Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Darbarilal Nyayatirth
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. श्री वीतरागप्रजुनी वाणीरूपी अमृतरस जेनी अंदरथी उनराइ जाय बे, एवा ग्रंसाने मुजित करी प्रसिद्ध करवा ए महापरमार्थ बे, अने तेथी विद्वान जनो प्रमुत थाय . वली तेथी विवेकी माणसो तेवा ग्रंथोने अवलोकीने जिनधर्ममां पोनु दृढपणुं संपादन करे . सामान्य बुद्धिना प्राणी तेवा ग्रंथोनुं व्याख्यानादिक प्रवण करीने परम श्राह्लाद मेलवे बे, तथा बोधिबीजने पामे . सजान माणसो ते चीने पोताना मनने निर्मल करे . अने धर्ममां अत्यंत आदर करे बे. एवी रीते मां अति उत्कृष्ट जिनवाणी समाएली बे एवा आगमोनी वृद्धि, रक्षण तथा विय करवो, ए अति शुज पुण्य प्रकृति बांधवानुं साधन बे. अने तेवा श्रागमने प्र. सिक करवामाटे हालना चालता समयमां मुलायंत्र एक अति उत्तम साधन थर ड्युं बे. तेवा मुडायंत्रथी सर्व श्रागमोने, तथा सर्व ग्रंथोने उपावी प्रसिद्ध करवा, श्रुताननी वृद्धि, रक्षण तथा विनय हालना समयमा सर्वोत्कृष्ट गणाय ने खरूं ण तेवू महान् कार्य समृशिवान् उदार जैन गृहस्थथी बनी शके . वली तेवो पुरु समृद्धिवान् तेम श्री वीतराग प्रजुए प्रकाशेला जिनधर्मपर अत्यंत श्रद्धालु प्रने श्रादरसत्कारवालो होवो जोश्ए. अने तेवो असाधारण दृढमननो माणस श्री चतुर्विध संघमां विरलोज मली आवे बे. जेम हालना समयमां बाबुसाहेब " रायअनपतिसिंहजी प्रतापसिंहजी " . अने तेनी जोडीनो श्रद्धालु श्रावक श्राधुनिक नमान कालमां बीजो को पण नथी. ए महान् पुरुषे उपर कहेली रीतप्रमाणे प्रत्यंत प्रीतिसहित सर्व भागमो एटले जैनसूत्रो पावी प्रसिक करीने जैनकोमपर मोटो उपकार कर्यो बे. अने तेमनी सहायताथीज आ दशवैकालिक सूत्र अमोए टीका, दीपिका, तथा गुजराती भाषांतरसहित बापी प्रसिद्ध कर्यु . अने तेमां Eष्टिदोषथी, अथवा बुछिदोषथी अने अज्ञानरूपी अंधकारना पराधीनपणाथी जे कंई अशुभ अथवा उत्सूत्र पदनी अथवा शब्दनी योजना थक्ष होय, तो तेमाटे सजन पुरुषोए मने दमा करवी. जो के मारो था विवेक अयोग्य बे, केम के, सजान धुरुषोनो तो एवोज खनाव होय जे के, तेउनी दृष्टिए सत्कार्यनी अंदर कदापी दोष इष्टिगोचर थतो नथी. ते बतां पूर्वे श्रेष्ठ ग्रंथकारोए जे पति राखेती, तेने अनु. सरीने में पण बहीं विवेक करी बताव्यो बे. वली सजनोपासे क्षमा मागवाना करतां विशेषे करीने हुँ उर्जन माणसोनी वधारे क्षमा याचुंटुं. केम के तेननो स्वजा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. वज एवो होय डे के, को पण मनुष्यना हाथथी ज्यारे शुज कृत्य थाय बे, त्यारे ते जो तेमनां मनमा अत्यंत खेद निवास करीने रहे . अने बीजानी न्युनता थवाथी तेऊना मनमा अत्यंत हर्ष उत्पन्न थाय . वली तेवा उर्जन माणसो बीजाऊना दोषो कहाडवामां अत्यंत थातुरता बतावे . अने बीजानां कल्याणरूप वृ. क्षने बेदवामां ते एक कुहाडानी गरज सारे बे, अने एवी रीतना असंख्य पुर्युपोथी तेवा पुष्ट जनो जरेला होय . अने तेवा पुर्जनो खरेखर घुवडसमान होय . थने ते हेतुथी तेवा उर्जनो खरेखर जिनवाणीरूपी सूर्यना तेजश्री अंध बनीने विपर्यासपणाने पामशे, अने मनमां केषबुझिथी ईर्षा लावीने ते अत्यंत खेद पाम्या करशे, थने तेटला माटे हुं तेमनी क्षमा मागु बु. ज्ञानना फेलावारूपी शुभकर्म उपार्जन करवामां प्रथम श्रेणिमां गणवालायक महान पुरुष के जेमणे फक्त लोकोना उपकारनेमाटेज पीस्तालीसे जैन आगमो मूल तथा तेजमांथी, जेऊनी टीका, दीपिका अवचूरि विगेरे जे अंगो मली शके , ते सहित मुजित करीने ते उने प्रसिद्ध करवामां, पोतानुं अथाग अव्य खरची उद्योग करेलो. तेवा सजान माणसनी उत्पत्ति विषे किंचित् लखाण श्रा जगोए लखवं. तेने हुँ उचितज मानुं बुं. बंगाल इलाकामां बालोचर, मदुदाबाद, अथवा मुर्शीदाबाद एवांत्रण सुंदरनामथी उलखातुं एक सुंदर शेहेर श्रावी रहेढुंबे. के ज्यां कृष्णगढथी श्रावी निवास करनारा उशवंशरूपी नंदन वनमां कल्पवृदसरखा उगड नामना गोत्रवाला धर्म न्यायविवेक तथा विनय श्रादिक अत्यंत श्रेष्ठ गुणोथी शोनिता थएला, तेमज सर्व सत्यवादिठमां अग्रेसर, महाबुझिना नंडाररूप, दीन अने गरीब साधर्मी जाने तन, मन अने धनथी सहाय आपनार, अत्यंत मनोहर स्वनावे करीने युक्त; पुण्यना प्रजावरूपी चंजना प्रकाशथी सघली दिशाउने प्रकाशित करनारा राय " बुकसिंहजी बाबु" नामें श्रावक श्री जैनधर्म उपरें अत्यंत श्रद्धावाला हता. तेमनी सौजाग्यवती कुशलादे नामनी स्त्रीनी कुदिथकी संवत् १०३ माघवदी एकमने गुरुवारने दि. वसे राय प्रतापसिंह नामे कुलदीपक सुपुत्रनो जन्म थयो. ते सर्व धनाढ्योमा शिरोमणिसरखा, जैनधर्मपर अत्यंत प्रीति राखनारा, तेमज दमावान, अने धर्म तथा अधर्मनो निर्णय करवामां शिरोमणि थया. तेमनी चतुर्थ पत्नीनुं नाम सौजाग्यवती महताबबार हतुं. तेमणे उशवंशमा मुक्तामणिसरखा, न्यायमार्गथी लक्ष्मीनु उपार्जन करनारा, तथा धर्म अर्थ अने काम, ए त्रणे पुरुषार्थोने सफल करनारा, तथा प्राणीमात्र प्रते दयापणायें करीने युक्त एवा अत्यंत तेजस्वी बे पुत्रोने जन्म आप्यो. तेउमा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. मोटा पुत्रनुं नाम “ राय लक्ष्मीपतिसिंहजी बहापुर” तथा जेमणे श्रावा श्रागम ग्रंथो उपावी प्रसिद्ध करवामां उद्यम कर्यो, ते कनिष्ट पुत्रनुं नाम " रायधनपतिसिंहजी बहापुर" . ए बन्ने उत्तम गृहस्थो उत्तम गुणोना नंडाररूप तथा प्राणिमात्रना कल्याणमां अत्यंत उत्सुक थएला . माटे जिनधर्मपर अत्यंत श्रझा राखनारा एवा ते उत्तम पुरुषे था दशवैकालिक नामनो अति उत्कृष्ट बागम ग्रंथ उपावी प्रसिद्ध करी खरेखर पोतानुं नाम सफल कर्यु ले. अने एवां पारमार्थिक कार्यों ते जाग्यशाली पुरुषने हाथे दिन प्रतिदिन था एवी श्रमारी वारंवार विज्ञापना ने. था दशवैकालिकसूत्रना कर्ता श्री शय्यंजवखामी . तेमणे था सूत्र शामाटे रच्यु ? तेनो संबंध नीचे प्रमाणे बे. ज्यारे शय्यंजव स्वामीए दीक्षा लीधी, त्यारे तेमनी स्त्री गर्नवंती हती, त्यारे स्वजनोए तेणीने पूज्युं के, तारा उदरमां कंई गर्न जेवो संजव बे, त्यारे तेणीए प्राकृत जाषामां कडं के, “ मणयं ” एटले किंचित्मात्र डे. अनुक्रमे तेणीए एक मनोहर पुत्रने जन्म प्राप्यो, तथा तेमनी मातुश्रीए कहेला वचन परथी तेनुं " मनक” एवं नाम राखवामां आव्यु. पनी अनुक्रमे ते मनक ज्यारे आठ वर्षनो थयो, त्यारे एक दहाडो तेणे तेनी माताने पूब्यु के, हे माताजी, मारापिताजी क्या डे ? त्यारे माताए कह्यु के, हे पुत्र ! तारा पिताजीए तो चारित्र अंगीकार कयु . ते सांजली मनकने पोताना पिताजी पासे जवानी श्छा थ. हवे ते समये श्री शय्यंजवखामी चंपानगरीमा बिराजता हता, अने ते खबर मनकने मलवाथी ते पण त्यां पहोंच्यों. ते वखते श्री शय्यंजवस्वामी स्थंडिल जता हता अने मार्गमां तेमणे मनकने जोयो. त्यारे तेमणे पूब्युं के तुं कोण डे ? त्यारे तेणे पोतानो सर्व वृत्तांत तेमने कही संजलाव्यो. त्यारे शय्यंजव खामिए तेमने फरीने पूब्यु के, तुं अहीं शा माटे आव्यो ? त्यारे मनके कद्यु के, मारे दीक्षा लेवी ले थने आप जाणता हो तो कहो के, ते अमारा पिताजी शय्यंजवखामी क्या ? त्यारे श्राचार्यजीए कह्यु के, ते तारा पिता अने हुं कंई जिन्न नथी, माटे तुं मारी पासे दीदा ले ? मनके ते वात कबुल करवाथी आचार्यजीए तेमने त्यांज दीक्षा थापी. तथा पली तेमने साये लेश् श्राचार्य महाराज उपाश्रये श्राव्या, तथा ज्ञानबलथी जाएयु के, था मनकनुं आयुष्य फक्त हवे मासचेंज बाकी बे; माटे आटली टुक मुदतमां था मनक कृतार्थ शी रीते थक्ष शके ? बेवटे तेमणे विचायु के, कारण पड्ये चौदपूर्वधारी मुनि पूर्वोमांधी सूत्रनो उकार करे बे, तो मने पण श्रा समये श्रावु प्रयोजन पड्युं बे, तो हुँ पण तेम करूं. एम विचारि श्री शय्यंजव मुनिए पूर्वोमांथी दश अध्ययननो उकार कर्यो; तथा ते दश अध्ययन जणवामां मनकने बरो Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. बर मास लाग्या. तथा न मास संपूर्ण थतांज मनके समाधिमा रही काल कर्यो. त्यारे श्री शय्यंजव श्राचार्यना नेत्रोमांथी हर्षाश्रुनी जलधारा बुटी. त्यारे यशोनादिक साधुए ते अश्रुनुं कारण पूब्याथी आचार्य महाराजे मनकनो सर्व वृत्तांत कही संनलाव्यो. ते सांजली तेउने मनमां पश्चात्ताप थयो के, अहो ! थापणे गुरुपुत्र मनकनी सेवा करी शक्या नहीं. तथा पबी संघना आग्रहथी श्री शय्यंनवस्वामीए उधरेला ते दशे अध्ययनो प्रगट राख्यां, अने एवी रीते विकाले ते दश अध्ययननी गुंथणी करवामां आवेली होवाथी ते सूत्रनुं नाम “ दशवकालिक” राखवामां आव्यु बे.तथा उपरनी बे चूलिका तो श्रीमंधरखामीए संघने नेट तरिके मोकलेली , ते वात प्रसिज . एवी रीते था दशवैकालिक सूत्रनी उत्पत्ति थ . श्रा दशवैकालिकसूत्रमा रहेला दश अध्ययनो तथा बन्ने चूलिका अवश्य साधु ने ध्यानमा राखवा लायक बे; अने ते ध्यानमा राख्याथी तेमने तेमना अमूल्य चारित्राचारमा अतिचार दोष लागतो नथी. यहीं ते विषेर्नु वधारे ब्यान नहीं करता था सूत्र आद्यथी ते अंतसुधि वांची जवानी तथा ते ध्यानमा राखवानीज श्रमो सर्वने जलामण करीए बीए. श्रा सूत्रपर चौदसोने चम्मालीस ग्रंथना कर्ता महान श्राचार्य श्री हरिजन सूरिजीए शिष्यबोधिनी नामनी टीका तथा श्रवचुरी रचेली . तथा खरतर गरमा थएला युग प्रधान श्री जिनचं सूरिना शिष्य श्री सकलचं गणिना शिष्य श्री समयसुंदर गणिए विक्रम संवत १६ए१ मां दीपिका तामनी शब्दार्थ वृत्ति पण बनावी बे. तेथी अमोए पण यथामति संशोधन करी करावीने ते हारिजजी टीका, अबचूरि तथा समयसुंदरजीनी दीपिका टीका मूलसहित श्रा ग्रंथमां गपी . तेम मूल सूत्रनो गुजराती अर्थ करीने पण या ग्रंथमां बाप्यो बे. या ग्रंथ घणोज उपयोगी होवाथी बापी प्रसिझ को बे. बेवटे तेमां मूल सूत्रनो संपूर्ण पाठ पण दाखल करवामां श्राव्यो . प्रमादवशथी या ग्रंथमां जे कंई बापतां करतां दोष रह्यो होय ते “मिछामि पुक्कडं.' श्रावक. नीमासिंद माणेक. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. पृष्ठ अंक. विषय. १ मंगलाचरण. .... २ सुमपुष्पिकाख्य प्रथमाध्ययनम् . .... ३ श्रावण्य पूर्वकाख्य द्वितीयाध्ययनम्. .... ४ दुखकाचाराख्य तृतीयाध्ययनम् .... ५ षट्जीवनिकाख्य चतुर्थाध्ययनम् . .... ६ पिंडैषणाख्य पंचमाध्ययने प्रथमोदेशः पिंडैषणाख्य पंचमाध्ययने ठितीयोदेशः महाचार कथाख्यषष्टाध्ययनम्. .... ए वाक्यशुद्ध्याख्यसप्तमाध्ययनम् . .... १० श्राचार प्रणिधि नामाष्टमाध्ययनम् . .... ११ विनयसमाध्याख्य नवमाध्ययने प्रथमोद्देशः १५ विनयसमाध्याख्यनवमाध्ययने द्वितीयोदेशः १३ विनयसमाध्याख्यनवमाध्ययने तृतीयोदेशः १४ विनयसमाध्याख्यनवमाध्ययने चतुर्थोदेशः १५ सनिकुनामदशमाध्ययनम् . १६ दशवैकालिके प्रथमाचूलिका. १७ दशवैकालिके हितीयाचूलिका. २७ दशवकालिक मूल सूत्रपाठः १०ए १४२ २४० ३२६ ३६६ ४२४ 8ថ០ ५३७ մաս Ես ԱՍԱ ६१० ६३० ६०० १०१ - Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ नमो वीतरागाय ॥ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह. नाग तेतालीसमा. ॥ अथ ॥ श्रीदशवैकालिकम् गुर्जरजाषासहितम् श्रवचूरिसंवलितं समयसुन्दरोपाध्यायकृतदीपिकासनार्थ श्रीहरिजऽसूरिकृतबृहकृत्तिविराजितं च प्रारभ्यते । धम्मो मंगलमुक्कि, अहिंसा संजमो तवो ॥ देवा वितं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥१॥ ॥ अथ श्रीदशवकालिक सूत्रनो बालावबोधप्रारंन ॥ (तेमां प्रथम मङ्गलाचरण.) ॥ सर्वान्तरायशमनं, सर्वमङ्गलदायकम् ॥ ॥ सर्वजीवावनकर, सर्वज्ञं नौमि बोधये ॥१॥ जेम कल्पवृक्ष उपरथी पडेला पुष्पोने एकत्र करीने देवताठ तेमनी, माला गूंथे बे, तेम कल्पवृद सरखा तीर्थंकरोना मुखथकी प्रकट थयेला, पुष्प सरखां शुरू, प्रमादादिदोषरहित एवां अर्थरूप वचनोने श्रवण करीने गणधरो तेमनां सूत्रो रचे . श्रा वात जैन आम्नायमां सुप्रसिद्ध . ते मांहेदुं दशवैकालिक सूत्र पण श्री सिऊजवाचार्ये नव्य जीवोना शारीरक तथा मानसिक दुःख मूकाववाने माटे तथा पोताना पुत्र मनकने प्रतिबोधवाने अर्थे रच्यु जे. एर्नु उपर कहेलु नाम पाडवानुं कारण ए डे के, दश विकालें कडं, माटें ए सूत्रने दशवकालिक एवे नामें कहे , हवे तेमां प्रथम सिऊंनवाचार्य श्रजीष्ट स्मरणरूप मंगल एक गाथायें करी कहे . वली ते मांगलिक जे बे, ते अन्यत्र पांच प्रकारनां कह्यां . तेमां प्रथम पुत्रादि जन्मरूप, ते शुझ मांगलिक, बीजुं गृहादिरचनारूप ते अशुद्ध मांगलिक, त्रीजुं विवाहमहोत्सवप्रमुख ते चमत्कारमांगलिक, चोथु धनादिक ते दीमांगलिक अने Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. पांचमुं बकायजीवरक्षणरूंप अर्थात् धर्मरूप ते सदामांगलिक बे. तो हवे पांच प्रकारनां मांगलिक कह्यां, तेमां धर्म जे जे, ते सदा मांगलिक ,तेमाटें श्रीसिनवाचार्ये था दशवैकालिक नामक ग्रंथनी आदिमां धर्मप्रशंसारूप मंगल कमु . वली कोश्क स्थलें मंगल जे जे ते त्रण प्रकार, पण कडं . तेमां प्रथम ग्रंथारंजे ग्रंथनिर्विघ्नता माटें जे अनीष्ट देवतादिकने नमस्कार करवो, ते श्रादिमंगल, बीजुं ग्रंथमध्ये जे नमस्कार करवो, ते मध्यमंगल अने ग्रंथने अवसाने शिष्यपरंपरा चालवाने माटें जे नमस्कार करवो, ते अवसानमंगल जाणवू. तेम जोतां ए दशवैकालिक नामक शास्त्रनुं “धम्मो मंगलं" ए आदि मंगल, “नाणदंसण संपुन्नं,” ए मध्य मंगल अने “ निकम्ममाणा श्य बुद्ध वयणे" ए अवसान मंगल जाणवू. हवे धम्मो मंगल मित्यादि प्रथम सूत्रनों अर्थ लखियें लिये. (अहिंसा के०)प्रा. पातिपातविरति अर्थात् सर्वे जीवोनी हिंसा न करवी ते, तथा (संजमो के०) संयमः एटले श्राश्रवनिरोधते पांच इंजियनो निग्रह, चार कषायनोजयअनेत्रण दंझथी विरति ए सत्तर प्रकारनो संयम,अने (तवो के०) तपः एटले "श्रणसणमूणोयरिया” इत्यादि बे गाथामां कहेलुं बार प्रकारचें तप ए रूप (धम्मो के०) धर्मः एटले कुगतिने प्राप्त थनारा जीवोने धरीने सन्मार्गे पहोंचाडे ते धर्म ते ( मंगलमुकिळं के ) उत्कृष्टं मंगलं, एटले सर्व मंगलमा उत्कृष्ट मंगल . ए धर्मने उत्कृष्ट मंगल कहेवार्नु कारण कहे जे के, ( जस्स के० ) यस्य एटले जे पुरुष- (धम्मे के०) धर्मे एटले पूर्वोक्त वीतरागजाषित धर्मने विषे ( सया के०) सदा एटले निरंतर (मणो के०) मनः एटले मन बे. ( तं के० ) तं एटले ते पुरुषने ( देवा वि के ) देवा अपि एटले नवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी अने वैमानिक ए चार निकायना देवताउँ पण ( नमसंति के०) नमस्यति एटले नमस्कार करे बे, तो राजादिक नमस्कार करे, तेमां तो शीज नवा? अर्थात् धर्म जे , ते उत्कृष्ट मंगल के एम सिझ थयुं ॥१॥ ॥अथ श्रीदशवैकालिकावचूरिः प्रारज्यते ॥ ॥ तत्र प्रथमाध्ययनम् ॥ संहितादिःषड्डिधाव्याख्या।दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः।मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलम् । संयम श्राश्रवनिरोधः। तापयत्यनेकनवोपात्तमष्टप्रकारं कर्मेति तपः १ ___अथ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायकृतदीपिका प्रारभ्यते ॥ ॥ तत्र प्रथमाध्ययनम् ॥ ॥ श्रीजिनेश्वराय नमः ॥ स्तम्ननाधीशमानम्य, गणिः समयसुन्दरः ॥ दशवैका Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । लिके सूत्रे, शब्दार्थं लिखति स्फुटम् ॥१॥ धर्मो पुर्गतिप्रपतजन्तुधारणालक्षण उत्कृष्टं प्रधानं मङ्गलं वर्तते । को धर्म इत्याह । अहिंसा, न हिंसा अहिंसा जीवदया प्राणातिपातविरतिरित्यर्थः । पुनः संयमः पञ्चाश्रवविरमणं, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः, चतुःकषायजयः, दएकत्रयविरतिश्चेति सप्तदशन्नेदः । इत्येवं रूपः । पुनस्तपः, “अणसणमूणोअरिआ, वित्तीसंखेवणं रसच्चा ॥ कायकिलेसो संली-णया य बलो तवो होई॥१॥ पायबित्तं विणजे, वेथावच्चं तहेव ससा ॥ प्राणं उस्सग्गो वि श्र, अजितर तवो होई ॥२॥ इति बाह्यान्यन्तररूपं द्वादशधा । अथ धर्मकरणे माहास्यमाह। देवा अपि।पिः संजावने। तं धर्मकारकं जीवं नमस्यन्ति, मनुष्यास्तु सुतराम्। तं कम् । यस्य धर्मे धर्मकरणे सदा मनः अन्तःकरणम् । इति प्रथमगाथार्थः॥१॥ ॥अथ श्रीहरिजप्रसूरिकृतबृहकृत्तिः प्रारभ्यते॥ ॥ तत्र प्रथमाध्ययनम् ॥ ॥ जयति विजितान्यतेजाः, सुरासुराधीशसेवितः श्रीमान् ॥ ॥ विमलस्त्रासविरहित-स्त्रिलोकचिन्तामणिर्वीरः ॥ १ ॥ शहार्थतोऽर्हत्प्रणीतस्य सूत्रतो गणधरोपनिवडपूर्वगतोमृतस्य शारीरमानसादिकटुकफुःखसंतान विनाशहेतोर्दशकालिकानिधानस्य शास्त्रस्यातिसूममहार्थगोचरस्य व्याख्या प्रस्तूयते । तत्र प्रस्तुतार्थप्रचिकटविषयैवेष्टदेवतानमस्कारधारेणाशेषविघ्नविनायकापोहसमर्था परममङ्गलालयामिमां प्रतिझागाथामाह नियुक्तिकारः ॥ सिद्धिगश्मुवगयाणं, कम्म विसुझाण सबसिझाणं ॥ नमिऊणं दसकालिय-णिद्युत्तिं कित्तायस्सामि ॥१॥ व्याख्या ॥ सिछिगतिमुपगतेन्यो नत्वा दशकालिकनियुक्तिं कीर्तयिष्यामीति क्रिया। तत्र सिध्यन्ति निष्ठितार्था नवन्त्यस्यामिति सिछिर्लोकाग्रक्षेत्रलक्षणा । तथा चोक्तम् । “ह बोंदि चश्त्ताणं, तब गंतूण सिन"। गम्यत इति गतिः । कर्मसाधनम् । सिछिरेव गम्यमानत्वाशतिः सिगितिस्तामुप सामीप्येन गताः प्रा जस्तेन्यः सकललोकान्तक्षेत्रप्राप्तेज्य इत्यर्थः।प्राकृतशेट्या चतुर्थ्यर्थे षष्ठी । यथोक्तम्। बहीविजत्तीए जल चली।तत्र एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः सकर्मका थपि तड़पगमनमात्रमधिकृत्य यथोक्तस्वरूपा नवन्त्यत आह कर्मविशुऽन्यः। क्रियते इति कर्म ज्ञानावरणीयादिलक्षणं तेन विशुद्धा वियुक्ताः कर्मविशुकाः कर्मकलङ्करहिता श्त्यर्थः । तेन्यः कर्मविशुद्धेन्यः । श्राह । एवं तर्हि वक्तव्यं न सिडिगतिमुपगतेन्योऽव्यनिचारात् । तथाहि । कर्मविशुकाः सिझिगतिमुपगता एव जवन्ति । न, १:-"शुभ्रलोकान्त-" इति पाठान्तरम् । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रढ़ नाग तेतालीसमा. "" 1 66 अनियतक्षेत्र विभागोपगत सिद्धप्रतिपादनपर डुर्नय निरासार्थत्वादस्य । तथाचाहुरेके "रागादिवासनामुक्तं, चित्तमेव निरामयम् ॥ सदा नियतदेशस्थं, सिद्ध इत्यनिधीयते ॥ इत्यलं प्रसङ्गेन । ते च तीर्थादिसिद्धभेदादनेकप्रकारा जवन्ति । तथाचोक्तम् । ति - सिद्धा । अतिव सिद्धा । बिगर सिद्धा । श्रतिष्ठगर सिद्धा । सयंबुद्ध सिद्धा । पत्तेयबुद्धसिद्धा । बुद्धबो हिय सिद्धा । इबी लिंग सिद्धा । पुरिसलिंग सिद्धा । नपुंसगलिंग सिद्धा । सलिंग सिद्धा । अन्नलिंग सिद्धा । गिहिलिंग सिद्धा । एगसिद्धा । योग सिद्धा । इत्यत श्राह । सर्वसिद्धेभ्यः । सर्वे च ते सिद्धाश्चेति समासस्तेन्यः । अथवा " सिद्धिगतिमुपगतेभ्यः " इत्यनेन सर्वथा सर्वगतात्मसिद्धपक्षप्रतिपादनपरपुर्नयस्य व्यवच्छेदमाह । तथाचोक्तमधिकृतनयमतानुसारिभिः । गुणसत्त्वान्तरज्ञानान्निवृत्तप्रकृतिक्रियाः ॥ मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवर्जिताः " व्यवच्छेदश्चैतेषां सामीप्येन सर्वात्मना सिद्धिगतिगमनाजावात्। " कर्म विशुद्धेभ्यः" इत्यनेन तु सकर्मकाणिमादिविचित्रैश्वर्यवत्सिद्धिप्रतिपादनपरस्येति । उक्तं च प्रक्रान्तनयदर्शना जिनिविष्टैः । प्रणिमाद्यष्टविधं प्राप्यैश्वर्यं कृतिनः सदा ॥ मोदन्ते सर्वजावज्ञा - स्तीर्णाः परमपुस्तरम् ॥ इत्यादि । व्यवच्छेदश्चैतेषां कर्मसंयोगेन निष्ठितार्थत्वाद्वस्तुतः सिद्धत्वानुपपत्तेरिति । " सर्व सिद्धेभ्यः" इत्यनेन तु जङ्गचैव सर्वथा अद्वैतपक्ष सिद्धप्रतिपादनपरस्येति । तथाचोक्तं प्रस्तुतनया निप्रायमतावलम्बिनिः ॥ एक एव हि भूतात्मा, नूते जूते व्यवस्थितः ॥ एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ व्यवच्छेदश्चास्य सर्वथा द्वैते बहुवचनगर्भ सर्वशब्दाभावात् सिद्धिगतिगमनाजावात् । नत्वा प्रणम्येत्यनेन तु समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वाप्रत्यय विधानान्नित्यानित्यैकान्तवादासाधुत्वमाह । तत्र क्त्वाप्रत्ययार्थानुपपत्तेः । तत्र नित्यैकान्तवादे तावदात्मन एकान्त नित्यत्वादप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वभावत्वा भिन्नकाल क्रियायकर्तृत्वानुपपत्तेः । क्षणिकैकान्तवादे चात्मन उत्पत्तिव्यतिरेकेण व्यापाराजावान्निकाल क्रियाद्वयं कर्तृत्वानुपपत्तिरेवेत्यलं विस्तरेण । गमनिकामात्रमेवैतदिति । जवति च चतुर्थ्यप्येवं नमन क्रियायोगेऽधिकृतगाथासूत्रान्यथानुपपत्तेः । आप्तश्च निर्युक्तिकारः । पित्रे सवित्रे च सदा नमामीत्येवमादिविचित्रप्रयोगदर्शनाच्च । कर्मणि वा षष्ठी । सर्वसिद्धेभ्यो नत्वा किमित्याह । दशकालिक नियुक्ति कीर्तयिष्यामि । तत्रकालेन निर्वृत्तं कालिकं प्रमाणकालेनेति जावः । दशाध्ययनत्ज्ञेदात्मकत्वाद्दशप्रकारं कालिकं प्रक्रारशब्दलोपाद्दशका लिकं । विशब्दार्थं तूत्तरत्र व्याख्यास्यामः । तत्र नियुक्तिरिति । निर्युक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्तिः परिपाट्या योजनं निर्युक्तयुक्तिरिति वाच्यम् । युक्तशब्दलोपान्निर्युक्तिस्तां विप्रकीर्णार्थयोजनां व्याख्यास्यामि कीर्तयिष्यामीति गाथार्थः । शास्त्राणि चादिमध्यावसानमङ्गल 1 I For Private Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम्। जाञ्जि नवन्तीत्यत आह ॥ श्राईमनवसाणे, कालं मंगलपडिग्गहं विहिणा ॥ नामाइमंगलं पि य, चनविहं पन्नवेऊणं ॥२॥ व्याख्या ॥ शास्त्रस्यादौ प्रारम्ने मध्ये मध्यविजागे अवसाने पर्यन्ते । किं कृत्वा । मङ्गलपरिग्रहम् । कथम् । विधिना प्रवचनोक्तेन प्रकारेण । आह । किमर्थं मङ्गलत्रयपरिकल्पनम् । इत्युच्यते। श्हादिमङ्गलपरिग्रहः सकल विनापोहेनाजिलषितशास्त्रार्थपारगमनार्थम् । तत्स्थिरीकरणार्थं च मध्यमङ्गलपरिग्रहः । तस्यैव शिष्यप्रशिष्यसंतानाव्यवछेदायावसानमङ्गलपरिग्रह इति । पत्र चादेपरिहारावावश्यकविशेषविवरणादवसेयौ। इति । सामान्यतस्तु सकलमपीदं शास्त्रं मङ्गलं निर्जरार्थत्वात्तपोवत् । नचासिको हेतुः। यतो वचनविज्ञानरूपं शास्त्रं ज्ञानस्य च निर्जरार्थता प्रतिपादितैव । यत उक्तं च "जं णेरा कम्म, खवेश बहुयाहिं वासकोडीहिं ॥ तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेश् ऊसासमत्तेणं” इत्यादि। श्ह चादिमङ्गलं घुमपुष्पिकाध्ययनादि धर्मप्रशंसाप्रतिपादकत्वात्तत्वरूपत्वादिति ।मध्यमङ्गलं तु धर्मार्थकामाध्ययनादि प्रपश्चाचारकथाद्यनिधायकत्वात् । चरममङ्गलं तु निदवध्ययनादि निकुगुणायवलम्बनत्वादित्येवमध्ययनविनागतो मङ्गलत्रयविनागो निदर्शितः । अधुना सूत्र विनागेन निदर्श्यते । तत्र चादिमङ्गलम् “धम्मोमंगलम्" इत्यादि सूत्रम् । धर्मोपल दितत्वात्तस्य च मङ्गलत्वादिति । मध्यममङ्गलं पुनः पाणदंसणेत्यादि सूत्रम् ।झानोपल दितत्वात्तस्य च मङ्गलत्वादिति । अवसानमङ्गलं तु “णिरकमणाए" इत्यादि निकुगुण स्थिरीकरणार्थं विविक्तचर्यानिधायकत्वात् निकुगुणानां च मगलत्वादिति । आह । मङ्गलमिति कः शब्दार्थः। उच्यते । अगिरगिलगिव गिमगीति दलकधातुरस्येदितोनुम् धातोरिति नुमि विहिते उणादिकालच्प्रत्ययान्तस्य अनुबन्धलोपे कृते प्रथमैकवचनान्तस्य मङ्गलमिति रूपं जवति । मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलम् । मङ्गयतेऽधिगम्यते साध्यत इति यावत् । अथवा मङ्ग इति धर्मानिधानम्।ला आदाने अस्य धातोर्मङ्गे उपपदे “ातोऽनुपसर्गे कः” इति कप्रत्ययान्तस्यानुबन्धलोपे कृते “तो लोप इटि च कृति" इत्यनेन सूत्रेणाकारलोपे च कृते प्रथमैकवचनान्तस्यैव मङ्गलमिति नवति । मङ्गं लातीति मङ्गलं । धर्मोपादानहेतुरित्यर्थः । अथवा मां गालयति जवादिति मङ्गलं संसारादपनयतीत्यर्थः। तच्च नामादिचतुर्विधम् । तद्यथा-नाममङ्गलं स्थापनामङ्गलं अव्यमङ्गलं नावमङ्गलं चेति । एतेषां च खरूपमावश्यकविशेषविवरणादवसेयमिति। अमुमेव गाथार्थमुपसंहरन्नाह नियुक्तिकारः॥ नामाश्मंगलं पि य, चनविहं पन्नवेऊणं ॥२॥ नामादिमङ्गलं चतुर्विधमपि प्रझाप्य प्ररूप्येति गाथार्थः। तत्र समानकर्तृकयोःपूर्वकाले क्त्वाप्रत्ययविधानात्।प्रज्ञाप्यं किमत ह ॥ सुयणाणे अणुउंगे-णा हिगयं सो चलबिहो होई ॥ चरणकरणा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. णुलंगे, धम्मे काले य दविए य ॥ ३ ॥ व्याख्या ॥ श्रुतं च तद् ज्ञानं च श्रुतज्ञानं तस्मिन् श्रुतझानेऽनुयोगेनाधिकृतमनुयोगेनाधिकार इत्यर्थः । श्यमत्र नावना । नावमङ्गलाधिकारे श्रुतझानेनाधिकारः। तथाचोक्तम् । एवं पुण अहिगारो, सुयणाणेणं जर्ड सुएणं तु ॥ सेसाणमप्पणो वि य, अणुउंगे पश्व दिलंतो ॥ तस्य चोद्देशादयः प्रवर्तन्ते इति । उक्तं च ' सुअणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्ना अणुउंगो पवत्त॥' तत्रादावेवोद्दिष्टस्य समुद्दिष्टस्य समनुज्ञातस्य च सतः अनुयोगो नवतीत्यतो नियुक्तिकारेणाप्यन्यधायि श्रुतझानेऽनुयोगेनाधिकृतमिति । सोऽनुयोगश्चतुर्विधो नवति । कथम्। चरणकरणानुयोगः।चर्यत इति चरणं व्रतादि । यथोक्तम् ॥“वय (ए) समणधम्म (१०) (१७) वेया-वच्चं (१०) च बंजगुत्ती (ए)॥णाणादितियं (३) तव (१२) को-ह (४) निग्गहो होइ चरण मियं ॥” क्रियते इति करणं पिएमविशुध्यादि । उक्तं च॥"पिंमविसोही (४) समिरं, (५) नावण (१२) पडिमा (१५) य इंदियनिरोहो (५)॥ पडिलेहण (२५) गुत्ती (३),अनिग्गहा (४) चेव करणं तु॥" चरणकरणयोरनुयोगश्चरणकरणानुयोगः। अनुरूपो योगोऽनुयोगः। सूत्रस्यार्थेन साळमनुरूपः संबन्धो व्याख्यानमित्यर्थः। एकारशब्दः प्राकृतशैल्या प्रथमाद्वितीयान्तोऽपि अष्टव्यः । यथा “कयरे आग दित्तरूवे” इत्यादि।धर्म इतिधर्मकथानुयोगः। काले चेति कालानुयोगश्च गणितशति गणितानुयोगश्चेत्यर्थः। अव्यश्चेति अव्यानुयोगश्च।तत्र कालिकश्रुतं चरणकरणानुयोगः । ऋषिनाषितान्युत्तराध्ययनादीनि धर्मकथानुयोगः । सूर्यप्रज्ञप्त्यादीनि गणितानुयोगः। दृष्टिवादस्तु व्यानुयोगः । इति । उक्तं च “ ॥ कालियसुअंच इसिना-सिया तश्या य सूरपन्नत्ती ॥ सबो य दिहिवा, चउबजे होश अणुजंगो ॥ शति गाथार्थः॥ इह चार्थतोऽनुयोगो द्विधा।अपृथक्त्वानुयोगःपृथक्त्वानुयोगश्च। तत्रापृथक्त्वानुयोगो यत्रैकस्मिन्नेव सूत्रे सर्व एव चरणादयः प्ररूप्यन्तेऽनन्तगमपर्यायार्थकत्वात्सूत्रस्य । पृथक्त्वानुयोगश्च यत्र कचित्सूत्रे चरणकरणमेव । क्वचित्पुनर्धर्मकथैवेत्यादि । अनयोश्च वक्तव्यता " ॥ जावंति अजवश्रा, अजापुहत्तं कालियाणुऊंगस्स। ते णारेणपुहत्तं, कालियसुयदिहिवाए य ॥” इत्यादेर्यन्थादावश्यक विशेषविवरणाच्चावसेयेति । श्ह पुनः पृथक्त्वानुयोगेनाधिकारः । तथा चाह नियुक्तिकारः॥ अपहुत्तपहुत्ताशे, निदिसि ए होश अहिगारो ॥ चरणकरणाणुजंगे-ण तस्स दारा श्मे हुँति ॥४॥ व्याख्या ॥ अपृथक्त्वपृथक्त्वे लेशतो निर्दिष्टस्वरूपे निर्दिष्टस्य चात्र प्रक्रमे जवत्यधिकारः। केन।चरणकरणानुयोगेन।तस्य चरणकरणानुयोगस्य धाराणि प्रवेशमुखान्यमूनि वक्ष्यमाणलक्षणानि नवन्तीति गाथार्थः ॥ निकेवेगहनिरु-तविहिपवित्ति य केण वा कस्स ॥ तदारनेयलकण-तयरिहपरिसा य सुत्तो ॥५॥ व्या Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके प्रथमाध्ययनम् । ง 66 ख्या ॥ अस्याः प्रपञ्चार्थ आवश्यक विशेष विवरणादवसेयः । स्थानाशून्यार्थं तु संदेपार्थः प्रतिपादित इति । शिरकेवेति । अनुयोगस्य निदेपः कार्यः । तद्यथा नामानुयोग . इत्यादि । एगइति । तस्यैव एकार्थकानि वक्तव्यानि । तद्यथा अनुयोग इत्यादि । निरुतति । तस्यैव निरुक्तं वक्तव्यम् । अनुयोजनमनुयोगः । अनुरूपो वा योग इत्यादि । विहिति । तस्यैव विधिर्वक्तव्यो वक्तुः श्रोतुश्च । तत्र वक्तुः ॥ “सुत्तछो खलु पढमो, बीर्ड लितिमी सिजणि ॥ तइ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुरंगे ॥ " श्रोतुश्चायम् " ॥ सूर्य हुंकारं वा, बाढकारप डिपुछवी मंसा ॥ तत्तो पसंगपारायणं च परि निवसत्तम ए॥" पवित्तियत्ति ॥ अनुयोगस्य प्रवृत्तिश्च वक्तव्या सा चतुर्भङ्गानुरेण विज्ञेया । उक्तं च । च्चिं गुरू पमायी, सीसा विय गुरूण सीसगा तहय ॥ अपमाथि गुरू सीसा, पमा यो दोवि पायी ॥ पढमे नहि पवित्ती, बीए तर यत्रियोवं वा ॥ चिठि पवित्ती, एवं गोणीय दिहंतो ॥ अप्पहुया उ गोणी, ऐव य दोद्धा समुजार्ज दोद्धुं ॥ खीरस्स कर्ज पसवो, जइ विय बहुखी रगा साठ ॥ वितिए विवि खीरं, योवं तह विद्यए व तइए वि ॥ श्रचिउछे खीरं, एसुवमा आयरियसीसे ॥ गोणी सरिठो उ गुरू, दोद्धा इव साहुणो समरकाया ॥ खीरं पवित्ती, नहि तहिं पढ़मति ॥ श्रहवा विमाण, मवि किं विउ जोगिणो पवत्तंति ॥ तइए सारंतंमि, दोद्य पवित्ती गुणं वा ॥ अपमाई जब गुरू, सीसा वि य विषयग्रहणसंजुत्ता ॥ घयिंत पवित्ती, खीरस्सव चरिमजंगं मि ॥ केणत्ति । केनानुयोगः कर्तव्य इति वक्तव्यम् । तत्र य इयंभूत आचार्यस्तेन कर्तव्यस्तद्यथा ॥ " देसकुलजाइरुवी, संघयणे धजु णासी ॥ श्रविकरणो माई, थिरपडिवाडी गहियवक्को ॥ जियपरिसो जियनिहो, मनो देसकालनावन्नू ॥ श्रासन्न लपइनो, पाणाविहदेसनासन्नू ॥ पंचविहे श्रायारे, जुत्तो सुतवतनय विहि ॥ आहरणउकारण - एय निजणो गाहणाकुसलो ॥ ससमयपरसमय विऊ, गंजीरो दित्तिमं सिवो सोमो ॥ गुणसयकलि जुग्गो, पवयणसारं परिकहिनं ॥" यासामर्थः कल्पादवसेयः ॥ प्राथमिकदशकालिकव्याख्याने तु लेशत उच्यते । श्रर्यदेशोत्पन्नः सुखावबोधवाक्यो जवतीति देशग्रहणम् । पैतृकं कुलम् । विशिष्टकुलोद्भवो यथोत्क्षिप्तजारवहने न श्राम्यति । मातृकी जातिः । तत्संपन्नो विनयान्वितो जवति । रूपवानादेयवचनो जवति । श्राकृतौ च गुणा वसन्ति । संहननधृतियुक्तो व्याख्यानतपोऽनुष्ठानादिषु न खेदं याति । नाशंसी न श्रोतृभ्यो वस्त्राद्याकाङ्क्षति । अविकउनो बहुभाषी न वति । श्रमान शाक्येन शिष्यान् वाहयति । स्थिरपरिपाटी । स्थिरपरिचितग्रन्थस्य सूत्रं न गलति । गृहीतवाक्योऽप्रतिघातिवचनो भवति । जितपरिषत् परप्रवादि For Private Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. I कोज्यो न जवति । जितनिद्रोऽप्रमत्तत्वाद्व्याख्यानर तिर्भवति, प्रकामनिकामशायिनश्च शिष्यांश्चोदयति । मध्यस्थः संवादको जवति । देशकालनावको देशादिगुणानवबुध्याप्रतिबद्ध विहरति देशनां च करोति । श्रासन्नलब्धप्रतिनो जात्युत्तरा दिना निगृहीतः प्रत्युत्तरदानसमर्थो जवति । नानाविधदेशभाषाविधिज्ञो नानादेशज विनेयप्रत्यायनसमर्थो जवति । ज्ञानादिपञ्चविधाचारयुक्तः श्रद्धेयवचनो जवति । सूत्रार्थीजयज्ञः सम्यगुत्सर्गापवादप्ररूपको भवति । उदाहरणहेतुकारणनय निपुणस्तप्रम्यान् जावान् सम्यक् प्ररूपयति नागममात्रमेव । ग्राहणाकुशलः शिष्याननेकधा ग्राहयति । स्वसमयपरसमय वित्सुखं परमता देपमुखेन स्वसमयं प्ररूपयति । गम्जीरो महत्यप्यकार्ये न रुष्यति । दीप्तिमान् परप्रवादिकोनमुत्पादयति । शिवो मारिरोगाद्युपद्रव विघातकृद्भवति । सौम्यः प्रशान्तदृष्टितया सकलजनप्रीत्युत्पादको जवति । भूत एव गुणशतक लितो योग्यः प्रवचनमागमस्तस्य सारस्तं कथयितुमिति । यतोऽसावनेकजव्यसत्त्वप्रबोधहेतुर्भवति । उक्तं च ॥ “ गुणसुअिस्स वयणं, घयमदुसितो व पावर्ड जाइ । गुणहीएस्स न सोहर, ऐह विहीणो जह पईवो ॥ "" तथा चान्येनाप्युक्तम् । " दीरं नाजनसंस्थं, न तथा वत्सस्य पुष्टिमावहति ॥ श्रावल्गमानशिरसो, यथा हि मातृस्तनात्पिबतः ॥ तद्वत्सुनाषितमयं दीरं दुःशीलजाजनगतं तु ॥ न तथा पुष्टिं जनयति, यथा हि गुणवन्मुखात्पतितम् ॥ शीतेऽपि यंत्र लब्धो, न सेव्यतेऽग्निर्यथा स्मशानस्थः ॥ शील विपन्नस्य वचः पथ्यमपि न गृह्यते तद्वत् ॥ चारित्रेण विहीनः श्रुतवानपि नोपजीव्यते सङ्गिः ॥ शीतलजलपरिपूर्णः, कुलजैश्च एमालकूप इव ॥” कस्सति । कस्यानुयोग इति वक्तव्यम् । तत्र सकलश्रुतज्ञानस्याप्यनुयोगो जवति । अमुं पुनः प्रारम्नमाश्रित्य दशकालिकस्येति । अत्राह । ननु “ दसकालिय निघूति कित्तयिस्सामित्ति ” अस्मादेव वचनतः प्रकृतद्वारार्थस्यावगतत्वात्तडुपन्यासोऽनर्थक इति । न, अधिकृत निचेपादिद्वार कलापस्याशेषश्रुतस्कन्धविषयत्वातलेनैव च नियुक्तिकारेणापि तथोपन्यस्तत्वादस्मादेव स्थानादन्यत्राप्यादौ शास्त्रानिधानपूर्वक उपन्यासः क्रियत इति जावना । व्याख्यातं लेशतो निर्युक्तिगाथादल पश्चार्द्ध त्वध्ययनाधिकारे यथावसरं व्याख्यास्यामः । यतस्तत्रैवोपक्रमाद्यनुयोगद्वारानुपूर्व्यादि तदसूत्रादिलक्षणं तदत्पर्षदादयश्च वक्तुं शक्यन्ते, नान्यत्र निर्विषयत्वादित्य प्रसङ्गेन । सांप्रतं प्रकृतयोजनामेवोपदर्शयन्नाह निर्युक्तिकारः ॥ एयाई परूवेनं, कप्पे वसियगुणेण गुरुणा उ ॥ अणुउंगो दसवेया - वियस्स विहिणा कयवो ॥६॥ व्याख्या ॥ एतानि निदेपादिद्वाराणि प्ररूप्य व्याख्याय कल्पे वर्णितगुणेन गु११ - ' यत्नलब्ध ' इति पाठान्तरम् । For Private Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ए रुणा षट्त्रिंशाणसमन्वितेनेत्यर्थः । अनुयोगो दशवैकालिकस्य विधिना प्रवचनोक्तेन कथयितव्य आख्यातव्य इति गाथार्थः । संप्रत्यजानानः शिष्यः पृष्ठति । यदि दशकालिकस्यानुयोगस्ततस्तदशकालिकं जदन्त किमङ्गमङ्गानि, श्रुतस्कन्धः श्रुतस्कन्धा, अध्ययनमध्ययनानि, उद्देशक उद्देशका इत्यष्टौ प्रश्नाः। एतेषां मध्ये त्रयो विकल्पाः खलु प्रयुज्यन्ते। तद्यथा दशकालिकं श्रुतस्कन्धः अध्ययनानि उद्देशकाश्चेति । यतश्चैवमतो दशादीनां निक्षेपः कर्तव्यः। तद्यथा दशानां कालस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्य उद्देशकस्य चेति।तथाचाह नियुक्तिकारः॥ दसकालियं ति नामं संखाए कालय निदेसो॥ दसकालियसुश्रखधं अनयणुद्देस निरिकविलं ॥७॥ व्याख्या॥ दशकालिकं प्राग्निरूपितशब्दार्थमिति एवंनूतं यन्नाम अनिधानम्।इदं किम् ।संख्यानं संख्या तया तथा कालतश्च कालेन चायं निर्देशः। निर्देशनं निर्देशो विशेषानिधानमित्यर्थः। अस्य च निबन्धनं विशेषेण वयामः " मणगं पडुच्च” इत्यादिना ग्रन्थेन । यतश्चैवमतः दसकालियंति कालेन निर्वृत्तं कालिकं दशशब्दस्य कालशब्दस्य च निदेपः। निर्वृत्तार्थस्तु निक्षेपः। तथा श्रुतस्कन्धं तथाध्ययनमुद्देशं तदेकदेशनूतम् । किम् । निदेसुमनुयोगोऽस्य कर्तव्य इति गाथार्थः । तत्र यथोदेशं निर्देश इति न्यायादधिकृतशास्त्रानिधानोपयोगित्वाच्च दशशब्दस्यैवादौ निक्षेपः प्रदर्श्यते।तत्र दशैकाद्यायत्ता वर्तन्ते।एकाद्यजावे दशानामप्यनावादत एकस्यैव तावन्निदेपप्रतिपिपादयिषयाह ॥णाम उवणा दविए, माउयपयसंग. हेक्कए चेव ॥ पद्यवनावे य तहा, सत्तेए एकगाहोंति ॥॥ व्याख्या ॥ इहैक एव एककः। तत्र नामैकक एक इति नाम । स्थापनैकक एक इति स्थापना।ऽव्यैककं त्रिधा स. चित्तादि । तत्र सचित्तमेकं पुरुषव्यम्।श्रचित्तमेकं रूपकडव्यम् । मिश्रं तदेव कटकादिनूषितं पुरुषऽव्यमिति । मातृकापदैककं मातृकापदम् । तद्यथा उप्पन्ने वेत्यादि । शह प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवादबीजनूतानि मातृकापदानि जवन्ति । तद्यथा “उप्पन्ने वा विगमेश् वा धुवेश वा” अमूनि च मातृकापदानि “अ श्राई" इत्येवमादीनि सकलशब्दव्यवहारव्यापकत्वान्मातृकापदानि । इह चानिधेयवसिङ्गवचनानि नवन्तीति कृत्वेवमुपन्यासः।संग्रहैककः शातिरिति । अयमत्र नावार्थः। संग्रहः समुदायः तमप्याश्रित्यैकवचनगर्जशब्दप्रवृत्तेस्तथा चैकोपि शालिःशालिरित्युच्यते बहवः शालयः शातिरिति लोके तथा दर्शनात् । अयं चादिष्टानादिष्टन्नेदेन सामान्यविशेषनेदेन द्विधा। तत्रानादिष्टोयथाशातिः। श्रादिष्टो यथा कलमशासिरिति । एवमादिष्टानादिष्टनेदावुत्तरपदेष्वपि यथारूपमायोज्यौ।पर्यायैकक एकः पर्यायः।पर्यायो विशेषो धर्म इत्यनान्तरम् । स चानादिष्टो वर्णादिः । श्रादिष्टः कृष्णादिरिति । अन्ये तु समस्तश्रुतस्कन्धवस्त्वपेक्षयेदं व्याचक्षते । अनादिष्टः श्रुतस्कन्धः। श्रादिष्टो दशकालिका Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. ख्य इति । अन्यस्त्वनादिष्टो दशकालिकाख्यः। श्रादिष्टस्तु तदध्ययन विशेषो कुमपुष्पिकादिरिति व्याचष्टे । नचैतदतिचारु तस्य दशकालिकानिधात एवादेशसिझेः। नावैकक एको जावः। स चानादिष्टो नाव इति । श्रादिष्टस्त्वौदयिकादिरिति । सप्तैतेऽनन्तरोक्ता एकका जवन्ति।श्हच किल यस्माद्दशपर्यायाअध्ययनविशेषाःसंग्रहैककेन संगृहीतास्तस्मात्तेनाधिकारः।अन्ये तु व्याचक्षते । यतः किल श्रुतज्ञानं दायोपशमिके नावे वर्तते, तस्मानावैककेनाधिकार इति गाथार्थः।इदानीं यादीन् विहाय दशशब्दस्यैव निक्षेपं प्रतिपादयन्नाह ॥णामं उवणा दविए, खित्ते काले तहेव जावे ॥ एसो खलु निकेवो, दसगस्स उ बविहो हो॥ए॥व्याख्या॥श्राह। किमिति म्यादीन् विहाय दशशब्द उपन्यस्तः । उच्यते । एतत्प्रतिपादनादेव यादीनां गम्यमानत्वात् । तत्रनामस्थापने सुगमे । अव्यदशकं दश अव्याणि सचित्ताचित्तमिश्राणि मनुष्यरूपककटकादिविजूषितानीति । देवदशकं दश क्षेत्रप्रदेशाः। कालदशकं दश काला वर्तनादिरूपत्वात्कालस्य दशावस्थाविशेषा इत्यर्थः। वदयति च बाला किला मंदेस्या दिना। जावदशकं दश नावाः। ते च सांनिपातिकजावे स्वरूपतो जावनीयाः। अथ चैत एव विवक्षया दशाध्ययनविशेषा इति । एष एवंजूतः खलु निक्षेपो न्यासो दशशब्दस्य बहुवचनत्वादशानां षनिधो नवति । तत्र खलुशब्दोऽवधारणार्थः । एष एव प्रक्रान्तोपयोगीति। तुशब्दो विशेषणार्थः। किं विशिनष्टि । नायं दशशब्दमात्रस्य किंतु तहाच्यस्यार्थस्यापीति गाथार्थः । सांप्रतं प्रस्तुतोपयोगित्वात्कालस्य कालदशकछारे विशेषार्थप्रतिपिपादयिषयेदमाह ॥ “बाला किका मंदा, बला य पन्ना य हायणि पवंचा ॥ पनारमम्मुही सा-यणी य दसमा उ कालदसा॥१॥व्याख्या ॥ बाला क्रीडा च मन्दा च बला च प्रज्ञा च हायिनी षत्प्रपञ्चा प्राग्जारा मृन्मुखी शायिनी। तथाहि एता दश दशा जन्त्ववस्था विशेषलक्षणा जवन्ति। श्रासां च स्वरूपमिदमुक्तं पूर्वमुनिभिः ॥ “जायमित्तस्स जंतुस्स जा सा पढमिया दसा॥ण तब सुहउकाई, बहु जाणंति बालया ॥१॥ विश्यं च दसं पत्तो, णाणाकिझाहिं किम् ॥ न तब कामनोगेहिं, तिव्वा उप्पई मई॥॥ तश्यं च दसं पत्तो, पंचकामगुणे नरो॥ समबो टुंजिलं नोए, जश् से अति घरे धुवा ॥३॥ चउबी उ बला नाम, जं नरो दसमस्सिट ॥ समडो बलं दरिसिजं, जश होश निरुवद्दवो ॥४॥ पंचमी तु दसं पत्तो, श्राणुपुत्वी जो नरो ॥ इडिय विचिंतेश्, कुटुंबं वाजिकंखई ॥५॥. ही उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सि ॥ विरार य कामेसु, इंदिएसु य हायई ॥६॥ सत्तमि च दसं पत्तो, आणुपुत्वी जो नरो ॥ निछहर य चिक्कणं खेलं खासई य १ 'रई' ति पागन्तरम् । २ 'बहु' इति पाठान्तरम् । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ... ११ अजिरकणं ॥ ॥ संकुचियवलीचम्मो संपत्तो अहमी दसं ॥ णारीणमणनिप्पेर्ड जराए परिणामियो ॥ ॥णवमी मम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सि ॥जराघरे वि.. णस्संतो जीवो वसई श्रकामठ ॥ ॥ हीणजिन्नसरो दीणो, विवरी विचित्त ॥ पुब्बलो पुरिकर्ड सुवर, संपत्तो दसमी दसं ॥ १० ॥"श्त्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः। श्दानी काल निक्षेपप्रतिपादनायाह ॥ दवे अझ अहाज श्र, उवक्कमे देसकालकाले य॥ तहय पमाणे वन्ने, नावे पगयं तु नावेणं ॥११॥ व्याख्या ॥ तत्र अव्य इति वर्तमानादिलक्षणो अव्यकालो वाच्यः । अति चन्मसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्फतृतीयद्वीपसमुखान्तर्वर्त्यझाकालः समयादिलक्षणो वाच्यः । तथायुष्ककालो देवाद्यायुष्कलक्षणो वाच्यः। तथा उपक्रमकालोऽनिप्रेतार्थसामीप्यानयनलक्षणः । सामाचार्यायुकन्नेदनिन्नो वाच्यः । तथा देशकालो वाच्यः । देशः प्रस्तावोऽवसरो विजागः पर्याय इत्यनर्थान्तरम् । ततश्चानीष्टवस्त्ववात्यवसरः काल इत्यर्थः। तथा कालकालो वाच्यः। तत्रैकः कालशब्दः प्राग्निरूपितशब्दार्थ एव, द्वितीयस्तु सामायिकः कालो मरणमुच्यते । मरण क्रियायाः कलनं काल इत्यर्थः। चः समुच्चये। तथाच । प्रमाणकालोऽकाकाल विशेषो दिवसादिलक्षणो वाच्यः। तथा वर्णकालो वाच्यः। वर्णश्चासौ कालश्चेति । नावेति । औदयिकादिनावकालः सादिसपर्यवसानादिनेद जिन्नो वाच्यः । इति । प्रकृतं तु जावेनेति । नावकालेन शह पुनर्दिवसप्रमाणकालेनाधिकारस्तत्रापि तृतीयपौरुष्या तत्रापि बहतिक्रान्तयेति । श्राह । यमुक्तं 'पगयं तु जावेणं ति' तत्कथं न विरुष्यते इत्युच्यते । दायोपशमिकनावकाले शय्यंजवेन नियूँढं प्रमाणकाखे चोक्तलक्षण इत्यविरोधः । अथवा प्रमाणकालोऽपि लावकाल एव । तस्याहाकालस्वरूपत्वात्तस्य च नावत्वादिति गाथासमुदायार्थः। अवयवार्थस्तु सामायिकविशेषविवरणादवसेयः। तथाचाह नियुक्तिकारः ॥ सामाश्यअणुकमर्ड, वन्ने विगयपोरिसीए उ ॥ निबूढं किर सेङ-नवेण दसकालियं तेणं ॥१शाव्याख्या॥सामायिकमावश्यकप्रथमाध्ययनंतस्यानुक्रमः परिपाटीविशेषः।सामायिके वानुक्रमः सामायिकानुक्रमः। ततः सामायिकानुक्रमतः। सामायिकानुक्रमेण वर्णयितुमनन्तरोपन्यस्तगाथाहाराणीति प्रक्रमागम्यते । विगतपौरुष्यामेव तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । नियूदं पूर्वगताउकृत्य विरचितम् । किलशब्दः परोक्षाप्तागमवादसंसूचकः । शय्यंजवेन चतुर्दशपूर्व विदा दशकालिकं प्रानिरूपितादरायं तेन कारणेनोच्यत इति गाथार्थः । श्रुतस्कन्धयोश्च निक्षेपश्चतुर्विधो अष्टव्यो यथानुयोगमारेषु । स्थानाशून्यार्थ किंचिपुच्यते । इह नोश्रागमतः इशरीरजव्यशरीरव्यतिरिक्तं प्रव्यश्रुतं पुस्तकपत्रन्यस्तम् । अथवा सूत्रमएमलादि । जावश्रुतं स्वागमतो ज्ञाता Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. उपयुक्तः।नोश्रागमतस्त्विदमेव दशकालिकं नोशब्दस्य देशवचनस्वात्। एवं नोश्रागमतो इशरीरजव्यशरीरव्यतिरिक्तो अव्यश्रुतस्कन्धः सचेतनादिः। तत्र सचित्तो हिपदादिः । श्रचित्तो रिप्रदेशिकादिः । मिश्रः सेनादिर्देशादिरिति । तथा नावस्कन्ध. स्त्वागमतस्तदर्थोपयोगपरिणाम एव । नोवागमतस्तु दशकालिकश्रुतस्कन्ध एवेति नो. शब्दस्य देशवचनत्वादिति।श्दानीमध्ययनोद्देशकन्यासप्रस्तावः।तंचानुयोगहारप्रक्रमायातं प्रत्यध्ययनं यथासंजवमोघनिष्पन्नं निदेपे लाघवार्थं वदयाम इति । ततश्च यमुक्तं " दसकाविय सुअखंध, अक्षयणुदेस णिरिकविलं ॥" अनुयोगोऽस्य कर्तव्य इति तदंशतः संपादितमिति।सांप्रतं प्रस्तुतशास्त्रसमुबानवक्तव्यतानिधित्सयाह ॥ जेण व जं च पडुच्चा, जत्तो जावंति जह य ते उविया ॥ सो तं च त ताणि य, तहा य कमसो कहेयत्वं ॥१३॥व्याख्या॥ येन वाचार्येण यहा वस्तुप्रतीत्याङ्गीकृत्य यतश्चात्मप्रवादादिपूर्वतो यावन्ति वाध्ययनानि यथा च येन प्रकारेण तान्यध्ययनानि स्थापितानि न्यस्तानि स चाचार्यः तच्च वस्तु ततस्तस्मात्पूर्वात् तानि चाध्ययनानि तथाच तेनैव प्रकारेण क्रमशः क्रमेणानुपूर्त्या कथयितव्यं प्रतिपादयितव्यमिति गाथासमासार्थः। अवयवार्थं तु प्रतिकारं नियुक्तिकार एव यथावसरं वक्ष्यति । तत्राधिकृतशास्त्रकर्तुः स्तवहारेणाद्यधारावयवार्थप्रतिपादनायाह ॥ सेyनवं गणहरं, जिणपडिमादसणेण पडिबुझं ॥ मणगपिअरं दसका-लियस्स निघूहगं वंदे ॥१४॥ दारं ॥१॥सेचंजवमिति नाम । गणधरमिति अनुत्तरझानदर्शनादिधर्मगणं धारयतीतिगणधरस्तं, जिनप्रतिमादर्शनेन प्रतिबुझं तत्र रागद्वेषकषायेन्जियपरीषहोपसर्गादिजेतृत्वाङिनस्तस्य प्रतिमा सन्नावस्थापनारूपा तस्या दर्शन मिति समासः । तेन हेतुजूतेन प्रतिबुझं मिथ्यात्वाझाननिप्रापगमेन सम्यक्त्वविकाशं प्राप्त, मनकपितरमिति मनकाख्यापत्यजनकं, दशकालिकस्य प्रानिरूपितादरार्थस्य निर्वृहकं पूर्वगतोड़तार्थविरचनाकर्तारं वन्दे स्तौमि इति गाथाक्षरार्थः। जावार्थः कथानकादवसेयस्तञ्चेदम् । “ एक वझमाणसामिस्स चरमतिबगरस्स सीसो तिबसामी सुहम्मो नाम गणधरो श्रासी । तस्स वि जंबू पामो तस्स विय पनवोत्ति । तस्सन्नया कया पुत्वरत्तावरत्तम्मि चिंता समुप्पन्ना को मे गणहरो होऊत्ति । अप्पणो गणे य संघे य सवर्ड जवळगो कउँ । ण दीसई को अवोछित्तिकरो । ताहे गारळेसु उवउत्तो । उवउंगे कए रायगिहे सेचंजवं माहणं जन्नं जयमाणं पास। ताहे रायगिहं गरं आगंतूणं संघाडयं वावारे जनवाडं गंतुं जिकहा धम्मलाह।तब तुब्ने अतिबाविजिहिह ताहे तुब्ने नणियह। "अहो कष्टं तत्वं न ज्ञायते” इति । तर्ज गया साहू । अतिबाविया अ तेहिं . १ 'पहवेइ' इति पाठान्तरम् ।.. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । १३ जणिथं 'अहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते' । तेण य सेनवेण दारमूले विएण तं वयणं सुरं । ताहे सो विचिंते । एए उवसंता तवस्सिणो असत्तं ण वयंतित्ति , का अलावगसगासं गंतुं जण । किं तत्तं । सो जण वेदा तत्तं । ताहे सो असिं कडिऊण नण सीसं ते बिंदामि, जश् मे तुमं तत्तं न कहेसि । त अनाव नणछ। पुत्ता मम समए जणियमेयं वेदले परं सीसए कहियवत्ति संपयं कहयामि । जं एक तत्तं एतस्स जूवस्स हा सवरयणमयी पमिमा अरह साधुव्वत्ति धारिहा धम्मो तत्तं । ताहे सो तस्स पाएसु पनि । सो य जन्नवामवरकोवि तस्स चेव दिलो। साहे सो गंतूणं ते साहू गवेसमाणे गर्ड थायरियसगासं । आयरियं वंदित्ता साहुणो जण मम धम्म कहेह ।ताहे आयरिया उवउत्ता जहा श्मो सोत्ति । ताहे थायरिएहिं साहुधम्मो कहि। संबुझोपवळ सो चउद्दसपुची जा। जया य सोपवळ सया य तस्स गुविणी महिला होला । तम्मि य पवश्ए लोगो णियल तं तमस्सति । जहा तरुणाए जत्ता पवळ अपुत्ताए।अवि अधि तव किं वि पोहेत्ति पुछ। साज पर उवल रिकमि मणगं । त समएण दारगो जाउँ । ताहे णिवत्तबारसाहस्स नियखगेहिं, जम्हा पुछिकंतीए मायाए से नणि मणगंति, तम्हा मण से णामं क यं ति। जया सो अवरिसो जाउँ ताहे सो मातरं पुत्र को मम पिया । सा जणछ तव पिथा पर्छ । ताहे सो दारणासिऊणं पिउसगासं पहिउँ । थायरिया य तं कालं चंपाए विहरंति । सो वि श्र दार चंपामेवाग । आयरिएण य समानूमिगएण सो दार दिछो । दारएण वंदिउँ थायरि । थायरियस्स य तं दारगं पिछंतस्स हो जाउँ । तस्स वि दारगस्स तहेव थायरिएहिं पुछियं नो दारग कुतो ते आगमणं । सो दारगो जण रायगिहा। आयरिएण नणियं रायगिहे तुमं कस्स पुत्तो नत्तु वा।सो जणश, सेद्यंजवो नाम बंजणोत्ति अहं तस्स पुत्तो सो य किर पवा । तेहिं जणियं । तुमं केण कोण श्रागसि । सो जण अहं पि पवश्स्सं । पछा सो दार जण तो जणह बंनं तुम्हे जाणह । थायरिया जणंति जाणेमो। तेण प्रणियं सो कहिंति।ते नणंति,सोमम मित्तो एगसरीरजूतो पव्वयाहि तुमं मम सगासे। तेण जणिशं एवं करेमि । त थायरिया आगंतुं पडिस्सए आलोअंति सञ्चित्तो पडुप्पन्नो सो पवळा पछा शायरिया उवउत्ता केवत्तिकालं एस जीवशत्ति । णायं जावं बम्मासा।ताहे श्रायरियाणबुडी समुप्पन्ना। श्मस्स थोवगं आलं किं कायवंति।तं चनदसपुत्री कम्हि विकारणे समुप्पन्ने णिचूहत्ति दसपुवी पुण अपठिमो अवस्समेव णिधूहए। ममंपि श्मं कारणं समुप्पन्नं तो अहम वि णिचूहामि । ताहे श्राढत्तो णिचूहिडं। ते उ णिचूहिऊतो वियाले णिचूढा थोवावसेसे दिवसे । तेण तं दसवेयाखियं न Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. णियत्ति ।” अनेन च कथानकेन न केवलं येन चेत्यस्यैव द्वारस्य नावार्थोऽनिहितः । किं तु यहा प्रतीत्यैतस्यापीति । तथाचाह नियुक्तिकारः ॥ मणगं पडुच्च सेचं-जवेण निचूहिया दसनयणा ॥ वेयालिया विया तम्हा दसकालियं णामं ॥ १५ ॥ दारं ॥ ॥२॥ मनकं प्रतीत्य मनकाख्यमपत्यमाश्रित्य शय्यंजवेनाचार्येण नियूंढानि पूर्वगताउकृत्य विरचितानि दशाध्ययनानि झुमपुष्पिकादीनि । वेयालिया वियत्ति। विगतः कालो विकालः विकलनं वा विकाल इति।विकालोऽसकलः खएमश्चेत्यनन्तरम्।तस्मिन् विकालेऽपराह्ने स्थापितानि न्यस्तानि सुमपुष्पिकादीन्यध्ययनानि यतः। तस्माद्दशकालिक नामाव्युत्पत्तिःपूर्ववत्। दशवैकालिकं वा विकालेन निवृत्तम् । संकाशादिपागचातुरर्थिकष्टक, तहितेष्वचामादेरित्या दिवृझे(कालिकं दशाध्ययननिर्माणं च तदैकासिकं च दशवैकालिकमिति गाथार्थः। एवं येन वा यहा प्रतीत्येति व्याख्यातम्।श्दानी यतो नियूंढानीत्येतठ्या चिख्यासुराह॥श्रायप्पवायपुवा, निबूढा होश धम्मपन्नत्ती ॥ कम्मप्पवायपुवा, मिस्स उ एसणा तिविहा ॥ १६ ॥ सच्चप्पवायपुवा, निधूढा होश वक्कसुजी उ॥ श्रवसेसा निघूढा, नवमस्स उ तश्यवर्ड ॥ १७ ॥ बी विथ थाएसोगणिपिडगाउँ डुवालसंगा॥एवं किर णिचूढं,मणगस्स अणुग्गहठाए ॥१॥व्याख्या॥ शहात्मप्रवादपूर्वं यत्रात्मनः संसारिमुक्ताद्यनेकनेदजिन्नस्य प्रवदनमिति । तस्मानियूंढा जवति धर्मप्रज्ञप्तिः षड्जीवनिका इत्यर्थः ॥ तथा कर्मप्रवादपर्वात्। किम् । पिएमस्य तु एषणा त्रिविधा नियूंढेति वर्तते । कर्मप्रवादपूर्व नाम यत्र ज्ञानावरणीयादिकर्मणो निदानादिप्रवदनमिति । तस्मात् किम् । पिएकस्यैषणा त्रिविधा गवेषणाग्रहणेषणायासैषणानेदनिन्ना नियूंढा सा पुनस्तत्रामुना संबन्धेन पतति । आधाकर्मोपत्नोक्ता ज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीबंधाति। उक्तं च । “आहाकम्मं लुंजमाणे समणे अकम्मप्पगडी बंधई" इत्यादि । शुद्धपिएलोपनोक्ता चाशुजान्न बनातीत्यलं प्रसङ्गेन । प्रकृतं प्रस्तुमः । सत्यप्रवादपूर्वानियूंढा जवति वाक्यशुझिस्तु । तत्र सत्यप्रवादं नाम यत्र जनपदसत्यादेः प्रवदन मिति । वाक्यशुधिर्नाम सप्तममध्ययनम् । अवशेषाणि प्रथमहितीयादीनि नियूंढानि नवमस्यैव प्रत्याख्यानपूर्वस्य तृतीयवस्तुन इति । द्वितीयोऽपि चादेशः । श्रादेशो विध्यन्तरं गणिपिटकादाचार्यसर्वस्वाहादशाहादाचारादिलक्षणात् श्दं दशकालिकं किलेति पूर्ववत् नियूंढ मिति च । किमर्थम् । मनकस्योक्तस्वरूपस्य अनुग्रहार्थमिति गाथात्रयार्थः। एवं यत इति व्याख्यातम् । अधुना यावन्तीत्येतत्प्रतिपाद्यते ॥ उमपुफियाश् या खलु, दस अनयणा सजिस्कुयं जाव ॥ अहिगारे विय एत्तो वोठं पत्तेयमेकेकं ॥१५॥ दारं ॥३॥ व्याख्या॥ तत्र घुमपुष्पिकेति प्रथमाध्ययननाम तदादीनि दशाध्ययनानि।सनिस्कुयं जावत्तिसनि Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । १५ क्ष्वध्ययनं यावत् । खलु शब्दो विशेषणार्थः । किं विशिनष्टि । तदन्ये द्वे चूडे यावन्तीति । व्याख्यातं यथा चेत्येतत् । पुनरधिकारा निधानद्वारेणैव च व्याचिख्यासुः संबन्धकत्वेनेदं गाथादलमाह । श्रधिकारादपि चातो वक्ष्ये प्रत्येकमेकैकस्मिन् अध्ययने । तत्राध्ययनपरिसमाप्तेर्योऽनुवर्तते सोऽधिकारः । इति गाथार्थः ॥ पढमे धम्मपसंसा, सोय देव जिणसास म्मित्ति ॥ बिश्ए धिइए सक्का, काउं जे एस धम्मो त्ति ॥ २० ॥ तए आयारकहा, उ खुड्डिया श्रयसंजमो वार्ड ॥ तह जीवसंजमो वि य, होइ चउमि ॥ २१ ॥ जिरकविसोही तव सं-जमस्स गुणकारियाज पंचमए ॥ बडे I यारकहा, महई जोग्गा महयणस्स ॥ २२ ॥ वयण विजत्ती पुण स-तमम्मि पणिहाणमहमे जणियं ॥णवमे विष दसमे, समायिं एस निरकुत्ति ॥ २३ ॥ व्याख्या ॥ प्रथमाध्ययने कोऽर्थाधिकार इत्यत श्राह । धर्मप्रशंसा । दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः तस्य प्रशंसा स्तवः सकलपुरुषार्थानामेव धर्मः प्रधान मित्येवंरूपा । तथान्यैरप्युक्तम् । "धनदोऽर्थार्थिनां प्रोक्तः, कामिनां सर्वकामदः ॥ धर्म एवापवर्गस्य, पारंपर्येण साधकः ॥" इत्यादि ॥ स चात्रैव जिनशासने धर्मो नान्यत्र इहैव निरवद्यवृत्तिसङ्गावादेतच्चो त्तरत्रान्यक्षणे वक्ष्यामः । धर्मान्युपगमे च सत्यपि मा जूद जिनवप्रव्रजितस्याधृतेः संमोह इत्यतस्तन्निराकरणार्थाधिकारवदेव द्वितीयाध्ययनम् । आह च । द्वितीयेऽध्ययनेऽयमर्थाधिकारः । धृत्या हेतुभूतया शक्यते कर्तुम् । जे इति पूरणार्थी निपातः । एष जैनधर्म इति । उक्तं च । “ जस्स धिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सा गई सुलहा ॥ तितपुरिसा, तवो वि खलु डुल्लनो तेसिं ॥" सा पुनर्धृतिराचारे कार्या न त्वनाचारे इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव तृतीयाध्ययनम् । श्राह च । तृतीयेऽध्ययने कोऽर्थाधिकार इत्यत श्राह । श्राचारगोचरा कथा याचारकथा सा चेहैवाणु विस्तरभेदात् । यत | का लघ्वी सा चात्मसंयमोपायः । संयमनं संयमः । श्रात्मनः संयम श्रात्मसंयमस्तुपायः। उक्तं च ॥" तस्यात्मा संयमो यो हि सदाचारे रतः सदा ॥ स एव धृतिमाधर्मस्तस्यैव च जिनोदितः ॥ " इति । स चाचारः षड्जीव निकायगोचरः प्राय इत्यतश्चतुर्थमध्ययनम् । अथवात्मसंयमस्तदन्यजीव परिपालनमेव तत्त्वतः । इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव चतुर्थमध्ययनम् । श्रह च । तथा जीवसंयमोऽपि जवति चतुर्थेऽध्ययनेऽर्थाधिकार इति । श्रपिशब्दादात्मसंयमोपि तनाव्येव वर्तते । उक्तं च ॥ " बसु जीवनिकायेसु जे बुड़े संजए सदा ॥ से चेव होइ विसेए परमत्रेण संजए ॥ " इत्यादि । एवमेव धर्मः सर्वदेहे स्वस्थे सति पाव्यते । स चाहारमन्तरा प्रायः स्वस्थो न जवति । स च सावद्येतरनेद इत्यनवद्यो ग्राह्य इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव पञ्चममध्ययनमिति । श्राह च । जिकाविशोधस्तपः संयमस्य गुणकारिकैव पञ्चमेऽध्ययनेऽर्थाधिकार इति । तत्र जिकणं जिक्षा For Private Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीसमा. 1 . तस्या विशोधिः सावद्यपरिहारेणेतरखरूपकथनमित्यर्थः । तपः प्रधानः संयमस्तपः संयमस्तस्य गुणकारिकैवेयं वर्तते इति ॥ उक्तं च ॥ " से संजए समरकाए निरवद्याहार जे वि॥ धम्मकाय हिए सम्मं सुहजोगाए साहए” ॥ इत्यादि । गोचरप्रविष्टेन च सता खाचारं पृष्टेन तद्विदापि न महाजनसमदं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्यः । श्रपि तु श्र लये गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्यमतस्तदर्थाधिकारवदेव षष्ठमध्ययनमिति । || आह च । rastrasaधिकार याचारकथा । सापि महती न कुल्लिका योग्या उचिता महाजनस्य विशिष्टपरिषद इत्यर्थः । वदयति च ॥ " गोरग्गपविद्वे उन निसिध क इ ॥ कहं च न पबंधिद्या चिद्विद्या व संजए" ॥ इत्यादि । श्रालयगतेनापि तेन गुरुणा वा वचनदोषगुणा जिज्ञेन निरवद्यवचसा कथयितव्यम् । इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव सप्तममध्ययनमिति । श्राह च । वयण विजत्तीत्यादि । वचनस्य विजक्तिर्वचन विनक्तिः । विजजनं विभक्तिः एवंभूतमनवद्य मितंभूतं च सावद्यमित्यर्थः । पुनः शब्दः शेषाध्ययनाश्रधिकारेज्यः अस्याधिकृतार्थाधिकारस्य विशेषणार्थ इति सप्तमेऽध्ययने अर्थाधिकार इति । उक्तं च ॥ “ सावद्यणवद्याणं, वयणाणं जो ण या विसेसं ॥ वोत्तुं पि तस्सन खमं, किमंग पुण देसणं काउं " इत्यादि । तच्च निरवद्यं वचः खाचारे प्रणिहितस्य जवति इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेवाष्टममध्ययनमिति । श्राह च । प्रणिधानमष्टमेऽध्ययनेऽर्थाधिकारत्वेन जणितमुक्तम् । प्रणिधानं नाम विशिष्टश्वेतोधर्म इति । उक्तं च ॥ " पणिहाएर हियस्साहा निरवद्यंति जासियं ॥ सावद्यतु विनेयं मनह संवुडं " इत्यादि ॥ आचारप्रणिहितश्च यथोचित विनयसंपन्न एव जवतीत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव नवममध्ययनमिति । श्राह च । नवमेोऽध्ययने विनयोऽर्थाधिकार इति । उक्तं च ॥ श्रायारपरिहामि, से सम्मं बढई बुहे ॥ णाणादीणं विणीए जे मोरका वि ॥" इत्यादि ॥ एतेषु एव नवस्वध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स सम्यगू निकुरित्यनेन संबन्धेन सदिवध्ययनमिति । श्राह च । दशमेऽध्ययने समाप्तिं नीतमिदं साधु क्रियाजिधायकं शास्त्रम् । एतत्क्रियासमन्वित एव निदुर्भवत्यत श्राह एष निकुरिति गाथाचतुष्टयार्थः । स एवं गुणयुक्तोऽपि निक्षुः कदाचित् कर्मपरतन्त्रत्वात्कर्मणश्च बलवत्त्वात्सीदेत् । ततस्तस्य स्थिरीकरणं कर्तव्यमतस्तदर्थाधिकारवदेव चूडाइयमित्याह ॥ दो अप्रयणा चूलिय, विसीययंते थिरीकरण मेगं ॥ विइए विवित्तचरियासीयगुणाइरेगफला ॥ २४ ॥ व्याख्या ॥ द्वे अध्ययने । किम् । चूडा चूडेव चूडा तत्र प्रमादवशा द्विषीदति सति साधौ संयमे स्थिरीकरणमेकं प्रथमं स्थिरीकरण फलमित्यर्थः । तथा च तत्रावधानप्रेक्षिणः साधोः कुः प्रजीवित्वे नरकपातादयो दोषा वर्ण्यन्त इति । तथा च द्वितीयेऽध्ययने विविक्तचर्या वर्ण्यते । किंभूता सीदनगुणातिरेकफला । For Private Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । १७ 1 तत्र विविक्तचर्यैकान्तचर्या द्रव्यक्षेत्रकालनावेष्वसंबद्धता । उपलक्षणं चैषा नियतचर्यादीनामिति । असीदनगुणातिरेकः फलं यस्याः सा तथा विधेति गाथार्थः । दसका लिअस एसो, पिंटो वन्नि समासेणं ॥ एत्तो एक्केकं पुण, अजय कित्त इस्सामि ॥ २५ ॥ व्याख्या ॥ दशका लिकस्य प्रानिरूपितशब्दार्थस्यैषोऽनन्तरोदितः पिएकार्थः सामान्यार्थो वर्णितः प्रतिपादितः समासेन संक्षेपेण । श्रत ऊर्ध्वं पुनरेकैकमध्ययनं कीर्तयिष्यामि प्रतिपादयिष्यामीति । पुनः शब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः । तत्र प्रथमाध्ययनं द्रुमपुष्पिका । तस्य च चत्वार्यनुयोगद्वारा णि जवन्ति । तद्यथा, उपक्रमो निदेषोऽनुगमो नयः । एषां चतुर्णामप्यनुयोगद्वाराणामध्ययनादावुपन्यासः । तत्रेयं च क्रमोपन्यासप्रयोजनमावश्यक विशेष विवरणादवसेयं स्वरूपं च प्रायश इति । प्रकृताध्ययनस्य च शास्त्री योपक्रमे आनुपूर्व्यादिनेदेषु खबुद्ध्यवतारः कार्यः । श्रर्थाधिकारश्च वक्तव्यः । तथाचाद निर्युक्तिकारः ॥ पढमनयणं डुमपु-फियं ति चत्तारि तस्स दाराई ॥ वन्नेवकमाई, धम्मपसंसाइ अहिगारो ॥ २६ ॥ व्याख्या ॥ प्रथमाध्ययनं डुमपुष्पकेति । अस्य नाम निष्पन्न निदेपावसर एव शब्दार्थं वक्ष्यामः । चत्वारि तस्य द्वाराण्यनुयोगद्वाराणि । किम् । वर्णयित्वोपक्रमादीनीति । किम् । धर्मप्रशंसयाधिकारो वाच्य इति गायार्थः । तत्र निक्षेपः । स च त्रिविधस्तद्यथा, उघनिष्पन्नो नाम निष्पन्नः सूत्रालापक निष्पन्नश्चेति । तत्रौघः सामान्यं श्रुता निधानम् । तथाचाद निर्युक्तिका - रः ॥ हो जं सामन्नं, सुखा जिहाणं च विदं तं च ॥ श्रयणं अशी णं, श्रयनवणा य पत्ते ॥२७॥व्याख्या॥ श्रोघो यत्सामान्यं श्रुता निधानं श्रुतनाम चतुर्विधम् । तच्च कथम् । अध्ययनमक्षीणमायः क्षपणा च । इदं च प्रत्येकं पृथक्पृथक्। किम् ॥ नामाश्चजनेयं, वन्नेऊणं सुश्राणुसारेणं ॥ डुमपुप्फा याद्यं, चउसुं पि कमेण जावेसु ॥ २८ ॥ व्याख्या ॥ नामादिचतुर्भेदं वर्णयित्वा । तद्यथा । नामाध्ययनं स्थापनाध्ययनं द्रव्याध्ययनं जावाध्ययनं चेत्येवमकी णादीनामपि न्यासः कर्तव्यः। श्रुतानुसारेणानुयोगद्वाराख्यसूत्रानुसारेण । किम् । डुमपुष्पिका थायोज्या प्रकृताध्ययनं संबन्धनीयम् । चतुर्ष्वप्यध्ययनादिषु क्रमेण जावे - ष्विति गायार्थः । सांप्रतं जावाध्ययनादिशब्दार्थं प्रतिपादयन्नाह ॥ अप्पस्सायणं, कम्माणं श्रवच जवचित्राणं ॥ श्रणुवच ा नवाणं, तम्हा श्रयण मिछंति ॥ २ ॥ श्रहिगम्मंति अवा, इमे अहिगंच नयण मिष्ठंति ॥ श्रहिगं च साहु गवई, 'तम्हा अणमिति ॥ ३० ॥ जह दीवा दीवसयं, पइप्पई सो का दिप्पई दीवो ॥ दीवसमा यरिया, दिप्पंति परं च दीवंति ॥ ३१ ॥ नाणस्स दंसणस्स वि, चरणस्स य जेण श्रागमो होई ॥ सो होइ नाव आर्ट, आर्ट लाहो ति निद्दियो ॥ ३२ ॥ - विहं कम्मरयं, पोराणं जं खवेश जोगेहिं ॥ एवं जावनयणं, नेवं श्रणुपुर्वी ए ॥ ३३ ॥ ३ For Private Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग ४३ मा. थासां गमनिका । इह प्राकृतशैल्या बान्दसत्वाच्च अनप्पस्साणयणं पकारसकारत्राकारणकारलोपेथप्नयणं तिजन्न। तच्च संस्कृतेऽध्ययनम् । जावार्थस्त्वयम्। अधि आस्मनि वर्तत इति निरुक्तादध्यात्म चेतःतस्यानयनम्।थानीयतेऽनेनेत्यानयनम्।श्ह कर्ममलरहितः खल्वात्मैव चेतःशब्देन गृह्यते । यथावस्थितस्य शुधस्य चेतस थानयनमित्यर्थः । तथा चैतदन्यासानवत्येव । किम्। कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनामपचयो हासः। किंविशिष्टानाम्। उपचितानां मिथ्यात्वादिनिरुपदिग्धानां बजानामिति नावः। तथा अनुपचयश्च अवृद्धिलक्षणः नवानां प्रत्यग्राणां कर्मणाम्। यतश्चैवं तस्मात् प्राकृतशैव्याध्यात्मानयनमेवाध्ययनमिछन्त्याचार्या इति गाथार्थः। अधिगम्यन्ते परिबियन्ते वा अर्था अनेनेत्यधिगमनमेव प्राकृतशैव्या तथाविधार्थप्रदर्शकत्वाचसोऽध्ययनमिति । तथा अधिकं च नयन मिचन्त्यस्याप्यर्थप्रदर्शकत्वादेव वचसोऽयमर्थः। श्रयवय इत्यादिदएमकधातुपाठगन्नीतिर्नयनम्। नावे ट्युत् प्रत्ययः।परिछेद इत्यर्थः। अधिकं नयनमधिकनयनं चार्थतोऽध्ययनमिछन्ति । चशब्दस्य च व्यवहित उपन्यासः। अधिकं च साधुर्गछति । किमुक्तं नवति । अनेन करणनूतेन साधुर्बोधसंयममोदान्प्रत्यधिकं गबति । यस्मादेवं तस्मादध्ययनमिछन्ति । इह च सर्वत्र अधिकं नयनमध्ययनमित्येवं योजना कार्येति गाथार्थः। श्दानीमक्षीणम् । तच्च नावादीणमिदमेव । शिष्यप्रदानेऽप्यक्ष्यत्वात् । तथाचाह। यथा दीपाद्दीपशतं प्रदीप्यते स च दीप्यते दीपः एवं दीपसमा दीपतुल्या श्राचार्या दीप्यन्ते खतो विमलमत्याधुपयोगयुक्तत्वात्परं च विनेयं दीपयन्ति प्रकाशयन्त्युज्ज्वलं वा कुर्वन्तीति गाथार्थः । इदानीमायः। स च नावत श्दमेव । यत थाह । ज्ञानस्य मत्यादेर्दर्शनस्य चौपशमिकादेश्चरणस्य च सामायिकादेयेन हेतुनूतेन गमो नवति प्राप्तिर्जवति । स नवति लावायः। आयो लान इति निर्दिष्टः। अध्ययनेन च हेतुलूतेन ज्ञानाद्यागमो नवतीति गाथार्थः । अधुना क्षपणा । सापि नावत इदमेवेति।श्राह च अष्टविधमष्टप्रकारं कर्मरजस्तत्र जीवगुएमनपरत्वात्कर्मैव रजः कर्मरजः पुराणं प्रागुपात्तं यद्यस्मात्क्षपयति योगैरन्तःकरणादिनिरध्ययनं कुर्वन् । तस्मादिदमेव कारणे कार्योपचारात् क्षपणेति । तथाचाह इदं जावाध्ययनं नेतव्यं योजनीयमानुपूर्व्या परिपाव्या अध्ययनाक्षीणादिष्विति गाथार्थः । उक्त उघनिष्पन्नो निदेपः। सांप्रतं नामनिष्पन्न उच्यते। तत्रौघनिष्पन्नेऽध्ययनम्।नामनिष्पन्ने सुमपुष्पिकेति। थाह। म शति कः शब्दार्थः।उच्यते । “पुषुगतौ" इत्यस्य पुरस्मिन् । देशे विद्यत इति तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुपि प्राप्ते “चुन्यां मः” इति मप्रत्ययान्तस्य सुम इति जवति । सांप्रतं पुमपुष्पनिक्षेपप्ररूपणायाह ॥ णामछुमो ठवणमो, दवसुमो चेव हो जावऽमो॥ एमेव य पुप्फस्स वि, चविहो होश निकेवो ॥ ३४ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम्। ए नामघुमोपि यस्य सुम इति नामाभिधानम् । स्थापनाघुमो झुम इति स्थापना, अव्यामश्चैव नवति नावामः। तत्र अव्ययुमो विधा । श्रागमतो नोथागमतश्च । श्रागमतो ज्ञातानुपयुक्तः। नोथागमतस्तु शरीरजव्यशरीरोजयव्यतिरिक्त स्त्रिविधः । तद्यथा। एकजविको बझायुष्कोऽनिमुखनामगोत्रश्च । तत्रैकनविको नाम य एकेन जवेनानन्तरं घुमेषूत्पत्स्यते । बझायुष्कस्तु येन अमनामगोत्रे कर्मणी बझे इति । श्रनिमुखनामगोत्रस्तु येन ते नामगोत्रे कर्मणी उदीरणाव सिकायां प्रदिप्ते इति। अयंच त्रिविधोऽपि नाविनावजुमकारणत्वाव्यशुम इति । नावअमोपि विविधः । श्रागमतो नोबागमतश्च । तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तः । नोागमतस्तु सुम एव पुमनामगोत्रे कर्मणी वेदयन्निति । एवमेव च यथा घुमस्य तथा किं पुष्पस्यापि वस्तुतस्तहिकारततस्य चतुर्विधो नवति निक्षेप इति गाथार्थः । सांप्रतं नानादेशजविनेयगणासंमोहार्थमागमे सुमपर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाह ॥ उमा य पायवा रुरका भागमा विडिमा तरू ॥ कुहा महारुहा वडा रोवगा रुंजगाश्थ ॥३५॥ सुमाश्च पादपा वृक्षा आगमा विटपिनः तरवः कुजा महीरुहा वा रोपका रुञ्जकादयश्च । तत्र चुमान्वर्थसंज्ञा पूर्ववत् । पन्नयां पिबन्तीति पादपा इत्येवमन्येषामपि यथासंभवमन्वर्थसंज्ञा वक्तव्या। रूढिदेशाशब्दा वा एत इति गाथार्थः । इदानीं पुष्पैकार्थिकप्रतिपादनायाह ॥ पुप्फाणि श्र कुसुमाणि श्र, फुल्लाणि तहेव होंति पसवाणि ॥ सुमणाणि अ सुहमाणि श्र, पुप्फाणं होंति एगहा॥३६॥ व्याख्या॥पुष्पाणि कुसुमानि चैव फुहानि प्रसवानि च सुमनसश्चैव सूक्ष्माणि सूक्ष्मकायिकानि चेति । सांप्रतमेकवाक्यतया अमपुपिकाध्ययनशब्दार्थ उच्यते।अमस्य पुष्पं सुमपुष्पम् । अवयवलक्षणः षष्ठीसमासः। सुमपुष्पशब्दस्य “प्रागिवात्कः” इति वर्तमाने अज्ञाते कुत्सिते संझायां कनिति कनि प्रत्यये नकारसोपे च कृते सुमपुष्पिक इति प्रातिपदिकस्य स्त्रीत्वविवक्षायाम् “अजाद्यतष्टाप"इति टाप्रत्ययेऽनुबन्धलोपे च कृते "प्रत्ययस्थात्कारपूर्वस्यात श्दाप्यसुपः"श्तीत्वे कृते "श्रकः सवर्णे दीर्घः" इति दीर्घत्वे परगमने चघुमपुष्पिकेति जवति सुमपुष्पोदाहरणयुक्ता पुमपुष्पिकेति । सुमपुष्पिका चासो अध्ययनं चेति समानाधिकरणस्तत्पुपुरुषः। सुमपुष्पिकाध्ययनमिति । अस्य चैकार्थिकानि प्रतिपादयन्नाह ।। पुमपुफिया य थाहा-रएसणागोथरे तया जंबो ॥ मेस जलूगा सप्पे, वणकश्सुगोलपुत्तुदए ॥३॥व्याख्या॥ तत्र सुमपुष्पोदाहरणयुक्तापुमपुष्पिकेति।वदयति च “जहा उमस्स पुप्फेसु” इत्यादि । तद्यथा थाहारस्यैषणा थाहारैषणा एषणाग्रहणावेषणादिग्रहस्ततश्च तदर्थसूचकत्वादाहारैषणेति । तथा गोचरः सामयिकत्वाजोरिव चरणं गोचरोऽन्यथा गोचारः । तदर्थसूचकत्वाच्चाधिकृताध्ययनविशेषो गोचर इत्येवं सर्वत्र Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग ४३ मा. ८८ जावना कार्येति । जावार्थस्तु यथा गौश्चरत्येवमं विशेषेण साधुनाप्यटितव्यं न विजवमङ्गीकृत्योत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्विति वणिग्वत्सकदृष्टान्तेनेति । तथा । त्वगिति । खगिवासारं जोक्तव्यमित्यर्थसूचकत्वात्त्वमुच्यत इति । उक्तं च परममुनि जिः जहा चत्तारि घुणा प्रसत्ता । तं जहा । तयस्काए बकाए करकाए साररकाए । एमेव चत्तारि निरकुगा छ पन्नत्ता । तं जहा । तयरकाए । बलिकाए करकाए सारस्काए । तयकार णामं एगे नो साररकाए । सारकाए णामं एगे नो तयरकाए । एगे तयरका विसारका वि । एगे नो तयरकाए णो साररकाए । तयरकायसमणस्स एां जिस्कुस्स साररकायसमाणे तवे जव । एवं जहा गणे तदा एव दट्ठवं । जावार्थस्तु जावतस्त्वक्कष्पासारजोक्तुः कर्मजेदमङ्गीकृत्य वज्रसारं तपो जवति । तथोञ्वमित्यज्ञात पिएकोंढसूचकत्वादिति । तथा मेष इति । यथा मेषोऽल्पेऽप्यम्न सि अनुष्ठालयन्ने वाम्नः पिबति । एवं साधुनापि निक्षाप्रविष्टेन बीजाक्रमणादिष्वनाकुलेन जिदा ग्राह्येत्येवं विधार्थसूचकत्वादधिकृता निधानप्रवृत्तिरिति । तथा जलौका इति। अनेषणाप्रवृत्तदायकस्य मृदुनाव निवारणार्थसूचकत्वादिति । तथा सर्प इति । यथासावेकदृष्टिर्भवत्येवं गोचर - तेन संयमैकदृष्टिना जवितव्यमित्यर्थसूचकत्वादिति । अथवा । यथा प्रागस्पृशन् सर्पो बिलं प्रविशत्येवं साधुनाप्यनास्वादयता जोक्तव्यमिति । तथा व्रण इत्यरक्त द्विष्टेन व्रणलेपदानवोक्तव्यम् । तथाक्ष इत्यक्षोपाङ्गदानवच्चेति उक्तं च व्रणलेपादोपाङ्गवदसंगयोगनरमात्रयात्रार्थम् । पन्नग श्वाभ्यवहरे दाहारम् । इसु ति । तथा इषुः शरो जण्यते तत्र सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा " ॥ जह रहिणुवउत्तो इसुणा लरकं ण विंध तदेव ॥ साहू गोरपत्तो संयमलरक म्मि नायवा ॥” गोल इति । “जह जनगोलो अगणि- स पाइदूरेण वि आसन्ने ॥ सक्कइ काऊण तहा, संजमगोलो गिबाणं ॥ दूरे असणाइं, इयरम्मि तेण संकाई ॥ तम्हा मियभूमीए चिह्निद्या गोयरग्गगर्न ॥ ३ ॥ " पुत्र इति । पुत्रमांसोपमया जोक्तव्यम् । सुसुमादृष्टान्तोऽत्र वक्तव्यः । उदकमिति । प्रत्युदकोपमानतः खम्वन्नपानमुपनोक्तव्यमित्यत्रोदाहरणम् । जहा एगेणं वाणियएणं दारिद्द का जिनूणं कहिं वि हिंडतेणं रयणदीवं पावित्ता तेब्रुक्कसुंदरा अणग्घया या समासादिया । सो ा ते चौराकुलदी हाणजए ए सक्कइ पिचा विऊण मुवर्ड - गनू मिमानं । त सो बुद्धिकोसले ताणि एगम्मि परसे ग्वेऊण जुसे जरपठाणे घेतुं प गहिलवेसेण " रयणवाणि गवइ ति " जणइ । तिणिवारे जाहे कोइ ण उइ । ताहे घेत्तू पया अडवीए तिसाए गहि जाव कुहियपाणिां बिरम्मि विडं पासइ । तब बहवे हरिणादयो मया तेण तं सवं उद्गवसाजाया । ता तं ते सियाए श्रणासायंतेण पीश्रं निवारियाणि श्रणेण रयाणि । 66 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ११ एवं रयणवाणगाणि पाणदंसणचरिताणि चोरवाणिश्रा विसया कुहिउँदगठा लिया - शिफासुगेस पिकाणि अंतपंताणि श्रदाराणि चाहतेण ताहे तप्फलेण जहा वाणियगो इह नवे सुही जाउं । एवं साहू वि सुही नविस्सइति । विवाणीचं संसारं विरेश ति । एवमेतान्यर्थैकार्थिकानि प्राधिकारा एवान्य इति गाथार्थः । उक्तो नाम निष्पन्नः सांप्रतं सूत्रालापक निष्पन्नस्यावसरः । स च प्राप्त - (ल ? ) - दणोऽपि न निक्षिप्यते । कस्मात् कारणात्। यस्मादस्ति इह तृतीयमनुयोगद्वारमनुगमाख्यं तत्र निति इह निक्षिप्तो भवति । तस्माल्लाघवार्थं तत्रैव निदेप्स्यामः । अत्र चापपरिदारावावश्यक विशेष विवरणादवसेयौ । सांप्रतमनुगमः । स च द्विधा सूत्रानुगमो निर्युक्त्यनुगमश्च । तत्र नियुक्त्यनुगम स्त्रिविधः । तद्यथा । निक्षेप निर्युक्त्यनुगमः । उपोद्वात नियुक्त्यनुगमः । सूत्रस्पर्श निर्युक्त्यगमश्चेति । तत्र निदेपनिर्युक्त्यनुगमो गतः । य एषोऽध्ययनादिनिक्षेप इति । उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्तु द्वारगाथाद्वयादवसेयः । तच्चेदम् । उद्देस्य निद्देसय० गाहा ॥ किंकई विहं गाहा० ॥ अस्य च द्वागाथाद्वयस्य समुदायार्थोऽवयवार्थश्चावश्यक विशेष विवरणादेवावसेय इति । प्रकृतयोजना पुनस्तीर्थकरोपोद्वातमजिधायाचार्य सुधर्मस्य च तत्प्रवचनस्य पश्चाम्बूनाम्नस्ततः प्रनवस्य ततोऽप्याचार्यशय्यंनवस्य पुनर्यथा तेनेदं निर्व्यूढमिति तथा कथनेन कार्या इत्याह । जेण व जं च पडुच्चेत्या दिना । यत्पूर्वमुक्तं तदत्रैव क्रमप्राप्ता निधानत्वात्तत्रायुक्तमिति । न, अपान्तरालोपोद्घातप्रतिपादकत्वेन तत्राप्युपयोगित्वादिति । श्राह । एवमपि महासंबन्धपूर्वकत्वादपान्तरालोपोन्द्वातस्यात्रैवा निधानं न्याय्यमिति । न, प्रस्तुतशास्त्रान्तरङ्गत्वेन तत्राप्युपयोगित्वादिति कृतं प्रसङ्गेनाक्षरगम निकामात्र फलत्वात्प्रयासस्य । गत उपोद्घात - युक्त्यनुगमः । सांप्रतं सूत्रस्पर्श नियुक्त्यनुगमावसरः । स च सूत्रे सति नवति । याद । यद्येवमिहोपन्यासोऽनर्थकः । न, निर्युक्तिसामान्यादिति । सूत्रं च सूत्रानुगमे । स चावसरप्राप्त एव । इह चास्खलितादिप्रकारं शुद्धं सूत्रमुच्चारणीयम् । तद्यथा । - स्खलितममिलितमव्यक्त्याम्रेडितमित्यादि यथानुयोगद्वारेषु । ततस्तस्मिन्नुच्चरिते सति केषां चिद्भगवतां साधूनां केचनार्थाधिकारा अधिगता जवन्ति केचनानविगताः । तत्रानधिगतार्थाधिगमायादपमतिविनेयानुग्रहाय च प्रतिपदं व्याख्येयम् । व्याख्यालक्षणं चेदम् ॥ संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः ॥ चालना प्रत्यवस्थानं व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा ॥ इति । तं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः । किं च प्रकृतम् । सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयमिति । तच्चेदं सूत्रम् ॥ १ एवमेतान्येकार्थिकान्यर्थाधिकाराण्युक्तानि इति पाठान्तरम् । क्षिप्तस्तत्र निक्षिप्तो भवति । इति पाठान्तरम् । 1 66 "" २ निक्षिप्तो भवति । इह नि For Private Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह नाग ४३ मा. (6 धम्मो मंगलमु कि, अहिंसा संजमो तवो ॥ देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे या मणो ॥ १ ॥ तत्रास्खलितपदोच्चारणं संहिता । सा पाठ सिद्धैव । श्रधुना पदानि । धर्मः मङ्गलम् उत्कृष्टम् श्रहिंसा संयमः तपः देवाः अपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः । तत्र “धृञ् धारणे” इत्यस्य धातोर्मप्रत्ययान्तस्येदं रूपं धर्म इति । मङ्गलरूपं पूर्ववत् । तथा "कृष विलेखने” इत्यस्य धातोरुत्पूर्वस्य निष्ठान्तस्येदं रूपमुत्कृष्ट मिति । तथा "तृहि हिसि हिंसायाम्" इत्यस्य "इदितो नुम् धातोः" इति नुमि कृते रूपधिकारे टाबन्तस्य नञ्पूर्वस्येदं रूपं यडुताहिंसेति । तथा यमु उपरमे ” इत्यस्य धातोः संपूर्वस्याच्प्रत्ययान्तस्य संयम इति रूपं जवति । तथा " तप संतापे" इत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययान्तस्य तप इति । तथा " दिवु क्रीडा विजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिखकान्तिगतिषु" इत्यस्य धातोरच्प्रत्ययान्तस्य जसि देवा इति नवति । अपिशब्दो निपातः । तदित्येतस्य सर्वनाम्नः पुंस्त्वविवक्षायां द्वितीयैकवचनं तमिति जवति । तथा नमसित्यस्य प्रातिपदिकस्य " नमो वरिवश्चित्रङः क्यच्” इति क्यजन्तस्य लट् क्रियान्तादेशस्ततश्च नमस्यन्तीति जवति । तथा यदिति सर्वनाम्नः षष्ठयन्तस्य यस्येति नवति । धर्मः पूर्ववत् । सदेति सर्वस्मिन् काले । “ सर्वेकान्यकिंयत्तदः काले दा" इति दाप्रत्ययः । “सर्वस्य सोऽन्यतरस्यां दि" इति स देशः । सदा । तथा " मन ज्ञाने” इत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययान्तस्य मन इति जवति । इति पदानि । सांप्रतं पदार्थ उच्यते । तत्र दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः । तथा चोक्तम् " ॥ दुर्गतिप्रसृतान् जीवान् य-. स्माद्धारयते ततः ॥ धत्ते चैतान् शुभे स्थाने तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ " मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलमित्यादि पूर्ववत् । उत्कृष्टं प्रधानम् । न हिंसा अहिंसा प्राणातिपात विरतिरित्यर्थः । संयम यावद्वारोपरमः । तापयन्त्यनेकजवोपात्तमष्टप्रकारं कर्मेति तपोऽनशनादि । दीव्यन्तीति देवाः क्रीडन्तीत्यादिनावार्थः । श्रपिः संजावने । देवा पि मनुष्यास्तु सुतरां तमित्येवंविशिष्टं जीवं नमस्यन्तीति प्रकटार्थम् । यस्य जीव। किम् । धर्मे प्रागनिहितस्वरूपे सदा सर्वकालं मन इत्यन्तःकरणम् । अयं पदार्थ इति । पदविग्रहस्तु परस्परापेक्षसमासनाक्त्वेनेह निबन्धनाजावान्न प्रदर्शित इति । चालनाप्रत्यवस्थाने तु प्रमाणचिन्तायां यथावसरमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः । प्रवृत्तिः पुनस्तयोरमुनोपायेनेति प्रदर्शयन्नाह ॥ बइ पुन सीसो, कहिं वि पुट्ठा कहंति आयरिया ॥ सीसा तुहिया, विपुलतरागं तु पुछाए ॥ ३८ ॥ व्याख्या ॥ कचित्किंचिदनवगछन् पृष्ठति शिष्यः कथमेतदितीयमेव चालना, गुरुकथनं प्रत्यवस्थानमिवमनयोः प्रवृत्तिः। तथा कचिदपृष्टा एव सन्तः पूर्वपक्षमाशङ्कय किंचित्कथ यन्त्याचार्याः । तत्प्रत्यवस्थानमिति गम्यते । किमर्थं कथयन्त्यत श्राह । शिष्याणामेव हितार्थम् । तुशब्द एवकारार्थः । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके प्रथमाध्ययनम् । २३ तथा विपुलतरं तु प्रभूततरं तु कथयन्ति पुछाए ति । शिष्यप्रश्ने सति पटुप्रज्ञोऽयमित्यवगमादिति गाथार्थः ॥ एवं तावत्समासेन व्याख्यालक्षणयोजना ॥ कृतेयं प्रस्तुते सूत्रे कार्यैव परेष्वपि ॥ १ ॥ ग्रन्थ विस्तरदोषान्न वक्ष्यामः । उपयोगे तु वक्ष्यामः प्रतिसूत्रम् । यतः सूत्रस्पर्शकोऽधुना प्रोच्यते । अनुगम निर्युक्तिविभागश्च विशेषतः सामाकिबृहद्वाष्याज्ज्ञेयः सूत्रोदितः । यतः “ होइ कयछो वोत्तुं, सपयछेयं सुखं सुखागमे ॥ सुत्तालागता सो नामा दिसा सवि पिगं ॥ सुत्तप्फा सिखनिज- त्तिणिउंगासेसपाइ ॥ पायं सोविय नेगम - याइयगोरो होइ ॥ एवं सुत्ताणुगमो, सुत्तालाव - and t निरकेवो ॥ सुत्तफा सिणिकु - तिणया च वच्चंति समगं तु ॥" इत्यलं प्रसङ्गेन गम निकामात्रमेतत् । तत्र धर्मपदमधिकृत्य सूत्रस्पर्शक निर्युक्तिप्रतिपादनायाह ॥ णामं aaer धम्मो, धम्मो का जावधम्मो उ ॥ एएसिं नाणत्तं कुष्ठामि यहाणुपुत्री ए ॥३॥ व्याख्या ॥ णामं ववणा धम्मो ति । अत्र धर्मशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । नामधर्मः स्थापनाधर्मो द्रव्यधर्मो जावधर्मश्च । एतेषां नानात्वं नेदं वक्ष्येऽनिधास्ये यथानुपूर्व्या यथानुपरिपाट्येति गाथार्थः । सांप्रतं नामस्थापने कुलत्वादागमतोनोश्रागमतश्च ज्ञाश्रनुपयुक्त शरीरेतरभेदांश्चानादृत्य इशरीरजव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यधर्माद्यनिधित्सयाह ॥ दवं च कार्ड, पयारधम्मो का जावधम्मो का || दवस्स पद्यवा जे, ते धम्मा तस्स दव्वस्स ॥ ४० ॥ व्याख्या ॥ इह त्रिविधोऽधिकृतो धर्मः । तद्यथा द्रव्यधर्मः । - स्तिकायधर्मः प्रचारधर्मश्चेति । तत्र द्रव्यं चेत्यनेन धर्मधर्मिणोः कथं चिदभेदाद्द्रव्यधर्ममाह । तथास्तिकाय इत्यनेन तु सूचनात् सूत्रमिति कृत्वा उपलक्षणत्वादवयव एव समुदायशब्दोपचारादस्तिकायधर्म इति । प्रचारधर्मश्चेत्यनेन ग्रन्थेन द्रव्यधर्मदेशमाह । जावधर्मश्चेत्यनेन तु भावधर्मस्य स्वरूपमाह । सांप्रतं प्रथमोद्दिष्टद्रव्यधर्मस्वरूपानिधित्सयाह । प्रव्यस्य पर्याया ये उत्पादविगमादयस्ते धर्मास्तस्य द्रव्यस्य । ततश्च द्रव्यस्य धर्मा द्रव्यधर्मा इत्यन्यासंसक्तैकद्रव्यधर्माभावप्रदर्शनार्थो बहुवचननिर्देश इति गाथार्थः । इदानीमस्तिकायादिधर्मस्वरूपप्रति पिपाद विषयात् ॥ धम्मविकायधम्मो, पयारधम्मो य विसयधम्मो उ ॥ लोश्यकुप्पावयणिश्र - लोगुत्तरलोगणेगविहो ॥ ४१ ॥ व्याख्या ॥ धर्मग्रहणाद्धर्मास्तिकायपरिग्रहः । ततश्च धर्मास्तिकाय एव गत्युपष्टम्न को ऽसंख्येयप्रदेशात्मकः अस्तिकायधर्म इति । अन्ये तु व्याचक्षते । धर्मास्तिकायादिस्वभावोऽस्तिकायधर्म इत्येतच्चायुक्तम् । तत्र धर्मास्तिकायादीनां द्रव्यत्वेन तस्य द्रव्यधर्माव्यतिरेकादिति । तथा प्रचारधर्मश्च विषयधर्म एव । तुशब्दस्यैव कारार्थत्वात् । तत्र प्रचरणं प्रचारः । प्रकर्षगमनमित्यर्थः । स एवात्मस्वनावत्वाद्धर्मः प्रचारधर्मः । स च किम् । विषीदन्त्येतेषु प्राणिन इति विषया रूपादयस्तद्धर्म 1 For Private Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह भाग ४३ मा. एव । तथा च वस्तुतो विषयधर्म एवायं यद्रागादिमान् सत्वस्तेषु प्रवर्तत इति । चक्षुरादीन्द्रियवशतो रूपादिषु प्रवृत्तिः प्रचारधर्म इति हृदयम् । प्रधानसंसार निबन्धनत्वेन चास्य प्राधान्यख्यापनार्थं द्रव्यधर्मात्पृथगुपन्यासः । इदानीं जावधर्मः । स च लौकिका दिनेद जिन्न इति । याह च, लौकिकः कुप्रावच निकः । लोकोत्तरस्त्वत्र । लोगो raat aataaisनेकविध इति गाथार्थः । तदेवानेकविधत्वमुपदर्शयन्नाह ॥ गम्म पसुदेसरद्ये, पुरवरगामगणगो हिराई ॥ सावद्यो उ कुतित्रिय-धम्मो न जिहिं उ पसो ॥ ४२ ॥ व्याख्या ॥ तत्र गम्यधर्मो यथा दक्षिणापथे मातुलडुहिता गम्या उत्तरापथे पुनरगम्यैव । एवं जदयाजक्ष्यपेयापेयविभाषा कर्तव्येति । पशुधर्मो मात्रा - दिगमनलक्षणः । देशधर्मो देशाचारः । स च प्रतिनियत एव नेपथ्यादिलिङ्गनेद इति । राज्यधर्मः प्रतिराज्यं निन्नः । स च करादिः । पुरवरधर्मः प्रतिपुरवरं जिन्नः क्वचित्कचिद्विशिष्टोऽपि पौरनाषाप्रतिदाना दिलक्षणः । सद्वितीया योषिजेहान्तरं छतीत्यादिलक्षणो वा । ग्रामधर्मः । प्रतिग्रामं निन्नः । गणधर्मो मल्लादिगणव्यवस्था । यथा समपादपातेन विषमग्रह इत्यादि । गोष्ठीधर्मो गोष्ठी व्यवस्था | ह च समवयः समुदायो गोष्टी । तद्व्यवस्था पुनर्वसन्तादावेवं कर्तव्यमित्यादिलद णा । राजधर्मो डुष्टेतर निग्रहपरिपालनादिरिति । नावधर्मता चास्य गम्यादीनां विवक्षया नावरूपत्वाद्द्रव्यपर्यायत्वाद्वा तस्यैव च द्रव्यानपेक्षस्य विवक्षितत्वालौकिकैर्वा नावधर्मत्वेनेष्टत्वात्। देश राज्या दिनेदश्चैकदेश एवानेकराज्यसंजव इत्येवं सुधिया जाव्यम् । इत्युक्तो लौकिकः । कुप्रावचनिक उच्यते । इत्यसावपि सावद्यप्रायो लौकिककल्प एव । यत आह "सावको उ" इत्यादि । श्रवद्यं पापं सहावद्येन सावयम् । तुशब्दस्त्वेवकारार्थः । स चावधारणे । सावद्य एव । कः । कुतीर्थिकधर्मः चरकपरिव्राजकादिधर्म इत्यर्थः । कुत एतदित्याह । न जिनैरर्ह द्विस्तुशब्दादन्यैश्च प्रेक्षापूर्वकारिनिः प्रशंसितः स्तुतः । सारम्नपरिग्रहत्वात् । अत्र बहु वक्तव्यम् । तत्तु नोच्यते गम निकामात्र फलत्वात्प्रस्तुतव्यापारस्येति गाथार्थः । उक्तः कुप्रावचनिकः । सांप्रतं लोकोत्तरं प्रतिपादयन्नाह ॥ डुविदो लोगुत्तरिर्ज, सुधम्मो खलु चरित्तधम्मो ॥ सुधम्मो सना, चरितधम्मो समणधम्मो ॥ ४३ ॥ व्याख्या ॥ द्विविधो द्विप्रकारो लोकोत्तरो लोकप्रधानो धर्म इति वर्त्तते । तथा चाह । श्रुतधर्मः खलु चारित्रधर्मश्च । तत्र श्रुतं द्वादशाङ्गं तस्य धर्मः श्रुतधर्मः । खलुशब्दो विशेषणार्थः । किं विशिनष्टि । स हि वाचना दिनेदाच्चित्र इत्याह च । श्रुतधर्मः स्वाध्यायवाचनादिरूपः तत्त्व चिन्तायां धर्महेतुत्वाद्धर्म इति । तथा चारित्रधर्मश्च तत्र “चर गतिनक्षणयोः" इत्यस्य " श्रर्तिलूधूसूखनसहचरश्त्रन्” इतीत्रन्प्रत्ययान्तस्य चरित्रमिति जवति चरन्त्यनिन्दितमनेनेति च For Private Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् ।। २५ रित्रं क्षयोपशमरूपं तस्य नावश्चारित्रमशेषकर्मक्षयाय चेष्टेत्यर्थः। ततश्चारित्रमेव धर्मः चारित्रधर्म इति । चः समुच्चये। अयं च श्रमणधर्म एवेत्याह । चारित्रधर्मः श्रमणधर्म इति । तत्र श्राम्यतीति श्रमणः “कृत्यदयुटो बहुलम्" इति वचनात्कर्तरि ब्युट। श्राम्यतीति तपस्यतीति । एतमुक्तं नवति । प्रव्रज्यादिवसादारज्यसकलसावद्ययोगवि से गुरूपदेशादनशनादि यथाशक्त्याप्राणोपरमात्तपश्चरतीति। उक्तं च । “॥यः समः सर्वजूतेषु त्रसेषु स्थावरेषु च ॥ तपश्चरति शुझात्मा श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः ॥१॥" इति । तस्य धर्मः स्वन्नावः। श्रमणधर्मश्च दान्त्या दिलदणो वदयमाण इति गाथार्थः। उक्तो धर्मः । सांप्रतं मङ्गालावसरः। तच्च प्राग्निरूपितशब्दार्थमेव । तत्पुनर्नामा दिनेदतश्चतुर्धा। तत्र नामस्थापने दुमत्वात्सादादनादृत्य अव्यनावमङ्गलानिधित्सयाह ॥ दवे नावे विश्रम-गलाई दवम्मि पुन्नकलसा॥धम्मो जनावमंगल-मेत्तो सिफित्ति काऊणं॥४४॥ व्याख्या॥जव्यमिति अव्यमधिकृत्य ।नाव इतिनावमङ्गलम्।अपिशब्दान्नामस्थापने च। तत्र दवम्मि पुन्नकलसाइ।ऽव्यमधिकृत्य पूर्णकलशादि।आदिशब्दात्स्वस्तिकादिपरिग्रहः।धर्मस्तु।तुशब्दोऽवधारणे।धर्म एव नावमङ्गलम्।कुत एतदित्यत आह। अतोऽस्माकर्मात्दान्त्यादिलक्षणात्सिफिरिति कृत्वा मोद इति कृत्वा नवगालनादिति गाथार्थः। अयमेव चोत्कृष्टं प्रधानं मङ्गलम् एकान्तिकत्वादात्यन्तिकत्वाच्च । न पूर्णकलशादि तस्य नैकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च। सांप्रतं यथोद्देशं निर्देश इति कृत्वा हिंसाविपक्षतोऽहिंसा तां प्रतिपादयन्नाह ॥ हिंसाए पडिवरको, होश् अहिंसा चउबिहा सा उ॥दवे नावे अ तहा, अहिंसजीवाश्वाजत्ति ॥४५॥व्याख्या॥ तत्र प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा। अस्या हिंसायाः। किम् । प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपदः । अप्रमत्ततया शुजयोगपूर्वकं प्राणाव्यपरोपण मित्यर्थः। किम् । नवत्यहिंसेति । तत्र चतुर्विधा चतुःप्रकारा श्रहिंसा । दवे नावे अ ति । अव्यतो नावतश्चेत्येको नङ्गः। तथा व्यतो नो नावतः। जावतो न व्यतः। तथा न व्यतो न जावत इति। तथाशब्दसमुच्चितो नङ्गत्रयोपन्यासः अनुक्तसमुच्चयार्थकत्वादस्येति। उक्तं च। तथा समुच्चय निर्देशावधारणसादृश्यप्रेष्येष्वित्यादि। तथाचायं नङ्गकनावार्थः। अव्यतो जावतश्चेति।जहा के पुरिसे मिश्रवहपरिणामपरिणए मियं पासित्ता आयन्नाहियकोदंडजीवे सरं णिसिरिया। से श्र मिए तेण सरेण विझे मए। सिथा एसा दव हिंसा नाव वि। या पुन व्यतोन नावतःसा खवीर्यादिसमितस्य साधोः कारणे गलत इति। उक्तं च “॥ उच्चालिअम्मि पाए, शरियासमिअस्स संकमहाए ॥ वावेोज कुलिंगी, मरिजा तं जोगमासजा ॥१॥ नय तलिमित्तो बंधो, सुहुमो वि देसि समए॥जम्हा सो अपमत्तो,साउपमा त्ति नि१ प्रकारवचनेषु । इति पाठान्तरम् । २ “अणवज्जो हु पउंजे, ण सव्वभावेण सो जम्हा ॥” इति पाठान्तरम् । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ राय धनपतसिंघ वदाउरका जैनागमसंग्रह भाग ४३ मा. बिछा.॥५॥” इत्यादि।या पुनर्नावतो न व्यतः सेयम् । जहा के वि पुरिसे मंदमंदप्पगासप्पदेसे संहियं इसिवलिअकायं रहुं पासित्ता एस अहि त्ति तत्वहपरिणामए णिकडिया सिपत्ते दुशं दुशं बिंदिया। एसा नावउँ हिंसा न दवउँ । चरमनङ्गस्तु शून्य इत्येवंनूताया हिंसायाः प्रतिपदोऽहिंसेति । एकाथिकानिधित्सयाह । अहिंसजीवाश्वाति । न हिंसा अहिंसा न जीवातिपातः अजीवातिपातः। तथा च तह. तः स्वकर्मातिपातो नवत्येवाजीवश्च कर्मेति नावनीयमिति । उपलदणत्वाच्चेह प्राणातिपातविरत्यादिग्रह इति गाथार्थः । सांप्रतं संयमव्याचिख्यासयाह ॥ पुढ विदगअगणिमारुय-वणस्सई बितिचउपणिं दिशजीवे ॥ पेहापेहपमऊण-परिठवणमणवश्काए ॥४६ ॥ व्याख्या ॥ पुढवाश्याण जाव य, पंचिंदिय संजमो नवे तेसिं ॥ संघट्टणादि ण करे, तिविहेण करणजोएणं ॥१॥ अजीवहिं जेहिं, गहिएहिं असंजमो श्ह नणि ॥ जह पोब दूसपणए, तणपणए चम्मपणए अ॥२॥ गंमी कबवि मुठी, संपुमफलए तहा बिवाडी श्र॥ एवं पोबहपणयं, पमत्तं वीधराएहि ॥३॥ बाहपुहत्तेहि, गंमीपोबो उ तुल्झगो दीहो ॥ कबवि अंते तणु मने पिहलो मुणेशवो ॥४॥ चउरंगुलदीहो वा, वहागिति मुहिपोबगो अहवा ॥ चउरंगुलदीहो चित्र, चउरस्सो सो उ विमे ॥ ५॥ संपुमर्ड दुगमाई, फलगा वोठं विवाडिमेत्ताहे ॥ तणुपत्तो सिअरूवो, होइ डिवाडी बुहा वेति ॥ ६॥ दीहो वा हस्सो वा, जो पिठुलो होइ अप्पबाहरो॥ तं मुणिअसमयसारा, विवाडिपोखं नणंतीह ॥ ७॥ दुविहं च दूसपणशं, समास तं पि होइ नायवं ॥ अप्पडिसेहियदूसं,पुप्पडिलेहं च विमेयं ॥ ॥ अप्पडिले हिअसे, तूली उवधाणगं च णायत्वं ॥ गंमुवधाणालिंगिणि, मसूरए चेव पोबगए ॥ ए॥ पदह विको यवि पावा-रणवतए तहय दाढगाली ॥ दुप्पडिले हिथ दूसे, एवं बीधे नवे पणगं ॥ १० ॥ पदह विहबबरणं, कोयव रूअपूरि पडि ॥ दढगाविधोपोत्ती, सेस पसिझा नवे नेदा ॥ ११॥ तणपणगं पुण नणिरं, जिणेहिं कम्महगंठिदहणेहिं ॥ सालीवीहीकोदव,-रालग रमे तणारं च ॥ १२॥ अयएलगाविमहिसी-मिया मजिणं च पंचमं होई ॥ नलियाखवगवट्टे, कोसगकित्तीय वितिएय ॥ १३॥ तह वि अहिरलाई, ताईन गेण्ह असंजमं साहू ॥ गणाजब एए, पेहपमधित्तु तब करे ॥ १४ ॥ एसो पेह उपेहा, पुणो वि दुविहा उ होइ नायवा ॥ वावारावावारे, वावारे जह उ गामस्स ॥ १५॥ एसो जविरकगोद अब्बावारे जहा विणस्संतं ॥ किं एयं नु उविकसि, दुविहाएविन अहियारो ॥१६॥वावारुविकतहिं, संतोनियसीसगाणचोएई ॥ चोएई श्यरं पि हु, पावयणीअम्मि कद्यम्मि ॥१७॥ अवावारजवेकण, विचोइए गिहिं तु सीअंतं ॥ कम्मेसु बहुविहेसु, संजम एसो उवरकाए ॥ १७ ॥ पडिसागरिए अपमधिए, सु Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । २७ पाए सुसंजमो होइ ॥ ते चेव पमद्यंते, असागरिए संजमो होइ ॥ पाणाईसंसत्तं, पाणमवा व विसुद्धं ॥ उवगरणजत्तमाइ, जंवा इरित होद्याहि ॥ १॥ तं परिवणविहीए, वहं संजमो नवे एसो ॥ कुसलमणवइरोहो, कुसलाण नदी - रणं चैव ॥ २० ॥ मणवश्संजम एसो, काए पुणे जं वस्सकम्मि ॥ गमागमणं नव तं जवउत्तो कुणइ सम्मं ॥ २३ ॥ तवद्यं कुम्मस्सव, सुसमाहियपाणिपाय कायस्स ॥ हवय काश्यसंजम, चितस्सेव साहुस्स ॥ २४ ॥ ” उक्तः संयमः । याह । श्रहिंसैव तत्त्वतः संयम इति कृत्वा तद्भेदेनास्या निधानमयुक्तम् । न, संयमस्याहिंसाया एव उपग्रहकारित्वात्संयमिन एव जावतः खल्वहिंसकत्वादिति कृतं प्रसङ्गेन । प्रतं तपः प्रतिपाद्यते । तच्च द्विधा । बाह्यमान्यन्तरं च । तत्र तावद्दाद्यप्रतिपादनायाह ॥ 66 55 समूणोरिया, वित्ती संखेवणं रसच्चाई ॥ काय किलेसो संली गया य बनो तवो होई ॥ ४७ ॥ व्याख्या ॥ न अशनमनशनम् आहारत्याग इत्यर्थः । तत्पुनर्द्विधा । इत्वरं यावत्कथिकं च । तत्रेत्वरं परिमितकालं तत्पुनश्चरमतीर्थकृत्तीर्थे चतुर्यादिषएमासान्तम् । यावत्कथिकं त्वाजन्मजावि । तत्पुनश्चेष्टाने दोपाधि विशेषत स्त्रिधा । तद्यथा, पादपोपगमन मिङ्गितमरणं नक्तपरिज्ञा चेति । तत्रानशनिनः परित्यक्तचतुर्विधाहारस्याधिकृतचेष्टातिरेकेण चेष्टान्तरमधिकृत्यैकान्तं निःप्रतिकर्मशरीरस्य पादपस्येवो - पगमनं सामीप्येन वर्तनं पादपोपगमनमिति । तच्च द्विधा । व्याघातवन्निर्व्याघातवञ्च । तत्र व्याघातवन्नाम यत्सिंहाद्युपद्रवव्याघाते सति क्रियत इति । उक्तं च । सहा दिसु पादवगमणं करे थिरचित्तो ॥ आम्मि पहुष्पंते, विद्याटिं न वर गीअो ॥ इत्यादि । निर्व्याघातं च पुनर्यत्सूत्रार्थतदुभयनिष्ठितः शिष्या निष्पाद्योत्सर्गतः द्वादशसमाः कृतपरिकर्मा तत्काल एवं करोति । उक्तं च " ॥ चतारि विचित्ता, विगई निद्यूहियाई चत्तारि ॥ संवरे दोसिन, एगंतरियं च श्रयामं ॥ णाइविगो ा तवो, बम्मासपरिमियं च श्रायामं ॥ खन्ने विम्मासे, हो विहिं तवो कम्मं ॥ वासं कोडीसहियं श्रायामं काउ थाणुपुवीए ॥ गिरिकंदरं तु गंतुं, पायवगमणं यह करे || ” इत्यादि । तथा इंगिते प्रदेशे मरणमिङ्गितमरणम् । इदं च संहननापेक्षमनन्तरो दितमशक्नुवतश्चतुर्विधाहारविनिवृत्तिरूपं स्वत एवोद्वर्तनादिक्रियायुक्तस्यावगन्तव्यमिति । उक्तं च " ॥ इंगि संमि सयं, चढविहाहारचाय शिष्फलं ॥ उवत्तणादिजुत्तं, खाणेण उ इंगिणी भरणं ॥ इत्यादि । जक्तपरिज्ञा पुनस्त्रिविधचतुर्विधाहार विनिवृत्तिरूपा । सा नियमात्सप्रतिकर्मशरीरस्यापि धृतिसंहननवतो यथासमाधिजावतोsवगन्तव्येति । उक्तं च “॥ नत्तपरिमाणसणं, तिउचउहाहारचायनिष्फलं ॥ सप डिक्कम्मं नियमा, जहासमाहिं विणिद्दिनं ॥" इत्याद्युक्तमनशनम्। अधुना 5" For Private Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग ४३ मा. 66 1 ऊनोदरता । ऊनोदरस्य जाव ऊनोदरता । सा पुनर्द्विविधा द्रव्यतो जावतश्च । तत्र प्रव्यत उपकरणजक्तपानविषया । तत्रोपकरणे जिनकल्पिकादीनामन्येषां वा तदन्यासपुराणामवगन्तव्या न पुनरन्येषाम् । उपध्यजावे समग्रसंयमाजावादतिरिक्ताग्रहणतो वोनोदरतेति । उक्तं च " ॥ जं वह उवयारे, उवगरणं तं मि होइ जवगरणं ॥ इरेगं हिगरणं, अजयं अज परिहरंतो ॥" इत्यादि । जक्तपानोनोदरता पुनरात्मीयाहारादिमानपरित्यागवतो वेदितव्या । उक्तं च ॥ " बत्तीसं किर कवला, आहारो कुछिपूर ज ि॥ पुरिसस्स महिवित्र्याए, अहावीसं हवे कवला ॥ कवला य परिमाणं, कुक्कुडित्र्ांडयपमाणमेत्तं तु ॥ जो वा अविधिवयणो, वयण म्मिनुदेद्य वीसो ॥" इत्यादि । एवं व्यवस्थिते सत्यूनोदरताल्पाहारा दिनेदतः पञ्चविधा जवति । उक्तं च ॥ पाहार अट्ठा, जागपत्ता तदेव किंचूणा ॥ वालस सोलस, चवीस तक्कतीसा य ॥ श्रयमत्र नावार्थः । अल्पाहारोनोदरता नामैककवलादाराज्य यावदष्टौ कवला इत्यत्र चैककवलमाना जघन्या, अष्टकवलमाना पुनरुत्कृष्टा, शेषनेदा मध्यमा च । एवं नवज्य आरज्य यावद्वादश कवलास्तावदपार्थोनोदरता । जघन्यादिनेदा जावनीया इति । एवं त्रयोदशभ्य श्रारभ्य यावत्षोडश तावद्विनागोनोदरता । एवं सप्तदशज्य आरम्य यावच्चतुर्विंशतिस्तावत्प्राप्ता । इयं पञ्चविंशतेरारज्य यावदेकत्रिंशत्तावत्किं चिदूनोदरता । जघन्या दिनेदाः स्वधियावसेयाः । एवमनेनानुसारेण पानेऽपि वाच्याः । एवं योषितोऽपि द्रष्टव्या इति । जावोनोदरता पुनः कोधादिपरित्याग इति । उक्तं च ॥ " कोहाईणमणदिणं, चार्ज जिणवयणनावणा ॥ जावेणोणोदरिया, पत्ता वीरागेहिं ॥" इत्यादि । उक्तोनोदरता । इदानीं वृत्तिसंदेप उच्यते । स च गोचरा निग्रहरूपः । ते चानेकप्रकाराः । तद्यथा । द्रव्यतः त्रतः कालतो जावतश्च । तत्र द्रव्यतो निर्लेपादि ग्राह्यमिति । उक्तं च " ॥ लेवममलेवमं वा, अगं च पिठामि ॥ गेण य दद्वेणं, यह दवा निग्गहो नाम ॥ उ गोरमी, एलुगविरकंज मित्तगणं च ॥ सग्गामपरग्गामे, पवश्एयरायखित्तम्मि ॥ उद्या गंतुं पञ्च्चा - गई अ गोमुत्तिया पयंग विही ॥ पेडा य अपेडा, अनंतर बाहि संबुक्का ॥ काले जिग्गहो पुण, यादी मने तदवसा || अप्पत्ते स काले, यादी - विममनतयंते ॥ दिंतगपडिबयाणं, नवेद्य सुदुमं पि मादु वियत्तं ॥ इत्ति - अपत्तश्रतीते, पचत्तणंमीय तो मने । उरिकत्तमाश्चरमा, नावजुया खलु अजिग्गहा होंति ॥ गायंतो छ रुांतो, जं देइ निसन्नमादी वा ॥ उसकण अहिसक - परंमुहालंकि नरो वाव ॥ जावसयरेण जुर्ज, यह जावाजिग्गहो णाम ||" उक्तो वृत्तिसंदेपः । सांप्रतं रसपरित्याग उच्यते । तत्र रसाः क्षीरादयस्तत्परित्यागस्तप इति । For Private Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । शए उक्तं च ॥ विगई विगनीज, विगयगयं जोउ लुंजए साहू ॥ विगई विगइसहावा, विगई विगई बला णे ॥ विगई परिणश्धम्मो, मोहो जसु रिद्यए उदिमे अ॥ सुहुचित्तजयपरो, कहं अकोण चिहिहित्ति ॥ दावानलमनगढ, को तवसमध्याश् जलमा॥ सत्ते विण से विद्या, मोहाणलदीविएसुवमा॥"इत्यादि ॥ उक्तो रसपरित्यागः। सांप्रतं कायक्लेश उच्यते । स च वीरासना दिनेदाचित्र इति। उक्तंच “॥वीरासणउकुमुगा-सणार लोआश्यो य विमेज ॥ कायकिलेसो संसा-रवासनिवेअत्ति ॥ वीरासणासु गुणा, कायनिरोहादयो अ जीवेसु ॥ परलोअगई थ तहा, बहुमायो चेव अन्नेसिं॥णिस्संगया य पछा,पुरकम्मविवद्यणं च लोअगुणा॥ पुरकसहत्तं नरगा-दिनावणाए य निवेओ॥” तथान्यैरप्युक्तम् “ ॥ पश्चात्कर्म पुरःकर्म तथा ये च परिग्रहाः॥ दोषा ह्येते परित्यक्ताः शिरोलोचं प्रकुर्वता ॥” इत्यादि । गतः कायक्लेशः । सांप्रतं संलीनतोच्यते । श्यं चेन्द्रियसंलीनतादिनेदाच्चतुर्विधेति । उक्तं च “॥इंदिअकसायजोए, पडुच्च संलीणया मुणेश्रवा ॥ तहय विवित्ता चरित्रा, पमत्ता वीअरागेहिं॥” तत्र श्रोत्रादिनिरिन्द्रियैः शब्दादिषु सुन्दरेतरेषु रागोषाकरण मिन्द्रियसंतीनतेति । उक्तं च “॥ सदेसु श्र नद्दयपा-वएसु सोअविसयमुवगएसु ॥ तुळेण य, रुण य समणेण सया ण होई ॥” एवं शेषेन्डियेष्वपि वक्तव्यम् । यथा। “रूवेसु नद्दगपावएसु" इत्यादि । उक्तेन्द्रियसंलीणताधुना कषायसंलीनता । सा च उदय निरोधोदीर्ण विफलीकरणलक्षणेति । उक्तं च “ ॥ उदयस्सेव निरोहो, उदयं पत्ताण वाफलीकरणं ॥ जं व कसायाणं, कसायसंलीनता एसा ॥” इत्यादि । उक्ता कषायसंलीनता सांप्रतं योगसंलीनता । सा पुनर्मनोयोगादीनामकुशलानां निरोधः कुशलानामुदीरण मित्येवंनूतेति । उक्तं च “॥ अपसबाण निरोहो, जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं ॥ कजाम्मि यविहगमणं, जोए संलीणया नणिया॥"इत्यादि। उक्ता योगसंलीनता । अधुना विविक्तचर्या सा पुनरियम् “॥ आरामुजाणादिसु,बीपसुपंडगविवजिएसु जंगणं ॥ फलगाहारादीण य, गहणं तह एसणिजाणं ॥” गता विविक्तचर्या । उक्ता संलीनता। "बप्लो तवो होही"इति । एतदनशनादि बाह्यं तपो नवति । लौकिकैरप्यासेव्यमानं झायत इति कृत्वा बाह्य मित्युच्यते । विपरीतग्राहेण वा कुतीर्थिकैरपि क्रियत इति कृत्वा इति गाथार्थः । उक्तं बाह्यं तप श्दानीमाज्यन्तरमुच्यते । तच्च प्रायश्चित्ता दिनेद मिति । आह च ॥ पायबित्तं विण, वेावच्चं तहेव सना ॥ जाणं उवसग्गो वि अ, अप्रिंतर तवो होश ॥४॥व्याख्या ॥ तत्र पापं बिनत्तीति पापछित् । अथवा यथावस्थितं प्रायश्चित्तं शुक्ष्म स्मिन्निति प्रायश्चित्तमिति । उक्तं च ॥ “पावं बिंद जम्हा, पायबित्तं ति नमए तम्हा॥पाएण वा वि चित्तं, विसोहई तेण पछित्तं ॥" Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह भाग ४३ मा. तत्पुनरालोचनादि दशधेति । उक्तं च ॥ " आलोणपडिकमणे, मीस विवेगे तदा वि उस्सग्गे ॥ तवामूलाव - घ्या य पारंचिए चेव ॥" जावार्थोऽस्या आवश्यक विशेषविवरणादवसेय इति । उक्तं प्रायश्चित्तं सांप्रतं विनय उच्यते । तत्र विनीयतेऽनेनाष्टप्रकारं कर्मेति विनय उच्यते ॥ विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् ॥ ज्ञानस्य फलं विरति - विरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥ संवरफलं तपोबल - मथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् ॥ तस्मात्क्रिया निवृत्तिः, क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥ योगनिरोधानवसं - ततिक्षयः संततिक्षयान्मोक्षः ॥ तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां जाजनं विनयः ॥” स च ज्ञानादिनेदात्सप्तधा॥ उक्तं च ॥ गाणे दंसणचरणे, मणवइकार्डवयारिज विष ॥ खाणे पंचपगारो, मणाणाईण सदहणं ॥ जत्ती तह बहुमाणो, तदिवाण सम्मजावणया || विहिगहनासो वि, एसो विउँ जिणानि हिउँ ॥ सुस्सुसमा णासा- यणाय विष दंसणे डुविहो ॥ सगुणा हि एसु, कद्य सुस्सूसणा विण ॥ सकारपुहाणे, सम्माणासणहो तह | सणापुप्पयाएं, किश्कम्मं अंजलिगहो ा ॥ एंतस्स गठणया, विस तह पवासणा नणिया ॥ गवंतावयणं एसो सुस्सूसणाविण ॥ इह य सकारो वंदादि, अनुद्वाणं जर्ज दीस तर्ज चैव कायवं, संमाणो व पत्तादीहिं । सणानिमुद्दो पु तस्से वायरेणासणाण्यणपुवगं उवविसेदएति जगणं ति | आसणाणुप्पदाणं तु गणा ठाणं संचारणं । किश्कम्मादयो पगsar | पासायला विणनं पुण पमरस विहो । तं जहा " ॥ बिगर धम्म - श्राय रि-वायग-थेर-कुल-गणे संघे ॥ संजोय - किरियाए महणालाई य तदेव ॥” एव नावणा तिबarunetteer य तिगरपन्नत्तस्स धम्मस्स प्रणाायणा । एवं सर्वत्र द्रष्टव्यम् । " || काया पुण जत्ती, बहुमाणो तहय वसवार्ड च ॥ अरहंतमाश्याएं, केवलणाणावसापायं ॥" उक्तो दर्शन विनयः । सांप्रतं चारित्र विनयः ॥ सामाश्याश्चरणस्स, सहदणं तदेव कारणं ॥ संफासणं परूवण - महपुर जवसत्ताणं ॥ मणवश्काश्य विउ, रियाई सङ्घकालं पि ॥ कुसलमणाश्रोहो, कुसलाणमुदीरणं तह य ॥ "" श्दानीमौपचारिक विनयः ॥ स च सप्तधा “ ॥ प्राणबंदा - वत्तणं कयपमि कि तह य ॥ कारिणि मित्तकरणं, दुरकत्तगवेसणा तहय ॥ तह देसकाल जागा, सङ्घबेसु तह यमई जलिया ॥ उवचारि उ विणर्ट, एसो जणि समासेणं ॥ " तब अनासवणं सस्सि पिच्चमेव आरियस्स नासे अदूरसामन्ते अवं । वृंदाव त्तियो कयपडिक्किई णाम पससा धायरिया सुत्तछं तडुजयाणि दाहिंति एणाम निकरत्ति आहारादिणा जश्यवं, कारियणि मित्तकरणं सम्ममनुपदमदेद्या विएण विur विसेसे वहित्र्वं तयहाणुद्वाणं च कायवं । सेसनेदा पसिद्धा । जिनस्य धर्मो 1 ३० For Private Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । जिनधर्मः। विनयमूलः। उक्तं च “॥ मूलाउ खंधप्पत्नवो उमस्स ॥” इत्यादि यतः "विण सासणे मूलं, विण निवाण साहगो॥विणयाउ विप्पमुक्कस्स,कर्ड धम्मो कर्ज तवो ॥१॥ विणयाज नाणं नाणाज, दंसणं दंसणाज चरणं ॥ चरणेहिंतो मुरको, मुके सुकं अणाबाहं ॥२॥” उक्तो विनय श्दानी वैयावृत्त्यम् । तत्र व्यावृत्तजावो वैयावृत्त्यमिति। उक्तं च "वेयावच्चं वावम-नावो इह धम्मसाहणणि मित्तं ॥ अशादियाण विहिणा,संपायणमेस जावडो॥आयरिश्र जवनाए,थेरतवस्सी गिलाणसेहाणं ॥साहम्मियकुलगणसं-घसंगयं तमिह कायद् ॥” तब आयरिज पंचविहो। तं जहा पवावणायरि दिछारियर्ड सुत्तस्स उद्देसणायरि सुत्तस्य समुदेस्सणायरि वायणायरिउत्ति । जवनाया पसिका चेव ।थेरो नाम जो गवस्स संचिंतिं करे। जाश्सुअपरियायाश्सु वा थेरो । तवस्सी नाम जो जग्गतवचरणरई। गिलाणो नाम रोगानिन्नू । सिकगो पाम जो अहुणा पवा। साहम्मि णाम एगो पवयण ण लिंगर्ड, एगो लिंग ण पवयणजे, एगो लिंगवि पवयण वि, एगो ण लिंग ण पवयण । गणसंघा पसिका चेव। इदानीं सक्षा।सो अ पंचविहो वायणा पुत्रणा परिअट्टणा अणुप्पेहा धम्मकहा । वायणा नाम सिस्सस्स अनावणं । पुबणा सुत्तस्स अबस्स वा हवई। परिअहणा नाम परिघट्टणंति वा अप्नस्सणं ति वा गुणणं ति एगट्ठा। अणुप्पेहा नाम जो मणसा परिश्रद्देश् णो वायाए । धम्मकहा णाम जो अहिंसाश्लकणं सबमुपणीअं धम्म अणुउंगं वा कहे। एसा धम्मकहा । गतः स्वाध्यायः । श्दानी ध्यानमुच्यते । तत्पुनरार्ता दिनेदाच्चतुर्विधम् । तद्यथा । आर्तध्यानं रोषध्यानं धर्मध्यानं शुक्लध्यानं चेति । तत्र “॥राज्योपत्नोगशयनासनवाहनेषु,स्त्रीगन्धमाद्यमणिरत्नविजूषणेषु ॥ श्छानिलाषमतिमात्रमुपैति मोहाद् , ध्यानं तदातमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥१॥ संवेदनैर्दहननञ्जनमारणैश्च, बन्धप्रहारदमनैश्च निकृन्तनैश्च ॥ यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पां, ध्यानं तु रोइमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥२॥ सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधारणेषु, बन्धप्रमोक्षगमनागमहेतुचिन्ता ॥ पश्चेन्जियव्युपरमश्च दया च नूते, ध्यानं तु धर्ममिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः॥३॥ यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्मुखानि, संकल्पकल्पनविकल्पविकारदोषैः ॥ योगैः सदा त्रिनिरहो निवृतान्तरात्मा, ध्यानोत्तमं प्रवरशुक्कमिदं वदन्ति ॥४॥ आर्ते तिर्यगितिस्तथा गतिरधो ध्याने तु रौजे सदा, धर्मे देवगतिः शुनं बत फलं शुक्ने तु जन्मदयः ॥ तस्माट्याधिरुगन्तके हितकरे संसारनिर्वाहके, ध्याने शुक्लतरे रजःप्रमथने कुर्यात्प्रयत्नं बुधः॥५॥" शति । उक्तं च समासतो ध्यानं विस्तरतस्तु ध्यानशतकादवसेयमिति । सांप्रतं व्युत्सर्गः। स च विधा। व्यतो लावतश्च । अव्धतश्चतुर्धा । गणशरीरोपध्याहारनेदात् । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह नाग ४३ मा. जावतश्चित्रः क्रोधादिपरित्यागरूपत्वात्तस्येति । उक्तं च ॥ दवे अ जावे अ तहा, डुहा सो s a || गणदेहोव हिजत्ते, जावे कोहादिचार्ज ति ॥ काले गणदेहाणं, अतिरित्ता सुद्धत्तपाणा ॥ कोहाश्याण सययं कायवो होइ चार्ज ति ॥” उक्तो व्युत्सर्गः । निंतर तवो होइ ति । इदं प्रायश्चित्तादिव्युत्सर्गान्तमनुष्ठानं लौकिकैरन निलक्ष्यत्वात्तन्त्रान्तरीयैश्च जावतोऽनासेव्यमानत्वान्मोक्षप्राप्त्यन्तरङ्गत्वाच्चान्यन्तरं तपो भवतीति गाथार्थः । शेषपदानां प्रकटार्थत्वात्सूत्रस्पर्शिका निर्युक्तिकृता नोक्ता स्वधिया तु विजागे स्थापनीयेति । अत्राह । धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्यादौ धर्मग्रहणे सति अहिंसासंयमतपोग्रहणमयुक्तं तस्याहिंसासंयमतपोरूपत्वाव्य निचरादिति । उच्यते । न, अहिंसादीनां धर्मकारणत्वाद्धर्मस्य च कार्यत्वात्कार्यकारणयोश्च कथं चिनेदः कथं चिदजेदश्चेति । तस्य द्रव्यपर्यायोजयरूपत्वात् । उक्तं च " ॥ ए छिपुढवी विसिहो, घोत्ति जं ते जुद्यइ सो ॥ जं पुण घकुत्ति पुवं, नासी पुढवीइतो अन्नो ॥ इत्यादि । गम्यादिधर्मव्यवच्छेदेन तत्स्वरूपज्ञापनार्थं वाऽहिंसादिग्रहणमदुष्टमित्यलं विस्तरेण । श्राह । श्रहिंसासंयमतपोरूपो धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्येतद्वचः किमाज्ञा सिद्धमाहोस्विद्युक्ति सिद्धमपि । त्रोच्यते । उन्नयसिद्धं कुतो जिनवचनत्वात्तस्य च विनेयसत्वापेक्ष याज्ञादिसिद्धत्वात् । च नियुक्तिकारः " || जिणवयणं सिद्धं चेव, जमइ कब उदाहरणं ॥ सघन सोयारं देऊ वि कहिं वि जसेद्या ॥ ४ ॥ व्याख्या ॥ जिनाः प्रानिरूपितस्वरूपाः तेषां वचनं तदाज्ञया सिद्धमेव सत्यमेव प्रतिष्ठितमेव विचार्यमेवेत्यर्थः । कुतः जिनानां रागादिरहितत्वाद्रागादिमतश्च सत्यवचनासंजवात् । उक्तं च " ॥ रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाडा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् ॥ यस्य तु नैते दोषा - स्तस्यानृतकारणं किं स्यात् ॥ इत्यादि ॥ तथापि तथाविधश्रोत्रपेक्ष्या तत्रापि नष्यते कचिदुदाहरणम् । तथा "" 1 श्रित्य तु श्रोतारं हेतुरपि क्वचिद्भयते । नतु नियोगतः । तुशब्दः श्रोतृविशेषणार्थः । किं विशिष्टं श्रोतारम् | पटुधियं मध्यमधियं च । नतु मन्द धियम् । इति । तथाहि । पटुधियो हेतुमात्रोपन्यासादेव प्रभूतार्थावगतिर्भवति । मध्यमधीस्तु तेनैव बोध्यते न त्वितर इत्यर्थः । तत्र साध्यसाधनान्वयव्यतिरेकप्रदर्शनमुदाहरणमुच्यते दृष्टान्त इत्यर्थः । साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणश्च हेतुः । इह च हेतुमुल्लङ्घ्य प्रथममुदाहरणानिधानं न्यायानुगतत्वात्तद्वलेनैव देतोः साध्यार्थसाधकत्वोपपत्तेः । क्वचिद्धेतुमनजिधाय दृष्टान्त एवोच्यत इति न्यायप्रदर्शनार्थं वा । यथा गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुलानां गत्युपष्टम्नको धर्मास्तिकायश्चक्षुष्मतो ज्ञानस्य दीपवत् । उक्तं च । " || जीवानां पुरुलानां च गत्युपष्टम्नकारणम् ॥ धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य दीपश्चक्षुष्मतो यथा ॥” तथा कचिद्धेतुरेव केवलोऽ निधीयते । न दृष्टान्तः । यथा मदीयोऽयमश्वो For Private Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । विशिष्टचिह्नोपलब्ध्यन्यथानुपपत्तेरित्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः। तथा॥ कबरपंचावयवं,दसहा वा सबहान पडिसिकं॥न य पुण सवं नमशहंदी सविधारमरकायं ॥ ५व्याख्या॥ श्रोतारमेवाङ्गीकृत्य क्वचित्पञ्चावयवं दशधा वेति क्वचिद्दशावयवं सर्वथा गुरुश्रोत्रपेदया न प्रतिषिझमुदाहरणाद्यनिधानमिति वाक्यशेषः । यद्यपि च न प्रतिषिर्क तथाप्यविशेषेणैव न च पुनः सर्वं नण्यते उदाहरणादि । किमित्यत आह । हंदी सविधारमकायं । हंदीत्युपप्रदर्शने। किमुपप्रदर्शयति । यस्मादिहान्यत्र च शास्त्रान्तरे सविचारं सप्रतिपदमाख्यातं साकल्यत उदाहरणाद्यनिधानमिति गम्यते । पञ्चावयवाश्च प्रतिज्ञादयः। यथोक्तम् । प्रतिझातूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः। दश पुनः प्रतिज्ञाविनत्यादयः। वक्ष्यति च । “ ते उपश्मविहत्ती” इत्यादि । प्रयोगांधैतेषां लाघवार्थ मिहैव स्वस्थाने दर्शयिष्यामीति गाथार्थः। सांप्रतं ययुक्तं “जिणवयणं सिहं चेव नम कबइ उदाहरणं” इत्यादि तत्रोदाहरणहेत्वोः स्वरूपानिधित्सयाह ॥ तबाहरणं उविहं, चनविहं होश एकमेकं तु ॥ हेऊ चनविहो खबु, तेण उ साहिद्यए श्रलो ॥५॥व्याख्या॥ तत्रशब्दो वाक्योपन्यासार्थो निर्धारणार्थो वा।उदाहरणं पूर्ववत्। तच्च मूलनेदतो विविधं छिप्रकारं चरितकल्पितन्नेदात् । उत्तरनेदतस्तु चतुर्विधं नवति तयोईयोरेकैकमुदाहरणमाहरणतदेशतदोषोपन्यासनेदात्तच्च वयामः । तथा हिनोति गमयति जिशासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुः। स चतुर्विधश्चतुःप्रकारः। खबुशब्दो व्यक्तिन्नेदादनेकविधश्चेति विशेषणार्थः। तुशब्दस्य पुनःशब्दार्थत्वात्तेन पुन:तुना साध्यार्थाविनाजावबलेन साध्यते निष्पाद्यते झाप्यते वार्थः प्रतिज्ञार्थ इति गाथार्थः । सांप्रतं नानादेशजविनेयगण हितायोदाहरणैकार्थिकप्रतिपिपादयिषयाह ॥ नायं थाहरणं तिथ, दिहंतोवमनिदरिसणं चेव ॥ एगळं तं सुविहं, चनविहं चेव नायवं ॥५॥व्याख्या॥ ज्ञायतेऽस्मिन् सति दार्टान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातम्।अधिकरणे निष्ठाप्रत्ययः।तथोदाहियते प्राबल्येन गृह्यतेऽनेन दाान्तिकोऽर्थ इति उदाहरणम्।दृष्टमर्थमन्तं , नयतीति दृष्टान्तः। अतीन्जियप्रमाणदृष्टं संवेदननिष्ठां नयतीत्यर्थः। उपमीयतेऽनेन दार्टान्तिकोऽर्थ इत्युपमानम् । तथा च निदर्शनं निश्चयेन दर्श्यतेऽनेन दार्टान्तिक एवार्थ इति निदर्शनम् । एगळं ति।श्दमेकार्थिकझातम्। इदं च तत्प्रागुपन्यस्तं द्विविधमुदाहरणं चतुर्विधं चैवाङ्गीकृत्य ज्ञातव्यं प्रत्येकमपि । सामान्य विशेषयोः कथंचिदेकत्वादत एव सामान्यस्यापि प्राधान्यख्यापनार्थमेकवचनानिधानम् । एकार्थमित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थ विस्तर जयाद् गमनिकामात्रमेवैतदिति गाथार्थः । सांप्रतं यमुक्तं तत्रोदाहरणं विविधमित्यादि । तवैविध्यादिप्रदर्शनायाह ॥ चरिअं च कप्पियं वा, विहं तत्तो चलबिहेक्केकं ॥ आहारणे तसे तद्दोसे चेवुवन्नासे ॥५३॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. व्याख्या ॥ चरितं च कल्पितं चेति द्विविधमुदाहरणम् । तत्र चरितमनिधीयते यद्वृत्तं तेन कस्यचिद्दान्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते । तद्यथा दुःखाय निदानं यथा ब्रह्मदत्तस्य । तथा कल्पितं बुद्धि कल्पना शिल्प निर्मितमुच्यते । तेन च कस्य चिद्दाष्टन्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते । यथा पिप्पलपत्रैर नित्यतायामिति । उक्तं च ॥ "जह तुने, तह अम्हे, तुने चि होहिहा जहा म्हे ॥ अप्पा उ पतं, पंपत्तं किसलयाणं ॥ वि ए । वि होई, उल्लावो किसलपं पत्ताणं ॥ उवमा खलु एस कया, जविाजण विबोहहाए ||" इत्यादि । आह । उदाहरणं दृष्टान्त उच्यते तस्य च साध्यानुगमादि लक्षणमिति । उक्तं च ॥ साध्येनानुगमो हेतोः साध्यानावे च नास्तिता ॥ ख्याप्यते यत्र दृष्टान्तः स साधर्म्येतरा द्विधा ॥ अस्य पुनस्तलक्षणाभावात्कथमुदाहरणत्वमित्यत्रोच्यते तदपि कथंचित्साध्यानुगमादिना दाष्टन्तिकार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात्फलत उदाहरणम् । इहापि च सोऽस्त्येवेति कृत्वा किं नोदाहरणतेति । साध्यानुगमा दिलक्षणमपि सामान्यविशेषोजयरूपानन्तधर्मात्मके वस्तुनि सति कथं चिद्भेदवादिन एव युज्यते नान्यस्यैकान्तभेदाभेदयोस्तदजावादिति । तथाहि सर्वथा प्रतिज्ञादृष्टान्तार्थभेदवादिनोऽनुगमतः खलु घटादौ कृतकत्वादेरनित्यत्वादि प्रतिबन्धदर्शनमपि प्रकृतानुपयोग्येव जिन्न - वस्तुधर्मत्वात्सामान्यस्य च परिकल्पितत्वादसत्त्वादिवमपि च तइलेन साध्यार्थप्रतिबन्धकल्पनायां सत्यामतिप्रसङ्गादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरजया दिति । एवं सर्वथा दवा दिनोऽप्येकत्वादेव तदजावो जावनीय इति । अनेकान्तवादिनस्त्वनन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्तद्धर्मसामर्थ्यात्तत्तद्वस्तुनः प्रतिबन्धबलेनैव तस्य वस्तुनो गमकं जवत्यन्यथा ततस्तस्मिंस्तत्प्रतिपत्त्यसंभव इति कृतं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः । चरितं कल्पितं चेत्यनेन विधिना द्विविधम् । ततः पुनश्चतुर्विधं चतुःप्रकारमेकैकम् । कथमत आह। उदाहरणं तद्देशः तद्दोषश्चैव उपन्यास इति । तत्रोदाहरणशब्दार्थ उक्त एव । तस्य देशस्तदेश एवं तद्दोषः । उपन्यसनमुपन्यासः स च तद्वस्त्वादिलक्षणो वक्ष्यमाण इति गाथार्थः । सांप्रतमुदाहरणमनिधातुकाम याद || चहा खलु आहरणं, होइ अवार्ड उवाय ठवणा य ॥ तह य पकुप्पन्न विणा - समेव पढमं चविगप्पं ॥ ५४ ॥ व्याख्या ॥ चतुर्धा खलु उदाहरणं जवति । अथवा चतुर्धा खलु उदाहरणे विचार्यमाणे नेदा जवन्ति । तद्यथा । अपायः । उपायः । स्थापना च । तथा च प्रत्युत्पन्न विनाशमेवेति । स्वरूपमेषां प्रपञ्चेन नेदतो नियुक्तिकार एव वक्ष्यति । तथा चाह । प्रथममपायोदाहरणं चतुर्विकल्पं चतुर्भेदम् । तत्रापायश्चतुः प्रकारः । तद्यथा । द्रव्यापायः क्षेत्रापायः कालापायो जावापायश्च इति गाथार्थः । तत्र द्रव्यादपायो ज्यापायः । श्रपायोऽनिष्टप्राप्तिः । १" स साधर्म्येतरो द्विधा " इति पाठान्तरम् । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । अव्यमेव वापायो व्यापायः अपायहेतुत्वादित्यर्थः । एवं देवादिष्वपि नावनीयम् । सांप्रतं व्यापायप्रतिपादनायाह॥दवावाए दोन्नि ज, वाणिअगा जायरो धणनिमित्तं ॥ वहपरिणएकमेकं, दहंमि मछेण निवे ॥ ५५ ॥ व्याख्या ॥ अव्यापाये उदाहरणं कौतु । तुशब्दादन्यानि च । वणिजौ जातरौ धननिमित्तं धनार्थ वधपरिणतौ एकैकमन्योन्यं दूदे मत्स्येन निर्वेद इति गाथादरार्थः। नावार्थस्तु कथानकादवसेयः। तच्चेदम् । एगंमि संनिवेसे दो नायरो दरिदप्पाया तेहिं सोरठं गंतूण साहस्सि पउल रूवगाणं विढवि तेथ सयं गामं संपबिया इंतातंणउलयं वारएण वहंति। जया एगस्स ह तदा श्यरो चिंतेश् । “मारेमि णवरमेए रूवगा ममं होंतु”। एवं वी चिंतेइ “जहाहं एवं मारेमि"। ते परोप्परं वहपरिणया अनवसंति । त जाहे सग्गामसमीवं पत्ता तब नईतमे जिहेअरस्स पुणरावत्ती जाया। "धिरनु ममं जेण मए दवस्स कए जानविणासो चिंति"। परुलो अरेण पुखि कहिए जणई ममंपि एयारिसं चित्तं होतं। ताहे एअस्स दोसेणं अम्हेहिं एरंचिंतिरं ति काळं । तेहिं सो गजल दहे बूढो। तेथ घरं गया। सोश उलउँ तब पतो मछएण गिलिउँ । सो अ मछो मेएण मारि।वीहीए उयारि।तेसिंच नागाणां नगिणी मायाए वीहिं पठविश्रा जहा मछे आणेह जं जाउगाणं सितंति । ताए अ समावत्तीए सो चेव मब - णीचेडीए फालिंतीए जल दिहो।चेडी एचिंतिथं एस जल मम चेव नविस्स त्ति । उहंगे क विद्यतो थेरीए दिठो णा अ। तीए जणियं किमेअं तुमे जळगे कयं सावि लोहं गया ण साह। ता दो वि परोप्परं पहरंतो।सा थेरी ताए चेडीए तारिसे मम्मप्पएसे आहया जेण तरकणमेव जीविया ववरोविया। तेहिं तु दारएहिं सो कलहवश्यरो णा । स उल दिहो थेरी गाढप्पहारा पाणविमुक्का णिसधरणियले पडिया दिशा चिंतिथं वणेहिं । श्मो सो अवायबहुलो अबो त्ति।एवं दवं अवायहेज त्ति । लौकिका अप्याहुः “॥ अर्थानामर्जने पुःखमर्जितानां च रदणे ॥ आये फुःखं व्यये पुःखं धिग अव्यं पुःखवर्धनम् ॥१॥ अपायबहुलं पापं ये परित्यज्य संश्रिताः ॥ तपोवनं महासत्त्वास्ते धन्यास्ते तपस्विनः ॥२॥” इत्यादि । एतावत्प्रकृतोपयोगि । त तेसिं तमवायं पिडिऊण णिवेळ जाउँ त तं दारियं कस्स दाऊण निविणकामनोथा पवश्य त्ति गाथार्थः । इदानी क्षेत्राद्यपायप्रतिपादनायाह ॥ खेत्तंमि अवकमणं, दसारवग्गस्त हो अवरेणं ॥दीवायणो अकाले, नावे मंडुक्किया खवः ॥ ५६ ॥ व्याख्या ॥ तत्र क्षेत्र इति द्वारपरामर्शः। ततश्च देत्रादपायः देत्रमेव वा कारणत्वादिति । तत्रोदाहरणमपक्रमणमपसर्पणं दशारवर्गस्य दशारसमुदायस्य नवत्यपरेणापरत इत्यर्थः । नावार्थः कथानकादवसेयः। तच्च वदयामः।लैपा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. यनश्च काले । द्वैपायन ऋषिः। काल इत्यत्रापि कालादपायः कालापायःकाल एव वा तत्कारणत्वा दित्यत्रापि नावार्थः कथानकगम्य एव । तच्च वक्ष्यामः। जावे मंमुकिकाकपक इत्यत्रापि नावादपायो नावापायः । स एव वा तत्कारणत्वादित्यत्रापि च नावार्थः कथानकादवसेयस्तच्च वदयाम इति गाथार्थः । जावार्थ उच्यते । खित्तापाउँदाहरणं दसारा हरिवंसरायाणो । एब महई कहा जहा हरिवंसे । उवठगियं चेव जमए।कंसं मि विणिवाइए सावायं खेत्तमेयं ति काऊण जरासंधरायजएण दसारवग्गो महुरा अवक्कमिऊण बारवयं गर्म त्ति । प्रकृतयोजनां पुनर्नियुक्तिकार एव करिष्यति । किमकाएक एव नः प्रयासेन । कालावाए उदाहरणं पुण कण्हपुछिएण जगवयारिठणेमिणा वागरियं बारसहिं संवछरेहिं दीवायणा बारवईणयरीविणासो उजोतनरायणगरीए परंपरएण सुणिऊण दीवायणपरिवाय मा णगरि विणासेहामि त्ति कालावधिमण गमेमित्ति उत्तरावहं गठ। सम्मं कालमाणमयाणिऊण य बारसमे चेव संवबरे आगळ कुमारहिं खलीकउँ कयणिबाणो देवो उववलो । तर्ज य णगरीए अवार्ड जाउँत्ति णमहा जिणनासियं ति। नावावाए उदाहरणं खमः । एगो खम चेहएण समं निकायरियं ग । तेण तत्र मंडुक्कलिया मारिया। चिल्बएण नणियं ममुकलिया तए मारिया। खवगो नणई। रे मुह सेह विरमश्या चेव एसा। ते गया।पछा रत्तिं श्रावस्सए थालोश्त्ताण खमगेण सा मंमुक्कलिया नालोश्या। ताहे चिबएण जणिशं।खमगा तं मंमुक्कलियं बालोएहिं खम रुठो तस्स चेबयस्स खेलमलयं घेत्तण उहाळ अंसियाल खंने आवडियो। वेगेण इंतो म य । जोसिएसु उववन्नो । त चश्त्ता दिहीविसाणं कुले दिछीविसो सप्पो जार्ड। तब एगेण परिहिंमंतेण नगरे रायपुत्तो सप्पेण खछ।यहितुंडएण विद्या सवे सप्पा श्रावाहिथा मंगले पवेसिया नणिया ।अमे सवे गळंतुजेण पुण रायपुत्तो खा सो अबज ।सवे गया एगो गि सो नणि अहवा विसं श्रावियह अहवा एक अग्गिंमि णिवडाहि सो अथगंधणो सप्पाणं किल दो जाईलो गंधणा अगंधणा य ते अगंधणा माणिणो। ताहे सो अग्गिंमि पविठो णय तेण तं वांतं पञ्चाश्यं । रायपुत्तो वि म पछा रन्ना रुहेण घोसावियं रके जो मम सप्पसीसं आणेश् तस्साहं दीणारं देमि । पछा लोगो दीवारलोनेण सप्पे मारे थाढत्तो तं च कुलं जब सो खमठ उप्पन्नो तं जाईसरं रत्तिं हिंग दिवस न हिंम मा जीवे दहेहामि त्ति काळं । अमया आहिंमिगेहिं सप्पे मग्गंतेहिं रतिंचरेण परिमलेण तस्स खमगसप्पस्स बिलं दिति । दारे से वि सहिउँ आवाहेश चिंतेश् । दिछो मे कोवस्स विवा तो जश् अहं अनिमुहो णिगछामि तो दहिहामि ताहे पुछेण थाढत्तो निफिडिलं जत्तियं निप्फेडेहि । तावश्यमेव Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ३७ 1 I चाहिं विंदे । जाव सीसं बिसं मर्ज य सो सप्पो देवयापरिग्गहिरं । देवया रो सुमिए दरिणं दिसं । जहा मा सप्पे मारेह पुत्तो ते नागकुलाई उबहिऊण जविस्स । तस्स दारयस्स नागदत्तनामं करेद्याहि । सो छा खमगसप्पो मरित्ता तेष पाणपरिचाएण तस्सेव रमो पुत्तो जार्ज जाए दारए णामं कयं णागदत्तो । खुद्दल चेव सो पa । सो व किर तेण तिरियाणुनावेण श्रतीव बहालु दोसीएवेला चेव आढवे जिनं जाव सूरमणवेलं । उवसंतो धम्मसद्धि य तम्मिश्र छे चत्तारि खमगा तं चाजम्मा सिउं तेमा सिउं दोमासि एगमा सिति । रतिं च देवया वंदिरं आगया । चाउम्मासि पढम हिउँ । तस्स पुर तेमा सिउँ । तस्स पुर दोमा सि। तस्स पुर एगमा सिट । ताए य पुर खुद । सवे खमगे अतिक्कमित्ता ताए देवयाए खुद्द वंदिd | पष्ठा ते खमगा रुठा । निग्गष्छंती अ गहिया चाउंमा सिखमएण पोते न िय अ । कडपूयणि अम्हे तवे स्लिपो ए वंदसि । एवं कूरायणं बंदसि सा देवया जाई । श्रहं जावखमयं वंदामि । ण वासक्कारपरे माहिणो वंदामि | पठा ते चेलयं ते अमरिसं वहति । देवया चिंतेई मा एए चेलयं खरंहिंति तो लिहिया चैव श्रष्ठामि । ताहं पडिवो हामि । वितिय दिवसे या चेल्ल सं दिसावेऊण गर्छ । दोसीणस्स पडिश्राग श्रालोश्त्ता चाजम्मा सियखमगं मिं - तेई । ते पग्ग से खेलं निबूढं । चेल्लूर्ड जगई। मिठा मि डुक्कडं जं तुझे मए खेलमल्लउं ण पणामि तं तेण उप्पराचेव फेडित्ता खेलमलए बूढं । एवं जाव तिमासरणं जाव एगमासिएणं पिबूढं । तं तेण तहा चेव फेडिखं श्रडुया वित्तालंबणे गामि कालं खमएण चेल बाहं गहि । तं तेण तस्स चेलमस्त श्रदीएमएसस्स विसुद्ध परिणामस्स लेस्साहिं विसुनमाणीहिं तदावरणिद्याणं कम्माणं खण केवलनाणं समुप्पलं । ताहे सा देवया जाई । किह तुने वं दिवा जेणेवं कोहा जिमूा ह । ताहे ते खमगा संवेगमावला मिठामि डुक्कमं ति । श्रहो बालो जवसंत चित्तो देहिं पावकस्मेहिं श्रासा एवं तेसिं पि सुप्रवसाणेणं केवलनाणं समुप्पलं । एवं पसंग कहिां कहाण्यं । उवण पुर्ण कोहादिगाउँ पस जावा डुग्गए अवार्ड त्ति । परलोक चिन्तायां प्रकृतोपयोगितां दर्शयन्नाह ॥ सिरकगा सिरकगाणं, संवेग थिरव्याई दोहं पि ॥ दवाईया एवं दंसिद्यते श्रवाया ॥ ५७ ॥ व्याख्या | शिक्षका शिक्षकयोः अभिनव प्रत्र जित चिरप्रत्र जितयोः श्रजिनवप्रत्र जितगृहस्थयोर्वा । संवेगस्थैर्यार्थं द्वयोरपि द्रव्याद्या एवमुक्तेन प्रकारेण वक्ष्यमा - णेन वा दर्श्यन्ते पाया इति । तत्र संवेगो मोक्षसुखा जिलाषः । स्थैर्यं पुनरज्युपग१ " तव वरणिणो " इति पाठान्तरम् । For Private Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तापरित्यागः । ततश्च कथं नु नाम पुःखनिबन्धनव्याद्यवगमात्तयोः संवेगस्थैर्ये स्यातां व्यादिषु चाप्रतिबन्ध इति गाथार्थः । तथा चाह ॥ दविकं कारणगहिरं, विगिंचिअवमसिवा खेत्तं च ॥ बारसहिं एस कालो, कोहाइविवेगनावम्मि ॥ ५ ॥ व्याख्या ॥ इहोत्सर्गतो मुमुकुणा अव्यमेवाधिकं वस्त्रपात्राद्यन्यझा कनकादि न ग्राह्यं शिक्षकाहिसंदष्टादिकारणग्रहीतमपि तत्परिसमाप्तौ परित्याज्यमत एवाह । अव्यं कारणगृहीतं किं विकिंचितव्यं परित्याज्यमनेकैहिकामुष्मिकापायहेतुत्वात् । पुरन्ताग्रहाद्यपायहेतुत्वादुरन्ताग्रहाद्यपायहेतुता च मध्यस्थैः स्वधिया नावनीयेति । एवमशिवादिदेवं च परित्याज्यमिति वर्तते।अशिवादिप्रधानं देवं अशिवादिक्षेत्रम् । आदिशब्दातूनोदरताराजछिष्टादिपरिग्रहः। परित्याज्यं चेदमनेकैहिकामुष्मिकापायसंनवादिति।तथा छादशनिवौं रेष्यत्कालः परित्याज्य इति वर्तते। तत एवापायसंचवादिति नावना । एतमुक्तं नवत्य शिवादिष्ट एष्यत्कालः हादशनिर्व पैरनागतमेवोनितव्य इति।उक्तंच॥संवदरबारसएण,होहित्ति असिवं तितेत किंति,सुत्त कुवंता॥अतिसयमादीहिं नाऊणमित्यादि । तथा क्रोधादिविवेकानाव इति।क्रोधादयोऽप्रशस्तनावास्तेषां विवेकः नरकपातनाद्यपायहेतुत्वात्परित्यागः। नाव इति नावापाये कार्य इत्ययं गाथार्थः । एवं तावस्तुतश्चरणकरणानुयोगमधिकृत्यापायः प्रदर्शितः। सांप्रतं - व्यानुयोगमधिकृत्य प्रदर्श्यते ॥ दवा दिएहिं निच्चो, एगंतेणेव जेसिं अप्पा ॥हो अनावो तेसिं, सुहऽहसंसारमोकाणं ॥५ए॥ व्याख्या॥७व्यादिनिःव्यक्षेत्रकालनावैरिकत्वविशिष्टदेववयोऽवस्थितत्वाप्रसन्नत्वादिनिर्नित्योऽविचलितखजावः । एकान्तेनैव सर्वथैव येषां वादिनामात्मा जीवः तुशब्दादन्यच्च वस्तु नवति संजायते अजावोऽसंजवस्तेषां वादिनाम् । केषाम् । सुखदुःखसंसारमोदाणाम् । तत्राहादानुनवलदणं सुखम् । तापानुजवरूपं कुःखम् । तिर्यग्नरनारकामरनवसंसरणरूपः संसारः। अष्टप्रकारकर्मबन्धवियोगो मोदः । तत्र कथं पुनस्तेषां वादिनां सुखाद्यनावः । - त्मनोऽप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकखन्नावत्वादन्यथा चापरिणतेः। सदैव नारकत्वादिलावादपरित्यक्ताप्रसन्नत्वे पूर्वरूपस्य च प्रसन्नत्वेनानवनादेवं शेषेष्वपि नावनीयमिति गाथार्थः । ततश्चैवम् ॥ सुहकसंपलंगो, न विद्यई निच्चवायपर्कमि ॥ एगंतछेअंमि अ, सुहाकविगप्पणमजुत्तं ॥६० ॥ व्याख्या ॥ सुखदुःखसंप्रयोगः। सम्यक् संगतो वा प्रयोगः संप्रयोगः अकल्पित इत्यर्थः। न विद्यते नास्ति न घटत इत्यर्थः । क्व नित्यवादपदे नित्यवादान्युपगमे संप्रयोगो न विद्यते । कल्पितस्तु नवत्येव । यथाहुनित्यवादिनः। प्रकृत्युपधानतः पुरुषस्य सुखपुःखे स्तः। स्फटिके रक्ततादिवहफिप्रतिबिम्बाहान्य इति । कल्पितत्वं चास्य आत्मनस्तत्त्वत एव तथा परिणतिमन्तरेण सु Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ३ ए खाद्यभावादुपधानसन्निधावप्यन्धोपले रक्ततादिवत्तदन्युपगमे चान्युपगमतिः । बुद्धिप्रति बिम्बपदेऽप्यविचलितस्यात्मनः सदैवैकस्वभावत्वात् । सदैवैकरूपप्रतिबिम्बापत्तेः। खनावज्ञेदाज्युपगमे चानित्यत्वप्रसङ्ग इति । माजूद नित्यैकान्तग्रह इत्यत श्राह । एकान्तेन सर्वथा उत्प्राबल्येन बेदो विनाशः एकान्तोछेदः । निरन्वयो नाश इत्यर्थः । अस्मिंश्च किं सुखदुःखयोर्विकल्पनं सुखदुःख विकल्पनमयुक्तमघटमानकम् । अयमंत्र जावार्थः । एकान्तोछेदेऽपि सुखाद्यनुन वितुस्तत्क्षण एव सर्वथोच्छेदादहेतुकत्वात्तदुत्तरकणस्योत्पत्तिरपि न युज्यते । कुतः पुनस्तद्विकल्पनमिति गाथार्थः । उक्तोऽपायः । सांप्रतमुपाय उच्यते तत्रोप सामीप्येन विवक्षितवस्तुनोऽविकललानहेतुत्वाद्वस्तुनो लाज एवोपायः । अनिल षितवस्त्ववासये व्यापार विशेष इत्यर्थः । श्रसावपि चतुर्विध एव । तथा चाह || एमेव चढविगप्पो, होइ उवार्ड वि त दवंमि ॥ धावा पढमो, नंगल कुलिएहिं खेत्तं तु ॥ ६१ ॥ व्याख्या ॥ एवमेव यथा अपायः । किं । चतुर्विकल्पश्चतुर्भेदः जवत्युपायोऽपि तद्यथा द्रव्योपायः क्षेत्रोपायः कालोपायः जावोपायश्च । तत्र द्रव्य इति द्वारपरामर्शः । द्रव्योपाये विचार्ये धातुवादः सुवर्ण पातनोत्कलक्षणो द्रव्योपायः प्रथम इति लौकिके । लोकोत्तरे त्वध्वादौ पटलादिप्रयोगतः प्राकोदककरणम् | त्रोपायस्तु लाङ्गलादिना क्षेत्रोपक्रमणे जवति । वाह । लाङ्गलकुलिकायां देत्रं चोपक्रम्यत इति गम्यते । ततश्च लाङ्गलकुलिके तडुपायो लौकिकः । लोकोत्तरस्तु विधिना प्रातरशनाद्यर्थमटनादिना क्षेत्रजावनम् । अन्ये तु योनिप्रानृतप्रयोगतः काञ्चनपातनोत्कर्षलक्षणमेव संघप्रयोजनादौ द्रव्योपायं व्याचक्षते । विद्यादिनिश्च दुस्तराध्वतरणलक्षणं देत्रोपायमित्यत्र च प्रथमग्रहणपदार्थोऽतिरिच्यमान इवाजाति । पाठान्तरं वा धाजवार्ड नणि ति । अत्र च कथंचिदविरोध एवेति गाथार्थः ॥ कालो अ नालियाईहिं, होइ जावंमि पंडि अन ॥ चोरस कए न, वटुकमारिं परिकहे ॥ ६३ ॥ व्याख्या ॥ कालश्च नालिकादिनिर्ज्ञायत इति शेषः । नालिका घटिका आदिशब्दाबङ्का दिपरिग्रहः । ततश्च नालिकादयः कालोपायो लौकिकः । लोकोत्तरस्तु सूत्रपरावर्तनादिनिस्तथा नवति । नावे चेति द्वारपरामर्शत्वाभावोपाये विचार्ये निदर्शनं क इत्याह । परितो विद्वान - नयोऽजयकुमारस्तथाचाह । चोरनिमित्तं नर्तकीं वटुकुमारीं । किम् । त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थमाह परिकथयति । ततश्च यथा तेनोपायतश्चौरजावो विज्ञातः । एवं शि दकादीनां तेन तेन विधिनोपायत एव जावो ज्ञातव्य इति गाथार्थः । नवरं जावोवाए उदाहरणं । रायगिहं णाम यरं तब से णि राया सो जाए जणि जहा मम एगखंनं पासायं करे हि । ते वट्टणो आत्ता गया कठविंदगा तेहिं 1 For Private Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(५३)-मा. अडवीए सलकणो सरलो महश् महाल पुमो दिहो।धूवो दिलो जेण स परिग्गहिउँ रुकोसो दरिसावेउअप्पाणं तोणं ण बिंदामो त्ति श्रह ण देश्दरिसावं तो बिंदामो त्ति। ताहे रुकवासिणा वाणमंतरेण अजयस्स दरिसावो दिलो।अहं रमोएगखंनं पासायं करेमि । सबोउयं च श्रारामं करेमि सबवणजाश्डवेयं मा बिंदहत्ति । एवं तेण कर्ड पासा । अन्नया एगाए मायंगीए अकाले अंबयाण दोहलो । सा जत्तारं नण मम अंबयाणि श्राणेहि । तदा अकालो अंबयाणं तेण उणामणीए विद्याए मालं उणामियं अंबयाणि गहिश्राणि । पुणो अ जलमणीए उप्लामियं । पनाए रन्ना दिहं। पयं ण दीस। को एस मणुसो अतिगर्छ जस्स एसा एरसी सत्ति ति। सो मम अंतेजरं पि धरिसेहि त्ति का श्रनयं सदावेऊण जण। सत्तरत्तस्स अनंतरे जश चोरं जाणेसि तो णहि ते जीविरं । ताहे अनऊ गवेसिलं थाढत्तो। ण वरं एगंमि पएसे गोजो रमिउकामो मिलि लोगो। तब गंतुं अनजणति । जाव गोजो मंडेइ अप्पाणं ताव ममेगं अरकाणगं सुणेह । जहा एगंमि णयरे एगो दरिदसिही परिवसति । तस्स धूया वढुकुमारी अश्व रूविणी य वरणिमित्तं कामदेवं अच्चेई । सा य एगंमि थारामे चोरिय पुप्फाणि उच्चती श्रारामिएण दिशा कयबिउमाढत्ता । तीए सो जणि मा म कुमारि विणासेहिं । तवावि जयणी नावणिजी अति। तेण जणिया एकाए ववबाए मुयामि जण वरं जम्मि दिवसे परिणयसि तदिवसं चेव भत्तारेण अणुग्घाडिया समाणी मम सयासं एहिसि तो मुयामि। तीए जणिजे । एवं हवउ त्ति । तेण विसजिथा।अन्नया परिणीया जाहे अपवरकं पवेसिया ताहे जत्तारस्स सनावं कहेई । विसधिया वचई। पहिया श्रारामं । अंतरा श्र चोरेहिं गहिया। तेसिपि सनावो कहि मुका। गछंतीए अंतरा रकसो दिछो जो डण्डं मासाणं श्राहारेश तेण गहिया कहिए मुक्का गया श्रारामियसगासं तेण दिहा सो संनंतो जण । कहमागयासि । ताए जणिशं मया के सो पुविं समर्छ । सो नण । कहं नत्तारेण मुक्का ताहे तस्स तं सवं कहिथं अहो सच्चपन्ना एसा महिलत्ति।एत्तिएहिं मुका किहाहं उहामि त्ति । तेण विमुक्का पडियंती थ गया सबेसि तेसिं मलेणं । श्रागता तेहिं सवहिं मुक्का । नत्तारसगासं अणहसमग्गा गया। ताहे अन तं जणं पुछई। अकह एक केण उक्करं कयं । ताहे इस्साबुया नणंति जत्तारेणं । बुहालुया जणंति रकसेणं । पारदारिया नणंति मालागारेणं । हरिएसेण नणिशं चोरेहिं । पछा सो गहिउँ । जहा एस चोरो त्ति । एतावत्प्रकृतोपयोगि । जहा अजएण तस्स चोरस्स उवाएण जावो णा एवमिह वि सेहाणमुवहायं तयाणं उवाएण गीण विपरिणामादिणा जावो जाणिअबो ति। किं एए पच्चावणिजा न वत्ति । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम्। ४१ पञ्चाविएसु वि तेसु मुंगावणासु एसेव विनासा य । तदुक्तम् । पञ्चावि सि एत्तिय मुंगावेलं न कप्पर इत्यादि । कहाणयसंहारो पुण चोरो सेणिअस्य उवणी । पुलिएण सनावो कहि। ताहे रन्ना नणियं । जनवरं एया विद्या देहि तो न मारेमि। देमि त्ति अनुवगए आसणे नि पढई। न हाई। राया नणई किं न हाई । ताहे मायंगो लणई जहा अविणएणं पढसि । अहं नूमीए तुमं सणे णीयतरे जवविठो। हिया तो सिझा य विजा त्ति । कृतं प्रसङ्गेन।एवं तावलौकिकमाक्षिप्त चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्योक्ता अव्योपायादयः। सांप्रतं अव्यानुयोगमधिकृत्य प्रदय॑न्त इति । तत्राप्युपायदर्शनतो नित्यानित्यैकान्तवादयोः सुखादिव्यवहारानावप्रसङ्गेन तथा प्रत्यक्षगोचरातिकान्तेश्च वस्तुत आत्मानाव एवेति मा नूबिष्यकाणां मतिविन्रमोऽत उपायत एवात्मास्तित्वमनिधातुकाम आह ॥एवं तु श्हं थाया, पञ्चकं अणुवलनमाणो वि । सुहपुरकमाश्एहि,गित हेऊहिं अदिति ॥३॥व्याख्या॥ एवमेव यथा धातुवादादिनि व्यादि । श्हास्मिँडोके श्रात्मा जीवः । प्रत्यक्षमिति तृतीयार्थे द्वितीया । प्रत्यक्षण अनुपलन्यमानोऽपि अदृश्यमानोऽपि सुखःखादिनिरादिशब्दात्संसारपरिग्रहो गृह्यते । हेतु नियुक्तिनिः।अस्ति विद्यत इत्येवं गृह्यते । तथाहि सुखदुःखानां धर्मत्वाधर्मस्य चावश्यमनुरूपेण धर्मिणा नवितव्यं नच नूतसमुदायमात्र एव देहोऽस्यानुरूपो धर्मी तस्याचेतनत्वात्सुखादीनां च चेतनत्वादित्यत्र बहु वक्तव्यमिति गाथार्थः॥जह वस्सा हडि, गामा नगरं तु पाउसा सरयं॥ उदश्याउ उवसमं, संकंती देवदत्तस्स॥६॥व्याख्या॥यथा चेति प्रकारान्तरदर्शने।अश्वाद्धोटकात् हस्तिनं गजंग्रामाननगरं तु प्रावृषः शरदं प्रावट्कालारत्काल मित्यर्थः। औदयिकाद्जावापशममित्यौपशमिकं संक्रान्तिः।संक्रमणं संक्रान्तिः। कस्या देवदत्तस्य प्रत्यदेणेति शेषः॥ एवं सन जीवस्स वि, दवाईसंकमं पडुच्चा उ ॥ अवित्तं साहिद्यश्,पञ्चकेणं परोके वि ॥६५॥व्याख्या॥ एवं यथा देवदत्तस्य तथा कि सतो विद्यमानस्य जीवस्यापि ऽव्यादिषु संक्रमः । श्रादिशब्दात्देत्रकालनावपरिग्रहः।तं प्रतीत्य आश्रित्य अस्तित्वं विद्यमानत्वं साध्यते अवस्थाप्यते।थाह।सतोऽस्तित्वसाधनमयुक्तम्।न।अव्युत्पन्न विप्रतिपन्नविषयत्वात् साधनस्य । प्रत्यदेणाश्वादिसंक्रमेण सर्वथा सादात् परिछित्तिमङ्गीकृत्य परोक्षमप्यप्रत्यक्षमपि अवग्रहादिस्वसंवेदनतो सेशतस्तु प्रत्यदमेवैतत्। एतमुक्तं नवति यथा अश्वादिसंक्रान्तिन देवदत्ताख्यं धर्मिणमतिरिच्य वर्तते एवमियमप्यौदारिकाक्रिये तिर्यग्लोकादूर्ध्वलोके परिमितवर्षायुष्कपर्यायादपरिमितवर्षायुष्कपर्याये चारित्रनावादविरतनावे च संक्रान्तिर्न जीवाख्यं धर्मिणमन्तरेणोपपद्यत इति वृक्षा व्याचक्षते।अन्ये तु द्वितीयगाथापश्चाई पागन्तरतोऽन्यथा व्याचक्षते । तत्रायमनि Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. संन्बधः। एवं तु हं आयेत्यादिगाथयोपायत एवात्मास्तित्वमनिधायाधुनोपायत एव सुखपुःखादिनावसंगतिनिमित्तं नित्यानित्यैकान्तपक्षव्यवछेदेनात्मानं परिणामिनमनिधित्सुराह । जह वस्सा गाथा । व्याख्या पूर्ववत् ॥ एवं सउ जीवस्स वि, दवाईसंकमं पडुच्चा उ॥परिणामो साहिद्यश, पच्चरकेणं परोके वि ॥ पूर्वाई पूर्ववत् पश्चार्धनावना पुनरियम्।नोकान्तनित्यानित्यपदयोदृष्टापि अव्यादिसंक्रान्तिदेवदत्तस्य युज्यते।श्त्यतस्तन्नावान्यथानुपपत्त्यैव परिणामसिफिरिति।उक्तं च ॥ नार्थान्तरगमो यस्मात्सर्वथैव नचागमः ॥ परिणामः प्रमासिक श्ष्टश्च खलु पएिकतैः ॥ घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ॥ शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिवतः॥अगोरसवतो नोजे तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ॥इति गाथा यार्थः। उक्तमुपायहारमधुना स्थापनाधारमन्निधित्सुराह॥ उवणाकम्मं एकं, दिलंतो तब पोंमरीशं तु॥अहवा विसन्नढकण, हिंगुसिवकयं उदाहरणं॥६६॥व्याख्या।स्थाप्यते इति स्थापना तया तस्यास्तस्यां वा कर्म सम्यगनीष्टार्थप्ररूपणलदाणा क्रिया । स्थापनाकर्म। एकमिति तजात्यपेक्ष्या दृष्टान्तो निदर्शनं तत्र स्थापनाकर्मणि पौएकरीकं तु।तुशब्दात्तथानूतमन्यच्च। तथाच पौएमरीकाध्ययने पौएकरीकं प्ररूप्य प्रक्रिययैवान्यमतनिरासेन स्वमतमवस्थापितमिति । अथवेत्यादि पश्चा) सुगमम्। लौकिकं चेदमिति गाथादरार्थः। नावार्थस्तु कथानकादवसेयः। तच्चेदम् । जहा एगंमि गरे एगो मालायारो समाज़ करंडे पुप्फे घेत्तूण वीहीए एश् । सो अश्व अञ्चल ताहे तेण सिग्धं वोसिरिऊणं सा पुप्फपिडिगा तस्सेव उवरि पल्हनिया । ताहे लो पुश किमेयं । जेणि पुप्फाणि बसि त्ति । ताहे सो जणई। अहं अलोविन एब हिंगुसिवो नामं। एतं तं वाणमंतरं हिंगुसिवं नाम उप्पन्नं । लोएण परिग्गहियं । पूया से जाया। खाश्गयं अद्य वि तं पाडलिपुत्ते हिंगुसिवं नाम वाणमंतरं। एवं जश् किं वि जाहं पावयणीयं कयं होद्या केण वि पमाएण ताहे तहा पछा एयत्वं जहा पञ्चुएं पवयणुप्रावणाहव। संजाए उमाहे जह गिरिसिझेहिं कुसलबुद्धीहिं लोयस्स धम्मसका पवयणवमेण सुहकया ॥ एवं तावच्चरणकरणानुयोगं लोकं चाधिकृत्य स्थापनाकर्म प्रतिपादितमधुना अव्यानुयोगमधिकृत्योपदर्शयन्नाह ॥ सबनिचारं हेजं, सहसा वोत्तुं तमेव अनेहिं ॥ उववूहश् सप्पसर,सामढं चप्पणो नाउँ ॥६॥छारं ॥व्याख्या॥ सह व्यनिचारेण वर्तत इति सव्यनिचारस्तं हेतुं साध्यधर्मान्वयादिलक्षणं सहसा तत्क्षणमेव वोत्तुमनिधाय तमेव हेतुमन्यैतुनिरेव उपबृंहते समर्थयति । सप्रसरमनेकधा स्फारयन् सामर्थ्य प्रज्ञाबलम् । चशब्दो जिन्नक्रमः। यात्मनश्च स्वस्य च झात्वा विज्ञाय चशब्दात्परस्य चेति गाथार्थः । नावार्थस्त्वयम् । अव्या स्तिकायनेकनयसंकुलप्रवचन Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके प्रथमाध्ययनम् । ४३. ज्ञेन साधुना तत्स्थापनाया नयान्तरमतापेक्षया सव्य निचारं हेतुमनिधाय प्रतिपक्षनयमतानुसारतः तथा समर्थनीयः यथा सम्यगनेकान्तवादप्रतिपत्तिर्भवतीति । श्राह । उदाहरणभेदस्थापना धिकार चिन्तायां सव्य निचार हेत्व निधानं किमर्थमिति । उच्यते । तदाश्रयेण नूयसामुदाहरणानां प्रवृत्तेस्तदन्वितं चोदाहरणमपि प्राय इति ज्ञापनार्थमल प्रसङ्गेन । निहितं स्थापना कर्मद्वारमधुना प्रत्युत्पन्न विनाशद्वारम निधातुकाम याह ॥ होंति पकुप्पन्न विणा - सांमि गंधविया उदाहरणं ॥ सीसो वि कत्थइ जइ, नोवधिच तो गुरुणा ॥ ६८ ॥ व्याख्या || जवन्ति प्रत्युत्पन्नविनाशे विचायें गांधर्विका उदाहरणं लौकिकमिति । तत्र प्रत्युत्पन्नस्य वस्तुनो विनाशनं प्रत्युत्पन्नविनाशनं तस्मिन्निति समासः । गान्धका उदाहरणमिति यडुक्तं तदिदम् । जहा एगंमि नयरे एगो वायि तस्स बहुया जइणी जाणिद्या जाउद्याया य । तस्स घरसमीवे राजलया गंधविया संगीयं करेंति दिवसस्स तिन्नि वारे । ता वणियम हिलाउ ते संगीयससुगंध नोववन्नार्ड किंवि कम्मादाणं न करेंति । पञ्छा ते वाणियएए चिंतियं । जहा विणा एयाउ त्ति को उवा होद्या जहान विएस्संति त्ति काउं मित्तस्स कहियं । ते जन्न | अप्पणो घरसमीवे वाणमंतरं करावे हि । तेण कथं । तादे पाडहियाणं रूपए दानं वायवे । जाहे गंधविया संगीययं याढवेंति । ताहे ते पाडहिया पडदे दिति । वंसादिणो य फुसंति । गायंति य । ताहे तेसिं गंधवियाणं विग्धो जा। पडहसद्देण य ण सुबइ गीयसदो । तनुं ते राजले जव हिया । वाणि सदावि । किं विग्धं करे सति । मम घरदेवो अहं तस्स तिन्नि वेला पडदे दवावेमि । ताहे ते नणिया । ae aa re किं देवस्स दिवेदिवे अंतराश्यं कद्यई । एवं यरि वि सी - सेसु गारी अनोववद्यमाणेसु तारिसो उवा कायो । जहा तेसिं दोसस्स तस् शिवारणा हवइ । मा ते चिंता दिएहिं एयरपडणा दिए अवाए पावेति । उक्तं च । चिंते दहुमि, दीहं णीससइ तह जरो दाहो || जत्तारोयगमुच्छा, उम्मत्तो व या 1 इ मरणं ॥ पढमे सोयइ वेगे, दहुं तं गवई विश्यवेगे ॥ णीसस तश्यवेगे, श्ररुह जरो चंमि । डन पंचमवेगे, बहे जत्तं न रोयए वेगे ॥ सन्त मियं मय मुठा, अहमए होइ उम्मत्तो ॥ एवमे ण याण किं वि, दसमे पाणेहिं मुच्चइ मणूसो ॥ एएसिमवायाणं सीसे रकंति आयरिया ॥ परलोश्या वाया, जग्गपइला पडंति नर सु ॥ लहं ति पुणो बोहिं, हिंमंति य जवसमुहं मि ॥ मुमेवार्थं चेतस्यारोप्याह । शियोsपि विनेयोऽपि क्वचिद्विलयादौ । यदी त्यन्युपगमदर्शने । अन्युपपद्येत निष्वङ्गं कुर्यादित्यर्थः । तत्र गुरुणा श्राचार्येण । किम् | गाथा ॥ वारेय उवाएण, जइ वा वाऊलिने वदेवाह । सविन जावा, किं पुण जीवो सवोत्तध्वो ॥६८॥ व्याख्या ॥ वारयितव्यो For Private Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. निषेशव्यः । किं यथा कथं चित् । नेत्याह । उपायेन प्रवचनप्रतिपादितेन यथासौ सम्यग्वर्तत इति जावार्थः। एवं तावबौकिकं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्य व्याख्यातं प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारमधुना प्रव्यानुयोगमधिकृत्याह । यदि वा वातूलिको नास्तिको वदेत् । किम् । सर्वेऽपि घटपटादयः। णबित्ति प्राकृतशैल्या । न सन्ति । नावाः पदार्थाः किं पुनर्जीवः सुतरां नास्तीत्यतिप्रायः।स वक्तव्यः सोऽनिधातव्यः । किमित्याह ॥ जं लणसि नहि नावा, वयणेयं अति नलिज अधि॥ एवं पश्नाहानी, असर्व णु नि•सेहए को णु ॥३०॥ यङ्गणसि यद्रवीषि न सन्ति नावा न विद्यन्ते पदार्था इति।वचनमिदं नावप्रतिषेधकमस्ति नास्तीति विकल्पौ । किं चातो यद्यस्ति एवं प्रतिज्ञाहानिः। प्रतिषेधवचनस्यापि जावत्वात्तस्य च सत्त्वादिति नावार्थः। द्वितीयं विकल्पमधिकृत्याह असर्व णु त्ति।अथासनिषेधते। को नु निषेधकः। वचनस्यैवासत्त्वादित्ययमनिप्राय इति गाथात्रयार्थः। यमुक्तं किं पुनर्जीव इत्यत्रापि प्रत्युत्पन्न विनाशमधिकृत्याह॥ पोय विवरकापुबो, सद्दो जीवुनवो मुणेयवो ॥ नय सा वि य जीवस्स उ,सिको पडिसेहउँ जीवो ॥७१॥ दारं ॥ व्याख्या ॥चशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वान्न च नैव विवक्षापूर्वी विवदाकारणः श्छाहेतुरित्यर्थः । शब्दो ध्वनिः अजीवोनवोऽजीवप्रनव इत्यर्थः । विवदापूर्वकश्च जीवनिषेधकः शब्द इति मानूद्विवदाया एव जीवधर्मत्वासिफिरित्यत थाह । न च नैव सापि विवदा यद्यस्मात्कारणादजीवस्य तु अजीवस्यैव घटादिष्वदर्शनात् । किंतु मनस्त्वपरिणतान्विततत्तव्यसाचिव्यतो जीवस्यैव । यतश्चैवमतः सिकः प्रतिष्ठितः प्रतिषेधध्वनिर्नास्ति जीव इति प्रतिषेधशब्दादेवेत्यर्थः। ततस्तस्माजीव यात्मेत्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थ विस्तरनयादिति गाथार्थः। व्याख्यातं प्रत्युत्पन्न विनाशकारं तदन्वाख्यानाच्चोदाहरण मिति मूलधारमधुना तदेशद्वारावयवार्थमनिधित्सुराह॥थाहरणं तदेसे,चव्हा अणुसहि तह उवालंजो॥ पुजा निस्सावयणं, हो सुनदाणुसहीए॥७॥व्याख्या॥उदाहरण मिति पूर्ववउपलक्षणं चेदमत्र।तथा चाह तस्य देशस्तद्देश उदाहरणदेश इत्यर्थः। अयं चतुर्धा चतुःप्रकारः। तदेव चतुःप्रकारत्वमुपदर्शयति ।अनुशासनमनुशास्तिः सझुणोत्कीर्तनेनोपबृंहण मित्यर्थः। तथोपालम्जनमुपालम्नः। नङ्गयैव विचित्रं नणनमित्यर्थः। पृछा प्रश्नः किं कथं केनेत्यादिः। निश्रावचनमेकं कंचन निश्रानूतं कृत्वा या विचित्रोक्तिरसौ निश्रावचन मिति । तत्र नवति सुजा नाम श्राविकोदाहरणम्।क्काअनुशास्ताविति गाथादरार्थः। तब अणुसहीए सुनद्दा उदाहरणं। चंपाए णयरीए जिणदत्तस्स सुसावगस्स सुलद्दा नाम धूया। सा अश्वरूववई। साय तवलियउवासएण दिहा।सो ताए अनोववलो तं मग्गई।सावगो नणशनाहं मिबादिहिस्स धूयं देमि । पछा सो साहण समीवं गर्छ। धम्मो अणेण पुलि। कहिउँ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । साइहिं। ताहे कवडसावयधम्मं पगहि। तब य से सप्नावेणं चेव उवग धम्मो ताहे तेण साहणं सप्नावो कहि। जहा मए कवडेणं दारियाए कए णं णायं। जहा कवडे. णं कद्यहित्तिाश्रम मियाणिं देह मे अणुवया। लोगेस पयासो सावउँ जाउँ। त काले गए वरया मालया पवेशताहे तेण जिणदत्तेण सावत्तिकाऊण सुनदा दिला। पाणिग्गहणं वत्तं। अन्नया सो नणदारियं घरं णेमि । ताहे सो तं साव जण । तं सवं उवासयकुलं । एसा तं णाणुवत्तिहित्ति । पछा छोसयं वा लन्नेद्य ति णिब्बंधे विसजिया णेऊण जुयगं घरं कयं । सासूणणंदा पजहा। निस्कूण नत्तिं ण करेधात्ति अन्नया ताहिं सुनदाए नतारस्स अरकायं। एसा य सेवडेहिं समं संसत्ता।सावर्ड ण सदहे। अन्नया खमग्गस्स जिस्कागयस्स अदिमि कणु पविठो। सुनदाए जिनाए सो कणुउँ फेडिउँ । सुनदाए वीणपिठेण तिल कउँ । सो य खमगस्स निलामे लग्गो। उवासियाहिं सावयस्स दरिसि। सावएण पत्तीयं । ण तहा अणुयत्त। सुजदा चिंते। किं अश्रयं । जं अहं गिहबी छोलगं लनामि। पवयणस्स जाहो एयं मे उरक त्ति सा रत्तिं काउस्सग्गेण हिया। देवो भाग।संदिसाहि किं करेमि।सा जण। एअं मे अयसं पमद्याहि ति।देवो नण। एवं हवउ। अहमेयस्स णगरस्स चत्तारि दाराई ठवेहामि । घोसणयं च घोसेहामि त्ति । जहा जा पश्वया होइ सा एयाणि दाराणि जग्घाडेहिति । तब तुमं चेव एगा जग्घाडेसि ताणि य कवाडाणि।सयणस्स पच्चयनिमित्तं चालणीए उदगं बोदण दरिसिजासि । त चालणीफुसिणमवि ण गदि. हिति । एवं श्रासासेऊण णिग्ग देवो। एयरदाराणि अणेण उवियाणि।णायरजणो य अद्दलो । ल य ागासे वाया होई “णागरजणा मा णिरचयं किलिस्सह । जा सीलवई चालणीए बूढं उदगं ण गलति । सा तेण उदगेण दारं अछोडे त दारं उग्याडिविस्सिति। तब बहुया सेहिसबवाहादीणं धूयसुण्हाण सकंति पलयं पिलहियं। ताहे सुनदा सयणं आपुलश् । अविसचंताण य चालणीए उदयं बोढूण तेसिं पाडिहेरं दरिसेश् । त विसधिया । उवासिया एवं चिंतिउमाढत्तार्छ । जहा एसा समणपडिले हिया उग्घाडेहिति । ताए चालणीए उदयं बूढं ण गलश त्ति पिठित्ता विसन्ना। तई महाजणेण सका रिचंती तं दारसमीवं गया। अरहंताणं नमो काऊण उदएण अबोडिया कवाडा।महया सदेणं कोंकारं च करेमाणा तिन्नि वि गोपुरदारा उग्घाडिया । उत्तरदारं चालणिपाणिएणं अबोडेऊण नण जा मया सरिसी सीलवई होहिति।सा एयं दारं उग्घाडेहित्ति।तं अद्यवि ढकियं चेव अब। पछा शायरजणेण साहुकारो कर्ज अहो महासति । अहो जय धम्मो ति। एवं लोश्यं चरणकरणाणुजंग पुण पडुच्च वेयावच्चादिसु अणुसासियवा उत्तिा अणुझुत्ता य संग्वेयवा। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. जहा सीलवंताणं इह लोए एरिसं फलमिति । अमुमेवार्थमुपदर्शयन्नाह ॥ साहुकारपुरोगं,जह सा अणुसा सिया पुरजणेणं ॥ वेयावच्चाईसु वि, एव जयंतेणुवोदेद्या ॥७३॥ व्याख्या ॥ साधुकारपुरःसरं यथा सा सुना अनुशासिता सगुणोत्कीर्तनेनोपबृंहिता । केन । पुरजनेन नागरिकलोकेन वैयावृत्त्यादिष्वप्यादिशब्दात्स्वाध्यायादिपरिग्रहः । एवं यथा सा सुना यतमानानुद्यमवतः । किम् । उपबृंहयेत्सङ्गुणोत्कीर्तनेन तत्परिणामवृद्धिं कुर्यात् । यथा ॥ जरहेण विपुवनवे, वेयावच्चं कथं सुविहियाणं ॥ सो तस्स फल विवागेण, आसी जरहा हिवो राया ॥ जुंजित्तु जरहवासं, सामलमणुत्तरं अणुचरित्ता ॥ - विकम्ममुको, जरनरिंदो गजे सिद्धिं ॥ इति गाथार्थः । उदाहरणदेशता पुनरस्योदाहतैकदेशस्यैवोपयोगित्वात्तेनैव चोपसंहारात्तथाचाप्रमादवद्भिः साधूनां कणुकापनयनादि कर्तव्यमिति विहायानुशास्त्योपसंहारमाह । वैयावृत्त्यादिष्वपि देशेनैवोपसंहारः । गुणान्तररहितस्य जरतादेर्निश्चयेन तदकरणादिति जावनीय मित्येवं तावलौकिकं चरकरणानुयोगं चाधिकृत्योक्तं तदेशद्वारे अनुशास्तिद्वारमधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य दर्शयति ॥ जेसिं पि जीवो वत्तवा ते वि अम्ह वि स बि ॥ किंतु कत्ता न जव, वेययइ जेण सुहडुकं ॥ ७४ ॥ व्याख्या ॥ येषामपि द्रव्या स्तिका दिनयमतावलम्बिनां । तन्त्रान्तरीयाणां । किम् । अस्ति विद्यते । श्रात्मा जीवः । वक्तव्यास्तेऽपि तन्त्रान्तरीयाः । साध्वेतदस्माकमप्यस्ति स तदजावे सर्वक्रियावैफल्यात् । किंतु कर्ता न भवति । सुकृतदुष्कृतानां कर्मणामकर्ता न जवत्यनिष्पादको न जवति किंतु कर्तेव । अत्रैवोपपत्तिमाह । वेदयते अनुभवति येन कारऐन । किम्। सुखदुःखं सुकृतदुष्कृतकर्मफलमिति जावः । नचाकर्तुरात्मनस्तदनुजवो युज्यते श्रतिप्रसङ्गान्मुक्तानामपि सांसारिक सुखडुः खवेदनापतेर कर्तृत्वाविशेषात् । प्रकृत्या दिवियोगस्याप्यनाधेयातिशयमेकान्तेनाकर्त्तारमात्मानं प्रत्यकिं चित्करत्वादल विस्तरेणेति गाथार्थः । उदाहरणदेशता त्वत्राप्युदाहृतस्यैकदेशेनैवोपसंहारात्तत्रैव चासंप्रतिपत्तौ समर्थनाय निदर्शना निधानादिति गतमनुशास्तितद्देशद्वारमधुनोपालम्जद्वारविवक्षयाह ॥ उवलम्नम्मि मिगाव, नाहियवाई वि एव वत्तवे ॥ नचित्ति कुवि न्नाणं, आयाजावे सइ अजुत्तं ॥ १२५ ॥ व्याख्या ॥ उपालंने प्रतिपाद्ये मृगापतिदेव्युदाहरणम् । एयं च जहा वस्सए दवपरंपराए जणियं तदेव दरुवं जाव पवश्या अद्यचंदणाए सिसिणी दिला | अन्नया जगवं विहरमाणो कोसंबीए समोसरिज | चंदा दिच्चा स विमाणेहिं वंदिनं प्रागया । चडपोरसीयं समोसरणं काउं अमणकाले पडिगया । तर्ज मिगाव संनंता । यि वियालीकथं ति जणिऊणं साहुणीसहिया जाव अद्यचंदासगासं गया ताव य अंधयारयं जायं । श्रद्यचंदणापमुहाहिं साहुणीहि ताव पडिकंतं । ताहे For Private Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । सा मिगावई द्या अद्यचंदणाए उवालन । जहा एवं णाम तुमं उत्तमकुलप्पसूया होऊण एवं करे सि । श्रहो न लयं । ताहे पण मिऊण पाएसु पडिया परमेण विलएखामे । खमह मे एगमवराहं णाहं पुणो एवं करेहामिति । अद्य चंदा य किल तंमि समए संथारोवगया पसुत्ता । इयरीए वि परमसंवेगयाए केवलनाणं समुप्पन्नं । परमं च अंधयारं वदृइ । सप्पो य तेणंतरेण आगछइ । पवत्तिणीए य हवो लंबमाणो तीए उप्पा डिर्ज । पडिबुद्धा य ाद्य चंदा । पुछिया किमेयं । सा जाइ दी हजाइ । कहं तुमं जाणसि । किं कोई प्रतिस । आमंति । पडिवाइ अप्प डिवाइ ति पुछिया । सा जाइ - प्प डिवाइति । खामिया । लोगलोगुत्तरसाहरणमेयं । एवं पमायंतो सीसो वलंज्ञेयवो त्ति । उदाहरणदेशता पूर्ववद्योजनीयेत्येवं तावच्चरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातमुपालजद्वारमधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य व्याख्यायते । नास्तिकवाद्यपि चार्वाकोऽपि जीवनास्तित्वप्रतिपादक इत्यर्थः । एवं वक्तव्योऽनिधातव्यः । नास्ति न विद्यते । कः । प्रकरणाजीव इति । एवंभूतं कुविज्ञानं जीवसत्ताप्रतिषेधावनासीत्यर्थः । श्रात्मानावे सति न युक्तमात्मधर्मत्वाज्ज्ञानस्येति भावना । जूतधर्मता पुनरस्य धर्म्यननुरूपत्वादेव न युक्ता । तत्समुदायकार्यतापि प्रत्येकं जावाजाव विकल्पद्वारेण तिरस्कर्तव्येति गाथार्थः । अमुमेवार्थं समर्थयन्नाह ॥ श्रवित्ति जावियक्का, हवा नचित्ति जं कुविन्नाणं ॥ अचंता जावे पो-ग्गलस्स एवं चि न जुत्तं ॥ ७६ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ अस्ति जीव इति एवंभूता या वितर्काऽथवा नास्ति न विद्यत इत्येवंभूतं यत्कुविज्ञानं लोकोत्तरापकारि अत्यन्तानावे पुलस्य जीवस्य इदमेव न युक्तमिदमेवान्याय्यं । जावना पूर्ववदिति गाथार्थः । उदाहरणदेशता नास्तिकस्य परलोका दिप्रतिषेधवा दिनो जीवसाधनाद्भावनीयेति गतमुपालनद्वारमधुना शेषद्वारद्वयं व्याचिख्यासुराह ॥ पुछाए को णि खलु, निस्सावयणंमि गोयमस्सामी ॥ नाहियवाई पुछे, जीववित्तं यणिवंते ॥ ७ ॥ व्याख्या ॥ पृष्ठायां प्रन इत्यर्थः । कोशिकः श्रेणिकपुत्रः खलूदाहरणम् । जहा ते सामी पुचि चक्कवहिो परिचत्तकामजोगा कालमासे कालं किच्चा कहि जववऊंति । सामिणा जयिं । अहे सत्तमीए चक्कवहिणो उववद्यंति । ताहे जण । श्रहं कब उवव घिस्सामि । सा मिला जयिं । तुमं बही पुढवीए । सो जइ । श्रहं सत्तमीए किंन जववद्यिस्सामि । सामिया जयिं । सत्तमीए चक्कव हिणो उववद्यंति । ताहे सो जइ । अहं किं न होमि चक्कवट्टी । मम विचरासी दन्तिसय सहस्सा णि । सा मिणा जयिं । तव रयणाणि निही य पछि | ताहे सो कित्तिमा रयणाइ करित्ता उवति मारो तिमिसगुहाए पविसितं पवत्तो । aled a किरिमालएणं वोलीणा चक्कवट्टिणो बारस वि । विण सिहसि तुमं । वारितो वाई | पहा कयमालए आह मर्ज य बहिं पुढविं गर्छ । एयं लोइयं । एवं लोगु For Private Personal Use Only ४७ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. त्तरे वि बहुस्सुश्रा आयरिया अहाणि हेऊ य पुछियवा। पुछित्ता य सकणिवाणि समायरियवाणि । असक्कणिद्याणि परिहरियवाणि । जणियं च । पुबह पुलावेह य, पंडियए साहवे चरणजुत्ते । मा म 'लेवविलित्ता, पारत्तहियं ण याणि हिह ॥ उदाहरणदेशता पुनरस्यानिहितैकदेश एव प्रष्टुम्रहात् । तेनैव चोपसंहारादित्येवं तावच्चरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृछाहारमधुनैतत्प्रतिबझां अव्यानुयोगवक्तव्यतामपास्य गायोपन्यासानुलोमतो निश्रावचनम निधातुकाम आह । निश्रावचने निरूप्ये गौतमस्वाम्युदाहरणमिति ।एगब गागलिमादी जहा पवश्या तावसा य एवं जहा वरसामिजप्पत्तीए आवस्सए तहा ताव नेयं जाव गोयमसामिस्स किल अधिई जाया। तब लगवया जल।चिरसंसहो सि मे गोयमा।चिरपरिचितो सि मे गोयमा। चिरजाविर्ड सि मे गोयमा तं मा अधिकं करेहि ॥ अंते दोन्नि वि तुझा विस्सामो। अन्ने य तन्निस्साए अणुसासिया उमपत्ताए अनयणित्ति एवं जे असहणा विणेया ते अन्ने मदवसंपन्ने हिस्सं काऊण तहाणुसासियवा उवाएण जहा संमं पडिवचंति । उदाहरणदेशता त्वस्य देशेन प्रदर्शितलेशत एव तथानुशासनादेवं तावच्चरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृछानिश्रावचनकारयमधुना अव्यानुयोगमधिकृत्य व्याख्यायते। तत्रेदं गाथादलम् । णाहियवामित्यादि । नास्तिकवादिनं चार्वाकं पृछेड़ीवास्तित्वमनिबन्तं सन्तमिति गाथार्थः । किं पृछेत् ॥ केणं ति नलि आया, जेण परोको त्ति तव कुविन्नाणं ॥ हो परोकं तम्हा, नबित्ति निसेहए को णु ॥॥ दारं॥ व्याख्या केनेति।केन हेतुना नास्त्यात्मा न विद्यते जीव इति पृछेत् स चेहदेद् ब्रूयायेन परोद इति येन प्रत्यक्षेण नोपलन्यत इत्यर्थः। स च वक्तव्यः । जल तव कुविज्ञानं जीवास्तित्वनिषेधकध्वनिनिमित्तत्वेन तनिषेधकं नवति परोक्षमन्यप्रमातृणामिति गम्यते । तस्मानवउपन्यस्तयुक्त्या नास्तीति कृत्वा निषेधते को नु विवदानावे विशिष्टशब्दानुत्पत्ते रिति गाथार्थः। उदाहरणदेशता चास्य पूर्ववदिति गतं पृछाहारम् ॥अन्नावएस ना-हियवाई जेसि नदि जीवो उ ॥ दाणाश्फलं तेसिं, न विद्यश् चन्ह तदोसं ॥ए ॥ व्याख्या॥ अन्यापदेशतः अन्यापदेशेन नास्तिकवादी लोकायतो वक्तव्य इति शेषः। अहो धिक्कष्टं येषांवादिनां नास्ति जीव एव न विद्यते श्रात्मैव। दानादिफलं तेषां न वियते दानहोमयागतपःसमाध्यादिफलं स्वर्गापवर्गादि तेषां वादिनां न विद्यते नास्तीत्यर्थः। कदाचिदेतत्वैवं ब्रूयुर्मा नवतु का नो हानि ह्यच्युपगमा एव बाधायै नवन्तीति।ततश्च सत्त्ववैचित्र्यान्यथानुपपत्तितस्ते संप्रतिपत्तिमानेतव्या इत्यलं विस्तरेण गमनिकामात्रमेतदाहरणदेशता चरणकरणानुयोगानुसारेण जावनीयेति गतं निश्राधारं Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ४ए तदन्वाख्यानाच्च तद्देशद्वारमधुना तदोषद्वारावयवार्थप्रचिकटविषयोपन्यासार्थ गाथावयवमाह।चजह तदोस।चतुर्धा तदोष इत्युदाहरणदोषोऽनुस्वारस्त्वलादाणिकः। अथवोदाहरणेनैव सामानाधिकरण्यं ततश्च तद्दोषमिति तस्योदाहरणस्यैव दोषा यस्मिंस्तत्तदोषमिति गाथार्थः। उपन्यस्तं चातुर्विध्यं प्रतिपादयन्नाह ॥पढमं अहम्मजुत्तं, पडिलोमं अत्तणो उवन्नासं ॥ पुरुवणियं तु चन, अहम्मजुत्तंमि नलदामो ॥ ७ ॥ व्याख्या ॥ प्रथममाद्यमधर्मयुक्तं पापसंबझमित्यर्थः । तथा प्रतिलोमं प्रतिकूलं आत्मन उपन्यास इत्यात्मन एवोपन्यासस्तथा निवेदनं यस्मिन्निति । पुरुपनीतं चेति पुष्टमुपनीतं निगमितमस्मिन्निति चतुर्थमिदं वर्तते । अमीषामेव यथोपन्यासमुदाहरणैर्लावार्थमुपदर्शयति । अधर्मयुक्त नलदामः कुविन्दः कोलिकः खलु लौकिकमुदाहरणमिति गाथाक्षरार्थः । पर्यन्तावयवार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम् । चाणकण णंदे उबाश्ए चंदगुत्ते रायाणए विए एवं सवं वमित्ता जहा सिकाए तब णंदसतिएहिं मणुस्सेहिंसह चोरग्गाहो मिलिटणगरं मुस। चाणको विअन्नं चोरग्गाहं च पविजकामो तिदमंगडेऊण परिवायगवेसेण णयरं पविठो । गउँ णलदामकोलियसगासं । उवविठो वणणसालाए।अब तस्स दार मकोडएहिं खा । तेण कोलियेण बिलं खणित्ता दहा। ताहे चाणकण नम किं एए डहसि।कोलि जण। जश् एए समूलजाला ण उहाऊंति तो पुणो वि काश्स्संति । ताहे चाणकण चिंतियं। एस मए लको चोरग्गाहो। एस एंदतेणया समूलया उकारिस्सिहि।चोरग्गाहो कजे। तेण तिखंडिया विसंनिया। अम्हे संमिलिया मुसामो त्ति।तेहिं अन्ने वि थरकाया जे तब मुसगा बहुया सुहतरागं मुसामो त्ति । तेहिं अन्नेवि अकाया । ताहे ते तेण चोरग्गाहेण मिलिऊण सवे वि मारिया। एवं अहम्मजुत्तं ण जाणियवं ण य कायवं ति।इदं तावलौकिकमनेन लोकोत्तरमपि चरणकरणानुयोगं व्यानुयोगं चाधिकृत्य सूचितमवगन्तव्यम् । एकग्रहणात्तजातीयग्रहणमिति न्यायात् । तत्र चरणकरणानुयोगेन ॥णेवं अहम्मजुत्तं, कायवं किं वि जाणियत्वं वा ॥ थोवगुणं बहुदोसं, विसेस गणपत्तेणं ॥ तम्हा सो अन्नेसि, पि आलंबणं हो । अव्यानुयोगे तु॥वादम्मितहारूवे, विद्यायबलेण पवयणकाए ॥ कुद्या सावऊं पिहु,जह मोरीणनलिमादीसु॥सो परिवायगो विलरकीकर्ड त्ति।उदाहरणदोषता चास्याधर्मयुक्तत्वादेव नावनीयेति।गतमर्मयुक्तछारमधुना प्रतिलोमहारावयवार्थव्याचिख्यासयाह॥पडिलोमे जह अनर्ज, पद्योयं हर अवहिर्ज संतो ॥ गोविंदवायगो वि य, जह परपकं नियत्ते॥७॥ व्याख्या॥प्रतिलोमे उदाहरणदोषे यथा अनयोऽजयकुमारः प्रद्योतं राजानं हृतवान्।अपहृतः सन्नित्येतज्ज्ञापकमिह च त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थो वर्तमान निर्देश इत्यदरार्थः।नावार्थः कथानकादवसेयः। तच्च यथाव Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. 1 श्यक शिक्षायां तथैव द्रष्टव्यमिति । एवं तावलौकिकं प्रतिलोमं लोकोत्तरं तु द्रव्यानुयोगमधिकृत्य सूचयन्नाह । गोविंदेत्यादिगाथादलमनेन चरणकरणानुयोगमप्यधिकृत्य सूचितमवगन्तव्यम् । श्राद्यन्तग्रहणे तन्मध्यपतितस्य तम्हणेनव ग्रहणात्तत्र चरणकरणे । णो किंचिय पकिलोमं कायवं जवजयेण मसेसिं ॥ श्रविणीय सिरकगाण उ, जयलाइ जहोचित्रं कुता ॥ द्रव्यानुयोगे तु गोपेंद्रवाचकोऽपि च यथा परपक्ष निवर्तयतीत्यर्थः । सोय करत सासि विणास णिमित्तं पव पठा जावो जार्ज । महावादी जात इत्यर्थः । सूचक मिदमत्र च ॥ दव प्रियस्स पकवणय हियमेयं तु होइ प मिलोमं ॥ सुहडुरका I जावं, श्यरेणियरस्सं चोइद्या ॥ असे उ डुडवा दिम्मि, किं विबूया उ किल पमिकूलं ॥ दोरा सिपलाए, तिमि जहा पुछपडिसेहो ॥ उदाहरणदोषता त्वस्य प्रथमपदे साध्यार्थासिद्धेः । द्वितीयपदे तु शास्त्रविरुद्धजाषणादेव जावनीयेति गाथार्थः । गतं प्रतिलोमद्वार मिदानीं आत्मोपन्यासद्वारं विवृएवन्नाह ॥ अत्तवन्नासंमि य, तलागनेयंमि पिंगलो थवई ॥ व्याख्या ॥ श्रात्मन एवोपन्यासो निवेदनं यस्मिंस्तदात्मोपन्यासं तत्र च तडागनेदे पिङ्गलस्थपतिरुदाहरणमित्यरार्थः । जावार्थः कथानकगम्यस्तच्चेदम् । इह एगस्स रन्नो तलागं सवरघस्सीसारनूां । तं च तलागं वरिसे वरिसे नरियं जिas | ताहे राया जइ । को सो वार्ड होद्या । जेण तं न निवेद्या । तब एगो कविल मणूसो जइ । जइ न वरं महाराय छ पिंगलो कविलियार्ड से दाढियार्ज सिरं से कविलियंसो जीवन्तो चेव जंमि ठाणे जिद्यइ तंमि द्वाणे किमइ । तो एवरं ण जिइ । पछा कुमारामच्चेण जणियं महाराय एसो चेव एरिसो जारिसयं इ । एरिस अन्नो । पन्छा सो तवेव निरिकत्तो मारेत्ता । एवं एरिसं न जायिवं । जं अप्पवहाए जवइ । इदं लौकिकमनेन च लोकोत्तरमपि सूचितम् । एकग्रहणेन तजातीयग्रहणात्तत्र चरणाकरणानुयोगे नैवं ब्रूयात् यडुत ॥" लोश्यधम्मार्ट वि हु, जे पना रामा ते उ ॥ कह दवसोयर हिया, धम्मस्साराहया होंति ॥ ” इत्यादि । 5व्यानुयोगे पुनरेकेन्द्रिया जीवा व्यक्तोष्वास निश्वासा दिजीव लिङ्गसङ्गावाद्घटवत् । श्ह जीवा ये न जवन्ति न तेषु व्यक्तोवास निश्वासादिजीव लिङ्गसद्भावो यथा घटे । न च तथैतेष्वसद्भाव इति तस्माजीवा एवैत इत्यत्रात्मनोऽपि तद्रूपापत्त्यात्मोपन्यासत्वं जावनीयमिति । उदाहरणदोषता चास्यात्मोपघातजनकत्वेन प्रकटार्थैवेति न जाव्यते । गतमात्मोपन्यासद्वारमधुना दुरुपनीतद्वारं व्याचिख्यासुराह ॥ छाण मिस गिरह जि - कुरुवणी उदाहरणं ॥ ८२ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ त्रानिमिषा मत्स्यास्तनूहणे निक्कुरुदाहरण मिदं च लौकिकमनेन चोकन्यायाल्लोकोत्तरमप्या किप्तं वेदितव्यमिति गायादलाक्षरार्थः। जावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम् । किल कोई तब सि जालवावमकरो For Private Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम्। मझगवहाए चलि। धुत्तेण जलश् । आयरिय अघणा ते कंथा । सो जण जालमेतमित्यादि श्लोकादवसेयम्।कन्थाचार्याघना ते ननु शफरवधे जालमनासि मत्स्यां-स्ते मे मद्योपदंशाःपिबसि ननु युतं वेश्यया यासि वेश्याम्॥ कृत्वारीणां गलेऽही, क्व नु तव रिपवो येषु संधि बिननि, चौरस्त्वं यूतहेतोः कितव इति कथं येन दासीसुतोऽस्मि ॥ इदं लौकिकं चरणकरणानुयोगे तु॥श्य सासणस्सवलो, जायश्जेणं न तारिसं बूया ॥ वादे वि उवह सिघश, निगमण जेण तं चेव ॥उदाहरणदोषता पुनरस्य स्पष्टैवेति । गतं रुपनीतधारं मूलधाराणां चोदाहरणदोषहारमिति । सांप्रतमुपन्यासकारं व्याख्यायते । तत्राह ॥ चत्तारि उवन्नासे, तबलुग अन्नवयुगे चेव ॥ पडिणिजए हेउम्मि य, होंति णमोउदाहरणा ॥३॥ व्याख्या॥चत्वार उपन्यासे विचार्ये अधिकृते वानेदा जवन्ति । इति शेषः। ते चामी सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा तथाधिकारानुवृत्तेश्च । तहस्तूपन्यासस्तथा तदन्यवस्तूपन्यासः। तथा प्रतिनिनोपन्यासः। तथा च हेतूपन्यासश्च । तत्रैतेषु नेदेषु जवन्त्यमूनि वक्ष्यमाणान्युदाहरणानीति गाथार्थः। नावार्थस्तु प्रतिनेदं खयमेव वक्ष्यति नियुक्तिकारः। तत्रायनेदव्याचिख्यासयाह ॥ तबलुयंमि पुरिसो, सवं जमिऊण साहश् अपुवं ॥ अस्या व्याख्या। तस्तुके तहस्तूपन्यास इत्यर्थः। पुरि शयनात्पुरुषः। सर्वं ब्रान्त्वा सर्वमाहिएमय किं कथयति।अपूर्वम् । वर्तमान निर्देशः पूर्ववदिति गाथादलार्थः।जावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम् । एगंमि देवकुले कप्पडिया मिलिया जणंति ॥ केण ने नमंतेहिं किंचि अछेरियं दिकं । तब एगो कप्पडिगो जण मए दिउंति । जशपुण एक समणोवास नहि तो साहेमि । तठ सेसेहिं नणियं णबिन समणोवास । पछा सो जण। मए हिंमतेणं पुत्ववेतालीए समुदस्स तडे रुरको महतिमहंतो दिहो । तस्सेगा साहा समुद्दे पहिया। एगा य थले। तब जाणि पत्ताणि जले पडंति । ताणि जलचराणि सत्ताणि हवंति । जाणि थले ताणि थलचराणि हवंति । अहो अलेरयं देवेण जट्टारएण णिम्मियं ति। तगो सावगो कप्पडि। सो नण। जाणि थमने पति ताणि किं हवंति । ताहे सो खुद्दो जण । मया पुवं चेव जणियं जश् सावर्ड नबि तो कहेमि । एएणं तं चेव पडणवतुमहिकिचोदाहरियं । एवं तावलौकिकमिदं चोक्तन्यायाबोकोत्तरस्यापि सूचकम् । तत्र चरणकरणानुयोगे यः कश्चिहिनेयः कं चनासदाहं गृहीत्वा न सम्यग्वर्तते । स खलु त स्तूपन्यासेनैव प्रज्ञापनीयः । यथा कश्चिदाह ॥ " न मांसजदणे दोषो न मये न च मैथुने॥प्रवृत्तिरेषा नूतानां निवृत्तिस्तु महाफला॥” इदं च किलैवमेव प्रयुज्यते । प्रवृत्तिमन्तरेण निवृत्तेः फलानावात् निर्विषयत्वेनासंजवाच्च तस्मात्फल निबन्धननिवृत्तिनिमित्तत्वेन प्रवृत्तिरप्यपुष्टैवेति । श्रात्रोच्यते । श्ह निवृत्तेर्महाफलत्वं किं पुष्टप्रवृत्ति Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह भाग तेतालीस-(४३)-मा. परिहारात्मकत्वेनाहोस्विदष्टप्रवृत्तिपरिहारात्मकत्वेनेति । यद्याद्यः पदः । कथं प्रवृत्तेरपुष्टत्वमथापरस्ततो निवृत्तेरप्यअष्टत्वात्तनिवृत्तेरपि प्रवृत्तिरूपाया महाफलत्वप्रसङ्गस्तथाच सति पूर्वापरविरोध इति नावना। अव्यानुयोगे तु य एवमाह । एकान्तनित्यो जीवः अमूर्तत्वादाकाशवदिति । स खलु तदेवामूर्तत्वमाश्रित्य तस्योत्देपणादावनित्ये कर्मण्यपि तावठक्तव्यः । कर्मामूर्तमनित्यं चेत्ययं वृझदर्शनेनोदाहरणदोष एव यथान्येषां साधर्म्यसमा जातिरिति । गतं तहस्तूपन्यासहारमधुना तदन्यवस्तूपन्यातहारमनिधातुकाम आह ॥ तयअन्नवयुगंमि वि, अन्नते होश एगत्तं ॥ ७ ॥व्याख्या॥ तदन्यवस्तुकेऽप्युदाहरणे किम्।अन्यत्वे नवत्येकत्वमित्यदरार्थः। नावार्थस्त्वयम्। कश्चिदाह यस्य वादिनोऽन्यो जीवः अन्यच्च शरीरमिति तस्यान्यशब्दस्या विशिष्टत्वात्तयोरपि तछाच्या विशिष्टत्वेनैकत्वप्रसङ्ग इति तस्य जीवशरीरापेक्षयातदन्यवस्तूपन्यासेन परिहारः कर्तव्यः।कथम् । नन्वेवं सति सर्वनावानां परमाणुध्यणुकघटपटादीनामेकत्वप्रसङ्गः । अन्यः परमाणुरन्यो छिप्रदेशिक इत्यादिना प्रकारेणान्यशब्दस्या विशिष्टत्वात्तेषां तछाच्यत्वेनाविशिष्टत्वादिति । तस्मादन्यो जीवोऽन्यछरीरमित्येतदेव शोजन मित्येतदव्यानुयोगे अनेन चैतयोरप्यादेपस्तत्र चरणाकरणानुयोगेन मांसजदण इत्यादावेव कुमाहे तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहारः।कथम्।न हिंस्यात्सर्वाणि नूतानीत्येतदेवं विरुध्यते इति। लौकिकं तु तस्मिन्नेवोदाहरणे तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहारः। जहा जाणि पुण पमिऊण पडिऊण को खा वीणे वा ताणि किं हवंति त्ति ।गतं तदन्यवस्तूपन्यासहारं सांप्रतं प्रतिनिन्नमनिधित्सुराह ॥ तुन पिया मन पिऊ, धारेश्अणुमयं पडि निलंमि ॥ गाथादलम् ॥अस्य व्याख्या॥ तव पिता मम पितु रयत्यनूनं शतं सहस्रमित्यादि गम्यते। प्रतिनिन इति छारोपलक्षणमयमदरार्थः। नावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम् । एगंमि नगरे एगो परिवायगो सोवन्नएण खोरएण तहिं हिंड । सो जणश् । जो मम असुयं सुणावेश तस्स एयं देमि खोरयं । तब एगो सावळ तेण नणिअं । तुल पिया मम पिउणो धारेश् अणूणगं सयसहस्सं । जश् सुयपुवं दिजाल । अह न सुयं खोरयं देहि । दं लौकिकमनेन च लोकोत्तरमपि सूचितमवगन्तव्यम् । तत्र वरणकरणानुयोगे येषां सर्वथा हिंसायामधर्मस्तेषां विध्यनशन विषयोऽकचित्तनङ्गादात्महिंसायामपि अधर्मएवेति तदकरणम् । अव्यानुयोगे पुनरमुष्टं महचन मिति मन्यमानो यः कश्चिदाह । अस्ति जीव इत्यत्र वद किंचित्स च वक्तव्यो यद्यस्ति जीव एवं तर्हि घटादीनामप्यस्तित्वाङीवत्वप्रसङ्ग इति । गतं प्रतिनिनमधुना हेतुमाह । किं नु जवा किचंते, जेण मुहाए न लप्नंति ॥ ५ ॥ व्याख्या ॥ किंतु यवाः क्रीयन्ते येन मुधा न लन्यन्त इत्यदरार्थः। जावार्थस्त्वयम्। को वि गोधो जवे किणा। सो अन्नण पुविद्यार्कि Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । जवे किणासि।सो जण जेण मुहियाएणलप्लामि।लौकिकमिदं हेतूपन्यासोदाहरणमनेन च लोकोत्तरमप्यादिप्तमवगन्तव्यम् । तच्चरणकरणानुयोगे तावद्यद्याह विनेयः । किमितीयं निदाटनाद्यतिकष्टा क्रिया क्रियते स वक्तव्यो येन नरकादिषु न कष्टतरा वेदना वेद्यत इति।व्यानुयोगे तु यद्याह कश्चित्किमित्यात्मा न चकुरादिनिरुपलभ्यते। स वक्तव्यो येनातीन्जिय इति । गतं हेतुछारं तदनिधानाच्चोपन्यासकारं तदनिधानाचोदाहरणहारमिति । सांप्रतं हेतुरुच्यते । तथा चाह ॥ अहवा वि श्मो हेऊ, विन्ने तबिमो चनविअप्पो ॥ जावगथावगवंसग-लूसगहेचउडो उ ॥६॥ अथवा तिष्ठत्वेष उपन्यास उदाहरणं चरभन्नेदलदणो हेतुः। अपिः संजावने। किं संजावयति । श्मो अयं अन्यहार एवोसन्यस्तत्वात्तउपन्यासनान्तरीयकत्वेन गुणनूतत्वादहेतुरपि किं तु हेज विलेलं तबिमो ति व्यवहितोपन्यासात्तत्रायं वदयमाणो हेतुर्विज्ञेयश्चतुर्विकल्प इति चतुर्नेदः। विकल्पानुपदर्शयति । यापकः स्थापकः व्यंसकः खूषकः हेतुः चतुर्थस्तु । अन्ये त्वेवं पठन्ति ॥ हेजत्ति दारमहुणा, चविहो सो य होश नायबो ति ॥ अत्राप्युक्तमुदाहरणं हेतुरित्येतहारमधुना तुशब्दस्य पुनःशब्दार्थत्वात्स पुनर्हेतुश्चतुर्विधो नवति, ज्ञातव्य इत्येवं गमनिका क्रियते । पश्चार्धं पूर्ववदेवेति गाथादरार्थः । जावार्थं तु यथावसरं वयमेव वदयति । तत्रायनेदव्याचिख्यासयाह॥ जपामिगा य महिला,जावगहेमि ऊंटलिंमागाथादलम् ॥व्याख्या॥असती महिला । किम् । यापयतीति यापकः । यापकश्चासौ हेतुश्च यापकहेतुः। तस्मिन् उदाहरण मितिशेषः । उष्ट्रालिंडानीति कथानकसंसूचकमेतदिति अदरार्थः । नावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदं कथानकम् । एगो वाणियर्ड नचं गिण्हेऊण पञ्चतं गठ। पावेण खीणदवा धणियपरछा कयावराहा य पञ्चंतं सेवंती पुरिसा उरहीयविद्या य ॥ सायमहिला उप्जामिया एगंमि पुरिसे लग्गा ।तं वाणिययं सागारियं ति चिंतिकण जण। वच्च वाणियेण । तेण नणिया किं घेत्तूण वच्चामि । सा जण । उदृलिंडिया घेतूणं वच्च जोणिं सगडं नरेत्ता उद्यणिं गतो ताए नणि य जहा एकेकयं दोणारेण दिद्यहत्ति । सा चिंते। वरं खु चिरं खिप्पंतो अबजातेण ताऊ वीहीए जड्डिया। कोश ण पुर। मूलदेवेण दिठो पुचि य । सिहंतेण मूलदेवेण चिंतियं । जहा एस वरा महिलयाछोनिजाताहे मूलदेवेण नमति।अहमेयाज तव विकिणामि जश् मम विमुबस्स अझं देहि।तेण नणियं देमित्ति ।अनुवगए पछा मूलदेवेणं सो हंसो जाएऊण आगासे । उप्पा णगरस्स मने हाऊण नण। जस्स गलए चेडरूवस्स उहलिंडिया न बझा तं मारेमि । अहं देवो पछा सवेण लोएण नीएण दीणारिका उहलिंमिया गहिया । विकिया य।ताहे तेण मूलदेवस्स अझं दिन्नं । मूलदेवेण य सो Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(५३)-मा. जम । मंदलग्ग तव महिला धुत्ते लग्गा। ताए तव एवं कयं ण पत्तियं ति । मूलदेवेण नमः । एहि वच्चामो जा ते दरिसेमि । जदि ण पत्तियसि ताहे गया अन्नाए खेसाए वियाले उवासो मन्गिर्छ । ताए दिलो तब एगंमि पएसे छिया । सो धुत्तो आग: । श्यरी वि धुत्तेण सह पिबेउमाढत्ता । श्मं च गाय ॥ शरिमंदिरपत्तहार महु कंतु गतो वणिजार ॥ वरिसाण सयं च जीवज मा जीवंतु घरं कया एउ ॥ मूलदेवो जण । कयलीवणपत्तवेढिया पश् नणामि । देव जं मद्दलएण गजाती मु. उ तं मुहुत्तमेव पछा मूलदेवेण नम ति। किं धुत्ते त पनाए निग्गंतूणं पुणरवि आग तीय पुर हिजसा सहसा संजंता अप्नुहिया। त खाणपिवणे वहते तेण वाणिएणं सवं तीए गीयपद्यत्तयं संजारियं । एसो लोळ हेजालोउत्तरे विचरणकरणाणुयोगे एवं सीसो वि केश पय असद्दहंतो कालेण विद्यादीहिं देवतं आयं पश्त्ता सदहावे. यहो।तहा दवाणुउंगे वि पडिवाइं नाऊण तहा विसेसणबहुलो हेऊ कायबो। जहा कालजावणा हव। त सो णावगड एगयं कुत्तियावणचच्चरी वा कधश् । जहा सिरिगुत्तेण बलुए कया।उक्तो यापकहेतुः। सांप्रतं स्थापकहेतुमधिकृत्याह । लोगस्स मनजाणण थावगहेऊ उदाहरणं ॥ ॥ अस्य व्याख्या॥ लोकस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य मध्यज्ञानम् । किम् । स्थापकहेतावुदाहरणमित्यदरार्थः। जावार्थः कथानकादव. सेयस्तच्चेदम् । एगो परिवायगो हिंड। सो य परूवेश। खेत्ते दाणाई सफलं ति का समखेत्ते कायवं । अहं लोअस्स मनं जाणामि ण पुण अन्नो। तो लोगो तमाढाति । पुछि य संतो चउसु वि दिसासु खीलए णिहणिऊण रङ्गए पमाणं काऊण माश्काणि नण । एयं लोयमनं ति । त लो विम्हयं गछ । अहो नट्टारएण जा. णियं ति। एगो य सावळ तेण नायं । कहं धुत्तो लोयं पयारेशत्ति । तो अहं पि वंचामित्ति। कलिऊण नणियं । ण एस लोयमनोजुल्लो तुमं ति।तन सावएण पुणो मवेऊण अलो देसो कहिले जहेस लोयमनो ति।लोगो तुझो।असे जणंति।अणेगहाणेसु अन्नं अन्नं मतं परूवंतयं दकूण विरोधो चोश्यत्ति। एवं सो तेण परिवायगो णिप्पिपसिणवागरणो कठ। एसोलोजथावगहेऊ लोउत्तरे वि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतीसु असंजाव. पिलासग्गाहर सीसो एवं चेव पलवेयवो।दवाणुजोगेण साहुणा तारिसं नाणियवंतारिसोय परको गेण्हियवो । जस्स पुरोउत्तरं चेव दान तीर।पुवावरविरुको दोसोय ण हव।उक्तः स्थापकः सांप्रतं व्यंसकमाह । सा सगडतित्तिरी वं-सगंमि हेउम्मि हो नायवा व्याख्या॥ सा शकटतित्तिरी व्यंसकहेतौ नवति ज्ञातव्येत्यदरार्थः। नावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम् । जहा एगो गामेनगो सगडं कहाण जरेऊण एगरं गछ। तेण गतेण अंतरा एगा तित्तिरी मश्या दिहा।सो तं गिण्हेऊण सगडस्स उवरिं प Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । થય किविऊण णगरं पश्छो । सो एगेण नगरधुत्तेण पुष्ठि कहं सगडतित्तिरी लपश् । तेण गामेहएण नमः । तप्पणाज्यालियाए लपति । त तेण सरिकण उआहे. णित्ता । सगडं तित्तिरीए सह गहियं। एत्तिलगो चेव किल एस वंसगो त्ति। गुरवो नएंति । त सो गामेडगो दीणमणसो अह। तब य एगो मूलदेवसरिखो मणुसो आग तेण सो दिहो। तेण पुबि । किं नियायसि अरे देवाणुप्पिया । तेण नणियं अहमेगेण गोहेण श्मेण पगारेण बलिउँ । तेण नणियं । मा बीहिह तप्पणाज्यालियं तुमं सोवयारं मग्ग । माश्यगणं सिकाविळ एवं नवउत्ति नणिऊण तस्स सगासं गर्ड जणियं चणेण मम जश्सगडेहियंतो मे श्याणिं तप्पणाज्यालियं सोवयारं दवावेहि।एवं होउत्ति।घरणी महिला संदिहा । अलंकियविनूसिया परमेण विणएण एअस्स तप्पणायाखियं देहि । सा वणसमं अवघ्या । त सो सागडि नणति । मम अंगुली जिन्ना । श्मा चीरेण वेढिया ण सक्केमि उडुयालेलं तुमं अयाखिलं देहि । अजुआलिया तेण हरेण गहिया । गामं तेण संपछि लोगस्स य कहे । जहा मए सतित्तिरीगेण सगडेण गहिया तप्पणाज्यालिया । ताहे तेण धुत्तेण सगडं विसधियातं च पसाएऊण नद्या णियत्तिया। एस पुण खूस चेव कहाणयवसेण नणि। एस लोल लोगुतरे वि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतिनावियस्स तस्स तहा वंसगो पउद्यति। जहा संमं पडिवद्यश् । दवाणुउंगे पुण कुप्पावयणि चोश्या । जहा जश जिणपणीए मग्गे अब जीवो अब घडो अबित्तं जीवेवि घडेवि दोसुविसेसेण वदृत्ति । ते ण अबित्तसद्दतुल्लत्तणेण जीवघडाणं एगत्तं नवति । अह अछि जावा वतिरित्तो जीवो तेण जीवस्स अनावो जवत्ति।एस किल एदहमेत्तो चेव वंसगो। लूसगेण पुण एब श्मं उत्तरं नाणितत्वं । जइ जीवघडा अबित्ते वहति । तम्हा तेसिमेगत्तं संजावेहि । एवं ते सव्वजावाणं एगत्तं नवति । कहं अलि घडो अखि पडो अलि परमाणू अलि उपए सिए खंधे एवं सबनावेसु अबिजावो वशत्ति कालं किं सव्वजावा एगीनवंतु।एब सीसो आह कहं पुण एयं जाणियवं सवनावेसु अबिजावो वदृश् नय ते एगीनवंति । शायरि आह । अणेगंता एयं सिश एक दितो । खश्वणस्स वएस्सई पुण खदिरो पलासो वा एवं जीवो विणियमा अलि अबिनावो पुण जीवो वहोद्य अन्नो वा धम्माधम्मागासादीणं ति। उक्तो व्यंसकः। सांप्रतं खूषकमधिकृत्याह । तसगवंसगलूसग हेजम्मि य मोय य पुणो ॥ ७ ॥ व्याख्या ॥ त्रपुषव्यंसकप्रयोगे पुनर्लेषके हेतौ च मोदको निदर्शनमिति गाथादरार्थः। जावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम्। जहा एगो मणुसो तजसाणं नरिएण सगडेण नयरं पविस। सो पविसंतो धुत्तेण जल । जो एयं तउसाण सगडं खाश्या तस्स तुमं किं Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. देसि । तो ताहेसगडत्तेण सो धुत्तो नपि तस्साहं तं मोयगं देमि । जो नगरदारेण ण णिप्फिडधुत्तेण नन्नति तो हं एयं तउससगडं खयामि तुमं पुण तं मोयगं देद्यासि । जो नगरदारेण णनीसरति।पणे सागडिएण अनुवगए धुत्तेण सरिकणो कया।सगडं अहिहित्ता तेसिं तजसाणं एकेकयं खंडं अवणित्ता । पछा तं सागमियं मोदकं मग्गति। ताहे सागडि नणति । श्मे तसा ण खाश्या तुमे । धुत्तेण नन्नति जश्न खाश्या तसा अग्धवेह तुमंत अग्घविएसु कश्या आगया पासंति खंमिया तसा ताहे कश्या नणंति । को एए खश्ए तजसे किण त करणे ववहारो जाउँ खश्यत्ति । जि सागडि एस वंसगो चेव खूसगनिमित्तमुवलबो ताहे धुत्तेण मोदगं मग्गिधति । अचाळ सागडि जूतिकरा लग्गिया। ते तुझा पुछति । तेसिं जहावत्तं सवं कहेति एवं कहिते तेहिं उत्तरं सिरकाविळ जहा तुमं खुडयं मोदगं णगरदारे ठवित्ता नण एस सोमोदगो ण णीसर णगरदारेण गिण्हाहि । जिउ धुत्तो एस लोर्छ। लोगुत्तरे वि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतिनावितस्स तहा लूसगो पजश् । जहा सम्म पडिवाइ। दवाणुजोगे पुण पुजा जणंति । पुवं दरिसि चेव । अले पुण जणंति पुवं सयमेव सबनिचारं हेलं उच्चारेऊण पर विसंनणाणिमित्तं सहसा वा नणितो होद्या । पछा तमेव हे अमेणं निरुत्तवयणेणं गवेश् । उक्तो खूषकस्तदनिधानाञ्च हेतुरपि । सांप्रतं यमुक्तं क्वचित्पञ्चावयवमिति । तदधिकृतमेव सूत्रम् । धम्मो मंगल मित्यादि लक्षणमधिकृत्य निर्दिश्यते । अहिंसासंयमतपोरूपो धर्मः मङ्गलमुत्कृष्ट मिति प्रतिज्ञा । इह च धर्म इति धर्मि निर्देशः । अहिंसा संयमतपोरूप इति धर्मिविशेषणं उत्कृष्टमंगल मिति साध्यो धर्मः धर्मिधर्मसमुदायः प्रतिज्ञा । श्यं श्लोकानोक्ता इति । देवाधिदेवपूजितत्वादिति हेतुः । श्रादिशब्दासिझविद्याधरनरपरिग्रहः । अयं च श्लोकतृतीयपादेन खलूक्तोऽवसेयः । अर्हदादिवदिति दृष्टान्तः। अत्रापि चादिशब्दाजणधरादिपरिग्रहः। अयं च श्लोके चरमपादेनोक्तो वेदितव्य इति । न च नावमनोऽधिकृत्यादृष्टान्तेऽस्ति कश्चितिरोध इति । शह यो यो देवादिपूजितः स स उत्कृष्टं मंगलं यथाईदादयस्तथाच देवादिपूजितो धर्म इत्युपनयः । तस्माद्देवादिपूजितत्वाऽत्कृष्टं मङ्गल मिति निगमनम् । इदं चावयवघ्यं सूत्रोक्तावयवत्रयाविनाजूतमिति कृत्वा तेन सूचितमवगन्तव्यमित्यलं विस्तरेण । सांप्रतमेतानेवावयवान् सूत्रस्पर्शकनियुक्त्या प्रतिपादयन्नाह । धम्मो गुणा अहिंसाश्या उ ते परम मंगलपन्ना ॥ देवा वि लोगुपुद्या, पणमंति सुधम्ममि हेऊ ॥ ए ॥ व्याख्या ॥ धर्मः प्राग्निरूपितशब्दार्थः । स च क इत्याह । गुणा अहिंसादयः। आदिशब्दात्संयमतपःपरिग्रहः । तुरेवकारार्थः । अहिंसादय एव ते परममङ्गल मिति Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ บง दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । प्रतिज्ञा।तथा देवा अपि।पिशब्दासिझविद्याधरनरपतिपरिग्रहः। लोकपूज्या लोकपूजनीयाःप्रणमन्ति नमस्कुर्वन्ति।कम्।सुधर्माणं शोजनधर्मव्यवस्थितमित्ययं हेत्वर्थसूचकत्वाखेतुरिति गाथार्थः॥ दिहंतो अरहंता, अणगारा य बहवो उ जिणसीसा॥ वत्तणुवत्ते नद्यश, जं नरवश्णो वि पणमंति ॥ए॥व्याख्या ॥ दृष्टान्तःप्राग्निरूपितशब्दार्थः। स चाशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तस्तथानगाराश्च बहव एव जिनशिष्या इति।न गन्तीत्यगा वृदास्तैः कृतमगारं गृहं तद्येषां विद्यत इति अर्शश्रादेराकृतिगणवादच्प्रत्ययः। अगारा गृहस्थाः न अगारा अनगाराश्चशब्दः समुच्चयार्थः। तुरेवकारार्थस्ततश्च बहव एव नाल्पा रागादिजेतृत्वाजिनास्तविष्यास्तहिनेया गौतमादयः। श्राह।अर्हदादीनां परोकत्वादृष्टान्तत्वमेवायुक्तम्।कथं चैतहिनिश्चीयते।यथा ते देवादिपूजिता इत्युच्यते । यत्तावमुक्तं परोदत्वादिति । तदुष्टम्।सूत्रस्य त्रिकालगोचरार्थत्वात्कदाचित्प्रत्यदत्वाद्देवादिपूजिता इति चैतहिनिश्चयायाह । वृत्तमतिकान्तमनुवर्तमानेन सांप्रतकालनाविना ज्ञायते । कथमित्यत आह । यद्यस्मान्नरपतयोऽपि राजानोऽपि प्रणमन्तीदानीमपि नावसाधुं ज्ञानादिगुणयुक्तमिति गम्यते।अनेन गुणानां पूज्यत्वमावेदितं नवतीति गाथार्थः॥उवसंहारो देवा,जह तह राया विपणम सुधम्मं ॥ तम्हा धम्मो मंगल-मुकिमिश्थ निगमति ॥१॥ व्याख्या॥ उपसंहार उपनयः।स चायम्। देवा यथा तीर्थकरादींस्तथा राजाप्यन्योऽपि जनः प्रणमतीदानीमपि सुधर्माणमिति।यस्मादेवं तस्माद्देवादिपूजितत्वाइमों मङ्गलमुत्कृष्टमिति च निगमनम्। प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचनं निगमन मिति गाथार्थः॥१॥ उक्तं पञ्चावयवमेतदनिधानात्वर्थाधिकारोऽपि धर्मप्रशंसा । सांप्रतं दशावयवं तथा स चैहैव जिनशासन इत्यधिकारं चोपदर्शयति । इह च दशावयवाः प्रतिज्ञादय एव प्रतिझादिशुद्धिसहिता नवन्ति । अवयवत्वं च तबुद्धीनामधिकृतवाक्यार्थोपकारकत्वेन प्रतिज्ञादीनामिव नावनीयमित्यत्र बहु वक्तव्यम् । तत्तु नोच्यते गमनिकामात्रत्वात् प्रारम्नस्येति । सांप्रतमधिकृतदशावयवप्रतिपादनायाह ॥ बिश्यपन्ना जिणसा-सणं मि साहेति साहवो धम्मं ॥ हेऊ जम्हा सब्जा-विएसु हिंसा सुजयंति ॥ए॥ व्याख्या ॥ द्वितीया पञ्चावयवोपन्यस्तप्रथमप्रतिज्ञापेक्षया प्रतिज्ञा पूर्ववत् । द्वितीया चासौ प्रतिज्ञा च द्वितीयप्रतिज्ञा ।सा चेयम्। जिनशासने जिनप्रवचने। किम्। साधयंति निष्पादयन्ति। साधवः प्रव्रजिताः धर्म प्राग्निरूपितशब्दार्थम्। इह च साधव इति धर्मि निर्देशः। शेषस्तु साध्यधर्म इत्ययं प्रतिशानिर्देशः। हेतुनिर्देशमाह । हेतुर्यस्मात्सान्नाविकेषु पारमार्थिकेषु निरुपचरितेष्वथेष्वित्यर्थः । अहिंसादिष्वादिशब्दान्मृषावादादिविरतिपरिग्रहः ।अन्ये तु व्याचदते, समाविएहिंति । सनावेन निरुपचरितसकलःखक्षयायैवेत्यर्थः। यतन्ते प्रयत्नं कुर्वन्ति Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4G राय धनपतसिंघ बढाइरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. इति गाथार्थः । सांप्रतं प्रतिज्ञाशुद्धिमा निधातुकाम याह ॥ जह जिएसासण निरया, धम्मं पार्लेति साहवो सुद्धं ॥ न कुतिविएस एवं दीसइ परिपालपोवार्ड ॥ ३ ॥ व्याख्या ॥ यथा येन प्रकारेण जिनशासननिरता निश्चयेन रता धर्मं प्राग्निरूपिताब्दार्थं पालयन्ति रक्षन्ति । साधवः प्रत्रजिताः षड्जीव निकायपरिज्ञानेन कृतकारितादिपरिवर्जनेन च शुद्धमकलङ्कं नैवं तन्त्रान्तरीयाः । यस्मान्न कुती र्थिकेष्वेवं यथा साधुषु दृश्यते परिपालनोपायः । षड्जीव निकायपरिज्ञानाद्यजावात् । उपायग्रहणं च साजिप्रायकम् । शास्त्रोक्तः खलूपायोऽत्र चिन्त्यते । न पुरुषानुष्ठानम् । कापुरुषा हि वितकारिणोऽपि जवन्त्येवेति गाथार्थः । अत्राह ॥ तेसु विय धम्मसदो, धम्मं निययं च ते पसंति । न जणि सावद्यो कुतिविधम्मो जिणवरेहिं ॥ ७४ ॥ व्याख्या ॥ तेष्वपि च तन्त्रान्तरीयधर्मेषु । किम् । धर्मशब्दो लोके रूढः । तथा धर्मं निजं चात्मीयमेव यथातथं ते प्रशंसन्ति स्तुवन्ति । ततश्च कथमेतदित्यत्रोच्यते । नन्वित्यक्षमायां जणित उक्तः । पूर्वं सावद्यः सपापः कुतीर्थिकधर्मः चरका दिधर्मः । कैः । जिनवरैस्तीर्थकरैः "ण जिणेहिं उ पसछो" इति वचनात् । षड्जीव निकायपरिज्ञानाद्यजावादेवेत्यत्रापि बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थ विस्तरजयादिति गाथार्थः तथा ॥ जो तेसु धम्मसदो, सो उवयारेण निपण इदं ॥ जह सीहसद्दु सीदे, पाद सुवयार उस ||५|| व्याख्या || यस्तेषु तन्त्रान्त धर्मेषु धर्मशब्दः स उपचारेणापरमार्थेन, निश्चयेनात्र जिनशासने । कथम् । यथा सिंहशब्दः सिंहे व्यवस्थितः प्राधान्येनोपचारत उपचारेणान्यत्र माणवकादौ यथा सिंहो माणवकः । उपचारनिमित्तं च शौर्यक्रौर्यादयः । धर्मे त्वहिंसाद्य निधानादय इति गाथार्थः ॥ एस पन्नासुद्धी, हेउ अहिंसाइए पंचसु वि ॥ सप्रावेण जयंती, हे विसुद्धी इमात ॥६॥ व्याख्या ॥ एषा उक्तस्वरूपा प्रतिज्ञायाः शुद्धिः प्रतिज्ञाशुद्धिः । हेतुरहिंसादिषु पञ्चस्वपि सद्भावेन यतन्त इत्ययं च प्राग् व्याख्यात एव । शुद्धिमनिधातुकामेन च जाष्यकृता पुनरुपन्यस्त इत्यत एवाह । हेतोर्विशुद्धिर्हेतु विशुद्धिः । विषय विभाषावस्थापनं विशुद्धिः । इमा श्यं तत्र प्रयोग इति गाथार्थः ॥ जं जत्तपाणज्वगरण - वस हिसयणासणासु जयंति ॥ फासूयाकयाका रिय- अणुमया हिजोई ॥ ७ ॥ व्याख्या ॥ यद्यस्माद्भक्तं च पानं चोपकरणं च वसतिश्च शयनासना - दय चेति समासस्तेषु । किम् । यतन्ते प्रयत्नं कुर्वन्ति । कथमेतदेव मित्यत्राह । यस्मात्प्रासुकं चाकृतं चाकारितं चाननुमतं चानुद्दिष्टं च । तनोक्तुं शीलं येषां ते तथाविधाः । तत्रासवः प्राणाः । प्रगतासवः प्राणा यस्मादिति प्रासुकं निर्जीवम् । तच्च स्वकृतमपि जवत्यत श्राह कृतम् । तदपि कारितमपि जवत्यत श्राह कारितम् । तदप्यनुमतमपि जवत्यत श्राननुमतम् । तदप्युद्दिष्टमपि जवति यावदर्शिका दि Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । एए न च तदिष्यत इत्यत आहानुद्दिष्टमिति । एतत्परिज्ञानोपायश्चोपन्यस्तसकलप्रदानादिलक्षणस्तत्रावगन्तव्य इति गाथार्थः । तदन्ये पुनः किमित्यत आह ॥अफासुयकय. कारिय-अणुमयजदिनोश्णो हंदि ॥ तसथावर हिंसाए, जणा अकुसला उ लिप्पंति ॥ए॥व्याख्या ॥ अप्रासुककृतकारितानुमोदितोद्दिष्टनो जिनश्चरकादयः।हंदीत्युपप्रदर्शने। किमुपप्रदर्शयति । त्रसन्तीति सा हीन्जियादयः । तिष्ठन्तीति स्थावराः पृथिव्यादयः । तेषां हिंसा प्राणव्यपरोपणलक्षणा तया जनाः प्राणिनःअकुशलाः अनिपुणा स्थूलमतयश्चरकादयो लिप्यन्ते संबध्यन्त इत्यर्थः। श्ह च हिंसाक्रियाजनितेन कर्मणा लिप्यन्त इति नावनीयम् । कारणे कार्योपचारात्ततश्च ते शुक्रधर्मसाधका न जवन्ति। साधव एव नवन्तीति गाथार्थः ॥ एसा हेजविसुजी, दिहंतो तस्स चेव य विसुद्धी ॥ सुत्ते नणिया उ फुडा, सुत्तफासे 7 श्यमन्ना ॥ एए ॥ व्याख्या ॥ एषानन्तरोक्ता हेतुविशुद्धिः प्राग्निरूपितशब्दार्था । अधुना दृष्टान्तः प्राग्निरूपितशब्दार्थस्तथा तस्यैव च दृष्टान्तस्य विशुद्धिः। किम् । सूत्रे नणितोक्तैव स्फुटा स्पष्टा । तच्चेदं सूत्रम् । जहा दुमस्स पुप्फेसु,नमरो आविय रसं ॥ण य पुप्फ किलामेश्, सोअ पीणे अप्पयं ॥२॥ एमेऐ समणा घुत्ता, जे लोए संति, साढुणो ॥ विहंगमा व पुप्फेसु, दाणनत्तेसणे रया ॥ ३ ॥ अवचूरिः। असमस्तपदानिधानमनुमेये गृहिमाणामाहारादिषु पुष्पाण्यधिकृत्य प्रतिपादनार्थ मिति। तथाप्यन्यायोपात्तवित्तदाने ग्रहणं प्रतिषिझमेव । आपिबति नच नैव क्लामयति प्रीणाति तर्पयति॥शाएवमनेन प्रकारेण एते श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः। ते च तापसादयोऽपि स्युः । अत आह । मुक्ताः सबाह्यान्यन्तरेण ग्रन्थेन अर्धतृतीयहीपसमुषमाने । आह, ये मुक्तास्ते साधव एवेत्यत श्दमयुक्तम् । उच्यते। इह व्यवहारेण निह्नवा अपि मुक्ता नवन्त्येव नच ते साधव इति व्यवछेदार्थत्वाददोषः।अथवा शान्तिः सिद्धिरुच्यते तां साधयन्तीति शान्ति-साधवः। दानजक्तैषणासु रताः। दानग्रहणादत्तं गृह्णन्ति नादत्तम् । नक्तग्रहणात्प्रासुकं न पुनराधाकर्मादि । एषणाग्रहणानवेषणात्रयं साधूनां भ्रमरेन्यो विशेष इति ॥३॥ अर्थ । हवे एवा उत्कृष्ट मंगलरूप धर्मने पोतें अनतिचार पणे पालन करनारा एवा साधुने थाहारनी शुछि जोश्ये, माटे ते दृष्टांतपूर्वक कहे .( जहा के०) यथा एटले जेम (जमरो के०) चमरः एटले ब्रमर (दुमस्स पुप्फेसु के०) पुमस्य पुष्पेषु ए टले वृदना फूलोने विषे (रसं के०) पुष्पमाहेला मकरंदने ( श्रावियर के ) श्रापि बति, आ एटले मर्यादायेंकरी थोडे थोडे पिबति एटले पीये , श्रास्वादे दे. पण Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. ते ब्रमर ( पुप्फ के ) पुष्पं एटले ते फूलने ( न य किलामेश् के ) नच कामयति एटले पीडा थापतो नथी. अहीं चकार जे , ते पादपूरणार्थ , अने वली (सो य के० ) स च एटले ते ब्रमर (अप्पयं के०) आत्मानं एटले पोताना आत्माने (पीणे के०) प्रीणयति एटले तृप्त करे .॥२॥ हवे दार्टीतिक कहे. (एमए के०) एवमेते एटले एवीरीतें ए (मुत्ता के) मुक्ताः एटले धनधान्यादिक नवविध बाह्यपरिग्रह अने चउद प्रकारनो अन्यंतर परिग्रह जेमणे मूक्या बे, एवा (समणा के०) श्रमणाः एटले अनेरा तपस्वी पण (जे के० ) ये एटले जे ( लोए के०) लोके एटले अढीछीपमां ( साहुणो के ) साधवः एटले साधु चारित्रिया बे. ते सर्व (विहंगमा व पुप्फेसु के०) विहंगमा श्व पुष्पेषु एटले पुष्पनेविषे जेम उमर वर्ते बे, तेवीरीतें ( दाणनत्तेसणेरया के० ) दाननक्तैषणे रताः एटले दाताए दीधेला अने प्रासुक एवाज आहारादिकनी गवेषणाने विषे रत एवा . अहीं वृक्षपुष्पसरखा गृहस्थ जाणवा, अने जमरसरखा साधु जाणवा. तो पण साधु जे जे, ते अदत्त अने अनेषणीय पदार्थ खेता नथी ए जमरथी साधुनुं विशेषपणुं ॥३॥ दीपिका । अथ यतीनामाहारग्रहणे विधिमाह। यथा येन प्रकारेण अमस्य वृदस्य पुष्पेषु नमरः रसं मकरन्दमापिबति । परं नच नैव पुष्पं क्लामयति पीडयति । स च चमरः आत्मानं प्रीणयति रसेनात्मानं संतोषयति ॥२॥ अयं दृष्टान्त उक्तः। दाान्तिकमाह । एवमनेन प्रकारेण एते श्रमणास्तपस्विनः । ते च न तापसादयः। अत थाह । कीदृशाः श्रमणाः । मुक्ता बाह्यपरिग्रहेण थान्यन्तरपरिग्रहेण च मुक्ताः। तत्र बाह्यपरिग्रहो धनधान्यादिरूपो नवविधः। आन्यन्तरपरिग्रहश्च “मिबत्तं वेश्रतिगं, हासाशं बकगं च नायवं ॥ कोहाईण चउक्कं, चउदस अप्रिंतरा गंठी ॥१॥" इत्यादिरूपस्तान्यां रहितः । एते के । ये श्रमणा लोके अर्धतृतीयहीपसमुअपरिमाणे सन्ति विद्यन्ते । पुनः कीदृशाः श्रमणाः । साधवो झानादिसाधकाः। पुनः कीदृशाः। विहंगमा श्व जमरा व पुष्पेषु दानजक्तैषणे रताः। दानग्रहणात् गृहस्थैर्दत्तं गृह्णन्ति । परं न अदत्तं । जक्तग्रहणात् तदपि दत्तं प्रासुकं गृह्णन्ति न श्राधाकर्मादि । एषणाग्रहणेन गवेषणादित्रयपरिग्रहः । एषु त्रिषु स्थानेषु रताः सक्ताः ॥३॥ टीका। अस्य व्याख्या।अत्राह अथ कस्मादशावयवनिरूपणापांप्रतिज्ञादी विहाय सूत्रकृता दृष्टान्त एवोक्त इत्युच्यते दृष्टान्तादेव हेतुप्रतिज्ञे अन्यू इति न्यायप्रदर्शनार्थम्। कृतं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः तत्र यथा येन प्रकारेण सुमस्य प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य पुष्पेषु प्राग्निरूपितशब्दार्थेष्वेव । असमस्तपदानिधानमनुमेये गृहिमाणामाहारादिषु पुष्पा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ६१ 1 एयधिकृत्य विशिष्ट संबन्धप्रतिपादनार्थमिति । तथा चान्यायोपार्जित वित्तदानेऽपि ग्रहणं प्रतिषिद्धमेव । चमरश्चतुरिन्द्रियविशेषः । किम्। आपिबति मर्यादया पिबत्या पिबति । कम् । . रस्यत इति रसस्तं निर्यासं मकरन्द मित्यर्थः । एष दृष्टान्तः । श्रयं च तदेशोदाहरणमधिहृत्य वेदितव्य इत्येतच्च सुत्रस्पर्शक निर्युक्तौ दर्शयिष्यति । उक्तं च । सूत्रस्पर्शे वियमन्येति । अधुना दृष्टान्त विशुद्धिमाह । नच नैव पुष्पं प्राग्निरूपितस्वरूपं क्लामयति पीडयति । स च चमरः प्रीणाति तर्पयत्यात्मानमिति सूत्रसमुदायार्थः । श्रवयवार्थं तु निर्युक्तिकारो महता प्रपञ्चेन व्याख्यास्यति । तथा चाह ॥ जह जमरो त्ति य एवं, दितो होइ त्र्याहरणंदेसे ॥ चंदमुहिदारिगेयं, सोमत्तवहारणं ण सेसं ॥ १०० ॥ व्याख्या ॥ यथा चमर इति चात्र प्रमाणे दृष्टान्तो भवत्युदाहरणदेशमधिकृत्य । यथा चन्द्रमुखी दारिकेयमित्यत्र सौम्यत्वावधारणं गृह्यते । न शेषं कलङ्काङ्कितत्वानवस्थितत्वादीति गाथार्थः ॥ एवं जमराहरणे, अणिययवित्तित्तणं न सेसाएं || गहणं दिनंतविसुद्धि, सुत्ते जशिया इमा चन्ना ॥ १०१ ॥ व्याख्या ॥ एवं चमरोदाहरणे अनियतवृत्तित्वं गृह्यत इति शेषः । न शेषाणामविरत्यादीनां चमरधर्माणां ग्रहणं दृष्टान्त इति । एषा दृष्टान्तविशुद्धिः सूत्रे नणिता इयं चान्या सूत्रस्पर्श निर्युक्ताविति गाथार्थः ॥ एव य जि कोई, समणाएं कीरए सुविहियाणं । पागोवजी विणो त्ति य, लिप्पंतारंजदोसेण ॥ १०२ ॥ ॥ व्याख्या ॥ अत्र चैवं व्यवस्थिते सति ब्रूयात्कश्चिद्यथा श्रमणाणां क्रियते सुविहितानामिति । एतडुक्तं जवति । यदिदं पाक निर्वर्तनं गृहि जिः क्रियते । इदं पुण्योपादानसंकस्पेन भ्रमणानां क्रियते सुविहितानामिति तपस्विनां । गृह्णन्ति च ते ततो निक्षामित्यतः पाकोपजीविन इति कृत्वा लिप्यन्ते रम्नदोषेणाहारकरण क्रियाफलेनेत्यर्थः । तथा च लौकिका याहुः ॥ क्रयेण क्रायको हन्ति, उपजोगेन खादकः ॥ घातको वधचि - त्तेन इत्येष त्रिविधो वधः ॥ इति गाथार्थः । सांप्रतमेतत्परिहरणाय गुरुराह ॥ वास न तणस्स कए, न त वटुश् कए मयकुलाणं ॥ नय रुरका सयसाला, फुल्छंति कए महुयराणं ॥ १०३ ॥ व्याख्या ॥ वर्षति न तृणस्य कृते न तृणार्थमित्यर्थः । तथा न तृणं वर्धते कृते मृगकुलानामर्थाय । तथा न च वृक्षाः शतशाखाः पुष्प्यन्ति कृतेऽर्थाय मधुकराणामेवं गृहिणोऽपि न साध्वर्थं पाकं निर्वर्तयन्तीत्यनिप्राय इति गाथार्थः । अत्र पुनरप्याह ॥ अग्गिम्मि हवी हूयइ, आइचो तेण पी पि संतो ॥ व रिसइ पयाहियाए, तेोस हि परोहंति ॥ १०४ ॥ व्याख्या ॥ इह ययुक्तं वर्षति न तृणार्थमित्यादि तदसाधु । यस्माग्नौ हविर्द्धयते । श्रादित्यस्तेन हविषा घृतेन प्रीणितः सन्वर्षति । किमर्थम् । प्रजाहितार्थं लोकहिताय । तेन वर्षितेन । किम् । श्रोषध्यः प्ररोहन्त्युच्छन्ति । तथा चोक्तम् ॥ अग्नावाज्याहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते ॥ श्रादित्याज्ञायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं For Private Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ततः प्रजाः ॥ इति गाथार्थः। अधुनैतत्परिहारायेदमाह ॥ किं सुनिलं जायर, जश एवं अह नवे पुरिहं तु ॥ कि जायश् सबबा, फुपिकं अह नवे इंदो ॥१५॥ वास तो किं विग्धं, निग्घायाहिं जायए तस्स ॥ अहवा स उउसमए, न वासई 5 तणहाए ॥ १६ ॥ व्याख्या ॥ उर्जिदं जायते ययेवंम् । कोऽनिप्रायः । तझविः सदा इयत एव । ततश्च कारणाविछेदे न कार्यविछेदो युक्त इति । अथ नवेहुरिष्टं तु पुर्नदात्रं पुर्यजनं वा । अत्राप्युत्तरम्। किं जायते सर्वत्र पुर्निदं नदात्रस्य पुरिष्टस्य वा नियतदेशविषयत्वात्सदैव सद्यज्वनां नावात् । उक्तं च ॥ सदैव देवाःसजावो ब्राह्मणाश्च क्रियापराः।यतयः साधवश्चैव विद्यन्ते स्थितिहेतवः ॥ इत्यादि । अथ नवेदिन्छ इति। किम् । वर्षति । ततः किं विघ्नोऽन्तरायो निर्घातादिमिर्जायते । श्रादिशब्दादिग्दाहादिपरिग्रहः। तस्येन्स्य परमैश्वर्ययुक्तत्वेन विघ्नानुपपत्तेरिति नावना । अथ वर्षति ऋतुसमये गर्नसंघात इति वाक्यशेषः । न वर्षति ततस्तृणार्थ तस्येबमजिसन्धेरनावादिति गाथाघ्यार्थः ॥ किं च दुमा पुप्फंति, नमराणं कारणा अहासमयं ॥ मा नमरमहुयरिगणा, किलामएद्या अणाहारा ॥ १०७ ॥ व्याख्या ॥ किंच पुमाः पुष्प्य. न्ति उमराणां कारणात्कारणेन यथासमयं यथाकालं मा जमरमधुकरीगणाः क्लामन् ग्लानिं प्रतिपद्येरन् । अनाहारा अविद्यमानाहाराः सन्तः । काक्का नैवैतदिबमिति गाथार्थः । सांप्रतं परानिप्रायमाह॥कस्स बुद्धी एसा, वित्ती उवकप्पिया पयावश्णा॥ सत्ताणं तेण कुमा, पुप्फंती महुयरिंगणहा ॥ १७॥ व्याख्या ॥ अथ कस्य चिहकिः कस्य चिदनिप्रायः स्याद्यपुत एषा वृत्तिरुपकल्पिता। केन।प्रजापतिना।केषाम्।सत्त्वानां प्राणिनां तेन कारणेन सुमाः पुष्प्यन्ति मधुकरीगणार्थमेवेति गाथार्थः। अत्रोत्तरमाह। तं न नव जेण उमा, नामागोयस्स पुब विहियस्स॥उदयेणं पुप्फफलं, निवत्तश्ती मं चन्नं ॥१०॥ व्याख्या॥ यमुक्तं परेण तन्न नवति कुत इत्याह। येन पुमा नामगोत्रस्य कर्मणः पूर्वविहितस्य जन्मान्तरोपात्तस्य उदयेन विपाकानुजवलक्षणेन पुष्पफलं निर्वतयन्ति कुर्वन्ति । अन्यथा सदैव तनावप्रसङ्ग इति नावनीयम्।इदं चान्यत्कारणं वदयमाणमिति गाथार्थः॥अनि बह वणसंडा, जमरा जब न उति न वसंति॥तब वि पुप्फंति उमा, पगई एसा उमगणाणं ॥ ११ ॥ व्याख्या ॥ सन्ति बदनि वनखण्मानि तेषु तेषु स्थानेषु । जमरा यत्र नोपयान्ति । अन्यत् न वसन्ति । तेष्वेव तथापि पुष्प्यन्ति पुमाः। अतः प्रकृतिरेषा स्वन्नाव एषां सुमगणानामिति गाथार्थः । अत्राह ॥ जश पगई कीस पुणो, सवं कालं न देंति पुप्फफलं ॥ जं काले पुप्फफलं, दियंति गुरुराह अह एवं ॥ १११॥ व्याख्या ॥ यदि प्रकृतिः। किमिति पुनः सर्वकालं न ददति न प्रयन्ति । किम् । पुष्पफलम् । एवमाशङ्कयाह । यद्यस्मात्काले नियत एव पुष्प. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । फलं ददति । गुरुराह । अतएवास्मादेव हेतोः ॥ पगई एस उमाणं, जं उउसमयम्मि श्रागए संते ॥ पुप्फंति पायवगणा, फलं च कालेण बंधति ॥ ११ ॥ व्याख्या ॥ प्रकृतिरेषा घुमाणां यदृतुसमये वसन्तादावागते सति पुष्प्यन्ति पादपगणा वृदसंघातास्तथा फलं च कालेन बध्नन्ति । तदर्थानन्युपगमे तु नित्यप्रसङ्ग इति गाथा यार्थः । सांप्रतं प्रकृतेऽप्युक्तार्थयोजनां कुर्वन्नाह । किं नु गिही रंधंती, समणाणं कारणा अहासमयं ॥ मा समणा जगवंतो, किलामएद्या अणाहारा ॥ ११३ ॥ व्याख्या ॥ किं नु गृहिणो राध्यन्ति पार्क निर्वर्तयन्ति श्रमणानां कारणेन यथाकालं मा श्रमणा नगवन्तः क्लामन्ननाहारा इति । पूर्ववदिति गाथार्थः । नचैतदिबमित्यभिप्रायः। अत्राह ॥ समणणुकंपनिमित्तं, पुल निमित्तं च गिह निवासी ॥ कोश नणिद्या पागं, करेंति सो जन्न न जम्हा ॥ ११४ ॥ व्याख्या ॥ श्रमणेभ्योऽनुकम्पा श्रमणानुकम्पा तन्निमित्तम् । न ह्येते हिरण्यग्रहणादिना अस्माकमनुकम्पां कुर्वन्तीति मत्वा निदादानार्थं पाकं निर्वर्तयन्त्यतः श्रमणानुकम्पा तन्निमित्तं तथा सामान्येन पुण्य निमित्तं च गृह निवासिन एव कश्चिद्व्यात्पाकं कुर्वन्ति । स लण्यते नैतदेवम् । कुतः । यस्मात् ॥ कंतारे अनिके, आयके वा मह समुप्पन्ने ॥ रत्तिं समणसुविहिया, सवाहारं न जुंजंति ॥ ११५ ॥ व्याख्या ॥ कान्तारेऽरण्यादौ पुनिदेऽन्नाकाले आतङ्के वा ज्वरादौ महति समुत्पन्ने सति रात्रौ श्रमणाः सुविहिताः शोजनानुष्ठानाः । किम् । सर्वाहारमोदनादि न जुञ्जते ॥ अह कीस पुण गिहबा, रत्ति आयरतरेण रंधंति ॥ समणेहिं सुविहिएहिं, चविहाहारविरएहिं ॥ ११६ ॥व्याख्या॥ श्रथ किमिति पुनर्गृहस्थाः तत्रापि रात्रौ आदरतरेणात्यादरेण राध्यन्ति श्रमणैः सुविहितैश्चतुर्विधाहारविरतैः सनिरिति गाथात्रयार्थः ॥ किं च । अनि बहुगामनगरा, समणा जब न उवेति न वसंति ॥ तब वि रंधंति गिही, पगई एसा गिहाणं ॥१९॥ व्याख्या॥सन्ति बहूनि ग्रामनगराणि तेषु तेषु देशेषु श्रमणाः साधवो यत्र नोपयान्ति अन्यतो न वसन्ति तत्रैव । अथ च तत्रापि राध्यन्ति गृहिणः। अतः प्रकृतिरेषा गृहस्थानामिति गाथार्थः । अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाह ॥ पगई एस गिहीणं, जं गिहिणो गामनगरनिगमेसु॥रंधंति अप्पणो परि-यणस्स कालेण अहाए ॥११॥ व्याख्या ॥ प्रकृतिरेषा गृहिणां वर्तते । यहिणो ग्रामनगरनिगमेषु । निगमः स्थान विशेषः। राध्यन्ति आत्मनः परिजनस्यार्थाय निमित्तं कालेनेति योग इति गाथार्थः ॥ तब समणा तवस्सी, परकडपरनिहियं विगयधूमं ॥ आहारं एसंती, जोगाणं साहणछाए ॥ ॥११॥ व्याख्या ॥ तत्र श्रमणास्तपखिन इत्युद्यतविहारिणो नेतरे।परकृतपरनिष्ठितमिति । कोऽर्थः परार्थं कृतमारब्धं परार्थं च निष्ठितमन्तं गतं विगतधूमधूमरहिम्। ए Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. कग्रहणे तजातीयग्रहणमिति न्यायागिताङ्गारं च रागद्वेषमन्तरेणेत्यर्थः। उक्तं च। रागेण सरंगालं दोसेण सधूमगं वियाणाहि॥याहारमोदनादिलक्षणमेषन्ते गवषन्ते । किमर्थमत्राह। योगानां मनोयोगादीनां संयमयोगानां वा साधनार्थं न तु वर्णाद्यर्थ मिति गाथार्थः ॥ नवकोडीपरिसुळं, जग्गमनप्पायणेसणासुझं। बहाणरकणहा,अहिंसअणुपालणहाए ॥१२॥व्याख्या॥ श्यं च किल निन्नकर्तकी। अस्या व्याख्या । नवकोटिपरिशुझम् । तत्रैता नवकोट्यः। यत ण हण १ण हणावेश ५ हणंतं नाणुजाण ३ एवं न किणश्३ एवं न पय३३ एतानिः परिशुद्धं तथा उन्मोत्पादनैषणाशुद्धमित्येतहस्तुतः सकलोपाधिविशुधकोटिख्यापनमेव । एवंनूतमपि किमर्थं नुञ्जते। षट्स्थानरक्षणार्थम् । तानि चामूनि ॥ वेयणवेयावच्चे, इरियझाए य संजमझाए॥तह पाणवित्तियाए, 5 पुण धम्मचिंताए ॥ अमून्यपि च नवान्तरे प्रशस्तनावनाच्यासादहिंसानुपालनार्थम् । तथा चाह ।नाहारत्यागतो नावितमतेर्देहत्यागो नवान्तरेऽप्यहिंसायै नवतीति गाथार्थः॥दिइंतसुकि एसा, जवसंहारो य सुत्तनिदिको ॥ संती विद्युतित्तिय,संतिं सिकिं च साहेति ॥ ११ ॥ व्याख्या ॥ दृष्टान्तशुछिरेषा प्रतिपादिता । उपसंहारस्तु उपनयस्तु सूत्रनिर्दिष्टः सूत्रोक्तः। तच्चदं सूत्रम् । 'एमए समणा' इत्यादि अस्य व्याख्या ॥ एवमनेन प्रकारेण एते येऽधिकृताः प्रत्यदेण वा परित्रमन्तो दृश्यन्ते । श्राम्यन्तीति श्रमणाः। तपस्यन्तीत्यर्थः । एते च तन्त्रान्तरीया अपि नवन्ति । यथोक्तम् ॥ निग्गंथसकतावस-गेरू य आजीव पंचहा समणा ॥ अत आह । मुक्ता बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन ये लोकेऽर्धतृतीयहीपसमुउपरिमाणे सन्ति विद्यन्ते । अनेन समयदेत्रे सदैव विद्यन्त इत्यत आह । साधयन्तीति साधवः । किं साधयन्ति । झानादीति गम्यते । अत्राह । ये मुक्तास्ते साधव एवेत्यत श्दमयुक्तम् । अत्रोच्यते । इह व्यवहारेण निहवा अपि मुक्ता नवन्त्येव । न च ते साधव इति तध्यवछेदार्थत्वान्न दोषः। श्राद । नच ते सदैव सन्तीत्यनेनैव व्यवछिन्ना इत्युच्यते। वर्तमानतीर्थापेक्ष्यैवेदं सूत्रमिति न दोषः । अथवान्यथा व्याख्यायते। ये लोके सन्ति साधव इत्यत्र य इत्युदेशः।लोक इत्यनेन समयक्षेत्र एव नान्यत्र। किम् शान्तिः सिकिरुच्यते तां साधयन्तीति शान्तिसाधवः । तथा चोक्तं नियुक्तिकारेण । संती विद्युतित्तिय, संति सिद्धिं च साहेति ॥ इदं व्याख्यातमेव । विहंगमा श्व जमरा श्व पुष्पेषु । किम्। दाननक्तैषणासुरताः दानग्रहणादत्तं गृह्णन्ति नादत्तम् । नक्तग्रहणेन तदपि नक्तं प्रासुकं न पुनराधाकर्मादि । एषणाग्रहणेन गवेषणादित्रयपरिग्रहः । तेषु स्थानेषु सक्ता इति सूत्रसमासार्थः। अवयवार्थ सूत्रस्पर्शकनियुक्त्या प्रतिपादयति । अत्रापि च विहंगमं व्याचष्टे। स विविधः । अव्यविहंगमो नावविहंगमश्च । तत्र तावद्व्य विहंगमं प्रतिपादय Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ६५ न्नाह ॥ धारे तं तु दवं, दव विहंगमं वियाणा हि ॥ जावे विहंगमो पुण, गुणसन्नासि - द्धि विहो ॥ १२२ ॥ व्याख्या ॥ धारयत्यात्मनि लीनं धत्ते तत्तु द्रव्यमित्यनेन पूर्वोपात्तं कर्म निर्दिशति । येन हेतुभूतेन विहंगमेषूत्पत्स्यत इति । तुशब्द एवकारार्थः । - स्थानप्रयुक्तश्चैवं तु द्रष्टव्यः । धारयत्येव । अनेन च धारयत्येव यदा तदा द्रव्यविहंगमो नवति । नोपलुङ्ग इत्येतदावेदितं जवति । द्रव्यमिति चात्र कर्मपुलद्रव्यं गृह्यते । न पुनराकाशादि तस्यामूर्तत्वेन धारणायोगात् । संसारिजीवस्य च कथं चिन्मूर्तत्वेऽपि प्रकृतानुपयोगित्वात् । तथाहि यदसौ जवान्तरं नेतुमलं यच्च विहंगमहेतुतां प्रतिपद्यते । तदत्र प्रकृतं नचैवमन्यः संसारी जीव इति । तं द्रव्य विहंगममित्यत्र यत्तदोर्नित्या जिसंबन्धादन्यतरोपादानेनान्यतरपरिग्रहादयं वाक्यार्थ उपजायते । धारयत्येव तद्द्रव्यं यस्तं द्रव्य विहंगम मिति । द्रव्यं च तद्विहंगमश्च स इति द्रव्यविहंगमः । द्रव्यं जीवद्रव्यमेव । विहंगमपर्यायेणावर्तनाद्विहंगमस्तु कारणे कार्योपचारादिति तं विजानीहि । श्रनेकैः प्रकारैरागमतो ज्ञातानुपयुक्त इत्येवमादि निर्जानीहि । जाव विहंगम इत्यत्रायं जावशब्दो ह्वर्थः । कचिद्द्रव्यवाचकस्तद्यथा ॥ नास मुवि जावस्स सद्दो हवइ केवलो ॥ जावस्य द्रव्यस्य वस्तुन इति गम्यते । क्वचिबुक्कादिष्वपि वर्तते । "जं जं जे जे नावे परिणम" इत्यादि । यान् शुक्लादीन् जावान् इति गम्यते । क्वचिदौदयिका दिष्वपि वर्तते । यथा “उदश्वसमिए”इत्याद्युक्त्वा बविहो जावलोगो उ । औद यिकादय एव जावा लोक्यमानत्वाङ्गावलोक इति । तदेवमनेकार्थवृत्तिः सन्नौद यिका दिष्वेव वर्तमान इद गृहीत इति । नवनं जावः । जवन्त्यस्मिन्निति वा जावः । तस्मिन् जावे कर्मविपाकलक्षणे । किम् । विहंगमो वक्ष्यमाणशब्दार्थः । पुनः शब्दो विशेषणे । न पूर्वस्मादत्यन्तमयमन्य एव जीवः । किंतु स एव जीवस्त एव पुजलास्तथाभूता इति विशेषयति । गुणश्च संज्ञा च गुणसंज्ञे । गुणोऽन्वर्थः । संज्ञा पारिभाषिकी । ताज्यां सिद्धिः गुणसंज्ञा सिद्धिः । सिद्धिशब्दः संबन्धवाचकः । तथा च लोकेऽपि "सिद्धिर्भवतु " इत्युक्ते इष्टार्थसंबन्ध एव प्रतीयत इति । तया गुणसंज्ञा सिद्ध्या हेतुभूतया । किम् । द्विविधो द्विप्रकारः । गुण सिद्ध्यान्वर्थ संबन्धेन तथा संज्ञा सिद्ध्या च यदृचानिधानयोगेन च । आह । यद्येवं द्विविध इति न वक्तव्यम् । गुणसंज्ञा सिद्धयेत्यनेनैव द्वैविध्यस्य च गतत्वात् । न । अनेनैव प्रकारेणेह विध्य मागमनोयागमा दिनेदेनेति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः । तत्र यथोद्देशं निर्देश इत्यादिन्यायमाश्रित्य गुण सिया यो जावविहंगमस्तमनिधित्सुराह || विमागासं जन्न, गुणसिद्धी तप्पइठि लोगो ॥ तेा उ विहंगमो सो, जावो वा गई दुविहा ॥ १२३ ॥ व्याख्या ॥ विजहाति विमुञ्चति जीवपुलानिति विहं ते हि स्थितियात्स्वयमेव तेज्य श्राकाशप्रदेशेज्यश्च्यवन्ते । तांच्यवमानान्विमुञ्चतीति । शरीरमपि च मलगएकोलका दि I ९ For Private Personal Use Only • Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. विमुञ्चत्येव।माऋत्संदेह श्त्यत आह । आकाशं जण्यते न शरीरादि संज्ञाशब्दत्वात् । आकाशन्ते दीप्यन्ते स्वधर्मोपेता आत्मादयो यत्र तदाकाशम्। किम्। संतिष्ठत इत्यादि। क्रियाव्यपोहार्थमाह । नण्यते श्राख्यायते।गुण सिफिरित्येतत्पदं गाथाजङ्गलयादस्थाने प्रयुक्तम्।संबन्धश्चास्य तेन तु विहंगमःस'इत्यत्र तेनत्वित्यनेन सह वेदितव्य इति । ततश्चायं वाक्यार्थः । तेन तुशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वायेन विहमाकाशं नण्यते तेनैव कारणेन गुणसिध्यान्वर्थसंबन्धेन विहंगमः । कोऽनिधीयत इत्याह । तत्प्रतिष्ठितो लोकः । तदित्यनेनाकाशपरामर्शः । तस्मिन्नाकाशे प्रतिष्ठितः प्रकर्षेण स्थितवानित्यर्थः । अनेन स्थितः स्थास्यति चेति गम्यते । कोऽसावित्थमित्यत आह । लोक्यत इति लोकः। केवलज्ञाननास्वता दृश्यत इत्यर्थः । इह च ध. र्मादिपञ्चास्तिकायात्मकत्वेऽपि लोकस्याकाशास्तिकायस्याधारत्वेन निर्दिष्टत्वाच्चत्वार एवास्तिकाया गृह्यन्ते । यतो नियुक्तिकारेणान्यधायि । तत्प्रतिष्ठितो लोक इति । विहंगमः स इत्यत्र विहे ननसि गतो गति गमिष्यति चेति विहंगमः । गमिरयमनेकार्थत्वाझातूनामवस्थाने वर्तते । ततश्च विहे स्थितवां स्तिष्ठति स्थास्यति चेति नावार्थः। स इति चतुरस्तिकायात्मकः । नावार्थ इति लावश्चासावर्थश्च नावार्थः । अयं नावविहंगम इत्यर्थः। उक्त एकेन प्रकारेण नावविहंगमः। पुनरपि गुणसि छिमनेन प्रकारेणानिधातुकाम आह । वा गतिर्हि विधेति । वा शब्दस्य व्यवहित उपन्यास एवं तु अष्टव्यः । गतिर्वा विविधेति। तत्र गमनं गति वानयेति गतिः। विधे यस्याः सेयं द्विविधा । जैविध्यं वदयमाणलक्षणमिति गाथार्थः । तथाचेदमेव वैविध्यमुपदर्शयन्नाह ॥ नावगई कम्मगई, नावगई पप्प अबिकाया ॥ सवे विहंगमा खलु , कम्मगईए श्मे नेया ॥ १४ ॥ व्याख्या ॥ नवन्ति नविष्यन्ति नूतवन्तश्चेति नावाः।अथवा नवन्त्येतेषु स्वगता उत्पाद विगमधौव्याख्याः परिणाम विशेषा इति नावा अस्तिकायास्तेषां गतिस्तथा परिणामवृत्तिर्नावगतिः । तथा कमंगतिरित्यत्र क्रियत इति कर्म ज्ञानावरणादि पारिजाषिकम् । क्रिया वा कर्म च तजतिश्चासौ कर्मगतिः। गमनं गलत्यनया वेति गतिस्तत्र नावगति प्राप्य अस्तिकायास्त्वित्यत्र नावगतिः पूर्ववत्तां प्राप्यान्युपगम्याश्रित्य । किम् । अस्तिकायास्तु धर्मादयः। तुशब्द एवकारार्थः। स चावधारणे। तस्य च व्यवहितः प्रयोगः। नावगतिमेव प्राप्य न पुनः कर्मगतिं सर्वे विहंगमाः खलु सर्वे चत्वारः नाकाशमाधारत्वात्। विहंगमा इति। विहं गबन्त्यत्यवतिष्ठन्ते सत्तां बिव्रतीति विहंगमाः। खलुशब्दोऽवधारणे। विहंगमा एव न कदाचिन्न विहंगमा इति । कर्मगतेः प्राग्निरूपितशब्दार्थायाः। किम्।श्मौ नेदो वक्ष्यमाणलक्षणाविति गाथार्थः । तावेवोपदर्शयन्नाह ॥ विहगगई चलणगई, क Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । म्मग समास विहा ॥ तज्दयवेययजीवा, विहंगमा पप्प विहगगई॥ १५ ॥ ॥ व्याख्या ॥ इह गम्यतेऽनया नामकर्मान्तर्गतया प्रकृत्या प्राणिनिरिति गतिः । विहायस्याकाशे गतिविहायोगतिः कर्मप्रकृतिरित्यर्थः। तथा चलनगतिरिति । चलिरयं परिस्पन्दने वर्तते । चलनं स्पन्दनमित्येकोऽर्थः। चलनं च तमतिश्च सा चलनगतिर्गमनक्रियेति जावः।कर्मगतिस्तु समासतो हिविधेत्यत्र तुशब्द एवकारार्थः। स चावधारणे।कर्मगतिरेव द्विविधा न नावगतिस्तस्या एकरूपत्वेन व्याख्यातत्वात् । तत्र तउदयवेदकजीवा इत्यत्र तदित्यनेनानन्तरनिर्दिष्टां विहायोगतिं निर्दिशति।तस्या विहायोगतेरुदयस्तऽदयो विपाक इत्यर्थः । तथा वेदयन्ति निर्जरयन्ति उपन्जुञ्जन्तीति वेदकास्तऽदयस्य वेदकाश्च ते जीवाश्चेति समासः।थाह । तऽदयवेदका जीवा एव नवन्तीति विशेषणानर्थक्यम्। नाजीवानां वेदकत्वावेदकत्वयोगेन सफलत्वात्।अवेदकाश्च सिझा इति। विहंगमाः प्राप्यविहायोगतिमित्यत्र विहे विहायोगतेरुदयाउनबन्तीति विहंगमाः। प्राप्याश्रित्य ।किं प्राप्य। विहायोगतिम् । विहायोगतिरुक्ता ताम् । विपर्यस्तान्यदराण्येवं तु अष्टव्यानि । विहायोगतिं प्राप्य तदयवेदकजीवा विहंगमा इति गाथार्थः । श्रधुना द्वितीयकर्मगतिनेदमधिकृत्याह ॥ चलणंकम्मगई खलु, पमुच्च संसारिणो नवे जीवा ॥ पोग्गलदवाई वा, विहंगमा एस गुणसिद्धी॥१२६॥ व्याख्या॥ चलनं स्पंदनं तेन कर्मगतिर्विशेष्यते । कथम्। चलनाख्या या कर्मगतिः। सा चलनकमंगतिः। एतपुक्तं नवति।कर्मशब्देन क्रियानिधीयते। सैव गतिशब्देनासैव चलनशब्देन च। तत्र गतेर्विशेषणं क्रिया। क्रियाविशेषणं चलनम्। कुतः व्यभिचारादिह गतिस्तावन्नरकादिका नवति।अतःक्रिया विशेष्यते।क्रियाप्यनेकरूपा जोजनादिका। ततश्चलनेन विशेष्यते। अतश्चलनाख्या कर्मगतिश्चलनकर्मगतिस्तामनुस्वारोऽलाक्षणिकः। खलुशब्द एवकारार्थः । स चावधारणे । चलनकर्मगतिमेव न विहायोगतिं प्रतीत्याश्रित्य । किम् । संसरणं संसारः। संसरणं ज्ञानावरणादिकर्मयुक्तानां गमनं स एषामस्तीति संसारिणः । अनेन सिकानां व्युदासः । नवे इत्ययं शब्दो नवेयुरित्यस्यार्थे प्रयुक्तः। जीवा उपयोगादिलक्षणाः । ततश्चायं वाक्यार्थः । चलनकर्मगतिमेव प्रतीत्य संसारिणो जवेयुर्जीवा विहंगमा इति। विहं गन्ति चलन्ति सर्वैरात्मप्रदेशैरिति विहंगमाः । तथा पुजलजच्याणि वेत्यादिपूरणगलनधर्माणः पुजलाः। पुजलाश्च ते व्याणि च तानि पुनलव्याणि । अव्यग्रहणं विप्रतिपत्तिनिरासार्थम् । तथा चैते पुजलाः कैश्चिदव्याः सन्तोऽन्युपगम्यन्ते । 'सर्वे जावा निरात्मानः' इत्या दिवचनादतः पुजलानां परमार्थसपताख्यापनार्थ अव्यग्रहणम् । वाशब्दो विकल्पवाची। पुजलप्रव्याणि वा संसारिणो वा जीवा विहंगमा इति। तत्र जीवानधिकृत्यान्वों Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 1 ६० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. निदर्शितः । पुलास्तु विहं गच्छन्तीति विहंगमास्तत्र गमनमेषां स्वतः परतश्च संजवत्यत्र स्वतः परिगृह्यते । विहंगमा इति च प्राकृतशैल्या जीवापेक्षया चोक्तमन्यथा प्रत्य विहंगमानीति वक्तव्यम् । एष जावविहंगमः । कथम् । गुण सिद्ध्यान्वर्थसंबन्धेन । प्राकृतशैल्या चान्यथोपन्यास इति गाथार्थः । एवं गुण सिद्ध्या जाव विहंगम उक्तः । सांप्रतं संज्ञासिया निधातुकाम ह ॥ सन्ना सिद्धिं पप्पा, विहंगमा होति परिको सवे ॥ इह पुण अहिगारो, विहासगमणेहिं नमरेहिं ॥ १२७ ॥ व्याख्या ॥ संज्ञानं संज्ञा नाम रूढिरिति पर्यायाः । तया सिद्धिः संज्ञासिद्धिः संज्ञासंबन्ध इति यावत् । तां संज्ञा सिद्धिं प्राप्याश्रित्य । किम् । विहे गद्यन्तीति विहंगमा जवति । के । पा येषां सन्ति ते पक्षिणः । सर्वे समस्ता हंसादयः । पुलादीनां विहंगमत्वे सत्यप्यमीषामेव लोके प्रतीतत्वात् । इवमनेकप्रकारं विहंगमम निधाय प्रकृतोपयोगमुपदर्शयति । इह सूत्रे | पुनः शब्दोऽवधारणे । इहैव नान्यत्राधिकारः प्रस्तावः प्रयोजनम् | कैरित्याह । विहायोगमनैराकाशगमनैर्ब्रमरैः षट्पदैरिति गाथार्थः ॥ दाणेत्ति दत्तगिएहण - जत्ते जज सेव फासुगेरहणया ॥ एस तिगंमि निरया, उवसंहारस्स सुद्धि श्मा ॥ १२८ ॥ व्याख्या ॥ दानेति । सूत्रे दानग्रहणं दत्तग्रहणप्रतिपादनार्थम् । दत्तमेव गृह्णन्ति नादत्तम् । नक्त इति जक्तग्रहणं " जज सेवायाम्" इत्यस्य निष्ठान्तस्य जवति । अर्थश्चास्य प्रासुकग्रहणं प्रासुकमाधा कर्मादिरहितं गृह्णन्ति नेतर दिति । एसति । एषणाग्रहणम् । एषणा त्रितये गवेषणादिलक्षणे निरताः सक्ताः । उपसंहारस्योपनयस्य शुद्धिरियं वक्ष्यमाणलक्षणे ति गाथार्थः ॥ वि जमरमदुयरिगणा, अविदिन्नं या वियंति कुसुमरसं ॥ समणा पुण जगवंतो, नादिन्नं नोतुमिति ॥ २९ ॥ व्याख्या ॥ अपि मरमधुकरीग्रहण मिहापि स्त्रीसंग्रहणार्थं जातिसंग्रहार्थमिति चान्ये । श्रविदत्तं संतं । किम् । पिबन्ति कुसुमरसं कुसुमासवम् । श्रमणाः पुनर्भगवन्तो नादत्तं नोक्तुमिष्ठन्तीति विशेषः । इति गाथार्थः । सांप्रतं सूत्रेणैवोपसंहार विशुद्धिरुच्यते । कश्चिदाह । दाणमत्तेसणे रया इत्युक्तम् । यतएवमतएव लोको जत्याकृष्टमानसस्तेभ्यः प्रत्याधाकर्मादि । अस्य ग्रहणे सत्वोपरोधः । श्रग्रहणे स्ववृत्त्यलाज इत्यत्रोच्यते । वयं चेत्यादिसूत्रम् । I वयं च वित्तिं लनामो, नय को नवदम्मइ ॥ महागडे रीयंते, पुप्फेसु जमरा जहा ॥ ४ ॥ (अवचूरिः ) लप्स्यामः प्राप्स्यामः । यथा न कश्चिडुपहन्यते । यथाकृतेषु गृहस्थैः स्वार्थ कृतेषु रीयन्ते छन्ति ॥ ४ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । (अर्थ.) अहिं कोश् केहशे के, 'दाणनत्तेसणेरया' जो एमज दे तो श्रावकलोको नक्तिथी आकृष्टचित्त थश्ने ते साधुउने आधाकर्मादिदोषयुक्त दान आपे, अने जो साधु लीये तो जीवहिंसा थाय अने वली जो न लीये तो खदेहनुं धारण थाय नहीं, तो त्यां कहे . (वयं च के०) श्रमे अहीं चकार जे बे, ते पादपूरणार्थ बे. (वित्तिं के) वृत्तिं एटले आहारादिक वृत्तिने (ललामो के०) लप्स्यामः एटले तेवी रीतें पामशुं. के जेम (को के०) कश्चित् एटले बकायजीवयोनिमांहे कोइ पण जीव (ण य उवहम्मर के०) नच उपहन्यते एटले विराधित थाय नहीं, संघटनादि पीडा पामे नहीं. एम साधु चिंतवे. एतावता शुं सिक थयुं के, साधु जे जे, ते (पुप्फेसु नमरा जहा के०) पुष्पेषु चमरा यथा एटले पुष्पने विषे जेम जमरो वर्ते , तेम (अहा गडेसु के०) यथाकृतेषु एटले गृहस्थलोकोयें पोताने माटे करेला आहारा. दिकने विषे र्यासमिति आदि पाळता थका (रीयंते के०) गढ़ति एटले जाय बे विचरे डे इत्यर्थ ॥४॥ (दीपिका) पत्र कोऽप्याह । ननु साधवो दानजक्तैषणे रता इत्युक्तम् । यतश्चैवं तत एव लोको जक्त्या आकृष्टचित्तः तेच्यः साधुन्यः श्राधाकर्मादि ददाति । तस्य ग्रहणे जीवानां हिंसा स्यात् । श्राहारस्य अग्रहणे तु स्ववृत्तेरलानेन स्वदेहधारणं न स्यात्। अत्रोच्यते । वयमिति । वयं च वृत्तिं लप्स्यामः प्राप्स्यामस्तथा । यथा न कोऽपि उपहन्यते । तथा यथाकृतेषु गृहस्थैः आत्मार्थं निष्पादितेषु आहारादिषु साधवः रीयन्ते गन्ति पुष्पेषु यथा नमराः ॥४॥ (टीका) अस्य व्याख्या । वयं च वृत्तिं लप्स्यामः प्राप्स्यामस्तथा । यथा न कश्चिउपहन्यते । वर्तमानैष्यत्कालोपन्यासस्त्रैकालिकन्यायप्रदर्शनार्थः । तथा चैते साधवः सर्वकालमेव यथाकृतेषु श्रात्मार्थमनिनिर्वर्तितेष्वाहारादिषु रीयन्ते गबन्ति वर्तन्ते इत्यर्थः। पुष्पेषु जमरा यथा । इत्येतच पूर्व नावितमेवेति सूत्रार्थः॥१॥ यतश्चैवमतो महुगारसमेत्यादि सूत्रम् ।। मढुगारसमा बुझा, जे नवंति अपिस्सिया ॥ नाणापिमरया दंता, तेण वुचंति साहुणो॥त्ति बेमि ॥५॥ पुल्फियतयणं संमत्तं ॥१॥ (श्रवचूरिः) मधुकरसमा अधिगततत्त्वा नवन्ति नमन्ति वा अनिश्रिताः कुलादिध्वप्रतिबका इत्यर्थः। श्रनिग्रह विशेषात्प्रतिगृहमदपाल्पग्रहणाच नानापिएडरताः । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(५३)-मा. दान्ता इन्डियदमनेनोच्यन्ते । श्तश्च जमरसाधूनां नानात्वं ज्ञेयम् ॥५॥ इति परिसमाप्तौ । ब्रवीमि न स्वमनीषिकया। किंतु तीर्थकरगणधरोपदेशेनेति । इत्यवचूरिकायां सुमपुष्पिकाध्ययनं प्रथमम् ॥१॥ ___ (अर्थ.) पूर्वोक्तरीतें (महुगारसमा के०) मधुकारसमाः एटले चमरसरखा (बुका के० ) धर्माधर्मादितत्त्वना जाण, तथा (जे के ) ये एटले जे (अणि स्सिया के० ) अनिश्रिताः एटले कुलादिकना प्रतिबंधथी रहित अर्थात् साधुए एम नहीं केहq के, हुं अमुकनाज घरनो आहार लश्श. अथवा एज जातनो श्राहार लश्श. तथा ज्ञात कुलने विषे पण थाहार लिये नहीं, अथवा शास्त्र नणावी, धमोंपदेश करी तेने घेर हार लिये नहीं. कारण के, एम करे तो ते गृहस्थ उपकारी जाणीने सरस मधुर थाहार थापे, तेथी अप्राशुक, तथा आधाकर्मथी अने उपदेशकपणें आहार लेवानो दोष लागे,माटे जे ठेकाणे पोताने को जाणे नहीं एवा अज्ञात कुलने विष नीरस, निस्तेज एवो आहार साधु लिये . तथा (नानापिमरया के) नानापिरताः एटले प्राशुक आहार जे लेवानो ते एक ठेकाणे न लेतां अनेक घ. रना जे नानापिंड ते विविधप्रकारना अन्नना ग्रासो तेने विषे रक्त एटले आसक्त अने (दंता के० ) दांताः एटले जीत्यां ने पांच इंजियो जेमणे एवा साधु होय , (तेण के०) तेन एटले ते कारण माटेज ते (साहुणो के०) सानुवंति मुक्तिं अहिंसादिनिस्ते साधवः एटले अहिंसादिलक्षण धर्मने निरतिचार पणे पालन करीने जे मुक्तिनुं साधन करे बे, तेमने साधु ए प्रकारे ( वुचंति के०) उच्यते एटले केहवाय . (त्ति बेमि के०) इति ब्रवीमि एटले एम हुँ तीर्थकरना उपदेशथी कहुं बु. एम सजवाचार्य पोताना पुत्र मनकने कहे वे ॥५॥ अहीं अमपुष्पिकानामक प्रथम अध्ययन पूरूं थयु. एमां अमपुष्प अने भ्रमरना दृष्टांतथी साधुनी आहारचर्याकथनपूर्वक धर्मप्रशंसा कही, ए कारणथी ए अध्ययनसुमपुष्पिका एवं नाम पाडेबु बे. ___ हवे आ अमपुष्पिका नामक प्रथमाध्ययनमां धर्मप्रशंसा जे , ते प्रतिपाद्यविषय बे, अने ए, दशवकालिक शास्त्र, आदि मंगलरूप डे, तथा या शास्त्रमा प्रतिपाद्य जे यतिचर्या ते सर्वधर्ममूल बे, माटे ए अध्ययनमां धर्मप्रशंसा कही. अने धर्मनुं जे लक्षण ते तो घणा विस्तारसहित शास्त्रमा अनेक स्थलें कडं बे, तेथी अहिं कह्यु नथी जो ते अहिं कहियें तो घणो विस्तार थाय, माटे सामान्यथीज धर्मनुं लक्षण कहेलु डे के ‘ाप्तवचनं धर्मः' प्राप्त एटले रागादिकना अनावथी जे अप्रतारक तेनेज आप्त कहिये, अने एवा तो मात्र एक वीतरागज बे. तेमनुं जे वचन Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । तेज धर्म जाणवो. कहेलु डे केः- “आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाहिः ॥ वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूया त्वनावतः॥१॥” इति. माटे धर्म जे जे ते जिनप्रणीत आम्नायमांज जाणवो, कपिलादिप्रणीत शास्त्रमा नथी. कारण के, ते शास्त्रोना कर्ता प्राप्त नथी. एवा केवलिजाषित खधर्मना अनतिचारपणे पालन करनारा साधुनी निदाचर्या जे संक्षिप्त प्रकारें था अध्ययनमां कही, ते पण धर्ममूल बे तेथी आ अध्ययनमां पण धर्मप्रशंसाज करी, एम जाणवू. इत्यलं विस्तरेण ॥५॥ श्रा प्रकारे प्रथम सुमपुष्पिकानामा अध्ययननो बालावबोध संपूर्ण थयो ॥१॥ (दीपिका) अथ येन कारणेन साधवस्तथा चाह । यतश्चैवमतस्ते मधुकरसमा त्रमरतुख्याः साधवः।पुनः किंजूताः।बुद्धा शाततत्त्वाः। एवंनूता ये जवन्ति चमन्ति वा। पुनः किंजूताः।अनिश्रिताः कुलादिष्वप्रतिबद्धाः।पुनः किं नूताः । नानापिएमरताः। नाना नानाप्रकारोऽनिगृह विशेषात् प्रतिग्रहमपाल्पग्रहणाच पिकाहारादिः अन्तप्रान्तादि । तस्मिन् नानापिएके रता उठेगं विना स्थिताः।पुनः किंतूताः।दान्ता शन्जियनोश्प्रियदमनेन उपलक्षणत्वात् या दिसमिताश्च । ततश्चायमर्थः। यथा चमरोपमया एषणासमितौ यतन्ते तथा र्यादिष्वपि त्रसस्थावरन्नूतहितं यतन्ते तेन साधवः परमार्थतः साधव उच्यन्ते । इतिशब्दः समाप्तौ। ब्रवीमि अहं परं न खबुद्ध्या किंतु तीर्थकरगणधराणामुपदेशेन ॥५॥ इति श्रीदशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां घुमपुष्पि, काख्यं प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥१॥ (टीका) अस्य व्याख्या। मधुकरसमा जमरतुल्या बुध्यन्ते स्म बुझा अधिगततत्त्वा इत्यर्थः । क एवंचूता इत्यत आह । ये नवन्ति नमन्ति वा अनिश्रिताः कुलादिष्वप्रतिबझा इत्यर्थः । अत्राह ॥ असंजएहिं नमरेहिं, जसमा संजया खलु नवंति ॥ एवं उवमं किच्चा, नूणं असंजया समणा ॥१३॥व्याख्या। असंयतैः कुतश्चिदप्यनितैमरैः षट्पदैः यदि समास्तुख्याः संयताः साधवः खस्विति समा एव नवन्ति । ततश्चासंझिनोऽपि ते अतएवैनामिबंप्रकारामुपमां कृत्वा श्दमापद्यते नूनमसंयताः श्रमणा इति गाथार्थः। एवमुक्ते सत्याहाचार्यः । एतच्चायुक्तं सूत्रोक्तविशेषणतिरस्कृतत्वात्तथाच बुझग्रहणादसंझिनो व्यवछेदः । अनिश्रितग्रहणाच्चासंयतत्वस्येति । नियुक्तिकारस्त्वाह ॥ उवमा खलु एस कया, पुवुत्ता देसलरकणोवणया ॥ अणिययवित्तिनिमित्तं, अहिंसअणुपालणछाए ॥ १३१ ॥ व्याख्या ॥ उपमा खत्वेषा मधुकरसमेत्यादिरूपा कृता पूर्वोक्तात्पूर्वोक्तन देशलक्षणोपनयाद्देशलक्षणोपनयेन यथा चन् Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. मुखी कन्येति । तृतीयार्था चेह पञ्चमी । श्यं चानियतवृत्तिनिमित्तं कृता अहिंसानुपासनार्थमिदं च नावयत्येवेति गाथार्थः ॥ जह उमगणा उ तह नगर-जणवया पयणपायणसहावा ॥ जह जमरा तह मुणिणो, नवरि अदत्तं न मुंजंति ॥ १३ ॥ ॥ व्याख्या ॥ यथा उमगणा वृक्षसंघाताः खजावत एव पुष्पफलनवजावास्तथैव नगरजनपदा नगरादिलोकाः खयमेव पचनपाचनवजावा वर्तन्ते । यथा जमरा इति नावार्थं वदयति । तथा मुनयो नवरमेतावान्विशेषः । अदत्तं स्वामिनिन जुञ्जत इति गाथार्थः । अमुमेवार्थं स्पष्टयति ॥ कुसुमे सहावफुझे, आहारंति जमरा जह रसं तु ॥ जत्तं सहावसिकं, समणसुविहिया गवेसंति ॥ १३३ ॥ व्याख्या ॥ कुसुमे पुष्पे स्वन्नावफुझे प्रकृतिविकसित आहारयन्ति कुसुमरसं पिबन्ति जमरा मधुकरा यथा येन प्रकारेण कुसुमपीडामनुत्पादयन्तः । तथा तेनैव प्रकारेण नक्तमोदनादि स्वन्नावसिझं आत्मार्थं कृतमुजमादिदोषरहितमित्यर्थः। श्रमणाश्च ते सुविहिताश्च श्रमणसुविहिताः शोजनानुष्ठानवन्त इत्यर्थः । गवेषयन्ति अन्वेषयन्तीति गाथार्थः । सांप्रतं पूर्वोक्तो यो दोषः मधुकरसमा इत्यत्र । तत्परि जिहीर्षयैव यावतोपसंहारः क्रियते । तमुपदर्शयन्नाह ॥ उवसंहारो नमरा,जह तह समणा वि वहं अजीवंति ॥ दंतत्ति पुणपयंमि, नायवं वक्कसेसमिणं ॥ १३४ ॥ व्याख्या ॥ उपसंहार उपनयः । जमरा यथा अवधजीविनः तथा श्रमणा अपि साधवोऽप्येतावतैवांशेनेति गाथार्थः। श्तश्च चमरसाधूनां नानात्वमवसेयं यत थाह सूत्रकारः। नानापिएफरया दंता शति । नानानेकप्रकारोऽनिग्रह विशेषात्प्रतिगृहमदपाल्पग्रहणाच्च पिएक आहारपिएकः । नाना चासौ पिएनश्च नानापिएमः।अन्तप्रान्तादिर्वा तस्मिन् रता अनुगवन्तः। दान्ता इन्डियनोन्जियदमनेनानयोश्च स्वरूपमधस्तपसि प्रतिपादितमेव।अत्र चोपन्यस्तगाथाचरमदलस्यावसरः। दांता इति पुनः पदे सौ. किम्। ज्ञातव्यो वाक्यशेषोऽयमिति गाथार्थः। किंविशिष्टो वाक्यशेषः । दांता ादिसमिताश्च । तथा चाह॥जह श्व चेव इरिया-श्एसु सबंमि दिकियपयारे ॥ तसथावरलूय हियं, जयंति समावियं साह ॥१३५॥ व्याख्या ॥ यथात्रैवाधिकृताध्ययने जमरोपमयैषणासमितौ यतन्ते। तथा इादिष्वपि तथा सर्वस्मिन् दीक्षितप्रचारे साध्वाचरितव्य इत्यर्थः। किम्। सस्थावरचूतहितं यतन्ते सान्ना; विकं पारमार्थिकं साधव इति गाथार्थः । अन्ये पुनरिदं गाथादलं निगमने व्याख्यानयन्ति । नच तदतिचारु । यत आह॥ उवसंहार विसुद्धी, एस समत्ता उ निगमणं तेणं ॥ वुच्चंति साहुणो त्ति, जेणं ते महुयरसमाणा ॥ १३६ ॥ व्याख्या ॥ उपसंहार विशुछिरेषा समाप्ता तु अधुना निगमनावसरस्तच्च सौत्रमुपदर्शयति । निगमन मिति छारपरामर्शः। तेनोच्यन्ते साधव इति। येन प्रकारेण ते मधुकरसमाना उक्तन्यायेन Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । जमरतुल्या इति गाथार्थः । निगमनार्थमेव स्पष्टयति ॥ तम्हा दयाश्गुणसु-हिएहिं नमरो व अवह वित्तीहिं ॥ साइहिं साहित्ति, नकि मंगलं धम्मो ॥ १३७ ॥व्याख्या॥ तस्मादयादिगुणसुस्थितैः। श्रादिशब्दात्सत्यादिपरिग्रहः। ब्रमर श्वावधवृत्तिनिः। केः । साधुनिः साधितो निष्पादितः । उत्कृष्ट मङ्गलम् प्रधानं मङ्गलं । धर्मः प्राग्निरूपितशब्दार्थ इति गाथार्थः । इदानीं निगमनविशुझिमनिधातुकाम आह ॥ निगमणसुकी तिबं-तरी वि धम्मबमुधुया विहरे ॥ जन्न कायाणं ते, जयणं न मुणंति न करेंति ॥ १३० ॥ व्याख्या ॥ निगमनशुद्धिःप्रतिपाद्यते ।अत्राह। तीर्थान्तरीया अपि चरकपरिव्राजकादयः। किम् । धर्मार्थ धर्मायोद्यता उद्युक्ता विहरन्ति । अतस्तेऽपि साधव ए. वेत्यनिप्रायःानण्यतेऽत्र प्रतिवचनम्। कायानां पृथिव्यादीनां ते चरकादयः। किम् । यतनां प्रयत्नकरणलक्षणां न मन्यन्ते न जानन्ति न मन्वते वा तथाविधागमाश्रवणान्न कुर्वन्ति परिज्ञानाजावान्नावितमेवेदमधस्तादिति गाथार्थः । किं च ॥ न य जग्गमाश्सुकं, मुंजंती महुयरा वणुवरोही ॥ नेव य तिगुत्तिगुत्ता, जह साहनिच्चकालं पि ॥ १३ ॥ व्याख्या ॥ नचोशमादिशुद्धं नुञ्जते । श्रादिशब्दाफुत्पादनादिपरिग्रहः । मधुकरा श्व चमरा श्व सत्त्वानामनुपरोधिनः सन्तो नैव च त्रिगुप्तिगुप्ता यथा साधवो नित्यकालमपि। एतमुक्तं नवति । यथा साधवो नित्यकालं त्रिगुप्तिगुप्ता एवं ते न कदाचिदपि तत्परिज्ञानशुन्यत्वात्तस्मान्नैते साधव इति गाथार्थः । साधव एव तु साधवः । कथम् । यतः ॥ कायं वायं च मणं,च इंदियाशं च पंच दमयंति ॥ धारेंति बंनचेरं, संजमयंती कसाए य ॥ १४० ॥ व्याख्या ॥ कायं वाचं मनश्चेन्द्रियाणि च पञ्च दमयन्ति । तत्र कायेन सुसमाहितपाणिपादास्तिष्ठन्ति गडन्ति वा। वाचा निष्प्रयोजनं न ब्रुवते । प्रयोजनेऽप्यालोच्य सत्त्वानुपरोधेन मनसा अकुशलमनोनिरोधं कुशलमनउदीरणं च कुर्वन्ति । इन्द्रियाणि पञ्च दमयन्ति । इष्टानिष्टविषयेषु रागद्वेषाकरणेन । पञ्चेति साङ्ख्यपरिकल्पितैकादशेन्द्रियव्यवछेदार्थम् । तथा च । वाक्पाणिपादपायूपस्थमनांसीन्डियाणि तेषामिति । धारयन्ति ब्रह्मचर्य सकलगुप्तिपरिपालनात्तथा संयमयन्ति कषायांश्चानुदयेनोदयविफलीकरणेन चेति गाथार्थः ॥ जं च तवे उद्युत्ता, तेणेसिं साहुलक्खणं पुन्नं ॥ तो साहुणो त्ति जन्नं-ति साहवो निगमणं चेयं ॥ १४१ ॥ व्याख्या ॥ यच्च तपसि प्राग्वर्णितस्वरूपे । किम् । उद्युक्ता उद्यतास्तेन प्रकारेणतेषां साधुलक्षणं पूर्णमविकलम्। कथम् । अनेन प्रकारेण साधयन्त्यपवर्गमिति साधवः। यतश्चैवं ततः साधव एव नण्यन्ते साधवो न चरकादय इति।निगमनं चैतदितिगाथार्थः। श्चमुक्तं दशावयवम्।प्रयोगं त्वेवं वृद्धा दर्शयन्ति। अहिंसा दिखदणधर्मसाधकाः साधव एव स्थावरजङ्गमनूतोपरोधपरिहारित्वात् । तदन्यैवंविधपुरुषवत् । विपदो दिगम्बरनिकुनौता Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. दिवत् । इह ये स्थावरजङ्गमनूतोपरोधपरिहारिणस्ते उत्जयप्रसिद्धैवंविधपुरुषवदहिंसादिलक्षणधर्मसाधका दृष्टास्तथाच साधवः स्थावरजङ्गमनूतोपरोधपरिहारिण इत्युपनयः । तस्मात्स्थावरजङ्गमनूतोपरोधपरिहारित्वात्तेऽहिंसादिलक्षणधर्मसाधकाः साधव एवेति निगमनम् । पदादिशुझ्यस्तु निदर्शिता एवेति न प्रतन्यन्ते । एवमर्थाधिकारघ्यवशात्पञ्चावयवदशावयवान्यां वाक्याच्या व्याख्यातमिदमध्ययनम्। श्दानी नूयोऽपि जङ्गयन्तरनाजा दशावयवेनैव वाक्येन सर्वमध्ययनं व्याचष्टे नियुक्तिकारः॥ ते उपरनविनत्ती, हेजविजत्ती विवरकपडिसेहो ॥ दिळंतो आसंका, तप्पडिसेहो निगमणं च ॥ १४२ ॥ व्याख्या ॥ त इति अवयवाः । तुः पुनःशब्दार्थः। ते पुनरमी प्रतिज्ञादयः। तत्र प्रतिज्ञानं प्रतिज्ञा वक्ष्यमाणस्वरूपेत्येकोऽवयवः । तथा विनजनं विनक्तिः । तस्या एव विषयविनागकथनमिति द्वितीयः। तथा हिनोति गमयति जिशासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुस्तृतीयः। तथा विनजनं विनक्तिरिति पूर्ववच्चतुर्थकः। तथा विसदृशः पदो विपक्षः साध्यादिविपर्यय इति पञ्चमः । तथा प्रतिषेधनं प्रतिषेधः । विपदस्येति गम्यते। इत्ययं षष्ठः । तथा दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्त इति सप्तमः । तथा आशङ्कनमाशङ्का प्रक्रमाद् दृष्टान्तस्यैवेत्यष्टमः। तथा तत्प्रतिषेधः अधिकृताशङ्काप्रतिषेध इति नवमः। तथा निश्चितं गमनं निगमनं निश्चितोऽवसाय इति दशमः । चशब्द उक्तसमुच्चयार्थ इति गाथासमासार्थः । व्यासार्थं तु प्रत्यवयवं वयति ग्रन्थकार एव । तथा चाह॥धम्मो मंगलमुक्किति पन्ना अत्तवयणनिदेसो॥ सो य श्हेव जिणमए, नन्न पश्नपविजत्ती ॥ १४३ ॥ व्याख्या ॥ धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमिति पूर्ववत् । श्यं प्रतिज्ञा । आह । केयं प्रति त्युच्यते । आप्तवचननिर्देश इति । तत्राप्तोऽप्रतारकः । अप्रतारकश्चाशेषरागादिदयानवति। उक्तं च “॥ आगमो ह्याप्तवचन-माप्तं दोषदयाहिपुः॥ वीतरागोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयात्वसंजवात् ॥” तस्य वचनमाप्तवचनं तस्य निर्देश प्राप्तवचन निर्देशः। आह । अयमागम इति । उच्यते । विप्रतिपन्नसंप्रतिपत्तिनिबन्धनत्वेनैष एव प्रतिझेति नैष दोषः । पाठान्तरं वा साध्यवचननिर्देश इति । साध्यत इति साध्यम्, उच्यत इति वचनमर्थः । यस्मात्स एवोच्यते । साध्यं च तचनं च साध्यवचनं साध्यार्थ इत्यर्थः । तस्य निर्देशः प्रतिति । उक्तः प्रथमोऽवयवः । अधुना द्वितीय उच्यते । स चाधिकृतो धर्मः । कि मिहैव जिनमतेऽस्मिन्नेव मौनीन्छे प्रवचने नान्यत्र कपिलादिमतेषु । तथाहि । प्रत्यदत एवोपलच्यन्ते वस्त्राद्यपूतप्रजूतोदकाद्युपत्नोगेषु परिव्राट्प्रनृतयः प्राण्युपमदं कुर्वाणास्ततश्च कुतस्तेषु धर्म इत्याद्यत्र बहु वक्तव्यम् । तत्तु नोच्यते ग्रन्थ विस्तरनयान्नावितत्वाच्चेति । प्रतिज्ञाप्रविनक्तिरियं प्रतिज्ञाविषयविनागकथनमिति गा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके प्रथमाध्ययनम् । १५ वदे थार्थः । उक्तो द्वितीयोऽवयवः । अधुना तृतीय उच्यते । तत्र ॥ सुरपू ति देऊ, धम्महाणे हिया उ जं परमे ॥ हे विजत्ती निरुवहि- जिया य जयंति ॥ १४४ ॥ व्याख्या ॥ सुरा देवास्तैः पूजितः सुरपूजितः । सुरग्रहणमिन्द्राद्युपलक्षणम् । इतिशब्द उपदर्शने । कोऽयं हेतुः । पूर्ववत् । हेत्वर्थसूचकं चेदं वाक्यम् । हेतुः सुरेन्द्रादिपूजितत्वादिति द्रष्टव्यः । अस्यैव सिद्धतां दर्शयति । धर्मः पूर्ववत् । तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानम् । धर्मश्चासौ स्थानं च धर्मस्थानम् । स्थानमालयः । तस्मिन् स्थिताः । तुरयमेवकारार्थः । सचावधारणे। छायं चोपरिष्टात् क्रियया सह योदयते । यद्यस्मात् । किंनूते धर्मस्थाने | परमे प्रधाने । किम् | सुरेन्द्रादिभिः पूज्यन्त एवेति वाक्यशेषः । इति तृतीयोऽवयवः । अधुना चतुर्थ उच्यते । हेतु विनक्तिरियम् । हेतु विषयविभागकथनम् । अथ क एते धर्मस्थाने स्थिता इत्यत्राह । निरुपधयः । उपधि द्म मायेत्यनर्थान्तरम् । अयं च क्रोधाद्युपलक्षणम् । ततश्च निर्गता उपध्यादयः सर्व एव कषाया येज्यस्ते निरुपधयो निष्कषाया जीवानां पृथ्वी कायादीनामवधेनापीडया चशब्दात्तपश्चरणादिना च हेतुभूतेन जीवन्ति प्राणान् धारयन्ति ये त एव धर्मस्थाने स्थिता नान्य इति गाथार्थः । उक्तश्चतुर्थोऽवयवः । अधुना पञ्चममजिधित्सुराह ॥ जिवयण पडु डे वि हु, ससुराईए अधम्मरुणो वि ॥ मंगलबुद्धीइ जणो, पणम आय विवरको ॥ १४५ ॥ व्याख्या ॥ इह विपक्षः पञ्चम इत्युक्तम् । स चायं प्रतिज्ञाविजक्त्योरिति । जिनास्तीर्थकराः । तेषां वचनमागमलक्षणं तस्मिन् प्रद्विष्टा अप्रीता इति समासस्तान् । अपिशब्दादप्रद्विष्टानपि । हु इत्ययं निपातोऽवधारणार्थः । अस्थानप्रयुक्तश्च । स्थानं च दर्शयिष्यामः । श्वशुरादीन् । श्वशुरो लोकप्रसिद्धः । श्रादिशब्दात्पित्रादिपरिग्रहः । न विद्यते धर्मे रुचिर्येषां तेऽधर्मरुचयस्तान् । - पिशब्दाद्धर्मरुचीन् । किम् । मङ्गलबुद्ध्या मङ्गलप्रधानया धिया मङ्गलबुद्ध्यैव नामङ्गलबुद्ध्येत्येवकारोऽवधारणार्थः । किम् । जनो लोकः प्रकर्षेण नमति प्रणमति । यायद्वयविपक्ष इति । अत्राद्यद्वयं प्रतिज्ञा तबुद्धिश्च तस्य विपक्षः साध्या दिविपर्यय इति यद्यद्वयविपक्षः । तत्राधर्मरुचीनपि मङ्गलबुला जनः प्रणमतीत्यनेन प्रतिज्ञाविपक्षमाह । तेषामधर्माव्यतिरेका जिनवचनप्रद्विष्टानपीत्यनेन तु तबुद्धेस्तत्रापि हेतुप्रयोगप्रवृत्त्या धर्म सिद्धेरिति गाथार्थः ॥ बिश्ययस्स विवरको, सुरेहिं पुवंति जसजाई वि ॥ बुद्धाई वि सुरनया, बुच्चंते पायपडिवरको ॥ १४६ ॥ व्याख्या ॥ द्वयोः पूरणं द्वितीयं द्वितीयं च तद्दुयं च द्वितीयद्वयं हेतुस्तबुद्धिः । इदं च प्रागुक्तद्वयापेक्षया द्वितीयमुच्यते । तस्यायं विपक्षः । इह सुरैः पूज्यन्ते यज्ञया जिनोऽपीति । श्यमत्र जावना । यज्ञयाजिनो हि मङ्गलरूपा न जवन्त्यथ च सुरैः पूज्यन्ते । ततश्च सुरपूजितत्वमका Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. रणमित्येष हेतु विपदस्तथा । अजितेन्जियाः सोपधयश्च यतस्ते वर्तन्ते । अतोऽनेनैव ग्रन्थेन धर्मस्थाने स्थिताः परम इत्यादिकाया हेतु विन्नक्तेरपि विपद उक्तो वेदितव्य शति । उदाहरणविपक्षमधिकृत्याह । बुझादयोऽप्यादिशब्दात्कापिलादिपरिग्रहः । ते। किम् । सुरनता देवपूजिता उच्यन्ते जण्यन्ते तबासनप्रतिपन्नैरिति शातप्रतिपद इति गाथार्थः।थाह । ननु दृष्टान्तमुपरिष्टाक्ष्यत्येवं ततश्च तत्स्वरूप उक्त च तत्रैव विपदास्तत्प्रतिषेधश्च वक्तुं युक्तः । तत्किमर्थ मिह विपदः तत्प्रतिषेधश्चानिधीयते । उच्यते। विपक्षसाम्बादधिकृत एव विपदहारे लाघवार्थमनिधीयते । अन्यथेदमपि पृथग्छारं स्यात् । तथैव तत्प्रतिषेधोऽपि छारान्तरं प्राप्नोति।तथा च सति ग्रन्थगौरवं जायते । तस्मासाघवार्थमत्रैवोच्यत इत्यदोषः। आह ॥" दितो आसंका तप्पडिसेहो" ति वचनामुत्तरत्र दृष्टान्तमनिधाय पुनराशङ्कां तत्प्रतिषेधं च वयत्येव । तदाशङ्का च त. द्विपद एव। तत् किमर्थ मिह पुनर्विपक्षप्रतिषेधावनिधीयेते।उच्यते । अनन्तरपरंपरानेदेन दृष्टान्तवैविध्यख्यापनार्थम्। यः खब्वनन्तरमुक्तोऽपि परोक्षत्वादागमगम्यत्वादाटन्तिकार्थसाधनायालं न भवति तत्प्रसिझये विपदसिको योऽन्य उच्यते स परंपरादृष्टान्तः। तथा च तीर्थकरांस्तथा साधूंश्च छावपि निन्नावेवोत्तरत्रदृष्टान्तावनिधास्येते। तत्र तीर्थकृष्वदणं दृष्टान्तमङ्गीकृत्येह विपक्षप्रतिषेधौवुक्तौ । साधूंस्त्वधिकृत्य तत्रै वाशङ्कातत्प्रतिषेधौ दर्शयिष्येते । श्त्यदोषः । स्यान्मतं प्रागुक्तेन विधिना लाघवार्थमनुक्त एव दृष्टान्त उच्यतां काममिहैव दृष्टान्तविपदस्तत्प्रतिषेधश्च स एव दृष्टान्तः किमित्युत्तरत्रोपदिश्यते येन हेतुविनक्रनन्तरमिहैव न जण्यते। तथा ह्यत्र दृष्टान्ते ज. ण्यमाने प्रतिज्ञादीनामिव छिरूपस्यापि दृष्टान्तस्यार्हत्साधुलक्षणस्य एतावेव विपक्षतत्प्रतिषेधावुपपद्यते। ततश्च साधुलक्षणस्य दृष्टान्तस्याशङ्कातत्प्रतिषेधावुत्तरत्र न पृथग् वक्तव्यौ नवतः। तथा च सति ग्रन्थलाघवं जायते । तथा प्रतिज्ञाहेतूदाहरणरूपाः सविशुद्धिकास्त्रयोऽप्यवयवाः क्रमेणोक्ता नवन्तीत्यत्रोच्यते । श्हानिधीयमाने दृष्टान्तस्येव प्रतिज्ञादीनामपि प्रत्येकमाशङ्कातत्प्रतिषेधौ वक्तव्यौ । तथा च सत्यवयवबहुत्वं दृष्टान्तस्य वा प्रतिज्ञादीनामिव विपक्षतत्प्रतिषेधान्यां पृथगाशङ्कातत्प्रतिषेधौ न वक्तव्यौ स्यातामेवं सति दशावयवा न प्राप्नुवन्ति । दशावयवं चेदं वाक्यं नङ्गयन्तरेण प्रतिपिपादयिषितमस्यापि न्यायस्य प्रदर्शनार्थमत एव यमुक्तं साधुलक्षणदृष्टान्तस्याशङ्कातत्प्रतिषेधावुत्तरत्र न पृथग वक्तव्यौ स्यातामित्यादि तदपाकृतं वेदितव्यम् । ३त्यलं प्रसङ्गेन । एवं प्रतिज्ञादीनां प्रत्येकं विपदोऽनिहितोऽधुनायमेव प्रतिज्ञा दिविपदः पञ्चमोऽवयवो वर्तत इत्येतदर्शयन्निदमाह ॥ एवं तु अवयवाणं, चउह्न पडिवक्खुपंचमोऽवयवो ॥ एत्तो होवयवो, विवकपडिसेह तं वोठं ॥ १४७ ॥ व्याख्या ॥ एव Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । งง 1 मित्ययमेवकार उपप्रदर्शने । तुरवधारणे। श्रयमेवावयवानां प्रमाणाङ्गलक्षणानां चतुर्णां प्रतिज्ञादीनां प्रतिपक्षो विपक्षः पञ्चमोऽवयव इति । श्राह । दृष्टान्तस्याप्यत्र विपक्ष उक्त एव तत्किमर्थं चतुर्णामित्युक्तम् । उच्यते । देतो: सपक्ष विपक्षाच्यामनुवृत्तिव्यावृतिरूपत्वेन दृष्टान्तधर्मत्वात्तद्विपक्ष एव चास्यान्तर्जावाददोष इत्युक्तः पञ्चमोऽवयवः । षष्ठ उच्यते । तथा चाह । इत उत्तरत्र षष्ठोऽवयवो विपक्षप्रतिषेधस्तं वक्ष्येऽनिधास्य इति गाथार्थः । इवं सामान्येनानिधायेदानी माद्यद्वय विपक्षप्रतिषेधम निधातुकाम ह । सायं संमत्तपुमं, हासरई आउनामगोयसुदं ॥ धम्मफलं श्राइपुगे, विवकप डिसेह मो एसो ॥ १४८ ॥ व्याख्या ॥ सायंति शातवेदनीयं कर्म । सं तं ति सम्यक्त्वं सम्यग्नावः सम्यक्त्वं सम्यक्त्वमोहनीयं कर्मैव । पुमंति पुंवेदमोहनीयं । हासंति हस्यतेऽनेनेति हासः । तद्भावो हास्यं हास्यमोहनीयम् । रम्यतेऽनयेति रतिः क्रीडाहेतुः रतिमोहनीयं कर्मैव । आयुः । नामगोयसुहं ति । अत्र शुनशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । अन्ते वचनात्ततश्च श्रायुः शुनं नामशुनं गोत्रशुजम् । तत्रायुः शुनं तीर्थकरा दिसंबन्धि । नामगोत्रे अपि कर्मणी शुभे तेषामेव भवतः । तथाहि यशो - नामादि शुनं तीर्थकरादीनामेव जवति । तथोच्चैर्गोत्रं तदपि शुनं तेषामेवेति । धर्मफलमिति । धर्मस्य फलं धर्मफलम् । धर्मेण वा फलं धर्मफलं एतदहिंसादेर्जिनोतस्यैव धर्मस्य फलम् | अहिंसादिना जिनोक्तेनैव च धर्मेणैव फलमवाप्यते । सर्वमेव चैतत्सुख हेतुत्वाद्धितम् । अतः स एव धर्मो मङ्गलं न श्वशुरादयः । तथाहि मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलम् । तच्च यथोक्तधर्मेणैव मङ्गयते नान्येन तस्मादसावेव मङ्गलं न जिनवचनबाह्याः ः श्वशुरादय इति स्थितम् । श्रह | मङ्गलबुलैव जनः प्रणमतीत्युक्तं तत्कथमित्युच्यते । मङ्गलबुद्ध्यापि गोपालाङ्गनादिर्मोह तिमिरोपलुतबुद्धिलोचनो जनः प्रणमन्नपि न मङ्गलत्वनिश्चयायालम् । तथाहि न तैमिरिक द्विचन्द्रोपदर्शनं सचेतसां चक्षुष्मतां द्विचन्द्राकारायाः प्रतीतेः प्रत्ययतां प्रतिपद्यते । तडूप एव तद्रूपाध्यारोपद्वारेण तत्प्रवृत्तेरिति । इडुगं ति । श्रद्यद्वयं प्रागुक्तं तस्मिन्नाद्यद्वयविषये विपक्षप्रतिषेधः । मो इति निपातो वाक्यालंकारार्थः । एष इति यथा वर्णित इति गाथार्थः । इमाद्यद्वय विपक्षप्रतिषेधः प्रतिपादितः । संप्रति हेतुतबुद्ध्योविपक्षप्रतिषेधप्रति पिपादयिषयेदमाह ॥ जिइंदिय सोव दिया, वहगा जइ ते विनाम पुति ॥ अग्गीवि होद्य सी, देउविजत्तीण परिसेहो ॥ १४५ ॥ व्याख्या ॥ न जितानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि यैस्ते तथोच्यन्ते । उपविश्वद्म मायेत्यनर्थान्तरम् । उपधिना सह वर्तन्त इति सोपधयो मायाविनः परव्यंसका इति यावत् । अथवा उपदधातीत्युपधिः वस्त्राद्यनेकरूपः परिग्रहः । तेन सह वर्तन्ते ये ते तथाविधा 1 For Private Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. महापरिग्रहा इत्यर्थः । वधन्तीति वधकाः प्राण्युपमर्दकर्तारः । जर ते वि नाम पुद्यतित्ति । यदीति परान्युपगमसंसूचकः। त इति याझिकाः । अपिः संनावने । नाम इति निपातो वाक्यालंकारार्थः। ये जितेन्डियादिदोषपुष्टा यज्ञया जिनो वर्तन्ते । यदि ते नाम पूज्यन्ते । तय ग्निरपि नवेलीतः । न च कदाचिदप्यसो शीतो जवति । तथा वियदिन्दीवरस्रजोऽपि वान्ध्येयोरस्थलशोजामादधीरन् । न चैतनवति । यथैवमादिरत्यन्तोऽनावस्तथेदमपीति मन्यतेऽथापि कालदौर्गुण्येन कथंचिदविवेकिना जनेन पूज्यन्ते । तथापि तेषां न मङ्गलत्वसंप्रसिधिरप्रेदावतामतपेऽपि वस्तुनि तपाध्यारोपेण प्रवृत्तेस्तथा ह्यकलङ्कधियामेव प्रवृत्तिर्वस्तुनस्तद्वत्तां गमयत्यतथाजूते वस्तुनि तहुथ्या तेषामप्रवृत्तेः । सुविशुझबुझ्यश्च दैत्यामरेन्डादयस्ते चाहिंसादिलक्षणं धर्ममेव पूजयन्ति न यज्ञया जिनस्तस्मादैत्यामरेन्डादिपूजितत्वाधर्म एवोत्कृष्टं मङ्गलं न या झिका इति स्थितम् । हेजविजत्तीणं ति। एष हेतुतहिजत्योः। पमिसेहोत्ति । विपदप्रतिषेधः । विपदशब्द शहानुक्तोऽपि प्रकरणाज्ज्ञातव्य इति गाथार्थः । एवं हेतुतलुट्योर्विपक्षप्रतिषेधो दर्शितः । सांप्रतं दृष्टान्तविपक्षप्रतिषेधं दर्शयन्नाह ॥ बुझाउवयारे, प्रयागणं जिणाज सनावंदिते पमिसेहो, बहो एसो अवयवो उ ॥ १५० ॥ व्याख्या ॥ बुझादय आदिशब्दात्कापिलादिपरिग्रहः उपचार इति । सुपां सुपो जवन्तीति न्यायाऽपचारेण । किंचिदतीन्यं कथयन्तीति कृत्वा न वस्तुस्थित्या पूजायाः स्थानं पूजास्थानम् । जिनास्तु सन्नावं परमार्थमधिकृत्येति वाक्यशेषः । सर्वज्ञत्वाद्यसाधारणगुणयुक्तत्वादिति नावना । दृष्टान्तप्रतिषेध इति विपदशब्दलोपाद् दृष्टान्तविपदप्रतिषेधः । किम् । षष्ठ एषोऽवयवः। तुर्विशेषणार्थः। किं विशिनष्टि । सर्वोऽप्ययमनन्तरोदितः प्रतिज्ञादिविपक्षप्रतिषेधः पञ्चप्रकारोऽप्येक एवेति गाथार्थः । षष्ठमवयवमनिधायेदानीं सप्तमं दृष्टान्तनामानमनिधातुकाम आह ॥ अरहंतमग्गगामी, दिहंतो साहुणो वि समचित्ता ॥ पागरएसु गिही, एसंते अवहमाणा उ ॥ १५१ ॥ व्याख्या ॥ पूजामहन्तीत्यर्हन्तः । न रुहन्तीति वा अरुहन्तः । किम्। दृष्टान्त इति संवन्धः । तथा मार्गगामिन इति । प्रक्रमात्तापदिष्टेन मार्गेण गन्तुं शीलं येषां त एव गृह्यन्ते। केच त इत्यत आह । साधवः। साधयन्ति सम्यग्दर्शनादियोगैरपवर्गमिति साधवः तेऽपिदृष्टान्त इति योगः। किंनूताः समचित्ता रागोषरहितचित्ता इत्यर्थः । किमिति तेऽपि दृष्टान्त इति । अहिंसा दिगुणयुक्तत्वात् । श्राह च । पाकरतेष्वात्मार्थमेव पाकसक्तेषु गृहेष्वगारेष्वेषन्ते गवेषयन्ति पिएमपातमित्यध्याहारः । किं कुर्वाणा इत्यत आह । अवहमाणा उ । न नत्तोऽनन्तः। तुरवधारणार्थः । ततश्चानन्त एव श्रारम्नाकरणेन पीडामकुर्वाणा इत्यर्थः । एवं छि Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके प्रथमाध्ययनम् । ୨୯ विधोपि दृष्टान्त उक्तः । दृष्टान्तवाक्यं चेदं स तु संस्कृत्य कर्तव्योऽर्हदा दिवदिति गाथार्थः । उक्तः सप्तमोऽवयवः सांप्रतमष्टमम जिधित्सुराह ॥ तब वे आसंका, उदिस्स जई विकीरए पागो ॥ तेण र विसमं नायं, वासतणा तस्स पडिसेदे ॥ १५२ ॥ ॥ व्याख्या ॥ तत्र तस्मिन् दृष्टान्ते नवेदाशङ्का जवत्यादेपः । यथोद्दिश्याङ्गीकृत्य यतीनपि संयतानपि । अपिशब्दादपत्यादीन्यपि । क्रियते निर्वर्त्यते पाकः । कैः । गृहि जिरिति गम्यते । ततः किमित्यत आह । तेन कारणेन । र इति निपातः किलशब्दार्थः । विषममतुल्यं ज्ञातमुदाहरणं वस्तुतः पाकोपजी वित्वेन साधूनामनवद्यवृत्त्यजावादिति जावितमेवैतत् पूर्वमित्यष्टमोऽवयवः । इदानीं नवममधिकृत्याह । वर्षा - तृणानि तस्य प्रतिषेध इत्येतच्च जाष्यकृता प्राक् प्रपञ्चितमेवेति न प्रतन्यत इति गाथार्थः । उक्तो नवमोऽवयवः । सांप्रतं चरममनिधित्सुराह ॥ तम्हा उ सुरनराणं, पुद्यत्ता मंगलं सया धम्मो ॥ दसमो एस अवयवो, पन्नदेऊ पुणवयणं ॥ १५३ ॥ ॥ व्याख्या ॥ यस्मादेवं तस्मात्सुरनराणां देवमनुष्याणां पूज्यस्तद्भावस्तस्मात्पूज्यत्वान्मङ्गलं प्राग्निरूपितशब्दार्थं सदा सर्वकालं धर्मः प्रागुक्तः । दशम एषोऽवयव इति संख्याकथनम् । किं विशिष्टोऽयमित्यत श्राह । प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचनं पुनर्हेतुप्रतिज्ञावचनमिति गाथार्थः । उक्तं द्वितीयं दशावयवं । साधनाङ्गता चावयवानां विनेयापेक्षया विशिष्टप्रतिपत्तिजनकत्वेन जावनीयेत्युक्तोऽनुगमः । सांप्रतं नया उच्यन्ते । तेच नैगमसंग्रह व्यवहाररुजु सूत्रशब्दसम निरूढैवंभूतभेद निन्नाः खल्वोघतः सप्त जवन्ति । स्वरूपं चैतेषामेवावश्यके सामायिकाध्ययनेऽन्यदणे प्रदर्शितमेवातो नेह प्रतन्यते । इह पुनः स्थानाशून्यार्थमेते ज्ञान क्रियानयद्वयान्तर्भावद्वारेण समासतः प्रोच्यन्ते । ज्ञाननयः क्रियानयश्च । तत्र ज्ञाननयदर्शनमिदं ज्ञानमेव प्रधानमै हिकामुष्मिकफलावा सिकारणं युक्तियुक्तत्वात्तथा चाह ॥ णायंमि गिरिहयचे, गिडियांमि चेव मि ॥ जयवमेव इइ जो, उवएसो सो नर्ज नामं ॥ १५५ ॥ व्याख्या ॥ खायमिति । ज्ञाते सम्यक्परिन् । गिरिहयवेति । गृहीतव्य उपादेये । गिहियवं मिति । अगृहीतव्येऽनुपादेये हेय इत्यर्थः । चशब्दः खलूजयोर्ग्रहीतव्यागृही तयोर्ज्ञातत्वानुकर्षणार्थः । उपेक्षणीयसमुच्चयार्थो वा । एवकारस्त्ववधारणार्थः । तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्यः । ज्ञात एव गृहीतव्ये तथागृहीतव्ये तथोपेक्षणीये चार्थे तु - त एव नाज्ञाते । श्रमिति । श्रर्थेऽप्यैहिकामुष्मिके तत्रैहिको गृहीतव्यः स्रक्चन्दनाङ्गनादिः । गृहीतव्यो विषशस्त्रक एककादिः । उपेक्षणीयः तृणादिः । मुष्मिको गृहीतव्यः सम्यग्दर्शनादिः श्रगृहीतव्यो मिथ्यात्वादिः । उपेक्षणीयो विवक्षयाज्युदयादिरिति । तस्मिन्नर्थे यतितव्यमेवेति । अनुस्वारलोपाद्यतितव्यमेवमनेन क्र Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. मेणैहिकामुष्मिक फलप्राप्त्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः । इह चैवैतदङ्गीकर्तव्यम् । सम्यग्ज्ञाते प्रवर्तमानस्य फल विसंवाददर्शनात्तथाचान्येरयुक्तम् " || विज्ञप्तिः फलदा पुंसां न क्रिया फलदा मता ॥ मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलप्राप्तेरसंजवात् ॥” तथामुष्मिकफलप्रात्यर्थिनापि ज्ञात एव यतितव्यम् । तथा चामोऽप्येवमेव व्यवस्थितः । यत उक्तम् " ॥ पढमं नाणं त दया, एवं चिट्ठ‍ सव्वसंजये ॥ अन्नाणी किं काही, किंवा साहितिछेयपावगं ॥” इतश्च तदेवाङ्गीकर्तव्यम् । यस्मात्तीर्थकर गणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहार क्रियापि निषिद्धा । तथा चागमः " ॥ गीयत्रो य विहारो, वीर्ड गीयहमी सिउं चैव ॥ इत्तो तश्य विहारो, पान्नार्ज जिपवरेहिं ॥ " यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक्पन्थानं न प्रतिपयत इत्यनिप्रायः । एवं तावत्क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तं कायिकमङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयम् । यस्मादर्हतोऽपि नवाम्नोधितटस्थस्य दीक्षां प्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः संजायते यावजीवाजीवाखिलवस्तुपरिछेदरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्नमिति । तस्माज्ज्ञानमेव प्रधानमै हिकामुष्मिक फलप्राप्तिकारणमिति स्थितम् । इति ॥ जो उवएसो सो गर्न पामं ति । इत्येवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशो ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम ज्ञाननय इत्यर्थः । श्रायं च ज्ञानवचन क्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने ज्ञानरूपमेवेदमिच्छति ज्ञानात्मकत्वादस्य वचनक्रिये तु तत्कार्यत्वात्तदायत्तत्वान्नेच्छति । गुणनूते चेछति इति गाथार्थः । उक्तो ज्ञाननयः । अधुना क्रियानयावसरस्तद्दर्शनं चेदम् । क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिक फलप्राप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वात्तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपक्षसिद्धये गायामाह ॥ सायं मिगिरिहयवे, गिरिहयवं मि चेव मि ॥ जश्यवमेव इइ जो, उवएसो सोनट नामं ॥ १५५ ॥ व्याख्या ॥ अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या | ज्ञाते गृहीतव्ये गृहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुष्मिकफलप्रात्यर्थिना यतितव्यमेव । न य स्मात्प्रवृत्त्यादिलक्षण प्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्य जिलषितार्थावाप्तिर्दृश्यते । तथा चान्यैरप्युक्तम् ॥ क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् ॥ यतः स्त्रीजक्ष्यजोगो तज्ज्ञानाद्दुःखितो जवेत् । तथामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना क्रियैव कर्तव्या । तथा च मौनीन्प्रवचनमप्येवमेव स्थितम् । यत उक्तम् ॥ चेश्यकुलगणसंघे, आयरियाणं च पवयणसुए य ॥ सर्व्वसु वि तेण कथं, तवसंजममुद्यमं तेण ॥” इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम् । यस्मात्तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि फलमेवोक्तम् । तथाचागम: “| सुबहुंपि सुमहीयं, किं काही इ चलण विप्पमुक्कस्स ॥ धस्स जह पलित्ता, दीवस सहस्स कोडी वि ॥" दृश्य क्रियाविकलत्वात्तस्येत्य निप्रायः । एवं तावत्कायोपश 66 For Private Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीयाध्ययनम् । मिकं चारित्रमङ्गीकृत्योक्तम् । चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरम् । दायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृष्टफलसाधकत्वं तस्यैवं विज्ञेयम् । यस्मादहतोऽपि नगवतः समुत्पन्नकेवलज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्यवाप्तिः संजायते यस्मादखिलकर्मेन्धनानलनूता इस्वपञ्चाक्षरोच्चारणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवररूपा चारित्रक्रिया नावाप्तेति। तस्मात क्रियैव प्रधानमै हि. कामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम् । इति । जो जवएसो सोपणामं ति। इति एवमुक्तन्यायेन य उपदेशः। किम् । क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम क्रियानय :त्यर्थः। अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने क्रियारूपमेवेदामिछति। तदात्मकत्वादस्य ज्ञानवचने तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वान्नेछति । गुणजूते चेलतीति गाथार्थः । उक्तः क्रियानय श्वं ज्ञाननय क्रियानयस्वरूपं श्रुत्वाविदिततदनिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह । किमत्र तत्वं पदयेऽपि युक्तिसंनवादाचार्यः पुनराह ॥ सवेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तवयं निसामेत्ता ॥ तं सवनयविसुझं, जं चरणगुणहिट साह ॥ १५६ ॥ व्याख्या ॥ अथवा ज्ञान क्रियानयमतं प्रत्येकमनिधायाधुना स्थितपदमुपदर्शयन्नाह । सवेसि पि गाहा । सर्वेषामिति मूलनयानामपिशब्दात्तझेदानां च अव्या स्तिकायादीनां बहुविधवक्तव्यतां सामान्यमेव विशेषा एव उन्नयमेव वानपेयमित्यादिरूपामथवा नामादीनां नयानां कः कं साधुमितीत्यादिरूपां निशम्य श्रुत्वा तत्सर्वनय विशुद्धं सर्वनयसंमतं वचनम् । यच्चरणगुण स्थितः साधुः। यस्मात् सर्वनया एव जावविषयं निदेपमिन्छन्तीति गाथार्थः। उमपुल्फियनिद्युत्ती, समास वन्निया विनासाए ॥ जिण चउद्दसपुवी विरेण कहयंति से अहं॥ १५६ ॥ सुमपुल्फियनियुत्ती संमत्ता। उमपुफियगाहा सुगमा ॥ इत्याचार्यश्रीहरिजप्रसूरि विरचितायां दशवैकालिकटीकायां सुमपुष्पकाध्ययन समाप्तम् ॥१॥ व्याख्यायाध्ययनमिदं, प्राप्तं यत्कुशल मिह मया किंचित् ॥ सर्मलाजमखिलं लजतां जव्यो जनस्तेन ॥१॥ अथ श्रामण्यपूर्वकाध्ययनम् ॥२॥ . कहं नु कुद्या सामामं, जो कामे न निवारए । पए पए विसीदंतो, संकप्पस्स वसंग॥१॥ (अवचूरिः)॥ अथ द्वितीयाध्ययनम् ।नु देपे। यथा कथं नु स राजा यो न रदति । एवं कथं नु कुर्याबामण्यं यः कामान्न निवारयति । किमिति न करोति । तत्र हेतुमाह । पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः। कामानिवारणेनेन्द्रियाद्यपराधपदा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. पेक्ष्या पदे पदे विषीदनात्संकल्पस्य वशंगतत्वात्।अप्रशस्तोऽध्यवसायः संकल्पः ॥१॥ ___ (अर्थ) अथ द्वितीयाध्ययन।पूर्वोक्त अध्ययनमां धर्मप्रशंसा कही, तेथी धर्म जे , ते जिनशासनमांज बे,एम सिझ थयु. एवा धर्मउपर सद्दहणा राखीने जेमणे चारित्र ली, बे, एवा नवा दीक्षा लीधेला अधीरा साधुलोने जिनाम्नाय विषे मोह नहीं थवो जोश्ये, माटें साधुयें धृति (धैर्य) राखवी एम धैर्य राखवानो उपदेश अध्ययनमां कस्यो . कह्यु बे केः-“जस्स धिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सा गई सुलहा ॥ जे अधिश्मंत पुरिसा, तवो वि खलु ऽवहो तेसिं ॥ १॥” इति । एवा संबंधश्री प्राप्त थयेला श्रा अध्ययननुं नाम 'श्रामण्यपूर्वक' एवं बे, तेनो अर्थः-'श्राम्यंतीति श्रमणाः, तेषां जावः श्रामण्यं तस्य पूर्वं श्रामण्यपूर्वं तदेव श्रामण्यपूर्वकम् जे तपादि श्रम करे बे, ते श्रमण अर्थात् साधु जाणवा. तेमनो जे धर्म ते श्रामण्य जाणवू. तेनुं जे पूर्व कारण ते धृति (धैर्य) जाणवी. तेनुं प्रतिपादन जेमां करेलुं , ते अध्ययनने पण श्रामण्यपूर्वक अध्ययन कहियें. हवे अध्ययनना प्रथम सूत्रमा साधुयें वस्त्रादिक अव्यकाम तथा नोगेछारूप जावकाम अवश्य वर्जववा जोश्ये, ते कहे . (जो के०) यः एटले जे पुरुष (कामे के०) कामान् एटले व्यत्नावरूप बे प्रकारना कामने (न निवारए के०) न निवारयति । एटले त्याग करतो नथी. ते पुरुष, कामत्याग न कस्याथी (पए यए के ) पदे पदे एटले पगले पेगले (विसीअंतो के) विषीदन् एटले विषयपरिग्रहथी विखवाद पामतो थको, अने ( संकप्पस्स के०) संकल्पस्य एटले अप्राप्त विषनी प्राप्तीने वास्ते अप्रशस्त अध्यवसायरूप संकल्पने (वसं ग के०) वसंगतः एटले वश थयो थको (सामन्नं के०) श्रामण्यं एटले चारित्रने (कहं नु के०) कथं नु ए. टले कया प्रकारें (कुजा के०) कुर्यात्, पालयेत् एटले पालशे. शहां खातानो दृष्टांत जाणवो ॥१॥ (दीपिका) प्रथमाध्ययने धर्मप्रशंसा उक्ता सा च इहैव जिनशासने इह तु अध्ययने जिनशासनेङ्गीकृते सति मा नूत् नवदीक्षितस्य संयमेऽधृतिरतो धृतिमता नाव्यमित्येतदुच्यते इत्यनेन संबन्धेन आयातमिदमध्ययनं व्याख्यायते । कथं केन प्रकारेण । नु इति देपे । यथा कथं नु स राजा यो न रक्षति प्रजाम् । कथं नु स वैयाकरणो योऽपशब्दं प्रयुङ्क्ते। कुर्यात् श्रामण्यं श्रमणनावम् । यः कामान् न निवारयति । कारणमाह । श्रामण्यस्याकरणे पदे पदे स्थाने स्थाने विषीदन् विषादं प्राप्नुवन् संकल्पस्य वशं गतः । न केवलमयमधिकृतसूत्रोक्तः यथोकश्रामण्याजावेन श्र Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G३ दशवैकालिके वितीयाध्ययनम् । श्रमणः किंतु आजीविका दिलावेन प्रबजितः संक्लिष्टचित्तो व्यक्रियां कुर्वन्नप्य. श्रमण एव ॥१॥ (टीका ) व्याख्यातं घुमपुष्पिकाध्ययनमधुना श्रामण्यपूर्वकाख्यमारज्यते । अस्य चायमनिसंबन्धः। श्हानन्तराध्ययने धर्मप्रशंसोक्ता । सा चेहैव जिनशासन इति । इह तु तदन्युपगमे सति मा नूद निनवप्रव्रजितस्याधृतेः संमोह इत्यतो धृतिमता न. वितव्यमित्येतफुच्यते । उक्तं च “॥ जस्स घिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सुग्गई सुलना ॥ जे अधिश्मंत पुरिसा, तवो वि खलु पुखहो तेसिं ॥” अनेना।नसंबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगहाराणि पूर्ववन्नवरं नामवदध्ययन विषयत्वामुपक्रमादिधारकलापस्य व्याप्तिप्राधान्यतो नाम निष्पन्नं निदेपमनिधित्सुराह नियुक्तिकारः ॥ सामन्नपुवगस्स उ, निकेवो होश नामनिप्फन्नो ॥ सामन्नस्स चनको, तेरसगो पुवयस्स जवे ॥ १५७ ॥ व्याख्या ॥ श्राम्यतीति श्रमणः । श्राम्यति तपस्यति । तनावः श्रामण्यं तस्य पूर्वं कारणं श्रामण्यपूर्वं तदेव श्रामण्यपूर्वकमिति । संज्ञायां कन् । श्रामण्यकारणं च वृतिस्तन्मूलत्वात्तस्य । तत्प्रतिपादकं चेदमध्ययनमिति नावार्थः । अतः श्रामण्यपूर्वकस्य तु निदेपो नवति नामनिष्पन्नः । कोऽसावन्यस्याश्रुतत्वान्नामण्यपूर्वकमित्ययमेव । तुशब्दः सामान्यविशेषवन्नामविशेषणार्थः । श्रामण्यपूर्वकमिति सामान्यम्।श्रामण्यं पूर्व चेति विशेषः।तथा चाह।श्रामण्यस्य चतुककस्त्रयोदशकः पूर्वकस्य नवे निक्षेप इति गाथार्थः। निक्षेपमेव विवृणोति ॥ समणस्स उ निकेवो, चउकळ होश आणुपुवीए ॥ दवे सरीरजविलं, नावेण उ संज समणो ॥ १५७ ॥ व्याख्या ॥ श्रमणस्य तु। तुशब्दोऽन्येषां च मङ्गलादीनामिह तु श्रमणेनाधिकार इति विशेषणार्थः । निदेपश्चतुर्विधो नवत्यानुपूर्व्या नामादिक्रमेण । नामस्थापने पूर्ववत् । अव्यश्रमणो विधा । आगमतो नोआगमतश्च । आगमतो झातानुपयुक्तः । नोआगमतस्तु इशरीरजव्यशरीरतघ्यतिरिक्तोऽजिलापन्नेदेन घुमवदवसेयस्तं चानेनोपलक्ष्यति । दवे सरीरजवि त्ति । नावश्रमणोऽपि विविध एव । आगमतो ज्ञातोपयुक्तः। नोवागमतस्तु चारित्रपरिणामवान् यतिः। तथा चाह । जावतस्तु संयतः श्रमण इति गाथार्थः। अस्यैव स्वरूपमाह ॥ जह मम न पियं उकं, जाणिय एमेव सबजीवाणं ॥ न हण न हणावश् य, सममणई तेण सो समजो ॥ १५ए ॥ व्याख्या ॥ यथा मम न प्रियं पुःखं प्रतिकूलत्वाज्ज्ञात्वैवमेव सर्वजीवानां फुःखप्रतिकूलत्वम् न हन्ति स्वयं, न घातयत्यन्यैः । च शब्दाद् मन्तं च नानुमन्यते अन्यम् । इत्यनेन प्रकारेण समम् अणति तुल्यं गति --यतस्ते Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. नासो श्रमण इति गाथार्थः ॥ नहि य सि को वेसो, पिठ व सवेसु चेव जीवेसु ॥ एएण हो समणो, एसो अन्नो वि पद्या ॥ १६० ॥ व्याख्या ॥ नास्ति च सि तस्य कश्चिद् द्वेष्यः प्रियो वा सर्वेष्वेव जीवेषु तुल्यमनस्त्वात् । एतेन नवति सममनाः । समं मनोऽस्येति सममनाः । एषोऽन्योपि पर्याय इति गाथार्थः ॥ तो समणो ज सुमणो, नावेण य ज न हो पावमणो ॥ सयणे य जणे य समो, समो उ माणावमाणेसु ॥ १६१ ॥ व्याख्या ॥ ततः श्रमणो यदि सुमनाः । अव्यं मनः प्रतीत्य नावेन च यदि न जवति पापमनाः । एतत्फलमेव दर्शयति । स्वजने च जने च समः । समश्च मानापमानयोरिति गाथार्थः ॥ उरगगिरिजलणसागर-नहयलतरुगणसमो य जो होई ॥ नमरमिगधरणिजलरुह-रविपवणसमो य उ समणो ॥ १६२ ॥ व्याख्या ॥ उरगसमः परकृतविलनिवासित्वादाहारानास्वादनात्संयमैकदृष्टित्वाच्च । गिरिसमः परीषहपवनाकम्प्यत्वात् । ज्वलनसमस्तपस्तेजःप्रधानत्वात् । तृणादिष्विव सूत्रार्थेष्वतृप्तेः । एषणीयाशनादौ वा विशेषप्रवृत्तेरिति । सागरसमो गम्नीरत्वाज्झानादिरत्नाकरत्वात्स्वमर्यादानतिक्रमाच । ननस्तलसमः सर्वत्र निरालम्बनत्वात् । तरुगणसमः अपवर्गफलार्थिसत्त्वशकुनालयत्वात् वासीचन्दनकरूपत्वाच्च । जमरसमः अनियतवृत्तित्वात् । मृगसमः संसारजयोछिन्नत्वात् । धरणिसमः सर्वखेदसहिष्णुत्वात् । जलरुहसमः कामनोगोभवत्वेऽपि पङ्कजलान्यामिव तदूर्ध्ववृत्तेः । रविसमः धर्मास्तिकायादिलोकमधिकृत्य विशेषेण प्रकाशकत्वात् । पवनसमः अप्रतिबझविहारित्वात् । श्वमुरगादिसमश्च यतो नवति । ततः श्रमण इति गाथार्थः ॥ विसतिणिसवायवंजुल-कणियारुप्पलसमेण समणेण ॥ नमरुंकुरुनडकुकुड-अदागसमेण होयचं ॥ १६३ ॥ ॥ व्याख्या ॥ श्रमणेन विषसमेन नवितव्यं नावतः सर्वरसानुपातित्वमधिकृत्य । तथा तिनिशसमेन मानपरित्यागतो नश्रेण । वातसमेनेति पूर्ववत् । वज़ुलो वेतसस्तत्समेन क्रोधादिविषानिनूतजीवानां तदपनयनेन । एवं हि श्रूयते किल वेतसमवाप्य निर्विषा नवन्ति सर्पा इति । कर्णिकारसमेनेति । तत्पुष्पवत्प्रकटेन अशुचिगन्धापेक्षया च निर्गन्धेनेति । उत्पलसदृशेन प्रकृतिधवलतया सुगन्धित्वेन च । जमरसमेनेति पूर्ववत् । उन्फुरुसमेन उपयुक्तदेशकालचारितया । नटसमेन तेषु तेषु प्रयोजनेषु तत्तद्वेषकरणेन । कुर्कुटसमेन संविनागशीलतया । स हि किल प्राप्तमाहारं पादेन विक्षिप्यान्यैः सह जुत इति । आदर्शसमेन निर्मलतया तरुणाद्यनुवृत्तिप्रतिबिम्बनावेन च ॥ उक्तं च “॥ तरुणं मि हो तरुणो, थेरो थेरेहिं डहरए उहरो ॥ अद्दा विव रूवं, अणुयत्तश् जस्स जं शीलं ॥” एवंजूतेन श्रमणेन नवित Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीयाध्ययनम् । ՃԱ व्यमिति गाथार्थः । इयं किल गाथा जिन्नकर्तृकी ॥ छातः पवनादिषु न पुनरुक्तदोष इति । सांप्रतं तत्त्वदपर्यायैर्व्याख्येति न्यायाधूमणस्यैव पर्यायशब्दान निधिसुराह ॥ as अणगारे, पासंडे चरगतावसे निकू ॥ परिवाइये य समणे, निग्गंथे संजए मुते ॥ १६४ ॥ व्याख्या ॥ प्रकर्षेण त्रजितो गतः प्रत्रजितः । आर 1 परिग्रहादिति गम्यते । अगारं गृहं तदस्यास्तीत्यगारो गृही । न अगारोऽनगारः । व्यावगृहरहित इत्यर्थः । पाखएकं व्रतं तदस्यास्तीति पाखएकी । उक्तं च " ॥ पाखएक व्रतमित्याहुस्तद्यस्यास्त्यमलं जुवि ॥ स पाखएकी वदन्त्यन्ये, कर्मपाशाद्विनिर्गतः ॥" चरतीति चरकस्तप इति गम्यते । तपोऽस्यास्तीति तापसः । निक्षणशीलो निकुः । नित्ति वाष्टप्रकारं कर्मेति निक्षुः । परि समन्तात्पापवर्जनेन - जति गच्छतीति परिव्राजकः । चः समुच्चये । श्रमणः पूर्ववत् । निर्गतो ग्रन्थान्निर्ग्रन्थः बाह्याज्यन्तरग्रन्थरहित इत्यर्थः । समेकी जावेनाहिंसादिषु यतः प्रयत्नवान् संयतः । मुक्तो बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेनैवेति गाथार्थः ॥ तिन्ने ताई दविए, मुणीय खंते य दंतविरए य ॥ लूहे तीरहे वि य, हवंति समणस्स नामाई ॥ १६५ ॥ व्याख्या ॥ तीर्णवांस्तीर्णः संसारमिति गम्यते । त्रायत इति त्राता धकथा दिना संसारदुःखेन्य इति जावः । रागादिनावर हितत्वाद्द्रव्यम् । द्रवति गछति तांस्तान् ज्ञानादिप्रकारानिति द्रव्यम् । मुनिः पूर्ववत् । चः समुच्चये । दाम्यतीति शान्तः क्रोधविजयी । एवमिन्द्रियादिदमनाद्दान्तः । विरतः प्राणातिपातादिनिवृत्तः । स्नेहपरित्यागाडूः । तीरेणार्थोऽस्येति तीरार्थी । संसारस्येति गम्यते । तीरस्थो वा सम्यक्त्वादिप्राप्तेः संसारपरिमाणात् । एतानि जवन्ति श्रमणस्य नामानि निधानानीति गाथार्थः । निरूपितः श्रमणशब्दः । अधुना पूर्वशब्दश्चिन्त्यते । अस्य च त्रयोदशविधो निक्षेपः । तथा चाह ॥ णामं ववणा दविए, खेत्ते काले दिसि जावखेत्ते य ॥ पन्नगपुववतू, पाहुडा पाहुडे जावे ॥ १६६ ॥ ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापने कुले । द्रव्यपूर्वमङ्कराद्दीजं दनः क्षीरं फाणितास इत्यादि । त्रपूर्वं यवक्षेत्राला विक्षेत्रं तत्पूर्वकत्वात्तस्य । अपेक्षया चान्यथाप्यदोषः । कालपूर्व पूर्वः कालः शरदः प्रावृद, रजन्या दिवस इत्यादि । यावलिकाया वा समय इत्यादि । दिक्पूर्वं पूर्वा दिगियं च रुचकापेक्षया । तापक्षेत्रपूर्वमादित्योदयमधिकृत्य यत्र या पूर्वा दिकू । उक्तं च " जस्स जर्ज यदिच्चो, उदेश सा तस्स होइ पुत्र दिसा ||" इत्यादि । प्रज्ञापकपूर्वं प्रज्ञापकं प्रतीत्य पूर्वा दिकू । यदजिमुख एवासौ सैव पूर्वा । पूर्वपूर्वं चतुर्दशानां पूर्वाणामाद्यं तच्च उत्पादपूर्वम् । एवं वस्तुप्रानृतातिप्रानृतेष्वपि योजनीयम् । अप्रत्यक्षस्वरूपाणि चैतानि । जावपूर्वमाद्यो जावः स For Private Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. चौदयिक इति गाथार्थः । उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः । सांप्रतं सूत्रालापकनिपन्न निदेपस्यावसरः । इत्यादि वचः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् तच्चे दम् । कहं नु कुजा इत्यादि । इह च संहितादिक्रमेण प्रतिसूत्रं व्याख्याने ग्रन्थगौरव मिति तत्परिज्ञाननिबन्धनं नावार्थमात्रमुच्यते । तत्रापि कत्यहं कदाहं कथमहमित्याद्यदृश्यपान्तरपरित्यागेन दृश्यं व्याख्यायते। कथं नु कुर्याद्ब्रामण्यं यः कामान्न निवारयति । कथं केन प्रकारेण । नु देपे। यथा कथं नु स राजा यो न रदति । कथं नु स वैयाकरणो योऽपशब्दान् प्रयुङ्क्ते । एवं कथं नु कुर्याद्रामण्यं श्रमणनावं यः कामान् न निवारयति न प्रतिषेधते । किमिति न करोति । तत्र “ निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विजक्तीनां प्रायो दर्शनम्” इति वचनात् । कारणमाह । पदे पदे विषीदन् संकपस्य वशं गतः । कामानिवारणेनेन्डियाद्यपराधपदापेक्षया पदे पदे विषीदनासंकल्पस्य वशंगतत्वात् । अप्रशस्ताध्यवसायः संकल्पः । इति सूत्रसमासार्थः । अवयवार्थं तु सूत्रस्पर्श निर्युक्त्या प्रतिपादयति । तत्रापि शेषपदार्थान् परित्यज्य कामपदार्थस्य हेयतयोपयोगित्वात्स्वरूपमाह ॥ नामंग्वणाकामा, दवकामा य नावकामा य ॥ एसो खलु कामाणं, निकेवो चनविहो हो॥ १६७ ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापनाकामा इत्यत्र कामशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते । अव्यकामाश्च नावकामाश्च । चशब्दो स्वगतानेकन्नेदसमुच्चयार्थी । एष खलु कामानां निदेपश्चतुर्विधो नवतीति गाथार्थः। तत्र नामस्थापने कुप्मत्वादनादृत्य अव्यकामान् प्रतिपादयन्नाह ॥ सदरसरूवगंधफासा उदयंकरा य जे दवा ॥ सुविहा य नावकामा, इलाकामा मयणकामा ॥ १६७ ॥ व्याख्या ॥ शब्दरसरूपगन्धस्पर्शाः । मोहोदयानिनूतैः सत्त्वैः काम्यन्त इति कामाः । मोहोदयकारीणि च यानि व्याणि संघाटकविकटमांसादीनि । तान्यपि मदनकामाख्यनावकामहेतुत्वाव्यकामा इति । नावकामानाह । विविधाश्च हिप्रकाराश्च नावकामा नाकामा मदनकामाश्च । तत्रैषण मिठा सैव चित्तानिलाषरूपत्वात्कामा श्छाकामाः । मदयतीति मदनः चित्ते मोहोदयः स एव कामप्रवृत्तिहेतुत्वात्कामा मदनकामा इति गाथार्थः । श्छाकामान् प्रतिपादयति ॥ श्छा पसबमपस-बिगा य मयणं मि चेय उवउंगो ॥ तेण हिगारो तस्स उ, वयंति धीरा निरुत्तमिणं ॥ १६ए ॥ व्याख्या ॥ श्छा प्रशस्ता अप्रशस्ता च । अनुस्वारोऽलादणिकः। मुखसुखोचारणार्थः । तत्र प्रशस्ता धर्मेडा मोदेला । अप्रशस्ता युद्धेला राज्येठा। उक्ता श्छाकामाः। मदनकामानाह । मदन इत्युपलक्षणार्थत्वान्मदनकामे निरूप्ये। कोऽसावित्यत आह । वेदोपयोगः वेद्यत इति वेदः स्त्रीवेदादिस्तऽपयोगस्तहिपा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ១ दशवैकालिके हितीयाध्ययनम् । कानुनवनम् । तघ्यापार श्त्यन्ये । यथा स्त्री वेदोदयेन पुरुषं प्रार्थयत इत्यादि । तेनाधिकार इति मदनकामेन । शेषा उच्चारितसदृशा इति प्ररूपितास्तस्य तु मदन- . कामस्य वदन्ति धीरास्तीर्थकरगणधरा निरुक्तमिदं वदयमाणलक्षणमिति गाथार्थः ॥ विसयसुहेसु पसलं, अबुहजणकामरागपडिबकं ॥ उकामयंति जीवं, धम्माई तेण ते कामा ॥ १७० ॥ व्याख्या ॥ विषीदन्त्यावध्यन्ते एतेषु प्राणिन इति विषयाः शब्दादयः तेन्यः सुखानि तेषु प्रसक्तः आसक्तस्तं जीवमिति योगः । स एव विशिष्यते । अबुधोऽविपश्चिजानः परिजनो यस्य स अबुद्धजनस्तमकल्याण मित्रपरिजनमित्यर्थः। अनेन बाह्यं विषयसुखप्रसक्तिहेतुमाह । कामरागप्रतिबझमिति । कामा मदनकामास्तेन्यो रागा विषयानिष्वङ्गास्तैः प्रतिबको व्याप्तस्तम् । अनेन त्वान्तरं विषयसुखप्रसक्तिहेतुमाह । ततश्चाबुधजनत्वात्कामरागप्रतिबकत्वाच्च विषयसुखेषु प्रसक्तमिति जावः। किम् । निरुक्तवैचित्र्यादाह । तत्प्रत्यनीकत्वामुक्रामयन्त्यपनयन्ति जीवमनन्तर विशेषितम् । कुतो धर्मात् । यत्तदोनित्यानिसंबन्धात् । येन कारणेन तेन सामान्येनैव कामरागाः कामा इति गाथार्थः। अन्ये पठन्ति । उकामयन्ति यस्मादिति । अत्र चाबुधजन एव विशेष्यः। शेषं पूर्ववत् ॥ अन्नं पि य से नामं, कामा रोगत्ति पंडिया बिंति ॥ कामे पबेमाणो, रोगे पडे खलु जंतू ॥ १७१ ॥ व्याख्या ॥ अन्यदपि चैषां कामानां नाम । किनूतमित्याह । कामा रोगा इति एवं परिमता ब्रुवते । किमित्येतदेवमत आह । कामान्प्रार्थयमानोऽनिलषन् रोगान्प्रार्थयते खलु जन्तुस्तपत्वादेव कारणे कार्योपचारादिति गाथार्थः। श्वं पूर्वार्धे सूत्रस्पर्शनियुक्तिमनिधायाधुनोत्तरार्धे पदावयवमधिकृत्याह ॥ णामपयं ठवणपयं, दवपयं चेव होश नावपयं ॥ एकेकं पि य एत्तो, णेगविहं होश नायवं ॥ १२ ॥ व्याख्या ॥ नामपदं स्थापनापदं अव्यपदं चैव जवति जावपदम् । एकैकमपि चात एतेन्योऽनेकविधं नवति ज्ञातव्यमिति गाथार्थः । अवययार्थं तु नामस्थापने कुम्मत्वादनादृत्य व्यपदमनिधित्सुराह ॥ श्राहिमउकिन्नं, उमेधं पीलिमं च रंगं च ॥ गंथिमपूरिमवेढिम-वाश्मसंघाश्मं बेद्यं ॥ १७३ ॥ व्याख्या ॥ आकोहिमं जहा रूव हेहा वि उवरिं पि मुहं काऊण आजडिजत्ति । उत्कीर्णं शिलादिषु नामकादि। तहा बजलादिपुप्फसंगणाणि चिस्कदमयपडिबिंबगाणि कार्य पवंति। त तेसु वग्धारित्ता मयणं बुप्पत्ति । त मयणमया पुप्फा हवंति । एतफुपनेयम् । पीडावच्च संवेष्टितवस्त्रजङ्गावलीरूपं रत्तावयवछवि विचित्तरूवं रङ्गं । चः समुच्चये। ग्रथितं मालादि। वेष्टिमं पुष्पमयमुकुटरूपम् । चिकदमयं कुशिमकारूपम् । अणेगबिदं पुष्फथामं पूरिमं । वातव्यं कुर्विदै. वस्त्र विनिर्मितमश्वादि । संघात्यं कंचुकादि । डेयं पत्रछेद्यादि । पदता चास्य पद्यते Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद नाग तेतालीस-(४३)-मा. ऽनेनेत्यर्थयोगात् । व्यता च तड्पत्वादिति गाथार्थः । उक्तं अव्यपदमधुना नावपदमाह ॥ नावपयं पि य सुविहं, अवराहपयं च नो य अवराहं॥ नोअवराहं उविहं ,माजग नोमाउगं चेव ॥१७॥व्याख्या ॥ नावपदमपि च विविधम् । दैविध्यमेव दर्शयति । अपराधहेतुनूतं पदमपराधपदमिन्छियादि वस्तु । चशब्दः स्वगतानेकनेदसमुच्चयार्थः । णोअवराहं ति । चशब्दस्य व्यवहितोपन्यासान्नोअपराधपदं च। चः पूर्ववत् । नोअपराधमिति । नोअपराधपदं विविधम् । माउअनोमान्थं चेव त्ति । मातृकापदं नोमातृकापदं च । तत्र मातृकापदं मातृकादराणि । मातृकानूतं वा पदं मातृकापदम् । यथा दृष्टिवादे “ उप्पन्ने वा” इत्यादि । नोमातृकापदं त्वनन्तरगाथया वक्ष्यतीति गाथार्थः ॥ नोमानगं पिछविहं, गहियं च पश्नयं च बोडवं ॥ गहियं चउप्पयारं, पन्नगं होश अणेग विहं ॥ १७५ ॥ व्याख्या ॥ नोमाजयं पित्ति । नोमातृकापदमपि विविधम् । कथमित्याह । ग्रथितं च प्रकीर्णकं च बोकव्यम् । ग्रथितं रचितं वझमित्यनर्थान्तरम् । अतोऽन्यत्प्रकीर्णकं प्रकीर्णककथोपयोगिझानपदमित्यर्थः । ग्रथितं चतुःप्रकारं गद्यादिनेदात् । प्रकीर्णकं नवत्यनेकविधमुक्तलक्षणत्वादेवेति गाथार्थः । ग्रथितम निधातुकाम आह ॥ गद्यं पद्यं गेयं, चुन्नं च चनविहं उ गहियपयं ॥ तिसमुहाणं सवं, श्ह बॅति सलकणा कश्णो॥१७६॥व्याख्या॥ गद्यं पद्यं गेयं चौर्णं च चतुर्विधमेव ग्रथितपदम् । एनिरेव प्रकारैर्ग्रथनात् । एतच्च त्रिन्यो धमार्थकामेन्यः समुबानं तहिषयत्वेनोत्पत्तिरस्येति त्रिसमुबानं सर्वं निरवशेषम् । आह । एवं मोदसमुबानस्य गद्यादेरनावप्रसङ्गः । न, तस्य धर्मसमुछान एवान्त वात् । धर्मकार्यत्वादेव मोदस्येति । लौकिकपदलदणमेवैतदित्यन्ये । अतस्त्रिसमुबानं सर्वम् २ एवं ब्रुवते सलक्षणा लक्षणाः कवय इति गाथार्थः । गद्यलक्षणमाह ॥ महुरं हेजनिजुत्तं, गहियमपायं विरामसंजुत्तं ॥ अपरिमियं चवसाणे, कवं गचं ति नायवं ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ मधुरं सूत्रार्थोनयैः श्रव्यम् । हेतु नियुक्तं सोपपत्तिकम्। ग्रथितं बद्धमानुपूर्व्या। अपादं विशिष्टबन्दोरचनायोगात्पादवर्जितम् । विरामोऽवसानं तत्संयुक्तमर्थतो न तु पाठतः इत्येके ॥ जहा जिणवरपादारविंदसंदाणिजरुणिम्मलस्सहस्सएवमादि। असमाणि न चिहत्ति । यतिविशेषसंयुक्तम् अन्ये । अपरिमितं चावसाने बृहनवतीत्येके । अन्ये त्वपरिमितमेव नवति बृहदित्यर्थः । अवसाने मृषु पठ्यत इति शेषः । काव्यं गद्यमित्येवंप्रकारं ज्ञातव्यमिति गाथार्थः । श्रधुना पद्यमाह ॥ पयं तु होइ तिविहं, सममफसमं च नाम विसमं च ॥ पाएहिं अकरेहिं य, एव विहलू कई बेंति ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ पद्यम्। . तु शब्दो विशेषणार्थः । नवति त्रिविधं त्रिप्रकारं सममर्धसमं च नाम विषमं च । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीयाध्ययनम् । नए कैः सममित्यादि। अत्राह । पादैरदरैश्च । पादैश्चतुःपादादिजिरदरैरुलघुनिः। अन्ये तु व्याचक्षते । समं यत्र चतुर्वपि पादेषु समान्यवराणि । अर्धसमं यत्र प्रथमतृतीय- , योर्षितीयचतुर्थयोश्च समान्यवराणि । विषमं तु सर्वपादेष्वेव विषमादरमित्येवं विधिज्ञाश्चन्दःप्रकारज्ञाः कवयो ब्रुवत इति गाथार्थः। अधुना गेयमाह ॥ तंतिसमं तालसमं, वलसमं गहसमं लयसमं च ॥ कवं तु होश गेयं ,पंचविहं गीयसन्नाए ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ तन्त्रीसमं तालसमं वर्णसमं ग्रहसमं लयसमं च काव्यं तु जवति । तुशब्दोऽवधारणार्थ एव। गीयत इति गेयं पञ्चविधमुक्तैर्विधिमिर्गीतसंज्ञायां गेयाख्यायाम्। तत्र तन्त्रीसमं वीणादि तन्त्रीशब्देन तुल्यं मिलितं च । एवं तालादिष्वपि योजनीयम् । नवरं ताला हस्तगमाः। वर्णा निषादपञ्चमादयः । ग्रहा उत्देपाः प्रारम्नरजसविशेषा इत्यन्ये । लयाः तन्त्रीस्वनविशेषाः। तब किल कोणएण तंती बिप्प। त पहेहि अणुमविद्य। तब अलारिसो सरो उमेश । सो लयो ति गाथार्थः । सांप्रतं चौर्ण पदमाह ॥ अलबहुलं महलं, हेउनिवाउँवसग्गगंजीरं ॥ बहुपायमवोछिन्नं, गमणयसुझं च चुन्नपयं ॥१०॥ नोअवराहपयं गयं ॥ व्याख्या ॥ अर्थो बहुलो यस्मिंस्तदर्थबहुलम् ॥ कचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिहिलाषा कचिदन्यदेव ॥ विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ॥ ततश्चैनिः प्रकारैर्बह्वर्थम् । महान् प्रधानो हेयोपादेयप्रतिपादकत्वेनार्थो यस्मिंस्तन्महार्थम् । हेतुनिपातोपसगैंगनीरम् । तत्रान्यथानुपपत्तिलक्षणो हेतुः। यथा मदीयोऽयमश्वो विशिष्टचिह्नोपलक्षितत्वात् । चवाखल्वादयो निपाताः । पर्युतसमवादय उपसर्गाः। एजिरगाधम् । बहुपादमपरिमितपादम् । अव्यवछिन्नं श्लोकवधिरामरहितम् । गमनयैः शुद्धम् । गमास्तदक्षरोच्चारणप्रवणा जिन्नार्थाः । यथा श्ह खबु बजीवणिया , कयरा खलु सा जीवणिया ॥ इत्यादि । नया नैगमादयः प्रतीताः । तुरवधारणे। गमनयशुछमेव । चौर्ण पदं ब्रह्मचर्याध्ययनपदवदिति गाथार्थः । उक्तं ग्रथितं प्रकीर्णकं लोकादवसेयम् । उक्तं नोअपराधपदमधुना अपराधपदमाह ॥ इंदियविसयकसाया, परीसहा वेयणा य उवसग्गा ॥ एए अवराहपया, जब विसीयंति उम्मेहा ॥ ११ ॥ व्याख्या । इंजियाणि स्पर्शनादीनि । विषयाः स्पर्शादयः । कषायाः क्रोधादयः । शन्जियाणि चेत्यादिछन्छः। परीषहाः कुत्पिपासादयः । वेदना अशातानुजवलक्षणाः। उपसर्गा दिव्यादयः । एतान्यपराधपदानि मोक्षमार्ग प्रत्यपराधस्थानानि । यत्र येष्विन्छियादिषु सत्सु विषीदन्ति श्राबध्यन्ते । किं सर्व एव । नेत्याह । उमेंधसः दुबकवत् । कृतिनस्तु एजिरेव कारणजूतैः संसारकान्तारं तरन्तीति गाथार्थः । कुखकस्तु पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः। कोऽसौ खुलउ ति । कहा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एल राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. णयं । कुंकण जहा एगो खंतो सपुत्तो पवळ । सो य चेवढ तस्स अश्व को। सीयमाणो य जण। खंता ण सकेमि अणुवाहणो हिंडिलं । अणुकंपाए खंतेण दिला उवाहणा । ताहे जण । उवरितला सीएण फुटुंति । खविता से कया। पुणो जण । सीसं मे अश्व डलर । ताहे सीसवारिया से अणुमाया । ताहे जण। ण सकेमि लिकं हिंडिलं । तो से पमिसए हियस्स थाणे । एवं ण तरामि खंत नूमीए सुविछं। ताहे संथारो से अणुमाउँ । पुणो जण । ण तरामि खंत लोयं काउं । तो खुरेण पकि धियं । ताहे जण । अन्हाणयं न सकेमि । तर्ड से फासुयपाणएण कप्पो दिद्यश् । आयरियपाउग्गं वजुयलयं धिप्पश् । एवं जं जं नण तं तं सो खंतो णेहपडिबको तस्सणुजाण । एवं काले गठमाणे पनणि । न तरामि अविरययाए विणा अनिलं खंतत्ति । ताहे खंतो जण। सढो अजोगो त्ति काऊण पडिसया णिप्फेडि । कम्मं कालं ण याणेश् । अयाणंतो बणसंखडीए धणिं काऊं अजिमेण मर्छ । विसयविसट्टो मरिलं महिसो आयाउँ वाहिद्य। सो य खंतो सामलपरियागं पालेऊण श्राजरकये कालग देवेसु उववलो। उहिं पगंज। हिणा आनोएऊण तं चेवयं पुवणेदेणं तेसिं गाहाणं हब किण। वेनवियन्नंमीए जोएश वाहेश य गरुगं तं । अतरंतो वोढुं तोत्तएण विंधेलं नण ण तरामि खंता निकं हिंडिलं । एवं नूमीए सयणं लोयं कालं एवं ताणि वयपाणि सवाणि उच्चारे जाव अविरययाए विणा न तरामि खंतत्ति । ताहे एवं नणंतस्स तस्स महिसस्स श्मं चित्तं जायं कहं एरिसं वकं सुशं ति। ताहे ईहापूहमग्गणगवेसणं करे। एवं चिंतयंतस्स तस्स जाईसरणं समुप्पन्न। देवेण उही पउत्ता। संबुझो पछा जत्तं पञ्चरकाश्त्ता देवलोगं गर्छ । एवं पए पए विसीदंतो संकप्पस्स वसं गह। जम्हा एस दोसो तम्हा अहारससीलंगसहस्साणं सारणाणिमित्तं एए अवराहपए वोद्य । तथा चाह ॥ अहारसज सहस्सा, सीलंगाणं जिणेहिं पन्नत्ता ॥ तेसि पडिरकणा, श्रवराहपए उ वद्येचा ॥ १२ ॥ व्याख्या ॥ अष्टादशसहस्राणि । तुरवधारणे । अष्टादशैव शीलं नावसमाधिलक्षणं तस्याङ्गानि नेदाः कारणानि वा । शीलाङ्गानि तेषां जिनैः प्रानिरूपितशब्दाथैः प्रज्ञतानि प्ररूपितानि । तेषां शीलाङ्गानां परिरक्षणार्थ परिरक्षण निमित्तमपराधपदानि प्राग्निरूपितखरूपानि वर्जयेजाह्यादिति गाथार्थः । सांप्रतं शीलागसहस्त्रप्रतिपादनोपायचूतमिदं गाथासूत्रमाह ॥ जोए करणे सन्ना, इंदियनोमा समणधम्मे य ॥ सीलंगसहस्साणं, अहारसगस्स निप्फत्ती ॥ १३ ॥ सामन्नपुवयनियुत्ती संमत्ता ॥ २ ॥ व्याख्या ॥ तब ताव जोगो तिविहो काएण वायाए मणेणं ति । करणं तिविहं कयं कारियं अणुमो Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीयाध्ययनम्। ए श्यासमा चलबिहा।तं जहा।थाहारसमा जयसमा मेहुणसमा परिग्गहसमा।इंदिए पंचातं जहा । सोईदिए. चर्किदिए, घाणिं दिए, जिप्रिंदिए, फासिंदिए । पुढविकायाश्या पंचाबेदिया जाव पंचिंदिया। अजीवनिकायपंचमा । समणधम्मो दसविहो। तं जहा । खंती, मुत्ती,अजवे मदवे लाघवे सच्चे तवे संजमे य आकिंचणिया बंजचेरवासे एसा गणपरूवणा । श्याणिं अहारसण्हं सीलंगसहस्साणं समुकित्तणा। काएणं न करेमि । श्राहारसन्नापडिविरए सोइंदियपरिसंवुडे पुढविकायसमारंजपडिविरए खंतिसंपजुत्ते। एस पढमो गमः । श्याणिं बिर्थ नमः । कारणं ण करेमि । आहारसलापडिविरए सोइंदियपरिसंवुडे पुढ विकायसमारंजपडिविरए मुत्तिसंपजुत्ते। एस विळ गम । श्याणिं तश्य । एवं एएण कमेण जाव दसमो गमऊ। बंजचेरसंपउत्तो एस दसम गम । एए दस गमा पुढविकायसंजमं अमुंचमाणेण लहा। एवं आजकाएण वि दस चेव। एवं जाव तेजकाएण वि दस एवं जाव अजीवकाएण वि दस । एवमेयं अणूणं सयं गमगाणं सोदियसंवुमं अमुंचमाणेण लई । एवं चकिंदिएण वि सयं। घाणिं दिएण वि सयं। जिप्निंदिएण वि सयं। फासिं दिएण वि सयं । एवमेयाणि पंच गमसयाणि । थाहारसमापडिविरयममुंचमाणेणं लहाणि । एवं जयसमाए वि पंच सयाणि । मेहुणसमाए वि पंचसयाणि परिग्गहसमाए वि पंचसयाणि । एवमेयाणि वीसं गमसयाणि । ण करेमि अमुंचमाणेण लझाणि । एवं ण कारवेमि त्ति वीसं सयाणि । करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि ति वीसं सयाणि । एवमेयाणि सहस्साणि कायं अमुंचमाणेण लझाणि । एवं वायाए वि बसहस्साणि । एवं मणेण वि बसहस्साणि । एवमेतेन प्रकारेण शीलाङ्गसहस्राणामष्टादशकस्य निष्पत्तिर्भवतीति गाथार्थः । न केवलमयमधिकृतसूत्रोक्तः उक्तवत्रामण्याकरणादश्रमणः। किंवाजीविका दिनयप्रव्रजितः संक्लिष्टचित्तो व्यक्रियां कुर्वन्नप्यश्रमण एवात्याग्येव । कथम् । यत थाह सूत्रकारः वगंधमित्यादि सूत्रम् । वबगंधमलंकार, बीसयपाणि य ॥ अबंदा जे न मुंजंति, न से चाश त्ति वुच्चश् ॥॥ (श्रवचूरिः) चीनांशुकादि कोष्टपुटादि कटकादि । अनुखारोऽलादणिकः । पर्यङ्कादीनि । चशब्दादासनादिग्रहः ॥ आत्मन्छन्दोहिता रोगाद्यायत्ताः। न जुञ्जते नासेवन्ते । बहुवचनोद्देशेऽप्येकवचन निर्देशो विचित्रत्वात्सूत्रगतेः॥२॥ (अर्थ.) श्रा गाथामां कहेली वस्तुने जे रोगाजिजूतचारित्रियो न जोगवे ते चारित्रिया नहि. ते कहे . (अबंदा के० ) अबंदाः एटले रोगादिकथी विषये Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रढ़ नाग तेतालीस (४३) - मा. वरहित एवा का (जे के० ) ये एटले जे पुरुषों (वनुगंधमलंकारं के० ) वस्त्र - गंधालंकारं एटले पट्टा दि वस्त्र, चंदनकल्का दि गंध, मुकुटादि अलंकार (इवी के० ) स्त्रियः एटले कामरूपदेशोद्भव अनेक प्रकारनी स्त्रियो, ( सयणाणि य के० ) शयनानि च एटले पर्यंका दिक शय्या, ने चकारथी श्रासनादिक एटला विषयोने ( न जुंजंति के० ) न गुंजते एटले जोगवता नथी. ( से के० ) सः एटले ते पुरुप (चाइ ति के० ) त्यागीति एटले साधु एवे प्रकारें (न उच्चइ के० ) नोच्यते एटले केहवातो नथी. यहीं चाणक्य महेतानी कथा जाणवी ॥ २ ॥ ( दीपिका ) योग्य एव कथं यत आह । वस्त्राणि चीनांशुकादीनि गन्धाः कोष्ठपुटादयः । अलंकाराः कटकादयः । अनुस्वारोऽलाक्षणिकः । स्त्रियोऽनेकप्रकाराः । शयनानि पर्यङ्कादीनि । चशब्दादासनादीनि । एतानि वस्त्रादीनि । किम् । अन्दा अस्ववशाः ये केचन न भुञ्जते न सेवन्ते । न स त्यागी त्युच्यते न स श्रमण इति । अत्र सूत्रगतेर्वि चित्रत्वाइहुवचनेऽप्येकवचन निर्देशः ॥ २ ॥ ( टीका ) अस्य व्याख्या | वस्त्रगन्धालंकारा नित्यत्र वस्त्राणि चीनांशुकद गन्धाः कोष्ठपुटादयः । अलंकाराः कटकादयः । अनुस्वारोऽलाक्षणिकः । स्त्रियोऽनेकप्रकाराः । शयनानि पर्यङ्कादीनि । चशब्द श्रासनाद्यनुक्तसमुच्चयार्थः । एतानि वस्त्रादीनि । किम् । श्रन्दाः स्ववशा ये केचन न जुञ्जते नासेवन्ते । किं बहुवचनोहेशेऽप्येकवचन निर्देशः । विचित्रत्वात्सूत्रगतेर्विपर्ययश्च भवत्येवेति कृत्वा श्राह । नासौ त्यागी त्युच्यते सुबन्धुवन्नासौ श्रमण इति सूत्रार्थः । कः पुनः सुबन्धुरित्यत्र कथानकम् । जया दो चंदगुत्ते पिहूढो । तया तस्स दारेण निग्गच्छंतस्स डुहिया चंदगुत्ते दिहिं बंधे । एयं अरकाणयं जहा श्रावस्सए जाव बिंदुसारो राया जार्ज । - दसंति य सुबंधू णाम श्रमच्चो । से चाणकस्स पट्टे समावसो । बिहाणि मग्गइ | या रायाणं विवेश । जइ वि तुम्हे अम्हं वित्तं ण देह । तहा वि श्रम्हे हिं तुम्ह हियं वत्वं । जणियं च तुम्ह माया चाणक्केण मारिया । रन्ना धाई पुनिया | श्रमं ति । कारणं पुचयं । केण वि कारणेण रसो य सगासं चाणक्को आग । जाव दिहिं ण देई ताव चाणक्को चिंते । रुहो एस राया । श्रहं गयाउ ति काउं दवं पुत्तपत्ताणं दाऊणं संगो वित्ता य गंधा संजोइया । पत्तयं च लिहिऊण सो वि जोगो समुग्गे छूढो । समुग्गो य चउसु मंजूसासु छूढो । तासु नित्ता पुणो गंधो वरए छूढो । तं बहू हिं की लिया हिं सुघमियं करेत्ता । दवजायं गातवग्गं च धम्मे जिइत्ता । यडवीए गोकुलठाणे इंगिणिमरणं अवगर्ज । रक्षा य पुष्ठियं । चाणक्को किं करे । For Private Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए३ दशवकालिके वितीयाध्ययनम् । धाई य से सवं जहावत्तं परिकहेश् । गहियपरमजेण य जणियं । अहो मया असमिरिकयं कयं । सबंतेजरजोहबलसमग्गो खामेलं निग्गर्छ । दिठो अणेण करीसमाहिउ । खामियं सबहुमाणं नणि । अणेण णगरं वच्चामो । जण मए सवपरिच्चा कउँ त्ति । त सुबंधुणा राया विमवि अहं से पूयं करेमि । अणुजाण । अणुलाए धूवं महिऊण तंमि चेव एगप्पएसे करीसस्सोवरि ते अंगारे परिवेश। सो य करीसो पलित्तो। वो चाणको । ताहे सुबंधुणा राया विलविर्ड । चाणकस्स संतियं घरं ममं अणुजाणह । अणुलाए गर्छ । पञ्चुविकमाणेण य घरं दिछो अपवर घट्टि। सुबंधू चिंतेश् । किमवि छ ति । कवाडे नंजित्ता उग्घाडिज मंजूसं पास।सा वि उग्घाडिया।जाव समुग्गं पास । मघमघंतगंधसंपत्तयं पेवा तं पत्तयं वाए। तस्स य पत्तगस्स एसो हो । जो एयं चुलं अग्घाए। सो जइ हाइ वा समालन वा अलंकारेश सीउँदगं पिवश् महईए सेजाए सुवर जाणेण गडगंधवं वा सुणे एवमाई श्रमे वा छे विसए सेवेश। जहा साहुणो अहंति तह सो जश्ण अले। तो मर । ताहे सुबंधुणा विलासणठं अग्लो पुरिसो श्रग्घा वित्ता सदाश्णो विसए नुंजावि । म यात सुबंधू जीवियही कामो साहू जहा अबंतो वि ण साहू। एवमधिकृतसाधुरपि न साधुरतो न त्यागीत्युच्यते। अभिधेयार्थानावात् । यथा चोच्यते तथानिधातुकाम थाह जेय कंते इत्यादि सूत्रम् । जे य कंते पिए नोए, लइ वि पिहि कुवर ॥ सादीणे चयई नोए, से दु चाइत्ति वुच्चई ॥३॥ (श्रवचूरिः।) य एव । चोऽवधारणे । कान्तान् शोजनान् प्रियानिष्टान्।श्ह कान्तमपि किं चित्कस्यचित्कुतश्चिन्निमित्तादप्रियं स्यात् । यथोक्तम्। चनहिं ठाणेहिं संते गुणे नासिजा। जहा।रोसेणं, पडिनिवेसेणं, अकत्तुयाए, मित्तानिनिवेसेणं । अतो विशेषणं प्रियानिति । शब्दादीब्धान्प्राप्तान्विविधमनेकप्रकारैः शुजनावनादिनिः पृ. ष्ठतः करोति परित्यजतीत्यर्थः । स्वाधीनानात्मायत्तान् । पुनस्त्यागग्रहणं प्रतिसमयं त्यागपरिणामवृधिसूचनार्थम् । नोगग्रहणं तु जोगसंपूर्णताख्यापनार्थम् । हुरेवार्थे । स एव त्यागी । आहाप्रमकादयो ये दीदां गृह्णन्ति ते किमपरित्यागिनः। उच्यते । तेऽपि स्त्रीशीतोदका निरूपाणि लोकसाराणि त्रीणि रत्नानि त्यक्त्वा प्रव्रजिता इति॥३॥ (अर्थ) (जे य के० ) यश्च एटले जे पुरुष, अहीं चकार जे , ते पादपूरणार्थ जे. (कंते के०) कांतान एटले जे जोता वेतज प्रेक्षकना मनने आकर्षण करणार एवा, (पिए के०) प्रियान् एटले पोताने प्रिय एवा, (लके के०) लब्धान् Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. एटले प्राप्त थयेला अने (साहीणे के०) स्वाधीनान् एटले जेनो जोग करवो स्वाधीन बे, अर्थात् जेने लोगववाने कंश अडचण नथी, एवा (जोएलोए के०) नोगान् लोगान एटले शब्दादिक विषयने ( विपिछिकुवर के०) विपृष्ठीकरोति एटले अनेक प्रकारनी शुज नावना नावीने पू- करे , अर्थात् (चय के०) त्यजति एटले सर्वथा त्याग करे बे. (से के०) सः एटले ते (चा त्ति के० ) त्यागीति एटले साधु एवे प्रकारें (हु के०) खलु एटले निश्चयें करी ( उच्च के०) उच्यते एटले केहवाय बे. श्रा सूत्रमा सूत्रकारें 'नोए' ए पदनो पाठ बे वखत कस्यो , ते न्हाना, मोटा सर्व नोगनो परित्याग करवो एम सूचवे . तेमज विपिहि कुबई' अने 'चय' एबे पदो एकार्थक बे, ते पण क्षण क्षणे साधुयें त्यागनी नावना करवी अर्थात् अत्यंत त्याग करवो. ए सूचववाने अर्थे . इति कृतं बहुना ॥३॥ (दीपिका) यथा च श्रमणो नवति तथा कथयितुमाह । य एव कान्तान् शोजनान् प्रियान् श्ष्टान् लोगान् शब्दादिविषयान् लब्धान् सतः।विपिछिकुवशत्ति। कोऽर्थः। विविधमनेकप्रकारैः शुजनावनादिनिः पृष्ठतः करोति परित्यजति न बन्धनेन बकः प्रोषितो वा। किंतु स्वाधीनः न परायत्तः। स्वाधीनानेव परित्यजति नोगान् । ततश्च य दृशः । हुशब्दोऽवधारणार्थे । स एव त्यागीत्युच्यते भरतादिवत् ॥३॥ __ (टीका) अस्य व्याख्या । चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । य एव कान्तान् कमनीयान् शोजनानित्यर्थः। प्रिया निष्टान् । श्ह कान्तमपि किंचित् कस्य चित् कुतश्चिन्निमित्तान्तरादप्रियं जवति । यथोक्तम् । चनहिं गणेहिं संते गुणे णासेजा। तं जहा। रोसेणं पडिणिवेसेणं अकयमुयाए मिलत्तानिनिवेसेणं । अतो विशेषणं प्रियानिति । नोगान् शब्दादीन् विषयान् लब्धान् प्राप्तान् । उपनतानिति यावत् । विपिडिकुव्वइति । विविधमनेकैः प्रकारैः शुजनावनादिनिः पृष्ठतः करोति परित्यजतीत्यर्थः। स च न बन्धनबः प्रोषितो वा किंतु वाधीनः अपरायत्तः। स्वाधीनानेव त्यजति जोगान् । पुनस्त्यागग्रहणं प्रतिसमयं त्यागपरिणामवृद्धिसंसूचनार्थम् । नोगग्रहणं तु संपूर्णजोगग्रहणार्थम् । त्यक्तोपनतजोगसूचनार्थं वा । ततश्च य ईदृशः । हुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । स एव त्यागीत्युच्यते जरतादिवदिति । अत्राह । जश् नरहजंबुनामाश्णो संपुले जे संते जोए परिच्चयंति ते परिच्चारणो । एवं ते नणंतस्स अयं दोसो हव । जे के वि अबसारहीणा दमगाश्णो पवश्ऊण नाव: अहिंसाश्गुणजुत्ते सामने अनुया ते किं अपरिच्चाश्णो हवंति । थायरिय श्राह । ते वि तिमि रयणकोडी परिचऊण नाव पवश्या । अग्गी उदयं महिला Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीयाध्ययनम् । एय तिमि रयणाणि लोंगसाराणि परिच्चश्ऊण पवश्या । दितो । एगो धम्मिपुरिसो सुधम्मसामिणो सयासे कहार पव जिकं हिंमतो लोएण जइ । एसो सो send a । सो सेहत्तेण ययरियं जाइ । मयं स ह । अहं न सक्केमि श्रहिया हिसत्तए । यरिएहिं न पुचि वच्चामोति । अन जण मासकष्पपाजग्गं खित्तं किं एयं न जवइ । जेण के श्रम वच्च । श्रयरिएहिं नयिं जहा सेहनिमित्तं । अज म ह वीसा अहमेयं लोगं जवाएण निवारेमि । वि श्रायरि । बिश्ए दिवसे तिमि रयणकोडी विया । araiसावियं नगरे | जहा न दाणं देश। लोगो आग । जणियं चणेण । तस्साहूं या तिमि कोमीर्ड देमि । जो एयाई तिमि परिहर अग्गी पाणियं महिलियं य | लोगो जइ । एएहिं विणा किं सुवसकोमी हिं । न जइ । तो किं जगह | दम ति पa । जो वि रिचर्ड पव तेण वि एयाउ तिमि सुवसको - डी परिच्चत्ता । सच्चं सामि हिउँ लोगो पत्ती । तम्हा अपरिहीणो वि संजमे वि तिमि लोग साराणि अग्गी उदयं महिलाई य परिच्चयंतो चाइ त्ति लग्न । कृतं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ समाइ पेहाइ इत्यादि सूत्रम् । समाइ पेदाइ परिवतो, सिया मणो निस्सरई बहिझा ॥ न सामहं नावि वि तीसे, इच्चैव तान विराइक रागं ॥४॥ ( अवचूरिः ) तस्यैवं त्यागिनः समया आत्मपरतुल्यया प्रेया दृष्ट्या परित्रजतः संयमे प्रवर्तमानस्य मनः स्यात्कदाचिदचिन्त्यत्वात्कर्मगतेः । संयमगेहाइहिर्मुक्तजोगिनः पूर्वी मनुस्मरणादिना श्रनुक्तजोगिनश्च कुतूहलादिना । न सा मम नाप्यहं तस्या इत्येवं रागं ततस्तस्याः सकाशाद्व्यपनयेत् ॥ ४ ॥ (अर्थ) हवे साधुने विषयस्मरणादिकथी संयमधी चलित थवानो प्रसंग वे, तो तेनो सूत्रकार उपाय कहे बे. समाइति । ( समाइ के० ) समया एटले खपरतुल्य अर्थात् बक्काय उपर समान एवी ( पेहाइ के० ) प्रेक्षया एटले दृष्टियें करी ( परियंतो के० ) परिव्रजतः एटले चालतो अर्थात् गुरुना उपदेशथी संयममां वर्तमान ने व्यादिपरिग्रहनो त्याग करनारा साधुनुं ( मणो के० ) मनः एटले मन पूर्वमुक्त विषयना स्मरणथी तथा जेणें विषयजोग पूर्वे कस्या नहिं होय तेनुं विषयोग करवाना कुतूहलथी ( सिया के० ) कदाचित् एटले कर्मगति विचित्र होवाथी को प्रसंगे ( बहिया के० ) बहिः एटले संयमरूप गृहथी बाहिर ( निस्सरइ के० ) निःसरति एटले नीकळे, तो ते साधु एम चिंतवे के, जेना स्मर For Private Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. णथी अथवा दर्शनथी मारा मनने मोह थाय डे, ( सा के० ) ते ( महं के०) मम एटले मारी स्त्री (न के०) नथी. तथा (अहंवि के०) अहमपि एटले हुँ पण ( तीसे के०) तस्याः ते स्त्रीनो पति ( नो वि के०) नो अपि एटले नश्रीज. अहिं अपि शब्द जे , ते निश्चयार्थ डे अने सर्व प्राणी पोत पोतानुं करेढुं कर्म नोगनारा . तेमां को कोश्न नथी. इति तत्त्वम्. (श्चेव के०) इत्येव एटले एवीरीतेंज (ता के०) तस्याः एटले ते स्त्री उपरथी उपलक्षणथी सर्व मोदकारक वस्तु उपरथी (रागं के०) अनुरागने ( विणऊ के०) विनयेत व्यपनयेतेत्यर्थः एटले काढी नाखे. ॥४॥ (दीपिका) समया श्रात्मपरतुल्यया प्रेक्ष्या दृष्टया परिव्रजतः परि समन्तात् बजतो गलतः । गुरोरुपदेशदानेन संयमयोगेषु वर्तमानस्य एवंविधस्य त्यागिनोऽपि स्यात् कदाचित् अचिन्त्यत्वात् कर्मगतेर्मनोऽन्तःकरणं निस्सरति बहिर्धावति । केन । जुक्तनोगिनः पूर्वकीमितस्मरणादिना अजुक्तनोगिनश्च कुतूहलादिना । बहिर्का संयमगेहादहि रित्यर्थः । तदा सोऽशुनोऽध्यवसायः प्रशस्ताध्यवसायेन स्थगनीयः। केन आलम्बनेन इत्याह। यस्यां राग उत्पन्नस्तां प्रति चिन्तनीयं न सा मम मदीया नाप्यहं तस्याः। पृथकर्मजुजो हि प्राणिन इत्येवं ततस्तस्याः सकाशाठ्यपनयेागम् । तत्त्वदर्शिनो हि संनिवर्तन्त एव ॥४॥ (टीका ) तस्यैवं त्यागिनः समया आत्मपरतुल्यया प्रेक्ष्यतेऽनयेति प्रेक्षा दृष्टिस्तया प्रेदया दृष्टया परि समन्ताद् बजतो गलतः परिव्रजतः गुरूपदेशादिना संयमयोगेषु वर्तमानस्येत्यर्थः । स्यात्कदाचिदचिन्त्यत्वात्कर्मगतेर्मनो निःसरति बहिर्धा बहिः । जुक्तनोगिनः पूर्वक्रीमितानुस्मरणादिना अजुक्तजोगिनस्तु कुतूहलादिना मनोऽन्तःकरणं निःसरति निर्गठति बहिः संयमगेहाबाहिरित्यर्थः । एक उदाहरणं।जहा एगो रायपुत्तो बाहिरियाए उवठाणसालाए अनिरमंतो अछ। दासी य तेण अंतेण जलजरियघमेण वोलेशत तेण तीए दासीए सो घमो गोलियाए निलो।तं च अधिकं करितं दहण पुणरावत्ती जाया। चिंतियं च जे चेव रकगा ते चेव लोलगा कबकूविजं सका। उदगाउ समुजालि अग्गी किह विनवेयवो। पुणो चिरकलगोलएण तरकणा एव लहुहबयाए तं घडबिडं ढकियं । एवं जश् संजयस्स संजमं करेंतस्स बहिया मणो णिग्गा तब पसण परिणामेण तं असुहसंकप्पबिटुं चरित्तजलरकणहाए ढक्केयत्वं । केनालंबनेनेति । यस्यां राग उत्पन्नस्तां प्रति चिन्तनीयम् । न सा मम नाप्यहं तस्याः पृथकर्मफलजुजो हि प्राणिनः इत्येवं ततस्तस्याः सकाशाध्यपनयेत रागं तत्त्वदर्शिनो हि सन्निवर्तन्त एव अतत्त्वदर्शननिमित्तत्वात्त Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीयाध्ययनम् । स्येति । तच न सा महं णो वि श्रहं वि तीसे ति । एव उदाहरणं । एगो वाणियदार | सो जायं उप्रिय पव । सो य उहाणुप्पेही मूर्त इमं च घोसे न सा महं. यो विहं वितीसे । सो चिंतेइ । सा वि ममं श्रहं वि तीसे सा ममापुरता । कहमहं तं हामि काळं गहियायारनंडगणे वो चेव संप हिउँ । गर्जय तं गामं । जब सा सोइणिवाणतडं संपत्तो । तब य सा पुवजाया पाणियस्स गया । साथ साविया जाया । 1 । कामाय ताए सो गाउँ इयरो तं न याइ । तेण सा पुलिया । अमुगस्स धूया किं मया जीव वा । सो चिंते । जइ सासहरा तो उप्पयामि । श्रहा ए । ताए शायं । जहा एस पवऊं पयहि कामो तो दोवि संसारे मिस्सामिति । जणियं चणा सा मस्स दिला । त सो चिंतिउमारको । सच्चं जगवंतेहिं साहिं हं पाठ । जहा प सा महं णो वि श्रहं पि तीसे । परमसंवेगसमावसो जयिं च परिणियत्तामि तीए वेरग्गपडिउ ति पाऊण असा सि । श्रणिचं जीवियं कामजोगा इत्तरिया । एवं तस्स केवलिपन्नत्तं धम्मं पडिकदेहि | अणुसो जाणावय । पडिगर्ड आयरियसगासं । पवकाए थिरीमूर्ज । एवं अप्पा साहारेaat | जहा तेणं ति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ एवं तावदान्तरो मनोनिग्रह विधिरुक्तः । न चायं बाह्यमन्तरेण कर्तुं शक्यते । श्रतस्तद्विधानार्थमाह । श्रायावयादीत्यादि सूत्रम् । यायावयाही चय सोगमनं, कामे कमाही कमियं खु दुकं ॥ बिंदा हि दोसं विषएक रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥ ५ ॥ ( अवचूरिः ) संयमगेहान्मनसोऽनिर्गमार्थमातापय । एकग्रहणे तजातीयप्रइणमिति न्यायादूनोदरतादेरपि विधिः । त्यज सौकुमार्यम् । सौकुमार्यात्कामेच्छा प्रवर्तते योषितां च प्रार्थनीयः स्यात् । कामान् ऋमोल्लङ्घय । यतस्तैः कान्तैः क्रान्तमेव दुःखं भवतीति शेषः । काम निबन्धनत्वाद्दुःखस्य । बिन्धि द्वेषं, व्यपनय रागम् । एवं सुखी जविष्यसि संपराये संसारे परीषदादिसंग्रामे ॥ ५ ॥ Ga ( अर्थ. ) पूर्वोक्त सूत्रे एवी रीतें मनोनिग्रह करवानो अभ्यंतर विधि को. पण ते अभ्यंतर विधि बाह्यविधिना अनुष्ठान वगर सफल याय नहीं माटे हवे बाह्य विधि कहे बे. यायावयाहि त्ति. ( श्रायावयाहि के० ) आतापय एटले तडकामां समग्र दिवस बेसी तथा ऊनोदरतादि तपेंकरी शरीरने तपावो. एथी कामादि विकारने उत्पन्न थवा स्थान मले नहीं, तथा ( सोगमां के० ) सौकुमार्यं एटले कोमलपणाने ( चय के० ) त्यज एटले त्याग कर. शरीर सुकुमार नही होय तो पोताना मनमां पण कामादि विकार थता नथी, अने पोताने १३ For Private Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एG राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. जोनारी स्त्रीयोने पण कामवासना थती नथी. एवा आचरणे करी ( कामे के०) कामान् एटले पूर्वोक्त अव्यादि कामने (कमाही के०) काम एटले उद्धंघन कर. कारण, ते कामना उघनथी (मुक्खं के ) पुःख ( कमियं खु के० ) क्रांतं खलु एटले उबंधित अतिक्रांत कमु एम निश्चयें जाणवं. कारण, सर्व कुःखनुं मूल काम . एवा कामजयना बाह्य उपाय कहीने फरी अन्यंतर कामजय करवानुं शिष्यने स्मरण आपे . ( दोसं के० ) वेषं एटले मनमां उपजता वैरादिविकारनो (बिंदाहि के) बिंधि एटले नाशकर, तथा ( रागं के०) शब्दादिविषयउपर जे प्रीति ने तेने कर्मनो विपाक केवो ने ते विचारीने उत्तम ज्ञानबलेकरी (विणएजा के०) व्यपनय एटले दूर काढी नाख (एवं के०) ए प्रकारें करी (संपराये के०) आ संसारमा मुक्ति मले त्यां सूधी, अथवा संपराये एटले परीषहनो अने उपसर्गनो जे संग्राम चाले , तेमां ( सुही के०) सुखी ( होहिसि के०) नविष्यसि एटले यश्श. ॥ ५॥ ___(दीपिका ) एवं तावत् श्रान्तरो मनोनिग्रह विधिरुक्तः । न चायं विधिर्बाह्यमन्तरेण कर्तुं शक्यते अतो बाह्य विधि विधानार्थमाह । थायावयाहीत्वं संयमगृहान्मनसोऽनिर्गमनार्थमातापय तापनां कुरु । उपलक्षणत्वात् यथानुरूपमूनोदरिकादि तपोऽपि। कुरु तथा त्यज सौ कुमार्य सुकुमारत्वं परित्यज । यतः सुकुमारत्वात् कामेछा प्रवतते । योषितां च प्रार्थनीयो नवति । एवमुनयासेवनेन कामान् काम जसवय । यतस्तैः कामैः क्रान्तैईःखं क्रान्तमेव नवति । अत्र वणिज उदाहरणं शेयं वृत्तितः। अथ आन्तरकामक्रमण विधिमाह । बिन्धि रेषम् । व्यपनय रागं । सम्यक् झानबलेन विपाकालोचनादिना । एवं कृते फलमाह । एवमनेन प्रकारेण प्रवर्त्तमानः सन् सुखी नविष्यसि ।क्क संपराये संसारे यावन्मोदं न प्राप्स्यसि तावत्सुखी नविष्यसि ॥५॥ (टीका) अस्य व्याख्या । संयमगेहान्मनसोऽनिर्गमनार्थमातापय आतापनां कुरु । एकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति न्यायाद्यथानुरूपमूनोदरतादेरपि विधिः । अनेनात्मसमुबदोषपरिहारमाह । तथा त्यज सौकुमार्यं परित्यज सुकुमारत्वम् । अनेन तूजयसमुबदोषपरिहारम् । तथाहि । सौकुमार्यात्कामेछा प्रवर्तते । योषितां च प्रार्थनीयो नवति। एवमुनयासेवनेन कामान् प्रग्निरूपितस्वरूपान् काम उबक्य । यतस्तैः क्रान्तैः क्रान्तमेव पुःखं नवति । इति शेषः । कामनिवन्धनत्वाहुःखस्य । खुशब्दोऽवधारणे।अधुनान्तरकामक्रमणमाह। लिन्धि द्वेषम् । व्यपनय रागं सम्यग्ज्ञानबलेन विपाकालोचनादिना । क । कामेष्विति गम्यते । शब्दादयो हि Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके द्वितीयाध्ययनम् । যেযে विषया एव कामा इति कृत्वा । एवं कृते फलमाह । एवमनेन प्रकारेण प्रवर्तमानः । किम् । सुखमस्यास्तीति सुखी जविष्यसि । क । संपराये संसारे यावदपवर्ग न प्राप्स्यसि तावत्सुखी जविष्यसि । संपराये परीषहोपसर्गसंग्राम इत्यन्ये । कृतं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः॥५॥ किंच संयमगेद्दान्मनस एवा निर्गमनार्थमिदं चिन्तयेत् । यडुत परकंदेइत्यादि । परकंदे जलियं जोई, धूमकेनं दुरासयं ॥ नेवंति वंतयं जोतुं कुले जाया गंधणे ॥ ६ ॥ ( अवचूरिः ) संयमगेहान्मसोऽनिर्गमार्थमिदं चिन्तयेत् । प्रस्कन्दन्ति श्राश्रयन्ति ज्योतिषमग्निं धूम चिह्नं दुरासदं पुरनिजवमित्यर्थः । चशब्दलोपान्नचेष्ठन्ति वान्तं जो विषमिति गम्यते । नागा इति गम्यते । मन्त्राकृष्टा वान्तं व्रणमुखा - द्विषं पिबन्ति गन्धनाः नत्वगन्धनाः । तिर्यञ्चोऽप्येवं तत्कथमहं जिनवचनानिज्ञोऽपि दारुणान्विषयान्वान्तान् जोदय इति ॥ ६ ॥ (अर्थ. ) वली साधुयें संयम रूप गृहथी मनने बाहर न नीकलवा देवा माटे या प्रकारनो विचार करवो ते कहे बे. परकंदेत्यादि ( गंध के० ) अगन्धने एटले पण गंधन नामक नागना ( कुले के० ) कुलमां ( जाया के० ) जाताः एटले उत्पन्न येला जे नाग (सर्प) ते ( डुरासयं के० ) डुरासदं एटले घणा दुःखथी पण जेनो ताप सहन थाय नही एवा ( जलियं के० ) ज्वलितं एटले प्रदीप्त एवा खदिरांगारादि रूप अग्निमां, ( जोई के० ) ज्योतिः एटले ज्वालारूप जे घृतादिना दाहक मां अथवा ( धूमकेनं के० ) धूमकेतुं एटले घणा धूमयी व्याप्त थयेला एवा लीला काष्ठादिकना दाहक अग्निमां वखत पडे तो प्रवेश करवानो ( परकंदे के० ) प्रस्कन्दति अध्यवस्यतीति यावत् एटले निर्धार करे. ( वतयं के० ) वांतं एटले प्राणिना जे जागे दंश कस्यो होय त्यां वमन करी नाखेला विषने (जोत्तुं के० ) जोक्तुं एटले फरी पीवाने ( नेछंति के० ) नचेति एटले वांडे नहीं. त्यां श्रावी वात प्रसिद्ध बे के, नाग बे जातिना थाय बे, एक गंधन जातिनो ने बीजो गंधन जातिनो तेमां गंधन जातिनो जे नाग बे, ते जो कोने दंश करे, छाने तेने जो मंत्रादिक उपायथी बोलावे, तो ते वनादिक स्थानमांथी यावीने दंश करी वमी नाखेला विषने फरी पिये बे, पण अगंधन जातिनो जे नाग बे, ते कदाचित् जो कोइने दंश करे तो ते मंत्रादिक उपायें करी वनमांथी वे नहीं, कदाचित् जो घ्यावे, तो अग्निमां बली जाय, पण वमेलुं विष फरी पिये नहीं. ए दृष्टांत उपरथी साधुएं जाणवुं के, तिर्यंच जीव पण विचार विना For Private Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)-मा. केवल निमाथी अग्निमां पडी मरी जाय बे, पण वमेलुं विष पीता नथी. एम बतां मे जिनवचनना जाए थइने परिणामे दुःखदायक एवा अने अनंत प्राणियें नंतीवार जोगीने वमेला विषयने केम जोगवियें ! एम चिंतवे ॥ ६ ॥ - 1 ( दीपिका ) संयमगृहान्मनस एवा निर्गमार्थमिदं चिन्तयेत् । प्रस्कंदंति यन्ति कं ज्योतिषमग्निम् । किं० ज्यो० । ज्वलितं ज्वालामालाकुलं न तु मुर्मुरादिरूपम् । पुनः किं० । धूमकेतुं धूम चिन्हं धूमध्वजं न उक्कादिरूपम् । पुनः किं० ज्यो० । पुरासदं पुरनिजवं चशब्दलोपान्न च श्छन्ति वान्तं नोक्तुं परित्यक्तं विषमिति शेषः । के नागा इति शेषः । ते किं० नागाः । कुले जाताः समुत्पन्नाः । किंभूते कुले । गन्धने । नागा द्वेधा गन्धना अगन्धनाश्च तत्र ये गन्धना ते डसिए मंतेहिं श्राकहिया तं मुह पिबंति । श्रगन्धा पुण अवि मरणमनवस्संति न य वतं पति । उपसंहारस्तु यदि तावत्तिर्यञ्चोऽपि श्रभिमानाजीवितं परित्यजन्ति न च वान्तं जुअते । तत्कथमहं जिनवचना जिज्ञो विपाकदारुणान् विषयान् वान्तानपि जोदय इति । त्रार्थे रथनेमिदृष्टान्तस्तथाहि । जया किल रिनेमी पव तया रहनेमी तस्स जिजाउ राम उवयरई । जइ नाम एसा मम होइ । साय जगवई निविन्नकामजोगा नायं च तीए जहा एसो मम नोववलो । लया य तीए मदुघयसंजुत्ता पेा पीया । रहनेमी आग । मयणफलं मुहे काऊण तीए वंतं जणि च । पेऊं पियादि । ते जणि कदं वंतं पिऊइ । तीए जणि । जइ न पिऊ‍ । तर्ज अहं पि रिने मिसामिणा वंता कदं पिबिउ मिठसि ॥ ६ ॥ ( टीका ) अस्य व्याख्या | प्रस्कन्दन्ति अध्यवस्यन्ति । ज्वलितं ज्वालामालाकुलं मुर्मुरादिरूपं । कं । ज्योतिषमग्निं धूमकेतुं धूम चिह्नं धूमध्वजं नोटका दिरूपं पुरासदं दुःखेनासाद्यतेऽनिनूयत इति डुरासदस्तं पुरनिजवमित्यर्थः । चशब्दलोपान्नचेच्छन्ति न च वांछन्ति वान्तं जोक्तुं परित्यक्तमादातुं विषमिति गम्यते । के । नागा इति गम्यते । किंविशिष्टा इत्याह । कुले जाताः समुत्पन्ना गन्धने । नागानां हि दद्वयं गन्धनाश्चागन्धनाश्च । तच गन्धणा णाम जे डसिए मंतेहिं I कट्टिया तं विसं वमुद्दा श्रश्यंति । गंधा अवि मरणमनवस्संति एय वंतमा वियंति । उदाहरणं डुमपुष्पिकायामुक्तमेव । उपसंहारस्त्वेवं जावनीयः । यदि तावत्तिर्यञ्चोऽप्यनिमानमात्रादपि जीवितं परित्यजन्ति, न च वान्तं भुञ्जते । तत्कथमहं जिनवचनानिज्ञो विपाकदारुणान् विषयान् वान्तान् जोक्ष्य इति सूत्रार्थः । अस्मिन्नेवार्थे द्वितीयमुदाहरणम् । यदा किल यरिमी पव । तया For Private Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीयाध्ययनम् । १०१ रहमी तस्स जेठो जार्ज राइमई उवयर । जइ णाम एसा ममं इाि । सावि गवई कमजोगा । पायं य तीए एसो मम झोववसो । अमयाय य तीए मदुधयर, जुत्ता पेक्षा पीया । रहनेमी आग । मयणफलं मुद्दे काऊण य तीए वंतं जणियं च एयं पेऊ पिया हि । तेण नणियं कहं वतं पितइ । तीए जणि । जइ न पिकइ वंतं त अहं पि रहने मिसामिणा वंता । कहिं पिविचमिव सि । तथाधिकृतार्थसंवाद्येवाह । धिरनु ते इत्यादि सूत्रम् ॥ 1 धिरन्तु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा ॥ वंतं चसि वेनं, सेयं ते मरणं नवे ॥ ७ ॥ 1 ( अवचूरिः) श्रस्मिन्नेवार्थे द्वितीयोदाहरणम् । धिगस्तु तव पौरुषमिति गम्यते । हे यशः कामिन् इति सासूयं क्षत्रियामन्त्रणम् | अकारप्रश् लेषात् हे यश:कामिन् । असंयमजीवितहेतोः यापातुं परित्यक्तां भगवता अनिलषसि जोक्तुम् । वान्तादस्य शोजनं तव मरणं न पुनरिदम् ॥ ७ ॥ (.) हवे या गाथाथी ते या अध्ययन समाप्त थाय त्यां सूधी सूत्रकार, वांत विषयमा त्याग उपरज बीजो रहनेमीनो दृष्टांत कहे बे, ते जेम केः-जे वखतें - रिष्टनेमी राज्यादि परिजोगनो त्याग करीने चारित्र दस्युं त्यारें तेनो मोहोटो जा रहनेमी कामवासनाथी राजिमतीनी परिचर्या करवा लाग्यो. तेनो अभिप्राय एवो तो के, एवीरीतें हुं एने संतुष्ट राखीश, तो एने मारी साथै कामनोग करवानी इवा याशे. हवे राजिमती तो विषयसुखथी वैराग्य पामेली हती. तेणें रहनेमीना मनो दुष्ट अध्यवसाय जायो. एक वखतें राजिमती यें मध, घृतें कर मिश्र शिखरि - णी खाधी, तेवामां त्यां ते राजिमतीनो दीयर रहनेमी तेनी पासें श्राव्यो, त्यारे तेणें तेज वखतें मीढोल खाधुं. तेथी ते खाधेलुं सर्व वमी काढयुं छाने राजिमतीयें रहनेमने कह्युं के, दे रहनेमि श्र वमेली शिखरिणीनुं पान करो, ते सांजली रहनेमक के वमन करेलुं केम खवाय ? त्यारें राजिमतीयें कयुं के, जो तुं वमन करेलुं रसनेंद्रियनुं विषयभूत एवा न्नने खातो नथी, तो अरिष्टनेमी यें स्पर्शविषयी उपजोगीने वमी नाखेली एवी मारी केम वांढना करे बे !!! एज प्रसंगनुं राजिमतीनुं वाक्य सूत्रकार कहे. धिरहुत्ति ( सोकामी के० ) हे यशस्कामिन् ! एटले कार्य करीने अपयश थवानी इछा धरनारा एवा हे रथनेमि ! ( ते ho) तारा पौरुषने (धिर के० ) धिगस्तु एटले धिक्कार हो ! ( जो के० ) यः एटले जे ( तं के० ) त्वं एटले तुं ( जी वियकारणा के० ) जीवितकारणात् एटले असंयमी - For Private Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रद नाग तेतालीस (४३) - मा पणे जीववानी श्वाथी ( वतं के० ) वांतं एटले वमन करेला जोगने ( श्रावेनं के० ) पातुं एटले पीवाने अर्थात् जोगववाने ( इ सि के० ) इच्छा करे बे, तेमाटें मर्यादानुं उल्लंघन करनारा एवा ( ते के० ) तने ( मरणं के० ) मरण ( सेयं के० ) श्रेयः एटले कल्याणरूप (जवे के० ) जवेत् एटले होय. पण ए कार्य करवायी तारुं क - ल्याण नथी. कहेलुं बे के :- वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं न चापि जनं चिरसंचितं व्रतम् ॥ वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणा, न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम् ॥ १ ॥ ७ ॥ (दीपिका)धिकारापन्नमेव अर्थमाह । तत्र राजीमती किल एवमुक्तवती रथनेमिं प्रति । धिगस्तु भवतु । ते तव । पराक्रमम् इति शेषः । हे यशः कामिन् की - तेर जिला षिन् । इति रोषेण क्षत्रियामन्त्रणम् । अथवा अकारप्र श्लेषात् हे यशःकामिन् । धिगस्तु भवतु तव । यस्त्वं जीवितकारणात् असंयमजीवितहेतोर्वान्तमिछसि पातुं जगवता परित्यक्तां नोक्तुमिच्छसि । अतः श्रेयस्ते तव प्रतिक्रान्तमर्यादस्य मरणं जवेत् । शोजनतरं तव मरणं न पुन रिदमकर्मासेवनम् । त धम्मो से कहि । संबुद्ध पa । राइमई वि तं बोहिऊण पवा । अन्नया कयाइ सो रहनेमी arraat क्खिं गहिऊण सामिसगासं गवंतो वासवद्दलएण अनादर एवं गुहं पोि । रामई विसामिणो वंदणाए गया । वंदित्ता पस्सियमागच्छंतीय अंतरा वरि सिएण जिन्ना श्रयाणंती तमेव गुदं श्रणुप्पविद्या जब सो रहनेमी । दिट्ठा य ते सोहएसा वापसारिश्राणि । ताहे तीए अंगपच्चंगाणि दिहाणि । सो रहनेमी तीए नोवन्नो दिट्ठो । अणाए अंगियागारकुसलाए बाउं अ सोहो जावो एस्स । ततः सा तमिवादीत् ॥ ७ ॥ ( टीका ) व्याख्या । तत्र राजीमती किलैवमुक्तवती । धिगस्तु । धिक्शब्दः कुत्सायाम् । अस्तु वतु ते तव । पौरुषमिति गम्यते । हे यशस्कामिन्निति सासूयं क्षत्रियामन्त्रणम् । अथवा अकारप्रश् लेषादयशस्कामिन् । धिगस्तु जवतु तव । यस्त्वं जीवितकारणात् श्रसंयमजी वित देतोर्वान्त मिठस्यापातुं परित्यक्तां जगवता अनिलपसि जो मत उत्क्रान्तमर्यादस्य श्रेयस्ते मरणं जवेत् । शोजनतरं तव मरणं न पुनरिद कार्यासेवन मिति सूत्रार्थः । तनुं धम्मो से कहि । संबुद्धो व य । राईमईवि तं बोहेऊणं पवश्या । पछा अन्नया कयाइ सो रहनेमी बारवईए निरकं हिंदिऊणं सामिसगासमागच्छंतो वासवद्दलए अप्राह । एकं गुहं अणुविद्यो । रामई विसामिणो वंदणाए गया । वंदित्ता प डिस्सयमागछ । अंतरे य वरि सिमाढतो । जिन्ना तमेव गृहमणुष्पविद्या | जब सो रहनेमी | वाणिय For Private Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीयाध्ययनम् । १०३ 1 पविसारियाणि । ताहे तीए अंगपन्चंगं दिनं । सो रहणेमी तीए झोववन्नो दिहो । ture इंगियागारकुसलाए य गार्ड असोहणो जावो एयस्स । ततोऽसाविदमवोचत् । श्रहं चेत्यादि सूत्रम् । अहं च भोगरायस्स, तं च सि अंधगविहिणो ॥ मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुन चर ॥ ८ ॥ ( अवचूरिः ) उग्रसेनस्य सुता । त्वं च जवसि अन्धकवृष्णेः समुद्रविजयस्य । सुत इति गम्यते । अतो मा एकैकप्रधानकुले वां गन्धनौ नूव । अतः संयमं नितोऽव्या दिसश्वर ॥ ८ ॥ (अर्थ) पढी राजिमतीयें रथनेमिने धर्मोपदेश कस्यो. तेथी तेणें प्रतिबोध पामीने चारित्र लीधुं. राजिमतीपण तेने प्रतिबोध यापीने चारित्रवती ई. पढी एक खतें ते रथनेमि द्वारिका नगरीमां गोचरी फरीने गुरुनी पासे आवता मार्गमां वर्सादी घणो पीडा पाम्यो, त्यारें रस्तामां एक गुहा नजरें पडी, तेमांज वर्सादनी पीडा दूर थवा माटे पेठ. एटलामां राजिमती पण गुरुने वांदवा गई दती ते गुरुने वांदी पाठ यावती हती, तो रस्तामां घणो वर्साद ववा लाग्यो. त्यारें ते वरसाद बंध या त्यांसुधी कोण ढंकायेली भूमियें रहेवुं जोइयें, एम विचारिने जे गुफामां र मिठो हतो, तेज गुहामां कर्मयोगथी ते राजिमती यावी, छाने वर्सादथी पललेला वस्त्रो अंग उपरथी उतारीने सुकाववा लागी ते वखतें राजिमतीना अंगत्यंग रथनेमिीयें जोयां, तेथी ते रथनेमि कामातुर थयो, ते जोइने राजिमती यें जायुं जे ए रथनेमीनो अशुभ जाव बे, एम जाणीने राजिमती कहेवा लागी :- ते सूत्रकार कहे . चेत्यादि. हे रथनेमि ! ( अहं च के० ) हुं, चकार पादपूरणार्थ a (जोगस्स ० ) जोगराजस्य एटले उग्रसेन राजानी कन्या तुं. तथा ( तं च के० ) त्वं च एटले तुंपण ( अंग विहिणो के० ) अंधकवृष्णेः एटले समुद्रविजय राजानो पुत्र ठे. एवा प्रशस्तकुलमां उपजेला श्रापणे बेहुजण विषसरखा विषयरूप वांत रस पान करीने (कुले के ) पोतपोताना पूर्वोक्त उत्तम कुलने विषे ( गंधणा के० ) गंधनौ एटले गन्धन जातिना सर्प सरखा ( मा होमो के० ) मा नूव एटले न थइये. माटे ( निहु ० ) निनृतः एटले मन स्थिर राखतो थको ( संजमं के० ) संयमं एटले सर्व दुःख नाश करनार एवा चारित्रने (चर के० ) आचरण कर, एटले अनतिचार पणें पालन कर ॥ ८ ॥ (दीपिका) हं च जोगराज्ञ उग्रसेनस्य तु । पुत्री इति शेषः । त्वं च असि For Private Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. अंधकवृष्णेः समुविजयस्य । पुत्र इति शेषः । अतः कारणात् मा एकैकप्रधानकुले श्रवां गन्धनौ नूव । अतः कारणात् संयमं सर्वपुःख निवारणं क्रियाकलापं निनृतः सन् अव्यादिप्तः सन् चर कुर्वित्यर्थः॥ ॥ (टीका ) व्याख्या । अहं च नोजराज्ञ उग्रसेनस्य । उहितेति गम्यते । त्वं च नवसि अन्धकवृष्णेः समुख विजयस्य । सुत इति गम्यते । अतो मा एकैकप्रधाने कुले आवां गन्धनौ नूव । उक्तं च । जह न सप्पतुल्ला होमुत्ति जणियं हो । अतः संयमं निनृतश्चर । सर्वदुःख निवारणं क्रियाकलापमव्याक्षिप्तः कुर्विति सूत्रार्थः ॥ ७॥ किंच ज तमित्यादि सूत्रम् । जश् तं काहिसि नावं, जा जा दिबसि नारि॥ वायाविधु व हडो, अहिअप्पा नविस्ससि ॥ए॥ (अवचूरिः) यदि त्वं करिष्यसि जावमनिलाषं या या प्रदयसि नारीः । तासु वाताविक श्व हडो वातप्रेरित व सागरेऽवकमूलो वनस्पतिविशेषः । अस्थितात्मा नविष्यसि । संयमगुणेष्वबझमूलत्वात्संसारसागरे प्रमादपवनप्रेरितः॥ ए॥ (अर्थ.) वली राजिमती कहे . जश् तमित्या दि. हे रथनेमि! (तं के०) त्वं तुं (जा जा केर) या याः एटले जे जे (नारि के०) नारी: एटले स्त्रीयोने (दिवसि के०) प्रदयसि एटले जोश. ते ते स्त्रीयोने विषे 'ए सुंदर रूपवती ,माटे एनी साथे कामविलास करीश, एवा (नावं के०)जावने (जश् के०) यदि एटले जो (काहिसि के०) करिष्यसि एटले करीश तो (वायाविको के०) वाताविकः एटले पवनथी ताडित थयेला (हडो व के०) हड श्व एटले जेनां मूल बांध्यां नथी एवा जल उपर उगीने तरता रेहनारा हडनामक तृणनीपरें (अहिअप्पा के०) अस्थितात्मा एटले जेनो आत्मा स्थिर नथी एवो (नविस्ससि के०) नविष्यसि एटले थश्श. अर्थात् सकलपुःखोनो दय थवाना कारणलूत एवा संयमने विषे जेनुं मूल बक नथी, माटे ज प्रमादरूप पवनेकरी ताडित थयेलो एवो हढवनस्पतिसरखो तुं श्रा संसारमा अनंताकालसुधी आम तेम जमतो रहीश ! ॥ ५ ॥ (दीपिका ) यदि त्वं करिष्यसि नावमनिप्रायं प्रार्थनारूपं व या या उदयसि नारीः स्त्रियः। तासु एताः शोजना एताश्च शोचनतराः सेव इत्येवंचूतं नावं यदि करिष्यसि । ततो वाया विक श्व वातप्रेरित श्व । इडोऽबझमूलो वनस्पतिविशेषः। अस्थितात्मा नविष्यसि । कोऽर्थः सकलपुःखक्षयकारकेषु संयमगुणेषु अवमूलत्वात् संसारसागरे प्रमादपवनप्रेरित इतश्चेतश्च पर्यटिष्यसि ॥ ए॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीयाध्ययनम्। १०५ (टीका) अस्य व्याख्या । यदि त्वं करिष्यसि जावमनिप्रायं प्रार्थना मित्यर्थः । काया या उदयसि नारीः स्त्रियस्तासु तासु एताः शोजना एताश्चाशोजना अतः सेवे काममित्येवंचूतं नावं यदि करिष्यसि । ततो वाताविक श्व हडः वातप्रेरित श्वाब मूलो वनस्पतिविशेषः । अस्थितात्मा नविष्यसि । सकलदुःखदयनिबन्धनेषु संयमगुणेष्वप्रतिबफमूलत्वात्संसारसागरेप्रमादपवनप्रेरित श्तश्चेतश्च पर्यटिष्यसीति सूत्रार्थः ॥ ए॥ तीसे सो वयणमित्यादि सूत्रम् । तीसे सो वयणं सोचा, संजया सुनासियं॥ अंकुसेण जदा नागो, धम्मे संपडिवाश्यो॥१०॥ (अवचूरिः) तस्या राजीमत्या असौ रयनेमिःसुनाषितं संवेगनिबन्धनं श्रुत्वा संप्रतिपातितः स्थापितः । किंविशिष्टायाः। संयतायाः प्रवजिताया इत्यर्थः। अङ्कुशेन यथा नागः। श्रङ्कुशतुल्येन वचनेन ॥ १० ॥ (अर्थः) तीसे इत्यादि (सो के०) सः एटले ते रथनेमि (संजया के०)संयतायाः एटले जेणें संयम लीधो , एवी (तीसे के० ) तस्याः एटले ते राजिमतीनुं ( सुनासियं के०) सुनाषितं एटले उत्तम लाखेवू अर्थात् संवेगनी कथा जेमां डे एवं ( वयणं के०) वचनं एटले वचनने (सोच्चा के०) श्रुत्वा एटले सांजलीने (जहा के०) यथा एटले जेम (नागो के०) नागः एटले हाथी (अंकुसेण के) अंकुशेन एटले अंकुशेकरी अर्थात् अंकुशना प्रहारथी स्वनावस्थित करे , तेम ते रथनेमि पण (धम्मे के०) धर्मे एटले धर्मने विषे (संपडिवाळ के) संप्रतिपादितः एटले स्थिर कस्यो. धर्मरूप स्तंने बांध्यो. हवे ते रहनेमीनी दीक्षा ४१० मे वर्षे थर, उक्तं च ॥ रहेनेमिस्स नगवर्ज, दीहुए चउर होंति वीस सया ॥ संवछर बमबो, पंचस केवली हो ॥१॥ नव वाससिगविसाहिए, सवाऊ तस्स से नायं ॥ एसो चेव य कालो, राश्मण वि नायवो ॥२॥ इत्यादि ॥ १० ॥ (दीपिका ) तस्या राजीमत्याः असौ रथनेमिर्वचनं पूर्वोक्तं श्रुत्वा । किं० राजीमत्याः। संयताया गृहीतदीदायाः। किं वचनम् । सुजाषितं संवेगजनकम् । किंवत् । अङ्कशेन यथा नागो हस्ती एवं धर्मे संप्रतिपादितो धर्मे स्थापित इत्यर्थः ॥ १० ॥ (टीका) अस्य व्याख्या । तस्या राजीमत्या असौ रथनेमिः वचनमनन्तरोदितं श्रुत्वाकर्ण्य । किंविशिष्टायास्तस्याः। संयतायाः प्रबजिताया इत्यर्थः। किंविशिष्टं वच Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. नम्। सुजाषितं संवेगनिबन्धनम् । अङ्कशेन यथा नागो हस्ती एवं धर्म संप्रतिपादित श्त्यर्थः। केन । अङ्कुशतुल्येन वचनेन । अङ्कशेन जहा णागो त्ति। एक उदाहरणं । वसंतपुरं नयरं । तब एगा अवहुया नदीए एहाश् । अन्नो य तरुणो तं दखूण जण। सुण्हायं ते पुश एसा नई पवरसोहियतरंगा । एए नदीरुरका । अहं च पाएसु ते पडि। ताहे सा पडिनण। सुहया होउ नई। ते चिरंजीवंतु जे नरुका। सुण्डायपुछयाणं घत्तीहामो पियं कालं। सो य तीसे घरं वा दारं वाण याण। तीसे य बितिधियाणि चेडरूवाणि रुके पलोयंताणि अचंति । तेण ताणं पुप्फफलाणि सुबहूणि दिमाणि । पुछियाणि य। का एसा । ताणि नणंति अमुगस्स सुण्हा। सोय तीए विरहं न लहति । त परिवाश्यं उलग्गिउमाढत्तो। निस्का दिन्ना। सा तुझा जण । किं करेमि उलग्गए फलं । तेण नणिया अमुगस्स सुण्डं मम कए जणाहि । तीए गंतूण नणिया। अमुगो ते एवंगुणजाती पुनश् । ताए रुहाए पउवगाणि धोवंतीए मसिलित्तएण हबेण पिडीए आदया। पंचंगुलियं उहियं । अवदारेण निबूढा । गया तस्स साहाणामं पिसा तव ण सुणे। तेण णायं कालपंचमीए अवदारेण अश्गंतवं । श्रग य असोगवणियाए मिलियाणि सुत्ताणि य जाव पस्सवणागएण ससुरेण दिछाणि । तेण णायं ण एस मम पुत्तो पारदारि को पछा पाया तेण णेजरं गहियं चेश्यंय तीए । सो नणि। णास लहुँ आवश्काले साहेऊं करेजासि। श्यरी गंतूण जत्तारं नणएब घम्मो।असोयवणियं वच्चामो। गंतूण सुत्ताणि।खणमेतंसुविऊणं नत्तारं उज्वेश्नणय ।एयं तुल कुलाणुरूवं । ज णं मम पाया ससुरोणेजरं कढ। सो नण। सुवसु पलाए लनिहिति।पनाए थेरेणं सिंहासो य रुको नण विवरी थेरोत्ति। थेरो नणश् मया दिहो अन्नो पुरिसो। विवाए जाए सा जण । अहं अप्पाणं सोहयामि । एवं करे हि । त बहाया कयबलिकम्मा गया जकघरं। तस्स जरकस्स अंतरेण गळतो जो कारगारी सो लग्ग अकारगारी नीसर । तर्ज सो विडपियतमो पिसायरूवं काऊण णिरंतरं घणं कंठे गिह । त सा गंतूण तंजकं जणशजो मम मायापिनदिम जत्तारो । तं च पिसायं मोत्तूण जर अमं पुरिसं जाणामि तो मे तुमं जाणिद्यसि त्ति । जको विलको चिंते। एस य के रिसाई धुत्ती मंतेश् । अहगंपि वंचि तीए। एहि सश्त्तणं खुधुत्तीए।जाव जरको चिंतेश्ताव सा णिफिडिया।त से थेरो सबलोगेण विलकीकर्ड हीलिय। त थेरस्स तीए अधिईए गिदाणहा।रलो यकले गयं रमा सदाविऊण अंतेउरवाल की अनिसेकं च हबिरयणं वासघरस्स देठा बळं अब। य एगा देवी दनिर्मिठे यासत्ता। णवरं हबीचोंवालया होण Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीयाध्ययनम् । १०० अवतारे । पनाए पडिणीणे । एवं वच्च कालो। श्रमया य एगाए रयणीए चिरस्स आगया हलिमिटेण रुहेण हविसंकलाए हया । सा जणएयारिसो तारिसो यण सुवामा मुन रूसह । तं थेरो पिडश चिंतियं चणेण एवं पि रस्किजमाणी एयार्ड एवं ववहरंति।कि पुण ताठ सदा सबंदाउत्ति।सुत्तो पनाए सबलोगो जहिजसो ण उठे३।रलो कहियं । रमा नणियं ।सुवज।चिरस्स उहि पुलिउँ । कहियं सवं। जण।जहा एगादेवीण याणामि कयरावि।त राश्णा नंमहबी काराविउ जणिया एयस्सअञ्चणिचं काऊणं उलंडेह । त सबाहिं उलं डिजे। एगाणेछ। जण य।अहं बीहेमि।त रमा उप्पलेण आहया । मुछिया पडिया।रमा जाणियं एस कारित्ति। जणियं चणेण मत्तगयं आरुहंती नंगमयस्स गयस्स बीही हि। तब न मुछिया संकलाहया । एब मुछिया उप्पलाहया। तर्ज सरीरं जोश्यं जाव संकलप्पहारो दिहो। तर्ज परुण रमा देवी मिझो हबीय तिन्निविछिन्नकमए चडावियाणि । जणि य मिंछो एवं वाहेहिं हा िदोहिय पासे हि तेलुग्गाहा उहिया। जाव एगो पाउँ भागासे रवि जणो नण किं एस तिरि जाण। एयाणि मारियवाणि। तहवि राया रोसं न मुय । जाव तिमि पाया आगासे कया। एगेण नि।लोगेण क अकंदो। किमेयं हरियणं विणासिजारमा।मिंगेनणि तरसि पियत्तेलं। नण जयग्गाणं पिअनयं देसि।दिमंत तेण अंकुसेण नियत्ति हबित्ति । दार्दान्तिकयोजना कृतैवेति सूत्रार्थः ॥१॥ एवं करतीत्यादि सूत्रम्। एवं करंति संबुझा, पंडिया पवियरकणा॥ विणियति नोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो ॥ त्तिबेमि ॥११॥ ____ सामन्नपुवियनयणा संमत्ता ॥२॥ (अवचूरिः) एवं कुर्वते संबुद्धाः सामान्येन बुद्धिमन्तः । पएिकता वान्तजोगासेवनदोषज्ञाः । प्रविचक्षणा अवद्यजीरवः। नोगेज्यो निवर्तन्ते यथासौ पुरुषोत्तमो रथनेमिः। तस्य कथं पुरुषोत्तमत्वं यो दीदितो विषयाकाङ्की । आह । अनिलाषेऽप्यप्रवृत्तेः । कापुरुषस्तु अभिलाषानुरूपं चेष्टत एवेति ॥ ११॥ श्त्यवचूरिकायां श्रामण्यपूर्वकाख्यं द्वितीयमध्ययनम् ॥२॥ (अर्थ.) एवमिति ( संबुद्धा के० ) बुद्धिमंतः (पंडिया के०)पंडिताः एटले वमेला विषयना उपजोगथी उत्पन्न थता दोषना जाण एवा अने (पवियरकणा के) प्रविचक्षणाः एटले सावध कर्मथी बीक राखनारा एवा पुरुषो ( एवं के०) पूर्वोक्त प्रकारे ( करंति के०) कुर्वति एटले आचरण करे . एज अर्थ स्पष्ट करी कहे . Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. (नोगेसु के०) जोगेषु, जोगेन्य इति यावत्. एटले वांत जोगथकी (विणियद्वंति के) विनिवर्तन्ते एटले दूर रहे . ( जहा के ) यथा एटले जेम ( से के०) सः ते (पुरिसुत्तमो के ) पुरुषोत्तमः एटले सर्व पुरुषमां उत्तम एवो रथनेमि ते पूर्वोक्त राजिमतीना वचनथी विषयनोगथी निवृत्त थयो. तिबेमि एनो अर्थ पूर्ववत् ॥११॥ __ अहीं कोई शंका करे ले के, रथनेमिने सूत्रमा पुरुषोत्तम कडं , ते युक्त देखातुं नथी. कारण जे चारित्र लश्ने स्त्रीनो अभिलाषी थयो, तेमां पण नाश्नी स्त्री उपर सरागदृष्टि थयो, तेने पुरुषोत्तम केम कहेवाय? ए उपर कहे जे के कर्मनी विचित्र गतिथी विषयानिलाष उत्पन्न थयो, तेने का उपाय नथी. परंतु उष्ट पुरुषनी परें तेणें श्वानुरूप विषयने नोगव्यो नहिं, अने ते अनिलाषनो उपरोध करीने संयमने विषे स्थिर रह्यो, माटे ते रथनेमिने पुरुषोत्तम कडं, ते सत्य . तथा केटला एक लोको एवी पण शंका करे ने के, दशवैकालिक सूत्र जे , ते नियत श्रुत , एटले एनो पाठ अनादि , कहेलु डे केः- “णायनयणाहरणा, इसिजासियमोपश्मयसुया य ॥ एए होंति अणियया, पिययं पुण सेसमुस्समं ॥१॥” आ प्रमाणथी दशवैकालिक जे , ते नियतश्रुत एम सिह थाय , तेम ले तो एमां अर्वाचीन रथनेमीनी कथा केम आवी? एनो उत्तर कहे . उपर आपेली प्रमाणनूत गाथामां 'उस्सम' एवं पद बे, तेथी एम जणाय डे के, उत्सन्न सूत्रो जे जे ते नियतश्रुत , दशवैकालिकादिक तो प्रायें नियत श्रुत बे, पण को स्थलें अनियत श्रुत बे, तेथी रथनेमीनी कथा आवी तेमां कांश दोष नथी. एवीरीतें ए हितीय श्रामण्यपूर्वकाध्ययनमां संयमने विषे चित्त स्थिर करवानो उपाय कह्यो. इति दशवैकालिकना श्रामण्यपूर्वकनामकद्वितीयाध्ययननो बालावबोध संपूर्ण ॥२॥ (दीपिका) एवं कुर्वते कुर्वन्ति । के । संबुझा बुझिमन्तः। अथवा सम्यग्दर्शनसहितेन झानेन ज्ञातविषयखन्नावाः सम्यग्दृष्टय इत्यर्थः । पुनः किं । पंमिता वान्तनोगासेवनदोषज्ञाः । पुनः किं । प्रविचक्षणाः पापन्नीरवः । किं कुर्वन्ति ते इत्याह । निवर्तन्ते दूरीजवन्ति । केन्यो जोगेन्यो विषयेभ्यः। क श्व। यथा असौ पुरुषोत्तमो रथनेमिः। शिष्य आह । ननु कथं तस्य पुरुषोत्तमत्वं यो हि गृहीतदीदोऽपि विषयानिलाषी जातः । उच्यते । तथाविधे अभिलाषे जातेऽपि नासौ प्रवृत्तः। कापुरुषस्तु तदनुरूपं चेष्टत एवेति । इति पूर्वोक्तप्रकारेण ब्रवीमि न स्वबुद्ध्या किं तु तीर्थकरगणधराणामुपदेशेन ॥११॥ इति श्रीदशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां द्वितीयमध्ययनम् ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०ए दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । अस्य व्याख्या । एवं कुर्वन्ति संबुझा बुद्धिमन्तो बुद्धाः । सम्यग्दर्शनसाहचर्येण दर्शनकीनावेन वा बुझाः संबुझा विदित विषयखनावाः । सम्यग्दृष्टय इत्यर्थः। त एव विशेष्यन्ते । पंमिताः प्रविचक्षणास्तत्र पएिकताः सम्यग्ज्ञानवन्तः प्रविचक्षणाश्चरणपरिणामवन्तः।अन्ये तुव्याचक्षते।संबुद्धाःसामान्येन बुद्धिमन्तः पएिकता वान्तनोगासेवनदोषाःप्रविचक्षणाअवद्यन्नीरवति।किं कुर्वन्ति। विनिवर्तन्ते नोगेन्यः विविधमनेकैः प्रकारैरना दिनवान्यासबलेन कदीमाना अपिमोहोदयेन विनिवर्तन्ते नोगेन्यो विषयेभ्यः । यथा क इत्याह। यथासौ पुरुषोत्तमः रथनेमिःायाह । कथं तस्य पुरुषोत्तमत्वं यो हि प्रव्रजितोऽपि विषयानिलाषीति।उच्यते।अनिलाषेऽप्यप्रवृत्तेः। कापुरुषस्त्वजिलाषानुरूपं चेष्टत एवेति । अपरस्त्वाह । दशवैकालिकं नियतश्रुतमेव । यत उक्तम् । पायजयणाहरणा, सिनासियमोपश्लयसुया य ॥ एए होंति अणियया, णिययं पुण सेसमुस्समं ॥ तत्कथमनिनवोत्पन्न मिदमुदाहरणं युज्यते इति । उच्यते। एवंजूतार्थस्यैव नियतश्रुतेऽपि नावात्सन्नग्रहणाच्चादोषः।प्रायोनियतं नतु सर्वथा नियतमेवेत्यर्थः। ब्रवीमीति न स्वमनीषिकया किंतु तीर्थकरगणधरोपदेशेन । उक्तोऽनुगमो नयाः पूर्ववदिति। श्त्याचार्यश्रीहरिजमसूरि विरचितायां दशवैकालिकटीकायां द्वितीयं श्रामण्यपूकाध्ययनं संपूर्णम् ॥२॥ ॥अथ तृतीयाध्ययनम् ॥ संजमे सुध्यिप्पाणं, विप्पमुक्काण ताणं ॥ तेसिमेयमणानं, निग्गंयाण मदेसिणं ॥१॥ अथ कुल्लकाचाराख्यतृतीयाध्ययनावचूरिः॥ पूर्व धृतिरुक्ता सा चाचारे कार्या नत्वनाचारे।अतः कुखकाचारकथाध्ययने आचारः कथ्यते । संयमे सुष्टु आगमनीत्या स्थितात्मनां बाह्यान्यन्तरेण परिग्रहेण।त्रायन्ते रदन्ते स्वं परं चोजयं वेति त्रातारस्तेषामात्मानं प्रत्येकबुझाः वयं तीर्णत्वात् । एवं तीर्थकरास्तारकत्वात् उन्नयं स्थविराः सदापि धर्ममार्गप्रवर्त्तनात् । तेषामिदं वदयमाणमनाचरितम्।महर्षीणां महैषिणां वा निर्ग्रन्थानामनिधानमेतत् । इह च पूर्वपूर्वजाव एवोत्तरोत्तरजावो हेतुहेतुमन्नावेन वेदितव्यः। यत एवं संयमेसुस्थितात्मानः । अत एव विप्रमुक्ताः संयमे सुस्थितात्मनिबन्धनत्वाछिप्रमुक्तेः। एवं शेषेष्वपि नावनीयम् ॥१॥ (अर्थ.) पूर्वोक्त द्वितीयाध्ययनमां धर्म उपर श्रद्धा राखीने नवीन चारित्र Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. लीधेला साधूने धृतिना अजावथी मोह नहीं थववो माटे संयमने विषे धृति राखवी एम कयु. हवे, पूर्वे कहेली धृति जे बे, ते सदाचारने विषेज करवी, अनाचारने विषे करवी नही. एज श्रआत्मसंयमनो उपाय , ए संबंधे आवेला तृतीय अध्ययनमां आचार कथन हार कहेवानुं .कहेलु डे केः- “तस्यात्मा संयतो यो हि, सदाचाररतः सदा ॥ स एव धृतिमान् धर्मः, तस्यैव च जिनोदितः ॥१॥" एवा संबंधथी ए अध्ययननी प्राप्ति थई बे. हवे, ए अध्ययन- “कुखकाचारकथा' एवं नाम , तेनुं कारण ए डे केःआचारने विषे धृति राखवी एम कडं, ते आचारना झान वगर सिक थाय नहीं, माटे चार केहवा जोश्ये. ते आचार बे प्रकारना , एक प्रधानाचार अने बीजा दुबकाचार. तेमां ए तृतीय अध्ययनमा कुखकाचारनुं कथन कझुं , माटे ए अध्ययननुं नाम 'कुलकाचारकथा' एवं पडयुं . तेनी प्रथम गाथा संजमेत्यादि (संजमे के०) संयमे एटले सत्तर प्रकारना संयमने विषे (सुहिअप्पाणं) सुस्थितात्मनाम्, सु एटले रूडे प्रकारे स्थित आत्मा जेमनो एवा अत एव (विप्पमुक्काणं के०) विप्रमुक्तानाम्, वि एटले अनेक प्रकारे प्र एटले प्रकर्षेकरी मुक्ताः एटले बाह्यात्यंतर परिग्रहथी मुक्त थयेला एवा, अत एव (ताश्णं के०) तायिनाम् एटले केवल ज्ञान संपादने करी स्वपररदक एवा प्रत्येकबुझ, तीर्थंकर अने स्थविर ए त्रण प्रकारना, तेमां प्रत्येकबुक जे बे, ते तो पोतार्नु मात्र रक्षण करे , तीर्थंकर जे ले ते पोतें केवली होवाथी सम्यक्वादि आपीने बीजार्नु मात्र रक्षण करे बे, अने स्थविर जे जे ते पोते तरे में, अने बीजाने तारे , माटे ते खपररक्षक जाणवा. श्रत एव (निग्गंथाणं के०) निर्ग्रन्थानाम् एटले परिग्रहरूप ग्रंथिथी रहित एवा (तेसिं के०) तेषाम् एटले ते (महेसिणं के०) महर्षीणाम् एटले महोटा झषि एवा यतियोने (एयं के) एतत् एटले आगल बावन बोलें करी केहवाशे ते (अणानं के०) अनाचीर्णं एटले थाचरवाने योग्य नयी ॥१॥ (दीपिका) व्याख्यातं श्रामण्यपूर्वकाख्यं द्वितीयमध्ययनम्। कुखकाचारकथाख्यमथ तृतीयमध्ययनमारच्यते।अस्य च अयमनिसंबन्धः।हितीयाध्ययने इत्युक्तं नवदीक्षितेन संयमेऽधृतावुत्पन्नायामपि धृतिमता जाव्यम् । अत्र तु सा धृतिराचारे कार्यानत्वनाचारे अयमेवात्मसंयमोपायः ।उक्तं च ॥“ तस्यात्मा संयतो यो हि सदाचारे रतः सदा ॥ स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव हि जिनोदितः ॥” इत्यनेन संबन्धेनायातमिदमध्ययनं व्याख्यायते । तत्र सूत्रम् । संयमे सुस्थितः शोजनप्रकारेण सिकान्तरीत्या स्थित Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । १११ 1 आत्मा येषां तेषाम् । किं० । विप्रमुक्तानां विविधमनेकप्रकारैः प्रकर्षेण संसारान्मुक्तानाम् । पुनः किं० । तायिनाम् । त्रायन्ते आत्मानं परमुजयं च ये ते त्रातारस्तेषाम् । आत्मानं प्रत्येकबुद्धाः, परं तीर्थकराः, उजयं स्थविरा:, तेषामिदं वक्ष्यमाणलक्षणमनाचीर्णमनाचरितमकटपम् । केषामित्याह । निर्ग्रन्थानां साधूनाम् । किं विशिष्टानाम् । महर्षीणां महतां यतीनाम् ॥ १ ॥ (टीका) व्याख्यातं श्रामण्यपूर्व काध्ययनमिदानीं क्षुल्लकाचारकथाख्यमारभ्यते । श्रस्य चायम निसंबन्धः । इहानन्तराध्ययने धर्मान्युपगमे सति मानूद जिनवप्रव्रजितस्याधृतेः संमोह इत्यतो धृतिमता जवितव्यमित्युक्तम् । इह तु सा धृतिराचारे कार्या नत्वनाचारे । अयमेवात्मसंयमोपाय इत्येतदुच्यते । उक्तं च ॥ तस्यात्मा संयतो यो हि, सदाचारे रतः सदा ॥ स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव च जिनोदितः ॥ इत्यनेनानिसंबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि पूर्ववत् । नाम निष्पन्ने निक्षेपे कुल्लकाचारकथेति नाम । तत्र क्षुल्लकस्येति निक्षेपः कार्यः । श्राचारस्य कथायाश्च महदपेक्षया च क्षुल्लक मित्यतश्चित्रन्यायप्रदर्शनार्थमपेक्षणीयमेव । महदनिधित्सुराह । नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले पहाणावे ॥ एए सि महंताणं, पडिवरके खुरुया होंति ॥ १८४॥ व्याख्या ॥ नाममहन्महदिति नाम | स्थापनामहन्मह० । द्रव्यमहान चित्तमहास्कन्दः । क्षेत्रमहल्लोकालोकाकाशम् । कालमहानतीता दिनेदः संपूर्णः कालः । प्रधानमह त्रिविधम् । स चित्ताचित्तमिश्रभेदात् । सचित्तं त्रिविधम् । द्विपदचतुष्पदापदभेदात् । तत्र द्विपदानां तीर्थंकरः प्रधानः । चतुष्पदानां हस्ती । अपदानां पनसः । अचित्तानां वैमूर्यरत्नम् । मिश्राणां तीर्थकर एव वैडूर्यादिविभूषितः प्रधानः । इत्यत एव चैतेषां महत्त्वमिति प्रतीत्य महदादिकम् । तद्यथा यामलकं प्रतीत्य बिल्वं महत्, बिल्वं प्रतीत्य कपिल मित्यादि । जावमह त्रिविधं प्राधान्यतः कालत श्राश्रयतश्चेति । प्राधान्यतः क्षायिको महान्मुक्तिहेतुत्वेन तस्यैव प्रधानत्वात् । कालतः पारिणामिकः । जीवत्वाजीवत्वपरिणामस्यानाद्यपर्यवसितत्वान्न कदाचिजीवा जीवतया परिणमन्ते जीवा - श्च जीवतयेति । श्रयतस्त्वौद यिकः । प्रभूतसंसा रिसत्त्वाश्रयत्वात्संसारिणामेवासौ विद्यत इति एतेषामनन्तरोदितानां महतां प्रतिपदे कुल्लकानि भवन्ति । श्रनिधेयवलिङ्गवचनानि जवन्तीति न्यायात् यथार्थं कुल्लक लिङ्गवचन मिति । तत्र नाम - स्थापने कुले । द्रव्यक्षलकः परमाणुः । द्रव्यं चासौ लकश्चेति । क्षेत्रक काशप्रदेशः । कालल्लकः समयः । प्रधानकुलकं त्रिविधम् । सचित्ताचित्तमिश्रनेदात् । सचित्तं त्रिविधम् । द्विपदचतुष्पदापदजेदात् । द्विपदेषु कुल्लकाः प्रधानाश्चानु I - Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. त्तरसुराः । शरीरेषु कुबकमाहारकम् । चतुष्पदेषु प्रधानः कुलकश्च सिंहः। अपदेषु जातिकुसुमानि । अचित्तेषु वज्रं प्रधानं कुलकं च। मिश्रेष्वनुत्तरसुरा एव शयनीयगता इति । प्रतीत्य कुलकं तु कपि, प्रतीत्य बित्वं कुद्धकं बिल्वं प्रतीत्यामलकमित्यादि। जावकुबकस्तु दायिको नावः स्तोकजीवाश्रयत्वादिति गाथार्थः। श्वं कुबकनिदेपमनिधायाधुना प्रकृतयोजनापुरःसरमाचारनिदेपमाह ॥ पश्खुमएण पगयं, थायारस्स उ चउक्कनिकेवो ॥ नाम उवणा दविए, जावायारे य बोधवे ॥१५॥ व्याख्या ॥ प्रतीत्य यत् कुलकमुपदिष्टम् । तेनात्राधिकारः। यतो महती खत्वाचारकथा धर्मार्थकामाध्ययनं तदपेदया कुब्लिकेयमिति । आचारस्य तु चतुष्को निक्षेपः। स चायम् । नामाचारः स्थापनाचारो अव्याचारो नावाचारश्च बोकव्य इति गाथार्थः। नावार्थं तु वक्ष्यति । तत्र नामस्थापने कुमे । अतो अव्याचारमाह । नामणधावणवासणसिकावणसुकरणाविरोहीणि ॥ दवाणि जाणि लोए, दवायारं वियाणाहि ॥ १६ ॥ व्याख्या ॥ नामनधावनवासन-शिदापनसुकरणाविरोधीनि व्याणि यानि लोके तानि उव्याचारं विजानीहि । अयमत्र नावार्थः। श्राचरणमाचारः । अव्यस्याचारो अव्याचारः। व्यस्य यदाचरणं तेन तेन प्रकारेण परिणमनमित्यर्थः। तत्र नामनमवनतिकरणमुच्यते । तत् प्रति विविधं अव्यं नवति। आचारवदनाचारवच्च । तत्परिणामयुक्तमयुक्तं चेत्यर्थः। तत्र तिनिशलतादि आचारवत् । एरणमलताद्यनाचारवत् । एतमुक्तं नवति । तिनिशलताद्याचरितं नावं तेन रूपेण परिणमति । नत्वेरणमादि । एवं सर्वत्र नावना कार्या । न वरमुदाहरणानि प्रदर्यन्ते । धावनं प्रति हरिक्षारक्तं वस्त्रमाचारवत् सुखेन प्रदालनात् । कृमिरागरक्तमनाचारवत् तनस्मनोऽपि रागानपगमात् । वासनं प्रति कवेलुकाद्याचारवत्सुखेन पाटलाकुसुमादिनिर्वास्यमानत्वात् । वैमर्याद्यनाचारवत् अशक्यत्वात् । शिक्षणं प्रत्याचारवहुकसारिकादि सुखेन मानुषनाषासंपादनात् । अनाचारवछकुन्तादि तहिपर्ययात् । सुकरणं प्रत्याचारवत् सुवर्णादि सुखेन तस्य तस्य कटकादेः करणात् । अनाचारवत् घएटालोहादि तत्राग्यस्य तथाविधस्य कर्तुमशक्यत्वादिति । अविरोधं प्रत्याचरवन्ति गुडदध्यादीनि रसोत्कर्षापत्नोगगुणाच्च । अनाचारवन्ति तैलदीरादीनि विपर्ययादिति । एवंचूतानि अव्याणि यानि लोके तान्येव तस्याचारस्य तव्याव्यतिरेकाइव्याचारस्य च विवदितत्वात्तथा चरणपरिणामस्य नावत्वेऽपि गुणाजावादव्याचारं विजानीहि अवबुध्यस्वेति गाथार्थः। उक्तो ऽव्याचारः सांप्रतं नावाचारमाह ॥ दंसणनाणचरित्ते तवायारे य वीरियायारे ॥ एसो नावायारो, पंचविहो होश नायवो ॥ २७ ॥ व्याख्या ॥ दर्शनशानचारित्रादिष्वाचारशब्दः प्रत्येकम Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । ११३ निसंबध्यते । दर्शनाचारो ज्ञानाचारश्चारित्राचारस्तपश्राचारो वीर्याचारश्चेति । तत्र दर्शनं सम्यग्दर्शनमुच्यते । न चकुरा दिदर्शनम् । तच्च क्षायोपशमिका दिरूपत्वानाव एव । ततश्च तदाचरणं दर्शनाचार इत्येवं शेषेष्वपि योजनीयम् । जावार्थ तु वदयति । एष जावाचारः पञ्चविधो जवति ज्ञातव्यः । इति गाथाक्षरार्थः । अधुना जावार्थ उच्यते । तत्र यथोद्देशं निर्देश इत्यादौ दर्शनाचारजावार्थः । दर्शनाचारश्चाष्टधा । तथा चाह | गाथा ॥ निस्संकिय निक्कंखिय, निविति गिष्ठा मूढ दिघी ा ॥ उववूहथिरीकरणे, वल्लपजावणे ॥ १८८ ॥ व्याख्या ॥ निःशङ्कित इत्यत्र शङ्का शङ्कितं, निर्गतं शङ्कितं यतोऽसौ निःशङ्कितः । देशसर्वशङ्कारहित इत्यर्थः । तत्र देशशङ्का समाने जीवत्वे कथमेको व्योऽपरोऽनव्य इति शङ्कते । सर्वशङ्का तु प्राकृत निबद्धत्वात्सर्वमेवेदं परिकल्पितं जविष्यतीति । न पुनरालोचयति । यथा जावा हेतुग्राह्या हेतुग्राह्याश्च । तत्र हेतुग्राह्या जीवास्तित्वादयः । अहेतुग्राह्या नव्यत्वादयः । अस्मदाद्यपेक्षया प्रकृष्टज्ञानगोचरत्वात् तद्धेतूनामिति । प्राकृत निबन्धोऽपि बालादिसाधारण इति । उक्तं च ॥ बालस्त्री मूढमूर्खाणां नृणां चारित्रका ङ्क्षिणाम् ॥ अनुग्रहार्थं तत्त्वः, सिद्धान्तः प्राकृतः स्मृतः ॥ दृष्टेष्टाविरुद्धश्चेति । उदाहरणं चात्र पेयापेकौ यथावश्यके । ततश्च निःशङ्कितो जीव एवाईछासनप्रतिपन्नौ दर्शनाचरणात् । तत्प्राधान्यविवक्षाया दर्शनाचार उच्यते । अनेन दर्शनदर्श निनोरभेदमाह । तदेकान्तनेदे त्वदर्श निन श्व तत्फलाभावात् मोदानाव इत्येवं शेषपदेष्वपि जावना कार्येति । तथा निःकाङ्क्षितो देशसर्वकाङ्क्षारहितः । तत्र देशकाङ्क्षा एकं दर्शनं काङ्क्षति दिगम्बरदर्शनादि । सर्वकाङ्क्षा तु सर्वाण्येवेति । नालोचयति षड्जीवनका पीडामसत्प्ररूपणां च । उदाहरणं चात्र राजामात्यौ यथावश्यक इति । विचिकित्सा मतिविज्रमः । निर्गता विचिकित्सा मतिविज्रमो यतोऽसौ निर्विचिकित्सः । साध्वेव जिनदर्शनं किंतु प्रवृत्तस्यापि सतो ममास्मात्फलं जविष्यति न जविष्यतीति । क्रियायाः कृषीवलादिपूजयोपलब्धेरिति विकल्परहितः । न ह्यविकलोपाय उपे वस्तुपरिप्रापको न जवतीति संजातनिश्चयो निर्विचिकित्स उच्यते । एतावतांशेन निःशङ्किता जिन्नः । उदाहरणं चात्र विद्यासाधको यथावश्यक इति । यद्वा निर्विजुगुप्सः साधुजुगुप्सारहितः । उदाहरणं चात्र श्रावकडुहिता यथावश्यक एव । तथामूदृष्टिश्च बालतपखितपो विद्यातिशयदर्शनैर्न मूढा स्वरूपान्न चलिता दृष्टिः सम्यग्दर्शनरूपा यस्यासावमूढदृष्टिः । अत्रोदाहरणं सुलसा साविया । जहा लोइयरिसी बडो रायगिरं गतो बहूणं जवियाणं थिरीकरण णिमित्तं सामिया नपिउं । सुलसं पुि कासि । श्रम्मडो चिंते । पुलमतिया सुलसा जं रहा पुछेइ । तर्ज अम्मडे परिक १५ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ११४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. वाणिमित्तं सा जन्तं मग्गिया । ताए ण दिन्नं । तनुं तेण बहूपि रुवाणि विजब्वियाणि । तह विदि । ण य संमूढा । तह कुति बियरिद्धी दण मूढदिठिणा जवियवं । एतावान् गुणप्रधानो दर्शनाचार निर्देशः । अधुना गुणप्रधाने उपबृंहण स्थिरीकरणे इति । उपबृंहणं च स्थिरीकरणं चोपबृंहण स्थिरीकरणे । तत्रोपबृंहणं नाम समानधर्मिकाणां सगुणप्रशंसनेन तद्वृद्धिकरणम् । स्थिरीकरणं तु धर्माद्विषीदतां सतां तत्रैव स्थापनम् । उवब्रूहणाए उदाहरणं । जहा रायगिहे नयरे से णि राया । इ य सक्को देवराया सम्मत्तं पसंसइ । इ य एगो देवो सदहंतो नगरबाहि सेणियस्य सिग्गयस्स चे - रूवं काऊ मिसे गेहइ । ताहे तं निवारे । पुणरवि सब संजई गुहिणी पुर हिया । ताहे पर वविऊण जहा ए कोई जाइ तहा सूइगिहं कारवेश । जं किं वि सूकम्मं तं सयमेव करेइ । तर्ज सो देवो संजईरूवं परिचऊण दिवं देवरूवं दरिसेइ | जय । जो से लिय सुलऊं ते जम्मजीवियस्स फलं । जेण ते पवयणस्सुवरिं एरिसी जत्ती जवइत्ति उवबूदेऊण गर्न । एवं जवबूहियवा साहम्मिया । थिरीकरणे उदाहरणं जहा । उक्रेणीए प्रकासाठो कालं करेंते संजए अप्पादे । मम दरिसावं दिनह। जहा उत्तरप्रयणे सुए तं प्रकाणयं सवं तदेव । तम्हा सो जहा श्रद्धासाठो थिरो ad | एवं जे जविया ते थिरीकरेयवा । तथा वात्सल्यात्प्रजावना इति । वात्सल्यं च प्रजावना च वात्सल्यप्रजावना तत्र वात्सल्यं समानधर्मिकप्रत्युपकारकरणम् । प्रजावना धर्मकथनादि निस्तीर्थख्यापनेति । तत्र वात्सल्ये उदाहरणं श्रवरा । जहा तेहिं डुलिरके संघो निवारि । एवं सवं जहा वस्सए तहा नेयं । पजावणाए उदाहरणं ते चेव अऊवइरा । जहा तेहिं यग्गिसिहाउं सुदुमका झ्याई आऊण सासणस्स उनावणा कया एवमरकाण्यं जहा व्यवस्सए तहा कहेयवं । एवं साहुणा वि सबपयत्तेण सासणं उनावेयवं । श्रष्टावित्यष्टप्रकारो दर्शनाचारः । प्रकाराश्वोक्ता एव निःश ङ्कितादयः । गुणप्रधानश्चायं निर्देशो गुणगुणिनोः कथं चिद्भेदख्यापनार्थः । एकान्तानेदे तन्निवृत्तौ गुणिनोऽपि निवृत्तेः शून्यतापत्तिरिति गाथार्थः । खपरोपकारिणी प्रवचनप्रजाबना तीर्थकर नामकर्म निबन्धनं चेति । ज्ञेदेन प्रवचनप्रजावकानाह ॥ इसे सइट्ठियाय रिय-वाइधम्मक हिखमगनेमित्ती ॥ विद्यारायगणसं - मया य तिचं पाविति ॥ १८९ ॥ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ श्रतिशयी अवध्या विज्ञानयुक्तः । रुद्धिग्रहणादामर्षैषध्यादिरुद्धिप्राप्तः । रुद्धिप्रत्रजितो वा । आचार्यवादिधर्मक शिक्षपकनैमित्तिकाः प्रकटार्थाः । विद्याग्रहणाद्विद्या सिद्धः । श्रार्यखपुटवत् सिद्धमन्त्रः । रायगणसंमया राजसंमता मन्त्र्यादयः । गणसंमता महत्तरादयः चशब्दाद्दानश्राद्धका दिपरिग्रहः । एते तीर्थं प्रवचनं प्रजावयन्ति । स्वतः प्रकाशस्वभावमेव सहकारितया प्रकाशयन्तीति गाथार्थः I For Private Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके तृतीयाध्ययनम् । ११५ कंताए उक्तो दर्शनाचारः । सांप्रतं ज्ञानाचारमाह । काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तय अनिन्दवणे || वंजणात जए, अविहो नाणमायारो ॥ १०० ॥ व्याख्या ॥ काल इति । यो यस्याङ्गप्रविष्टादेः श्रुतस्य काल उक्तः । तस्य तस्मिन्नेव काले स्वा ध्यायः कर्तव्यो नान्यदा तीर्थकरवचनात् । दृष्टं च कृष्यादेरपि कालग्रहणे फलं वि पर्यये च विपर्यय इति । अत्रोदाहरणम् । एक्को साहू पादोसियं कालं घेतूण वि पदमपोरिसीए अणुवगेण पढइ कालियं सुर्य । सम्मदिट्ठी देवया चिंते । मा पंतदेवया बलिद्य त्ति काळं तक्कं कुंडे घेत्तृणं तक्कं तकं ति तस्स पुर निरक sarai गयागयाई करे । तेण य चिरस्स सप्रायस्स वाघायं करेइति । या याuिr को इमो तकस्स विकणणकालो । वेलं ता पलोवेह । तीए विजयिं । श्रहो को इमो कालियास्य सप्रायकालो त्ति । त साहुणा गायं जहा एसा पागइति । उवउत्तो गार्ड अद्धरत्ते दिसं मित्राकडं । देवयाए जलियं । मा एवं करेद्यासि मा पंता बलेका । त काले सझाश्यवं ए उ काले ति । तथा श्रुतदणं कुर्वता गुरोर्विनयः कार्यः । विनयोऽज्युच्चानपादधावनादिः । श्रविनयगृहीतं हि तदफलं जवति । छ उदाहरणं । सेणि राया नद्याए जलइ । ममेगखंनं पासायं करे हि । एवं डुमपुष्ययणे वरकाणियं । तम्हा विषए अहि वियवं गोवएण । तथा श्रुतग्रहणोद्यतेन गुरोर्बहुमानः कार्यः । बहुमानो नामान्तरो जावप्रतिबन्धः । एतस्मिन् सत्यदेपेणाधिकफलं श्रुतं जवति । विषयबहुमाणेसु च नंगी । एगस्स वि ण बहुमाणो । अवरस्स बहुमाणो ण वि । मस्स वि वि बहुमावस विष ण बहुमाणो । एव दोह वि विसेसोपदंसणवं इमं उदाहरणं । एगंमि गिरिकंदरे सिवो । तं च बंजणो पुलिंदो य अचंति । बंजणो जवले - वणसम्मऊणोवरि सेयपथर्ड सुईमूर्ड अच्चित्ता युएइ विषयजुत्तो । ण पुण बहुमाणे । पुलिंदो पुण तंमि सिवे जावपडिवो गल्लोदएण रहावे | यह विकण 1 वविधो सिवोय ते समं बालावसंकहाहिं अब । मया य तेसिं वंजणेणं उल्लावसो सुर्ज । ते पडियरिऊण उवलको । तुमं एरिसो चेव कडपूयण सिवो । जो एरिसे उचिएण समं मंतेसि । तनुं सिवो जइ । एसो मे बहु माणे । तुमं पुणो ण तहा । या य अणि उरकणिऊ सिवो । बंजणो य श्रातुं रडियमुवसंतो । पुलिंदो य आग । सिवस्स अणि पेठ । तर्ज प्णयं कंमफलेण कणित्ता सिवस्स लाएइ । तर्ज सिवेण बंजणो पत्तियाविउँ । एवं पाए - मंसु विd बहुमाणो य दो वि कायवाणि । तथा श्रुतग्रहणमनी प्सतोपधानं कार्यम् । उपदधातीत्युपधानं तपः । तद्धि यद्यत्राध्ययने गाढा दियोगलक्षणमुक्तं तत्तत्र कार्यम् । For Private Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तत्पूर्वकश्रुतग्रहणस्यैव सफलत्वात्।अत्रोदाहरणम् । एगे आयरिया।ते वायणाए संता परितंता ससाए वि अससाश्यं घोसेजमारहाणाणंतरायं बंधिऊण कालं काऊण देवलोगं गया।त देवलोगाउँ आउरकरण चुया । अहीरकुले पञ्चायाया नोगे झुंजंति । अमया य से धूया जाया।सा य अश्व रूवस्सिणी। ताणि य पच्चंतयाणि गोचारणणि मित्तं अमन वच्चंति । तीए दारियाए पिजणो सगळं सबसगमाणं पुरजं गब।सा य दारिया तस्स सगडस्स धुरतुंमे छिया गया तरुणश्त्तेहिं चिंतियं । समाई कालं सगमा दारियं पेडामो। तेहिं सगडा उप्पहेहिं खेडिया। विसमे आवडिया समाणा जग्गा । त लोएण तीए दारियाए णामं कयं असगडत्ति । ताए दारियाए असगडाए पिया असगडपियत्ति । त तस्स तं चेव वेरग्गं जायं। तं दारियं एगस्स दाऊण पवा। जाव चाउरंगिचं ताव पढिर्छ । असंखए दिले तं णाणावरणिधं से कम्मं जदिलं । पढंतस्स वि किं वि ण हा। आयरिया नणंति । बहेणं ते अणुमवशत्ति । त सो नण एयस्स केरिसो जो । आयरिया नणंति जाव ण हा ताव आयंबिलं कायक्वं । तर्ड सो नण तो एवं चेव पढामि।तेण तहा पढ़तेण बारसरूवाणि बारससंवबरेहिं अहियाणि । ताव से आयं बिलं कयं । त णाणावरणं कम्मं खीणं । एवं जहा सगडपियाए श्रागाढजोगो अणुपालि । तहा सम्म अणुपालियवं । उवहाणेत्ति गयं । तथा अनिण्हवणित्ति । गृहीतश्रुतेनानिवः कार्यः । यद्यस्य सकाशेऽधीतं तत्र स एव कथनीयो नान्यश्चित्तकालुष्यापत्तेरिति । अत्र दृष्टान्तः। एगस्स हा वियस्स बुरनं विद्यासामण आगासे अब । तं च एगो परिवायगो बहदि उवसंपजाणाहिं उवसंपजिऊण तेण सा विद्या लका । ताहे अन्नब गंतुं तिदंडेण श्रागासगएण महाजणेण पूश्द्य त्ति । रमा य पुछि। जयवं किमेस विद्याश्सयो जय तवाश्स त्ति। सो नण विद्याश्स। कस्स सगासा गहिर्ज। सो नण हिमवंते फलाहारस्स रिसिणो सगासे अहिलिउँ । एवं तु वुत्ते समाणे संकिलेसच्याए तं तिदंमं खडत्ति पडियं । एवं जो अप्पागमं आयरियं निण्हवेऊण अमं कहेहि । तस्स चित्तसंकिलेसदोसेणं सा विद्या परलोए ण हवश त्ति । अनिण्हवणित्ति गयं । तथा व्यञ्जनार्थतज्जयान्याश्रित्य नेदो न कार्य इति वाक्यशेषः । एतमुक्तं नवति । श्रुतप्रवृत्तेन तत्फलमनीप्सता व्यञ्जननेदोऽर्थनेद उन्नयनेदश्च न कार्य इति । तत्र व्यञ्जनन्नेदो यथा। धम्मो मंगलमुकिमिति वक्तव्ये पुमं कराणमुक्कोसमिति । अर्थानेदस्तु यथा यावंतीकेयावंती लोगंसि विप्परामुसंतीत्यत्राचारसूत्रे यावन्तः केचन लोकेऽस्मिन् पाखएिकलोके विपरामृशन्तीत्येवंविधार्थानिधाने अवंतिजनपदे केया रजावाता पतिता । लोकः परामृशति कूप इत्याह । उनयनेदस्तु योरपि याथात्म्योपमर्दैन यथा धर्मो Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । मङ्गलमुत्कृष्टः अहिंसापर्वतमस्तक इत्यादि । दोषश्चात्र व्यञ्जननेदेऽर्थनेदस्तख्नेदे कियाया नेदस्तानेदे मोदानावस्तदनावे च निरर्थिका दीदेति । उदाहरणं चात्राधी-. यताम् कुमार इति सर्वत्र योजनीयम् । कुणत्वादनुयोगहारेषु चोक्तत्वान्नेह दर्शितमिति । अष्टविधोऽष्टप्रकारः कालादिनेदहारेण ज्ञानाचारो ज्ञानासेवनाप्रकार इति गाथार्थः । उक्तो ज्ञानाचारः सांप्रतं चारित्राचारमाह ॥ पणिहाणजोगजुत्तो, पंचहिं समिहिं तिहि य गुत्तीहिं ॥ एस चरित्तायारो, अहविहो होइ नायवो ॥११॥ व्याख्या ॥ प्रणिधानं चेतःस्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगा व्यापारास्तैर्युक्तः समन्वितः प्रणिधानयोगयुक्तः । अयं चौघतोऽविरतसम्यगृष्टिरपि नवत्यत आह । पञ्चनिः समितिनिस्तिस्मृनिश्च गुप्तिनिर्यः प्रणिधानयोगयुक्तः। एतद्योगयुक्त एतद्योगवानेव । अथवा पञ्चसु समितिषु तिसृषु गुप्तिष्वस्मिन्विषये एता आश्रित्य प्रणिधानयोगयुक्तो य एष चारित्राचारः । श्राचाराचारवतोः कथंचिदव्यतिरेकादष्टविधो नवति ज्ञातव्यः समितिगुप्तिन्नेदात् । समितिगुप्तिरूपं च शुनप्रवीचाराप्रवीचाररूपं यथा प्रतिक्रमणे इति गाथार्थः। उक्तश्चारित्राचारः सांप्रतं तपाचारमाह । बारसविहंमि वि तवे, सप्रिंतरवा हिरे कुसल दिहे ॥ अगिलाइ अणाजीवी नायबो सो तवायारो ॥ १९ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ हादशविधेऽपि तपसि प्रथमाध्ययनोक्तखरूपे सान्यन्तरवाह्येऽनशनादिप्रायश्चित्ता दिलदणे कुशलदृष्टे तीर्थकरोपलब्धे अग्लान्या न राजवेष्टिकट्पेन यथाशक्ति वा अनाजीविको निःस्पृहः फलान्तरमधिकृत्य यो ज्ञातव्योऽसौ तपथाचारः। आचारतछतोरनेदादिति गाथार्थः। उक्तस्तपत्राचारः । अधुना वीर्याचारमाह ॥ अणिमूहियवल विरियो, परिक्कम जो जहुत्तमाउत्तो ॥ जुंजश् अ जहाथामं, नायवो वीरियायारो ॥ १३ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ अनिगूहितबलवीर्यः अनिद्भुतबाह्यान्यन्तरसामर्थ्यः सन् पराक्रमते चेष्टते यो यथोक्तं षट्त्रिंशद्वदणमाचारमाश्रित्येति वाक्यशेषः । षत्रिंशधित्वं चाचारस्य दर्शनशानचारित्राणामष्टविधत्वात्तपत्राचारस्य च द्वादश विधत्वाच्चेति । उपयुक्त श्त्यनन्यचित्तः पराक्रमते ग्रहणकाले तत ऊर्ध्वं युनक्ति च योजयति च प्रवर्तयति च यथोक्तं षत्रिंशदणमाचार मिति सामर्थ्याजम्यते यथास्थानं यथासामर्थ्य यो ज्ञातव्योऽसौ वीर्याचारः।श्राचाराचारवतोः कथंचिदव्यतिरेकादिति गाथार्थः।अनिहितोवी र्याचारः।तदनिधानाचाचार इति।सांप्रतं कथामाह॥अबकहा कामकहा, धम्मकहाचे वमीसिया य कहा॥ एत्तो एकेका वि य, णेगविहा होश नायवा॥१ए॥ दारं॥व्याख्या। अर्थकथेति विद्यादिरर्थस्तत्प्रधाना कथार्थकथा। एवं कामकथा धर्मकथा चैव मिश्रा च कथा । अत आसां कथानां चैकैकापि च कथा अनेकविधा जवति ज्ञातव्येत्युपन्य Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. स्तगाथार्थः । अधुनार्थकथामाह ॥ विद्यासिप्पमुवा , अणिवे संचर्ड य दकत्तं ॥ सामं दंगो ने, उवप्पयाणं च अबकहा ॥ १५ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ विद्या शिल्पमुपायोऽनिर्वेदः संचयश्च ददत्वं साम दएडो नेद उपप्रदानं चार्थकथा । अर्थप्रधानत्वादित्यदरार्थः। नावार्थस्तु वृहविवरणादवसेयः। तच्चदम् । विद्यं पड्डच्चकहा । जो विद्याए अळ उवधिणति । जहा एगेण विजा साहिया। सा तस्स पंचयं पश्प्पनायं देश। जहा वा सवश्स्स विद्याहरचकवहिस्स विद्यापनावेण नोगा उवणया। सवश्स्स जप्पत्ती जहा य सट्टकुले वडितो। जहा य महेसरो नामं कयं । एवं निरवसेसं जहावस्सए जोगसंगहेसु तहा नाणियवं । विद्यत्तिगयं श्याणिं सिप्पेत्ति । सिप्पेणबो उवजिण त्ति । एक उदाहरणं कोकासो जहावस्सए । सिप्पेत्ति गयं । श्याणि उवाए ति । एब दिहंतो चाणको । जहा चाणकेण बहुविहेहिं अब उवजि । कहं। दो मन धाउरत्ताउँ। एयं पि अरकाणयं जहावस्सए तहा नाणियत्वं । उवाए त्ति गये। श्याणिं अणिवेए संचए य एकमेव उदाहरणं मम्मणवाणि ।सो वि जहावस्सए तहा नाणियो । सांप्रतं ददत्वं तत्सप्रसङ्गमाह ॥सबाहसु दरक-तणेणुसेहीसु य रूवेण ॥ बुझीए अमच्चसु, जीवश पुरोहिं रायसु ॥ १६ ॥ दारं ॥ दरकत्तणयं पुरिस-स्स पंचगं सगमाहु सुंदेरं ॥ बुझी पुण साहस्सा, सयसाहस्साई पुन्नाई॥१॥ व्याख्या ॥ ददत्वं पुरुषस्य सार्थवाहसुतस्य पञ्चकमिति पञ्चरूपकफलम् । शतिकं शतफलमाह सान्दर्य श्रेष्ठिपुत्रस्य। बुद्धिः पुनः सहस्रवती सहस्त्रफला मन्त्रिपुत्रस्य । शतसहस्राणि पुण्यानि शतसहस्त्रफलानि राजपुत्रस्येति गाथार्थः। नावार्थस्तु कथानकादवसेयः । तच्चेदम् । जहा बंजदत्तो कुमारो कुमारामच्चपुत्तो सेहिपुत्तो सबवाहपुत्तो । एए चउरो वि परोप्परं उसावे । जहा को ने केण जीवश् । तब रायपुत्तेण उत्तं अहं पुन्नेहिं जीवामि । कुमारामच्चपुत्तेण नणियं अहं बुद्धीए । सेहिपुत्तेण जणियं अहं रूवस्सित्तणेण । सबवाहपुत्तो नणश् अहं दकत्तणेण । ते जणंति । श्रम गंतुं विमाणेमो । ते गया अमं एयरं जब ण णचंति । उद्याणे श्र वासिया। दकस्स आदेसो दिलो सिग्धं जत्तपरिवयं आणे हि । सो वीहिं गंतुं एगस्स थेरवाणिययस्य श्रावणे हि । तस्स बहुगा कश्या एंति। तदिवसं कोवि ऊसवो सोण पहुप्पत्ति पुडए बंधेठं । त सबवाहपुत्तो दकत्तणेण जस्स जं जवनाश लवणतेवघयगुडसुंठिमिरिय एवमादि तस्स तं देश । अवि सिहो लाहो लछो । तुको नण । तुम्हेब आगंतुया उदाहु वनवया । सो जण आगंतुया।तो अम्ह गिहे असणपरिग्गरं करेजाद । सो जण अले मम सहाया उद्याणे अचंति । तेहिं विणा नाहं मुंजामि। तेण जणियं सवे वि एंतु।आगया। तेण तेसिं जत्तसमालहणतंबोला उवउत्तातं पंचण्हं Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । १२ए रूवयाणं । विश्य दिवसे रूवस्सी वणियपुत्तो वुत्तो। अद्य तुमे दायबो जत्तपरिवर्ड । एवं नवज त्ति । सो उठेऊण गणियापाडगं ग अप्पयं मंडे । तबय देवदत्ता. नाम गणिया पुरिसवेसिणी बहूहिं रायपुत्तसेहिपुत्तादीहिं मग्गिया ।णेछ। तस्स य तं रूवसमुदयं दळूण खुनिया। पडिदासियाए गंतूण तीए माऊए कहियं । जहा दारिया सुंदरजुवाणे दिहिं दे। त सा जण।जण एयं। नण मम गिहमणुवरोहण एग्रह । श्हेव जत्तवेलं करेग्रह । तहेवागया। सा दवव कउँ । तश्य दिवसे बुद्धिमंतो अमञ्चपुत्तो संदिछो।अद्य तुमे नत्तपरिबर्ग दायबो। एयं हवउ ति। सो ग करणसालं। तब य त दिवसो ववहारस्स विडंतस्स परिबेअं न गछ। दो सवत्ती। तासिं जत्ता उवर । एकाए पुत्तो अवि श्यरी अपुत्ता य । सा तं दारयं णेहेण उवचर । नण य मम पुत्तो । पुत्तमाया नणश्य मम पुत्तो तासिं ण परिविद्यश् । तेण जणियं अहं बिंदामि ववहारं । दार उहा कधउ दवं पि उहा एव । पुत्तमाया जण । ण मे दवेण का दारगो वि तीए नवउ जीवंतं पासिहामि पुत्तं । श्यरी तुसिणीया अब । ताहे पुत्तमायाए दिलो। तहेव सहस्सं उवगो । चनने दिवसे रायपुत्तो नणि अद्य रायपुत्त तुम्हेहिं पुमाहिएहिं जोगवहणं वहियवं।एवं नवउ ति। त रायपुत्तो तेसिं अंतिया जिग्गंतुं उद्याणे हि । तंमि य एयरे अपुत्तो राया म। आसो अहिवासि जंमि रुकछायाए रायपुत्तो णिवलो सा ण जयत्तति । त आसेण तस्सोवरि गऊण हिंसितं। राया य अनिसित्तो। अणेगाणि सयसहस्साणि जायाणि । एवं अनुप्पत्ती जव। दरकत्तणं ति दारं गयं । श्याणिं सामनेयदंमुवप्पयाणेहिं चजहिं जहा अबो विढप्पत्ति । एबिमं उदाहरणं । सियालेण नमंतेण हबी म दिछो । सो चिंते लछो मए जवाएण ताव णिछएण खाश्यवो । जाव सीहो ागर्छ । तेण चिंतियं सचिछेण गश्यत्वं । एयस्स सीहेण नणियं । किं अरे नाश्णय अविद्य। सियालेण नणियं आमंति माम । सीहो नण किमेयं मयं ति। सियालो जण । हबी। केण मारिनी वग्घेण । सीहो चिंते। कहमहं ऊणजातिएण मारियं जरकामि । गऊ सीहो। णवरं वग्यो श्रागउँ । तस्स कहियं सीहेण मारि। सो पाणियं पालं णिग्ग: । वग्यो हो । एस ने। जाव का आगउँ । तेण चिंतियं जर एयस्स ण देमि त काउकाउ ति वासियसदेणं अमे कागा एहिंति । तेसिं कागरडणसदेणं सियालादि श्रले बहवे एहिंति । कित्तिया वारेहामि । अर्ज एयस्स उवप्पयाणं देमि तेण तर्ड तस्स खंडं बित्ता दिलं । सो तं घेत्तृण गर्छ । जाव सियालो आगउँ। तेण णायमेयस्स हढेण वारणं करेमि । जिउडि काऊण वेगो दिलो । णको सियालो। उक्तं च ॥ "उत्तम प्रणि Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह भाग तेतालीस-(४३)-मा. पातेन शूरं नेदेन योजयेत् ॥ नीचमत्पप्रदानेन समं तुल्यपराक्रमैः ॥१॥” इत्युक्तः कथागाथाया नावार्थः। उक्तार्थकथा सांप्रतं कामकथामाह ॥ रूवं वर्ड वेसो, दरकत्तं सिस्कियं च विसएसु ॥ दिहं सुयमणुनूयं, च संथवो चेव कामकहा ॥ १७ ॥ ॥ व्याख्या ॥ रूपं सुन्दरं वयश्चोदयं वेष उज्ज्वलः। दाक्षिण्यं मार्दवम् । शिक्षितं विषयेषु शिदा च कलासु । दृष्टमनुतदर्शनमाश्रित्य । श्रुतं चानुनूतं च संस्तवश्च परिचयश्चेति कामकथा । रूपे च वसुदेवादय उदाहरणम् ।वयसि सर्व एव प्रायः कमनीयो नवति लावण्यात् । उक्तं च॥यौवनमुदग्रकाले, विदधाति विरूपकेषु लावण्यम् । दर्शयति पाकसमये, निम्बफलस्यापि माधुर्यम् । इति । वेष उज्ज्वलः कामाङ्गम् ।यं कंचन उज्ज्वलवेषं पुरुषं दृष्ट्वा स्त्री कामयते इति वचनात्। एवं दाक्षिण्यमपि। “पञ्चालःस्त्रीषु मार्दवम्" इति वचनात् । शिदा च कलासु कामाङ्गं वैदग्ध्यात् । उक्तं च ॥ “कलानां ग्रहणादेव सौनाग्यमुपजायाते ॥ देशकालौ त्वपेक्ष्यासां, प्रयोगः संजवेन्न वा ॥” अन्ये त्वत्राचलमूलदेवौ देवदत्तां प्रतीत्येकुयाचनायां प्रजूतासंस्कृतस्तोकसंस्कृतप्रदानद्वारेणोदाहरणमनिदधति । दृष्टमधिकृत्य कामकथा यथा । नारदेन रुक्मिणीरूपं दृष्ट्वा वासुदेवे कृता । श्रुतं त्वधिकृत्य यथा पद्मनानेन राझा नारदादौपदीरूपमाकर्ण्य पूर्वसंस्तुतदेवेन्यः कथिता । अनुन्नूतं चाधिकृत्य कामकथा यथा तरङ्गवत्या निजानुन्नवकथने । संस्तवश्च कामकथापरिचयः कारणानीति कामसूत्रपागत् । अन्ये त्वनिदधति । सदसणार्ड पेम्म, पेमाज रई रश्य विस्संनो ॥ विस्संना पणजे, पंचविहं वहुए पेम्मं ॥ इति गाथार्थः। उक्ता कामकथा। धर्मकथामाह ॥ धम्मकहा बोहवा, चनविहा धीरपुरिसपन्नत्ता ॥ अकेवणि विकेवणि, संवेगे चेव निवेए ॥ १ ॥ व्याख्या ॥ धर्मविषया कथा धर्मकथा । असौ बोव्या चतुर्विधा धीरपुरुषप्रज्ञप्ता । तीर्थकरगणधरप्ररूपितेत्यर्थः । चातुर्विध्यमेवाह । आदेपणी विदेपणी संवेगश्चैव निर्वेद इति । सूचनात्सूत्रमिति न्यायात्संवेजनी निर्वेदनी चैवेत्युपन्यासगाथादरार्थः । नावार्थ त्वाह ॥ आयारे ववहारे, पन्नत्ती चेव दिहिवाए य ॥ एसा चनविहा खलु, कहा उ अकेवणी होश् ॥ २० ॥ व्याख्या ॥ आचारो लोचास्नानादिः । व्यवहारः कथंचिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः। प्रज्ञप्तिश्चैव संशयापन्नस्य मधुरवचनैः प्रज्ञापना। दृष्टिवादश्च श्रोत्रपेक्ष्या सूक्ष्मजीवादिनावकथनम् । अन्ये त्वनिदधत्याचारादयो ग्रन्था एव परिगृह्यन्ते आचाराद्य निधानादिति । एषानन्तरोदिता चतुर्धा । खलुशब्दो विशेषणार्थः। श्रोत्रपेक्ष्याचारा दिनेदानाश्रित्यानेकप्रकारेति।कथा त्वादेपणी नवति । तुरेवकारार्थः। कथैव प्रज्ञापकेनोच्यमाना नान्येन । श्रादिप्यन्ते मोहात्तत्त्वं प्रत्यनया नव्यप्राणिन Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । इत्यादेपणी जवतीति गाथादरार्थः। इदानीमस्या रसमाह ॥ विद्या चरणं च तवो, पुरिसकारो य समिश्गुत्ती॥ उवश्स्सर खलु जहियं, कहा अकेवणी रसो ॥ ॥२०१॥ व्याख्या ॥ विद्या ज्ञानम् अत्यन्तापकारिजावतमोनेदकम् । चरणं चारित्रं समग्रविरतिरूपम् । तपोऽनशनादि । पुरुषकारश्च कर्मशत्रून्प्रति खवीर्योत्कर्षलदणः । समितिगुप्तयः पूर्वोक्ता एव । एतापदिश्यते खलु श्रोतृनावापेक्षया सामीप्येन कथ्यते । एवं यत्र क्वचिदसावुपदेशः कथाया आदेपण्या रसो निष्यन्दः सार इति गाथार्थः । गताक्षेपणी । विदेपणीमाह ॥ कहिऊण ससमयं तो, कहेश परसमयमह वि वच्चासा ॥ मिडासम्मावाए, एमेव हवंति दो नेया ॥ २२ ॥ व्याख्या ॥ कथयित्वा स्वसमयं स्वसिद्धान्तं ततः कथयति परसमयं परसिझान्तमित्येको नेदः । अथवा विपर्यासाट्यत्ययेन कथयति । परसमयं कथयित्वा स्वसमयमिति द्वितीयः। मिथ्यासम्यग्वादयोरेवमेव नवतो छौ नेदाविति । मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वादं कथयति सम्यग्वादं कथयित्वा मिथ्यावाद मिति । एवं विदिप्यतेऽनया सन्मार्गात्कुमार्गे कुमार्गात्सन्मार्गे श्रोतेति विदेपणीति गाथादरार्थः । नावार्थस्तु वृहविवरणादवसेयः । तच्चेदम् । विकेवणी सा चढविहा परमत्ता । तं जहा। ससमयं कहित्ता परसमयं कहेश परसमयं कहेत्ता ससमयं कहेश मिळावादं कहेत्ता सम्मावादं कहे। सम्मावादं कहेत्ता मिळावायं कहे। तब पुविं ससमयं कहित्ता परसमयं कहे। ससमयगुणे दीवेशपरसमयदोसे उवदंसे । एसा पढमा विकेवणी गया।श्याणिं बिश्या नम । पुविं परसमयं कहेत्ता तस्सेव दोसे उवदंसे। पुणो ससमयं कहेश । गुणे य से उवदंसे। एसा बिश्या विकेवणी गया। श्याणिं तश्या । परसमयं कदेत्ता । तेसु चेव परसमएसु जे नावा जिणप्पणी एहिं नावेहिं सह विरुष्का असंता चेव वियप्पिया ते पुविं कहित्ता दोसा तेसिं नाविऊण पुणो जे जिणप्पणीयत्नावसरिसा घुणकरमिव कहवि सोजणा नणिया । ते कहय । अहवा मिडावादो पबित्तं जमश् । सम्मावादो अचित्तं । तब पुविं णाहियवाईणं दिही कहित्ता । पहा अछित्तपरकवाईणं दिही कहे। एसा तश्या विकेवणी गया। याणिं चली विकेवणी । सा वि एवं चेव । णवरं पुर्वि सोजणे कहयश् । पछा श्यरे त्ति । एवं विरिकवति सोयारं ति गाथानावार्थः । सांप्रतमधिकृतकथामेव प्रकारान्तरेणाह ॥ जा ससमयवद्या खटु, होश कहा लोगवेयसंजुत्ता ॥ परसमयाणं च कहा, एसा विकेवणी नाम ॥२०३ ॥ व्याख्या ॥ यास्वसमयवर्जा । खलुशब्दस्य विशेषणार्थत्वादत्यन्तं प्रसिझनीत्या स्वसिद्धान्तशून्या । अन्यथा विधिप्रतिषेधधारा विश्वव्यापकत्वात् स्वसमयस्य तर्जा कथैव नास्ति । नवति कथा लोकवेदसंयुक्ता । लोक Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. ग्रहणाामायणादिपरिग्रहः । वेदास्तु शग्वेदादय एव । एतमुक्ता कथेत्यर्थः । परसमयानां च सांख्यशाक्या दिसिझान्तानां कथा या सा सामान्यतो दोषदर्शनझारेण एषा विदेपणी नाम । विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात्कुमार्गे कुमार्गात्सन्मार्गे श्रोतेति विक्षेपण। । तथाहि सामान्यत एव रामायणादिकथायामिदमपि तत्त्वमिति नवति सन्मार्गानिमुखस्य जुमतेः कुमार्गप्रवृत्तिः । दोषदर्शनझारेणाप्येकेन्द्रियप्रायस्याहो मत्सरिण एत इति मिथ्यालोचनेनेति गाथार्थः। अस्या अकथने प्राप्ते विधिमाह । जा ससमएण पुदि, अरकाया तं बुन्नेद्य परसमए ॥ परसासणवरकेवा, परस्स समयं परिकहे हि ॥२०४॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ या स्वसमयेन स्वसिधान्तेन करणनूतेन पूर्वमाख्याता आदौ कथिता तां दिपेत्परसमये क्वचिद्दोषदर्शनहारेण यथास्माकम हिंसादिलक्षणो धर्मः सांख्यादीनामप्येवम् ॥ हिंसा नाम नवेधर्मो न नूतोन नविष्यति ॥ इत्यादिवचनप्रामाण्यात्किंत्वसावपरिणामिन्यात्मनि न युज्यते । एकान्तनित्यानित्ययोहिंसाया अन्नावादिति । अथवा परशासनव्यादेपात् ‘सुपां सुपो नवन्ति' इति । सप्तम्यर्थे पञ्चमी । परशासनेन कथ्यमानेन व्यादेपे सन्मार्गानिमुखतायां सत्यां परस्य समयं कथयति। दोषदर्शनहारेण केवलमपीति गाथार्थः । उक्ता विदेपणी अधुना संवेजनीमाह ॥ श्रायपरसरीरगया, इहलाए चेव तहय परलोए ॥ एसा चनविदा खलु, कहा उ संवेयणी हो॥२५॥ व्याख्या॥आत्मपरशरीर विषया श्ह लोके चैव तथा परलोके । इहलोकविषया परलोकविषया च।एषा चतुर्विधा खलु अनन्तरोक्तेन प्रकारेण कथा तु संवेजनी नवति । संवेज्यते संवेगं ग्राह्यतेऽनया श्रोतेति संवेजनी । एषोऽधिकृतगाथादरार्थः । नावार्थस्तु वृक्षविवरणादवसेयः । तच्चेदम् । संवेयणी कहा चउबिहा । तं जहा । आयसरीरसंवेयणी परसरीरसंवेयणी इहलोयसंवेयणी परलोयसंवेयणी । तब शायरीरसंवेयणी जहा जमेयं अम्हच्चयं सरीरयं । एवं सुक्कसोणियमंसवसामेदमऊहिण्हारुचम्मकेसरोमणहदंतअंतादिसंघायणिप्फमत्तणेण मुत्तपुरीसन्नायणत्तणेण य असुश् ति कहेमाणो सोयारस्स संवेगं जप्पाए। एसा थायसरीरसंवेयणी । एवं परसरीरसंवेयणी वि । परसरीरं एरिसं चेव असुई। अहवा पर. स्स सरीरं वमेमाणो सोयारस्स संवेगमुप्पाए। परसरीरसंवेयणी गया । श्याणिं इहलोयसंवेयणी । जहा सबमेयं माणुसत्तणं असारमधुवं कदलीथंजसमाणं । एरिसं ' कहं कहेमाणो धम्मकही सोयारस्स संवेगमुप्पाए। एसा इहलोयसंवेयणी गया। श्याणिं परलोयसंवेयणी । जहा देवा वि इस्साविसायमयकोहलोहाएहिं पुरके हिं अनिनूया किमंग पुण तिरियनारया। एयारिसं कहं कहेमाणो धम्मकही सोयारस्स संवेगमुप्पाए । एसा परलोयसंवेयणी गय त्ति गाथाजावार्थः । सांप्रतं शुजकर्मोदया. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । १२३ शुभकर्मक्ष्यफलकथनतः संवेजनी रसमाह् ॥ वीरिय विजव गिट्टी, नाणचरणदंसणाण तह इट्ठी ॥ वइस्स खलु जहियं, कहाइ संवेयणीइ रसो ॥ २०६ ॥ व्याख्या ॥ वीर्यवैक्रियर्द्धिस्तपः सामर्थ्योद्भवा आकाशगमनजङ्घाचारणा दिवीर्यवै क्रिय निर्माणलक्षणा | ज्ञानचरणदर्शनानां तथर्द्धिः । तत्र ज्ञानर्द्धिः " पनू णं जंते चोहसपुर्वी घकार्ड घसहस्सं पडा सहस्सं विजवित्तए । हंता पहू विजवित्तए । तहा ॥ "जं माणी कम्मं, खवेश बहुया हिं वासकोडी हिं ॥ तं पाणी तिहिं गुत्तो, खवेश् ऊसासमत्ते ॥" इत्यादि । तथा चरएर्द्धिः । । नास्त्यसाध्यं नाम चरणस्य तद्वन्तो हि देवैरपि पूज्यन्त इत्यादि । दर्शनर्द्धिः प्र शमादिरूपा । तथा " सम्म दिदी जीवो, विमाणवऊं ण बंधए आउं ॥ जइ विण सम्मत्तजढो, हव बाउ पुब्विं " इत्यादि । उपदिश्यते कथ्यते खलु यत्र प्रक्रमे कथायाः संवेजन्या रसो निष्यन्द एष इति गाथार्थः । उक्ता संवेजनी निवेदनीमाह ॥ पाचाणं कम्माणं, असुजविवागो कहिए जब ॥ इह य परब य लोए, कहा न वेियणी नाम ॥ २०७ ॥ व्याख्या ॥ पापानां कर्मणां चौर्यादिकृतानामशुज विपाकः दारुणपरिणामः कथ्यते यत्र यस्यां कथायामिह च परत्र च लोके इहलोके कृतानि कर्माणि इहलोक एवोदीर्यते । इत्यनेन चतुर्जङ्गिकामाह । कथा तु निर्वेदनी नाम निर्वेद्यते जवादनया श्रोति निर्वेदी एष गाथादरार्थः । जावार्थस्तु वृद्ध विवरणादवसेयः । तच्चेदम् । श्या पिं निवेयण । सा चद्विदा । तं जहा इह लोए पुच्चिमा कम्मा इह लोए चेव विवागसंजुत्ता जवंति ति । जहा चोराएं पारदारियाणं एवमाइ । एसा पढमा निवेणी । श्या बिया । इह लोए पुच्चिला कम्मा परलोए दुहविवागसंजुत्ता जवंति । कहं । जहा नेरश्याणं छन्नम्मि जवे कयं कम्मं निरयनवे फलं दे । विश्या निवेयणी गया । श्याणिं तया । परलोए डुच्चिमा कम्मा इह लोए हविवागसंजुत्ता नवंति । कं । जहा बालप्पनितिमेव । छतकुलेसु उप्पन्ना खयकोढादी हिं दारिद्देण य निनूया संति । एसा तश्या वेियणी । श्याणिं चउवा वेियणी । परलोए हुच्चिला कम्मा परलोए चैव हविवागसंजुत्ता जवंति । कहं जहा पुत्रिं च्चिसेहिं कम्मेहिं जीवा संडासतुंडे हिं परकी हिं उववद्यन्ति । त ते परयपाजग्गाणि कम्माणि असं पुलाि ताण ताए जातीए पूरिंति । पूरिऊण नरयनवे वेदंति । एसा चन्चा निवेयणी गया । एवं इहलोगो पर लोगो वा पसवयं पमुच्च जवइ । तब पन्नवयस्स मणुस्सनवो ह लोगो । 66 वसा तिमि व गई परलोगो ति गाथाजावार्थः । इदानीमस्या एव रसमाह ॥ थोवं पि पमायकयं, कम्मं साहिद्यई जहिं नियमा ॥ परासुहपरिणामं, कहाइ निवेयी रसो ॥ २०८ ॥ व्याख्या ॥ स्तोकमपि प्रमादकृतमल्पमपि प्रमादजनितं कर्म वेदनयादि साहित्ति कथ्यते । यत्र नियमान्नियमेन । किं विशिष्टमित्याह । प्रभूताशुनप For Private Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. रिणामं बहुतीव्रफल मित्यर्थः। यथा यशोधरादीनामिति । कथाया निदिन्या रस एष निष्यन्द इति गाथार्थः। संदेपतः संवेगं निर्वेद निबन्धनमाह ॥ सिद्धी य देवलोगो, सुकुलुप्पत्ती य होश संवेगोनिरगोतिरिकजोणी,कुमाणुसत्तं च निवेळ ॥२०व्याख्या॥ सिद्धिश्च देवलोकः सुकुलोत्पत्तिश्च नवति संवेग एतत्प्ररूपणं संवेगहेतुत्वादिति नावः। एवं नरकस्तिर्यग्रयोनिः कुमानुषत्वं च निर्वेद ति गाथार्थः। आसां कथानां या यस्य कथनीयेत्येतदाह ॥ वेणश्यस्स पढमया, कहा उ अकेवणी कहेयवा॥ तो ससमयगहि. यो, कहिद्य विकेवणी पहा ॥ १० ॥व्याख्या॥ विनयेन चरति वैनयिकः शिष्यस्तस्मै प्रथमतया आदिकथनेन कथा तु आदेपणी उक्तलक्षणा कथयितव्या । ततः स्वसमयगृहीतार्थे सति तस्मिन् कथयेहिक्षेपणीमुक्तलक्षणामेव पश्चादिति गाथार्थः। किमित्येतदेवमित्याह ॥ अकेवणिअरिकत्ता, जे जीवा ते लनंति संमत्तं ॥ विकेवणी जचं गाढतरागं च मिबत्तं ॥२१॥व्याख्या॥ श्रादेपण्या कथया श्रादिप्ता श्रावर्जिता श्रादेपण्यादिप्ता ये जीवास्ते लजन्ते सम्यक्त्वम् । तथा आवर्जनं शुजनावस्य मिथ्यात्वमोहनीयक्षयोपशमोपायत्वात् । विदेपण्यां जाज्यं सम्यक्वम् । कदाचिजन्ते कदाचिन्नेति । तनवणात्तथा विधपरिणामनावात् । गाढतरं वा मिथ्यात्वं जममतेः परसमयदोषानवबोधान्निन्दाकरिण एते न अष्टव्या इत्यनिनिवेशेनेति गाथार्थः । उक्ता धर्मकथा । सांप्रतं मिश्रामाह॥धम्मो अबो कामो, उवश्स्स जब सुत्तकवेसु ॥ लोगे वेए समए, सा उ कहा मीसिया णाम ॥ १२ ॥ व्याख्या ॥ धर्मः प्रवृत्त्यादिरूपः।अर्थो विद्यादिः।काम श्छादिःउपदिश्यते कथ्यते यत्र सूत्रकाव्येषु सूत्रेषु काव्येषु च तलक्षणवत्सु। क्वेत्यत । आह लोके रामायणादिषु । वेदे यज्ञक्रियादिषु । समये तरङ्गवत्यादिषु । सा पुनः कथा मिश्रा मिश्रानाम संकीर्णपुरुषार्थानिधानात् इति गाथार्थः। उक्ता मिश्रकथा तदनिधानाच्चतुर्विधा कथेति । सांप्रतं कथाविपक्षलूतां त्याज्यां विकथामाह । अज्ञातस्वरूपायास्त्यागासंनवादिति ॥ इचिकहा जत्तकहा, रायकहा चोरजणवयकहा य॥नडनट्टजबमुहिय कहाज एसा नवे विकहा ॥१३॥ व्याख्या। स्त्रीकथा एवंजूता अविडा इत्यादिलदाणा । नक्तकथा सुन्दरः शाल्योदन इत्यादिरूपा। राजकथा श्रमुकः शोजन इत्या दिलदणा। चौरजनपदकथा च गृहीतोऽद्य चौरः।सश्चं कदर्थितः । तथा रम्यो मध्यदेश इत्यादिरूपा । नटनर्तकजल्बमुष्टिककथा च एषा नवेछिकथा। प्रेक्षणीयकानां नटो रमणीयः।यहा नर्तकः।यहा जबः जसो नाम वरत्राखेलकः। मुष्टिको मन इत्यादिलक्षणा विकथा कथालक्षणविरहादिति गाथार्थः । उक्ता विकथा श्दानी प्रज्ञापकापेक्षयासां प्राधान्यमाह ॥ एया चेव कहाउँ, पन्नवगपरूवगं समासद्य ॥ अकहा कहा य विकहा, हविद्यपुरिसंतरं पप्प ॥२१॥व्याख्या॥ एता एवो Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम्। . १२५ तलक्षणाः कथाः। प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः। प्रज्ञापकश्चासौ प्ररूपकश्चेति विग्रहस्तमवबोधकप्ररूपकम्। नतु घरभ्रमणकल्पंयतोन किंचिदवगम्यत इत्यर्थः। समाश्रित्य प्राप्य। किमित्याह ।अकथा वदयमाणलक्षणा कथा चोक्तस्वरूपा विकथा चोक्तस्वरूपैव नवति पुरुषान्तरं श्रोतृलक्षणं प्राप्यासाद्य साध्वसाध्वाशयवैचित्र्यात्सम्यकश्रुतादिवत् । अन्ये तुप्रझापकं मूलकर्तारं प्ररूपकं तत्कृतस्याख्यातार मिति व्याचदते। नचैतदतिशोजनं परमवयपरूवगे समासद्यत्ति पाठप्रसङ्गादिति गाथार्थः । इदानीमकथालक्षणमाह ॥ मिछत्तं वेयंतो, जं अन्नाणी कहं परिकहेश ॥ लिंगबो व गिही वा, सा कहा देसिया समए ॥ १५ ॥ व्याख्या ॥ मिथ्यात्व मिति मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म वेदयन् विपाकेन यां कां चिदशानी कथां कथयति । अझानित्वं चास्य मिथ्यादृष्टित्वादेव । यद्येवं नार्थोऽज्ञानिग्रहणेन मिथ्यात्ववेदकस्याझानित्वाव्य निचारादिति चेन्न । प्रदेशानुनववेदकेन सम्यग्दृष्टिना व्यभिचारादिति। किंविशिष्टोऽसावित्याह। लिङ्गस्थो वा प्रव्यप्रत्रजितोऽङ्गारमर्दकादिः । गृही वा यः कश्चिदितर एव।सा एवं प्ररूपकप्रयुक्तयुक्त्या श्रोतर्यपि प्रज्ञापकतुल्यपरिणामनिबन्धना कथा देशिता समये । ततः प्रतिविशिष्टकथाफलानावादिति गाथार्थः। अत्रैव प्रक्रमे कथामाह ॥ तवसंजमगुणधारी, जं चरणरया कहिति सनावं ॥ सबजगजीव हियं, सा उ कहा देसिया समए ॥ १६ ॥ व्याख्या ॥ तपःसंयमगुणान् धारयन्ति तडीलाश्चेति तपःसंयमगुणधारिणः यां कांचन चरणरताश्चरणप्रतिबझा नत्वन्यत्र निदानादिना कथयन्ति सनावं परमार्थम् । किविशिष्टमित्याह । सर्वजगजीवहितं नतु व्यवहारतः कतिपयसत्वहितमित्यर्थः । तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्सव कथा निश्चयतो देशिता समये निर्जराख्यस्वफलसाधनात्कर्तृणां श्रोतणामपि चेतःकुशलपरिणामनिवन्धना कथैव नोचेनाज्येति गाथार्थः । इहैव विकथामाह ॥ जो संजर्ड पमत्तो, रागदोसवसग परिकहेश ॥ सा ज विकहा पवयणे, पसत्ता धीरपुरिसेहिं ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ यः संयतः प्रमत्तः कषायादिना प्रमादेन रागद्वेषवशगः सन्न तु मध्यस्थः परिकथयति किंचित् । सा तु विकथा प्रवचने सा पुनर्विकथा सिद्धान्ते प्रज्ञप्ता धीरपुरुषैः तीर्थकरादिनिः। तथाविधपरिणामनिबन्धनत्वात् कर्तृश्रोत्रोरिति।श्रोतृपरिणामनेदे तु तं प्रति कथान्तरमेवैवं सर्वत्र नावना कार्येति गाथार्थः। सांप्रतं श्रमणेन यथाविधा न कार्या तथाविधामाह । सिंगाररसुत्तश्या, मोहकुवियफुफुगा हसहसिंति ॥ जं सुणमाणस्स कहं, समणेण ण सा कहेयवा ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ शृङ्गाररसेन मन्मथदीपकेन उत्तेजिता अधिकं दीपिता केत्याह । मोह एव चारित्रमोहनीयकर्मोदयसमुबात्मपरिणामरूपः कुपित'फुकाघटितकुकूला हसह सिंतित्ति जाज्वल्यमाना जायत इति वाक्यशेषः । यां शृण्वतः Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. कथां मोहोदयो जायत इत्यर्थः । श्रमणेन साधुना न सा कथयितव्या । अकुशलनिबन्धनत्वादिति गाथार्थः। यत्प्रकारा कथनीया तत्प्रकारामाह ॥ समणेण कहेयवा, तवनियमकहा विरागसंजुत्ता ॥ जं सोऊण मणूसो, वच्चर संवेगनिवेयं ॥ १५ ॥ व्याख्या ॥ श्रमणेन कथयितव्या। किंविशिष्टेत्याह । तपोनियमकथा । अनशनादिपञ्चाश्रव विरमणादिरूपा । सापि विरागसंयुक्ता न निदानादिना रागादिसंगता । अत एवाह । यां कथां श्रुत्वा मनुष्यः श्रोता ब्रजति गछति । संवेयणिव्वेदं ति।संवेगं निर्वेद चेति गाथार्थः । कथाकथन विधिमाह ॥ अबमहंती वि कहा, अपरि किलेसबहुला कहेयवा ॥ हंदि महयाचडगर-तणेण अखं कहा हण ॥ २० ॥ व्याख्या॥ महार्थापि कथा अपरिक्लेशबहुला कथयितव्या । नातिविस्तरकथनेन परिक्लेशः कार्य इत्यर्थः। किमित्येव मित्यत आह । हंदीत्युपदर्शने। महता चमकरत्वेन।अतिप्रपञ्चकथनेनेत्यर्थः। किमित्याह । अर्थ कथा हन्ति नावार्थं नाशयतीति गाथार्थः । विधिशेषमाद ॥ खेत्तं कालं पुरिसं, सामवं चप्पणो वियाणेत्ता ॥ समणेण उ अणवद्या, पगयंमि कहा कहेयवा ॥ २१॥ तश्यतयणणिद्युत्ती संमत्ता ॥ व्याख्या ॥ क्षेत्रं जौमादि नावितं कालं क्षीयमाणादिलक्षणं पुरुषं पारिणामिकादिरूपं सामर्थ्य चात्मनो ज्ञात्वा प्रकृते वस्तुनीति योगः। श्रमणेन त्वनवद्या पापानुवन्धरहिता कथा कथयितव्या नान्येति गाथार्थः। उक्ता कथा तदनिधानागतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः। सांप्रतं सूत्रालापकनिष्पनस्यावसर इत्यादि चर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदम् । संजमे इत्यादि । अस्य व्याख्या । इह संहितादिक्रमः तुमः। नावार्थस्त्वयम् । संयमे सुमपुष्पिकाव्यावर्णितस्वरूपे शोजनेन प्रकारेणागमनीत्या स्थित श्रात्मा येषां ते सुस्थितात्मानस्तेषाम् । त एव विशेष्यन्ते । विविधमनेकैः प्रकारैः प्रकर्षेण नावसारं मुक्ताः परित्यक्ता बाह्यान्यन्तरेण ग्रन्थेनेति विप्रमुक्तास्तेषाम् । त एव विशेष्यन्ते त्रायन्ते आत्मानं परमुनयं चेति त्रातारः। आत्मानं प्रत्येकबुझाापरं तीर्थकराः स्वतस्तीर्णत्वाकुनय स्थविरा इति। तेषामिदं वक्ष्यमाणलक्षणमनाचरितमकरूपम् । केषामित्याह। निग्रन्थानां साधूनामित्यनिधानमेतत् । महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयो यतय इत्यर्थः । अथवा महान्तमेषितुं शीलं येषां ते महैषिणस्तेषाम् । इह च पूर्वपूर्वनाव एवोत्तरोत्तरजावो नियतो हेतुहेतुमन्नावेन वेदितव्यः। यत एव संयमे सुस्थितात्मानोऽतएव विषमुक्ताः । संयमसुस्थितात्मनिबन्धनत्वाधिप्रमुक्तेः । एवं शेषेष्वपि नावनीयम् । श्रन्ये तु पश्चानुपूर्त्या हेतुहेतुमन्नावमिदं वर्णयन्ति । यत एव महर्षयोऽतएव निग्रन्थाः । एवं शेषेष्वपि अष्टव्यमिति सूत्रार्थः । सांप्रत यदनाचरितं तदाह । सूत्रम्। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । सियं की यगडं, नियागमनिमाणि य ॥ राइन सिसाणे य, गंधमले य वीयणे ॥ २ ॥ ( अवचूरि : ) यदनाचीर्णं तदाह । साध्वाद्याश्रित्योदेशनमारम्नस्य तत्र जवम् (२) क्रीतं । जावे निष्ठाप्रत्ययः । साध्वाद्यर्थमिति गम्यते । तेन निर्वर्तितं क्रीतकृतं ( 2 ) नित्यागमप्रमाणीकृतामन्त्रितस्य पिंकस्य ग्रहणं ( ३ ) अन्याहृतं बहुवचनं स्वपरग्रामादिभेदख्यापनार्थम् ( ४ ) रात्रिभुक्तं दिवसगृहीत दिवसमुक्तादि चतुर्धा ( ५ ) स्नानं सर्वदेशनेदनिन्नम् । देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणादिपद्मप्रक्षालनमपि । सर्वस्नानं प्रतीतम् (६) गन्धं कोष्ठपुटादि (1) माल्यं ग्रथितादि (८) वीजनं तालवृन्तादि ( ७ ) उद्देशकादिषु दोषाश्चारम्जादयः स्वयं ज्ञेयाः ॥ २ ॥ ( अर्थ. ) हवे साधुने चरवाने अयोग्य जे तेज बावन बोलेकरी कहे d. उदे सियंति ( उद्देसियं के० ) औद्दे शिकं एटले साधु आदिकने उद्देशीने तैयार करेला जे श्रहारादि ते श्रद्दिशिक कहियें, ते साधुने नाचरित बे, ए एक नाचरित कयुं. ( १ ) एवी रीतें आगल एकावन अनाचरित कदेशे . ते प्रत्येक बोलने विषे अनाचरित पदनो संबंध लेवो. ( कीयगडं के० ) क्रीतकृतम एटले साधु श्रर्थे वेचाथी आणी आपेलुं लेवुं ते बीजुं क्रीतकृत अनाचरित (2) ( नियागं के० ) जे आमंत्रण करे तेनेज घरे नित्य आहार लेवो. अनामंत्रितने घरे लेवो नही. ते नियाग नामक त्रीजुं नाचरित. (३) (हिडाणि य के० ) अन्याहतानि च एटले परग्रामयी श्रावेला पुरुषोयें पोताना ग्रामथकी साधुमाटे लावेलो पदार्थ ते चोथुं अभ्याहत नामक अनाचरित. ( ४ ) ( रायनत्ते के०) रात्रिनक्तम् एटले दिवागृहीतादि चार प्रकारनुं रात्रिजोजन करवुं, ते पांचमुं रात्रिजक्कनामक नाचरित. (५) (सिणा के०) स्नानं एटले नेत्रप्रदालनादि देशस्नान तथा अवगाहनादि सर्व स्नान करवुं, ते बहुं स्नाननामक अनाचरित. (६) (गंधमले य के०) गंधमाल्ये च, गंध एटले सुगंध चूया चंदन यादिनुं चोपडवुं, ने माल्य ते फूलप्रमुखनी माला परवी ते सात ने आठमुं गंधमाल्य नामक अनाचीर्ण. (915) (वीयणे के०) व्यजनम् ते तालवृंता दिकनो स्वीकार करवो ते नवमुं व्यजन नामक अनाचरित जाणं (v) ही देशिका दिमां जे आरंजादि दोष बे, ते सहज बे, माटे लख्या नथी. वाचनारें स्वबुद्धिथी जाणी लेवा ॥ २ ॥ (दीपिका) सांप्रतं यत्पूर्वोक्तमनाचरितं तदेवाह । साधुमुद्दिश्य श्रारम्नेण १२७ For Private Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. नवमौदेशिकम् (१) क्रयणं साध्वादिनिमित्तं क्रीतं तेन कृतं निर्वर्तितं क्रीतकृतम् (२) नियागमामन्त्रितस्य पिएमस्य ग्रहणम् (३) अनिहलं स्वकीयग्रामादेः साधुनिमित्तमनिमुखमानीतं अन्याहृतम् । बहुवचनं स्वग्रामपरग्रामनिशीथादिनेदख्यापनार्थम् (४) रात्रिजुक्तं रात्रिनोजनं दिवसगृहीतं दिवसक्तं रात्रौ संनिधिरकणेन (१)दिवसगृहीतं रात्रौ जुक्तम्()रात्रौगृहीतं दिवसन्जुक्तं (३) रात्रौगृहीतं रात्रौ जुक्तम्()इति नेदचतुष्टयलक्षणम् (५) स्नानं देशसर्वनेदनिन्नम् । तत्र देशस्नानं शौचातिरेकेण अक्षिपदमप्रदालनमपि । सर्वस्नानं तु प्रतीतमेव (६) गन्धमादयं च गन्धग्रहणात् कोष्टपुटादिपरिग्रहः (७) माल्यग्रहणाच्च ग्रथितवेष्टितादेर्माल्यस्य परिग्रहः (७) वीजनमुष्णकाले तालवृन्तादिना (ए) श्दमनाचरितम् । दोषाश्चेह आरम्नप्रवर्तनादयः स्वयं बुध्या वाच्याः ॥२॥ (टीका ) उद्देसियं ति सूत्रमस्य व्याख्या । उद्देशनं साध्वाद्याश्रित्य दानारम्नस्येत्युद्देशः। तत्र नवमौदेशिकम् (१) क्रयणं क्रीतम् । नावे निष्ठाप्रत्ययः । साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते । तेन कृतं निर्वर्तितं क्रीतकृतम् (२) नियागमित्यामन्त्रितस्य पिएमस्य ग्रहणं नित्यं तत्त्वनामन्त्रितस्य (३) अनिहडाणि यत्ति । स्वग्रामादेः साधुनिमित्तम निमुखमानीतमच्याहृतं बहुवचनं स्वग्रामपरग्राम निशीथादिन्नेदख्यापनार्थम् (४) तथा रात्रिनक्तं रात्रिनोजनं दिवसगृहीतदिवसजुक्तादिचतुर्जगलदणम् (५)। स्नानं च देशसर्वन्नेदनिन्नं देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणादिपदमप्रदालनमपि । सर्वस्नानं तु प्रतीतम् (६) । तथा गन्धमादयव्यजनं च गन्धग्रहणात्कोष्ठपुटादिपरिग्रहः (७) मान्यग्रहणाच्च ग्रथितवेष्टितादेर्माल्यस्य (6) वीजनं तालवृन्तादिना धर्म एवेदमनाचरितं दोषाश्चौदेशिकादिष्वारम्नप्रवर्तनादयः (ए) खाधियावगन्तव्या इति सूत्रार्थः। संनिहीगिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिठए॥ संबादण दंत पदोयणाय संपुबणे देदपलोयणा य॥३॥ (श्रवचूरिः) सन्निधीयतेऽनेन आत्मा उर्गताविति संनिधिः घृतगुडादीनां संचयक्रिया (ए) गृहिमात्रं गृहस्थजाजनम् (१०) राजपिएमोनृपाहारः (११) कः किमिलतीति यो दीयते स किमिलकः (१२) संहनमस्थिमांसत्व ग्रोमसुखतया चतुर्धा मर्दनं (१३) दंतप्रधावनं चाङ्गय्यादिना दालनम् (१४) संप्रश्नः संवादो सावद्यगृहस्थविषयः कीदृशोऽहमित्यादिरूपो वा (१५) देहप्रलोकनं चादर्शादौ (१६)॥३॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके तृतीयाध्ययनम् । ११ ( अर्थ. ) संनिहित्ति ( संनिहि के० ) संनिधिः, जेथी आत्मा दुर्गतिने संनिधि एटले नजीक जाय बे, ते संनिधि एटले घृतगुमादिकनो संचय करवो, ते संनिधिनामक दशमं नाचरित ( गिहि मित्ते य के० ) गृह्यमत्रं च एटले गृहस्थनुं पात्र नोजनादिकने ले, ते अगियारमुं गृह्यमत्र नामक नाचरित (रायपिंगे के० ) राजपिंगः एटले राजाएं यापेलो आहार लेवो, ते बारमुं राजपिंग नामक ना चरित. ( किमि ए के० ) किमिकः एटले " जे कोइ जोजननी इछा करनार हो ते हि वो अने जोजन लइ जार्ज" एवो घोष करीने ज्यां आहार पाय बे, तेवा दानशालादिकने विषे जे आहार लेवो, ते किमिचकनामा तेरमुं नाचरित. ( संवाहणे के० ) संवाहनम् एटले जेथी अस्थि, मांस, त्वचा अने रोम एमने सुख याय एवं तैलादिकथी मर्दन करवुं ते चौदमुं संवाहन नामक नाचरित. ( दंत होयणाय के० ) दंतप्रधावना च एटले अंगुल्यादिकें करी दांतण कर, मुख प्रक्षालन करवुं, ए पंदरमुं दंतप्रधावन नामक अनाचरित (संपुण के० ) संप्रश्नः एटले गृहस्थने सावद्य प्रश्न ते कुशलदेमसंबधी प्रश्न करवो, अथवा पोतानी शरीरनी शोजाना अजिमानयी एवं पूबवुं के, हुं केवो हुं ? ए संप्रश्न नामक सोलमुं नाचरित ( देहपलोयणा य के० ) देहप्रलोकना च एटले दर्पण दिकमां शरीरनी कांति जोवी, ते सत्तरमुं देहप्रलोकन नामक नाचरित जावं. ए संनिधि यादिकनुं खाचरण करवामां परिग्रह, प्राणातिपात इत्यादि दोष ते पोतानी मेले जाणवा. ॥ ३ ॥ ( दीपिका ) पुनरिदमनाचरितम् । संनिधीयतेऽनेन आत्मा दुर्गताविति संनिधिः । गुरुघृतादीनां संचयकरणम् ( १० ) । गृह्यमत्रं च गृहस्थजाजनम् ( ११ ) । राजपिंश्च नृपाहारः ( १२ ) । किमन सि इत्येवं यो दीयते स कि मिठकः । राजपिंोऽन्यो वा सामान्येन ( १३ ) । तथा संबाधनं स्थिमांसत्वग्रोमसुखतया चतुर्विधं मर्दनम् ( १४ ) । दन्तप्रधावनं चाङ्गुल्यादिना मुखदालनम् ( १२ ) । संप्रश्नः सावद्यो गृहस्थविषयः । शोजार्थं कीदृशो वाहमित्यादिरूपः ( १६ ) | देहप्रलोकनं च दर्शाद (१) । नाचरितदोषाश्च संनिधिप्रभृतिषु परिग्रहप्राणातिपातादयः स्वबुद्ध्या वाच्याः ॥ ॥ ( टीका ) इदं चानाचरितमित्याह । संनिहित्ति सूत्रमस्य व्याख्या । संनिधीयतेनयात्मा दुर्गताविति संनिधिः । घृतगुमादीनां संचय क्रिया । गृह्यमत्रं गृहस्थजाजनं च तथा राजपिंको नृपाहारः । किमिचतीत्येवं यो दीयते स कि मिठकः रा १७ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. जपिएकोऽन्यो वा सामान्येन । तथा संबाधनम स्थिमांसत्वग्रोमसुखतया चतुर्विधं मर्दनम् । दन्तप्रधावनं चाङ्गव्यादिना दालनम् । तथा संप्रश्नः सावद्यो गृहस्थ विषयः । ढार्थ कीदृशो वाहमित्यादिरूपः । देहप्रलोकनं चादर्शादावनाचरितम् । दोषाश्च संनिधिप्रभृतिषु परिग्रहप्राणातिपातादयः स्वधियैव वाच्या इति सूत्रार्थः । अठावए य सूत्रमस्य व्याख्या । अष्टापदं चेति । अठावर य नालीए, बत्तस्स य धारणठाए ॥ गिचं पाहणापाए, समारंभं च जोइणो ॥ ४ ॥ (अवचूरिः) श्रावति । अष्टापदं द्यूतमर्थपदं वा गृहस्थमधिकृत्य निमित्तादिविषयं १७ | नालिका द्यूतनेदः । यत्र मा भूत्कलयाप्यन्यथाऽरूपातनमिति नालिकाः पात्यंते । नालिकायाः प्रधानत्वख्यापनार्थं भेदेनोपादानं सकलद्यूतोपलक्षणार्थं च १० । उत्रस्य धारणमात्मानं परं वा प्रत्यनर्थाय ग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वा । प्राकृतत्वादनुवारलोपोऽकारनकारलोपौ च दृष्टव्यौ १५ । चिकित्साया जावश्चैकित्स्यं व्याधिप्रतिक्रियारूपम् ( २० ) । उपानहौ पादयोरिति सानिप्रायकम् । श्रापत्कालपरिहारार्थम् उपग्रहधारणे न दोषः ( २१ ) । समारम्नश्च ज्योतिषोऽग्नेरिति ( २२ ) । दोषास्त्वष्टापदादीनां कुमा एवेति ॥ ४ ॥ () हात्ति | ( हावय के० ) अष्टापदं च एटले द्यूत रमवुं, ते अढारमुं अष्टापदनामक नाचरित (नालीए के० ) नालिका एटले कलायें करी पासो पोतानी छाप्रमाणे न पाडवो जोइयें माटे नलिकामां नाखीने रमवुं, एवं एक जातनुं द्यूत, अथवा नालिकाशब्दें गंजीफो, सेत्रंज इत्यादि क्रीडा लेवी. ते क्रीडायें रमवुं ते नालिका नामक गणनाचरित. रोगादिनिमित्तविना ( उत्तस्स य के० ) वत्रस्य च एटले बत्रनुं (धारण के०) धारणं एटले धारण करवुं ते ( हाए के० ) अनर्थाय एटले अर्थ माटे d. र्थात् अनर्थकारि बे. ए वीशमं बत्रधारणनामक अनाचरित. ( तेगिनं के० ) चैकित्स्यम् एटले सावद्य वैद्यक्रिया स्वार्थ अथवा परार्थ करवी, ते एकवीशमं चैकि - त्स्यनामक नाचरित. ( पाए के० ) पादयोः एटले पगनेविषे ( वाहणा के० ) - 'पानहौ एटले पगरखां पहेरवां, ते बावीशमं उपानहू नामक अनाचरित. ( जोइणो ho ) ज्योतिषः एटले अग्निनो ( समारंभं के० ) समारंभः एटले आरंभ करवो, ते वीशमं ज्योतिःसमारंभ नामक नाचरित जाणवुं ॥ ४ ॥ (दीपिका) किंचष्टापदमिति । अष्टापदं द्यूतमर्थपदं वा गृहस्थमधिकृत्य निमित्तादि For Private Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके तृतीयाध्ययनम् । १३१ विषयम् नाचरितम् १० तथा नालिका चेति द्यूतविशेषलक्षणा यत्र मानूत् कलयाऽन्यया पाशकपातनमिति नालिकया पात्यन्त इति । इयं च नाचरितम् १० बत्रस्य धारणमात्मानं परं वा प्रति अनर्थाय इति । गाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वानाचरितं प्राकृतशैल्यात्रानुखारलोपः श्रकारणकारलोपौ च द्रष्टव्यौ । तथा श्रुतिप्रामाण्यादिति २० ते गित चिकित्साया जावः चैकित्स्यं व्याधिप्रतिक्रियारूपम् नाचरितम् २१ उपानहौ पादयोरनाचरिते । पादयोरिति साभिप्रायकं नतु आपत्कल्पपरिहारार्थमुपग्रहधारणेन २२ समारंभश्च समारम्भणं ज्योतिषो वह्नेः २३ दोषाश्च अष्टापदादीनां सुगम एवेति ॥ ४ ॥ " ( टीका ) अष्टापदं द्यूतम् । अर्थपदं वा गृहस्थमधिकृत्य नीत्यादिविषयमनाचरितम् । तथा नालिका चेति द्यूतविशेषलक्षणा यत्र मानूत्कलयान्यथा पाशकपातन मिति नलिकया पात्यन्त इति । इयं चानाचरिता । अष्टापदेन सामान्यतो द्यूतग्रहणे सत्य जिनिवेश निबन्धनत्वेन नालिकायाः प्राधान्यख्यापनार्थं नेदत उपादानम् । अर्थपदमेवोक्तार्थं तदित्यन्ये निदधति । अस्मिन् पदे सकलद्यूतोपलक्षणार्थं नालिका - हणमष्टापदद्यूतविशेषपदे चोजयोरिति । तथा उत्रस्य च लोकप्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं वा प्रत्यनर्थायेत्यागाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्वानाचरितम् । प्राकृतशैल्या चात्रानुखारलोपोऽकारनकारलोपौ च द्रष्टव्यौ तथाश्रुतिप्रामाण्यादिति । तथा तेगिछंति । चिकित्साया जावश्चैकित्स्यं व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितम् । तथोपानहौ पादयोनाचरिते । पादयोरिति साभिप्रायकम् । नत्वापत्कल्पपरिहारार्थम् उपग्रहधारणेन । तथा समारम्नश्च समारम्भणं च ज्योतिषोऽग्नेस्तदनाचरितमिति । दोषा अष्टापदादीनां कुला एवेति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ । सिद्यायरपिंग च, संदीपलियंकर || गिदंतर निसिद्या य, गायस्सुवट्टणाणि य ॥ ५ ॥ ( अवचूरिः ) शय्या वसतिस्तया तरति संसारमिति शय्यातरः २३ संदीपमञ्चकख (२४) गृहान्तरनिषद्या च द्वयोर्गृहयोरन्तरालोपवेशनम् । चात्पाटकादिग्रहः (२५) गात्रोद्वर्त्तनानि च मलापनयनरूपाणि । चादन्यसंस्कारग्रहः ॥ ५ ॥ (अर्थ) सिद्यायरति । ( सिद्यायरपिंडं के० ) शय्यातरपिंडः, शय्या एटले नियाद करवानुं स्थानक ते साधुने पीने जे पोताना कर्मने हलवा करे बे, तेशयातर कहीयें, अने ते शय्यातरना घरनो जे पिंक एटले आहार ते चोवीशमं श For Private Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ययातरपिंम अनाचरित जाणवू. तथा (आसंदीपलियंकए के०) आसंदीपर्यंको एटले सादरी अने पलंग. उपलक्षणथी मांची, खाट, मोली इत्यादिक लेवा. हवे ते सादरी विगेरे उपर बेसबुं, ते पच्चीशमुं, बबीशमुं आसंदीपर्यंक नामक अनाचरित. (गिहंतरनिसिद्या य के०) गृहांतरशय्या एटले बे घरोना मध्यनागमां सूर्बु, अथवा उपासराथी बीजे घरे जश्ने सूQ, च शब्दथी पटादिकनो परिग्रह पण जाणवो. ए सत्तावीशमुं गृहांतरशय्या नामक अनाचरित. ( गायस्सुबट्टणाणि य के०) गात्रस्योहर्तनानि च, एटले शरीरना मलने दूर करवाने अर्थे उहर्तन एटले उवटणां करवां. ए अहावीशमुं अनाचरित जाणवू ॥५॥ (दीपिका) शय्यातरपिंमोऽप्यनाचरितः । शय्या वसतिस्तया तरति संसार मिति शय्यातरः । साधूनां वसतिदाता तस्य पिमः २४ आसन्दकपर्यङ्कको लोकप्रसिझौ अनाचरितौ २५।२६ तथा गृहान्तरनिषद्या गृहमेव गृहान्तरं गृहयोर्वा अपान्तरालं तत्र उपवेशनम्। चशब्दात् पाटकादिपरिग्रहः २७ तथा गात्रस्य कायस्य उहर्तनानि पङ्कापनयनलक्षणानि । चशब्दादन्यसंस्कारपरिग्रहः ॥५॥ (टीका) किंच । सद्यायरसूत्रमस्य व्याख्या। शय्यातरपिएमश्चानाचरितः। शय्या वसतिस्तया तरति संसार मिति शय्यातरः साधुवसतिदाता तत्पिएमः । तथा आसन्दकपर्यङ्कौ अनाचरितौ। एतौ च लोकप्रसिझावेव। तथा गृहान्तरनिषद्यानाचरिता । गृहमेव गृहान्तरं गृहयोर्वा अपान्तरालं तत्रोपवेशनम् । चशब्दात्पाटकादिपरिग्रहः । तथा गात्रस्य कायस्योहर्तनानि चानाचरितानि । उहर्तनानि पङ्कापनयनलदणानि । चशब्दादन्यसंस्कारपरिग्रहः । इति सूत्रार्थः ॥५॥ गिहिणो वेवडियं, जा य आजीववत्तिया ॥ तत्तानिवुमनोश्त्तं, आनरस्सरणाणि य ॥६॥ (अवचूरिः) गृहिणो वैयावृत्त्यं गृहस्थं प्रत्यनादिसंपादनम् (२७) या चाजीववृत्तिता जातिकुलादिनिरात्मपालना ( 20 ) तसं च तथानिवृतं चात्रिदंमोवृत्तं तनोजित्वं मिश्रोदकनोजित्वमित्यर्थः (ए)। थातुरस्मरणानि च दुधादिसमये पूर्वनुक्तादिस्मरणानि । दोषातुराणां वा शरणान्याश्रयदानादीनि (३०)॥६॥ । (अर्थ) गिहिणो त्ति। ( गिहिणो के०) गृहिणः एटले गृहस्थy (वेश्रावडियं के०) वैयावृत्त्यम् एटले वेयावच्च करवं, अशनादिक देवां, तथा गृहस्थनां कामकाज करवां. ते उंगणत्रीशमुं अनाचरित. (जाय श्राजीववत्तिया के०) या चाजीववृत्तिता एटले Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । १३३ पोतानी जाति, कुल इत्यादि तेणे करी पोतार्नु उदरपोषण करवं, ते त्रीशमुं श्राजीववृत्तितानामक अनाचरित, (तत्तानिबुमनोश्तं के०) तप्तानिवृतनोजित्वम् एटले तप्त नाम तपावेलुं पण अनिवृत एटले त्रण जकाला आव्या विना जे प्रासुक थयुं नथी एवं पाणी पी. अर्थात् मिश्र उदकनुं पान करवू ते एकत्रीशमुं तप्तानितनोजित्व नामक नाचरित. ( आउरस्सरणाणि य के ) आतुरस्मरणानि च एटले नूखथी पीडित थवाथी पूर्वोपनुक्त अवस्थानां स्मरण करवां, अथवा आतुरशरणानि च एटले रोगेकरी पीडा पामता लोकोने आश्रय देवो, ते बत्रीशमुं थातुरस्मरणनामा अनाचरित जाणवु ॥६॥ (दीपिका) पुनर्गहिणो गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं व्यावृत्तस्य नावो वैयावृत्त्यं गृहस्थं प्रत्यन्नादिसंपादनमित्यर्थः श्ए । तथा या च आजीववृतिता जातिकुलगणकर्मशिपानामाजीवनमाजीवः तेन वृत्तिः आजीववृत्तिः तस्या नाव आजीववृत्तिता जात्यादेराजीवनेन आत्मपालनमित्यर्थः३० । तप्तानिवृतनोजित्वं तप्तं च तत अनिवृतं तप्तानिवृतं अत्रिदंमोवृत्तं चेति समासः । उदकमिति शेषः । तस्य नोजित्वं मिश्र सचित्तोदकनोजित्व मित्यर्थः ३१ । तथा आतुरस्मरणानि च दुधादिना आतुराणां पीडितानां पूर्वोपचुक्तस्मरणानि । अथवा दोषातुराणामाश्रयदानादीनि ३२ ॥ ६ ॥ (टीका) तथा गिहिणोत्ति सूत्रमस्य व्याख्या । गृहिणो गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं व्यातनावो वैयावृत्त्यं गृहस्थं प्रत्यन्नादिसंपादनमित्यर्थः । एतदनाचरितमिति । तथा चाजीववृत्तिता जातिकुलगणकर्म शिल्पानामाजीवनमाजीवस्तेन वृत्तिस्तन्नाव आजीवत्तिता । जात्याद्याजीवनेनात्मपालनेत्यर्थः । श्यं चानाचरिता। तथा तप्तानितनोजित्वम् तप्तं च तदनिर्वृतं च अत्रिदएमोकृतं चेति विग्रहः । उदकमिति विशेषणान्यथानुपपत्त्या गम्यते । तनोजित्वं मिश्रसचित्तोदकनोजित्वम् इत्यर्थः । इदं चानाचरितम् । तथातुरस्मरणानि च कुधाद्यातुराणां पूर्वोपचुक्तस्मरणानि च अनाचरितानि । आतुरशरणानि वा । दोषातुराश्रयदानानीति सूत्रार्थः॥ ६॥ मूलए सिंगबेरे य, उदुखेमे अनिवुमे॥ कंदे मूले य सच्चित्ते, फले बीए य आमए ॥ ७॥ (अवचूरिः ) मूलको लोके प्रतीतः (३१) शृङ्गाबेरकं चार्डकम् (३२) श्ख एकं चानिवृतमपरिणतं सर्वत्रापि संबध्यते (३३ ) (३४) कंदो वज्रकंदादिः (३५) मूलं सट्टामूलादि (३६) सचित्तफलं त्रपुषीकर्कट्यादि (३७) बीजं तिलादि आमकं सचित्तम् (३०)॥७॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. (अर्थ) मूलत्ति ( निवु के० ) अनिर्वृतं एटले पक्क थयो नथी एवो ( मूलए के० ) मूलकम् एटले मूलो, ( सिंगबेरे य के० ) श्रृंगबेरं च एटले आएं, (खंडे ho ) कुखंडम् एटले सर्व जातिनी सेलडी, ए त्रणे ठेका अनिर्वृत ए विशेषण लगाडं. पूर्वोक्त एकत्रीश अने ए त्रण ए सर्व मलीने पात्रीश चनाचरित थां. ( सचित्ते के० ) सचित्तम् एटले सचित्त एवा ( कंदे के०) कन्दः एटले वज्रादि कंद, तथा (मूले के० ) मूलम् एटले मूल ए बे वस्तु सचित्त वापरवी, ते अनाचरित. पूर्वोक्त पात्रीश अनाचरित अने या कन्दानाचरित तथा मूलानाचरित मलीने साडीश नाचरित थयां . ( आमए के० ) श्रमम् एटले लीलुं कांचं एवां (फले के० ) फलं, ते कर्कटी व्यादिक फल अने ( बीए के० ) तिलादिक बीज ए बे लीलां काचां वापरवां, ते क्रमें करी आडत्रीशमं तथा उगणचालीशमुं नाचरित जाणवुं ॥ ७ ॥ ( दीपिका ) पुनः, मूलको लोके प्रतीतः ३ । शृङ्गबेरमार्डकम् ३४ । इदुखएक च लोकप्रतीततम् । निर्वृतग्रहणं सर्वत्र अनि संबद्ध्यते । इतुखंमं च अपरिणतं द्विपर्वान्तं यद्वर्तते । कन्दो वज्रकन्दादिः ३५ । मूलं च सट्टामूलादि सचित्तम् ३७ फलं कर्कट्यादि त्रपुषादि ३८ | बीजं च तिलादि ३० । किं० । श्रामकं सचित्तम् ॥ ७ ॥ ( टीका ) किंच मूलपत्ति सूत्रमस्य व्याख्या । मूलको लोकप्रतीतः । शृङ्गबेरं चाकम् । तथेकुखकं च लोकप्रतीतम् । निर्वृतग्रहणं सर्वत्रासिंबध्यते । निर्वृतमपरिणतमनाचरितमिति । इमुख एकं चापरिणतं द्विपर्वान्तं यद्वर्तते । तथा दो वज्रकन्दादिः । मूलं च सहामूलादि सचित्तमनाचरितम् । तथा फलं त्रपुष्यादि । वीजं च तिलादि । यमकं सचित्तमनाचरितमिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ I सोवच्चले सिंधवे लोणे, रोमालो य आमए ॥ सामुद्दे पंसुखारे य, कालालो य ग्रामए ॥ ८ ॥ ( यवचूरिः) सौवर्चलं ( ३५) सैन्धवं (४०) लवणं खारी ( ४१ ) रुमालवणं चाकर विशेषस्तद्भवम् (४२) सामुद्रं लवणमेव (४३) पांशुदारश्चोपरलवणम् । यद्वा पांशुरूपः (४४) कृष्णलवणं पर्वतैकदेशजम् (४५) ॥ ८ ॥ (अर्थ) सोवच्चले ति । ( सोवच्चले के० ) सौवर्चलम् एटले संचल, ( सिंधवेके० ) सैंधवं एटले सिंधालू, (लोणे के०) लवणम् एटले सांमरलोण ( रोमालो के० ) रुमालवणम् एटले वैद्यशास्त्रमां जेने रोमक कार कहे बे ते ( सामुद्दे के० ) सामुद्रम् For Private Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । २३५ एटले समुश्री उत्पन्न थतुं मी ते, (पंसुखारे य के०) पांसुदारश्च एटले पांसुदार नामें प्रसिफ ने ते, (कालालोणे य के) काललवणम् एटले मेवाडमां उत्पन्न थतुं एक जातनुं लवण ने ते, ए सौवर्चलादिक वस्तु (मए के०) आमकम् एटले सचित्त होय. तो ते वापरवा नहिं कारण के, ते प्रत्येक अनाचरित . पूर्वोक्त जंगणचालीश अने ए सात मलीने सर्व बेतालीश अनाचरित थयां ॥७॥ (दीपिका) पुनः सौवर्चलं सैंधवं पर्वतैकदेशजातम् ४१ लवणं च सांजरलवणम् ४२ रुमालवणं च खानिलवणम् ४३ । एतत्सर्वमामकं सचित्तमनाचरितम् । सामुझं लवणमेव ४४ । पांशुदारश्चोषरलवणं ४५ । कृष्णलवणम् पर्वतैकदेशजातम् ४६ । सर्वमामकं ज्ञेयम् ॥ ७॥ (टीका) किंच सोवच्चले त्ति सूत्रमस्य व्याख्या।सौवर्चलं सैन्धवं लवणं च सांजरलवणं रुमालवणं च।श्रामकमिति सचित्तमनाचरितम् । सामुदं लवणमेव ।पांशुदारश्चोपरलवणम्। कृष्णलवणं च सैन्धवलवणपर्वतैकदेशजमामकमनाचरितमिति सूत्रार्थः॥७॥ धुवणे ति वमणे य, बबीकम्मविरेयणे॥ अंजणे दंतवामे य, गायानंगविनूसणे॥५॥ (अवचूरिः) धूपनमात्मवस्त्रादेः । प्राकृतशैल्या अनागतव्याधिनिवृत्तये धूपनमित्यन्ये (४६) वमनं मदनफलादिना (४) बस्तिकर्म पुटकेनाधिष्ठाने स्नेहदानम् (४) विरेचनं दन्त्यादिना औषधविशेषेण (४) अञ्जनं रसाञ्जनादि (५०) दन्तकाष्ठं च प्रतीतम् (५१) गात्राज्यंगस्तैलादिना (५५) विनूषणं गात्रस्यैव (५३)॥ ए॥ ___(अर्थ ) धुवणत्ति । (धुवणत्ति के ) धूपन मिति एटले पोतानां वस्त्रादिकने सुगंधमय थवामाटे धूपे ते, अथवा केटला एक कहे, के धुवण त्ति एटले धूमपानमिति एटले रोगादिकनी उत्पत्ति नहीं थवी जोश्ये, तेमाटे धूमपान करवू, ते सुडतालीशमुं धूपननामा अनाचरित. (वमणे य के० ) वमनं च एटले मदनफलादिक औषध लश्ने वांति करवी, ते अडतालीशमुं वमननामक अनाचरित. (बडीकम्म के०) बस्तिकर्म एटले रोगनाशार्थ स्नेहगुटिकादिकें करी अधोछारे पिचकारी मारवी, ते जंगणपचाशमुं बस्तिकर्म अनाचरित. ( विरेअणे के) विरेचनम् एटले मल शोधवा माटें त्रिफलादि औषध सेवां, ते पचाशमुं विरेचन अनाचरित. ( अंजणे के०) अंजनम् एटले शरीर शोजाने अर्थे कझालादिकें करी Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. जन अनाचारित ( दंतवसे य के० ) दंतवर्णश्च दंतवर्णानाचरित ( गायाजंग विनूसणे के० ) शरीरने विषे अभ्यंग करवो; ते त्रेपनमुं गात्राएटले शरीर उपर अलंकार धारण करवा. ते चोए ॥ नेत्र जवां, ते एकावनमुं एटले दांत कर, ते वावनमुं गात्राज्यंग विभूषणे, ते गात्रे एटले यंग नाचरित, ने विभूषण पेनमुं भूषण नाचरित जावं ॥ ( दीपिका ) धूपन मात्मवस्त्रादेः सौगन्ध्यनिमित्तमथवा अनागतव्याधिनिवृत्तिनिमित्तं धूमपानमित्यन्ये व्याख्यानयन्ति 8७ । वमनं च मदनफलादिना वान्तिः ४८ । तथा कर्म पुंड्रकेण अधिष्ठाने स्नेहदानम् ४९ । विरेचनं दन्त्यादिना ५० । तथाञ्जनं रसाञ्जनम् ५१ दन्तकाष्ठं च प्रतीतमेव ५२ तथा गात्रान्यङ्गस्तैलादिना ५३ विभूषणं गात्राणामेव ९४ ॥ ९ ॥ ( टीका ) किं च धूवणे ति सूत्रमस्य व्याख्या । धूपन मित्यात्मवस्त्रादेरनाचरितम् । प्राकृतशैल्या अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपानमित्यन्ये व्याचक्षते । वमनं मदनफलादिना । बस्तिकर्म पुटकेनाधिष्ठाने स्नेहदानम् । विरेचनं दन्त्यादिना । तथा अञ्जनं रसाञ्जनादिना । दन्तकाष्टं च प्रतीतम् । तथा गात्रान्यङ्गस्तैलादिना । विभूषणं गात्रा - णामेवेति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ सवमेयमणान्नं, निग्गंथाण मदेसिणं ॥ संजमंमि जुत्ताणं, लढुनयविहारिणं ॥ १० ॥ ( अवचूरिः ) क्रियासूत्रमाह । सर्वमेतदौदेशिकादि यदनन्तरमुक्तं तदनाचीर्णं निग्रन्थानां महर्षीणां साधूना मित्यर्थः । संयमे वा तपसि च युक्तानां लघुभूतो वायुस्तप्रतिबद्धतया विहारो येषाम् ॥ १० ॥ (अर्थ) हवे पूर्वोक्त प्रकारें चोपन बोलें करी चोपन अनाचार जे वर्जवा योग्य कह्यां, ते कोणें वर्जवा ते पण प्रथम " संजमे ” इत्यादि गाथामां कथं बे; तोपण पातुं शिष्यने विस्मरण नहीं थाय, ते माटे फरी ए अनाचार साधुयें वर्जवा एम कहे बे. सति (निगंथा के० ) निर्मन्थानाम् एटले बाह्याभ्यन्तर परिग्रहरहित एवा, (महे सिणं के० ) महर्षीणाम् एटले महोटा कृषि एवा, (संजमंमिश्र जुत्ताएं के० ) १:- आ अनाचरितनी संख्या कोइ ठेकाणें बावन कोइ ठेकाणे त्रेपन अने कोइ ठेकाणे चोपन लीधी छे. मूल सूत्रमां समासघटित शब्दमां कोइ ठेकाणे वे अनाचरित आव्या छे तेनी संख्या एकज गणीये तो सर्वे संख्या बावन थाय छे. अने जुदी गणीए तो त्रेपन तथा चोपन थाय छे. For Private Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके तृतीयाध्ययनम् । २३७ संयमे च युक्तानाम् एटले संयमने विषे हमेश युक्त रहेला एवा (लहुन्नूषविहारिणं के०) लघुनूतविहारिणां एटले थोडा उपकरणथी हलवा तेथी वायुसरखो प्र. तिबंधरहित जेमनो विहार जे एवा साधुने (एयं के०) एतत् एटले ए चोपन बोलें कर। युक्त एवं (सव्वं के०) सर्वम् एटले संपूर्ण (अणान्नं के०) अनाचीणं एटले वर्जववारूप अनाचरित ते कडं ॥१०॥ (दीपिका) अथ क्रियासूत्रमाह। सर्वमेतत् पूर्वोक्तचतुःपञ्चाशनेदनिन्नमौदेशिकादिकं यत् अनन्तरमुक्तं तत्सर्वमनाचरितं ज्ञातव्यम् । केषामित्याह । निर्ग्रन्थानां महर्षीणां साधूनामित्यर्थः । किंजूतानाम् । संयमे चशब्दात्तपसि युक्तानाम् । पुनः किं । लघुजूतविहारिणां लघुनूतो वायुस्तहत् श्रप्रतिवद्धतया विहारो येषां ते ॥ १० ॥ (टीका ) क्रियासूत्रमाह । सव्वमेयं ति सूत्रमस्य व्याख्या । सर्वमेतदौदेशिकादि यदनन्तरमुक्तमिदमनाचरितम् । केषामित्याह । निर्यन्थानां महर्षीणां साधूनामित्याह। त एव विशेष्यन्ते । संयमे चशब्दात्तपसि युक्तानामनियुक्तानां लघुनूतविहारिणां लघुजूतो वायुः । ततश्च वायुजूतोऽप्रतिबद्धतया विहारो येषां ते लघुनूतविहारिणस्तेषां निगमनक्रियापदमेतदिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ पंचासवपरिमाया, तिगुत्ता उसु संजया॥ पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंया नयुदंसिणो ॥११॥ (अवचूरिः ) किमित्यनाचरितं यतस्त एवंनूता नवन्तीत्याह पञ्चाश्रवा हिंसादयः परि समंताज्शातायैस्ते यत ईशा अतस्त्रिगुप्ताः पञ्चानामिन्द्रियाणां निगृह्णन्तीति निगृहणाः। धीरा बुद्धिमन्तः स्थिरा वा निर्यथाः साधव जुर्मोदं प्रति जुत्वात् संयमस्तं पश्यन्ति उपादेयतया संयमप्रतिबझा इत्यर्थः ॥ ११ ॥ (अर्थ.) हवे पूर्वोक्त साधुनां लक्षण कहे . पंचासवत्ति. (पंचासवपरिमाया के ) पंचाश्रवपरिज्ञाताः एटले हिंसादिक पांच आश्रवोने यावजीव जेमणे पञ्चख्या बे एवा, (तिगुत्ता के०) त्रिगुप्ताः एटले मन, वचन श्रने काय ए त्रणे करी गुप्त, अर्थात् मनोगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्ति एना धारण करनार, (बसु संजया के०) षट्सु संयताः एटले षड्जीवनिकायने विषे संयत, अर्थात् षड्जीवनिकाय उपर दया राखनार, (पंचनिग्गहणा के ) पंचनिग्रहणाः, पंचानां एटले दर्शन, रसन, प्राण, स्पर्शन अने श्रवण ए पांच इंजियोने निग्रहणा एटले वश राखनार, अर्थात् जितेंजिय एवा, (धीरा के० ) सातजयें करी रहित, ( उद्युदंसिणो के०) झजुदर्शिनः १८ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(५३)-मा. एटले मोक्षमार्गने विषे सरल एवा संयमने जोनार अर्थात् उपयोगथी संयमना पालक एवा ( निग्गंथा के०) निग्रंथाः एटले निग्रंथ साधु होय . ॥ ११ ॥ ( दीपिका ) किमित्यनाचरितं यतस्त एवंनूता जवन्तीत्याह। किंजूतास्ते साधवः। पञ्च च ते आश्रवाश्च पञ्चाश्रवाः हिंसादयः परि समन्तात् परिझया झात्वा प्रत्याख्यानपरिझया प्रत्याख्याता यस्ते पञ्चाश्रवपरिझाताः । यतः कारणात् ते एवंचूता अतएव त्रिगुप्ता मनोवाकायगुप्तिनिर्गुप्ताः । पुनः किं । उसु संजया षट्सु जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु सामस्त्येन यता यत्नवन्तः। पुनः किं । पञ्चनिग्रहणाः पञ्चानामिन्द्रियाणां निग्रहणा निरोधकर्तारः । पुनः किं । धीरा बुद्धिमन्तः स्थिरा वा। पुनः किंजूताः साधवः । झजुदर्शिनः । जुर्मोदं प्रति ऋजुत्वात् संयमस्तं पश्यन्ति उपादेयतया इति झजुदर्शिनः संयमप्रतिबझाः ॥ ११ ॥ (टीका ) किमित्यनाचरितं यतस्त एवंनूता जवन्तीत्याह । पंचासवसूत्रम्।अस्य व्याख्या । पञ्चाश्रवा हिंसादयः परिझाता विविधया परिझया झपरिझ्या प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परि समन्ताज्ज्ञाता यैस्ते पञ्चाश्रवपरिज्ञाताः । आहितान्यादेराकृतिगणत्वान्न निष्ठायाः पूर्वनिपात इति समासो युक्त एव । परिझातपञ्चाश्रवा इति वा । यत एव चैवंजूता अत एव त्रिगुप्ता मनोवाकायगुप्तिभिः। षट्संयताः षट्सु जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु सामस्त्येन यताः। पञ्चनिग्रहणा इति । निगृह्णन्तीति निग्रहणाः । कर्तरि व्युट् । पञ्चानां निग्रहणाः। पञ्चानामितीप्रियाणाम् । धीरा बुद्धिमन्तः स्थिरा वा । निर्ग्रन्थाः साधवः । झजुदर्शिन इति । झजुर्मोदं प्रति रुजुत्वासंयमस्तं पश्यन्त्युपादेयतयेति जुदर्शिनः संयमप्रतिबकाः । इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ आयावयंति गिम्देसु, हेमंतेसु अवाउडा ॥ वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया ॥१॥ __ (अवचूरिः) ते चैतत्कुर्वन्ति आतापयन्ति ग्रीष्मेषु आतापनां कुर्वन्ति हेमन्तेषु शीतकालेषु अप्रावृता वर्षासु प्रतिसंलीना एकाश्रयस्थाः संयताः साधवः सुसमाहिता ज्ञानादियत्नपराः । ग्रीष्मादिषु बहुवचनं प्रतिवर्ष करणझापनार्थम् ॥ १२ ॥ __ (अर्थ.) हवे ते पूर्वोक्तगाथामां कहेला शजुदर्शी साधु समयने जोश्ने जे प्रमाणे करे , ते कहे जे. जे साधर्म (गिम्हेसु के०) ग्रीष्मेषु एटले ग्रीष्मकालने विषे अर्थात् जन्हालामा (थायावयंति के० ) आतापयंति एटले अतापना करे , ( हेमंतेसु के०) हेमंतेषु एटले हेमंतऋतु अर्थात् शियालाने विष (अवा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम्। २३ए उडा के० ) अप्रावृताः एटले वस्त्ररहित थका शीतपरीषह सहन करे , (वासासु के० ) वर्षासु एटले वर्षाकालनेविषे (पडिसंलीणा के) प्रतिसंलीनाः एटले एक स्थानकने विषे अंगोपांग संवरीने बेसे बे, एवा ते (संजया के०) संयताः एटले संयमना पालक साधु ( सुसमाहिया के०) सुसमाहिताः एटले ज्ञानादिकने विषे यत्न करनार थाय ने ॥१५॥ (दीपिका) ते च जुदर्शिनः कालं प्रस्तावमधिकृत्य यथाशक्ति एवं कुर्वन्ति । तथाहि आतापयन्ति ऊर्ध्वस्थानादिना आतापनाः कुर्वन्ति । कदा ग्रीष्मेषु जष्णकालेषु । पुनः कीदृशाः। हेमन्तेषु शीतकालेषु अप्रावृताः प्रावरणरहितास्तिष्ठन्ति । तथा वर्षासु वर्षाकालेषु प्रतिसंलीना एकाश्रयस्था नवन्ति । संयताः साधवः । पुनः किंनूताः । सुसमाहिता ज्ञानादिषु यत्नपराः ॥ १२ ॥ (टीका ) ते च झजुदर्शिनः कालमधिकृत्य यथाशक्त्येतत्कुर्वन्ति । थायावयंति त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । आतापयन्त्यूप्रस्थानादिना आतापनां कुर्वन्ति ग्रीष्मेषूष्णकालेषु। तथा हेमन्तेषु शीतकालेष्वप्रावृता इति प्रावरणरहितास्तिष्ठन्ति । तथा वर्षासु वर्षाकालेषु संलीना इत्येकाश्रयस्था नवन्ति । संयताः साधवः सुसमाहिता झानादिषु यत्नपराः। ग्रीष्मादिषु बहुवचनं प्रतिवर्षकरणज्ञापनार्थ मिति सूत्रार्थः ॥१२॥ परीसहरिदंता, धूअमोदा जिदिया। सबदुकपदीणहा, पक्कमंति मदेसिणो ॥१३॥ (अवचूरिः) एतेषां फलमाह । उकराणि कृत्वा परीषदा एव रिपवस्ते दान्ता उपशमं नीता यैस्ते धूतमोहाः । मोहोऽज्ञानम् । जितेन्जियाः शब्दादिषु रागद्वेषरहिताः सर्वपुःखदयार्थ प्रक्रामन्ति प्रवर्तन्ते महर्षयः॥ १३ ॥ (अर्थ.) परीसहत्ति. वली, (परीसहरिदता के० ) परिषहरिपुदांताः एटले दुधातृषादिक बावीस परीषह रूप जे शत्रु तेमने जेमणे जीत्या बे एवा, तथा (धूअमोहा के०) धूतमोहाः एटले जेमणे पोतानो मोह दूर कस्यो बे, वली (जिइंदिया के० ) जितेंजियाः एटले इंडियोना शब्दादिक विषयोने विषे रागोषरहित एवा, ( महेसिणो के०) महर्षयः एटले महामुनि साधु (सवडुकपहीणहा के०) सर्वपुःखप्रक्ष्यार्थम् एटले शारीर, मानसिक विगेरे सर्व फुःखरूप आठ कर्म खपाववा माटे, ( पक्कमति के०) प्रक्रामंति एटले उद्यम करे . ॥ १३ ॥ (दीपिका ) पुनः किं । परीषहा एव रिपवस्ते दान्ता उपशमं नीता यैस्ते। पुनः Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. किं । धुतो मोहोऽज्ञानं यैस्ते। पुनः किं । जितेन्डियाः शब्दादिविषयेषु रागद्वेषरहिताः।त एवं विधाःसर्वदुःखदयनिमित्तं प्रक्रामन्ति प्रवर्त्तन्ते।किंनूताः ।महर्षयः॥१३॥ (टीका ) परीसहत्ति सूत्रम्।अस्य व्याख्या । मार्गाच्यवन निर्जराथ परिषोढव्याः हुत्पिपासादयः त एव रिपवस्तत्तुल्यधर्मत्वात्परीषहरिपवस्ते दान्ता उपशमं नीता यैस्ते परीषहरिपुदान्ताः। समासः पूर्ववत् । तथा धुतमोहा विक्षिप्तमोहा इत्यर्थः । मोहोऽज्ञानम् । तथा जितेन्द्रियाः शब्दादिषु रागद्वेषरहिता इत्यर्थः । त एवंनूताः सर्वछुःखप्रदयार्थ शारीरमानसाशेषःखप्रदयनिमित्तं प्रक्रामन्ति प्रवर्तन्ते । किंनूताः। महर्षयः साधव इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ दुक्कराई करित्ताणं, दुस्सहाई सहेत्तु य॥ केशब देवलोएसु, केश सिसंति नीरया ॥२४॥ (श्रवचूरिः) औदेशिकादित्यागादीनि उस्सहानि सहित्वातापनादीनि । के चनात्र देवलोकेषु सौधर्मादिषु गवन्तीति वाक्यशेषः । केचन सिकिं तेनैव जवेन सिहिं प्राप्नुवन्ति । नीरजस्का अष्टविधकर्ममुक्ताः । नत्वेकेन्डिया श्व । वर्तमाननिर्देशस्त्रिकालविषयज्ञापनार्थः ॥ १४ ॥ (अर्थ.) पूर्वोक्त प्रकारे आचरण करनारा साधुने शुं फल थाय , ते कहे . पुक्कराई ति. (उकराई के०) पुष्कराणि एटले आचरवाने अशक्य एवा "उद्देसियं" इत्यादि गाथाउँमा कहेला धर्मने ( करित्ताणं के०) कृत्वा एटले श्राचरण करीने, अर्थात् पालन करीने, तथा (कुस्सहाई के०) फुःसहानि एटले सहन करवाने अशक्य एवा आतापनादिकने ( सहित्तु य के० ) सहित्वा च एटले सहन करीने ( केश के०) केचित् एटले केटलाएक (अब के०) अत्र एटले आ ( देवलोगेसु के०) देवलोकेषु एटले सौधर्मादिक देवलोकने विषे जाय, तथा (केश के०) केचित् एटले केटलाक (नीरया के) नीरजसः एटले कर्मरूप रजेंकरी रहित थका था लोकमांज (सिशंति के ) सिध्यंति एटले सिक थाय ने ॥ १४ ॥ (दीपिका ) अथैतेषां फलमाह । एवं पुःकराणि औद्देशिकादित्यागादीनि कृत्वा तथा उःसहानि आतापनादीनि सहित्वा केचन अत्र देवलोकेषु सौधर्मादिषु गठन्ति । इति शेषः। केचन सिध्यन्ति तेनैव जवेन सिकिं प्राप्नुवन्ति । किंन्नूताः। नीरया। निर्गतं रजोऽष्टाविधं कर्म येच्यस्ते अष्टविधकर्मविप्रमुक्ताः नतु एकेन्डिया श्व कर्मयुक्ताः ॥ १४ ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । १४१ (टीका ) इदानीमेतेषां फलमाह। उक्कराश त्ति सूत्रम्।अस्य व्याख्या।एवं पुष्कराणि कृत्वौदे शिकादित्यागादीनि तथा उःसहानि सहित्वातापनादीनि । केचन तत्र देवलोकेषु सौधर्मादिषु गबन्तीति वाक्यशेषः । तथा केचन सिध्यन्ति तेनैव नवेन सिद्धिं प्राप्नुवन्ति । वर्तमान निर्देशः सूत्रस्य त्रिकाल विषयत्वज्ञापनार्थः । नीरजस्का इत्यष्टविधकर्मविप्रमुक्ता न त्वेकेन्डिया इव कर्मयुक्ता एवेति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ खवित्ता पुवकम्मा, संजमेण तवेण य॥ सिपि मग्गमणुप्पत्ता, ताइयो परिणिबुझे त्ति बेमि ॥१५॥ खुम्यायारकहश्शयणा तश्या ॥३॥ (श्रवचूरिः) ये देवलोके गतास्तेषां स्वरूपं तदाह । ततश्च्युत्वा पित्वा पूर्वकर्माणि सावशेषाणि । केन।संयमेनोक्तलक्षणेन तपसा च सिकिमार्ग सम्यग्दर्शनादिरूपमनुप्राप्ताः सन्तस्त्रातारश्चात्मादीनां परिनिर्वान्ति सिद्धिं प्राप्नुवन्ति ॥ १५ ॥ इति कुखकाचारकथाख्यतृतीयाध्ययनावचूरिः॥३॥ (अर्थ. ) हवे, जे साध प्रर्वोक्त धर्म पालीने देवलोके जाय , ते पण त्यांथी चव्या पली आ थार्यदेशमां सत्कुलने विष उपजीने सिफ थाय बे, ते कहे . खवित्तत्ति. देवलोकमांधी च्यवीने आलोकमांहे श्रावेला साधु ( संजमेण के) संयमेन एटले सत्तर नेदना संयमें करी, (तवेण य के०) तपसा च एटले बार प्रकारना त करी (पुवकम्मा के०) पूर्वकर्माणि एटले पूर्वनवें करेला कर्मने (खवित्ता के०) पयित्वा एटले खपावीने (सिफिमग्गं के०) सिकिमार्ग एटले मोदना मार्गप्रतें (अणुप्पत्ता के०) अनुप्राप्ताः एटले प्राप्त थयेला एवा (ताणो के० ) तायिनः एटले बकायजीवनुं पालन करनारा एवा साधु (परि निबुमे के०) परिनिर्वान्ति ए. टले सर्वप्रकारें सिद्धिने पामे . तिबेमि ए पदनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. आ अध्ययनमां, साधुए श्राचारने विषेज धृति राखवी, परंतु अनाचार विष राखवी नहीं एम कयुं. ॥ १५ ॥इति कुक्षकाचार कथा नामा अध्ययननो बालावबीध संपूर्ण ॥३॥ ( दीपिका) ये च एवंविधानुष्ठानतो देवलोकेषु गन्ति तेऽपि ततश्युत्वा आर्यदेशे सुकुले जन्म प्राप्य शीघ्रं सिद्ध्यन्त्येव एतदाह । ते देवलोकात् दपयित्वा पूर्वकर्माणि अवशिष्टानि । केन इत्याह । संयमेन उक्तरूपेण सप्तदशन्नेदेन पुनः तपसा छादशविधेन सिकिमार्ग सम्यग्दर्शनादिलक्षणम् अनुप्राप्ताः सन्तः त्रातार आत्मा Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४शराय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. दीनां परिनिर्वान्ति सिलिं प्राप्नुवन्ति । इतिः समाप्तौ। ब्रवीमि इति न खबुद्ध्या किंतु तीर्थकरगणधरोपदेशेन ॥ १५॥ इति श्रीदशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां क्रुद्धकाचारकथाख्यं तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ ३ ॥ (टीका) येऽपि चैवंविधानुष्ठानतो देवलोकेषु गछन्ति । तेऽपि ततश्युता आर्यदेशेषु सुकुले जन्मावाप्य शीघ्र सिध्यन्त्येवेत्याह । खवित्त त्ति सूत्रमस्य व्याख्या। ते देवलोकच्युताः पयित्वा पूर्वकर्माणि सावशेषाणि । केनेत्याह। संयमेनोक्तलक्षणेन तपसा च एवं प्रवाहेण सिधिमार्ग सम्यग्दर्शनादिलक्षणननुप्राप्ताः सन्तस्त्रातार आत्मादीनां परिनिर्वान्ति सर्वथा सिडिं प्राप्नुवन्ति।अन्ये तु पठन्ति।परिनिवुमत्ति। तत्रापि प्राकृतशैव्या बान्दसत्वाच्चायमेव पागे ज्यायानिति । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः । उक्तोऽनुगमः सांप्रतं नयाः। ते च पूर्ववदृष्टव्याः।इति व्याख्यातं नुक्षकाचारकथाध्ययनम् ॥३॥ इति श्रीदशवैकालिके हरिजप्रसूरिकृतटीकायां तृतीयमध्ययनम् ॥३॥ अथ चतुर्थाध्ययनम् । सुअं मे आनसंतेणं नगवया एवम कायं श्द खलु बजीवणिया नामशयणं समणेणं नगवया महावीरेणं कासवेणं पवेश्या सुअकाया सुप वत्ता सेअं मे अदिजिलं असयणं धम्मपन्नत्ती ॥ (अवचूरिः) अथ चतुर्थाध्ययनावचूरिः। अनन्तराध्ययने धृतिराचारे कार्या श्त्युक्तम् । सा च षड्जीवनिकायगोचरेति स उच्यते । श्रुतमाकर्णितम् । मे मया । आयुरस्यास्तीत्यायुष्मान् । तस्यामत्रणं हे आयुष्मन् । कः कमेवमाह । गौतमः सुधर्मखामी वा जंबूखामिनं प्रति। नगः समग्रैश्वर्यादिः सोऽस्यास्तीति नगवांस्तेन नगवता नुवनज; वर्धमानखामिनेत्यर्थः। एवमिति प्रकारवचनः शब्दः। आख्यातमिति केवलझानेनोपलच्यावेदितम् । श्रुति लोके प्रवचने वा खलुशब्दान्नान्यतीर्थकृत्प्रवचनेषु । षड् जीव निकायाः प्रतिपाद्यत्वेन विद्यन्ते यस्यां ग्रन्थपकतौ सा षड्जीवनिकायिकेति । पूर्ववन्नामेत्यनिधानम् । अध्ययनं श्रुतविशेषः । इह च श्रुतं मया इत्यात्मपरामर्षेणैकान्तदणनङ्गापोहमाह । तत्रेबंजूतार्थानुपपत्ते रिति । उक्तं च । एगंतखणियपरके, गहणं चित्र सबहानवबाणं ॥ अनुसरणसासणारं, कुठे उ तेलुकसिकाई॥१॥ तथायुष्मनिति प्रधानगुण निष्पन्नेनामन्त्रणवचसा गुणवते शिष्यायागमरहस्यं देयम् नागुणवत Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १४३ इत्याह तदनुकम्पाप्रवृत्तेरिति । उक्तं च ॥ श्रमे घडे निहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेइ ॥ इय सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विषासे ॥ १ ॥ आयुश्च प्रधानो गुणः सति, तस्मिन्नव्यवच्छित्तिजावात् तथा तेन जगवता एवमाख्यातमिति । अनेन खमनी - षिकानिरासाच्छास्त्रपारतन्त्र्यप्रदर्शनेन । नह्य सर्वज्ञेनात्मवतान्यतस्तथाभूतात्सम्यगनिश्चित्य परलोक देशना कार्येत्येतदाह । विपर्ययसंजवादित्युक्तं च ॥ किं एत्तो पावयरं, सम्मं श्रहिगयधम्मसनावो ॥ अन्नं कुदेसाए कठे रागम्मि पाडे ॥ १ ॥ अथ - वान्यथा व्याख्यायते सूत्रैकदेशः । उसंतेां ति जगवत एव विशेषणम् । आयुष्मता जगवता चिरजीविनेत्यर्थः । मङ्गलवचनं चैतदथवा जीविना सादादेवानेन च गणधर परंपरागमस्य जीवन विमुक्ताना दिशुरुवक्तुश्चापोहमाह । देहायजावेन तथाविधप्रयत्नानावादित्युक्तं च ॥ वयणं न काययोगा- जावेण य सो य णादिसुद्धस्स । गहणं मिय नो देऊ, सवं छत्तागमो कह ॥ १ ॥ अथवा वसंतेति । गुरुमूलावता । अनेन च शिष्येण गुरुचरण से विना सदा जाव्यमित्येतदाह ॥ ज्ञानादिवृद्धिसङ्गावाडुक्तं च ॥ नास्स होइ जागी, थिरयर दंसणे चरित्ते य ॥ धन्ना यावहार, गुरुकुलवासं न मुंचति ॥ १ ॥ अथवा | उसंतेणं । श्रमृशता जगवत्पादारविंदयुगलमुत्तमांगेन । अनेन च विनयप्रतिपत्तेर्गरीयस्त्वमाह । विनयस्य मोक्षमूलत्वात् । उक्तंच ॥ मूलं संसारस्स उ होंति कसाया तपत्तस्स ॥ वि गणपत्तो, डुक विमोरकस्स देउति ॥ १ ॥ कृतं प्रसंगेन प्रकृतमनुसरामः अत्र खलु षड्जीवनिकायिकानामाध्ययनमस्तीत्युक्तं सा च जगवता समग्रैश्वर्यादियुक्तेन महावीरेण काश्यपगोत्रेण प्रवेदिता केवलालोकेन । प्रकर्षेण वेदिता ज्ञाता इत्यर्थः । स्वाख्याता सदेवमनुष्यासुरायां पर्षदि कथिता सुष्ठु श्राख्याता । सुप्रज्ञप्ता । सूक्ष्मपरिहारासेवनेन स्वयं सम्यग् सेविता । सुष्ठु प्रज्ञप्ता वा याता आसेवनद्वारेणात्मसात्कृता अनेकार्थत्वाद्धातूनां इपिरासेवनार्थः । तां चैवंभूतां षड्जीवनिकां श्रेयो मेऽध्येतुं पतितुं । बान्दसत्वात्सामान्येन ममेत्यात्म निर्देश इत्यन्ये । ततश्च श्रेय श्रात्मनोऽध्येतुमिति पठितुं श्रोतु नावयितुं । कुत इत्याह । अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः । निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां प्रायो दर्शनमिति वचनात् हेतौ प्रथमा । अध्ययनत्वात् अध्यात्मानयनाच्चेतसो विशुद्ध्यापादनादित्यर्थः । एतदेव कुत इत्याह । धर्मप्रज्ञतेः । प्रज्ञापनं प्रज्ञप्तिः । धर्मस्य प्रज्ञप्तिः ततो धर्मप्रज्ञप्तेः कारणाच्चेतसो विशुद्धयापादनाच्च धर्मप्रज्ञप्तिः । श्रेय श्रात्मनोऽध्येतुम्। अन्ये तु व्याचक्षते अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिरिति पूर्वोपन्यस्ताध्ययनस्यैवोपादेयतया अनुवादमात्रमेतदिति ॥ १ ॥ 1 For Private Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ राय धनपतसिंह बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अर्थ.) हवे चोथु षड्जीवनिका नामक अध्ययन कहे . ए अध्ययननो श्रा प्रमाणे संबध डे केः-पूर्वोक्त कुल्लकाचारकथानामक अध्ययनमां कडं के, साधुए धृति जे राखवी ते आचारने विषेज राखवी, परंतु अनाचार विषे राखवी नहीं. ते आचार जे जे, ते घणुं करीने षड्जीवनिकायने श्राश्रयेंज ने, कडं डे केः- "सु जीवनिकाएसु, जे बुहे संजए सया ॥ सो चेव होइ विलेए, परमण संजए ॥१॥” इति. माटे षड्जीवनिकायनुं व्याख्यान करवू जोश्य. एवा सं बंधश्री श्र अध्ययननी प्राप्ति थई. ा अध्ययनमां षड्जीवनिकायनुं विनागपूर्वक व्याख्यान कमु बे, माटे एने षडूजीवनिका एवे नामें करी कहे . हवे सूत्रनो अर्थ ॥ सुयं मे इति. सुधर्माखामी जंबूप्रतें कहे . (आउसंतेणं के०) हे आयुष्मन् ! एटले जेने परिपूर्ण आयुष्य बे एवा हे शिष्य ( मे के०) मया एटले में (सुयं के०) श्रुतं एटले सांजल्युं बे, के (नगवया के०) नगवता, नगशब्दें करी परिपूर्ण एवा ऐश्वर्य, रूप, कीर्ति, श्री, धर्म अने प्रयत्न ए वस्तु लेवी. कडं बे के, “ ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः ॥ ज्ञानवैराग्ययोश्चापि, षलां जग श्तीङ्गना ॥१॥" ते जेमने बे, तेमने जगवान् कहिये. अर्थात् ऐश्वर्यादिक उ वस्तु जेमनी पासे परिपूर्ण डे एवा श्रीमहावीरस्वामीए (एवं के०) वक्ष्यमाणप्रकारें (अरकायं के ) आख्यातं एटले केवलज्ञानथी जाणीने कांबे के, (ह के०) ए दशवैकालिक सूत्रनेविषे ( खबु के ) निश्चयें करी (ब्जीवणियाणामायणं के) षड्जीवनिकानामक अध्ययन बे. एमां शिष्यने आमंत्रण करवामाटे बी. जुं पद न लेतां 'बाउसंतेणं' एज पद ली, बे, तेनुं तात्पर्य ए डे के, गुणवान् जे शिष्य , तेनेज आगमर्नु रहस्य केह, वीजाने केहबुं नही, कयु डे केः- " श्रामे घडे निहितं, जहा जलं तं घडं विणासे ॥ श्अ सिकंतरस्सं, अप्पाहारं विणासेश ॥१॥ इति ॥” माटे योग्य शिष्यनेज कहेQ जोश्ये तो शिष्यना गुण जे बे, तेमां आयुष्य जे ते प्रधान गुण , कारण के, तेनो अनाव होय तो बीजी बधी सामग्रीनो कांश उपयोग नथी, माटे “आयुष्मन् ” एम संबोधन कयु. अथवा थाउसंतेणं ए नगवंतनुंज विशेषण करवं. ते एवीरीतेः- श्रायुष्मता एटले चिरंजीव एवा नगवाने एम कडं . इति. अथवा (आवसंतेणं के०) आवसता एटले गुरुकुलनेविषे वास करनारा एवा ( मे के०) मया एटले में सांजल्यं . एवो अर्थ करवो. तेथी एम सूचवे ने के, शिष्ये गुरुकुलने विषे रहीने निरंतर गुरुचरणनी सेवा करवी. अथवा (आउसंतेणं के) श्रामृशता एटले जगवत्पादारविंदयुगलनेविषे मस्तकें करी स्पर्श करनारा एवा में सांजव्यु बे. एवो अर्थ करवो. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २४५ तेथी एम सिक थाय के, शिष्ये गुरुनो विनय सारीरीतें साचववो. कारण के धर्मनुं मूल विनय बे, कयु डे केः-"मूलं संसारस्स य, होति कसाया अणंतपत्तस्स ॥ विण हाणपजत्तो, मुकविमुक्कस्स मोरकस्स ॥१॥ इति” अस्तु. षड्जीव निकानामक अध्ययन बे एम कडं. ते षड्जीवनिकायिका कोणें कही ते कहे बे. ( समणेणं के० ) श्रमणेन एटले महातपस्वी एवा, (नगवया के०) समयैश्वर्या दिसंपन्न एवा, ( कासवेणं के० ) काश्यपेन एटले काश्यप गोत्र जेमर्नु बे एवा, ( महावीरेणं के०) महावीरेण एटले कषायादिशत्रुने जीतवामां महोटा वीर एवा वर्धमान स्वामीए; कयु डे केः-विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते ॥ तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माछीर इति स्मृतः॥१॥ इति ॥ ( पवेश्या के०) प्रवेदिता एटले अलौकिकप्र. नावथी जाणी, तथा ( सुअरकाया के ) खाख्याता एटले सुरासुरमनुष्ययुक्त एवा समवसरण मध्ये रूडी रीते कही, तथा (सुपन्नत्ता के०) सुप्रज्ञप्ता एटले जेम कही तेमज अतिशयेंकरी पोते सेवन करी. अर्थात् आचरण करी. ते कारण माटे एवी षड्जीवनिकानुं ( अहिझिालं के) अध्येतुं एटले अध्ययन करवाथी ( मे के०) मारु एटले आत्मानुं (सेयं के०) श्रेयः एटले कल्याण डे. कारण के, (अनयणं के०) ए अध्ययन जे जे ते (धम्मपन्नत्ती के०) धर्मप्रज्ञप्तिरूप में, एटले एमां धर्मनी प्ररूपणा करी, तेथी आत्मानुं कल्याण निश्चयें करी थशेज ॥१॥ (दीपिका ) व्याख्यातं कुल्लकाचारकथाख्यं तृतीयमध्ययनम् । अथ चतुर्थं षड्जीव निकाख्यमध्ययनं व्याख्यायते । पूर्वोक्ताध्ययनेन अस्याध्ययनस्य अयं संबन्धः। पूर्वं साधुना आचारे धृतिः कार्या नत्वनाचार इत्युक्तम् । अयमेव च आत्मसंयमे उपायः। सच आचारः षड्जीव निकायगोचरः। अतः षड्जीव निकायाः प्रोच्यन्ते । तत्र सूत्रम् । श्रुतं अवधारितं मे इति मया अत्र श्रीसुधर्मस्वामी श्रीजम्बूस्वामिनं प्राह । हे आयुष्मन् । आयुरस्यास्तीति आयुष्मान् तस्य संबोधनं तेन जगत्प्रसिझेन नगवता समग्रेश्वर्यादियुक्तेन श्रीवर्धमानस्वामिना एवंप्रकारं वदयमाणमाख्यातं केवलज्ञानेन उपलन्य कथितम् । अथवा उसंतेणं ति समयं जगवतो विशेषणम् । किंजूतेन जगवता आउसंतेणं आयुष्मता चिरजीविना इत्यर्थः। मङ्गलवचनमेतत् । अथवा आवसंतेणं ति पाठे मया इत्यस्य विशेषणम् । किंनूतेन मया । आवसता गुरुपादमूलसे विना । अथवा आमुसंतेणं ति पाठे किंजूतेन मया। मृशता जगवत्पादारविन्दयुगुलं मस्तकेन । अनेन गुरुविनयप्रतिपत्तिरुक्ता । किंजूतेन जगवता श्राख्यातम् इति पृष्टे आह । एषा खलु षड्जीवनिका नामाध्ययनंश्रमणेन महातपस्विना जगवता समयैश्वर्यादियुक्तेन महावीरेण कषायादिवैरिजयात् महासुनटेन किंजूतेन काश्यपेन Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. काश्यपगोत्रेण प्रवेदिता ज्ञाता । न कुतश्चित् आकर्ण्य ज्ञाता किंतु स्वयमेव केवलझानेन प्रकर्षेण विदिता ज्ञाता । पुनः खाख्याता सुष्टु छादशपर्षन्मध्ये श्राख्याता । तथा सुप्रज्ञप्ता यथैव स्वाख्याता तथैव सूक्ष्मपरिहारासेवनेन प्रकर्षेण सम्यग् श्रासेविता इत्यर्थः। तां चैवंचूतां षम्जीवनिका श्रेयो मेमम अध्येतुं श्रेयः पथ्यं हितं पठितुं श्रोतुं नावयितुम् । कुत इत्याह । अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः। निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां प्रायो द. र्शनमिति वचनात् । हेतौ प्रथमा । अध्ययनत्वात् अध्यात्मानयनाचेतसो विशुद्ध्यापादनं चेतोविशुष्यापादनाच्च श्रेय आत्मनोऽध्येतुमिति । अन्ये व्याचदते । अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिरिति । पूर्वमुपन्यस्तस्य अध्ययनस्यैव उपादेयतया अनुवादमात्रम्॥१॥ (टीका) श्दानी षड्जीवनिकायाख्यमारज्यते अस्यचायमनिसंबन्धः। श्हानन्तराध्ययने साधुनाधृतिराचारे कार्या नत्वनाचारे अयमेव चात्मसंयमोपाय इत्युक्तम् । श्ह पुनः साचारः षड्जीवनिकायगोचरःप्राय इत्येतफुच्यते। उक्तं च ॥"सु जीवनिकाएसु, जे बुहे संजए सया ॥ से चेव होश विरोए, परमण संजए ॥१॥” इत्यनेनाजिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम् । आह च नाष्यकारः ॥ जीवाहारो जन्नर, आयारो तेणिमं तु आयायं ॥ बजीवणियतयणं, तस्स हिगारा श्मे होति ॥२२२ ॥ व्याख्या ॥ जीवाधारो लण्यत आचारः । तत्परिज्ञानपालनहारेणेति नावः । येनैतदेवं तेनेदमायातमवसरप्राप्तम् । किं तदित्याह । षड्जीवनिकाध्ययनम् । अत्रान्तरे अनुयोगछारोपन्यासावसरः । तथा चाह । तस्य षड्जीवनिकाध्ययनस्यार्थाधिकारा एते जवन्ति वक्ष्यमाणलक्षणा इति गाथार्थः। तानाह ॥ जीवाजीवाहिगमो, चरित्तधम्मो तहेव जयणा य ॥ उवएसो धम्मफलं, बीवणियाश् अहिगारा ॥ २३ ॥ ॥ व्याख्या ॥ जीवाजीवानिगमो जीवाजीवस्वरूपम् । अनिगम्यतेऽस्मिन्नित्यनिगम इति कृत्वा स्वरूपे च सत्य निगम्यत इति नावः । तथा चारित्रधर्मः प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपः । तथैव यतना च पृथिव्या दिष्वारम्नपरिहारयत्नरूपा । तथा उपदेशः यथात्मा न बध्यत इत्यादिविषयः । तथा धर्मफलमनुत्तरज्ञानादि । एते षड्जीवनिकाया अधिकाराः । इति गाथार्थः । अत्रान्तरे गत उपक्रमः। निदेपमधिकृत्याह ॥ बीवणियाए खलु, निकेवो होश नामनिप्फन्नो ॥ एएसिं तिण्डं पि उ, पत्तेयपरूवणं वोठं ॥ २४ ॥ व्याख्या ॥ षड़जीवनिकायाः प्रक्रान्तायाः खस्विति पूरणार्थो निपातः। निक्षेपो नवति नामनिष्पन्नः षड्जीवनिकायिकेत्ययमेव । यत एवमत एतेषां त्रयाणामपि षड्जीवनिकायपदानां प्रत्येकमित्येकमेकं प्रति प्ररूपणां सूत्रानुसारेण वदयेऽनिधास्य इति गाथार्थः । तत्रैकस्यानावे षसामनाव इत्येकप्ररू Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके चतुर्थाध्ययनम्। २४७ पणामाह ॥ णाम उवणा दविए, माउगपयसंगहेक्कए चेव ॥ पद्यवनावे य तहा, सत्तेए एकगा होति ॥१२५ ॥ व्याख्या ॥ श्यं सुमपुष्पिकायां व्याख्यातेति नेह व्याख्यायते । संग्रहैककेन चात्राधिकारः। सांप्रतं घ्यादीन् विहाय षट्प्ररूपणामाह ॥ नाम उवणा दविए, खेत्ते काले तहेव नावे अ॥ एसो उ बकगस्स, निकेवो बविहो होश ॥ १६ ॥ व्याख्या ॥ तत्र नामस्थापने कुले । अव्यषटुं षड् अव्याणि सचित्ताचित्तमिश्राणि पुरुषकार्षापणालंकृतपुरुषलक्षणानि । क्षेत्रषट्रं षडाकाशप्रदेशाः। यहा जरतादीनि । कालषटुं षट् समयाः षड्डा इतवः । तथैव नावे चेति जावषटुं षड नावा औदयिकादयः । अत्र च सचित्तव्यषटेनाधिकार इति गाथार्थः। श्राह। अत्र ट्याद्यननिधानं किमर्थम् । उच्यते । एकषडनिधानतः श्राद्यन्तग्रहणेन तनतेरिति । व्याख्यातं षट्पदमधुना जीवपदमाह ॥ जीवस्स उ निकेवो, परूवणा लकणं च अबित्तं ॥ अन्नामुत्तत्तं निच्चकारगो देहवा वित्तं ॥ २७ ॥ गुणिउद्गश्तेया, निम्मयसाफवता य परिमाणे ॥ जीवस्स तिविहकालम्मि, परिका हो कायवा ॥ २७ ॥ दो दारगाहा ॥ व्याख्या ॥ जीवस्य तु निदेपो नामादिः।प्ररूपणा द्विविधाश्व जवन्ति जीवा इत्यादिरूपा । लक्षणं चानादि । अस्तित्वं सत्त्वम् शुरूपदवाच्यत्वादिना । अन्यत्वं देहात् । अमूर्तत्वं स्वतः। नित्यत्वं विकारानुपलम्नेन । कर्तृत्वं स्वकर्मफलनोगात् । देहव्या पित्वं तत्रैव तद्विगोपलब्ध्या। गुणित्वं योगादिना । ऊर्ध्वगतित्वमगुरुलघुनावेन । निर्मायता विकाररहितत्वेन । सफलता च कर्मणः। परिमाणं लोकाकाशमात्र इत्यादि । एवं जीवस्य त्रिविधकाल इति त्रिकाल विषया परीदा नवति कर्तव्या । इति घारगाथाघ्यसमासार्थः। व्यासार्थस्तु नाष्यादवसेयः। तथाच निक्षेपमाह ॥ नामं ठवणा जीवो, दवजीवो य जावजीवो य ॥ उहनवग्गहणं मि य, तनवजीवे य नावम्मि ॥ श्ए ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापनाजीव इति । जीवशब्दः प्रत्येकमनिसंवध्यते । नामजीवः स्थापनाजीव इति तथा अव्यजीवश्च जावजीवश्च वदयमाणलक्षणः। तत्रौघेत्योघजीवः । नवग्रहणे चेति नवजीवः । तनवजीवश्च तअव एवोत्पन्नः। नावे नावजीव इति गाथासमासार्थः । व्यासार्थ त्वाह ॥ नामं उवणगया, दवे गुणपद्यवेहि रहिन ति ॥ तिविहो य होश नावे, उंहे नवतनवे चेव ॥ ३० ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापने गते कुणत्वादिति नावः । अव्य इति अव्यजीवो गुणपर्यायान्यां चैतन्यमनुष्यत्वादिलक्षणान्यां रहितः। बुद्धिपरिकल्पितो नत्वसाविविधः संनवतीति । त्रिविधश्च भवति जाव इति जावजीवत्रैविध्यमाह । उघजीवो जवजीवस्तनवजीवश्चेति प्राग्गायोक्तमप्येतदिउंविधनाष्यकारशैलीप्रामाण्यतोऽऽष्टमेवेति । अन्ये तु पठन्ति ॥ " नावे उ तिहा नणिज, तं पुण संखेवर्ड वोठं ॥" Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. जाव इति नावजीवः । विधेति त्रिप्रकारो जणितो नियुक्तिकारेण उघजीवादिस्तमपि च नावार्थमधिकृत्य संदेपतो वदय शति गाथार्थः । तत्रौघजीवमाह ॥ संते श्राउयकम्मे, धरई तस्सेव जीवई उदए ॥ तस्सेव निचराए, म त्ति सिको नयमएणं ॥ ३१ ॥ व्याख्या ॥ सति विद्यमान आयुष्ककर्मणि सामान्यरूपो ध्रियते सामान्येनैव तिष्ठति नवोदधौ । कथमिबमवस्थानमात्राजीवत्वमस्येत्याशयात्रैवान्वर्थयोजनामाह । तस्यैवौघायुष्ककर्मणो जीवत्युदये । उदये सति जीवत्यासंसारं प्राणान्धारयत्यतो जीवनाजीव इति । तस्यैवौघायुष्ककर्मणो निर्जरया दयेण मृत इति सर्वथा जीवनानावात् । स च सिको मृतो नान्यः विग्रहगतावपि तथा जीवनसनावात् । नयमतेनेति सर्वनयमतेनैव मृत इति गाथार्थः । उक्त उघजीवितविशिष्ट उघजीवः सांप्रतं नवजीवं तनवजीवं चाह ॥ जण य धर नवगउँ, जीवो जेण य जवाउ संकमई ॥ जाणाहि तं नवाजं, चनविहं तप्नवे विहं ॥ २३ ॥ ॥ निके ति गयं ॥ व्याख्या ॥ येन च नारकाद्यायुष्केण ध्रियते तिष्ठति । नवगतो नारकादिनव स्थितो जीवस्तथा येन च मनुष्याद्यायुष्केण नवान्नारकादिलदाणात्संक्रामति याति । मनुष्यादिनवान्तर मिति सामर्थ्याजम्यते। जानीहि विकि। तदिबंजूतं नवायुर्नवजीवितं चतुर्विधं नारकतिर्यङ्मनुष्यामरनेदेन । तथा तन्नवे तनव विषयमायुरिति वर्तते । तच्च विविधं तिर्यक्वतनवायुर्मनुष्यत्वतनवायुश्च । यस्मात्तावेवमृतौ सन्तौ नूयस्तस्मिन्नेव नव उत्पद्येते नान्ये । तनवजीवितं तस्मान्मृतस्य तस्मिन्नेवोत्पन्नस्य यत्तषुच्यत इति । अत्रापि च नावजीवाधिकारात्तनवजीवितविशिष्टश्च जीव एव ग्राह्यः । जीवितं तु तहिशेषणत्वामुक्तमिति गाथार्थः । जक्तो निक्षेपः । श्दानी प्ररूपणामाह ॥ उविहा य हुँति जीवा, सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि ॥ सुहुमा य सबलोए, दो चेव य बायर विहाणे ॥ २३३ ॥ व्यारव्या ॥ द्विविधाश्च हिप्रकाराश्च चशब्दान्नवविधाश्च पृथिव्यादिहीन्जियादिनेदेन नवन्ति जीवाः। दैविध्यमाह । सूक्ष्मास्तथा बादराश्च । तत्र सूमनामकर्मोंदयात्सूदमा बादरनामकर्मोदयाच्च बादरा इति । लोक इति लोकग्रहणमलोके जीवनवनव्यवच्छेदार्थम् । तत्र सूमाश्च सर्वलोक इति । चशब्दस्यावधारणार्थत्वात्सूदमा एव सर्वलोकेषु न बादराः। क्वचित्तेषामसंजवात् । के एव च पर्याप्तकापर्याप्तकलक्षणे बादर विधाने बादर विधी। चशब्दात्सूक्ष्म विधाने च । तेषामपि पर्याप्तकापर्यातकरूपत्वादिति गाथार्थः । एतदेव स्पष्टयन्नाह ॥ सुहमा य सबलोए, परियावन्ना नवंति नायबा ॥ दो चेव बायराणं, पद्यत्तियरे अ नायबा ॥ २३४ ॥ ॥ परूवणादारं गयं ति ॥ व्याख्या ॥ सूक्ष्मा एव पृथिव्यादयः सर्वलोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके पर्या Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १४ यापन्ना नवन्ति ज्ञातव्याः । पर्यायापन्ना इति तमेव सूक्ष्मपर्यायमापन्नाः । जावसूक्ष्मा नतु नूतनाविनो द्रव्यसूक्ष्मा इति भावः । तथा द्वौ भेदौ बादराणां पृथिव्यादीनां चशब्दात्सूक्ष्माणां च पर्याप्तकेतरौ ज्ञातव्यौ पर्याप्तकापर्याप्तकाविति गाथार्थः । उ-ः क्ता प्ररूपणा अधुना लक्षणमुच्यते । तथा चाह जाष्यकारः ॥ लरका मियाणि दारं, चिंध देऊ कारणं लिंगं ॥ लकण मिइ जीवस्स उ, खायालाई इमं तं च ॥ २३५ ॥ व्याख्या ॥ लक्षणमिदानीं द्वारमवसर प्राप्तम् । अस्य च प्रतिपत्त्यङ्गतया प्राधान्यात्सामान्यतस्तावत्तत्स्वरूपमेवाह । चिह्नं हेतुश्च कारणं लिङ्गं लक्षणमिति । तत्र चिह्नमुपलक्षणं यथा पताका देवकुलस्य । हेतुर्निमित्तलक्षणं यथा कुम्नकारनैपुण्यं घटसौन्दर्यस्य । कारणमुपादानलक्षणं यथा मृन्मसृणत्वं घटबलीयस्त्वस्य । लिङ्ग कार्यलक्षणं यथा धूमोऽग्नेः । पर्यायशब्दा वा एत इति । लक्षणमित्येतल्लक्षणं लक्ष्यतेऽनेन परोक्षं वस्त्विति कृत्वा जीवस्य पुनरादानादि लक्षणमनेकप्रकार मिदम् । तच्च वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ॥ यायाणे परिजोगे जोगुवगे कसायलेसा य ॥ पा इंदिय, बंधोदय निरा चेव ॥ २३६ ॥ चित्तं चेयणसन्ना, विन्नाणं धारणा य बुद्धी ॥ ईहामईवियक्का, जीवस्स उ लकणा एए ॥ २३७ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ एतत्प्रतिद्वारगाथाद्वयमस्य व्याख्या | आदानं परिजोगस्तथा योगोपयोगौ । कषायलेश्याश्च । तथानापानौ इन्द्रियाणि बन्धोदय निर्जराश्चैव । तथा चितं चेतना संज्ञा विज्ञानं धारणा च बुद्धिश्च तथा ईहामतिवितर्का जीवस्य तु लक्षणान्येतानि । तुशब्दस्यावधारणार्थत्वाजीवस्यैवेति प्रतिद्वारगाथाद्वयसमासार्थः । व्यासार्थस्तु जाष्यादवसेयस्तच्चेदम् ॥ लरिकद्यइत्ति नद्य, पच्चरिकयरो व जेण जो वो ॥ तं तस्स लरकणं खलु, धूमुण्हाइ व अग्गिस्स ॥ २३८ ॥ व्याख्या ॥ लक्ष्यत इति ज्ञायते कोऽसावित्याह । प्रत्यक्षोऽदिगोचरापन्न इतरो वा परोक्षः । येनोष्णत्वादिनादिस्तत्तस्य लक्षणं खस्विति । तदेव स्पष्टयति । धूमौष्ण्या दिवदने रिति । स येन प्रत्यको लक्ष्यते । परोक्षो धूमेनेति गाथार्थः । तत्रादानादीनां दृष्टान्तानाह ॥ श्रयगारकूरपरसू, अग्गिसुवन्ने खीरनरवासी ॥ श्राहारो दिहंता, श्रायाणाई जनसंखं ॥ २३७ ॥ व्याख्या ॥ अयस्कारः क्रूरस्तथा परशुरग्निः सुवर्णं क्षीरनरवास्यः । तथा श्राहारो दृष्टान्ता यदानादीनां प्रक्रान्तानां यथासंख्यं प्रतिज्ञाद्युल्लङ्घनेन चैतदनिधानं परोक्षार्थप्रतिपत्तिं प्रति प्रायः प्रधानाङ्गताख्यापनार्थमिति गाथार्थः । सांप्रतं प्रयोगानाह ॥ देहिंदियाइरित्तो, श्राया खलु गनगाहगयगा ॥ संडासा पिंडो, यकारा व विन्ने ॥ २४० ॥ व्याख्या ॥ देहेन्द्रियाति - रिक्त आत्मा । खलुशब्दो विशेषणार्थः । कथं चिन्न सर्वथातिरिक्त एव तदसंवेद · Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. नादिप्रसंगादित्यनेन प्रतिज्ञार्थमाह । प्रतिज्ञा पुनरर्थेन्द्रियाणि श्रादेयादानानि विद्यमानादातृकाणि । कुत इत्याह । ग्राह्यग्राहकप्रयोगात् । ग्राह्या रूपादयः। ग्राहकाणीन्द्रियाणि । तेषां प्रयोगः वफलसाधनव्यापारस्तस्मान्न ह्यमीषां कर्मकरणनावः कर्तारमन्तरेण स्वकार्यसाधनप्रयोगः संनवत्यनेनापि हेत्वर्थमाह । हेतुश्चादेयादानरूपत्वादिति । दृष्टान्तमाह । संदंशादादानात् अयस्पिएकादादेयात् अयस्कारादिवबोहकारवहिशेयः। अतिरिक्तो विद्यमान श्रादातेत्यनेनापि दृष्टान्तार्थमाह । दृष्टान्तस्तु संदंशकाय स्पिएमवत् । यस्तु तदनतिरिक्तः।न ततोग्राह्यग्राहकप्रयोगः। यथा देहादिज्य एवेति व्यतिरेकार्थः । व्यतिरेकस्तु यानि विद्यमानादातृकाणि न जवन्ति तान्यादानादेयरूपाण्यपि न नवन्ति । यथा मृतकप्रव्येन्जियादीनीति गाथार्थः । उक्तमादानहारमधुना परिनोगहारमाह ॥ देहो सनोत्ति खलु, नोवत्ता यणाथालं व ॥ अन्नप्पजत्तिगा खलु, जोगा परसु व करणत्ता ॥ २४१ ॥ व्याख्या ॥ देहः सजोक्तकः । खस्विति प्रतिज्ञा । जोग्यत्वादिति हेतुः । उदनादिस्थालवत् । स्थालस्थितौदनवदिति दृष्टान्तः । नोग्यत्वं च देहस्य जीवेन तथा निवसतोपजुज्यमानत्वादित्युक्तं परिजोगहारम् । अधुना योगहारमाह । श्रन्यप्रयोक्तृकाः खलु योगाः। योगाः साधनानि मनःप्रनृतीनि करणानीति प्रतिज्ञार्थः । करणत्वादितिहेतुः । परशुवदिति दृष्टान्तः। नवति च विशेषे पदीकृते सामान्यं हेतुर्यथा अनित्यो वर्णात्मकःशब्दः शब्दत्वान्मेघशब्दवदिति गाथार्थः। उक्तं योगहारं सांप्रतमुपयोगछारमाह। उवउँगा नाजावो, अग्गि व सलकणापरिचागा ॥ सकसाया णाजावो, पद्ययगमणा सुवन्नं व ॥ ४२ ॥ व्याख्या ॥ उपयोगात्साकारानाकारनेद निन्नान्नाजावो जीव इति गम्यते । कुत इत्याह । खलक्षणापरित्यागाउपयोगलक्षणासाधारणात्मीयलक्षणापरित्यागात् । अग्निवद्ययाग्निरोष्ण्या दिखलदणापरित्यागान्नानावस्तथा जीवोऽपीति गाथार्थः। प्रयोगस्तु सन्नात्मा खलदणापरित्यागादग्निवदिति । उक्तमुपयोगहारमधुना कषायहारमाह । सकषायत्वादचेतनविलक्षणासाधारणात्मीयलदणकोधादिपरिणामोपेतत्वादित्यर्थः । नानावो जीवः । कुत इत्याह । पर्यायगमनाक्रोधमानादिपर्यायप्राप्तेः सुवर्णवत्कटकादिपर्यायगमनोपेतसुवर्णवदिति प्रयोगार्थः। प्रयोगस्तु सन्नात्मा पर्यायगमनात्सुवर्णवदिति गाथार्थः । उक्तं कषायद्यारमिदानी लेश्याहारमाह ॥ खेसाढ णाजावो, सुजपरिणमणसजावर्ड य खीरं व ॥ उस्सासा णाजावो, समसप्लावा खउ व नरो ॥ २४३ ॥ व्याख्या ॥ वेश्यातो वेश्यासनावेन नाजावो जीवः किंतु नाव इति । कुत इत्याह । परिणमनखन्नावत्वात्कृष्णादिव्यसाचिव्येन जम्बूखादकादिदृष्टान्तसिझतथाविधपरिणामधर्मत्वात् वीरवदिति Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १५१ प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु सन्नात्मा परिणामित्वात् क्षीरवदिति गतं लेश्याद्वारम् प्राणापानद्वारमाह । उद्दासादित्यचेतनधर्म विलक्षणप्राणापानसभावान्नाजावो जीवः किंतु जाव एवेति । श्रमसङ्गावेन परिस्पन्दोपेत पुरुषवदिति प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु पुनरत्र व्यतिरेकी द्रष्टव्यः । सात्मकं जीवछरीरं प्राणादिमत्त्वात्तु सात्मकं न जवति तत्प्राणादिमदपि न जवति यथाकाशमिति गाथार्थः । उक्तं प्रापापानद्वारमधुना इन्द्रियद्वारमुच्यते ॥ काणेयाणि परिडिगाणि, वासाइवेह करणत्ता ॥ गहवेयगनिद्यर, कम्मस्सन्नो जहाहारो ॥ २४४ ॥ व्याख्या ॥ - काणीन्द्रियाणि एतानीति लोकप्रसिद्धानि देहाश्रयाणि परार्थानि आत्मप्रयोजनानि वास्यादिवदिह करणत्वाल्लोके वास्यादिवदिति प्रयोगार्थः । श्राह । - दानान्येवेन्द्रियाणि तत् किमर्थं नेदोपन्यासः । उच्यते । निर्वृत्त्युपकरणद्वारेण है विध्यख्यापनार्थम् । ततश्च तत्रोपकरणस्य ग्रहणमिह तु निर्वृत्तेरिति । प्रयोगस्तु परार्था - श्चक्षुरादयः संघातत्वाष्ठयनासनादिवत् । न चायं विशेषविरुद्धः । कर्मसंबद्धस्यात्मनः संघातरूपत्वाभ्युपगमात् । गतमिन्द्रियद्वारमधुना बन्धादिद्वाराण्याह । ग्रहणवेदक निर्जरकः । कर्मणोऽन्यो यथाहार इति । तत्र ग्रहणं कर्मणो बन्धः । वेदनमुदयः । निर्जरा हृयः । यथाहार इत्याहारविषयाणि ग्रहणादीनि न कर्त्रा दिव्यतिरेकेण तथा कर्मणोऽपीति प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु विद्यमानजोक्तृकमिदं कर्मग्रहणवेदन निर्जरणसङ्गावादाहारवदिति गाथार्थः । उक्तानि बन्धादिद्वाराणि । व्याख्याता च प्रथमा प्रतिकारगाथा । सांप्रतं द्वितीयामाधिकृत्य चित्तादिखरूपव्या चिख्यासयाह ॥ चित्तं तिकाल विसयं, चेयणपच्चरकसन्नमणुसरणं ॥ विषाणणेगनेयं, कालमसंखेयरं धरणा ॥ २४५ ॥ व्याख्या ॥ चित्तं त्रिकालविषयम् उघतोऽतीतानागतवर्तमानयाहि । चे - तनं चेतना सा प्रत्यक्षवर्तमानार्थग्राहिणी । संज्ञानं संज्ञा । सा अनुस्मरणमिदं तदिति ज्ञानम् । विविधं ज्ञानं विज्ञानमनेकभेदमनेकप्रकारमनेकधर्मिणि वस्तुनि तथा तथाध्यवसाय इत्यर्थः । कालमसंख्येयेतरमसंख्येयं संख्येयं वा । धारणा अविच्युतस्मृतिवासनारूपा । तत्र वासनारूपासंख्येयवर्षायुषामसंख्येयं संख्येयवर्षायुषां संख्येयमिति गाथार्थः ॥ वस्स कहबुद्धी, ईहा चेहब अवगमो उ मई ॥ संजावतक्का, गुणपचरका घडो ॥ २४६ ॥ व्याख्या ॥ श्रर्थस्योहबुद्धिः संज्ञिनः पर निरपेक्षार्थ परिछेद इति जावः । ईहा चेष्टा किमयं स्थाणुः किंवा पुरुष इति सदर्थपर्यालोचनरूपा । अर्था वगमस्त्वर्थपरिच्छेदस्तु शिरः कामयनादिधर्मोपपत्तेः पुरुष एवायमित्येवंरूपा मतिः । संनावणञ्चतक्कसि । प्राकृतशैल्या अर्थसंभावना । एवमेव चायमर्थ उपपद्यत इत्यादिरूपा I For Private Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तर्का । श्वं द्वाराणि व्याख्याय सर्व एते चेतनादयोगुणा वर्तन्त इति जीवाख्यगुणिप्रातिपादकेन प्रयोगार्थेनोपसंहरन्नाह गुणप्रत्यक्त्वा तोर्घटवदस्ति जीव इति गम्यते । एष गाथार्थः। एतदेव स्पष्टयति ॥ जम्हा चित्ताश्या, जीवस्स गुणा हवंति पच्चरका ॥ गुणपञ्चकत्तणजे, घडु छ जीवो अउँ अलि ॥ २४७ ॥ व्याख्या ॥ यस्माञ्चित्तादयोऽनन्तरोक्ता जीवस्य गुणा जीवस्य शरीरादिगुण विधर्मत्वात् । एते च नवन्ति प्रत्यक्षाः स्वसंवेद्यत्वात् । यतश्चैवं गुणप्रदत्वा तोर्घटवजीवः । अतोऽस्तीति प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु सन्नात्मा, गुणप्रत्यदत्वाद्धटवत् । नायं घटवदात्मनोऽचेतनत्वापादनेन विरुकः 'विरुकोऽसति बाधने' इति वचनात् । एतच्च प्रत्यदेणैव बाधनमिति गाथार्थः। व्याख्यातं मूलछारगाथायेन लक्षणहारमिदानीमस्तित्वछारावसरः । तथा चाह नाष्यकारः ॥ अवित्ति दारमहुणा, जीवस्सश्थबि विद्यए नियमा ॥ लोययमयघायबमुच्चए तबिमो हेऊ ॥ २४ ॥ व्याख्या॥ अस्तीति छारमधुना सांप्रतमवसरप्राप्तम् । तत्रैतडुच्यते । जीवः सन् पृथिव्यादिविकारदेहमात्ररूपः। सन्निति सिफसाध्यता । नतु ततोऽन्योऽस्तीत्याशङ्कापनोदायाह । अस्त्यन्यश्चैतन्यरूपस्तदपि मातृचैतन्योपादानं नविष्यति परलोकयायी तु न विद्यते इति मोहापोहायाह । विद्यते नियमान्नियमेन तथा चाह । लोकायतमतघातार्थं नास्तिकानिप्रायनिराकरणार्थमुच्यत एतत्तस्य चानन्तरोदित एवाभिप्राय इति सफलानि विशेषणानि । तत्र लोकायतमतविघाते कर्तव्ये अयं वद्यमाणलक्षणो हेतुः । अन्यथानुपपत्तिरूपो युक्तिमार्ग इति गाथार्थः ॥ जो चिंतेश् सरीरे, नबि अहं स श्व होश जीवो त्ति ॥ न हु जीवंमि असंते, संसयनप्पायर्ड अन्नो ॥ २४ए ॥ व्याख्या ॥ यश्चिन्तयति शरीरे अत्र लोके प्रतीते नास्त्यहम् । स एव चिन्तयिता जवति जीव इति । कथमेतदेवमित्याह । न यस्माजीवेऽसति मृतदेहादौ संशयोत्पादकोऽन्यः प्राणादिश्चैतन्यरूपत्वात्संशयस्येति गाथार्थः। एतदेव जावयति ॥ जीवस्स एस धम्मो, जा ईहा नहि अछि वा जीवो ॥ खाणुमणुस्साणुगया, जह ईहा देवदत्तस्स ॥ २० ॥ व्याख्या ॥ जीवस्यैष स्वनावः एष धर्मः। या ईहा सदर्थपर्यालोचनात्मिका । किंविशिष्टेत्याह । अस्ति नास्ति जीव इति । लोकप्रसिकं निदर्शनमाह । स्थाणुमनुष्यानुगता किमयं स्थाणुः किं वा पुरुष इत्येवंरूपा यथेहा देवदत्तस्य जीवतो धर्म इति गाथार्थः । प्रकारान्तरेणैतदेवाह ॥ सिहं जीवस्स अवित्तं, सदादेवाणुमीयए ॥ नास नुवि नावस्स, सद्दो हवश् केवलो ॥ २५१॥ व्याख्या ॥ सिकं प्रतिष्ठितं जीवस्योपयोगलक्षणस्या स्तित्वम् । कुत इत्याह । शब्दादेव जीव इत्यस्मादनुमीयते । कथमेतदेवमित्याह । नासत इति । नासतोऽविद्यमानस्य नुवि पृथिव्यां नावस्य पदा Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १५३ र्थस्य शब्दो जवति वाचक इति । खरविषाणादिशब्दैर्व्य निचारमाशङ्क्याह । केवलः शुद्धोऽन्यपदासंसृष्टः । खरादिपदसंसृष्टाश्च विषाणादिशब्दा इति गाथार्थः । एतद्विवरणायैवाह जाष्यकारः ॥ वित्ति निविगप्पो, जीवो नियमाज सद्दर्ज सिद्धी ॥ कम्दा सुरूपयत्ता, घडखरसिंगाणुमाणा ॥ २५२॥ व्याख्या ॥ श्रस्तीति निर्विकल्पो जीवः । निर्विकल्प इति निःसंदिग्धः । नियमान्नियमेनैव प्रतिपत्रपेक्षया शब्दतः सिद्धिः वाचकाद्वाच्यप्रतीतेः । एतदेव प्रश्नद्वारेणाह । कस्मात् कुत एतदेव मित्याह । शुद्धपदत्वात् केवलपदत्वाजीवशब्दस्य घटखरशृङ्गानुमानादनुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः । घटखरशृङ्गदृष्टान्तादिति प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु मुख्येनार्थेनार्थवान् जीवशब्दः शुद्धपदत्वाद्धटशब्दवत् । यस्तु मुख्येनार्थेनार्थवान् न जवति स शुद्धपदमपि न जवति । यथा खरशृङ्गशब्द इति गाथार्थः । परानिप्रायमाशङ्क्य परिहरन्नाह ॥ चोयगसुद्धपयत्ता, सिद्धी जर एव सुससिद्धि अहं पि ॥ तं न जवइ संतेणं, जं सुन्नं सुन्नगेहं व ॥ २५३ ॥ व्याख्या ॥ उक्तवबुद्धपदत्वात्सिद्धिर्यदि जीवस्य एवं तर्हि शून्य सिद्धिरस्माकमपि । शून्यनष्टशब्दस्यापि शुद्धपदत्वादित्यभिप्रायः । यत्रोत्तरमाह । तन्न जवति यमुक्तं परेण । कुत इत्याह । सता विद्यमानेन पदार्थेन यद्यस्मात्रून्यं शून्यमुच्यते । किंवदित्याह । शून्यहमिव । तथाहि । देवदत्तेन रहितं शून्यगृहमुच्यते । निवृत्तो घटो नष्ट इति । नत्वनयोर्जीवशब्दस्य जीववदवशिष्टं वाच्यमस्तीति गाथार्थः । प्रकारान्तरेणा स्तित्वपक्षमेव समर्थयन्नाह ॥ मिठा जवेन सङ्घवा, जे केई पारलोइया ॥ कत्ता चेवोपनोत्ता य, जइ जीवो न विद्यइ ॥ २५४ ॥ व्याख्या ॥ मिथ्या नवेयुरनृताः स्युः सर्वथा ये केचन पारलौकिका दानादयः । यदि किमित्याह । कर्ता चैव कर्मण उपजोक्ता च तत्फलस्य यदि जीवो न विद्यते । परलोकयायीति गाथार्थः । एतदेवाव्युत्पन्न शिष्यानुग्रहार्थं स्पष्टतरमाह ॥ पाणिदयातव नियमा, बंजं दिका य इंदिय निरोहो ॥ सवं निरवमेयं, जइ जीवो न विद्यई ॥ २५५ ॥ व्याख्या ॥ प्राणिदयातपोनियमाः करुणोपवासहिंसा विरत्यादयः । तथा ब्रह्म ब्रह्मचर्यं दीक्षा च योगलकणा इन्द्रियनिरोधः प्रव्रज्याप्रतिपत्तिरूपः । सर्वं निरर्थकं निष्फलमेतत् । यदि जीवो न परलोकयायीति गाथार्थः । किंच शिष्टाचरितो मार्गः शिष्टैरनुगन्तव्य इति । तन्मार्गख्यापनायाह ॥ लोइया वेश्या चेव, तहा सामाइया विऊ ॥ निच्चो जीवो पिहो देहो, सवे ववaिया ॥ २५६ ॥ व्याख्या | लोके जवा लोके वा विदिता इति लौकिका इतिहासादिकर्तारः । एवं वैदिकाश्चैव त्रैविद्यवृद्धाः तथा सामायिकात्रिपिटकादिसमवृत्तयो विद्वांसः परिणताः । नित्यो जीवो नानित्यः । एवं पृथग् देहावरीरादित्येवं सर्वे व्यवस्थिता नान्यथेति गाथार्थः । एतदेव व्याचष्टे ॥ लोगे - २० For Private Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "" १५४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. वेद्यनेद्यो, वे सपुरीसदद्धग सियालो ॥ समए घहमासि गर्छ, तिविहो दिवा संसारो ॥ २५८ ॥ व्याख्या ॥ लोकेऽद्योऽद्य श्रात्मा पठ्यते । यथोक्तं गीतासु ॥ " - योऽयमनेोऽयमविकार्योऽयमुच्यते ॥ नित्यः संततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ इत्यादि । तथा वेदे सपुरीषो दग्धः शृगालः पठ्यत इति । यथोक्तम् । " शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते । श्रथापुरीषो दद्यते श्रादोधुका यस्य प्रजाः प्राडुवन्ति । ” इत्यादि । तथा समये " श्रहमासीऊजः " इति पठ्यते । तथा च बुद्धवचनम् ॥ “ हमासं जिवो हस्ती, षड्दन्तः शङ्खसंनिनः ॥ शुकः पञ्जरवासी च शकुन्तो जीवजीवकः ॥ " इत्यादि । तथा त्रिविधो दिव्यादिसंसारः कैश्चिदिष्यते । देवमानुषतिर्यग्ज्ञेदेन | यादिशब्दाच्चतुर्विधः कैश्चिन्नारकाधिक्येनेति गाथार्थः । अत्रैव प्रकारान्तरेण तदस्तित्वमाह ॥ श्र सरीर विहाया, पइनिययागारयाइनावार्ड ॥ कुंजस्स जह कुलालो, सो मुत्तो कम्मजोगाउं ॥ २५८ ॥ व्याख्या ॥ स्ति शरीरस्यौदा रिकादेर्विधाता । विधातेति कर्ता । कुत इत्याह । प्रतिनियताकारादिसङ्गावात् । श्रादिमत्प्रतिनियताकारत्वादित्यर्थः । दृष्टान्तमाह । कुम्नस्य यथा कुलालो विधाता । कुलालवदेवमसावपि मूर्तः प्राप्नोतीत्याशङ्क्य परिहरन्नाह । श्रसावात्मा यः शरीर विधाता सौ मूर्तः । कर्मयोगादिति मूर्तकर्म संबन्धादिति गाथार्थः । अत्रैव शिष्यव्युत्पत्तयेऽन्यथा तद्ग्रहण विधिमाह ॥ फरिसे जदा वाऊ, गिनाई काय संसि ॥ नाणाईहिं तहा जीवो, गिनाई कायसंसि ॥ २५९ ॥ व्यारव्या ॥ स्पर्शेन शीतादिना यथा वायुर्गृह्यते कायसंसृतो देहसंगतः । तथा ज्ञानादिनिर्ज्ञानदर्शनेष्ठादि निर्जीवो गृह्यते कायसंसृतो देहसंगत इति गाथार्थः । असकृदनुमानाद स्तित्वमुक्तं जीवस्य । अनुमानं च प्रत्यक्षपूर्वकं न चैनं केचन पश्यन्तीति ततश्चाशोजनमेतदित्याशङ्क्याह ॥ श्रणिं दिगुणं जीवं, पुन्नेयं मंसचकुणा ॥ सिद्धा पासंति सबन्नू, नाणसिद्धाय साहुणो ॥ २६० ॥ व्याख्या ॥ अनिन्द्रियगुणम विद्यमानरूपादी न्द्रियग्रा. ह्यगुणं जीवममूर्तत्वादिधर्मकं दुर्ज्ञेयं दुर्लक्षं मांसचक्षुषा ब्रद्मस्थेन पश्यन्ति सिकाः सर्वज्ञाः । अञ्जन सिद्धादिव्यवच्छेदार्थं सर्वज्ञग्रहणम् । ततश्च रुषजादय इत्यर्थः । ज्ञानसिद्धाश्च साधवो जवस्थकेवलिन इति गाथार्थः । सांप्रतमागमाद स्तित्वमाह ॥ त्वयां तु स, दिघा य तो इंदियाणं पि ॥ सिद्धी गहणाई, तहेव जीवस्स विन्नेया ॥ २६१ ॥ व्याख्या ॥ श्राप्तवचनं तु शास्त्रम् । श्राप्तो रागादिरहितः । तुशब्दोऽवधारणे । श्राप्तवचनमेव । अनेनापौरुषेयव्यवच्छेदमाह । तस्यासंभवादिति । दृष्टा च तत इत्युपलब्धा च तत श्राप्तवचनशास्त्रात् । अतीन्द्रियाणामपि इन्द्रियगोचरातिक्रान्तानामपि । सिद्धिग्रहणादीनामिति उपलब्धिश्चन्द्रोपरागादीना मित्यर्थः । • Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १५५ तथैव जीवस्य विज्ञेयेति । श्रतीन्द्रियस्याप्याप्तवचनप्रामाण्यादिति गाथार्थः । मूलद्वारगाथायां व्याख्यातमस्तित्वद्वारमधुनान्यत्वा दित्रयव्या चिख्यासुराह ॥ त्तमः मुत्तत्तं, निच्चत्तं चेव नन्नए समयं ॥ कारण विभागाई, देऊहिं इमाहिं गाहाहिं ॥ ॥ २६२ ॥ व्याख्या ॥ अन्यत्वं देहादमूर्तत्वं स्वरूपेण । नित्यत्वं चैव परिणामिनित्यत्वं जण्यते । समकमेकैकेन हेतुना त्रितयमपि युगपदिति एककाल मित्यर्थः । कारणाविनागादिनिर्वक्ष्यमाणलक्षणैर्हेतु निरिमा निस्तिस्ट निर्नियुक्तिगाथा निरेवेति गाथार्थः ॥ कारण विभागकारण विणासबंधस्स पच्चयाजावा ॥ विरुद्धस्स य बस्स, पाउनावा विपासा य ॥ २६३ ॥ व्याख्या ॥ कारण विजागकारण विनाशबन्धस्य प्रत्ययाजावाद - त्यत्राावशब्दः प्रत्येकम निसंबध्यते । कारण विजागाजावान्न खलु जीवस्य पटादेरिव तन्त्वादिकारण विजागोऽस्ति कारणाभावादेव । एवं कारण विनाशानावेऽपि योज्यम् । तथा बन्धस्य ज्ञानावरणादिपुजलयोगलक्षणस्य प्रत्ययानावाद्धेतुत्वानुपपत्तेः । बन्धस्येति बध्यमानव्यतिरिक्तबन्धज्ञापनार्थमसमासः । व्यतिरेकी चायमन्वयव्यतिरेकावर्थसाधकाविति दर्शनार्थमिति । तथा विरुद्धस्य चार्थस्य पटादिनाशे जस्मादिरिव प्रादुर्भा वादविनाशाच्च । श्रप्रादुर्भावेऽनुत्पत्तौ सत्यामविनाशाच्च हेतोर्जीवस्य नित्यत्वं नित्यत्वादमूर्तत्वममूर्तत्वाच्च देहादन्यत्वमिति प्रतिपत्त्यानुगुण्यतो व्यत्ययेन साध्यनिर्देशः । वक्ष्यति च निर्युक्तिकारः ॥ " जीवस्स सिद्धमेवं, निच्चत्तममुत्तमन्नत्तं " ॥ इति गाथा - समासार्थः । व्यासार्थस्तु जाष्यादवसेयः । तत्राव्युत्पन्न विनेयासंमोह निमित्तं यथोपन्यासं तावद्वाराणि व्याख्याय पश्चान्निर्युक्तिकारा निप्रायेण मीलयिष्यतीत्यत श्राह ॥ अन्नत्ति दारमहुणा, अन्नो देहा गिदाउ पुरिसो व ॥ तजीव तस्सरीरय-मयघायलं इमं जयिं ॥ २६४ ॥ व्याख्या ॥ अन्यो देहादिति द्वारमधुना । तदेतद्वयाख्यायते । यो देहात् । जीव इति गम्यते । गृहादिगतपुरुषवदिति दृष्टान्तः । तद्भावेऽपि तत्र नियमतोऽनावादिति हेतुरन्यूहः । न चासिद्धोऽयं मृतदेहेऽदर्शनात् । प्रयोगफलमाह । तजीवतच्छरीरवादिमत विघातार्थमिदं प्रयोगरूपं जणितमिति गाथार्थः । प्रयोगान्तरमाह ॥ देहिं दियाइरित्तो, खाया खलु तडुवलवाणं ॥ तद्विगमे विसरण, हगवरकेहिं पुरिसोव ॥ २६५ ॥ व्याख्या ॥ खलुशब्दो विशेषणार्थत्वात्कथं चिदेहेन्द्रियातिरिक्त आत्मेति प्रतिज्ञार्थः । तडुपलब्धार्थानामिति संभवतः परामर्शत्वात् । इन्द्रियोपलब्धार्थानां तद्विगमेऽपीन्द्रियविगमेऽपि स्मरणादिति हेत्वर्थः । स्मरन्ति चान्धबधिरादयः पूर्वानुभूतं रूपादीति । गेहगवादैः पुरुषवदिति दृष्टान्तः । प्रयोगस्तु कथं चिदेहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा तद्विगमेऽपि तडुपलब्धार्थानुस्मरणात् पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुस्मर्तृदेवदत्तवदिति गाथार्थः । इन्द्रियोपलब्धि Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १५६ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. मत्त्वाशङ्कापोहायाह ॥ न उ इंदियाई जवल द्धिमंति विगएसु विसयसंजरणा ॥ जह गेहगवरकेहिं, जो अणुसरिया स उवला ॥ २६६ ॥ व्याख्या ॥ न पुनरिन्द्रियायेवोपलब्धिमन्ति प्रष्टणि । कुत इत्याह । विगतेष्विन्द्रियेषु विषयसंस्मरणात् तनदी तरूपाद्यनुस्मृतेरन्धवधिरादीनामिति । निदर्शनमाह । यथा गेहगवादैः करणभूतैः दृष्टानर्थाननुस्मरन् योऽनुस्मर्ता स उपलब्धा नतु गवाक्षा एवमत्रापीति गाथार्थः । उक्तमेकेन प्रकारेणान्यत्वद्वारमधुना अमूर्तद्वारावसर इत्याह जाष्यकारः ॥ संपयममुत्तदारं, अईदियत्ता बेययत्ता ॥ रुवाइ विरह वा अणाइपरिणामनावार्ड ॥ २६७ ॥ व्याख्या ॥ सांप्रतममूर्तद्वारम् । तद्व्याख्यायते । अमूर्तो जीवः छातीन्द्रियत्वात् द्रव्येन्द्रियाग्राह्यत्वात् । अवेद्यानेयत्वात् खड्गशूलादिना । रूपादिविरहितश्च रूपत्वादित्यर्थः । तथानादिपरिणामनावादिति स्वनावतोऽनाद्यमूर्तयरिणामत्वादिति गाथार्थः ॥ बमबाणवलंजा, तदेव सवन्नुवया चैव ॥ लोयाइपसिद्धी, जीवो मुत्तोत्ति नायवो ॥ २६८ ॥ व्याख्या || बद्मस्थानुपलम्नादवधिज्ञानिप्रभृतिनिरपि साक्षादगृह्यमाणत्वात्तथैव सर्वज्ञवचनाच्चैव सत्यवक्तृवीतरागवचनादित्यर्थः । लोकादिप्रसिद्धेलोंकादावमूर्तत्वेन प्रसिद्धत्वात् । श्रादिशब्दाद्वेदसमयपरिग्रहः । मूर्ती जीव इति ज्ञातव्यः । सर्वत्रैवेयं प्रतिज्ञेति गाथार्थः । उक्तममूर्तद्वारमधुना नित्यत्वद्वार प्रस्तावः । तथाचाद जाष्यकारः । णिच्चोति दारमहुणा, णिच्चो प्रविणा सि सास जीवो ॥ जावत्ते सइ जम्मा-जावान नहं व विन्ने ॥ २६ ॥ व्याख्या ॥ नित्य इति । नित्यद्वारमधुनावसर प्राप्तं तझ्या चिख्यासयाह । नित्यो जीव इति । एतावत्युच्यमाने परैरपि संतानस्य नित्यत्वान्युपगमात्सिद्धसाध्यतेति । तन्निराकरणायाह । अविनाशी क्षणापेक्षयापि न निरन्वयनाशधर्मा । एवमपि परिमितकालावस्थायी कैश्चिदिष्यते । कप्पा पुढवी जिकू वेति वचनात्तदपोहायाह । शाश्वत इति । सर्वकालावस्थायी । कुत वस्तुत्वे सतीत्यर्थः । जन्माभावात् । अनुत्पत्तेर्नजोवदाकाशवद्विज्ञेयः । जावत्वे सतीति विशेषणं खरविषाणादिव्यवच्छेदार्थमिति गाथार्थः । हेत्वन्तराष्याह || संसारा आलो-याउ तह पञ्चन्निजावा ॥ खणजंग विघायचं, जणि तेलोक्कसीहि ॥२७०॥ व्याख्या ॥ संसारादिति । संसरणं संसारस्तस्मात्स एव नारकः स एव तिर्यगादिरिति नित्यः । श्रालोचनादिति । आलोचनं करोम्यहं कृतवानहं करिष्येऽहमित्यादिरूपं त्रिकालविषयमिति नित्यः । तथा प्रत्यनिज्ञानावात् स एष इति प्रत्यनिशा प्रत्यय विदङ्गनादिसिद्धः । तदभेदग्राहीति नित्य इति । उक्ता निधानफलजङ्गविघातार्थं निरन्वयक्षणिकवस्तुवाद विघातार्थं गणितं त्रैलोक्यदर्शि निस्ती ह | माह Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १८७ करैरेतदनन्तरोदितं न पुनरेष एव परमार्थ इति गाथार्थः । एतदेव दर्शयति । लोगे वे समये, निच्चो जीवो विनास म्हं ॥ इहरा संसाराई, सबं पि न जुवए तस्स ॥२७१ ॥व्याख्या ॥ लोके नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणीत्यादिवचनप्रामाण्याद्वेदेषु स एष प्रयोऽज इत्यादिश्रुतिप्रामाण्यात्समये न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुष इति वचनप्रामाण्यात् । किमित्याह । नित्यो जीवः श्रप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वजावः । एकान्त नित्य एव न चैतन्याय्यमेकस्वनावतया संसरणादिव्यवहारोच्छेदप्रसंगादिति वक्ष्यत्यत श्राह । विभाषयास्माकं विकल्पेन नजनया स्यान्नित्य इत्यादिरूपया द्रव्यार्थादेशान्नित्यः पर्यायार्यादेशादनित्य इत्यर्थः । इतरथा यद्येवं नाभ्युपगम्यते । ततः संसारादि संसारालोचनादि सर्वमेव न युज्यते । तस्यात्मनः स्वभावान्तरानापत्त्या एकखजावतया वार्तमानिकनावातिरेकेण जवान्तरानापत्तेरेवममूर्तत्वान्यत्वयोरपि विजाषा वेदितव्या । अन्यथा व्यवहाराजावप्रसंगात् । एकान्ता मूर्तस्यैकान्तदेह जिन्नस्य वातिपाता - संवादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते अक्षरगम निकामात्रत्वात्प्रारम्नस्येति गाथार्थः । एवमन्यत्वादिद्वारत्रयं व्याख्यायाधिकृत निर्युक्तिगाथां व्या चिख्यासुराह । कारण विभागार्ड, कारण विणास य जीवस्स ॥ निच्चत्तं विन्नेयं, आगासपडाणुमा पार्ट ॥ २७२ ॥ व्याख्या ॥ कारणा विभागात्पटादेस्तन्त्वादेरिव कारण विजागाजावादित्यर्थः । कारणाविनाशतश्च । कारणाविनाशश्च कारणानामेवाजावात् । किमित्याह । जीवस्यात्मनो नित्यत्वं विज्ञेयम् । कुत इत्याह । श्राकाशष्टानुमानात् । अत्रानुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः। श्राकाशपटदृष्टान्तात् । ततश्चैवं प्रयोगः । नित्य श्रात्मा खकारण विजागाजावादाकाशवत् । तथा कारणविनाशानावादाकाशवदेव । यस्त्वनित्यस्तस्य कारण विजाग जावः । कारणविनाशजावो वा यथा पटस्येति व्यतिरेकः । पटाद्धि तन्तवो विजज्यन्ते विनश्यन्ति चेति नित्यत्वसिद्धिः । नित्यत्वादमूर्तः । अमूर्तत्वादेहादन्य इति गाथार्थः ॥ निर्युक्तिगाथायां कारण विभागाभावात्कारण विनाशानावाच्चेति द्वारद्वयं व्याख्याय सांप्रतं बन्धस्य प्रत्ययाजावादिति व्या चिख्यासुराह ॥ हेडप्पनवो बंधो, जम्माणंतरहयस्स नो जुत्तो | तोगविरह खलु, चोराइघडाणुमाणा ॥ २७३ ॥ व्याख्या ॥ हेतुप्रजवो हेतुजमा बन्धो ज्ञानावरणादिपुलयोगलक्षणः जन्मानन्तरमृतस्योत्पत्त्यनन्तर विनष्टस्य न युक्तो न घटमानः । तद्योग विरहत इति तैर्बन्ध हेतु निर्मिथ्यादर्शना विरतिप्रमादकपाययोगलक्षणैर्यो योगः संबन्धस्त द्विरदतस्तदजावादेव खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । चौरा दिघटानुमानादित्यनुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः । चौरादिघटादिदृष्टान्तात् । नहि उत्पत्त्यनन्तर विनाशी चौरश्चौर्य क्रियानावे बध्यते । स्थायी हि घटो जला - दिना संयुज्यते इति व्यतिरेकार्थः । प्रयोगश्चात्र न क्षणिक आत्मा बन्धप्रत्ययत्वाच्चौ For Private Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद नाग तेतालीस-(५३)-मा. रवत् । नित्यत्वामूर्तत्वदेहान्यत्वयोजना पूर्ववदिति गाथार्थः। नियुक्तिगाथायां बन्धस्य प्रत्ययाजावादिति व्याख्यातमधुना विरुझस्य चार्थस्याप्राउ वा विनाशाच्चेति व्याख्यायते ॥ अविणासी खलु जीवो, विगारणुवलं जहागासं ॥ उवलपंति विगारा, कुंजाशविणासिदवाणं ॥ १४ ॥ व्याख्या ॥ अविनाशी खलु जीवो नित्य इत्यर्थः। कुत इत्याह । विकारानुपलम्नाद्घटादिविनाशे कपालादिवहिशेषादर्शनाद्यथाकाशमाकाशवदित्यर्थः । एतदेव स्पष्टयति । उपमन्यन्ते विकारा दृश्यन्ते कपालादयः कुंनादिविनाशिजव्याणां न चैवमत्रेत्यनिप्रायः । नित्यत्वामूर्तत्वदेहान्यत्वयोजना पूर्ववत् । इति गाथार्थः । नियुक्तिगाथायां बन्धस्य प्रत्ययाजावादिति गाथार्थः । प्रकृतसंबझामेव नियुक्तिगाथामाह॥ निरामयामयनावा, बालकयाणुसरणा वाणा ॥ सुत्ता हिं अगहणा, जाईसरणा थणनिलासा ॥ २५ ॥ व्याख्या ॥ निरामयामयनावात् निरामयस्य नीरोगस्यामयनावालोगोत्पत्तेः। उपलक्षणं चैतत्सामयनिरामयजावस्य । तथा चैवं वक्तार उपलच्यन्ते । पूर्व निरामयोऽहमासं संप्रति सामयो जातः। सामयो वा निरामय इति । न चैतन्निरन्वयलक्षणविनाशिन्यात्मन्युपपद्यते । उत्पत्त्यनन्तरानावादिति प्रयोगार्थः। प्रयोगस्त्ववस्थित श्रात्मा अनेकावस्थानुजवनाहालकुमाराद्यवस्थानुनवितृदेवदत्तवत् । नित्यत्वादमूर्तः । श्रमूर्तत्वादेहादन्य इति योजना सर्वत्र कार्या। तथा बालकृतानुस्मरणात् । कृतशब्दोत्रानुनूतवचनस्ततश्च बालानुन्नूतस्मरणात् । तथा च बालेनानुनूतं वृकोऽप्यनुस्मरन् दृश्यते । नच अन्येनानुनूतमन्यः स्मरत्यतिप्रसंगात् । नचेदमनुस्मरणं ज्रान्तं बाधासिकेः । न च हेतुफलनाव निबन्धनमेतन्निरन्वयक्षणविनाशपदे तस्यैवासिझेः हेतोरनन्तरक्षणेऽनावापत्तेः। असतश्च सन्नाव विरोधादितिप्रयोगार्थः।प्रयोगस्त्वव स्थित श्रात्मा पूर्वानुजूतार्थानुस्मरणात्तदन्यैवंनूतपुरुषवत् । उपस्थानादिति कर्मफलोपस्थानमत्र गृह्यते । यद्येनोपात्तं कर्म स एव तत्फलमुपनुते । अन्यश्च क्रियाकालोऽन्यश्च फलकालः । एकाधिकरणं चैतड्वयमन्यथा स्वकृतवेदनासिकः। अन्यकृतान्योपजोगस्य निरुपपत्तिकत्वात् कृतनाशाकृताज्यागमप्रसंगात् । संतानपदेऽपि कर्तृजोक्तृसंतानिनो नात्वा विशेषाक्तिनेदात्तस्यैव तथाजावान्युपगमे नित्यत्वापत्तेरिति प्रयोगार्थः । प्रयोगश्चावस्थित आत्मा स्वकृत. कर्मफलवेदनात्कृषीवलादिवत् । श्रोत्रादिनिरग्रहणात् श्रोत्रादिनिरिन्द्रियैरपरिचित्तेः। नच श्रोत्रादिनिरपरि विद्यमानस्य असत्त्वमवग्रहादीनां खसंवेदनसिकत्वात् । बौबैरप्यतीन्जियज्ञानान्युपगमात् । ज्ञानस्य च गुणत्वात् । गुणस्य च गुणिनमन्तरेणानावात् । प्राक्तनझानस्यैव गुणित्वानुपपत्तेः । तस्यापि गुणत्वादिति प्रयोगार्थः । प्रयोगश्च नित्य श्रात्मा गुणित्वे सत्यतीन्जियत्वात् आकाशवत् । तथा जातिस्मरणा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। २५ए दिति । जातेरतिक्रान्तायाः स्मरणात् । न चेदमनुस्मरणमननुजूतस्यान्यानुनूतस्य च जवत्यतिप्रसंगात् । दृश्यते च क्वचिदिदं न चासौ प्रतारकः तत्कथितार्थसंवादनात् ।। अनुनवाविशेषे च सर्वेषामेव कस्मान्न जवतीति चेडुच्यते । कर्मप्रतिबन्धसंबन्धाद् दृढानुनवानावादिह लोकेऽपि सर्वेषां सर्वत्रानुस्मरणादर्शनान्न खलु श्ह लोके सर्वत्रानुस्मरणदर्शनम् । तहदिहापिक्वचिजातौ सर्वेषामस्त्विति चेन्न । नष्टचेतसां सर्वत्रानुस्मरणशून्येन व्यनिचारादिति प्रयोगार्थः । प्रयोगश्च बालकृतानुस्मरणवद्रूष्टव्य इति । तथा स्तनानिलाषादिति । तदहर्जातवालकस्यापि स्तनानिलाषदर्शनात् । नचान्यकालाननुनूतस्तनपानस्यायमुपपद्यते । प्रयोगश्च । तहर्जातबालकस्याद्यस्तनानिलाषोऽनिलाषान्तरपूर्वकोऽनिलाषत्वादन्यस्तनानिलाषवत् । तदप्रथमत्वसाधनाद विरुको हेतुरिति चेन्न प्रथमत्वानुजवेन बाधनात् । असति च बाधने विरुष्ठ इति न्यायादन्यथा हेतूछेदप्रसंगादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते श्रदरगमनिकामात्रस्य प्रस्तुतत्त्वादिति। नित्यादि क्रियायोजना पूर्ववदिति नियुक्तिगाथार्थः । एतामेव नियुक्तिगाथां लेशतो व्याचिख्यासुराह नाष्यकारः॥ रोगस्सामयसन्ना, बालकयं जं जुवाणुसंजर॥ जं कयमन्नंमि नवे, तस्सेवन्ननुवबाणा ॥२७६ ॥ व्याख्या ॥ रोगस्यामय इतिसंज्ञबालकृतं किमपि वस्तु यद्यस्माद्युवानुस्मरति । तथा यत्कृतमन्यस्मिन् नवे कुशला। कुशलं कर्म तस्यैव कर्मणोऽन्यत्र जवान्तरे उपस्थानात्सर्वत्र नावार्थयोजना कृतैवेति गाथार्थः ॥ णिच्चो अणिं दियत्ता, खणि नवि होश संजरणा ॥ थणअनिलासा य तहा, श्रम नउ मिम्मउवघडो ॥ २७ ॥ व्याख्या ॥ नित्य इति । सर्वत्र क्रियानिसंबध्यते । अनिन्जियत्वाडोत्रादिनिरग्रहणादित्यर्थः। विज्ञेयो ज्ञातव्यः। तथा च जातिस्मरणात् पागन्तरं वा । दणिको न नवति । जातिस्मरणादित्येतदप्यपुष्टमेव विधिप्रतिषेधान्यां साध्यार्थानिधानात् । स्तनानिलाषाच्च। तथा अमयोऽयमात्मा नतु मृन्मय श्व घटस्ततश्चाकारण इत्यर्थः। एतदपि नित्यत्वादिप्रसाधकमिति नियुक्तिगाथायामनुपन्यस्तमप्युक्तम् सूक्ष्म धिया नाष्यकारेणेति गाथार्थः। तृतीयां नियुक्तिगाथामाह सवन्नुवदिछत्ता, सकम्मफलजोयणा श्रमुत्तत्ता ॥ जीवस्स सिझमेवं, निच्चत्तममुत्तमन्नत्तं ॥२॥ व्याख्या ॥ सर्वज्ञोपदिष्टत्वादिति नित्यो जीव इति सर्वज्ञोक्तत्वात् । अवितथं च सर्वज्ञवचनं तस्य रागादिरहितत्वादिति ।खकर्मफलनोजनादिति खोपात्तकर्मफलजोगादित्यर्थः। उपस्थापनादेतन्न जिद्यत इति चेन्न अभिप्रायापरिज्ञानात् । तत्र हि येन कृतं तस्मिन्नेव कर्तरि कर्मोपतिष्ठत इत्युक्तम् । तच्चैकस्मिन्नपि जन्मनि संजवतीदं त्वन्यजन्मान्तरापेक्ष्यापि गृह्यत इति न दोषः। तथा अमूर्तत्वादिति मूर्तिरहितत्वादेतदपि श्रोत्रादिजिरग्रहणादित्यस्मान्न जिद्यत इति चेन्न । तत्र हि श्रोत्रादिनिर्न गृह्य Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ते । इत्येतऽक्तमिह तु तत्स्वरूपमेव नियम्यते निरूप्यत इति । मूर्ताणूनामपि श्रोत्रादिजिरग्रहणादिति हारत्रयमप्युपसंहरन्नाह ॥ जीवस्य सिछमेवं नित्यत्वममूर्तत्वमन्यत्वमिति गाथार्थः। मूलधारगाथाठये व्याख्यातमन्यत्वादिछारत्रयमिदानी कर्तृछारावसरस्तथाचाह ॥ कत्तत्ति दारमहुणा, सकम्मफलनोश्णो जर्ज जीवा ॥ वाणियकिसीवला श्व, कविलमयनिसेहणं एयं ॥ शशए ॥ व्याख्या ॥ कर्तेति छारमधुना तदेतघ्याख्यायते । खकर्मफलनोगिनो यतो जीवास्ततः कर्तार इति । वणिकृषीवलादय श्व नह्यमी अकृतमुपजुञ्जते । इति प्रयोगार्थः। प्रयोगस्तु कर्तात्मा स्वकर्मफलनोक्तृत्वात्कर्षकादिवत् । ऐदंपर्यमाह । कपिलमतनिषेधनमेतत्सांख्यमतनिराकरणमेतत्तत्राकर्तृवादप्रसिझेरिति गाथार्थः। मूलधारगाथाछये व्याख्यातं कर्तृछारमिदानी देहव्यापित्वछारावसर इत्याह नाष्यकारः॥वावित्ति दारमहणा, देहवावी मग्गिजण्हं व ॥ जीवो नज सवगर्ज, देहे लिंगोवलंनाउँ ॥ २७ ॥ व्याख्या ॥ व्यापीति छारमधुना तदेतठ्याख्यायते । देहव्यापी शरीरमात्रं व्याप्तुं शीलमस्येति तथा मत श्ष्टः प्रवचनः जीवो नतु सर्वग इति योगः । तुशब्दस्यावधारणार्थत्वान्न चाएवादिमात्रः । कुत इत्याह । देहे लिङ्गोपलम्नात् शरीर एव सुखादितसिङ्गोपलब्धेः । अग्यौष्ण्यवत् । उष्णत्वं ह्यग्निलिङ्गं नान्यत्राग्नेर्नत्वनग्नाविति गाथाप्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु शरीरनियतदेश श्रात्मा परमितदेशे लिङ्गोपलब्धेरग्न्यौष्ण्यवत् । इति गाथार्थः । व्याख्याता प्रथमा मूलछारगाथा । सांप्रतं हितीया व्याख्यायते । तत्र प्रथमं गुणीति छारं तठ्या चिख्यासयाह नाष्यकारः ॥ अहुणा गुणित्ति दारं, हो गुणे हिं गुणित्ति विन्ने ॥ ते नोगजोगउवढ-गमाश्रूवा व घडस्स ॥२१॥ व्याख्या ॥ अधुना गुणीति छारं तदेतष्ठ्याख्यायते । नवति गुणैर्हि गुणी । न तव्यतिरेकेणेत्येवं विज्ञेयः। अनेन गुणगुणिनोर्नेदानेदमाह । ते जोगयोगोपयोगादयो गुणा इत्यादिशब्दादमूर्तत्वादिपरिग्रहः। निदर्शनमाह । रूपादय श्व घटस्य गुणा इति गाथार्थः । व्याख्यातं मूलधारगाथायां गुणिहारमधुनोर्ध्वगतिहारावसर इत्याह नाष्यकारः ॥ उ8 गत्ति अहुणा, अगुरुलहुत्ता सनावनढग॥ दिटुंतलाजएणं,एरंडफलाइएहिं व ॥शाव्याख्या। जईगतिरित्यधुना छारं तदेतठ्याख्यायते । श्रगुरुलघुत्वात्कारणात्खन्नावतः कर्मविप्रमुक्तः सन्नूर्ध्वगति व इति गम्यते । यद्येवं तर्हि कथमधो गबत्यत्राह । दृष्टान्तोऽलाम्बुना तुम्बकेन यथा तत्वजावत ऊर्ध्वगमनरूपमपि मृद्धेपाजालेऽधो गति । तदपगमादूर्ध्वमा जलान्तादेवमात्मापि कर्मलेपादधो गति। तदपगमादूर्ध्वमालोकान्तादिति। एरएकफलादिनिश्च दृष्टान्त इत्यनेन दृष्टान्तबाहुल्यं दर्शयति । यथा चैरएमफलमपि बन्धनपरिज्रष्टमूर गलत्यादिशब्दादयादिपरिग्रह शति गाथार्थः । व्याख्यातं तृ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १६१ तीयमूलछारगाथायामूर्ध्वगतिछारं सांप्रतं निर्मयकारव्याचिख्यासयाह ॥ अम य हो जीवो, कारण विरहा जहेव आगासं ॥ समयं च होअनिच्चं, मिम्मयघडतंतुमाश्यं ॥ २३ ॥ व्याख्या ॥ अमयश्च नवति जीवः । न किम्मयोऽपीत्यर्थः । । कुत इत्याह । कारण विरहात् अकारणत्वात् । यथैवाकाशमाकाशवदित्यर्थः । समयं वस्तु नवत्य नित्यम् । एतदेव दर्शयति । मृन्मयघटतन्त्वादौ । यथा मृन्मयो घटस्तन्तुमयः पट इत्यादि । न पुनरात्मा नित्य इति दर्शितम् । श्राहास्मिन्छारे सत्यमयो नतु मृन्मय श्व घट इति प्राकिमर्थमुक्तमित्युच्यते । अत एव छारादनुग्रहार्थमुक्तमिति लक्ष्यते । नवति चासकृतवणादकृद्रेण परिझानमित्यनुग्रहः ।अतिगम्नीरत्वान्नाष्यकारस्य न वयमनिप्राय विद्म इति । अन्ये त्वजिदधत्यन्यकर्तृकैवासौ गाथेति गाथार्थः । व्याख्यातं द्वितीयमूलछारगाथायां निर्मयहारमधुना साफल्यधारावसरस्तथा चाह नाष्यकारः ॥ साफसदारमहुणा, निचानिच्चपरिणामिजीवम्मि ॥ होश तयं कम्माणं, श्हरेगसनाव जुत्तं ॥ २४ ॥ व्याख्या ॥ साफल्यहारमधुना तदेतघ्याख्यायते । नित्यानित्य एव परिणामिनि जीव इति योगः । नवति तत्साफल्यं कालान्तरफलप्रदानलक्षणम् । केषामित्याह कर्मणां कुशलाकुशलानां कालन्नेदेन कर्तृनोक्तृपरिणामन्नेदे सत्यात्मनस्तकुनयोपपत्तेः कर्मणां कालान्तरफलप्रदानमिति । श्तरथा पुनर्ययेवं नान्युपगम्यते तत एकखचावतः कारणादयुक्तं तत्कर्मणां साफल्यमिति । एतमुक्तं नवति । यदि नित्य आत्मा कर्तृवन्नाव एव कुतोऽस्य लोगः, नोक्तृस्वजावे वा कर्तृत्वं दणिकस्य तु कालच्यानावादेवैतमुत्नयमनुपपन्नम् । उन्नये च सति कालान्तरफलप्रदानेन कर्म सफलमिति गाथार्थः। द्वितीयमूलछारगाथायां व्याख्यातं साफल्यहारमधुना परिमाणछारमाह॥जीवस्स उ परिमाणं, विबर जाव लोगमेत्तं तु ॥ उगाहणा य सुहुमा, तस्स पएसा असंखेद्या ॥ २५ ॥ व्याख्या ॥ जीवस्य तु परिमाणं विततस्य विस्तरतो विस्तरेण यावझोकमात्रमेव । एतच्च केवलिसमुदातचतुर्थसमये नवति । तत्रावगाहना च सूदमा विततैकैकप्रदेशरूपा नवति । तस्य जीवस्य प्रदेशाश्चासंख्येयाः सर्व एव लोकाकाशप्रदेशतुल्या इति गाथार्थः । अनेकेषां जीवानां गणनापरिमाणमाह ॥ पत्रेण व कुलएण व, जह को मिणेद्य सबधन्ना ॥ एवं मविद्यमाणा, हवंति लोगा अणंता ॥२६ ॥ व्याख्या ॥ प्रस्थेन वा चतुःकुडवमानेन कुडवेन वा चतुःसेतिकामानेन । यथा कश्चित्प्रमाता मिनुयात्सर्वधान्यानि ब्रीह्यादीनि । एवं मीयमाना असन्नावस्थापनया नवन्ति लोका अनन्तास्तु जीवजुता इति नावः । आह, यद्येवं कथमेकस्मिन्नेव ते लोके माता इति । उच्यते, सूदमावगाहनया यत्रैकस्तत्रानन्ता व्यवस्थिता श्ह तु प्रत्येकावगाहनया चिन्त्य Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ते। इति न दोषः। दृष्टं च बादरजव्याणामपि प्रदीपप्रजापरमाएवादीनां तथा परिणामतो नूयसामेकत्रैवावस्थानमिति गाथार्थः । व्याख्यातं द्वितीयमूलघारगाथायां 'परिमाणछारं तव्याख्यानाच्च द्वितीया मूलधारगाथा जीवपदं चेति । सांप्रतं निकायपदं व्याचिख्यासुराह ॥णाम. ठवणसरीरे, गई शिकायबिकाय दविए य ॥ माउगपधवसंगह-नारे तह नावकाए य॥२॥व्याख्या॥नामस्थापने कुले।शरीरकायःशरीरमेव तत्प्रायोग्याणुसंघातात्मकत्वात्। गतिकायो यो जवान्तरगतौ । स च तैजसकामणलदणः। निकायकायः षड्जीवनिकायः । अस्तिकायो धर्मास्तिकायादिः । अव्यकायश्च व्या दिघटादिसमुदायः। मातृकाकायख्यादीनि मातृकादराणि । पर्यायकायो छेधा जीवाजीवनेदेन । जीवपर्यायकायो झानादिसमुदायः । अजीवपर्यायकायो रूपादिसमुदायः । संग्रहकायः संग्रहैकशब्दवाच्य स्त्रिकटुकादिवत् । नारकायः कापोतीवृद्धासु व्याचदयते ॥ एको कार्ड छहा जाउँ, एगो चिह एगो मारि ॥ जीवंतो मएण मारिज, तलव माणव केण हेजणा॥२॥व्याख्या। उदाहरणम्। एगो काहरो तलाए दो घडा पाणियस्त नरेऊण कावोडीए वहछ । सो एगो बाउकायकायो दोसु घडेसु उहा कउँ । त सो काहरो गधंतो परकलि। एगो घडो जग्गो। तम्मि जो आउका सो मर्छ। श्यरम्मिजीवश् । तस्स अनावे सो वि जग्गो। ताहे सो तेण पुवमएण मारिजे ति नमः। अहवा एगो घडो आजक्कायनरिङ ताहे तमाजकार्य उहा काऊण अको ताविले सो मन । अतावि जीवाताहे सो वि तव परिकत्तो तेण मएण जीवंतो मारित्ति । एस जारका गर्छ । नावकायश्चौदायिकादिसमुदायः । श्ह च निकायः काय श्त्यनर्थान्तरमिति कृत्वा काय निदेप श्त्यपृष्ट एवेति गाथार्थः॥श्चंपुण अहिगारो निकायकाएण हो सुन्तं मि ॥ जच्चरिश्रसरिसाण-कित्तणं सेसगाणं पि ॥शताव्याख्या॥अत्र पुनः सूत्र इतिप्रयोगः सूत्र इत्यधिकृताध्ययने। कि मित्याह । अधिकारो निकायकायेन जवति । अधिकारः प्रयोजनं, शेषाणामुपन्यासवैयर्थ्यमाशंक्याह। जच्चरितार्थसदृशानां उच्चरितो निकायः तदर्थतुल्यानां कीर्तनं संशब्दनं शेषाणामपि नामादिकायानां व्युत्पत्तिहेतुत्वात्प्रदेशान्तरोपयोगित्वाचेति गाथार्थः । व्याख्यातं निकायपदम् । उक्तो नाम निष्पन्नो निक्षेपः सांप्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसरः । इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम्। सुयं मे इत्यादि। श्रूयते तदिति श्रुतम् प्रतिविशिष्टार्थप्रतिपादनफलं वाग्योगमात्रं जगवता निस्सृष्टमात्मीयश्रवणकोटरप्रविष्टं दायोपशमिकन्नावपरिणामावि वकारणं श्रुतमित्युच्यते । श्रुतमवधृतमवगृहीतमिति पर्यायाः। मयेत्यात्मपरामर्शः। आयुरस्यास्तीत्यायुष्मान् । कः कमेवमाह । सुधर्मा जम्बुस्वामिनमिति । तेनेति जुवननर्तुः परा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २६३ मर्शः। नगःसमग्रैश्वर्यादिलक्षण इति। उक्तं च॥ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसःधियः॥धर्मस्याथ प्रयत्नस्य षमां नगश्तीङ्गना ॥ सोऽस्यास्तीति नगवांस्तेन जगवता वर्धमानवामिनेत्यर्थः। एवमिति प्रकारवचनःशब्दः।याख्यातमिति केवलज्ञानेनोपलज्यावेदितम् । किमत थाह । इह खल्लु षड्जीव निकायनामाध्ययनमस्तीति वाक्यशेषः। श्रुति लोके प्रवचने वा। खलु शब्दादन्यतीर्थकृत्प्रवचनेषु च षड्जीव निकायेति पूर्ववत् । नामत्यनिधानम् । अध्ययन मिति पूर्ववदेव । इह च श्रुतं च मयेत्यनेनात्मपरामर्शेनैकान्तहणजङ्गापोहमाह । तत्रेठंजूतार्थानुपपत्तेरित्युक्तं च ॥ एगंतखणियपके, गहणं चिअसबहाण अबाणं॥अणुसरणसासणारं,कुज ते लोगसिकाई॥ तथा श्रायुष्मन्निति च प्रधानगुण निष्पन्नेनामत्रणवचसा गुणवते शिष्यायागमरहस्यं देयं नागुणवत इत्याह तदनुकम्पाप्रवृत्तेरिति । उक्तं च॥आमे घडे निहत्तं , जहा जलं तं घडं विणासेश॥ श्श्र सिकंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासे॥ आयुश्च प्रधानो गुणः। सति तस्मिन्नव्यवलि. त्तिनावात्तथा तेन जगवता एवमाख्यातमित्यनेन खमनीषिकानिरासाछास्त्रपारतन्त्र्यप्रदर्शनेन नासर्वशेन अनात्मवता अन्यतस्तथानूतात्सम्यगनिश्चित्य परलोकदेशना कार्येत्येतदाह । विपर्ययसंजवाफुक्तं च ॥ कि एत्तो पावयरं, संमं अण हिगयधम्मसप्रावो ॥ अम कुदेसणाए, कयरागंमि पाडे ॥ अथवान्यथा व्याख्यायते सूत्रैकदेशः। श्राजसंतेणं ति नगवत एव विशेषणम् । आयुष्मता जगवता चिरजीविनेत्यर्थः। मङ्गलवचनं चैतदथवा जीवता सादादेव अनेन च गणधरपरंपरागमस्य जीवनवियुक्तानादिशुक्रवक्तुश्चापोहमाह । देहाद्यनावेन तथाविधप्रयत्नानावात् । उक्तं च ॥ वयणं न कायजोगा-नावेण य सो अणादिसुझस्स ॥ गहणं मि य णो हेऊ, सर्व अत्तागमो कहणु ॥ अथवा आवसंतेणं ति । गुरुकुलमावसता अनेन च शिष्येण गुरुचरणसेविना सदा जाव्यमित्येतदाह । झानादिवृझिसनावादिति । एतमुक्तं च । णाणस्स होइ नागी, थिरयरयो दसणे चरित्ते य ॥ धन्ना श्रावकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥ अथवा आमुसंतेणं आमृशता जगवत्पादारविन्दयुगलमुत्तमाङ्गेन । अनेन च विनयप्रतिपत्तेगरीयस्त्वमाह । विनयस्य मोदमूलत्वात् । उक्तं च ॥ मूलं संसारस्स , होति कसाया अणंतपत्तस्स ॥ विण हाणपजत्तो, कुरकविमुकस्स मोरकस्स ॥ कृतं प्रसंगेन प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र श्ह खलु षड्जीवनिकायिका नामाध्ययनमस्तीत्युक्तम् । अत्राह । एषा षड्जीवनिकायिका केन प्रवेदिता प्ररूपिता वेत्यत्रोच्यते । तेनैव जगवता यत आह । समणेणं नगवया महावीरेणं कासवेणं पवेश्या सुअरकाया सुपन्नत्तेत्ति । सा च तेन श्रमणेन महातपखिना जगवता समयैश्वर्यादियुक्तेन महावीरेण । शूर वीर विक्रान्ताविति मायादिशत्रुजयान्महाविक्रान्तो Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ राय धनपतसिंह बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. महावीरः । उक्तं च ॥ विदारयति यत्कर्म तपसा च विराजते ॥ तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद्वीर इति स्मृतः । महांश्चासौ वीरश्च महावीरः तेन महावीरेण । काश्यपेने ति काश्यप गोत्रेण प्रवेदिता नान्यतः कुतश्चिदाकर्ण्य ज्ञाता । किंतर्हि । स्वयमेव केवलालोकेन प्रकर्षेण वेदिता प्रवेदिता विज्ञातेत्यर्थः । तथा स्वाख्यातेति सदेव - मनुष्यासुरायां पर्षदि सुष्टु श्राख्याता वाख्याता । तथा सुप्रज्ञप्तेति । सुष्टु प्रज्ञप्ता यथैवाख्याता तथैव सुष्ठु सूक्ष्मपरिहारासेवनेन प्रकर्षेण सम्यगासेवितेत्यर्थः । अनेकार्थत्वाद्धातूनां इपिरासेवनार्थः । तां चैवंभूतां षड्जीवनिकायिकां श्रेयो मेऽध्येतुं श्रेयः पथ्यं हितम् । ममेत्यात्म निर्देशः । बान्दसत्वात्सामान्येन ममेत्यात्म निर्देश इत्यन्ये । ततश्च श्रेय श्रात्मनोऽध्येतुम् । अध्येतुमिति पठितुं श्रोतुं जावयितुम् । कुत इत्याह । श्रध्ययनं धर्मप्रकृतिः । निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां प्रायो दर्शनमिति वचनात् हेतौ प्रथमा । अध्ययनत्वादध्यात्मानयनाच्चेतसो विशुद्ध्यापादनादित्यर्थः । एतदेव कुत इत्याह । धप्रकृतेः प्रज्ञपनं प्रज्ञप्तिः धर्मस्य प्रज्ञप्तिः धर्मप्रज्ञप्तिः । ततो धर्मप्रज्ञप्तेः कारणाचेतसो विशुद्धयापादनाच्च श्रेय श्रात्मनोऽध्येतुमिति । अन्ये तु व्याचते । अध्यनं धर्मप्रज्ञप्तिरिति । पूर्वोपन्यस्ताध्ययनस्यैवोपपादेयतयानुवादमात्रमेतदिति ॥ करा खलु सा जीवणिया नामप्रयणं समणेणं नयवया महावीरेणं कासवेणं पवेश्या सुप्रकाया सुपन्नत्ता सेयं मे यदिचिनं धम्मपन्नत्ती ॥ इमा खलु सा जीवणिया नामझयणं समणं जगवया महावीरेां कासवेणं पवेश्या सुप्रकाया सुपन्नत्ता ॥ सेयं मे यदिशि अप्रयणं धम्मपन्नत्ती ॥ ( अवचूरि: ) शिष्यः पृष्ठति । कतरा खलु इत्यादि सूत्रम् उक्तार्थमेवानेनैतदर्शयति । विहाया जिमानं संविग्नेन शिष्येण सर्वकार्येष्वेव गुरुः प्रष्टव्य इति श्राचार्य यह । श्मा वित्यादि सूत्रमुक्तार्थमेवानेनाप्येतद्दर्शयति गुणवते शिष्याय गुरुणाप्युपदेशो दातव्य एवेति । (अर्थ) हवे पूर्वोक्त अर्थ सांजलीने शिष्य पूढे वे केः - करत्ति । हे गुरो ! महावीर स्वामीए कहेली षड्जीव निकायिका ते केवी ? ( यहीं 'समणेणं' एथी आरंजीने " धम्मपन्नत्ती ” ए सुधीनो सूत्रनो जाग जे बे, तेनो अर्थ उपर लख्यो बे, माटे फरी लखता नथी. ) गुरु उत्तर कहे बे: - श्मा खलु ति । (इमा के० ) एषा एटले या वदय माण प्रकारनी (सा के० ) ते (बी व शियाणामनयां के० ) षड्जीवनिका नामक अ 1 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । ध्ययन नगवान् श्रीवर्धमानखामीए कडं बे. (एमां ‘समणेणं' इत्यादिकनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो.) इति । __ (दीपिका.) ततः शिष्यः प्राह । उक्तार्थमेव।