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तत्त्वार्थत्ति हिन्दी-सार
है इस पञ्चम कालमें गणधरदेवके समान श्रीनिर्ग्रन्थाचार्य मास्वामि भट्टारकसे रियाकने प्रश्न किया कि-भगवन् , आत्मा का हित क्या है ? उमारवामि भट्टारक
भव्यके प्रश्नावसम्यग्दर्शनाचाम्यश्रीनालिसम्यकपत्रिका द्वारा प्राप्त होने मोक्ष आत्माका हित है। यह उत्तर देनेके पहिले इष्टदेवको नमस्कार कर मङ्गल
"मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्यानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥" आमाके झानादि गुणोंको घातने वाले झानावरणादि कोका भेदन करके जो समस्त जाना अर्थात् मोक्षोपयोगी पदार्थों के पूर्ण ज्ञाता है. तथा जिनने मोक्षमार्गका नेतृत्व किया
परमात्मा को उक्तगुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूं। E द्वैयाक ने पूंछा कि मोक्षका स्वरूप क्या है ?
उमास्वामि भट्टारकने कहा--समस्त कर्ममलोंसे रहित आत्माकी शुद्ध अवस्थाका मोक्ष है। इस अवस्थामै आत्मा स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारके शरीरोंसे रहित हो गरी हो जाता है। अपने स्वाभाविक अनन्तज्ञान निर्बाध अनन्त सुख आदि गुणोंसे मिर्ष हों चिदानन्द स्वरूप हो जाता है। यह आत्माकी अन्तिम विलक्षण अवस्था है ।
व दशा सदा एकसी बनी रहती है। इसका कभी विनाश नहीं होता। यह दशा मानका विषय न होनेसे अत्यन्त परोक्ष है, इस लिए विभिन्न वादी मोक्षके
की अनेक प्रकारसे कल्पना करते हैं। जैसे...(१) माल्यका मत है कि-पुरुषका स्वरूप चैतन्य है । भान चैतन्यसे पृथक् वस्तु महान प्रकृतिका धर्म है, यही मेय अर्थात् पदार्थोंफो जानता है । चैतन्य पदाथोंको
मानता । मोक्ष अवस्थामें आत्मा चैतन्य स्वरूप रहता है ज्ञान स्वरूप नहीं। । हस मतमें ये दूषण है-मानसे भिन्न चैतन्य कोई वस्तु नहीं है। पैतन्य ज्ञान बुद्धि
पर्यायवाची है इनमें अर्धभेद नहीं है । स्व तथा पर पदार्थांका जानना चैतन्यका है। यदि चैतन्य अपने स्वरूप तथा पर पदार्थोंको नहीं जानता तो वह गधेके सींगकी असत् ही हो जायगा । निराकार अर्थात् ज्ञेयको न जानने वाले पैतन्यकी कोई
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4.(२) वैशेषिक-बुद्धि, मुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन
नव विशेष गुणों के अत्यन्त उच्छेद होनेको मोक्ष कहते हैं। ये विशेषगुण आत्मा अनके संयोगसे उत्पन्न होते है। चूंकि मोक्षमें भात्माका मनसे संयोग नहीं मतः इन गुणोंका अस्यन्त उच्छेद हो जाता है