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________________ मर्शक : नय निरुपण ६५ नव-विचार व्यवहार साधारणतया तीन भागों में बांटे जा सकते हैं—१ शानाश्रमी २ अर्यामी, आयी ट्राफिक व्यवहार संकल्पके माधारसे ही चलते हैं। जैसे रोटी अनेक प्रायवहारे बनाने या कपड़ा बुनेकी तैयारी के समय रोटी बनाता है, कपड़ा बुनता है, इत्यादि व्यवहारोंमें संकल्पमात्रमें ही रोटी या कपड़ा व्यवहार किया गया है। इसी प्रकार अनेक प्रकार के औपचारिक व्यवहार अपने ज्ञान या के अनुसार हुआ करते हैं। दूसरे प्रकारके व्यवहार अर्थाश्रयी होते है-अर्थने एक ओर एक नित्य ब्यापी और सम्मानरूपसे चरम अभेदकी कल्पना की जा सकती है तो दूसरी ओर क्षणि बच परमाणुत्व और निरंशत्वकी दृष्टिसे अन्तिम भेदकी। इन दोनों जन्तोंके बीच अनेक अवान्तर मेद और अनेक स्थान है। अभेद कोटि ओपनिषद अद्वैतवादियोंकी है। दूसरी कोटि वस्तुकी सूक्ष्मतम वर्तमान क्षणवर्ती अपर्यायके ऊपर दृष्टि रखनेवाले क्षणिकनिरंश परमाणुवादी मोठोंकी है। तीसरी कोटि में पदार्थको अनेक प्रकारसे व्यवहारमें लानेवाले नैयायिक वैशेषिक आदि दर्शन हैं। तीसरे प्रकार के शब्दानित व्यवह रोमें भिन्न कालवाचक, भिन्न कारकोंमें निष्पन्न, भिन्न वचनवाले, भित्र पर्यायवाले और विभिन्न क्रियावाचक शब्द एक अर्थको वा अर्थकी एक पर्यायको नहीं कह सकते। शब्दभेद अर्थमेष होना ही चाहिए इस तरह इस ज्ञान अर्थ और शब्दका आश्रय लेकर होनेवाले विचारोंके समन्वय के लिए नथदृष्टियों का उपयोग है। इसमें मंल्पाधीन यावत् ज्ञानाश्रित व्यवहारीके ग्राहक नंगमनयको संकल्पमात्रग्राही बताया है । स्वार्थभाष्य में अनेक ग्राम्य व्यवहारोंका तथा औपचारिक लोकव्यवहारोंका स्थान इसी नयी विषयमर्यादा में निश्चित किया है। आ० सिद्धसेनने अभेदग्राही मैगमका संग्रहनयमे तथा भेदग्राही नैगमका व्यवहार नयमें अन्तर्भाव किया है 1 इससे ज्ञात होता है कि वे नैगमको संकल्पमात्रग्राही मानकर अर्थग्राही स्वीकार करते हैं । देवने यद्यपि राजवातिकर्म पूज्यपादका अनुसरण करके नंगमनयको संकल्पमात्रग्राही लिखा है फिर भी लीवस्त्र ( कर० ३९) में उन्होंने नैगमनयको अर्थ के भेदको या अभेदको ग्रहण करनेवाला भी बताया इसीलिए इन्होंने स्पष्ट रूपसे नैगम आदि ऋजुपात बार नयोको अर्थनय माता है। अश्रित अभेदव्यवहारका जो "आत्मैवेदं सर्वम्" आदि उपनिषद्द्वाक्योंसे व्यक्त होता है, परमंडनयमं अभी होता है। यहाँ एक बात विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है कि जनदर्शन में दो या अधिक इम्पो अनुस्यूत सत्ता रखनेवाला कोई सन् नामका सामान्यपदार्थ नहीं है। अनेक प्रयोंका सद्रूपसे जो मंग्रह किया जाना है वह सत्सादृश्यके निमित्तसे ही किया जाता है न कि सदेकत्वकी दृष्टिसे । हां, सदेकत्वकी दृष्टिसं प्रत्येक सत्की अपनी कमवर्ती पर्यायोंका और सहभावी गुणोंका अवश्य संग्रह हो सकता है. पर दो तुम अनुस्यूत कोई एक सत्व नहीं है। इस परसंग्रहके आगे तथा एक परमाणुकी वर्तमानमालीन एक असे पहिले होनेवाले मावत् मध्यवर्ती भेदोका व्यवहारनयमं समावेश होना है इन अवान्तर भेदोंको न्यायवैशेषिक आदि दर्शन ग्रहण करते हैं । अर्थको अन्तिम देशकोटि परमाणुसपना तथा काकोटि अजमानस्यायिताको ग्रहण करनेवाली बौद्ध दृष्टि मूत्रकी परिधिम अनी है। वहनिक अर्थको सामने रखकर भेद तथा अभेद ग्रहण करनेवाले अभिप्राय बताये गये है। इसके आगे शब्दाश्रित विचारोंका निरूपण किया जाता है । काल, कारक, संख्या तथा धातुके साथ लगनेवाले भिन्न भिन्न उपसर्ग आदिको दृष्टिसे प्रयुक्त दोनेावाय अर्थ भी भिन्न भिन्न है. इस कालाविभेदमे शब्दभेद मानकर अर्थभेद माननेवाली दृष्टिका शब्दनयमं समावेश होता है एक ही सामनमें निष्णन तथा एक कालवाचक भी अनेक पर्यायबाबी शब्द होते हैं। इन पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे अर्थभेद माननेवाला समभिरूकनय है । एवम्भूतनय कहता है कि जिस समय जो अर्थ जिस क्रियामें परिणत हो उसी समय उसमें तकिया निष्यन्न शब्दका प्रयोग होना चाहिए। इसकी दृष्टिने सभी शब्द क्रियावाणी है। गुणवाचक शुकशब्द भी भुविभवन
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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