अनेन एतदर्शयति मानं त्यक्त्वा संवेगिना शिष्येण सर्वकार्येष्वेवं गुरुः प्रष्टव्यः । अथ शिष्येण प्रश्ने कृते गुरुराह। श्मेति । एतत् सूत्रमपि उक्तार्थमेव अनेनापि एतदर्शयति । गुणवते शिष्याय गुरुणापि जपदेशो दातव्य एव। (टीका) शिष्यः पृछति । कतरा खस्वित्यादि । सूत्रमुक्तार्थमेवानेनैतदर्शयति । विहायाजिमानं संविग्नेन शिष्येण सर्वकार्येष्वेव गुरुः प्रष्टव्य इति । आचार्य आह । श्मा खस्वित्या दिसूत्रमुक्तार्थमेवानेनाप्येतदर्शयति । गुणवते शिष्याय गुरुणाप्युपदेशो दातव्य एवेति । तं जहा।पुढविकाश्या आनकाश्या तेनकाश्या वाचकाश्या वणस्सश्काश्या तसकाश्या । पुढवि चित्तमंतमकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नबसवपरिणएणं।आज चित्तमंतमकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नव सबपरिणएणं । वान चित्तमंतमकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नब सबपरिणएणं। वणस्सा चित्तमं तमकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नब सपरिणएणं ॥ __ (अवचूरिः) तं जहा। तद्यथा । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । पृथिवी काविन्यादिरूपा सैव कायोऽङ्गं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः। आपो जवाः प्रतीता एव। तेज नष्णलक्षणं वायुश्चलनधर्मा वनस्पतिर्लतादिरूपः कायो येषां ते । त्रसनशीलास्त्रसाः काया अङ्गानि येषां ते । इह सर्वनूताधारत्वात् आदौ पृथ्वी, तत्प्रतिष्ठितत्वादापः,तत्प्रतिपदत्वात्तेजः,तपष्टम्नकत्वाहायुः, वायोः शाखादिप्रचालनादिगम्यत्वाइनस्पतिः। वनस्पतेस्त्रसोपग्रहत्वात्रसाः । चित्तं जीवलक्षणं तदस्यास्तीति चित्तवती सजीवेत्यर्थः।पागन्तरं वा पुढवीचित्तमत्तमरकाया।अत्र मात्रशब्दः स्तोकवाची।यथा सर्षपत्रिनागमात्रमिति । ततश्चित्तमात्रा स्तोकचित्तेत्यर्थः। श्राख्याता सर्वज्ञेन कथिता । श्यं च, अनेके जीवा यस्यां सा अनेकजीवा न पुनरेकजीवा । यथा वैदिकानां पृथ्वी देवतेत्येवमादिवचनप्रामाण्यात् इति । अनेकजीवापि कैश्चिदेकजूतामापेक्षतयेष्यत एव । यथाहुरेके ॥ एक एव हि जूतात्मा जूते जूते व्यवस्थितः॥ एकधा Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ पृथगजीवनावात् पृथकसत्ता । अङ्गलासंख्येयजागेऽप्यनेकजीवसमाश्रितेत्यर्थः । आह, यद्येवं जीवपिएमरूपा पृथ्वी ततस्तस्यामुच्चारादिकरणेन नियमतस्तदतिपातादहिंसकत्वानुपपत्तेरित्यसंनवी साधुधर्मः । इत्यत्राह । अन्यत्र शस्त्रपरिणतायाः, शस्त्रपरिणतां पृथ्वीं विहायान्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थः । शस्त्रं धावनवल्गनोत्खननादि। एतानि स्वपरव्यापादकत्वात् कर्मवन्ध निमित्तत्वात् शस्त्रमिति ॥ तच्च किंचित्खकायशस्त्रं यथा कृष्णा मुन्नीलादिमृदः शस्त्रम् । एवं गन्धरसस्पशन्नेदेऽपि शस्त्रयोजना कार्या। तथा किंचित्परकायेति परकायशस्त्रम् । यथा पृथ्वी अतेजःप्रनृतयो वा पृथिव्यास्तनयं किंचिदिति किंचिकुनयशस्त्रं नवति यथा कृमा मृउदकस्य पांमुमृदश्च । परस्परं रसगन्धादिनिः यथा कृसमृदा कलुषितमुदकं नवति तदासौ कृष्णमृदकस्य पांमुमृदश्च शस्त्रं नवति । एष तावदागमः । अनुमानमप्यत्र विद्यते । सात्मका विद्युमलवणोपलादयः पृथ्वी विकाराः समानजातीयांकुरोत्पत्त्युपलम्नात् । देवदत्तमांसांकुरवत् । एवमागमोपपत्तियां स्थितं पृथ्वीकायिकानां जीवत्वम् । उक्तं च ॥ आगमश्चोपपत्तिश्र, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् ॥अतीन्डियाणामर्थानां, सनावप्रतिपादने ॥ श्रागमो ह्याप्तवचनम् । एवं सात्मकं जलं नूमिखातस्वानाविकसनवादऽरवत् । सात्मकोऽग्निराहारेण वृद्धिदर्शनाबालकवत् । सात्मकः पवनः अपराप्रेरिततिर्यग्गतिनियमितदिग्गमनानोवत् । सचेतनास्तरवः सर्वत्वगपहरणे मरणार्दनवत । एवं च परिणतायां पृथिव्यामुच्चारादिकरणेऽपि नास्ति तदतिपात इत्यहिंसकत्वोपपत्तेः संजवी साधुधर्मः । एवमापश्चित्तवत्य आख्याताः। तेजश्चित्तवदाख्यातम्। वायुश्चित्तवानाख्यातः। वनस्पतिश्चित्तवानाख्यातः इत्येतदपि अष्टव्यम् ॥ (अर्थ.) हवे, गुणवान् शिष्यने गुरुए पण अवश्य उपदेश करवो, एम सूचवता थका सूत्रकार कहे . तंजहत्ति (तंजहा के०) तयथा एटले ते जेम डे, तेम कहियें बियें. प्रथम षड्जीवनिकायनां नाम कहे . पुढ विकाश्य ति । ( पुढविकाश्या के ) पृथ्वीकायिकाः एटले कछिनस्पर्शलक्षण पृथ्वी काय ते शरीर जेमनुं एवा जीव, (आउकाश्या के०) अप्कायिकाः एटले शीतस्पर्श तथा स्रवणादि ले लदण जेनुं एवं उदक ते डे काय ते शरीर जेमनुं एवा जीव; (तेउकाश्या के०) तेजस्कायिकाः 'एटले ऊष्णस्पर्शलक्षण तेज बे काय ते शरीर जेमनुं एवा जीव, (वाउकाश्या के०) वायुकायिकाः एटले चलनात्मक वायुडे काय ते शरीर जेमनुं एवा जीव; (वणस्सश्काश्या के०) वनस्पतिकायिकाः एटले लतादिलक्षण वनस्पति जे काय ते शरीर जेमनुं एवा जीव, अने (तसकाश्या के०) त्रसकायिकाः एटले त्रसनशील जे काय ते शरीर Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । जेमनुं एवा जीव ए षडनिकायना जीव जाणवा. अहीं प्रथम पृथ्वीकाय, वीजा अप्काय, त्रीजा तेउकाय इत्यादि जे क्रम राख्यो बे, तेनुं कारण एम डे केः--सर्वप्राणिमात्रनो आधार पृथ्वी बे, माटे प्रथम पृथ्वीकायना जीव कह्या. ते पृथ्वीने आधारें उदक रहे बे, माटे आधाराधेयत्नावसंबंधथी - पृथ्वीकाय पनी बीजा अप्कायना जीव कह्या. ते उदकनुं प्रतिपदीनूत तेज बे माटे प्रतियोगिनावसंबंधथी अप्काय पड़ी त्रीजा तेजस्काय कह्या. ते तेजनो उपष्टंजक (जीववानुं साधन) वायु डे, माटे उपष्टंनकतालक्षण संबंधथी तेजस्काय कह्या, पड़ी चोथा वायुकाय जीव कह्या. ते वायुनुं ज्ञान, वृद तथा लताना चलनवलनादिकथी थाय बे, ते माटे वायुकाय पली पांचमा वनस्पतिकाय जीव कह्या. ते वनस्पतिकायने उपडव करनार त्रसकाय बे,माटे वनस्पतिकाय पठी हा त्रसकाय जीव कह्या. हवे उपर जे षड्जीवनिकाय कह्या, तेमां कांइ पण संशय अथवा विरोध नहीं श्राववो जोश्ये, माटे फरी तेज अर्थनुं स्पष्टीकरण करे . पुढ वित्ति ( पुढवी के०) पृथ्वी जे जे ते (चित्तमंतमकाया के०) चित्तवती आख्याता, जेने चित्त एटले जीवलक्षण चैतन्य तेने चित्तवती कहिये, अर्थात् सचित्त एवी तीर्थकरादिकें याख्याता एटले कहेली . वली ते पृथ्वी केवी ने तो के (अणेगजीवा के०) अनेकजीवा एटले अनेक बे जीव जेमां एवी . अर्थात् ए पृथ्वीकायमां अनेक जीवो ने, अर्थात् एक नथी. बली ते केवी ने तो के, (पुढोसत्ता के) पृथक्सत्वा, एटले अंगुलना असंख्यातमा नाग प्रमाण अवगाहनामां रहेला अनेक जीवो पृथक पृथक् जेमां के एवी पृथ्वी जे. एबुं सांजलतांज शिष्य साशंक थश्ने पूबे डे केः-हे गुरो! जो जीवपिंडरूप पृथ्वी बे, तो ते पृथ्वीउपर साधु जो मलोत्सर्गादि क्रिया करे, तो अवश्य पृथ्वीकायनो अतिपात थायज, अने मलोत्सर्गादि किया तो पृथ्वीउपर कस्यावगर बीजो कोश् उपायज नश्री. अने एम ज्यारें थाय त्यारे साधुथी अहिंसकपणे रहेवायज नहीं,अने प्राणातिपातविरमणरूप जे साधुनो प्रधान धर्म के तेनो वंध्यापुत्रनी परें असंभव प्राप्त थयो ? ए शंकाना उत्तरमा सूत्रकार कहे . अन्नबत्ति । (अन्नब सबपरिणएणं के०) अन्यत्र शस्त्रपरिणतायाः एटले शस्त्रेकरी परिणाम पामेलीजे पृथ्वी ते विनानी बीजी पृथ्वी बे, ते सचित्त बे, ते सचित्त पृथ्वीनो अतिपात करवो नहीं. अर्थात् शस्त्रपरिणत जे पृथ्वी ले ते अचित्त होवाथी तेनेविषे मूत्रोत्सर्गादि करवामां हिंसादोष नथी, वीजी पृथ्वीउपर करवाथी हिंसादोष , तेमाटे साधुनुं अहिंसकपणुं जे डे ते जतुं नथी. हवे शस्त्र शब्दनो अर्थ कहियें बिये. जे जेनो नाश करे ,ते तेनुं शस्त्र जाणवू. जेम लौकिकमां शरीरनुं शस्त्र खङ्गादिक प्रसिक . अहीं पृथ्वीना शस्त्रनो Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)-- मा. विचार करवानो बे, ते एवी रीतें:- पृथ्वीनं शस्त्र जे बे, ते त्रण प्रकारें बे, एक स्वकायशस्त्र, बीजुं परकायशस्त्राने त्रीजुं स्वपरकायशस्त्र, तेमां कृष्णमृत्तिका ( काली माटी ) जे बे, ते स्वकायरूप श्वेतादिक मृत्तिकानुं शस्त्र बे, माटे तेने स्वकायशस्त्र कहियें, बीजुं शस्त्र ते जेम पृथ्वी जे बे ते जल, तेज यादिक परकायनुं शस्त्र बे, माटे ते परकायशस्त्ररूप जाणवी. त्रीजुं स्वपरकायशस्त्र ते जेम कृष्णमृत्तिका जे बे ते श्वेतादि मृत्तिकासहित उदकने कृष्णवर्ण करे बे; माटे कृष्णमृत्तिका जे बे, ते श्वेतादिमृत्तिकासहित उदकनी स्वपरशस्त्ररूप थई. एवा शस्त्रंकरी परिणाम पामेली जे पृथ्वी बे, ते चित्त बे, एम जाणवुं वली या सूत्रनो 'पुढ विचित्तमत्तमकाया' एवो पाठ पण केलेक ठेकाणें बे. तो ते पढ़ें एवो अर्थ करवो के पृथ्वी चित्तमात्रा याख्याता. एटले पृथ्वी जे बे ते सचित्तमां चित्तमात्रा अर्थात् जघन्य सचित्त बे, ते एकेंप्रियजीवरूप जाणवी. ही मात्रशब्द बे ते स्तोकवाची जाणवो. एवीरीतें श्रागमना प्रमाणथी पृथ्वी जे बे, ते एकेंद्रियजीवसमुदायरूप बे, एम कयुं. ए अर्थ अनुमा नयी पण सिद्ध थाय बे. ते वीरीतें के: - विडुमलवणोपलादिकं सचित्तं समानजा जातीयांकुरोत्पत्त्युपलंजात् देवदत्तमांसांकुरवत् ॥ अर्थ:-परवाला, लवण, पर इत्यादिक पृथ्वीना विकार जे बे ते सचित्त बे, कारण तेना अंकुर एक पढी एक सरखी जातना उपजे बे, जेम देवदत्तना मांसथी थयेलो पुत्ररूप मांसांकुर बे. एमयागम ने अनुमान पृथ्वी सचित्त बे, एम सिद्ध ययुं. ( आर्ट के० ) आपः एटले उदक ते (चित्तमंतमरकाया के० ) चित्तवत्य आख्याताः एटले सचित्त बे, एम तीर्थंकरादिकें कह्युं बे. वली ते उदक अनेकजीव बे, घने पृथक्सत्व बे. (हीं अनेकजीव पृथक्सत्त्व एबे पदनो अर्थ पृथ्वी कायमां लखेलो बे ते प्रमाणे जाणवो.) परंतु (अन्न परिuri ho) अन्यत्र शस्त्रपरिणतान्यः एटले शस्त्रपरिणत उदक जे बे ते विना बीजुं सर्व उदक सचित्त जावं. (हीं पण शस्त्रनो अर्थ उपर जे रीतें कहेलो बे, ते प्रमार्णेज जावो. तेमज आागल पण सर्वत्र अर्थ जाणवो.) तथा ( तेन के० ) तेजः एटले तेज जे बे ते पण ( चित्तमंत के० ) सचित्त, अनेकजीव छाने पृथक्सत्व ह्युं छे. पण ( अन्न सपरिणं के० ) अन्यत्रशस्त्रपरिणतेन्यः एटले शस्त्रपरि त तेज बोडीने बीजुं सर्व तेज सचित्त बे तथा ( वाऊ के० ) वायुः एटले वायु ( चित्तमंत० के० ) सचित्त, अनेकजीव ने पृथक्सत्व एवो कह्यो बे. पण (अन्न परिणं के० ) अन्यत्र शस्त्रपरिणतात् एटले शस्त्रपरिणत वायु जे बे ते बोडीने शेष सर्व वायु जे ते सचित्त बे तथा ( वणस्सई के०) वनस्पतिकाय जे बे ते पण (चि तमंत के० ) सचित्त, अनेकजीव ने पृथक्सत्व को बे; पण (अन्नवसपरिणए Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १६‍ ho) अन्यत्र शस्त्रपरिणतात् एटले शस्त्रपरिणत वनस्पति वजींने शेष सर्व वनस्पति जेबे, ते सचित्त बे. (दीपिका) श्रथ षड्जीव निकायमाह । तद्यथेति उदाहरणे । पृथिवी काठिन्यलक्षणा प्रतीता । सैव कायः शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एव पृथिवी कायिकाः (१) । श्रापो द्रवाः प्रतीता एव । ता एव कायः शरीरं येषां तेऽप्रकायाः । काया एव कायिकाः ( 2 ) । तेज उष्णस्पर्शलक्षणं प्रतीतम् । तदेव कायः शरीरं येषां ते तेजःकायाः तेजःकाया एव तेजःकायिकाः (३) । वायुश्चलनधर्मा प्रतीत एव । स एव कायः शरीरं येषां ते वायुकायाः वायुकाया एव वायुकायिकाः (४) । वनस्पतिर्लतादिरूपः प्रतीतः । स एव कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायास्त एव वनस्पतिकायिकाः ( २ ) । एवं त्रसनशीलाः साः प्रतीता एव । त एव कायाः शरीराणि येषां ते त्रसकायाः सकाया एव सकायिका: ( ६ ) । इह च सर्वभूताधारत्वात् पृथिव्याः प्रथमं पृथिaat किनामनिधानम् । विप्रतिपत्तिनिरासार्थं पुनराह । पुढवी चित्तमंतमरकाया । पृथिवी चित्तं च जीवलक्षणं तदस्या अस्तीति चित्तवती सजीवा इत्यर्थः । पाठान्तरं वा पुढवीचित्तमत्तमरकाया । श्रत्र मात्रशब्दः स्तोकवाची । यथासर्षप त्रिनागमात्रम् । पृथिवी चित्तमात्रा स्तोकचित्ता इत्यर्थः । तथाच प्रबलमोहोदयात्सर्वजघन्यं चैतन्यमे - केन्द्रियाणां तदधिकं द्वीन्द्रियादीनामिति । आख्याताः सर्वज्ञेन कथिताः । किंवि - शिष्टाः । पृथिवी अनेकजीवा, छानेके जीवा यस्यां सा अनेकजीवा न पुनरेकजी - वा । यथा वैदिकानां पृथ्वी देवता इत्येवमादिवचनप्रामाण्यादिति । तथा अनेकजीवापि कैश्चित् एकभूतात्मापेक्षया मन्यते । यदाहुरेके ॥ एक एव हि भूतात्मा नूते भूते व्यवस्थितः ॥ एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १ ॥ अत एवाह । किंभूता पृथिवी । पुढोसत्ता | पृथक् सत्त्वाः प्राणिनो यस्यां सा पृथक्सत्वा । अङ्गुलस्य असंख्येयजागमात्रावगाहनैरनकैः पार्थिवजीवैः समाश्रितेतिभावः । या । यद्येवं जीव पिएरूपा पृथिवी तदा तस्यामुञ्च्चारादिकरणेन नियमतस्तन्मरणात् श्रहिंसाया अनुत्पत्तिः स्यात् । तथा च सति साधुधर्मस्य असंभवः स्यात् । अतोऽत्राह । - न्यत्र शस्त्रपरिणतायाः शस्त्रपरिणतां पृथिवीं विहाय अन्या पृथिवी चित्तवती आख्याता इत्यर्थः । पृथिव्याः शस्त्रं त्रिधा । स्वकाय शस्त्रं ( २ ) परकायशस्त्रं ( 2 ) तडुजय शस्त्रं च (३) । तत्र स्वकीयशस्त्रं यथा कृष्णमृद् नीलादिमृदः शस्त्रम् । एवं गन्धरसस्पर्शसंनेदेऽपि शस्त्रयोजना कार्या (१) । परकायशस्त्रं यथा तेजःप्रभृतीनां पृथिवी अथवा पृथिव्या अतेजःप्रभृतयः (२) । तडुजयं यथा कृष्णमृद् उदकस्य पांडुमृदश्च परस्परस्पर्शगन्धादिनिः । २२ For Private Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. यदा कृष्णमृदा कलुषितमुदकं जवति । तदा एषा कृष्णमृद् उदकस्य पाएमुमृदश्च शस्त्रं जवति । एवं च परिणतायां पृथिव्यामुञ्चारादिकरणेऽपि नास्ति तन्मरणं ततोऽहंसाधर्मः साधूनां संजवत्येव । एवमापश्चित्तवत्य श्राख्याताः । तेजश्चित्तवदाख्यातम् । वायुश्चित्तवानाख्यातः । वनस्पतिश्चित्तवानाख्यात इत्याद्यपि द्रष्टव्यम् ॥ ४ ॥ ( टीका ) तं जहा । पुढविकाश्या इत्यादि । अत्र तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । पृथिवी काठिन्या दिलणा प्रतीता सैव कायः शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एव पृथिवी कायिकाः । स्वार्थिकष्टक् । आपो वाः प्रतीता एव ता एव कायः शरीरं येषां dscकायाः काया एव यष्कायिकाः । तेज उष्णलक्षणं प्रतीतं तदेव कायः शरीरं येषां ते तेजस्कायाः । तेजस्काया एव तेजस्कायिकाः । वायुश्चलनधर्मा प्रतीतः स एव कायः श रीरं येषां ते वायुकायाः । वायुकाया एव वायुकायिकाः। वनस्पतिर्लतादिरूपः प्रतीतः स एव कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः । वनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायिकाः । एवं त्रसनशीलासाः प्रतीता एव । त्रसाः कायाः शरीराणि येषां ते सकायाः । सकाया एव कायिकाः । इह च सर्वभूताधारत्वात् पृथिव्याः प्रथमं पृथिवी - कायिकानामनिधानं तदनन्तरं तत्प्रतिष्ठितत्वादप्कायिकानामपि तदनन्तरं तत्प्रतिपक्षत्वात्तेजस्कायिकानाम् । तदनन्तरं तेजस उपष्टम्नकत्वाद्वायुकायिकानाम् । तदनन्तरं वायोः शाखाप्रचलना दिगम्यत्वाद्वनस्पतिकायिकानाम् । तदनन्तरं वनस्पतेस्त्रसोपग्राहकत्वात्रसका विकानामिति । विप्रतिपत्तिनिरासार्थं पुनराह | पुढवीचित्तमंतमकाया । पृथिवी उक्तलक्षणा चित्तवतीति । चित्तं जीवलक्षणं तदस्यास्तीति चित्तवती सजीवेत्यर्थः । पाठान्तरं वा । पुढवि चित्तमत्तमरकाया । अत्र मात्रशब्दः स्तोकवाची । यथा सर्वपत्रिनागमात्रमिति । ततश्च चित्तमात्रा स्तोकचित्तेत्यर्थः । तथा च प्रबलमोहोदयात्सर्वजघन्यं चैतन्यमेकेन्द्रियाणां तदद्भ्यधिकं द्वीन्द्रियादीनामिति । यख्याता सर्वज्ञेन कथिता । इयं चानेकजीवा । अनेके जीवा यस्यां सानेकजीवा । न पुनरेकजीवा यथा वैदिकानाम् पृथिवी देवतेत्येवमादिवचनप्रामाण्यादिति । अनेकजीवापि कैश्चिदेकभूतात्मापेक्ष्येष्यत एव । यथाहुरे ॥ एक एव हि भूतात्मा, जूते जूते व्यवस्थितः ॥ एकधा बहुधा चैत्र, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १ ॥ यत आह । पृथक्सत्वा पृथग्भूताः सत्त्वा श्रात्मानो यस्यां सा पृथक्सत्वा । अङ्गुला संख्येयनागमात्रावगाहनया पारमार्थिक्याने कजीवसमाश्रितेति जावः । श्राह । यद्येवं जीवपिएकरूपा पृथिवी ततस्तस्यामुच्चारादिकरणे नियमतस्तदतिपातादहिंसकत्वानुपपत्तिरित्यसंजवी साधुधर्म इत्यत्राह श्रन्यत्र शस्त्रपरिष For Private Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। तायाः।शस्त्रपरिणतां पृथिवीं विहाय परित्यज्यान्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थः। अथ किमिदं पृथिव्याः शस्त्रमिति शस्त्रप्रस्तावात्सामान्यत एवेदं अव्यत्नावन्नेदनिन्नमनिधित्सुराह । दवं सबग्गिविसं, नेह विलाखारलोणमाश्यं ॥ नावो उ कुप्पउत्तो, वायाकार्ड अविरई अ॥ ॥ व्याख्या ॥ अव्यमिति द्वारपरामर्शः। तत्र अव्यशस्त्रं खड्गादि । अग्निविषस्नेहाम्लानि प्रसिझानि । दारलवणादीनि । अत्र तु दारः करीरादिप्रनवः । लवणं प्रतीतम् । श्रादिशब्दात्करीषादिपरिग्रहः । उक्तं अव्यशस्त्रमधुना नावशस्त्रमाह । नावस्तु प्रयुक्तौ वाकायौ अविरतिश्च नावशस्त्रमिति । तत्र जावो कुःप्रयुक्त इत्यनेन जोहानिमानेादिलक्षणो मनोःप्रयोगो गृह्यते । वागःप्रयोगस्तु हिंस्रपरुषादिवचनलदणः।कायछुःप्रयोगस्तु धावनवल्गनादिः। अविरतिस्त्वविशिष्टा प्राणातिपातादिपापस्थानकप्रवृत्तिः । एतानि स्वपरव्यापादकत्वात्कर्मबन्धनिमित्तत्वान्नावशस्त्रमिति गाथार्थः । इह न नावशस्त्रेणाधिकारः । अपितु अव्यशस्त्रेण । तच्च त्रिप्रकारं नवतीत्याह ॥ किं वी सकायस, किं वी परकाय तनयं किं वि॥ एयं तु दवसलं, नावे असंजमो सबं॥२१॥व्याख्या॥किंचित्खकायशस्त्रं यथा कृष्णा मृद नीलादिमृदःशस्त्रम् । एवं गन्धरसस्पर्शनेदेऽपि शस्त्रयोजना कार्या। तथा किंचित्परकायेति परकायशस्त्रं यथा पृथ्वी अप्तेजःप्रतृतीनामतेजःप्रनृतयो वा पृथिव्याः । तनयं किंचिदिति । किंचित्तउन्नयशस्त्रं नवति । यथा कृष्णा मृउदकस्य स्पर्शरसगन्धादिनिः पाएमृदश्च । यदा कृष्णमृदा कबुषितमुदकं नवति । तदासौ कृष्णमृउदकस्य पाएममृदश्च शस्त्रं नवति । एवं तु अव्यशस्त्रम्। तुशब्दोऽनेकप्रकारविशेषणार्थः। एतदनेकप्रकारं अव्यशस्त्रम्। नाव शति छारपरामर्शः। असंयमः शस्त्रं चरणस्येति गाथार्थः । एवं च परिणतायां पृथ्व्यामुच्चारादिकरणेऽपि नास्ति तदतिपात इत्यहिंसकत्वोपपत्तेः संनवी साधुधर्म इति । एष तावदीगमः । श्रनुमानमप्यत्र विद्यते । सात्मका विजुमलवणोपलादयः पृथिवीविकाराः समानजातीयाङ्करोत्पत्त्युपलम्जात् देवदत्तमांसाङ्कुरवत्। एवमागमोपपत्तिन्यां व्यवस्थितं पृथिवीकायिकानां जीवत्वम् । उक्तं च॥ श्रागमश्चोपपत्तिश्च, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् ॥ श्रतीन्जियाणामर्थानां सन्नावप्रतिपत्तये॥१॥श्रागमो ह्याप्तवचन-माप्तं दोषक्ष्याहिः ॥ वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयाक्षेत्वसंजवात् ॥२॥श्त्यलं प्रसंगेन । एवमापश्चित्तवत्य आख्याताः। तेजश्चित्तवदाख्यातम्। वायुश्चित्तवानाख्यातः। वनस्पतिश्चित्तवानाख्यातः। इत्याद्यपि अष्टव्यम् । विशेषस्त्वनिधीयते । सात्मकं जलं नूमिखातखानाविकसंजवात् दईरवत् । सात्मकोऽग्निः आहारेण वृद्धिदर्शनात् बालकवत् । सात्मकः पवनः अपरप्रेरिततिर्यग्नियमितनिर्गमनाजोवत् । सचेतनास्तरवः सर्वत्वगपहरणे मरणार्दनवत्॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ राय धनपतसिंह बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. तं जहा । अग्गबीया मूलबीया पोरबीया खंधबीया बीयरुदा संमुचिमा तालया वणस्सइकाइया सबीया चित्तमंत - मकाया जीवा पुढोसत्ता अन्न सपरिणएणं ॥ ( यवचूरिः ) इदानीं वनस्पतिजीव विशेषप्रतिपादनायाह । अग्गबीया इति । श्रग्रं बीजं येषां ते अग्रबीजाः कोरण्टकादयः । मूलं बीजं येषां ते मूलबीजा उत्पलकन्दादयः । पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजा इक्ष्वादयः । स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धबीजाः शल्लक्यादयः । बीजाद्रोहन्तीति बीजरुहाः शाल्यादयः । संमूर्च्छन्तीति संमूमाः । प्रसिद्ध जाजावेन पृथ्वीवर्षादिसमुद्भवास्तृणादयः । न चैते न संजवन्ति दग्धभूमावपि संजवात् । तृणलतावनस्पतिकायिका इत्यत्र तृणलताग्रहणं स्वग - तानेकभेदप्रदर्शनार्थम् । वनस्पतिकायिकग्रहणं सूक्ष्मबादराद्यशेषवनस्पतिभेदसंग्र हार्थम् । एतेन पृथिवीप्रभृतीनामपि स्वगताः पृथिवीशर्करादयस्तथावश्याय मिहिकादयः तथा उग्रमएमलिकादयो नेदाः सूचिता इति । एतेऽनन्तरोदिता वनस्पतिविशेषाः सबीजाः स्वस्व निबन्धनकारण जीवत्वकारणवन्तः चित्तवन्त श्राख्याताः ॥ ( अर्थ. ) हवे वनस्पतिकाय जीवनुं विशेषें करी वर्णन करे बे. ( तं जहा के० ) तद्यथा ते जेम के:- एक तो ( अग्गबीया के० ) अग्रबीजा: एटले अय जागने विषे जेमने बीज बे एवा कोरंटकादिक जाणवा. बीजा ( मूलबीया के० ) मूलबीजा: एटले मूलने विषे जेमने बीज बे, एवा कमलकंदादिक जाणवा. त्रीजा ( पोरबीया के० ) पर्ववीजा: एटले पर्वने विषे जेमने बीज बे, एवा इकु - दिक जाणवा. चोथा ( खंधबीया के० ) स्कंधबीजा: एटले स्कंधने विषे जेमने बीज बे, ते साल तथा वड प्रमुख जाणवा. पांचमा ( बीयरुहा के० ) बीजरुहाः एटले बीज वाव्याथी जे उगे बे, ते शाली गोधूमादिक जाणवा. बघा ( संमुष्ठिमा के० ) संमूर्तिमा: एटले जेमनुं बीज दीगमां आवतुं नथी, एवा तृणलतादिक जाणवा. ए संभवता नथी एवी शंका न करवी, कारण के ए तृणादिक दग्ध जूमिने विषे पण उत्पन्न थाय बे. ए पूर्वे कडेला ( तणलया वणस्सकाश्या के० ) तु, लता, सूक्ष्म बादरादिक वनस्पतिकाय जीव जे बे, ते ( सबीया के० ) बीजसहित ने (चित्तमंतमकाया के० ) सचित्त अनेकजीव अने पृथक्सत्व एवा तीर्थकरादिके का बे. पण ( अन्न सपरिणणं के० ) अन्यत्र शस्त्रपरिषतात् एटले शस्त्रपरिणत वनस्पतिकाय वर्जीने बीजा सर्व वनस्पतिकाय सचित्त बे एवी For Private Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २७३ रीतें जल, तेज, वायु अने वनस्पति ए सचित्त बे, एम आगम प्रमाणथी कडं. ए विषे अनुमान प्रमाण पण बे. ते एवी रीतेंः-जलं सचित्तं नूमिखातखानाविकसंजवात् दर्डरवत् ॥ अर्थः- जल जे जे ते सचित्त बे, कारण देडकानी परे नूमि खणतां ते जमीनमांथी नीकलीने चाले . तथा, अग्निः सचित्तः थाहारेण वृद्धिदर्शनात् बालवत् ॥ अर्थः- अग्निरूप तेज जे बेते सचित्त बे, कारण बालकनी परें काष्ठ घृतादिक आहार आप्याथी तेनी वृद्धि थाय . तथा, वायुः सचित्तः अपरप्रेरिततिर्यग् नियमितदिग्गमनात् गोवत् ॥ अर्थः- वायु जे , ते सचित्त , कारण के गायप्रमुखनी परें बीजे कोश्ये प्रेरणा कस्या वगर नियमित दिशाने विषे चाले जे. तथा, तरवः सचित्ताः सर्वत्वगपहरणे मरणात् गर्दनवत् अर्थः-वनस्पति काय जे वृक्ष प्रमुख बे,ते सचित्त बे, कारण तेनी सर्व त्वचा जो काढी होय तो गर्दननी परे मरण पामे बे. एवं अनुमान पण प्रमाण जाणवू ॥ (दीपिका.) श्दानी वनस्पतिजीवानां विशेषनेदप्रतिपादनार्थमाह । तद्यथा । अयं बीजं येषां ते अग्रवीजाः कोरएटकादयः। एवं मूलं बीजं येषां तेमूलबीजा उत्पलकन्दादयः। पर्व वीजं येषां ते पर्वबीजा श्दवादयः । स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धबीजाः शबक्यादयः। बीजामोहन्तीति बीजरुहाः शाट्यादयः । संमूर्वन्तीति संमूर्बिमाः प्रसिछबीजानावेऽपि पृथिवीवर्षा दिसमुन्नवाः। ते तथा विधास्तृणादयः। न च एते न सं. जवन्ति दग्धनूमावपि संजवात् । तथा तृणलता वनस्पतिकायिका इत्यत्र तृणलताग्रहणं स्वगतानेकन्नेदसंदर्शनार्थं वनस्पतिकायिकग्रहणं सूक्ष्मबादरादिकानेकवनस्पतिनेदसग्रहार्थम् । एतेन पृथिव्यादीनामपि खगता नेदाः सूचिताः । कथमित्याह । पृथिव्यः शर्करादयः, आपोऽवश्यायमिहिकादयः, अग्नयोऽङ्गारज्वालादयः, वायवो ऊफाममलिकादयः । एतेऽग्रबीजादयः सबीजाश्चित्तवन्त श्राख्याताः कथिता :ति। एतेन पूर्वकथिता विशेषाः सजीवाः स्वस्खनिबन्धनाश्चित्तवन्तः आत्मवन्त श्राख्याताः कथिताः । एते च अनेकजीवा इत्यादिकध्रुवगएिकका पूर्ववत् ॥ (टीका.) वनस्पतिजीव विशेषप्रतिपादनायाह । तं जहा अग्गबीया इत्यादि। तद्यथेत्युपन्यासार्थः । अग्रबीजा इत्ययं बीजं येषां ते अग्रबीजाः कोरएटकादयः। एवं मूलं बीजं येषां ते मूलबीजा उत्पलकन्दादयः । पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजा इ. दवादयः । स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धबीजाः शब्बक्यादयः । तथा बीजारोहन्तीति बीजरूहाः शाल्यादयः। संमूर्बन्तीति संमर्बिमाः । प्रसिझबीजालावेन पृथिवीवर्षादिसमुन्नवास्तथाविधास्तृणादयः । न चैते न संनवन्ति दग्धनूमावपि संज Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. वात् । तथा तृणलतावनस्पतिकायिका इत्यत्रतृणलताग्रहणं खगतानेकनेदसंग्रहार्थम् । वनस्पतिकायिकग्रहणं सूदमबादरायशेषवनस्पतिजेदसंग्रहार्थम् । एतेन पृथिव्यादीनामपि खगताः पृथिवीशर्करादयः, तथावश्यायमिहिकादयः, तथा अङ्गारज्वालादयः, तथा फकामएमलिकादयो नेदाः सूचिता इति । सबीजाश्चित्तवन्त श्राख्याता इति । एते ह्यनन्तरोदिता वनस्पतिविशेषाः सबीजाः स्वस्व निबन्धनाश्चित्तवन्त आत्मवन्त थाख्याताः कथिताः। एते च अनेकजीवा इत्यादि ध्रुवगएिमका पूर्ववत् । सबीजाश्चित्तवन्त थाख्याता इत्युक्तम् । अत्र च नवत्याशङ्का । किं बीजजीव एव मूलादिजीवो नवत्युतान्यस्तस्मिन्नुकान्त उत्पद्यते इत्यस्य व्यपोहायाह ॥ बीए जोणिनए,जीवो वुक्कमश्सो य अन्नो वा॥जो विय मूलेजीवो, सो विय पत्ते पढमयाए ॥एव्याख्या॥ बीजे योनिजूते इति। बीजं हि विविधं नवति। योनिनूतमयोनिनूतं च । अविध्वस्तयोनि विध्वस्तयोनि च।प्ररोहसमर्थं तदसमर्थं चेत्यर्थः । तत्र योनिनूतं सचेतनमचेतनं च । अयोनिनूतं तु नियमादचेतन मिति । तत्र बीजे योनिजूते इत्यनेनायोनिनूतस्य व्यवछेदमाह । तत्रोत्पत्त्यसंनवादबीजवादित्यर्थः । योनिनूते तु योन्यवस्थे बीजे योनिपरिणाममत्यजतीत्युक्तं नवति । किमित्याह । जीवो व्युत्क्रामत्युत्पद्यते । स एव पूर्वको बीजजीवः । बीजनामगोत्रे कर्मणी वेदयित्वा मूलादिनामगोत्रे चोपनिबट्य । अन्यो वा पृथिवीकायिकादिजीव एवमेव । योऽपि च मूले जीव इति । य एव मूलतया परिणमते जीवः सोऽपि च पत्रे प्रथमतयापि परिणमत इत्येकजीवकर्तृके मूलप्रथमपत्रे इति । थाह । यद्येवं, "सबो वि किसलयो खलु, जग्गममाणो अणंत नणि ॥” इत्यादि कथं न विरुध्यते इति । उच्यते । इह बीजजीवोऽन्यो वा बीजमूलत्वेनोत्पद्य तपुबूनावस्थां करोति ततस्तदनन्तरजाविनी किसलयावस्थां नियमेनानन्तजीवाः कुर्वन्ति । पुनश्च तेषु स्थितिक्षयात्परिणतेष्वसावेव मूलजीवोऽनन्तजीवतनुं परिणम्य खशरीरतया तावठधेते यावत्प्रथमपत्रमिति न विरोधः । अन्ये तु व्याचदते । प्रथमपत्रकमिह यासौ बीजस्य समुढूनावस्था नियमप्रदर्शनपरमेतबेषं किसलयादि सकलं नावश्यं मूलजीवपरिणामावि वितमिति मन्तव्यम् । ततश्च "सबो वि किसलयो खलु, जग्गममाणो अणंत हो ॥” इत्याद्यप्य विरुद्धम् । मूलपत्रनिर्वर्तनारम्नकाले किसलयत्वाजावादिति गाथार्थः । एतदेवाह नाष्यकारः॥ विफबाविकबा, जोणी जीवाण होश नायवा ॥ तब अविकबाए, वुकमई सो य अन्नो वा ॥ २३ ॥ व्याख्या ॥ विध्वस्ताविध्वस्ता अप्ररोहप्ररोहसमर्था योनिर्जीवानां जवति ज्ञातव्या । तत्राविध्वस्तायां योनौ व्युत्क्रामति स चान्यो वा जीव इति ग Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १७५ म्यत इति गाथार्थः ॥ जो पुण मूले जीवो, सो निवत्तर जा पढमपत्तं ॥ कंदाइ जाव बीयं, सेसं अन्ने पकुवंति ॥ए। ॥ व्याख्या ॥ यः पुनर्मूले जीवो बीजगतोऽन्यो वा स निर्वर्तयति । यावत् प्रथमपत्रं तावदेक एवेति । अत्रापि जावार्थः पूर्ववदेव । कन्दादि यावहीजं शेषमन्ये प्रकुर्वन्ति । वनस्पतिजीवा एव । व्याख्याध्यपदेऽप्येतदविरोधि । एकतः समुन्नावस्थाया एव प्रथमपत्रतया विवदितत्वात्तदनु कन्दादिजावतः । अन्यत्र कन्दादेवनस्पतिन्नेदत्वात्तस्य च प्रथमपत्रोत्तरकालमेव नावादिति गाथार्थः। अतिदेशमाह ॥ सेसं सुत्तप्फासं, काए काए अहक्कम बूया ॥ अनयणबा पंच य, पगरणपयवंजणविसुद्धा ॥शए ॥ व्याख्या ॥ शेषं सूत्रस्पर्श उक्तलक्षणम् । काये काये पृथिव्यादौ यथाक्रमं यथापरिपाटि ब्रूयात्। अनुयोगधर एव । न केवलं सूत्रस्पर्शमेव । किं तु अध्ययनार्थान्पञ्च च प्रागुपन्यस्तान् जीवाजीवालिगमादीन् प्रकरणपदव्यञ्जनविशुद्धान् ब्रूयात् सूत्र एव । जीवानिगमः काये काये इत्यनेनैव लब्ध इति । पञ्चग्रहणमन्यथा षडिहाधिकारा इति । प्रक्रियन्तेऽर्था अस्मिन्निति प्रकरणम् अनेकार्थाधिकारवत्कायप्रकरणादि । पदं सुबन्तादि। कादीनि व्यञ्जनानि । एनिर्विशुद्धान् ब्रूयादिति गाथार्थः॥ से जे पुण श्मे अणेगे बहवे तसा पाणा। तं जहा। अंडया पोयया जराउया रसया संसेश्मा समुचिमा प्निया नववाश्या । जेसिं केसि चि पागाणं अनिकंतं पडिकंतं संकुचियं पसारियं रूयं नंतं तसियं पलायं आगगशविन्नाया।जे य कीडपयंगा।जा य कुंथुपिपीलिया। सवे बेइंदिया सवे तेदिया सत्वे चनरिंदिया सवे पंचिंदिया सवे तिरिकजोणिया सवे नेरझ्या सव्वे मणुआ सवे देवा सवे पाणा परमादम्मिा । एसो खलु बहो जीवनिका तसकान त्ति पवुच्च॥ (अवचूरिः) इदानीं त्रसाधिकारमाह । सेशब्दोऽथशब्दार्थः । ये पुनरमी बालादीनामपि प्रसिझा अनेके बीडिया दिनेदेन । बहव एकैकस्यां जातौ त्रसन्तीति त्रसाः प्राणा विद्यन्ते जब्बासादयो येषां ते प्राणाः ।प्राणग्रहणं गतित्रसनिरासार्थम् । तद्यथा अएकाजाता एफजाः। पदिगृहकोकिलादयः। जरायुरहितो गर्नः पोतः। पोताजायन्ते पोतजाः हस्तिवदगुलीचर्मजलौकादयः । जरायुवेष्टिताङ्गा जायन्ते जरायुजा गोमहिष्यजानरादयः । रसाजाता रसजा थारनालदधितीमनादिषु कृमयोऽतिसूदमाः। संस्वेदाजाताः संखेदजा मत्कुणयूकादयः। संमूर्चनाजाताः संमूर्वजाः शलनपिपीलि Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(५३)-मा. कादयः। उन्नेदाऊन्म येषां ते उन्नेदजाः पतङ्गखञ्जरीटतिमादयः । उपपाताजाता उपपातजाः । यहा उपपाते नवा औपपातिका देवनारकाः । तेषामेव लक्षणमाह । येषां केषांचित्सामान्येनैव प्राणिनामनिक्रान्तं नवतीति वाक्यशेषः । प्रज्ञापकं प्रत्यनिमुखक्रमणमनिक्रान्तं । प्रज्ञापकात्प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रान्तं । संकुचितं गात्रसंकोचकरणम् । प्रसारितं गात्र विततकरणम् । रवणं रुतं शब्दकरणम् । व्रान्तमितस्ततो गमनम् । त्रस्तं फुःखोजनम् । पलायितं पलायनं कुतश्चिन्नाशनम् । श्रागतेर्गतेश्च विज्ञातारः । अनिकान्तप्रतिक्रान्ताच्यामागतिगत्योरनेदेऽपि नेदेनानिधानं विज्ञान विशेषज्ञापनार्थम् । य एव गत्यागतिविझातारस्त एव त्रसाः । नतु वृति प्रत्यनिक्रमणवन्तोपि वढ्यादयः। अत्रौघसंज्ञायाः प्रवृत्तेरिति । त्रसनेदानाह । ये च कीटपतङ्गाः। कीटाः कृमयः । एकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति वीडियाः शङ्खादयोऽपि गृह्यन्ते । पतङ्गाः शलना अत्रापि चतुरिन्डिया उमरादयो गृह्यन्ते । या च कुन्थुपिपीलिका इति । अनेन त्रीन्जियाःसर्व एव गृह्यन्ते । अत एवाह। सर्वे हीन्याः कृम्यादयः। इत्यादि । कीटपतङ्गा इत्यत्रोदेशव्यत्ययः विचित्रा सूत्रगतिरतन्त्रः क्रम इति ज्ञापनार्थं । सर्वे पञ्चेन्डिया इति सामान्यतः। विशेषतः सर्वे तिर्यग्योनयः । रत्नप्रनादिनारकनेदनिन्नाः । कर्माकर्मनूमिजादयः। नवनेशादयः । सर्वशब्दश्चात्र परिशेषनेदानां त्रसत्वख्यापनार्थः । सर्व एवैते त्रसा नतु एकेन्शिया एव। त्रसाः स्थावराश्च सर्वे प्राणिनः परमं सुखं तकर्माणः सुखामिलाषिण इत्यर्थः । पृथिव्यादिपञ्चनिकायापेक्षयाऽस्य षष्ठत्वम् । अत्रान्तरे जीवानिगमाधिकारः । स चायं ॥ सुविहा हुँति अजीवा, पुग्गल नो पुग्गला य बत्तिविहा ॥ परमाणुमा पुग्गल, नोपुग्गलधम्ममाश्च ॥१॥ सुहुमसुहमा य सुहुमा, तहचेव य सुहुमबायरा नेया॥बायरसुहुमा बायर-बायर तह बायरा चेव ॥२॥ परमाणुप्पएसा, रयाउ तह खंधपुग्गला हुंति ॥३॥ वाऊ ४ आउसरीरा, ५ तेऊमाई य चरमा य ६ ॥३॥ धम्मधम्मागासा, लोए नो पुग्गला तिहा हूंति ॥ जीवाणुग्ग विश्य, वग्गाह निमित्त मोणेया ॥ ४॥ उक्तो जीवानिगमः । सांप्रतं चारित्रधर्मसंबकमेवेदं सूत्रम् । सर्वे प्राणिनः परमधर्माणः । एष खड्वनन्तरोदितः किटादिः षष्ठो जीवनिकायस्त्रसकाय शति प्रोच्यते ॥ (अर्थ.) हवे त्रस जीवनां लक्षणादिक कहे . से जे ति। (से के०) अथ, ए शब्द सजीववर्णननो अधिकार सूचवे . (जे के०) ये एटले जे (श्मे के०) ए प्रत्यद (तसा पाणा के०) त्रसनामक जीवो डे, ते (पुण के०) वली (अणेगे के०) अनेक Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्याध्ययनम् । .. १७७ तथा (बहवे के) बहवः एटले घणा. (तं जहा के०) ते जेम के, ते त्रसकायना नेद जेमतेम कहिये. ते श्रावी रीतें, एक तो (अंडया के०) अंडजाः एटले माथी उत्पन्न थयेला ते कोकिलादिक पदी जाणवा. बीजा, (पोयया के०) पोतजाः, जे पोत एटले बाल थकाज उत्पन्न थाय बे, ते हाथी तथा वल्गुली श्रादिक जाणवा, त्रीजा ( जराजया के०) जरायुजाः, जरायु जे गर्ननुं वेष्टन तेणे करी वेष्टित एवा जे उत्पन्न थाय , ते मनुष्य तथा गोमहिष्यादिक जाणवा. चोथा ( रसया के०) रसजाः एटले दधि प्रमुख चलित रसथी उत्पन्न थाय , ते ही: प्रिय जीव जाणवा. पांचमा (संसेश्मा के०) संस्वेदजाः, एटले परसेवाश्री जे उत्पन्न थाय , एवा जू तथा लीख आदिक जाणवा. हा (संमुछिमा के०) सं. मूर्बिमाः एटले संमूर्बनथी उत्पन्न थयेला अर्थात् स्त्रीसंयोगविना उत्पन्न थाय ने ते शलजादिक जाणवा. सातमा, ( जनिया के० ) अनिदः एटले नूमि नेदीने उत्पन्न थाय बे, ते तीड पतंगादिक जाणवा. आग्मा, ( जववाश्या के०) औपपातिकाः, जपपात एटले जे ठेकाणे अवतर, होय, ते ठेकाणे एकदम प्राप्त थश्ने जे उत्पन्न थाय बे, ते देव तथा नारकी जाणवा. हवे, त्रसकाय जीवोनुं सामान्यथी लक्षण कहे जे. जेसिं केसिं ति (जेसिं केसिं चि पाणाणं के० ) येषां केषां चित् प्राणिनाम् एटले जे को प्राणियोने (अनिकंतं के०) अनिक्रांतं एटले सहामुं आवq, (पडिकंतं के०) प्रतिक्रांतम् एटले पाई वलवू, (संकुचियं के० ) संकुचितम् एटले शरीरने संकोचवू, (पसारियं के०) प्रसारितम् एटले हस्तपादादिक शरीरावयवर्नु पसारवं, (रुयं के०) रुतं एटले शब्द करवो, (नंतं के०) ब्रान्तं एटले ब्रमण करवू, (तसियं के) त्रसितं एटले त्रास पामवो, ( पलाश्यं के० ) पलायितं एटले पलायन करवू, (आग के० ) आगतिः एटले आवq, ( ग के० ) गतिः एटले गमन करवू, (विलाया के०) विज्ञाताः एटले पूर्वोक्त अनिक्रमणादि क्रिया जाणीने एटले हूं सामो जावू लु अथवा पाबो वढुंळ इत्यादि प्रकारे समजीने जे क्रिया करनारा, ते सर्वे त्रस जीव जाणवा. त्रसनां लक्षण तो कह्यां, पण त्रसजीव कोने कहियें ? ते कहे जे. (जे य के) ये च एटले वली जे (कीडपयंगा के0) कीटपतंगाः एटले कृमि, पतंगिया, (जे य के०) येच एटले जे (कुंथु पिपीलिया के०) कुंथुपिपीलिकाः एटले कुंथुआ अने कीडियो ( सत्वे बेदिया के०) सर्वे हीन्याः एटले सर्व छीजिय जीव, (सवे तेइंदिया के०) सर्वे त्रीणियाः एटले सर्वे त्रीजिय जीव, (सवे चजरिदिया के०) सर्वे चतुरिंजियाः एटले सर्व चतुरिप्रिय जीव, (सवे पंचिंदिया के०) सर्वे पंचेंजियाः एटले सर्वे पंचेंजिय जीव, ( सवे तिरिकजोणिया केस) सर्वे Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ राम धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. तिर्यग्योनयः, एटले सर्व तिर्यंच योनिना गाय प्रमुख जीव, ( सत्वे नेरश्या के०) सर्वे नारकाः एटले रत्नप्रनादि नरकनूमिने विषे अवतरेला ते सर्व नारकी जीव, (सवे मणुया के ) सर्वे मनुजाः एटले कर्मनूमि आदिकने विष उत्पन्न थयेला सर्व मनुष्य ( सवे देवा के०) सर्वे देवाः एटले जवनपति आदिक सर्व देव, (सवे पाणा के०) सर्वे प्राणाः एटले पूर्वे कह्या ए सर्व प्राणी (परमाहम्मिया के०) परमधर्माणः एटले परम सुखना अजिलाषी एवा . ( एसो के०) एषः एटले श्रा (ख० के०) निश्चें (बहो के०) षष्ठः एटले हो (जीवनिका के०) जीवनिकायः एटले जीवनो समुदाय (तसका त्ति के०) त्रसकाय इति एटले त्रसकाय एम ( पवुच्चर के) प्रोच्यते एटले कहेवाय बे.॥ (दीपिका.) इदानीं त्रसाधिकारमाह । सेशब्दः अथशब्दार्थः । अथ ये पुनरमी बालादीनामपि प्रसिझा अनेके हीन्जियादिनेदेन बहव एकैकस्यां जातौ त्रसाः प्राणिनः। वसन्तीति त्रसाः प्राणा उल्लासादयो येषां ते प्राणिनः। ते के इत्याह । एष खलु षष्ठो जीवनिकायस्त्रसकाय इति प्रोच्यत इति योगः । तत्राएमाजाता अएमजाः पक्षिगृहकोकिलादयः । पोतादिवजायन्त इति पोतजाः। ते च हस्तिवदगुलीचर्मजलौकादयः । जरायुनिवेष्टिता जायन्त इति जरायुजाः । गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः । रसाङाता रसजा थारनालदधितेमनादिषु प्रायः कृम्यादयोऽतिसूक्ष्मा जवन्ति । संस्वेदाजाता इति संस्वेदजा मत्कुणयुकादयः । संमूर्चनाजाताः संमूबिमाः शलन्नपिपीलिकामदिकाशालूकादयः। उदन्नेदाजान्म येषां ते उन्नेदजाः पतङ्गखञ्जरीटपारिप्लवादयः । उपपाताजाता उपपातजा उपपाते वा नवा औपपातिका देवा नारकाश्च । एतेषामेव लक्षणमाह । येषां केषां चित् सामान्येनैव प्राणिनां जीवानामनिक्रान्तं नवतीति शेषः । अनिक्रमणमनिक्रान्तं प्रज्ञापकं प्रत्यनिमुखं क्रमणमित्यर्थः । एवं प्रतिक्रान्तं प्रज्ञापकात् प्रतीपं क्रमणमिति नावः। संकुचनं संकुचितं गात्रसंकोचकरणम् । प्रसारणं गात्र विततकरणम् । रवणं रुतं शब्दकरणम् । ब्रमणं ब्रान्तमितस्ततश्च गमनं, त्रसनं त्रस्तं कुःखोजनम् , पलायितं कुतश्चिन्नाशनं, तथा आगतेः कुतश्चित्कचिजतेश्च कुतश्चित्वचिदेव विनाया इति विज्ञातारः । ननु अनिकान्तप्रतिक्रान्तान्यामागतिगत्योर्न कश्चिनेदः । तदा किमर्थं नेदेनानिधानमुच्यते । विज्ञान विशेषज्ञापनार्थम् । किमुक्तं नवति । य एवं विजानन्ति यथा वयमनिक्रमामः प्रतिक्रमामो वा त एवात्र त्रसाः । नतु वृर्ति प्रत्यनिक्रमणवन्तोऽपि वह्यादय इति । ननु एवमपि हीन्जियादीनां त्रसत्वप्रसंगः । अनि. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १७ए क्रमणप्रतिक्रमणजावेऽप्येवंविधज्ञानस्याजावान्नैवमेतत् । हेतुसंज्ञाऽवगतेबुझिपूर्वकमिव गयात उष्णमुष्णाघा गयां प्रतिक्रमणादिनावात् । न चैवं वह्यादी. नामनिक्रमणेऽपि ओघसंज्ञायाः प्रवृत्तः । अथ अधिकारागतत्रसन्नेदानाह । ये च की. टपतङ्गा इत्यत्र कीटाः कृमयः । एकग्रहणे तजातीयानामपि ग्रहणमिति बीन्द्रियाः शङ्खादयोऽपि गृह्यन्ते । पतङ्गाः शलजा अत्रापि पूर्ववत् चतुरिन्डिया जमरादयोऽपि गृह्यन्ते।तथा यच्च कुन्थुपिपीलिका इत्यनेन त्रीन्द्रियाः सर्वेऽपि गृह्यन्ते। अतएवथाह । सर्वे बोन्डियाः कृम्यादयः सर्वे त्रीडियाः कुन्थ्वादयः सर्वे चतुरिन्जियाः पतङ्गादयः। अत्राह । ननु ये च कीटपतङ्गा इत्यादौ उद्देशव्यत्ययः कथम् । उच्यते । विचित्रत्वात् सूत्रगतेः । अतन्त्रः सूत्रक्रम इति ज्ञापनार्थम् । सर्वे पञ्चेन्डियाः सामान्यतो विशेषतः पुनः सर्वे तिर्यग्योनयो गवादयःसर्वे नारका रत्नप्रजानारकादिनेदनिन्नाः सर्वे मनुजाः कर्मनूमिजादयः । सर्वे देवा नवनवास्यादयः । सर्वशब्दोऽत्र अन्यसमस्तदेवनेदानां सत्त्वख्यापनार्थः । सर्व एव एते त्रसा नतु एकेन्द्रिया श्व त्रसाः स्थावराश्चेति । उतं च । पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः तेजोवायू बीडियादयश्च वसा इति । स. र्वेऽपि प्राणिनः परमधर्माण इति. सर्व एते प्राणिनो हीन्जियादयः पृथिव्यादयश्च परमधर्माणः परमं सुखं तझर्माणः कुःखछेषिणः सुखानिलाषिण इत्यर्थः । यतः कारणादेवं ततो दुःखोदयादिपरिहारवाया एतेषां षलां जीवनिकायानां नैव स्वयं दएकं समारन इति योगः। षष्ठं जीवनिकायं पूर्ण कर्तुमाह । एसो खलु बहो जी वनिका तसकाउ ति उच्च श्चेसि बण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंनिजा इत्यादि । एष खलु पूर्व यः कथितः षष्ठो जीवनिकायः पृथिव्यादिपञ्चकापेक्षया षष्ठत्वमस्य त्रसकाय इति प्रोच्यते तैः सवरेव तीर्थकरगणधरैरिति ॥ (टीका.) इदानीं त्रसाधिकार एतदाह । से जे पुण श्मे इति । सेशब्दोऽथशब्दार्थः । असावप्युपन्यासार्थः । अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुचयेष्विति वचनात् । अथ पुनर्येऽमी बालादीनामपि प्रसिझा अनेके हीन्यादिनेदेन बहव एकैकस्यां जातौ त्रसाः प्राणिनः। त्रस्यन्तीति त्रसाः। प्राणा उदासादय एषां विद्यन्त इति प्राणिनः । तद्यथा। अंडजा इत्यादि । एष खलु षष्ठो जीवनिकायस्त्रसकायः प्रोच्यत इति योगः। तत्राएमाजाता अएमजाः पदिगृहकोकिलादयः । पोता एव जायन्त इति पोतजाः । अन्येष्वपि दृश्यते डप्रत्ययो जनेरिति वचनात् । ते च हस्तिवल्गुलीचर्मजलौकाप्रनृतयः । जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजा गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः। अत्रापि पूर्ववप्रत्ययः । रसाझाता रसजास्तका Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. 1 नादधितेमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा जवन्ति । संस्वेदाजाता इति संस्वेदजा मत्कुणयूकाशतपदिकादयः । संमूर्तनाजाताः संमूर्तनजाः । शलज पिपी - लिकामदिकाशालूकादयः । उद्भेदाऊन्म येषां त उद्भेदाः । अथवा उद्भेदनमुद्भित् । उझिजन्म येषां त उनिजाः । पतङ्गखञ्जरीटपारिप्लवादयः । उपपाताजाता उपपातजाः । उपपाते जवा औपपातिका देवा नारकाश्च । एतेषामेव लक्ष्णमाह । येषां केषां चित्सामान्येनैव जीवानां प्राणिनामनिक्रान्तं जवतीति वाक्यशेषः । श्रजि - क्रमणमजिकान्तं जावे निष्ठाप्रत्ययः । प्रज्ञापकं प्रत्यनिमुखं क्रमणमित्यर्थः । एवं प्रतिक्रमणं प्रतिक्रान्तं प्रज्ञापकात्प्रतीपं क्रमण मिति जावः । संकुचनं संकुचितं गात्रसंकोचकरणम् । प्रसारणं प्रसारितं गात्रविततकरणम् । रवणं रुतं शब्दकरणम् । चमणं चान्तमितश्चेतश्च गमनम् । त्रसनं त्रस्तं दुःखाडुद्वेजनं पलायनं पलायितं कुतश्चिन्नाशनम् । तथागतेः कुतश्चित्कचित् । गतेश्च कुतश्चित्क्वचिदेव । विसाया ज्ञातारः । are | अनिकान्तप्रतिक्रान्ताच्यां नागतिगत्योः क्वचिद्भेद इति किमर्थं देना जिधानम् । उच्यते । विज्ञान विशेषख्यापनार्थम् । एतडुक्तं जवति । य एव विजानन्ति यथा वयमनिक्रमामः प्रतिक्रमामो वा । त एव त्रसा नतु वृतिं प्रत्यनिक्रमणवन्तोऽपि यादय इति । हैवमपि द्वीन्द्रियादीनामत्र सत्त्वप्रसङ्गः । अभिक्रमण प्रतिक्रमणजावेऽप्येवं विज्ञानाभावान्नैतदेवम् । हेतुसंज्ञाया अवगतेर्बुद्धिपूर्वक मिव बायात उमुष्णा वायां प्रति तेषामजिक्रमणादिजावात् । नचैवं वल्यादीनामजिक्रमणाद्योघसंज्ञायाः प्रवृत्तेरिति कृतं प्रसङ्गेन । अधिकृतत्रसभेदानाह । जे य इत्यादि । ये च कीटपतङ्गा इत्यत्र कीटाः कृमयः । एकग्रहणे तातीयग्रहणमिति द्वीन्द्रियाः शङ्खादोsपि गृह्यन्ते । पतङ्गाः शलजा यत्रापि पूर्ववच्चतुरिन्द्रिया जमरादयोऽपि गृह्यन्त इति । तथा याश्च कुन्थु पिपीलिका इत्यनेन त्रीन्द्रियाः सर्व एव गृह्यन्ते । श्रतएवाह सर्वे द्वीन्द्रियाः कृम्यादयः । सर्वे त्रीन्द्रियाः कुन्थ्वादयः । सर्वे चतुरिन्द्रियाः पतङ्गादयः । याह । ये च कीटपतङ्गा इत्यादावुद्देशव्यत्ययः किमर्थम् । उच्यते । विचित्रा सूत्रगतिरतन्त्रः क्रम इति ज्ञापनार्थम् । सर्वे पञ्चेन्द्रियाः सामान्यतो विशेषतः पुनः सर्वे तिर्यग्योनयो गवादयः । सर्वे नारका रत्नप्रजानारका दिभेद जिन्नाः । सर्वे मनुजाः कर्मजू मिजादयः । सर्वे देवा जवनवास्यादयः । सर्वशब्दश्चात्र परिशेषनेदानां त्रसत्वख्यापनार्थः । सर्व एवैते त्रसाः । नत्वेकेन्द्रिया श्व त्रसाः स्थावराश्चेति । उक्तं च । पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावरास्तेजोवायू द्वीन्द्रियादयस्त्रसा इति । सर्वे प्राणिनः परमधर्मा इति । सर्व एते प्राणिनो द्वीन्द्रियादयः पृथिव्यादयश्च परमधर्माण इत्यत्र परमं सुखं तद्धर्माण: सुखधर्माणः सुखानिलाषिण इत्यर्थः । यतश्चैवमित्यतो I 1 1 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १८२ दुःखोत्पादपरिजिहीर्षया एतेषां षषां जीवनिकायानां नैव स्वयं दएकं समारभेतेति योगः । षष्ठं जीव निकायं निगमयन्नाह । एष खल्वनन्तरोदितः कीटादिः षष्ठो जीवनिकायः । पृथिव्यादिपञ्चकापेक्षया षष्ठत्वमस्य । त्रसकाय इति प्रोच्यते प्रकर्षेणोच्यते । सर्वैस्तीकरगणधरैरिति प्रयोगार्थः । प्रयोगश्च विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम् आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात् घटवत् । याह । इदं त्रसकायनिगमनमननिधायास्थाने सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इत्यनन्तरसूत्र संबन्धिसूत्रानिधानं किमर्थम् । उच्यते । निगमन सूत्रव्यवधानवदर्थान्तरेण व्यवधानख्यापनार्थम् । तथा हि । त्रसकाय निगमनसूत्रावसानो जीवा निगमः । अत्रान्तरे जीवा निगमाधिकारस्तदर्थमनिधाय चारित्रधर्मो वक्तव्यः । तथा च वृद्धव्याख्या ॥ एसो खलु बडो जीवनिकार्ड तसकाउत्ति पञ्च । एस ते जीवा निगमो ज ि। इयाणिं जीवा निगमो जल | अजीवा डुविहा । तं जहा । पुग्गला य नोपोग्गला य । पोग्गला बविहा । तं जहा । सुदुमसुदुमा, सुदुमा, सुदुमबायरा, बायरसुदुमा, बायरा, बायरबायरा । सुदुमसुदुमा परमाणुपोग्गला । सुदुमा एसिया | आढत्तो जाव सुदुमपरि तपसि खंधो । सुदुमबायरा गंधपोग्गला । बायरसुहुमा वाक्कायसरीरा । बादरा श्राक्कायसरीरा उस्सादीणं । बायरबायरा तेजवणस्स पुढवितससरीराणि । श्रहवा । चजबिहा पोग्गला । खंधा खंधदेसा खंधपएसा परमाणुपोग्गला । एस पोग्गल बिका | गहणलरको पोपोग्गल विका तिविहो। तं जहा | धम्म बिका | धम्मठिका आगास विकार्ड | तब धम्मविका गइलरको । श्रधम्म विकार्ड विश्लकणो । आगास विकाउ अवगाहलकणो । तथा चैतत्संवाद्यार्षम् ॥ डुविहा हुंति जीवा, पोग्गलनोपोग्गला य बत्तिविहा ॥ परमा मादिपोग्गल, गोपोग्गलधम्ममादीया ॥ १ ॥ सुदुसुदुमा य सुदुमा, तह चेव य सुदुमबायरा ऐया ॥ वायरसुहुमा बायर, तह बायरबायरा चेव ॥ २ ॥ परमाणुडुप्पएसा - दिगान तह गंधपोग्गला होन्ति ॥ वाऊच्याउसरीरा, तेऊमादीण चरिमार्ज ॥ ३ ॥ धम्माधम्मागासा, लोए पोपोग्गला तिहा होंति ॥ जीवाई गई हइ, अवगा - ह िमित्तगा ऐया ॥ ४ ॥ चेसिं हं जीवनिकायाणं नेव सयं दमं समारंभिका । नेवन्नेहिं दं समारंभाविका । दंमं समारंभंते वि यन्ने न समजाणामि । जावजीवाए तिविदं तिविदेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि | करंतं विन्नेन समपुजाणामि । तस्स नंते पडिक्कमामि । निंदामि । गरिहामि । अप्पा वोसिरामि ॥ For Private Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. (अवचूरिः) यतश्चैवमतएव सप्तम्यर्थे षष्ठी । एतेषु षट्सु जीवनिकायेषु कुःखरदार्थं नैव स्वयं दंमं समारनेत प्रवर्त्तयेत् । नैवान्यैः प्रेष्यादिनिर्दमें समारंजयेत् कारयेत् । समारम्नमाणानप्यन्यान् न समनुजानीयान्नानुमोदयेत् । जीवनं जीवो यावजीवमाप्राणोपरमात् । त्रिविधं तिस्रो विधा विधानानि कृताकृतादिरूपाणि यस्येति त्रिविधो दमस्तं त्रिविधेन करणेन मनसा वाचा कायेन न करोमि स्वयं, न कारयामि अन्यैः । कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य दएकस्य संबन्धिनमतीतावयवं प्रतिकमामि । अतीतस्यैव प्रतिक्रमणात् । प्रत्युत्पन्नस्य संवरणात् । अनागतस्य प्रत्याख्यानात् । जदन्तेति गुरोरामन्त्रणम् । नदन्त जवान्त नयान्त इति साधारणा श्रुतिः। एतच्च गुरुसा दिक्येव व्रतप्रतिपत्तिःसाध्वीति ज्ञापनार्थम्। प्रतिक्रमामीति नूतदंमा निवृत्तोऽहमित्यर्थः। आत्मसादिकी निन्दा परसादिकी गर्दा । श्रात्मानमतीतदएककारिणमश्लाघ्यं व्युत्सृजामीति । अयं दमः सामान्य विशेषरूप इति। (अर्थ.) (श्चेसिं के०)श्त्येषां एटले एवी रीतें पूर्वे कहेला एवा, (बण्डं के०) षमाम् एटले उ एवा (जीवनिकायाणं के० ) जीवनिकायानां एटले जीवसमुदायना (दंमं के० ) हिंसारूप दंडने ( सयं के० ) खयं एटले पोते (न समारंनेद्या के०) न समारनेत एटले संघहन, आतापनादिक आरंन करे नहीं. तथा (अन्नहि के०) अन्यैः एटले बीजापासे (दंग के०) दंम एटले हिंसारूप दंडने (न समारंजाविजा के०) न समारंजयेत् एटले आरंन करावे नहीं. तथा (दं समारंजते वि के०) दंमं समारजमाणानपि एटले दंगने आरंज करनार एवा ( अन्ने के० ) अन्यान् एटले बीजाने पण (न समणुजाणामि के०) न समनुजानीयात् एटले अनुमोदना दिये नहीं. एवी नगवंतनी आशा , माटे साधु एवो निश्चय करे के, (जावजीवाए के०) यावजीवं एटले ज्या सुधी मारो जीव आ देहमांबे, त्यांसुधी (तिविहं के०) त्रिविधं एटले कृत, कारित अने अनुमोदित रूप त्रण प्रकारना दंमने (तिविहेणं के०) त्रिविधेन एटले त्रिकरणेकरी. ते त्रिकरणज कहेडे. ( मणेणं के०) मनसा एटले मनेंकरी, (वायाए के) वाचा एटले वाणीएकरी, (काएणं के) कायेन एटले कार्यकरी, (न करेमि के०) न करोमि एटले न करूं, (न कारवेमि के०) न कारयामि एटले करावें नहीं, तथा (करंतंवि अन्ने के०) कुर्वतमप्यन्यं एटले आरंज करनार एवा अनेराने पण ( न समणुजाणामि के०) न समनुजानामि एटले हुँ अनुमोदना आपुं नहीं. तथा वर्तमानकालथी पूर्वकालनेविषे एटले अतीत कालने विषे जे में हिंसारूप दंग कस्यो होय, ( तस्स के०) तस्य एटले ते अतीत दंगने Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। १०३ (नंते के० ) हे नदंत, जयांत अथवा नवांत, एटले हे गुरो ! ( पडिकमामि के०) प्रतिक्रमामि एटले प्रतिकमुं बुं, अर्थात् पाडो वढुं बु. (निंदामि के० ) आत्मसाखें निहुं बु. (गरिहामि के०) गुरुनी साखें गहुँ बु. (अप्पाणं वोसिरामि के० ) ते पापकारी श्रात्माने हुँ ओवासिरावं . ॥ (दीपिका.) एतेषां षणां जीवनिकायानामिति । अत्र सप्तम्यर्थे षष्ठी । तत एतेषु षट्सु जीवनिकायेषु पूर्वं कथितखरूपेषु नैव स्वयं श्रात्मना दएकं संघटनपरितापनादिलदाणं समारनेत प्रवर्तयेत् । तथा नैव अन्यैः प्रेष्यादितिः दममुक्तरूपं समारंनयेत् कारयेदित्यर्थः । दंडं समारनमाणानपि अन्यान् प्राणिनो न समनुजानीयात् । न अनुमोदयेदिति विधायकं नगवचनं । यतश्चैवं ततो जावजीवमित्यादि । यावत् व्युत्सृजामि यावजीवं यावत्प्राणधारणं तावदित्यर्थः। किमित्याह । त्रिविधं त्रिविधेनेति । तिस्रो विधाः कृतादिरूपा यस्येति त्रिविधो दफ इति गम्यते । तं त्रिविधेन करणेन । एतदेव दर्शयति । मनसा, वाचा, कायेन एतेषां स्वरूपमेव । अस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणो दामः तं च वस्तुतो निषेधरूपतया सूत्रेणैव दर्शयति । न करोमि स्वयं, न कारयामि अन्यैः, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामीति । तस्य हे नदंत प्रतिकमामीति।तस्य इति अधिकृतो योऽसौ त्रिकाल विषयोदएमस्तस्य संबन्धेन अतीत. मवयवं प्रतिक्रमामि । न वर्तमानमनागतं वा । अतीतस्यैव प्रतिक्रमणात् । नदंतेति गुरोरामंत्रणम्। नदन्त जवान्त जयान्तशति साधारणा श्रुतिः। अनेन एवं ज्ञापितम् । व्रतप्रतिपत्तिगुरुसादिक्येव । प्रतिक्रमामि इति नूतदएकात् अहं निवर्त इत्युक्तं नवति । तस्माच निवृत्तिर्यदनुमतेविरमणम् । तथा निन्दामि गर्हामि । तत्र निंदा थात्मसादिकी गर्दा परसादिकी जुगुप्सा च । आत्मानमतीतदएमकारिणम् अश्लाघ्यं व्युत्सृजामीति विशेषेण नृशं च त्यजामि ॥ ( टीका.) उक्तोऽजीवानिगमः । सांप्रतं चारित्रधर्मः। तत्रोक्तसंबन्धमेवेदं सूत्रम्। सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इत्यनेन हेतुना एतेषां षलां जीवनिकायानामिति सुपां सुपो नवन्तीति सप्तम्यर्थे षष्ठी । एतेषु षट्सु जीवनिकायेषु अनन्तरोदितस्वरूपेषु नैव स्वयमात्मना दएकं संघटनपरितापनादिलक्षणं समारनेत प्रवर्तयेत्तथा नैवान्यैः प्रेष्यादिनिर्दएकमुक्तलक्षणं समारंजयेत् कारयेदित्यर्थः। दएकं समारजमाणानप्यन्यान्प्राणिनो न समनुजानीयात् नानुमोदयेदिति विधायकं नगवचनम् । यतश्चैवमतो यावजीवमित्यादि । यावट्युत्सृजामीत्यादीत्येवमिदं सम्यक् प्रतिपद्यतेत्यैदंपर्यम् । पदार्थस्तु जीवनं जीवः यावङीवो यावजीवमाप्राणोपरमादित्यर्थः । किमित्याह । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. त्रिविधं त्रिविधेनेति । तिस्रो विधा विधानानि कृतादिरूपा अस्येति त्रिविधः । दएक इति गम्यते । तं त्रिविधेन करणेन । एतकुपन्यस्यति । मनसा वाचा कायेनैतेषां स्वरूपं प्रसिझमेव । अस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणो दास्तं वस्तुतो निराकार्यतया सूत्रेणैवोपन्यस्यन्नाह । न करोमि स्वयं, न कारयाम्यन्यैः, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामीति । तस्य नदंत प्रतिक्रमामीति । तस्येत्यधिकृतो दएमः संबध्यते । संबन्धलक्षणा अवयवलक्षणा वा षष्ठी । योऽसौ त्रिकाल विषयो दमस्तस्य संबन्धिनमतीतमवयवं प्रतिकमामि न वर्तमानमनागतं वा । अतीतस्यैव प्रतिक्रमणात्प्रत्युत्पनस्य संवरणादनागतस्य प्रत्याख्यानादिति । नदंतेति गुरोरामन्त्रणम् । नदंत नवान्त जयान्त इति साधारणा श्रुतिः। एतच्च गुरुसादिक्येव व्रतप्रतिपत्तिः साध्वीति शापनार्थम् । प्रतिक्रमामीति नूतदएमान्निवर्तेऽहमित्युक्तं नवति। तस्माच्च निवृत्तिर्यत्तदनुमतेविरमणमिति । तथा निन्दामि गर्दामीत्यत्रात्मसादिकी निन्दा, परसाक्षिकी गर्दा जुगुप्सोच्यते । आत्मानमतीतदएमकारिणमश्लाघ्यं व्युत्सृजामीति । विविधार्थो विशेषार्थो वा विशब्दः । उबब्दो नृशार्थः । सृजामीति त्यजामि । ततश्च विविधं विशेषेण वा नृशं त्यजामि व्युत्सृजामीति । आह । यद्येवमतीतदएमप्रतिक्रमणमात्रस्यैदंपर्यं न प्रत्युत्पन्नसंवरणमनागतप्रत्याख्यानं चेति । नैतदेवं न करोमीत्या दिना तज्जयसिझेरिति ॥ पढमे नंते मदवए पाणाश्वायान वेरमणं । सवं नंते पाणावायं पञ्चकामि। से सुटुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा नेव सयं पाणे अश्वाश्का । नेवन्नेहिं पाणे अश्वायाविजा पाणे अश्वायते वि अन्ने न समणुजाणामि । जावजीवाए । तिविदं तिविदेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्ने न समणुजाणामि । तस्स नंते पमिकमामि । निंदामि । गरिदामि।अप्पाणं वोसिरामि। पढमे नंत महत्वए नवनिमि सबन पाणाश्वायान वेरमणं ॥ (श्रवचूरिः) दमः सामान्येनोक्तः । सतु विशेषतः पञ्चमहाव्रतरूपतयाङ्गीकृत्य ज्ञेयः । तान्याह । प्रथमे जदन्त महावते किं कार्यमिति शिष्योक्ते गुरुराह । प्राणातिपातमिति ।प्राणा इन्डियादयस्तेषामतिपातस्तस्माहिरमणमिति । यतश्चैवमतः सर्व नदन्त प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति । महत्त्वमणुव्रतापेक्षया। प्रतिशब्दःप्रतिषेधे । से शब्दो मागधदेशप्रसिझस्तद्यथार्थः । स चोपन्यासे।अत्र सूक्ष्माः सूक्ष्मनामकर्मोद Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ दशवेकालिके चतुर्थाध्ययनम्। यवर्तिनः।तस्य सूक्ष्मत्वादेव कायिकीहिंसाया अन्नावेऽपि मनोवाग्भ्यां तत्संजवे ग्रहणं सार्थकमिति। यहा सूक्ष्मं कुन्थ्वादि। बादरोऽपि स्थूलः । स चैकैको विधा। त्रसः स्थावरश्च। सूक्ष्मत्रसः कुन्थ्वादिः। सूक्ष्म स्थावरो वनस्पत्यादिः।बादरत्रसो गवादिः।बादरः स्थावरः पृथिव्यादिः।प्राकृतत्वाहिन्नक्तिव्यत्ययेन प्राणानतिपातयामीति यात्मनिर्देशः। एवं शेषमहावतेष्वपि योज्यम्।सूक्ष्मं वा बादरं वेति वाशब्दोपल दित एकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति चतुर्विधः प्राणातिपातो अष्टव्यः। अव्यतः क्षेत्रतः कालतः नावतश्च । चतुर्जगिका चात्र । दवणामेगे पाणावाए नो नाव नाव न दवः । दव नाव वि। नो दव नो नाव: । श्रादिमध्यान्तेषु जदन्तग्रहणाशुरुमनापृब्य न किंचित्कार्यमिति । श्त आरज्य मम सर्वस्मात्प्राणातिपाताहिरमणमिति निगमनम् । नैव स्वयं प्राणिनो. ऽतिपातयामि।नैवान्यैः प्राणिनोऽतिपातयामि।प्राणिनोऽतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि । व्रतप्रतिपत्तिं निगमयन्नाह । उपस्थितोऽस्मि । उप सामीप्येन तत्परिणामापत्त्या स्थितः । श्त श्रारज्य मम सर्वस्मात्प्राणातिपाताहिरमणं प्रत्याख्यानमिति॥१॥ (अर्थ.) पूर्वोक्त प्रकारे साधुए करवानो त्रिविध दंमनो परित्याग सामान्य करी कह्यो. तेनेज हवे विशेषेकरी पंचमहाव्रतरूपें कहे . तेमां प्रथम पहेलं महाव्रत कहे ने. (नंते के०) हे नदंत एटले हे गुरो (पढमे के०) प्रथमे एटले पहेला (महबए के०) महाव्रते एटले प्राणातिपातविरमणनामक महाव्रतने विषे (पाणावाया के०) प्राणातिपातात, प्राण एटले एकेडियादिक तेमनो जे अतिपात एटले अतिपीडा तेथी ( वेरमणं के०) विरमणं एटले सम्यग्ज्ञानश्रझानपूर्वक विरमण करवं. निवतवं. एम जगवाने कडं बे, माटे (नंते के०) हे नदंत, गुरो, (सवं के०) सर्व एटले सर्व प्रकारना (पाणाश्वायं के०) प्राणातिपातं एटले प्राणातिपातने (पच्चरकामि के०) प्रत्याख्यामि एटले पञ्चरकुं बु. (से के०) तद्यथा ते जेम केः-(सुहुमं वा के०) सूक्ष्मं वा एटले सूक्ष्म ते न्हाना शरीरवाला ( बायरं वा के० ) बादरं वा एटले अथवा स्थूलशरीरवाला एवा जे ( तसं वा के) त्रसं वा एटले बेंजियादिक त्रसजीव, तेमां कुंथुआदिक जे जे ते सूक्ष्म त्रस जाणवा, अने गजादिक जे जे ते बादर त्रस जाणवा. तथा ( थावरं वा के०) स्थावरं वा एटले पृथिव्यादिक स्थावर जीव तेमां वनस्पत्यादिक जे जे ते सूक्ष्म स्थावर जाणवा, अने पृथिव्यादिक जे डे, ते बादर स्थावर जाणवा. एवा (पाणे के०) प्राणिनः एटले जीवने (नेव सयं अश्वाजा के० ) नैव स्वयं अतिपातयामि एटले हुँ पोते हणीश नहि, ( अन्नेहिं के०) अन्यैः एटले बीजा लोको पासें (पाणे के०) प्राणिनः एटले पूर्वोक्त जीवोने ( नेव २४ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. वायाविद्या के० ) नैव अतिपातयामि एटले हणावीश नहीं, तथा ( पाणे के० ) पूवक्त प्राणियोने ( अश्वायंते विन्ने के० ) अतिपातयतोऽप्यन्यान्, एटले हणनारा एवा बीजाप्रत्ये पण (ए समणुजाणामि के० ) न समनुजानामि एटले अनुमोदना - पीश नहि. जावजीवाए अहिथी मांडीने श्रो सिरामि सुधीनो अर्थ पूर्ववत् जावो. हवे व्रतप्रतिपत्तिने पूर्ण करतो तो कहे बे. ( नंते के० ) दंत एटले है गुरो ! ( पढमे ho) प्रथमे एटले पहेला ( महवए के० ) महात्रतने विषे ( सवार्ड पाणाsatard ho ) सर्वप्राणातिपाततः एटले पूर्वोक्त सर्व प्राणातिपातथकी ( वेरमणं के० ) विरमणप्रत्यें ( जव हिमि के० ) उपस्थितोऽस्मि एटले तेना परिणामनी प्रातिथी समीप रहेलो बुं. ॥ १ ॥ ( दीपिका. ) यं च श्रात्मप्रत्ययो दमः सामान्यविशेषभेदात् द्वेधा । तत्र सामान्येन पूर्वं कथितः स एव विशेषेण महात्रतरूपतया श्राह सूत्रक्रमेण । प्रथमे दन्त हे गुरो ! महाव्रते महच्च ततं च महाव्रतं महत्त्वं च अणुव्रतापेक्षया तस्मिन् महाव्रते प्राणातिपाताद्विरमणे प्राणा एकेन्द्रियास्तेषामतिपातः प्राणातिपातो जीवस्य महाडुःखोत्पादनम् । नतु जीवातिपात एव तस्माद्विरमणं नाम सम्यग् ज्ञानानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनं जगवता कथितमिति शेषः । यतश्चैवमत उपादेयमिति निश्चित्य सर्वं हे दन्त प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति । सर्वं समस्तं नतु परिस्थूलमेव । हे दन्त हे गुरो ! प्राणातिपातव्याख्यानं पूर्ववत् । प्रत्याख्यामि निषेध - यामि । अथ प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि इत्युक्तं तद्विशेषतो वक्तुमाह । से शब्दो मागधी जाषाप्रसिद्धः अथशब्दार्थः । तद्यथा सूक्ष्क्षं वा बादरं वा त्रसं वा स्थावरं वा । 1 सूक्ष्मोऽल्पः परिगृह्यते । नतु सूक्ष्ानामकर्मोदयात्सूक्ष्मः । कथं तस्य कायेन व्यापादनस्याभावात् । बादरोऽपि स चैकैको द्विधा त्रसः स्थावरश्च । तत्र त्रसः सूक्ष्मः कु. न्वादिः । स्थावरः सूक्ष्मो वनस्पत्यादिः । बादरस्त्रसो गवादिः । बादरः स्थावरः पृथिव्यादिः । एतान् नैव सयं पाणे अश्वाइजत्ति नैव स्वयं प्राणिनोऽतिपातयामि । नैव अन्यैः प्राणिनोऽतिपातयामि । प्राणिनोऽतिपातयतोऽपि श्रन्यान् न समनुजानामि । यावजीवमित्यादि पूर्ववत् । व्रतप्रतिपत्तिं पूर्णा कुर्वन्नाह । प्रथमे नदन्त महात्रते उपस्थितोऽस्मि । उप सामीप्येन तस्य परिणामस्य श्रापत्त्या स्थितः । इत आरय मम सर्वस्मात् प्राणातिपाताद्विरमणम् ॥ १ ॥ ( टीका. ) अयं चात्मप्रतिपत्त्यह दम निक्षेपः सामान्यविशेषरूप इति सामान्येनोक्ल एव । स तु विशेषतः पञ्च महाव्रतरूपतयाप्यङ्गी कर्तव्य इति महाव्रतान्या For Private Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १८७ 1 ह | पढमे जंते इत्यादि । सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्राणातिपात विरमणं प्रथमम् | दंतेति गुरोरामन्त्रणम् । महाव्रत इति महच्च तद्रूतं च महाव्रतम् । महत्त्वं चास्य श्रावकसंबन्ध्णुव्रत । अत्रान्तरे सप्तचत्वारिंशदधिकप्रत्याख्यानजङ्गकशताधिकारः । तत्रेयं गाथा ॥ सीयालं जंगसयं, पञ्चरकाणंमि जस्स उवलऊं ॥ सो पञ्चरकाण कुसलो, सेसा सवे कुसलाई ॥ २९६ ॥ एनां चासंमोहार्थमुपरिष्टाध्याख्यास्यामः । तस्मिन् महात्रते प्राणातिपाता द्विरमणमिति । प्राणा इन्द्रियादयः तेषामतिपातः प्राणातिपातः । जीवस्य महाडुः खोत्पादनं न तु जीवातिपात एव । तस्मात्प्राणातिपाता द्विरमणम् । विरमणं नाम ज्ञानश्रद्धानपूर्वं सर्वथा निवर्तनम् । जगवतोक्तमिति वाक्यशेषः । यतश्चैवमत उपादेयमेतदिति निश्चित्य सर्वं जदन्त प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति । सर्वमिति निरवशेषम् । नतु परिस्थूरमेव । जदंतेति गुर्वामन्त्रणम् । प्राणातिपातमिति पूर्ववत् । प्रत्याख्यामीति । प्रतिशब्दः प्रतिषेधे, श्राङाजिमुख्ये, ख्या प्रकथने, प्रतीपमनिमुखं ख्यापनं प्राणातिपातस्य करोमि प्रत्याख्यामि । अथवा प्रत्याच संवृतात्मा सांप्रत - मनागतप्रतिषेधस्य दरेणानिधानं करोमीत्यर्थः । अनेन व्रतार्थपरिज्ञाना दिगुणयुक्त उपस्थानाह इत्येतदाह । उक्तं च ॥ पढिए य कहिय अहिगय परिहरउवठावणाजोगोति ॥ कं तीहिं विसुद्धं, परिहरणवएण जेदे ॥ पडपासाउरमादी, दिहंता होंति वयसमारुहणे ॥ जह मलिणाइसु दोसा सुद्धाइसु ऐव मिहइंपीत्यादि ॥ एते सिं लेसुद्दे से सीसहियsयाए वो जन्न । पढियाए सपरिन्नाए दसकालिए बीवणिकाए वा । कहिया अगिया संमं परिरिकऊण परिहरइ । बजीवलियाए मणवयणकाएहिं कयकारा वियाणुमइभेदेण तनुं वाविद्यइ ए अन्नहा इमे य इव पडादी दिहंता । मेलो पडो ए रंगिइ । असोहिए मूलपाए पासार्ज ए किद्यइ । सोहिए कि । वमाहिं सोहिए आउरे श्रोसहं न दिजइ । सोहिए दिजइ । - aar रणे बंधो न किद्यइ । संविए किद्यइ । एवं पढियक हियाईहिं असो-. हिए सीसे वयारोवणं किद्यइ । सोहिए किद्यइ । असोहिए य करणे गुरुणो दोसा साहिया पालणे सिस्सदोसो ति । कयं पसंगेण । यदुक्तम् । सर्वं नदन्त प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति । तदेतद्विशेषेण श्रनिधित्सुराह । सुदुमं वेत्यादि । सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धः । अथशब्दार्थः । स चोपन्यासे । तद्यथा सूक्ष्मं वा बादरं वा त्रस वा स्थावरं वा । अत्र सूक्ष्मोऽल्पः परिगृह्यते । न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मः । तस्य कायेन व्यापादनासंजवात् । तदेतद्विशेषतोऽनिधित्सुराह । बादरोऽपि स्थूरः । स चैकैको द्विधा । त्रसः स्थावरश्च । सूक्ष्मत्रसः कुन्थ्वादिः । स्थावरो वनस्पत्यादिः । बादरसो गवादिः । बादरः स्थावरः पृथिव्यादिः । एतान् ऐव सयं पाणे अश्वापत्ति प्राकृ I प For Private Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. तशैय्या बन्दसत्वात्तिङ तिङो नवन्तीति न्यायान्नैव स्वयं प्राणिनः अतिपातयामि। नैवान्यैःप्राणिनोऽतिपातयामि।प्राणिनोऽतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि। यावजीवादि पूर्ववत् । श्ह च सूदमं वा बादरं वेत्यादिनोपलदित एक ग्रहणे तजातीयग्रहणमिति चतुर्विधः प्राणातिपातो अष्टव्यः । तद्यथा अव्यतः देवतः कालतो नावतश्चेति । तत्र अव्यतः षट्सु जीवनिकायेषु सूक्ष्मादि निन्नेषु । क्षेत्रतो लोके तिर्यग्लोका दिनेदनिन्ने । कालतोऽतीतादौरात्र्यादौ वा। जावतो रागेण वा शेषेण वा । मांसादिरागशत्रुशेषान्यां तापपत्तेरिति।चतुर्नङ्गिका चात्र। दवणामेगे पाणाश्वाए ण नाव इत्यादिरूपा यथा पुमपुष्पिकायां तथा अष्टव्येति।व्रतप्रतिपत्तिं निगमयन्नाह।प्रथमे नदन्त महाव्रत उपस्थितोऽस्मि।उप सामीप्येन तत्परिणामापत्त्या स्थितः। श्त आरज्य मम सर्वस्मात्प्राणातिपाताहिरमणमिति।नदंत इत्यनेन चादिमध्यावसानेषु गुरुमनापृय न किंचित्कर्तव्यं, कृतं च तस्मै निवेदनीयमेवं तदाराधितं जवतीत्येवमाह।उक्तं प्रथमं महाव्रतम् ॥१॥ अदावरे दुच्चे नंते मदवए मुसावाया वेरमणं । सवं नंते मुसावायं पच्चरकामि । से कोदा वा, लोहा वा नया वा, दासा वा, नेव सयं मुसं वश्का। नेवन्नेहिं मुसंवायाविजा।मुसं वयंते वि अन्ने न समणुजाणामि। जावजीवाए तिविहं तिविदेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स ते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। उच्चे नंते महत्वए जवहिनमि सवान मुसावाया वेरमणं ॥२॥ (श्रवचूरिः ) द्वितीयमाह । अथापरस्मिन् द्वितीये नदन्त महाव्रते मृषावादाहिरमणं सर्वं जदन्त मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा । क्रोधाझा लोनाहा इत्यनेन श्राद्यन्तग्रहणान्मानमायापरिग्रहः । जयाझा हासाझा इत्यनेन प्रेमटेषकलहान्याख्यानादिपरिग्रहः । मृषा चतुर्का । सन्नावप्रतिषेधः । असनावोनावनम् । अर्थान्तरानिधानम् ३ । गर्दा च ।। तत्राद्यं नास्त्यात्मेत्यादि । द्वितीयमस्त्यात्मा सर्वगतः श्यामाकतन्डुलमानो वा शतृतीयं गामश्वमनिदधतः ३ । चतुर्थं काणं काणम निदधतः । पुनश्चतुर्का अव्यदेवकालनावरूपतः। अव्यादिष्वन्यथाप्ररूपणात्। - व्यादिचतुर्नङ्गी पुनरियम् । दवढ णामेगे मुसावाए नो नाव इत्यादि । नैव स्वयं मृषा वदामि । नैवान्यैर्मृषा वादयामि । मृषा वदतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि । द्वितीये नदन्त महाव्रते उपस्थितोऽस्मि । सर्वस्मान्मृषावादाहिरमणं प्रत्याख्यामीति ॥२॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १८ ए (अर्थः) हवे बीजं मृषावाद विरमणरूप महाव्रत कहे बे. ( अह के० ) अथ एटले हवे पी (जंते के०) हे जदंत, गुरो ! (अवरे के० ) अपरे एटले अनेरा ( फुच्चे के० ) द्वितीये एटले बीजा (महवए के०) महात्रते एटले महाव्रतने विषे (मुसावाया के० ) मृषावादात् एटले असत्य बोलवाथकी ( वेरमणं के० ) विरमणं एटले निवर्ततुं तीर्थ करादिक बे, माटे ( जंते के० ) हे गुरो ! ( सवं के० ) सर्वं एटले सर्व (मुसावायं के० ) मृषावादं एटले असत्य जाषण जे करयुं होय, ते प्रत्ये ( पच्चरका मि के० ) प्रत्याचके एटले पच्चकुं हुं . ( से के०) तद्यथा एटले ते जेम केः (कोहा वा के० ) कोधाद्वा एटले क्रोकरी, अथवा (लोहा वा के०) लोनाद्वा एटले लोथी अहिं " - दिना तथा अंतना ग्रहणथी मध्यनुं पण ग्रहण कर " एवा न्यायथी मान माया ए बेनुं ग्रहण कर. अथवा ( जया वा के० ) जयाद्वा एटले जयश्री, अथवा ( हासा वा के० ) हास्याद्वा एटले उपहास करवाना प्रसंगथी यहिं उपलक्षणथी प्रेमाने द्वेष ए वे शब्दनुं ग्रहण करतुं . ( सयं के० ) स्वयं एटले पोतें हुं ( मुसं के० ) मृषा एटले असत्य (नेव वद्या के० ) न वदामि एटले नहिं बोलुं. यहीं मृषावाद जे बे ते, चार प्रकारनो जावो. ते एवी रीतेः- एक सद्भावप्रतिषेध, बीजो असनावोनावन, त्री जो तर अने चोथो गर्हा, ते चारमां सद्भावप्रतिषेध एटले श्रात्मा नथी, पुण्य नथी, पाप नथी एवीरीते शास्त्रसिद्ध सङ्घस्तुनो प्रतिषेध करवो. बीजो सद्भावोद्भावन ते आत्मा सर्वगत बे, अथवा श्यामाकतंडुलप्रमाण बे, एम शास्त्रविरुद्ध सद्वस्तुनी कल्पना करवी तथा त्रीजो अर्थातर मृषावाद ते बलदने अश्व कहेवो, तथा अश्वने बलद केहवो इत्यादि. चोथो गर्दामृषावाद ते काणाने काणो के वो इत्यादि. एवीरीतें चार प्रकारनो मृषावाद जाणवो. वली द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा जाव ए नेदथी पण चार प्रकारनो जाणवो. एमां को पण जातनो मृषावाद हुं करूं नहीं, तथा ( अन्नेहिं के० ) अन्यैः एटले बीजापासें ( मुसं के० ) मृषा एटले असत्य (नेव वायाविद्या के० ) नैव वादयामि एटले बोलावुं नहीं, तथा (मुसं वयं विन्ने के०) मृषा वदतोऽप्यन्यन्, एटले मृषावाद करता बीजा प्रत्ये पण ( न समजाणामि के० ) न समनुजानामि एटले अनुमोदन पुं नहीं. अहीं थी जावीवादिको अर्थ बे, जे ते पूर्ववत् जावो ॥ २ ॥ ( दीपिका ) उक्तं प्रथममथ द्वितीयं व्रतमाह । छाथ अपरस्मिन् द्वितीये जदन्त महात्रते मृषावादाद्विरमणम् । सर्वं हे जदन्त मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा क्रोधान्नैव मृषावादं वदामि इत्युक्तिः । एवं लोनाद्वा । श्राद्यन्तयोर्ग्रहणे मध्य For Private Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० राय धनपतसिंघबहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. स्यापि ग्रहणमिति न्यायात् मानमाययोर्ग्रहणम् । ततो मानाद्वा, मायाया वा, पुनर्जयाद्वा, हासाद्वा, उपलक्षणत्वात् प्रेमतो वा, द्वेषतो वा, अन्याख्यानादितो वा, नैव मृषा स्वयं वदामि । नैव मृषा अन्यैर्वादयामि । नैव मृषा वदतोऽपि श्रन्यान् समनुजानामि । यावजीवमित्यादि पूर्ववत् ॥ २ ॥ I ( टीका ) इदानीं द्वितीयमाह अहावरे इत्यादि । अथापरस्मिन् द्वितीये जदन्त महात्रते मृषावादाद्विरमणं सर्वं जदन्त मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा । क्रोधाद्वा लोनाद्वेत्यनेनाद्यन्तग्रहणान्मानमायापरिग्रहः । जयाद्वा हास्याद्वा इत्यनेन तु प्रेमद्वेष कल हा ज्याख्यानादिपरिग्रहः । णेव सयं मुसं वएक ति । नैव स्वयं मृषा वदामि नैवान्यैर्मृषा वादयामि, मृषा वदतोऽप्यन्यान् न समनुजानामि । इत्येतद्यावजीवमित्यादि च जावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम् । मृषावादश्चतुविधः । तद्यथा । सद्भावप्रतिषेधः । श्रसद्भावोद्भावनम् । अर्थान्तरम् । गर्दा च । तत्र सद्भावप्रतिषेधो यथा । नास्त्यात्मा नास्ति पुण्यं पापं चेत्यादि । सद्भावोद्भावनं यथा । वस्त्यात्मा सर्वगतः, श्यामाकतन्डुलमात्रो वेत्यादि । अर्थान्तरम् गामश्वमजिदधत इत्यादि । गर्दा काणं काणमजिदधत इत्यादिः । पुनरयं क्रोधादिनावोपल दितश्चतुर्धा । तद्यथा । द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो जावतश्च । द्रव्यतः सर्वद्रव्येष्वन्यथाप्ररूपणात् । त्रतो लोकालोकयोः । कालतो रात्र्यादौ । जावतः क्रोधादिनिः । इति । द्रव्यादिचतुर्जंगी पुनरियम् । दव णामेगे मुसावाए यो जावई । जाव णामेगे णो दवर्ड । एगे दवd वि जाव वि । एगे णो दव णो जाव । तब कोइ कहिं वि हिंसु जइ । इ तर पसुमिलाइयो दिति । सो दयाए दिठा वि जण दिहति । एस दad मुसावार्ड नो जावई । अवरो मुसं जणीहामित्ति परिपर्ज सहसा सबं जइ । एस जाव नो दव । अवरो मुसं जणी हामित्ति परिण मुसं चैव जइ । एस दad वि जाव वि । चरमजंगो पु सुलो ॥ २ ॥ प्रदावरे तच्चे जंते मदवर अदिन्नादाणान वेरमणं । सवं नंते अदिन्नादाणं पञ्चकामि । से गामे वा नगरे वा रसे वा अप्पं वा बढुवा प्रणु वा थलं वा चित्तमंतं वा चित्तमंतं वा नेव सयं प्रदन्नं गिरिहका । नेवन्नेदिं प्रदिन्नं गिएहाविका । अदिन्नं गिरहंते वि न्ने न समपुजाणामि । जावजीवाए तिविदं तिविदेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेम करतं पिन्नं न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिक्कमामि । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । तच्चे जंते महवए नवनिमि सवान दिन्नादाणान वेरमणं ॥ ३ ॥ ( अवचूरिः ) तृतीयमाह । अथापरस्मिन् तृतीये जदन्त महाव्रते अदत्तादानाद्विरमणम् । सर्वं जदन्त अदत्तादानं प्रत्याख्यामीति । ग्रसति बुद्ध्यादीन् गुणान् ग्रामः । ग्रामादिग्रहणेन क्षेत्रपरिग्रहः । नगरे वा नास्मिन्करो नकरमिति । ये वा । अरण्यं काननादि । श्रल्पं वा । श्रल्पं मूल्यत एरएककाष्ठादि । बहु वा बहु वजादि । वा । णु प्रमाणतो वज्रादि । स्थूलमेर एकाष्ठादि । एतच्च चित्तवाचित्तवा चेतनाचेतनमित्यर्थः । चतुर्थादत्तादानं द्रव्यतोऽल्पादौ देत्रतो ग्रामादौ कालतो रात्र्यादौ जावतो रागद्वेषाच्याम् । द्रव्यादि चतुर्जङ्गी पूर्ववत् । न स्वयमदत्तं गृह्णामि नान्यैरदत्तं ग्राहयामि श्रदत्तं गृह्णतो नान्यान्समनुजानामि ॥ ३ ॥ २०१ (अर्थ. ) हवे त्रीजुं अदत्तादानविरमण नामक महाव्रत कहे बे. ( अह के० ) हवे पी, (ते के० ) हे जदंत, हे गुरो ! (अवरे के०) अपरे एटले पूर्वे कला तेथी रा ( तच्चे के ) तृतीये एटले त्रीजा ( मदवए के० ) महात्रते एटले महाव्रतने विषे ( दिन्नादाणा के० ) अदत्तादानात् एटले अदत्तादानथी ( वेरमणं के० ) विरमणं एटले विरम, निवर्तयुं, एम तीर्थकरादिकें कयुं बे, माटे ( जंते के० ) हे दंत, गुरो ! (सवं के०) सर्वं एटले सूक्ष्म, बादर, थोकुं, घणुं ए सर्व (अदिन्नादा bo ) अदत्तादानं एटले दीधुं लेवुं ते प्रत्यें ( पच्चरका मि के० ) प्रत्याच एटले पञ्चकुं हुं . ( से के० ) तद्यथा ते जेम के, ( गामे वा के० ) ग्रामे वा एटले जे गुणवंतना गुणनो ग्रास करे बे, तेने ग्राम कहिये, ते गामनेविषे, अथवा ( नगरे के० ) नकरे एटले ज्या कर नथी, एवा पुरनेविषे, अथवा ( रसे वा के० ) अरण्ये वा एटले अरने विषे, एटला स्थानने विषे ( अप्पं वा के० ) अल्पं वा एटले जेनुं मूल्य अल्प होय, एवं दांत खोतरवानुं तृणादिक पण ( बहु वा के० ) बहु एटले जेतुं मूल्य घंबे, एवं सुवर्णादिक अथवा ( अणुं वा के० ) अणु एटले न्हानुं हीरकादिक, अथवा (थूलं वा के० ) स्थूलं वा एटले प्रमाणथी मोटुं एरंडकाष्ठादिक, अथवा ( चित्तमंतं वा के० ) चित्तवा, एटले सचित्त एवं शिष्यादिक, अथवा (चित्तमंतं वा के० ) चित्तवा एटले चित्त एवं सली प्रमुख, ( दिन्नं के० ) दत्तं एटले दधुं बतां ( नेव सयं गिरिहा के० ) नैव स्वयं गृह्णामि एटले हुं पोते ग्रहण करुं नहिं, (अन्नहिं के० ) अन्यैः एटले बीजा पासे ( अदिन्नं के० ) दत्तं एटले पूर्वोक्त वस्तुमां कोइ वस्तु अणदीधी होय तो तेने ( नेव गिहाविद्या For Private Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९१ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. ho ) नैव ग्राहयामि एटले ग्रहण करावं नहीं, तथा ( दिन्नं गिरहंते वि ने के० ) दत्तं गृह्णतोऽन्यानपि एटले अणदीधुं ग्रहण करता एवा बीजाने पण हुं ( न समजाला मि के० ) न समनुजानामि एटले अनुमोदन पुं नहिं जावजीवाए इत्यादिको पूर्ववत् जाणवो. वली उपर कहेलुं श्रदत्तादान चार प्रकारनुं बे. ते एवरी:- एक व्यतः, बीजं देत्रतः, त्रीजुं कालतः अने चोथं जावतः तेमां 5व्यतः अदत्तादान ते थोकुं अथवा घणुं कोइ पण द्रव्य लेवुं ते, बीजुं क्षेत्रतः प्रदतादान ते ग्रामादिकने विषे लेवुं ते, त्रीजुं कालतः अदत्तादान ते रात्रि यादिकने समयें लेवुं ते. चोथु जावतः अदत्तादान ते रागद्वेषथी लेवुं ते, एवा अदत्तादानना चार प्रकार जाणवा. ॥ ३ ॥ 1 ( दीपिका. ) उक्तं द्वितीयं व्रतम् । अथ तृतीयं व्रतमाह । अथ अपरस्मिंस्तृतीये हेजदन्त महाव्रते यदत्तादानात् विरमणम् । सर्वं देजदन्त ! श्रदत्तादानं प्रत्याख्यामि । इत्यादि पूर्ववत् । तथा ग्रामे वा नगरे वा, अरण्ये वा उपलक्षणत्वात् क्षेत्रे वा । प्रसिद्धानि एतानि । तथा अल्पं मूल्यत एरएककाष्ठादि द्रव्यम् । बहु वा मूल्यतो वजादि द्रव्यम्, अणु वा प्रमाणतो वज्रादि द्रव्यं, स्थूलं वा एरएमकाष्ठादि द्रव्यं, एतच्च चित्तवा सचेतनं, अचित्तवद्वा श्रचेतनं नैव स्वयमदत्तं गृह्णामि नैव श्रन्यैः दत्तं ग्राहयामि । नैव दत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान् समनुजानामि । यावजीवमित्यादि व्याख्यानं पूर्ववत् ॥ ३ ॥ ( टीका. ) उक्तं द्वितीयं महाव्रतम् । अधुना तृतीयमाह । हावरे इत्यादि । अथापरस्मिंस्तृतीये जदन्त महात्रते अदत्तादानाद्विरमणम् । सर्वं जदन्त दत्तादानं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा । ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा इत्यनेन क्षेत्रपरिग्रहः। तत्र सति बुद्ध्यादीन् गुणानिति ग्रामः तस्मिन् । नास्मिन् करो विद्यत इति नकरम् । अरण्यं काननादि । अल्पं वा बहु वा । अणु वा । स्थूलं वा । चित्तवद्वा । अचित्तवा इत्यनेन तु द्रव्यपरिग्रहः । तत्राल्पं मूल्यत एरएककाष्ठादि । बहु वज्रादि । अणु प्रमाणतो वज्रादि । स्थूलमेर एककाष्ठादि । एतच्च चित्तवद्वा चित्तवद्वेति चेतनाचेतनमित्यर्थः । व यदि गेद्यति । नैव स्वयमदत्तं गृह्णामि । नैवान्यैरदत्तं ग्राहयामि । अदत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान् न समनुजानामीत्येतद्यावती व मित्यादि च जावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम् । श्रदत्तादानं चतुर्विधम् । द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो जावतश्च । द्रव्यaiser | तो ग्रामादौ । कालतो रात्र्यादौ । जावतो रागद्वेषान्याम् । द्रव्यादिचतुङ्गी वियम् । दर्ज णामेगे दिसादाणे गोजावर्ज । जाव णामेगे णो दad । एगे For Private Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २५३ दव विजावट वि । एगे जो दवर्ड णो नाव:। तब अरत्तठस्स साहुणो कहिं विश्रपणुमवेऊण तणा गेण्ह दवर्ड अदिमादाणं णो जावा हरामीति अनुजयस्स तद: संपत्तीए नाव नो दवजी एवं चेव संपत्तीए नाव दव वि।चरिमनंगोपुण सुन्नो॥३॥ अदावरे चनने नंते महत्वए मेहुणान वेरमणं। सवं ते मेहुणं पच्चरकामि।से दिवं वा माणुसं वा तिरिकजोणियं वा । नेव सयं मेदुणं सेविजा । नेवन्नेहिं मेढुणं सेवाविद्या । मेहुणं सेवंते वि अन्ने न समणुजाणामि । जावजीवाए तिविदं तिविदेणं मणेणं वायाए कायेणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स नंते पडिकमामि निंदामि गरिदामि अप्पाणं वोसिरामि । चउने नंते महत्वए उवहिन मि सबा मेहुणा वेरमणं ॥४॥ (श्रवचूरिः) तुर्यमाह । अथापरस्मिन् चतुर्थे जदन्त महाव्रते मैथुनाहिरमणं सर्वं नदन्त मैथुनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । दैवं वा देवानामिदं दैवम् । अप्सरोऽमरसंबन्धि । मानुषं वा तैर्यग्योनिकं वा । दैवं नवनवास्यादि । अनेन अव्यपरिग्रहः । मैथुनं अव्यादिचतुर्विधम्।तत्र अव्येषु रूपेषु रूपसहगतेषु।रूपेषु निर्जीवेषु प्रतिमारूपेषु । रूपसहगतेषु सजीवपुरुषस्त्रीरूपेषु । नूषणविकलानि वा रूपाणि । नूषणसहितानि रूपसहगतानि। देवतस्त्रिषुलोकेषु । कालतो रात्र्यादौ । जावतो रागद्वेषान्यां। व्यादिचतुर्नगिकेयम् । श्ररत्तउठाए बला जुङमाणीए दवर्ड मेहुणे नो नावठ । मेहुणसन्नापरिणयस्स तदसंपत्तीए नाव मेहुणे नो दवः । एवं चेव संपत्तीए नाव: वि दव वि । चरिमन्नंगो सुन्नो । नैव स्वयं मैथुनं सेवे । नैवान्यैर्मैथुनं सेवयामि । सेवमानानन्यान् न समनुजानामि ॥ ४ ॥ (अर्थ. ) हवे चोथु मैथुनविरमणनामक महावत कहे . (नंते के० ) हे नदंत, गुरो ! (श्रह के० ) अथ एटले हवे पड़ी, (अवरे के०) अपरे एटले अनेरा (चउछे के०) चतुर्थे एटले चोथा ( महत्वए के०) महाव्रते एटले महाव्रतने विषे, ( मेहुणा के०) मैथुनात्. एटले अब्रह्मविषयसेवनथी, (वेरमणं के०) विरमणं एटले विरम, निवर्तवं तीर्थकरादिकें कडं ने, माटे (नंते के ) नदंत, हे गुरो ! (सई के०) सर्वं एटले औदारिकादिक सर्व ( मेहुणं के०) मैथुनं एटले मैथुनने (पच्चरकामि के०) प्रत्याचदे एटले पच्चरकाण करुं बु. ( से के०) तद्यथा ते श्राप माणे (दिवं वा के० ) देवं वा, एटले देवता संबंधि, अथवा (माणुस वा के०) मा Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ए। राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. नुषं वा एटले मनुष्यसंबंधि, अथवा (तिरिकजोणियं वा के०) तैर्यग्योनिकं वा एटले तिर्यग्योनिसंबंधि (मेहणं के०) मैथुनं एटले मैथुनने ( नेव सेविका के० ) नैव सेवे, एटले पोते नहींज सेवं, तथा (अन्नेहिं के० ) अन्यैः एटले बीजापासे ( मेहुणं के० ) मैथुनं एटले पूर्वोक्त मैथुनप्रत्ये ( नेव सेवा विद्या के०) नैव सेवयामि एटले सेवन करावीश नहीं. तथा ( मेहुणं के०) मैथुनं एटले मैथुनप्रत्ये (सेवंते वि अन्ने के० ) सेवमानानन्यान् एटले सेवन करनारा बीजाप्रत्ये पण (न समणुजाणामि के०) न समनुजानामि एटले अनुमोदन थापुं नहीं. 'जावङीवाए' इत्यादिकनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. तेमां एटलुं विशेष बे, जे मैथुन चार प्रकारनुं बे. एक अव्यथी मैथुन ते दिव्यादि संबंधि जाणवू. बीजु देवथी मैथुन त्रण लोक माहेला प्रदेशविषे जाणवू. त्रीजुं कालथी मैथुन ते रात्र्यादिकनेविषे जाणवू. चोथु जावथी मैथुन ते रागद्वेषादिकें करी जाणवं. ए मैथुनविरमणरूप चोथु महाव्रत कह्यु.॥४॥ (दीपिका.) उक्तं तृतीयं व्रतमधुना चतुर्थं व्रतमाह । श्रथ अपरस्मिन् चतुर्थे हे नदन्त महावते मैथुनाहिरमणं, सर्वं हे जदन्त मैथुनं प्रत्याख्यामि । तद्यथा । मैथुनं त्रेधा दैवं वा, मानुषं वा, तैर्यग्योनं वा । तत्र देवानामिदं देवं देवदेवीसंबन्धि १ एवं मानुषं २ तैर्यग्योनिकं च ३ ज्ञातव्यम् । न खयं मैथुनं सेवे । नच अन्यैः मैथुनं सेवयामि । नैव मैथुनं सेवमानान् अन्यान् समनुजानामि इति । यावजीवमित्यादि व्याख्यानं पूर्ववत् ॥४॥ (टीका.) उक्तं तृतीयं महाव्रतम् । इदानी चतुर्थमाह । श्रहावरे इत्यादि । श्रथापरस्मिश्चतुर्थे महाव्रते मैथुनाछिरमणं सर्व नदन्त मैथुनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा दैवं वा मानुषं वा तैर्यग्योनं वा । अनेन अव्यपरिग्रहः । देवीनामिदं दैवम् । अप्सरोऽमरसंबन्धी तिनावः।एतच्च रूपेषु वा रूपसहगतेषु वा अव्येषु नवति । तत्र रूपाणि निर्जीवानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते । रूपसहगतानि तु सजीवानि । नूषणविकलानि वा रूपाणि, भूषणसहितानि तु रूपसहगतानि । एवं मानुषं तैर्यग्योनं च वेदितव्यमिति । णेव सयं मेहुणं सेविद्या । नैव स्वयं मैथुनं सेवे । नैवान्यमैथुनं सेवयामि । मैथुनं सेवमानानप्यन्यान्न समनुजानामि । इत्येतद्यावजीवमित्यादि च नावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम् । मैथुनं चतुर्विधम् । अव्यतः क्षेत्रतः कालतो नावतश्च । अव्यतो दिव्यादौ । क्षेत्रतस्त्रिषु लोकेषु । कालतो रात्र्यादौ । जावतो रागद्वेषाच्याम् । दोसेणमिमीए वयं मुंजेमि त्ति । दोसुप्तवं रागेण हो । अव्या Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । दिचतुर्जङ्गी स्वियम् । दवढ णामेगे मेहुणे णो जाव। नाव णामेगे तो दवउँ । एगे दवा वि नाव वि।एगे जो दवर्ड णो नावः । तब अरत्तउठाए छियाए बला परि, झुंजमाणीए दवर्ड मेहुणं णो नाव। मेहुणसलापरिणयस्स तदसंपत्तीए नाव को दवः । एवं चेव संपत्तीए दव वि जावां वि । चरमनंगो पुण सुन्नो ॥४॥ अदावरे पंचमे नंते महत्वए परिग्गहान वेरमणं । सत्वं नंते परिग्गदं पञ्चकामि । से अप्पं वा बढुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं परिगिएिहका । नेवन्नेहिं परिग्गरं परिगिहाविजा। परिग्गडं परिगिएदंतेवि अन्ने न समणुजाणिजा। जावजीवाए तिविहं तिविदेणं मणेवायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समाजाणामि । तस्स नंते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। पंचमेनंते महत्वए जवहिनमि सवा परिग्गहान वेरमणं ॥५॥ (श्रवचूरिः) इदानीं पञ्चममाह । श्रथापरस्मिन् पञ्चमे नदन्त महाव्रते परिग्रहाधिरमणं । सर्वं नदंत परिग्रहं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा । अस्पं वेत्यादि पूर्ववत् । चतुर्धा परिग्रहः अव्यदेत्रकालजावतः। अव्यादिचतुर्नङ्गिकेयम् ॥ अरत्तठस्स धम्मोवगरणं दव परिग्गदो नो नाव । मुछियस्स तदसंपत्तीए नाव नो दबट। एवं चेव संपत्तीए दव वि नाव वि। चरिमन्नंगो सुन्नो। अव्यत श्राकाशादिसर्वजव्येषु । यदाह चूर्णिकारः ॥ गामघरंगणाई एएसुममकरणा । श्रागासपरिग्गहो घाण निसीयणतुयट्टणएसु ममकारकरणा अहवा जीवदवपरिग्गहो पुत्तजजाश्सु ममकारो। अजीवदवपरिग्गहो हिरन्नसुवन्नाश्सु ममकारो।पुग्गलदवपरिग्गहो सीउन्हवरिसकालेसु मुछियस्स कालदवपरिग्गहो । नैव खयं परिग्रहं परियएहामि । नैवान्यैः परिग्रहं ग्राहयामि । परिग्रहं गृण्हतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि ॥५॥ - (अर्थ.) हवे पांचमुं परिग्रहविरमण नामक महाव्रत कहे . अहावरत्ति । (जंते के०) हे जदंत, गुरो ! (श्रह के) अथ एटले हवे पड़ी, (अवरे के०) अपरे एटले पूर्वे कहेला चार व्रतथी अनेरा एवा (पंचमे के०) पांचमा ( महत्वए के०) महानते एटले महाव्रतनेविषे ( परिग्गहा के) परिग्रहात् एटले नव प्र. कारना परिग्रहथी (वेरमणं के०) विरमणं एटले विरमद्, निवर्तवं एम तीर्थकरादिकें कडं बे, माटे (जंते के०) जदंत हे गुरो ! ( सवं के) सर्वं एटले सर्व प्रकारना (परिग्गहं के०) परिग्रहं एटले परिग्रहने (पञ्चकामि के०) प्रत्याचदे एटले पञ्च Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. खु . ( से के०) तद्यथा एटले ते श्रावीरीते के, (अप्पं वा के० ) अल्पं वा एटले जेनुं मूल्य अस्प बे, एवं एरंडकाष्ठादिक, तथा ( बहुं वा के०) जेनुं मूल्य घणुं बे, एवा रत्नादिक, अथवा (अणुं वा के०) आकारथी न्हाना एवा रत्नादिक, अने (शूलं वा के) स्थूलं वा एटले प्रमाणथी मोटा हाथी प्रमुख (चित्तमंतं वा के०) चित्तवंतं वा एटले सचित्त एवा, अथवा (अचित्तमंतं वा के) अचित्तवंतं वा एटले अचित्त एवा, ( परिग्गरं के० ) परिग्रहं एटले परिग्रहने ( सयं के०) स्वयं एटले पोतें (णेव परिगिण्हेजा के0 ) नैव परिगृहामि, स्वीकारूं नहि, तथा (श्रन्नेहिं के० ) बीजा पासें (परिग्गहं के) परिग्रहं एटले पूर्वोक्त परिग्रहने ( नेव परिगिण्हा विजा के०) नैव परिग्राहयामि एटले स्वीकार करावु नहि. तथा (परिग्गहं गिण्हते वि श्रन्ने के ) परिग्रहं गृण्हतोप्यन्यान् एटले परिग्रहना ग्राहक एवा बीजाने पण ( न समणुजाणामि के० ) न समनुजानामि एटले अनुमोदना आपुं नहि. 'जावजीवाए' इत्यादिकनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. अहिं पण विशेष ए ने के, पूर्वोक्त परिग्रह चार प्रकारनो . एक व्यथीः परिग्रह ते सर्वप्रव्यविषे जाणवो. बीजो क्षेत्रथी परिग्रह ते त्रण लोकनेविषे जाणवो. त्रीजो कालथी परिग्रह ते रात्र्यादिकने विषे जाणवो. चोथो नावथी परिग्रह ते रागद्वेषादिकथी जाणवो. केटलाक ग्रंथकार परिग्रहना चार प्रकार जूदीज रीतें कहे जे, ते श्रावीरीतेः-एक तो केवल अव्यथी परिग्रह ते रागद्वेषरहित साधूनां उपकरण जाणवां. बीजो केवल जावथी परिग्रह एटले मूर्बित पुरुषने अव्यसंपत्ति न होवाथी जे केवल परिग्रहनो मानसिक जाव ते केवल जावथी परिग्रह जाणवो. त्रीजो संपन्न पुरुषनो जे अव्यथी तथा जावथी परिग्रह ते अव्यनावोजयपरिग्रह जाणवो. चोथो, जे अव्यथी पण परिग्रह नथी, अने नावथी पण नथी, ते शून्यनांगो जाणवो. ए परिग्रह विरमपनामक पांच, महाव्रत कथु.॥५॥ (दीपिका.) उक्तं चतुर्थं व्रतं सांप्रतं पञ्चमं महाव्रतमुच्यते । अथ अपरस्मिन् पञ्चमे हे नदन्त महाव्रते परिग्रहाहिरमणम् । सर्वे हे नदन्त परिग्रहं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा। नैव स्वयं परिग्रहं परिगृह्णामि, नैव अन्यैः परिग्रहं परिग्राहयामि परिग्रहं परिगृह्णतोऽपि अन्यान् न समनुजानामि । इत्येतत् यावजीवमित्यादि च व्याख्यानं पूर्ववत् ॥५॥ (टीका.) उक्तं चतुर्थं महाव्रतं सांप्रतं पञ्चममाह । श्रहावरे इत्यादि । अथापरस्मिन् पञ्चमे जदन्त महाव्रते परिग्रहाहिरमणम् । सर्व नदन्त परिग्रहं प्रत्याख्यामी. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। ति पूर्ववत् । तद्यथा । अल्पं वेत्याद्यवयवव्याख्यापि पूर्ववदेव । नैव स्वयं परिग्रहं परिगृह्णामि । नैवान्यैः परिग्रहं परिग्राहयामि । परिग्रहं परिगृह्णतोऽप्यन्यान्न समनुजानामीत्येतद्यावजीवमित्यादि नावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम् । परिग्रहश्चतुर्विधः। तद्यथा, अव्यतः देवतः कालतो नावतश्च । अव्यतः सर्वव्येषु । देवतो लोके।कालतो रात्र्यादौ। नावतो रागषाच्याम्।अन्यरेषे परिग्रहोपपत्तेः। अव्यादिचतुर्नङ्गी पुनरियम् । दवड नामेगे परिग्गहे णो नावठ। नाव णामेगे णो दवउँ । एगे दव वि नाव: वि। एगे णो दवर्ड णो नाव। तब अरत्तठस्स धम्मोवगरणं दवर्ड परिग्रहो णो नावउँ । मुछियस्स तदसंपत्तीए नाव ण दवः । एवं चेव संपत्तीए दव वि नाव वि। चरमजंगो जण सुन्नो ॥५॥ अहावरे नंते वए राईनोयणा वेरमणं । सर्व नंते राईनोयणं पञ्चकामि।से असणं वा पाणं वा खाश्मं वा साश्मं वा । नेव सयं राई मुंजेडा । नेवन्नेदि राई मुंजाविका। राई मुंजते वि अन्ने न समणुजारोजा । जावजीवाए तिविदं तिविदेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्ने न समाजाणामि । तस्स नंते पमिकमामि । निंदामि। गरिदामि। अप्पाणं वोसिरामि। बहे नंतेवए उवनि मि । सबा राईनोयणा वेरमणं ॥६॥ (अवचूरिः) षष्ठं व्रतमाह । अथापरस्मिन् षष्ठे व्रते रात्रिनोजनाहिरमणम् । सर्व नदन्त रात्रिनोजनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । अशनं वा अश्यत इति श्रशनमोदनादि । पीयत इति पानं मृहीकापानादि । खाद्यत इति खादिम खर्जूरनालिकेरादि । खाद्यत इति खाद्यं ताम्बूलादि । रात्रिनोजनं चतुर्विधम् । अव्यतोऽशनादौ । देवतोर्धतृतीयहीपसमुज्ञेषु । कालतो रात्र्यादौ । नावतो रागद्वेषाच्याम् । खरूपतोऽस्य चातुर्विध्यम् । रात्रौ गृह्णाति रात्रौ जुड़े । रात्रौ गृह्णाति दिवा जुड़े। दिवा गृह्णाति रात्रौ जुड़े । दिवा गृह्णाति दिवा तुड़े । सन्निधिपरिनोगे अव्यादि चतुर्नङ्गीयम् । अरत्तफुस्स अणुग्गए सूरिए उग्गउँत्ति अबमिए वा अणबमिए वा अणमित्ति कारणा वा रयणीए लुंजमाणस्स दध राश्नोअणं नो नाव । राइए मुंजामित्ति तदसंपत्तीए नाव नो दवउँ । एवं चेव संपत्तीए जाव: वि दवर्ड वि। चउडो नंगो सुनो ॥६॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ राय धनपतसिंघबहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)-मा. ( अर्थ. ) एवा पांच महाव्रत कहींने हवे बहुं रात्रिजोजन विरमणरूप व्रत कहे . हावरति । ( ते के० ) हे जदंत, गुरो ! ( अह के० ) अथ एटले हवे पी ( अवरे के० ) अपरे एटले पूर्वोक्त पांच महाव्रतोथी खनेरा एवा ( बहे के० ) षष्ठे एटले बघा ( वए के० ) व्रते, एटले व्रतने विषे ( राइजोया के ० ) रात्रिजोजनात् एटले चार प्रकारना रात्रिजोजनथी ( वेरमणं के० ) विरमणं एटले विरमनुं, निवर्त तीर्थकरादिर्केकयुं बे, माटे ( सवं के० ) सर्व, एटले थोडा घणा ए सर्व ( राइनोय के० ) रात्रिजोजनं एटले रात्रिजोजन प्रत्यें ( पञ्चरका मि के० ) प्रत्याचके एटले पञ्चरकुंडं. ( से के० ) तद्यथा एटले ते श्रावीरीतें के, ( असणं वा के० ) - शनं वा, अश्यत इति श्रशनं एटले जेनुं जक्षण कराय बे, ते योदन, पक्वान्न प्रमुख अथवा (पाणं वा के० ) पानं, पीयत इति पानं एटले जेनुं पान कराय बे, एवं प्राकापानका दिक ते, अथवा ( खाइमं वा के० ) खाद्यं वा एटले जे खातां दंतनी घणी जरूर लागे ते खाद्य, अथवा ( साइमं वा के० ) स्वाद्यं वा, एटले तांबूल, एलची, लवंग प्रमुख मात्र जेनी रुचिज लेवानी, पण जे उदरभरणार्थ न हि एवा पदार्थ स्वाद्य, ए पूर्वोक्त चार प्रकारना पदार्थने हुं ( सयं के० ) स्वयं एटले पोते ( राई ho) रात्रौ एटले रात्रिने विषे ( नेव मुंजेद्या के० ) नैव मुंजे एटले जोजन करुन हि. तथा (अन्नेहिं के० ) अन्यैः एटले बीजा पासें ( राई के० ) रात्रौ एटले रात्रिने विषे ( नेव गुंजाविका के० ) नैव जोजमामि एटले जोजन करावं नहीं. तथा (राई मुंजंते विन्ने के० ) रात्रौ जुञ्जानानप्यन्यान् एटले रात्रे जोजन करनारा एवा बीजाने पण ( न समजाणामि के० ) न समनुजानामि एटले अनुमोदना श्रापुं नहिं 'जावीवाए' इत्यादिकनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. वली एटलुं अहीं विशेष जाणवुं के, रात्रिजोजन चार प्रकारनुं बे. एक द्रव्यथी रात्रिभोजन ते खोदनादिकनुं जाणवु. क्षेत्री रात्रि जोजन ते अढी द्वीपना प्रदेशने विषे जाणवुं. त्रीजुं कालथी रात्रिो - जन ते रात्र्यादिकने विषे जाणवुं. चोथुं जावथी रात्रिजोजन ते कटु, अम्ल इत्यादि जावी अथवा रागद्वेषथी जाणवुं. वली रात्रिभोजनना स्वरूपथी पण चार प्रकार बे, एक रात्रें ग्रहण करेलुं रात्रेंज खावुं. बीजुं रात्रें ग्रहण करेलुं दिवसें खावुं. त्रीजुं ' दिवसें ग्रहण करेलुं रात्रें खावुं. चोथुं दिवसें ग्रहण करेलुं दिवसेंज खावुं. एमा पहेला त्रण जांगावे ते साधुयें परिहार करवा लायक बे, अने चोथो जांगो बे ते विधुपूिर्वक ग्राह्य बे. ए बहुं रात्रिभोजन विरमणनामक व्रत कयुं. ॥ ६ ॥ ( दीपिका. ) उक्तं च पञ्चमं महाव्रतमधुना षष्ठं व्रतमाह । श्रथ अपरस्मिन् षष्ठे For Private Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । व्रते रात्रिनोजनाहिरमणं सर्व हे जदन्त ! रात्रिनोजनं प्रत्याख्यामि। तद्यथा। श्रश्यत इति अशनमोदनादि १ पीयते तत्पानं सादापानादि र खाद्यत इति खायं ज-. म्बूकादि ३ वायं ताम्बूलादि । नैव स्वयं रात्रौ जुर्छ नैव अन्यैरात्रौ नोजयामि । रात्रौ जुञ्जानानपि अन्यान् नसमनुजानामि। इत्येतत् यावजीवमित्यादि पूर्ववत्॥६॥ (टीका.) उक्तं पञ्चमं महाव्रतम्। अधुना षष्ठं व्रतमाह । अहावर इत्यादि । अथापरस्मिन् षष्ठे व्रते रात्रिनोजनाहिरमणम् । सर्वं जदन्त रात्रिनोजनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा। अशनं वा पानं वा खाद्यं वा खाद्यं वा । अश्यत इत्यशनमोदनादि । पीयत इति पानं मृछीकापानादि । खाद्यं खजूरादि । खाद्यं ताम्बूलादि । णेव सयं लुंजेजा। नैव स्वयं रात्रौ नुर्छ। नैवान्यै रात्रौ नोजयामि । रात्रौ जुञ्जानानप्यन्यान्नैव समनुजानामि । इत्येतद्यावजीवमित्यादि च जावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम् । रात्रिनोजनं चतुर्विधम् । तद्यथा अव्यतः देवतः कालतो जावतश्च । अव्यतस्त्वशनादौ । क्षेत्रतोऽर्धतृतीयेषु छीपसमुखेषु । कालतो राज्यादौ । नावतो रागषाच्यामिति । स्वरूपतोऽप्यस्य चातुर्विध्यम् । तद्यथा । रात्री गृह्णाति रात्रौ जुते, रात्रौ गृह्णाति दिवा जुते, दिवा गृह्णाति रात्रौ जुङ्क्ते, दिवा गृह्णाति दिवा नुते। संनिधिपरिजोगे ऽव्यादिचतुर्नङ्गी पुनरियम् । दव पामेगे राई मुंज णो नाव । नाव णामेगे णो दवठ । एगे दव वि नाव वि । एगे णो दवर्ड । णो नाव: । तब अणुग्गऐ सूरिए जग्गत्ति अबमिए वा अणबमिउत्ति अरत्तपुठस्स कारण रयणीए वा लुजाणस्स दव राश्नोधणं णो नाव: । रयणीए नुंजामित्ति मुछियस्स तदसंपत्तीए नाव णो दवः । एवं चेव संपत्तीए दव वि नाव वि । चजनंगो जण सुन्नो । एतच्च रात्रिनोजनं प्रथमचरमतीर्थकरयोः जुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थं महाव्रतोपरि पठितम् । मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुनः ऋजुप्रज्ञपुरुषापेक्ष्योत्तरगुणवर्ग इति ॥६॥ च्चेयाई पंचमहत्वयाइं राश्नोयणवेरमणबहाई अत्तदियघ्यिाए जवसंपत्तिा णं विदरामि ॥ (अवचूरिः) एतच्च रात्रिनोजनविरमणं प्रथमचरमाईतोःशजुजमवक्रजमपुरुषापेदमूलगुणत्वख्यापनार्थम् पञ्चमहाव्रतोपरि पठितम् । मध्यमाईत्तीर्थेषु पुनः जुप्रज्ञपुरुषापेक्ष्योत्तरगुण इति । समस्तव्रतान्युपगमख्यापनायाह । इत्येतान्यनन्तरोदितानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिनोजनविरमणषष्ठानि । किमित्याह । आत्महितायात्महितो मोक्षस्तदर्थम् । अनेनान्यार्थम् तत्त्वतो व्रताजावमाह । तदजिलाषानुमि. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. त्या हिंसादावनुमत्यादिनावात् । उपसंपद्य सामीप्येनाङ्गीकृत्य व्रतानि विहरामि। सुसाधु विहारेण तदनावेऽङ्गीकृतानामपि व्रतानामनावात् । दोषाश्च हिंसादिकर्तृणामपायुर्जिह्वाछेददारियलीबत्वपुःखितत्वादयो वाच्या इति । उक्तश्चारित्रधर्मः॥ (अर्थ.) (श्च्चेश्याइं के०) इत्येतानि एटले ए प्राणातिपातविरमणादिक (राश्नोयणवेरमबहाइं के० ) रात्रिनोजनविरमणषष्ठानि एटले रात्रिनोजनविरमण जेमां बहुं बे एवां साधुनां (पंच महत्वया के०) पंच महाव्रतानि एटले पांच महाव्रतने (अत्तहिथयाए के) आत्म हिताय एटले आत्महित जे मोद तेनी प्राप्ति थवाने अर्थे (जवसंपत्तिाणं के०) उपसंपद्य एटले रूमीरीते अंगीकार करीने ( विहरामि के०) विचरामि एटले संयमनेविषे विचरुं बुं. ए चारित्रधर्म कह्यो. ॥ ( दीपिका. ) एतच्च रात्रिनोजनविरमणं प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थयोः जुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थम् । पञ्चमहावतोपरिपवितंमध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुनः रुजुप्राज्ञपुरुषापेक्ष्या उत्तरगुण इति । समस्तवतानामङ्गीकारकरणकथनार्थमाह । इत्येतानि पूर्व कथितानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिनोजनविरमणषष्ठानि । किमित्याह । आत्महिताय श्रआत्महितो मोक्षस्तदर्थमुसंपद्य सामीप्येन अङ्गीकृत्य व्रतानि विहारामि सुसाधुविहारेण ॥ - (टीका.) समस्तव्रतान्युपगमख्यापनायाह श्च्चेयाश्त्यादि। इत्येतान्यनन्तरोदितानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिनोजनविरमणषष्ठानि । किमित्याह । आत्महितायात्महितो मोदस्तदर्थम् । अनेनान्यार्थं तत्त्वतो व्रतानावमाह । तदनिलाषानुमित्याहिंसादावनुमत्यादिनावात् । उपसंपद्य सामीप्येनाङ्गीकृत्य व्रतानि विहरामि सुसाधुविहारेण । तदनावे चाङ्गीकृतानामपि व्रतानामनावात् । दोषाश्च हिंसादिकर्तृणामस्पायुर्जिह्वाछेददारिद्यपएमत्वपुःखितत्वादयो वाच्या इति । सांप्रतं प्रागुपन्यस्तगाथा व्याख्यायते । सप्तचत्वारिंशदधिकनङ्गशतं वदयमाणलक्षणं प्रत्याख्याने प्रत्याख्यानविषयं यस्योपलब्धं जवति । स श्वनूतः प्रत्याख्याने कुशलो निपुणः। शेषाः सर्वे अकुशलास्तदनिझा इति गाथासमासार्थः । अवयवार्थस्तु नङ्गकयोजनाप्रधानः । स चैवं अष्टव्यः । तिन्नि तिया तिन्नि उया, तिनिकेका य होंति जोएसु ॥ तिएकं तिएकं, तिरुएकं चेव करणाझं ॥१॥ त्रयस्त्रिकाः (३३३ ) त्रयोडिकाः (२२) त्रयश्चैकैका ( १९१) जवन्ति ।योगेषु कायवाङ्मनोव्यापारलक्षणेषु त्रीणि यमेकं त्रीणि घ्यमेकं त्रीणि यमेकं चैवकरणानि मनोवाकायलक्षणानि इति पदघट Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । |३३३ |१३३।३९९।३९९ २०१ ना । जावार्थस्तु स्थापनया निर्दिश्यते । सा चेयम् । ३ | कात्र जावना | न करेमि न कारवेम करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । मणेणं वायाए कारणं एक्को. ad | श्याणिं बि । ण करे | 'ण कारवे । करंतं पि श्रन्नं न समणुजाइ । मषेणं वाया को जंगो | तहा मणेणं कारणं बि जंगो | तहा वायाए कारण य त जंगो । बिइ मूलने गर्छ । श्याणिं त । ए करेण कारवेश | करंतं पिन्नं न समजाणंइ | मणेणं एक्को वायाए बियो कारणं त । गर्न त मूलने । श्याणिं चो | ए करेइ । कारवेश् । मणेणं वायाए कारणं इक्को । न करेइ करंतं णाणुजाइ बि । ए कारवेश करंतं णाणुजाइ त । गर्ज चलो मूलने । इयाणि पंचमो । करे ण कारवेइ मणेणं वायाए एक्को । ण करेइ करंतं गाजा बि । ए करावेश करंतं णाणुजाण त । एए तिन्नि गंगा मणेणं वायाए लगा । यन्ने वितिन्नि मणेणं काय लग्नंति । तहावरे वि वायाए कारण य लग्नंति तिन्नि । एव मेव स एए नव । पंचमोऽप्युक्तो मूलनेदः । इदानीं षष्ठः । ए करे ए कारवेइ मइक्को । तहा ण करेइ करंतं गाणुजाण मणेणं बिइ । ण कारवेश करतं गाणुजाइ मनसैव तृतीयः । एवं वायाए कारण वि तिन्नि तिन्नि नंगा लग्नंति । विव । उक्तः षष्ठो मूलनेदः । सप्तमोऽनिधीयते । ए करेइ मणेणं arere are एको । एवं ण कारवेइ मणादीहिं बि । करंतं णाणुजाइ त । सप्तमोऽप्युक्तो मूलभेदः । इदानीमष्टमः । ण करेइ मणेणं वायाए एको । मणेणं काबि । तहा वायाए कारण य त । एवं ए कारवेश एवं पि तिन्निजंगा । एवमेव करंतं णाणुजाण एवं पि तिनि जंगा । एए सवे एव । उक्तोऽष्टमः । इदानीं नवमः । ण करेइ मणेणं एक्को । ए कारवेइ बि । करंतं णाणुजाण‍ त । एवं वायाए विश्यं कायेण वि होइ तइयमेवमेते स वि मिलिया एव । नवमोऽप्युक्तः । श्रागतगुणन मिदानीं क्रियते । लद्धफलमाण मेयं, गंगा उ हवंति - उणपन्नासं ॥ तीयाणागयसंपति, गुणियं काले होइ इमं ॥ १ ॥ सीयालं जंगसयं, कहकालतिए होंति गुणणा ॥ तीतस्स पडिक्कम, पञ्चुप्पन्नस्स संवरणं ॥ २ ॥ पञ्चरकाणं च तहा, होश्य एयस्स एस गुणणार्ज || कालतिएणं नलियं, जिगणधरवायएहिं च ॥ ३ ॥ इति गाथार्थः ॥ 1 सेनिकू वा कुवा संजयविरयपडियपञ्चकायपावकम्मे दिया वारा वा एग वा परिसागन वा सुत्ने वा जागरमाणे वा । से पुढविं वा नित्तिं वा सिलं वा लेलुं वा ससरकं वा कार्य ससरकं वा वछं २६ For Private Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. दोण वा पाएण वा कोण वा किलिंचेण वा अंगुलियाएवा सिलागए वा सिलागहण वा न आलिदिद्यान विलिदिद्या न घट्टिया ननिंदिजा अन्नं नालिदाविज्जा न विलिदाविजा न घट्टाविजा न निंदाविज्जा। अन्नं आलितं वा विलिदंतं वा घहतं वा निंदंतं वा न समणुजाणामि। जावजीवाए तिविहं तिविदेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्ने न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिकमामि निंदामि गरिदामि अप्पाणं वो सिरामि॥१॥ -- (अवचूरिः ) संप्रति यतनामाह । से इति निर्देशे। स योऽसौ महाव्रतयुक्तो नि. दुर्वा निकुकी वा। आरम्नत्यागार्मकायपालनाय निदणशीलः । पुरुषोत्तमो ध. म इति निकुविशेषणानि निकुक्या अपि अष्टव्यानि । संयतः संयमवान् सप्तदशप्रकारसंयमोपेतो विविधमनेकधा छादशविधे तपसि रतो निरतः। प्रतिहतं पूर्वबई स्थितिहासादिना प्रत्याख्यातमनागतं विरतिकरणेन पापकर्म ज्ञानावरणीयादि येन स तथाविधः। दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिषजतो वा सुप्तो वा जाग्रहा । रात्रौ सुप्तो दिवा जाग्रत् । एककः कारणिकः।शेषकालं परिषजतः । इदं वयमाणमनाचारं न कुर्यात्कथमपि । सेशब्दस्तद्यथार्थः पूर्ववत् । पृथ्वी लोष्टादिरहिता।नित्तिर्नदीतटी। शिला विशालपाषाणः। लेष्टुम॒त्खएमादि । सह रजसारण्यपांशुना वर्त्तत इति सरजस्कस्तं कायं वा वस्त्रं वा चोलपट्टादिकम्। एकग्रहणात्तजातीयग्रहणमिति पात्रपरिग्रहः । एतत्किमित्याह । हस्तेन वा।पादेन वा । काष्ठेन वा। किलिंचेन वा दुकाष्टरूपेण । अंगुत्या च शलाकया वाऽयःशलाकादिरूपया । शलाकाहस्तेन वा शलाकासंघातरूपेण वा नालिखेत् । ईषत्सकृछालेखनम् । न विलिखेत् । निरन्तरमनेकशो वा विलेखनम् न घट्टयेत्। घट्टनं चालनम् । न निन्द्यात् । नेदो विदारणम् । एतत्स्वयं न कुर्यात् । तथाऽन्यमन्येन वा नो लेखयेत् । न विलेखयेत् । न नेदयेत् । तथान्यं स्वत एवालिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा नेदयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि ॥१॥ (अर्थ.) हवे तेनी जयणा कहे . से इत्यादि । ( से के०) सः एटले ते पूर्वोक्त पंच महाव्रतनो धारक एवो ( निरकू वा के) निकुर्वा, एटले आरंजनो त्याग करीने धर्मकायर्नु रक्षण करवा माटे जे निरवद्य निदा मागे ते साधु, अथवा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २०३ ( निरकुणी वा के० ) निक्षुकी वा एटले निकु जेवीज साध्वी ते साधु तथा साध्वी केवा बे तो के, ( संजय विरयप डिहयपञ्चरकायपावकस्मे के० ) संयतवि - रतप्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा, संयत एटले सत्तर प्रकारना संयमेकरी युक्त तथा वि एटले विविध प्रकारना जे व्रत तेनेविषे रत एटले आसक्त तेने विरत कहिये वली प्रतिहत एटले स्थितिहासथी दण्यां बे, तथा प्रत्याख्यात एटले हेतुना अनावी फरी वृद्धि पामे नहीं एवी रीतें पच्चख्यां वे पापकर्म ते अतीत, अनागत एवा ज्ञानावरणीयादिक जेणें तेने प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा कहिये. ए संयतादि त्रण विशेषणे करी युक्त साधु तथा साध्वी ( ते दिया वा के० ) दिवा वा एटले दिवसने विषे, अथवा ( रा वा के० ) रात्रौ वा एटले रात्रिनेविषे, ( एगर्न वा के० ) एकको वा एटले एकलो थको अथवा ( परिसाग वा के० ) परिषतो वा एटले सामां वेो थको, अर्थात् कोइ कारणथी एकलो, अने बाकी रहेला समयविषे सामां रह्यो थको ( सुते वा के० ) सुप्तो वा एटले सूतो बतो, अथवा ( जागरमाणे वा के० ) जाग्रद्वा एटले जागतो बतो, अर्थात् दिवसें जागतो अने रात्रें सूतो गल केहवाशे ते न करे. हवे ते साधु तथा साध्वी शुं न करे, ते कहे बे. तेमां प्रथम पृथ्वी काय समारंजनो निषेध कहे बे. ( से के० ) ते साधु थवा साध्वी ( पुढत्रिं वा के० ) पृथ्वीं वा एटले खाणथी उपजती माटी तेने, अथवा ( नित्तिं वा के० ) नदीतटनी माटीने, अथवा ( सेलं वा के० ) शिलां वा एटले मोटा पाषाणने, अथवा ( लेलुं वा के० ) लोष्टं वा एटले न्हाना पाषाणने अथवा ( ससरकं वा कार्य के० ) सरजस्कं वा कार्य, एटले सचित्तमाटीनी उडती आवेली रजेंकरी मलिन एवा शरीरने, अथवा ( ससररकं वा वयं के० ) सरजस्कं वा वस्त्रं, एटले सचित्तधूलथी मलिन थयेला चोलपट्टकादि वस्त्रने, एकना ग्रहणी तातीयनुं ग्रहण थाय बे, माटे वस्त्र शब्देकरी पात्रनुं पण ग्रहण कर. तेथी धूलथी मलिन थयेला पात्रने पण ( हत्रेण वा के० ) हस्तेन वा एटले हायें करी अथवा ( पाए वा के० ) पादेन वा एटले पगेंकरी, तथा ( कट्ठे वा 35 " ० ) काष्ठेन वा एटले काष्ठेकरी, किंवा ( किलिंचेण वा के० ) किलिंचेन वा एटले काष्ठना खंदेकरी, किंवा खीलाये करी, अथवा ( अंगुलियाए वा के० ) अंगुलिकया वा एटले अंगुलियेकरी, अथवा ( सिलागाए वा के० ) शलाकया वा एटले लोहनी शलाकाकरी, अथवा ( सिलाग द्वेष के० ) शलाकाहस्तेन वा एटले शलाकाना समुदायेकरी, (नालिहिद्या के० ) ना लिखेत् एटले थोडुं पण लखवुं नहीं, अर्थात् पूर्वोक्त सचित्त पृथ्वी पर कोइ पण वस्तुथी थोऊं पण लखनुं नहीं. अथवा ( नवि Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. लिहिता के० ) न विलिखेत् एटले पूर्वोक्त पृथ्वीउपर काऊं लखनुं नहीं, तथा ( न घट्टिता के० ) न घट्टयेत् एटले एक स्थानकथी बीजे स्थानके नाखवुं नहीं, तथा ( न जिंदिद्या के० ) न भेदयेत् एटले सचित्त पृथ्वीने नेद, विदारण कर नहीं, तथा अन्नं के० ) अन्यं एटले बीजा पासे ( नालिहाविद्या के० ) न आलेखयेत् एटले सचित्त पृथ्वीने थोकुं पण लखावुं नहीं, तथा बीजापासे सचित्त पृथ्वीने ( न वि - विहाविद्या के० ) घणुं लखावुं नहीं, अथवा बीजापासे सचित्त पृथ्वीने ( न घट्टाविद्या के० ) न घट्टयेत् एटले चलाव नहीं, अथवा सचित्त पृथ्वीने बीजापासे ( न जिंदा विद्या के० ) न जेदयेत् एटले नेद, विदारण कराववुं नहीं; तथा (अन्नं वितं वा के० ) अन्यमाखितं वा एटले थोडी बिटी काढता बीजाप्रते, - थवा ( विहितं वा के० ) घणी लिटी काढतां प्रत्यें, अथवा ( घट्टतं वा के० ) संघट्टन करनार प्रते, अथवा ( जिंदंतं वा के० ) नेद, विदारण करनार प्रत्यें ( न स मणुजाणिका के० ) न समनुजानीयात् एटले अनुमोदन यापवुं नहीं. ए जावजीव इत्यादिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो पृथ्वीकायना यरंजनो निषेध कह्यो. ॥ १ ॥ ( दीपिका. ) उक्तश्चारित्रधर्मः । स च यतनया स्यात् । यतो यतनार्थमाह । से इति निर्देशे । स योऽसौ महाव्रतयुक्तो निक्षुर्वा निक्षुकी वा श्ररम्नत्यागात् । धर्मकायपालनाय निक्षणशीलो निकुरेव निक्लुक्यपि । पुरुषोत्तमो धर्म इति निक्षुर्विशेष्यते । तद्विशेषणानिजिक्या अपि ज्ञेयानि । निक्कु विशेषणान्याह । संयत विरतप्रतितप्रत्याख्यातपापकर्मा । तत्र सामस्त्येन यतः संयतः सप्तदशप्रकारसंयमसहितः । पुनर्विविधमनेकप्रकारतया द्वादशविधे तपसि रतो विरतः । पुनः प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा प्रतिहतं स्थितेर्द्धासात् ग्रन्थिभेदेन प्रत्याख्यातं हेत्वभावतः पुनर्वृद्धेरजावेन पापं पापकर्म ज्ञानावरणीयादि येन सः । ततः कर्मधारयः । स तथाविधो दिवा वा, रात्रौ वा, एकको वा, परिषतो वा । सुप्तो वा, जाग्रद्वा । रात्रौ सुप्तो, दिवा जाग्रत् । कारणिक एकः शेषकालं परिषगत इदं वक्ष्यमाणं न कुर्यात् । किं तदित्याह । पृथिवी लोष्टादिरहिता । नित्तिर्नदीतटी । शिला विशालः पाषाणः । लेष्टुः प्रसिद्धः । सद रजसा श्रारण्यपांशुलक्षणेन वर्तते यः स सरजस्कः । कः । कायो देहस्तम् | सरजस्कं बा व चोलपट्टकादि । एकग्रहणेन तजातीयग्रहणमिति न्यायात् पात्रादिपरिग्रहः । एतानि किमित्याह । हस्तेन वा पादेन वा, काष्ठेन वा किलिञ्चन वा, शुद्ररूपेण वा अङ्गुल्या वा, शलाकया वा, लोदशलाकारूपया, शलाकाहस्तेन शलाकासमूहरूपेण वा । किं न कुर्यादित्याह । न श्राविखेत् । श्रा ईषत् सकृद्वालेखनं Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २०५ न स्वयं कुर्यात् । न विलिखेत् । नापि खयं नितरामनेकशो वा लेखनं कुर्यात् । न घट्टयेत् न स्वयं घट्टनं चालनं कुर्यात् । न निन्द्यात् न स्वयं नेदं विदारणं कुर्यात् । तथा अन्यमन्येन वा न थालेखयेत् , न विलेखयेत् , न घट्टयेत्, न नेदयेत्, तथा अन्यं खत एव थालिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा जिन्दन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥१॥ (टीका.) उक्तश्चारित्रधर्मः। सांप्रतं यतनाया अवसरः। तथा चाह । से निस्कू वा इत्यादि । से इति निर्देशे । स योऽसौ महाव्रतयुक्तो निकुर्वा निकुकी वा श्रार• म्नत्यागाधर्मकायपालनाय निक्षणशीलो निकुः । एवं निकुक्यपि । पुरुषोत्तमो धर्म इति निकुर्विशेष्यते । तहिशेषणानि च निकुक्या अपि अष्टव्यानीत्याह । संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा । तत्र सामस्त्येन यतः संयतः । सप्तदशप्रकारसंयमोपेतः। विविधमनेकधा छादशविधे तपसि रतो विरतः। प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मेति । प्रतिहतं स्थितिहासतो ग्रन्थिन्नेदेन प्रत्याख्यातं हेत्वजावतः पुनर्वृष्यजावेन पापं कर्म ज्ञानावरणीयादि येन स तथा विधः। दिवा वा रात्रौ वा एको वा परिषातो वा सुप्तो वा जाग्रहा। रात्रौ सुप्तो दिवा जाग्रत् । कारणिक एकः। शेषकालं परिषजतः । इदं च वक्ष्यमाणं न कुर्यात् । से पुढर्वि वा इत्यादि । तद्यथा पृथिवीं वा नितिं वा शिलां वा लोष्टं वा। तत्र पृथिवी लोष्टादिरहिता। नित्तिर्नदीतटी। शिला वि. शालः पाषाणः । लोष्टः प्रसिद्धः । तथा सह रजसा अरण्यपांशुलदणेन वर्तत इति सरजस्कं वा कायम्। कायमिति देहम् । तथा सरजस्कंवा वस्त्रम् । वस्त्रं चोलपट्टादि। एकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति पात्रादिपरिग्रहः। एतत् किमित्याह । हस्तेन वा पादेन वा काष्ठेन वा किलिञ्चेन वा कुजकाष्टरूपेण अङ्गल्या वा शलाकया वा अयःशलाकादिरूपया शलाकाहस्तेन वा शलाकासंघातरूपेण । णालिहिऊत्ति । नालिखेत् न घट्टयेत् न निन्द्यात्। तत्र ईषत्सकृछालेखनम्। नितरामनेकशो वा विलेखनम्। घट्टनं चालनम्।नेदो विदारणम् । एतत् वयं न कुर्यात्।तथा अन्यमन्येन वा नालेखयेत् न विलेखयेत् न घट्टयेत् न नेदयेत् । तथान्यं खत एव आलिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा जिन्दन्तं वा न समनुजानीयादित्यादिपूर्ववत् ॥१॥ से निस्कु वा निस्कूणी वा संजयविरयपडिदयपच्चरकायपावकम्मे दिया वा रा वा एगवा परिसागन वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से उदगं वा सं वा दिमं वा मदियं वा करगंवा दरतणुगं वा सुझोदगं वा उदन Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. लं वा कायं उदनलं वा ववं ससिणिवा कायं ससिणिई वा वठंन आमुसिजा।नसंफुसिका।नाविलिका।नपविलिका।न अकोमिजा।न परकोमिका।नआयाविजा।न पयाविजा।अन्नंनआमुसाविजा। नसंफुसाविजा।नावीलाविका।न पवोलाविजा।न अस्कोमाविका।न परकोमाविका।न आयाविजा। न पयाविजा ।अनं मुसंतं वा संफुसंतं वा आवीलंतं वा पविलंतं वा अकोमंतं वा परकोमंतं वा यावंतं वा पयावंतं वा न समणुजणामि । जावङीवाए तिविदं तिविदेणं मणेणं वायाएकाएणं न करेमि।न कारवेमि। करंतंपिअन्ने न समणुजाणामि। तस्स नंते पडिकमामि । निंदामि। गरिदामि । अप्पाणं वोसिरामि॥२॥ (श्रवचूरिः) उदकं शिरापानीयम्। श्रवश्यायः स्नेहः। हिमंस्त्यानोदकम् । मिहिका धूमरी । करकः कठिनोदकरूपः।हारतनु वमुन्निद्य तृणाग्रादिषु नवति। शुद्धोदकमन्तरीदोदकम् ।तथा उदकार्ड वा कायम्। उदकार्ड वा वस्त्रम् श्रा:ता चेह गलदिन्छुता अनन्तरोदितोदकन्नेदसंमिश्रता । सस्निग्धं वा कायादि । अत्र स्नेहनं स्निग्धमिति । सस्निग्धता चेह बिन्फुरहितानन्तरोदितोदकसंमिश्रता । एतत्किमित्याह नामृषेत्। न संस्पृशेत् । सकृदीषघा स्पर्शनमामर्षणमतोऽन्यत्संस्पर्शनम् । नापीमयेत् न प्रपीड येत् । सकृदीषछापीमनं ततोऽन्यत्प्रपीडनम् । नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् । सकृदीषहास्फोटनमतोऽन्यत् प्रस्फोटनम् । नातापयेत् प्रतापयेत् । सकृदीषघातापनं विपरीतं प्रतापनम्। एतत्वयं न कुर्यात् । अन्यमन्येन वा नामर्षयेत् इत्यादि झेयम् ॥२॥ (अर्थ.) हवे अप्कायना आरंजनो निषेध कहे . से निस्कू वा इति (अहीं ‘से जिस्कू' एथी मांडीने 'जागरमाणे' अही सूधी सूत्रनो अर्थ प्रथम कह्यो बे, ते प्रमाणेज जाणवो.) (से के० ) तद्यथा, एटले ते अप्कायना आरंजनो निषेध कहे ने ते आवीरीते. (उदगं वा के०) जदकं वा एटले शिरापानीय ते जमीनमांथी नीकलतुं एवं वापी, कूप, तलाव, नदी इत्यादिकनुं पाणी जाणवू, ते प्रते, अथवा (ोसं वा के०) अवश्यायं वा एटले पाउली रात्रे गर पमे ते पाणीप्रते, अथवा (हिमं वा के) हिमं वा, एटले जेने बर्फ कहिये, ते पाणीप्रते, अथवा (महियं वा के०) मिहिकां वा एटले ध्रुअरी पडे ते पाणीप्रतें, अथवा (करगं वा के) करकां वा एटले वर्सादमां करा पडे बे, ते रूप पाणीप्रत्ये, अथवा (हरतणुगं Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । वा के० ) हरतनुं वा एटले तृण, डान प्रमुखने श्रये जलना बिंदु पडे बे, तेप्रत्ये, अथवा (सुद्धोदगं वा के० ) शुद्धोदकं वा एटले आकाशमांथी जे वर्सादनुं पाणी पडे , तेने शुद्धोदक कहिये ते प्रत्ये, अथवा (उदगवं वा कायं के० ) उदकाई वा कायं एटले पाणीथी पलडेला शरीरप्रत्ये, अथवा (उदजवं वा वयं के०) उदकार्ड वा वस्त्रं, एटले उदकमां पललेला वस्त्र प्रत्ये, अथवा (ससिणिकं वा कायं के०) सस्निग्धंवा कायं एटले जेथी बिंदु गलता नथी एवी सस्निग्ध काया प्रत्ये, अथवा (ससिणिकं वा व के०) सस्निग्धं वा वस्त्रं एटले जेथी बिंदु गलता नथी, एवा सस्निग्ध वस्त्र प्रत्ये, ( नामुसिद्या के० ) नामृषेत् एटले थोडं अथवा वारंवार फरसे नहीं, (न संफुसिजा के०) न संस्पृशेत् एटले थोडं अथवा एकवार फरसे नहीं. (न श्रावी विद्या के०) नापीडयेत्, एटले थोडं अथवा एकवार पीडे नहीं, (न पवी विद्या के० ) न प्रपीडयेत् एटले घणुं अथवा वारंवार पीडे नहीं. (न अस्कोमिद्या के०) नास्फोटयेत् एटले थोडं अथवा एक वार वस्त्रादिक काटके नहीं. (न परकोमिद्या के०) न प्रस्फोटयेत् एटले घणुं अथवा वारंवार वस्त्रादिक काटके नहीं. (न था. याविद्या के०) न श्रातापयेत् एटले थोड़े अथवा एकवार तपावे नहीं. (न पयाविद्या के०) न प्रतापयेत् एटले घणुं अथवा वारंवार तपावे नहीं. तथा ( अन्नं न मुसाविद्या के०) अन्यं न आमर्षयेत् एटले बीजापासे थोडो अथवा एकवार स्पर्श करावे नहीं. (न संफुसाविद्या के० ) न संस्पर्शयेत् एटले घणो अथवा वारंवार स्पर्श करावे नहीं. (न श्रावीलाविद्या के०) न पीडयेत् एटले थोडुं अथवाएकवार पीडावे नहीं. (न पवीला विद्या के०) न प्रपीडयेत् एटले घणुं अथवा वारंवार पीडावे नहीं. (न अस्कोडा विद्या के० ) न श्रास्फोटयेत् एटले थोडं अथवा एकवार बीजापासे ऊटकावे नहीं. ( न परकोडाविद्या के० ) न प्रस्फोटयेत् एटले घणुं अथवा वारंवार बीजापासे फटकावे नहीं. (न आया विद्या के०) न आतापयेत् एटले थोडं अथवा एकवार बीजापासे तपावे नहीं. (न पया विद्या के०) न प्रतापयेत् एटले घणुं अथवा वारंवार बीजापासे तपावे नहीं. तथा (अन्नं आमुसंतं वा के) अन्यमामृशंतं एटले थोड़ें अथवा एकवार स्पर्श करनार अनेरा प्रते, अथवा (संफुसंतं वा के०) संस्पृशंतं वा एटले घणुं अथवा वारंवार स्पर्श करनार अनेरा प्रते, अथवा (श्रावी. लंतं वा के०) आपीडयंतं वा एटले थोडं अथवा एकवार पीडन करनारा बीजा प्रते, श्रथवा ( पवीतं वा के० ) प्रपीडयंतं वा एटले घणुं श्रथवा वारंवार पीडन करता अनेरा प्रते, अथवा (अरकोडंतं वा के०) श्रास्फोटयंतं वा एटले थोडं अथवा एकवार ऊटकावता अनेरा प्रत्ये, अथवा ( पकोडंतं वा के०) प्रस्फोटयंतं वा एटले Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. घणुं अथवा वारंवार फटकावता अनेरा प्रते, अथवा (श्रायावंतं वा के०) श्रातापयंतं वा एटले थोडुं अथवा एकवार तपावता अनेरा प्रते, अथवा ( पयावंत वा के०) प्रतापयंतं वा एटले घणुं अथवा वारंवार तपावता अनेरा प्रते, (न समणुजाणेद्या के०) न समनुजानीयात् एटले अनुमोदना श्रापे नहीं. 'जावजीवाए' एथी मांडीने 'थप्पाणं वोसिरामि' ए सुधीनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ॥२॥ (दीपिका.) तथा पुनः पूर्ववत् स किं न कुर्यादित्याह । स निनुः उदकं वा शिरापानीयम्, अवश्यायं वा स्नेहम्, हिमं वा स्त्यानोदकं, मिहिकांवाधूमरिका, करकां वा कठिनोदकरूपां, हरतनुकंवा जुवमुनिय तृणाग्रादिस्थितं, शुद्धोदकमाकाशोदकम् । उदकाई वा कायमुदकाई वा वस्त्रम् । उदकार्डता च गल हिन्फुरूपा ग्राह्या । सस्निग्धं वा कायं सह स्निग्धेन स्नेहनेन वर्तते यः ससस्निधः स चासौ कायश्च तमेवंविधं कायमेवं सस्निग्धंवा वस्त्रम् । सस्निग्धता चेह बिन्पुरहिता ज्ञेया। एतत्किमित्याह । नामुसिद्या, सकृत् ईषछा स्पर्शनमामर्षणम् न स्वयं कुर्यात् । न संफुसिजा, ततोऽन्यत् संस्पर्शनं न कुर्यात् । एवं नावीलिजा, सकृत् ईषद्यापीडनम् । न पवीतिजा ततोऽन्यत्प्रपीडनम् । न अस्कोमिजा।सकृत् ईषधास्फोटनम्।न परकोडिद्या । त. तोऽन्यत् प्रस्फोटनम् । न आया विद्या। एवं नावीलिजा । सकृत् ईषहातापनम् । न पया विद्या । प्रकर्षेण तापनं प्रतापनम् । एतानि सर्वाणि स्वयं न कुर्यात् । तथा अन्यमन्येन वा नामर्षयेत् । न संस्पर्शयेत् । न आपीडयेत्। न प्रपीडयेत् । न आस्फोटयेत् । न प्रस्फोटयेत् । न आतापयेत् । न प्रतापयेत् । तथा अन्यं खत एव श्रामृषन्तं वा। संस्पृशन्तं वा । पीडयन्तं वा । प्रपीडयन्तं वा अस्फोटयन्तं वा । प्रस्फोटयन्तं वा। श्रातापयन्तं वा । प्रतापयन्तं वा । न समनुजानीयात् । इत्यादि पूर्ववत् ॥२॥ ___ (टीका.) तथा से जिस्कू वा इत्यादि यावजागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव । से उदगं वेत्यादि । तद्यथा। उदकं वा अवश्यायं वा हिमं वा मिहिकां वा करकां वा हरतनुं वा शुकोदकं वा। तत्रोदकं शिरापानीयम्। अवश्यायःस्नेहः। हिमं स्त्यानोदकम् । मिहिका धूमिका। करकः कठिनोदकरूपः । हरतनुः नुवमुनिय तृणादिषु नवति । शुकोदकमन्तरिदोदकम् । तथा उदकार्ड वा कायम् उदकार्ड वा वस्त्रम् । उदकार्डता चेह गल हिन्दुतुषारा अनन्तरोदकनेदसंमिश्रता । तथा सस्निग्धं वा कार्य सस्निग्धं वा वस्त्रम् । अत्र स्नेहनं स्निग्धमिति नावे निष्टाप्रत्ययः । सह स्निग्धेन वर्तत इति सस्निग्धः। सस्निग्धं वा। सस्निग्धता चेह बिन्दुरहितानन्तरोदितोदकनेदसंमिश्रता। एतत् किमित्याह । णामुसेजत्ति । नामृषेन्न संस्पृशेत् । नापीडयेन्न प्रपीडयेत् । ईष Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २०ए नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् । नातापयेत् न प्रतापयेत् । तत्र सकृदीषटा स्पर्शनमामर्षणम् । अतोऽन्यत्संस्पर्शनम् । एवं सकृदीषछापीडनमतोऽन्यत्प्रपीडनम् । एवं सकृदीषछा स्फोटनमास्फोटनमतोऽन्यत्प्रस्फोटनम् । एवं सकृदीषहातापनं विपरीतं प्रतापनम् । एतत्स्वयं न कुर्यात्तथान्यमन्येन वा नामर्षयेन्न संस्पर्शयेत् । नापीडयेत् । न प्रपीडयेत् । नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत्। नातापयेत् न प्रतापयेत् । तथान्यं खत एव श्रामृषन्तं वा संस्पृशन्तं वा श्रापीडयन्तं वा प्रपीडयन्तं वा श्रास्फोटयन्तं वा प्रस्फोटयन्तं वा आतापयन्तं वा प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥२॥ से निस्कू वा निकुणी वा संजयविरयपमिहयपच्चरकायपावकम्मे दिया वा रान वा एग वा परिसाग वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से अगणि वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अच्चिं वा जालं वा अलायं वा सुझागणिं वा उकं वा न जंजेज्जा न घडेजा न निंदेजा न जळालेजा न पळालेजा न निवावेज्जा अन्नं न जंजावेज्जा न घडावेज्जा न निंदावेज्जा न उजालावेज्जा न पज्जालावेजा न निवावेज्जा अन्नं जंजंतं वा घहतं वा निंदंतं वा उज्जालंतं वा पज्जालंतं वा निवावंतं वा न समणुजाणामि। जावजीवाए तिविदं तिविदेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स नंते पमिकमामि निंदामि गरिदामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ३ ॥ (अवचूरिः) अयस्पिएमानुगतोऽग्निः । ज्वालारहितोऽङ्गारः। विरलाग्निकणं नस्म मुर्मुरः। मूलाग्निविछिन्ना ज्वाला अर्चिः ।प्रतिबझा ज्वाला । अलातमुदमुकम् । निरिन्धनः शुकाग्निः । उदका गगनाग्निः । न गंजेजा नोसिञ्चेत् । न घट्टयेत् । नोज्ज्वालयेत् । न निर्वापयेत् । तत्र उंजनं उत्सेचनमिन्धनादिना । घट्टनं सजातीयादिना चालनम् । उज्ज्वालनं व्यजनादिनिर्वृष्युत्पादनम् । निर्वापणं विध्यापनम् । एतत्वयं न कुर्यादित्यादि ॥३॥ (अर्थ. ) हवे, अग्निकायनी दया पालवी ते कहे . से इत्यादि. से निस्कू वा' अहिथी मांडीने 'जागरमाणे वा' ए सुधीनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. हवे अग्निकायना आरंजनो निषेध कहे . से इत्यादि. (से के०) तद्यथा ते अग्निकायना वारंजनो निषेध आवी रीतें-(अगणिं वा के०) अग्निं वा एटले तपावेला लोहमानो २७ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. अग्नि ते प्रत्ये, अथवा (शंगालं वा के०) अंगारं वा एटले ज्वालारहित अग्नि जेने अंगारो कहे जे ते प्रत्ये, अथवा (मुम्मुरं वा के०) मुर्मुरं वा एटले बकरी प्रमुखनी लीडिनो अग्नि जेमा नस्म घj थाय बे, अने अग्निना जूदा जूदा कण थोमा होय ते प्रत्ये, अथवा (अच्चिं वा के०) अर्चिा एटले मूलअग्निथी बूटेलो दिवा प्रमुखनो ज्योतिरूप अनि ते प्रत्ये, अथवा (जालं वा के०) ज्वालां वा एटले बलता शुष्कतृणादिकनी मूल अग्निने वलगी रहेली ज्वाला नीकले २ ते प्रत्ये, अथवा ( अलायं वा के०) अलातं वा एटले जंबाडीयानो सांठानो मेरश्या प्रमुखनो अग्नि ते प्रत्ये, अथवा (सुझागाणं वा के) शुहाग्निं वा एटले काष्ठरहित शुझ अग्नि प्रत्ये, अथवा ( उक्कं वा के०) उक्लां वा एटले आकाश संबंधी जे उक्कापात तथा वीजली प्रमुखनो अग्नि ते प्रत्ये, (सयं के०) पोते (न जंजेजा के०) नोत्सिंचेत् एटले इंधणादिक घाले नहीं. (न घट्टेद्या के०) न घट्टयेत् एटले संघटन करे नही, अर्थात् हाथे करी संकोरे नहीं. (न निदेजा के०) ननिद्यात् एटले धूल प्रमुख नाखीने नेद पमाडे नहीं. (न उजालेजा के०) नोज्ज्वालयेत् एटले वींजणादिकें करी थोडो पवन नाखीने वधारे नहीं. ( न पजालिजा के० ) न प्रज्वालयेत् एटले विशेषे पवन नाखीने प्रज्वलित करे नहीं, अने (न निवावेद्या के ) न निर्वापयेत् एटले उदक प्रमुख नाखीने ओलवे नहीं. तथा ( अन्नं के०) अन्यं एटले अनेरा पासे ( न उंजाविद्या के०) न उत्सेचयेत् एटले इंधणादिक घलावे नहीं. (न घट्टाविजा के) न घट्टयेत् एटले घट्टन करावे नहीं, अर्थात् हाथे करी संकोरावे नहीं. (न जिंदा विजा के०) न नेदयेत् एटले धूलि प्रमुख नखावीने नेद करावे नहीं. (न उजालाविजा के ) न उज्ज्वालयेत् एटले अनेरा पासे थोडो पवन नखावी वृद्धिवंत करावे नहीं. (न पजालाविजा के० ) न प्रज्वालयेत् एटले घणो पवन नखावीने प्रज्ज्वलित करावे नहीं. (न निवाविजा के०) न निर्वापयेत् ए. टले उदकादि नखावीने ओलावे नहीं. तथा (अन्नं के०) अन्यं एटले अनेरो माणस (जंजंतं वा के० ) उत्सिंचतं वा एटले पोतेज इंधणादिक नाखतो होय तो ते प्रत्ये, अथवा (घतं वा के०) घट्टयंतं वा एटले हस्तादिकें करी संकोरतो होय तो ते प्रत्ये, अथवा (निंदंतं वा के० ) धूलि प्रमुख नाखीने नेद करतो होय तो ते प्रत्ये, अथवा ( उजालंतं वा के०) उज्ज्वालयंतं वा एटले थोडो पवन नाखीने वधारतो होय. तो तेप्रत्ये, अथवा ( पद्यालंतं वा के०) प्रज्वालयन्तं वा एटले घणो पवन नाखी प्रज्वलित करतो होय तो ते प्रत्ये, अथवा ( निवावंतं वा के ) निर्वापयन्तं वा एटले उदकादिकें करी अोलवतो होय तो ते प्रत्ये (न समणुजाणामि के०) न स Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २११ मनुजानामि एटले अनुमोदना श्रापुं नहीं. 'जावजीवाए' इत्यादिकनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. इति ॥३॥ (दीपिका.) श्ह अग्निं लोहपिएकानुगतं वा ज्वालारहितमगारं विरलाग्निकणरूपं मुर्मुरं मूलाग्निविछिन्नां ज्वालामर्चिमूलाग्निप्रतिवहां ज्वालामलातमुमुकमिन्धनरहितं शुद्धाग्निं गगनानिरूपामुक्काम् । एतत्किमित्याह । निकुरेतन्न कुर्यात् । किं तदाह । नो जंजेद्या न उत्सिचेत् जंजनमुत्सेचनं नो कुर्यात् । नो घाहा । घट्टनं सजातीयादीना चालनम् । न उजालिजा । उज्ज्वालनं व्यजनादिनिर्वघ्यापादनम् । न निवाविजा । निर्वापणं विध्यापनम् । एतानि न खयं नितुः कुर्यात् तथा अन्यं अन्येन वा न उत्सेचयेत् , न घट्टयेत्, न उज्ज्वालयेत् , न निर्वापयेत् , तथा अन्यं खत एव उसिञ्चन्तं वा घट्टयन्तं वा, उज्ज्वालयन्तं वा, निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥ ३ ॥ (टीका.) से निस्कू वा इत्यादि जाव जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव । से अगणिं वेत्यादि। तद्यथा अग्निं वा अङ्गारं वा मुर्मुरमर्चिर्वा ज्वालां वा अलातं वा शुकाग्निं वा जकां वा।श्ह अयस्पिएमानुगतोऽग्निः। ज्वालारहितोऽङ्गारः। विरला निकणं जस्म मुर्मुरः । मूलाग्निविछिन्ना ज्वाला अर्चिः। प्रतिबझा ज्वाला।अलातमुमुकम्। निरिन्धनः शुकोऽग्निरुत्का गगनाग्निः। एतत् किमित्याहान जंजेजा।नोत्सिचेत् । न घट्टेद्या न घयेत। न उज्ज्वालयेत् । न निर्वापयेत् । तत्रोंजनमुत्सेचनं घट्टनं सजातीयादिना चालनं उज्ज्वालनं व्यजनादिनिर्वृष्यापादनं निर्वापणं विध्यापनम् । एतत्स्वयं न कुर्यात्तथान्यमन्येन वा नोत्सेचयेन्न घट्टयेन्नोज्ज्वालयेन्न निर्वापयेत्तथान्यं खत एव उसिञ्चन्तं वा घट्टयन्तं वा उज्ज्वालयन्तं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥३॥ से निकू वा निकुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चरकायपावकम्मे दिया वा राम वा एग वा परिसाग वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से सिएण वा विदुणेण वा तालिअंटेण वा पत्तेण वा पत्तनंगेण वा सादाए वा सादानंगेण वा पिडणेण वा पिगुणदबेण वा चेलेण वा चेलकन्नेण वा दलेण वा मुदेण वा अप्पणो वा कायं बाहिरं वा वि पुग्गलं न फुमेवा न वीएद्या अन्नं न फुमावेद्या न वीआवेळा अन्नं फुमंतं वीअंतं वा न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविदेणं मणेणं वायाए Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स नंते पमिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि॥४॥ (अवचूरिः) सितं चामरम् । विधुवनं व्यजनम् । तालवृन्तं तदेव मध्यग्रहणछि हिपुटम् । पत्रं पद्मिनीपत्रादि । शाखा वृदाशाखा शाखानङ्गस्तदेकदेशः। पेहुणं मयूरादिपिछम् । पेहुणहस्तस्तत्समूहः । चेलं वस्त्रम् । चेलकर्णस्तदेकदेशः । हस्तमुखे प्रतीते । एनिः किमित्याह । बाह्यं वा पुजलमुष्णोदकादि न फूत्कुर्यात् मुखेन । व्य. जेत् चामरादिना । तथान्यमन्येन वा न फूत्कारयेत् । न व्याजयेत् । तथान्यं फूत्कुर्वन्तं व्यजन्तं न समनुजानीयात् ॥४॥ (अर्थ.) हवे, वायुकायनी दया पालवी ते कहे . से इत्यादि से निकू' अहीथी मामीने 'जागरमाणे वा' ए सुधीनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. हवे, वायुकायना थारंजनो निषेध कहे . से इत्यादि (से के० ) तद्यथा एटले ते वायुकायनो निषेध कहे बे, ते एवी रीते-( सिएण वा के० ) सितेन वा एटले श्वेत चामरें करी, अथवा ( विहुयणेण के०) विधुवनेन वा एटले वालकादिकना वींजणें करी, अथवा (तालियंटेण वा के०) तालतेन वा एटले वांसना किंवा तालपत्रादिकने वीजणे करी, अथवा ( पत्तेण वा के० ) पत्रेण वा एटले कमल आदिकना पत्रं करी, अथवा (पत्तनंगेण वा के०) पत्रघ्नंगेन वा एटले केलिप्रमुखना पानडाना समुदायें करी, अथवा (साहाए वा के० ) शाखया वा एटले वृदनी डालेंकरी, अथवा (साहानंगेण वा के०) शाखानंगेन एटले वृदनी डालना समुदाये करी, अथवा ( पिहुणेण वा के०) पिहुणेन वा एटले मोर प्रमुखना पिछे करी, अथवा (पिहुणहरण वा के०) पिहुणहस्तेन वा एटले मोर पिबनी पूंजणीयें करी, अथवा (चेलेण वा के ) चैलेन वा एटले वस्त्रेकरी, अथवा (चेलकन्नेण वा के० ) चैलकर्णेन वा एटले वस्त्रने बेहडे करी, अथवा (हरेण वा के०) हस्तेन वा एटले हाथे करी, अथवा (मुहेण वा के०) मुखेन वा एटले मुखे करी, (अप्पणो वा कायं के) आत्मनो वा कायं एटले पोताना शरीरने अथवा (बाहिरं वा वि पुग्गलं के०) बाह्य वापि पुजलं एटले बाहिरनां जे उन्हें पाणी तथा दूध प्रमुख पुजल ते प्रत्ये (न फुमिजा के० )न फूत्कुर्यात् एटले मुखें करी फूंके नहीं. (न वीजा के०) न वीजयेत् एटले वींजे नहीं. तथा (अन्नं के०) अन्यं एटले बीजापासे ( न फुमाविजा के० ) न फूत्कारयेत् एटले फूत्कार करावे नहीं. (न वीयाविजा के० ) न वीज Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १३ येत् एटले वीजावे नहीं. तथा ( अन्नं के०) अन्यं एटले बीजो माणस पोते (फुमंतं वा के०) फूत्कुर्वतं वा एटले फूंकतो होय तो ते प्रत्ये, अथवा (वीयंतं वा के०) वीजयन्तं वा एटले वींजतो होय तो ते प्रत्ये, (न समणुजाणामि के) न समनुजानामि एटले अनुमोदना आपुं नहीं. 'जावजीवाए' इत्यादिकनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ॥४॥ (दीपिका.) सेनिस्कू इत्यादि व्याख्या पूर्ववत्। पुनः सितेन वाचामरेण, विधुवनेन वा व्यजनेन, तालवृन्तेन वा तेनैव मध्यग्रहण बिजेण छिपुटेन, पत्रेण वा पद्मिनीपत्रादिना, पत्रजङ्गेन तस्यैकदेशेन, शाखया वा वृदडालया, शाखानङ्गेन वा शाखादेशेन, पिहुणेण वा मयूरादिपिछेन, पिहुणहरेण वा मयूरादिपिछसमूहेन, चैलेन वा व. स्त्रेण, चैलकर्णेन वा वस्त्रैकदेशेन, हस्तेन वा करेण, मुखेन वा वदनेन । एनिः कृत्वा किमित्याह ।आत्मनो वा कायं वदेहमित्यर्थः । बाह्यं वा पुजलमुष्णोदकादि । एतकिमित्याह । न फुमिका न स्वयं फूत्कुर्यात् मुखेन धमनं न कुर्यात् । न वीजा न वी. जयेत् चामरादिना। तथा अन्यमन्येन वा न फूत्कारयेत्। न वीजयेत् । तथा अन्यं खत एव फूत्कुर्वन्तं व्यजन्तं वा न समनुजानीयादिति पूर्ववत् ॥ ४ ॥ (टीका.) से निकू वा इत्यादि जाव जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव । से सीएण वेत्यादि । तद्यथा सितेन वा विधुवनेन वा तालवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखानङ्गेन वा पेहुणेन वा पेहुणहस्तेन वा चेलेन वा चेलकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा । इह सितं चामरम् । विधुवनं व्यजनम् । तालवृन्तं तदेव मध्यग्रहण विजम् । पत्रं पद्मिनीपत्रादि । शाखा वृदाडालम् । शाखानङ्गस्तदेकदेशः। पेहुणं मयूरादिपिछम्। पेहुणहस्तस्तत्समूहः । चेलं वस्त्रम् । चेलकणेस्तदेकदेशः। हस्तमुखे प्रतीते । एनिः किमित्याह । आत्मनो वा कायं वदेहमित्यर्थः । बाह्यं वा पुजलमुष्णोदनादि। एतत् किमित्याह । न फुमेधा इत्यादि । न फूत्कुर्यात् न व्यजेत् । तत्र फूत्करणं मुखेन धमनम् । व्यजनं चमरादिना वायुकरणम् । एतत्स्वयं न कुर्यात् । तथान्यमन्येन वा न फूत्कारयेन्न व्याजयेत्तथान्यं खत एव फूत्कुर्वन्तं व्यजन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववदेव ॥४॥ से निकू वा निस्कुणी वा संजयविरयपमिदयपञ्चकायपावकम्मे दिया वा रा वा एग वा परिसाग वा सुत्ते वा जागरमाणे वा। से बीएसु वा बीयपश्छेसु वा रूढेसु वा रूढपश्ठेसु वा जाएसु वा जायपश्छेसु वा Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. हरिएसु वा दरियपश्छेसु वा बिन्नसु वा बिनपश्छेसु वा सचित्तेसु वा सचित्तकोलपमिनिस्सिएसु वा न गछेद्या न चिठेद्या न निसीश्या न तुअद्वेज्जा अन्नं न गलावेद्यान चिहावेद्यान निसीयावेया न तुअहाविजा। अन्नं गतं वा चितं वा निसीयंतं वा तुयतं वा न समणुजाणामि । तस्स नंते पमिकमामि निंदामि गरिदामि अप्पाणं वोसिरामि ॥५॥ (अवचूरिः) बीजेषु वा बीजप्रतिष्ठितेषु वा । रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठितेषु वा इत्यादि । बीजं शाल्यादि । तत्प्रतिष्ठितं चाशनशयनादि गृह्यते । एवं सर्वत्र वे. दितव्यम् । रूढानि स्फुटितबीजानि जातानि स्तम्बीनूतानि।तत्प्रतिष्ठितेषु वा । हरितेषु दूर्वादिषु तत्प्रतिष्ठितेषु वा । बिन्नेषु कुगरादिना वृदात्तेषु पृथक्स्थापितेषु । तत्प्रतिष्ठितेषु शयनादिषु । आर्येषु अपरिणतेषु सच्चित्तेष्वंमकादिषु । कोलो घुणस्तप्रतिनिःसृतानि तपरिवर्तीनि दादीनि गृह्यन्ते । एतेषु किमित्याह । न स्वयं गछेत् । न तिष्ठेत् न निषीदेत् । न त्वग्वर्त्तयेत् । तत्र गमनमन्यतोऽन्यत्र । स्थानमेकत्रैव । निषीदनमुपवेशनम् । त्वग्वर्त्तनं सुप्तम् । एतत्वयं न कुर्यात् । तथान्यमेतेषु न गमयेत् । न निषीदयेत् न त्वग्वर्त्तयेत् ॥ ५॥ (अर्थ.) हवे, वनस्पतिकायनी दया पालवाविषे कहे . से इत्यादि.अहीथी “जागरमाणे वा” सूधीनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. हवे, वनस्पतिकायना आरंजनो निषेध क. से बीएसु इत्यादि. (से के०) तद्यथा एटले ते वनस्पतिकायनो निषेध एवीरीते कहे , ते जेम केः-बीजेसु वा एटले शाल्यादिवीजने विषे, अथवा (बीयपश्छेसु वा के०) बीजप्रतिष्ठेषु वा एटले ते शालिप्रमुख उपर नाखेला जक्षण शयन प्रमुखने विषे, अथवा ( रूढेसु वा के०) रूढेषु वा एटले केवल बीज फोडीने अंकुरित थयेला शाल्या दिकनेविषे अथवा (रूढपश्ठेसु वा के०) रूढप्रतिष्ठेषु वा एटले ते सचित्त धान्यांकुर उपर मूकेला नक्षण शयन प्रमुखने विषे, अथवा (जाएसु वा के०) जातेषु वा एटले जे उगीने पत्रादिकें करी युक्त थयां, एवां धान्यना खेतरने विषे, अथवा (जायपश्छेसु वा के० ) जातप्रतिष्ठेषु वा एटले पूर्वोक्तरीतना खेतरउपर लक्षण शयन प्रमुखने विषे, अथवा ( हरिएसु वा के० ) हरितेषु वा एटले दूर्वा दिकने वि. षे, अथवा ( हरियपश्छेसु वा के० ) हरितप्रतिष्ठेषु वा एटले दूर्वा दिकउपर नक्षण १ अत्र “ समनुजाणेज्जा" इति पाठान्तरं कचित् दृश्यते । परं बहुतरपुस्तकेषु “समणुजाणामि" इति पाठदर्शनात्स एवात्रादृतः । एवमेव “पढमे भंते महव्वए" इत्यस्मादारभ्य प्रस्तुतालापकं यावत् दशखालापकेष्वपि ज्ञेयम् । विशेषस्तु टीकायां द्रष्टव्यः । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २१५ प्रमुखने विषे, अथवा ( बिन्ने वा के० ) छिन्नेषु वा एटले कुठारादिकेकरी बेला वृनी डालीने विषे, अथवा ( बिन्नपइहेसु वा के० ) विन्नप्रतिष्ठेषु वा ए-. टले कुठारादिके बेला वृक्षनी डाल उपर मूकेला यासनादिकने विषे, अथवा (सचित्तेसु वा के० ) सचित्तेषु वा एटले इंडाच्या दिकने विषे अथवा ( स चित्तकोलप डिनिस्सिएस वा के० ) सचित्तको प्रतिनिश्रितेषु वा एटले सचित्त घुणा दिके करी युक्त एवा सनादिकने विषे ( न गविता के० ) न गच्छेत् एटले गमन करे नहीं. ( न चिहिTo ) न तिष्ठेत् एटले ते उपर उजो रहे नहीं. ( न निसी इजा के० ) न निपीदेत् एटले बेसे नहीं. ( न तु श्रहिका के० ) न त्वग्बर्तयेत् एटले सुवे नहीं. तथा ( नं ० ) अन्यं एटले बीजाने ( न गच्छाविया के० ) न गमयेत् एटले चलावे नहीं . ( न चिह्नाविका के० ) न स्थापयेत्, एटले बीजाने त्यां उजो रखावे नहीं. ( न निसीयाविका के० ) न निषीदयेत् एटले बीजाने बेसाडावे नहीं. ( न तुट्टा विका ho ) न त्वग्वर्तयेत् एटले सुवाडे नहीं. तथा पूर्वोक्त बीजादिकने विषे ( अन्नं गतं वा के० ) अन्यं गतं वा एटले बीजो पोतेज गमन करतो होय ते प्रत्ये, अथवा ( चितं वा के० ) तिष्ठतं वा एटले उजो रहेतो होय ते प्रत्ये, अथवा ( निसीयंतं वा के० ) निषीदतं वा एटले बेसतो होय ते प्रत्ये, अथवा ( तुतं वा के०) त्वग्वतयन्तं वा एटले सूतो होय तो ते प्रत्ये ( न समजाणामि के० ) न समनुजानामि एटले अनुमोदन नहीं जावजीवाए इत्यादिकनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो इति ॥ ५ ॥ ( दीपिका . ) तथा पूर्ववत् बीजेषु वा शाल्यादिषु बीजप्रतिष्ठितेषु वा श्रासनशयनादिषु रूढेषु स्फुटितवी जेषु श्रङ्करितेषु रूढप्रतिष्ठितेषु श्रासनशयनादिषु जातेषु वा स्तम्बी भूतेषु, जातप्रतिष्ठितेषु वा आसनशयनादिषु, हरितेषु वा दूर्वादिषु, हरितप्रतिष्ठितेषु वा आसन शयनादिषु, बिन्नेषु वा परशुप्रमुख प्रहरण छिन्नवृक्षात् पृथक् स्थापितेषु, आर्केषु परिणतेषु, विन्नप्रतिष्ठितेषु वा विन्नप्रतिष्ठितासनशयनेषु, सचित्तेषु वा एकादिषु, सचित्तको प्रतिनिश्रितेषु । सच्चित्तकोलो घुणस्तत्प्रतिनिश्रितेषु तडुपरिवर्तिषु दार्वादिषु । तेषु किमित्याह । न गच्छेत्, न तिष्ठेत्, न निषीदेत्, न त्वग्वर्तयेत् । एतत्सर्वं न कुर्यात् । तथान्यमेतेषु न गमयेत्, न स्थापयेत्, न निषीदयेत्, न स्वापयेत् । तथा अन्यं स्वत एव गच्छन्तं वा, तिष्ठन्तं वा, निषीदन्तं वा, स्वपन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥ ६ ॥ ( टीका. ) से रिकू वा इत्यादि जाव जगरमाणेव त्ति पूर्ववदेव । सेबी एस वेत्यादि । तद्यथा वीजेषु वा बीजप्रतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रति For Private Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)मा. ष्ठितेषु वा हरितेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा बिन्नेषु वा लिन्नप्रतिष्ठितेषु वा सचित्तेषु वा सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु वा।श्ह बीजं शाल्यादि।तत्प्रतिष्ठितमाहारशयनादि गृह्यते। एवं सर्वत्र वेदितव्यम्।रूढानि स्फुटितबीजानि।जातानि स्तम्बीनूतानि।हरितानिदूर्वादीनि।जिन्नानि परश्वादिनिर्वृदात पृथक्स्थापितान्याऊणि अपरिणतानि तदङ्गानि गृह्यन्ते।सचित्तान्यएमकादीनि।कोलो घुणस्तत्प्रतिनिश्रितानि तपरिवर्तीनि दार्वादीनि गृह्यन्ते । एतेषु किमित्याह । न गछेजा न गछेत् । न तिष्ठेत् । न निषीदेत् । न त्वग्वतेत । तत्र गमनमन्यतोऽन्यत्र । स्थानमेकत्रैव । निषीदनमुपवेशनम् । त्वग्वर्तनं स्वपनम् । एतत्स्वयं न कुर्यात्तथान्यमेतेषु न गमयेत् । न स्थापयेत् । न निषीदयेत् । न खापयेत्। तथान्यं स्वत एव गछन्तं वा तिष्ठन्तं वा निषीदन्तं वा स्वपन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥ ५॥ से निकू वा निकुणी वा संजयविरयपडिहयपचकायपावकम्मे दिआ वा रा वा एग वा परिसाग वा सुत्ते वा जागरमाणे वा । से कोडं वा पयंगं वा कुंथु वा पिपीलियं वा दबंसि वा पायंसि वा वाटुंसि वा ऊरंसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वबंसि वा पमिग्गरंसि वा कंबलंसि वा पायपुंगणंसि वा रयहरणंसि वा गोबगंसि वा मगंसि वा दंमगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेयंसि वा संथारगंसि व अन्नयरंसि वा तहप्पगारे जवगरणजाए त संजयामेवा पमिलेदिअ पमिलेहि पमजिअ पमजिअ एगंतमवणेजा। नो णं संघायमावज्जेज्जा ॥६॥ (अवचूरिः) से तद्यथा कीटं वा पतङ्गं वा कुन्थु वा पिपीलिकां वा किमित्याह । हसि वा हस्ते वा पादे वा बाहौ वा ऊरौ वा उदरे वा शीर्षे वा वस्त्रे वा रजोहरणे वा गुछे वा उंदके वा पीठके वा फलके वा शय्यायां वा संस्तारके वा अन्यतरस्मिन्वा तथाविधे तथाप्रकारे साधुक्रियोपयोगिन्युपकरणजाते कीटादिरूपं त्रसं कथंचिदापतितं सन्तं संयत एव सन् प्रत्युपेय प्रमृज्य पौनःपुन्येन एकान्ते अपनयेत् । नैनं त्रसं संघातं परस्परगात्रसंस्पर्शपीडारूपमापादयेत् । अनेन परितापनानिषेधः। एकग्रहणे तजातीयग्रहणादन्यकारणानुमतिप्रतिषेधः । उन्दकं स्थगिमलम् । शय्या सर्वाङ्गिकी वसतिर्वा ॥६॥ (अर्थ.) हवे, त्रसकायनी दया पालवाविषे कहे . से इत्यादि।सेलिरकू अहीश्री Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १७ मामीने जागरमाणे अहीं सूधीनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. हवे, त्रसकायजीवोना श्रारंजनो निषेध कहे . ( से के० ) तद्यथा एटले ते आवीरीते- (कीडं वा के) कीटं वा एटले कीटक जे बेंजियादिक ते प्रत्यें, अथवा (पयंगं वा के० ) पतंगं वा एटले पतंगियो ते चतुरिंजिय जीव ते प्रत्ये, अथवा (कुंथु वा के ) कुंथु वा एटले कुंथुनामक तेरिडिय जीव थाय , ते प्रत्ये, अथवा (पिपीलियं वा के०) पिपीलिकां एटले योजनगंधी ते कीडी प्रमुख जीव थाय ने ते प्रत्ये ( हसि वा के०) हस्ते वा एटले हाथने विषे, अथवा ( पायंसि वा के० ) पादे वा एटले पगने विषे, अथवा ( बाहुँसि वा के०) बाहौ वा एटले बाहुने विषे, अथवा ( जरुसि वा के०) करौ वा एटले साथलने विषे ( उदरंसि वा के ) उदरे वा एटले उदरने विषे, अथवा ( सीसंसि वा के० ) शीर्षे वा एटले मस्तकने विषे, अथवा ( वछंसि वा के) वस्त्रे वा एटले वस्त्रने विषे, अथवा (पमिग्गहंसि वा के०) प्रतिग्रहे वा एटले पात्रने विषे, अथवा ( कंबलंसि वा के०) कंबले वा एटले कांबलीने विषे, श्रथवा (पायपुद्रणं सि वा के०) पादप्रोजनकेवा एटले दमासणाने विषे, अथवा (रयहरणं सि वा के०) रजोहरणे वा एटले रजोदरणने विषे, अथवा (गोलगंसि वा के०) गो वा एटले पात्राना गुडाने विपे, अथवा ( उमगंसि वा के० ) उंदके वा एटले स्थं मिलने विषे, अथवा (दंमगंसि वा के०) दंमके वा एटले दांमाने विषे, अथवा (पीढगंसि वा के०) पीठके वा एटले बाजोग्ने विषे, अथवा ( फलगंसि वा के०) फलके वा एटले पाटियाने विषे, अथवा ( सेद्यं सि वा के० ) शय्यायां वा एटले जेनुं लंबाश्नु प्रमाण एक पुरुषमात्र , एवी शय्याने विषे, अथवा (संथारगंसि वा के०) संस्तारके वा एटले जेनुं लंबानुं प्रमाण अढी हाथ बे एवा संथाराने विषे, अथवा ( अन्नयरंसि वा के०) अन्यतरस्मिन्वा वा एटले बीजा पण (तहप्पयारे के०) तथाप्रकारे एटले पूर्वे कहेला प्रकारना ( उवगरणजाए के) उपकरणजाते एटले साधुना जे उपकरण तेना समूहने विषे, पूर्वोक्त त्रस जीव होय तो ते प्रत्ये ( तर्ड के० ) ततः एटले ते स्थानकथी (संजयामेव के०) संयतमेव एटले मोटा प्रयत्नेकरी पमिले हिथ पमिलेहिश्र के०) प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य एटले वारंवार पमिलेहीने तथा (पमङिाथ पमजिथ के०) प्रमृज्य प्रमृज्य एटले सारी रीते वारंवार प्रमार्जीने प्रमार्जीने ( एगंतमवणेद्या के ) एकांतमपनयेत एटले ज्यां ते जीवने कोइपण जातनो उपजव थाय नहीं ते ठेकाणे मूके, पण (नो णं संघायमावळोजा के०) नैनं संघातमापादयेत् एटले ए त्रस जीवने एकठा करीने पीडा पमाडे नहीं. इति ॥६॥ २८ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. (दीपिका) कीटं वा द्वीन्द्रियं पतङ्गं वा कुन्थुं वा त्रीन्द्रियं पिपीलिकां वा । किमित्याह । हस्ते वा पादे वा, बाहौ वा, ऊरुणि वा, उदरे वा, शिरसि वा, वस्त्रे वा, पात्रे वा, कम्बलके वा, पादप्रोञ्बन के वा, रजोहरणे वा, गोछे वा, उदके मात्रके स्थ लेवा, दवा, पीठके वा, फलके वा, शय्यायां वा, संस्तारके वा, अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे साधु क्रियाया उपयोगिनि उपकरणजाते तेषु स्थानेषु कीटादिरूपं सं कथंचित् पतितं सन्तं संयत एव सत्प्रयलेन वा प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य पौनःपुन्येन सम्यक् प्रमृज्य प्रमृज्य पौनःपुन्येन । सम्यक् किमित्याह । एकान्ते यत्र स्थाने तस्य कीटादेः उपघातो न जवति तत्र अपनयेत् परित्यजेत् । परं नैनं संघातमापादयेत् नैनं सं संघातं परस्परगात्रसंस्पर्शपी डारूपमापादयेत् प्रापयेत् । अनेन क परितापनादिप्रतिषेध उक्तो ज्ञातव्यः । एकस्य करणस्य ग्रहणेन अन्यकारणानुमत्योरपि प्रतिषेधः ॥ ६॥ ( टीका. ) से रिकू वा इत्यादि यावजागरमाणे वत्ति पूर्ववत् । से कीमं वा इत्यादि । तद्यथा कीटं वा पतङ्गं वा कुन्थुं वा पिपीलिकां वा । किमित्याह । हस्ते वा पादे वा बाहौ वा ऊरुणि वा उदरे वा वस्त्रे वा रजोहरणे वा गुठे वा उन्दके वा दमके वापीठे वा फलके वा शय्यायां वा संस्तारके वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे साधुक्रियोपयोगिनि उपकरणजाते कीटादिरूपं त्रसं कथंचिदापतितं संयत एव सत्प्रयनेन वा प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य पौनःपुन्येन सम्यक् प्रमृज्य प्रमृज्य पौनःपुन्येनैव । सम्यकिमित्याह । एकान्ते त्रसानुपघातकस्थाने पनयेत्परित्यजेत् । नैनं त्रसं संघातमापादयेन्नैनं सं संघातं परस्पर गात्रसंस्पर्शपी डारूपमापादयेत् प्रापयेत् । अनेन परितापना - दिप्रतिषेध उक्तो वेदितव्यः । एकग्रहणे तातीयग्रहणादन्य कारणानुमतिप्रतिषेधश्च । शेषमत्र प्रकटार्थमेव नवरमुन्दकं स्थफिलं शय्या संस्तारिकी वसतिर्वा । इत्युक्ता यतना । गतश्चतुर्थोऽधिकारः ॥ ६ ॥ T जयं चरमाणो, पाणजयाई हिंसइ ॥ बंधई पावयं कम्मं तं से दो कांफलं ॥ १ ॥ ( अवचूरिः ) उक्ता यतना । संप्रत्युपदेशमाह। ईर्यामुल्लङ्घय चरन् । तुरेवार्थे । अ'यतमेव । प्राणिनो द्वीन्द्रियादयः । नूतान्ये केन्द्रियास्तानि हिनस्ति । हिंसन् बध्नाति पापं कर्म । तत्से तस्य जवति कटुकफलं विपाकदारुणमनुखारोऽलाक्षणिकः ॥ १ ॥ ( अर्थ. ) एवी रीतें षट्राय जीवनी दया पालवानी कही. पण ते दया ईर्यासमिति शोधतां होय बे, माटे हवे साधुए जयणाए चालकुं, एम कहे बे. जयं ति Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । ११ 0 ( जयं के० ) यतं एटले ईर्यासमिति विना अर्थात् अजयणाए ( चरमाणो अ के० ) चरंश्च एटले चालतो थको (पाणनूयाई के० ) प्राणिभूतानि, प्राणि ते बेरिंडि - यादिक तथा भूत ते एकेंद्रियादिक जीव ते प्रत्ये ( हिंसइ के० ) हिनस्ति एटले हणे बे. तेने दणवाथी ( पावयं कम्मं के० ) पापकं कर्म एटले ज्ञानावरणीया दिक पाप कर्म ( बंधई के० ) बध्नाति एटले बांधे बे. ( से के० ) तस्य एटले ते अजयाए चालता साधुने (तं के०) तत् एटले ते पापकर्म ( ककुत्र्यंफलं के० ) कटुकफलं एटले कडवा फलने यापनार एवं ( होइ के० ) जवति एटले थाय बे. ॥ १ ॥ ( दीपिका.) सांप्रतमुपदेशमाह। श्रयतं चरन् यत्नं विना गछन् ईर्यासमितिमुल्लङ्घय । किमित्याह । प्राणिभूतानि हिनस्ति, प्राणिनो द्वीन्द्रियादयः भूतानि एकेन्द्रियास्तानि हिनस्ति प्रमादेन अनाजोगेन च व्यापादयति । तानि हिंसन् बध्नाति पापकं कर्म अकुशल परिणामादादत्ते क्लिष्टं ज्ञानावरणीयादि । तत्पापकर्म से तस्य प्रयत्नचारिणो वति कटुकफलमशुभफलं जवति । मोहादिहेतुत्वेन विपाकदारुणमित्यर्थः ॥ १ ॥ ( टीका. ) सांप्रतमुपदेशाख्यः पञ्चम उच्यते । श्रजयमित्यादि । यतं चरन्नयतमनुपदेशेनासूत्राइया इति । क्रियाविशेषणमेतत् । चरन् गछन् । तुरेवकारार्थः । तमेव चरन् ईर्यासमितिमुल्लङ्घ्य न त्वन्यथा । किमित्याह । प्राणिभूतानि हिनस्ति । प्राणिनो द्वीन्द्रियादयः । नूतान्येकेन्द्रियास्तानि हिनस्ति । प्रमादानानोगाभ्यां व्यापादयतीति जावः । तानि च हिंसन् बध्नाति पापं कर्म कुशलपरिणामादादत्ते विष्टं ज्ञानावरणीयादि । तत् से जवति कटुकफलम् । तत् पापं कर्म से तस्यायतचारिणो नवति कटुकफल मित्यनुखारोऽलाक्षणिकः । अशुभफलं जवति मोहादिहेतुतया विपाकदारुण मित्यर्थः ॥ १ ॥ अजयं चिह्नमाणो अ, पाणनूयाई हिंसा ॥ बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कमुच्फलं ॥२॥ ( श्रवचूरिः ) श्रयतं तिष्ठन्नूर्ध्वस्थानेनासमाहितो हस्तपादादि विक्षिपन् शेषं पूर्ववत् ॥ २ ॥ ( अर्थ. ) तेमज ( जयं चिमाणो के० ) अयतं तिष्ठश्च एटले अजयणाए जो रेहतो थको हाथ पग यादिक पसारी जे साधु (पाणनूयाई के० ) प्राणिभूतानि एटले एकेंद्रियादिक तथा बेंद्रियादिक जीवप्रत्ये ( हिंसाइ ho ) हिनस्ति एटले हणे बे. ते ( पावयं कम्मं के० ) पापकं कर्म एटले ज्ञा For Private Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा नावरणीयादि पापकर्मने ( बंधई के० ) बन्नाति एटले बांधे बे. ( से के० ) तस्य एटले ते साधुने ( तं के० ) तत् एटले ते पापकर्म ( ककुयंफलं के० ) कटुकफलं एटले कडवा फलने यापनारुं ( होइ के० ) जवति एटले थाय बे ॥ २ ॥ यतं तिष्ठन् ऊर्ध्वस्थानेन असमंजसं हस्तपादादिकं विक्षिपन् ॥२॥ एवमयतं तिष्ठन्नूर्ध्वस्थानेनासमाहितो हस्तपादादि विक्षिपन् शेषं (दीपिका) एवं ( टीका. ) पूर्ववत् ॥ २ ॥ जयं समाणो, पाणनूयाई हिंसई ॥ बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कमुखंफलं ॥ ३॥ ( अवचूरिः ) श्रयतमासीनो निषणतया अनुपयुक्तः प्राकुञ्चनादिजावेन ॥ ३॥ ( अर्थ. ) तथा जे साधु ( अजयं समाणो के० ) श्रयतमासीनः एटले - जयure वेसतो थको हस्तपादादिकना आकुंचनादिके करी ( पाणनूयाइ के० ) प्राणिभूतानि एटले एकेंद्रियादिक तथा बेंद्रियादिक जीव प्रत्ये ( हिंसइ के० ) हिनस्ति एटले हणे बे. ते साधु ( पावयं कम्मं के० ) पापकं कर्म एटले ज्ञानावर यादि पाप कर्म प्रत्ये ( बंधई के० ) बध्नाति एटले बांधे बे. ( से के० ) तस्य एटले ते साधुने ( तं के० ) तत् एटले ते पापकर्म (कमुफलं के० ) कटुकफलं एटले कमवा फलने श्रापनारुं एवं ( होइ के० ) जवति एटले थाय छे. ॥ ३ ॥ ( दीपिका. ) एवमयतमासीनो निषणतया अनुपयुक्तः सन् श्राकुञ्चनादिजावेन शेषं पूर्ववत् ॥ ३ ॥ ( टीका.) एवमयतमासीनो निषणतया अनुपयुक्त श्राकुञ्चनादिनावेन शेषं पूर्ववत्॥३॥ जयं सयमाणो, पाणनूयाई हिंसइ ॥ बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कमुच्फलं ॥ ४ ॥ यतं स्वपन्न समाहितो दिवा प्रकामशय्यादिना शेषं पूर्ववत् ॥ ४ ॥ (अवचूरिः ) ( अर्थ. ) वली ते साधु ( जयं सयमाणो के० ) अयतं स्वपंश्च एटले अजयपाए शयन करतो को ( पाणजूयाई के० ) प्राणिनूतानि एटले एकें प्रियादिक तथा प्रियादिक जीव प्रत्ये ( हिंसइ के० ) हिनस्ति एटले हणे बे. तेथी ते पुरुष (पावयं कम्मं के० ) पापकं कर्म एटले ज्ञानावरणीयादि पापकर्म प्रत्ये ( बंधई के० ) बनाति एटले बांधे बे. ( से के० ) तस्य एटले ते साधुने ( तं के० ) तत् एटले ते For Private Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । पापकर्म (कमुयंफल के ) कटुकफलं एटले कडवा फलने आपनारुं ( होइ के० ) जवति एटले थाय . ॥४॥ (दीपिका.) एवमयतं खपन्नसमाहितो दिवसे प्रकामशय्यादिना। शेषं पूर्ववत् ॥४॥ ( टीका.) एवमयतं खपन्नसमाहितो दिवा प्रकामशय्यादिना शेषं पूर्ववत् ॥४॥ अजयं मुंजमाणो अ, पाणनूयाइं हिंस॥ बंधई पावयं कम्म, तं से दो कमुश्रफलं॥५॥ (अवचूरिः) अयतं जुञ्जानो निःप्रयोजनं प्रणीतं काकशृगालनहितादिना । शेषं पूर्ववत् ॥५॥ (अर्थ.) तथा जे साधु ( अजयं मुंजमाणो अ के) अयतं जुञ्जानश्च एटले यतना विना अजयणाए जोजन करतो थको (पाणनूया के ) प्राणिनूतानि एटले एकेंजियादिक तथा बेंरिजियादिक जीव प्रत्ये ( हिंसर के ) हिनस्ति एटले हणे बे. तेथी ते साधु ( पावयं कम्मं के० ) पापकं कर्म एटले पापकर्मप्रत्ये ( बंधई के ) बन्नाति एटले बांधे . ( से के० ) तस्य एटले ते पुरुषने (तं के० ) तत् एटले ते पापकर्म ( कम्यंफलं के) कटुकफलं एटले कडवा फलने आपनाएं ( होइ के ) नवति एटले थाय दे. ॥५॥ (दीपिका.) एवमयतं जुञ्जानो निःप्रयोजनं प्रणीतं काकशृगालनक्षितादिना। शेषं पूर्ववत् ॥५॥ (टीका.) एवमयतं जुञ्जानो निष्प्रयोजनं प्रणीतं काकशृगालजहितादिना शेषं पूर्ववत् ॥ ५॥ अजयं नासमाणो अ, पाणनूयाइं हिंस॥ बंधई पावयं कम्मं, तं से दो कमुअंफलं ॥६॥ ( श्रवचूरिः ) नाषमाणो गृहस्थताषया निष्ठुरमन्तरनाषादिना । शेषं पूर्ववत्॥६॥ (अर्थ.) तथा जे साधु ( अजयं नासमाणो अ के० ) अयतं नाषमाणश्च एटले यतना विना अजयणाए अर्थात् सावध गृहस्थनी निष्ठुर एवी चकारमकारा दिलाषा बोलतो थको (पाणनूयाई के०) प्राणिनूतानि एटले एकेंजियादिक तथा बेरिंजि Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शश्श राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. यादिक जीव प्रत्ये ( हिंसर के) हिनस्ति एटले हणे . तेथी ते साधु (पावयं कम्मं के०) पापकं कर्म एटले ज्ञानावरणीयादि पाप कर्म प्रत्ये (बंधई के०) बनाति एटले बांधे . ( से के) ते जीवने (तं के० ) तत् एटले ते पापकर्म (कमुयंफलं के०) कटुकफलं एटले कमवा फलने आपनाएं (होश के०) नवति एटले थाय ने.॥६॥ (दीपिका.) एवमयतं नाषमाणो गृहस्थताषया निष्ठुरमन्तरजाषादिना शेषं पूर्ववत् ॥ ६॥ (टीका.) एवमयतं नाषमाणो गृहस्थन्नाषया निष्ठुरमन्तरजाषादिना। शेषं पूर्ववत् ॥६॥ , कई चरे कदं चिठे, कदमासे कहं सए ॥ कदं मुंजंतो नासंतो, पावं कम्मं न बंधश्॥७॥ (अवचूरिः) अत्राह । यद्येवं पापकर्म ततः कथं केन प्रकारेण चरेदित्यादि ॥७॥ (अर्थ.) पूर्वोक्त वचन सांजलीने गुरुने शिष्य पूजे जे. कहमित्यादि । ते साधु (कहं चरे के०) कथं चरेत् एटले केवी रीते गमन करे, ( कहं चिठे के०) कथं तिष्ठेत् एटले केवीरीते उन्नो रहे, ( कहमासे के० ) कथमासीत एटले केवी रीते बेसे, ( कहं सए के) कथं खपेत् एटले केवी रीते शयन करे, वली (कहं मुंजंतो नासंतो के० ) कथं जुञ्जानो नाषमाणश्च एटले ते साधु केवीरीतें नोजन करतो थको तथा बोलतो थको ( पावं कम्मं के० ) पापं कर्म एटले पापकर्मने ( न बंध के० ) न बनाति एटले बांधतो नथी. ॥७॥ ( दीपिका.) अथ शिष्य आह । यद्येवं पापकर्मबन्धस्तदा कथं चरेदित्याह । कथं केन प्रकारेण चरेत् , कथं तिष्ठेत्, कथमासीत, कथं वपेत् । कथं नुञ्जानोऽन्नं कथं जाषमाणः पापकर्म न बनाति ॥ ७॥ (टीका.) अत्राह । यद्येवं पापकर्मबन्धस्ततः कहं चरे इत्यादि । कथं केन प्रकारेण चरेत्, कथं तिष्ठेत्, कथमासीत, कथं खपेत् । कथं नुञ्जानो नाषमाणः पापं कर्म न बनातीति ॥७॥ जयं चरे जयं चिहे, जयमासे जयं सए॥ जयं मुंजंतो नासंतो, पावं कम्मं न बंध॥७॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २२३ ( अवचूरिः ) आचार्यस्त्वाह । यतं चरेत्सूत्रोपदेशेनेर्यासमितः । यतं तिष्ठेद्धस्तपादाविदेपेण । यतमासीत उपयुक्तमाकुञ्चनाद्यकरणेन । यतं खपेत् समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यापरिहारेण । यतं जुञ्जानः सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंहजदितादिना । यतं जाषमाणः साधुजाषया मृडु कालप्राप्तं च । पापं कर्म ज्ञानावरयदि न वाति रुद्धाश्रवत्वाद्विहितानुष्ठानपरत्वादिति ॥ ८ ॥ ( . ) एवो शिष्यनो प्रश्न सांजलीने श्राचार्य कहे बे. जयं चरे इति. हे शिष्य ! साधु जे बे, ते ( जयं के० ) यतं एटले जयणाये करी ( चरे के० ) चरेत् एटले चाले ( जयं के० ) यतं एटले जयणाये करी ( चिट्ठे के० ) तिष्ठेत् एटले जो रहे, (जयं के० ) यतं एटले जयणाये करी ( श्रासे के० ) श्रासीत एटले बेसे, (जयं के० ) यतं एटले जयणाये करी ( सए के० ) खपेत् एटले शयन करे, तथा ( जयं के० ) यतं एटले जयणाये करी (गुंजतो के० ) जुञ्जानः एटले नोजन करतो ( जयं के० ) यतं एटले जयणाये करी ( जासंतो के० ) जाषमाणः एटले जाषण करतो ( पावं कम्मं के० ) पापं कर्म एटले ज्ञानावरणीयादि पाप कर्म प्रत्ये ( न बंध के० ) न बध्नाति एटले बांधतो नथी. ॥ ८ ॥ ( दीपिका. ) त्राचार्य उत्तरमाह । यतं चरेत् सूत्रस्य उपदेशेन ईर्यास मित्यादिसमितः सन् यतं तिष्ठेत् समाहितः सन् हस्तपादादीनां विक्षेपेण विना, यतमासीत उपयुक्तः सन् याकुञ्चनादेः करणेन, यतं स्वपेत् समाधिमान् सन् रात्रौ प्रकामशय्यादिपरिहारेण । यतं भुञ्जानः प्रणीतं सिंहन दितादिना, एवं यतं जाषमाणः साधुभाषया तदपि मृडु कालप्राप्तं च । एवं कुर्वन् साधुः पापं कर्म क्लिष्टमकुश - लानुबन्धि ज्ञानावरणीयादि न बध्नाति । कथमाश्रवरोधनात् साध्वाचारतत्परत्वाच्च ॥ ८ ॥ ( टीका. ) चार्य ह । जयं चरे इत्यादि । यतं चरेत् सूत्रोपदेशेनेर्यासमितः । यतं तिष्ठेत् समाहितो हस्तपादाद्यविदेपेण । यतमासीत उपयुक्त कुञ्चनाद्यकरणेन । यतं स्वपेत् समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यादिपरिहारेण । यतं भुञ्जानः सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंहनहितादिना । एवं यतं जाषमाणः साधुजाषया मृडु कालप्राप्तं च । पापं कर्म क्लिष्टमकुशलानुबन्धि ज्ञानावरणीयादि न बध्नाति नादत्ते निराश्रवत्वात् विहितानुष्ठानपरत्वादिति ॥ ८ ॥ सवनूयप्पनूस्स, सम्मं नूयाई पासन ॥ पिढिच्या सवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधइ ॥ ए॥ For Private Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ( अवचूरिः ) सर्वजूतेषु श्रात्मजूतः सर्वभूतात्मजूतो य आत्मवत्सर्वभूतानि पश्यति सम्यक् वीतरागोक्तेन विधिना पृथ्व्यादीनि नूतानि पश्यतः, पिहिताश्रवस्य, दान्तस्येन्डियनोन्डियदमनेन पापं कर्म न बध्यते । पापकर्मबन्धो न जवतीत्यर्थः ॥ ए॥ __(अर्थ.) हवे उपदेश कहे . ( सबनूयप्पनूअस्स के०) सर्वनूतात्मनूतस्य, स. वनूत ते सर्व प्राणीने आत्मनूत एटले पोताना आत्मानी परे समजनारा एवा तथा ( सम्मं नूयाइं पास के०) सम्यक् नूतानि पश्यतः, नूतानि एटले सर्व जीवोने सम्यक् एटले वीतरागे कह्या प्रमाणे रूडीरीतें पश्यतः एटले जोनारा एवा (पिहियासवस्स के०) पिहिताश्रवस्य एटले प्राणातिपातादिक आश्रवहार जेणे रोक्यां बे,एवा अने (दंतस्स के ) दांतस्य एटले जेणे इंडियदमन कांबे, एवा साधुने (पावं कम्मं के०) पापं कर्म एटले ज्ञानावरणीयादि पापकर्म (न बंध के०) न बध्नाति बंधातुं नथी ॥ए॥ (दीपिका.) किंच एवं विधस्य साधोः पापं कर्म न बध्यते। तस्य साधोः पापकर्मबन्धो न नवतीत्यर्थः। किं साधोः । सर्वन्नूतेषु आत्मन्नूतो य आत्मवत्सर्वनूतानि पश्यति । तस्य किं कुर्वतः साधोः । सम्यग्वीतरागकथितेन विधिना नूतानि पृथ्व्यादीनि पश्यतः। पुनः किंग साधोः। पिहितो निरुतः स्थगित आश्रवः प्राणातिपातादिरूपो येन स तस्य । पुनः किंनूतस्य साधोः । दान्तस्य दमितेन्द्रियनोन्डियव्यापारस्य । एवं सति किं नवति । सर्वनूतदयावतः पापकर्मबन्धो न भवति ॥ ए॥ (टीका.) किंच सबनूय इत्यादि। सर्वत्रूतेष्वात्मजूतः सर्वात्मजूतो। य अत्मवत् सर्वनूतानि पश्यतीत्यर्थः । तस्यैवं सम्यग्वीतरागोक्तेन विधिना नूतानि पृथिव्यादीनि पश्यतः सतः। पिहिताश्रवस्य स्थगितप्राणातिपाद्याश्रवस्य दान्तस्येन्जियनोन्द्रियदमेन पापं कर्म न बध्नाति, तस्य पापकर्म बन्धो न नवतीत्यर्थः॥ ए॥ पढमं नाणं त दया, एवं चिह सवसंजए॥ अन्नाणी किं काही, किंवा नादी अपावगं ॥१०॥ (अवचूरिः ) एवं सति दयायामेव यतितव्यं अलं ज्ञानान्यासेनापीति मा जूदव्युत्पन्न विनेयमतिविन्रम इति तदपोहायाह । प्रथममादौ शानं ततो दया एवमनेन प्रकारेण झानपूर्वक क्रियाप्रतिपत्तिरूपेण तिष्ठत्यास्ते सर्वसंयतः । श्रज्ञानी किं करिष्यति । सर्वत्रान्धतुल्यत्वात् प्रवृत्ति निमित्तानावात् वा किं वा ज्ञास्यात Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २२५ बेकं निपुणं हितं कालोचितं पापकमितो विपरीतं तत्करणं जावतोऽकरणमेव । तो ज्ञानान्यासः कार्यः ॥ १० ॥ ( .) पूर्वोक्त उपदेशथी कोइ एम समजे के, सर्व प्राणिमात्र उपर दया राखनार जे पुरुष, तेने पापकर्मनो बंध थतो नथी, माटे सर्वप्रकारे प्रयत्न करीने दयाज पालवी, परंतु ज्ञाननो अभ्यास वगेरे कां करवानी जरूर नथी, एवा अज्ञानी शिष्यने मोह न थवो जोइयें, माटे कहे बे. पढमं ति ( पढमं के० ) प्रथमं एटले प्रथम ( नाणं के० ) ज्ञानं एटले जीवाजीवा दिकनुं ज्ञान संपादन करे, ( त के० ) ततः एटले जीवाजीवादिज्ञान थया पढी ( दया के० ) दया एटले संयमरूप दया षड्जीव निकायने विषे कराय. या प्रकारथी ज्ञानपूर्वक दया सिद्ध थाय बे. ( एवं ho) पूर्वोक्त ज्ञानपूर्वक दया पालवाथी ते साधु ( सवसंजए के० ) सर्वसंयतः एटले सर्व प्रकारे संयत थाय बे. वली एथी विपरीत जे पुरुष ( अन्नाणी के० ) अज्ञानी एटले जीवाजीवादिज्ञानरहित होय बे, ते ( किं काही के० ) किं करिष्यति एटले शुं करशे ? केमके, ज्ञान नहीं होवाथी ते धसमान बे, माटे ते अज्ञानी har कर्मने विषे प्रवृत्त यतुं, तथा केवा कर्मथी निवर्तयुं, ते कांइ जाणेज नहीं. वली यद्यपि ते पुरुष कां कर्म करवा प्रवृत्त थाय, तोपण ते ( सेयपावगं के० ) श्रेयःपापकं एटले पुण्याने पापने (किंवा नाही के० ) किंवा ज्ञास्यति एटले शुं जाएशे ? कांइज नहीं ॥ १० ॥ ( दीपिका . ) शिष्यः प्राह । इत्यनेन किमागतं सर्वप्रकारेण दयायामेव यतितव्यं किं प्रयोजनं ज्ञानाभ्यासेन । गुरुराह मा एवं चमं कुरु । यतः प्रथममादौ ज्ञानं जीवस्वरूपरक्षणस्य उपायफल विषयं ततस्तथाविधज्ञानात्पश्चात् दया संयमः एवमनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वक दयाप्रतिपत्तिरूपेण तिष्ठत्यास्ते सर्वसंयतः सर्वोऽपि साधुवर्गः । परं यः पुनरज्ञानी ज्ञानरहितः स किं करिष्यति । सर्वत्रान्धतुल्यत्वात् प्रवृत्तिनिमित्तस्याजावात् । किं वा कुर्वन् ज्ञास्यति बेकं निपुणं हितं कालस्य उचितं पापकं वा बेकाद्विपरीतम् । तत्करणं जावतोऽकरणमेव समस्त निमित्तानामजावात् अन्धप्रदी तपलायनघुणाक्षरवत् । अत एव अन्यत्राप्युक्तम् ॥ गीठो अ विहारो, बीर्ड गीमी सिउँ नणि ॥ इत्तो ताविहारो, नापुन्नार्ड जिवरेहिं ॥ १ ॥ यतो ज्ञानाज्यासः कार्य एव ॥ १० ॥ ( टीका. ) एवं सति सर्वभूतदयावतः पापकर्मबन्धो न जवतीति सर्वात्मना दयायामेव यतितव्यम् । अलं ज्ञानान्यासेनापीति मा नूदव्युत्पन्न विनेयमति विचम इति तदपोहायाह । पढमं पाणमित्यादि । प्रथममादौ ज्ञानं जीवस्वरूप संरक्षणोपा २९ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शश राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. यफल विषयं ततस्तथाविधानसमनन्तरं दया संयमस्तदेकान्तोपादेयतया लावतस्तत्प्रवृत्तेः । एवमनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वकक्रियाप्रतिपत्तिरूपेण तिष्ठत्यास्ते । सर्वसंयतः सर्वप्रबजितः । यः पुनरझानी साध्योपायफलपरिज्ञान विकलः स किं करिष्यति सर्वत्रान्धतुल्यत्वात्प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्तानावात् । किं वा कुर्वन् झास्यति डेकं निपुणं हितं कालोचितं पापकं वा अतो विपतरीतमिति । ततश्च तत्करणं जावतोऽकरणमेव समग्रनिमित्तानावात् अन्धप्रदीप्तपलायनघुणादरकरणवत् । अत एवान्यत्राप्युक्तम् । गीयबोध विहारो,बी गीअबमीसिउन्नणि॥इत्यादि। अतो ज्ञानाच्यासःकार्यः॥१०॥ सोचा जाणइ कल्खाणं, सोचा जाण पावगं ॥ . उनयं पि जाणए सोचा, जं सेयं तं समायरे॥११॥ (श्रवचूरिः) श्रुत्वा जानाति । कट्यो मोक्षस्तमणति नयतीति कल्याणं दयाख्यं संयमस्वरूपं पापकमसंयमरूपमुजयं संयमासंयमस्वरूपं श्रावकोपयोगि जानाति । यतश्चैवमत छ विज्ञाय यछेकं निपुणं कालोचितं तत्समाचरेत् ॥ ११ ॥ (अर्थ.) माटे ज्ञानान्यास करवायी जे थाय ते कहे . सोच्चा इत्यादिपुरुष जे जे ते (सोच्चा के०) श्रत्वा एटले सिकांत सांजलीने (कहाणं के०) कख्याणं एटले संयम प्रत्ये (जाण के०) जानाति एटले जाणे . तेमज (सोच्चाके०) श्रुत्वा एटले सिद्धांत श्रवण करीने (पावगं के ) पापकं एटले असंयम प्रत्ये (जाण के0) जानाति एटले जाणे . (सोच्चा के०) श्रुत्वा एटले सिद्धांत सांजलीने (उन्नयं पि के0 ) उन्नयमपि एटले संयम अने असंयम पाप ए बे प्रत्ये पण (जाण के०)जानाति एटले जाणे बे. एवीरीतें सिझांतश्रवणथी पुण्य, पाप अने तमुत्नय जाणीने पठी (जं के० ) यत् एटले जे ( सेयं के० ) श्रेयः एटले हितकारि होय, (तं के०) तत् एटले ते (समायरे के०) समाचरेत् एटले आचरे. ॥११॥ ( दीपिका.) यत आह । श्रुत्वा जानाति कल्याणं दयाख्यं संयमस्वरूपं, श्रुत्वा च जानाति पापकं हिंसाख्यमसंयमस्वरूपम् । उजयमपि संयमासंयमखरूपं श्रावकोपयोगि श्रावकयोग्यं जानाति श्रुत्वा नाश्रुत्वा । यतश्चैवमत इत्थं विज्ञाय यकं तत् समाचरेत् तत् कुर्यादित्यर्थः॥ ११॥ (टीका.) तथा चाह सोच्चा इत्यादि। श्रुत्वा आकर्ण्य कार्यसाधनत्वात्ससाधनखरूपविपाकं जानाति बुध्यते । कल्याणं कल्यो मोक्षस्तमणति प्रापयतीति कल्याणं दयाख्यं संयमखरूपम् । तथा श्रुत्वा जानाति पापकमसंयमखरूपम् । उजयमपि Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २२७ संयमासंयमखरूपं श्रावकोपयोगि जानाति श्रुत्वा नाश्रुत्वा । यतश्चैवमत एवं विज्ञाय बेकं निपुणं हितं कालोचितं तत्समाचरेत्कुर्यादित्यर्थः ॥ ११ ॥ जो जीवे विनयाणेइ, अजीवे विनयाइ ॥ जीवाजीवे प्रयाणंतो, कद सो नादी संयमं ॥ १२ ॥ ( अवचूरिः ) उक्तमेव स्पष्टयन्नाह । यो जीवान् पृथिवीकायिका दिनेद जिन्नान्न जानाति । श्रजीवान्संयमोपघातिनो हिरण्यादीन्न जानाति । जीवाजीवानजानन् कमसौ ज्ञास्यति संयमम् ॥ १२ ॥ ( अर्थ. ) हवे, सिद्धांतना ज्ञान वगर संयमनुं ज्ञान यतुं नथी, एम कहे बे. जो जीवे इति. ( जो के० ) यः एटले जे पुरुष ( जीवे वि के० ) जीवानपि एटले पृथ्वी कायादि जीवने ( न याणेइ के० ) न जानाति एटले जाणतो नथी. तथा ( अजीवे व ० ) जीवानपि एटले हिरण्य रूप्य प्रमुख अजीवने पण (न याएइ के० ) न जानाति एटले जाणतो नथी. ( सो के० ) सः एटले ते पुरुष ( जीवाजीवे के० ) जीवाजीवान् एटले जीवाजीव प्रत्ये ( श्रयाणंतो के० ) श्रजानन् एटले न जाणतो थको ( संयमं के० ) प्राणातिपात विरमणादिरूप सत्तर प्रकारना संयमने ( कद के० 50 ) कथं एटले केवी रीते ( नाहीइ के० ) ज्ञास्यति एटले जाणशे ॥ १२ ॥ ( दीपिका. ) उक्तमेव स्पष्टी कुर्वन्नाह । यो जीवानपि पृथिवीकायादीन् न जानाति । जीवानपि संयमस्य उपघातिनो मणिस्वर्णादीन् न जानाति । एवं जीवाजीवान् श्रजानन् कथमसौ ज्ञास्यति संयमं तत्संबन्धिज्ञानस्य अजावात् ॥ १२ ॥ ( टीका. ) उक्तमेवार्थं स्पष्टयन्नाह । जो जीवे इत्यादि । यो जीवानपि पृथिवी का यि - का दिनेद जिन्नान् न जानाति । अजीवानपि संयमोपघातिनो मद्य हिरण्यादीन्न जानाति । जीवाजीवानजानन्कथमसौ ज्ञास्यति संयमं तद्विषयं तद्विषयज्ञानादिति जावः ॥ १२ ॥ जो जीवे विविया, जीवे वि वियाइ ॥ जीवाजीवे वियातो, सो दु नाहीइ संयमं ॥ १३॥ ( अवचूरिः) यदा जीवानजीवानपि विजानाति । तदा जीवानजीवांश्च विजानन्स खलु संयमं ज्ञास्यति ॥ १३ ॥ तद्विषयज्ञानादीति " इति पाठान्तरम् । १ 46 For Private Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शश राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अर्थ.) हवे, जे पुरुष संयमने जाणे तेनुं लक्षण कहे . जो इति ( जो के०) यः एटले जे पुरुष (जीवे विके० ) पृथ्वीकायादि जीव प्रत्ये पण (वियाण के०) विजानाति एटले सारीरीते जाणे, तथा (अजीवे वि के ) अजीवानपि एटले धर्मास्तिकायादिक तथा संयमना उपघातक एवा मद्य सुवर्णादि अजीव पदार्थ प्रत्ये पण ( वियाण के० ) विजानाति एटले विशेषे करी जाणे. ( सो के) सः एटले ते पुरुष ( जीवाजीवे के०) जीवाजीवान् एटले जीव तथा अजीव प्रत्ये ( वियाणंतो के) विजानन् एटले जाणतो थको (संजमं के) संयम एटले सत्तर प्रकारना संयम प्रत्ये (हु के०) खलु एटले निश्चये करी ( नाही के०) झास्यति एटले जाणशे. ॥ १३ ॥ (दीपिका. ) ततश्च यो जीवानपि विजानाति । अजीवानपि विजानाति । जीवाजी. वान्विजानन् स एव झास्यति संयममिति । उपदेशाधिकारःसमाप्तः ॥ १३ ॥ (टीका. ) ततश्च यो जीवानपि जानात्यजीवानपि जानाति । जीवाजीवान् विजानन् स एव शास्यति संयममिति । प्रतिपादितः पञ्चम उपदेशार्थाधिकारः ॥ १३ ॥ जया जीवमजीवे अ, दो वि एए वियाण ॥ तया गई बदविह, सबजीवाण जाण॥१४॥ (अवचूरिः) सांप्रतं धर्मफलमाह । यदा यस्मिन् काले जीवानजीवांश्च धावप्येतो विजानाति विविधं जानाति । तस्मिन् काले गतिं नरकगत्यादिरूपां बढ़ विधां जीवाजीवानां जानाति यथा स्थितझानमन्तरेण गतिपरिझानाजावात् ॥ १४ ॥ (अर्थ.) हवे पूर्वोक्त ज्ञाननुं फल कहे जे. जया इति. ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे (जीवमजीवे अके०) जीवाजीवौ च एटले जीव तथा अजीव ( एए दो वि के ) एतौ छावपि एटले ए बेहुने पण ( वियाण के ) विजानाति एटले जाणे. ( तया के ) तदा एटले त्यारे ( सबजीवाणं के०) सर्वजीवानां एटले सर्वे जीवोनी (बह विहं के०) बहुविधां एटले देवतिर्यनारकादि अनेकप्रकारनी (गई के) गतिं एटले गतिने ( जाणश् के) जानाति एटले जाणे. ॥ १४ ॥ (दीपिका.) सांप्रतधर्मस्य फलमाह । जया इत्यादि। यदा यस्मिन् काले जीवानजीवान् छौ अपि एतौ विजानाति अनेकप्रकारेण जानाति । तदा तस्मिन् काले गति Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । नरकगत्यादिरूपां बहुविधामनेकप्रकारां सर्वजीवानां जानाति । यथावस्थितजीवाजिवादिपरिज्ञानं विना गतिपरिज्ञानस्य अनावात् ॥ १४ ॥ (टीका.) सांप्रतं षष्ठेऽधिकारे धर्मफलमाह । जया इत्यादि । यदा यस्मिन् काले जीवानजीवांश्च छावप्येतौ विजानाति विविधं जानाति । तदा तस्मिन् काले गतिं नरकगत्यादिरूपां. बहुविधां स्वपरगतनेदेनानेकप्रकारां सर्वजीवानां जानाति । यथावस्थितजीवाजीवपरिझानमन्तरेण गतिपरिज्ञानाजावात् ॥ १४ ॥ जया गई बढुविदं, सबजीवाण जाण॥ तया पुणं च पावं च, बंधं मुकं च जाण ॥१५॥ (श्रवचूरिः) उत्तरोत्तरफलछिमाह । तदा पुण्यं च पापं च बहुविधगतिनिबन्धनं बन्धं जीवकर्मयोगःखलक्षणं मोदं च तहियोगसुखलक्षणम् ॥ १५ ॥ (अर्थ.) ( जया के०) यदा एटले ज्यारे ( सव्वजीवाण के० ) सर्व जीवोनी (बह विहं के०) बहुविधां एटले चार प्रकारनी (गरं के०) गतिं एटले गतिने (जाण के० ) जानाति एटले जाणे. (तया के०) तदा एटले त्यारे चतुर्विध गतिना कारण एवा ( पुग्मं च पावं च के०) पुण्यं च पापं च एटले पुण्यने अने पापने तथा ( बंधं मुकं च के०) बंधं मोदं च एटले बंधने अने मोदने ( जाण के०) जानाति एटले जाणे, ॥१५॥ (दीपिका.) अथ उत्तरोत्तरफलछिमाह । यदा गतिं बहुविधां सर्वजीवानां जानाति । तदा पुण्यं च पापं च बहुविधगतिनिबन्धनं तथा बन्धं जीवकर्मयोगःखलक्षणं मोदं च जीवकर्म वियोगसुखलक्षणं जानाति ॥ १५॥ ( टीका.) उत्तरोत्तरां फलवृछिमाह । जया इत्यादि । यदा यस्मिन्काले गतिं बहुविधां सर्वजीवानां जानाति । तदा पुण्यं च पापं च बहुविधगतिनिबन्ध नं तथा बन्धं जीवकर्मयोगःखलक्षणं मोदं च तहियोगसुखलक्षणं जानाति ॥ १५ ॥ जया पुमं च पावं च, बंधं मुखं च जाण ॥ तया निविंदए नोए, जे दिवे जे अ माणुसे ॥१६॥ (श्रवचूरिः) तदा निर्विन्ते मोहानावात् सम्यग् विचारयत्यसारपुःखरूपतया जोगान् शब्दादीन् ॥ १६ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. ( . ) तथा जया इति. ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे ( पुषं च पावं च के० ) पुण्यं च पापं च एटले पुण्य अने पाप प्रत्ये तथा ( बंधं मुकं च के० ) बंधं मोक्षं च एटले बंध छाने मोक्ष प्रत्ये ( जाणइ के० ) जानाति एटले जाणे. ( तया के० ) तदा एटले त्यारे, ( जे के० ) ये एटले जे ( दिवे के० ) दिव्या: एटले देव संबंधी तथा (जे माणुसे के० ) ये च मानुषाः एटले मनुष्यना जे ( जो ए के० ) जोगा: एटले जोग बे, ते जोगने ( निविंदए के० ) निर्विन्ते एटले - सार करी जाणे . ॥ १६ ॥ ( दीपिका . ) यदा पुण्यं च पापं च बन्धं च मोक्षं च जानाति । तदा निर्विन्ते मोदाजावात् सम्यग्विचारयति श्रसारदुःखरूपतया । कान् जोगान् शब्दादीन् यान् दिव्यान् तथा यान् मानुषान् । तेज्यो व्यतिरिक्ताः शेषाः परमार्थतो जोगा एव न जवन्ति ॥ १६ ॥ ( टीका. ) जया इत्यादि । यदा पुण्यं च पापं च बन्धं मोक्षं च जानाति । तदा निर्विन्ते मोहाजावात् सम्यग्विचारयत्यसारडुः खरूपतया जोगान् शब्दादीन् यान् दिव्यान् यांश्च मानुषान् । शेषास्तु वस्तुतो जोगा एव न जवन्ति ॥ १६ ॥ जया निदिए जोगे, जे दिवे जे माणुसे ॥ तया चयइ संजोगं, सनिंतर बाहिरं ॥ १७ ॥ ( वचूरिः ) तदा त्यजति संयोगं जावतः श्राभ्यन्तरं क्रोधादि बाह्यं हिरण्यादि ॥ १७ ॥ (अर्थ) तथा ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे ( जे दिवे जे छ माणुसे के० ) ये दिव्या ये च मानुषाः एटले जे देवना तथा माणसना जोग बे, ते ( जोए के० ) जो गान् एटले जोगने (निविंदए के० ) निर्विते एटले असार करी जाणे. ( तया के० ) तदा एटले त्यारे (सनिंतरबा हिरं के० ) साच्यंतरबाह्यं एटले रागद्वेषादिक अभ्यंतर तथा पुत्रकलत्रादिक बाह्य एवा ( संजोगं के० ) संयोगं एटले संयोगने ( चयश के० ) त्यजति एटले बोडी दे बे ॥ १७ ॥ ( दीपिका . ) यदा निर्विन्ते जोगान्दिव्यान्मानुषान् । तदा त्यजति संयोगं संबन्धं सान्यन्तरबाह्यम् । क्रोधादिरूपमान्यन्तरं स्वर्णादिरूपं बाह्यं संबन्धमित्यर्थः ॥ १७ ॥ ( टीका. ) जया इत्यादि । यदा निर्विन्ते जोगान् यान् दिव्यान् यांश्च मानुषान् । तदा त्यजति संयोगं संबन्धं द्रव्यतो जावतः सान्यन्तरबाह्यं क्रोधादि हिरण्यादिसंबन्धमित्यर्थः ॥ १७ ॥ For Private Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । जया चयइ संजोगं, सनिंतरबादिरं ॥ तया मुंगे जवित्ताणं, पवइए अपगारिच्यं ॥ १८ ॥ ( अवचूरिः ) तदा मुएको द्रव्यतो जावतश्च भूत्वा प्रव्रजति प्रकर्षेण व्रजति मोक्षं प्रत्यनगारम् ॥ १८ ॥ ( अर्थ. ) ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे ( सनिंतर बाहिरं के० ) साच्यंतर - बाह्यं एटले बाह्य अने अभ्यंतर एवा बे प्रकारना ( संजोगं के० ) संयोगं एटले संबंधने (as ho) त्यजति एटले त्याग करे बे. (तया के० ) तदा एटले त्यारें (मुं २३१ वित्ता के० ) मुंमो भूत्वा एटले द्रव्यजावथी मुंग थइने (गारियं के० ) अनगारं एटले श्रागाररहितपर्णे अर्थात् गृहनो त्याग करीने ( पवइए के० ) प्रत्र - जति, प्रकर्षेकरी एटले द्रव्यथी लोचादिके करी तथा जावथी रागद्वेषादिकना त्यागे करी व्रजति एटले मोक्ष प्रत्यें जाय बे ॥ १८ ॥ ( दीपिका . ) यदा त्यजति संयोगं सान्यन्तरं बाह्यं तदा मुएको भूत्वा द्रव्यतो जावतश्च प्रव्रजति प्रकर्षेण व्रजति मोहमनगारं द्रव्यतो जावतश्च विद्यमानागार मित्यर्थः ॥ १८ ॥ ( टीका. ) जया इत्यादि । यदा त्यजति संयोगं साज्यन्तरबाह्यम् । तदा मुएको भूत्वा द्रव्यतो जावतश्च प्रव्रजति प्रकर्षेण व्रजत्यपवर्गं प्रत्यनगारं द्रव्यतो जावतश्वाविद्यमानागार मिति जावः ॥ १८ ॥ जया मुंगे नवित्ता, पवईए अपगारित्र्यं ॥ तया संवरमुक्कि, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥ १९ ॥ ( श्रवचूरिः ) तदा संवरमुक्किडं ति प्राकृतशैल्या उत्कृष्टसंवरं प्राणातिपातादिनिवृतिरूपं चारित्रधर्मं स्पृशत्यनुत्तरम् ॥ १७ ॥ ( अर्थ. ) जया मुंडो इत्यादि. ज्यारें मुंड थइने इत्यादि ( तया के० ) तदा एत्या (अणुत्तरं के० ) श्रेष्ठ एवा ( संवरमुक्किं के० ) उत्कृष्टसंवररूप ( धम्मं ho ) धर्मं एटले धर्मप्रत्ये ( फासे के० ) स्पृशति एटले स्पर्श करे. ॥ १० ॥ ( दीपिका. ) यदा मुंमो भूत्वा प्रव्रजति अनगारं तदा उत्कृष्टं संवरधर्म सर्वप्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपं चारित्रधर्मं स्पृशति अनुत्तरं सम्यगासेवत इत्यर्थः ॥ १९ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ( टीका. ) जया इत्यादि। यदा मुगको जूत्वा प्रव्रजत्यनगारम् । तदा संवरमुकिउंति प्राकृतशैल्या उत्कृष्टसंवरं धर्म सर्वप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपं चारित्रधर्ममित्यर्थः । स्पृशत्यनुत्तरं सम्यगासेवत इत्यर्थः ॥ १७ ॥ जया संवरमुक्किएं, धम्मं फासे अणुत्तरं ।। तया धुण कम्मरयं, अबोदिकलुसंक ॥२०॥ (अवचूरिः) तदा धुनाति कर्मरजोऽबोधिकबुषकृतं श्रबोधिकबुषेण मिथ्याहष्टिनोपात्तमित्यर्थः ॥२०॥ (अर्थ.) जया संवरं इत्यादि. ज्यारें उत्कृष्ट संवररूप श्रेष्ठ धर्मने श्रादरे बे, ( तया के०) तदा एटले त्यारें (अबोहिकलुसंक के० ) अबोधिकनुषकृतं एटले मिथ्याष्टिपणाथी करेला एवा (कम्मरयं के०) कर्मरजः एटले कर्मरूप रज प्रत्ये. कर्मने रज केहवानुं कारण ए डे के, कर्म जे जे ते पोताना फलरूप दुःखादिकथी आत्माने लेप करे , माटे कर्मने रज कहे . एवा कर्मरजने ते पूर्वोक्त साधु (धुण के०) धुनाति एटले काढी नाखें .॥२०॥ (दीपिका.) यदा संवरमुत्कृष्टं धर्म स्पृशति अनुत्तरम् । तदा धुनाति । धातूनामनेकार्थत्वात् । पातयति। किम् । कर्मरजः कर्मैव आत्मरञ्जनात् रज व कर्मरजः। किं नूतं कर्मरजः । अबोधिकलुषकृतं अबोधिकलुषेण मिथ्यादृष्टिना उपात्तमित्यर्थः ॥२॥ (टीका.) जया इत्यादि । यदोत्कृष्टसंवरं धर्म स्पृशत्यनुत्तरं तदा धुनात्यनेकार्थत्वात्पातयति कर्मरजः कमैव आत्मरञ्जनाउज श्व रजः । किंविशिष्ट मित्याह । अबोधिकलुषकृतम् श्रबोधिकलुषेण मिथ्यादृष्टिनोपात्तमित्यर्थः ॥ २० ॥ जया धुण कम्मरयं, अबोदिकलुसंकमं॥ तया सबत्तगं नाणं, दंसणं चानिगढ॥१॥ (अवचूमिः) तदा सर्वगं ज्ञानमशषझेयविषयं दर्शनं चाशेषदृश्य विषयं चाधिगलत्यावरणानावादाधिक्येन प्राप्नोतीत्यर्थः॥२१॥ (अर्थ. ) जया धुणश्त्या दि. ज्यारे मिथ्यादृष्टिपणे करी करेला कर्मरजने पुरुष टाले डे. ( तया के) तदा एटले त्यारे ( सवत्तगं के ) सर्वत्रगं एटले सर्वलोकमां व्यापी रहे एवा ( नाणं के०) झानं एटले केवलज्ञान प्रत्ये तथा (दसणं च के०) दर्शनं Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। च एटले दर्शन प्रत्ये ( अजिगर के० ) अनिगति एटले झानावरणीय कर्मना तथा दर्शनावरणीय कर्मना अनावथी सारी रीते पामे डे. ॥१॥ ___(दीपिका.) यदा धुनाति कर्मरजः अबोधिकलुषकृतम् । तदा सर्वत्रगं ज्ञानमशेषज्ञेयविषयमशेषं दर्शनं चाधिगति आवरणस्य अनावात् श्राधिक्येन प्राप्नोति ॥२१॥ (टीका.) जया इत्यादि । यदा धुनाति कर्मरजः श्रबोधिकनुषकृतम् । तदा सर्वत्रगं झानमशेषज्ञेय विषयं दर्शनं चाशेषदृश्य विषयमधिगत्यावरणालावादाधिक्येन प्राप्नोतीत्यर्थः ॥२१॥ जया सर्वत्तगं नाणं, दंसणं चानिगढ॥ तया लोगमलोगं च, जिणो जाण केवली॥॥ (श्रवचूरिः) तदा लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकमलोकं चानन्तं जिनो जानाति के. वली । लोकालोको च सर्वो नान्यतरमित्यर्थः ॥२५॥ (अर्थ.) जया सवत्तगं इत्यादि. ज्यारे सर्वलोकव्यापी एवा ज्ञानने तथा दर्शनने जीव पामे डे, ( तया के०) तदा एटले त्यारे ( केवली के० ) केवलज्ञानी थएलो ( जिणो के० ) जेनां कर्मबंधन तूटी गयां, एवो ते पुरुष ( लोगमलोगं च के०) लोकमलोकं च एटले चतुर्दशरज्ज्वात्मक लोक प्रत्ये अने अनंता अलोक प्रत्ये (जाण के०) जानाति एटले जाणे . चउदरअ लोकना खर्ग, मृत्यु अने पाताल एवा त्रण नेद . ते चउदरअ लोक चउदरअप्रमाण बे. रङ एटले शुं ? तो के जो कोई कौतुकी देव हजार मणनो लोहमानो एक गोलो बनावीने तेने सौधर्मे देवलोकथी हेठे पृथ्वीउपर नाखे, तो तेने नूमीए, पडतां न मास, ब दिन अने उ मुहूर्त एटलो काल लागे. ए एक रजु थर. ए रड त्रण प्रकारे . एक ऊर्ध्वरजा, बीजी अधोरजा, अने त्रीजी तिर्यगरकु. तेमां एक ऊर्ध्वरकु मनुष्यलोकथी मामीने सौधर्मेश देवलोक सुधी ने. बीजी ऊर्ध्वरजु माहें देवलोकथी चोथा देवलोकसुधी जे. त्रीजी ऊर्ध्वरजा चोथा देवलोकथी हालांतक देवलोक सुधी . चोथी ऊर्ध्वरङ्ग लांतक देवलोकथी सहस्रार देवलोक सुधी . पांचमी उर्ध्वरड सहस्रार देवलोकश्री अच्युत देवलोक सुधी . बही ऊर्ध्वरजु नववेयक सुधी . सातमी ऊर्ध्वरजु नवग्रैवेयकथी मामीने सिझशिला सुधी . तेमज प्रत्येक नरकपृथ्वी एक एक रजाप्रमाणनी गणतां अधोरङ पण सात थई. एवं बे मलीने चौद रङ थर. एवीरीते तिर्यगरजु पण जाणवी. उदाहरण-जरतक्षेत्रथी पूर्वपश्चिमना तथा दक्षिण उत्तरना खयंजू Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(४३)-मा. रमणसमुछ सुधीना प्रदेशनुं प्रमाण पण सिझांतथी जाणवू. एवा चतुर्दशरअरूप लोकने केवली हाथनी हाथेली उपर रहेला आमलानी परें जाणे . तथा अनंत अलोकने पण जाणे .॥२२॥ (दीपिका.) यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं च अधिगति । तदा लोकं चतुर्दशरडारूपमलोकं च अनन्तं जिनो जानाति केवली ॥२२॥ (टीका.) जया इत्यादि । यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाधिगछति । तदा लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकमलोकं चानन्तं जिनो जानाति केवली । लोकालोको च सर्व नान्यतरमेवेत्यर्थः ॥ २॥ जया लोगमलोगं च, जिणो जाप केवली॥ तया जोगे निसंनित्ता, सेलेसिं पमिवज्ज॥२३॥ (अवचूरिः ) तदोचितसमये योगानिरुष्ट्य मनोयोगादीन् शैलेशी प्रतिपद्यते जवोपग्राहिकाँशक्ष्याय ॥२३॥ (अर्थ.) जया लोगं इत्यादि. ज्यारे पुरुष केवलज्ञानी थश्ने लोक तथा अलोक प्रत्ये जाणे . (तया के०) तदा एटले त्यारे (जोगे के० ) योगान् एटले मन वचन कायाना व्यापार प्रत्ये ( निलंनित्ता के) निरुष्ट्य एटले रुंधीने नवोपग्राही कर्मना क्षयनेमाटे ( सेलेसिं के) शैलेशी एटले पर्वतनी परें निश्चलपणाने (पमिवजा के०) प्रतिपद्यते एटले प्राप्त थाय . ॥ २३ ॥ (दीपिका.) यदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली । तदा उचितसमयेन योगान् निरुध्य मनोयोगादीन् शैलेशी प्रतिपद्यते नवोपग्राहिकाशदयार्थम् ॥२३॥ (टीका.) जया इत्यादि । यदा लोकमलोकं च जिनो जानाति । तदोचितसमयेन योगानिरुष्ट्य मनोयोगादीन् शैलेशी प्रतिपद्यते नवोपमा हिकर्मांशदयाय ॥२३॥ जया जोगे निमित्ता, सेलेसिं पविज ॥ तया कम्मं खवित्ता णं, सिईि गबनीर॥२४॥ (श्रवचूरिः) तदा नवोपग्राह्यपि कर्म कपयित्वा सिडिं गति लोकान्तदेत्ररूपां मीरजाः सकलकर्मरजोविप्रमुक्तः ॥२४॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। २३५ (अर्थ. ) जया जोगं इत्यादि. ज्यारे मन वचन कायाना व्यापार रुंधीने शैलेशी करणने पामे डे, ( तया के० ) त्यारे ( नीरजे के०) नीरजाः एटले कर्मरूप रजे करी रहित थको ( कम्मं के) कर्म एटले नवोपग्राहि कर्मने (खवित्ता णं के०) क्षपयित्वा एटले खपावीने ( सिकिं के) लोकान्तक्षेत्ररूप सिकिने (गबइ के ) गठति एटले जाय . ॥२४॥ (दीपिका.) यदा योगानिरुध्य शैलेशी प्रतिपद्यते । तदा कर्म दपयित्वा सिडिं लोकान्तक्षेत्ररूपां गबति । किंजूतः। नीरजाः कर्मरजोमुक्तः ॥२४॥ (टीका.) जया इत्यादि । यदा योगान्निरुज्य शैलेशी प्रतिपद्यते । तदा कर्म क्षपयित्वा नावोपग्राह्यपि सिकिं गति लोकान्तक्षेत्ररूपाम् । नीरजाः सकलकर्मरजोविनिर्मुक्तः ॥२४॥ जया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गब नीर॥ तया लोगमव्यबो, सिहो दवइ सास ॥ २५॥ (अवचरिः) तदा लोकमस्तकस्थः त्रिलोक्युपरिवर्ती नवति । शाश्वतः कर्मबीजानावात् अनुत्पत्तिधर्मा ॥ २५ ॥ (अर्थ.) ज्यारे कर्मरजेकरी रहित थको नवोपग्राहि कर्म खपावीने सिकि प्रत्ये पामे . ( तया के० ) तदा एटले त्यारे ( लोगमबयठो के०) लोकमस्तकस्थः एटसे चतुर्दशरलोकना मस्तक उपर एटले सिमक्षेत्रे रहेलो पुरुष ( सास के०) शाश्वतः एटले कर्मरूप बीजना अन्नावथी उत्पत्त्यादिरहित माटे नित्य एवो (सिको के०) सिझ ( हवश के० ) नवति एटले थाय . ॥ २५ ॥ (दीपिका.) यदा कर्म पयित्वा सिद्धिं गछति नीरजाः। तदा लोकमस्तकस्थस्त्रैलोक्यस्य उपरिवर्ती सिको नवति शाश्वतः । कर्मबीजानावे न पुनरुत्पद्यते ॥ २५॥ (टीका.) जया इत्यादि । यदा कर्म दपयित्वा सिहिं गति नीरजाः । तदा लोकमस्तकस्थः त्रैलोक्योपरिवर्ती सिको नवति । शाश्वतः कर्मबीजाजावादनुत्पत्तिधमेंति जावः । उक्तो धर्मफलाख्यः षष्ठोऽधिकारः ॥२५॥ सुहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाश्स्स ॥ उबोलणापदोअस्स, उल्लदा सुगर तारिसगस्स ॥२६॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. ... (श्रवचूरिः) उक्तो धर्मफलाख्यः षष्ठोऽधिकारः । सांप्रतं यस्य धर्मफलं उतनं तमाह । सुखाखादकस्य प्राप्तसुखोपत्नोगिनःश्रमणस्य अव्यप्रव्रजितस्य शाताकुलस्य जाविसुखार्थं व्याक्षिप्तचित्तस्य निकामशायिनः सूत्रार्थवेलामुलक्ष्य उबोलनया उदकायतनया हस्तपादादिधाविनः उबोलनाप्रधाविनः पुर्खना सुगतिस्तादृशस्य जगवदाझालोपकारिणः ॥ २६ ॥ . (अर्थ.) अहीं सुधी यतिधर्मनुं फल कमें करी कह्यु. हवे ए उक्त फल कोने दुर्लन डे ते कहे . सुह इति ( सुहसायगस्स के०) सुखाखादकस्य एटले शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध ए पांच विषयथी उत्पन्न थता सुखनो हमेशां उपत्नोग खेनार एवा, तथा (सायाउलगस्स के०) शाताकुलस्य एटले नविष्य काले सुख प्राप्तिने अर्थे चित्तमा आकुल व्याकुल थनारो एवा तथा ( निगामसाश्स्स के० ) निकामशायिनः एटले सूत्रोक्त कालर्नु उलंघन करीने सुई रहे एवा, तथा (उदोलनापहोअस्स के०) उत्सोलनाप्रधाविनः एटले घणुं उदक वापरीने हाथ पग प्रमुखनी शुद्धि राखनार एवा, ( तारिसगस्स के०) तादृशस्य एटले पूर्वोक्त प्रकारे जगवदाझानो लोप करनार एवा, (समणस्स के०) श्रमणस्य एटले अव्य साधुने (सुग के०) सुगतिः एटले लोकान्त क्षेत्ररूप गति (उवहा के०) पुर्खना एटले उर्लन जे. ॥ २६ ॥ (दीपिका. ) उक्तो धर्मफलनामा षष्टोऽधिकारः। अथ धर्मफलस्य उर्लजत्वमाह। सुखाखादकस्य प्राप्तेषु शब्दरसादिनोगेषु सुखोपनोगकर्तुः एवंविधस्य श्रमणस्य अव्यतः प्रबजितस्य । पुनः किंजूतस्य श्रमणस्य । शाताकुलस्य नाविसुखार्थ व्याक्षिप्तचित्तस्य । पुनः किंनूतस्य श्रमणस्य । निकामशायिनः । निकाममत्यर्थं सूत्रार्थवेलामतिक्रम्य शयानस्य । पुनः किंनूतस्य श्रमणस्य । उत्सोलनया उदकस्य श्रयतनया प्रकर्षेण धावति पादादिशुकिं करोति यः स तथा तस्य। किं स्यादित्याह । उर्लना पुष्प्रापा सुगतिः सिकिः। तादृशस्य नगवत आझालोपकारिणः ॥ २६ ॥ (टीका.) सांप्रतमिदं धर्मफलं यस्य उर्लनं तमनिधित्सुराह । सुहेति । सुखाखादकस्य अनिष्वङ्गेण प्राप्तसुखजोक्तुः श्रमणस्य अव्यप्रव्रजितस्य शाताकुलस्य नाविसुखार्थ व्यादिप्तस्य निकामशायिनः सूत्रार्थवेलामप्युलध्य शयानस्य उत्सोलनाप्रधाविन उत्सोलनया उदकायतनया प्रकर्षेण धावति पादादिशुकिं करोति यः स तथा तस्य । किमित्याह । उर्खना कुष्प्रापा सुगतिः सिद्धिपर्यवसाना तादृशस्य जगवदाझालोपकारिण इति गाथार्थः ॥२६॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । तवोगुणपदाणस्स, उज्जुम खंतिसंजमरयस्स ॥ परीसरे जिवंतस्स, सुलदा सुगर तारिसगस्स ॥२७॥ (अवचूरिः) धर्मफलं यस्य सुखनं तमाह । षष्ठाष्टमादितपोगुणप्रधानस्य मार्गप्रवृत्तबुझेः दान्तिप्रधानसंयमरतस्य परीषहान् जयतोऽनिजवतः सुलजा सुगतिस्ता. दृशस्य नगवदाज्ञाकारिणः ॥२७॥ (अर्थ.) हवे, पूर्वोक्त सुगति जेने सुलन थाय ते कहे . ( तवोगुणपहाणस्स के ) तपोगुणप्रधानस्य एटले बह, अहम इत्यादि तपोगुणेकरी प्रधान, तथा ( उङ्गुमश् के०) जुमतेः एटले जेनी मति मोदमार्गने विषे एवा तथा( खंतिसंजमरयस्स के०) दांतिसंयमरतस्य एटले जेमां क्षमा प्रधान बे, एवा सत्तर प्रका. रना संयमने धारण करनार, तथा ( परीसहे जिणंतस्स के०) परीषहान् जयतः एटले दुधातृषादिक परीषहने जीतनार एवा (तारिसगस्स के०) तादृशस्य एटले एवीरीते जगवंतनी आज्ञा पालन करनार एवा पुरुषने (सुगर के०) सुगतिः एटले मोक्षरूप सुगति ( सुलहा के०) सुलना एटले सुखथी मले एवी बे. ॥२७॥ (दीपिका.) अथ धर्मफलस्य सुलनतामाद । तादृशस्य नगवत आज्ञाकारिणः सुगतिः सिकिः सुलना सुप्रापा नवति । किं विधस्य तादृशस्य । तपोगुणप्रधानस्य षष्ठाष्टमादितपोगुणवतः । पुनः किंनूतस्य तादृशस्य । जुमतेः मोक्षमार्गप्रवृत्तबुकेः । पुनः किंनूतस्य । दान्तिसंयमरतस्य । दान्तिप्रधानस्य संयमस्य सेविन इत्यर्थः । पुनः किंनूतस्य । परिषहान् हुत्पिपासादीन् जयतः परानवतः ॥२७॥ (टीका.) श्दानी मिदं धर्मफलं यस्य सुलनं तमाह । तवोगुणेत्यादि । तपोगुणप्रधानस्य षष्टाष्टमादितपोधनवत झजुमतेर्मार्गप्रवृत्तबुझेः कान्तिसंयमरतस्य दान्तिप्रधानसंयमोपसे विन इत्यर्थः । परीषहान् हुत्पिपासादीन् जयतोऽनिवतः सुलना सुगतिरुक्तलक्षणा तादृशस्य जगवदाज्ञाकारिण इति गाथार्थः ॥ २७ ॥ पला वि ते पयाया, खिप्पं गति अमरनवणाई॥ जेसि पिन तवो सं- जमो अ खंती अ बंनचेरं च ॥२॥ इच्चेअंबज्जीवणिअं, सम्मदिही सया जए॥ उल्लई लदित्तु सामन्नं, कम्मुणा न विरादिज्जासि तिबेमि॥२॥ चनबं बजीवणिआ णामतयणं सम्मत्तं ॥४॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा. ( श्रवचूरिः ) वृद्धत्वे खएिमतचारित्रा अपि पुनस्तत्संधानतो ये सन्मार्ग प्रपन्नास्ते प्रकर्षेण याताः प्राप्ता अमरजवनानि । इत्येषा गाथा बहकृत्तौ नोक्ता ॥ २ ॥ (श्रवचूरिः ) उपसंहरन्नाह इत्येतां षड्जीवनिकां न विराधयेत् इति योगः। सम्यग्रदृष्टिः सदा यतो यत्नपरः सन् कुर्लनं लब्ध्वा श्रामण्यं कर्मणा मनोवाकायक्रियया प्रमादेन न विराधयेत् न खएझयेत् इति ब्रवीमि ॥ ॥ शति षड्जीव निकाध्ययनावचूरिः ॥४॥ (अर्थ.) हवे, थोडो काल धर्म सेवे, ते पण देवलोकने विषे जाय तेकहे . पछावि इति, (जेसिं के०) येषां एटले जे पुरुषने (तवो के०) तपः एटले छादश विध तप, तथा (संजमो अके०) संयमश्च एटले सत्तर प्रकारनो संयम, तथा वली (खंती अ के०) दांतिश्च एटले दमा, वली (बंजचेरं च के०) ब्रह्मचर्यं च एटले मैथुनविरमणरूप ब्रह्मचर्य(पिठ के०)प्रियः एटले प्रिय बे. (ते के०) ते पुरुष (पछावि के०) पश्चादपि एटले पाडले वये पण दीदा लश्ने (पयाया के०) प्रयाताः एटले संयमनी विरा धना न करता सन्मार्गे चालता थका (खिप्पं के०) क्षिप्रं एटले शीघ्र (अमरनवणाई के०) अमरनवनानि एटले देवताना आवास प्रत्ये (गडंति के०) जाय ॥२७॥ (अर्थ.) हवे सूत्रकार ए चोथा षड्जीवनिका नामक अध्ययननो उपसंहार करता उता कहे . श्वेश्य मिति. ( सया के०) सदा एटले निरंतर (जए के) यतः एटले जयणा राखनार एवो ( सम्म दिही के०) सम्यग्दृष्टिः एटले सम्यग्दृष्टि जीव (मुसहं के० ) उर्लनं एटले जे नवेनवे पामतुं फुर्खन एवा ( सामन्नं के० ) श्रामण्यं एटले चारित्रने (लनित्तु के० ) लब्ध्वा एटसे पामीने (श्च्चेयं के०) इत्येतां एटले ए चोथा अध्ययनने विषे कहेली (जीवणिशं के०) षड्जीवनिकां एटले षड्जीवनिकायनी जे जयणा तेने ( कम्मुणा के० ) कर्मणा एटले मन वचन कायानी क्रियाए करी प्रमादथी ( न विराहिलासि के ) न विराधयेत् एटले विराधे नहीं, खंके नहीं. ॥ २७ ॥ त्तिबेमि एनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ॥ २५ ॥ इति षड्जीवनिकाध्ययननो बालावबोध संपूर्ण. ॥ ४ ॥ (दीपिका ) महार्था षड्जीवनिकायिका इति विधिना उपसंहारमाह । पश्चादपि वृकावस्थायामपि ते प्रयाताः प्रकर्षेण याता अविराधितसंयमा अपि सन्मार्ग प्रपन्नाः १:- अत्र "विराधित संयमा अपि" इति पाठः साधीयानितिभाति । परं स विद्यमानपुस्तकेषु नोपलब्धः । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २३ए शीघ्रं गबन्ति अमरनवनानि देव विमानानि । ते के इत्याह । येषां प्रियं तपः संयमः शान्तिः ब्रह्मचर्यं च ॥॥ (दीपिका.) इति पूर्वप्रकारेण एतां षड्जीवनिकायिकामधिकृताध्ययनप्रतिपादितार्थरूपां न विराधयेत् इति योगः। क इत्याह । सम्यग्दृष्टिर्जीवः सूत्रश्रद्धावान् । किंनूतः । सदा यतः सर्वकालं यतनापरः। किमित्याह । उर्लनं लब्ध्वा श्रामण्यं साधुत्वं षड्जीवनिकायसंरक्षणेकरूपं कर्मणा मनोवाकाय क्रियया प्रमादेन न विराधयेत् । अप्रमत्तस्य तु यद्यपि कथंचित् अव्य विराधना स्यात् तथापि असौ न विराधकः। एतेन “॥ जले जीवाः स्थले जीवा, श्राकाशे जीवमालिनि ॥ जीवमालाकुले लोके, कथं निकुरहिंसकः ॥” इत्येतत् प्रत्युक्तम् । तथा सूक्ष्मजीवानां विराधनाया अन्नावाच्च । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ शए॥ इति श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां दशवैकालिकवृत्तौ षड्जीवनिकाध्ययनम्॥४॥ (टीका.) महार्था षड्जीवनिकायिकेति विधिनोपसंहरन्नाह । श्चेयमित्यादि।त्येतां षड्जीवनिकायिकामधिकृताध्ययनप्रतिपादितार्थरूपां न विराधयेदितियोगः।सम्यग्दृष्टि वस्तत्त्वश्रझावान् सदा यतः सर्वकालं प्रयत्नपरः सन् । किमित्याह । पुर्खन्नं लब्ध्वाश्रामण्यं मुष्प्रापं प्राप्य श्रमणजावं षड्जीवनिकायसंरक्षणैकरूपं कर्मणा मनोवाकायक्रियया प्रमादेन न विराधयेन्न खएमयेत् । अप्रमत्तस्य तु अव्य विराधना यद्यपि कथंचिद् नवति। तथाप्यसाव विराधनैवेत्यर्थः । एतेन ॥ जलेजीवाः स्थले जीवा, श्राकाशे जीवमालिनि ॥जीवमालाकुले लोके, कथं निझुरहिंसकः ॥१॥' इत्येतत्प्रत्युक्तम् । तथासूक्ष्माणां विराधनाजावाच्च । ब्रवीमीति पूर्ववत् । अधिकृताध्ययनपर्यायशब्दप्रतिपादनायाह नियुक्तिकारः॥जीवाजीवानिगमो, आयारो चेव धम्मपन्नत्ती॥तत्तो चरित्तधम्मो, चरणे धम्मे अएगठाए॥व्याख्या ॥जीवाजीवानिगमः सम्यग्जीवाजीवानिगमहेतुत्वात् । एवमाचारश्चैवाचारोपदेशत्वात् । धर्मप्राप्तिर्यथावस्थितधर्मप्रज्ञापनात्। ततश्चारित्रधर्मस्तन्निमित्तत्वात् । चरणं चरणविषयत्वात् । धर्मश्च श्रुतधर्मस्तत्सारनूतत्वात् । एकार्थका एते शब्दा इति गाथार्थः । अन्ये विदं गाथासूत्रमनन्तरोदितसूत्रस्याधो व्याख्यानयन्ति। तत्राप्यविरुकमेव । उक्तोऽनुगमः। सांप्रतं नयास्ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातं षड्जीवनिकाध्ययनम् ॥ २७ ॥ इति श्रीहरिजप्रसूरिकृतौ दशवैकालिकटीकायां चतुर्थाध्ययनम् ॥ ४॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागम संग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. ॥ अथ पञ्चमाध्ययनम् ॥ संपत्ते निककालंमि, अनंत अमुवि ॥ इमेण कमजोगेण, नत्तपाणं गवेस ॥ १॥ I ( यवचूरिः ) अथ पिएषणाख्यपञ्चमाध्ययनावचूरिः । पूर्वाध्ययने साधोराचारः षड्जीव निकायगोचरः प्राय इत्येतयुक्तम् । स धर्मः काये सति । स नाहारं विना । स च सावद्येतरनेद इत्यनवद्यो ग्राह्योऽतस्तमेवाह । संपत्ते इति । संप्राप्ते शोजनेन प्रकारेण स्वाstrator दिना प्राप्ते निक्षाकाले । अनेनासंप्राप्ते जक्तपानैषणा निषेधः । अलाजाज्ञाखमनाज्यां दृष्टादृष्टविरोधात् । अत्रान्तोऽनाकुलः । श्रमूर्च्छितः पिके शब्दादौ वा । अनेन वक्ष्यमाणेन क्रमयोगेन परिपाटीव्यापारेण नक्तपानं यतियोग्यमोदनार - नालादि गवेषयेदन्वेषयेत् ॥ १ ॥ ॥ अथ पिंषणाध्ययन नामा पांचमा अध्ययननो बालावबोध प्रारंभ. ॥ ( अर्थ. ) पूर्वोक्त चोथा अध्ययनमां एम कयुं के, साधुनो आचार जे बे ते घकरीने बक्काय जीव श्राश्रयी बे. हवे ते आचार साधुनुं शरीर स्वस्थ, रोगाद्युपद्रवरहित होय तो पाली शकाय, तथा साधुनुं शरीर स्वस्थ रोगरहित रहे ए घणुं खरं साधुना आहार उपर आधार राखे बे. ते आहारना सावद्य ने निरवद्य एवा बे नेद बे. तेमां सावद्य आहार जे बे ते साधुने अत्यंत वर्जनीय बे, अने निरवद्य आहार यथोक्तरीते यथोक्त काले लेवो कल्पे बे. ते वर्जनीय अने ग्राह्य एवा बेहारनं पण साधुने ज्ञान होतुं जोइये, माटे ए पांचमा पिंनेषणा नामक अध्ययनमां तेज वात सूत्रकार कहे बे. पिंक एटले गुडादिक द्रव्ये करी तैयार करेला - ननो गोलो तेनी एषणा ते शुद्धि जेमां कही बे, ते अध्ययनने पिंडेषणा नामक अध्ययन कहे बे. एवा संबंधथी प्राप्त यएला ए पांचमा पिंषणा नामक अध्यय नना प्रथम सूत्रनो अर्थ कहियें. संपत्ते इति पूर्वोक्त साधु धर्मकायना रक्षण माटे (रिककामि के० ) निक्षाकाले एटले केवलजाषित जे निदानो समय ते ( संपत्ते के० ) संप्राप्ते एटले स्वाध्यायकरणादिकथी रूमी रीते प्राप्त यये बते. अहीं एवीरी सिद्धांतमां कयुं बे. जे, साधु पहेले पढोरे सझाय करे, बीजे पहोरे ध्यान धरे, श्रीजे पहोरे जांगोपकरण पकिलेहीने नगर निर्धूम धए बते पाणी लावनारी स्त्री पाठी गए गते, अन्नना दाणा प्रमुख खावाने अर्थे काकादिक नीबारे आवे बते, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २४२ एवां लक्षण होय तो निक्षाकाल प्राप्त थयो जाणीने ( असंतो के० ) असंत्रांतः एटले नकुल अर्थात् सारो उपयोग दइने श्राकुलव्याकुलपएं मूकीने ( अमुado ) मूति: एटले आहारनी वांठा अथवा शब्दादि विषय उपर आसक्ति न करतो (इमेण कमजोगेण के० ) अनेन क्रमयोगेन एटले यागल कहेवाशे अनुक्रमे करी ( जत्तपाणं के० ) जक्तपानं एटले यतिने योग्य एवा उदनादिक अन्नी ने रनालादिक पाननी ( गवेसए के०) गवेषयेत् एटले गवेषणा करे. ॥ १ ॥ I ( दीपिका. ) इह पूर्वाध्ययने साधोराचारः कथितः । स च श्राचारः कायस्य सति स्वास्थ्ये जवति । स्वस्थ्यं च श्राहारं विना न जवति । स च आहारः शुद्ध ग्राह्यः । ततोऽनेन संबन्धेन आयात मिदमध्ययनमाहारशुद्धिप्रतिपादकम् । व्याख्यातं तच्चेदम् । एवंविधः साधुक्तपानं गवेषयेत् । यतीनां योग्यमोदनारनालमन्वेषयेत् इत्यु क्तिः । क्व सति । निाकाले निकासमये संप्राप्ते शोजनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते सति । किंभूतः साधुः । अत्रान्तः अनाकुलः । यथाविधि उपयोगादि कार्यं कृत्वा । पुनः किंभूतः साधुः । अमूर्तितो न शब्दादिविषयेषु पिएके वा मूर्ति - तः । पुनः किंभूतः साधुः । गृद्धो न पिएकादौ श्रसक्तः । अनेन वक्ष्यमाणलक्षणेन क्रमयोगेन परिपाटी व्यापारेण ॥ १ ॥ ( टीका ) अधुना पिएकैषणाख्यमारभ्यते । श्रस्यायम निसंबन्धः । इहानन्तराध्ययने साधोराचारः षम्जीव निकायगोचरः प्राय इत्येतदुक्तम् । इह तु "धर्मकाये सत्यसौ स्वस्थे सम्यक्पाव्यते । स चाहारमन्तरेण प्रायः स्वस्थो न जवति । स च सावघेतरनेद इत्यनवद्यो ग्राह्य" इत्येतडुच्यते । उक्तं च ॥ से संजए समरकाए, निरवद्याहारि जे विऊ || धम्मका यहिए सम्मं, सुहजोगाए साहए ॥ इत्यनेनानिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम् । जङ्गयन्तरेणैतदेवाह जाष्यकारः ॥ मूलगुणा वरकाया, उत्तरगुणावसरेण ययायं ॥ पिंप्रयण मियाणिं, निरकेवे नामनिप्पन्ने ॥ मूलगुणाः प्राणातिपातनिवृत्त्यादयः । व्याख्याताः सम्यक् प्रतिपादिता अनन्तराध्ययने । ततश्चोत्तरगुणप्रस्तावेनायात मिदमध्ययनम् इदानीं यत्प्रस्तुतम् । इह चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नाम निष्पन्नो निक्षेपः । तथाचाह निदेपे नाम निष्पन्ने । किमित्याह ॥ पिंमो एसाय, डुपयं नामं तु तस्स नायवं ॥ चट चट निस्केवेहिं, परूवणा तस्स का - वा ॥ २० ॥ व्याख्या ॥ पिएमश्चैषणा च । द्विपदं नाम तु द्विपदमेव विशेषानिधानम् । तस्योक्तसंबन्धस्याध्ययनस्य ज्ञातव्यम् । चतुश्चतुर्निदेपाज्यां नामादिलक्षणाच्यां प्ररूपणा तस्य पदद्वयस्य कर्तव्येति गाथार्थः । अधिकृतप्ररूपणामाद ३१ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्व राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ॥ नाम उवणा पिंमो, दवे जावे श्र होइ नायवो ॥ गुलढयणाइ दवे, नावे कोहाश्या चउरो ॥ ३० ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापनापिएको अव्ये नावे च जवति ज्ञातव्यः । पिएकशब्दःप्रत्येकमनिसंबध्यते। नामस्थापने कुले। जव्यपिएकं त्वाह । गुमौदनादिव्यपिएमः । नावे क्रोधादयश्चत्वारः पिएका इति गाथार्थः। अत्रैवान्वर्थमाह॥पिडि संघाए जम्हा, ते उश्या संघया य संसारे ॥ संघाययंति जीवं,कम्मेण बप्पगारेण ॥३०॥ व्याख्या ॥ पिडि संघाते धातुरिति शब्द वित्समयः । यस्मात्ते क्रोधादय उदिताः सन्तो विपाकप्रदेशोदयाच्यां संहता एव संसारिणं संघातयन्ति । जीवं योजयन्तीत्यर्थः । केनेत्याह । कर्मणाष्टप्रकारेण ज्ञानावरणीयादिना । अतः क्रोधादयः पिएक इति गाथार्थः । प्ररूपितः पिएकः । सांप्रतमेषणावसरः। तत्र कुमत्वान्नामस्थापने अनादृत्य अव्यैषणामाह ॥ दवेसणा उ तिविहा, सचित्ताचित्तमीसदवाणं ॥ फुपयचउप्पयअपया, नरगयकरिसावणकुमाणं ॥ ३० ॥ व्याख्या ॥ अव्यैषणा तु त्रिविधा जवति । सचित्ताचित्त मिश्रऽव्याणामेषणा अव्यैषणा । सचित्तानां छिपदचतुष्पदापदानां यथासंख्यं नरगजघुमाणामिति । कार्षापणग्रहणादचित्तव्यैषणालंकृतछिपदादिगोचरमिश्रव्यैषणा चअष्टव्येति गाथार्थः। नावैषणामाह ॥ नावेसणा उ सुविहा, पसब अपसबगा य नायवा ॥ नाणाईण पसबा, अपसबा कोहमाईणं ॥ ३०३ ॥ व्याख्या ॥ नावैषणा तु पुनहिंविधा । प्रशस्ता अप्रशस्ता च ज्ञातव्या । एतदेवाह । झानादीनामिति । ज्ञानादीनामेषणा प्रशस्ता । क्रोधादीनामप्रशस्तैषणेति गाथार्थः। प्रकृतयोजनामाह ॥ नावस्सुवगारित्ता, एवं दवेसणा अहिगारो ॥ ती पुण अजुत्ती, वत्तवा पिमनिझुत्ती ॥ ३०४ ॥ व्याख्या ॥ नावस्य ज्ञानादेरुपकारित्वादत्र प्रक्रमे अव्यैषणयाधिकारः । तस्याः पुनव्यैषणाया अर्थयुक्तियेतररूपार्थयोजना वक्तव्या पिएमनियुक्तिरिति गाथार्थः। सा च पृथक्स्थापनतो मया व्याख्यातेति नेह व्याख्यायते । अधुना प्रकृताध्ययनावतारप्रपञ्चमाह ॥ पिसणा अ सबा, संखेवेणोयर नवसु कोमीसु ॥ न हणन पयश्न किण, कारवणअणुमहि नव ॥३०५ ॥ व्याख्या ॥ पिंमैषणा च सर्वा उन्मादिनेदनिन्ना संदेपेणावतरति नवसु कोटिषु । ताश्चेमाः। न हन्ति, न पचति, न क्रीणाति खयम्। तथा न घातयति न पाचयति न कापयत्यन्येन । तथा घ्नन्तं वा पचन्तं वा क्रीणंतं वा न समनुजानात्यन्यमिति नव । एतदेवाह । कारणानुमतिभ्यां नवेति गाथार्थः ॥ सा नवहा उह कीर, जग्गमकोमी विसोहिकोकी अ॥ उसु पढमा उयरश, कीयतियम्मीविसोही उ ॥३०६॥ व्याख्या ॥ सा नवधा स्थिता पिएमैषणा द्विविधा क्रियते। उज्मकोटी विशोधिकोटी च । तत्र षट्सु हननघातनानुमोदनपचनपाचनानुमोदनेषु प्रथमोजमकोटी अविशोधिकोव्याम Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २४३ वतरति । क्रीतत्रितये क्रयणकायणानुमतिरूपे विशोधिस्तु विशोधिकोटी द्वितीये ति गाथार्थः । एतदेव व्याचिख्यासुराह जाष्यकारः ॥ कोमीकरणं डुविहं, जग्गमको मी...... विसोहिकोमी था ॥ उग्गमकोमीटक्के, विसोहिकोमी अणेगविहा ॥ ३०५ ॥ व्याख्या ॥ कोटी करणमिति । कोट्येव कोटीकरणम् । द्विविधमुमकोटी विशोधिकोटी च । उकोटीपटू हननादिनिष्पन्नमाधाकर्मादि । विशोधिकोटी क्रीतत्रितय निष्पन्ना । श्रनेकधा घौदेशिका दिनेदेनेति गाथार्थः । षट्कोट्याह ॥ कम्मुद्दे सिाच रिमतिगं, पूश्यं मीसच रिमपाहु मिश्रा ॥ श्रझोयरा विसोही, विसोहिकोमी नवे सेसा ॥ ३०८ ॥ व्याख्या ॥ कर्म संपूर्णमेव । श्रद्देशिकचरम त्रितयं । कर्मोंदे शिकस्य । पाखएकश्रमण निर्ग्रन्थ विषयं । पूति जपानपूत्येव । मिश्रग्रहणात्पाखण्डश्रमण निर्ग्रन्थ मिश्रजम् । चरमप्रानृतिका बादरेत्यर्थः । अध्यवपूरक इत्य विशोधिरित्येतत्ष्टुं । विशोधिकोटी जवति शेषा श्रोघौदेशिका दिनेद जिन्नानेक विधेति गाथार्थः । इदैव रागादियोजनया कोटी संख्यामाह ॥ नव चेवद्वारसगा, सत्तावीसा तदेव चउपन्ना ॥ नउई दो चेव सया, सत्तरा हुंति कोमीणं ॥ ३०५ ॥ रागाई मिठाई, रागाई समणधम्मनालाई ॥ नव नव सत्तावीसा, नवनई एय गुणगारा ॥ ३१० ॥ व्याख्या ॥ नव चैव कोट्यस्तथाष्टादशकं कोटीनां तथा सप्तविंशतिः कोटींनां तथैव चतुःपञ्चाशत्कोटीनां तथा नवतिः कोटीनां द्वे एव च शते सप्तत्यधिके कोटी नामिति गाथादरार्थः । जावार्थस्तु वृद्धसंप्रदायादवसेयः । सचायम् । णव कोमी दोहिं रागद्दोसेहिं गुणिया अहारस हवंति । ता चैव नवतिहिं मिचत्ताणाच्च विरती हिं गुणिता सत्तावीसं हवंति । सत्तावीसा रागदोसेहिं गुणिया चउप्पन्ना हवंति । ता चेव एव दसविदेण समणधम्मेण गुणिआई विसुद्धा राउती जवंति । सा उती तिहिं नापदंसणचरितेहिं गुणिया दो सया सत्तरा जवंतीति गाथार्थः । उक्तो नाम निष्पन्नो निदेपः । सांप्रतं सूत्रालापक निष्पन्नस्यावसरः । इत्यादि चर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदम् ॥ संपत्ते सिलोगो । अस्य व्याख्या । संप्राप्ते शोजनेन प्रकारेण स्वाध्याकरणादिना प्राप्ते निक्षाकाले निकासमये । अनेनासंप्राप्ते जक्तपानैषणाप्रतिषेधमाह । अलानाज्ञाख एकनाज्यां दृष्टादृष्टविरोधादिति । श्रसंान्तोऽनाकुलो यथावडपयोगादि कृत्वा नान्यथेत्यर्थः । अमूर्बितः पिएके शब्दादिषु वा गृद्धो विहितानुष्ठानमिति कृत्वा न तु पिएकादावेवासक्त इति । अनेन वक्ष्यमाणलक्षणेन क्रमयोगेन परिपाटी व्यापारेण । जक्तपानं यतियोग्यमोदनारनालादि गवेषयेदन्वेषयेदिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्व४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. से गामे वा नगरे वा, गोअरग्गग मुणी॥ चरे मंदमणुश्विग्गो, अबस्कित्तेण चेअसा ॥२॥ (अवचूरिः) यत्र यथा गवेषयेत्तदाह । स इत्यसंत्रान्तोऽमूर्छितो ग्रामे वा नगरे वा । उपलक्षणत्वात्कर्बटादौ वा । गोचराग्रगतो मुनिः। गौरिव चरणं गोचर उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तद्विष्टस्याटनम् । अग्रः प्रधानः अन्याहृताधाकर्मादित्यागेन तातस्तही गछेत् मन्दं । अलानानिष्टलालादावनुहिग्नः प्रशान्तः परीषदादिन्योऽबि. ज्यत्। अव्याक्षिप्तेन चेतसा ॥२॥ (अर्थ.) हवे आहारनी गवेषणा केवीरीते अने क्या करवी ते कहे . से गामे इति. (मुणी के०) मुनिः एटले पूर्वोक्त नावसाधु (गामे वा के० ) ग्रामे वा एटले न्हाना गाममां अथवा ( नगरे वा के० ) मोटा नगरमां उपलक्षणथी खेट, कर्वट, प्रोणमुखादिकने विये ( गोयरग्गगर्ड के०) गोचराग्रगतः, गौरिव चरणं गोचरः एटले गायनी पेठे उत्तम, मध्यम, अधमकुलनो विचार न करता तथा सरस आहार जपर प्रीति अने नीरस आहार उपर अप्रीति न करतां जे आहारार्थ गमन करवू तेने गोचर कहिये. ते वली गायनी चर्याथी साधुनी चर्यामां श्राधाकर्मादिकना त्यागनो विचार वधारे , माटे ए गोचर जे जे ते अग्र एटले प्रधान बे. अर्थात् श्रेष्ठ गोचरीए गत एटले गएलो एवो (मुणी के ) मुनिः एटले पूर्वोक्त नावसाधु (अ. णु विग्गो के० ) अनुहिग्नः एटले प्रशांत तो (अवरिकत्तेण के) अव्याक्षिप्तेन एटले शब्दादि विषय उपर नहीं गएला एवा ( चेअसा के०) चेतसा एटले मने करी युक्त तो ( मंदं के० ) हलवे हलवे उपयोग दश्ने (चरे के) चरेत् एटले गमन करे. ॥२॥ (दीपिका.) यत्र यथा गवेषयेत्तथाह । सः असंत्रान्तोऽमूर्बितो मुनिः चरेत् गछेत् । परं मन्दं शनैः न चुतम् । कुत्र चरेत् । ग्रामे वा नगरे वा । उपलकणत्वात् कबेटादौ वा । किंतूतो मुनिः। गोचराग्रगतः। गौरिव चरणं गोचर उत्तममध्यमाधमकुलेषु रागोषौ त्यक्त्वा निदाटनम् । अग्रः प्रधान आधाकर्मादिदोषरहितस्तजतस्तही। किंनूतो मुनिः। अनुछिन्नः न उछिन्नः प्रशान्तः परीषहादिन्यो न नयं कुर्वन्नित्यर्थः । केन । चेतसा चित्तेन । किंजूतेन चेतसा । अव्याक्षिप्तेनाहारस्यैषणायामुपयुक्तेनोपयोगवतेत्यर्थः ॥२॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २४५ (टीका.) यत्र यथा गवेषयेत्तदाह । से इत्यादि सूत्रम् । व्याख्या।से श्त्यसंत्रान्तोऽमूबितः। ग्रामे वा नगरे वा । उपलदाणत्वादस्य कर्वटादौ वा । गोचराग्रगत इति । गौरिव चरणं गोचर उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तद्विष्टस्य निदाटनम्।अग्रःप्रधानोऽन्याहृताधाकर्मादिपरित्यागेन ततस्तद्वर्ती मुनि वसाधुश्चरेजछेत् । मन्दं शनैः शनैर्न पुतमित्यर्थः।अनुहिनःप्रशान्तः परीषहा दिन्योऽबिन्यत् । अव्यादिप्तेन चेतसा । वत्सवणिग्जायादृष्टान्तात् शब्दादिष्वगतेन चेतसान्तःकरणेन । एषणोपयुक्तेनेति सूत्रार्थः॥२॥ पुरन जुगमायाए, पेदमाणो मदिं चरे॥ वऊं तो बीअहरियाई, पाणे अ दगमहिअं॥३॥ (अवचूरिः) यथा गवेषयेत्तदाह । पुरतोऽग्रतो युगमात्रया शरीरप्रमाणया शकटोलस्थया। दृष्टयेति शेषः । प्रेदमाणः प्रकर्षेण पश्यन् महीं नुवं चरेद्यायात् । वर्जयन् बीजहरितानि।प्राणिनो हींजियादीन् उदकं मृत्तिकां च। चशब्दात्तेजोवायुपरिग्रहः॥३॥ (अर्थ.) पूर्वोक्त सूत्रमा गोचरीए जq एम कडं. हवे ते केवी रीते गमन कर, ते कहे . पुर इति. पूर्वोक्त जावसाधु (पुर के०) पुरतः एटले आगल (जुगमायाए के) युगमात्रया एटले धूसरा प्रमाण, शरीरप्रमाण अर्थात् साडा त्रण हाथ प्रमाण दृष्टिए करी (पेहमाणो के०) प्रेदमाणः एटले जोतो बतो तथा (बीअहरिया के.) वीजहरितानि एटले बीज ते धान्य प्रमुख होय तेने अने हरित ते हरितकाय जीव होय तेने तथा ( पाणे के ) प्राणिनः एटले कीडीप्रमुख त्रस जीव होय तेने तथा ( दगमट्टियं के० ) उदकमृत्तिकां एटले उदक ते अप्कायजीव अने मृत्तिका ते पृथ्वीकाय जीव तेने ( वऊंतो के ) वर्जयन् एटले वर्जतो, परिहरतो तो ( महिं के०) महीं एटले पृथ्वीउपर (चरे के०) चरेत् एटले गमन करे. एरीते अहीं संयम विराधनानो परिहार कह्यो. ॥३॥ (दीपिका.) अथ यथा चरेत्तथैवाह । एवं विधः सन् मुनिर्मही चरेत् यायात् । परं न शेषदिशां विलोकनेनेति शेषः । किं कुर्वाणः । पुरतोऽयतो युगमात्रया शरीरप्रमाणया। दृष्टयेति शेषः।प्रेक्षमाणः प्रकर्षेण पश्यन् । पृथिवीं प्रेक्षमाण एव केवलं न । किंतु बीजहरितानि परिहरन् । पुनः प्राणिनो हीन्डियादीन् पुनरुदकमकायं पुनर्मूत्तिकां पृथ्वीकायम् । चशब्दात् तेजोवायू च परिहरन् । इति संयमविराधनायाः परिहारः कथितः॥३॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ राय धनपतसिंघ बहाडरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. ( टीका. ) यथा चरेत्तथैवाह । पुरतो इति सूत्रम् । पुरतोऽग्रतो युगमात्रया श. प्रमाणया शकटोर्ध्वसंस्थितया । दृष्टयेति वाक्यशेषः । प्रेक्षमाणः प्रकर्षेण पश्यन् । महीं जुवं चरेद्यायात् । केचिन्नेति योजयन्ति । न शेष दिगुपयोगेनेति गम्यते । न प्रेक्षमाण एव । श्रपि तु वर्जयन् परिहरन् बी जह रितानीति । अनेनानेकनेदस्य वनस्पतेः परिहारमाह । तथा प्राणिनो द्वी न्द्रियादीन् । तथोदकमप्कायम् । मृत्तिकां च पृथिवीकायम् । चशब्दात्तेजोवायुपरिग्रहः । दृष्टिमानं त्वत्र लघुतरयोपलब्धावपि प्रवृत्तितो रक्षणायोगान्महत्तरया तु देशविप्रकर्षेणानुपलब्धेरिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ वायं विसमं खाणुं, विजलं परिवजए ॥ संकमेण न गचिज्जा, विक्रमाणे परक्कमे ॥ ४ ॥ ( यवचूरिः ) उक्तः संयम विराधनापरिहारः । श्रात्मसंयम विराधनापरिहारमाह । अवपातं गर्त्तादिरूपं, विषमं निम्नोन्नतं, स्थाएं कीलकं, विजलं विगतजलं कर्दमं परिवर्जयेत् । संक्रमेण जलगर्त्तादिपरिहाराय पाषाणकाष्ठादिरचितेन न गच्छेत् । विद्यमाने पराक्रमे अन्यमार्गे । तदजावे कार्यमाश्रित्य यत्नेन तत्रापि गच्छेत् ॥ ५ ॥ ( . ) हवे पोतानी ने संयमनी रक्षा कहे बे. पूर्वोक्त साधु (वायं के० ) पातं एटले गर्ता दिक, ( विसमं के० ) विषमं एटले उच्च नीच मार्गप्रत्ये ( खाएं के० ) स्थाएं एटले ऊंचा उज्जा राखेला स्तंजने अथवा खीलाने, तथा ( विजलं ho ) विजलं एटले जेमां जल नथी एवा कादवने ( परिवार के० ) परिवर्जयेत् एटले वर्जे, परिहरे. तेमज ( परक्कमे के० ) पराक्रमे एटले अन्य मार्ग ( विक्रमाणे ho ) विद्यमाने एटले विद्यमान होय तो ( संकमेण के० ) संक्रमेण एटले नदी विगेरे उतरी जवा माटे जे काष्ठ पाषाणादिक राखे बे, पाज बांधे बे, तेने संक्रम कहियें, ते संक्रमे करी ( न गछिया के० ) न गच्छेत् एटले गमन करे नहीं. ॥ ४ ॥ ( दीपिका. ) आत्मसंयमयोर्द्वयोर्विराधनापरिहारमाह । साधुः एतत्सर्वं परिवर्जयेत् परिहरेत् । एतत्किमित्याह । श्रवपातं गर्तादिरूपं, विषमं नीचोन्नतस्थानं, स्थामूर्ध्वकाष्ठं, विजलं विगतजलं कर्दमम् । पुनः साधुः संक्रमेण जलगर्तादिपरिहारार्थं पाषाणकाष्ठरचितेन कृत्वा न गच्छेत् । कथमात्मसंयमयोर्द्वयोर्विराधनायाः संजवात् । अपवादमार्गमाह । विद्यमाने पराक्रमे अन्यमार्गे सतीत्यर्थः । सति तु तस्मिन् प्रयोजनमाश्रित्य यतनया गछेत् ॥ ४ ॥ For Private Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । (टीका.) उक्तः संयमविराधनापरिहारः। अधुनात्मसंयमविराधनापरिहारमाह। उवायमिति सूत्रम्।अवपातं गर्तादिरूपं, विषमं निम्नोन्नतं, स्थाणुमूर्ध्वकाष्ठं, विजलं वि. गतजलं कर्दमं परिवर्जयेत् । एतत्सर्वं परिहरेत् । तथा संक्रमेण जलगर्तापरिहाराय पाषाणकाष्ठरचितेन न गछेत् । आत्मसंयमविराधनासंजवात् । अपवादमाह । विद्यमाने पराक्रमे अन्यमार्ग इत्यर्थः। असति तु तस्मिन् प्रयोजनमाश्रित्य यतनया गछेदिति सूत्रार्थः ॥४॥ पवमंते व से तब, पकलंते व संजए॥ हिंसेज पाणनूयाई, तसे अज्ज्व थावरे ॥५॥ (अवचूरिः) अवपातादौ दोषमाह । प्रपतंश्चासौ तत्रावपातादौ प्रस्खलन्वा संयतः साधुर्हिस्यात् प्राणिनूतानि । प्राणिनो हीन्जियादयः । नूतान्येकेन्द्रियाः । त्रसानथ स्थावरान्वा प्रपातेनात्मानं चेत्येवमुनय विराधनेति ॥५॥ (अर्थ.) हवे, गर्तादिमार्गे जतां शं दोष थाय ते कहे बे. पवमंते इति. ( से के ) असौ एटले ए ( संजए के ) संयतः एटले संयमी एवो जावसाधु ( तब के) तत्र एटले ते गर्ता दिकने विषे ( पवमंते व के०) प्रपतन् वा एटले पडतो बतो अथवा (पकलंते व के० ) प्रस्खलन् वा एटले स्खलन पामतो तो ( पाण नूयाइं के० ) प्राणजूतानि एटले प्राणी ते बेंजियादिक तथा नूत ते एकेंछियादिक अने ( तसे के०) सान् एटले त्रस जीव प्रत्ये (अव के) अथवा (थावरे के०) स्थावरान् एटले स्थावर जीव प्रत्ये (हिंसेज के०) हिंस्यात् एटले हणे. ॥५॥ ( दीपिका.) अथ अवपातादौ दोषमाह । एवं कुर्वन् साधुः प्राणिजूतानि हिंस्यात् । प्राणिनो बीजियादीन् नूतानि एकेन्द्रियादी निति । एतदेवाह । सान् अथवा स्थावरान् प्रपातेनात्मानं चेत्येवमुनयविराधना ज्ञातव्या ॥५॥ (टीका.) अवपातादौ दोषमाह । पवमंतेति सूत्रम् । व्याख्या । प्रपतन्वासौ तत्रावपातादौ गर्तादौ प्रस्खलन्वा संयतः साधुर्हिस्याव्यापादयेत् प्राणिन्नूतानि । प्राणिनो हीन्जियादयः जूतान्येकेन्द्रियाः । एतदेवाह । सानथवा स्थावरान्प्रपातेनात्मानं चेत्येवमुजय विराधनेति सूत्रार्थः ॥ ५॥ तम्हा तेण न गबिका, संजए सुसमाहिए। सश् अन्नेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे ॥६॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. ( अवचूरिः ) तस्मात्तेनावपातादिमार्गेण न गच्छेत् । संयतः सुसमाहितो जगवदाज्ञावर्ती । सत्यन्यस्मिन् समादौ मार्गे । बान्दसत्वात् सप्तम्यर्थे तृतीया । श्रसति तेनैव मार्गेण यतमेव पराक्रमेत् गच्छेत् ॥ ६ ॥ ( . ) तम्हा इति. ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारण माटे ( संजए सुसमाहिए के० ) संयतः सुसमाहितः एटले समाधिवंत तथा जगवंतनी आज्ञा प्रमाणे चालनारो एवो ते संयमी साधु ( अन्ने मग्गेण के० ) अन्यस्मिन् मार्गे एटले बीजो मार्ग ( स ० ) सति एटले बतां ( ते के० ) तेन एटले ते पूर्वोक्त अवपातादि मार्गे करी (नगा के० ) न गच्छेत् एटले गमन न करे. पण बीजो मार्ग नहीं होय तो ( जयमेव के० ) यतमेव एटले जीवनी जयणा राखीनेज पातादिमार्गे करी ( परक्कमे के० ) पराक्रमेत् एटले गमन करे. ॥ ६ ॥ ( दीपिका. ) यतश्चैवं ततः किं कार्यमित्याह । संयतः साधुः तस्मात्कारणात् तेन अवपातादिमार्गेण न गच्छेत् । किंभूतः संयतः । सुसमाहितो जगवत श्रज्ञावर्ती । क्क सति । अन्यस्मिन् मार्गे सति । अत्र सूत्रत्वात् सप्तम्यर्थे तृतीया विभक्तिः । अपवादमाह । सत्यन्यस्मिन्मार्गे तु तेनैवावपातादिना यतमेव यत्नेन आत्मसंयमयोर्विराधनायाः परिहारेण यायादिति ॥ ६ ॥ ( टीका. ) यतश्चैवम् तम्हा सूत्रम् । व्याख्या । तस्मात्तेनावपातादिमार्गेण न गच्छेत् संयतः सुसमाहितो जगवदाज्ञावर्तीत्यर्थः । न गच्छेन्न यायात् । सत्यन्येनेत्यन्यस्मिन् समादौ । मार्गेणेति मार्गे । बान्दसत्वात्सप्तम्यर्थे तृतीया । असति त्वन्यस्मिन्मार्गे तेनैवावपातादिना यतमेव पराक्रमेत् । यतमिति क्रियाविशेषणम् । यतमात्मसंयम विराधनापरिहारेण यायादिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ गालं बारियं रासिं, तुसरासिं च गोमयं ॥ ससरखेदिं पाएदि, संजन तं नइक्कमे ॥ ७ ॥ ( अवचूरिः ) विशेषतो मार्गे पृथ्वी काययतनामाह । अङ्गाराणामयमाङ्गारस्तमाङ्गारराशिं कारराशिं तुषराशिं गोमयराशिं च । राशिशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते । सरजस्कायां सचित्तपृथ्वीगु किताच्यां पद्भ्यां संयतः साधुः तं राशिं नाक्रामेत् ॥ ७ ॥ ( अर्थ. ) हवे, गोचरी जतां विशेषे करी पृथ्वी कायनी जयणा राखवी ते कहे बे. इंगालं इति । ( संजए के० ) संयतः एटले पूर्वोक्त भावसाधु ( इंगालं के० . ) For Private Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । श्थए श्रांगारं एटले अंगारना ( रासिं के० ) राशिं एटसे राशि प्रत्ये, (बारियं राशि के०) दारराशिं एटले राखना राशि प्रत्ये, (तुसरासिं के०) तुषराशिं एटले तुष ते फोतरां, तेना राशि प्रत्ये, तथा (गोमयं के०) गोमयं एटले बगणना राशि प्रत्ये (ससरकेहिं के०) सरजस्कायां एटले रजे करी सहित एवा (पाएहिं के०) पादान्यां एटले बे पगेकरी (नश्क्कमे के०) नाक्रमेत् एटले थाक्रमे नहीं, चांपे नहीं. ॥७॥ (दीपिका.) श्रथात्रैव विशेषतः पृथिवीकाययतनामाह । संयतः साधुः। अङ्गाराणामयमाङ्गारः। श्रङ्गारं राशिं सरजस्काभ्यां सचित्तपृथिवीरजोगुमिताज्यां पादाच्या नाक्रमेत् । यतस्तस्याक्रमणे सचित्तपृथिवीरजोविराधना नवेत् । एवं राशिशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् कारराशिं तुषराशिं गोमयराशिं च सरजस्कपादाभ्यां नाक्रमेत् ॥७॥ (टीका.) अत्रैव विशेषतः पृथिवीकाययतनामाह । इंगालमिति सूत्रम् । श्राङ्गारमिति । अङ्गाराणामयमाङ्गारस्तमागारं राशिम् । एवं दारराशिं तुषराशिं च गोमयराशिं च । राशिशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते । सरजस्कान्यां पङ्गयां सचित्तष्टथिवीरजोगुएिकतान्यां पादान्यां संयतः साधुस्तमनन्तरोदितं राशं नाक्रमेत् । मानूत्पृथिवीरजोविराधनेति सूत्रार्थः ॥ ७॥ न चरेऊ वासे वासंते, मदियाए पमंतिए॥ महावाए व वायंते, तिरिसंपाश्मेसु वा ॥७॥ __ (अवचूरिः) अम्बुयतनां मार्ग श्राह । न चरेकर्षे वर्षति । निदाएं प्रविष्टो वर्षणे तु प्रचन्ने तिष्ठेत्। मिहिकायां वा पतन्त्यां महावाते वा सति वाति । तिर्यक् संपतन्तीति तिर्यक्संपाताः पतङ्गादयस्तेषु वा सत्सु ॥७॥ (अर्थ.) हवे, गोचरी जतां अप्कायनी रक्षा करवी, ते कहे . न चरेऊ इति. पूर्वोक्त साधु ( वासे के० ) वर्षे एटले वर्साद ( वासंते के०) वर्षति एटले वरसते बते तथा (व के०) वा एटले अथवा ( महियाए के०) मिहिकायां एटले धुंधरी ( पमंतीए के० ) पतंत्यां एटले पडते आते, अथवा ( महावाए व के० ) महावाते वा एटले मोटो पवन ( वायंते के०) वाति एटले वाते बते अर्थात् घणी रज उमते बते, अथवा (तिरिछसंपाश्मे के) तिर्यसंपाते एटले तिरबी गति वाला पतंगादिक उडते ते (न चरेऊ के०) न चरेत् एटले गोचरीने माटे गमन करे नहीं. ॥७॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्या राय धनपतसिंघवदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) अथाप्कायादियतनामाह । साधुर्वर्षे वर्षति न चरेत् । पूर्व जिक्षार्थं प्रविष्टोऽपि वर्षे वर्षति प्रबन्नस्थाने तिष्ठेत् । तथा मिहिकायां वा पतन्त्यां न चरेत् । सा च मिहिका प्रायो गर्नमासेषु नवति । तथा महावाते वाति सति न चरेत् । अन्यथा महावातेन समुत्खातस्य सचित्तरजसो विराधना नवेत् । तथा तिर्यक् संपतन्तीति तिर्यक्संपाताः पतङ्गादयः । तेषु सत्सु वा न चरेत् ॥ ७॥ (टीका.) अत्रैवाप्कायादियतनामाह । न चरेजत्ति सूत्रम् । न चरेछर्षे वर्षति । जिदार्थ प्रविष्टो वर्षणे तु प्रचन्ने तिष्ठेत्। तथा मिहिकायां पतन्त्याम् । सा च प्रायो गर्नमासेषु पतति । महावाते वा वाति सति। तमुत्खातरजोविराधनादोषात्। तिर्यक्संपतन्तीति तिर्यक्संपाताः पतङ्गादयः। तेषु वा सत्सु क्वचिदशनिरूपेण न चरेदिति सूत्रार्थः॥ ७॥ न चरेऊ वेससामंते, बंनचेरवसाणुए ॥ बंनयारिस्स दंतस्स, दुका तब विसुत्तिए (अवचूरिः) उक्ताद्यव्रतयतना। तुर्यवतयतनोच्यते । न चरेवेश्यासामन्ते गणिकाग्रहसमीये ब्रह्मचर्यवशानयने । ब्रह्मचर्य वशमानयत्यायत्तं करोति दर्शनादेपादिना ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् । दोषमाह । ब्रह्मचारिणः साधोन्तिस्येन्डियनोइन्द्रियदमान्यां नवेत्तत्र वेश्यासामन्ते विस्रोतसिका तद्रूपदर्शनस्मरणापध्यानकचवरनिरोधतः । ज्ञानश्रद्धाजलोज्नेन संयमसस्यशोषफला चित्तवि क्रिया ॥ ए॥ . (अर्थ.) एम प्रथमवतनी यतना कही. हवे गोचरी जतां साधुए चतुर्थव्रत जे ब्रह्मचर्य तेनी रदा करवी ते कहे . पूर्वोक्त साधु ( बंजचेरवसाणुए के० ) ब्रह्मचर्यावसानके एटले जेथी ब्रह्मचर्य- अवसान एटले अंत थाय एवा अथवा ब्रह्मचर्यवशानयने एटले जे ब्रह्मचर्यने दर्शनादेपथी वश करे, अर्थात् ते ब्रह्मचर्यनो नाश करे एवा (वेससामंते के०) वेश्यासामंते एटले वेश्या ज्यां रहे जे त्यांना आसपासना प्रदेशमा ( न चरेऊ के० ) न चरेत् एटले गमन करे नहीं. कारण के, ( त के ) तत्र एटले ते वेश्याना रहेवाना प्रदेशमां (दंतस्स के०) दांतस्य ए. टले जितेंज्यि एवा तथा ( बंजयारिस्स के ) ब्रह्मचारिणः एटले मैथुनविरमणरूप ब्रह्मचर्यना पालनार एवा साधुने ( विसुत्तिया के) विस्रोतसिका एटले संयमरूप धान्यने सुकावनार एवो मनोविकार ( हुजा के ) नवेत् एटले थाय . एनुं तात्पर्यः–वेश्यानुं रूपादिक जोश्ने तेना अपध्यानथी ज्ञानश्रद्धारूप जल ग Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २५१ ली जाय बे, अने तेथी संयमरूप फलने सूकावनारो चित्तविकार रूप रोग थाय ने, माटे गोचरी जतां वेश्यानुं सांनिध्य अवश्य वर्ज. ॥ ए॥ (दीपिका. ) उक्तैवं प्रथमव्रतयतना । सांप्रतं चतुर्थव्रतस्य यतनोच्यते । एवं विधः साधुः वेश्यासामन्ते गणिकागृहसमीपे न चरेन्न गछेत् । किंविशिष्टे वेश्यासामन्ते । ब्रह्मचर्यवशानयने ब्रह्मचर्य मैथुनविरतिरूपं वशमानयति श्रायत्तं करोति दर्शनादेपादिनेति ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् । को दोषस्तत्र गमनत इत्यत थाह। ब्रह्मचारिणः साधोर्दान्तस्य इन्डियनोन्डियदमाच्यां नवेत्तत्र वेश्यासामन्ते विस्रोतसिका । कथम् । तद्रूपदर्शनस्मरणेन अशुनध्यानकचवरनिरोधतः शानकाजलोज्जनेन संयमसस्यशोषफला चित्तविक्रिया नवति ॥ ए॥ (टीका.) उक्ता प्रथमवतयतना । सांप्रतं चतुर्थव्रतयतनोच्यते। न चरेऊत्ति सूत्रम् । न चरेहेश्यासामन्ते न गमणिकाग्रहसमीपे । किंविशिष्ट इत्याह । ब्रह्मचर्यवशानयने । ब्रह्मचर्य मैथुनविरतिरूपं वशमानयत्यात्मायत्तं करोति दर्शनाक्षेपादिनेति ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् । दोषमाह । ब्रह्मचारिणः साधोर्दान्तस्य इन्जियनोन्जियदमान्यां नवेदत्र वेश्यासामन्ते विस्रोतसिका तपसंदर्शनस्मरणापध्यानकचवर निरोधतः शानकाजलोननेन संयमस्यस्यशोषफला चित्तवि क्रियेति सूत्रार्थः ॥ ए॥ अणायणे चरंतस्स, संसग्गीए अनिरकणं॥ दुऊ वयाणं पीला, सामन्नंमि अ संस॥१०॥ (अवचूरिः) एष सकृञ्चक्रमणदोषोऽसकृच्चरणे तमाह । अनायतनेऽस्थाने वेश्यासामन्तादौ चरतः संसर्गेण संबन्धेनानीदणं पुनः पुनः नवेठूतानां प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा । तदादिप्तचेतसो नावविराधना । श्रामण्ये च संशयः । कदाचिनिष्कामति । अनुपयोगैषणादणे हिंसनम् । गुरुप्रश्नेऽपलापादसत्यमननुज्ञातवेश्यादिदर्शनेनादत्तं, ममत्वे परिग्रहश्च ॥१०॥ __ (अर्थ.) पूर्वोक्त सूत्रमां कहेलो अर्थ दृढ करवा माटे कहे . अनायणे इति. (अनायणे के० ) अनायतने एटले जे गोचरी जवानुं स्थान नथी एवा वेश्यासामंतादिकने विषे ( चरंतस्स के० ) चरतः एटले गोचरी लेवा माटे गमन करनार एवा साधुने (अनिरकणं) अनीदणं एटले वारंवार (संसग्गीए के०) संसर्गेण एटले संसर्गथी ( वयाणं के०) व्रतानां एटले प्राणातिपातविरमणादिक व्रतोने Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (पीला के० ) पीडा ( हुऊ के०) नवेत् एटले थाय. ( य के० ) वली ( सामन्नंमि के०) श्रामण्ये एटले चारित्रने विषे पण ( संस के०) संशयः एटले संशय थाय. एनुं तात्पर्य ए डे के, वेश्याने जोश्ने साधुने नोगनी श्वा थाय, ते श्छा पूरवाने ते वेश्या साधुने बोलावे, तेथी ते साधु त्यां वारंवार जाय, स्नेह बांधे, तेथी शीलने दूषण लागे, अने वली संयमयी पण ब्रष्ट थाय. ॥ १० ॥ (दीपिका.) अत्रैकवारं वेश्यासामन्तसंगतो दोष उक्तः । सांप्रतमिहान्यत्र च वारंवारगमने दोषमाह । साधोः अनायतनेऽस्थाने वेश्यासामन्तादौ चरतो गछतः संसर्गेण संबन्धेन अनीदणं पुनः पुनर्जवेत् व्रतानां प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा नाव विराधना । कथम् । यतस्तदानीं स साधुस्तदादिप्तचित्तो जवति । पुनः श्रामण्ये श्रमणनावे अव्यतो रजोहरणादिधारणरूपे नूयो लावतो व्रतप्रधानहेतौ संशयः । कदाचिमुन्निष्कामत्येव ॥ १० ॥ (टीका.) एष सकृच्चरणदोषो वेश्यासामन्तसंगत उक्तः । सांप्रतमिहान्यत्र वा. सकृच्चरणदोषमाह । अणायएत्ति सूत्रम् । अनायतनेऽस्थाने वेश्यासामन्तादौ चरतो गलतः संसर्गेण संबन्धेन बनीदणं पुनः पुनः। किमित्याह । नवेद्रतानां प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा । तदाक्षिप्तचेतसो जावविराधना, श्रामण्ये श्रमणनावे च अव्यतो रजोहरणादिसंधारणरूपे नूयो नावतो व्रतप्रधानहेतौ संशयः। कदाचिऊनिष्क्रामत्येवेत्यर्थः। तथाच वृद्धव्याख्या । वेसादिगयनावस्स मेहुणं पीडिजा, श्रणुवउँगेणंएसणाकरणे हिंसा, पमुप्पायणे अन्नपुठणअवलवणासच्चवयणं, अणणुलायवेसाश्दसणे अदत्तादाणं. ममत्तकरणे परिग्गहो । एवं सबवयपीडा । दवसामन्ने पुण संसयो जमिकमणेण त्ति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ तम्हा एअं विप्राणित्ता, दोसं उग्गश्वहणं ॥ वऊए वेससामंतं, मुणी एगंतमस्सिए ॥११॥ (अवचूरिः) तस्माद्विज्ञाय दोषमनन्तरोदितं कुर्गतिवर्धम् । वर्जयेश्यासामन्तं मुनिरेकान्तं मोदमार्गमाश्रितः ॥ ११॥ ___ (अर्थ.) हवे सिद्धांत कहे . तम्हा इति । ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले पूर्वोक्त हेतुथी ( एगंतमस्सिए के) एकांतमाश्रित एटले मोक्षमार्गनो जेणे आश्रय कस्यो , एवो (मुणी के० ) मुनिः एटले साधु ( एयं के० ) एवं एटले पूर्वे कद्यु ते प्रकारे (उग्गश्वगुणं के० ) मुर्गतिवर्धनं एटले पुर्गतिनी वृद्धि करनार एवा ( दो Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २५३ सं के० ) दोषं एटले दोषने ( विचाणित्ता के० ) विज्ञाय एटले जाणीने ( वेससामंतं ho ) वेश्यासामन्तं एटले वेश्याना समीपजागने ( वज्जए के० ) वर्जयेत् एटले वर्ज करे. ॥ ११ ॥ ( दीपिका. ) अथ निगमयन्नाह । यस्मादेवं तस्मान्मुनिः वेश्यासामन्तं वेश्यागृह - समीपं वर्जयेत् । किं कृत्वा । दोषं पूर्वोक्तं विज्ञाय । किंभूतं दोषम् । दुर्गतेर्वर्धनम् । किंभूतो मुनिः । एकान्तं मोक्षमाश्रितः । शिष्यः प्राह । ननु प्रथमत्रत विराधनानन्तरं चतुर्थव्रतस्य विराधनायाः कथमुपन्यासः । उच्यते । अन्यत्रत विराधनाहेतुत्वेन चतुव्रतस्य विराधनायाः प्राधान्यख्यापनार्थम् । तच्च लेशतो दर्शितमेव ॥ ११ ॥ ( टीका. ) निगमयन्नाह । तम्हा इति सूत्रम् । यस्मादेवं तस्मादेतत् । विज्ञाय दोषमनन्तरोदितं दुर्गतिवर्धनं वर्जयेद्वेश्यासामन्तं मुनिरेकान्तं मोक्षमार्गमाश्रित इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ सासू गावं, दित्तं गोणं दयं गयं ॥ संनिं कलहं जुई, दूरन परिवऊए ॥ १२ ॥ ( अवचूरिः ) मार्ग एव विधिशेषमाह । श्वानं, सूतां गां, हसं गोणं, दयं, गजं, संमिनं बालक्रीडास्थानं, कलहं वाक्प्रतिबद्धं युद्धं खड्गादिनिः । श्रात्मसंयम विराधना संजवात् दूरतः परिवर्जयेत् ॥ १२ ॥ (अर्थ. ) हवे, वली श्रगल केहवाशे तेटलां वानां होय त्यां साधु गोचरीए जायनहीं. ते कहे बे. प्रथम ( साणं के० ) श्वानं एटले श्वानने ( सूइयं के० ) सूतां एटले प्रसूत एली [वीयाणी] एवी (गाविं के० ) गां एटले गायने ( दित्तं के० ) हप्तं एटले मदोन्मत्त एवा (गोणं के०) बलदने, ( दयं के० ) इयं एटले अश्वने (गयं के० ) गजं एटले हाथीने (संडिनं के० ) बालकना क्रीडास्थानने, अर्थात् रेतीप्रमुखनुं घर तयार करीने बालक रमता होय एवा स्थानने ( कलहं के० ) ज्यां कलह चालतो होय एवा स्थानने तथा (युद्धं के० ) युद्धं एटले, नाली, गोला, बूटता होय एवा प्रदेशने ए साधु ( दूर के० ) दूरतः एटले दूरथी ( परिवऊए के० ) परिवर्जयेत् एटले सर्व प्रकारे वर्जे ॥ १२ ॥ ( दीपिका. ) व विशेषमाह । साधुः एतानि दूरतो दूरेण परिवर्जयेत् । कानि तानीत्यत श्राह । श्वानं प्रसिद्ध, सूतां गां नवप्रसूतां धेनुं, तथा दृतं दर्पितं गोणं बलीवर्दम् । दृप्तशब्दः सर्वत्र संबध्यते । ततो दृप्तं हयमश्वं, पुनर्दृप्तं गजं हस्ति For Private Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा. नं, तथा संमिनं बालक्रीडास्थानं, कलहं वाक्प्रतिबकं, युद्ध खड्गादिजातम् । कथमेतानि वर्जयेदित्यत आह । श्वसूतगोप्रतिज्य आत्म विराधना स्यात् । बालक्रीडास्थाने वन्दनागतपतननएमनलुग्नादिना संयमविराधना स्यात् । सर्वत्र आत्मपात्रनेदादिना उन्नय विराधनापि स्यात् ॥ १५ ॥ (टीका.) श्राह। प्रथमव्रतविराधनानन्तरं चतुर्थव्रतविराधनोपन्यासः किमर्थम् । उच्यते । प्राधान्यख्यापनार्थम् । अन्यत्रतविराधनाहेतुत्वेन प्राधान्यम् । तच्च लेशतो दर्शितमेवेति । अत्रैव विशेषमाह । साणं ति सूत्रम् । श्वानं लोकप्रतीतम्, सूतां गाम् । अनिनवप्रसूतामित्यर्थः । दृतं च दर्पितम्। किमित्याह । गोणं, हयं, गजम् । गोणो बलीवो हयोऽश्वो गजो हस्ती । तथा कि मित्याह ।संडिप्नं बालक्रीमास्थानं, कसहं वाक्प्रतिबझम्, युद्धं खङ्गादिनिः एतद्रतो दूरेण परिवर्जयेत् । आत्मसंयमविराधनासंनवात्। श्वसूतगोप्रतिज्य आत्मविराधना। डिम्नस्थाने वन्दनाद्यागमनपतननएमनप्रबुग्नादिना संयमविराधना । सर्वत्र चात्मपात्रनेदादिनोजय विराधनेति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ अणुन्नए नावणए, अप्पदि अणानले ॥ इंदिआणि जहाभागं, दमश्त्ता मुणी चरे॥ १३ ॥ (अवचूरिः) अत्रैव विधिमाह । अनुन्नतो अव्यतो नाकाशदर्शी नावतो न जात्यायनिमानवान् । नावनतो अव्यतोऽनीचाङ्गः । न्नावतोऽलब्ध्या दिनादीनः । अप्रहृष्टोऽहसन् । अनाकुलः क्रोधादिरहितः। इन्ज्यिाणि यथानागं यथाविषयं दमयित्वा इष्टानिष्टेषु स्पर्शादिषु रागद्वेषरहितो मुनिः साधुश्चरेद् गछेत् । व्यत्यये दोषमाह । अव्योन्नतो लोकहास्यो जवति जावोन्नत ध्यान रदति ।जव्यावनतो बकश्व दृश्यते । नावावनतः दुषसत्त्व शति । प्रहृष्टः स्त्रीरको लक्ष्यते। अदान्तो व्रतानहः॥ १३॥ (अर्थ.)तथा अणुन्नए इति. (मुणी के०) मुनिः एटले पूर्वोक्त नावसाधु (अणुन्नए के०) अनुन्नतः एटले जेने उव्यथी अने नावथी ऊंचापणुं नथी एवो. ऊंचापणुं अव्यनावथी बे प्रकारनुं . अव्यथी दृष्टि ऊंची करीने आकाश तरफ जोवू, अने जावथी ऊंचापणुं ते अनिमानसहित रहे,. ए बे प्रकारना ऊंचापणानो त्याग करतो तो; तथा ( नावणए के०) नावनतः एटले जेने अव्यथी तथा नावथी नीचपणुं नथी एवो, अव्यथी नीचपणुं ते शरीर नन करवू तथा नावथी नीचपणुं ते अन्नादिक न मले तो दीनपणे नीचुं जोवू, एवा वे प्रकारना नीचपणा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम्। नो त्याग करतो उतो, तथा (अप्पहिले. के०) अप्रहृष्टः एटले स्त्रियादिकने जोश्ने हर्ष न पामतो बतो, तथा (अणाजले के० ) अनाकुलः एटले आकुलता रहित, अर्थात् क्रोध प्रमुख विकारने न पामतो तो, (इंदिया के०) इंडियाणि एटले श्रवणें जियादि पांच इंडियोने (जहानागं के०) यथानागं एटले जे इंडियनो जे नाग एटले विषय होय तेथी तेने (दमत्ता के०) दमयित्वा दमीने, संवरीने, अर्थात् वश करीने (चरे के ) चरेत् एटले गोचरी माटे गमन करे. एनुं कारण ए डे के, अव्यथी ऊं. चुं जोतो चाले तो लोकमां हास्य थाय, नावथी ऊंचाप' राखे तो ा न शोधाय. अव्यथी नीचुं जुवे तो लोक कहे बकवृत्ति बेनावथी नीचपणुं राखे तो लोकमां दुज जन कहे स्त्रीरक्त बे. इंघिय दमन न करे तो लोक कहे चारित्रने अयोग्य बे. ॥१३॥ (दीपिका.) अथ अत्रैव विधिमाह । साधुः एवं चरेत् गोत् । किंजूतो मुनिः । अनुन्नतः । न उन्नतः अनुन्नतः।ऽव्यतो न आकाशदर्शी। नावतस्तु न जात्यादीनामनिमानकर्ता । पुनः किंनूतो मुनिः। नावनतः। न अवनतः। ऽव्यतो न नीचकायः। जावतस्तु नालब्ध्यादिना दीनः । पुनः किंनूतो मुनिः । अप्रहृष्टो लानादौ सति न हर्षवान् । पुनः किंजूतो मुनिः। अनाकुलः । न आकुलः । क्रोधादिना रहितः । किं कृत्वा मुनिश्चरेत् इत्यत आह । इन्ज्यिाणि स्पर्शनादीनि यथानागं यथाविषयमिष्टेषु स्पर्शादिषु प्रवर्तमानान्यनिष्टेन्यः स्पर्शादिन्यो निवर्तमानानि दमयित्वा रागोषरहितश्चरे दित्यर्थः । विपरीते तु प्रजूता दोषाः प्रकटीनवेयुः ॥ १३ ॥ (टीका. ) अत्रैव विधिमाह । अणुप्मएत्ति सूत्रम् । अनुन्नतो अव्यतो लावतश्च । अव्यतो नाकाशदर्शी। नावतो न जात्याद्यनिमानवान् । नावनतो अव्यजावान्यामेव। अव्यानवनतोऽनीचकायः । नावानवतः अलब्ध्या दिनादीनः । अप्रहृष्टः अहसन् । अनाकुलः क्रोधादिरहितः। इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि यथानागं यथाविषयं दमयित्वा इष्टानिष्टेषु स्पर्शादिषु रागद्वेषरहितो मुनिः साधुश्चरेजछेत् । विपर्यये प्रनूतदोषप्रसङ्गात् । तथाहि अव्योन्नतो लोकहास्यः। नावोन्नत इयां न रदति । अव्यावनतः बक इति संन्नाव्यते । नावावनतः कुप्रसत्त्व इति । प्रहृष्टो योषिदर्शनामुक्त इति लक्ष्यते । अदान्तः प्रव्रज्यानई इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ दवदवस्स न गव्जा, नासमाणो अ गोअरे ॥ दसंतो नानिगबिजा, कुलं उच्चावयं सया ॥२४॥ (अवचूरिः) सुतं अतं त्वरितं न गछेत् । नाषमाणो वा गोचरे न गछेत् । हसन्न Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. गछेत् । कुलमुच्चावचं द्विधा। अव्योच्चं धवलगृहादि । लावोच्चं जात्यादियुक्तम् । अव्यावचं कुटीरादि । जावावचं जात्यादिहीनम् ॥ १४ ॥ __ (अर्थ.) हवे केवी रीते गोचरीए जाय, ते कहे . ते साधु ( दवदवस के०) पुतं पुतं एटले घणो उतावलो ( न गछेजा के०) न गछेत् एटले मार्गे गमन न करे, (य के) च एटले वली (नासमाणो के ) नाषमाणः एटले बोलतो तो (गोअरे के०) गोचरे एटले गोचरीने विषे न जाय. तथा ( हसंतो के०) हसन् एटले हसतो तो न जाय (उच्चावयं कुलं के०) उच्चावचं कुलं, एटले उच्च कुल अने हीनकुल. तेमां उच्चकुल पण अव्य अने जावना नेदथी बे प्रकारनुं बे. तेमां अव्यथी ऊंचुं कुल ते धवल गृहमां वास करनारूं जाणवू. नावथी ऊंचुं कुल ते श्रेष्ठ जातिनुं जाणवू. हीन कुल पण अव्य नाव नेदें करी बे प्रकारनुं बे. तेमां अव्यथी हीन कुल ते पर्णकुटिकामां वास करनालं जाणवू. तथा जावधी हीन कुल ते नीच जातिनुं जाणवू. ए सर्व कुलने विषे पूर्वोक्त रीते (सया के०) सदा एटले निरंतर (नानिगडेजा के०) नानिगछेत् एटले गमन न करे.॥ १४ ॥ (दीपिका.) पुनराह। दवदवस्स त्ति । अतं तं मुनिन गछेत् । तु पुनर्जाषमाणो गोचरे न गछेत् । तथा हसन् न अनिगछेत् । कुलमुच्चावचं सदा। उच्चं व्यतो धवलगृहादि, नावतो जात्यादियुक्तम् । एवमवचं अव्यतः कुटीरकवासि, जावतो जात्यादिहीनम् । उजयविराधनालोकोपघातादयो दोषाः स्युः ॥ १४ ॥ (टीका.) किं च। दवदवस्स त्ति सूत्रम् । पुतं पुतम् । त्वरितमित्यर्थः । जापमाणो वा न गोचरे गछेत् । तथा हसन्नानिगछेत् । कुलमुच्चावचं सदा । उच्चं ऽव्यनावनेदाद्विधा । अव्योच्चं धवलगृहवासि । नावोच्चं जात्यादियुक्तम् । एवमवचमपि अव्यतः कुटीरकवासि ।नावतो जात्यादिहीन मिति । दोषा उजय विराधनालोकोपघातादय इति सूत्रार्थः ॥२४॥ आलोअंथिग्गलं दारं,संधिं दगनवणाणि अ॥ चरंतो न विनिनाए, संकठाणं विवङए ॥१५॥ (अवचूरिः) आलोकं गवादादि, थिग्गलं चितंछारादि, संधि चितं दात्रम्, उदकनवनानि च चरन् निदाएं न पश्येत् । शङ्कास्थानमेतत् । नष्टादौ तत्र शङ्का स्यादतो विवर्जयेत् ॥ १५॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके पञ्चमाध्ययनम्। (अर्थ.) तथा आलोअंति. ( आलोअं के० ) आलोकं एटले गोख विगेरेने तथा ( थिग्गलं के०) चित एवा (दारं के ) द्वारं एटले हार प्रत्ये, (संधि के०) रचेला खात्रने ( य के ) च एटले वली ( दगजवणाणि के० ) उदकनवनानि एटले पणीयारादिकने (चरंतो के०) चरन् एटले गोचरीए गयो उतो ( न विनिनाए के०) न विनिध्यायेत् एटले जुवे नहीं. कारण के, उपर कहेलु (संकठाणं के०) शंकास्थानं एटले शंकानुं स्थानक बे, माटे साधुए ( विवजए के०) विवर्जयेत् एटले वर्ज. ॥ १५ ॥ (दीपिका.) पुनरत्रैव विधिमाह । मुनिः चरन् निदार्थं गछन् एतानि न विनिध्यायेत विशेषेण न पश्येत । कानि एतानीत्यत आह । आलोकं नियंहकादिरूपं, थिग्गलं नितिछारादि।संधिः दात्रम्। दकनवनानि पानीयगृहाणि। एतत् लोकादीनामवलोकनं शङ्कास्थानमतो विवर्जयेत् । कथम् । नष्टादौ तत्र शङ्का उपजायते ॥१५॥ (टीका.) अत्रैव विधिमाह । आलोअं थिग्गलं ति सूत्रम् । अवलोकं निमूहकादिरूपम् । थिग्गलं चितं द्वारादि । संधिश्चितं दत्रम् । उदकनवनानि पानीयगृहाणि चरन् निदार्थं न विनिध्यायेन्न विशेषेण पश्येत् । शङ्कास्थानमेतदवलोकादि । अतो विवर्जयेत् । तथा च नष्टादौ तत्राशङ्कोपजायत इति सूत्रार्थः॥ १५ ॥ रन्नो गिदवईणं च, रहस्सारस्कियाण य॥ संकिलेसकरं गणं, दूर परिवजए ॥ १६ ॥ (अवचूरिः) राज्ञश्चक्रवल्देदृहपतीनां श्रेष्ठिप्रनृतीनां च रहःस्थानान्यपवरकमन्त्रगृहादीनि स्थानान्यारदकाणां दमनायकानां च । संक्वेशकरमस दिबामन्त्रनेदान्यां कर्षणादिना च । अतो दूरतः परिवर्जयेत् ॥ १६ ॥ (अर्थ.) वली शुं वर्जवं ते कहेले. रन्नो इति ( रन्नो के०) राज्ञः एटले चक्रवर्ती श्रादिक राजानुं ( च के० ) वली (गिहवईणं के० ) गृहपतीनां एटले श्रेष्ठी श्रादिकनुं ( य के०) च एटले वली (आरकियाण के०) आरक्षकाणां एटले कोटवाल विगेरेना ( रहस्स के ) रहस्यं एटले एकांत विचार, मसलत करवानुं स्थानक तथा ( संकिलेसकरं गणं के०) संक्लेशकरं स्थानं एटले ज्यां घणा क्लेश- उपार्जन थतुं होय एवा स्थानकने ( दूर के ) दूरतः एटले दूरथी ( परिवजाए के०) परिवर्जयेत् एटले विशेषेकरी वर्जे, टाले. ॥१६॥ ३३ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्य राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ( दीपिका.) पुनः किंजूतो मुनिः। राज्ञश्चक्रवर्त्यादेः गृहपतीनां श्रेष्टिप्रनृतीनां च रहस्यस्थानादि वर्जयेत् । पारदकाणां च दएकनायकानां रहःस्थानं गुह्यापवरकमन्तगुहादि संक्वेशकरं असदिछाप्रवृत्त्या मंत्रनेदैर्वा कर्षणादिना दूरतः परिवर्जयेत् ॥१६॥ ( टीका.) किंच रन्नोत्ति सूत्रम् । राज्ञश्चक्रवर्त्या देहपतीनां श्रेष्टिप्रनृतीनां रहसागणमिति योगः। श्रारदकाणां च दएकनायकादीनां रहःस्थानं गुह्यापवरकमन्त्रगृहादि संक्वेशकरम् अस दिवाप्रवृत्त्या मन्त्रनेदे वा कर्षणा दिनेति दूरतः परिवर्जये- . दिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ पमिकुठं कुलं न पविसे, मामगं परिवाए ॥ अचिअत्तं कुलं न पविसे, चिअत्तं पविसे कुलं ॥१७॥ (श्रवचूरिः) प्रतिक्रुष्टं कुल मित्वरं सूतकयुक्तं यावत्कथिकमनोज्यं न प्रविशेत् । शासनलघुत्वप्रसङ्गात् । मा मम गृहं कश्चिदागादिति मामकं परिवर्जयेत् । नएमनादिप्रसङ्गात् । अप्रीतिकुलं यत्र साधुनिः प्रविशनिरप्रीतिरुत्पद्यते तन्न प्रविशेत् संक्लेशजयात् । एतविपरीतं प्रविशेत् कुलं तदनुग्रहप्रसङ्गात् ॥ १७ ॥ (अर्थ.) साधुए जे घरे गोचरीए जq नहीं ते कहे . पझिकुठं इति. पूर्वोक्त साधु (पनिकुठं के०) प्रतिक्रुष्टं एटले निषिद्ध एवा ( कुलं के० ) कुल प्रत्ये (न पविसे के० ) न प्रविशेत् एटले प्रवेश न करे. ते निषिक कुल बे प्रकारनुं . एक इत्वर अने बीजें यावत्कथिक. तेमां जेने जननाशौच अथवा मृताशौच , ते इत्वर निषिक जाणवं. कारण के, तेना सूतकनो काल पूरो थवाथी शुद्धि थाय . बीजें यावत्कथिक ते वाघरी, चमार इत्यादिक आजन्म अनोज्य तेनां घर जाणवां. ए बन्ने कुल साधुने गोचरी जता वयं . कारण के, त्यां जाय तो जिनशासननी लघुता थाय . तथा (मामगं के०) मामकं एटले जे घरनो धणी एम कहे के, “ हुँ ए घरनो धणी बु. मारे घेर कोशए आवडुं नहीं.” ते घरने पण ( परिवजाए के) परिवर्जयेत् एटले सर्वथा वर्जे, टाले. कारण के, त्यां जाय तो कजियो थवानो प्रसंग आवे. तथा ( अचिअत्तं कुलं के) अप्रीतिकुलं एटले ज्यां गये बते त्यांना माणसोने अप्रीति थाय एवा कुलने विषे पण ( न पविसे के) न प्रविशेत् एटले प्रवेश न करे, तिहां प्रवेश करे तो ते घरना माणसोने असंतोष थाय. तथा (चियत्तं के० ) प्रीतिकुलं एटले ज्यां गये बते सर्व लोकने संतोष थाय, एवे स्थानके (पविसे के० ) प्रविशेत् एटले प्रवेश करे. ॥ १७ ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । श्यए ( दीपिका.) किंच साधुरेवंविधं कुलं न प्रविशेत्। किंनूतं कुलम् । प्रतिकुष्टं लोकनिषि; मलिनादि । विविधमपि निषिकमित्वरं सूतकयुक्तं, यावत्कथिकं च निषिझमनोज्यम् । कुतो न प्रविशेत् । शासनलघुत्वप्रसङ्गात् । पुनर्मामकमत्राहं गृहपतिर्माकश्चिन्मम गृहमागबतु एतगृहं वर्जयेत्। कुतःनएकनादिप्रसङ्गात् पुनः अचिअत्तकुलं अप्रीतिकुलं यत्र प्रविशन्निः साधुनिर प्रीतिरुत्पद्यते न च निवारयति कुत श्चिन्निमित्तान्तरादेतन्न प्रविशेत् । तथा चिअत्तं कुलं पूर्वोक्ताछिपरीतं कुलं प्रविशेत् । तदनुग्रहप्रसङ्गात् ॥१७॥ (टीका.) किंच पमिकुछ ति सूत्रम् । प्रतिक्रुष्टकुलं द्विविधमित्वरं यावत्कथिकं च । श्त्वरं सूतकयुक्तं यावत्कथिकमनोज्यम् । एतन्न प्रविशेबासनलघुत्वप्रसङ्गात् । मामकम् यत्राह गृहपतिर्मा मम कश्चिगृहमागत् । एतहर्जयेत् । नएमना दिप्रसंगात्। श्रचित्रतकुलमप्रीतिकुलम् । यत्र प्रविशनिः साधुनिरप्रीतिरुत्पद्यते । न च निवारयन्ति कुतश्चिन्निमित्तान्तरात् । एतदपि न प्रविशेत् तत्संक्लेशनिमित्तत्वप्रसङ्गात्। चिअत्तम चित्र- . त्तविपरीतं प्रविशेत्कुलं तदनुग्रहप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ साणीपावारपिदिअं, अप्पणा नावपंगुरे॥ कवा नो पालिका, नग्गरंसि अजाश्॥१७॥ (अवचूरिः) साणी अतसीवक्वजा पटी।प्रावार थाछादनः। कम्बलाद्युपलक्षणमेतत् । एवमादिनिः स्थगितं। गृह मिति शेषः । अत्मना नापवृणुयात् नोद्वाटयेत् तदन्तर्गतजुजि क्रियादिकारिणां प्रोषप्रसङ्गात् । कपाटं न प्रेरयेत् पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् । से तस्यावग्रहमयाचित्वा विधिना धर्मलानमकृत्वेत्यर्थः ॥ १७ ॥ __(अर्थ. ) तथा गोचरी गएला साधु ( साणीपावारपिहिथं के० ) शाणीप्रावारपिहितं एटले शाणी ते टाड पट्टीनो पडदो अने प्रावार ते कंबलादि तेणे करी पिहित एटले ढाकेटुं एवं जे गृह चार ते प्रत्ये (अप्पणा के०) आत्मना एटले पोते (नावपंगुरे के०) नापवृणुयात् एटले उघाडे नहीं. कारण के, ढाकेलु घार उघाडीने प्रवेश करवो ते लोकविरुक , वली तेथी घरमां जे माणस जोजनादि करता होय तेमने असंतोष थाय. तथा ( कवामं के० ) कपाटं एटले घरनुं कमाड जो बंध करेलुं होय, तो ते प्रत्ये (नो पणुविजा के०) न प्रेरयेत् एटले उघाडे नहीं. तेथी पण पूर्वोक्त दोषज उपजेले. तथा ( जग्गहंसि अजाश्या के०) अवग्रहमयाचित्वा एटले अवग्रह माग्याविना अर्थात् धर्मलान कख्या वगर प्रवेश करे नहीं. ॥ १० ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) किंच साधुः एवं विधम् । गृह मिति शेषः । श्रात्मना स्वयं नापवृणुयात् नोद्वाटयेत् । किंनूतं गृहम् । शाणीप्रावारपिहितम् । शाणी शणातसीवलजा पटी।प्रावारः प्रतीतः। कम्बलादीनामुपलक्षणमेतत् । इत्यादिनिः पिहितं स्थगितम् । अलौकिकत्वेन च तदन्तर्गतजुजि क्रियादिकारिणां प्रवेषप्रसङ्गात् । तथा कपाटं हारस्थगनं न प्रेरयेत् । पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् । किमविशेषतो नेत्याह । किं कृत्वा। अवग्रहमयाचित्वा गाढप्रयोजनेऽननुज्ञाप्य अवग्रहं विधिना धर्मलानमकृत्वा ॥ १० ॥ (टीका.) साणित्ति सूत्रम् । शाणीप्रावारपिहितमिति शाण्यतसीवक्लजा पटी। प्रावारः प्रतीतः। कम्बल्याद्युपलक्षणमेतत् । एवमादिभिः पिहितं स्थगितम् । गृहमिति वाक्यशेषः । आत्मना स्वयं नापवृणुयात् नोद्घाटयेदित्यर्थः । अलौकिकत्वेन तदन्तर्गतनुजिक्रियादिकारिणां प्रवेषप्रसङ्गात् । तथा कपाटं हारस्थगनं न प्रेरयेन्नोद्घाटयेत्।पू. ोक्तदोषप्रसङ्गात् । किमविशेषेण । नेत्याह । अवग्रहमयाचित्वा आगाढप्रयोजनेऽननुझाप्यावग्रहं विधिना धर्मलानमकृत्वेति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ गोअरग्गपविछो अ, वच्चमुत्तं न धारए ॥ ओगासं फासुअं नच्चा, अणुनवित्र वोसिरे ॥१॥ (अवचूरिः) विधिशेषमाह । गोचराग्रप्रविष्टस्तु वर्षों मूत्रं न धारयेत् । पू. वमेव साधुना संज्ञाकायिकोपयोगं कृत्वा गोचरे प्रवेष्टव्यम् । अथ चेत्तत्र गतस्याबाधा स्यात् । तदा किं कार्यमित्यत आह । अवकाशं स्थगिफलं ज्ञात्वानुशाप्य च व्युत्सृजेत् ॥ १५ ॥ (अर्थ.) वली ते साधु ( गोअरग्गपविको के ) गोचरायप्रविष्टः एटले गोचरीविषे गयो उतो ( वच्च के०) वर्चः एटले वडीनी तिने तथा ( मुत्तं के ) मूत्रं एटले लघुनीतिने ( न धारए के०) न धारयेत् एटले धारण करे नहीं. गोचरीए जतां प्रथमज पोताना आचारने अनुसरीने मलमूत्रोत्सर्ग करे. एम बतां कदाचित् शरीरना धर्म स्वाधीन न होवाथी तेवो प्रसंग आवे तो ( फासुझं के० ) प्रासुकं एटले शुद्ध निरवद्य एवा (जंगासं के) अवकाशं एटले स्थं मिलने ( नच्चा के ) ज्ञात्वा एटले जाणीने वली (अणुन्न विथ के० ) अनुज्ञाप्य एटले गृहस्थादिकनी अनुज्ञा लश् (वोसिरे के०) व्युत्सृजेत् एटले मलमूत्रनो त्याग करे.॥ १५॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । (दीपिका.) विधेः शेषमाह । साधुर्गोचरायप्रविष्टस्तु वर्षों मूत्रं वा न धारयेत् । किंतु अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वा अनुज्ञाप्य च व्युत्सजेत् । अस्य वर्धोमूत्रत्यजन विधेर्विषय उघनियुक्तितो वृक्षसंप्रदायाच्च ज्ञातव्यः ॥१९॥ ___(टीका.) विधिशेषमाह । गोयरग्गत्ति सूत्रम् । गोचराग्रप्रविष्टस्तु वर्षों मूत्रं वा न धारयेत् । अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वानुज्ञाप्य व्युत्सृजेदिति। अस्य विषयो वृक्षसंप्रदायादवसेयः।स चायम् । पुवमेव साहुणा सन्नाकावियोगं काऊण गोअरे पविसथवं । कहिं वि ण क । कए वा पुणो होला । ताहे वच्चमुत्तं ण धारेवं । जठ मुत्तनिरोहे चकुवघा नवति । वच्च निरोहे जीविठेवघा असोहणा अ आय विराहणा। जउँ नणिरं सबब संजममित्यादि।अर्ज संघामयस्स सयनायणायणि (?)समप्पिस पडिस्सए पाणयं गहाय सन्नानूमीए विहिणा वोसिरिजा। विउर जहा उहणिमुत्तीए । इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ पीअज्ज्वारं तमसं, कुछगं परिवऊए । अचस्कुविस जब, पाणा उप्पमिलेगा ॥२०॥ (अवचरिः) नीचहारं नीचनिर्गमनप्रवेशं तमोवन्तं कोष्ठकमपवरकं परिवर्जयेत । न तत्र निदां गृह्णीयात् । न चक्षुषो व्यापारो यत्र । अत्र दोषमाह । प्राणिनो छःप्रतिप्रेक्षणीयाः। O न स्यात् ॥ २०॥ __ (अर्थ.) तथा गोचरीए गएलो साधु, ( नीअं अवारं के०) नीचं छारं एटले जेमांथी गमनागमन करतां घणुं नमवू पडे, एवा द्वारने तथा ( तमसं के० ) तमसं एटले ज्यां घणो अंधकार होय एवा स्थानक प्रत्ये, तथा ( कुगं के) कोष्टकं एटले ज्यां ऊं नोयरूं श्रादिक होय, ते प्रत्ये ( परिवाए के) परिवर्जयेत् एटले वर्जे. कारण के, (जब के०) यत्र एटले जे ठेकाणे (अचरकुविसर्ड के० ) अचकुर्विषयः एटले नेत्रनुं काम चाले नहीं. एवा अंधकारयुक्त प्रकाशरहित स्थलने विषे (पाणा उप्पमिलेहगा के० ) प्राणिनो मुष्प्रतिप्रेक्षणीयाः एटले बेंछियादिक जीव जो शकाय नही, अर्थात् श्ासमिति पाली न शकाय. माटें एवं स्थान वर्जq ॥२०॥ __ (दीपिका.) पुनः किंच साधुर्नीचहारं नीचनिर्गमप्रवेशं परिवर्जयेत्। न तत्र निदां गृह्णीयात् । एवं तमसं तमोवन्तं कोष्टकमपवरकं परिवर्जयेत्। सामान्यापेक्षया सर्व एवं विधो नवतीत्यत आह । अचकुर्विषयो यत्र न चाापारो नवेद्यत्रेत्यर्थः । तत्र को दोष इत्याह । प्राणिनो छुःप्रत्युपेदणीया जवन्ति । ाशुछिर्न जवति ॥२०॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६श राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ( टीका.) तथा नीयवार त्ति सूत्रम् । नीचछारं नीच निर्गमप्रवेशं तमसमिति तमोवन्तं कोष्ठकमपवरकं परिवयेत् । न तत्र निदां गृह्णीयात् । सामान्यापेदया सर्व एवं विधो नवत्यत आह । अचकुर्विषयो यत्र । न चतुर्व्यापारो यत्रेत्यर्थः । अत्र दोषमाह।प्राणिनो पुष्प्रत्युपेक्षणीया जवन्ति । शुछिर्न नवतीति सूत्रार्थः॥२०॥ जब पुप्फाई बीआई, विपन्नाई कुछए॥ अदुणोवलितं उल्लं, दणं परिवजए॥१॥ (अवचूरिः) यत्र जातिपुष्पादीनि बीजानि शालिवीजादीनि विप्रकीर्णान्यनेकधा विक्षिप्तानि परिह मशक्यानि कोष्ठके कोष्ठहारे वाधुनोपलिप्तमार्ड दृष्ट्वा परिवर्जयेत् ॥१॥ (अर्थ.) वली (जब के०) यत्र एटले जे ( कुठए के) कोष्ठके एटले घरना छारने विषे (पुप्फाई के०) पुष्पाणि एटले फूल तथा (बीआई के०) बीजानि एटले शालि प्रमुख बीज ते धान्य (विप्पना के ) विप्रकीर्णानि एटले विखेस्यां होय, एवा स्थान प्रत्ये तथा (अहुणोववित्तं के) अधुनोपतिप्तं एटले तत्काल लीपायर्बु होवाथी (उचं के०) आई एटले ली एवं स्थान होय ते प्रत्ये ( दळूणं के0 ) दृष्ट्वा एटले जोश्ने दूरथीज (परिवजाए के०) परिवर्जयेत् एटले वों, तिहां धर्मलाज करे नहीं. कारण, त्यां जवाथी संयमनी अने पोताना आत्मानी विराधना थाय. ॥१॥ - (दीपिका.) किंच साधुरेतानि परिवर्जयेदूरत एव।नतु तत्र धर्मलानं कुर्यात्। संयमस्यात्मनश्च विराधनाप्राप्तेः । एतानि कानीत्याह । पुष्पाणि जातिपुष्पादीनि, बीजानि शालिबीजानि । किंविशिष्टानि । विप्रकीर्णानि अनेकधा विदिप्तानि । परिहर्तुमशक्यानीत्यर्थः । कुत्र । कोष्ठके कोष्ठकछारे वा । तथा। किं कृत्वा । श्रधुना उपलिप्तं सांप्रतमुपलिप्तमार्गकमशुष्कं कोष्ठकमन्यछा दृष्ट्वा ॥२१॥ (टीका.) किंच जब ति सूत्रम् । यत्र पुष्पाणि जातिपुष्पादीनि, बीजानि शालिबीजानि, विप्रकीर्णानि अनेकधा विदिप्तानि परिहर्तुमशक्यानीत्यर्थः । कोष्टके कोष्टकछारे वा । तथाधुनोपलिप्तं सांप्रतोपलिप्तम् । आऽमशुष्कम् । कोष्ठकमन्या दृष्ट्वा परिवर्जयेद्रत एव।नतु तत्र धर्मलानं कुर्यात् संयमात्मविराधनापत्तेरिति सूत्रार्थः ॥२१॥ एलगं दारगं साणं, वचगं वा वि कुहए। नवंघिया न पविसे, विहिताण व संजए॥२२॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २६३ (अवचूरिः) एमकं मेषं, दारकं वालकं, श्वानं, वत्सकं वापि, कुप्रवृषनं, कोष्ठके उबध्य पन्नयां न प्रविशेत् व्यूह्य वा प्रेर्य वा संयतः साधुः ॥२॥ (अर्थ.) तथा गोचरीए गएलो साधु ( कुठए के० ) कोष्ठके एटले जे घरमां प्रवेश करवो होय ते घरना छारमा ( एलगं के० ) एडकं एटले बकरो होय, तथा ( दारगं के ) दारकं एटले बालक होय, तथा ( साणं के०) श्वानं एटले कूतरो होय, तथा (वडगं वा वि के०) वत्सकं वापि एटले वाबडो होय, तेने पगथी (जवंघिया के) उवंध्य एटले उलंघन करीने (व के०) वा एटले अथवा (विहिताणं के० ) व्यूह्य एटले काढी मूकीने अथवा उगमीने (न पविसे के) न प्रविशेत् एटले प्रवेश करे नहीं. कारण के, तेथी पोताना संयमनी विराधना थाय. वली लघुत्व पण पामे. ॥ २५ ॥ (दीपिका.) पुनः किंच संयतः साधुः एलकं मेषं, दारकं बालकं, श्वानं मएमलं, वत्सकं वापि कुमवृषनलक्षणं कोष्ठके उबद्ध्य पञ्जयां न प्रविशेत् । व्यूह्य वा प्रेर्य न प्रविशेत् । आत्मसंयमविराधनादोषाहाघवाचेति ॥२२॥ (टीका.) किंच एलगं ति सूत्रम् । एमकं मेषं, दारकं बालं, श्वानं ममलं,वत्सकं वापि कुपवृषनलक्षणं कोष्ठके उन्नध्य पड्यां न प्रविशेत् । व्यूह्य वा प्रेर्य वेत्यर्थः। आत्मसंयमविराधनादोषाहाघवाञ्चेति सूत्रार्थः ॥ १२॥ असंसत्तं पलोइजा, नाश्दूरा वलोपए॥ उप्फुल्लं न विनिनाए, निअहिज अयंपिरो॥२३॥ (अवचूरिः ) मार्ग एव विशेषमाह असंसक्तं प्रलोकयेत् । न स्त्रीदृष्टेदृष्टिं मीलयेत् । रागोत्पत्तिसंचवात् । नातिदूरं विलोकयेत् । दायकस्यागमनमात्रं प्रदेशं प्रलोकयेत् । परतश्चौरादिशङ्का स्यात् । उत्फुलं विकसितलोचनं न निरीदेत । निवर्तेतालब्धे सति साधुम्रहादजल्पन् दीनवचनमनुच्चरन् ॥ २३॥ (अर्थ.) वली गोचरी जतां केवी रीते वर्ते ते कहे जे. (असंसत्तं के०) असंसक्तं एटले स्त्रीजाति उपर आसक्ति न राखता ( पलोश्जा के०) प्रलोकयेत् एटले अवलोकन करे, एटले स्त्री जातिनी दृष्टि साथें दृष्टि मेलवे नहीं. आसक्तपणे जुवे नहीं. कारण, तेथी गृहस्थने शंका उपजे, वली कामविकार पण थाय, अने लोकापवाद थाय. तथा (नाश्दूरा वलोपए के०) नातिदूरादवलोकयेत् एटले अतिदूर गृहस्थनी वस्तु पडी होय तो ते प्रत्ये जुवे नहीं, गृहस्थना घरमा आगलपाबल जुवे Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. नहीं. कारण, तेथी गृहस्थने चोरपणानी शंका उपजे. तथा ( उष्फुल्लं न विनिनाए hu ) उत्फुल्लं न विनिध्यायेत् एटले गृहस्थनां जे उपकरणादिक पडेलां होय ते प्रत्ये दृष्टि विकाशीने जुवे नहीं. कारण, तेथी गृहस्थ एम जाणे के, एणें कांश संपत्तिनो जोग लीधो नथी, तेथी एम जुवे छे. तथा गोचरी न मले तो ते घरथी ( पिरो ० ) अल्पन् एटले गृहस्थना दोष अथवा दीन वचन ण बोलतो बतो ( नि० ) निवर्तेत एटले पाठो वले. पण गृहस्थनी निंदा अथवा दीन वचन बोले नहीं. ॥ २३ ॥ ( दीपिका. ) व विशेषदोषमाह असंसक्तं न प्रलोकयेत् योषिदृष्टेर्दृष्टिं न मी - लयेत् । रागोत्प तिलोको पघातदोषात् । तथा नातिदूरं प्रलोकयेत् । दायकस्य श्रागमनमात्र प्रदेशं प्रलोकयेत् । चोरा दिकशङ्कादोषात् । तथा उत्फुल्लं विकसितलोचनं न विनिलाए न निरीक्षेत गृहपरिदमपि । दृष्टकल्याण इति लाघवोत्पतेः । तथा निवर्तेत लब्धेऽपि सति । परं किं कुर्वन् । श्रजल्पन् दीनवचनमनुञ्चरन्निति ॥ २३ ॥ ( टीका. ) इहैव विशेषमाह । असंसत्तं ति सूत्रम् । असंसक्तं प्रलोकयेत् । नो योषिदृष्टेर्दृष्टिं मेलयेदित्यर्थः । रागोत्पत्तिलोकोपघातदोषप्रसङ्गात् । तथा नातिदूरं प्रलोकयेत् । दायकस्यागमनमात्र देशं प्रलोकयेत् । परतश्चौरादिशङ्कादोषः । तथा उत्फुल्लं विकसितलोचनं न विणिनाए त्ति न निरीक्षेत गृहपरिदमपि । अदृष्ट कल्याण इति लाघवोत्पत्तेः । तथा निवर्त्तेत गृहादलब्धेऽपि सति । प्रजल्पन् दीनवचनमनुच्चारयन्निति ॥१३॥ भूमिं न गचेका, गोरग्गगन मुली ॥ कुलस्स भूमिं जाणित्ता, मियं भूमिं परक्कमे ॥ २४ ॥ ( अवचूरिः ) तिनू मिं न गच्छेत् । अननुज्ञातां गृहस्थैर्यत्रान्ये निक्षाचरा न यान्तीत्यर्थः । गोचराग्रगतो मुनिः कुलस्य भूमिमुत्तमादिरूपामवस्थां ज्ञात्वा मितां भूमिं तैरनुज्ञातां पराक्रमेत् । यत्रैषामप्रीतिर्न जायते ॥ २४ ॥ ( अर्थ. ) तथा ( गोयरग्गगर्ड मुली के० ) गोचराग्रगतो मुनिः गोचरीए एलो साधु (भूमिं के० ) प्रतिभूमिं एटले जूमिनी मर्यादा मूकीने गृहस्थनी आज्ञा विना ( न गच्छेका के० ) न गच्छेत् एटले न जाय. एटले गृहस्थना घरमा बीजा निक्षुक लोक ज्यां सुधी भूमि श्राक्रमीने जाय, ते मर्यादा मूकीने साधु जाय नहीं. पण ( कुलस्स के० ) कुलस्य एटले कुलवंत गृहस्थनी ( भूमिं के० ) लूमिनी मर्यादा प्रत्ये ( जाणित्ता के० ) ज्ञात्वा एटले जाणीने For Private Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २६५ (मि भूमिं के० ) मितां भूमिं एटले मर्यादित भूमि प्रत्ये ( परक्कमे के० ) पराक्रमेत् एटले आक्रमे. अर्थात् जवानी मर्यादा होय त्यां सुधी जश्ने उजो रहे. ॥ २४ ॥ ( दीपिका . ) पुनरपि मुनिरतिजू मिर्गृहस्थैर्या नानुज्ञाता, यत्रान्ये निक्षाचरा न यान्ति तामतिभूमिं न गच्छेत् । किंनूतो मुनिः । गोचरायप्रविष्टः । अनेन कथनेन अन्यदा गोचरीं विना तत्र गमननिषेधमाह । किं तर्हि कुर्यात् । कुलस्य भूमिमुतमादिरूपामवस्थां ज्ञात्वा मितां भूमिं गृहस्थैरनुज्ञातां पराक्रमेत् । यत्र तेषामप्रीतिर्न जायते ॥ २४ ॥ ( टीका. ) तथा भूमिं न गविता इति सूत्रम् । अतिभूमिं न गच्छेदननुज्ञातां गृहस्थैर्यत्रान्ये नाचरा न यान्तीत्यर्थः । गोचराग्रगतो मुनिः । अनेनान्यदा तमनासंवाद । किं तर्हि | कुलस्य भूमिमुत्तमादिरूपामवस्थां ज्ञात्वा मितां भूमिं तैरनुज्ञातां पराक्रमेत् । यत्रैषामप्रीतिर्नोपजायत इति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ तव पडिले दिका, भूमिनागं विध्यकणो ॥ सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं परिवज्जए ॥ २५ ॥ ( अवचूरिः ) तत्रैव तस्यां मितायां भूमौ प्रत्युपेक्षेत । सूत्रोक्तेन विधिना जूमिनागमुचितनू मिप्रदेशं विचक्षणः । अनेनागीतार्थस्य निहाटनप्रतिषेधः । तत्र च तिष्ठन् स्नानस्य वर्चसश्च संलोकं परिवर्जयेत् । प्रवचनलाघवात्, स्त्री दर्शने रागोत्पत्तेश्च ॥ २५ ॥ अप्रावृत ( अर्थ. ) तथा ( तचैव के० ) तत्रैव एटले तेज मर्यादित भूमिने विषे उनो रहने (विरको ० ) विचक्षण एवो ते साधु ( भूमिनागं के० ) उजा रहेला भूमिकाना जागप्रत्ये ( पडिले हिजा के० ) प्रतिलेखयेत् एटले पडिलेहे. तथा ते ठेकाणे ( सिपास के० ) स्नानस्य एटले नाहवाना स्थानकनुं तेमज ( वञ्चस्स के ० ) वर्चसः एटले वडीनीति करवाना स्थानकनुं ( संलोगं के० ) संलोकं एटले जोवुं ( परिवए के० ) परिवर्जयेत् एटले परिहरे. एनुं तात्पर्य ए वे के:- साधु गृहस्थने घरे गोचरीए जश्ने ज्यां मर्यादित भूमिकाने विषे उजो रह्यो होय, त्यांथी जो स्नान करवानुं स्थान अथवा वडीनीति करवानुं स्थानक जोवामां आवे तो ते स्थानक परिहरीने वीजे स्थानके उजो रहे . कारण, त्यां उनो रहे तो शासनने लघुता यावे, तथा कदाचित् नग्न स्त्रीना दर्शनथी रागनी उत्पत्ति थाय ॥ २५ ॥ ३४ For Private Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)मा. (दीपिका.) विधिशेषमाह । मुनिस्तत्रैव तस्यामेव मितायां नूमौ सूत्रोक्तविधिना नूमिनागमुचितनूमिप्रदेशं प्रत्युपेदेत तत्र च तिष्ठेत् । किंजूतो मुनिः। विचक्षणो विछान् । एतहिशेषणेन केवलागीतार्थस्य निदाटननिषेधमाह । पुनः स्नानस्य तथा वर्चसः संलोकं परिवर्जयेत् । अयं परमार्थः। स्नानन्नूमिकायिक्या दिनूमिसंदर्शनं परिहरेत्।कुतः प्रवचनलाघवप्रसङ्गात्, अप्रावृतस्त्रीदर्शनाच रागादिसंजावात् ॥२५॥ (टीका.) विधिशेषमाह । तमेव त्ति सूत्रम् । तत्रैव तस्यामेव मितायां नूमौ प्र. त्युपेदेत सूत्रोक्तेन विधिना नूमिनागमुचितं नूमिदेशं विचक्षणो विद्वान् । अनेन केवलागीतार्थस्य निदाटनप्रतिषेधमाह । तत्र च तिष्ठन् स्नानस्य तथा वर्चसो विष्ठायाः संलोकं परिवर्जयेत् । एतमुक्तं नवति । स्नाननूमिकायिका दिनूमिसंदर्शनं परिहरेत्।प्रवचनलाघवप्रसंगात् । अप्रावृतस्त्रीदर्शनाच्च रागादिनावादिति सूत्रार्थः॥ २५॥ दगमहिआयाणे, बीआणि हरिआणि अ॥ परिवङतो चिहिडा, सबिंदिअसमाहिए ॥२६॥ ___ (अवचूरिः) उदकमृत्तिकादानम् । श्रादीयतेऽनेनेति आदानं मार्गः। उदकमत्तिकानयनमार्गमित्यर्थः। चादन्यानि सचित्तानि परिवर्जयंस्तिष्ठेदनन्ततरोदिते देशे सर्वेन्डियसमाहितः शब्दादावव्यादिप्तः ॥२६॥ (अर्थ.) तथा गोचरीए गएलो साधु ( दगमट्टियायाणे के०) उदकमृत्तिकादानं एटले पाणी तथा माटी आणवानो जे मार्ग होय ते प्रत्ये, तेमज (बीआणि के०) बीजानि एटले शालिप्रमुख वीज प्रत्ये, (अ के०) च एटले वली (हरियाणि के०) हरितानि एटले दूर्वादि हरित जीव प्रत्ये (परिवऊतो के०) परिवर्जयन एटले परि. हरतो थको अने (सविदिअसमाहिए के० ) सर्वेजियसमाहितः एटले जेणे पांचे इंडियोना विकार जीत्या बे, एवो थको एटले इंडियना जे गीतादिक विषय तेमांथी चित्तने दूर राखतो तो ( चिहिजा के ) तिठेत् एटले उनो रहे. ॥ २६ ॥ ( दीपिका.) पुनः किंनूतो मुनिः । एतानि परिवर्जयंस्तिष्ठेत् पूर्वोक्त उचितप्रदेशे। कानि । उदकमृत्तिकयोरानयनमार्ग, पुनर्बीजानि शाव्यादीनि, हरितानि दूर्वादीनि • च शब्दादन्यान्यपि सचेतनानि । किंनूतो मुनिः। सर्वेन्डियसमाहितः शब्दादिनिरव्याक्षिप्तः ॥२६॥ (टीका.) किंच दगत्ति सूत्रम् । उदकमृत्तिकादानम् । आदीयतेऽनेनेत्यादानो मार्गः। उदकमृत्तिकानयनमार्गमित्यर्थः। वीजानि शाल्यादीनि, हरितानि च दूर्वादी Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २६७ नि । चशब्दादन्यानि च सचेतनानि परिवर्जर्यं स्तिष्ठेदनन्तरो दिते देशे सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादिजिरना क्षिप्तचित्त इति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ तब से चिमाणस्स आहारे पापजोखणं ॥ कपित्र्यं न गेहिजा, पडिगाढिज कप्पियं ॥ २७ ॥ " ( अवचूरिः ) तत्तत्कुलोचितभूमौ से तस्य साधोस्तिष्ठतः सत श्राहरेत्पानजोजनमानीय यायाङ्गृहीति गम्यते । अकल्पमनेषणीयं नेवेत् । परिगृह्णीयात् कल्पिकम् । एतच्चार्थापन्नमपि कल्पिकग्रहणं द्रव्यतः शोजनमशोजनमप्येतदविशेषेण ग्राह्यमिति दर्शनार्थं साक्षादुक्तमिति ॥ २७ ॥ ( . ) तति । ( तब के० ) तत्र एटले पूर्वोक्त उचित भूमिकाने विषे ( से के० ) तस्य एटले ते साधु (चिमाणस्स के० ) तिष्ठतः एटले उजो रहे तो बतो गृहस्थनी स्त्री ( पाजो के ) पानजोजनं, एटले पान ते सामण प्रमुख ने जोजन ते श्रोदन प्रमुख ते प्रत्ये (आहारे के० ) हरेत् एटले लावे. त्यारे ते साधु (कप्पिां के० ) कल्पकं एटले सदोष, न कल्पे एवं अन्न होय तो ( न इछेका के० ) नेवेत् एटले वे नहीं, ग्रहण करे नहीं. ने जो ( कपित्र्यं के० ) कल्पिकं, खपतुं निर्दोष एवं अन्नपान होय तो ( प डिगा हिऊ के० ) प्रतिगृह्णीयात् एटले ग्रहण करे. इहां निका पनारी गृहस्थनी स्त्री कही बे, तेनुं कारण ए बे के प्रायः श्रावकनी स्त्रीज साधुने निक्षा या बे ॥ २७ ॥ ( दीपिका. ) तत्रो चितनूमौ से तस्य साधोस्तिष्ठतः सतो गृहीतिशेषः । पान - जोजनमाहरेत् श्रानयेत् । तत्रायं विधिः । अकल्पिकमनेषणीयं न गृह्णीयात् न छेत् । प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकम् । एतच्च श्रर्थापन्नमपि कल्पिकग्रहणं द्रव्यतः शोजनमशोजनमपि एतदविशेषेण ग्राह्यमिति दर्शनार्थं साक्षादुक्तमिति ॥ २७ ॥ ( टीका. ) तब ति सूत्रम् । तत्र कुलोचितनूमौ से तस्य साधोस्तिष्ठतः सत - हरेदानयेत्पानोजनं गृहीति गम्यते । तत्रायं विधिः । कल्पिकमनेषणीयं न गृह्णीयात् । प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकमेषणीयम् । एतच्चार्थापनमपि कल्पिकग्रहणं द्रव्यतः शोजनमशोजनमप्येतदविशेषेण ग्राह्यमिति दर्शनार्थं साक्षादुक्तमिति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ प्रहारंती सिया तब, परिसाडिक जोखणं ॥ दिंतियं पडित्र्याइके, न मे कप्पर तारिसं ॥ २८ ॥ १:- अत्र “ इच्छेज्जा" इति पाठान्तरं दृश्यते । For Private Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. ( वचूरिः ) नयन्ती निकामगारीति गम्यते । स्यात्कदाचित् परिशाटयेदितततो विपेत् जोजनं पानं वा । ततः किम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत प्रतिषेधयेत् । न मे मम कल्पते तादृशम् । रुयेव प्रायो जिहां ददातीति स्त्रीग्रहणम् । दोषांश्च जावं च ज्ञात्वा कथयेन्मधु बिन्दूदाहरणादिना ॥ २८ ॥ ( अर्थ. ) हवे जे आहार साधुने कल्पे नहीं, ते कहे बे. आहारंतीति. ( आहारंती के० ) आहरंती एटले साधुने पवा सारु निक्षा लइने यवनारी श्राविका ( सिया के० ) स्यात् एटले कदाचित् यावतां ( तब के० ) तत्र एटले ते स्थानमi ( जो के० ) जोजनं एटले अन्नपानरूप जोजन प्रत्ये ( परिसाडिस के ० ) प्रतिशाटयेत् एटले अरहुं परहुं नांखे, तो ते साधु ( दिंतियं के० ) ददतीं एटले पूवक्त रीते निक्षा आपनारी श्राविकाने ( पडियारके के० ) प्रत्याचक्षीत एटले प्रतिषेध करे. केवी रीतें प्रतिषेध करे, ते कहे बे. ( न मे कप्पइ तारिसं के० ) न मे कल्पते तादृशं एटले तेवुं अन्नपान मने कल्पे नहीं. एवी रीतें असूकता यन्नपाननो प्रतिषेध करे. गल पण प्रत्येक गाथामां एवीज अर्धी गाथा श्रावशे तेनो अर्थ ए प्रमाणे ज जावो. ॥ २८ ॥ ( दीपिका . ) गारी । निक्षामिति शेषः । श्रहरन्ती श्रानयन्ती स्यात् कदाचित् तत्र देशे परिशाटयेत् सिक्थादि इतश्चेतश्च विक्षिपेत् जोजनं वा पानं वा । ततः किमित्याह । ददतीं तां स्त्रियं प्रत्याचक्षीत । कथं प्रत्याचक्षीतेत्यत आह । न मे मम कल्पते तादृशं परिशाटनासहितं सिद्धान्तोक्तदोषप्रसङ्गात् । दोषांश्च जावं च ज्ञात्वा कथयेद मधु बिन्दूदाहरणादिना ॥ २० ॥ ( टीका. ) तिति सूत्रम् । याहरन्ती श्रानयन्ती निकामगारीति गम्यते । स्यात्कदाचित्तत्र देशे परिशाटयेदितश्चेतश्च विक्षिपेद् जोजनं वा पानं वा । ततः किमित्याह । ददतीं प्रत्याचक्षीत प्रतिषेधयेत्तामगारीम् । रुयेव प्रायो निदां ददातीति स्त्रीग्रहणम् । कथं प्रत्याचक्षीतेत्यत श्राह । न मम कल्पते तादृशं परिशाटनावत्समयोक्तदोषप्रसङ्गात् । दोषांश्च जावं च ज्ञात्वा कथयेद् मधु बिन्दूदाहरणादिनेति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ संमद्दमाणी पापाणि. बीयाणि दरियाणि ॥ संजमकरिं नच्चा, तारिसिं परिवजए ॥ २० ॥ ( अवचूरिः ) संमर्दयन्ती पद्धयां प्राणान्, बीजानि, हरितानि च असंयमकरी साधु निमित्तमसंयमकरणशीलां ज्ञात्वा तादृशीं परिवर्जयेत् ॥ २५ ॥ For Private Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २६ए (अर्थ.) संमद्दमाणित्ति. वली जे निदा आपनारी श्राविका (पाणाणि के०) प्राणिनः एटले बेंजियादिक जीव प्रत्ये तथा (बीआणि के० ) बीजानि एटले शातिप्रमुख बीज प्रत्ये, तथा (अ के०) च एटले वली (हरियाणि के० ) हरितानि एटले दूर्वा प्रमुख हरित जीव प्रत्ये (संमद्दमाणी के० ) संमर्दयंती एटले संमर्दन करती, पगें चांपती आवे, तो (असंजमकरिं के०) असंयमकरी एटले पूर्वोक्त रीतें साधुने माटे असंयम ते जीवहिंसा विगेरे तेने करी एटले करनारी एवी श्राविकाने ( नच्चा के० ) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( तारिसिं के० ) तादृशीं एटले तेवं सदोष अन्नपान आपनारी श्राविकाने साधु (परिवजाए के०) परिवर्जयेत् एटले परिहरे अर्थात् तेवू श्रन्नपान से नहीं. ॥ २ ॥ (दीपिका.) संमर्दयन्ती पनियां समाक्रामन्तीं । कानित्यत आह । प्राणिनो छोन्धि यादीन्, बीजानि शालिबीजादी नि, हरितानि दूर्वादीनि असंयमकरी साधुनिमित्तमसंयमकरणशीलां ज्ञात्वा तादृशीं परिवर्जयेत् ददतीं प्रत्याचदीतेति ॥ ए॥ (टीका.) किंच संमदत्ति सूत्रम् । संमर्दयन्ती पनियां समानामन्ती। कानित्याह । प्राणिनो हीन्जियादीन्, बीजानि शाट्यादीनि, हरितानि दूर्वादीनि । असंयमकरी साधुनिमित्तमसंयमकरणशीलां ज्ञात्वा तादृशीं परिवर्जयेत् । ददतीं प्रत्याचदीत इति सूत्रार्थः ॥ श्ए॥ साहट्ट निस्किविता णं, सचित्तं घहियाणि य॥ तदेव समणहाए, उदगं संपपुल्लिया ॥३०॥ (अवचूरिः) संहृत्यान्यस्मिन् नाजने ददातीति। तथा फासुए फासुझं, फासुए अफासुग्रं, अफासुए फासुरं, अफासुए अफासुझं साहरश् । तब जं फासुए फासुझं साहर तं थेवे थेवं, थेवे बहुअं, बहुए थेवं,बहुए बहुरं साहर। एवमादि यथापिएमनिर्युक्तौ तथा ज्ञेयम् । सचित्तोपरि निक्षिप्य नाजनगतमदेयं षड्जीवनिकायेषु ददाति । सचित्तं पृथ्व्यादि संघट्टयित्वा संचाल्य च ददाति । तथैव श्रमणार्थमुदकं संप्रणुद्य नाजनस्थं प्रेरयित्वा दत्ते ॥ ३० ॥ (अर्थ.) साहढ इति. (साहह के०) संहृत्य एटले अचित्त वस्तु होय तो पण सचित्तनी साथे एकठी करी तथा (निरिकवित्ताणं के०) निक्षिप्य एटले रहेली अदेयवस्तु षड्जीवनिकाय उपर मूकीने (य के) च एटले वली ( सचित्तं के० ) सचित्त अंगारादि प्रत्ये (घट्टियाणि के०) घट्टयित्वा एटले संघट्टीने हलावीने (तहेव Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. के०) तथैव एटले तेमज वली ( समणघाए के) श्रमणार्थं एटले साधुने अर्थे (उदगं के०) उदकं एटले जदक प्रत्ये (संपणुविथ के०) संप्रणुद्य एटले पात्रमांनुं सचित्त उदक हलावीने अन्नपान आपनारी श्राविकाने साधु परिहरे, वर्जे, अर्थात् तेवं अन्नपान लिये नहीं. अहीं एक नाजनयी काढीने वीजा नाजनमां घालीने दिये. तेना नांगा , ते एवी रीतेः-फासुए फासुझं साहर १ अफासुए फासुझं साहर २ फासुए अफासुरं साहर३ अफासुए अफासुझं साहर ४ तथा थेवे थेवं १, थेवे बहुशं , बहुए थेवं ३, बहुए बहुअं ४ एवा चार चार नांगा जाणवा. ॥ ३० ॥ (दीपिका.) संहृत्य अन्यस्मिन् नाजने ददाति । तथा अदेयं नाजनगतं षम्जीवनिकायेषु निक्षिप्य ददाति । तथा सचित्तमलातपुष्पादि घट्टयित्वा संचाट्य च ददाति । तथैव श्रमणार्थ यतिनिमित्तमुदकं पानीयं संप्रणुद्य नाजनस्थं प्रेर्य ददाति । तदा साधुः किं करोति तद्विधि अग्रगाथायां वक्ष्यति ॥ ३० ॥ (टीका. ) तथा साहढत्ति सूत्रम् । संहृत्यान्यस्मिन् नाजने ददाति तं फासुगमवि वजाए। तब फासुए फासुयं साहर। फासुए अफासुग्रं साहरश् । अफासुए फासुयं साहरश् । अफासुए अफासुअं साहर। तब जं फासुझं फासुए साहर तब वि थेवे थेवं साहराथेवे बहुयं साहर।बहुए थेवं साहर। बहुए बहुरं साहर । एवमादि यथा पिण्मनिर्युक्तौ। तथा निक्षिप्य नाजनगतमदेयं षट्सु जीवनिकायेषु ददाति । सचि. त्तमलातपुष्पादि घट्टयित्वा संचाल्य च ददाति । तथैव श्रमणार्थं प्रव्रजितनिमित्तमुदकं संप्रणुद्य नाजनस्थं प्रेयं ददातीति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ अागहश्त्ता चलश्त्ता, आहारे पाणनोअणं॥ दितिअंपडिआइके, न मे कप्प तारिसं॥३१॥ (अवचूरिः) वर्षासु गृहाङ्गण स्थितं जलमवगाह्य उदकमेवात्मनोऽनिमुखमाकृष्य चालयित्वोदकमेव थाहारदायिनी दद्यात् । पूर्व सचित्तादानेऽप्युदकादानं प्राधान्येनोक्तम् । तत्रावश्यमनन्तवनस्पतित्वात्प्राधान्यमुदकस्य ॥३१॥ (अर्थ.) तथा आगहश्त्ता इति । साधुने उहोरावनारी श्राविका (आगहश्त्ता • के०) अवगाह्य एटले विचाले सञ्चित्त पाणी नरायुं होय तेमांहे पेसीने अथवा (चलश्त्ता के०) चालयित्वा एटले आधु पाडं काढीने (पाणलोअणं के०) पाननोजनं एटले पान ते उसामण प्रमुख अने नोजन तेश्रोदन प्रमुख प्रत्ये (आहारे के०) श्राहरेत् एटले साधुने थाहार आपे, तो ते (दितिअं के० ) ददतीं एटले पूर्वोक्त उहो Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २७१ रावनारी स्त्री प्रत्ये गोचरीए गयेलो साधु ( पडियारके के० ) प्रत्याचक्षीत एटले प्रतिषेधे, परिहरे. ते केवीरीते प्रतिषेधे ते कहे बे. ( न मे कप्पइ तारिसं के० ) न मे कल्पते तादृशं एटले महारें तेवुं सदोष अन्नपान खपतुं नथी. ॥ ३१ ॥ ( दीपिका. ) तथा वर्षासु गृहाङ्गण स्थितं जलमवगाह्य उदकमेव श्रात्मनोऽनिमुखमाकृष्य करादिनिः चालयित्वा उदकमेव ददाति । उदके नियमादनन्तवनस्पतिरिति प्राधान्यख्यापनार्थं सचित्तं घट्टत्ताणं इत्युक्तेऽपि भेदेनोपादानम् । अस्ति चायं न्यायः । यडुत सामान्यग्रहणेऽपि प्राधान्यख्यापनार्थं भेदेनोपादानम् । यथा ब्राह्मणा श्रयाता वशिष्ठोऽप्यायात इति । ततश्च उदकं चालयित्वा श्राहरेत् आनीय दद्यात् । किं तदित्याह । पाननोजनमोदनारनालादि । तदिवंभूतं ददतीं प्रत्याचक्षीत । न मे मम कपते तादृशम् ॥ ३१ ॥ ( टीका. ) गहत्ता सूत्रम् । तथा चावगाह्य उदकमेवात्मा जिमुखमाकृष्य ददाति वर्षासु गृहाङ्गणादिनिहितं जलं स्वानिमुखं कृत्वा दत्ते । तथा चालयित्वा उदकमेव ददाति । उदके नियमादनन्तवनस्पतिरिति प्राधान्यख्यापनार्थं सचित्तं घयित्वेत्युक्तेऽपि नेदेनोपादानम् । अस्ति चायं न्यायो यडुत सामान्यग्रहणेऽपि प्राधान्यख्यापनार्थं भेदेनोपादानम् । यथा ब्राह्मणा श्रयाता वशिष्ठोऽप्यायात इति । ततश्चोदकं चालयित्वा याहरेदानीय दद्यादित्यर्थः । किं तदित्याह । पानजोजन मोदनारनालादि । तदितां ददत प्रत्याचक्षीत निराकुर्यान्न मम कल्पते तादृशमिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ३१ पुरेकम्मेण दत्रेण, दवीए जायषेण वा ॥ 1 दितियं पडिप्राइके, न मे कप्पर तारिसं ॥ ३२ ॥ ( यवचूरिः ) पुरः कर्मणा हस्तेन प्राकृतजलोज्जनव्यापारेण साध्वर्थं दय कोवसदृशया । जाजनेन वा कांस्यजाजनादिना ॥ ३२ ॥ ( अर्थ. ) पुरेकम्मेण त्ति ( पुरेकम्मेण के० ) पुरः कर्मणा पटले साधुने बहोराववा माटे प्रथम धोइ नाखेला एवा ( हवेण के० ) हस्तेन एटले हाथे करी ( वा के० ) rar (ale ho ) दर्व्या एटले कडबीए करी किंवा ( जायणे वा के० ) जाजन वाटले वामकी प्रमुख जाजने करी ( दिंतियं के० ) ददतीं एटले वहोरावनारी स्त्री प्रत्ये गोचरी गएलो साधु (पडियाइके के० ) प्रत्याचक्षीत एटले प्रतिषेधे, परिहरे. केवी रीते प्रतिषेध करे, ते कहे बे. ( न मे कप्पइ तारिसं के० ) महारें तेनुं सदोष अन्न कल्पे नहि एम कहे. ॥ ३२ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दिपिका.) पुरः कर्मणा हस्तेन साधुनिमित्तं पूर्व कृतसचित्तपानीयत्यजनव्यापारेण, तथा दा डोवसदृशया, नाजनेन वा कांस्यजाजनादिना ददतीं प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशम् ॥ ३ ॥ ( टीका.) पुरे कम्मत्ति सूत्रम् । पुरःकर्मणा हस्तेन साधुनिमित्तं प्राकृतजलोसनव्यापारेण तथा दा डोषसदृशया नाजनेन वा कांस्यनाजनादिना ददती प्रत्याचदीत प्रतिषेधयेत् । न मम कल्पते तादृशमिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ (एव) नदनले ससिणि, ससरके महिानसे ॥ हरिाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥३३॥ (अवचूरिः) एवमुदकाःण गलदिन्छना हस्तेन सस्निग्धेन ईषक्लिन्नेन, सरजस्केन सचित्तमृषिमतेन । मृगतेन सकर्दमेन । एवं नूषादिष्वपि योज्यम् । ऊषःपांशुकारः । हरिताल हिंगुलमनःशिलाः पार्थिवा नेदाः।अञ्जनादि । लवणं सामुसादि॥३३॥ (अर्थ.) एवमिति ( एवं के० ) एमज वली ( उदनखे के ) उदकाःण एटले उदकेकरी आई ते जीना एवा एटले जेमांथी पाणीना बिछ गलता होय एवा, अथवा (ससिणिके के०) सस्निग्धेन एटले पाणीमां नीजायलो खरो, पण जेमांथी पाणीना बिंदु गलता नथी एवा, किंवा ( ससरके के०) सरजरकेन एटले पृथिवीनी सचित्त धूलिए करी युक्त एवा अथवा (महिषासे के०) मृत्तिकोषाच्यां एटले माटी अथवा दारे करी युक्त एवा. अहीं मृत्तिका पंकरूप लेवी, कारण के पूर्वे ' सरज स्केन' एम जे कयु बे, तेनी साथे पुनरुक्ति दोष आवे नहीं. तथा ( हरिआले के ) हरितालेन एटले हरिताले करी, (हिंगलए के०) हिंगुलेन एटले सचित्त हिंगुले करी, (मणोसिला अंजणे के० ) मनःशिलांजनाच्यां एटले मणसील अने अंजन जे सूरमो तेणेकरी, (लोणे के०) लवणेन एटले सचित्त लवणे करी. ॥ ३३ ॥ (दीपिका.) पुनरप्येवमुदकाःण गलत्पानीयबिन्ज्युक्तेन हस्तेन एवं सस्निग्धेन ईषत्पानीययुक्तेन हस्तेन २ एवं सरजस्केन पृथिवीरजोवगुणिमतेन हस्तेन ३ एवं मृगतेन कर्दमयुक्तेन हस्तेन ४ एवं ऊषः पांशुदारस्तद्युक्तेन हस्तेन तथा हरितालहिंगुलकमनःशिला एते सर्वे पार्थिवा वर्णकन्नेदाः।अञ्जनं रसाञ्जनादि। लवणं सामुदादि। ततो हरितालादियुक्तेन हस्तेन ॥ ३३ ॥ ___(टीका.) एवंति सूत्रम् । एवमुदकार्येण हस्तेन करेण उदकाओं नाम गलउदकबिन्ज्युक्तः। एवं सस्निग्धेन हस्तेन । सस्निग्धो नाम ईषदुदकयुक्तः। एवं सरजस्केन Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २७३ हस्तेन । सरजस्को नाम पृथिवीरजोगुतिः । एवं मृतेन हस्तेन । मृतो नाम कर्द - माक्तः । एवमूषादिष्वपि योजनीयम् । एतावन्त्येवैतानि सूत्राणि । नवरमूषः पांशुकारः । हरिहरिताल हिङ्गुलक मनः शिलाः पार्थिवा वर्णकनेदाः। श्रञ्जनं रसाञ्जनादि । लवणं सामुद्रादि ॥ ३३ ॥ गेरुच्प्रवन्निप्रसेढिप्र- सोरठि पिठकुकुसकए ॥ किमसंसठे, संसठे चैव बोधवे ॥ ३४ ॥ ( अवचूरिः ) गैरिको धातुः । वर्णिका पीतमृत्तिका । सेटिका खटिका । सौराष्ट्रिका तुवरिका । पिष्टमामतन्डुलकोदः । कुकुसाः प्रतीताः । कृतेनेति एजिः कृतेन । हस्तेनेति गम्यते । उत्कृष्टशब्देन कालिङ्गालाबुत्रपुसफलादीनां शस्त्रकृतानि श्लक्ष्णखानि जयन्ते । चिञ्चिणिका दिपत्रसमुदाय उलूखलकति इति वा । श्रसंसृष्टो व्यअनादिना लिप्तः । तद्विपरीतश्च संसृष्ट एव बोद्धव्यो हस्तः ॥ ३४ ॥ I A ( अर्थ. ) तथा ( गेरुवन्नियसे दिसोर डिपिकुकुसकए के० ) गैरिकवर्णिका से टिकासौराष्ट्रका पिष्टकुकुसकृतेन एटले गैरिक ते सोनागेरु, वर्णिका ते पीली माटी, सेटिका ते श्वेत मृत्तिका जेने खडी तथा चाक कहे बे, सौराष्ट्रका ते फटकडी, पिष्ट ते चोखा वगेरेनो आटो, कुकुस ते तुरतना खांड्या कूशका एमांथी एकपण पदार्थे करी खरड्या एवा हाथे करी ( उमिसंठे के० ) उत्कृष्टा - संसृष्टे एटले उत्कृष्ट जे तुंबडां कालिंगडादिक मोटां फल तेना शाक, व्यंजनादिके करी नहीं खरड्यो एवो हाथ तथा ( संसठे चेव के० ) संसृष्टश्चैव एटले व्यंजनादिके करी खरड्यो हाथ ( बोधवो के० ) बोद्धव्यः एटले जाणवो. एथी उपरांतनो विधि ागल कहे . ॥ २४ ॥ ( दीपिका . ) तथा गैरिको धातुः, वर्णिका पीतमृत्तिका, सेटिका खटिका, सौराष्ट्रका तुवरिका, पिष्टमामतन्डुलकोदः, कुकुसाः प्रतीताः । कृतेनेति एनिः कृतेन एज्यः खरं टितेन । हस्तेनेति शेषः । तथा उत्कृष्ट इति । उत्कृष्टशब्देन का लिङ्गलाबुत्रपुसफलादीनां शस्त्रकृतानि श्लक्ष्णखएकानि जायन्ते । चिञ्चिणिकादिपत्रसमुदायो वा उदूखलकति इति । तथा असंसृष्टो व्यञ्जनादिना लिप्तः । संसृष्टश्चैवं व्यञ्जनादिना लिप्तो बोद्धव्यो हस्त इति । विधिं पुनरत्रोर्ध्वं स्वयमेव वक्ष्यतीति ॥ ३४ ॥ ( टीका . ) तथा गेरुप्रति सूत्रम् । गैरिको धातुः । वर्णिका पीता मृत्तिका । श्वेतिका शुक्तमृत्तिका । सौराष्ट्रका तुवरिका । पिष्टमामत कुल क्षोदः । कुकुसाः प्रतीताः । कृतेनेति एनिः कृतेन । हस्तेनेति गम्यते । तथोत्कृष्ट इत्युत्कृष्टशब्देन का लिङ्गालाबुत्रपुषफला ३५ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा. दीनां शस्त्रकृतानि श्लदणखएमानि जण्यन्ते । चिञ्चिणिकादिपत्रसमुदायो वा उदूखलकमित इति । तथा असंसृष्टो व्यञ्जनादिना अलिप्तः । संसृष्टश्चैव व्यञ्जनादिलिप्तो बोहव्यो हस्त इति । विधि पुनरत्रोई वदयति स्वयमेवेति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ असंसहेण हबेण, दवीए नायणेण वा॥ दिङमाणं न इबिजा, पढा कम्मं जहिं नवे ॥३॥ (अवचूरिः) असंसृष्टेन हस्तेनान्नादिमिरनालिप्तेन, दा, जाजनेन वा दीयमानं नेछेत् । किं सामान्येन । नेत्याह । पश्चात्कर्म यत्र नवति दादौ । शुष्कमएमकादि तदन्यदोषरहितं गृह्णीयात् ॥ ३५॥ (अर्थ.) असंसणेति। (असंसहेण के ) असंस्कृष्टेन एटले अणखरड्या एवा (हबेण के०) हस्तेन एटले हाथेकरी (वा के०) अथवा (दवीए के०)दा एटले कडबीए करी किंवा (जायणेण के०) नाजनेन एटले वाडकी प्रमुख नाजनेकरी (दिङमाणं के०) दीयमानं एटले आपेढुं एवं जे अन्नपान ते प्रत्ये (न इबिजा के०) नेठेत् एटले वां नही. केवं होय तो वां नहीं, ते कहे . ( जहिं के० ) यत्र एटले जे वेकाणे (पछाकम्मं के०) पश्चात्कर्म एटले नोजन कस्या पठी जे कर्म सचित्त पाणीए करी हस्त, कडबी प्रमुख धोबुं तेने पश्चात्कर्म कहिये. ते पश्चात्कर्म (जवे के०) नवेत् एटले होय तो लेवं कल्पे नहि. अर्थात् ज्यां पश्चात्कर्म न लागे ते रोटली निर्दोष होय तो कल्पे. संसृष्ट असंसृष्ट उपर आठ नांगा थाय जे तेनुं कोष्टक. (भंगसंख्या.)( हाथ.)(कडछी.)(द्रव्य.) १ । १ १ । १ Isls २:-नीचेना कोष्टकमां (१) ए खरडेलानी तथा सावशेषनी अने (s) एवी निशाणी अणखरडेलानी तथा निरवशेषनी समजवी. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । अन्ने करी लिप्त हाथ, कडबी अने वासण होय, श्रापवानुं श्रोदनादि अव्य पण सावशेष होय, एटले साधुने आपीने शेष थालीमां रडं होय तोप्रथम नांगोथाय.(१) हाथ तथा वासण अन्नेकरी लिप्त होय, अने थालीमां शेष अव्य कांश न रडं होय, तो बीजो नांगोथाय.(२)हाथ अन्नेकरी लिप्त होय, थाली अलिप्त होय, अने ओदनादि अव्य साधुने श्रापीने शेष बाकी रह्यु होय, तो त्रीजो नांगो थाय. (३)हाथ अन्नेकरी लिप्त होय, वासण लिप्त न होय, अने ओदनादि अव्य जो साधुने श्रापीने अवशेष न रहे, तो चोथो नांगो थाय. (४) अन्नेकरी हाथ लिप्त न होय, वासण लिप्त होय, अने साधुने थापीने अवशेष अन्न रडुंहोय तो पांचमो नांगो थाय.(५)अन्नेकरी हाथ लिप्त न होय, कडबी अने वासण लिप्त होय, अने साधुने थापतां अवशेष कांश न रहे, तो हो नांगो थाय. (६) हाथ अन्ने करी लिप्त न होय, वासण लिप्त न होय, अने साधुने अापतां जो अवशेष रहे, तोसातमो नांगो थाय.(७) तथा अन्नेकरी हाथ, कडबी तथा वासण लिप्त न होय, अने साधुने थापतां अवशेष अव्य रह्यु न होय तो श्राठमो नांगो थाय. (७) तेमां पहेलो नांगो सर्वथा शुरू, बेल्लो सर्वथा अशुफ, श्रने बीजा सर्व मध्यम जाणवा. ॥ ३५॥ (दीपिका.) श्राद च । असंसृष्टेन हस्तेन अन्नादिजिरलिप्तेन तथा दा नाजनेन वा दीयमानं नेछेद् न गृह्णीयात् । किं सामान्येन । नेत्याह । पश्चात्कर्म यत्र नवति दादौ, शुष्कमएमकादि तदन्यदोषरहितं गृह्णीयादिति ॥३५॥ (टीका.) थाह च। असंण त्ति सूत्रम् । असंसृष्टेन हस्तेन अन्नादिनिरलिप्तेन दा नाजनेन वा दीयमानं नेछेत् । किं सामान्येन । नेत्याह । पश्चात्कर्म भवति यत्र दादौ । शुष्कमएकादिवत् तदन्यदोषरहितं गृहीयादिति सूत्रार्थः ॥ ३५॥ संसहेण य दबेण, दवीए नायणेण वा ॥ दिङमाणं पमिचिजा, जं तसणियं नवे ॥ ३६॥ (अवचूरिः) संसृष्टेन हस्तेन प्रतीछेण्डीयात्।यदेषणीयं भवति। अत्र वृक्षोक्तिः। संसहे हले संसहे मत्ते सावसेसे दवे। संसह संसहे मत्ते निरवसेसे दवे । श्च्चारणो जंगा। एक पढमनंगो सबुत्तमो अमेसु वि जब सावसेसं दवं तब धिप्पश् ण श्यरेसु पछाकम्मदोसाउ त्ति ॥ ३६॥ (अर्थ.) संसरणत्ति । गोचरीए गएलो साधु ( संसरण होण के०) संसृष्टेन हस्तेन एटले अन्नादिके करी लिप्त एवा हाथे करी (वा के०) अथवा (दवीए के०) Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. दा एटले कडली अथवा चाटुळ तेणे करी किंवा ( जायणेण के० ) नाजनेन ए. टले थाली प्रमुख पात्रे करी (दिङमाणं के०) दीयमानं एटले श्रापेला एवा अन्नपानने (पडिछेजा के० ) प्रतीत् एटले ग्रहण करे. के, होय तो ग्रहण करे ते कहे . ( जं के०) यत् एटले जे ( तब के ) तत्र एटले साधु ज्यां गोचरीए गयो होय त्यांअथवा साधुने वोहोराववा सारु जे अन्नपान थाण्युं होय, तेमां ( एसणीयं के) एषणीयं एटले सूक्तुं एवं ( नवे के० ) नवेत् एटले होय, ते ग्रहण करे. ॥ ३६ ॥ ___(दीपिका. ) संसृष्टेन हस्तेन अन्नादिलिप्तेन तथा दा नाजनेन वा दीयमानं प्रती. मृण्हीयात्।कि सामान्येन।नेत्याह।यत्तत्र एषणीयं जवति तदन्यदोषरहितमित्यर्थः॥३६ (टीका, ) संसरण त्तिसूत्रम्।संसृष्टेन हस्तेनान्नादिलिप्तेन तथा दा जाजनेन वा दीयमानं प्रतीगृह्णीयात्। किं सामान्येन।नेत्याह । यत्तत्रैषणीयं जवति। तदन्यदोषरहितमित्यर्थः । श्ह च वृक्षसंप्रदायः। संसठे हले संसहे मत्ते सावसेसे दवे । संसहे हठे संसठे मत्ते हिरवसेसे दवे । एवं अह नंगा।एब पढमन्नंगो सवुत्तमो। अन्नेसु वि जब सावसेसं दवं तब घिप्पश् । ण श्यरेसु । पछाकम्मदोसाउ त्ति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ - एहं तु मुंजमाणाणं, एगो त निमंतए॥ दिङमाणं न इबिज्जा, बंद से पडिलेदए ॥३७॥ (अवचूरिः) एकवस्तुनायकयोईयोर्जुञ्जतोरेको निमन्त्रयेत् । बंद से तस्यानिप्रायं प्रत्युपेदेत नेत्रवनविकारैः। किमस्य दीयमानमिष्टं नवेति ॥ ३७॥ (अर्थ.)पुण्हंतु इति । (कुण्हं के०) योः एटले बेजण (जुंजमाणाणं के०)जुञ्जानयोः एटले एक वस्तुना मालिक नोजन करतां बतां (तब के०) तत्र एटले तेमा( एगो के०) एकः एटले एकज वहोरवा आवेला साधुने वहोराववा सारु(निमंतए के०)निमंत्रयेत् एटले निमंत्रे, अने बीजो निमंत्रे नहीं अर्थात् बेमांथी एक कहे वो वहोरो, अने बीजो कांज बोले नहीं तो एवी रीते ( दिङमाणं के०) दीयमानं एटले श्रपाता एवा अन्नपानने (न श्छेजा के०) नेछेत् एटले ते साधु वांडे नहीं, लिये नहीं. तो त्यां शुं करे ते कहे . ( से के० ) तस्य एटले ते बेमांथी जे कांश बोल्यो नहीं तेना (बंदं के० ) अनिप्राय प्रत्ये (पडिलेहए के० ) प्रत्युपेदेत एटले प्रतिलेखे, तेनी वाट जुवे. एटले ते पुरुषना मुख नेत्रादि विकारथी कल्पना करे, के मने वहोरावे जे ते एने इष्ट डे के नथी. नेत्रादिकथी इष्ट डे एम जो जणाय, तो आपेयं लिये, नहीं तो लिये नहीं. ॥३॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । งงง ( दीपिका . ) किं च द्वयोर्मुअतोः पालनं कुर्वतोः एकस्य वस्तुनो नायकयो रित्यर्थः। एकस्तत्र निमन्त्रयेत् तद्दानं प्रत्यामन्त्रयेत् । तदीयमानं नेछेडुत्सर्गतः । अपितु बन्द - मजिप्रायं से तस्य द्वितीयस्य प्रत्युपेदेत नेत्रवत्र विकारैः । किमस्येदं दीयमानमिष्टं वेति । इष्टं च गृहीयात् नो चेन्नेति । एवं जुञ्जानयोरज्यवहार उद्यतयोरपि योजनीयम् । यतो जुजिधातुः पालनेऽन्यवहारे च वर्तत इति ॥ ३७ ॥ ( टीका. ) डुएहं ति सूत्रम् । द्वयोर्भुञ्जतोः पालनां कुर्वतोरेकस्य वस्तुनः स्वामिनोरित्यर्थः । एकस्तत्र निमन्त्रयेत्तद्दानं प्रत्यामन्त्रयेत्तदीयमानं नेच्छेदुत्सर्गतः । अपितु बन्दमजिप्रायं से तस्य द्वितीयस्य प्रत्युपेदेत नेत्रवत्रादिविकारैः । किमस्येदमिष्टं दीयमानं नवेति । इष्टं चेमृहीयान्न चेन्नैवेति । एवं भुञ्जानयोरन्यवहारोद्यतयोरपि योजनीयम् । यतो जुजिः पालनेऽज्यवहारे च वर्तत इति सूत्रार्थः ॥ ३७ ॥ एहं तु मुंजमाणाणं, दो वि तब निमंतर ॥ दिऊमाणं पडिचिका, जं तबेसणियं नवे ॥ ३८ ॥ ( अवचूरिः ) मुञ्जतोर्जुनयोर्वा द्वावपि निमन्त्रयेयाताम् । दीयमानं प्रतीछे - एहीयात् । यदेषणीयं जवेत् ॥ ३८ ॥ ( अर्थ. ) तथा डुहं इति. ( डुए के० ) द्वयोः एटले बन्ने जण (गुंजमाणाणं के० ) गुंजानयोः एटले एक वस्तुना धणी बतां अथवा जोजन करतां बतां, (तब के० ) तिहां ( दो विके० ) द्वावपि एटले ते वे जण पण ( निमंतर के० ) निमंत्रयेताम् एटले देवा सारु निमंत्रे, तो ( दिऊमाणं के० ) दीयमानं एटले ते पाता अन्नपानने ( पडछेका के० ) प्रतिगृहीयात् एटले ग्रहण करे, लिये. ( जं के० ) यत् एटले जे ( na ho) तत्र एटले तिहां (एस एयं के०) एषणीयं एटले प्रासुक सूक्तुं एवं (जवे के० ) जवेत् एटले होय. अर्थात् जो बीजा कांइ पण दोष नहीं होय तो लिये. ॥ ३८ ॥ ( दीपिका. ) तथा द्वयोस्तु पूर्ववतोर्जुजानयोर्द्वावपि तत्रातिप्रसादेन निमन्त्रयेयाताम् । तत्रायं विधिः । दीयमानं प्रतीकृहीयात् यत्तत्रेषणीयं जवेत्तदन्यदोपरहितमिति ॥ ३८ ॥ ( टीका. ) ततो डुएहं ति सूत्रम् । द्वयोस्तु पूर्ववत् अतोर्भुञ्जानयोर्वा द्वावपि तत्रातिप्रसादेन निमन्त्रयेयाताम् । तत्रायं विधिः । दीयमानं प्रतीछे रही यात् । यत्तत्रैपणीयं जवेत्तदन्यदोषरहितमिति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ राय धनपतसिंघबहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. सुविणीए नवमलं, विविहं पाणनोअणं ॥ मुंजमाणं विवङिजा, नुत्तसेसं पडिबए ॥३॥ (अवचूरिः) विशेषमाह । गुर्विण्या गर्नवत्या उपन्यस्तमुपकल्पितं विविधमनेकप्रकारं नुज्यमानं तया विवर्जयेत् । मा नूत्तस्या अल्पत्वेनेडानिवृत्त्या गर्भपातादिदोषः। अतो जुक्तशेषं जुक्तोछरितं प्रतीछेत् ॥३ए॥ (अर्थ.) हवे विशेषविधि कहे . गुविणीए इति. वली ते गोचरीए गएलो साधु (गुविणीए के०) गुर्विण्या एटले गर्भवती स्त्रीए (उवमनं के०) उपन्यस्तं एटले तैयार करेलुं एवं ( विविहं के ) विविधं एटले घणा प्रकारचं (मुंजमाणं के०) जुज्यमानं एटले ते गर्जिणीए पोताने खावा सारु लीधुं एवं (पाणलोअणं के० ) पानजोजनं एटले पान ते प्रादापानकादि अने नोजन ते श्रोदनादि ते प्रत्ये ( विवङिजा के० ) विवर्जयेत् एटले विशेषे करी वर्जे. कारण के, तेम करे तो कदाचित् गर्जिणीने श्रोडो आहार होवाथी वा पूर्ण न थवाने लीधे कदाचित् गर्नपातादि दोष उपजे, अने तेने अंशतः कारण साधु थाय, माटे तेवुअन्नपान लिये नहीं. (जुत्तसेसं के) जुक्तशेषं एटले ते गर्जिणी जम्या पनी अवशेष रहेला अन्नपान प्रत्ये (पडिलए के०) प्रतीछेत् एटले ग्रहण करे, लिये. ॥ ३५॥ (दीपिका.) विधिविशेषमाह गुर्विण्या गर्जवत्या उपन्यस्तमुपकल्पितम्। किं तदित्याह । विविधमनेकप्रकारं पाननोजनं जादापानखएकखाद्यादि तत्र नुज्यमानं तया विवर्जयेत् । मानवतु तस्य नोजनग्रहणेऽत्पत्वेन तस्या अनिवृत्तिः। शनिवृत्तौ च गर्नपातदोषः स्यात् । अथ च जुक्तशेषं जुक्तोमरितं तु प्रतीछेत् । यत्र पानजोजने तस्या अजिलाषो निवृत्तो नवेत् ॥ ३ ॥ (टीका.) विशेषमाह । गुविणीए ति सूत्रम् । गुर्विण्या गर्नवत्या उपन्यस्तमुपकल्पितम् । किं तदित्याह । विविधमनेकप्रकारं पाननोजनं सादापानखएखाद्यकादि । तत्र नुज्यमानं तया विवय॑म् । मा जूत्तस्या अल्पत्वेनानिलाषानिवृत्त्या गर्नपतनादिदोष इति । जुक्तशेषं नुक्तोछरितं प्रतीछेद्यत्र तस्या निवृत्तोऽजिलाष इति सूत्रार्थः ॥ ३५॥ सिधा य समाए, गुश्विणी कालमासिणी॥ नहिआ वा निसीइजा, निसन्ना वा पुणुंहए ॥ ४० ॥ (अवचूरिः) स्यात् कदाचित् श्रमणार्थं गर्विणी कालमासवती । गर्भाधानानवम Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैका लिके पञ्चमाध्ययनम् । হত मासवतीत्यर्थः । उचिता ऊर्ध्वस्था सती दानाय वा निषीदेत् । निषणा वा पुनरुतिष्ठेत् ॥ ४० ॥ (अर्थ) सिया इति. ( कालमा सिणी के० ) कालमा सिनी एटले जेमां प्रसूति थाय बे एवो नवमो मास जेने बे एवी ( गुब्विणी के० ) गुर्विणी एटले गर्भिणी स्त्री (सिया य के० ) स्याच्च एटले जो कदाचित् ( समणडाए के० ) श्रमणार्थं एटले साधु ( उ ० ) उचिता एटले उजी होय तो साधुने हुं दान श्रपुं एवी बुद्धिथी ( निसी इका के० ) निषीदेत् एटले अन्नादिक लेवा माटे बेसे, ( वा के० ) अथवा ( निसमा के० ) निषमा एटले प्रथम बेठेली होय तो पढी साधुने अर्थे ( पुए के० ) पुनरुत्तिष्ठेत् एटले फरी ऊठे, अने साधुने वहोरावे. (तो ते न कल्पे ) ॥ ४० ॥ ( दीपिका . ) किंच, एवंविधा गुर्विणी स्त्री स्यात् कदाचित्र मणार्थं साधु निमित्तं साधवे दानं ददामीति बुद्धया उत्थिता सती नीषीदेत् । वाथवा निषला सती स्वकायव्यापारेण पुनरुत्तिष्ठेत् । तदा साधुस्तदीयहस्तादाहारं न गृह्णीयादिति । किं विशिष्टा गुर्विणी | कालमा सिणी कालमासवती । गर्भाधानान्नवममासवती त्यर्थः॥४०॥ ( टीका. ) किंच, सिया यत्ति सूत्रम् । स्याच्च कदाचिच्च श्रमणार्थं साधु निमित्तं गुर्विणी पूर्वोक्ता कालमासवती गर्भाधानान्नवममासवतीत्यर्थः । उचिता वा यथाकथंचिन्निषीदन्निषणा ददामीति साधु निमित्तम् । निषणा वा स्वव्यापारेण पुनरुत्तिष्ठेद् ददामीति साधु निमित्तमेवेति सूत्रार्थः ॥ ४० ॥ तं नवे त्तपाणं तु, संजयाण कपित्र्यं ॥ दिति पडिप्राइके, नमे कप्पर तारिसं ॥ ४१ ॥ (अवचूरिः) तद्भवेङ्गक्तपानं तु निषीदनोवानाज्यां दीयमानं संयतानामक स्पिकम् । स्थविरक पिकानाम निषीदनोष्ठानाच्यां यथावस्थितया दीयमानं कल्पिकम् | जिनकपिकानां तु श्रपन्नसत्त्वाद्य दिवसादारज्य सर्वथा दीयमानमक स्पिकमेव ॥ ४१ ॥ ( अर्थ. ) ( तं के० ) तत् एटले ते ( जत्तपाणं तु के० ) जक्तपानं तु एटले अन्नपान (संजयाणं के० ) संयतानां एटले संयमी साधुने ( कप्पिां के० ) कल्पिकं एटले लेवाने योग्य बे. (दितियं के० ) ददतीं एटले एवं सूतुं अन्नपान आपनारी श्रीविकाने ( पाइके के० ) प्रत्याचक्षीत एटले कहे के, ( न मे कप्पर तारिसं के० ) न मे कल्पते तादृशं एटले महारे तेवुं अन्नपान लेवुं कल्पे नहि. For Private Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. कारण के, ते नात पाणी गर्जिणी स्त्रीए बेसवाथी तथा ऊठवाथी दीधेलं साधुने अकल्पिक . अहीं एवो संप्रदाय डे के, जो ते गर्जिणी स्त्री साधुने वहोरावा माटे ऊठवू, बेसवु न करतां जेवी बेठी होय अथवा उन्नी होय तेवी रहीने वहोरावे, तो ते आहार स्थविरकल्पिक साधुने कल्पे, परंतु ते जिनकल्पी साधुने तो कल्पेज नहीं. जिनकल्पिक साधु तो जे दिवसे गर्न रहे ते दिवस मांमीने प्रसूति थाय त्यां सुधी गनिणीए वहोरावेलो आहार ग्रहण करे नहीं. कारण के, तेमनो एवोज आचार .॥४१॥ (दीपिका.) तादृशो दीयमान श्राहारः साधूनामकल्पिकः । अतस्तादृशमाहारं ददतीं च गुर्विणी प्रति साधु किंवदेत्तदाह । तन्नक्तपानं तु निषीदनेनोबानेन च दीयमानं संयतानां साधूनामकल्पिकं नवेदग्राह्यं स्यात् । इह च अयं संप्रदायः। यदि सा गुर्विणी निषीदनमुबानं च न करोति, यथावस्थिता च सती आहारं ददाति । तत्स्थ विरकल्पिकानां साधूनां कल्पते । जिनकल्पिकानां साधूनां तु न कल्पते । यतो जिनकल्पिकः प्रथम दिवसादारज्य गुर्विण्या दीयमानमाहारं न गृह्णातीति । यतश्चैवमाचारस्ततो गुर्विणी तादृशमाहारं दीयमानांप्रत्याचदीत वदेत् । किं वदेत् । तादृशं जक्तपानं मम न कल्पते ॥४१॥ ' (टीका.) तं नवे ति सूत्रम् । तनवेनक्तपानं तु तथा निषीदनोबानान्यां दीयमानं संयतानामकदिपकम् । श्ह च स्थविरकल्पिकानामनिषीदनोबानान्यां यथावस्थितया दीयमानं कल्पिकम् । जिनकल्पिकानां त्वापन्नसत्त्वया प्रथमदिवसादारन्य सर्वथा दीयमानमकल्पिकमेवेति संप्रदायः। यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमित्येतत्पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः॥ १॥ . थणगं पिङमाणी, दारगं वा कुमारिअं॥ तं निस्किवित्तु रोअंतं, आहारे पाणनोअणं ॥ ४॥ (अवचूरिः) स्तन्यं पाययन्ती दारकं कुमारिकां वा । वा जिन्नक्रमः। ततो नपुंसकं वा । तं निक्षिप्य रुदन्तं लूम्यादी आहरेदानयेत् पानजोजनम्। अत्रायं वृक्षसंप्रदायः। गछवासी जश् थणजीवी णि रिकत्तो तो न गिण्हारोवन वामा वा।अह अन्नं पिआ- . हारे। तो जश्ण रोवश्तो गिह । अह रोवति तो न गिह। अह अपिअंतो निकित्तो थणजीवी रोवर य तो न गिण्हंति । अह न रोवर तो गिण्हंति । गलनिग्गया पुण जाव य थणजीवी ताव रोवल वा मा वा पिअंतं वा अपिअंतं वा न गिण्हंति । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २०१ जानं पहारेजमाढत्तो जवइ । ताहे ज‍ पितरं रोवट वा मा वा । गिपित्र्यंत ज‍ रोवइ तो परिहरति । अरोविए गिति । सीसो श्राह । कोदोस । श्रारिया जयंति । तस्स निस्किप्पमाणस्स खरेहिं हवे हिं धिप्पमाणस थिरत्तणेण परितावणादोसो । मकाराइ वा अवहरेजत्ति ॥ ४२ ॥ हंति । 1 (अर्थ. ) तथा ( दारगं के० ) दारकं एटले बालकने ( वा के० ) अथवा ( कुमारिघं के० ) कुमारिकां एटले कुमारिकाने वाशब्दनुं ग्रहण करयुं वे माटे नपुंसकने ( थणगं के० ) स्तनकं स्तनने अर्थात् स्तनमाहेला दूधने ( पिऊमाणी के० ) पाययंती एटले पिवरावती थकी ( तं के० ) तत् एटले ते बालक, कुमारिका अथवा नपुंसकने (रोयं के० ) रुदंतं एटले रुदन करता एवा ( निरिक वित्तु के० ) निक्षिप्य एटले मूकीने साधुने ( पाणजोखणं के० ) पानजोजनं एटले अन्नपान ( आहारे के० ) हरेत् एटले वोहोरावे. तो ते न कल्पे वहीं एवो वृद्धसंप्रदाय ab, स्थविर कल्पी साधुनो याचार एवो बे. जे बालकनी स्तनना दूध उपरज श्रजीविका होय एटले जे अन्न खातो न होय एवा बालकने स्तनपान करतां मूकीने जो श्राविका वहोराववा आवे, तो ते आहार साधु लेता नथी. पती ते बालक रोतो होय, अथवा न रोतो होय ते कांइ जोता नथी. तथा जे बालक यन्ननो तथा स्तनना दूधनो पण आहार करे बे, एवा उजयजीवी पोताना बालकने मूकीने जो स्त्री अन्नपान वहोरावती होय, अने बालकपण मूकवाथी रमे नहीं, तो स्थविरकपीने ते अन्नपान कल्पे. पण ते बालकने मूकवाथी जो ते रुदन करे, तो ते अन्नपान न कल्पे. वली केवल स्तनना दूध उपरज जीवनारो बालक होय, पण साधुने वहोराववा ऊठती वखते ते स्तनपान करतो नहीं होय, तो तेवा पोताना बालकने मूकीने पण आपलं अन्नपान सूतुं होय तो ते स्थविरकल्पीने कल्पे. पण ते बालक वहो - रावनारी स्त्रीए मूकवाथी रुवे नहीं तो कल्पे, घने रुवे तो न कल्पे. जिनकल्पी - नो तो एवो आचार बे, के केवल माना दूधनो आहार लेनार बालकने मूकीने स्त्री वहोराववा ऊठे तो ते अन्नपान न कल्पे, पढी ते बालक मूकवानी वखते धावतो होय, अथवा रोतो होय के नहीं होय ते कां जोवानुं नथी. हां शिष्य पूबे के उपर कहेली रीते अन्नपान केम साधु लेता नथी ? तिहां थाचार्य कहे बेके, ते करवाथी दोष उपजे बे. ते केवा दोष तो के, कदाचित् कठोर हाथे त्यां मूकेला बालकने अस्थिरपणाथी परितापना उपजे, अथवा बिलाडी विगेरे घ्यावीने तेने उपद्रव करे. ॥ ४२ ॥ ३६ For Private Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्श राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) पुनः कथं न गृण्हीयादित्याह । एवंविधा स्त्री यदि पानजोजनमाहरेदद्यात्तदा साधुन गृण्हीयात् । किं कुर्वती दारकं बालकं, दारिकां च बालिका, वा शब्दान्नपुंसकं स्तनं पाययन्ती । किं कृत्वा । तदारकादि रुदत्सम्यादौ निक्षिप्य । अयमत्र संप्रदायः। गछवासी साधुर्यदि बालकादिः स्तनजीवी नवति । स्तनं च पिबन् वर्तते । स रुदन्नरुदन् वा नवतु । परं तं बालकादिकं जूम्यादौ निक्षिप्याहारं दद्यात्तदा नगृहीयात् । अथ बालकादिः स्तन्यं पिबति। अन्यन्नोजनमपि करोति । परं निक्षिप्पमाणोरोदिति । तदापि थाहारं दीयमानं न गृहीयात्। श्रथ नो रोदनं करोति। तदा गृएहीयात्। अथ स्तनजीवी वर्तते परं तत्समये निदिप्यमाणः स्तन्यपानं न कुर्वाणोऽस्ति। परं निक्षिप्यमाणो रोदनं करोति । तदापि स्त्रिया दीयमानमादारं नो गृण्हीयात् । श्रथ न कुर्वाणोऽस्ति तदा गृल्हीयात् । अथ अन्नमाहर्तुमारब्धोऽस्ति, परं स्तन्यं पिबन्नस्ति । तदा रोदनं करोतु वामा वा। साधुन गृण्हीयात् । अथापिबन्नपि यदि रोदिति तदापि न गृण्हीयात् । अत्र शिष्यः प्राह । एवमाहारग्रहणे को दोषः । गुरुराह। खरहस्तैर्बालकादेम्यादौ निदिप्यमाणस्य अस्थिरत्वेन परितापनादोषो नवेत्। मार्जारो वा तं बालादिकमपहरेत् ॥ ४२ ॥ (टीका.) किं च, थणगं ति सूत्रम् । स्तनं पाययन्ती। किमित्याह । दारकं वा कुमारिकाम् । वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः। अतएव नपुंसकं वा । तद्दारकादि निक्षिप्य रुदम्यादौ श्राहरेत्पाननोजनम् । अत्रायं वृक्षसंप्रदायः । गठवासी जश थणजीवी पिअंतो णिरिकतो तो न गिण्डंति। रोवन वा मा वा।अह अन्नं पि आहारे। तो जति ण रोवश्तो निण्हंति। अहरोवश्तोन गिण्हंति अह अपिअंतोणि रिकत्तो थणजीवी रोवर तण गिण्हति । श्रह ण रोवर तो गिण्हंति । गणिग्गया पुण जाव थणजीवी तावरोवन वामावा, पिबंत अपिबंत वाण गिण्हति । जाहे अन्नं पि आहारे बाढत्तो नवति। ताहेज पिबंत तो रोवन वा मा वा ण गेण्हंति।यह अपिबंत तोजश्रोवर तो परिहरंति । अरोविए गेण्हंति । सीसो आह । को तब दोसो छि। आयरि नण । तस्स णिरिकप्पमाणस्स खरेहिं होहिं घिप्पमाणस्स अथिरत्तणेण परितावणादोसा मजारादि वा अवहरेज त्ति सूत्रार्थः॥ ४२ ॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दिति पडिआइके, न मे कप्प३ तारिसं ॥४३॥ (अवचूरिः) तं नवे इत्यादि गाथा पूर्ववत् ॥ ४३ ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययनम् । १८३ ( अर्थ. ) ( तं जवे इत्यादि गायानो अर्थ पूर्ववत् जावो. तथापि तेनो नावार्थ हिं लखिये बियें. ) तेनुं असूतुं श्रन्नपान साधुने कल्पे नहीं. ॥ ४३ ॥ ( दीपिका. ) एवं दीयमानां स्त्रियं प्रति प्रत्याचक्षीत साधुः । किंवदे दित्याह । तनपानं तु पूर्वोक्तं संयतानामकल्पिकमकल्पनीयम् । यतः कारणादेवं ततो ददतीं स्त्रियं प्रति प्रत्याचक्षीत वदेत् । न मम कल्पते तादृशमिति ॥ ४३ ॥ ( टीका. ) तं जवे त्ति सूत्रम् । तद्भवेङ्गक्तपानं त्वनन्तरोदितं संयतानामक स्पिकम् । यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ ४३ ॥ जं नवे नत्तपाणं तु, कप्पाकप्पंमि संकियां ॥ दिति पडिप्राइके, न मे कप्पर तारिसं ॥ ४४ ॥ ( यवचूरि : ) यवेक्तपानं तु कल्पाकल्पविषये शङ्कितं न विद्मः किमिदमुमादिदोषयुक्तं किं वा नेत्याशङ्कास्पदीनूतम् । असति कल्पनिश्चये ददतीं प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशमिति ॥ ४४ ॥ ( अर्थ. ) जं जवे जत्तपाणं तु इति ( जं के० ) यत् एटले जे ( जत्तपाणं तु ho ) जक्तपानं तु एटले अन्नपान ( कप्पाकप्पंमि के० ) कल्पाकल्पे एटले कल्पे एवं बे के कल्पनीक बे, अर्थात् उगमादि दोषयुक्त बे, एवी ( संकि के० ) शं. कितं एटले शंका करी युक्त होय तो तेने ( दिंति के० ) ददतीं एटले आपनारी एव श्राविकाने (पडियाइके के० ) प्रत्याचक्षीत एटले ना कहे. केवी रीते ना कहे ते कहे . ( न मेकप्पइ तारिसं के० ) न मे कल्पते तादृशं एटले मने तेवुं - नपान कल्पे नहि, एम कहे . ॥ ४४ ॥ ( दीपिका . ) किंबहुना, उपदेशस्य सर्वरहस्यमाह । यक्तपानं तु कल्पकल्पयोः कल्पनीयाकल्पनीययोर्विषये शङ्कितं जवेद् न वयं विद्मः किमिदमुमादिदोषयुक्तं किंवा नेति शङ्कास्थानं स्यात् । तदिवंभूतं कल्पनीय निश्चयेऽजाते सति शनादि दीयमानां स्त्रियं प्रति साधुरिति प्रत्याचक्षीतेति वदेत् । किम् । न मम कल्पते तादृशमिति ॥ ४४ ॥ ( टीका. ) किं बहुनेत्युपदेशसर्वस्वमाह । जं जवे त्ति सूत्रम् । यद्भवेद्रक्तपानं तु कल्पाकल्पयोः कल्पनीया कल्पनीयधर्मविषय इत्यर्थः । किम् । शङ्कितं न विद्मः किमिदमुद्रमादिदोषयुक्तं किंवा नेत्याशङ्कास्पदी भूतम् । तदिबंभूतमसति कल्पनीयनिश्चये ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ ४४ ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. दगवारेण पिहिअं, नीसाए पीढएण वा॥ लोढेण वा विलेवेण, सिलेसेण वि केण ॥४५॥ (अवचूरिः) दकवारेणोदककुम्नेन, नीसाए निस्सारिकापेषण्या, पीकेन काष्ठपीगदिना, लोष्टकेन शिलापुत्रकेण, लेपेन मृद्धेपादिना, श्लेषेण वा केनचिऊतुसिक्था दिना पिहितम् ॥ ४५ ॥ (अर्थ.) वली केवो आहार न लेवो ते कहे जे. दगवारेण त्ति. ( दगवारेण के०) दकवारेण एटले पाणीना घडाए करी (पिहिश्र के०) पिहितं एटले ढाकेदुं, (वा के०) अथवा (नीसाए के०) निःसारिकया एटले पबरनी लीहाए करी, किंवा (पीढएण के०) पीठकेन एटले बाजोठे करी वा ( लोढेण के० ) लोप्टेन एटले नीसातरे करी ढांकेलु (वा के०) अथवा (विलेवेण के०) विलेपेन एटले मृत्तिका दिकना देपे करी मुजा दश्ने जे अन्नपानना नाजननुं मोढुं बंध कस्युं बे एवं, किंवा (सिलेसेण वा के०) श्लेषेण वा एटले लाखे करीबीडेली मुसादिक होय, तथा कोठी प्रमुखे दाटो दीधो होय, पेटी प्रमुखे तालुं दीधुं होय, अथवा ( केण के०) केनचित् एटले कोइ पण वस्तुए करी ढांकेगुं एवं अन्नपान साधुने वहोराववाने राखेनु होय, तो(ते न कल्पे.) ॥४५॥ ___(दीपिका.) पुनः कीदृशमाहारं न गृण्हीयादित्याह । यदशनादि नाजनस्थं दकवारेण पानीयकुम्नेन पिहितं स्थगितं नवेत् । तथा नीसाएत्ति निस्सारिकया पेषण्या, पीठकेन काष्ठपीगदिना, लोढेन वापि शिलापुत्रकेण तथा लेपेन वा मृलेपादिना, श्वेषेण वा केनचिऊतुसिक्थादिना पिहितं भवेत् ॥ ४५ ॥ (टीका.) किं च दगवारेण त्ति सूत्रम् । दकवारेणोदककुम्नेन पिहितं नाजनस्थं स्थगितम् । तथा नीसाएत्ति पेषण्या, पीकेन वा काष्ठपीगदिना,लोढेन वापि शिलापुत्रकेण तथा लेपेन मृोपनादिना श्लेषेण वा केनचिजातुसिक्थादिनेति सूत्रार्थः॥४॥ तं च निंदिया दिजा, समणहा एव दावए॥ दितिश्र पडिआश्के,न मे कप्प३ तारिसं ॥४६॥ (अवचूरिः) तनाजनं स्थगितं लिप्तं समुनियात् श्रमणार्थं दायकः ॥ ४६ ॥ . (अर्थ.) तं चेति. (तं के०) तत् एटले ते ढांकेलु, लीपेढुं अथवा मुजित करेलुं एवं अन्नपानादिक जाजन (समणहा एव के०) श्रमणार्थमेव एटले साधुने अर्थेज पण पोताने श्रर्थे नहीं. ( उनिंदिया के०) उनिय एटले ते मुसा फोडी नाखीने अथवा ढांकण उघाडीने ( दावए के०) दायकः एटले साधुने वहोरा Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पश्चमाध्ययनम् । न्य वनारो गृहस्थ (दिजा के०) दद्यात् एटले पूर्वोक्त प्रकारचें अन्नपान आपे, तो तेवा अन्नपानने (दितिशं के०) ददतं एटले आपनार एवा गृहस्थ प्रत्ये (पडिथाश्के के०) प्रत्याचदीत एटले प्रतिषेधे. केवी रीते प्रतिषेधे ते कहे . ( न मे कप्पश् तामिसं के०) न मे कल्पते तादृशं एटले मने तेवं अन्नपान कल्पे नहीं. ॥४६॥ (दीपिका.) तत्किं कुर्यादित्याह । पुनः तच्चैतैः पूर्वोक्तैः स्थगितं लिप्तं वा श्रमणार्थ नात्मार्थं सकृनिद्य दायको दद्यात् । तदित्थंजूतं ददती स्त्रियं साधुर्वन्न मम कल्पते तादृशमिति ॥ ४६॥ ( टीका. )तं च त्ति सूत्रम्। तच्च स्थगितं लिप्तं वा सत् जनिय दद्यात्मणार्थं दायकः। नात्माद्यर्थम् । तदिवंचूतं ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ४६ असणं पाणगं वावि, खाश्मं साश्मं तदा ॥ जं जाणिक सुणिका वा, दाणहा पगडं इमं ॥४॥ (अवचूरिः) अशनं पानकं वापि खाद्यं खाद्यं तथा उदनारनालादि लम्कहरीत. क्यादि यजानीयादामन्त्रणादिना शृणुयाछान्यतो यथा दानार्थ प्रकृतमिदं साधुवादार्थ देशान्तरादागतो यो दत्ते ॥ ४ ॥ (अर्थ.) असणमिति. ( असणं के०) अशनं एटले श्रोदनादिक वस्तु, (वा के०) अथवा (पाणगं वि के०) पानकमपि एटले पाखवाणी थारनालादिप्रमुख पीवाना पदार्थ ( तहा के०) तथा (खाश्मं के०) खाद्यं एटले लम, मेवा, सुखडी प्रमुख खावाना पदार्थ अने (साश्मं के०) खायं एटले हरीतकी मुखवास प्रमुख पदार्थ. ए माहेला (जं के० ) यत् एटले जे पदार्थने आमंत्रणादिके करी पोते जाणे, (वा के०) अथवा (सुणिजा के०) शृणुयात् एटले बीजाना कहेवाथी सांजले. ते केवी रीते जाणे, अथवा सांजले, ते कहे . ( दाणहा पगडं श्मं के) दानार्थं प्रकृतमिदं, इदं एटले ए फलाएं अशनादिक को देशांतरथी श्रावेला वाणियाए साधुने अथवा पाखंडीउने श्रापवा माटे प्रकृत एटले नीपजाव्युं . ॥ ४ ॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशं न गृह्णीयादित्याह । अशनं मुजादि, पानकं वा थारनालादि, खादिमं लगकादि, स्वादिमं हरीतक्यादि साधुर्यजानीयात्स्वयमामन्त्रणादिना वाथवा अन्यतः शृणुयात्। किम् । यदिदमशनादिकं दाणा पगळं। कोऽर्थः। कोऽपि वणिक देशान्तरादायातः साधुनिमित्तं ददाति अथवा अव्यापारपाखगिकन्यो ददाति। तदप्यशनादिकं न गृह्णीयात् ॥ ७ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्ट्र राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३) मा. (टीका.) किं च असणत्ति सूत्रम् । अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वाद्यम् । श्रशनमोदनादि । पानकं वारनालादि, खायं लम्कादि, स्वायं हरीतक्यादि । यजानीयादामन्त्रणादिना । शृणुयाछा अन्यतः । यथा दानार्थं प्रकृतमिदम् । दानार्थं प्रकृतं नाम साधुवाद निमित्तं यो ददात्यव्यापारपाखएिकन्यो देशान्तरादेरागतो वणिक्प्रनृतिरिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ तारिसं नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दितिअं पडिआश्के, न मे कप्प३ तारिसं ॥४॥ (श्रवचूरिः) तं नवे इत्यादि स्पष्टम् ॥ ७ ॥ (अर्थ.) (तं नवे इत्यादि गाथानो अर्थ प्रथम कह्यो ने तेम जाणवो.) तेवू असूफतुं अन्नपान होय तो संयमी साधुने कल्पे नहीं. माटे एवा अन्नपानने श्रापनारी श्राविकाने साधु मने ए कटपे नहि, एवी रीते कहे. ॥४॥ (दीपिका.) तत्किं कुर्यादित्यत आह । तादृशमशनादिकं ददती स्त्रियं प्रति साधुः। किं वदे दित्याह । तन्नक्तपानं साधुपाखएिकदानार्थ यत्प्रकल्पितं तत्संयतानामकल्पिकं न कल्पते गृहीतुम् । यतः कारणादेवं तद्ददती स्त्रियं प्रत्याचक्षीत व देत्साधुर्यन्न मम कल्पते तादृशमिति ॥ ४ ॥ (टीका ) तारिसं ति सूत्रम्। तादृशं जक्तपानं दानार्थ प्रवृत्तव्यापार संयतानामकम्पिकम्।यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः॥४॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं साइमं तदा ॥ जं जाणिक सुणिका वा, पुरमहा पगडं मं॥४ए॥ __ (श्रवचूरिः) पुण्यार्थं प्रकृतं साधुवादानङ्गीकरणेन ॥ ४ ॥ . (अर्थ.) असणमिति. (आ गाथाना पूर्वार्धनो अर्थ पूर्वे कह्यो , ते प्रमाणेज जाणवो.) वली श्रशनादि चतुर्विध पदार्थ मालुं (जं के०) यत् एटले जे श्रोदनादि अव्यने (जाणिज के०) जानीयात् एटले आमंत्रणादिके करी जाणे, (वा के०) श्रथवा (सुणिजा के०) शृणुयात् एटले बीजानी पासेथी सांजले. केवीरीते जाणे अथवा सांजले ते कहे . ( श्मं के० ) इदं एटले ए अमुक अन्न (पुलहा के०) पुण्यार्थं एटले साधुवादने अर्थे नहीं, पण पुण्यने अर्थे (पगमं के०) प्रकृतं एटले तैयार क . एम जाणे अथवा सांजले तो ते न कल्पे. ॥ ४ ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २८० (दीपिका) तादृशं अशनादिकं ददतीं स्त्रियं प्रति साधुः किंवदे दित्याह । तक्तपानं साधुपा एक दानार्थं यत्प्रकल्पितं तत्संयतानामकल्पिकं न कल्पते गृहीतुं । यतः कार-. पादेवं ततो ददतीं स्त्रियं प्रति वदेत् साधुर्यन्न मम कल्पते तादृशमिति ॥ ४५ ॥ - ( टीका.) असणं ति सूत्रम् । एवं पुष्यार्थं प्रकृतं नाम साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुयार्थं कृतमिति । अत्राह । पुण्यार्थप्रकृतपरित्यागे शिष्टकुलेषु वस्तुतो निक्षाया हणमेव । शिष्टानां पुष्यार्थमेव पाकप्रवृत्तेः । तथाहि । न पितृकर्मादिव्यपोहेनात्मार्थमेव शुद्धसत्त्ववत्प्रवर्तन्ते शिष्टा इति । नैतदेवम् । अभिप्रायापरिज्ञानात् स्वजोग्या - तिरिक्तस्य देयस्यैव पुष्यार्थकृतस्य निषेधात् । स्वनृत्यजोग्यस्य पुनरुचितप्रमाणस्येत्वरयदृच्छादेयस्य कुशलप्रणिधानकृतस्याप्य निषेधादिति । ऐतेनादेयदानानावः प्रत्युक्तः । देयस्यैव यवादानानुपपत्तेः । कदाचिदपि वा दाने यहछादानोपपत्तेः । तथा व्यवहारदर्शनात् । श्रनीदृशस्यैव प्रतिषेधात् । तदारम्जदोषेण योगात् । यदृष्छादाने तु तदावेऽप्यारम्भप्रवृत्तेः नासौ तदर्थ इत्यारम्नदोषायोगात् । दृश्यते च कदाचित्सूतादाविव सर्वेभ्य एव प्रदान विकला शिष्टाजिमतानामपि पाकप्रवृत्तिरिति । विहितानुष्ठानत्वाच्च तथाविधग्रहणान्न दोष इत्यलं प्रसङ्गेन । गमनिकामात्र फलत्वायासस्येति ॥ ४ ॥ तं वेत्तपाणं तु, संजयाण कप्पियं ॥ दितिच्प्रं पडिप्राइके, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ५० ॥ ( वचूरिः ) तं जवे इत्यादि पूर्ववत् ॥ ५० ॥ ( अर्थ. ) ( तं जवे इत्यादि गाथानो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ) तेवुं असूतुं अन्नपान साधुने कल्पे नहि. माटे तेवा अन्नपानने आपनारी श्राविकाने साधु " मने ए कल्पे नहि " एम कहे. ५० ॥ ( दीपिका. ) पुनः कीदृशं न गृहीयादित्यत श्राह । साधुः पुण्यार्थं प्रकृतं न गृहीयात् । कोऽर्थः । साधुवादानङ्गीकारेण यत्पुष्यार्थं प्रकृतम् । शेषं गाथाप्रयव्याख्यानं पूर्ववज्ज्ञेयम् ॥ ५० ॥ ( टीका. ) तं जवे त्ति सूत्रम् । प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥ ५० ॥ असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तदा ॥ जं जाणिक सुणिका वा, वणिमठा पगमं इमं ॥ ५१ ॥ ( अवचूरिः ) वनीपकार्थम् । वनीपकाः कृपणाः ॥ ५१ ॥ For Private Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शराय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. - (अर्थ.) तथा असणमिति । (पूर्वार्धनो अर्थ पूर्ववत्.) अशनादिक चार प्रकारना अन्नपान माहेलुं (जं के०) यत् एटले जे वस्तुने (जाणिज के०) जानीयात् एटले आमंत्रणादिक उपरथी पोते जाणे, (वा के) अथवा (सुणिजा के) शृणुयात् एटले बीजा पासेथी सांजले. केवी रीते जाणे, अथवा सांजले ते कहे जे ( श्मं के०) दं एटले ए चतुर्विध अन्नपान पित्रादिकना उद्देशथी ( वणिमा के०) वनीपकार्थ एटले याचकने, निदाचरने आपवा सारु ( पगडं के० ) प्रकृतं एटले तैयार कयुं , एम जाणे, अथवा सांजले तो (ते न कल्पे.)॥५१॥ (टीका.) असणंति सूत्रम् । एवं वनीपकार्थम् । वनीपकाः कृपणाः ॥५१॥ तं नवे नत्तपाणं तु संजयाण अकप्पिअं॥ दिति पमिआश्के, न मे कप्पश् तारिसं॥५३॥ (श्रवचूरिः ) तं नवे इत्यादि गाथा पूर्ववत् ॥ ५॥ (अर्थ. ) (तं जवे एनो अर्थ पूर्ववत जाणवो.) तेवं असूऊतुं अन्नपान संयमी साधुने कल्पे नहीं, माटे तेवा अन्नपान प्रत्ये वहोरावनारी श्राविकाप्रत्ये साधु मने ए कल्पे नहि एम कहे. अहिं को शंका करे के, साधु जो पुण्यार्थ करेला अन्नपाननो त्याग करे तो, श्रेष्ठ श्रावकने घेर अन्नपान साधुए लेवुज नहीं एम थाय. कारण के, श्रेष्ठ श्रावक डे ते अज्ञान पुरुषनी पेठे क्यारे पण केवल पोताने अर्थे अन्नपान तैयार करेज नहीं. तो हमेश पोताने अर्थे अन्नपान तैयार करतां तेमां पितृकर्मादि पुण्यनो पण हेतु होय . ए शंकानो उत्तर आचार्य कहे . एनो अभिप्राय एवो के, श्रेष्ठ श्रावक ज्यारे केवल पितृकर्मादिरूप पुण्यना हेतुथीज पोताने तथा पोताना कुटुंबना माणसने जेटर्बु खपतुं होय तेथी पण वधारे अन्नपान करे तो, तेवू अन्नपान साधुने कल्पे नहीं, परंतु जो श्रेष्ठ श्रावक हमेशना धारा मुजब पोताने अर्थे तथा शुजपरिणामथी अन्नपान तैयार करे, अने वली ते नित्य जेटलु जोश्ये तेटवूज तैयार करे, तेमां जो यदृछाथी ए साधु आवे तो तेने पण वोहोरावे, तो ते अन्यदोषरहित होय, तो साधुने कल्पे . ॥ ५ ॥ (टीका.) तं नवे त्ति सूत्रम् । प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥ ५५ ॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं साइमं तदा ॥ जं जाणिक सुणिका वा, समणहा पगमं श्मं ॥ ५३॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । एनए (श्रवचूरिः ) असणमिति । श्रमणार्थम् । श्रमणा निर्ग्रन्थाः शाक्यादयः॥ ५३ ॥ __ (अर्थ.) असणमिति. (पूर्वार्धनो अर्थ पूर्ववत्. ) तथा अशन, पान, खाद्य अने स्वाद्य ए चार प्रकारना अन्नपान माहेला (जं के०) यत् एटले जे वस्तुने (जाणिज के०) जानीयात् एटले आमंत्रणादिके करी पोते जाणे, अथवा (सुणिजा के०) शृणुयात् एटले बीजा तरफथी श्रवण करे. केवी रीते जाणे, अथवा श्रवण करे ते कहे जे. (श्मं के०) इदं एटले ए अन्नपान (समणहा के०) श्रमणार्थं एटले शाक्या दिकने अर्थे (पगडं के०) प्रकृतं एटले तैयार कयुं . एम जाणे, अथवा सांजले, तो ते न कल्पे. ॥ ५३॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशं न गृहीयादित्याह। साधुः श्रमणार्थं प्रकृतमशनादिन गृण्हीयात् । श्रमणा निर्ग्रन्थाः शाक्यादयस्तन्निमित्तं कृतम् । शेषं गाथाघ्यव्याख्यानं पूर्ववत् ॥५३॥ (टीका.) असणं ति सूत्रम् । एवं श्रमणार्थम्।श्रमणा निर्ग्रन्थाः शाक्यादयः॥५३॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दितिअं पडिआइके, न मे कप्पा तारिसं॥५४॥ (श्रवचूरिः) तं नवे इत्यादिगाथा पूर्ववत् ॥ ५४॥ (अर्थ.) (तं नवे एनो अर्थ पूर्ववत्.) तेवू असूफतुं अन्नपान संयमी साधु लिये नहीं. माटे तेवा अन्नपानने आपनारी श्राविका प्रत्ये पूर्वोक्त साधु कहे के, मने तेवू कल्पे नहि. ॥५४॥ (दीपिका.) तं नवेत्ति । स्पष्टम् ॥ ५५ ॥ (टीका.) तं नवे त्ति सूत्रम् । प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥ ५५ ॥ उद्देसि कीअगडं, पूश्कम्मं च श्रादमं॥ अनोअरपामिच्चं, मीसजायं विवाए ॥५५॥ (अवचूरिः) उद्दिश्य कृतमौदेशिकं साधूद्देशेन दन उदनस्य मीलनेन करम्बककरणम् सखएिककोवृत्तमोदकचूर्णेन गुडपानादि दिप्त्वा मोदककरणं च । क्रीतकृतं अव्यनावक्रयकीतनेदम् । पूतिकर्म संजाव्यमानाधाकर्मावयवसंमिश्रम् । श्राहृतं खग्रामाहृतादि। अध्यवपूरकं स्वार्थमूलाग्रहणप्रदेपरूपम् । प्रामित्यं साध्वर्थमुविद्य दानलक्षणम् । मिश्रजातं चादित एव गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतरूपम् ॥ ५५ ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अर्थ.) तथा उदेसिअंति। (उदेसियं के०) औदेशिकं एटले साधुने आपवाना उद्देशथी तैयार करेढुं, अथवा ( कीअगडं ) क्रीतकृतं एटले वेचातुं आणेलु, किंवा (पूश्कम्मं के० ) पूतिकर्म एटले सूकता थाहारमा आधाकर्मीनो नाग नेट्यो होय एवं, तथा (आहडं के० ) श्राहृतं एटले ग्रामादिकथी लावेचु, तेमज(अप्लोयर के०) अध्यवपूरकं एटले साधु आव्या जाणी मूल आहार माहे उमेरेलु एबुं, अथवा ( पामिचं के) प्रामित्यं एटले उबीनू आणी आपेढुं, ( च के०) वली (मीसजायं के) मिश्रजातं एटले गृहने अने साधुने अर्थे नेतुं नीपजाव्यु, ते मिश्रजात एवं अन्नपान होय तो ते प्रत्ये ( वजाए के० ) वर्जयेत् एटले वर्जे.॥५५॥ (दीपिका. ) पुनः कीदृशं न गृह्णीयात् इत्याह।उद्दिश्य साधुनिमित्तं कृतमौदे शिकं ? क्रीतकृतं व्यनावक्रयक्रीतनेदं पूतिकर्म च संजाव्यमानाधाकर्मावयवैः संमिश्रम् ३ अन्याहृतं साधुनिमित्तं ग्रामादेरानीयमानं ४ तथा अध्यवपूरकं स्वार्थमूलाउहणे साधुनिमित्तं प्रदेपरूपं ५ प्रामित्त्यं साधुनिमित्तमुविद्य दानलदणं ६ मिश्रजातं च आदित एव गृहस्थसंयतयोनिमित्तं मिश्रमुपसंस्कृतम् । एतादृशं सर्वमशनादि साधुर्वर्जयेत् परं न गृह्णीयात् ॥ ५५॥ (टीका.) किंच । उद्देसिशंति सूत्रम् । उद्दिश्य कृतमौदेशिकमुद्दिष्टकृतकर्मादिनेदम् । क्रीतकृतं अव्यनावक्रयक्रीतनेदम् । पूतिकर्म संजाव्यमानाधाकर्मावयवसंमिश्रलक्षणम् । श्राहृतं स्वग्रामाहृतादि । तथाध्यवपूरकं खार्थमूलाग्रहणप्रदेपरूपम् । प्रामित्यं साध्वर्थमुछिद्य दानलक्षणम् ॥ मिश्रजातं चादित एव गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतरूपं वर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ नग्गमं से अ पुचिता, कस्सहा केण वा कडं। सुचा निस्संकिअं सुई, पडिगादिऊ संजए॥५६॥ (श्रवचूरिः) संशयव्यपोहोपायमाह । जजमं तत्प्रसूतिरूपं से तस्य शङ्कितस्याशनादेः पृचेत् कस्यार्थमेतत् केन वा कृतमिति श्रुत्वा तम्चो न जवदर्थं किंत्वन्यार्थमेवं निःशंकितं प्रतिगृह्णीयात् ॥ २६ ॥ (अर्थ.) हवे संशय टालवाने अर्थे कहे . (य के ) वली पूर्वोक्त साधुने आहार वोहोरतां शंका उपजे तो (संजए के०) संयतः एटले संयमी साधु (से अ के०) तस्य च एटले ते अन्नपाननी वली ( जग्गमं के) उजम एटले उत्पत्तिप्रत्ये (पुछि. जा के०) पृछेत्, एटले पू. केवी रीतें पूजे ते कहे .(कस्सहा के०) कस्यार्थम् एटले Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । शएर कोने वास्ते ए आहार तैयार कस्यो बे, तथा ( केण वा कडं के) केन वा कृतं एटले कोणे ए अन्नपान तैयार कयुं . एम पूजीने ते श्राविकाना वचन उपरथी ते अन्नपान ( निस्संकिअं के०) निःशंकितं एटले उजमादि शंकारहित बे, अतएव (सुझं के) निर्दोष जे एवं (सुच्चा के०) श्रुत्वा एटले सांजलीने (पडिगाहिज के०) प्रतिगृह्णीयात् एटले ग्रहण करे. ॥ ५६ ॥ ___ (दीपिका.)अथ उजमादिदोषस्य संदेहदरीकरणाय उपायमाह।संयतः साधुः शुद्धमशनादि निर्दोषं सत्प्रतिगृह्णीयात्। कथम्।पूर्वं तत्स्वामिनं कर्मकरं वा से तस्य अशनादेः शङ्कितस्य उन्मं तन्निष्पत्तिरूपं पृछेत् । यथा कस्यार्थमेतत्केन वा कृतम् एतत् । ततः किं कृत्वा । इति तहचः श्रुत्वा । श्तीति किम् । न नवदर्थमिदमशनादि कृतं । किंतु अन्यार्थमिति निःशंकितं शंकारहितम् ॥ ५६ ॥ (टीका.) संशयव्यपोहायोपायमाह । जग्गमं ति सूत्रम् । उनमं तत्प्रसूतिरूपम् से तस्य शङ्कितस्याशनादेः पृच्छेत् तत्स्वामिनं परिचरं वा । यथा कस्यार्थमिदं केन वा कृतमेतदिति । श्रुत्वा तछचो न जवदर्थं किंत्वन्यार्थमेवंचूतं निःशङ्कितं शुरूं सत्तदृजुत्वादिनावगत्य प्रतिगृह्णीयात्संयतो विपर्ययग्रहणे दोषादिति सूत्रार्थः॥५६॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं साश्म तदा ॥ पुप्फेसु हुऊ जम्मीसं, बीएसु हरिएसु वा ॥५॥ (अवचूरिः) पुष्पैर्जातिपुष्पादिनिः नवेत्तैरुन्मिभं बीजैर्हरितैर्वा । तृतीयार्थे सप्तमी ॥२७॥ (अर्थ.) असणमिति. वली (पूर्वार्धनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो.) अशनादि चतुविध अन्नपान (पुप्फेसु के०) पुष्पैः एटले जाति पाटलादिक पुष्पोए करी (वा के०) अथवा (बीएसु के०) वीजैः एटले शालि प्रमुख धान्ये करी अथवा ( हरिएसु के०) हरितैः एटले पूर्वादिक हरितकाये करी ( उम्मीसं के० ) उन्मिश्रं एटले अर्थात् ते पुष्पादिके करी संयुक्त एवं ( हुऊ के०) नवेत् एटले होय. ॥२७॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशं न गृह्णीयात्तदाहाअशनं पानकं वापि खाद्यं स्वायं तथा पुष्पैर्जातिपाटलादिनिर्वी हरितैर्वा यदि उन्मिनं नवेत्तदा संयतो न गृह्णीयात् ददतीं च किं वदेत्तदाह । दितिश्रमिति ॥ ५७ ॥ (टीका.) तथा असणं ति सूत्रम् । अशनं पानकं वापि खायं खाद्यं तथा पुष्पैर्जातिपाटलादिनिः नवेऽन्मिभं वीजैर्हरितैवेति सूत्रार्थः ॥२७॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ राय धनपतसिंघबहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण कप्पियं ॥ दिति पडिप्राइके, न मे कप्पर तारिसं ॥ ५८ ॥ ( वचूरिः ) तं० नवे इत्यादि स्पष्टम् ॥ ५८ ॥ (अर्थ. ) ( तु के० ) पुनः ( तं जत्तपाणं के० ) तक्तपानं एटले तेतुं असूतुं अन्नपान ( संजयाण के ० ) संयतानां एटले संयमी साधुने ( कप्पिां के० ) कल्पिकं एटले अकल्पनीक असूतुं बे, माटे तेवा अन्नपानने (दितियं के० ) ददतीं एटले पनारी एवी श्राविकाने, एवी रीतें ( पडियारके के० ) प्रत्याचक्षीत एटले कहे, जे मने ते कल्पे नहि. ॥ ५८ ( दीपिका. ) तं जवे जत्त० व्याख्या पूर्ववत् ॥ २८ ॥ ( टीका. ) तं वेत्ति सूत्रम् । तादृशं जक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं यतश्चैवमतो दततीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमेवं सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ स पागं वा वि, खाइमं साइमं तदा ॥ उदगंमि ढुक्क निस्कित्तं, उत्तिंगपणगेसु वा ॥ ८९ ॥ ( अवचूरिः) उदके जवेन्निक्षिप्तमुत्तिंगपन केषु वा की टिकानगरादिषु चेत्यर्थः ॥५॥ (अर्थ) समिति । (पूर्वार्धनो अर्थ पूर्ववत् जावो. ) तथा अशनादि चतुर्विध अन्नपान (उदगंमि के०) उदके एटले जलने विषे ( वा के० ) अथवा ( उत्तिंगपणगेसु० ) कीडी प्रमुखना नगरपर ( निस्कित्तं के० ) निक्षितं एटले मूक्युं एवं ( हु ho ) जवेत् एटले थाय. उदकमां निक्षेप करवो तेना वे नेद बे. एक अनंतर निक्षेप बीजो परंपरा निक्षेप. ॥ २५ ॥ ( दीपिका . ) पुनः कीदृशं न गृह्णीयात् इत्याह । अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वायं तथा यदि उदके सचित्तपानीयोपरि अथवा उत्तिंगपनकेषु की टिकानगरेषु निदिसं जवेत् । तदा साधुर्न गृह्णीयात् ॥ २५ ॥ I ( टीका. ) तथा स ति सूत्रम् । अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वाद्यं तथा उदके वेन्नितिमुत्तिंगपन केषु वा की टिकानगरोलीषु वेत्यर्थः । उदय निकित्तं दुविहं । तरं परंपरं च । श्रणंतरं एवणी तपोग्गलियमादि । परोप्परं जलघकोवरि जायण दधिमादि । एवं उत्तिंगपणएसु जावनीयमिति सूत्रार्थः ॥ २९ ॥ For Private Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययनम् । तं नवे नत्तपाणं तु, संजया कपित्र्यं ॥ दिंतियं पडिच्याइके, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६० ॥ ( अवचूरिः ) तं पूर्ववत् ॥ ६० ॥ ( अर्थ. ) तेवुं असूतुं अन्नपान साधुउने कल्पे नहीं. माटे तेवा अन्नपानने पनारी श्राविकाने " साधु मने ए आहार पाणी कल्पे नहि " एवी रीतें कहे .॥ ६० ॥ ( दीपिका. ) ददतीं च किं वदेदित्याह । पूर्ववत् ॥ ६० ॥ ( टीका. ) तं नवेत्ति सूत्रम् । तद्भवेद्भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ ६० ॥ असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तदा ॥ ते म्मि दु निखित्तं तं च संघट्टिया दए ॥ ६१ ॥ 1 २०३ ( अवचूरि : ) तेजसि नवेन्निसिं दुग्धादि तन्मम निक्षां ददत्या मानूत्तापातिशय इत्यग्निं संघट्याशनादि दद्यात् ॥ ६१ ॥ (.) समिति । (पूर्वार्धनो पूर्ववत् जाणवो.) तथा श्रशनादि चतुर्विध अन्नपान ( तेजंमि के० ) तेजसि एटले तेजस्कायने विषे ( निरिकत्तं के० ) निसिं एटले मूक्युं एवं ( हुआ के० ) जवेत् एटले होय, ( च के० ) अने ( तं ho ) ( संघट्टिया के० ) संघव्य एटले संघट्टीने ( दए के० ) दद्यात् एटले पे. ॥ ६१ ॥ ( दीपिका . ) पुनः कीदृशं न गृह्णीयात्तदाह । प्रशनं पानकं खाद्यं स्वाद्यं यदि तेजसि नितिं वेत् तं संघट्य निक्षां दद्यात् तदा साधुर्न गृह्णीयात् । कुतः दात्री संघट्टनं कुर्यात्तत्रोच्यते श्रहं यावनिकां ददामि तावता मानूत्तापातिशयेन - र्तिष्यत इति ॥ ६१ ॥ ( टीका ) तथा सति सूत्रम् । अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वाद्यं तथा तेजसि वेन्निसिं तेजसीत्यग्नौ तेजस्काय इत्यर्थः । तच्च संघट्य यावनिकां ददामि तावत्तापातिशयेन मानूर्तिष्यत इत्याघट्य दद्यादिति सूत्रार्थः ॥ ६१ ॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण प्रकपित्र्यं ॥ दिति पमित्राइरके, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६२ ॥ For Private Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए४ राय धनपतसिंघ वदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालोस-(४३)-मा. (अवचूरिः) तं ॥ ६ ॥ (अर्थ. ) ( तु के० ) तो तेवू असूऊतुं अन्नपान साधुने कल्पे नहीं, माटे तेवा अन्नपानने थापनारीश्राविकाने पूर्वोक्त साधु कहे जे ते अन्नपान मने कल्पे नहि॥६॥ ( दीपिका.) तदा ददती प्रति साधुः किं वदेदित्याह। पूर्ववत् ॥ ६॥ ( टीका.) तं नवेत्ति सूत्रम् । तभवनक्तपानं तु संयतानामकल्पिकमतो ददती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ एवं जस्सि किया, उसक्किया, नकालिया, पढालिआ, निवाविया, जस्सिंचिया, निस्सिचिया, नवत्तिया, ज्यारिया दए ॥ ६३ ॥ (श्रवचूरिः) यावनिदां दास्यामि तावद्विध्यास्यतीत्युत्सिच्य अवसl दाहनयात् उत्मकान्युत्सार्य उज्ज्वाल्यार्थविध्यातं सकृदेधःक्षेपेण प्रज्वाव्य पुनः पुनः दाहनयादेव उत्सिच्यातिनृतापुज्नजयेन ततो वा दानार्थं तीमनादि निषिच्य तन्नाजनासहितं अव्यमन्यत्र जाजने तेन दद्यात् उतननीत्या वाजहितमुदकेन निषिच्य अपवर्त्य तेनैवानिनिक्षिप्तेन नाजनेनान्येन वा दद्यात् अवतार्य दाहनयादानार्थ वा तदन्यच्च साध्वर्थयोगे न कल्पते. ॥ ३ ॥ (अर्थ. ) ( एवं के० ) एमज को श्राविका ( उस्सिक्किया के ) नत्सिच्य एटले चूलामांहे इंधण नाखीने अथवा (उस्स किया के०) अवसl एटले अधिक बलवानी नीतिथी इंधण चूलामाथी पागं काढी लश्ने अथवा ( उजालिया के०) उज्ज्वाव्य एटले थोडा इंधण नाखीने किंवा (पजालिया के०) प्रज्वाल्य एटले घणां इंधणां नाखीने अथवा (निवाविया के०) निर्वाप्य एटले अन्नादिक दाऊवाना जयथी अग्नि उदहवीने अथवा ( उस्सिचित्रा के) जत्सिच्य एटले उनरावाना नयथी कांक अन्न काढीने अथवा (निस्सिचित्रा के०) निषिच्य एटले उत्तराएं जाणी तेमाहे पाणी बाटीने किंवा ( उबत्तिया के) अपवर्त्य अग्निजपरनुं अन्न अन्यपात्रमा नाखीने अथवा (उयारिया के०) अवतार्य एटले दाहना नयथी वासण हेठे उतारीने साधुने (दए के०) वोहोरावे ते न कल्पे. ॥ ३ ॥ (दीपिका.)पुनः कीदृशं अशनादि न गृह्णीयात् इत्याह । एवं उस्सिक्किाइति।यावनियां ददामि तावत् मानूद्विध्यासतीत्युत्सिच्य दद्यात् १ एवं उस्स किया इति अवसl अतिदाहनयात् उल्मुकानि उत्सार्य इत्यर्थः । एवं उजालिया पजालिया उज्ज्वाक्ष्य श्रविध्यातं सकृर्दिधनप्रदेपेण ३ प्रज्वाल्य पुनः पुनः एवं निवावित्रा निर्वाप्य दाहनया Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श दशवकालिके पञ्चमाध्ययनम् । दिनेति नावः ४ एवं उस्सिचित्रा निस्सिंचिथा उत्सिच्य अतिवृतात् उनननयेन ततो वा दानार्थं तीमनादि निषिच्य तनाजनाअहितं अव्यमन्यत्र नाजनेन दद्यात् उहर्तनालयेन वाहितमुदकेन निषिच्य दद्यात् ५ एवं जवत्तिया उारिया अपवर्त्य तेनैव अग्निनिक्षिप्तेन जाजनेन अन्येन वा दद्यात् तथा अवतार्य दाहजयादानार्थं वा दद्यात् । तत् अन्यच्च साधुनिमित्तयोगे न कल्पते॥ ६३ ॥ (टीका.) एवं उस्सिक्रियत्ति। यावनिकां ददामि तावन्मानूहिध्यास्यतीत्युसिच्य दद्यादेवं उस किया अवसl अतिदाहजयाउदमुकान्युत्सार्येत्यर्थः । एवं उजालिया पजालिया उज्ज्वाट्याधविध्यातं सकृर्दिधनप्रदेपेण । प्रज्वाल्य पुनः पुनः। एवं निवाविया निर्वाप्य दाहलयादेवेति जावः। एवं जस्सिंचिया निस्सिंचिया । उत्सिच्यातिनृताउनननयेन ततो वा दानार्थ तीमनादीनि निषिच्य तनाजनाउ हितं अव्यमन्यत्र नाजने तेन दद्यात् । जहर्तननयेन वाहितमुदकेन निषिच्य। एवं जैवत्तिया उयारिया । अपवर्त्य तेनैवानिनिदिन नाजनेनान्येन वा दद्यात् । तथा अवतार्य दाहनयादानार्थं वा दद्यात् । अत्र तदन्यच्च साधुनिमित्तयोगे न कल्पते ॥ ६३ ॥ तं नवे नत्तयाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दितिअंपडिआइके, न मे कप तारिसं॥ ६४ ॥ (अवचूरिः) तं० पूर्ववत् ॥ ६४ ॥ (अर्थ.) तो तेवं अन्नपान साधुने कल्पे नहीं. माटे तेवू अन्नपान आपनारी श्राविकाने पूर्वोक्त साधु ‘मने तेवू कल्पे नहि' एम कहे. ॥ ६ ॥ ( दीपिका.) अथ कदाचित् पूर्वोक्तप्रकारेण तादृशं काचिददाति । तदा तां प्रति साधुः किं कथयेदित्याह । पूर्ववत् ॥ ६४ ॥ (टीका.) तं जवे ति सूत्रम् । पूर्ववत् । गोचराधिकार एव गोचरप्रविष्टस्य ॥६॥ ढुङ कह सिलं वा वि, श्वालं वा वि एकया ॥ विअं संकमहाए, तं च होऊ चलाचलं॥६५॥ (अवचूरि.) गोचराधिकार एव गोचरप्रविष्टस्य यन्नवेत्तदाह । नवेत्काष्ठं शिला वापि श्ष्टकाशकलमेकदा एकस्मिन्काले प्रावृमादौ स्थापितं संक्रमायं तच्च नवेच्चलाचलमप्रतिष्ठितम् ॥ ६५ ॥ (अर्थ.) हुऊ इति । तथा ( कहं के० ) काष्ठं एटखे काष्ठ, (वा के०) अथवा Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. ( सिलं के० ) शिला एटले पाषाण अथवा (इहालं के० ) इष्टकाशकलं एटले इटनो कटको ते ( एगया के० ) एकदा एटले एकवार चोमासादिकने विषे ( संकमाए के० ) संक्रमार्थं एटले उलंघवाने माटे ( वियं के० ) स्थापितं एटले मूकेलं ( हुआ के० ) जवेत् एटले होय; (च के०) वली (तं के०) तत् एटले ते काष्ठादिक ( चलाचलं के० ) कांइ चल कां अचल एटले डगमगतुं एवं ( हुआ के० ) नवेत् एटले होय. ॥ ६५ ॥ ( दीपिका . ) पुनर्गोचराधिकार एव गोचरीप्रविष्टस्य साधोः को विधिरित्याह । एवंविधं काष्ठं शिला वा २ इष्टकाशकलं वा जवेत् किंविशिष्टं काष्ठादि । एकदा एकस्मिन् काले वर्षाकालादौ संक्रमार्थं सुखेन चलनार्थं स्थापितं तदपि च चलाचलप्रतिष्ठितं जवेत् न तु भवेत् स्थिरमेव ॥ ६५ ॥ ( टीका. ) होऊ त्ति सूत्रम् । जवेत् काष्ठं शिला वापि इट्टालं वाप्येकदा एकस्मिन् काले प्रावृडादौ स्थापितं संक्रमार्थं तच्च जवेच्चलाचलमप्रतिष्ठितं न तु स्थिरमेवेति सूत्रार्थः ॥ ६५ ॥ ते निकू गचिका, दिठो तब संजमो ॥ गंजीरं कुसिरं चेव, सर्व्विदिप्रसमाहिए ॥ ६६ ॥ ( अवचूरिः ) तेन काष्ठादिना निकुर्न गच्छेत् । दृष्टस्तत्रासंयमः । तच्चलने प्राण्युपमर्दसंजवात्। गंजीरमप्रकाशं सुषिरमंतःसाररहितम् । अतः सर्वे प्रियसमाहितो जिन्दुस्तस्मिन् परिहरेदिति ॥ ६६ ॥ ( . ) तो ( ते के० ) ते काष्ठादिक उपर थने ( जिरकू के० ) निक्षुः एटले पूर्वोक्त साधु ( न गविका के० ) न गच्छेत् एटले गमन करे नहीं. कारण के, (तब के० ) तत्र एटले ते काष्ठादिकना उपरथी गमन करता थका ( श्रसंजमो के० ) असंयमः एटले जीवोपमर्दादि संयम ( दिठो के० ) दृष्टः एटले दीगे बे. तथा ( सविं दिए के० ) सर्वेडियैः एटले सर्व इंद्रियें करी ( समाहिए के० ) समाहित एटले समाधिमान् एटले रागद्वेष रहित एवो साधु वीजा पण (गंजीरं के० ) गंजीर एटले प्रकाश ने वली ( कुसिरं के० ) सुषिरं एटले अंदर पोलाणवालुं एवा जे काष्ठादि तेनो त्याग करे. ॥ ६६ ॥ (दीपिका) तादृशेन चलाचलेन काष्ठादिना साधुः किं न कुर्यात् इत्याह । तेन काष्ठादिना निकुर्न गछेत् । कथमित्याह । तत्र काष्ठादौ गमनेऽसंयमो दृष्टः । कथं काष्ठादिचलने प्राणिनामुपमर्दसंजवात् । तथा एवंविधमन्यदपि काष्ठादि परिहरेत् साधुः । किं For Private Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । शए विशिष्टं काष्ठादि। गम्नीरमप्रकाशं पुनः शुषिरमन्तःसाररहितम् । किं साधुः । सर्वेजियसमाहितः शब्दादिषु रागळेषावकुर्वाणः ॥ ६६ ॥ ( टीका.) ण तेण त्ति सूत्रम् ।न तेन काष्ठादिना निकुर्गछेत् । कि मित्यत्राद। दृष्टस्तत्रासंयमः। तच्चलने प्राण्युपमर्दसंजवात् । तथा गम्नीरमप्रकाशं शुषिरं चैवान्तःसाररहितम्। सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादिषु रागद्वेषावगछन् परिहरेदिति सूत्रार्थः॥६६॥ निस्सेणिं फलगं पीढं, नस्सवित्ता मारुते॥ मंचं कोलं च पासायं, समता एव दावए॥ ६ ॥ ( अवचूरिः) निश्रेणिं फलकं पीठमुत्सृत्योर्वीकृत्य मञ्चं की चोत्सृत्य प्रासादमारोहेत् श्रमणार्थं दायकः ॥ ६ ॥ (अर्थ.) हवे घरमाहेलां दोषो टालवा, ते कहे. तथा ( दावए के०) दायकः एटले साधुने वहोरावनारो पुरुष ( समणका के० ) श्रमणार्थं एटले साधुने आहारपाणी वहोराववाने अर्थे ( निस्सेणिं के०) निश्रेणिं एटले नीसरणीने अथवा (फलगं के० ) फलकं एटले पाटीयाने (पीढं के० ) पी एटले बाजोग्ने, ( मंचं के० ) मंचं एटले माचाने ( कीलं के० ) कीलकने (उस्स वित्ता णं के०) उत्कृत्य एटले ऊंचो करीने ( पासायं के० ) प्रासादं एटले प्रासादउपर (थारुहे के० ) थारोहेत् एटले चढे. ॥ ६ ॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशे प्रकारे न गृह्णीयात् इत्याह । दाता श्रमणार्थ साधुनिमित्तं प्रासादं यदि आरोहेत् । तदा साधुर्निदां न गृह्णीयात् । किं कृत्वा प्रासादमारोहेत् । निश्रेणिं १ फलकं २ पीठं ३ मंचं ४ कीलं ५ च उत्सृत्य ऊर्ध्वं कृत्वा ॥ ६७ ॥ (टीका.) किं च णिस्से णिं ति सूत्रम् । निश्रेणिं फलकं पी उस्स वित्ता उत्सृत्य ऊर्ध्वं कृत्वा इत्यर्थः । आरोहेन्मञ्चं कीलकं च उत्सृत्य । कमारोहेदित्याह । प्रासाद श्रमणार्थं साधुनिमित्तं दायको दाता आरोत् । एतदप्यग्राह्यमिति सूत्रार्थः ॥ ६७ ॥ उरूदमाणी पडिवजा, दबं पायं व लूसए॥ पुढविजीवे वि हिंसिका, जे अतन्निस्सिया जगे॥६॥ __ (अवचूरिः) दोषमाह । कुःखेनारोहन्ती प्रपतेत् । हस्तं पादं च खूषयेत् खएमयेत् । यानि च तत्पृथिवीनिःश्रितानि जगन्ति प्राणिनस्तानि हिंस्यात् ॥ ६ ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अर्थ.) हवे तेनो दोष कहे . (उरूहमाणी के०) आरोहन्ती एटले अन्नादिक लेवा जणी ते उपर चढती थकी कदाचित् ( पडिवजा के० )प्रपतेत एटले पडे, अथवा ( हवं के० ) हस्तं एटले पोताना हाथने ( च के० ) वली पोताना ( पायं के०) पादं एटले पगने (लूसए के) खूषयेत् एटले पोतेज नांगे, तथा (पुढवीजीवेवि के ) पृथ्वीजीवानपि एटले पृथ्वीकायजीवोने पण (हिंसिजा के०) हिंस्यात् एटले हणे. ( अ के०) च एटले वली (जे के ) यानि एटले जे ( तन्निसिया के०) तनिश्रितानि एटले ते पृथ्वीने श्राश्रय करी रहेलां एवां (जगे के) जगन्ति एटले प्राणियो होय तेने पण हणे. ॥ ६ ॥ __ (दीपिका.) कथं न गृह्णीयात् ? तथा ग्रहणे दोषमाह । निश्रेणिप्रमुखमारोहन्ती स्त्री प्रपतेत्।प्रपतन्ती च हस्तं वा पादं वा खूषयेत् खकीयं खत एव खएमयेत् । पुनरपि कथंचित्तत्र स्थाने पृथिवीजीवान् विहिंस्यात् । पुनरपि यानि तनिश्रितानि पृथ्वीनिश्रितानि जगंति प्राणिनः तानपि हिंस्यात् ॥६॥ (टीका.) अत्रैव दोषमाह । उरूहमाणि त्ति सूत्रम् । आरोहन्ती प्रपतेत् । प्रपतन्ती च हस्तं पादं वा खूषयेत् स्वकं खत एव खएमयेत् । तथा पृथ्वीजीवान् विहिंस्यात् । कथंचित्तत्रस्थान् । तथा यानि च तनिश्रितानि जगन्ति प्राणिनस्तांश्च हिंस्यादिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ एारिसे मदादोसे, जाणिकण मदेसिणो ॥ तम्दा मालोहमं निकं, न पडिगिएदंति संजया ॥६॥ (अवचूरिः) ईदृशान्महादोषान् ज्ञात्वा महर्षयः साधवः। यस्माद्दोषकारिणी तस्मान्मालापहृतां मालादानीतां निदां न प्रतिगृह्णन्ति ॥६॥ (अर्थ.) हवे गोचरीचर्याना दोषोनो उपसंहार करे . एयारिसे इति ( संजया के०) संयताः एटले संयमी एवा ( महेसिणो के०) महर्षयः एटले महोटा ऋषियो ( एयारिसे के०) एतादृशान् एटले ए पूर्वे कह्या ते प्रकारना ( महादोसे के०) महादोषान् एटले मोटा दोषोने (जाणिकण के) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले तेमाटे ( मालोहमं के० ) मालाहतां एटले उपरना माल थकी, एटले मेडाउपरथी उतारीने आणेली एवी (जिरकं के) निक्षां एटले निदाने (न पडिगिर्हति के०)न प्रतिरहूति एटले ग्रहण करता नथी. ॥६॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम्। शएए (दीपिका.) ततः साधवः किं कुर्वत इत्याह । एतादृशान् पूर्वोक्तान् महादोषान् ज्ञात्वा महर्षयः साधवः । यस्मादोषकारिणीयं निक्षा । तस्मात् मालापहृतां मालोपनीतां निदां न प्रतिगृह्णन्ति । किं विशिष्टा महर्षयः । संयताः सम्यक्संयमे यतनां कुर्वाणाः ॥६ए । (टीका.) एवारिस त्ति सूत्रम् । ईदृशाननन्तरोदितरूपान्महादोषान् ज्ञात्वा महर्षयः साधवः । यस्माद्दोषकारिणीयं तस्मान्मालापहृतां मालादानीतां निदां न प्रतिगृह्णन्ति संयताः। पागन्तरं वा । हंदि मालोहडं ति । हंदीत्युपप्रदर्शन शति सूत्रार्थः ॥ ६ए॥ कंदं मूलं पलंबं वा, आमं बिन्नं च सन्निरं ॥ तुंबागं सिंगबेरं च, आमगं परिवङये ॥ ७० ॥ (श्रवचूरिः) सूरणादि कन्दम् । मूलं विदा रिकादिरूपम् । प्रम्लवं तालफलादि । श्रामं निन्नं च सन्निरं पत्रशाकम् । तुम्बकं प्रतीतं त्वग्मजान्तर्वति । आज तुलसीमित्यन्ये । शृङ्गवेरं चाकमामगं परिवर्जयेदिति ॥ ७० ॥ (अर्थ. ) हवे केटलीक बहोरवामां निषिद्ध वस्तु बे, ते कदे बे, कंदमिति. तथा (कंदं के०) सूरण विगेरे कंद, ( मूलं के०) विदारिकादि मूल, (वा के) अथवा ( पलंबं के० ) प्रलंबं एटले तालादिकनां फल अने ( आमं के ) काचुं, अथवा ( निन्नं के० ) बेद्यं एवं ( सन्निरं के० ) पत्रशाक तथा ( तुंबागं के) तूंबडु, मुधियु, तेने तथा (सिंगबेरं के०) शंगबेरं एटले आएं एटलां वानां (थामगं के) थामकं एटले काचां सचित्त होय तो तेने (परिवाए के) परिवर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥ ७० ॥ __ (दीपिका.) पुनः किं किं कीदृशं कीदृशं न गृह्णन्ति तदाह । साधुः कन्दं सूरणादि “वर्जयेत्” इत्युक्तिः सर्वत्र लापनीया १ तथा मूलं पिएकादिरूपं २ प्रलंबं वा तालफलादि ३ आमं जिन्नं च सन्निरम् । सन्निरमिति पत्रशाकं ४ तुंबाकं त्वग्मजान्तर्वत्याऽम् । तुलसीमित्यन्ये ५ शृंगबेरं च आईकं ६ च श्रामकं सचित्तम् ॥ ७० ॥ (टीका.) प्रतिषेधाधिकार एवाह। कंदं मूलं ति सूत्रम् । कन्दं सूरणादिलक्षणम् । मूलं विदारिकारूपम् । प्रलंबं वा तालफलादि । थाम बिन्नं वा सन्निरम् । सन्निरमिति पत्रशाकम् । तुम्बाकं त्वग्मजान्तर्वति । श्रा वा तुलसीमित्यन्ये । शृङ्गबेरं चाईकम् । आमं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ७० ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)-मा. तदेव सत्तुचुन्नाई, कोल चुन्नाई आवणे ॥ सक्कुलिं फाणियं पूयं, अन्नं वा वि तदाविदं ॥ ७१ ॥ " ( अवचूरिः ) तथैव सक्तचूर्णान् सक्तून् कोलचूर्णान् बदरसक्तून् आपले वीध्याम् । शष्कुलिं तिलपर्पटिकां फाणितं द्रवगुडं पूपं कणिकादिमयम् । अन्यद्वा तथाविधं मोदकादि ॥ ७१ ॥ ( अर्थ. ) हवे ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज वली ( सचुचुन्नाइ के० ) सक्तचूर्णानि एटले सत्या ( कोल चुन्नाइ के० ) कोलचूर्णानि एटले बोरनो नूको तेमज (श्रावणे के० ) आपणे एटले वीथीमां तथा ( सक्कुलिं के० ) तिल सांकली, अथवा ( फाणियं के० ) फाणितं एटले पातलो गोल ( पूयं के० ) पूपं एटले पूडला तथा (अन्नं वा० ) अन्यद्वापि एटले अनेरुं पण ( तहाविहं के० ) तथाविधं एटले तेवा प्रकारनं जे मोदकादि न्नपान होय तो तेने साधु त्याग करे. ॥ ७१ ॥ ( दीपिका . ) पुनः कीदृशं परिवर्जयेदित्याह । तथैव सक्तचूर्णान् सक्तून् ? कोलचूर्णान् बदरचूर्णान् २ आपणे वीथ्यां तथा शष्कुलिं तिलपर्पटिकां ३ फाणितं द्रवगुडं ४ पूपकं कणिकादिमयम् ५ अन्यद्वा तथाविधं मोदकादि ॥ ७१ ॥ 1 ( टीका.) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव सक्तुचूर्णान् कोलचूर्णान् बदरसक्तून् श्रपणे वीयां तथा शष्कुली तिलपर्पटिकां फाणितं द्रवगुडं पूपं कणिकादिमयम् । श्रन्यद्वा तथाविधं मोदकादि ॥ ७१ ॥ विक्कायमाणं पसढं, रणं परिफासि ॥ दिति पडित्र्याइके, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७२ ॥ ( अवचूरिः ) विक्रीयमाणमापण इति शेषः । प्रसह्यकमनेकदिनस्थापनेन प्रकटम् । अतएव रजसा पार्थिवेन परिस्पृष्टं व्याप्तम् ॥ ७२ ॥ ( . ) तथा ( विक्कायमाणं के० ) विक्रीयमाणं एटले दुकानमां वेचातुं एवं, तथा ( पसढं के० ) प्रसह्यं एटले बहु दिवस राखीने प्रकट करेलुं एवं माटेज (रएण के० ) रजसा एटले सचित्त रजें करी ( परिफासि के० ) परिस्पृष्टं एटले खरड्यं एवं छान्नपान तेने ( दिंतियां के० ) ददतीं एटले आपनारीने (पडिया के ho ) प्रत्याचक्षीत एटले वर्जे. केवीरीतें परिहरे ते कहे बे. ( न मे कप्पर तारिसं के० ) न मे कल्पते तादृशं एटले मने तेवुं सूतुं खपतुं नथी. ॥ ७२ ॥ For Private Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३०१ ( दीपिका. ) तत्किमित्याह । एवंभूतं सक्नुचूर्णादिकं दीयमानमपि साधुर्नगृह्णीयादित्यर्थः ॥ ७२ ॥ ( टीका . ) किमित्याह । विक्कायमाणं ति सूत्रम् । विक्रीयमाणमापणे इति वर्तते । प्रसह्य अनेक दिवस स्थापनेन प्रकटम् । अतएव रजसा पार्थिवेन परिस्पृष्टं व्याप्तम् । तदिवंभूतं तत्र ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रद्वयार्थः ॥ ७२ ॥ बहुप्रयिं पुग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटयं ॥ अनियंतिऽयं बिल्वं, उनुखमं व सिंबलिं ॥ ७३ ॥ ( अवचूरिः ) बह्वस्थिकं पुलं मांसमनिमिषं वा मत्स्यं बहुकंटकम् | त्र्यं किल कालाद्यपेक्षया ग्रहणे निषेधः । अन्ये त्वादुः । वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफलाख्ये एते । तथा चाह अस्थिकं अस्थिकवृदफलं तिंडुकं तिंडुरूकीफलं बिल्वमितुखमं शाल्मलिं वल्लादिफलम् । वाब्दशस्य व्यवहितः संबन्धः ॥ ७३ ॥ ( अर्थ. ) ( बहुहियं के० ) बव्ह स्थि एटले जेमां वलिया घणा बे, एवा ( पुग्गलं के० ) पुलं एटले पोगल वृक्षनुं फल अथवा सीताफल ( वा के० ) - वा (मिसं ० ) अनिमिषं एटले अनिमिष नामक फलने अथवा ( बहुकंटयं ० ) बहुकंटकं एटले कांटा जेने घणा बे, एवा फलने अथवा ( नियं ho) अस्थिकं एटले अस्थिकवृनुं फल अथवा ( तिंडुयं के० ) तिंडुकं एटले तिंडुकवृनुं फल तथा ( बि के ) बिल्वं एटले बिल्वनामक वृक्षनुं फल तथा ( उघुखंड के० ) इदुखंडे एटले शेलडीना कटका ते प्रत्ये ( च के० ) वली ( संविलिं के० ) शाल्मलिं एटले शाल्मलीना फल प्रत्ये ॥ ७३ ॥ ( दीपिका. ) पुनः किं किं कीदृशं कीदृशं दीयमानमपि न गृह्णीयात् तदाह । साधुः पुलादिकं दीयमानमपि न गृह्णीयात् इत्युक्तिः । पुलं मांसम् । किंभूतं पुलम् । बह्रस्थिकं १ तथा अनिमिषं वा मत्स्यम् । किं० श्रनिमिषम् । बहुकंटकम् | छायं किल काला - पेया ग्रहणे प्रतिषेधः । अन्ये तु निदधति वनस्पत्यधिकारात् तथाविधफलानि - धाने ते इति । तथा च ह । अस्थिकं अस्थिकवृदफलं तिंडुकं तिंडुरुकी फलम् । बिल्वं कुखंडं च एतद्दयमपि प्रसिद्धम् । शाल्मलीं वा वल्लादि फलिं च ॥ ७३ ॥ ( टीका. ) किंच बहुहियं ति सूत्रम् । बह्वस्थिपुलं मांसमनिमिषं वा मत्स्यं वा बहुकटकम् । श्रयं किल कालाद्यपेक्षया ग्रहणे प्रतिषेधः । श्रन्ये त्वनिदधति वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफला निधाने एते इति । तथा चाह । किं विकवृफलम् । For Private Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(४३)-मा. तेऽकं तेंडुरुकीफलम् । बित्वमिनुखएममिति च प्रतीते । शाल्मलिं वा वसा दिफलिं वा । वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्ध इति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ अप्पे सिआ नोअजाए, बढुननियधम्मिए ॥ दितिअं पडिआश्के, न मे कप्पश् तारिसं ॥४॥ ___ (अवचूरिः) अत्रैव दोषमाह । अल्पं स्यानोजनजातम् । बहूतनधर्मकम् । एतत् ददतीम् ॥ ४ ॥ (अर्थ.) तथा (जोअणजाए के०) नोजनजातं एटले जे पदार्थमा खावायोग्य जाग जे जे ते (अप्पे के० ) अल्पं एटले थोडो (सिया के) स्यात् एटले होय, अने ( बहु उनिय धम्मिए के० ) बहमनधर्मकं एटले नांखवा योग्य पुजल घणा एवो बे धर्म ते खन्नाव जेनो एवा अर्थात् खावं थोडं अने परग्वु घणुं जेमां बे, एवा फलादिकने (दितिरं के ) ददतीं एटले आपनारी एवी श्राविकाने (पडियाश्के के०) प्रत्याचदीत एटले परिहरे, वर्जे. ते एवीरीतें के, (न मे कप्प३ तारिसं के०) मने तेवू असूफतुं अन्नपान खपतुं नथी. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) एतहणे दोषमाह । बहुअअिपुग्गलादिके नदिते सति अल्पं स्यात् नोजनजातं तथा एतत् बदलनधर्मकं च । यतश्चैवं ततो ददती प्रति साधुर्वदेत् न मम कल्पते तादृशमिति ॥४॥ (टीका.) अत्रैव दोषमाह । अप्पत्ति सूत्रम् । अस्पं स्यानोजनजातमत्रापि तु बहूतनधर्मकमेतत् । यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ तदेवुच्चावयं पाणं, अज्वावारधोअणं ॥ संसेश्मं चालोदगं, अढणाधो विवजए॥ ५॥ ( श्रवचूरिः ) उक्तोऽशन विधिः संप्रति पानविधिमाह । तथैव यथाशनमुचावचम् । उच्चं वर्णाद्युपेतं प्रादापानादि अवचं वर्णादिहीनं पूत्यारनालादिकम् । अथवा वारकधावनं गुडघटधावनम् । अथवा धान्यस्थालीदालनाद्यपि । संस्वेदजं पिष्टोदकादि । एतदशनवउत्सर्गापवादाज्यां गृह्णीयादिति शेषः । तन्मुलोदमधुनाधौतमपरिणतं विवर्जयेत् ॥ ५ ॥ (अर्थ.) अहिंसुधी अन्न लेवानो विधि कह्यो, हवे पाणी लेवानो विधि कहे बे. तद्देव त्ति (तहेव के०) तथैव एटले जेम अन्न लेवानो विधि कह्यो, तेमज (उच्चा Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३०३ वयं के० ) उच्चावचं, एटले जेने केशरादिकनो सुगंध डे ते जाखवाणी, साखरवाणी प्रमुख अने अवच ते जेने सारो गंध अथवा वर्ण नथी एवं कांजी, पाणी विगेरे (पाणं के०) पानं एटले पीवानो पदार्थ, (अमुवा के०) अथवा (वारधोअणं के०) गोलनो घडो धोश्ने काढीनाखेलुं पाणी, सेलडीने रसें खरड्या घडानुं धोवण, अथवा थाली प्रमुखनुं धोवण, अथवा (संसेश्मं के०) संस्वेदजं एटले कथरोटनुं धोयण ले. तथा ( चाउलोदगं के०) तंडुलोदकं एटले चोखानुं धोयण ते ( अहुणाधोधे के०) अधुनाधौतं एटले तत्कालनुं धोएलुं जेनो फरस परिणम्यो नथी तेवा पीवाना पदार्थने पूर्वोक्त साधु ( विवङाए के ) विवर्जयेत् एटले विवशेषे करी वर्जे. ॥ ५ ॥ (दीपिका.) उक्तोऽशन विधिः। अथ पानविधिमाह । एवंविधं पानं गृह्णीयात्। किंविधं पानम्। तथैव उच्चावचं तथैव यथाशनमुच्चावचम्। उच्चं वर्णाद्युपेतं जादापानादि श्रवचं वर्णादिहीनं पूत्यारनालादि । अथ वा वारकधावनं गुडघटधावनादि धान्यस्थालीदालनादि संस्वेदजं पिष्टोदकादि । एतत् अशनवत् उत्सर्गापवादाच्यां साधुर्यहीयात् इति वाक्यशेषः । तन्मुलोदकमधुनाधौतमपरिणतं साधुर्विवर्जयेत् ॥ ५॥ ( टीका.) उक्तोऽशनविधिः । सांप्रतं पान विधिमाह । तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव यथाशनमनन्तरमुच्चावचं तथा पानमुच्चं वर्णाद्युपेतं मादापानादि । अवचं वर्णादिहीनं प्रत्यारनालादि । अथवा वारकधावनं गुडघटधावनमित्यर्थः। संस्वेदजं पिष्टोदकादि । एतदशनवपुत्सर्गापवादान्यां गृह्णीयादिति वाक्यशेषः । तन्दुलोदकमहिकरकं अधुनाधौतमपरिणतं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ जं जाणेऊ चिरा धोयं, मईए दंसणेण वा ॥ पडिपुचिकण सुच्चा वा, जं च निस्संकिअं नवे ॥६॥ (अवचूरिः) अत्रैव विधिमाह । यजानीयात्तन्छुलोदकं चिराझौतम् । कथम् । मत्या दर्शनेन वा। वाशब्दश्चकारार्थः। सूत्रानुसारमत्या दर्शनेन च वर्णापरिणतेन । प्रतिपृष्ठय श्रुत्वा च तत्प्रतिवचः यच्च निःशङ्कितं तत् गृह्णीयादिति शेषः ॥ ६ ॥ (अर्थ.) वली (जं के०) यत् एटले जे चोखानुं पाणी ( चिराधोयं के) चिरधौतं एटले घणी वखतनुं धोयु जे एम ( जाणिज के० ) जानीयात् एटले जाणे. शाथी जाणे तो के, (मए के०) मत्या एटले पोतानी सूत्रानुसारी बुछिए करी (वा के०) अथवा (दसणेण के०) दर्शनेन एटले प्रत्यद दृष्टिए करी, (वा के०) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) - मा. पु किंवा ( प ० ) प्रतिपृच्छय एटले गृहस्थने पूबीने तथा ( सुच्चा के० ) श्रुत्वा एटले घणी वेलानुं धोयुं बे एवं गृहस्थना मुखथी सांजलीने ( जं के० ) यत् एटले जे पूर्वोक्त पाणी ( निस्संकियां के० ) निःशंकितं एटले शंकारहित एवं ( नवे के० ) जवेत् एटले होय तो ते साधु ग्रहण करे. ॥ ७६ ॥ ( दीपिका. ) व विधिमाह । साधुर्यत्तन्डुलोदकमेवं जानीयात्तद् गृह्णीयादिति शेषः । किंविशिष्टं तन्डुलोदकं चिराौतम् । कथं जानीयादित्याह । मत्या तरूहणादिकर्मजया तथा दर्शनेन वा वर्णादिपरिणत सूत्रानुसारेण वा । किं कृत्वा । इति गृहस्थं पृष्ट्वा । इतीति किम् । कियती वेला यस्य धौतस्य जाता इति । च पुनः इति श्रुत्वा गृहस्थात् । इतीति किम् । महती वेला जाता यस्य धौतस्य इति । एवं च यन्निःशंकितं वति तगृह्णीयादिति ॥ ७६ ॥ ( टीका. ) व विधिमाह । जं जाणिक त्ति सूत्रम् । यत्तन्डुलोदकं जानीयाद्विया चिरधौतम् । कथं जानीयादित्यत श्राह । मत्या दर्शनेन वा । मत्या तग्रहणादिकजया । दर्शनेन वा वर्णादिपरिणतसूत्रानुसारेण । चकारो वाशब्दार्थः । तदप्येवंभूतं किती वेलास्य धौतस्येति पृष्ट्वा गृहस्थम् । श्रुत्वा वा महती वेलेति श्रुत्वा च प्रतिवचनम् । यच्चेति यदेव निःशङ्कितं जवति निरवयवप्रशान्ततया तन्डुलोदकं तत्प्रति गृह्णीयादिति । विशेषः पिएम निर्युक्तायुक्त इति सूत्रार्थः ॥ ७६ ॥ जीवं परिणयं नच्चा, पडिगादिक संजए ॥ यह संकियं नविका, आसाइत्ता ए रोए ॥ ७७ ॥ ( श्रवचूरिः ) उष्णोदकमजीवं परिणतं ज्ञात्वा त्रिदपरिवर्त्तनादिरूपं मत्या दर्शनेन वेति वर्त्तते । तदिवंभूतं प्रतिगृह्णीयात् संयतः । श्ररनालमपि पूत्यादिदोषरहितं देहोपकारकं मत्यादिना ज्ञात्वा इति । श्रथ शङ्कितं जवेत् पूत्यादिदोषेण । तत स्वाद्य रोचयेत् विनिश्चयं कुर्यात् ॥ ७७ ॥ (अर्थ. ) हवे वली उष्णोदक लेवानो विधि कहे बे. जीवमिति (संजए के० ) संयतः एटले साधु जे उदक लेवानुं होय तेने (जीवं के० ) जीवर हित एटले प्रासुक छाने ( परिणतं के० ) जेनी वेला परिणमी बे एवं (नच्चा के० ) ज्ञात्वा एटले जाणीने अर्थात् त्रिदंडपरिवर्तनादिके करी शुद्ध बे, एम सूत्रानुसारी बुद्धियी जाणीने ( पडिगाहिता के० ) प्रतिगृह्णीयात् एटले ग्रहण करे, वहोरे. (छाह के० ) थ. हिं अथ शब्दें करी बीजो पक्ष ग्रहण करवो. ते एवी रीते के, जो पूर्वोक्तरीतें लेवानुं For Private Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३०५ उदक प्रासुक नहीं होय, अने (संकियं के०) शंकितं एटले कोइ प्रकारना दोषनी शंकासहित (नविजा के०) नवेत् एटले होय तो (आसाश्त्ता णं के०) आस्वाद्य एटले हाथे लक्ष जीनें चाखी (रोपए के०) रोचयेत् एटले निश्चय करे, अर्थात् जीन पर मूकीने तेनो निश्चय करे के, ए प्रासुक लेवा जोग डे के नथी, ॥ ७॥ (दीपिका.) अथ उष्णोदकादिविधिमाह । संयतः साधुः एवं विधमुष्णोदकं गृह्णीयादिति नक्तिः । किं कृत्वा। अजीवं प्रासुकं तथा परिणतं त्रिदएमोत्कलितम्। चतुर्थरसमपि अपत्यादि देहोपकारकं मत्या दर्शनेन वा ज्ञात्वा अथ शङ्कितं नवेत्पूत्यादिजावेन । ततः तत्पानीयमास्वाद्य रोचयेछिनिश्चयं कुर्यात् ॥ ७ ॥ (टीका.) उष्णोदकादिविधिमाह । श्रजीवं ति सूत्रम् । उष्णोदकमजीवं परिणतं ज्ञात्वा त्रिदएपरिवर्तनादिरूपं मत्या दर्शनेन वेत्यादि वर्तते। तदिछन्नूतं प्रतिगृण्हीयात्संयतः । चतुर्थरसमपूत्यादि देहोपकारकं मत्यादिना ज्ञात्वेत्यर्थः । अथ शङ्कितं जवेत्पूत्यादिनावेन तत श्राखाद्य रोचयेन्निश्चयं कुर्यादिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ थोवमासायणकाए, हबगंमि दलादि मे॥ मामे अचंबिलं पूअं, नालं तिन्दं विणित्तए॥ जज ॥ (अवचूरिः) स्तोकमास्वादनार्थं प्रथमं तावत् हस्ते देहि । यदि साधुप्रायोग्य ततो ग्रहीष्ये । मामे अत्यम्दं पूति तृष्णापनोदाय नालम् । ततः किमनेनानुपयोगिनेति । स्वादितं चेत्साधुप्रायोग्यं गृह्यते ॥ ७ ॥ (अर्थ.) केवी रीतें निश्चय करे, ते कहे . वली संयमी साधु पाणी वहोरतां गृहस्थने कहे के, ( थोवं के०) स्तोकं एटले थोडं पाणी (आसायणहाए के०) श्रावादनार्थ एटले चाखवाने अर्थे (मे के० ) मुजने ( हबगंमि के० ) हस्ते एटले हाथने विषे ( दलाहि के०) देहि एटले आप. जो प्राशुक हशे तो हुं लश्श, ( अचंबिलं के०) अत्यम्लं एटले अतिशय खाटुं अथवा (पूनं के) पूतं एटले कोद्यु एवं ( तिन्हं के ) तृष्णां एटले तृषाने ( विणित्तए के० ) विनेतुं एटले निवारण करवाने (नालं के०) समर्थ नथी, माटे एवं पाणी (मे के०) मने (मा के) नहीं खपे. ॥ ॥ ( दीपिका.) अथ केन विधिना विनिश्चयं कुर्यादित्याह साधुर्दातारं प्रति एवं वदेत् । एवं किम्।मे मम हस्ते श्रास्वादनार्थं स्तोकं पानीयं प्रथमं देहि ।यदि साधोरुप Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा.. जोग्यं ततो ग्रहीष्ये। मा मे मम श्रत्यम्ल पूति तृषापनोदाय न अलं समर्थं । ततः किमनेन अप्रयोजनेनेति । तत अस्वादितं सच्च तत्साधुयोग्यं चेन्नवति तदा गृह्यत एव नो चेत्तदाग्राह्यम् ॥ ७ ॥ (टीका.) तच्चैवं थोवं ति सत्रम । स्तोकमाखादनार्थ प्रथमं तावत हस्ते देहि मे। यदि साधुप्रायोग्यं ततो ग्रहीष्ये। मा मे अत्यम्दं पूति नालं तृडपनोदाय । ततः किमनेनानुपयोगिनेति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ तं च अचंबिलं पूयं, नालं तिन्दं विणित्तए॥ दितिअं पडिआइके, न मे कप्प३ तारिसं ॥५॥ (अवचूरिः) तं च । नालं तृष्णापनोदाय ॥ sए ॥ ( अर्थ.) माटे तं च इति. (तं के ) तत् एटले ते ( अचंबिलं के) अत्यम्दं एटले अतिशय खाटुं अथवा (पूयं के०) पूतं एटले कोयु एवं जल (तिन्हं विणित्तए के०) तृष्णां विनेतुं एटले तृषानुं निवारण करवाने अर्थे ( नालं के० ) समर्थ नथी. एवा पाणीने (दितिरं के०) ददतीं एटले आपनारी एवी श्राविकाने (पडियाश्के के) प्रत्याचदीत एटले कहे के, मने तेवू असूऊतुं पाणी कल्पे नहि. ॥ ए॥ (दीपिका.) अथ कदाचित स्त्री तदत्यम्लमपि ददाति तदा तां ददती प्रति साधुः किं वक्ति तदाह । तच्च अत्यम्लं पूति न अदं समर्थं तृष्णां विनेतुं ततो ददती प्रति वक्ति न मम कल्पते तादृशमिति ॥ ए॥ (टीका.) तं च त्ति सूत्रम् । सुगमम् ॥ ए॥ तं च होऊ अकामेणं, विमणेण पडिडिअं॥ तं अप्पणा न पिबे, नो वि अन्नस्स दावए ॥10॥ (अवचूरिः) तच्चात्यम्लादि नवेदकामेनोपरोधशीलतया विमनस्केनान्यचित्तेन प्रतीछितं गृहीतं तदात्मना कायापकारकमित्यनाजोगधर्मश्रज्या न पिबेत्। नाप्यन्येन्यो दापयेत् । रत्नाधिकेनापि स्वयं दानस्य प्रतिषेधज्ञापनार्थं दापनग्रहणमिति ॥७॥ ( अर्थ.) पूर्वोक्त जल कदाचित् देनार श्राविकाए आग्रहपूर्वक साधुने वहोराव्यु तो तेनुं शुं करवू ते कहे . तं च इति. वली कदाचित् ते संजमी साधुए (तं के०) तत् एटले उपर कहेढुं एवं अत्यम्लादि जल (अकामेणं के०) अकामेन Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३०७ एटले श्चा नहीं बता पण श्रापनारना श्राग्रहथी अथवा ( विमणेण के ) विमनस्केन एटले मन ठेकाणे नहीं होवाथी (पडिमिश्र हुऊ के०) प्रतीछितं नवेत् एटले ग्रहण कयुं होय तो (तं के०) ते जल (अप्पणा के०) आत्मना एटले पोते (ण पिबे के०) न पिबेत् एटले पिए नहि. तथा ( अन्नस्स वि के० ) अन्यस्यापि एटले बीजाने पण (नो दावए के०) न दापयेत् एटले अपावे नहीं. कारण ते पीवा योग्य नथी. ॥ ७० ॥ (दीपिका.) अथ अकामादिना कदाचित् तदत्यम्लादिकं गृहीतं तदा को वि. धिस्तदाह । एवं विधमत्यम्लादि साधुना कदाचित् अकामेन आग्रहवशेन विमनस्केन अन्यचित्तेन प्रतीछितं गृहीतं नवेत् । तदापि तत् साधुन पिबेत् कायस्यापकारकमिति अनाजोगधर्मश्रख्यापि नापि अन्येच्यो दापयेत् । रत्नाधिकेनापि स्वयं दा. नस्य प्रतिषेधज्ञापनार्थ दापनग्रहणम् । इह च श्यं नावना । सबब संजमं संजमार्ग अप्पाणं चेव रकिजा इति ॥ ७॥ (टीका.) श्रास्वादितं च सत्साधुप्रायोग्यं चेमृह्यत एव नो चेदग्राह्यम् । तं च त्ति सूत्रम् । तच्चात्यम्लादि नवेदकामेन नपरोधशीलतया विमनस्केनान्यचित्तेन प्रतीप्सितं गृहीतम् । तदात्मना कायापकारकमित्यनाजोगधर्मश्रझ्या न पिबेत् ।नाप्यन्येन्यो दापयेत् । रत्नाधिकेनापि स्वयं दानस्य प्रतिषेधज्ञापनार्थं दापनग्रहणम् । इह च सबब संजमं संजमा अप्पाणमेवेत्यादि नावनयेति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेदिया॥ जयं परिहविजा, परिहप्प पडिक्कमे ॥१॥ (अवचूरिः) अस्यैव विधिमाह । एकान्तमवक्रम्याचित्तं दग्धप्रदेशादि प्रत्युपेक्ष्य चनुषा प्रमृज्य च रजोहरणेन स्थगिझलमिति गम्यम् । यतं परिष्ठापयेत् । विधिना त्रिवाक्यपूर्वं व्युत्सृजेत् । प्रतिष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिक्रामेदीर्यापथिकीम् ॥ १॥ __ (अर्थ.) त्यारे ते साधु पोते पीये नहि, अने बीजाने आपे नहि, ते पाणीशुं करे ते कहे . एगंतमिति ( एगंतं के ) एकांतस्थानके ( अवक्कमित्ता के०) अवक्रम्य एटले जश्ने तथा (अचित्तं के० ) जीवरहित जग्याने (पडिलेहिथा के०) प्रतिलेख्य एटले दृष्टिए करी जोश्ने तथा रजोहरणेकरी पडिलेहीने (जयं के०) यतं एटले शीघ्रताथी नहि, पण जयणाए करी (परिकविता के०) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रतिष्ठापयेत् एटले ते पाणीने परग्वे अने (परिठप्प के०) प्रतिष्ठाप्य एटले परठवीने ( पडिकमे के ) प्रतिकामेत् एटले शरियावहि प्रतिक्रमण करे. ॥ ७ ॥ (दीपिका.) ननु स्वयं तादृशं न पिबेत् अन्यस्य न पाययेत्तर्हि किं कुर्यादित्याह। साधुस्तत्पूर्वं गृहीतमत्यम्लादिकं प्रतिष्ठापयेत् विधिना व्युत्सृजेत्। किंकृत्वा। एकान्तं स्थानमवक्रम्य गत्वा अचित्तं दग्धप्रदेशादि स्थानं प्रत्युपेय चनुषा, प्रमृज्य च रजोहरणेन स्थझिलमिति शेषः। कथं प्रतिष्ठापयेत् । यतमत्वरितम् न शीघ्रम्। प्रतिष्ठापनानन्तरं किं कुर्यादित्याह । प्रतिष्ठाप्य वसतिमुपाश्रयमागतः सन् प्रतिक्रामेदीर्यापथिकीम् । एतच्च बहिरागत नियमकरण सिझम् प्रतिक्रमणमबहिरपि प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रमणनियमापनार्थमिति ॥१॥ (टीका.) अस्यैव विधिमाह । एगंतं ति सूत्रम् । एकान्तमवक्रम्य गत्वा अचित्तं दग्धदेशादि प्रत्युपेय चकुषा, प्रमृज्य रजोहरणेन । स्थगिफल मिति गम्यते । यतमत्वरितं प्रतिष्ठापयेद्विधिना त्रिर्वाक्यपूर्वं व्युत्सृजेत् । प्रतिष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिकामेदीर्यापथिकाम् । एतच्च बहिरागतनियमकरणसिद्धम् प्रतिक्रमणमबहिरपि प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रमण नियमझापनार्थमिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ सिधा अ गोयरग्गगन, इविता परिनुत्तुअं॥ कुछगं नित्तिमूलं वा, पडिलेदित्ता ण फासुअं॥२॥ (अवचूरिः) अन्नपान विधिमनिधाय जोजन विधिमाह । स्यागोचराग्रगतो ग्रामान्तरं निदां प्रविष्ट श्छेत्परिजोक्तुं बालादिः पिपासायनिजूतः सन् । तत्र साधुवसत्यनावे कोष्ठकं शून्यगृहमादि नित्तिनूतं कुडयैकदेशादि प्रत्युपेक्ष्य चनुषा, प्रमृज्य च रजोहरणेन । प्रासुकं बीजादिरहितम् ॥ २॥ (अर्थ.) एवी रीते अन्न पान लेवानो विधि कह्यो. हवे नोजननो विधि कहेजे. ते संयमी साधु ( गोयरग्गग के०) गोचराग्रगतः एटले गोचरीए गयो थको तिहां ( सिधा श्र के०) स्यात् कदाचित् एटले जो कदाचित् ( परिजुत्तुभं के०) परिनोक्तुं, एटले नोजन करवाने (इछिद्या के०) श्छेत् एटले श्छे. तो त्यां साधुनी वसति नहि होवाथी (कुछगं के०) कोष्ठकं एटले शून्य घर मगदिकने विषे (वा के०) अथवा (नित्तिमूलं के०) मग दिकनी नीतना मूल आगल (फासुझं के०)प्रासुकं एटले सूझती शुद्ध एवी नूमिने ( पडिले हित्ता ण के०) दृष्टिए करी जोश्ने ॥ २ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३० ए ( दीपिका . ) एवमन्नपानग्रहण विधिं कथयित्वा जोजनविधिमाह । बालादिः साधुः पिपासाद्य निनूतः स्यात् कदाचिशेोचराग्रगतो ग्रामान्तरं निदार्थं प्रविष्टः सन् परिनोक्तुमिच्छेत् । तदा तत्र वसतिर्नास्ति । तदा कोष्टकं शून्यं च मादि नित्तिमूलं वा कुड्यैकदेशादीत्याह ॥ ८२ ॥ ( टीका. ) एवमन्नपानग्रहण विधिमनिधाय जोजनविधिमाह । सिि सूत्रम् । स्यात् कदा चिमोचरायगतो ग्रामान्तरे निक्षां प्रविष्ट इवेत्परिजोक्तुं पानादि पिपासाद्य निनूतः सन् । तत्र साधुवसत्यजावे कोष्टकं शून्यवमादि नित्तिमूलं वा कुड्यैकदेशादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा, प्रमृज्य च रजोहरणेन प्रासुकं बीजादिरहितं चेति सूत्रार्थः ॥ ८२ ॥ अन्न वित्तु मेदावी, पचिन्नंमि संतुरं ॥ दबगं संपत्ति, तच चुंजिक संजए ॥ ८३ ॥ ( वचूरिः) अनुज्ञाप्य तत्स्वामिनं मेधावी साधुः प्रतिछन्ने कोष्ठकादौ संवृत उपयुक्तः साधुरीर्याप्रतिक्रमणं कृत्वा तदनु हस्तकं मुखवस्त्रिका रूपमादायेति वाक्यशेषः । संप्रमृज्य विधिना तेन कार्यं तत्र भुञ्जीत संयतः ॥ ८३ ॥ ( अर्थ. ) पठी ( मेहावी के० ) मेधावी एटले बुद्धिमंत एवो ( संजए के० ) संयतः एटले ते साधु ( अन्नवित्तु के० ) अनुज्ञाप्य एटले गृहस्थनी अनुज्ञा लइने ( पछिन्नंमि के० ) प्रतिबन्ने एटले तृणादिके करी ढाकेला एवा गमने विषे ( संवुडे के० ) संवृतः एटले उपयुक्त थको इरियावही पडिकमीने (हबगं ho ) हस्तकं एटले मुहपत्ति लइने हस्तपादादि अवयवने ( संपम कित्ता के० ) संप्रमृज्य एटले सारीरीते पूंजीने ( तब के० ) ते स्थलने विषे ( गुंजित के० ) मुंजीत एटले रागद्वेष मूकीने जोजन करे. ॥ ८३ ॥ ( दीपिका. ) संयतः साधुस्तत्र स्थाने वक्ष्यमाणेन विधिना रागद्वेषरहितः सन् ञ्जीत । किं कृत्वा । तत्खामिनमवग्रहमनुज्ञाप्य आदेशं गृहीत्वा सागारिकपरिहारतो विश्रामणव्याजेन । किंभूतः संयतः । मेधावी साधुसामाचारी विधिज्ञः । किंभूते कोकादिस्थाने । प्रतिने उपरि तृणादिनिराच्छादिते न आकाशे । किंभूतः संयतः । संवृत उपयुक्तः सन्नीर्याप्रतिक्रमणं कृत्वा ततो दस्तकं मुखवस्त्रिका रूपमादाय इति शेषः । तेन विधिना कार्य संप्रमृज्य मुञ्जीत ॥ ८३ ॥ For Private Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (टीका.) तत्र अणुन्नवित्ति सूत्रम् । अनुज्ञाप्य सागारिकपरिहारतो विश्रमणव्याजेन तत्स्वामिनमवग्रहं मेधावी साधुः प्रतिबन्ने तत्र कोष्ठकादौ संवृत उपयुक्तः सन् साधुरीर्याप्रतिक्रमणं कृत्वा तदनु हस्तकं मुखवस्त्रिकारूपम् । आदायेति वाक्यशेषः । संप्रमृज्य विधिना तेन कायं तत्र जुञ्जीत संयतो रागढेषावपाकृत्येति सूत्रार्थः॥ ३॥ तब से मुंजमाणस्स, अहिअं कंटन सिया॥ तणकसकरं वा वि, अन्नं वा वि तहाविहं ॥४॥ __(श्रवचूरिः) तत्र कोष्ठकादौ से तस्य साधोर्जुञ्जानस्यास्थिकं कएटको वा स्यात् । कथंचिगृहिणां प्रमाददोषात् कारणगृहीते पुजल एवेत्यन्ये । तृणकाष्ठशर्करं वापि । अन्यत्रापि तथाविधं बदरककेटकादीति ॥ ४ ॥ (अर्थ.) त्यां जोजन करनार मुनिने आहारमां जो अस्थ्यादिक आवे तो ते शुकरे, ते कहे. ( तब के०) तत्र एटले तिहां (मुंजमाणस्स के०) मुंजानस्य एटले नोजन करता एवा ( से के०) तस्य एटले ते साधुने आहार मांहे कदाचित् (अहियं के०) अस्थिकं एटले हाडकुं तथा (कंटयो के०) कंटकः एटले कांटो गृहस्थना प्रमादथी ( सिथा के०) स्यात् श्राव्यो होय, ( वा के० ) अथवा (तणकसकरं वि के०) तृणकाष्ठशर्करमपि एटले तृण, काष्ठ तथा शर्करा ते कांकरो श्राव्यो होय, ( अन्नं वा वि के०) अन्यछापि एटले बीजुं पण ( तहाविहं के० ) तथाविधं एटले तेवुज कांई आव्यु होय तो ॥ ४ ॥ (दीपिका.) अथ तत्र जुञ्जानस्य साधोः अस्थि वा कएटकादि वा स्यात् तदा साधुः किं कुर्यादित्याह।तत्र कोष्ठकादौ सेतस्य साधोः जुञ्जानस्य अस्थि वा रकएटको वा २ स्यात् । अन्ये वदन्ति कथंचित् गृहिणां प्रमाददोषात् कारणगृहिते पुजल एव । तृणं वा ३ काष्ठं वा ४ शर्करा वा ५ स्यात् । अन्यत्रापि तथाविधं बदरकएटकादि वा स्यात् ॥ ४ ॥ (टीका.) तब ति सूत्रम् । तत्र कोष्टकादौ से तस्य साधोर्जुञानस्य अस्थिकएटको वा स्यात् । कथंचिगृहिणां प्रमाददोषात् कारणगृहीते पुजल एवेत्यन्ये । तृणकाष्ठशर्करादि चापि स्यात् । उचितनोजनेऽन्यछापि तथाविधं बदरकर्कटकादीति सूत्रार्थः ॥ ४॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । तं नरकवित्तु न निस्किवे, यासएण न बहुए ॥ दत्रेण तं गदेऊण, एगंतमवक्कमे ॥ ८५ ॥ ( अवचूरिः ) तदस्ध्यादि उत्क्षिप्य हस्तेन यत्रकुत्रचिन्न क्षिपेत् । श्रस्येन मुखेन नोत् मा भूद्विराधनेति । अपि तु इस्तेन गृहीत्वा तदस्थ्यादि एकान्तमवक्रामेत् ॥ ८५ ॥ ३११ (अर्थ). ( तं के० ) तत् एटले ते अस्थिप्रमुख पदार्थने जमता हाथे की ( उरिक वित्तु के० ) उत्क्षिप्य एटले उपाडीने ( न निस्किवे के० ) न निक्षिपेत् एटले ज्यां त्यां बूटुं नाखे नहीं. तथा ( आसएण के० ) आस्येन एटले मुखें करी (न बड्डe ho) नोने एटले थुंकी पण नाखे नहीं. तो शुं करे तो के, ( हवेण के० ) हस्तेन एटले हाथे करी ( तं के० ) ते अस्थि प्रमुखने (गऊणं के० ) गृहीत्वा एटले ग्रहण करीने ( एतं के० ) एकांतस्थलने विषे ( वकमे के० ) अवक्रामेत् एटले जाय ॥ ८५ ॥ ( दीपिका . ) साधुः तदस्थ्यादिकमुत्क्षिप्य हस्तेन यत्र कचिन्न निक्षिपेत् । तथा यस्येन मुखेन न उत् मानू द्विराधना इति हेतोः । अपितु किं कुर्यात् । हस्तेन तदस्थ्यादिकं गृहीत्वा एकान्तं निर्व्यञ्जनं स्थानमवक्रामेत् ॥ ८५ ॥ ( टीका . ) तं उरिक वित्तु इति सूत्रम् । तदस्थ्यादि उत्क्षिप्य हस्तेन यत्र वचिन्न निक्षिपेत् । तथास्येन मुखेन नोनेत् । श्रपितु हस्तेन गृहीत्वा तदस्थ्या दि एकान्तमवक्रामेदिति सूत्रार्थः ॥ ८५ ॥ एगंतमवक्कमित्ता, चित्तं पडिले दिया ॥ जयं परिहविका, परिठप्प पडिक्कमे ॥ ८६ ॥ ( अवचूरिः ) एकान्तमवक्रम्य चित्तं प्रत्युपेक्ष्य तं यतं परिष्ठापयेत् । परिष्ठाप्य प्रतिक्रामेत् ॥ ८६ ॥ ( अर्थ. ) उपरनी गाथामां का प्रमाणे ( एगंतं के० ) एकांतस्थलने विषे ( वक्कमित्ता० ) वक्रम्य एटले जश्ने ( जयं के० ) यतं एटले जयणासहित (परिविका के० ) परठवे, ( परिप्प के० ) परठवीने पढी ( पडिक्कमे के० ) प्रतिक्रामेत् एटले इरियावह पक्किमे ॥ ८६ ॥ ( दीपिका . ) तत्र गत्वा किं कुर्यादित्याह । साधुस्तदस्थ्यादिकं यतमत्वरितं For Private Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रतिष्ठापयेत् । किं कृत्वा । एकान्तमवक्रम्य गत्वा । पुनः किं कृत्वा। श्रचित्तं प्राशुकं प्रत्युपेय चकुषा, रजोहरणेन प्रमाय॑ च परिष्ठाप्य च प्रतिकामेदीर्यापथिकीमिति॥६॥ ( टीका. ) एगंत त्ति सूत्रम्। एकान्तमवक्रम्य अचित्तं प्रत्युपेक्ष्य यतं प्रतिष्ठापयेत् । प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रामेदिति । नावार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः॥ ६ ॥ सिआय निरक इबिजा, सिऊमागम्म नुत्तुअं॥ सपिंडपायमागम्म, मुअं से पडिलेहिआ॥७॥ (अवचूरिः) वसतिमधिकृत्य जोजन विधिमाह । स्यानिकरिबेन्छय्यां वसतिमागम्य परिनोक्तुम् । सपिएलपातेन विशुनिदया सहागम्य । वसतिमिति गम्यते। उन्मुकं स्थानं प्रत्युपेक्ष्य तत्रस्थो निदां शोधयेत् ॥ ७ ॥ (अर्थ.) हवे पोताने स्थानकने विषे आहार लेवानो विधि कहे . ( सिश्रा के०) स्यात् कदाचित् एटले जो कदाजित् बीजा कोश्पण कारणना अन्नावथी (निरकू के०) निकुः एटले साधु (सिङ के०) शय्याम् एटले उपाश्रय प्रत्ये (आगम्म के०) आगम्य एटले आवीने (जुत्तुशं के०) नोक्तुं एटले नोजन करवा (विद्या के ) श्छेत् एटले श्छे. तो ( सपिंडपायं के०) सपिंडपातं एटले शुक निदाए सहित एवो ते साधु ( आगम्म के०) आगम्य एटले उपासरानी पासें श्रावीने बाहर उनो थकोज (उंडुरं के०) उन्मुकं एटले नोजननी नूमि प्रत्ये (पडिले हिश्रा के०) पडिलेहे. ॥७॥ (दीपिका.) अथ वसतिमधिकृत्य नोजन विधिमाह । स्यात् कदाचित् तदन्यकारणानावे सति निकुः श्छेत् शय्यां वसतिम् । किं कृत्वा । आगम्य तत्र आगत्य । किमर्थं परिनोक्तुं जोजननिमित्तम् । तत्रायं विधिः। स पिएमपायं पिएमपातेन विशुझसमुदानेन आगम्य । वसतिमिति शेषः बहिरेव उन्मुकं स्थानं प्रत्युपेदय विधिना तत्रस्थः पिएमपातं विशोधयेत् ॥ ७ ॥ (टीका.) वसतिमधिकृत्य जोजन विधिमाह । सिआय त्ति सूत्रम् । स्यात् कदाचित् तदन्यकारणानावे सति निकुरिछेत् । शय्यां वसतिमागम्य परिनोक्तुं तत्रायं विधिः। सह पिएमपातेन विशुद्धसमुदानेनागम्य । वसतिमिति गम्यते । तत्र बहिरेवोन्मुकं स्थानं प्रत्युपेदय विधिना तत्रस्थः पिएमपातं विशोधयेदिति सूत्रार्थः॥ ७ ॥ विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी॥ शरियावदियमायाय, आग अपडिक्कमे ॥ 1 ॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । (अवचूरिः) विनयेन नैषेधिकीनमःदमाश्रमणेच्योञ्जलिकरणलक्षणेन प्रविश्य वसतिमिति सकाशे गुरोर्मुनिः ापथिकामादाय तत्सूत्रं पठित्वा आगतश्च गुरुसमीपं प्रतिक्रामेत् कायोत्सर्ग कुर्यादिति ॥ ७ ॥ (अर्थ.) पली: ( मुणी के० ) मुनिः एटले संयमी साधु ( विणयेण के) विनयेन एटले; निसिही केहवी, करांजलि रचीने 'नमः क्षमाश्रमणेभ्यः' एम केह, ए रूप जे विनय ते विनय करी उपासराने विषे (पविसित्ता के० ) प्रविश्य एटले प्रवेश करीने ( गुरुणो के० ) गुरोः एटले गुरुना ( संगासे के० ) सकाशे एटले समीप नागमां (इरियावहियं के०) ईरियापथिकां एटले शरियावहियाए ए सूत्रने (आयाए के) श्रादाय एटले पठन करीने पढ़ी (आग के) आगतः एटले गुरुनी पासे प्राप्त थयो थको (पडिक्कमे के) प्रतिकामेत् एटले कायोत्सर्ग करे. ॥ ७ ॥ (दीपिका) ततः पश्चात्किं कुर्यादित्याह । साधुस्तत्र आगतो गुरुसमीपं प्रतिकामेत् कायोत्सर्ग कुर्यात् । किं कृत्वा । गुरुसंसगासे रियावहिरं आयाय गुरुसमीपे ापथिकां "श्वामि पडिकमि" इत्यादि पाठरूपां आयाय पठित्वा । पुनः किं कृत्वा। वि. णएण पविसित्ता। पूर्व पिए; विशोध्य बहिर्विनयेन नैषेधिकीनमःदमाश्रमणेच्योऽञ्जविकरणलक्षणेन । वसतिमिति शेषः । प्रविश्य ॥ ॥ __(टीका. ) तत ऊर्ध्वं विणएण ति सूत्रम्। विशोध्य पिएक बहिर्विनयेन नैषेधिकीनमःक्षमाश्रमणेच्योऽञ्जलिकरणलक्षणेन प्रविश्य वसतिमिति गम्यते । सकाशे गुरोः मुनिर्गुरुसमीप इत्यर्थः । पथिकामादाय “श्वामि पडिकमि इरियाव हियाए” इत्यादि पठित्वा सूत्रम् । आगतश्च गुरुसमीपं प्रतिकामेत्कायोत्सर्ग कुर्यादिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ अानोश्त्ता नीसेसं, अश्आरं जदकमं॥ गमणागमणे चेव, नत्ते पाणे च संजए ॥ नए॥ .. (अवचूरिः) तत्र कायोत्सर्ग श्रानोगयित्वा ज्ञात्वा निःशेषमतीचारं यथाक्रमं गमनागमनयोश्चैवं नक्तपानयोश्च संयतः कायोत्सर्गस्थो हृदि स्थापयेत् ॥ ५ ॥ (अर्थ.) आनोश्त्ता णमिति. पडी (संजए के) संयतः एटले ते पूर्वोक्त साधु काउसग्गने विषे रह्यो थको (गमणागमणे के०) गमनागमनयोः एटले जतां अने श्रावतां उपजेला ( चेव के०) वली (जत्तपाणे के ) नक्तपानयोः एटले नात पाणी वोहोरतां उपजेला ( नीसेसं के०) निःशेषं एटले संपूर्ण ( अश्यारं के) ४० Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ राय धनपतसिंघवदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. अतिचारं एटले अतिचारने ( जहकमं के० ) यथाक्रमं एटले अनुक्रमें (याजोता ० ) जोगयित्वा एटले जाणीने स्मरण करीने हृदयने विषे स्थापे ॥ ८५ ॥ ( दीपिका . ) ततः किं कुर्यादित्याह । साधुः कायोत्सर्गस्थः तमतिचारं हृदये स्थापयेत् । किंनूतमतिचारम् । निःशेषम् । यथाक्रमं परिपाठ्या । किं कृत्वा । तत्र कायोत्सर्गे जोयित्वा ज्ञात्वा । कुत्रेत्याह । गमनागमनयोः । गमने गछत श्रागमन श्रागच्छतः । पुनः जक्तपानयोः जक्ते पाने च ॥ ८ए ॥ ( टीका. ) जोइता णं ति सूत्रम् । तत्र कायोत्सर्गे जोगयित्वा ज्ञात्वा नि:शेषमतिचारं यथाक्रमं परिपाट्या | केत्याह । गमनागमनयोश्चैव । गमने गछत थागमन तो योऽतिचारः । तथा जक्तपानयोश्च । जक्ते पाने च योऽतिचारः । तं संयतः साधुः कायोत्सर्गस्थो हृदये स्थापयेदिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ पन्नो अणुविग्गो, प्रवखित्ते चेासा ॥ I लोए गुरुसगासे, जं जहा गढ़िां नवे ॥ ए० ॥ ( अवचूरिः ) विधिनोत्सारिते च तस्मिन् रुजुप्रज्ञोऽनुद्विग्नः । कुदादिजयात्प्रशान्तः । श्रव्या दिसेन चेतसा झालोचयेरुसकाशे । गुरोर्निवेदयेदिति भावः । यदशनादि यथा येन प्रकारेण हस्तप्रदानादिना गृहीतं जवेत् ॥ ० ॥ (अर्थ) पी, (कुप्पन्नो के० ) रुजुप्रज्ञः एटले रुजु ते सरल, कपटरहित एव प्रज्ञा बुद्धि जेनी एवो, तथा ( अणुवग्गो के० ) अनुहिनः एटले जेने उपिएं, व्यग्रपणुं नथी एवो ते पूर्वोक्त साधु ( अव कित्ते के० ) श्रव्यादितेन एटले जेने विदेष ते चंचल पणुं नथी, एवा ( चेासा के० ) चेतसा एटले अंतःकरणे करी ( गुरुसगासे के० ) गुरुसकाशे एटले गुरुनी समीपे ( लोए के० ) चालोचयेत् एटले आलोचे, कहे. शुं कहे तो के, ( जं के० ) यत् एटले जे आहारादिक ( जहा के० ) यथा एटले जे प्रकारे ( गहित्र्यं के० ) गृहीतं एटले वहोखुं ( नवे के० ) जवेत् एटले होय ते सर्व गुरुनी पासें आलोचे ॥ ए० ॥ ( दीपिका . ) कायोत्सर्गे पारिते च किं कुर्यादित्याह । साधुरशनादि यथा येन प्रकारेण हस्तप्रदानादिना गृहीतं जवेत्, तगुरुसमीपे यालोचये जुरोर्निवेदयेदितिभावः । केन । एवंविधेन चेतसा । किंनूतेन चेतसा । अव कित्ते व्याहितेन अन्यत्र उपयोगमगच्छता । किंभूतः साधुः । रुजुप्रज्ञः कुटिलमतिः । पुनः किंभूतः साधुः । अनुद्विग्नः सर्वत्र कुदादिजयात् प्रशान्तः ॥ ५० ॥ For Private Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । (टीका.) विधिनोत्सारिते चैतस्मिन् उझुप्पन्नत्ति सूत्रम् । झजुप्रज्ञः अकुटिलमतिः सर्वत्र अनुहिनः कुदादिजयात्प्रशान्तः अव्यादिप्तेन चेतसान्यत्रोपयोगमगछतेत्यर्थः । आलोचयेगुरुसकाशे गुरोर्निवेदयेदिति नावः । यदशनादि यथा येन प्रकारेण हस्तदानादिना गृहीतं नवेदिति सूत्रार्थः ॥ ए ॥ न सम्ममालोश्यं कुजा, पुविं पचा व जंकडं ॥ - पुणो पडिकमे तस्स, वोसहो चिंतए इमं ॥१॥ (अवचूरिः) न सम्यगालोचितं सूझमझानात् अनाजोगेनाननुस्मरणाछा पूर्वं पश्वाहा यत्कृतं पुरःकर्म वा पश्चात्कर्म वा पुनरालोचनानन्तरं प्रतिकामेत् । तस्य सूदमातिचारस्य “श्छामि पडिकमिजं गोअरचरिआए" इत्यादि पठित्वा व्युत्सृष्टः कायो. त्सर्गस्थ श्चिन्तये दिदं वदयमाणलक्षणम् ॥ १॥ (अर्थ.) पढी करे ते कहे . ते साधु, ( जं के०) यत् एटले जे सूक्ष्म अज्ञानथी ( सम्मं के० ) सम्यक् एटले सारी रीते (आलोश्यं के०) आलोचितं एटले आलोयुं (न हुजा के०) न होय. हवे शुं ते कहे . ( व के०) अथवा (जं के०) यत् एटले जे (पुवं कडं के०) पूर्वकर्म अने ( पछा कडं के०) पश्चात् कर्म होय, (तस्स के) तेने (पुणो के०) पुनः एटले फरी ( पडिक्कमे के०) प्रतिक्रमण करे. पठी (वोसको के० ) व्युत्सृष्टः एटले कायोत्सर्गमा रह्यो थको (श्मं के०) इदं एटले श्रागल केहेशे ते (चिंतए के) चिंतयेत् एटले चिंतवे.॥ १॥ (दीपिका.) ततः किं कुर्यादित्याद साधुस्तस्य सूमातिचारस्य यत्पूर्वं कृतं तत् पुरः कर्म यत्पश्चात्कृतं तत् पश्चात्कर्म सूदमं न सम्यगालोचित नवेत् । कुतः। अज्ञानादनाजोगेनाननुस्मरणाछा । तत्सर्वं पुनरालोचनानन्तरकालं प्रतिक्रामेत् । किं कृत्वा । “श्चामि पडिकमिजं गोअरचरिआए" इत्यादि सूत्रं पठित्वा । ततो व्युत्सृष्टः कायोत्सर्गस्थ इदं वदयमाणं गाथारूपं चिन्तयेत् ॥ १ ॥ (टीका.) तदनु च न संमं ति सूत्रम् । न सम्यगालोचितं जवेत् सूममझानात् । अनानोगेनाननुस्मरणाछा पूर्वं पश्चाछा यत्कृतं पुरःकर्म पश्चात्कर्म वेत्यर्थः । पुनरालोचनोत्तरकालं प्रतिक्रामेत्तस्य सूक्ष्मातिचारस्य श्वामि पडिकमिजं गोअरचरिआए" इत्यादि सूत्रम् । पठित्वा व्युत्सृष्टः कायोत्सर्गस्थश्चिन्तयेदिदं वयमाणलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥ ए१ ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. हा जिहिं असावा, वित्ती साहू देसि ॥ मुस्कसादादेनस्स, सादुदेदस्स धारणा ॥ ए२॥ ( अवचूरिः ) हो विस्मये । जिनैस्तीर्थ करैरसावद्यापापा वृत्तिर्वर्त्तना साधूनां दर्शिता मोदसाधनहेतोः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसाधनस्य साधुदेहस्य धारणाय ॥२॥ (अर्थ. ) ( अहो के० ) अहो इति विस्मये ( जिहिं के० ) जिनैः एटले रागद्वेषादिके रहित एवा तीर्थंकरोए ( साहूए के० ) साधूनां एटले साधु लोकोने ( असावा के० ) असावया एटले दोषरहित पापरहित एवी ( वित्ती के० ) वृत्तिः एटले गोचरीरूप वृत्ति ( देसिया के० ) देशिता अथवा दर्शिता एटले केवी सारी कही बे, अथवा देखाडी बे ! जूयो, के जे गोचरी वृत्ति ( मुरक साह हे उस्स ho ) मोक्षसाधन देतो: एटले मोक्ष साधवाने कारणभूत एवा ( साहुदेहस्स के० ) साधु देहस्य एटले साधुना देने ( धारणा के० ) धारणाय एटले धारण, पोषण, सं यमनो निर्वाह करवो तेने थे बे. ॥ २ ॥ ( दीपिका . ) किं चिन्तयेत्तदाह । श्रहो इति विस्मये जिनैस्तीर्थकरैः साधूनां वृत्तिर्दर्शिता देशिता वा । किंभूता वृत्तिः । सावद्या पापा । कस्मै । साधुदेहस्य धारणाय धारणार्थं । किंभूतस्य साधुदेहस्य | मोक्षसाधनहेतोः मोक्षसाधनं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं तस्य हेतोः ॥ २ ॥ ( टीका. ) हो जिहिं सूत्रम् । अहो इत्याश्चर्ये । जिनैस्तीर्थकरैरसावद्यापापा वृत्तिर्वर्त्तना साधूनां दर्शिता देशिता वा । मोक्षसाधन देतोः सम्यग्दर्शनज्ञानचा - रित्रसाधनस्य साधुदेहस्य धारणाय संधारणार्थमिति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ मुक्कारेण पारिता, करिता जिणसंथवं ॥ सनायं पठवित्ता णं, वीसमेज्ज खणं मुणी ॥ ३ ॥ ( अवचूरिः ) नमस्कारेण पारयित्वा नमो अरिहंताणमिति कृत्वा जिन संस्तवं लोगस्सेत्यादि स्वाध्यायं प्रस्थाप्य विश्राम्येत्क्षणं कालं मुनिः ॥ ९३ ॥ ( अर्थ. ) पी, ( नमुक्कारेण के० ) " नमो अरिहंताणं " एवा उच्चारे करी ( पारिता के० ) पारयित्वा एटले पूर्वोक्त काउस्सग्ग पारीने तथा ( जिणसंथवं के० ) जिन जे तीर्थकर तेमनो जे संस्तव एटले. ' लोगस्सुको गरे ' इत्यादि स्तवन ते ( करिता ) कृत्वा एटले एकवार संपूर्ण पठन करीने पढी ( सनायं के० ) स्वाध्यायं एटले सिद्धांतनी गाथाने ( पठवित्ता णं के० ) प्रस्थाप्य एटले पूर्ण करीने For Private Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३१७ (मुणी के०) मुनि. एटले पूर्वोक्त साधु (खणं के०) क्षणं एटले दणमात्र (वीसमिङ के) विश्राम्येत् एटले विश्रांति लिये. ॥ ३ ॥ (दीपिका.) ततः किं कुर्यादित्याह । मुनिः दणं स्तोककालं विश्राम्येत् । किं कृत्वा। नमस्कारेण नमो अरिहंताण मिति कथनरूपेण कायोत्सर्ग पारयित्वा । पुनः किं कृत्वा । जिनसंस्तवं लोगस्सुजोयगरे इत्यादिरूपं कृत्वा । अतो यदि न पूर्व प्रस्थापितः ततः स्वध्यायं प्रस्थाप्य मंडट्युपजीवकः तं स्वाध्यायमेव कुर्यात् । यावदन्ये आगलन्ति। यः पुनस्तदन्यः पकादिः सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् ॥ ए३ ॥ (टीका.) ततश्च णमोकारेणत्ति सूत्रम् । नमस्कारेण पारयित्वा नमो अरिहंताणमित्यनेन कृत्वा जिनसंस्तवं "लोगस्सुजोअगरे” इत्यादिरूपं । ततो न यदि पूर्व प्रस्थापितस्ततः स्वाध्यायं प्रस्थाप्य मंडल्युपजीवकस्तमेव कुर्यात् । यावदन्य आगठन्ति । यः पुनस्तदन्यः सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् दणं स्तोककालं मुनिरिति सूत्रार्थः ॥ ए३॥ .. वीसमंतो इमं चिंते, दियमहं लानमहिन॥ ___ जश् मे अणुग्गदं कुज्जा, साढू दुजामि तारि॥ ए४॥ ( श्रवचूरिः ) विश्राम्यन्निदं चिन्तयेत्परिणतचेतसा हितं कल्याणप्रापकमर्थ वदयमाणं लानेन निर्जरादिनार्थोऽस्येति लानार्थिकः । यदि मेऽनुग्रहं कुर्युः साधवः प्रासुकपिएमग्रहणेन ततः स्यामहं तारितो नवसमुजात् ॥ ए४ ॥ (अर्थ.) साधु विश्रामानंतर शुं करे ते कहे . पली, ( लानमहिउ के) लाजार्थी एटले कर्मनिर्जरारूप लाननो अर्थी एवो पूर्वोक्त साधु (वीसमंतो के०) विश्राम्यन् एटले विश्रांति लेतो थको (श्मं के) श्मं एटले था केहशे ते (हियमई के०) हितमर्थं एटले हित जे कल्याण तेने पमाडनार एवा अर्थप्रत्ये (चिंते के) चिंतयेत् एटले चिंतन करे. ते एवी रीतेः-(जर के० ) यदि एटले जो (साह के०) साधु ( मे के०) मारा उपर एटले मे थाणेला प्रासुक पिंडने ग्रहण करीने (अणुग्गहं के०) अनुग्रहम् एटले प्रसादने (कुजा के०) कुर्यात् एटले करे. तो तेनो हुँ (तारि के० ) तारितः एटले नवसमुथी तारेलो एवो (हुजामि के०) नवामि एटले था.॥ ए४ ॥ ( दीपिका. ) पुनः साधुर्विश्रामानन्तरं किं कुर्यादित्याह। साधुर्विश्राम्यन् इदं हितं कल्याणप्रापकमर्थं वदयमाणलक्षणं चिन्तयेत्। केन। चेतसा परिणतेन मनसा। किंनूतः Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) - मा. साधुः । लानेन निर्झरादिना श्रर्थोऽस्येतिलानार्थिकः सन् । कथमित्याह । यत एवं जानाति यदि मे मम साधवः मया श्रानीतो यः प्रासुकः पिएमः तस्य ग्रहणेन अनुग्रहं प्रसादं कुर्युः । तदाहं तारितो जवसमुद्रात् स्यां जवामि । एवं चिन्तयित्वा उचितवेलायां साधुराचार्य मामन्त्रयेत् यद्याचार्यो गृह्णाति ततो जव्यम् । कदाचित् स स्वयं न गृह्णाति तदा तस्य वाच्यं “ हे जगवन् देहि केभ्यश्चित् ” इत्युक्ते यदि साधुः किं दातव्यं कस्यापि ददाति तदा सुन्दरम् । यथाचार्यो जति त्वमेव देहि | तदा किं कुर्यादित्याह ॥ ४ ॥ ( टीका. ) वीसमंत ति सूत्रम् | विश्राम्यन्निदं चिंतयेत् परिणतेन चेतसा हितं कल्याण प्रापक मिममर्थं वक्ष्यमाणम् । किंविशिष्टः सन् । जावलानेन निर्जरादिनार्थोऽस्येति लाजार्थिकः । यदि मे मम अनुग्रहं कुर्युः साधवः प्रासुक पिएमग्रहणाततः स्यामहं तारितो जवसमुद्रादिति सूत्रार्थः ॥ ए४ ॥ सादवो तो चित्तेणं, निमंतिक जढ़क्कमं ॥ जइ त के इचिका, तेहिं सद्धिं तु नुंजए ॥ ए५ ॥ ( श्रवचूरिः) साधुस्ततो गुर्वनुज्ञातः मनःप्रणिधानेन निमन्त्रयेत् यथाक्रमं यथानाधिकतया । ग्रहणौचित्यापेक्षया वा । यदि तत्र केचन इवेयुस्ततस्तैः सार्धं जुजीत संविजागदानेन ॥ ५ ॥ ( अर्थ. ) एम चिंतवीने पढी योग्य वेलाने विषे आचार्यने आहार लेवाने विनति करे. जो ते प्राचार्य आहार लिये, तो सारं, नहीं तो तेने वली केहवुं के, जे हे जगवन् ! आप ए आहार कोने पो. पठी ते आचार्य जो ते आहार कोइ पुरुषने यापे, तो सारु, अने जो ते आचार्य एम कहे के, तुंज कोइने आप. त्या गल हवा तेप्रमाणे करे. साहवोत्ति सूत्र. ( तर्ज के० ) ततः एटले याचानी आज्ञा सीधा पढ़ी ( साहवो के० ) साधुः एटले ते साधु ( चियत्ते के० ) मनः प्रणिधाने करी पोताना धर्मबांधव एवा वीजा साधुर्जने ( जहक्कमं के० ) यथा*मं एटले योग्यताने अनुक्रमे करी अर्थात् जे श्रेष्ठ होय तेने प्रथम ते पढ़ी बीजा ने वे अनुक्रमेकरी ( निमंतिऊ के० ) निमंत्रयेत् एटले आमंत्रण करे. पबी, ( जइ० ) यदि एटले जो ( तब के० ) तत्र एटले ते साधुमां ( के के०) कश्चित् एटले कोइ पण साधु आहार लेवाने ( इतिजा के० ) श्छेत् एटले इवे. तो ( तेहिं सद्धिं के० ) तैः सार्धं एटले तेमनी साथे (गुंजए के० ) मुंजीत एटले जोजन करे. ॥५॥ For Private Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३१ए ( दीपिका.) साधुस्ततो गुरुणानुज्ञातः सन् यथाक्रमं यथारत्नाधिकतया ग्रहणौचित्यापेक्षया बालादिक्रमेणेत्यन्ये वदन्ति । साधून निमन्त्रयेत् केन । चिअत्तेण मनःप्रीत्या ततो यदि केचन धर्मबान्धवा श्छेयुरंगीकुर्युस्तदा तैः साढ़मुचितसंविनागदानेन साधुर्जुञ्जीत ॥ ए५ ॥ (टीका.) एवं संचिन्त्यो चितवेलायामाचार्यमामन्त्रयेद्यदि गृह्णाति शोजनं नो चेठक्तव्योऽसौ जगवन्देहि केन्योऽप्यतो यद्दातव्यम् । यतो यदि ददाति सुन्दरमेव नणति अथ त्वमेव प्रयछ । अत्रान्तरे साहवो त्ति सूत्रम् । साधूंस्ततो गुर्वनुज्ञातः सन् चिअत्तेणं ति मनःप्रणिधानेन निमन्त्रयेत् । यथाक्रमं यथारत्नाधिकतया । ग्रहणोचित्यापेक्षया बालादिक्रमेणेत्यन्ये । यदि तत्र केचन धर्मवान्धवा श्युरन्युपगछेयुस्ततस्तैः सार्धं जुञ्जीत नचितसंविनागदानेनेति सूत्रार्थः ॥ ए५ ॥ अद कोइ न इबिजा, तनुंजिज एकन॥ आलोए नायणे सादू, जयं अप्परिसाडियं ॥ ६ ॥ (श्रवचूरिः) अथ कश्चिन्नेछेत्ततो जुञ्जीत एकको रागादिरहितः । श्रालोकनाजने मदिकाद्यपोहाय प्रकाशप्रधाने नाजन इत्यर्थः । यतं प्रयत्नेन अपरिशातयन् हस्तमुखान्यामनुष्नन् । ए६ ॥ (अर्थ.) (अह के०) अथ एटले अनंतर ( कोश् के०) कश्चित् एटले कोश पण (न इबिजा के०) न श्छेत् एटले आहार लेवाने श्छे नहीं. (त के०) ततः ते. पडी (एकर्ड के०) एककः एटले एकलोज (तुंजिल के०) मुंजीत एटले जोजन करे. शामां नोजन करे ते कहे . (साहु के०) पूर्वोक्त साधु (बालोए के०) श्रालोके एटले प्रकाशसहित, ज्यां प्रकाश घणो , एवा (जायणे के) नाजने एटले पात्रमा (जयं के) जयणाए करी तथा (अपरिसाडियं के०) अपरिशातयन् एटले हाथमांथी अथवा मुखमांथी कणमात्र न पडे तेवीरीते जोजन करे. ॥ ए६ ॥ (दीपिका.) अथ कोपि नेत्तदा किं कुर्यादित्याद । अथ कोपि साधुत्तदा साधुरेकाकी रागादिरहितो नुञ्जीत । कथं जुञ्जीतेत्याह । आलोकनाजने मदिकादीनामपोहाय प्रकाशप्रधाने नाजन इत्यर्थः । यतः प्रयत्नेन तत्रोपयुक्तः । किं कुर्वन् । अ परिशातयन् । हस्तमुखाच्यां कणमात्रमपि न त्यजन् ॥ ए६ ॥ ( टीका.) अह के इत्ति सूत्रम् । अथ कश्चिन्नेछेत् साधुस्ततो जुञ्जीत एकको रागादिरहित इति । कथं जुञ्जीतेत्यत्राह । आलोके नाजने मदिकाद्यपोहाय प्र Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. काशप्रधाने नाजनश्त्यर्थः । साधुः प्रव्रजितः यतं प्रयत्नेन तत्रोपयुक्तः अपरिशातं हस्तमुखान्यामनुसन् इति सूत्रार्थः ॥ ए६ ॥ तित्तगं व कमुअं व कसायं, अंबिलं व मट्ठरं लवणं वा ॥ एअलक्ष्मनल पउत्तं, मदु घयं व मुंजिक संजए॥ए॥ (अवचूरिः) नोजनमधिकृत्य विधिमाह । तिक्तमेलुकवावुकादि। कटुकमाईकतीमनादि । कषायं वबादि । अम्लमारनालादि । मधुरं वीरादि । प्रकृतिदारं लवणोत्कटं कादि वा । एतत्तिक्तादि लब्धमागमोक्तेन विधिना । प्राप्तमन्यार्थं प्र. युक्तं तत्साधकमिति कृत्वा मधु घृतमिव जुञ्जीत न चर्वणाद्यर्थम् ॥ ए॥ - (अर्थ.) हवे नोजननो विधि कहे . जो ते आहारमा ( तित्तगं के) तिक्तकं एटले कडवो पदार्थ ते एबुक वालुकादिक होय. ( च के) वली ( कडुयं के०) कटुकं एटले आई इत्यादि तीखो पदार्थ होय, तथा (कसायं के० ) कषायं एटले कषायलो ते कोठ बेहेडां वगेरे पदार्थ होय, (च के० ) वली (अंबिलं के०) अम्लं एटले दधि गश प्रमुख खाटो पदार्थ होय, अथवा ( महुरं के०) मधुरं एटले साकर उध प्रमुख मधुर पदार्थ होय, ( वा के०) किंवा (लवणं के०) खारो पदार्थ होय, तो ( एय के०) श्रा (लर्क के०) लब्धं एटले मलेला एवा तथा (अन्नपउत्तं के०) अन्यार्थप्रयुक्तं एटले सिद्धांतनी रीते मोदसाधनकारक एवा होताना देहनिर्वाहार्थ पूर्वोक्त पदार्थने (संजए के) संयतः एटले रागोषरहित एवो साधु (महु घयं व के०) मधुघृतमिव एटले सरस घीसरखा जाणीने (मुंजिज के०) जुञ्जीत एटले नोजन करे. ॥ ए॥ (दीपिका.) अथ नोज्यमाश्रित्य विशेषमाह । संयत एवं विधमपि अशनादि मधुघृतमिव मधुघृतसमानं मृष्टमिति झात्वा जुञ्जीत । किंविशिष्टमशनादि । तिक्तं वा एलुकवालुका दि १ कटुकमाईतीमनादि २ कषायं वदादि ३ अंबिलं वा अम्लं तकारनालादि ४ मधुरं दीरदध्यादि ५ लवणं वा प्रकृतिदारं तथा विधशाकादि श्रन्यझा लवणोत्कटं एतत् लब्धं आगमे उक्तेन विधिना प्राप्तं । पुनः कीदृशं अन्यार्थप्रयुक्तं अन्यार्थं अदोपांगन्यायेन देहाथ परमार्थतो हि तत्साधकमिति कृत्वा मोदार्थं प्रयुक्तं परं न वर्णाद्यर्थम् ॥ ए ॥ ( टीका.) नोज्यमधिकृत्य विशेषमाह । तित्तगंवत्ति सूत्रम् । तिक्तकं वा एलगबुकादि । कटुकं वा आर्डकतीमनादि । कषायं वदादि । अम्लं तकारनालादि । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके पश्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३१ मधुरं वीरमध्वादि । लवणं वा प्रकृतिदारं तथाविधं शाकादि । लवणोत्कटं वान्यत् । एतत्तिक्तादि लब्धमागमोक्तेन विधिना प्राप्तम् । अन्यार्थमदोपाङ्गन्यायेन परमार्थतो मोक्षार्थं प्रयुक्तं तत्साधकमिति कृत्वा मधु घृतमिव च जुञ्जीत संयतः । न वर्णाद्यर्थम् । अथवा मधुघृतमिव णो वामा हणुथा दाहिणं दणुशं संचारेजत्ति सूत्रार्थः॥ ए॥ अरसं विरसं वा वि, सूश्यं वा असूश्यं ॥ उल्लं वा जश् वा सुकं, मंयुकुम्मासनोअणं ॥ ए॥ (श्रवचूरिः) अरसमप्राप्तरसं हिंग्वादिनिरसंस्कृतम् । विरसं पुराणोदनादि । सूचितं व्यञ्जनादियुक्तम् । श्रसूचितं तऽहितम्। थाई वा.प्रचुरव्यञ्जनं यदि वा शुष्क स्तोकव्यञ्जनं मंथुकुल्माषनोजनं मंथु बदरचूर्णादि।कुदमाषाः सिझनाषा इति ॥ए॥ (अर्थ.) तथा (अरसं के०) जेने रस एटले रुचि नयी एवा हिंग तेलादिकना वघारे रहित पदार्थने (वा के) अथवा (विरसं विके०) विरसमपि वि एटले गयो डे रस एटले सार जेमाथी एवा ठंडा थएला अन्नादिकने पण ( वा के०) अथवा (सूश्थं के०) सूचितं एटले घणा व्यंजनादिके करी युक्त एवा पदार्थने अथवा (असूश्यं के० ) असूचितं एटले व्यंजनादिके रहित एवा पदार्थने थथवा ए बे पदनो एवो अर्थ करवो के, (सूश्यं के०) दातारना कहेवाथी श्रापेला किंवा (असूश्यं के०) दातारना कह्या विना थापेला एवा पदार्थने ( वा के० ) अथवा ( नवं के०) थाई एटले ढीबुं सरस दहीसहित तथा वधार सहित शाक प्रमुख ते प्रत्ये ( वा के०) अथवा (सुकं के०) शुष्कं एटले सूकुं वघारविनानुं शाक खाखरादिक तेने अथवा ( मंथु के०) बोरकूट वगेरे पदार्थ प्रत्ये अथवा (कुम्मासनोश्रणं के०) कुल्माषनोजनं एटले अडदना बाकलाना जोजनने ॥ एज ॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशमशनादीत्याह । एतादृशं नोजनं वर्तते । तस्य अग्रिमगाथया सह योजना कार्या। किंनूतमशनादि जोजनम् । श्ररसं रसवर्जितं हिंग्वादिनिरसंस्कृतम् । पुनः किनूतम् । विरसंवा विगतरसं पुराणमोदनादि । पुनः किंनूतम् । सूचितं व्यञ्जनादियुक्तम् वा अथवा असूचितं व्यञ्जनादिरहितम् । अन्ये तु एवमर्थं कुर्वन्ति । सूचितं कथयित्वा दत्तम्, असूचितमकथयित्वा वा दत्तम् । पुनः किंन्नूतम् । थाई प्रचुरव्यञ्जनम् । यदि वा शुष्कं स्तोकव्यञ्जनम् । किंतूतं तदित्याइ । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. मंथु कुम्मासनोजनं । मंथु वदरचूर्णादि । दन्ति कुल्माषा यवमाषाः ॥ ए८ ॥ कुल्माषाः सिद्धमाषाः । केचिह्न - ( टीका. ) किंच रसं ति सूत्रम् । श्ररसमसंप्राप्तरसं हिंग्वादिनिरसंस्कृतमित्यर्थः । विरसं वापि विगतरसमतिपुराणौदनादि । सूचितं व्यञ्जनादियुक्तम् । सूचितं वा तद्रहितं वा । कथयित्वा कथयित्वा वा दत्तमित्यन्ये । श्रई प्रचुरव्यञ्जनम् । यदि वा शुष्कं स्तोकव्यञ्जनं वा । किं तदित्याह । मन्थुकुल्माषनोजनम् । मन्थु बदरचूर्णादि । कुल्माषाः सिद्धमाषाः । यवमाषा इत्यन्ये । इति सूत्रार्थः ॥ ए८ ॥ उप्पं नाइ दीलिका, अयं वा बहु फासूत्रं ॥ मुहाल मुदाजीवी, चुंजिजा दोसवधिं ॥ एए ॥ ( अवचूरि : ) उत्पन्नं विधिना प्राप्तं नातिहीलयेत्, अल्पं वा न देहपूरकमिति, बहु वासारप्रायं किमाज्याम् । प्रासुकं निर्जीवं मुधालब्धं खटिकाचप्प टिकाव्यतिरेकेण मुधाजीवी न जात्याद्याजीवी जुञ्जीत संयोजनारहितम् ॥ एए ॥ ( .) ( उप्पलं के० ) उत्पन्नं एटले सिद्धांतमां कहेली रीतप्रमाणे मलेलो जे पूर्वोक्त आहार तेने ( नाइही लिका के० ) नातिहीलयेत् एटले निंदे नहि. एज वात प्रकट कहे बे. ( अप्पं के० ) अल्पं एटले एम न अल्प होय तो कहे जे देहपूरक पण आहार मध्यो नथी, एथी शुं पूरुं डवानुं ? अथवा ( बहु के० ) घणो होय, तो एम न कहे के, असार प्राय श्राहार मट्यो, तेथी शुं थाय ? ( फा के० ) प्रासुकं एटले सूकतो होय तेने निंदे नहीं. तेनुं कारण कहे बे, के ते आहार (मुहालऊं के० ) मुधालब्धं एटले मंत्रतंत्रादिक उपकार कीधा विना तथा माया आलाप विना मलेलो बे, माटे निंदे नहीं. बीजुं कारण कहे बे , ते साधु वो तो के, (मुहाजीवी के० ) मुधाजीवी एटले जात्यादिक देखाया विना श्रहारनो लेनार बे, तथा सर्वथा श्रनिदानजीवी बे, माटे श्राहारने निंदे नहीं. तो शुं करे ते कड़े बे. ( दोसवां के० ) दोषवर्जितं एटले संयोजनादि दो परहित एवा याहार प्रत्ये ( लुंजिका के० ) मुंजीत एटले जोजन करे. ॥ ॥ ( दीपिका. ) एतझेोजनं किमित्याह । एवं पूर्वोक्तमरसादिकमशनादि साधुञ्जीत । परं नाति हीलयेत् सर्वथा न निन्देत् । किंभूतमशनम् । विधिना प्राप्तमप जवेत् तदा नैवं ज्ञातव्यं वक्तव्यं वा । यत् किमेतदल्पमात्रं न देहपूरकमपि । तथा बहु वा असाप्रायं किमनेनासारेण । किंभूतमशनम् । फासुखं प्रासुकं यस्मात् For Private Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने दितीय उद्देशः। ३२३ प्राणा गता निर्जीवं जातम् । अन्येत्वाचार्या इत्थं व्याख्यां कुर्वन्ति । अपशब्दाहिरसादि वा बहु प्रासुकं सर्वथा शुरूं नातिहीलयेत्।अपि त्वेवं नावयेत् । यदेव इह लोका ममानुपकारिणःप्रयन्ति तदेव शोजनमिति । किंनूतमशनम् । मुधा लब्धं मन्त्रतन्त्रादिना अप्राप्तम् । किंनूतः साधुः । मुधाजीवी सर्वथा थनिदानजीवी । थन्ये वदन्ति जात्यादिना न जीवी । एवं विधमशनादि दोषवर्जितं संयोजनादिदोषवर्जितं साधुर्जुञ्जीत ॥ एए॥ (टीका.) एतनोजनं किमित्याह। उप्पलं ति सूत्रम् । उत्पन्नं विधिना प्राप्तं नातिहीलयेत्सर्वथा न निन्देत् । अल्पमात्रमेतन्न देहपूरकमिति किमनेन । बहु वा असारप्रायमिति । वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः। किं विशिष्टं तदित्याह । प्रासुकं प्रगतासु निर्जीव मित्यर्थः । अन्ये तु व्याचक्षते, अस्पं वा । वाशब्दाहिरसादि वा । बहुप्रासुकं सर्वथा शुझं नातिहीलयेदिति । श्रपि त्वेवं जावयेत् । यदेवेह लोका ममानुपकारिणः प्रयन्ति तदेव शोजन मिति । एवं मुधालब्धं कोंटसादिव्यतिरेकेण प्राप्त मुधाजीवी सर्वथा श्रनिदानजीवी । जात्याद्यनाजीवक इत्यन्ये । नुञ्जीत दोषवर्जितं संयोजनादिरहितमिति सूत्रार्थः ॥ एए॥ उल्लहान मुदादाई, मुहाजीवी वि दुल्लदा॥ मुहादाई मुहाजीवी, दो वि गति सुग्गइंति बेमि ॥१०॥ पिंमेसणाए पढमो उद्देसो सम्मत्तो॥१॥ (श्रवचूरिः) उर्लजा एव मुधादातारः । मुधाजीविनोऽपि उर्लनास्तथा विधचेबकवत् । अमीषां फलमाह । मुधादातारो मुधाजी विनश्च धावप्येतो गलतः सुगतिं सिडिगतिं कदाचिदनन्तरमेव कदाचिदेवलोकसुमानुष्यप्रत्यागमपरंपरया। ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १०० ॥ इति पिएमेषणाध्ययने प्रथमोद्देशकावचूरिः ॥१॥ (अर्थ.) हवे, गुरुनु वचन कहे . ( मुहादाई के० ) मुधादायी एटले प्रत्युपकार बुद्धिविना थाहार आपनारा एवा लोको ए संसारमाहे ( उवहा के० ) पुर्खनाः एटले पुर्खन . तथा ( मुहाजीवी वि के0) मुधाजीव्यपि एटले मुधा ए. टले मंत्रयंत्रादिक देखाड्या विना थाहारना लेनारा पण (उदहा के०) मुलनाः एटले उर्लन . ए (मुहादाई के०) मुधादायी एवो श्रावक तथा (मुहाजीवी के०) मुधाजीवी एवो साधु ए ( दो वि के ) बन्ने जण ( सुगई के०) सुगतिं Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. एटले सजति जे मोद ते प्रत्ये ( गढ़ति के०) जाय . (त्ति बेमि के० ) इति ब्रवीमि एटले एम हूं तीर्थकरना उपदेशथी कहुँ ढं. हवे मुधाजीवी साधु उपर दृष्टांत कहे :- एक राजा धर्मनी परीक्षा करवा माटे कदेतो हतो के, जे को उपर उपकार करीने तेना बदलामां तेनी पासेथी अन्नपान खे, ए कां धर्म नथी. माटे शुक्रधर्म कोण पाले बे, तेनी हुं परीक्षा करुं बु. एम विचारी तेणे मोदक श्रापवा सारु घणा साधुने तेड्या. त्यारे कार्पटिकादिक श्रनेक लोको एकग थया. ते जो राजा तेमने पूडवा लाग्यो के, तमे कया साधनथी निर्वाह करो बो ? त्यारे एके कडं के, हु मुखेकरी निर्वाह करूं बुं, बीजाए कह्यु, हुँ पगे करी, त्रीजाए कहुं हुं हाथे करी, चोथाए कहुं हुं लोकना अनुग्रहथी, पांचमाए कह्यु, हुं मुधाजीवी ढं. ते सांजली राजाएं तेनो खुलासो ते जुदा जुदा सर्वेने पूज्यो, त्यारे पेहलो मुखथी श्राजीविका चलावनारो केहवा लाग्यो के, हुं संदेशो केदनार बुं माटे मारी उपजीविका मुखनपरज डे. बीजो पगथी आजीवका चला. वनारो केहवा लाग्यो के, हुं लेखवाहक ढुं, माटे मारी उपजीविका पग उपर डे, त्रीजो हस्तजीवी केहवा लाग्यो के, हुं लेखक हुँ माटे मारी उपजीविका हाथनपर , चोथो परिव्राजक केहवा लाग्यो के, इं प्रव्रजित बुं, माटे मारी जीविका लोको उपर बे. पांचमो जैनी साधु हतो तेणे कडं के, मे संवेगथी दीक्षा लीधी ने माटे हुँ मुधाजीवी एटले जात्यादि आलंबनविना तथा प्रत्युपकार बुद्धिविना मलेल श्राहार वडे निर्वाह करनार बुं. ते सांजली राजाए जाण्यु के, ए पांचमो साधु कहे ,ते खरो धर्म .एम जाणी राजा साधुने लश्ने श्राचार्य पासे गयो, अने दीदा लेतो हवो. एमां जे साधुए कहुं हुं मुधा वृत्तिए जीवमान बुं. ते साधु मुधाजीवी जाणवो. हवे मुधादायी उपर कथा कहे :- एक परिव्राजक हशे, ते एक नागवतनी पासे श्राव्यो, भने केहवा खाग्यो के, हूं तमारे घेर चोमासुं रहं, तमे मारो निर्वाह चलावो. त्यारे नागवत केहवा लाग्यो के, तमे जो माझं कांक्षण काम न करो, अने केवल निःस्पृहपणे जो रहो, तो हुँ तमारो निर्वाद चलावीश. ते परिव्राजके तहत्ति कयु, थने ते नागवतने घेर चोमासु रह्यो. हवे ते नागवत परिव्राजकनो निर्वाह चलावे . एक वखत शुं थयु के, ते नागवतनो घोडो चोरोए हरण कस्यो हतो, अने सवार थ गयेली जाणी एक ठेकाणे तनावपर बांधी राख्यो हतो, ते वामां ते परिव्राजक तलाव उपर नाहवा गयो, त्यां तेणे ते घोडो जोयो. जोश्ने पड़ी ते श्रावीने नागवतने केहया लाग्यो के, तलावना तीर जपर मारां वस्त्र हुँ वीसरी श्राव्यो, त्यारे नागवते तलाव उपर माणस मोकल्यो. ते माणसे आवीने जा Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । ३२५ गवत कयुंके, त्यां में तमारो घोडो जोयो. तेवां वचन दूतना मुखथी सांजली जागवते जाए जे ए वात परिव्राजके कही. पढी ते जागवत केहवा लाग्यो, जे हे परिव्राजक ! तमे ही बीजे ठेकाणे जार्ज, हुं तमारो हवेथ निर्वाह चलावीश नहीं. कारण के, तमे श्रमारुं काम करीने मारी पासेथी अन्नपान ब्यो, ते कांई शास्त्रमां सूतुं कर्तुं नथी. एवं दान प्रापवाथी दातारने पूर्ण फल मलतुं नथी, अने तेवुं दान लेवाथी लेनारने पण अतिचार दोष लागे बे. एम कही परिव्राजकने अन्नपान यापवानुं बंध कस्युं पढी ते परिव्राजक बीजे ठेकाणे गयो. ए दाता मुधादायी जावो. ॥ १०० ॥ इति पिंडैषणाध्ययनना प्रथम उद्देशनो बालावबोध संपूर्ण ॥ १ ॥ ( दीपिका. ) मुधाजीवीति । डुर्लजमेतद्दर्शयति । डुर्लना एवंविधा दातारः तथाविधजागवतवत् । मुधाजी विनोऽपि दुर्जनास्तथाविधचेल्लकवत् । एतयोः कथानके वृत्तितो ज्ञेये । अमीषां फलमाह । मुधा दातारो मुधाजीविनश्च द्वावप्येतौ सुगतिं सिद्धिगतिं गच्छन्ति । कदाचित् तस्मिन्नेव नवे कदाचिदेवलोक सुमानुषत्वप्रत्यागमनपरंपरा । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १०० ॥ I इति श्रीदशवेकालिकसूत्रस्य शब्दार्थवृत्तौ श्रीसमय सुन्दरोपाध्याय विरचितायां पिषणाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥ १ ॥ ( टीका. ) ल्ल ति | दुर्लना एव मुधादातारस्तथाविधजागवतवत् । मुधाजीविनोऽपि जास्तथाविधचेलकवत् । श्रमीषां फलमाह । मुधदातारो मुधाजीविनश्च द्वावप्येतौ गछतः सुगतिं सिद्धिगतिं कदाचिदनन्तरमेव कदाचिदेव लोकसुमानुष प्रत्यागमनपरं परया । ब्रवीमीति पूर्ववत् । यत्र जागवतोदाहरणम् । जहा एगो परिवायगो । सो एवं जागवयं व । श्रहं तव गिहे वरिसारत्तं करेमि । मम उदंतं वदाहि । ते जणि जइ मम जदंतं न वहसि । एवं हवन त्ति । सो से जागव सेऊनतपापादिया उदंतं वति । श्रन्नया य तस्स घोडट चोरेहिं हि । तिप्पजायं ति काऊण जानीए बहो । सो अ परिवायगो तलाए एहायनं गर्ज । तेष सो घोड दिठो । थागंतुं न मम पाणीयतडे पोत्ती विस्सरिया । गोहो विसर्जि । ते घोड दिहो । आगंतुं कहियं तेण । जागवएण पायं जहा परिवायगेण कहियं । तेण परिarrat जसति । जाहि पाहं तत्र शिविधं उदंतं वदामि । शिविधं अप्पफलं भवति । एरिस मुधादाई | मुधाजी विंमि उदाहरणं । एक्को राया धम्मं परिस्कई । को धम्मो । जो विजति । तो तं परिकामि त्ति काऊ मणुस्सा संदिठा । राया मो I For Private Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. दए देश । तब बहवे कप्पडियादयो आगया पुछिति तुम्हे केण जुजह । अनो लणश् अहं मुहेण चुंजामि । श्रन्नो अहं पाएहिं । अन्नो अहं होहिं । अन्नो अहं लोगाणुग्गण । चेहगो पुदिन जण अहं मुहियाए । रन्ना पुष्ठिकं कहं चिथ । एगेण कहिवे, अहं कहगो अर्ड मुहेण हुंजामि । अमेण नणिरं, श्रहं लेहवाहगो थर्ड पाए हिं मुंजामि । अमेण नणिशं, अहं लेहगो अ होहिं । श्रण नणिशं, अहं निस्कू अ लोगाणुग्गहेण । चेल्वएण नणिरं, श्रहं संजायसंसारविरागो अ मुहियाए । ताहे सो राया स धम्मो त्ति काऊण थायरियसमीवं ग पडिबुको पवश् । एसो मुहाजीवि त्ति सूत्रार्थः ॥ १०॥ इति श्रीहरिजप्रसूरि विरचितायांदशवैकालिकवृत्तौ पिंडैषणाध्यनस्यप्रथमोदेशकः ॥१॥ पडिग्गदं संलिदित्ता णं, लेवमाया संजए॥ उगंधं वा सुगंधं वा, सत्वं मुंजे न बडए ॥१॥ (श्रवचूरिः) श्रथ पिएझैषणाध्ययनहितीयोदेशावचूरिः प्रारच्यते । प्रथमे प्रक्रान्तोपयोगि यन्नोक्तं तद्वितीय आह । प्रतिग्रहं संलिह्य निरवयवं कृत्वा से. पमर्यादया थालेपं पुर्गन्धि वा सुगन्धि सर्वं जुञ्जीत नोप्लेत् ॥ १॥ ( अर्थ. ) पिंडेषणाध्ययननो प्रथम उद्देश कह्यो, तेमां केहवानुं जे बाकी रह्यं ते हवे था बीजा उद्देशमां कहे . पडिग्गहत्ति. ( संजए के०) संयतः एटले साधु थाहार करीने पडी (पडिग्गहं के०) प्रतिग्रहं एटले पात्रादिकने (सेवमाया के०) लेपमर्यादया एटले लेप सुधी ( संलिहिता णं के ) संलिह्य एटले अंगुलीए करी रूमी परे लूहीने (पुगंध के० ) पुगंधं एटले जेने खराब गंध श्रावे , एवा तथा ( वा के०) अथवा (सुगंधं के0 ) सुगन्धि एटले जेने सारो गंध थावे , एवा पण थाहारने ( सर्व के०) निरवशेषपणे किंचित् पण शेष न राखतां (मुंजे के ) नोजन करे. परंतु ( न उड्डए के०) नोनेत् एटले बांडे नहि. एटले सरस अन्न जिमे, श्रने नीरस बांडे, एम करे नहीं. ॥१॥ (दीपिका.) श्रथ पिएमषणायाः प्रथम उद्देशे यत् उपयोगि नोक्तं तत् द्वितीयोदेशके दर्शयन्नाह । संयतः साधुः उर्गन्धि वा सुगन्धि वा जोजनजातं सर्वं समस्तं नुञ्जीताश्नीयात् परं नोनेत् । अत्र गन्धग्रहणं रसादीनामुपलक्षणम् । कुतो नोलेत् । उच्यते । संयमविराधनानयात् । किं कृत्वा। प्रतिग्रहं पात्रं संलिह्य प्रदेशिन्या निरवयवं कृत्वा । कया । लेपमर्यादया थालेपं संविह्य ॥१॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३२७ ( टीका.) पिएमेषणायाः प्रथमोद्दशके प्रक्रान्तोपयोगि यन्नोक्तं तदाह । पडिग्गहंति सूत्रम् । प्रतिग्रहं जाजनं संविख्य प्रदेशिन्या निरवयवं कृत्वा । कथमित्याह । लेपमर्यादया थालेपं संलिह्य संयतः साधुः । उर्गन्धि वा सुगन्धि वा नोजनजातम् । गन्धग्रहणं रसायुपलक्षणम्। सर्वं निरवशेषं जुञ्जीत अश्नीयात् । नोभेत् नोत्सृजेत् किं-चिदपि । मानूसंयमविराधना । अस्यैवार्थस्य गरीयस्त्वख्यापनाय सूत्रार्धयोwत्ययोप्तपन्यासः । प्रतिग्रहशब्दो माङ्गलिक इत्युदेशादौ तउपन्यासार्थं वा । अन्यथैवं स्यपात् । कुर्गन्धि वा सुगन्धि वा, सर्वं तुञ्जीत नोलेत् प्रतिग्रहं संलिह्य लेपमर्यादया 'संयतः। विचित्रा च सूत्रगतिरिति सूत्रार्थः॥१॥ : सेज्जा निसीदियाए, समावन्नो अगोअरे॥ अयावयहा नुच्चा णं, जर तेणं न संथरे॥२॥ (अवचूरिः) शय्यायां वसतौ नैषेधिक्यां स्वाध्यायनूमौ । यहा शय्येव वासमञ्जसनिषेधान्नैपेषिकी तस्यां समापन्नो वा संप्राप्तः । गोचरे क्षयकादिडात्रमगादौ श्रयावदर्थमसंपूर्ण जुक्त्वा । मलंकारे । यदि तेन तुक्तेन न संस्तरेन्न यापयितुं समर्थः ॥२॥ (अर्थ.) तथा ( सेजा के ) शय्या एटले उपासराने विषे, श्रथवा ( निसी हिथाए के) नैषेधिक्याम् एटले स्वाध्याय करवानी नूमिकाने विषे बेठेलो एवो साधु (गोबरे के०) गोचरीने विषे ( समावन्नो के) प्राप्त थयो थको ( अयावया के०) श्रयावदर्थं एटले संयमनो निर्वाह करवाने जेटलुं जोश्ये तेटलुं पूरूं नहीं एवं (जुच्चा णं के० ) जुक्त्वा एटले नोजन करीने (जश के०) यदि एटले जो (तेणं के०) तेटला आहारे करी (न संथरे के ) न संस्तरेत् एटले निर्वाहने पामे नहीं. अर्थात् दुधानो उपशम करी शके नहीं. ॥२॥ (दीपिका.) विशेषमाह । यदि कपको ग्लानादि तेन जुक्तेन न संस्तरेत् न यापयितुं समर्थः । तदा हितीयवेलामपि गोचरे नक्तपानं गवेषयेत् इत्यग्रिमगाथायाः संबन्धः। किंनूतः क्षेपकादिः। सेझानिसी हिथाए समावन्नो। शय्यायां वसतौ नैषे. धिक्यां स्वाध्यायनूमौ । अथवा शय्यैवासमञ्जसनिषेधान्नषेधिकी तस्यां समापन्नः सन् । किं कृत्वा। श्रयावदर्थं नुक्त्वा । न यावदर्थमपरिसमाप्तमित्यर्थः। णं वाक्यालंकारे ॥२॥ (टीका.) विधिविशेषमाह । सेजा त्ति सूत्रम् । शय्यायां वसतौ नैषेधिक्यां खाध्यायनूमौ शय्यैव वासमंजसनिषेधान्नषेधिकी तस्यां समापन्नो वा गोचरे कपकादि. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. छात्रमादौ श्रयावदर्थं जुक्त्वा न यावदर्थमपरिसमाप्तमित्यर्थः । णमिति वाक्याखंकारे । यदि तेन नुक्तेन न संस्तरेन्न यापयितुं समर्थः । ६पको विषमवेलापत्तनस्थो ग्लानो वेति सूत्रार्थः ॥॥ त कारणमुप्पो, नत्तपाणं गवेसए॥ विदिणा पुवउत्तेण, इमेणं उत्तरेण य॥ ३ ॥ __ ( श्रवचूरिः ) ततः कारणे वेदनादावुत्पन्ने पुष्टालम्बनः सन् जक्त पानं खेषयेत् विधिना पूर्वोक्तेन संप्राप्ते निदाकाल इत्यादिना अनेन वदमाणलक्षणेनोत्तरेण च ॥३॥ (अर्थ.) ( त के० ) तो ( कारणं के ) कारणे एटले थाहारनुं कारण (जप्पले के०) उत्पन्ने एटले उत्पन्न थये ते ( पुवउत्तेणं के० ) पूर्वोक्तेन एटले प्रथम कहेला (विहिणा के०) विधिना एटले विधिये करी ( य के०)-च एटले वली (श्मेणं के० ) अनेन एटले श्रा ( उत्तरेणं के०) उत्तरेण एटले थाल केहवाशे ते विधिये करी (जत्तपाणं के० ) जक्तपानं एटले अन्नपानने (गवेसए के० ) गवेषयेत् एटले गवेषणा करे. ॥३॥ ( दीपिका.) यद्येकवारं जुक्तेन न संस्तरेत्तदा किं कुर्यादित्याह । पुष्टालंबनः साधुः ततः कारणे वेदनादावुत्पन्ने द्वितीयवारमपि जक्तपानं गवेषयेदन्वेषयेत् । अन्यथा यतीनामेकवारमेव जक्तगवेषणमुक्तम् । केन । विधिना । किं० विधिना । पूर्वोक्तेन । संप्राप्त निदाकाल इत्यादिना। च पुनः । अनेन वक्ष्यमाणलक्षणेनोत्तरेण ॥३॥ (टीका.) त ति सूत्रम् । ततः कारणे वेदनादावुत्पन्ने पुष्टालम्बनः सन् न. क्तपानं गवेषयेदन्विष्येत् । अन्यथा सकृञ्जक्तमेव यतीनामिति । विधिना पूर्वोक्तेन संप्राप्ते जिक्षाकाल इत्यदिना अनेन च वक्ष्यमाणलक्षणेनोत्तरेण चेति सूत्रार्थः॥३॥ कालेण निस्कमे निस्कू, कालेण य पडिक्कमे ॥ अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे ॥४॥ (अवचूरिः) कालेन यो यस्मिन् ग्रामादावुचितो निदाकालस्तेन निःकामेत् । निदाय इति शेषः । कालेन वोचितेनैव यावता स्वाध्यायादि निष्पाद्यते तावता प्रतिक्रामेनिक्षात्रमणात् । अकालं च विवर्त्य । येन स्वाध्यायादि न संजाव्यते स खत्वकालस्तमपास्य काले कालं समाचरेत् सर्वयोगोपसंग्रहार्थम् ॥४॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३२ए (अर्थ. ) (निरकू के०) जिक्नुः एटले साधु (कालेण के०) कालेन एटले जे गामने विषे जेवारे श्राहारनी वेला होय ते अवसरे ( हिकमे के ) निःकामेत् एटले गोचरी माटे बाहर जाय, ( य के) च एटले वली ( कालेण के० ) कालेन एटले स्वाध्यायादिकनी वेला थक्ष जाणीने सनायने काले ( पडिकमे के०) पाबो वले. (च के०) वली ( अकालं के०) जे गोचरीनी वेला न होय, तथा ज्यां श्राहारनो वखत न होय, एवा अकालने एटले जे कालमां रोकवाथी साधुने स्वाध्यायादिक थाय नहि ते अकाल जाणवो तेने ( विवत्तिा के) विवयं एटले वर्जीने (काले के०) काले एटले निदादिकना कालने विषे ( कालं के०) कालं एटले ते काले योग्य एवा निकादिक कार्यने (समायरे के०) समाचरेत् एटले आचरण करे. ॥४॥ (दीपिका.) तदेव वदयमाणलक्षणमाह । निकुः साधुः वसतेः सकाशादू निदायै निःकामेत्। केन। कालेन करणनूतेन ।कः कालः।यो यस्मिन् ग्रामादौ निदायामुचितः। पुनर्जिकुः कालेन तेनैव यावता स्वाध्यायादि निष्पद्यते तावता प्रतिक्रामेत् निवर्तेत । पुनर्जिकुः काले निदावेलायां कालं निदां समाचरेत् । किं कृत्वा अकालं च वर्जयित्वा। कोऽकालः । येन कालेन स्वाध्यायादि न संभाव्यते स किल अकालः । स्वाध्यायादीनि हि स्वाध्यायवेलायामेव क्रियन्ते ॥४॥ (टीका.) कालेणं ति सूत्रम् । यो यस्मिन् ग्रामादावुचितो निदाकालस्तेन करणनूतेन निष्क्रामेनिकुर्वसतेर्निदायै । कालेन चोचितेनैव यावता खाध्यायादि निपद्यते तावता प्रतिकामे निवर्तेत । नणिरं च । खेत्तं कालो नायणं तिन्नि विप्पहुप्पंति हिंमत्ति अह नंगा । अकालं च वर्जयित्वा येन स्वाध्यायादि न संनाव्यते स खड्वकालस्तमपास्य काले कालं समाचरेदिति सर्वयोगोपसंग्रहार्थं निगमनम् । निदावेलायां निदां समाचरेत् , स्वाध्यायादिवेलायां स्वाध्यायादीनीति। उक्तं च । जोगो जोगो जिणसासणंमीत्यादि । इति सूत्रार्थः ॥४॥ अकाले चरिसी निस्कू , कालं न पडिलेदिसि ॥ अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिदसि ॥५॥ (अवचूरिः) अकालचरणे दोषमाह । अकालचारी कश्चित्साधुरलब्धदः केन चित्साधुना प्राप्ता निदा नवेत्य निहितः सन्नेवं ब्रूयात् । अत्र स्थगिमलसं निवेशे कुतो निक्षा । स तेनोक्तः। अकाले चरसि निदांप्रमादात्स्वाध्यायलोनाहा कालं न प्रत्युपेक्षा ४२ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) - मा. सेऽयं नि कालो न वेति । अकालचरणेनात्मानंच क्लामयसि दीर्घाटनोनोदरजावेन । संनिवेशं च गई सि जगवदाज्ञालोपतो दैन्यं प्रतिपद्येति ॥ ५ ॥ ( अर्थ. ) हवे अकालने विषे गोचरीए जवामां दोष कहे बे. अकाल त्ति. . एक वखते एम के अकालने विषे गोचरीए जनार कोई एक साधुने जिक्षा नहि मलवाथी ते दीन थयो, अने ते गामनी निंदा करवा लाग्यो के, शून्य जंगल सरखा ए गाममां निक्षा क्याथी मले ? ते सांजली बीजो साधु तेने कहेवा लाग्यो के, ( जिरकू के० ) हे जो, साधो ! तुं ( काले के० ) ज्यारे जिक्षा मले नहि एवा अकालने विषे ( चरिसि के० ) गोचरीए जाय बे; पण तुं ( कालं के० ) निक्षायोग्य कालने ( न पडिलेह सि के ० ) न प्रत्युपेक्षसे एटले देखतो नथी, बराबर जोतो नथी. तेथी (पाणं के० ) पोताना श्रात्माने ( किलामे सि के० ) क्लामय सि एटले किला माने पमाडे बे, अर्थात् दीर्घ चमणथी तथा ऊनोदरताना दुःखथी ( च के० ) वली जवदाज्ञानो लोप करीने दैन्य पाम्याथी ( संनिवेशं के० ) ग्रामप्रत्ये ( गरिहसि के० ) गई सि एटले निंदे बे. जे या गामना लोको दातार नथी, साधुने वहोरावता नथी, इत्यादि निंदा करी तुं भगवाननी श्राज्ञानो लोप करेबे, अने दैन्य पामे बे. ॥ ५ ॥ 1 ( दीपिका.) काले गोचरीगमने दोषमाह । कोऽपि साधुरकाले निक्षार्थं प्रविष्टः । अथ कालचारित्वेन निक्षा न लब्धा । तदान्येन केनापि साधुना पृष्टः, जो जिक्षा त्वया प्राप्ता न वेति । तदा स वदति कुतोऽत्र स्य मिलसंनिवेशे जिक्षाप्राप्तिः । तदान्यः साधुः पृष्ठाकृत्तमकालचारिणं वदति । हे निको ! त्वमकाले चरसि । कस्मात् । प्रमादात् स्वाध्यायलोजाद्वा । पुनस्त्वं कालं किमयं निाकालो नवेत्यादिरूपं न प्रत्युपेक्षसे न जानासि । च पुनस्त्वमकालचरणेनात्मानं क्लामयसि दीर्घक्रमणेन ऊनोदरताजावेन च । च पुनः संनिवेशं ग्रामादिकमवर्णवादेन गर्हसि । ततो जगवत श्राज्ञालोपेन दैन्यप्रतिपत्त्या च तव महान्दोषः संभाव्यते । तस्मादकालाटनं न श्रेय इति ॥ ५ ॥ ( टीका.) कालचरणे दोषमाह । श्राकाल ति सूत्रम् | अकालचारी कश्चित् साधुरलब्धनैः केनचित् साधुना प्राप्ता निक्षा नवेत्यनिहितः सन्नेवं ब्रूयात् । कुतोऽत्र स्थ एकल संनिवेशे निक्षा । स तेनोच्यते । श्रकाले चरसि निको प्रमादात्स्वाध्यायलोनाका । कालं न प्रत्युपेक्षसे । किमयं निक्षाकालो नवेति । कालचरणेनात्मानं च ग्लपयसि दीर्घाटनन्यूनोदरजावेन । संनिवेशं च निन्दसि गर्हसि जगवदाज्ञालोपतो दैन्यं प्रतिपद्येति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ 1 For Private Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। सइ काले चरे निकू, कुज्जा पुरिसकारिअं॥ अलानु त्ति न सोश्जा, तवु त्ति अहिआसए॥६॥ । (अवचूरिः) यस्मादयं दोषः संजाव्यते तस्यादकालाटनं न कुर्यादित्याह । सश त्ति । सति विद्यमाने निदाकाले चरेन्निनुः । स्मर्यन्ते यत्र निनुकाः स स्मृतिकालस्तस्मिन् चरेद्यायान्निदुरित्यन्ये । कुर्यात् पुरुषकारं जवाबले सति वीर्याचारं न खयेत् । अलाने सति निदाया इति न शोचयेत् । वीर्याचाराराधनस्य निष्पन्नत्वात्तदर्थं च निक्षा नाहारार्थमेव ॥६॥ (अर्थ.) माटे ( निकू के० ) हे साधो ! ( काले के) निदायोग्य काल (सर के) सति एटले थये बते (चरे के०) चरेत् एटले गोचरी माटे गमन करे, अथवा ( सश्काले के०) स्मृतिकाले एटले गृहस्थ लोको जे वेलाए साधु लोकोनुं स्मरण करे , ते कालने विषे गोचरी माटे गमन करे. अने (पुरिसकारिओं के०) पुरुषकारं एटले उद्यमने (कुजा के०) कुर्यात् एटले करे, वीर्याचारनुं रक्षण करे.गोचरी करतां कदाचित् जो आहार न मले, तो (अलानु त्ति के०) अलान इति एटले शुद्ध निक्षानो लान थयो नहि माटे (न सोश्जा के०) न शोचेत् एटले शोक करे नहि. तो (तवुत्ति के०) तप इति एटले अनशनादिलदाण तप थाय ने, एम जाणी (अहियासए के०) अधिसहेत एटले दुधा परिषहनुं सहन करे. श्रर्थात् साधुए गोचरी जतां एवो विचार करवो के, जो आहार मलशे तो धर्मकायर्नु पोषण यशे, अने नहि मलशे, तो तपनी वृद्धि थशे. अहीं ढंढण कुमारनुं दृष्टांत बे, ते एवी रीतेः- ढंढण कुमार पूर्व नवे पांचसे हल खेडनार लोको उपर राजा तरफथी अधिकारी हता. मध्यान्ह वेलाए जात पाणी श्राव्या पडी एकेको चास पोताना देत्रे देवराव्या पनी तेमने खावा दे. पांचशे खेडुत अने हजार बलद मली पनरसे जीवने नित्य प्रत्ये अंतराय करे. एम चालतां एक व. खते ते ढंढण कुमारनो जीव मरण पामीने श्रीकृक्ष महाराजनी ढंढणा नामे राणीनी कूखे पुत्रपणे उपज्यो. पूर्ण मास थये जन्म पाम्यो. पठी मानुं नाम ढंढणा होवाथी तेनुं पण नाम ढंढणकुमार पाड्यु. केटलोक काल वीती जतां ते कुमार नोग समर्थ थयो एम जाणी तेने माता पिताए उत्तम कन्याउं परणावी. पड़ी एक समये श्रीनेमनाथजीनो उपदेश सांजली वैराग्य पामी मातापितानी आज्ञा लश् तेणेदीका लीधी. पडी पूर्व जवढं अंतराय कर्म उदय आव्यु, त्यारे नव वार छारिका नगरीमाहे वहोरवा गया, पण निर्दोष आहार मल्यो नहि. ते जाणी ढंढणकुमारे Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. ग्रह लीधो. जे बीजा साधुनुं श्राणेलुं आहार पाणी माहरें लेतुं नहि, श्रपणी लब्धि सुकतो आहार जो मले, तो जमवुं; नहीं तो तपस्या करवी. एम करतां घणा दिवस गया, एकदा प्रस्तावे श्रीकृष्स महाराजे श्रीनेमिनाथजीने पूब्युं, के छा ढार हजार साधु मांहे हाल कोण महा दुष्कर करणीनो करनार बे, ते कहो. त्यारे श्री नेमीश्वर जगवाने कयुं, के ताहरो पुत्र ढंढणकुमार उग्र करणीनो करनार बे. एम सांजली जगवंतने वांदी श्रीकृम महाराज पाठा वल्या. अटलामां ढंढणकुमारने सामाज श्रावता दीवा. त्यारे श्रीकृम महाराजे हाथी थकी हेवे उतरीने त्रण प्रदक्षिणा दइ नक्तिसहित ते ढंढणकुमारने वांद्या. ए कृत्य एक व्यवहारीए जोने मनमां विचार कस्यो, के ए कोई महोटा मुनिराज लागे बे. जेथी एने श्रीकृममहाराजे पण वंदना करी. एम विचारी ते व्यवहारिये ढंढणकुमारने मोटा मोदक वहोराव्या. ते निर्दोष जोइने ढंढणकुमारे वोहोरया. पढी ते ढंढणकुमारे नेमीश्वर गवान् पासे श्रावने पूब्युं. हे स्वामिन् ! महारुं अंतराय कर्म दय पाम्युं ? ते सांजली जगवंते कयुं. श्री कृमनी लब्धि बे. ताहरी लब्धि नथी. एम सांजली ढंढणकुमारे कुंजारना नीमाडा मांहे ते मोदकनुं चूर्ण करी परवव्युं, अने परववतां कां एम विचायुं, जे हो प्राणी ! अंतराय कीधानां केवां माठां फल बे ? एहवं शुभ ध्यान ध्यातां जेम जेम मोदक खूटे, तेम तेम कर्मनां दल त्रूटे. एवीरीते कर्मबंधनो बेद थयो त्यारे, ते कुमारने केवल ज्ञान थयुं. पठी ते कुमार मोदे पहोच्यो. एम ए ढंढणकुमारनी परे महात्मा साधुने कदाचित् जो निक्षा न मले, तो शोक न करवो. पण मन दृढ राखीने दुधानो परीषद खमवो. इति ढंढणकुमारदृष्टांत. ॥ ६ ॥ 1 ( दीपिका. ) ततः साधुः किं कुर्यादित्याह । निक्षुः काले सति निक्षाकाले जाते सति चरे शिक्षार्थं गछेत् । अन्ये पुनः सइकाले इत्यस्य एवमर्थं कुर्वन्ति । स्मृतिकालो निकालो यत्र निदुः स्मर्यते । तस्मिन् पुनर्जितुः पुरुषकारं जङ्घाबले सति वीर्याचारं न लङ्घयेत् । तत्र च अलाने सति निक्षाया श्रप्राप्तौ सत्यां निकुर्न शोचयेत् । किंतु एवं जावयेत् । मया जिक्षा न लब्धा परं वीर्याचारस्त्वाराधितः । वीर्याचारार्थमपि निकाटन न केवलमाहारार्थमेव । अतो न शोचयेत् । अपि तु तप इत्यधिसहेत अनशनमूनोदरतादि वा तपोऽपि भविष्यतीति सम्यग्विचिन्तयेत् ॥ ६ ॥ ( टीका. ) यस्मादयं दोषः संजाव्यते तस्मादकालाटनं न कुर्यादित्याह । सइति सूत्रम् । सति विद्यमाने काले निकासमये चरेद्विदुः । श्रन्ये तु व्याचक्षते । स्मृतिकाल एव कालोऽ निधीयते । स्मर्यन्ते यत्र निक्षुकाः स स्मृतिकालस्त स्मिन् चरेद्विदुः Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देश। ३३३ निक्षार्थं यायात्। कुर्यात् पुरुषकारं सति जवाबले वीर्याचारं न लक्येत् । तत्र चाला. नेऽपि निदाया अलान इति न शोचयेछीर्याचाराराधनस्य निष्पन्नत्वात् । तदर्थं च निदाटनं नाहारार्थमेवातो न शोचेत् । अपितु तप इत्यधिसहेत। अनशनन्यूनोदरतालक्षणं तपो नविष्यतीति सम्यग्विचिन्तयेदिति सूत्रार्थः ॥६॥ तदेवुच्चावया पाणा, नत्तहाए समागया॥ तंउकुअंन गठिता, जयमेव परक्कमे ॥७॥ ( अवचूरिः) उक्ता कालयतना। देवयतनामाह । तहेव त्ति । तथैवोच्चावचाः शोननाशोजननेदेन नानाप्रकाराः प्राणिनो जक्तार्थ समागता बलिप्राज़तकादिष्वागता जवन्ति । तदृजुकं तेषामनिमुखं न गछेत् । तत्संत्रासेनान्तरायाधिकरणदोषात् । किंतु यतमेवोठेगमनुत्पादयन्पराकामेत् ॥७॥ . (अर्थ.) ए कालयतना कही. हवे देत्रयतना कहे . ( तदेव के०) तथैव एटले तेमज गोचरी जतां मार्गमाहे (उच्चावया पाणा के०) उच्चावचाः प्राणिनः एटले शुन तथा अशुन एवा हंस कागडा प्रमुख प्राणी (नत्तहाए के) नक्तार्थ एटले जातपाणीने अर्थे ( समागया के०) समागताः एटले आव्या होय तो ते साधु ( तंगजुरं के०) तदृजुकं एटले ते प्राणीने सामो ( न गछिजा के०) न गछेत् एटले जाय नहीं. कारण के, ते जीवने त्रास उपजे अथवा तेने अंतराय थाय, माटे (जयमेव के०) यतमेव एटले जयणा राखीने जेम ते प्राणी कुःख उठेग न पामे तेम (परकमे के ) पराक्रामेत् एटले गमन करे. ॥ ७ ॥ (दीपिका.) कालयतनोक्ता । अथ क्षेत्रयतनामाह। निकुस्तहजुकं तेषां प्राणिनामनिमुखं संमुखं न गछेत् । तेषां केषाम्।ये प्राणाःप्राणिनो नक्तार्थ बलिप्रानृतकादिषु समागता नवन्ति। कथम्। तेषां संत्रासेन अन्तरायदोषोनवेत्। तर्हि किं कुर्यात्।यतमेव पराक्रामेत् तेषामुछेगमनुत्पादयन् । किनूताः प्राणिनः। तथैव उच्चा हंसादयः अवचाः काकादयः शोजनाशोचननेदेन नानाप्रकाराः ॥ ७॥ (टीका.) उक्ता कालयतना । अधुना देवयतनामाह । तहेव त्ति । तथैवोच्चावचाः शोजनाशोजननेदेन नानाप्रकाराः प्राणिनो नक्तार्थ समागता बलिप्रानतिकादिवागता जवन्ति । तदृजुकं तेषामनिमुखं न गछेत्तत्संत्रासनेनान्तरायाधिकरणादिदोषात् । किंतु यतमेव पराक्रामेत् तमुछेगमनुत्पादयन्निति सूत्रार्थः ॥७॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ राय धनपतसिं बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. गोरग्गपविठो, न निसीइक कचई ॥ कदं च न पबंधिका, चिट्ठित्ता ण व संजए ॥ ८ ॥ (अवचूरि :) गोचरायप्रविष्टस्तु न निषीदेत्व चिद्देवकुलादौ संयमोपघातादिदोषप्रसंगात् । कथां च न प्रबध्नीयात् स्थित्वा कालविलंबे संयत इत्यनेषणादिप्रसङ्गात् ॥ ८ ॥ ( . ) हवे गोचरीगत साधु शुं न करे ते कहे बे. (संजए के० ) पूर्वोक्त संयत साधु (गोरपवो के० ) गोचरायप्रविष्टः एटले प्रधान गोचरीए गयो थको (कas ho) कचित् एटले क्याय पण ( न निसीइस के० ) न निषीदेत् एटले बेसे नहीं. ( च के०) वली ( चिह्नित्ता ए के० ) स्थित्वा एटले बेसीने ( कहं के० ) कथां एटले धर्मकथने ( न पबंधिका के० ) न प्रबभीयात् एटले विस्तारथी कहे नहीं. ॥ ८ ॥ (दीपिका.) पुनर्गोचरी गतः साधुः किं न कुर्यादित्याह । साधुर्गोचरायप्रविष्टस्तु जि. कार्थं प्रविष्टः सन् न निषीदेन्नोपविशेत् क्वचिदेवकुलादौ । यतस्तत्र निषीदने संयमस्य घातो जवति । च पुनः कथां धर्मकथादिरूपां न प्रबभीयात् प्रबन्धेन न कुर्यात् । अन एकव्याकरणे एकदृष्टान्तकथने च अनुज्ञामाह । श्रतएवाह । किं कृत्वा । स्थित्वा । कालपरिग्रहेण संयतो यतिः एवं च क्रियमाणे अनेषणाद्वेषादिदोषप्रसंगो जवेत् ॥ ८ ॥ ( टीका. ) गोरग्गत्ति सूत्रम् । गोचरायप्रविष्टस्तु निक्षार्थं प्रविष्ट इत्यर्थः । न निषीदेनोपविशेत् । कचिदेवकुलादौ संयमोपघातादिप्रसंगात् । कथां च धर्मकथादिरूपां न प्रबभीयान्न प्रबन्धेन कुर्यात् । अनेनैकव्याकरणैकज्ञातानुज्ञामाह । श्रतएवाद | स्थित्वा । कालपरिग्रहेण संयत इत्यनेषणाद्वेषादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ अग्गलं फलिदं दारं, कवाडं वा वि संजए ॥ अवलंबित्रा न चिठिका, गोरग्गगन मुली ॥ ए ॥ ( श्रवचूरिः ) उक्ता त्रयतना । ऽव्ययतनामाह । श्रर्गलां गोपुरकपाटादेः, परिघं कपाटकादेः, द्वारं शाखामयं, कपाटं द्वारमात्रं वापि संयतोऽवलम्ब्य न तिष्ठेत् । लाघवविराधनादोषात् । गोचराग्रगतो निक्षाप्रविष्टो मुनिः ॥ ए ॥ (अर्थ. ) हवे द्रव्ययतना कहे बे. वली ( संजए के० ) संयतः एटले संयमी एवो ( मुणी के० ) मुनिः एटले पूर्वोक्त साधु ( गोअर ग्गग के० ) गोचराग्रगतः एटले गोचरीने विषे गयो थको ( अग्गलं के० ) अर्गलां एटले मूंगल ( वा के० ) अथवा ( फलिहं के० ) परिघं एटले कपाटना ढांकवाना फलकने अथवा ( दारं के० ) बारपानी शाखाने अथवा ( कवाडं वि के० ) कपाटमपि एटले कमाडने पण ( अवलं For Private Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पश्च माध्ययने द्वितीय उद्देशः । ३३५ बिश्रा के० ) अवलंब्य एटले उविंगण दइने ( न चिह्निता के० ) न तिष्ठेत् एटले जो रहे नहीं. ॥ ए ॥ ( दीपिका . ) क्षेत्रयतना उक्ता । अथ द्रव्ययतनामाह । संयतो यतिरर्गलां गोपुरकपाटा दिसंबंधिनीं, परिघं कपाटका दिस्थगनं द्वारं शाखामयं, कपाटं द्वारयंत्रं वा अवलंब्य न तिष्ठेत् । कथम् । एवमवलम्बने लाघवविराधनादोषो जवेत् । किंभूतः संयतः । गोचरायगतो निक्षायां प्रविष्टः ॥ ए॥ ( टीका. ) उक्ता क्षेत्रयतना । ऽव्ययतनामाह । अग्गलं ति सूत्रम् । अर्गलं गोपाटादिसंबन्धिनं, परिघं नगरद्वारा दिसंबन्धिनं द्वारं शाखामयं, कपाटं द्वारयन्त्रं वापि संयतः । अवलम्ब्य न तिष्ठेलाघव विराधनादोषात् । गोचराग्रगतो निक्षाप्रविष्टः । मुनिः संयत इति पर्यायौ तडुपदेशाधिकारादडुष्टावेवेति सूत्रार्थः ॥ ए ॥ सम मादणं वा वि, किविणं वा वणीमगं ॥ नवसंकमंतं नत्तठा, पाणठा एव संजए ॥ २० ॥ ( श्रवचूरिः ) उक्ता द्रव्ययतना । जावयतनामाह । श्रमणं निर्ग्रन्यादि, ब्राह्मणं धिग्वर्णं वापि, कृपणं वा पिंगोलकं वनीपकं, दरिद्रं चतुर्णामन्यतममुपसंक्रामन्तं सामीप्येन गच्छन्तमागच्छन्तं वा पानार्थं वा निक्षार्थं संयतः ॥ १० ॥ (अर्थ. ) हवे जावयतना कहे बे. समणमिति (समणं के० ) श्रमणं एटले साधुने ( वा के० ) अथवा ( मादणं के० ) ब्राह्मणं एटले ब्राह्मणने अथवा (किविणं के० ) कृपणं एटले पोतानुं धन संची जीख मागे ते कृपणने (वणीमगं के० ) वनीपकं एटले दरिडी पुरुष ए चार पुरुष मांहेलो कोइ पण ( जत्ता के० ) जक्तार्थं एटले - हारने अर्थे (व के० ) अथवा ( पाणठाए के० ) पाणीने अर्थे ( जवसंकमंतं के० ) उपसंक्रामन्तं एटले सामो श्रावतो होय तो ॥ १० ॥ ( दीपिका. ) उक्ता द्रव्यविराधना । जाव विराधनामाह । संयतः साधुः श्रमणं निर्ग्रन्थादिरूपं, ब्राह्मणं धिग्जातीयं कृपणं वा पिंडोलकं, वनीपकं दरिद्वं एतेषां चतुर्णां मध्येऽन्यतममुपसंक्रामन्तं सामीप्येन गवंतमागच्छंतं वा । किमर्थं । जक्तार्थं पानार्थं वा १० ( टीका. ) उक्ता द्रव्ययतना । जावयतनामाह । समणं ति सूत्रम् । श्रमणं निर्यन्यादिरूपं, ब्राह्मणं धिग्वर्णं वापि कृपणं वा पिएकोलकं वनीपकं पञ्चानामप्यन्यतमम् उपसंक्रामन्तं सामीप्येन गच्छन्तं गतं वा जक्तार्थं पानार्थं वा संयतः साधुरिति सूत्रार्थ ः १० Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. तमक्कमित्तु न पविसे, न वि चिहे चकुगोअरे॥ एगंतमवक्कमित्ता, तब चिहिक संजए॥११॥ (अवचूरिः ) तं श्रमणादिमतिक्रम्य न प्रविशेन्न तिष्ठेच्चकुर्गोचरे । एकान्तमवकम्य तत्र तिष्ठेत्संयतः ॥११॥ (अर्थ.) (तं के ) तेने (अश्क्कमित्तु के० ) अतिक्रम्य एटले अतिक्रमण करीने (न पविसे के०) न प्रविशेत् एटले गोचरीने अर्थे प्रवेश करे नहीं. तथा (चरकुगोअरे के ) चतुर्गोचरे एटले तेहनी दृष्टिए (न चिठे के) न तिष्ठेत् एटले उनो रहे नहीं. तो शुं करे ते कहे . ( संजए के०) संयतः एटले पूर्वोक्त साधु ( एगंतं के ) एकांतं एटले एकांतस्थानके ( अवकमित्ता के) अवक्रम्य एटले जश्ने ( तब के) ते स्थानकने विषे ( चिहिज के ) तिष्ठेत् एटले उन्नो रहे.॥११॥ (दीपिका.) उक्तां योजनामग्रिमगाथयाह । संयतः पूर्वगाथायां य उक्तस्तं श्रमणादिकं चतुर्नेदं पूवोर्तमतिक्रम्य उलंघ्य न प्रविशेत् । नापि तेच्यः समुदाने दीयमाने चकुर्गोचरे तिष्ठेत् । तर्हि किं कुर्यादित्याह । एकान्तमवक्रम्य तत्र तिष्ठेत्संयतः ॥११॥ (टीका.) तमिति सूत्रम् । तं श्रमणादिमतिक्रम्योबध्य न प्रविशेत् । दीयमाने च समुदाने तेन्यो न तिष्ठेच्चकुर्गोचरे । कस्तत्र विधिरित्याह । एकान्तमवक्रम्य तत्र तिष्ठेत् संयत इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ वणीमगरस वा तस्स, दायगस्सुनयरस वा ॥ अप्पत्तिअं सि दुजा, लत्तं पवयणस्स वा॥१२॥ (श्रवचूरिः) अन्येऽप्येते दोषाः । वनीपकस्य वा तस्यैतत्मणादेरुपलक्षणं दातुर्वा उन्नयोर्वा अप्रीतिः स्यात्कदाचिनवेत् ।अहो अलोकतैषामिति । लघुत्वं प्रवचनस्य। अन्तरायदोषश्च ॥ १२ ॥ (अर्थ.) पूर्वे कह्या प्रमाणे न करे तो (सिश्रा के०) स्यात् एटले कदाचित् (तस्स के० ) ते (वणीमगस्स के०) वनीपकस्य एटले दरिजिने (वा के० ) अथवा (दायगस्स के०) दायकस्य एटले दातारने (वा के०) अथवा (जनयस्स के०) उन्नयस्य एटले दातारने अने लेनारने (अप्पत्तिअं के०) अप्रीतिः एटले अप्रीति (हुजा के०) जवेत् एटले थाय. (वा के०) अथवा (पवयणस्स के) प्रवचनस्य एटले सिकांतने ( लहुत्तं के०) लघुत्वं एटले लघुता आवे, तथा ते निदाचरने अंतराय थाय, तथा ते दाता मनमां जाणे, के झुं एने अन्नादिक खावा मलतुं नथी ? जे अटली दोडादोड Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३३७ करे जे. इत्यादि दोष उपजे , माटे पूर्वोक्त वणीमगादि ज्यां श्रावीने उजा रहेला होय त्यां जq नहि. ॥ १५ ॥ (दीपिका.) अन्यथैते दोषा नवन्ति । तानाह । वनीपकस्य वा तस्य । उपलक्षणत्वात् पूर्वोक्तस्य श्रमणादेश्च दातुर्वा उन्नयोर्वा । अप्रीतिः कदाचित् स्यात्।का प्रीतिः अहो एते लौकिकव्यवहारस्याशातार इत्यादिरूपा। तथा प्रवचनस्य लघुत्वं स्यात् । अन्तरायदोषोऽपि स्यात् ॥ १२ ॥ (टीका.) अन्यथैते दोषा इत्याह । वणीमगस्स त्ति सूत्रम् । वनीपकस्येत्येतखूमणाद्युपलक्षणम् । दातुर्वा उत्नयोर्वा अप्रीतिः कदाचित् स्यात् । अहो अलोकतैतेषामिति । लघुत्वं प्रवचनस्य चान्तरायदोषश्चेति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ पडिसेहिए व दिन्ने वा, तन तम्मि नियत्तिए॥ नवसंकमिज नत्तहा, पाणहाए व संजए ॥१३॥ (अवचूरिः) प्रतिषिझे वा दत्ते वा ततः स्थानात् तस्मिन्वनीपकादौ निवर्त्तिते सत्युपसंक्रामेनक्तार्थं पानार्थं वा संयतः॥ १३ ॥ (अर्थ.) हवे पूर्वोक्त प्रसंग श्रावे यारे झुं करवं ते कहे . जे वणीमगादि आपणा पहेलां गृहस्थने घेर श्रावीने जन्नो रह्यो होय, तेने ते गृहस्थे थाहार (दिने के० ) दत्ते एटले आपे ते (वा के०) अथवा (पडिसेहिए के०)प्रतिषिके एटले ना कहे ते (त के०) ततः एटले ते पनी ( तम्मि के०) तस्मिन् एटले ते ( नियत्तए के०) निवृत्ते एटले गये ते ( संजए के०) संयतः एटले पूर्वोक्त साधु (नत्तहा के०) नक्तार्थं एटले नातने अर्थे ( व के०) अथवा (पाणहाए के) पानार्थ एटले पाणीने अर्थे ( उवसंकमिजा के० ) उपसंक्रामेत् एटले जाय. ॥ १३ ॥ (दीपिका.) तस्मादेवं पूर्वोक्तं न कुर्यात् । तर्हि किं कुर्यादित्याह । संयतः साधुः प्रतिषिके वा दत्ते वा ततः स्थानात् तस्मिन् वनीपकादौ निवर्तिते सति उपसंकामेद् नक्तार्थं पानार्थं वा ॥ १३॥ (टीका.) तस्मान्नैवं कुर्यात् किंतु पडिसेहिश्र त्ति सूत्रम् । प्रतिषिके वा दत्ते वा ततः स्थानात्तस्मिन् वनीपकादौ निवर्तिते सति उपसंक्रामेनक्तार्थ पानार्थं वापि संयत इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ नप्पलं परमं वा वि, कुमुधवा मगदंतिअं॥ - अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं, तं च संलुंचिआ दए ॥१४॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. ( यवचूरिः ) परपीडाप्रतिषेधाधिकारादिदमाह । उत्पलं नीलोत्पलादि । पद्ममरविन्दम् । कुमुदं गर्दजकम् । मगदन्तिकां मेत्तिकां मल्लिकां च अन्यत्पुष्पं सचित्तं शाल्मली पुष्पादि । तच्च संलुंच्य वित्त्वा दद्याद्दाता ॥ १४ ॥ 1 ( अर्थ. ) हवे परपीडा टालवाना अधिकारथी वली या सूत्र कहे बे. (उप्पलं के०) उत्पलं एटले नील कमल, (पमं के० ) पद्मं एटले रातुं कमल (वा वि के० ) अथवा ( कुमु० ) कुमुदं एटले चंद्र विकासी धोलुं कमल, ( वा के० ) अथवा ( मगदंति hu ) मगदंतिकां एटले मालतीनुं अथवा मोगरानुं फूल, कोइ टीकाकार मगदंतिका - शब्देकरी मेंदीना पानडानुं ग्रहण करे बे. (वा के० ) अथवा ( अन्नं के० ) अन्यत् एटले बीजं (पुप्फसच्चित्तं के०) सचित्तपुष्पं एटले सचित्त फूल जे होय, ( तं के० ) तेने ( संलुं चिया के० ) संलुंच्य एटले बेदीने वोहोरावनार जो जातपाणी प्रत्ये ( दए ho ) दे, आपे ॥ १४ ॥ ( दीपिका . ) परपीडाधिकारात् पुनरिदमाह । उत्पलं नीलोत्पलादि, पद्ममरविन्दं, कुमुदं वा गर्दजकं वा, मगदन्तिकां मेत्तिकाम् । मल्लिकामित्यन्ये । तथा अन्या पुष्पं सचित्तं शाल्मली पुष्पादि । तच्च संलुंच्य अपनीय वित्त्वा दद्यात् ॥ १४ ॥ (टीका.) परपीडाप्रतिषेधाधिकारादिदमाह । उप्पलं ति सूत्रम् । उत्पलं नीलोत्पला - दि । पद्ममरविन्दं वापि । कुमुदं वा गर्दनकं वा । मगदंतिकां मेत्तिकाम् । मल्लिकामित्यन्ये । तथान्यद्वा पुष्पं सच्चित्तं शाल्मली पुष्पादि । तच्च संलुंच्यापनीय बिवा दद्यादिति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण कपित्र्यं ॥ दिति पडित्र्याइसके, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १५ ॥ ( अवचूरिः ) तं ज० सुगमम् ॥ १५ ॥ ( अर्थ. ) तो ( तं के० ) ते ( जत्तपाणं तु के० ) जात पाणी ( संजयाणं के० ) संमी साधुने ( कपित्र्यं के० ) यकल्पिकं एटले असूतुं ( नवे के० ) जवेत् एटले थाय, ते माटे तेने (दितियं के०) ददतीं एटले आपनारी श्राविकाप्रत्ये ( न मे कप्पर ता रिसं के० ) मने तेवुं न कल्पे एवीरीते (पडियाइके के०) प्रत्याचक्षीत एटले कहे . ॥ १५ ॥ ( दीपिका . ) तदा किमित्याह । ततः संयतो ददतीं प्रतीदं वदेत् । हे स्त्रि तादृशं जक्तपानं संयतानामकल्पनीयं ततो मे मम न कल्पते ॥ १५ ॥ १:- तारिसं " ति पाठान्तरम् । 46 For Private Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । ३३० ( टीका.) तारिसं ति सूत्रम् । तादृशं जक्तपानं तु संयतानामकल्पिकम् । यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ उप्पलं पनमं वा वि, कुमुद्रं वा मगदंतियं ॥ अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं तं च संमद्दिच्या दए ॥ १६॥ "" ( अवचूरिः ) एवं च तच्च संमृद्य दद्यात् । संमर्दनं नाम पूर्वछिन्नानामेवापरिणतानां मर्दनं संमर्दनम् । “ सम्मदमाणी पापाणि बी आणि हरियाणि अ 1 इत्यत्रैत डुक्तमेवात्रोच्यते । उक्तं सामान्येन विशेषानिधानाददोषः ॥ १६ ॥ (.) तथा ' उप्पलं ' इत्यादिनो अर्थः- नीलकमलने, राता कमलने, अथवा मालतीना, मोगराना फूलने किंवा बीजां पण धातकी श्रादिकनां सचित्त फूल जे होय, (तं के० ) तेने ( संमदिया के० ) संमृद्य एटले मदने जे श्राविका अन्न पानने (दए के० ) दद्यात् एटले पे. ॥ १६ ॥ ( दीपिका . ) पुनः कीदृशं न कल्पत इत्याह । तच्च उत्पलादिकं पूर्वोक्तं संमृद्य दाता दद्यात् । तदापि संयतो न गृह्णीयात् । संमर्दनं नाम पूर्वछिन्नानामेवापरिणतानां मर्दनम् ॥ १६ ॥ 1 1 ( टीका. ) एवं तच्च संमृद्य दद्यात् । संमर्दनं नाम पूर्वछिन्नानामेवापरिणतानां मर्दनम् । शेषं सूत्रद्वयेऽपि तुल्यम् । याहैतत्पूर्वमप्युक्तमेव । संमदमाणी पापाणि बी - आणि हरियाणा इत्यत्र । उच्यते । सामान्येनोक्तस्य विशेषा निधानान्न दोषः ॥ १६ ॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण कपित्र्यं ॥ 1 दितिच्प्रं पडित्र्याइके, न मे कप्पर तारिसं ॥ १७ ॥ ( वचूरिः ) तं० पूर्ववत् ॥ १७ ॥ ( .) ( तं जत्तपाणं तु के० ) तेवुं असूतुं जातपाणी तो (संजयाएं के० ) संयम साधुने (कपित्र्यं के०) कल्पिकं एटले असूतुं ( जवे के० ) जवेत् एटले याय, अर्थात् कल्पे नहीं. माटे तेव जात पाणीने ( दिंतियं के० ) ददतीं एटले पनारीने ( न मे कप्पइतारिसं के० ) मने तेवुं कल्पे नहि एवीरीतें ( पडिया इके के० ) प्रत्याचक्षीत एटले कहे ॥ १७ ॥ · ( दीपिका. ) ततः किमित्याह । अर्थलापनिका पूर्ववत् ॥ १७ ॥ For Private Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. सालुअं वा विरालिअं, कुमुअं नप्पलनालिनं ॥ मुणालिअं सासवनालिअं, उहुखं अनिवुमं ॥२॥ (अवचूरिः) शालूकं वा उत्पलकन्दम्, विरालिकां पलाशकन्दरूपां, पर्ववलिप्रतिपर्वकन्दमित्यन्ये । कुमुदोत्पलनालौ प्रतीतौ । मृणालिकां पद्मिनीकन्दोबां, सर्षपनालिकां सिझार्थमञ्जरीम् । कुखमम निर्वृतं सचित्तम् । अनिर्वतग्रहणं सर्वत्र संबध्यते ॥२७॥ (अर्थ.) तथा (अनिवुडं के) अनिवृतं एटले शस्त्रपरिणत नथी, एटले काचो सचित्त एवा (साबुआं के०) शालूकं एटले कमलनो कंद, (वा के०) अथवा (विरालि के) विरालिकां एटले पलाशनो कंद, (कुमुझं के०) कुमुदं एटले धोला चंडविकासी कमलनी अथवा ( जप्पलनावि के) उत्पलनाविकां एटले नीलकमलनी नालिका, किंवा ( मुणालिशं के) मृणालिकां एटले कमलना तंतुया अथवा (सासवनालियं के ) सर्षपनालिकां एटले सरशवनी मांगली, अथवा ( उबुखंडं के) श्कुखएकं एटले सेलडीना कटका ॥ १७ ॥ (दीपिका.) पुनः किं किं वर्जयेदित्याह । शालूकं वा उत्पलकन्दम्, विरालिका पलाशकन्दरूपां, पर्ववक्षिप्रतिपर्वकंदमित्यन्ये । कुमुदोत्पलनालौ प्रसिझौ। तथा मृणालिका पद्मिनीकन्दोत्थाम् । सर्षपनाविकां सिझार्थमञ्जरीम् । तथा कुखएमम् । एतत् शालूकादि सप्तकं किंनूतम् । अनिवृतं सचित्तम् ॥ १० ॥ ... (टीका.) तथा साबुआं ति सूत्रम्। शालूकं वा उत्पलकन्दं। विरालिकां पलाशकन्दरू पाम् । पर्ववक्षिप्रतिपर्ववक्षिप्रतिपर्वकन्दमित्यन्ये । कुमुदोत्पलनालौ प्रतीतौ । तथा मृणालिकां पद्मिनीकन्दोबां । सर्षपनालिका सिद्धार्थकमञ्जरी। तथा कुखएममनिर्वृतं सचित्तम् । एतच्चानिर्वतग्रहणं सर्वत्रा निसंबध्यत इति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ तरुणगं वा पवालं, रुकस्स तणगस्स वा॥ अन्नस्स वा वि दरिअस्स, आमगं परिवजाए ॥१५॥ (अवचूरिः) तरुणकं वा प्रवालं । वृदस्य चिञ्चिणिकादेः। तृणस्य वा मधुरतृणादेः । अन्यस्य वापि हरितस्यार्जकादेः। श्राममपरिणतं परिवर्जयेत् ॥ १५ ॥ (अर्थ.) तथा (वा के०) अथवा ( रुकस्स के०) वृदस्य एटले आमली थादिक वृदनो ( वा के०) अथवा ( तणगस्स के ) तृणकस्य एटले तृणना ( वावि के०) अथवा ( अन्नस्स के०) अन्यस्य एटले बीजा कोश (हरिअस्स के० ) हरितस्य एटले हरित्काय जीवना (तरुणगं वा पवालं के०) तरुणं वा प्रवालं एटले Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । तरुण एवा प्रवाल ( श्रमगं के० ) शस्त्रपरिणत he ho) परिवर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥ १‍ ॥ ( दीपिका. ) पुनः किं किं तदाह । वृक्षस्य चिञ्चिणिकादेर्वा, तृणस्य वा मधुरतृणादेः, अन्यस्यापि हरितस्यार्जकादेश्च, तरुणकं वा प्रवालमामकमपरिणतं सचित्तम् । संयतः पूर्वगाथोक्तं शालूरादि सप्तकं चिंचिणिकादित्रयस्य तरुणप्रवालं च सचित्तं परिवर्जयेत् ॥ १८५ ॥ ३४१ परिणम्या होय, तेने ( परिव ( टीका. ) किंच तरुणयं ति सूत्रम् । तरुणं वा प्रवालं पल्लवं वृक्षस्य चिञ्चिणिकादेस्तृणस्य वा मधुरतृणादेः अन्यस्य वापि हरितस्यार्यकादेराममपरिणतं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ तरुणियं वा बिवाडिं, आमि नयिं सई ॥ दिति पडिप्राइके, न मे कप्पर तारिसं ॥ २० ॥ ( अवचूरिः ) तरुणां वासंजाताम निष्पन्नां विवाडि मुद्रादिफ लिमामाम सिद्धां जर्जितां चष्टां सकृदेकवारम् ॥ २० ॥ ( अर्थ. ) वजि संयमी साधु ( तरुणियं वा के० ) तरुणां एटले जेमां दाणो हजी बंधन एवी (बवार्डि के० ) मगप्रमुखनी फली ते केवी तो के ( प्रामिां- के० ) यामिकां एटले काची अपक तथा ( सयं के० ) सकृत् एटले एकवार ( नयिं ho ) जर्जितां एटले पकावेली तेने ( दिंतियं के० ) ददतीं एटले वहोरावनार एवी श्राविकाने ( पडाइके के० ) प्रत्याचक्षीत एटले कहे के, ( तारिसं के० ) ताएटले वो आहार (मे के०) मुने (न कप्पइ के०) न कल्पते एटले कल्पे नहि. ॥२०॥ ( दीपिका.) पुनः संयतः किं कुर्यात्तदाह । निक्षुः एवंविधां स्त्रियं प्रति इति वदेत् । इतीति किम् । न मे मम एतादृशं जोजनं कल्पते । किं कुर्वतीं स्त्रियम् । विवाडिं मुजादिफलिम् । किंविशिष्टां विवाडिम् | तरुणां वा संजातां, तथा पुनः जर्जितां । पुनः किंभूताम् । यामाम सिद्धां सवेतनां सकृदेकवारं ददतीम् ॥ २० ॥ ( टीका. ) तथा तरुणां ति सूत्रम् । तरुणां वा संजातां विवाडिमिति मुद्रादिफलिम, श्रमाम सिद्धां, सचेतनां तथा नर्जितां सकृदेकवारं ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशं जोजनमिति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद नाग तेतालीस-(४३)-मा. तहा कोलमणुस्सिन्नं, वेलुओं कासवनालिअं॥ तिलपप्पडगं नीम, आमगं परिवाए ॥२१॥ (अवचूरिः) तथा कोलं बदरमखिन्नमग्युदकाच्यामनापादितविकारान्तरं, वेणुकं वंशकरिवं,कासवनाविकां श्रीपर्णीफलं, तिलपर्पटकं तिल पिष्टमयं, नीपम् नीपः कदंबकस्तत्फलम् । अखिन्नं सर्वत्र योज्यम् ॥ २१॥ __ (अर्थ.) ( तहा के० ) तथा एटले तेमज वली (अणुस्सिन्नं के० ) अखिन्नं एटले नहिं रांधेला एवा ( कोलं के०) बोर अणुस्सिन्न ए पद सर्वत्र जोडq. तथा (वेलुअं के०) वेणुकं एटले वंशकारेलां तथा ( कासवनालियं के०) काश्यपनालिकां एटले श्रीपर्णवृदनुं फल ( तिलपप्पडगं के० ) तिलनी पापडी (नीमं के०) नीमवृदनां फल, ते (श्रामगं के० ) आमकं एटले काचां सचित्त अशस्त्रपरिणत एहवां ते सर्वने (परिवऊए के) परिवर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥१॥ (दीपिका.) पुनः साधुः किं वर्जयेत्तदाह । साधुः कोलं बदरं परिवर्जयेत् । किं. नूतं कोलम् । अखिन्नम् । अस्विन्न मिति पदस्य अर्थः सर्वत्र योज्यः । पुनः तिलपर्पटकं पिष्टतिलमयं तथा नीमं नीमफलम्। एतत् सर्वमाम परिवर्जयेत् साधुः॥१॥ (टीका.) तहा कोलं ति सूत्रम् । तथा कोलं बदरम् । अखिन्नं वयुदकयोगेनानापादितविकारान्तरम् , वेणुकं वंशकरिबम्, कासवनाविध श्रीपर्णीफलम् । अखिन्न मिति सर्वत्र योज्यम् । तथा तिलपर्पटं पिष्टतिलमयम्, नीमं नीमफलमामं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १॥ तदेव चानलं पिकं, विअडं वा तित्तनिवुडं ॥ तिलपिहपूपिन्नागं, आमगं परिवजए॥३२॥ (अवचूरिः ) तान्मुलं पिष्टं लोमित्यर्थः । विकटं वा शुद्धोदकं, तप्तानिवृतमप्रवृत्तत्रिदण्मं तिल पिष्टं तिललोहें, पूति पिण्याकं सर्षपखलम् ॥ २२ ॥ (अर्थ.) (तहेव के०) तेमज (चाउलं के०) चावलनो (पिठं के०) पिष्टं एटले बाटो तथा ( विकटं के०) शुद्धोदक (वा के०) अथवा (तत्तनिवुडं के०) तप्तनिवृतं एटले तपावीने टाडं पाडेलुं जल (तिलपि के० ) तिलपिष्टं ते तलनो लोट तथा (पूति पिणागं के०) पूति पिण्याकं एटले सरसवनो खोल (श्रामं के० ) काचो होय तो . तेने (परिवाए के०) वर्जे. ॥१२॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३४३ (दीपिका.) पुनः किं वर्जयेत् साधुस्तदाह । संयतः तथैव तान्हुलं पिष्टं लोहमित्यर्थः । तथा विकटं वा शुद्धोदकं, तथा तप्तनिर्वृतं कथितं । सहीतीनूतं तप्तानिवृतं वा यत्रिदएमोत्कलितं न जातं तथा तिलपिकं तिललोष्टं, तथा पूति पिण्याकं सर्षपखलम् । एतत्तांउललोष्टादि पञ्चकं कीदृशम् । श्रामकमपक्वम् । तत्सर्वं परिवर्जयेत् ॥१२॥ (टीका.) तहेव त्ति सूत्रम्। तथैव तान्मुलं पिष्टं लोहमित्यर्थः । विकटं वा शुकोदकं, तप्तनिर्वृतं कथितं सत् शीतीनूतम् , तप्तानिवृतं वा अप्रवृत्तत्रिदएणं, तिलपिष्टं तिललोह, पूति पिण्याकं सर्षपखलमाम परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ॥ कविहं मानलिंगं च, मूलगं मूलगत्तिअं॥ आमं असबपरिणयं, मणसा वि न पत्रए ॥२३॥ (अवचूरिः) कपिलं कपिलफलं, मातुलिङ्गं बीजपूरकं, मूलकं सपत्रजातं, मूलकर्तिकां मूलकंदचक्कलिम्, आमामपक्कामशस्त्रपरिणतां वकायशस्त्रादिनाविध्वस्ताम् । अनंतकायत्वाशुरुत्वख्यापनार्थमुनयम् ॥ २३॥ (अर्थ.) हवे साधु मनथी पण जेनी श्वा न करे ते कहे . ( श्रआमां के० ) अपक्क तथा ( असबपरिणयां के० ) अशस्त्रपरिणतां एटले खपरकाय शस्त्रादिके करी जेनो विध्वंस कस्यो नथी एवा ( कविहं के) कपिलं एटले कोठ, (च के०) वली (माजलिंगं के०) मातुलिंगं एटले बीजोरूं (च के०) वली (मूलगं के) मूलकं एटले मूलो तथा ( मूलकत्तियं के०) मूलकर्तिकां एटले मूलकर्त्तिकाने (मणसा के०) मनथी पण (न पत्रए के०) न प्रार्थयेत् एटले न प्रार्थना करे. अर्थात् ते वस्तु. मां अनंतकायकपणुं ते माटे साधु मनथी पण ते पूर्वोक्त वस्तुनी श्वा करे नहि. ॥३॥ (दीपिका.) पुनः साधुः प्रार्थयेन्मनसापि न । तदेवाह । साधुः एतदने वदयमाणं मनसापि नप्रार्थयेत् । किं तदाह । कपित्थं कपित्थफलं, मातुलिंगं च बीजपूरकं, मूलकं सपत्रजालकं, मूलकर्तिकां मूलकंद चक्क, आमां अपक्कां । पुनः कीदृशीं । अशस्त्रपरिणतां खकायशस्त्रादिना अविध्वस्तां, अनंतकायकत्वात् गुरुत्वख्यापनार्थमुउनयं मनसापि न प्रार्थयेत् ॥ २३ ॥ __(टीका.) कविठं ति सूत्रम् । कपिलं कपिलफलं, मातुलुङ्गं च बीजपूरकं, मूलकं सपत्रजालकं मूलवर्तिकां मूलकन्दचकालिम्, आमामपक्कामशस्त्रपरिणतां खकायशस्त्रादिनाविध्वस्ताम् । अनन्तकायत्वाशुरुत्वख्यापनार्थमुनयं मनसापि न प्रार्थयेदिति सूत्रार्थः ॥२३॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा तदेव फलमंणि, बी मंणि जाणि ॥ विदेलगं पियालं च, यामगं परिवऊए ॥ २४ ॥ ( यवचूरिः ) तथैव फलमन्थून् बदरचूर्णान्, बीजमन्थून् यवादिचूर्णान् ज्ञात्वा । बिहेलगं बिजीतकं, प्रियालं च राजादनफलम् ॥ २४ ॥ (अर्थ. ) वली साधु शुं वर्जे ते कहे बे. ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज वली ( मगं ० ) मकं एटले कांचा सचित्त (फलमं पि के० ) फलमंथून एटले बद्फलनुं चूर्ण एटले बोरकूट तथा (बी मंणि के०) बीजमंथून एटले जब प्रमुखनो लोट तथा ( बिहेलगं के० ) बिनीतकं एटले बहेडानुं फल, ( च के० ) वली ( पियालं के० ) प्रियालं एटले रायणनां फल तेने ( जालिया के० ) ज्ञात्वा एटले जाने ( परिवए के० ) परिवर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥ २४ ॥ ( दीपिका. ) पुनः साधुः किं वर्जयेत्तदाह । तथैव फलमंथून बदरचूर्णान्, बीजमंथून यवादिचूर्णान् ज्ञात्वा सिद्धांतवचनात् तथा बिजीतकं बिजी तकफलम्, प्रियालं च प्रियालफलम् । एतत् फलमंथुप्रमुखचतुष्टयमपि श्रममपरिणतं साधुवर्जयेत् ॥ २४ ॥ ( टीका. ) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव फलमन्थून् बदरचूर्णान्, बीजमंथून् य वादिचूर्णान् ज्ञात्वा प्रवचनतो बिजीतकं प्रियालं वा प्रियालफलं च श्रममपरिणतं परिवर्ज - येदिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ समुप्राणं चरे भिकू, कुलमुच्चावयं सया ॥ नीयं कुलमइक्कम्मं, कसढं नानिधारए ॥ २५ ॥ ( अवचूरिः ) विधिमाह । समुदानं जावनैक्षमाश्रित्य चरेद्विदुः कुलमुच्चावचं विजवापेक्षया नतु गर्हितत्वे सति । नीच कुलमतिक्रम्य द रिडकुल मुल्लङ्घ्य उतिमृि मत्कुलं नानिधावेन्न यायात् ॥ २५ ॥ (अर्थ) हवे साधुने गोचरीनो विधि कहे बे. ( जिरक के० ) निक्षुः एटले साधु (समुदाi ho) समुदानं एटले शुद्ध निक्षाने आश्रय करीने (चरे के० ) चरेत् एटले वहोरवा जाय. क्यां वहोरवा जाय ? तो के ( उच्चावयं के०) उच्चावचं एटले धने करी प्रधान ते इक्ष्वाकु कुलादि तथा श्रवचं एटले धननी अपेक्षाथी तुछ कुल एवा बेहु पण कुल प्रत्ये ( सया के० ) सदा एटले निरंतर गमन करे. परंतु ( नीचं कुलं के० ) नीच कुलं एटले धनरहित कुलने (कम्मं के०) अतिक्रम्य एटले उ For Private Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३४५ घीने बहु लाजनी वांबाथी (ऊसढं के ) उत्सृतं एटले धनथी पूर्ण एवा कुल प्रत्ये (नानिधारए के ) नानिधारयेत् एटले जाय नहि. ॥ २५॥ (दीपिका.) अथ गोचरण विधिमाह । साधुः समुदानं शुझं नैदयं समाश्रित्य चरेगछेत् । कुत्रेत्याह । कुलमुच्चावचं परं सदा अगर्हितत्वे सति । उच्च प्रनूतधनापेक्षया प्रधानम् । अवचं तुबधनापेक्ष्याप्रधानं यथापरिपाट्येव चरेत् सदा सर्वकालम् । परं नीचं कुलमतिक्रम्य उवंध्य विनवापेक्षया प्रनूततरलानार्थमुत्सृतमृद्धिमत् कुलं नानिधारयेत् न निषीदेत् न यायात् । कस्मात् । अनिष्वङ्गलोकलाघवात् ॥ २५ ॥ (टीका.) विधिमाह । समुआणं ति सूत्रम् । समुदानं नावदयमाश्रित्य चरेनिकुः । क्वेत्याह । कुलमुच्चावयं सया। कुलमुच्चावचं सदा । अगर्हितत्वे सति विनवापेक्षया प्रधानमप्रधानं च । यथापरिपाट्येव चरेत्सदा सर्वकालम् । नीचं कुलमतिक्रम्य विनवापेक्षया प्रनूततरलानार्थमुत्सृतमृद्धिमत्कुलं नानिधारयेन्न यायात् । अनिष्वङ्गलोकलाघवादिप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ अदीणो वित्तिमेसिजा, न विसीइज पंमिए॥ अमुविन नोअणंमि, मायस्मे एसणारए ॥१६॥ (अवचूरिः) अदीनां वृत्तिं वर्त्तनामेषयेत् । न विषीदेदलाने सति पएिकतः। अमूर्छितोऽगृको नोजने मात्राज्ञ आहारमात्रां प्रति एषणारत उन्मोत्पादनैषपापदपातीति ॥२६॥ __ (अर्थ.) हवे साधु शुं करे ते कहे . ( पंमिए के०) पंमितः एटले बुद्धिमान् (अदीणो के० ) अदीनः एटले आहार न मलवाथी अम्लानमुखवालो एवो साधु (वित्तिं केश) वृत्तिं एटले प्राण निर्वाहकवृत्ति प्रत्ये (एसिङाके०) एषयेत् एटले गवेषणा करे. परंतु ( न विसीइज के ) न विषीदेत् एटले आहार न मलवाथी विषाद करे नहि. वली ते साधु (नोअणं मि के०) सरस मलेला जोजनने विषे (अमुबि के०) अमूर्वितः एटले मूळ न करतो तथा वली (मायले के०) मात्राज्ञः एटले थाहारना प्रमाणने जाणनारो वली (एसणारए के०) एषणारतः एटले दोषरहित सूकता अशनादिक लेवाने विषे सावधान एवो होय. ॥ २६ ॥ (दीपिका.)अथ कीदृशः किं कुर्यात्साधुस्तदाह। पंडितः साधुः वृत्तिं प्राणवर्त्तनमेषयेत् । परं न विषीदेदलाने सति न विषादं कुर्यात् । किंनूतः पंमितः । अदीनः अव्य. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. दैन्यमङ्गीकृत्य अम्लानवदनः । पुनः किंभूतः पंमितः । जोजने अमूर्च्छितः अगृद्धः । पुनः किंभूतः पंमितः । लाने सति मात्रा आहारमात्रां प्रति । पुनः किंभूतः । एषणारत उगमोत्पादनैषणापक्षपाती ॥ २६ ॥ ( टीका. ) किंच दीप त्ति सूत्रम् । श्रदीनो द्रव्यदैन्यमङ्गीकृत्याम्लानवदनः । वृतिर्वर्त्तनम् । एषयेप्रवेषयेत् । न विषीदेदलाने सति विषादं न कुर्यात् । परितः साधुरमूर्तितोऽो नोजने । लाने सति मात्रा आहारमात्रां प्रत्येषणारत मोत्पादनैषणापक्षपातीति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ - बहुं परघरे वि, विविदं खाइमसाइमं ॥ न त पंडिन कुप्पे, इवा दिऊ परो न वा ॥ २७ ॥ ( अवचूरिः ) एवं च परिभावयेत् । बहु प्रमाणतः प्रभूतं खाद्यं स्वाद्यं च न तत्र पतिः कुप्येत् सदपि न ददातीति । इछा चेदद्यात्परो न वा । इछा परस्य न तत्रान्यकिं चिच्चिन्तयेत् ॥ २७ ॥ ( ( . ) हवे ते साधु या प्रकारे जावना करे. ( परघरे के० ) परगृहे एटले गृहस्थ श्रावकने घरे अथवा अन्यमतीने घरे ( बहुं के० ) घणुं ( विविदं के० ) विविटले विविध प्रकारनुं ( खाइमं के० ) खादिमं ते फलादिक तथा ( साइमं के० ) स्वादिमं ते लवंगादिक मुखवास अने उपलक्षणथी उत्तम अशनादिक ० ) अस्ति एटले बे, परंतु ते गृहस्थ जो साधुने पे नहि तो ते ( पंमि के० ) पंक्तिः एटले जाए एवो साधु ( तब के० ) तत्र एटले ते गृहस्थ उपर ( न कुप्पे के० ) न कुप्येत् एटले कोपायमान थाय नहि. अर्थात् रोष करे नहि. परंतु ते साधु एम जाणे के, ( परो के० ) पर जे गृहस्थ बे, तेनी जो आपने आप - वानी ( इछा के० ) इछा होय तो ( दिन के० ) दद्यात् एटले थपे, अने (वा के० ) जो वली इछा न होय तो ( न के० ) न आपे. एम विचारे; पण बीजुं कांइ विचारे हि. माटे, सामायिकने बाध यावे. ॥ २७ ॥ 1 ( दीपिका . ) तत एवं च परिजावयेत्तदाह । परगृहेऽसंयतादिगृहे बहु प्रमाणतः प्रभूतमस्ति । किं तत् । खाद्यं खाद्यं च । किंभूतम् । विविधमनेक प्रकार म् । उपलक्षणत्वादशनादिकमपि प्रभूतमस्ति । तत्सर्वं सदस्ति । परं न ददाति तदा पंमितो न कुप्येन रोषं कुर्याददातुरुपरि । किंतु एवं चिंतयेत् । यदि छा स्यात्तदा परो दद्यात् । न स्यात्तदा न दद्यात्। परमन्यत् किमपि न चिन्तयेत् । कुतः । सामायिकबाधात् ॥ २७ ॥ For Private Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उदेशः। ३४७ (टीका.) एवं च नावयेत् । बहुँ ति सूत्रम् । बहु प्रमाणतःप्रनूतं परगृहेऽसंयतादिगृहेऽस्ति विविधमनेकप्रकारंखायं खाद्यम्। एतच्चाशनाद्युपलक्षणम् । न तत्र पतिः कुप्येत् सदपि न ददातीति न रोषं कुर्यात् । किंतु श्छा चेदद्यात् परो न वेति । श्छा परस्य न तत्रान्यत् किंचिदपि चिन्तयेदिति सामायिकबाधनादिति सूत्रार्थः ॥२७॥ सयपासणवबं वा, नत्तं पाणं व संजए॥ अदितस्स न कुप्पिका, पच्चरके वि अ दीसा ।। .. (अवचूरिः) एतदेव विशेषेणाह । शयनासनवस्त्रं चेत्येकवन्नावः। नक्तं पानकं वा संयतोऽददतो न कुप्येत्प्रत्यक्षेऽपि च दृश्यमाने शयनासनादौ ॥ २७ ॥ (अर्थ.) हवे तेज विशेषे करी कहे . ( संजए के० ) संयतः एटले संयत साधु (सयण के०) शयन (आसण के०) श्रासन (वढं के०) वस्त्रं एटले वस्त्र, (वा के०) वली (जत्तं के०) नक्तं एटले नात अन्न (पाणं के०) पानं एटले जल प्रमुख तेने (अदितस्स के०) अददतः एटले न श्रापता एवा गृहस्थ उपर (न कुप्पिड़ा के० ) न कुप्येत् एटले कोप करे नहि. वली ते पूर्वोक्त वस्तु (पञ्चके वि के०) प्रत्यदेऽपि एटले प्रत्यक्षपणे (दीस के०) दृश्यमाने एटले देखाय तोपण साधु तेनाउपर क्रोधायमान थाय नहि. कषाय प्रकट न करे. ॥ २ ॥ __(दीपिका.) एतदेव विशेषेणाह । संयतः शयनम्, आसनं, वस्त्रं, नक्तं, पानकं वाददतः तत्स्वामिनो न कुप्येददातुरुपरि न कोपं कुर्यात् । क सति । तत्स्वामिनः शयनासनादौ प्रत्यदेऽपि च दृश्यमाने ॥ २ ॥ (टीका.) एतदेव विशेषेणाह । सयण त्ति सूत्रम् । शयनासनवस्त्रं चेत्येकवन्नावः। नक्तं पानं वा संयतोऽददतो न कुप्येत्तत्वामिनः प्रत्यक्षऽपि च दृश्यमाने शयनासनादाविति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ डिअं पुरिसं वा वि,डहरं वा महल्लगं॥ वंदमाणं न जाइका, नो अणं फरुसं वए ॥३॥ (श्रवचूरिः) स्त्रियं पुरुषं वा।अपेनपुंसकं वा।तरुणं वृद्धं वा।वा शब्दान्मध्यमम् । वन्दमानं सन्तं नजकोऽयमिति न याचेत । अन्नाद्यनावे याचितादाने न चैनं परुषं ब्रूयाथा ते वन्दन मिति ॥ २॥ (अर्थ. ) वली साधु पोताने (वंदमाणं के० ) वंदन करती एवी । (इविध के०) स्त्रियं एटले स्त्रीप्रत्ये (वा के०) अथवा (पुरिसं के०) पुरुषं एटले पुरुष प्रत्ये तथा Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ राय धनपतसिंथ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. वली ( महरं के० ) तरुणप्रत्ये. वाशब्द ने तेथी मध्यवयवालाने पण तथा ( महबगं के०) महलकं एटले वृत प्रत्ये (न जाश्जा के०) न याचेत एटलें याचना करे नहि. केम के, जो वंदना करनारने याचना करे तो ते वंदना करनारना मनमा अवला परिणाम थाय. तेथी तेनी नावना नंग पामे. वली सूजता अन्नादिकना अनावथी याचना करनार साधुने अन्न आपे नहि तो पण ते साधु (अणं के०) एनम् एटले एने (फरुसं के०) परुषं एटले कगेर वचन ( न वए के ) न वदेत् एटले बोले नहि. अर्थात् एम न कहे, जे अमने अन्न आपतो नथी, तेथी तारु करेलुं वंदनादिक सर्व वृथा .॥२५॥ (दीपिका.) पुनः किंच साधुः स्त्रियं वा, पुरुषं वा, अपिशब्दात् नपुंसकं वा, डहरं तरुणं वा, महबकं वृक्षं वा, वाशब्दाद् मध्यमं वा, वन्दमानं सन्तं नकोऽयमिति ज्ञात्वा न याचेत । कथम् ।याचने तेषां विपरिणामो नवति । यतीनामुपरि ना. वनको नवति । अन्नादीनामनावे याचितस्यादाने न चैनं परुषं कठोरं ब्रूयात् । किं परुषम् । वृथा ते वन्दनं यदि न ददासीत्यादि । पागन्तरं वा । वन्दमानो न याचेत लहिव्याकरणेन । शेषं पूर्ववत् ॥ ए॥ (टीका.) नियंति सूत्रम् । स्त्रियं वा पुरुषं वापि। अपिशब्दात्तथाविधं नपुंसकं वा । डहरं तरुणं, महबकं वा वृद्धं वा । वाशब्दान्मध्यमं वा । वन्दमानं सन्तं नजकोऽयमिति न याचेत विपरिणामदोषात् । अन्नाद्यनावेन याचितादाने न चैनं परुषं ब्रूयाहथा ते वन्दनमित्यादि।पागन्तरं वा । वन्दमानो न याचेत लक्षिव्याकरणेन। शेषं पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ ए॥ जे न वंदे न से कुप्पे, वंदिन न समुक्कसे ॥ एवमन्नेसमाणस्स, सामरममणुचि ॥३०॥ (श्रवचूरिः) यो न वन्दते न तस्य कुप्येत्। वन्दितो नृपादिना न समुत्कर्षेत् । एवमन्वेषमाणस्य नगवदाझामनुपालयतः श्रामण्यमनुतिष्टत्यख कितम् ॥ ३० ॥ (अर्थ.) वली साधु जे जे ते ( जे के ) यः एटले जे कोइ गृहस्थादिक होय ते पण जो पोताने ( न वंदे के०) न वन्देत एटले न वांदे, तो पण ( से के०) तस्मै एटले ते गृहस्थ उपर (न कुप्पे के०) न कुप्येत् ऐटले कोपायमान थाय नहि. तेमज वली राजादिक महोटा लोकोए (वंदिन के०) वंदितः एटले वंदन करेलो साधु (न समुक्कसे के०) न समुत्कर्षेत् एटले अनिमान न करे. (एवं के०) उपर कहे Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३४ए ला बे प्रकारे (अन्नेसमाणस्स के०) अन्वेषमाणस्य एटले जिनाझा प्रमाणे चालनारा साधुनुं । ( साममं के० ) श्रामण्यं ए साधुपणुं (अणुचि के०) अनुतिष्ठति एटले अखंड रहे . ॥ ३० ॥ (दीपिका.) तथा पुनः किंनूतः। यः साधुर्यों गृहस्थादिकोऽपि न वन्दते तदा न कुप्येत् नावन्दमानस्योपरि कोपं कुर्यात्। तथा केनापि राजादिना यदि वन्दितस्तदा न समुत्कर्षेन्नोत्कर्ष कुयात् । एवमुक्तप्रकारहयेनान्वेषमाणस्य नगवदाज्ञयानुपालयतः श्रामण्यं यतित्वमनुतिष्ठत्यखएकम् ॥ ३० ॥ (टीका.) तथा जे ण वंदि त्ति सूत्रम् । यो न वन्दते कश्चिगृहस्थादिः। न तस्मै कुप्येत् । तथा वन्दितः केनचिन्नृपादिना न समुत्कर्षेत् । एवमुक्तेन प्रकारेणान्वेषमाणस्य नगवदाझामनुपालयतः श्रामण्यमनुतिष्ठत्यखएममिति सूत्रार्थः॥३०॥ सिया एग लडूं, लोनेण विणिगूद॥ मामेयं दाश्यं संतं, दहणं गमायए ॥३१॥ (श्रवचूरिः ) स्वपक्षस्तेयप्रतिषेधमाह । स्यादेकको लब्ध्वोत्कृष्टमाहारं लोनेनानिष्वङ्गेण विनिगृहते । मा ममेदं नोजनजातं दर्शितं सत् दृष्ट्वा खयमाचार्यादिरादद्यात् ॥ ३१॥ (अर्थ) हवे पोताना पदने विषे चोरीनो प्रतिषेध कडे. (सिश्रा एगर्छ के०) स्यादेकः कश्चित् एटले जो कदाचित् को एक जघन्य साधु (लई के०) लब्ध्वा एटले गोचरीए प्राप्त थयेला उत्तम आहारने पामीने (लोनेण के०) लोनेन एटले लोनथी (विणिगृह के०) विनिगूहते एटले नीरस आहार उपर राखी उत्तम आहारने ढांकी दे. कारण के, ते एम जाणे के ( मेयं के०) ममेदं एटले आ प्रत्यद मने मलेलो मारो आहार जो गुरुने (दाश्शं संतं के०) दर्शितं सत् देखाड्यो तो ते श्राहारने गुरु ( दहण के० ) दृष्ट्वा एटले जोश्ने (मा सयमायए के०) मा स्वयमादद्यात् एटले रखे पोते ग्रहण करे. अर्थात् घणी महेनतथी मारा आणेला आहारने गुरु जो देखे तो लश्ले तो मने सारं अन्न खावा मले नहि. तेमाटे प्रचन्न राखुं एम मानीने सरस आहारने नीरस आहारथी ढांके. ॥ ३१ ॥ __(दीपिका.) अथ खपदस्तेयस्य प्रतिषेधमाह । स्यात् कदाचित् साधुरेकः क. श्चिदत्यन्तजघन्यो लब्धमुत्कृष्टमाहारं लोनेन आहारगृष्ट्या विनिगूहते अंतप्रांतादिनाहारेण तमुत्कृष्टमाहारमाछादयेत् । कथम् । अहमेव नोदय इति । कि Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० राय धनपतसिंघवदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. मित्यतबाह । मा मम इदं जोजनजातं दर्शितं सत् दृष्ट्वा श्राचार्यादिः खयमादद्यात् श्रात्मनैव गृह्णीयात् ॥३१॥ (टीका.) स्वपक्षस्तेयप्रतिषेधमाह । सिथ त्ति सूत्रम् । स्यात्कदाचिदेकः कश्चिदत्यन्तजघन्यो लब्ध्वोत्कृष्टमाहारं लोनेनानिष्वङ्गेण विनिमूहते। अहमेव नोदय इत्यन्तप्रान्तादिनाबादयति । किमित्यत आह । मा मम इदं नोजनजातं दर्शितं सदृष्ट्वाचार्यादिः स्वयमादद्यादात्मनैव गृह्णीयादिति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ अत्तहागुरु लुछो, बढुं पावं पकुव॥ उत्तोस असो होश, निवाणं च न गन॥३२॥ (अवचूरिः) अस्य दोषमाह । आत्मार्थ एव गुरुः प्रधानं यस्य स लुब्धः सन् कुनोजने बहु पापं प्रकरोति मायया दारिखं कर्म । अयं परलोकदोषः। इहलोकदोषमाह । उस्तोषश्च नवति । येन केनचिदाहारेण तुष्टिरस्य कर्तुं न शक्यते। निर्वाणं च न गछति ॥ ३॥ (अर्थ.) हवे ए साधुने दोष कहे . ते (बुद्धो के०) बुब्धः एटले लोजियो अर्थात् अतिकुप तथा ( अत्तहागुरुज के ) श्रात्मार्थगुरुकः एटले पोतानो खार्थज जेने मोटो लागे ने एवो ते साधु (बडं पावं के०) बहु पापम् घणा पापने (पकुवर के०) प्रकरोति एटले करे . अने (से के०) ते साधु, (कुत्तोस के०) पुस्तोषकः एटले जेवा तेवा पण श्राहारे ते दुज्नी तुष्टि थाय नहि. (च के०) वली ( निवाणं के०) मो६ प्रत्ये (न गर के0) न गति एटले जातो नथी.॥३॥ (दीपिका.) अस्य साधोर्दोषमाह । स साधुः एवं पूर्वोक्त जोजने बहु पापकर्म करोति।किंनूतः साधुः।अत्तहागुरु आत्मनोर्थ एव जघन्यो गुरुः पापप्रधानो यस्य स आत्मार्थगुरुकः।पुनः किंनूतः स साधुः। लुब्धः तुषः सन् । अयं परलोकदोष उक्तः। अथ इहलोकदोषमाह। पुनः पुस्तोषश्च नवति येन केनचिदाहारणास्य तुषस्य तुष्टिः कर्तुं न शक्यते । अतएव हेतोःससाधुः निर्वाणं तु मोदं न गलति। इह लोके च धतिं न. लनते। अनन्तसंसारिकत्वादू वा मोदं न गछति ॥ ३२ ॥ (टीका.) अस्य दोषमाह । अत्तति सूत्रम् । आत्मार्थ एव जघन्यो गुरुः पापप्रधानो यस्य स आत्मार्थगुरुर्बुब्धः सन् कुसनोजने बहु प्रनूतं पापं करोति । मायया दारिई कर्मेत्यर्थः । अयं परलोकदोषः । इहलोकदोषमाह । उस्तोषश्च जवति । येन केन चिदाहारेणास्य कुसत्त्वस्य . तुष्टिः कर्तुं न शक्यते । अत एव नि Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३५१ र्वाणं च न गछति । इह लोक एव धृतिं न लजते । अनन्तसंसारिकत्वाछा मोदं न गतीति सूत्रार्थः॥३२॥ सिआ एगन लड़े, विविहं पाणनोअणं ॥ नदगं नवगं नुच्चा, विवन्नं विरसमादरे ॥ ३३ ॥ (श्रवचूरिः) एवं यः प्रत्यक्षमपहरति स उक्तोऽधुना यः परोक्षमपहरति स उच्यते। स्यादेको लब्ध्वेति पूर्ववत।विविधं पाननोजनं निदाचर्यां गत एव नकं नकं घृतपूर्णादि जुक्त्वा विवर्णं अम्लखलादि, विरसं शीतोदनादि। बाहरेदानयेत् ॥ ३३ ॥ (अर्थ.) (सिया के० ) स्यात् एटले कदाचित् ( एग के० ) एककः एटले एकलो साधु ( विविहं के०) विविधं एटले विविध प्रकारचें (पाणनोअणं के०) पान नोजनं एटले पाननोजनने (ल के०) लब्ध्वा एटले पामीने (नदगं नदगं के०) नजकं जमकं एटले सारं घेवर प्रमुख (जुच्चा के०) नुक्त्वा एटले लक्षण करीने ( विवन्नं के) विवर्णं एटले वर्णरहित तथा विरसं एटले रसरहित आहार प्रत्ये (आहरे के०) उपासरे लावे. ॥ ३३ ॥ ___ (दीपिका.) एवं च यः प्रत्यक्षमपहरति स प्रत्यक्षहर उक्तः। अधुना यः परोक्षमपहरति स परोकहर उच्यते । एकः कोऽपि लुब्धः सन् स्यात् कदाचित् विविधमनेकप्रकारं पाननोजनं तत्र निदाचार्यायां गत एव नकं नकं नव्यं घृतपूरादिकं जुक्त्वा बहिरेव क्वापि यत् विवर्णमम्लखलादि विरसं विगतरसं शीतोदनाद्याहरेत् ॥ ३३ ॥ (टीका.) एवं यः प्रत्यदः प्रत्यक्षमपहरति स उक्तः। अधुना यः परोक्षः परोक्षमपहरति स उच्यते। सिथ त्ति सूत्रम् । स्यादेकोऽपि लब्ध्वेति पूर्ववत् । विविधमनेकप्रकारं पाननोजनं निदाचर्यागत एव । नमकं नजकं घृतपूर्णादि नुक्त्वा विवर्णं विगतवर्णमम्लखलादि विरसं विगतरसं शीतोदनाद्याहरेदानयेदिति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ . जाणं तु ता इमे समणा, आययही अयं मुणी॥ ___ संतुझो सेवए पंतं, लूहवित्ती सुतोस ॥ ३४ ॥ (श्रवचूरिः ) किमर्थमेवं कुर्यादित्याह । जानंतु मां तावत्रमणाः शेषसाधवः । श्रायतार्थी मोदार्थ्ययं मुनिः संतुष्टो लानालानयोः समः सेवते प्रान्तमसारं रूदवृत्तिः संयमवृत्तिः सुतोष्यो येन केनचित्तोषं नीयत इति ॥३४॥ .(अर्थ.) ते साधु शामाटे एम करे नेते कहे . (श्मे के० ) श्मे एटले श्रा (समणा के०)श्रमणाः एटले साधु (तु के) निश्चये (ता के०) तावत् एटले Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. प्रथम ( जाणंतु के० ) जानन्तु एटले जाणो. शीरीते जाणो ते कड़े बे. (यं के० ) अयं एटले या (मुणी के० ) मुनिः एटले साधु जे ते ( श्राययही के० ) अयतार्थी एटले मोनो अर्थी बे. माटे ( संतुको के० ) संतुष्टः एटले लाज थाय न थाय तो पण संतोषवालो, (सुतोस के०) सुतोष्यः एटले अंतप्रांत वस्तुवडे पण संतोष पामनार तथा (लूह वित्ती के० ) रूक्षवृत्तिः एटले संयमनेविषे रहेलो एवो ए साधु ( पंतं के० ) प्रान्तं एटले असारवस्तुने ( सेवए के० ) सेवते एटले सेवे बे. ॥ ३४ ॥ ( दीपिका . ) किमर्थमेवं कुर्यादित्याह । स लुब्धः साधुः । एवं जानाति । एवं किं । श्रमणाः शेषसाधवः तावत् यादी मां जानन्तु यथा श्रयं मुनिः साधुः आयतार्थी मोक्षार्थी । पुनः कीदृशः । संतुष्टः लानेऽलाने च समः सन् प्रान्तमसारं सेवते । किं० मुनिः |रूवृत्तिः संयमवृत्तिः । पुनः किं नूतः । सुतोष्यो येन केन चित्तोषं नीयत इति ॥३४॥ I ( टीका. ) स किमर्थमेवं कुर्यादित्यत श्राह । जाणंतु ति सूत्रम् । जानन्तु तावन्मां श्रमणाः शेषसाधवो यथा श्रायतार्थी मोक्षार्थी त्र्यं मुनिः साधुः संतुष्टो लाजालाजयोः समः सेवते प्रान्तमसारं रूक्षवृत्तिः संयमवृत्तिः सुतोष्यः येन केन चित्तोषं नीयत इति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ पूठा जसोकामी, माणसम्माणकामए ॥ बहुं पवई पावं, मायासनं च कुवइ ॥ ३५ ॥ ( अवचूरिः ) एतदपि किमर्थं कुर्यादित्याह । पूजनार्थं स्वपक्षपरपक्षान्यां सामान्येन पूजा जविष्यति । यशः कामी अहो श्रयमिति प्रवादार्थी । वन्दनाज्युवाना दिर्मानः । वस्त्रपात्रादिजिः संमानः । तत्कामः । स चैवंभूतः प्रसूते निर्वर्त्तयति । तकुरुत्वादेव । सम्यगनालोचयन् मायाशल्यं जावशल्यं करोति ॥ ३५ ॥ ( अर्थ. ) हवे एनो दोष कहे बे. ए प्रमाणे ते साधु पूर्वोक्त जोजनने विषे जे बहु पाप कर्म करे बे, ते शामाटे करे बे ते कहे बे. ( पूणहा के० ) पूजनार्थं एटले पोतानां पूजनने अर्थे ( जसोकामी के० ) यशःकामी एटले यशनी श्वा राखनार अर्थात् स्वपक्ष परपक्षथी सामान्य पणाए करी मारी पूजा थाशे, अने वली लोको कदेशे के, या उत्तम साधु बे एवा धन्य वादने इहनार ( माणसम्माणका मए के० ) मानसंमानकामुकः एटले मान जे वंदनाज्युठान छाने सन्मान ते वस्त्र पात्रादि लाज ते बेने इछनार एवो साधु (बहु पसवई पावं के० ) बहु प्रसूते पावं एटले क्लेशना योगयी घणुंज पाप उत्पन्न करे, (च के०) वली ते पापनुं गुरुत्व होवाथी तथा रूडी रीते खालो For Private Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । ३५३ चना न करवायी ( मायासनं के० ) मायाराज्यं एटले मायाशत्यने ( कुवइ के० ) करोति एटले करे बे. ॥ ३५ ॥ ( दीपिका. ) एतदपि किमर्थमेवं कुर्यादित्याह । एवंविधः साधुर्वह्नतिप्रचुरं पापं प्रधानक्लेशयोगात् प्रसूते निर्वर्त्तयति तगुरुत्वादेव सम्यग् नालोचयति । ततो मायाशल्यं च जावशल्यं करोति । किंनूतः साधुः । पूजार्थं यशःकामी एवं कुर्वतो मम स्वपक्षपरपक्षाद्भ्यां सामान्येन पूजा जविष्यतीति यशः कामी । हो यमिति प्रवादार्थी वा । पुनः किंभूतः साधुः । मानसंमानकामुकः । मानो वन्दनान्युठानलाज निमित्तः संमानश्च वस्त्रपात्रा दिलाज निमित्तः तयोः कामुको वाञ्बकः ॥ ३५ ॥ ( टीका. ) एतदपि किमर्थमेवं कुर्यात्तत्राह । पूणत्ति सूत्रम् । पूजार्थमेवं कुर्वतः खपक्षपरपक्षाच्यां सामान्येन पूजा जविष्यतीति यशस्कामी । श्रहो यमिति प्रवादार्थं वा तथा मानसंमानकाम एवं कुर्यात् । तत्र वन्दनान्युवानलाज निमित्तो मानः । वस्त्रपात्रादिलाज निमित्तः संमानः । स चैवंभूतः बह्वतिप्रचुरं प्रधानक्लेशयोगात् । प्रसूते निर्वर्त्तयति पापम् । तगुरुत्वादेव सग्यगनालोचयन् । मायाशल्यं च नावशल्यं करोतीति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ सुरं वा मेरगं वा वि, अन्नं वा मऊगं रसं ॥ ससकं न पिबे निकू, जसं सारकमप्पणो ॥ ३६ ॥ ( अवचूरिः) प्रतिषेधान्तरमाह । सुरां पिष्टादिनिष्पन्नां मेरकं प्रसन्नाख्यं सुराप्रायोग्यद्रव्य निष्पन्नमन्यं वा मद्यगामिनं रसमिकुरसादिकं धातकीपुष्पवासितम् । सदा परित्यागे केवल्यादयः साक्षिणो यस्य तत् ससादि केवविप्रतिषिद्धं न पिवेद्विदुः । नात्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः सदा सादिनावात् । यशः शब्देन संयमोऽनिधीयते श्रन्ये तु ग्लानापवादविषयमेतत्सूत्र मल्पसागारिक विधानेन व्याचत इति ॥ ३६ ॥ (.) वली साधुये जे खाहार बानो अथवा प्रगट न करवो ते कहे बे. (जिस्कू के ० ) निक्षुः एटले निग्रंथ साधु (पणो के०) श्रात्मनः एटले पोताना ( जसं के० ) यशः एटले यशने वा संयमने (सारकं के०) संरक्षन् एटले रक्षण करतो बतो (ससरकं के० ) ससादि एटले जेना त्यागने केवली प्रमुख सादी वे एवी अर्थात् जेनो केवलीये सर्वथा सदा प्रतिषेध कस्यो बे एवा ( सुरं के० ) पिष्टादिकथ real मदिराने ( वा के० ) तथा ( मेरगं वा वि के० ) मेरकं वापि एटले महुडानी मदिराने पिशब्दकी गोलनी मदिरा पण लेवी, तेने ( वा के० ) तथा ( अन्नं ४५ For Private Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. के ) अन्यं एटले मदिराप्रायोग्यरसथी बनेला बीजा पण ( मऊगं रसं के० ) माद्यकं रसं एटले मद्यसंबंधी रस ते सीधु प्रमुख तेने पण (न पिबे के०) न पिबेत् एटले पीए नहि. बीजा आचार्यों कहे जे के,श्रा सूत्र ग्लानापवाद विषयक .॥३६ ॥ (दीपिका.) पुनः प्रतिषेधान्तरमाह। नितुः सुरादि न पिबेत् । तत्र सुरां वा पिष्टादिनिष्पन्नां, मेरकं वापि प्रसन्नाख्यम्, अन्यं वा सुराप्रायोग्यजव्यनिष्पन्नं मद्यसंबधिनं रसं सीध्वादिरूपं न पिबेत् । यतः कीदृक् तत् । ससादि सदा परित्यागे सादिणः केवल्यादयो यस्य तत् ससादि केवलिप्रतिषिकमित्यर्थः । अनेन सर्वथा प्रतिषेध उक्तः सदा साकिनावात् । किमिति न पिबेदित्याह । स लिनुः किं कुर्वन् । श्रात्मनो यशः संयम संरक्षन् । अन्ये तु श्राचार्या एतत् सूत्रं ग्लानापवाद विषयमल्पसागारिकविधानेन व्याचदते ॥३६॥ __(टीका.) प्रतिषेधान्तरमाह । सुरं व त्ति सूत्रम् । सुरां वा पिष्टादिनिष्पन्नां, मेरकं वापि प्रसन्नाख्यं, सुराप्रायोग्यजव्यनिष्पन्नमन्यं वा माद्यं रसं सीध्वादिरूपं ससादिकं सदापरित्यागसादिकेवलिप्रतिषिकं न पिबेनिकुः । अनेनात्यन्तिक एव तप्रतिषेधः सदासाक्षिनावात् । किमिति न पिबेदित्याह । यशः संरक्षन्नात्मनः । यशःशब्देन संयमोऽनिधीयते । अन्ये तु ग्लानापवाद विषयमेतत्सूत्रमदपसागारिकविधानेन व्याचदत इति सूत्रार्थः ॥ ३६॥ पियए एग तेणो, न मे कोइ विआण॥ तस्स पस्सह दोसाइ, निअडिं च सुणेद मे ॥३७॥ (अवचूरिः) अत्रैव दीपमाह । पिबत्येको धर्मसहायरहितश्चौरोऽसौ जगवददत्तग्रहणादन्योपदेशयाचनाका। न मां कश्चिछिजानातीति लावयन् । पश्यतैहिकपारत्रिकांस्तस्य साधोर्दोषान् । निकृतिं मायां शृणुत मे मम कथयतः॥३७॥ (अर्थ.) सुरादिकना पानथी अहिज दोष थाय बे, ते कहे . ( एग के०) एककः एटले धर्मसहायरहित अथवा एकांतमा रह्यो एवो ( तेणो के०) स्तेनः एटले चोर अर्थात् नगवाने जे न दीधेलु ते श्रन्यने उपदेशादि करी ग्रहण कमु माटे चोर एवो पुरुष अधर्ममा रह्यो थको (पिया के०) पिबति एटले पूर्वोक्त मदिरानुं पान करे, अने मनमां जाणे जे हूँ एकांतमा रह्यो थको मदिरानुं पान करुं बं, तेथी (मे के०) मने (कोश वि के०) कश्चिदपि एटले कोइ पण (न याण के०) न जानाति एटले जाणतुं नथी.एम विजावना करे, तो हे शिष्यो (तस्स के०) तस्य एटले तेना(दोसाईके०) Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३५५ दोषान् एटले हलोकसंबंधी अने परलोकसंबंधी दोषोने (पस्सह के०) पश्यत एटले जुवो. (नियडिं के०) निकृतिएटले मायाने अर्थात् कोशपूजे के तमोएमदिरापान कस्युं के,तोते कपटथी जूतुं बोले,जे मे पीधुं नथी इत्यादि मायाने (च के०)वली बीजा अवगुणने पण कथन करनार एवा (मे के०)मम एटले माराथकी(सुणेह के०)शृणुत एटले सांजलो॥३॥ ( दीपिका. ) सुरादिपानेऽत्रैव दोषमाह । एको धर्मसहायरहित एकान्तस्थितो वा कोऽप्यधर्मी पिबति । किंचूत एकः । चौरः जगवता यन्न दत्तं तस्य ग्रहणादन्योपदेशयाचनाछा । पुनः किं कुर्वन् । न मां कोऽपि जानातीति विनावयन्निति शेषः । तस्येन्नूतस्य नो शिष्या यूयं दोषानिहलोकसंबन्धिनः परलोकसंबन्धिनश्च पश्यत । च पुनर्निकृति मायारूपां शृणुत मम कथयत इति शेषः ॥३७॥ (टीका.) अत्रैव दोषमाह पियएत्ति सूत्रम् । पिबत्येको धर्मसहायविप्रमुक्तोऽपसागारिकस्थितो वा स्तेनश्चौरोऽसौ नगवददत्तग्रहणात् । अन्यापदेशयाचनाहा। न मां कश्चिजानातीति जावयन् तस्येचनूतस्य पश्यत दोषानैहिकान् पारलौकिकांश्च । निकृतिं च मायारूपां शृणुत ममेति सूत्रार्थः ॥ ३७॥ वई सुंडिआ तस्स, मायामोसं च निकुणो॥ अयसो अ अनिवाणं, सययं च असादुआ॥३॥ (अवचूरिः) वर्धते शौमिका तदत्यन्तानिष्वङ्गरूपा । मायामृषावादं च प्रत्युपलब्धापलापेन वईते। तस्य निदोः अयशश्च स्वपदपरपदयोः । अनिर्वाणमतृप्तिः। सततं चासाधुता लोके व्यवहारतश्चरणबाधनेन परमार्थतः॥३०॥ (अर्थ.) वली ते मदिरापान करनारा निकुने शुं थाय ते कहे . ( तस्स के० ) ते मदिरापान करनार (निस्कुणो के०) निदोः एटले साधुनुं (सुंमिश्रा के०) शौमिका एटले आसक्तपणुं लोलुपपणुं (वढ के०) वर्डते एटले वृद्धि पामे . वली (मार यामोसं के०) माया मृषा एटले माया अने मृषावाद पण वधे . कारण के, वारंवामद प्राप्तिथी बकवाद थाय, तेथी निंदा थाय, जवपरंपरा वधे, वली (अयसः केन्) अयशः एटले खपदपरपक्षमां तेनी अपकीर्ति थाय, (च के०) वली ते मदिराना अलालथी (अनिवाणं के०) अनिर्वाणं एटले अतृप्ति ते पुःख वधे बे, अने (सययं के० ) सततं एटले निरंतर (असाहुथा के०) असाधुता एटले लोकनेविषे व्यवहारथी तथा चारित्र परिणामना बाधवडे परमार्थ थकी असाधुता वधे . तेने व्यव. हारथी लोक साधु जाणे, पण परमार्थे तो ते असाधुज होय . ॥ ३० ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ( दीपिका.) पुनस्तस्य किं नवति तदाह । तस्य निदोः शौएिमकात्यन्तानिष्वङ्गरूपा वईते। पुनः मायामृषावादं च माया च मृषावादश्च तस्य वईते । प्रत्युपलब्धस्यापलापेनेदं च नवपरंपराहेतुः अनुबन्धदोषात् । तथा अयशश्च स्वपक्षपरपदयोर्मध्ये तथा तस्य अलाने अनिर्वाणमतृप्तिः पुःखं सततं वर्धते । च पुनः असाधुता वर्कते लोके व्यवहारतः चारित्रपरिणामबाधनेन परमार्थतः ॥ ३७॥ (टीका. ) वदर त्ति सूत्रम् । वर्धते शौमिका तदत्यन्तानिष्वङ्गरूपा तस्य मायामृषावादं चेत्येकवन्नावः । प्रत्युपलब्धापलापेन वर्धते तस्य निदोरिदं च नवपरंपराहेतुर्बन्धदोषात् । तथा अयशश्च स्वपदपरपदयोः । तथा अनिर्वाणं तदलाने सततं चासाधुता लोके व्यवहारतः चरणपरिणामबाधनेन परमार्थत इति सूत्रार्थः॥ ३० ॥ निच्चविग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं उम्मई॥ · तारिसो मरणंते वि, न अारादेहि संवरं ॥३॥ (अवचूरिः) स श्छनूतो सदाप्रशान्तो यथा स्तेनः स्वपुश्चरितैर्मतिस्तादृशः विष्टचित्तो मरणान्तेऽपि नाराधयति संवरं चारित्रम् ॥ ३५॥ (अर्थ.) वली पण ते मद्यपान करनारने शुं थाय ते कहे . ( जहा के०) यथा एटले जेम ( तेणो के ) स्तेनः एटले चोर ( सदा के) निरंतर ( निच्चविग्गो के०) नित्यो छिन्नः एटले निरंतर उछिन्नचित्त थको अव्यने ताके बे, तेम (उम्मई के०) धर्मतिः एटले पुर्बु छिवालो निकु ( अत्तकम्मेहिं के) श्रात्मकर्मभिः एटले पोताना मद्यपान प्रमुख कर्मोए करी घणुंज फुःख पामे. ( तारिसः के० ) तादृशः एटले तेवो पुष्टचित्तवालो जितु ( मरणंते वि के० ) मरणांतेऽपि एटले मरणना अवसरने विषेपण (संवरं के०) संवरने (न आरादेश के०) न आराधयति एटले श्राराधे नहीं.सदैव अकुशलबुद्धि होवाथी तेने संवरबीजनो अनाव जे.॥३॥ (दीपिका.) पुनस्तस्य किं स्यादित्याह । स इत्थंनूतो निकुः नित्योछिमः सदाप्रशान्तः स्यात् । यथा स्तेनश्चोरः। कैः।आत्मकर्मनिःस्वकीयदुश्चरितैः। किंनूतो निकुः। कुर्मतिः उर्बुद्धिः । तादृशः सन् संक्लिष्टचित्तो मरणान्तेऽपि संवरं चारित्रं नाराधयति सदैवाकुशलबुध्या तस्य संवरबीजानावात् ॥ ३५॥ (टीका.) किंच। निचुबिग्गत्ति सूत्रम् । स चंचूतो नित्यो छिन्नः सदाप्रशान्तो यथा स्तेनश्चौर आत्मकर्म निः स्वपुश्चरितैर्मतिपुष्टबुझिः। तादृशः विष्टसत्त्वो म Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३५७ रणान्तेऽपि चरमकालेऽपि नाराधयति संवरं चारित्रं सदैवाकुशलबुट्या तहीजाजावादिति सूत्रार्थः॥ ३५॥ आयरिए नारादेश, समणे आवि तारिसो॥ गिहना विएं गरिदंति, जेण जाणंति तारिसं॥४०॥ (अवचूरिः) श्राचार्यान्नाराधयति श्रमणांश्चापि तादृशः। गृहस्था अप्येनं उष्टशीलं गर्हन्ति कुत्सन्ति । येन जानन्ति तादृशं पुष्टशील मिति ॥ ४० ॥ ___(अर्थ. ) वली पण तेनुं शुं थाय जे ते कहे . ( तारिसो के ) तादृशः एटले तेवो पुराचारने सेवनार मद्यपान करनार एवो ते निकु (आयरिश्राए के०) श्राचार्यान् एटले आचार्योने (न श्राराहेश के०) न आराधति एटले श्राराधन करे नहि. अशुधनावडे तेमाटे तथा (समणे आवि के० ) श्रमणानपि एटले श्रमण जे साधु तेने पण आराधन करे नहि. ते अश्रुफ नाव डे माटे एने (गिहछा वि के०) गृहस्था अपि गृहस्थो पण ( एणं के०) एनं एटले ए निकुने (गरिहंति के०) गर्हति एटले निंदा करे . ( जेण के० ) येन एटले जे कारणे करी (तारिसं के०) तादृशं एटले तेवा पुष्टशीलवालाने (जाणंति के०) जानंति एटले जाणे .॥४०॥ (दीपिका. ) पुनस्तस्य किं स्यादित्याह । तादृशो निकुराचार्यान्नाराधयति अशुद्धनावत्वात् । तथा श्रमणानपि नाराधयति अशुचनावादेव । गृहस्था अपि एनं पुष्टशीलं गर्हन्ति कुत्सन्ति । किमिति। येन कारणेन जानन्ति तादृशं उष्टशील मिति ॥४॥ (टीका.) तथा श्रायरिए त्ति सूत्रम् । आचार्यान्नाराधयति अशुधनावत्वात् । श्रमणांश्चापि तादृशान्नाराधयत्यशुजन्नावत्वादेव । गृहस्था अप्येनं कुष्टशीलं गहन्ते कुत्सन्ति । किमिति । येन जानन्ति तादृशं उष्टशील मिति सूत्रार्थः ॥ ४० ॥ एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवजए॥ तारिसो मरणंते वि, ण ारादेहि संवरं ॥४॥ (श्रवचूरिः) एवं सूत्रोक्तप्रकारेणागुणप्रेदी अगुणानां प्रमादादीनां प्रेदको गुणानां खगतानामनासेवनेन परगतानां च प्रषेण विवर्जकः ॥४१॥ (अर्थ.) वली पण तेनु शुं थाय ते कहे जे. (एवं के०) ए उक्त प्रकारे करी (अगुणप्पेही के०) अगुणप्रेदी एटले गुणरहित अवगुणना स्थानकने जोनार अने (गुणाणं च के०) गुणानां एटले गुणोना स्थानकने (विवजा के०) विवकः एटले Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. क्षमा दया विनयादिक गुणोनो त्याग करनार एवो (तारिसी के०) तादृशः एटले तेवो दुष्टपरिणामवालो वेषधारी साधु ( मरणंते वि के० ) मरणांतेऽपि एटले मरण कालने विषेपण ( संवरं के० ) संवरने एटले चारित्रने (ए आराहे के० ) नाराधयति एटले राधे नहि ॥ ४१ ॥ ( दीपिका . ) पुनस्तस्य किं स्यादित्याह । एवमुक्तप्रकारेण श्रगुणप्रेक्षी अगुणान् प्रेत इत्येवंशीलः । पुनः किं० । गुणानां चाप्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां च प्रद्वेषकरणेन विवर्जकस्त्यागी । तादृशः क्लिष्ट चित्तपरिणामो मरणान्तेऽपि नाराधयति संवरं चारित्रम् ॥ ४१ ॥ ( टीका. ) एवं तु ति सूत्रम् । एवं तूक्तेन प्रकारेण अगुणप्रेक्षी अगुणान् प्रमादादीन् प्रेते तीलश्च य इत्यर्थः । तथा गुणानां चाप्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां च प्रद्वेषेण विवर्जकः त्यागी । तादृशः क्लिष्ट चित्तो मरणान्तेऽपि नाराधयति संवरं चारित्रमिति सूत्रार्थः ॥ ४१ ॥ तवं कुछ मेहावी, पणीयं वक्रए रसं ॥ मप्पमायविरन, तवस्सी इक्कसो ॥ ४२ ॥ ( श्रवचूरिः ) यतश्चैवं तदोषत्यागेन तपः करोति मेधावी मर्यादावर्त्ती प्रणीतं स्निग्धं वर्जयति रसं घृतादिं । मद्यप्रमादविरतः । नास्ति क्लिष्टसत्त्वानामकृत्यम् । श्रहं तपस्वीत्युत्कर्षमतिक्रान्तोऽत्युत्कर्षः । मरणान्तेऽपि यहं तपस्वी त्युत्कर्षरहितः ॥ ४२ ॥ ( अर्थ. ) हवे मद्यत्यागनो गुण कहे बे. ( मेहावी के० ) मेधावी बुद्धिमान् मर्यादावर्त्ती साधु, ( तवं के० ) तपः एटले बार प्रकारना तपने ( कुवइ के० ) करोति एटले करे . तथा (पणी के० ) प्रणीतं एटले स्निग्ध एवा ( रसं के० ) घृतादिक रसने लोजी को (वए के० ) वर्जयेत् एटले त्याग करे. केवल घृतादिकनो त्यागज न करे. परंतु ( मऊ पमाय विरर्ड के० ) मद्यप्रमादविरतः एटले मद्यपानना प्रमादकी रहित ने ( तवस्सी के० ) तपखी ( इक्कसो के० ) अत्युत्कर्षः एटले हुं तपस्वी ढुं एवा उत्कर्षे रहित एवो जे साधु होय बे. ॥ ४२ ॥ ( दीपिका . ) यतश्चैवमतस्तद्दोषपरिहारेण साधुः कीदृशः स्यात्तदाह । मेधावी मर्यादावर्ती साधुस्तपः करोति । प्रणीतं स्निग्धं रसं घृतादिं वर्जयति । न केवलमेतत् करोति । श्रपि तु मद्यप्रमादविरतो जवति । किंभूतो मेधावी । तपस्वी । पुनः किंभूतः श्रत्युत्कर्षोऽहं तपस्वीत्युत्कर्षरहितः ॥ ४२ ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । ३५० ( टीका. ) तवं ति सूत्रम् । तपः करोति मेधावी मर्यादावर्ती प्रणीतं स्निग्धं वर्जयति रसं घृतादिकम् । न केवलमेतत्करोत्य पितु मद्यप्रमादादिविरतो नास्ति क्लिष्टसत्त्वानामकृत्यमित्येवं प्रतिषेधः । तपस्वी साधुरित्युत्कर्षोऽहं तपखी त्युत्कर्षरहित इति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ तस्स पस्सद कल्लाएं, अगसाहुपूयं ॥ विलं वसंत्तं, कित्तस्सं, सुह मे ॥ ४३ ॥ ( अवचूरिः ) तस्यैवंभूतस्य पश्यतः । कम् । गुणसंपद्रूपं संयमम् । किंनूतम् । अनेकसाधुपूजितम् । विपुलं मोक्षावहत्वात् । अर्थस्तत्त्वतः कर्मनिर्जरारूपस्तेन संयुक्तम् । कीर्त्तयिष्येऽहं शृणुत मे मम सकाशात् ॥ ४३ ॥ ( अर्थ. ) ए पूर्वोक्त प्रकारना साधुने शुं थाय ते कहे . ( साहुपूां के०) साधुपूजितं एटले मदिरापाननो त्याग कस्यो ने माटे घणा साधुए पूजित - र्थात् सेवित, तथा वली (विजलं के० ) विपुलं एटले मोक्षावगाहथी विपुल ने ( अ संजुत्तं के० ) अर्थसंयुक्तं एटले मोक्षसाधक पणुं बे माटे तुछतादिकना परिहारथी निरुपम सुखरूप अर्थसहित एवा ( कल्लाणं के० ) कल्याणं एटले गुणसंपदारूप संयमने (परसह के० ) पश्यत एटले जुवो हवे गुरु कहे बे. तेहना गुण ढुं (कित्तस्सं ० ) कीर्त्तयिष्ये एटले कहीश. ( मे के० ) मम एटले महाराथकी ( सुह के० ) श्रृणुत एटले सांजलो. ॥ ४३ ॥ ( दीपिका . ) एवंभूतस्य तस्य किं स्यादित्याह । तस्य साधोरिबंभूतस्य यूयं कल्याणं गुणानां संपडूपमर्थात्संयमं पश्यत । किंभूतं कल्याणम् । अनेकैः साधुनिः पूजितम् । कोऽर्थः । सेवितमाचरितम् । पुनः किंभूतं कल्याणम् । विपुलं विस्ती विपुलमोहावहत्वात् । पुनः किंभूतं कल्याणम् । अर्थसंयुक्तं तुछतादिपरिहारेण निरुपमसुखरूपम् । कथम् । मोक्षसाधकत्वात् । श्रहं तं साधुं कीर्तयिष्ये । यूयं शृणुत मम कथयत इति शेषः ॥ ४३ ॥ ( टीका. ) तस्स त्ति सूत्रम् । तस्येवंभूतस्य पश्यत कल्याणं गुणसंपद्रूपं संयमम् । किं विशिष्टमित्याह । अनेक साधुपूजितम् । पूजितमिति सेवितमाचरितम् । विपुलं विस्तीर्ण विपुलमोकावत्वात् । अर्थसंयुक्तं तुछतादिपरिहारेण निरुपं मसुखरूपं मोक्षसाधनत्वात् । कीर्तयिष्येऽहम् । शृणुत मे ममेति सूत्रार्थः॥ ४३ ॥ For Private Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. एवं तु गुणप्पेदी, अगुणाणं च विवजए॥ तारिसो मरणंते वि, आरादेश संवरं ॥४४॥ (श्रवचूरिः) स्पष्टम् ॥ ४ ॥ (अर्थ.) ए प्रकारनो साधु | करे ते कहेजे. ( एवं के० ) ए प्रकारे (तु के०) वली (गुणप्पेही के) गुणप्रेदी एटले गुण जे अप्रमादादि रूप तेने जोनारो, (च के०) तथा (अगुणाणं के०) अगुणानां एटले पोताने विषे रहेला प्रमाद, क्रोध, हिंसा, प्रमुख दोष तेने ( विवजा के) विवर्जकः एटले तेवा अगुणोनो त्यागी एवो ( तारिसो के) तादृशः एटले तेवो गुणवान् साधु ( मरणंते वि के० ) मरणांतेऽपि मरणने अवसरे पण (संवरं के०) चारित्रने (श्राराहेश के०) सेवन करे. अर्थात् शुद्ध निरतिचारपणे पंच महाव्रत पाले. ॥४॥ (दीपिका.) एवं विधश्च स साधुः किं करोतीत्यत आह। एवं तूक्तप्रकारेण स साधुः तादृशः सन् शुझाचारः सन् मरणान्तेऽपि चरमकालेऽपि संवरं चारित्रमाराधयति सदैव कुशलबुट्या तबीजपोषणात्। किंतूतः साधुः। गुणप्रेक्षी गुणान् अप्रमादादीन् प्रेदत इत्येवंशीलो यः स गुणप्रेदी । तथा पुनः किंनूतः । अगुणानां च प्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन विवर्जकस्त्यागी ॥४॥ (टीका.) एवं तूक्तेन प्रकारेण स साधुर्गुणप्रेदी गुणानप्रमादादीन् प्रेदते तडीलश्व य इत्यर्थः। तथागुणानां च प्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां चाननुमत्या विवर्जकः त्यागी। तादृशः शुरुवृत्तो मरणान्तेऽपि चरमकालेऽप्याराधयति संवरं चारित्रं सदैव कुशलबुद्ध्या बीजपोषणादिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ अायरिए अारादेश, समणे आवि तारिसो॥ गिदबा विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥४५॥ __ (अवचूरिः) आय० ॥ ४५ ॥ (अर्थ.) वली तेवो साधु शुं करे तथा ते साधुने गृहस्थो शुं करे ते कहे . ( तारिसो के0 ) तादृशः एटले तेवो गुणवान् साधु (आयरिए के०) श्राचार्यान् एटले आचार्योने शुधनावथी (श्रारादेश के०) श्राराधयति एटले थाराधे . तथा शुरू नावथीज (समणे के०) श्रमणान् एटले साधुने पण आराधे, सेवा नक्ति करे, तथा ( गिहछा वि के०) गृहस्था अपि एटले गृहस्थो पण ( एणं के०) एनं Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके पञ्चमाध्ययने दितीय उद्देशः। ३६१ एटले ए साधुने (पूअंति के०) पूजयंति एटले पूजन करे डे, वंदना नमस्कार करे , तथा श्रादर संमान करी वस्त्रपात्रादि आपे बे. (जेण के०) येन एटले जे कारण माटे ते गृहस्थो ( तारिसं के० ) तादृशं एटले तेवा शुद्ध धर्मीने ( जाणंति के० ) जाणे . ॥ ४५ ॥ (दीपिका.) पुनः स किं करोति । तं च गृहस्थाः किं कुर्वन्तीत्याह । तादृशो गुणवान् साधुरााचार्यानाराधयति शुद्धजावत्वात् । अपि पुनः श्रमणानाराधयति शुनावत्वादेव । तथा गृहस्था अप्येनं पूजयन्ति । कथम् । येन कारणेन ते जानन्ति तादृशं शुद्धं धर्मम् ॥ ४५ ॥ ( टीका, ) तथा आयरिश त्ति सूत्रम् । आचार्यानाराधयति शुधनावत्वात् । श्रमणांश्चापि तादृश आराधयति शुकनावत्वादेव । गृहस्था अपि शुभवृत्तमेनं पूजयन्ति । किमिति । येन जानन्ति तादृशं शुवृत्तमिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे अ जे नरे॥ अायारनावतेणे अ, कुबई देवकिविसं ॥४६॥ (श्रवचूरिः) स्तेनाधिकार एवेदमाह । तपस्तेनः दपकवत् कश्चित्कृशः केनचित्पृष्टः दपकस्त्वम्। स वपूजाद्यर्थमाह। अहम्। अथवा वक्ति, साधव एव झपकास्तूष्णीं वास्ते । एवं वास्तेनो धर्मकथकादितुल्यरूपः कश्चित्केनचित्पृष्ट इत्याह। रूपस्तेनो राजपुत्रतुल्यादिरूपः पृष्टः । आचारस्तेनः सदाचारो नवान् श्रूयत इत्युक्तः स आह सदाचारास्तपोधनाः । जावस्तेनः शुजनावरूपः। एवमीदृशः पालयन्नपि क्रियां देवकिदिबषिकं कर्म करोति निर्वर्त्तयतीत्यर्थः ॥ ४६॥ - (अर्थ.) हवे ए चोरना अधिकारमांज कहे . एटले या प्रकारे जे होय ते चोर कहेवाय एम कहे . ( तवतेणे के०) तपस्तेनः एटले तपनो चोर अर्थात कोइ प्रले जे तमो तपखी बो? त्यारे ते कहे, जे हां, हुं तपस्वी बु. एटले ते तप न करे, ने कहे पहुं तप करनारो ढुं. एने तपस्तेन कहियें. वली पोताना वनावेज तप विना शरीर बलु थ गयुं होय तेने देखीने गृहस्थ पूजे, जे तमे बमासी प्रमुख तप करोगे? त्यारे ते पोतानो महिमा वधारवाने अर्थे गृहस्थने कहे जे साधु सदाय तपस्वी होय. अथवा मौन करी रहे. त्या गृहस्थ जाणे जे ए महोटा पुरुष पोताने मुखे पोतानुं वखाण केम करे ? पण ए महोटा तपस्वी देखाय . तेमाटे उत्तर देता नथी. आ रीते तपनो चोर जाणवो. तथा (वयतेणे के०) वचःस्तेनः एटले वचननो चोर ते शास्त्रनी वार्ता न जाणे, पण वचन कलाए करी सनाने रीऊवे. तेने लोको पूजे, Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग ततालीस (४३) मा. जे तमे आचारांगादि अग्यार अंग अने बार उपांग प्रमुख सर्व सिद्धांत नण्या डो? त्यारे कहे,जे साधु तो नणेज एमां शुं पूर्बु ? त्यारे लोक जाणे जे ए महोटो पंडित देखाय बे. आरीते वचननो चोर जाणवो. ( व के० ) तथा (रूवतेणे के ) रूपस्तेनः एटले रूपनो चोर, ते राजपुत्र समानरूप जो कोइ गृहस्थ पूजे जे तमे राजाना पुत्र हो ? त्यारे मौन करी रहे. ते रूपनो चोर जाणवो. तथा (आयार के०) आचारस्तेनः एटले कोश्क वैराग्य विना बाह्य क्रिया करता देखीने पूढे के, हे स्वामिन् ! जे महा आचारवंत अमुक आचार्यना शिष्य सांजव्या बे, ते तमेज डो? त्यारे से कहे, जे हा. ते डं पोतेज बु. तथा (च के०) वली (नावतेणे के०) जावस्तेनः एटले जेम को सूत्रार्थना संदेह को गीतार्थने पूबे, अने ते गीतार्थना मुखथी सांजलीने पबी कहे. जे हुं पण एमज जाएं बुं. पण तमारी परीदा जोवा पूज्यु. एम कहे, परंतु पाधरूं न बोले. तेने नावचोर कहिये. ए प्रकारे शोनानो अर्थी जीव ( देवकिब्बिसं के०) देवकिदिबषं एटले किदिवषिया देवतापणाने पामे. ॥४६॥ (दीपिका.) पुनस्तेनाधिकार एवेदमाह । एवं विधः साधुः देवकिदिवषं कर्म करोति निर्वर्त्तयतीत्यर्थः । किंनूतः साधुः । तपस्तेनः, वास्तेनः, तथा रूपस्तेनश्च, यो नरः, तथा याचारस्तेनः, तथा नावस्तेनश्च । तत्र तपस्तेनो नाम यः दपकरूपसदृशः । केनचित् पृष्टस्त्वमसौ दपक इति । तदा पूजाद्यर्थमाह अहमिति । अथवा वक्ति साधवः आपका एव ।अथवा तूष्णीमास्ते। एवं वास्तेनो धर्मकथका दिसशरूपः कोऽपि केनचित् पृष्टस्तथैवाह। एवं रूपस्तेनो राजपुत्रादिसदृशरूपः पृष्टस्तथैवाह । एवमाचारस्तेनो विशिष्टाचारवर्तिसदृशरूपस्तथैवाह । नावस्तेनस्तु परोत्प्रेदितं कथंचित् श्रुत्वा स्वयमनुत्प्रेक्षितमपि मया तत्प्रपञ्चेनेदं चर्चितमित्याद्याह । स इत्थंनूतः साधुईष्टनावदोषात् क्रियां पालयन्नपिदेवकि दिवषं निर्वर्त्तयति ॥ ४६ ॥ (टीका.) स्तेनाधिकार एवेदमाह । तवत्ति सूत्रम् । तपस्तेनो वास्तेनो रूपस्तेनस्तु यो नरः कश्चित् आचारनावस्तेनश्च पालयन्नपि क्रियां तथा नावदोषाकिल्विषं करोति । किदिबषिकं कर्म निर्वर्त्तयतीत्यर्थः। तपस्तेनो नाम कपकरूपकतुल्यः कश्चित् केनचित् पृष्टस्त्वमसौ दपक इति।स पूजाद्यर्थमाहाहम् । अथवा वक्ति साधव एव दपकास्तूष्णीं वास्ते । एवं वास्तेनो धर्मकथकादितुत्यरूपः कश्चित्केनचित् पृष्ट इति । एवं रूपस्तेनो राजपुत्रादितुल्यरूपः। एवमाचारस्तेनो विशिष्टाचारवत्तुल्यरूप इति । जावस्तेनस्तु परोत्प्रेदितं कथंचित् किंचित् श्रुत्वा स्वयमनुत्प्रेदितमपि मयैतत्प्रपञ्चेन चर्चितमित्याहेति सूत्रार्थः ॥ ४६॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३६३ लभ्रूण वि देवत्तं, नवन्नो देवकिब्बिसे ॥ तबा वि से न याणाइ, किं मे किच्चा इमं फलं ॥४॥ (अवचूरिः ) अयमिबंनूतो लब्ध्वापि देवत्वमुपपन्नो देवकिदिबषिके काये तत्राप्यसौ न जानाति विशुद्धावधिज्ञानाजावात् । किं मे मम कृत्वेदं फलं किदिबषदेवत्वमिति ॥४७॥ ___(अर्थ. ) वली पण ते पूर्वोक्त साधुने शुं थाय ने ते कहे . (देवत्तं के०) देवत्वं एटले तथाविध क्रियाना पालनथकी देवपणाने (लण वि केu) लब्ध्वापि एटले पामीने पण ( देवकिब्बिसे के०) देवकिल्बिषे एटले किदिबषकाय देवतामां अवतरीने (तबावि के०) तत्रापि एटले ते नवमां पण विशुद्ध एवा अवधिज्ञानना अनावथकी (से के०) सः एटले ते (न याणा के०) न जानाति एटले जाणे नहि जे (मे के०) मम एटले मने (किं किच्चा के०) किं कृत्वा एटले कर क्रिया करवाथी (श्मं फलं के०) इदं फलं एटले आ किदिबषिया देवपणानुं फल मट्युं. ते न जाणे. ॥४॥ (दीपिका. ) पुनस्तस्य किं स्यात्तदाह । असौ साधुर्लब्ध्वापि देवत्वं तथाविधक्रियापालनक्शेन उपपन्नो देवकिदिबषे देवकिदिबषकाये तत्रापि स न जानाति विशुइस्यावधेरनावेन । किं न जानाति । तदाह । किं कृत्वा ममेदं फलं किल्बिषदेवत्वं जातमिति ॥ ४ ॥ (टीका.) अयं चेनूतः। लण त्ति सूत्रम् । लब्ध्वापि देवत्वं तथाविधक्रियापालनवशेन उपपन्नो देवकिबिषे देवकिदिबषिकाये । तत्राप्यसौ न जानात्य विशुझावधिना। किं मम कृत्वा दं फलं किदिबषिकदेवत्वमिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ तत्तो वि से चश्त्ताणं, लपिही एलमूअयं ॥ नरगं तिरिस्कयोणि वा, बोही जन सुज्लदा ॥ ४ ॥ __ (अवचूरिः) अस्यैव दोषान्तरमाह । ततो देवलोकादसौ च्युत्वा । लप्स्यते एलमूकतामजनाषानुकारित्वं नृत्वेऽपि । यत्र बोधिधुर्लजा। तथा नरकं तिर्यग्योनिं वा पारंपर्येण लप्स्यते । बोधिर्यत्र सुपुलनः सकलसंपन्निबन्धना यत्र जिनधर्मप्रातिधुरापा इति नविष्यत्काल निर्देशः॥४॥ (अर्थ.) वली पण ते साधु दोषांतरने पामे . ते कहे जे (से के०) सः एटले ते ( तत्तो वि के० ) ततोऽपि एटले त्यांश्री पण एटले देवलोकथकी पण (चश्त्ताणं के०) Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. च्युत्वा एटले च्यवीने (एलमूअगं के०) एलमूकतां एटले मेषनाषानुकारिपणाने (लपिही के० ) लप्स्यते एटले पामशे. त्यांथी पण च्यवीने जवपरंपराए ( नरयं के०) नरकने ( वा के०) तथा (तिरिकजोणिं के०) तिर्यग्योनि एटले तिर्यंच योनिने पण पामशे. (जब के०) यत्र एटले ज्यां (बोही के०) बोधिः एटले सकलसंपत्तिकारिणी एवी जिनधर्मनी प्राप्ति (उल्लहा के०) उर्लना एटले उर्लन बे. ॥४॥ (दीपिका.) पुनरस्यैव साधोर्दोषान्तरमाह । ततोऽपि देवलोकाच्युत्वापि स साधुर्मानुषत्वे एलमूकतामजनाषानुकारित्वं लप्स्यते । पुनस्ततोऽपि परंपरया नरकं तिर्यग्योनि वा लप्स्यते। तत्र च बोधिः सकलसंपत्तिकारिणी जिनधर्मप्राप्तिः सुङखना पुरापा फुःखेन प्राप्या नविष्यतीति ॥ ४ ॥ (टीका.) अत्रैव दोषान्तरमाह । तत्तो वि त्ति सूत्रम् । ततोऽपि देवलोकादसौ च्युत्वा लप्स्यत एलमूकतामजनाषानुकारित्वं मानुषत्वे । तथा नरकं तिर्यग्योनि वा पारंपर्येण लप्स्यते । बोधिर्यत्र सुपुर्खनः सकलसंपन्निबन्धना यत्र जिनधर्मप्राप्तिधुरापा । श्ह च प्राप्नोत्येलमूकतामिति वाच्ये असकृनावप्राप्तिख्यापनाय लप्स्यत इति नविष्यत्काल निर्देश इति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ एअंच दोसं दहणं, नायपुत्तेण नासिअं॥ अणुमायं पि मेदावी, मायामोसं विवाए ॥४॥ __ (अवचूरिः) प्रकृतमुपसंहरति । एनं च दोषमनन्तरोदितं सत्यपि श्रामण्ये किल्बिषिका दिप्राप्तिरूपं दृष्ट्वागमतो ज्ञातपुत्रेण जाषितमणुमात्रमपि मायामृषावाद वर्जयेन्मेधावी मर्यादावर्ती ॥ ४ ॥ (अर्थ.) हवे चालती वातनो उपसंहार करे . ( मेहावी के०) मेधावी एटले मर्यादावर्ती साधु (एओं के०) एतं एटले पूर्वोक्त प्रकारना (दोसं के०) दोषं एटले श्रामण्य थकी पण किदिबषदेवत्वप्राप्तिरूप दोषने (दहूणं के०) दृष्ट्वा एटले देखीने (नायपुत्तेण के०) झातपुत्रेण एटले महावीर स्वामीए (नासिअं के०) नाषितं एटले कटुंबे, जे (अणुमायं पि के०) अणुमात्रमपि एटले अणुमात्र पण (मायामोसं के०) मायामृषावादं एटले मायाए करीने जे जूतुं बोलवू, तेने ( विवजाए के०) विवर्जयेत् एटले वर्जे, त्याग करे. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) अथ प्रकृतस्य उपसंहारमाह । मेधावी मर्यादावर्ती साधुः एनं पू. वोक्तं दोषं सत्यपि श्रामण्ये किदिवषदेवत्वप्राप्तिरूपं दृष्ट्वा मायामृषावादं पूर्वोक्तं विव Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३६५ र्जयेत् परित्यजेत्। किंनूतं दोषम् । आगमतो ज्ञातपुत्रेण नगवता वर्षमानखामिना जाषितमुक्तम्। किंनूतं मायामृषावादं अणुमात्रमपि स्तोकमात्रमपि किं पुनः प्रजूतम् । __(टीका.) प्रकृतमुपसंहरति । एरं च त्ति सूत्रम् । एतं च दोषमनन्तरोदितं सत्यपि श्रामण्ये किदिबषिकत्वादिप्राप्तिरूपं दृष्ट्वागमतो ज्ञातपुत्रेण नगवता वर्कमानेन नाषितमुक्तम् । अणुमात्रमपि स्तोकमात्रमपि किमुत प्रनूतं मेधावी मर्यादावर्ती मायामृषावादमन्तरोदितं वर्जयेत्परित्यजेदिति सूत्रार्थः॥४॥ सिकिकण निकेसणसोहिं, संजयाण बु-छाण सगासे॥ तब निस्कु सुपणिहिदिए, तिबलङगुणवं विदरिडासि त्ति बेमि ॥ ५० ॥ __संमत्तं पिंडेषणानामप्नयणं पंचमं ॥५॥ (अवचूरिः ) अध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह । शिदित्वा निदेषणाशुकिं संयतेच्यो बुझेन्यो साधुन्योऽवगततत्त्वेन्यः।न व्यसाधुन्यः सकाशात्। तत्र निदेषणायां निकुः सुप्रणिहितेन्द्रियः श्रोत्रादिनिर्वा तमुपयुक्तः । तीव्रो लजागुणोऽसंयमकरणे यस्य स उत्कृष्टसंयम इत्यर्थः। अनेन प्रकारेण गुणवान्विहरेत् ॥ ५० ॥ श्त्यवचूरिकायां पिएझैषणाध्ययनं पञ्चमम् ॥५०॥ (अर्थ.) हवे अध्ययननो उपसंहार करता बता जे करवं ते कहे जे. (बुझाणं के०) बुझानां एटले बुझ, तत्त्वना जाण एटले व्यसाधु नहि एवा (संजयाणं के०)संयतेन्यः एटले संयत एवा गुर्वादि साधुना (सगासे के०) सकाशात् एटले पासेथी (निरकेसणसोहिं के०) निदेषणाशुहिं एटले निदेषणानी शुद्धिने ( सिकिऊणं के०) शिदित्वा एटले शीखीने, जणीने (तब के०) तत्र एटले ते एषणा समितिने विषे (निस्कू के) निकुः एटले साधु (सुप्पणि हिदिए के०) सुप्रणिहितेंजियः एटले निश्चल समतानावे राख्या ने पांचे इंजियो जेणे एवो थयो बतो ( तिबलज के०) तीव्रलकाः एटले अनाचार करवामां तीन लजावालो तथा ( गुणवं के० ) गुणवान् एटले पूर्वोक्त साधुगुणसहित एवो ते साधु ( विहरिजा के0 ) विहरेत् एटले विचरे. (त्ति बेमि के ) इति ब्रवीमि एटले श्रीवीरनगवाने एम कहेल ने तेप्रमाणे हुँ कहुं बुं. ॥ ५० ॥ इति श्रीदशवैकालिकबालावबोधे पंचमाध्ययन संपूर्ण ॥ ५ ॥ (दीपिका.) अथाध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह । तत्र निदेषणायां निनुर्विहरेत् सामाचारीपालनं कुर्यात् । किं कृत्वा। निदेषणाशुहिं पिएममार्गणशुछिमुजमादिरूपां शिदित्वाधीत्य । केन्यः सकाशादित्याह । संयतेच्यः साधुन्यः । किंविशिष्टेन्यः संयतेच्यः। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनामसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा, बुझेन्यो शाततत्त्वेन्यःझातार्थेन्यो न अव्यसाधुन्यः सकाशात् । किंनूतो निहुः। सुप्रणिहितेंजियः श्रोत्रादिनिरिन्द्रियैर्गाढं तउपयुक्तः। पुनः किंनूतो निकुः। तीव्रलजाः। तीव्रा लजानाचारकरणे यस्य स तीव्रलऊ उत्कृष्टसंयम इत्यर्थः। पुनः किंनूतो निकुः। गुणवान् पूर्वोक्तप्रकारेण साधुगुणैः सहितः । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥५॥ इति पिएझैषणाध्ययने द्वितीयोदेशकः ॥२॥ समाप्तं पिएसैषणाध्ययनम् ॥ ५॥ (टीका.) अध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह । सिकिऊण त्ति सूत्रम्। शिक्षित्वाधीत्य निवैषणाशुझिमुजमादिरूपाम् । केन्यः सकाशादित्याह । संयतेच्यः साधुन्यो बुकेन्योऽवगतत्त्वेन्यः सकाशात् । ततः किमित्याह । तत्र निदेषणायां निकुः साधुः सुप्रणिहितेन्डियः श्रोत्रादिमिर्गाढं तमुपयुक्तः तीवलऊ उत्कृष्टसंयमः सन् । अनेन प्रकारेण गुणवान् विहरेत् सामाचारीपालनं कुर्यादिति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः।उक्तोऽनुगमः । सांप्रतं नयास्ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातं पिंडैषणाध्ययनम् ॥५०॥ इति श्रीहरिजप्रसूरि विरचितायां दशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ पिएझैषणाध्ययन समाप्तम् ॥५॥ अथ महाचारकथाख्यं षष्ठमध्ययनम् । नाणसदसणसंपन्नं, संजमे अ तवे रयं । गणिमागमसंपन्नं, नजाणम्मि समोसढं ॥१॥ रायाणो रायमचा य, मादणा अवखत्तिा ॥ पुचंति निहुअप्पाणो, कई ने आयारगोयरो ॥२॥ (अवचूरिः ) श्रथ महाचारकथाख्यं षष्ठमध्ययनमारच्यतेऽस्यायं संबन्धः । इह पूर्वाध्ययने निदाशोधिरुक्ता । इह तु गोचरगतेन सता खाचारं पृष्ठेन तहिदापि महाजनसमदं न तत्रैव विस्तरतः कथयितव्यमित्य पित्वालये गुरवो वा कथ यन्तीति वाच्यम्। इत्येतदुच्यते।झानं मतिश्रुतज्ञानादि, दर्शनं दायोपशमिकादि, तान्यां संपन्नं युक्तम् । संयमे पञ्चाश्रव विरमणादौ तपसि चानशनादौ रतमासक्तम् । गणोऽस्याऽस्तीति गणी तं गणिनमाचार्य गणसंपन्नं विशिष्टश्रुतधरम् । बह्वागमत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमेतत् । उद्याने समवसृतं स्थितं धर्मदेशनार्थं वा प्रवृत्तम् ॥ १॥ राजानो नरपतयो मन्त्रिणो ब्राह्मणाः। श्रवत्ति तथा । क्षत्रियाः श्रेष्ठ्यादयः पृटन्ति निनृतात्मानोऽसंत्रान्ताः कृताञ्जलयः । कथं ने नवतामाचारगोचरः क्रियाकलापः स्थितः ॥२॥ (अर्थ.) हवे नहुं महाचारकथानाम अध्ययन कहे .श्रा अध्ययननो संबंध था Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३६७ प्रमाणे जे केः-पूर्वे पांचमा अध्ययनमां साधुए निर्दोष आहार लेवो एम कडं. हवे ते आहार जे संयमवंत होय तेज लहे, माटे बहा अध्ययनमा अढार स्थानकरूप संयमनो आचार कहे. हवे ते पूर्वोक्त अध्ययनमां निर्दोष थाहारने अर्थे साधु गोचरीये गयो होय तिहां राजा विगेरे पूडे के, हे साधो! तमारो आचार केवो . त्यारे ते कहे, जो साधुनो आचार सांजलवानो तमारो नाव होय, तो उद्यानमां आचार्य समोसस्या . तिहां जश् साधुनो आचार प्रबो. ते सर्व कहेशे. ते श्राचार्य केवा जे ते कहे . ( नाण के० ) ज्ञान ते श्रुतज्ञानादिक ( देसण के०) दर्शन ते सम्यक्त्व श्रझारूप, तेणे करी (संपन्नं के०)संपन्नं एटले सहित (संजमेणके०) संयमे एटले सत्तरनेद संयमने विषे तथा (तवे के) तपसि एटले बारनेदवाला तपने विषे (रयं के०) रतं एटले रक्त एवा अने (आगमसंपन्नं के०) श्रागमसंपन्नं एटले आगम जे सिकांत तेवडे संपूर्ण जरेलाअर्थात् हादशांगीना जाणनार एवा(उजाणम्मि के०) उद्याने एटले ग्रामानुग्राम ते एक गामथी बीजे गाम एम अनुक्रमे विहार करता थका उद्यानने विषे (समोसढं के०) समवस्मृतं एटले समोसस्या एवा आचार्य प्रत्ये राजादिक लोको प्रो.॥१॥ (रायाणो के०) राजानः एटले राजा (य के०)च एटले वली (रायमच्चा के० ) राजामात्याः एटले राजाऊना अमात्य जे मंत्री ( माहणा के०) ब्राह्मणाः एटले ब्राह्मणो (अव के०) अथवा (खत्तिया के०) क्षत्रियाः एटले जातिवंत सूर्यवंशी प्रमुख क्षत्रियो ते (निहुअप्पाणो के०) निनुतात्मानः एटले असंत्रांत थका निश्चल मनथी हाथ जोडीने (पुठंति के०) पृखंति एटले पूजे. शुं पूछे तो के, हेनगवन् ! (न्ने के०) नवतां एटले तमारो (आयारगोअरो के०) आचारगोचरः एटले जे क्रियाकलापनो आश्रय करी तमे रहेला गे ते क्रियाकलाप (कहं के०) कथं एटले केवी रीते जे ते कहो.॥२॥ ( दीपिका.) व्याख्यातं पिएमषणाध्ययनमधुना महाचारकथाख्यमध्ययनमारच्यते । अस्य चाध्ययनस्यायमनिसंबन्धः । श्ह इतः पूर्वाध्ययने साधोर्निदाविशुछिरुक्ता। श्ह तु गोचरप्रविष्टेन सता स्वस्य आचारं पृष्टेन आचारझेनापि महाजनसमदं तत्रै. व स्थाने विस्तरतो न कथयितव्यम् । अपितूपाश्रये गुरवः कथयिष्यन्तीति वक्तव्यम्। श्त्येतदुच्यते। इत्यनेन संबन्धेन आयातमिदमध्ययनमिति । तथाहि गाथात्रयेणोक्तिमेलनम् । राजानो नरपतयः, राजामात्याश्च मंत्रिणः, ब्राह्मणाः प्रसिझाः, अदुवत्ति तथा क्षत्रियाः श्रेष्ठ्यादयः, साधुं प्रतीति पृबन्ति । इतीति किम् । कथं ने जवतामाचारगोचरः क्रियाकलापः। यं प्रति त्वं स्थितोऽसि । किंनूता राजादयः। निजृता Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. त्मानोऽसंत्रान्ता बझाञ्जलय इति द्वितीयगाथाया व्याख्यानम् । किंततं साधुम् । नापदसणसंपन्नं । ज्ञानं श्रुतज्ञानादि, दर्शनं च दायोपशमिकादि तान्यां संपन्नं संयुक्तं । पुनः किंनूतं साधुं । संयमे पश्चानामाश्रवाणां विरमणादौ तपसि च अनशनादौ रतमासक्तम् । पुनः किंनूतं साधुम् । उद्याने क्वचित्साधूनामुपजोगयोग्यस्थाने समवस्मृतं स्थितं धर्मदेशनार्थं वा प्रवृत्तमिति प्रथम गाथार्थः॥१॥२॥ (टीका.) अधुना महाचारकथाख्यमारज्यते। अस्य चायमनिसंबन्धः। श्हानन्तराध्ययने साधोर्निदा विशुद्विरुक्ता । इह तु गोचरप्रविष्टेन सता वाचारं पृष्टेन तछिदापि न महाजनसमदं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्य इत्यपि त्वालये गुरवो वा कथ. यिष्यन्तीति वक्तव्यमित्येतपुच्यते । उक्तं च ॥ गोअरग्गपविठो ज, न निसीएऊ कबए॥ कहं च न पबंधेजा, चिहित्ता ण व संजए ॥१॥ इत्यनेनानिसंवन्धेनायातमिदमध्ययनम् । अस्य चानुयोगछारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निदेपः । तत्र च महाचारकथेति नाम । एतच्च तत्त्वतः प्रानिरूपितमेवेत्यतिदिशन्नाह ॥ जो पुवि उद्दिको, आयारो सो अहीणमरित्तो॥सच्चेव य हो कहा, आयारकहाए महईए॥ व्याख्या॥ यः पूर्वं तुझकाचारकथायां निर्दिष्ट उक्त आचारो ज्ञानाचारादिः । असावहीनातिरिक्तो वक्तव्यः । सैव च नवति कथा आदेपण्या दिलदाणा वक्तव्या। चशब्दात्तदेव कुलकप्रतिपदोक्तं महक्तव्यम् । चारकथायां महत्यां प्रस्तुतायामिति गाथार्थः । उक्तो नाम निष्पन्नो निदेप इत्यादि चर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदं नाणदंसणमित्यादि । अस्य व्याख्या । ज्ञानदर्शनसंपन्नम्। झानं श्रुतझानादि, दर्शनं दायोपशमिकादि, तान्यां संपन्नं युक्तं संयमे पञ्चाश्रव विरमणादौ तपसि चानशनादौ रतमासक्तं गणोऽस्यास्तीति गणी तं गणिनमाचार्यमागमसंपन्नं विशिष्टश्रुतधरम् । बह्वागमत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमेतत् । उद्याने कचित्साधुप्रायोग्ये समवस्मृतं स्थितं धर्मदेशनार्थं वा प्रवृत्तमिति सूत्रार्थः॥१॥ तत्किमित्याह । रायाणो त्ति सूत्रम् । राजानो नरपतयः। राजामात्याश्च मन्त्रिणः । ब्राह्मणाःप्रतीताः। अदुवत्ति तथा। क्षत्रियाः श्रेष्ठयादयः पृष्ठन्ति निजतात्मानोऽसंत्रान्ता रचिताञ्जलयः कथं ने जवतामाचारः क्रियाकलापःस्थित इति सूत्रार्थः॥२॥ तेसिं सो निहुन दंतो, सवनूअसुहावदो॥ . सिकाए सुसमाउत्तो, आयकर विअरकणो ॥३॥ (अवचूरिः) तेन्यो राजादिन्योऽसौ गणी निनृतोऽसंत्रान्तो दान्त इंडियनो Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्। ३६ए इन्डियदमान्यां सर्वप्राणिगणहितः शिदया ग्रहणासेवनरूपया सुसमायुक्त श्राख्याति कथयति विचक्षणः॥३॥ (अर्थ.) (निहल के ) निजतः एटले असंत्रांत एवा तथा ( दंतो के०) दान्तः एटले इंडियनो इंडियने जीतनार एवा तथा ( सवनूअसुहावहो के०) सर्वनूतसुखावहः एटले सर्व प्राणियोना हितकारी एवा तथा ( सिकाए ) शिक्षया एटले ग्रहणासेवनरूप शिदा वडे करी (सुसमाउत्तो के० ) सुसमायुक्तः एटले युक्त एवा तथा ( विश्ररकणो के०) विचक्षणः एटले पंडित एवा ( सो के०) सः एटले ते श्राचार्य जे ते ( तेसिं के० ) तेभ्यः एटले ते राजादिक लोको नणी (आ. यस्कर के० ) श्राख्याति एटले कथन करे, प्रश्ननो उत्तर कहे. ॥३॥ (दीपिका.) अथ स साधूराजादिन्यः पृचकेन्यः किं वदे दित्याह । स गणी साधुः तेच्यो राजादिच्य श्राख्याति कथयति । किं साधुः। निनृतोऽसंत्रांत उचितधर्मकथास्थित्या। किंनूतः साधुः। दान्त इंडियनोइंडियदमनेन । पुनः किंचूतः साधुः । सर्वनूतसुखावहः सर्वप्राणिहित इत्यर्थः। पुनः किन्नूतःसाधुः।शिदयाग्रहणासेवनारूपया सुष्टु जव्यरीत्या समायुक्तः। पुनः किंनूतः साधुः। विचक्षणः पणिकत इति गाथात्रयार्थः॥३॥ (टीका.) तेसिं ति सूत्रम् । तेन्यो राजादिन्योऽसौ गणी निनृतोऽसंज्रान्त उचितधर्मकाय स्थित्या।दान्त इन्डियनोइन्डियाच्याम्।सर्वजूतसुखावहः सर्वप्राणिहित इत्यर्थः । शिक्ष्या ग्रहणासेवनरूपया सुसमायुक्तः सुष्टु एकीनावेन युक्तः। श्राख्याति कथयति । विचक्षणः पएिकत इति सूत्रार्थः ॥३॥ हंदि धम्मबकामाणं, निग्गंयाणं सुणेढ मे॥ आयारगोअरं नीम, सयलं पुरहिहिअं ॥४॥ (अवचूरिः ) तमेनं धर्मार्थकामानां मुमुहूणां निग्रन्थानां बाह्यान्तरग्रन्थिरहितानां शृणुत मम समीपादाचारगोचरं क्रियाकलापं नीमं कर्मशात्रवापेक्षया सकलं पुरधिष्ठं पुराराध्यम् ॥ ४ ॥ (अर्थ.) श्राचार्य शुं कहे जे ( हंदि के ) संबोधने हे राजादिको ! तमे (धम्मकामाणं के०) धर्मार्थकामानाम् एटले धर्म जे श्रुतधर्म तेज के प्रयोजन जेमनुं एवा (निग्गंथाणं के०) निर्ग गनां एटले बाह्याभ्यंतर ग्रंथिरहित एवा साधुऊनो (जीमं के०) नीम एटले कर्म शत्रुप्र पेनयंकर अर्थात् कर्मरूप अरिने नाश करनार अने(रहिहियं के) उरधिष्ठितं एटले संपूर्ण कुछ जीवोने उराश्रय एवो अर्थात् कायर पुरुषोने पालता Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. दोहिलो एवो (आयारगोअरं के० ) आचारगोचरं एटले क्रियाकलाप जे तेने (मे के ) मम सकाशात् एटले माराथकी ( सुणेह के०) शृणुत एटले सांजलो. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) किं वदे दित्याह । हंदीत्युपप्रदर्शने। हे राजादयः यूयं धर्मार्थकामानामाचारगोचरं क्रियाकलापं मत्समीपावृणुत इत्युक्तिः । धर्मश्चारित्रधर्मादिस्तस्य अर्थः प्रयोजनं मोदः तं कामयन्ते वांबन्ति विशुद्धविहितानुष्ठानकरणेनेति धर्मार्थकामा मुमुक्षवस्तेषाम् । किंनूतानां धर्मार्थकामानाम् । निर्ग्रन्थानां बाह्यान्यन्तरग्रन्थिरहितानाम् । किंनूतमाचारगोचरं। नीम कर्मशत्रूणामपेक्षया रौजम् । पुनःकिंनूतमाचारगोचरम् । सकलं संपूर्ण पुरधिष्ठितं कुषसत्त्वैराश्रयमिति॥४॥ (टीका.) हंदि त्ति सूत्रम् । हंदीत्युपप्रदर्शने । तमेनम् ।धर्मार्थकामानामिति । धर्मश्चारित्रादिस्तस्यार्थः प्रयोजनं मोक्षस्तं कामयन्तीबन्तीति विशुविहितानुष्ठानकरणेनेति धमार्थकामा मुमुदवस्तेषां निर्ग्रन्थानां बाह्याभ्यन्तरग्रन्थर हितानां शृणुत मम समीपादाचारगोचरं क्रियाकलापं नीमं कर्मशवपेक्षया रौद्धं सकलं संपूर्ण पुरधिष्ठं कुषसत्त्वैईराश्रयमिति सूत्रार्थः॥४॥ नन्न एरिसं वुत्तं, जं लोए परमउच्चरं ॥ विनलहाणनाइरस, न नूनं न नविस्स॥५॥ (अवचूरिः) वस्तु यहोके प्राणिलोके परमश्चरमत्यन्तःकरं विपुलं मोदहेतुत्वात् संयमस्थानं तनजनशीलस्य तस्य न नूतं न नविष्यत्यन्यत्र जिनमतादिति ॥५॥ (अर्थ. ) हवे पाळली गाथाठमां निग्रंथोना श्राचारचं जे कथन तेनो उपन्यास कस्यो बे, तो हवे आ गाथाए करी ते आचार गोचरनुं अर्थ थकी गौरव कहे . हे राजादिको ( अन्नब के०) अन्यत्र एटले जिनमत शिवायना कापिलादिक मतोने विषे को ठेकाणे पण या प्रकारनो शुरु आचार (न एरिसं वुत्तं के०) नेशमुक्तं एटले एवो कह्यो नथी. वली (लोए के०) लोके एटले सामान्य लोकने विषे ( परमपुच्चरं के० ) परमपुष्करं एटले जेनुं पालवं घणुं कठिन डे एवो ते आचारगोचर डे. तेथीज (विजलहाणनाश्स्स के) विपुलस्थाननाजः एटले मोदना हेतुरूप एवा संयमस्थानने नजनारा साधुने पूर्वे (न नूशं के०) न नूतं एटले ते, बीजु कंश थयुं नथी, तथा (न नविस्स के०) न नविष्यति एटले तेवं बीजुं बनशे पण नहीं. तेम उपलक्षणथी वर्तमान काले पण तेवं बीजुं नथी. ॥५॥ (दीपिका.) श्ह अनंतरसूत्रे निर्ग्रन्थानामाचारगोचरस्य यत्कथनं तस्योपन्यासः Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३७१ कृतः। अथ तस्यैवार्थतो गुरुतामाह । जो राजादयः जिनमतादन्यत्र कपिलादिमत दृशं यत् पूर्वमुक्तं आचारगोचरं वस्तु यलोके प्राणिलोके परमदुश्वरमत्यन्तदुष्करं वस्तु।विपुलस्थाननाजिनः। कोऽर्थः। विपुलस्थानं विपुलमोदहेत्वात् संयमस्थानं तमजते सेवत इत्येवंशीलः विपुलस्थाननाजी तस्य विपुलस्थानजाजिनः साधोः न जूतं न जविष्यति ॥ ५॥ (टीका.) धर्मार्थकामानित्युक्तम् । तदेतत्सूत्रस्पर्श नियुक्त्या निरूपयति । तत्र धर्मनिदेपो यथा प्रथमाध्ययने । नवरं लोकोत्तरमाह ॥ धम्मो बावीसविहो, अगारधम्मोणगारधम्मोथ॥ पढमो अ बारस विहो, दसहा पुण बीयर्ड हो॥१२॥व्याख्या॥ धर्मोछाविंशतिविधः सामान्येन छाविंशतिप्रकारः। श्रगारधर्मो गृहस्थधर्मः। अनगारधमश्च साधुधर्मः। प्रथमश्चागारधर्मो छादश विधः। दशधा पुनर्हितीयोऽनगारधर्मो नवतीति गाथासमासार्थः॥राव्यासार्थं चाह॥पंचय अणुवयाई गुणवयारंच होंति तिन्नेव॥ सिरकावयाई चउरो, गिहिधम्मो बारस विहो अ ॥ १३ ॥ व्याख्या ॥ पंचाणुव्रतानि स्थूलप्राणातिपातविरत्यादीनि गुणव्रतानि च नवन्ति त्रीण्येव दिग्वतादीनि । शिदापदानि चत्वारि सामायिकादीनि । गृहिधर्मो द्वादश विधस्तु एष एवाणुव्रतादिः । अणुव्रतादिवरूपं चावश्यके चर्चितत्वान्नोक्तमिति गाथार्थः ॥ १३ ॥ साधुधर्ममाह । खंती अ मद्दवजाव, मुत्ती तवसंजमे अबोधवे॥सञ्चं सोचं आकि-चणं च बंज्नं च जश्धम्मो॥१४॥व्याख्या॥दान्तिश्च मार्दवम् आर्जवं मुक्तिः तपःसंयमौ च बोझव्यौ सत्यं शौचमाकिंचन्यं ब्रह्मचर्यं च यतिधर्म इति गाथादरार्थः। नावार्थः पुनर्यथा प्रथमाध्ययने॥१४॥धम्मो एसुवश्को, अबस्स चनविहो न निकेवो।उहेण बबिहबो, चनसहिविहो विनागेणं ॥१५॥व्याख्या॥ धर्म एष उपदिष्टो व्याख्यातः | अधुनात्वर्थावसरस्तत्रेदमाह । अर्थस्य चतुर्विधस्तु निदेपो नामा दिनेदात् । तत्रौघेन सामान्यतः षड् विधोऽर्थ आगमनोवागमव्यतिरिक्तो व्यार्थः । चतुःषष्टिविधो विनागेन विशेषेणेति गाथासमुदायार्थः ॥ १५॥ अवयवार्थं त्वाह ॥ धन्नाणि रयणथावर, उपयचउप्पय तहेव कुविरं च ॥ उहेण विहबो, एसो धीरेहिं पन्नत्तो॥१६॥व्याख्या॥धान्यानि यवादीनि, रत्नं सुवर्णं, स्थावरंनूमिगृहादि, हिपदं गन्त्र्यादि, चतुष्पदं गवादि, तथैव कुप्यं च ताम्रकलशाद्यनेकविधम् । उपेन षडू विधोऽर्थ एषोऽनन्तरोदितः धीरैस्तीर्थकरगणधरैः प्रातः प्ररूपित इतिगाथार्थः ॥१६॥ एनमेव विज्ञागतोऽनिधित्सुराह ॥ चवीसा चवीसा, तिगमुगदसहा अणेगविह एव॥सवेसिं पिश्मेसि,विनागमहयं पवरकामि॥१७॥व्याख्या चतुर्विंशति चतुर्विंशतीति चतुर्विंशतिविधो धान्यार्थो रत्नार्थश्च। त्रिछिदशधेति।त्रिविधः Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. स्थावरार्थः । विविधो छिपदार्थः । दश विधश्चतुष्पदार्थः । अनेकविध एवेत्यनेकविधः कुप्यार्थः । सर्वेषामप्यमीषां चतुर्विशत्या दिसंख्या निहितानां धान्यादीनां विनागं विशेषमथानन्तरं संप्रवदयामीत्यर्थः॥ १७ ॥ धन्नाई चनवीस, जवगोहुमसालिवीहिसहीथा ॥ कोदवअणुया कंगू, रालग तिल मुग्ग मासा य ॥ १७ ॥ अयसिहरिमिबतिउडग-निप्फावसिलिंद रायमासा अ॥श्रकृमसूर तुवरी,कुल तह धन्नगकलाया॥१॥ व्याख्या ॥ धान्यानि चतुर्विशतिः। यवगोधूमशालिव्रीहिषष्टिकाः। कोजवाणुकाः। कंगुरालकतिलमुजमाषाश्च।अतसीहरिमन्थ त्रिपुटकनिष्पावसिविन्दराजमाषाश्च।श्कुमसूरतुवर्यः।कुलबा धान्यककलायाश्चेति। एतानि प्रायो लौकिकसिझान्येव । नवरं षष्टिकाः शालिन्नेदाः । कङ्गुदकङ्गुः । तभेदो रालकः। हरिमन्थाः कृष्णचणकाः। निष्पावा वह्याः । राजमाषाश्चवलकाः। शिलिन्दा मकुष्ठाः । धान्यकं कुस्तुंजरी। कलायका वृत्तचणका इति गाथाघ्यार्थः ॥ १७ ॥ १५ ॥ उक्तो धान्य वित्नागः। अधुना रत्न विजागमाह ॥रयणाणि चवीसं, सुवन्नतनतंबरययलोहाई ॥ सीसगहिरन्नपासा- एवरमणिमोतिअपवालं ॥ ॥२०॥ संखो तिणिसा गुरु--चंदणाणि वढामिला णि कहाणि ॥ तह चम्मदंतवाला। गंधा दवोसहाशे च ॥ १ ॥ व्याख्या ॥ रत्नानि चतुर्विंशतिः । सुवर्णत्रपुताम्ररजतलोहानि । सीसकहिरण्यपाषाणवज्रमणिमौक्तिकप्रवलानि । शङ्खतिनिशागरुचन्दनानि । वस्त्रा मिलानि काष्ठानि । तथा चर्मदन्तवाला गन्धाः । अव्यौषधानि च । एतान्यपि प्रायो लोकप्रसिझान्येव । नवरं रजतं रूप्यम् । हिरण्यं रूपकादि । पाषाणा विजातिरत्नानि । मणयो जात्यानि । तिनिशो वृदविशेषः । अमिलानि : वस्त्राणि । काष्ठानि श्रीपादिफलकादीनि । चर्माणि सिंहादीनाम् । दन्ता गजादीनाम् । वालाश्चमर्यादीनाम् । अव्यौषधानि पिप्पत्यादीनीति गाथाघ्यार्थः ॥ २०॥ २१॥ उक्तो रत्न विनागः। स्थावरादिविजागमाह ॥ नूमी घरा अ तरुगण, तिविहं पुण थावरं मुणेअवं ॥ चकारबछमाणुस, तिविहं पुण हो उपयं तु॥ २२ ॥ व्याख्या ॥ नूमिहाणि तरुगणाश्च । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः। त्रिविधं पुनरोघतः स्थावरं मन्तव्यम् । पुनः शब्दो विशेषणार्थः। किं विशिनष्टि । खगतान् नेदान् । तद्यथा। नूमिः क्षेत्रम्। तच्च विधा।सेतु केतु सेतुकेतु च।गृहाणि प्रासादाः। तेऽपि त्रिविधाः। खातोतितोलयरूपाः। तरुगणा नालिकेर्याद्यारामा इति। चक्रारबझमानुषमिति। चकारबर्क गन्त्र्यादि। मानुषं दासादि। एवं छिपदं पुनर्नवति हिविधमिति गाथार्थः ॥२२॥ उक्तं स्थावरादि । चतुष्पदमाह ॥ गावी महिसी उहा, अयएलगथासयासतरगा श्र। घोडग गदह हबी, चनप्पयं हो दसहा ज॥२३॥ व्याख्या॥गौमहिषी उष्ट्री अजा एडका Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३७३ अश्वा श्रश्वतराश्च घोटका गर्दना हस्तिनश्चतुष्पदं जवति दशधा तु । एते गवादयः प्रतीता एव । नवरमश्वा बाल्हीकादिदेशोत्पन्ना जात्याः। अश्वतरा वेगसरा अजात्या घोटका इति गाथार्थः॥२३॥ उक्तं चतुष्पदं कुप्यमाह ॥ नाणाविहोवगरणं, णेगविहं कुप्पलरकणं हो ॥ एसो अबो नणिज, बविह चउसहिने उ ॥२॥व्याख्या ॥ नानाविधोपकरणं ताम्रकलशकडिवादिजातितः अनेकविधं व्यक्तितः कुप्यलक्षणं नवति। एषोऽनन्तरोदितोऽर्थो नणित उक्तः षडविधः।चतुःषष्टिनेदस्तु उघविनागान्यां प्रकृतोपयोगो व्यार्थ इति गाथार्थः॥ २४ ॥ उक्तोऽर्थः सांप्रतं काममाह ॥ कामो चनवीसविहो, संपत्तो खलु तहा असंपत्तो ॥संपत्तो चउदसहा, दसहा पुण होअसंपत्तो॥२५॥ व्याख्या॥कामश्चतुर्विशतिविधः। उघतः संप्राप्तः खलु तथाअसंप्राप्तो वदयमाणखरूपःसंप्राप्तश्चतुर्दशधा चतुर्दशप्रकारः। दशधा पुनर्नवत्यसंप्राप्त इति गाथासमासार्थः।व्यासार्थं वाह । तत्राप्यत्पतरवक्तव्यत्वादसंप्राप्तमाह ॥ तब असंपत्तोबो, चिंता तह सह संसरणमेव॥विक्कवय लऊ नासो पमाय उम्माय तनावो॥२६॥व्याख्या।तत्रासंप्राप्तोऽयं कामः। अर्थेति।अर्थनमर्थः। श्रदृष्टेऽपि वलयादौ श्रुत्वा तदनिप्रायमात्रमित्यर्थः। तत्रैवाहोरूपादिगुणा इत्यनिनिवेशेन चिन्तनं चिन्ता। तथा श्रद्धा तत्संगमानिलाषः।संस्मरणमेव संकल्पिकतपस्यालेख्यादिदर्शनम्। वियोगतो वा पुनःपुनरतिविलवता तबोकातिरेकेणाहारादिष्वपि निरपेक्षता । लजानाशो गुर्वादिसमक्षमपि तमुणोत्कीर्तनम् । प्रमादस्तदर्थमेव सर्वारम्नेष्वपि प्रवर्तनम्।उन्मादो नष्टचित्ततया बालजालनाषणम् । तनावना स्तम्नादीनामपि तबुट्यालिङ्गनादिचेष्टेति गाथार्थः॥२६॥मरणं च हो दसमो, संपत्तं पिथ समास वोठं ॥ दिछीए संपा, दिहीसेवा य संनासो ॥ २७ ॥व्याख्या॥मरणं च शोकायतिरेकेण क्रमेण जवति दशमः असंप्राप्तकामनेदः। संप्राप्तमपि च कामं समासतो वय इति । तत्र दृष्टेः पुनः संपातः स्त्रीणां कुचायवलोकनम् । दृष्टिसेवा च नावसारं तदृष्टेदृष्टिमेलनम्।संजाषणमुचितकाले स्मरकथा निर्जल्प इति गाथार्थः॥॥ हसिअललिअनवगूहिथ, दंतनह निवायचुंबणं हो॥थालिंगणमासेवण, करणमणंगस्स किमा श्र॥राव्याख्याहसितं वक्रोक्तिगर्न प्रतीतम्। ललितं पाशकादिक्रीडानिपग्रहितं परिष्वक्तम् । दन्तनिपातो दशनछेद्यविधिः। नखनिपातो नखरदनजातिः। चुम्बनं चैवेति चुम्बन विकल्पः । थालिङ्गनमीषत्स्पर्शनम् । आदानं कुचा दिग्रहणम् । करसेवणं ति प्रा. कृतशैल्या करणासेवने । तत्र करणं नाम नागरकादि प्रारंजयन्त्रम् । आसेवनं मैथुनक्रिया । अनंगक्रीडा चास्यादावर्थ क्रियेति गाथार्थः ॥ २७ ॥ उक्तः कामः। सांप्रतं धर्मादीनामेव संपन्नतासंपन्नते अनिधित्सुराह ॥ धम्मो अबो कामो, निन्ने ते पिंडिया पडिसवत्ता ॥ जिणवयणं उत्तिन्ना, अवसत्ता होंति नायवा ॥शए॥ व्याख्या॥धर्मोऽर्थः Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. कामः त्रय एते पिएिकता युगपत्संपातेन प्रतिसपत्नाः परस्परविरोधिनः लोके कुप्रवचनेषु च । यथोक्तम् । अर्थस्य मूलं निकृतिः दमा च, कामस्य वित्तं च वपुर्वयश्च ॥ धर्मस्य दानं च दया दमश्च, मोदस्य सर्वोपरमः क्रियासु ॥१॥ इत्यादि । एते च परस्परविरोधिनोऽपि सन्तो जिनप्रवचनमवतीर्णाः । ततः कुशलाशययोगतो व्यवहारेण धर्मादितत्त्वखरूपतो वा निश्चयेन असपत्नाः परस्पराविरोधिनो जवन्ति ज्ञातव्या शति गाथार्थः॥श्णातत्र व्यवहारेणाविरोधमाह॥जिणवयणं मि परिणए,अवनविहिवाणुगण धम्मो ॥ सहासयप्पयोगा, अबो वीसंन कामो ॥ ३० ॥ व्याख्या॥जिनवचने यथावत्परिणते सति अवस्थोचितविहितानुष्ठानात् स्वयोग्यतामपेक्ष्य दर्शनादिश्रावकप्रतिमाङ्गीकरणे निरतिचारस्तपालनाङ्गवति धर्मः । स्वबाशयप्रयोगाहिशिष्टलोकतः पुण्यबलाच्चार्थः । विश्रम्नत उचितकलत्राङ्गीकरणतापेदो विश्रम्नेण काम इति गाथार्थः ॥ ३० ॥ अधुना निश्चयेनाविरोधमाह । धम्मस्स फलं मोको, सासयमउलं सिवं अणाबाहं ॥ तमनिप्पेया साहू, तम्हा धम्मबकाम त्ति ॥३१॥ व्याख्या॥ धर्मस्य निरतिचारस्य फलं मोदो निर्वाणम् । किंविशिष्टमित्याह । शाश्वतं नित्यमतुलमनन्यतुलं शिवं पवित्रमनाबाधं बाधावर्जितमेतदेवार्थः। तं धर्मार्थं मोदमनिप्रेतं कामयन्ति साधवो यस्मात्तस्माफर्मार्थकामा शति गाथार्थः॥३१॥ एतदेव दृढयन्नाह ॥ परलोट मुत्तिमग्गो, ननि हुमोको त्ति विति अविहिन्नू ॥ सो अवि अवितहो जिण- मयंमि पवरो न अन्नन ॥३२॥ व्याख्या ॥ परलोको जन्मान्तरलक्षणो मुक्तिमार्गो शानदर्शनचारित्राणि नास्त्येव मोदः सर्वकर्मदयलक्षण इत्येवं ब्रुवते अविधिज्ञा न्यायमार्गाप्रवेदिनः । अत्रोत्तरम् । स परलोकादिः अस्त्येवावितथः सत्यो जिनमते वीतरागवचने प्रवरः पूर्वापराविरोधेन नान्यत्रैकान्त नित्यादौ हिंसादिविरोधादिति गाथार्थः ॥३२॥ व्याख्याता काचित्सूत्रस्पर्श नियुक्तिः। अधुना सूत्रान्तरावसरः। अस्य चायमनिसंबन्धः । श्हानन्तरसूत्रे निग्रन्थानामाचारगोचरकथनोपन्यासः कृतः। सांप्रतमस्यैवार्थस्य गुरुतामाह । णमबत्ति सूत्रम् । नान्यत्र कपिलादिमते ईदृशमुक्तमाचारगोचरं वस्तु यहोके प्राणिलोके परमपुश्चरमत्यन्तपुष्कर मित्यर्थः। दृशं च विपुलस्थाननाजिनः विपुलस्थानं विपुलमोदहेतुत्वात् संयमस्थानं तनजते सेवते तबीलश्च यस्तस्य न नूतं न नविष्यति अन्यत्र जिनमतादिति सूत्रार्थः ॥ ५॥ सखुमगविअत्ताणं, वादियआणं च जे गुणा ॥ अखंमफुमिआ कायवा, तं सुणेद जहा तदा ॥६॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३७५ (अवचूरिः) एतदेव नावयन्नाह। सेह कुलकर्षव्यनावबालैर्वर्त्तन्ते ये व्यक्ता अव्यनाववृहास्तेषां सकुल्लकव्यक्तानांसबालवृधानां व्याधिमतां चाव्याधिमतां च ये गुणा वदयमाणलदणास्तेऽखंडास्फुटिताः कर्तव्याः । अखएका देश विराधनापरित्यागेन अ स्फुटिताः सर्वविराधनापरित्यागेन । तवृणुत यथा कर्तव्यास्तथा ॥६॥ (अर्थ. ) हवे सहुने पूर्वोक्त धर्म सरखो पालवो ते कहेले. (सखुगविअत्ताणं के०) सकुल्लकव्यक्तानां एटले व्यनावे करी बाल ते कुखक कहिये,अने व्यजावथी जे वृक्ष तेने वृक्ष कहियें. ते बालक सहित वृद्धोना तथा (वाहिआणं के०) व्याधितानां एटले व्याधिवालाउँना तथा(च के०)वली व्याधिरहितलोकोना (ये गुणा के०) ये गुणाः एटले जे गुणोडे ते (अखंमप्फुडिया के०) अखंमास्फुटिताः एटले देशखंडना अने सवखंडना वडे रहित एवा (कायवा के०)कर्त्तव्याः एटले करवा.ते गुणो(जहातहा के०) यथा तथा एटले जेवा डे तेवा कहुं बुं.ते (सुलेह के०) शृणुत एटले सांचलो. ॥६॥ (दीपिका.) पुनः एतदेव नावयन्नाह । सगुल्लकव्यक्तानां ये गुणा वदयमाणलदणास्ते अखएमास्फुटिताः कर्तव्याः । कोऽर्थः । सह कुलकर्डव्यन्नावबालैर्येबर्तन्ते ते सकुलकाः व्यक्ताश्च अव्यनाववृशाः तेषां स कुल्लकव्यक्तानां सबालवृक्षानामित्यर्थः। किंनूतानां सबकव्यक्तानां व्याधिमतां च शब्दादव्याधिमतां च सरोगाणामरोगाणां चेति नावः। किंनूता गुणाः अखएमास्फुटिताः अखएमा देशविराधनापरित्यागेन अस्फुटिताश्च सर्व विराधनात्यागेन । तत् शृणुत यथा कर्तव्यास्तथेति ॥६॥ (टीका.) एतदेव संभावयन्नाह । सखुत्ति सूत्रम् । सह कुलकैऽव्यत्नावबालैये वर्तन्ते ते व्यक्ता व्यत्नाववृक्षास्तेषां सकुल्लकव्यक्तानां सबालवृद्धानामित्यर्थः। व्याधिमतां चशब्दादव्याधिमतां च सरुजानां नीरुजानां चेति नावः । ये गुणा वदयमाणलदणास्तेऽखएमास्फुटिताः कर्तव्याः । अखएका देशविराधनापरित्यागेन अस्फुटिताः सर्व विराधनापरित्यागेन तत् शृणुत यथा कर्तव्यास्तथेति सूत्रार्थः ॥६॥ दस अह यहाणाई, जाबालो वरन॥ तब अन्नयरे गणे, निग्गंयत्तान नस्स॥७॥ (अवचूरिः ) तेचाऽगुणत्यागेनाऽखएिमता अस्फुटिता नवन्तीत्यगुणास्तावमुच्यन्ते। दशाष्टौ स्थानानि यान्याश्रित्य बालोऽपराध्यति तत्सेवनयापराधमाप्नोति । तत्रान्यतरे स्थाने वर्तमानः प्रमादेन नैर्ग्रन्थ्याश्यति ॥ ७॥ (अर्थ.) हवे ते पूर्वोक्त गुणो अवगुणना त्यागथी अखंड अस्फुटित थाय बे, अने Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ राय धनपतसिंघवहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. म वाथ देश विराधना तथा सर्वविराधनारहित थाय बे, ते माटे प्रथम - वो कहे. ( जाई के० ) यानि एटले जे ( दस य द्वाणाई के० ) दशाष्टकस्थानान एटले दस ने आठ मली अढार स्थानकोने याश्रय करीने (बालो के०) बाल : एटले बालक ( अवरनई के० ) अपराध्यति एटले अपराध करे छे. ते केवी रीते अपराध करे तो के, ( तब के० ) तत्र एटले ते अढार स्तानकमा हेलुं ( अन्नयरे ठाणे के० ) अन्यतरस्मिन् स्थाने एटले हर कोई एक स्थानकने विषे प्रमादथी जे वर्त्ते, ते (निग्गंथा के० ) निर्ग्रथत्वतः एटले निर्बंय पणा थकी ( जस्सइ के० ) नश्यति एटले चष्ट थाय बे, एटले साधुनां व्रत जांगे बे ॥ ७ ॥ ( दीपिका . ) ते च गुणा गुणपरिहारेण अखएमा अस्फुटिताश्च जवन्तीति प्रथममगुणा उच्यन्ते । बालोऽज्ञानी यानि दशाष्टौ अष्टादश स्थानानि संयमस्थानानि वक्ष्यमाणलक्षणानि प्रश्रित्य अपराध्यति तत्सेवनया अपराधं प्राप्नोति । कथमपराध्यतीत्याह । तत्र अन्यतरे अष्टादशानामसंयमस्थानानां मध्ये एकतर स्मिन्नपि स्थाने वर्तमानः प्रमादेन निर्ग्रन्थत्वान्निर्ग्रन्थजावाद् श्यति निश्चयनयेन यपैति । कः पूर्वोक्तो बाल इति ॥ ७ ॥ ( टीका. ) ते चागुणपरिहारेणाखंडास्फुटिताजवन्तीति श्रगुणास्ताव ुच्यन्ते । दसत्ति सूत्रम् । दशाष्टौ च स्थानान्यसंयमस्थानानि वक्ष्यमाणलक्षणानि यान्याश्रित्य बालोकोऽपराध्यति तत्सेवनयापराधमाप्नोति । कथमपराध्यतीत्याह । तत्रान्यतरे स्थाने वर्तमानः प्रमादेन निर्मन्थत्वान्निर्ग्रन्थजावाश्यति निश्चयनयेनापैति बाल इति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ वयवक्कं काव्यक्कं कप्पो गिहिनायां ॥ पलियंकनिसका य, सणापं सोहवणं ॥ ८ ॥ ( यवचूरिः ) कानि पुनस्तानि स्थानानीत्याह । व्रतष्टुं प्राणातिपात विरत्यादी नि रात्रि जोजन विरतिषष्ठानि । कायषटुं पृथिव्यादयः । अकल्पः शिक्षकस्थापनाकल्पादिवक्ष्यमाणः । गृहिजाजनं गृहस्थसंबन्धिकांस्यनाजनादि । पर्यङ्कः शयनीय विशेषः । निषया । स्नानं देश सर्वनेदन्निं शोजावर्जनं विभूषणपरित्यागः वर्जन मिति सर्वत्र योज्यम् ॥ ८ ॥ ( . ) हवे ते अढारे स्थानकनां नाम कही तेने वर्जवानो उपदेश कहे बे. ( arai ho ) व्रतषट्कं एटले १ प्राणातिपात, २ मृषावाद, ३ अदत्तादान, ४ - ब्रह्मचर्य, ५ परिग्रह, ६ रात्रिजोजन ए उ तथा ( कायढक्कं के० ) कायषट्कं एटले Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । उ पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय,१० वायुकाय, ११ वनस्पतिकाय अने १५ त्रसकाय तेनी विराधना तथा ( अकप्पो के०) अकल्पः एटले १३ थकल्प आचारादिक, (गिहिनायणं के०) गृहिनाजनं एटले १४ गृहस्थर्नु नाजन कांस्यपात्रादिक तथा (पतिअंक के०) १५ पर्यंकः एटले ढालीयो तथा (निसजा के०) निषद्या एटले १६ बेसवानां अनेक प्रकारनां आसन (सिणाणं के०) स्नानं एटले १७ स्नान करवू ते (सोना के०) १७ शोजा ए अढार स्थानक (वडाणं के०) वर्जनं एटले वर्जवां. ॥ ७॥ (दीपिका.) कानि पुनस्तानि स्थानानीत्याह । व्रतषटुं प्राणातिपातविरमणमृषावादविरमणादत्तादानविरमणब्राह्मविरमण परिग्रहविरमणरात्रिनोजन विरमणरूपम् । तथा कायषटुं पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायरूपम् । अकल्पकः शिक्षकस्थापनाकल्पादिर्वदयमाणः । १३ गृहिनाजनं गृहस्थसंबन्धिकांस्यनाजनादि प्रतीतम् । १४ पर्यतः शयनीय विशेषः प्रतीतः। १५ निषद्या च गृह एकानेकरूपा। १६ स्नानं देशतः सर्वतश्च धा । १७ शोनावर्जनं च विजूषापरित्यागः। १७ वर्जनशब्दः प्रत्येकमलिसंबध्यते । स्नानवर्जनमित्यादि ॥ ७॥ (टीका.) अमुमेवार्थ सूत्रस्पर्शनियुक्त्या स्पष्टयति । अहारस ठाणाझं, आयारकहाए जाई नणिया॥ तेसिं अन्नतरागं, सेवंतु न हो सो समणो ॥३३॥व्या॥ अष्टादश स्थानान्याचारकथायां प्रस्तुतायां यानि नणितानि तीर्थकरैः। तेषामन्यतरस्थानं सेवमानो न नवत्यसौ श्रमण आसेवक इति गाथार्थः ॥ ३३ ॥ कानि पुनस्तानि स्थानानीत्याह नियुक्तिकारः॥ वयबकं कायबकं, अकप्पो गिहिनायणं ॥ पलियंकनिसेजा य सिणाणं सोहवाणं॥३॥व्या॥ व्रतषटुं प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनि रात्रिनोजनविरतिषष्ठानि षड् व्रतानि । कायषटुं पृथिव्यादयः षड्जीवनिकायाः। अकल्पः शिक्षकस्थापनाकल्पादिर्वदयमाणः । गृहिनाजनं गृहस्थसंबन्धि कांस्यनाजनादि प्रतीतम्। पर्यङ्कः शयनीय विशेषः प्रतीतः। निषद्या च गृह एकानेकरूपा । स्नानं देशसर्वनेदजिन्नम् । शोजावर्जनं विनूषापरित्यागः। वर्जनमिति च प्रत्येकमनिसंबध्यते । शोजावर्जनं नानवर्जनमित्यादीति गाथार्थः ॥ ७ ॥ तबिमं पढमं गणं, महावीरेण देसिधे ॥ अहिंसा निनणा दिहा, सवनूएसु संजमो॥ ए॥ ( अवचूरिः ) तत्राष्टादश विधस्थानगणे बतषटुं वा अनासेवनहारेणेदं वक्यमाणलक्षणं प्रथमं गुणस्थानं महावीरेण देशितं कथितम् । अहिंसा निपुणा श्रा Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. धाकर्माद्यपरिजोगाद् दृष्टा सादाधर्मसाधकत्वेनोपलब्धा । अस्यामेव महावीरदेशितायां सर्वनूतेषु सर्वनूत विषयः संयमो नान्यत्र ॥ ए॥ (अर्थ.) (तबिमं के०) तत्रेदं एटले ते अढारस्थानकमाहे आ (पढमं के०) प्रथमं एटले प्रथम (गणं के०) स्थानं एटले स्थानक (महावीरेण के०) महावीरस्वामीए (देसियं केu) देशितं एटले अनासेवनहारे करी कहेलु . ते केम तथा शुं कहेढुंठे तो के, (अहिंसा के०) जीवदया (निजणा के०) निपुणा एटले जलीघणा सुखनी देनारी एवी(दिघा के०) दृष्टा एटले दीठी . ते कारण माटे (सबनूएसु के०) सर्वनूतेषु एटले प्राणिमात्रने विषे (संजमो के०) संयमः एटले संयम राखवो. अर्थात् दया राखवी.॥ए॥ (दीपिका.) गुणा अष्टादशस्थानेषु अखएमास्फुटिताः कर्तव्यास्तत्र विधिमाह । तत्र अष्टादश विधस्थानगणे व्रतषट्रे वा महावीरेण नगवता इदं वदयमाणलक्षणं प्रथमं स्थानमनासेवनहारेण देशितं कथितम् । किं तदित्याह । अहिंसा न हिंसा अहिंसा जीवदया । श्यं च सामान्यतः प्रजूतैर्दर्शितेत्यत आह । किंनूताहिंसा। निपुणा श्राधाकर्माद्यपरिनोगतः कृतकारितादिपरिहारेण सूमा न आगमझारेण देशिता । अपि तु दृष्टा सादामसाधनत्वेनोपलब्धा । किमिति श्यमेव निपुणा इत्याह । यतोऽस्यामेव महावीरदेशितायां सर्वजूतेषु सर्वचूत विषयः संयमो नान्यत्र जादश्य कृतादिनोगविधानादिति ॥ ए॥ . ( टीका.) व्याख्याता सूत्रस्पर्श नियुक्तिरधुना सूत्रान्तरं व्याख्यायते । अस्य चायमनिसंबन्धः। गुणा अष्टादशसु स्थानेषु अखएमास्फुटिताः कर्तव्यास्तत्र विधिमाह।तबिमंति सूत्रम् । तत्राष्टादश विधे स्थानगणे व्रतष, वा अनासेवनाद्वारेणेदं वक्ष्यमाणलक्षणं प्रथमं स्थानं महावीरेण जगवतापश्चिमतीर्थकरेण देशितं कथितम् । यताहिंसेति। श्यं च सामान्यतः प्रनूतैर्देशितेत्यत आह । निपुणा आधाकर्माद्यपरिनोगतः कृतकारितादिपरिहारेण सूक्ष्मा। नो आगमकारेण देशिता । अपितु दृष्टा सादाधर्मसाधनत्वेनोपलब्धा । किमितीयमेव निपुणेत्यत आह । यतोऽस्यामेव महावीरदेशितायां सर्वजूतेषु सर्वजूतविषयः संयमो नान्यत्रो दिश्यकृतादिलोग विधानादिति सूत्रार्थः॥ए॥ जावंति लोए पाणा, तसा अव थावरा ॥ __ ते जाणमजाणं वा, न हणे णो विघायए ॥१०॥ (अवचूरिः) यावन्तो लोके प्राणास्त्रसास्तथा स्थावराश्च तान् रागायजिजूतो Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैका लिके षष्ठमध्ययनम् । ३७ व्यापादनया जानन्वा पारतन्त्र्येण वा न हन्यात् । नापिघातयेदन्यैः । एकग्रहणे तजातीयग्रहणाद् नतोऽप्यन्यान्न समनुजानीयात् ॥ १० ॥ ( .) पूर्वोक्त जीव हिंसा निषेधने स्पष्ट करी कहे बे. ( जावंति के० ) यावन्ति एटले जेटला (लोए के०) लोके एटले लोकने विषे ( तसा के० ) त्रसाः एटले स एवा (अडुव के० ) अथवा ( थावरा के०) स्थावराः एटले स्थावर एवा ( पाणा ho) प्राणिनः एटले जीवो बे. (ते के०) तान् एटले ते जीवने ( जाणमजाणं वा के० ) जानन्नाजानन्वा एटले जाणते प्रयोजने छाने जाणते प्रमादे करी ( न हो के० ) न हन्यात् एटले हो नहि. तेम ( गोविघायए के० ) नापिघातयेत् एटले अनेरा पासे विघात करावे नहि. ने विघात करनार बीजाने अनुमोदे नहि. ॥ १० ॥ ( दीपिका . ) एतदेव स्पष्टयन्नाह । यतो हि जगवत इयमाज्ञा यावन्तो लोके केचन प्राणिनसा द्वीन्द्रियादयः । अथवा स्थावराः पृथिव्यादयस्तान् जानन् रागाद्यनिभूतो व्यापादनबुद्ध्या श्रजानन् वा प्रमादपारतन्त्र्येण साधुस्तान् जीवान् न हन्यात् स्वयम् । नचा निघातयेदन्यैर्नच नतोऽप्यन्यान् समनुजानीयात् । तो निष्टेति ॥ १० ॥ ( टीका. ) एतदेव स्पष्टयन्नाह | जावंति सूत्रम् । यतो हि जागवत्याज्ञा । यावन्तः aar ale प्राणिनस्त्रसा द्वीन्द्रियादयः । अथवा स्थावराः पृथिव्यादयः । ताञ् जानन् रागाद्यनितो व्यापादनबुद्ध्या श्रजानन्वा प्रमादपातन्त्र्येण न हन्यात् स्वयम् । नापि घातयेदन्यैः । एकग्रहणे तजातीयग्रहणाद् नतोऽप्यन्यान्न समनुजानीयादतो निपुणा दृष्टेति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ सजीवा चिंति, जीवितुं न मरिजिनं ॥ तम्हा पाणिवदं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ ११ ॥ ( अवचूरिः) सर्वे जीवा श्रपि इछन्ति जीवितुं न मर्तुं प्राणस्य वल्लत्वात् । यस्मादेवं तस्मात्प्राणिवधं घोरं रौद्रं दुःखहेतुत्वान्निर्ग्रन्था वर्जयन्ति । समलंकारे ॥ ११ ॥ ( .) जीव हिंसाथीज केम जव्य कदेवाय ते कहे वे. ( सधे विके० ) सर्वेऽपि एटले सर्वे पण ( जीवा के० ) जीवो ( जीवितं के० ) जीवितुं एटले जीववाने ( इति के० ) इछा करे ठे. परंतु ( मरिजिनं के० ) मर्तु एटले मरवाने इछा करता न. कारण के, सर्व प्राणीने जीववानी आशा परिपूर्ण रहे बे. (तम्हा के० ) तस्मात् एते कारण माटे (निग्गंथा के० ) निर्ग्रन्थाः एटले निग्रंथ एवा साधु (घोरं के० ) For Private Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. घोरं एटले नयंकर एवा ( पाणवहं के०) प्राणवधं एटले प्राणिवधने ( वजायंति के) वर्जयंति एटले त्याग करे . णं वे ते वाक्यालंकारने अर्थे . ॥ ११ ॥ (दीपिका.) ननु अहिंसैव कथं जव्येत्यत आह । तस्मात्कारणाद् निग्रन्थाः सा. धवः प्राणवधं वर्जयन्ति । किंनूतं प्राणवधम् । घोरं रौद्धं कुःखहेतुत्वात् । तस्मात् कस्मात् । यतः सर्वे जीवा अपि सुखितादिनेद निन्ना जीवितुमिबन्ति न मर्तुम् । कथम् । प्राणवसनत्वात्तेषां सर्वेषाम् । णमिति वाक्यालंकारे ॥११॥ (टीका.) अहिंसैव कथं साध्वीत्येतदेवाह । सब त्ति सूत्रम् । सर्वे जीवा अपि पुःखितादिनेदनिन्ना श्चन्ति जीवितुं न मर्तुं प्राणवक्षनत्वात् । यस्मादेवं तस्मात्प्राणवधं घोरं रौडं पुःखहेतुत्वाद् निग्रन्थाः साधवो वर्जयन्ति लावतः । णमिति वाक्यालंकार इति सूत्रार्थः॥ ११॥ अप्पाहा परहावा, कोहा वा जश् वा नया॥ हिंसगं न मुसं बूषा, नो वि अन्नं वयावए ॥१२॥ (श्रवचरिः) उक्तः प्रथमस्थान विधिः। द्वितीयस्थानमाहात्मार्थमात्मनिमित्तमग्लान एव ग्लानोऽहं ममानेन कार्य परार्थमेव वा क्रोधाछा त्वं दास इति । एकग्रहणे तजातीयग्रहणम् । मानाबहुश्रुतोऽहम्। मायातो निदाटनासमर्थोऽहम् । लोनाडोननतरान्नलाने सति प्रान्तस्य शुभस्याप्यशुकमिदमित्यादि। जयात्किंचितिथं कृत्वा प्रायश्चित्तजयान्न कृतम् । हिंसकं परपीडाकारि न ब्रूयात् । नाप्यन्यं वादयेदन्यं वदन्तमपि न समनुजानीयात् ॥ १२ ॥ (अर्थ.) हवे बीजं व्रत कहे . ( अप्पणका के०) आत्मार्थं एटले पोताने अर्थे तथा ( परहं के) परार्थं एटले पारके अर्थे (कोहा वा के० ) कोधाछा एटले क्रोध थकी एटले तुं दास ने इत्यादि वाक्योए करी (जश् वा के०) यदि वा एटले अथवा मानमायालोने करी तथा (जया के०) नयाहा एटले नये करी (हिंसगं के०) हिंसकं एटले हिसा जेथी थाय ते, (मुसं के०) मृषा एटले खोटुं ( न ब्रया के०) न ब्रूयात् एटले बोले नहि. अने ( अन्नं वि के ) अन्यमपि एटले वीज़ाने पण ( नो वयावए के०) नो वादयेत् एटले बोलावे नहि. ॥ १५ ॥ __ (दीपिका.) उक्तः प्रथमस्थान विधिः । अथ द्वितीयस्थानविधिमाह । साधुर्मषावचनं न ब्रूयात् स्वयमात्मना । नापि मृषा अन्यं वादयेत् । एकग्रहणे तजातीयग्रहणादिति न्यायेन अन्यान् मृषा अवतो न समनुजानीयात् । किंनूतं मृषा। हिंसकं Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३१ परपीडाकारि।सर्वमेव किमर्थं न वदेत् । आत्मार्थमात्मनिमित्तम् । कथम् । अग्लान एव ग्लानोऽहं ममानेन कार्यमित्यादिरूपम् । तथा परार्थ वा परनिमित्तं वा एवमेव पूर्ववत्। तथाक्रोधाछा त्वं दास इत्यादिरूपम् । एकग्रहणेन तजातीयानां ग्रहण मिति न्यायात् । मानात्। कथम्। अबहुश्रुत एवाहं बहुश्रुत इत्यादिरूपम् । मायातो वा । कथम् । निदाटनस्यालस्येन मम पादपीडा वर्त्तत इत्यादिरूपम् । लोनाहा । कथम् । शोजनतरस्यान्नस्य लाने सति अन्तप्रान्तस्याहारस्य एषणीयत्वेऽप्यनेषणीयमिदमित्यादिरूपम् ७ यदि वा नयात् । कथम्। किंचित् पापं कृत्वा प्रायश्चित्तजयान्न कृतं मयेति वदति । एवं हास्यादिष्वपि योजना कार्या ॥ १२ ॥ (टीका.) उक्तः प्रथमस्थान विधिः । अधुना द्वितीयस्थान विधिमाह । अप्पण:त्ति सूत्रम् । श्रात्मार्थमात्म निमित्तमग्लान एव ग्लानोऽहं ममानेन कार्यमित्यादि । परार्थं वा परनिमित्तं वा। एवमेव तथा क्रोधाचा त्वं दास इत्यादि। एकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति मानाछाबहुश्रुत एवाहं बहुश्रुत इत्यादि ।मायातो निदाटनपरिजिहीर्षया पादपीडा ममेत्यादि । लोनाबोजनतरान्नलाने सति प्रान्तस्यैषणीयत्वेऽप्यनेषणीयमिदमित्यादि । यदि वा नयात् किंचितिथं कृत्वा प्रायश्चित्तनयान्न कृतमित्यादि । एवं हास्यादिष्वपि वाच्यम् । अतएवाह । हिंसक परपीडाकारि सर्वमेव. न मृषा ब्रूयात् खयम् । नाप्यन्यं वादयेत् । एकग्रहणे तजातीयग्रहणाच अवतोऽप्यन्यान्न समनुजानीयादित्यादीति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ मुसावा न लोगम्मि, सवसाइहिं गरिदिन॥ अविस्सासो अनूत्राणं, तम्हा मोसं विवाए ॥१३॥ (श्रवचूरिः) मृषावादो हि लोके सर्वसाधुनिर्गर्हितो निन्दितः सर्वव्रतापकारित्वात् प्रतिज्ञातापालनात् । अविश्वास्यश्चाविश्वसनीयश्च जूतानां मृषावादी स्यात् । यस्मादेवं तस्मान्मृषावादं विवर्जयेत् ॥ १३ ॥ (अर्थ.) वली पण ते मृषावाद वर्जवो एम कहे . (सबलोअम्मि के०) सर्वलोके एटले सर्व लोकने विषे ( मुसावा के०) मृषावादः एटले मृषावाद ( सवसाइहिं के०) सर्वसाधुनिः एटले सर्व साधुए ( गरिहि के०) गर्हितः एटले जगत्मां निंदित . कारण के, ते सर्वने तापकारक ले. तेथी प्रतिज्ञा पालन कराती नथी (च के०) तथा वली मृषावाद करनार पुरुष (आणं के०) नूतानां एटले प्राणिमात्रोने (अविस्सासो के) अविश्वास्यः एटले विश्वास करवा अयोग्य एवो Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३न्य राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. थाय जे. ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले तेमाटे (मोसं के) मृषा एटले मृषावादने (विवङाए के० ) विवर्जयेत् एटले त्याग करे. अर्थात् मृषावाद न करे. ए बीजुं स्थानक कां. ॥ १३ ॥ (दीपिका.) किमित्येतदेव मृषावदनं नेत्याह । मृषावदो हि लोके सर्व स्मिन्नेव सर्वसाधुनिर्गर्हितो निन्दितोऽस्ति । सर्वत्र तापका रित्वात्प्रतिज्ञातस्यापरिपालनात् । पुनर्मूषावादाद विश्वास्योऽविश्वसनीयश्च नूतानां प्राणिनां मृषावादी नवेत् । यस्मादेवं तस्मात्साधुर्घषावादं विवर्जयेत् ॥ १३ ॥ (टीका.) किमित्येतदेव मित्याह । मुसावाज त्ति सूत्रम् । मृषावादो हि लोके सर्वस्मिन्नेव सर्वसाधुनिर्गर्हितो निन्दितः। सर्वत्रतापकारित्वात्। प्रतिज्ञातापालनात् । अविश्वास्यश्चाविश्वसनीयश्च नूतानां मृषावादी नवति । यस्मादेवं तस्मान्मृषावादं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बढुं॥ दंतसोहणमित्तं वि, जग्गहंसि अजाझ्या ॥१४॥ (अवचूरिः) उक्तो द्वितीयस्थानविधिः । तृतीयस्थानमाह। चित्तवद् द्विपदादि। अचित्तवकिरण्यादि। अल्पं वा मूख्यतः प्रमाणतश्च । यदि वा बहु मूल्यप्रमाणान्यां दन्तशोधनमात्रमपि तथाविधं तृणाद्यवग्रहे यस्य यत्तत्तमयाचित्वा न गृह्णन्ति ॥१४॥ (अर्थ.) हवे त्रीजु स्थान कहे . ( चित्तमंतं के) चित्तवत् एटले छिपदादि ( वा के०) वली (अचित्तं के०) अचित्तवत् एटले हिरण्यादि (अप्पं के०) अल्पं एटले अल्पमूल्यवाद्यं (जवा के०)यदिवा एटले अथवा (बहुं के०)बहु एटले मूल्यथी अथवा प्रमाणथी मोटुं (दंतसोहण मित्तं पि के) दन्तशोधनमात्रमपिएटले दंतशोधनमात्र ते एक तृणमात्र पण (अजाश्था के० ) अयाचित्वा एटले माग्या विना ( जग्गहंसि के०) अवग्रहे एटले गृहस्थना अवग्रहमां पडेली वस्तुने साधु ग्रहण न करे. ॥१४॥ (दीपिका. ) उक्तो द्वितीयस्थान विधिः । सांप्रतं तृतीयस्थान विधिमाह । साधवोऽयाचित्वा कदाचनापि न किमपि गृह्णन्ति । यतः साधूनां सर्वमवग्रहयाचने गृहस्थैर्दत्तं ग्राह्यं नान्यथा । किं तदाह । चित्तवद् छिपदादि । श्रचित्तवदू वा हिरण्यादि। अल्पं वा मूल्यतःप्रमाणतश्च। यदि वा बहुमूल्यप्रमाणान्यामेव। किंबहुना। दन्तशोधनमात्रमपि तथाविधं तृणाद्यपि। एतावता साधवस्तृणाद्यप्यदत्तं न गृह्णन्ति किमन्यत्॥१४॥ ( टीका. )उक्तो द्वितीयस्थान विधिः। तृतीयस्थान विधिमाह । चित्तमंत त्ति सूत्रम् । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३७३ चित्तव विपदादि वा। अचित्तवछा हिरण्यादि । अल्पं वा मूख्यतः प्रमाणतश्च । यदि वा बहु मूल्यप्रमाणाच्यामेव । किं बहुना। दन्तशोधनमात्रमपि तथाविधं तृणादि । अवग्रहे यस्य तत्तमयाचित्वा न गृह्णन्ति साधवः कदा चनेति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ तं अप्पणा न गिएहंति नो वि गिहावए परं॥ अन्नं वा गिण्हमाणं वि, नाणुजाणंति संजया ॥ १५॥ (अवचूरिः ) तच्चित्तवदादि आत्मना न गृह्णन्ति विरतत्वात् । नापि ग्राहयन्ति परं विरतत्वादेव । अन्यं वा गृह्णन्तमपि स्वयमेव न समनुजानन्ति संयताः॥ १५ ॥ (अर्थ.) फरीने पण तेज वात कहे .(संजया के०)संयताः एटले संयत जे साधु ते (तं के ) ते पूर्वोक्त सचित्त अने अचित्त वस्तुने ( अप्पणा के० ) श्रात्मना एटले पोते (न गिएहंति के) न गृहंति एटले ग्रहण करता नथी. तथा (परं के) वीजापासे (नो वि गिण्हावए के०) नापि ग्राहयन्ति एटले ग्रहण करावे पण नहि. (वा के०) वली (गिण्हमाणं पि के०) गृह्णन्तमपि एटले ग्रहण करतो होय तेने पण पोते (नाणुजाणंति के०) नानुजानंति एटले अनुमोदना आपे नहि. ॥ १५॥ (दीपिका.) पुनस्तदेवाह । संयताः तमिति तत्पूर्वोक्तं चित्तवदचित्तवदादि श्रात्मना स्वयं न गृहंति विरतत्वात् । नापि परं प्रति ग्राहयन्ति विरतत्वादेव । तथा श्रन्यं वा गृह्णन्तमपि स्वयमेव न समणुजाणंति नानुमन्यन्ते ॥ १५ ॥ (टीका.) एतदेवाह । तं ति सूत्रम् । तच्चित्तवदादि आत्मना न गृह्णन्ति विरतत्वान्नापि ग्राहयन्ति परं विरतत्वादेव । तथान्यं वा गृह्णन्तमपि स्वयं नानुजानन्ति नानुमन्यन्ते संयता इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ __ अबंनचरिअं घोरं, पमाय दुरदिहिअं॥ नायरंति मुणी लोए, नेआययणवडिपो ॥१६॥ (अवचूरिः) उक्तस्तृतीयस्थान विधिः। चतुर्थस्थानविधिमाह । अब्रह्मचर्यं घोरं पुर्गतिहेतुत्वात् प्रमादमूलत्वादू उराश्रयं पुस्सेवमनन्तजवहेतुत्वाद् नाचरन्ति पुनये लोके नेदश्चारित्रनेदस्तदायतनं तत्स्थानं तहर्जिनः ॥ १६ ॥ (अर्थ.) चतुर्थ स्थान विधि कहे . (नेयाययणवकिणो के०) नेदायतनवर्जिनः एटले नेद जे चारित्रन्नेदना स्थानक तेने वर्जता अर्थात् चारित्रातिचारथी जय पामता एवा (मुणी के)मुनयः एटले मुनियो (लोए के०) लोके एटले मनुष्य लोकने विषे (उरहिहिश्र के०) पुरधिष्ठितं एटले मुराराध्य एवा तथा (पमायं के) प्रमादं एटले Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनामसंग्रह, नाग तेतालीस-(५३)-मा, प्रमाद→ मूलकारण एवा अने (घोरं के०) घोरं एटले रोजगतिनुं हेतुरूप एवा (श्रबंजचरिअं के० ) अब्रह्मचर्य एटले अब्रह्मने (नायरंति के०) नाचरंति एटले श्राचरण करता नथी. अर्थात् अब्रह्मसेवन करता नथी. ॥ १६ ॥ (दीपिका.) तृतीयस्थान विधिरुक्तः। अथ चतुर्थस्थान विधिमाह । मुनयो लोके मनुष्यलोकेऽब्रह्मचर्य प्रतीतं नाचरन्ति न सेवन्ते । किंनूतमब्रह्म । घोरं रोजानुष्ठानहेतुत्वात् । पुनः किन्नूतमब्रह्म।प्रमादं प्रमादवत्। कथम्। सर्वदा प्रमादमूलत्वात्।दुनः किंनूतमब्रह्म। पुरधिष्ठितं पुराश्रयं उसेवं विदित जिनवचनेन अनन्तसंसारहेतुत्वात् । यतश्चैवमतएव मुनयोऽब्रह्म न सेवन्त इत्यर्थः । किनूता मुनयः। नेदायतनवर्जिनः। नेदश्चारित्रनेदस्तस्यायतनं स्थानमिदमब्रह्मचर्यमेव । उक्तन्यायातहर्जिनश्चारित्रातिचारनीरव इत्यर्थः ॥ १६ ॥ (टीका. ) जक्तस्तृतीयस्थान विधिः। चतुर्थस्थानविधिमाह । श्रबंन त्ति सूत्रम् । श्रब्रह्मचर्यं प्रतीतं घोरं रौउं रौशानुष्ठानहेतुत्वात् । प्रमादं प्रमादवत् सर्वप्रमादमूलत्वात् । पुराश्रयं उस्सेव्यं विदितजिनवचनेनानन्तसंसारहेतुत्वात् । यतश्चैवमतो नाचरन्ति नासेवन्ते मुनयो लोके मनुष्यलोके । किंविशिष्टा इत्याह । नेदायतनवर्जिनो नेदश्चारित्रनेदस्तदायतनं तत्स्थानमिदमेवोक्तन्यायात्तहर्जिनश्चारित्रातिचारनीरव इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं ॥ तम्दा मेढुणसंसग्गं, निग्गंथा वऊयंति णं ॥१७॥ (अवचूरिः) बीजमधर्मस्य पापस्य महतां दोषाणां चौर्यप्रवृत्त्यादीनां समुन्यं संघातं विदितैहिकापायाः तस्मान् मैथुनसंसर्ग संबन्धं योषिदालापाद्यपि निर्यन्था वर्जयन्ति । णं वाक्यालंकारे ॥ १७ ॥ (अर्थ.) वली पण ( अहम्मस्स के० ) अधर्मस्य एटले अधर्मनुं ( मूलं के०) मूल तथा ( महादोससमुस्सयं के०) महादोषसमुन्यं एटले चोरी प्रमुख महोटा दोषोनी उत्पत्तिनुं स्थानक , तेमां महादोषनो संचय , ( तम्हा के ) तस्मात् एटले ते कारण माटे ( निग्गंथा के० ) निग्रंथाः एटले निग्रंथ एवा साधु (एयं के० ) एतत् एटले था ( मेहुणसंसग्गं के०) मैथुनसंसर्ग एटले मैथुनना संसगने (वजायंति के०) वर्जयंति एटले त्याग करे . णं ए वाक्यालंकारार्थ बे. ॥१७॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३७५ (दीपिका.) अथ एतदेव निगमयति।णं इति वाक्यालंकारे। निर्ग्रन्थाः साधवः तस्मात् कारणात्मैथुनसंसर्ग मैथुनसंबन्धं योषित आलापाद्यपि वर्जयन्ति। तस्मात् कस्मात्। यत एतदब्रह्मसेवनमधर्मस्य पापस्य मूलं बीजमिति परलोकसंबन्धी अपायः । कष्टं पुनरेतदू महादोषसमुछूयं महतां दोषाणां चौर्यप्रवृत्त्यादीनां समुल्लूयं संघातवदिति इहलोकसंबन्धी अपायः । कष्टमिति उन्नयलोककष्टदातृत्वाद् मैथुनवर्जनं युक्तं साधूनाम् ॥ १७ ॥ __(टीका.) एतदेव निगमयति । मूलं ति सूत्रम् । मूलं बीजमेतदधर्मस्य पापस्येति पारलौकिकोऽपायः। महादोषसमुन्थ्यं महतां दोषाणां चौर्यप्रवृत्त्यादीनां समुत्य संघातवदित्यै हिकोऽपायः। यस्मादेवं तस्मान्मैथुनसंसर्ग मैथुनसंबन्धं योषिदालापाद्यपि निर्ग्रन्था वर्जयन्ति । पमिति वाक्यालङ्कार इति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ बिडमुनेश्मं लोणं, तिल्लं सप्पिं च फाणिअं॥ . न ते संनिदिमिति, नायपुत्तवनरया ॥१७॥ (श्रवचूरिः) उक्तश्चतुर्थस्थान विधिः । पञ्चमस्थान विधिमाह । बिडं गोमूत्रादिपक्कमुग्नेयं सामुसादि। यहा। बिडं प्रासुकमुनेद्यमप्रासुकमेवं द्विधा लवणम् । तैलं सर्पिश्च। फाणितं अवगुड एतसवणायेवमन्यच्च न ते साधवः संनिधिं कुर्वन्ति पर्युषितं न स्थापयन्ति ज्ञातपुत्रवचोरताः ॥ १० ॥ (अर्थ.) हवे पंचम स्थानविधि कहे . ( नायपुत्तवर्जरया के० ) शातपुत्रवचोरताः एटले महावीर स्वामीना वचनमां रक्त एवा अर्थात् महावीर स्वामीना वचन प्रमाणे चालनार एवा साधु ( विडं के०) बिडलवण अथवा गोमूत्रादिपक्क एवं (लोणं के०) लवण तथा (उप्रेश्म के०) जनेचं एटले समुजना जलथी थतुं लवण अथवा बिड एटले प्रासुक अने उन्नेद्य एटले अप्रासुक लवण का तथा (तिवं के०) तैलं एटले तेल ( सप्पिं के०) सर्पिः एटले घृत (फाणिशं के०) फाणितं एटले गोसनी राब ( ते के०) ते सर्व वस्तुने (संनिहिं के0 ) संनिधिं एटले रात्रिवास राखवाने (न छति के०) श्छता नथी. ॥ २० ॥ (दीपिका.) चतुर्थस्थान विधिः प्रोक्तः । अथ पञ्चमस्थानविधिमाह। साधव एतेषां सन्निधिं न कुर्वति पर्युषितम् । कोऽर्थः । रात्रौ रक्षितं न स्थापयन्ति । किंविशिष्टाः साधवः । ज्ञातपुत्रवचोरताः। ज्ञातपुत्रः श्रीमानस्वामी तस्य वचने निस्संगताप्रतिपादनतत्परे रता आसक्ताः।केषां सन्निधिं न कुर्वन्ति तान्याह। विडं गोमू ४९ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद नाग तेतालीस-(४३)-मा. त्रादिपक्वम् १ उनेद्यं सामुसादि । विडं प्रासुकमुनेद्यमप्रासुकमित्येवं द्विप्रकारं लवणं तथा तैलं ३ सर्पिश्च घृतं ४ फाणितं अवगुडः ५ एतच्च लवणायपि एवं द्विप्रकारमन्यच्च रात्रौ न रक्षन्तीत्यर्थः ॥ १७ ॥ (टीका.) प्रतिपादितश्चतुर्थस्थान विधिः। श्दानी पञ्चमस्थानविधिमाह । बिडत्ति सूत्रम् । बिडं गोमूत्रादिपकं, उनेद्यं सामुसादि । यछा बिडं प्रासुकमुनेद्यमप्रासुकमप्येवं हिप्रकारं लवणम् । तथा तैलं सर्पिश्च फाणितम् । तत्र तैलं प्रतीतं, सर्पिघृतं, फाणितं अवगुडः । एतबवणायेवंप्रकारमन्यच्च न ते साधवः संनिधिं कुर्वन्ति पर्युषितं स्थापयन्ति । शातपुत्रवचोरता जगवर्धमानवचसि निःसंगताप्रतिपादनपरे सक्ता इति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ लोहस्सेसणुफासे, मन्ने अन्नयरामवि॥ जे सिआ सन्निहिं कामे, गिदी पवइए न से ॥१॥ (अवचूरिः) संनिधिदोषमाह । लोजस्यैषोऽनुस्पर्शोऽनुजावः। यदेतत्संनिधिकरणम् । मन्ये मन्यन्ते प्रारूतत्वादेकवचनम् । एवमाहुस्तीर्थकरगणधरा अन्यतरामपि यः स्यात्संनिधि कामयते सेवते। गृहस्थोऽसौन प्रव्रजितः। प्रव्रजितस्य पुगतेरजावात्॥१५॥ (अर्थ. ) हवे संनिधि राखवाना दोष कहे . जे संनिधिनुं करवू दे, ते ( एस के) एषः एटले या चारित्रने विघ्न करनार चतुर्थ कषाय एवा (लोजस्स के) लोनस्य एटले लोजनो (अणुफास के०) अनुस्पर्शः एटले महिमा बे.ते कारण माटे हुँ (मन्ने के०) मन्ये एटले मानुं बुं के (जे के०) ये एटलेजे साधु (अन्नयरामविके०)श्रन्यतरामपि एटले थोडी पण (संनिहिं के०) सनिधिं एटले संनिधिने (सिधा के०) स्यात् कदाचित् एटले जो कदाचित् (कामे के०) कामयते एटले सेवन करे, तो ते साधु (गिही के०) गृही एटले गृहस्थ जाणवो. पण (से के०) ते (पवरण के०) प्रत्रजितः एटले प्रव्रजित (न के०) नथी. संनिधि एटले संनिधीयते एटले नजीक कराय ने श्रात्माने नरकादिकने विषे जेथी तेने संनिधि कहियें. ॥ १५ ॥ (दीपिका.) अथ सन्निधिदोषमाह । लोजस्य चारित्रविघ्नकारिणश्चतुर्थकषा यस्य एषोऽनुस्पर्श एषोऽनुनावो यत संनिधीकरणमिति । यतश्चैवमतो मन्ये मन्यन्ते प्राकृतशैल्या एकवचनम् । एवं तीर्थकरगणधरा आहुः । अन्यतरां स्तोकामपि यः स्यात् यः कदाचित् संनिधिं कामयते सेवते कामी। अतः स जावतो गृही गृहस्थः। नासे Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । . ३७ प्रबजितः । कस्माद्दुर्गतिनिमित्तानुष्ठानप्रवृत्तेः । संनिधीयते नरकादिषु श्रात्मा अनेनेति संनिधिरिति शब्दार्थात् । प्रवजितस्य च पुर्गतिगमनाजावादिति ॥१॥ (टीका.) संनिधिदोषमाह। लोजस्स त्ति सूत्रम् । लोजस्य चारित्रविघ्नकारिणश्चतुर्थकषायस्य एसणुफासत्ति । एषोऽनुस्पर्श एषोऽनुजावो यदेतत्सं निधिकरण मिति। यतश्चैवमतो मन्ये मन्यन्ते। प्राकृतशैल्या एकवचनम् । एवमाहुस्तीर्थकरगणधराः । अन्यतरामपि स्तोकामपि यः स्यात् यः कदाचित्संनिधिं कामयते सेवते । गृही गृहस्थोऽसौ नावतः प्रव्रजितो नेति पुर्गति निमित्तानुष्ठानप्रवृत्तेः । संनिधीयते नरकादिष्वात्मानयेति संनिधिरिति शब्दार्थात्प्रव्रजितस्य च पुर्गतिगमनानावादिति सूत्रार्थः ॥ १५॥ जंपिव व पायं वा, कंबलं पायपुंबणं ॥ तं पि संजमलङछा, धारंति परिहरति अ॥२०॥ (अवचूरिः) यद्येवं तदा वस्त्रादिधारणे कथं साधूनामसंनिधिरित्याह । यद्यप्यागमोक्तं वस्त्रं वा पात्रं वा कम्बदं वर्षाकदपादि । पादोंबनं रजोहरणं तदपि संयमलजार्थं पात्रादि तदनावे गृहिलाजने षट्कायवधः । लजार्थं वस्त्रं धारयन्ति परिहरन्ति च परिनुञ्जते पुष्टालम्बनेन ॥२०॥ (अर्थ.) श्राहिं को शंका करे के, साधु वस्त्रादिक राखे , तो तेनो ते साधुउने संनिधि दोष केम न लागे ? त्यांक कहे जे के, साधु (जं पिके) यदपि एटले जे पण श्रागमोक्त एवा (वढं के०) वस्त्रं एटले चोलपट्टादि (च के०) वली (पायं के०) पात्रं एटले पात्रां (वा के० ) वा एटले वली (कंबलं के० ) कंबलं एटले वर्षाकल्पादि तथा (पायपुंडणं के०) पादप्रोञ्छनं एटले रजोहरण (तं पि के०) तदपि ते सर्वने पुष्टालंबनथी (संयमलाहा के०) संयमलजार्थं एटले संयमनी लाज पालवाने (धारयंति के०) धारण करे जे. (च के०) तथा वली (परिहरंति के०) परिनुंजते एटले जोगवे . पात्रादि विना संयमनुं रक्षण थाय नहि. कारण के, गृहस्थना पात्रमा संयमी जो नोजन करे, तो षट्कायनो वध थाय. अने जे वस्त्र बे, ते लजाने अर्थे . अथवा एम पण अर्थ थाय के, संयम तेज लगा कहियें. ते संयमरूप लजाना रक्षण माटे वस्त्रपात्रादि धारण करे .॥२०॥ (दीपिका.) अत्राह। यद्येवं वस्त्रादि धारयतां साधूनां कथं न संनिधिरित्याह । साधवो यद्यपि थागमोक्तं वस्त्रं वा।चोलपट्टादि वा १ पात्रं वालाब्वादि २ कंबलं वर्षा Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. कल्पादि ३ पादप्रोञ्चनं ४ रजोहरणं धारयन्ति पुष्टालम्बन विधानेन । परिहरन्ति च परिभुञ्जते च मूर्छारहिताः । तदपि किमर्थम् । संयमलार्थं संयमार्थं पात्रादि । तद्व्यतिरेकेण पुरुषमात्रेण गृहजाजने सति संयमपालनाजावात् । लार्थं वस्त्रम् । तद्व्यतिरेकेण अंगनादौ विशिष्टश्रुतपरित्यादिरहितस्य निर्लजताया उत्पत्तेः । थवा संयम एव संयमला तदर्थं सर्वमेव वस्त्रादि धारयन्तीत्यादि ॥ २० ॥ ( टीका. ) आह । यद्येवं वस्त्रादि धारयतां साधूनां कथमसंनिधिरित्यत श्राह । जं पित्त सूत्रम् । यदप्यागमोक्तं वस्त्रं वा चोलपट्टकादि, पात्रं वालाबुकादि, कम्बल वर्षाकल्पादि, पादपुंबनं रजोहरणम् । तदपि संयमलार्थमिति संयमार्थं पात्रादि । तयतिरेकेण पुरुषमात्रेण गृहस्थनाजने सति संयमपालनाभावात् । लार्थं वस्त्रं, यतिरेणाङ्गनादौ विशिष्टश्रुतपरिणत्या दिरहितस्य निर्लजतोपपत्तेः । श्रथवा संयम एव ला तदर्थं सर्वमेतद्वस्त्रादि धारयन्ति । पुष्टालम्बन विधानेन परिहरन्ति च परिअते च मूर्छारहिता इति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ न सो परिग्गदो बुत्तो, नायपुत्ते ताइणा ॥ मुचा परिग्गदो वृत्तो, इ वृत्तं मदेसिणा ॥ २१ ॥ ( वचूरिः ) यतश्चैवं ततो न सोत्ति । नासौ निरजिष्वङ्गस्य वस्त्रधारणादिलक्षणः परिग्रह उक्तः । बन्धुहेतुत्वाभावात् । केन । ज्ञातपुत्रेण वर्द्धमानेन त्रात्रा स्वपरत्राणसमर्थेन अपि तु मूर्छा सत्स्वपि वस्त्रादिष्वभिष्वङ्गः परिग्रह उक्तो बन्धहेतुत्वात् । एवमुक्तं महर्षिणा गणधरेण शय्यंजवस्वामिना ॥ २१ ॥ (अर्थ. ) (इइ के० ) इति एटले या प्रकारे ( मदे सिणा के० ) महर्षिणा एटले सय्यंजव स्वामीए सूत्रमां ( वृत्तं के० ) उक्तं एटले कहेलुं वे के, (ताइणा के० ) त्रात्रा एटले जीवनुं रक्षण करनार एवा ( नायपुत्ते के०) ज्ञातपुत्रेण एटले ज्ञात जे प्रधान - त्रिय सिद्धार्थ तेमना पुत्र एवा वर्द्धमान स्वामीए (सो के०) सः एटले ते संयमपालनार्थ चोलपट्टा दिक साधु जे राखे बे, ते (परिग्गहो के०) परिग्रहः एटले परिग्रह ( न बुत्तो के० ) न उक्तः एटले कह्यो नथी. अने (मुठा परिग्गहो के०) मूर्छा परिग्रहः एटले विद्यमान वस्त्रादिकने विषे मूर्छा राखवी तेज परिग्रह (बुत्तो के०) उक्तः एटले को बे. ॥ २१ ॥ ( दीपिका. ) यतश्चैवं ततो महर्षिणा शय्यंजवेन गणधरेण सूत्र इत्युक्तम् । इतीति किम् । ज्ञातपुत्रेण ज्ञातः प्रधानः कात्रियः सिद्धार्थः तस्य पुत्रेण वर्द्धमानखामिना नासौ निर्ममत्वेन वस्त्रधारणादिलक्षणः परिग्रह उक्तोऽर्थतः । कस्मात् । बन्धहेतु For Private Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३८ त्वानावात् । किंभूतेन ज्ञातपुत्रेण । ताइणा त्रात्रा । खपरत्राणसमर्थेन । अपितु कः परिग्रहो महावीरेणार्थतः प्रोक्त इत्याह । मूर्छा परिग्रह उक्तः । असत्स्वपि वस्त्रादिषु लौल्यम् । कुतः । बन्धहेतुत्वात् । शिष्यः प्राह । ननु वस्त्रादीनामनावेऽपि यदि मूर्छा तदा वस्त्रादि सावे सति कथं न मूर्छा । उच्यते । साधूनां सम्यग्बोधेन मूर्छाया बीजभूतस्याबोधस्योपधातात् ॥ २१ ॥ ( टीका. ) यतश्चैवमतो एसो त्ति सूत्रम् । नासौ निरनिष्वङ्गस्य वस्त्रधारणादिलक्ष्णः परिग्रह उक्तो बन्धहेतुत्वाभावात् । केन । ज्ञातपुत्रेण ज्ञात उदारचत्रियः सिकार्थः तत्पुत्रेण वर्धमानेन त्रात्रा स्वपरपरित्राण समर्थेन । अपि तु मूसत्स्वपि वस्त्रादिवष्वङ्गः परिग्रह उक्तो बन्धहेतुत्वादर्थतस्तीर्थकरेण । ततोऽवधार्य इत्येवमुक्तो मदर्षिणा गणधरेण । सूत्रे सेऊंनव आदेति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ सव दिणा बुधा, संरकणपरिग्गदे ॥ विप्पणो वि देमि, नायरंति ममाश्यं ॥ २२ ॥ ( अवचूरिः ) वस्त्राद्यजावे मूर्छा स्यात् । तद्द्भावे कथं नेत्याह । सर्वत्रोचितत्रकाले चोपधिनागमोक्तेन सहिता श्रपि बुद्धा ज्ञाततत्वाः संरक्षणाय षमां कायानां वस्त्रादिपरिग्रहे सत्यपि नाचरन्ति । ममत्वमिति योगः । श्रप्यात्मनो देहेऽपि ममाइयं ममत्वं न चरन्ति ॥ २२ ॥ (अर्थ. ) ( बुद्धा के० ) बुद्धा: एटले यथावत् जाणी लीधुं बे वस्तुतत्त्व जेणे एवा साधु (सव हिणा के० ) सर्वत्रोपाधिना एटले सर्वत्र योग्य एवा क्षेत्रका - लने विषे आगमोक्त उपाधि जे वस्त्रादि तेणे करी ( संरकणपरिग्गदे के० ) संरक्षणपरिग्रहे एटले षट्जीव निकायोना संरक्षणने अर्थे परिग्रह जे बे तेने विषे (वि के ० ) अपि एटले पण ( अप्पणो वि के० ) आत्मनोऽपि एटले पोताना पण ( देहं म ० ) देहे एटले देहने विषे पण ( ममाश्यं के० ) ममत्वं एटले ममत्वादिकने ( नायरं ति के० ) नाचरंति एटले आचरण करता नथी. ॥ २२ ॥ ( दीपिका. ) बुद्धा यथावज्ज्ञातत्त्वाः साधवः संरक्षणपरिग्रहे संरक्षणाय पक्षां जीवनिकायानां परिग्रहे सत्यपि न आचरन्ति ममत्वमिति उक्तियोजना । केन । सर्वत्र उपधिना सर्वत्र योग्ये देत्रे काले च उपधिना आगमोक्तेन वस्त्रादिना । कुतः । ते परि वस्त्रादिरूपे ममत्वं न कुर्वन्तीत्याह । यतस्ते जगवन्त श्रात्मनोऽपि देह श्रात्मनो धर्मकायेऽपि ममत्वमात्मीयानिमानं विशिष्टप्रतिबन्धसंगतिं न कुर्वन्ति । For Private Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०० राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनामसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)-मा, वस्तुनस्तत्त्वस्य ज्ञानात् किमनेन वस्त्रादिना तिष्ठतु दूरे तावत् अन्यत् सर्वम् । देहवत् परिग्रहेऽपि न ममत्वमात्मीया जिमानं विशिष्टप्रतिबन्धसंगतिं कुर्वन्ति ॥ २२ ॥ 1 ( टीका. ) श्राह । वस्त्राद्यजावनाविन्यपि मूर्छा कथं वस्त्रादिजावे साधूनां न जवि - ष्यति । उच्यते । सम्यग्बोधेन तद्दीजनूताबोधोपघातादाद च । सवच्छति सूत्रम् । सर्वत्रोचिते क्षेत्रे काले चोपधिना श्रागमोक्तेन वस्त्रादिना सहापि बुद्धा यथावद्विदितवस्तुतत्त्वाः साधवः संरक्षणपरिग्रह इति संरक्षणाय षषां जीवनिकायानां वस्त्रादिपरिग्रहे सत्यपि नाचरन्ति ममत्वमिति योगः । किंवानेन ते हि जगवन्तः श्रप्यात्मनोऽपि देह इत्यामनो धर्मकायेsपि विशिष्टप्रतिबन्धसंगतिं न कुर्वन्ति । ममत्वमात्मीयानिधानं वस्तुतत्वावबोधात् । तिष्ठतु तावदन्यत् । ततश्च देवदपरिग्रह एव तदिति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ दो निचं तवो कम्मं, सबबु देदिं वन्नियं ॥ 1 जाय लासमा वित्ती, एगनत्तं च नोच्णं ॥ २३ ॥ ( अवचूरिः ) उक्तः पञ्चमस्थानविधिः । अथ षष्ठस्थानविधिमाह । अहो नित्यं तपः कर्म । हो इति विस्मये । अपायाजावेन तदन्यगुणवृद्धिसंजवादप्रतिपाति तपःकर्म तपोऽनुष्ठानं सर्वबुद्धैस्तीर्थ करैवर्णितं देशितम् । किंविशिष्टम् । या च लकासमा वृत्तिकासंयमस्तत्समा तुझ्या संयमाविरोधिनी वृत्तिर्देहपालना । एकनक्तं द्रव्यत एकसंख्यम् । जावतः कर्मबंन्धाजावाद द्वितीयं भोजनं यत्र ॥ २३ ॥ (अर्थ) हवे षष्ठ स्थान कहे डे. (अहो के०) अहो इति आश्चर्ये (निच्चं के० ) नित्यं एटले निरंतर ( तवोकम्मं के० ) तपःकर्म ते ( सबबुद्धेहिं के० ) सर्वबुधैः एटले सर्व बुधजन एटले विद्वजनोए ( वसि के० ) वर्णितं एटले वर्णन करेल बे. ( जाय के० ) याच एटले वली जे ( वित्ती के० ) वृत्तिः एटले देहपालन रूप वृत्ति (लासमा के० ) लासमा एटले संयम समान बे, ते शुं तो के ( एगजत्तं च जोखणं के० ) एकनक्तंच जोजनं एटले ते एक जक्त जोजन बे ॥ २३ ॥ ( दीपिका. ) उक्तः पञ्चमः स्थानविधिः । अधुना षष्ठस्थानविधिमाह । श्रहो इति श्चर्ये । तपःकर्म तपोऽनुष्ठानं सर्वतीर्थ करैर्वर्णितं देशितम् । किं विशिष्टं तपः कर्म । नित्यपायस्य जावेन गुणवृद्धिसंभवात् श्रप्रतिपात्येव । किंविशिष्टं तप इत्याह । या च वृतिर्वर्तनं देहपालना । किंभूता वृत्तिः । लकासमा लगा संयमः तेन समा सदृशी तुल्या । संयमाविरोधिनी स्यर्थः । च पुनः एकं नक्तं जोजनं एकनक्तं द्रव्यतो जावतश्च यस्मि - न्नोजने तत्तथा । तत्र द्रव्यत एकं एकसंख्यानुगतं जावत एकं कर्मबन्धस्याजावेना For Private Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३०१ द्वितीयं तद्दिवस एव रागादिरहितस्य अन्यथा जावत एकत्वस्य श्रावादिति ॥ २३ ॥ ( टीका. ) उक्तः पञ्चमस्थान विधिरधुना षष्ठमधिकृत्याह । अहो ति सूत्रम् । अहो नित्यं तपः कर्मेति । श्रहो विस्मये । नित्यं नामापायाजावेन तदन्यगुणवृद्धिसंभवादप्रतिपात्येव तपःकर्म तपोऽनुष्ठानं सर्वबुद्धैः सर्वतीर्थ करैर्वर्णितं देशितम् । किं विशिष्ट मित्याह । यावजासमावृत्तिः । लका संयमस्तेन समा सदृशी तुल्या संयमाविरोधिनी - त्यर्थः । वर्तनं वृत्तिर्देहपालना एकजक्तं च जोजनम् । एकं जक्तं द्रव्यतो जावतश्च एकस्मिन् जोजने तत्तथा । द्रव्यत एकमेकसंख्यानुगतं, जावत एकं कर्मबन्धाजावाद द्वितीयम् । तदिवस एव रागादिरहितस्यान्यथा जावत एकत्वाभावादिति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ संति मे सुदुमा पाणा, तसा प्रदुव थावरा ॥ जाई राम पासंतो, कहमेस पित्र्यं चरे ॥ २४ ॥ ( अवचूरिः ) रात्रिभोजने प्राणातिपातसंजवेन कर्मबन्धं द्वितीयं दर्शयति । संत्येते प्रत्यक्षोपलभ्यमानस्वरूपाः सूक्ष्माः प्राणिनस्त्रसा अथवा स्थावराः पृथिव्यादयः । यान् प्राणिनो रात्रावपश्यन् कथमेषणीयं चरिष्यते सत्त्वानुपरोधेन जोदयते असंभव एवैषणीयस्य ॥ २४ ॥ ( अर्थ. ) हवे रात्रि जोजनमां प्राणियोनो अतिपात बे तेथी कर्मबंध साथै सद्वितीयता बतावे बे. (इमे के०) या प्रत्यक्ष उपलभ्यमानस्वरूप एवा (तसा के० ) त्रसाः एटले त्रस जीवो (अडुव के०) अथवा ( यावरा के० ) स्थावराः एटले स्थावरो तथा ( सुदुमा के०) सूक्ष्मा: एटले सूक्ष्म (पाणा के०) प्राणाः एटले प्राणीयो ( संति के०) बे, ( जाई के० ) यान् एटले जे प्राणियोने (रार्ड के०) रात्रौ एटले रात्रिने विषे, (अपासंतो के० ) अपश्यतः एटले न जोता एवा साधु ( कदं के० ) कथं एटले केम (एस पि ० ) एषणीयं एटले एषणीयने (चरे के० ) चरेत् एटले जोगवशे ॥ २४ ॥ ( दीपिका. ) अथ रात्रिनोजने प्राणानामतिपातसंजवेन कर्मबन्धेन सह सि तीयतां दर्शयति । इमे एते प्रत्यक्षमुपलभ्यमानस्वरूपाः प्राणिनः संन्ति जीवा वर्तन्ते । किंविशिष्टाः प्राणिनः । सूक्ष्माः श्लक्ष्णाः । के ते । त्रसा द्वीन्द्रियादयः । अथवा स्थावराः पृथिव्यादयः । यान् प्राणिनो रात्रौ चतुषा श्रपश्यन् साधुः कथमेषणीयं चरिष्यति जोक्ष्यते । श्रसंजव एषणीयस्य रात्रौ । कथम् । सत्वानां घातात् ॥ २४ ॥ ( टीका. ) रात्रिभोजने प्राणातिपातसंजवेन कर्मबन्धसद्वितीयतां दर्शयति । संति मेति सूत्रम् । सन्त्येते प्रत्यक्षोपलभ्यमानस्वरूपाः सूक्ष्माः प्राणिनो जीवा I For Private Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. स्त्रसा दीजियादयःअथवा स्थावराः पृथिव्यादयः।यान् प्राणिनोरात्रावपश्यन् चतुषा कथमेषणीयं सत्त्वानुपरोधेन चरिष्यति जोक्ष्यते च । असंचव एव रात्रावेषणीयचरणस्येति सूत्रार्थः॥॥ उदनवं बीअसंसत्तं, पाणा निवडिया मदिं॥ दिया ताई विवङिजा,रा तब कदं चरे॥२५॥ __ (अवचूरिः) रात्रिनोजनदोषमनिधाय ग्रहणगतमाह । उदकाईमेकग्रहणे तजातीयानां ग्रहणात् सस्निग्धादिग्रहः। बीजसंसक्तमोदनादि । अथवा बीजानि पृथग्मूलान्येव । संसक्तं चारनालाद्यपरेणेति। प्राणिनःसंपातिमादयो निपतिता मह्यां नवन्ति । दिवा तान्युदकाओणि विवर्जयेत् । रात्रौ तत्र कथं चरेत् ॥ २५॥ (अर्थ.) इवे रात्रिनोजनना दोष ग्रहण करवाने माटे सूत्र कहे . ( उदउद्धं के) पाणीए करीनीना एवा अने (बीसंसत्तं के ) बीजसंसक्तं एटले बीजे करी संसक्त एटले जेमां बीज पड्या होय एवो थाहार होय तथा ( महिं के) मह्यां एटले पृथ्वीपर (पाणा के) प्राणाः एटले प्राणियो (निवडिया के०) निपतिताः एटले पड्या होय, ( दिया के०) दिवा एटले दिवसे (ताई के०) तान् एटले ते जीवोने ( विवजिश्रा के ) विवर्जयेत् एटले वर्जे, पण ( राठ के ) रात्रिए (तब के०) तत्र एटले ते ठेकाणे ( कहं चरे के०) कथं चरेत् एटले केम संयम रक्षण पूर्वक चाले ॥ २५॥ (दीपिका.) एवं रात्रिनोजने दोषं कथयित्वा ग्रहणगतं दोषमाह। एतानि उदकादिनि दिवा पापनीरुश्चनुषा पश्यन् विवर्जयेत्। परं रात्रौ तु तत्र कथं चरति संयमस्य अनुपरोधेन । असंभव एव शुद्धचरणस्य।कानि तानि उदकाआदीनीत्याह । उदकार्ड पूर्ववत् । एकग्रहणेन तजातीयानां सस्निग्धादीनां ग्रहणं । तथा बीजसंसक्तं बीजेन संसतं मिश्रं तदोदनादिकमिति शेषः। अथवा बीजानि पृथक्तान्येव।संसक्तं चरनालाद्यपरेण मिश्रम् । तथा प्राणिनः संपातिमप्रनृतयो मह्यां पृथिव्यां निपतिताः संजवन्ति। तत उदकादिनि रात्रौ अनवलोकनेन वर्जयितुमशक्यत्वेन विशेषतः साधोश्चरणानावः ॥२५॥ (टीका.) एवं रात्रौ नोजने दोषमनिधायाधुना ग्रहणगतमाह। उदउझं ति सूत्रम् । उदका पूर्ववदेकग्रहणे तजातीयग्रहणात्सस्निग्धादिपरिग्रहः। तथा बीजसंसक्तं बीजैर्मिश्रमोदनादीति गम्यते । अथवा बीजानि पृथगनूतान्येव । संसक्तं Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पष्ठमध्ययनम् । ३३ चारनालाय परेणेति तथा । प्राणिनः संपातिमप्रनृतयो निपतिता मह्यां पृथिव्यां संजवन्ति । ननु दिवाप्येतत्संभवत्येव । सत्यम् । किंतु परलोकजी रुश्चक्षुषा पश्यन् दिवा तान्युदकार्डादीनि विवर्जयेत् । रात्रौ तु तत्र कथं चरति संयमानुपरोधेनासंजव एव शुद्धचरणस्येति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ एयं च दोसं दणं, नायपुत्ते नासि ॥ सवाहारं न मुंजंति, निग्गंधा राइनोणं ॥ २६ ॥ ( अवचूरिः ) उपसंहरन्नाह । एतं चानंतरोदितं प्राणिहिंसादिरूपं वान्यमात्मनिधनादिलक्षणं दोषं दृष्ट्वा मतिचक्षुषा ज्ञातपुत्रेण जाषितम् । सर्वाहारं चतुर्विधमध्यशनादिलक्षणं न भुञ्जते निर्मन्था रात्रिभोजनम् ॥ २६ ॥ ( अर्थ. ) हवे या अधिकारने पूर्ण करता थका कहे बे. (निग्गंथा के० ) निर्यथाः एटले निर्बं एवा साधु, ( नायपुत्ते के० ) ज्ञातपुत्रेण एटले महावीरस्वामी ए (नासि के०) जाषितं एटले को एवो (एयं के०) एतं एटले या पूर्वोक्त प्राणिहिंसारूप ( दोसं के० ) दोषं एटले दोषने ( च के० ) बीजा यात्मविराधनादि लक्ष्एवा दोषने पण चकुए करी (दहूणं के० ) दृष्ट्वा एटले जोड़ने (सवाहारं के० ) सर्वाहारं एटले चतुर्विध शनादिकने या श्रीने ( राइनो के० ) रात्रिनोजनं एटले रात्रि जोजनने ( न जुंजंति के०) न जुञ्जते एटले करता नथी. ए बहुं व्रत क. ॥ २६ ॥ ( दीपिका. ) नमधिकारं पूर्णं कुर्वन्नाह । निर्ग्रन्थाः साधवः सर्वाहारं चतुविधमप्यशनादिकमाश्रित्य रात्रिभोजनं न भुञ्जते । किं कृत्वा । एतं पूर्वोक्तं प्राणिहिंसारूपं । चशब्दादन्यमात्मविराधनादिलक्षणं दोषं चक्षुषा दृष्ट्वा । किंभूतं दोषम् । ज्ञातपुत्रेण श्रीमहावीरदेवेन जगवता जाषितं कथितम् ॥ २६ ॥ ( टीका. ) उपसंहरति । एवं चत्ति सूत्रम् । एतं चानन्तरोदितं प्राणिहिंसारूपमन्यं चात्मविराधनादिलक्षणं दोषं दृष्ट्वा मतिचक्षुषा ज्ञातपुत्रेण जगवता जाषितमुक्तं सर्वाहारं चतुर्विधमप्यशनादिलक्षणमाश्रित्य न जुञ्जते निर्ग्रन्थाः साधवो रात्रिनोजनमिति सूत्रार्थः ॥ ५६ ॥ पुढविकार्यं न हिंसंति, मासा वयसा कायसा ॥ तिविदेणं करणजोएणं, संजया सुसमादित्र्या ॥ २७ ॥ ( अवचूरिः ) उक्तं व्रतपट्टमिदानीं कायषमाह । पृथ्वीकायं न हिंसन्त्या लेख For Private Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. नादिना । मनसा वाचा कायेन । त्रिविधेन करणयोगेन मनःप्रभृतिकरणा दिरूपेण संयताः सुसमाहिता उपयुक्ताः ॥ २७ ॥ ( . ) हवे काय कहे बे. ( सुसमाहिया के० ) सुसमाहिताः एटले सुसमाधिवंत एवा ( संयता के० ) संयताः एटले साधु ( पुढविकायं के० ) पृथ्वीका - एटले पृथ्वी कायने ( मासा के० ) मनसा एटले मने करी ( वयसा के० ) वाचा एटले वचने करी ने ( कायसा के० ) कायेन एटले कायाए करी ( तिविदेण ho ) त्रिविधेन एटले ऋण प्रकारना ( करणजोएणं के० ) करणयोगेन एटले करण कराव अनुमोदन वडे करीने ( न हिंसंति के० ) हणता नथी. ॥ २७ ॥ ( दीपिका . ) एवं व्रष्टुं कथितम् । अथ कायषद्धं कथ्यते । तत्र पूर्वं पृथिवीकायमाश्रित्याह । संयताः साधवः पृथिवीकायं न हिंसन्ति लेखनादिप्रकारेण । केन । मनसा वाचा कायेन । उपलक्षणमेतदित्याह । त्रिविधेन करणयोगेन मनः प्रनृति जिः करणकारणानुमोदनारूपेण । किंभूताः संयताः । सुसमाहिता उद्युक्ताः ॥ २७ ॥ ( टीका. ) उक्तं व्रतमधुना कायमुच्यते । तत्र पृथिवी कायमधित्याह । पुढवित सूत्रम् । पृथ्वीकार्य न हिंसन्त्यालेखनादिना प्रकारेण मनसा वाचा कायेन । उपलक्षणमेतदत एवाह । त्रिविधेन करणयोगेन मनःप्रभृति जिः । करणादिरूपेण । के न हिंसन्तीत्याह । संयताः साधवः सुसमाहिता युक्ता इति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ पुढविकार्यं विहिंसंतो, हिंसई न तयस्सिए ॥ तसे विविदे पाणे, चरकुसे अचरकुसे ॥२८॥ ( अवचूरिः ) व हिंसादोषमाह । पृथ्वीकायं हिंसन् हिनस्त्येव । तुरेवार्थे । तदाश्रितान् पृथ्व्याद्याश्रितान् त्रसान् विविधान् प्राणिनो द्वीन्द्रियादीन् वा स्थावरांश्च चाक्षुषान् चतुरिन्द्रियग्राह्यान् अग्राह्यांश्च ॥ २८ ॥ (अर्थ. ) ( पुढ विकार्य के० ) पृथ्वीकार्य एटले पृथ्वी कायने ( विहिंसंतो के ० ) विहिंसन् एटले विशेषे करी हणतो थको ( तय स्सिए के० ) तदाश्रितान् एटले ते पृथ्वीकायने याश्रयी रहेला एवा ( तसे के० ) त्रसान् एटले त्रस प्राणीउने (य के०) च एटले वली (विवि पा० ) विविधान् प्राणान एटले अनेक प्राणीउने तथा (चरकुसे ho ) चाक्षुषान् एटले चकुए देखाय एवा जीवने तथा ( अचरकुसे के० ) अचा कुषान् एटले चक्षुश्री नहि देखाय एवा जीवोने एटले सूक्ष्म अने बादर एवा जीवोने ( हिंस के० ) हिनस्ति एटले हो बे ॥ २८ ॥ For Private Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्। ३ ( दीपिका ) अत्रैव हिंसादोषमाह । साधुः पृथिवीकायमालेखनादिना प्रकारेण हिंसन् तु निश्चयेन हिनस्त्येव । कानित्याह । प्राणान्बीनियादीन् । किंविधान् । अनेकप्रकारान् । सान् चशब्दात् स्थावरान् अप्कायादीन् । किंनूतान् प्राणान् । तदाश्रितान् पृथिवीसमाश्रितान्। पुनः किंजूतान् प्राणान् । चाकुषान् चकु ह्यान् कांश्चित् । पुनः किंनूतान् प्राणान् । अचाकुषान् चरिंजियेण अग्राह्यान् ॥ ॥ ___(टीका.) अत्रैव हिंसादोषमाह । पुढवि त्ति सूत्रम् । पृथिवीकायं हिंसन्नालेखनादिना प्रकारेण हिनस्त्येव । तुरवधारणार्थे । व्यापादयत्येव तदाश्रितान् पृथिवीश्रितान् त्रसांश्च विविधान् प्राणिनो हीन्जियादीन् । चशब्दात्स्थावरांश्चाप्कायादीन् चाक्षषांश्वाचाकुषांश्च चतुरिन्जियग्राह्यानग्राह्यांश्चेति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ तम्दा एउं विश्राणित्ता, दोसं जुग्गश्वटणं॥ पुढविकायसमारंनं, जावजीवाई वजाए ॥२॥ (श्रवचूरिः) तस्मादेतं विज्ञाय दोषं तत्तदाश्रितजीवहिंसादिलक्षणं उर्गतिवर्धनं पृथ्वीकायसमारंन्नं यावजीवमेव वर्जयेत् ॥ ए॥ (अर्थ.) एम जे, त्यारें साधुए शुं करवं ते कहे . ( तम्हा के०) तस्मात् एटले ते कारण माटे ( एवं के० ) एतं एटले आ (दोसं के) दोषं एटले पूर्वोक्त दोषने (विश्राणित्ता के०) विज्ञाय एटले जाणीने (उग्गश्वट्टणं के०) पुर्गतिवर्डनं एटले पुर्गतिने वधारनार एवा ( पुढ विकायसमारंनं के० ) पृथिवीकायसमारम्नं एटले पृथ्वीकायना समारंजने (जावजीवाई के०) यावजीवं एटले यावजीव पर्यंत (वाए के०) वर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥ २५ ॥ (दीपिका. ) यस्मादेवं ततः किं साधुना कर्तव्यमित्याह । यस्मादेवं तस्मात्पृथिवीकायसमारंजमालेखनादिना यावजीवं साधुर्वर्जयेत् । किं कृत्वा । एतं पूर्वोक्तं दोषं विज्ञाय पृथिव्याश्रितजीवहिंसालदणं दूषणं झात्वा । किंनूतं दोषम् । उर्गतिवर्धनं संसारवर्धनम् ॥ शए॥ ( टीका. ) यस्मादेवं तम्ह त्ति सूत्रम् । तस्मादेतं विज्ञाय दोषं तत्तदाश्रितजीवहिंसालक्षणं उर्गतिवर्धनं संसारवर्धनं पृथिवीकायसमारंजमालेखनादि यावजीवं यावजीवमेव वर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(४३)-मा. आनकायं न सिंति, मणसा वयसा कायसा॥ तिविदेण करणजोएण, संजया सुसमादित्रा॥३०॥ अानकायं विहिंसंतो, हिंसई न तयस्सिए॥ तसे अ विविहे पाणे, चरकुसे अ अचस्कुसे ॥३१॥ तम्हा एअंविआणित्ता, दोसं झुग्गवडणं॥ आनकायसमारंजं जावजीवाई वजाए ॥३२॥ (श्रवचूरिः) उक्तः सप्तमस्थानविधिः। अथाष्टममाह । स्पष्टम् ॥३०॥३१॥३॥ (अर्थ.) हवे अष्टम स्थान विधि कहे . श्रात्रीशमी, एकत्रीशमी अने बत्रीशमी गाथानो अर्थ अनुक्रमे सत्तावीसमी, अहावीसमी, उगणत्रीसमी गाथाना अर्थ समान करवो. मात्र फेर एटलो डे के, जे ठेकाणे त्रणे गाथामां पुढवीकाय एवं पद बे, ते ठेकाणे आत्रणे गाथामां अप्काय एवं पद , तेनो अर्थ अप्काय जीव एवो करवो.॥३०॥३१॥३॥ (दीपिका.) सप्तमस्थान विधिरुक्तः । अथाष्टमस्थानविधिः कथ्यते । इदं गाथात्रयं पृथिवीकायगाथात्रयं यथा पूर्वं व्याख्यातं तथा व्याख्येयम् । नवरं तत्र पृथिवीनाम्ना अत्राप्कायनाम्ना ॥ ३० ॥३१॥३२॥ (टीका.) उक्तः सप्तमस्थान विधिः । अधुनाष्टमस्थान विधिमधिकृत्योच्यते। श्राउकायं ति सूत्रम् । सूत्रत्रयमप्कायानिलापेन नेयम्। ततश्चायमप्युक्त एव ॥३॥३१॥३॥ जायतेअंन श्छति, पावगं जलिश्त्तए॥ तिकमन्नयरं सबं, सबन वि उरासयं ॥३३॥ (अवचूरिः) नवमस्थानमाह । जाततेजसमग्निं नेछन्ति मनःप्रतिनिरपि पापमेव पापकं प्रनूतसत्त्वापकारित्वेनाशुनम् । किं नेबन्तीत्याह । ज्वलयितुं वृद्धिं नेतुं तीदणं बेदकरणात्मकमन्यतरत्सर्वतोधारं शस्त्रं सर्वतोऽपि उराश्रयं सर्वतोधारत्वेनानाश्रयणीयम् ॥ ३३ ॥ (अर्थ.) हवे नवमस्थान कहे . वली साधु (पावगं के०) पापकं एटले पापरूप (तिवं के०) तीदणं एटले तीक्ष्ण (अन्नयरं के०) अन्यतरत् एटले सर्वतो धारावाला (सद के०) शस्त्र समान अने (सवर्ड के०) सर्वतः एटले सर्वस्थले (कुरासयं के०) Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३७ कोथी पासे न जवाय एवा ( जायतेां के० ) जाततेजसं एटले मिने ( जलइत्तए ho ) ज्वलयितुं एटले ज्वलन करवाने ( न इति के० ) इछता नथी ॥ ३३ ॥ ( दीपिका. ) सांप्रतं नवमस्थान विधिं कथयति । साधवः जाततेजसम निकायं मनःप्रवृति निरपि ज्वलयितुमुत्पादयितुं वृद्धिं प्रापयितुं न इछन्ति । किंभूतं जाततेजसम् । पापकं पाप एव पापकस्तम् । कथम् । प्रभूतजीवसंहारकारकत्वात् । पुनः किंनूतम् । जाततेजसम् तीक्ष्णं बेदकरणस्वरूपमन्यतरं शस्त्रमेकधारा दिशस्त्ररूपं न । किंतु सर्वतोधारशस्त्रम् श्रत एव सर्वतोऽपि डुराश्रयं सर्वतोधारत्वेनानाश्रयणीयमित्यर्थः ॥ ३३ ॥ I 1 ( टीका. ) सांप्रतं नवमस्थानविधिमाह । जायतेां ति सूत्रम् । जाततेजा श्रग्निः तं जाततेजसं वन्ति । मनःप्रभृतिनिरपि पापकं पाप एव पापकस्तं प्रभूतसत्त्वापकारित्वेनाशु मित्यर्थः । किं नेष्वन्तीत्याह । ज्वलयितुमुत्पादयितुं वृद्धिं वा नेतुम् । किंविशिष्टमित्याह । तीक्ष्णं वेदकरणात्मकमन्यतरत् शस्त्रं सर्वशस्त्रम् । एकधारा दिशस्त्रव्यछेदेन सर्वतोधारशस्त्रकल्पमिति जावः । अत एव सर्वतोऽपि दुराश्रयं सर्वतोधारत्वेनानाश्रयणीयमिति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ पाई पडि वा वि, उहं अणुदिसामवि ॥ हे दाहिने वा वि, ददे उतरन वि ॥ ३४॥ ( अवचूरिः ) प्राच्यां प्रतीच्यां वापि ऊर्द्धमनु दिवपि । सप्तम्यर्थे षष्ठी । श्रधो दक्षिणतश्चापि दहति जस्मीकरोति उत्तरतोऽपि च ॥ ३४ ॥ ( अर्थ. ) एज वली स्पष्ट करता थका कहे बे. ते अग्नि (पाई के० ) प्राच्यां एटले पूर्व दिशामां तथा (पंडियां के० ) प्रतीच्यां एटले पश्चिम दिशामां (उड़े के ० ) कम् एटले ऊर्ध्व दिशामां ने (दिसामवि के० ) अनुदिवपि एटले विदिशिमा (अहे ho) अधः एटले अधोदिशिमां तथा ( दाहिण वा वि के० ) दक्षिणतो वापि एटले दक्षिण दिशामां पण ( उत्तर वि के० ) उत्तरतोऽपि च एटले उत्तर दिशामां पण दाह्य वस्तु ( दहे ० ) दहति एटले बाले बे. ॥ ३४ ॥ 1 ( दीपिका. ) एतदेव स्पष्टं कुर्वन्नाह । अग्निरिति शेषः । प्राच्यां पूर्वस्यां दिशि, तथा प्रतीच्यां पश्चिमायां दिशि, उर्ध्वं दिसामवि । सप्तम्यर्थे षष्ठी । इति अधोदिशि पुनर्ददिणतश्चापि दायं वस्तु दहति जस्मसात् करोति । सर्वासु दिन्छु विदिक्कु च जीवसंहारं करोतीत्यर्थः ॥ ३४ ॥ ( टीका. ) एतदेव स्पष्टयन्नाह । पाईणं ति सूत्रम् । प्राच्यां प्रतीच्यां वापि पू For Private Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. यां पश्चिमायां चेत्यर्थः । ऊर्ध्वमनुदिवपि । सुपां सुपो जवन्तीति सप्तम्यर्थे षष्ठी। विदिदवपीत्यर्थः । अधो दक्षिणतश्चापि दहति दाह्यं जस्मीकरोत्युत्तरतोऽपि च । सर्वासु दिनु विदिक्कु च दहतीति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ आमसमाधान, हववाहो न संस॥ तं पश्वपयावहा, संजया किंचि नारने ॥३५॥ (श्रवचूरिः) जूतानामेष श्राघातहेतुत्वात् श्राघातः । हव्यवाडग्निर्न संशयः। तं हव्यवाहं प्रदीपप्रतापनार्थमालोकशीतापनोदार्थ किंचित्संघटनादिना नारनते ॥३५॥ (अर्थ.) ए कारण माटे (नूआणं के०) नूतानां एटले नूतप्राणिमात्रने (एस के०) एषः एटले आ (हववाहो के ) हव्यवाट् एटले अग्नि ( आघाउँ केन्) थाघातः एटले आघातनो करनारो . तेमां (न संस के०) न संशयः एटले संशय नथी. ते कारण माटे (तं के०) ते अग्निने (पश्व के०) प्रदीप एटले प्रदीपने अर्थे दीवाने अर्थे तथा (पयावहा के०)प्रतापार्थं एटले तापने अर्थे (संजया के०) संयताः एटले साधु (किंचि के०) किंचित् एटले कांश्क पण (नारने के०) नारजन्ते आरंज करता नथी. ॥ ३५॥ (दीपिका.) यत एवं ततः किं कर्तव्य मित्याह । नूतानां स्थावरत्रसानामेष हव्यवाहो वन्हिः श्राघातो न संशयः। एवमेव तदाघात एवेति नावः। ततः कारणात् संयताः तं वहिं प्रदीपार्थ प्रकाशकरणाय प्रतापनार्थं च शीतनाशाय किंचित् संघट्टनादिनापि न श्रारजन्ते साधुधर्मनाशनत्नीत्या ॥३५॥ (टीका.) यतश्चैवमतो नूआण ति सूत्रम् । नूतानां स्थावरादीनामेष आघात श्राघातहेतुत्वादाघातः । हव्यवाहोऽग्निर्न संशय इत्येवमेवैतदाघात एवेति नावः । येनैवं तेन तं हव्यवाहं प्रदीपप्रतापनार्थमालोकशीतापनोदार्थं संयताः साधवः । किंचित्संघटना दिनापि नारजन्ते । संयतत्वापगमनप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ तम्दा एअंविआणित्ता, दोसं उग्गश्वहणं ॥ तेनकायसमारंनं, जावजीवाइं वजए ॥३६॥ (अवचूरिः ) तम्हा इति । सुगमम् ॥ ३६ ॥ (अर्थ.) (तम्हा के०) तस्मात् एटले ते कारण माटे, साधु (फुग्गर वट्ठणं के) पुर्गतिवर्धनं एटले पुर्गतिने वधारनार एवा ( एअं के०) एतं एटले आ (दोस) दोषं एटले दोषने ( विश्राणित्ता के०) विझाय एटले जाणीने (तेजकायं के०) Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३ तेजस्कायं एटले निकायना ( समारंभं के० ) समारंजने ( जावजीवाइ के० ) यावीवमेव एटले जावजीव पर्यंत ( वऊए के० ) वर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥ ३६ ॥ ( दीपिका. ) यस्मादेवं ततः किं कर्तव्यमित्याह । पूर्ववत् उक्तिलापनिका अर्थ कार्यः । नवरमग्निकायनाम ग्राह्यम् ॥ ३६ ॥ ( टीका. ) यस्मादेवं तम्ह त्ति सूत्रम् । व्याख्या पूर्ववत् ॥ ३६ ॥ लस्स समारंनं, बुद्धा मन्नंति तारिसं ॥ सावज्जबहुलं चेत्र्यं; नेत्र्यं ताइदिं सेविच्यं ॥ ३७ ॥ ( अवचूरिः ) उक्तं नवमस्थानमधुना दशमस्थानमाह । अनिलस्य समारम्नं तालवृन्तादिनिः करणं बुद्धा मन्यन्ते तादृशमग्निसमारंभसदृशं सावद्यबहुलं पापनूयिष्ठं चैवमिति कृत्वा नैनं त्रातृभिः सुसाधुनिः सेवितम् ॥ ३७ ॥ ( अर्थ. ) हवे दशम स्थानविधि कहे . ( बुद्धा के० ) बुद्धा: एटले तीर्थंकरो ( एवं के० ) या प्रकारे ( सावबहुलं के० ) सावद्यबहुलं एटले सावये करी बहुल एवा (निलस्स hu ) अनिलस्य एटले वायुकायना ( समारंभं के० ) समारंजने ( तारिसं के० ) तादृशं एटले पूर्वोक्त जेवो अग्निकायनो संमारंज को बेवा ने ( मन्नंति के० ) मन्यन्ते एटले माने बे. ते माटे ( ताइहिं के० ) त्रातृनिः एटले षट्कारक्षक साधुर्जए ( न सेवित्र्यं के० ) न सेवितं एटले सेवन करेलो नथी. अर्थात् साधुयें ते सेवन करवो नहि. ॥ ३७ ॥ ( दीपिका. ) इति नवमस्थानविधिः कथितः । अथ दशमस्थान विधिः कथ्यते । बुद्धास्तीकरा निलस्य वायुकायस्य समारंभं व्यजनादिनिः करणं तादृशमनिकायसमारंभसदृशं मन्यन्ते जानन्ति । तथा एवं वायुकायसमारंभं सावद्यबहुलं पापभूयिष्ठमिति कृत्वा सर्वकालमेव न एनं तादृग्निर्जीवरक्षाकारकैः साधुनिः सेवितमाचरितमिति मन्यन्ते बुद्धा एव ॥ ३७ ॥ ( टीका. ) उक्तो नवमस्थानविधिः । सांप्रतं दशमस्थानविधिमधिकृत्याह । - पिलस्सति । निलस्य वायोः समारम्नं तालवृन्तादिनिः करणं बुद्धास्तीकरामन्यन्ते जानन्ति । तादृशं जाततेजः समारम्नसदृशं सावयबहुलं पापभूयिष्ठं चैतमिति कृत्वा सर्वकालमेव नैनं त्रातृनिः सुसाधुनिः सेवितमाचरितं मन्यन्ते बुद्धा एवेति सूत्रार्थः ॥ ३७ ॥ For Private Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४00 राय धनपतसिंघबहाऽरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. तालिअंटेन पत्तेण, सादाविढुअणेण वा ॥ न ते वीजमिति, वेआवेऊण वा परं॥३०॥ (अवचूरिः) तालवंतेन पत्रेण शाखा विधूननेन वा न ते वीजितुमिछति श्रात्मानमात्मना । नापि वीजापयितुं वा परम् ॥ ३० ॥ (अर्थ.) हवे वली ते पूर्वोक्त वात स्पष्ट करता उता कहे . ( ते के ) ते उत्तम साधु ( तालिअंटेण के० ) तालव्रतेन एटले तालना विंजणायें करी (पत्तेण के ) पत्रेण एटले पांदडायें करी (वा के०) वली (साहाविहुअणेण के०) शाखा विधूननेन एटले वृदनी शाखाना हलाववे करी ( वी के०) वीजितुं एटले वींजवाने अर्थात् पवन नाखवाने (न चंति के०)श्वता नथी.तेम (वा के०) वली (परं के०) परने एटले बीजापासे वायु नखावे नहीं, अने नाखताने अनुमोदे नहि. ॥ ३ ॥ __(दीपिका.) एतदेव स्पष्टीकुर्वन्नाह । ते साधवः तालवृन्तेन ? पत्रेण २ शाखाविधूननेन वा ३ कृत्वा आत्मनात्मानं वीजितुं नेवन्ति । नापि तालवृन्तादिनिः परैः श्रात्मानं बीजयंति । नापि वीजयन्तं परमनुमन्यन्ते । तालवृन्तादीनां स्वरूपं यथा षट्जीवनिकायां व्याख्यातं तथा शेयम् ॥ ३ ॥ (टीका.) एतदेव स्पष्टयति । तालियंटेण त्ति सूत्रम् । तालवृन्तेन पन्त्रेण शाखाविधूननेन वेत्यमीषां स्वरूपं यथा षड्जीवनिकायिकायाम्।न ते साधवो वीजितुमिचन्त्यात्मानमात्मना। नापि वीजयन्ति परैरात्मानं तालवृन्तादिजिरेव । नापि वीजयन्तं प. रमनुमन्यन्त इति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ जं पि वळ व पायं वा, कंबलं पायपुंगणं ॥ न ते वायमुरंति, जयं परिदरंति अ॥ ३५॥ (अवचूरिः) यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा कंबलं वा पादपुंबनममीषां पूर्वोक्तधोपकरणं तेनापि न वातमुदीरयन्ति अयतप्रत्युपेक्षणादिक्रियया। किंतु तं परिहरन्ति परिजोगपरिहारेण धारणपरिहारेण वा ॥३॥ (अर्थ.) हवे साधुने पोताना उपकरणोए करी वायुनी विराधना थाय तेनो परिहार करता थका कहे बे. (जं पि के० ) यदपि एटले जे पण ( वढं के) वस्त्रं एटले वस्त्र (च के) वली ( पायं के) पात्रं एटले पात्र, वली ( कंबलं के०) कंबलं एटले कांबलो ( पायपुंडणं के ) पादपुंबनं एटले पायपुंबण. (ते के०) ते पूर्वोक्त साधु था उपकरणोए करी (वायं के० ) वातं एटले वायुने Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४०१ (न उश्यंति के०) न उदीरयंति एटले उदीरणा करे नहि. त्यारे केम करे तो के ( जयं के०) यतं एटले यतनाए वस्त्र पहेरे. फाटके नहि. जयणासहित पडिलेहणादिक क्रिया करे. परंतु वायुकायनी विराधना थाय तेम न करे. ॥ ३ ॥ (दीपिका.) अथोपकरणात् या विराधना नवति तां परिहरन्नाह । यदपि वस्त्रं वा १ पात्रं वा २ कम्बलं वा ३ पादप्रोंबनं वा । एतेषां पूर्वव्याख्यातार्थानां यकर्मोपकरणं तेनापि धर्मोपकरणेन ते साधवो न वातमुदीरयन्ति । कया। अयतनया प्रतिक्रियया। किंतु यतं परिहरन्ति परिजोगपरिहारेण धारणापरिहारेण च ॥३ए ॥ (टीका.) उपकरणात्तहिराधनेत्येतदपि परिहरन्नाह । जं पित्ति सूत्रम् । यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा कंबलं वा पादपुंबनममीषां पूर्वोक्तं धर्मोपकरणं तेनापि न ते वातमुदीरयन्ति । अयतप्रत्युपेक्षणादिक्रियया । किंतु यतं परिहरंति परिनोगपरिहारेण धारणापरिहारेण चेति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ तम्हा एअंविआणित्ता, दोसं उग्गश्वढणं ॥ वानकायसमारंनं, जावजीवाई वजए॥४०॥ ( अवचूरिः) तम्ह त्ति सूत्रं पूर्ववत् । नवरं, वायुकायाचिलापेन नेयम् ॥ ४० ॥ (अर्थ.) (तम्हा के०) तस्मात् एटले ते माटे (एवं के०) एतं एटले श्रा (3ग्गश्वगुणं के०) उर्गतिवईनं एटले उर्गतिने वधारनार एवा ( दोसं के०) दोषं एटले दोषने ( विद्याणित्ता के) विज्ञाय एटले जाणीने ( जावजीवार के०) यावजीवमेव एटले जावजीव पर्यंत (वायुकायसमारंनं के०) वायुकायना समारंजने ( वजए के० ) वर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥४०॥ (दीपिका.) यत एवायं सुसाधुवर्जितोऽनिलसमारम्नः ततः किं कार्यमित्याह । पूर्ववत् । नवरम् । वायुकायनाम ग्राह्यम् ॥ ४० ॥ (टीका.) यत एवं सुसाधुवर्जितोऽनिलसमारम्नः। तम्ह त्ति सूत्रम् । व्याख्या पूर्ववत् । उक्तो दशमस्थान विधिः ॥ ४० ॥ वणस्सइं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा॥ तिविदेण करणजोएणं, संजया सुसमादिआ ॥४१॥ वणस्स विदिंसंतो, हिंसई अ तयस्सिए ॥ तसे अ विविहे पाणे, चकुसे अ अचस्कुसे ॥४॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तम्दा एवं विश्राणित्ता, दोसं उग्गश्वढणं ॥ वणस्सासमारंनं, जावजीवाइं वजए॥४३॥ ' (अवचूरिः ) उक्तं दशमस्थानमधुना एकादशस्थानमाह वणस्सर इत्यादि । गाथात्रयं पूर्ववष्ठ्याख्येयम् ॥४१॥ ४२ ॥ ४३ ॥ (अर्थ.) हवे अग्यारमुं स्थान कहे . हवे वणस्सश्कायं ए एकतालीशमी गाथाथी थारंजीने त्रेतालीशमी गाथा पर्यंत अर्थ आज अध्ययननी सत्तावीशमी, श्रहावीशमी अने उंगणत्रीशमी गाथाना अर्थ समान जाणवो. पण सत्तावीशमी गाथामां पुढवीकाय एवो पाउ बे तेने बदले एकतालीशमी गाथामा मात्र वणस्स कायं एवो पाठ कहेवो. शहिं वणस्स एटले वनस्पतिकाय एवो अर्थ डे बाकी अर्थ गाथार्जनो समान बे. ॥४१॥ ४२ ॥ ४३॥ . (दीपिका.) एवमुक्तो दशमस्थान विधिः । अथैकादशस्थान विधिः कथ्यते । एतमाथात्रयव्याख्यानमपि पूर्ववत् ज्ञेयम् । नवरं वनस्पतिनाम ग्राह्यम् ॥४१॥४२॥४३॥ (टीका.) वणस्सा इत्यादि सूत्रत्रयं वनस्पतेरजिलापेन ज्ञेयम् । ततश्चैकादशस्थानविधिरप्युक्त एव ॥४१॥ ४२ ॥४३॥ तसकायं न दिसंति, मणसा वयसा कायसा ॥ तिविदेण करणजोएणं, संजया सुसमादित्रा ॥४४॥ तसकायं विदिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए ॥ तसे अविवि पाणे, चकुसे अ अचस्कुसे॥४५॥ तम्दा एअंविआणित्ता, दोसं उग्गश्वहणं॥ तसकायसमारंनं, जावजीवाई वजए॥४६॥ ( अवचूरिः ) अथ द्वादशस्थानमाह । तसकायमित्यादि गाथात्रयं पूर्ववत् ॥४४॥ ४५ ॥४६॥ ( अर्थ.) हवे बारमुं स्थान कहे जे. तसकायं न हिंसंति ए चुम्मालीशमी गाथाथी बेतालीशमी गाथा पर्यंत चालीशमी गाथाश्री त्रेतालीश गाथा पर्यंत जेवो अर्थ बे तेवो जाणवो. मात्र ते एकतालीशमी गाथामां वणस्स एवो पाठ ने तेने बदले अहीं तसकायं एवो पाठ कहेवो. मात्र एटलोज फेर बे तेथी तसकायं एनो अर्थ प्रसकाय एवो करवो. ॥४४॥ ४५ ॥ ४६॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४०३ ( दीपिका.) अथ छादशस्थान विधिरुच्यते । एतनाथात्रयस्यापि व्याख्यानं पूर्ववत् कार्यम् । नवरं त्रसनाम ग्राह्यम् ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ (टीका.) सांप्रतं द्वादशस्थान विधिरुच्यते । तसकायं ति सूत्रम् । त्रसकायं ही. जियादिरूपं न हिसन्त्यारम्नप्रवृत्त्या मनसा वाचा कायेन तदहितचिन्तनादिना त्रिविधेन करणयोगेन मनःप्रनृतिनिः करणादिना प्रकारेण संयताः साधवः सुसमाहिताः। उद्युक्ता इति सूत्रार्थः॥४४॥ तत्रैव हिंसादोषमाह । तसकायं ति सूत्रम् । त्रसकायं विहिंसन्नारम्नप्रवृत्त्या दिना प्रकारेण हिनस्त्येव । तुरवधारणार्थे । व्यापादयत्येव । तदाश्रितांस्त्रसान् विविधांश्च प्राणिनः तदन्यहीन्जियादीन् । चशब्दात्स्थावरांश्च पृथिव्यादीन् चाकुषानचाकुषांश्चकुरिन्जियग्राह्यानग्राह्यांश्चेति सूत्रार्थः ॥४५॥ यस्मादेवं तम्ह ति सूत्रम् । तस्मादेतं विज्ञाय दोषं तदाश्रितजीव हिंसालक्षणं पुर्गतिवर्धनं त्रसकायसमारम्नं तेन तेन विधिना यावजीवया यावजीवमेव वर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ४६॥ जाइं चत्तारि नुहाइ, इसिणा दारमाणि ॥ ताई तु विवऊतो, संजमं अणुपालए ॥ ४ ॥ (अवचूरिः) उक्तो छादशस्थान विधिः । प्रतिपादितं कायषदम् । तत्प्रतिपादनाउक्ता मूलगुणाः । अधुनैतकृतिनूतोत्तरगुणास्ते चाकल्पादयः षमुत्तरगुणाः । यथोतम् । अकप्पो गिहिनायणं ति । तत्राकल्पो विविधः। शिष्यकस्थापनाकल्प अकल्पस्थापनाकल्पश्च।तत्राद्योऽनधीतपिएल नियुक्त्यादिना थानीतमपि श्राहारादि न कल्पते। यत उक्तम्।अणहीआ खलु जेणं, पिंमेसणसिजावचपाएसा ॥ तेणाणिश्राणि जश्णो, कप्पंति न पिम्माईणि॥१॥ उजबर्कमि न आणला, वासावासेसु दो विणो सेहा॥दिकिजंती पायं, उवणाकप्पो श्मो हो ॥२॥ श्रकल्पस्थापनाकल्पं त्वाह जाति । यानि चत्वारि अनोज्यानि ऋषीणां साधूनामाहारादीनि थाहारशय्यावस्त्रपात्राणि। तानि तु विवर्जयन् संयमं सप्तदशप्रकारमनुपालयेत् ॥ ७ ॥ (अर्थ.) ए प्रकारे द्वादश स्थाननो विधि कह्यो. अने ते छादश स्थानना प्रतिपादन थकी कायषट्रक कद्यु, अने कायषट्रकना कथन थकी साधुना मूल गुणो कह्या. हवे मूलगुणना वाडसरखा बागल उत्तर गुणो बे, तेमना प्रतिपादननो अवसर श्राव्यो. वली ते उत्तर गुणो अकल्पादिक बे. ते तेरमुं स्थानक , तेमां अकल्प जे बे, ते बे प्रकारनो . तेमां एक शिष्यकस्थापनाकल्प अने बीजो अकल्पस्थापनाकल्प, Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तेमां जे नवीन शिष्य पिएमनियुक्त्यादि सूत्र लण्यो नथी, ते शिष्य थाहारना दोषो जाणतो नथी. तेणे आणेलो आहार साधुने अकल्प बे. तेनुं नाम शिष्यकस्थापना कल्प. कहेढुं के, अणहीश्रा खलु जेणं, पिंमेसण सिजावपाएसा॥ तेणाणिश्राणि जश्णो, कप्पंति न पिंगमाईणि ॥१॥ उनबर्कमि न श्रणला, वासावासेसु दो वि णो सेहा॥दिकिऊंती पायं, उवणाकप्पो श्मो हो॥२॥ ते अकल्प स्थापना कल्प तो पोते सूत्रकारज कहे . (जाईचत्तारि के०) चत्वारि यानि एटले जे चार (इसिणा के०) झषिणा एटले साधुए (आहारमाईणि के० ) थाहारादीनि एटले थाहार, शय्या, वस्त्र अने पात्र ( तु के ) वली (ताई के०) तानि एटले ते चारने (विवांतो के०) विवर्जयन् एटले त्याग करतो एवो साधु ( संयमं के०) सत्तर प्रकारना संयमने (श्रणुपालए के०) अनुपालयेत् एटले पालन करे. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) इत्युक्तो छादशस्थान विधिः । तत्प्रतिपादनेन कायषटुं कथितम् । कायषटकथनेन साधूनां मूलगुणा उक्ताः। श्रधुना मूलगुणानां वृतिजूता ये उत्तरगुणास्तेषां प्रतिपादनावसरः। ते च उत्तरगुणा अकल्पादयः षट्र। तत्र अकल्पो विविधः। शिष्यकस्थापनाकल्पः अकल्पस्थापनाकल्पश्च । तत्र येन नवीन शिष्येण पिंमनिर्युत्यादि पवितं नास्ति स थाहारदोषान् न जानाति । तेन थानीत आहारपिंमो ग्रहीतुं साधूनामकल्पः। स शिष्यकस्थापनाकल्पः । अकल्पस्थापनाकल्पं तु सूत्रकार आह । यानि चत्वार्यनोज्यानि संयमस्य नाशकारित्वेन साधूनामकल्पनीयानि थाहारादीनि थाहारशय्यावस्त्रपात्ररूपाणि । तानि तु साधुर्विवर्जयेत् संयम सप्तदशप्रकारमनुपालयेत् । अकल्पनीयस्याहारादिचतुष्टयस्यात्यागे संयमस्याजावो नवेत् ॥ ४ ॥ (टीका.) उक्तो छादशस्थानविधिः। प्रतिपादितं कायषदम् । एतत्प्रतिपादनामुक्ता मूलगुणाः । अधुनैतकृतिनूतोत्तरगुणावसरः। ते चाकल्पादयः षडुत्तरगुणाः। यथोक्तम् । अकप्पो गिहिनायणमित्यादि। तत्राकल्पो विविधः। शिष्यकस्थापनाकल्पः। श्रकल्पस्थापनाकल्पश्च । तत्र शिष्यकस्थापनाकल्पः, अनधीतपिएक नियुक्त्यादिनानीतमाहारादि न कल्पत इति। उक्तं च।अणहीश्रा खलु जेणं, पिंडेसणसेजवळपाएसा॥ तेणाणियाणि जतिणो, कप्पंति ण पिंडमाईणि ॥ उजबमि न अणला, वासावासेउ दो वि णो सेहा ॥ दिकिऊती पायं, उवणाकप्पो श्मो हो ॥२॥ अकल्पस्थापनाकल्पमाह । जाति सूत्रम् । यानि च वार्यनोज्यानि संयमापकारित्वेनाकल्पनीयानि Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४०५ ऋषीणां साधूनामाहारादीन्याहारशय्यावस्त्रपात्राणि तानि तु विधिना वर्जयन् संयमं सप्तदशप्रकारमनुपालयेत् । तदत्यागे संयमाजावादिति सूत्रार्थः ॥४॥ पिंडं सिङ च वचं च, चन पायमेव य॥ अकप्पिन इचिका, पडिगादिङ कप्पिअं॥४॥ (अवचूरिः) एतदेव स्पष्टयति । पिंम ति सूत्रम् ॥ ४ ॥ (अर्थ.) हवे तेज वात स्पष्ट रीते कहे जे. (पिंक के०) पि एटले जे अशनादिक थाहार ( सिङ के०) शय्यां एटले शय्या (च के०) वली (व के०) वस्त्रं एटले वस्त्र (च के०) वली (चउछ के०) चतुर्थं एटले चोथु ( पायमेव य के०) पात्रमेव च एटले पात्र. या सर्व (अकप्पियं के) अकदिफकं एटले अकल्पनीय एबुं होय तो ( न छिजा के० ) नेछेत् एटले न श्छे. तथा ( कप्पियं के०) कल्पिकं एटले निर्दोष होय तो (पडिगाहिज के०) प्रतिगृण्हीयात् एटले ग्रहण करे. कल्पनीक निर्दोष जाणे. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) अथैतदेव स्पष्टं कुर्वन्नाह । साधुः पिएकं, शय्यां च, वस्त्रं, चतुर्थ पात्रमेव च । एतच्चतुष्टयं प्रकटार्थम् । अकल्पिकं नेत् । कल्पिकं तु यथोचितं प्रतिगृह्णीयादिति विधिः ॥ ४ ॥ (टीका.) एतदेव स्पष्टयति। पिंड त्ति सूत्रम् । पिएमं शय्यां च वस्त्रं च चतुर्थं पात्रमेव च । एतत्वरूपं प्रकटार्थम् । अकल्पिकं नेछेत् । प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकं यथो चितमिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ जे नागं ममायंति, कीअमुद्देसिआहडं ॥ वहं ते समणुजाणंति, श्अ उत्तं मदेसिया ॥४॥ __ (अवचूरिः) एतदेव स्पष्टयति । अकल्पिके दोषमाह। केचन व्यसाधवः । निश्रागं ति नित्यमामन्त्रितपिएमं ममायति मामकीनोऽयं पिएम इति कृत्वा गृह्णन्ति । क्रीतमौदेशिकाहृतम् । वधं स्थावरादिघातं ते ऽव्यसाध्वादयः समनुजानन्ति । - त्युक्तं महर्षिणा श्रीवीरेण ॥ ४ ॥ (अर्थ.) हवे अकल्पिकने विषे दोष कहे . (जे के० ) ये एटले जे कोव्यलिंगी (निश्रागं के०) नियागं एटले नित्य पिंम जे निमंत्रियो पिंम तेने (ममायं ति के०) ग्रहण करे .एटले जे को श्रावक साधुने आमंत्री मुके जे महारा घरथी एटस्रो पिंक से जो. तेने ते साधु जो ग्रहण करे, तथा ( कीअं के०) क्रीतं एटले वेचाथी Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ४०६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनामसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. लावेला हारने तथा (उद्दे सिहां के० ) प्रौद्दे शिकं एटले साधुने अर्थे उद्देशीने करेला हारने वली (मं के० ) श्राहृतं एटले सामो झालो आहार तेने ग्रहण करे. ( ते ० ) ते एटले ते साधु ( वह के० ) वधं एटले षट्कायना वधने ( समजाति के० ) समनुजानन्ति एटले अनुमोदना करता जाणवा. या वात कोणे कही तो के, ( इयं के० ) इदं एटले आ (महे सिणा के० ) महर्षिणा एटले ती - र्थंकरे ( वृत्तं के० ) उक्तं एटले कहेतुं बे. ॥ ४५ ॥ ( दीपिका. ) थाकल्पिके दोषं कथयति । ये केचन द्रव्य लिङ्गिनः नियागं नित्यमामन्त्रितपिंडं ममायंति प्रतिगृह्णन्ति । पुनः की तमौदेशिकमाहृतं च गृह्णन्ति । ते वधं स्थावरादिजीवघातमनुजानन्ति । दातुः प्रवृत्तेरनुमोदनेन । केनेदं कथित मित्याह । इत्युक्तं मईषिणा महामुनिना श्री वर्धमानखामिना ॥ ४९ ॥ ( टीका. ) कल्पिके दोषमाह जे ति सूत्रम् । ये केचन द्रव्यसाध्वादयो द्रव्यलिङ्गधारिणो नियागं ति नित्यमामन्त्रितं पिकं ममायंतीति परिगृएहन्ति । तथा फ्रीतमौदेशिकाहृतम् । एतानि यथा कुल्लकाचारकथायाम् । वधं सस्थावरा दिघातं ते द्रव्यसाध्वादयः अनुजानन्ति दातृप्रवृत्त्यनुमोदनेन इत्युक्तं च महर्षिणा वर्धमानेनेति सूत्रार्थः ॥ ४‍ ॥ तम्हा असणपाणाईं, की प्रमुद्दे सिदमं ॥ वजयंति विप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणो ॥ ५० ॥ ( अवचूरिः ) तस्मादशनपानादि चतुर्विधमपि यथोदितं क्रीतमौदेशिकमाहृतं वर्जयन्ति स्थितात्मानो महासत्त्वा निर्ग्रन्या धर्मजीविनः संयमैकजीविनः ॥ ५० ॥ ( अर्थ. ) पूर्वोक्तरीते बे, तो हवे केम करतुं ते कहे बे. ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारण माटे ( विप्पाणो के० ) स्थितात्मानः एटले निश्चलप - एकरी रह्यो बे धर्मने विषे आत्मा जेनो एवा तथा ( धम्मजीविणो के० ) धर्मजीविनः एटले संयम रूप जीवितव्यना धणी एवा ( निग्गंथा के ) निर्भयाः ए टले निर्बं साधु ( की के० ) क्रीतं एटले वेचातुं श्रलुं तथा ( उदे सिां के० ) शिकं पटले साधुना ज उद्देशथी बनावेल तथा ( श्राहडं के० ) आहृतं एटले साधुने माटे माला दिकथी सामुं आणेलं एवं ( असणपाणाई के० ) अशनपानादि एटले अशन, पान, खादिम, खादिम एवा चतुर्विध अन्नने ( वजयंति के० ) वर्जयंति पटले त्याग करे बे ॥ ५० ॥ For Private Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्। ៥ ០ ១ (दीपिका.) यस्मादेवं तस्मात्किं कर्तव्यमित्याह । तस्मात्कारणात् निर्यन्थाः साधवः अशनादिकं चतुर्विधमपि सदोषं क्रीतं, औदेशिकम्, श्राहृतं च वर्जयन्ति । किंतूता निर्ग्रन्थाः। स्थितात्मानः स्थितो निश्चलत्वेन आत्मा धर्मे येषां ते स्थितात्मानः संयमैकजीविन इत्यर्थः। उक्तोऽकल्पः । अकल्पकथनाच त्रयोदशः स्थान विधिरप्युक्तः ॥५०॥ (टीका. ) यस्मादेवं तम्ह त्ति सूत्रम् । तस्मादशनपानादि चतुर्विधमपि यथोदितं क्रीतमौदेशिकमाहृतं वर्जयन्ति स्थितात्मानो महासत्त्वा निर्यन्थाः साधवो धर्मजीविनः संयमैकजीविन इति सूत्रार्थः ॥ ५० ॥ कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो॥ मुंजंतो असणपाणा, आयारा परिनस्स॥५१॥ (अवचूरिः) उक्तोऽकल्पः । तदनिधानामुक्तं त्रयोदशस्थानमधुनोच्यते चतुर्दशस्थानम् । कंसेषु कचोलादिषु कंसपात्रेषु स्थालादिषु कुंममोदेषु हस्तिपादाकारेषु मृ. न्मयजाजनेषु । जुञ्जानोऽशनपानादि साध्वाचारात् परिज्रश्यति ॥५१॥ (अर्थ.) हवे चौदमुं स्थानक कहे , तेमां पण गृहस्थना नाजन आश्रयी कहे डे. ( कंसेसु के ) कांस्येषु एटले कांसाना वाटका प्रमुखने विषे (पुणो के०) पुनः एटले वली ( कंसपाएषु के०) कांस्यपात्रेषु एटले कांसानी थालीयोने विषे तथा ( कुंममोएसु के०) कुंडमोदेषु एटले हस्तीना पादना आकार वाला मृत्तिकाना कुंमाने विषे (मुंजानः के०) जोजन करता एवा यति ( आयारा परिजस्सर के० ) आचारात् परिज्रश्यति एटले साधुना आचार थकी व्रष्ट थाय . ॥५१॥ (दीपिका.) इदानीं चतुर्दशस्थानविधिमाह । साधुः आचारात् साधुसंबन्धिनः परिज्रश्यति ब्रष्टाचारो जवति । किं कुर्वन् साधुः । अशनपानादिकमन्यदोषरहितमपि जुञ्जानः । केषु जाजनेषु जुञ्जान इत्याह । कांस्येषु कटोरिकादिषु, पुनः कांस्यपात्रीषु तिलकादिषु, कुंडमोदेषु हस्तिनः पादाकारेषु मृन्मयादिषु नुञ्जानः ॥५१॥ (टीका.) उक्तोऽकल्पस्तदनिधानात्रयोदशस्थान विधिः । इदानीं चतुर्दशविधिमाह । कंसेसु त्ति सूत्रम् । कंसेषु करोटकादिषु, कंसपात्रेषु तिलकादिषु, कुएममोदेषु हस्तिपादाकारेषु मृन्मयादिषु जुञ्जानोऽशनपानादि तदन्यदोषरहितमपि आचारामणसंबन्धिनः परित्रश्यति अपैतीति सूत्रार्थः ॥५१॥ सीन्दगसमारने, मत्तधोअणटुणे॥ जाई बनंति नूआई, दिछो तब असंजमो॥५२॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ( अवचूरिः) अनन्तरोद्दिष्टनाजनेषु श्रमणा जोदयन्ते जुक्तं चैनिरिति शीतोदकेन धावनं कुर्वन्ति। तदाह। शीतोदकसमारंने सचेतनोदकेन जाजनधावनारम्ने मात्रकधावनोनने यानि दिण्यंते हिंस्यन्ते नूतान्यप्कायादीनि । अत्र गृहिलाजननोजने दृष्टः असंयमस्तस्य नोक्तुः ॥ ५५ ॥ (अर्थ.) हवे ते पूर्वोक्त पात्रमा जमवाथी जे दोष उपजे, ते कहे . ( सीउदगं के०) शीतोदकं एटले टाढं जल तेनो (समारंने के०) समारंने एटले ते गृहस्थना कां स्यादिक पात्रमा जमतां विशेष आरंज थाय त्यां,तथा(मत्तधोयणटुणे के०)मात्रकधावनोज्ने एटले मात्र धोयन बंमने अर्थात् पात्र धोवाना धोवणनो त्याग करे, नाखे त्यां (जाई के०) यानि एटले जे (जूआई के०) नूतानि एटले प्राणिमात्र होय ते (नंति के०) बेदाय . माटे ( तब के) तत्र एटले ते गृहस्थना नाजनने विषे जमनार साधुनो ( असंजमो के०) असंयमः एटले संयमत्याग थाय बे. ॥ ५५ ॥ (दीपिका.) कथं तेषु जुञ्जानो ब्रष्टाचारो नवेदित्याह । गृहिनाजनं कांस्यादिकं तत्र नोजने नोजनकर्तुः साधोः केवलिना सोऽसंयमो दृष्टः। स कः । यानि तत्र नूतान्यप्कायादीनि बिद्यन्ते हिंस्यन्ते । क्व। शीतोदकसमारम्ने सचेतनेनोदकेन जाजनस्य धावनारम्ने दालनारम्ने। कथम् । कांस्या दिनाजनेषु श्रमणा नोदयंते, अथवा श्रमणेरेषु जुक्तमिति हेतोः नाजनदालनं कुर्वन्ति गृहस्थाः । पुनः कुत्र । मात्रकधावनोसने कुएममोदकादिषु नाजनेषु दालनजलत्यागेऽसंयमो नवेत् ॥ ५५॥ (टीका.) कथमित्याह । सीउदगं ति सूत्रम् । अनंतरोदिष्टनाजनेषु श्रमणा जो. दयन्ते जुक्तं चैनिरिति शीतोदकेन धावनं कुर्वन्ति । तदा शीतोदकसमारंने सचेतनोदकेन जाजनधावनारंन्ने तथा मात्रकधावनोज्ने कुंडमोदादिषु दालनजलत्यागे यानि क्षिप्यन्ते हिंस्यन्ते नूतान्यप्कायादीनि । सोऽत्र गृहिनाजननोजने दृष्ट उपलब्धः केवलज्ञाननाखता असंयमस्तस्य जोक्तुरिति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ पहाकम्मं पुरेकम्म, सिा तब न कप्प३॥ एअमहं न मुंजंति, निग्गंथा गिहिनायणे ॥ ५३॥ (श्रवचूरिः ) पश्चात्कर्म पुरःकर्म स्यात् कदाचित तवेहिजाजननोजने । पश्चात्पुरस्कर्मजावस्तूक्तवदित्येके । अन्ये जुजन्तु तात ...वो वयं तु पश्चानोदयाम शति पश्चात्कर्मव्यत्ययेन तु पुरःकर्म व्याचक्षते। एतच्च साधूनां न कल्पते । एतदर्थं पश्चाकर्मपरिहारार्थं न जुञ्जन्ति निर्यथा गृहिजाजने ॥ ५३॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । მის (अर्थ. ) पाने जावे साधुने ( तब के० ) तत्र एटले ते गृहस्थना पात्रने विषे जमवुं (न कप्पइ के०) न कल्पते एटले न कल्पे. कारणके गृहस्थ जम्या पहेला जो पात्रमां साधु जमे तो तेने ( सिया के० ) स्यात् एटले कदाचित् ( पछाकम्मं के० ). पश्चात्कर्म लागे, छाने गृहस्थ जम्या पढी जो गृहस्थना पात्रमां जमे, तो तेने ( पुरेकम्मं के० ) पुरःकर्म लागे ( एमहं के० ) एतदर्थं एटले पश्चात् कर्म पुरःकर्म टालवाने अर्थे (निग्गंथा के० ) निर्यथाः एटले साधु (गिदिजाय के०) गृहिजाजने एटले गृहस्थना पात्रने विषे ( न मुंजंति के० ) जोजन करे नहि. ॥ ५३ ॥ ( दीपिका. ) पुनः किं च निर्यथाः साधव एतदर्थं पश्चात्कर्मपुर: कर्मपरिहा हिजाज ने कांस्यादिके न भुञ्जते । कथम् । यतः पश्चात्कर्म पुरः कर्म च धर्मवतां साधूनां न कल्पते । पश्चात्कर्मपुरः कर्मजावस्तु उक्तवदित्येके । अन्ये त्वेवं व्याख्यानयन्ति | मुंजंतु तावत् साधवो वयं तु पश्चानोदयाम इति पश्चात्कर्म तस्माद्विपरीतं तुपुराकर्म इति ॥ ५३ ॥ ( टीका . ) किंच पछाकम्मं ति सूत्रम् । पश्चात्कर्म पुरःकर्म स्यात् तत्र कदाचि हिजाजनजोजने पश्चात्पुरः कर्म जावस्तूक्तवदित्येके । अन्ये तु भुञ्जन्तु तावत्साrat वयं पश्चानोदयाम इति । पश्चात्कर्मव्यत्ययेन तु पुरःकर्म व्याचक्षते । एतच्च न कल्पते धर्मचारिणाम् । यतश्चैवमत एतदर्थं पश्चात्कर्मादिपरिहारार्थं न भुञ्जते निग्रंथाः । केत्याह । गृहिजाजनेऽनंतरोदित इति सूत्रार्थः ॥ ५३ ॥ संदीप लिके, मंचमासालएसु वा ॥ अणायरियमकाएं, आसइत्तु सत्तु वा ॥ ५४ ॥ (अवचूरिः) उक्तो गृहिजाजने दोषस्तदनिधानायुक्तं चतुर्दशस्थानम् । इदानीं पञ्चदशस्थानमुच्यते । आसंदी पर्यंको प्रतीतौ । मंचश्च प्रतीतः । श्रशालकस्त्ववष्टम्नसमवित श्रासन विशेषः । एतेष्वनाचरितमार्याणामा सितुं स्वपितुं वा शुषिरदोषात् ॥ ५४ ॥ ( अर्थ. ) हवे पन्नरमुं स्थानक कहे ते. ( अाणं के० ) आर्याणां एटले आर्य साधुने (संदीप लिके के० ) आसंदी पर्यंकेषु एटले मद्रासन रूप आसंदी ढोलीयाने विषे ( मंच के० ) मंचेषु एटले खाटलाने विषे ( वा के० ) वली ( साल के० ) आशालकेषु एटले उरिंगणसहित सांगा मांची तथा सिंहासन कुरसीने विषे ( सत्तु के० ) श्रसितुं एटले बेसवाथी ( वा के० ) तथा ( सतु ५१ For Private Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(५३)-मा. के० ) स्वप्तुं एटले सुवाश्री (अणायरिथं के०) श्रनाचरितं एटले अनाचरणनो दोष लागे. ॥५४॥ (दीपिका.) गृहिनाजनदोष उक्तः । तस्यानिधानाच्चतुर्दशस्थान विधिरपि उक्तः। सांप्रतं पंचदशस्थानगतं विधिमाह। श्रासन्१पर्यः २ मंचश्च एते त्रयोऽपि प्रसिकाः। श्राशालकस्तु सर्वाङ्गसमन्वित श्रासनविशेषः । एतेष्वासितुमुपवेष्टुं खप्तुं वा निखां कर्तुं वा आर्याणां साधूनामनाचरितम् । कथम् । सुषिरदोषात् ॥५४॥ (टीका.) उक्तो गृहिजाजनदोषः । तदनिधानाच्चतुर्दशस्थान विधिः । सांप्रतं पञ्चदशस्थानविधिमाह । श्रासंदि त्ति सूत्रम् । श्रासंदीपर्यंकौ प्रतीतौ । तयोरासंदीपर्यंकयोः प्रतीतयोः । मंचाशालकयोश्च । मंचः प्रतीतः । श्राशालकस्त्ववष्टंनसमन्वित आसनविशेषः । एतयोरनाचरितमनासेवितमार्याणां साधूनामासितुमुपवेष्टुं स्वतुं वा । निजातिवाहनं वा कर्तुं शुषिरदोषादिति सूत्रार्थः ॥ ५४॥ नासंदीपलिअंकेसु, न निसिज्जा न पीढए॥ निग्गंथा पडिलेदाए, बुध्वुत्तमदिहगा ॥५५॥ (श्रवचूरिः) अपवादमाह । नासंदीपर्यंकयोः प्रतीतयोः न निषद्यायां गदिकायां न पीठके वेत्रमयादौ वा निर्यथा अप्रतिलेख्य राजकुलादिषु निषीदनादि कुर्वन्तीति वाक्यशेषः । बुझोक्ताधिष्ठातारो जिनोक्तानुष्ठानपराः ॥ ५५ ॥ - (अर्थ. ) हवे वली एज स्थानकने विषे अपवाद मार्ग कहे . (बुझवुत्तमहिगा के०) बुफोक्ताधिष्ठातारः एटले बुझ जे तीर्थंकर तेमना कहेलां वचन पालवामां तत्पर एवा (निग्गंथा के०) निग्रंथाः एटले साधुळे (आसंदीपलिकेसु के०) आसंदीपर्यकयोः एटले आसंदीपर्यंकने विषे ( अप्पडिलेहाए के) अप्रतिलेख्य एटले पडिलेहण कस्वा विना (न के०) न एटले बेसबुं प्रमुख करता नथी. तथा ( निसिङ के०) निषद्यायां एटले सांगा मांची खुरशी प्रमुखने विषे पण पडिलेहण कस्या विना ( न के०) न एटले बेस प्रमुख करता नथी. तथा (पीढए के०) पीठके एटले चित्रामणयुक्त श्रासनपर तथा नेतरना नरेला आसनपर.( न के०) न एटले बेस प्रमुख करता नथी.॥ ५५ ॥ (दीपिका.) अत्रैव स्थानेऽपवादमार्गमाह । निर्यन्थाः साधवः न श्रासन्दीपर्यंकयोः, न निषद्यायामेकादिकल्परूपायां, न पीठके वेत्रमयादौ, चतुरादिना अप्रत्युपेक्ष्य निषीदनादि न कुर्वन्तीति वाक्यशेषः । किंधूता निर्यथाः । बुझोक्ता Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४११ धिष्ठातारः । बुद्धेन तीर्थकरेण यत्कथितमनुष्ठानं तत्र तत्पराः । इह चाप्रत्युपेक्षतेषु संदीपक निषद्या दिपीठेषु निषीदनस्य निषेधात् धर्मकथादौ राजकुलादौ प्रत्युपेदितेषु निषीदनादि कुर्वन्त्यपि । अन्यथा अप्रत्युपेक्षितेष्विति विशेषणस्यामिलनं स्यात् ॥ ५५ ॥ ( टीका. ) अत्रैवापवादमाह । नासंदित्ति सूत्रम् । नासंदी पर्यङ्कयोः प्रतीतयोः । न निषद्यायामेकादिकल्परूपायां न पीठके वेत्रमयादौ निर्ग्रन्थाः साधवोऽप्रत्युपेक्ष्य चतुरादिना निषीदनादि न कुर्वन्तीति वाक्यशेषः । नञ् सर्वत्रा निसंबध्यते । न कुर्वन्तीति । किंविशिष्टा निर्ग्रन्थाः । बुद्धोक्ताधिष्ठातारः । तीर्थकरोक्तानुष्ठानपरा इत्यर्थः । इह चाप्रत्युपे हितासंघादौ निषीदना निषेधात् धर्मकथादौ राजकुलादिषु प्रत्युपे - हितेषु निषीदनादिविधिमाह । विशेषणान्यथानुपपत्तेरिति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ गंजीरविजया एए, पाणा दुष्पडिलेगा | आसंदी पलिको अ एयमहं विवजिच्या ॥ ५६ ॥ ( अवचूरिः ) गंजीर विजया प्रकाशाश्रयाः । विजयशब्देनाश्रयोऽनिधीयते । एते श्रासन्यादयः । एतेषु प्राणा ः प्रत्युपेक्ष्या जवन्ति । श्रासन्दी पर्यङ्कश्च । चशब्दान्मञ्चकादयश्च । एतदर्थं वर्जिताः साधुनिः ॥ ५६ ॥ ( अर्थ ) हवे एम पडिलेहीने पण पूर्वोक्त संदीप्रमुख उपर बेसे तो पण दोष arata. (एए के० ) एते एटले ए पूर्वोक्त यासंदी पर्यंक मंचादिक ( गंजीरविजया के०) गम्भीर विजयाः गंजीर एटले प्रकाश बे विजय एटले आश्रय जेनो - र्थात् संयादिक प्राणियोनां गुप्त स्थानक रूप बे तेथी ( डुप्प डिलेहगा के० ) दुःखे करीने बे प्रातिलेखन जेनुं एवा होय बे. ( एमहं के० ) एतदर्थं एटले ए माटे साधु ए (आसंदी पलिको छा के०) संदीपर्यंकश्च एटले आसंदी ने पर्यंक च शब्दथी मंचादिक पण (विवाि के०) विवर्जिताः एटले वर्जित करेला बे. ॥ ५६ ॥ ( दीपिका. ) व दोषमाह । एते आसंदी पर्यंकमंचादयः । गंजीर विजयाः गंजीरः प्रकाशः विजय आश्रयो येषां ते गंजीरविजया प्रकाशाश्रयाः प्राणिनां जवंति । तेन प्राणिन एतेषु दुः प्रत्युपेक्ष्या जवन्ति । पीड्यंते च तेषामुपवेशनादिना । तेन एतदर्थं साधुनिः संद्यादयो विवर्जितास्त्यक्ताः ॥ ५६ ॥ 1 ( टीका. ) तत्रैव दोषमाह । गंजीरं ति सूत्रम् । गंजीरमप्रकाशं विजय श्राश्रयः प्रकाशाश्रया एते प्राणिनामासंद्यादयः । एवं च प्राणिनो दुःप्रत्युपेक्षणीया एतेषु For Private Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. जवन्ति । पीड्यंते चैतऽपवेशनादिना । श्रासंदः पर्यकः। चशब्दान्मंचादयश्च । एतदर्थ विवर्जिताः साधुनिरिति सूत्रार्थः॥ ५६ ॥ गोअरग्गपविहस्स, निसिजा जस्स कप्पश्॥ इमेरिसमणायारं, आवज अबोदिअं॥५॥ . (श्रवचूरिः) उक्तः पर्यङ्कस्थान विधिः। तदनिधानात्पञ्चदशस्थानमुक्तमिदानीं षोडशस्थानविधिमाह । गोचरायप्रविष्टस्य निषद्या यस्य कल्पते गृह एव निषीदनं सदा चरति यः साधुः । स खलु एवमीदृशं वदयमाणलक्षणमनाचारमापद्यते प्राप्नोति अबोधिकं मिथ्यात्वफलम् ॥ ७ ॥ (अर्थ.) श्रा रीते पर्यकस्थान विधि कह्यो. तेथी ए पन्नरमुं स्थानक कवू. हवे सोलमुं स्थानक कहे . ( गोअरग्गपविठस्स के०) गोचरायप्रविष्टस्य एटले गोचरीए गयो एवा (जस्स के०) यस्य एटले जे साधुने (निसजा के०) निषद्या एटले बेस ( कप्प के०) कल्पते एटले कल्पे डे. अर्थात् गोचरीए गयेलो साधु गृहस्थने घेर जर बेसे तो ते साधु ( इमेरिसं के० ) एवमीदृशं एटले हवे कहीशुं ए प्रकारना (अबोहिथं के०) अबोधिकं एटले बोधिबीज सम्यक्त्वरहित मिथ्यात्वरूप फलने (श्राव के०) आपद्यते एटले पामे . ॥ ५७ ॥ (दीपिका. ) उक्तः पर्यङ्कस्थान विधिः। तस्य कथनेन पञ्चदशस्थानमप्युक्तम् । अथ षोडशस्थानमुच्यते । गोचरायप्रविष्टस्य निदाथ प्रविष्टस्य साधोर्निषद्या कल्पते । गृह एव नीषीदनं समाचरति यः साधुरिति जावः । स साधुः खलु एवमीदृशं वक्ष्यमाणलक्षणमनाचारमापद्यते प्राप्नोति । किंचूतमनाचारम् ।अबोधिकम् । श्रबोधिमिथ्यात्वं तदेव फलं यस्य स तम् ॥ ५७ ॥ (टीका.) उक्तः पर्यंकस्थान विधिस्तदनिधानात्पंचदशस्थानमिदानी षोडशस्थानमधिकृत्याह । गोअरग्ग त्ति सूत्रम् । गोचरायप्रविष्टस्य निक्षाप्रविष्टस्येत्यर्थः । निषद्या यस्य कल्पते गृह एव निषीदनं समाचरति यः साधुरिति जावः । स खलु ए. वमीशं वदयमाणलदणमनाचारमापद्यते प्राप्नोति । श्रबोधिकं मिथ्यात्वफलमिति सूत्रार्थः ॥२७॥ विवत्ती बनचेरस्स, पाणाणं च वदे वदो॥ वणीमगपडिग्घान, पडिकोदो अगारिणं ॥७॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्। ४१३ (श्रवचूरिः) अनाचारमाह। विपत्तिब्रह्मचर्यस्य ततः स्त्रियाश्चिरसंगादाधाकर्मादिकरणेन प्राणानां वधे वधो जवति आद्यव्रतस्य । साधौ गृहोपविष्टे वनीपकप्रतिघातः प्रतिक्रोधश्चागारिणां तत्वजनानां तस्यास्तथाऽपदर्शनात् ॥५॥ (अर्थ.) हवे श्रा गाथाथी पहेली कहेली गाथामां कडं हतुं के गृहस्थने घरे साधु बेसे तेने हवे कही\ एवा अनाचार थाय तो हवे ते अनाचारो कहे. के जो साधु गोचरीए गयो थको गृहस्थने घेर बेसे तो (बंजचेरस्स के०) ब्रह्मचर्यस्य एटले ब्रह्मचर्यनो ( विवत्ती के ) विपत्तिः एटले नाश थाय. तथा वली (पाणाणं के० ) प्राणिनां एटले प्राणियोना ( वहे के०) वधे एटले चिरपरिचयने लीधे श्राधाकर्मादिक गृहस्थ करे. अने तेथी साधुना संयमनो (वहो के०) वधः एटले वध थाय. तथा (वणीमग के०) वनीपक एटले निदाचर मनुष्यो तेने (पडिग्घाउँ के) प्रतिघातः एटले प्रतिघात थाय. अर्थात् ते निदाचर श्रावतो नय पामे. जे एक ने त्यां हुँ क्यां जालं? तथा वली (अगारिणं के०) अगारिणांएटले गृहस्थने (पडिकोहो के०) प्रतिक्रोधः एटले क्रोध उपजे. ते पोतानी स्त्री उपर तथा ते साधुनी उपर. ॥५॥ (दीपिका.) तमेवानाचारमाह । गृहस्थगृहे निषद्याकरण एतेऽनाचारा इति संजावनया ब्रह्मचर्यस्य विपत्ति शो नवति । कुतः। आशाखएमनदोषात् । प्राणिनां च वधे वधो नवति तथासंबन्धादाधाकर्मादिकरणेन । तथा वनीपकप्रतिघातो नवेत् । तदादेपेणादित्सानिधानादिना च। पुनरगारिणः प्रतिक्रोधो नवेत् । तत्स्वजनानां निषद्यायास्तस्याश्च तथादेपदर्शनेन ॥ ५ ॥ ( टीका.) अनाचारमाह । विवत्ति त्ति सूत्रम् । विपत्तिर्ब्रह्मचर्यस्याशाखएकनादोषतः । साधुसमाचरणस्य प्राणिनां च वधे वधो नवति । तथा संबन्धादाधाकर्मादिकरणेन वनीपकप्रतीघातः । तदादेपेणादित्सानिधानादिना प्रतिक्रोधश्चागारिणां तत्वजनानां च स्यात्तदादेपदर्शनेनेति सूत्रार्थः ॥५॥ अगुत्ती बंनचेरस्स, बी वा वि संकणं॥ कुसीलवडणं गणं, दूर परिवार ॥ ए॥ (श्रवचूरिः) अगुप्तिर्ब्रह्मचर्यस्य तदिन्डियावलोकनेन स्त्रीतश्चापि शङ्का जवति । तत्प्रफुरलोचनदर्शनादिनानुभूतगुणायाः कुशीलवनं स्थानं तमुक्तेन प्रकारेणासंयमकरं दूरतः परिवर्जयेत् ॥ ५ ॥ (अर्थ.) वली पण साधुने गृहस्थने घेर बेसवाश्री केवा दोषो उत्पन्न थाय ने Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. ते कहे जे. गोचरीए जतां गृहस्थने घेर बेसतां साधुने ( बंजचेरस्स के०) ब्रह्मचर्यस्य एटले ब्रह्मचर्यनो (अगुत्ति के०) अगुप्तिः एटले नाश थाय . (वा के०) वली (श्ली वि के०) स्त्रीतोऽपि एटले प्रथम श्रनुनवेली उत्फुलगबवाली स्त्रीना सकाशथी ( संकणं के० ) शंकनं एटले शंका थाय. ते माटे ( कुसीलवगुणं के०) कुशीलवर्डनं एटले कुशीलने वधारनार एवा ( स्थानं के० ) स्थानकने (दूर के०) दूरतः एटले दूरथी (परिवङाए के०) परिवर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥ एए॥ (दीपिका.) तथा पुनः किं भवेत् साधोस्तथा निषद्याकरणेन ब्रह्मचर्यस्यागुतिर्जवेत् । पुनः उत्फुसगझलोचनाया अनुभूतगुणायाः स्त्रियाः सकाशात् शंका नवति । ततः कुशीलवर्धनं स्थानमुक्तेन प्रकारेण असंयमवृद्धिकारकं दूरतः परिवर्जयेत् प. रित्यजेत् साधुः ॥ एए॥ (टीका.) तथा अगुत्ति त्ति सूत्रम् । अगुप्तिब्रह्मचर्यस्य तदिन्जियाद्यवलोकनेन स्त्रीतश्चापि शङ्का नवति । तउत्फुललोचनदर्शनादिनानुजूतगुणायाः कुशीलवर्धनं स्थानमुक्तेन प्रकारेणासंयमवृद्धिकारकं दूरतः परिवर्जयेत्परित्यजेदिति सूत्रार्थः ॥५॥ तिन्दमन्नयरागस्स, निसिज्जा जस्स कप्पई ॥ जराए अनिनूअस्स, वाहिअस्स तवस्सियो॥६०॥ (अवचूरिः) सूत्रैणैवापवादमाह । त्रयाणां वक्ष्यमाणलक्षणानामन्यतरस्यैकस्य निषद्या गृहे यस्य कल्पते तस्य तदारोवने न दोष इति शेषः । कस्य पुनः कल्पत इत्याह । जरयाजिनूतस्यात्यन्तवृक्षस्य व्याधिमतोऽत्यन्तमशक्तस्य तपखिनो विशिष्टदपकस्यैते च निदाटनं न कार्या एव। श्रात्मलब्धिकाद्यपेक्ष्या तु सूत्र विषयाः। न चैतेषां प्राय उक्तदोषाः संजवन्ति । परिहरन्ति च वनीपकप्रतिघातादीनि ॥६० ॥ (अर्थ. ) हवे वली जे साधुने गृहस्थने घरे बेसतां दोष न लागे ते कहे . (तिन्हं के०) त्रयाणां एटले बागल जे श्राज गाथामां कहेवाशे ए त्रण जणनी वच्चे (अन्नयरागस्स के० ) अन्यतरस्य एटले कोइ पण एक (जस्स के०) यस्य एटले गोचरीए गयेला एवा जे साधुने (निसिद्या के०) निषद्या एटले बेसQ ( कप्प के०) कल्पते एटले कल्पे बे. हवे ते कया प्रकारना साधु ते कहे जे. (जराए के०) जरया एटले वृद्धावस्थाए (अनिअस्स के0) अनिचूतस्य एटले पराजव पामेला अर्थात् अतिवृक्ष थएला तथा (वाहिशस्स के०) व्याधितस्य एटले रोगग्रस्त थएला तथा Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४१५ ( तव सिणो के० ) तपखिनः एटले तपस्वी एवा साधुने गोचरीए गया बतां गृहस्थने घेर बेस कल्पे ॥ ६० ॥ ( दीपिका . ) सूत्रेण अपवादमाह । त्रयाणामग्रे वक्ष्यमाणानां मध्ये अन्यतरस्य एकस्य यस्य गोचरप्र विष्टस्य गृहस्थगृह निषद्या कल्पते । श्रौचित्येन तस्य निषद्यायाः सेवने न दोष इति वाक्यशेषः । कथं पुनः कल्पत इत्याह । जरया अनिभूतस्य अत्यन्तं वृद्धस्य तथा व्याधितस्य रोगवतोऽत्यन्तमसमर्थस्य तथा तपखिनो - कृष्टरूपकस्य । प्राय एते निक्षाटनं न कार्यन्ते । परमात्मल ब्धिकाद्यास्तु निक्षाटनं कुर्वन्ति, तद्विषयं चैतत् सूत्रम् । तत एतेषां प्रायो दोषा न संजवन्ति । परिहरन्ति च वनीपकप्रतिघातादीनि ॥ ६० ॥ ( टीका. ) सूत्रेणैवापवादमाह । तिष्ह त्ति सूत्रम् । त्रयाणां वक्ष्यमाणलक्षणानामन्यतरस्यैकस्य निषद्या गोचरप्रविष्टस्य यस्य कल्पत औचित्येन । तस्य तदासेवने न दोष इति वाक्यशेषः । कस्य पुनः कल्पत इत्याह । जरयानिभूतस्यात्यन्तवृद्धस्य व्याधिमतोऽत्यन्तमशक्तस्य तपखिनो विकृष्टरूपकस्य । एते च निक्षाटनं न कार्यं - त एव । आत्मलब्धिकाद्यपेक्षया तु सूत्रविषयः । न चैतेषां प्राय उक्तदोषाः संजवंति । परिहरति च वनीपकप्रतिघातादीति सूत्रार्थः ॥ ६० ॥ वादिन वा रोगी वा, सिणाएं जो न पच ॥ यारो, जढो दवइ संजमो ॥ ६१ ॥ gक्कतो दो ( अवचूरिः ) उक्तो निषद्यास्थानविधिः । तदनिधानादुक्तं षोडशस्थान मिदानीं सप्तदशस्थानमाह । व्याधिमान् व्याधियस्तो रोगी वा स्नानमङ्गदालनं यस्तु प्रार्थयते सेवते । तेनेवंभूतेन व्युत्क्रांतो जवत्याचारो बाह्यतपोरूपोऽस्नान परीषदासहनात् । जढः परित्यक्तो जवति संयमः सत्त्वरक्षादिः उदकादिविराधनात् ॥ ६१ ॥ (अर्थ. ) हवे सत्तरमुं स्थानक कहे बे. ( वाहिर के० ) व्याधितः एटले व्याधियुक्त (वा० ) अथवा ( अरोगी के० ) अरोगी एटले रोगरहित एवो ( जो उ ho ) यस्तु एटले जे कोइ साधु ( सिलाएं के० ) स्नानं एटले स्नान ने ( पछए के० ) प्रार्थयते एटले इछा करे बे, ते साधुनो ( श्रायारो के० ) आचारः एटले आचार ( वुक्कंतो के० ) व्युत्क्रांतः एटले ऋष्ट थाय बे तथा तेनो ( संजमो के० ) संयमः एटले संयम जे बे ते ( जढो के० ) परित्यक्तः एटले नष्ट जाय बे ॥ ६१ ॥ ( दीपिका. ) उक्तो निषद्यास्थानविधिः । तस्य कथनाच्च षोडशस्थानमप्युक्तम् । अथ For Private Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. सप्तदशस्थानमाह । यस्तु साधुः स्नानमङ्गप्रदालनं प्रार्थयते सेवते । तेन साधुना श्राचारो बाह्यतपोरूपो व्युत्क्रांतो नवति । कथम् । अस्नानपरीषहस्य असहनात् । पुनः संयमः प्राणिरक्षणादिकः जढः परित्यक्तो नवति । कस्मात् । अप्कायादिविराधनात् । किंनूतः साधुाधितो वा व्याधिग्रस्तो वा, पुनः अरोगी वा रोगरहितो वा । केनापि स्नानं न कर्तव्यमित्यर्थः ॥६१॥ (टीका.) उक्तो निषद्यास्थान विधिः । तदनिधानात्षोडशस्थानम् । सांप्रतं सप्तदशस्थानमाह । वाहिजे ति सूत्रम् । व्याधिमान् वा व्याधिग्रस्तः । अरोगी वा रोगविप्रमुक्तो वा। स्नानमङ्गप्रदालनं यस्तु प्रार्थयते सेवत इत्यर्थः। तेनेबंन्नतेन व्युत्क्रान्तो नवत्याचारो बाह्यतपोरूपः। अस्नानपरीषहानतिसेवनात् । जढः परित्यक्तो नवति संयमः प्राणरक्षणादिकः अप्कायादि विराधनादिति सूत्रार्थः ॥ ६१॥ संतिमे सुदुमा पाणा, घसासु निलगासु अ॥ जे अनिकू सिखायंतो, विअडेणुप्पिलावए ॥६॥ (अवचूरिः) प्रासुकनानेन कथं संयमपरित्याग इत्याह ।संतीमे सूक्ष्माः प्राणिनो हीन्जियादयः घसासु उषरनूमिषु निलगासु तथाविधनूमिराजिषु यांस्तु निकुः स्नानजलोत्प्लव क्रियया विकटेन प्रासुकोदकेन उत्प्लावयति ॥ ६ ॥ (अर्थ.) हवे स्नान कीधाना दोष देखाडे . ( घसासु के) उषरनूमिने विषे एटले दार नूमिने विषे (श्र के) च एटले वली (निलगासु के०)नूमिनी राजि एटले फाटोने विषे (श्मे के०)श्रा (सुहुमा के०) सूक्ष्माः एटले सूक्ष्म एवा (पाणा के०) प्राणिनः एटले प्राणीयो (संति के ) . (जे अ के०) येच एटले जे जीवोने ( सिणायंतो के० ) स्नान् एटले स्नान करतो एवो ( निस्कू के०) जितुः एटले साधु ( विश्रमेण के०) विकृतेन एटले विकृतजले करी (उप्पिलावए के०) उप्लावयति एटले पलाले . तेथी ते जीवोनी विराधना थाय.॥ ६ ॥ (दीपिका.) संति एते प्रत्यदमुपलन्यमानाः सूदमाः श्लक्ष्णाः प्राणिनो हीन्दियादयः। कासु । घसासु सुषिरन्नूमिषु च । पुनः निलगासु तथाविधनूमिराजीषु । के । यान् सूक्ष्मप्राणान् स्नानं कुर्वन् स्नानजलोनन क्रियया विकृतेन प्रासुकेन जलेन उत्प्लावयति । तथा च सति प्राणि विराधना नवेत् ततश्च संयमपरित्यागः ॥ ६ ॥ (टीका.) प्रासुकस्थानेन कथं संयमपरित्याग इत्याह । संतिमे त्ति सूत्रम् । संन्त्येते प्रत्यक्षोपलच्यमानस्वरूपाः सूदमाः श्वदणाः प्राणिनो हीन्जियादयः। घसासु Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४१७ शुषिरनूमिषु जिलगासु च तथाविधनूमिराजीषु च यांस्तु निकुः स्नानजलोप्ननक्रियया विकृतेन प्रासुकोदकेनोत्प्लावयति । तथा च तहिराधनाच्च संयमपरित्याग इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ तम्दा ते न सिणायंति, सीएण सिणेण वा ॥ जावङीवं वयं घोरं, असिणाणमदिहगा॥६३ ॥ (अवचूरिः) निगमयन्नाह । यस्मादेवमुक्तदोषप्रसंगस्तस्मात्ते साधवो न स्नांति । शीतोदकेनोष्णोदकेन वा । यावजीवं व्रतं घोरं पुरनुचरम् । अस्नानमाश्रित्याधिष्ठातारोऽस्यैव कर्तारः॥ ६३ ॥ (अर्थ.) ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारणमाटे (ते के० ) ते साधु (सीएण के०) शीतेन एटले टाढे जले (वा के०) अथवा (जसिणेण के०) जष्णेन एटले जष्ण जले ( न सिणायंति के० ) न स्नांति एटले स्नान करता नथी. (घोरं के०) घोर एवा (असिणाणं के०) अस्नानं एटले स्नान न करवं ते रूप ( वयं के०) व्रतं एटले व्रतने (जावजीवं के०) यावजीवं एटले जावजीवपर्यंत (अहिटगा के०) अधिष्ठातारः एटले आश्रय करनारा होय . ॥ ६३ ॥ (दीपिका.) अथ निगमयन्नाह। यस्मादेवं दोषा उक्तास्तस्मात्ते साधवो न स्नानं कुर्वन्ति । केन कृत्वा । शीतोदकेन वा उष्णोदकेन वा । प्रासुकाप्रासुकेन वेत्यर्थः । यतस्ते साधवो यावजीवमाजन्म घोरं उरनुचरमस्नानमाश्रित्य व्रतमधिष्ठातारः अस्यैव व्रतस्य कर्तारः॥ ६३ ॥ (टीका.) निगमयन्नाह । तम्ह त्ति सूत्रम् । यस्मादेवमुक्तदोषप्रसंगस्तस्मात्ते साधवो न स्नान्ति। शीतेन वोष्णेनोदकेन प्रासुकेनाप्रासुकेन वेत्यर्थः । किंविशिष्टास्त इत्याह । यावजीवमाजन्म व्रतं घोरं उरनुचरमस्नानमाश्रित्याधिष्ठातारः अस्येव कर्तार इति सूत्रार्थः॥ ६३ ॥ सिणाणं अज्वा ककं, लुई पनमगाणि ॥ गायस्सुबट्टाहाए, नायरंति कया वि॥६४॥ __ (अवचूरिः) स्नानं पूर्वोक्तमथवा कदकं चन्दनादि गन्धव्यम् । पद्मकानि च कुङ्कमकेसराणि चादन्यच्चैवंविधं गात्रस्योहतनार्थमुहर्त्तननिमित्तं नाचरन्ति कदाचिदपि ॥६५॥ ५३ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अर्थ.) वली साधु शें करे ते कहे . ( सिणाणं के०) स्नानं एटले पूर्वे कहेलुं स्नान ते ( अवा के०) अथवा (ककं के) कक्वं एटले चंदनादि कक्क (लुऊं के०) लोधं एटले लोध्र नामक सुगंधि अव्य (पउमगाणि के०) पद्मकानि एटले कुंकुम केसर (अ के०) च एटले चकारनुं ग्रहण ले माटे बीजं पण सुगंधि व्य ग्रहण करवं. ते सर्वने ( गायस्सुबट्टणहाए के ) गात्रस्योर्त्तनार्थाय एटले पोताना शरीरना उर्त्तन निमित्ते ( कया ३ वि के० ) कदाचिदपि एटले को समये पण एटले यावजीवपर्यंत (नायरंति के०) नाचरंति एटले आचरण करता नथी. अर्थात् जेम स्नान न करवू, तेम उवटणुं प्रमुख पण न लगाडवू. ॥ ६४ ॥ (दीपिका.) स्नानं पूर्वोक्तम् । अथवा कक्वं चन्दनादि । लोभ्रं गन्धऽव्यम् । पकानि च कुङ्कमकेसराणि । चशब्दादन्यदपि एवंविधं गात्रस्य उर्त्तनार्थमुहर्तननिमित्तं कदाचिदपि यावजीवमेव साधवो नाचरन्ति ॥ ६४ ॥ (टीका.) सिणाणं ति सूत्रम् । स्नानं पूर्वोक्तम्, अथवा कल्कं चन्दनकटकादि लोधं गन्धअव्यम्, पद्मकानि च कुङ्कुमकेसराणि। चशब्दादन्यच्चैवंविधं गात्रस्यैवोहतनार्थमुहर्त्तननिमित्तं नाचरन्ति कदाचिदपि यावजीवमेव साधव इति सूत्रार्थः॥६॥ नगिणस्स वा वि मुंमस्स, दीहरोमनसिणो ॥ मेहुणा नवसंतस्स, किं विनूसा कारिअं ॥६५॥ (अवचूरिः) उक्तः स्नान विधिस्तदनिधानात्सप्तदशस्थानमुक्तमिदानीमष्टादशस्थानमुच्यते । नग्नस्य कुचेलवतोऽप्युपचारनग्नस्य जिनकल्पस्य वा मुण्मस्य अव्यनावान्यां दीर्घरोमनखवतः जिनकल्पकस्येतरस्य तु प्रमाणयुक्ता एव स्युः । मैथुनाउपशान्तस्योपरतस्य किं विनूषया कारिअं कार्यम् ॥ ६५॥ (अर्थ.) एम स्नानविधि कह्यो. तेथी सत्तरमुं स्थान पण कहेवाएं. हवे अढारमुं शोनावर्जन नामा स्थान कहे . (नगिणस्स के०) नग्नस्य एटले नग्न प्रमाणोपेतवस्त्रधारी अथवा नग्न एवा जिनकल्पी (वा वि के०) वापि एटले वली पण (मुंगस्स के ) मुंगस्य एटले अव्य नावधी मुंग एवा (दीहरोमनहंसिणो के ) दीर्घरोमनखवतः एटखे मोहोटा काख प्रमुखना रोम तथा नख वध्या जे जेना एवा एटले जिनकल्पीने सर्वथा नख उतारवा नहि, अने थिविरकल्पी प्रमाणयुक्त राखे, एवा साधु तथा ( मेहुणा के०) मैथुनतः एटले मैथुन थकी (उवसंतस्स के० ) उपशांतस्य एटले शांति पामेला एवा साधुने (विनूसार के) विषया एटले वि. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४१ए जूषादिके करी ( किं कारिथं के ) किं कार्य एटले शुं करवू डे ? अर्थात् कांश पण नहि. ॥६५॥ (दीपिका.) उक्तः स्नानविधिः । तस्य कथनेन सप्तदशस्थानमप्युक्तम् । सांप्रतमष्टादशं स्थानमुच्यते शोजावर्जननाम । शोलायां दोषो नास्ति । यतः अलंकृतश्चापि धर्ममाचरेत् इत्यादि वचनादिति परानिप्रायमाशंक्य आह । एवं विधस्य साधोः विनूषया शोजया किं कार्य न किंचिदित्यर्थः। किं साधोः। ननस्य वापि कुचैलवतोऽप्युपचारनग्नस्य । निरुपचरितनामस्य वा जिनकदिपकस्येति सामान्य विषयमेव सूत्रम् । तथा मुएमस्य व्यतो जावतश्च । पुनः दीर्घरोमनखवतः कदादिषु दीर्घनखवतो जिनकल्पिकस्य । श्तरस्य तु प्रमाणयुक्ता एव नखा जवन्ति । पुनः मैथुनाउपशान्तस्योपरतस्येति ॥६५॥ __ (टीका.) उक्तोऽस्नानविधिः। तदनिधानात्सप्तदशस्थानम्। सांप्रतमष्टादशं शोजावर्जनास्थानमुच्यते । शोलायां नास्ति दोषोऽलंकृतश्चापि चरेकर्ममित्यादिवचनात्परानिप्रायमाशंक्याह । नगिणस्स त्ति सूत्रम् । नमस्य वापि कुचैलवतोऽप्युपपचारनग्नस्य निरुपचरितस्य नग्नस्य वा जिनकल्पिकस्येति सामान्य विषयमेव सूत्रम् । मुएमस्य अव्यजावान्याम् । दीर्घरोमनखवतः। दीर्घरोमवतः कदादिषु, दीर्घनखवतोहस्तादौ जिनकल्पिकस्य । इतरस्य तु प्रमाणयुक्ता एव नखा नवन्ति । मैथुनामुपशान्तस्योपरतस्य किं विनूषया राढया कार्यं न किंचिदिति सूत्रार्थः॥६५॥ विनूसावत्तिअं निकू, कम्मं बंध चिक्कणं ॥ संसारसायरे घोरे, जेणं पड दुरुत्तरे ॥६६॥ (श्रवचूरिः) प्रयोजनानावमनिधायापायमाह । विजूषाप्रत्ययं विषानिमित्तं निकुः कर्म बनाति । चिक्कणं दारुणं संसारसागरेऽपारे रौजे । येन कर्मणा पतति कुरुत्तरेऽत्यन्तदीघे ॥ ६६॥ (अर्थ.) (जिस्कू के) निकुः एटले साधु ( विनूसावत्तिभं के) विजूषाप्रत्ययं एटले आन्नूषण निमित्त ( चिकणं के०) चिकणं एटले चीकणा एवा (कम्म के) कर्म एटले कर्मने (बंध के०) बध्नाति एटले बांधे बे. (जेणं के०) येन एटले जे विनूषाए करी ( पुरुत्तरे के० ) पुरुत्तारे एटले कुःखे उतरी शकाय एवा तथा (घोरे के०) घोरे एटले बीहामणा एवा (संसारसायरे के०) संसारसागरे एटले संसाररूप सागरने विषे ( पड के०) पतति एटले पडे .॥ ६६ ॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ( दीपिका.) इत्थं प्रयोजनस्यानावं कथयित्वापायमाह । साधुस्तत्कर्म बनाति । किंनूतं कर्म । विनूषाप्रत्ययं विनूषानिमित्तम् । पुनः किंनूतं कर्म । चिक्कणं दारुणम् । तत्किम् । येन कर्मणा साधुः संसारसागरे नवसमुझे पतति । किंचते संसारे । घोरे रौझे । पुनः किंजूते संसारे। पुरुत्तारेऽकुशलानुबन्धतोऽत्यन्तदीघे ॥ ६६ ॥ (टीका.) श्वं प्रयोजनानावमनिधायापायमाह । विनूस त्ति सूत्रम् । विजूषाप्रत्ययं विनूषानिमित्तं नितुः साधुः कर्म बनाति चिकणं दारुणम् । संसारसागरे घोरे रौजे येन कर्मणा पतति । पुरुत्तारे अकुशलानुबंधतोऽत्यंतदीर्घ इति सूत्रार्थः ॥ ६६ ॥ विनूसावत्तिअं चेअं, बुझा मन्नंति तारिसं॥ सावळं बहुलं चेअं, नेयं ताईहिं सेविअं॥६७ ॥ (अवचूरिः ) बाह्य विनूषापायमनिधाय संकल्पविनूषापायमाह। विजूषाप्रत्ययं चेतो मनो बुझास्तीर्थकरा मन्यन्ते तादृशं रौउकर्मबन्धहेतुनूतं विनूषा क्रियया सदृशं सावद्यबहुलं चैतदातध्यानानुगतं चेतो नैतत्रातृभिः सेवितम् ॥ ६ ॥ (अर्थ. ) ए प्रमाणे प्रथमनी गाथामा बाह्य विनूषाना दोषो कह्या, हवे संकल्परूप विनूषाना दोषो कहे . (बुझा के०) बुझाः एटले तीर्थंकरो साधुना (विनूसावत्तियं के०) विनूषाप्रत्ययं एटले आनूषणना संकल्पसहित एवा (चेयं के) चेतः एटले चित्तने (तारिसं के) तादृशं एटले रौजकर्मबंधनहेतुनूत एवाने ( मन्नंति के० ) मन्यते एटले माने . ( च के०) वली ( एभं के० ) एतत् एटले ए चित्त आर्त्तध्याने करी (सावजाबहुलं के० ) सावद्यबहुलं एटले सावद्यदोषसहित एटले घणा पापy कारण ले तेमाटे ( ताईहिं के०) त्रातृनिः एटले संसारमा फुःखी थता जीवनुं रक्षण करनार एवा आर्य साधुए (न सेविअं के०) न सेवितं एटले सेवन करेवू नथी. ॥ ६७ ॥ (दीपिका. ) एवं बाह्यविनूषायामपायमुक्त्वा संकल्पविनूषायामपायमाह । बुझास्तीर्थकरा एवं विधं चेतः तादृशं मन्यन्ते । रौई कर्मबन्धहेतुनूतं विनूषा क्रियासदृशं जानन्ति । किं० चेतः। विनूषाप्रत्ययं विनूषानिमित्तम् । कोऽर्थः । एवं च यदि मम विनूषा संपद्यत इति तत्प्रवृत्तमित्यर्थः।सावद्यबहुलं च एतत् आर्तध्यानेन अनुगतं चेतो न इत्थंजूतं त्रातृनिः श्रआत्मारामैः आर्यैः साधुनिः सेवितमाचरितं कुशलचित्तत्वात्तेषां साधूनाम् ॥६॥ (टीका.) एवं बाह्य विजूषापायमनिधाय संकल्पविनूषापायमाह। विजूस त्ति सूत्र Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४२१ म् । विभूषाप्रत्ययं विभूषानिमित्तं चेत एवं चैवं च यदि मम विभूषा संपद्यत इति । तत्प्रवृत्त्यङ्गं चित्तमित्यर्थः । बुद्धास्तीर्थकरा मन्यन्ते जानन्ति । तादृशं रौद्रकर्मबन्धहेतुभूतं विभूषा क्रियासदृशं सावद्यबहुलं चैतदार्तध्यानानुगतं चेतः नैतदिवंभूतं त्रातृजिरात्मारामैः साधुनिः सेवितमाचरितम् । कुशल चित्तत्त्वात्तेषामिति सूत्रार्थः ॥ ६७ ॥ खवंतिप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजमवेगुणे ॥ धुति पावाई पुरेकडाई, नवाई पावाई न ते करंति ॥ ६८ ॥ ( अवचूरिः ) उक्ता उत्तरगुणाः । सांप्रतं फलदर्शनेनोपसंहरन्नाह । रुपयन्ति शोधयन्त्यात्मानममोहदर्शिनः । यथाव स्थितार्थदर्श निनः । तपसि रताः । किंभूते । संयमाजवगुणे । त एवंभूता धुन्वन्ति कम्पयन्ति पापानि पुराकृतानि । नवानि प्रत्यग्राणि पापानि ते न कुर्वन्ति साधवः ॥ ६८ ॥ अर्थः- शोजावर्जननामा अढारमुं स्थानक कयुं. तेथी ढारे पापस्थानक कह्या. ते कवाथी उत्तरगुणो कला. हवे ते अढार पापस्थानकनो उपसंहार करता थका कहे . ( मोहदं सिणो के० ) अमोहदर्शिनः एटले मोह रहित वस्तुने जोनारा अर्थात् वस्तुने यथार्थ पणे जाणनारा एवा साधु पोताना (अप्पाणं के० ) श्रात्मानं एटले आत्माने ( खवंति के० ) रुपयंति एटले खपावे, शोधे. (संजमवेगुंणे के० ) संयमार्जवगुणे एटले संयम ने यार्जव बे गुण जेमां एवा (तवे के० ) तपसि एटले तपने विषे ( रया के० ) रताः एटले रक्त सावधान अर्थात् क्षमा दयाए करी युक्त एवा साधु ( पुरेकडाई के०) पुराकृतानि एटले पूर्वे घणा जवना करेला एटले जन्मांतरना संचेला ज्ञानावरणादिक एवा या कर्मो तेने ( धुणंति के ० ) धुन्वंति एटले खपावे, घने वली ( ते के० ) ते साधु (नवाई के० ) नवानि एटले नवीन एटले नवां ( पावाई के० ) पापानि एटले पापोने अर्थात् अशुभ कर्माने ( न करंति के० ) न कुर्वन्ति एटले करे नहि. प्रमत्त होवाथ बांधे नहि. ॥ ६८ ॥ ( दीपिका. ) उक्तः शोजावर्जनास्थानविधिः । तस्यानिधानेन चाष्टादशपदमप्युक्तम् । अष्टादशपदकथनेन च उत्तरगुणा उक्ताः । सांप्रतमुक्तफलदर्शनेनोपसंहारमाह । य एवंविधाः साधव श्रात्मानं जीवं तेन चित्तयोगेन अनुपशांतं शमयोजनेन पयंति । किंभूताः साधवः । यमोह दर्शिनः । श्रमोहं ये पश्यन्ति यथावत् पश्यंति इत्यर्थः । त एव विशेष्यते । पुनः किं० साधवः । तपसि अनशनादिलक्षणे रता यासक्ताः । किंभूते तपसि इत्याह । संयमार्जवगुणे संयमार्जवे गुणों यस्य तपसः तस्मिन् संयमश्जुनावगुणप्रधान इत्यर्थः। त एवंभूताः साधवः पापानि धुन्वन्ति कंपयंति । किंभूतानि पापानि । पुरेकडाई For Private Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४शश राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(५३)-मा. पुराकृतानि जन्मांतरेषूपार्जितानि । पुनस्ते साधवो नवानि पापानि न कुर्वति । तथाप्रमत्तत्वादिति ॥ ६ ॥ __(टीका.) उक्तः शोनावर्जनास्थान विधिः। तदनिधानादष्टादशं पदम् । तदनिधानाच्चोत्तरगुणाः।सांप्रतमुक्तफलप्रदर्शनेनोपसंहरन्नाह। खवंति त्ति सूत्रम् । दपयन्त्यात्मानं तेन तेन चित्तयोगेनानुपशांतं शमयोजनेन जीवम्। किंविशिष्टा इत्याह । अमोहदर्शिनः। अमोहं ये पश्यन्ति यथावत्पश्यन्तीत्यर्थः। त एव विशेष्यन्ते । तपस्यनशनादिलक्षणे रताः सक्ताः। किंविशिष्टे तपसीत्याह । संयमार्जवगुणे संयमार्जवे गुणौ यस्य तपसस्तस्मिन् । संयमझजुनावप्रधाने शुद्ध इत्यर्थः। त एवंनूता धुन्वन्ति कम्पयन्त्यपनयन्ति पापानि पुराकृतानि जन्मान्तरोपात्तानि । नवानि प्रत्ययाणि पापानि न ते साधवः कुर्वन्ति । तथाप्रमत्तत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ सविसंता अममा अकिंचणा, सविङविजाणुगया जसंसियो॥ जनप्पसन्ने विमलेव चंदिमा, सिदि विमाणाई जति ताणो त्ति बेमि ६ए ॥धम्मनकामनयणं बह ॥६॥ (अवचूरिः)सदोपशान्ताःसाधवः अममाः ममत्वशून्या अकिंचनाः स्वर्ण मिथ्यात्वरहिताः। स्वात्मीया विद्या व विद्या परलोकोपकारिणी केवलश्रुतरूपा तया वविद्यविद्यया अनुगता युक्ताः। न पुनः परविद्यया इहलोकोपकारिण्येति । यशस्विनः शुद्धपारलौकिकयशोवन्तः। त एवंनूता इतौ परिणते शरत्काल श्व चन्द्रमा चन्डमा श्व विमला नावमलरहिताः सिदि नितं तथा साधवःशेषकर्माणो विमानानि सौधर्मावतंसकादीन्युपयन्ति गन्ति त्रातारः स्वपरापेदया साधव इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥६॥ इति षष्टाध्ययनावचूरिः॥६॥ (अर्थः) वली ते साधु कहेवा बे, तथा कया पदने पामे वे ते कहे . (सविसं ता के०) सदोपशांताः एटले निरंतर उपशांत क्रोधरहित क्षमावंत, (अममा के०) अममाः एटले व्यथी वस्तु उपर अने नावथी शरीर उपर नथी ममता जेने एवा (अकिंचणा के०) अकिंचनाः एटले परिग्रहरहित, (सविविजाणुगया के०) स्ववियविद्यानुगताः एटले पोतानी जे परलोकोपकारिणी केवलज्ञान अथवा श्रुतझानरूप विया तेणे करी युक्त तथा (जसंसिणो के०)यशखिनः एटले जावधी संयमरूप अने अव्यथी कीर्तिरूप यश तेणे करी युक्त तथा (जनप्पसन्ने के०)झतुप्रसन्ने एटले प्रसन्नरुतुमां एटले शारदीय ऋतुए एटले शरत्कालमां श्रासोकार्तिकनी पूनमनी रात्रेसोलकलासहित Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्। - ४२३ (विमले के०)निर्मल वादलरहित(चंदिमा व के०)चंउमा श्व एटले चंद्रमा शोने तेम साधुना सत्तावीश गुण ते रूप कला सहित अने श्राप कर्मरूप वादल तेणे रहित निर्मल एवा अने(ताश्णो के०)त्रातारः एटले बकायनाजीवने रक्षण करनार एवा साधु (सिकिं के०) सिहिं एटले मुक्तिने(उवंति के०)उपयंति एटले पामे ,अनेकदाचित् जो शेष कर्म रह्या होयतो(विमाणाइंके०)विमानानिएटले सौधर्मावतंसक प्रमुख विमान प्रत्ये पामे .एटले वैमानिक देवता थाय.(तिबेमि के०)इति ब्रवीमि एटले एम शिष्यप्रत्ये गुरु कहे .॥६॥ इति श्रीदशवैकालिकसूत्रस्य षष्ठाध्ययने बालावबोधः समाप्तः ॥६॥ (दीपिका.) किं च । ताणो त्ति त्रातारः स्वस्य परस्य चापेक्ष्या साधवः सिर्डि मुक्तिं व्रजन्ति । तथा केऽपि साधवः शेषकर्माणो विमानानि सौधर्मावतंसकादीन्युपयान्ति सामीप्येन गति । किं साधवः। सदा उपशान्ताः सर्वकालमेव क्रोधरहिताः। पुनः किं साधवः । अयमाः सर्वत्र ममत्वशून्याः।पुनः किं साधवः। अकिंचना हिरण्यादिव्येण मिथ्यात्वादिलावेन च किंचनेन मुक्ताः । पुनः किं साधवः। खात्मीया विद्या खविद्या परलोकोपकारिणी केवलश्रुतरूपा । स्व विद्या चासौ विद्या च वविद्य विद्या तया स्वविद्य विद्यया अनुगता युक्ताः। न पुनः परविद्यया इहलोकोपकारिण्या । पुनः किं साधवः। यशस्विनः शुझेन परलोकसंबन्धिना यशसा सहिताः। पुनः किं साधवः । तौ प्रसन्ने परिणते शरत्कालादौ विमल श्व चंप्रमाः चंजमा श्व विमला इत्येवंकल्पास्ते नावमलरहिता इत्यर्थः। ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ६॥ इति दशवैकालिकसूत्रे धर्मार्थकामाख्ये षष्ठेऽध्ययने श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचिता शब्दार्थवृत्तिः समाप्ता ॥६॥ (टीका.) किं च सदोवसंत ति सूत्रम् । सदोपशान्ताः सर्वकालमेव क्रोधरहिताः। सर्वत्राममा ममत्वशून्याः । अकिंचना हिरण्यादिमिथ्यात्वा दिव्यजावकिंचनविनिर्मुक्ताः । वा आत्मीया विद्या व विद्या परलोकोपकारिणी केवलश्रुतरूपा तया स्वविद्यया विद्ययानुगता युक्ता न पुनः परविद्यया इहलोकोपकारिण्येति । त एव विशेष्यन्ते । यशस्विनः शुद्धपारलौकिकयशोवन्तः। त एवंचूता तो प्रसन्ने परिणते शरत्कालादौ विमल श्व चन्द्रमाः। चन्धमा श्व विमलाः। इत्येवंकल्पास्ते जावमलरहिताः सि िनिर्वृति तथा सावशेषकर्माणो विमानानि सौधर्मावतंसकादीन्युयान्ति सामीप्येन गछन्ति । त्रातारः स्वपरापेक्षया साधव इति ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः सांप्रतं नयास्तेच पूर्ववत् । व्याख्यातं षष्ठाध्ययनम् ॥ ६ ॥ इति श्रीहरिजलसूरि विरचितायां दशवैकालिकवृत्तौ षष्ठमध्ययनम् ॥६॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. अथ वाक्यशुष्ट्याख्यं सप्तममध्ययनम् । चनन्दं खलु नासाणं, परिसंखाय पन्नवं ॥ उन्दं तु विणयं सिके, दो न नासिङ सबसो॥१॥ (अवचूरिः ) श्रथ सप्तमं वाक्यशुध्यध्ययनमारच्यते । पूर्वाध्ययन श्राचारः कथितः । स च निरवद्यवचसा वाच्यः । अतो वाक्यशुझिमाह । चतसृणां खवु नाषाणां खलुशब्दोऽवधारणे चतनृणामेव ज्ञातव्यानां नाषाणां सत्यादीनां परिसंख्याय झात्वा सर्वैः खरूपं प्रकारैरिति वाक्यशेषः । प्रज्ञावान् प्राज्ञः सत्यासत्यामृषाच्यां छान्यामेव । तुरवधारणे। आन्यां विनयं शुप्रयोगं विनीयतेऽनेन कति कृत्वा शिदेत जानीयात् । असत्यासत्यामृषे न नाषेत सर्वशः सर्वैःप्रकारैरिति ॥१॥ (अर्थ.) हवे वाक्यशुद्धि नामक अध्ययन शरू कराय . तेनो पूर्वाध्ययननी साथे आ रीते संबंध जे. पूर्वाध्ययनमां कडं के, गोचरीए गएला साधुने कोइ कांश धर्म संबंधी प्रश्न करे तो त्यांज विस्तरथी धर्मकथा न कहेवी, तो उपासरे कहीश, अथवा मारा गुरु कहेशे, एम कहे. अटली वात कही. हवे ते साधु अथवा तेना गुरु जपासराने विषे पृछकने विस्तरथी धर्मकथा कहे, ते वचनना गुण दोष जाणी निरवद्य वचनश्रीज कहेवी. ए वात श्रा अध्ययनमां कहेवानी . श्रा संबंधथी आवेला ए सातमा अध्ययननु चजन्हें इत्यादि प्रथम सूत्र बे. (पन्नवं के०) प्रज्ञावान् एटले बुझिशाली पुरुष (चउन्हें खलु के०) चतस्मृणामेव एटले चारज (नासाणं के) नाषाणाम् एटले नापाउनु स्वरूप (परिसंखाय के) परिसंख्याय एटले सर्व प्रकारे जाणीने (जुन्हंतु के०) छान्यां तु एटले बेज नाषावडे अर्थात् सत्या अने असत्यामृषा ए बे नाषावडे करीने ज ( विणयं के) विनयं एटले शुरु प्रयोग करवाने ( सिके के) शिदेत एटले शीखे, जाणे. अने बाकी रहेली ( दो के) के एटले बे नाषा ( सवसो के०) सर्वशः एटले सर्व प्रकारे ( न जासिङा के०) न नाषेत एटले न बोले. ॥१॥ (दीपिका.) व्याख्यातं धर्मार्थकामकथानामकं षष्ठमध्ययनम् । अथ वाक्यशुछिनामकं सप्तमध्यायनं व्याख्यायते । अस्य अध्ययनस्य पूर्वाध्ययनेन अयं संबंधः। पूर्वाध्ययन एवमुक्तं गोचरीप्रविष्टस्य साधोः केनापि पृष्टं त्वं स्वकीयमाचारं कथय । तदा तेन स्वाचारं जानतापि महाजनसमदं विस्तरतस्तत्रैव न वक्तव्य आचारः। किं तु उपाश्रये गुरवः कथयिष्यन्तीति वक्तव्यम् । इह सप्तमेऽध्ययने तु उपाश्रयगतेनापि तेन गुरुणा वचनदोषगुणानिझेन निरवद्यवचनेन कथयितव्यमित्येतदुच्यते । उक्तं च Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४२५ सावऊणवजाणं वयणाणं जो न याण विसेसं ॥ वोत्तुं पि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं कालं ॥१॥ इत्यनेन संबंधेना यातमिदमध्ययनम् । तत्र सूत्रम् । प्रज्ञावान् बुकिमान् साधुः छान्यां सत्यासत्यामृषान्यां नाषायां विनयं शुप्रयोगं शिदेत जानीयात् । तुः अवधारणे । छाज्यामेवाज्याम् । तत्र विनय इति कोऽर्थः । विनीयतेऽनेन कर्म इति विनयस्तं विनयं पुनः असत्यासत्यामृषे न जाषेत सर्वशः सर्वैः प्रकारैः। किं कृत्वा । चतसृणां नाषाणां सत्यादीनां परिसंख्याय सर्वैः प्रकारैः ज्ञात्वा । किम् । स्वरूपमिति शेषः । खलुशब्दोऽवधारणार्थे । जापाचतुष्टयमेवास्ति नान्या नाषा वर्तते ॥१॥ (टीका.) सांप्रतं वाक्यशुद्ध्याख्यमध्ययनं प्रारज्यते । अस्य चायमनिसंबन्धः । शहानन्तराध्ययने गोचरप्रविष्टेन सता खाचारं पृष्टेन तद्विदापि न महाजनसमदं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्य इत्यपित्वालये गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्यमित्येतउक्तम् । इह त्वालयगतेनापि तेन गुरुणा वा वचनदोषगुणानिझेन निरवद्यवचसा कथयितव्य इत्येतफुच्यते । उक्तं च। सावजाणवजाणं, वयणाणं जो न याण विसेसं ॥ वोत्तुं पि तस्स ण खमं, किमंग पुण देसणं कालं ॥१॥ इत्यनेनानिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम् । अस्य चानुयोगहारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः। तत्र वाक्यशुकिरिति छिपदं नाम । तत्र वाक्य निदेपानिधानार्थमाह ॥ निकेवो अचउको, वक्के दवं तुनासदवाइं॥नावे नासासदो, तस्स य एगहिणमो॥३५॥ व्याख्या ॥ निक्षेपस्तु चतुष्को नामस्थापनाऽव्यजावलक्षणो वाक्ये वाक्य विषयः। तत्र नामस्थापने कुले। अव्यं तु अव्यवाक्यं पुनईशरीरलव्यशरीरव्यतिरिक्तम्।नाषाअव्याणि नाषकेण गृहीतान्यनुच्चार्यमाणानि । नाव इति जाववाक्यं जाषाशब्दः । नाषाजव्याणि श. ब्दत्वेन परिणतान्युच्चार्यमाणानीत्यर्थः । तस्य तु वाक्यस्य एकाथिकान्यमूनि वयमाणलक्षणानीति गाथार्थः॥ वकं वयणं च गिरा, सरस्सई नारही अ गो वाणी ॥ जासा पन्नवणी दे-सणी अ वयजोग जोगे अ॥३६॥ व्याख्या ॥ वाक्यं वचनं च गी: सरस्वती जारतीच गोर्वाक नाषा प्रज्ञापनी देशनी च वाग्योगो योगश्च एतानि निगदसिकान्येवेति गाथार्थः ॥ ॥ ॥पूर्वोद्दिष्टां अव्या दिनाषामाह ॥ दवे तिविहा गहणे, थ निसग्गे तह नवे पराघाए ॥ जावे दवे असुए, चरित्तमाराहणी चेव॥३७॥ व्याख्या।। अव्य इति छारपरामर्शः। अव्यनाषा त्रिविधा । ग्रहणे च निसर्गे च तथा नवेत्पराघाते । तत्र ग्रहणं नाषाव्याणां काययोगेन यत् । सा ग्रहणव्यनाषा। निसर्गस्तेषामेव नाषाजव्याणां वाग्योगेनोत्सर्गक्रिया । पराघातस्तु निसृष्टनाषाअव्यैस्तद ५४ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ राय धनपतसिंघबहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. 1 न्येषां तथात्मपरिणामापादन क्रियावत्प्रेरणम् । एषा त्रिप्रकारापि क्रिया द्रव्ययोगस्य प्राधान्येन विवक्षितत्वात् द्रव्यमाषेति । जाव इति द्वारपरामर्शः । जावनाषा त्रिविधैव । द्रव्ये च श्रुते चारित्र इति । द्रव्यजावभाषा श्रुतनावभाषा चारित्रजावजाषा च । तत्र द्रव्यं प्रतीत्योपयुक्तैर्या जाष्यते सा द्रव्यभावनाषा । एवं श्रुतादिष्वपि वाच्यम् । इयं त्रिप्रकारापि वत्र निप्रायात्तद्रव्यभावप्राधान्यापेक्ष्या जावभाषा । इयं चौघत एवाराधनी चैवेति । द्रव्याराधनत्वाच्चशब्दा द्विराधनी चोजयं वानुजयं च जवति द्रव्याद्याराधनादिज्य इति । हे द्रव्यजाववाक्यस्वरूपमनिधातव्यं तस्य प्रस्तुतत्वात्तत्किमनया जाषयेत्युच्यते । वाक्यपर्यायत्वाद्भाषाया न दोषः । तत्त्वतस्तस्यैवा निधानादिति गाथासमुदायार्थः ॥ वयवार्थं तु वक्ष्यति । तत्र द्रव्यजावज्ञाषामधिकृत्याराधन्या दिजेदयोजनामा || राहणी दवे, सच्चा मोसा विराहणी होइ ॥ सच्चामोसा मीसा, असच्चामोसा य पडिसेहो ॥ ३८ ॥ व्याख्या ॥ श्राराध्यते परलोकापीडया यथावद निधीयते वस्त्वनयेत्याराधनी तु द्रव्य इति द्रव्यविषया जावनाषा सत्या । तुशब्दात् द्रव्यतो विराधन्य काचित् परपीडासंरक्षणफलजावाराधनादिति । मृषा विराधनी जवति । तद्द्रव्यान्यथा निधानेन तद्विराधनादिति जावः । सत्यामृषा मिश्रा | मिश्रेत्याराधनी विराधनी च । सत्यामृषा च प्रतिषेध इति नाराधनी नापि विराधनी तद्वाच्यद्रव्ये तथोजयानावादित्यासां च स्वरूपमुदाहरणैः स्पष्टीजविष्यतीति गाथार्थः ॥ सत्यामाह ॥ जणवयसम्मयठवणा, नामे रूवे पमुच्च सच्चे श्र ॥ ववहारजावजोगे, दसमे वम्मसच्चे ॥३॥ व्याख्या ॥ सत्यं तावद्वाक्यं च दशप्रकारं जवति । जनपदसत्यादिनेदात् । तत्र जनपदसत्यं नाम नानादेशभाषारूपमप्य विप्रतिपत्त्या यदेकार्थप्रत्यायनव्यवहारसमर्थमिति । यथोदकार्थे कोंकणकादिषु पयः पिच्चमुदकं नीरमित्याद्यडुष्टविवादेतुत्वान्नानाजनपदे विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वाद्व्यवहारप्रवृत्तेः सत्यमेतदित्येवं शेषेष्वपि जावना कार्या । संमतसत्यं नाम कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां समाने पङ्कसंजवे गोपालादीनामपि संमतमरविन्दमेव पङ्कजमिति । स्थापनासत्यं नाम अक्षर - मुद्रा विन्यासादिषु यथा माषकोऽयं, कार्षापणोऽयं शतमिदं सहस्रमिदमिति । नामसत्यं नाम कुलवमर्धयन्नपि कुलवर्द्धन इत्युच्यते, धनमवर्धयन्नपि धनवर्द्धन इत्युच्यते, अयक्षश्च यक्ष इति । रूपसत्यं नाम तङ्गुणस्य तथारूपधारणं रूपसत्यम् । यथा प्रपञ्चयतेः प्रव्रजितरूपधारणमिति । प्रतीत्यसत्यं नाम यथा अनामिकाया दीर्घत्वं ह्रस्वत्वं चेति । तथाहि तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्सहकारिकारणसंनिधानेन तत्तडूपमनिव्यज्यत इति सत्यता । व्यवहारसत्यं नाम दह्यते गिरिर्गलति जाजनमनुदरा कन्या लोमा एडकेति गिरिगततृणादिदाहे व्यवहारः प्रवर्तते, तथोदके च गलति ॥ तत्र Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्। ४२७ सति, तथा संजोगबीजप्रनवोदरानावे च सति, तथा लवनयोग्यलोमानावे सति । नावसत्यं नाम शुक्ला बलाका । सत्यपि पञ्चवर्णसंजवे शुक्लवर्णोत्कटत्वालुक्वेति । योगसत्यं नाम बत्रयोगात्री दएफयोगादएकी चेत्येवमादि । दशभमौपम्यसत्यं च । तत्रौपम्यसत्यं नाम समुज्वत्तडाग इति गाथार्थः॥ ॥ उक्ता सत्याधुना मृषावादमाह । कोहे माणे माया, लोने पेले तहेव दोसे अ॥ हासजए अकाश्य, उवघाए निस्सिया दसमा ॥४॥व्याख्या॥ क्रोध इति।क्रोधनिःसृता यथा । क्रोधानिनूतः पिता पुत्रमाह । न त्वं मम पुत्रः। यहा क्रोधानिनूतो वक्ति तदाशय विपत्तितः सर्वमेवासत्यमिति । एवं माननिःसृता मानाध्मातः क्वचित्केनचिदल्पधनोऽपि पृष्ट आह महाधनोऽहमिति । मायानिःमृता मायाकारप्रनृतय श्रादुर्नष्टो गोलक इति । लोननिःसृता वणिक्प्रनृतीनामन्यथाक्रीतमेवेचमिदं क्रीतमित्यादि । प्रेमनिःसृता अतिरक्तानां दासोऽहं तवेत्यादिः । षनिःसृता मत्सरिणां गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादिः । हास्यनिःस्मृता कान्दर्पिकानां किंचित्कस्यचित्संबन्धि गृहीत्वा पृष्टानां न दृष्टमित्यादि । जयनिःमृता तस्करादिगृहीतानां तथा तथा असमञ्जसानिधानम् । आख्यायिकानिःसृता तत्प्रति. बझोऽसत्प्रलापः । उपघातनिःमृता अचोरे चोर इत्यच्याख्यानवचन मिति गाथार्थः । उक्ता मृषा सांप्रतं सत्यामृषामाह॥ जप्पन्न विगयमीसग, जीवमजीवेशजीवजीवे ॥ तहणंतमीसगा खदु, परित्तझा अ अफका ॥४१॥व्याख्या उत्पन्न विगतमिश्रकेति उत्पन्न विषया सत्यामृषा यथैकं नगरमधिकृत्या स्मिन्नद्य दश दारका उत्पन्ना इत्यजिदध. तस्तन्यूनाधिकनावे व्यवहारतोऽस्याः सत्यामृषात्वात् । श्वस्ते शतं दास्यामि श्त्यनिधाय पञ्चाशत्स्वपि दत्तेषु लोके मृषात्वादर्शनात् । अनुत्पन्नेष्वेवादत्तेष्वेव मृषात्वसिकेः। सर्वथा क्रियानावेन सर्वथा व्यत्ययादित्येवं विगतादिष्वपि नावनीयमिति । तथाच विगतविषया सत्यामृषा यथैकं ग्राममधिकृत्यास्मिन्नद्य दश वृक्षा विगता इत्यनिदधतस्तन्यूनाधिकलावे । एवं मिश्रका सत्यामृषा उत्पन्न विगतोजयसत्यामृषा। यथैकं पत्तनमधिकृत्याहास्मिन्नद्य दश दारका जाता दश च वृका विगता इत्यनिदधतस्तन्यूनाधिकनावे । जीव मिश्रा जीवविषया सत्यामृषा यथा जीवन्मृतकृमिराशौ जीवराशिरिति ।अजीव मिश्रा च अजीव विषया सत्यामृषा यथा तस्मिन्नेवप्रनूतमृतकृमिराशावजीवराशिरिति ।जीवाजीव मिश्रेति जीवाजीवविषया सत्यामृषा यथा तस्मिन्नेव जीवन्मृतकृमिराशौ प्रमाण नियमेनैतावन्तोजीवन्त्येतावन्तश्च मृता इत्यनिदधतस्तन्यूनाधिकनावे । तथानन्तमिश्रा खस्विति अनन्तविषया सत्यामृषा यथा मूलकदान्दौ परीतपत्रादिमत्यनन्तकायोऽयमित्यनिदधतः । परीतमिश्रा परीतविषया सत्यामृषा यथानन्तकायलेशवति परीतम्लानमूलादौ परीतोऽयमित्यनिदधतः । अझामिश्रा कालविषया सत्यामृषा Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. यथा कश्चित् कस्मिंश्चित् प्रयोजने सहायांस्त्वरयन् परिणतप्राये वासर एव रजनी वर्तत इति ब्रवीति । अहमिश्रा च दिवसरजन्येकदेशः अझकोच्यते । तहिषया सत्यामृषा यथा कश्चित् कस्मिंश्चित् प्रयोजने त्वरयन् प्रहरमात्र एव मध्याह्न इत्याह। एवंमिश्रशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यत इति गाथार्थः॥ ॥ उक्ता सत्यामृषा सांप्रतमसत्यामृषामाह॥श्रामंतणि आणवणी, जायणि तह पुतणीअ पन्नवणी॥पच्चरकाणीनासा, नासा श्वाणुलोमा अ॥४॥व्याख्या|श्रामंत्रणी यथा दे देवदत्त इत्यादिः। एषा किलाप्रवर्तकत्वात्सत्यादिनाषात्रयलक्षण वियोगतस्तथा विधदलोत्पत्तरसत्यामृषेति।एवमाशापनी यथेदं कुरु।श्यमपितस्य करणकारणनावतः परमार्थेनैकत्राप्यनियमात्तथाप्रतीतेः अष्टविवदाप्रसूतत्वादसत्यामृषेत्येवं खबुट्यान्यत्रापि नावना कार्येति । याचनी यथा निदां प्रयति । तथा प्रबनी यथा कथमेतदिति । प्रज्ञापनी यथा हिंसादिप्रवृत्तो कुःखितादिर्जवति । प्रत्याख्यानी लाषा यथादित्सेति नाषा । श्वानुलोमा च यथा केनचित्कश्चिमुक्तः साधुसकाशं गछाम इति स थाह शोजनमिदमिति गाथार्थः ॥४२॥ अणजिग्गहिया नासा, नासा अ अनिग्गहंमि बोधवा ॥ संसयकरणी नासा, वायडवायडा चेव ॥४३॥व्याख्या॥ अननिगृहीता नाषा अर्थमननिगृह्य योच्यते डिस्थादिवत् । नाषा चानिगृहे बोडव्या अर्थमनिगृह्य योच्यते घटादिवत् । तथा संशयकरणी च जाषा अनेकार्थसाधारणा योच्यते । सैन्धवमित्यादिवत् । व्याकृता स्पष्टा प्रकटार्था देवदत्तस्यैष जातेत्यादिवत् । अव्याकृता चैवास्पष्टाप्रकटार्था बाललवादीनां थपनिकेत्यादिवदिति गाथार्थः ॥ ४३ ॥ उक्ता सत्यामृषा । सांप्रतमोघत एवास्याः प्रविनागमाह ॥ सवाविथ सा सुविहा, पजत्ता खलु तहा अपजात्ता ॥ पढमा दो पत्ता, जवरिता दो अपऊत्ता ॥४४ ॥ व्याख्या ॥ सर्वापि च सा सत्यादिन्नेदनिन्ना भाषा विविधा । पर्याता खलु तथापर्याप्ता । पर्याप्ताया एकपदे निक्षिप्यते सत्या वा मृषा वेति । तध्व्यवहारसाधनी तहिपरीता पुनरपर्याता श्रतएवाह । प्रथमे के नाषे सत्यामृषे पर्याप्ते । तथा स्व विषयव्यवहारसाधनात्तथा उपरितने के सत्यामृषासत्यामृषानाषे अपर्याते। तथा स्वविषयव्यवहारासाधनादिति गाथार्थः ॥ ४४ ॥ उक्ता अव्यनावनाषा । सांप्रतं श्रुतनावनाषामाह ॥ सुअधम्मे पुण तिविहा, सच्चा मोसा असचमोसाथ ॥ सम्म दिही उ सुवगर्ज सो जासई सञ्चं ॥ ४५ ॥ व्याख्या ॥श्रतधर्म इति श्रतधर्मविषया पुनस्त्रिविधा जवति नावनाषा । तद्यथा सत्या मृषा सत्यामृषा चेति । तत्र सम्यग्दृष्टिस्तु सम्यग्दृष्टिरेव श्रुतोपयुक्त इत्यागमे यथावदुपयुक्तो यः स नाषते सत्यमागमानुसारेण वक्तीति गाथार्थः॥ सम्मदिही उसुअंमि, अणउत्तो अहेडगं चेव ॥ अंजास सा मोसा, मिठादिही विथ तहेव ॥ ४६ ॥ व्याख्या ॥ सम्म दिही सम्य Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४ए ग्दृष्टिरेव सामान्येन श्रुते श्रागमे अनुपयुक्तः प्रमादाद्यत्किंचिदहेतुकं चैव यन्नाषते । तन्तुज्यः पट एव नवतीत्येवमादि सा मृषा विज्ञानादेरपि तत एव नावादिति । मिथ्यादृष्टिरपि तथैवेत्युपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यन्नाषते सा मृषैव घुणाकरन्यायसंवादेऽपि सदसतोरविशेषाद्यहडोपलब्धेरुन्मत्तवदिति गाथार्थः ॥ हवश् उ असच्चमोसा, सुअंमि जवरिखए तिनाणं मि ॥ जं जवउत्तो नास, एत्तो वोठं चरित्तंमि ॥४७॥ व्याख्या। हवर नवति तु असत्यामृषा श्रुते श्रागम एव परावर्तनादि कुर्वतः प्रायस्तस्यामंत्रएयादि नाषारूपत्वात्तथोपरितनेऽवधिमनःपर्यायकेवललदणे त्रिज्ञान इति ज्ञानत्रयेऽपि यदुपयुक्तो नाषते सा असत्यामृषा आमंत्रण्यादिवत् तथाविधाध्यवसायप्रवृत्तेरित्युक्ता श्रुतनावनाषा । अत ऊर्ध्वं वदये चारित्र इति चारित्रविषयां नावनाषामिति गाथार्थः ॥ पढमबिश्या चरित्ते, नासा दो चेव होंति नायबा ॥ सचरित्तस्स उ जासा, सच्चामोसा उ अरस्स ॥४७॥ व्याख्या ॥ प्रथमहितीये सत्यामृषे चारित्र इति चारित्रविषये नाणे के एव जवतो ज्ञातव्ये । स्वरूपमाह । सचरित्रस्य चारित्रपरिणामवतः । तुशब्दात्तहिनिबन्धनन्जूता च नाषा अव्यतस्तथान्यथाजावेऽपि सत्या सतां हितत्वादिति । मृषा वितरस्याचारित्रस्य तधिनिबन्धनलूता चेति गाथार्थः॥ ॥उक्तं च वाक्यमधुना शुकिमाह ॥णामं उवणा सुकी, अदवसुद्धी अनावसुद्धी श्र॥ एएसिं पत्तेअं, परूवणा हो कायवा ॥४ए ॥ व्याख्या ॥ नामशुद्धिः स्थापनाशुछिर्षव्यशुद्धिश्च जावशुकिश्च । एतेषां नामशुष्ट्यादीनां प्रत्येकं प्ररूपणा जवति कर्तव्येति गाथार्थः ॥ तत्र नामस्थापने कुष्मत्वादनङ्गीकृत्य प्रव्यशुछिमाह ॥ तिविहा उ दवसुद्धी, तद्दवादेस पहाणे थ ॥ तद्दव्वगमाएसो, अणममीसा हवर सुद्धी ॥५०॥ व्याख्या ॥ त्रिविधा तु अव्यशुछिर्जवति । तद्र्व्यत इति तद्रव्यशुद्धिरादेशत इति आदेशजव्यशुद्धिः। प्राधान्यतश्चेति प्राधान्यऽव्यशुकिश्च । तत्र तव्यशुद्धिः। अनन्येत्यनन्याव्यशुद्धिर्यव्यमन्येन अव्येण सहासंयुक्तं सबुकं नवति दीरं दधि वासौ तद्व्यशुद्धिः। आदेशे मिश्रा नवति शुकिरन्यानन्यविषया। ए. तमुक्तं नवत्यादेशतोऽव्यशुकिर्मिविधा।अन्यत्वेनानन्यत्वेन च । अन्यत्वे यथा शुद्धवासा देवदत्तः। अनन्यत्वे शुरुदन्त इति गाथार्थः॥ ॥प्रधानऽव्यशुछिमाह । वसरसगंधफासे, समणुला सा पहाण सुकी॥तब उ सुकिल महुरा, उ समया चेव पुक्कोसा ॥५१॥ व्याख्या ॥ वर्णरसगन्धस्पर्शेषु या मनोज्ञता सामान्येन कमनीयता । अथवा मनोइता यथानिप्रायमनुकूलता सा प्राधान्यतः शुझिरुच्यते। तत्र चैवंचूतचिन्ताव्यतिकरे शुक्कमधुरौ वर्णरसौं। तुशब्दात्सुरन्निमृद् गन्धस्पर्शीच संमतौ।यथानिप्रायमपि प्रायो मनोझौ बदनामिजं प्रवृत्तिसिकेः । उत्कृष्टौ च कमनीयौ च । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः॥ ॥ उक्ता अव्यशुधिरधुना नावशुछिमाह ॥ एमेव नावसुद्धी, तनावाएसट पहाणे अ ॥ तनावगमाएसो, अणममीसा हव सुखी ॥ ५५ ॥ व्याख्या ॥ एवमेवेति यथा अव्यशुधिस्तथा नावशुद्धिरपि त्रिविधेत्यर्थः। तनाव इति । तन्नावशुद्धिः। श्रादेशत इति श्रादेशनावशुधिः। प्राधान्येन चेति प्राधान्यनावशुद्धिश्च । तत्र तनावशुधिः। श्रनन्येत्यनन्यत्नावशुधिस्तनावशुकिः । यो नावोऽन्येन नावेन सहासंयुक्तः सन् शुको नवति। बुजुदितादेरनाद्यनिलाषादिवदसौ तनावशुद्धिः । आदेशे मिश्रा जवति शुधिस्तदन्यानन्यवि. षयेत्यर्थः । एतमुक्तं नवत्यादेशनावशुकिर्मिविधा अन्यत्वेऽनन्यत्वे च । अन्यत्वे यथा शुरुजावस्य साधोर्गुरुः। अनन्यत्वे शुमजाव शति गाथार्थः॥॥ प्रधानन्नावशुकिमाह॥दसणनाणचरित्ते, तवो विसुकी पहाणमाएसो॥ जम्हा उ विसुधमलो, तेण विसुको हव सुको ॥५३॥व्याख्या॥दर्शनशानचारित्रेषु दर्शनशानचारित्रविषया तथा तपोविशुद्धिः प्राधान्यादेश इति। यदर्शनादीनामादिश्यमानानांप्रधानंसाप्रधानन्नावशुद्धिर्यथा दर्शनादिषु दायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्राणि। तपःप्रधाननावशुझिरान्तरतपोऽनुष्ठानाराधनमिति।कथं पुनरियं प्रधानन्नावशुकिरिति । उच्यते। एनिदर्शनादिनिःशुकेर्यस्मा हिशुझमलो जवति साधुः। कर्ममलरहित इत्यर्थः। तेन च मलेन विशुको मुक्तो नवति सिक इत्यतः प्रधानन्नावशुझियथोक्तान्येव दर्शनादीनीति गाथार्थः॥॥ उक्ता शुकिरिह च नावशुष्याधिकारः । सा च वाक्याफेनवतीत्याह ॥ जं वकं वयमाणस्स, संजमो सुतई न पुण हिंसा ॥ न य अत्तकलुसजावो, तेण इहं वकसुफित्ति ॥५४॥ व्याख्या ॥ यद्यस्माछाक्यं शुरूं वदतः सतः संयमः शुद्ध्यति शुध्यतीति निर्मल उपजायते । न पुनर्हिसा नवति कौशिकादेरिव।न चात्मनः कलुषनावः कानुष्यं पुष्टानिसंधिरूपं जायते । तेन कारणेन इह प्रवचने वाक्यशुकिरपेक्षिता। वाक्यशुकि वशुद्धेनिमित्तमित्यतोऽत्र यतितव्यमिति गाथार्थः॥ ॥ ततश्चैतदेवं कर्तव्यमित्याह ॥ ॥ वयण विजत्ती कुसल-स्स संजमंमी उ कयमश्स्स ॥ फुप्तासिएण हुऊहु, विराहणा तब जश्वं ॥ ५५ ॥ व्याख्या ॥ वचनविनक्तिकुशलस्य वाच्येतरवचनप्रकारानिज्ञस्य न केवल मिळनूतस्यापितु संयम उद्यतमतेरहिंसायां प्रवृत्तचित्तस्येत्यर्थः । तस्याप्येवंचूतस्य कथंचिदु र्षितेन कृतेन नवेहिराधना परलोकपीडा । अतस्तत्र पुर्जाषितवाक्यपरिझाने यतितव्यं प्रयत्नः कार्य इति गाथार्थः॥ ॥ थाह । यद्ये वमलमनेनैव प्रयासेन मौनमेव श्रेय इति । न । अज्ञस्य तत्रापि दोषादाह च ॥ वयण विनत्तिअकुसलो, वढंगयं बहुविहं अयाणंतो ॥ जविन जासश् किं वी, नचेव वयगुत्तयं पत्तो ॥५६॥व्याख्या॥ वचनविजयकुशलो Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४३१ वाच्येतरप्रकारानजिज्ञः । वाग्गतं बहुविधमुत्सर्गादिनेदनिन्नमजानानः यद्यपि न जाषते किंचित्। मौनेनैवास्ते नचैव वाग्गुप्ततां प्राप्तः। तथाप्यसौ अवाग्गुप्त एवेति गाथार्थः॥ ॥ व्यतिरेकमाह ॥ वयण विजत्तीकुसलो, वांगयं बहुविहं वियाणंतो॥दिवसं पि नासमाणो,तहा वि वश्गुत्तयं पत्तो ॥५॥व्याख्या॥ वचन विनक्तिकुशलो वाच्येतरप्रकारानिज्ञः वाग्गतमुत्सर्गादिन्नेदनिन्नं विजानन् दिवसमपिनाषमाणः सिद्धान्तविधिना तथापि वाग्गुप्ततां प्राप्तः । वाग्गुप्त एवासाविति गाथार्थः ॥ ॥ सांप्रतं वचनविनक्तिकुशलस्यौघतो वचनविधिमाह।पुवं बुद्धीए पेहित्ता, पहावयमुयाहरे ॥ अचस्कुठव नेतारं बुझिमन्नेउ ते गिराएजाव्याख्या॥पूर्व प्रथमेव वचनोच्चारणकाले बुद्ध्या प्रेदय वाच्यम्। दृष्ट्वा पश्चाछाक्यमुदाहरेत् । अर्थापत्त्यापि कस्यचिदपीडाकरमित्यर्थः। दृष्टान्तमाह ।थचकुष्मानिवान्ध श्व नेतारमाकर्षकं बुद्धिमन्वेतु गीर्बुष्यनुसारेण वाक्प्रवर्ततामिति श्लोकार्थः ॥ ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निदेपः। सांप्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदं चउन्हें सूत्रम्। चतसृणां खलु जाषाणां । खखुशब्दोऽवधारणे। चतसृणामेव । नातोऽन्या नाषा विद्यत इति । नाषाणां सत्यादीनां परिसंख्याय सर्वैः प्रकारैत्विा। स्वरूपमिति वाक्यशेषः। प्रज्ञावान् प्राझो बुद्धिमान् साधुः। किमित्याह । छायां सत्यासत्यामृषाच्याम् । तुरवधारणे । छान्यामेवान्यां विनयं शुभप्रयोगं । विनीयतेऽनेन कर्मेति कृत्वा शिदेत जानीयात् । असत्यासत्यामृषे न जाषेत सर्वशः सर्वैः प्र. कारैरिति सूत्रार्थः ॥१॥ जा अ सच्चा अवत्तवा, सच्चामोसा अ जा मुसा ॥ जा अ बुधेहिं नाश्ना, न तं नासिक पन्नवं ॥२॥ (अवचूरिः) या च सत्या परमवक्तव्या सावद्यत्वेनामुत्र स्थिता पक्षीति कौशिकजाषावत् । सत्यामृषा चात्र नगरे दश दारका जाता इति प्रनृति या बुबैरनाची । असत्यामृषा थामन्त्रण्याज्ञापन्यादिका न तां जाषेत प्रशावान् ॥२॥ . (अर्थ.) (जा च के०) या च एटले जे (सच्चा के०) सत्या एटले सत्य एवी पण नाषा सावध होवाथी (श्रवत्तवा के०) अवक्तव्या एटले बोलवा लायक नथी. (जा अ के०) या च एटले जे ( सच्चामोसा के०) सत्यामृषा एटले सत्यामृषा एवी नाषा (अ के०) च एटले तथा (मुसा के०) मृषा एटले असत्यनाषा ए बन्ने जाषा सर्वथा बोलवा योग्य नथी. (थ के०) च एटले तथा (जा के०) या ए. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. टले जे आमंत्रण्यादि असत्यामृषा नाषा ( बुझेहिं के ) बुझैः एटले तीर्थकरोए (नाइन्ना के०) नाचरिता एटले श्राचीर्ण नथी. (तं के ) तां एटले ते जापाने (पन्नवं के०) प्रज्ञावान् साधु (न नासिङ के०) न नाषेत एटले बोले नहि. ॥२॥ ( दीपिका.) विनयमेवाह । प्रज्ञावान् बुद्धिमान् साधुः तां नाषां न नाषेत । न इत्थंभूतां वाचमुदाहरेत् । तां कामित्याह । या च सत्या नाषा सा पदार्थतत्त्वमङ्गीकृत्यावक्तव्या सावद्यत्वेनानुच्चारणीया । यथा अमुत्र स्थिता पवीति कौशिकनामतापसनाषावत् । तत्सत्यमपि न ब्रूयात् परपीडाकरं वचः॥ तत्सत्यस्य प्रसादेन कोशिको नरकं गतः ॥ या च सत्यामृषा साप्यवक्तव्या न वक्तव्या । यथा दश दारका जाताः। मृषा च नाषा सर्वैव न वक्तव्या । या च नाषा बुबैस्तीर्थकरैर्गणधरैश्च नाचीर्णा । असत्यामृषा आमन्त्रण्याज्ञापन्यादिलक्षणा अविधिपूर्वकं खरादिना प्रकारेण तामपि न नाषेत इति गाथार्थः॥२॥ (टीका.) विनयमेवाद । जा अ सच त्ति सूत्रम् । या च सत्या पदार्थतत्त्वमंगीकृत्यावक्तव्यानुच्चारणीया सावद्यत्वेन अमुत्र स्थिता पल्लीति कौशिकनाषावत् । सत्यामृषा वा यथा दश दारका जाता इत्यादिलक्षणा । मृषा च संपूर्णैव । च शब्दस्य व्यवहितः संबन्धः। या च बुबैस्तीर्थकरगणधरैरनाचरिता असत्यामृषा आमन्त्रण्याझापन्यादिलक्षणा श्रविधिपूर्वकं खरादिना प्रकारेण नैनां नाषेत नेत्थंनूतां वाचं समुदाहरेत् । प्रज्ञावान् बुद्धिमान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥२॥ असच्चमोसं सच्चं च, अपवङमकक्कसं॥ समुप्पेदमसंदिठं, गिरं भासिक पन्नवं ॥ ३ ॥ (अवचूरिः) उक्तावाच्या । वाच्यामाह । असत्यामृषां सत्यां च । श्यं सावद्यापि सकर्कशापि जवतीत्याह । असावद्यामकर्कशां समुत्प्रेदय विचार्य स्वपरोपकारिणीम सन्दिग्धां स्पष्टां गिरं नाषेत ब्रूयात् ॥३॥ (अर्थ.) बोलवा अयोग्य नाषा कही. हवे बोलवा योग्य जे नाषा ते कहे . ( पन्नवं के०) प्रज्ञावान् एटले बुद्धिमान साधु (अणवऊ के०) अनवद्यां एटले पापरहित एवी तथा (अककसं के०) अकर्कशां एटले जे कठोर नहि अर्थात् जेथी मत्सर विगेरे उत्पन्न न थाय एवी (असच्चमोसं के०) असत्यामृषां एटले असत्यामृषा नाषा (च के०) अने ( सच्चं के०) सत्यां एटले सत्य नाषा ( सम्मुप्पेहं के०) समुत्प्रेक्ष्य एटले परोपकार करनारी एवो निश्चय करीने (असंदिऊं Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४३३ के० ) असंदिग्धां एटले स्पष्ट, कोश्ने संशय न रहे तेवी रीते (जासिज के०) लाषेत एटले बोले.॥३॥ (दीपिका.) यथाजूता च नाषा न वाच्या सोक्ता। अथ यथाजूता वाच्या तामाह । प्रज्ञावान् बुद्धिमान् । कः।साधुः। एवमसत्यामृषामुक्तलक्षणां गिरं नाषां नाषेत ब्रूयात् । किंजूतां गिरम् । सत्याम् । श्यं च जाषा सावद्यापि कर्कशापि जवत्यत श्राद । किंनूतां गिरम्।अनवद्याम् । अवयं पापं तेन रहिताम् । पुनः किंलूतां गिरम् । श्रकर्कशां कठोरवचनरहिताम् । किं कृत्वा नाषेत । समुत्प्रेक्ष्य स्वस्य परस्य चोपकारकारिणीति बुद्ध्या पर्यालोच्य । पुनः किंजूतां गिरम्।श्रसंदिग्धां स्पष्टां तत्कालंप्रतिपत्तिहेतुम् ॥३॥ (टीका.) यथाजूतावाच्या नाषा तथानूतोक्ता। सांप्रतं यथासूता वाच्या तथा. नूतामाह । असच्चमोसं ति सूत्रम् । असत्यामृषामुक्तलक्षणां सत्यां चोक्तलक्षणामेव । श्यं च सावद्यापि कर्कशापि नवत्यत थाह। अनवद्यामपापामकर्कशामतिशयोक्या ह्यमत्सरपूर्वी संप्रेक्ष्य खपरोपकारिणीति बुख्यालोच्य असंदिग्धां स्पष्टामदेपेण प्रतिपत्तिहेतुं गिरं वाचं नाषेत ब्रूयात् । प्रज्ञावान् बुद्धिमान् साधुरिति सूत्रार्थः॥३॥ एअं च अहमन्नं वा, जंतु नामे सासयं ॥ स नासं सच्चमोसं च, तं पि धीरो विवाए ॥४॥ __ (श्रवचूरिः) सांप्रतं सत्यामृषानिषेधार्थमाह । एतं चार्थमनन्तरप्रतिषिर्क सावद्यकर्कश विषयमन्यं वा एवंजातीयम् । एतन्मध्याद्य एव कश्चिदर्थो नामयत्यननुगुणं प्रतिकूलं करोति शाश्वतं मोक्षम्। तमाश्रित्य स साधुः पूर्वोक्तनापानाषकत्वेनाधिकृतो जाषां सत्यामृषामपि पूर्वोक्ताम् । श्रपिशब्दात् सत्यापि या तथाजूता तामपि धीरो धीमान् वर्जयेत् ॥४॥ (अर्थ.) हवे सत्यनाषा अने सत्यामृषा जाषानो प्रतिषेध कहे . (जं तु के०) यस्तु एटले जे अर्थ निश्चयथी (सासयं के०) शाश्वतं एटले शाश्वत एवा मोक्षने (नामे के०) नामयति एटले प्रतिकूल करे, अर्थात् मोदने हरकत उत्पन्न करे, ते ( एवं के०) एतं एटले आ उपर कहेला सावद्य तथा कर्कश नाषारूप (अहं के०) अर्थ एटले बोलवाना विषयने (च के०) तथा (अमं वा के०) अन्यं वा एटले एवाज बीजा विषयने श्राश्रयीने (धीरो के ) धीरः एटले धीर एवो (स के०) सः एटले ते पूर्वोक्त साधु ( सच्चमोसं नासं के०) सत्यामृषां नाषां एटले सत्यामृषा Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. लाषा प्रत्ये(च के०) वली अपि शब्दथी ते प्रकारनी जे सत्यनाषा (तं पि के०) तामपि एटले ते नाषाने पण (विवाए के०) विवर्जयेत् एटले विशेषेकरीने वर्जे. ॥४॥ . (दीपिका.) सांप्रतं सत्यामृषालाषाप्रतिषेधार्थमाह । धीरो बुद्धिमान् साधुः एतं च अर्थ पूर्वं प्रतिषिर्क सावद्यकर्कशवचन विषयं च एतजातीयमेतत्सदृशं प्राकृतत्वात् यस्तु नामयति शाश्वतं । अत्र य एव कश्चिदर्थो नामयति । कोऽर्थः। अननुगुणं करोति । कोऽर्थः । मोदमनुकूलं न करोति । स शाश्वतं मोक्षमाश्रित्य पूर्वोक्तनाषाला. षकत्वेन अधिकृतो नाषां सत्यामृषामपि पूर्वोक्ताम् । अपिशब्दात् सत्यापि या तथाजूता तामपि नाषां विवर्जयेत् ॥ ४॥ . (टीका.) सांप्रतं सत्यासत्यामृषाप्रतिषेधार्थमाह । एरं च त्ति सूत्रम् । एतं चार्थमनन्तरप्रतिषिर्क सावद्यकर्कशविषयमन्यं वा एवंजातीयं प्राकृतशैल्या यस्तु नामयति शाश्वतं य एव कश्चिदर्थो नामयत्यननुगुणं करोति शाश्वतं मोदं तमाश्रित्य स साधुः पूर्वोक्तनापानाषकत्वेनाधिकृतो नाषां सत्यामृषामपि पूर्वोक्ताम् । श्रपिशब्दात्सत्यापि या तथाजूता तामपि धीरो बुद्धिमान्विवर्जयेदिति नावः। श्राह । सत्यामृषालापाया उघत एव प्रतिषेधात्तथाविधसत्यायाश्च सावद्यत्वेन गतार्थं सूत्रमित्युच्यते । मोक्षपीडाकरं सूममप्यर्थमंगीकृत्यान्यतरनापानाषणमपि न कर्तव्यमित्यतिशयप्रदर्शनपरमेतदृष्टव्यमेवेति सूत्रार्थः ॥४॥ वितहं पि तहामुत्तिं, जं गिरं नासए नरो॥ तम्हा सो पुछो पावेणं, किं पुणं जो मुसं वए ॥५॥ (श्रवचूरिः) मृषालाषारदार्थमाह। वितथमतथ्यम्।अपिर्निन्नक्रमेण। तथामूर्त्यपि कथंचित्तत्स्वरूपमपि वस्तु पुरुषनेपथ्यस्थितस्याद्यप्यङ्गीकृत्य यां गिरं नाषते नरः श्यं स्त्री आगबति गायति वा । तस्मानाषणादेवंचूतात्पूर्वमेवासौ स्पृष्टो बकः पापेन । किं पुनर्यो मृषा वक्ति ॥५॥ (अर्थ.) हवे मृषा नाषाथी रक्षण करवाने अर्थे कहे . ( नरो के०) नरः एटले मनुष्य ( वितहं के०) वितथं एटले असत्य उतां कोश्पण रीते ( तहामुत्तिं के० ) तथामूर्ति एटले सत्यवस्तु जेवू स्वरूप पामेली वस्तु जेम के पुरुषनो वेष धारण करवाथी पुरुषपणाने पामेली स्त्रीने श्राश्रयीने पण (जं के०) यां एटले जे (गिरं के) गिरं एटले वचन प्रत्ये (नासए के०) नाषते एटले बोले. (तम्हा के०) तस्मात् ए. टले ते वचन थकी ( सो के०) सः एटले ते बोलनार पुरुष पूर्वोक्त वचन बोलवा. Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४३५ नो विचार मनमां श्राणे , तेज समये ( पावेणं के० ) पापेन एटले पाप कर्मवडे ( पुछो के० ) स्पृष्टः एटले फर्साय बे, अर्थात् कर्मबंधन पामे . एम डे तो (जो के० ) यः एटले जे पुरुष (मुसं के० ) मृषा एटले जेथी प्राणीनो उपघात थाय एवी असत्य नाषाने (वए के०) वदेत् एटले बोले, ते पुरुष (किं पुण के) किं पुनः एटले पाप कर्मवडे बंधाय एमां शुं कहे? ॥५॥ (दीपिका.) सांप्रतं मृषाजाषायाः संरक्षणार्थमाह । यो नरो वितथमसत्यं तथामूर्त्यपि कथंचित्तत्वरूपं वस्तु पुरुषनेपथ्यस्थितवनिताद्यपि अङ्गीकृत्य यां गिरं नाषते यथा श्यं स्त्री थागबति गायति वा इत्यादिरूपाम् । असौ अपि नरः तस्मात् नाषणादेवंजूतात् जाषणात् पूर्वमेव नाषणानिसंधिकाले पापेन कर्मणा स्पृष्टो बझः। किं पुनर्यो मृषा प्राणघातकारिणीं वाचं वदेत् । स वक्ता अतिशयेन पापकर्मणा बध्यत इत्यर्थः॥५॥ (टीका. ) सांप्रतं मृषालाषासंरक्षणार्थमाह । वितहं पि त्ति सूत्रम् । वितथमतथ्यं तथामूर्त्यपि कथंचित्तत्स्वरूपमपि वस्तु थपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः । एतउक्तं जवति । पुरुषनेपथ्यस्थितवनिताद्यप्यङ्गीकृत्य यां गिरं नाषते नरः । श्यं स्त्री आगति गायति वेत्यादिरूपां तस्मानाषणादेवंन्नूतात्पूर्वमेवासौ वक्ता नाषणानिसंधिकाले स्पृष्टः पापेन बकः कर्मणा । किं पुनर्यो मृषा वक्ति नूतोपघातिनी वाचं स सु. तरां वध्यत इति सूत्रार्थः॥५॥ तम्दा गबामो वरकामो, अमुगं वा णे नविस्स॥ अहं वा णं करिस्सामि, एसो वा णं करिस्स ॥६॥ (अवचूरिः ) यस्मादेवं तस्माजमिष्यामः श्व इतोऽन्यत्र वदयाम एवश्वस्तत्तदौषधहेतुम्।अमुकं वा नः कार्य वसत्यादिकं नविष्यत्येव । अहं वेदं लोचं करिष्याम्येव नियमेन । एष एवास्माकं विश्रामणादि करिष्यत्येव ॥६॥ (अर्थ.) जे कारण माटे असत्य बतां सत्य जेवू खरूप पामेली वस्तु आश्रयी वचनथी कर्मबंध थाय , ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारण माटे श्रावती काले अहिथी बीजे स्थानके (गछामो के०) गमिष्यामः एटले अवश्य जश्शूज. थावतीकाले अमुक औषध प्रमुख (वरकामो के० ) वक्ष्यामः एटले अवश्य कहीशुंज (वा के०) अथवा (णे के०) नः एटले अमारुं ( अमुगं के०) अमुकं एटले अमुक वसति प्रमुख कार्य (नविस्स के० ) नविष्यति एटले थशेज. (वा के०) अथवा Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अहं के०) अहं एटले हुँ (णं के० ) श्दम् एटले श्रा कार्य ( करिस्सामि के) करिष्यामि एटले अवश्य करीश. (वाके) अथवा ( एसो के०) एषः एटले आ साधु (णं के०) श्दम् एटले था माझं विश्रामणादि कार्य (करिस्सर के०) करिष्यति एटले करशेज. ॥६॥ __(दीपिका.) पुनः कीदृशी भाषां साधुन वदेदित्याह । यस्माहितथं तथामूर्त्यपि वस्तु अङ्गीकृत्य जाषमाणो बध्यते पापकर्मणा तस्माघ्यं गमिष्याम एव श्व स्तोऽन्यत्र । वयाम एव श्वस्तत्तदोषधनिमित्तं अमुकं वा नोऽस्माकं वसत्यादि कार्य जविष्यत्येव । अहं च इदं लोचादि करिष्यामि नियमेन । एष वा साधुरस्माकं विश्रामणादिकं करिष्यत्येव ॥६॥ (टीका.) तम्ह ति सूत्रम् । यस्माहितथं तथामूर्त्यपि वस्त्वङ्गीकृत्य नाषमाणो बध्यते । तस्माजमिष्याम एव श्व इतोऽन्यत्र । वक्ष्याम एव श्वस्तत्तदोषधनिमित्तमिति । श्रमुकं वा नः कार्य वसत्यादि नविष्यत्येव । अहं चेदं लोचादि करिष्यामि नियमेन । एष वा साधुरस्माकं विश्रामणादि करिष्यत्येवेति सूत्रार्थः ॥६॥ एवमा न जा नासा, एसकालंमि संकिआ॥ संपयाश्अमहे वा, तं पि धीरो विवज्जए॥ ७॥ (अवचूरिः) एवमाद्या तु या नाषा एष्यत्काले शंकिता बहुविघ्नत्वान्मुहर्तादीनां सांप्रतातीतयोरपि या शंकिता । सांप्रतार्थे स्त्रीनरानिश्चय एष पुरुष इति । अतीतार्थेऽप्येवमेव । बलीवईतत्रूयाद्य निश्चये तदा च गौरस्मानिर्दृष्टेति । याप्येवंचूता नाषा शङ्किता । तामपि धीरो विवर्जयेत् ॥ ७॥ (अर्थ.) ( एवमान के ) एवमाया तु एटले इत्यादिक (एसकालंमि के०) एष्यत्काले एटले नविष्य काल संबंधी अर्थात् नावी कालमां बनवानी जे वात ते वात संबधी (वा के०) अथवा (संपयाश्श्रम के०) सांप्रतातीतार्थयोः एटले वर्तमान कालमां बनती वात संबधी तथा अतीतकालमां थ गएल वात संबंधी (जा के०) या एटले जे (जासा के०) जाषा एटले नाषा (संकिथा के०) शंकिता एटले शंकायुक्त होय, ( तं पि के०) तामपि एटले ते नाषाने पण (धीरो के) धीरः एटले धीर एवो साधु ( विवजए के) विवर्जयेत् एटले वर्जे, बोले नहि. नाविकालमां बनवानी जे वस्तु तेनो कांज निश्चय कही शकाय नहि. कारण के, कणे कणे अंतराय ताकी रह्या , माटे जावि वात शंकित होय जे. तेम Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४३७ वर्तमान कालनी वात पण शंकित होय , जेम कोश् माणसने दूरश्री देखिये तो तेना स्त्रीपुरुषपणानो निश्चय थतो नथी. तथा अतीतकालनी वस्तु पण शंकित होय बे, जेमके स्थूलदृष्टिए देखवाथी गाय डे के बलद डे तेनो निर्णय कस्या विना मात्र थापणे व्यक्ति जोश होय तो तेना स्त्रीपुरुषपणानो संशय रहे .श्रा रीते नूत, जावी अने वर्तमान काले शंकित वात होय ते साधुए निश्चित न बोलवी.॥७॥ (दीपिका.) तर्हि किं कर्तव्यमित्याह । धीरः पंडितः साधुरेवमाद्या या जाषा। आदिशब्दात् पुस्तकं ते दास्याम्येवेत्यादिग्रहणम् । एष्यत्काले नविष्यत्काल विषया बहुविघ्नत्वान्मुहर्तादीनां शंकिता किमिदमित्रमेव नविष्यति उतान्यथेति अनिश्चितगोचरा तथा सांप्रतातीतार्थयोरपि या शंकिता। सांप्रतार्थे स्त्रीपुरुषयोरनिश्चये सति एष पुरुष इति। अतीतार्थेऽपि एवमेव बलीवर्दतत्स्यायनिश्चये तदा गौरस्मानिदृष्ट शति याप्येवंता जाषा शंकिता तामपि विवर्जयेत् । तथानावनिश्चयालावेन व्यनिचारतो मृषात्वस्योपपत्तेः विघ्नतो गमनादौ गृहस्थमध्ये लाघवादिप्रसंगात् सर्वमेव सावसरं वक्तव्यमिति रहस्यम् ॥ ७॥ __ (टीका.) एवमा ति सूत्रम् । एवमाद्या तु या नाषा । आदिशब्दात् पुस्तकं ते दास्याम्येवेत्येवमादिपरिग्रहः। एष्यत्काले नविष्यत्काल विषया बहुविनत्वात् मुहर्तादीनां शङ्किता किमिदमित्रमेव नविष्यत्युतान्यथेत्य निश्चितगोचरा। तथा सांप्रतातीतार्थयोरपि या शङ्किता। सांप्रतार्थे स्त्रीपुरुषाविनिश्चये एष पुरुष शति । अतीतार्थेऽप्येवमेव बलीवर्दतत्ख्याद्य निश्चये तदात्र गौरस्मानिइष्ट इति । याप्येवंता नाषा शङ्किता तामपि धीरो विवर्जयेत् । तथानावनिश्चयालावेन व्यभिचारतो मृषात्वोपपत्तर्विघ्नतो गमनादौ गृहस्थमध्ये लाघवादिप्रसंगात् सर्वमेव सावसरं वक्तव्यमिति सूत्रार्थः ॥७॥ अश्अंमि अ कालंमि, पचुप्पममणागए॥ जमहं तु न जाणिका, एवमेअंति नो वए ॥७॥ (अवचूरिः ) अतीतकाले प्रत्युत्पन्ने च वर्तमानेऽनागते च यमर्थं तु न जानीयात्सम्यक् एवमेवायं तमङ्गीकृत्य एवमेतदिति न ब्रूयात् ॥ ७ ॥ (अर्थ.) वली पूर्वोक्त साधु (अश्रंमि के०) अतीते एटले अतीत कालसंबंधी (अ के०) च एटले पुनः ( पञ्चप्पलमणागए के०) प्रत्युत्पन्नानागते एटले वर्तमान अने जावी एवा ( कालंमि के०) काले एटले कालसंबंधी (जं के) यं एटले जे (अहं के०) अर्थम् एटले वस्तुने (न जाणिजा के० ) न जानीयात् एटले Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. जाणता न होय. ते वस्तुने श्राश्रयी ( एवमेकं तु के ) एवमेतत्तु एटले था वस्तु श्रा रीतेज बे एम ( नो वए के) नो वदेत् एटले कहे नहि. अर्थात् जे वस्तु बराबर जाणे नहि, ते एवीज एम निश्चयथी न कहेवी. ॥ ७ ॥ - (दीपिका.) पुनः किंच साधुरतीते च काले तथा प्रत्युत्पन्ने वर्तमानेऽनागते च काले यमर्थं तु न जानीयात् सम्यग् एवमयमिति । तमर्थमङ्गीकृत्य एवमेतदिति न वदेत् न ब्रूयात् अयमझातस्यार्थस्य नाषणे निषेध उक्तः ॥७॥ ____(टीका.) अश्यंमि त्ति सूत्रम् । अतीते च काले तथा प्रत्युत्पन्ने वर्तमानेऽनागते च यमर्थं तु न जानीयात् सम्यगेवमयमिति तमङ्गीकृत्य एवमेतदिति न ब्रूयादिति सूत्रार्थः ॥ ७॥ अश्अंमि अ कालंमि, पञ्चप्पलमणागए॥ जब संका नवे तं तु, एवमेअंति नो वए॥ए॥ (श्रवचूरिः) यत्रार्थे शंका नवेत्तमपीत्यर्थः ॥ ए॥ (अर्थ.) उपरली गाथामा अज्ञात वात न कहेवी एम कर्दा. हवे शंकित वातनो प्रतिषेध कहे जे.(अश्रंमि अ पञ्चप्पलमणागए कालं मि के०)अतीते च प्रत्युत्पन्नानागते काले एटले अतीत अने वर्तमान अने जावी कालसंबंधी (जब के०) यत्र एटले जे वस्तुने विषे ( संका के ) शंका एटले 'श्रा वात था रीते ले के नहि' एवी शंका ( नवे के०) नवेत् एटले होय. (तं तु के०) तं तु एटले ते वस्तुने आश्रयीने ज (एवमेशं तु के०) एवमेतत्तु एटले 'था वस्तु था रीतेज . एम (नो वए के) नो वदेत् एटले बोले नहि. ॥ ए॥ (दीपिका.) साधुरतीते काले च प्रत्युत्पन्नेऽनागते यत्र अर्थे शंका संदेहो नवेत् तं शंकितमर्थमाश्रित्य एवमेतदिति निश्चयं न वदेत् । अयमपि निषेधः शंकितस्य जाषणे प्रतिषेधरूपः॥ ए॥ (टीका. ) श्रयमझातनाषणप्रतिषेधस्तथा अश्यम्मि त्ति सूत्रम् । अतीते च काले प्रत्युत्पन्नेऽनागते यत्रार्थे शङ्का नवेन्न तमर्थमाश्रित्यैवमेतदिति न बयादिति सूत्रार्थः॥ ए॥ अश्यंमि अ कालंमि, पच्चुप्पममणागए॥ निस्संकिअं नवे जंतु, एवमेअं तु निदिसे ॥१०॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४३ए (श्रवचूरिः) निःशंकितं नवेद्यदर्थजातं तु शब्दाच्चानवयं तत् एवमिति निर्दिशेत् ॥१०॥ (अर्थ.) (अश्रंमिश्र पञ्चुप्पममणागए कालंमि के) अतीते च प्रत्युत्पन्नानागते काले एटले नूत, नावी अने वर्तमान कालने विषे (जंतु के०) यंतु एटले जे वस्तु तो ( निस्संकिकं के०) निःशङ्कितं एटले शंकारहित, निश्चित होय, ते वस्तुने (एवमेअंति के०) एवमेतदिति एटले था वात एमजले श्रारीते (निदिसे के) निर्दिशेत् एटले कहे. ॥१०॥ (दीपिका.) तर्हि कीदृशं वचनं वदे दित्याह । साधुरतीते च काले, प्रत्युत्पन्ने वर्तमानकाले, अनागते च काले यमर्थजातं निःशकितं शंकारहितं निस्संदेहं नवेत् । तुशब्दात् यन्निःपापं च नवेत् । तदेवमेतदिति निर्दिशेत् । अन्ये त्वाचार्या , वदन्ति स्तोकं स्तोकमिति परिमितया वाचा निर्दिशेत् ॥१०॥ (टीका.) श्रयमपि विशेषतः शङ्कितनाषणप्रतिषेधस्तथा । अश्यंमि त्ति सू. त्रम् । अतीते च काले प्रत्युत्पन्नेऽनागते निःशङ्कितं नवेत् । तुशब्दादनवयं तदेबमेतदिति निर्दिशेत् । अन्ये पठन्ति स्तोकमिति । तत्र परिमितया वाचा निर्दिशेदिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ तदेव फरुसा नासा, गुरुनून्वघाणी॥ सच्चा वि सा न वत्तवा, जन पावस्स आगमो॥११॥ (श्रयचूरिः) तथैव परुषा जाषा निष्ठुरा कठोरा जावस्नेहरहिता गुरुजूतोपघातिनी महानतोपघातवती यथा कश्चित्कुलपुत्रत्वेन प्रतीतस्तं दासमित्य निदधतः । सत्यापि सा न वक्तव्या यतो यस्या नाषायाः पापागमोऽकुशलबन्धो नवति ॥ ११ ॥ _(अर्थ.) वली केवी लाषा न बोलवी ते कहे . ( तदेव के०) तथैव एटले तेमज (नासा के०) नाषा एटले जे नाषा (फरुसा के०) परुषा एटले कठोर होय, नावस्नेह विनानी होय, तथा ( गुरुलूवघाणी के०) गुरुजूतोपघातिनी एटले घणा प्राणियोनो घात करनारी एवी होय, जेम के, को पुरुष कोश्नो कुलपुत्र कहेवातो होय तो तेने दास कहे. इत्यादि जे नाषा (सा के०) सा एटले ते जाषा (सच्चा वि के०) सत्यापि एटले बाह्य स्वरूपथी सत्य देखाय बे तो पण ते (न वत्तबा के०)न वक्तव्या एटले जावने श्राश्रयीने न बोलवी. कारण के, (ज के०) यतः एटले जे Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. कगेर श्रने गुरुजूतोपघातिनी नापाथी ( पावस्स के०) पापस्य एटले अशुनकर्मबंधनो (श्रागमो के०) श्रागमः एटले प्राप्ति थाय . ॥११॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशीं जाषां न वदेदित्याह । तथैव साधुना परुषा कठोरा नाषा जावस्नेदरहिता न वक्तव्या । पुनर्या किंनूता नाषा । गुरुजूतोपघातिनी बहुप्राणघातकारिणी नवति । सा सर्वथा सत्यापि बाह्यार्थतया नावमङ्गीकृत्य यथा कश्चित् क्वचित् कुलपुत्रत्वेन प्रतीतस्तं प्रति श्रयं दास इति न वदेत् । यतो यस्या नाषायाः सकाशात् पापस्य थागमो नवेत् ॥ ११॥ (टीका.) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव परुषा नाषा निष्ठुरा जावस्नेहरहिता गुरुजूतो. पघातिनी महानूतोपघातवती यथा कश्चित्कस्यचित् कुलपुत्रत्वेन प्रतीतस्तदा तं दासमित्यनिदधतः सर्वथा सत्यापि सा बाह्यार्थतया नावमंगीकृत्य न वक्तव्या । यतो य. स्या जाषायाः सकाशात्पापस्यागमः अकुशलबन्धो नवतीति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ तदेव काणं काण त्ति, पंडगं पंडग त्ति वा ॥ वादिअंवा वि रोगित्ति, तेणं चोरत्ति नो वए ॥१२॥ (श्रवचूरिः) तथैव काणं जिन्नादं पंझगं नपुंसकं पंगमिति व्याधिमंतं वापि रोगीति स्तेनं चोर इति न वदेत् ॥ १५ ॥ (अर्थ.) (तहेव के०) तथैव एटले तेमज (काणं के०) काणं एटले जेनी एक श्राख नकामी जे एवा काणा पुरुषने (काण त्ति के ) काण इति एटले 'तुं काणो डे' श्रारीते तेमज (पंडगं के०) पएमकं एटले नपुंसकने (पंडग त्ति के०)पएमक इति एटले 'तुं नपुंसक बे.' श्रारीते (वा के) वा एटले तथा (वाहिश्र के०) व्याधितं एटले रोगी पुरुषने (रोगि त्ति के०) रोगीति एटले 'तुं रोगी डे' आ रीते तेमज (तेणं के०) स्तेनं एटले चोरने (चोर त्ति के०) चोर इति एटले 'तुं चोर डे' या रीते साधु (नो वए के) नो वदेत् एटले कहे नहि. कारणके, काणने काण कहेवाथी कदाच अप्रीति उत्पन्न थाय, नपुंसकने नपुंसक कहेवाथी ते शर्माय, रोगीने रोगी कहेवाथी तेनो रोग स्थिर थाय, तथा चोरने चोर कहेवाश्री तेनुं मन उखाय, माटे तेम न कहे. ॥१२॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशीं नाषां न वदेदित्याह । साधुस्तथैव काणं जिन्नादं पुरुषं प्रति श्रयं काण इति नो वदेत् । तथा पंमकं प्रति अयं पएको नपुंसक इति न वदेत् । तथा व्याधिमंतं प्रति अयं रोगी इति नो वदेत । तथा स्तेनं चौरं प्रति Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४४१ श्रयं चौर इति नो वदेत् । कुतः । अप्रीतिलतानाशस्थिररोगबुझिविराधनादिदोषा अनुक्रमेण नवन्ति ॥ १२ ॥ (टीका.) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैवेति पूर्ववत् । काणं निन्नादं काण इति तथा पएमकं नपुंसकं पएफक इतिवा।व्याधिमन्तं वापि रोगीति।स्तेनं चौरं चौर इति नो व. देत् । अप्रीतिलतानाशस्थिररोगबुद्धिविराधना दिदोषप्रसङ्गादिति गाथार्थः ॥ १२ ॥ एएणन्नेण अहेणं, परो जेणुवदम्म ॥ आयारनावदोसन्नू, न तं नासिज्ज पन्नवं ॥१३॥ (श्रवचूरिः) एतेनान्येन वा येनार्थेनोक्तेन परो नोपहन्यते । केनचित्प्रकारेणाचारनावदोषको यतिर्न नाषेत तं प्रज्ञावान् ॥ १३ ॥ (अर्थ.) (एएण के०) एतेन एटले था अथवा (अन्नण के०) अन्येन एटले बीजा (जेण के०) येन एटले जे (श्रण के० ) अर्थेन एटले वस्तु वडे करीने (परो के०) परः एटले अन्य पुरुष (उवहम्मर के०) उपहन्यते एटले हणाय, फुःखी थाय. ( तं के०) तं एटले ते नाषाप्रत्ये (आयारजावदोसन्नू के० ) आचारनावदोषज्ञः एटले साधु सामाचारीमांना जावदोषनो जाण अने (पन्नवं के) प्रज्ञावान् एटले बुद्धिशाली एवो साधु ( न नासिजा के) न नाषेत एटले न बोले. ॥ १३॥ (दीपिका.) ततः किं कर्तव्यमित्याह । प्रज्ञावान् बुद्धिमान साधुस्तमर्थं न जाषेत। किंनूतः साधुः । बुद्धिमान् श्राचारनावदोषज्ञः आचारनावस्य दोषान् जानातीति थाचारनावदोषज्ञः। तमर्थं कम्। येन एतेन अन्येन वा उक्तेन कथितेन अर्थेन केन चित् प्रकारेण परोऽन्य उपहन्यते पीडावान् नवति ॥ १३ ॥ (टीका.) एएण त्ति सूत्रम् । एतेनान्येन वार्थेनोक्तेन सता परो येनोपहन्यते। येन केनचित्प्रकारेण ।श्राचारनावदोषको यतिनं तं नाषेत प्रज्ञावांस्तमर्थमितिसूत्रार्थः॥१३॥ तदेव होले गोलित्ति, साणे वा वसुलित्ति अ॥ दुम्मए उदए वा वि, नेवं नासिक पन्नवं ॥१४॥ (अवचूरिः) तहेव तथैव होल रे मूर्ख हालिक । गोलो जारजातः । देशान्तररूढ्या नैष्ठुर्यसंबोधने होलादयो वाच्याः। श्वानो वा विसुल इति (बीनाल ) पुमको पुर्जगोऽपि वा नैवं जाषेत प्रज्ञावान् ॥ १४ ॥ ५६ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग ततालीस-(४३)-मा. (अर्थ.) ( तहेव के० ) तथैव ) एटले तेमज फलाणो पुरुष (होले के०) होलः एटले होल , (गोलित्ति के०) गोल इति एटले गोल ने ए प्रकारे, (वा के) वा एटले अथवा (साणो के०) श्वा एटले श्वान बे, (अ के०) च एटले वली (वसुवित्ति के०) वसुल इति एटले वसुल ए प्रकारे तथा (उम्मए के० ) अमकः एटले उमक , ( वा के०) वा एटले अथवा (मुहए वि के०) पुनर्गोऽपि एटले पुर्नग के एम पण ( पन्नवं के०) प्रज्ञावान् एटले बुद्धिशाली साधु (नो वए के०) नो वदेत् एटले न बोले. गोल प्रमुखशब्दो ते ते नापानी रूढी प्रमाणे कठोर पणुं प्रकाशित करे . माटे अहिं तेनो निषेध कस्यो. ॥१४॥ __(दीपिका.) पुनः साधुः कीदृशीं नाषां न नाषेत इत्याह । बुद्धिमान् साधुस्तथैव तां जाषां न नाषेत। तां कामित्याह । होल गोल ५ इति श्वा ३ वसुल ४ इति अमक ५ इति पुर्नग इति । श्ह होलादिशब्दाः तत्तद्देशेषु प्रसिझनिष्ठुरता दिवाचका अप्रीत्युत्पादकाश्च । अतस्तेषां प्रतिषेधः प्रोक्तः॥ १४॥ (टीका.) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैवति पूर्ववत् । होलो गोल इति श्वा वा। वसुल इति वा जमको वा फुलेंगश्चापि नैवं नाषेत प्रज्ञावान् । श्ह होलादिशब्दास्तत्तदेशीप्रसिछितो नैष्टुर्या दिवाचका अतस्तत्प्रतिषेध इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ अडिए पजिए वा वि, अम्मो मानसिअत्ति अ॥ पिस्सिए नायणिऊत्ति, धूए णत्तुणिअत्ति अ॥२५॥ (श्रवचूरिः) स्त्रीपुरुषयोः सामान्येन नाषणप्रतिषेधमुक्त्वा स्त्रियमाश्रित्याह । श्रार्जिके प्राजिके वापि अंब मातृष्वसः इति पितृष्वसः नागिनेयाति पुहितर्नप्त्रीति च । तत्र पितुर्वा मातुर्वा मातार्यिका । तस्यापि या माता सा प्रार्यिका । शेषानिधानानि प्रकटानि ॥ १५॥ __(अर्थ.) स्त्रीनी साथे अथवा पुरुषनी साथे सामान्य रीते शीरीते न बोलवू ते कडं. हवे स्त्रीनी साथे शीरीते न बोलवू ते कहे जे. पूर्वोक्त साधु जे ते (शविरं के०) स्त्रियम् एटले स्त्रीने (एवं के०) एवं एटले या प्रकारे (ण आलवे के) नालपेत् एटले न बोले. कये प्रकारे न बोले ते कहे बे. (अकिए के० ) आर्जिके एटले हे आर्जिके (मानी अथवा पितानी माता) (पहिए के०) प्रार्जिके एटले हे प्रार्जिके (मानी अथवा पितानी मातानी माता) (वा के०) वा एटले अथवा (अम्मो विके०) अम्बापि एटले हे अंब आ रीते पण (अ के०) च एटले वली (मा Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४४३ सित्ति के० ) मातृष्वसरिति एटले हे माशी आ प्रकारे, तथा ( पिस्सिए के ० ) पितृष्वसः एटले हे फर, तथा ( जाइणित्ति के० ) जागिनेयी ति एटले हे नाणेजी ए प्रकारे, तथा ( धूए के० ) दुहितः एटले हे कन्ये, ( छा के० ) च एटले वली ( तु वित्ति के० ) नप्त्रीति एटले हे पुत्रनी पुत्री ए प्रकारे वचन न कहें. ॥ १५ ॥ ( दीपिका . ) इति स्त्रीपुरुषयोः सामान्येन जाषण निषेधः कृतः । अथ स्त्रियमाश्रित्य श्राह । साधुः एतानि वचनानि न वदेत्तानि कानि तदाह । हे आर्थिके १ दे प्रार्थिके वादे ३ हे मातृष्वसः ४ हे पितृष्वसः ५ हे जागिने यि ६ हे डुहितः ७ दे नत्र । एतानि वचनानि स्त्रिया आमंत्रणे वर्तते तत्र एषां शब्दानामर्थस्त्वेवम् । तत्र मातुः पितुर्या माता सा श्रर्थिका । तस्या अपि माता श्रन्या सा प्रार्थिका । श्रन्येषां पदार्थः सुगम एव ॥ १५ ॥ ( टीका. ) एवं स्त्रीपुरुषयोः सामान्येन जाषणप्रतिषेधं कृत्वाधुना स्त्रियमधिकृत्याह । श्रपि ति सूत्रम् । श्रार्जिके प्रार्जिके वापि अम्ब मातृष्वस इति च पितृष्वसः जागिनेयीति दुहितः नप्त्रीति च । एतान्यामन्त्रणवचनानि वर्तते । तत्र मातुः पितुर्वा मातार्थिका तस्या अपि यान्या माता सा प्रार्जिका । शेषा निधानानि प्रकटार्थान्येवेति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ दले दलित्ति अन्निति, नट्टे सामिणि गोमि ॥ होले गोले वसुलित्ति, धिं नेवमालवे ॥ १६ ॥ ( अवचूरिः ) हले दले इति सख्यामंत्रणे । श्रन्ने इति । जट्टे खामिनि गोमिनि वा । एतानि पूज्यामंत्रणे । होलादयो हीनत्वेऽपि नानादेशापेक्षया रुयामंत्रणवचनानि । होलादिशब्दैः स्त्रियं नैवालपेत् । अनुरागाप्रीतिवचनलाघवदोषाः ॥ १६ ॥ ( अर्थ. ) (हले हलि त्ति के० ) हले हले इति एटले हले हले या प्रकारे, ( अन्नि ति के० ) अन्ने इति एटले हे अन्ने ए प्रकारे ( न के० ) जट्टे एटले हे हे, ( सामि के० ) स्वामिनि एटले हे स्वामिनि, ( गोमणि के० ) गोमिनि एटले हे गोमिनि, (होले के० ) होले एटले हे होले, ( गोले के० ) गोले एटले हे गोले, तथा ( वसुलि त्ति के० ) वसुले इति हे वसुले, ए प्रकारे स्त्रीने आमंत्रण वचन न कहे. या गाथामां कहेला हलादिक तथा होलादि शब्दो नानादेशनी savarr निंदा गौरव इत्यादि वाचक बे, एम जाणवुं ॥ १६ ॥ ( दीपिका. ) पुनः किंच साधुः स्त्रियं प्रति नैवं होलादिशब्देः श्राक्षपेत् । कच For Private Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(५३)-मा. मेवमालपनं कुर्वतः साधोः स्वगर्हातत्प्रहेषवचनलाघवादयो दोषा लवंति। के ते होलादि शब्दा इत्याह । पूर्वं ये उक्ताः पुनः हलेहले इत्येवमन्ने इति तथा जट्टे खामिनि गोमिनि होले गोले वसुले शति । एतान्यपि नानादेशापेक्ष्या स्त्रीणामामन्त्रणवचनानि गौरवकुत्सादिगर्जाणि वर्तन्ते ॥ १६ ॥ (टीका.) किं च हले हले ति सूत्रम् । हले हले इत्येवमन्ने इत्येवं तथा जट्टि-. नि खामिनि गोमिनि । तथा होले गोले वसुले इत्येतान्यपि नानादेशापेक्षया श्रामन्त्रणवचनानि गौरवकुत्सादिगर्नाणि वर्तन्ते । यतश्चैवमतः स्त्रियं नैवं हलादिशब्दैरालपेदिति । दोषाश्चैवमालपनं कुर्वतः संगगहतत्प्रषप्रवचनलाघवादय इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ नामधिलेण णं बूआ, बीगुत्तेण वा पुणो॥ जदारिदमनिगिनं, आलविङ लविङ वा ॥ १७॥ (अवचूरिः) यदि नैवमालपेत् तर्हि कथमालपेदित्याह । नामधेयेन णं एनां ब्रूयात् । नामास्मृतौ स्त्रीगोत्रेण वा पुनः ब्रूयात् । यथा काश्यपगोत्र इति । यथार्ह वयोदेशैश्वर्याद्यपेक्षयानिगृह्य गुणानालोच्य बालां युवती वृद्धां बाले वृके धर्मशीले इत्येवमालपेत् स्तोकं बहुतरं वा लपेत् ॥ १७ ॥ (अर्थ.) एम न बोलतुं तो शीरीते बोलतुं ते कहे . पूर्वोक्त साधु कंछ कारण पडवाथी ( णं के ) एनां एटले था स्त्री प्रत्ये ( नामधिलेोण के०) नामधेयेन एटले देवदत्ता प्रमुख नामवडे करीने (श्रा के ) ब्रूयात् एटले बोले. अर्थात् स्त्रीन जे नाम प्रसिद्ध होय ते नामथीज तेने बुलाव,. कदाच नाम यादमा न होय तो ( वा पुणो के०) वा पुनः एटले अथवा (श्वीगुत्तेण के ) स्त्रीगोत्रेण एटले काश्यप प्रमुख स्त्रीगोत्रवडे करीने बोले. ( जहारिहं के० ) यथाईं एटले वय, देश, ऐश्वर्य इत्यादिकनी अपेक्षाथी (अनिगिन के०) अनिगृह्य एटले गुण दोषनो विचार करीने (आल विज के०) बालपेत् एटले थोडं अथवा एकवार बोले. ( वा के०) पुनः (लविज के०) लपेत् एटले वारंवार अथवा घणुं बोले. तात्पर्य जेम कोर्नु मन न सुखाय तेम बोलवु.॥ १७॥ (दीपिका.) अथैवं पूर्वोक्तप्रकारेणालपनं न कुर्यात् तर्हि कथं कुर्यादित्याह । साधुः नामधेयेन इति नाम्नैव क्वचित्कारणे एतां स्त्रियं ब्रूयात् । यथा हे देवदत्ते इति । अथ नाम्नोऽस्मरणे गोत्रेण वा ब्रूयात् स्त्रियम् । यथा हे काश्यपगोत्रे इति । परं यथा Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४४५ योग्यं यथाईमनिगृह्य वयोदेशैश्वर्याद्यपेक्षया गुणदोषानालोच्य तदालपेत् लपेत् वा । षत् सकृछा लपनमालपनं लपनं वारं वारम् अतोऽन्यथा । तत्र च या वृका मध्यदेशे ईश्वरा धर्मप्रिया अन्यथोच्यते धर्मशीला इत्यादिना । अन्यथा च यथा न लोकोपघात इति ॥ १७ ॥ . (टीका.) नामधिलेणं ति सूत्रम् । नामधेयेनेति नानैव एनां ब्रूया स्त्रियं वचिकारणे यथा देवदत्ते इत्येवमादि । नामास्मरणादौ गोत्रेण वा पुनर्ब्रयात् स्त्रियं यथा काश्यपगोत्रे इत्येवमादि । यथा यथायथं वयोदेशैश्वर्याद्यपेक्षया निगृह्य गुणदोषानालोच्यालपेसपेछा ईषत्सकृछा लपनमालपनमतोऽन्यथा लपनम् । तत्र वयोवृद्धा मध्यदेश ईश्वरा धर्मप्रियान्यत्रोच्यते । धर्मशील इत्यादिनान्यथा च यथा न लोकोपघात इति सूत्रार्थः॥ १७ ॥ अजए पहुए वा वि, बप्पो चुल्लपिन त्ति अ॥ माउला नाणिक त्ति, पुत्ते णत्तुणिअ त्ति अ॥१७॥ (अवचूरिः) नरमाश्रित्य प्रतिषेधमाह । आर्यकः पितामहो मातामहश्च । प्रार्यकः प्रपितामहश्च । बप्पः पिता । चुबकपितेति पितृव्यः। मातुल नागिनेयेति पुत्र नप्त इति वचनम् । नप्ता पौत्रः प्रपौत्रो वा ॥१७॥ - (अर्थ.) स्त्रीने श्राश्रयीने शीरीते बोलवु तथा न बोलवू ते कडुं. हवे पुरुषने श्राश्रयीने कहे जे. (अजाए के०) आर्यकः एटले आर्यक (पङाए के० ) प्रार्यकः एटले प्रार्यक ( वा के०) अथवा (वि के०) अपि एटले पुनः (बप्पो के०) बप्पः एटले पिता (चुल्लपिउ के०) चुलपिता एटले चुम्लपिता (काको) (माउला के०) मातुलः एटले मातुल (मामो) (नाजणिज के०)त्नागिनेयः एटले नागिनेय(जाणेज) (पुत्ते के०) पुत्रः एटले पुत्र( णत्तुणियत्तिय ) नप्तेतिच एटले नप्ता(पोत्रो) ए प्रकारे पुरुषने उद्देशीने साधुए न बोलवु.॥ १७ ॥ (दीपिका.) उक्तः स्त्रियमधिकृत्यालपन निषेधो विधिश्च । सांप्रतं पुरुषमधिकृत्याह। साधुरिति न वदेत्। श्तीति किम् । आर्यकः प्रार्यकश्चापि बप्पचुलकपितेति च तथा मातुल नागिनेयेति पुत्र नप्ता इति च । श्ह जावार्थः स्त्रियामिव अष्टश्यः । नवरं चुल्लबप्पः पितृव्योऽनिधीयते ॥ १७ ॥ ( टीका.) उक्तः स्त्रियमधिकृत्यालपनप्रतिषेधो विधिश्च । सांप्रतं पुरुषमाश्रित्याह । अजाए ति सूत्रम् । आर्यकः प्रार्यकश्चापि बप्पचुस पितेति च तथा मातुलनागिनेयेति Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. पुत्रनतेति च । इह जावार्थः स्त्रियामिव अष्टव्यः । नवरं चुलबप्पः पितृव्योऽनिधीयत इति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ देनो दलित्ति अन्नित्ति, नट्टे सामिष गोमि ॥ होल गोल वसुलि त्ति, पुरिसं नेवमालवे ॥१॥ (अवचूरिः) किंच हे जो होति अन्नेति जति खामिन् गोमिक होल गोल वसुखेति पुरुषं नैवमालपेत् ॥ १५ ॥ -- (अर्थ.) (हे के०) हे एटले हे ( जो के० ) जोः एटले नो ( हलित्ति के०) हलेति एटले हल ए प्रकारे (अन्नित्ति के) अन्नेति एटले अन्न ए प्रकारे (नद्दे के०) नर्ता एटले जर्ता ( सामिश्र के ) स्वामी एटले खामी (गोमी के०) गोमी एटले गोमी (होलगोल वसुतित्ति के०) होलगोलवसुल इति एटले होल गोल वसुल ए प्रकारे पुरुषने उद्देशीने साधुए न बोलवू. ॥ १५ ॥ (दीपिका.) किंच हे अन्न हे जट्ट हे स्वामिन् हे होल हे गोल हे वसुलेति साधुः पुरुषं नैवमालपेदिति ॥ १५ ॥ (टीका.) किंच हेजोत्ति सूत्रम् । हे जो हलेत्यन्नेति जतः खामिन् गोमिन् होल गोल वसुल इति पुरुषं नैवमालपेदित्यत्रापि जावार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥१७॥ नामधिङोण जंबू, पुरिसगुत्तेण वा पुणो ॥ जदारिदमनिगिन, अालविङ लविङ वा ॥२०॥ .. (श्रवचूरिः) ताई कथमालपेत् । पुरुषानिलापेन योजना कार्येति ॥२०॥ (अर्थ.) एम न बोलतुं तो शीरीते बोल तेकहे . नाम धिलेणं इत्यादि सूत्र, आ गाथानो नावार्थ श्राज अध्ययननी सत्तरमी गाथामाफक जाणवो. एटलोज फेर के, तेमां स्त्री आश्रयी वात कही ले ते अहिं पुरुष श्राश्रयी जाणवी. ॥२०॥ (दीपिका.) यदि नैवमालपेत् तर्हि कथमालपेदित्याह । व्याख्या पूर्ववत् । नवरं पुरुषाजिलापेनार्थयोजना कार्या ॥ २० ॥ (टीका.) यदि नैवमालपेत्कथं तालपेदित्याह । नामधिळण ति सूत्रम् । व्याख्या पूर्ववदेव । नवरं पुरुषानिलापेन योजना कार्येति ॥२०॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। สูง पंचिंदिआण पाणाणं, एस बी अयं पुमं ॥ जाव णं न विजाणिका, ताव जा त्ति आलवे॥१॥ (श्रवचूरिः) उक्तः पुरुषमाश्रित्यालपने प्रतिषेधो विधिश्च । अधुना पञ्चेन्जियतिर्यग्गतं विधिमाह । पंचेन्द्रियाणां प्राणिनां गवादीनां कचिदूरे देशे स्थितानामेषा स्त्री गौः । अयं पुमान् बलीवईः । यावदेतहिशेषेण न जानीयात् तावन्मार्गप्रश्नादौ प्रयोजन उत्पन्ने सति जाशत्ति जातिमाश्रित्य बालपेत् । अस्मात्पशुटोलकात्कियदूरे पन्था इत्येवमादि । अन्यथा लिंगव्यत्ययसंजवान्मृषावादापत्तिः । अत्राह परः । एकेन्द्रिय विकलेजियनारकाणां नपुंसकत्वे सत्यपि मृत्तिका पाषाणो घनरस श्रापो जलं ज्वलनः पवनस्तरुलता शंखः शुक्तिका कीटिका मत्कोटको मुंगी नारक इत्यादीनां लिंगव्यत्ययेनोच्यमानत्वात् किं न मृषादोषः । गुरुराह । व्यवहारसत्येन सत्यमेवैतत् । यथा दह्यते गिरिगलति जाजनमनुदरा कन्येति न मृषादोषः ॥१॥ (अर्थ. ) पुरुषने उद्देशीने पण वचननो विधि तथा प्रतिषेध कह्यो. हवे तिर्यंच पंचेंजिय श्राश्रयी वचनविधि कहे बे. पंचिंदियाण इत्यादि सूत्र. ( पंचिंदिवाण के ) पंचेन्जियाणां एटले पंचेंजिय एवा (पाणाण के० ) प्राणिनाम् एटले गायप्रमुख तिर्यंच जीवो क्याय दूर प्रदेशे रह्या होय तो तेमनामां ( एस के०) एषा एटले.श्रा (श्वी के०) स्त्री एटले स्त्री , (अयं के०) अयं एटले श्रा (पुमं के०) पुमान् एटले पुरुष , आरीते (जाव के०) यावत् एटले ज्यासुधी (णं के०) एनं एटले एने (नविजाणिजा के०)न विजानीयात् एटले न जाणे. (ताव के०) तावत् एटले त्यांसुधी मार्गादिकमां को प्रश्न विगेरे करे तो (जाति के०) जातिमिति एटले जातिने श्राश्रयीने (बालवे के०) बालपेत् एटले बोल. मार्गादिक कोश पूढे तो एम कहेवु के, श्रा फलाणी जातनुं तिर्यंच बेतुं तेथी थोडे बेटे फलाणो मार्ग डे इत्यादि. ॥१॥ (दीपिका.) उक्तः पुरूषमप्याश्रित्यालपनप्रतिषेधो विधिश्च । अधुना पञ्चेन्डियतिर्यक्संबन्धिनं वचन विधिमाह। पंचेन्द्रियाणां प्राणिनां गवादीनां क्वचिदूरदेशे स्थितानामेषा स्त्री गौरयं पुमान् बलीवर्दः यावदेतहिशेषेण न विजानीयात् तावन्मार्गे प्रश्नादौ प्रयोजने समुत्पन्ने सति जातिं निमित्तमाश्रित्यालपेत् । अस्मात् गोरूपजातात कियहरेण इत्येवमादि। अन्यथा लिङ्गव्यत्ययसंजवात् मृषावादस्योत्पत्तिःस्यात्। बालगोपालादीनामपि विपरिणाम इत्येवमादयो दोषा नवन्ति ॥२१॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ राय धनपतसिंघबहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)-मा. ( टीका. ) उक्तः पुरुषमप्या श्रित्यालपनप्रतिषेधो विधिश्च । अधुना पञ्चेन्द्रिय तिर्यतं वाग्विधिमाह । पंचिंदियाण ति सूत्रम् । पञ्चेन्द्रियाणां गवादीनां प्राणिनां कचिद्विप्रकृष्टदेशावस्थितानामेषा स्त्री गौरयं पुमान् बलीवर्द: । यावदेतद्विशेषेण न जानीयात् । तावन्मार्गप्रश्नादौ प्रयोजन उत्पन्ने सति जातिमिति जातिमाश्रित्यालपेत् । श्रस्माजोरूपजाता त्कियद्दूरेणेत्येवमादि । अन्यथा लिङ्गव्यत्ययसंभवान्मृषावादापत्तिर्गोपालादीनामपि विपरिणाम इत्येवमादयो दोषाः । श्रादेपपरिहारौ तु वृद्ध विवरणादवसेयौ । तच्चेदम् । जइ लिंगवच्चए दोसो ता कीस पुढवा दिन पुंसगते विपुरिसिबि - निदेसो पe । जहा पछरो महिश्रा करने उस्सा मुम्मुरो जाला वार्ड बालीली त्र्यंब विवि किमि जलूया मक्कोड की डिश्रा जमर मछिया एवमादि । श्रयरिज श्राह । जणवयसच्चेण ववहारसच्चेण य एवं पयहइ ति ण एव दोसो । पंचिदिएसु पुएयमंत्री कीर । गोवालादी वि ए सुदिधम्म ति विपरिणामसंजवार्ड पुष्ठि - सामायारिकहणे वा गुणसंजवादिति इति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ तदेव माणसं पसुं, पकिं वा विसरीसवं ॥ यूले पमेइले वने, पायमित्ति नो वए ॥ २२ ॥ ( अवचूरिः ) तथैव यथोक्तं प्राग् मनुष्यं नार्यादिकं पशुमजादिकं पक्षिणं वापि हंसादिकं सरीसृपमजगरादिकं स्थूलोऽत्यंतमांसलोऽयं मनुष्या दिः । तथा प्रमेडुरः प्रकर्षमेदःसंपन्नः । वध्यो व्यापादनीयः । पाक्य इति च पाकयोग्य इति च नो वदेत् तदप्रीतिवधाशंकादिदोषात् ॥ २२ ॥ 1 ( अर्थ. ) वली ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज ( माणुस के० ) मानुषं एटले मनुष्यने ( पसुं के० ) पशुं एटले गाय, बलद प्रमुख पशुने ( परिकं के० ) पक्षिणं एटले हंस प्रमुख पक्षीने ( वा के० ) अथवा ( सरीसवं वि के० ) सरीसृपमपि एटले सर्प इत्यादिकने पण या ( थूले के० ) स्थूलः एटले घणो जाडो बे, ( पमेश्ले के० ) प्रमेदिलः एटले घणो मेदवालो बे, ( वने के० ) वध्यः एटले वध करवायोग्य बे, ( o ) च एटले वली ( पायमित्ति के० ) पाक्य इति एटले पाक करवायोग्य ए प्रकारे ( नो वए के० ) नो वदेत् एटले न बोलवुं ॥ २२ ॥ ( दीपिका . ) किंच साधुस्तथैव उक्तपूर्वं मनुष्यमार्यादिकं पशुमजादिकं पक्षिण वापि हंसादिकं सरीसृपमजगरादिकं प्रति इति न वदेत् । इतीति किम् । अयं स्थूलोऽत्यन्तमांसलो मनुष्यादिः । तथा श्रयं प्रमेपुरः प्रकर्षेण मेदः संपन्नः । तथा श्रयं For Private Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। ४४ाए वध्यो मारणीयः । अयं पाक्यः पाकप्रायोग्यः । केचिदन्ति पाक्यः कालप्राप्त इत्येवं वचनं न वदेत् । कथम् । अप्रीतिव्यापत्त्याशङ्कादिदोषप्रसङ्गात् ॥ २॥ (टीका.) किंच तहेवत्ति सूत्रम् । तथैव यथोक्तं प्राक् मनुष्यमार्यादिकं पशुमजादिकं पक्षिणं वापि हंसादिकं सरीसृपमजगरादिकम् । स्थूलोऽत्यन्तमांसलोऽयं मनुष्यादिः । तथा प्रमेपुरः प्रकर्षेण मेदःसंपन्नः। तथा वध्यो व्यापादनीयः। पाक्य इति च नो वदेत् । पाक्यः पाकप्रायोग्यः । कालप्राप्त इत्यन्ये । नो वदेत् नो ब्रूयात् । तदप्रीतिव्यापत्त्याशङ्कादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ २५॥ परिवूढ त्ति एं बूषा, बत्रा नवचित्र त्ति अ॥ संजाए पीणिए वा वि, महाकाय त्ति आलवे ॥२३॥ (श्रवचूरिः) कारणे पुनरुत्पन्न एवं वदे दित्याह । परि समन्तात् वृक्षः परिवृद्ध इत्येवं स्थूलं मनुष्यादिकं ब्रूयात् । बयाफुपचित इति संजातः प्रीणितश्चापि निष्पन्नो महाकाय इति चालपेत् ॥ २३ ॥ (अर्थ.) कारण पडे तो शीरीते कहे ते कहे . परिवूढ इत्यादि सूत्र. (एं के) एनं एटले ते स्थूल प्राणीने ( परिवूढ त्ति के० ) परिवृक्ष इति एटले परिवृक्ष ए प्रकारे (बूझा के०) ब्रूयात् एटले बोलवु. ( अ के०) च एटले वली ( उवचित्र त्ति के० ) उपचित इति एटले उपचित ए प्रकारे (ब्रूया के ) ब्रूयात् एटले कहेवू. (वा के०) अथवा ( संजाए के०) संजातः एटले संजात, (पीणिए के०) प्रीणितः एटले प्रीणित, ( महाकाय त्ति वि के०) महाकाय इत्यपि एटले महाकाय ए प्रकारे पण (थालवे के०) बालपेत् एटले कहे. ॥ २३ ॥ (दीपिका.) कारणे तु उत्पन्न एवं वदेदित्याह । साधुः स्थूलं मनुष्यादिकं प्रति इति वदेत् । श्तीति किम् । अयं परिवूढो बलोपेतः । अयमुपचितः । अयं संजातः। श्रयं प्रीणितः । अयं महाकाय इति ब्रूयादालपेत् ॥ २३ ॥ (टीका.) कारणे पुनरुत्पन्न एवं वदेदित्याह । परिवूढ त्ति सूत्रम् । परिवृज इत्येनं स्थूलं मनुष्यादि ब्रूयात्तथा ब्रूयाउपचित इति च । संजातः प्रीणितश्चापि महाकाय इति चालपेत् । परिवृक्षं पलोपचितं परिहरेदित्यादाविति सूत्रार्थः ॥२३॥ तदेव गाउनान, दम्मा गोरगत्ति अ॥ वादिमा रहजोगित्ति, नेवं नासिङ पन्नवं ॥२४॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. ( अवचूरिः ) तथैव गावो दोह्या दोहार्दा दम्या दमनयोग्या गोरथकाः कल्हो - डका इति च वाह्या रथयोग्या इति नैवं जाषेत प्रज्ञावान् ॥ २४ ॥ ( अर्थ. ) वली ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज ( गार्ड के० ) गावः एटले गायो ( डुना के० ) दोह्या: एटले दोहवा योग्य बे, अर्थात् एमनो दोहवानो समय यो . ( ० ) च एटले वली ( गोरहगा के० ) गोरथकाः एटले बलद ( दम्मा के० ) दम्याः एटले दमवा योग्य बे, ( ति के० ) इति एटले या प्रकारे तथा ( वाहिमा के० ) वाह्याः एटले नार प्रमुख वहेवा योग्य बे, तथा ( रहजोगित्ति के० ) रथयोग्या इति एटले रथयोग्य बे ए प्रकारे ( पसवं के० ) प्रज्ञावान् एटले बुद्धिशाली साधु (नेवं नासिद्ध के०) नैवं जाषेत एटले एम न बोले. ॥ २४ ॥ ( दीपिका . ) पुनः कीदृशीं जाषां न वदेदित्याह । प्राज्ञावान् साधुः न एवं जाषां जाषेत । एवं किमित्याह । एता गावो दोह्या दोहार्हाः । श्रासां गवां दोहनसमयो वर्तत इत्यर्थः । एते गोरथकाः कल्होडका दम्याः । तथा एते वाह्याः सामान्येन ये केचित् ताना श्रित्य रथ योग्याः । कुतो न जाषेत । उच्यते । अधिकरणलाघवादिदोषा जवन्ति । प्रयोजने तु क्वचित् एवं जाषेत इत्याह ॥ २४ ॥ ( टीका . ) किं च तदेवत्ति सूत्रम् । तथैव गावो दोह्या दोहार्दा दोहसमय यासां वर्तत इत्यर्थः । दम्या दमनीया गोरथका इति च । गोरथकाः कल्होडाः । तथा वाह्याः सामान्येन येकचित्तानाश्रित्य रथयोग्या चैत इति नैवं जाषेत । प्रज्ञावान् साधुरधिकरणलाघवादिदोषादिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ जुवं वित्ति बू, धेणुं रसदयत्ति ॥ रहस्से मदल्लए वा वि, वए संवदणित्ति ॥ २५ ॥ ( अवचूरिः ) कार्ये त्वेवं ब्रूयात् । युवा गौरिति दम्यो गौर्युवेति ब्रूयात् । धेनुं रसदेति च ब्रूयात् । गोरथकं ह्रस्वं वाह्यं महलकं वापि वदेत् संवहनमिति च रथायोग्यं संवदनं धुर्यं वदेत् ॥ २५ ॥ ( अर्थ. ) कोइ वखते काम पडे तो आरीते बोलवु एम कहे बे. जुवं इत्यादि सूत्र. ( के० ) एनं एटले ए दमवायोग्य एवाने ( जुवं गवित्ति के० ) युवा गौरिति एटले जुवान बलद ने ए प्रकारे ( बुआ के० ) ब्रूयात् एटले कहेतुं . ( श्र के० ) वली ( धेjho) धेनुं एटले थोडा दिवस उपर प्रसव पामेली गायने ( रसदत्ति के० ) रसदा इति एटले रस (दूध ) आपनारी बे धरीते कहेनुं, तथा ( रहस्से के ० ) ह्रस्वं Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४५१ एटले टूको एवा ( वा के० ) अथवा ( महबए वि०) महब्बकमपि एटले मोटा एवा पण जोतरवा योग्य बलदने (संवहण त्ति श्र के० ) संवहन इति च एटले सं. वहन या प्रकारे ( वए के० ) वदेत् एटले बोलवू. ॥ २५॥ (दीपिका.) साधुः युवा गौरिति दम्यो गौर्युवा इति ब्रूयात् । धेनुं गां रसदा इति ब्रूयात्। रसदा गौरिति। तथा हस्वं महलकं वापि गोरथकं ह्रस्वं वाह्यं महसकं वदेत् संवहनमिति च रथयोग्यं संवहनं धुर्यं वदेत् ॥ २५ ॥ (टीका.) प्रयोजने तु क्वचिदेवं नाषेतेत्याह जुवं ति सूत्रम् । युवा गौरिति दम्यो गौर्युवेति ब्रूयात् । धेनुं गां रसदेति ब्रूयात् । रसदा गौरिति । तथा ह्रस्वं महबकं वापि गोरथकं ह्रस्वं वाह्यं महलकं वदेत् । संवहनमिति रथयोग्यं संवहनं वदेत् । क्वचिदिगुपलक्षणादौ प्रयोजन इति सूत्रार्थः ॥२५॥ तदेव गंतुमुजाणं, पवयाणि वणाणि अ॥ रुका महल्ल पेदाए, नेवं नासिङ पन्नवं ॥२६॥ (श्रवचूरिः) किंच तथैव गत्वोद्यानं जलक्रीडास्थानं पर्वतान् वनानि च वृक्षान् महतः प्रेदय नैवं नाषेत प्रज्ञावान् ॥ २६ ॥ (अर्थ.) ( तहेव के ) तथैव एटले तेमज ( उजाणं के०) उद्यानं एटले कीडा करवाना बगीचामां ( पव्वयाणि के०) पर्वतान् एटले पर्वतो उपर (श्र के०) च एटले वली ( वणाणि के० ) वनानि एटले जंगलोमा ( गंतुं के०) गत्वा एटले जश्ने ( महब के०) महतः एटले मोटा ( रुका के०) वृक्षान् एटले वृदोने (पेहाए के०) प्रेक्ष्य एटले जोश्ने (पमवं के०)प्रज्ञावान् एटले बुद्धिशाली साधु (एवं के०) कहीशुं ते प्रकारे (न नासिज के ) न जाषेत एटले न बोले.॥२६॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशीं नाषां साधुन वदे दित्याह । प्रज्ञावान् साधुः एवं नाषां न नाषेत । किं कृत्वा । तथैव पूर्ववत् उद्यानं जलक्रीडास्थानं गत्वा । तथा पर्वतान् प्रतीतान् तथा वनानि च तत्र वृक्षान् महतो महाप्रमाणान् उत्प्रेक्ष्य दृष्ट्वा ॥ २६ ॥ (टीका.) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैवेति पूर्ववत् । गत्वोद्यानं जनक्रीडास्थानं तथा पर्वतान् प्रतीतान् गत्वा । तथा वनानि च । तत्र वृदान् महतो महाप्रमाणान् प्रेक्ष्य दृष्ट्वा नैवं नाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ रायधनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. पसायना, तोरणापि गिढ़ाणि फलिदग्गलनावाएं, अलं उदगदोषिणं ॥ २७ ॥ ॥ ( यवचूरिः ) किमित्याह । समर्थाः प्रासादस्तंनयोः तोरणानां नगरतोरणादीनां ग्रहाणां च परिघार्गलानावां तत्र परिघो नगरद्वारे, अर्गला गोपाटादौ नौः प्रतीता । सामिति योज्यम् । अलमुदकद्रोणीनां अरघट्टजलधारिणीनाम् ॥ २७ ॥ ( अर्थ. ) शीरीते न बोलवुं ते कहे. अलं इत्यादि सूत्र. या वृक्षो ( पासायरकंजाणं के० ) प्रासादस्तंजानां एटले एक स्तंज प्रासाद ( महेल ) बनाववाने तथा बीजा पण घर कामने योग्य एवा स्तंज बनाववाने ( अलं के० ) अलं एटले योग्य बे. ( के० ) च एटले वली श्रा वृदो ( तोरणानि के० ) तोरणानाम् एटले नगर प्रमुखना दरवाजा तथा (गिहाणि के० ) गृहाणां एटले विविध प्रकारनां घरो बनाववा योग्य बे. तथा या वृक्षो ( फलिहग्गलनावाएं के० ) परिघार्गलानावाम् एटले परिघ ( नगरनी मूंगल ), अर्गला ( घरप्रमुखनी मूंगल ) अने नौ ( नौका होडी प्रमुख ) बनाववा योग्य बे. तथा श्रा वृदो ( उदगदोषीणं के० ) उदकद्रोणीनां एटले रहेट पासे पाणी जरवा माटे मूकाती लाकडानी मोटी कुंडी बनाववा योग्य बे. एम न कहेवुंश्व ( दीपिका. ) एवं किं न जाषेत इत्याह । एते वृक्षाः प्रासादस्तंज्ञानां तथा परिघार्गलानावां तत्र नगरद्वारे परिघो, गोपाटा दिषु अर्गला, नौस्तु प्रसिद्धा । आसामलमेते वृक्षाः । तथा उदकद्रोणीनां उदकद्रोण्योऽरघहजलधारिकाः । एतेषां प्रासादस्तंजादीनामेते वृक्षा योग्या इति साधुर्न वदेत् ॥ २७ ॥ ( टीका . ) किमित्याह । अलं ति सूत्रम् । श्रलं पर्याप्ता एते वृक्षाः प्रासादस्तम्नयोः । अत्रैकस्तंजः प्रासादः । स्तंनस्तु स्तंज एव तयोरलम् । तथा तोरणानां नगरतोरणादीनां गृहाणां च कुटीरकादीनाम् | अलमिति योगः। तथा परिघार्गलानावां वा । तत्र नगरद्वारे परिघः । गोपाटा दिष्वर्गला । नौः प्रतीतेति । श्रासामलमेते वृक्षाः । तथोदकद्रोणीनामलम् । उदकद्रोण्योऽरहट्टजलधारिका इति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ पीढए चंगबेरे अ, नंगले मइयं सिया ॥ जंतलठी व नानी वा, गंडिया व अलं सिया ॥ २८ ॥ (अवचूरिः) चतुर्थ्यर्थे प्रथमा । पीठकाय काष्ठासनाय । चंगबेरं च काष्ठपात्री । नांगलाय हाय, महिकाय सजाराय स्यात् । यंत्रलष्टयै वा । यन्त्र यष्टिः प्रसिद्धा । नानिः शकटचक्रतुंबम् | गं मिकायै वालं स्युरेते वृक्षाः ॥ २८ ॥ 1 For Private Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४५३ (अर्थ.) तथा था वृदो (पीढए के० ) पीठकाय एटले पीठक (आसनविशेष) बनाववा, (श्र के०) च एटले वली (चंगबेरे के०) चंगबेराय एटले चंगबेर नामा काष्ठपात्र बनाववा, (श्र के०) च एटले वली (नंगले के०) लांगलाय ए. टले हल बनाववा, (श्र के०) च एटले वली (मश्रं के ) मयिकाय वटले मयिकनामनी वावेलां बीज ढांकवाना काममां श्रावती वस्तु बनाववाने, (व के०) अथवा (जंतलही के०) यंत्रयष्टये एटले कोश यंत्रनी लाकडी बनावाने (वा के०) अथवा ( नानी के०) नानये एटले पश्डानी नानि बनाववाने (व के० ) अथवा (गंमिश्रा के ) गंमिकायै एटले सुवर्णकारनी सोनुं टीपवानी एरण बनाववाने (अलं सिथा के०) अलं स्युः एटले योग्य . श्रा रीते न बोलवु. ॥ २७ ॥ (दीपिका.) पुनराह । पीठकाय अलमेते वृक्षाः। अत्र पीठकादिशब्देषु सर्वत्र चतुर्थ्यर्थे प्रथमास्ति । परमर्थस्तु चतुर्थैव कार्यः । तथा च चंगबेरं काष्ठपात्री तस्मै श्रलम् । तथा लांगलं हलं तस्मै, तथा महिकाय महिकमुप्तबीजाबादनं । तथा यंत्रयष्टयै वा । तथा नाजये वा । नानिः शकटरथांगम् । गंडिकायै वा । गंडिका सुवर्णकाराधिकरणस्थापनी । एते वृदा अलं समर्था एवं नाषां साधुन जाषेत ॥ ॥ (टीका.) तथा पीढए ति सूत्रम् । पीठकायालमेते वृक्षाः। पीठकं प्रतीतं तदर्थम् । सुपां सुपो लवन्तीति चयुर्थ्यथें प्रथमा । एवं सर्वत्र योजनीयम् । तथा चंगबेरायेति।चंगबेरं काष्ठपात्री तथा नंगत्ति।लागलं हलं । तथा अलं मयिकाय स्यात् । मयिकमुप्तबीजाबादनम् । तथा यंत्रयष्टये वा। यंत्रयष्टिः प्रतीता । तथा नाजये वा। नानिः शकटरथाङ्गम् । गंडिकायै वालं स्युरेते वृदा इति नैवं जाषेत प्रज्ञावानिति वर्तते। गंडिका सुवर्णकाराणामधिकरणी (थहिरणी) स्थापनी जवतीति सूत्रार्थः ॥२७॥ आसणं सयणं जाणं, दुङा वा किंचुवस्सए॥ भूवघाणिं नासं, नेवं नासिङ पनवं ॥२॥ (श्रवचूरिः) आसनमासंदकादि, शयनं पर्यंका दि,यानं वाहनादि, जवेछा किंचिउपाश्रये छारकपाटादि एतेषु वृदेष्विति नूतोपघातिनी नाषां नैवं नाषेत प्रज्ञावान् श्ए (अर्थ.) तेमज (श्रासणं के०) आसनं एटले श्रासन ( सयणं के०) शयनं एटले खाट पलंग प्रमुख शयन, (जाणं के०) यानं एटले रथ प्रमुख यान, (वा के०) अथवा (किंच के ) किंच एटले वली एवीज बीजी कांश्पण वस्तु (उवस्सए के०) उपाश्रये एटले उपासराने विष (हुजा के०) नवेत् एटले होय. तो उपर कह्या Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रमाणे वृद आश्रयी (नूठेवघाशणिं के०) नूतोपघातिनी एटले प्राणीने पीडाकरां नारी एवी ( एवं के० ) एवं एटले उपर कही ते प्रकारनी (नासं के) जाषां एटले जाषा प्रत्ये ( पमवं के०)प्रज्ञावान् एटले जाण साधु (न नासिङ के०) न नाषेत एटले न बोले.॥शए॥ । (दीपिका.) पुनराह । प्रज्ञावान् साधुः एवंविधां नूतोपघातिनी प्राणिसंहारका. रिणी लाषां न नाषेत । एवं कामित्याह । एतेषु वृदेषु श्रासनमासंदकादि, शयनं पर्यकादि, यानं युग्यादि, जवेत् वा किंचित् उपाश्रये वसतौ। अन्यमा झारपात्रादि । दोषाश्चात्र तनखामी व्यंतरादिर्वा कुप्येत्, सलक्षणो वा वृक्ष इति गृह्णीयात् । अनियमितजाषिणो लाघवं चेत्यादयः॥ ए॥ (टीका.) तथा आसणं ति सूत्रम् । श्रासनमासंदकादि शयनं पर्यंकादि यानं युग्यादि नवेछा किंचिउपाश्रये वसतावन्यद् झारपात्राये तेषु वृहेष्वपि नूतोपघातिनी सत्वपीडाकारिणी नाषां नैवं नाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः। दोषाश्चात्र तनखामी व्यन्तरादिः कुप्येत् । सलक्षणो वा वृक्ष इत्य निगृह्णीयात् । अनियमितनाषिणो लाघवं चेत्येवमादयो योज्याः॥ ए॥ तदेव गंतुमुजाणं, पबयाणि वणाणि अ॥ रुका महल पेदाए, एवं नासिज पन्नवं ॥३०॥ ( श्रवचूरिः) विधिमाह । तहेव त्ति पूर्ववत् । नवरमेवं नाषेत ॥ ३० ॥ __ (अर्थ.) कारण पडे तो शी रीते बोलq ते कहे . तहेव इत्यादि सूत्र. (तहेव के० ) तथैव एटले तेमज ( उजाणं के०) उद्यानं एटले उद्यान प्रत्ये, ( पव्वयाणि के) पर्वतान् एटले पर्वत प्रत्ये तथा ( वणाणि के०) वनानि एटले वन प्रत्ये (गंतुं के०) गत्वा एटले जश्ने अने ( महल के ) महतः एटले मोटा एवा ( रुके के वृदान् एटले वृक्ष प्रत्ये ( पेहाए के० ) प्रेक्ष्य एटले जोश्ने (पलवं के०) प्रज्ञावान् एटले जाण साधु ( एवं के) श्रा प्रकारे (नासिङ के०) जाषेत एटले बोले.॥३०॥ (दीपिका.) अत्रैव विधिमाह । वस्तुतः पूर्ववदेव । नवरं महतो वृक्षान् दृष्ट्वा प्र. झावान् साधुः एवं नाषेत ॥३०॥ (टीका.)अत्रैव विधिमाह।तहेव त्ति सूत्रम्। वस्तुतः पूर्ववदेव। नवरमेवं नाषेत ॥३०॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४५५ जाश्मंता इमे रुका, दीदवट्ठा महालया। पयायसाला वडिमा, वए दरिसणित्ति अ॥३१॥ (श्रवचूरिः) जातिमन्त उत्तमजातय एतेऽशोकाद्या वृक्षाः दीर्घवृत्ता महालया वटादयः संजातशाखा उत्पन्नटाला विटपिनो वदेत् । दर्शनीया इति च विश्रमणतदासन्नमार्गकथनादौ वदेत् ॥३१॥ (अर्थ.) मार्ग देखाडवा प्रसुख कारण पडे तो साधुए था रीते बोलवु. जाश्मंत इत्यादि सूत्र. ( जाश्मंत के ) जातिमन्तः एटले ऊंची जातना अशोकप्रमुख, (दीह के ) दीर्घाः एटले दीर्घ एवा नालियरी प्रमुख, ( वहा के०) वृत्ताः एटले गोल आकारना नंदीवृद प्रमुख (अ के०) च एटले तथा ( महालया के) महालयाः एटले मोटा विस्तारवाला वडप्रमुख, (श्मे के०) श्रा (रुका के०) वृक्षाः एटले वृदो ( पयायसाला के०) प्रजातशाखाः एटले उत्पन्न थडे घणी शाखा जेमने एवा तथा ( विममा के०) विटपिनः एटले शाखाउँथी नीकलेली शाखावाला तथा ( दरिसणित्ति के०) दर्शनीया इति एटले दर्शनीय बे था प्रकारे (वए के०) वदेत् एटले बोलवू. ॥ ३१) (दीपिका.) एवं किमित्याह । साधुः इति वदेत् । इतीति किम् । एते वृदा जातिमन्त उत्तमजातीया अशोकादयोऽनेकप्रकारा वा उपलन्यमानस्वरूपाः। पुनः दीर्घा नालिकेरीप्रनृतयः। पुनर्वृत्ता नन्दिवृदादयः। पुनः महालया वटादयः। पुनः एते प्रजातशाखा उत्पन्नडाला विटपिनः प्रशाखावन्तः। पुनः एते दर्शनीया इति वदेत् । एवमपिकदा वदेत् ।प्रयोजने विश्रमणतदासन्नमार्गकथनादौ उत्पन्ने सति अन्यदा नेति ॥३१॥ (टीका.) जाश्मंत त्ति सूत्रम् । जातिमन्त उत्तमजातयोऽशोकादयः। अनेकप्रकारा एत उपलन्यमानखरूपा वृक्षा दीर्घवृत्ता महालया। दीर्घा नालिकेरीप्रनृतयः। वृत्ता नन्दिवृदादयः । महालया वटादयः। प्रजातशाखा उत्पन्नडाला विटपिनः प्रशाखावन्तो वदेदर्शनीया इति च । एतदपि प्रयोजन उत्पन्ने विश्रमणतदासन्नमार्गकथनादौ वदेन्नान्यदेति सूत्रार्थः ॥३१॥ तदा फलाइं पक्काई, पायखळा नो वए॥ वेलोश्याई टालाई, वेदिमाश त्ति नो वए ॥३२॥ (अवचूरिः) तथा फलानि आनादीनि पक्कानि पाकेन गतप्रक्षेपकोडवपलालादिना विपाच्य जदयाणीति नो वदेत्। वेलोचितानि ग्रहणकालप्राप्तानि अतःपरं कालं Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. नसते । टालानि बद्धास्थीनि अद्यापि कोमलानि । द्वैधिकानि पेशी संपादनेन द्विधारणार्हाणि । तद्वाक्यश्रवणात् तत्स्वामिग्रहणात् संयमविराधना ॥ ३२ ॥ ( .) ( तह ho ) तथा एटले तेम ( फलागि के० ) फलानि एटले खांबा प्रमुari फलो ( पक्का के० ) पक्कानि एटले पाकेलां बे, अथवा ( पायखाइ के० ) पाकखाद्यानि एटले घासमां अथवा खाडा विगेरेमां राखी पकावीने जक्षण करवा योग्य बे एम (नो वए के० ) नो वदेत् एटले न कहेवुं तथा पूर्वोक्त फलोज (वेलोइया के०) वेलो चितानि एटले अतिशय पाक होवाथी जेमनो ग्रहण करवानो समय आवी रह्यो बे, एवा अथवा ( टालाइ के० ) टालानि एटले कोमल एवा वा (वेहिमा के०) द्वैधिकानि एटले श्री बंधाइ गयाथी बे जाग करवा योग्य बे, (त्ति के० ) इति एटले या प्रकारे पूर्वोक्त साधु ( न वए के० ) न वदेत् एटले कहे नहि. ॥ ३२ ॥ ( दीपिका.) पुनः किं न वदेदित्याह । साधुः इति नो वदेत् । इतीति किम् । तथा फलानि श्राम्रादीनि पाकप्राप्तानि जातानि । तथा पाकखाद्यानि बद्धास्थीनि गर्ताप्रदेपकोडवपलालादिना विपाच्य जक्षणयोग्यानीति । तथा वेलो चितानि पाका तिशयतः ग्रहणकालो चितानि । अतः परं कालं न विषदंत इत्यर्थः । तथा टालानि अबकास्थी नि कोमलानीति । तथा द्वैधिकानीति पेशी संपादनेन द्वैधी जावकरणयोग्यानि वेति नो वदेत् । दोषाः पुनरत्रैते । उद्धुं च नाश एव अमीषां न शोजनानि वा प्रकारांतर - जोगेन इत्यवधार्य गृहि प्रवृत्त्याधिकरणादय इति ॥ ३२ ॥ ( टीका . ) तहा फलाणि ति सूत्रम् । तथा फलान्याम्रफलादीनि पक्वानि पाकप्रातानि तथा पाकखाद्यानि बद्धास्थीनीति गर्तप्रदेपकोद्रवपलालादिना विपाच्य जदयोग्यानीति नो वदेत् । तथा वेलो चितानि पाकातिशयतो ग्रहणकालो चितानि । अतःपरं कालं न विषदंतीत्यर्थः । टालान्यबद्धास्थीनि कोमलानीति यडुक्तं भवति । तथा द्वैधिकानीति पेशी संपादनेन द्वैधी जावकरणयोग्यानीति नो वदेत् । दोषाः पुनरत्रात ऊर्ध्वं नाश एवामीषां न शोजनानि वा प्रकारान्तरजोगेनेत्यवधार्य गृहि प्रवृत्तावधिकरपादय इति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ असंथडा इमे अंबा, बहुनिवडिमा फला ॥ वइक बहु संनूच्या, नूरूवति वा पुणो ॥ ३३ ॥ ( अवचूरिः) प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवं वदेदित्याह । समर्था एते श्राम्रा For Private Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४७ तिजारेण न शकुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः । म्रग्रहणं प्रधानवृक्षोपलक्षणम् । एतेन पक्कार्थ उक्तः । बहुनिर्वर्त्तितफलाः । बहूनि निर्वर्त्तितानि बलास्थीनि फलानि येषु ते तथा । अनेन पाकखाद्यार्थः । वदेद् बहुसंभूताः । बहूनि पाकातिशयतः संभूतानि ग्रहणकालो चितानि फलानि येषु ते । अनेन वेलोचितार्थः । नूतरूपा इति वा पुनर्वदेत् । नूतानि रूपाणि अबास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते अनेन टालार्थः ॥ ३३ ॥ (अर्थ) कारण पडे तो या रीते कहेतुं एम कहे बे. असंथडा इत्यादि सूत्र. (इमे के० ) इमे एटले आ ( अंबा के० ) आना: एटले आम्रवृको जे ते ( असंथा के० ) समर्थाः एटले पोताना फलोनो जार धारण करवाने समर्थ बे. ( पक्कफलवाला एम कहेवाने बदले या रीते कहेतुं . ) तेमज ( बहु निव हिमा फला ho ) बहुनिर्वर्तितफला: एटले आ आम्रवृक्षोउपर गोटलीवाला फलो घणां बंधाइ गएला बे. (पकावीने नक्षण करवा योग्य बे एम कहेवाने वदले याम कहेतुं . ) तेमज (बहुसं के० ) बहुसंभूताः एटले आ आम्रादिवृदोने विषे परिपक्क फलो aur तैयार rai . ( अतिशय पक्व फलो बे, एम कहेवाने बदले आम कहे . ) तेमज ( वा के० ) अथवा ( पुणो के० ) पुनः ( मूरू वित्ति के० ) नूतरूपा इति एटले गोटली बंधाया विनाना फलवाला एवा आ आम्रवृक्षादिक बे. ( कोमल फलवाला इत्यादि कहेवाने बदले श्रम कहेतुं . ) ॥ ३३ ॥ ( दीपिका . ) प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवं वदेदित्याह । असमर्था एते श्राम्रा तिजारेण नम्रा न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः । श्राम्रग्रहणं प्रधानवृक्षाणामुपलक्षणम् । एतेन पक्कार्थ उक्तः । तथा बहूनि निर्वर्त्तितानि बद्धास्थी नि फलानि येषु ते तथा । अनेन पाकखाद्यार्थ उक्तः । वदेत् बहुसंभूताः । बहूनि संभूतानि रूपाणि पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथाविधाः । अनेन वेलो चितार्थ उक्तः । तथा नूतरूपा इति वा पुनर्वदेत् । नूतानि रूपाणि वद्धास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते तथा अनेन टालाद्यर्थ उपलक्षित इति ॥ ३३ ॥ ( टीका. ) प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवं वदेदित्याह । असंथड ति सूत्रम् । समर्था एत श्राम्रा अतिजारेण न शन्कुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः । म्रयहणं प्रधानवृदोपलक्षणम् । एतेन पक्कार्थ उक्तः । तथा बहुनिर्वर्त्तितफलाः । बहूनि निर्वर्त्तितानि बास्थीनि फलानि येषु ते तथा । अनेन पाकखाद्यार्थ उक्तः । वदेइहुसंभूताः । बहूनि संभूतानि पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथा । अनेन वेलो चिताद्यर्थ उपलक्षित इति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ ५८ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. तदेवसदिन पक्कान, नीलियान बवी ॥ लाइमा नकिमान त्ति, पिठुखऊ त्ति नो वए ॥ ३४ ॥ ( अवचूरिः ) तथैवौषधयः शाख्यादयः पक्का नीलिकाश्ववय इति वल्लचणकादिलक्षणाः । लवनवत्यो लवनयोग्याः । जर्जनवत्यो जर्जनयोग्यास्तथा पृथुकनदया इति वा वदेत् ॥ ३४ ॥ (अर्थ. ) ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज ( सहि के० ) उषध्यः एटले शाली, गहू प्रमुख उपधी ( पक्कार्ट के० ) पक्काः एटले पाकेली बे, ( अ के० ) च एटले वली (नीविया बवी के० ) नीलाश्ववयः एटले वाल, चोला प्रमुख कठगेल ( लाइमा के० ) लवनवत्यः एटले लगवा योग्य बे, ( नािर्ड के० ) नजनवत्यः एटले गुंजवा योग्य बे, ( ति के० ) इति एटले या प्रकारे तथा ( पिदुख त्ति के० ) पृथुकक्ष्या इति एटले पोक करीने नक्षण करवा योग्य बे या प्रकारे (नो वए के० ) नो वदेत् एटले न कहेवुं. ॥ ३४ ॥ ( दीपिका. ) पुनराह । तथैव तेनैव प्रकारेण उषधयः शाल्या दिलक्षणाः पक्का इति नो वदेत् । तथा नीलाः ब्वय इति वल्लचवलका दिफललक्षणाः । तथा लवनवत्यो लवनयोग्याः । जर्जनवत्य इति जर्जनयोग्याः । तथा पृथुकनदया इति नो वदेत् । पृथुकaaणयोग्या इति नो वदेदिति पदं सर्वत्र संबध्यते । पृथुका श्रर्द्धपक्क शाल्यादिषु क्रियन्ते । निधानदोषाः पूर्ववत् ॥ ३४ ॥ ( टीका. ) तहेव त्ति सूत्रम् । तथौषधयः शाल्या दिलणाः पक्का इति । तथा नीलावय इति वा । वल्लववलकादिफललक्षणाः । तथा लवनवत्यो लवनयोग्याः । जर्ज - नवत्य इति जर्जनयोग्याः । तथा पृथुकक्ष्या इति पृथुकनक्षणयोग्याः । नो वदेदिति सर्वत्राभिसंबध्यते । पृथुका अर्धपक्कशाख्यादिषु क्रियन्ते । श्रनिधानदोषाः पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ रूढा बहुसंनूच्या, थिरा उसढा विप्र ॥ गनिया पसून, संसाराज ति यालये ॥ ३५ ॥ ( अवचूरिः ) कार्ये मार्गदर्शनादावेवमालपेत् । रूढाः प्रादुर्भूता बहुसंभूता नि'ष्पन्नप्रायाः स्थिरा निष्पन्ना उत्सृता इति वा उपघातेन्यो निर्गता वा । गर्जिता अनिशीर्षकाः । प्रसूता निर्गत शीर्षकाः । संसाराः संजाततन्डुला इत्यालपेत् । पक्काद्ययोजना कार्या स्वधिया ॥ ३५ ॥ For Private Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४पए (अर्थ. ) एम न बोलq तो कारण पडे शीरीते बोलq ते कहे .पूर्वोक्त उषधी (रूढा के०) रूढाः एटले उत्पन्न थएली बे, (बहुसंनूआ के०) बहुसंनूताः एटले घणे जागे निष्पन्न भएली, (थिरा के०) स्थिराः एटले निष्पन्न थएली ने, (विश्र के) अपिच एटले वली (ऊसढा के०) उत्सृताः एटले उपघातथी नीकलेली बे, तेमज (गनिया के०) गर्जिताः एटले जेना डोडा बहार नीकल्या नथी एवी (पसूया के०) प्रसूताः एटले जेना डोडा बहार नीकल्या बे एवी तथा (संसारा के०) संसाराः एटले डांगर प्रमुख सार वस्तु जेने माथे तैयार थर रही डे एवी , (त्ति के) इति एटले या प्रकारे (थालवे के०) बालपेत् एटले कहेवं. ॥३५॥ (दीपिका.) प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादौ एवमालपेदित्याह । साधुः एवमालपेत् । एवं किमित्याह । रूढाः प्रार्जुताः बहुसंनूता निष्पन्नप्रायाः । स्थिरा निष्पन्नाः। उमृता इति वा उपघातेन्यो निर्गता इति वा । तथा गनिता अनिर्गतशीर्षकाः। प्रसूता निर्गतशीर्षकाः । संसाराः संजाततन्मुलादिसारा इत्येवमालपेत् । पक्काद्यर्थयोजना खधिया कार्या ॥ ३५॥ (टीका.) प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवमालपेदित्याह । रूढ त्ति सूत्रम्। रूढाः प्रापुर्जूताः । बहुसंनूता निष्पन्नप्रायाः। स्थिरा निष्पन्नाः । उत्स्मृता इति उपघातेच्यो निर्गता इति वा । तथा गर्जिता अनिर्गतशीर्षकाः । प्रसूता निर्गतशीर्षकाः । संसाराः संजाततन्मुलादिसारा इत्येवमालपेत् । पक्काद्यर्थयोजना खधिया कार्येति सूत्रार्थः॥३५॥ तदेव संखमि नच्चा, किच्चं कळं ति नो वए॥ तेणगं वावि वनित्ति, सुतिबित्ति अभावगा ॥३६॥ (अवचूरिः ) तथैव संखमि ज्ञात्वा करणीयेति पित्रादिनिमित्तं सांवत्सरिका कायवैषेति नो वदेत् । मिथ्यात्वोपबृंहणादोषात् । स्तेनकं वा वध्य इति नो वदेत् । सुतीर्था इति च । चशब्दादुस्तीर्था इति च । आपगा नद्यः। केनचित्पृष्टः सन् नो वदेत् । अधिकरणादिदोषात् ॥ ३६ ॥ __ (अर्थ.) साधुए वाणी शीरीते बोलवी तथा न बोलवी ए अधिकारमा श्रा बीजें कहे . ( तहेव के० ) तथैव एटले तेमज ( संखमि के०) संखमि एटले जेने विषे प्राणियोनां श्रायुष्यो खंमित थाय ने एवी क्रियाने ( नच्चा के) ज्ञात्वा एटले जापीने (करणिऊं ति के०) करणीयति एटले पित्रादिकनी तृप्तिने अर्थे था अवश्य करवीज आ रीते (नो वए के०) नो वदेत् एटले न बोलवू. (वा के०) वा एटले Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. अथवा (तेणगं वा वि के०) स्तेनकं वापि एटले चोरने पण (वनित्ति के०) वध्य इति एटले वध करवा योग्य वे आ प्रकारे (श्र के) च एटले वली (आपगा के०) आपगाः एटले नदीओने (सुतिबित्ति के०) सुतीर्था इति एटले सुखे तरवा योग्य श्रा रीते न कहे. ॥ ३६॥ (दीपिका.) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकारेऽनुवर्तमान श्दमपरमाह । साधुः संखमि ज्ञात्वा एषा पित्रादिनिमित्तं करणीया एव इति नो वदेत् । मिथ्यात्वस्य उपबृंहणादोषात्। ननु संखमि इति कः शब्दार्थः। उच्यते संखंड्यंते प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरणक्रियायां सा संखडी तथा स्तेन चौरं ज्ञात्वा अयं वध्य इति नो वदेत् । तदनुमतेस्तेननिश्चयादिदोषप्रसंगात् । तथा आपगा नद्यः सुतीर्थाः। चशब्दाहुस्तीर्णा एता इति केनापि पृष्टः सन् नो वदेत् । अधिकरण विघातादिदोषप्रसंगात् ॥ ३६॥ (टीका.) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकारेऽनुवर्तमात इदमपरमाह । तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव संखडिं ज्ञात्वा । संखंड्यन्ते प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरण क्रियायां सासंखडी तां ज्ञात्वा करणीयेति पित्रादिनिमित्तं कृत्यैवैषेति नो वदेत् । मिथ्यात्वोपबृंहणदोषात् । तथा स्तेनकं वापि वध्य इति नो वदेत् । तदनुमतत्वेन निश्चयादिदोषप्रसंगात् । सुतीर्था इति च । चशब्दाहुस्तीर्था इति वा । आपगा नद्यः केनचित्पृष्टः सन्नो वदेत् । अधिकरण विघातादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ ३६॥ संखडि संखडिं ब्रूआ, पणिअहत्ति तेणगं॥ बहुसमाणि तिबाणि, आवगाणं विआगरे ॥ ३७॥ (अवचूरिः) कार्ये एवं वदेत् संखडि संखडी इति ब्रूयात् । पणितार्थ इति स्तेन ब्रूयात् । शिक्षकादिविपाकदर्शनादौ । पणितेनाऽर्थोस्य पणितार्थः । प्राणियूतप्रयोजन इत्यर्थः । बहुसमानि तीर्थानि आपगानां नदीनां व्यागृणीयात् ॥३७॥ (अर्थ.) कारण पडे तो आ रीते कहेवू एम कहे . संखडिं इत्यादि सूत्र. (संखडिं के०) संखडिं एटले संखडी प्रत्ये (संखडि के०) संखडिं एटले संकीर्णा संखर्डी एमज (बूथा के०) ब्रूयात् एटले कहेवू. अर्थात् साधुए साधुने कहेवू पडे, अथवा बीजूं कां काम पडे तो संखडिने संखडि शब्द वडेज कहेवी. (तेणगं के०) स्तेनकं एटले चोरने (पणिअह त्ति के०) पणितार्थ इति एटले पोताना जीवने जोखममां नाखीने स्वार्थ साधनारो आरीते (बश्रा के०) ब्रूयात् एटले कहे. तेमज (आवगाणं के०) श्रापगानां एटले नदीनां (तिबाणि के०) तीर्थानि एटले उतरी जवानां Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४६२ मागोंने (बहुसमा के०) बहुसमानि एटले घणा खरा सम , विषम नथी, एम (विश्रागरे के०) व्यागृणीयात् एटले कहे. ॥ ३७॥ (दीपिका.) प्रयोजन उत्पन्ने सति पुनः साधुरेवं वदे दित्याह । साधुः संखडिं इति ब्रूयात् साधुकथनादौ संकीर्णा संखडीत्येवमादि । पणितार्थ इति तथा स्तेनकं वदेत् शैक्षकादिकर्मविपाकदर्शनादौ । पणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थः । प्राणद्यूतप्रयोजन इत्यर्थः। तथा बहु समानि तीर्थानि आपगानां नदीनामिति व्यागृणीयात् । साध्वादिविषय इति ॥ ३७॥ (टीका.) प्रयोजने पुनरेवं वदेदित्याह । संखडित्ति सूत्रम् । संखडि संखडिं ब्रयात् । साधुकथनादौ संकीर्णा संखडीत्येवमादि । पणितार्थ इति स्तेनकं वदेत् । शै कादिकर्मविपाकदर्शनादौ पणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थः । प्राणद्यूतप्रयोजन इत्यर्थः। तथा बहुसमानि तीर्थानि आपगानां नदीनां व्यागृणीयात् । साध्वादिविषय इति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ तहा नश्न पुन्नाज, कायतिज त्ति नो वए॥ नावाहिं तारिमाउत्ति, पाणिपिक त्ति नो वए ॥३७॥ (श्रवचूरिः) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदम् । तथा नद्यः पूर्णा इति नो वदेत् प्रवृत्तिदोषात् । कायतरणीयाः शरीरतरणयोग्या इति नो वदेत् । नौनिस्तरणीयास्तरणयोग्या इति नो वदेत् । तटस्थप्राणिपेया इति नो वदेत् ॥ ३० ॥ (अर्थ. ) वाणीना विधिना तथा प्रतिषेधना अधिकारमांज वली कहे .तहाश्त्यादि सूत्र. (तहा के०) तथा एटले तेमज पूर्वोक्त साधुए (न के०) नद्यः एटले नदी (पुन्नार्ड के०) पुर्णाः एटले परिपूर्ण नरेली , तेमज (कायतिजा के०) कायतरणीयाः एटले शरीरवडे तरवा योग्य , (त्ति के) इति एटले श्रा रीते (नो वए के०) नो वदेत् न कहे. तथा (नावाहिं के०) नौनिः एटले नौका (होडी) वडे करीने (तारिमाउ त्ति के०) तरणीया इति एटले तरवा योग्य आ रीते तथा (पाणि पिऊ त्ति के) प्राणिपेया इति एटले तट उपर रहेला प्राणिथी जेमना जल पीवाय एवा ले आ रीते (नोवए के०) नोवदेत् एटले न बोलवं. ॥ ३० ॥ (दीपिका.) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह । साधुरिति नो वदेत् । श्तीति किम् । नद्यः पूर्णा नृताः । कथम् । प्रवृत्तश्रवण निर्वर्तनादिदोषात् । तथा कायतरणीयाः शरीरतरणयोग्या इत्येवं नो वदेत् । साधुवचनेन नो विघ्न इति प्रवर्तनादि Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रसंगात् । तथा नौनिमोणी निस्तरणीयास्तरणयोग्या इत्येवं नो वदेत् । अन्यथा विघ्नशङ्कया तत्प्रवर्तनात् । तथा प्राणिपेया इति नो वदेत् । तटस्थप्राणिपेया इति नो वदेत् । तथैव प्रवर्तनादिदोषादिति ॥ ३० ॥ (टीका.) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह। तहा नश्न ति सूत्रम् । तथा नद्यः पूर्णा नृता इति नो वदेत् । प्रवृत्तश्रवण निवर्त्तनादिदोषात् । तथा कायतरणीयाः शरीरतरणयोग्या इति नो वदेत् । साधुवचनतोऽविघ्नमिति प्रवर्तनादिप्रसङ्गात् । तथा नौनिब्रेणीनिस्तरणीयास्तरणयोग्या इत्येवं नो वदेत्। अन्यथाविनशङ्कया तत्प्रवर्त्तनात्। तथा प्राणिपेयास्तटस्थप्राणिपेया नोवदेदिति।तथैव प्रवर्तनादिदोषादिति सूत्रार्थः॥३॥ बढुबादडा अगादा, बहुसलिलुप्पिलोदगा। बदुविनडोदगाावि, एवं नासिक पन्नवं ॥ ३०॥ (श्रवचूरिः) कथं वदेदित्याह । बहुधा नृताः प्रायशो नृताः । बह्वगाधाः प्रायोगम्जीराः । बहुसलिलोत्पीलोदकाः प्रतिश्रोतोवाहितापरसरितः । बहुविस्तीर्णोदकाश्चापि खतीरप्लावनविस्तृतजला एवं नाषेत प्रज्ञावान् ॥ ३५ ॥ (अर्थ.) कारण पडे तो था रीते कहेवु एम कहे . बहु इत्यादि सूत्र. ( पन्नवं के )प्रज्ञावान् एटले बुद्धिशाली पुरुष पूर्वोक्त नदीने (बहुबाहडा के०) बहुलताः एटले प्राये नरेली , तथा (अगाहा के०) अगाधाः एटले प्राये ऊंडी . तेमज (बहुसलिलुप्पिलोदगा के०) बहुसलिलोत्पीडोदकाः एटले बीजी नदीना प्रवाहोने पाउल हटावनारी एवी (बहुविबडोदगा आवि के०) बहु विस्तीर्णोदका अपि एटले पोताना तीरने पलली नाखे एवा जलने धारण करनारी बे. (एवं के०) आरीते (नासिक के०) नाषेत एटले बोले. ॥३५॥ (दीपिका.) प्रयोजने साधुर्मार्गकथनादावेवं नाषेत इत्याह । प्रझावान् साधुः एवं नाषेत वदयमाणं परं नतु तदागतपृष्टोऽहं न जानामीति ब्रूयात् । कथम् । प्रत्यदमृषावादित्वेन तत्प्रहेषादिदोषप्रसंगात् । एवं किमित्याह । बहुधा नृताः प्रायशो जूता इत्यर्थः। तथा अगाहा इति बह्वगाधाः प्रायोगनीराः । बहुसलिलोत्पीलोदकाः प्रतिस्रोतोवाहितापरसरित इत्यर्थः । तथा बहुधा विस्तीर्णोदकाश्वं वतीरप्लावनप्रवृत्तजलाश्च इति । वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह ॥ ३५ ॥ (टीका.) प्रयोजने तु साधुमार्गकथनादावेवं नाषेतेत्याह । बहुवाहड ति सूत्रम् । बहुनृताः प्रायशो नृता इत्यर्थः। तथागाधा शति बह्वगाधाः प्रायोगम्नीराः । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४६३ बहुसलिलोत्पीडोदकाः प्रतिस्रोतोवा हितापरसरित इत्यर्थः । तथा विस्तीर्णोदकाश्च स्वतीरप्लावनप्रवृत्तजलाश्च । एवं जाषेत प्रज्ञावान् साधुर्नतु तदागतपृष्टो न वेद्म्यहमिति ब्रूयात् । प्रत्यक्षमृषावादित्वेन तत्प्रद्वेषादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ तदेव सावऊं जोगं, परस्सष्ठा निठि ॥ कीरमाणं ति वा नच्चा, सावऊं न लवे मुणी ॥ ४० ॥ ( अवचूरिः ) तथैव सावद्यं योगं व्यापारमधिकरणं सनादिविषयं परस्यार्थाय परनिमित्तं निष्पन्नं क्रियमाणं वा वर्त्तमानम् । वाशब्दाङ्गविष्यत्कालजा विनं वा ज्ञात्वा सावद्यं नालपेत् ॥ ४० ॥ ( अर्थ. ) वाणीना विधि प्रतिषेध अधिकारमां वली कहे बे. ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज (सावऊं के०) सावधं एटले पाप सहित एवो ( जोगं के० ) योगं एटले व्यापार ( परस्साए के० ) परार्थ एटले परने अर्थे ( निद्वियं के० ) निष्ठितं एटले पूर्वे थइ रहेलो बे, (कीरमाणं के० ) क्रियमाणं एटले वर्तमान काले थाय बे, ( वा के० ) अथवा जविष्य काले थशे, ( ति के० ) इति एटले या प्रकारे ( नच्चा ho ) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( मुणी के० ) मुनिः एटले साधु जे ते ( सावऊं के० ) सावद्यं एटले पापसहित जाषा प्रत्ये ( न लवे के० ) नालपेत् एटले न कहे . ॥ ४० ॥ ( दीपिका. ) तथैव मुनिः साधुः सावद्यं योगं सपापं व्यापारमधिकरणसनादिविषयं परस्यार्थाय परनिमित्तं निष्ठितं निष्पन्नं न ब्रूयात् । तथा क्रियमाणं । वाशब्दात् जविष्यत्कालजा विनं वा ज्ञात्वा सावद्यं नालपेत् सपापं न ब्रूयात् ॥ ४० ॥ ( टीका. ) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह । तदेव त्ति सूत्रम् । तथैव सावद्यं सपापं योगं व्यापारमधिकरणं सजादिविषयं परस्यार्थाय परनिमित्तं निष्ठितं निष्पन्नं तथा क्रियमाणं वा वर्त्तमानम् । वाशब्दाद्भविष्यत्कालनाविनं वा ज्ञात्वा सावद्यं नालपेत् । सपापं न ब्रूयात् । मुनिः साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ४० ॥ सुकडित्ति सुपक्कित्ति, सुचिन्ने सुदडे मडे ॥ सुनिठिए सुलहित्ति, सावऊं वक्कए मुणी ॥ ४१ ॥ ( अवचूरिः ) सावद्यं वर्जयेत् निरवद्यं जाषेते तत्सावद्य निरवद्यमाह । सुकृतं सादि । सुष्ठु पक्कं सहस्रपाकादि । सुष्ठु न्निं वनादि सुष्टु हृतं शुद्रस्य वित्तम् । सुष्टु मृतः प्रत्यनीकः । अत्रापि सुशब्दोऽनुवर्त्तते । सुनिष्ठितं वित्तानिमा निनो वित्तम् । सुलष्टा सुन्द Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा रा कन्येति सावधं वर्जयेत् । अनुमत्यादिदोषप्रसङ्गात् । निरवद्यं जाषेत | सुकृतमनेन वैयावृत्त्यादि । सुपकं ब्रह्मचर्यं साधोः । सुविन्नं स्नेहबन्धनं । सुहृतमात्मानं स्वजनादेः । सुमृतं पं तिमरणेन । सुनिष्ठितं कर्म श्रप्रमत्तसाधोः । सुलष्टा क्रियेति ब्रूयात् ॥ ४१ ॥ (अर्थ) उपरली गाथामां कहेला अर्थनुंज वधारे स्पष्टीकरण करे बे. सुकडित्ति इत्यादि सूत्र. (मुणी के०) मुनिः एटले साधु (सावऊं के०) सावद्यं एटले सावद्य वचन प्रत्ये ( वजए के० ) वर्जयेत् एटले वर्जे. शीरीते वर्जे ते कहे बे. ( सुकडित्ति ho ) सुकृतमिति एटले कोइ ऊगडा टंटाना फेसला वास्ते सना ठीक करी एम न कहे . ( सुपक्कित्ति के ० ) सुपक्कमिति एटले सहस्रपाक प्रमुख तेलनो पाक सारी पेठे कस्यो एम न कहेवुं. ( सुन्ने के० ) सुन्निं एटले जंगल प्रमुख कापी नाख्यं ते ठीक कयुं, एम न कहे. ( सुहडे के० ) सुहृतं एटले कोइ क्षुद्र माणसनुं धन चोराइ गयुं ठीक युं, एम न कहेतुं . ( मडे के० ) मृतः एटले फलाणो दुस्मन मरी गयो ते ठीक थयुं, एम न कहेतुं . ( सुनिधि के० ) सुनिष्ठितं एटले हुं पैसावालो एवो अहंकार राखनार फलाणानुं धन नाश पाम्युं ते ठीक थयुं एम न कहेवुं. तथा (सुलहित्ति के० ) सुलष्टेति एटले फलाणी कन्या सुंदर वे एम कहेवुं. एवा सावद्य वचन न कवा. पण निरवद्य वचन तो कहेवा. जेम के, फलाणा साधुए वेयावच्च सुकृतं एटले सारं करूं. फलाणा साधुनुं ब्रह्मचर्य सुपक्कं एटले सारुं परिपक्क ययुं. फलापा सा पोताना संबंधीने विषे रहेलुं स्नेहबंधन सुविन्नं एटले सारीपेठे कापी नाख्युं. शिष्यना उपकरण उपसर्गमां सुहृतं एटले लुप्त थया ते ठीक थयुं. फलाणो साधु सुमृतः एटले पंक्ति मरण पाम्यो ते ठीक थयुं. कोइ प्रमाद रहित साधुनुं कर्म सुनिष्टितं एटले सारीपेठे खपाइ गर्छु. फलाणा साधुनी क्रिया सुलष्टा एटले बहु सारी ते निरवद्य वचन कहेतुं ॥ ४१ ॥ ( दीपिका . ) तत्र निष्ठितं न एवं ब्रूयादित्याह । मुनिः साधुः इति सावधं सपापमि - ति वक्ष्यमाणप्रकारेण वर्जयेत् । इतीति किम् । तदाह । सुकृतमिति सुष्टु कृतं सनादि । सुपक्कंति । सुष्टु पक्कं सहस्रपाकादि । सुविन्नति सुष्ठु विन्नं वनादि । सुदमित्ति सुष्टु हृतं स्य वित्तम् । मडेति सुष्टु मृतः प्रत्यनीक इति । अत्रापि सुशब्दोऽनुवर्त्तते । निष्टुनिष्टतं वित्तानिमानिनो वित्तम् । सुलह त्ति सुष्ठु सुन्दरा कन्या इत्येवं सावद्यमालपनं वर्जयेत् मुनिः । अनुमत्यादिदोषप्रसंगात् । निरवद्यं निःपापं तु वदेत् । इदमेव पद्यमर्थान्तरेण व्याख्यानयति सुकमित्ति । सुष्टु कृतं वैयावृत्त्यमनेन । सुपक्कत्ति । सुपक्कं ब्रह्मचर्यं साधोः । सुन्निमिति । सुष्टु विन्नं स्नेहबन्धनमनेन । सुहृतमिति सुष्टु हृतं शिष्य For Private Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। ४६५ कोपरणम् उपसर्गे।सुमृतमिति सुष्टु मृतः पंमितमरणेनसाधुरितिापत्र सुशब्दोऽनुवर्तते। सुनिष्ठितं कर्म अप्रमत्तसंयतस्य । सुलहित्ति सुन्दरा साधुक्रिया इत्येवमादिरिति॥१॥ (टीका.) तत्र निष्ठितं नैवं ब्रूयादित्याह । सुकड त्ति सूत्रम् । सुकृतमिति सुष्टु कृतं सनादि।सुपक्कमिति सुष्टु पकं सहस्रपाकादि । सुछिन्नमिति सुष्टु बिन्नं तनादि । सुहृतमिति सुष्ट हृतं कुषस्य वित्तम्।सुमृतइति सुष्टु मृतःप्रत्यनीक इत्यत्रापि सुशब्दोऽनुवर्तते।सुनिष्ठितमिति सुष्टु निष्ठितं वित्तानिमानिनो वित्तम् । सुलहित्ति सुष्टु सुन्दरा कन्या इत्येवं सावद्यमालपनं वर्जयेद् मुनिरनुमत्यादिदोषप्रसङ्गात् । निरवा तु न वर्जयेत् । यथा सुकृतमिति सुष्टु कृतं वैयावृत्त्यमनेन । सुपक्कमिति सुष्टु पक्कं ब्रह्मचर्य साधोः । सुबिन्नमिति सुष्टु बिन्नं स्नेहबंधनमनेन । सुहृतमिति सुष्टु हृतं शिष्यकोपकरमुपसर्गे । सुमृत शति सुष्टु मृतः पंमितमरणेन साधुरिति।अत्रापि सुशब्दोऽनुवर्तते । सुनिष्ठितमिति सुष्टु निष्ठितं कर्माप्रमत्तसंयतस्य। सुलह त्ति सुष्टु सुन्दरा साधुक्रियेत्येवमादीति सूत्रार्थः॥४१॥ पयत्तपक्क त्ति व पकमालवे, पयत्तबिन्न त्ति व निन्नमालवे॥ पयत्तलहित्ति व कम्मदेनअं, पहारगाढ त्ति व गाढमालवे ॥४॥ (अवचूरिः) उक्तानुक्तापवादविधिमाह । प्रयत्नपक्वमिति वा पक्कमालपेत् । प्रयत्नपक्कं सहस्रपाकादि ग्लानार्थम् । प्रयत्नछिन्नमिति वा बिन्नमालपेत् । प्रयत्नछिन्नं वनादि। प्रयत्नलष्टेति वा लष्टा सुन्दरा कन्या दीदिता सती सम्यक्पालनीया । कर्महेतुकमिति सर्वमेव कृतादि सत्कर्मकमालपेत् । प्रहारगाढं ब्रूयात् ॥४२॥ (अर्थ.) हवे अपवादमार्ग कहे . पयत्त इत्यादि सूत्र. सहस्रपाकादि तेलतुं ग्लान विगेरेने प्रयोजन होय तो साधु ( पकं के०) पक्कं एटले पाकसिफ थएल एवा सहस्रपाकादि तेलने ( पयत्तपकित्ति के ) प्रयत्नपक्वमिति एटले घणी. म. हेनतथी पकावेलुं वे ए प्रकारे ( बालवे के० ) बालपेत् एटले कहे. तेमज साधु प्रसंगथी साधुऊने कहे होय तो ( बिन्नं के० ) बिन्नं एटले कापी नाखेला वन वि गेरेने ( पयत्तजिन्नं के) प्रयत्न छिन्नं एटले प्रयत्ने करी कापेलु ने ए प्रकारे (बालवे के०) आलपेत् एटले कहे. (व के० ) वा एटले अथवा सुंदर कन्याने ( पयत्तलहित्ति के०) प्रयत्नलष्टेति एटले था कन्या दीक्षा ले तो एनुं प्रयत्नथी पालन करवं जोश्यें आ रीते सर्वने ( कम्महेज्यं के० ) कर्महेतुकं एटले कर्म डे हेतु जेनो एवं कहे. ( व के० ) वा एटले अथवा ( गाढं के ) गाढने ( पहार ५९ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. गाढ a ho ) प्रहारगाढ मिति एटले प्रहारगाढ ए प्रकारे ( घालवे के० ) घाल पेत् एटले कहे. ॥ ४२ ॥ ( दीपिका . ) उक्तानुक्तविधिमाह । साधुग्लानप्रयोजने प्रयत्नपक्कमिति वा प्रयत्नपक्कमेतत् । पक्कं सहस्रपाकादि एवमालपेत् । तथा प्रयत्न विन्नमिति वा प्रयत्न छिन्नमेतत् वनादि । साधु निवेदनादावेवमालपेत् । तथा पयत्तलहिति वा प्रयत्नसुन्दरा कन्या दीकिता सती सम्यक् पालनीयेति । कर्महेतुकमिति सर्वमेव कृतादिकर्मनिमित्तमाल पेदिति योगः । गाढप्रहारमिति वा कंचन गाढमालपेत् । गाढप्रहारं ब्रूयात् कचित्प्रयोजने । एवं हि तदप्रीत्यादयो दोषाः परिहृता जवन्तीति ॥ ४२ ॥ ( टीका. ) उक्तानुक्तापवादविधिमाह । पयत्त त्ति सूत्रम् । प्रयत्नपक्कमिति वा प्रयत्नपक्कमेतत् । पक्कं सहस्रपाकादि ग्लानप्रयोजन एवमालपेत् । तथा प्रयत्न चिन्नमिति वा प्रयत्न छिन्नमेतत् विन्नं वनादि । साधु निवेदनादौ एवमालपेत् । तथा प्रयत्नलष्टेति वा । प्रयत्नसुन्दरा कन्या दीक्षिता सती सम्यक् पालनीयेति । कर्महेतुक मिति सर्वमेव वा कृतादि कर्मनिमित्तमालपेदिति योगः । तथा गाढप्रहारमिति वा । कंचन गाढमालपेत् । गाढप्रहारं ब्रूयात्कचित्प्रयोजन एवं हि तदप्रीत्यादयो दोषाः परिहृता जवन्तीति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ सक्क्कसं परग्धं वा, अविक्विमवत्तवं " नलं नचि एरिसं ॥ वित्तं चैव नो वए ॥ ४३ ॥ ( अवचूरिः ) व्यवहारे पृष्टोऽपृष्टो वा नैवं वदेदित्याह । एतन्मध्ये इदं सर्वोत्कृष्टं स्वावेन सुन्दरमित्यर्थः । परार्धं वा बहुमूल्य क्रीतमिति जावः । अतुलं नास्तीदृशं कचिदपि । श्रविक्विति । श्रसुकृतं सुलनमीदृशं सर्वत्रापि । यवक्तव्यमनन्तगुणमेतत् । प्रीतिकरं चैतदित्येवं नो वदेत् ॥ ४३ ॥ ( अर्थ. ) कोइ व्यवहार चालतो होय त्यारे को पूढे अथवा न पूढे तो ए आ ते न कहे एम कहे वे सबुकसं इत्यादि सूत्र. या वस्तुमां या वस्तु (सबुकसं के० ) सर्वोत्कृष्टं एटले स्वभावथीज सारी सुंदर बे, ( वा के० ) अथवा या वस्तु (परघं के० ) परार्धं एटले घणी मोंघी बे, तथा या वस्तु ( प्रलं के० ) अतुलं एटले बीजे क्यां ए जोडो न मले एवी बे, ( नहि एरिसं के० ) नास्तीदृशं एटले एवी बीजे ठेकाणे न मले, तेमज या वस्तु ( अविक्कि के० ) असंस्कृतं एटले बराबर चोकी करेली नथी, तथा आ वस्तु ( अवत्तवं के० ) अवक्तव्यं एटले एनामां घणा For Private Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४६७ गुण होवाथी वर्णन करी शकाय एवी नथी. (वा के०) अथवा था वस्तु ( अविधत्तं के०) अप्रीतिकरं एटले अप्रीति उत्पन्न करनारी , श्रा प्रकारे साधु (नो वए के०) नो वदेत् एटले न कहे. ॥ ५३॥ (दीपिका.) कचिट्यवहारे प्रक्रान्ते पृष्टोऽपृष्टो वा नैवं वदेदित्याह । साधुः एवं वदयमाणं नो वदेत् । एवं किमित्याह । एतन्मध्य इदं सर्वोत्कृष्टं खजावेन सुन्दरमित्यर्थः । पराघु वा उत्तमाघु वा महाघ क्रीतमित्यर्थः । अतुलं नास्तीगन्यत्रापि कचित् । अविकिति असंस्कृतं सुलजमीदृशमन्यत्रापि । श्रवक्तव्यमिति अनंतगुणमेतदेव । अविअत्तं वा अप्रीतिकरं च एतत् । इति एवं नो वदेत् साधुः । श्रधिकरणान्तराया दिदोषप्रसंगादिति ॥४३॥ (टीका.) कचिट्यवहारे प्रक्रान्ते पृष्टोऽपृष्टो वा नैवं ब्रूयादित्याह । सबुक्कसं ति सूत्रम् । एतन्मध्य इदं सर्वोत्कृष्टं खजावेन सुन्दर मित्यर्थः । परार्धं वोत्तमाघु वा महाघु क्रीतमिति नावः।अतुलं नास्तीदृशमन्यत्रापि क्वचित् । अविकिरं ति। असंस्कृतं सुलनमीहशमन्यत्रापि । श्रवक्तव्यमित्यनन्तगुणमेतत् । अविश्रत्तं वाप्रीतिकरं चैतदिति नो वदेत् । अधिकरणान्तरायादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥४३॥ सबमेअं वश्स्सामि, सबमेअंति नो वए ॥ अणुवी सवं सबन, एवं नासिक पन्नवं ॥४४॥ (श्रवचूरिः) सर्वमेतदयामीति केनचित्कस्यचित्संदिष्टे सर्वमेतत्त्वया वक्तव्य मिति सर्वमेतदयामीति नो वदेत् । सर्वस्य स्वरव्यञ्जनाद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात्। कस्यचित्संदेशं प्रयन् सर्वमिति नो वदेत् । अतोऽनुचिन्त्यालोच्य सर्वं वाच्यं सर्वेषु कार्येषु यथासंचवाय निधानादिना मृषावादो न लवत्येवं नाषेत प्रज्ञावान् ॥ ४॥ (अर्थ.) सत्वमेधे इत्यादि सूत्र, ज्यारे साधुने को कहे के, था मे कहेली सर्व वात फलाणाने कहेजो. त्यारे साधु (सबमेयं वश्स्सामि के० ) सर्वमेतदयामि एटले या सर्व वात कहीश एम ( नो वए के०) नो वदेत् एटले न कहे. तेमज कोने संदेशो कहेवराववो होय तो संदेशो कहेनारने तुं ( सबमेशं के०) सर्वमेतत् एटले या सर्व वात फलाणाने कहे जे. या प्रकारे (नो वए के०) नो वदेत् एटले न कहे. कारण के, एकना मुखमांथी नीकलेला तेना तेज शब्द स्वरव्यंजनसहित बीजो को कही शके तेम नथी. माटे (पन्नवं के०)प्रज्ञावान् एटले बुझिमान् साधु (सबब के०) सर्वत्र एटले सर्व ठेकाणे (सत्वं के० ) सर्वं एटले सर्व (अणुवी Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. के ) अनुचिन्त्य एटले विचारीने ( एवं के ) दोष न लागे एवी रीते (नासिक के०) नाषेत एटले बोले. ॥४४॥ (दीपिका.) पुनः किंच सर्वमेतद् वदयामीति केनचित्कस्यचित् संदिष्टे सर्वमेतत् त्वया वक्तव्यमिति सर्वमेतद् वदयामीति साधुनों वदेत्। सर्वस्य तथास्वरव्यञ्जना. युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात्। तथा सर्वमेतदिति नो वदेत् । कस्य चित् संदेहं प्रयछन् सर्वमेतदित्येवं वक्तव्यमिति नो वदेत् । सर्वस्य तथाखरव्यञ्जनाद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात्। असंनवानिधाने मृषावादादयो यतश्च दोषा जवन्ति । एवमतोऽनुचिन्त्यालोच्य सर्व वाच्यं सर्वेषु कार्येषु । यथासंनवाद्यनिधानादिना मृषावादो न नवत्येवम् ॥ ४ ॥ ( टीका.) किं च सबमेशं ति सूत्रम् । सर्वमेतदयामीति केन चित् कस्य चित् संदिष्टे सर्वमेतत्त्वया वक्तव्य मिति सर्वमेतदयामीति नो वदेत् । सर्वस्य तथाखरव्यञ्जनाद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात् । तथा सर्वमेतदिति नो वदेत् । कस्य चित्संदेशं प्रयन् सर्वमेतदित्येवं वक्तव्य इति नो वदेत् । सर्वस्य तथाखरव्यञ्जनाद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात् । असंजवानिधाने मृषावादः । यतश्चैवमतोऽनुचिन्त्यालोच्य सर्व वाच्यं सर्वत्र कार्येषु । यथा असंनवायनिधानादिना मृषावादो न नवत्येवं नाषेत प्रझावान् साधुरिति सूत्रार्थः॥४४॥ सुक्कीअं वा सुविक्की, अकिऊं किङमेव वा ॥ इमं गिरह इमं मुंच, पणीअं नो वियागरे ॥४५॥ (अवचूरिः) सुक्रीतं वेति । केन चित्क्रीतं दर्शितं सत् सुकीतं शति नो वदेत् । किंचित्केनचिठिकीतं दृष्ट्वा पृष्टः सन् सुविक्रीतमिति नो वदेत् । केनचिकीते पृष्टे क्रेयं क्रयाईमेव न भवतीति नो वदेत् । तथैव केयमेव वा इदं पण्यं गृहाण महाघ जविष्यति । इदं मुश्च समघु नविष्यतीति पणितं पण्यं न व्यागृणीयात् ॥ ४५ ॥ __ (अर्थ.) वली सुक्कीअं इत्यादि सूत्र. कोश् माणस कर वस्तु वेचाथी लश्ने साधुने देखाडे तो ते साधु (सुक्कीअं के०) सुक्रीतं एटले ठीक वेचाथी लीधी एम (नविथागरे के०) न व्यागृणीयात् एटले न कहे. तेमज को कर वस्तु वेचीने साधुने पूजे तो साधु (सुविक्कीअं के०) सुविक्रीतं एटले नली वेची नाखी एम न कहे. तेमज कोश कर वस्तु वेचीने साधुने पूजे तो साधु (अकिजं के०) अकेयं एटले खरीदवा लायक नथी. (वा के०) अथवा ( किमेव के० ) केयमेव एटले खरीदवा योग्यज श्रा रीते न कहे. तेमज (श्मं के०)श्रा (पणियं के०) पणितं एटले करियाएं Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४दए ( गिह के० ) गृहाण एटले नरी राख. कारण आगल जतां था मोंधू थशे. तथा (श्मं के०) श्रा करियाणुं (मुंच के०) काढी नाख. कारण ए थोडा कालमां सोंधू थशे. था रीते साधु न कहे.॥ ४५ ॥ (दीपिका. ) किंच साधुः एवं न व्यागृणीयात् । एवमिति किम्। यदाह सुक्कीश्रमिति।केनचित किंचित क्रीतं दर्शितं सत्सुक्रीतमिति योगः। तथा सुविक्कीश्रमिति। किंचित् केनचित् विक्रीतं दृष्ट्वा पृष्टः सन् सुविक्रीतमिति न व्यागृणीयात्। तथा केनचित्क्रीते पृष्टे अकेयं क्रयाहमेव वा न नवतीति न व्यागृणीयात् । तथैवमेव केयमेव वा कयाई मिति। तथेदं गुडादि गृहाण, आगामिनि काले महाघ नविष्यतीति। तथेदं मुश्च घ्रतादि श्रागामिनि काले समर्घ नविष्यतीति, पणितं पण्यं क्रयाणकं नैवं व्यागृणीया त् । अप्रीत्यधिकरणादिदोषप्रसंगादिति ॥ ४५ ॥ (टीका.) किंच सुक्कीअं वत्ति सूत्रम्। सुक्रीतं वेति । किंचित् केन चित् क्रीतं दर्शितं सत्सुकीतमिति न व्यागृणीयात् इति योगः । तथा सुविक्रीतमिति । किंचिकेनचिठिकीतं दृष्ट्वा पृष्टः सन् सुविक्रीतमिति न व्यागृणीयात् । तथा केन चित् क्रीते पृष्टोऽक्रेयं क्रयाईमेव न नवतीति न व्यागृणीयात् । तथैवमेव केयमेव वा क्रयाईमेवेति । तथेदं गुडादि गृहाणागामिनि काले महाघ नविष्यति । तथेदं मुश्च घृ. ताद्यागामिनि काले समर्घ नविष्यतीति कृत्वा पणितं पण्यं नैव व्यागृणीयात् । श्रप्रीत्यधिकरणादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ अप्पग्घे वा मदग्घे वा, कए वा विक्कए वि वा ॥ पणिअहे समुप्पन्ने, अणवज विभागरे॥४६॥ (श्रवचूरिः) अल्पार्थे वा महाघे वा क्रये वा विक्रयेऽपि वा पणितार्थे पण्यवस्तु. नि समुत्पन्ने केनचित्पृष्टः सन् अनवद्यमपापं व्यागृणीयात् । यथा नाधिकारोऽत्रसाधूनां व्यापारानावात् ॥ ४६॥ (अर्थ.) या विषयमांज विधि कहे . अप्पग्घे इत्यादि सूत्र. ( अप्पग्घे के०) अल्पाचे एटले थोडा मूल्यनुं ( वा के०) अथवा ( महग्घे के०) महाघे एटले घणा मूल्यन (पणिय के०) पणितार्थे एटले करियाणुं (कए के) क्रये एटले खरीदनी बाबदमां ( वा के०) अथवा ( विक्कए के०) विक्रये एटले वेचाणनी बाबदमां ( समुप्पो के० ) समुत्पन्ने एटले आवी पड्युं होय, श्रने साधुने कोइ पूजे तोते साधु Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (श्रणवऊं के० ) अनवयं एटजे निरवद्य वचन ( विश्रागरे के० ) व्यागृणीयात् एटले बोले. अर्थात् एम कहे के, श्रमे साधु बियें, माटे या बाबदमां कंपण बोलवानो अमने अधिकार नथी. ॥ ४६॥ (दीपिका.) अत्रैव विधिमाह ।अपार्थे वा महाघे वा।कस्मिन् । इत्याह । क्रये वा विक्रये वापि पणितार्थे वा पण्यवस्तुनि समुत्पन्ने केनचित्पृष्टः सन् साधुः अनवद्यमपापं व्यागृणीयात् । यथा नाधिकारः तपखिनां व्यापारस्य अन्नावादिति ॥ ४६॥ . (टीका.) तत्रैव विधिमाह । अप्पग्घे व त्ति सूत्रम् । अल्पाचे वा महाघे वा । कस्मिन्नित्याह । क्रये वा विक्रयेऽपि वा पणितार्थे पण्यवस्तुनि समुत्पन्ने केनचित् पृष्टः सन्ननवद्यमपापं व्यागृणीयात् । यथा नाधिकारोऽत्र तपस्विनां व्यापारानावादिति सूत्रार्थः ॥ ४६॥ तदेवासंजयं धीरो, आस एहि करेदि वा ॥ सयं चि वयादि त्ति, नेवं नासिङ पन्नवं ॥४७॥ - (अवचूरिः ) तथैवासंयतं गृहस्थं धीरो यतिः श्रास्व इहैव, एहि अत्र, कुरु चेदं कार्य, शेष्व निया, तिष्ट क्षणं, व्रज ग्राममिति नैवं नाषेत ॥४॥ (अर्थ.) तहेव इत्यादि सूत्र. ( तहेव के०) तथैव एटलें तेमज (पलवं के०) प्रज्ञावान् एटले बुझिशाली अने (धीरो के०) धीरः एटले संयम पालवामां धीर एवो साधु ( असंजयं के०) असंयतं एटले अविरत एवा गृहस्थने (आस के०) थास्व एटले बेस, ( एहि के०) एहि एटले श्राव, (वा के०) अथवा ( करेहि के० ) कुरु एटले आ काम कर, (सयं के०) शेष्व एटले सुश् रहे, (चिठ के०) तिष्ठ एटले उन्नो रहे, तथा (वयाहि के०) ब्रज एटले फलाणे ठेकाणे जा, (त्ति के० ) इति एटले या प्रकारे (नैवं नासिज के०) नैवं नाषेत एटले दोष लागे एवी रीते न बोले. ॥४७॥ (दीपिका.) पुनः किंच प्रज्ञावान् बुद्धिमान् धीरः पएिकतो यतिः असंयतं गृहस्थं प्रति इति न नाषेत । इतीति किम् । त्वमिदैव आस्व उपविश, त्वमेहि अत्र, स्वमिदं संचयादि कुरु, तथा निजया त्वं शेष्व, तथा स्वमत्र तिष्ठ ऊर्ध्वस्थानेन, तथा त्वं ब्रज ग्राममिति ॥ ४ ॥ (टीका.) किंच तहेव त्ति सूत्रम् । तथैवासंयतं गृहस्थं धीरः संयतः आस्वेदेव, Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। ४७१ एहीतोऽत्र, कुरु वेदं संचयादि, तथा शेष्व निया, तिष्ठोलस्थानेन, बज ग्राममिति । नैवं नाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ बहवे इमे असाहू, लोए वुचंति साहुणो ॥ न लवे असाहु साहु त्ति, साहुं साहु त्ति आलवे ॥ ४ ॥ (श्रवचूरिः) बहव एते उपलन्यमानस्वरूपा आजीवकादयोऽसाधवो निर्वाणसाधकयोगापेक्षया लोके तु प्राणिलोके प्राणिसंघात उच्यन्ते साधवः सामान्येन । तत्र नालपेदसाधु साधुम् । साधु साधु मित्यालपेत् ॥ ४ ॥ (अर्थ.) बहवे इत्यादि सूत्र. (बहवे के०) बहवः एटले घणा (श्मे के०) श्रा (असाहू के०) असाधवः एटले खरेखर साधु नथी एवा लोको (लोए के०) लोके एटले आ लोकने विषे (साहुणो के०) साधवः एटले साधु बे एम ( वुचंति के ) उच्यन्ते एटले कहेवाय बे. पण पूर्वोक्त साधु ( असाहुं के०) असाधुं एटले खरेखर साधु न होय तेने (साहु त्ति के०) साधुमिति एटले श्रा साधु बे ए प्रकारे ( न लवे के०) नालपेत् एटले न कहे. अने (साहुं के०) साधुं एटले साधुने ( साहु त्ति के०) साधुमिति एटले साधु ए प्रकारे (बालवे के०) बालपेत् एटले कहे. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) पुनः किंच लोके प्राणिलोके प्राणिसंघात एते बहव उपलन्यमानस्वरूपा आजीवकादयो मोक्षसाधकयोगमाश्रित्य साधव उच्यन्ते सामान्येन । परमसाधु साधु न बालपेत् । मृषावादप्रसङ्गात् । अपितु साधुं प्रति साधुमालपेत् । नतु तमपि ना लपेत्।जप बृंहणा प्रशंसा गुणानां तस्या अकरणेऽतिचारदोषः स्यात्॥धना -- ( टीका.) किंच बहव त्ति सूत्रम् । बहव एते उपलन्यमानस्वरूपा श्राजीवकादयः असाधवः निर्वाणसाधकयोगापेक्षया लोके तु प्राणिसंघात उच्यन्ते साधवः सामान्येन । तत्र नालपेदसाधु साधुं मृषावादप्रसङ्गात् । अपितु साधु साधुमित्यालपेत् । नतु तमपि नालपेत् । उपबृंहणातिचारदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥४॥ नाणदसणसंपन्नं, संजमे अ तवे रयं ॥ एवं गुणसमाउत्तं, संजय साहुमालवे ॥ ४ ॥ (श्रवचूरिः) किंविशिष्टं साधु मित्यालपेदित्याह । शानदर्शनसंपन्नं संयमे तपसि च रतं एवंगुणसमायुक्तं संयतं साधुमालपेत् । न तु अव्यलिङ्गधारिणमिति ॥ ४ ॥ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अर्थ.) हवे केवाने साधु कहे ते कहे . नाण इत्यादि सूत्र. ( नाणदसणसंपन्नं के) शानदर्शनसंपन्नं एटले ज्ञान अने दर्शन वडे करीने जे युक्त होय, तथा ( संजमे के० ) संयमे एटले संयमने विषे ( अ के०) च एटले वली ( तवे के० ) तपसि एटले तपस्याने विषे ( रयं के०) रतं एटले आसक्त होय. ( एवंगुणसमाउत्तं के) एवंगुणसमायुक्तं एटले एवा गुणे करीने जे युक्त होय ते ( संजयं के०) संयतं एटले संयमधारीने (साडं के०) साधुं एटले साधु ए रीते (आलवे के०) थालपेत् एटले कहे. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) किंविशिष्टं साधु साधुमालपेदित्याह । एवं विधं संयतं साधुमालपेत्। किंनूतं संयतम् । शानदर्शनसंपन्नं ज्ञानदर्शनाच्यां संपूर्ण समृधम् । पुनः किंनूतं संयतम्। संयमे सप्तदशनेदे च पुनः तपसि द्वादशन्नेदे रतं यथाशक्ति तत्परम् । एवं पूर्वोक्तगुणसमायुक्तं न तु अव्यलिङ्गधारिणम् ॥ ४ ॥ (टीका.) किंविशिष्टं साधु साधुमित्यालपेदित्यत आह । नाण त्ति सूत्रम् । ज्ञानदर्शनसंपन्नं समृकं संयमे तपसि च रतं यथाशक्ति । एवंगुणसमायुक्तं संयतं साधुमालपेत् । न तु व्यलिङ्गधारिणमपीति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ देवाणं मणुाणं च, तिरिआणं च वुग्गदे॥ अमुगाणं जन दोन, मा वा दोन त्ति नो वए॥५०॥ (अवचूरिः) देवानांसुराणां मनुजानां नूपादीनां तिरश्चां महिषादीनां विग्रहे संग्रामे सत्यमुकानांजयो नवतुमा वाजवतु इतिवा नो वदेत्।अधिकरणतत्स्वामिद्वेषात्॥५॥ (अर्थ.) वली देवाणं इत्यादि सूत्र. ( देवाणं के०) देवानां एटले देवताउँनो (च के०) वली (मणुाणं के०) मनुष्याणां एटले मनुष्योनो ( च के ) वली (तिरिआणं के०) तिरश्चां एटले पाडा प्रमुख तिर्यंचोनो (वुग्गहे के०) विग्रहे एटले संग्राम थए बते ( अमुआणं के०) अमुकानां एटले देवादिकोमा फलाणानो (ज के०) जयः एटले जय (होउ के०) नवतु एटले था. ( वा के०) अथवा (अमुगाणं के० ) अमुकानां एटले फलाणानो ( ज के० ) जयः एटले जय (मा होउ के०) मा जवतु एटले न था. (त्ति के० ) इति एटले आ प्रकारे साधु ( नो वए के० ) नो वदेत् एटले न कहे. कारण तेथी अधिकरण दोष लागे , तथा ष उत्पन्न थाय बे. ॥ ५० ॥ (दीपिका.) किंच साधुरिति नो वदेत् । इतीति किम्।अमुकानां देवानां जयो ज. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४७३ वतु वा मा नवतु इति नो वदेत् । कथम् । अधिकरणतत्स्वाम्यादिषप्रसङ्गात् । क्क सति । देवानां देवासुराणां मनुजानां च नरेन्द्रादीनां तिरश्चां च महिषादीनां विग्रहे संग्रामे सति ॥५०॥ (टीका.) किंच देवाणं ति सूत्रम् । देवानां देवासुराणां मनुजानां नरेन्डादीनां तिरश्चां महिषादीनां च विग्रहे संग्रामे सति अमुकानां देवादीनां जयो नवतु मा वा जवत्विति नो वदेदधिकरणतत्स्वाम्या दिवेषदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः॥ ५० ॥ वावुठं च सीनन्हं, खेमं धायं सिवं तिवा॥ कया णु दुऊ एआणि, मा वा दोन त्ति नो वए ॥१॥ (अवचूरिः) वातो मलयमारुतादिः, वृष्टं वर्षणं वा,शीतोष्णं प्रतीतं, देमं राजविज्वरशून्यं, धान्यं सुनिदं, शिवमुपसर्गरहितं । कदा नु नवेयुरेतानि वातादीनि मा वा नवेयुरिति नो वदेत् । श्रधिकरणवातादिसत्त्वपीडाप्रसङ्गात् । तथा अनवने आर्तध्यानादिदोषात् ॥ ५१॥ (अर्थ.) वली वा इत्यादि सूत्र. ( वार्ड के० ) वायुः एटले ठंडक आपनारो दक्षिण दिशा प्रमुखनो पवन, ( वुहं के०) वृष्टं एटले वर्साद, (सीजन्हं के०) शीतोसं एटले शीत अने उस, (खेमं के०) देमं एटले उपवनी शांति, (धाअं के०) ध्रातं एटले सुनिक (सुकाल), (वा के०) अथवा ( सिवं के०) शिवं एटले सर्वे उपसर्गनी शांति (एयाणि के०) एतानि एटले आ उपर कहेला वायु प्रमुख (कया णु के०) कदा नु एटले क्यारे (हुज के०) नवेयुः एटले थशे. (वा के०) अथवा पूर्वोक्त वायु प्रमुख (मा होउ के०) मा नवन्तु एटले न था, (त्ति के०) इति एटले या प्रकारे साधु ( नो वए के० ) नो वदेत् एटले न कहे. कारण के, साधुना कहेवा प्रमाणे कदाच थशे तो जीवोने पीडा विगेरे थाय, अने कदाच न थशे तो साधुने आर्तध्यान थाय. ॥५१॥ (दीपिका.) पुनः किंच धर्मादिना अनिनूतो यतिरेवं नो वदेत् । अधिकरणादिदोषप्रसङ्गात् । वातादिषु सत्सु सत्वपीडाप्राप्तेः। तम्चनतस्तथानवनेऽपि वार्तध्याननावादिति एवं नो वदेत् । तत्किम् । वातो मलयमारुतादिः, वृष्टं वा वर्षणं, शीतोष्णं प्रतीतम्, देमं राजविज्वरशून्यं, पुनः ध्रातं सुनिदं, शिव मिति वा उपसर्गरहितं कदा नु जवेयुरेतानि वातादीनि मा वा नवेयुरिति ॥५१॥ (टीका.) किं च वाउत्ति सूत्रम् । वातो मलयमारुतादिः, वृष्टं वा वर्षणं, शीतोष्णं Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रतीतं, देमं विज्वरशून्यं, धातं सुनिदं, शिवमिति चोपसर्गरहितं कदा नु नवेयुरेतानि वातादीनि मा वा जवेयुरिति धर्माद्यन्निनूतो नो वदेदधिकरणादिदोषप्रसङ्गाहातादिषु सत्सु सत्त्वपीडापत्तेः। तचनतस्तथानवनेऽप्यार्तध्यानन्नावादिति सूत्रार्थः॥५१॥ तदेव मेदं व नदं व माणवं, न देवदेव त्ति गिरं वश्ता ॥ समुखिए नन्नए वा पनए, वश्ऊ वा वुह बलादय त्ति ॥५॥ __(अवचूरिः) तथैव मेघ वा ननो वा मानवं वाश्रित्य देवदेव इति गिरं नो वदेत्।एवं नन आकाशं मानवं राजानं देवमिति नो वदेत् । मिथ्यालाघवादिप्रसंगात् । कथं तर्हि वदे दित्याह । मेघमुन्नतं दृष्ट्वा संमूर्बित इति उन्नतो वा पयोद इति वदेछा वृष्टो बलाहक इति ॥२५॥ (अर्थ.) तहेव इत्यादि सूत्र. ( तहेव के० ) तथैव एटले तेमज ( मेहं के०) मेघं एटले मेघने ( वादलाने) (व के०) अथवा ( नहं के० ) नन्नः एटले आकाशने (व के०) अथवा ( माणवं के०) मानवं एटले मनुष्यने आश्रयीने (देवदेव त्ति के०) देवदेव इति एटले या देवदेव ने या प्रकारे (गिरं के) गिरं एटले वाणी प्रत्ये साधु (ण वजा के ) न वदेत् एटले न बोले. तात्पर्य चढेढुं वादढुं जोश्ने देव चढ्यो एम न बोले, तथा आकाशने अने मनुष्यने पण देव न कहे. त्यारे शीरीते बोलवू ते कहे . चढेधुं वादलु जोश्ने (पए के०) पयोदः एटले मेघ (सुमुछिए के०) संमूर्छितः एटले चढ्यो , (वा के० ) अथवा (उन्नए के०) उन्नतः एटले ऊंचो थएल बे, ( वा के० ) अथवा ( वुह बलाहय के ) वृष्टो बलाहकः एटले आ मेघ वरस्यो ( त्ति के ) इति एटले था प्रकारे (वश्ज के०) वदेत् एटले बोले. ॥५॥ (दीपिका.) किं नो वदेदित्याह। साधुः तथैव मेघं वा नन्नो वा आकाशं मानवं वा आश्रित्य नो देवदेव इति गिरं वदेत् । मेघमुन्नतं दृष्ट्वा उन्नतो देव इति नो वदेत् । एवं नन आकाशं मानवं राजानं दृष्ट्वा देव इति नो वदेत् । कथम्। मिथ्यालाघवादिप्रसङ्गात् । कथं तर्हि वदे दित्याह।मेघमुन्नतं दृष्ट्वा संमूर्बित उन्नतो वा पयोद इति वदेत्। अथवा वृष्टो बलाहक इति वदेत् ॥ ५५ ॥ (टीका.) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव मेघं वा ननो मानवं वाश्रित्य नो देवदेव त्ति गिरं वदेत्।मेघमुन्नतं दृष्ट्वा उन्नतो देव इति नो वदेत् । एवं नन आकाशं मानवं राजानं Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। ४७५ वा देवमिति नो वदेत् मिथ्यावादलाघवादिप्रसङ्गात् । कथं तर्हि वदेदित्याह । उन्नतं दृष्ट्वा संमूर्बित उन्नतो वा पयोद इति वदेछा वृष्टो बलाहक इति सूत्रार्थः ॥५२॥ ____ अंतलिक त्ति णं बूझा, गुप्नाणुचरित्र त्ति अ॥ रिधिमंतं नरं दिस्स, रिधिमंतं ति आलवे ॥५३ ॥ (श्रवचूरिः ) नन थाश्रित्याह । ननोन्तरीक्षमिति ब्रूयात् गुह्यकानुचरितं सुरैः सेवितमिति वा । छिमन्तं संपऽपेतं नरं दृष्ट्वा । किमित्याह । छिमन्तमिति शकिमानयमित्यालपेत् ॥ ५३॥ (अर्थ.) हवे आकाश श्राश्रयी शी रीते बोल, ते कहे . अंतलिक इत्यादि सूत्र. (णं के०) एनत् एटले ए श्राकाश प्रत्ये (अंतलिकं ति के०) अंतरिक्षमिति एटले अतरिक्ष ए प्रकारे (वा के) अथवा (गुलाणुचरिश्र त्ति के०) गुह्यानुचरितमिति एटले देवताए सेवित बे श्रा प्रकारे कहे. ए रीतेज मेघने पण कहे. तेमज (रिछिमंतं के) छिमन्तं एटले झकिशाली एवा ( नरं के०) नरं एटले माणसने (दिस्स के0 ) दृष्ट्वा एटले जोश्ने (रिद्धिमतं ति के०) छिमन्तमिति एटले था माणस शधिमंत जे आ रीते ( पालवे के० ) आलपेत् एटले कहे. ॥ ५३ ॥ (दीपिका.) पुनः आकाशमाश्रित्याह । साधुः श्ह ननः अंतरिदमिति ब्रूयात् । गुह्यानुचरितमिति वा ।सुरसेवितमित्यर्थः। एवं किल मेघोऽपि तमुनयशब्दवाच्य एव । तथा शधिमन्तं संपदा सहितं नरं दृष्ट्वा । किमित्याह । छिमंतमिति छिमानयमिति एवमालपेत् । कथम् । व्यवहारतो मृषावादादिपरिहारार्थम् ॥ ५३॥ (टीका.) नन आश्रित्याह । अंतलिक त्ति सूत्रम् । इह ननोऽन्तरिक्षमिति बयाह्यकानुचरितमिति वा। सुरसेवितमित्यर्थः । एवं किल मेघोऽप्येतनयशब्दवाच्य एव। तथा छिमन्तं संपछुपेतं नरं दृष्ट्वा किमित्याह । रिछिमंतमिति । शकिमानयमित्येवमालपेत् । व्यवहारतो मृषावादादिपरिहारार्थमिति सूत्रार्थः ॥ ५३ ॥ तदेव सावळणुमोअणी गिरा, दारिणी जा य परोवघाणी॥ से कोद लोह नय दास माणवो, न दासमाणो वि गिरं वश्ता ॥५४॥ (श्रवचूरिः ) तथैव सावद्यानुमोदिनी गीर्वाक सुष्टु हतो ग्राम इत्यादिः । अवधारिणी दमित्रमेवेति । संशयकारिणी वा।या च परोपघातिनी यथा मांसं न दोषाय। से इति ताम् । क्रोधाशोजानयाछा मानाछा प्रमादादीनामुपसदणमेतन्मानवः पुमान्साधुन हसन्नपि गिरं वदेत् । प्रजूतकर्मबन्धहेतुत्वात् ॥५४॥ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. __ (अर्थ.) वली तहेव इत्यादि सूत्र. ( तहेव के० ) तथैव एटले तेमज (या के०) जे (गिरा के०) गीः एटले वाणी (सावजणुमोअणी के७) सावधानुमोदिनी एटले ग्राम हणायो ते ठीक थडे इत्यादि सावध क्रियाने अनुमोदना आपनारी होय, (अ के) तथा जे वाणी (उहारिणी के०) अवधारिणी एटले था वात श्रा रीतेज बे, एम निश्चयथी कहेनारी होय, तथा जे वाणी (परोवघाणी के०) परोपघातिनी एटले मांस जक्षण करवामां दोष नथी इत्यादि परपीडा करनारी होय. (से के०) तां एटले ते वाणी प्रत्ये ( माणवो के) मानवः एटले साधु जे ते ( कोह लोन नय हास के०) क्रोध लोनजयहासात् एटले क्रोधथी, लोनथी, जयथी अथवा हासथी (हासमाणो वि के०) हसन्नपि एटले मस्करी करता पण (न वजा के० ) न वदेत् एटले न बोले. कारण के, तेथी कर्मबंध विगेरे थाय . ॥ ५४॥ (दीपिका.) पुनः किंच मानवः पुमान् साधुः हसन्नपि एवं गिरं न वदेत् ।कस्मात्। प्रजूतकर्महेतुत्वात् । एवं कामित्याह । तथैव पूर्वोक्तप्रकारेण सुष्टु हतो ग्राम इति सावद्यानुमोदिनी गीर्वाणी नाषा तां नो वदेत् । तथा श्वमेवेति असंशयकारिणी अवधारिणी नाषा तामपि नो वदेत् । पुनर्या च परोपघातिनी यथा मांसं न दोषाय।से इति तामेनूतामपि नो वदेत् । कस्माद् मानव एवंचूतां सपापां नाषां वदतीत्याह । कोधाहा लोनाहा नयाहा। उपलक्षणत्वात् प्रमादादेर्वा ॥५४॥ (टीका.) किंच तदेव त्ति सूत्रम्।तथैव सावद्यानुमोदिनी गीर्वाग्यथा सुष्टुहतो ग्राम इति । तथावधारिणीदमित्रमेवेति। संशयकारिणी वा।या च परोपघातिनी यथामांसमदोषाय।से इति तामेवंजूतां क्रोधाशोनान्नयाकासाहा। मानप्रमादादीनामुपलक्षणमेतत्।मानवः पुमान् साधुन हसन्नपि गिरं वदेत् ।प्रेनूतकर्मबन्धहेतुत्वादिति सूत्रार्थः॥५४॥ सुवकसुईि समुपेदिया, मुणी गिरं च दुई परिवाए सया ॥ मिश्र अप्ठे अणुवी नासए, सयाणवले लहई पसंसणं ॥ ५५॥ (अवचूरिः) वाक्यशुछिमाह । सवाक्यशुकिं स्ववाक्यशुहिं स वाक्यशुकिं वा । सती शोजनां, खामात्मीयां, स शति वक्ता । वाक्यशु िसंप्रेक्ष्य सम्यग् दृष्ट्वा मुनिः गिरं तु पुष्टामुक्तलक्षणां परिवर्जयेत्सदा। मितामष्टामनुचिन्त्य पर्यालोच्य नाषमाणः सन् सतां साधूनां मध्ये लनते प्रशंसनम् ॥ ५५॥ (अर्थ.) हवे वाक्यशुछिनुं फल कहे . सुवक इत्यादि सूत्र. ( मुणी के० ) १ प्रतिबंधकर्मबन्धहेतुत्वादिति पाठान्तरम् । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। ४७ मुनिः एटले साधु जे ते ( सुवक्कसुधि के०) सुवाक्यशुकिं एटले वचननी सारी शु. फिप्रत्ये (समुप्पेहिया के०) समुत्प्रेक्ष्य एटले जोश्ने (सया के०) सदा एटले निरंतर (पुठं के०) पुष्टां एटले पुष्ट एवी (गिरं के०) वाणी प्रत्ये (तु के०) निश्चये (परिवऊए के) परिवर्जयेत् एटले वर्जे. तथा ( मिश्र के) मितं एटले परिमित अने अमुठं के०) अपुष्टं एटले दोषरहितं एवं वचन (अणुवी के० ) अनुचिन्त्य एटले विचारीने (नासए के०) नाषेत एटले बोले. एम करवाथी (सयाण मप्ले के०) सतां मध्ये एटले सत्पुरुषोमा ( पसंसणं के०) प्रशंसां एटले प्रशंसा प्रत्ये ( लहर के० ) लजते एटले पामे . ॥ ५५॥ ( दीपिका.) अथ वचनशुद्धिफलमाह । मुनिः पुष्टां गिरं परिवर्जयेत् । किं कृत्वा। स्ववाक्यशुहिं स्वकीयवाक्यशुहिं सहाक्यशुकिं शोजनां वाक्यशुदि वा संप्रेक्ष्य सम्यक् दृष्ट्वा सदा सर्वदा। तर्हि कीदृशीं वदे दित्याह। मितं खरतः परिणामतश्च श्रउष्टं देशकालोपपन्नादि विचिन्त्य पर्यालोच्य नाषमाणः सतां साधूनां मध्ये प्रशंसनं प्रशंसां प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ ५५ ॥ __(टीका.) वाक्यशुकिफलमाह । सुवक्क त्ति सूत्रम् । सहायशुळि खवाक्यशुर्णि वा स वाक्यशुकिं वा सती शोजनां, खामात्मीयां, स इति वक्ता । वाक्यशुहिं संप्रेक्ष्य सम्यग् दृष्ट्वा मुनिः साधुः गिरं तु दुष्टां यथोक्तलक्षणां परिवर्जयेत् सदा। किंतु । मितं स्वरतः परिणामतश्च, अमुष्टं देशकालोपपन्नादि अनुविचिन्त्य पर्यालोच्य नाषमाणः सन् सतां साधूनां मध्ये लनते प्रशंसनं प्राप्नोति प्रशंसामिति सूत्रार्थः ॥५५॥ नासाइ दोसे अ गुणे अजाणि, तीसे अदुछे परिवाए सया॥ उसु संजए सामणिए सया जए, वश्क बुझे दिप्रमाणुलोमिअं॥५६॥ (श्रवचूरिः) यतश्चैवमतो जाषाया दोषांश्च गुणांश्च ज्ञात्वा तस्याश्च पुष्टायाः परिवर्जकः सदा एवंचूतः सन् षट्सु जीवनिकायेषु संयतः तथा श्रामण्ये श्रमणनावे सदा यत उद्युक्तो वदेडुको हितं परिणामसुंदरमनुलोमं मनोहरमिति ॥ ५६ ॥ (अर्थ.) जे कारण माटे एम ने ते कारण माटे नासा इत्यादि सूत्र. (सु के०) षट्रसु एटले षट् जीवनिकायने विषे ( संजए के० ) संयतः एटले सारी पेठे यतना राखनार तथा ( सामणिए के०) श्रामण्ये एटले श्रमण नावमा अर्थात् चारित्रना चढता परिणाम राखवामां (सया के०) सदा एटले निरंतर (जए के) वतः एटले उद्यमवान् एवो (बुके के०) बुद्धः एटले ज्ञानी साधु (नासा के०) Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. जाषायाः एटले जापाना ( दोसे के० ) दोषान् एटले दोषोने (श्र के० ) च एटले वली ( गुणे के० ) गुणान् एटले गुणोने ( जाणिश्रा के ) ज्ञात्वा एटले जाणीने (श्र के०) च एटले वली (तीसे के०) तस्याः एटले ते (के०) पुष्टायाः एटले अष्ट नाषाने ( सया के०) सदा एटले निरंतर ) परिवाए के०) परिवर्जकः एटले वर्जनार एवो थर ( हिश्रमाणुलोमिश्र के) हितानुलोमं एटले परिणाम हितकारी अने मधुर एवं वचन ( वश्जा के ) वदेत् एटले बोले. ॥ ५६ ॥ (दीपिका.) यतश्चैवं ततः साधुः किंकुर्यादित्याह । साधुः एवंविधः सन् हितानुलोमं हितं परिणामसुंदरमनुलोमं मनोहारि वचनं वदेत् । किं कृत्वा । जाषायाः पूर्वकथिताया दोषान् गुणांश्च ज्ञात्वा। किं साधुः। तस्या पुष्टायाजाषायाः परिवर्जकः। किं साधुः।सुसंजए।षट्सु जीव निकायेषु संयतः। पुनः किंगसाधुः। श्रामण्येश्रमणनावे चारित्रपरिणामनेदे सदा सर्वकालमुटुक्तः। पुनःकिंग साधुः। बुधः ज्ञाततत्त्वः ॥५६॥ (टीका.) यतश्चैवमतो जासार त्ति सूत्रम् । नाषाया उक्तलक्षणाया दोषांश्च गुणांश्च ज्ञात्वा यथावदवेत्य तस्याश्च उष्टाया जाषायाः परिवर्जकः सदा एवंनूतः सन् षड्जीवनिकायेषु संयतः तथा श्रामण्ये श्रमणनावे चरणपरिणामगर्ने चेष्टिते सदा यतः सर्वकालमुद्युक्तः सन् वदेद् बुद्धो हितानुलोमं हितं परिणामसुन्दरमनुलोमं मनोहारीति सूत्रार्थः ॥ ५६ ॥ परिकनासी सुसमादिदिए, चउकसायावगए अपिस्सिए ॥ सनिपुणे धुन्नमलं पुरेकरूं, पारादए लोगमिणं तदा परं तिबेमि॥५॥ सुवक्तसुही अप्नयणं सम्मत्तं ॥७॥ (श्रवचूरिः) उपसंहरन्नाह। परीक्ष्यलाषी आलोचितवक्ता सुसमाहितेन्डियः अप गतचतुःकषायः अनिश्रितो अव्यजावनिश्रारहितः स वन्नूतो निर्बय प्रस्फोट्य धृतमलं पापमलं पुराकृतं जन्मान्तरकृतम् । श्राराधयति । लोकमेनं मनुष्यलोकं वाक्संय तत्वेन । तथा परमिति परलोकं निर्वाणं पारंपर्येण अनन्तरे वा इति ब्रवीमि ॥२७॥ इति दशवैकालिकावचूरिकायां सुवाक्यशुध्यध्ययनम् ॥ ७॥ (अर्थ.) हवे अध्ययननो उपसंहार करता थका कहे . परिक इत्यादि सूत्र. (परिकलासी के ) परीक्ष्य नाषी एटले सावद्य निरवद्यनो विचार करीने बोलनार एवो तथा ( सुसमाहिदिए के० ) सुसमाहितेन्जियः एटले सर्वे इंडियोने वशमां राखनार एवो तेमज (चजक्कसायावगए के०) अपगतचतुःकषायः एटले क्रोध, मान Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४जए इत्यादि कषोयोने रोकनार एवो, तथा (अणि स्सिए के० ) अनिश्रितः एटले अन्य नाव निश्रा रहित अर्थात् को ठेकाणे पण प्रतिबंध रहित एवो ( स के) ते साधु ( पुरेकडे के०) पुराकृतं एटले पूर्वनवे करेला एवा (धुन्नमलं के) धूनमलं एटले . पाप रूप मलने ( निकुणे के ( निर्धूय काढी नाखीने (श्णं के०) श्मं एटले श्रा ( लोगं के०) लोकं एटले लोकने (तहा के०) तथा एटले तेमज (परं के) परलोक प्रत्ये (धाराहए के०) श्राराधयति एटले श्राराधे . एटले संयम पाली था लोकने तथा अनंतर अथवा परंपराए निर्वाण पामी परलोकने आराधे . (ति बेमि के ) इति ब्रवीमि एटले नगवनना उपदेशश्री एम कडं बुं, पण खमतिथी कहेतो नथी॥५॥ इति श्री दशवैकालिकना बालावबोधनुं सप्तमाध्यन संपूर्ण ॥७॥ (दीपिका.) अथ उपसंहरन्नाह । स एवं विधः साधुः एनं मनुष्यलोकं वाक्संयतत्वेन श्राराधयति प्रगुणीकरोति । किं कृत्वा। धूनमलं पापमलं पुराकृतं जन्मान्तरे कृतं निडूय प्रस्फोट्य तथा परलोकमाराधयति निर्वाणलोकं यथासंजवमनंतरं पारंपर्येण वा । किंग साधुः । परिदयनाषी आलोच्यनाषी । पुनः किं साधुः । सुसमाहितेन्जियः सुप्रणिहितेंघिय इत्यर्थः। पुनः किं साधुः । अपगतचतुष्कषायः क्रोधादिकषायनिरोधकर्ता प्रति जावः । पुनः किंनूतः साधुः । अनिश्रितः अव्यनावनिश्रारहितः प्रतिबन्धविप्रमुक्तः । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ५७ ॥ इति श्रीसमयसुंदरोपाध्यायविरचितायां दशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ वाक्यशुद्ध्यध्ययनं समाप्तम् ॥ ७॥ (टीका.) उपसंहरन्नाह । परिक त्ति सूत्रम् । परीक्ष्यनाषी आलोचितवक्ता। तथा सुसमाहितेन्द्रियः सुप्रणिहितेन्द्रिय इत्यर्थः। अपगतचतुष्कषायः क्रोधादिनिरोरोधकर्तेति जावः । अनिश्रितो अव्यत्नाव निश्रारहितः । प्रतिबन्धविमुक्त इति हृदयम् । स श्वंचूतो निर्धूय प्रस्फोट्य धूनमलं पापमलं पुराकृतं जन्मान्तरकृतम्। किमित्याराधयति।प्रगुणीकरोति लोकमेनं मनुष्यलोकं वाक्संयतत्वेन तथा परमिति परलोकमा. राधयति निर्वाणलोकं यथासंभवमनन्तरं पारंपर्येण वेति गर्नः । ब्रवीमीति पूर्ववत् । नयाः पूर्ववदेव ॥ ५७॥ इति श्रीहरिनमसूरि विरचितायां दशवैकालिकटीकायां वाक्य शुख्यध्ययनस्य व्याख्यानं समाप्तम् ॥७॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. ॥ श्राचारप्रणिधिनामाध्ययनं प्रारभ्यते ॥ यारप्पणिदिं लधुं, जहा कायव निरकुणा ॥ तं ने उदाहरिस्सामि, आपुविं सुह मे ॥ १ ॥ (अवचूरिः) पूर्वाध्ययने सुवाक्यशुद्धिरुक्ता । सा चाचारे प्रणिहितस्य जवतीति तत्र यत्नवता जवितव्यमत एतडुच्यते । श्राचारेत्यादि । श्राचारस्य प्रकृष्टो निधिः प्रणिधिः । तं लब्ध्वा यथा कर्तव्यमनुष्ठेयं निकुणा तं प्रकारं ने जवजय उदाहरिष्यामि । श्रानुपूर्व्या परिपाट्या शृणुत मे मम सकाशादिति गौतमाद्याः स्वशिष्यानाडुः ॥ १ ॥ (अर्थ) सातमा अध्ययनमां वाक्यशुद्धि कही, एटले साधुए वचनना गुण दोष जाणी निरवद्य वचन बोलवुं, एम कयुं. हवे या चार प्रणिधिनामक अध्यमां कहेवानुं एम बे के आचारने विषे तत्पर रहेला साधुथीज निरवद्य वचन बोलाय बे, माटे चार पालवामां घणोज प्रयत्न करवो. एवा संबधथी आवेला श्र अध्ययननुं श्रायारप्पणिहिं इत्यादि प्रथम सूत्र बे. तेनो अर्थ. ( निरकुणा के० ) जि. कुणा एटले साधुए ( आयारप्पणिहिं के० ) आचारप्रणिधिं एटले आचाररूप उत्कृष्ट निधिप्रत्ये ( लहुँ के० ) लब्ध्वा एटले पामीने ( जहा के० ) यथा एटले जेम ( काय के० ) कर्तव्यं एटले पोतानी क्रिया करवी. ( तं के० ) ते प्रकार ( ने के० ) जवयः एटले तमने ( उदाह रिस्सामि के० ) उदाहरिष्यामि एटले कहीश. ते तमे ( पु० ) आनुपूर्व्या एटले अनुक्रमे ( मे के० ) मम सकाशात् एटले मारायकी (सुणेह के० ) शृणुत एटले सांजलो. एम गौतमादिक गणधरो पोताना शिष्योने कहे बे. ॥ १ ॥ (दीपिका) व्याख्यातं वाक्यशुद्ध्यध्ययनं नाम सप्तममध्ययनम् । अथ आचारप्र विधिनामकमष्टममध्ययनं प्रारभ्यते । श्रस्य चायमनिसंबन्धः । इतः पूर्वाध्ययने साधुना वचनगुणदोषान् जानता निःपापं वचनं वक्तव्यमित्युक्तम् । इह तु निःपापं वचनमाचारे स्थितस्य जवतीति श्राचारे यत्नः कार्य इत्येतदुच्यत इति । अनेन संबन्धेनायात मिदमध्ययनं व्याख्यायते । तथाहि श्रीमहावीरदेवः स्वकीय शिष्यान् गौतमादीने - वमाह । तमाचारप्रणिधिं ने जवजय उदाहरिष्यामि कथयिष्याम्यानुपूर्व्या परिपाठ्या शृणु मे मम । कथयत इति शेषः । तं कम् । यमाचारप्रणिधिं लब्ध्वा प्राप्य निक्षुणा साधुना यथा येन प्रकारेण विहितानुष्ठानं कर्तव्यम् ॥ १ ॥ ( टीका. ) व्याख्यातं वाक्यशुद्ध्यध्ययनम् । इदानीमाचारप्रणिध्याख्यमारज्यते । For Private Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ४८१ अस्य चायम जिसंबन्धः । इहानन्तराध्ययने साधुना वचनगुणदोषा जिज्ञेन निरवद्यवचसा वक्तव्यमित्येतटुक्तम् । इह तु तन्निरवद्यं वच आचारे प्रणिहितस्य जवतीति तत्र यत्नवता जवितव्यमित्येतदुच्यते ॥ उक्तं च ॥ परिहार हिस्सेद, निरवऊं पिजा - सिद्धं ॥ सावतु विन्नेयं, वेणेह संममित्यनेना जिसंबन्धेनायात मिदमध्ययनम् । अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नाम निष्पन्नो निक्षेपः । तत्र चाचारप्रविधिरिति द्विपदं नाम । तत्राचार निक्षेपमतिदिशन् प्रणिधिं च प्रतिपादयन्नाह ॥ जो पुििो, यायारो सो ही एमइरित्तो ॥ डुविहो ा होइ पणिही, दवे जावे नायो ॥ ५९ ॥ व्याख्या ॥ यः पूर्वं लकाचारकथायामुद्दिष्ट याचारः सोऽहीनातिरिक्तस्तदवस्थ एवेहापि । द्रष्टव्य इति वाक्यशेषः । कुलत्वान्नामस्थापने अनाहत्य प्रणिधिमधिकृत्याह । द्विविधश्च जवति प्रणिधिः । कथमित्याह । द्रव्य इति द्रव्यविषयो नाव इति जावविषयश्च ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ तत्र ॥ दवे निहामाई, मायपत्ताणि चेव दव्वाणि ॥ नाविं दिनोइंदिष्य, डुविहो उ पस अपसो ॥ ६० ॥ व्याख्या ॥ द्रव्य इति द्रव्य विषयः प्रणिधिर्निधानादि प्रणिहितं निधानं निक्षिप्तमित्यर्थः । श्रादिशब्दः स्वनेदप्रख्यापकः । मायाप्रयुक्तानि चेह द्रव्याणि द्रव्यप्रणिधिः । पुरुषस्य स्त्रीवेषेण पलायनादिकरणं स्त्रिया वा पुरुषवेषेण चेत्यादि । तथा जाव इति । जावप्रणिधिर्द्विविधः । इन्द्रियप्रणिधिर्नोइन्द्रियप्रणिधिश्च । तत्रेन्द्रियप्रणिधिर्द्विविधः । प्रशस्तोsप्रशस्तश्चेति गाथार्थः ॥ प्रशस्तमिन्द्रियप्रणिधिमाह ॥ सदेसु रूवेसु ा, गंधेसु रसेसु तह य फासेसु ॥ न वि रजश् न वि इस्सर, एसा खलु इंदिप्पणि ही ॥ ६१ ॥ व्याख्या ॥ शब्देषु च रूपेषु च गन्धेषु रसेषु तथा च स्पर्शेषु एतेष्विन्द्रियार्थेष्वष्टानिष्टेषु चतुरादिनिरिंडियैर्नापि रज्यते नापि द्विष्यते । एष खलु माध्यस्थ्यलक्षण इन्द्रियप्रणिधिः प्रशस्त इति गाथार्थः ॥ अन्यथा त्वप्रशस्तस्तत्र दोषमाह ॥ सोइंदिरस्सी हिज, मुक्का हिं समुवि जी वो ॥ श्रइ श्रणा उत्तो, सद्दगुणसमुठिए दोसे ॥ ६२ ॥ व्याख्या ॥ श्रोत्रेन्द्रियरश्मि निः श्रोत्रें डियरज्जुनिः मुक्ता निरुश्रृंखला जिः । किमित्याह । शब्दमूर्च्छितः शब्दको जीव श्रादत्ते गृहात्यनुपयुक्तः सन् । कानित्याह । शब्दगु समुचितान् दोषान् । शब्द एवेंद्रियगुणः, तत्समुतिान् दोषान् बन्धवधादीन् श्रोत्रेन्द्रियर निरादत्त इति गाथार्थः ॥ शेषेंद्रियातिदेशमाह ॥ जह एसो सद्देसु, एसेव कमो न सेस हिं पि ॥ चउहिं पि इंदिए हिं, रूवे गंधे रसे फासे ॥ ६३ ॥ व्याख्या ॥ यथैष शब्देषु शब्दविषयः श्रोत्रेन्द्रियमधिकृत्य दोष उक्तः । एष एव क्रमः शेषैरपि चक्षुरादिनिश्चतुर्निरप न्द्रियैर्दोषा निधाने द्रष्टव्यस्तद्यथा । चरिकन्दि रस्सी हिंज, इत्यादि । अतएवाह । रूपे गन्धे रसे स्पर्शे । रूपादिविषय इति गाथार्थः ॥ श्रमुमेवार्थं दृष्टान्तानि - ६१ For Private Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. धानेनाह ॥ जस्स खलु उप्पणिहिशा-णि इंदिया तवं चरंतस्स ॥ सो हीर असहीणे हिं, सारही वा तुरंगे हिं॥६४ ॥ व्याख्या ॥ यस्य खस्विति यस्यापि फुःप्रणिहितानीप्रियाणि विश्रोतोगामीनि तपश्चरत इति । तपोऽपि कुर्वतः स तथाजूतो ह्रियतेऽपनीयते । इंडियैरेव निर्वाणतोश्चरणात् । दृष्टान्तमाह । अस्वाधीनैरखवशः सारथिरिव रथनेतेव तुरंगमैरश्वैरिति गाथार्थः ॥ ॥ उक्त इंज्यिप्रणिधिर्नोजियप्रणिधिमाह ॥ कोहं माणं मायं, लोहं च महप्नयाणि चत्तारि ॥ जो रुंन सुनप्पा, एसो नोइंदिशप्पणिही॥ ६५ ॥ व्याख्या ॥ क्रोधं मानं मायां लोनं चेत्येतेषां खरूपमनंतानुबंध्यादिनेदनिन्नं पूर्ववत् । अत एव च महानयानि चत्वारि सम्यगर्शनादिप्रतिबंधरूपत्वात् । एतानि यो रुणकि शुधात्मा उदय निरोधादिना एष निरोका तरोधपरिणामानन्यत्वान्नोजियप्रणिधिः कुशलपरिणामत्वादिति गाथार्थः ॥ एतदनिरोधे दोषमाह ॥ जस्त विश्र कुप्पणिहिया, होति कसाया तवं चरंतस्स ॥ सो बालतवस्सी विव, गयण्हाणपरिस्सम कुण॥६६॥ व्याख्या ॥ यस्यापि कस्य चिघ्यवहारतपस्विनो दुःप्रणिहिता अनिरुका जवन्ति कषायाः क्रोधादयस्तपश्चरतस्तपः कुर्वत इत्यर्थः । स बालतस्वीव उपवासपारणकप्रनूततरारम्नको जीवो गजस्नानपरिश्रमं करोति । चतुर्थषष्ठादिनिमित्तानिध्यानतःप्रनूततरकर्मबन्धोपपत्तेरिति गाथार्थः॥ ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टतरमाह ॥ सामन्नमणुचरंत-स्स कसाया जस्स उक्कडा होंति ॥ मन्नामि जाफुलं, व निप्फलं तस्स सामन्नं ॥६७ ॥ व्याख्या ॥ श्रामण्यमनुचरतः श्रमणनावमपि अव्यतः पालयत इत्यर्थः। कषाया यस्योत्कटा नवन्ति क्रोधादयः। मन्ये कुपुष्पमिव निष्फलं निर्जराफलमधिकृत्य तस्य श्रामण्य मिति गाथार्थः ॥ उपसंहरन्नाह ॥ एसो विहो पणिही, सुको जश् दोसु तस्स तेसिं च ॥ एबो पसबमपसललरकणमनवनिप्फन्नं ॥६७ ॥ व्याख्या ॥ एषोऽनन्तरोदितो विविधः प्रणिधिरिन्जियनोशन्डियलक्षणः शुरु इति निर्दोषो नवति । यदि योर्बाह्यान्यन्तरचेष्टयोस्तस्येंजियकषायवतः तेषां चेन्द्रियकषायाणां सम्यग्योगो नवति । एतमुक्तं नवति । यदि बाह्यचेष्टायामन्यन्तरचेष्टायां च तस्य प्रणिधिमत इंजियाणां कषायाणां च निग्रहो नवति । ततः शुद्धप्रणिधिरितरथा त्वशुद्ध एवमपि तत्त्वनीत्यान्यन्तरैव चेष्टेद गरीयसीत्याह । अत एवमपि तत्त्वे प्रशस्तं चारु, तथाप्रशस्तमचारु लक्षणं प्रणिधेरध्यात्मनिष्पन्नमध्यवसानोगतमिति गाथार्थः ॥ एतदेवाह ॥ मायागारवसहिजे, इंदिश्रनोइंदिए हिं अपसबो ॥ धम्मना अ पसबो, इंदिअनोइंदिअप्पणिही ॥६ए ॥ व्याख्या ॥ मायागारवसहितो मातृस्थानयुक्त राष्ट्यादिगारवयुक्तश्चेन्डियनोन्धिययोर्निग्रहं करोति । मातृस्थानत यादिप्रत्युपेक्षणं अव्यदान्त्याद्यासवेनं तथा क Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ४७३ ध्यादिगारवाछेत्यप्रशस्त इत्ययमप्रशस्तः प्रणिधिः । तथा धर्मार्थ प्रशस्त इति । मायागारवरहितो धर्मार्थमेवेजियनोन्डियनिग्रहं करोति । यः स तदन्नेदोपचारात्प्रशस्तः सुन्दर इन्जियनोशन्जियप्रणिधिनिर्जराफलत्वादिति गाथार्थः ॥ सांप्रतमप्रशस्तेतरप्रणिधेर्दोषगुणावाह ॥ अहविहं कम्मरयं, बंधश् अपसउपणि हिमाउत्तो ॥ तं चेव खवे पुणो, पसपणिहीसमाउत्तो ॥ ७० ॥ व्याख्या ॥ अष्टविधं ज्ञानावरणीयादिनेदात् कर्मरजो बध्नात्यादत्ते। क इत्याह। अप्रशस्तप्रणिधिसमायुक्तः श्रप्रशस्त. प्रणिधौ व्यवस्थित इत्यर्थः। तदेवाष्टविधं कर्मरजः पयति पुनः । कदेत्याह । प्रशस्तप्रणिधिसमायुक्त इति गाथार्थः॥ संयमाद्यर्थं च प्रणिधिः प्रयोक्तव्य इत्याह ॥ दंसणनाणचरित्ता-णि संजमो तस्स साहणठाए ॥ पणिही पजजिप्रबो, अणायणारंच वजा॥१॥ व्याख्या ॥ दर्शनशानचारित्राणि संयमः संपूर्णः। तस्य संपूर्णसंयमस्य साधनार्थ प्रणिधिःप्रशस्तःप्रयोक्तव्यः। तथा अनायतनानि च विरुषस्थानानि वर्जनीयानि इति गाथार्थः ॥ एवमकरणे दोषमाह ॥ उप्पणिहिथजोगी पुण, लंबिजा संजमं श्रयाएंतो ॥ वीसबनिसहंगो-व कंटश्वे जह पडतो ॥ ७२ ॥ व्याख्या ॥ कुःप्रणिहितयोगी पुनः । सुप्रणिधिरहितः प्रव्रजित इत्यर्थः । लंज्यते खंड्यते संयममजानानः। संयत एवेति। दृष्टान्तमाह। विष्टब्धो निस्सृष्टाङ्गस्तथा अयत्नपरः कंटकवति श्वत्रादौ यथा पतन् कश्चिनंव्यते तदसौ संयम इति गाथार्थः॥ व्यतिरेकमाह ॥ सुप्पणि हिअजोगी पुण, न लिप्पई पुवनणिश्रदोसे हिं ॥ निदहश् अ कम्माई, सुक्कतणाई जहा अग्गी ॥ ७३ ॥ व्याख्या ॥ सुप्रणिहितयोगी पुनः सुप्रणिहितः प्रत्रजितः न लिप्यते पूर्वनणितदोषैः कर्मबन्धादिनिः संवृताश्रवछारत्वात् । निर्दहति च कर्माणि प्राक्तनानि। तपःप्रणिधिनावेन । दृष्टान्तमाह।शुष्कतृणानि यथा अग्निर्दहति तहदिति गाथार्थः॥ तम्हा ज अप्पसबं, पणिहाणं उनिऊण समणेणं ॥पणिहाणं मि पसबे, नणिउ आयारपणिहित्तिाव्याख्या॥ यस्मादेवमप्रशस्तप्रणिधिःखद इतरस्तु सुखदस्तस्मादप्रशस्तं प्रणिधानमप्रशस्तं प्रणिधिमुनित्वा परित्यज्य श्रमणेन साधुना प्रणिधाने प्रणिधौ प्रशस्ते कल्याणे यत्नः कार्य इति वाक्यशेषः। निगमयन्नाह । जणित आचारप्रणिधिरिति गाथार्थः॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निदेपः सांप्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादि चर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रागनुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदम् । आयार इत्यादि सूत्रम् । अस्य व्याख्या। आचारप्रणिधिमुक्तलक्षणं लब्ध्वा प्राप्य यथा येन प्रकारेण कर्तव्यं विहितानुष्ठानं जिकुणा साधुना तं प्रकारं ने नवनय उदाहरिष्यामि कथयिष्यामि । आनुपूर्व्या परिपाट्या शृणुत ममेति गौतमादयः स्वशिष्यानाहुरिति सूत्रार्थः॥१॥ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. पुढविदगगणिमारुत्र्य, तारुकस्स बीयगा ॥ पापा जीव त्ति, इइ वृत्तं मदेसिणा ॥ २ ॥ तस्सा ( अवचूरिः ) तं प्रकारमाह । पृथिव्युदकाग्निवायवः तृणवृक्षसबीजका एते पंच एकेन्द्रियाः साश्च प्राणिनो ही न्द्रियादय एते जीवा इत्युक्तं महर्षिणा वीरेण गौतमेन वा २ ( अर्थ. ) हवे तेज प्रकार कहे . पुढवि इत्यादि सूत्र ( पुढवि दग गणमा ० ) पृथिव्युदकाग्निमारुताः एटले पृथ्वीकाय, अष्काय, तेजकाय ने वायुकाय तथा (तणरुकस्सबीागा के० ) तृणवृक्षसवीजा: एटले बीजसहित तृणाने वृ अर्थात् वनस्पतिकाय ए पांच एकेंद्रिय ( के० ) च एटले वली ( तसा पाणा के० ) त्रसाः प्राणिनः एटले त्रस प्राणी ए सर्व ( जीवत्ति के० ) जीवा इति एटले जीव बे, ( इइ के० ) इति एटले या प्रकारे ( महे सिणा के० ) महर्षिणा एटले श्री महावीर स्वामी अथवा श्रीगौतमखामीए ( वृत्तं के० ) उक्तं एटले कर्तुं बे ॥ २ ॥ ( दीपिका. ) थ तं प्रकारमाह महर्षिणा श्रीवर्धमानेन गौतमेन वा इति एवम् उक्तम् । एवं किमित्याह । एते जीवाः । एते क इत्याह । पृथिव्युदका निवायवः । पुनस्तृणवृक्षाः सवीजाः । एते पंचैकेंद्रियाः पूर्ववत् । त्रसाश्च प्राणिनो द्वीन्द्रियादयः । एते सर्वेऽपि जीवा ज्ञेयाः । यतश्चैते जीवास्ततः किं कर्तव्यमित्याह ॥ २ ॥ ( टीका. ) तं प्रकारमाह । पुढवित्ति सूत्रम् । पृथिव्युदकाग्निवायवस्तृणवृक्षसबीजा एते पञ्चन्द्रिकायाः पूर्ववत् । त्रसाश्च प्राणिनो द्वीन्द्रियादयो जीवा इत्युक्तं महर्षि - या वर्धमानेन गौतमेन वेति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ तेसिंजोएण, निचं होवयं सिया ॥ मासा कायवणं, एवं हवइ संजए ॥ ३ ॥ ( अवचूरिः ) यतश्चैवमतस्तेषां पृथिव्यादीनामयोगेन हिंसाव्यापारेण जवितव्यं वर्त्तितव्यं स्याद्विकुणा मनसा कायेन वाक्येन एवं वर्त्तमानोऽहिंसकः संनवति संयतः नान्यथा ॥ ३ ॥ (अर्थ. ) जे माटे उपर कहेला जीव बे ते माटे तेसिं इत्यादि सूत्र ( जिरकुणा ho ) निक्षुणा एटले साधुए (मएसा के० ) मनसा एटले मनवडे ( काय के० ) काएटले कायावडे तथा ( वक्त्रेणं के० ) वाक्येन एटले वचनवडे ( ते सिं के० ) तेषां एटले उपर कहेला जीवोनो ( अजोएण के० ) अक्षणयोगेन एटले हिंसारूप For Private Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम्। ४G५ व्यापारने वर्जनार एवाए ( निच्चं के०) नित्यं एटले हमेशां (होअव्वयं सिथा के०) नवितव्यं स्यात् होवु जोश्ये. कारण के, (एवं के०) श्रारीते अहिंसकपणे वर्तवाश्रीज साधु जे ते (संजए के०) संयतः एटले संयत एवो (हवर के०) नवति एटले थाय . ॥३॥ (दीपिका.) निकुणा एतेषां पृथिव्या दिजीवानां अक्षणयोगेनाहिंसाव्यापारेण नित्यं नवितव्यं वर्त्तितव्यं स्यात्।केन । मनसा कायेन वाक्येन । एनिः कारणैरित्यर्थः। एवं वर्तमानोऽहिंसकः सन् संयतः संजवति नान्यः ॥३॥ (टीका.) यतश्चैवमतः तेसिं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । तेषां पृथिव्यादीनामक्षणयोगेनाहिंसाव्यापारेण नित्यं नवितव्यं वर्तितव्यं स्यात् निकुणा मनसा कायेन वाक्येनैनिः कारणैरित्यर्थः । एवं वर्तमानोऽहिंसकः सन् नवति संयतो नान्यथेति सूत्रार्थः ॥३॥ पुढविं नितिं सिलं लेखें, नेव निंदे न संलिदे॥ तिविदेण करणजोएण, संजए सुसमाहिए॥४॥ (अवचूरिः) षड्जीवा हिंसा सामान्येनोक्त्वा विशेषेणाह । पृथ्वीं शुद्धां नित्तिं तटीं शिलां पाषाणात्मिका लेष्टमिहालखंडं नैव निंद्यात् न संलिखेत् । तत्र नेदनं धीजावः । संलेखनमीषल्लेखनं त्रिविधेन करणयोगेन संयतः सुसमाहितः। शुद्धजावइति । (अर्थ.) पूर्वोक्त प्रकारे सामान्य पणे सर्वे जीवोनी हिंसा वर्जवाश्री साधुनुं संयतपणुं कहीने हवे तेज विषय सविस्तर कहे . पुढवि इत्यादि सूत्र. (संजए के०) संयतः एटले संयत एवो तथा (सुसमाहिए के) सुसमाहितः एटले शुरू नाववालो एवो साधु जे ते (णि विहेण करणजोएण के०) त्रिविधेन करणयोगेन एटले मन वचन कायाए न करवू, न करावq, न अनुमोदq ए रूप त्रण योग वडे (पुढविं के०) पृथिवीं एटले शुरू पृथ्वी प्रत्ये, (नित्ति के) नित्तिं एटले नींत प्रत्ये, (सिलं के) शिलां एटले पाषाण रूप शिला प्रत्ये तथा (खेलुं के) लोष्टं एटले ईट विगेरेना कटका प्रत्ये ( नेव निंदे के०) नैव निन्द्यात् एटले एकना बे कटका न करे, तथा ( न संलिहे के०) न संलिखेत् एटले घर्षणादिक न करे. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) एवं सामान्येन षड्जीवनिकायस्याहिंसायां संयतत्वं कथयित्वा तमतविधि विधानतो विशेषेणाह । संयतः साधुः । पृथवीं शुद्धां नित्तिं तटीं शिला पाषाणरूपां लेष्टुमिहालखंडं नैव जिंद्यान्न संविखेत् । तत्र नेदनं धीनावाट्यापादनं, संले Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४न्द राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. खनमीषलेखनम् । त्रिविधेन त्रिकरणयोगेन न करोति मनसा वचसा कायेन । किंग सं. यतः। सुसमाहितः समाधिमान् शुभ इत्यर्थः ॥४॥ (टीका.) एवं सामान्येन षड़जीवनिकायाहिंसया संयतत्वमनिधायाधुना तनतविधि विशेषेणाह । पुढवि त्ति सूत्रम् । पृथिवीं शुहां नित्तिं तटीं शिलां पाषाणात्मिकां लेष्टुमिट्टालखंडं नैव निंद्यात् नो संलिखेत् । तत्र नेदनं वैधीनावोत्पादनं संलेखनमीषलेखनं त्रिविधेन करणयोगेन न करोति मनसेत्यादिना संयतः साधुः सुसमाहितः शुकनाव इति सूत्रार्थः॥४॥ सु-इपुढवीं न निसीए, ससरकंमि अ आसणे॥ पमङित्तु निसीजा, जाश्त्ता जस्स जग्गहं ॥५॥ (अवचूरिः) शुझपृथ्व्यामचित्तायामनन्तरितायां न निषीदेत् । निषीदनग्रहणात्स्थानत्वग्वर्तनादिग्रहः । सरजस्के पृथिवीरजोगुपिकत आसने पीठकादौ । श्रचेतनायां तु संमृज्य तां रजोहरणेन निषीदेत् । याचित्वा । यस्यावग्रह मिति । यस्य संबंधिनी तमवग्रहमनुज्ञाप्येत्यर्थः ॥५॥ (अर्थ.) सुफ इत्यादि सूत्र, साधु जे तेणे (सुपुढवीं के०) शुभपृथिवीं एटले शस्त्रथी हणायली नहि एवी सचित्त नूमिउपर वच्चे कांश पण आंतरं न होय तो (न निसीए के०) न निषीदेत् एटले न बेस. तथा (ससरकंमि के०) सरजस्के एटले नूमिना सचित्त रजथी वीटायला (आसणे के०) आसने एटले पीठक प्रमुख श्रासनने विषे पण न बेस. तेमज अचित्त नूमि होय तो (जस्स के०) यस्य एटले जेनीनूमि होय तेनी पासे (जग्गहं के०) अवग्रहं एटले अवग्रह प्रत्ये (जाश्त्ता के०) याचित्वा एटले मागीने तथा (पमङित्तु के०)प्रमाय॑ एटले रजोहरणवडे प्रमार्जीने (निसीश्मा के०) निषीदेत् एटले बेसवु. ॥५॥ (दीपिका.) पुनः किंच संयतः शुझपृथिव्यां शस्त्रेण या न उपहता तस्यां पृ. थिव्यां न निषीदेत् । तथा पुनः श्रासने पीठकादौ न निषीदेत् निषीदनग्रहणात् स्थानत्वग्वर्तपरिग्रहः । किंनूत थासने । सरजस्के पृथिवीरजोवगुंमिते वा । तर्हि कथं कुर्यात्। अचेतनां पृथिवीं ज्ञात्वा रजोहरणेन प्रमृज्य निषीदेत् । किं कृत्वा अवग्रहं याचित्वा । कोऽर्थः। यस्य गृहस्थादेः संबंधिनी पृथिवी वर्तते, तं गहस्थमनुज्ञाप्य श्रादेशं लात्वा इत्यर्थः॥५॥ (टीका.) तथा सुझ त्ति सूत्रम् । शुभपृथिव्यामशस्त्रोपहतायामनन्तरितायां न Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ មច១ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । निषीदेत् । तथा सरजस्के वा पृथ्वीरजोवगुमिते वासने पीठकादौ न निषीदेत् । निषीदनग्रहणात्स्थानत्वग्वर्तनपरिग्रहः । अचेतनायां तु प्रमृज्य तां रजोहरणेन निषीदेज्ञात्वेत्यचेतनां ज्ञात्वा याचयित्वावग्रह मिति । यस्य संबंधिनी पृथिवी तमवग्र- : हमनुज्ञाप्येति सूत्रार्थः ॥५॥ सीनंदगं न सेविजा, सिलावुठं दिमाणि अ॥ जसिणोदगं तत्तफासुअं, पडिगादिक संजए ॥६॥ (अवचूरिः) उक्तः पृथिवीकायविधिः। श्दानीमकायविधिमाह । शीतोदकं सचित्तोदकं न सेवेत । तथा शिलाः करकाः। वृष्टं वर्षणं हिमानि च न सेवेत। उष्णोदकं कथितोदकं तप्तप्रासुकं तप्तं सत्प्रासुकं त्रिदंमोकृतं । नोष्णोदकमात्रं प्रतिगृह्णीत संयतः साधुरेतच्च सौवीराद्युपलक्षणमिति ॥६॥ (अर्थ.) पृथ्वीकायनो विधि कह्यो. हवे अप्कायनो विधि कहे . सीदगं इत्यादि सूत्र, साधु जे ते (सीदगं के०) शीतोदकं एटले सचित्त जल प्रत्ये (न सेविजा के०) न सेवेत एटले न सेवे. तेमज (सिलावुठं के०) शिलावृष्टं एटले वर्सादमां पडता करा प्रत्ये (अ के०) च एटले वली (हिमानि के) हिमानि एटले बरफ प्रत्ये पण न सेवे. एम न करे तो पोतानो निर्वाह शी रीते करे ते कहे . (तत्तफासुओं के०) तप्तप्रासुकं एटले तपावी अचित्त करेलु एवा (जसिणोदगं के०) उष्णोदकं एटले नष्ण जल प्रत्ये (संजए के०) संयतः एटले साधु जे ते (पडिग्गाहिज के०) प्रतिगृह्णीयात् एटले निर्वाहने अर्थे ग्रहण करे. ॥६॥ (दीपिका.) इति पृथिवीकायविधिरुक्तः। अथ अप्कायविधिमाह । संयतः साधुः शीतोदकं पृथिवीतफुलवं सच्चित्तोदकं सचित्तपानीयं न सेवेत । तथा शिलावृष्टिं हिमानि च न सेवेत । अत्र शिलाग्रहणेन करकाः परिगृह्यन्ते । वृष्टं वर्षणं, हिमं प्रसकं प्राय उत्तरापथे नवति । श्राह। यद्येवं तर्हि कथं साधुर्वर्त्तत इत्याह । उष्णोदकं कथितोदकं तप्तप्रासुकं तप्तं सत्प्रासुकं त्रिदंडोत्तं नोष्णोदकमात्रं प्रतिगृह्णीयात् वृत्यर्थम् । एतच्च सौवीरादीनामुपलक्षणम् ॥ ६ ॥ (टीका.) उक्तः पृथिवीकायविधिरधुना अप्कायविधिमाह । सीउदगं ति सूत्रम् । शीतोदकं पृथिव्युन्नवं सच्चित्तोदकं न सेवेत । तथा शिलावृष्टं हिमानि च न सेवेत । अत्र शिलाग्रहणेन करकाः परिगृह्यन्ते । वृष्टं वर्षणं, हिमं प्रतीतं प्राय उत्तरापथे नवति । यद्येवं कथमयं वर्त्ततेत्याह । उष्णोदकं कथितोदकं तप्तप्रासुकं तप्तं Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. सत्प्रासुकं त्रिदंडोद्वृत्तम् । नोष्णोदकमात्रम् । प्रतिगृह्णीयाद्वृत्त्यर्थं संयतः साधुः । एतच्च सौवीरायुपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ दनं प्पणी कायं, नेव पुंढे न संलिदे ॥ समुप्पेद तदानू, नो पं संघट्टए मुणी ॥ ७ ॥ ( अवचूरिः ) नदी मुत्तीर्णः निक्षाप्रविष्टो वा वृष्टिहतमुदकार्डमुदकबिंडु चितमात्मनः कार्यं नैव पुंग्येत् वस्त्रादिना न संलिखेत्याणिना । अपि तु संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य । तथाभूतमुदकार्डादिरूपं नैनं कायं संघट्टयेन्मुनिर्मनागपि न संस्स्पृशेदिति ॥ ७ ॥ (अर्थ) तेमज (मुणी के०) मुनिः एटले मुनि जे ते (अप्पणो के०) आत्मनः एटले पोतानुं (कार्य के० ) कार्य एटले शरीर ( उदउल्लं के०) उदकार्ड एटले कोइ पण रीते जलथी पलली गयुं होय तो तेने (नेव पुंढे के० ) नैव पुंढयेत् एटले वस्त्र, तृण इत्यादि वस्तुवडे लुवे नहि, अथवा हाथवडे (नसं लिहे के० ) न संलिखेत् एटले स्पर्शपण करे नहि. तो शुं करे ते कहे बे. ( तहानूअं के० ) तथाभूतं एटले तेवा जलथी पलेला एवा ( ० ) एनं एटले ते शरीरने ( न घट्टए के० ) न घट्टयेत् एटले संघट्ट न करे, थोडो पण स्पर्श न करे. ॥ ७ ॥ ( दीपिका . ) पुनः मुनिः नदीमुत्तीर्णः निक्षायां प्रविष्टो वा वृष्टिहत उदकार्ड - मुदकबिंदुव्याप्तमात्मनः कायं शरीरं सस्निग्धं वा नैव पुंढयेत् । वस्त्रतृणादिनिर्नसं लिखेत् पाणिना हस्तेनापि । किं कृत्वा । समुत्प्रेक्ष्य निरीक्ष्य । तथाभूतमुदकार्डादिरूपं कार्य न एनं संघट्टयेत् मनागपि न संस्पृशेत् ॥ ७ ॥ ( टीका. ) तथा उदउ ति सूत्रम् । नदीमुत्तीर्णो निक्षाप्रविष्टो वा वृष्टिहत उदकार्डमुदक बिन्दु चितमात्मनः कार्यं शरीरं स्निग्धं वा नैव पुंबयेस्तृणादिनिर्नसंलिखेत्पाणिनापितु संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य तथाभूतमुदकार्डादिरूपं नैव कायं संघट्टयेन्मुनिर्मनागपि न स्पृशेदिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ इंगालं गणिचि, अलायं वा स जोइयं ॥ न नंजिका न घट्टिका, नो एं निवावए मुणी ॥ ८ ॥ (अवचूरिः) उक्तोऽपकायविधिः । श्रथ तेजःकाय विधिमाह । श्रंगारं ज्वालार हितमग्निमयः पिंमानुगमर्चि विन्नज्वाला | लातमुल्मुकं वा सज्योतिः साग्निकमित्यर्थः । किमित्याह । नोत्सिंजेन्न घट्टयेत् । तत्रोंजनमुत्सेचनं प्रदीपादेः घट्टनं मिश्रचालनं नैनमग्निं निर्वापयेत् ॥ ८ ॥ For Private Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । नए (अर्थ.) अप्कायनी यतना कही, हवे तेजस्कायनी कहे . (मुणी के०) मुनिः एटले साधु जे ते (रंगालं के०) अंगारं एटले ज्वालारहित अग्नि प्रत्ये, (अगणिं के०) अग्निं एटले तपायला लोहडाना गोलामा रहेल अग्नि प्रत्ये, (अच्चिं के०) अर्चिः एटले अग्निथी बूटी पडेली ज्वाला प्रत्ये (वा के०) अथवा (सजोश्यं के०) सज्योतिः एटले अग्निसहित एवा (अलायं के०) अलातं एटले काष्ठादिक प्रत्ये (न जंजिला के०) नोत्सिंचेत् एटले दिवा प्रमुखने उलवी नाखे नहि, (न घटिका के०) न घट्टयेत एटले माहोमाहे घर्षण न करे, तेमज ( णं के ) एनं एटले श्रा अग्नि प्रत्ये (नो निवावए के०) नो निर्वापयेत् एटले उलवी नाखे नहि. ॥७॥ (दीपिका.) उक्तोऽप्कायविधिः । अथ तेजःकायविधिमाह। मुनिः अग्निंप्रति एवं न कुर्यात् । एवं किमित्याह । अंगारं ज्वालारहितम् । अग्निमियःपिमानुगं तथार्चिः प्रदीपादेः बिन्नज्वाला । तथा अलातमुटमुकं वा सज्योतिः साग्निकमित्यर्थः। किमित्याह । न उत्सिंचेत् न घट्टयेत् । तत्र उत्सिंचनं उत्सेचनं प्रदीपादेर्घट्टनं मिथश्चालनं तथा न एनमग्निं निर्वापयेत् अनावमापादयेत् ॥ ७ ॥ ( टीका.) उक्तोऽप्कायविधिः। तेजस्कायविधिमाह । इंगालं ति सूत्रम् । अङ्गारं ज्वालारहितमग्निमयःपिएकानुगतमचिश्विन्नज्वालमलातमुमुकं वा। सज्योतिः साग्निकमित्यर्थः। किमित्याह । नोत्सिंचेत् न घट्टयेत् तत्रोंजनमुत्सेचनं प्रदीपादेः घट्टनं मियश्चालनम्। तथा नैनमग्निं निर्वापयेदनावमापादयेन्मुनिः साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ७॥ तालिअंटेण पत्तेण, साहाए विदुणेण वा ॥ न वीइक अप्पणो कायं, बाहिरं वा वि पुग्गलं ॥५॥ (अवचूरिः ) प्रतिपादितस्तेजस्कायः वायुकायविधिमाह । तालवृन्तेन व्यजनवि। शेषेण पत्रण पद्मिनीपत्रादिना शाखया वृक्षमालरूपया विधूननेन वा व्यजनेनैव वा न वीजयेदात्मनः कायं खशरीरमित्यर्थः । बाह्यं वापि पुजलमुष्णोदकादि ॥ ए॥ __(अर्थ.) तेजस्कायनी यतना कही. हवे वायुकायनी यतना कहे . साधु जे ते (अप्पणो के०) आत्मनः एटले पोताना ( कायं के० ) कायं एटले शरीर प्रत्ये (वा के०) अथवा (बाहिरं के०) बाह्यं एटले पोताना शरीरथी बाहर रहेला एवा (पुग्गलं वि के०) पुजलमपि एटले उष्ण जल प्रमुख पुजल प्रत्ये पण (तालियंटेण के०) तालवृन्तेन एटले ताडपत्रना पंखावडे, (पत्तेण के०) पत्रेण एटले कमलपत्रादिकवडे, (साहाए के०) शाखया एटले वृदादिकनी शाखावडे (वा के०) अथवा Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. ( विदु० ) विधुवन एटले मोरपीठ विगेरेना पंखावडे ( न वीक के० ) न वीजयेत् एटले वीजावे नहि. पवन नाखे नहि. ॥ ५ ॥ ( दीपिका. ) इति तेजस्काय उक्तः । यथ वायुकाय विधिमाह । मुनिः श्रात्मनः कायं न वीजयेत् वाह्यं वापि पुलमुष्णोदकादि । केन न वीजयेदित्याह । तालवृन्तेन व्यजनविशेषेण तथा पत्रेण पद्मिनीपत्रादिना तथा शाखया वृक्षमालरूपया विधूपनेन व्यजनेन वा ॥ ए ॥ ( टीका. ) प्रतिपादितस्तेजः काय विधिः । वायुकाय विधिमाह । तालिटेि सूत्रम् । तालवृन्तेन व्यजनविशेषेण, पत्रेण पद्मिनीपत्रादिना । शाखया वृडालरूपया विधूपनेन वा व्यजनेन वा । किमित्याह । न वीजयेदात्मनः कार्यं स्वशरीरमित्यर्थः । बाह्यं वापि पुलमुष्णोदकादीति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ तारुकं न बिंदिका, फलं मूलं च कस्स ई ॥ मगं विविदं बीच्यं, मासा विष पचए ॥ १० ॥ ( श्रवचूरिः ) उक्तो वायुकायविधिः । अथ वनस्पतिकाय विधिमाह । तृणानि ददीनि वृक्षाः कदंबादयः । एतन्न बिन्द्यात् । फलं मूलं वा कस्यचिद्वृक्षादेः । श्राममशस्त्रोपहतं विविधमनेकप्रकारं मनसापि वीजं न प्रार्थयेत्किं पुनरनीयात् ॥ १० ॥ ( अर्थ. ) वायुकायनी यतना कही. हवे वनस्पतिकायनी यतना कहे बे. त इत्यादि सूत्र, साधु जे ते ( तरारुकं के० ) तृणवृक्ष एटले दर्ज प्रमुख तृण प्रत्ये कदंब, या प्रमुख वृक्ष प्रत्ये (न बिंदिका के०) न बिन्द्यात् एटले तोडे नहि. तेमज (कस्स 5 के० ) कस्यचित् एटले कोइ पण वृना ( फलं के० ) फलं एटले फल प्रत्ये (व के० ) वा एटले अथवा ( मूलं के० ) मूलं एटले मूल प्रत्ये तोडे नहि. तेमज ( मगं ० ) यामकं एटले शस्त्रथी न हणायला एवा ( विविहं के० ) विविध एटले अनेक प्रकारना (बी के०) वीजं एटले बीज प्रत्ये ( मासा वि के० ) मनसापि एटले मनवडे पण ( न पछए के० ) न प्रार्थयेत् एटले इछे नहि. ॥ १० ॥ ( दीपिका. ) इति वायुकाय विधिः प्रतिपादितः । अथ वनस्पतिकाय विधिमाह । साधुः] तृणवृक्षं न बिन्द्यात् । तत्र तृणानि दर्जादीनि । वृक्षाः कदम्बादयः । तथा वृक्षादेः कस्यचित्फलं मूलकं वा न बिन्द्यात् । तथा आमकं शस्त्रेण यन्न उपहतं एवंविधं विविभ्रमनेकप्रकारं बीजं साधुर्मनसापि न प्रार्थयेत् । कथं पुनर्जयेत् ॥ १० ॥ For Private Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम्। ४१ (टीका.) प्रतिपादितो वायुकायविधिर्वनस्पतिकायविधिमाह । तण त्ति सूत्रम् । तृणवृक्षमित्येकवन्नावः। तृणानि दर्नादीनि, वृदाः कदम्बादयः, एतान्न निन्द्यात् । फलं मूलं वा कस्य चिदादेन बिन्द्यात् । तथा आममशस्त्रोपहतं विविधमनेकप्रकारं बीजं न मनसापि प्रार्थयेत् , किमुत नाश्नीयादिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ गहणेसु न चिहिला, बीएसु हरिएसु वा ॥ उदगंमि तदा निच्चं, नत्तिंगपणगेसु वा ॥११॥ (अवचूरिः) तथा गहनेषु वन निकुञ्जादिषु न तिष्ठेत् संघटनादिदोषात् । बीजेषु प्रसारितशाट्यादिषु, हरितेषु दूर्वादिषु च न तिष्ठेत् । उदके तथा नित्यम् । तत्रोदकमनन्तवनस्पतिविशेषः । उत्तिंगाः सर्पछत्ररूपाः। पनक जलिः वनस्पतिविशेषः ॥११॥ (अर्थ.) तेमज गहणेसु इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (गहणेसु के०) गहनेषु एटले वृदना कुंजने विषे (न चिहिजा के०) न तिष्ठेत् एटले उन्ना न रहे. कारण के, तेथी संघट्टन प्रमुख दोष लागवानो संजव . तेमज (बीएसु के० ) बीजेषु एटले नूमिउपर पथरायला शालि प्रमुख धान्यने विषे (वा के०) अथवा (हरिएसु के०) हरितेषु एटले दूर्वा प्रमुख हरित कायने विषे ( तहा के० ) तथा एटले तेमज (निचं के०) नित्यं एटले को पण समये (उदगंमि के०) उदके एटले उदक नामक वनस्पतिकायने विषे (वा के०) अथवा ( उत्तिंगपणएसु के०) उत्तिंगपनकयोः ए. टले बिलाडाना टोपने नामे जेलखाता वनस्पतिकायने विषे अने पनक एटले लीलन फूलनने विषे पण उन्ना न रहे. ॥११॥ (दीपिका.) पुनः किं न कुर्यादित्याह । साधुर्गहनेषु वनेषु निकुञ्जेषु न तिष्ठेत् । संघटनादिदोषप्रसंगात् । तथा बीजेषु प्रसारितशाट्यादिषु वा, तथा हरितेषु वा दूर्वादिषु न तिष्ठेत् । उदके तथा नित्यम् । तत्र उदकमनन्तवनस्पतिविशेषः । यथोक्तम् । उदए अवए पणए इत्यादि । उदकमेवेत्यन्ये । तत्र नियमतो वनस्पतिनावात् । तथा उत्तिङ्गपनकयोर्वा न तिष्ठेत् । तत्र उत्तिंगः सर्पवत्रादिः।पनक उद्विवनस्पतिरिति ॥११॥ (टीका.) तथा गहणेसु त्ति सूत्रम् । गहनेषु वन निकुञ्जेषु न तिष्ठेत् । संघटनादिदोषप्रसंगात् । तथा बीजेषु प्रसारितशाल्यादिषु हरितेषु वा दूर्वादिषु न तिष्ठेत् । उदके तथा नित्यम् । अत्रोंदकमनन्तवनस्पतिविशेषः । यथोक्तम् । उदए अवए प. गए इत्यादि । उदकमेवान्ये । तत्र नियमतो वनस्पतिनावात् । उत्तिङ्गपनकयोर्वा न तिष्ठेत् । तत्रोत्तिङ्गः सर्पछत्रादिः । पनक उद्विवनस्पतिरिति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४एर राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. तसे पाणे न हिंसिका, वाया अज्ज्व कम्मुणा॥ ज्वर सबनूएसु, पासेजा विविहं जगं ॥१२॥ (श्रवचूरिः) उक्तो वनस्पतिविधिस्त्रसकायविधिमाह । सान् प्राणिनो हीन्छियादीन्न हिंस्यात् । वाचायवा कर्मणा कायेन । मनसस्तदन्तर्गतत्वादग्रहणम् । उपरतो हिंसानिवृत्तः सर्वजूतेषु पश्येछिविधं जगत् कर्मपरतन्त्रं नरकादिगतिरूपं निर्वेदायेति१५ (अर्थ.) वनस्पतिकायनी यतना कही. हवे त्रस कायनी यतना कहेजे. तसे . त्यादि सूत्र. (सव्वनूएसु के०) सर्वनूतेषु एटले सर्व प्राणीयोने विषे ( उवर के०) उपरतः एटले दंडनो त्याग करनार एवो साधु जे ते (वाया के०) वाचा एटले वाणीवडे (अव के०) अथवा (कम्मुणा के०) कर्मणा एटले कायावडे ( तसे पाणे के०) त्रसान् प्राणिनः एटले त्रस जीव प्रत्ये (न हिं सिजा के०) न हिंस्यात् एटले हणे नहि, पण (विविहं के) विविधं एटले नानाविध एवा (जगं के०) जगत् एटले जीवसमुदायरूप जगत् प्रत्ये कर्मना वशथी नरकादिगतिने विषे ब्रमण करनाऊं बे एम (पासिङ के०) पश्येत् एटले जुवे, कारण के, एम करवाथी वैराग्य उत्पन्न थाय. ॥१२॥ ( दीपिका.) उक्तो वनस्पतिविधिः । अथ त्रसविधिमाह।साधुः त्रसान् प्राणिनो कीजियादीन् न हिंस्यात् । कथमित्याह । वाचा वचनेन, अथवा कर्मणा कायेन । मनसोऽपि ग्रहणं कार्यं तस्य तयोरन्तर्गतत्वात् । पुनः साधुरुपरतः सन् । केषु । सर्वनूतेषु । दूरीकृतदएमः सन् पश्येत् विविधं जगत् कर्मपरतन्त्रं नरका दिगतिरूपं निर्वेदायेति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ (टीका.) उक्तो वनस्पतिकाय विधिः । त्रसविधिमाह । तस त्ति सूत्रम् । त्रसप्राणिनो हीन्डियादीन् न हिंस्यात् । कथमित्याह । वाचा अथवा कर्मणा कायेन मनसस्तदन्तर्गतत्वादग्रहणम् । अपि चोपरतः सर्वनूतेषु निदिप्तदएकः सन् पश्येछि विधं जगत् कर्मपरतन्त्रं नरकादिगतिरूपं निर्वेदायेति सूत्रार्थः ॥१२॥ अ सुदुमा पेदाए, जाई जाणित्तु संजए॥ दयादिगारी नूएसु, आस चिछ सएहि वा ॥ १३ ॥ (अवचूरिः) उक्तः स्थूल विधिः । सूक्ष्म विधिमाह । अष्टौ सूक्ष्मणि वदयमाणल. क्षणानि प्रेयोपयोगत आसीत तिष्ठेत् शयीत वा इति योगः । यानि ज्ञात्वा दयाधिकारी जूतेषु नवत्यन्यथा दयाधिकार्येव नेति तानि प्रेक्ष्य तप्रहित एवासनादि कुर्यादन्यथा तेषां विराधनेन सातिचारतेति ॥ १३ ॥ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ४ए३ (अर्थ.) स्थूल जीवनी यतना कही. हवे सूक्ष्म जीवनी कहे . अह इत्यादि सूत्र. (संजए के०) संयतः एटले साधु जे ते (बह के०) श्राप (सुहुमार के०) सूदमाणि एटले सूक्ष्म वस्तु प्रत्ये ( पेहा के०)प्रेक्ष्य एटले जाणीने (वास के०) थासीत एटले बेसे, (चिह के०) तिष्ठेत् एटले उन्ना रहे, (वा के०) अथवा (सएहि के० ) शयीत एटले सुश् रहे. ते आठ वस्तु कश् ते लक्षणथी कहे . साधु जे ते (जाइ के०) यानि एटले जे आठ वस्तु प्रत्ये (जाणित्तु के०) ज्ञात्वा एटले जाणीने (नूएसु के०) नूतेषु एटले जीव संबंधी ( दयाहिगारी के ) दयाधिकारी एटले दयानो अधिकारी थाय बे. ॥ १३ ॥ (दीपिका.) उक्तः स्थूल विधिः । सूक्ष्म विधिमाह । संयतः साधुः अष्टौ सूक्ष्माणि अग्रे वक्ष्यमाणानि प्रेक्ष्य निरीक्ष्य उपयोगत आसीत तिष्ठेत् शयीत वेति योगः। किंजूतानि सूक्ष्माणि इत्याह । यानि ज्ञात्वा संयतो झपरिझया प्रत्यारख्यानपरिशया च नूतेषु दयाधिकारी नवति । अन्यथा दयाधिकार्येव न स्यात् । तानि प्रेक्ष्य तजहित एव श्रासनादि कुर्यात् । अन्यथा तेषां सातिचारतेति ॥१३॥ (टीका.) उक्तः स्थूल विधिः । सूक्ष्म विधिमाह । हत्ति सूत्रम् । अष्टौ सूक्ष्माणि वक्ष्यमाणानि प्रेक्ष्योपयोगत श्रासीत्तिष्ठेलयीत वे ति योगः। किवि शिष्टानीत्याह । यानि झात्वा संयतो झपरिझया प्रत्याख्यानपरिझया च दयाधिकारी नूतेषु नवत्यन्यथा दयाधिकार्येव नेति तानि प्रेय तसहित एवासनादीनि कुर्यादन्यथा तेषां सातिचारतेति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ कयराइं अह सुहुमाई, जाई पुखिक संजए ॥ इमाई ताई मेदावी, अारिकऊ विकणो ॥ १४ ॥ (श्रवचूरिः ) कतराणि तान्यष्टौ सूदमाणि । यानि दयाधिकारित्वानवदयाछा पृछेत् संयतः। अमूनि तान्यग्रे वदयमाणानि मेधावी मर्यादावर्ती श्राचदीत विचक्षणः॥१४॥ (अर्थ.) हवे शिष्य गुरुने प्रश्न करे . कयराणि इत्यादि सूत्र. ( संजए के०) संयतः एटले साधु जे ते दयानो अधिकारी थवाने अर्थे (जाई के० ) यानि एटले जे श्राठ सूमने (पुचिज के ) पृजेत् एटले पूजे. गुरु कहे . ( मेहावी के०) मेधावी एटले बुझिशाली एवो (विश्ररकणो के० ) विचक्षणः एटले विचदण पुरुष जे ते (श्माई के०) श्मानि एटले आ ( ताई के०) तानि एटले ते श्राप वस्तु प्रत्ये (श्राइकिङ के० ) आचदीत एटले कहे. ॥ १४ ॥ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह, जाग तेतालीस (४३)-मा. ( दीपिका . ) कानि पुनस्तानि अष्टौ इत्याह । कतराणि तानि अष्टौ सूक्ष्माणि । यानि दयाधिकारित्वस्य छाजावजयात् पृछेत् संयतः । अनेन दयाधिकारिण एवंविधेषु प्रयत्नविधिमाह । स हि श्रवश्यं तदुपकारकाण्यपकारकाणि च पृछति तत्रैव जावप्रतिबन्धादिति । श्रमूनि च तानि श्रनन्तरवक्ष्यमाणानि श्राचक्षीत विचक्षण इत्यनेनापि एतदेवाह । मर्यादावर्तिना तज्ज्ञेन तत्प्ररूपणा कार्या । एवं हि श्रोतुः तडुपादेय बुद्धिर्भवति । अन्यथा तु विपर्यय इति ॥ १४ ॥ 1 ( टीका. ) यह । कयराणित्ति सूत्रम् । कतराष्यष्टौ सूक्ष्माणि, यानि दयाधिकारित्वानावनयात् पृछेत्संयतः । अनेन दयाधिकारिण एव एवंविधेषु यत्नमाह । सह्यवश्यं तडुपकारकाण्यपकारकाणि च पृष्ठति । तत्रैव जावप्रतिबन्धादिति । श्रमूनि तानि न न्तरं वक्ष्यमाणानि मेधावी श्राचीत विचक्षण इत्यनेनाप्येतदेवाह । मर्यादावर्तिना तज्ज्ञेन तत्प्ररूपणा कार्या । एवं हि श्रोतुस्तत्रोपादेयबुद्धिर्भवत्यन्यथा विपर्ययः सूत्रार्थः १४ सिहं पुप्फसुहुमं च, पापुत्तिंगं तदेव य ॥ पगं बीहरिं च, अंडसुहुमं च मं ॥ १५ ॥ ( अवचूरिः ) स्नेह सूक्ष्म मवश्याय हिम मिहिका करकहरतनुरूपम् । पुष्पसूक्ष्मं वटोडुम्बराणां पुष्पाणि । तानि तद्वर्णानि सूक्ष्माणि इति नालक्ष्यन्ते । प्राणसूक्ष्ममनुद्धरिः कुंथुः । स हि चलन्नेव विजाव्यते न स्थितः । सूक्ष्मत्वात् । उत्तिंगसूक्ष्मं की टिकानगरम् । तत्र की टिका : सूक्ष्मत्वादन्येऽपि च स्युः । पनक सूक्ष्मं पञ्चवर्णा फुल्लिकाष्ठादिषु । बीजसूक्ष्ां शाल्या दिसूक्ष्म बीजस्य मुखमूले कणिका । या लोके तुषमुखमुच्यते । नहीति प्रसिद्धिः । हरितसूक्ष्मं नवोत्पन्नं पृथिवीसमानमेव । एमसूक्ष्मं चाष्टममिति । मक्षिकाकी टिका होलिकाब्राह्मणी कृकलासाद्यएमकम् । यत्राह परः । षड्जीव निकाध्ययने विस्तरेण महाचारकथायां संदेपेण षट्जीवनिकायरक्षा उक्ता । साधुना किंपुनरुक्तेत्युच्यते । चारित्रं च षड्जीव निकाय र वातोऽत्रापि तत्प्रख्यापनार्थं पुनरुक्तेऽपि न दोषः ॥ १५ ॥ ( अर्थ. ) हवे ते घाव सूक्ष्मजीवरूप वस्तु नामनिर्देश वडे कहे बे. सिणेह इत्यादि सूत्र. १ ( सिणेह के० ) स्नेहसूक्ष्मम् एटले स्नेह सूक्ष्म ते धुंअर, हिम, करा विगेरे. २ ( पुप्फसुमं के० ) पुष्पसूक्ष्मम् एटले पुष्पसूक्ष्म ते वड, उंबर इत्यादिकनां फूल के जे पूर्ण अने सूक्ष्म होवाथी देखाता नथी ते, ३ ( पाण के० ) प्राणी एटले प्राणि सूक्ष्म ते चालता जातो छाने बेठा न जातो एवो कुंथु नामक सूक्ष्म जीव, ४ ( उत्तिंगं ० ) उत्तिंगं एटले जेमां की डियो ने बीजा पण जीव होय बे, Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । पए एवा कीडीना घर; ( तहेवय के० ) तथैवच एटले तेमज ५ (पणगं के०) पनकं एटले चोमासामा नूमि काष्ठ इत्यादि वस्तुने विषे पंच वर्णी लीलन फूलन चढे बे ते, ६ (बीथ के०) बीजं एटले बीज सूदम ते जेमांथी अंकुर उत्पन्न थाय बे, ते बीजर्नु मुख, ७ ( हरिशं के ) हरितं एटले हरित सूक्ष्म ते अतिशय नवं उत्पन्न भएलुं नूमिसमानवर्णवालुं होय जे ते, (च के०) पुनः ७ (अहम के० ) श्रष्टमं एटले आठमुं (अंडसुहुमं के०) अंडसूक्ष्मं एटले अंडसूदम ते माखी, कीडी, काकिंडो इत्यादिकनां इंडां ते जाणवू. ॥ १५ ॥ ( दीपिका.) स्नेह मिति । स्नेहसूदममवश्याय हिममिहिकाकरकहरतनुरूपम् । पुष्पाणि तानि तर्णानि सूक्ष्माणीति न लक्ष्यन्ते । पाणीति । प्राणिसूक्ष्मअनुकरिः कुन्थुः । स हि चलन् विनाव्यते न स्थितः सूदमत्वात् उत्तिंगसूम कीटिकानगरम् । तत्र कीटिका अन्ये च सूदमसत्वा जवन्ति । तथा पनकमिति पनकसूदमं प्रायः प्रावृट्काले नूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तव्यलीनः पनक इति । तथा बीजसूदमं शाल्यादिबीजस्य मुखमूले कणिका । या लोकेषु तुषमुखमित्युच्यते । हरितं चेति हरितसूदमं च । तथा अत्यन्तमनिनवमुनिन्नं पृथिवीसमानवर्णमेव अएकसूदमं च अष्टममिति । एतच्च मदिकाकीटिकागृहकोकिलाब्राह्मणीकृकलासादीनामएममिति ॥१५॥ (टीका.) सिणेहं ति सूत्रम्।अस्य व्याख्या । स्नेह मिति । स्नेहसूदममवश्यायहिममिहिकाकरकहरतनुरूपम् । पुष्पसूमं चेति वटोउंबराणां पुष्पाणि । तानि तछ र्णानि सूदमाणीति न लद्यन्ते । पाणीति । प्राणिसूदममनुकरिः कुंथुः। स हि चलन् विनाव्यते न स्थितः । सूक्ष्मत्वात् । उत्तिंगं तथैव चेत्युत्तिंगसूदमं कीटिकानगरं, तत्र कीटिका अन्ये च सूदमसत्त्वा नवन्ति । तथा पनकमिति पनकसूमं प्रायः प्रावृट्काले नूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्त व्यलीनः पनक इति । तथा बीजसूदमं शाळ्यादिबीजस्य मुखमूले कणिका । या लोके तुषमुखमित्युच्यते । हरितं चेति । हरितसूदमं तच्चात्यन्तानिनवोनिन्नं पृथिवीसमानवर्णमेवेति । अएमसूदमं चाष्टममिति । एतच्च मक्षिकाकीटिकागृहकोकिलाब्राह्मणीकृकलासाद्यएममिति सूत्रार्थः ॥ १५॥ एवमेआणि जाणित्ता, सवनावेण संजए॥ अप्पमत्तो जए निच्चं, सविंदिअसमाहिए ॥१६॥ (अवचूरिः ) एवमुक्तप्रकारेण एतानि सूदमाणि ज्ञात्वा सूत्रादेशेन सर्वनावेन शक्त्यनुरूपेण स्वरूपसंरक्षणादिना संयतः साधुः अप्रमत्तो निसादिप्रमादरहितो यतेत संरक्षणं प्रति नित्यं एकेन्द्रियसमाहितः शब्दादिषु रागद्वेषावगछन् ॥ १६ ॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. ( . ) एवमेण इत्यादि सूत्र ( सविं दिव्यसमा हिउ के० ) सर्वेन्द्रियसमाहितः एटले शब्द, स्पर्श प्रमुख इंद्रिय विषयने विषे राग द्वेष न करनारो एवो ( संजd के० ) संयतः एटले साधु जे ते ( अप्पमत्तो के० ) अप्रमत्तः एटले प्रमादरहित तो ( एवं के० ) एवं एटले पूर्वोक्त प्रकारे ( आणि के० ) एतानि एटले आ सूक्ष्म वस्तु प्रत्ये ( जाणित्ता के० ) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( सबजावेण ho ) सर्वभावेन एटले यथा शक्ति सर्व प्रकारे ( निच्चं के० ) नित्यं एटले नित्य ( जए के० ) यतेत एटले यतना करे. ॥ १६ ॥ 1 ( दीपिका . ) पुनः सूत्रम् । साधुर्नित्यं सर्वकालं यतेत मनोवचनकायेन कृत्वा जी - वानां संरक्षणं प्रति । किं कृत्वा । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण एतानि अष्टौ सूक्ष्माणि ज्ञात्वा । केन सर्वजावेन सूत्रादेशेन शक्तेरनुरूपेण । किंभूतः संयतः । संयमवान् । पुनः किंभूतः साधुः । श्रप्रमत्तः प्रमादनिद्रारहितः । पुनः किंभूतः साधुः । सर्वेन्द्रियसमाहितः सर्वेषामिन्द्रियाणां विषयेषु रागद्वेषावगच्छन् ॥ १६ ॥ ( टीका. ) एवमे आणि त्ति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । एवमनेन प्रकारेण एतानि सूक्ष्माणि ज्ञात्वा सूत्रादेशेन सर्वजावेन शक्त्यनुरूपेण स्वरूपसंरक्षणादिना संयतः साधुः । किमित्याह । श्रप्रमत्तो निद्रादिप्रमादरहितः यतेत मनोवाक्कायैः संरक्षणं प्रति नित्यं सर्वकालं सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादिषु रागद्वेषावगच्छन्निति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ धुवं च परिलेहिका, जोगसापाय कंबलं ॥ सिमुच्चारभूमिं च संथारं वासणं ॥ १७ ॥ ( अवचूरिः ) ध्रुवं च यो यस्य कालः तस्मिन् प्रत्युपेक्षते । योगे सति सति सा - मर्थ्ये । पात्रग्रहात्पात्रोपधिः । कम्बलग्रहणादूर्णा सूत्रमयपरिग्रहः । शय्यां वसतिं द्विकालं त्रिकालं वर्षासु उच्चारभूमिं संस्तारकं तृणमयादिरूपम् । अथवासनं काष्ठासनं पादोंनं वा ॥ १७ ॥ (अ.) तेमज धुवं इत्यादि सूत्र, साधु जे ते ( धुवं के० ) ध्रुवं एटले नित्य अर्थात् जे वस्तुनो जे पडिलेहणाकाल सिद्धांत मां को होय ते प्रमाणे हमेशां (जोगसा के० ) योगे सति एटले शक्ति होय तो न्यूनाधिक न थाय तेवी रीते ( पडिले - ० ) प्रत्युपेत एटले पडिले. शुं पडिले ते कहे बे. ( पायकंबलं के० ) पात्र कंबलं एटले पात्र ते तुंबडुं अथवा काष्ठमय पात्र प्रत्ये तथा कंबल एटले ऊननी कांबल प्रमुख प्रत्ये ( सिद्धं के० ) शय्यां एटले वसति उपाश्रय प्रत्ये वे टंक हि For Private Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ४७ तथा त्रण टंक ( उच्चारनूमि के० ) उच्चारनूमिं एटले स्थंडिल प्रत्ये ( च के) पुनः (संथारं के०) संस्तारकं एटले तृणमय अथवा बीजो संथारो होय ते प्रत्ये (अध्वा के०) अथवा (आसणं के०) आसनं एटले अपवाद मार्गे ग्रहण करेला पीठ प्रमुख श्रासन प्रत्ये पडिलेहे. ॥ १७ ॥ __ ( दीपिका.) पुनः साधुः किं कुर्यादित्याह।ध्रुवं च नित्यं च यो यस्य काल उक्तः अनागतः परिजोगे च तस्मिन् प्रत्युपेदेत। केन । सिझान्तविधिना।क सति।योगे सति सामर्थ्ये सति । किं प्रत्युपेदेत इत्याह । पात्रकम्बलं । पात्रग्रहणात् अलांबुदारुमयादिपरिग्रहः । कंबलग्रहणादूर्णासूत्रमयपरिग्रहः । तथा शय्यां वसतिं हिकालं त्रिकालमुच्चारजुवं च अनापातवदादि स्थं मिलं तथा आसनमपवादेन गृहीतं पीठफलकादि साधुः सर्वं यतनया प्रत्युपेदेत इत्यर्थः ॥१७॥ (टीका.) तथा धुव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। तथा ध्रुवं च नित्यं च यो यस्य काल उक्तोऽनागतः परिजोगे च तस्मिन् प्रत्युपेदेत सिद्धान्त विधिना योगे सति सति सामर्थे अन्यूनातिरिक्तम् । किं तदित्याह । पात्रकम्बलम् । पात्रग्रहणादलाबुदारुमयादिपरिग्रहः । तथा शय्यां वसतिं द्विकालं त्रिकालं च जच्चारनुवं चाना. पातवदादि स्थंडिलं तथा संस्तारकं तृणमयादिरूपमथवासनमपवादगृहीतं पीठकादि प्रत्युपेदेतेति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ जच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाणजल्लिअं॥ ___फासुअं पडिलेहित्ता, परिछाविक संजए॥१७॥ (अवचूरिः) जच्चारं प्रस्त्रवणं श्लेष्म सिंघाणं जलं एतानि प्रासुकं प्रत्युपेय स्थंमिलं परिष्ठापयेत् संयतः ॥ १७ ॥ (अर्थ. ) तेमज उच्चारं इत्यादि सूत्र. ( संजए के ) संयतः एटले साधु जे ते (फासुग्रं के०) प्रासुकं एटले अचित्त एवा स्थंडिलने (पडिले हित्ता के० ) प्रत्युपेदय एटले पडिलेहीने तेने विषे (उच्चारं के) उच्चारं एटले वडीनीति प्रत्ये, (पा. सवणं के०) प्रस्रवणं एटले लघु नीति प्रत्ये, (खेलं के०) श्लेष्म एटले खासी वि. गेरेथी नीकलता कफ प्रत्ये, तथा ( सिंधाणजल्लियं के०) सिंघाणजवं एटले नाकना अने कानना मल प्रत्ये (परिहाविजा के०) परिस्थापयेत् एटले परग्वे. ॥१॥ (दीपिका.) पुनः साधुः किं कुर्यादित्याह । संयतः साधुः एतानि परिष्ठापयेमुत्सृजेत् । किं कृत्वा । प्रासुकं स्थं डिल मिति शेषः । प्रत्युपेक्ष्य । एतानि कानीत्याह । उच्चारं १ प्रस्रवणं २ श्लेष्म ३ सिंहाणजालं च एतानि सर्वाणि प्रसिझानि ॥ १७ ॥ ६३ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४एल राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(४३)-मा. ( टीका. ) तथा उच्चारं ति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या। उच्चारं प्रस्रवणं श्लेष्म सिंघाणजसमिति प्रतीतानि । एतानि प्रासुकं प्रत्युपेक्ष्य । स्थंडिल मिति वाक्यशेषः। परिस्थापयेत्सृजेदिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ पविसित्तु परागारं, पाणहा नोअणस्स वा ॥ जयं चिठे मिअं नासे, न य रूवेसु मणं करे ॥१॥ __ (अवचूरिः) वसतिविधिरुक्तः। अथ गोचरप्रवेश विधिमधिकृत्याह । प्रविश्य परागारं परगृहं पानार्थं नोजनार्थं वा ग्लानादेरौषधार्थं वा यतं तिष्ठेत् । गवाक्षादीनि नावलोकयेत् । मितं नातागमनकार्यादि यतनया । न च रूपेषु मनः कुर्यात् । रूपग्रहणं रसायुपलक्षणम् ॥ १५ ॥ (अर्थ. ) उपाश्रयमां शीरीते रहे ते कडं. हवे गोचरीए जता साचववानो विधि कहे . पविसित्तु इत्यादि सूत्र. गोचरीए गएल साधु जे ते (पाणघा के०) पानार्थं एटले जलादिकने अर्थे (वा के०) अथवा ( जोधणस्स के० ) जोजनस्य ए. टले नोजनने अर्थे अथवा ग्लान प्रमुख साधुना औषधने अर्थे ( परागारं के०) प. रागारं एटले पारका गृहस्थना घर प्रत्ये (पविसित्तु के०)प्रविश्य एटले प्रवेश करीने (जयं के० ) यतं एटले यतनाए (चिठे के०) तिष्ठेत् एटले उन्ना रहे, ( मिश्र के०) मितं एटले परिमित (जासे के०) नाषेत एटले बोले, (च के०) तथा (रूवेसु के०) रूपेषु एटले गृहस्थनी स्त्रीप्रमुखना रूपने विषे (मणं के०) मनः एटले मन प्रत्ये ( न करे के०) न कुर्यात् एटले न करे. ॥ १५ ॥ (दीपिका.) इति उपाश्रयस्थान विधिरुक्तः । श्रथ गोचरप्रवेशनमाश्रित्य थाह । साधुः यतं यतनया गवादादिविलोकनेन विना उचितदेशे तिष्ठेत् । किं कृत्वा । परस्य गृहस्थस्य अगारं गृहं पानार्थं नोजनस्य वा ग्लानादेरौषधार्थं वा प्रविश्य पुनः साधुर्मितं यतनया नाषेत आगमनप्रयोजनादि। परं न च रूपेषु दातृकान्तादिषु मनः कुर्यात्। एवंचूतानि एतानि इति न मनो निवेशयेत् । रूपग्रहणेन रसादयोऽपिग्राह्याः॥१९॥ ( टीका.) उपाश्रयस्थानविधिरुक्तो गोचरप्रवेशमधिकृत्याह । पविसित्तु सूत्रम् । प्रविश्य परागारं परगृहं पानार्थं नोजनस्य ग्लानादेरौषधार्थं वा यतं गवादकादीन्यनवलोकयन् तिष्ठेमुचितदेशे। मितं यतनया नाषेत आगमनप्रयोजनादीति । नच रूपेषु दातृकान्तादिषु मनः कुर्यात् । एवंनूतान्येतानीति न मनो निवेशयेत् । रूपग्रहणं रसाधुपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ४एए बहुं सुणेदि कन्नहिं, बहुं अहीदि पिच॥. नय दिलं सुअं सवं, निकू अकाउमरिदश् ॥२०॥ (अवचूरिः ) गोचरगतः केनचित्पृष्टः सन्नित्येवं ब्रूयात् । किमित्याह । बहु अनेकप्रकारं शोजनाशोजनं शृणोति कर्णान्याम् । शब्दजातमिति गम्यते । बहु शोजनाशोजनमहिन्यां पश्यति रूपजातम् । न च दृष्टं श्रुतं सर्वं स्वपरोजया हितं । श्रुता ते पत्नी रुदतीत्येवमादि । निकुराख्यातुमर्हति । चारित्रोपघातित्वादहति च स्वपरोजयहितं दृष्टस्ते राजानमुपशमयन् शिष्य इत्यादि ॥२०॥ (अर्थ.) गोचरी प्रमुख कार्यने अर्थे गृहस्थने घरे गएल साधुने कोइ एवो प्रश्न करे तो श्रारीते उत्तर थापवो, एम कहे . बहुं इत्यादि सूत्र, ( जिस्कू के ) निकुः एटले साधु जे ते (कन्नेहिं के) कणैः एटले कानवडे ( बहुं के) बहु एटले घj शुज तथा अशुन (सुणेश के०) शृणोति एटले सांजले. तेमज (बहुं के०) बहु एटले घणुं शुज तथा अशुन (अठीहिं के०) अदिनिः एटले आखवडे ( पिच के०) पश्यति एटले जुवे, पण ( दिहं के०) दृष्टं एटले दीठेढुं तथा (सुअं के०) श्रुतं एटले सांजलेढुं (सवं के०) सर्व एटले सर्व शुनाशुन प्रत्ये (अरका के०) आरख्यातुं एटले प्रकट कहेवाने (न अरिह के०) नाति एटले योग्य नथी. ॥ २० ॥ (दीपिका.) अथ गोचरा दिगत एव साधुः केनचित् तथाविधं पृष्टः किं ब्रूयादित्याह। अथवा साधुः उपदेशस्य अधिकारे सामान्येन एवमाह । बहु अनेकप्रकारं शोजनमशोजनं च साधुः शृणोति कर्णान्यां शब्दसमूह मिति शेषः। तथा बहु अनेकप्रकारमेव शोजनमशोननं च अदिच्यां पश्यति । रूपसमूह मिति शेषः। परं न च दृष्टं श्रुतं सर्वं स्वस्य परस्य उन्नयस्य च अहितमपि तव पत्नी रुदतीत्येवमादिकं निकुराख्यातुं कथयितुं न श्रईति चारित्रस्य घातात्। अर्हति च स्वपरोनयहितं दृष्टस्ते शिष्यो राजानमुपशामयन् । एतादृशं तु वचनं कथयेत् ॥२०॥ (टीका.) गोचरादिगत एव केनचित्तथाविधं पृष्ट एवं ब्रूयादित्याह । बहु त्ति सूत्रम् । अथवा उपदेशाधिकारे सामान्येनाह । बहु त्ति सूत्रम् । बह्वनेकप्रकारं शोजनाशोजनं शृणोति कर्णान्यां शब्दजातमिति गम्यते । तथा बह्वनेकप्रकारमेव शोजनाशोजनन्नेदेनादियां पश्यति रूपजातमिति गम्यते । एवं न च दृष्टं श्रुतं सर्वं खपरोजया हितमपि श्रुता ते रुदती पत्नीत्येवमादि निकुराख्यातुमर्हति चारित्रोपघा. तात् । अर्हति च खपरोजयहितं दृष्टस्ते राजानमुपशामय शिष्य इति सूत्रार्थः ॥२०॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० राय धनपतसिंघ बहाऽरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. सुअंवा जइ वा दिहं, न लविजोवघाइअं॥ न य केण नवाएणं, गिहिजोगं समायरे ॥२१॥ (अवचूरिः ) एतदेव स्पष्टयन्नाह । श्रुतमन्यतो वा यदि वा दृष्टं स्वयमेव नालपेन्न नाषेतौपघातिकमुपघातनिर्वृत्तं तत्फलं वा औपघातिकं यथा चौरस्त्वमित्यादिरूपम् । न च केनचिउपायेनोपरोधादिना गृहियोगं समाचरेत् २१॥ (अर्थ.) उपर कही तेज वात स्पष्ट कहे . सुझं इत्यादि सूत्र. ( जवघाश्यं के० ) औपघातिकं एटले उपधातथी थएली अथवा उपघात जेथी थाय एवी वात (सुअं के० ) श्रुतं एटले सांजली होय, ( जश्वा के ) यदिवा एटले अथवा (दि. हं के०) दृष्टं एटले दीठी होय, तो पण साधु जे ते ते वात प्रत्ये ( न ल विज के०) नालपेत् एटले न बोले, तेमज (केण उवाएण के) केनचिछुपायेन एटले कोश पण प्रकारे सूदम नंगथी पण ( गिहिजोगं के० ) गृहियोगं एटले गृहस्थनी साथे तेना बालकने रमाडवा प्रमुख संबंध अथवा आरंन समारंनरूप गृहस्थनो व्यापार पण साधु जे ते ( नय समायरे के० ) नच समाचरेत् एटले न करे. ॥ २१ ॥ (दीपिका.) पुनरेतदेव स्पष्टयन्नाह । साधुः श्रुतं वा अन्यतः यदि वा दृष्टं वा स्वयमेव वा एतादृशं वचनं न आलपेत् न नाषेत । कीदृशं वचनमौपघातिकमुपघातेन निर्वतं तत्फलं वा औपघातिकं यथा त्वं चौर इत्यादि । अतोऽन्यत् लपेदपीति गम्यते । तथा नच केनचिछुपायेन सूक्ष्मयापि जंग्या गृहियोगं गृहिसंबंधं तद्वालग्रहणादिरूपं गृहिव्यापारं प्रारम्नरूपं समाचरेत् कुर्यात् नचेति ॥ २१॥ (टीका.) एतदेव स्पष्टयन्नाह । सुधति सूत्रम् । श्रुतं वा अन्यतः यदि वा दृष्टं खयमेव नालपेन्न नाषेत। औपघातिकमुपघातेन निवृत्तम् । तत्फलं वा । यथा चौरस्त्वमित्यादि । अतो नालपेदपीति गम्यते । तथा नच केनचिमुपायेन सूदमयापि नङ्ग्या गृहियोगं गृहिसंबन्धं तद्वालग्रहणादिरूपं गृहिव्यापार वा प्रारम्नरूपं समाचरेत् कुर्यान्नैवेति सूत्रार्थः ॥ १॥ निहाणं रसनिद, नदगं पावगं ति वा॥ पुछो वा वि अपुठो वा, लानालानं न निदिसे॥२॥ ' (अवचूरिः ) निष्ठानं सर्वगुणोपेतं संतृतमन्नं । रसनिव्यूढं तद्विपरीतं कदशनमित्यर्थः। एतदाश्रित्याद्यं नमकं द्वितीयं पापकमिति पृष्टः परेण अपृष्टो वा स्वयमेव लानालानं न निर्दिशेदद्य साधु लब्धमसाधु वा शोजन मिदं नगरमशोजनमिति वा ॥२२॥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५०१ (अर्थ) वली निघाणं इत्यादि सूत्र साधु जे ते ( पुट्ठो के० ) पृष्टः एटले कोइ पूढे तो पण ( वावि के० ) वापि एटले अथवा ( अहो के० ) अपृष्टः एटले कोइ न पूढे तो पण ( निघाणं के० ) निष्टानं एटले सर्व गुण वडे युक्त एवा सरस - हार प्रत्ये ( दगं ० ) नकं एटले सारो एम न कहे, ( वा के० ) अथवा (रस निघूढं के० ) रस निर्यूढं एटले नीरस आहार प्रत्ये ( पावगं के० ) पापकं एटले खराब बे एम न कहे. तथा याजे केवो लाज थयो, एम कोइ पूढे अथवा न पूढे तो पण (लाजालानं के० ) लाजालानं एटले मिष्टान्न प्रमुखनी प्राप्ति तथा प्राप्तिनो व बन्नेने ( न निद्दिसे के० ) न निर्दिशेत् एटले न कहे. अर्थात् याजे सारो हार मल्यो, अथवा नहि मध्यो इत्यादि वचन न बोले. ॥ २२ ॥ " 1 ( दीपिका . ) पुनः किंच साधुर्निष्ठानादेर्लानमलानं च न निर्दिशेत् । किमाश्रित्य निष्ठानं सर्वगुणैः सहितं रसनिर्यूढमेतद्विपरीतं कदशनमेतदाश्रित्याद्यं जडकं द्वितीयं पापकमिति वा । किं० साधुः । पृष्टः केनापि कीदृग् लब्धमिति पृष्टो न निर्दिशेत् । साधु लब्धमसाधु वा कथं शोजनमिदमशोजनं वा इदं नगरम् ॥ २२ ॥ ( टीका . ) किं च हाणं ति सूत्रम् । निष्ठानं सर्वगुणोपेतं संनृतमन्नरसं निर्यूढमेतद्विपरीतं कदशनम् । एतदाश्रित्याद्यं नकं द्वितीयं पापकमिति वा । पृष्टो वापि परेण कीदृग् लब्धमिति । पृष्टो वा स्वयमेव लाजालानं निष्ठानादेर्न निर्दिशेदद्य साधु लब्धमसाधु वा शोजनमिदमपरमशोजनं चेति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ नयनोमि गो, चरे जंवं त्र्यंपिरो ॥ फासुन सुंजिका, की प्रमुद्देसियादडं ॥ २३ ॥ ( श्रवचूरिः ) नच जोजने गृद्धः सन् विशिष्टवस्तुला जायेश्वरादिकुलेषु मुखमंग - लिकया चरेत् । अपितु जंढं ज्ञाताज्ञातकुलेषु प्रजल्पन् धर्मलानमामात्रानिधायी चरेत् । तत्रापि प्रासुकं सचित्तमिश्रादि कथं चिङ्गृहीतमपि न भुञ्जीत । क्रीतमौदेशिकाहृतं प्राकमपि न भुञ्जीत ॥ २३ ॥ (अर्थ) न य इत्यादि सूत्र साधु जे ते ( जो मि के० ) जोजने एटले जोज़विषे ( गिद्ध के० ) गृद्धः एटले घणी गृद्धिवालो, लालचू थने सारी वस्तुना लाजने अर्थे धनवंत श्रावकोनाज घरे ( न चरे के० ) न चरेत् एटले न जाय. तो (यं पिरो के० ) जल्पनशीलः एटले वृथा बकवानुं मूकी देनारा एवा साधु जे ते (जंबं ho ) नंबं एटले जावथी कांक ज्ञात अने कांइक अज्ञात कुल प्रत्ये ( चरे के० ) For Private Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. चरेत् एटले जाय. ( अफासुझं के० ) अप्रासुकं एटले प्रासुक न होय सचित्त होय एवी वस्तु को पण रीते ग्रहण करवामां श्रावी होय तो पण (न लुजिजा के०) न जुञ्जीत एटले नदण न करे, तेमज (कीशं के०) क्रीतं एटले वेचाथी लावेल वस्तु तथा ( उदेसिधे के०) औदेशिकं एटले साधुना उद्देशथी तैयार करेल वस्तु प्रत्ये पण जक्षण न करे. ॥२३॥ (दीपिका.) पुनः किंच । साधु!जने गृहः सन् प्रधानवस्तुप्राप्तिनिमितं धनसमृधानां गृहे मुखमंगलिकया न चरेत् । अपितु उंचं नावतो ज्ञाताझातमजल्पनशीलः सन् धर्मलाजमात्रकथकः सन् चरेत्तत्रापि अप्रासुकं सचित्तं सन्मिश्रादिकं कथंचिगृहीतमपि न जुञ्जीत ।अथवा क्रीतमौदेशिकमाहृतं प्रासुकमपि न नुञ्जीत ॥२३॥ (टीका.) किं च न य ति सूत्रम् । नच नोजने गृधः सन् विशिष्टवस्तुलाजायेश्वरादिकुलेषु मुखमंगलिकया चरेत् । अपितु उलं जावतो ज्ञाताज्ञातमजल्पनशीलो धर्मलानमात्रानिधायी चरेत् । तत्राप्यप्रासुकं सचित्तं सम्मिश्रादि कथंचिहीतमपि न जुञ्जीत । तथा क्रीतमौदेशिकाहृतं प्रासुकमपि न जुञ्जीत । एतहिशोध्यविशोधिकोव्युपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥२३॥ संनिहिं च न कुविजा, अणुमायं पि संजए॥ मुदाजीवी असंबछे, दविक जगनिस्सिए ॥२४॥ (अवचूरिः)) संनिधिं च प्राग्निरूपितरूपं न कुर्यादणुमात्रमपि संयतः । मुधाजीवीतिपूर्ववत् । असंबकः पद्मिनीपत्रोदकवगृहस्थैः । एवंनूतः सन् नवेजगनिश्रितश्चराचररक्षणप्रतिबद्धः ॥२४॥ (अर्थ.) संनिहिं इत्यादि सूत्र. (संजए के०) संयतः एटले साधु जे ते (अणुमायं पि के०)अणुमात्रमपि एटले किंचिन्मात्र पण (संनिहिं के०) संनिधिं एटले पूर्वे कहेल संनिधि प्रत्ये (न कुबिजा के०) न कुर्यात् एटले न करे. तेमज साधु जे ते (मुहाजीवी के०) मुधाजीवी एटले सर्व सावद्य व्यापारना वर्जक, (असंबके के०) असंबः एटले कमलपत्र उपर रहेला जलनी पेठे को पण काणे आसक्ति न राखनारा थने (जगनिस्सिए के०) जगन्निश्रितः एटले स्थावरजंगमात्मक जगत्ना रक्षण करनारा एवा (हविज के०) नवेत् एटले थाय. ॥२४॥ (दीपिका.) पुनः किंच। संयतः साधुः संनिधिं च प्रागनिरूपितखरूपं न कुर्यात्। अणुमात्रमपि स्तोकमात्रमपि । किंग संयतः। मुधाजीवी । श्रर्थः पूर्ववत् । पुनः किं० सं Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । यतः । असंबद्धः गृहस्थैः नलिनीपत्रोदकवत् । एवंजूतः सन् नवेत् जगनिश्रितः चराचरसंरक्षणप्रतिबकः ॥२४॥ (टीका.) संनिहिं ति सूत्रम् । संनिधिं च प्रानिरूपितखरूपं न कुर्यात् । अणुमात्रमपि स्तोकमपि संयतः साधुः । तथा मुधाजीवीति पूर्ववत् । असंबद्धः पद्मिनीपत्रोदकवगृहस्थैः। एवंनूतः सन् नवेजगन्नित्रितश्चराचरसंरक्षणप्रतिबद्ध इति सूत्रार्थः ॥५॥ लूदवित्ती सुसंतुळे, अप्पिने सुदरे सिया॥ आसुरत्तं न गबिडा, सुच्चा णं जिणसासणं ॥२५॥ (श्रवचूरिः) रूदैर्ववचणकादिनिवृत्तिर्यस्येति । सुसंतुष्टो येन तेन वासंतोषगामी अपेठो न्यूनोदरतयाऽल्पाहारः अल्पेठत्वा निदादौ सुनरः स्यात् । श्रासुरत्वं क्रोधजावं न गछेत् । श्रुत्वा जिनशासनं क्रोधविपाकप्रतिपादकमचनम् ॥ २५॥ (अर्थ.) वली लूह वित्ती इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (बूद वित्ती के०) रूदवृत्तिः एटले वाल, चोला प्रमुख लूखो श्राहार करनारा, (सुसंतुझे के०) सुसंतुष्टः एटले घणा संतोषी, (अपिछे के०) अदपेन्नः एटले ऊनोदरी विगेरे कारणने लीधे थप श्छा वाला अने (सुहरे के ) सुजरः एटले सुखथी कोश्ने पण उपजव थया विना जेमनुं नरण पोषण थाय एवा (सिश्रा के०) स्यात् एटले होय. तेमज साधु जे ते (जिणसासणं के०) जिनशासनं एटले क्रोधना परिणाम केहनार जिनशास्त्र प्रत्ये (सुच्चा के०) श्रुत्वा एटले सांजलीने (आसुरत्तं के०) आसुरत्वं एटले क्रोध प्रत्ये (न गछिका के०) न गछेत् एटले न जाय.॥२५॥ (दीपिका.) किं साधुः। श्रासुरत्वं चक्रोधजावं न गछेत् । किं कृत्वा । जिनशासनं श्रुत्वा । कचित् स्वपदादो क्रोधविपाकप्रतिपादकं वीतरागवचनमाकण्ये । किं साधुः। रूदवृत्तिः रूदैर्ववचणकादिनिवृत्तिरस्य इति रूदवृत्तिः। पुनः किंनूतः साधुः । सुसंतुष्टः येन केन संतोषगामी । पुनः किं साधुः श्रपेडः न्यूनोदरतया श्राहारपरित्यागी सुजरः स्यात् अल्पेठत्वात् । एवं निदादौ इति फलं प्रत्येकं वा स्यादिति क्रियायोगः । रूक्षवृत्तिः स्यात् इति ॥ २५॥ - (टीका.) किंच खूह त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। रूदैर्वक्षचणकादिनिवृत्तिरस्येति रूक्षवृत्तिः । सुसंतुष्टो येन वा तेन वा संतोषगामी। अल्पेडो न्यूनोदरतया. हारपरित्यागी सुजरः स्यात् । अल्पेठत्वादेव मुनिदादाविति । फलं प्रत्येकं वा स्यादिति क्रियायोगः । रूनवृत्तिः स्यादित्यादि । तथा आसुरत्वं क्रोधनावं न गत्कचित् Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. खपदादौ श्रुत्वा जिनशासनं क्रोधविपाकप्रतिपादकं वीतरागवचनम् । जहा चहिंगणेहिं, जीवा असुरत्ताए कम्मं करेंति । तं जहा । कोहसीलयाए पाहुडसीलयाए जहा ठाणे जाव जंमं मए एस पुरिसे अमाणी मिळादिही अकोस हण वा तं ण मे एस किंचि अवरन त्ति । किंतु मम एयाणि वयणिद्याणि कम्माणि अवरति त्ति । सम्ममहियासमाणस्स निजारा एवं नविस्स त्ति सूत्रार्थः ॥ २५॥ कन्नसुकेहिं सद्देटिं, पेमं नानिनिवेसए॥ दारुणं ककसं फासं, काएण अदिवासए ॥१६॥ (श्रवचूरिः) कर्णसौख्यहेतवः कर्णसौख्याः शब्दा वेणुवीणा दिसंबंधिनस्तेषु प्रेम रागं नानिनिवेशयेत् । दारुणमनिष्टं कर्कशं कठिनस्पर्शमुपनतं । कायेनाधिसहेत । न तत्र द्वेषं कर्यात् । अनेनाद्यंतयो रागद्वेषनिराकरणेन सर्वेन्द्रिय विषयेषु रागद्वेषप्रतिषेधो वक्तव्यः ॥२६॥ (अर्थ.) तेमज कन्नसुकेहिं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( कन्नसुरके हिं के०) कर्णसौख्यैः एटले श्रवणेंजियने सुख उपजावनारा एवा ( सद्देहिं के०) शब्दैः एटले वेणु वीणा प्रमुख वाद्या दिकना शब्द सांजली तेना उपर (पेमं के०) प्रेम एटले प्रेमराग प्रत्ये (नानिनिवेसए के०) नानिनिवेशयेत् एटले न करे. तथा (दारुणं के०) दारुणं एटले अनिष्ट एवा तथा ( कक्कसं के०) कर्कशं एटले कठिन एवा (फासं के) स्पर्श एटले प्राप्त थएल स्पर्शादिक प्रत्ये ( अहिासए के० ) अधिसहेत एटले सहन करे. अर्थात् इष्ट अथवा अनिष्ट इंडिय विषय उपर रागडेष न करे. ॥ २६ ॥ (दीपिका.) पुनः किंच। साधुः शब्देषु वेणुवीणासंबंधिषु न प्रेम अनिनिवेशेयत् । न तेषु रागं कुर्यादित्यर्थः। किंजूतेषु शब्देषु । कर्णयोः सौख्य हेतुषु । पुनः किं० साधुः। स्पर्श प्राप्तं सन्तं कायेन अतिसदेत न तत्र वेषं कुर्यात् । किंनूतं स्पर्शम् । दारुणं रौजमनिष्टमित्यर्थः। पुनः किं स्पर्शम्। कर्कशं कग्निम् । अनेन आद्यंतयोध्यो रागद्वेषयोः निवारणेन सर्वेन्द्रिय विषयेषु रागषप्रतिषेधो वक्तव्यः ॥२६॥ (टीका.) तथा कम ति सूत्रम् । कर्णसौख्यहेतवः कर्णसौख्याः शब्दा वेणुवीणा'दिसंबन्धिनस्तेषु प्रेम रागं न अनिनिवेशयेत् न कुर्यादित्यर्थः। तथा दारुणमनिष्टं ककशं कठिनं स्पर्शमुपनतं सन्तं कायेनातिसहेन्न तत्र छेषं कुर्या दित्यनेनाद्यन्तयोरागवेषनिराकरणेन सर्वेन्द्रियविषयेषु रागद्वेषप्रतिषेधो वेदितव्य इति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । Այս खुदं पिवासं उस्सिङ, सीनन्दं अरई नयं ॥ अहिआसे अवहिन, देहवं महाफलं ॥२७॥ (अवचूरिः) कुधम् । शीतोष्णौ प्रतीतौ।अरति मोहनीयोनवां जयं व्याघ्रादिसमुउमतिसहेताव्यथितोऽदीनमनाः सन् देहःखं महाफल मिति संचिन्त्येति शेषः॥२॥ (अर्थ.) वली खुहं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( श्रवहि के०) श्रवहितः एटले जेना मनमां दैन्य नथी एवो थयो बतो (खुहं के) दुधं एटले नूख प्रत्ये, (पि. वासं के) पिपासां एटले तृषा प्रत्ये, (मुस्सिङ के० ) पुःशय्यां एटले विषम नूमिने विषे सुवा रूप पुःशय्या प्रत्ये, (सीउन्हं के ) शीतोष्णं एटले शीत अने उष्ण प्रत्ये, (अरई के०) अरतिं एटले मोहनीय कर्मना उदयथी उत्पन्न थएली श्ररति प्रत्ये, तथा (जयं के० ) जयं एटले व्याघ्र विगेरेथी उत्पन्न थएल जय प्रत्ये, (अहिथासे के०) अधिसहेत एटले सहन करे, खमे. कारण के, (देहयुक्खं के० ) देहःखं एटले देह बतां देहथी उत्पन्न यतुं फुःख सहन करवू ते ( महाफलं के०) महाफलं एटले मोटुं मोद रूप फल श्रापनारूं एवं बे. ॥ २७ ॥ ( दीपिका.) किंच संसारे तत्सर्वमधिसदेत । तत् किमित्याह । कुधं बुजुतां, पिपासां तृषं, पुःशय्यां विषमन्नूम्यादिरूपां, शीतोष्णं प्रसिझम्, अरति मोहनीयक. मानवां, नयं व्याघ्रादिसमुनवम् । किंनूतः साधुः। अव्यथितः श्रदीनमनाः सन् देहकुःखं महाफलं संचिन्त्य इति शेषः । तथा च शरीरे सति एतत् मुखं शरीरं वा सम्यक् अतिसामानं च मोक्षफलमेवेदमिति ॥२७॥ (टीका.) किं च खुहं पि त्ति सूत्रम् । कुधं बुजुदां पिपासां तृषं उःशय्यां वि. षमतम्यादिरूपां शीतोष्णं प्रतीतमरतिं मोहनीयोनवां जयं व्याघ्रादिसमुबमतिसहेदेतत्सर्वमेव । अव्यथितोऽदीनमनाः सन् देहपुःखं महाफलं संचिन्त्येति वाक्यशेषः । तथा च शरीरे सत्येतदुःखं शरीरं वा सारं सम्यगतिसह्यमानं च मोक्षफलमेवेदमिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ अचं गयंमि आश्च्चे, पुरना अ अणुग्गए॥ श्रादारमाश्यं सवं, मणसा वि ण पत्रए॥२॥ (अवचूरिः) अस्तं गत आदित्ये संध्यायां पुरस्ताच्चानुमते प्रत्यूषसि आहारात्मकं सर्वं न प्रार्थयेद् मनसापि ॥ २ ॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, जाग तेतालीस-(४३)-मा. (अर्थ. ) वली अळ इत्यादि सूत्र. श्रादित्ये एटले सूर्य जे ते (अहं गयंमि के०) अस्तं गते एटले आथमे बते ( अ के०) च एटले पुनः (पुरबा अणुग्गए के०) पुरस्तादनुसते एटले प्रजात समये फरिथी न जगे त्या सूधी (सवं के०) सर्वं एटले संपूर्ण (थाहारमाश्यं के० ) आहारात्मकं एटले चतुर्विध आहार रूप वस्तु प्रत्ये (मणसा वि के०) मनसापि एटले मने करीने पण (न पए के०) न प्रार्थयेत् एटले श्छे नहि. ॥ ॥ (दीपिका.) पुनः किंच । साधुः आहारात्मकं सर्वमाहारजातं समस्तमेवं सति मनसापि न प्रार्थयेत्। किमङ्ग पुनर्वाचा कर्मणा वेति। एवं सतीति किम् । श्रादित्ये सूर्येऽस्तंगतेऽस्तपर्वतं प्राप्तेऽदर्शनीनूते वा पुरस्ताच्च अनुमते प्रत्यूषस्यनुदित इत्यर्थः॥ २० ॥ ( टीका.) किंच अळ ति सूत्रम् । अस्तं गत आदित्ये अस्तपर्वतं प्राप्ते अदर्शनीजूते वा पुरस्ताच्चानुमते प्रत्यूषस्यनुदित इत्यर्थः । आहारात्मकं सर्व निरवशेषमाहारजातं मनसापि न प्रार्थयेत् । किमङ्ग पुनर्वाचा कर्मणा वेति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ अतिंतिणे अचवले, अप्पनासी मिश्रासणे॥ हविऊ नअरे दंते, योवं लहुं न खिसए॥शए॥ (अवचूरिः) अतिंतिणो नामालानेऽपि नेषयत्किंचनजाषी । अचपलः स्थिरः। अल्पनाषी कारणेऽपि मितजाषी । मिताशनो मितनोक्ता । एवंचूतो नवेदरेदान्तो येन तेन वाहारेण तृप्तः। स्तोकं लब्ध्वा न खिंसयेद् देयं दातारं वा न होलयेत् ॥२॥ __(अर्थ.) दिवसे पण कदाच आहार न मले तो शुं करवं ते कहेले. अतिंतिणे इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (अतिंतिणे के० ) अतिंतिणः एटले आहार न मले तो पण किंचिन्मात्र पण न बोलनारा एवा, (अचवले के) अचपलः एटले सर्व स्थानके स्थिर एवा, (अप्पनासी के ) अल्पनाषी एटले कारण पडे परिमित बोलनारा एवा, (मिश्रासणे के०) मिताशनः एटले परिमित नोजन करनारा एवा तथा (उअरे दंते के०) उदरे दान्तः एटले पोतानुं पेट पोताना वशमा राखनारा अर्थात् नीरस, तु जेवो श्राहार मले तेवा आहार उपर निर्वाह करनारा एवा ( हविक के०) नवेत् एटले थाय, पण (थोवं के०) स्तोकं एटले अल्पमात्र आहारादिक वस्तु प्रत्ये (लहुं के०) लब्ध्वा एटले पामीने (न खिसए के०)न खिसयेत् एटले दातारनी अथवा मलेली वस्तुनी हीलना न करे. ॥शए ॥ (दीपिका.) दिवालन्यमानेऽपि आहारे किमित्याह । साधुः अतिन्तिणोनवेत्।श्र. Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । २०७ ति न्तिणो नाम लानेऽपि न यत्किंचनजाषी । तथा साधुः श्रचपलो जवेत् । सर्वत्र स्थिर इत्यर्थः । तथा अल्पभाषी जवेत् कारणे परिमितवक्ता । तथा मिताशनो जवेत् । मितजोजी स्यात् । तथा । उदरे दांतः येन वा तेन वा वृत्तिशीलः । तथा स्तोकं लब्ध्वा न खिंसयेद् देयं दातारं वा न हीलयेत् ॥ २५ ॥ ( टीका. ) दिवाप्यलनमान आहारे किमित्याह । यतिंतिऐत्ति । प्रति न्तिणो जवेत् । प्रति न्तिणो नामालानेपि नेषद्यत्किंचनजाषी । तथा चपलो जवेत् । सर्वत्र स्थिर इत्यर्थः । तथा अल्पभाषी कारणे परिमितवक्ता । तथा मिताशनो मितजोक्ता नवे दित्येवंभूतो जवेत् । तथा उदरे दान्तो येन वा तेन वा वृत्तिशीलः । तथा स्तोकं लब्ध्वा न खिंसयेत् । देयं दातारं वा न हीलयेदिति सूत्रार्थः ॥ २९ ॥ न बाहिरं परिजवे, अत्ताणं न समुक्कसे ॥ सुलाने न मक्किका, जच्चा तवस्सिबुझिए ॥ ३० ॥ ( अवचूरिः ) न बाह्यं स्वतोऽन्यं परिभावयेत् । श्रात्मानं न समुत्कर्षयेत् । श्रुतलायन मात । जात्या तपसि बुद्धिविषये । उपलक्षणं चैतत्कुलबलरूपाणाम् ॥३०॥ ( अर्थ. ) साधुए मद न करवो, ते माटे कहेबे न बाहिरं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( बाहिरं के० ) बाह्यं एटले पोताथी अन्य एवा कोइ पण जीवने ( न परिजवे क० ) न परिवेत् एटले तिरस्कार न पमाडे, धिक्कारे नहि. तेमज ( यत्ताणं के० ) श्रात्मानं एटले पोताने (न समुक्कसे के० ) न समुत्कर्षयेत् एटले मोटो गणे नहि. अर्थात् हुं केवो उत्कृष्ट बुं, एम न माने तथा ( सुलाने के० ) श्रुतलानान्यां एटले श्रुतज्ञानयी हुं पंडित बुं, एवो ने जोइये ते वस्तुनो लाज थवाथी हुं लब्धिमान् बुं, एवो ( न मतिका के० ) न माद्येत एटले मद न करे, तेमज ( जच्चा के० ) जात्या एटले जातिवडे, ( तव सि० ) तपखित्वेन एटले तपवडे तथा ( बुद्धिए के० ) बुला एटले बुद्धिवडे पण मद न करे. ॥ ३० ॥ (दीपिका.) मदवर्जनार्थमाह । न बाह्यमात्मनोऽन्यं परि जवेत् सामान्येन इत्थंभूतोऽहमिति । तथा श्रुतलानाज्यां श्रुतेन श्रुतज्ञानेन लानेन व्याहारादिप्राध्या न माद्येत । पएकोऽहं लब्धिमानहमिति । तथा जात्या तापस्येन बुद्ध्या वा न माद्येत । यथा श्रहं जातिसंपन्नः, श्रहं तपस्वी, अहं बुद्धिमान् इत्येवम् । उपलक्षणं च एतत् कुलबलरूपाणाम् । यथा कुलसंपन्नोऽहं, बलसंपन्नोऽदं रूपसंपन्नोऽहम् इत्येवं न मायेतेत्यर्थः ॥ ३० ॥ ( टीका. ) मदवर्जनार्थमाह । न बाहिरं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । न बा - For Private Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. मात्मनोऽन्यं परिवेत् । तथा श्रात्मानं न समुत्कर्षयेत् । सामान्येनेवंभूतोऽहमिति । श्रुतलाजाच्यां न माद्येत परिमतो लब्धिमानद मित्येवं । तथा जात्या तपस्वित्वेन बुद्ध्या वा न माद्येतेति वर्त्तते । जातिसंपन्नस्तपस्वी बुद्धिमानह मित्येवमुपलक्षणं चैतत्कुलबलरूपाणाम् । कुलसंपन्नोऽहं बलसंपन्नोऽहं रूपसंपन्नोऽहमित्येवं न माद्येतेति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ से जामजाणं वा, कट्टु यदम्मियं पयं ॥ संवरे विप्पमप्पाणं, बीयं तं न समायरे ॥ ३१ ॥ ( यवचूरिः ) स साधुत्वाज्ञात्वा जोगतोऽनाजोगतश्च कृत्वाऽधार्मिकं पदं रागद्वेषायां मूलोत्तरगुण विराधनां संवरेत् क्षिप्रमात्मानं जावतो निवर्त्यालोचनादिना । द्वितीयं पुनस्तन्न समाचरेत् ॥ ३१ ॥ (अर्थ) जोगी अथवा अनाजोगथी विराधना सेवे तो शुं करवुं ते बे. से इत्यादि सूत्र. ( से के० ) सः एटले ते साधु जे ते ( जाणं के० ) जानन् एटले जाणता ( वा के० ) अथवा ( अ जाएं के० ) श्रजानन् एटले अजाणता (आह म्मियं पयं के० ) धार्मिकं पदं एटले कोइ पण प्रकारे राग द्वेषथी मूल गुणनी अथवा उत्तर गुणनी विराधना प्रत्ये (कट्टु के०) कृत्वा एटले सेवीने ( खिप्पं के० ) दिप्रं एटले शीघ्र (पाणं के० ) आत्मानं एटले पोताना आत्माने ( संवरे के०) संवरेत् एटले जावथी निवृत्त थ‍ थालोचना प्रमुख करी संवरे, तथा ( बीां के० ) द्वितीयं एटले बीजी ( तं के० ) तत् एटले ते विराधना प्रत्ये ( न समायरे के० ) न समाचरेत् एटले सेवे न हि ॥ ३१ ॥ (दीपिका) घत जोगानाजोग से वितमर्थमाह । साधुः जानन् अजानन् वा श्रागतोऽनाजोगतश्चेत्यर्थः । श्रात्मानं क्षिप्रं जावतो निवृत्य आलोचनादिना प्रकारेण संवरेत् । किं कृत्वा अधार्मिकं पदं कथं चिद् रागद्वेषान्यां मूलोत्तरगुण विराधनामिति जावः । परं न पुनर्द्वितीयं तत् समाचरेदनुबन्धदोषात् ॥ ३१ ॥ ( टीका. ) उघत याजोगा नाजोगसे वितार्थमाह । सेति सूत्रम् । स साधुर्जाननजानन् वा श्राजोगतोऽनाजोगतश्चेत्यर्थः । कृत्वाधार्मिकं पदं कथंचिद्रागद्वेषान्यां मूलोत्तरगुण विराधनामिति जावः । संवरेत् दिप्रमात्मानं जावतो निवर्त्यालोचना'दिना प्रकारेण तथा द्वितीयं पुनस्तन्न समाचरेत् । अनुबन्धदोषादिति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ अणायारं परक्कम्मं, नेव गूदे न निन्दवे ॥ सुई सया वियडनावे, प्रसंसत्ते जिईदिए ॥ ३२ ॥ For Private Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५० ए ( अवचूरिः ) अनाचारं सावद्ययोगं पराक्रम्यासेव्य गुरूणामन्त आलोचयेन्न निगूहेत् न निवीत । तत्र निगूहनं किंचित्कथनं निह्नवः सर्वथापलापः । शुचिरकलुषमतिः । सदा विकटभावः । असंसक्तोऽप्रतिबद्धः ॥ ३२ ॥ ( अर्थ. ) हवे एज कहे बे. अणायार इत्यादि सूत्र. (सुई के० ) शुचिः एटले जेनी मत मलिन नथी एवा, (सया के० ) सदा एटले निरंतर ( वियडनावे के० ) विकटावः एटले प्रकट जावने धारण करनारा एवा, ( असंसत्ते के० ) असंसक्तः एटले कोइ पण ठेकाणे प्रतिबंध न राखनारा एवा तथा (जिइं दिए के० ) जितेन्द्रियः एटले इंडियाने पोताना वशमां राखनारा एवा साधु जे ते ( णायारं के० ) अनाचारं एटले सावध व्यापार प्रत्ये ( परक्कम्म के० ) पराक्रम्य एटले सेवीने गुरुनी पासे श्रालो, पण (नेव गृहे के०) नैव गृहयेत् एटले आलोयणा करता किंचित्मात्र कही ने बाकी सर्व गुप्त न राखे तेमज ( न निन्हवे के० ) न निहुवीत एटले सेवेला अनाचरने सर्वथा गुप्त पण न राखे. ॥ ३२ ॥ ( दीपिका . ) पुनः एतदेवाह । साधुः अनाचारं सपापयोगं पराक्रम्य श्रासेव्य गुरुसमीप आलोचयन्न निगूहेन्न निन्दुवीतेति । तत्र निगूहनं किंचित्कथनं निन्दवः सर्वथापलापः । किंभूतः साधुः । शुचिः । न कलुषमतिः । सदा विकटजावः प्रकटजावः । पुनः किंभूतः साधुः । असंसक्तः प्रतिबद्धः कुत्रापि । पुनः किंभूतः साधुः । जितेन्द्रियः प्रमादः सन् ॥ ३२ ॥ (टीका.) एतदेवाह णायारं ति सूत्रम् | अनाचारं सावद्ययोगं पराक्रम्यासेव्य गुरुकाश यालोचयन्नैव गृहयेन्न निह्नवीत । तत्र गूहनं किंचित्कथनं निन्हव एकान्ततोऽपलापः । किं विशिष्टः सन्नित्याह । शुचिरकलुषितमतिः सदा विकटनावः प्रकटजावः । असंसक्तोऽप्रतिबद्धः । क्वचिजितेन्द्रियो जितेन्द्रियप्रमादः सन्निति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ अमोदं वयपं कुका, प्रायरिप्रस्स मदप्पणो ॥ I तं परिगिन वायाए, कम्मुला जववायए ॥ ३३॥ ( अवचूरिः ) मोघमवन्ध्यं वचनं कुर्यात् याचार्यस्य महात्मनः । तत्परिगृह्य वाचा उमित्यभ्युपगम्य कर्मणा उपपादयेत् क्रियया संपादयेत् ॥ ३३ ॥ ( अर्थ. ) तेमज मोहं इत्यादि सूत्र साधु जे ते ( महष्पणो के० ) महात्मनः एटले श्रुतादिगुणे करी श्रेष्ठ एवा ( आयरिस्स के ० . ) श्राचार्यस्य एटले श्राचार्यना (ari ho ) वचनं एटले ' फलाएं काम कर, इत्यादि वचन प्रत्ये ( श्रमोहं के० ' For Private Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)-मा. अमोघं एटले फोगट नहि अर्थात् फलवालुं एवं ( कुता के० ) कुर्यात् एटले करे. प्राचार्यनुं वचन फोगट नहि जवा देवुं, फलवालुं करवुं एम कयुं. ते शी रीतें ते क ed. (वायाए bo) वाचा एटले वाणीवडे ( तं के० ) तत् एटले ते श्राचार्यना वचन प्रत्ये ( परिगिन के० ) परिगृह्य एटले 'हाजी' कही अंगीकार करीने (कम्मु के० ) कर्मणा एटले हस्तपादादिकनी क्रियावडे ( जववायए के० ) उपपादयेत् एटले संपादन करे, अर्थात् आचार्यजीए कर्तुं होय ते प्रमाणे करे. ॥ ३३ ॥ ( दीपिका . ) पुनराह । साधुः श्राचार्याणां वचनमिदं कुर्वित्या दिरूपममोघं सफलं कुर्यात् । एवमित्यङ्गीकारेण । किंनूतानामाचार्याणां महात्मनां श्रुतादि निर्गुणैस्तद्वचनं परिगृह्य वाचा एवमिति श्रङ्गीकारेण कर्मणा उपपादयेत् क्रियया संपादयेत् ॥३३॥ ( टीका. ) तथा अमोहं ति सूत्रम् । अमोघमवन्ध्यं वचनमिदं कुर्वित्यादिरूपं कुर्यादित्येवमन्युपगमेन । केषामित्याह । श्राचार्याणां महात्मनां श्रुतादिनिर्गुणैस्तत्परिगृह्य वाचा एवमित्यन्युपगमेन कर्मणोपपादयेत् । क्रियया संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ धुवं जीवि नच्चा, सिद्धिमग्गं विद्याणिया ॥ विप्रिटिक नोगेसु, यानं परिमित्रयप्पणो ॥ ३४ ॥ ( अवचूरिः) ध्रुवमनित्यं जीवितं ज्ञात्वा सिद्धि मार्गं सम्यग्विज्ञानादिरूपं विज्ञाय विनिवर्त्तेत जोगेज्य एवमप्यायुः परिमितं शतवर्षीणमात्मनो विज्ञाय निवर्तेत ॥ ३४ ॥ (अर्थ) धुवं इत्यादि सूत्र साधु जे ते पोताना (जीविां के० ) जीवीतं एटले आयुष्यप्रत्ये (अधुवं के० ) अध्रुवं एटले क्षणिक, घडी एकमां विनाश पामे एवं (नच्चा के० ) ज्ञात्वा एटले जाणीने तथा ( सिद्धिमग्गं के० ) सिद्धिमार्ग एटले ज्ञानदर्शनचारित्ररूप मोक्षमार्ग प्रत्ये ( विद्याणिया के० ) विज्ञाय एटले जाणीने तेज कदाच ( अपणो के० ) आत्मनः एटले पोतानुं ( आनं के० ) आयुः एटले आयुष्य पूरुं होय तो पण ते ( परिमिश्रं के० ) परिमितं एटले सो वर्ष प्रमुख प्रमाणवालुंज बे एवं जाणीने ( जोगेसु के० ) जोगेन्यः एटले कर्मबंधना हेतु एवा विषया जोगी ( विषय हि के० ) विनिवर्तेत एटले निवृत्त याय, दूर रहे. ॥३४॥ ( दीपिका . ) पुनराह साधुः । जोगेभ्यः कर्मबन्धस्य हेतुन्यः निवर्त्तेत । किं कृत्वा । जीवितमधुवमनित्यं मरणासन्नं ज्ञात्वा । पुनः किं कृत्वा । सिद्धिमार्गं सम्यग्दर्शनचारित्रलक्षणं विज्ञाय । तथा ध्रुवमपि श्रायुः परिमितं संवत्सरशतादिमानेन विकाय आत्मनो निवर्त्तेत जोगेभ्य इत्यर्थः ॥ ३४ ॥ For Private Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५११ ( टीका. ) तथा धुवं ति सूत्रम् । व्याख्या | अध्रुवमनित्यं मरणाशङ्कि जीवितं सजाव निबन्धनं ज्ञात्वा । तथा सिद्धिमार्गं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं विज्ञाय विनिवर्तेत जोगेयो बन्धैकहेतुभ्यः । तथाध्रुवमप्यायुः परिमितं संवत्सरशतादिमानेन विझायात्मनो विनिवर्तेत जोगेज्य इति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ बलं यामं च पेढ़ाए, सामारुग्गमप्पणो ॥ वित्तं कालं च विन्नाय, तदप्पाएं निजुंजए ॥ ३५ ॥ जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वढई ॥ जाविंदिया न दायंति, ताव धम्मं समायरे ॥ ३६ ॥ (अवचूरिः) उपदेशाधिकारे प्रक्रान्त इदमेव समर्थयन्नाह बलं मानसं स्थान शारीरं । इयं गाथा लघुवृहद्वृत्तौ नोक्ता ॥ ३५ ॥ जरा यावन्न पीडयति । व्याधिर्यावन्न वते । यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते । तावदत्रान्तरे धर्मं समाचरेत् ॥ ३६ ॥ अर्थः- तेमज बलं इत्यादि सूत्र, साधु जे ते ( अप्पणो के० ) श्रात्मनः एटले पोतानी ( बलं के० ) बलं एटले इंडियनी शक्ति ( यामं के० ) स्थाम एटले शरीरनी शक्ति (सहां के० ) श्रद्धां एटले श्रद्धा ( च के० ) ने (रुगं के० ) आरोग्यं एटले आरोग्य अर्थात् तनडुरुस्ती प्रत्ये ( पेहाए के० ) प्रेक्ष्य एटले जोइने (च के० ) वली (तह के ) तथा एटले तेमज ( खित्तं के० ) क्षेत्रं एटले क्षेत्र प्रत्ये, ( कालं ho ) कालं एटले कालप्रत्ये ( विन्नाय के० ) विज्ञाय एटले जाणीने (पाणं के० ) श्रात्मानं एटले पोताने ( निजुंजए के० ) नियुञ्जीत एटले कर्तव्यने विषे जोडे. ॥ ३५ ॥ जरा इत्यादि सूत्र ( जरा के० ) जरा एटले वयनी हानि ते वृद्धपएं जे ते (जाव के० ) यावत् एटले ज्यां सुधी (न पीडेइ के० ) न पीडयति एटले पीडा, दुःख देतुं नथी, अर्थात् ज्यांसुधी बुढापुं आव्युं नथी. तेमज (वाही के० ) व्याधिः एटले कामकाज करवानी शक्तिने दीए करनार एवो रोग जे ते (जाव के० ) यावत् एटले ज्यांसुधी (न टु के० ) न वर्धते एटले वृद्धि पामतो नथी, अर्थात् ज्यांसुधी रोग शरीर उपर जोर करतो नथी. तेमज ( इंदिया के० ) इंद्रियाणि एटले कामकाज करवानी शक्तिने साहाय्य करनार चक्षु प्रमुख इंद्रियो जे ते (जाव के० ) यावत् एटले ज्यांसुधी (न हायंति के० ) न हीयंते एटले की, शक्ति विनाना थता नथी. अर्थात् ज्यांसुधी इंद्रियोनी शक्ति क्षीण थर नथी. ( ताव के० ) तावत् एटले सुधी (धम्मं के०) धर्मं एटले धर्म प्रत्ये (समायरे के०) समाचरेत् एटले आचरे ३ For Private Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) उपदेशाधिकारे प्रक्रान्त श्दमेव समर्थयन्नाह । साधुरात्मानं नियोजयेत् । किं कृत्वा। बलं मानसं स्थाम शारीरं प्रेदय विचार्य । पुनः श्रमामारोग्यमात्मनः पुनः क्षेत्रं कालं च विझाय ॥ ३५॥ किं ज्ञात्वा आत्मानं नियोजयेत् इत्याह । साधुस्तावन्तं कालं धर्म चारित्रधर्म समाचरेत् । तावन्तं कियन्तं कालमित्याह । यावत् जरा वयोहानिरूपा न पीडयति । पुनर्यावत् व्याधिः क्रियासामर्थ्यशत्रुर्न वर्डते । पुनर्यावत् इन्डियाणि क्रियासामर्थ्यस्य उपकारीणि श्रोत्रादीनि न हीयन्ते । तावत् अत्रान्तरे प्रस्ताव इति कृत्वा धर्म समाचरेत् ॥३६ ॥ - (टीका.) उपदेशाधिकारे प्रक्रान्तमेव समथर्यन्नाह ।बलं ति सूत्रम् । जर त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । जरा वयोहानिलक्षणा यावन्न पीडयति, व्याधिः क्रियासामर्थ्यशत्रुर्यावन्न वईते । यावदिन्डियाणि क्रियासामोपकारीणि श्रोत्रादीनि न हीयन्ते । तावदत्रान्तरे प्रस्ताव शति कृत्वा धर्म समाचरेच्चारित्रधर्ममिति सूत्रार्थः॥३५॥३६॥ कोदं माणं च मायं च, लोनं च पाववटणं ॥ वमे चत्तारि दोसे ज, बंतो दिअमप्पणो ॥३७॥ (श्रवचूरिः ) धर्मोपायमाह । क्रोधं मानं मायां च लोनं च पापवर्धनम् एते सर्वे पापहेतव इति पापवळनत्वव्यपदेशः । यतश्चैवमतो वमेच्चतुरो दोषानेतानेव क्रोधादीन् श्छन्नात्मनो हितम् ॥ ३७॥ (अर्थ.) हवे धर्मनो उपाय कहे . कोहं इत्यादि सूत्र. (अप्पणो के०) आत्मनः एटले पोताना (हिथं के०) हितं एटले हितप्रत्ये (छतो के०) श्छन् एटले श्वा करतो एवो साधु जे ते (पाववतुणं के०) पापवईनं एटले पापनी वृद्धि करनार एवा (कोहं के०) क्रोधं एटले क्रोध, (च के०) वली (माणं के०) मानं एटले मान, (च के०) वली (मायं के०) मायां एटले माया ( च के०) वली (लोनं के०) लोनं एटले लोन ए (चत्तारि के०) चतुरः एटले चार ( दोसे के०) दोषान् एटले दोष प्रत्ये (वमे के०) वमेत् एटले वमे, त्याग करे. कारण के, एनो त्याग करवाथी सर्व संपदा प्राप्त थाय .॥ ३७॥ (दीपिका.) अथ धर्मस्य उपायमाह । साधुः क्रोध, मानं, मायां, लोनं च पापवईनं पापस्य हेतवः। यतश्च एवं तत एतान् चतुरो दोषान् क्रोधादीन् वमेत् त्यजेत् । किं कुर्वन् । श्रात्मनो हितमिछन् । एतहमने हि सर्वसंपदिति ॥३७॥ .. (टीका) तपायमाह । कोहं गाहा व्याख्या। क्रोधं मानं च मायां च लोनं च Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५१३ पापवर्धनं सर्व एते पापहेतव इति पापवर्द्धनत्वव्यपदेशः । यतश्चैवमतो वमेच्चतुरो दोपानेतान् क्रोधादीन् हितमिवन्नात्मनः । एतमने हि सर्वसंपदिति सूत्रार्थः ॥ ३७ ॥ कोदो पीई पणासेई, माणो विषयनासो ॥ माया मित्ताणि नासेर, लोनो सवविणासणो ॥ ३८ ॥ ( अवचूरिः ) एतमने हि सर्वसंपत् । श्रवमने खिलोकापायमाह । क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति, मानो विनयनाशनः, माया मित्राणि नाशयति, लोनः सर्वविनाशकः । तत्त्वतस्त्रयाणामपि तद्भावना वितत्वात् ॥ ३८ ॥ (अ.) उपर कहेला चार दोषोनो त्याग न करे तो या लोकमांज जे पाय या बे ते कहे बे. कोहो इत्यादि सूत्र. ( कोहो के० ) क्रोधः एटले क्रोध जे ते (पीई के० ) प्रीतिं एटले प्रीति प्रत्ये ( पणासे के० ) प्रणाशयति एटले नाश करे. क्रोध चढेला मनुष्यना वचनथी प्रीतिनो नाश थायबे, ए वात अनुभवसिद्ध बे. (माणो के० ) मानः एटले मद, अहंकार जे ते ( विषयनासो के० ) विनयनाशनः एटले विनयनो नाश करनार बे. अहंकारी मनुष्य मूर्खताथी कोइनो विनय साचवतो नथी, ए प्रत्यक्ष देखाय बे. ( माया के० ) माया एटले वक्रतारूप माया जे ते ( मिताणि के० ) मित्राणि एटले मित्र प्रत्ये ( नासेइ के० ) नाशयति एटले नाश पमाडे a. वक्रता (airs) करनार मनुष्यने तेना मित्र बोडी दे बे, एवो अनुभव बे. (लोजो के० ) लोन: एटले लोन जे ते ( सब विपासणी के० ) सर्वविनाशनः एटले प्रीति, विनय, मित्र विगेरे सर्वेनो नाश करनारो बे. कारण लोनथीज क्रोध, मान ने माया थाय बे, माटे लोजज सर्व दोषोनुं मूल कहेवाय बे. ॥ ३८ ॥ I ( दीपिका. ) वमने तु इह लोक एव कष्टमाह । क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति । क्रोधान्धस्य वचनतः प्रीतेर्विछेददर्शनात् । मानो विनयनाशनः । गर्वेण विनयकरणस्य अदर्शनात् । माया मित्राणि नाशयति । कौटिल्यवतः मित्रत्यागदर्शनात् । लोजः सर्वविनाशनः । परमार्थतः त्रयाणामपि प्रीत्यादीनां नाशदर्शनात् ॥ ३८ ॥ ( टीका. ) वमने विह लोक एवापायमाह । कोह ति सूत्रम् । क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति । क्रोधान्धवचनतस्तदुच्छेददर्शनात् । मानो विनयनाशनः । श्रवलेपेन मूखतया तदकरणोपलब्धेर्माया मित्राणि नाशयति । कौटिल्यवतस्तत्त्यागदर्शनात् । लोजः सर्वविनाशनः । तत्त्वतस्त्रयाणामपि तद्भावना वितत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ ६५ For Private Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) मा. वसमेण ढणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे ॥ मायमवनावेन, लोनं संतोसन जिणे ॥ ३० ॥ (अवचूरिः) उपशमेन हन्यात्क्रोधं, मानं मार्दवेनानुत्स्सृततया, मायां च जुनावेनाशवतया जयेडुदय निरोधादिना, लोनं संतोषतो निःस्पृहत्वेन जयेत्तडुदय निरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेन ॥ ३५ ॥ (अर्थ) माटे वसमेण इत्यादि सूत्र, साधु जे ते ( जवसमेण के० ) उपशमेन एटले क्षमारूप उपशमवडे ( कोहं के० ) क्रोधं एटले क्रोध प्रत्ये (हणे के० ) हन्यात् एटले हणे, (माणं के० ) मानं एटले अहंकाररूप मानप्रत्ये ( मद्दवया के० ) मार्दवेन एटले मृतावडे ( जिणे के० ) जयेत् एटले जीते, नाश करे, ( मायां के० ) मायां एटले वक्रतारूप मायाप्रत्ये (अवजावेण के० ) रुजुजावेन एटले सरलता - वडे नाश करे, ( लोनं के० ) लोनं एटले लोन प्रत्ये ( संतोस के० ) संतोषतः एसंतोषवडे ( जिणे के० ) जयेत् एटले जीते, नाश करे उपर कहेला उपशम प्रमुख उपाय वडे क्रोधादिकना उदयने रोकवो, अने उदय आवेला क्रोधादिकने निष्फल करवा ॥ ३५ ॥ ( दीपिका . ) यत एवं ततः किं कर्तव्यमित्याह । साधुः क्रोधमुपशमेन कांतिरूपेण हन्यात् । कथम् । उदय निरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेन । एवं मानं मार्दवेनानुत्सिक्ततया जयेत् । उदय निरोधादिनैव । मायां च रुजुनावेनाशठतया जयेत् । उदय निरोधादिनैव । एवं लोनं संतोषतो निस्पृहत्वेन जयेत् । तदय निरोधोदयप्राप्ताफली करणेनेति ॥३॥ ( टीका . ) यत एवमत उवसमेण त्ति सूत्रम् । उपशमेन शान्तिरूपेण हन्यात् क्रोधमुदय निरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेन । एवं मानं मार्दवेनानुत्सृततया जयेत् । उदयनिरोधादिनैव । मायां च रुजुनावेन श्रवक्रतया जयेत् । उदय निरोधादिनैव । एवं लोनं संतोषेण निस्पृहत्वेन जयेत् । उदय निरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेनेति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ कोदो अ माणो अ अणिग्गदीच्या, माया अ लोनो पवट्टमाणा ॥ चत्तारि एए कसिा कसाया, सिंचंति मूलाइ पुनवस्स ॥ ४० ॥ ( वचूरिः ) एषां परलोकापायमाह । क्रोधश्च मानश्चानिगृहीता श्रृंखला माया च लोजश्च प्रवर्द्धमानौ । चत्वार एते क्रोधादयः । कृत्स्नाः संपूर्णाः कृष्णाः क्लिष्टा वा कषायाः सिञ्चन्ति अशुननावजलेन मूलानि तथाविधकर्मरूपाणि पुनर्भवस्य पुनर्जन्मतरोरिति ॥ ४० ॥ For Private Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । થય (अर्थ.) हवे क्रोध प्रमुख चार कषाय परलोकने विषे पण अनर्थ उत्पन्न करे एम कहे. कोहो इत्यादि सूत्र. (अणिग्गहीया के) अनिगृहीतौ एटले पोताना वशमा ( ताबामा) न राखेला एवा ( कोहो के०) क्रोधः एटले क्रोध (श के०) च एटले थने (माणो के०) मानः एटले अहंकाररूप मान तथा (पवढमाणा के०) प्र. वईमानौ एटले वृद्धि पामता एवा (माया के०) माया एटले वक्रतारूप माया (श्र के०)च एटले अने (लोजो के०) लोनः एटले लोन मली (चत्तारि के०) चत्वारः एटले चार (कसिणा के०) कृत्स्नाः एटले संपूर्ण, अथवा कृष्णाः एटले अशुज कर्मना कारणरूप होवाथी काला, अथवा क्विष्टाः एटले क्लेशवाला एवा (एए कसाया के०) एते कषायाः एटले श्रा कषाय जे ते (पुणप्नवस्स के०) पुनर्नवस्य एटले पुनर्जन्म. रूप वृक्षना (मूलाई के०) मूलानि एटले मूल प्रत्ये. (सिंचंति के०) सिञ्चन्ति एटले सिंचे बे. अर्थात् चारे कषाय परलोकने विषे जन्ममरणरूप संसारना कारण बे.॥४०॥ (दीपिका.) क्रोधादीनामेव परलोके कष्टमाह । एते कषायाः चत्वारोऽपि पुनर्जवस्य पुनर्जन्मवृक्षस्य मूलानि तथाविधकर्मरूपाणि सिञ्चन्ति । श्रशुजनावजलेनेति शेषः। किंजूताः कषायाः। कृत्स्नाः संपूर्णाः कृष्णा वा क्विष्टाः । के। कषायाः क्रोधश्व मानश्च एतौ छावनिगृहीतौ उवृंखलौ । माया च लोनश्च एतौ छौ विवर्धमानौ वृर्षि गन्छन्तौ सन्तौ ॥ ४० ॥ (टीका.) क्रोधादीनामेव परलोकापायमाह । कोहो त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । क्रोधश्च मानश्चानिगृहीतौ उल्लूंखलौ माया च लोजश्च विवर्धमानौ च वृधि गछन्तौ चत्वार एते क्रोधादयः कृत्स्नाः संपूर्णाः कृष्णा वा क्लिष्टाः कषायाः सिञ्चन्ति श्रशुजनावजलेन मूलानि तथा विधकर्मरूपाणि पुनर्जवस्य पुनर्जन्मतरोरिति सूत्रार्थः ४० रायणिएसु विणयं पजे, धुवसीलयं सययं न दावश्का ॥ कुम्मुत्व अल्लीपपली गुत्तो,परक्कमिका तवसंजमंमि॥४१॥ (श्रवचूरिः) यत एवमतस्तन्निग्रहार्थमिदं कुर्यात् । रत्नाधिकेषु चिरदीक्षितेषु विनयमन्युबानादिकं प्रयुञ्जीत । ध्रुवशीलतामष्टादशसहस्रशीलाङ्गरूपां न हापयेत्सततं कूर्म व आलीनप्रलीनगुप्तः। अङ्गोपाङ्गानि संयम्येत्यर्थः । पराक्रमेत प्रवर्त्तत तपःसंयमे तपःप्रधाने संयमे ॥४१॥ (थर्थ.) एम जे माटे कषायोने जितवाने अर्थे था उपाय करवो, एम कहे बे. रायणिए इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (रायणिएसु के०) रत्नाधिकेषु एटले दीदाथी श्र Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. यवा ज्ञान विगेरेथी पोताना करतां अधिक एवा श्राचार्य प्रमुखने विषे (विणयं के०) विनयं एटले श्रन्युबान प्रमुख विनय प्रत्ये (पयुंजे के०) प्रयुञ्जीत एटले करे. तथा (धुवसीलयं के) ध्रुवशीलतां एटले अढारसहस्रशीलांगपालनरूप जे शीलने विषे दृढता ते प्रत्ये (सययं के०) सततं एटले निरंतर (न हावश्जा के०) न हापयेत् एटले बोडे नहि. तेमज (कुम्मु व के०) कूर्म श्व एटले काब्बानी पेठे (अहीणपसीणगुत्तो के०) आलीनप्रलीनगुप्तः एटले पोताना अंगोपांग प्रत्ये सम्यकप्रकारे गुप्त राखीने (तवसंजमम्मि के०) तपःसंयमे एटले तपस्या जेमा प्रधान ने एवा संयमने विषे (परकमिजा के) पराक्रमेत एटले प्रवृत्त थाय. ॥ ४ ॥ (दीपिका. ) यतश्चैवमतः कषायनिग्रहार्थमिदं कुर्यादित्याह । साधुः रत्नाधिकेषु चिरदीक्षितादिषु विनयमन्युबानादिरूपं प्रयुञ्जीत । पुनः ध्रुवशीलतामष्टादशशीलासहस्रपालनरूपां सततं निरन्तरं यथाशक्ति न हापयेत् । पुनः कूर्म श्व कलपवत् बालीनप्रलीनगुप्तः अङ्गानि उपांगानि च सम्यक संयम्य इत्यर्थः । पराक्रमेत प्रवर्तेत तपःसंयमे तपःप्रधाने संयम इति ॥४१॥ (टीका.) यत एवमतः कषाय निग्रहार्थमिदं कुर्यादित्याह । रायणिए त्ति । रत्नाधिकेषु चिरदीक्षितादिषु विनयमन्युडानादिरूपं प्रयुञ्जीत।तथा ध्रुवशीलतामष्टादशशीलाङ्गसहस्रपालनरूपां सततमनवरतं यथाशक्ति न हापयेत्। तथा कूर्म श्व कप वालीनप्रलीनगुप्तः अङ्गोपाङ्गानि सम्यक संयम्येत्यर्थः । पराक्रमेत प्रवर्तेत तपःसंयमे तपःप्रधाने संयम इति सूत्रार्थः ॥४१॥ निदं च न बहु मन्निका, सप्पहासं विवजए॥ मिदो कहादिं न रमे, सप्लायमि र सया॥४२॥ (अवचूरिः) निसां च न बहु मन्येत न प्रकामशायी स्यात् । स प्रहासमतीव हा. सरूपं विवर्जयेत् । मिथःकथासु राहस्यिकीषु न रमेत । स्वाध्याये रतः सदा नवेत् ॥३२॥ (अर्थ.) वली निदं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( निदं के०) नियां एटले निता प्रत्ये (न बहु मन्निजा के०) न बहु मन्येत एटले घणुं मान आपे नहि, अर्थात् घणी निमा (ऊंघ ) लिये नहि. तथा (सप्पहासं के०) सप्रहासं एटले जेमा हा. सी (मस्करी) घण। होय एवा वचन प्रत्ये (विवजए के०) विवर्जयेत् एटले वर्जे. तेमज (मिहो कहाहिं के०) मिथः कथासु एटले माहोमाहे एकांतमां बानी वातो करवामां (न रमे के०) न रमेत एटले रमी रहे नहि. तो शुं करे ते कहे . (सया Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५१७ के०) सदा एटले निरंतर (सप्लायमि के०) स्वाध्याये एटले स्वाध्यायने (सप्लायने) विषे ( र के०) रतः एटले आसक्त एवो थाय. ॥४२॥ - (दीपिका.) पुनः किंच साधुः निखां च न बहु मन्येत न प्रकामशायी स्यात् । पुनः स साधुः प्रहासमतीवहासरूपं विवर्जयेत् । पुनः परस्परं कथासु राहस्यिकीषु न रमेत । तर्हि किं कुर्यादित्याह । स्वाध्याये वाचनादौ रतः तत्परः स्यात् सदा ॥ ४२ ॥ (टीका ) किंच निदं च त्ति सूत्रमस्य व्याख्या । निखां च न बहु मन्येत । न प्रकामशायी स्यात् । स प्रहासं चातीवहासरूपं विवर्जयेत् । मिथःकथासु राहस्यिकीषु न रमेत । स्वाध्याये वाचनादौ रतः सदा एवंचूतो नवेदिति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ जोगं च समणधम्ममि, मुंजे अनलसो धुवं॥ जुत्तो असमणधम्ममि, अहं लद अणुत्तरं॥४३॥ (अवचूरिः) योगं त्रिविधं मनोवाकायव्यापारं दान्त्यादिलक्षणे युञ्जीत । श्रनलस उत्साहवान् ध्रुवं नित्यमौचित्येन कालादौ अनुप्रेदायां मनोयोगमध्ययने वाग्योगं प्रत्युपेक्षणायां काययोगमिति युक्त एवं व्यापृतः श्रमणधर्मे दश विधे अर्थ लनतेऽनुत्तरं केवलज्ञानरूपमिति ॥४३॥ (अर्थ.) तथा जोगं च श्त्यादि सूत्र. (धुवं के०) ध्रुवं एटले नित्य, सदाकाल (अनलसो के०) श्रनलसः एटले आसस्यरहित अर्थात् उत्साहवाला एवा साधु जे ते (समणधम्मम्मि के०) श्रमणधर्म एटले दश प्रकारना साधुधर्मने विषे (जोगं के०) योगं एटले पोताना मन वचन कायाना योग प्रत्ये (मुंजे के०) युञ्जीत एटले जोडे. कारण के, (समणधम्ममि के) श्रमणधर्मे एटले दांतिप्रमुख दश प्रकारना साधुधर्मने विषे (जुत्तो के०) युक्तः एटले जोडेला एवा साधु जे ते (अणुत्तरं के०) अनुत्तरं एटले सर्वोत्कृष्ट एवा (अहं के०) अर्थ एटले ज्ञान प्रमुख वस्तु प्रत्ये ( लहर के०) लजते एटले पामे . ॥ ४३ ॥ ( दीपिका.) एवं योगं च त्रिविधं मनोवाकायव्यापारं श्रमणधर्मे दान्ति प्रमुखलक्षणे युञ्जीत । किनूतः साधुः । अनलस उत्साहवान् ध्रुवं कालादीनामौ. चित्त्येन नित्यं संपूर्ण सर्वत्र प्रधानोपसर्जननावेन वा अनुप्रेदाकाले मनोयोगम् , अध्ययनकाले वाग्योगं, प्रत्युपेदणाकाले काययोगमिति । फलमाह । युक्त एवं व्यापृतः कुत्र श्रमणधर्मे दश विधे लजते अर्थं प्राप्नोत्यनुत्तरं नावार्थं ज्ञानादिरूपमिति ४३ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१७ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३) मा. (टीका.) तथा जोगं च त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । योगं च त्रिविधं मनोवाकायव्यापारं श्रमणधर्मे दान्त्यादिलक्षणे युञ्जीतानलस उत्साहवान् । ध्रुवं कालाद्योचित्येन नित्यं संपूर्णं सर्वत्र प्रधानोपसर्जननावेन वा अनुप्रेदाकाले मनोयागमध्ययनकाले वाग्योगं प्रत्युपेक्षणाकाले काययोगमिति । फलमाह । युक्त एवं व्यापृतःश्रम. णधर्मे दश विधेऽर्थं लनते प्राप्नोत्यनुत्तरं नावार्थं ज्ञानादिरूपमिति सूत्रार्थः ॥४३॥ इहलोगपारत्तदिअं,जेणंगल सुग्गइं॥ बहुस्सुअं पकुवासिङा, पुन्निऊवविणिचयं ॥४४॥ (श्रवचूरिः) एतदेवाह । इह लोके परत्र हितं । येनार्थेन ज्ञानादिना गति सुगतिं पारंपर्येण सिकिमित्यर्थः । उपदेशाधिकार उक्तखरूपसाधनोपायमाह । बहुश्रुतमागमवृक्षं पर्युपासीत सेवेत । सेवमानश्च पृछेदर्थ विनिश्चयम् ॥४४॥ (अर्थ.) एज कहे . इहलोग इत्यादि सूत्र. (जेण के०) येन एटले जे ज्ञान प्रमुख वस्तु वडे (इहलोगपारत्तहिकं के०) इहलोकपरत्र हितं एटले अशुन कर्मनो बंध रोकवाथी श्रा लोकने विषे अने शुज कर्मना अनुबंधथी परलोकने विषे पण हित थाय. तथा जे ज्ञानादिक वडे साधु जे ते (सुग्गरं के०) सुगतिं एटले प. रंपराए सिबिरूप गति प्रत्ये (गब के०) गति एटले जाय . हवे झानादि. कनो उपाय कहे जे. साधु जे ते (बहुस्सुझं के) बहुश्रुतं एटले आगमवृक्ष श्रर्थात् श्रागमना पूर्ण जाण एवा आचार्य प्रमुखनी (पञ्जुवासिजा के०) पर्युपासीत ए. टले सेवा करे. तथा सेवा करता (अविणिव्यं के०) अर्थविनिश्चयं एटले अनर्थथी रक्षण करनार आने कल्याणने पमाडनार एवा साधनना निर्णय प्रत्ये (पुडिज के०) पृछेत् एटले पूजे. ॥४४॥ (दीपिका.) पुनरेतदेवाह । श्ह लोके परत्र लोके च हितम् । कथम् । श्ह लोके अकुशलप्रवृत्तिःख निरोधेन परलोके च कुशलानुबन्धत उजयलोकहितमित्यर्थः । येन अर्थेन ज्ञानादिना करणनूतेन साधुः सुगतिं पारंपर्येण सिसिमित्यर्थः ।गति। अथ उपदेशाधिकार उक्तव्यतिकरसाधनस्य उपायमाह । बहुश्रुतमागमवृक्षं साधुः पर्युपासीत सेवेत । तं सेवमानश्च साधुः पृच्छेदर्थ विनिश्चयमपायरदकं कल्याणावहं वा अर्थावितथनाव मिति ॥४४॥ (टीका.) एतदेवाह । इह लोग ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्ह लोके परत्र हितम् । इहाकुशलप्रवृत्तिःख निरोधेन परत्र कुशलानुबन्धत उजयलोकहित Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । मित्यर्थः । येनार्थेन ज्ञानादिना करणनूतेन गछति सुगतिं पारंपर्येण सिझिमित्यर्थः । उपदेशाधिकार उक्तव्यतिकरसाधनोपायमाह । बहुश्रुतमागमवृक्षं पर्युपासीत सेवेत । सेवमानश्च पृछेदर्थ विनिश्चयमपायरदकं कल्याणावहं वार्थावितथजावमिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ हवं पायं च कायं च, पणिहाय जिइंदिए॥ __ अल्लीणगुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी॥४५॥ (श्रवचरिः) हस्तं पादं च कायं च प्रणिधाय संयम्य । जितेन्जियो निनृतो नूत्वा शालीनगुप्तो निषीदेदीषबीन उपयुक्त इत्यर्थः । गुरूणां सकाशे मुनिः ॥४५॥ (अर्थ.) आचार्य प्रमुखनी सेवा करे त्यारे केवी रीते रहे ते कहे . हवं इत्यादि सूत्र. ( जिदिए के०) जितेंडियः एटले जेणे पोतानी इंडियो वशमां राखी बे एवा (मुणी के०) मुनिः एटले साधु जे ते (हवं के०) हस्तं एटले पोताना हा. थने (च के०) पुनः (पायं के०) पादं एटले पगने (च के०) वली (कायं के) कायं एटले शरीरने (पणिहाय के०) प्रणिधाय एटले विनय सचवाय एवीरीते संकोची राखीने (असीणगुत्तो के०) आलीनगुप्तः एटले उपयोग राखता बता (गुरुणो के०) गुरोः एटले गुरुनी ( सगासे के०) सकाशे एटले समीप नागने विषे (निसिए के०) निषीदेत् एटले बेसे. ॥४५॥ (दीपिका.) पुनः किंच । मुनिः गुरोः सकाशे समीपे निषीदेत् । कीदृशः सन्।श्रालीनगुप्त ईषसीन उपयुक्त इत्यर्थः । किं कृत्वा निषीदेत् । हस्तं च पादं च कायं च प्रणिधाय संयम्य । पुनः किं कृत्वा। जितेन्जियो निनृतो जूत्वा ॥ ४५ ॥ (टीका.) पर्युपासीनश्च हवं ति सूत्रम् । हस्तं पादं च कायं च प्रणिधायेति संयम्य जितेन्जियो निन्नतो जूत्वा शालीनगुप्तो निषीदेत् । षहीन उपयुक्त इत्यर्थः। सकाशे गुरोर्मुनिरिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ न परकन न पुरन, नेव किच्चाण पिन ॥ न य ऊरं समासिङ, चिहिङ्गा गुरुणंतिए ॥४६॥ (श्रवचूरिः) किंच न पढ़तः पार्श्वतो न पुरतो नैव कृत्यानामाचार्याणां पृष्ठतो निषीदेदिति वर्त्तते । अविनयवन्दमानान्तरायादर्शनादिदोषात् । न च ऊरूं समाश्रित्य ऊरोरुप¥रुं कृत्वा तिष्ठेजुर्वन्तिके । अविनयादिदोषप्रसंगात् ॥ ४६ ॥ (अर्थ.) वली न परकर्ड इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( किच्चाण के०) कृत्यानां ए Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस ४३-मा. टले आचार्य जे तेमना ( परक के० ) पदतः एटले पार्श्वनागने विषे ( न निसिए के० ) न निषीदेत् एटले वेसे नहि. कारण के, तेथी विनय प्रमुख थाय बे. तथा ( पुर के० ) पुरतः एटले जागने विषे ( न निसिए के० ) न निषीदेत् एटले बेसे नहि. कारण के, तेथी वंदना करनार लोकोने अंतराय थवानो संभव रहे बे. तेमज ( प ० ) पृष्ठतः एटले आचार्य प्रमुखना पृष्ठ जागने विषे ( नेव निसिए के ) नैव निषीदेत् एटले नहिज बेसे. कारण के, तेथी आचार्यनी दृष्टि आपणा उपर न रहे. तेमज साधु जे ते ( गुरुणंतिए के० ) गुरोरन्तिके एटले गुरुना समीप जाने विषे ( करुं समासिद्ध के० ) ऊरुं समाश्रित्य एटले साथल उपर साथल चढावीने (नय चिहित के० ) न च तिष्ठेत् एटले बेसे नहि. कारण के, तेथी - विनय प्रमुख दोष थाय बे ॥ ४६ ॥ ( दीपिका . ) पुनः किम् । साधुः कृत्यानामाचार्याणां न पक्षतः पार्श्वतो निषीदेत् । एवं न पुरतोऽग्रतः । नापि पृष्ठ तो मार्गतः । यथासंख्यमविनयवंदमानांतरायादर्श - नादिदोषाः प्रजवंति । पुनः तत्र उरुं समाश्रित्य ऊरोरुपर्यूरुं कृत्वा न तिष्ठेत् । गुरोऽन्तिकेविनयादिदोषप्रसंगात् ॥ ४६ ॥ 1 ( टीका. ) न परकर्ड त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । न पक्षतः पार्श्वतः न पुरतोऽग्रतः । नैव कृत्यानामाचार्याणां पृष्ठतो मार्गतो निषीदेदिति वर्त्तते । यथासंख्यमविनयवन्दमानान्तरायादर्शनादिदोषप्रसंगात् । न चोरुं समाश्रित्य ऊरोरुपर्यूरुं कृत्वा तिष्ठेर्वन्ति । श्रविनयादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ ४६ ॥ पुचि न नासिका, नासमाणस्स अंतरा ॥ पिठिमंसं न खाइका, मायामोसं विवकए ॥ ४७ ॥ ( अवचूरिः ) उक्तः काय प्रणिधिः । वाक्प्रणिधिमाह । श्रपृष्टो निःकारणं न जाषेत । जाषमाणस्यान्तरा न जाषेत । पृष्टिमांसं परोक्षदोषकीर्तनरूपं न खादेदतो मायाप्रधानां मृषां वाचं विवर्जयेत् ॥ ४७ ॥ ( अर्थ. ) गुरुनी सेवा करता कायनो संयम कह्यो हवे वाणीनो कहे बे. अपुछि इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( अघि के० ) अपृष्टः एटले गुरु पूढया विना ( न नासिका के० ) न जाषेत एटले बोले नहि. ( जासमाणस्स के ० ) जाषमाणस्य एटले गुरु कां वात करता होय तो तेमनी ( अंतरा के० ) अंतरा एटले वच्चे ( न नासिका के० ) न जाषेत एटले बोले नहि. (पिहिमंसं के० ) पृष्ठिमांसं एटले पीठना मांस प्रत्ये ( न खाइका के० ) न खादेत् एटले खाय नहि, अर्थात् गुरुनी परपूठे For Private Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम्। निंदा प्रमुख करे नहि. तेमज (मायामोसं के०) मायामृषां एटले माया (कपट) प्रधान जेमां बे एवा असत्य वचन प्रत्ये (विवजए के०) विवर्जयेत् एटले वर्जे. ॥४७॥ (दीपिका.) इति उक्तः कायप्रणिधिः । अथ वाक्प्रणिधिमाह । साधुरपृष्टः सन् निःकारणं न जाषेत । पुनर्नाषमाणस्य अन्तरापि न नाषेत । नचेद मिळं तव मिति । तथा पृष्ठिमांसं परोददोषकीर्तनरूपं न खादेत् न नाषेत । पुनर्मायामृषां मायाप्रधानं मृषावादं विवर्जयेदिति ॥ ४ ॥ (टीका.) उक्तः कायप्रणिधिर्वाप्रणिधिमाह । अपुछित्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । अपृष्टो निष्कारणं न नाषेत । नाषमाणस्य चान्तरेण न नाषेत । नेदमित्रं किं तद्देवमिति । तथा पृष्ठिमांसं परोक्षदोषकीर्तनरूपं न खादेन्न नाषेत । मायामृषां मायाप्रधानां मृषावाचं विर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ अप्पत्तिअं जेण सिआ,आसु कुप्पिङ वा परो॥ सवसो तं न नासिका, जासं अहिअगामिणिं ॥४॥ (अवचूरिः) अप्रीतिर्येन स्यात् । प्राकृतत्वाविङ्गव्यत्ययः । यया नाषया श्राशु शीघ्र कुप्येछा परो रोषं दर्शयेत् । सर्वशः सर्वाखवस्थासु तामिळंनूतां नाषामहितगामिनीमुनयलोकविरुझां न नाषेत ॥ ४ ॥ (अर्थ.) वली अप्पत्तियं इत्यादि सूत्र. (जेण के०) यया एटले जे जाषाए करीने (अप्पत्तियं के) अप्रीतिः एटले अप्रीति (सिथा के०) स्यात् एटले थाय. (वा के०) अथवा जे वचने करीने (परो के०) परः एटले पारको कोश् पुरुष (थासु के०) श्राशु एटले शीघ्र (कुप्पिज के०) कुप्येत् एटले रोष पामे. (तं के०) तां एटले ते (अहिअगामिणिं के०) अहितगामिनी एटले अहितने करनारी एवी (नासं के०) नाषां एटले जाषाप्रत्ये (सवसो के०) सर्वशः एटले सर्व प्रकारे सर्वे अवस्थाने विषे साधु जे ते (न नासिजा के०) न नाषेत एटले बोले नहि.॥॥ (दीपिका.) पुनः किंच । साधुः श्छन्नूतां नाषां न नाषेत । श्वं कीदृशीम् । प्राकृतशैल्या येनेति यया नाषया अप्रीतिः अनीतिमात्र नवेत् । तथा श्राशु शीघ्र कुप्येद् वा परो रोषकार्यं दर्शयेत् । सर्वत्र सर्वाखवस्थासु तामीदृशीं नाषां न जाषेत । पुनः श्रहितगामिनीमुनयलोकविरुषां न नाषेत ॥ ४ ॥ (टीका.) किंच । अप्पत्तिधे ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । अप्रीतिर्येन स्यादिति । प्राकृतशैव्या येनेति यया नाषया नाषितया अप्रीतिरित्यप्रीतिमात्रं नवेत् । तथा Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. आशु शीघ्रं कुप्येद्वा परो रोषकार्यं दर्शयेत् । सर्वशः सर्वास्ववस्थासु तामिबंभूतां न जाषेत जापाम हितगामिनी मुजय लोक विरुद्धा मिति सूत्रार्थः ॥ ४८ ॥ दिहं मियं असंदि, पडिपुन्नं विच्यं जिचं ॥ अयं परमविग्गं, जासं निसिर त्तवं ॥ ४९ ॥ ( अवचूरिः ) जाषणोपायमाह । दृष्टामिति दृष्टार्थविषयां स्तोकामसंदिग्धां स्फुटां प्रतिपूर्णां स्वरादिनिः । व्यक्तामलल्लां जितां परिचितामजल्पनशीलां नोचैर्नातिनीचैः । अनु नि नोद्वेगकारिणीं निस्सृजेद्दूयाद् श्रात्मवान् सचेतनः ॥ ४९ ॥ ( .) हवे के वचन बोलवं ते कहे बे. दिहं इत्यादि सूत्र. ( अत्तवं के० ) आत्मवान् एटले सचेतन एवा साधु जे ते ( दिहं के० ) दृष्टां एटले पोते जे वात दीवी होय ते संबंधी, ( मिश्रं के० ) मितां एटले परिमित, (संदिऊं के ० ) असंदि - ग्धां एटले संशयरहित अर्थात् जे सांजलवाथी कोइने शंका उत्पन्न न याय एवी, ( प डिपुन्नं के० ) प्रतिपूर्णां एटले जेमांना स्वरव्यंजनादिकनो उच्चार स्पष्ट होवाथी प्रकट एवी, (जि के० ) जितां एटले परिचित एवी, (त्र्यं पिरं के० ) श्रजल्पन - शीलां एटले ऊचे अथवा नीचे न वलगनारी एवी तथा ( अणुविग्गं के० ) अनुद्विनां एटले उद्वेग न उपजावनारी एवी ( जासं के० ) जाषां एटले जाषा प्रत्ये ( नि सिरे के० ) निस्सृजेत् एटले बोले. ॥ ४५ ॥ ( दीपिका. ) जाषणस्य उपायमाह । आत्मवान् सचेतनः साधुः ईदृशीं जाषां निसृजेत् ब्रूयाद् । ईदृशीं कीदृशी मित्याह । दृष्टां दृष्टार्थविषयां, पुनर्मितां स्वरूपप्रयोजना - ज्यां स्तोकां, पुनः संदिग्धां शङ्कारहितां, पुनः प्रतिपूर्णां स्वरादिनिः, व्यक्तां प्रकटां, पुनः जितां परिचितां, पुनः प्रजल्पनशीलां न उच्चैर्न नीचैर्लग्नविलग्नां पुनरनुद्विनां न उद्वेगकारिणी मेवंभूतां जाषां साधुर्ब्रूयात् ॥ ४९ ॥ ( टीका. ) जाषणोपायमाह । दिहं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । दृष्टां दृष्टार्थ विषयां मितां स्वरूपप्रयोजनाच्यामसंदिग्धां निःशङ्कितां प्रतिपूर्ण स्वरादिनिर्व्यतामलल्ला जितां परिचितामजल्पनशीलां नोचैर्लनविलग्नामनुद्विग्नां नोद्वेगकारिणी मेवंभूतां 'जाषां निसृजेद्रूयादात्मवान् सचेतन इति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ न्यायारपन्नत्तिधरं दिठिवायमहिकगं ॥ " वायविलियं नच्चा, न तं जवदसे मुणी ॥ ५० ॥ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५२३ (अवचूरिः) आचार आचाराङ्गं प्रज्ञप्तिर्जगवत्यङ्गं । तथा दृष्टिवादस्य च धरमधीयानं वाक्स्खलितं ज्ञात्वा न तमाचारादिधरमुपहसेन्मुनिः ॥ ५० ॥ (अर्थ.) उपदेशना अधिकारमांज आ कहे . श्रायार इत्यादि सूत्र. (मुणी के०) मुनिः एटले साधु जे ते (आयारपन्नत्तिधरं के०) श्राचारप्रज्ञप्तिधरं एटले श्राचारना धारण करनार होवाथी स्त्रीलिंगादिकना जाण अने पन्नत्तिना धारण करनार होवाथी विशेषपसहित स्त्रीलिंगादिकना जाण एवा तेमज (दिहिवायमहिजागं के०) दृष्टिवादमधीयानं एटले दृष्टिवादनुं अध्ययन करनार होवाथी प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम, वर्ण विकार, काल, कारक विगेरेना जाण एवा साधु प्रत्ये (वायविकलिअं के०) वाग्विस्खलितं एटले वचन बोलता लिंग, वचन, विनक्तिमा श्रनुपयोगथी विविध प्रकारे स्खलना पामेला एवाने (नच्चा के०) ज्ञात्वा एटले जा. पीने (तं के०) तं एटले ते साधु प्रत्ये (न उपहसे के०) न उपहसेत् एटले हसे नहि. “श्राचारादिकना जाण एवा ए साधुनी वाक्चातुरी केवी जे?" एवी रीते उपहास (मस्करी) न करे. ॥ ५० ॥ (दीपिका.) अथ प्रस्तुतस्य उपदेशस्य अधिकारेण श्दमाह । मुनिः तमाचारादिधरंन उपहसेत्। किन्नूतं तम्।श्राचारप्रज्ञप्तिधरम् । श्राचारधरःस्त्रीलिंगादीनि जानाति। प्रज्ञप्तिधरस्तान्येव सविशेषणानि । इत्येवंनूतम् । पुनः किंन्नूतम्। दृष्टिवादमधीयानं प्र. कृतिप्रत्ययलोपागमवर्ण विकारादिविज्ञम्।किं कृत्वा न उपहसेत्। तं तादृशं वागविस्खलितं ज्ञात्वा विविधमनेकप्रकारैः लिङ्गनेदादिनिः स्खलितं विज्ञाय नोपहसेत् । किंतु एवं जानाति वदति च । अहो खलु श्राचारादिधरस्य वचन एवं कौशलम् । इह च दृष्टिवादमधीयानमित्युक्तम् । अत दं गम्यते नाधीतदृष्टिवादं तस्य ज्ञानाप्रमादातिशयतः स्खलनासंजवात् । यदि एवंनूतस्यापि स्खलितं संनवति । नच एवमुपहसेदिति उपदेशः । ततोऽन्यस्य सुतरां संनवति न चासौ हसितव्य इति ॥ ५० ॥ (टीका.) प्रस्तुतोपदेशाधिकार एवेदमाह । श्रायार ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। श्राचारप्रज्ञप्तिधर मित्याचारधरः स्त्रीलिङ्गादीनि जानाति । प्रज्ञप्तिधरस्तान्येव सविशेषाणीत्येवंचूतम्।तथा दृष्टिवादमधीयानं प्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्ण विकारकालकारकादिवेदिनं वागविस्खलितं ज्ञात्वा विविधमनेकैः प्रकारैर्लिङ्गानेदादिनिः स्खलितं विज्ञाय न तमाचारादिधरमुपहसेन्मुनिः।अहो नु खत्वाचारादिधरस्य वाचि कौशलमित्येवम्।इह च दृष्टिवादमधीयानमित्युक्तमत दं गम्यते।नाधीतदृष्टिवादम् । तस्य ज्ञानाप्रमादाति Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. शयतः स्खलनासंलवाद्यद्येवंचूतस्यापि स्खलितं संजवति । न चैनमुपहसेदित्युपदेशः। ततोऽन्यस्य सुतरां संजवति । नासौ हसितव्य इति सूत्रार्थः ॥ ५० ॥ नकत्तं सुमिणं जोगं, निमित्तं मंतनेसजं ॥ गिदियो तं न पाश्के, नादिगरणं पयं ॥१॥ __ (श्रवचूरिः) गृहिणा पृष्टः नक्षत्रमश्विन्यादि स्वप्नं शुनागुजफलं योगं वशीकरणादिं निमित्तमतीतादि । मन्त्रं वृश्चिकमन्त्रादि नेषजमतिसाराद्यौषधं गृहिणामसंयतानां तदेतन्नाचवीत । किविशिष्टं नूताधिकरणं पदं नूतान्येकेन्द्रियादीन्यधिक्रियन्ते व्यापाद्यन्ते यस्मिन्निति। ततश्चैषां प्रश्न एवं ब्रूयात्।नाधिकारोऽत्रसाधूनां कथने ॥५१॥ ___ (अर्थ.) वली नकत्तं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( नकत्तं के०) नदत्रं एटले अश्विनी प्रमुख नत्र, (सुमिणं के०) स्वप्नं एटले शुज अशुल प्रमुख स्वप्न, (जोगं के ) योगं एटलें वशीकरण, आकर्षणे प्रमुख योग (निमित्तं के) निमित्तं एटले अतीत अनागत कथन रूप. निमित्त, तथा ( मंतनेसऊं के० ) मंत्रनेषजं एटले वीठी प्रमुखना मंत्र अने अतिसार प्रमुख रोगो, औषध (तं के०) तत् एटले उपर कहेली सर्व वस्तु ( गिहिणं के०) गृहिणां एटले गृहस्थोने (न आश्के के०) न श्राचदीत एटले न कहे. कारण के, उपर कहेली सर्व वस्तु (नूयाहिगरणं पयं के०) नूताधिकरणं पदं एटले प्राणिना संघटन यातापन विगेरेनुं स्थानक बे. माटे गृहस्थ नदत्रादि पूजे तो साधुए कहेवू के, था वातमां अमारो अधिकार नथी. ॥५१॥ ' (दीपिका.) पुनः किंच साधुदृहिणा पृष्टः सन्नेतानि गृहिणामसंयतानां नाचदीत न ब्रूयात् । एतानि कानीत्याह । नदात्रमश्विन्यादि १ स्वप्नं शुनागुजफलमनुनूतादि, योगं वशीकरणादि, निमित्तमतीतादि । मंत्रं वृश्चिकमंत्रादि । नेषजमतिसारादीनां रोगाणामौषधम् । एतत् षट्रं किंविशिष्टमित्याह । नूताधिकरणं पदम् । जूतानि एकेन्द्रियादीनि संघहनादिनाधिक्रियन्ते व्यापाद्यन्ते अस्मिन्निति । ततश्च तदप्रीतिपरिहारार्थमिदं ब्रूयात् । यतस्तपस्विनामत्र नक्षत्रादौ नाधिकारः ॥५१॥ (टीका.) किं च नरकत्तं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । गृहिणा टष्टः सन्नदात्रमश्विन्यादि । स्वप्नं शुनाशुनफलमनुजूतादिम् । योगं वशीकरणादिम् । निमित्तमतीतादि ।मन्त्रं वृश्चिकमन्त्रादिम् । नेषजमतीसाराद्योषधं गृहिणामसंयतानां तदिदं नाचदीत। किंविशिष्टमित्याह । नूताधिकरणं पदमिति । नूतान्येकेन्द्रियादीनि संघटनादिनाधिक्रियन्तेऽस्मिन्निति । ततश्च तदप्रीतिपरिहारार्थमिदं ब्रूयादनधिकारोऽत्र तपस्विनामिति सूत्रार्थः ॥५१॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५२५ अन्न पगडं लयणं, नश्क सयणासणं ॥ जच्चारनूमिसंपन्नं, श्वी पसुविवजिअं ॥५॥ (श्रवचूरिः) अन्यार्थं प्रकृतं न साध्वर्थं निर्वर्तितं लयनं स्थानं वसतिरूपं जजेत सेवेत । शयनासनमित्यन्यार्थप्रकृतसंस्तारकपीउकादि सेवेत । उच्चारप्रस्रवणनूमिसंयुक्तम् । तहितेऽसकृत्तदर्थं निर्गमनादिदोषात् । स्त्रीपशुविवर्जितमिति ॥ ५५ ॥ (अर्थ. ) वली अन्नऊं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (अन्न के०) अन्यार्थं एटले बीजाने अर्थे (पगडं के०) प्रकृतं एटले करेलुं एवं अर्थात् साधुने निमित्ते नहि करेलुं एवं, (उच्चारनूमिसंपन्नं के०) उच्चारचूमिसंपन्नं एटले स्थंडिल, मात्र प्रमुखना स्थानक वडे युक्त एवं तथा (श्वीपसुविव मिश्र के०) स्त्रीपशुविवर्जितं एटले स्त्री, पशु तथा नपुंसक विगेरेनी ज्यां वसति तथा दृष्टि पण नथी एबुं (लयणं के०) लयनं एटले वसति प्रत्ये (नऊ के०) नजेत् एटले सेवे. तथा बीजाने अर्थे करेली एवी (सयणासणं के०) शयनासनं एटले संथारो, आसन प्रमुख वस्तु प्रत्ये (नऊ के०) जजेत् एटले सेवे. ॥५२॥ (दीपिका.) पुनः किंच । साधुः एवं लयनं स्थानं वसतिरूपं नजेत्सेवेत । किं० लयनम् । अन्यार्थ प्रकृतं न साधुनिमित्तं कृतम्। तथा शयनासनमपि अन्यार्थं प्रकृतं संस्तारकपीउकादिसेवेत।किंग लयनम्।उच्चारनूमिसंपन्नमुच्चारप्रस्रवणादिनूम्या संयुक्तम्। कथम्।उच्चारा दिनूमिरहिते स्थाने वारंवारमुच्चारादि निर्गमने दोषा नवन्ति। पुनः किंनूतं लयनं । स्त्रीपशुविवर्जितमेकग्रहणेन तजातीयानां ग्रहणमिति न्यायात् । स्त्रीपशुपएककविवर्जितम् । स्त्रीप्रमुखालोकनादिरहितमित्यर्थः । तदिनूतं लयनं सेवमानस्य साधोः धर्मकथाविधिमाह ॥ ५५ ॥ (टीका.) किं च अन्न ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । अन्यार्थं प्रकृतं न साधुनिमित्तमेव निर्वर्तितं लयनं स्थानं वसतिरूपं नजेत् सेवेत।शयनासनमित्यन्यार्थ प्रकृतं संस्तारकपीउकादि रोवेतेत्यर्थः। एतदेव विशेष्यते । उच्चारनूमिसंपन्नमुच्चारप्रस्रवणादिनूमियुक्तम् । तहितेऽसकृतदर्थं निर्गमनादिदोषात् । तथा स्त्रीपशुविवर्जितमित्येकग्रहणे तजातीयग्रहणात् स्त्रीपशुपएलकविवर्जितं स्याद्यालोकनादिरहितमिति सूत्रार्थः॥ विवित्ता अनवे सिजा, नारीणं न लवे कदं॥ गिदिसंथवं न कुजा, कुडा साहिं संथवं ॥५३॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अवचूरिः) तदिवंचूतं लयनं सेवमानस्य धर्मकथाविधिमाह । विविक्ता च श्रन्यसाधुनिर्विरहिता । च शब्दानुजङ्गप्रायैकपुरुषयुक्ता वा चेन्नवेठसतिस्ततो नारीणां न लपेत् कथां शंकादिदोषप्रसङ्गात् । औचित्यं विज्ञाय पुरुषाणां कथयेत् । अविविक्तायां स्त्रीणामपि कथयेत् । गृहिसंस्तवं गृहस्थपरिचयं न कुर्यात् । स्नेहादिदोषात् । कुर्यात्साधुनिः सह संस्तवम् ॥ ५३॥ (अर्थ.) वली विवित्ता इत्यादि सूत्र. (सिजा के०) शय्या एटले वसति जे ते (विवित्ता के०) विविक्ता एटले बीजा साधुश्री रहित तथा एकाद अनाचारी जेवा पुरुष वडे सहित एवी जो (नवे के०) नवेत् एटले होय. तो साधु जे ते (नारीणं के० ) नारीणां एटले स्त्रियोनी (कहं के०) कथां एटले कथा प्रत्ये (न लवे के०) न लपेत् एटले न कहे. तथा (गिहिसंथवं के०) गृहिसंस्तवं एटले गृहस्थनी साथे परिचय प्रत्ये (न कुजा के०) न कुर्यात् एटले करे नहि. पण (सारहिं के०) साधुनिः एटले साधुऊनी साथे (संथवं के०) संस्तवं एटले परिचय प्रत्ये (कुजा के०) कुर्यात् एटले करे. ॥ ५३॥ (दीपिका.) साधुर्यदि एवं विधा शय्या वसतिनवेत् । तदा नारीणां स्त्रीणां कथां न कथयेत् । कथम् । शंकादिदोषप्रसंगात् । योग्यतां विज्ञाय पुरुषाणां कथयेत् । नारीणां तु अविविक्तायां वसतौ कथयेदपि । किंनूता शय्या वसतिः। विविक्ता तदन्यसाधुनिर्व. र्जिता । यत्र अन्ये साधवो न सन्ति । चशब्दात् तथाविधजुजङ्गप्रायैकपुरुषसंयुक्ता नवेत् । तथापि न नारीणां कथां कथयेत् । तथा पुनः साधुर्य हिसंस्तवं न कुर्यात् । स्नेहादिदोषसंजवात् । साधुनिस्तु समं संस्तवं परिचयं काले कल्याण मित्रयोगेन कुशलपदवृद्धिनावं कुर्यादिति ॥ ५३ ॥ (टीका.) तदिखंजूतं लयनं सेवमानस्य धर्मकथा विधिमाह । विवित्ता यत्ति सू. त्रम् । अस्य व्याख्या। विविक्ता च तदन्यसाधुनीरहिता च।चशब्दात्तथाविधनुजङ्गप्रायैकपुरुषयुक्ता च नवेलय्या वसतिर्यदि ततो नारीणां स्त्रीणां न कथयेत्कथां शंकादिदोषप्रसंगात् । औचित्यं विज्ञाय पुरुषाणां तु कथयेत् । अविविक्तायां नारीणामपति । तथा गृहिसंस्तवं गृहिपरिचयं न कुर्यात् । तत्स्नेहादिदोषसंनवात् । कुर्यात्साधुभिः सह संस्तवं परिचयं कल्याण मित्रयोगेन कुशलपदादिवृमिनावत इति सूत्रार्थः ॥५३॥ जहा कुकुडपोअस्स, निच्चं कुललनयं॥ एवं खु बनयारिस्स, श्बीविग्गहननयं ॥५४॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । (श्रवचूरिः) कथंचिहिसंस्तवेऽपि स्त्रीसंस्तवो न कार्य एव । तत्र कारणमाह । यथा कुकुटपोतस्य कुकुटशिशोर्नित्यं कुललान्मार्जारानयम् । एवमेव ब्रह्मचारिणः साधोः स्त्रीविग्रहात् । विग्रहग्रहणं मृतविग्रहादपि नयख्यापनार्थम् ॥ ५४॥ (अर्थ.) को प्रसंगथी साधु गृहस्थनी साथे परिचय करे तो पण तेणे गृहस्थ स्त्रीनी साथे तो को काले पण परिचय न करवो. तेनुं कारण . जहा इत्यादि सूत्र. (जहा के०) यथा एटले जेम (कुकुडपोबस्स के०) कुकुटपोतस्य एटले कुकडीना बचाने (निच्चं के०) नित्यं एटले निरंतर, हमेशां (कुलल के०) कुललतः एटले बि लाडाथी (जयं के०) नयं एटले नय बे. (एवं रकु के०) एवं खलु एटले एमज (बं. जयारिस्स के०) ब्रह्मचारिणः एटले ब्रह्मचारी एवा साधुने (श्वीविग्गह के) स्त्रीविग्रहात् एटले स्त्रीना शरीरथी नित्य (जयं के०) जयं एटले जय बे. केवल जीवती स्त्रीश्रीज नय ने एम नथी, पण मृत स्त्रीना कलेवरथी पण नय डे एम जणाववाने अर्थे सूत्रमा स्त्रीथी नय बे, एम न कहेतां स्त्रीशरीरथी नय बे एम कह्यु.५४ (दीपिका.) कथंचित् गृहिसंस्तवनावेऽपि स्त्रीसंस्तवो नैव कर्तव्य इत्यत्र कारणमाह । यथा कुक्कुटपोतस्य कुकुटवालस्य नित्यं सर्वकालं कुललतो मार्जारात् नयम् । एवं ब्रह्मचारिणः साधोः स्त्रीविग्रहात् स्त्रीशरीरात् नयम् । विग्रहग्रहणं मृतशरीरादपि जयख्यापनार्थम् ॥५४॥ (टीका.) कथं चिहिसंस्तवनावेऽपि स्त्रीसंस्तवो न कर्तव्य एवेत्यत्र कारणमाह । जह त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यथा कुकुटपोतस्य कुकुटचेक्षकस्य नित्यं सर्वकालं कुललतो मार्जारतो जयम् । एवमेव ब्रह्मचारिणः साधोः स्त्रीविग्रहास्त्रीशरीरालयम् । विग्रहग्रहणं मृतविग्रहादपि नयख्यापनार्थ मिति सूत्रार्थः ॥५४॥ चित्तनित्तिं न निनाए, नारिं वा सुअलंकिअं॥ नरकरं पिव दळूणं, दिहिं पडिसमाहरे ॥५५॥ (श्रवचूरिः ) यतश्चैवमतः चित्रनितिं चित्रगतां स्त्रीं न निध्यायेन्न निरीदेतानारी वा सचेतनां खलंकृतामुपलक्षणमेतदनलंकृतां वा । कथंचिदालोकेऽपि । नास्करमिव दृष्ट्वा दृष्टिं प्रतिसमाहरेत् निवर्तयेदित्यर्थः ॥ ५५॥ (अर्थ.) एम ने माटे चित्तनित्तिं इत्यादि सूत्र.साधु जे ते (चित्तनित्तिं के०)चित्रनित्तिं एटले चित्रामणमां चितारेली स्त्रीने (वा के०) वा एटले तेमज (सुअलंकिङ्गं के०) खलंकृतां एटले सम्यक् प्रकारे अलंकार प्रमुख पहेरेती एवी (नारिं के०) नारी Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, जाग तेतालीस (४३) - मा. एटले स्त्रीने (न निप्नाए के० ) न निध्यायेत् एटले जुवे नहि. एम करतां पण कदाच स्त्री जोवामां आवे तो साधु जे ते (जस्करं पिव के० ) जास्कर मित्र एटले सूर्य ने जोने जेम तेम स्त्रीने ( दहूणं के० ) दृष्ट्वा एटले जोइने ( दिहिं के० ) दृष्टि एटले पोतानी दृष्टिने (पडिसमाहरे के० ) प्रतिसमाहरेत् एटले शीघ्र पाठी वाले. ॥ ५५ ॥ ( दीपिका . ) यतश्च एवं ततः किं कार्यमित्याह । एवंविधामपि नारी साधुर्न निध्यायेत् न पश्येत् । किंभूतां नारीम् । चित्रगताम् । पुनः किंभूतां नारीम् । स्खलंकृताम् अलंकारैः शोजिताम् । उपलक्षणत्वादनलंकृतामपि न निरीक्षेत । कथं चिद्दर्शनयोगेऽपि जाकर मिव सूर्यमिव दृष्ट्वा दृष्टिं प्रतिसमाहरेत् शीघ्रमेव निवर्तयेदिति ॥ ५५ ॥ ( टीका. ) यतश्चैवमतः चित्त त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या | चित्रनित्तिं चित्रगतां स्त्रियं न निरीत न पश्येत् । नारीं वा सचेतनामेव स्खलंकृतामुपलक्षणमेतदनलंकृतां च न निरीक्षेत । कथं चिद्दर्शनयोगेऽपि जास्कर मिवादित्यमिव दृष्ट्वा दृष्टि प्र तिसमाहरेद्वागेव निवर्तयेदिति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ चपायप लिच्चिन्नं, कन्ननासविगप्पिष्यं ॥ वि वासस्यं नारिं, बंजयारी विवकए ॥ ५६ ॥ ( अवचूरिः ) किं बहुना हस्तपादप्रतिविन्नां विकृत्तकर्णनासामपि वर्षशतिकां नारीमेवं विधामपि किं पुनस्तरुणीम्। ब्रह्मचारी चारित्रधनो महाधनीव तस्करान् विवर्जयेत् ॥ ( अर्थ. ) हवे बहु शुं कहियें. हब इत्यादि सूत्र. ( बंजयारी के० ) ब्रह्मचारी एटले परिपूर्ण ब्रह्मव्रतना धारण करनार एवा साधु जे ते ( हउपायपलि छिन्नं के० ) प्रतिचिन्न हस्तपादां एटले जेना हाथ पग कपाइ गया बे एवी तथा ( कन्ननास विग - पित्र्यं के० ) विकृत्तकर्णनासां एटले जेना नाक कान पण कपाइ गया बे, एवी तेमज ( वासस्यं वि के० ) वर्षशतिकामपि एटले सो वर्षनी उमरे पूगेली एवी पण ( नारि के० ) नारी एटले स्त्रीने ( विवकए के० ) वर्जयेत् एटले वर्जे. अर्थात् एवी स्त्रीनी साधे पण परिचय विगेरे राखे नहि. ॥ ५६ ॥ ( दीपिका . ) किंबहुना ब्रह्मचारी साधुः ईदृशीमपि नारी विवर्जयेत् । किमङ्ग पुनः · तरुणी नारीम् । सुतरामेव विवर्जयेत् । किंविशिष्टां नारीं । हस्तपादपरिचिन्नां यस्या हस्तौ पादौ नौ वर्त्तते । पुनः किंनूतां नारीम् कर्णनासा विकृत्तां कर्णौ नासा च विकृत्ता यस्यास्ताम् । पुनः किंभूतां नारीम् । वर्षशतिकाम् । एतादृशीं वृद्धामपि विर्जयेत् । कः कानिव । महाधनो यथा चौरान् वर्जयेत् ॥ ५६ ॥ For Private Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५ ( टीका. ) किंबहुना छ ति सूत्रम् । व्याख्या । हस्तपादप्रतिष्ठिन्नामिति प्रतिविन्नस्तपादाम् । कर्णनासा विकृत्तामिति विकृत्तकर्णनासामपि वर्षशतिकां नारी मेवंविधामपि किमङ्ग पुनस्तरुणीं तां तु सुतरामेव ब्रह्मचारी चारित्रधनो महाधन श्व तस्करान् विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ५६ ॥ विनूसा इतिसंसग्गो, पणी रसोणं ॥ नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालनमं जहा ॥ ५७ ॥ 1 ( अवचूरि : ) अपिच । विभूषा नखादिसंस्काररूपा । स्त्रीसंसर्गः । स्निग्धरसजोजनं नरस्यात्मगवेषिण श्रात्महित चिन्तनपरस्यैतद्विषमिव तालपुटम् । तालमात्रव्यापत्तिकर विषकल्पम् ॥ २७ ॥ ( अर्थ. ) वली विभूसा इत्यादि सूत्र ( अत्तगवे सिस्स के० ) श्रात्मगवेषिणः एटले आत्माना कल्याणना अर्थी एवा (नरस्स के० ) नरस्य एटले मनुष्यने अर्थात् साधुने ( विनूसा के० ) विभूषा एटले वस्त्र, आभूषण इत्यादिवडे शरीरने सणगार ते (इसिंग्गो के० ) स्त्रीसंसर्गः एटले कोइ पण प्रकारे स्त्रीनो संबंध तथा ( पपरसो के०) प्रणीतरसनोजनम् एटले जेमांथी घी, तेल प्रमुख स्नेह करे बे एवो आहार करवो ते ( तालबुकं विसं जहा के० ) तालपुटं विषं यथा एटले तालपुट विष सरखोबे, अर्थात् उपर कहेली त्रणे वस्तु विषसरखी होवाथी साधुए वर्जवी. ५७ ( दीपिका . ) पिच । नरस्य श्रात्मगवेषिण एतत्सर्वं विनूषादि तालपुट विषं यथा तालमात्र व्यापत्तिकर विषकल्पम् । तत्किमित्याह । विभूषा वस्त्रादिराढा शोना । स्त्रीसंसर्गो येन केन चित्प्रकारेण स्त्री संबन्धः । प्रणीतरसनोजनं गलत्स्नेहरसन क्षणम् ५७ I ( टीका. ) अपिच । विजूस त्ति सूत्रम् । विभूषा वस्त्रादिराढा, स्त्रीसंसर्गः येन केन चित्प्रकारेण स्त्री संबन्धः । प्रणीतरसनोजनं गलत्स्नेहसाज्यवहारः । एतत्सर्वमेव विभूषादि नरस्यात्मगवेषिण आत्महितान्वेषणपरस्य विषं तालपुटं यथा तालमात्रव्यापत्तिकर विषकल्पम हितमिति सूत्रार्थः ॥ ५७ ॥ त्र्यंगपञ्चंगसंताणं, चारुल्लविच्यपेदियं ॥ " वीणं तं न निप्नाए, कामरागविवहणं ॥ ५८ ॥ ( अवचूरिः ) अङ्गानि शिरः प्रभृतीनि । प्रत्यङ्गानि नयनादीनि । एषां संस्थानं विन्यास विशेषं, चारु लपितं जल्पितं प्रेक्षितं निरीक्षितं स्त्रीणां संबन्धि तदङ्गप्रत्यङ्गसं ६७ For Private Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) मा. स्थानादीनि न निध्यायेत् न निरीक्षेत । एतन्निरीक्ष्यमाणं कामरागविवर्द्धनं मैथुना जिलाषजनक मित्यर्थः ॥ ५८ ॥ ( अर्थ. ) वली अंगपच्चंग इत्यादि सूत्र साधु जे ते ( कामराग विवां के० ) कामरागविवर्द्धनम् एटले कामरागनी वृद्धि करनार अर्थात् स्त्रीना कामोपजोगनी इछा वधारनार एवं ( तं के० ) तत् एटले ते (इवीणं के०) स्त्रीणां एटले स्त्रियोनी ( अंगपञ्चंग संठाणं के० ) अंगप्रत्यंग संस्थानं एटले मस्तक विगेरे अंगनी, तथा कर्ण, नेत्र विगेरे उपांगनी रचना प्रत्ये तेमज ( चारुल विश्रपेहिां के० ) चारुल पितप्रेक्षितं एटले स्त्रियोनाज सुंदर श्रालाप ने दृष्टि प्रत्ये ( न निनाए के० ) न निध्यायेत् एटले जुवे नहि. ॥ ५८ ॥ ( दीपिका. ) पुनः किं । साधुः स्त्रीणामेतानि न निध्यायेत्, न निरीदेत, न पश्येत् । कुत इत्याह । कामरागविवर्द्धनमिति । एतन्निरीक्ष्यमाणं मोहदोषात् मैथुनाजिलाषं वर्द्धयति । श्रत एव अस्य प्राक् स्त्रीणां निरीक्षणप्रतिषेधात् गतार्थतायामपि प्राधान्यख्यापनार्थं नेदेन उपन्यासः कृतः । एतानि कानि इत्याह । श्रङ्गानि शिरः प्रनृतीनि । प्रत्यङ्गानि नयनादीनि । एतेषां संस्थानं विन्यासविशेषम् । तथा चारु शोजनं लपितं जल्पितं प्रेक्षितं निरीक्षितं स्त्रीणां संबन्धि सर्वम् ॥ ५८ ॥ ( टीका. ) अंग ति सूत्रम् । व्याख्या । अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थान मित्यङ्गानि शिरः प्रनृतीनि । प्रत्यङ्गानि नयनादीनि । एतेषां संस्थानं विन्यासविशेषं, तथा चारु शोजनं लपितप्रेदितं, लपितं जल्पितं, प्रेक्षितं निरीक्षितं स्त्रीणां संबन्धि तदङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानादि न निरीक्षेत न पश्येत् । किमित्यत श्राह । कामरागविवर्द्धनमिति । एतद्धि निरीक्ष्यमाणं मोहदोषान् मैथुना जिलाषं वर्द्धयति । श्रत एवास्य प्राक् स्त्रीणां निरीक्षणप्रतिषेधानतार्थतायामपि प्राधान्यख्यापनार्थो नेदेनोपन्यास इति सूत्रार्थः ॥ ५८ ॥ विससु मन्नेसु, पेमं नानिनिवेस ॥ पिच्चं तेसिं विन्नाय, परिणामं पुग्गलाण य ॥ ५० ॥ 1 ( अवचूरि : ) विषयेषु शब्दादिषु मनोज्ञेषु प्रेम नानिनिवेशयेत् न कुर्यात् । एवममनोज्ञेषु द्वेषम् । नित्यं परिणामा नित्यतया तेषां शब्दादिषु पुजानां विज्ञाय परिणामं पर्यायान्तरापत्तिरूपम् । ते हि मनोज्ञा द्यपि दणेनामनोज्ञतया एवममनोज्ञा श्रपि मनोज्ञतया परिणमन्तीति तुछो रागद्वेषयोर्हेतुः ॥ ५ ॥ (अर्थ) वली विसएस इत्यादि सूत्र साधु जे ते (ते सिं के०) तेषां एटले ते ( पुग्ग Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५३१ खाणं के०) पुजलानां एटले शब्दादिरूपे परिणमेला पुजलोना (परिणामं के०) परिणामं एटले परिणाम प्रत्ये (अणिचं के०) अनित्यं एटले अनित्य एवाने (विनाय के०) विज्ञाय एटले जाणीने (मणुन्नेसु के) मनोज्ञेषु एटले सुंदर, मनोहर एवा (विसएसु के०) विषयेषु एटले शब्द स्पर्शादि विषयोने विषे (पेमं के०) प्रेम एटले प्रेमरागप्रत्ये (नानिनिवेसए के०) नानिनिवेशयेत् एटले न करे, अर्थात् मनने गमता विषय होय ते घडीमां अणगमता थाय बे, अने अणगमता होय ते घडीमां मनगमता थाय माटे ते उपर रागद्वेष न राखवा. ॥ ५ ॥ (दीपिका.) पुनः किंच। साधुः विषयेषु शब्दादिषु प्रेम रागं न अनिनिवेशयेत् न कुर्यात् । किंनूतेषु विषयेषु । मनोज्ञेषु । इन्द्रियाणामनुकूलेषु । अमनोज्ञेषु च षं न कुर्यात् । किं कृत्वा । तेषां पुजलानां तुशब्दाचब्दादिविषयसंबन्धिनामनित्यतया परिणामं विज्ञाय जिनवचनानुसारेण । कथम् । विज्ञायते हि मनोज्ञा अपि क्षणाद् मनोइतया परिणमन्ति । अमनोझा अपि दणाद् मनोज्ञतया परिणमन्ति । तत. स्तयोरुपरि रागद्वेषकरणं निरर्थक मिति ॥ ५ ॥ __(टीका.) किं च । विसएसु त्ति सूत्रम् । विषयेषु शब्दादिषु मनोझेष्विन्जियानुकूलेषु प्रेम रागं नानिनिवेशयेन्न कुर्यात् । एवममनोझेषु वेषम् । आह । उक्तमेवेदं प्राक् कलसोरकहीत्यादौ । किमर्थं पुनरुपन्यास इति । उच्यते । कारण विशेषानिधानेन विशेषोपलम्नार्थ मिति । श्राह च । श्रनित्यमेव परिणामानित्यतया तेषां पुजलानां तुशब्दाछब्दादिविषयसंबन्धिनामिति योगः। विझायावत्य जिनवचनानुसारेण । किमित्याह । परिणामं पर्यायान्तरापत्तिलक्षणम् । ते हि मनोझा अपि सन्तो विषयाः क्षणादमनोझतया परिणमन्ति । अमनोज्ञा श्रपि मनोझतया इति तुलं रागषयोनिमित्तमिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ पोग्गलाणं परीणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा॥ विणीअतिण्हो विहरे, सीईनूएण अप्पणा ॥६०॥ (श्रवचूरिः) एतदेवाह । पुजलानां शब्दादिविषयान्तर्गतानां परिणाममुक्तलक्षणं तेषां ज्ञात्वा यथा मनोझेतररूपतया नवन्ति तथा ज्ञात्वा विनीततृष्णोऽपेतानिलाषो विहरेत् । शीतीनूतेन क्रोधाद्यनावेन प्रशान्तेनात्मना ॥ ६ ॥ (अर्थ.) एज प्रकट कहे . पोग्गलाणं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (तेसिं के०) तेषाम् एटले ते ( पोग्गलाणं के०) पुजलानां एटले पुजलोना (परीणामं के०) परि Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-४३-मा. णामं एबले परिणाम प्रत्ये (जहा तहा के०) यथा तथा एटले जेवो ते प्रकारे (न च्चा के) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( विणीअतिण्हो के) विनीततृष्णः एटले शब्दादि विषयोने विषे रहेला अनिलाषने बोडतो तो (सीनूएण के०) शीतीनूतेन एटले क्रोध प्रमुख अग्नि उलवा गयाथी शीतल थएला एवा (अप्पणा के०) आत्मना एटले आत्मावडे करीने ( विहरे के०) विहरेत् एटले विचरे.॥६०॥ (दीपिका.) एतदपि स्पष्टयन्नाह । शीतीनूतेन क्रोधादीनां त्यागात् प्रशान्तेन श्रात्मना विहरेत् । किं कृत्वा । तेषां पूर्वोक्तानां पुजलानां परिणामं यथा मनोझामनोइतया जवन्ति।तथा ज्ञात्वा। किंनूतः साधुः। विनीततृष्णो गतानिलाषः शब्दादिषु ६० - (टीका.) एतदेव स्पष्टयन्नाह । पोग्गलाणं ति सूत्रम् । पुजलानां शब्दादिविषया. न्तर्गतानां परिणाममुक्तलक्षणं तेषां ज्ञात्वा विज्ञाय यथा मनोझेतररूपतया जवन्ति। तथा ज्ञात्वा विनीततृष्णोऽपेतानिलाषः शब्दादिषु विहरेत् । शीतीनूतेन क्रोधाद्यम्यपगमात्प्रशान्तेनात्मनेति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ जा सहा निकंतो, परिप्रायहाणमुत्तमं ॥ तमेव अणुपालिका, गुणे आयरिअसंमए ॥ ६१॥ -- (अवचूरिः) यया श्रख्या संयमगुणखीकरणरूपया निष्क्रान्तो गृहवासात् पर्यायस्थानमुत्तमं प्राप्तः । तामेव श्रझामनुपालयेत् प्रवईमानां कुर्यात् । क्व । मूलगुणादिषु श्राचार्यसंमतेषु । उपलक्षणत्वादईदादिसंमतेषु ॥ ६१॥ । (अर्थ. ) वली जाश् इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (जाइ के०) यया एटले जे (स. का के०) श्रच्या एटले श्रद्धा वडे ( निकंतो के०) निष्क्रान्तः एटले श्रविरतिरूप कादवथी नीकल्या, अने (उत्तमं के०) उत्तमं एटले प्रधान एवा (परियायहाणं के०) पर्यायस्थानं एटले सर्व विरतिस्वीकाररूप उत्तम स्थानकप्रत्ये पाम्या. (तमेव के०) तामेव एटले तेज (आय रिअसंमए गुणे के०) श्राचार्यसंमतेषु गुणेषु एटले तीर्थकर प्रमुखने बहु संमत एवा मूलगुण प्रमुख गुणोने विषे रहेलीश्रका प्रत्ये (अणुपालिका के०) अनुपालयेत् एटले रक्षण करे. ॥ ६१॥ . ( दीपिका.) पुनः किं च । साधुः तामेव कामप्रतिपातितया प्रवर्डमानां गुणेषु मूलगुणादिलक्षणेषु पालयेत् । किंनूतेषु गुणेषु । श्राचार्यसंमतेषु तीर्थकरादिमतेषु । तां काम् । यया श्रच्या प्रधानगुणस्वीकाररूपया निष्क्रान्तोऽविरतिकर्दमात् दीक्षास्थानमुत्तमं प्रधानं प्राप्तः ॥६१॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम्। (टीका.) किं च जाश ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यया श्रच्या प्रधानगुणखीकरणरूपया निष्क्रान्तोऽविरतिजम्बालात्पर्यायस्थानं प्रव्रज्यारूपमुत्तमं प्रधानं प्राप्त इत्यर्थः । तामेव कामप्रतिपातितया प्रवर्षमानामनुपालयेद्यत्नेन । क इत्याह । गुणेषु मूलगुणादिलक्षणेष्वाचार्यसंमतेषु तीर्थकरादिबहुमतेषु । अन्ये तु श्रझाविशेषणमेतदिति व्याचदते । तामेव श्रझामनुपालयेणेषु । किंताम् । आचार्यसंमताम् । न तु खाग्रहकलङ्कितामिति सूत्रार्थः ॥ ६१॥ तवं चिमं संजमजोगयं च, सप्नायजोगं च सया अदिहिए ॥ सुरे व सेणा समत्तमानदे, अलमप्पणो दोश् अलं परेसिं ॥६॥ (श्रवचूरिः) श्राचारप्रणिधिफलमाह । तपश्चेदमनशनादिरूपं, संयमयोगं पृव्यादिविषयं संयमव्यापार, स्वाध्याययोगं च वाचनादिकं सदाधिष्ठाता तपःप्रजतीनां कर्तेत्यर्थः । स एवंनूतः शूर श्व सुनट व सेनया चतुरङ्गया कषायादिरूपया रुकः सन् समाप्तायुधः संपूर्णतपःप्रनृतिखड्गाद्यायुधः । अलमत्यर्थमात्मनो नवति संरक्षणाय परेषां च । निराकरणायालम् ॥६॥ (अर्थ.) हवे आचारप्रणिधिनुं फल कहे . तवं चिमं इत्यादि सूत्र. (श्मं के०) इदं एटले या अर्थात् साधु लोकमां प्रसिद्ध एवा (तवं के०) तपः एटले अनशन प्रमुख तपस्या प्रत्ये (च के०) च एटले वली (संजमजोगं च के०) संयमयोगं एटले षट्काय जीवरदारूप संयमव्यापार प्रत्ये (च के०) च एटले वली (सपायजोगं के०) स्वाध्याययोगं एटले वाचना प्रमुख व्यापार प्रत्ये (सया के०) सदा एटले निरंतर (अहिहिए के) अधिष्ठाता एटले करनार एवा साधु जे ते (सेणा के०) सेनया एटले चतुरंग सेनावडे (सूरे व के०) शूर व एटले शूरवीर पुरुष जेम रोकाय , तेम इंडिय कषाय रूप सेना वडे रोकाय त्यारे (समत्तमाउहे के०) समातायुधः एटले तपस्या प्रमुख आयुधो जेनी पासे पूरेपूरी डे एवो थयो तो (अप्पणो के०) आत्मनः एटले पोतानी रक्षा करवाने अर्थे (अलं के०) अलं एटले समर्थ (होश के०) नवति एटले थाय बे. तेमज (परेसिं के) परेषां एटले बीजा शत्रुउने वारवाने अर्थे पण (अलं के०) समर्थः एटले समर्थ थाय ॥६ ॥ (दीपिका.) अथ श्राचारप्रणिधिफलमाह । साधुः एवं विधः सन् शूर श्व विक्रान्तसुजट व । अलमत्यर्थमात्मनः संरक्षणाय अदं च परेषां निवारणाय न. वति । किंनूतः साधुः । तपश्च इदमनशनादि द्वादशनेदरूपं सर्वसाधुप्रसिझं संयम Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. 'योगं च पृथिव्यादिविषयसंयमव्यापारं च खाध्याययोगं च वाचनादिव्यापारं च सदा सर्वकालमधिष्ठाता तपःप्रनतीनां कर्ता इत्यर्थः । किंनूतः शूरः । सेनया चतुरङ्गबलरूपया इन्जियकषाया दिसेनया निरुकः सन् समाप्तायुधः संपूर्णतपःप्रनृतिखड्गायुधः॥६॥ ( टीका.) श्राचारप्रणिधिफलमाह । तवं चिमं ति सूत्रम् । तपश्चेदमनशनादिरूपं साधुलोकप्रतीतं संयमयोगं च पृथिव्यादिविषयं संयमव्यापारं च खाध्याययोगं च वाचनादिव्यापारं सदा सर्वकालमधिष्ठाता तपःप्रनृतीनां कर्तेत्यर्थः । इह च तपोऽनिधानात्तहणेऽपि स्वाध्याययोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थं नेदेनानिधानमिति। स एवंनूतः शूर व विक्रान्तनट श्व सेनया चतुरङ्गरूपया इन्डियकषायादिरूपया निरुकः सन् समाप्तायुधः संपूर्णतपःप्रऋतिखगायायुधः अलमत्यर्थमात्मनो नवति संरक्षपाय अलं च परेषां निराकरणायेति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ सप्लायसनापरयस्स ताणो, अपावनावस्स तवे रयस्स ॥ विसुन्नई जं सि मलं पुरे कर्म, समीरिअंरुप्पमलं व जोश्णा ॥६३ ॥ (श्रवचूरिः) एतदेव स्पष्टयन्नाह । स्वाध्याय एव सध्यानं तत्र रतस्य त्रातुः स्वान्ययोः।अपापन्नावस्य लब्ध्याद्यपेदारहिततया शुद्धचित्तस्य विशुध्यते अपेति यदस्य साधोर्मलं कर्ममलं पुराकृतं जन्मान्तरोपात्तम् । दृष्टान्तमाह । समीरितं प्रेरितं रूप्यमलमिव ज्योतिषाग्निना ॥३॥ (अर्थ.) एज प्रकट करवाने अर्थे कहे . सप्ताय इत्यादि सूत्र. (सप्लायसप्राणरयस्स के०) खाध्यायसध्यानरतस्य एटले खाध्यायरूप शुन ध्यानने विषे श्रासक्त एवा (ताश्णो के०) तायिनः एटले पोतानी तथा परनी रक्षा करनार एवा (अपावनावस्स के०) अपापन्नावस्य एटले लब्धि प्रमुखनी श्छा न होवाथी शुभ चित्तवाला एवा तथा (तवे के०) तपसि एटले तपस्याने विषे (रयस्स के० ) रतस्य एटले आसक्त एवा (सि के०) अस्य एटले ए साधुनुं (जं के०) यत् एटले जे (पुरेक के०) पुराकृतं एटले पूर्वनवे उपार्जेवू एवं ( मलं के) मलं एटले मेढुं अशुन कर्म जे ते (जोशणा के०) ज्योतिषा एटले अनिवडे (समीरियं के०) समीरितं एटले प्रेरित एवं अर्थात् अग्निथी तपायतुं (रुप्पमलं व के०) रूप्यमल मिव एटले अग्निना तापश्री रूपानुं मल जेम नीकली जाय जे तेम ( विसुन के०) विशुद्ध्यति एटले शुक थाय ने, निर्जरा पामे बे. ॥ ३ ॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५३५ (दीपिका.) एतदेव स्पष्टयन्नाह । अस्य साधोः यत् मलं कर्ममलं तत् विशुष्यते अपैति दूरे यातीत्यर्थः। किंनूतं मलम् । पुराकृतं जन्मान्तरेषु उपात्तमुपार्जितम् । केन किंवत् । यथा रूप्यमलम् । किंनूतं रूप्पमलम् । समीरितं प्रेरितं । केन । ज्योतिषाग्निना । किंनूतस्य साधोः । स्वाध्यायसध्यानरतस्य स्वाध्याय एव सध्यानं खाध्यायसध्यानं तत्र रतस्य श्रासक्तस्य । पुनः किंनूतस्य साधोः। त्रातुः स्वस्य परस्य उन्नयेषां च रदणशीलस्य।पुनः किंनूतस्य साधोः। श्रपापनावस्य लब्ध्यादीनां या अपेक्षा तया रहिततया शुभचित्तस्य । पुनः किंनूतस्य साधोः । तपसि अनशनादौ छादशविधे रतस्य । एवं विधस्य शुरूस्य साधोः पापं दूरे यातीति परमार्थः॥३॥ (टीका.) एतदेव स्पष्टयन्नाह । सनाय त्ति सूत्रम् । स्वाध्याय एव सध्यानं तत्र रतस्य सक्तस्य त्रातुः स्वपरोजयत्राणशीलस्य अपापन्नावस्य लब्ध्यायपेदार हिततया शुद्धचित्तस्य तपस्यनशनादौ यथाशक्ति रतस्य विशुष्यतेऽपैति । यदस्य साधोर्मलं कमलं पुराकृतं जन्मान्तरोपात्तम् । दृष्टान्तमाह । समीरितं प्रेरितं रूप्यमल मिव ज्योतिषानिनेति सूत्रार्थः ॥ ६३ ॥ से तारिसे दुकसदे जिदिए, सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे ॥ विरायई कम्मघणंमि अवगए, कसिणप्पुमावगमेव चंदिमित्ति बेमि॥४॥ - आयारपणिही णाम अप्नयणं संमत्तं ॥७॥ __ (श्रवचूरिः) ततश्च । स तादृशः पूर्वोदितगुणयुक्तः साधुः कुःखसहः परीषहजेता । श्रुतेन युक्तः। अममो ममत्वरहितः। अकिंचनो व्यकिंचनरहितः । विराजते कर्मघने झानावरणादिकर्मघने अपगते सति केवलझानलानात् । कृत्स्नात्रपुटापगमे चन्जमा श्वेति ब्रवीमीति ॥ ६४॥ इत्याचारप्रणिध्यध्ययनावचूरिः ॥७॥ (अर्थ.) माटे से इत्यादि सूत्र. ( तारिसे के०) तादृशः एटले पूर्वोक्त गुणयुक्त एवा (उकसहे के०) सुःखसहः एटले परीषहना जितनार एवा (जिदिए के०) जितेन्द्रियः एटले पोतानां इंडिय जेणे जीत्यां एवा (सुएण के०) श्रुतेन एटले श्रुतवडे (जुत्ते के०) युक्तः एटले युक्त एवा, (अममे के) श्रममः एटले सर्वत्र ममतारहित एवा तथा (अकिंचणे के) अकिंचनः एटले अव्य नाव परिग्रह रहित एवा (से के०) सः एटले ते पूर्वोक्त साधु जे ते (कसिणपुडावगमे के०) कृत्स्नानपुटापगमे एटले संपूर्ण अत्रमंडल (वादलानो समुदाय ) विखेरा गये बते जेम (चंदिमा के०) Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा चंद्रमाः एटले चंद्रमा शोने बे तेम ( कम्मघणम्मि के० ) कर्मघने एटले कर्मरूप मेघ ( are ho) अपगते एटले नाश पामे बते ( विराय के० ) विराजते एटले शोने d. इति ब्रवीमि नो अर्थ पूर्वे कल बे ते माफक जाणवो. ॥ ६४ ॥ इति श्री दशवेकालिकसूत्रना याचारप्रणिधिनामा अध्ययननो बालावबोध संपूर्ण ॥८॥ ( दीपिका. ) ततश्च साधुः कीदृशो जवेदित्याह । स तादृशः पूर्वोक्तगुणयुक्तः साधुविराजते । क इव । चन्द्रमा श्व । व सति । कृत्स्नापुटापगमे समस्तानामचपुटानामपगमे नाशे सति । श्रयं जावः । यथा शरत्काले चंद्रमाः शोजते तथा साधुरपि पगतकर्मघनः समासादितकेवलालोको विराजत इत्यर्थः । किंभूतः साधुः । दुःखसहः प हपीडासहः । पुनः किंभूतः साधुः जितेन्द्रियः पराजितश्रोत्रादिपञ्चेन्द्रियविषयः । पुनः किंभूतः साधुः । श्रुतज्ञानेन युक्तः विद्यावानित्यर्थः । पुनः किंभूतः साधुः । श्रममः सर्वत्र ममतारहितः । पुनः किंभूतः साधुः । श्रकिंचनः किंचनरहितः । ब्रवी - मीति पूर्ववत् ॥ ६४ ॥ इति श्रीदशवेकालिके सूत्रे श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां दीपिकायामष्टमाध्ययनं संपूर्णम् ॥ ८ ॥ ( टीका. ) ततः से तारिसे ति सूत्रम् । व्याख्या । स तादृशोऽनन्तरो दितगुणयुक्तः साधुः डुःखसहः परीषहजेता जितेन्द्रियः पराजितश्रोत्रे न्द्रियादिः । श्रुतेन युक्तो विद्यावानित्यर्थः । श्रममः सर्वत्र ममत्वरहितः । श्रकिंचनो द्रव्यजावकिंचनरहितः विराजते शोजते । कर्मघने ज्ञानावरणीयादिकर्ममेघे अपगते सति । निदर्शनमाह । कृत्स्नाचपुटापगम इव चन्द्रमा इति । यथा कृत्स्ने कृष्णे वा पुढे गते सति चन्द्रो विराजते शरदि तद्वदसावपि अपगतकर्मघनः समासादित केवलालोको विराजत इति सूत्रार्थः ॥ ६४ ॥ ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः सांप्रतं नयास्ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातमाचारप्रणिध्यध्ययनम् ॥ ८ ॥ इति श्री हरिजसूरिविरचितायां दशवैका लिकवृहद्वृत्तावष्टमाध्ययनम् ॥ ८ ॥ अष्टमाध्ययनं संपूर्णम् ॥ ८ ॥ For Private Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। ५३४ थंना व कोदा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिरके ॥ सो चेव उ तस्स अनूश्नावो, फलं व कीअस्स वहाय दोश॥१॥ . (अवचूरिः) अथ विनयसमाध्यध्ययनावचूरिः। पूर्वाध्ययने साधुनाचारे यत्नवता जाव्यमित्युक्तम् । इह च श्राचारवानेव विनयसंपन्नो जवति। अतोऽत्र विनय उच्यते। स्तम्नाछा मानाहा जात्यादिनिरुत्तमोऽहमिति । श्रहं गुरुनिराक्रुष्ट इति क्रोधाददान्तिलक्षणात् । मायाप्रमादात् । शूलं मे बाधत इत्यादिमायातः । प्रमादान्निजादेः। गुरोः सकाशे विनयं ग्रहणासवेन शिदारूपं न शिदेत । स एव तु स्तम्नादिविनय शिक्षा विघ्नहेतुस्तस्य जडमतेः। अनूते वोऽनतिजावोऽसंपन्नाव इत्यर्थः। किमित्याह । वधाय गुणलक्षणनावप्राणनाशाय नवति । दृष्टान्तमाह । फलमिव कीचकस्य । कीचको वंशस्तस्य यथा फलं वधाय नवति । सति तस्मिंस्तस्य विनाशात्तदिति ॥ १ ॥ __ (अर्थ.) श्राचारप्रणिधिनामा अध्ययन कयु. हवे विनयसमाधिनामक अध्ययननो श्रारंज करे . आ अध्ययननो पूर्व अध्ययननी साथे संबंध आ रीते बे. थाउमा अध्ययनमा सामाचारीने सम्यक् प्रकारे पालनार साधुनुं वचन निरवद्य होय बे, माटे निरवद्य वचन बोलवाने विषे साधुए यतना राखवी एम कर्दा. हवे आ विनयसमाधिनामा अध्ययनने विषे · सामाचारीने अनुसरीने चालनार साधु वि. नयसंपन्न ज होय ' एम कहेवानुं . आ संबंधे आवेल था अध्ययनन थंना व इत्यादि प्रथम सूत्र. जे साधु (थंना के०) स्तम्नात् एटले जातिहीन (हलकी जातना) तथा कुलहीन एवानी पासे हुं शी रीते शिखवा जाउं ? एवा अहंकारश्री, (व के०) वा एटले अथवा (कोहा के०)क्रोधात् एटले कंश पण कारणथी उत्पन्न थएल रोषथी (व के०) वा एटले अथवा (मयप्पमाया के०) मायाप्रमादात् एटले कपटथी अथवा निमा प्रमुख प्रमादथी (गुरुस्सगासे के०) गुरोः सकाशे एटले आचार्य प्रमुख गुरुनी पासे (विणयं के०) विनयं एटले आसेवन प्रमुख विनय प्रत्ये (न सिरके के०) न शिक्षते एटले शिखतो नथी. ( सो चेव के०) स चैव एटले ते स्तंन, क्रोध प्रमुख जे ते ज (उ के०) तु एटले निश्चये करीने (तस्स के०) तस्य एटले ते साधुनो (अनूश्नावो के०) अनूतिनावः एटले ज्ञानरूप संपदानो नाश करनारो एवो (कीअस्स के) कीचकस्य एटले वांसना (फलं व के०) फलमिव एटले फलनी पेठे पोताना (वहाय के०) वधाय एटले गुणरूप नाव प्राणना ६८ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. नाशने अर्थे (होर के०) नवति एटले थाय . वांसने फल आवे तो तेनो नाश थाय बे, ए वात प्रसिक .॥१॥ (दीपिका.) अथ विनयसमाध्याख्यं नवममध्ययनं व्याख्यायते । तस्य नवमाध्ययनस्य चत्वार उद्देशाः । तत्र प्रथमोद्देशकमाह । इह च अयं संबन्धः। पूर्वाध्ययने निःपापं वचनमाचारे प्रणि हितस्य सम्यक् स्थितस्य नवतीति तत्र यत्नवता नाव्यम् । इत्येतत् उक्तम् । इह तु श्राचारप्रणिहितो यथायोग्यविनयसंपन्न एव भवति । इत्येतफुच्यते । तथाहि शिष्यः गुरोः सकाश श्राचार्यादेः समीपे विनयमासेवनारूपं शिदारूपं च न शिदते, न उपादत्ते, न गृह्णातीत्यर्थः। कस्मात् । स्तम्नाहा। कथमहं जात्या दिमान् जात्यादिहीनस्य गुरोः समीपे शिदे । तथा क्रोधात् कथंचिदसत्यकरणप्रेरितो रोषाद वा । तथा मायातः शूलं मे बाधत इत्यादिकपटेन । तथा प्रमादात् प्रक्रान्तमुचितमजानन् निजादीनां व्यासङ्गेन । स्तम्नादीनां क्रमेण उपन्यासश्च श्वमेव अमीषां विनयस्य विघ्नतामाश्रित्य ख्यापनार्थः । तदेवं स्तम्नादिन्यो गुरोः समीपे विनयं न शिक्षते । अन्ये तु आचार्या एवं पठन्ति । गुरोः समीपे विनये न तिष्ठति, विनये न वर्तते, विनयं न श्रासेवत इत्यर्थः। इह स एव स्तम्नादिविनयशिदाविघ्नहेतुस्तस्य जडमतेः अनूतिनाव इति । अनूते वः अनूतिनावः असंपन्नाव श्त्यर्थः। किमित्याह । वधाय नवति । गुणलक्षणनावप्राणविनाशाय नवति । दृष्टान्तमाह । फल मिव कीचकस्य । कीचको वंशस्तस्य फलं यथा वधाय नवति। तस्मिन्सति तछिनाशनात् । तछत् इति ॥१॥ (टीका.) अधुना विनयसमाध्याख्यमारज्यते । अस्य चायमनिसंबन्धः। शहानन्तराध्ययने निरवद्यं वच श्राचारे प्रणिहितस्य नवतीति तत्र यत्नवता नवितव्यमित्येतऽक्तम् । इह त्वाचारप्रणिहितो यथोचितविनयसंपन्न एव जवतीत्येतफुच्यते। उक्तं च ॥ आयारपणिहाणं मि, से सम्म व बुहे ॥णाणादीण विणीए जे, मोकळा निविगिहए ॥ इत्यनेनानिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम् । अस्य चानुयोगहारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नाम निष्पन्नो निदेपः । तत्र च विनयसमाधिरिति छिपदं नाम । तन्निदेपायाह ॥ विनयस्स समाहीए, निकेवो होश दोण्ह वि चउको ॥ दव विणयंमि तिणिसो, सुवण मिच्चेवमाईणि ॥ ६ ॥ व्याख्या ॥ विनयस्य प्रसिझतत्त्वस्य समाधेश्च प्रसिझतत्त्वस्यैव । न्यासो नवति योरपि चतुष्को नामा दिनेदात् । तत्र नामस्थापने कुस्मत्वादनादृत्य व्यविनयमाह । उव्यविनये ज्ञशरीरजव्यशरीरव्यतिरिक्त तिनिशो वृदा विशेष उदाहरणम् । स रथाङ्गादिषु यत्र यत्र यथा विनीयते तत्र Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके नवमाध्ययने प्रथमनदेशकः । तत्र तथा परिणमति योग्यत्वादिति । तथा सुवर्णमित्यादीनि कटककुएलादिप्रका रेण विनयनाद् द्रव्याणि द्रव्यविनयः । श्रादिशब्दात्तत्तद्योग्यरूपया दिपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ सांप्रतं जावविनयमाह ॥ लोगोवयार विणर्ज, छाछ निमित्तं च कामदे च ॥ जय विषय मुरक विप, विष खलु पंचहा होइ ॥ ७७ ॥ व्याख्या ॥ लोकोपचारविनयो लोकप्रतिपत्तिफलोऽर्थनिमित्तं चार्थप्रात्यर्थं च कामदेतुश्च कामनिमित्तश्च । तथा जयविनयो जयनिमित्तो मोक्षविनयो मोहनिमित्तः । एवमुपाधिभेदाद्विनयः खलु पञ्चधा पञ्चप्रकारो नवतीति गाथासमासार्थः ॥ ॥ व्यासार्थानि धित्सया तु लोकोपचार विनयमाह ॥ श्रपुगणं अंजलि, आसणदाणं अहिपूया य ॥ लोगोवयारवि, देवपूया य विहवेण ॥ ७८ ॥ व्याख्या ॥ अन्युवानं तडुचितस्यागतस्यानिमुखमुखानम् । ज लिर्विज्ञापनादौ । श्रासनदानं च गृहागतस्य प्रायेण । श्रतिथिपूजा चाहारादिदानेन । एष श्वंभूतो लोकोपचार विनयः । देवतापूजा च यथाजक्ति बल्याद्युपचाररूपा विजवेनेति यथाविजवं विजवोचितेति गाथार्थः ॥ ॥ उक्तो लोकोपचार विनयोऽर्थ विनयमाह ॥ अनास वित्तिबंदा - एवत्तणं देसकालदाणं च ॥ अपुSri जल-प्राणदाणं च अकए ॥ ७९ ॥ व्याख्या ॥ श्रन्याशवृत्तिर्नरेन्द्रादीनां समीपावस्थानं, बन्दोऽनुवर्तनमजिप्रायाराधनं, देशकालदानं च कटकादौ विशिष्टनृपतेः । प्रस्तावदानं च तथान्युवानमञ्जलिरासनदानं च नरेन्द्रादीनामेव कुर्वन्त्यर्थ कृतेऽर्थार्थमिति गाथार्थः ॥ ४ ॥ उक्तोऽर्थविनयः । कामादिविनयमाह ॥ एमेव कामविपd, जए का नेवमाणुपुवीए ॥ मोस्कंमि वि पंचविहो, परूवणा तस्सिमा होइ ॥ ८० ॥ व्याख्या ॥ एवमेव यथार्थविनय उक्तोऽन्याशवृत्त्यादिः । तथा कामविनयः । जये चेति । जयविनयश्च ज्ञातव्यो विज्ञेयः । श्रनुपूर्व्या परिपाट्या । तथाहि । कामिनो वेश्यादीनां कामार्थमेवाच्यासवृत्त्यादि यथाक्रमं सर्वं कुर्वन्ति । प्रेष्याश्च नयेन स्वामिना मित्युक्तौ कामजयविनयौ । मोक्षविनयमाह । मोदेऽपि मोक्षविषयो विनयः पञ्चविधः पञ्चप्रकारः । प्ररूपणा निरूपपणा तस्यैषा जवति वक्ष्यमाणेति गाथार्थः ॥ ॥ दंसणनाणचरित्ते, तवे अ तह वियारिए चेव ॥ एसो मोरकवि, पंचविहो होइ नायवो ॥ ८१ ॥ व्याख्या ॥ दर्शनज्ञानचारित्रेषु दर्शनज्ञानचारित्रविषयः । तपसि च तपोविषयश्च तथा औपचारिकश्चैव प्रतिरूपयोगव्यापारश्चैव । एष तु मोविनयो मोक्ष निमित्तः पञ्चविधो जवति ज्ञातव्य इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थेन दर्शन विनयमाह ॥ दवाण सबजावा, उवश्हा जे जहा जिणवरे हिं ॥ ते तह सह नरो, दंसण विष हव तम्हा ॥ ८२ ॥ व्याख्या ॥ द्रव्याणां धर्मास्तिकायादीनां सर्वजावाः सर्वपर्याया उपदिष्टाः कथिता येऽगुरुलध्वादयो यथा येन प्रकारेण 1 For Private Personal Use Only ८३० Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. जिनवरैस्तीर्थकरैस्तान् नावांस्तथा तेन प्रकारेण श्रछत्ते नरः। श्रद्दधानश्च कर्म विनयति यस्माद्दर्शनविनयो नवति तस्माद्दर्शनाहिनयो दर्शनविनय इति गाथार्थः ॥ ज्ञानविनयमाह ॥ नाणं सिकश नाणं, गुणेश नाणेण कुण किच्चा ॥ नाणी नवं न बं. धर, नाणविणी हवश् तम्हा ॥ ३ ॥ व्याख्या ॥ ज्ञानं शिक्ष्यत्यपूर्वं ज्ञानमादत्ते । झानं गुणयति गृहीतं सत्प्रत्यावर्त्तयति । ज्ञानेन करोति कृत्यानि संयमकृत्यानि । एवं झानी नवं कर्म न बनाति । प्राक्तनं च विनयति यस्माज्यानविनीतो ज्ञानेनापनीतकर्मा नवति तस्मादिति गाथार्थः ॥ चारित्रविनयमाह ॥ अहविहं कम्मचयं, जम्हा रित्तीकरे जयमाणो॥नवमन्नं च न बंधश्, चरित्तविणी हव तम्हा ॥५॥ व्याख्या ॥ अष्टविधमष्टप्रकारं कर्मचयं कर्मसंघातं प्रागबई यस्माधिक्तं करोति, तुतापादनेनापनयति । यतमानः क्रियायां यत्नपरः । तथा नवमन्यं च कर्मचयं न बनाति । यस्माच्चारित्रविनय इति, चारित्राद्विनयश्चारित्रविनयश्चारित्रेण विनीत. कर्मा नवति तस्मादिति गाथार्थः ॥ तपोविनयमाह ॥ अवणेश तवेण तमं, उवणे श्र सग्गमोरकमप्पाणं॥ तव विणयनियमई,तवोविणी हवश्तम्हा ॥५॥ व्याख्या॥ अपनयति तपसा तमोऽज्ञानमुपनयति च खर्ग मोदमात्मानं जीवम् । तपोविनयनिश्वयमतियस्मादेवंविधस्तपोविनीतो नवति तस्मादिति गाथार्थः ॥ उपचारविनयमाह॥ अह उवयारि पुण, सुविहो विणजे समास हो॥ पडिरूवजोगजुंजण, तहय अणासायणाविण ॥ ६ ॥ व्याख्या ॥ अथौपचारिकः पुनर्मिविधो विनयः समासतो जवति । वैविध्यमेवाह । प्रतिरूपयोगयोजनम् । तथानाशातनाविनय इति गाथासमासार्थः॥ व्यासार्थमाह ॥ पडिरूवो खलु विण, काश्वजोएश्वाश्माण सि॥ अह. चजबिहऽविहो, परूवणा तस्सिमा हो ॥ ७ ॥ प्रतिरूप उचितः खलु विनय स्त्रिविधः। काययोगे च वाचि मनसि कायिको वाचिको मानसिकश्च श्रष्टचतुर्विधद्विविध इत्यर्थ । कायिकोऽष्टविधः, वाचिकश्चतुर्विधः, मानसो छिविधः । प्ररूपणा तस्य कायिकाष्टविधादेरियं नवति वक्ष्यमाणलदणेति गाथार्थः ॥ कायिकमाह ॥ अनुष्य अंजलि, श्रासणदाणं अजिग्गहकिई अ॥ सुस्सूसणमणुगबण, संसाहण काय अठविहो ॥ ॥ व्याख्या ॥ श्रन्युबानमर्हस्य, अञ्जलिः प्रश्नादौ, श्रासनदानं पीठकाद्युपनयनमनिग्रहो गुरुनियोगकरणानिसंधिः, कृतिश्चेति कृतिकर्म वन्दनमित्यर्थः। शुश्रूषणं विधिवददूरासन्नतया सेवनं, अनुगमनमागतः प्रत्युजमनं, संसाधनं च गतोऽनुत्रजनं चाष्टविधः कायविनय इति गाथार्थः॥ वागादिविनयमाह ॥ हिश्रमियअफरुसवाई, अणुवाई नासिवा विण ॥ श्रकुसलचित्तनिरोहो, कुसलमण-दीरणा चेव ॥ नए व्याख्या॥ हितमितापरुषवागिति।हितवाग्घितंवक्ति परिणामसुन्दरं, मितवा Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके नवमाध्ययने प्रथमनदेशकः । ५४१ ग्मितं स्तोकैरकरैः, अपरुषवागपरुषमनिष्ठुरं तथा अनुविचिन्त्यजाषी स्वालोचितवतेति वाचिको विनयः । तथा अकुशलमनो निरोधः । श्रार्तध्यानादिप्रतिषेधेन कुशलम-. नउदीरणं चैव धर्मध्यानादिप्रवृत्त्येति मानस इति गाथार्थः ॥ श्राह । किमर्थमयं प्रतिरूपविनयः कस्य चैष इत्युच्यते ॥ पडिरूवो खलु विप, पराणुात्तिम मुणेावो ॥ saat विrd नायवो केवलीणं तु ॥ ५० ॥ व्याख्या ॥ प्रतिरूप उचितः खलु विनयः परानुवृत्त्यात्मकः तत्तद्वस्त्वपेक्षया प्राय आत्मव्यतिरिक्तप्रधानानुवृत्त्यात्मको मन्तव्यः । अयं च बाहुल्येन ब्रद्मस्थानाम् । तथाप्रतिरूपो विनयः अपरानुवृत्त्यात्मकः स च ज्ञातव्यः केवलिनामेव । तेषां तेनैव प्रकारेण कर्म विनयनात् । तेषामपीत्वरः प्रतिरूपोऽज्ञात केवलजावानां जवत्येवेति गाथार्थः ॥ उपसंहरन्नाह ॥ एसो ने परिक हिउँ, विrd पडिलरको तिविहो ॥ बावन्नविहिविहाणं, बेंति णासायाविषयं ॥ ९१ ॥ व्याख्या ॥ एषोऽनन्तरोदितो ने नवतां परिकथितो विनयः प्रतिरूपलक्षण स्त्रिविधः कायिकादिः । द्विपञ्चाशद्विधिविधानमेतावत्प्रभेदमित्यर्थः । ब्रुवतेऽनिदधति । ती - करा अनाशातनाविनयं वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ॥ एतदेवाह ॥ तिङगर सिद्धकुलगण - संघ कियाधम्मनाणनाणीणं ॥ आयरिश्र थेर उना, गणीणं तेरस पयाणि ॥ ए२॥ तीर्थकर सिद्धकुल गणसंघ क्रियाधर्मज्ञानज्ञानिनां तथा आचार्यस्थविरोपाध्यायगणिनां संबन्धीनि त्रयोदश पदानि । अत्र तीर्थकर सिद्धौ प्रसिद्धौ । कुलं नागेन्द्रकुलादि । गणः कोटिकादिः । संघः प्रतीतः । क्रिया स्तिवादरूपा । धर्मः श्रुतधर्मादिः । ज्ञानं मत्यादि । ज्ञानिनस्तद्वन्तः । श्राचार्यः प्रतीतः । स्थविरः सीदतां स्थिरीकरणहेतुः । उपाध्यायः प्रतीतः । गणाधिपतिर्गणिरिति गाथार्थः ॥ एतानि त्रयोदश पदानि श्रनाशातनादिनिश्चतुर्निर्गुणितानि द्विपञ्चाशद्भवन्तीत्याह ॥ श्रणासायणा य जत्ती, बहुमाणा वन्नसंजलपाय ॥ तिगराई तेरस, चग्गुणा होंति बावन्ना ॥ ५३ ॥ व्यख्या ॥ अनाशातना च तीर्थकरादीनां । सर्वथा हीलनेत्यर्थः । तथा जक्तिस्तेष्वेवो चितोपचाररूपा । तथा बहुमानस्तेष्वेवान्तरभावप्रतिबन्धरूपः । तथा च वर्णसंज्वलना तीर्थकरादीनामेव सडूतगुणोत्कीर्तना । एवमनेन प्रकारेण तीर्थकरादयस्त्रयोदश चतुर्गुणा अनाशातनाद्युपाधिनेदेन जवन्ति द्विपञ्चाशद्भेदा इति गाथार्थः ॥ उक्तो विनयः । सांप्रतं समाधिरुच्यते । तत्रापि नामस्थापने कुलत्वादनादृत्य द्रव्यादिसमाधिमाह ॥ दवं जेण व दवेण, समाही आहियं च जं दवं ॥ जावसमाहि चविह, दंसणनाणे तवचरिते ॥ ए४ ॥ व्याख्या ॥ द्रव्यमिति । द्रव्यमेव समाधिः द्रव्यसमाधिः यथामात्रकम विरोधि वा कीरगुमादि । तथा येन वा द्रव्येणोपयुक्तेन समाधिस्त्रिफला दिना तद् द्रव्यसमाधिरिति । तथा श्रहितं वा यद्द्रव्यं समतां तुलारोपितपलशतादिवत्स्वस्थाने । तद् द्रव्यं समा 1 For Private Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. धिरित्युक्तो द्रव्यसमाधिः । जावसमाधिमाह । जावसमाधिः प्रशस्त जावा विरोधलक्षएश्चतुर्विधः । चातुर्विध्यमेवाह । दर्शनज्ञानतपश्चारित्रेषु । एतद्विषयो दर्शनादीनां व्यस्तानां समस्तानां वा सर्वथा विरोध इति गाथार्थः ॥ उक्तः समाधिः । तदनिधानान्नामनिष्पन्नो निपः । सांप्रतं सूत्रालापक निष्पन्नस्यावसर इत्यादि चर्चः पूर्ववत् । तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणयुतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदम् । थंजा व त्ति । अस्य व्याख्या । स्तम्नाद्वा मानाद्वा जात्यादिनिमित्तात्क्रोधाद्वा श्रान्तिलक्षणान्मायाप्रमादादिति । मायातो निकृतिरूपायाः प्रमादान्निद्रादेः सकाशात् । किमित्याह । गुरोः सकाश प्राचार्यादेः समीपे विनयमासेवना शिक्षानेदन्निं न शिक्षते नोपादत्ते । तत्र स्तम्नात्कथमहं जात्यादिमान् जात्या दिहीनसकाशे शिक्षामीत्येवं क्रोधात्कचिद्वितयकरणचोदितो रोषाद्वा मायातः शूलं मे क्रियत इत्यादिव्याजेन, प्रमादात्प्रक्रान्तोचितमनबुद्ध्यमानो निद्रा दिव्यासङ्गेन । स्तम्नादिक्रमोपन्यासश्चैवमेवामीषां विनय विघ्नहेतुतामाश्रित्य प्राधान्यख्यापनार्थः । तदेवं स्तम्नादिन्यो गुरोः सकाशे विनयं न शिक्षते । अन्ये तु पठन्ति । गुरोः सकाशे विनये न तिष्ठति, विनये न वर्त्तते । विनयं नासेवत इत्यर्थः । इह च स एव तु स्तम्ना दिर्विनय शिक्षा विघ्नहेतुः । तस्य जडमतेरनू तिनाव इत्यनूतेर्भावोऽनूतिजावः । संपद्भाव इत्यर्थः । किमित्याह । वधाय जवति गुणलक्षणावप्राण विनाशाय जवति । दृष्टान्तमाह । फलमिव कीचकस्य । कीचको वंशस्तस्य यथा फलं वधाय जवति । सति तस्मिंस्तस्य विनाशात्तद्वदिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ जेवि मंदित्ति गुरुं वत्ता, डहरे इमे प्रसुति नचा ॥ दीनंति मिचं पडिवऊमाणा, करंति सायण ते गुरूणं ॥ २ ॥ ( वचूरिः ) ये चापि केचन द्रव्यसाधवो मन्दः सत्प्रज्ञाविकल इति गुरुं विदित्वा । महरोऽयमप्राप्तवयाः स्थापितः अल्पश्रुत इति ज्ञात्वा मन्दादिशब्दैर्हीलयति । असूयया महाप्रज्ञस्त्वमित्यादि । मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमाना गुरुर्न हीलनीय इति तत्त्वमनवगच्छन्तः । कुर्वन्त्याशातनां ते गुरूणाम् । श्रतो हीलना न कार्या ॥ २ ॥ ( अर्थ. ) वली जे यावि इत्यादि सूत्र. (जे यावि के० ) ये चापि एटले जे द्रव्य साधु (गुरुं के० ) गुरुं एटले पोताना गुरुप्रत्ये ( मंदित्ति के० ) मन्द इति एटले 'मंद बे, बुद्धिशाली नथी, श्रागमनी वात युक्तिथी जाणवाने समर्थ नथी ए प्रकारे ( वत्ता के० ) विदित्वा एटले जाणीने तेमज तेवा कंइ कारणथी न्हानी अवस्थामांज पाटे स्थापन करेल गुरुने (इमे के०) इमे एटले या ( महरे के ० ) महरा: एटले काची उमरना बे, तथा ( अप्पा ति के० ) अल्पश्रुता इति एटले अल्पश्रुतना For Private Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेनवमाध्ययने प्रमथनुदेशकः । ५४३ प्रकारे (नच्चा के० ) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( हीलंति के ० ) ही लयन्ति एटले गुरुनो तिरस्कार, निंदा प्रमुख करे बे. ( ते के० ) ते एटले ते साधु (मिछं के० ) मिथ्यात्वं एटले मिथ्यात्व प्रत्ये ( पडिवऊमाणा के० ) प्रतिपद्यमाना: एटले पामता बता ( गुरूणं के० ) गुरूणां एटले गुरुनी ( सायण के० ) शातनां एटले शातना प्रत्ये ( करंति के० ) कुर्वन्ति एटले करे बे. ॥ २ ॥ । ( दीपिका . ) किं च । ये चापि केवलद्रव्यसाधवः श्रगम्जीरा जवन्ति । ते द्रव्यसाधवो गुरूणामाचार्याणामाशातनां लघुतापादनरूपां तत्स्थापनाया बहुमानेन कुर्वन्ति । एकस्य गुरोराशातनायां सर्वेषां गुरूणामाशातना इति हेतोर्गुरुणा मिति बहुवचनम् । मन्द इति ज्ञात्वा । सत्प्रज्ञाविकल इति ज्ञात्वा । तथा पुनः कारणान्तरस्थापितमप्राप्तवयसं गुरुं प्रति श्रयं महरः प्राप्तवयाः खलु अयम् । तथा अयं गुरुः अल्पश्रुतः अनधीत सिद्धान्त इति ज्ञात्वा । दीलयन्ति । किं कुर्वन्तो हीलयन्ति । मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमानाः । गुरुर्न हीलनीय इति तत्त्वम् अन्यथा जानन्तः । श्रतो गुरोहिलना न कार्या इत्याह ॥ २ ॥ ( टीका ) किं च । जे श्रावि त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । ये चापि केचन द्रव्यसाधवोऽगम्भीराः । किमित्याह । मन्द इति गुरुं विदित्वा क्षयोपशमवैचित्र्यात्तन्त्रयुत्यालोचनासमर्थः सत्प्रज्ञा विकल इति स्वमाचार्यं ज्ञात्वा । तथा कारणान्तरस्थापितमप्राप्तवयसं महरोऽयमप्राप्तवयाः खल्वयं तथा अल्पश्रुत इत्यनधीतागम इति विज्ञाय । किमित्याह । हीलयन्ति सूययासूयया वा खिंसयन्ति । सूययातिप्रज्ञस्त्वं वयोवृद्ध बहुश्रुत इति । असूयया तु मन्दप्रस्त्वमित्याद्यनिदधति । मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमाना इति गुरुर्न दीलनीय इति तत्त्वमन्यथावगच्छन्तः कुर्वन्त्याशातनां लघुतापादनरूपां ते द्रव्यसाधवः गुरूणामाचार्याणां तत्स्थापनाया अबहुमानेन एकगुर्वाशातनायां सर्वेषामाशातनेति बहुवचनम् । अथवा कुर्वन्त्याशातनां स्वसम्यग्दर्श नादिनावापासरूपां ते गुरूणां संबन्धिनीं तन्निमित्तत्वादिति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ पगई मंदा वि जवंति एगे, डदरा वि जे सुप्रबुदोववेच्छा || आयारमंतो गुणसुद्वित्र्मा, जे दीलिया सिदिवि नास कुका ॥३॥ ( अवचूरिः ) प्रकृत्या खजावेन मन्दा श्रपि सद्बुद्धिरहिता अपि लघवोऽपि चान्येऽमन्दाः सत्प्रज्ञा यपि । जवन्ति इति वाक्यशेषः । किं विशिष्टाः । ये श्रुतबुद्धयुपेता ज्ञानाद्याचारवन्तः । गुणसुस्थितात्मानः संग्रहादिषु गुणेषु सुष्ठु सारं स्थित श्रात्मा ये For Private Personal Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. षां ते तथा । तथाविधा न हीलनीयाः । ये ही खिताः खिंसिताः शिखीवाग्निरिवेन्धनसंघातं जस्मसात् कुर्युः । ज्ञानादिगुणसंघातमपनयेयुः ॥ ३ ॥ (अर्थ) माटे गुरुनी हीलना विगेरे न करवी एम कहे बे. पगइ इत्यादि सूत्र. ( एगे के० ) एके एटले केटला एक वयोवृद्ध साधु ( पगईइ के० ) प्रकृत्या एटले कर्मनी विचित्रताथी बनेला स्वभाव वडे (मंदा वि के०) मन्दा अपि एटले सारी बु थी रहित एवा पण ( जवंति के० ) जवन्ति एटले होय बे. तेमज ( जे के० ) ये एटले जे केटला एक साधु ( महरा वि के० ) महरा अपि एटले वयथी न्हाना होय तो पण (सुबुद्धोववेथा के० ) श्रुतबुद्ध्युपेताः एटले श्रुत अने बुद्धिवडे युक्त एवा (जवंति के ० ) जवन्ति एटले होय . ( श्रयारमंता के० ) आचारवन्तः एटले ज्ञानाचार प्रमुखने सम्यक् प्रकारे पालनारा एवा तथा ( गुणसुप्पिा के० ) गुणसुस्थितात्मानः एटले गुणोने विषे स्थिर रह्यो बे श्रात्मा जेमनो एवा (जे के० ) ये एटले उपर कड़ेला जे साधु ( ही विश्रा के० ) ही बिता: एटले हीलना करया बता ( सहिरिव ० ) शिखीव एटले अग्निनी पेठे अर्थात् अनि जेम काष्ठसमुदायनुं जस्म करे बे, तेम ते साधु हीलना करनार शिष्यना ज्ञानादि गुण समुदायनुं (जास के० ) जस्म एटले जस्म ( कुता के० ) कुर्युः एटले करे बे. माटे तेमनी हीलना न करवी ॥ ३ ॥ ( दीपिका. ) ये साधवस्ते गुरून् प्रति एवं जानन्ति प्ररूपयन्ति । परं न तु हीलयन्ति । एवं किमित्याह । एके केचन वयोवृद्धाः प्रकृत्या खजावेन कर्मवैचि - त्र्यात् मन्दापि सद्बुद्धिरहिता अपि जवन्ति । तथा अन्ये केचन महरा पि परितापि वयसा श्रमन्दा जवन्ति वाक्यशेषः । किंविशिष्टा इत्याह । ये - तबुद्ध्या उपेताः सहिताः । तथा सत्प्रज्ञावन्तः । श्रुतेन बुद्धिजावेन वा जाविनीं वृत्तिमाश्रित्य अल्पश्रुता श्रपि सर्वथा श्राचारवन्तो ज्ञानाद्याचारसहिताः । पुनः किंविशिष्टाः । गुणसुस्थितात्मानः । गुणेषु सुष्टु जावसारं स्थित श्रात्मा येषां ते तथाविधा नीलनीयाः । ये ही लिताः खिं सिताः शिखीव अग्निरिव इन्धनसमूहं जस्मसात् कुर्युः । ज्ञानादिगुणसमूहमपनयेयुरिति ॥ ३ ॥ ( टीका. ) तो न कार्या हीलनेत्याह च । पगइ ति सूत्रम् । प्रकृत्या खनावेन कर्मवैचित्र्यान्मन्दा अपि सद्बुद्धिरहिता अपि जवन्त्येके केचन वयोवृद्धा श्रपि । तथा महरा अपि चापरिणता अपि च वयसान्येऽमन्दा जवन्तीति वाक्यशेषः । किंविशिष्टा इत्याह । ये च श्रुतबुद्धयुपेतास्तथा सत्प्रज्ञावन्तः । श्रुतेन बुद्धिजावेन वा जा Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः । Այս विनीं वृत्तिमाश्रित्यात्पश्रुता इति सर्वथा आचारवन्तो ज्ञानाद्याचारसमन्विता गुणसुस्थितात्मानो गुणेषु संग्रहोपग्रहादिषु सुष्ठु जावसारं स्थित श्रात्मा येषां ते तथाविधा न हीलनीयाः । ये ही बिताः खिंसिताः शिखी वाग्निरिवेन्धनसंघातं जस्मसात्कुर्युर्ज्ञानादिगुणसंघातमपनयेयुरिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ । जेवि नागं मदरं ति नच्चा, सायए से दिखाय दोइ ॥ एवायरित्र्यंपि हु दीलयंतो निच जाइपदं खु मंदो ॥ ४ ॥ " ( अवचूरिः ) विशेषेण महर ही लनादोषमाह । अत्रैव दृष्टान्तदा न्तिकयोर्महदन्तरमाह । यश्चापि कश्चिदपि नागं महरं बालमिति ज्ञात्वा यशातयति किलिञ्चादिना कदर्थयति । स कदर्थ्यमानो नागः से तस्य कदर्थकस्याहिताय जवति । जक्षणेन प्राणनाशाय स्यात् । एवमाचार्यमपि कारणतोऽपरिणतमेव स्थापितं हीलयन् निछति जातिपन्थानं द्वीन्द्रियादिजातिमार्गम् । मन्दोऽज्ञः संसारं चमतीत्यर्थः ॥ ४ ॥ ( अर्थ. ) हवे कां तेवाज कारणथी पाटे बेठेला न्हानी वयना साधुनी हीलना करवामां बहु दोष एम कहे बे. जे यावि इत्यादि सूत्र. (जे यावि के० ) यश्चापि एटले जे कोइ इ पुरुष ( नागं के० ) नागं एटले सर्पने ( महरति के० ) महर इति एटले न्हानो वे एम (नच्चा के० ) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( श्रासायए के० ) आशातयति एटले सली प्रमुखथी तेने पीडा करे, ( स के० ) सः एटले ते पीडा पामेलो सर्प ( से के० ) तस्य एटले ते पीडा आपनार पुरुषने ( हिश्राय के० ) अहिताय एटले तिने अ ( होइ के० ) जवति एटले थाय बे, अर्थात् ते सर्प ते पुरुषने दंशादिक करे बे. ( एव के० ) एवं एटले या रीते ( श्रयरिअं पि ० ) श्राचार्य - मटिले कारण न्हानी उमरे पाटे बेसाडेला श्राचार्यनी पण ( हीलयंतो के० ) हीलयन् एटले हीलना करनार एवो ( मंदे के० ) मन्दः एटले ज्ञ पुरुष जे ते (खु के० ) खलु एटले निश्चये करीने ( जाइपदं के० ) जातिपथं एटले बेरिंडी प्रमुख प्राणिनी जातिना मार्ग प्रत्ये ( नि के० ) निर्गच्छति एटले जाय े. अर्थात् संसारमां परिभ्रमण करे छे. ॥ ५ ॥ ( दीपिका. ) थ विशेषेण महरस्य हीलने दोषमाह । यश्चापि कश्चिदज्ञो नागं सर्प महर इति बाल इति ज्ञात्वा श्राशातयति क्रुद्रकाष्ठादिना कदर्थयति । स नागः कदर्थ्यमानः से तस्य कदर्थनाकारकस्य हिताय जवति । जक्षणेन प्राणनाशनात् । एष दृष्टान्तः । अथोपनयः । एवमाचार्यमपि कारणतः अपरिणतमेव स्थापितं हीलयन् ' For Private Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. निर्गत जातिपन्थानं द्वीन्द्रियादिजातिमार्गं मन्दोऽज्ञः संसारे परिभ्रमति ॥ ४ ॥ ( टीका. ) विशेषेण महरहीलनादोषमाह । जे याविति सूत्रम् । यश्चापि कश्चिदो नाग सर्प महर इति बाल इति ज्ञात्वा विज्ञाय यशातयति किलिञ्चादिना कदर्थयति । स कदर्थ्यमानो नागः से तस्य कदर्थकस्य हिताय जवति । नक्षणेन प्राणनाशाय जवति । एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनय एवमाचार्यमपि कारणतोऽपरिणतमेव स्थापितं हीलयन् निर्गच्छति जातिपन्थानं द्वीन्द्रियादिजातिमार्गम् । मन्दोऽज्ञः संसारे परिभ्रमतीति सूत्रार्यः ॥ ४ ॥ सीविसो वा वि परं सुरुठो, किं जीवनासान परं तु कुज्जा ॥ प्रायरिपाया पुण अप्पसन्ना, अबोदियासाय नचि मुरको ॥ ५ ॥ ( अवचूरि : ) आशीविषश्चापि सर्पः परं सुरुष्टः सन् किं जीवितनाशात्परं कुर्या - त् । न किंचिदपि । श्राचार्यपादाः पुनरप्रसन्नाः । किं कुर्वन्तीत्याह । श्रबोधिं मिथ्या - त्वम् । यतश्चैवमत श्राशातनया गुरोर्नास्ति मोक्षः ॥ ५ ॥ ( . ) उपर कहेल दृष्टांतमां अने दाष्टतिकमां घणो फेर बे एम कहे बे. यासी विसो इत्यादि सूत्र ( परं के० ) परं एटले अतिशय ( सुरुहो के० ) सुरुष्टः एटले घणो रोष (क्रोध) पामेलो एवो ( आसी विसो वा वि के० ) आशीविषो वापि एटले सर्प प ( जीवनासाठ के० ) जीवनाशात्तु एटले प्राणना नाश करतां ( परं के० ) परं एटले वधारे ( किं नु कुका के० ) किं नु कुर्यात् एटले शुं करे ? अर्थात् . सर्प घणो क्रोधी थाय तो प्राण लिये, पण ए करता वधारे शुं करे ? ( पु के० ) पुनः एटले परंतु ( श्राय रिपाया के० ) आचार्यपादाः एटले परम पुज्य एवा प्राचार्य जे ते (अप्पसन्ना के० ) प्रसन्नाः एटले हीलना करवाथी खपा थया होय तो ( वो हि के० ) अबोधिं एटले मिथ्यात्वनी परंपरा प्रत्ये करे बे. माटे (आसाho ) आशातनया एटले गुरुनी आशातना करे तो ( मुरको के० ) मोक्षः एटले मोक्ष जे ते ( नहि के० ) नास्ति एटले नथी. ॥ ५ ॥ ( दीपिका . ) अत्र दृष्टान्तस्य दान्तिकस्य च महदन्तरमिति एतदेवाह । याशीविषश्चापि सर्पोऽपि परं सुरुष्टः सन् क्रुद्धः सन् । किं जीवितनाशात् मृत्योः परं नु कुर्यात् । न किंचिदपीत्यर्थः । श्राचार्यपादाः पुनः अप्रसन्ना हीलनया अनुग्रहाय प्रवृ ताः । किं कुर्वन्तीत्याह । बोधिं निमित्तहेतुत्वेन मिथ्यात्व संहतिं कुर्वन्ति । कथम् । For Private Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। ५४४ तदाशातनया मिथ्यात्वबन्धात् । यतश्च एवमतः गुरोः श्राशातनया नास्ति मोक्षः।थबोधिसंतानबन्धेन अनन्तसंसारिकत्वादिति ॥ ५॥ (टीका.) अत्रैव दृष्टान्तदान्तिकयोर्महदन्तरमित्येतदाह । आसि त्ति सूत्रम् । श्राशी विषश्चापि सोऽपि परं सुरुष्टः सुक्रुद्धः सन् किं जीवितनाशान्मृत्योः परं कुर्यान्न किंचिदपीत्यर्थः । आचार्यपादाः पुनरप्रसन्ना हीलनयाननुग्रहे प्रवृत्ताः।किं कुवन्तीत्याह । अबोधिं निमित्तहेतुत्वेन मिथ्यात्वसंहतिं तदाशातनया मिथ्यात्वबन्धा. त् । यतश्चैवमत याशातनया गुरोर्नास्ति मोदा इति । अबोधिसंतानानुबन्धेनानन्तसंसारिकत्वादिति सूत्रार्थः ॥५॥ जो पावगं जलिअमवकमिज्जा, पासीविसं वा वि दु कोवज्जा॥ जो वा विसं खाय जीविअही, एसोवमासायणया गुरूणं ॥६॥ (अवचूरिः) पावकं ज्वलितं सन्तमवक्रामेत अवष्टन्य तिष्ठेत् । आशीविषं वापि हि कोपयेत् । रोषं ग्राहयेद्यो वा विषं खादति जीवितार्थी एषोपमापायप्राप्तिं प्रत्येतउपमानमाशातनया कृतया गुरूणां संबन्धिन्या तहदपायो नवतीति ॥६॥ (अर्थ.) वली जो पावगं इत्यादि सूत्र. (जो के) यः एटले जे पुरुष (जलि के०) ज्वलितं एटले देदीप्यमान एवा (पावगं के०) पावकं एटले अनि प्रत्ये (श्रवक्कमिका के०) अपक्रामेत् एटले वलगी रहे. (वा के०) वा एटले अथवा जे पु. रुष (आसीविसं वि के०) श्राशीविषमपि एटले सर्पने पण (हु के०) खलु एटले निश्चये करीने (कोवश्का के०) कोपयेत् एटले क्रोध पमाडे, खीजावे. (वा के०) वा एटले अथवा (जीविही के०) जीवितार्थी एटले जीववानी श्छा करनार एवो (जो के०) यः एटले जे पुरुष (विसं के०) विषं एटले विष प्रत्ये (खाय के) खादति एटले खाय. (गुरूणं के०) गुरूणां एटले गुरुऊनी (श्रासायणया के०) श्राशातनया एटले श्राशातना करी होय तो (एसोवमा के०) एषोपमा एटले श्रा उपर कहेल उपमा (दाखेलो) जाणवी. ॥६॥ (दीपिका.) पुनराह । यः कोऽपि पावकमग्निं ज्वलितं सन्तमपक्रामेत् अवष्टच्य तिष्ठति । आशीविषं वापि जुजंगमं वापि कोपयेत् रोषं ग्राहयेत् । यो वा विषं खादति जीवितार्थी जीवितुकामः । एषा उपमा अपायस्य कष्टस्य प्राप्ति प्रति एतापमानमाशातनया गुरुणां संबन्धिन्या कृतया। तहत् कष्टं नवतीति ॥६॥ (टीका.) किं च । जो पावगं ति सूत्रम् । यः पावकमग्निं ज्वलितं सन्तमपक्रा- . Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४७ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. मेदवष्टन्य तिष्ठति । श्राशीविषं वापि हि जुजंगमं वापि हि कोपयेत् । रोषं ग्राहये. त् । यो वा विषं खादति । जीवितार्थी जीवितुकामः । एषोपमापायप्राप्तिं प्रत्येत. पमानम् । श्राशातनया कृतया गुरूणां संबन्धिन्या। तदपायो नवतीति सूत्रार्थः॥६॥ सित्रा दु से पावय नो डदिला, असीविसो वा कुविन न नके॥ सिआ विसं दालदलं न मारे, न श्रा वि मुरको गुरुदीलणाए॥७॥ (अवचूरिः) अत्र विशेषमाह । स्यात्कदाचित् मन्त्रादिप्रतिबन्धादसौ पावको न दहेत् । श्राशीविषो वा कुपितो न जदयेत् । स्यात्कदाचिहिषं हालाहलं न मारयेत् । नचापि मोदो गुरोहीलनयाशातनया कृतया नवतीति ॥७॥ (अर्थ.) हवे एमां पण विशेष कहे . सिया इत्यादि सूत्र. (सिथा के०) स्यात् एटले कदाच (से के०) सः एटले ते (पावय के०) पावकः एटले अग्नि जे ते मंत्रादिकना प्रजावथी (हु के०) खलु एटले निश्चये करीने (नो डहिजा के०) नो दहेत् एटले बाले नहि. (वा के०) वा एटले अथवा (कुवि के०) कुपितः एटले क्रोध पामेलो एवो (आसीविसो के०) आशीविषः एटले सर्प जे ते (न नस्के के०) न नदयेत् एटले नक्षण करे नहि. (वि के०) अपि एटले तेमज (से के०) तत् एटले ते घणुं आकरूं ए(हालहलं के०) हालाहलं एटले हालाहल नामक विष जे ते (मंत्रादिकना प्रनावथीज)(सिया के०) स्यात् एटले कदाच (न मारे के०) न मारयेत् एटले मरण श्रापे नहि. उपर कहेली वात कदाच बने, पण (गुरुहील. णाए के०) गुरुहीलनया एटले गुरुमहाराजनी हीलना करी होय तो तेनुं फल नोगव्या विना (न श्रावि मुरको के०) न चापि मोक्षः एटले बुटको नथी. ॥७॥ (दीपिका.) तत्र विशेषमाह । स्यात्कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धात् असौ पावकः अग्निः न दहति न नस्मसात् कुर्यात् । श्राशीविषो वा जुजङ्गो वा कुपितो न जदयेत् न खादयेत् । तथा कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादेव विषं हालाहलमतिरौद्धं न मारयेत् न प्राणान् त्याजयेत् । एवमेतत्कदाचिनवति परं नापि मोदो गुरुहीलनया गुरोः श्राशातनया जवतीति ॥७॥ __ (टीका.) अत्र विशेषमाह । सिआ हु त्ति सूत्रम् । स्यात् कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादसौ पावकोऽग्निर्नदहेत् न जस्मसात्कुर्यात् । आशीविषो वा जुजंगो वा कुपितो न जदयेत् न खादयेत् । तथा स्यात्कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादेव विषं हालाहलमतिरौई Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। ५४ए न मारयेत् । न प्राणानां त्यागं कारयेत् । एवमेतत्कदाचिनवति । नचापि मोदो गुरुहीलनया गुरोराशातनया कृतया नवतीति सूत्रार्थः ॥७॥ जो पवयं सिरसा नित्तुमिचे, सुत्तं व सीदं पडिबोहका ॥ जो वा दए सत्तिअग्गे पदारं, एसोवमासायणया गुरूणं॥७॥ (श्रवचूरिः) यः पर्वतं शिरसा मस्तकेन नेत्तुमिछेत् । सुप्तं वा सिंहं प्रतिबोधयेत् । यो वा ददाति शक्त्यग्रे प्रहरण विशेषाग्रे प्रहारं हस्तेन । एषोपमाशातनया गुरूणामिति ॥७॥ (अर्थ.) वली जो पवयं इत्यादि सूत्र. (जो के०) यः एटले जे पुरुष (पवयं के०) पर्वतं एटले पर्वत प्रत्ये (सिरसा के) शिरसा एटले पोताना मस्तक वडे (नेत्तुं के०) नेत्तुं एटले नांगी नाखवाने (श्वे के०) श्वेत् एटले श्छे. अर्थात् कोश पुरुष माथानी टकरथी पर्वतना कटका करवाने चाहे. (व के०) वा एटले अथवा को पुरुष (सुत्तं के०) सुप्तं एटले सुतेला एवा (सीहं के०) सिंहं एटले सिंह प्रत्ये (पडिबोहश्जा के०) प्रतिबोधयेत् एटले जागृत करे. (वा के०) अथवा (जो के०) यः एटले जे कोइ पण पुरुष (सत्तिनग्गे के०) शक्त्यग्रे एटले शक्ति नामक आयुधनी धाराउपर (पहारं के०) प्रहारं एटले पोताना हाथनो प्रहार करे. अर्थात् पो. तानो हाथ जोरथी पढाडे. ते, (गुरुणं के०) गुरुणां एटले गुरुजेनी (आसायणया के०) श्राशातनया एटले आशातना करी होय तो (एसोवमा के०) एषोपमा एटले श्रा उपर कहेली उपमा (दृष्टांत) जाणवी. ॥ ७ ॥ ___ (दीपिका.) पुनः किंच। यः पर्वतं शिरसा मस्तकेन नेत्तुंमिछेत्। सुप्तं वा सिंहं गिरिगुहायां प्रतिबोधयेत् । यो वा ददाति शक्तेः अग्रे प्रहरणविशेषाये प्रहारं हस्तेन एषा उपमा आशातनया गुरूणाम् ॥ ७ ॥ (टीका.) किंच । जो पवयं ति सूत्रम् । यः पर्वतं शिरसोत्तमाङ्गेन नेत्तुमिछेत् । सुप्तं वा सिंहं गिरिगुहायां प्रतिबोधयेत् । यो वा ददाति शक्त्यये प्रहरणविशेषाये प्रहारं हस्तेन । एषोपमाशातनया गुरूणामिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ७॥ सित्रा हु सीसेण गिरि पि निंदे, सिधा हु सीहो कुविन नके॥ सिया न निदिऊ व सत्तिअग्गं, न प्रावि मुको गुरुहीलणाए॥ए॥ (श्रवचूरिः) अत्रापि विशेषमाह । स्यात्कदाचिछासुदेवादिः प्रजावातिशयात् शिरसा गिरिमपि निन्द्यात् । स्यान्मन्त्रादिसामर्थ्यात्सिंहः कुपितो न जदयेत् । स्या Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. देवतानुग्रहादेन निन्द्याछा शक्त्यग्रं प्रहारे दत्तेऽप्येवमेतत्कदाचिनवति। न चापि मोदो गुरुहीलनया गुरोराशातनया नवतीति ॥ ए॥ (अर्थ.) एमां विशेष कहे . सिधा इत्यादि सूत्र. वासुदेव प्रमुख पुरुष जे ते (सिथा के०) स्यात् एटले कदाच (हु के०) खलु एटले निश्चये करीने (सीसेण के०) शीर्षेण एटले मस्तक वडे (गिरि पि के०) गिरिमपि एटले पर्वतने पण पोताना प्रजावथी (निंदे के०) निन्द्यात् एटले नांगी नाखे. तथा (सिया के) स्यात् एटले कदाचित् अर्थात् मंत्रादिकना सामर्थ्यथी (कुवित्रो के०) कुपितः ए. टले क्रोधी थएलो एवो (सीहो के०) सिंहः एटले सिंह जे ते (हु के०) खलु एटले निश्चये करीने (न नरके के०) न नदयेत् एटले नदण न करे. (वा के०) अथवा (सिया के०) स्यात् एटले कदाच देवतादिकना अनुग्रहथी (सत्तिश्रग्गं के०) शक्त्ययं एटले शक्ति नामक श्रायुधनी धारा प्रहार करे बते पण ( ननिंदि. जा के) न निन्द्यात् एटले शरीरादिकने नेदे नहि. आ वात कदाच बने. पण (न था वि मुरको गुरुहीलणाए के०) न चापि मोदो गुरुहीलनया एटले.गुरुनी हीलना करी होय तो तेनुं फल नोगव्या विना बुटको नथी. ॥ ए॥ __(दीपिका.) अत्र विशेषमाह । स्यात्कदाचित् कश्चिद् वासुदेवादिः प्रनावातिशयात् शिरसा मस्तकेन गिरिमपि पर्वतमपि निन्द्यात् । स्यात्कदाचित् मन्त्रादिसामर्थ्यारिसहः कुपितो न जदयेत् । स्यात्कदाचित् देवतानुग्रहादिना शक्त्ययं प्रहारे दत्तेऽपि न निंद्यात् । एवमेतत् कदाचिद् नवति । परं न चापि मोदो गुरुहीलनया गुरोराशातनया नवतीति ॥ ए॥ (टीका.) अत्र विशेषमाह । सिधा हु त्ति सूत्रम् । स्यात्कदाचित्कश्चिद्वासुदेवादिः प्रजावातिशयाविरसा गिरिमपि पर्वतमपि जिन्द्यात् स्मान्मन्त्रादिसामर्थ्यात्सिंहः कुपितो न नयेत् । स्याद्देवतानुग्रहादेन जिन्याछा शक्त्यग्रं प्रहारे दत्तेऽपि । एवमेतत्कदाचिनवति । न चापि मोदो गुरुहीलनया गुरोराशातनया जवतीति सूत्रार्थः ॥ ए॥ आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोदिसायण नबि मुरको॥ तम्हा अगाबादमुदानिकखी, गुरुप्पसायानिमुदो रमिजा ॥१०॥ (अवचूरिः) एवं पावकाद्याशातनाल्पा । गुर्वाशातना तु महतीति प्रदर्शनार्थमाह । आचार्यपादाः पुनरप्रसन्ना इत्यादि पूर्ववत् । यस्मादेवं तस्यादेवानाबा Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। ५५१ धसुखानिकाङ्क्षी मोक्षसुखाभिलाषी स साधुर्गुरुप्रसादानिमुखः श्राचार्यादिप्रसाद उद्यक्तः सन् रमेत तत ॥ १० ॥ (अर्थ.) अग्नि प्रमुखनी श्राशातना करतां गुरुनी श्राशातना मोटी बे. एज देखाडवाने अर्थे कहे . आयरिश इत्यादि सूत्र. "श्रय रिअपाया पुण अप्पसन्ना अबोहि श्रासायण नहि मोरको" एनो अर्थ पांचमी गाथाना उत्तरार्ध माफक जाणवो. (तम्हा के) तस्मात् एटले जे कारण माटे एम जे ते कारण माटे (अणाबाहसुहानिकंखी के०) अनाबाधसुखानिकाङ्क्षी एटले मोक्षसुखनी श्छा करनार पुरुष जे ते (गुरुप्पसायानिमुहो के०) गुरुप्रसादानिमुखः एटले गुरुनी प्रसन्नता राखवाने उद्यमवंत एवो (रमिजा के०) रमेत एटले रहे. ॥ १० ॥ (दीपिका.) एवं पावकाशातना अल्पा । गुर्वाशातना महतीति अतिशयप्रदर्शनार्थमाह । श्राचार्यपादाः पुनः श्रप्रसन्ना इत्यादि पदठ्यव्याख्या पूर्ववत् । यस्मात् एवं तस्मात् अनाबाधसुखानिकाङ्क्षी मोदसुखानिलाषी । साधुगुरुप्रसादानिमुखः आचार्यादीनां प्रसाद उद्यक्तः सन् रमेत ॥१०॥ (टीका.) एवं पावकाद्याशातनाया गुर्वाद्याशातना महतीत्यतिशयप्रदर्शनार्थमाह । आयरिश्र त्ति सूत्रम् । आचार्यपादाः पुनरप्रसन्ना इत्यादिः पूर्वार्धः पूर्ववत् । यस्मादेवं तस्मादनाबाधसुखानिकाङ्क्षी मोदसुखानिलाषी साधुः गुरुप्रसादाजिमुखः । श्राचार्यादिप्रसाद उद्युक्तः सन् रमेत वर्तेत इति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ जदादिअग्गीजलणं नमसे, नाणादुईमंतपयानिसित्तं ॥ एवायरिअं उवचिहा , अपंतनाणोवगा वि संतो॥११॥ (श्रवचूरिः) केन प्रकारेणेत्याह । यथाहिताग्निज्वलनोपस्कारी ब्राह्मणो ज्वलनं नमस्यति । नानाहुतयो घृताद्याः । मन्त्रपदानि 'अग्नये स्वाहा' इत्यादीनि । तैरजिसंस्कृतं दीक्षानिषिक्तमित्यर्थः । एवमग्निमिवाचार्यमुपतिष्ठेत् सेवेत । अनन्तझानोपगतोऽपि सन् ॥ ११॥ (अर्थ.) हवे शी रीते उद्यमवंत रहे ते कहे जे. जहा इत्यादि सूत्र. (जहा के) यथा एटले जेम (आहिअग्गी के०) आहिताग्निः एटले स्थापन कस्या ले अग्नि जेणे एवो ब्राह्मण जे ते (नाणाहुश्मंतपयानिसित्तं के०) नानाहुतिमन्त्रपदाजिषिक्तं एटले घृतादिकनी नानाविध आहुति अने मंत्रना पद वडे संस्कारवालो करेलो एवा (अग्गि के०) अग्निं एटले अग्नि प्रत्ये (नमंसे के०) नमस्यति एटले Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. पूजा करे बे. ( एव के० ) एवं एटले उपर कहेलो ब्राह्मण जेम निनी पूजा • करे बे, तेम साधु जे ते ( श्रणंतनाणोवग वि संतो के० ) अनन्तज्ञानोपगतोऽपि सन् एटले स्वपरपर्यायसहित वस्तुने विषय करनारुं माटे ज अनंत एवा ज्ञाने करी युक्त होय तो पण (आयरिश्रं के० ) आचार्य एटले आचार्य प्रत्ये ( जव चिह्नश्का ho ) उपतिष्ठेत् एटले विनयथी सेवे ॥ ११ ॥ ( दीपिका . ) केन प्रकारेण रमेत इत्याह । श्राहिताग्निः कृतावसथा दिर्ब्राह्मणो येन प्रकारेण ज्वलनमग्निं नमस्यति । किंनूतं ज्वलनम् । नानादुतिमन्त्रपदा जिषिक्तम् । तत्र याहुतयो घृतप्रदेपादिरूपाः । मन्त्रपदानि ' अग्नये खादा ' इत्येवमादीनि । तैः प्राहुतिमन्त्रपदैः श्रजिषिक्तं दीक्षालंकृतमित्यर्थः । एवमग्निमिव आचार्य विनीतः साधुः उपतिष्ठेत् विनयेन सेवेत । किंभूतः साधुः । अनन्तज्ञानोपगतोऽपि । अनन्तं स्वपरपर्यायापेक्षया वस्तु ज्ञायते येन तत् अनन्तं तेन उपगतः सहितोऽपि सन् किमङ्ग पुनः अन्य इति ॥ ११ ॥ ( टीका ) केन प्रकारेणेत्याह । जहा हिश्रग्गि ति सूत्रम् । यथा हिताग्निः कृता वसथा दिर्ब्राह्मणो ज्वलनमग्निं नमस्यति । किं विशिष्टमित्याह । नानादुतिमन्त्रपदा जिषिक्तम् । तत्राहुतयो घृतप्रदेपा दिलक्षणा मन्त्रपदान्यग्नये स्वाहेत्येवमादीनि । तैरनिषिक्तं दीक्षासंस्कृतमित्यर्थः । एवमग्निमिवाचार्यमुपतिष्ठेत् विनयेन सेवेत । किंविशिष्ट इत्याह | अनन्त ज्ञानोपगतोऽपीत्यनन्तं स्वपरपर्यायापेक्षया वस्तु ज्ञायते येन तदनन्तज्ञानं डुपगतोऽपि सन् । किमङ्ग पुनरन्य इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ जस्संतिए धम्मपयाइ सिके, तस्संतिए वेश्यं पनंजे ॥ सक्कारए सिरसा पंजलीन, कायग्गिरा जो मासा निच्चं ॥ १२ ॥ 1 1 ( अवचूरिः ) एतदेवाह । यस्यान्तिके धर्मपदानि सिद्धान्तपदानि शिदेत । तस्यान्ति तत्समीपे । किमित्याह । वैनयिकं प्रयुञ्जीत । विनय एव वैनयिकं तत्कुर्या - दिति जावः । कथमित्याह । सत्कारयेत् । श्रन्युवानादिना शिरसोत्तमाङ्गेन प्राञ्जलिः प्रोताञ्जलिः कायेन वाचा मस्तकेन वन्द इत्यादिरूपया, मनसा जावप्रतिबन्धरूपेण नित्यं सत्कारयेत् न तु सूत्रग्रहणकाल एव ॥ १२ ॥ (अर्थ. ) एज स्पष्ट करे बे. जस्संतिए इत्यादि सूत्र साधु जे ते (जस्सं तिए के० ) यस्यान्तिके एटले जेनी पासे ( धम्मपयाई के० ) धर्मपदानि एटले सिद्धांतनां पदो (सिरके के०) शिक्षेत एटले शीखे. (तस्संतिए के०) तस्यान्तिके एटले तेनी पासे (वेण For Private Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः । ५५३ के० ) वैनयिकं एटले विनय प्रत्ये ( पउंजे के० ) प्रयुञ्जीत एटले करे. शीरीते विनय करवो ते कहे बे. ( जो के० ) अरे शिष्य ( पंजली के० ) प्राञ्जलिः एटले बे हाथ जोडीने ( सिरसा के० ) शिरसा एटले मस्तकवडे तथा ( काय ग्गिरा के० ) कायेन गिरा एटले कायावडे छाने " मरण वंदामि " इत्यादि वाणीवडे तेमज ( य के० ) च एटले वली (मएसा के० ) मनसा एटले जावयुक्त मनवडे ( चिं के० ) नित्यं एटले नित्य अर्थात् केवल पाठ लेवाने समयेज नहि, तो सर्व कालनेविषे - ध्यापक गुरुनो (सक्कारए के०) सत्कारयेत् एटले सत्कार करवो ॥ १२ ॥ ( दीपिका. ) एतदेव पुनः स्पष्टयति । साधुर्यस्य श्राचार्यादेः समीपे धर्मपदानि धर्मफलानि सिद्धान्तपदानि शिक्षेत यदद्यात् । तस्य श्राचार्यादेः अन्तिके समीपे विनयं प्रयुञ्जीत । विनय एव वैनयिकं तत्कुर्यादिति भावः । कथं विनयं कुर्यादित्याह । गुरुं सत्कारयेत्। केन । अयुठानादिना पूर्वोक्तेन युक्तः । पुनः शिरसा मस्तकेन प्राञ्जलिः सन् । तथा कायेन शरीरेण तथा गिरा वाचा ' मस्तकेन वन्द ' इत्यादिरूपया । जो इति शिष्यस्य श्रामन्त्रणे । मनसा जावप्रतिबन्धरूपेण । नित्यं सदैव सत्कारयेत् । न तु सूग्रहणकाल एव । कुशलानुबन्धछेदनप्रसंगात् । एवं च मनसि कुर्यात् ॥ १२ ॥ (टीका.) एतदेव स्पष्टयति । जस्स त्ति सूत्रम् । यस्थान्तिके यस्य समीपे धर्मपदानि धर्मफलानि सिद्धान्तपदानि शिदेतादद्यात् । तस्थान्तिके तत्समीपे । किमित्याह । वै. न किं प्रयुञ्जीत । विनय एव वैनयिकं तत्कुर्यादिति जावः । कथमित्याह । सत्कारयेदज्युच्चानादिना पूर्वोक्तेन । शिरसोत्तमाङ्गेन प्राञ्जलिः प्रोताञ्जलिः सन् कायेन देहेन गिरा वाचा ' मस्तकेन वन्द ' इत्यादिरूपया । जो इति शिष्यामन्त्रणम् । मनसाच जावप्रतिबन्धरूपेण नित्यं सदैव सत्कारयेत् । न तु सूत्रग्रहणकाल एव । कुशलानुबन्धव्यवच्छेदप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ ला दया संजमबंजचेरं, कल्लाणनागिस्स विसो दिवाणं ॥ जे मे गुरू सयमपुसासयंति, तेहिं गुरू सययं पूयामि ॥ १३ ॥ 1 ( अवचूरिः ) एवं मनसि कुर्यादित्याह । लापवादजयरूपा, दयानुकम्पा, संयमः पृथ्व्यादिविषयः । ब्रह्मचर्यं च । एतल्लादि कल्याणजाजिनो मोनाजिनो जीवस्य विशोधिस्थानं कर्ममलापनयनस्थानं वर्त्तते । अनेन ये मां गुरवः सततमनुशासयन्ति शिक्षयन्ति । तानहं गुरून् सततं पूजयामि ॥ १३ ॥ ( .) गुरुनी सेवा करता मनमां परिणाम केवा राखवा ते कहे बे. लता इ ७० For Private Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस ४३-मा. त्यादि सूत्र. ( कल्लाजा गिस्स के० ) कल्याणजागिनः एटले शुनमार्गे चालनार होवाथी कल्याणनो जागी एवा साधुने ( लका के० ) लका एटले लोकापवादनयरूप लका, ( दया के० ) दया एटले दया. ( संजम के० ) संयमः एटले षड्जीव निकायनी यतना रूप संयम तथा ( वंजचेरं के० ) ब्रह्मचर्यं एटले विशुद्ध तपस्या प्रमुखनुं श्राचरण करवुं ते. या सर्व ( विसोहिठाणं के० ) विशोधिस्थानं एटले करूप मलने धोइ नाखनार एवं बे. ( जे के० ) ये एटले जे ( गुरू के० ) गुरवः एटले गुरु जे ते ( मे के० ) मां एटले मने ( सययं के० ) सततं एटले निरंतर ( - सासति ० ) अनुशासयन्ति एटले कल्याण प्राप्तिने अर्थे शिखामण दे बे, (तेहिं के० ) तान् एटले ते ( गुरू के० ) गुरुन् एटले गुरु प्रत्ये ( सययं के० ) सततं ए निरंतर (यामि के० ) पूजयामि एटले पूजुं बुं. ॥ १३ ॥ ( दीपिका. ) लता, दया, संयमो, ब्रह्मचर्यं च एतच्चतुष्टयं कल्याणनागिनो मोक्षा जिलाषिणो जीवस्य विपक्षव्यावृत्त्या कुशलपक्षप्रवर्त्तकत्वेन च विशोधिस्थानं क - लापनयनस्थानं वर्त्तते । तत्र ला अपवादजयरूपा । दया अनुकम्पा । संयमः पृ'थिव्यादिविषयः । ब्रह्मचर्यं विशुद्धतपोऽनुष्ठानम् । एतत्कथनेन एतज्ज्ञातं । ये गुरवो मां सततं निरन्तरमनुशासयन्ति कल्याणयोग्यतां नयन्ति । तान् श्रहमेतादृशान् गुरून् सततं पूजयामि । न तेन्यः अन्यः पूजायोग्य इति ॥ १३ ॥ ( टीका. ) एवं च मनसि कुर्यादित्याह । लता दय त्ति सूत्रम् । ला अपवादजयरूपा । दयानुकम्पा । संयमः पृथिव्यादिजीव विषयः । ब्रह्मचर्यं विशुद्धतपोऽनुष्ठानम् । एतादि विपक्षव्यावृत्त्या कुशलपक्षप्रवर्त्तकत्वेन कल्याणजागिनो जीवस्य विशोधिस्थानं कर्ममलापनयनस्थानं वर्त्तते । अनेन ये मां गुरव आचार्याः सततमनवरतमनुशासयन्ति कल्याणयोग्यतां नयन्ति । तानहमेवंभूतान् गुरून् सततं पूजयामि । न तेन्योऽन्यः पूजाई इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ जहा निसंते तवञ्चिमाली, पनासई केवल नारदं तु ॥ एवायरन सीलबुद्धिए, विरायई सुरमने व इंदो ॥ १४ ॥ ( यवचूरिः ) यथा निशान्ते रात्र्यवसाने दिवस इत्यर्थः । तपन्नार्चिर्माली सूर्यः प्रजासत्योतयति । केवलं संपूर्ण जारतम् । तुशब्दादन्यच्च । एवमाचार्यः । श्रुतेन, शीलेन परद्रोह विरतिरूपेण, बुद्ध्या च युक्तः सन् प्रकाशयति जीवादीन् । एवं वर्त्त - मानः स साधुनिः परिवृतो विराजते सुरमध्य श्वेन्द्रः ॥ १४ ॥ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। (अर्थ.) श्रा कारणथी पण ए गुरु अतिशय पूज्य , एम कहे बे. जहा इत्यादि सूत्र. (जहा के०) यथा एटले जेम ( निसंते के०) निशान्ते एटले रात्रिनो अंत थए बते अर्थात् दिवसने विषे (तवणच्चिमाली के०) तपन्नर्चिाली एटले प्रकाश करतो एवो सूर्य जे ते (तु के०) निश्चये करीने (केवलजारहं के०) केवलनारतं एटले संपूर्ण नरत देत्र प्रत्ये (पन्नासए के०) प्रजासयेत् एटले प्रकाशित करे . (एव के०) एवं एटले ए प्रकारे (थायरि के०) आचार्यः एटले आचार्य जे ते (सुअसीलबुकिए के०) श्रुतशीलबुट्या एटले श्रुत ते आगम, शील ते पारकानुं मा करवानी श्छा न राखवी ते अने बुद्धि ते खानाविकबुद्धि ए त्रण वस्तुवडे, जीवा दिपदार्थोने यथार्थपणे प्रकाशित करे बे. तथा (व के०) वा एटले जेम (सुरमने के०) सुरमध्ये एटले देवताउँमा (इंदो के) इंडः एटले इंघ शोच्ने बे, तेम साधुसमुदायमां (विरायई के०) विराजते एटखे शोने जे. ॥ १४ ॥ (दीपिका.) अतः कारणाद् एते पूज्या इत्याह । अर्चिाली सूर्यः निशान्ते रात्रे अन्ते दिवस इत्यर्थः। केवलं संपूर्ण नारतं जरतदेत्रम्।तुशब्दादन्यच्च । क्रमेण प्रना. सयति उद्योतयति । किं कुर्वन् अचिौली। तपन् । एवमाचार्यों जीवादिनावान् प्रकाशयति । किंजूत श्राचार्यः । श्रुतशीलबुद्धिकः। श्रुतेन आगमेन शीलेन परोहवि. रमणेन बुद्ध्या च खानाविक्या युक्तः सन् । एवं च वर्तमान आचार्यः साधुनिः परिवृतो विराजते । क व । सुरमध्ये सामानिकादिदेवमध्ये गत इन्छ श्व ॥ १४ ॥ (टीका.) श्तश्चैते पूज्या इत्याह । जह त्ति सूत्रम् । यथा निशान्ते रात्र्यवसाने दिवस इत्यर्थः। तपन्नचिौली सूर्यः प्रनासयत्युदयोतयति । केवलं संपूर्ण नारतं नरतक्षेत्रम्।तुशब्दादन्यच्च।क्रमेणैवमर्चिालीवाचार्यःश्रुतेनागमेन शीलेन परोह विरतिरूपेण बुध्या च स्वाजा विक्या युक्तः सन् प्रकाशयति जीवादिनावानिति। एवं च वर्त्तमानः सुसाधुनिःपरिवृतो विराजते। सुरमध्य श्वसामानिकादिमध्यगत श्व इन्ज शति १५ जहा ससी कोमुजोगजुत्तो, नकत्ततारागणपरिखुडप्पा ॥ खे सोदई विमले अनमुक्के, एवं गणी सोह निरकुमने ॥२५॥ (श्रवचूरिः ) किंच । यथा शशी कौमुदीयोगयुक्तः । कार्तिकपौर्णमास्यामुदित इ. त्यर्थः। नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा तारादिनिर्वत इत्यर्थः । ख आकाशे शोजते विमलेऽनमुक्त । एवं गणी श्राचार्यः शोजते निकुमध्ये ॥ १५॥ (अर्थ.) वली जहा इत्यादि सूत्र. (जहा के० ) यथा एटले जेम (कोमुजो Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग ततालीस-(४३)-मा. गजुत्तो के०) कौमुदीयोगयुक्तः एटले चंडिकाना (चन्नीना) योगे करीने युक्त अर्थात् कार्तिकी पूर्णिमानी रात्रिए जगेलो एवो (नकत्तरागणपरिवुमप्पा के०) नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा एटले नदात्रोना तथा ताराना समुदाय रूप परिवारे वीटायलो एवो (ससी के०) शशी एटले चंउमा जे ते (अप्नमुक्के के०) अचमुक्ते एटले निर्मल एवा (खे के०) खे एटले आकाशने विषे ( सोहर के०) शोजते एटले शोने बे. (एवं के०) एवं एटले ए प्रकारे (गणी के०) गणिः एटले आचार्य जे ते (निस्कुमने के०) निक्कुमध्ये एटले साधुऊमां (सोहर के०) शोजते एटले शोने जे. ॥१५॥ __ (दीपिका.) पुनराह । यथा चन्छःख आकाशे शोजते । किंनूतः। कौमुदीयोगयुक्तः। कार्तिकपौर्णमास्यामुदितः। पुनः किंनूतः चन्छः । नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा।नदात्रैः ताराणां गणैर्वृन्दैर्युक्त इति नावः । किंजूते खे । अनमुक्ते। पुनः किंजूते खे । विमले निर्मले । अन्तमुक्तमाकाशमत्यन्तं निर्मलं नवतीति ख्यापनार्थम् । तदेवं चन्न व गणी श्राचार्यः शोचते निकुमध्ये । अतोऽयं गुरुः महत्वात्पूज्य इति ॥ १५ ॥ (टीका.) किंच । जह त्ति सूत्रम् । यथा शशी चन्छः कौमुदीयोगयुक्तः कार्तिकपौर्णमास्यामुदित इत्यर्थः। स एव विशेष्यते । नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा नक्षत्रादिनियुक्त इति जावः । ख श्राकाशे शोजते । किंविशिष्टे खे। विमलेऽज्रमुक्ते । अत्रमु. क्तमेवेदं विमलं नवतीति ख्यापनार्थमेतत् ।एवं चन्श्व गण्याचार्यः शोजते जिगुमध्ये साधुमध्ये । अतोऽयं महत्त्वात्पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ महागरा आयरिआ महेसी, समाहिजोगे सुअसीलबुझिए॥ संपाविनकामे अणुत्तराई, आरादए तोस धम्मकामी ॥१६॥ (अवचूरिः) महाकरा झानादिनावरत्नाकरा महेषिणो मोदैकाजिलाषिणः । कैः। समाधियोगश्रुतशीलबुफिनिः । समाधियोगैः। ध्यानविशेषैः। श्रुतेन हादशाङ्गाच्यासेन। शीलेन सदाचाररूपेण। बुध्या चौत्पत्तिक्यादिरूपया। अन्ये तु व्याचक्षते । श्रुतशीलबुद्धीनां महाकरा इति। तान् आचार्यान् संप्रातुकामोऽनुत्तराणि झानादीनि आराधये हिनयकरणेन। न सकृदेव । अपितु तोषयेदसकृत्करणेन धर्मकामो निर्जरार्थम् ॥१६॥ - (अर्थ.) वली महागरा इत्यादि सूत्र. (अणुत्तरा के० ) अनुत्तराणि एटले सर्वोत्कृष्ट एवा झानादि रत्नोनी (संपाविउकामे के०) संप्रातुकामः एटले प्राप्तिनी इ. छा करनार एवा साधु जे ते (महागरा के०) महाकरान् एटले ज्ञानादि रत्नोनी खा. Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। एय णरूप एवा तथा ( समाहिजोगेसुअसीलबुझिए के० ) समाधियोगश्रुतशीलबुझिनिः समाधियोग एटले समाधियोग नामक ध्यानवडे, श्रुत एटले छादशांगी रूप श्रुत वडे, शील एटले पारकुं मावं करवानी श्छा न राखवी तेवडे तथा बुकि एटले औत्पत्तिकी प्रमुख बुद्धिवडे ( महेसि के०) महेषिणः एटले मोद प्राप्तिने अर्थे उद्यमवंत एवा (थायरिश्रा के० ) श्राचार्यान् एटले आचार्यप्रत्ये (धाराहए के०) श्राराधयेत् एटले विनय प्रमुख करीने आराधे. केवल ज्ञान मेलववानी श्वाथीज थोडीवार आचार्यनी आराधना करवी एम नथी. तो (धम्मकामि के०) धर्मकामी एटले कर्मनिर्जरानो हेतुनूत एवा धर्मनी श्छा करनार साधु जे ते (तोसय के) तोषयेत् एटले सतत सेवा करी आचार्यजीने प्रसन्न करे. ॥१६॥ (दीपिका.) पुनः किंच। धर्मकामो निर्जरार्थं । नतु ज्ञानफलापेदयापि। साधुः तान् श्राचार्यान् संप्राप्तुकामोऽनुत्तराणि ज्ञानादीनि श्राराधयेद् विनयकरणेन । न एकवारमेव । किंतु तोषयेद् वारंवारं विनयकरणेन संतोषं ग्राहयेत्। तान् कान् आचार्यान्। ये महाकराः । ज्ञानादिनावरत्नानामाकराः । पुनः किंजूता श्राचार्याः । महेषिणः मो. दैषिणः । कथं महैषिणः । इत्याह । समाधियोगश्रुतशीलबुझिनिः। समाधियोगैा. नविशेषैः श्रुतेन हादशाङ्गानिधानेन शीलेन परोह विरतिरूपेण बुद्ध्या च औत्पत्तिक्यादिरूपया । अन्य श्राचार्या श्वं व्याख्यानयन्ति । समाधियोगश्रुतशीलबुद्धीनामाकरा इति ॥ १६ ॥ (टीका.) किंच । महागर त्ति सूत्रम् । महाकरा ज्ञानादिजावरत्नापेक्षया श्राचार्या महैषिणो मोदैषिणः । कथं महैषिण इत्याह । समाधियोगश्रुतशीलबुद्धिभिः । समाधियोगानविशेषैः, श्रुतेन द्वादशाङ्गान्यासेन, शीलेन परोह विरतिरूपेण, बुष्ट्या चौत्पत्तिक्या दिरूपया । अन्ये तु व्याचदते । समाधियोगश्रुतशीलबुद्धीनां महाकरा इति । तानेवंजूतानाचार्यान् संप्रासुकामोऽनुत्तराणि ज्ञानादीनि आराधयेद्विनयकरणेन । न सकृदेवापि तु तोषयेदसकृत्करणेन तोषं ग्राहयेत् । धर्मकामो निर्जरार्थ न तु ज्ञानादिफलापेक्षयापीति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ सुच्चा ण मेदावि सुनासिआई, सुस्सूसए आयरिअप्पमत्तो॥ अराहश्त्ता ण गुणे अणेगे, से पावई सिक्ष्मिणुत्तरं ति बेमि ॥१७॥ विणयसमाहीए पढमो उद्देसो संमत्तो॥१॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद,नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अवचूरिः) श्रुत्वा मेधावी सुजाषितानि शुश्रूषयेदाचार्यमप्रमत्तः । एवं गुरुशुश्रूषापरः स श्राराध्य गुणाननेकान् झानादीन् प्राप्नोति सिछिमनुत्तरां मुक्तिमनन्तसौख्यामित्यर्थः ॥ १७ ॥ इति विनयसमाध्यवचूरावुक्तः प्रथम उद्देशः ॥१॥ (अर्थ.) सोच्चा णं इत्यादि सूत्र. ( मेहावि के० ) मेधावी एटले बुद्धिशाली एवा साधु जे ते (सुनासिथा के०) सुनाषितानि एटले गुरुनी अराधनाना फल कहे. नारा एवा सारा वचनो प्रत्ये ( सोच्चा के०) श्रुत्वा एटले सांजलीने (अप्पमत्तो के) थप्रमत्तः एटले निमादि प्रमादनो त्याग करतो तो (आयरिश के०) अचार्यान् एटले आचार्यप्रत्ये (सुस्सूसए के०) शुश्रूषयेत् एटले सेवे; अर्थात् श्राचार्यनी आणामां रहे. श्रा रीते जे वर्ते, ( से के०) सः एटले ते साधु जे ते (श्रणेगे के०) अनेकान् एटले घणा (गुणे के०) गुणान् एटले ज्ञानादि गुणो प्रत्ये (श्राराहएत्ता के०) थाराधयित्वा एटले आराधना करीने (अणुत्तरं के० ) अनुत्तरां एटले सर्वोत्कृष्ट एवी (सिर्कि के०) सिकिं एटले मुक्तिरूप सिकि प्रत्ये (पाव के०) प्राप्नोति एटले पामे बे. (तिबेमि) एनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो, आ गाथामां बे एकार ले ते वाक्यालंकारने अर्थे जाणवा ॥ १७ ॥ इति विनयसमाधि अध्ययनना बालावबोधनो प्रथम उद्देश संपूर्ण ॥१॥ (दीपिका.) पुनराह । मेधावी पएिकतः साधुः सदा श्राचार्यान् शुश्रूषयेत् । किं कृत्वा । सुजाषितानि गुर्वाराधनफलानिधायकानि श्रुत्वा । किंविशिष्टो मेधावी । अप्रमत्तः निनादिप्रमादरहितः । य एवं गुरुशुश्रूषापरः स गुणान् अनेकान् ज्ञानादिरूपान् श्राराध्य सिझिमनुत्तरां मुक्तिमनन्तरं सुकुलादिपरम्परया वा प्राप्नोति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १७ ॥ इति श्रीदशवैकालिके शब्दार्थवृत्तौ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां नवमाध्ययने प्रथमोद्देशकः समाप्तः॥१॥ (टीका.) सोचा णं ति सूत्रम् । श्रुत्वा मेधावी सुजाषितानि गुर्वाराधनफलानिधायीनि । किमित्याह । शुश्रूषयेदाचार्यानप्रमत्तो निकादिरहितस्तदाज्ञां कुर्वीतेत्यर्थः। य एवं गुरुशुश्रूषापरः स आराध्य गुणाननेकान् ज्ञानादीन् प्राप्नोति सिकिमनुत्तराम्। मुक्तिमित्यर्थः । अनन्तरं सुकुलादिपरंपरया वा । ब्रमीति पूर्ववदयं सूत्रार्थः॥१७॥ इति श्रीदशवैकालिकटीकायां श्रीहरिजमसूरिविरचितायां नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने वितीय उद्देशकः। ԱԱԾ अथ द्वितीय उद्देशः। मूलाज खंधप्पनवो दुमस्स, खंधान पबा समुर्विति साहा ॥ साहप्पसाहा विरुदंति पत्ता, तासि पुप्फ च फलं रसो अ॥१॥ (अवचूरिः) अथ द्वितीय उद्देश उच्यते । मूलाद् आदिप्रबन्धात् स्कन्धोत्पत्तिधूमस्य । स्कन्धात्पश्चात्समुपयान्ति शाखाः। शाखान्यः प्रशाखा विरोहन्ति जायन्ते । तान्योऽपि पत्राणि । ततः से तस्य सुमस्य पुष्पं च फलं च रसश्च फलगत एव । एते क्रमेण नवन्तीति ॥१॥ (अर्थ.) हवे विनयना अधिकारमांज बीजो उदेश कहे . मूलान इत्यादि सूत्र. (मूलाउ के०) मूलात् एटले मूलथी (जडथी) (उमस्स के०) पुमस्य एटले वृदना (खंधपत्नवो के०) स्कन्धप्रजवः थडनी उत्पत्ति थाय बे. (पछा के०) पश्चात् एटले थड उत्पन्न थया पली(खंधाज के०) स्कन्धात् एटले थडथकी (साहा के०) शाखाः एटले शाखाउँ जे ते (समुर्विति के०) समुपयान्ति एटले उत्पन्न थाय डे. (साहप्पसाहा के ) शाखान्यः प्रशाखाः एटले शाखाउँथकी नानी शाखा (विरुहंति के०) विरोहन्ति एटले उत्पन्न थाय बे. ( त के०) ततः एटले ते नानी शाखाउँ थकी ( पत्ता के०) पत्राणि एटले पात्रां उत्पन्न थाय . ते पात्राथकी (सि के० ) तस्य एटले ते वृदने (पुप्फं के०) पुष्पं एटले पुष्प (च के०) च एटले पुनः (फलं के०) फलं एटले फल (श्र के) च एटले अने ( रसो के०) रसः एटले रस अनुक्रमे थाय .॥१॥ (दीपिका.)अथ नवमाध्ययने विनयाधिकार एव द्वितीयोद्देशकःप्रारभ्यते। पूर्व प्रथमोद्देशके विनयसमाधिरुक्तः। द्वितीयोऽपि विनयाधिकारवान् उच्यते। तत्र सूत्रम्।चुमस्य वृक्षस्य मूलादादिप्रबन्धात् स्कन्धप्रनवः स्थुमोत्पादः। ततः स्कन्धात्पश्चात् शाखास्तस्य जुजाकल्पाः समुपयान्तिश्रात्मानं प्राप्नुवंति उत्पद्यन्त इत्यर्थः। तथा शाखाज्य उक्तस्वरूपाच्यःप्रशाखास्तासामंशन्नता विरोहन्ति जायन्ते । तथा ताज्योऽपि प्रशाखाज्यः पत्राणि पर्णानि विरोहन्ति । ततस्तदनन्तरं से तस्य सुमस्य पुष्पं च फलं च रसश्च ॥१॥ (टीका.) विनयाधिकारवानेव द्वितीय उच्यते । तत्रेदमादिमं सूत्रम्। मूलान इत्यादि । श्रस्य व्याख्या।मूलादादिप्रबन्धात् स्कन्धप्रनवः स्थुडोत्पादः। कस्येत्याह। सुमस्य वृक्षस्य । ततः स्कन्धात् सकाशात् पश्चात्तदनु समुपयान्त्यात्मानं प्राप्नुवंत्युत्पद्यंत इत्यर्थः । कास्ता इत्याह । शाखास्त जाकल्पाः । तथा शाखान्य उक्तलक्षणान्यः Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रशाखास्तदंशनूता विरोहन्ति जायन्ते । तथा तेन्योऽपि पत्राणि पर्णानि विरोहन्ति । ततस्तदनन्तरं से तस्य उमस्य पुष्पं च फलं च रसश्च फलगत एवैते क्रमेण नवन्तीति सूत्रार्थः॥१॥ एवं धम्मस्स विणो, मूलं परमो असे मुको॥ जेण कित्तिं सुअं सिग्धं, नीसेसं चानिगब॥२॥ (अवचूरिः ) एवं दृष्टान्तमनिधाय दान्तिकयोजनामाह । एवं धर्मकल्पामस्य विनयो मूलम् । परमः प्रधानो रसः से तस्य मोदः । स्कन्धप्राप्तानि सुरासुरनरसुखानि । येनेति तृतीया पञ्चम्यर्था ।यतो विनयात्पत्रकल्पां कीर्ति पुष्पकल्पं श्रुतं श्लाघ्यं प्रशंसास्पदनूतं च निःशेषमधिगति प्राप्नोति ॥२॥ (अर्थ.) उपर कहेल दृष्टांत दा तिकने विषे जोडे बे. एवमित्यादि सूत्र.(एवं के) एवं एटले जेम वृक्षना मूल प्रमुख उपर कह्यां तेम (धम्मस्स के ) धर्मस्य एटले धर्म रूप कल्पवृदनुं ( विण के) विनयः एटले विनयरूप (मूलं के०) मूलं एटले मूल जाणवं. (श्र के०) च एटले अने (से के०) तस्य एटले ते धर्मरूप कल्पवृदनो (मुस्को के० ) मोक्षः एटले मोदरूप ( परमो के ) परमः एटले फलमांनो उत्कृष्ट रस जाणवो. तथा एना खंध विगेरेने स्थानके देवलोकनी प्राप्ति, सारा कुलमां उत्पत्ति प्रमुख जाणवां. हवे विनय केवो ते कहे . ( जेण के०) येन एटले जे विनयवडे सर्वत्र ( कित्तिं के0) कीर्ति एटले यश कीर्ति, (सुअं के०) श्रुतं एटले अंगप्रविष्टादि श्रुत अने ( नीसेसं के०) निःशेषं एटले संपूर्ण (सिग्धं के०) २लाध्यं एटले श्रेष्ठ वस्तु प्रत्ये (अहिगल के०) अधिगति एटले पामे . ॥२॥ (दीपिका.) एवं दृष्टान्तमनिधाय दार्टान्तिकयोजनामाह। एवं धर्मस्य परमकल्पवृक्षस्य विनयो मूलमादिप्रबन्धरूपं परम इति अग्रो रसः। से तस्य फलरसवन्मोदः। स्कन्धादिकल्पानि तु देवलोकगमनसुकुलागमादीनि अतो विनयः कर्तव्यः । येन विनयेन कृत्वा साधुः कीर्ति सर्वत्र शुनप्रवादरूपामधिगति प्राप्नोति । पुनः श्रुतम् । अङ्गप्रविष्टादि । श्लाघ्यं प्रशंसास्पदीनूतं निःशेषं संपूर्णं च प्राप्नोति ॥२॥ (टीका. )एवं दृष्टान्तमनिधाय दार्टान्तिकयोजनामाह । एवं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। एवं घुममूलवत्।धर्मस्य परमकल्पवृक्षस्य विनयो मूलमादिप्रबन्धरूपम्। परम श्त्ययो रसः। से तस्य फलरसवन्मोदः स्कन्धादिकल्पानि तु देवलोकगमनसुकुलागमनादीनि।अतो विनयःकर्तव्यः।किंविशिष्ट इत्याद। येन विनयेन कीर्ति सर्वत्र शुजप्रवादरूपां Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। ५६१ तथा श्रुतमङ्गप्रविष्टादि । श्लाघ्यं प्रशंसास्पदनूतं निःशेषं संपूर्णमधिगमति प्राप्नोतीति । जे अचमे मिए थडे, दुवाई नियमी सढे ॥ वुन से अविणीअप्पा, कळं सोअगयं जदा ॥ ३ ॥ (श्रवचूरिः) अविनयवतो दोषमाह। यश्च चंगो रोषणः, मृगो मूर्खः, स्तब्धो जात्यादिमदोन्मत्तः। पुर्वादी अप्रियवक्ता। निकृती मायी । शवः संयमयोगेष्वनाहतः। एतेच्यो दोषेच्यो योऽविनयं करोति। स उह्यते संसारस्रोतसा अविनीतात्मा काष्ठं स्रोतोगतं प्रवाहपतितं यथा ॥३॥ __ (अर्थ.) जे विनय साचवतो नथी तेनो दोष कहे . जे इत्यादि सूत्र. (जे के०) यः एटले जे पुरुष (चंझे के०) चएमः एटले क्रोधी, (मिए के० ) मृगः एटले अज्ञ (थके के) स्तब्धः एटले जातिप्रमुखना अहंकारथी उन्मत्त थएलो, (ज्वाई के०) पुर्वादी एटले अप्रिय नाषण करनारो, (निथडी के०) निकृतिमान् एटले कपटी (श्र के०) च एटले अने (सढे के०) शठः एटले संयम व्यापारने विषे निष्कालजी एवो होवाथी विनय न करे. (से के०) सः एटले ते (अविणयप्पा के०) अविनीतात्मा एटले सर्व कल्याण- साधन एवा विनयने न साचवनार पुरुष जे ते (सोअगयं के०) स्रोतोगतं एटले जलना प्रवाहमां पडेलु (कळं के०) काष्ठं एटले काष्ठ (लाकडं) (जहा के०) यथा एटले जेम तणाजाय ने तेम (वुष के०) जह्यते एटले संसार समुज्ना प्रवाहमा तणा जाय जे. ॥३॥ (दीपिका.) श्रथ अविनयदोषमाह । साधुः एतेन्यो दोषेच्यो विनयं न करोति । स संसारस्रोतसा उह्यते । किंवत् । काष्ठमिव । किंनूतं काष्ठम् । स्रोतोगतं न. या दिवहनीपतितम् । किंनूतः साधुः। चएको रोषणः। पुनः किंनूतः साधुः । मृगोऽझो हितमपि उक्तो रुष्यति। पुनः स्तब्धः जात्या दिमदोन्मत्तः। पुनः उर्वादी अप्रियवक्ता। पुनः निकृतिमान् मायासहितः। पुनः शवः संयमयोगेषु श्रादररहितः। पुनः अविनीतात्मा सकलकल्याणकारणेन विनयेन रहितः ॥३॥ (टीका.) अविनयवतो दोषमाह।जे अति सूत्रम् । अस्य व्याख्या।यश्चएको रोषणो मृगोऽज्ञः हितमप्युक्तो रुष्यति । तथा स्तब्धो जात्या दिमदोन्मत्तः । उर्वागप्रियवक्ता। निकृतिमान् मायोपेतः ।शःसंयमयोगेष्वनाहत एज्यो दोषेच्यो विनयं न करोति यः। उह्यतेऽसौ पापः संसारस्रोतसा अविनीतात्मा सकलकल्याणैकनिबन्धनविनयविरहितः। किमिवेत्याह । काष्ठं स्रोतोगतं नद्या दिवहनीपतितं यथा तहदिति सूत्रार्थः॥३॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. विणयंमि जो जवाएणं, चोइ कुप्पई नरो॥ दिवं सो सिरिमिऊंति, दंमेण पमिसेदए ॥४॥ ___(अवचूरिः) विनय उपायेन एकान्तमृतणनादिरूपेण चोदित उक्तः कुप्यति नरो योऽत्र । निदर्शनमाह । दिव्याममानुषीमसौ श्रियमागछन्तीमात्मनो जवन्तीं दएमेन काष्ठमयेन प्रतिषेधयति निवारयति ॥४॥ (अर्थ.) वली विणयंमि इत्यादि सूत्र. (जो के०) यः एटले जे (नरो के०)नरः एटले मनुष्य जे ते (उवाएण के०) उपायेन एटले मिष्ट वचन प्रमुख उपाय वडे (विणयंमि के) विनये एटले विनयने विषे ( चोळ के०) चोदितः एटले प्रेयो बतो अर्थात् मीग वचनथी विनय साचववाने अर्थे को कंश कहे तो (कुंप्पई के) कुप्यति एटले क्रोध करे. ( सो के०) सः एटले ते पुरुष (जंति के०) श्रायान्तीं एटले पोतानी मेले श्रावती एवी (दिवं के०) दिव्यां एटले अलौकिक, श्रेष्ठ एवी (सिरिं के०) श्रियं एटले लक्ष्मीप्रत्ये (दंडेण के०) दंडेन एटले दंड (लाकडी) वडे (पडिसेहए के०) प्रतिषेधयति एटले पानी वाले बे. तात्पर्य, विनय संपदानुं मूल बे, माटे ते अवश्य करवो.॥४॥ (दीपिका.) पुनः किंच । यो नरः विनयमुक्तलक्षणं प्रति उपायेन एकान्तमृदुनपनादिलक्षणेनापि संबन्धेन चोदित उक्तः सन् कुप्यति रुष्यति । स किं करोतीत्याह । स दिव्याममानुषीं श्रियं लक्ष्मीमागबन्तीमात्मनो जवन्तीं दएफेन काष्ठमयेन प्रतिषेधयति निवारयति । अयं परमार्थः। विनयः संपदा निमित्तं । तत्रस्खलितं यदि कश्चिन्नोदयति स गुणः । तत्रापि रोषकरणे वस्तुतः संपदां निषेधः ॥ ४ ॥ (टीका.) किं च विणयंमीति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। विनयमुक्तलक्षणं य जपायेनाप्येकान्तमृपुजनादिलक्षणेनाप्यपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः । चोदित उक्तः कुप्यति रुष्यति नरः । श्रत्र निदर्शनमाह । दिव्याममानुषीमसौ नरः श्रियं लक्ष्मीमागन्तीमात्मनो नवन्तीं दएमेन काष्ठमयेन प्रतिषेधयति निवारयति । एतमुक्तं जवति । विनयः संपदो निमित्तम् । तत्र स्खलितं यदि कश्चिच्चोदयति । स गुणस्तत्रापि रोषकरणेन वस्तुतः संपदो निषेधः । उदाहरणं चात्र दशारादयः कुरूपागतश्रीप्रार्थनाप्रणयनंगकारिणस्तहितास्तदनङ्गकारी च तद्युक्तः कृष्ण इति सूत्रार्थः॥४॥ तदेव अविणीअप्पा, उववना दया गया। दीसंति दुदमेहंता, आनिगमुवठिा ॥५॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। ५६३ (श्रवचूरिः ) अविनयदोषमाह । तथैव ते अविनीतात्मानः अनात्मझा उपवाह्यानां राजादिवबजानामेते कर्मकरा इत्यौपवाह्या हया अश्वा गजा हस्तिनः। उपलक्षणं चैतन्महिषादीनाम्। दृश्यन्ते तृणादिवोढारः । पुःखं संक्लेशलक्षणमेधमाना अनेकार्थत्वादनुजवन्त श्राजियोग्यं कर्मकरत्वमुपस्थिताः प्राप्ताः ॥५॥ (अर्थ.) वली अविनयना दोष देखाडवाने श्रर्थे कहे . तहेव इत्यादि सूत्र. (तहेव के०) तथैव एटले तेमज (अविणीअप्पा के०) अविनीतात्मानः एटले विनयरहित एवा (उववप्ना के०) औपवाह्याः एटले प्रधान सेनापति प्रमुख लोकोना (हया के०) हयाः एटले अश्व तथा (गया के०) गजाः एटले गज प्रमुख जे ते (ऽहं के०) उःखं एटले दुःख प्रत्ये (एहंता के०) एधमानाः एटले जोगवता एवा तथा (आनिउँग के०) आनियोग्यं एटले सेवक पणा प्रत्ये (उबहिश्रा के) उपस्थिताः एटले पामेला एवा अर्थात् जारवाहक (नार उपाडनार थएला) एवा (दीसंति के०) दृश्यन्ते एटले देखाय बे. ॥५॥ (दीपिका.) अविनयदोषस्य उपदर्शनार्थमेवाह । तथैव ते अविनीतात्मानो विनयरहिता अनात्मा उपवाह्यानां राजादिवबनानामेते कर्मकरा इत्यौपवाह्या या अश्वा गजा हस्तिन उपलक्षणत्वात् महिषादयश्च एते। किमित्याह । दृश्यन्त उपलज्यन्त एव मन्दुरादौ अविनयदोषेण उजयलोकवतिना यवसादिवोढारः पुःखं संक्लेशलक्षणमेधमाना अनेकार्थत्वादनुजवन्त बानियोग्यं कर्मकरनावमुपस्थिताः ॥५॥ (टीका. ) अविनयदोषोपदर्शनार्थमेवाह । तहेव त्ति सूत्रम् । तथैवेति तथैवैतेऽविनीतात्मानो विनयरहिता अनात्मझा उपवाह्यानां राजादिवबजानामेते कर्मकरा इत्यौपवाह्याः । हया अश्वाः । गजा हस्तिनः । उपलक्षणमेतन्महिषकादीनामिति । एते। किमित्याह । दृश्यन्त उपलन्यन्त एव मन्मुरादौ अविनयदोषेण उन्नयलोकवर्तिना यवसादिवोढारः । पुःखं संक्वेशलक्षणमेधयन्तोऽनेकार्थत्वादनुजवन्त बानियोग्यं कर्मकरनावमुपस्थिताः प्राप्ता इति सूत्रार्थः ॥ ५॥ तदेव सुविणीअप्पा, नववना दया गया। दीसंति सुदमेहंता, इढिं पत्ता महायसा ॥६॥ ( अवचूरिः) एतेष्वेव विनयगुणमाह । तथैवैते सुविनीतात्मान उववप्ना हया गया इति पूर्ववत् । दृश्यन्ते सुखमालादलक्षणमेधमाना शाहिं प्राप्ता विशिष्टनूषणालयनोजनादिप्राप्तईयो महायशसो विख्यातगुणाः॥६॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अर्थ.) हवे ए अश्वादिकमांज विनय करनारनी स्थिति कहेले. तहेव इत्यादि सूत्र. (तहेव के०) तथैव एटले तेमज (सुविणीअप्पा के०) सुविनीतात्मानः एटले सम्यक् प्रकारे विनयवंत एवा (जववना के०) औपवाह्याः एटले प्रधान, सेनापति प्रमुख लोकोना (हया के०) हयाः एटले अश्व तथा (गया के०) गजाः एटले गज प्रमुख जे ते (सुहं के०) सुखं एटले सुख प्रत्ये ( एहंतो के० ) एधमानाः एटले नोगवता,(इढेि पत्ता के०)झकिं प्राप्ताः एटले झछि पामेला अने (महायसा के०)महायशसः एटले मोटी जसकीर्ति पामेला एवा (दीसंति के०) दृश्यन्ते एटले देखाय ॥६॥ (दीपिका.) एतेष्वेव विनयगुणमाह। तथैव एते सुविनीतात्मानो विनयवन्त आत्मज्ञा औपवाह्या राजादीनां हया गजा इति पूर्ववत्। एते। किमित्याह । दृश्यन्त उपलन्यन्ते सुखमालादलक्षणमेधमाना अनुजवन्त झर्कि प्राप्ता इति विशिष्टनूषणालयनोजनादिनावतः प्राप्तईयो महायशसरे विख्यातसगुणाः॥६॥ (टीका.) एतेष्वेव विनयगुणमाह । तदेव त्ति सूत्रम् । तथैवेति तथैवैते सुविनीतात्मानो विनयवन्त आत्मझा औपवाह्या राजादीनां हया गजा इति पूर्ववत् । एते। किमित्याह । दृश्यन्त उपलच्यन्त एव सुखमाबादलक्षणमेधमाना अनुजवन्त हिं प्राप्ता इति । विशिष्टजूषणालयनोजनादिनावतः प्राप्तईयो महायशसो विख्यातसगुणा इति सूत्रार्थः ॥६॥ तदेव अविणीअप्पा, लोगंमि नरनारिता दीसंति उदमेहंता, गया ते विगलिंदिआ॥७॥ - (श्रवचूरिः) एतदेव विनया विनयफलं मनुष्यानधिकृत्याह । तथैव तिर्यश्च श्वाविनीतात्मानः पूर्ववत् । अत्रास्मिन् मनुष्यलोके नरनार्यः दृश्यन्ते उःखमेधमानाः पूर्ववत्। बाताः कशाघातत्रणाङ्किताः। विकलेन्द्रिया अपनीतनासिकादीन्द्रियाः पारिदारिकादयः (अर्थ.) तिर्यंच श्राश्रयी विनयनुं तथा अविनयनुं फल कह्यु. हवे मनुष्य श्राश्रयी कहे . तहेव इत्यादि सूत्र. (तदेव के ) तथैव एटले जेम तिर्यंचमां तेमज (लोगंसि के) लोके एटले लोकने विषे (अविणीअप्पा के०) अविनीतात्मानः एटले विनयने न साचवनारा एवा (ते के०) ते एटले ते (नरनारि के०) नरनायः एटले पुरुषो अने स्त्रियो जे ते ( उहमेहंता के०) फुःखमेधमानाः एटले उःखने जोगवता एवा (गया के०) बाताः एटले चाबक प्रमुखना प्रहारथी जेमने शरीरे घा प्रमुख पडेला बे एवा तथा ( विगलिंदिया के०) विकलेन्द्रियाः एटले जेमना Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः । ५६५ नाक, कान प्रमुख कपाया बे एवा ( दीसंति के० ) दृश्यन्ते एटले देखाय बे. अर्थात् परस्त्रीगमन, चोरी प्रमुख अपराध करनार लोकोनी हालत एवी देखाय बे ॥ ७ ॥ ( दीपिका. ) एतदेव विनया विनयफलं मनुष्यान् अधिकृत्याह । तथैव तिर्यञ्च श्व विनीतात्मानः । पूर्ववत् । लोकेऽस्मिन् मनुष्यलोके । नरनार्य इति प्रकटार्थम् । दृश्यन्ते दुःखमेधमानाः । पूर्ववत् । बाताः कशाघातत्रणा ङ्कितशरीरा विकलेन्द्रिया अपनीतनासिकादीन्द्रियाः पारदारिकादय इति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ ( टीका. ) एतदेव विनयाविनयफलं मनुष्यानधिकृत्याह । तदेव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । तथैव तिर्यञ्च श्व अविनीतात्मान इति पूर्ववत् । लोकेऽस्मिन्मनुष्यलोके । नरनार्य इति प्रकटार्थम् । दृश्यन्ते दुःखमेधमाना इति पूर्ववत् । बाताः कषघातत्रणा ङ्कितशरीरा विगलितेन्द्रिया अपनीतना सिकादीन्द्रियाः पारदारिकादय इति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ inपरिन्ना, सनवयदि ॥ का विवन्नचंदा, खुष्पिवासपरिग्गया ॥ ८ ॥ ( वचूरिः ) दएका वेत्रदएकादयः । शस्त्राणि खड्गादीनि ताभ्यां परिजीर्णाः समन्ततो दुर्बलजावमापादिता सन्यवचनैश्च खरकर्कशा दिनिः । एवंभूताः करुणाहेतुत्वात्सतां करुणा दीना व्यापन्नवन्दसः गतस्वेच्छाः कुधा पिपासया परिगता व्याप्ताः ॥ ८ ॥ ( . ) वली उपर कहेला पुरुषो छाने स्त्रियो केवा बे ते कहेबे. दंडसन इत्यादि सूत्र. ( दंसबपरितन्ना के० ) दंडशस्त्रपरिजीर्णाः एटले वेत्र प्रमुख दंडना ने खङ्ग प्रसुख शस्त्रना प्रहारथी दुर्बल थएला, ( के० ) च एटले अने (वय ho ) सन्यवचनैः एटले कठोर वचनो सांजलीने पण दुर्बल थएला एवा माटेज ( कला के० ) करुणाः एटले सत्पुरुषोने दया उपजावे एवा तथा ( विवन्नछंदा के० ) व्यापन्नछन्दसः एटले पोतानी इछा माफक जेमनाथी चलातुं नथी, अर्थात् बीजाना ताबामा रहेला एवा तेमज ( खुप्पिवासपरिग्गया के० ) कुत्पिपासापरिगताः एटले क्षुधा तृषार्थी पीडायला एवा देखाय बे ॥ ८ ॥ ( दीपिका. ) एवंविधाः साधव इह लोके पूर्वमविनयेन गृहीतानां कर्मणामनुजावेन एवंभूताः परलोके तु कुशलस्य प्रवृत्तेः खिततरा विजायन्ते । कीदृशाः । दएका वेदादयः शस्त्राणि खड्गादीनि तैः परिजीर्णाः परि समन्ततो दुर्बलजावमापादिताः । तथा पुनः कीदृशाः । असत्यवचनैश्च खरकर्कशा दिभिः परिजीर्णाः । पुनः कीदृशाः । करुणाः। करुणा हेतुत्वात् । पुनः कीदृशाः । व्यापन्नञ्चन्दसः परायत्ततया गतखानिप्रायाः । पुनः For Private Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. किंजूताः।कुधा बुजुदा पिपासा तृषा तान्यां परिगता व्याप्ताः । अन्नादिनिरोधस्तोकदानाच्याम् ॥७॥ (टीका.) तथा दंड त्ति सूत्रम् । दमा वेत्रदएकादयः, शस्त्राणि खगादीनि, तान्यां परिजीर्णाः समन्ततो पुर्बलनावमापादिताः। तथा असन्यवचनैश्च खरकर्कशादिनिः परिशीर्णास्त एवंनूताः सतां करुणाहेतुत्वात्करुणा दीना व्यापन्नछन्दसः परायत्ततया अपेतखानिप्रायाः कुधा बुजुक्षया पिपासया तृषा परिगता व्याप्ता अन्नादिनिरोधस्तोकदानाच्यामिति । एवमिह लोके प्रागविनयोपात्तकर्मानुजावत एवंनूताः परलोके तु कुशलाप्रवृत्तेःखिततरा विज्ञेया इति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ तदेव सुविणीअप्पा, लोगंसि नरनारि॥ दीसंति सुहमेहंता, इढेि पत्ता महायसा ॥ ए॥ (श्रवचूरिः) विनयफलमाह । तथैव सुविनीतात्मानो लोकेऽस्मिन् नरनार्यः। सुखमेधमाना झर्कि प्राप्ता महायशसः। पूर्ववत् । न वरं खाराधितनृपगुरुजना उजयलोकसाफल्यकारिणः ॥ ए॥ (अर्थ.) हवे विनय साचवनारा मनुष्योनी स्थिति कहे . तहेव इत्यादि सूत्र. (तहेव के०) तथैव एटले जेम विनय साचवनारा तिर्यंचो सुखी देखाय तेम (लोगंसि के०) लोके एटले लोकने विषे (सुविणीअप्पा के०) सुविनीतात्मानःएटले सम्यक्प्रकारे विनयने साचवनारा एवा (नरनारि के०) नरनार्यः एटले पुरुषो अने स्त्रियो जे ते (सुहमेहंता के०) सुखमेधमानाः एटले सुखने नोगवता एवा, (शढि पत्ता के०) झर्कि प्राप्ताः एटले झकि पामेला एवा तथा (महायसा के०) महायशसः एटले घणा जसकीर्तिवाला एवा (दीसंति के०) दृश्यन्ते एटले देखायो.॥॥ (दीपिका.) श्रथ विनयफलमाह । अस्मॅिझोके नरनार्यस्तथैव विनीततिर्यञ्च श्व सुविनीतात्मानो दृश्यन्ते।कीदृश्यो नरनार्यः। सुखमेधमाना कधि प्राप्ताः। पुनः कीदृश्यः। महायशस इति पूर्ववत् । नवरं, स्वाराधितगुरुजना उन्नयलोकसाफल्यकारिण एत इतिए (टीका.) विनयफलमाह तदेव त्ति सूत्रम् । तथैव विनीततिर्यश्च श्व सुविनीतामानो लोकेऽस्मिन्नरनार्य इति पूर्ववत् । दृश्यन्ते सुखमेधमाना शर्मि प्राप्ता महायशस इति पूर्ववदेव।नवरं, स्वाराधितनृपगुरुजना उन्नयलोकसाफल्यकारिण एत इति सूत्रार्थः। तदेव अविणीअप्पा, देवा जरका अगुप्तगा॥ दीसंति सुदमेहंता, आनिगमुवहिवा॥१०॥ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। ५६ (श्रवचूरिः) विनयाविनयफलं देवानधिकृत्याह । देवा वैमानिका ज्योतिष्काश्च यदाश्च व्यन्तरा गुह्यका जवनवासिन एते दृश्यन्त आगमचकुषा पुःखमेधमानाः परदिर्शनादिना श्रानियोग्यमुपस्थिताः ॥ १० ॥ (अर्थ.) हवे देवताउने विषे अविनय, फल कहेले. तहेव इत्यादि सूत्र. (तहेव के०) तथैव एटले जेम मनुष्यो तेमज (शविणीअप्पा के०) अविनीतात्मानः एटले विनयने न साचवनारा एवा ( देवा के०) देवाः एटले ज्योतिषी अने वैमानिक देवता (जरका के०) यदाः एटले व्यंतरो (श्र के०) च एटले अने (गुनगा के०) गुह्यकाः एटले जवनपति जे ते (उहमेहंता के०) फुःखमेधमानाः एटले पारकी कि प्रमुख जोवाथी पुःखने जोगवता एवा तथा (आनिगं के०) आनियोग्यं एटले दासपणाने (चाकरपणाने)(उहिया के०) उपस्थिताः एटले पामेला एवा श्रागमरूप नेत्रवडे ( दीसंति के०) दृश्यन्ते एटले देखाय बे. ॥ १० ॥ (दीपिका.) एतदेव विनयाविनयफलमाद देवानधिकृत्य । तथैव यथा नरनायोंऽविनीतात्मानः । तथैव जन्मान्तरेऽकृतविनया देवा वैमानिका ज्योतिष्का यदाश्च व्यन्तराश्च गुह्यका जवनवासिनस्त एते दृश्यन्ते। केन।श्रागमनावचकुषा। किं कुर्वाणाः। पुःखमेधमानाः । परेषामाज्ञया परेषां शष्ट्यादिदर्शनेन च । कीदृशाः सन्तः । श्राजियोग्यमुपस्थिताः । अनियोग श्राझादानलक्षणः सोऽस्यास्तीत्यनियोगी । तस्य जाव आजियोग्यं कर्मकरजावमुपस्थिताः प्राप्ताः ॥ १० ॥ (टीका.) एतदेव विनयाविनयफलं देवानधिकृत्याह । तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव यथा नरनार्योऽविनीतात्मानो जवान्तरेऽकृतविनया देवा वैमानिका ज्योतिष्का यदाश्च व्यन्तराश्च गुह्यका नवनवासिनस्त एते दृश्यन्ते । आगमनावचक्षुषा कुःखमेधमानाः पराझाकरणपरझकिदर्शनादिना आनियोग्यमुपस्थिता अनियोग आझाप्रदानलक्षणोऽस्यास्तीत्य नियोगी तन्नाव आनियोग्यं कर्मकरनावमित्यर्थः। उपस्थिताः प्राप्ता इति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ तदेव सुविणीअप्पा, देवा जका अगुप्तगा॥ दीसंति सुदमेदंता, इहिं पत्ता महायसा ॥१२॥ (श्रवचूरिः) विनयफलमाह । तथैव सुविनीतात्मानो जन्मान्तरकृतविनया निरतिचारधर्माराधका इत्यर्थः । दृश्यन्ते सुखमेधमाना महाकल्याणादिषु किं प्राप्ताः ११ (अर्थ.) हवे देवताउने विष विनय, फल कहे . तहेव इत्यादि सूत्र. (त Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. देव के० ) तथैव एटले जेम मनुष्यो तेमज ( सुविणीअप्पा के० ) सुविनीतात्मानः एटले सम्यक् प्रकारे विनयने साचवनारा एवा ( देवा के० ) देवाः एटले वैमानिक ज्योतिषी देवता, ( जरका के० ) यक्षा: एटले व्यंतरो ( ा के० ) च एटले वली ( गुनगा के० ) गुह्यकाः एटले जवनवासी देवता जे ते ( सुहमेहंता के० ) सुखमेध - मानाः एटले सुखने जोगवनारा एवा, (इट्ठि पत्ता के० ) रुद्धिं प्राप्ताः एटले रुद्धि पामेला एवा तथा ( महायसा के० ) महायशसः एटले मोटा यशना धणी एवा आगमरूप नेत्रवडे (दीसंति के० ) दृश्यन्ते एटले देखाय बे ॥ ११ ॥ ( दीपिका. ) विनयफलमाह । तथैवैते देवादयः सुविनीतात्मानः जन्मान्तरकृतविनयाः। निरतिचारधर्माराधका इत्यर्थः । दृश्यन्ते सुखमेधमाना महाकल्याणादिषु शुद्धिं प्राप्ता इति देवाधिपादिप्राप्तसमृद्धयो महायशसो विख्यातसगुणा इति । एवं नारकान् विना व्यवहारतो येषु स्थानेषु सुखदुःखसंजवस्तेषु विनयस्य विनयस्य च फलं कथितम् ॥ ११॥ ( टीका. ) विनयफलमाह तदेव ति सूत्रम् । तथैवेति पूर्ववत् । सुविनीतात्मानो जन्मान्तरकृत विनया निरतिचारधर्माराधका इत्यर्थः । देवा यक्षाश्च गुह्यका इति पूर्ववदेव । दृश्यन्ते सुखमेधमाना महाकल्याणादिषु रुद्धिं प्राप्ता इति । देवाधिपादिप्राप्तयो महायशसो विख्यातसगुणा इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ जे आयरिच्प्रनवनायाणं, सुस्सूसावयांकरे ॥ तेसिं सिरका पवद्वंति, जलसित्ता इव पायवा ॥ १२ ॥ ( श्रवचूरिः ) विशेषेण लोकोत्तर विनयफलमाह । य श्राचार्योपाध्याययोः शुश्रूषका वचनकराः तेषां पुण्यवतां शिक्षा ग्रहणासेवनरूपाः प्रवर्द्धन्ते जल सिक्ता इव पादपाः ॥१२॥ ( .) उपर देवता दिकने विषे लौकिक विनयनुं तथा अविनयनुं फल कयुं. वे लोकोत्तर विनयनुं फल कहे बे. जे इत्यादि सूत्र. (जे के० ) ये एटले जे शिष्यो (आयरिश्रवनायाणं के० ) श्राचार्योपाध्याययोः एटले आचार्यनी अने उपाध्यायनी ( सुस्सूसावयांकरे के० ) शुश्रूषावचनकराः एटले सेवा करनारा अने श्राज्ञा माफक चालनारा एवा होय ते. ( तेसिं के० ) तेषां एटले तेमनी ( सिरका के० ) शिक्षा: एटले ग्रहण सेवन प्रमुख शिक्षा जे ते (जल सित्ता इव पायवा के ० ) जल सिक्ता इव पादपाः एटले जलथी सींचायला वृद्धनी जेम (पवद्वेति के० ) प्रवर्द्धन्ते एटले वृद्धि पामे बे. १२ For Private Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने वितीय उद्देशकः । ५६ए ( दीपिका.) श्रथ विशेषतो लोकोत्तरं विनयफलमाह । ये सुशिष्या श्राचार्यामुपाध्यायानां च शुश्रूषावचनकराः पूजाप्रधानं यच्चनं तस्य करणे तत्परा नवन्ति। तेषां पुण्यवतां शिक्षा ग्रहणासेवनारूपा नावार्थरूपाः प्रवर्धन्ते वृकिं यान्ति । दृष्टान्तमाह । जलसिक्ता यथा पादपा वृक्षाः ॥ १२ ॥ (टीका. ) एवं नारकापोहेन व्यवहारतो येषु सुखःखसंजवस्तेषु विनयाविनयफलमुक्तम् । अधुना विशेषतो लोकोत्तरविनयफलमाह । जे आयरिश ति सूत्रम् । य श्राचार्योपाध्याययोः प्रतीतयोः शुश्रूषावचनकराः पूजाप्रधानवचनकरणशीलास्तेषां पुण्यजाजां शिक्षा ग्रहणासेवनालकणा जावार्थरूपाः प्रवर्धन्ते वृमिमुपयान्ति । दृष्टान्तमाह । जलसिक्ता व पादपा वृदा इति सूत्रार्थः॥ १२ ॥ अप्पाहा परहा वा, सिप्पा नणिआणि अ॥ गिहिणो जवनोगहा, इहलोगस्स कारणा ॥ १३ ॥ _ (श्रवचूरिः) एतच्च मनस्याध्याय विनयः कार्य इत्याह । श्रात्मार्थ ममानेनाजीविका नविष्यतीति । परार्थं वा पुत्रमहमेतज्ञाहयिष्यामीत्येवं शिल्पानि कुम्नकार कियादीनि । नैपुण्यानि चित्रकलादिलक्षणानि । गृहिण उपजोगार्थमन्नपानादिनोगाय । शिक्षन्त इति शेषः । इहलोकस्य निमित्तम् ॥ १३ ॥ (अर्थ.) हवे कहिशुं ते वात पण मनमा राखीने विनय करवो एम कहे . थप्पणा इत्यादि सूत्र. ( गिहिणो के ) गृहिणः एटले गृहस्थ जे ते (इहलोगस्स के०) श्लोकस्य एटले या लोकने ( कारणा के) कारणात् एटले अर्थे ( उवनो. गहा के०) उपजोगार्थ एटले अन्न, पान प्रमुख नोगनी प्राप्ति सारु (अप्पणछा के०) आत्मार्थं एटले पोतानी श्राजीविकाने अर्थे (वा के०) वा एटले अथवा (परहा के० ) परार्थं एटले पुत्रादिकने अर्थे ( सिप्पा के०) शिल्पानि एटले कुंजार, लोहार प्रमुखना शिल्पोने (अ के०)च एटले अने ( नेउणियाणि के०) नैपुण्यानि एटले चित्राम प्रमुख कलाउने शिखे ॥ १३ ॥ (दीपिका.) एवं मनसि थानीय साधुनिर्विनयः कार्य इत्याह । ये गृहिणोऽसंयता इहलोकस्य कारणमिहलोकनिमित्तमिति । उपजोगार्थमन्नपानादिलोगाय । शिक्षन्त इति शेषः। किमर्थम् । श्रात्मार्थमात्मनिमित्तम् । अनेन मम श्राजीविका जवि१:- कारणं इति पाठान्तरम् । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. व्यतीत्येवं, परार्थं वा परनिमित्तं वा पुत्रमहमेतद्राह यिष्यामीत्येवं शिल्पानि कुम्नकारक्रियादीनि नैपुण्यानि च लेखा दिकलालक्षणानि ॥ १३ ॥ ( टीका. ) एतच्च मनस्याधाय विनयः कार्य इत्याह । श्रप्पड ति सूत्रम् । अ स्य व्याख्या । श्रात्मार्थमात्मनिमित्तमनेन मे जीविका जविष्यतीत्येवम् । परार्थं वा प रनिमित्तं वा पुत्रमहमेतद्रादयिष्यामीत्येवं शिल्पानि कुम्नकार क्रियादीनि नैपुण्यानि चालेख्यादिकलाल पानि गृहिणोऽसंयता उपभोगार्थमन्नपानादिजोगाय शिक्षन्त इति वाक्यशेषः । इहलोकस्य कारण मिलोक निमित्तमिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ जेण बंधं वदं घोरं, परिच्यावं च दारुणं ॥ सिरकमाणा निचंति, जुत्ता ते ललिइंदिया ॥ १४ ॥ ( वचूरि : ) येन शिल्पादिना शिक्ष्यमाणेन बन्धं कषादिनिर्घोरं रौद्रं परितापं च दारुणं निर्भर्त्सना दिजनितं वा शिक्षमाणा गुरोः सकाशान्नियच्छन्ति प्राप्नुवन्ति । युक्ताः शिल्पादिग्रहणे ललितेन्द्रियास्ते गर्भेश्वरा राजपुत्रादयः ॥ १४ ॥ ( अर्थ. ) जेण इत्यादि सूत्र. ( जेल के० ) येन एटले जे शिल्पो तथा कला शीखतां (जुत्ता के०) युक्ताः एटले शिखवाने विषे जोडायला एवा (ललिइंदिया के ० ) ललितेन्द्रियाः एटले गर्भश्रीमंत एवा ( ते के० ) ते एटले ते राजपुत्रादिक पण ( सिरकमाणा के०) शिक्षमाणाः एटले जे शिल्पो तथा कलाई शिखता बता ( बंधं के० ) बन्धं एटले श्रृंखलादिकना बंधप्रत्ये, ( घोरं के० ) घोरं एटले जयंकर एवी ( वहं के० ) वधं एटले चाबक विगेरेनी ताडना प्रत्ये, ( च के० ) वली ( दारुणं के० ) दारु एटले खमी न शकाय एवा ( परियावं के० ) परितापं एटले निर्भर्त्सना प्रमुख परिताप प्रत्ये गुरुकी ( निश्रांति के० ) नियच्छन्ति एटले पामे बे ॥ १४ ॥ ( दीपिका . ) येन शिल्पादिना शिक्ष्यमाणेन बन्धं निगमादिनिर्वधं कषादिनिः । घोरं रौद्रं परितापं च दारुणमेतजनितं निर्भर्त्सना दिवचनं शिक्षमाणा गुरोः सकाशात् नियच्छन्ति प्राप्नुवन्ति । युक्ता इति नियुक्ताः शिल्पा दिग्रहणे ते ललितेन्द्रिया लीलागर्जेश्वरा राजपुत्रादयः ॥ १४ ॥ 1 ( टीका. ) जेण त्ति सूत्रम् । येन शिल्पादिना शिक्ष्यमाणेन बन्धं निगडादिजिः, वधं कषादिनिः । घोरं रौद्रं परितापं च दारुणमेतऊनितमनिष्टं निर्भर्त्सना दिवचनजनितं च शिक्षमाणा गुरोः सकाशान्नियच्छन्ति प्राप्नुवन्ति । युक्ता इति नियुक्ताः शिल्पा दियहणे ते ललितेन्द्रिया गर्जेश्वरा राजपुत्रादय इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ For Private Personal Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके नवमाध्ययने द्वितीय उद्देशकः । तेवितं गुरु पूति, तस्स सिप्पस्स कारणा ॥ सक्कारंति नर्मसंति, तुहा निद्देसवत्तिणो ॥ १५ ॥ ( अवचूरिः ) तेऽपि तं गुरुं वधादिकारकमपि पूजयन्ति । तस्य शिल्पस्य कारणं निमित्तमिति जावः । तथा सत्कारयन्ति वस्त्रादिना । नमस्यन्ति । तुष्टा निर्देशवर्त्तिन आज्ञाकारिण इति ॥ १५ ॥ ५७१ ( अर्थ. ) ते वि इत्यादि सूत्र. ( ते वि के० ) तेऽपि एटले उपर कहेला राजपुत्रादिक पण ( तुहा के० ) तुष्टाः एटले प्रसन्न य ( निद्देसवत्तिणो के० ) निर्देशवर्त्ति - नः एटले श्राज्ञामां रह्या बता ( तस्स सिप्पस्स कारणा के० ) तस्य शिल्पस्य कारणातू एटले ते शिल्पना आपनार गुरु बे माटे ( तं के० ) तं एटले ते ( गुरु के० ) गुरुं एटले कलाचार्य प्रत्ये ( पूांति के० ) पूजयन्ति एटले पूजे बे, (सक्कारंति के० ) सत्कारयन्ति एटले वस्त्रादिक आपी सत्कार करे बे, तेमज ( नमसंति के० ) नमस्यन्ति एटले हाथ जोडीने नमस्कार पण करे बे. ॥ १५ ॥ ( दीपिका. ) तेऽपि पुरुषाः शिक्षमाणास्त मित्वरमपि गुरुं बन्धादिकारकमपि पूजयन्ति सामान्यतो मधुरवचना जिनन्दनेन । किमर्थम् । तस्य शिल्पस्य कारणात् । तन्निमित्तमिति जावः । पुनस्तं गुरुं ते सत्कारयन्ति वस्त्रादिना । पुनस्तं गुरुं नमस्यन्ति अप्रिग्रहणादिना । किंभूतास्ते । तुष्टा इति । अमुत इदमवाप्यत इति तुष्टाः । पुनः किंभूतास्ते । निर्देशवर्त्तिन आज्ञाकारिण इति ॥ १५ ॥ ( टीका. ) ते वित्ति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । तेऽपीत्वरं शिल्पादि शिक्षमापास्तं गुरुं बन्धादिकारकमपि पूजयन्ति सामान्यतो मधुरवचनाजिनन्दनेन तस्य शिउपस्येत्वरस्य कारणात्तन्निमित्तमिति भावः । तथा सत्कारयन्ति वस्त्रादिना नमस्यन्त्यअलिप्रग्रहादिना । तुष्टा इत्यमुत इद मवाप्यत इति हृष्टा निर्देशवर्त्तिन आज्ञाकारिण इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ किं पुणं जे सुग्गादी, यांत दियकामए ॥ पायरिया जं वए निकू, तम्हा तं नाश्वत्तए ॥ १६ ॥ ( अवचूरिः ) यदि तेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति । ततः किंपुनः साधुः श्रुतग्राही । अनन्त हितकामो मोदकामः । तेन तु सुतरां गुरवः पूजनीया इति । यतश्चैवमाचार्या यद्वदन्ति । निक्षुः साधुस्तस्मादाचार्यवचनं नातिवर्त्तते । सर्वमपि संपादयेत् ॥ १६ ॥ (अर्थ) राजपुत्रादिक पण कलाचार्यने सेवे बे. तो पढी किं पुण इत्यादि सूत्र. Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. (जे के० ) यः एटले जे पुरुष ( सुग्गाही के० ) श्रुतग्राही एटले केवलिप्रणीत आगम ग्रहण करना तो होय, तथा ( अांतहि कामए के० ) अनन्त हितका - मुकः एटले अनंत हितकारी मोहनी इछावालो होय, ते पुरुषे तो ( किंपुण के० ) किंपुनः एटले आचार्यनी सेवा करवी एमां शुं कहेतुं ? अर्थात् तेणे तो अवश्य गुरुसेवा करवीज जोइये. ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारण माटे ( आयरिया के० ) आचार्याः एटले आचार्य महाराज जे ते ( जं के० ) यत् एटले जे ( वए के० ) वदन्ति एटले कहे, ( तं के० ) तत् एटले ते वचन प्रत्ये ( जिरकू के० ( जिकुः एटले साधु जेते ( नाश्वत्तए ० ) नातिवर्त्तेत एटले उल्लंघन न करे. ॥ १६ ॥ ( दीपिका. ) यदि तावदेतेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति । तदा यः साधुर्मोवाञ्चकस्तेन तु गुरवो विशेषतः पूजनीया इत्याह । किं पुनः । यः साधुः श्रुतग्राही परमपुरुषप्रणीतस्यागमस्य ग्रहणे जिलाषी । पुनर्यः अनन्त हितकामुकः । मोक्षं यः कामयत इत्यनिप्रायः । तेन तु गुरवः सुतरां पूजनीया इति । यतश्च एवमत श्राचार्या यत्किमपि वदन्ति तथा तथानेकप्रकारम् । निक्षुः साधुस्तस्मात्तदाचार्यवचनं न प्रतिवर्तयेत् युक्तत्वात् सर्वमेव संपादयेदिति ॥ १६ ॥ 1 ( टीका. ) यदि तावदेतेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति । अतः किं पुत्ति सूत्रम् । किं पुनर्यः साधुः श्रुतग्राही परमपुरुष प्रणीतागमग्रहणा जिलाषी । अनन्त हितकामुकः । मोक्षं यः कामयत इत्यनिप्रायः । तेन तु सुतरां गुरवः पूजनीया इति । यतश्चैवमाचार्या दन्ति किमपि तथा तथानेकप्रकारं निदुः साधुस्तस्मात्तदाचार्यवचनं नातिवर्त्तेत । युक्तत्वात्सर्वमेव संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ नी सिकं गईं ठाणं, नीयं च सपाणि ॥ नीयं च पाए वंदिका, नी कुका अ अंजलिं ॥ १७ ॥ ( अवचूरिः ) विनयोपायमाह । नीचां शय्यां संस्तारकलक्षणां गुरुशय्यायाः । गतिमाचार्यगतेः । तत्पृष्ठतो नातिदूरेण नातिडुतं यायात् । नीचं स्थानमाचार्यस्थानात् । नीचानि लघुतराणि श्रासनानि पीठकादीनि च । नीचं सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन् पादावाचार्य सत्काव जिवन्देत नावज्ञया कचित्प्रस्तावादौ नीचं नम्रकायं कुर्याच्चाञ्जलिम् । सर्वत्र क्रिया योज्या ॥ ॥ १७ ॥ ( अर्थ. ) हवे विनयनो उपाय कहे बे. नीां इत्यादि सूत्र साधु जेते श्राचार्य करतां पोतानी ( सिद्धं के० ) शय्यां एटले शय्या प्रत्ये ( नीां के० ) नीचां एटले For Private Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने दितीय उद्देशकः। ५७३ नीची एवी (कुजा के ) कुर्यात् एटले करे. आचार्यनी गति करतां पोतानी (गई के०) गतिं एटले गति प्रत्ये नीची करे.अर्थात् तेमनी पवाडे चाले. तेमज (गणं के०) स्थानं एटले स्थान नीच करे, अर्थात् जे स्थानके आचार्य रहेता होय ते करतां नीचे स्थानके पोते रहे. (च के०) पुनः (नीए के०) नीचानि एटले गुरुना आसन करता नीचा (श्रासणाणि के० ) श्रासनानि एटले आसन उपर गुरुनी आज्ञाथी बेसे. (च के०) पुनः (नीअं के०) नीचं एटले सम्यक् प्रकारे नीचो थश्ने (पाए के०) पादौ एटले गुरुना चरणने (वंदिजा के०) वन्देत एटले वांदे, पण श्रवहाथी न वांदे. तेमज कार्य पडे (नीअं के०) नीचं एटले सम्यक् प्रकारे नमीने (अञ्जलिं के०) अंजलिं एटले अंजलि प्रत्ये (कुजा के० ) कुर्यात् एटले करे. अर्थात् हाथ जोडे. ॥ १७ ॥ (दीपिकाः ) श्रथ विनयस्य उपायमाह । साधुः गुरोः सकाशात् शय्यां संस्तारकलक्षणां नीचां कुर्यादित्युक्तिः । एवं साधुः श्राचार्यगतेः सकाशात् खकीयां गतिं नीचां कुर्यात् । तस्य गुरोः पृष्ठतो न अति दूरेण न अतिशीघ्रं यायादित्यर्थः । एवं स्थानं यत्र स्थान आचार्य श्रास्ते तस्मात् स्थानात् नीचम् । नीचतरे स्थाने स्थातव्यमिति जावः। पुनः नीचानि लघुतराणि कदाचित् कारणजात श्रासनानि पीठकादीनि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञातः सन् सेवेत नान्यथा। तथा नीचं च सम्यगवनतमस्तकः सन् श्राचार्यस्य पादौ वन्दते न श्रवज्ञया। तथा कचित्प्रश्नादौ नीचं नम्रकायं कुर्याच्च संपादयेच अञ्जलिम् । न स्थाणुवत् स्तब्ध एवेति ॥ १७ ॥ (टीका.) विनयोपायमाद नीअं ति सूत्रम् । नीचां शय्यां संस्तारकलक्षणामा. चार्यशय्यायाः सकाशात्कुर्यादिति योगः। एवं नीचां गतिमाचार्यगतेस्तत्पृष्ठतो ना. तिदरेण नातितं यायादित्यर्थः । एवं नीचं स्थानमाचार्यस्थानाद्यत्राचार्य श्रास्ते तस्मानीचतरे स्थाने स्थातव्यमिति नावः। तथा नीचानि लघुतराणि कदाचित्कारणजात आसनानि पीठकानि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञातः सेवेत नान्यथा। तथा नीचं सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन् पादावाचार्यसत्कौ वन्देत । नावइया । तथा क्वचित्प्रश्नादौ नीचं नम्रकायं कुर्यात्संपादयेच्चाञ्जलिं न तु स्थाणुवस्तब्ध एवेति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ संघश्त्ता काएणं, तदा जवहिणामवि ॥ खमेद अवराहं मे, वश्ज न पुणुत्ति अ॥ १७ ॥ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग ततालीस-(४३)-मा. (अवचूरिः) संघय स्पृष्ट्वा कायेन तथोपधिना वा दमखापराधं मे मम न पुनरिति नचाहमेवं नूयः करिष्य इति ॥ १७ ॥ (अर्थ.) उपर कह्या प्रमाणे कायानो विनय कहीने हवे वाणीनो विनय कहे . संघदृश्त्ता इत्यादि सूत्र. शिष्य जे ते (काएण के ) कायेन एटले शरीरवडे अर्थात् पोताना हाथे आचार्यजीना चरणने ( संघदृश्त्ता के०) संघय एटले स्पर्श करीने अथवा पगे स्पर्श न कराय एम होय तो तेमनी ( उवहिणामवि के० ) उपधिनापि एटले उपधिवडे पण अर्थात् श्राचार्यजीना कपडा, उघो प्रमुख उपकरणने पण स्पर्श करीने मिठामि पुक्कड दक्ष ( वश्ज के०) वदेत् एटले कहे. शुं कहे ते कहे . ( मे के०) मे एटले मारा (श्रवराहं के०) अपराधं एटले अपराध प्रत्ये (खमेह के०) दमख एटले खमो, सहन करो. ( न पुण त्ति श्र के०) न पुनरितिच एटले फरिथी एवो अपराध करीश नहि. ॥ १७ ॥ (दीपिका.) एवं कायविनयं कथयित्वा वचनविनयमाह । साधुः गुरुं प्रति मिथ्यापुष्कृतपुरःसरमनिवन्द्य एवं वदेत् । न पुनरिति । न च अहमेवं नूयः करिष्यामीति । एवं किमित्याह । हे गुरो मम मन्दनाग्यस्य अपराधं दोषं दमख सहख । किं कृत्वा । कायेन देहेन कथंचित्तथा विधे प्रदेश उपविष्टं गुरुं संघय स्पृष्ट्वा पुनः उपधिनापि कल्पादिनापि कथंचित् संघय ॥ १७ ॥ (टीका.) एवं कायविनयमनिधाय वाग्विनयमाह । संघट्ट ति सूत्रम् । संघय स्पृष्ट्वा कायेन देहेन कथंचित्तथाविधप्रदेशोपविष्टमाचार्य तथोपधिनापि कल्पादिना कथंचित्संघय मिथ्यापुष्कृतपुरःसरमनिवन्ध क्षमख सहखापराधं दोषं मे मन्दनाग्यस्यैनं वदेव्यान्न पुनरिति च नाहमेनं नूयः करिष्यामीति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ उग्गन वा पओएणं, चोइन वहई रदं॥ एवं उबुद्धि किच्चाणं, वुत्तो वुत्तो पकुवई ॥१॥ (श्रवचूरिः) छान्यां गाथान्यां कायविनय उक्तः । एतत्स्वयं विछान् सर्व करोति । तदन्यः कथमित्याह । उौरिव गलिबलीवर्दवत् प्रतोदेनारादएफलक्षणेन नोदितो विद्धः सन् वहति रथम् । एवं पुर्बुद्धिः शिष्यः। कृत्यानामाचार्यादीनां कृ. त्यानि वा तदनिरुचितकार्याणि पुनः पुनः अनिहितः प्रकरोति ॥ १५ ॥ (अर्थ.) उपर कहेल विनयने बुद्धिमान् शिष्य पोतानी मेले करे, पण जे पुर्बुशिवालो होय ते शीरीते करे ते कहे . मुग्गउँ वा इत्यादि सूत्र. (वा के) वा ए Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने वितीय उद्देशकः। ५७५ टले जेम (फुग्ग के० ) उर्गौः एटले गलियो बलद जे ते (पएणं के० ) प्रतोदेन एटले पराणी वडे ( चोल के० ) चोदितः एटले हणायो उतो ( रहं के०) रथं एटले रथ प्रत्ये (वहर के० ) वहति एटले वहे , लइ जाय . ( एवं के०) एवं एटले ए प्रकारे (बुद्धि के०) पुर्बुद्धिः एटले पुष्टबुझिवालो शिष्य जे ते (वुत्तो वुत्तो के०) उक्त उक्तः एटले वारंवार कहेवाथी ( किच्चाणं के० ) कृत्यानां एटले श्राचार्य प्रमुखनां शछित कार्य प्रत्ये ( पकुवर के०) प्रकरोति एटले करे . ॥ १५॥ (दीपिका.) एवं सर्वं बुद्धिमान् स्वयमेव करोति तदन्यस्तु कथमित्याह । उर्गोंरिव गलिबलीवर्दवत् प्रतोदेन श्रारादएकालदणेन चोदितः प्रेरितो विकः सन् वहति क्वापि नयति रथम् । एवं उौरिव पुर्बुद्धिः शिष्यः कृत्यानामाचार्यादीनां कृत्यानि वा तदनिरुचितकार्याणि उक्त उक्तः पुनः पुनः अनिहित इत्यर्थः । प्रकरोति निष्पादयति प्रयुङ्क्ते चेति ॥ १ ॥ (टीका.) एतच्च बुद्धिमान् स्वयमेव करोति । तदन्यस्तु कथमित्याह । उग्ग वा इति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। मुर्गौरिव गलिबलीवईवत् प्रतोदेन बारादएफलक्षणेन चोदितो विकः सन्वहति नयति कापि रथं प्रतीतम् । एवं मुर्गौरिव दुर्बु फिरहिता. वहबुद्धिः शिष्यः कृत्यानामाचार्यादीनां कृत्यानि वा तदनिरुचितकार्याणि उक्त उक्तः पुनः पुनरनिहित इत्यर्थः। प्रकरोति निष्पादयति प्रयुक्ते चेति सूत्रार्थः॥ १५ ॥ “ोलवंते लवंते वा, न निसिजाइ पडिस्सुणे॥ मुत्तूण आसणं धीरो, सुस्सूसाए पडिस्सुणे॥" कालं बंदोवयारं च, पडिलेदित्ता ण देनहिं ॥ तेण तेण जवाएणं, तं तं संपडिवायए ॥३०॥ (श्रवचूरिः) एवं कृतान्यप्यमूनिन शोजनान्यतः कालं शरदादिलक्षणं बन्दस्तदिछारूपमुपचारमाराधनाप्रकारम् । चशब्दादेशादिपरिग्रहः । एतत्प्रत्युपेय ज्ञात्वा हेतुनिर्यथानुरूपैः कारणैः । किमित्याह । तेन तेन उपायेन गृहस्थावर्जनादिना तत्तत्पित्तहरादिरूपमशनादि संपादयेत् । यद्यस्येलानुगं हितं रोचते च ॥ २० ॥ (अर्थ.) था रीते शिष्य गुरुना कार्य करे तो ते ठीक नथी माटे कहे जे. कालं इत्यादि सूत्र. शिष्य जे ते (कालं के०) कालं एटले शरदृतु प्रमुख काल प्रत्ये (बं. १:- इयं क्षेपकगाथा बहुषु पुस्तकेषु नोपलभ्यते । परं दीपिकासंवलित मूलपुस्तक उपलब्धा । Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-४३-मा. दोवयारं के ) बन्दोपचारं बंद एटले आचार्य प्रमुखनी इछा श्रने उपचार एटले सेवा करवानो प्रकार ए बन्नेने (च के०) वली देश प्रमुखने पण (देउहिं के०) हेतुनिः एटले ते ते कारणोवडे (पडिलेहित्ता के०) प्रत्युपेक्ष्य एटले जाणीने (तेण तेण के०) तेन तेन एटले ते ते (उवाएण के० ) जपायेन एटले उपाय वडे (तं तं के) तत् तत् एटले ते ते वस्तु प्रत्ये (संपडिवायए के०) संप्रतिपादयेत् एटले संपादन करे. अर्थात् जोश्ये ते वस्तु सामाचारीने अनुसार मेलवे. ॥२०॥ (दीपिका.) पुनराचार्यः शिष्यं प्रत्येकवारं वक्ति । अथवा पुनः पुनर्वक्ति । तदा स शिष्य आत्मन श्रासने स्थित एव वचनं श्रुत्वा नोत्तरं ददाति । किं करोति । श्रात्मन श्रासनं मुक्त्वा स शिष्यो विनयेन छौ हस्तौ संमीट्य उत्तरं ददाति । कथंततः सः। धीरो बुद्धिमान् ॥ (दीपिका.) एवं च कृतान्यपि अमूनि न शोजनानीत्यत थाह । साधुस्तत्तत् पित्तदरादिरूपमशनादि गुरोः संप्रतिपादयेऽपानयेत् । केन केन । तेन तेन उपायेन गृहस्थानामावर्जनादिना । किं कृत्वा । कालं शरदादिलक्षणं बन्दस्तस्य श्वारूपमुपचारम्। माराधनाप्रकारं चशब्दादेशादिकम् । एतत् प्रत्युपेय ज्ञात्वा । कैः । हेतु निर्यथानुरूपैः कारणैः । तथा काले शरदादौ पित्तहादि नोजनं शय्या प्रवातनिवातादिरूपा श्छानुलोमं वा यद्यस्य हितं रोचते च आराधनाप्रकारोऽनुलोमनाषणग्रन्थान्यासवैयावृत्त्यक रणादिः । देशे अनूपदेशादीनामुचितं निष्ठीवनादिनिर्हेतुनिः श्लेष्माद्याधिक्यं विज्ञाय तऽचितं संपादयेदिति ॥ २० ॥ (टीका.) एवं च कृतान्यमूनि न शोजनानीत्यतः कालं ति सूत्रम् । कालं शरदादिलक्षणं, बन्दस्त दिलारूपमुपचारमाराधनाप्रकारं, चशब्दाद्देशादिपरिग्रहः । एतत्प्रत्युपेक्ष्य ज्ञात्वा । हेतु निर्यथानुरूपै कारणैः। किमित्याह। तेन तेनोपायेन गृहस्थावर्जनादिना तत्तत्पित्तहरा दिरूपमशनादि संप्रतिपादयेत् । यथा काले शरदादौ पित्तहरादिनोजनम् । प्रवातनिवातादिरूपा शय्या।श्चानुलोमं वा यद्यस्य हितं रोचते च । श्राराधनाप्रकारोऽनुलोमं नाषणं ग्रन्थान्यासवैयावृत्यकरणादिः। देशे अनूपदेशाद्युचितं निष्ठीवनादिनिहेतुनिः श्लेष्माद्याधिक्यं विज्ञाय तफुचितं संपादयेदिति सूत्रार्थः॥२०॥ विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणिअस्स य॥ जस्सेय दुदन नायं, सिकं से अनिगव॥१॥ (श्रवचूरिः) विपत्तिरविनीतस्य गुणानां संप्रातिविनीतस्य च ज्ञानादिगुणा Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने वितीय उद्देशकः। ५७ नामेव । यस्यैतज्ज्ञानादिप्राप्त्यप्राप्तिघ्यमुजयमुनयतः विनयाविनयाच्यां नवतीति ज्ञातम् । शिक्षा ग्रहणासेवनरूपाम् । श्रसाविठंजूतोऽनिगछति प्राप्नोति ॥ ॥ (अर्थ.) वली विवत्ती इत्यादि सूत्र. (अविणीअस्स के०) अविनीतस्य एटले विनयरहित पुरुषना ज्ञानादि गुणनो ( विवत्ती के०) विपत्तिः एटले नाश थाय डे. (य के०) च एटले अने (विणिअस्स के०) विनीतस्य एटले विनयवंत पुरुषना झानादि गुणोनी (संपत्ती के ) संपत्तिः एटले वृद्धि थाय बे. (जस्स के०) यस्य एटले जेने (एय के०) एतत् एटले उपर कहेल वात (मुहर्ड के०) उजयतः एटले अनुक्रमे अविनयथी अने विनयश्री थाय बे एम (नायं के०) झातं एटले जाणवामां आव्युं होय, ( से के०) सः एटले ते पुरुष ( सिकं के०) शिदां एटले ग्रहण धारणा रूप शिक्षा प्रत्ये (अनिगल के०) अनिगति एटले प्राप्त थाय . ॥२२॥ __ (दीपिका.) पुनः प्राहाविनीतस्य शिष्यस्य झानादिगुणानां विपत्तिर्जवति । वि. नीतस्य च शिष्यस्य ज्ञानादिगुणानां संप्राप्तिनवति।यस्य एतत् ज्ञानादिप्राप्त्यप्राप्तिरू. पम्। ज्ञानायधिगछति प्राप्नोति । जावत उपादेयं ज्ञानादीति ॥ २५ ॥ (टीका.) किंच विवत्ति ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। विपत्तिरविनीतस्य ज्ञानादिगुणानां संप्राप्तिर्विनीतस्य च ज्ञानादिगुणानामेव । यस्यैतज्ज्ञानादिप्राप्त्यप्राप्तिछयमुजयत उनयाच्यां विनयाविनयाच्यां सकाशात् नवतीत्येवं हातमुपादेयं चैतदिति जवति । शिक्षा ग्रहणासेवनारूपामसाविलंबूतोऽधिगति प्राप्नोति । लावत उपा. देय परिज्ञानादिति सूत्रार्थः ॥१२॥ जे आवि चंमे मशढिगारवे, पिसुणे नरे साहसदीणपेसणे ॥ अदिधम्मे विणए अकोविए, असंविनागी न ढु तस्स मुको ॥२३॥ (अवचूरिः) यश्चापि चएमः प्रबजितोऽपि रोषणः मतिज्ञडिगौरवः । पिशुनः पृष्ठमांसादनो नरः साहसिकोऽकृत्यकरणतत्परः। हीनप्रेषणो हीनगुर्वाज्ञाकरः। अदृष्टधर्माप्राप्तश्रुतादिधर्मा । विनयेऽकोविदोऽपएिकतः । न संविनागवान् । य श्वंचूतो न चैव तस्य मोक्षः॥२३॥ (अर्थ.) एज वात दृढ करवाने अर्थे विनय न साचवनारने शं फल मले डे ते कहे . जे श्रावि इत्यादि सूत्र. (जे श्रावि के०) यश्चापि एटले जे वली (नरे के०) नरः एटले केवल नामनो मनुष्य जे ते चारित्र ग्रहण कस्या पबी पण (चंके केन्) चएकः एटो घणो क्रोधी, ( मशविगारवे के० ) शझिगौरवमतिः एटले पोतानी - Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UFG राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) - मा. हिना अहंकारमांज मग्न एवो, ( पिसुणे के० ) पिशुनः एटले चुगली करनारो ( साहस के० ) साहसिकः एटले कृत्य करवाने विषे श्रासक्त एवो, (हीणपेसणे ho ) हीनप्रेषणः एटले गुरुनी श्राज्ञामां न रहेनारो, ( दिधम्मे के ० ) दृष्टधर्मा एटले श्रुत चारित्र प्रमुख धर्मने सम्यक् प्रकारे न पामेलो, (विए कोविए ho ) विनयेोविदः एटले विनय शी रीते करवो ते न जाणनारो, तथा ( असंविजागी के० ) असं विजागी एटले कंइ सारी वस्तु मले तो ते सर्वे साधुउने हेची न पनारो एवो होय. ( तस्स के० ) तस्य एटले तेने (मुरको के० ) मोक्षः एटले मोक्ष जे ते ( न हु के० ) न खलु एटले निश्चये नथी. ॥ २३ ॥ (दीपिका) एतदेव दृढयन् विनीतस्य फलमाह । एवंविधस्य साधोः मो. को नास्ति । कथम् । सम्यग्दृष्टेः चारित्रवत इवंविधसंक्लेशस्य अजावात् । एवंविधस्य कस्य । यश्चापि चएमः प्रत्र जितोऽपि रोषणः । पुनर्यो मतिरुद्धिगारव इति । रुद्धिगौरवमतिः। रुद्धिगौरवेऽजिनिविष्टः । पुनर्यः पिशुनः पृष्ठिमांसखादकः । नरो नरव्यअनको न जावनरः । पुनर्यः साहसिकः प्रकृत्यकरणपरः । पुनर्यो हीनगुर्वाज्ञाकरः । पुनर्यः श्रष्टधर्मा । सम्यगनुपलब्धश्रुतादिधर्मा । पुनर्विनयेऽकोविदो विनयविषयेपतिः । पुनर्यः असं विजागी । यत्र कुत्रापि लाने न संविभागवान् । य इनूतस्तस्य न मोक्षः ॥ २३ ॥ ( टीका. ) एतदेव दृढयन्न विनीतफलमाह । जे यावित्ति सूत्रम् । व्याख्या । यश्वापि चमः प्रत्रजितोऽपि रोषणः रुद्धिगौरवमतिः शद्धिगौरवे निनिविष्टः । पिशुनः पृष्ठिमांसखादकः । नरो नरव्यञ्जनो न जावनरः । साहसिकोऽकृत्यकरणपरः । हीनप्रेषणः हीनगुर्वाज्ञापरः । श्रदृष्टधर्मा सम्यगनुपलब्धश्रुतादिधर्मा । विनयेऽकोविदो विनयविषयेऽपतिः । संविभागी यत्र क्वचन लाने न संविभागवान् । य श्वंभूतोऽधमो नैव तस्य मोक्षः । सम्यग्दृष्टेश्चारित्रवत इयं विधसंक्लेशानावादिति ॥ २३ ॥ निद्देसवित्ती पुण जे गुरूणं, सुप्रधम्मा विषयंमि को विया ॥ तरित्तु ते घमिणं दुरुत्तरं, खवित्त कम्मं गइमुत्तमं गय तिबेमि ॥ २४ ॥ ॥ विषयसमादित्र्यन्प्रयणे बीन उद्देसो सम्मत्तो ॥२॥ ( अवचूरिः) उपसंहरन्विनयफलमाह । निर्देशवर्त्तिन श्राज्ञावर्त्तिनः पुनयें गुरूणां प्राकृतत्वात् श्रुतधर्मार्थाः विनयकोविदाः ते तीर्त्वा महासत्त्वा उघमेनं प्रत्योपलभ्यं Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने दितीय उद्देशकः। ए पुस्तरं पुरुत्तारं समुदं क्षपयित्वा कर्म निर वशेषं गतिमुत्तमा सिध्याख्यां गताः । ब्रवीमीति पूर्ववत् । इति विनयसमाध्यध्ययनम् ॥ २४ ॥ इति द्वितीय उद्देशः ॥२॥ (अर्थ.) हवे विनय, फल कहीने या उद्देशनो उपसंहार करे . निद्देस वित्ती इत्यादि सूत्र. (पुण के0) पुनः एटले वली (जे के०) ये एटले जे साधु ( गुरूणं के० ) गुरूणाम् एटले गुरुमहाराजनी ( निदेसवित्ती के० ) निर्देशवर्तिनः एटले आशामा रहेला एवा, (सुश्रबधम्मा के०) श्रुतार्थधर्माः एटले गीतार्थ थएला एवा तथा ( विणयंमि के०) विनये एटले विनय साचववामां ( कोविथा के०) कोविदाः एटले निपुण एवा होय . ( ते के०) ते एटले ते साधु (णं के०) एनं एटले श्रा (पुरुत्तरं के०) उरुत्तारं एटले तरी न शकाय एवा (उघं के) उघं एटले सं. सार समुज्ने (तरित्त के०) तीर्वा एटले तरीने अने (कम्मं के०) कर्म एटले नवोपग्राहि प्रमुख समग्र कर्मने (खवित्तु के०) दपयित्वा एटले खपावीने (उत्तम के) उत्तमा एटले सर्वोत्कृष्ट एवी (गरं के ) गतिं एटले सिफिनामक गति प्रत्ये (गय के०) गताः एटले गया. तिबेमि एनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ॥ २४॥ ... इति नवमाध्ययनना बालावबोधनो द्वितीय उद्देश संपूर्ण. ॥२॥ (दीपिका ) अथ विनयफलस्य नाना उपसंहरन्नाह । एवं विधास्ते साधव उत्तमा गतिं सिकिं गताः। किं कृत्वा । कर्म निरवशेषं समस्तं नवोपग्राहिनामकं दपयित्वा । पुनः किं कृत्वा । एनमुदधिं प्रत्यदोपखज्यमानं संसारसमुहं कुरुत्तारं तीर्वा । चरमनवं केवलित्वं च प्राप्येति नावः। ब्रवीमि पूर्ववत् ॥२४॥ इति श्रीदशवैकालिके शब्दार्थवृत्तौ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां विनयसमाध्याख्यनवमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥२॥ (टीका.) विनयफलानिधानेनोपसंहरन्नाह । निदेसवत्ति सूत्रम् । निर्देश प्राज्ञा तमर्त्तिनः पुनर्ये गुरूणामाचार्यादीनां श्रुतार्थधर्मा इति प्राकृतशैल्या श्रुतधर्मार्था गीतार्था इत्यर्थः। विनये कर्तव्ये कोविदा विपश्चितो य श्चनूतास्तीा ते महासत्त्वा उघमेनं प्रत्यदोपलन्यमानं संसारसमुहं कुरुत्तारं तीवैव तीर्वा चरमजवं केवखित्वं च प्राप्येति नावः । ततः पयित्वा कर्म निरवशेषं नवोपग्राहिसंज्ञितं गतिमुत्तमा सिध्याख्यां गताः प्राप्ताः। इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥२४॥ इति विनयस. माधौ व्याख्यातो द्वितीयोदेशः ॥२॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4G राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. श्रथ तृतीय उद्देशः । आयरिअ अग्गिमिवादिअग्गी, सुस्सूसमाणो पडिजागरिका। आलोअं इंगिअमेव नच्चा, जो बंदमाराहई स पुजो ॥१॥ (अवचूरिः) अथ विनयसमाध्यध्ययनस्य तृतीय उद्देशः प्रारज्यते । इह च विनीतः पूज्य इत्युपदर्यते । श्राचार्य सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं वा यथाग्निमाहिताग्निब्राह्मणः शुश्रूषमाणः सम्यक् सेवमानः प्रतिजागृयात् । तत्तत्कृत्यसंपादनेनोपचरेत्।अवलोकितं निरीक्षितमिगिन्तमन्यथावृत्तिरूपमेव ज्ञात्वा चाचार्गीयं यः साधुः - न्दोऽनिप्रायमाराधयति । यथा शीते प्रावरणेक्षणे तदानयनेन । इङ्गिते निष्ठीवनादो अ॒व्याद्यानयनेन । स पूज्यः पूचाईः कल्याणजागिति ॥१॥ (अर्थ.) हवे विनयसमाधिनो त्रीजो उद्देश कहे . श्रा उद्देशमां विनयवंत शिष्य पूज्य डे एम कहे . आयरिश इत्यादि सूत्र, (श्राहिथग्गी के०) श्राहितानिः एटले ब्राह्मण जे ते (अग्गि के०) अग्निं एटले श्रमिनी जेम शुश्रूषा करतो सावधान रहे , तेम शिष्य जे ते (आयरिश्र के०) आचार्य एटले श्राचार्य प्रत्ये (सुस्सूसमाणे के०) शुश्रूषमाणः एटले सम्यक् प्रकारे सेवा करतो बतो (पडिजागरिजा के )प्रतिजागृयात् एटले ते ते कार्य करवामां दद रहे. (जो के० ) यः एटले जे शिष्य जे ते (श्रालोश्य के०) आलोकितं एटले अचार्यनी दृष्टिप्रत्ये अथवा (इंगिअमेव के०) इङ्गितमेव एटले बाह्य श्राकारमा थएल फेरफार प्रत्ये (न. च्चा के०) ज्ञात्वा एटले जाणीने (बंदं के०) बन्दं एटले श्राचार्यनी श्बा माफक (श्रारादर के०) श्राराधयति एटले श्राराधना सेवा करे. ( स के०) सः एटले ते शिष्य (पुजो के) पूज्यः एटले पूजवा योग्य . ॥१॥ (दीपिका.) अथ तृतीय आरज्यते।श्ह च विनीतः पूज्या नवेदिति दर्शयन्नाह । यःसाधुःखाचार्य सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं चान्यं ज्येष्ठार्य रत्नाधिकं वा प्रतिजाग्यात् तत्तकार्यसंपादनेन जपचरेत् । कः कामिव । श्राहिताग्निाह्मणः अग्निमिव । किं कुर्वाणः साधुः। श्राहिताग्निाह्मणश्च । शुश्रूषमाणः सम्यक्सेवमानः।प्रतिजागरमाणश्च । उपायमाह । पुनयः साधुः आचार्यादीनामवलोकितं वीक्षितं इङ्गितमेव च अन्यथावृत्तिलक्षणं ज्ञात्वा बन्दोऽजिप्रायमाचार्यादीनां विज्ञाय आराधयति । कथमाराधयेदित्याह । शीते पतति सति प्रावरणावलोकने तस्य आनयनेन । तथा इङ्गिते च निष्ठीवना Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने तृतीय उद्देशकः । ५८१ दिलक्षणे जाते सति शुंग्यादी नामानयनेन एवं कुर्यात् । स श्वंभूतः साधुः पूज्यः पूजाई : कल्याणजागिति ॥ १ ॥ ( टीका. ) सांप्रतं तृतीय धारज्यते । इह च विनीतः पूज्य इत्युपदर्शयन्नाह । श्रयरिति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्राचार्य सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं वान्यं ज्येष्ठार्यम् । किमित्याह । श्रग्निमिव तेजस्कायमिवाहिताग्निर्ब्राह्मणः शुश्रूषमाणः सम्यक्सेवमानः प्रतिजाग्नुयात्। तत्तत्कृत्यसंपादनेनोपचरेत्। श्राह । यथा हिताग्निरित्यादिना प्रा गिदमुक्तमेव । सत्यम् । किं तु तदाचार्यमेवाङ्गीकृत्येदं तु रत्नाधिकादिमप्यधिकृत्योच्यते । वक्ष्यति च । रायणी विषय मित्यादि । प्रतिजागरणोपायमाह । श्रालोकितं निरीक्षितम् । इङ्गितमेव वान्यथावृत्तिलक्षणं ज्ञात्वा विज्ञायाचार्यायं यः साधुः बन्दोऽभिप्रायमाराधयति । यथा शीते पतति प्रावरणावलोकने तदानयने । इङ्गिते वा निष्ठीवनादिलक्षणे शुंख्याधानयनेन । स पूज्यः स छंभूतः साधुः पूजाई : कल्याणजा गिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ यारमा विषयं परंजे, सुस्सूसमाणो परिगिन वक्कं ॥ निकखमाणो, गुरुं च नासायई स पुक्को ॥ २ ॥ जदोवइ ( अवचूरिः ) प्रक्रान्ताधिकार एवाद । श्राचारार्थं ज्ञानाद्याचारनिमित्तं विनयं प्रयुङ्क्ते करोति । शुश्रूषयन् श्रोतुमिच्छन् किमेते वक्ष्यन्तीति । तेनोक्ते सति परिगृह्य वाक्यं ततश्चानिकाङ्क्षन् मायारहितः श्रद्धया कर्त्तुमिच्छन् विनयं प्रयुङ्क्तेऽतोऽन्यथाकरणेन गुरुं नाशातयति ॥ २ ॥ ( .) प्रस्तुत अधिकारमांज वली कहे बे. श्रायार इत्यादि सूत्र. जे शिष्य ( श्रयारमा के० ) खाचारार्थ एटले ज्ञानाचार प्रमुख श्राचारने अर्थे (वियं के० ) विनयं एटले उपर कहेल विनयने ( पजे के० ) प्रयुङ्क्ते एटले करे बे. तेमज जे शिष्य ( सुस्सुसमाणो के० ) शुश्रूषन् एटले याचार्य शी श्राज्ञा करे बे ते सांजलवा - नी इछा करतो तो, ( वक्कं के० ) वाक्यं एटले श्राचार्यना वचन प्रत्ये ( पडगिन ho ) परिगृह्य एटले ग्रहण करीने ( जहोवइहं के० ) यथोपदिष्टं एटले जेम याचा एक ते प्रमाणे ( श्रमिकखमाणो के० ) अनिकाङ्गमाणः एटले करवानी इवा करतो विनय साचवे. पण एथी विपरीत पणे आचरण करीने ( गुरुं के० ) गुरुं एटले गुरु प्रत्ये (नासाय के० ) नाशातयति एटले आशातना करे नहि. ( स ho ) सः एटले ते शिष्य ( पुतो के० ) पूज्यः एटले पूजवा योग्य बे. ॥ २ ॥ ( दीपिका . ) पुनः प्रक्रान्त एव अधिकार श्राह । यः साधुः श्राचारार्थ ज्ञानादीना For Private Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. माचाराणां निमित्तं विनयं पूर्वोक्तं प्रयुङ्क्ते करोति । किं कुर्वाणः । शुश्रूषमाणः श्रोतुमिन्छन् । किमयं गुरुर्वदयत्येवं ततस्तेन गुरुणा उक्ते सति वाक्यमाचार्या दिकथितं परिगृह्य ततो यथोपदिष्टं यथा गुरुणा उक्तं तथा अनिकाङ्कन् मायारहितः श्रच्या कर्तुमिन् सन् विनयं करोति । परं ततोऽन्यथाकरणेन गुरुं न आशातयति न हीलयति । स पूज्यः ॥२॥ (टीका.) प्रक्रान्ताधिकार एवाह।आयरिश्र त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्राचारार्थं ज्ञानाद्याचारनिमित्तं विनयमुक्तलक्षणं प्रयुक्ते करोति यः शुश्रूषन् श्रोतुमिछन् । किमयं वदयतीत्येवम् । तदनु तेनोक्ते सति । परिगृह्य वाक्यमाचाीयम् । ततश्च यथोपदिष्टं यथोक्तमेव अनिकांदन्।मायारहितःच्या कर्तुमिन् विनयं प्रयुक्ते। अतोऽन्य. थाकरणेन गुरुं वित्याचार्यमेव नाशातयति न हीलयति यः। स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥२॥ रायणिएसु विणयं पलंजे, डदरा वि असुश्र परित्रायजिहा॥ नीअत्तणे वह सच्चवाई, उवायवं वककरे स पुजो ॥३॥ (श्रवचूरिः ) रत्नाधिकेषु ज्ञानादिरत्ननूषितेषु विनयं प्रयुक्ते करोति । महरा अपिये वयःश्रुतान्यां पर्यायज्येष्ठाश्चिरदीदितास्तेषु च । एवं यो नीचत्वे गुणाधिकान् प्रति नीचनावे वर्त्तते। सत्यवादी अविरुफवक्ता अवपातवान् वन्दनशीलो निकटवर्ती वा यो वाक्यकरो गुरुनिर्देशकरणशीलः ॥३॥ (अर्थ.) वली रायणिएसु इत्यादि सूत्र, जे साधु (रायणिएसु के०) रत्नाधिकेषु एटले ज्ञान दर्शन प्रमुख नाव रत्नोवडे श्रेष्ठ एवा आचार्यादिकने विषे (विणयं के) विनयं एटले पूर्वोक्त विनय प्रत्ये ( पजे के०) प्रयुङ्क्ते एटले करे. (श्र के०) च एटले वली (जे के० ) ये एटले जे (डहरा वि के०) डहरा अपि एटले न्हाना साधु पण (परिआयजिहा के०) पर्यायज्येष्ठाः एटले दीदा पर्यायथी अथवा श्रुतपर्यायथी मोटा होय तेमनो पण विनय साचवे. तेमज जे साधु (सच्चवाई के०) सत्यवादी एटले यथार्थ वचन बोलनारो, आचार्य प्रमुखने नित्य (वायवं के०) श्रवपातवान् एटले वंदना करनारो, तथा (वककरे के०) वाक्यकरः एटले श्राचार्यादिकनी थाझा माननारो एवो थयो तो (नीअत्तणे के०) नीचत्वे एटले पोताना करता अधिक गुणी होय तेने नमतो रहे, (स के० ) सः एटले ते साधु (पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य . ॥३॥ (दीपिका.) पुनः किंच । यः साधुः रत्नाधिकेषु नावरतानादिजिरधिकेषु वि Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने तृतीय उद्देशकः। ५३ नयं पूर्वोक्तं प्रयुङ्क्ते करोति । तथा महरा अपि च ये वयसा श्रुतेन च ज्येष्ठाः। पुनर्ये पर्यायज्येष्ठाश्चिरप्रव्रजिताः। तेषु च यो विनयं प्रयुङ्क्ते । एवं यो नीचत्वे गुणाधिकान् प्रति नीचन्नावे वर्त्तते । पुनर्योऽपि सत्यवादी अविरुष्वक्ता तथा अवपातवान् वन्दनाशीलः निकटवर्ती वा । पूनयों वाक्यकरः गुरोर्निर्देशकरणशीलः । स पूज्यः ॥ ३ ॥ __(टीका.) किं च रायणिएसुत्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। रत्नाधिकेषु ज्ञानादिनावरत्नान्युट्टितेषु विनयं यथोचितं प्रयुङ्क्ते करोति । तथा महरा श्रपि ये वयःश्रुतान्यां पर्यायज्येष्ठाश्चिरप्रव्रजितास्तेषु विनयं प्रयुते । एवं च यो नीचत्वे गुणाधिकान् प्रति नीचजावे वर्त्तते। सत्यवाद्य विरुड़वक्ता तथा अवपातवान् वन्दनशीलो निकटवर्ती वा । एवं च यो वाक्यकरो गुरुनिर्देशकरणशीलः। स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥३॥ अन्नायगंबं चरई विसुई, जवणच्या समुआणं च निच्चं ॥ अलधुरं नो परिदेवश्जा लडुं न विकबई स पुजो ॥४॥ (श्रवचूरिः) अज्ञातोंडं परिचयाकरणेन अज्ञातः सन् जावों गृहस्थोछरितादि चरति अटित्वानीतं जुङ्क्ते । विशुझमुजमादिदोषरहितं यापनार्थं संयमजारोशाहिदेहपालनार्थम् । समुदानं चोचितनिदालब्धं च नित्यं सर्वकालं नतूंमप्येकत्रैवाप्तम् । एवंनूतमलब्ध्वा न परिदेवयेत् न खेदं यायात् । अन्नाग्योऽहं कुदेशोऽयमित्यादि । लब्ध्वा प्राप्योचितं न विकलते न श्लाघां करोति । सपुण्योऽहं शोजनो वायं देश इति ॥४॥ (श्रर्थ. ) वली अन्नायं इत्यादि सूत्र. जे साधु ( विसुझं के ) विशुळं एटले बे. तालीस दोषवडे रहित एवा, ( समुआणं के ) समुदानं एटले उचित गोचरी चर्याथी मलेला एवा (अ के ) च एटले तथा ( निच्चं के) नित्यं एटले को दिवसेज नहि, तो हमेशां ( अन्नायउंबं के) अज्ञातों एटले जेमनो परिचय नथी एवा गृहस्थोना घरथी स्तोक स्तोक लावेल आहार प्रत्ये (जवणच्या के०) यापनार्थम् एटले संयमजार उपाडनार एवा शरीरना निर्वाहने अर्थे ( चरश के०) चरति एटले नक्षण करे. उपर कहेल प्रकारनो आहार (अलकुआं के०) अलब्ध्वा एटले न मले तो ( नो परिदेवश्जा के) नो परिदेवयेत् एटले पोतानी, दातारनी अथवा देश प्रमुखनी निंदा न करे. तेमज ( लई के ) लब्ध्वा एटले उपर कहेल प्रकारनो आहार मले तो पण ( न विकबर के )न विकलते एटले पोतानी, दातारनी श्र. Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद नाग तेतालीस-(४३)-मा. थवा देश प्रमुखनी श्लाघा न करे. ( स के० ) सः एटले ते साधु (पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य . ॥४॥ (दीपिका.) पुनः किंच। साधुः श्रझातोञ्छ परिचयस्य श्रकरणेन श्रझातः सन् । जावों गृहस्थोकरितादि चरति अटित्वानीतं नुते । नतु ज्ञातस्तद्वहुमतमिति।एतदपि विशुधमुजमादिदोषरहिम् ।न तहिपरीतम् । एतदपि यापनार्थ संयमनारोहाहिदेहपालनाय । अन्यथा समुदानं च उचितनिकालब्धं च नित्यं सर्वकालं न तु उमपि एकत्रैव बहु लब्धं कादाचित्कं वा।एवंनूतमपि विनागतः अलब्ध्वा अनासाय न परिदेवयेत् न खेदं यायात् । यथा अहं मन्दनाग्यः। अथवा नायं देशः शोजन शति। विनागतः च लब्ध्वा प्राप्य उचितं न विकलते न श्लाघां करोति । यथा अहं महापुण्यवान् । श्रथवा श्रयं देशः शोजनः। यो यतिरेवं पूर्वोक्तं कुर्यात् स पूज्यः॥४॥ (टीका.) किं च । अन्नायं ति सूत्रम् ।अज्ञातों परिचयाकरणेनाज्ञातः सन् जावोज्वं गृहस्थोछरितादि चरत्यटित्वानीतं जुड़े । न तुज्ञातस्तबहुमतमिति । एतदपि वि. शुभमुन्मादिदोषरहितम् । नतहिपरीतम् । एतदपि यापनार्थं संयमनरोछाहिशरीरपालनाय नान्यथा । समुदानं चोचितनिदालब्धं च नित्यं सर्वकालं नतूंठमप्येकत्रैव बहु लब्धं कादाचित्कं वा । एवंचूतमपि विजागतोऽलब्ध्वानासाद्य न परिदेवयेत् । न खेदं यायात् । यथा मन्दलाग्योऽहमशोननो वायं देश इति। एवमेवं विनागतश्च लब्ध्वा प्राप्योचितं न विकलते न श्लाघां करोति । सपुण्योऽहं शोजनो वायं देश इत्येवं स पूज्य इति सूत्रार्थः॥४॥ संथारसिङासणनत्तपाणे, अप्पिया अश्लाने वि संते॥ जो एवमप्पाणनितोसश्ता, संतोसपाहन्नरए स पुङो ॥५॥ (श्रवचूरिः) सन्थारकशय्यासनजक्तपानानि प्रतीतान्येतेष्वत्पछताऽमूर्खता परिजोगातिरक्ताग्रहणं च अतिलाने सति अपि तोषं याति । येन तेन वा यापयति । संतोषप्राधान्यरतः स पूज्य इति ॥५॥ (अर्थ.) वली संथार इत्यादिसूत्र. जे साधु ( अश्लाने के०) अतिलाने एटले संथारा प्रमुख वस्तुनो गमे एटलो लान (संते वि के०) सत्यपि एटले थतो होय तो पण (संथारसिजासणजत्तपाणे के०) संस्तारकशय्यासननक्तपानेषु एटले संथारो, शय्या, श्रासन, नक्त अने पान प्रमुख वस्तुनी (अप्पिछया के) अल्पेछता एटसे अस्प श्वा राखे, अर्थात् उपकरणने विषे मूळ न राखे, तथा खप करतां लगार प Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने तृतीय उद्देशकः । ԱՐԱ वधारे न ले . ( संतोसपादन्नरए के० ) संतोषप्राधान्यरतः एटले मुख्यतावडें संतोषने विषे सक्त अर्थात् संतोष राखवो एज वातने प्रधान माननारा (जो के० ) यः एटले जे साधु ( अप्पाण के० ) श्रात्मानं एटले पोताने ( जितोसा के० ) अजितोषयति एटले जे मले तेमां संतोष राखे, ( स के० ) सः एटले ते साधु (पुको के० ) पूज्यः एटले पूजवा योग्य बे. ॥ ५ ॥ ( दीपिका . ) किंच | यस्य साधोः संस्तार के शय्यायामासने जक्ते पाने च छापेछता मूर्बया कृत्वा परिजोगादधिकस्य परिहारो वा जवेत् । क्व सति । सति संस्तारकादीनां गृहस्थेच्यः सकाशात् अतिलाने सत्यपि । यः साधुः एवमात्मानमनितोषयति । येन वा तेन वा श्रात्मानं यापयति । किंभूतो यतिः । संतोषप्राधान्यरतः । संतोष एव प्रधाननावे रत आसक्तः । स साधुः पूज्यः ॥ ५ ॥ ( टीका . ) किं च संथार ति सूत्रम् । संस्तारकशय्यासनजक्तपानानि प्रतीतान्येव । एतेष्वछता श्रमूर्बया परिजोगातिरिक्ताग्रहणं वा । तिलानेऽपि सति संस्तार-कादीनां गृहस्थे यः सकाशात् । य एवमात्मानम जितोषयति । येन वा तेन वा यापयति संतोषप्राधान्यरतः संतोष एव प्रधानजावे सक्तः । स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ सक्का सहेनं प्रसाइ कंटया, अनुमया चया नरे ॥ पासए जो न सहित कंटए, वईमए कन्नसरे स पुको ॥ ६ ॥ ( अवचूरिः ) इन्द्रियसमाधिद्वारेण पूज्यतामाह । शक्याः सोढुमाशया इदं मे जविष्यतीति । कंटका प्रयोमया लोहमया उत्सहतार्थोद्यमवता नरेण । अनाशया निरीहः सन् यः सहेत कंटकान् वाङ्मयान् खरादिवागात्मकान् कर्णसरान् कर्ण - गामिनः । स पूज्य इति ॥ ६ ॥ (अर्थ) इंद्रियोनी समता राखवाथी पण शिष्य पूज्य थाय बे, एम कहे बे. सका इत्यादि सूत्र. ( उच्चहया के० ) उत्सहता एटले द्रव्य उपार्जवाने अर्थे घणो उद्यम करनार एवा (नरेां के०) नरेण एटले मनुष्य जे तेणे ( श्रासाइ के०) आशया एटले द्रव्य मलवानी आशाए (अमया के०) श्रयोमयाः एटले लोहडाना (कंटया ho ) कंटका: एटले कांटा जे ते ( सहेजं के० ) सोढुं एटले खमवाने (सक्का के० ) शक्याः एटले योग्य बे. अर्थात् कोइ द्रव्यार्थी माणस द्रव्यनी आशाए लोहडाना कांटावाली पथारी उपर पण सुइ रहे. या वात बनवा योग्य बे. तेम ( जो उ के० ) यस्तु एटले जे साधु वली (कन्नसरे के० ) कर्णसरान् एटले कानमां प्रवेश करता एवा ७४ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(५३)-मा. ( वश्मये के०) वाङ्मयान् एटले कठोर वचन प्रमुख कंटक प्रत्ये (श्रणासए के) अनाशया एटले कोइ पण प्रकारनी श्छा न राखतां (सहिजा के०) सहेत एटले सहन करे. (स के०) सः एटले ते साधु (पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य . ॥६॥ (दीपिका.) श्रथ इन्द्रियसमाधिकारेण साधोः पूज्यतामाह । नरेण कंटका दं मे नविष्यतीत्याशया सोढुं शक्याः। किंजूताः कंटकाः। श्रयोमया लोहमयाः । किंजूतेन नरेण । उत्साहवता । अर्थोद्यमवता । तथा च कुर्वन्ति केचित् लोहमयकंटकास्तरणशयनमप्यर्थवाञ्छया। परं नतु वचनकंटकाः सोढुं शक्याः। ततो निरीहः सन् कर्णसरान् वाकंटकान् सहेत । स पूज्यः ॥६॥ (टीका.) शन्जियसमाधिछारेण पूज्यतामाह । सक त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। शक्याः सोदुमाशयेतीदं मे नविष्यतीति प्रत्याशया। क इत्याह । कंटका योमया लोहात्मकाः। उत्सहता नरेणार्थोद्यमवतेत्यर्थः । तथा च कुर्वन्ति केचिदयोमयकंटकास्तरणशयनमप्यर्थलिप्सया। नतु वाकंटकाः शक्या इत्येवं व्यवस्थितेऽनाशया फलप्रत्याशया निरीहः सन् यस्तु सहेत कंटकान् वाङ्मयान् खरादिवागात्मकान कर्णस. रान् कर्णगामिनः । स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ मुत्तदुरका उ हवंति कंटया, अमया ते वि त सुनहरा॥ वायादुरुत्ताणि दुरुपराणि, वेराणुबंधीणि मदनयाणि ॥ ७॥ (श्रवचूरिः) एतदेव स्पष्टयति । मुहूर्तपुःखा वेधकाल एव प्रायो फुःखहेतुत्वात् जवन्ति कंटका अयोमयास्तेऽपि ततः कायात्सूकराः। सुखेनैवोझियन्ते । वागूहुरुतानि पुरुहराणि फुःखेनोझियन्ते। मनोलहवेधनात् । वैरानुबन्धी नि । अतएव कुगतिपातादिनयतुत्वान्महानयानि ॥७॥ (अर्थ.)थाज वात प्रकट कहे . मुहुत्त इत्यादि सूत्र. (अमया के०) अयोमयाः एटले लोहडाना (कंटया के०) कंटकाः एटले कंटक जे ते (उ के०) तु एटले पुनः (मुहुत्तपुरका के०) मुहूर्तपुःखाः एटले प्राये शरीरमां खूते त्यारेज वेदना करनारा एवा (हवंति के ) नवन्ति एटले होय बे. तथा (ते विके०) तेऽपि एटले ते कंटक पण (त के०) ततः एटले ते शरीर थकी (सुकरा के०) सूकराः एटले सुखे काढी शकाय एवा होय , तेमज कदाच ते कंटकथी शरीरे बिपड्या होय तो तेना उपचार पण सुलन बे. पण (वायापुरुत्ताणि के०) वागपुरुक्तानि एटले कठोर वचन रूप कंटक जे ते (पुरुकराणि के०) पुरुषराणि एटले घणा कुःखथी मनमांथी काढी शका Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके नवमाध्ययने द्वितीय उद्देशकः । Անց य एवा, (वेराणुबंधीणि के० ) वैरानुबन्धीनि एटले पाउलथी वैरने उत्पन्न करनारा एवा तथा (महप्रयाणि के० ) महाजयानि एटले परलोके नरकपात प्रमुख महाजय उपजावनारा एवा बे ॥ ७ ॥ ( दीपिका. ) पुनरेतदेव स्पष्टयति । लोहमयाः कंटका मुहूर्त्तदुःखा मुहूर्त महपकालं यावत् दुःखदा जवन्ति । वेधकाल एव प्रायो दुःखदानात् । तेऽपि कंटकाः । कायात् सूराः सुखेनैव उड्रियन्ते । व्रणपरिकर्म च क्रियते । परं वचनेन यानि दुरुक्तानि तानि डुरुराणि जवन्ति दुःखेनैव उद्भियन्ते । मनोरूपलक्षवेधनात् । किंभूतानि वचनपुरुक्तानि । वैरानुबन्धीनि । तथा श्रवणप्रद्वेषादिना इह लोके परलोके च वैरजावजनकानि । पुनः किंभूतानि । श्रतएव महाजयानि कुगतिपातजयहेतुभूतानि ॥ ७ ॥ ( टीका. ) एतदेव स्पष्टयति । मुहुत्त तिसूत्रम् । मुहूर्त्तदुःखा अल्पकालडुःखा जवन्ति कंटका योमया वेधकाल एव प्रायो दुःखजावात् । तेऽपि ततः कायात्सुद्धराः सुखेनैवो द्रियन्ते । व्रणपरिकर्म च क्रियते । वाग्दुरुक्तानि पुनरुद्धराणि दुःखे - नोकियन्ते मनोलक्षवेधनाद्वैरानुबन्धी नि । तथा श्रवण प्रद्वेषा दिनेह परत्र च वैरानुबन्धी नि जवन्ति । श्रत एव महाजयानि कुगतिपातादिमहाजय हेतुत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ समावयंता वयणा निघाया, कन्नगया दुम्मपित्र्यं जयंति ॥ धम्मुत्ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइंदिए जो सदई सपुको ॥ ८ ॥ ( अवचूरिः ) समापतन्तः केचना निघाताः खरादिवचनप्रहाराः कर्णगताः सन्तो दौर्मनस्यं दुष्टमनोजावं जनयन्ति प्राणिनाम् । एवंभूतान् वचनानिघातान् धर्म इति कृत्वा समता परिणामापन्नो नत्वशक्त्यादिना परमामशूरः दानसङ्ग्रामशूरापेक्षया प्रधानशूरः सन् जितेन्द्रियो यः सहेत स पूज्य इति ॥ ८ ॥ ( अर्थ. ) वली समावयंता इत्यादि सूत्र. ( समावयंता के० ) समापतन्तः एटले एका थइने सामा यावता एवा ( वयणा निघाया के० ) वचनानिघाताः एटले क रादि वचनरूप प्रहार जे ते ( कन्नगया के० ) कर्णगताः एटले काने घ्याव्या बता (डुम्मणां के० ) दौर्मनस्यं एटले मनमां दुष्ट विकार प्रत्ये ( जति के० ) जनयन्ति एटले उत्पन्न करे बे. (परमग्गसूरे के० ) परमाग्रशूरः एटले बीजा शूरवीर पुरुष करतां मोटो शूरवीर एवो ( जिईदिए के० ) जितेन्द्रियः एटले इंडियाने जीतनार एवो (जो के० ) यः एटले जे पुरुष (सहइ के०) सहते एटले पूर्वोक्त वचनरूप प्रदार सहन करे. ( स के०) सः एटले ते पुरुष (पुको के० ) पूज्यः एटले पूजवा योग्यवे. ॥ ८ ॥ For Private Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह,नाग तेतालीस-(५३)-मा. (दीपिका.) पुनः किंच । वचनाभिघाताः खरादिवचनप्रहाराः कर्णगताः सन्तः प्रायो दौर्मनस्यं कुष्टमनोनावं प्राणिनां जनयन्ति । अनादिनवान्यासात् । किं कुर्वन्तो वचनानिघाताः।समापतन्त एकीनावेन अनिमुखं पतन्तः। अथ च यो यतिस्तान् सहते । नतु तैर्विकारमुपदर्शयेत् । किं कृत्वा सहते। धर्म इति कृत्वा सामायिकपरिणामं समापन्नः सन् । नतु अशक्त्यादिना। किंनूतो यतिः। परमानशूरः । प्रधानशूरः। पुनर्जितेन्जियः । स पूज्य इति ॥ ७ ॥ (टीका.)किं च समावयंत त्ति सूत्रम्। अस्य व्याख्या। समापतन्त एकीनावेनानिमुखं पतन्तः।क इत्याह।वचनानिघाताःखरादिवचनप्रहाराःकर्णगताः सन्तः प्रायोऽनादिनवान्यासात् दौर्मनस्यं अष्टमनोनावं जनयन्ति।प्राणिनामेवंनूतान्वचनानिघातान् धर्म इति कृत्वा सामायिकपरिणामापन्नो नत्वशत्यादिना परमानशूरो दानसंग्रामशूरापेदया प्रधानः शूरो जितेन्जियः सन् यः सहते न तैर्विकारमुपदर्शयति स पूज्य इति सूत्रार्थः॥७॥ अवन्नवायं च परम्मुदस्स, पञ्चरकन पडिणीअं च नासं ॥ नहारणिं अप्पिअकारणिं च, नासं न नासिक सया स पुजो॥॥ __ (अवचूरिः) अवर्णवादं च पृष्ठतः अश्लाघा पराङ्मुखस्याप्रत्यदस्य प्रत्यदस्य च प्रत्यनीकां चोरस्त्वमित्यादिरूपां नाषामवधारिणीमशोजन एवायमप्रीतिकारिणी श्रोतुम॒तनिवेदनादिरूपां नाषां न जाषेत सदा यः कदाचिदपि नैवं ब्रूयात् । स पूज्य इति ॥ ए॥ __ (अर्थ.) तेमज अवन्नवायं इत्यादि सूत्र. जे साधु (परम्मुहस्स के०) पराङ्मुखस्य एटले पूठ फेरवीने गएल मनुष्यना (च के०) वली (पञ्चरक के०) प्रत्यक्षतः एटसे प्रत्यक्ष देखाता मनुष्यना (अवन्नवायं के०) अवर्णवादं एटले निंदावचन प्रत्ये (सया के०) सदा एटले सर्वकाल अर्थात् कोश्पण काले (न नासिङ के०) न नाषेत एटले न बोले. (च के०) अने (पडिणीअं के०) प्रत्यनीकां एटले मनमां कषाय उत्पन्न करनारी एवी जेम के 'तुं चोर डे' इत्यादिक नाषा प्रत्ये को समये पण न बोले. (च के०) तथा (उहारिणिं के०) अवधारिणीं एटले 'श्रा माणस खराब ज डे' इत्यादिक निश्चयवाली वाणी प्रत्ये कोसमये पण न बोले.तेमज (अप्पियकारिणं के०) अप्रियकारिणीं एटले कोनुं सगुं वहावं मरी गयानी वात कहेवा प्रमुख नाषा के जे सांजलनारना मनमां अप्रीति उपजावनारी होय . ते प्रत्ये कोश् प्रसंगे पण न बोले. (स के०) सः एटले ते साधु (पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य . ॥ए॥ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने वितीय उद्देशकः। ԱԿ (दीपिका.) पुनराह । यः अवर्णवादमश्लाघावादं पराङ्मुखस्य पृष्ठतः प्रत्यक्षतश्च नो नाषेत सदा कदाचिदपि नैवं ब्रूयात् । तथा प्रत्यनीकामपकारिणीं त्वं चौर :त्या दिरूपां तथा अवधारिणीमशोजन एवायमित्यादिरूपां पुनरप्रीतिकारिणीं च श्रोतुम॒तनिवेदनादिरूपां च नाषां वाचं न नाषेत । स यतिः पूज्यः॥ ए॥ (टीका.) तथा श्रवन्नवायं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या।अवर्णवादं चाश्लाघावादं च पराङ्मुखस्य पृष्ठत इत्यर्थः । प्रत्यक्षतश्च प्रत्यदस्य च प्रत्यनीकामपकारिणी चोरस्त्वमित्यादिरूपां नाषां तथा अवधारिणीमशोजन एवायमित्यादिरूपामप्रियकारिणीं च श्रोतुम॒तनिवेदनादिरूपां नाषां वाचं न नाषेत सदा। यः कदाचिदपि नैवं ब्रूयात्स पूज्य इति सूत्रार्थः॥ ए॥ अलोलुए अकुहए अमाई, अपिसुणे आवि अदीबवित्ती॥ नो नावए नो विअ नाविअप्पा, अकोनहल्ले असया स पुज्जो॥१०॥ (श्रवचूरिः) अलोलुपः थाहारादिष्वबुब्धः। अकुहक इन्उजालादिकुहकरहितः । अमायी अकौटिल्यः। श्रपिशुनश्चापि न वेदनेदकर्ता । अदीनवृत्तिराहाराघजावेऽपि शुक्रवृत्तिः । नो जावयेदकुशलनावनया परं यथामुकाग्रेऽहं वर्णनीयः । नापिच जावितात्मा स्वयमन्याग्रे स्वगुणवर्णकः । थकौतुकश्च नटनर्तक्यादिषु ॥ १० ॥ (अर्थ.) तेमज अलोलुए इत्यादि सूत्र. जे साधु (श्रालोलुए के० ) अलोलुपः एटले थाहारादिकने विषे लालच न राखनारा (अकुहए के) अकुहकः एटले इंजाल (जादू) प्रमुख न करनारा (अमाई के०) अमायी एटले मनमां वक्रता नहि राखनारा, (अपिसुणे के०) अपिशुनः एटले चुगली प्रमुख करी कोश्नो बेद नेद न करनारा, (आवि के०) चापि एटले वली पुनः (अदीनवित्ती के०) अदीनवृत्तिः एटले आहार प्रमुख न मले तोपण मनमां दीनपणुं न राखनारा एवा होय. तथा जे साधु (नो नावए के०) नो नावयेत् एटले को बीजा पासे अप्रशस्त नावना करावे नहि, अर्थात् 'फलाणानी बागल तु मारी वखाण कर ' इत्यादि वचन कोश्ने कहे नहि, (विश्र के०) अपिच एटले वली (जाविअप्पा के०) नावितात्मा एटले पोताने वखाणनारा एवा (नो के०) नथी होता. अर्थात् पोते पोताना वखाण बीजा को पागल करता नथी. (अ के०) च एटले वली जे साधु (अकोउहढे के०) अकौतूहलः एटले नाटक प्रमुख जोवानी श्छा को काले पण राखता नथी. (स के०) सः एटले ते साधु (पुङो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य . ॥१०॥ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पए राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) तथा यः साधुः अलोलुपः आहारादिष्वबुब्धः । पुनः अकुहक इउजालादिकुहकरहितः। पुनः श्रमायी कौटिल्यशून्यः। पुनः अपिशुनो न बेदननेदनकर्ता । पुनः अदीनवृत्तिः श्राहारादीनामजावेऽपि शुवृत्तिः। पुनर्यो नो जावयेदकुशलजावनया परं यथा अमुकपुरतो नवताहं वर्णनीयः। पुनर्यो न नावितात्माख. यमन्यपुरतः स्वगुणवर्णनापरः।पुनः अकौतुकश्च सदा नटनर्तक्यादिषु।स पूज्यः॥ १० ॥ ( टीका.) तथा अलोलुए त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । अलोलुप आहारादिष्वबुब्धोऽकुहक इन्द्रजालादिकुहकरहितः। अमायी कौटिल्यशून्योऽपिशुनश्चापि नो - दन्नेदकर्ता।अदीनवृत्तिरादारायलानेऽपि शुभवृत्तिः।नो जावयेदकुशलनावनया परम्। यथामुकपुरतो जवताहं वर्णनीयः । नापि च नावितात्मा खयमन्यपुरतः स्वगुणवर्णनापरः अकौतुकश्च सदा नटनर्तकादिषु यः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ गुणेहिं साढू अगुणेहिं साढू, गिहाहि साढू गुण मुंचसाढू॥ विआणि अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो स पुजो ॥११॥ (श्रवचूरिः) गुणैः पूर्वोक्तैर्विनयाथैः युक्तः साधुर्नवति । अगुणैरुक्तविपरीतैर्न । एवं सति गृहाण साधुगुणान् मुश्च असाधुगुणान् । इति शोजन उपदेशः । एवमधिकृत्य प्राकृतशैव्या विज्ञापयति विविधं ज्ञापयति श्रात्मानमात्मना यस्तथा रागळेषयोः समो न रागवान् न वेषवान् इति ॥ ११॥ __ (अर्थ.) वली गुणे हिं इत्यादि सूत्र. जे (गुणे हिं के०) गुणैः एटले उपर कहेल विनय प्रमुख गुणवडे युक्त होय, ते (साहू के) साधुः साधु कहेवाय जे. तथा जे (श्रगुणे हिं के०) अगुणैः एटले विनय प्रमुख गुणथी उलटा एवा अविनय प्रमुख दोष वडे युक्त होय ते (असाहू के०) श्रसाधुः एटले साधु कहवातो नथी. माटे हे शिष्य (सादगुण के०) साधुगुणान् एटले साधुना गुणप्रत्ये (गिहाहि के०) गृहाण एटले ग्रहण कर. तथा ( असाह के०) असाधून एटले जेथी साधु कहेवाय नहि एवा दोषप्रत्ये (मुंच के०) मुश्च एटले त्याग कर. जे साधु (अप्पएणं के०) श्रात्मना एटले पोते (अप्पगं के) श्रात्मानं एटले पोताना आत्माने पूर्वोक्त गुणवडे (विश्राणिया के ) विज्ञापयति एटले विविध प्रकारे जणावे. तथा (जो के०) यः एटले जे साधु ( रागदोसेहिं के०) रागद्वेषयोः एटले राग द्वेषने विषे (समो के०) समः एटले समतावाला अर्थात् को उपर पण राग द्वेष न करे, (स के ) सः एटले ते साधु (पुजो के) पूज्यः एटले पूजवा योग्य . ॥ ११ ॥ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने द्वितीय उदेशकः । ५१ ( दीपिका . ) किं च साधुः गुणैः पूर्वोक्तैर्गुणैर्विनयादिनिर्युक्तो भवति । तथा साधुः गुणैः पूर्वोक्तगुण विपरीतैः जवति । एवं सति च गुणान् साधुगुणान् गृहाण त्वम् । साधुगुणान् मुञ्च इति शोजन उपदेशः । एवमधिकृत्य विज्ञापयति विविधं ज्ञापयति श्रात्मानमात्मना पुनर्यो रोगद्वेषयोः समो न रागवान् न द्वेषवान् एवंविधो यः साधुः स पूज्यः ॥ ११ ॥ ( टीका. ) किंच गुणेहिं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । गुणैरनन्तरोदितैर्विनयादिनिर्युक्तः साधुर्भवति । तथा अगुणैरुक्तगुण विपरीतैरसाधुः । एवं सति गृहाण साधुगुणा - न्, मुञ्चासाधुगुणानिति शोजन उपदेशः । एवमधिकृत्य प्राकृतशैल्या विज्ञापयति विविधं ज्ञापयत्यात्मानमात्मना यः । तथा रागद्वेषयोः समः, न रागवान्न द्वेषवानिति स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ तदेव मदरं च मदल्लगं वा, इची पुमं पवइयं गिदिं वा ॥ नो दलए नो वि खिंसइका, यंनं च कोदं च चए स पुको ॥१२॥ ( अवचूरिः ) तथैवेति पूर्ववत् । महरं वा महलकं वा । वाशब्दान्मध्यमं, स्त्रियं पुमांसमुपलक्षणत्वान्नपुंसकं वा, प्रत्रजितं गृहिणं वाशब्दादन्यतीर्थिकं वा न हीलयति न खिंसयति च । सकृदुष्टानिधानं हीलनम् । सकृत्विंसनम् । तयोर्निमित्तं स्तम्नं च क्रोधं च त्यजेत् ॥ १२ ॥ (अर्थ. ) वली तव इत्यादि सूत्र. ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज जे साधु ( डहरं के० ) डहरं एटले पोताना करता न्हानानी ( व के० ) वा एटले अथवा ( Heai ho ) महलकं एटले पोताना करता मोटानी ( वा के० ) अथवा ( इि ho ) स्त्रियं एटले स्त्रीनी, ( पुमं के० ) पुमांसं एटले पुरुषनी, ( पवां के० ) प्र व्रजितं एटले साधुनी ( वा के० ) अथवा ( गिहिं के० ) गृहिणं एटले गृहस्थनी ( नो हीलए के० ) नो हीलयति एटले एकवार दीलना न करे, (विश्व के ० ) - पिच एटले वली (नो खिंसश्का के० ) नो खिंसयति एटले वारंवार दीलना न करे. ( च के० ) वली ( थंनं के०) स्तम्नं एटले अहंकार प्रत्ये तथा ( कोहं के० ) क्रोधं एटले क्रोध प्रत्ये (चए के० ) त्यजति एटले त्याग करे. ( स के० ) सः एटले ते साधु (पुो के० ) पूज्यः एटले पूजवा योग्य ते ॥ १२ ॥ 1 ( दीपिका . ) किंच साधुः एतान्न हीलयति । का नित्याह । तथैव पूर्ववत् । डहरं वा मलकं वा । वाशब्दाद् मध्यमं वा । स्त्रियं पुमांसम् । उपलक्षणत्वान्नपुंसकं वा । प्रत्रजितं वा Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एएए राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह भाग तेतालीस-४३-मा. गृहिणं वा । वाशब्दात्तदन्यतीर्थिकं वा न हीलयति नापि खिसयति । तत्र सूयया असूयया वा एकवारं पुष्टानिधानं हीलनम् । तदेव वारं वारं खिंसनम् । हीलनाखिं. सनयोश्च निमित्तनूतं स्तम्नं च मानं च क्रोधं रोषं त्यजति । स पूज्यः ॥ १२ ॥ (टीका.) किं च तहेव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। तथैवेति पूर्ववत् । डहरं वा महबकं वा। वाशब्दान्मध्यमं वा स्त्रियं पुमांसमुपलक्षणत्वान्नपुंसकं वा प्र. वजितं गृहिणं वा । वाशब्दादन्यतीर्थिकं वा । न हीलयति नापि च खिंसयति । तत्र सूयया असूयया वा सकृदुष्टानिसंधानं हीलनं तदेवासकृत्खिंसनमिति । हीलनखिंसनयोश्च निमित्तनूतं स्तम्नं च मानं च क्रोधं च रोषं च त्यजति यः। स पूज्यो निदानत्यागेन तत्त्वतः कार्यत्यागादिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ जे माणिश्रा सययं माणयंति, जत्तेण कन्नं व निवेसयंति॥ ते माणए माणरिदे तवस्सी, जिदिए सच्चरए स पुजो ॥१३॥ (श्रवचूरिः) ये मानिता श्रन्युबाना दिसत्कारैः सततं शिष्यान्मानयन्ति । श्रुतोपदेशादिना यत्नेन कन्यामिव मातापितरौ । यथा कन्यां वयसा गुणैश्च संवर्ध्व योग्यनर्तरि स्थापयतः । एवमाचार्याः शिष्यं सूत्रार्थवेदिनं कृत्वा महत्याचार्यपदे स्थापयन्ति । तानेवंचूतान् गुरून् मानयति यो मानार्हान् पूजार्दान् तपखी तपःशीलः। जितेन्जियः सत्यरत इति ॥ १३ ॥ __ (अर्थ. ) वली जे माणिश्रा इत्यादि सूत्र. (जे के० ) ये एटले जे श्राचार्य उपाध्याय प्रमुख जे ते (माणिश्रा के०) मानिताः एटले अन्युबान, विनय इत्यादिवडे (सययं के०) सततं एटले निरंतर (माणिया के०) मानिताः एटले सत्कार करेला एवा होय तो ते सत्कार करनार पोताना शिष्यने (माणयंति के०) मानयन्ति एटले लणवा गणवा विषे प्रेरणा करवा वडे मान आपे . वली (जत्तेण के०) यत्नेन एटले यत्नवडे ( कन्नं व के०) कन्यामिव एटले कन्यानी पेठे (निवेसयंति के०) निवेशयन्ति एटले स्थापन करे . अर्थात् जे आचार्यों पोतानो विनय विगेरे साचवनार शिष्यनी नणवा गणवा संबंधी सारी चिंता राखे , तथा माबापो कन्याने वधारी सारा पतिनी साथे पर्णावे , तेम जे अचार्यो विनयवंत तथा गुणवंत शिष्यने योग्य जो श्राचार्य पदे स्थापन करे . ( ते के० ) तान् एटले ते (माणरिहे के०) मानार्हान् एटले मान थापवा योग्य एवा आचार्यजी प्रत्ये (तवस्सी के०) तपखी एटले तपस्या करनार अने ( सच्चरए के० ) सत्यरतः एटले सत्य वचन बो Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने तृतीय उद्देशकः। एए३ सनार जे साधु (माणए के) मानयति एटले विनय विगेरे साचवीने मान श्रापे. (स के०) सः एटखे ते साधु (पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य . ॥ १३ ॥ (दीपिका.) किंच । ये मानिता अन्युठाना दिसत्कारैः सततं निरन्तरं शिप्यान् मानयन्ति श्रुतस्य उपदेशं प्रति चोदनादिनिः। तथा यत्नेन कन्यामिव निवेशयन्ति । यथा मातापितरौ कन्यां गुणैर्वयसा च सर्वासु शकिषु योग्ये नर्तरि स्थापयतः। एवमाचार्या थपि शिष्यं सूत्रार्थयोर्वेदिनं दृष्ट्वा महति आचार्यपदे स्थापयन्ति । ततस्तानेवंजूतान् गुरून् यो मानयति श्रन्युबानादिना। किंजूतान् गुरुन् ।मानयोग्यान् मानार्हान् । स पूज्यः। किंनूतः शिष्यः । तपस्वी । पुनः किंनृतः। जितेन्जियः। पुनः किंनूतः । सत्यरतः । इदं शिष्यस्य प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषणयम् ॥ १३ ॥ (टीका.) किं च । जे माणिअत्ति सूत्रम् । ये मानिता अन्युडाना दिसत्कारैः सततमनवरतं शिष्यान् मानयन्ति। श्रुतोपदेशं प्रति चोदनादिनिः। तथा यत्नेन कन्यामिव निवेशयन्ति । यथा मातापितरः कन्यां गुणैर्वयसा च संवय योग्यतर्त्तरि स्थापयन्त्येवमाचार्याः शिष्यं सूत्रार्थवेदिनं दृष्ट्वा महत्याचार्यपदे स्थापयन्ति । तानेवंचूतान्गुरून्मानयति योऽज्युबानादिना मानार्हान् मानयोग्यान् तपस्वी सन् । जितेन्जियः सत्यरत इति प्राधान्यख्यापनार्थं विशेषणघ्यम् । स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ तेसिं गुरूणं गुणसायराणं, सुच्चा । मेदावि सुनासिआई॥ चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चनक्कसायावगए स पुजो ॥१४॥ (श्रवचूरिः ) तेषां गुरूणां गुणसागराणां संबन्धीनीति श्रुत्वा मेधावी सुनाषितानि परलोकोपकारकाणि चरत्याचरति मुनिः । पञ्चरतः पञ्चमहाव्रतयुक्तः। त्रिगुप्तो मनोगत्यादिमान् । चतुःकषायापगतः ॥ १४ ॥ (अर्थ.) तेमज तेसिं इत्यादि सूत्र. ( मेहावि के० ) मेधावी एटले बुद्धिशाली एवा, (पंचरए के०) पञ्चरतः एटले पंच महाव्रत पालवाने तत्पर एवा (तिगुत्ते के०) त्रिगुप्तः एटले मनगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्तिना पालन करनार एवा तथा (चनकसायावगए के०) चतुःकषायापगतः एटले चारे कषायनो नाश करनार एवा (मुणी के०) मुनिः एटले जे साधु ( गुणसायराणं के०) गुणसागराणां एटले गुणवडे सागर समान एवा (तेसिं के०) तेषां एटले ते (गुरूणं के०) गुरूणां एटले आचार्य महाराजना (सुजासिश्राणि के) सुजाषितानि एटले शुज एवा उपदेश Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. वचन प्रत्ये ( सुच्चा के० ) श्रुत्वा एटसे सांजलीने ( चरे के०) चरति एटले गुरुना वचन प्रमाणे आचरण करे. ( स के०) सः एटले ते साधु (पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य बे. ॥ १४ ॥ (दीपिका.) पुनराह । यो मेधावी पएिकतः । एवं विधः सन् चरति । किं कृत्वा । गुरूणां तेषां पूर्वोक्तगुणवतां सुनाषितानि श्रुत्वा। किंन्नूतानां गुरूणाम् । गुणसागराणां गुणानां समुत्राणाम्। किंनूतो मुनिः। पञ्चरतः पञ्चमहाव्रतपालने तत्परः। पुनः किंजू. तो मुनिः। त्रिगुप्तः मनोगुप्तिवचनगुप्तिकायगुप्तिसहितः । पुनः किंनूतो मुनिः। चतुःकषायापगतः । क्रोधमानमायालोनाख्यकषायचतुष्टयवर्जितः। स पूज्यः ॥ १४ ॥ ... (टीका.) तेसिं गुरूणं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। तेषां गुरूणामनन्तरोदितानां गुणसागराणां गुणसमुजाणां संबन्धीनि श्रुत्वा मेधावी सुनाषितानि परलोकोपकारकाणि। चरत्याचरति । मुनिः साधुः । पञ्चरतः पञ्चमहाव्रतसक्तः। त्रिगुप्तो मनोगुप्त्यादिमान् । चतुःकषायापगत इत्यपगतक्रोधादिकषायो यः। स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ गुरुमिद सययं पडिअरित्र मुणी, जिणमयनिनणे अनिगमकुसले ॥ धुणिअ रयमलं पुरेकम, नासुरमनलं गई व त्ति बेमि॥१५॥ विणयसमादीए तश्न उद्देसो सम्मत्तो॥३॥ (श्रवचूरिः) उपसंहरन्नाह । गुरुमाचार्यादिकं सततमनवरतं परिचर्य विधिनाराध्य मुनिरागमप्रवीणः । श्रनिगमकुशलो लोकप्राघूर्णकादिप्रतिपत्तिकुशलः । स एव विधूय रजोमलम्। अष्टविधं कर्म पुराकृतम्। जाखरांझानतेजोमयत्वात् । अतुलां सिद्धिरूपां गतिं व्रजतीति ब्रवीमि ॥१५॥ इत्यवचूरिकायां नवमाध्ययने तृतीय उद्देशः ॥३॥ (अर्थ. ) हवे विनयनुं फल कही उपसंहार करे . गुरुमित्यादि सूत्र. ( जिणमय निजणे के ) जिनमतनिपुणः एटले आगममां निपुण एवा, तथा (अजिगमकुसले के०) श्रनिगमकुशलः एटले परोणा प्रमुखनु वेयावच्च करवामां कुशल एवा (मुणी के०) मुनिः एटले साधु जे ते (श्ह के०) या लोकने विषे (सययं के०) सततं एटले निरंतर ( गुरुं के ) गुरुं एटले गुरुमहाराजनी (परिचरित्र के०) परिचर्य एटले सेवा करीने ( पुरेक के० ) पुराकृतं एटले पूर्वे करेला एवा ( रयमलं के०) रजोमलं एटले अष्टप्रकार कर्मरूप मल प्रत्ये (धुणिय के०) विधूय एटले खपावीने (नासुरं के०) नासुरां एटले ज्ञान रूप तेजवाली एवी (अजलं के०)अतुला एटले बीजी सर्वे गति करतां उत्तम एवी (गई के०) गतिं एटले सिद्धिगति प्रत्ये (व Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः। ५५ के ) ब्रजति एटले जाय जे. इति ब्रवीमि एटले तीर्थकर गणधरना उपदेशथी हुँ एम कहुं बुं. पण पोतानी मतिथी कहेतो नथी. ॥ १५ ॥ इति श्रीविनयसमाधिनामक नवमा अध्ययनना त्रीजा उद्देशानो बालावबोध संपूर्ण.॥३॥ (दीपिका.) श्रथ प्रस्तुतफलस्य नाना उपसंहरन्नाह । एवं विधो मुनिः गति सिद्धिरूपां व्रजति गछति । किं कृत्वा । गुरुमाचार्यादिरूपमिह मनुष्यलोके सततं निरन्तरं विधिनाराध्य । किंनूतो मुनिः। जिनमतनिपुण श्रागमे प्रवीणः । पुनः किंनूतो मुनिः । अनिगमकुशलः। लोकप्राघूर्णकादिप्रतिपत्तिददः । किं कृत्वा सिडिं याति । रजोमलं पुराहतं विधूय । अष्टप्रकारं कर्म कपयित्वेत्यर्थः । किंनूतां गतिम् । जासुरां ज्ञानतेजोमयीम् । पुनः किंनूतां गतिम् । अतुलाम् । अस्याः सदृशी श्रन्या गतिर्नास्ति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १५ ॥ इति श्रीदशवैकालिके समयसुन्दरविरचितायां शब्दार्थवृत्तौ नवमाध्ययने तृतीय उद्देशकः समाप्तः ॥३॥ (टीका.)प्रस्तुतफलानिधानेनोपसंहरन्नाह । गुरुं ति सूत्रम्। अस्य व्याख्या । गुरुमाचार्यादिरूपमिह मनुष्यलोके।सततमनवरतं । परिचर्य विधिनाराध्य ।मुनिः साधुः । किंविशिष्टो मुनिरित्याह। जिनमतनिपुण श्रागमे प्रवीणः। श्रनिगमकुशलो लोकप्राघूर्णकादिप्रतिपत्तिदक्षः । स एवंचूतः। विधूय रजोमदं पुराकृतं दपयित्वाष्टप्रकारं कमेंति नावः । किमित्याह । नास्वरां ज्ञानतेजोमयत्वात् । अतुलामनन्यसदृशीं गतिं सिफिरूपां व्रजतीति गति । तदा जन्मान्तरेण वा सुकुलप्रजात्यादिना प्रकारेण । ब्रवी. मीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ इति विनयसमाधौ व्याख्यातस्तृतीय उद्देशः॥३॥ अथ चतुर्थ उद्देशः। सुअं मे पानसं तेणं नगवया एवमकायं । इद खलु थेरेदिं नगवंतेहिं चत्तारि विणयसमादिहाणा पन्नत्ता । कयरे खलु ते थेरेहिं नगवंतेहिं चत्तारि विणयसमादिगणा पन्नत्ता। इमे खलु ते थेरेहिं नगवंतेहिं चत्तारि विषयसमादिहाणा पन्नत्ता । तं जहा। विणयसमादी । सुअसमादी । तवसमादी। आयारसमाही॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. ( अवचूरिः ) अथ चतुर्थ उद्देशः प्रारभ्यते । तत्र सामान्योक्तं विनयं विशेषेणोपदर्शयन्नाह । श्रुतं मयायुष्मन् । तेन जगवता एवमाख्यातमित्येतत्षड्जीव निकावद्दृष्टव्यम् । श्ह देत्रे प्रवचने वा । खलुशब्दो विशेषणार्थः । स्थविरैर्गणधरैर्जगवङ्गिः परमैश्वर्ययुक्तैश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि । विनयसमाधिभेदरूपाणि प्ररूपितानि । जिनेभ्यः श्रुत्वा ग्रन्थत उपर चितानि । कतराणि तानीत्यादिना प्रश्नः । श्रमूनि खलु तानीत्यादिना निर्वचनम् । तद्यथा । विनयसमाधिः, श्रुततसमाधिः, तपः समाधिः, श्राचारसमाधिः । तत्र समाधानं समाधिः । वस्तुत श्रात्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यम् । विनये विनयाद्वा समाधिः विनयसमाधिः । एवं शेषेष्वपि शब्दार्थो जावनीयः ॥ ( अर्थ. ) हवे चतुर्थ उद्देशनो श्रारंभ करिये बिये. पूर्वे सामान्य प्रकारे विनय को, तेज विशेषथी या उद्देशमां कहे बे. तेमां सुखं इत्यादि प्रथम सूत्र. ( घाउसं०) हे युष्मन् एटले दीर्घ आयुष्यना धणी एवा हे शिष्य ! ( मे के० ) मया एटले हुं जे तेणे (सुखं के०) श्रुतं एटले सांजल्युं वे के, (तेां के० ) तेन एटले ते (जगवया के०) जगवता एटले संपूर्ण ज्ञानादिक वडे युक्त एवा महावीर स्वामीए ( एवं के० ) या रीते ( अरकायं के० ) श्राख्यातं एटले कधुं बे. ते श्रा रीते ( इह के० ) सिद्धांतने विषे ( खलु के० ) निश्चये ( जगवंतेहिं के० ) जगवद्भिः एटले संपूर्ण ज्ञानादि वडे युक्त एवा ( थेरेहिं के० ) स्थविरैः एटले गणधर प्रमुख स्थविरोए ( चत्तारि के० ) चत्वारि एटले चार ( विषयसमा हिडाणा के० ) विनयसमाधि - स्थानानि एटले विनय समाधिना स्थानक अर्थात् विनयसमाधिना प्रकार ( पन्नत्ता के० ) प्रज्ञप्तानि एटले प्ररूप्या बे. (तं जहा के० ) तद्यथा एटले ते जेम. एक (वि समाही के० ) विनयसमाधिः एटले विनयसमाधि, बीजो ( सुश्रसमाही के० ) श्रुतसमाधिः एटले श्रुतसमाधि, त्रीजो ( तवसमाही के० ) तपः समाधिः एटले तपसमाधाने चोथो (आयारसमाही के० ) आचारसमाधिः एटले आचारसमाधि. पोतानुं जे खरेखर सुख छाने खरेखर स्वास्थ्य ( स्वस्थपणुं ) तेने समाधि कहियें. विनयने विषे जे समाधि ते विनयसमाधि, श्रुतने विषे जे समाधि ते श्रुतसमाधि, तपने विषे जे समाधि ते तपसमाधि छाने याचारने विषे जे समाधि ते अचारसमाधि ॥ ( दीपिका. ) चतुर्थो व्याख्यायते । तत्र सामान्येन य उक्तो विनयस्तस्य विशेषेणोपदर्शनार्थमिदं प्राह । श्रुतं मया हे आयुष्मन् तेन जगवता एवमाख्यातमिति । एतद्यथा षड्जीवनिकायां प्रोक्तं तथैव द्रष्टव्यम् । इह क्षेत्रे प्रवचने वा । खलुशब्दो Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ नदेशकः । वा विशेषणार्थः । न केवल मिह । अन्यत्राप्यन्यतीर्थ करप्रवचने स्थविरैर्गणधरैर्जगवद्भिः परमैश्वर्यादियुक्तैश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि प्रज्ञतानि विनयसमाधिभेदरूपाणि प्ररूपितानि । जगवतः समीपे श्रुत्वा ग्रन्थतो रचितानीत्यर्थः । कतराणि खलु तानीत्यादिः प्रश्नः । अमूनि खलु तानीत्याद्युत्तरदानम् । तद्यथेत्युदाहरणे | विनयसमा - धिः । श्रुतसमाधिः । तपः समाधिः । श्राचारसमाधिश्च । तत्र समाधानं समाधिः । विनये समाधिर्विनयसमाधिः । एवं शेषेष्वपि द्रष्टव्यम् ॥ 1 ( टीका. ) अथ चतुर्थोद्देश आरज्यते । तत्र सामान्योक्त विनय विशेषोपदर्शनार्थमिदमाह । सुखं मे इत्यादि सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । श्रुतं मया श्रायुष्मंस्तेन जगवता एवमाख्यातमित्येतद्यथा षड्जीवनिकायां तथैव द्रष्टव्यम् । इह खल्वितीद देत्रे प्रवचने वा । खलुशब्दो विशेषणार्थः । न केवल मिदं किं त्वन्यत्राप्यन्यतीर्थकृत्प्रवचनेष्वपि । स्थविरैर्गणधरैर्जगवद्भिः परमैश्वर्यादियुक्तैश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि विनयसमा - धिनेदरूपाणि प्रज्ञतानि प्ररूपितानि । जगवतः सकाशे श्रुत्वा ग्रन्थत उपरचितानीत्यर्थः । कतराणि खलु तानीत्यादिना प्रश्नः । श्रमूनि खलु तानीत्यादिना निर्वचनम् । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । विनयसमाधिः । श्रुतसमाधिः । तपः समाधिः । श्राचारसमाधिः । तत्र समाधानं समाधिः । परमार्थत श्रात्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यम् । विनये विनयाद्वा समाधिः विनयसमाधिः । एवं शेषेष्वपि शब्दार्थो जावनीयः ॥ विए सुए तवे, यारे निच्च पंमिश्र ॥ निरामयंति प्रमाणं, जे भवंति जिइंदिया ॥ १ ॥ - ( अवचूरिः ) एतदेव श्लोकेन संगृह्णाति । विनये यथोक्तलक्षणे । श्रुतेऽङ्गादौ । तपसि बाह्यादावाचारे मूलगुणादौ । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः । नित्यं परिकता रामयन्त्या जिमुख्येन विनयादिषु युञ्जत आत्मानं जीवम् । किमित्यस्योपादेयत्वात् । क एवं कुर्वन्तीत्याह । ये जवन्ति जितेन्द्रिया अतएव वस्तुतः परिणताः ॥ १ ॥ ( अर्थ. ) हवे एज वात एक श्लोकमां प्रकट कहे बे. विषए इत्यादि सूत्र. (जे ho ) ये एटले जे साधु ( जिदिश्रा के० ) जितेन्द्रियाः एटले इंडियाने वश राखनारा होय बे, ते ( विषए के० ) विनये एटले पूर्वे कल विनयने विषे, ( सुए ho ) श्रुते एटले एकादशांगी प्रमुख श्रुतने विषे, ( तवे के० ) तपसि एटले बाह्य तथा श्रभ्यंतर तपने विषे, ( के०) च एटले ने (आयारे के ० ) श्राचारे एटले पंच महावत प्रमुख श्राचारने विषे ( निच्चं के० ) नित्यं एटले नित्य ( अप्पाणं के० ) श्रा For Private Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. त्मानं एटले पोताने ( निरामयंति के० ) निरामयन्ति एटले जोडे बे. ते साधु ज ( पंडा ० ) परिकताः एटले पंडित कहेवाय बे. ॥ १ ॥ ( दीपिका. ) उक्तमेव श्लोकेन संगृह्णाति । विषए इत्यादि सूत्रम् । अस्य व्याया । विनये यथोक्तलक्षणे श्रुते श्रङ्गादौ, तपसि बाह्याभ्यन्तररूपे, श्राचारे च मूलोत्तरगुणरूपे नित्यं सर्वकालं परिकताः सम्यक् परमार्थवेदिनः । किं कुर्वन्तीत्या | निरामयन्त्या निमुख्येन विनयादिषु युञ्जत श्रात्मानं जीवम् । किमिति । अस्य उपादेयत्वात् । क एवं कुर्वन्तीत्याह । ये जवन्ति जितेन्द्रियाः जितचक्षुरादिनावशत्रव एवं परमार्थः ॥ १ ॥ ( टीका. ) एतदेव श्लोकेन संगृह्णाति । विषयेत्यादि सूत्रम् । अस्य व्याख्या । विनये यथोक्तलक्षणे, श्रुते श्रङ्गादौ, तपसि बाह्यादौ, श्राचारे च मूलगुणादौ । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः । नित्यं सर्वकालं परिगताः सम्यक्परमार्थवेदिनः । किं कुर्वन्तीत्याहू | निरामयत्यनेकार्थत्वादाभिमुख्येन विनयादिषु युञ्जत श्रात्मानं जीवम् । किमित्यस्योपादेयत्वात् । क एवं कुर्वन्तीत्याह । ये जवन्ति जितेन्द्रिया जितचक्षुरादिजावशत्रवः । तएव परमार्थतः परिकता इति प्रदर्शनार्थमेतदिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ चविदा खलु विषयसमाही । तं जदा । असा सिजंतो सुस्सूस | सम्मं पडिवज्जइ । वयमारादइ । नय नवइ अत्तसंपग्गहिए । चचं पयं नवइ । जव म इच सिलोगो ॥ ( अवचूरि : ) विनयसमा धिमाह । चतुर्विधः खलु विनयसमा धिर्भवति । तद्यथा । अनुशास्यमानस्तत्र तत्र नोद्यमानस्तदनुशासनमर्थितया श्रोतुमिच्छति । इछाप्रवृत्तितः सम्यक् संप्रतिपद्यते । वेद्यतेऽनेनेति वेदः श्रुतं यथोक्तानुष्ठानेनाराधयति । नचनवत्यत एवात्मसंप्रगृहीतः । श्रात्मैव सम्यक् प्रकर्षेण गृहीतो येनाहं विनीतः सुसाधुरित्यादिना । अनात्मोत्कर्ष प्रधानत्वाद्विनयादेर्न चैवंभूतो जवतीति । चतुर्थ पदं जवति । सूत्रक्रमप्रामाण्यात् । उत्तरोत्तरगुणापेक्षया चतुर्थमिति । अत्रेति विनय - समाधौ श्लोकवन्दो विशेषः ॥ ( . ) हवे विनयसमाधि विस्तरथी कहे बे. चविदा इत्यादि सूत्र. ( विषयसमाही के० ) विनयसमाधिः एटले विनयसमाधि जे ते ( चउविहा के० ) चतुर्विधः एटले चार प्रकारनो ( जवइ के० ) नवति एटले थाय बे. ( तं जहा के० ) तद्यथा For Private Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः एएए एटले ते जेम साधु जे ते (अणुसासिङांतो के०) अनुशास्यमानः एटले गुरुए ते ते कार्यने विषे प्रेख्या बता (सुस्सूस के०) शुश्रूषति एटले गुरुनु वचन सांजलवा श्वे. २ (सम्मं के०) सम्यक् एटले सम्यक् प्रकारे ( पडिवाश के०) प्रतिपद्यते एटले गुरुए जे जेवी रीते कडं होय ते तेवी रीते बराबर समजे.३ (वेध के०) वेदं एटले श्रुतज्ञान प्रत्ये (श्राराह के०) श्राराधयति एटले श्राराधे. अर्थात् सिकांतमा कह्या प्रमाणे क्रिया करीने श्रुतज्ञान सफल करे. ४ ( अत्तसंपग्गहिए के०) श्रात्मसंप्रगृहीतः एटले 'हुंज उत्कृष्टो साधु बुं' इत्यादि प्रकारे पोतानी प्रशंसा करनारा एवा ( नय नव के०) नच नवति एटले न थाय. तात्पर्य विनय साचवतां पोतानी मोटा रखाती नथी, माटे विनयवंत साधु एवा अहंकारी होता नथी. (चउर्व पयं के०) चतुर्थं पदं एटले बेचं कडं ए चतुर्थ पद (नवर के०) नवति एटले थाय . (श्र के०) च एटले वली (श्व के०) अत्र एटले ए विनय समाधिने विषे (सिलोगो के० ) श्लोकः एटले श्लोक (जवर के०) नवति एटले .॥ (दीपिका.) अथ विनयसमाधि कथयितुं वाञ्छन् थाह । चतुर्विधः खलु विनयसमाधिर्भवति । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । अनुशास्यमानः तत्र तत्र चोद्यमानः शुश्रूषते तदनुशासनमर्थितया श्रोतुमिति । श्वाप्रवृत्तितः सम्यक् संप्रतिपद्यते । सम्यगविपरीतमनुशासनं यथाविषयमवबुध्यते । स चैवं विशिष्टप्रवृ. तेरेव वेदमाराधयति । वेद्यतेऽनेनेति वेदः श्रुतानं तद्यथोक्तानुष्ठानतत्परतया स. फलीकरोति । अत एव विशुद्धप्रवृत्तेन च नवत्यात्मसंप्रगृहीतः । अत्मैव संप्रगहीतः सम्यक् प्रकर्षेण गृहीतो येनाहं विनीतः सुसाधुरित्येवमादिना । तथा श्रनात्मोत्कर्षप्रधानत्वाहिनयादेन चैवंचूतो नवतीत्यनिप्रायः । चतुर्थं पदं जवति । तदेव सूत्रक्रमप्रामाण्याफुत्तरोत्तरगुणापेक्षया चतुर्थमिति । जवति चात्र श्लोकः । अत्रेति विनयसमाधौ । श्लोकबन्दोविशेषः ॥ (टीका.) विनयसमाधिमनिधित्सुराह । चनविहेत्यादि । चतुर्विधः खलु विनयसमाधिर्भवति। तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । अणुसासिङतो इत्यादि । अनुशास्य. मानस्तत्र तत्र चोद्यमानः शुश्रूषति तदनुशासनमर्थितया श्रोतुमिबति । श्छाप्रवृत्तितः सम्यक् संप्रतिपद्यते । सम्यगविपरीतमनुशासनतत्त्वं यथाविषयमवबुध्यते । स चैवं विशिष्टप्रतिपत्तेरेव वेदमाराधयति । वेद्यतेऽनेनेति वेदः । श्रुतज्ञानं तद्यथोक्तानुष्ठानपरतया सफलीकरोति । श्रतएव ।वशुलप्रवृत्तेन च जवत्यात्मसंप्रगृहीतः । आत्मैव सम्यक् प्रकर्षण गृहीतो येनाहं विनीतः सुसाधुरित्येवमादिना । स तथानात्मोत्क Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. प्रधानत्वाद्विनयादेर्नचैवंभूतो जवतीत्य जिप्रायः । चतुर्थं पदं जवतीत्येतदेव सूत्रक्रमप्रामाण्याडुत्तरोत्तरगुणापेक्ष्या चतुर्थमिति । जवति चात्र श्लोकः । यत्रेति विनयस - माधौ श्लोक बन्दोविशेषः ॥ पेदेश दिया सासणं, सुस्सूसई तं च पुणेो दिहिए ॥ न यमाणमए मकई, विषयसमाहिप्राययहिए ॥ २ ॥ (अवचूरिः) प्रार्थयति दितमनुशासनम् । श्राचार्यादिभ्य उपदेशं शुश्रूषती त्यनेकार्थत्वाद्यथाविषयमवबुद्ध्यते । तच्च जावबुद्धं सत्पुनरधितिष्ठति यथावत्करोति न कुर्वनपि मानगर्वेण माद्यति मदं याति विनयसमाधौ । श्रायतार्थी मोक्षार्थी ॥ २ ॥ ( अर्थ. ) ते श्लोक या रीते. पेढे इत्यादि सूत्र. ( श्राययहिए के० ) आयतार्थी एटले मोहना अर्थी एवा साधु जे ते ( हिश्राणुसासणं के० ) हितानुशासनं एटले इहलोक परलोकने विषे हितकारी एवा उपदेशने आचार्य उपाध्याय विगेरेनी पाथी ( पेश के० ) प्रार्थयते एटले इले. ( च के० ) पुनः ( तं के० ) तत् एटले ते श्राचार्य प्रमुखोए करेल उपदेश प्रत्ये ( सुस्सूस के० ) शुश्रूषति एटले जेवो विषय होय ते प्रमाणे जाणे. ( पुणो के० ) पुनः एटले वली जे रीते जाएयं होय ते रीते ( हिहिए के० ) श्रधितिष्ठति एटले आचरण करे. पण आचरण करai ( विषयसमा हि के० ) विनयसमाधौ एटले विनयसमाधिना संबंधमां (माएमए के० ) मानमदेन एटले अहंकार गर्व वडे ( न मजइ के० ) न माद्यति एटले मद न करे. ॥ २ ॥ ( दीपिका.) सचायम् । पेहे इत्यादि । साधुर्हितानुशासनं प्रार्थयत इछति । पुनः श्राचार्यादिज्य इहलोक परलोकयोरुपकारिणमुपदेशं शुश्रूषति । धातूनामनेकार्थत्वात् यथाविषयमवबुद्ध्यते । तच्च श्रवबुद्धः सन् पुनः अधितिष्ठति यथावत् करो - ति । न च कुर्वन्नपि मानमदेन गर्वमदेन माद्यति मदं याति । विनयसमाधौ विनयसमाधिविषये । किंनूतः साधुः । श्रायतार्थिको मोहोर्थीति ॥ २ ॥ ( टीका. ) स चायम् । पेहे इत्यादि सूत्रम् । अस्य व्याख्या । प्रार्थयते हितानुशासन मिती हलोक परलोकोपकारिणमाचार्या दिभ्य उपदेशम् । शुश्रूषतीत्यनेकार्थत्वायथाविषयमवबुध्यते । तच्चावबुद्धं सत्पुनरधितिष्ठति यथावत् करोति । न च कुर्वन्नपि मानमदेन मानगर्वेण माद्यति मदं याति । विनयसमाधौ विनयसमाधिविषय श्रायतार्थिको मोक्षार्थीति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ For Private Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः। ६०१ चनविदा खलु सुअसमादी नव। तं जहा। सुअं मे नविस्सशत्ति अनाश्अवं नव। एगग्गचित्तो नविस्सामि त्ति , अनाश्अवयं नव। अप्पाणं गवश्स्सामि त्ति अनाश्अवयं नवनि परं गवश्स्सामि त्ति अनाश्अवयं नव। चन पयं नव। नव अश्व सिलोगो॥ (अवचूरिः) उक्तो विनयसमाधिः । अथ श्रुतसमाधिमाह । चतुर्विधः खलु श्रुतसमाधिर्भवति । तद्यथा । श्रुतं मे श्राचारादि हादशाङ्गं जविष्यतीत्यनया बुट्याध्येतव्यं जवति । न गौरवाद्यालम्बनेन । तथाध्ययनं कुर्वन्नेकाग्रचित्तो नविष्यामि । न विप्लुतचित्त इत्येवमध्येतव्यं नवत्यनेन चालम्बनेन । तथाध्ययनं कुर्वन् विदित. धर्मतत्त्व आत्मानं स्थापयिष्यामि शुधधर्म इत्यनेनालम्बनेनाध्येतव्यं जवति । तथाध्ययनफलात् स्थितः स्वयं परं धर्मे विनेयं स्थापयिष्यामीत्येवमध्येतव्यं जवत्यनेनालम्बनेन । चतुर्थं पदं जवति । नवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ (अर्थ.) विनयसमाधि कह्यो. हवे श्रुतसमाधि कहे . चविहा इत्यादि सूत्र. (सुअसमाही के०) श्रुतसमाधिः एटले श्रुतसमाधि जे ते.( खल के० ) निश्चये (चजबिहा के०) चतुर्विधः एटले चार प्रकारनी (नव के०) नवति एटले थाय बे. (तं जहा के०) तद्यथा एटले ते जेम के १ (मे के०) मे एटले मने (सुझं के०) श्रुतं एटले श्राचारांग प्रमुख झादशांग श्रुत जे ते (नविस्स के०) नविष्यति ए. टले प्राप्त थशे. (त्ति के०) इति एट ए हेतु माटे (अनाश्अवयं के० ) अध्येतव्यं एटले जणवं गणवु (जवर के०) नवति एटले . पण मान सत्कारने वास्ते जणवू गण, नथी. ५ हुंजणवा गणवाथी (एगग्गचित्तो के०) एकाग्रचित्तः एटले एकाग्रचित्तवालो (नविस्सामि के०)नविष्यामि एटले थश्श. (त्ति के०) इति एटले ए हेतु माटे (अनाश्थव्वयं के०) अध्येतव्यं एटले जणवू गणवू (नवर के०) नवति एटले डे. ३ हुँ नणवा गणवाथी ( अप्पाणं के०) श्रात्मानं एटले पोताने धर्मने विषे (हावश्स्सामि के०) स्थापयिष्यामि एटले स्थापन करीश. (त्ति के०)ति एटले ए हेतु माटे (अनाश्थवयं के०) अध्येतव्यं एटले नणदुं गणवू (नवर के०) जवति एटले . ४ जणवाथी धर्मने विषे (हिउ के) स्थितः एटले रहेलो एवो हुँ (परं के०) परं एटले बीजा मारा शिष्य विगेरेने पण धर्मने विषे (गवश्स्सामि के० ) स्थापयिष्यामि एटले स्थापन करीश. (त्ति के०) इति एटले श्रा Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस - ४३ - मा. हेतु माटे (वयं के० ) अध्येतव्यं एटले जणवं गणवुं ( जवइ के० ) जवति एटले बे. आ बेल्लुं ( चढं के० ) चतुर्थं एटले चोथुं ( पयं के० ) पदं एटले पद ( जव के० ) जवति एटले थाय बे. ( अ के० ) च एटले वली ( इब के० ) अत्र एटले ए श्रुतसमाधिने विषे ( सिलोगो के० ) श्लोकः एटले श्लोक ( जवइ के० ) जवति एटले . ॥ ( दीपिका. ) उक्तो विनयसमाधिः । अथ द्वितीयं श्रुतसमाधिमाह । तत्र च विहा इत्यादि सूत्रम् । चत्रर्विधः खलु श्रुतसमाधिर्जवति । तद्यथा । श्रुतं मे याचारादि द्वाद शाङ्गं जविष्यतीत्यनया बुद्ध्याध्येतव्यं जवति । न गौरवाद्यालम्बनेन । तथाध्ययनं कुर्वनेकाग्रचित्तो जविष्यामि । न विप्लुतचित्त इत्यध्येतव्यं जवति । अनेन चालम्बनेन । तथाध्ययनं कुर्वन् ज्ञातधर्मतत्त्वोऽहमात्मानं शुद्धधर्मे स्थापयिष्यामि । तथाध्ययनफलात् स्थितः स्वयं धर्मे परं विनेयं स्थापयिष्यामीत्यनेन चालम्बनेन । चतुर्थं पदं जवति | जवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ ( टीका. ) उक्तो विनयसमाधिः । श्रुतसमाधिमाह । चविहेत्यादि । चतुर्विधः खलु श्रुतसमाधिर्भवति । तद्यथेत्युदाहारणोपन्यासार्थः । श्रुतं मे आचारादि द्वादशाङ्गं जवि - ष्यतीत्यध्येतव्यं जवति । न गौरवाद्यालम्बनेन । तथाध्ययनं कुर्वन्नेकाग्रचित्तो जविष्यामि । न विसुतचित्त इत्यध्येतव्यं नवत्यनेनलम्बनेन । तथाध्ययनं कुर्वन्विदितधर्मतव श्रात्मानं स्थापयिष्यामि शुद्धधर्म इत्यनेनालम्बनेनाध्येतव्यं जवति । तथाध्ययनफलात् स्थितः स्वयं धर्मे परं विनेयं स्थापयिष्यामि तत्रैवेत्यध्येतव्यं नवत्यनेनाल - म्बनेन | चतुर्थं पदं जवति । जवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ नामेगग्गचित्तो व गवई परं ॥ सुप्राणि दिकित्ता, र सुसमाहिए ॥ ३ ॥ ( श्रवचूरिः ) ज्ञान मित्यध्ययनपरस्य ज्ञानं जवति । एकाग्रचित्तश्च तत्परतयैकाग्रालम्बनश्च जवति । स्थित इति विवेकाद्ध में स्थिरो नवति । स्थापयति परं धर्म स्थितत्वादन्यमपि स्थापयति । श्रुतानि च नानाप्रकाराण्यधी तेधीत्य च सक्तो वति श्रुतसमाधाविति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ ( अर्थ. ) ते श्लोक श्रा रीते. नाणं इत्यादि सूत्र. नित्य अध्ययन करनार एवा साधुने (पाणं के० ) ज्ञानं एटले ज्ञान थाय बे. ( एगग्ग चित्तो के० ) एकाग्रचित्तः एटले अध्ययन करता चित्तनी एकाग्रता याय बे. अध्ययन करनार साधु पोते धर्मने For Private Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः। ६०३ विषे (गि के०) स्थितः एटले रहेलो होय . तथा (परं के०) परं एटले बीजा शिष्य प्रमुखने (गवय के० ) स्थापयति एटले स्थापन करे . ( सुश्राणि के०) श्रुतानि एटले विविध प्रकारना श्रुत प्रत्ये (अहि जित्ता के०) अधीत्य एटले जणीने (सुअसमाहिए के) श्रुतसमाधौ एटले श्रुतसमाधिने विषे ( र के० ) रतः एटले आसक्त एवा थाय . ॥३॥ (दीपिका.) स चायं श्लोकः। नाणमिति । अध्ययनतत्परस्य ज्ञानं जवति। एकाग्रचित्तश्च तत्परतया एकाग्रालम्बनश्च भवति । स्थित इति विवेकाछमें स्थितो जवति । स्थापयति च परमिति स्वयं धर्मे स्थितत्वादन्यमपि स्थापयति । श्रुतानि च नानाप्रकारण्यधीत्य रतः सक्तो नवति श्रुतसमाधाविति सूत्रार्थः॥३॥ (टीका.) स चायम् । णाणमित्यादि। अस्य व्याख्या। ज्ञानमित्यध्ययनपरस्य झानं नवति । एकाग्रचित्तश्च तत्परतया एकाग्रालम्बनश्च नवति। स्थित इति विवेकाकर्मस्थितो नवति। स्थापयति परमिति खयं धर्मे स्थितत्वादन्यमपि स्थापयति।श्रुतानि च नानाप्रकाराण्यधीतेऽधीत्य च रतः सक्तो नवति श्रुतसमाधाविति सूत्रार्थः॥३॥ चनविदा खलु तवसमादी नव । तं जहा । नो श्दलोगज्याए तवमविहिजा । नो परलोगध्याए तवमदिमिजा। नो कित्तिवन्नसद्दसिलोगज्याए तवमदिहिका नन्नब निरच्याए तवमदिहिजा । चन पयं नव। नवर अश्च सिलोगो॥ (श्रवचूरिः) उक्तः श्रुतसमाधिः । तपःसमाधिमाह । चतुर्विधः खलु तपःसमाधिर्भवति । तद्यथा। नेहलोकायं लब्ध्यादीछया । तपोऽनशनादिरूपमधितिष्ठेत्कुर्यात् । न परलोकार्थ जननान्तरे जोगाय तपोऽधितिष्ठेत् । ब्रह्मदत्तवत्। एवं न कीर्तिवर्णशब्दश्लाघार्थमिति । सर्व दिग्व्यापी साधुवादः कीर्तिः। एकदिग्व्यापी वर्णः । अर्डदिग्रव्यापी शब्दः । तत्स्थान एव श्लाघा । नैतदर्थं तपोऽधितिष्ठेत् । नान्यत्र कर्मनिर्जरामेकां विहाय तपोऽधितिष्ठेत् । चतुर्थं पदं नवति । नवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत्॥ (अर्थ.) श्रुतसमाधि कह्यो. हवे तपसमाधि कहे . चनविहा इत्यादि सूत्र. (तवसमाही के ) तपःसमाधिः एटले तपसमाधि जे ते ( खलु के०) निश्चये (चउबिहा के०) चतुर्विधः एटले चार प्रकारनी (जवर के०) नवति एटले थाय बे. Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. ( तं जहा के० ) तद्यथा एटले ते जेम के, १ ( इहलोगध्याए के० ) इहलोकार्थम् एटले धर्मिलनी पेठे या लोकने अर्थे, अर्थात् लब्धि प्रमुखनी प्रातिनी श्रर्थे ( तवं ho ) तपः एटले तपस्या प्रत्ये ( नो अहि हिजा के० ) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. २ ( परलोग याए के० ) परलोकार्थम् एटले ब्रह्मदत्तनी पेठे परलोकने अर्थात् परजवे सुखादिकनी प्राप्तिने अर्थे ( तवं के० ) तपः एटले तपस्या प्रत्ये ( नो हि हिका के० ) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. ३ ( कित्तिवन्नसद्द सिलोगहare ho) कीर्त्तिवर्णशब्द श्लोकार्थम् एटले कीर्ति, वर्ण, शब्द अने श्लोक अर्थे ( तवं के० ) तपः एटले तपस्या प्रत्ये ( नो हि ठिका के० ) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. सर्व दिशाउने विषे जे प्रसिद्धि ते कीर्ति, एक दिशाने विषे जे प्रसिद्धि ते वर्ण, अर्धी दिशाने विषे जे प्रसिद्धि ते शब्द ने जे ठेकाणे रहे तेज ठेकाणे जे प्रसिद्धि ते श्लोक कहेवाय बे. ४ ( अन्नव निरहाए के० ) अन्यत्र निर्जरार्थम् एटले एक निर्जरारूप अर्थ विना ( तवं के० ) तपः एटले तपस्या प्रत्ये ( नो हिहिजा के० ) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. अर्थात् एक निर्जराने श्रर्थेज तपस्या करे. पर बेक ए (चां के० ) चतुर्थं एटले चोथुं ( पयं के० ) पदं एटले पद ( जवइ के० ) जवति एटले थाय बे. ( ा के० ) च एटले वली ( इब के० ) अत्र एटले या तपसमाधिने विषे ( सिलोगो के० ) श्लोकः एटले श्लोक ( जवइ के० ) वति एटले . ॥ ( दीपिका. ) उक्तः श्रुतसमाधिः । अथ तपःसमाधिमाह । चतुर्विधः खलु तपःसमाधिर्भवति । तद्यथेत्युदाहरणे | नेहलोकार्थ मिलोक निमित्तं लब्ध्यादेर्वाञ्चया तपः अनशनादिरूपं साधुरधितिष्ठेत् कुर्यात् । धर्मिलवत् । तथा न परलोकार्थं जन्मान्तरजोग निमित्तं तपः श्रधितिष्ठेद्ब्रह्मदत्तवत् । एवं न की र्त्तिवर्णशब्दश्लाघार्थं मिति । तत्र सर्व दिग्व्यापी साधुवादः कीर्त्तिः । एकदिव्यापी वर्णः । श्रर्द्ध दिग्व्यापी शब्दः। स्वस्थान एव साधुवादः श्लोकः श्लाघा वा । न एतन्निमितं तपोऽधितिष्ठेत् । कामः सन् यथा कर्मनिर्जरैव फलं जवति तथाधितिष्ठेदिति । चतुर्थं पदं नवति । जवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ ( टीका. ) उक्तः श्रुतसमाधिः । तपः समाधिमाह । चविदा इत्यादि । चतुर्विधः खलु तपःसमाधिर्भवति । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । नेहलोकार्थ मिलोक निमित्तं सन्ध्यादिवाञ्ढया तपोऽनशनादिरूपमधितिष्ठेत्कुर्याद्धर्मिलवत् । तथा न परलोका For Private Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः। ६०५ थं जन्मान्तरजोगनिमित्तं तपोऽधितिष्ठेब्रह्मदत्तवत् । एवं न कीर्तिवर्णशब्दश्लाघार्थमिति । सर्व दिग्व्यापी साधुवादः कीर्तिः । एकदिग्ग्व्यापी वर्णः । अदिग्व्यापी शब्दः । तत्स्थान एव श्लाघा । नैतदर्थं तपोऽधितिष्ठेत् । अपि तु नान्यत्र निर्जरार्थमिति । न कर्मनिर्जरामेकां विहाय तपोऽधितिष्ठेत् । अकामः सन् यथा कर्म निर्जरैव फलं जवति तथा धितिष्ठेदित्यर्थः । चतुर्थं पदं नवति।नवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ विविदगुणतवोरए, निचं नव निरासए निरहिए॥ तवसा धुण पुराणपावगं, जुत्तो सया तवसमाहिए ॥४॥ (श्रवचूरिः) स चायम् । विविधगुणतपोरतो हि नित्यमनशनाद्यपेक्षयानेकगुणं यत्तपस्तजतः । इहलोकादिषु निराशो जवति । निर्जरार्थी विशुहस्तपसा धुनोति चिरंतनं नवं च पापं न बनाति युक्तः सदा तपःसमाधाविति ॥४॥ (अर्थ.) ते श्लोक आ रीते. विविह इत्यादि सूत्र. या प्रकारे ( तवसमाहीए के०) तपःसमाधौ एटले तपसमाधिने विषे ( सया के०) सदा एटले निरंतर (जुतो के० ) युक्तः एटले जोडायला साधु केवा होय जे ते कहे . ( निचं के०) नित्यं एटले निरंतर (विविहगुणतवोरए के० ) विविधगुणतपोरतः एटले अनेक गुपने धारण करनार एवी तपस्याने विषे श्रासक्त एवा, ( निरासए के) निराशः ए टले श्ह लोक परलोक प्रमुखनी थाशा न राखनार एवा तथा (निझारहियाए के०) निर्जरार्थी एटले निर्जराना अर्थी एवा (नवर के० ) जवति एटले थाय जे. तथा (तवसा के०) तपसा एटले तपस्या वडे ( पुराणपावगं के ) पुराणपापकं एटसे चिरकालथी बंधायला पाप कर्मप्रत्ये (धुण के०) धुनोति एटसे दूर करे .॥४॥ (दीपिका.) स चायम् । विविध इति । विविधगुणतपोरतो हि नित्यमनशनाद्यपेक्षयानेकगुणं यत्तपस्तत एव सदा जवति निराशो निष्प्रत्याश श्लोकादिषु । निर्जरार्थिकः कर्म निर्जरार्थी । स एवंनूतस्तपसा विशुद्धेन धुनोत्यपनयति साधुः पुराणपापं चिरंतनं कर्म । नवं च न बनात्येवं युक्तः सदा तपःसमाधाविति ॥ ४॥ (टीका.) स चायम् । विविध इत्यादि। अस्य व्याख्या। विविधगुणतपोरतो हि नित्यमनशनाद्यपेक्षयानेकगुणं यत्तपस्तत एव सदा जवति। निराशो निष्प्रत्याश श्हलोकादिषु। निर्जरार्थिकः कर्मनिर्जरार्थी । स एवंनूतस्तपसा विशुद्धेन धुनोत्यपनयति । पुराणपापं चिरंतनं कर्म। नवं च न बनात्येवं युक्तः सदा तपःसमाधाविति सूत्रार्थः ॥३॥ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. चनविदा खलु आयारसमादी नवश् । तं जहा। नो श्लोगज्याए आयारमदिहिङा । नो परलोगठ्याए आयारमदिछिका। नो कित्तिवन्नसद्दसिगोगभ्यिाए आयारमदिमिका । नन आरईतेहिं देऊहिं आयारमदिहिता । चनवं पयं नव। नवर अश्व सिलोगो॥ (अवचूरिः) उक्तस्तपःसमाधिराचारसमाधिमाह । चतुर्विधः खल्वाचारसमाधिवति । तद्यथा । नेहलोकार्थमित्याद्याचारानिधानं पूर्ववत् । यावन्नान्यत्रार्हत्संबन्धिजिरनाभवाद्यैर्हेतुनिराचारं मूलोत्तरगुणमयमधितिष्ठेत् । निरीहः सन् यथा मोक्ष एव जवतीति । चतुर्थं पदं भवति । नवति चात्र श्लोक शति पूर्ववत् ॥ (अर्थ.) तपसमाधि कह्यो, हवे आचारसमाधि कहे जे. चजबिहा इत्यादि सूत्र. (थायारसमाही के०) आचारसमाधिः एटले श्राचारसमाधि जे ते (खनु के०) निश्चये (चजविहा के०)चतुर्विधः एटले चार प्रकारनो (जवर के०) जवति एटले थाय . (तं जहा के०) तद्यथा एटले ते जेम के, १ (इहलोगज्याए के०) इहलोकार्थम् एटले श्रा लोकने अर्थे (थायारं के०) श्राचारम् एटले मूलगुण प्रमुख श्राचार प्रत्ये (नो अहिहिजा के०) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. २ (परलोगहिश्राए के) परलोकार्थम् एटले परलोकने अर्थे (आयारं के०) श्राचारं एटले आचार प्रत्ये ( नो बहिहिला के) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. ३ (कित्तिवन्नसहसिलोगहिश्राए के०) कीर्तिवर्ण. शब्दश्लोकार्थम् एटले कीर्ति, वर्ण, शब्द अने श्लोकने अर्थे (थायारं के०) श्राचारं एटले आचार प्रत्ये (नो अहिहिजा के०) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. ४ (श्रनब बारहंतेहिं हेऊहिं के० ) अन्यत्राईतेतुनिः एटले अरिहंत प्रणीत सिझांतमां कहेल हेतुविना (श्रायारं के०) आचारं एटले श्राचार प्रत्ये (नो अहिहिजा के०) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. अर्थात् को पण प्रकारनी श्वा न राखतां जेम मोद थाय ते प्रकारे श्राचार पालवो. उपर बेबु कहेडं (चजवं के०) चतुर्थं एटले चोधुं (पयं के०) पदं एटले पद (नव के०) नवति एटले थाय बे. (अ के० ) च एटले वली (श्व के०) अत्र एटले आ आचार समाधिने विषे (सिलोगो के०) श्लोकः एटले श्लोक जे ते (जवर के०) जवति एटले थाय .॥ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः। ६०७ (दीपिका.) उक्तस्तपःसमाधिः । श्रथ आचारसमाधिमाह । चतुर्विधः खवाचारसमाधिर्भवति। तद्यथा नेहलोकार्थमाचारमधितिष्ठेत् । न परलोकार्थमाचारमधितिष्ठेत् । न कीर्तिवर्णशब्दश्लोकनिमित्तमाचारमधितिष्ठेत् । नान्यत्र आईतैरर्हत्संबन्धिनिर्हेतुनिराचारं मूलगुणोत्तरगुणमयमधितिष्ठेन्निरीहः सन् यथा मोद एव नवति । नवति चतुर्थं पदम् । नवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ (टीका.) उक्तस्तपःसमाधिः। श्राचारसमाधिमाह । चलविहा इत्यादि। चतुर्विधः खत्वाचारसमाधिर्भवति । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः। नेहलोकार्थमित्यादि चाचारानिधानन्नेदेन पूर्ववद्यावन्नान्यत्रार्हतैरर्हत्संबन्धिनिर्हेतुमिरनाश्रवत्वादिभिराचारं मूसगुणोत्तरगुणमयमधितिष्ठेन्निरीदः सन् यथा मोक्ष एव नवतीति । चतुर्थं पदं नवति । नवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ जिणवयणरए अतिंतिणे, पडिपुन्नाय माययहिए॥ आयारसमादिसंवुमे, नव अ दंते नावसंधए ॥ ५॥ __(श्रवचूरिः) स चायम्। जिनवचनरतः। श्रतिन्तिनो न सकृयुक्तः सन्नसूयया नूयो नूयो वक्ता । परिपूर्णः सूत्रादिना । श्रायतमायतार्थिकः । अत्यन्तं मोक्षा र्थी । श्राचारे यः समाधिस्तेन स्थगिताश्रवहारः सन् नवति च दान्त इन्डियनोश्प्रियदमान्याम् । जावो मोक्षस्तत्सन्धको मोक्षासन्नताकारी आत्मनः ॥५॥ (अर्थ.) ते श्लोक श्रा रीते. जिण इत्यादि सूत्र. ( श्रायारसमाहिसंवु के) श्राचारसमाधिसंवृतः एटले श्राचारने विषे समाधि होवाथी आस्रवने रोकनार एवा साधु जे ते ( जिणवयणरए के) जिनवचनरतः एटले आगमने विषे आसक्त एवा, (अतिंतिणे के०) अतिन्तिनः एटले एकवार कंश कटुवचन प्रमुख कयु होय तो मत्सरथी वारंवार तेज वचन प्रमुखने न कहेनार एवा, (पडिपुन्न के०) प्र. तिपूर्णः एटले सूत्रादिक वडे परिपूर्ण नरेला एवा, (श्राययं के०) आयतं एटले अतिशय (थाययहिए के०) आयतार्थिकः एटले मोदना श्रार्थी एवा, (दंते के०) दान्तः एटखे शन्जियोने अने मनने वशमा राखनार एवा, (श के०) च एटले तथा जावसंधकः एटले पोताना श्रात्माने मोक्षनी पासे लश् जनार एवा (नवश् के०) जवति एटले होय . ॥५॥ (दीपिका.) जिणवयण इत्यादि । जिनवचनरत श्रागमे सक्तः। अतिन्तिनो नैकवारं किंचिउक्तः सन्नसूयया नूयो नूयो वक्ता। प्रतिपूर्णः सूत्रादिना । श्रायतमाय Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. तार्थिकः ः । श्रत्यन्तं मोक्षार्थी । श्राचारसमाधिसंवृत इत्याचारे यः समाधिस्तेन स्थगिताश्रवद्वारः स जवति । पुनः किंभूतः । दान्त इन्द्रिनोइन्द्रियदमाच्याम् । जावसंधकः । जावो मोक्षस्तत्संधक आत्मनो मोक्षासन्नकारीति ॥ ५ ॥ ( टीका. ) स चायम् । जिणवयणरए इत्यादि । अस्य व्याख्या । जिनवचनरत आगमे सक्तः । प्रतिन्तिनः न सकृत्किं चिडुक्तः सन्नसूसया भूयो भूयो वक्ता । प्रतिपूर्णः सूत्रादिना । श्रायतमायतार्थिक इत्यत्यन्तं मोक्षार्थी । श्राचारसमाधिसंवृत इत्याचारे यः समाधिस्तेन स्थगिताभवद्वारः सन् भवति दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्याम् । नावसंधकः । जावो मोक्षस्तत्संघक श्रात्मनो मोक्षासन्नकारीति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ अभिगम चउरो समाहिन, सुविसु हो सुसमाहिप्रप्पनं ॥ विजलदियं सुदावदं पुणो, कुछइ प्र सोपयखेममप्पणो ॥ ६ ॥ । ( अवचूरिः ) सर्वसमाधिफलमाह । अभिगम्य ज्ञात्वासेव्य चतुरः समाधी ननन्तरोदितान् सुविशुद्ध मनोवाक्कायैः । सुसमाहितात्मा सप्तदशविधे संयमे । स एवंभूतो धर्मराज्यमासाद्य विपुलं विस्तीर्णं हितं पथ्यं सुखं तदात्व श्रायत्यां च पथ्यं सुखमावहति प्रापयति यत्तदसौ साधुः पदं स्थानं देमं शिवमात्मनो नत्वन्यस्येति । अनेन एकाङ्गव्यवच्छेदमाह ॥ ६ ॥ ( अर्थ. ) हवे सर्व समाधिनुं फल कहे बे. निगम इत्यादि सूत्र ( चरो के० ) चतुरः एटले चार, समाहिd ho ) समाधीन् एटले उपर कहेल समाधि प्रत्ये निगम के ) निगम्य एटले जाणीने ( सुविसुद्ध के० ) सुविशुद्धः एटले मन वचन काया वडे पवित्र थएल एवा, तथा ( सुसमाहिप के० ) सुसमाहितात्मा एटले सत्तर प्रकारना संयमने विषे स्थिर एवा ( सो के० ) सः एटले ते साधु जे ते ( अपणो के० ) श्रात्मनः एटले पोताना ( पयं के० ) पदं एटले पदप्रत्ये ( विजलसुदं के० ) विपुलसुखं एटले विस्तीर्ण अने वर्त्तमान काले तथा जाविकाले दितकारी एवाने, (सुदावहं के० ) सुखावहं एटले सुखने पमाडनार एवाने ( पुणो के० ) पुनः एटले वली ( खेमं के० ) देमं एटले कल्याणकारी एवाने ( कुबई के० ) करोति एटले करे बे. ॥ ६ ॥ ( दीपिका . ) सर्वसमाधिफलमाह । श्रसौ साधुरात्मन एव न त्वन्यस्य पदं स्थानं क्षेमं शिवं करोति । किं कृत्वा । चतुरः समाधीन निगम्य सम्यग्विज्ञाय । किंभूतः साधुः । सुविशुद्ध मनोवाक्कायेन । पुनः सुसमाहितात्मा सप्तदशविधे संयमे । 1 For Private Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः । ६० स एवंभूतः । किंनूतं पदम् । विपुल हितसुखावहम् । विपुलं विस्तीर्णं हितं तदात्व श्रायत्तौ च पथ्यं सुखमावदति प्रापयति यत्तत्तथा ॥ ६ ॥ ( टीका. ) सर्व समाधिफलमाह । श्रनिगम त्ति सूत्रम् । निगम्य विज्ञायासेव्य च चतुरः समाधीननन्तरो दितान् । सुविशुद्ध मनोवाक्कायैः । सुसमाहितात्मा सप्तदशविधे संयमे । एवंभूतो धर्मराज्यमासाद्य विपुल हितसुखावहं पुनरिति । विपुलं विस्तीर्णं हितं तदात्व श्रायत्यां च पथ्यं सुखमावहति प्रापयति यत्तत्तथाविधं करोत्यसौ साधुः पदं स्थानं दमं शिवमात्मन इत्यात्मन एव नत्वन्यस्येत्यने कान्तपनङ्गव्यवच्छेदमाहेति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ जाइमरान मुच्चर, वंयं च चएइ सवसो ॥ सिदे वा दवइ सासए, देवे वा अप्पर महद्दिए त्ति बेमि ॥ ७ ॥ चो सो संमत्तो ॥ ४ ॥ विषयसमादी णामप्रयणं संमत्तं ॥ ए ॥ ( श्रवचूरिः ) एतदेव स्पष्टयति । जातिमरणान्मुच्यते । श्रसौ साधुः । स्थमिति । एवं स्थितं नरकादिव्यपदेशबीजं वर्णसंस्थानादि त्यजति सर्वशः सर्वैः प्रकारैरपुनर्ग्रह - तया । एवं सिद्धो भूत्वा कर्मक्षयात् । शाश्वतोऽपुनरागामी । सावशेषकर्मा देवो वा । अल्परतः । कण्डूयन कल्परतर हितोऽनुत्तरो महर्द्धिकोऽनुत्तरवैमानिकादिरिति । ब्रवी मी पूर्ववत् ॥ ७ ॥ इति चतुर्थ उद्देशः ॥ ४ ॥ इत्यवचूरिकायां व्याख्यातं विनयसमाध्यध्ययनम् ॥ ॥ ( . ) एज स्पष्ट करे बे. जाइ इत्यादि सूत्र. उपर कहेल प्रकारना साधु जे ते ( जाइमरणार्ड के० ) जातिमरणात् एटले जन्म मरणथी ( मुच्चइ के० ) मुच्यते एटले मुक्त थाय बे. ( च के० ) वली ( इथं के० ) इस्थं एटले जेथी नारकी तिर्यंच प्रमुख संज्ञा वे बे एवा संस्थान प्रमुख प्रत्ये ( सबसो के० ) सर्वशः एटले सर्व प्रकारे (चए के० ) त्यजति एटले त्याग करे बे. ( वा के० ) अने ( सासए के ० ) शाश्वतः एटले शाश्वत एवा ( सिद्धे के० ) सिद्धः एटले सिद्ध ( हवश के० ) - वति एटले थाय बे. ( वा के० ) अथवा ( अप्पर के० ) अल्परतः एटले कंडूसमान कामविकार जेने नथी एवो तथा ( महट्ठिए के० ) महर्द्धिकः एटले मोटी विलो एवो ( देवे के० ) देवः एटले देवता ( दवइ के० ) जवति एटले थाय इतिवमिनो अर्थ पूर्ववत् जावो. ॥ ७ ॥ चतुर्थ उद्देश संपूर्ण ॥ ४ ॥ इति श्रीदशवेकालिक बालावबोधे विनयसमाधि नामक अध्ययन संपूर्ण ॥ ए ॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० राय धनपतसिंघ बदादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) एतदेव स्पष्टयति । असौ साधुः । जातिमरणात् संसारात् मुच्यते । पुनः साधुः श्वंस्थं त्यजति । कोऽर्थः । इदंप्रकारमापन्न मिबम् । श्वं स्थितमिवस्थं नारकादिव्यपेदशबीजं वर्णसंस्थानादि सर्वशः सर्वैः प्रकारैरपुनर्ग्रहणतया। एवं सिको वा कर्मदयात्सिको नवति । कीदृशः सिझः । शाश्वतोऽपुनरागामी सावशेषकर्मा देवो वा नवति । किंनूतः देवः । अल्परतः कंपरिगतकंमूयनकल्परतरहितः । महर्डिकोऽनुत्तरवैमानिकादिः । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ७॥ इति चतुर्थ उद्देशकः ॥४॥ ___ इति श्रीदशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ समयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां विनयसमाध्यध्ययनं संपूर्णम् ॥ ए॥ (टीका.) एतदेव स्यष्टयति । जाति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । जातिमरणात्संसारान्मुच्यते । असौ सुसाधुः। श्वस्थं चेतीदं प्रकारमापन्नमिवमिदं स्थितमिबंस्थं नारकादिव्यपदेशबीजं वर्णसंस्थानादि तच्च त्यजति सर्वशः सर्वैः प्रकारैरपुनर्ग्रहणतया । एवं सिको वा कर्मक्षयात्सिको जवति । शाश्वतोऽपुनरागामी। सावशेषकर्मा देवो वा । अल्परतः कंपरिगतकंम्यनकल्परतरहितः । महर्डिकोऽनुत्तरवैमानिकादिः । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः । उक्तोऽनुगमः । नयाः पूर्ववत् ॥७॥ इति चतुर्थः ॥४॥ __ इति श्रीमहरिजप्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकटीकायां व्याख्यातं विनयसमाध्यध्ययनं नाम नवममध्ययनम् ॥ ए॥ अथ दशमं सनिदवध्ययनम् । निकम्म माणा अबुध्वयणे, निचं चित्तसमादिन दविका॥ वीण वसं न आवि गजे, वंतं नो पडिप्राय जे स निकू ॥१॥ (अवचूरिः) अथ सजिवध्ययनमारज्यते । अस्य चायं सबन्धः । इह पूर्वाध्ययन श्राचारप्रणि हितो विनयी नवतीत्युक्तम् । अत्र तु एतेषु नवसु अध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स निकुरित्युच्यते । निष्क्रम्य प्रव्रज्यां गृहीत्वा अव्यनावग्रहादित्यर्थः। थाज्ञया तीर्थकरगणधरोपदेशेन योग्यतायां निष्क्रम्य । परं किमित्याह । बुद्धवचणे अवगततत्त्वतीर्थकरवचने नित्यं समाहितश्चित्तेनानिप्रसन्नो जवेत् । प्रवचन एवानियुक्त इत्यर्थः । समाधानोपायमाह । स्त्रीणां वशं न चापि गछेत् । त शगतो हि नियमतो वान्तं प्रत्यापिबति । श्रतो बुद्धवचःसमाधिः। स्त्रीवशत्यागाहान्तं यहिषयसुखजंबालंन प्रत्यापिवति यः स निकुर्नावनिकुरित्यर्थः॥१॥ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । ६११ (अर्थ) नवमा अध्ययनमां श्राचारने सम्यक् प्रकारे पालनार साधु विनयवंत होय वे एम क. हवे, पूर्वोक्त नवे अध्ययनमां कहेल याचारने सम्यक् प्रकारे पालनार तेज निकु ( साधु ) कद्देवाय वे ए वात श्रा अध्ययनमां कहेवाशे. एवा संबंधी आवेला ए अध्ययननुं निरकम्मं इत्यादि प्रथम सूत्र. (जे के० ) यः एटले जे ( आणाइ के० ) खाइया एटले तीर्थकर गणधर प्रमुखना उपदेश वडे पोतानी योग्यता जाणीने ( निरकम्मं के० ) निष्क्रम्य एटले गृहावासथी नीकलीने अर्थात् दीक्षा लइने ( बुद्धवयणे के० ) बुद्धवचने एटले सर्वइना वचनने विषे ( निच्चं के० ) नित्यं एटले सर्व काल ( चित्तसमाहि के० ) चित्तसमाहितः एटले मनवडे अतिशय प्रसन्न अर्थात् नित्य श्रागमने विषे तत्पर एवा (हवि के० ) जवति एटले थाय बे. (च के०) वली जे ( इवीए के० ) स्त्रीणां एटले ना ( वसं के० ) वशं एटले परतंत्रतामां ( न याविगठे के० ) नचापि छति एटले न खावे. तथा (वंतं के०) वान्तं एटले वमेला, त्याग करेला एवा वि सुखने (नो पडिश्राविश्र के० ) नो प्रत्यापिबति एटले फरिथी पान करे नहि, अर्थात् सेवे नहि. ( स के० ) सः एटले ते ( जिरकू के० ) निक्षुः एटले सा देवाय . ॥ १ ॥ ( दीपिका. ) अथ सनिलुनामकमध्ययनमारभ्यते । श्रस्य चायम निसंबन्धः । इह पूर्वाध्ययन आचारप्रणिहितो यथोचितविनयसंपन्नो नवतीत्येतडुक्तम् । इह तु एतेष्वेव नवस्वध्ययनेषु व्यवस्थितः स सम्यग्निकुरित्युच्यते । इत्यनेन संबन्धेनायातमिदध्ययनम् । तच्चेदम् । स निकुर्भवेत् । स कः । यः निःक्रम्य द्रव्यजावटहात् प्रव्रज्यां गृहीत्वेत्यर्थः । कया । श्राज्ञया तीर्थकरगणधराणामुपदेशेन । बुद्धवचने तीर्थकरगणधरवचने नित्यं सर्वकालं चित्तेन समाहितः प्रतिप्रसन्नो जवेत् । प्रवचन एव नियुक्त इति गर्जः । अथ व्यतिरेकतः समाधानोपायमाह । पुनः स्त्रीणां सर्वासत्कार्यनिबन्धनभूतानां वशं तत्परतन्त्रतारूपं नचापि गच्छेत् । तइगो हि नियमतो वान्तं प्रत्यापिबति । यतो बुद्धवचने चित्तसमाधानतः सर्वथा स्त्री वशत्यागात् । अनेनैव उपायेन अन्योपायासंभवात् वान्तं परित्यक्तं यत् विषयजंबाल न प्रत्यापिबति न मनागपि श्रनोगतोऽनाजोगतश्च तत्सेवते ॥ १ ॥ ( टीका. ) अधुना सजिवाख्यमारज्यते । अस्य चायम निसंबन्धः । इहानन्तराध्ययन आचारप्रणिहितो यथोचितविनयसंपन्नो जवत्येतशुक्तमिह त्वेतेष्वेव नवस्वध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स सम्यग् निक्षुरित्येतदुच्यते । इत्यनेना जिसंबन्धेना For Private Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. यातमिदमध्ययनम् । अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नाम निष्पन्नो निदेपः । तत्र च सनिकुरित्यध्ययननामातः सकारो निदेतव्यो निकुश्च । तत्र सकारनिदेपमाह ॥ नामं ववण सयारो, दवे जावे ा होइ नायवो ॥ दवे समाई, जीवो तवत्तो ॥ ५ ॥ श्रस्य व्याख्या ॥ नामसकारः सकार इति नाम । स्थापनासका रः सकार इति स्थापना | द्रव्ये जावे च जवति ज्ञातव्यः । द्रव्यसकारो जावसकारश्च । तत्र द्रव्य इत्यागमनोश्रागमज्ञशरीरनव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तः प्रशंसादिविषयो द्रव्यसकारः । जाव इति जावसकारो जीवस्तदुपयुक्तः । तडुपयोगानन्यत्वादिति गार्या - र्थः ॥ 11 ॥ प्रकृतोपयोगी त्यागमनो यागमज्ञशरीरजव्यशरीरातिरिक्तं प्रशंसादिविषयं द्रव्यसकारमाह ॥ निदेस पसंसाए, इवी जावे अ होइ सगारो ॥ निद्देसपसंसार, हिगारो छ यो ॥ ए६ ॥ अस्य व्याख्या | निर्देशे प्रशंसायामस्तिजावे चेत्येतेष्वर्थेषु त्रिषु जवति तु सकारः । तत्र निर्देशे यथा सोऽनन्तरमित्यादि । प्रशंसायां यथा सत्पुरुष इत्यादि । श्रस्तिनावे यथा सद्भूतममुकमित्यादि । तत्र निर्देशप्रशंसायामिति । निर्देशे प्रशंसायां च यः सकारस्तेनाधिकारोऽत्राध्ययने प्रक्रान्त इति गाथार्थः ॥ ॥ ॥ एतदेव दर्शयति ॥ जे जावा दसवे - विम्मि करपि वन्नि जिहिं ॥ तेसिं समावणंमित्ति, जो जन्न स निस्कू ॥ ७ ॥ व्याख्या ॥ ये जावा: पदार्थाः पृथिव्यादिसंरक्षणादयो दशवेकालिके प्रस्तुते शास्त्रे करणीया अनुष्ठेया वर्णिताः कथिता जिनैस्तीर्थकर गणधरैः । तेषां जावानां समापने यथाशक्ति द्रव्यतो जावतश्चाचरणेन पर्यन्तनयनेन यो निकुस्तदर्थं यो निक्षणशीलो न तूदरादिनरणार्थम् । जयते स निकुरिति । इतिशब्दस्य व्यवहित उपन्या - सः । स निक्कुरित्यत्र निर्देशे सकार इति गाथार्थः ॥ ॥ ॥ प्रशंसायामाह ॥ चरगमरुगाश्रणं, निरकुब जीवाण काउणमपोहं ॥ अयगुणण निउत्तो, होइ संसाइ उ स रि ॥ ए८ ॥ व्याख्या ॥ चरकमरुकादीनामिति । चरकः परिव्राजकविशेषः । मरुका धिग्वर्णाः । श्रादिशब्दान्वाक्यादिपरिग्रहः । श्रमीषां निकोपजीविनां निक्षणशीलानामगुणवत्त्वेनापोहं कृत्वा अध्ययनगुण नियुक्तः प्रक्रान्तशास्त्र निष्यंदभूतः प्रक्रान्ताध्ययनानि हितगुणसमन्वितो जवति । प्रशंसायामवगम्यमानायां सतिदुः संश्वासौ निश्च तत्तदन्यापोहेन सङ्गिकुरिति गायार्थः ॥ ॥ उक्तः सकार इदानीं निकुम निधातुकाम ह ॥ निरकुस य निरेकेवो, निरुत्तएगहिआणि लिंगाणि ॥ अनि जिरकू, श्रवयवा पंच दाराइ ॥ ॥ व्याख्या ॥ निकोर्निदेपो नामादिलक्षणः कार्यः । तथा निरुक्तं च वक्तव्यं जिहोरेव । तथा एकार्थिकानि पर्यायशब्दरूपाणि वक्तव्यानि । तथा लिङ्गानि संवेगादीनि । तथा अगुण स्थितो न For Private Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१३ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । निकुरपितु गुण स्थित एवेत्येतझाच्यम् । अत्र चावयवाः पञ्च प्रतिज्ञादयो वदयमाणाः। इति छाराण्येतानीति गाथासमासार्थः ॥ ॥ यथाक्रमं व्यासार्थमाह ॥ हामं उवणा निरकू, दवनिरकू अनाव निरकू अ॥ दवम्मि आगमाई, अन्नो वि थ प. जावो णमो ॥ ४० ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापनानिनुरिति । निकुशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते । नामनिकुः स्थापनानिकुश्चेति । तत्र नामस्थापने कुमत्वादनादृत्य - व्य निकुमाह । ऽव्य इति अव्य निकुरागमादिः । श्रागमनोश्रागमज्ञशरीरनव्यशरीरतदतिरिक्तैकनविकादिनेदनिन्नः । अन्योऽपि च पर्यायो नेदोऽयं व्यजिशोर्वक्ष्यमाणलक्षण इति गाथार्थः॥ ॥ ॥ने नेत्रणं चेव, निंदिश्रवं तहेव य॥ एए सिं तिम्हि पि अ, पत्तेअपरूवणं वोडं ॥४०॥ व्याख्या ॥ नेदकः पुरुषः, नेदनं चैव परश्वादि, नेत्तव्यं तथैव च काष्ठादीति नावः। एतेषां त्रयाणामपि नेदकादीनां प्रत्येकं पृथक्पृथक् प्ररूपणां वक्ष्य इति गाथार्थः॥ ॥ ॥ एतदेवाह ॥ जह दारुकम्मगारो, नेत्रणनित्तवसंजु जिस्कू ॥ अन्ने वि दवनिस्कू, जे जायणगा अविरया श्र॥२॥ व्याख्या ॥ यथा दारुकर्मकरो वर्धक्यादिः । नेदननेत्तव्यसंयुक्तः सन् कियाविशिष्टविहरणादिदारुसमन्वितो ऽव्य निकुः। अव्यं निनत्तीति कृत्वा । तथान्येऽपि अव्यनिदवः अपारमार्थिकाः । क इत्याह । ये याचनका निदणशीला अविरताश्च अनिवृत्ताश्च पापस्थानेज्य इति गाथार्थः॥ ॥ ॥ एते च विविधाः। गृहस्था लिगिनश्चेति । तदाह ॥ गिहिणो वि सयारंजग, उझुप्पन्नं जणं विमग्गं ॥ जीवणिश्रदीण किविणा, ते वजा दवनिकुत्ति॥३॥ व्याख्या ॥ गृहिणोऽपि सकलत्रा अपि सदारंजका नित्यमारम्नकाः षलां जीवनिकायानामृजुप्रयं जनमनालोचकं विमृगयन्तोऽनेकप्रकारं छिपदादि।नूमिदेवा वयं लोकहितायावतीर्णा इत्यनिधाय याचमाना ऽव्यनिक्षणशीलत्वाव्यनिक्षवः । एते च धिग्वर्णाः। तथा ये च जीवनिकायै जीवनिमितं दीनकृपणाः कार्पटिकादयो निदामटन्ति, तान् विद्याछिजानीयाव्यनिनिति । ऽव्यार्थं निदणशीलत्वादिति गाथार्थः॥ ॥ उक्ता गृहस्थजव्यनिदवः । लिगिनोऽधिकृत्याह ॥ मिदिछी तसथा-वराण पुढवाशबिंदियाईणं ॥ निच्चं वहकरणरया, अबंजयारी श्र संचश्था ॥४॥ व्याख्या ॥ शाक्य निकुप्रनृतयो हि मिथ्यादृष्टयः अतत्त्वानिनिवेशिनः प्रशमादिलिङ्गशून्याः । त्रसस्थावराणां प्राणिनां पृ. थिव्यादीनां छीन्जियादीनां च । अत्र पृथिव्यादयः स्थावराः। बीडियादयस्त्रसाः। नित्यं वधकरणरताः सदैतदतिपातसक्ताः । कथमित्यत्राह । अब्रह्मचारिणः । संचयिनश्च यतः । अतोऽप्रधानत्वाव्य निदवः । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः ॥ ॥ ॥ एते चाब्रह्मचारिणः संचयादेवेति संचयमाह ॥ उपय चउप्प Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. यधणध-नकुविधतिश्रपरिग्गडे निरया ॥ सञ्चित्तनो पयमा-णगाथ उद्दिछनोई अ ॥५॥ व्याख्या ॥ छिपदं दास्यादि, चतुष्पदं गवादि, धनं हिरण्यादि, धान्यं शाल्यादि, कुप्यमलिंजरादि । एतेषु छिपदादिषु क्रमेण मनोलक्षणादिना करण त्रिकेण त्रिकपरिग्रहे कृतकारितानुमतपरिग्रहे निरताः सक्ताः । न चैतदनार्षम् । · विहारान् कारयेऽम्यान्वासयेच्च बहुश्रुतान् ' इत्यादि वचनात् । सतगुणानुष्ठायिनो नेता श्त्याशंक्याह । सचित्तनोजिनः । तेऽपि मांसापकायादिनोजिनः तदप्रतिषेधात् । पचन्तश्च स्वपचास्तापसादय उद्दिष्टनोजिनश्च सर्व एव शाक्यादयः । तत्प्रसिद्ध्या तपस्विनोऽपि पिएमविशुध्यपरिझानादिति गाथार्थः॥ ॥ त्रिकत्रिकपरिग्रहे निरता श्त्येतट्या चिख्यासुराद ॥ करणतिए जोथतिए, सावऊो श्रायहेजपरउन्नये ॥ अहा. एउपवत्ते, ते विजा दवनिरकुत्ति ॥६॥व्याख्या॥ करणत्रिक इतिसुपां सुपो नवन्तीति करणत्रिकेन मनोवाकायलदणेन । योगत्रितय इति कृतकारितानुमतिरूपे सावध सपापे श्रात्मदेतोरात्मनिमित्तं देहायुपचयाय । एवं परनिमित्तं मित्राद्युपनोगसाधनाय एवमुजयनिमित्तमुजयसाधनार्थम् । एवमर्थायात्माद्यर्थमनर्थाय वा विना प्रयोजनेन थार्तध्यानचिंतनखरादिनाषणलक्ष्यवेधनादिनिः प्राणातिपातादौ प्रवृत्तांस्तत्परांस्तानेवंचूतान् विद्याद्विजानीयात् अव्यनितूनिति । प्रवृत्ताश्चैवं शाक्यादयस्तव्यनिक्षव इति गाथार्थः ॥ ॥ ॥ एवं ख्यादिसंयोगाद्विशुद्धतपोऽनुष्ठानाजावाचाब्रह्मचारिण एत इत्याह ॥श्ची परिग्गहा, श्राणादाणाश्नावसंगार्ड ॥ सुझतबाजावा, कुतिबिआबंजचारि ति ॥ ७॥ व्याख्या ॥ स्त्रीपरिग्रहादिति दास्यादिपरिग्रहात् । श्राझादानादिनावसंगाच परिणामाशु रित्यर्थः । नच शाक्या निदवः। शुद्धतपोऽनावादिति। शुद्धस्य तपसोऽनावात्तापसादयः कुतीथिका अब्रह्मचारिण इति । ब्रह्मशब्देन शुरूं तपोऽनिधीयते तदचारिण इति गाथार्थः ॥ ॥ उक्तो अव्य निकुः। जावनिकुमाह ॥ श्रागमतो उवउत्तो, तग्गुणसंवेअ अ जावंमि ॥ तस्स निरुत्तं नेअगलेषणनेत्तवएण तिहा ॥ ॥ व्याख्या॥ जावनिकुर्तिविधः। आगमतो नोश्रागमतश्च । तत्रागमत उपयुक्त इति जिकुपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः। तशुणसंवेदकस्तु निकुगुणसंवेदकः । पुनर्नोश्रागमतो नवति जावनिकुरित्युक्तो निकुनिदेपः । सांप्रतं निरुक्तमनिधातुकाम थाह । तस्य निरुक्तमिति । तस्य निदोनिश्चितमुक्तमन्वर्थरूपं नेदकनेदनन्नेत्तव्यैरेलिर्नेदैर्वदयमाणै स्त्रिधा नवतीति गाथार्थः ॥ ॥ एतदेव स्पष्टयति ॥नेत्तागमोवउत्तो,छविहतवोनेअणं च नेत्तवं॥अहविहं कम्मखुहं, तेण निरूत्तं स निरकु त्ति ॥ए ॥ व्याख्या ॥ नेत्ता नेदकोऽत्रागमत उपयुक्तः साधुः । तथा छिविथं बाह्यान्यन्तरनेदेन तपो नेदनं वर्तते । तथा नेत्तव्यं विदारणीयं चाष्टप्रकारं झा Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । ६१५ नावरणीयादि कर्म। तच्च दुदादिषुःखहेतुत्वात् कुलब्दवाच्यम् । यतश्चैवं तेन निरुक्तं यः शास्त्रनीत्या तपसा कर्म चिनत्ति स निकुरिति गाथार्थः॥ ॥किं च ॥ निंदतो अ जह खुहं, निस्कू जयमाण जई हो ॥ संजमचर चर, नवं खिवंतो ' नवंतो उ ॥ १० ॥ व्याख्या ॥ निन्दंश्च विदारयंश्च यथा कुधं कर्म जितुर्नवति । नावतो यतमानस्तथा तथा गुणेषु स एव यतिवति । एवं संयमचरकः सप्तदशप्रकारसंयमानुष्ठायी चरकः एवं नवं संसारं रूपयन् परीत्तं कुर्वन् स एव नवान्तो जवति । नान्यथेति गाथार्थः ॥ ॥ प्रकारान्तरेण निरुक्तमेवाह ॥ जं निकमत्त वित्ती, तेण व निरक खवेश जं च अणं ॥ तवसंजमे तवस्सि-त्ति वा वि अन्नो वि पजार्ड ॥ ११॥ व्याख्या ॥ यद्यस्मानिदामात्रवृत्तिर्जिदामात्रेण सर्वोपधाशुन वृत्तिरस्येति समासः। तेन वा निकुर्जिणशीलो निकुरिति कृत्वा अनेनैव प्रसंगेन अन्येषामपि तत्पर्यायाणां निरुक्तमाह। पयति यद्यस्माछा झणं कर्म तस्मादपणः। रूपयतीति पण इति कृत्वा तथा संयमतपसीति संयमप्रधानं तपः संयमतपः तस्मिन् विद्यमाने तपस्वीति वापि नवति । तपोऽस्यास्तीति कृत्वान्योऽपि पर्याय इत्यन्योऽपि नेदोऽर्थतो निकुशब्दनिरुक्तस्येति गाथार्थः॥ ॥ उक्तं निरुक्तछारम् । श्रधुनैकार्थिकछारमाह ॥ तिन्ने ताई दविए, वईथ खंते श्र दंत विरए अ॥मुणितावसपन्नवगुजु-निकू बुझे जर विऊ अ ॥ १५ ॥ व्याख्या ॥ तीर्णवत्तीर्णः विशुद्धसम्यग्दर्शनादिलानानवार्णवमिति गम्यते। तायोऽस्यास्तीति तायी। तायः सुदृष्टमार्गोक्तिः ।सुपरिज्ञातदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः । अव्यं रागद्वेषरहितः।व्रती च हिंसादिविरतश्च । दान्तश्च दा. म्यति क्षमा करोतीति दान्तः। बहुलवचनात् कर्तरि निष्ठा । एवं दाम्यतीन्द्रिया दिदमं करोतीति दान्तः। विरतश्च विषयसुखनिवृत्तश्च । मुनिर्मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिस्तपःप्रधानस्तापसः। प्रज्ञापकोऽपवर्गमार्गस्य प्ररूपकः । झजुर्मायारहितः। संयमवान् वा । जितुः पूर्ववत् । बुद्धोऽवगततत्त्वः। यतिरुत्तमाश्रमी प्रयत्नवान् वा । विछांश्च पएिकतश्चेति गाथार्थः॥ ॥ तथा ॥ पवश्ए अणगारे,पासंडी चरग बंजणे चेव ॥ परिवायगे श्र समणे, निग्गंथे संजए मुत्ते ॥ १३ ॥ व्याख्या ॥ प्रवजितः पापानिष्कान्तः । अनगारो अव्यनावागारशून्यः। पाखंडी पाशाड्डीनः। चरकः पूर्ववत् । ब्राह्मणश्चैव विशुद्धब्रह्मचारी चैव । परिव्राजकश्च पापवर्जकश्च । श्रमणः पूर्ववत् । नियंथः संयतो मुक्त इत्येतदपि पूर्ववदेवेति गाथार्थः॥ ॥ तथा ॥ साह चूहे श्र तहा, तीरही हो। चेव नाववो ॥ नामाणि एवमाईणि, होति तवसंजमरयाणं ॥ १४ ॥ व्याख्या ॥ साधूरूदश्च तथेति निर्वाणसाधकयोगसाधनात्साधुः । स्वजनादिषु स्नेहविरहापूक्षः। तीरार्थी चैव जवति ज्ञातव्य इति । तीरार्थी नवार्णवस्य । नामान्येका Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. किन पर्यायानिधानान्येवमादीनि यथोक्तलक्षणानि भवन्ति । केषा मित्याह । तपःसंयमरतानां जावसाधूनामिति गाथार्थः ॥ ॥ प्रतिपादितमेकार्थिकद्वार मिदानीं लिङ्गद्वारं व्याचिख्यासुराह ॥ संवेगो निवेगो, विसयविवेगो सुसील संसग्गो ॥ - राहणंतवो ना - दंसणचरित्तविष अ ॥ १५ ॥ व्याख्या ॥ संवेगो मोक्षसुखा जि. लाषः, निर्वेदः संसारविषयः, विषय विवेको विषयपरित्यागः, सुशील संसर्गः शीलवद्भिः संसर्गः, तथा आराधना चरमकाले निर्यापणरूपा, तपो यथाशक्त्यनशनाद्यासेवनम्, ज्ञानं यथावस्थितपदार्थविषय मित्यादि । दर्शनं नैसर्गिकादि । चारित्रं सामायिकादि । विनयश्च ज्ञानादिविषय इति गाथार्थः ॥ ॥ तथा ॥ खंती ा मद्दवजव, विमुत्तया तह अदीय तितिरका ॥ श्रावस्सगपरिसुद्धी, होंति जिस्कुलिंगा ॥ १६ ॥ व्याख्या ॥ कान्तिश्चाक्रोशा दिश्रवणेऽपि क्रोधत्यागश्च । मार्दवार्जव विमुक्ततेति । जात्या दिजावेऽपि मानत्यागान्मार्दवं, परस्मिन्निकृतिपरेऽपि मायापरित्याग श्रार्जवं, धर्मोपकरणेष्वप्यमूर्छा विमुक्तता, तथाशनाद्यलाभेऽप्यदीनता । कुदादिपरीषहोपनिपातेऽपि तितिक्षा, तथा श्रावश्यकपरिशुद्धिश्चावश्यं करणीययोग निरतिचारता च जवन्ति निदो - नवसाधोर्लिङ्गान्यनन्तरो दितानि संवेगादीनीति गाथार्थः ॥ ॥ व्याख्यातं लिङ्गद्वारमवयवद्वारमाह ॥ श्रनयणगुणी जिरकू, न सेस इइ णो पइन्न को देऊ ॥ अगुणत्ता देऊ, को दितो सुवन्नमिव ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ अध्ययनगुणी प्रक्रान्ताध्ययनोक्तगुणवान् निक्कुर्भावसाधुर्भवतीति । तत्स्वरूपमेतत् । न शेषस्त कुणरहित इति नः प्रतिज्ञास्माकं पक्षः । को हेतुः कोऽत्र पक्षधर्म इत्याशंक्याह । श्रगुणत्वादिति हेतुः । विद्यमानगुणोऽगुणस्तद्भावस्तत्त्वं तस्मादित्ययं हेतुरध्ययनगुणशून्यस्य निकुत्वप्रतिषेधः साध्य इति । को दृष्टान्तः किंपुनरत्र निदर्शन मित्याशंक्याह । सुवर्णमिव यथा सुवर्ण स्वगुणरहितं सुवर्णं न जवति तद्वदिति गार्थार्थः ॥ ॥ सुवर्णगुणानाद ॥ विसघाइरसायण मंगलब विणिए पयादिणावत्ते ॥ गुरुए अनकुळे, सुवन्ने गुणा जाि ॥ १८ ॥ व्याख्या ॥ विषघाति विषघातनसमर्थ, रसायनं वयस्तम्जनकर्तृ, मंगलार्थं मंगलप्रयोजनं, विनीतं यथेष्टकटकादिप्रकारसंपादनेन । प्रदक्षिणावर्त्त, तप्यमानं प्राद दियेनावर्त्तते, गुरु सारोपेतं, श्रदाह्यं नाग्निना दह्यते । कुथनीयं न कदाचिदपि कुथतीत्येते ऽष्टावनन्तरो दिताः सुवर्णे सुवर्ण विषया गुणा गणितास्तत्स्वरूपकैरिति गाथार्थः ॥ ॥ उक्ताः सुवर्णगुणाः सांप्रतमुपनयमाह ॥ चजकारणपरिसुद्धं, कसातावतालणाए श्र ॥ जं तं विसघाइरसायलाई गुणसंजु होइ ॥ १७ ॥ ॥ व्याख्या ॥ चतुःकारणपरिशुद्धं चतुःपरीक्षायुक्तमित्यर्थः । कथमित्याह । कषवतापताडनया चेति । कषेण बेदेन तापेन ताडनया च यदेवंविधं तद्विषघाति For Private Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके दशमाध्ययनम् । ६१७ ॥ यच्चैवं रसायनादिगुणसंयुक्तं जवति । जावसुवर्णं स्वकार्यसाधकमिति गाथार्थः ॥ भूतम् ॥ तं कसिणगुणोवेयं, होइ सुवन्नं न सेस जुत्ती ॥ नहि नामरूवमेत्ते - ए एवमगुणो हव रिकू ॥ २० ॥ ॥ व्याख्या ॥ तदनन्तरो दितं कृत्स्नगुणोपेतं संपूर्ण - समन्वितं जवति सुवर्णं यथार्थं न शेषं कषायशुद्धम् । युक्तिरिति वर्णादिगुणसाम्येऽपि युक्तिसुवर्णमित्यर्थः । प्रकृते योजयति । यथैतत्सुवर्णं न जवति । एवं नहि नामरूपमात्रेण रजोहरणा दिसंधारणादिनागुणोऽविद्यमान प्रस्तुताध्ययनोक्तगुणो जवति निक्षुः । निक्षामटन्नपि न जवतीति गाथार्थः ॥ ॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह ॥ जुत्ती सुवन्नगं पुण, सुवन्नवन्नं तु जइ वि की रिता ॥ न हु होइ तं सुवन्नं, सेसेहिं गुणेहिंसंतेहिं ॥ ४२१ ॥ व्याख्या ॥ युक्तिसुवर्णं कृत्रिम सुवर्ण महलोके सुवर्णवर्णं तु जात्यसुवर्णवर्णमपि यद्यपि क्रियेत पुरुषनैपुण्येन । तथापि नैव जवति तत् सुवर्णं परमायेन शेषैर्गुणैः कषादि निरस मिरविद्यमानैरिति गाथार्थः ॥ ॥ एवमेव किमित्याह । जे जा, जिस्कुगुणा तेहि होइ सो निक्कू ॥ वन्ने जच्चसुवन्नगं व संते गुनिहिंमि ॥ व्याख्या ॥ येऽध्ययने जणिता निकुगुणा यस्मिन्नेव प्रक्रान्ते जिनवचने वित्तसमाध्यादयः । तैः करणभूतैः सद्भिर्भवत्यसौ निकुर्नामस्थापनाद्रव्य निकुव्यपोन जावनिः परिशुद्ध निक्षावृत्तित्त्वात् । किमिवेत्याह । वर्णेन पीतलक्षणेन जात्यसुवर्णमित्र परमार्थ सुवर्ण मिव सति गुणनिधौ विद्यमानेऽन्यस्मिन् कपादौ गुणसंघाते । एतडुक्तं जवति । यथान्यगुणयुक्तं शोजनवर्णं सुवर्णं नवति तथा चित्तसमाध्या - दिगुणयुक्तो निक्षणशीलो निकुर्भवतीति गाथार्थः ॥ ॥ व्यतिरेकतः स्पष्टयति । जो रिकू गुणरहिउँ, निरकं गिरहइ न होइ सो जिरकू ॥ वन्ने जच्चसुवन्नगं व स गुण निहिंम्मि ॥ ४२३ ॥ व्याख्या || यो हि निकुर्गुणरहितः चित्तसमाध्या दिशून्यः सन् निक्षामटति । न जवत्यसौ निक्षुर्निदाटनमात्रेणैवापरिशुद्ध निकावृत्तित्वात् । किमिवेत्याह । वर्णेन युक्तिसुवर्णमिव । यथा तद्वर्णमात्रेण सुवर्णं न जवत्यसति गुणनिधौ कषादिक इति गाथार्थः ॥ किंच ॥ उद्दिठकथं मुंज, बक्कायपमद्द घर कुणइ ॥ पञ्चकं च जलगए, जो पिइ कहं नु सो जिरकू ॥ ४२४ ॥ व्याख्या ॥ उद्दिश्य कृतं भुङ्क इत्यौद्दे शिक मित्यर्थः । षट्कायप्रमर्दकः यत्र वचन पृथिव्याद्युपमर्दकः गृहं करोति संवत्येवैषणीयालये मूर्बया वसतिर्नाटकगृहं वा । तथा प्रत्यक्षं चोपलभ्यमान एव जलगतानष्कायादीन् यः पिबति तत्त्वतो विनालम्बनेन कथं न्वसौ निकुर्नैव जावनिक्षुरिति गाथार्थः ॥ ॥ उक्त उपनयः सांप्रतं निगमनमाह ॥ तम्हा जे अनयणे, निरकुगुणा तेहिं होइ सो जिरकू ॥ तेहिं अ सउत्तरगुणेहि, होइ सो जावियतरो उ ॥ ४२५ ॥ व्याख्या ॥ यस्मादेतदेवं यदनन्तरमुक्तं तस्माद् येऽध्ययने प्रस्तुत एव नि ७८ For Private Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-४३-मा. कुगुणा मूलगुणरूपा उक्तास्तैः करणनूतैः सनिर्नवत्यसौ निकुस्तैश्च पुनः सोत्तरगुणैः पिएमविशुध्याद्युत्तरगुणसमन्वितैनवत्यसौ नाविततरश्चारित्रधर्मे तु प्रसन्नतर इति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिदेपः ।सांप्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदम् । निकम्म इत्यादि । अस्य व्याख्या। निष्क्रम्य अव्यनावगृहात्प्रव्रज्यां गृहीत्वेत्यर्थः। आइया तीर्थकरगणधरोपदेशेन योग्यतायां सत्यां निष्क्रम्य । किमित्याह । बुद्धवचने अवगततत्त्वतीर्थकरगणधरवचने नित्यं सर्वकालं चित्तसमाहितश्चित्तेनातिप्रसन्नो भवेत्।प्रवचन एवानि. युक्त इति गर्नः । व्यतिरेकतः समाधानोपायमाह । स्त्रीणां सर्वासत्कार्यनिबन्धनजूतानां वशं तदायत्ततारूपं नचापि गछेत् । तशगो हि नियमतो वान्तं प्रत्यापिबति । अतो बुद्धवचनचित्तसमाधानतः सर्वथा स्त्रीवशत्यागादनेनैवोपायेनान्योपायासंजवात् । वान्तं परित्यक्तं सहिषयजम्बालं न प्रत्यापिबति न मनागप्यानोगतोऽनाजोगतश्च तत्सेवते यः। स निकुर्जावनिकुरिति सूत्रार्थः॥१॥ पुढविं न खणे न खणावए, सीनदगं न पिए न पित्रावए॥ अगणि सजदा सुनिसिश्र, तंन जले न जलावए जे स निस्कू ॥२॥ (श्रवचूरिः) पृथ्वीं सचेतनादिरूपां स्वयं न खनति न खानयति परैरेकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति खनन्तमप्यन्यं नानुजानातीत्येवं सर्वत्र योज्यम्। शीतोदकं सचित्तजलं न पिबति खयं न पाययति परान् । अग्निः षड्जीवघातकः । किंवदित्याह । शस्त्रं खगादि । तद्यथा सुनिशितमुज्ज्वालितं तत् । तं न ज्वालयति स्वयं न ज्वालयति परैर्यः स नितुः। श्राह । षड्जीवनिकायादिषु सर्वाध्ययनेष्वयमर्थोऽनिहितः। किं पुनरुच्यते । तमुक्तार्थानुष्ठानपर एव निकुरिति झापनाय । ततो न दोषः ॥२॥ (अर्थ.) तेमज पुढविं इत्यादि सूत्र, (जे के०) यः एटले जे ( पुढवि के) पृथिवीं एटले नूमिने पोते (न खणे के०) न खनति एटले खोदे नहि.( न ख. पावए के०) न खानयति एटले बीजा पासे खोदावे नहि, तथा खोदनारने अनुमोदे नहि. (सीदगं के०) शीतोदकं एटले सचित्त जल प्रत्ये पोते ( न पिए के) न पिबति एटले पिये नहि, ( न पियावए के०) न पाययति एटले बीजाने पिवरावे नहि, तथा पोते पिनारने अनुमोदे नहि. (सुनिसियं के ) सुनिशितं एटले तीक्ष्ण एवा ( स जहा के०) शस्त्रं यथा एटले खड्गादिशस्त्रसमान एवा (अगणि के) अग्निं एटले अनिकाय प्रत्ये पोते (न जले के ) न ज्वालयति एटले Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशमाध्ययनम् । ६१ सलगावे नहि, ( न जलावए के० ) न ज्वालयति एटले बीजा पासे सलगावे नहि, तथा सलगावनारने अनुमोदे नहि. ( स के० ) सः एटले ते ( निरकू के० ) निक्कुः एटले साधु कदेवाय बे. ॥ २ ॥ ( दीपिका . ) तथा साधुः पृथ्वीं सचेतनादिरूपां न खनति स्वयम् । नच खानयति परैः । एकग्रहणे तातीयानामपि ग्रहणात् खनन्तमन्यं नानुजानातीत्येवं सर्वत्र वेदितव्यम् । तथा यः साधुः सचित्तं पानीयं स्वयं न पिबति । नच पाययति परान् । तथा अग्निः षड्जीव निकायघातकः । किंवत् । यथा सुनिशितमुज्ज्वालितं शस्त्रं जीवघातकं जवेत् । ततस्तमग्निं यः स्वयं न ज्वालयति । परैर्न ज्वालयति । स भूतो निक्षुर्भवेत् । ननु षड्जीवनिकायादिष्वध्ययनेषु पूर्वोक्तेषु सर्वत्रायमेवार्थः कथितः । किमर्थं पुनरपि सनिक्कुनामाध्ययनेऽपि स एवार्थः प्ररूप्यते । पुनरुक्तिदोषप्रसंगो जायते । त्रोत्तरमाह । षड्जीव निकायपालनापर एव निकुरुच्यते नान्य इति ज्ञापनार्थं ततो न दोषः ॥ २ ॥ I ( टीका. ) तथा पुढवि त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । पृथिवीं सचेतनादिरूपां न खनति स्वयम् । न खानयति परैः । एकग्रहणेतत्तजातीयग्रहणमिति खनन्तमन्यं न समनुजानात्येवं सर्वत्र वेदितव्यम् । शीतोदकं सचित्तं पानीयं न पिबति स्वयम् । न पाययति परानिति । श्रग्निः षड्जीवघातकः । किंवदित्याह । शस्त्रं खड्गादि यथा सुनिशितमुज्ज्वालितं तद्वत् । तं न ज्वालयति स्वयम् । न ज्वालयति परैर्य श्वंभूतः स निकुः । श्राह । षड्जीवनिकायादिषु सर्वाध्ययनेष्वयमर्थोऽनिहितः । किमर्थं पुनरुक्त इत्युच्यते । तक्तार्थानुष्ठान पर एव निकुरिति ज्ञापनार्थम् । ततश्च न दोष इति सूत्रार्थः ॥२॥ अनिलेन वीएन वीयावए, दरियाणि न चिंदे न चिंदावए ॥ बासिया विवजयंतो, सच्चित्तं नादारए जे सनिक ॥ ३ ॥ ( अवचूरि : ) अनिलेना निलहेतुना चेलकर्णादिना न वीजयत्यात्मादि स्वयम् । न वीजयति परैः । हरितानि न छिनत्ति स्वयं न बेदयति परैः । बीजानि व्रीह्यादीनि संघट्टना दिना वर्जयेत् । सचित्तं नाहारयति यः कदाचिदपुष्टालम्बने स निदुः ॥ ३ ॥ ( अर्थ. ) तेम अनिल इत्यादि सूत्र. (जे के० ) यः एटले जे ( अनिलेश के० ) निलेन एटले पवन जेथी उत्पन्न याय एवा व्यजन ( पंखो ), वस्त्रनो बेडो इत्यादिवडे पोते पोताने ( न वीए के० ) न वीजयति एटले वीजावे नहि, ( न वीवएके०) न वीजयति एटले बीजा पासे पोताने वीजावे नहि, तथा वीजावनारने नु For Private Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह,नाग तेतालीस-(४३)-मा. मोदे नहि. जे ( हरियाणि के० ) हरितानि एटले हरितकाय प्रत्ये ( न विंदे के) न बिनत्ति एटले कापे नहि, (न बिंदावए के० ) न बेदयति एटले बीजा पासे कपावे नहि, तथा पोते कापनारने अनुमोदे नहि. तथा जे (बीश्राणि के० ) बीजानि एटले शालि, गोधूम प्रमुख बीज प्रत्ये (सया के०) सदा एटले निरंतर (विवजंतो के०) विवर्जयन् एटले संघट्टन, मर्दन प्रमुख न थाय तेवी रीते वर्जतो बतो (सचित्तं के०) सचित्तं एटले सचित्त वस्तु प्रत्ये (नाहारए के०) नाहारयति एटले थाहार करे नहि. ( स के० ) सः एटले ते ( निस्कू के०) निकुः एटले साधु कहेवाय बे. ॥३॥ (दीपिका.) तथा योऽनिलेन वायुना वायुहेतुना चेलकर्णादिनात्मादि न स्वयं वीजयति । नापि परैर्वीजयति। तथा हरितानि बालतृणादीनि यः स्वयं न बिनत्ति। नच परैवेदयति । तथा यः बीजानि हरितफलरूपाणि व्रीह्यादीनि सदा सर्वकालं विवर्जयेत् संघहनादिक्रियया। तथा यः सचित्तं नाहारयति कदाचिदपि सबले कारणेऽपि । स निकुः ॥३॥ (टीका.) तथा अनिलेण त्ति सूत्रम् । अनिलेनानिलहेतुना चेलकर्णादिना न वीजयत्यात्मादि स्वयम् । न वीजयति परैः । हरितानि तृणादीनि न हिनत्ति स्वयम् । न बेदयति परैर्बीजानि हरितफलरूपाणि व्रीह्यादीनि सदा सर्वकालं विवर्जयन् संघटनादिक्रियया सचित्तं नाहारयति । यः कदाचिदप्यपुष्टालम्बनः स निकुरिति सूत्रार्थः ॥३॥ वहणं तसथावराण होइ, पुढवीतणकनिस्सिाणं ॥ तम्हा उदेसिधे न मुंजे, नो वि पए न पयावए जे स निस्कू॥४॥ (अवचूरिः) औदेशिकादिपरिहारेण त्रसस्थावरपरिहारमाह । वधनं त्रसस्थावराणां पृथिवीतृणकाष्ठादिनिश्रितानां नवति तथा समारम्नात् । तस्मादौदेशिकं न जुते । न केवलमेतत् । न पचति स्वयं व्रीह्यादीनि । न पाचयति परैः। पचन्तमन्यं नानुजानाति स निकुः ॥ ४ ॥ (अर्थ.) प्रौदेशिक प्रमुख आहार वर्जवाथी त्रस तथा स्थावर जीवोनी रक्षा कहे जे. वहणं इत्यादि सूत्र. जे माटे आहार तैयार करता ( पुढवीतणकहनिस्सि. आणं के०) पृथिवीतृणकाष्ठनिःसृतानां पृथिवी एटले नूमि, तृण एटले घास अने काष्ठ एटले लाकडां एने आश्रय करी रहेला एवा ( तसथावराणं के) त्रसस्थावराणां एटले त्रस ते बेरिंडी प्रमुख अने स्थावर ते एकेजिय जीव तेमनी (वहणं Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके दशमाध्ययनम् । ६१ के० ) वधनं एटले हिंसा ( हो के० ) जवति एटले थाय . ( तम्हा के०) तस्मात् एटले ते माटे (जे के०) यः एटले जे साधु ( उद्देसियं के) औद्दे शिकं एटले साधुने श्रापवानी श्छाश्री करेला आहारादिकने (न मुंजे के०) न जुङ्क्ते एटले जदण करे नहि. तथा ( नो वि पए के० ) नापि पचति एटले पोते राधे पण नहि, तेमज (न पयावए के०) न पाचयति एटले रंधावे पण नहि. तेमज रांधनारने अनुमोदे नहि. (स के०) सः एटले ते (निरकू के०) निकुः एटले साधु कहेवाय डे.॥४॥ __(दीपिका.) अथौदे शिकादिपरिहारेण त्रसस्थावरपरिहारमाह । यस्मात् कृतौदेशिकादौ त्रसस्थावराणां त्रसानां हीन्द्रियादीनां स्थावराणां च पृथिव्यादीनां जीवानां वधनं हननं नवति । किं त्रसस्थावराणाम् । पृथिवीतृणकाष्ठनिःसृतानाम् । तथा समारम्नात् । यस्मादेवं तस्मात्कारणादौदेशिकं कृतादि । अन्यच्च सावद्यं यो न जुड़े। न केवलमेतत् । किंतु । यः खयं न पचति । नाप्यन्यैः पाचयति । नाप्यन्यं पाचयन्तं समनुजानाति । स निकुः॥४॥ (टीका.) औदेशिकादिपरिहारेण त्रसस्थावरपरिहारमाह । वहणं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । वधनं हननं त्रसस्थावराणां हीन्यादिपृथिव्यादीनां नवति कृतौद्देशिके । किंविशिष्टानाम् । पृथिवीतृणकाष्ठनिःसृतानां तथा समारम्नात् । यस्मादेवं तस्मादौदेशिकं कृताद्यन्यच्च सावद्यं न नुतेन केवलमेतत् । किंतु ।नापि पचति खयम्। न पाचयति परैर्न पचन्तमनुजानाति यः । स निकुरिति सूत्रार्थः॥४॥ रोश्अ नायपुत्तवयणे, अत्तसमे मन्निऊ प्पि काए॥ पंच य फासे महत्वयाई, पंचासवसंवरे जे स निस्कू॥५॥ (अवचूरिः) रोचयित्वा विधिग्रहणनावनाच्यां प्रियं कृत्वा ज्ञातपुत्रवचनमात्मसमानान्मन्यते षडपि कायान् पृथिव्यादीन् । चशब्दोऽप्यर्थः।पश्चापि स्पृशति सेवते महाव्रतानि पञ्चाश्रवसंवृतश्च यः स निकुरिति ॥५॥ (अर्थ.) वली रोश्न इत्यादि सूत्र. (जे के०) यः एटले जे ( नायपुत्तवयणे के० ) ज्ञातपुत्रवचनं एटले श्री महावीर स्वामीना वचन प्रत्ये (रोश्य के०) रोचयित्वा एटले विधिपूर्वक ग्रहण प्रमुख करवाथी पोताने प्रिय एबुं करीने (पंचासवसंवरे के०) पश्चास्त्रवसंवृतः एटले पांच अव्यें जियोने वशमां राखनारा एवा थया बता (बपि के०) षडपि एटले बए (काए के) कायान् एटले जीवनिकाय प्रत्ये (अत्तसमे के०) आत्मसमान् एटले पोताना जीव सरखा एवा (मन्निऊ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. के० ) मन्यते एटले माने, ( य के०) च एटले वली (पंच के ) पञ्च एटले प्राणातिपातविरमण प्रमुख पांच ( महत्वया के०) महाव्रतानि एटले महाव्रत प्रत्ये (फासे के ) स्पृशति एटले सेवे. ( स के० ) सः एटले ते ( जिस्कू के०) जिगुः एटले साधु कदेवाय बे. ॥५॥ (दीपिका.) यः साधुः षडपि पृथिव्या दिजीवनिकायानात्मसमान् मन्यते । किं कृत्वा । ज्ञातपुत्रवचनं रोचयित्वा । ज्ञातपुत्रो महावीरदेवस्तस्य वचनं विधिग्रहणासेवनाच्यां प्रियं कृत्वा । पुनर्यः पञ्चापि महाव्रतानि स्पृशति सेवते । पुनर्यः पञ्चाश्रवसंवृतो नवेत् । स निकुः ॥५॥ (टीका.) किंच। रोश्श त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। रोचयित्वा विधिग्रहणनावनाच्यां प्रियं कृत्वा। किं तदित्याह। शातपुत्रवचनं नगवन्महावीरवर्धमानवचनम्। आत्मसमानात्मतुल्यान्मन्यते षडपि कायान् पृथिव्यादीन् । पञ्च चेति च शब्दोऽप्यर्थः । पञ्चापि स्पृशति सेवते महाव्रतानि । पञ्चास्रवसंवृतश्च व्यतोऽपि पञ्चेन्जियसंवृतश्च यः स निकुरिति सूत्रार्थः॥५॥ चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी दविऊ बुध्वयणे॥ अदणे निकायरूवरयए, गिहिजोगं परिवङए जे स भिकू ॥६॥ - (श्रवचूरिः) चतुरः क्रोधादीन् कषायान् वमति तत्प्रतिपदसेवनेन । ध्रुवयोगी चोचितयोगवांश्च भवति । बुझ्वचन शति तृतीयार्थे सप्तमी । अधनश्चतुष्पदादिरहितः। निर्जातरूपरजतो निर्गतसुवर्णरूप्यः । गृहियोगं मूर्बया गृहस्थसंबन्धं परिवजयति यः । स निहुरिति ॥६॥ (अर्थ.) वली चत्तारि इत्यादि सूत्र. (जे के०) यः एटले जे (चत्तारि के) चतुरः एटले क्रोध प्रमुख चार ( कसाए के०) कषायान् एटले कषाय प्रत्ये (सया के०) सदा एटले सर्व काल ( वमे के०) वमति एटले त्याग करे, वली जे (बु. सवयणे के०) बुद्धवचने एटले तीर्थकरना वचनने निषे (धुवजोगी के० ) ध्रुवयोगी एटले निश्चल योगवाला अर्थात् आगम वचनने अनुसरीने मन वचन कायाना योगने स्थिर राखनारा, (श्रहणे के०) अधनः एटले चोप/ जानवर प्रमुख धनवडे रहित एवा, (निझायरूवरयए के०) निर्जातरूपरजतः एटले सोनुं तथा रूपुं विगेरेनो त्याग करनारा एवा ( हविऊ के० ) जवति एटले होय . तेमज जे (गिहिजोगं के०) गृहियोगं एटले मूर्नाथी गृहस्थनी साथे जे परिचय तेने (परिवजाए Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशमाध्ययनम् । ६२३ ho ) परिवर्जयति एटले सर्व प्रकारे बोडे. ( स के० ) सः एटले ते ( जिरकू के ० ) निक्षुः एटले साधु कहेवाय बे. ॥ ६ ॥ ( दीपिका . ) किंच | यः साधुश्चतुरः क्रोधादीन् कषायान सदा सर्वकालं वमति त्यजति । पुनर्यो ध्रुवयोगी जवति । उचित नित्ययोगान् स्यात् । केन । बुद्धवचनेन ती - करवचनेन करणनूतेन । तृतीयार्थे सप्तम्यत्र । किंभूतः साधुः । अधनः । चतुष्पदा दिरहितः । पुनः किंभूतः साधुः । निर्जातरूपरजतः । निर्गतवर्णरूप्य इति जावः । पुनर्यो गृहियोगं मूर्बया गृहस्थसंबन्धं परिवर्जयति सर्वैः प्रकारैः परित्यजति यः । स निक्षुः ॥ ६॥ ( टीका. ) किं च चत्तारि ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । चतुरः क्रोधादीन् वमति तत्प्रतिपक्षाभ्यासेन सदा सर्वकालं कषायान् । ध्रुवयोगी चोचितनित्ययोगवांश्च नवति । बुद्धवचन इति तृतीयार्थे सप्तमी । तीर्थकरवचनेन करणनूतेन ध्रुवयोगी वति यथागममेवेति भावः । अधनश्चतुष्पदादिरहितः । निर्जातरूपरजतो निर्गतसुवर्णरूप्य इति जावः । गृहियोगं मूर्तया गृहस्थसंबन्धं परिवर्जयति सर्वैः प्रकारैः परित्यजति यः । स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ दु सम्मद्दिी सया मूढे, चि नाणे तवे संजमे ॥ तवसा घुइ पुराणपावगं, मणवयकाय सुसंधु जे सनि ॥ ७ ॥ ( अवचूरिः ) सम्यग्रह ष्टिः सदाविप्लुतः सन्नेवं मन्यते । अस्ति ज्ञानं देयोपादेय विषयमतीन्द्रियेष्वपि । तपश्च बाह्याभ्यन्तररूपम् । संयमो नवकर्मानुपादानरूपः । वं च दृढावस्तपसा धुनोति पुराणं पापं मनोवाक्कायसुसंवृतो यः । स निकुरिति ॥ ७ ॥ (अर्थ) तेमज सम्म दिठी इत्यादि सूत्र. ( जे के० ) यः एटले जे ( सम्म दिघी के० ) सम्यग्दृष्टिः एटले जावसम्यक्त्वदृष्टि एवा तथा ( सया के० ) सदा एटले निरंतर ( मूढे के० ) मूढः एटले कोइ प्रकारनो पण चित्तमां विद्वेष न राखनारा एवा थया बता एम माने. शुं माने ते कहे बे. ( हु के० ) निश्चये ( नाणे के० ) ज्ञानं एटले हेय तथा उपादेय वस्तु संबंधी ज्ञान, ( तवे के० ) तपः एटले कर्मरूप मल धोइ नाखवाने शुद्ध जलसमान एवं तप ( ा के० ) च एटले वली ( संजमे ho ) संयमः एटले जेथी नवुं कर्मबंधन न थाय एवो संयम ( ० ) - स्ति एटले बे. एम जे माने. तथा ( मणवयकायसुसंबुदे के० ) मनोवचनकाय सुसंवृतः एटले मनोगुप्ति, वचनगुति ने कायगुप्ति ए त्रणे गुप्तिने बराबर साचवनारा For Private Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)- मा. एवा जे ( तवसा के ) तपसा एटले तपस्या वडे ( पुराणपावगं के० ) पुराणपापकं एटले पूर्वे उपार्जन करेला पाप कर्मने ( धुणइ के० ) धुनोति एटले आत्मदेशमांथी खंखेरी नाखे, ( स के० ) सः एटले ते ( जिरकू के० ) निक्कुः एटले साधु कवा . ॥ ७ ॥ ( दीपिका . ) पुनराह । यः साधुः सम्यग्दृष्टिः जावसम्यग्दर्शनी । पुनः सदामूढः सदा विप्लुतः सन्नेवं मन्यते । अस्त्येव ज्ञानं देयोपादेयविषयमतीन्द्रियेष्वपि । तथा तपश्च त्येव बाह्याभ्यन्तरकर्ममलापयने पानीयसदृशम् । तथा संयमश्च नवकमनुपादानरूपः । इयं च दृढजावो यस्तपसा धुनोति पुराणं पापं जावसारया प्रवृत्या | पुनर्यो मनोवचनकायेषु संवृतः । कोऽर्थः । तिसृनिर्गुप्तिनिर्गुप्तः । स निक्कुः ॥७॥ I ( टीका. ) तथा सम्मद्दिहि त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । सम्यग्रह ष्टिर्नावसम्यदर्शनी सदा मूढोऽविप्लुतः सन्नेवं मन्यते । अस्त्येव ज्ञानं हेयोपादेय विषयमतीन्द्रिroad | तपश्च बाह्याभ्यन्तरकर्ममलापनयनजलकल्पम् । संयमश्च नवकर्मानुपादानलक्षणः । श्वं च दृढजावस्तपसा धुनोति पुराणपापं जावसारया प्रवृत्त्या मनोवाक्कायसंवृत स्ति निर्गुति निर्गुप्तो यः । स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ तदेव असणं पाणगं वा, विविदं खाइमसाइमं लनित्ता ॥ दोही हो सुए परे वा, तं न निदे न निहावए जे स निकू ॥ ८ ॥ ( वचूरिः) तथैवेति पूर्वर्षिविधानेन । अशनं पानं वा । विविधमनेकप्रकारं खाद्यं स्वाद्यं लब्ध्वा प्राप्य जविष्यत्यर्थः कार्यं श्वः परश्वो वेति तदशनादि न निधत्ते न स्थापयति । न निधापयत्यन्यैः । स्थापयन्तमन्यं नानुजानाति यः सर्वथा सन्निधि - परित्यागवान् । स निकुरिति ॥ ८ ॥ ( .) वली तदेव इत्यादि सूत्र. ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज ( जे के० ) यः एटले जे ( असणं के० ) अशनं एटले अशन, ( पाणगं के० ) पानकं एटले पीवाय एवी जल प्रमुख वस्तु, ( वा वि के० ) वापि एटले तेमज (विविदं के०) विविधं एटले विविध प्रकारनुं (खाइम के०) खाद्यं एटले खाद्य वस्तुप्रत्येने (साइमं के० ) स्वाद्यं एटले स्वादिम प्रत्ये ( लनित्ता के० ) लब्ध्वा एटले पामीने ( सुए के० ) श्वः एटले आवती काले ( वा के० ) अथवा ( परे के० ) परश्वः एटले परम दिवसे ( हो के० ) अर्थः एटले प्रयोजन ( खप ) ( दोही के ० ) जविष्यति एटले थशे. एमविचारी ( तं के० ) तत् एटले ते अशन प्रमुख चार प्रकारना श्राहार प्रत्ये For Private Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके दशममध्ययनम् । ६२५ ( न निहे के० ) न निधत्ते एटले राखी मूके नहि. तेमज ( न निहावए के० ) न निधापयति एटले बीजा पासे रखावे नहि. ( स के० ) सः एटले ते ( जिरकू के० ) जितुः एटले साधु कहेवाय बे ॥ ८ ॥ ( दीपिका . ) किं । तथैव पूर्वसाधुवत् । श्रशनं पानकं च पूर्वोक्तस्वरूपम् । तथा विविधमनेकप्रकारं खाद्यं स्वाद्यं च पूर्वोक्तस्वरूपमेव । लब्ध्वा प्राप्य । किमित्याह । जविष्यत्यर्थः प्रयोजनमनेनेति श्वः परश्वो वेति तदशनादि न निधत्ते न स्थापयति स्वयम् । तथा न निधापयति न स्थापयति श्रन्यैः । तथा स्थापयन्तमन्यं नानुजानाति यः सर्वथा संनिधिपरित्यागवान् स निकुः ॥ ८ ॥ I ( टीका. ) तदेव असणं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । तथैवेति पूर्वर्षिविधानेन । अशनं पानं च प्रागुक्तखरूपम् । तथा विविधमनेकप्रकारं खाद्यं स्वाद्यं च प्रागुक्तस्वरूपमेव लब्ध्वा प्राप्य । किमित्याह । जविष्यत्यर्थः प्रयोजनमनेन श्वः परश्वो वेति तदशनादि न निधत्ते न स्थापयति स्वयम् । तथा न निधापयति न स्थापयत्यन्यैः । स्थापयन्तमन्यं नानुजानाति यः सर्वथा संनिधिपरित्यागवान् स निक्कुरिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ तदेव असणं पाएगं वा, विविदं खाइमसाइमं लनित्ता ॥ बंदिच्य सादम्मियाण मुंजे, मुच्चा सप्नायरए जे स निकू ॥ ए ॥ ( श्रवचूरिः ) तथैवासनादिकं लनेत प्राप्नुयात् । बन्दित्वा निमन्त्र्य समानधार्मिकान् साधून् मुङ्क्ते । मुक्त्वा च स्वाध्यायरतश्च यः स निकुरिति ॥ ए॥ ( अर्थ. ) वली तदेव इत्यादि सूत्र. ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज ( जे के० ) यः एटले जे ( असणं के० ) अशनं एटले अशन, ( पाएगं के० ) पानकं एटले पान, ( वावि के० ) वापि एटले तेमज ( विविहं के० ) विविधं एटले अनेक प्रकारनं (खाइम के० ) खाद्यं एटले खादिम ने (साइमं के० ) स्वाद्यं एटले स्वादिम प्रत्ये ( लजित्ता के० ) लब्ध्वा एटले पामीने ( साह मिश्रण के० ) समानधार्मिकान् एटले बीजा साधु प्रत्ये (दि के० ) दिवा एटले बुलावीने पढ़ी (मुंजे के०) मुझे एटले जोजन करे. अने ( मुच्चा के० ) नुक्त्वा एटले जोजन करीने ( सप्लायर के० ) स्वाध्यायरतः एटले स्वाध्याय करवामां तत्पर थाय, ( स के० ) सः एटले ते ( जिस्कू के० ) निक्षुः एटले साधु कहेवाय बे ॥ ॥ ( दीपिका . ) किंच । तथैव यः साधुः श्रशनं पानं च विविधं खाद्यं स्वाद्यं च लब्ध्वा इत्या दिव्याख्या पूर्ववत् । लब्ध्वा किमित्याह । बन्दित्वा निमन्त्र्य समानधार्मि ७९ For Private Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. कान् । जुते खात्मतुल्यत्वात् वात्सल्यसिझे। जुक्त्वा च स्वाध्यायरतश्च नवेत् । चशब्दाछेषानुष्ठानपरश्च स्यात् । स निकुः ॥ ए॥ (टीका.) किंच।तहेव त्ति सूत्रम्। अस्य व्याख्या। तथैवाशनं पानं च विविधं खाद्य खाद्यं च लब्ध्वेति पूर्ववत् । लब्ध्वा किमित्याह । बन्दित्वा निमन्त्र्य समानधार्मिकान् साधून् जुङ्क्ते खात्मतुल्यतया तहात्सल्य सिद्धेः । तथा जुक्त्वा खाध्यायरतश्च यः । चशब्दाछेषानुष्ठानपरश्च यः । स निकुरिति सूत्रार्थः॥ए॥ न य वुग्गदिअं कदं कहिका, न य कुप्पे निहुदिए पसंते॥ संजमधुवजोगजुत्ते, जवसंते उवदेडए जे स निस्कू ॥१०॥ (श्रवचूरिः) न च वैग्रहिकी कलहसंबज्ञां कथां कथयति । सहादकथादिष्वपि न कुप्यति परस्य । अपितु निनृतेन्द्रियोऽनुझतेन्जियः। प्रशान्तोऽस्तरागादिः । संयमे ध्रुवं योगेन मनोवाग्योगलक्षणेन युक्तः । उपशान्तोऽनाकुलः कायचापलादिरहितः। अविहेठको न क्वचिदौचित्येऽनादरवान् यः स निकुरिति ॥१०॥ (अर्थ.) वली साधुना अधिकारमांज कहे . णय इत्यादि सूत्र. (जे के०) यः एटले जे (वुग्गहिरं के०) वैग्रहिकी एटले कलहवाली (कहं के०) कथां ए. टले कथा प्रत्ये (न य कहिजा के०) नच कथयति एटले कहे नहि. तेमज सारी वात करता पण जे (नय कुप्पे के०) नच कुप्यति एटले कोप न करे. पण जे (निहृदिए के०) निजतेन्द्रियः एटले जेमना इंडियो उहत नथी एवा, (पसंते के०) प्रशान्तः एटले राग द्वेषादिवडे रहित एवा, (संजमधुवजोगजुत्ते के०) संयमध्रुवयोगयुक्तः एटले संयमने विषे सर्वकाल मन वचन कायाए उचित प्रवृत्ति करनारा ए. वा, (जवसंते के०) उपशान्तः एटले आकुलतारहित एवा तथा (थविहेडए के०) अविहेठकः एटले उचित कार्यनो अनादर न करनार एवा होय. (स के०) सः एटले ते ( जिस्कू के०) निकुः एटले साधु कहेवाय ले. ॥१०॥ (दीपिका.) अथ निकुलक्षणाधिकार एवाह । यः साधुर्वैग्रहिकी कलहप्रति. बड़ा कथां न कथयति । पुनर्यः सहादकथादिष्वपि न कुप्यति परस्य । अपितु यो निनृतेन्जियोऽनुजतेन्जियो नवेत् । पुनर्यः प्रशान्तो रागादिरहित एवास्ते । तथा संयमे पूर्वोक्तखरूपे ध्रुवं सर्वकालं योगेन कायवाग्मनःकर्मलक्षणेन युक्तः प्रतिनेदमौचित्येन प्रवृत्तः । तथा य उपशान्तः अनाकुलः कायचापलादिरहितः। पुनर्यो Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । ६२७ विदेवकः न क्वचिचितेऽनादरवान् । न क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये । इनूतः स निक्षुः ॥ १० ॥ ( टीका. ) निकुलक्षणाधिकार एवाह । नयत्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । न च वैहिकी कलप्रतिबद्धां कथां कथयति । सझादकथादिष्वपि न कुप्यति परस्यापितु निचृतेन्द्रियो ऽनुद्धतेन्द्रियः प्रशान्तो रागादिरहित एवास्ते । तथा संयमे पूर्वोके भुवं सर्वकालं योगेन वाङ्मनः कायलक्षणेन योगेन युक्तो योगयुक्तः प्रतिनेदमौचित्येन प्रवृत्तेः । तथा उपशान्तोऽनाकुलः कायचापला दिरहितः । श्रविदेवकः न क्वचिचितेनादरवान् । क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये । य इवंभूतः स निक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोस पदारतजणान् य ॥ जयनेरवसदसप्पदासे, समसुददुकस दे जे स निस्कू ॥ ११ ॥ ( अवचूरिः ) यः सहते ग्रामा इन्द्रियाणि तद्दुःखहेतून कंटकान् । तानेवाद | श्राक्रोशान् जकारादिनिः । प्रहारान् कशादिनिः । तर्जनामसूयादिनिः । नैरवजया अत्यन्तजयानकाः शब्दाः सप्रहासा यत्र स्थान इति गम्यम् । वेताला दिकृतार्त्तनादाहहास इत्यर्थः । अत्रोपसर्गेषु सत्सु समसुख दुःखसहश्च योऽचालितसामायिकनावः स निकुरिति ॥ ११ ॥ ( अर्थ. ) वली जो सह इत्यादि सूत्र ( जो के० ) यः एटले जे ( गामकंटए के० ) ग्रामकंटकान् एटले इंडियाने कंटक समान दुःखना यापनार एवा ( अक्कोसपहारतऊपार्ट के० ) आक्रोशप्रहारतर्जना: एटले याक्रोश ते तुछकारी वचन, प्र हार ते कशा ( चाबक ) प्रमुख वडे ताडना श्रने तर्जना ते मत्सरना वचन प्रत्ये ( के० ) च एटले वली (जयनेरवसदसप्पहासे के० ) जैरवजयशब्दप्रहासे एटले अतिशय करा जयने उपजावनारा, अट्टहास सहित एवा वेतालादिकना शब्द ज्यां बे एवा स्थानकने विषे ( जे के० ) यः एटले जे ( समसुहडुकसदे के० ) समसुख दुःखसदः एटले समताथी सुखदुःखने समान गणनारा एवा होय. ( स के० ) सः एटले ते ( जिरकू के० ) निक्कुः एटले साधु कदेवाय बे. ॥ ११ ॥ ( दीपिका . ) किंच । यः साधुः सम्यक् ग्रामकंटकान् सहते । ग्रामा इन्द्रियाणि तेषां दुःखहेतवः कंटकास्तान् । स्वरूपत एवाह । श्राक्रोशान् प्रहारान् तर्जनाश्चेति । तत्र आक्रोशा जकारादिनिः । प्रहाराः कशादिजिः । तर्जना असूयादिनिः । तथा नैरवजया श्रत्यन्तरौद्रनयजनकाः शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते । For Private Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६श्न राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तथा तस्मिन् । वेतालादिकृतार्त्तनादाट्टहास इत्यर्थः । अत्र उपसर्गेषु सत्सु समसुखफुःखसहश्च योऽचलितसमताजावः स निनुः ॥ ११॥ (टीका.) किंच । जो सहश् ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। यः खलु महात्मा सहते सम्यग्ग्रामकंटकान् । ग्रामा इन्द्रियाणि तदुःखहेतवः कंटकास्तान् । खरूपत एवाह । थाक्रोशान् प्रहारान् तर्जनाश्चेति । तत्राकोशो यकारादिनिः । प्रहाराः कशादिनिः । तर्जना असूयादिनिः। तथा नैरवजया अत्यन्तरौउजयजनकाः शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते । तत्तथा तस्मिन् । वेतालादिकृतार्त्तनादादृहास इत्यर्थः । अत्रोपसर्गेषु सत्सु समसुखपुःखसहश्च यः अचतितसामायिकलावःस निकुरिति सूत्रार्थः॥११॥ पडिमं पडिवडिआ मसाणे, नो नायए नयनेरवाई दिअस्स ॥ विविदगुणतवोरए अनिच्चं, न सरीरं चानिकंखए जे स निस्कू॥२२॥ (अवचूरिः) एतदेव स्पष्टयति । प्रतिमा मासादिरूपां प्रतिपद्य स्मशानेऽपि । न बिनेति जयं न याति । जैरवनयानि दृष्ट्वा विविधगुणतपोरतः। नित्यं मूलगुणाद्यनशनादिसक्तश्च न शरीरमनिकापते निःस्पृहतया वार्त्तमानिकं नावि च य छनूतः स निकुरिति ॥१२॥ (अर्थ.) एज स्पष्ट करे . पडिमं इत्यादि सूत्र. (जे के०) यः एटले जे (मसाणे के ) स्मशाने एटले स्मशानने विषे (पडिमं के० ) प्रतिमां एटले मास प्रमुख अवधिवाली प्रतिमा प्रत्ये (पडिवजिया के० ) प्रतिपद्य एटले विधि माफक अंगीकार करी रह्या पली (जयन्नेरवाई के० ) नयनरवानि एटले घणा नयने जत्पन्न करनार एवा वेताल प्रमुखना रूपादिक प्रत्ये ( दिवस के ) दृष्ट्वा एटले जोइने (नो नायए के०) नो बिन्नेति एटले नय न पामे. (श्र के०) च एटले वली ( निच्चं के० ) नित्यं एटले नित्य ( विविहगुणतवोरए के) विविधगुणतपोरतः एटले मूलगुण प्रमुख विविध प्रकारना गुण अने उपवास प्रमुख तपस्याने विषे रत ए. वा जे (सरीरं के) शरीरं एटले शरीरनी पण ( न अनिकंखए के०) नाजिकाश्ते एटले आकांदा, श्चा, स्पृहा राखे नहि, अर्थात् शरीर उपर बिलकूल ममता राखे नहि. ( स के) सः एटले ते (निस्कू के०) निकुः एटले साधु कहेवाय बे१५ (दीपिका.) एतदेव स्पष्टयति । यः साधुः श्मशाने प्रतिमा मासादिरूपां प्रतिपद्य विधिनाङ्गीकृत्य न बिन्नेति न नयं प्राप्नोति । किं कृत्वा । जैरवनयानि दृष्ट्वा । Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । दए रोज्नयहेतूनुपलभ्य वेतालादिशब्दादीनि । किंजूतः साधुः । विविधगुणतपोरतः । नित्यं मूलोत्तरगुणेषु अनशनादितपसि च सक्तः सर्वकालं न शरीरमनिकाङ्क्षते । निस्पृहतया वार्त्तमानिकं नावि च । य छनूतः स निकुः ॥ १५ ॥ (टीका.) एतदेव स्पष्टयति । पडिमं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। प्रतिमा मासादिरूपां प्रतिपद्य विधिनाङ्गीकृत्य स्मशाने पितृवने न बिन्नेति न जयं याति । नैरवजयानि दृष्ट्वा रौसजयदेतूनुपलच्य वेतालादिरूपशब्दादीनि । विविधगुणतपोरतश्च नित्यं मूलगुणाघनशनादिसक्तश्च सर्वकालं न शरीरमनिकांदते निःस्पृहतया वार्त्तमानिकं जावि च । य नूतः स निकुरिति सूत्रार्थः॥१२॥ असई वोसच्चत्तदेहे, अकुठे व दए लूसिए वा॥ पुढविसमे मुणी हविज्जा, अनिआणे अकोउदले जे स निस्कू ॥१३॥ (श्रवचूरिः) न सकृदसकृत् सर्वदैवेत्यर्थः । किमित्याह । व्युत्सृष्टो अव्यनावप्रतिबन्धाभ्यां त्यक्तो विजूषाकरणेन देहो येन स तथाविधः । आक्रुष्टो वा जकाराद्यैः । हतो वा दमाद्यैः । लूषितः खगादिनिः। नदितोवा श्वशृगालादिना । ष्ट. थिवीसमः सर्वसहो जवति मुनिरनिदानो जावफलाशारहितः। अकुतूहलो नटादिषु । य एवंजूतः स निकुरिति ॥ १३ ॥ (अर्थ.) वली असशं इत्यादि सूत्र. एटले जे (असई के०) असकृत् एटले सर्व कालने विषे ( वोसच्चत्तदेहे के० ) व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः एटले व्युत्सृष्ट ते जेना उपर राग द्वेष नथी एवो तथा त्यक्त ते जेनानपर श्रानूषण पहेरवानुं वयु बे एवो ने देह जेमनो एवा (जे के० ) यः एटले जे ( मुणी के०) मुनिः एटले मुनि जे ते (अकुठे के०) आक्रुष्टः एटले कठगेर तुबकारी एवा वचनथी हणायला एवा, ( व के) व एटले अथवा (हए के० ) हतः एटले दंडादिकवडे ताडना पामेला एवा, (व के०) वा एटले अथवा (लूसिए के०) लूषितः एटले खगादिक वडे कपायला एवा होय तो पण ( पुढविसमे के०) पृथ्वीसमः एटले पृथिवी जेम सर्व सहन करे ने तेम सर्वे पुःखने समताथी सहन करनारा एवा ( हविजा के०) नवति एटले होय. तथा जे (अनिथाणे के०) अनिदानः एटले निया' न करनार एवा, तेमज (अकोउहले के०) अकौतूहलः एटले नृत्य नाटक प्रमुख जोवानी जेमने श्वा नथी एवा होय, (स के०) सः एटले ते (निस्कू के०) निकुः एटले साधु कहेवाय बे. ॥१३॥ (दीपिका.) पुनराह । यो मुनिः पृथिवीसमो नवेत् । पृथिवीवत् सर्वसहः स्यात् । Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. न पुनारागादिना पीड्यते । किंभूतो मुनिः । असकृत् व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः । असकृत् सर्वदा व्युत्सृष्टो जावप्रतिबन्धाभावेन त्यक्तो विभूषाया करणेन देहः शरीरं येन स तथाविधः । पुनः आकुष्टो वा जकारादिना । दतो वा दकादिना । लूषितो वा खड्गादिना । दितो वा शृगालादिना । किंनूतो मुनिः । श्रनिदानः नाविफलस्य वाञ्वारहितः । पुनः अकुतूहलश्च नटादिषु य एवंभूतः स निदुः ॥ १३ ॥ ( टीका. ) स ति सूत्रम् । न सकृदसकृत्सर्वदेत्यर्थः । किमित्याह । व्यु सृष्टत्यक्तदेदः । व्युत्सृष्टो जावप्रतिबन्धाजावेन त्यक्तो विभूषाकरणेन देहः शरीरं येन स तथाविधः । श्राकुष्टो वा यकारादिना हतो वा दएमा दिना लूषितो वा खङ्गादिना नक्षितो वा श्वश्रृगालादिना पृथिवीसमः सर्वसहो मुनिर्भवति । न रागादिना पीड्यते । तथा निदानो जाविफलाशंसारहितः । अकुतूहलश्च नटादिषु । य एवंनूतः स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ मिनू कारण परीसदाई, समुन्दरे जाइपदान अप्पयं ॥ वित्तु जाईमरणं महप्रयं तवे रए सामलिए जे स निस्कू ॥ १४ ॥ ( श्रवचूरिः ) अभिनूय पराजित्य परीषहान् समुद्धरत्युत्तारयति जातिपथात्संसारादात्मानं विदित्वा जातिमरणं संसारमूलं महाजयं तपसि च रतः श्रामण्ये श्रमसंबन्धिनि ॥ १४ ॥ (अर्थ) साधुनुं स्वरूप कहेवाना अधिकारमांज कहे बे. मिनू इत्यादि सूत्र. (जे के० ) यः एटले जे ( कारण के० ) कायेन एटले शरीर वडे ( परीसहाई के० ) परीषदान् एटले परीषद प्रत्ये ( अनि के० ) अनिनूय एटले जीतीने ( श्रप्यं के० ) श्रात्मानं एटले पोताने ( जाइपहाउ के० ) जातिपथात् एटले संसारमार्गथी ( समुद्धरे के० ) समुद्धरेत् एटले उद्धार करे. तथा ( जाश्मरणं के० ) जातिमरणं एटले जन्ममरण रूप संसारमूलने ( महप्रयं के० ) महाजयं एटले म - हाजयकारी एवाने ( विश्तु के० ) विदित्वा एटले जाणीने ( सामलिए के० ) श्राम एटले साधुने योग्य एवा ( तवे के० ) तपसि एटले तपस्याने विषे ( रए के० ) रतः एटले आसक्त थाय. ( स के० ) सः एटले ते ( जिस्कू के० ) निक्कुः एटले साकवाय बे. १४ ॥ ( दीपिका . ) निक्षुस्वरूपा निधानाधिकार एवाह । यो मुनिः कायेन शरीरेण न मनोवचनान्यामेव सिद्धान्तनीत्या परीषदान जिनूय पराजित्य श्रात्मानं जाति For Private Personal Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । ६३१ पथात् संसारमार्गात् समुझरत्युत्तारयति। किं कृत्वा। जातिमरणं संसारमूलं विदित्वा। किं जातिमरणम् । महालयं महाजयकारणम् । किंनूतो मुनिः। तपसि रतः । तपःकरणतत्परः। किंजूते तपसि । श्रामण्ये श्रमणानां संबन्धिनि शुझे । स निनुः ॥ १४ ॥ (टीका.) निकुस्वरूपानिधानाधिकार एवाह । अनि ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्रनिनूय परा जित्य कायेन शरीरेणापि न निकुसिझान्तनीत्या मनोवागन्यामेव । कायेनाननिनवे तत्त्वतस्तदनभिजवात् । परीषहान् हुदादीन् ।समुकरत्युत्तारयति । जातिपथात्संसारमार्गादात्मानम् । कथमित्याह । विदित्वा विज्ञाय जातिमरणं संसारमूलं महानयं महाजयकारणं तपसि रतः सक्तः । किंजूत इत्याह । श्रामण्ये श्रमणानां संबन्धिनि । शुभ ति नावः । य एवंनूतः स नितुरिति सूत्रार्थः॥१४॥ हबसंजए पायसंजए, वायसंजए संजदिए॥ अन्नप्परए सुसमादिअप्पा, सुत्तबं च विआण जे स निस्कू॥२५॥ (श्रवचूरिः) हस्तसंयतः पादसंयतः कारणं विना कूर्मवहीन श्रास्ते। कारणे च यतनया प्रयुङ्क्ते । वासंयतोऽकुशलवाग्निरोधात् । संयतेन्जियो निवृत्तविषयप्रसरः। अध्यात्मरतः प्रशस्तध्यानासक्तः । सुसमाहितात्मा ध्यानापादकगुणेषु सूत्रार्थं च यथावस्थितं जानाति यः। स निकुः॥ १५ ॥ (अर्थ.) तेमज हब इत्यादि सूत्र. (जे के०) यः एटले जे (हबसंजए के) हस्तसंयतः एटले कारण विना हाथ हलावे चलावे नहि एवा, (पायसंजए के) पादसंयतः एटले कारण विना पगने पण हलावे चलावे नहि एवा, (वायसंजए के०) वाक्संयतः एटले कारण पडे निर्दोष वाणी बोले, नहि तो मौन राखे एवा, (संजदिए के० ) संयतेन्जियः एटले सर्वे इंजियोने वशमां राखनार एवा, ( अन्नप्परए के०) अध्यात्मरतः एटले शुजध्यानने चितवनार एवा अने (सुसमा हथप्पा के०) सुसमाहितात्मा एटले गुणोने विषे दृढ ने श्रात्मा जेमनो एवा होय . ( च के०) अने ( सुत्त के०) सूत्रार्थं एटले सूत्रने तथा अर्थने यथार्थपणे ( विश्राण के० ) विजानाति एटले जाणे. ( स के०) सः एटले ते ( जिस्कू के० ) निकुः एटले साधु कदेवाय . ॥ १५ ॥ - (दीपिका.) पुनराह । यः साधुईस्तसंयतः पादसंयत इति कारणं विना कूर्मवहीन आस्ते । कारणे च सम्यग्गठति । तथा यो वाक्संयतः अकुशलवचन Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवाहाना ६३२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. निरोधात् । कुशलवचनस्य चोदीरणेन । किंनूतः साधुः। संयतेन्द्रियः निवृत्तविषयप्रसरः। पुनः किंजूतः साधुः । अध्यात्मरतः प्रशस्तध्यानासक्तः । पुनः किंजूतः साधुः। सुसमाहितात्मा । ध्यानापादकगुणेषु सुतरां स्थापितात्मा। पुनर्यः सूत्रार्थं यथावस्थितं विधिग्रहणशुरूं विजानाति । एवंचूतः स निकुः ॥ १५ ॥ (टीका.) तथा हब ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। हस्तसंयतः पादसंयत इति कारणं विना कूर्मवलीन थास्ते । कारणे च सम्यग्गति । तथा वाक्संयतः अकुशलवाग्निरोधकुशलवायुदीरणेन । संयतेन्जियो निवृत्तविषयप्रसरः। अध्यात्मरतः प्रशस्तध्यानासक्तः। सुसमाहितात्मा ध्यानापादकगुणेषु । तथा सूत्रार्थं च यथावस्थितं विधिग्रहणशुई विजानाति यः सम्यग्यथाविषयं स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ जवहिंमि अमुडिए अगिछे, अन्नायचंबं पुलनिप्पुलाए॥ कयविक्कयसंनिदिन विरए, सवसंगावगए अ जे स निकू ॥१६॥ (अवचूरिः) उपधौ वस्त्रादिलक्षणेऽमूर्बितस्तद्विषयमोहत्यागेन अगृहः प्रतिबन्धाजावेन अज्ञातोञ्छ चरति । पुल निप्पुलाकः संयमासारतापादकदोषरहितः । क्रय विक्रयसन्निधिन्यो विरतः । अव्यत्नावनेदनिन्नक्रय विक्रयपर्युषितस्थापनेच्यो निवृत्तः। सर्वसंगापगतश्च गतऽव्यजावसंगश्च यः स जितुः ॥ १६ ॥ (अर्थ.) तेमज उवहिं इत्यादि सूत्र. (जे के ) यः एटले जे ( उवहिं मि के०) उपधौ एटले वस्त्र, पात्र प्रमुख उपधिने विषे (अमुछिए के) अमूर्बितः एटले मूबर्ग न राखनारा एवा, (अगिके के०) अगृहः एटले को पण ठेकाणे प्रतिबंध न होवाथी आसक्तिरहित एवा, (अन्नायगंडं के०) अज्ञातोंडं एटले परिचय न होय त्यां जावथी शुद्ध एवा आहारादिकने स्तोकमात्र ग्रहण करनारा एवा, ( पुलनिप्पुलाए के० ) पुलाकनिःपुलाकः एटले चारित्रने असारता उत्पन्न करनार दोषथी रहित एवा, ( कयविक्कयसं निहि विरए के०) क्रयविक्रयसंनिधिविरतः एटले खरीदवू, वेच अने संग्रह करवो एवडे रहित एवा तथा ( सवसंगावगए केस) सर्वसंगापगतः एटले व्यसंग तथा जावसंगनो परित्याग करनारा एवा होय . (स के०) सः एटले ते ( निरकू के०) निदुः एटले साधु कहेवाय . ॥१६॥ __ (दीपिका.) पुनराह । यः साधुरझातोञ्जं चरति । जावशुद्धं स्तोकं स्तोकमित्यर्थः। स निकुः । किंनूतः साधुः । उपंधौ वस्त्रादिलक्षणेऽमूर्धितः तद्विषयमोहत्यागेन। पुनः किनूतः साधुः।अझःप्रतिबन्धानावेन पुलकः। पुल समुये।पुलतीति पुलकः। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके दशममध्ययनम् । ६३३ चारित्रगृद्धत्वात् । समुच्छ्रितः । पुनः किं० साधुः । निःपुलाकः । संयमस्य असारतोत्पादका ये दोषास्तै रहितः । पुनः किंभूतः साधुः । क्रयविक्रयसंनिधिज्यो विरतः । प्रव्यजावनेद जिन्नक्रयविक्रयपर्युषितस्थापनेज्यो निवृत्तः । पुनः किंभूतः साधुः । सर्वद्रव्यजावसंगरहितः ॥ १६ ॥ ( टीका. ) तथा वहिंमि ति सूत्रम् । उपधौ वस्त्रादिलक्षणेऽमूर्जितस्तद्विषयमोह त्यागेनागृद्धः प्रतिबन्धानावेन । अज्ञातोञ्छं चरति जावपरिशुद्धम् । स्तोक मित्यर्थः । पुलाक निःपुलाक इति संयमासारतापादकदोषरहितः । क्रयविक्रयसंनिधियो विरतः । द्रव्यजावनेद निन्नक्रयविक्रयपर्युषितस्थापनेच्यो निवृत्तः । सर्वसंगापगतश्च यः अ पगतद्रव्यजावसंगश्च यः । स निक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ लोलनिकून रसेसु गिप्ने, जंबं चरे जीविच्यनानिकखी ॥ इहिं च सकारण पूयणं च चए ठिप्पा अणि जे स निरकु ॥ १७ ॥ ( अवचूरिः ) किंच । छालोलो नाम नाप्राप्तप्रार्थकः । निक्षुः साधुर्न रसेषु गृद्ध उञ् चरति । पूर्वमुपधिमाश्रित्योक्तम् । इहत्वाहारविषयमिति न पौनरुक्तत्यम् । असं जीवितं ना निकाङ्क्षते । रुद्धिमामर्षोषध्या दिम् । सत्कारं वस्त्रादिनिः । पूजनं स्तवनादिना । त्यजति । नैतदर्थमेव यतते । स्थितात्मा ज्ञानादिषु । अनिजोऽमायो यः ॥ १७ ॥ ( अर्थ. ) वली अलोल इत्यादि सूत्र. ( जे के० ) यः एटले जे ( अलोल के० ) अलोलः एटले श्रप्राप्त वस्तुनी प्राप्तिने अर्थे लोलुपता न राखनारा, ( जिरकू के० ) निकुः एटले चमरनी पेठे चमण करी निक्षावृत्तिथी पोतानो निर्वाह करनारा तथा (रसेसु के०) रसेषु एटले मलेली अशन प्रमुख वस्तुने विषे पण ( न गिद्धे के० ) न गृद्धः एटले आसक्ति राखता नथी. तेमज जे ( जंढं के० ) उञ्छं एटले अपरिचित गृहस्थाने घरे किंचित् मात्र आहार प्रमुख ग्रहण करवा रूप जंब प्रत्ये ( चरे के० ) चरति एटले करे. तथा ( जी विश्र के० ) जीवितं एटले संयमरहित जीवितने (नाकिंखे के० ) नाजिकाङ्क्षते एटले इछे नहि. तेमज ( डिप्पा के० ) स्थितात्मा एटले ज्ञानादिकने विषे पोतानुं मन लयलीन राखनारा तथा ( अणि हे के० ) निजः एटले माया ( कपट ) रहित एवा जे ( इट्ठि के० ) रुद्धिं एटले लब्धि प्रमुख शद्धि प्रत्ये ( च के० ) पुनः ( सकारण के० ) सत्कारं एटले वस्त्र, पात्र प्रमुखनी प्रातिरूप सत्कार प्रत्ये ( च के० ) ने ( पूणं के० ) पूजनं एटले स्तुति करवा प्रमुख पूजन For Private Personal Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रत्ये ( चए के० ) त्यजति एटले त्याग करे, अर्थात् एनी अपेदा न राखे, (स के०) सः एटले ते ( निस्कू के० ) निकुः एटले साधु कहेवाय . ॥ १७॥ __(दीपिका.) पुनः किंच। यो निकुरुवं चरति नावोञ्चं सेवत इति पूर्ववत्। नवरम् । तत्रोपधिमाश्रित्योक्तम् । इह त्वाहारमाश्रित्येति न पुनरुक्तिदोषः । तथा यो जीवितमसंयमजीवितं न अनिकाङ्क्षते न वाञ्चति । य शर्मि चामर्षोषध्यादिरूपां तथा सकारं वस्त्रादिनिः। तथा पूजनं च स्तवादिना त्यजति । न एतदर्थमेव यतते । स्थितात्मा ज्ञानादिषु।पुनः किंनूतो निकुः।अनिनो मायारहितः। पुनः किंग निदुः। अलोलो. ऽप्राप्तप्रार्थनातत्परो न । पुनर्यो रसेषु न गृको न प्रतिबकः । स निकुर्नवति ॥ १७ ॥ (टीका.) किंच।अलोल त्ति सूत्रम्।अस्य व्याख्या। अलोलो नाम नाप्राप्तप्रार्थनपरो निकुः साधुन रसेषु गृधः।प्राप्तेष्वप्यप्रतिबद्ध इति नावः। उञ्चं चरति । नावोजमेवेति पूर्ववत् ।नवरम्। तत्रोपधिमाश्रित्योक्तमिह त्वाहारमित्यपौनरुत्यम् । तथा जीवितं नानिकाङ्क्षतेऽसंयमजीवितम् । तथा शर्मि चामर्षोषध्यादिरूपां सत्कारं वस्त्रादिनिः पूजनं च स्तवादिना त्यजति । नैतदर्थमेव यतते । स्थितात्मा झानादिषु । अनिन श्त्यमायो यः स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ न परं वश्कासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पिऊ न तं वश्ता॥ जाणिअ पत्तेअं पुन्नपावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स निस्कू ॥१७॥ (श्रवचूरिः) न परं खव्यतिरिक्तं वदत्ययं कुशीलस्तदप्रीत्यादिदोषप्रसङ्गात् । खविनेयं तु शिक्षाग्रहणबुड्या वदत्यपि । येनान्यः कुप्यति न तहदेदोषसनावेऽपि । कथम् । ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं नान्यसम्बन्ध्यन्यस्य नवति अग्निदाहवेदनावत् । एवं सत्वपि गुणेषु नात्मानं समुत्कर्षति। न स्वगुणैर्गर्वमायाति यः। स निकुः॥१७॥ (अर्थ.) वली न परं इत्यादि सूत्र. (जे के०) यः एटले जे ( परं के०) परं एटले श्रापणा शिष्यवर्गथी अथवा आपणा संघाडाथी जिन्न एवा को साधु प्रमुखने ( अयं के०) श्रयं एटले ा ( कुसीले के० ) कुशीलः एटले कुशीलियो जे एम (न वजा के०) न वदति एटले कहे नहि. तथा (अन्न के०) अन्यः एटले थापणा शिष्यसमुदायथी अथवा आपणा संघाडाथी जूदा एवा को साधु प्रमुख जे ते (जेण के०) येन एटले जेवडे (कुपिज के०) कुप्यति एटले कोप करे, (तं के०) तत् एटले ते वचन प्रत्ये (न वजा के०) न वदति एटले कहे नहि. बता पारका दोष केम न बोलवा ए शंका दूर करे .( पुनपावं के० ) पुण्यपापं Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३५ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । एटले जीवे करेलुं पुण्य तथा पाप ( पत्तेअं के०) प्रत्येकं एटले जे करे तेनेज जोगव पडे . बीजाने जोगवq पडतुं नथी. ए वात ( जाणिव के०) ज्ञात्वा एटले जाणीने कोश्ने क्रोध थाय एवं वचन न बोले. तथा पोतामां गुण बतां पण (अप्पाणं के०) श्रात्मानं एटले पोताने (न समुकसे के०)न समुत्कर्षति एटले श्रेष्ठ न माने. अर्थात् “ हुँ केवो गुणी ढुं" एवो गर्व न करे. (स के० ) सः एटले ते ( निस्कू के) निकुः एटसे साधु कहेवाय . ॥ १७ ॥ (दीपिका.) तथा यः परं खपद शिष्येन्यो व्यतिरिक्तमयं कुशील इति न वदति । तदने च अप्रीतिदोष उत्पद्यते । स्वपद शिष्यं तु शिक्षाग्रहणबुड्या वदत्यपि। पुनर्येनान्यः कश्चित् कुप्यति । न तद् यो ब्रवीति दोषसन्नावेऽपि । किमित्याह । ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं नान्यसंबन्ध्यन्यस्य नवति । अग्निदाहवेदनावत् । एवं सत्स्वपि गुणेषु श्रात्मानं यो न समुत्कर्षति । न स्वगुणैर्गर्वमायाति स निकुः ॥ १७ ॥ (टीका.) तथा न परं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। न परं स्वपक्षविनेयव्यति. रिक्तं वदत्ययं कुशीलस्तदप्रीत्यादिदोषप्रसङ्गात् । स्वपदविनेयं तु शिक्षाग्रहणबुड्या वदत्यपि । सर्वथा येनान्यः कश्चित् कुप्यति । न तद् ब्रवीति दोषसनावेऽपि । किमित्यत थाह । हात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं नान्यसंबन्ध्यन्यस्य नवति । अग्निदाहवेदनावत् । एवं सत्वपि गुणेषु नात्मानं समुत्कर्षति । न खगुणैर्गर्वमायाति यः स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ न जाश्मत्ते न य रूवमत्ते, न लानमत्ते न सुएण मत्ते ॥ नयाणि सवाणि विवऊश्त्ता, धम्मप्नाणरए जे स निस्कू ॥१०॥ (अवचूरिः) मदप्रतिषेधमाह । न जातिमत्तो यथाहं ब्राह्मण इत्यादि । न रूपमा तोऽहं रूपवान् । न लानमत्तोऽहं लाजवान् । न श्रुतमत्तोऽहं परिमतः । अनेन कुलमदादिपरिग्रहः। एतदेवाह । मदान् सर्वान् विवर्य परित्यज्य धर्मध्यानरतो यो यथायोगं तत्र सक्तः स निकुः ॥ १५ ॥ (अर्थ.) साधुए मद न करवो एज कहे . न जाइ इत्यादि सूत्र. (जे के०) यः एटले जे (जाश्मत्ते के०) जातिमत्तः एटले 'हुँ जातिवंत बुं' एवो गर्व धारण करनारा (न के०) नथी होता. (रूवमत्ते के० ) रूपमत्तः एटले 'हुँ सारो रूपवंत डं' एवो गर्व धारण करनारा ( न के०) नश्री होता. ( लालमत्ते के०) लालमत्तः Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. एटले 'मने लान सारो थाय बे एवो गर्व धारण करनारा न के० ) नथी होता. ( ० ) च एटले वली जे ( सुश्रमत्ते के० ) श्रुतमत्तः एटले ' हुं पंडित बुं ' एवो गर्व धारण करनारा ( न के० ) नथी होता. तथा जे ( सव्वाणि के० ) सर्वान् एटले सर्वे ( मया के० ) मदान् एटले मदने ( विवश्त्ता के० ) विवर्ज्य एटले वजने ( धम्मप्राणरए के० ) धर्मध्यानरतः एटले धर्मध्यानने विषे यासक्त थाय बे. ( स ho ) सः एटले ते (जिरकू के० ) निक्षुः एटले साधु कहेवाय बे ॥ १५ ॥ 0 ( दीपिका. ) मदप्रतिषेधार्थमाह । यः साधुर्जातिमत्तो न जवति । यथाहं ब्राह्मणः । पुनर्यो रूपमत्तो न जवति । यथाहं रूपवानादेयः । पुनर्यो लाजमत्तो न जवति । यथाहं लाजवान् । पुनर्यो न श्रुतमत्तो जवति । यथाहं पतिः । नकुलमदादिपरिग्रहः । तदेवाह । मदान् सर्वानपि कुलादिविषयान् विवर्ज्य परि त्यज्य धर्मध्यानरतो जवेत् । स जिहुः ॥ १५ ॥ ( टीका. ) मदप्रतिषेधार्थमाह । ण जाइ ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । न जातिमत्तो यथाहं ब्राह्मणः क्षत्रियो वा । न च रूपमत्तो यथाहं रूपवानादेयः । न लाजमतो यथाहं लब्धिमान् । न श्रुतमत्तो यथाहं पतिः । अनेन कुलमदादिपरिग्रहः । श्रतएवाह । मदान् सर्वान् कुलादिविषयानपि परिवर्ज्य परित्यज्य धर्मरतो हि यो यथागमं तत्र सक्तः स निदुरिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ पवेच्य पयं महासुणी, धम्मे हिन वावयई परं पि ॥ निकम्म वक्तिक कुसीललिंगं, न प्रावि दासंकुदए जे स निकू ॥ २० ॥ ( अवचूरिः ) मदप्रतिषेधमाह । प्रवेदयति कथयति आर्यपदं शुद्धधर्मं महामुनिः । धर्मे स्थितः स्थापयति परमपि श्रोतारम् । निष्क्रम्य श्रारम्नादि कुशील लिङ्गं कुशीलचेष्टितं वर्जयेत् । न चापि हास्यकुहको न हास्यकारीन्द्रजालयुक्तः ॥ २० ॥ (अर्थ. ) वली पवेद इत्यादि सूत्र. ( जे के० ) यः एटले जे ( महामुखी के० ) महामुनिः एटले मुनिराज जे ते ( अपयं के० ) यार्यपदं एटले शुद्धधर्म प्रत्ये परोपकार (पवे के० ) प्रवेदयति एटले कहे. तथा पोते ( धम्मे के० ) धर्मे एटले धर्म विषे (विर्ड के० ) स्थितः एटले रह्या बता ( परं पि के० ) परमपि एटले धर्म श्रवण करनार बीजाने पण ( वावयई के० ) स्थापयति एटले स्थापन करे, अर्थात् धर्मने पमाडे. तेमज जे ( निरकम्म के० ) निष्क्रम्य एटले संसारमांधी नीकलीने (कुसील लिंग के० ) कुशील लिङ्गं एटले आरंभ समारंभ करनार गृहस्थनी Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके दशममध्ययनम् । ६३७ चेष्टा ते विविध प्रकारना आरंभ समारंभ प्रत्ये ( वजित के० ) वर्जयति एटले वर्जे. वली जे (हासंकुए के० ) हास्यकुहकः एटले हास्य उत्पन्न करनार एवी चेष्टा करनावा (a hu ) नचापि एटले होता नथी. ( स के० ) सः सटले ते ( निस्कू ho ) नितुः एटले साधु कहेवाय बे. ॥ २० ॥ ( दीपिका. ) यो महामुनिरार्यपदं शुद्धधर्मपदं परोपकाराय प्रवेदयति कथयति । पुनर्यो धर्मे स्थितः परमपि श्रोतारं धर्मे स्थापयति । पुनर्यो निष्क्रम्य गृहान्निःसृत्य कुशील लिङ्गमारम्भादिना कुशीलचेष्टितं वर्जयति । पुर्नयो हास्यकुहको न जवति । हास्यका रिकुहकयुक्तो न स्यात् । स निक्कुः ॥ २० ॥ ( टीका. ) किंच । पवे त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । प्रवेदयति कथयत्यार्यपदं शुद्धधर्मपदं परोपकाराय महामुनिः शीलवान् ज्ञाता एवंभूत एव वस्तुतो नान्यः । किमित्येतदेव मित्यत श्राह । धर्मे स्थितः स्थापयति परमपि श्रोतारं तत्रादेयजावप्रवृत्तेः । तथा निष्क्रम्य वर्जयति कुशील लिङ्गमा रम्ना दिकुशीलचेष्टितम् । तथा न चापि हास्यकुहको न हास्यका रिकुहकयुक्तो यः । स निक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ तं देवासं सुई सासयं, सया चए निश्चदिया || विंदित्तु जाईमरणस्स बंधणं नवेश भिकू प्रपुणागमं गई ति बेमि ॥ २२ ॥ सनिकुप्रयणं दसमं संमत्तं ॥ १० ॥ ( अवचूरिः ) निक्षुनावफलमाह । एतं देहवासं चारकप्रायमशुचिं शुक्रशोणितोङ्गवत्वादिनाशाश्वतं प्रतिक्षणपरिणत्या सदा त्यजति ममत्वत्यागेन नित्यहि मोक्षसाधने सम्यग्दर्शनादौ स्थितात्मा अत्यन्तं सुस्थितः । स एवंभूत वित्त्वा जातिमरणस्य संसारस्य कारणमुपैति सामीप्येन गच्छति । निकुर्यतिरपुनरागमां नित्यां जन्मादिरहितामित्यर्थः । गतिं सिद्धिगतिं ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २१ ॥ इत्यवचूरिकायां व्याख्यातं दिवध्ययनम् ॥ १० ॥ ( .) हवे साधुपणानुं फल कहे बे. तं देहवासं इत्यादि सूत्र. ( निच्च हि - sho ) नित्य हित स्थितात्मा नित्यहित एटले मोहना कारणभूत जे समकित प्रमुख तेने विषे जेनो श्रात्मा दृढ रह्यो बे एवा ( जिरकू के‍ ) जितुः एटले पूर्वोक्त प्रकारना साधु जे ते ( सुई के० ) अशुचिं एटले शुक्र शोषितथी उत्पन्न थवा प्रमुख कारणथी अपवित्र एवा, तथा ( असासयं के० ) अशाश्वतं एटले जेने विसता वार न लागे एवा, ( तं के० ) एतं एटले सर्वने प्रत्यक्ष देखाता एवा (दे For Private Personal Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. हवासं के० ) देहवासं एटले शरीर रूप बंदीखानाने (सया के) सदा एटले निरंतर (चए के०) त्यजति एटले त्याग करे बे. अर्थात् शरीर उपरनो राग बोडे . तथा (जाश्मरणस्स के०) जातिमरणस्य एटले जन्म मरणना (बंधणं के०) बन्धनं एटले बंधन प्रत्ये (बिंदित्तु के ) बित्वा एटले बेदीने (अपुणागमं के०) अपुनरागमां एटले जेथी पाबु श्रावतुं नथी एवी (गई के०) गतिं एटले गति प्र. त्ये ( उवेश के०) उपैति एटले पामे डे. ( तिमि के०) इति ब्रवीमि एटले तीर्थकर गणधरना उपदेशथी हुँ एम कहुं बु. ॥२१॥ इति श्रीदशवैकालिकबालावबोधे सनिलु नामक दसमुं अध्ययन संपूर्ण. ॥ १० ॥ (दीपिका.) अथ निकुन्जावस्य फलमाह। निहुरेवंविधो गतिं सिडिगतिमुपैति गछति। किंजूतां गतिम् । अपुनरागमां पुनर्जन्मादिरहिताम्। किं कृत्वा। जातिजरामरणस्य बन्धनं बित्वा । पुनर्जिकुर्देहवासं सदा त्यजति ममतात्यागेनैतं प्रत्यदेणोपलन्यमानम्। किंजूतं देहवासम्।अशुचि शुक्रशोणितमयत्वात्। किंनूतं देहवासम्।अशाश्वतं प्रतिक्षणं दीयमाणत्वात् । किंचूतो निकुः। नित्यहिते मोक्षसाधने सम्यग्दर्शनादौ स्थितात्मा अत्यन्तं सुस्थितः । इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥१॥ इति श्रीदशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ सनिकुनामकं दशममध्ययनं समाप्तम् ॥