Book Title: Dvyasrayakavya Part 01
Author(s): Hemchandracharya, Abhaytilak Gani, Abaji V Kathavate
Publisher: Government Central Press Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Department of Public Justruction, Bombay. A THE DVYAS'RAYAKÂVYA. BY HEMACHANDRA WITH A Commentary BY ABHAYATILAKAGAŅI. Text-Cantos I to X. EDITED BY ABAJI VISHNU KATHAVATE, B. A. Registered for copyright under the Government of India's Act XXV of 1867. 1915. [All rights reserved. ] Price Rs. 9 SOLD AT GOVERNMENT CENTRAL Press, BOMBAY. Bombay Sanskrit and Prakrit Series, No. LXIX. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gyanmanair@kopatirti.org Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya-sagar Press, 23, Kolbhat Lane, Bombay and published by the Government Central Press, Bombay. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीः । आचार्यश्री हेमचन्द्रकृतम् द्याश्रयकाव्यम् अभयतिलकगणिविरचितया टीकया समेतम् बी. ए. इत्युपपदधारिणा काथवटेइत्युपान विष्णुसूनुना आबाजीइत्येतेन संशोधितम् ( मूलमेव सर्गाः १ - १० ) तच्च मुम्बापुरीस्थराजकीयग्रन्थमालाधिकारिणा मुम्बय्यां निर्णयसागरमुद्रणालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । शाके १८३७ वत्सरे १९१५ ख्रिस्ताब्दे मूल्यं ९ रूप्यकाः Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ÞREFACE. The work of editing the Dvyâs'rayakâvya was undertaken by the late Prof. Abaji Vishnu Kathavate of the Elphinstone College, who however, died after he had seen through the Press, only the first few forms. So the work of seeing the remaining part of the edition through the press was entrusted to Mr. D. K. Agashe Shastri of Thana High School. The MSS. which the editor made use of in preparing the text are not all available to the writer of this preface, nor is it possible for him to rightly judge of their worth and importance, without a careful study of the same. Under these circumstances, no alternative is left but to print a rough note in pencil, in the late Prof. Kathavate's own hand-writing, found in his papers which barely mentions the names of the MSS. The note runs as follows: [A-The MS. obtained at Ahmedabad by Mr. Dhruva which forms the original from which the copy for printing is made. B-Copy obtained by Mr. Dhruva through Jyeshtharam Mukundji leaf 29 wanting for V 171 (?). C-The MS. from which different readings were given in Kumârapâlacharita. Find out its name and source. D-Deccan College Library No. 404 Sarga 13. E-Deccan College Library 406 sargas 7, 8, 9. 39 leaves with 8 wanting (7, 14, 23, 30, 31, 33, 36, 38). Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE, F-Deccan College Library No. 405 of 1879-80. First 2 sargas, and 84 verses of the third.] Here ends the note. A, B, C, D, E, F are shown in the footnotes as , at, at, ET, , Te respectively. Of these C seems to be evidently the MS. referred to as D in the following paragraph from the Preface to the Kumârapâlacharita ( B. S. S. No. LX), which I quote here--- “The third MS. D, has lost the first leaf, and a few lines seem to be left out by the copyist at the end of the last leaf; so it is not possible to find out when and where it was got copied. This MS. forms a part of the whole consisting of 473 leaves. The first 387 leaves contain, with the Vụitti or Commentary, the Sanskrita Dvyâs'raya Kâvya which illustrates the Sanskrit Grammar; and the remaining leaves from 389 to 473, contain the Prakṣita portion of the Dvyâs'raya Kâvya with the Vșitti on it. The leaves measu_e 10" by 42" and contain 17 lines on each side.” The MS. D (No. 404 of 1879-80 Deccan College Library) contains only the first 13 Cantos and a part of the 14th Canto, ( extending to the 35th verse only) of the original Kâyya and its commentary. It has 293 leaves, with about 14 lines per page and about 54 letters per line. It is written in the usual Jain fashion, with a blank square in the centre of every page. The MS. E ( No. 