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तत्वार्थवृत्ति प्रस्तावना
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फलदायी अनुभागशक्ति पड़ जायगी । इस तरह जीवन के अन्तमें कर्मोका बन्ध निर्जरा उत्कर्षण अपकपंग आदि होते होते जो रोकड़ बाकी रहती है वही सूक्ष्म कर्मशरीरकं रूपमें परलोक तक जाती है। जैसे तेज अग्निपर उबलती हुई बटलोईमें दाल चावल खाक जो भी डालिए उसका ऊपर नीचे जाकर उकान लेकर मायाकार्य श्री शादी ने अच्छे मा बुरे कर्मों में शुभभावो शुभकमोंमें रसप्रकर्ष और स्थितिवृद्धि होकर अशुभकमों में रसवर्ष और स्थितिहानि होकर अनेक प्रकारके कंचनीय परिवर्तन होते होते अन्तमें एक जातिका पाहयोग्य स्कन्भ बन जाता है, जिसके मोय राजादि सुखदुःखादि भाव उत्पन्न होते हैं । अथवा, जैसे उदरमं जाकर आहारकर मल मूत्र स्वेद आदि रूपसे कुछ भाग बाहर निकल जाता है कुछ वहीं हजम होकर रक्तादि धातु रूपसे परिणत होता है और आगे जाकर वीर्यादि बन जाता है बीचमें चूरन पटनी आदि मानसे लघुपाक दीपेश आदि अवस्थाएँ भी होती हैं पर अन्तमें होनेवाले परिपाकके अनुसार ही भोजन में सुपाकी दुष्पाकी आदि व्यवहार होता है, उसी तरह कर्मका भी प्रतिसमय होनेवाले शुभ अशुभ विचारोंके अनुसार तीव्र मन्द मध्यम मुदुमदुतर आदि रूपसे परिवर्तन बराबर होता रहता है। कुछ कर्म संस्कार ऐसे हैं जिनमें परिवर्तन नहीं होता और उनका फल भोगना ही पड़ता है, पर ऐ से कम बहुत कम है जिनमें किसी जातिका परिवर्तन न हो। अधिकांश कर्मोंमें अच्छे बुरे विचारों के अनुसार उत्कर्षण ( स्थिति और अनुभागकी वृद्धि ) अपकर्षण ( स्थिति और अनुभागकी हानि ) संक्रमण (एफका दूसरे रूपमें परिवर्तन) उदीरणा (नियत समय से पहिले उद जाना) आदि होते रहते है और अन्तमें क्षेष कर्मबन्धका एक नियत परिपाकम बनता है। उसमें भी प्रतिसमय परिवर्तनादि होते हैं। तात्पर्य यह कि यह आत्मा अपने भले बुरे विचारों और आचारोंसे स्वयं सम्पन पड़ता है और ऐसे संस्कारोंको अपनेमें डाल लेता है जिनमे छुटकारा पाना सहज नहीं होता। जैन सिद्धान्त उन विचारोंके प्रतिनिधिभुत कर्मद्रव्यकर इस आत्मासे बंभ माना है जिससे उस कर्मद्रव्यपर भार पड़ते ही या उसका उदय आते ही वे भाव आत्मामें उदित होते हैं ।
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जगत् भौतिक है । वह पुद्गल और आत्मा दोनोंसे प्रभावित होता है। जब कर्मका एक भौतिक विण्ड, जो विशिष्ट शक्तिका केन्द्र है, आत्मासे सम्बद्ध हो गया तब उसकी सूक्ष्म पर तीव्र शक्ति के अनुसार बरा पदार्थ भी प्रभावित होते हैं। बाह्य पदार्थोके समवधानके अनुसार कमौका यथासंभव प्रदेशोदय या फलोदय रुपये परिपाक होता रहता है । उदयकाल होनेवाले तीव्र मन्द मध्यम शुभ अशुभ भावोंक अनुसार आगे उदय आनेवाले कमोंके रसदानमें अन्तर पड़ जाता है । सात्पर्य यह कि बहुत कुछ कर्मोंका फल देना या अन्य रूपमें देना मान देना हमारे पुरुषार्थके ऊपर निर्भर है।
माना गया है और वह प्रयोगसे शुद्ध हो सकता
इस तरह जैन दर्शनमें यह आत्मा अनादिसे अंशुद्ध शुद्ध होनेके बाद फिर कोई कारण अशुद्ध होने का नहीं रह जाता। आत्माके प्रदेशोंमें संकोच विस्तार भी मेकेनिमित्तसे ही होता है। अतः कर्मनिमिनके हट जाने
जाता है और ऊर्ध्व लोकमे लोकाप्रभागमें स्थिर हो अपने अनन्त चैतन्य
अपने अन्तिम आकारमें रह प्रतिष्ठित हो जाता है।
इस आत्माका स्वरूप उपयोग है। आत्माकी चैतन्यशक्तिको उपयोग कहते हैं। यह चिति वक्ति बाह्य अभ्यन्तर कारणोंसे यथासंभव ज्ञानाकार पर्यायको और दर्शनाकार पमयको धारण करती है। जिस समय यह चैतन्यशक्ति जयको जानती है उस समय साकार होकर मान कहलाती है तथा जिस समय मात्र चैतन्याकार रहकर निराकार रहती है तब दर्शन कहलाती है। कान और दर्शन क्रमसे होनेवाली पर्या हं । निरावरण दशमं चैतन्य अपने शुद्ध चैतन्य रूपमं लीन रहता है। इस अनिर्वचनीय स्वरूपमात्र प्रतिटिव आत्ममात्र दशा ही निर्वाण कहते हैं। निर्वाण अर्थात् वासनाओंका निर्माण स्वरूपसे अमूर्तिक प्रोफर भी यह आत्मा अनादि कर्म होनेके कारण मुर्तिक हो रहा है और कर्मबन्धन हटते ही फिर अपनी शुद्ध अमृतिकदशामें पहुँच जाता है। यह आत्मा अपनी शुभ अशुभ परिणतियोंका कर्ता है।
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