१०॥ (टीका.) निकुजावफलमाह । तं देह त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । तं देहवासमित्येनं प्रत्यदोपलन्यमानं चारकरूपं शरीरावासमशुचिं शुक्रशोणितोङ्गवत्वादिना। अशाश्वतं प्रतिक्षणपरिणत्या सदा त्यजति ममत्वानुबन्धत्यागेन । क इत्याह । नित्यहिते मोक्षसाधने सम्कग्दर्शनादौ स्थितात्मात्यन्तसुस्थितः। स चैवंचूतश्वित्त्वा जातिमरणस्य संसारस्य बन्धनं कारणमुपैति सामीप्येन गति जिकुर्यतिरपुनरागमा पुनर्जन्मादिरहितामित्यर्थः । गतिमिति सिलिगतिम् । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः॥२॥ उक्तोऽनुगमो नयाः पूर्ववत् । इति व्याख्यातं सजिवध्ययनम् ॥ १०॥ इति श्रीहरिजजसूरिविरचितायां श्रीदशवैकालिकबृहकृत्तौ दशममध्ययनम् ॥ १०॥ अथ चूलिके। इद खलु नो पवश्एणं नष्पन्नउकेणं संजमे अरश्समावन्नचित्तेणं नहाणुप्पेदिणा अगोदाइएणं चेव दयरस्सिगयंकुसपोयपडागानूआई इमाई अहारस गणाई सम्मं संपडिलेदिवाइंनवंति॥ (अवचूरिः)अथ चूले आरज्येते।अनयोः संबन्धःपूर्वाध्ययने निकु गुणयुक्तो निहुरि Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका। त्युक्तम्।स चैवंजूतोऽपि कदाचित्कर्मणो बलवत्त्वात् सीदेत्। तस्थिरीकरणार्थमाहाह प्रवचने।खबुशब्दोऽवधारणे।स चात्र ज्ञेयः।नो थामन्त्रणे। प्रवजितेन साधुना उत्पन्नपुःखेन संजातशीतादिशारीरस्त्रीनिषद्यादिमानसपुःखेन संयमे प्रायुक्ते अरतिसमापन्नचित्तेन उठेगगतानिप्रायेण श्रवधानोत्प्रेदिणा। अनवधावितेनैवानुत्प्रवजितेनैवामूनि वदयमाणानि अष्टादश स्थानानि सम्यग्नावसारं सम्यक् प्रत्युपेदितव्यानि सुष्टु अष्टव्यानि । जवन्तीति योगः। तान्येव अष्टादश स्थानानि विशेष्यन्ते । हयरश्मिगजाङ्कुशपोतपताकातुल्यानि । यथाश्वादीनामुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां रश्म्याद्या नियमनहेतवः। तथैतान्यपि संयमापुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां जव्यसत्त्वानामिति । यतश्चैवमतः सम्यक् संप्रत्युपेदितव्यानि भवन्ति ॥ (अर्थ.) हवे चूलिका शरु थाय जे. एनो पूर्वोक्त अध्ययननी साथे संबंध श्रा रीते . दशमा अध्ययनमा साधुना गुण जेमां होय तेज साधु कहेवाय डे' एम कह्यु. हवे ते साधु एवा होय तो पण जीव कर्मना अधीन होवाथी तथा कर्म घणुंज बलिष्ठ होवाथी कदाच शिथिलचारित्री थाय, तो तेने धर्मने विषे स्थिर करवो, माटे ए बे चूलिका कहेवाय . श्ह खबु नो इत्यादि सूत्र. (जो के०) नोः एटले हे शिष्यो ! ( उप्पमपुरकेण के०) उत्पन्नपुःखेन एटले उत्पन्न थयुं बे शरीर संबंधी अथवा मन संबंधी फुःख जेने एवा, तेथीज (संजमे के०) संयमे एटले सत्तर प्रकारना संयमने विषे (थरसमावन्नचित्तणं के०) अरतिसमापन्नचित्तेन एटखे केटाली गयु बे चित्त जेनुं एवा, माटेज (उहाणुप्पे हिणा के०) अवधानोत्प्रेक्षिणा एटले संयमनो त्याग करवानी श्वा करनार एवा पण (श्रणोहाइएणं चेव के०) अनवधावितेन चैव एटले हजी सुधी दीदानो त्याग कस्यो नथी एवाज (श्ह के०)श्ह एटले श्रा जैनशासनने विषे ( पवश्एणं के० ) प्रव्रजितेन एटले दीक्षा लीधेल साधुए ( हयरस्तिगयंकुसपोयपडागा के०) हयरश्मिगजाङ्कशपोतपताकानूतानि एटले श्रश्वने जेम लगाम, गजने जेम अंकुश अथवा जहाजने जेम पताका (डोलकाठी) ते सरखा (श्मा के०) इमानि एटले आ (अहारस के) अष्टादश एटले अढार (गणा के० ) स्थानानि एटले स्थानकोने ( सम्म खलु के० ) सम्यक् खलु एटले सम्यक् प्रकारेज (संपडिलेहिवाश् के०) संप्रत्युपेदितव्यानि एटले विचार करवा योग्य एवा (जवंति के०) नवन्ति एटले .॥ (दीपिका.) व्याख्यातं सनिकुनामकं दशममध्ययनम् । अथ चूमाख्यमारज्यते । अस्य चायमजिसंबन्धः । पूर्वाध्ययने निकुगुणा उक्ताः। स च निकुरेवंचूतोऽपि Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. कदाचित्कर्मवशात्कर्मबलाच्च सीदेत्ततस्तस्य निदोः स्थिरीकरणं कर्त्तव्यम् । तदर्थ चूडाध्यं कथ्यते । इह खलु नोः प्रवजितेन साधुना । इह खलु प्रवचने निश्चयेन जो इति आमन्त्रणे । अमूनि वदयमाणानि अष्टादश स्थानानि सम्यक् प्रकारेण संप्रत्युपेदितव्यानि सुष्टु आलोचनीयानि नवन्तीत्युक्तिः । किंनूतान्यष्टादश स्थानानि । हयरश्मिगजाङ्कशपोतपताकानूतानि । श्रश्वख लिनगजाङ्कशबोहिबसितपटतुल्यानि । श्रयं परमार्थः । यथा हयादीनामुन्मार्गप्रवृत्तिं वाळतां रश्म्यादयो नियमनदेतवस्तथैतान्यपि संयमाऽन्मार्गप्रवृत्तिं वाचतां जव्यजीवानामपि नियमनहेतवः । यतश्चैवमतः सम्यक् प्रत्युपेदितव्यानि जवन्ति । किंजूतेन साधुना । उत्पन्नडुःखेन संजातशीतादिशारीरस्त्रीनिषद्यादिमानसःखेन । पुनः किंजूतेन । संयमे पूर्ववर्णितस्वरूपे धरतिसमापन्नचित्तेन उठेगगतानिप्रयेण संयमान्निर्वि. मनावेन इत्यर्थः । पुनः किंजूतेन । श्रवधानोत्प्रेक्षिणा । अवधानमपसरणं संयमापुप्राबल्येन प्रेदितुं शीलं यस्य स तेन अवधानोत्प्रेक्षिणा उत्प्रवजितुकामेनेत्यर्थः। पुनः किंजूतेन । अनवधावितेनैव अनुत्प्रवजितेनैव ॥ (टीका.)श्रधुनौघतश्शूडे श्रारन्येते।अनयोश्चायमनिसंबन्धः।हानन्तराध्ययने निकुगुणयुक्त एव निकुरुक्तः। स चैवंचूतोऽपि कदाचित् कर्मपरतन्त्रत्वात् कर्मणश्च बलवत्त्वासीदेदत एतस्थिरीकरणं कर्त्तव्यमिति तदर्थाधिकारवचूडाध्यमनिधीयते । तत्र चूडाशब्दार्थमेवानिधातुकाम थाह ॥ दवे खेत्ते काले, नावम्मि थ चूलियाय निकेवो ॥ तं पुण उत्तरतंतं, सुअगहिथळ तु संगहणी ॥ २६ ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापने हुमत्वादनादृत्याह । व्ये देने काले नावे च अव्यादिविषयश्चडाया निक्षेपो न्यास इति । तत्पुनश्रूडाध्यमुत्तरतन्त्रमुत्तरसूत्रम् । दशवैकालिकस्याचारपञ्चचूडावत् । एतच्चोत्तरतन्त्रं श्रुतगृहीतार्थमेव । दशवैकालिकाख्यश्रुतेन गृहीतोऽर्थोऽस्येति विग्रहः । यद्येवमपार्थकमिदम् । नेत्याह । संग्रहणी तमुक्तानुक्तार्थसंदेप इति गाथार्थः ॥ अव्यचूडा दिव्या चिख्यासयाह ॥ दवे सञ्चित्ताई, कुक्कुडचूडामणीमऊराश् ॥ खेत्तंमि लोगनिकुड-मंदरचूडा थ कूडाइ ॥२७॥ व्याख्या ॥ अव्य इति । अव्यचूडा थागमनोयागमज्ञशरीरेतरा दिव्यतिरिक्ता त्रिविधा सचित्ताद्या । सचित्ता अचित्ता मिश्रा च । यथासंख्यमाह। कुकुटचूडा सचित्ता । मणिचूडा अचित्ता। मयूरशिखा मिश्रा । क्षेत्र इति । क्षेत्रचूडा लोकनिष्कुटा उपरिवर्तिनः । मन्दरचूडा घ पाएमकम्बला। चूडादयश्च तदन्यपर्वतानां क्षेत्रप्राधान्यात् । श्रादिशब्दादधोलोकस्य सीमन्तकः । तिर्यग् लोकस्य मन्दर अवलोकस्येषत्प्राग्नार इति गाथार्थः॥ ॥ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका। ६४२ अरित्त अहिगमासा, अहिगा संवचरा अ कालंमि ॥ नावे खवसमिए, श्मा उ चूमा मुणेश्रवा ॥ २७ ॥ व्याख्या ॥ अतिरिक्ता उचितकालात् समधिका अधिकमासकाः प्रतीताः । अधिकाः संवत्सराश्च षष्ट्याब्दाद्यपेक्षया काल इति कालचूडा। नाव इति नावचूडा दायोपशमिके जावे। श्यमेव हिप्रकारा चूडा मन्तव्या विझेया दायोपशमिकत्वान्तस्येति गाथार्थः ॥ तत्रापि प्रथमा रतिवाक्यचूडा। अस्याश्चानुयो. गधारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्ने निदेपे रतिवाक्येति छिपदं नाम तत्र रतिनिक्षेप उच्यते । तत्रापि नामस्थापने अनादृत्य अव्यनावरत्यनिधित्सयाह । दवे उहा उ कम्मे, नोकम्मरई श्र सहदवा ॥ नावरई तस्सेव ज, उदए एमेव अरई वि ॥ए ॥ व्याख्या ॥ अव्यरतिरागमनोभागमझशरीरेतरातिरिक्ता हिंधा कर्मअव्यर तिर्नोकर्मव्यरतिश्च । तत्र अव्यकर्मरतीरतिवेदनीयं कर्म । एतच्च बहमनुदयावस्थं गृह्यते । नोकर्मजव्यरतिस्तु शब्दादिजिव्याणि । श्रादिशब्दात् स्पर्शादिपरिग्रहः । रतिजनकानि रतिकारणानि । जावरतिस्तस्यैव तु रतिवेदनीयस्य कर्मण उदये जवति । एवमेवार तिरपि व्यत्नावनेदनिन्ना यथोक्तरतिप्रतिपदतो विझेयेति गाथार्थः ॥ उदाहृता रतिरिदानी वाक्यमतिदिशन्नाह ॥ वकं तु पुवनणिरं, धम्मे रश्. कारगाणि वकाणि ॥ जेणं मिमीए तेण, रश्वके सा हवश् चूमा ॥३०॥ व्याख्या ॥ वाक्यं तु पूर्वजणितं वाक्यशुध्यध्यध्यनेऽनेकप्रकारमुक्तं धर्मे चारित्ररूपे रतिकारकाणि रतिजनकानि च वाक्यानि येन कारणेनास्यां चूडायां तेन निमित्तेन रतिवाक्यैषा चूडा रतिकर्तृणि वाक्यानि यस्यां सा रतिवाक्येति गाथार्थः ॥ इह च रत्य निधानं सम्यक्सहनेन गुणकारिणीत्वोपदर्शनार्थम् । श्राह च ॥जह नाम आउरस्सिह, सीवणसु कीरमाणेसु ॥ जंतणमपछकुछा-मदोस विरई हिथकरी उ ॥३१॥ व्याख्या ॥ यथा नामेति प्रसिझमेतत् । आतुरस्य शरीरसमुद्रेन आगन्तुकेन वा व्रणेन ग्लानस्य श्ह लोके सीवनदेषु सीवनछेदकर्मसु क्रियमाणेषु सत्सु । किमित्याह । यन्त्रणं गलयन्त्रादिना अपथ्यकुत्सा अपथ्यप्रतिषेध बामदोषविरतिरजीर्णदोषनिवृत्तिः। हितकारिण्येव विपाकसुन्दरत्वादिति गाथार्थः ॥ दार्शन्तिकयोजनामाह ॥ अहविहकम्मरोगा-उरस्स जीअस्स तह तिगिछाए ॥ धम्मे रई अधम्मे, अरई गुणकारिणी हो ॥३॥ व्याख्या ॥ अष्टविधकर्मरोगातुरस्य ज्ञानावरणीयादिरोगेण नावग्लानस्य जीवस्यात्मनः । तथा तेनैव प्रकारेण चिकित्सायां संयमरूपायां प्रक्रान्तायामस्नानलोचादिना पीडालावेऽपि धर्मे श्रुतादिरूपे रतिरासक्तिरधर्मे तछिपरीतेऽरतिरनासक्तिर्मुणकारिणी नवति निर्वाणसाधकत्वेनेति गाथार्थः ॥ एतदेव स्पष्टयति ॥ सनाय ८१ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह,नाग तेतालीस-(४३)-मा. संजमतवे, वेश्रावच्चे श्र काणजोगे श्र॥ जो रमई नो रमई, असंजमम्मि सो वच्चई सिकिं ॥ ३३ ॥ व्याख्या ॥ स्वाध्याये वाचनादौ संयमे पृथिवीकायसंयमादौ तपसि अनशनादौ वैयावृत्त्ये चाचार्यादिविषये ध्यानयोगे च धर्मध्यानादौ यो रमते स्वाध्यायादिषु सक्त श्रास्ते । तथा न रमते न सक्त श्रास्तेऽसंयमे प्राणातिपातादौ । स व्रजति सिर्कि गति मोदम् ॥ श्ह च संयमतपोग्रहणे सति स्वाध्यायादिग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥ उपसंहरन्नाह ॥ तम्हा धम्मे रश्का-रगाणि अरश्कारगाणि उ अहम्मे ॥ गणाणि ताणि जाणे, जानणियाई अप्नयणे ॥३४॥ व्याख्या॥ तस्माछमें चारित्ररूपे रतिकारकाणि रतिजनकानि। अरतिकारकाणि चारतिज. नकानि चाधर्मेऽ संयमे स्थानानि तानि वक्ष्यमाणानि जानीयात् । यानि जणितानि प्र. तिपादितानि श्हाध्ययने प्रक्रान्त इति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः। सांप्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादि पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगु. णोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदम् । इह खलु नो इत्यादि । श्रस्य व्याख्या । इह खलु प्रव्रजितेन । इहेति जिनप्रवचने । खखुशब्दोऽवधारणे । स च निन्नक्रम इति दर्शयिष्यामः । जो इत्यामन्त्रणे । प्रव्रजितेन साधुना । किंविशिष्टेनेत्याह । उत्पन्नःखेन संजातशीतादिशारीरस्त्रीनिषद्यादिमानसफुःखेन । संयमे व्यावर्णितखरूपे बरतिसमापन्न चित्तेन उठेगगतानिप्रायेण । संयमनिर्विमजावेनेत्यर्थः। स एव विशेष्यते। श्रवधानोत्प्रेक्षिणा । श्रवधानमपसरणं संयमापुत्प्राबल्येन प्रेदितुं शीलं यस्य स तथाविधस्तेन उत्प्रन जितुकामेनेति जावः । अनवधा वितेनैवानुत्प्रवजितेनैवामूनि वदय. माणलक्षणान्यष्टादश स्थानानि सम्यग् जावसारं संप्रत्युपेक्षितव्यानि सुष्ट्वालोचनीयानि जवन्तीति योगः। अवधावितस्य तु प्रत्युपेक्षणं प्रायोऽनर्थकमिति । तान्येव विशेष्यन्ते। हयर शिमगजाङ्कुशपोतपताकानूतानि । अश्वखलिनगजाकैशबोधिस्थसितपटतुल्यानि । एतमुक्तं नवति। यथा हयादीनामुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां रश्म्यादयो नियमनहेतवस्तथैतान्यपि संयमापुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां नावसत्त्वानामिति। यतश्चैवमतः सम्यक् संप्रत्युपेवितव्यानि भवन्ति । खलुशब्दावधारणयोगात्सम्यगेव संप्रत्युपेदितव्यान्येवेत्यर्थः । तं जदा ॥ दं नोऽस्समाई उप्पजीवी ॥१॥लदुसगा इत्तरिया गिहीणं कामनोगा॥२॥नुको असायबदुला मणुस्सा ॥३॥ इमे अ मे दुरके न चिरकालोवहाई नविस्सई॥४॥नमजणपुरकारे ॥५॥वंतस्स य पडिआयणं ॥ ६॥ अहरगश्वासोवसंपया ॥७॥दुल्लदे खलु नो गिहीणं धम्मे गिदिवासमष्ने Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । वसंताणं ॥८॥ यंके से वहाय होइ ॥ ए ॥ संकप्पे से चढ़ाय होइ ॥ १०॥ सोवक्के से गिढ़वासे । निरुवक्के से परिश्राए ॥ ११ ॥ बंधे गिढ़वासे । मुरके परिचाए ॥ १२ ॥ साव के गिढ़वासे । प्रणव परियार ॥ १३ ॥ बहुसाहारणा गिदी कामजोगा ॥ १४ ॥ पत्ते पुन्नपावं ॥ १५ ॥ णिच्चे खनु जो मका जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले ॥ १६ ॥ बहुं च खलु जो पावं कम्मं पगडं ॥१७॥ पावाणं च खलु जो कडा कम्माएं पुत्रिं 5च्चिन्नाणं डुप्पडिकंताणं वेत्ता मुरको नचिवेश्त्ता तवसा वा कोसत्ता ॥ १८॥ प्रहारसमं पयं नवइ ॥ नवइ इ सिलोगो । अतः ( अवचूरिः ) तद्यथाहं जो इति शिष्यामन्त्रणे । दुःखमायां दुःप्रजीविनः प्रानिः । दुःखेन कृत्रेण प्रकर्षेण जीवितुं शीलाः । छाथ किं गृहाश्रमेणेति । प्रथमं स्थानम् ॥ १ ॥ तथा लघवस्तुषमुष्टिवदसारा इत्वरा अल्पकालीना गृहिणां गृहस्थानां कामजोगा मदनकामप्रधानाः । विपाककटवश्चातः किं गृहाश्रमेणेति द्वितीयं स्थानम् ॥ २ ॥ नूयश्च शातबहुला मनुष्याः । मुक्तेष्वपि जोगेषु पुनरपि सुखा जिला षिणः । किं कामजोगे रिति तृतीयं स्थानम् ॥३॥ इदं च मे दुःखं शारीरमानसं कर्मफलजनितं न चिरकालोपस्थायि जविष्यति न बहुकालावस्थायि जावीत्यतः किं गृहाश्रमेण । चतुर्थं स्थानम् ॥४॥ न्यूनजनपूजा । प्रत्रजितो हि धर्मप्रभावाद्राजादिनिरन्युवानासना अलि जिः पूज्यते । उत्प्रत्र जितेन तु न्यूनजनस्यापि स्वव्यसनगुप्तयेऽन्युछानादि कार्यम् । तः किं गृहाश्रमेण । पञ्चमं स्थानम् ॥५॥ वान्तस्य प्रत्यापानम् । मुक्तोतिपरिजोग इत्यर्थः । षष्ठं स्थानम् ॥ ६ ॥ अधोगतिवासोपसंपत् । अधोगतिर्नरकतिर्यग्गतिस्तस्यां वसनमधोगतिवासः । एतन्निमित्तनूतं कर्म गृह्यते । तस्योपसंपत् सामीप्येनाङ्गीकरणम् । सप्तमं स्थानम् ॥७॥ दुर्लभः खलु जो गृहिणां गृहपाशमध्ये वसतां धर्मः । पाशाः पुत्रकलत्राद्याः ॥ अष्टमं स्थानम् ॥८॥ श्रातङ्कः सद्योघाती विषूचिका दिरोगः । तस्य गृहिणोऽस्तधर्मबन्धोर्वधाय जवति । नवमं स्थानम् ॥ ए ॥ संकल्पः से तस्य गृहिण इष्टानिष्ट वियोगप्राप्तिज्यां वधाय जवतीति चिन्त्यम् । दशमं स्थानम् ॥ १० ॥ सोपक्लेश इति । उपक्लेशाः कृषिपाशुपाल्य वाणिज्याद्यनुष्ठानगताः शीतोष्णश्रमादयः । घृतलवण चिन्ताद्या इति एकादशं स्थानम् ॥ ११ ॥ एजिरेवक्लेशै - रहितः प्रव्रज्या पर्याय इति चिन्त्यम् ॥ द्वादशं स्थानम् ॥ १२ ॥ बन्धो गृहवासः स ६४३ For Private Personal Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. 1 दा तत्वनुष्ठानात् कोशकारकीटवदिति त्रयोदशं स्थानम् ॥ १३ ॥ मोक्षः पर्यायोऽनवरतं कर्म निगडापगमान्मुक्तवदिति चिन्त्यम् । चतुर्दशं स्थानम् ॥ १४ ॥ साaur गृहवासः । प्राणातिपातादिप्रवृत्तेरिति पञ्चदशं स्थानम् ॥ १५ ॥ अनवद्यः पर्यायः । पाप इत्यर्थः । श्रहिंसादिपालनात्मकत्वात् । षोडशं स्थानम् ॥ १६ ॥ बहुसाधारणा गृहिणां कामजोगाः । चौरराजकुला दिसामान्या इति चिन्त्यम् । सप्तदर्श स्थानम् ॥ १७ ॥ प्रत्येकं पुण्यपापमिति मातापितृकलत्रादिनिमित्तमनुष्ठितं यद्येन तत्तस्यैवानुष्ठातुर्नान्यस्येत्यष्टादशं स्थानम् ॥ १८ ॥ एतदन्तर्गतो वृद्धानिप्रायेण शेषग्रन्थः । अन्ये तु व्याचक्षते । सोपक्लेशो गृहवास इत्यादिषु षट्सु स्थानेषु सप्रतिपदेषु स्थानत्रयम् । एवं च बहुसाधारणेति चतुर्दशम् ॥ १४ ॥ प्रत्येक मिति पञ्चदशम् ॥ १५ ॥ श्रनित्यमेव मनुष्याणामप्यायुः कुशाग्रजलबिन्दुवच्चञ्चलं सोपक्रमत्वादल्पसारं तदलं गृहाश्रमेणेति षोडशम् ॥ १६ ॥ बहु खलु पापं कर्म । चशब्दारिकष्टं च । बह्नेव च पापकर्म चारित्रमोहनीयादि निर्वर्त्तितं मयेति गम्यम् । श्रामण्यप्राप्तावप्येवं कुबुद्धिप्रवृत्तेर्न किंचिगृहाश्रमेणेति सप्तदशम् ॥ १७ ॥ पापानां पुण्यानां च कृतानां खलुशब्दः कारितानुमत विशेषणार्थः । योगे स्त्रिभिः पूर्वमन्यनवे दुश्चरितानां प्रमादतश्चरितानाम् । दुःपराक्रान्तानां मिथ्यात्वा विरतिकषायज दुः परिक्रान्तजनितानां डुः पराक्रान्तानामिह दुश्चरितं मद्यपानानृतनाषणादि । दुःपरिक्रान्तानि वधबन्धादीनि । तदेवंभूतानां कर्मणां वेदयित्वा मोक्षो नास्त्यवेदयित्वा । अनेन सकर्मकमोक्षव्यवच्छेदः । तपसा रूपयित्वा । अनशनप्रायश्चित्तादिना तपसा प्रलयं नीत्वा । इह वेदनमुदयप्राप्तस्य व्याधेरिव । अनारब्धस्य क्रमशोऽनन्यनिबन्धनपरिक्लेशेन तपः । रूपणं तु सम्यगुपक्रमेणानुदी पदी रणरूपणवत् । श्रतस्तपोऽनुष्ठानमेव श्रेयो न किं चिहवासेनेत्यष्टादशम् ॥ १८ ॥ श्रत्राष्टादशस्थानव्यतिकर उक्तानुक्तार्थसंग्रहपरः श्लोक इति जातिपरो निर्देश इत्येकवचनम् ॥ ( . ) तं जहा इत्यादि सूत्र. ( तं जहा के० ) तद्यथा एटले ते अढार स्थानका रीते - ( हंजो के० ) हे शिष्यो ! ( दुस्समाइ के० ) दुःखमायां एटले आ अधम दुःखमा कालमां जीवो जे ते ( डुप्पजीवी के० ) दुःप्रजीविनः एटले घणा दुःखथी पोताना जीवित राखनारा एवा बे. अर्थात् दमणां कालदोषथी मोटा राजादिकने पण घणा दुःख जोगववा पडे बे, श्रने सुखोपभोग जोइये तेवा मलता नथी. माटे माठी गतिमां लइ जनार एवो गृहस्थाश्रम या समयमां शुं कामनो ? एवो विचार करो. ए प्रथम स्थान थयुं. ( १ ) या दुःखमा कालने विषे ( गिहिणं के० ) For Private Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६४५ एटले गृहस्थना ( कामजोगा के० ) कामनोगा: एटले कामनोग जे ते ( लदुसगा के० ) लघवः एटले फोतरानी पेठे तुछ छासार बे. अने ( इत्तरिया के० ) इत्वरा: एटले क्षणिक बे. तथा परिणामे कडवा बे. माटे श्र कालमां गृ हस्थाश्रम शुं कामनो ? एवो विचार करवो. ए बीजुं स्थान थयुं. ( २ ) तेमज (जुजो अ के० ) नूयश्च एटले फेर वली दुःखमा कालने विषे ( मणुस्सा के० ) मनुष्याः एटले मनुष्य जे ते (सायबहुला के०) स्वातिबहुलाः एटले घणी माया ( कपट ) करनारा बे, अर्थात् मायाथी घणोज याकरो कर्मबंध थाय बे. माटे गृहस्थाश्रम शाकामनो ? एवो विचार करवो. या त्रीजुं स्थान ययुं. ( ३ ) तेमज (इमेा के० ) इदं च एटले था ( मे के० ) मे एटले मारुं (डुके के०) दुःखं एटले दुःख जे ते ( चिकालो वा के० ) चिरकालोपस्थायि एटले घणा काल सुधी रहेवावालुं एवं (न विस्सइ के० ) न जविष्यति एटले नथी. अर्थात् नरकादि गतिमां जे मे दुःख सह्या बे, तेना प्रमाणमां या संयम पालतां मने जे दुःख थाय बे ते कशी गणतिमां नथी. वली या संयमडुःख खमवाथी कर्मनिर्जरा थाय बे. माटे ए मूकीने गृहस्थाश्रममा शुं सुख बे ? गृहस्थाश्रममां आरंज समारंभ होवाथी नरक प्राप्ति थाय बे. एवो विचार करवो. या चतुर्थ स्थान ययुं. (४) तेमज ( उमजणपुरकारे के०) श्रवमजनपुरस्कारः एटले हलका माणसने पण मान आपवो पडे बे. अर्थात् चारित्री साधुनी तो राजा, मंत्री, श्रेष्ठी प्रमुख लोको वंदनादिक वडे पूजा करे बे, अने चारित्रथी ष्ट एल पुरुषने तो पोतानुं कार्य साधवा माटे हलका माणसनी पण हाजी करवी पडे, तेमज राजा धर्मी होय तो चष्टचारित्रीने वेठ प्रमुख दुःख पहा खमवुं पडे. माटे गृहस्थाश्रममां शुं सुख वे ? एवो विचार करवो. ए पांच स्थान युं. (५) तेमज (वंतस्स के० ) वान्तस्य एटले पूर्वे वमेला, त्याग करेला एवा विषयनुं (पडिश्रायणं के०) प्रत्यापानं एटले फरिथी पान करवुं ए निंद्य बे. अर्थात् एवं arg ए श्वानादि नीच प्राणिनो स्वभाव बे, सत्पुरषो या वातनी निंदा करे बे, तेमज एथी दुःख तथा रोग थाय बे. मे दीक्षाने अवसरे सर्वे कामजोग वम्या बे, हवे जो एं पातुं ग्रहण करीश तो ते एवं खावा समान बे. माटे गृहस्थाश्रम वडे शुंप्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए बहुं स्थान थयुं. ( ६ ) तेमज ( अहरगवासोवसंपया के० ) धरगतिवासोपसंपत् एटले संयमनो त्याग करवाथी नीच गतिने विषे जेथी स्थिति थाय एवा कर्मनुं बंधन थाय बे, के जेथी नारकी तिर्यंच प्रमुख नीच गतिमां जनुं पडे बे. माटे एवा गृहस्थाश्रम वडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए सातमुं स्थान aj . ( 9 ) तेमज (गिहवासमने के०) गृहपाशमध्ये एटले घरमां पासा सरखा स्त्री पुत्र For Private Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. वगेरे परिवारमा ( वसंताणं के० ) वसतां एटले रहेता एवा ( गिहिणं के०) गृहिपां एटले गृहस्थोने प्रमाद घणा होवाथी (धम्मे के ) धर्मः एटले धर्म जे ते (उल्लहे के०) उर्लनः एटले उर्लन . ( खलु के) निश्चये. जो ए शिष्यना आमंत्रणने अर्थे बे. अर्थात् गृहस्थो वगर कारणे एवा स्नेहबंधनमां पडे बे, माटे एवा गृहस्थाश्रमवडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए थाउमुं स्थान थयु. (G) तेमज ( आयंके के० ) आतङ्कः एटले शीघ्र मृत्यु आपे एवो विषूचिका प्रमुख रोग जे ते (से के०) तस्य एटले ते धर्मबंधुरहित एवा गृहस्थना ( वहाय के) वधाय एटले वधने अर्थे ( हो के०) नवति एटले थाय . माटे गृहस्थाश्रमवडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए नवमुं स्थान थयु. (ए) तेमज ( संकप्पे के०) संकल्पः एटले इष्ट वस्तुना वियोगथी श्रने अनिष्ट वस्तुनी प्राप्तिथी मनमां रोग सरखो जे संकल्प विकल्प थाय ने ते ( से के० ) तस्य एटले ते गृहस्थना ( वहाय के०) वधाय एटले वधने अर्थ (होश के०) नवति एटले थाय बे. अर्थात् मिथ्या संकल्प विकल्पथी गृहस्थ पोताना घरनो नाश करे , माटे एवा गृहस्थाश्रम वडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए दशमुं स्थान थयु. (१०) तेमज (गिहिवासे के०) गृहिवासः एटले गृहस्थाश्रम जे ते (सोवकेसे के०) सोपक्लेशः एटले क्लेशवालो ने. अर्थात् गृहस्थाश्रममां खेती, व्यापार प्रमुख सर्वे साधनो घणा फुःखदायी होवाथी तथा घृत लवण विगेरे वस्तुनी चिंता गृहस्थने राखवी पडे बे, तेथी सत्पुरुषो गृहस्थाश्रमने क्वेशवालो गणे . माटे एवा गृहस्थाश्रम वडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए श्रग्यारमुं स्थान थयु. (११) तेमज (परिश्राए के) पर्यायः एटले चारित्र पर्याय जे ते ( निरुवक्केसे के०) निरुपक्लेशः एटले गृहस्थाश्रममां कहेल क्लेश एमां नथी. माटे एवं चारित्र मूकी गृहस्थाश्रम स्वीकारवामां शुं लान ? एवो विचार करवो. था बारमुं स्थान थयु. (१२) तेमज (गिहिवासे के०) गृहिवासः एटले गृहस्थाश्रम जे ते ( बंधे के० ) बन्धः एटले कर्मबन्धन रूप ले. अर्थात् कर्मबन्धन करनारा व्यापार जेमां करवा पडे . एवा गृहस्थाश्रम वडे मने शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए तेरमुं स्थान थयु. (१३) तेमज (परिश्राए के०) पर्यायः एटले चारित्र पर्याय जे ते (मुके के०) मोक्षः एटले कर्मबंधनथी बुडावनार होवाथी मोक्षरूप . माटे गृहस्थाश्रम वडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए चउदमुं स्थान थयु. (१४) तेमज (गिहिवासे के०) गृहिवासः एटले गृहस्थाश्रम जे ते (सावले के०) सावद्यः एटले प्राणातिपात प्रमुख पापस्थानकवालो जे. माटे ए गृहस्थाश्रमवडे मने शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका। ६४७ पंदरमुं स्थानक थयु. ( १५ ) तेमज (परिश्राए के० ) पर्यायः एटले चारित्रपर्याय (श्रणवले के०) अवनद्यः एटले पापरहित . माटे गृहस्थाश्रम वडे शुं प्रयोजन? एवो विचार करवो. ए सोलमुं स्थानक थयुं. (१६) तेमज ( गिहिणं के० ) गृहिणां एटले गृहस्थना ( कामनोगा के० ) कामलोगाः एटले कामनोग जे ते ( बहुसाहारणा के० ) बहुसाधारणाः एटले चोर, जार, राजा विगेरेने सरखा ज बे. माटे एवा गृहस्थाश्रम वडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए सत्तरमुं स्थानक थयु. (१७) तेमज गृहस्थाश्रममां (पुन्नपावं के० ) पुण्यपापं एटले पुण्य पाप जे ते (पत्तेअं के०) प्रत्येकं एटले जे करे तेने . अर्थात् माता, पिता स्त्री इत्यादिकने अर्थे करेलुं पाप जे करे बेतेनेज लागे . (जो के०) अरे ( मणुाण के० ) मनुजानां एटले मनुष्योनुं ( जीविए के०) जीवितं एटले आयुष्य जे ते (अणिच्चे के० ) अनित्यं एटले अनित्य एवं ( खलु के० ) निश्चये . कारण के, ते श्रायुष्य ( कुसग्गजलबिंदुचंचले के०) कुशाग्रजलबिधुचंचलं एटले दर्जेनी अणी उपर रहेला जलबिंदु समान बे. अर्थात् उपक्रम घणा होवाथी आज जलबिंसमान चंचल . (च के०) पुनः (जो के०) अरे! मे (बहुँ के) बहु एटले घणुं (पावं के०) पापं एटले पाप अर्थात् संक्लेशवालुं एवं ( कम्मं खलु के०) कर्म खलु एटले चारित्र मोहनीय प्रमुख कर्म जे ते ज ( पगडं के०) प्रकृतं एटले कखु जे. जेथी चारित्र सीधा परी पण मने एवी कुछ बुछि उत्पन्न थाय जे. (च के०) पुनः ( जो के० ) अरे ( पुविं के०) पूर्व एटले पूर्वे ( कडाणं के ) कृतानां एटले करेला एवा ( पावाणं कम्माणं के) पापानां कर्मणाम् एटले ज्ञानावरणीयादि तथा अशातावेदनीयादि पापकर्मोनुं तथा (सुच्चिमाणं के० ) पुश्चरितानां एटले पूर्वनवे प्रमादकषायादिकना वशथी मद्यपान प्रमुख जे दुष्टकर्म करेला होय तेमनुं तथा (कुप्पडिकंताणं के०) :पराक्रान्तानां एटले मिथ्यात्व, अविरति विगेरेथी प्राणिवध प्रमुख जे कर्म कस्या होय तेमनुं फल (वेश्त्ता खलु के० ) वेदयित्वा खलु एटले लोगव्या पबीज (मुको के ) मोक्षः एटले मोद थाय . पण ( अवेश्त्ता के ) अवेदयित्वा एटले पूर्वोक्त कर्म नोगव्या विना मोक्ष (नवि के०) नास्ति एटले नथी. ( वा के) अथवा पूर्वोक्त कमोंने (तवसा के०) तपसा एटले अनशन प्रमुख तपस्या वडे (जोसश्त्ता के०) पयित्वा एटले खपावीनेज मोद थाय , ते विना थतो नथी. ए (अहारसमं के० ) अष्टादशं एटले अढारमुं ( पयं के०) पदं एटले पद (नवर के०) नवति एटले थाय बे. ॥१॥(च के०) पुनः (अत्र के०) आ अढार स्थानकमां कहेल वात उपर ( सिलोगो के० ) श्लोकः एटले लोक जे ते (नवर के०) नवति एटले बे. Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-४३-मा. अर्थात् श्रढार स्थानमा कहेली तथा न कहेली वातनो संग्रह करनार श्लोक श्रागल कहीशुं ते .॥ (दीपिका.) तत्र प्रथम स्थानकमाह। तद्यथेत्युदाहरणे । हं नो दुःखमायां फुःप्रजीविन इति । हंनो शिष्यामन्त्रणे। फुःखमायामधमकालरूपायां कालदोषादेव फुःखेन कृलेण प्रकर्षेण उदारजोगापेक्षया जीवितुं शीला पुःप्रजीविनः । प्राणिन इति गम्यते । नरेन्द्रादीनामप्यनेकःखप्रयोगदर्शनात् । उदारजोगरहितेन विटम्बनाप्रायेण कुगतिहेतुना किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेकितव्यमिति प्रथमं स्थानम् ॥१॥ श्रथ द्वितीयस्थानमाह । तथा लघव श्त्वरा गृहिणां कामनोगाः । उःखमायामिति व. तते । सन्तोऽपि लघवस्तुलाः प्रकृत्यैव तुषमुष्टिवदसारा इत्वरा अल्पकाला गृहिणां गृहस्थानां कामनोगा मदनकामप्रधानाः शब्दादयो विषया विपाककटवश्च न देवानामिव विपरीताः। श्रतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेदितव्यमिति हितीयं स्थानम् ॥२॥ अथ तृतीयस्थानमाह। तथा नूयश्च शातबहुला मनुष्याः। नुक्तेष्वपिकामनोगेषु पुनरपि सुखानिलाषिण एव मनुष्याः।अतः किं कामनोगैः। संप्रत्युपेदितव्यमिति तृतीयं स्थानम् ॥ ३॥ अथ चतुर्थस्थानमाह । तथा इदं च मे कुःखं न चिरकालोपस्थायि नविष्यति । इदं च श्रनुजूयमानं मम श्रामण्यमनुपालयतो दुःखं शारीरमानसं कर्मफलं परीषहजनितं चिरकालमुपस्थातुं शीलं न नविष्यति । श्रामण्यपालनेन परीषहनिराकरणात् कर्मनिर्जरणात् संयमराज्यस्य प्राप्तिः । इतरथा महानरकादौ विपर्ययः। अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेदितव्यमिति चतुर्थ स्थानम् ॥ ४॥ अथ पञ्चमस्थानमाह । उमजणपुरस्कार इति । न्यूनजनपूजा। प्रत्रजितो हि धर्मप्रनावात् राजामात्यादिनिरन्युबानासनाञ्जलिप्रग्रहादिनिः पूज्यते । उत्प्रवजितेन तु न्यनजनस्यापि स्वव्यसनगुप्तयेऽन्युनानादि कार्यम् । अधार्मिकराजविषये वा वेष्टिप्रायात कुखरकर्मणो नियमत एव इहैव चेदमधर्मफलम् । अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति पञ्चमं स्थानम् । एवं सर्वत्र योजनीयम् ॥ ५ ॥ अथ षष्ठं स्थानमाह । वान्तस्य प्रत्यापानं जुक्तोनितपरिजोग इत्यर्थः। अयं च श्वशृगालादिनुप्राणिजिराचरितः सतां निन्द्यः पुनाधिपुःखजनकः । वान्ताश्च जोगाः प्रव्रज्याङ्गीकरणेन । एतत्प्रत्यापानमेवंचूतमेवं चिन्तनीयमिति षष्ठं स्थानम् ॥६॥ श्रथ सप्तमस्थानमाह । तथा अधोगतिवासोपसंपत् । अधोगतिर्नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्वा तस्यां वसनमधोगतिवासः। एतन्निमित्तनूतं कर्म गृह्यते । तस्योपसंपत् । सामीप्येनाङ्गीकरणं यदेतजुत्प्रव्रजनमेवं चिन्तनीयमिति सप्तमं स्थानम् ॥ ७ ॥श्र Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६४० थाष्टमं स्थानमाह । जो इत्यामन्त्रणे । गृहिणां गृहस्थानां धर्मः परम निर्वृतिजनको डुर्लन एव । किं कुर्वतां गृहिणाम् | गृहपाशमध्ये वसताम् । छात्र गृहशब्देन पाशकपाः पुत्रकलत्रादयो गृह्यन्ते । तन्मध्ये वसतामना दिनवान्यासादकारणं स्नेहब - न्धनमेतच्चिन्तनीय मित्यष्टमं स्थानम् ॥ ८ ॥ अथ नवमस्थानमाह । तथा श्रातङ्कः सद्योघाती विषूचिकादिरोगः । से इति तस्य गृहिणी धर्मबन्धुरहितस्य वधाय विनाशाय जवति । तथाविधवधश्चानेकवधहेतुरेवं चिन्तनीयमिति नवमं स्थानम् ॥ ॥ अथ दशमं स्थानमाह । तथा संकल्प इष्टानिष्टविप्रयोगप्राप्तेर्यो मनःसबन्धी श्रातङ्कः स तस्य गृहिणः तथाचेष्टायोगात् मिथ्याविकल्पान्यासेन प्रग्रहादिप्राप्तेर्वधाय जवत्येतच्चिन्तनीयमिति दशमं स्थानम् ॥१०॥ अथैकादशं स्थानमाह । गृहवासो गृहाश्रमः सोपक्लेशः सह उपक्लेशेन वर्त्तते यः स सोपक्लेशः । उपक्लेशाः कृषिपाशुपाल्यवाणिज्याद्यनुष्ठानगताः परिमतजनगर्हिताः शीतोष्णश्रमादयो घृतलवण चिन्तादयश्चेत्येवं चिन्तनीयमित्येकादशं स्थानम् ॥ ११ ॥ अथ द्वादशं स्थानमाह । पर्याय एनिरेवोपक्लेशै रहितः । दीक्षापर्यायोऽनारम्जी चिन्तापरिवर्जितः श्लाघनीयो वि - दुषामिति चिन्तनीयमिति द्वादशं स्थानम् ॥ १२ ॥ श्रथ त्रयोदशं स्थानमाह । तथा बन्धो गृहवासः । सदा तद्धेत्वनुष्ठानात् कोशकारकीटवदित्येवं चिन्तनीयमिति त्रयोदशं स्थानम् ॥ १३ ॥ अथ चतुर्दशं स्थानमाह । तथा पर्यायो मोको निरन्तरं कनिगडानामपगमनेन मुक्तवदित्येवं चिन्तनीयमिति चतुर्द्दशं स्थानम् ॥ १४ ॥ अथ पञ्चदशं स्थानमाह । अत एव गृहवासः सावद्यः सपापः प्राणातिपातमृषावादादीनां पञ्चानामाश्रवाणां सेवनादिति चिन्तनीयमिति पञ्चदशं स्थानम् ॥ १५ ॥ अथ षोडशं स्थानमाह । पर्याय एवमनवद्योऽपापोऽहिंसा दिपालनात्मकत्वादेत च्चिन्तनीयमिति षोडशं स्थानम् ॥ १६ ॥ श्रथ सप्तदशं स्थानमाह । बहुसाधारणा गृहिणां कामजोगा इति । गृहिणां गृहस्थानां कामजोगाः साधारणाश्चोरराजकुला दिसामान्याः । पूर्ववदेत चिन्तनीयमिति सप्तदशं स्थानम् ॥ १७ ॥ श्रथाष्टादशं स्थानमाह । तथा प्रत्येकं पुण्यपापमिति । मातापितृकलत्रादिनिमित्तमप्यनुष्ठितं पुण्यपापं प्रत्येकं पृथक् पृथक् येनानुष्ठितं तस्य कर्तुरेव तदिति जावार्थः । एवमष्टादशं स्थानम् ॥ १८ ॥ जव सिलोगो । जवति चात्र श्लोकः । यत्रेति श्रष्टादशस्थानानां संबन्धे । उक्तानुक्तसंग्रहपर इत्यर्थः । श्लोक इति च जातिपरो निर्देशस्ततश्च श्लोकजातिरनेकदावतीति प्रभूतश्लोकोपन्यासेऽपि न विरोधः ॥ ( टीका. ) तद्यथेत्यादि । तद्यथेत्युपन्यासार्थः । हंजो दुःखमायां दुःप्रजीविन ८२ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. इति । हंजो शिष्यामन्त्रणे । दुःखमायामधमकालाख्यायां कालदोषादेव फुःखेन कृत्रेण प्रकर्षेणोदारनोगापेक्षया जीवितुं शीलं येषां ते पुःप्रजीवनः। प्राणिन शति गम्यते। नरेन्द्रादीनामप्यनेकःखप्रयोगदर्शनात् । उदारनोगरहितेन च विडम्बनाप्रा. येण कुगतिहेतुना किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति प्रथमं स्थानम् ॥१॥ तथा लघव इत्वरा गृहिणां कामनोगाः। पुःखमायामिति वर्त्तते ।सन्तोऽपि लघवस्तुलाः प्रकृत्यैव तुषमुष्टिवदसाराः।श्त्वरा अल्पकाला। गृहिणां गृहस्थानां कामजोगा मदनकामप्रधानाः शब्दादयो विषया विपाककटवश्च न देवानामिव विपरीताः।अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति द्वितीय स्थानम् ॥२॥ तथा नूयश्च स्वातिबहुला मनुष्या फुःखमायामितिवर्त्तत एव । पुनश्च स्वातिबहुला मायाप्रचुरा मनुष्याति प्राणिनो न कदाचिहिश्रम्जहेतवोऽमीतहितानां च कीहक्सुखम्।तथा मायाबन्धहेतुत्वेन दारुणतरो बन्धति किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति तृतीय स्थानम् ॥३॥तथा इदं चमे पुःखं न चिरकालोपस्थायि नविष्यति।इदं चानुनूयमानं मम श्रामण्यमनुपालयतो छःखं शारीरमानसं कर्मफलं परीषहजनितं न चिरकालमुपस्थातुं शीलं नविष्यति । श्रामण्यपालनेन परीषहनिराकृतेः। कर्मनिर्जरणात्संयमराज्यप्राप्तेः।इतरथा महानरकादौ विपर्ययोऽतः किं गृहाश्रमेणेतिसंप्रत्युपेक्षितव्यमिति चतुर्थ स्थानम् ॥॥तथा उमजण त्ति न्यूनजनपूजा। प्रबजितो हि धर्मप्रजावाजाजामात्यादि निरन्युबानासनाञ्जलिप्रग्रहादिभिः पूज्यते । उत्प्रव्रजितेन तु न्यूनजनस्यापि स्वव्यसनगुप्तयेऽन्युबानादि कार्यमधार्मिकराजविषये वा वेष्टिप्रयोक्तुः खरकर्मणो नियमत एव श्वेदमधर्मफलमतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति पञ्चमं स्थानम् ॥ ५॥ एवं सर्वत्र क्रिया योजनीया। तथा वान्तस्य प्रत्यापानं जुक्तोनितपरिजोग इत्यर्थः।अयं च श्वशृगालादिकुजसत्त्वाचरितः सतां निन्द्यो व्याधिषुःखजनकः । वान्ताश्च जोगाः प्रव्रज्याङ्गीकरणेनैतत्प्रत्यापानमप्येवं चिन्तनीयमिति षष्ठं स्थानम्॥६॥तथाधरगतिवासोपसंपत्। अधोगतिर्नरकतिर्यग्गतिस्तस्यां वसनमधोगतिवासः। एतन्निमित्तनूतं कर्म गृह्यते। तस्योपसंपत् सामीप्येनाङ्गीकरणम्। यदेतउत्प्रव्रजनमेवं चिन्तनीयमिति सप्तमं स्थानम् ॥७॥ तथा उर्लनः खलु जो गृहिणां धर्म इति।प्रमादबहुलत्वाद्दुर्लन एव। जो इत्यामन्त्रणे। गृहस्थानां परमनिर्वृतिजनको धर्मः। किंविशिष्टानामित्याह । गृहपाशमध्ये वसतामित्यत्र गृहशब्देन पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयो गृह्यन्ते । तन्मध्ये वसतामनादिनवान्यासादकारणं स्नेहबन्धनमेत चिन्तनीयमित्यष्टमं स्थानम्॥॥ तथा आतङ्कस्तस्य वधाय जवति।श्रातङ्कः सद्योघाती विषूचिका दिरोगः। तस्य गृहिणो धर्मबन्धुरहितस्य वधाय विनाशाय जवति । तथावधश्चानेकवधहेतुरेवं चिन्तनीयमिति नवमं स्थानम्॥ए॥तथा संकल्पस्तस्य वधाय नवति ।संकल्प श्ष्टानिष्ट Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका। ६५१ वियोगप्राप्तिजो मानसश्रातङ्कः । तस्य गृहिणस्तथाचेष्टायोगान्मिथ्याविकरूपान्यासेन ग्रहादिप्राप्तेर्वधाय नवत्येतच्चिन्तनीयमिति दशमं स्थानम् ॥१॥ तथा सोपक्लेशो गृहिवास इति।सहोपक्लेशैः सोपक्लेशो गृहाश्रमः। उपक्वेशाः। कृषिपाशुपाल्यवाणिज्याद्यनुष्ठानानुगताःपएिकतजनगर्हिताः शीतोसश्रमादयो घृतलवणचिन्तादयश्चेत्येवं चिन्तनीयमित्येकादशं स्थानम् ॥११॥ तथा निरुपलेशः पर्याय इति। एमिरेवोपक्वेशैरहितः प्रत्रज्यापर्यायः। अनारम्ली कुचिन्तापरिवर्जितः श्लाघनीयो विषामित्येवं चिन्तनीयमिति छादशं स्थानम्॥१॥तथा बन्धोग्रहिवासस्तक्षेत्वनुष्ठानात् कोशकारकीटवदित्येतच्चिन्तनीयमिति त्रयोदशं स्थानम् ॥ १३॥ ॥ तथा मोदः पर्यायोऽनवरतं कर्मनिगडविगमान्मुक्तवदित्येवं चिन्तनीयमिति चतुर्दशं स्थानम् ॥ १४ ॥ ॥ श्रतएव सावद्यो गृहवास शति । सावद्यः सपापः प्राणातिपातमृषावादादिप्रवृत्तेरेतचिन्तनीयमिति पञ्चदशं स्थानम् ॥ १५॥ एवमनवद्यः पर्याय इत्यपाप इत्यर्थः । अहिंसा दिपालनात्मकत्वादेतच्चिन्तनीयमिति षोडशं स्थानम् ॥ १६ ॥ तथा बहुसाधारणा गृहिणां कामनोगा इति । बहुसाधारणाश्चौरजारराजकुला दिसामान्या गृहिणां गृहस्थानां कामजोगाः । पूर्ववदित्येतच्चिन्तनीयमिति सप्तदशं स्थानम् ॥ १७ ॥ तथा प्रत्येकं पुण्यपापमिति । मातापितृकलत्रादिनिमित्तमप्यनुष्ठितं पुण्यपापं प्रत्येकं प्रत्येकं पृथक पृथक् येनानुष्ठितं तस्य कर्तुरेवैतदिति नावार्थः । एवमष्टादशं स्थानम् ॥ १७ ॥ एतदन्तर्गतो वृहानिप्रायेण शेषग्रन्थः समस्तोऽत्रैव । अन्ये तु व्याचदते । सोपक्वेशो गृहिवास इत्यादिषु षट्सु स्थानेषु सप्रतिपदेषु स्थानत्रयं गृह्यते । एवं च । बहुसाधारणा गृहिणां कामनोगा इति चतुर्दशं स्थानम् ॥१४॥ प्रत्येकं पुण्यपापमिति पञ्चदशं स्थानम् ॥१५॥शेषाय निधीयन्ते। तथा अनित्यं खलुथनित्यमेव नियमतः।नोश्त्यामन्त्रणे।मनुष्याणां पुंसां जीवितमायुः। एतदेव विशेष्यते । कुशाग्रजलबिन्ऽचञ्चलं सोपक्रमत्वादनेकोपज्वविषयत्वादत्यन्तासारम् । तदलं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेदितव्यमिति षोडशं स्थानम् ॥१६॥ तथा बहु च खलु नो पापं कर्म प्रकृतम् । बहु च । चशब्दात् विष्टम्। खलुशब्दोऽवधारणे। बह्वेव पापं कर्म चारित्रमोहनीयादि प्रकृतं निर्वर्तितं मयेति गम्यते । श्रामण्यप्राप्तावप्येवं कुजबुझिप्रवृत्तेः। नहि प्रनूतक्लिष्टकर्मरहितानामेवमकुशला बुधिर्नवत्यतो न किंचित् गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेदितव्यमिति सप्तदशं स्थानम्। तथा पापानां चेत्यादि । पापानां चापुण्यरूपाणां चशब्दात्पुण्यरूपाणां च खलु नो कृतानां कर्मणाम् । खलुशब्दः कारितानुमतविशेषणार्थः। जो इति शिष्यामन्त्रणे । कृतानां मनोवाकाययोगैरोघतो निर्वतितानां कर्मणां ज्ञानावरणीयाद्यशातवेदनीया. दीनां प्राक् पूर्वमन्यजन्मसु पुश्चरितानाम् । प्रमादकषायजपुश्चरितजनितानि उश्च Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. रितानि । कारणे कार्योपचारात् । दुश्चरितहेतूनि वा दुश्चरितानि । कार्ये कारणोपचारात् । एवं दुःपराक्रान्तानां मिथ्यादर्शनाविर तिज डुः पराक्रान्तजनितानि दुःपराक्रान्तानि । हेतौ फलोपचारात् । दुःपराक्रान्तहेतू नि वा दुःपराक्रान्तानि फले हेतूपचारात् । इह च दुश्चरितानि मद्यपानाश्ली लानृतनाषणादीनि । डुः पराक्रान्तानि वधबन्धनादीनि । तदमीषामेवंभूतानां कर्मणां वेदयित्वानुनूय । फलमिति वाक्यशेषः। किम् । मोदो नवति प्रधानपुरुषार्थो नवति । नास्त्यवेदयित्वा न जवत्यननुभूय । श्रनेन सकर्मकमोक्षव्यवछेदमाह । इष्यते च स्वल्पकर्मोपेतानां कैश्चित्सहकारि निरोधतस्तत्फलादानवादिनिस्तत्तदपि नास्त्यवेदयित्वा मोक्षस्तथारूपत्वात् । कर्मणः खफलादाने कर्मत्वायोगात् । तपसा वा रूपयित्वा अनशनप्रायश्चित्तादिना वा विशिष्टक्षायोपशमिकशुनजावरूपेण तपसा प्रलयं नीत्वा । इह च वेदनमुदयप्राप्तस्य व्याधेरिवानारब्धोपक्रमस्य क्रमशोऽनन्यनिबन्धन परिक्लेशेन तपः । रूपणं तु सम्यगुपक्रमेणानुदी पोंदी रणदोषरूपवदन्यनिमित्तमक्रमेणापरिक्लेश मित्यतस्तपोऽनुष्ठानमेव श्रेय इति न किंचिद्दाश्रमेऐति संप्रत्युपेक्षितव्यमित्यष्टादशं पदं जवत्यष्टादशं स्थानं जवति । नवति चात्रश्लोकः । त्रेत्यष्टादशस्थानार्थव्यतिकर उक्तानुक्तार्थसंग्रहपर इत्यर्थः । श्लोक इति च जातिपरो निर्देशः । ततः श्लोकजातिरनेकनेदा जवतीति प्रभूतश्लोकोपन्यासेऽपि न विरोधः ॥ जया य चयई धम्मं, अणको नोगकारणा ॥ से तब मुचिए बाले, प्राय नावबुनाइ ॥ १ ॥ ( अवचूरिः ) यदा चैवमष्टादशव्यावर्त्तनकारण जावेऽपि त्यजति चारित्रधर्मम नाय म्लेचेष्टितः स तेषु जोगेषु मूर्तितो बालोऽइ श्रागामिकालं नावबुध्यते ॥ १ ॥ ( अर्थ. ) ते या रीते. जया ा इत्यादिसूत्र. उपर कहेल अढार स्थानक विचार करवा योग्य बता पण ( अको के० ) अनार्यः एटले स्लेब नथी पण म्लेब सरखा जे साधु ( जोगकारणा के० ) जोगकारणात् एटले शब्द, स्पर्श प्रमुख विषय जोगववाना देतुथी ( धम्मं के० ) धर्मं एटले चारित्र धर्म प्रत्ये ( जया के० ) यदा एये ज्यारे ( चयइ के० ) त्यजति एटले त्याग करे. त्यारे ( बाले के० ) बालः एटले . एवा ( से के० ) सः एटले ते साधु ( तब के० ) तत्र एटले ते शब्द प्रमुख विषयाने विषे ( मुछिए के० ) मूर्तितः एटले मूर्छा करता बता (आयई के० ) - यति एटले यावता काल प्रत्ये ( नावबुन के० ) नावबुध्यते एटले सम्यक् प्रकारे जाणे नहि. ॥ १ ॥ For Private Personal Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके प्रथमा चूलिका । ६५३ ( दीपिका.) यदा चैवमष्टादशसु स्थानेषु व्यावर्त्तनकारणेषु सत्स्वपि यो बालोऽज्ञो धर्मं चारित्रलक्षणं जहाति त्यजति । स आयतिमागामिकालं नावबुद्ध्यते सम्यग् नावगच्छति । किंनूतो बालः । अनार्य इव अनार्यो म्लेटचेष्टितः । किमर्थं धर्मं त्यजती - त्याह । जोगकारणाय शब्दा दिजोग निमित्तम् । किंनूतो बालः । तत्र मूर्बितः । तेषु जोगेषु मूर्तितो गृद्धः ॥ १ ॥ ( टीका. ) जया त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यदा चैवमप्यष्टादशसु व्यावर्त्तकारणेषु सत्स्वपि जहाति त्यजति धर्मं चारित्रलक्षणम् । अनार्य इत्यनार्य श्वानार्यो म्ले चेष्टितः । किमर्थमित्याह । जोगकारणाच्छब्दादिनोग निमित्तं स धर्मत्यागी तत्र तेषु जोगेषु मूर्द्वितो गृद्धो बालोऽज्ञ श्रायतिमागामिकालं नावबुद्ध्यते न सम्यगवगच्छतीति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ जया उदाविन हो, इंदो वा पडिन बमं ॥ सवधम्मपरिनो, सपा परितप्पइ ॥ २ ॥ ( अवचूरिः ) यदावधावितोऽपस्टतो जवति संयम सुख विभूतेः । उत्प्रत्रजित इत्यर्थः । इन्द्रवत्पतितः क्ष्मां स्वविजवज्रंशात् । सर्वधर्मेभ्यः परिचष्टः स पश्चाष्टो भूत्वा म नाग्मोहावसाने परितप्यते ॥ २ ॥ ( . ) तेज कहे . जया इत्यादि सूत्र. ( बमं के० ) क्षमां एटले भूमिने विषे ( पडि के० ) पतितः एटले पडेला एवा (इंदो वा के० ) इंद्रो वा एटले देवराज इंद्रनी पेठे अर्थात् इंद्र जेम पोताना इंद्रपदथी भ्रष्ट यइने या मृत्युलोकमां पतन पामे, तेम ( जया के ० ) यदा एटले ज्यारे पूर्वोक्त साधु जे ते (उहावि के० ) छा वधावितः एटले नीकली गएला, अर्थात् चारित्रयी ऋष्ट एवा ( होइ के० ) जवति एटले थाय छे. त्यारे ( स के० ) सः एटले ते साधु ( सवधम्मपरिनो के० ) सधर्मपरिष्टः एटले खंति, श्रद्धव, मद्दव प्रमुख पूर्वे याचरेला सर्व धर्मर्थी परिचष्ट या बता ( पछा० ) पश्चात् एटले पाबलथी ( परितप्प के० ) परितप्यते एटले' मे शुं कस्युं ' एवी रीते पस्तावो करे बे ॥ २ ॥ ( दीपिका . ) एतदेव दर्शयति । यदा चावधावितोऽपसृतो जवति यः । कोऽर्थः । संयम सुख विभूतेः सकाशात्प्रव्रजित इत्यर्थः । तदा इन्द्रो वा देवराज इव क्षमां पतितः । ख विमान विनवज्रंशेन भूमौ पतित इति जावः । किं० यः । सर्वधर्मपरिष्टः । सर्वधर्मेभ्यः क्षान्त्यादिज्य सेवितेच्योऽपि यावत्प्रतिज्ञमननुपालनात् । लौकिकेन्यो For Private Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. वा गौरवादिन्यः परिभ्रष्टः सर्वत युतः । पतितो भूत्वा पश्चात् मनागू मोहस्यान्ते स परितप्यते । किमिदं मया कार्यं कृतमित्यनुतापं करोति ॥ २ ॥ ( टीका. ) एतदेव दर्शयति । जय त्ति सूत्रम् । व्याख्या । यदा चावधावितोऽपसृतो जवति संयम सुख विभूतेः । उत्प्रव्रजित इत्यर्थः । इन्द्रो वेति देवराज इव पतितः मां गतः स्वविजवज्रंशेन भूमौ पतित इति जावः । दमा भूमिः । सर्वधर्मपरिष्टः सर्वधर्मेभ्यः कान्त्यादिज्य सेविते ज्योऽपि यावत्प्रतिज्ञमननुपालनात् लौकिकेच्योऽपि वा गौरवादिन्यः परिभ्रष्टः सर्वतश्युतः स पतितो नूत्वा पश्चान्मनाग् मोहावसाने परितप्यते । किमिदमकार्यं मयानुष्ठितमित्यनुतापं करोतीति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ जया वंदिमो होइ, पचा होइ दिमो ॥ देवया व चुगणा, सपा परितप्पइ ॥ ३ ॥ ( श्रवचूरिः ) यदा च वन्द्यो जवति श्रमणपर्यायस्थो नरेन्द्रादीनां पश्चाद्भवत्यु निष्क्रान्तः सन्नवन्द्यः । तदा च देवतेव स्थानच्युता सती पश्चात्परितप्यत इति पूर्ववत् ॥ ३ ॥ ( अर्थ. ) जे साधु ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे चारित्र रूडी रीते पालता होय त्यारे प्रथम तो ( वंदि के० ) वन्द्यः एटले वंदना करवाने योग्य एवा ( होइ के० ) जवति एटले याय. ( य के० ) च एटले अने ( पछा के० ) पश्चात् एटले पालथी अर्थात् चारित्रनो त्याग करे त्यारे ( अवं दिमो के० ) वन्द्यः एटले वन्दना करवा योग्य नहि एवा ( होइ के० ) जवति एटले थाय. ( स के० ) सः एटले ते साधु ( गणा के० ) स्थानात् एटले पोताना स्थानकथी ( चुश्रा के० ) च्युता एटले चष्ट थएल एवी (देवया व के०) देवतेव एटले देवतानी पेठे ( पचा के० ) पश्चात् एटले पालथी ( परितप्प के० ) परितप्यते एटले पस्तावो करे बे. ॥ ३ ॥ ( दीपिका. ) यदा च यः संयमवान् सन् नरेन्द्रादीनां वन्द्यो जवति । स पश्चादुन्निष्क्रान्तः संयमरहितः सन्नवन्द्यो जवति । पश्चात् स परितप्यते च । किंवत् । स्थानच्युता सती इन्द्रवर्जा देवतेव । परितापार्थः पूर्ववत् ॥ ३ ॥ ( टीका. ) जया यत्ति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । यदा च वन्द्यो जवति । श्रमणपर्यायस्थो नरेन्द्रादीनां पश्चाद्भवत्युन्निष्क्रान्तः सन्नवन्यस्तदा देवतेव का चिदिवर्जा स्थानच्युता सती । स पश्चात्परितप्यत इत्येतत्पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ For Private Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । जया चा प्रश्मो होइ, पच्छा होड़ इमो ॥ राया व रपनो, सपा परितप्प ॥ ४ ॥ ( अवचूरिः ) यदा च पूज्यो वस्त्रनक्ताद्यैर्लोकानामिति शेषः । पश्चाद्भवत्युत्प्रत्र जितः सन्नपूज्यः । राजेव राज्यप्रचष्टो महतो जोगाद्विप्रमुक्तः । स पश्चात्परितप्यते ॥ ४ ॥ ( अर्थ. ) तेमज जया इत्यादि सूत्र. ( के० ) च एटले वली जे साधु चारिना प्रजावथी प्रथम ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे ( पूश्मो के० ) पूज्यः एटले पूजा करवा योग्य एवा ( होइ के० ) जवति एटले थाय बे ने ( पछा के० ) पश्चात् एटले चारित्रथी चष्ट थया पढी ( अपूमो के० ) अपूज्यः एटले पूजा करवा योग्य नहि एवा ( होइ के० ) जवति एटले थाय बे. ( स के० ) सः एटले ते साधु ( रपनो के० ) राज्यप्रचष्टः एटले राज्यथी भ्रष्ट यएल एवा ( राया व ho ) राजेव एटले राजानी पेठे ( पन्छा के० ) पश्चात् एटले पालथी (परितप्पइ के० ) परितप्यते एटले पस्ताय बे ॥ ४ ॥ ६५५ (दीपिका.) यदा च पूज्यो जवति लोकानां वस्त्रपात्रादिनिः । कुतः । साधुधर्ममाहास्यात् । स उत्प्रव्रजितः सन्नपूज्यो जवति लोकानामेव । क इव । राज्यप्रष्टो महतो जोगाद्वियुक्त राजेवापूज्यो जवति । पुनः स पश्चात् परितप्यते च पूर्ववत् ॥ ४ ॥ ( टीका. ) तथा जयति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । यदा च पूज्यो जवति वस्त्रजक्ता दिजिः श्रामण्यसामर्थ्याल्लोकानां पश्चाजवत्युत्प्रव्रजितः सन्नपूज्यो लोकानामेव । तदा राजेव राज्यप्रष्टः । महतो जोगाद्विप्रमुक्तः स पश्चात्परितप्यत इति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ जया माणिमो होइ, पचा दोइ प्रमाणिमो ॥ सिद्धि व कब्बडे बूढो, स पच्चा परितप्प ॥ ५ ॥ ( अवचूरिः ) यदा च मान्योऽन्युठानाज्ञाकरणादिना । पश्चाद्भवत्यमान्यस्तत्परित्यागेन । तदा श्रेष्ठीव कर्बटे कुद्रसन्निवेशे दिप्तः सन्परितप्यते ॥ ५ ॥ ( . ) तेमज जया इत्यादि सूत्र. ( के० ) च एटले वली जे साधु शीलना प्रजावधी प्रथम ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे ( माणिमो के० ) मान्यः एटले आसन श्राप, आज्ञा मानवी इत्यादि प्रकार वडे मान आपवा योग्य थाय बे, अने ( पछा के० ) पश्चात् एटले शीलथी ष्ट थया पबी ( श्रमाणिमो के० ) मान्यः एटले मान आपवा योग्य नहि एवा ( होइ के० ) जवति एटले थाय बे. For Private Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (स के० ) सः एटले ते साधु ( कवडे के० ) कर्वटे एटले घणा ज हुन एवा गामडामां (बूढो के) दिप्तः एटले पडेलो एवा (सिहि व के०) श्रेष्ठीव एटले श्रेष्ठिनी पेठे ( पछा के०) पश्चात् एटले पालथी (परितप्पश् के०) परितप्यते एटले पस्ताय ॥५॥ (दीपिका.) यदा च मान्यो जवत्यज्युबानाझाकरणादिना माननीयः स्याहीलादिप्रजावेन । पश्चाछीलादिपरित्यागेनामान्यः स्यात् । किंवत् । श्रेष्ठिवत् । श्रेष्ठीव । यथा श्रेष्ठी कर्वटे क्षिप्तो महाकुसंनिवेशे दिप्तोऽमान्यो नवति । पुनः पश्चात् परितप्यते । तलीलादिपरित्याग्यपि ॥५॥ (टीका.) तथा जय त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। यदा च मान्यो जवत्यन्युपानाज्ञाकरणादिना माननीयः शीलप्रनावेण, पश्चान्नवत्यमान्यस्तत्परित्यागेन तदा श्रेष्ठीव कर्बटे महाकुअसं निवेशे क्षिप्तः सन् पश्चात्परितप्यत इत्येतत्समानं पूर्वेणेति सूत्रार्थः॥५॥ जया अथेर होइ, समकंतजुवणो ॥ मनु व गलिं गलित्ता, स पना परितप्प ॥६॥ (अवचूरिः ) यदा च स्थविरो जवति स त्यक्तसंयमो वयःपरिणामेन । एतहिशेषदर्शनायाह । समतिकान्तयौवन एकान्तस्थ विरत्नावस्तदा विपाककटुत्वान्मत्स्य श्व गलं गिलित्वानिगृह्य तथाविधकर्मलोहकंटकविकः सन् स पश्चात्परितप्यते । गाथेयं बृहकृत्तौ लघुवृत्तौ च नोक्ता ॥६॥ ___ (अर्थ. ) जया इत्यादि सूत्र. ( अ के०) च एटले वली जे साधु ( जया के०) यदा एटले ज्यारे ( समश्कंतजुवणो के०) समतिक्रान्तयौवनः एटले नीकली ग डे जुवान अवस्था जेमनी एवा अने माटेज (थेर के० ) स्थविरः एटले सर्वथा वृद्ध थया बता संयमनो त्याग करे . ( स के०) सः एटले ते साधु ( गलिं के०) गलं एटले लोहडाना कांटा उपर राखेल मांसने ( गलित्ता के) गिवित्वा एटले गलीने (व के०) व एटले जेम ( म के०) मत्स्यः एटले म पस्ताय , तेम विषय नोगनो परिणाम कडवो होवाथी ( पछा के०) पश्चात् एटले पाबलथी (प. रितप्पर के०) परितप्यते एटले पस्ताय जे. ॥६॥ (दीपिका.) यदा च स्थविरो जवति मुक्तसंयमो वयसः परिणामेन । एतद्विशेषप्रदर्शनायाद । किंनूतः स्थविरः । समतिकान्तयौवन एकान्तस्थ विरजावः । तदा Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६५७ जोगानां विपाकटकत्वात परितप्यते। क व । मत्स्य श्व । यथा मत्स्यो बमिशं गिसित्वा श्रनिगृह्य तथाविधकर्मलोहकंटकविजः सन् पश्चात् परितप्यत इति । एतदपि पूर्वेण समानम् ॥ ६॥ (टीका.) जय त्ति सूत्रम्। अस्य व्याख्या । यदा च स्थविरो नवति स त्यक्तसंयमो वयःपरिणामेन । एतहिशेषप्रतिपादनायाह । समतिकान्तयौवन एकान्तस्थ विर इति नावः। तदा विपाककटुकत्वानोगानां मत्स्य व गलं बडिशं गितित्त्वानिगृह्यतथाविधकर्मलोहकंटकविधः सन्पश्चात्परितप्यत इत्येतदपि समानं पूर्वेणेति सूत्रार्थः॥६॥ जया अ कुकुम्बस्स, कुतत्तीहिं विदम्म ॥ हबी व बंधणे बछो, स पना परितप्प३ ॥७॥ (अर्थ.) एज प्रकट कहे जे. जया इत्यादि सूत्र. संयमनो त्याग करनार साधु (जया के०) यदा एटले ज्यारे (कुकुठंबस्स के०) कुकुटुम्बस्य एटले माग कुटुंबना परिवारनी ( कुतत्तीहिं के०) कुतप्तितिः एटले माठी चिंताउथी (विहम्म के०) विहन्यते एटले हणाय बे. त्यारे ( स के०) सः एटले ते साधु (बंधणे के०) बन्धने एटले विषयनी लालचथी बन्धनमा (बको के०) बकः एटले सपडा गएल एवा ( हबी व के० ) हस्तीव एटले हाथीनी पेठे ( पछा के०) पश्चात् एटले पाबलथी (परितप्पर के०) परितप्यते एटले पस्ताय बे. ॥७॥ (दीपिका.) एतदेव स्पष्टयति । यदा च कुकुटुम्बस्य कुत्सितकुटुम्बस्य कुततिनिः कुत्सितचिन्तानिरात्मनः संतापकारिणीनिर्विहन्यते विषयनोगान् प्रति विघातं नीयते । तदा स मुक्तसंयमः सन् परितप्यते पश्चात् । क श्व । यथा हस्ती कुकुटुम्बबन्धनबकः परितप्यते ॥ ७ ॥ पुत्तदारपरीकिन्नो, मोहसंताणसंत॥ पंकोसन्नो जदा नागो, स पडा परितप्प ॥७॥ (श्रवचूरिः) एतदेव स्पष्टयति । पुत्रदारपरिकीर्णो विषयसेवनात् पुत्रकलत्रादिनिः सर्वतो विक्षिप्तः । मोहसंतानसंततो मोहनीयकर्मप्रवाहेण व्याप्तः । पङ्कावसन्नो यथा नागः कर्दमनिमग्नो वनगज श्व । स पश्चात्परितप्यते । हा हा किंमयेदमसमञ्जसमनुष्ठितमिति ॥७॥ १:- आ गाथा बृहपृत्तिमा तथा श्रवचूरिमां देखाती नथी. Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ रायं धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. ( . ) पुतदार इत्यादि सूत्र. संयमनो त्याग करनार ( स के० ) सः एटले साधु जे ते (पुतदारपरी किन्नो के० ) पुत्रदारपरिकीर्णः एटले पुत्र तथा स्त्रीवडे परिवरेलो ने ( मोहसंतान संत के० ) मोहसंतानसंततः एटले दर्शनमोहिनी प्रमुख कर्मप्रवाहमां पडेलो एवो थयो बतो ( जहा के० ) यथा एटले जेम ( पंकोसन्नो के० ) पङ्कावसन्नः एटले कादवमां खुती गएल एवो ( नागो के० ) नागः एटले हाथी पस्ताय बे, तेम (पच्छा के० ) पश्चात् एटले पाबलथी ( परितापइ के० ) परितप्यते एटले पस्ताय बे ॥ ८ ॥ 1 ( दीपिका . ) पुनराह । मुक्तसंयमः पश्चात्परितप्यते । हा हा किं मयेदमसमञ्जसमनुष्ठितम् । किं० । पुत्रदारपरिकीर्णः । विषयसेवनात्पुत्रकलत्रादिनिः सर्वतो विक्षिप्तः । पुनः किंनूतः । मोहसंतानसंततो दर्शनमोहनीयादिकर्मप्रवाहेण संतप्तः । क इव परितप्यते । यथा नागो हस्ती पङ्कावसन्नः कर्दममग्नः सन् परितप्यते ॥ ८ ॥ ( टीका. ) एतदेव स्पष्टयति । पुत्तदार ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । पुत्रदारपरिकीर्णो विषयसेवनात्पुत्रकलत्रादिनिः सर्वतो विक्षिप्तः । मोहसंतान संततो दर्शनादिमोहनीय कर्मप्रवाहेण व्याप्तः । क इव । पङ्कावसन्नो नागो यथा कर्दमावमग्नो वनगज इव । स पश्चात्परितप्यते । हा हा किं मयेदमसमञ्जसमनुष्ठितमिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ अहं गणी ढुंतो, नाविप्पा बहुस्सु ॥ जड़ दं रमतो परिआए, सामन्ने जिपदेसिए ॥ ९ ॥ ( वचूरिः ) कश्चित्सचेतन एवं तप्यत इत्याह । श्रद्यास्मिन् दिवसेऽहमाचायों जवेयं जावितात्मा प्रशस्तयोगजावनाजिः बहुश्रुत उजयलोक हितबह्नागमयुतो यद्यहमर मिष्यं रतिमकरिष्यम् । पर्याये प्रत्रज्यारूपे श्रामण्ये श्रमण संबन्धिनि जिनदेशिते ॥ ए ॥ (अर्थ. ) कोइ सचेतन वली एवी रीते पस्ताय एम कहे बे. अऊ इत्यादि सूत्र. ( अहं के० ) अहं एटले हुं ( श्र श्रा के० ) अद्य तावत् एटले आजसुधी तो ( गणी के० ) गणिः एटले आचार्य ( ढुंतो के० ) स्यां एटले यात. शुं कस्युं होत तो ते कहे बे. ( जइ के० ) यदि एटले जो ( श्रहं के० ) श्रहं एटले हुं ( जावियप्पा ho ) जावितात्मा एटले शुभयोगनी जावना वडे आत्माने विषे जावना करनारो एवोने (बहुस्सु ० ) ) बहुश्रुतः एटले या लोक परलोकने विषे हितकारी एवा अग्यार अंग प्रमुख बहु श्रागमने धारण करतो बतो ( जिणदेसिए के० ) For Private Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६५ जिनदेशिते एटले जिनजगवाने उपदेश करेल एवा, ( सामन्ने के० ) श्रामण्ये एटले श्रमण संबंधी ( परिश्राए के० ) पर्याये एटले चारित्र पर्यायने विषे ( रमंतो के० ) अरमिष्यं एटले रमी रहत, अर्थात् रूडी रीते चारित्र पालत तो आचार्य यात. ॥ ॥ I 1 ( दीपिका. ) कश्चित् सचेतनो नर एवं च परितप्यत इत्याह । अहमद्य तावद - स्मिन् दिवसे गणी स्यामाचार्यो जवेयम् । यदि पर्याये प्रव्रज्यारूपे र मिष्यं रतिमकरिष्यम् । किं विशिष्ठे पर्याये । श्रामण्ये श्रमणसंबन्धिनि । पुनः किंभूते । जिनदेशिते तीर्थकर प्ररूपिते । न शाक्यादिरूपे । किंभूतोऽहम् । जावितात्मा । प्रशस्तयोगजावना जिवित श्रात्मा यस्य सः । पुनः किंभूतः । बहुश्रुतः । उज्जयलोक हितबह्वागमयुक्त इति ॥ ए ॥ (टीका.) कश्चित् सचेतनतर एवं च परितप्यत इत्याह । श्र त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्रद्य तावदहमद्यास्मिन् दिवसे । श्रहमित्यात्म निर्देशे | गणी स्यामाचार्यो जवेयम् । जावितात्मा प्रशस्तयोगभावना जिः । बहुश्रुत उज्जयलोक हितबह्वागमयुक्तः । यदि किं स्यादित्यत आह । यद्यहमर मिष्यं रतिमकरिष्यं पर्याये प्रव्रज्यारूपे । सोऽनेकद इत्याह । श्रामण्ये श्रमणानां संबन्धिनि । सोऽपि शाक्या दिजेद जिन्न इत्याह । जिनदेशिते निर्मन्थसंबन्धिनीति सूत्रार्थः ॥ ए ॥ 1 देवलोगसमाणो परियान मदेसिणं ॥ रयाणं अरयाणं च, मदानरयसारियो ॥ १० ॥ ( श्रवचूरिः ) एतत्स्थिरीकरणार्थमाह । देवलोकसदृश एव पर्यायः प्रव्रज्यारूपो महर्षीणां रतानां सक्तानाम् । पर्याय एवेति गम्यते । यथा देवलोके देवाः प्रेक्षणका दिव्यापृता स्तिष्ठन्ति तथा प्रत्युपेक्षणादौ साधवः । अरतानां च जावतः सामाचार्यामसक्तानां चशब्दाद्विषयेतूनां च जिन लिङ्गविम्बकानां महानरकसदृशः । तत्कारणत्वात् मानसडुःखातिरेकात् ॥ १० ॥ ( अर्थ. ) साधुना चित्तनी स्थिरताने का कहे बे. देवलोग इत्यादि सूत्र. ( अ के० ) च एटले वली ( रयाणं के० ) रतानां एटले सामाचारीने विषे प्रीति राखनारा ( मदेसिणं के० ) महर्षीणां एटले रूडी रीते चारित्र पालनार मुनिराजोने ( परिश्राए के० ) पर्यायः एटले चारित्रपर्याय जे ते ( देवलोगसमाणो के० ) देवलोक सरखो . तात्पर्य ए बे के, जेम देवलोकमां देवता नाटक प्रमुख जोवामां मन इ निरंतर श्रानंदमां रहे बे, दीनपएं पामता नयी तेम जला साधु पण For Private Personal Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस ४३-मा. जावथी पडिले प्रमुख क्रियाने विषे श्रसक्त रही श्रानंदमां कालनिर्गमन करे बे. माटे मुनिराजनो चारित्र पर्याय स्वर्गसुखसमान बे. तेमज ( अरयाणं के० ) अरतानां एटले सामाचारीने विषे प्रीति न राखनार एवा ( अ के० ) च एटले अने विषय विषेयासक्त एल एवा साधुर्जने चारित्र पर्याय जे ते ( महानरयसा रिसो के० ) महानरकसदृशः एटले रौरव प्रमुख नरकसमान दुःखदायी बे. ॥ १० ॥ ( दीपिका. ) श्रवधानोत्प्रेक्षिणः स्थिरीकरणार्थमाह । महर्षीणां सुसाधूनां पर्याये संयमे रतानामासक्तानां पर्यायो देवलोकसमानः । श्रयमर्थः । यथा देवलोके देवा नाटकादिव्यापृताः सन्तोऽदीनमनस स्तिष्ठन्ति । तथा सुसाधवोऽपि ततोऽधिकजावतः प्रस्युपेक्षणादिक्रियाव्यापृता दीनमनस स्तिष्ठन्ति । कथम् । उपादेय विशेषत्वात् प्रस्युपेक्षणादेः । तथा पर्यायेऽरतानां च जावतः सामाचार्यामसक्तानाम् । चशब्दाद् विषया जिला षिणां च । जगवलिङ्गविम्बकानां क्षुद्रप्राणिनां पर्यायो महानरकसदृशो रौरवादितुल्यः । तत्कारणत्वाद् मानसडुःखातिरेकात्, तथा विमम्बनाच्चेति ॥ १०॥ ( टीका. ) अवधानोत्प्रेत्क्षिणः स्थिरीकरणार्थमाह । देवलोग ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । देवलोकसमानस्तु देवलोकसदृश एव पर्यायः प्रव्रज्यारूपः । महर्षीणां सुसाधूनां रतानां सक्तानाम् । पर्याय एवेति गम्यते । एतडुक्तं जवति । यथा देवलोके देवाः प्रेक्षणका दिव्यापृता दीनमनस स्तिष्ठन्त्येवं सुसाधवोऽपि ततोऽधिकं जावतः प्रत्युपेक्षयादिक्रियायां व्यापृता उपादेय विशेषत्वात् प्रत्युपेक्षणादेरिति । देवलोकसमान एव पर्यायो महर्षीणां रतानामिति । श्ररतानां च जावतः सामाचार्यामसक्तानां च । चशब्दाद्विषया जिला षिणां च । जगवलिङ्गविम्बकानां क्षुद्रसत्त्वानां महानरकसदृशो रौरवादितुल्यस्तत्कारणत्वान्मानसडुःखातिरेकात्, तथा विकम्बनाच्चेति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ अमरोवमं जाणि सुकमुत्तमं रयाण परियाई तदारयाणं ॥ निरन्वमं जाणि डुकमुत्तमं रमिङ तम्दा परियाई पंमिए ॥ ११ ॥ > ( श्रवचूरिः ) तडुपसंहारेणैव निगमयन्नाह । श्रमरोपममुक्त न्यायाद्देवसदृशं सौख्यं ज्ञात्वा प्रशमसारं रतानां पर्यायसक्तानां तथारतानां तस्मिन्नेव निरयोपमं दुःखम् । रमेत तस्मात्पर्याये परितः शास्त्रज्ञः ॥ ११ ॥ ( अर्थ. ) एज वात प्रकट कहे बे. अमरोवमं इत्यादि सूत्र ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारणमाटे ( पंमिए के० ) परितः एटले शास्त्रार्थना जाण एवो पुरुष जे ते ( परिश्राइ के० ) पर्याये एटले चारित्र पर्यायने विषे ( रयाण के० ) For Private Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका। ६६१ रतानां एटले जावथी श्रासक्त एवा मुनिराजोने ( श्रमरोवमं के० ) अमरोपमं एटले देवतासर ( उत्तमं के०) उत्तमं एटले उत्कृष्टुं ( सुकं के ) सुखं एटले सुखप्रत्ये (जाणिव के०) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( तहा के० ) तथा एटले तेमज (अरयाणं के) अरतानां एटले सामाचारी पालवामां कंटालो करनार एवा साधुऊने (निरउवमं के) निरयोपमं एटले नरकसमान ( उत्तमं के०) उत्तमं एटले आकरूं (उकं के०) पुःखं एटलेफुःख प्रत्ये (जाणिव के०) ज्ञात्वा एटले जाणीने (परिश्रा के) पर्याये एटले चारित्रपर्यायने विषे ( रमिऊ के०) रमेत एटले रमी रहे॥११॥ (दीपिका.) एतच्चोपसंहारेणैव निगमयन्नाह । पणिमतः शास्त्रज्ञः पर्याय उक्तरूपे संयमे रमेत सक्तिं कुर्यात् । किं कृत्वा । अमरोपमं देवसदृशं सौख्यं प्रशमसौख्यं प्रशस्तं झात्वा विज्ञाय । केषामित्याह । पर्याये रतानां दीदायां सक्तानाम् । सम्यक्प्रत्युपेक्षणादि क्रियाद्यङ्गे । पुनः किं कृत्वा । पर्याय एवारतानाम् नरकोपमं नरकतुल्यमुत्तमं प्रधानं दुःखं च ज्ञात्वा ॥११॥ (टीका.) एतमुपसंहारेणैव निगमयन्नाह । अमर त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। अमरोपममुक्तन्यायादेवसदृशं ज्ञात्वा विज्ञाय सौख्यमुत्तमं प्रशमसौख्यम् । केषामित्याह । रतानां पर्याये सक्तानां सम्यक्प्रत्युपेदणादिक्रियाद्यङ्गे श्रामण्ये। तथा थरतानां पर्याय एव । किमित्याह । नरकोपमं नरकतुल्यं ज्ञात्वा पुःखमुत्तमं प्रधानमुक्तन्यायात् । यस्मादेवं रतारतविपाकस्तस्माउमेत सक्तिं कुर्यात् । क्वेत्याह । पर्याय उक्तस्वरूपे पएिकतः शास्त्रार्थज्ञ इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ धम्मान नहं सिरिन ववेयं, जन्नग्गि विनाअमिवप्पतेनं ॥ दीलंति णं विदिअंकुसीला, दाढुडिअं घोरविसं व नागं ॥१॥ (श्रवचूरिः ) पर्यायच्युतस्यै हिकं दोषमाह। धर्मात्मणधर्मानुष्टं च्युतं श्रियोऽपेतं तपोलदम्या अपेतम् । यज्ञाग्निं विध्यातमिव यागावसानेऽल्पतेजसम् । अल्पशब्दोऽनावे । तेजःशून्यं जस्मकल्पमित्यर्थः । हीलयन्ति पतितस्त्वमिति पतयपसरणादिना । एनमस्तव्रतं उर्विहितं पुष्टानुष्ठानं तत्सङ्गोचितलोका उकृतदंष्ट्र रौषविषमिव नागं सर्पम् ॥ १५ ॥ (अर्थ.) हवे चारित्रथी नष्ट थएल पुरुषने था लोकने विषे शुं दोष थाय ते कहे . धम्माज इत्यादि सूत्र. ( कुसीला के०) कुशीलाः एटले जे लोकोनी साथे रहेतुं पडे ते कुशीलिया एवा लोको जे ते (धम्माल के०) धर्मात् एटले चारित्ररूप Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. धर्मश्री (नहं के०) उष्टं एटले ब्रष्ट थएल एवा, ( सिरि के) श्रियः एटले तपस्यारूप लक्ष्मीथी ( ववेशं के०) अपेतं एटले रहित एवा माटेज (उविहिथं के०) पुर्विहितं एटले पुष्ट व्यापार करनार एवा (णं के०) एनं एटले या चारित्रथी ज्रष्ट थएल पुरुषने ( विलाय के०) विध्यातं एटले उलवार गएल जेवो थएल एवा माटेज (अप्पतेअं के०) अल्पतेजसं एटले क्षीण थयुं बे तेज जेनुं एवा (जन्नग्गिमिव के०) यज्ञाग्निमिव एटले याने माटे सिझ करेल अग्निने जेम यज्ञ थक्ष रह्या पली तिरस्कार करे , अथवा (घोर विसं के०) घोरविषं एटले घणा आकरा नयकारि विषने धारण करनार एवो ( सप्पं के० ) सर्प एटले सर्प ( दाढद्विशं के०) उकृतदंष्टम् एटले जेनी जहेरी दाढ उखेडी नाखी एवो थाय त्यारे (व के०) जेम तेनो सर्व लोको तिरस्कार करे , तेम ( हीलंति के०) हीलयन्ति एटले तिरस्कार करे . ॥ १२ ॥ (दीपिका.) अथ चारित्रज्रष्टस्य इहलोकसंबन्धिदोषमाह । कुशीलास्तत्सङ्गोचिता लोका एनमुन्निष्क्रान्तं हीलयन्ति पतितस्त्वमिति पङ्कितोऽपसारणादिना कदर्थयन्ति । किंजूतमेनं । धर्मात् साधुधर्माद् व्रष्टं च्युतम् । पुनः किंचूतमेनम् । श्रिया अपेतं लदम्या वर्जितम् । कमिव हीलयन्ति । यज्ञाग्निम मिष्टोमायनलम् । विध्यातमिव यागप्रान्ते। अल्पतेजसम् । अपशब्दस्य अन्नाववाचित्वात्। तेजःशून्यं नस्मसदृशमित्यर्थः। किंनूतमेनम् । पुर्वि हितम् । उन्निष्क्रमणादेव पुष्टानुष्ठायिनम् । पुनः कमिव हीलयन्ति । उझतदंष्ट्रमुत्खातदाढं घोर विषमिव रौविषमिव नागं सर्पम् ॥ १५ ॥ (टीका.) पर्यायच्युतस्यै हिकं दोषमाह । धम्माल त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। धर्माबमणधर्माशष्टं च्युतं श्रियोऽपेतं तपोलदम्या अपगतं यज्ञाग्निमग्निष्टोमायनलं वि. ध्यातमिव यागावसानेऽल्पतेजसम् । अल्पशब्दोऽनावे। तेजःशून्यं नस्मकल्पमित्यर्थः । हीलयन्ति कदर्थयन्ति । पतितस्त्वमिति पतयपसारणादिना। एनमुन्निष्क्रान्तं पुर्विहितमुनिष्क्रमणादेव उष्टानुष्ठायिनं कुशीलास्तत्सङ्गोचिता लोकाः स एव विशेष्यते। दाढद्विअंति।प्राकृतशैक्ष्या उकृतदंष्ट्रमुखातदंष्ट्रं घोर विषमिव रौषविषमिव नागं सर्पम्। यज्ञाग्निसर्पोपमानं लोकनीत्या प्रधानन्नावादप्रधानन्नावाख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः॥१॥ देवधम्मो अयसो अकित्ती, उन्नामधिकं च पिहुऊणंमि॥ चुअस्स धम्मान अहम्मसेविणो, संनिन्नचित्तस्स य दिन ग॥ १३ ॥ ( श्रवचूरिः) ऐहिकदोषमुक्त्वोनयलोकदोषमाह । इहैव इहलोक एवाधर्म इत्य Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६३ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका। यमधर्मः। अयशोऽपराक्रमकृतं न्यूनत्वम् । अकीर्तिरदानपुण्यफलप्रवादरूपा । पुर्नामधेयं च पुराणः पतित इति कुत्सितं नामधेयं नवति। पृथग्जने नीचजन आस्तां शिष्टलोके । कस्येत्याह । च्युतस्य धर्मात्प्रव्रजितस्य अधर्मसेविनः । कलत्रादिनिमित्तं षट्कायोपमईकारिणः । संनिन्नवृत्तस्य खमितचारित्रस्य । विष्टकर्मबन्धादधस्तान्नरकेषूपपातो नवति ॥ १३ ॥ (अर्थ.) या रीते चारित्रज्रष्ट पुरुषनी था लोकमां थती विटंबना कही. हवे आ लोकमां तथा परलोकमां जे विटंबना थाय ने ते कहे . श्हेव इत्यादि सूत्र. (धम्माज के०) धर्मात् एटले धर्मश्री (चुअस्स के०) च्युतस्य एटले ज्रष्ट थएल एवा माटे (अहम्मसेविणो के०) श्रधर्मसेविनः एटले स्त्रीपुत्रादिकने अर्थे हिंसादिक करनार एवा ( य के०) च एटले वली (संनिन्न वित्तस्स के०) संनिन्नवृत्तस्य एटले नहि खंमित करवायोग्य एवा चारित्रने खंडित करनार एवा पुरुषने (श्हेव के०) इहैव एटले था लोकने विषेज (अधम्मो के० ) अधर्मः एटले अधर्म थाय बे. अर्थात् ए अधर्मी डे एम ब्रष्टचारित्री कहेवाय डे. तेमज (श्रयसो के०) अयशः एटले पराक्रमना अनावथी न्यूनपणुं श्रावे . (थकित्ती के०) अकीर्तिः एटले दानपुण्यना अनावथी न्यूनपणुं आवे . तेमज ( पिहुजणं मि के ) पृथग्जने एटले प्राकृतजनने विषे अर्थात् हलका लोकोमो (पुन्नामधिऊं के० ) पुर्नामधेयं एटले 'फलाणो जुनो चारित्री पतित थयो' एवी रीते नाम निंदाय बे. तथा अंते (हि. हउँ गश् के० ) अधस्तानतिः एटले नीचे नरकने विषे गति थाय बे. ॥ १३ ॥ ( दीपिका. ) एवमस्य व्रष्टशीलस्य सामान्यत इहलोकसंवन्धिनं दोषं कथयित्वेहलोकपरलोकसंबन्धिनं दोषमाह । धर्मात् च्युतस्य धर्मापुत्प्रवजितस्य एतानि जवन्ति । कानीत्याह । इह लोक एवाधर्मो नवति । श्रयमधर्म इति । पुनः अयशः अपराक्रमेण कृतं न्यूनत्वं नवति । तथा अकीर्तिः अदानपुण्यफलप्रवादरूपा । तथा पुर्नामधेयं च कुत्सितनामधेयं नवति । केत्याह । पृथग्जने सामान्यलोकेऽपि । श्रस्तां विशिष्टलोके । किंविशिष्टस्य । धर्माच्युस्य । अधर्मसे विनः कलत्रादीनां निमितं षड्जीवनिकायस्योदपमईकारिणः । पुनः किं । संजिन्नवृत्तस्य खएिकतचारित्रस्य क्लिष्टकर्मबन्धादधस्ताजतिर्नरकेषूपपातो नवति ॥ १३ ॥ ___(टीका.) एवमस्य व्रष्टशीलस्यौघत ऐहिकं दोषमनिधायैहिकामुष्मिकमाह । श्हेव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । इहैवेहलोक एवाधर्म इत्ययमधर्मः फलेन दर्श Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. यति । यडुतायशः श्रपराक्रमकृतं न्यूनत्वं तथा कीर्त्तिरदानपुण्यफलप्रवादरूपा तथा दुर्नामधेयं च पुराणः पतित इति कुत्सितनामधेयं च जवति । क्केत्याह । पृथग्जने सामान्यलोकेऽप्यास्तां विशिष्टलोके । कस्येत्याह । च्युतस्य धर्मात्प्रव्रजितस्येत्यर्थः । तथा अधर्मसेविनः कलत्रादिनिमित्तं षट्कायोपमर्दकारिणः । तथा संन्निवृत्तस्य चाख एकनीयख कितचारित्रस्य च क्लिष्टकर्मबन्धाद् अधस्ता तिर्नरकेषूपपात इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ जित्तु जोगाई पसनचेासा, तदाविदं कट्टु प्रसंजमं बहुं ॥ गई च गच्छे प्रणिदिकियं पुढं, बोदी से नो सुलदा पुणो पुणो ॥ १४॥ ( यवचूरिः ) स्यैव विशेषोपायमाह । स उत्प्रवजितो मुक्त्वा जोगान् शब्दादीन् प्रसा चेतसा धर्मनिरपेक्षतया प्रकट चित्तेन तथाविधमज्ञोचितं कृत्वा संयमं कृष्याद्यारम्नं बहुमसन्तोषात्प्रभूतं स छंभूतो मृतः सन् गच्छति गतिमन निध्यातामनिष्टाम् । काचित्सुखाप्येवंभूता स्यादतो दुःखां प्रकृत्यैवासुन्दरां दुःखजननीम् । बोधिश्वास्यैव निष्कान्तस्य जिनधर्मप्राप्तिर्न सुलना । पुनः पुनः प्रभूतेष्वपि जन्मसु प्रवचनवराधकत्वात् ॥ १४ ॥ ( अर्थ. ) एने विशेष अनिष्टनी प्राप्ति थाय बे ते कहे बे. जुंजित्तु इत्यादि सूत्र. ते दीक्षानो त्याग करनार साधु जे ते ( जोगाई के० ) जोगान् एटले शब्द, स्पर्श प्रमुख जोगप्रत्ये ( पसनचेासा के० ) प्रसह्यचेतसा एटले धर्मनी अपेक्षा न राखतां पोतानी इच्छाए चालनार मनवडे ( भुंजित्तु के० ) नुक्त्वा एटले जोगवीने तथा ( तदा विहं के० ) तथाविधं एटले ते प्रकारनो अर्थात् खेती, व्यापारप्रमुख (बहुं के० ) बहुं एटले घणो ( संजमं के० ) असंयमं एटले असंयत व्यापार प्रत्ये (कद्दु के० ) कृत्वा एटले करीने मरण पामे त्यारे ( डुहं के० ) दुःखां एटले दुःख आपनार एवी (हि श्रिं के० ) अननिध्यातां एटले नहि धारेली एवी ( गई के० ) तंटले नरकादि गति प्रत्ये (गछे के०) गछति एटले गमन करे बे. ( ० ) च एटले वली ( से के० ) तस्य एटले ते चारित्रथी नष्ट थएल साधुने ( बोही के ० ) बोधिः एटले जिनधर्मनी प्राप्ति ( पुणो पुणो के० ) पुनः पुनः एटले वारेवारे घणा जव करे तो पण (नो सुलहा के० ) नो सुसना एटले सुखे मले तेवी नथी. ॥ १४ ॥ ( दीपिका.) स्यैवोत्प्रव्रजितस्य विशेषतः कष्टमाह । स उत्प्रव्रजित एवंविधां गतिं गछति । किं कृत्वा । जोगान् मुक्त्वा । केन । प्रसह्यचेतसा धर्मनिरपेक्ष I For Private Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६६५ तया प्रकटेन चित्तेन । पुनः किं कृत्वा । तथाविधमज्ञानो चितफलं बहुमसंतोषात् प्रभूतमसंयमं कृष्याद्यारम्जरूपं कृत्वा । किंनूतां गतिम् । अननिध्याताम निष्टाम् । पुनः दुःखां प्रकृत्यैवासुन्दराम् । दुःखजननीम् । पुनः अस्य उत्प्रव्रजितस्य बोधिर्जिनधर्मप्राप्तिसुला जवेत् । पुनः पुनः प्रभूतेष्वपि जन्मसु दुर्लना एव स्यात् । कथम् । प्रवचनविराधकत्वात् ॥ १४ ॥ 1 ( टीका. ) स्यैव विशेषप्रत्यपायमाह । भुंजित्तु त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । स उत्प्रव्रजितो मुक्त्वा जोगान् शब्दादीन् प्रसह्यचेतसा धर्मनिरपेक्षतया प्रकटेन चित्तेन तथाविधमज्ञोचितमधर्मफलं कृत्वा निनिर्वर्त्त्यासंयमं कृष्याद्यारम्नरूपं बहुभसंतोषात्प्रनूतं स भूतो मृतः सन् गतिं च गच्छत्यननिध्याताम् । श्रनिध्याता इष्टा न तामनिष्टामित्यर्थः । का चित्सुखाप्येवंभूता नवत्यत श्राह । दुःखां प्रकृत्यैवासुन्दरां दुःखजननीम् । बोधिश्चास्य जिनधर्मप्राप्तिश्चास्यो निष्क्रान्तस्य न सुलना । पुनः पुनः प्रभूतेवपि जन्मसु डुर्लनैव । प्रवचनविराधकत्वादिति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ इमस्स तानेर प्रस्स जंतुणो, उदोवणीप्रस्स किलेसवत्तिणो ॥ पलिनवमं जिन सागरोवमं, किमंग पुए मन इमं मणोऽदं ॥ १५ ॥ ( अवचूरिः ) यस्मादेवं तस्मादुत्पन्नः खोऽप्येतदनुचिन्त्य नोत्प्रव्रजेदित्याह । अस्य तावदात्मनो नारकस्य नरके प्राप्तस्य दुःखोपनीतस्य सामीप्येन प्राप्तदुःखस्य क्लेशवृत्तेरेकान्तक्लेशचेष्टितस्य सतो नरक एव पल्योपमं क्षीयते सागरोपमं च । यथा कर्मप्रत्ययं च किमङ्ग पुनर्ममेदं संयमार तिजं मनो दुःखमेवं विचिन्त्य नोत्प्रव्रजेत् ॥ १५ ॥ (अर्थ) एम बे माटे गमे एटलुं दुःख जोगववुं पडे तो पण चारित्रनो त्याग न करवो एम कहे बे. इमस्स इत्यादि सूत्र. ( ता के० ) तावत् एटले प्रथम ( मस्स ho) अस्य एटले ( जंतुणो के० ) जन्तोः एटले मारो जीव (नेरास्स के० ) नारकस्य एटले नारकी थाय बे त्यारे ते ( डुहोवणी अस्स के० ) दुःखोपनी तस्य एटले घणुं दुःख जेने माथे यात्री पड्युं बे एवो तथा ( किलेसवत्तिणो के० ) क्लेशत्तेः एटले एकांतथी क्लेशवालाज जेना सर्व व्यापार बे एवो थाय बे. ते समये ते नरकमांज ए जीवनुं ( प सिर्जवमं के० ) पल्योपमं एटले पल्योपम प्रमाणवायुं अथवा ( सागरोवमं के० ) सागरोपमं एटले सागरोपम प्रमाणवालुं आयुष्य पण ( किन ho ) हीयते एटले जोगववाथी नाश पामे बे. ( पु के० ) पुनः एटले तो पढी ( अंग के० ) अरे जीव ( मन के० ) मम एटले मारुं ( इमं के० ) इदं एटले आ * For Private Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (मणोऽहं के० ) मनोःखं एटले चारित्रने विषे अरति उत्पन्न थवाथी मनमां थनारं फुःख ( किं के ) किं एटले केटबुं बे ? अर्थात् कांज नथी ॥ १५ ॥ (दीपिका.) यस्मादेवं तस्माउत्पन्नःखोऽपि एतदनुचिन्त्य नोत्प्रव्रजेदित्याह । एतचिन्तनेन साधुना नोत्प्रव्रजितव्यम्। एतत्किमित्याह । अस्य तावदित्यात्मनिर्देशे। थात्मनो नारकस्य जन्तोर्नरकप्राप्तस्य पढ्योपमं सागरोपमं च दीयते । यथाकर्मप्रत्ययं पूर्ण लवति । किमङ्ग पुनर्ममेदं संयमारतिनिष्पन्नं मनोफुःखं तथाविधप्रब. सक्वेशवृत्तिर हितमेतत् दीयत एव । किनूतस्य अस्य जन्तोः। सुःखोपनीतस्य सामीप्येन प्राप्तपुःखक्वेशवृत्तेः एकान्तक्लेशचेष्टितस्य ॥ १५ ॥ (टीका.) यस्मादेवं तस्माउत्पन्नपुःखोऽप्येतदनुचिन्त्य नोत्प्रव्रजेदित्याह। श्मस्स त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। अस्य तावदित्यात्मन एव निर्देशः। नारकस्य जन्तो रकमनुप्राप्तस्येत्यर्थः । पुःखोपनीतस्य सामीप्येन प्राप्तपुःखस्य क्लेशवृत्तरेकान्तक्लेशचेष्टितस्य सतो नरक एव पट्योपमं दीयते सागरोपमं च यथाकर्मप्रत्ययं । किमङ्ग पुनर्ममेदं संयमारतिनिष्पन्नं मनोःखं तथाविधक्वेशदोषरहितम् । एतत्वीयत एवैतच्चिन्तनेन नोत्प्रवजितव्यमिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ न मे चिरं जुकमिणं नविस्सइ, असासया नोगपिवास जंतुणो॥ न चे सरीरेण इमेणविस्सइ, अविस्सई जीविअपळवेण मे ॥ १६॥ (श्रवचूरिः ) एतदेवाह । न मम चिरं प्रजूतकालं संयमारतिलक्षणं दुःखं नविष्यति । अशाश्वती प्रायो यौवनकालावस्थायिनी नोगपिपासा विषयतृमा जन्तोःप्राणिनः । न चेहरीरेणानेनापयास्यति वृद्धस्य सतोऽपयास्यति। तथापि किमाकुलत्वम् । यतोऽपयास्यति । जीवितपर्यायेण जीवितपरित्यागेन ॥ १६ ॥ (अर्थ.) उपर कहेबीज वात विस्तारथी कहे . न मे इत्यादि सूत्र. संयमने विषे अरति थएल साधु था रीते चिंतवे. (मे के०) मम एटले मारुं (श्मं के०) दं एटले श्रा (पुरकं के) पुःखं एटले पुःख जे ते (चिरं के) चिरं एटले घणा काल सुधी (न नविस्तर के०) न नविष्यति एटले रहेशे नहि. कारण के, (जंतुणो के०) जन्तोः एटले जीवनी (नोगपिवास के०) जोगपिपासा एटले विषय जोगववानी श्छा ( असासया के ) अशाश्वता एटले चिरकाल न रहेनारी अर्थात् यौवनदशा होय त्यासुधी रहेनारी एवी . (चे के ) चेत् एटले जो कदाच विषयनी तृष्णा (श्मेण के०) अनेन एटले आ ( सरीरेण के०) शरीरेण एटले शरीर Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका। ឌី១ घडे (न अविस्स के ) नापयास्यति एटले नहि जाय. अर्थात् श्रा शरीर जे त्यासुधी पण जो कदाच विषय जोगववानी श्छा जाय नहि, तो पण (मे के०) मम एटले मारा (जीविश्रपजावेण के०) जीवितपर्ययेण एटले आयुष्यना अंतवडे (थविस्स के० ) अपयास्यति एटले जशे. अर्थात् आयुष्य पूरूं थवाथी मरण श्रावे अवश्य विषयतृष्णानो नाश थशेज एम चिंतव. ॥ १६॥ (दीपिका.) विशेषेणैतदेवाह । मे मम चिरं प्रनूतकालमिदं मुखं संयमविषयेरतिलक्षणं न नविष्यति । किमितीत्याह । प्रायो यौवनकालावस्थायिनी जोगपिपासा विषयतृष्णा जन्तोःप्राणिनोऽशाश्वती।अशाश्वतीत्व एव कारणान्तरमाह । न चेरीरेणानेन विषयतृष्णा अपयास्यति । यदि शरीरेण अनेन कारणनूतन वृक्षस्यापि सतो विषयेष्ठा नापयास्यति । तथापि किमाकुलत्वम् । यतोऽपयास्यति जीवितस्य अपगमेन मरणेनेत्येवं निश्चितं स्यात् ॥ १६ ॥ (टीका.) विशेषेणैतदेवाह । न म ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। न मम चिरं प्रनूतकालं फुःखमिदं संयमारतिलक्षणं नविष्यति । किमित्यत आह । अशाश्वती प्रायो यौवनकालावस्थायिनी जोगपिपासा विषयतृत्ला जन्तोःप्राणिनः। अशाश्वतीत्व एव कारणान्तरमाह । न चेहरीरेणानेनापयास्यति न यदि शरीरेणानेन करणनूतेन वृक्षस्यापि सतोऽपयास्यति । तथापि किमाकुलत्वम् । यतोऽपयास्यति जीवितपर्ययेण जीवितस्यापगमेन मरणेनेत्येवं निश्चिन्तः स्यादिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ जस्सेवमप्पा उ दविज निबिन, चश्ऊ देहं न दु धम्मसासणं॥ तं तारिसं नो पश्लंति इंदिआ, उविंति वाया व सुदंसणं गिरिं ॥१७॥ (श्रवचूरिः) अस्यैव फलमाह । यस्य साधोरेवमुक्तप्रकारेण श्रात्मा । तुरेवार्थे । यात्मैव नवे निश्चितो दृढः । स त्यजेत् देहं विघ्न उपस्थिते न पुनर्धर्मशासनम् । तं तादृशम् । धर्मे निश्चितं न प्रचालयन्ति संयमादिन्छियाणि उत्पतछाता श्व सुदर्शनं मेरुगिरिम् । यथा मेरुं न वाताश्चालयन्ति । तथा तमपन्जियाणीत्यर्थः॥१७॥ (अर्थ.) एज फल कहे . जस्स इत्यादि सूत्र. ( जस्स के० ) यस्य एटसे जेनो (अप्पा उ के०) श्रात्मा तु एटले श्रात्मा जे तेज ( एवं के० ) एवं एटले उपर कहेला प्रकारे (निवि के०) निश्चितः एटले दृढ एवो (हविज के०) नवेत एटले होय. ते साधु (देहं के) देहं एटले शरीरप्रत्ये (चश्ज के०) त्यजेत् एटले त्याग करे. (ज के०) तु एटले पण (धम्मसासणं के०) धर्मशासनं एटले धर्मनी Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६७ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. थाज्ञा प्रत्ये (न के०) न एटले त्याग न करे. (व के०) व एटले जेम (उप्पायवाया के०) उत्पातवाताः एटले तोफानी पवन जे ते ( सुदंसणं गिरि के० ) सुदर्शनं गिरि एटले मेरु पर्वतने चलावी शकता नथी. तेम (इंदिया के०) इंडियाणि एटले इंछियो जे ते (तारिसं के०) तादृशं एटले उपर कहेल प्रकारे दृढ एवा (तं के०) तं एटले ते साधुने (नोपश्लंति के०)नप्रचालयन्ति एटले चलावी शकता नथी. ॥१७॥ - (दीपिका.) अथ अस्यैव साधोः फलमाह । इन्द्रियाणि चकुरादीनि तं पूर्वोक्तं तादृशं धर्मे निश्चितं साधु संयमस्थानात् न प्रचालयन्ति न प्रकम्पयन्ति। दृष्टान्तमाह । के कमिव । यथोत्पातवाताः सुदर्शनं गिरि मेरुपर्वतं न कम्पयन्ति। तं साधु कम् । यस्य साधोरेवमुक्तप्रकारेण श्रात्मा एव निश्चितो दृढः स कचिद् विघ्न उत्पन्ने देहं त्यजेत् । परं नतु शासनं न पुनर्धर्माझाम् ॥ १७ ॥ (टीका.) अस्यैव फलमाह । जस्सेव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । तस्येति सा. धोरेवमुक्तेन प्रकारेण । आत्मा तु। तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् । श्रात्मैव जवेनिश्चितो दृढः। स त्यजेदेहं कचिहिघ्न उपस्थिते न तु धर्मशासनं न पुनर्धर्माज्ञामिति । तं ताहशं धर्मनिश्चितं न प्रचालयन्ति संयमस्थानान्न कम्पयन्ती न्याणि चतुरादीनि। निदर्शनमाद । उत्पतझाता श्व संपतत्पवना श्व सुदर्शनं गिरि मेरुम् । एतदुक्तं नवति । यथा मेरुं न वाताश्चालयन्ति । तथा तमपन्जियाणीति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ इच्चेव संपस्सिअ बुद्धिमं नरो, आयं जवायं विविहं विआणिा ॥ काएण वाया अउ माणसेणं, तियुत्तिगुत्तो जिणवयणमदिहिकासि त्ति बेमि ॥१७॥ ॥रवक्का पढमा चूला सम्मत्ता ॥१॥ __(अवचूरिः) उपसंहरन्नाह । श्च्चेवत्ति सूत्रम् । इत्येवमध्ययनोक्तं उपजीवित्वादि संप्रेदयादित थारन्य यथावदृष्ट्वा बुद्धिमान्नरः न श्रायं ज्ञानादेः उपायं तत्साधनप्रकारं काल विनयादि विविधं विज्ञाय । कायेन वाचा अथ मानसेन त्रिनिरपि करणैर्यथाप्रवृत्तः त्रिनिरपि गुप्तोऽर्हमुपदेशमधितिष्ठेत् । तमुक्तपालनपरो नूयात् । भावायसिकौ मुक्तिसिझेरिति। ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥१॥ इति प्रथमचूला व्याख्याता॥ (अर्थ.) हवे या प्रकरणनो उपसंहार करता बता कहे . श्चेव इत्यादि सूत्र. Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६६ए (बुद्धिमं के०) बुद्धिमान् एटले बुद्धिशाली एवो (नरो के०) नरः एटले मनुष्य जे ते (श्चेव के०) इत्येवं एटले था प्रथम चूलिकामां कहेल सर्व वस्तुनो (संपस्सिथ के०) दृष्ट्वा एटले विचार करीने तथा ( विविहं के०) विविधं एटले अनेक प्र. कारना (थायं के) श्रायं एटले सम्यग् ज्ञान प्रसुख लाल प्रत्ये अने (उवायं के०) उपायं एटले सम्यग् ज्ञानादिकना उपायनूत एवा विनयादिकने (विश्राणिय के०) विज्ञाय एटले जाणीने (काएण के०) कायेन एटले कायावडे, (वाया के०) वाचा एटले वाणीवडे (अफु के०) अथ एटले अथवा (माणसेणं के) मानसेन एटले मनवडे (तियुत्तिगुत्तो के०) त्रिगुप्तिगुप्तः एटले अनुक्रमे कायगुप्ति, वचनगुप्ति अने मनोगुप्ति वडे गुप्त एवो थयो तो ( जिणवयणं के० ) जिनवचनं एटले जिनेश्वर जगवानना नाषित श्रागम प्रत्ये (अहि हिजासि के० ) अधितिष्ठेत् एटले श्राश्रय करे. अर्थात् जिन नाषित थागममा कहेल विधिमाफक यथाशक्ति आचार पाले. तेथी जावथी लाज रूप जे सम्यग्ज्ञानादिक तेनी प्राप्ति थाय बे, अने पनी अनुक्रमे मुक्ति मले .॥ १० ॥ इति श्रीदशवैकालिक बालावबोधमां रतिवाक्य नामक प्रथम चूलिका संपूर्ण ॥१॥ ( दीपिका.) अथोपसंहारमाह । बुद्धिमान्नरः सम्यग्बुष्ट्या सहितो मानवः कायेन वाचा वचनेन अथ मनसा त्रिनिरपि करणैर्यथाप्रवृत्तै स्त्रिगुप्तिगुप्तः सन् जिनवचनं तीर्थकरस्योपदेशमधितिष्ठेत् । यथाशक्ति तमुक्तैकक्रियापालने तत्परो नूया. त् । जावायसिकौ तत्त्वतो मुक्तिसिः किं कृत्वा । इत्येवमध्ययने कथितं दुःप्रजीवित्वादि संप्रेक्ष्य थादित श्रारन्य यथावदृष्ट्वा । पुनः किं कृत्वा । थायं सम्यग्ज्ञानादेाजमुपायं च ज्ञानादिसाधनप्रकारं विविधमनेकप्रकारं ज्ञात्वा । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥१॥ इति श्रीदशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां प्रथमचूलिका समाप्ता ॥१॥ (टीका.) उपसंदन्नाह । श्चेव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । इत्येवमध्ययनोक्तं मुःप्रजीवित्वादि संप्रेदयादित श्रारज्य यथावदृष्ट्वा बुद्धिमान्नरः खम्यग् बुप्युपेतः। श्रायमुपायं विविधं विझाय । श्रायः सम्यग्ज्ञानादेः । उपायस्तत्साधनप्रकारः का. लविनयादिविविधोऽनेकप्रकारस्तज्ज्ञात्वा । किमित्याह । कायेन वाचाथ मनसा त्रिनिरपि करणैर्यथाप्रवृत्तस्त्रिगुप्तिगुप्तः सन् जिनवचनमर्दछुपदेशमधितिष्ठेत् । यथाशक्ति Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तमुक्तैकक्रियापालनपरो नूयात् लावायसिकौ तत्त्वतो मुक्तिसिद्धेः । ब्रवीमीति पूर्वव दिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ उक्तोऽनुगमः सांप्रतं नयास्ते च पूर्ववदेव।समाप्तं रतिवाक्याध्ययनमिति व्याख्यातंप्रथमचूडाध्ययनम्॥इति श्रीदशवैकालिके श्रीहरिजप्रसूरिविरचित बृहकृत्त्यांप्रथमा चूलिका॥ अथ वितीया चूलिका। चूलिअंतु पवकामि, सुअं केवलिनासिअं॥ जं सुणित्तु सुपुरमाणं, धम्मे जप्पऊए मई॥१॥ (श्रवचूरिः) अथ द्वितीयारज्यते । अस्य चौघतः सबन्ध उक्त एव । विशेषतः पूर्वाध्ययने सीदतः स्थिरीकरणार्थमुक्तम्।पत्र तु विविक्तचर्या उच्यते।चूडा नामादितिः षोढा । जावचूलां।तुशब्दात्प्रवक्ष्यामि।श्यं चूडा श्रुतंवर्त्तते।श्रुतझानं। कारणे कार्योपचारात् । ततश्च केवलजाषितमनन्तरमेव केवलिनोक्तम्। इति सफलं विशेषणम्। एवं वृद्धोक्तिः।कया चिदार्ययाऽसहिष्णुः कूरगमुकप्रायः साधुश्चातुर्मासकाद्युपवासं कारितः। स तदाराधनया मृत एव । ऋषिघातिकादमित्युहिना सा जिनं पृछामीति गुणावर्जितदेवतया नीता श्रीसीमन्धरान्ते । पृष्ठो जगवान् । अष्टचित्ता अघातिकेत्युक्ता। श्मे चूमे ग्राहिते । श्यमेव विशेष्यते । यत्वा सुपुण्यानां पूर्वावर्जितपुण्ययुक्तानां ।चारित्रधर्म उत्पद्यते मतिः जावतः श्रझा ॥१॥ (अर्थ.) प्रथम चूलिका थ. हवे बीजीनो श्रारंज थाय जे. एनो संबंध श्रा रीते . प्रथम चूलिकामां चारित्रने विषे शिथिलपरिणामी थएल साधुने स्थिर करवानो उपाय कह्यो. हवे आ चूलिकामां साधुए श्रासक्तिरहित विहार करवो एम कहे . चूलिश्र इत्यादि सूत्र. हवे (चूलियं के०) चूलिकां एटले चूलिका प्रत्ये (पवरकामि के०) प्रवक्ष्यामि एटले कहीश. ते चूलिका केवी ते कहे . (केवलिजासियं के० ) केवलिनाषितम् एटले केवली लगवाने नाखेढुं (सुझं के०) श्रुतं एटले श्रुतरूप बे. तेमज (जं के० ) यां एटले जे केव विनाषित श्रुतरूप चूलिका प्रत्ये (सु. णितु के०) श्रुत्वा एटले सांजलीने (सपुन्नाणं के०) सपुण्यानाम् एटले पुण्यानुबंधि पुएयवाला जीवोने (धम्मे के०) धर्मे एटले चारित्ररूप धर्मने विषे (मई के०) मतिः एटले बुद्धी अर्थात् श्रका (उप्पड़ाए के) उत्पद्यते एटले उत्पन्न थाय बे. अहिं वृक्ष संप्रदायथी चालती श्रावेल कथा श्रा प्रकारे . कोश् साध्वीए उपवास प्रमुख Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीया चूलिका। ६७१ तपस्या खमी न शके एवा को साधु पासे चोमासी प्रमुख पर्वने दिवसे उपवास कराव्यो. ते साधु ते तपस्यानी आराधनावडे काल करी गया. 'हुंमुनिनो घात करनारी थर' एम विचारी उछिन्न थएली साध्वीए सीमंधर स्वामीने या वातनी आलोयणा पूबवानो विचार कस्यो. पनी साध्वीनागुणथी वश थएल को देवता साध्वीने सीमंधर खामी पासे लगयो. साध्वीए नगवानने या वात पूबी. त्यारे "जेना मनमांमाग परिणाम नथीते हिंसक पण नथी." एम कही नगवाने था चूलिका साध्वीने आपी.॥१॥ (दीपिका.) व्याख्याता प्रथमचूलिका श्रथ द्वितीया श्रारज्यते । पूर्वचूलिकायां सीदतः साधोः स्थिरीकरणमुक्तम् । इह तु अवसरप्राप्ता विविक्ता चर्या उच्यत इत्ययं संबन्धः। श्रहं चूलिका प्रवक्ष्यामि । तुशब्द विशेषितां नावचूडां प्रकर्षेण अवसरप्राप्तानिधानलक्षणेन कथयिष्यामि। किंजूतां चूलिकाम् ।श्रुतं श्रुतज्ञानम्। चूडा हि श्रुतझानं वर्तते । कारणे कार्यस्य उपचारात्। एतच्च केवलिना नाषितम्।अनन्तर एव केवलिना प्ररूपितमिति विशेषणं सफलम् ।यत एवं वृद्धवादः श्रूयते। कयाचित् आर्यया थ. सहिष्णुः कूरगडुकप्रायः साधुः चातुर्मासकादौ उपवासं कारितः। स तदाराधनया मृतः। मृते च तस्मिन् साध्व्या झातम् । अहमृषिघातिका जाता । तत उहिना सती तीर्थकरं पृष्ठामि इति जातबुछिस्ततस्तस्या गुणावर्जितया देवतया साध्वी सीमंधरखामिसमीपे मुक्ता । तया च नगवान् आलोचनामाश्रित्य पृष्टः। जगवान् श्राद । त्वं तु न उष्टचित्ता ततोऽघातिका । ततो नगवता चूलाघ्यं तस्यै दत्तम् । देवतया च ततः स्वस्थानमानीता साध्वी । श्रत श्दमेव विशेष्यते । तत्रूत्वा आकर्ण्य सपुण्यानां कुशलानुबन्धिपुण्ययुक्तानां प्राणिनां अचिन्त्यचिन्तामणिकल्पे धर्मे चारित्रधर्मे मतिः उत्पद्यते जावतः श्रका जायते । अनेन चारित्रं चारित्रबीजं च उपजायत इति । एतमुक्तं नवति ॥१॥ (टीका.) अधुना द्वितीयमारच्यते । अस्य चौघतः संबन्धः प्रतिपादित एव । विशेषतस्त्वनन्तराध्ययने सीदतः स्थिरीकरणमुक्तमिह तु विविक्तचर्योच्यत इत्ययमनिसंबन्धः । एतदेवाह नाष्यकारः॥ अहिगारो पुवुत्तो, चनविहो विश्अचूलिश्रनयणे ॥ सेसाणं दाराणं अहक्कम फासणा हो ॥ ३५ ॥ व्याख्या ॥ अधिकार उघतः प्रपञ्चप्रस्तावरूपः पूर्वोक्तो रतिवाक्यचूडायां प्रतिपादितश्चतुर्विधो नामचूडास्थापनाचूमेत्यादिरूपो यथा द्वितीयचूडाध्ययने आदानपदेन चूलिकाख्येन । सोऽनुयोगमारोपन्यासस्तथैव वक्तव्य इति वाक्यशेषः । शेषाणां हाराणां सूत्रालापकगतनिदेपा Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. दीनां यथाक्रमं यथाप्रस्ताव स्पर्शना षड्व्याख्यादिरूपा जवतीति गाथार्थः ॥ त्र च व्यतिकरे सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । चूलिश्रं तु इत्यादि । श्रस्य व्याख्या । चूडां तु प्रवक्ष्यामि । चूडां प्राग्व्यावर्णित शब्दार्थाम् । तुशब्द विशेषितां जावचूडां प्रवक्ष्यामीति । प्रकर्षेणावसरप्राप्तानिधानलक्षणेन कथयामि । श्रुतं केवलिनाषित मितीयं हि चूडा श्रुतज्ञानं वर्त्तते । कारणे कार्योपचारात् । एतच्च केवलिनाषितमनन्तरमेव केवलिना प्ररूपितमिति सफलं विशेषणम् । एवं च वृद्धवादः । कया चिदार्ययासहिष्णुः कुरगडुकप्रायः संयतश्चातुर्मासिकादावुपवासं कारितः । स तदाराधनया मृत एव । इषिघातिकाद मित्युद्विग्ना सा तीर्थकरं पृछामीति गुणावर्जितदेवतया नीता श्रीसीमंधरस्वामिसमीपे । पृष्टो भगवानडुष्टचित्ताघातिकेत्यनिधाय जगवतेमां चूडां ग्राहितेति । इदमेव विशेष्यते । यत्रुत्वेति । यछ्रुत्वाकर्ण्य सपुण्यानां कुशलानुबन्धिपुष्ययुक्तानां प्राणिनां धर्मेऽचिन्त्य चिन्तामणिकल्पे चारित्रधर्म उत्पद्यते मतिः । संजायते जावतः श्रद्धा । श्रनेन चारित्रं चारित्रबीजं चोपजायत इत्येतदुक्तं जवतीति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ सोपबहुजणंमि, पडिसोल इलकेणं ॥ पडिसोच्यमेव अप्पा, दायवो दोनकामेणं ॥ २ ॥ ( अवचूरिः ) एतद्धिप्रतिज्ञासूत्रम् । इह चाध्ययने चर्यागुणा वक्तव्यास्तत्प्रवृत्तौ मूलपादभूतमिदमाह । अनुश्रोतः प्रस्थिते नदीप्रवाहपतितकाष्ठवत् विषयकुमा द्रव्य क्रियानुकूल्येन प्रवृत्ते बहुजने तथाप्रस्थानेऽब्धिगामिनि प्रतिश्रोतोबन्धलदेण द्रव्यतो नद्यां देवतानियोगात् प्रतीपश्रोतः प्राप्तल देण जावतो विषयवैपरीत्यात्कथं चिदवाप्तसंयम देण अपाकृते विषयादिप्रतिश्रोत एव संयमलक्ष्या निमुखमात्मा दातव्यः प्रवर्त्तितव्यः । मुक्ततया जवितुकामेन ॥ २ ॥ (अर्थ) अध्ययनमां चर्याना गुण कहेवाना बे. तेमां मूलभूत प्रथम सूत्र कहे . सो इत्यादि सूत्र एटले नदीना प्रवाहमां पडेलुं काष्ठ जेम प्रवाहना वेगथी समुद्रतरफ जाय बे. तेम ( बहुजण म्मि के० ) बहुजने एटले घणो लोक सोप ० ) अनुस्रोतःप्रस्थिते एटले विषयरूप प्रवाहना वेगथी संसार समुद्र तरफ गमन करते बते ( प डिसोलल रकेण के० ) प्रतिस्रोतोलब्धल देण एटले विषय प्रवाहथी उलटा जागने विषे रहेल संयम तरफ जेनुं लक्ष्य पहोच्युं एवा ( दोडकामे के० ) जवितुकामेन एटले मुक्त यवानी इछा करनार पुरुषे Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीया चूलिका । ६७३ ( अप्पा के० ) आत्मा एटले पोतानो आत्मा ( प डिसो मेव के० ) प्रतिस्रोत एव एटले विषय प्रवाह जे तरफ चाल्यो बे तेथी उलटोज ( दायवो के० ) दातव्यः एटले देवो. अर्थात् संयमानिमुख करवो. ॥ २ ॥ 1 (दीपिका) एतद्धि प्रतिज्ञासूत्रम् । इह चाध्ययने चर्यागुणानिधेयास्तस्य प्रवृत्तौ मूलपादभूतमिदमाह । एवंविधेन साधुना श्रात्मा जीवः प्रतिस्रोतएव डुरपाकरणीयमपपाकृत्य विषयादिसंयमलक्ष्या निमुखमेव दातव्यः प्रवर्त्तितव्यः । न कुचरितान्युदादरणीकृत्य असन्मार्गप्रवणं चेतोऽपि कर्त्तव्यम् । अपि त्वागमै कप्रवणेनैव जवितव्यम् । किं० साधुना । जवितुकामेन संसारसमुद्रपरिहारेण मुक्ततया जवितुकामेन । किंनूतेन साधुना । प्रतिस्रोतो लब्धलक्षण द्रव्यतस्तस्यामेव नद्यां कथंचित् देवतासां निध्यात् प्र तपस्रोतः प्राप्तल देण | जावतस्तु विषया दिवैपरीत्यात् कथंचित् प्राप्त संयम देण । क सति । बहुजने तथाविधादन्यासात् प्रभूतलोकेऽनुस्रोतः प्रस्थिते सति नदी - पूरप्रवाहपतितकाष्ठवत् । विषयकुमार्गद्रव्य क्रियानुकूल्येन प्रवृत्ते सति तथाप्रस्थानेनोदधिगामिनि सति ॥ २ ॥ ( टीका. ) एतद्धि प्रतिज्ञासूत्रम् । इह चाध्ययने चर्यागुणा वनिधेयास्तत्प्रवृत्तौ मूलपादनूतमिदमाह । श्रणुसो ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या | अनुस्रोतः प्रस्थिते नदीपूरप्रवाहपतितकाष्ठवद् विषयकुमार्गद्रव्य क्रियानुकूल्येन प्रवृत्ते बहुजने तथा विधाज्यासात् प्रभूतलोके तथा प्रस्थानेनोदधिगामिनि । किमित्याह । प्रतिस्रोतोलब्धलक्ष्ये| द्रव्यतस्तस्यामेव नद्यां कथंचिद्देवतानियोगात्प्रतीपस्त्रोतः प्राप्तलक्ष्येण | जावतस्तु विषया दिवैपरीत्यात्कथं चिदवाप्तसंयमलक्ष्येण प्रतिस्रोत एव डुरपाकरणीयमप्यपाकृत्य विषयादिसंयमलक्ष्या निमुखमेवात्मा जीवो दातव्यः प्रवर्त्तयितव्यो जवितुकामेन संसारसमुद्र परिहारेण मुक्ततया जवितुकामेन साधुना । न कुजनाचरितान्युदाहरणीकृत्यासन्मार्गप्रवणं चेतोऽपि कर्त्तव्यम् । पित्वागमै कप्रवणेनैव जवितव्यमिति । उक्तं च। निमित्तमासाद्य यदेव किंचन, स्वधर्ममार्ग विसृजन्ति बालिशाः ॥ तपःश्रुतज्ञानधनास्तु साधवो न यान्ति कृत्रे परमेऽपि विक्रियाम् ॥ १ ॥ ॥ तथा कपालमादाय विषणवाससा, वरं द्विषद्वेश्मसमृद्धिरीहिता ॥ विहाय लकां न तु धर्मवैशसे, सुरेन्द्रसार्थेऽपि समाहितं मनः ॥ २ ॥ तथा ॥ पापं समाचरति वीतघृणो जघन्यः, प्राप्यापदं स एव विमध्यबुद्धिः ॥ प्राणात्ययेऽपि न तु साधुजनः स्ववृत्तं वेलां समुद्र इव लङ्घयितुं समर्थः ॥ ३ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ 生 For Private Personal Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. अणुसोअसुदो लोन, पडिसो आसवो सुविदिआणं ॥ अणुसो संसारो, पडिसो तस्स नत्तारो॥३॥ (अवचूरिः )अधिकृतमेव स्पष्टयन्नाह। श्रनुस्रोतःसुखो विषयादिसुखो लोकः।प्रतिस्रोतस्तस्माछिपरीत श्राश्रव इन्जियजयादिरूपः । श्राश्रमो वा व्रतरूपः । अनुस्रोतः संसारो विषयानुकूल्यम्।कारणे कार्योपचारात् । यथा विषं मृत्युः। प्रतिस्रोतस्तस्माउत्तारः। पञ्चम्यर्थे षष्ठी। हेतौ फलोपचारात् । यथायुघृतम् ॥३॥ (अर्थ.) एज वात स्पष्ट कहे . अणुसोत्र इत्यादि सूत्र. (लोगो के०) लोकः एटले लोक जे ते(अणुसोअसुहो के०) अनुस्रोतःसुखः एटले जल जेम नीचाणमां सुखे जाय , तेम विषय प्रवाहमां वही जवामांसुख माननारो डे. (सुविहिाणं के०) सुविहितानां एटले साधुऊनो (श्रासवो के०) आश्रमः एटले दीक्षारूप श्राश्रम जे ते (प. डिसो के०) प्रतिस्रोतः एटले समुअतरफ जती नदीना प्रवाहमांथी नदीना मूल आगल जवा समान बे, अर्थात् विषयानिमुख लोकोने साधुनां व्रत एवा कठण बे. जीवोने (संसारो के० ) संसारः एटले शब्द, स्पर्श प्रमुख विषयरूप संसार जे ते (अणुसो के०) अनुस्रोतः एटले पाणीनो वेग जे तरफ होय ते तरफ जवा समान बे. अने ( तस्स के०) तस्य एटले ते संसारनो ( उत्तारो के०) उत्तारः एटले उतरबुं ते ( पडिसो के०) प्रतिस्रोतः एटले पाणी जे तरफथी वहेतुं होय ते तरफ उ. ल? जवा समान डे. ॥३॥ (दीपिका.)अधिकृतमेव स्पष्टयन्नाह।अनुस्रोतःसुखोलोक उदकनिम्नानिसर्पणवत्। कथम्।यतो लोकःप्रवृत्त्यानुकूल विषया दिसुखः गुरुकर्मत्वात्। अथ प्रतिस्रोत एतस्माद्विपरीतः।श्रव इन्जियजयादिरूपः परमार्थपेशलः कायवाङ्मनोव्यापारः । श्राश्रमो वा व्रतग्रहणादिरूपः । सुविहितानाम् साधूनाम् । अथो जयफलमाह।अनुस्त्रोतः संसारः। शब्दादि विषयानुकूव्यं संसार एव।कारणे कार्योपचारात्। यथा विषं मृत्युः। दधित्रपुसी प्रत्यदो ज्वरः। प्रतिस्रोत उक्तलदणः। तस्येति पञ्चम्यर्थे षष्ठी । सुपां सुपो जवन्तीति वचनात् । तस्मात्संसारामुत्तारः । उत्तरणमुत्तारः। हेतौ फलोपचारात् । यथायुघृतम् । तन्मुलान् वर्षति पर्जन्यः ॥३॥ (टीका.) अधिकृतमेव स्पष्टयन्नाह । अणुसोथ त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। अनुस्रोतःसुखो लोक उदकनिम्नानिसर्पणवत् प्रवृत्त्यानुकूल विषयादिसुखो लोकः कर्मगुरुत्वात् प्रतिस्रोत एव तस्माछिपरीत श्राश्रव इन्जियजयादिरूपः । परमार्थपेशलः Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालके द्वितीया चूलिका । ६य कायवाङ्मनोव्यापारः । श्राश्रमो वा व्रतग्रहणादिरूपः । सुविहितानां साधूनामुजयफलमाह । श्रनुस्रोतः संसारः । शब्दादिविषयानुकूल्यं संसार एव । कारणे कार्योपचारात् । यथा विषं मृत्युः । दधित्रपुसी प्रत्यक्षो ज्वरः । प्रतिस्रोत उक्तलक्षणस्तस्येति पञ्चम्यर्थे षष्ठी । सुपां सुपो जवन्तीति वचनात् । तस्मात्संसाराडुत्तार उत्तरणमुत्तारः । हेतौ फलोपचारात् । यथायुर्धृतम् । तन्डुलान्वर्षति पर्जन्य इति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ तम्दा यायारपरक्कमेणं, संवरसमादिवदुलेणं ॥ चरित्र्या गुणा नियमा, प्र ढुंति साढूण दठवा ॥ ४ ॥ ( अवचूरिः ) तस्मादाचारपराक्रमेणेत्याचारे ज्ञानादौ पराक्रमो बलं यस्य तेन संवर इन्द्रियादिविषये समाधिरनाकुलत्वं प्रभूतं बहुलं यस्य तेन । चर्या निनावसाधनी बाह्या नियतवासादिरूपा । गुणाश्च मूलोत्तराद्याः । नियमाश्चोत्तरगुणानां पिएम विशुद्धयादीनां वकाला सेवन नियोगा द्रष्टव्याः साधूनां सम्यग्ज्ञानासेवनप्ररूपणया ॥ ४ ॥ ( अर्थ. ) जे माटे एम बे ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते माटे ( श्रायारपरक मेi ho ) श्राचारपराक्रमेण एटले ज्ञानादि आचारने विषे पराक्रम जेनो बे एवा ( संवरसमा हिबहुलेणं के० ) संवरसमाधिबहुलेन एटले संवर ते इंद्रियादिकनो जय ने समाधि ते श्राकुलतानो अभाव ए बन्ने जेमां घणा बे एवा ( साहूए के० ), साधुना एटले साधु जे तेणे ( चरिया के० ) चर्या एटले एक ठेकाणे न रहेतुं इत्यादि बाह्य श्राचाररूप चर्या, ( गुणा के० ) गुणाः एटले मूलगुण तथा उत्तरगुण (अ ho) च एटले वली ( नियमा के० ) नियमाः एटले पिंडविशुद्धि प्रमुख; जेनो जे - वसर होय तेनुं ते श्रवसरे आचरण करवारूप नियम ( दवा के० ) द्रष्टव्याः एटले जाणवा, सेववा तथा प्ररूपवा योग्य एवा ( हुंति के० ) जवन्ति एटले बे ॥ ४ ॥ ( दीपिका. ) यस्मादेतदेवं पूर्वोक्तं तस्मात् साधुनैवंविधेन श्रप्रतिपाताय विशुये च साधूनां चर्या निक्षुभावसाधना बाह्या नियतवासादिरूपा गुणाश्च मूलगुणोत्तरगुणा नियमाश्च उत्तरगुणादीनामेव पिएक विशुद्ध्यादीनां स्वकालासे - वननियोगा द्रष्टव्या जवन्ति । एते चर्यादयः साधूनां द्रष्टव्या जवन्ति । सम्यग्ज्ञानासेवनप्ररूपणारूपेण । किंभूतेन साधुना । श्राचारपराक्रमेण । श्राचारे ज्ञानादौ पराक्रमः प्रवृत्तिर्बलं यस्य स तेन । पुनः किंनूतेन साधुना । संवरसमाधिबहु For Private Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. लेन । संवर इन्द्रियादिविषये समाधिरनाकुलत्वं बहुलं प्रभूतं यस्य स संवरसमा - बिहुलस्तेन ॥ ४ ॥ ( टीका. ) तम्ह त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यस्मादेतदेवमनन्तरो दितं तस्मादाचारपराक्रमेणेत्याचारे ज्ञानादौ पराक्रमः प्रवृत्तिर्बलं यस्य स तथाविध इति गमकत्वादुत्री हिस्तेनैवंभूतेन साधुना संवरसमाधिवदुलेनेति । संवर इन्द्रियादिविषये समाधिरनाकुलत्वं बहुलं प्रभूतं यस्य स इति समासः पूर्ववत् । तेनैवंभूतेन सता - प्रतिपाताय विशुद्धये च । किमित्याह । चर्या निकुभावसाधनी बाह्या नियतवासादिरूपा । गुणाश्च मूलगुणोत्तरगुणरूपाः । नियमाश्चोत्तरगुणानामेव पिएम विशुद्ध्यादीनां स्वकालासेवन नियोगा जवन्ति साधूनां द्रष्टव्या इत्येते चर्यादयः साधूनां द्रष्टव्या जवन्ति । सम्यग्ज्ञानासेवनप्ररूपणारूपेणेति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ 1 निए वासो समुच्प्राणचरित्र्या, अन्नायनं पयरिक्कया ॥ प्पोवही कलविवऊणा प्र, विहारचरिच्या इसि पसा ॥ ५ ॥ ( यवचूरिः ) चर्यामाह । श्रनियतवासो मासकल्पादिना । समुदानचर्या अनेकत्र या चित निक्षाचरणम् । ज्ञातोञ्ठं विशुद्धपकरणग्रहणम् । विषयपरिक्षयाय विजनेकान्तसेविता च । अल्पोपधित्वं स्तोकोपधि से वित्वम् । कलह विवर्जना च । विहारचर्या विहरण स्थितिरियमेवंभूता रुषीणां साधूनां प्रशस्ता व्यापाजावात् । श्राज्ञापालनेन नावचरणसाधनाद् विहारचर्या कृषीणां प्रशस्तेत्युक्तम् । ॥ ५ ॥ ( . ) हवे साधुर्जनी अनियतवास रूप चर्या कहे बे. अनिए इत्यादि सूत्र. ( निवास के० ) अनियतवासः एटले एकज ठेकाणे एक सरखं न रहे ते नियत वास, ( समुश्राणचरिश्रा के० ) समुदानचर्या एटले अनेक ठेकाणेथी गोचरीनी विधि माफक लावेल निक्षानो आहार करवो, ( अन्नायनं के० ) अज्ञातो एटले शुद्ध उपकरण ग्रहण करवा होय तो ते अपरिचित गृहस्थना घरथी लेवा ते रूप अज्ञात नंब ( अ के० ) च एटले वली ( परिक्कया के० ) प्रतिरिक्तता एटले ज्यां जीड न होय एवा एकांत स्थलने विषे वास करतो ते रूप 'प्रतिरिक्तता, (अप्पोवही के० ) अल्पोपधिः एटले उगटपणुं न देखाय एवी स्तोकमात्र उपधि, ( ० ) च एटले वली ( कलह विवऊणा के० ) कलह विवर्जना एटले कलहनुं वर्जवं ते, ए ( इसिणं के० ) ऋषीणां एटले साधुर्जनी ( विहारचरिश्रा ho ) विहारचर्या एटले विहारनी मर्यादा ( पसवा के० ) प्रशस्ता एटले पवित्र बे ॥ २५ ॥ For Private Personal Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीया चूलिका। ६७७ ( दीपिका.) अथ चर्यामाह । झषीणामेवंचूता विहारचर्या विहरण स्थितिविहारमर्यादा प्रशस्ता नवति । व्यादेपस्य अनावात्, आज्ञापालनेन नावचारित्रपालनाच्च पवित्रा । एवंनूता कथमित्याह । अनियतवासः मासकल्पादिना । श्रनिकेतवासोवा अगृह उद्यानादौ वासः। तथा समुदानचर्या अनेकत्र याचितनिदाचरणम् । तथा श्रझाते उचं विशुद्धोपकरणग्रहणविषयम् । परिक्कया य विजनैकान्तसेविता च अल्पोपधित्वमनुब्बणयुक्तस्तोकोपधिसे वित्वम् । कलहविवर्जना च । तहासिजननएन विवर्जनं श्रवणकथा दिनापि वर्जन मित्यर्थः । विहारचर्या रुषीणां प्रशस्ता इत्युक्तम् ॥५॥ (टीका.) चर्यामाह । अनिएन त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । अनियतवासो मासकल्पादिना । अनिकेतवासो वा अगृह उद्यानादौ वासः । तथा समुदानचर्यानेकत्र याचितनिदाचरणम्।अज्ञातोञ्खं विशुद्धोपकरणग्रहणविषयम्। परिकया य विजनैकान्तसेविता च । अल्पोपधित्वमनुस्वणयुक्तस्तोकोपधिसेवित्वम् । कलह विवऊना च तथा तहासिना नएमनविवर्जना । विवर्जनं विवर्जना। श्रवणकथनादिना विवर्जनमित्यर्थः। विहारचर्या विहरण स्थितिर्विहरणमर्यादा। श्यमेवंचूता रुषीणां साधूनां प्रशस्ता। व्यादेपानावात् । थाझापालनेन नावचरणसाधनात्पवित्रेति सूत्रार्थः ॥५॥ आश्न माणविवकणा अ,सन्नदिहाहडनत्तपाणे ॥ संसहकप्पेण चरिङ निस्कू, तडायसंसह जई जइजा ॥६॥ __(श्रवचूरिः) तहिशेषोपदर्शनायाह । बाकीर्ण राजकुलसंखड्यादि। अवमानं स्वप परपदजलोककृतं वा। थाकीर्णे हस्तेन्डियादिलूषणा।आकीर्णे अलानाधाकर्मादिदोषसम्नवात् । उत्सन्नं दृष्टाहृतम् । उत्सन्नशब्दःप्रायोऽर्थे। यत्रोपयोगः शुष्ट्यति त्रिग्रहान्तरादारत इति । जक्तपानमेवंचूतमृषीणां प्रशस्तम् । तथा संस्कृष्टकल्पेन हस्तमात्रादिसंसृष्टविधिनाचरे निकुरित्युपदेशः । अन्यथा पुरःकर्मादिदोषात् । संसृष्टमेव विशिनष्टि । तजातिसंस्पृष्ट आमगोरसादिसमानजातिसंसृष्टे हस्तादौ यतिर्यतेत यत्नं कुर्यात् । अतजातसंसृष्टे संसर्जनादिदोषात् । अनेन संसहे मत्ते सावसेसे दवे इत्यादयोऽष्टौ नङ्गाः। आद्यः शुद्धः। शेषास्तु चिन्त्याः ॥६॥ (अर्थ. ) साधुने (श्रायन्नऊमाण विवङाणा के०) श्राकीर्णावमान विवर्जना एटले श्राकीर्ण ते राजकुल संखडी प्रमुख अने अवमान ते स्वपद परपरथी थएल अपमान तेने वर्जq ते तथा ( उसन्न दिशाहडनत्तपाणे के०) उत्सन्नदष्टाढतनक्तपानं Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. एटले प्राये उपयोगथी जोईने लावेल एवं नक्तपान प्रशस्त बे. तेमज ( जिरकू के० ) निक्षुः एटले साधु 'जे ते ( संसकप्पेण के० ) संसृष्टकल्पेन एटले खरडेल पात्र, कडबी विगेरे वडे आहार ग्रहण करवानी विधिवडे ( चरिता के० ) चरेत् एटले विचरे. तथा ( जई के० ) यतिः एटले साधु जे ते ( तायसंसह के० ) तजातसंसृष्टे एटले तकात संसृष्टनेविषे ( जइा के० ) यतेत एटले यत्न करे. ॥ ६ ॥ । ( दीपिका. ) अथ तद्विशेषस्योपदर्शनायाह । श्रकीर्णावमान विर्वजना च विहारचर्या रुषीणां प्रशस्ता इति । आकीर्णं च श्रवमान विवर्जना च विहारचर्या शषीणां प्रशस्ता । तत्राकीर्ण राजकुल संखड्यादि । श्रवमानं स्वपक्ष पर पक्षप्रा - त्यजं लोकाबहुमानादि । अस्य विवर्जनम् । खाकीर्णे हस्तपादा दिलूषणदोषो जवेत् । अवमानेऽलाजाधाकर्मादिदोषो जवेत् । तथा उत्सन्नदृष्टाहृतं प्राय उपलब्धमुपनीतम् । उत्सन्नशब्दः प्रायोवृत्तौ वर्तते । यथा देवा उसन्नं सायं वेयणं वेयंति । किमेतदित्याह । जक्तपानमोदनारनालादि । इदं च उत्सन्नदृष्टाहृतं यत्र उपयोगः शु । त्रिगृहान्तरादारत इत्यर्थः । एवंभूतमुत्सन्नदृष्टाहृतं जक्तपानमृषीणां प्रशस्तमिति योगः । तथा निक्षुः साधुः संसृष्टकल्पेन हस्तमात्रका दिसंसृष्ट विधिना चरेदिति उपदेशः । अन्यथा पुरःकर्मादिदोषः स्यात् । संसृष्टमेव विशिनष्टि । तजातसंसृष्ट इति । श्रमगोरसादिसमानजातीय संसृष्टे मात्रकादौ यतिर्यतेत यत्नं कुर्यात् । तातसंसृष्टे संमार्जनादिदोषः स्यादित्यनेनाष्टजङ्गसूचनम् । तद्यथा संसठे हवे संसठे मत्ते सावसेसे दवे । श्रत्र प्रथमो नङ्गाः श्रेयान् शेषाः स्वयं चिन्त्याः ॥ ६ ॥ (टीका.) इयं साधूनां विहारचर्येति सूत्रस्पर्शनमाह ॥ दवे सरीर जवि, जावेण संजर्ज अहं तस्स ॥ जग्गहिया पग्ग हिया, विहारच रिया मुणे श्रवा ॥ ३ए॥ व्याख्या ॥ साधूनां विहारचर्याधिकृतेति साधुरुच्यते । स च द्रव्यतो जावतश्च तत्रद्रव्य इति द्वारपरामर्शः । शरीरजव्य इति मध्यमभेदत्वादागमनोआगम इशरीरजव्य शरीरतद्व्यतिरिक्तद्रव्यसाधूपलक्षणमेतत् । जावेन चेति द्वारपरामर्शः । स एव संयत इति संयत गुणसंवेदको जावसाधुः । इहाध्ययने तस्य जावसाधोरवगृहीता उद्यानारामादिनिवासाद्य नियता । प्रगृहीता तत्रापि विशिष्टा निग्रहरूपा उत्कटकासनादिविहारचर्या मन्तव्या बोद्धव्येति गाथार्थः ॥ सा चेयमिति सूत्रस्पर्शेनाह ॥ श्रणिएां पइरिक्कं सायं सामुयाणि उंढं ॥ अप्पोवही कलहो, विहारचरिश्रा इसिपसा ॥ ३८ ॥ अस्या व्याख्या सूत्रवदवसेया । For Private Personal Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीया चूलिका । ୧୯ अवयवाक्रमस्तु गाथानङ्गन्यादर्थतस्तु सूत्रोपन्यासवद्दृष्टव्य इति । विहारचर्या रुषीणां प्रशस्तेत्युक्तम् । तद्विशेषोपदर्शनायाह । श्रन्न ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । की पवमान विवर्जना च विहारचर्या रुषीणां प्रशस्तेति । तत्राकीर्णं राजकुंसंखड्यादि । यवमानं स्वपक्षपरपदप्रानृत्यजं लोकाबहुमानादि । अस्य विवर्जना | आकीर्णे हस्तपादादिलूषणदोषात् । श्रवमाने अलाजाधाकर्मादिदोषादिति । तथा उत्सन्नदृष्टाहृतं प्राय उपलब्धमुपनीतम् । उत्सन्नशब्दः प्रायोवृत्तौ वर्त्तते । यथा देवा सन्नं सायं वेयणं वेति । किमेतदित्याह । जक्तपानमोदनारनालादि । इदं चोत्सन्नदृष्टाहृतं यत्रोपयोगः शुद्ध्यति । गृहान्तरादारत इत्यर्थः । जिरकग्गाही एग कुइ बी का दोसुमुवगर्जगमिति वचनात् । इत्येवंभूतमुत्सन्नं दृष्टाहृतं जक्तपानमृषीणां प्रशस्तमिति योगः । तथा संसृष्टकल्पेन हस्तमात्रका दिसंसृष्ट विधिना चरेदिदुरित्युपदेशः । अन्यथा पुरःकर्मादिदोषात् । संसृष्टमेव विशिनष्टि । तकातसंसृष्ट इत्यामगोरसादिसमानजातीयसंसृष्टे हस्तमात्रकादौ यतिर्यतेत यत्नं कुर्यात् । श्रतजातसंसृष्टे संसर्जनादिदोषादित्यनेनाष्टजङ्गसूचनम् । तद्यथा संसठे हवे संस मत्ते सावसेसे दवे इत्यादि । प्रथमजङ्गः श्रेयान् । शेषास्तु चिन्त्या इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ श्रमक्कमंसासि मञ्चरी, अनिकणं निविगई गया ॥ अभिकर्ण का सग्गकारी, सनायजोगे पयन दविका ॥ ७ ॥ ( अवचूरिः ) उपदेशाधिकार एवाह । अमद्यमांसाशी जवेदिति योगः । श्रमत्सरी च न परद्वेषी स्यात् । श्रनीक्ष्णं निर्विकृतिकश्च । निर्गत विकृतिकश्च निर्गत विकृतिजोगश्च पुष्टालम्बनाजावे । गमनागमनादिषु कायोत्सर्गकारी स्यात् । ईर्यामप्रतिक्रम्य न किंचित्कुर्यात् । स्वाध्याययोगे वाचनादिव्यापारे व्यतिशयप्रयत्नवान् प्रयतो जवेत् । अन्यथाशुद्धतादोषात् ॥ ७ ॥ 1 (अर्थ) उपदेशना अधिकारमां कहे बे. श्रम इत्यादि सूत्र । साधु जे ते (अमऊमंसा सि के ० ) श्रमद्यमांसाशी एटले मद्यनुं पान ने मांसनुं जण न करनार एवा, (श्रम के० ) श्रमत्सरी एटले कोइ पण जीवनी साथे मत्सर न करनार एवा (च के० ) च एटले वली ( अजिरकणं के० ) अभीक्ष्णं एटले वारंवार (निविगइ के० ) निर्विकृतिकः एटले नीवी प्रत्ये ( गया के० ) गता एटले अंगीकार करनार एवा अर्थात् तेनुं कां पुष्ट कारण होय तोज उचित विगइनो आहार करे, नहि तो प्राये विगइनो त्याग करे एवा ( छा के० ) च एटले वली ( अजिरकणं के० ) अमी For Private Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. दणं एटले वारंवार (काउस्सग्गकारी के०) कायोत्सर्गकारी एटले गमनागमनादि कारणश्री र्याप्रतिक्रमण रूप कायोत्सर्ग करनार एवा. कारण, ते विना क्रियानी शुकता नथी. तेमज ( सनायजोगे के०) स्वाध्याययोगे एटले वाचना प्रमुख स्वाध्याय व्यापारने विषे ( पय के०) प्रयतः एटले यतनावान एवा (हविजा के०) जवेत् एटले थाय. ॥७॥ __(दीपिका.) उपदेशाधिकार एवेदमाह । साधुः श्रमद्यमांसाशी जवेदित्युक्तिः। कोऽर्थः। अमद्यपोऽमांसाशी च स्यात् । एते च मद्यमांसे लोकागमप्रसिके एव । ततश्च यत् केचन कथयन्ति । थारनालादिष्वपि संधानदोषादोदनाद्यपि प्राण्यङ्गत्वात्याज्यमिति । तदसत् । अमीषां मांसमद्यत्वस्य प्रयोगात् । लोकशास्त्रयोरप्रसिफत्वात् । सन्धानप्राण्यङ्गत्वतुल्यत्वचोदनं तु असाधु अतिप्रसंगदोषात्। व्यत्वस्त्रीत्वतुल्यतया मूत्रपानमातृगमनादिप्रसंगात्श्त्य लं प्रसंगेन । श्रदरगमनिकामात्रप्रक्रमात् । पुनः साधुः श्रमत्सरी चस्यात्।न परसंपदावषी स्यात् । तथा अनीदणं वारंवारं पुष्टकारणस्य अनावे निर्विकृतिकश्च निर्गतविकृतिपरिनोगश्च भवेत् । अनेन परिजोगोचित विकृतीनामपि अकारणे प्रतिषेधमाह । तथा अजीदणं वारंवारं गमनागमनादिषु । विकृतिपरिजोगे वेत्यन्ये । किमित्याह । कायोत्सर्गकारी नवेत् । र्यापथप्रतिक्रमणमकृत्वा न किंचिदन्यत् कुर्यात् । तदशुद्धतापत्तेरिति जावः । तथा स्वाध्याययोगे वाचनादीनां उपचारव्यापारे आचामाम्लादौ प्रयतोऽतिशयेन यत्नवान् नवेत् । तथैव तस्य सफलत्वात् । विपर्ययेतून्मादादिदोषप्रसंगादिति ॥७॥ (टीका.) उपदेशाधिकार एवेदमाह । अमऊ त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। श्रमद्यमांसाशी नवेदिति योगः। श्रमद्यपोऽमांसाशी च स्यात् । एते चमद्यमांसे लोकागमप्रतीते एव। ततश्च यत्केचनानिदधत्यारनालारिष्टाद्यपि संधानादोदनाद्यपि प्राण्यङ्गत्वात्याज्यमिति । तदसत् ।अमीषां मद्यमांसत्वायोगात् । लोकशास्त्रयोरप्रसिझत्वात् । संधानप्राण्यङ्गत्वतुल्यत्वचोदना त्वसाध्वी । अतिप्रसङ्गदोषात् । अवत्वस्त्रीत्वतुल्यतया मूत्रपानमातृगमनादिप्रसंगादित्यलं प्रसङ्गेनारगमनिकामात्रप्रक्रमात् । तथा श्रमसरी च न परसंपदेषी च स्यात् । तथा अनीदणं पुनः पुनः पुष्टकारणालावे निर्विकृतिकश्च निर्गतविकृतिपरिजोगश्च जवेत् । अनेन परिजोगोचितविकृतीनामप्यकारणे प्रतिषेधमाह । तथा अनीदणं गमनागमनादिषु विकृतिपरिजोगेऽपि चान्ये किमित्याह। कायोत्सर्गकारी नवेत् । पथप्रतिक्रमणमकृत्वा न किंचिदन्यत् कुर्यादशुद्धता Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीया चूलिका । ६८ १ पत्तेरिति ज्ञावः । तथा स्वाध्याययोगे वाचनाद्युपचारव्यापार याचामाम्लादौ प्रयतोऽतिशययत्नपरो जवेत्तथैव तस्य फलवत्त्वा द्विपर्यय उन्मादादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥७॥ पन्निविज्जा सयणासपाई, सिद्धं निसिजं तद नत्तपाणं ॥ गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिं पि कुका ॥ ८ ॥ ( अवचूरिः ) न प्रतिज्ञापयेत् मासादिकल्पपरिसमाप्तौ गछन् भूयोऽप्यागतस्य तानि दातव्यानीति प्रतिज्ञांन कारयेत् गृहिणम् । किमाश्रित्येत्याह । शयनासने शय्यां निषद्यां तथा जक्तपानमिति । तत्र शयनं संस्तारकादि । श्रासनं पीठकादि । शय्या वसतिर्निषद्या स्वाध्यायादिनू मिः । तथा तेन प्रकारेण तत्कालावस्थानौ चित्येन जक्तपानं एखाद्या कापानादि न तत्प्रतिज्ञापयेत् ममत्वदोषात् । सर्वत्रैव निषेधमाह । ग्रामे शालिग्रामादौ । कुले वा श्रावकादौ । नगरे वा साकेतादौ । देशे वा मध्यदेशादौ । ममत्वावं ममेदमिति स्नेहमोहं न कचिदुपकरणादिष्वपि कुर्यात्तन्मूलत्वाद्दुःखानाम् ॥ ॥ ८ ॥ (अर्थ) वली पडिन्नविक इत्यादि सूत्र, साधु जे ते मासकल्प विगेरे पूरो करीने विहार करवाने वखते ( सयणासणाई के० ) शयनासने एटले संस्तारक प्रमुख शयन ने पीठक प्रमुख श्रासन प्रत्ये, ( सिद्ध के० ) शय्यां एटले वसति प्रत्ये, (निसिद्ध के० ) निषयां एटले स्वाध्याय विगेरे करवानी भूमि प्रत्ये, ( तह के० ) तथा एटले तेमज (नत्तपाणं के० ) जक्तपानं एटले अन्नपान प्रत्ये ( प पडिन्नविका के ० ) न प्रतिज्ञापयेत् एटले श्रावक पासे कबूल करावे नहि. अर्थात् हुं फरिथी श्रावीश त्यारे शयन, आसन प्रमुख मने श्रापवा. एवं विहार करती वखते श्रावकपासे नक्की करावे नहि. कारण, तेम करवाथी ते वस्तुने विषे ममता उत्पन्न थाय बे ने ममता सर्व अर्थनुं मूल . माटे (गामे के० ) ग्रामे एटले शालिग्राम प्रमुख गामने विषे, ( कुले के ० ) कुले एटले श्रावककुलादिकने विषे, ( वा के० ) अथवा ( नगरे के० ) नगरे एटले अयोध्या प्रमुख नगरने विषे, ( व के० ) अथवा ( देसे के० ) देशे एटले मध्यदेशादिकने विषे ( कहिं वि के० ) क्वचिदपि एटले कोइ ठेकाणे पण ( ममत्त जावं के० ) ममत्वावं एटले या मारुं बे एवा परिणाम प्रत्ये ( न कुजा के० ) न कुर्यात् एटले न करे. ॥ ८ ॥ (दीपिका.) किंच साधुर्मासा दिकल्पसमाप्तावन्यत्र गच्छन् सन्निति गृहस्थं न प्रतिज्ञापयेत् नप्रतिज्ञां कारयेत् । इतीति किम् । पुनरागतस्य मम एतानि दातव्यानि । एतानि कानीत्या ८६ For Private Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. ह् । शयनं संस्तारकादि, श्रासनं पीठकादि, शय्या वसतिः, निषद्या स्वाध्यायादिनूमिः । तथा तेन प्रकारेण तत्काले अवस्थाया श्रौचित्येन नक्तं खएखाद्यादि, पानं च द्राक्षादि न प्रतिज्ञापयेत् ममत्वदोषात् । श्रथ सर्वत्र ममतादोषपरिहारमाह । ग्रामे शालिग्रामादौ कुले वा श्रावककुले, नगरे अयोध्यादौ देशे च मध्यदेशादौ ममेदमिति ममत्वावं स्नेहमोहं न कचिदुपकरणादिष्वपि कुर्यात् । कुतो न स्नेहं कुर्यात् । स्नेह मूलत्वाद्दुःखादीनामिति ॥ ८ ॥ ( टीका. ) किंच ए पन्निवि त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । न प्रतिज्ञापयेन्मासाकिल्प परिसमा छन् भूयोऽप्यागतस्य ममैवैतानि दातव्यानीति न प्रतिज्ञां कार - येनृहस्थम् । किमाश्रित्येत्याह । शयनासने, शय्यां निषद्यां । तथा नक्तपानमिति । तत्र शयनं संस्तारका दि । श्रासनं पीठकादि । शय्या वसतिः । निषद्या स्वाध्यायादिभूमिः । तथा तेन प्रकारेण तत्कालावस्थौचित्येन नक्तपानं खएखाद्यकद्राक्षापानका दिन प्रतिज्ञापयेन्ममत्वदोषात् । सर्वत्रैतन्निषेधमाह । ग्रामे शालिग्रामादौ कुले वा श्रावककुलादौ नगरे साकेतादौ देशे वा मध्यदेशादौ, ममत्वजावं ममेदमिति स्नेहमोदं न कचिपकरणादिष्वपि कुर्यात्तन्मूलत्वाद्दुःखादीनामिति ॥ ८ ॥ गिदियो वेप्रावडियं न कुडा, अनिवाय णवंदपूर्ण वा ॥ संकिलिहिं समं वसिका, मुणी चरित्तस्स जन न दाणी ॥ ए ॥ ( यवचूरिः ) उपदेशाधिकार एवैतदाह । गृहिणो वैयावृत्त्यं न कुर्यात् । श्रजवादनं वाचिकनमस्काररूपं, वन्दनं कायप्रणामरूपं, पूजनं च वस्त्रादिनिः । असं क्लिष्ट - दिवैयावृत्त्यादिकरणसंक्लेशरहितैः साधुनिः समं वसेत् । चारित्रस्य मूलगुणादिलक्षएस्य यतो येज्यः साधुज्यः सकाशान्न हानिः । अनागतकाल विषयं चेदं सूत्रम् । प्रणयनकाले संविष्टसाध्वजावात् ॥ ५ ॥ (अर्थ) उपदेशना अधिकारमांज कहे बे. गिहिणो इत्यादि सूत्र ( गिहिणो ho ) गृहिणः एटले गृहस्थना ( वेश्यावडियां के० ) वैयावृत्त्यं एटले जेथी गृहस्थ उपर उपकार थाय एवा कांइ पण तेना कामकाज प्रत्ये ( न कुजा के० ) न कुर्यात् एटले न करे. (वा० ) अथवा ( अनिवायणवंदपूयणं के० ) अभिवादनवन्दनपूजन एटले अभिवादन ते वाणीवडे नमस्कार शब्द उच्चारवो, वंदन ते कायावडे नमकुं पूजन ते वस्त्रादिकवडे सत्कार करवो ते प्रत्ये न करे. ( जर्ज के० ) यतः एटले जेना समागममा रहेवाथी ( चरित्तस्स के० ) चारित्रस्य एटले मूलगुण प्रमुख चारि - For Private Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालके द्वितीया चूलिका । ६८३ नी (हाणी के० ) हानिः एटले हानि ( न के० ) न थाय. तेवा ( असं कि लिहिं के० ) असं क्लिष्टैः एटले गृहस्थनुं वेयावच करवा प्रमुख संक्लेशवडे रहित एवा साधुनी ( समं के० ) साथे ( मुणी के० ) मुनिः एटले साधु जे ते ( व सिता के० ) वसेत् एटले रहे. ॥ ५ ॥ ( दीपिका . ) पुनरुपदेशाधिकार एवमाह । मुनिः गृहिणी गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं गृहिजावस्य उपकाराय तत्कर्मस्वात्मनो व्यापृतजावं न कुर्यात् । स्वपरोजयाश्रेयःसमायोजन दोषात् । श्रनिवादनं वाचा नमस्काररूपं, वन्दनं कायप्रणामलक्षणं, पूजनं वा वस्त्रादिनिः समभ्यर्चनं गृहिणो न कुर्याडुक्तदोषप्रसङ्गादेव । तथा एतदोषपरिहाराय एवमसंक्लिष्टैः गृहिवैयावृत्त्यादिकारणसंक्लेशर हितैः साधुनिः समं वसेत् मुनिः । यतो येन्यः साधुज्यः सकाशात् चारित्रस्य मूलगुणादिलक्षणस्य हा निर्न स्यात् ॥ ५ ॥ ( टीका. ) उपदेशाधिकार एवाह । गिदियो त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । गृहिणो गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं गृहिजावोपकाराय तत्कर्मस्वात्मनो व्यावृत्तनावं न कुर्यात् स्वपरोजयाश्रेयः समायोजन दोषात् । तथा अभिवादनं वाङ्गमस्काररूपं वन्दनं कायप्रणामलक्षणं पूजनं वा वस्त्रादिजिः समन्यर्चनं वा गृहिणो न कुर्याडुक्तदोषप्रसङ्गादेव । तथैतद्दोषपरिहारायैवासं क्लिष्टैर्गृहिवैयावृत्त्यकरणसंक्लेशर हितैः साधुनिः समं वसेन्मुनिः । चारित्रस्य मूलगुणादिलक्षणस्य यतो येन्यः साधुच्यः सकाशान्न हानिः । संवासतस्तद कृत्यानुमोदना दिनेत्यनागतविषयं चेदं सूत्रम् । प्रणयनकाले संक्लिष्टसाध्वजावादिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ या लनेका निनां सहायं, गुणादिच्यं वा गुणने समं वा ॥ इक्को वि पावाई विवजयंतो, विहरिक कामेसु प्रमाणो ॥ १० ॥ ( अवचूरिः ) असं क्लिष्टैः समं वसेदित्युक्तम् । छात्र विशेषमाह । कालदोषान्न यदि लनेत निपुणं सहायं संयमानुष्ठानकुशलं परत्रसाधन द्वितीयं ज्ञानादिगुणोत्कटं गुणाधिकं वा, गुणैः समं वा । तृतीयार्थे पञ्चमी । एकोऽपि संहननादियुक्तः पापानि पापकारणान्यसदनुष्ठानानि विवर्जयन्विहरेपुचित विहारेण । कामेष्विछाकामादिष्वपि सङ्गमगठन् ॥ १० ॥ · (.) संक्लिष्ट साधुनी साथे रहेतुं एम कयुं तेमां विशेष कहेबे या इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( या के० ) यदि एटले जो कदाच ( गुणा हिां के० ) गुणाधिकं For Private Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. एटले पोताना करता अधिक गुणशाली एवा (वा के०) अथवा (गुण के०) गुणतः एटले गुणवडे (समं के०) समं एटले समान एवा (वा के० ) वली (निनणं के) निपुणं एटले संयम पालवामां कुशल एवा (सहायं के०) सहायं एटले परलोक साधन करवामां साहाय्य करनार एवा अन्य साधु प्रत्ये (न ललिजा के०) न लन्नेत एटले न पामे, तो (पावाई के०) पापानि एटले पापकर्म प्रत्ये (विवायतो के) विवर्जयन् एटले वर्ज करता तथा (कामेसु के०) कामेषु एटले श्छा कामादिकने विषे ( असऊमाणो के०) असऊमानः एटले आसक्त नहि थता एवा (ए. गोवि के) एकोऽपि एटले एकला पण ( विहरिज के)विहरेत् एटले विचरे, पण शिथिलचारित्रियानी साथे विचरे नहि. ॥ १० ॥ (दीपिका.) अत्र असं क्लिष्टैः समं वसेदित्युक्तं पुनर्विधिविशेषमाह । साधुः कालदोषात् यदि कथंचित् निपुणं संयमानुष्ठानकुशलं सहायं परलोकसाधने द्वितीय न लन्नेत । किंतं सहायम् । गुणाधिकं वा ज्ञानादिगुणैरधिकं वा । गुणैः समंवा।वाशब्दात् गुणहीनमपि जात्यकाञ्चनकल्पं विनीतं वा। तदा किं कुर्यादित्याह। तदा एकोऽपि संहननादियुक्तः पापानि पापकारणानि असदनुष्ठानानि विवर्जयेत् । विविधमनेकैः प्रकारैः सूत्रोक्तैः परिहरन् सन् विहरेत् उचित विहारेण । किं कुर्वन् । कामे विछाकामादिषु असऊमानः सङ्गमगन्छन् एकोऽपि विहरेत् । परं नतु पार्श्वस्था दिपापमित्रसङ्गं कुर्यात् । तस्य पुष्टत्वात् । तथा अन्यैरप्युक्तम् । वरं विहर्तुं सह पन्नगैर्नवेबिवात्मनिर्वा रिपुनिः सहोषितुम् अधर्मयुक्तैश्च परैरपएिकतैर्नपापमित्रैः सह वर्तितुं क्षमम् १ ॥ इहैव हन्युर्जुजगा हि रोषिता धृतासयश्विमवेदय चारयः॥ असत्प्रवृत्तेन जनेन संगतः परत्र चैवेद विहन्यते जनः ॥२॥ तथा ॥ परलोकविरुधानि कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् ॥ श्रात्मानं योऽतिसंधते सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः॥३॥ तथा ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गानागमः ॥ महान्ति पातकान्याहुरेनिश्च सह संगतम् ॥ श्त्यलं प्रसङ्गेन । अथ सूत्रार्थावसर ॥ १० ॥ (टीका.) असं क्लिष्टेः समं वसे दित्युक्तमत्र विशेषमाह । णय त्ति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । कालदोषान्न यदि लन्नेत । न यदि कथंचित् प्राप्नुयात् । निपुणं संयमानुष्ठानकुशलं सहायं परलोकसाधनहितीयम् । किं विशिष्ट मित्याह । गुणाधिकं वा ज्ञानादिगुणोत्कटं वा । गुणतः समं वा । तृतीयार्थे पञ्चमी । गुणैस्तुल्यं वा । वाशब्दाजीनमपि जात्यकाञ्चनकल्पं विनीतं वा । ततः किमित्याह । एकोऽपि संहननादियुक्तः पापानि पापकारणान्यसदनुष्ठानानि विवर्जयन् विविधमनेकैः प्रकारैः सूत्रोक्तैः परि Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीया चूलिका । ६न्य हरन् विहरे चित विहारेण कामेष्विवाकामा दिष्वसमानः संगमगठन्ने कोऽपि विहरे - नतु पार्श्वस्थादिपापमित्रसङ्गं कुर्यात्तस्य दुष्टत्वात्तथा चान्यैरप्युक्तम् ॥ वरं विहर्तुं सहपनवे वात्मनर्वा रिपुनिः सहोषितुम् ॥ श्रधर्मयुक्तैश्चपलैरप रिमतैर्न पापमित्रैः सह वर्त्तितुं कृ॒मम् ॥ १ ॥ इदैव हन्युर्भुजगा हि रोषिताः, धृतासयश्विमवेक्ष्य चारयः ॥ सत्प्रवृत्तेन जनेन संगतः, परत्र चैवेह च हन्यते जनः ॥ २ ॥ तथा ॥ परलोकविरुद्धानि कुर्वाणं दूरतस्यजेत् ॥ श्रात्मानं योऽतिसंधत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः ॥ १ ॥ तथा ॥ ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः ॥ महान्ति पातकान्याहुरे - निश्च सह संगतम् ॥ १ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ संवचरं वा वि परं पमाएं, बीच्यं च वासं न तहिं वसिका ॥ सुत्तस्स मग्गेण चरिक निकू, सुत्तस्स हो जद आणवे ॥ ११ ॥ ( अवचूरिः ) विहार कालमाह । संवत्सरं वापि । संवत्सरो वर्षासु चतुर्मासकम् । पिशब्दान्मासमपि। परं प्रमाणं वर्षातुबद्धयोरुत्कष्टमेकत्र निवासकालमानमेतत् । द्वितीयं वर्ष वर्षासु च रुतुबद्धे न तत्र वसेत् । तत्र सङ्गदोषात् । द्वितीयं तृतीयं परिहृत्य वसेदिति । किं बहुना । सर्वत्रैव सूत्रस्य मार्गणैव । थागमोद्देशेन प्रवर्त्तत इति जावः । सूत्रस्थार्थ उत्सर्गापवादगर्जो यथाज्ञापयति नियुङ्क्ते प्रवर्त्तेत तथा ॥ ११ ॥ I ( . ) हवे विहार कालनुं प्रमाण कहे बे. संववरं इत्यादि सूत्र. ( संवधरं के० ) संवत्सरं एटले वर्षाकालना चार महिना तथा ( वावि के० ) वापि एटले वली तुबद्ध कलमां एक मास ए साधुर्जना एक ठेकाणे रहेवानुं ( परं के० ) परं एटले - कृष्ट (पाणं के० ) प्रमाणं एटले प्रमाण बे. जे ठेकाणे वर्षाकालनुं चोमासुं अथवा कुतुबद्ध कालमां मासकल्प कस्यो . ( तहिं के० ) तत्र एटले त्यां लागट (बीचं के० ) द्वितीयं एटले बीजुं (वासं के०) वर्षम् एटले चोमासुं अथवा मासकल्प प्रत्ये ( नवसिद्धा के ० ) नवसेत् ले रहे नहि. ( सुत्तस्स के० ) सूत्रस्य एटले सूत्रनो ( अबो के ० ) अर्थ: एटले अर्थ (जह के० ) यथा एटले जेम ( श्राणवेश के० ) श्राज्ञापयति एटले आज्ञा करे. तेम ( रिकू के० ) निक्कुः एटले साधु ( सुत्तस्स के० ) सूत्रस्य एटले सूत्रना ( मग्गेण के० ) मार्गेण एटले मार्गवडे (चरित के० ) चरेत् एटले चाले. ॥ ११ ॥ ( दीपिका. ) साधोः संवत्सरं वर्षासु चातुर्मासिकं ज्येष्ठावग्रहं विहारकालमाह । द्वितीयं नैकत्र क्षेत्रे वसेत् । श्रपिशब्दात् मासमपि परं प्रमाणमृतुबद्धकाले द्वितीयं तत्र क्षेत्रे न वसेत् । यत्र एको वर्षाकल्पः कृतस्तत्रोत्कृष्टतो द्वितीयो वर्षाकल्पो न Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. कार्यः । एवं मासकल्पोऽपि द्वितीय एकदेत्रे उत्सर्गतो न कार्य रुतुबके काले। कुतः। गृहस्थादिसंगदोषात्। द्वितीय तृतीयं वा वर्षमासं वा परिहृत्य तत्र देने वसेदपि । किं बहुना सर्वत्रैव सूत्रमार्गेण चरेत् । निकुरागमादेशे वर्त्ततेति नावः । तथापि न उघत एव यथाश्रुतग्राही स्यात् । अपितु सूत्रस्य अर्थः पूर्वापराविरोधितन्त्रयुक्तिघटितः पारमार्थिकोत्सर्गापवादगनों यथाज्ञापयति नियुङ्क्ते तथा वर्तेत न अन्यथा। यथेद अपवादतो नित्यवासेऽपि वसतावेव प्रतिमासादि साधूनां संस्तारगोचरादि परिवर्तेत नान्यथा शुझापवादायोगादित्येवं वन्दनप्रतिक्रमणादिष्वपि तदर्थं प्रत्युपेक्षणेन अनुष्ठानेन वर्तेत । नतु तथाविधलोकेहायातं परित्यजेत्।श्राशातनाप्रसङ्गात् ॥११॥ (टीका.) विहारकालमाह । संवधरं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । संवत्सरं वापि । अत्र संवत्सरशब्देन वर्षासु चातुर्मासिको ज्येष्ठावग्रह उच्यते । तमपि। अपिशब्दान्मासमपि परं प्रमाणम् ।वर्षाऋतुबच्योरुत्कृष्टमेकत्र निवासकालमानमेतत् । हितीयं च वर्षम् । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः। द्वितीय वर्ष वर्षासु चशब्दान्मासं च तुबके न तत्र क्षेत्रे वसेत् । यत्रैको वर्षाकल्पोमासकल्पश्च कृतः। अपितु सङ्गदोषादहितीयं तृतीयं च परिहृत्य वर्षादिकालं ततस्तत्र वसे दित्यर्थः । सर्वथा किं बहुना सर्वत्रैव सूत्रस्य मार्गेण चरेग्मितुः । श्रागमादेशेन वर्तेतेति नावः । तत्रापि नौघत एव यथाश्रुतग्राही स्यात्। अपि तु सूत्रस्यार्थः पूर्वापराविरोधितन्त्रयुक्तिघटितः पारमार्थिकोत्सर्गापवादग! यथाज्ञापयति नियुङ्क्ते तथा वर्तेत नान्यथा।यथेहापवादतो नित्यवासेऽपि वसतावेव प्रतिमासादिसाधूनां संस्तारगोचरादि परिवर्तेत नान्यथा शुझापवादायोगादित्येवं वन्दनकप्रतिक्रमणादिष्वपि तदर्थं प्रत्युपेरणेनानुष्ठानेन वर्त्तत। नतु तथाविधलोकेहायातं परित्यजेत्तदाशातनाप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः॥ ११ ॥ जो पुवरत्तावररत्तकाले, संपिकई अप्पगमप्पगेणं ॥ किं मे कम किच्चमकिच्चसेस, किं सक्वलिङ न समायरामि॥१२॥ (श्रवचूरिः ) एवं विविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह । यः साधुः पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रिप्रथमचरमप्रहरयो रित्यर्थः । संप्रेक्षते सूत्रोपयोगनीत्या आत्मानमात्मनैव । कथमित्याह । किं मे कृतमिति । गन्दसत्वात्तृतीयार्थे षष्ठी। किं मया कृतं शक्त्यनुरूपं तपश्चरणादि । किं च मम कृत्यशेष कर्त्तव्यशेषमुचितम् । किं वा शक्यं वैयावृत्त्यादि न समाचरामि न करोमीति ॥ १२ ॥ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीया चूलिका । ६७ (अर्थ.) एवी रीते विचरनार साधु ने सीदाय तेनो उपाय कहे . जो इत्यादि सूत्र. (जो के०) यः एटले जे साधु (पुत्वरत्तावररत्तकाले के०) पूर्वरात्रापररात्रकाले एटले रात्रिना प्रथम अने चरम प्रहरने विषे (अप्पगं के०) श्रात्मानं एटले पोताने (अप्पएणं के०) आत्मना एटले पोते ( संपिकए के) संप्रेक्षते एटले सू. त्रोक्त प्रकारवडे तपासे. ते श्रारीते (मे के०) मया एटले में (किं के०) किं एटले कयु (किच्च के) कृत्यं एटले करवायोग्य एवं तपस्या प्रमुख कृत्य (कडं के०) कृतं एटले कस्तूं. तेमज (किं के०) कयुं (म के०) मम एटले मारा (किच्चसेसं के०) कृत्य शेषं एटले करवायोग्य कार्य बाकी जे, तथा (किं के) किं एटले कयु ( सकणिजं के०) शक्यं एटले माराथी बनी शके एवं वेयावच प्रमुख कार्य (न समायरामि के०) न समाचरामि एटले आचरतो नयी ॥ १५ ॥ (दीपिका.) एवं विशुझविविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह । यः साधुनवेत् स पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रौ प्रथमचरमप्रहरयोरित्यर्थः। संप्रेदाते सूत्रोपयोगनीत्यात्मानं कर्मनूतमात्मनैव करणजूतेन प्रेक्षते।कथं प्रेदतश्त्याह।कि मे कृतमिति।बान्दसिकत्वातृतीयार्थे षष्ठी। किं मया कृतं शक्तेरनुरूपं तपश्चरणादि योगस्य । किंच मम कृत्यशेषं कर्तव्यात् शेषमुचितम् । पुनः किंच शक्यं वयोऽवस्थाऽनुरूपं वैयावृत्यादि अहं न समाचरामीति । तस्याकरणे हि तत्कालनाश इति ॥ १५ ॥ (टीका.) एवं विविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह । जो त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यः साधुः पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रौ प्रथमचरमयोः प्रहरयोरित्यर्थः । संप्रेक्षते सूत्रोपयोगनीत्या श्रात्मानं कर्मनूतमात्मनैव करणनूतेन । कथमित्याह । किं मे कृतमिति गन्दसत्वात्तृतीयार्थे षष्ठी । किं मया कृतं शक्त्यनुरूपं तपश्चरणादि योगस्य । किंच मम कृत्यशेषं कर्तव्यशेषमुचितम् । किं शक्यं वयोऽवस्थानुरूपं वैयावृत्यादि न समाचरामि न करोमि । तदकरणे हि तत्कालनाश इति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ किं मे परो पास किंच अप्पा, किं वाहं खलिअंन विवङयामि॥ श्च्चेव सम्मं अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुजा ॥१॥ (श्रवचूरिः) किं मम स्खलितं परः पश्यति । किं वात्मा मनासंवेगापन्नः । किंवाहमोघत एव स्खलितं न विवर्जयामि । इत्येवं सम्यगनुपश्यन्ननागतं प्रतिबन्धं न कुयोंदागामिकालविषयं संयमप्रतिबन्धं न करोतीति ॥ १३॥ (अर्थ. ) वली (परो के० ) परः एटले खपद अथवा परपद संबंधी को बीजो Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० रायधनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. पुरुष ( मे के० ) मे एटले मारा ( किं के० ) किं एटले कया ( खलि के० ) स्ख वितं एटले प्रमाद प्रत्ये ( पास के० ) पश्यति एटले जुवे बे, च के० ) वली ( अप्पा के० ) आत्मा एटले हुं पोते ( किं के० ) किं एटले कया मारा प्रमादप्रत्ये जोनुं हुं ( वा के० ) अथवा ( श्रहं के० ) अहं एटले हुं ( किं के० ) किं एटले कया ( खलि के० ) स्खलितं एटले प्रमादप्रत्ये ( न विवजयामि के० ) न विवर्जयामि एटले वर्जतो नथी. ( इच्चेव के० ) इत्येवं एटले उपर कहेल प्रकारे ( सम्मं के० ) सम्यक् एटले उत्तम प्रकारे (अणुपासमाणो के ० ) अनुपश्यन् एटले विचार करता रहे ते साधु (णायं के० ) अनागतं एटले जावी ( पडिबंध के० ) प्रतिबंधं एटले प्रतिबंध प्रत्ये ( नो कुना के० ) नो कुर्यात् एटले न करे. अर्थात् फरीथी तेवो दोष न श्रचरे ॥ १३ ॥ 1 ( दीपिका . ) तथा किं मम स्खलितं परः स्वपपरपदलक्षणः पश्यति । किंवा आत्मा क्वचित् मनाक् संवेगं प्राप्तः । किं वा अमोघत एव स्खलितं न विवर्जयामीत्येवं सम्यगनुपश्यन्ननेनैव प्रकारेण स्खलितं ज्ञात्वा श्रागमोक्तेन विधिना नूयः पश्यन्ननागतं न प्रतिबन्धं कुर्यात् साधुः । य श्रागामिकालविषयं न असंयमप्रतिबन्धं करोतीति ॥ १३ ॥ ( टीका. ) तथा किं मे ति सूत्रम् । किं मम स्खलितं परः स्वपदपरपलक्षणः पश्यति । किं वात्मा क्वचिन्मनाक् संवेगापन्नः । किंवा मोघत एव स्खलितं न विवर्जयामि । इत्येवं सम्यगनुपश्यन् अनेनैव प्रकारेण स्खलितं ज्ञात्वा सम्यगागमो - क्तेन विधिना नूयः पश्यन्ननागतं न प्रतिबन्धं कुर्यात् । श्रागामिकालविषयं नासंयमप्रतिबन्धं करोतीति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ जव पासे कइ डुप्पउत्तं, कारण वाया अड्डु माणसेणं ॥ तचैव धीरो पडसादरिका, इन्नन खिप्पमिव कली ॥ १४ ॥ 1 ( अवचूरिः ) कथमित्याह । यत्रैव पश्येत् । यत्रैव पश्यत्युक्तवत्परात्मदर्शनद्वारेण । क्वचित्संयमस्थानावसरे । दुःप्रयुक्तं दुर्व्यवस्थितम् । श्रात्मानमिति गम्यते । कायेन वाचा अथ मानसेन । तत्रैव संयमस्थानावसरे धीरो बुद्धिमान् प्रतिसंहरे दात्मानमिति शेषः । निदर्शनमाह । श्राकीर्णो जात्याश्वः क्षिप्रं शीघ्रं यथा खलिनं कविकं नियमितगमननिमित्तं प्रतिपद्यते । एवं यो दुःप्रयोगत्यागेन खलिनकल्पं सम्यग्विधिं प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥ For Private Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६नए दशवैकालिके वितीया चूलिका। (अर्थ. ) शी रीते अनागत प्रतिबंध न करे ते कहे जे. जने व इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( कय के०) कदा एटले पमिलेहण प्रमुख क्रियाना को पण वखते (जलेव के० ) यत्रैव एटले जे ठेकाणेज (काएण के० ) कायेन एटले कायावडे, (वाया के०) वाचा एटले वाणीवडे, (अषु के ) अथवा (माणसेणं के०) मानसेन एटले मनवडे पोताने (उप्पउत्तं के० ) कुःप्रयुक्तं एटले प्रमादी एवाने (पासे के) पश्येत् एटले जुवे. (धीरो के०) धीरः एटले धीर एवा साधु जे ते (तव के०) तत्रैव एटले तेज ठेकाणे तथा तेज समये पोताने (पमिसाहरिजा के०) प्रतिसंहरेत् एटले ठेकाणे लावे. एना उपर दृष्टांत कहे . (श्व के०) श्व एटले जेम (थान के०) श्राकीर्णकः एटले जातिवंत अश्व जे ते ( खिप्पं के) क्षिप्रं एटले शीघ्र (रकलीणं के०) खलीनं एटले लगाम ग्रहण करे तेम; अर्थात् जेम सारो अश्व नियमित गमनने अर्थे शीघ्र लगाम ले , तेम ते साधु पण श्रविधिनो त्याग करी लगाम सरखा सम्यगविधिनो अंगीकार करे. ॥१४॥ . (दीपिका.) कथमित्याह। साधुर्यत्रैव क्वचित् संयमस्थानावसरे धर्मोपधिप्रत्युपेक्षणादौ पुःप्रयुक्तं उर्व्यवस्थितमात्मानमिति गम्यते । पश्येत् पश्यति उक्तवत्परमात्मदर्शनहारेण। केन इत्याह । कायेन, वाचा अथ मानसेन । मन एव मानसम् । करणत्रयेणेत्यर्थः। तत्रैव तस्मिन्नेव संयमस्थाने धीरो बुद्धिमान् प्रतिसंहरेत् प्रतिसंहरति यः स्वात्मानं सम्यग् विधि प्रतिपद्यत इत्यर्थः। अत्र दृष्टान्तमाह । यथा जवादिनिर्गुणैराकीणों व्याप्तो जात्योऽश्व इति गम्यते । असाधारण विशेषणात् । तच्चेदम् । क्षिप्रमिव खलिनं शीघ्र । कविकमिव । यथा जात्योऽश्वो नियमितगमननिमित्तं शीघ्र खलिनं प्रतिपद्यत एवं यो कुःप्रयोगत्यागेन खलिनकल्पं सम्यग्विधिम् । एतावतांशेन दृष्टान्तः ॥ १४ ॥ (टीका.) कथमित्याह । जव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यत्रैव पश्येत् यच्चैव पश्यत्युक्तवत्परात्मदर्शनकारेण क्वचित्संयमस्थानावसरे धर्मोपधिप्रत्युपेक्षणादौ पुःप्र. युक्तं कुर्व्यवस्थितमात्मानमिति गम्यते । केनेत्याह । कायेन वाचा अथ मानसेनेति। मन एव मानसम् । करणत्रयेणेत्यर्थः। तत्रैव तस्मिन्नेव संयमस्थानावसरे धीरो बुद्धिमान् प्रतिसंहरेत् प्रतिसंहरति य श्रात्मानं सम्यग् विधि प्रतिपद्यत इत्यर्थः । निदर्शनमाह । थाकीर्णो जवादिनिर्गुणैर्जात्योऽश्व इति गम्यते । असाधारण विशेषणात् । तवेदम् । क्षिप्रमिव खलिनं शीघ्रं कविकमिव । यथा जात्योऽश्वो नियमितगमननिमित्तं Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागम संग्रह, नाग तेतालीस (४३) मा. शीघ्रं खलिनं प्रतिपद्यत एवं यो दुःप्रयोगत्यागेन खलिनकल्पं सम्यग् विधिमेतावतांशेन दृष्टान्त इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ जस्सेरिसा जोग जिइंदिच्प्रस्स, धिईमन सप्पुरिसस्स निचं ॥ तमादु लोपडिबुजीवी, सो जीई संजमजीविएणं ॥ १५ ॥ ( अवचूरिः ) यः पूर्वरात्रेत्याद्यधिकारोपसंहारायाह । यस्य साधोरीदृशाः स्वहितालोकनप्रवृत्तिरूपा योगा मनोवाक्कायव्यापारा जितेन्द्रियस्य धृतिमतः संयमे सधृतिकस्य सत्पुरुषस्य प्रमादजयात् । नित्यं सर्वकालं तमेवंभूतमाहुर निदधति । लोके विद्वांसः प्रतिबुद्धजीविनं प्रमादनिद्रारहितजीवितशीलम् । स एवंगुणयुक्तः सन् जीवति संयमजीवितेन सर्वथा संयमप्रधानेन जीवितेनेति ॥ १५ ॥ ( अर्थ. ) हवे प्रस्तुत प्रकरणनो उपसंहार करे बे. जस्स इत्यादि सूत्र. ( जि. दिवस के० ) जितेन्द्रियस्य एटले चक्षुरादि इंद्रियोने जितनार एवा (धिईम के० ) धृतिमतः एटले संयमने विषे धृतिवाला एवा ( सप्पुरिसस्स के० ) सत्पुरुषस्य एटले सत्पुरुष एवा ( जस्स के० ) यस्य एटले जे साधुना ( जोग के० ) योगाः एटले मन वचन कायाना योग जे ते ( एरिसा के० ) ईदृशाः एटले एवा (निच्चं के०) नित्यं एटले दीक्षाथी मांडीने मरण सूधी रहे बे. ( तं के० ) तं एटले ते साधुने विद्वान लोको ( लोए के० ) लोके एटले सर्व जीवोमां ( पडिबुद्धजीवी के० ) प्रतिबुद्धजीविनं एटले प्रमादादि रहित जीवितवालाने ( श्राडु के० ) दुः एटले कहे a. कारण, ( सो के० ) सः एटले ते साधु ( संजमजी विएणं के० ) संयमजीवितेन एटले संयमजीवितवडे ( जीवइ के० ) जीवति एटले जीवे बे ॥ १५ ॥ ( दीपिका. ) यः पूर्वरात्रेत्याद्यधिकारोपसंहारायाद । विद्वांसस्तं साधुमेवंभूते लोके प्राणिसंघाते नित्यं सर्वकालं सामायिकप्रतिपत्तेरारज्य आमरणं प्रतिबुद्धजीविनमाहुः कथयन्ति । कोऽर्थः । प्रतिबुद्धजीविनं प्रमादरहितजीवितशीलम् । स एवंगुणयुक्तः सन् जीवति संयमजीवितेन कुशला जिसंधिजावात् सर्वथा संयमप्रधानजीवितेन । तं साधुं कम् । यस्य साधोरीदृशाः स्वहितालोचनप्रवृत्तिरूपा योगा मनोवाक्कायव्यापारा जवन्ति । किंनूतस्य साधोः । जितेन्द्रियस्य वशीकृतस्पर्शनादीन्द्रियसमूहस्य | पुनः किंभूतस्य यस्य । धृतिमतः संयमे धैर्यसहितस्य । पुनः किं० यस्य । सत्पुरुषस्य प्रमादजयान्हापुरुषस्य ॥ १५ ॥ ( टीका. ) यः पूर्व रात्रेत्याद्यधिकारोपसंहाराया । जस्स ति सूत्रम् । अस्य Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीया चूलिका। ६१ व्याख्या । यस्य साधोरीदृशाः स्वहितालोचनप्रवृत्तिरूपा योगा मनोवाकायव्यापारा जितेन्जियस्य वशीकृतस्पर्शनादीजियकलापस्य धृतिमतः संयमे सहत्तिकस्य सत्पुरुषस्य प्रमादजयान्महापुरुषस्य नित्यं सर्वकालं सामायिकप्रतिपत्तेरारज्यामरणान्तम् । तमाहुलोंके प्रतिबुद्धजीविनं तमेवंजूतं साधुमाहुर निदधति विद्वांसः । लोके प्रा. णिसंघाते प्रतिबुद्धजीविनं प्रमाद निमारहितजीवितशीलम् । स एवंगुणयुक्तः सन् जीवति संयमजीवितेन कुशलानिसंधिनावात् सर्वथा संयमप्रधानेन जीवितेने ति सूत्रार्थः ॥ १५॥ अप्पा खलु सर पर रकिबो, सबिंदिएदि सुसमाहिएहिं॥ अररिक जाश्पदं उवेश, सुरकिन सबउहाण मुच्च त्ति बेमि ॥१६॥ . विवित्तचरिओ चूला सम्मता ॥३॥ ३२ दसवेालिअं सुत्तं संमत्तं ॥ शुनम् ॥ (अवचूरिः) शास्त्रमुपसंहरन्नुपदेशसर्वस्वमाद । श्रात्मा।खलुशब्दो विशेषणार्थः। शक्तो सत्यां परोऽपि सततं सर्वकालं रक्षितव्यः पालनीयः पारलौकिकापायेन्यः। कथम् । सन्धियैः स्पर्शनादिनिः सुसमाहितेन निवृत्तविषयव्यापारेणेत्यर्थः । श्ररक्षणरक्षणयोः फलमाह । अरक्षितः सन् जातिपन्थानं जन्ममार्गमुपैति । सुरक्षितो यथागममप्रमादेन सर्वदुःखेन्यः शारीरमानसेच्यो विमुच्यते । इति ब्रविमीति पूर्ववत् ॥ १६ ॥ इति द्वितीयचूला व्याख्याता॥२॥ (अर्थ.) हवे शास्त्रनो उपसंहार करता उपदेशनो सार कहे . ( हु खलु के०) खलु एटले निश्चये (अप्पा के०) श्रात्मा एटखे पोतानो आत्मा जे ते (सययं के०) सततं एटले निरंतर (सुसमाहिए हिं के०) सुसमाहितैः एटले सारा समाधिमा राखेल एवा ( सविदिएहिं के०) सन्जियैः एटले सर्व इंजियोवडे ( रकिबो के०) रक्षितव्यः एटले रक्षण करवो. कारण के, श्रात्मा जे ते (अररिक के०) अरक्षितः एटले बराबर संयमवडे रक्षण कस्यो न होय तो (जापहं के०) जातिपथं एटले संसारप्रत्ये ( उवेश के०) उपैति एटले पामे बे. अने ( सुरकिळ के० ) सुरक्षितः एटले सम्यक प्रकारे संयमवडे रक्षण कस्यो होय तो (सबउहाण के०) सर्वपुःखेन्यः एटले सर्व दुःखथी (मुच्चर के०)मुच्यते एटले मुक्त थाय बे.(त्ति बेमि के) इति ब्रवीमि एटले तीर्थकर गणधरना उपदेशथी हुँ एम कहुं . ॥ १६ ॥ इति श्री दशवैकालिकनी बीजी चूलिकानो बालावबोध संपूर्ण. ॥५॥ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ए राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) श्रथ शास्त्रमुपसंहरनुपदेशसर्वस्वमाह । एवं विधेन साधुना श्रात्मा । खलुशब्दो विशेषणार्थः । शक्तौ सत्यां परोऽपि सततं सर्वकालं रक्षितव्यः पालनीयः। परलोकसंबन्धिकष्टेन्यः। कथमित्युपायमाह। यतः किं साधुना।सर्वेजियैः स्पर्शनादिनिः सुसमाहितेन निवृत्तविषयव्यापारेण । श्ररक्षणरक्षणयोः फलमाह । अरक्षितःसन्नात्मा पन्थानं जन्ममार्ग संसारमुपैति सामीप्येन गति । अथ सुरक्षितः पुनरात्मा यथागममप्रमादेन सुष्टु रक्षितः सन् सर्वपुःखेन्यः शारीरमानसेच्यो विमुच्यते । विविधमनेकैः प्रकारैरपुनर्ग्रहणपरमस्वास्थ्यापादनलक्षणैर्मुच्यते विमुच्यते । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १६ ॥ इति चूलिकाम्यं व्याख्यातम् ॥ (टीका.) शास्त्रमुपसंहरन्नुपदेशसर्वस्वमाह । अप्प त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। श्रात्मा खस्विति । खबुशब्दो विशेषणार्थः । शक्तौ सत्यां परोऽपि सततं सर्वकालं रक्षितव्यः पालनीयः । पारलौकिकापायेच्यः। कथमित्युपायमाह । सर्वेजियैः स्पर्शनादिनिः सुसमाहितेन निवृत्तविषयव्यापारेणेत्यर्थः । श्ररक्षणरक्षणयोः फलमाह । अरक्षितः सन् जातिपन्थानं जन्ममार्ग संसारमुपैति सामीप्येन गबति । सुरक्षितः पुनर्यथागममप्रमादेन सर्वपुःखेन्यः शारीरमानसेन्यो विमुच्यते विविधमनेकैः प्रकारैरपुनर्ग्रहणपरमस्वास्थ्यापादनलदणैर्मुच्यते । इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥१६॥ श्रथावचूरिकोपसंहारः। अथ शास्त्रकर्तुः स्तवमाह नियुक्तिकारः ॥ सिजंजवं गणधरं जिण पडिमादसणेण पमिबुद्धं ॥ मणगपियरं दसका-विधस्स निमुहगं वंदे ॥ १ ॥ अर्थः । अनुत्तरज्ञानादिधर्मगणं धारयतीति गणधरस्तम्।प्रतिबुझं मिथ्यात्वाविरत्यज्ञानापगमेन सम्यक्त्व विकाशं प्राप्तम् । निर्यहकं पूर्वगतोकृतार्थविरचनाकारं वन्दे इति गाथादरार्थः । जावार्थस्तु कथानकगम्यस्तच्चेदम् । श्रीसुधर्म शिष्यो जम्बूस्तस्य प्रजवः । तस्य कदाचिनिशीथे को मे गणधर इति चिन्ता । श्रात्मनः सङ्के गछे चोपयोगेनासन्नावं ज्ञात्वा तीर्थान्तरीयेषु राजगृहे शिकंजनवं यजमानं दृष्ट्वा तत्र यज्ञवाटे धर्मलानपूर्वम् 'अहो कष्टमहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते पुनः' इति पठनाय शिष्यवृन्दं प्रेषितम् । तेन तत्कृतम्। 'तच्च शय्यंजवो छार्मूलस्थितो निशम्य चिन्तयति । एते शान्तास्तपखिनोऽसत्यं न वदन्तीति । उपाध्यायान्ते गत्वा तत्त्वं किमिति पृष्टे वेदास्तत्त्वमित्युक्तौ असिमाकृष्य वदति 'शीर्ष ते बेत्स्यामि यदि तत्त्वं न कथयसि । शीर्षछेदे तत्त्वं वाच्य मिति ध्यात्वा यूपस्याधस्तात्सर्वरत्नमयीपार्श्वप्रतिमा दर्शयित्वेदमत्र तत्त्वम् । अर्हधर्मस्तत्त्वं % 3D Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीया चूलिका । ६०३ ततस्तस्य पादौ नत्वा यज्ञवाटोपस्करं दत्वा तान् साधून् गवेषयन्नाचार्यान्ते गत्वा धर्ममाकर्ण्य व्रतमादाय चतुर्दशपूर्वी जातः । तछूते तस्य जार्या तरुणीयमिति कृत्वा स्वजनैरस्ति तव जठरे किञ्चिदिति पृष्टा मणयमित्यूचे । ततः पुत्रे जाते सति तदेव नाम कृतम् । तेनाष्टवार्षिकेण मातृतः पितरं धृतव्रतं ज्ञात्वा नंष्ट्रा जनकान्ते ग न्तुमिता चम्पायां गतम् । श्राचायैर्वहिर्भूमिगतैर्दृष्टः सः । तेन च दीक्षितः । द्वयोः स्नेहो जातः । पृष्ठायाः स्वसुतं ज्ञात्वा चतुर्दशपूर्वी कारणे निर्यूहति । अन्तिमस्तु श्रवश्यं निर्यूहति । ममापीदं कारणं संजातम् । इति निश्चित्येदं निर्यूढम् ॥ दशवैकालिकारार्थमाह ॥ मागं पमुच्च स - नवेण निहिया दसप्रयणा || वेवालिश्राइ रवि तुम्हा दसका लिांनाम ॥ २ ॥ मनकं प्रतीत्या श्रित्य निर्यूढानि पूर्वगताडुद्धृत्य विरचितानि दशाध्ययनानि द्रुमपुष्पिकादीनि सनिवध्ययनप्रान्तानि । विगतः कालो विकालो विकलनं वा विकालः । सकलः खमश्चेति तस्मिन्विकाले अपराह्नेऽतिक्रान्ते तृतीय पौरुषी रूपे स्थापितानि न्यस्तानि तस्मादकशालिकं नाम । विकाले निर्वृत्तं वैकालिकं दशवैकालिकं वा ॥ २ ॥ यं प्रतीत्य कृतं तद्वक्तव्यतामाह । बहिंमासे हिं हां, अयणमिणं तु श्रमणगेण ॥ बम्मासा परिश्रा, यह कालगर्न समाहीए ॥ ३ ॥ षद्धिर्मासैरधीतमध्ययनमिदम् । आर्यश्चासौ मनकश्च आर्यमन कस्तेन परमासा एव पर्यायकालः । अथ कालगतः समाधितः शुभलेश्यायोगेन । अत्रायंजावः । तेनैतावता श्रुतमाराधितमेवेत्यन्येऽप्येतदनुष्ठानत श्राराधका जवन्ति ॥ ३ ॥ श्रदसुपायं, खासी सिजनवा तहिं थेरा ॥ जसनदस्स य पुछा, कहणा अ विचाल - या संघे ॥ ४ ॥ श्रानन्दाश्रुपातमहो धाराधितमनेनेति हर्षाश्रुमोचन मकार्षुः शय्यं वास्तत्र तस्मिन् काले स्थविरः श्रुतपर्यायघृको यशोजप्रस्तस्य च शय्यजव शिष्यस्य गुर्वश्रुपातदर्शनेन किमेतदाश्चर्यमिति विस्मितस्य पृष्ठा किमेतदकृत पूर्वमित्येवम् । शय्यंजवकथिताच्च इह सुतोऽयं मे इत्येवंरूपाछब्दादनुतापो यशोद्रादीनां गुराविव गुरुपुत्रेऽपि वर्त्तितव्यमिति न कृतमिदमस्म जिरेवम्भूतः । तत श्राचार्यः संघ प्रत्याह । एतडुपकाराय मयाल्पायुषमेनमधिकृत्येदं शास्त्रं निर्यूढं किमत्र युक्तमिति निवेदिते विचारणा संधे कालह्रासदोषादिदमेव प्रनृतसत्वानामुपकारक मतस्तिष्ठत्वेतदित्येवंभूता स्थापना चेति ॥ ४ ॥ इति दशवे - कालिकावचूरिः समाप्ता ॥ शुभम् ॥ बालावबोधनो उपसंहार. वे दशवेकालिका कर्ता श्री शय्यंजव मुनि तथा तेमना शिष्य मनकमुनि ए For Private Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ रायधनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा मनो संबंध निर्युक्तिकार कहे बे. " सिद्ध जवं गणदरं, जिणपडि मादंसणेण पडि बुद्धं ॥ मग पिारं, दसका विस्स निज्जूहगं वंदे ॥ १ ॥ ” अर्थ - जिन प्रतिमा देखीने प्रतिबोध पामेला, मनकमुनिना पिता, श्री दशवैकालिक सूत्रनो सिद्धांतमांथी उद्धार करनार एवा गणधर श्री सऊंजव आचार्यने हुं वांडुं हुं ॥ १ ॥ मगं पच्च सिज्जं - नवेण निज्जू हिच्या दसप्रयणा || वेष्वालियर वविया, तम्हा दसका लिां नाम ॥ २ ॥ अर्थ - श्री सजनव सूरिए मनकने अर्थे सिद्धांतमांथी दस अध्ययन यां, अने ते विकाले स्थापन कस्यां माटे दशवैकालिक नामयी कद्देवाय ते. ॥२॥ हवे जेने अर्थे उद्धार कस्यो ते वात कहे बे, " बहि मासे हि श्रही अं, अनथण मिणं तु अक्रमणगेण ॥ बम्मासा परिश्रा, यह कालगर्न समाहीए ॥ ३ ॥ अर्थ - श्रार्यमनके ब महिनामां ए अध्ययन ( सूत्र ) पठन करयुं. ए मनकमुनिनो चारित्र पर्याय महिना नोज हतो. महिना पूरा थये ते मनकमुनि समाधिमां कालधर्म पाम्या. ॥ श्राणंदसुपाषयं, कासी सिद्धांजवा तहिं येरा ॥ जसनदस्स य पुछा, कहा अविआला संधे ॥ ४ ॥ श्रर्थ - श्री मनकमुनि काल करी गया त्यारे एणे धर्मनी श्राराधना सम्यकू प्रकारे करी एम जाणी श्री सऊंजव सूरिना नेत्रमांची श्रानंदनां अश्रु श्राव्यां. श्री यशोद्र सूरिए अश्रुनुं कारण पूढवाथी श्री सज्जंजव सूरिए यथार्थ वात कही. पठी संघना विचारथी श्रीदशवैकालिक सूत्रनी मंदबुद्धि शिष्यना उपर उपकारने स्थापना थश्. ॥ ४ ॥ हवे ए चारे गाथानो नावार्थ श्रा रीते- ज्यारे सज्जंजव सूरिए दीक्षा लीधी, त्यारे तेमनी स्त्री गर्जिणी हती. तरुणवय होवाथी तेना स्वजनोंए पूक्युंके, तारा उदरमां कां बे, त्यारे ते स्त्रीए प्राकृत जाषामां कह्युं के, 'मण्यं' एटले किंचित् मात्र बे, अनुक्रमे तेने पुत्र थयो. तेनुं नाम मनक राख्युं. ते श्राव वरसनो थयो, एकदिवसे तेणे पोतानी माने पूब्यं के, 'मारा पिताजी क्यां बे.' माए कयुंके, 'तेमणे चारित्र श्रादरयां बे' एम सांजली पितानीपासे जवानुं मनकनामनमां श्राव्यं. 'चंपानगरी मां पिताजी बे' एवी खबर मलवाथी ते त्यां गयो. ठंडिल भूमिए जता श्राचार्य श्री सजवसूरिए मनकने देख्यो त्यारे पूब्धुं के, 'तुं कोण बे.' मनके या चार्य वांद्या. दृष्टिनो मेलाप थतांज परस्पर स्नेह बंधाणो. याचार्ये पूब्युं, तारो पिता कोण ? मनके कयुं, 'सज्जनव.' आचार्ये कयुं, 'तुं अहिं कथा कार्यने अर्थे श्राव्यो. मनके कयुं, 'दीक्षा लेवाने कार्थे.' वली मनके कयुं के, 'श्राप जाणता होय तो कहो के, 'मारा पिताजी क्यां बे.' आचायें कयुं के, ते छाने हुं जिन्ननथी माटे तुं मापासे दीक्षा ले. मनकने ते वात कबूल थवाथी श्राचार्ये तेने त्यांज दीक्षा श्रापी. < For Private Personal Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीया चूलिका । ६ए पड़ी श्राचार्य तेनी साथे उपासरे श्राव्या. उपयोग दीधो के, 'एनुं श्रायुष्य केटबुं बे.' झानबलथीथाचार्ये जाण्यु के, एनुं आयुष्य ब मास बाकी बे. पली विचार कस्यो के, एटला थोडा समयमा एमनक कृतार्थ शीरीते थशे चउदपूर्वी कारण पडे पूर्वमांश्री सूत्रनो उकार कहेडे, मनेपण था कारण प्राप्त थयुं बे, माटे उकार करूं. एवो विचार करी आचार्यजीए पूर्वमांधी दस अध्ययननो उझार कस्यो. मनकने ते दस अध्ययन जणावतां ब मास लाग्या. मास पूर्ण थतांज मनके समाधिमां काल कस्यो. त्यारे आचार्यना नेत्रमा श्रानंदाश्रु श्राव्यां. जसननविगेरे साधुए श्रा श्रुनुं कारण पूबवाथी मनकनुं वृत्तांत श्राचार्यजीए कडं. ते सांजली 'गुरुपुत्र एवा मनकनी सेवा श्रापणाथी बनी नहि' एवो ते साधु ने पस्तावो थयो. पली संघना श्राग्रहथी सज्जंजव सूरिए उकरेला अध्ययन प्रकट राख्या. तेज दस अध्ययन दशवैकालिकना नामथी प्रसिक डे. बे चूलिक तो श्रीसंघने श्रीसीमंधर खामीए नेट मोकलेली ए वात प्रसिक . माटे अहिं विस्तार करता नथी. इति श्री दशवैकालिकनो बालावबोध संपूर्ण. ॥ अथ प्रशस्तिमाह ॥ हरिजप्रकृता टीका वर्तते विषमा परम् ॥ मया तु शीघ्रबोधाय शिष्यार्थं सुगमा कृता ॥१॥ चंकुले श्रीखरतर-गछे जिनचन्उसूरिनामानः ॥ जाता युगप्रधानास्तविष्यः सकलचन्छगणिः ॥२॥ तविष्यसमयसुन्दर-गणिना च स्तम्नतीर्थपुरे चक्रे॥ दशवैकालिकटीका शशि निधिशृङ्गार ( १६ए१) मितवर्षे ॥३॥ अर्थस्यानवबोधेन मतिमान्द्यान्मतिघ्रमात् ॥ जिनाझाविपरीतं य-त्तन्मिथ्यापुष्कृतं मम ॥ ४ ॥ ममोपरि कृपां कृत्वा शोधयन्तु बुधा श्माम् ॥ परोपकरणे यस्मात्तत्परा उत्तमानराः ॥ ५॥ टीका करणतः पुण्यं, यन्मयोपार्जितं नवेत् ॥ तेनाहमिदमिठामि, बोधिरत्र परत्र मे ॥६॥ शब्दार्थवृत्तिटीकायाः श्लोकमानमिदंस्मृतं ॥ सहस्रत्रयमग्रे च पुनः सार्धचतुःशतम् ॥ ७ ॥ इति श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितश्रीदशवैकालिकशब्दार्थवृत्तिप्रशस्तिः संपूर्णा । अथ दीपिकोपसंहारः। अत्र दशवैकालिककारकशय्यं जवसूरेस्तत्पुत्रमनकमुनेश्च संबन्धसूचकं अमपुष्पिकाध्ययननियुक्तिगाथाछिकं यथा ॥ सेज्जनवं गणहरं, जिणपमिमादसणेण पडिबुद्धं ॥ मणगपिअरं दसका-लिअस्स निजूदगं वंदे ॥१॥ मणगं पमुच्च सेज्जंज Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ६०६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. वे निज्जूहिया दसप्रयणा ॥ वेा लिखाई वविश्रा, तम्हा दसका लिखं नाम ॥ २ ॥ तद्वेषसंबन्धसूचकं चूलिकाद्वय निर्यु क्तिगाथा द्विकमिदम् ॥ बहिं मासेदिं श्रही अं, अप्रयणमीणं तु श्रमणगेणं || बम्मासा परिश्रा, यह कालगर्ड समाहीए ॥ ३ ॥ सुपायं, काही सिकनवा तहिं थेरा ॥ जसनदस्स य पुछा, कहा यवचालणा संघे ॥ ४ ॥ एताथाचतुष्कार्थः श्रीहरिजप्रसूरिविरचितवृत्तेरवसेयः अथात्र किंचत्कथानकमुच्यते ॥ यदा शय्यंजवाचार्यः प्रत्रजितस्तदा तस्य गृहिणी गुर्विण्यासीत् । जातश्चा तस्याः पुत्रः क्रमेण । नामास्य कृतं मनक इति । यदा च सोऽष्टवार्षिको जातस्तदा मातरं पृष्ठाति । क मम पिता । सा जयति । तव पिता प्रत्रजितः। ततः स पितृसकाशे गन्तुमना लब्धवृत्तान्तश्चस्पायां गतः । आचार्येण संज्ञाभूमिं गतेन स दृष्टः । तेन च वन्दित श्राचार्यः । उजयोश्च मिथः प्रेक्षमाणयोः स्नेहो जातः । आचार्यः पृष्ठति । कस्तव पिता । स जति शय्यंजव इति । ततः सूरिणा जणितम् । किमर्थमत्रागतोऽसि । तेनोक्तम् । प्रत्र जिष्यामि । यदि यूयं जानीथ तदा कथयत का स्ति मम पितेति । सूरिणोक्तम् । स मम मित्रमेकशरीरीभूतः । ततः प्रव्रज त्वं मत्पार्श्वे । प्रतिपन्नं च तेन । ततः स प्रब्राजितस्तत्रैव सूरिणा । श्रागतस्तेन सहोपाश्रये । उपयोगं दत्तवानाचार्यः । कियदायुरस्येति । ज्ञातं चातः परं षण्मासा श्रायुरस्येति । उत्पन्ना च बुद्धिराचार्यस्य । अस्य स्तोकायुषः किं कर्त्तव्यमिति । विममर्श च " चउदसपुर्वी कवि कारणे समुत्पन्ने निज्जूह | पश्चिमो पुण चउदसपुत्री श्रवस्तमेव निज्जूह | ममवि इमं कारणं समुप्पलं । तर्ज श्रमवि निज्जूहामि । ताहे तो निज्जू हिउं । जाव योवावसेसे दिसे इमे दस यणा निघूढा । उघृतानि विकालवे - लायां पाश्चात्यचतुर्घ टिकारूपायां स्थापितान्येकत्र कृतानीति । ततः षद्भिर्मासैरधीतमध्ययनमिदं दशवेकालिकाख्यः श्रुतस्कन्धो मनकेन । ततः समाधिना स कालं गतः । तस्मिन्स्वर्गते श्राराधितमनेन इति शय्यंजवा श्रानन्दाश्रुपातमकार्षुः । ततस्तत्प्रधान शिये यशोद्रेण कारणे पृष्ठे प्रोक्तं जगवता संसारखरूपम् । ततो यशोजद्रादयो गुरुवकुरुपुत्रे वर्त्तितव्यमिति न्यायमार्गः सचास्मानिर्नाचरित इति पश्चात्तापं चक्रुः । अथ शय्यंजवेनाल्पायुषमेनमवेत्य मयेदं शास्त्रमुतं किमत्र युक्तमिति संघाय निवेदिते विचारणा कृता । यडुत कालदोषात्प्रभूतसत्त्वानामिदमेवोपकारकमतस्तिष्ठत्वेतदिति नोपसंहृतं प्रवचनगुरुणेति । 1 इति श्रीसमय सुन्दरोपाध्याय विरचिता श्री दशवैका लिकशब्दार्थवृत्त्युपसंहारः संपूर्ण ॥ For Private Personal Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीया चूलिका । श्री हरिजसूरिविरचित टीकोपसंहारः ॥ 1 डुक्तं निर्युक्तिकृता प्राक् । येन वा यंवा प्रतीत्येति । तत्र येन कृतं ततव - क्तव्यतांमाह ॥ सेनवं गणहरं जिणपडिमादंसणेण पडिबुद्धं ॥ मणगपिारं दसका लिास्स निहगं वंदे ॥ १ ॥ ॥ अस्या व्याख्या ॥ शय्यंज वमनुत्तरज्ञानादिधर्मगणं धारयतीति गणधरस्तं प्रतिबुद्धं मिथ्यात्वा विरत्यज्ञान निद्रापगमेन सम्यक्त्व विकाशं प्राप्तं पूर्वगतोद्धृतार्थ विरचनाकर्तारं वन्दे स्तोमीति गाथा - रार्थः । जावार्थस्तु कथानकादवसेयः । श्रीसुधर्म शिष्यो हि जम्बूस्तस्य श्रीप्रजवस्तस्य शय्यंजवः । मनक पितरं दशवैका लिकरुतं तं वन्दे चेति ॥ १ ॥ ॥ मणगं पडुच्च सिद्धनवेण निक्लू- हिश्राद सप्रयणा || वेया लिखाई वविया तम्हा दसका लिां णाम ॥ २ ॥ म्याख्या ॥ मनकं प्रतीत्य मनकाख्यमपत्यमाश्रित्य शय्यंजवेन निर्यूढानि पूर्वगताडुद्धृत्य विरचितानि दश श्रध्ययनानि द्रुमपुष्पिकादीनि सजिवध्ययनप्रातानि । विगतः कालो विकालः । विकलनं वा विकालः । सकलः खमश्चेति तस्मिन् विकाले निर्वृत्तं दशाध्ययन निर्माणं च इदं वैकालिकम् ॥ २ ॥ ॥ यं प्रतीत्य कृतं तद्वक्तव्यतामाह ॥ बहिं मासेहिं श्रही, श्रप्रयणमिणं तु श्रमणगेण ॥ बम्मासा परिश्रा, यह कालगर्न समाहीए ॥३॥ ॥ अस्या व्याख्या ॥ षड्डिर्मा - सैरधीतं पठितमध्ययनमिदं स्वधीयत इत्यध्ययनम् । इदमेव दशवैकालिकाख्यं शास्त्रम् । केनाधीतमित्याह । आर्यमणकेन । जावाराधनयोगात् श्राराद्यातः सर्वदेयधर्मेन्य इत्यार्यः । श्रार्यश्चासौ मणकचेति विग्रहस्तेन । षण्मासाः पर्याय इति । तस्यार्यमएकस्य षण्मासा एव प्रव्रज्याकालः अल्पजीवितत्वात् । अत एवाह । श्रथ कालगतः समाधिनेति । यथोक्तशास्त्राध्ययनपर्यायानन्तरं कालगत आगमोक्तेन विधिना मृतः । समाधिना शुभलेश्याध्यानयोगेनेति गायार्थः ॥ ३ ॥ ॥ अत्र चैवं वृद्धवादः । यथा तेनैतावता श्रुतेनाराधितमेवमन्येऽप्येतदध्ययनानुष्ठानत श्राराधका जवत्विति ॥ आणंदसुपायं, कासी सिऊंनवा तहिं थेरा ॥ जसजद्दस्स य पुछा, कहा अविश्रा ला संघे ॥ ४ ॥ ॥ अस्या व्याख्या । श्रानन्दाश्रुपातमहो आराधितमनेनेति हर्षाश्रमोक्षणमकार्षुः कृतवन्तः शय्यंजवाः प्राग्व्याख्यातस्वरूपास्तत्र तस्मिन् कालगते स्थविराः श्रुतपर्यायवृद्धाः प्रवचनगुरवः । पूजार्थं बहुवचनमिति । यशोजद्रस्य च शय्यंजव प्रधान शिष्यस्य गुर्वश्रुपातदर्शनेन किमेतदाश्चर्यमिति विस्मितस्य सतः पृष्ठा । जगवन् किमेतदतपूर्वमित्येवंभूता । कथना च जगवतः संसारस्नेह ईदृशः । सुतो ममायमित्येवंरूपा । चशब्दादनुतापश्च यशोजद्रादीनाम् । श्रहो गुराविव गुरुपुत्र के वर्त्तितव्य मिति । 1 ઢ ६७ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. न तळतमस्मानिरित्येवंजूतप्रतिबन्धदोषपरिहारार्थ न मया कथितं नात्र जवतां दोष इति गुरुपरिसंस्थापनं च । विचारणा संघ इति । शय्यंजवेनाल्पायुषमेनमवेत्य मयेदं शास्त्रं निर्मूढं किमत्र युक्त मिति निवेदिते विचारणा संघे। कालन्हासदोषात् प्रचूतसत्त्वानामिदमेवोपकारकमतस्तिष्ठत्वेतदित्येवंजूता स्थापना चेति गाथार्थः ॥४॥ उक्तोऽनुगमः सांप्रतं नयास्ते च नैगमसंग्रहव्यवहारजुसूत्रशब्दसमनिरूद्वैवंचूतन्नेदनिन्नाः खत्वोघतः सप्त जवन्ति । स्वरूपं चैतेषामथ श्रावश्यके सामायिकाध्ययनेऽन्यदणे प्रदर्शितमेवेति नेह प्रतन्यते । श्ह पुनः स्थानाशून्यार्थमेते ज्ञानक्रियानयान्त वझारेण समासतः प्रोच्यन्ते । ज्ञाननयः क्रियानयश्च । तत्र छाननयदर्शन मिदम् । शानमेव प्रधानमै हिकामुष्मिकफलंप्राप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वात्तथाचाह ॥ पायंमि गिहिरवे, अगिहिरवे अ तहय अबम्मि ॥ जश्वमेव २२ जो, उवएसो सो न नाम ॥ णायंमित्ति। अस्या व्याख्या । झाते सम्यक्परिडिन्ने गिरिहअवेत्ति ग्रहीतव्य उपादेये। श्रगिहिअव्वत्ति अग्रहीतव्येऽनुपादेये हेय इत्यर्थः । चश ब्दः खलूजयोग्रहीतव्याग्रहीतव्ययोतित्वानुकर्षणार्थ उपेक्षणीयसमुच्चयार्थो वा। एवकारस्त्ववधारणार्थः । तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो अष्टव्यः । ज्ञात एव ग्रहीतव्ये तथाग्रहीतव्ये तथोपेरणीये च ज्ञात एव नाज्ञाते। अम्मित्ति । अर्थ ऐहिकामुष्मिके । तत्रैहिको ग्रहीतव्यः स्रक्चन्दनाङ्गरागादिः। श्रग्रहीतव्यो विषशस्त्रकएटकादिः । उपेक्षणीयस्तृणादिः । श्रामुष्मिको ग्रहीतव्यः सद्दर्शनादिरग्रहीतव्यो मिथ्यात्वादिरुपेक्षणीयो विवक्ष्या अभ्युदयादिरिति । तस्मिन्नर्थे यतितव्यमेवेति । अनुस्वारलोपाद्यतितव्यमेवमनेन प्रकारेणैहिकामुष्मिकफलप्रात्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः। छ चैतदङ्गीकर्तव्यम् । सम्यगझाते प्रवर्त्तमानस्य फला विसंवाददर्शनात् । तथा चान्यैरप्युक्तम् ॥ विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता ॥ मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य फलप्राप्तेरदर्शनात् ॥१॥ तथामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिनापि ज्ञात एवयतितव्यम् । तथा चागमोऽप्येवमेव स्थितः। यत उक्तम् ॥ पढमं नाणं त दया, एवं चिश्सवसंजए॥अमाणी किं काही किंवा पाहीश्छेअपावगं ॥१॥श्तश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम् । यस्मात्तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहार क्रियापि निषिका। तथा चागमः॥गीयबोध विहारो, बिश्न गीअबमीसिनणि॥ एत्तो तश्वविहारो, पाणुमा जिणवरेहिं॥ न यस्मादन्धेनान्धःसमाकृष्यमाणः सम्यक् पन्थानं प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत्दायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तम्। दायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयम् । यस्मादईतोऽपि नवा. Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीया चूलिका। ६॥ म्जोधितटस्थस्य दीक्षाप्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिर्जायते । यावजीवाजीवाद्य खिलवस्तुपरिछेदरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्न मिति । तस्माज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारण मिति स्थितमिति । जो उवएसो सो ण णामं ति। श्त्येवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशो ज्ञानप्राधान्यस्थापनपरः स नयो नाम ज्ञाननय इत्यर्थः। अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने ज्ञानरूपमेवेदमिछति । ज्ञानात्मकत्वादस्य । वचनक्रिये तु तत्कार्यत्वात्तदायत्तत्वान्नेबतीति गाथार्थः॥ ॥ उक्तो ज्ञाननयः। अधुना क्रियानयावसरः। तदर्शनं चेदम् । क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वात् । तथाचायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपदसिझये गाथामाह । णायंमि गेण्हिवे इत्यादि । अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या । हाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थना यतितव्यमेवेति । न यस्मात्प्रवृत्त्या दिलदणप्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यजिलषितार्थावाप्तिदृश्यते । तथा चान्यैरप्युक्तम् ॥ क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् ॥ यतः स्त्रीजयनोगझो, न ज्ञानात्सुखितो नवेत् ॥१॥तथामुष्मिकफलप्रात्यर्थिनापि क्रियैव कर्तव्या। तथा च मौनीन्छवचनमप्येवमेव व्यवस्थितम् ॥यत उक्तम्। चेश्चकुलगणसंघे, आयरिआणं च पवयणसुए श्र॥सवेसु एतेण कयं, तवसंजममुऊमंतेणं॥श्तश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम्। यस्मात्तीर्थकरगणधरैः क्रिया विकलानां ज्ञानमपि विफलमेवोक्तम् । तथा चागमः। सुबहुँ पि सुश्रमहीधे, किं काही चरण विप्पमुक्कस्स ॥ अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोमी वि॥ ॥ दृशिक्रिया विकलत्वात्तस्येत्यभिप्रायः । एवं तावत्दायोपशमिकं चारित्रमङ्गीकृत्योक्तम् । चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरम् । दायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृ. ष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं यस्मादहतो नगवतः समुत्पन्नकेवलज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्यवाप्तिः संजायते यावद खिलकर्मेन्धनानलनूता हूस्वपञ्चाक्षरोमिरणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवरणरूपा चारित्रक्रिया नावाप्तेति। तस्माक्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमितिस्थितमिति। जोजवएसो सो पणामं ति इत्येवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशः क्रियाप्राधान्यख्यापनपरःस नयो नाम क्रियानय इत्यर्थः। श्रयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने क्रियारूपमेवेदमिछति । तदात्मकत्वादस्य । ज्ञानवचने तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वान्नेछति गुणनूते चेतीति गाथार्थः॥ ॥ उक्तः कियानयः । श्वं ज्ञानक्रियानयस्वरूपं श्रुत्वा विदिततदनिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह । किमत्र तत्त्वम् । पदयेऽपि युक्तिसंजवात् । आचार्यः पुनराह ॥ सवेसिं पि नयाणं बहुविहवत्तत्वयं निसामेत्ता ॥ तं सबनय विसुझं जंचरणगुणहि साढू॥अ. Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागम संग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. स्या व्याख्या । अथवा ज्ञान क्रिया नयमतं प्रत्येकमजिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयना | सवे सिं गाहा । सर्वेषामपि मूलनयानाम् । श्रपिशब्दात्तद्वेदानां च नयानां द्रव्या स्तिकादीनां बहुविधवक्तव्यतां सामान्यमेव विशेषा एवमुजयमेव वानपेक्ष्यमित्यादिरूपाम् । अथवा नामा दिनयानां कः कं साधु मिछतीत्यादिरूपां निशम्य श्रुत्वा तत्सर्वनय विशुद्धं सर्वनयसंमतं वचनं यच्चरणगुणस्थितः साधुर्यस्मात्सर्वनया एव जावविषयं निक्षेपमन्तीति गाथार्थः ॥ ॥ नमो वर्द्धमानाय जगवते । व्याख्यातं चूडाध्ययनम् । तव्याख्यानाच्च समाप्ता दशवैकालिकटीका ॥ समाप्तं दशवैकालिकं चूलिकासहितं निर्युक्तिटीकासहितं च ॥ इत्याचार्य श्री हरिभद्रसूरिविरचिता दशवैकालिकटीका समाप्ता ॥ महत्तराया या किन्या धर्मपुत्रेण चिन्तिता ॥ श्राचार्यह रिजण टीकेयं शिष्यबोधिनी ॥ १ ॥ दशवैकालिके टीकां विधाय यत्पुण्यमर्जितं तेन ॥ मात्सर्यदुःखविरहा- हुणानुरागी जवतु लोकः ॥ २ ॥ For Private Personal Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ दशवैकालिकसूत्रपाठः । परिशिष्टम् । दशवैका लिकसूत्रपाठः । द्रुमपुष्पिकाध्ययनम् ॥ १ ॥ धम्मो मंगलमुकि, अहिंसा संजमो तवो ॥ देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥ १ ॥ जहा मस्स पुप्फेसु, जमरो वि रसं ॥ एय पुष्कं किलामेइ, सोपी अप्पयं ॥ २ ॥ एमे समा वुत्ता, जे लोए संति सादुणो ॥ विहंगमाव पुप्फेसु, दाणजत्तेसले रया ॥ ३ ॥ वयं च वित्तिं लग्नामो, नय कोइ उवहम्मर || अहागडे रीयंते, पुप्फेसु जमरा जहा ॥ ४॥ मदुगारसमा बुधा, जे जवंति अपिस्सिया || नाणापिंकरया दंता, ते वुच्छंति सादुणो ॥ तिबेमि ॥ ५ ॥ 5मपुफियां संमत्तं ॥ १ ॥ अथ श्रामण्य पूर्विकाध्ययनम् ॥ २ ॥ कहं नु कुका सामणं, जो कामे न निवारए ॥ पण पर निसीदंतो, संकष्पस्स वसं गर्ज ॥ १॥ वचगंधमलंकारं, इबी सयणाणि ॥ छंदा जे न जुंजंति, न से चाइ ति वुच्च ॥ २ ॥ जे कंते पिए जोए, ल विविधि कुबइ ॥ साही ऐ चयई जोए, से हु चाइ त्ति वुच्च ॥ ३ ॥ समाइ हाइ परिवतो, सिच्या मणो निस्सरई बहिया || नसा महं नावि वि तीसे, इच्चेव तार्ड विषय रागं ॥ ४ ॥ यावयाही चय सोगमनं, कामे कमाही कमियं खु डुरकं ॥ बिंदादि दोसं विषएक रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥ ५ ॥ 902 परकंदे जलि जोई, धूमकेनं दुरासयं ॥ नेति वंतयं जोतुं कुले जाया गंध ॥ ६ ॥ धिरनु ते जसो कामी, जो तं विसयकारणा ॥ वंतं इमि वेनं, सेयं ते मरणं नवे ॥ ७ ॥ अहं च जोगरास्स, तं च सि अंधण विहिणो ॥ मा कुले गंधणा होमो, संजमं निदु चर ॥ ८ ॥ जतं काहिसी जावं, जा जा दिवसि नारि ॥ वायाविध हडो, अप्पा जविससि ॥ ९ ॥ तीसे सो वयं सोच्चा, संजयाइ सुनासि ॥ कुसे जहा नागो, धम्मे संपडिवाइड ॥ १० ॥ एवं करंति जे बुद्धा, पंमिश्रा पविचरका | विश्रिङ्कंति जोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो ॥ त्ति बेमि ॥ ११ ॥ सामन्नपुविज्या संमत्ता ॥ २ ॥ अथ क्षुल्लकाचाराध्ययनम् ॥ ३ ॥ संजमे सुपाएं, विप्पमुक्काण ताइणं ॥ तेसिमेश्रमणाइन्नं, निग्गंथा महेसि ॥ १ ॥ उद्देसिहां की अगडं, नियागमजिदडाणि ॥ राजत्ते सिणा का गंधम वीणे ॥ २ ॥ संनिही गिहि मत्ते, रापिने किमिए ॥ सेवाहणदंत होणा श्र, संपुणे देहपलोणा ॥ ३ ॥ छावा नालीए, बत्तस्स य धारणाए । तेगिनं पाहणा पाए, समारंजं च जोइणो ॥ ४ ॥ सिाारपिंग च, आसंदी पलिकए || गिदंतर निसिका , गायस्सुबट्टणाणि ॥ ५ ॥ गिहिणो वेत्रावडि, जा अ श्राजीववत्तिय ॥ तत्तानिबुडमोइत्तं, आजरस्सरणाणि ॥ ६ ॥ मूलए सिंगबेरे, उखंडे निघुमे ॥ कंदे मूले का सच्चित्ते, फले बीए अ श्रामए ॥ ७ ॥ सोवच्चले सिंधवे लोणे, रोमालो अ आमए ॥ सामुद्दे पंसुखारे, काललो आमए ॥ ८ ॥ For Private Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. धुवणे त्ति वमणे अ, वजीकम्मविरेआणे ॥ अंजणे दंतवणे अ, गायानंगविनूसणे ॥ ए॥ सबमेअमणान्नं, निग्गंथाण महेसिणं ॥ संजमंमि अ जुत्ताणं, लहुन्नूअविहारिणं ॥ १० ॥ पंचासवपरिणाया, तिगुत्ता बसु संजया ॥ पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उजुदंसिणो ॥ ११॥ आयावयंति गिटेसु, हेमंतेसु अवानडा ॥ वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिआ ॥१२॥ परीसहरिउदंता, धूअमोहा जिइंदिरा ॥ सबपुरकपहीणा, पक्कमंति महेसिणो ॥ १३ ॥ उकराई करित्ता एं, उस्सहाश् सहेतु अ॥ केश्च देवलोएसु, के सिकंति नीरया ॥४॥ खवित्ता पुबकम्मा, संजमेण तवेणय ॥ सिधिमग्गमणुप्पत्ता, ताणो प्ररिनिबुडे ॥ त्ति बेमि ॥ १५ ॥ खुड्डायारकहज्जयणा संमत्ता ॥३॥ अथ षड्जीवनिकाध्ययनम् ॥४॥ सुझं मे श्राउसंतेणं लगवया एवमरकायं, इह खलु बजीवणिया नाम ज्जयणं समणेणं लगवयामहावीरेणं कासवेणं पवेश्या सुअरकाया सुपन्नत्ता सेअंमे अहि जिलं अज्जयणं पन्नत्ती॥ कयरा खलु उजीवणिआ नामज्यणं समणेणं लगवया महावी रेणं य कासवेणं पवेश्या सुपरकाया सुपनत्ता सेयं मे अहिजिलं धम्मपन्नत्ती ॥श्मा खलु उजीवणिश्रा नामज्जयणं समणेणं लगवया महावीरेणं कासवेणं पवेश्या सुअरस्काया सुपन्नत्ता ॥ सेझं मे अहिजिलं धम्मपन्नत्ती ॥ तं जहा । पुढविकाश्या आउकाश्ा तेउकाश्या वाजकाश्या वणस्सश्काश्या तसकाश्या । पुढवि चित्तमंतमरकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्न सन्चपरिणएणं । आज चित्तमंतमरकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नब सबपरिणएणं । तेन चित्तमंतमरकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नब सबपरिणएणं । वाउ चित्तमंतमरकाया अणेगजीवा पुढोसत्ताअन्नन्छ सबपरिणएणं। वणस्सश् चित्तमंतमरकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नब सबपरिणएणं ॥ तं जहा । अग्गबीआ मूलबीआ पोरबीया खंधबीआ बीअरुहा संमुचिमा तणलया वणस्सश्काश्यासबीआ चित्तमंतमरकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नब सबपरिणएणं ॥ से जे पुण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा तं जहा। अंडया पोययाजराचा रसया संसेश्मा समुचिमा जनिश्रा उववाश्या । जेसिं केसि चि पाणाणं अनिकंतं पडिकंतं संकुचिरं पसारिश्र रूअंनंतं तसि पलायं आगगविन्नाया । जे अकीडपयंगा । जा य कुंथुपिपीलिया। सबे बेइंदिया सबे तेइंदिया सबे चलरिं दिया सवे पंचिंदिया सवे तिरिरकजोणिया सवे नेरश्या सवे मणुआ सवे देवा सबे पाणा परमाहम्मिश्रा एसो खलु बो जीवनिका तसकाउ त्ति पवुच्च॥ इच्चेसिं बण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दं समारंजिता । नेवन्नेहिं दं समारंजाविजा । दंम समारंनंते वि अन्ने न समणुजाणामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि। करतं वि अन्ने न समणुजाणामि । निंदामि । गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ___ पढमे नंते महबए पाणावाया वेरमणं । सवं नंते पाणाश्वायं पच्चरकामि । से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा नेव सयं पाणे अश्वाजा । नेवन्नेहिं पाणे अश्वायाविजा पाणे अश्वायंते वि अन्ने न समणुजाणामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं वि अन्ने न समणुजाणामि तस्स नंते पडिक्वमामि । निंदामि । गरिहामि । अप्पाणं वोसिरामि । पढमे नंते महबए सबा पाणाश्वाया वेरमणं ॥१॥ __ अहावरे उच्चे नंते महत्वए मुसावाया वेरमणं । सवं नंते मुसावायं पञ्चरकामि । से कोहा वा, लोहा वा, जया वा, हासा वा, नेव सयं । मुसं वश्का । नेवन्नेहिं मुसं वायाविजा । मुसं वयंते वि अन्ने न सम Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०३ अथ दशवकालिकसूत्रपाठः। णुजाणामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिक्कमामि । निंदामि। गरिहामि श्रप्पाणं वोसिरामि। फुच्चे नंते महबए नवनिमि सबा मुसावाया वेरमणं ॥२॥ __ अहावरे तच्चे नंते महबए अदिन्नादाना वेरमणं । सर्व नंते अदिन्नादाणं पच्चरकामि । से गामे वा नगरे वा रणे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा शूलं वा चित्तमंतं वा श्रचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गिहिका। नेवन्नेहिं अदिन्नं गिहाविजा । अदिन्नं गिएहंते वि अन्ने न समणुजाणामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिकमामि ।निंदामि । गरिहामि । अप्पाणं वोसिरामि । तच्चे नंते महबए उवविठमि सबा अदिन्नादाणा वेरमणं ॥३॥ __अहावरे चमचे ते महबए मेहुणा वेरमणं । सवं नंते मेहुणं पच्चरकामि । से दिवं वा माणुस वा तिरिरकजोणिकं वा । नेव सयं मेहुणं से विजा । नेवन्नेहिं मेहुणं सेवाविजा । मेहुणं सेवंते वि अन्ने न समणुजागामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वावाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिकमामि । निंदामि । गरिहामि । अप्पाणं वोसिरामि । चनचे नंते महबए उवजिट मि सबा मेहुणा वेरमणं ॥४॥ अहावरे पंचमे ते महबए परिग्गहा वेरमणं । सवं ते परिग्गरं पच्चरकामि । से अप्पं वा बहुँ वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं परिगिहिजा । नेवन्नहिं परिगिहाविजा। परिग्गहं परिगिण्हंते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कायेणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । पंचमे ते महबए उवग्निमि सबा परिग्गहा वेरमणं ॥५॥ __अहावरे उठेनंते वए राश्लोषणावेरमणं । सवं नंते राश्लोअणं पच्चरकामि । से असणं वा पाणं वा खाश्मं वा साश्मं वा । नेव सयं सई मुंजेजा। नेवन्नेहिं राई गुंजाविजा । राई नुंजते वि अन्ने न समणुजाणेजा । जावजीवाएतिविहेणं मणेणंवायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्ने न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिकमामि । निंदामि । गरिहामि । अप्पाणं वोसिरामि । बछे नंते वए उवविट मि । सबाट राश्नोत्रणा वेरमणं ॥६॥ इच्चेयाई । पंच महावयाइं राश्लोअणवेरमणग्गई अत्तहिअग्आिए जवसंपङित्ता एं विहरामि ॥ ७ ॥ से निरकु वा निरकुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चरकायपावकम्मो दिया वा रा वा एग वा परिसाग वा सुत्ते वा जागरमाणे वा । से पुढविं वा नित्तिं वा सिखं वा खेळु वा ससररकं वा कार्य ससररकं वा वळ होण वा पाएण वा कोण वा किंलिंचेण वा अंगुलिआए वा सिलागए वा सिलागहन्छेण वा न आलिहिजा न विलिहिजा न घट्टिा न निंदिजा अन्नं न आलिहाविजा न विलिहाविजा न घट्टाविका न निंदाविजा । अन्नं आलिहंतं वा विलिहंतं वा घट्टं तं वा निंदंतं वा न समणुजाणामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेण वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं वि अन्ने न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥१॥ ___ से निरकु वा निरकुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चरकायपावकम्मे दिया वा रा वा एगउँ वा परिसागर्छ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से उदगं वा उसं वा हिमं वा महिनं वा करगं वा हरतणुगं वा सुखोदगं वा उदजनं वा कायं उदजवं वा वढं ससिणि वा कार्य ससिणि वा वळ न आमुसिजा न संफुसिजा। न आविलिजा न पविलिजा नअरकोमिजा न परकोमिजान याविजानपयाविजा अन्नंनआमुसाविजा नसं फुसाविजा न आवीलाविजा न पवीलाविजान अस्कोमाविजान परकोडाविजा न आयाविजान पया Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 303 राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. विजा अन्नं आमुसंतं वा संफुसंतं वा आविलंतं वा पविलंतं वा अरकोमतं वा परकोमंतं वा यावंत वा पयावंतं वा न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिकमामि । निंदामि गरिहामि । अप्पाणं वोसिरासि ॥२॥ __ से निरकु वा निरकुणी वा संजयविरयपमिहयपच्चरकायपावकम्मे दिया वा रा वा एगउँ वा परिसागर्ने वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से अगणिं वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अच्चिं वा जालं वा अलायंवा सुधागणिं वा जक्कं वा न जंजेजा न घट्टेजा न निंदेआ न उजालेजा न पजालेजा न निबावेजा अन्नं जंजंतं वा घट्तं वा निंदंतं वा उजावंतं वा पजालंतं वा निवावंतं वा न समजाणामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स नंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥३॥ ___ से निरनु वा निरकुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चरकायपावकम्मे दिया वा रा वा एग वा परिसागर्छ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से सिएण वा विहुणेण वा तालिअंटेण वा पत्तेण वा पत्तनंगेण वा साहाए वा साहानंगेण वा पिहुणेण वा पिहुणहलेण वा चेलेण वा चेलकन्नेण वा हल्लेण वा मुहेण वा अप्पणो वा कायं बाहिरं वा वि पुग्गवं न फुमेजा न वीएका अन्नं न फुमावेजा न वीआवेजा अन्नं फुमंतं वा वीअंतं वा न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पिअन्नं न समणुजाणामि तस्स नंते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥४॥ से निरनु वा निकुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चरकायपावकम्मे दिया वा रा वा एग वा परिसाग वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से बीएसु वा बीअपश्च्सु वा रूढे सु वा रूढपश्च्सु वा जाएसु वा जायपश्च्सु वा हरिएसु वा हरियपश्सु वा उिनेसु वा जिन्नपश्छेसु वा सचित्तेसु वा सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा न गनेजा न चिठेजा न निसीइजा न तुअटेजा अन्नं न गलावेजा न चिनवेजा न निसीआवेजा न तुअट्टावेजा । अन्नं गळतं वा चितं निसीअंतं वा तुअदृतं वा न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ए॥ __ से निरकु वा निरकुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चरकायपावकम्मे दिया वा रा वा एगर्ने वा परिसागउँ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से कीडं वा पयंगं वा कुंथु वा पिपीलिकं वा हांसि वा पायंसि वा बाहंसि वा ऊरुसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वचसि वा पडिग्गहंसि वा कंबलंसि वा पायपुंगणंसिवा रयहरणंसि वा गोचगं सि वा उंडगंसि वा दंमगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेजागसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए त संजयामेव पडिलेहिश्र पडिलेहिश्र पमकिन पमजिअ एगंतमवणेजा नोणं संघायमावळोजा ॥६॥ अजयं चरमाणो अ, पाणनूआई हिं सइ ॥ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ का अं फलं ॥१॥ अजयं चिघ्माणो अ, पाणयाइ हिंस॥ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कमुझं फलं ॥२॥ अजयं आसमाणो अ, पाणआइ हिंस॥ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कमुकं फलं ॥३॥ अजयं सयमाणो अ, पाणनूआइ हिंस॥ बंधई पावयं कम्म, तं से होश् कमुकं फलम् ॥४॥ अजयं नुजमाणो अ, पाणनूआइ हिंस॥ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कमुकं फलं ॥५॥ अजयं नासमाणो अ, पाणनूआइ हिंसर ॥ बंधई पावयं कम्म, तं से हो कमुकं फलं ॥६॥ कहं चरे कहं चिठे, कहमासे कहं सए ॥ कहं तुंजतो लासंतो पावं कम्मं न बंध ॥ ७ ॥ जयं चरे जयं चिके, जयमासे जयं सए ॥ जयं मुंजंतो नासंतो, पावं कम्मं न बंधश्॥७॥ सबलप्पनअस्स, सम्म नभाउ पास ॥ पिहिवासवस्स दंतस्स. पावं न कम्मं बंध॥॥ पढमं नाणं त दया, एवं चिप सबसंजए ॥ अन्नाणी किं काही, किं वा नाही बेन पावगं ॥ १० ॥ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकसूत्रपाठः । ցեն सोच्चा जाएइ कलाएं, सोच्चा जाएइ पावगं ॥ उज्जयं पि जाएइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥ ११ ॥ जो जीवेविन, जीवे वि न आणइ ॥ जीवाजीवे श्रयातो, कह सो नाईइ सेजमं ॥ १२ ॥ जो जीवे विवदि, जीवे वि वि आणइ ॥ जीवाजीवे विश्राणंतो, सो हु नाहीइ सयमं ॥ १३ ॥ जया जीवमजी, दो वि एणं विश्राइ ॥ तया गई बहुविहं, सबजी आ जाइ ॥ १४ ॥ जया गई बहुविहं, सबजी श्राण जाइ ॥ तया पुणं च पावं च, बंधं मुरकं च जाएइ ॥ १५ ॥ जया पुच, पावं व बंधं मोरकं च जाइ ॥ तया निबिंदए जोए, जे दिवे जे का माणुसे ॥ १६ ॥ जया निदिए जोए, जे दिवे जे माणुसे ॥ तया चयइ संजोगं, सप्निंतर बाहिरं ॥ १७ ॥ जया च संजोगं, सनिंतर बाहिरं ॥ तया मुंडे वित्ता एं, पब गारि ॥ १८ ॥ जया मुंके वित्ता, पवइए अणगारि ॥ तया संवरमुक्किवं, धम्मं फासे णुत्तरं ॥ १५ ॥ जया संवरमुक्किवं, धम्मं फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, बोहिकसं कडं ॥ २० ॥ जया धुइ कम्मरयं, बोहिकसं कडं ॥ तया सवत्तगं नाणं, दंसणं चानिगइ ॥ २१ ॥ जया सबत्तगं नाणं, दंसणं चानिगइ ॥ तया लोगमलोगं च, जिणो जाएइ केवली ॥ २२ ॥ जया लोगमलोगं च, जिणो जाए केवली ॥ तया जोगे निरंजित्ता, सेलेसिं परिवजइ ॥ २३ ॥ जया जोगे निरंजित्ता, सेलेसिं पडिवत ॥ तया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गइ नीर ॥ २४ ॥ जया कम्मं खवित्ता, सिद्धिं गइ नीर ॥ तया लोगम मनुयचो, सिद्धो हवाइ सास ॥ २५ ॥ सुहसावगस्स समणस्स, सायार्ज लग्गस्स निगामसाइस्स ॥ उबोलणापहोस्स, दुलहा सुगइ तारिसगस्स ॥ २६ ॥ तवोगुण पहाणस्स, उकुमइ खंतिसंजमरयस्स ॥ परीसहे जिणंतस्स, सुलहा सुगइ तारिसगस्स ॥ २७ ॥ पचा व ते पयाया, खिप्पं गति अमरजवणा । | जेसिं पिर्ज तवो सं-जमो खंती छ वंजचेरं च ॥ २८ ॥ जीव, सम्मदिवी सया जाए || लहं लहित्तु सामन्नं, कम्मुणा न विराहितासि ॥ त्तिबे मि॥२॥ च बीवणि श्राणामप्रयणं संमत्तं ॥ ४ ॥ अथ पिण्डेषणाध्ययनम् ॥ ५ ॥ संपत्ते निरककालंमि, संतो मुनि ॥ इमे कम्मजोगेण, नत्तपाणं गवेस ॥ १ ॥ से गामे वा नगरे वा गोरग्गगर्न मुली | चरे मंदमणुविग्गो, अवरिकत्ते चेासा ॥ २ ॥ पुर जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे ॥ वर्गांतो बीहरिया, पाणे दगमट्टियं ॥ ३ ॥ वायं विसमं खाएं, विजलं परिवजए ॥ संकमेण न गविका, विक्रमाणे परक्कमे ॥ ४ ॥ पवते व से तब, परकलंते व संजए ॥ हिंसेऊ पाणआइ, तसे वावरे ॥ ५ ॥ तम्हा ते न गविका, संजए सुसमाहिए ॥ सइ ने मग्गेण, जयमेव परकमे ॥ ६॥ इंगा बारि रासिं, तुसरासिं च गोमयं ॥ ससरर केहिं, पाएहिं संज तं नक्कमे ॥ ७ ॥ न चरेऊ वासे वासंते, महित्राए पतिए । महावाए व वायंते, तिरिनुसंपामेसु वा ॥ ८ ॥ न चरेक वेससामंते, बंजचेरवसाए ॥ बंजयारिस्स दंतस्स, दुका तब विसुत्तिया ॥ ए ॥ अणायणे चरंतस्स, संसग्गीए रिकणं ॥ हुआ वयाएं पीला, सामन्नंमि का संस ॥ १० ॥ ता विश्राणित्ता, दोसं दुग्गश्वदृणं ॥ वकए वेससामंतं, मुणी एगंतमस्सिए ॥ ११॥ सासू गाविं, दित्तं गोणं हयं गयं ॥ संडिनं कलहं जुछं, फुर परिवकए ॥ १२ ॥ अन्न नाव, अप्प हि पाउले || इंदिश्राणि जहानागं, दमत्ता मुणी चरे ॥ १३ ॥ दवदवरस न गछेका, जासमाणो छ गोरे ॥ हसंतो नाभिगाि, कुलं उच्चावयं सया ॥ १४ ॥ ८९ For Private Personal Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. आलोअं बिग्गलं दारं, संधिं दगनवणाणि अ॥ चरतो न विनिनाए, संकगणं विवजए ॥ १५॥ . रन्नो गिहवईणं च, रहस्साररिक आण य ॥ संकिलेसकरं गणं, उर परिवजाए ॥ १६॥ पमिकुठं कुलं न पविसे, मामगं परिवजाए ॥ अचिअत्तं कुलं न पविसे, चित्तं पविसे कुलं ॥ १७ ॥ साणीपावारपिहिरं, अप्पणा नावपंगुरे ॥ कवाडं नो पणुविजा, नग्गहंसि अजाश्या ॥ १० ॥ गोअरग्गपविको अ, वच्चमुत्तं न धारए ॥ोगासं फासुझं नच्चा, अणुन्नविश्र वोसिरे ॥ १५ ॥ एपीअवारं तमसं, कुगं परिवाए ॥ अचरकुविस जळ, पाणा उप्पडिलेहगा ॥२०॥ जलपुप्फा बीआइ, विप्पन्नाश् कुए ॥ अहुणोववित्तं नवं, दवूणं परिवाए ॥२१॥ एलगं दारगं साणं, वचगं वा वि कुठए ॥ नवंघिया न पविसे, विउहित्ताण व संजए ॥ २२॥ असंसत्तं पलोश्जा, नादूरा वलोभए ॥ उप्फुलं न विनिनाए, नियट्टिक अयंपिरो ॥ २३॥ अश्लूमिं न गल्छेजा, गोअरग्गग मुणी ॥ कुलस्स नूमिं जाणित्ता, मिरं चूमि परक्कमे ॥ २४॥ तव पमिलेहिजा, मिनागं विरकणो ॥ सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं परिवजाए ॥ २५॥ दगमट्टियायाणे, बीआणि हरियाणि अ॥ परिवजांतो चिन्जिा, सविंदिश समाहिए ॥२६॥ तन से चिठमाणस्स. याहारे पाणनोश्रणं ॥ अकप्पियनगेपिहला. पडिगाहिङ कप्पियं॥२७॥ आहारती सिथा तब, परिसा डिज लोअणं ॥ दितिरं पडिआश्के, न मे कप्पश् तारिसं ॥ २० ॥ संमद्दमाणी पाणाणि, बीआणि हरिआणि अ॥ असंजमकरि नच्चा, तारिसिं परिवजए ॥ ए॥ साहट्ट निस्किवित्ताणं, सचित्तं घट्टियआणि अ॥ तहेव समणाए, उदगं सपणुल्लिा ॥ ३० ॥ आगहश्त्ता चलश्त्ता, आहारे पाणलोअणं ॥ दितिरं पडिआश्के, न मे कप्प३ तारिसं ॥३१॥ पुरेकम्मेण होण, दवीए नाणेण वा ॥ दितिअं पडिआइरके, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ३ ॥ (एवं) उदनले ससिणिके, ससररके मट्टियाउसे ॥ हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥३३॥ गेरुवन्निअसे ढिश-सोरशिपिच्कुकुसकए ॥ नक्किमसंसछे, संसठे चेव बोधये ॥ ३४॥ असंसण होण, दबीए जायणेण वा ॥ दिङमाणं न इचिजा, पन्ना कम्मं जहिं नवे ॥ ३५॥ संसण य होण, दबीए नायणेण वा ॥ दिङमाणं पडिडिजा, जं तलेसणिवे नवे ॥ ३६॥ मुएहं तु मुंजमाणाणं एगो तब निमंतए ॥ दिऊमाणं न इचिजा, बंदं से पडिलेहए ॥ ३७॥ मुएहं तु मुंजमाणाणं, दो वि तह निमंतए ॥ दिङमाणं पडिमिजा, जं तसणिवेनवे ॥ ३० ॥ गुविपीए उवणलं, विविहं पाणलोअणं ॥ लुंजमाणं विवजिजा, जुत्तसेसं पमिलए ॥ ३ ॥ सिआ अ समणघाए, गुविणी कालमासिणी ॥ जमिश्रा वा निसीइजा, निसन्ना वा पुणुए ॥४०॥ तं नवे जत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ॥ दितिरं पडिआइके, न मे कप्प३ तारिसं ॥४१॥ श्रणगं पिङमाणी, दारगं वा कुमारित्रं ॥ तं निरिकवित्तु रोअंतं, आहारे पाणलोअणं ॥४॥ तं नवे लत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ॥ दिति पडिआश्के, न मे कप्पश् तारिसं ॥ ४३ ॥ जं नवे नत्तपाणं तु, कप्पाकप्पमि संकि ॥ दितिथं पडियाश्के, न मे कप्पर तारिसं ॥ ४ ॥ दगवारेण विहिरं, नीसाए पीढएण वा ॥ लोढेण वा वि लेवेण सिलेसेण वि केण ॥ ५॥ तं च उप्रिंदिया दिजा, समण एव दावण ॥ दितिअं पडियारेक, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ४६॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं सामं तहा ॥ जं जाणिक सुणिका वा, दाणा पगडं श्मं ॥ ७ ॥ तारिसं नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ॥ दितिथं पमिश्राश्के, न मे कप्प३ तारिसं ॥४॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं साइमं तहा ॥ जंजाणिक सुणिजा वा, पुणहा पगडं इमं ॥ ४ ॥ तं नवे जत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ॥ दितिरं पडिआइरकं, न मे कप्पर तारिसं ॥ ५० ॥ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ दशवैकालिकसूत्रपाठः। JOS असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा ॥ जं जाणिक सुणिजा वा, वणिमत पगइमं ॥५१॥ तं नवे जत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं ॥ दितिरं पमिआश्के, न मे कप्पश् तारिसं ॥ ५॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं सामं तहा ॥ जं जाणिक सुणिका वा, समणच पगडं श्मं ॥ ५३ ॥ तं नवे लत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ॥ दितिरं पमिश्राश्के, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ॥ उद्देसिझं कीअगडं, पूश्कम्मं च आह; ॥ अनोअरपामिच्चं, मीसजायं विवाए ॥ ५५॥ जग्गमं से श्र पुलिजा, कस्सा पगडं करूं ॥ सुच्चा निस्संकि सुचं, पमिगाहिजा संजए ॥५६॥ असणं पाणगं वा वि. खाइमं सामं तहा ।। फुप्फेस हऊ उम्मीसं, बीएस हरिएसु वा ॥२७॥ तं नवे नत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं ॥ दितिर्थ पमित्राश्के, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ५० ॥ असणं पाणगं वा वि, खाइमं साश्मं तहा ॥ उदगंमि हुआ निरिकत्तं, उत्तिंगपणगे सु वा ॥ एए॥ तं नवे जत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ॥ दितिरं पमियारेक, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ६॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं सामं तहा ॥ तेजम्मि हुङ निरिकत्तं, तं च संघट्टिया दए ॥ ६१॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिरं ॥ दितिरं पडिआइके, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ६ ॥ एवं उस्सिकि, उस किया, उजालिया, पजालिया, निवावि, ॥ नस्सिंचिआ, निस्सिचित्रा, वित्तिा यारिया दए ॥ ६३ ॥ तं नवे जत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ॥ दिति पडियाश्के, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ६ ॥ हुङ कई सिलं वा वि, इट्टालं वा वि एकया ॥ उवि संकमाए, तं च होऊ चलाचलं ॥६५॥ ण तेण निरकु गलिजा, दिछ तब असंजमो ॥ गंजीरं कुसिर चेव, सबिंदिअसमाहिए ॥६६॥ निस्सेणि फलगं पीढं, उस्स वित्ता मारुहे ॥ मंचं कीलं च पासायं, समण एव दावए ॥ ६७ ॥ पुरूहमाणी पडिवजा, हवं पायं व लूसए ॥ पुढविजीवे वि हिंसिजा, जे अतन्निस्सिा जगे ॥ ६ ॥ ए आरिसे महादोसे. जाणिक महेसिपो॥ तह्मा मालोहडं निरकं. न पमिगिएहति संजया ॥६॥ कंदं मूलं पलंबं वा, श्राम बिन्नं च सन्निरं ॥ तुंबागं सिंगबेरं च, श्रामगं परिवजए॥ ७० ॥ तहेव सत्तुचुन्नाइ कोलचुन्नाइ श्रावणे ॥ सकुलिं फाणि पूध, अन्नं वा वितहाविहं ॥१॥ विक्कायमाणं पसदं, रएणं परिफासिकं ॥ दितिरं पडिआइके, न मे कप्प३ तारिसं ॥ १२ ॥ बहुअघ्रिं पुग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटयं ॥ अविशं तिंचं बिलं, नबुखंडं, व सिंबलिं ॥ ७३ ॥ अप्पो सिया लोणजाए, बहु उज्जय धम्मिए ॥ दंतिथं पडियाख्खे, न मे कप्पर तारिसं ॥ ४ ॥ तहे वुच्चावयं पाणं, अज्वावारधोअणं ॥ संसेश्मं चाउलोदगं, अहुणाधो विवजाए ॥ ७५॥ जं जाणेज चिरा धोयं, मईए दंसणेण वा ॥ पडिपुचिजण सुच्चा वा, जं च निस्संकि नवे ॥६॥ अजीवं परिणयं नच्चा, पमिगाहिक संजए ॥ अह संकियं नविजा, आसाश्त्ता ण रोअए ॥ ७ ॥ श्रोवमासायणकाए, हत्थगंमि दलाहि मे ॥ मामे अचंबिलं पूरं, नालं तिन्हें विणित्तए ॥ ७ ॥ तं च अच्चं बिलं पूर्य, नालं तिन्हं विणित्तए ॥ दितिरं पमिआख्खे, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ए॥ तं च होऊ कामेणं, विमणेण पडिचिरं ॥ तं अप्पणा न पिबे, नो वि अन्नस्स दावए ॥ ७०.॥ एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहि ॥ जयं परिवविजा, परिठप्प पडिक्कमे ॥१॥ सिधा च गोयरग्गगठ, इबिजा परिजुत्तुकं ॥ कुगं नित्तिमूलं वा, पमिलेहित्ता ण फासुझं ॥ ॥ अणुन्नवित्तु मेहावी, पडिन्छन्नंमि संवुडं , हत्थगं संपमजित्ता, तत्थ लुजिक संजए ॥ ३ ॥ तत्थ से मुंजमाणस्स, अधेि कंट सिया ॥ तणकसक्करं वा वि, अन्नं वा वि तहाविहं ॥४॥ तं उरिकवित्तु न निरिकवे, आसएण न उड्डए ॥ हत्येण तं गहेऊण, एगंतमवक्कमे ॥५॥ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया ॥ जयं परिविजा, परिठप्प पडिक्कमे ॥ ६॥ सिआ य निरकू इचिजा, सिङमागम्म नुत्तुओं ॥ सपिंडपायमागम्म, उंडुअं से पडिले हिया ॥७॥ विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी ॥ इरियावहियमायाय, आगउँ अ पडिक्कमे ॥ ७ ॥ श्रानोश्त्ता ण नीसेसं, अश्आरं जहक्कम ॥ गमणागमणे चेव, नत्ते पाणे च संजए॥ ए॥ जअप्पन्नो अणुविग्गो, अबखित्तेण चेअसा ॥ आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहिरं नवे ॥ ए० ॥ न सम्ममालोश्यं कुडा, पुविं पञ्चाव जंकडं ॥ पुणो पडिक्कमे तस्स, वोसो चिंतए इमं ॥१॥ एहा जिणेहिं असावजा, वित्ती साहूण देसिया ॥ मुरकसाहणहेजस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥ ए॥ णमुक्कारेण पारित्ता, करित्ता जिणसंथवं ॥ सज्कायं पवित्ता णं, वीसमेज खणं मुणी ॥ ए३ ॥ वीसमंतो मं चिंते, हियम लानमनि ॥ ज मे अणुग्गरं कुजा, साहू हुजामि तारि ॥ ए॥ साहवो तो चियत्तेणं, निमंतिज जहक्कम ॥ जश् तत्थ के इलिजा, तेहिं सहिं तु नुंजए ॥ एए॥ अह कोश् न इबिजा, तनुंजिज एक्कळ ॥ आलोए जायणे साहू, जयं अप्परिसामियं ॥ ए६॥ तित्तगं व कमुरं व कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं वा ॥ एअलक्ष्मन्नत्थ पनत्तं, महुघयं वसुंजिक संजए॥ अरसं विरसं वा वि, सूश्यं वा असूश्यं ॥ नवं वा जश् वा सुक्कं, मंथुकुम्मासनोअणं ॥ ए॥ नप्पएणं ना हीलिजा, अप्पं वा बहु फासुकं ॥ मुहालचं मुहाजीवी, लुजिजा दोसवजिरं ॥ एए॥ मुबहार्ड मुहादाइ, मुहाजीवी वि उसहा ॥ मुहादा मुहाजीवी, दो वि गर्छति सुग्गई॥ति बेमि ॥१०॥ ॥इति पिंडेसणाए पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ पडिग्गहं संलिहिता णं, लेवमायाइ संजए ॥ गंधं वा, सुगंधवा सवं लुजे न उड्डए ॥१॥ सेजा निसीहियाए, समावन्नो अ गोअरे ॥ अयावयच नुच्चा एणं, जश् तेणं न संथरे ॥२॥ त कारणमुप्पएणे, लत्तपाणं गवेसए ॥ विहिणा पुवउत्तेण, श्मेणं उत्तरेण य॥३॥ कालेण निरकमे निरकू, कालेण य पडिक्कमे ॥ अकालं च विवजित्ता, काले कालं समायरे ॥४॥ अकाले चरिसी निरकू , कालं न पमिलेहिसि ॥ अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिहसि ॥५॥ सइ काले चरे निरकू, कुजा पुरिसकारिअं ॥ अलानु त्ति न सोश्जा, तवुत्ति अहिआसए॥६॥ तहेवुच्चावया पाणा, जत्तकाए समागया ॥ तंजऊरं न गबिजा, जयमेव परक्कमे ॥ ७॥ गोअरग्गपवित्रो अ, न निसीइज कछ॥ कहं च न पबंधिजा, चिन्त्तिा ण व संजए ॥ ७ ॥ अग्गलं फलिहं दारं, कवाऊ वा वि संजए ॥ अवलंबित्रा न चिब्जिा ,गोअरग्गग मुणी ॥ ए॥ समपं माहवा वि.किविणं वा वणीमगं ॥ जवसंकमंतं लत्तघा. पाणछा एव संजए॥१०॥ तमश्क्कमित्तु न पविसे, न वि चिठे चरकुगोअरे ॥ एगंतमवक्कमित्ता, तत्थ चिहिक संजए॥११॥ वणी मगस्स वा तस्स, दायगस्सुल्नयस्स वा ॥ अप्पत्तिअं सिआ हुजा, लत्तं पवयणस्स वा ॥१॥ पमिसेहिए व दिन्ने वा, त तम्मि नियत्तिए ॥ नवसंकमिज लत्तका, पाणघाए व संजए ॥ १३ ॥ नप्पलं पलमं वा वि, कुमुरं वा मगदंतियं ॥ अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं, तं च संलुचित्रा दए ॥ १४ ॥ तं नवे लत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ॥ दितिरं पमिश्राश्के, न मे कप्प३ तारिसं ॥ १५ ॥ नप्पलं पनमं वा वि, कुमुझं वा मगदंतियं ॥ अन्नं वा पुप्फसञ्चित्तं, तं च संमद्दिा दए ॥ १६॥ तं नवे लत्तपाणं तु, सजयाण अकप्पियं ॥ दितिरं पडिआइरके, न मे कप्प३ तारिसं ॥१७॥ सालुओं वा विरालि, कुमुझं उप्पलनालिशं । मुणालिरं सासवनालियं, नलुखं अनिवुडं ॥ १७ ॥ तरुणगं वा पवादं, रुरकस्स तणगस्स वा ॥ अन्नस्स वा वि हरिअस्स, श्रामगं परिवाए ॥ १५॥ तरुणिचं वा विवामि, आमिरं नजिअंसई ॥ दितिशं पडिआइरके, न मे कप्प३ तारिसं ॥२०॥ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकसूत्रपाठः ७०ए तहा कोलमणुस्सिन्नं, वेलुओं कासवनालियं ॥ तिलपप्पमगं नीम, श्रामगं परिवजए ॥२१॥ तहेव चाउलं पिठं, विअ वा तित्तनिबुडं, ॥ तिलपिच्पूपिन्नागं, आमगं परिवजए ॥२२॥ कवि मानलिंगं च, मूलगं मूलगत्तियं ॥ आमंअसत्यपरिणयं, मणसा वि न पन्चए ॥ २३ ॥ तहेव फलमंथूणि, बीअमंथूणि जाणि अ॥ बिहेलगं पियालं अ, आमं परिवाए ॥२४॥ समुआणं चरे निकू , कुलमुच्चावयं सया ॥ नीयं कुलमश्क्कम्मं, उसर्ल्ड नानिधारए ॥ २५॥ अदीणो वित्तिमेसिजा, न विसीइज पंडिए ॥ अमुवि नोअणंमि, मायएणे एसणारए ॥२६॥ बहुं परधरे अस्थि, विविहं खाश्मसाइमं ॥ न तत्थ पंमि कुप्पे, श्वा दिज परो न वा ॥ २७॥ सयणासणवत्थं वा, लत्तं पाणं व संजए ॥ अदितस्स न कुप्पिजा, पच्चरके वि अदीस ॥२०॥ इस्थिरं पुरिसं वा वि, डहरं वा महबगं ॥ वंदमाणं न जाइका, नो अणं फरुसं वए ॥ ए॥ जे न वंदे न से कुप्पे, वंदिन समुक्कसे ॥ एवमन्नेसमाणस्स, सामणमणुचिच् ॥ ३० ॥ सिश्रा अगा लछु, लोनेण विणिगूह ॥ मामेयं दाश्यं संतं, दछुणं सयमायए ॥३१॥ अत्तम गुरु लुछो, बहुं पावं पकुबइ ॥ उत्तोस असो होइ, निवाणं च न ग ॥ ३ ॥ सिया एगल सद्भु, विविहं पाणलोअणं ॥ जद्दगं नदगं नुच्चा, विवन्नं विरसमाहरे ॥ ३३ ॥ जाणं तु ता श्मे समणा, आययची अयं मुणी ॥ संतुणे सेवए पंतं, लूह वित्ती सुतोस ॥ ३५ ॥ पूण जसोकामी, माणसम्माणकामए ॥ बहुँ पसबई पावं, मायासवं च कुबइ ॥ ३५॥ सुरं वा मेरगं वा वि, अन्नं वा मऊगं रसं ॥ ससरकं न पिबे निरकू, जसं साररकमप्पणो ॥३६॥ पियए एग तेणो, न मे कोइ विश्राण ॥ तस्स पस्सह दोसाइ, निअडिं च सुणेह मे ॥ ३७॥ वढ सुमित्रा तस्स, मायामोसं च निरकुणो ॥ अयसो अ अनिवाणं, सययं च असाहुआ ॥ ३ ॥ निच्चुबिग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं कुम्म ॥ तारिसो मरणंते वि, न आराहेहि संवरं ॥ आयरिए नाराहेश, समणे श्रावि तारिसो ॥ गिहत्याविणं गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं ॥४॥ एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं अ विवजए ॥ तारिसो मरणंते वि, ण आराहेहि संवरं ॥१॥ तवं कुबई मेहावी, पणीअं वजए रसं ॥ मङ्गप्पमायविर, तवस्सी अइनक्कसो ॥४॥ तस्स पस्सह कहाणं, अणेगसाहुपूश्यं ॥ विलं अत्थसंजुत्तं, कित्तसं सुणेह मे ॥ ३ ॥ एवं तु गुणप्पेही, अगुणाणं च विवजाए ॥ तारिसो मरणंते वि, आराहे संवरं ॥ ४॥ आयरिए आराहेश, समणे आवि तारिसो ॥ निहत्था वि एंपूयंति, जेण जाणंति तारिसं ॥४५॥ तवतणे वयतेणे, रुवतेणे अ जे नरे ॥ आयारजावतेणे अ, कुवर देवकिविसं ॥४६॥ लण वि देवदत्तं, जवजन्नो देवकिब्बिसे ॥ तत्था वि से न याणा, किं मे किच्चा श्मं फलं ॥ ४ ॥ तत्तो वि से चश्त्ताणं, लप्निही एलमूअयं ॥ नरगं तिरिस्कयोणिं वा, बोही जत्थ सुलहा ॥ ४ ॥ एवं च दोसं दहुणं, नायपुत्तेण नासिकं ॥ अणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवजए ॥ ए॥ सिरिकऊण निरकेसणसोहिं, संजयाण बुजाण सगासे ॥ तत्थ निरकू सुप्पणिहिदिए, तिबलङगुणवं विहरिजासि ॥ त्तिबेमि ॥ ५० ॥ ॥ संमत्तंपिंडेषणानामजयणं पंचमं ॥ ॥ अथ महाचारकथाख्यं षष्टमध्ययनम् ॥६॥ नाणदंसणसंपन्नं, संजमे अ तवे रयं ॥ गणिमागमसंपन्नं, उजाणम्मि समोसढं ॥१॥ रायाणो रायमच्चा य, माहणा अवखत्तिथा ॥ पुचंति निहुअप्पाणो, कहं ने आयारगोयरो ॥२॥ तेसिं सो निहुले दंतो, सबअसुहावहो ॥ सिरकाए सुसमाउत्तो, आयरकप विश्ररकणो ॥३॥ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. हंदि धम्मत्थकामाण, निग्गंथाएं सुह मे आयारगोरं भीमं सयलं रहिहि ॥ ४ ॥ नन्नत्य एरिसं वृत्तं, जं लोए परमदुच्चरं ॥ विजलाणनाइस्स, न मूत्रं न जविस्स ॥ ५ ॥ खुड्डुगवित्ता, वाहियाणं च जे गुणा || खंडफुडिया कायबा, तं सुणेह जहा तहा ॥ ६॥ दस य गणाई, जाई बालो वरन ॥ तत्थ अन्नयरे ठाणे, निग्गंथत्तान जस्सइ ॥ ७ ॥ वयबक्कं कायक्कं, अकप्पो गिरिजायां ॥ पलियंकनिसका य, सवाणं सोहवणं ॥ ८ ॥ तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसि ॥ हिंसा निउणा दिवा, सबनूएस संजमो ॥ ए ॥ जावंति लोए पाणा, तसा डुव थावरा ॥ ते जाणमजाणं वा न हो यो विधाय ॥ १० ॥ जीवा विवंति जीवितं न मरिटिं ॥ तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वर्जयंति एं ॥ ११ ॥ ans परा वा, कोहा वा जइ वा जया || हिंसगं न मुसं वृचा, नो विन्नं वयावर ॥ १२ ॥ मुसावा उ लोगम्मि, सबसाहूहिं गरिहि ॥ विस्तासो आएं, तम्हा मोसं विवकए ॥ १३ ॥ चित्तमंतम चित्तं वा, पं वा जइ वा बहुं ॥ दंतसोहणमित्तं वि, उग्गहंसि जाया ॥ १४ ॥ तं पण न गिरहंति, नो वि गिरहावए परं ॥ अन्नं वा गिरहमाणं वि, नाणुजाणंति संजया ॥ १५ ॥ बंजचरित्र्यं घोरं, पमायं पुरहिािं || नायरंति मुणीलोए, नेश्राययावणिो ॥ १६ ॥ मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं ॥ तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वजयंति ॥ १७ ॥ बिडमुनेश्मं लोणं, तिलं सप्पिं च फाणि ॥ न ते संनिहिमिति, नायपुत्तवर्जरया ॥ १८ ॥ लोहस्सेसणुफासे, मन्ने अन्नयरामवि ॥ जे सिया सन्निहिं कामे, गिही पइए न से ॥ १९ ॥ जं पिवत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंणं ॥ तं पि संजमला, धारंति परिहरंति का ॥ २० ॥ न सो परिग्गहो वृत्तो, नायपुत्ते ताइणा ॥ मुत्था परिग्गहो वृत्तो, इ वृत्तं महे सिणा ॥ २१ ॥ सत्व हा बुद्धा, संररकण परिग्गहे ॥ वि अप्पणो वि देहंमि, नायरंति ममाश्यं ॥ २२ ॥ हो नि तवो कम्मं, सबबुद्धेहिं वन्नित्र्ां ॥ जा य लासमा वित्ती, एगजत्तं च जोखणं ॥ २३ ॥ संति मे सुदुमा पाणा, तसा व थावरा ॥ जाई रार्ज पासंतो, कहमेस पित्र्यं चरे ॥ २४ ॥ उदउब्वं बीअसंसत्तं, पाणा निवमिया महिं | दिया ताइं विवजिका, राजे तत्थ कहं चरे ॥ २५ ॥ एयं च दोसं द ुणं, नायपुत्ते जासि ॥ सवाहारं न मुंजंति, निग्गंथा राइनो ॥ २६ ॥ पुढविकार्य न हिंसंति, मासा वयसा कायसा || तिविदेणं करणजोएणं, संजया सुसमाहिया ॥ २७ ॥ ढविकायं विहिंसंतो, हिंसइ उ तयस्सिए ॥ तसे ा विविहे पाणे, चरकुसे चरकुसे || २८ ॥ तम्हा एवं विश्राशित्ता, दोसं दुग्गश्वढणं | पुढविकायसमारंजं, जावजी वाई वऊए ॥ २५ ॥ कार्यं न हिंसंति, मासा वयसा कायसा ॥ तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ॥ ३० ॥ कायं विहिंसंतो, हिंसइ उ तयस्सिए | तसे का विविहे पाणे, चरकुसे चरकुसे ॥ ३१ ॥ तम्मा एक विश्रापित्ता, दोसं दुग्गड़ वढ्ढणं ॥ श्राकायसमारंनं, जावजीवाई वऊए ॥ ३२ ॥ जायते न वंति, पावगं जलिश्त्तए || तिरकमन्नयरं सत्थं, सङ्घर्ज वि रासयं ॥ ३३ ॥ पाइं पडि वा वि, उ दिसामवि ॥ हे दाहिए वा वि, दहे उत्तर वि ॥ ३४ ॥ नूचाणमेसमाघार्ज, हववाहो न संसर्ज ॥ तं पविपयावा, संजया किंचि नारजे ॥ ३५ ॥ तम्हा विचाणित्ता, दोसं दुग्गवदृइां ॥ तेजकायसमारंजं, जीवजीवाई वऊए ॥ ३६ ॥ लिस्स समारंजं, बुद्धा मन्नंति तारिसं ॥ सावबहुलं चेयं, नेत्रां ताइहिं सेविकां ॥ ३७ ॥ तालिन पत्ते, साहाविदुणेण वा ॥ न ते वी इमिति, वेश्रावेण वा परं ॥ ३८ ॥ जं पिवत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंवणं ॥ न ते वायमुईरंति, जयं परिहरति ॥ ३५ ॥ For Private Personal Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिकसूत्रपाठ. ७११ तम्हा एवं विश्राणित्ता, दोसं उग्गश्वगृणं ॥ वानकायसमारंनं, जावजीवाइं वजए ॥४॥ वणस्सइं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा ॥ तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिया ॥४१॥ वणस्सई विहिंसंतो, हिंसर अ तयस्सिए ॥ तसे अ विविहे पाणे, चरकुसे अ अचरकुसे ॥ ४॥ तम्हा एवं विश्राणित्ता, दोसं उग्गवडणं ॥ वणस्सइ समारंनं, जावजीवाई वजाए ॥ ४३ ॥ तसकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा ॥ तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ॥ ४॥ तसकायं विहिंसंतो, हिंस उ तयस्सिए ॥ तसे अ विविहे पाणे, चरकुसे अ अचरकुसे ॥४॥ तम्हा एवं विशआणित्ता, दोसं उग्गश्वगुणं ॥ तसकायसमारंनं, जावजीवा वजाए ॥ ३६॥ जाई चत्तारि जुझाइ, इसिणा हारमाणि ॥ ताई तु विवऊतो, संजमं अणुपालए ॥ ॥ पिंडं सिद्धां च वत्थं च, चनत्थं पायमेव य ॥ अकप्पियं न विजा, पमिगाहिज कप्पियं ॥ ७ ॥ जे निश्रागं ममायंति, कीमुद्देसियाहडं ॥ वहं ते समणुजाणंति, इथ उत्तं महेसिणा ॥ ए॥ तम्हा असणपाणा, कीअमुदै सिाहनं ॥ वायंति रिअप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणो ॥ ५० ॥ कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो ॥ मुंजतो असणपाणा, आयारा परिनस्सइ ॥ ५१॥ सीउंदगसमारंजे, मत्तधोअणणबुडणे ॥ जाइं नंति नूआई, दिको तत्थ असंजमो ॥ ५॥ पत्याकम्मं करेकम्मं, सिया तत्थ न कप्पश् ॥ एअमन नुंजंति, निग्गंथा गिहिलायणे ॥ २३ ॥ आसंदीपलिकेसु, मंचमासालएसु वा ॥ अणायरिश्रमजाणं, श्रासश्त्तु सश्त्तु वा ॥ ५४॥ नासंदीपलिकेसु, न निसिजा न पीढए ॥ निग्गंथा पडिलेहाए, बुधवुत्तमहिगा ॥ ५५॥ गंलीरविजया एए, पाणा उप्पडिलेहगा ॥ आसंदी पलिअंको अ, एअम विवजिया ॥५६॥ गोबरग्ग पविस्स, निसिजा जस्स कप्पश् ॥ श्मे रिसमणायारं, आववजाइ अबोहिअं ॥ ५७ ॥ विवत्ती बंजचेरस्स, पाणाणं च वहे वहो ॥ वणीमगपमिग्घाट, पझिकोहो अगारिणं ॥ ५ ॥ अगुत्ती बंजचेरस्स, इत्थी वा वि संकणं ॥ कुसीलवढ्ढणं गणं, दूर परिवाए ॥ एए॥ तिन्हमन्नयरागस्स, निसिङ्गा जस्स कप्पश् ॥ जराए अनिअस्स, वाहिअस्स तवस्सिणो ॥६॥ वाहि वा अरोगी वा, सिणाणं जो पत्थए ॥ वुक्कतो होश आयारो, जढो हव संजमो ॥६१ ॥ संति मे सुहुमा पाणा, घसासु निलगासु अ॥ जे अनिरकू सिणायंतो, विथडेणुप्पिलावए ॥ ६ ॥ तम्हा ते न सिणायंति, सीएण नसिणेण वा ॥ जावजीवं वयं घोरं, असिणाणमहिच्गा ॥ ३ ॥ सिणाणं अवा ककं, लुछ पलमगाणि अ॥ गायस्सुबट्टणचए, नायरंति कया वि ॥ ६ ॥ नगिणस्स वा वि मुंगस्स, दीहरोमनहंसिणो ॥ मेहुणा उवसंतस्स, किं विजूसा कारिअं॥६५॥ विनूसावत्तिकं निस्कू, कम्मं बंधश् चिक्कणं ॥ संसारसायरे घोरे, जेणं पड दुरुत्तरे ॥६६॥ विनुसावत्तियं चेयं, बुझा मन्नंति तारिसं ॥ सावङ बहुलं चेअं, नेयं ताहिं सेविअं॥६७ ॥ खवंति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजमश्रावे गुणे ॥ धुणंत पावाइं पुरेकडाई, नवाइं पावाइं न ते करंति ॥ ६ ॥ अवसंता अममाअकिंचणा, सविजविजाणुगया जसंसिणो॥ जनप्पसन्नेविमलेवचंदिमा, सिद्धिविमापाजवंति ताणो ॥ त्तिबेमि ॥ ६ए॥ ॥ इति महाचारकथाख्यं षष्ठमजयनणं सम्मत्तं ॥६॥ ॥ अथमुवाक्यशुद्ध्याख्यं सप्तममध्ययनम् ॥ ७॥ चजन्हें खलु नासाणं, परिसंखाय पन्नवं ॥ पुन्हं तु विणयं सिरके, दो न नासिङ सबसो॥१॥ जा अ सच्चा अवत्तवा, सच्चामोसा अ जा मुसा ॥ जा अबुधेहिं नाइन्ना, न तं नासिज पन्नवं ॥२॥ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. असच्चमोसं सच्चं च, अणवक्रमकक्कसं ॥ समुप्पेहमसंदि, गिरं नासिङ पन्नवं ॥ ३ ॥ एरं च अच्मन्नं वा, जं तु नामे सासयं ॥ स नासं सच्चमोसं च, तं पि धीरो विवाए ॥४॥ वितहं पि तहामुत्तिं, जं गिरं नासए नरो ॥ तम्हा सो पुणे पावणं, किं पुणं जो मुसं वए ॥ ५॥ तम्हा गलामो वरकामो, अमुगं वा णे नविस्स ॥ अहं वा णं करिस्सामि, एसो वाणं करिस्सश् ॥६॥ एवमाश् उ जा नासा, एसकालंमि संकिया ॥ संपयाश्चम वा, तं पि धीरो विवजाए ॥ ७ ॥ अश्मि अ कालंमि, पञ्चुपणमणागए ॥ जमलं तु न जाणिजा, एवमेकं ति नो वए॥७॥ अश्वंमि अ कालंमि, पञ्चुप्पणमणागए ॥ जत्थ संका नवे तं तु, एवमेअंति नो वए ॥ ए॥ अश्यंमि अ कालंमि, पच्चुप्पणमणागए ॥ निस्संकि नवे जं तु, एवमेअं तु निदिसे ॥१०॥ व फरसा नासा, गुरुनूनवधाणी ॥ सच्चा वि सा न वत्तवा, जले पावस्स आगमो ॥११॥ तहेव काणं काण त्ति, पंडगं पंडग त्तिवा ॥ वाहिथं वा वि रोगित्ति, तेणं चोरत्ति नो वए ॥ १ ॥ एएणन्नेण अणं, परो जेणुवहम्म ॥ आयारनावदोसन्नू, न तं नासिङ पन्नवं॥१३॥ तहेव होले गोलित्ति, साणे वा वसुलित्ति अ॥ उम्मए उहए वा वि, नेवं नासिका पन्नवं ॥ १४ ॥ अजिए पक्जिए वा वि, अम्मो मानसिअत्ति अ॥ पिसिए नायणिजत्ति, धूए णत्तुणि त्ति अ ॥१५॥ हले हलित्ति अन्नित्ति, नट्टे सामिणि गोमिय॥होले गोले वसुलित्ति, शव नेवमालवे ॥१६॥ नामधिजोण णं बूआ, श्वीगुत्तेण वा पुणो ॥ जहारिहम निगिलं, बालविङ लविङ वा ॥ १७॥ अजए पऊए वा वि, बप्पो चुम्लपिल त्ति अ॥ माजला लाइणिज त्ति, पुत्ते णतुणि त्ति अ॥१०॥ हेलो हलित्ति अन्नित्ति, जट्टे सामिश्र गोमित्र ॥ होल गोल वसुलि त्ति, पुरिसं नेव मालवे ॥१५॥ नामधिजोण जं बूआ, पुरिसगुत्तेण वा पुणो ॥ जहारिहम निगिन, बालविङ लविङ वा ॥ २० ॥ पंचिंदिआण पाणाणं, एस इत्थी अयं पुमं ॥ जाव णं न विजाणिजा, ताव जाइ त्ति आलवे ॥२१॥ तहेव माणसुं पसुं, परिकं वा वि सरीसवं ॥ श्रूले पमेश्ले वने, पायमित्ति अ नो वए ॥ २२॥ परिवूढ त्ति णं बूआ, बूआ उवचित्र त्ति अ॥ संजाए पीणिए वा वि, महाकाय त्ति आलवे ॥२३॥ तहेव गाउँ जाउँ, दम्मा गोरहग त्ति अ॥ वाहिमा रहजोगित्ति, नेवं जासिक पन्नवं ॥२४॥ जीवं गवित्ति णं बूआ, धेणुं रसदयत्ति अ॥ रहस्से महबए वा वि, वए संवहणित्ति आ ॥ २५ ॥ तहेव गंतुमुजाणं, पबयाणि वणाणि अ॥ रुरका महा पेहाए, नेवं नासिङ पन्नवं ॥२६॥ अलं पासायखंनाणं, तोरणाणि गिहाणि अ॥ फलिहग्गलनावाणं, अलं उदगदोणिणं ॥ ७॥ पीढए चंगबेरे अ, नंगले मश्यं सिया ॥ जंतलची व नाली वा, गंमिश्रा व अलं सिया ॥ २ ॥ आसणं सयणं जाणं, हुजा वा किंचुवस्सए ॥ नूवघाणिं जासं, नेवं नासिक पन्नवं ॥२॥ तहेव गंतुमुजाणं, पबयाणि वणाणि अ॥ रुरका महब पेहाए, एवं नासिङ पन्नवं ॥ ३० ॥ जाश्मंता इमे रुरका, दीहवट्टा महालया ॥ पयायसाला वमिमा, वए दरिसणित्ति अ॥३१॥ तहा फलाइं पक्काई, पायखजाइ नो वए ॥ वेलोश्याइं टालाइं, वेहिमा त्ति नो वए ॥ ३॥ असंथमा इमे अंबा, बहुनिघडिमा फला ॥ वजा बहु संत्रा, नूअरूव त्ति वा पुणो ॥ ३३ ॥ तहेवोसहि पक्का, नीलिया बवी अ॥ लाइमा नझिमाज त्ति, पिहुखऊ त्ति नो वए ॥ ३४ ॥ रूढा बहुसंजूआ, थिरा उसढा वि अ॥ गप्निा पसूआर्ड, संसाराज त्ति आलवे ॥३५॥ तहेव संखडि नच्चा, किच्चं कळं ति नो वए ॥प्रेणगं वावि वनित्ति, सुतिवित्ति अ आवगा ॥ ३६॥ संखमि संखडिं बूझा, पणिअत्ति तेणगं ॥ बहुसमाणि तित्थाणि, आवगाणं विआगरे ॥ ३७॥ तहा नश्ल पुघाउ, कायतिज त्ति नो वए ॥ नावाहिं तारिमाउत्ति, पाणिपिऊ त्ति नो वए ॥३०॥ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिकसूत्रपाठः ७१३ बबाहा गाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा || बहुवित्थमोदगाश्रावि, एवं जासिक पन्नवं ॥ ३७ ॥ तहेव सावऊं जोगं, परस्सा का निािं ॥ की रमाएं ति वा नच्चा, सावऊं न लवे मुखी ॥ ४० ॥ सुकमित्त सुपक्कित्ति, सुनिने सुडे मडे ॥ सुनिभिए सुलधित्ति, सावऊं वऊए मुणी ॥ ४१ ॥ पयत्तपक्कत्ति व पक्कमालवे, पयत्तबिन्न त्ति व विन्नमाल || पयत्तल चित्ति व कम्महेज, पहारगाढ त्ति व गाढमालवे ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ सबुक्कसं परग्धं वा, झालं नत्थि एरिसं । विकिमवत्तवं वित्तं एव नो वए ॥ समे वसामि, सबमे ति नो वए ॥ ऋणुवीइ सबं सवत्थ, एवं जासिक पन्नवं ॥ ४४ ॥ क्वा सुविक्की, कि किमेव वा ॥ इमं गिएह इमं मुंच, पणीनं नो विाागरे ॥ ४९ ॥ घे वा महग्घे वा, कए वा विक्कए वि वा ॥ परि समुप्पो, लाव विद्यागरे ॥ ४६ ॥ तवासंजय धीरो, यस एहि करेहि वा ॥ सयं चि वयाहि त्ति, नेवं जासि पन्नवं ॥ ४७ ॥ बहवे इमे साहू, लोए वुच्चंति सादृणो ॥ न लवे साहु साहु त्ति, साहुं सानु तिलवे ॥ ४८ ॥ नादसंणसंपन्नं, संजमे तवे रयं ॥ एवं गुणसमाउत्तं, संजयं साडुमालवे ॥ ४९ ॥ देवा माणंच, तिरिश्राणं च वुग्गहे ॥ मुगाणं जर्ज होउ, मा वा होउ त्ति नो वए ॥ ५० ॥ वार्ड वुद्धं च सीउन्हं, खेमं धायं सिवं ति वा ॥ कया णु हुआ एआणि, मा वा होउ त्ति नो वए ॥ ५१ ॥ तदेव मेहं व नहं व माणवं, न देवदेव त्ति गिरं वा ॥ समुलिए उन्नए वा पर्जए, वऊ वा बुध बलाहयति ॥ ५२ ॥ तलिकति बूया, गुनाणुचरित्र त्ति ॥ रिद्धिमतं नरं दिस्स, रिद्धिमतं ति घालवे ॥ ५३ ॥ तदेव सावऊणुमणी गिरा, नेहारिणी जा य परोवधाणी ॥ से कोह लोह जय हास माणवो, न हासमाणो वि गिरं वा ॥ ९४ ॥ सुवसुद्धिं समुपेहिया, मुंणी गिरं च दुई परिवऊए सया || अणुवी जासए, सयाणवके लहइ पसंसणं ॥ ५५ ॥ गुणे जाणिया, तीसे या कुठे परिवऊए सया ॥ सामसिया जए, वश्क बुद्धे हिमालो मिचं ॥ ५६ ॥ परिरकजासी सुसमाहिईदिए, चउकसायावगए पिस्सिए || स निणे धुन्नमलं पुरेकडं, राहए लोगनि तहा परं || तिबेमि ॥ ७ ॥ ॥ इति सुवक्कसुद्धीप्रयणं सम्मत्तं ॥ 9 ॥ मि नासा दोसे ॥ अथाचार प्रणिधिनामकमष्टममध्ययनं प्रारभ्यते ॥ श्रयारप्पणिहिं लघुं, जहा काय निरकुणा । तं जे उदाहरिस्सामि, आणुपुत्रिं सुह मे ॥ १ ॥ पुढवीदग गणिमारुा, तणरूरकस्स बीयगा ॥ तस्सा पाणा जीव त्ति, इइ वृत्तं महेसि ॥ २ ॥ तेसिंत्थाजोएण, निच्चं हो वयं सिया ॥ मासा कायवक्केणं, एवं हवइ संजए ॥ ३ ॥ पुढविं नित्तिं सिलं लेलुं, नेव जिंदे न संलिदे ॥ तिविहे करणजीएए, संजएसुसमाहिए ॥ ४ ॥ पुढव न निसीए, ससररकंमि श्र श्रास | पमजित्तु निसीइजा, जात्ता जस्स उग्गहं ॥ ५ ॥ सदगं न सेविका, सिलावुढं हिमाणि ॥ उसिणोदगं तत्तफासु, परिगाहिजा संजए ॥ ६ ॥ अप्पणी कार्य, नेव पुंडे न संलिहे ॥ समुप्पेह तहानू, नो एं संघट्टए मुणी ॥ ७ ॥ चि, अलायं वा स जोइ ॥ न जंजिका न घट्टिका, नो एं निवावए मुणी ॥ ८ ॥ पत्ते, साहाए विदुषेण वा ॥ न वी अप्पो कार्य, बाहिरं वा वि पुग्गलं ॥ ए॥ उद इंगा तालि ९० For Private Personal Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तणरुरकं न बिंदिजा, फलं मूलं च कस्स ई ॥ आमगं विविहं बीअं, मणसा विण पञ्चए ॥ १० ॥ गहणेसु न चिडिजा, बीएसु हरिएसु वा ॥ उदगंमि तहा निच्चं, उत्तिंगपणगेसु वा ॥ ११॥ तसे पाणे न हिंसिजा, वाया अव कम्मुणा ॥ उवर सबनूएसु, पासेज विविहं जगं ॥ १२॥ अ सुहुमाइ पेहाए, जाई जाणित्तु संजए ॥ दयाहिगारी नूएसु, श्रास चिळ सएहि वा ॥ १३ ॥ कयराइं अच् सुहुमाई, जाइं पुन्निज संजए ॥ श्माई ताई मेहावी, आइखिऊ विश्ररकणो ॥ १४॥ सिणेहं पुप्फसुहुमं च, पाणुत्तिंगं तहेव य ॥ पणगं बीअहरिशं च, अंडसुदुमं च अध्मं ॥ १५ ॥ एवमे आणि जाणित्ता, सवन्नावेण संजए ॥ अप्पमत्तो जए निच्चं, सबिंदिअसमाहिए ॥ १६॥ धुवं च पडिलेहिका, जोगसापायकंबलं ॥ सिजमुच्चारजूमिं च, संथारं अवासणं ॥१७॥ उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाजविरं ॥ फासुझं पडिलेहित्ता, परिगविज संजए ॥१८॥ पविसित्तु परागारं, पापा नोअणस्स वा ॥ जयं चि मियं नासे, न य रुवेसु मणं करे ॥१५॥ बहुं सुणेहि कन्नेहिं, बहुं अबीहिं पिच ॥ नय दिई सुझं सर्व, निरकू अरकानमरिहई ॥२०॥ सुकं वा जश् वा दिवं, न सविडोक्याश्यं ॥ न य केण उवाएणं, गिहिजोगं समायरे ॥१॥ निणं रसनिझुढं, नदगं पावगं ति वा ॥ पुणे वा वि अपुणे वा, लानाला न निद्दिसे ॥२॥ न य नोश्रणंमि गियो, चरे उंचं अयं पिरो ॥ अफासुकं न तुंजिजा, कीथमुद्देसिआइडं ॥ २३ ॥ सं निहिं च न कुबिजा, अणुमायं पि संजए ॥ मुहाजीवी असंबछे, हविज जगनिस्सिए ॥२४॥ खूहवित्ती सुसंतु, अप्पिचे सुहरे सिआ ॥ आसुरत्तं न गबिजा, सुच्चा णं जिणसासणं ॥ २५॥ कन्नसुरकेदि सद्देहिं, पेमं नानिनिवेसए ॥ दारुणं ककसं फासं, कारण अहिासए ॥२६॥ खुहं पिवासं मुस्सिङ, सीजन्हें अरइं जयं ॥ अहिासे अवहिर्ड, देहपुरकं महाफलं ॥ २७ ॥ अत्थं गयंमि आश्च्चे, पुरत्था अ अणुगए ॥ श्राहारमाश्यं सबं, मणसा विणा पञ्जए ॥ २० ॥ अतिंतिणे अचवले, अप्पनासी मिश्रासणे ॥ हविज उअरे दंते, श्रोवं लडुं न खिंसए ॥ ए॥ न बाहिरं परिलवे, अत्ताणं न समुक्कसे ॥ सुअलाले न मजिजा, जच्चा तवस्सिबुद्धिए ॥ ३० ॥ से जाणमजाणं वा, कट्ट आहम्मिश्र पयं ॥ संवरे खिप्पमप्पाणं, बीअं तं न समायरे ॥ ३१॥ अणायारं परक्कम्म, नेव गूहे न निन्हवे ॥ सुई सया वियडलावे, असंसत्ते जिइंदिए ॥ ३२॥ अमोहं वयणं कुजा, आयरिअस्स महप्पणो ॥ तं परिगिल वायाए, कम्मुणा उववायए ॥ ३३ ॥ अधुवं जीविश्र नच्चा, सिधिमग्गं विद्याणिया ॥ विणिअद्दिज लोगेसु, आलं परिमिअप्पणो ॥ ३४ ॥ बलं थामं च पेहाए, सहामारुग्गमप्पणो ॥ खित्तं कालं च विनाय, तहप्पाणं निजुंजए ॥ ३५ ॥ जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वढई ॥ जाविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥ ३६॥ कोहं माणं च मायं च, लोनं च पाववढणं ॥ वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छतो हिअमप्पणो ॥३७॥ कोहो पीई पणासेई, माणो वियनासणो ॥ माया मित्ताणि नासेई, लोलो सबविणासणो ॥ ३०॥ जवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे ॥ मायामजावन्नावेन, लोनं संतोस जिणे ॥ ३ए। कोहो अमाणो अ अणिग्गही, माया अलोलो अ पवढमाणा ॥ चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइ पुणप्लवस्स ॥ ४०॥ रायणि एसु विणयं पलंजे, धुवसीलयं सययं न हावश्जा ॥ कुम्मुब अलीणपलीणगुत्तो, परक्कमिजा तवसंजमंमि ॥ १ ॥ निदं च न बहु मन्निजा, सप्पहासं विवाए ॥ मिहो कहाहिं न रमे, सप्लायमि र सया ४२॥ जोगं च समणधम्मंमि, मुंजे अनलसोधुवं ॥ जुत्तो अ समणधम्ममि, अळं लहर अणुत्तरं ॥४३॥ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ दशवैकालिकसूत्रपाठः । १५ इहलोगपारत्तहिरं, जेणं गच्छई सुग्गई । बहुस्सुझं पकुवासिका, पुच्चिाबविणिच्चयं ॥ ४ ॥ हा पायं च कायं च, पणिहाय जिऽदिए ॥ अजीणगुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी ॥४॥ न परकट न पुर, नेव किच्चाण पिळ ॥ न य जरूं समासिङ, चिहिजा गुरुणंतिए ॥ ४६॥ अपुच्चिले न जासिजा, नासमाणस्स अंतरा ॥ पिहिमसं न खाईजा, मायामोसं विवाए ॥४॥ अप्पतिथं जेण सिश्रा, आसु कपिज वा परो ॥ सबसो तं न नासिका, नासं अहिअगामिणिं ॥॥ दि निरं असंदिर, पडिपुन्नं विश्र जिरं ॥ अयंपिरमणुबिग्गं, नासं निसिर अत्तवं ॥ ४ ॥ आयारपन्नत्तिघरं, दिग्विायमहिजागं ॥ वायविरकलिअं नच्चा, न तं उवहसे मुणी ॥ ५० ॥ नरकत्तं सुमिणं जोगं, निमित्तं मंतनेसजं ॥ गिरिणो तं न आईरके, नूाहिगरणं पयं ॥ ५१ ॥ श्रन्न पगडं लयणं, नई सयणासणं ॥ उच्चार नूमिसंपन्नं, छीपसुविवजिथं ॥ ५ ॥ विवित्ता अनवे सिजा, नारीणं न लवे कहं ॥ गिरिसंश्रवं न कुजा, कुजा साहूहिं संथवं ॥ २३ ॥ जहां कुक्कुडपोअस्स, निच्चं कुलल लयं ॥ एवं खु बंजयारिस्स, ईबीविग्गह जयं ॥ ५४॥ चित्तन्नित्तिं न निनाए, नारिं वा सुअलंकिअं ॥ नरकर पिव दवूणं, दिहिं परिसमाहरे ॥ ५५ ॥ हबपायपलिच्छिन्नं, कन्ननासविगप्पियं ॥ अवि वाससयं नारिं, बंजयारी विवजाए ॥५६॥ विजूसा इचिसंसग्गो, पणीअं रसनोअणं ॥ नरस्सत्त गवेसिस्स, विसं तालउ जहा ॥ २७॥ अंगपञ्चंगसंगणं, आरुसविअपेहिकं ॥ श्छीणं तं न निनाए, कामरागविवढ्ढणं ॥ ५ ॥ विसएसु मणुन्नेसु, पेमं नालिनिवेसए ॥ अणिचं तेसिं विनाय, परिणामं पुग्गलाण य ॥ ५ ॥ पोग्गलाणं परीणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा ॥ विणीअतिण्हो विहरे, सीइनूएण अप्पणा ॥६॥ जा सघाइ निरकंतो, परिश्रयणमुत्तमं ॥ तमेव अणुपालिका, गुणे आयरिअसंमए ॥ ६१॥ तवं चिमं संजमजोगयं च, सप्नायजोगं च सया अहिहिए ॥ सुरे व सेणाइ समत्तमाउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं ॥ ६॥ सप्लायसनाणरयस्स ताणो, अपावन्नावस्स तवे रयस्स ॥ विसुन जं सि मलं करे कडं, समीरियं रुप्पमलं व जोशणा ॥ ६३ ॥ से तारिसे मुरकसहे जिइंदिए, सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे ॥ विरायश् कम्मघणंमि अवगए, कसिणनपुडावगमे व चंदिमि ॥ त्तिबेमि ॥ ६॥ ॥ इति आयारपणिही णाम अनयणं संमत्तं ॥७॥ ॥ अथ विनयसमाधिनामकनवमाध्ययने प्रथमोद्देशकः ॥ अंना व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिरके । सो चेव उ तस्स अनावो, फलं व कीअस्स वहाय हो ॥१॥ जे श्रावि मंदित्ति गुरुं वश्त्ता, डहरे श्मे अप्पसुअत्ति नच्चा ॥ हीलंति मित्थं पडिवजमाणा, करंति आसायण ते गुरूणं ॥२॥ पग मंदा वि नवंति एगे, महरा वि अ जे सुअबुयोववेत्रा॥ आयारमंतो गुणसुन्अिप्पा, जे हीलिया सिहिरिव जास कुजा ॥३॥ जे आवि नागं महरं ति नच्चा, श्रासायए से अहिआय होइ॥ एवायरिश्रपि हु हीलयंतो, निच जास्पदं खु मंदो ॥४॥ आसिविसो वा वि परं सुरुको, किं जीवनासाउ परं नु कुजा ॥ आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुरको ॥ ५॥ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ राय धनपतसिंघ बहापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. जो पावगं जलिमवक्कमिका, श्रासीविसं वा विदु कोवका ॥ जो वा विसं खाय‍ जीविाही, एसोवमासायण्या गुरूणं ॥ ६ ॥ साहु से पावय नो डहिका, असीविसो वा कुवि न नरके ॥ सिा विसं हालहलं न मारे, ना वि मुरको गुरुहीलगाए ॥ ७ ॥ जो पai सिरसा जित्तुमिचे, सुत्तं व सीहं पडिबोहरा || जो वा दए सत्तिग्गे पहारं, एसोवमासायण्या गुरूणं ॥ ८ ॥ सियासी से गिरिं पि जिंदे, सिच्छा हु सीहो कुवि न जरके ॥ सिया न जिंदिजा व सत्तिग्गं, न वि मुरको गुरुहीलगाए ॥ ए॥ रिपाया पुण अप्पसन्ना, बोहियासायण नत्थि मुरको ॥ तम्हाणाबाह सुहाजिकखी, गुरुप्पसायानिमुहो रमिता ॥ १० ॥ जाहाहिग्गी जलणं नमसे, नाणादुईमंतपयानिमित्तं ॥ एवायरि जवचिछा, अशंतनाणोवगर्न वि संतो ॥ ११ ॥ जस्संतिए धम्मपयाइ सिरके, तस्संतिए वेश्यं परंजे ॥ सक्कारए सिरसा पंजलीन, कायग्गिरा जो मासा का निच्चं ॥ १२ ॥ ला दया संजमबंजचेरं, कल्लाएजागिस्स विसो दिवाणं ॥ जे मे गुरू सययमणुसासयंति, तेहिं गुरू सययं पूछायामि ॥ १३ ॥ जहा सिंते तव चिमाली, पचास केवलजारहं तु ॥ एवारि सुसीलबुद्धिए, विरायइ सुरमने व दो ॥ १४ ॥ जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो, नखत्ततारागणपरिवुडप्पा ॥ सोहई विमले प्रमुक्के, एवं गणी सोहइ जिस्कुम ॥ १५ ॥ महागरा रिया महेसी, समाहिजोगे सुासीलबुद्धिए ॥ संपाविकामे तराई, राहए तोसइ धम्मकामी ॥ १६ ॥ सुच्चा मेहावि सुजा सिचाई, सुस्सूसए आयरिअप्पमत्तो ॥ राहता गुणेोगे से पावइ सिद्धिमणुत्तरं ॥ तिबेमि ॥ १७ ॥ ॥ इति विषयसमाहीए पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ॥ अथ विनयस माध्यध्ययने द्वितीय उद्देशः ॥ से मूला खंधप्पजवो घुमस्स, खंधान पत्था समुविंति साहा ॥ साहसाहा विरुति पत्ता, तर्ज सि पुष्पं फलं रसो का ॥ १ ॥ एवं धम्मस्स वि, मूलं परमो से मुरको || जे कित्तिं सु सिग्धं, नीसेसं चानिगन ॥ २ ॥ जे छा चंडे मिए थळे, दुबाई नियडी सढे ॥ बुझइ विप्पो, कहं सो गयं जहा ॥ ३ ॥ विण्यंमि जो नवाएं, चोइ कुप्पई नरो ॥ दिवं सो सिरिमितिं, दंडे पडिसेहए ॥ ४ ॥ तव विप्पा, जववष्ना हया गया ॥ दीसंति दमेहंता, आनिगमुवा ॥ ५ ॥ तव सुविणीअप्पा, जववना हया गया । दीसंति सुहमेहंता, इ िपत्ता महायसा || ६ || तव विप्पा, लोगंमि नरनारी ॥ दीसंति हमेहंता, बाया ते विगलिंदिया ॥ ७ ॥ दंडसत्यपरितन्ना, असनवयहि छ । कलुणा विवन्ननंदा, खुप्पिवासपरिग्गया ॥ ८ ॥ तव सुविधा, लोगंसि नरनारी ॥ दीसंति सुहमेहता, इट्ठि पत्ता महायसा ॥ ए ॥ For Private Personal Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अथ दशवैकालिकसूत्रपाठः । तहेव अविणीअप्पा, देवा जरका अ गुनगा ॥ दीसंति सुहमेहता, आनिगमुवआि ॥ १० ॥ तहेव सुविणीअप्पा, देवा जरका था गुनगा ॥ दीसंति सुहमेहंता, इढिं पत्ता महायसा ॥ ११॥ जे आयरिश्रजवप्नायाणं, सुस्सूसावयणंकरे ॥ तेसिं सिरका पवढंति, जलसित्ता इव पायवा ॥ १२॥ अप्पणछा परचा वा, सिप्पा ऐडणिआणि अ॥ गिहिणो जवनोगा, इहलोगस्स कारणा ॥ १३ ॥ जेण बंधं वदं घोरं, परिआवं च दारुणं ॥ सिरकमाणा निमंति, जुत्ता ते ललिइंदिया ॥१५॥ ते वि तं गुरु पूअंति, तस्स सिप्पस्स कारणा ॥ सकारंति नसंति, तुज निद्देसवत्तिणो ॥ १५॥ किं पुणं जे सुअग्गाही, अणंतहिकामए ॥ आयरिश्रा जं वए निरकू, तम्हा तं नाश्वत्तए ॥ १६॥ नीअं सिर्फ गइंगणं, नीअं च आसणाणि अ॥ नीअं च पाए वंदिजा, नीअं कुजा अ अंजलिं॥१७॥ संघदृश्त्ता काएणं, तहा नवहिणामवि ॥ खमेह अवराहं मे, वश्ज न पुणुत्ति अ॥ १७ ॥ मुग्गउँ वा पठएणं, चोळ वहई रहं ॥ एवं बुद्धि किच्चाणं, वुत्तो वुत्तो पकुबई ॥ १५ ॥ "पालवंते लवंते वा, न निसिङ पमिस्सुणे ॥ मुत्तूण आसणं धीरो, सुस्सूसाए पडिस्सुणो" ॥ कालं बंदोवयारं च, पडिले हित्ता ण हेजहिं ॥ तेण तेण उवाएणं, तं तं संपमिवायए ॥ २० ॥ विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणिअस्स य ॥ जस्सेह उह नायं, सिरकं से अन्निगल ॥२१॥ जे श्रावि चंडे मडिगारवे, पिसुणे नरे साहसहीणपेसणे ॥ अदिधम्मे विणए अकोविए, असंवित्नागी न हु तस्स मुरको ॥ २२॥ निदेस वित्ती पुण जे गुरूणं, सुअत्यधम्मा विणयंमि कोविया ॥ तरित्तु ते उघमिणं कुरुत्तरं, खवित्तु कम्मं गश्मुत्तमं गय ॥ त्तिबेमि ॥ २३ ॥ ॥ इति विणयसमाहिअनयणे बी उद्देसो सम्मत्तो ॥२॥ ॥ अथ विणयसाहिअष्भयणे तृतीय उद्देशः प्रारभ्यते ॥ आयरिश अग्निमिवादिअग्गी, सुस्सूसमाणो पमिजागरिजा ॥ आलोश्वं इंगिअमेव नच्चा, जो बंदमाराहई स पुजो ॥१॥ आयारमा विणयं पठंजे, सुस्सूसमाणो परिगिन वक्कं ॥ जहोवश्वं अलिकंखमाणो, गुरुं च नासायई स पुजो ॥२॥ रायणिएसु विणयं पठंजे, डहरा वि अ सुअ परिआय जिज ॥ नीचत्तणे वट्टर सच्चवाई, उवायणं वक्ककरे स पुजो ॥३॥ अनायउंबं चरई विसुद्धं, जवणच्या सुआणं च निच्चं ॥ अलाअं नो परिदेवश्जा, लहुं न विकलई स पुजो ॥४॥ संथारसिङ्गासणलत्तपाणे, अप्पिन्चया अश्वाने वि संते ॥ जो एवमप्पाणजितोसजा, संतोसपाहन्नरए स पुजो ॥ ५ ॥ सक्का सहेजं आसाश् कंटया, अमया उन्हया नरेणं ॥ अणासए जो उ सहिऊ कंटए, वईमए कन्नसरे स पुजो ॥६॥ मुहुत्तपुरका ज हवंति कंटया, अमया ते वि त सुनचरा ॥ वायाऽरुत्ताणि पुरुघराणि, वेराणुबंधीणि महप्नयाणि ॥ ७ ॥ समावयंता वयणानिघाया, कन्नंगया सुम्मणिशं जणंति ॥ धम्मुत्ति किच्चा परमग्गसूरे, जिदिए जो सहइ स पुजो ॥७॥ अवन्नवायं च परम्मुहस्स, पच्चरकर्ड पक्षिणीअं च जासं ॥ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. उहारणिं अप्पिकारणिं च, जासं न जासिक सया स पुजो ॥ ए ॥ raige ree माई, अपिसु श्रवि श्रदीवित्त ॥ मो जाए नो वि जाविअप्पा, कोहल्ले का सया स पुजो ॥ १० ॥ हिं साहू गुणेहिं साहू, गिरहाहि साहू गुण मंचसाहू ॥ विपगमप्पए, जो रागदोसेहिं समो स पुजो ॥ ११ ॥ तदेव महरं च महलगं वा, इत्थी पुमं पवां गिहिं वा ॥ ही नो व खिंसइजा, यंत्रं च कोहं च चए स पुजो ॥ १२ ॥ जे माया सयं माण्यंति, जात्तेष कन्नं व निवेशयति ॥ ते मा मारि तवस्सी, जिइंदिए सच्चरए स को ॥ १३ ॥ सिं गुरु गुणसायराणं, सुच्चा ए मेहावि सुना सिखाई ॥ चरे मुणी पंचर तिगुत्तो, चनक्कसायावगए स पुजो ॥ १४ ॥ गुरुमिह सय पारिका मुली, जिएमयनिज निगमकुसले || धुरियमलं पुरेकर्ड, जासुरमजलं गईं वइ ॥ त्ति वेमि ॥ १५ ॥ ॥ इति विषयसमाहीए तइ उद्देसो सम्मत्तो ॥ ३ ॥ ॥ अथ विषयसमाहिअज्झयणे चतुर्थ उद्देशः प्रारभ्यते ॥ ४ ॥ सुमेश्रासं ते जगवया एवमरकायं, इह खलु श्रेरेहिं जगवंतेहिं अत्तारि विषयसमादिपापन्नता, करे खलु ते येरेहिं जगवंतेहिं चत्तारि विण्यसमा हिगणा पन्नत्ता, इमे खलु ते रेहिं जगवंतेहिं चत्तारि विण्यसमा हिगणा - पन्नत्ता, तं जहा, विषयसमाही, सुसमाही, तवसमाही, आयारसमाही ॥ विए सुए तवे, आयरे निच्च पंडिया || अजिरामयंति अप्पाणं, जे जवंति जिइंदिया ॥ १ ॥ बिहा खलु विषयसमही, तंजहा, अणुसासितो सुस्सूस, सम्मं परिवकर, वयमाराहर, नय व त्तसंपग्गहिए, चनत्थं पयं जव जव का इत्थ सिलोगो ॥ पेदे हि सास, सुस्सूस तं च पुणो हिहिए ॥ न य माणमएण मकर, विषयसमा हिश्राययहिए । विहा खलु सुसमाही जवइ, तं जहा सुयं मे विस्स त्ति नावं वश, एगग्गचित्तो विस्सामि त्ति नायं नवइ, अप्पा वावइस्सामि त्ति प्रावयं जवइ विजे, परं वस्सामिति श्रावयं जवइ, चत्थं पयं जवइ, जवइ का इत्थ सिलोगो ॥ नामेगग्गचित्तो वि क ाव परं ॥ सुश्राणि हिकित्ता, र सुसमाहिए ॥ ३ ॥ बिहा खलु तवसमाही जवइ, तं जहा नो इहलोगच्याए तवमहिडिका, नो परलोगयाए तवमहिडिका, नो कित्तिवन्नसघ सिलोगग्याए तवमहिहिका, नन्नत्थ निरध्याए तवम . हिहिका, चनत्थं पयं जवश्, जवश् इत्थ सिलोगो ॥ विविहगुणतवोर, निच्चं जवइ निरासए निकर किए ॥ तवसा धुएइ बिहा खलु यारसमाही जवइ, तं जहा नो इहलोगध्याए लोगछायाए यारम हिहिका, नो कित्तिवन्नसध सिगोगडियाए अरहंतेहिं हेहिं श्रयारमहिहिका, चउत्थ पर्य जवइ, जव जिवयर तिंतिणे, पडिपुन्नाय माययहिए ॥ श्रयारसमाहिसंवुडे, जव ा दंते जावसंधए ॥ ५ ॥ पुराणपावगं, जुत्तो सया तवसमाहिए यारम हिहिका, नो परश्रायारम हिडिका, नन्नत्थ इत्थ सिलोगो ॥ For Private Personal Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकसूत्रपाठ. निगम चरो समाहि, सुविसुद्ध सुससमा हिप ॥ विल हि सुहावहं पुणो, कुबइ छ सोपयखेममप्पणो ॥ ६ ॥ जाइमरला मुच्चर, इत्थंथं च चए सबसो ॥ सिद्धे वा हवई सासणे, देवे वा अप्पर महट्टिए |त्तिबे मि || ॥ चत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ४ ॥ ॥ विण्यसमाही शामत्रयणं सम्मत्तं ॥ ए ॥ ॥ अथ दशमं सभिक्ष्वध्ययनं प्रारम्भते ॥ बुद्धवयणे, निच्चं चित्तसमाहिन हविया ॥ . इत्थी व नागल्छे, वंतं नो परिश्रायर जे स रिकू ॥ १ ॥ पुढविं न खणे न खणावए, सीउंदगं न पिए न पिए || निरकम्म मा णि सत्यं जहा सुनिसियां, तं न जले न जलावए जे स निरखू ॥ २ ॥ निले न वीए वीयावए, हरियाणि न छिंदे न चिंदावए || सिया विवजयंतो, सच्चित्तं नाहारए जे सजिरकू ॥ ३ ॥ वहणं तस्थावराण हो, पुढवीताकड निस्सियां ॥ तम्हा उदेसिं न मुंजे, नो वि पंए न पयावर जे स रिकू ॥ ४ ॥ रोइ नायपुत्तवयणे, त्तसमे मन्त्रि बप्पि काए ॥ पयं च फासे महवयाई, पंचासव संवरे जे स चिरकू ॥ ५ ॥ तार मे सया कसाए, धुवजोगी हवि बुधवयणे ।। अह निकायरुपवरयए, गिहिजोगं परिवऊए जे स निरकू ॥ ६ ॥ सम्मद्दिी सया मूढे, नाणे तवे संजमे ॥ तवसा धुण पुराणपावगं, मणवयकायसुसंवुडे जे स रिकू ॥ ७ ॥ तव असणं पागं वा, विविदं खाइमं साइमं लजित्ता ॥ हो तव सुए परेवा, तं न निहे न निहावर जे स रिकू ॥ ८ ॥ पागं वा, विविहं खाइमसाइमं लजित्ता ॥ दि सादम्मित्राण गुंजे, जुच्चा सनायरए जे स रिकू ॥ ए ॥ न यग्गािं कहं कहिका, न य कुप्पे निहुईदिए पसंते || संजमधुवजोगजुत्ते, वसंते जवहेडए जे स जिरकू ॥ १० ॥ जो सहइ दु गामकंटए, अक्कोसपहारता ॥ जयनेरवसदसप्पहासे, समसुहपुरकसह ा जे स रिकू ॥ ११ ॥ पडिमं परिवाि मसाणे, नो जायए जयरवाई दिस्स || विविहगुणतवोर निच्चं, न सरीरं किंखए जे स रिकू ॥ १२ ॥ सई वोचत्तदेदे, कडे व हए लूसिए वा ॥ पुढविसमे मुखी हविता, अनि अकोहल्ले जे स रिकू ।। १३ ।। कारण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहाउ अप्पयं ॥ वित्तु जाइमरणं महप्रयं तवे रए सामलिए जे स रिकू ॥ १४ ॥ हत्थ संजय पायसंजए, वायसंजए संजई दिए । अप्पर सुसमाहिप्पा, सुत्तत्थं च विश्राणइ जे स रिकू ॥ १५ ॥ For Private Personal Use Only १ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह भाग तेतालीस-(४३)-मा. उवहिंमि अमुचिए अगिधे, अन्नायचं पुल निप्पुलाए ॥ कयविक्कयसंनिहि विरए, सबसंगावगए थ जे स निरकू ॥ १६॥ अलोलनिरकू न रसेसु गिले, उंचं अरे जीविअनानिकंखी ॥ इढि च सक्कारणपूअणं च, चए रिअप्पा अणिहे जे स निरकू ॥ १७ ॥ न परं वश्कासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पिऊ न तं वजा ॥ जाणित्र पत्तेअं पुन्नपावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स निरकू ॥ १७ ॥ न जाश्मत्ते न य रूवमत्ते, न लालमत्ते न सुएण मत्ते ॥ जयाणि सबाणि विवजाश्त्ता, धम्मनाणरए जे स निरकू ॥ १५ ॥ पवेअए अऊपयं महामुणी, धम्मे हिट गवयश् परं पि॥ निरकम्म वजिक कुसीललिंगं, न आवि हासंकुहए जे स निरकू ॥ २० ॥ तं देहवासं असुई असासयं, सया चए निच्चहियष्अिप्पा ॥ बिंदित्तु जाश्मरणस्स बंधणं, उवेइ निरकू अपुणागमं गई॥त्तिबेमि ॥२१॥ ॥ इति सजिरकअनयणं दसमं संमत्तं ॥१०॥ ॥ अथ श्री दशवैकालिके प्रथमा चूलिका॥ इह खलु नो पवश्एणं उप्पन्नपुरकेणं संजमे रश्समावन्नचित्तेणं उहाणुप्पेहिणा अणोहाइएणं एव हयरस्सिगयंकुसपोयपमागानूआई इमाई अचारस गणाई सम्मंसपमिलेहिशवाइंनवंति। तं जहा हं नो ऽस्सलाई उप्पजीवी ॥ १ ॥ लहुसगा इत्तरिया गिहीणं कामनोगा ॥२॥ नुको अ सायबहुला मणुस्सा ॥ ३ ॥ इमे अ मे उरके न चिरकालोवजाइ नविस्सइ ॥४॥ उमजणपुरकारे ॥५॥ वंतस्स य पडियायणं॥६॥ अहरगश्वासो-वसंपया॥७॥ मुलहे खलु नो गिहीणं धम्मे गिहिवासमख्ने वसंताणं ॥॥आयके से वहाय हो ॥ए। संकप्पे से वहाय हो ॥१०॥ सोवक्केसे गिहवासे, निरुवक्केसे परिआए ॥११॥ बंधे गिहवासे, मुरके परिआए ॥१२॥ सावले गिहवासे, अणवो परिआए ॥१३॥ बहुसाहारणा गिहीणं कामनोगा ॥१३॥ पत्तेचं पुन्नपावं ॥१५॥ अणिच्चे खलु नो मणुरकाण जीविए कुसग्गजलबिंडुचंचले ॥१६॥ बहुं च खलु नो पावं कम्मं पगलं ॥ १७ ॥ पावाणं च खलु नो कमाणं कम्माणं कविं उच्चिन्नाणं उप्पमिकंताणं वेश्त्ता मुरको नत्थि अवश्त्ता तवसा वा कोसश्त्ता ॥ १७ ॥ अचरसमं पयं नवश्॥ नवश् अ इत्थ सिलोगो. ॥ जया य चयर धम्मं, अणजो जोगकारण ॥ से तत्थ मुनिए बाले, आयइं न वबुन ॥१॥ जया उहावि होश, इंदो वा पनि उमं ॥ सबधम्मपरिनो, स पन्ना परितप्पश्॥२॥ जया अ वंदिमो हो, पञ्चा होइ अवंदिमो ॥ देवया व चुा गणा, स पन्चा परितप्प३ ॥३॥ जया अपमो होड, पन्ना हो अपमो ॥ राया व रजापनको, स पञ्चा परितप्पा ॥४॥ जया अ माणिमो होइ, पन्छा होइ अमाणिमो ॥ सिकिब कब्बमे बूढो, स पन्चा परितप्पश् ॥ ५॥ जया श्र और होश, समश्कंतजुवणो ॥ मह व गलिं गलित्ता, स पञ्चा परितप्पश् ॥ ६॥ जया अ कुकुठंबस्स, कुतत्तीहिं विहम्मश् ॥ हत्थी व बंधणे बरो, स पञ्चा परितप्पश्॥७॥ पुत्तदारपरीकिन्नो, मोहसं ताणसंत ॥ पंकोसन्नो जहा नागो, स पन्चा परितप्पश् ॥ ७ ॥ अज आहं गणी हुँतो, नाविअप्पा बहुस्सु ॥ जय हं रमंतो परिआए, सामन्ने जिणदेसिए ॥ ए॥ देवलोगसमाणो अ, परिआ महेसिंणं ॥ रयाणं अरयाणं च, महानरयसारिसो॥ १० ॥ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ दशवैकालिकसूत्रपाठः । मरोव जाणि सुरकमुत्तमं ॥ रयाण परिश्रा तहारयाणं ॥ निरर्जवमं जााि रकमुत्तमं रमित तम्हा परिचाइ पंडिए ॥ ११ ॥ धम्मान न सिरिd ववेयं, जन्नग्गि विनामिवप्पते ॥ संत हि कुसीला, दादुढिचं घोरविसं व नागं ॥ १२ ॥ धम्मो सो कित्ती, पुन्नामधिकं च पिदुम ॥ चुस्स धम्मान अहम्मसेविणो, संजिन्नचित्तस्स य हिउँ गइ ॥ १३ ॥ जितु जोगाई पसलसा, तहाविहं कट्टु संजमं बहुं ॥ हिां हं, बोही ा से नो सुलहा पुणे पुणो ॥ १४ ॥ इस्सता रस्स जंतुणो, होवणीस्स किलेसवत्तिणो ॥ पलिवमं जिन सागरोवमं, किमंग पुए मन इमं मणोऽहं ॥ १५ ॥ न मे चिरं रकम नविस्सर, असासया जोगपिवास जंतुणो ॥ न चे सरीरे इमे विस्सर, विस्सर जीविकावे मे ॥ १६ ॥ जस्सेवमप्पा उ हवि निचि, चइऊ देहं न दु धम्मसासणं ॥ तं तारिस नो पति इंदिया, उविंति वाया व सुदंसणं गिरिं ॥ १७ ॥ इव संपस्सि बुद्धिमं नरो, श्रयं उवायं विविहं विप्राणिया | कारण वाया 5 माणसेणं, तिगुत्ति गुत्तो जिवयण महिनिकासि ॥ त्तिबेमि ॥ १७ ॥ ॥ इति श्वक्का पढमा चूला सम्मत्ता ॥ ९१ ॥ अथ द्वितीया चूलिका ॥ चूलि तु पवरकामि, सुखं केवलिनासि ॥ जं सुणिन्तु सुपुष्षाएं, धम्मे उप्पए मई ॥ १ ॥ सोपबहुजणं मि, पडिसोलचल रकेणं ॥ परिसोत्रमेव अप्पा, दायचो होउकामेणं ॥ २॥ सो हो लोर्ड, परिसोर्ट सवो सुविहित्राणं ॥ ऋणुसो संसारोर्ट पडिसा तस्स उत्तारो ॥३॥ तम्हा श्रायारपरक्कमेणं, संवरसमा हिबहुलेणं ॥ चरिया गुणा का नियमा, अति साहू दहबा ॥ ४ ॥ निवास समुप्राणचरित्रा, अन्नायजंनं पय रिक्कया का || अप्पोवही कलहविवजणा, विहारचरित्रा इसि पसत्था ॥ ५ ॥ इन्न माविवऊणा, उसन्नदिवाहनत्तपाणे ॥ संस कप्पेण चरि निस्कू, तकायसंसह जई जड़ा ॥ ६ ॥ श्रम मंसासि श्रमरी, जिरकणं निबिग गया ॥ जिरकणं काज सग्गकारी, सनायजोगे पयर्ज हविका ॥ ७ ॥ पन्निविकासयासाई, सिद्धं निसिक तह जत्तपाणं ॥ गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तज्ञावं न कहिं पि कुका ॥ ८ ॥ गिहिणो वेावां न कुजा, अनिवाय एवंदपूर्ण वा ॥ संकि लिहिं समं सविता, मुणी चरित्तस्स जर्ज न हाणी ॥ ए ॥ या लनेका निजणं सहायं, गुणाहिचं वा गुण समं वा ॥ कवि पावा विवायंतो, विहरित कामेसु समाणो ॥ १० ॥ तँ22 Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hश राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३) मा संवञ्चरं वा वि परं पमाणं, बीअं च वासं न तहिं वसिजा // सुत्तस्स भग्गेण चरिज निरकू, सुत्तस्स अत्यो जह आणवेश् // 11 // जो पुबरत्तावररत्तकाले, संपिरकर अप्पगमप्पगेणं // किं मे कडं किच्चमकिच्चसेस, किं सक्कणिज न समायरामि // 12 // किं मे परो पास किंच अप्पा, किं वाहं खलित्रं न विवजयामि // इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुजा // 13 // जत्थेव पासे कर उप्पनत्तं, काएण वाया अउ माणसेणं // तत्येव धीरो पमिसाहरिजा, आइन्न खिप्पमिव खलीणं // 14 // जस्सेरिसा जोग जिइंदिअस्स, धिश्मर्ड सप्पुरिसस्स निच्चं // तमाहु लोए पमिबुद्धजीवी, सो जीअ संजमजीविएणं // 15 // अप्पा खलु सर पर रस्किनबो, सर्विदिएहिं सुसमाहिएहिं // अररिक जाइपहं उवेश, सुररिकर्ड सबहाण मुच्च॥ त्तिबेमि // 16 // // इति विवित्तचरित्रा बीआ चूला सम्मत्ता // 2 // // दसवेश्रालियं मूलसुत्तं संमत्तं // हीनपुण्या न पश्यंति, रागांधास्तत्वसंस्थितिम् // लालेलालफलं चैव, लनंते ते नराधमाः // 1 // 8086865068 // समाप्तं चेदं श्री दशवैकालिकं सूत्रं टीका अवचूरि दीपिका जाषा मूलसहितं गुरुश्रीमच्चारित्रविजयसुप्रसादात् // ॥श्रीरस्तु // ROQQQ99999 85066666666666666666666666666666600