' इस तरह पूर्वनिश्चित योजनानुसार जब घटनाएं घट रही है तब उस विचारेको क्यों हत्यारा कहा जाये ? हत्याकाण्ड मी पटना अनेकइयों सुनिश्चित परिणमनका फल है जिस प्रकार ब्राह्मणके घुरेका परिणयन बकरे के गले के भीतर पुनेका नियत था उसी प्रकार बकरेके गलेका परिणमन भी अपने भीतर छुरा पुसवानेका निश्चित था। जब इन दोनों नियत घटनाओंका परिणाम बकरेका बलिदान है तो इसमें क्यों ब्राह्मणको हत्यारा कहा जाय ? किसी स्त्री शील भ्रष्ट करनेवाला व्यक्ति क्यों दुराचारी गुण्डा कहा जाय ? स्त्रीला परिणयन ऐसा ही होना था और पुरुषका भी ऐसा ही, दोनों के नियत परिणमनोंका नियत मेला दुराचार भी नियत ही या फिर उसे गुण्डा और दुराचारी क्यों कहा जाय इस तरह इन श्रोत्र विरूप (जिसके सुगमे ही