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________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । अन्ने करी लिप्त हाथ, कडबी अने वासण होय, श्रापवानुं श्रोदनादि अव्य पण सावशेष होय, एटले साधुने आपीने शेष थालीमां रडं होय तोप्रथम नांगोथाय.(१) हाथ तथा वासण अन्नेकरी लिप्त होय, अने थालीमां शेष अव्य कांश न रडं होय, तो बीजो नांगोथाय.(२)हाथ अन्नेकरी लिप्त होय, थाली अलिप्त होय, अने ओदनादि अव्य साधुने श्रापीने शेष बाकी रह्यु होय, तो त्रीजो नांगो थाय. (३)हाथ अन्नेकरी लिप्त होय, वासण लिप्त न होय, अने ओदनादि अव्य जो साधुने श्रापीने अवशेष न रहे, तो चोथो नांगो थाय. (४) अन्नेकरी हाथ लिप्त न होय, वासण लिप्त होय, अने साधुने थापीने अवशेष अन्न रडुंहोय तो पांचमो नांगो थाय.(५)अन्नेकरी हाथ लिप्त न होय, कडबी अने वासण लिप्त होय, अने साधुने थापतां अवशेष कांश न रहे, तो हो नांगो थाय. (६) हाथ अन्ने करी लिप्त न होय, वासण लिप्त न होय, अने साधुने अापतां जो अवशेष रहे, तोसातमो नांगो थाय.(७) तथा अन्नेकरी हाथ, कडबी तथा वासण लिप्त न होय, अने साधुने थापतां अवशेष अव्य रह्यु न होय तो श्राठमो नांगो थाय. (७) तेमां पहेलो नांगो सर्वथा शुरू, बेल्लो सर्वथा अशुफ, श्रने बीजा सर्व मध्यम जाणवा. ॥ ३५॥ (दीपिका.) श्राद च । असंसृष्टेन हस्तेन अन्नादिजिरलिप्तेन तथा दा नाजनेन वा दीयमानं नेछेद् न गृह्णीयात् । किं सामान्येन । नेत्याह । पश्चात्कर्म यत्र नवति दादौ, शुष्कमएमकादि तदन्यदोषरहितं गृह्णीयादिति ॥३५॥ (टीका.) थाह च। असंण त्ति सूत्रम् । असंसृष्टेन हस्तेन अन्नादिनिरलिप्तेन दा नाजनेन वा दीयमानं नेछेत् । किं सामान्येन । नेत्याह । पश्चात्कर्म भवति यत्र दादौ । शुष्कमएकादिवत् तदन्यदोषरहितं गृहीयादिति सूत्रार्थः ॥ ३५॥ संसहेण य दबेण, दवीए नायणेण वा ॥ दिङमाणं पमिचिजा, जं तसणियं नवे ॥ ३६॥ (अवचूरिः) संसृष्टेन हस्तेन प्रतीछेण्डीयात्।यदेषणीयं भवति। अत्र वृक्षोक्तिः। संसहे हले संसहे मत्ते सावसेसे दवे। संसह संसहे मत्ते निरवसेसे दवे । श्च्चारणो जंगा। एक पढमनंगो सबुत्तमो अमेसु वि जब सावसेसं दवं तब धिप्पश् ण श्यरेसु पछाकम्मदोसाउ त्ति ॥ ३६॥ (अर्थ.) संसरणत्ति । गोचरीए गएलो साधु ( संसरण होण के०) संसृष्टेन हस्तेन एटले अन्नादिके करी लिप्त एवा हाथे करी (वा के०) अथवा (दवीए के०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003659
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages728
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size29 MB
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