406 of 1879-80 of the Deccan College Library ) is a mere fragment containing only three Cantos i. C. 7, 8 and 9. It has 39 leaves ( with 8 leaves missing ), with 20 lines per page and about 62 letters per line. This MS. also has a blank square in the centre of every page. It Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DVYASRAYAKAVYA ends with the words:--" Ha fetalasiyamefra: Il jo 9493 a." Thus the MS. is more than 450 years old. The MS. F (No. 405 of 1879-80 of the Deccan College Library ) contains only the first 2 Cantos and a part of the 3rd Canto, up to the 85th verse. It has 25 leaves only. The peculiarity of the MS. is that the original text of the Kâvya is written in a bolder character in the page proper and the commentary is written in very small though legible characters on all the four sides of the text, in the four margins as it were. The present volume contains the first ten Cantos of the text and the commentary. The remaining text with the commentary and notes and introduction will form the second volume. V. S. G. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम् ॥ ॐ नमः सर्वसर्वज्ञेभ्यः॥ श्रीभूर्भुवःस्वस्त्रितयाहिताग्निगेहेभितो यस्य विभास्वरस्य । भातः स्फुलिङ्गाविव पुष्पदन्तौ तज्योतिरेकं परमं नमामः ॥ १॥ यच्चक्रित्वाभिषेके गगनसवनसन्मण्डपे स्नाननीरं स्वर्गङ्गाने शुभार्थं सुरतरुदलयुक्पूर्णकुम्भो मृगाङ्कः । वृद्धस्त्रीक्षिप्तलाजा ध्रुवमुडुनिकरा जझुरेकातपत्रं राज्यं जैनेश्वरोयं त्रिजगति कुरुतां सार्वभौमः प्रतापः ॥ २ ॥ ज्ञानं रातु सरस्वती भगवती सा मे यया ज्योतिषा विश्वोदयोतिसदोदितेन वसने वासप्रतिज्ञां मिषन् । निर्जित्य द्विजनायकः किल मृगार्भ लालयन्पालयनङ्कस्थं समयाकरोति विजनेनन्ते वने वासितः ॥ ३ ॥ श्रीपार्श्वनाथजिनदत्तगुरुप्रसादादारभ्यते रभसतोल्पधियापि किंचित् । श्रीहेमचन्द्रकृतसंस्कृतदुर्गमार्थ श्रीव्याश्रयस्य विवृतिः स्वपरोपकृत्यै ॥ ४ ॥ इह हि भक्तिप्राग्भारॊहमहमिकानम्रकम्रश्रीकुमारपालप्रमुखासंख्यपृथ्वीपालचक्रवालभालस्थलीक्लुप्तसुरभिमृगनाभिपुण्ड्रकचूर्णप्रसक्तिप्रोच्छ १ ए न सुवने । समासे 'भुवने' इति शब्दः, एफ न सवने. २ एफ °तिज्ञा मि'. ३ डी ने चासिौ. ४ एफ राहहम. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मूलराज: ] लितपादारविन्दोदारनखरादर्शसौन्दर्या लक्षणतर्कच्छन्दः साहित्यालंका व्याश्रयमहाकाव्ये रत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रयोगशास्त्रप्रमुखानेकशास्त्रनिर्माणोन्मूलितजगत्स्रष्टृविशिष्टसृष्टिचातुर्याः कोविदवृन्दवर्याः श्रीहेमचन्द्राचार्या यद्यपि स्वोपज्ञश्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानस्य संस्कृतशब्दानुशासनस्य निःशेषशब्दव्युत्पादनवपुषः सुप्रतिष्ठसप्ताध्यायाङ्गस्य सुललितपदन्यासस्य प्रभूतप्रश्नोत्तरप्रवृत्तिमद्गन्धोद्धुरस्य गजस्येवाल्पप्रमाणे ग्रन्थे समुद्र इव - बन्धः कर्तुं दुःशकस्तथापि मन्दमतय एतद्वृहद्वृत्तार्वेधीतायामपि भूरिसं ज्ञाधिकारनियमविभाषापरिभाषोत्सर्गापवादादिविचारातिबाहुल्येनैतस्यामुक्तं प्रयोगजातं सम्यग्विवेक्तुं न शक्ष्यन्त्यतस्तेषां सकलप्रयोगजातस्य सम्यग्विविक्तये तथानेन शब्दानुशासनेन प्रधानोपाध्यायेनेव सर्वेपि शब्दाः शिष्या इव सम्यग्व्युत्पादिता अपि यावन्महाकाव्ये लोकव्यवहार इव न व्यापारितास्तावत्स्वमत्यान्यत्राव्यवहारिकेर्थे प्रयुज्यमाना नाभीष्टार्थसिद्धिभाजो भवन्तीति ते यस्मिन्नर्थे यथा प्रयुज्यन्ते तथा दिग्मात्रेण दर्शनार्थं तथा संसिद्धशब्दसंदर्भपुष्पोत्कर संभृतादस्माच्ध्याकरणार्पुष्पकरण्डकादिवोद्धृत्यैतत्प्रयोगप्रसूनंप्रकरः काव्यदानि गुम्फित: सुमतिभिरपि सुखेन ग्राह्यो भवतीत्येतदर्थमेतच्छब्दानुशासनविशेषहेतुश्रीसि द्धचक्रवर्तिश्रीजयसिंहदेववंशावदात वर्णनाय च व्याश्रयं शब्दानुशासनप्रयोगसंदर्भसंग्रहस्वरूपतया सर्वकाव्यलक्षणलक्षितकथाप्रबन्धस्वरूपतया च यथार्थाभिधानं महाकायं चिकीर्षन्तः शिष्टसमयपरिपालनाय निर्विनशास्त्रसमाप्तये च तस्यादौ श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासननमस्कारानुसारेणाभीष्टदेवताप्रणिधानरूपं नमस्कारं चक्रुः ॥ १२ 3 · १ सी डी ष्टिशिला . २ सी सृ. ३ सी धोर डी न्धोदर ४ सी 'वधाता' ५ सी षापरिभाषाप ६ एफ शिक्षा इ. ७सी पुष्पोत्क डी ● पुप्फोटक ८ सी डी 'पुष्पक' ९ सी 'नक' १० सी डी श्रयश. ११ डी या च य १२ एक 'विघ्नं शा. ० · Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MY [ है० १.१.