SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना. श्री वीतरागप्रजुनी वाणीरूपी अमृतरस जेनी अंदरथी उनराइ जाय बे, एवा ग्रंसाने मुजित करी प्रसिद्ध करवा ए महापरमार्थ बे, अने तेथी विद्वान जनो प्रमुत थाय . वली तेथी विवेकी माणसो तेवा ग्रंथोने अवलोकीने जिनधर्ममां पोनु दृढपणुं संपादन करे . सामान्य बुद्धिना प्राणी तेवा ग्रंथोनुं व्याख्यानादिक प्रवण करीने परम श्राह्लाद मेलवे बे, तथा बोधिबीजने पामे . सजान माणसो ते चीने पोताना मनने निर्मल करे . अने धर्ममां अत्यंत आदर करे बे. एवी रीते मां अति उत्कृष्ट जिनवाणी समाएली बे एवा आगमोनी वृद्धि, रक्षण तथा विय करवो, ए अति शुज पुण्य प्रकृति बांधवानुं साधन बे. अने तेवा श्रागमने प्र. सिक करवामाटे हालना चालता समयमां मुलायंत्र एक अति उत्तम साधन थर ड्युं बे. तेवा मुडायंत्रथी सर्व श्रागमोने, तथा सर्व ग्रंथोने उपावी प्रसिद्ध करवा, श्रुताननी वृद्धि, रक्षण तथा विनय हालना समयमा सर्वोत्कृष्ट गणाय ने खरूं ण तेवू महान् कार्य समृशिवान् उदार जैन गृहस्थथी बनी शके . वली तेवो पुरु समृद्धिवान् तेम श्री वीतराग प्रजुए प्रकाशेला जिनधर्मपर अत्यंत श्रद्धालु प्रने श्रादरसत्कारवालो होवो जोश्ए. अने तेवो असाधारण दृढमननो माणस श्री चतुर्विध संघमां विरलोज मली आवे बे. जेम हालना समयमां बाबुसाहेब " रायअनपतिसिंहजी प्रतापसिंहजी " . अने तेनी जोडीनो श्रद्धालु श्रावक श्राधुनिक नमान कालमां बीजो को पण नथी. ए महान् पुरुषे उपर कहेली रीतप्रमाणे प्रत्यंत प्रीतिसहित सर्व भागमो एटले जैनसूत्रो पावी प्रसिक करीने जैनकोमपर मोटो उपकार कर्यो बे. अने तेमनी सहायताथीज आ दशवैकालिक सूत्र अमोए टीका, दीपिका, तथा गुजराती भाषांतरसहित बापी प्रसिद्ध कर्यु . अने तेमां Eष्टिदोषथी, अथवा बुछिदोषथी अने अज्ञानरूपी अंधकारना पराधीनपणाथी जे कंई अशुभ अथवा उत्सूत्र पदनी अथवा शब्दनी योजना थक्ष होय, तो तेमाटे सजन पुरुषोए मने दमा करवी. जो के मारो था विवेक अयोग्य बे, केम के, सजान धुरुषोनो तो एवोज खनाव होय जे के, तेउनी दृष्टिए सत्कार्यनी अंदर कदापी दोष इष्टिगोचर थतो नथी. ते बतां पूर्वे श्रेष्ठ ग्रंथकारोए जे पति राखेती, तेने अनु. सरीने में पण बहीं विवेक करी बताव्यो बे. वली सजनोपासे क्षमा मागवाना करतां विशेषे करीने हुँ उर्जन माणसोनी वधारे क्षमा याचुंटुं. केम के तेननो स्वजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003659
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Nyayatirth
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages728
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy