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स्वार्थवृत्ति प्रस्तावना
"जीव परिणामहेषु कम्मतं पुग्गला परिणमति । पुगलकम्मणिमित्तं तहेव जोवो वि परिणमदि ॥
निकुद जो मंत जोगुणे । अग्गोणिमिण व कला आदा सय भावेण ॥
पुग्गलकर मकवाणं ण ड कत्ता सव्वभावाणं ।” मार्गदर्शन-जीवाचं काळी होती है और पुलों निमित्तसे जीव कामाय रागादिरूपसे परिणमन करता है। इतना समझ लेना चाहिए कि जीव उपादान बनकर मुद्दलके गुणरूप से परिणमन नहीं कर सकता और न पुद्गल उपादान बनकर जीवके गुजरूपसे परिणति कर सकता है। हॉ परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धके अनुसार दोनोंका परिभ्रमन होता है। इस नरम उपदान दृष्टिसे आत्मा अपने भावोंका कर्ता है पुद्मलके ज्ञानावरणादिरूप] द्रव्यकर्मात्मक परिणमनका कर्त्ता नहीं है । इस स्पष्ट कथनसे कुन्दकुन्दाचार्य की स्व-अतुल दृष्टि समझ में आ जाती है। इसका विशद अर्थ यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमनमें उपादान है. दूसरा उसका निमित्त हो सकता है उ दान नहीं । परस्पर निमित्तसे दोनों उपादानोंका अपने अपने भावरूप गरिगमन होता है। इसमें निमित्तनैमित्तिकभावका निषेध कहाँ है? निश्चयदृष्टिने पनिरपेक्ष आत्मस्वरूपका विचार है। उसमें नव अपने उपयोगरूपमें ही पर्यवसित होता है। अतः कुन्दकुन्दके मासे अध्यत्ममें द्रव्यस्वरुपका नहीं निरूपण है जो आगे समन्तभद्रादि आचार्यनेि अपने पन्नों किया है
मूलमें भूल कहाँ ? -- इसमें वहाँ मूल भूल है ? जो उपादान है वह उपादान ही है, जो निमित्त है निमित्त ही है। कुम्हार पटकाकर्ता है यह बचत व्यवहार हो सकता है कारण, कुम्हार वस्तुतः अपनी हलन किया गया अपने घट बनानेकं उपयोगवा ही कर्ता है, उसके निमित्तसे मिट्टी के पा वह आकार उत्पन्न हो जाता है। मिट्टीकी घड़ा बनना ही था और कुम्हारके को पैसा होना हाथको ही था और हमें उसकी व्यास्थ ऐसी करनी ही मी. आपको ऐसा पर करना ही था और हमें यह उत्तर देना ही था। ये सब बातें न अनुभवसिद्ध कार्यकारणभावक अनुकूल ही हैं और न तर्फसिद्ध ही ।
परम पुरुषार्थी कुकुवा अध्यात्म० कुन्दने अपने आध्यात्ममें यह बताया है कि कार्य निर्मित और उपादान दोनों होता है पर निमितको यह अहंकार नहीं करना चाहिये कि ऐसा किया।" यदि उपादानकी योग्यता न होती तो निमित्त कुछ नहीं कर सकता था। पर केवल उपदान की योग्यता भी निमित्तके बिना अविकसित रह जाती है । प्रतिसमय विकसित होनेको सैकड़ों योग्यताएँ है। जिसका अनुकूल निमित्त जुड़ जाता है उसका विकास हो जाता है। यही पुरुका है। श्री कुम्कुल उनके अहंकारको निकालने के लिए पर-अक्की भावना पर जोर देते हैं। पर यह नियतिवाद का भूत स्वकतृत्वका भी समाप्त कर रहा है। कुन्दकुन्द यह तो कहते ही है कि जीव अपने गुणपर्यायका वर्ता है। पर इस नियतिवादमें जब सब गुनियन है तब रंचमात्र भी स्वकर्तृको अवकाश नहीं है । कुन्दकुन्द जहां चरित्र दर्शन शील आदि पुरुषार्थी पर भार देकर यह कहते है कि इनके द्वारा अपनी आवद्ध प्राचीन कमकी निर्जरा करके शीघ्र मुक्त हो सकते हैं। यहां यह नियनिवाद कहता है कि "शीघ्रताकी बात न करो, सव नियत है, होना होगा, हो जायगा ।" कुन्दकुन्दकी दृष्टि तो यह है कि हम परक्त वहा आरोप करकेही राग द्वेष मोही सृष्टि करते हैं। यदि हम यह समझ लें कि हम यदि किसी परियमनमें निर्मित हुए भी हैं जो इतनं मात्रमे उसके स्वामी नहीं हो सकते, स्वामी तो उपद ही होगा जिसका कि विकास हुआ है तो सारे झगड़े ही समाप्त हो जाय । पर इसका यह अर्थ तो कदापि नहीं है जो स्वपुरुषार्थ या स्वकर्तृत्व की भी स्वतन्त्रता नहीं है ।
अध्यात्मको अकर्तृव भावनाका उपयोग-तत्र अध्यात्मशास्त्री
भावनामा क्या अर्थ है ?
अध्यात्म में समस्त वर्णन उपादानयोग्यता के आधारले दिया गया है। निमित्त मिलानेपर भी यदि उपादान