१.] प्रथमः सर्गः । अर्हमित्यक्षरं ब्रह्म वाचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्धीजं सर्वतः प्रणिदध्महे ॥ १॥ १. अहमिति वर्णसमुदायं सर्वतः सर्वस्मिन्क्षेत्रे काले च प्रणिध्महे । आत्मानं ध्यायकं बीजमध्ये न्यस्तं संश्लेषेणार्हकारैर्येयैः सर्वतो वेष्टितं चिन्तयामः । यद्वा । अहंशब्दवाच्येन भगवतार्हता ध्येयेनाभिन्नमात्मानं ध्यायकं ध्यायाम इत्यर्थः । कीदृशम् ।निर्मुक्तात्मकत्वात्परमे पदे सिद्धिलक्षणे तिष्ठति । “परमारिकत्' इत्यौणादिके कितीनि “भीरुष्ठानादयः" [२.३.३३.] इति षत्वे गणपाठसामर्थ्यात्सप्तम्या अलुपि परमेष्ठी तस्य परमेष्ठिनो भगवतोर्हतो वाचकं प्रतिपादकमत एवाक्षरं ब्रह्माभिधानाभिधेययोरभेदोपचारादचलं ज्ञानं परमज्ञानस्वरूपपरमेष्ठिवाचकमित्यर्थः । यद्वा । अक्षरमिति भिन्नं विशेषणं ब्रह्मेति च । ततोक्षरं शाश्वतमेतदभिधेयस्य भगवतः परमपदप्राप्तत्वेनाविनश्वरत्वाद्ब्रह्म च परमज्ञानस्वरूपम् । यद्वा । अक्षरस्य मोक्षस्य हेतुत्वादक्षरं ब्रह्मणो ज्ञानस्य हेतुत्वाच्च ब्रह्मात एव च सिद्धचक्रस्य सिद्धा विद्यासिद्धादयस्तेषां चक्रमिव चक्रं यत्रकविशेषस्तत्र सत् आद्यत्वेन प्रधानं बीजं तत्त्वाक्षरम् । स्वर्णसिद्ध्यादिमहासिद्धिहेतोः सिद्धचक्रस्य पञ्च बीजानि वर्तन्ते तेष्विदमायक्षरमित्यर्थः । तेन स्वर्णसिद्ध्यादिमहासिद्धीनामिदं मूलहेतुरित्युक्तम् । अत एव चेदं ध्यानाहमित्यर्थः । नन्वहमित्यस्य योभिधेयः स एव प्रणिधेयत्वेन मुख्यः । अहमिति शब्दस्त्वहद्वाचकत्वेन प्रणिधानार्हत्वाद्गौणः । गौणं च मुख्यानुयायीति मुख्यस्यैव प्रणिधानं कर्तुमुचितम् । एवं चाहमित्यक्षरं ब्रह्मवाच्यं श्रीपरमेष्ठिनं सिद्धचक्रादिबीजेन सर्वतः प्रणिदध्मह इति कार्यं स्यात् । अत्र चैवमन्वयः। सिद्धचक्रादिबीजेनाहमित्यनेन वाच्यं परमेष्ठिनं प्रणिदध्मह इति । नैवम् । १ सी डी ता ध्ये'. २ सी डी ध्याया. ३ एफ ष्ठी अस्य. ४ सी डी रूपं प. ५ सीमेतत. एफ मेव त. ६ सी भव. ७ सी डी नहे. ८ सी डी धमक्ष. ९ बी सी डी एफ थः । एते. १० सी डी सिद्धादि. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] यथा कश्चित्स्वस्वामिना प्रेषिते लिखिते समायाते स्वामिनीवान्तरङ्गं बहुमानं प्रकटयन् स्वामिनि सातिशयां प्रीतिं प्रकाशयत्येवं परमेष्ठिनो वाचकमर्हमिति प्रणिदधत् श्रीहेमचन्द्रसूरिमुख्ये प्रणिधेयेर्हति सातिशयं प्रणिधानं ख्यापितवान् । येन हि यस्य नामापि ध्यातं तेन स नितरां ध्यात इति यथोक्तमेव साधु । तथा सर्वपार्षदत्वादस्य काव्यस्य सर्वदर्शनानुयायी नमस्कारो वाच्य इत्यर्हशब्देन परमेष्ठिशब्देन च हरिहर - ब्रह्माणोपि व्याख्येयः । यथा परमेष्ठिनो हरेर्हरस्य ब्रह्मणश्च वाचकममिति प्रणिदध्महे । अर्हशब्दस्य ह्येते त्रयोपि वाच्याः । यदुक्तम् । अकारेणोच्यते विष्णू रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः । हकारेण हरः प्रोक्तस्तदन्ते परमं पदम् ।। इति । शेषं प्राग्वव्याख्येयम् ॥ अर्हम् । इत्यनेन शब्दानुशासन सूत्रादिस्थः “अर्हम् " [१] इति नमस्कारः सूचितः । अक्षरं ब्रह्मेत्यादिना च तद्वृत्तिः सूचिता ॥ अथैतत्काव्यनायकवंशमाशीर्वादपूर्वं प्रशंसन्नाह । भीमकान्तोद्धतोदात हिंस्रशान्तगुणात्मने । भद्रं चौलुक्यवंशाय क्लृप्तस्याद्वाद सिद्धये ॥ २ ॥ २. चौलुक्यवंशाय चुलुके संध्यावन्दनाय विधात्राम्बुना भूते हस्ते भवो “दिगादिदेहांशाद्यः [ ६. ३. १२४ . ] इति ये चुलुक्यः । उक्तं च । अयोग्या मातङ्गाः परिगलितपक्षाः क्षितिभृतो जडप्रीतिः कूर्मः फणिपतिरयं च द्विरसनः । इति ध्यातुर्धातुः क्षितिविधृतये सांध्यचुलुकात्समुत्तस्थौ कश्चिद्विलसदसिपट्टः स सुभटः ॥ १ सी 'षितलेखि. डी 'षिते लेखि '. २ बी 'वान्तरं बसी 'वान्तरं प्र. ३ बी 'मिति. ४ सी डी याः । ते य. ५ सी डी 'क्यः । यदुक्तम् 1. ६ ए टुः सुसु'. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० १.१.१.] प्रथमः सर्गः । . चुलुक्यस्यादिक्षत्रियविशेषपुरुषस्यायं "तस्येदम्" [६. ३. १६०.] इत्यणि चौलुक्यः । स चासौ वंशश्च । यद्वा । चुलुकोत्पन्नः पुरुषोप्यभेदाचुलुकस्तस्यापत्यं वृद्धं गर्गादित्वाद्यजि [६. १. ४२.] चौलुक्यस्तस्य वंशः संतानश्चौलुक्यवंशस्तस्मै भद्रं स्वस्त्यस्त्वित्याशीर्वादः । “तद्भद्रायुष्य." [२. २. ६६.] इत्यादिना चतुर्थी । यत्रान्यक्रियापदं न श्रूयते तत्रास्तिर्भवन्तीपरः प्रयुज्यते इत्यत्र भवन्तीत्यस्योपलक्षणत्वात्पञ्चम्यादिपरोपि । तेनात्रास्त्विति ज्ञेयम्। आशीर्वाददाने हेतुर्गर्भ विशेषणमाह । क्लुप्तस्याद्वादसि. द्धय इति । स्यादित्यसक्धातोर्यात्प्रत्ययान्तस्य प्रतिरूपको विधिविचारणास्तित्वविवादानेकान्तसंशयाद्यर्थवृत्तिरव्यय: । अत्र तु भीमकान्तेति विशेषणेनानेकान्तस्यैव