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________________ २ प्रस्तावना जाता है । अनन्त कालक अपनी शुद्ध विमा दशामें बना रहता है। फिर इसका विमान या अशुद्ध परिणमन नहीं होता क्योकि विभाव परिणमन की उपादानभूत रागादि सन्तति उच्छिन्न हो चुकी इस प्रकार है जो पर्याय प्रथम है वह दूसरे क्षण में नही रहती है। कोई भी पर्याय दीक्षण करनेवाली नहीं हैं। प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायका उपादान है। दूसरा द्रव्य चाहे वह सजातीय वाय निर्मित ही हो सकता है. उपादान नहीं में अपनी योग्यता ऐसी है जो दूसरे परमाणुसे सम्बन्ध करके स्वभावतः अशुद्ध बन जाना है पर आत्मा स्वभाव से अशुद्ध नहीं बनना । एक बार शुद्ध होने पर वह कभी भी फिर अशुद्ध नहीं होगा । मेरा इस तरह इस प्रतिक्षण परिवर्तन अनलयम लोकमे में एक आत्मा है। किसी दूसरे आत्मा या पुद्गल आदि द्रव्योंमें कोई सम्बन्ध नहीं है। में अपने चैतन्यका स्वामी हैं, मात्र चैतन्यरूप हूँ। यह शरीर अनन्त पुद्गल परमाणुओं का एक पिण्ड है, हमका में स्वामी नहीं हैं। यह सब पर द्रव्य है । इसके लिए पर पदार्थोंमें दृष्ट अनिष्ट बुद्धि करना ही संसार है। मं एक व्यक्ति पर पापको अपने अनुकूल परिणमत करानेकी अधिकार बेष्टा की मेने यह भी अनधिकार चेष्टा की कि हर अधिक अधिक पदार्थ मेरे अधीन हो, जैसा में चाहे वैसा परिणमन करें। उनकी वृत्ति मेरे अनुकुल हो पर मूर्ख, तू तो एक व्यक्ति है। अपने पणिमन पर अर्थात् अपने विचार और अपनी कियापर ही अधिकार रख सकता है, पर पदार्थों पर तेरा वास्तविक अधिकार है? यह अधिकार बेष्टा ही राम की उपत्पन्न करती है तू चाहता है कि यारीर प्रकृति सारक समस्त पदार्थ तेरे अधीन हों, तू को ईश्वर बन जाय । पर यह सब तेरी निरधिकार चेष्टाएँ हैं । तू जिस कार्य अनुत्सुक सर्क हासोजमीन करना चाहता है उसी तरह तेरे जैसे अनन्त म वेतन भी यही दुर्गामना लिये है और दूसरे इयोंको अपने अधीन करना चाहते है। इसी नाझपटीमें संघर्ष होता है, हिसा होती है. राग द्वेष होता है और अन्नतः वृष मुख और दुःखी परिभाषा यह है कि जो चाहे सो होवे' इसे कहते हैं सुख और 'चाहे कुछ और ही कुछ था जो चाहे सो न हो यही है दुःख मनुष्यकी चाह सदा यही रहती है कि मुझे सदा का संयोग रहे, अनिका संयोग न हो, चहके अनुसार समस्त भौतिक जगत् और वेतन परिणत होते रहें, शरीर चिरयौवन रहे, स्त्री थियोवना हो, मृत्यु न हो, अमरत्व प्राप्त हो, धन धान्य ही प्रकृति अनुक रहे और जाने कितनी प्रवारी 'वाह' इस दोखचिल्ली मानव होती रहती है उन गवका निलो यह है कि जिन्हें चाहे उनका परिणमन हमारे इशारे पर हो, तब हम भ मानवको क्षणिक मुखका आभाग हो सकता है बढ़ने जिस दुःख सर्वानुभूत भताया वह सब अभावहो तो है। महावीरने इस तृष्णाका कारण बताया- स्वस्त्ररूपकी मर्यादाका अज्ञान । यदि मनुष्यपता हो कि जिनकी में चाह करता हूँ, जिनकी नष्णा करता हूँ ये पदार्थ मेरे नहीं है, मैं तो एक चिन्मात्र है तो उसे अनुचित काही उत्पन होंगी। स्त्री पुत्र परिजन आदि सब मेरे हारेपर व को हारपर नचानेवाला एकमात्र अधिकतम तरह संसारक को नवयुगपने बहुत सुन्दर "जगके पदार्थ सारे व इच्छाकल जो तेरी । तो तुझको सुख होने पर ऐसा हो नहीं सकता । क्योंकि परिणमन उनका शव उनके अधीन रहता है। जो निज अधीन चाहे यह व्याकुल स्वयं होता है || इससे उपाय सुखा सचा स्वाधीन वृति है अपन रागद्वेषविहीना अणमें समय हरती जो ॥
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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