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________________ ११ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. उहारणिं अप्पिकारणिं च, जासं न जासिक सया स पुजो ॥ ए ॥ raige ree माई, अपिसु श्रवि श्रदीवित्त ॥ मो जाए नो वि जाविअप्पा, कोहल्ले का सया स पुजो ॥ १० ॥ हिं साहू गुणेहिं साहू, गिरहाहि साहू गुण मंचसाहू ॥ विपगमप्पए, जो रागदोसेहिं समो स पुजो ॥ ११ ॥ तदेव महरं च महलगं वा, इत्थी पुमं पवां गिहिं वा ॥ ही नो व खिंसइजा, यंत्रं च कोहं च चए स पुजो ॥ १२ ॥ जे माया सयं माण्यंति, जात्तेष कन्नं व निवेशयति ॥ ते मा मारि तवस्सी, जिइंदिए सच्चरए स को ॥ १३ ॥ सिं गुरु गुणसायराणं, सुच्चा ए मेहावि सुना सिखाई ॥ चरे मुणी पंचर तिगुत्तो, चनक्कसायावगए स पुजो ॥ १४ ॥ गुरुमिह सय पारिका मुली, जिएमयनिज निगमकुसले || धुरियमलं पुरेकर्ड, जासुरमजलं गईं वइ ॥ त्ति वेमि ॥ १५ ॥ ॥ इति विषयसमाहीए तइ उद्देसो सम्मत्तो ॥ ३ ॥ ॥ अथ विषयसमाहिअज्झयणे चतुर्थ उद्देशः प्रारभ्यते ॥ ४ ॥ सुमेश्रासं ते जगवया एवमरकायं, इह खलु श्रेरेहिं जगवंतेहिं अत्तारि विषयसमादिपापन्नता, करे खलु ते येरेहिं जगवंतेहिं चत्तारि विण्यसमा हिगणा पन्नत्ता, इमे खलु ते रेहिं जगवंतेहिं चत्तारि विण्यसमा हिगणा - पन्नत्ता, तं जहा, विषयसमाही, सुसमाही, तवसमाही, आयारसमाही ॥ विए सुए तवे, आयरे निच्च पंडिया || अजिरामयंति अप्पाणं, जे जवंति जिइंदिया ॥ १ ॥ बिहा खलु विषयसमही, तंजहा, अणुसासितो सुस्सूस, सम्मं परिवकर, वयमाराहर, नय व त्तसंपग्गहिए, चनत्थं पयं जव जव का इत्थ सिलोगो ॥ पेदे हि सास, सुस्सूस तं च पुणो हिहिए ॥ न य माणमएण मकर, विषयसमा हिश्राययहिए । विहा खलु सुसमाही जवइ, तं जहा सुयं मे विस्स त्ति नावं वश, एगग्गचित्तो विस्सामि त्ति नायं नवइ, अप्पा वावइस्सामि त्ति प्रावयं जवइ विजे, परं वस्सामिति श्रावयं जवइ, चत्थं पयं जवइ, जवइ का इत्थ सिलोगो ॥ नामेगग्गचित्तो वि क ाव परं ॥ सुश्राणि हिकित्ता, र सुसमाहिए ॥ ३ ॥ बिहा खलु तवसमाही जवइ, तं जहा नो इहलोगच्याए तवमहिडिका, नो परलोगयाए तवमहिडिका, नो कित्तिवन्नसघ सिलोगग्याए तवमहिहिका, नन्नत्थ निरध्याए तवम . हिहिका, चनत्थं पयं जवश्, जवश् इत्थ सिलोगो ॥ विविहगुणतवोर, निच्चं जवइ निरासए निकर किए ॥ तवसा धुएइ बिहा खलु यारसमाही जवइ, तं जहा नो इहलोगध्याए लोगछायाए यारम हिहिका, नो कित्तिवन्नसध सिगोगडियाए अरहंतेहिं हेहिं श्रयारमहिहिका, चउत्थ पर्य जवइ, जव जिवयर तिंतिणे, पडिपुन्नाय माययहिए ॥ श्रयारसमाहिसंवुडे, जव ा दंते जावसंधए ॥ ५ ॥ पुराणपावगं, जुत्तो सया तवसमाहिए यारम हिहिका, नो परश्रायारम हिडिका, नन्नत्थ इत्थ सिलोगो ॥ Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003659
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages728
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size29 MB
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