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________________ १/२१ ] प्रथम अध्याय ३५५ ३ मायागता चूलिका - इसमें इन्द्रजाल आदि मायाके उत्पादक मन्त्र-तन्त्रका वर्णन है । आकाशमें गमन के कारणभूत मन्त्र-तन्त्रों का वर्णन है । ५ रूपगता चूलिका - सिंह, व्याघ्र, गज, उरग, नर, सुर आदिके रूपों ( वेष ) को धारण करानेवाले मन्त्र-तन्त्रका घन है। इन सबके पदोंकी संख्या जलगता चूलिका के पदोंकी संख्या बराबर ही है। इस प्रकार बारहवें अनके परिकर्म आदि पाँच भेदका वन हुआ । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज इक्यावन करोड़ आठ लाख चौरासी हजार छः सौ साढ़े इक्कीस अनुष्टुप् एक पद होते हैं । एक पदके प्रन्थोंकी संख्या ५१०८८४६२१३ है । अपूर्वश्रुतके एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पद होते हैं। भवप्रत्यय अवधिज्ञान ४ आकाशगता चूलिका — इसमें प्रत्यधिदेवनारकाणाम् ॥ २१ ॥ प्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है । आयु और नाम कर्मके निमित्त से होनेवाली जीवकी पर्यायको भव कहते हैं । देव और नारकियों के अवधिज्ञानका कारण भव होता है अर्थात् इनके जन्मसे ही अवधिज्ञान होता है। प्रश्न- यदि देव और नारकियों के अवधिज्ञानका कारण भव है तो कर्मका क्षयोपशम कारण नहीं होगा । उत्तर- जिस प्रकार पक्षियों के आकाशगमनका कारण भव होता है शिक्षा आदि नहीं, उसी प्रकार देव और नारकियोंके अवधिज्ञानका प्रधान कारण भव ही है। क्षयोपशम गौण कारण है । व्रत और नियमके न होने पर भी देव और नारकियों के अवधिज्ञान होता है। यदि देव और नारकियोंके अवधिज्ञानका कारण भव ही होता तो सबको समान अवधिज्ञान होना चाहिए, लेकिन देवों और नारकियों में अवधिज्ञानका प्रकर्ष और अपकर्ष देखा जाता है। यदि सामान्य से भव ही कारण हो तो एकेन्द्रिय आदि जीवोंको भी अवधिज्ञान होना चाहिए। अतः देर्यो और नारकियोंके अवधिज्ञानका कारण भव ही नहीं है किन्तु कर्मका क्षयोपशम भी कारण है। सम्यग् देष और नारकियोंके अवधि होता है और मिध्यादृष्टियोंके विभङ्गावधि । सौधर्म और ऐशान इन्द्र प्रथम नरक तक, सनत्कुमार और माहेन्द्र द्वितीय नरक तक, मा और लान्त तृतीय नरक तक, शुक्र और सहस्रार चौथे नरक तक, आनद और प्राणत पाँचवें नरक तक, आरण और अच्युत इन्द्र छठवें नरक तक और नव मैवेयकों में उत्पन्न होने वाले देव सातवें नरक तक अवधिज्ञानके द्वारा देखते हैं। अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देव सर्वलोकको देखते हैं । प्रथम नरकके नारकी एक योजन, द्वितीय नरकके नारकी आधा कोश कम एक योजन, तीसरे नरकके नारकी तीन गव्यूति, ( गव्यूतिका परिमाण दो कोस है ) चौथे नरके नारकी अढ़ाई गव्यूति, पाँचवें नरकके नारकी दो गव्यूति, छठवें नरकके नारकी डेड़ गव्यूति और सातवें नरकके नारकी एक गव्यूति तक अवधिज्ञानके द्वारा देखते हैं ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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