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________________ २४४ राय धनपतसिंह बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अर्थ.) हवे चोथु षड्जीवनिका नामक अध्ययन कहे . ए अध्ययननो श्रा प्रमाणे संबध डे केः-पूर्वोक्त कुल्लकाचारकथानामक अध्ययनमां कडं के, साधुए धृति जे राखवी ते आचारने विषेज राखवी, परंतु अनाचार विषे राखवी नहीं. ते आचार जे जे, ते घणुं करीने षड्जीवनिकायने श्राश्रयेंज ने, कडं डे केः- "सु जीवनिकाएसु, जे बुहे संजए सया ॥ सो चेव होइ विलेए, परमण संजए ॥१॥” इति. माटे षड्जीवनिकायनुं व्याख्यान करवू जोश्य. एवा सं बंधश्री श्र अध्ययननी प्राप्ति थई. ा अध्ययनमां षड्जीवनिकायनुं विनागपूर्वक व्याख्यान कमु बे, माटे एने षडूजीवनिका एवे नामें करी कहे . हवे सूत्रनो अर्थ ॥ सुयं मे इति. सुधर्माखामी जंबूप्रतें कहे . (आउसंतेणं के०) हे आयुष्मन् ! एटले जेने परिपूर्ण आयुष्य बे एवा हे शिष्य ( मे के०) मया एटले में (सुयं के०) श्रुतं एटले सांजल्युं बे, के (नगवया के०) नगवता, नगशब्दें करी परिपूर्ण एवा ऐश्वर्य, रूप, कीर्ति, श्री, धर्म अने प्रयत्न ए वस्तु लेवी. कडं बे के, “ ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः ॥ ज्ञानवैराग्ययोश्चापि, षलां जग श्तीङ्गना ॥१॥" ते जेमने बे, तेमने जगवान् कहिये. अर्थात् ऐश्वर्यादिक उ वस्तु जेमनी पासे परिपूर्ण डे एवा श्रीमहावीरस्वामीए (एवं के०) वक्ष्यमाणप्रकारें (अरकायं के ) आख्यातं एटले केवलज्ञानथी जाणीने कांबे के, (ह के०) ए दशवैकालिक सूत्रनेविषे ( खबु के ) निश्चयें करी (ब्जीवणियाणामायणं के) षड्जीवनिकानामक अध्ययन बे. एमां शिष्यने आमंत्रण करवामाटे बी. जुं पद न लेतां 'बाउसंतेणं' एज पद ली, बे, तेनुं तात्पर्य ए डे के, गुणवान् जे शिष्य , तेनेज आगमर्नु रहस्य केह, वीजाने केहबुं नही, कयु डे केः- " श्रामे घडे निहितं, जहा जलं तं घडं विणासे ॥ श्अ सिकंतरस्सं, अप्पाहारं विणासेश ॥१॥ इति ॥” माटे योग्य शिष्यनेज कहेQ जोश्ये तो शिष्यना गुण जे बे, तेमां आयुष्य जे ते प्रधान गुण , कारण के, तेनो अनाव होय तो बीजी बधी सामग्रीनो कांश उपयोग नथी, माटे “आयुष्मन् ” एम संबोधन कयु. अथवा थाउसंतेणं ए नगवंतनुंज विशेषण करवं. ते एवीरीतेः- श्रायुष्मता एटले चिरंजीव एवा नगवाने एम कडं . इति. अथवा (आवसंतेणं के०) आवसता एटले गुरुकुलनेविषे वास करनारा एवा ( मे के०) मया एटले में सांजल्यं . एवो अर्थ करवो. तेथी एम सूचवे ने के, शिष्ये गुरुकुलने विषे रहीने निरंतर गुरुचरणनी सेवा करवी. अथवा (आउसंतेणं के) श्रामृशता एटले जगवत्पादारविंदयुगलनेविषे मस्तकें करी स्पर्श करनारा एवा में सांजव्यु बे. एवो अर्थ करवो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003659
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages728
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size29 MB
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