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________________ ७० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(५३)-मा. दान्ता इन्डियदमनेनोच्यन्ते । श्तश्च जमरसाधूनां नानात्वं ज्ञेयम् ॥५॥ इति परिसमाप्तौ । ब्रवीमि न स्वमनीषिकया। किंतु तीर्थकरगणधरोपदेशेनेति । इत्यवचूरिकायां सुमपुष्पिकाध्ययनं प्रथमम् ॥१॥ ___ (अर्थ.) पूर्वोक्तरीतें (महुगारसमा के०) मधुकारसमाः एटले चमरसरखा (बुका के० ) धर्माधर्मादितत्त्वना जाण, तथा (जे के ) ये एटले जे (अणि स्सिया के० ) अनिश्रिताः एटले कुलादिकना प्रतिबंधथी रहित अर्थात् साधुए एम नहीं केहq के, हुं अमुकनाज घरनो आहार लश्श. अथवा एज जातनो श्राहार लश्श. तथा ज्ञात कुलने विषे पण थाहार लिये नहीं, अथवा शास्त्र नणावी, धमोंपदेश करी तेने घेर हार लिये नहीं. कारण के, एम करे तो ते गृहस्थ उपकारी जाणीने सरस मधुर थाहार थापे, तेथी अप्राशुक, तथा आधाकर्मथी अने उपदेशकपणें आहार लेवानो दोष लागे,माटे जे ठेकाणे पोताने को जाणे नहीं एवा अज्ञात कुलने विष नीरस, निस्तेज एवो आहार साधु लिये . तथा (नानापिमरया के) नानापिरताः एटले प्राशुक आहार जे लेवानो ते एक ठेकाणे न लेतां अनेक घ. रना जे नानापिंड ते विविधप्रकारना अन्नना ग्रासो तेने विषे रक्त एटले आसक्त अने (दंता के० ) दांताः एटले जीत्यां ने पांच इंजियो जेमणे एवा साधु होय , (तेण के०) तेन एटले ते कारण माटेज ते (साहुणो के०) सानुवंति मुक्तिं अहिंसादिनिस्ते साधवः एटले अहिंसादिलक्षण धर्मने निरतिचार पणे पालन करीने जे मुक्तिनुं साधन करे बे, तेमने साधु ए प्रकारे ( वुचंति के०) उच्यते एटले केहवाय . (त्ति बेमि के०) इति ब्रवीमि एटले एम हुँ तीर्थकरना उपदेशथी कहुं बु. एम सजवाचार्य पोताना पुत्र मनकने कहे वे ॥५॥ अहीं अमपुष्पिकानामक प्रथम अध्ययन पूरूं थयु. एमां अमपुष्प अने भ्रमरना दृष्टांतथी साधुनी आहारचर्याकथनपूर्वक धर्मप्रशंसा कही, ए कारणथी ए अध्ययनसुमपुष्पिका एवं नाम पाडेबु बे. ___ हवे आ अमपुष्पिका नामक प्रथमाध्ययनमां धर्मप्रशंसा जे , ते प्रतिपाद्यविषय बे, अने ए, दशवकालिक शास्त्र, आदि मंगलरूप डे, तथा या शास्त्रमा प्रतिपाद्य जे यतिचर्या ते सर्वधर्ममूल बे, माटे ए अध्ययनमां धर्मप्रशंसा कही. अने धर्मनुं जे लक्षण ते तो घणा विस्तारसहित शास्त्रमा अनेक स्थलें कडं बे, तेथी अहिं कह्यु नथी जो ते अहिं कहियें तो घणो विस्तार थाय, माटे सामान्यथीज धर्मनुं लक्षण कहेलु डे के ‘ाप्तवचनं धर्मः' प्राप्त एटले रागादिकना अनावथी जे अप्रतारक तेनेज आप्त कहिये, अने एवा तो मात्र एक वीतरागज बे. तेमनुं जे वचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003659
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages728
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size29 MB
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