साध्यत्वादनेकान्तवृत्तिर्गृह्यते । तस्य तत्पूर्वको वा वादः स्याद्वादो नित्यत्वानित्यत्वाद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगमरूपः श्रीमदार्हतमतप्रधानप्रासादचूलावलम्बिप्रलम्बोद्दण्डपाण्डुरपताकायमानोनेकान्तवादः। सिद्धिनिष्पत्तिोपनं वा । क्लृप्ता निर्मिता स्याद्वादस्य सिद्धिर्येन तस्मै । स्याद्वादसिद्धिविधानेपि हेतुविशेषणमाह । भीमकान्तोद्धतोदात्तहिंस्रशान्तगुणात्मन इति । भीमा रौद्राः कान्ताः सौम्या उद्धता अविनयप्रधाना उदात्ता विनयप्रधाना हिंस्रा घातुकाः शान्ता दयाप्रधाना ये गुणा धर्मास्त एव धर्मधर्मिणोरभेदविवक्षया वंशस्य भीमत्वादिधर्मैः सहैक्यादात्मा स्वरूपं यस्य तस्मै । अत्र च भीमगुणात्मकत्वकान्तगुणात्मकत्वादीनां परस्परविरुद्धानामपि विरोधो रोधोभाग इव प्रत्यक्षप्रमाणमत्तवृषभेणं बाध्यमानो भंसते । यत उक्तम् । दृश्यत्वान्न विरोधोपि कथ्यते युक्तिशालिभिः । विरोधोनुपलम्भो हि यतो जैनमते मतः ॥ यदि ह्येषामेकत्र दृश्यमानानामपि विरोध उद्भाव्येत तदैकस्मिन्नपि १ बी सी डी दानहे. २ सी डी गर्भवि'. ३ सी डी धिर्विचा. ४ एफ कान्तासं°. ५ सी डी न्तवादसिद्धिनिष्पत्तिज्ञापनवृ. ६ बी त्वाद्य. ७ सी डी लाविल. ८ सी डी त्मिकादी. ९ सी डी धो भा. १० सी डी भेणे बा. ११ सी डी भ्रंशते. १२ सी डी रोधानु. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याश्रयमहाकाव्ये मूलराजः ] पुरुषे पुत्रत्वपितृत्वे स्थूलत्वकृशत्वे लघुत्वमहत्त्वे न घटेयाताम् । अथैकोपि पुमान्स्वजनकापेक्षया पुत्र: स्वपुत्रापेक्षया जनकः स्थूलापेक्षया कृशः कृशापेक्षया स्थूलो महदपेक्षया लघुर्लघ्वपेक्षयों च महानिति विषयभेदेन विरुद्धधर्मा अप्येते घदन्ते तदत्रापि समानम् । तथाहि । शत्रूनुद्दिश्य भीमगुणत्वं प्रजासु कान्तगुणत्वं दर्पिष्ठेषूद्धतगुणत्वं पूज्येषूदात्तगुणत्वं व्यसनिषु हिंस्रगुणत्वं कृपापात्रेषु शान्तत्वं चेति । एवं च प्रत्यक्षसिद्धभीमकान्तगुणाद्यनेकधर्मात्मकेनानेन चौलुक्यवंशेन दृष्टान्तभूतेन नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगमरूपस्याद्वादसिद्धिविधानपूर्वकं दर्शनान्तरीयाणां बौद्धसांख्यादीनामेकान्तानित्यत्वैकान्तनित्यत्वादिवादेषु स्याद्वादस्यैव न्याय्यत्वं सूचितम् । अत एव श्रीहेमचन्द्रसूरेयंतिमौलेराशीर्वादा)यं वंश इति । तिनो हि धार्मिकं विनान्यस्य प्रशंसायां दोषसंभवः ।। स्थाद्वादसिद्धये । इत्यनेन “सिद्धिः स्याद्वादात्" [२] इति सूत्रार्थः सूचितः । अथान्येभ्योधिकेन येने गुणेनायं वंशोत्र काव्ये वर्ण्यस्तं प्रकर्षयन्नाह । लोकात्सालातुरीयादेः शब्दसिद्धिरिवानघा । चौलुक्यवंशाजयति नयधर्मव्यवस्थितिः ॥३॥ ३. चौलुक्यवंशात् “गम्ययपः कर्मचारे" [२.२.७४.] इति कर्मणि पञ्चमी । चौलुक्यवंशं प्राप्य नयधर्मव्यवस्थितिर्नयो न्यायो धर्मोहिंसादिद्वन्द्वे तयोर्व्यवस्थितियवस्था सम्यक्प्रतिपाल्यमानत्वेन न विद्यतेचं दुःखं व्यसनं पापं वा यस्यां सानघा श्रेयसी सती जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते । यथा सालातुरीयादेर्लोकात् सलातुर आभिजनो निवासोस्य "सलातुरादीयण" [६.३. २१६.] इतीयणि सालातुरीयः पाणिनिस्तत्प्रभृतिम् । आदिपदादिन्द्रचन्द्रशाकटायनादिवैयाकरणानां श्रीसिद्धसेनमल्लवादिहरिभद्रसू १ सी डी म् । यथै . २ सी डी या म'. ३ सी डी एफ जामुदिश्य का . ४ सी डी त्वं पू. ५ सी डी न येन गु. ६ ए एफ यस्याः सा. ७ सी डी एफ त् साला. ८ सी डी एफ “साला'. ९ सी डी ति आदि. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० १.१.३. ] प्रथमः सर्गः । रिप्रभृतितार्किकाणां च परिग्रहः । लोकं वैयाकरणसमयविदं प्रमाणविदं च प्राप्य शब्दसिद्धिः साधुशब्दनिष्पत्तिरनघासाधुत्वदोषरहिता सती जयति । अथवात्र श्लोक इहेत्यध्याहार्यम् । सिद्धिव्यवस्थित्य - पेक्षया च गम्ययत्वम् । ततोयमर्थः । सालातुरीयादिलोकमाश्रित्य यानघा शब्दसिद्धिर्थे प्रयोगार्हाः शब्दाः सिद्धाः सा यथेह प्रबन्धे जयति । इयं हि काव्यफला काव्ये चात्र शब्दानुशासनक्रमानतिक्रमेण निबध्यमानेषु शब्देषु स्वफलप्रायोत्कर्षवती भवति तथा चौलुक्यवंशं प्राप्य यानघा नयधर्मव्यवस्थिति: सेह प्रारभ्यमाणे प्रबन्ध आधारे जयति । इयं चानघत्वेन स्वयमेवोत्कृष्टाप्यस्मिन्काव्ये निबध्यमाना विशेषेणोत्कृष्टा भवतीत्यर्थः । भवति हि विशिष्टाधारकृतो विशेषो यथा राजा सर्वाङ्गभूषितोपि रूपपात्रमपि यदास्थानमण्डपे सिंहासनमध्यारोहति तदान्यां कां चन शोभां लभत एवमत्रापीति । अत्र च व्याख्याने लोकात्सालातुरीयादेरित्यत्र शब्दसिद्धिः सामान्योक्तावपि श्रीहेमचन्द्रसूरिकृतात्र काव्ये - भिधेयत्वेनावबोध्या स्वोपज्ञतया तत्क्रमानतिक्रमेणैवात्र सिद्धशब्दानां प्रयोगात् । एतेन चास्य काव्यस्य स्वोपज्ञशब्दानुशासनसंसिद्धशब्देवौलुक्यनयधर्मव्यवस्थित्या च सहाभिधानाभिधेयलक्षणः संबन्ध उक्तः । प्रयोजनं च सिद्धानां शब्दानां काव्यविषयं प्रयोगज्ञानम् । नयधर्मव्यवस्थितिज्ञानं चानन्तरम् । परंपरं च सिद्धशब्दप्रयोगज्ञानेभीष्टदेवतादिस्तुत्यादिक्रमेण नयधर्मव्यवस्थितिज्ञानेन च नयधर्मानुष्ठानादिक्रमेण निःश्रेयसमुक्तम् । तथास्य द्वयोराश्रयत्वाद् व्याश्रय इत्यन्वर्थं नामपि व्यञ्जितम् ॥ लोकात् । इत्यादिना "लोकात् " [३] इति सूत्रार्थः सूचितः ॥ ३ एफ् स्वमे. ४ सी डी १ सी डी 'दं च. मात्र . ५ बी सी डी २ सी डी न प्र सिद्धेः सा ६ सी . क्यवंशस्य न डी 'क्यवंश्यस्य न . ७ एफ्रेंच. ८ सी डी त्या क्र. ९ एकू स्थितिः । ज्ञा १० बी त्यर्थना. सीना ११ मातिव्य 4 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] अथ श्रीसिद्धहेमचन्द्राख्यशब्दानुशासनानुसारेण प्रयोगजातं दर्शयन यत्र चौलुक्यवंशो नयधर्मव्यवस्थित्या राज्यमपालयत्तत्पुरमाह । अस्ति स्वस्तिकवद्भूमेर्धर्मागारं नयास्पदम् । श्रिया सदाश्लिष्टं नाम्नाणहिलपाटकम् ॥ ४ ॥ 3 ४. नाम्नाणहिलपार्टकमणहिलपाटकाख्यं पुरं नगरमस्ति । कीदृशम् । धर्मोहिंसादिर्धर्मं दानादिर्वा । धर्मधर्मिणोरभेदोपचाराद्धर्मस्य धर्मवतामगारं गृहमत एव पूर्ववदभेदान्नयस्य न्यायवतामास्पदं स्थानं यत एव धर्मागारं नयास्पदं चात एव च श्रिया धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिमहय लक्ष्मीदेश्रम एवँ च भूमेः सागराम्बरायाः स्वस्तिकमिव यथा स्वस्तिकेनाढ्यवेश्मवेदिकालंक्रियते तथा येन सर्वापि भूर्भूष्यत इत्यर्थः । यच्च पुरं शरीरं धर्मागारं धर्मस्य पूर्वोपार्जितसुकृतस्यागारं नयस्य चास्पदं भवति तत्सद श्रिया लक्ष्म्यालिष्टं भवतीत्युक्तिलेशः । पूर्व किल वनराजराजेन नवपुरविधित्सया प्रधानभूमिखण्डगवेषणार्थं विचरतैकदारण्यमध्ये गवादींश्चारयन्नणहिलो नाम गोपालो दृष्टस्तदग्रे च चित्ताभिप्रायो निवेदितस्तेनापि तत्कार्यकरणार्थं शकुनगवेषणं कुर्वतैकत्र प्रदेशे शृगालो बलिष्ठकुकुरं निर्धाटयन् दृष्टस्तत्रैव चाणहिलेन वनराजराजः पुरनिंवेशं स्वनाम्ना कारित इति लोकश्रुतिः । आदिमध्यावसानमङ्गलानि हि शास्त्राण्यायुष्मच्छ्रोतृकाणि मतिमच्छ्रोतृकाणि च भवन्तीत्यर्हमिति प्रणिधानेन सर्वमङ्गलश्रेष्ठे भावमङ्गले विहितेपि लोकरूढिमनुसरन्नस्तिस्वस्तिकेति शब्देन द्रव्यमङ्गलमपि न्यस्तवान् । नाम्नेत्यत्र करणे तृतीया ॥ 9 99 १ एफ् सदा श्रियाचि. १ सी डी श्रीहे . २ सी डी टकाख्यं. ३ बी सी डी एफ 'दिर्दाना ४ बी लक्ष्म्या दे. ५ ए या°ि ६ सी डी व भू. ७ बी दाहि . ९ सी डी गोवालो. १० ए बी सी एफ् नि भूषिता इ. ८ सी ११ बी णिभ, - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० १.१.३.] प्रथमः सर्गः । अथैतदेव पुरं धर्मार्थकामोपनिबद्धवर्णनाभिस्त्रिंशेन शतेन श्लोकैवर्णयति । धर्मार्थकामवर्णना यथायथं स्वयमेवाभ्यूह्याः । सपनाविधीहाभिः श्रीदे॒त्रानुपतीष्यते । मधूत्तमं वधूढाभिः सभ्रूत्क्षेपं मृदूरुभिः ॥५॥ ५. श्रिया सर्वसमृद्ध्ये भासुरेत्र पुरे मृदूरुभिः कोमलसक्थीभिर्वधूढाभिर्वध्वो योषितो या ऊढा: पाणिगृहीत्यस्ताभिरनुपति भर्तृसमीप उत्तम पत्या स्वयं दीयमानत्वेन प्रेमकन्दलोद्भेदकत्वाद्मनोज्ञं मधु मद्यमिष्यते । कथम् । सह भ्रुवोरुत्क्षेपेणोपहासाय चालनेनास्ति यत्तत्सभ्रूत्क्षेपं यथा स्यादेवम् । यतः सपत्नीनां येा परसंपत्तौ चेतसो व्यारोषस्तस्या विधिः करणं तत्रेहाभिलाषो यासां ताभिः । यथायथा सपत्न्यः प्रियकृततथाविधप्रेमसंपत्तिं पश्यन्त्यो गाढतरेर्ण्यया म्लायन्ति तथातथा वधूढा भ्रूत्क्षेपेणोपहस्य मधु पिबन्तीत्यर्थः ।। उमाभवृषभस्कन्धा मातापिवृषिपूजकाः । नृभर्तृऋषमा अस्मिन्नासन्पितृणवर्जिताः ॥ ६॥ ६. नृभर्तृऋषभा नृणां भर्तारः स्वामिनो नृभर्तारो रौजानस्तेषु ऋषभा मुख्या राजाधिराजा वनराजादयोस्मिन् पुर आसन् । एतेनास्य पुरस्य चिरंतनतोक्ता । कीदृशाः । उमाभर्ता शंभुस्तस्य ऋषभो बलीवदस्तत्स्कन्धवत्स्थूलबलिष्ठाः स्कन्धा येषां ते । तथा मातापितृ(?)षिपूजका माता च पिता च मातापितरौ तौ च ऋषयश्च तेषां पूजका अर्चकाः । याज १ एफ ना. There is here an evident omission of intermediate letters. २ बी पित अ. ३ एफ मं मधु प. ४ ए °लोद्रेक. ५ ए पेणाप. ६ सी रोपंत. ७ बी धिः कार. ८ सी कृतं त . डी कृतां त°. ९ The commentary in Ms. C. begins with. उमाभता शंभुः. १० डी नो रा. ११ एफ राजन. १२ ए बी एफ स्य चि. १३ एफ तनोक्ताः ।. १४ एफ °स्तस्य स्क. १५ सी डी रौ च. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] कादित्वात्समासः । [३. १. ७८.] । एतेन विनयोक्तिः । अत एव पितृणवर्जिताः । पितॄणामृणमपत्याभावस्तेन वर्जिताः पुत्रवन्त इत्यर्थः । भवति हि पूज्यपूजकानां पुत्रादिसमृद्धिः ॥ होतृतं पोतं मातृलतं पिल्लतमुद्गुणन् । अत्र स्याजडजिह्वोपि वाग्मी विद्यामठे पठन् ॥ ७ ॥ ७. अत्र पुरे । मैठश्छात्राद्यालयः । विद्यायै मठो विद्यामठो धर्माद्यर्थमुपाध्यायच्छात्राणां भोजनाच्छादनादिसामग्र्योपेत ईश्वरैः कारितो वेश्मविशेषस्तत्र । जातावेकवचनम् । विद्यामठेष्वित्यर्थः । जडा वर्णमात्रोच्चारणेप्यपट्टी जिह्वा यस्य स जडैजिह्वोप्युपाध्यायाध्यापैननैपुण्येन होतृत्-पोछत्मातृलन-पिल्लत्-शब्दान दुरुच्चार्यानप्युद्गृणन्नुच्चारयन सन् वाग्मी पटुवाक् स्यात् । जडजिह्वा हि जिह्वापाटवाय विषमवर्णानुञ्चार्यन्ते । अमुष्मिन्पुरुषार्थानां त्रिरूपत्वव्यवस्थितिः । लकारस्य ऋकारेण संधाविव विराजते ॥ ८॥ ८. अमुष्मिन् पुरे पुरुषार्थानां धर्मार्थकामानां त्रिरूपत्वव्यवस्थितिः। त्रीणि रूपाणि स्वरूपाणि येषां तेषां भावस्त्रिरूपत्वं तस्य व्यवस्थितिw. वस्था विराजते । परस्परीनाबाँधया स्वस्ववेलायां प्रवर्तनेन धर्मार्थकामानां त्रीणि रूपाणि व्यवस्थितानि शोभन्त इत्यर्थः । यथा । लकारस्य ऋकारेण सह संधौ त्रिरूपत्वव्यवस्थितिः । कृकारः । क्लुऋकारः । कृकारः । इत्येवं रूपत्रयव्यवस्था राजते ॥ १ सी पूज'. २ बी मठं छात्रा. ३ सी टप्यु. ४ सी पनै. ५ बी पुणेन. ६ ए एफ त् श. ७ सी डीन् वा. ८ सी डी जिह्वो हि. ९ सी पुरु. १० एणि ये. ११ सी व्यस्थि°, १२ बी रानबा. १३ सी बाधाया. १४ एकू °णि स्वरूपाणि व्य. १५ सी स्थितिशो. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः । गम्लुतं पलतं शतं लाक्षणिका इव । अत्राक्षरमपि प्राज्ञा न वदन्ति निरर्थकम् ॥ ९ ॥ ९. यथा लाक्षणिका वैयाकरणा गमः पतः शकश्च धातूनां संबन्धिनम् तम् लकारमेनुबन्धमङ्कार्यार्थत्वान्निरर्थकं न वदन्ति तथात्र पुरे प्राज्ञाः पण्डिताः प्राज्ञत्वादक्षरमपि स्वरव्यञ्जनमात्रमपि निरर्थकं निःप्रयोजनं न वदन्ति । एतेनात्यजनानामवाचालत्वमुक्तम् ॥ अस्मिन् महऋषिस्तुत्ये नृपाञ्शममहाऋषीन् । लज्जिता जग्मुस्ते द्यां सप्त महर्षयः ॥ १० ॥ १०. अस्मिन् पुरे । नृपान् । अपिरत्र गम्यते । प्रचण्डदोर्दण्डान् राज्ञोपि शमेन कृत्वा महाऋषीन् महामुनितुल्यान् दृष्ट्वा लज्जिता व तेतिशमित्वेन प्रसिद्धाः सप्त महर्षयो मरीचि १ अत्रि २अङ्गिरः ३पुलस्र्त्यं४पुलह५ऋतु ६वँसिष्ठाख्या ७ महामुनयो द्यां व्योम जग्मुर्गताः । योपि येनोत्तमेन गुणेनोत्तमंमन्यः स्यात्स यदान्यस्मिन्नात्मनोतिहीनेपि तं गुणं पश्यति तदा लोकोपहासेन लज्जितो देशान्तरं याति ।। भान्ति मत्तेभगामिन्यो रम्भास्तम्भनिभोरवः | सर्वर्तुमण्डितोद्यानेष्यत्रकार वोङ्गनाः ।। ११ ।। ११. इह पुरे सर्वर्तुमण्डितोद्यानेषु सर्वैः षनिरृतुभिरुपचाराद्धेमन्तशिशिरवसन्तग्रीष्मवर्षाशरदाख्यष हृतुजन्यपुष्पफलादिभिर्मण्डितानि देव - ताप्रभावादिनावतरेणाद्भूषितानि यान्युद्यानान्युपवनानि तेषु मत्तेभगामि१ सी . २ सी एफ् क्षणका ३ सी पिज्ञा. ४ सी 'दति नि.. [ है० १.१.३. ] १ एफ् मक्का २ एफू कार्यर्थ. ३ सी डी पि निं. ४ डी राज्ञ उपश एफ् राज्ञेपि. ५ सी 'ज्ञोपशमनं कृ. ६ ए बी सी एफ् स्त्यकल. ७ ए एफू या मु. ९ सी लोप . १० सी देवा. डी देवप्र . 'वशिष्ठा. ११ सी डी रण. १२ सी डी 'नानि . ११ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] न्यः पुष्पफलाद्युच्चयनाय मदोन्मत्तहस्तिवत्सविलासं विहरमाणा: सत्योङ्गना भान्ति यतो रम्भास्तम्भनिभोरवः कदलीकाण्डतुल्य सक्ध्यस्तथा नागरलिपौ वक्राकारलकारो लिख्यते तद्वद्वं भ्रुवौ यासां ताः । रूपवत्य इत्यर्थः ॥ “औदन्ताः स्वराः” [१.१.४-४२. ] इत्यादिभिः सूत्रैर्विधीयमानानां स्वरादिसंज्ञानां प्रयोजनम् “इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्” [१.२.२१.] इत्यादिविधिसूश्रेष्वेवेति तदुदाहरणदर्शनेनैवैता ज्ञापिता भविष्यन्तीति स्वरादिसंज्ञासूत्राण्युलक्ष्य विधिसूत्रोदाहरणानि दर्शितवान् । तथा हि । धर्मागारम् । नयास्पदम् । नाम्नाणहिल । सदाश्लिष्टम् । अनुपतीष्यते । विधीहाभिः । श्री । सपत्नीर्ष्या । मधूत्तमम् । मृदूरुभिः । सत्क्षेपम् । वधूढाभिः । भर्तृषभ । गम्ऌतम् । इत्यत्र “समानानां तेन दीर्घः" [१] इति दीर्घः ॥ बहुवचनं व्यात्यर्थम् । तेनोत्तरसूत्रेणं लऋतोरपि ऋलृति ह्रस्वो भवति । क्लृऋकारः। मातृलुतम् । अन्यथा "ऋस्तयोः " [५] इति परत्वाद् ऋरेव स्यात् ॥ 1 महऋषि । नृभर्तृऋर्षभाः । मातृऌतम् । शक्लृलुतम् । इत्यत्र "ऋति इस्वो वा" [२] इति वा ह्रस्वः ॥ पक्षे । महर्षयः । उमाभर्तृषभ । होतृतम् । गम्लुतम् ॥ कश्चित्तु ईस्वत्वाभावपक्षे प्रकृतिभावमपीच्छति । तन्मते महाऋषीन् ॥ ऋता । कॄकारः रः ॥ लुता । पल्लुतम् । इत्यत्र "लत लु ऋभ्यां वा " [३] इति लुतो वा लु आदेशौ ॥ पक्षे । ऋता सह पूर्वेण ह्रस्व उत्तरेण ऋकारश्च । क्लृऋकारः । कृकारः ॥ ऌता च सह दीर्घत्वं ह्रस्वत्वं च । गम्लतम् । शक्लृलुतम् ॥ १३. ऋता । पितृषि ॥ लुता । पोलुतम् । इत्यत्र "ऋतो वा तौ च" [४] इति O १ सी माणस ं. २ एफ् द्वौ भ्रु ५ ए एफ षभः । ग. ६ एफ् 'नामिति । व. 'योरप . ९. ९ एफ् षभः । मा न्हस्वाभा'. १३ सी 'देशप ३ सी डी नां प्र. ४ सी डी हिल ।. ७ फू ऋतो. ८ एफ् १० एफ् त्र ह. ११ एफ् षभ: । हो. १२ बी डी देशः । प १४ सी डी o ऋस्त . • Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ [ है० १.२.६.] प्रथमः सर्गः । ऋत रल्ल आदेशौ ॥ पक्षे । ऋति । भवृषभ । भर्तृऋषभाः ॥ लति । होतृतम् । मातृलतम् ॥ तौ च वा । पितृण। पित्लुतम् । पक्षे यथाप्राप्तम् ॥ कृकारः । होवृतम् । इत्यत्र "ऋस्तयोः" [५] इति लुऋतोः स्थाने यथासंख्यमृता लता च सह ऋकारः ॥ मत्तेभ । दृष्ट्वेव । मण्डितोद्यानेषु । निभोरवः । सर्वतु । महर्षयः । अत्रल्कार । इत्यत्र "अवर्णस्य" [६] इत्यादिना एदादयः ॥ अकारस्य ईत्-ऋत्-लन्निमित्तकानि आकारस्य ईत्-उत्-त्-ऋत्-लुत्-लून्निमित्तकानि चोदाहरणानि स्वयं ज्ञेयानि । एवमन्यत्राप्यदर्शितोदाहरणानि स्वयं ज्ञेयानि ॥ ननु “लत रल्ल ऋटभ्यां वा" [३] इत्यादिसूत्रापेक्षया "ऋलूति ह्रस्वो वा" [२] इति सूत्रस्य "ऋतो वा तो च" [४] इत्यस्यापेक्षयाँ "लत रल अलभ्यां वा" [३] इत्यस्य च प्राथम्यादेतदुदाहरणगर्भाणां दशमाष्टमनवमश्लोकानां पञ्चमश्लोकानन्तरमुपन्यासः कर्तुमुचितस्तदनु "ऋतो वा तौ च" [५] इत्युदाहरणगर्भयोः षष्ठसप्तमश्लोकयोः। एवं हि सूत्रक्रमोऽनुसृतः स्यात् । सत्यम् । लाघवार्थम् । एवं [पन्यासे क्रमप्राप्तं भर्तृषभेत्येतद् ऋति “समानानां तेन दीर्घः' [१] इति दीर्घोदाहरणम् "ऋतो वा तौ च" [४] इत्यस्य विकल्पोदाहरणं च युगपद्दर्शितं स्यात्तथा महर्षय इत्येतद् "ऋति इस्वो वा" [२] इत्यस्य विकल्पोदाहरणम् "अवर्णस्येवर्णादि' [६] इत्यत्रावर्णग्रहणेनाप्तस्य आत ऋति परे अर्कार्योदाहरणं च युगपद्दर्शितं स्यादिति सर्वमुपपन्नम्। एवमन्यत्रापि व्युत्क्रमोपन्यासकारणानि यथायथं सुधिया स्वयमभ्यूह्यानि ॥ इहर्णाण कम्बलाण वत्सरार्ण दशार्णकम् । वसनार्ण वत्सतरार्ण प्राण वा न कस्य चित् ॥ १२ ॥ १२. इह पुरे ऋणस्यावयवतया ऋणमृणाणं कलान्तरं कम्बलस्य १ डी वास्ति न. १ एफ तृऋत°. २ सी दयश्च ।। ३ सी डी °नि चो'. ४ एफ त्-ऋत्-ऋ. ५ सी डी एफ °या "ऋत. ६ बी सी डी दीपों'. ७ ए बी त्यत्र व. ८ बी सी डी थं स्वधि. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] ऋणं कम्बलाणं वत्सरस्य वर्षस्य ऋणं वत्सराण दशानी रूपकादीनामणं दशाणं कुत्सितमल्पमज्ञातं वा दशाणं दशार्णकं वसनाणं वस्त्रस्य ऋणं वत्सतराणं तर्णकस्य ऋणं प्रकृष्टमृणं प्राणं वा । कस्य चिन्नास्तीति प्रत्येकमभिसंबध्यते । वाशब्दः पूर्वोक्तऋणार्णाद्यपेक्षया विकल्पार्थः । एतेनात्रत्यलोकानामैश्वर्यातिशयोक्तिः ॥ सुखेतोमऋणातश्च परम” रतीच्छया । अस्मिन् स्मरऋतः स्त्रीभिर्मुदतॊ रमते जनः ॥ १३ ॥ १३. अस्मिन्पुरे जनः स्त्रीभिः सह रमते । च: पूर्ववाक्यार्थापेक्षया समुच्चये। कीदृक्सन । अप्रऋणातः । न प्रकृष्टेन ऋणेन ऋतः पीडित ईश्वर इत्यर्थः । अतएव सुखेतोनुपमभोजनाच्छादनविलेपनादिजनितं सुखं प्राप्तोत एव च मुदा प्रीत्या कार्यते स्म ऋतः प्राप्तो यथा देवदत्तेन ग्रामो गतः प्राप्त इत्यर्थः । अत एव च स्मरऋत: कामेन पीडितोत एव च रतीच्छया निधुवनाभिलाषेण का परमर्तः । परमं प्रकृष्टं गाढं यथा स्यादेवमृतः पीडितः ।। प्रार्णम् । दशार्णकम् । ऋणार्णम् । वसनार्णम् । कम्बलार्णम् । वत्सरार्णम् । वत्सतरार्णम् । इत्यत्र "ऋणे प्र" [ ७ ] इत्यादिना आर् ॥ समानानामिति बहुवचनस्य व्याप्त्यर्थत्वेनोक्तत्वादिहोत्तरत्र च ह्रस्वोपि भवति । प्रऋण ॥ ऋणातः। इत्यत्र "ऋते'' [८] इत्यादिना आर्॥ ह्रस्वोपि भवति । स्मरऋतः ॥ ऋत इति किम् । सुखेतः॥तृतीयाग्रहणं किम् । परमतः। समास इति किम् । मुदतः॥ इहर्च्छन्ति परार्छन्ति खे प्रार्छन्त्यहिसद्मनि । प्रर्षयोत्र स्वतेजोभिरनपेतास्तपोमयैः ॥ १४ ॥ १४. अत्र पुरे वर्तमानाः प्रर्षयस्तपोध्यानादिविशेषेण प्रकृष्टा मु१ एक नां ऋणं रू°. २ सी पूर्वे क्र. डी पूर्वेण ऋ. ३ सी एफ ते। च पू. ४ बी सी डी नितेन सु. ५ बी सी डी सुखेन प्रा. ६ सी डी प्राप्त'. ७ सीमानामि . ८ डी ति । अप्र. ९ सी दि आ. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.२.१०.] प्रथमः सर्गः । नय इह मर्त्यलोकेऽध्यादावृच्छन्ति यान्ति । तथा ख ऊर्ध्वलोके परार्छन्ति प्रकर्षण गच्छन्ति । तथाहिसद्मन्यधोलोके च प्रार्च्छन्ति । यतस्तपोमयैस्तपांसि प्रकृतानि कारणतया येषु तैस्तपोमयैः स्वतेजोभि: स्वकीयप्रभावैरनपेताः संयुक्ताः । तपःप्रभावादत्रत्यमुनीनां त्रिभुवनमपि गहाङ्गणमित्यर्थः । एवं च तपःप्रभावोपेतमहामुन्यवस्थित्यास्य पुरस्यातिपावित्र्यं सूचितम् ।। प्रार्छन्ति । परार्छन्ति । इत्यत्र “ऋत्यारुपसर्गस्थ" [ ९ ] इत्यार् ॥ उपसर्गस्येति किम् । इहर्च्छन्ति । येन धातुना युक्ताः प्रादयस्तं प्रत्युपसर्गसंज्ञास्तेनेह म स्यात् । प्रर्षयः ॥ पार्षयन्ति शमे धर्मधुरायां प्रर्षभन्ति च । अत्र प्रऋजवन्त्येव दुर्जनेष्वपि साधवः ॥ १५ ॥ १५. अत्र पुरे साधवः सज्जनाः शम इन्द्रियजयविषये प्रार्षयन्ति प्रकर्षेण ऋषय इवाचरन्ति । “कर्तुः विप्' [३.४.२५.] इति विप् । तथा धर्मधुरायां धर्मकार्यप्राग्भारविषये प्रर्षभन्ति प्रकर्षेण ऋषभा इवाचरन्ति यथा धवलाः शकटादिधुरं वहन्त्येवं धर्मधुरामिति । अतिधार्मिका इत्यर्थः । अत एव दुर्जनेष्वपि खलेष्वपि प्रऋजवन्त्येव प्रकर्षेण ऋजव इवाचरन्ति । हितमेव कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ प्रार्षयन्ति प्रर्षभन्ति । इत्यत्र "नाम्नि वा" [१०] इति वा आर् ॥ केचित्तु पक्षे ह्रस्वत्वमपीच्छन्ति । प्रऋजवन्ति ॥ प्राल्कारायितवेणीकाः प्रलकारायितभुवः। प्रल्कारयन्ति खे दन्तज्योत्स्नयात्र मृगीदृशः ॥ १६ ॥ १ सी डी नेष्विव सा. १ एफ कीयैः प्र. २ सी डी प्रतापर. ३ एफ वं त. ४ सीडी °धे . ५ सी डी एफ पि प्र. ६ सी डी पें ऋ. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] १६. अत्र पुरे प्रास्कांरायिता: प्रकर्षेण लकारवदाचरितवत्यः । कुटिला इत्यर्थः । वेण्यः कबर्यो यासां ता एवं प्रलको रायितभ्रुवो मृगी शो दन्तज्योत्स्ना दन्तकान्त्या कृत्वा खे व्योम्नि प्रकारयन्ति प्रकर्षेलकारान् कुर्वन्ति दन्तानामतिनैर्मल्यान्मृगीदृशां दन्तकान्तय लकाराकारा व्योम्नि स्फुरन्तीत्यर्थः । दन्तकान्तिज्योत्स्नयोनैर्मल्यादिगुणैः सादृश्याद्दन्तकान्तिर्ज्योत्स्नात्वेन व्यपदिश्यते । अतो ज्योत्स्नाशब्दस्य चन्द्रिकावाचकस्याप्यत्र प्रयोगो न दुष्यति ।। 1 Heartfe प्रकारयन्ति । इत्यत्र “लुत्याल्वा" [११] इति वाल ॥ अत्रापि पक्षे ह्रस्वत्वमित्येके । प्रऌकारायित ॥ १६ उपस्थिते प्रभोः कार्ये गुणौधैर्धीतवृत्तयः । मौदा इह प्रेष्याः मौहमौढिं न कुर्वते ॥ १७ ॥ प्रैष्या १७. अत्र पुरे प्रभोः स्वामिनः कार्य उपस्थित उपागते सति मैया भृत्याः प्रप्रौढिं प्रौ कथमिदं करिष्यत इत्येवंरूपे वितर्के प्रौढिं प्रागल्भ्यं न कुर्वते यतः प्रैष इदमेवं कार्यमिति स्वामिनियोगे प्रौढाः समर्था दुष्करस्यापि स्वाम्यादेशस्य तत्क्षणादेव कारका इत्यर्थः । प्रेषप्रौढत्वमपि कुत इत्याह । गुणौघैः स्वामिभक्तिसुशक्तिस्थैर्य धैर्यादिभिघतेव धौता निर्मला वृत्तिर्व्यापारो येषां ते ।। T ओघैः । गुणौघैः । इत्यत्र “ऐदौत्संध्यक्षरैः " [१२] इति ऐदौतौ ॥ धौत | इत्यत्र “ऊठा” [१३] इति औत् ॥ प्रैप । प्रैष्याः । प्रौढाः । प्रौढिम् । प्रौह । इत्यत्र “प्रस्यैष " [ १४ ] इत्या 1 1 1 1 दिनी ऐदौतौ ॥ १ सी कारयि'. २ सी डी 'कार . ३ एफ् दृशीद 'कान्तेज्योत्स्नाया नै'. डी 'कान्तेज्योत्स्नायाश्च नै . ५ सी डी त ६ सी डी कारयि. ७ एति प्रेष्या. ८ सी डी प्रौढ्यं प्रा. १० सी डी 'तिस्थै. ११ एफ् ना दौ. • ४ बी सी प्रकारायित प्र . ९ फू Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.२.१६.] प्रथमः सर्गः 1 स्वैरिस्मराक्षौहिणीनां स्वैरस्त्रीणामभावतः । sta धर्मः सोद्येव तत्रेति वितर्क्यते ॥ १८ ॥ १८. इहैवाणहिलपाटक एव नान्यदेशेषु धर्मोस्तीति तथात्र पत्तनेद्येवाद्यापि कलिकालेपि स स्त्री महासतीत्वादिधर्मप्रधानत्वेन प्रसिद्धस्त्रेता द्वितीययुगमस्तीति च लोकैर्वितते । इतिर्वाक्यसमाप्त्यर्थ उभयत्रापि योज्यः । कुतः । अभावतोभावात् । कासाम् । स्वैरस्त्रीणाम् । स्व आत्मीयेः स्वेच्छाकृत ईर आसाम् । यद्वा । स्वेनात्मना नै तु श्वशुराद्यनुज्ञयेरन्ति ईरते वा विचरन्ति "नाम्युपान्त्य " [ ५.१.५४ . ] इत्यादिना के स्वैरा याः स्त्रियस्तासां कुलटानाम् । किंभूतानाम् । स्वयमीरितुं शीलमस्य स्वैरी स्वतन्त्रो यः स्मरः कामस्तस्याक्षौहिण्य इव दुःसाध्यानां कामविपक्षाणां मुनीनामपि रूपलावण्य लीलाकटाक्षविक्षेपादिशस्त्रैः साधकत्वात्सेनाविशेषा इवें याः । यद्वा । स्वैरिण्यो याः स्मराक्षौहिण्यस्ता इव याः । तासाम् ॥ १७ 1 I स्वैर । स्वैरि । अक्षौहिणीनाम् । इत्यत्र “स्वैरस्वैरि” [१५] इत्यादिना ऐदौतौ ॥ यदा तु स्वैरिण्यश्च ताः स्मराक्षौहिण्यश्चेति समासस्तदा स्वैरिण्य इत्यत्र "नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि " [ न्या° सू° १६] ग्रहणमिति न्यायादैत् ॥ अद्येव । इत्यन्त्र “अनियोगे लुगेवे" [ १६ ] इत्यस्य लुक् ॥ नियोगे तु sa धर्मः ॥ नौतुनेत्रा न वृद्धोतुक्रूरा नाभतुलम्पटाः । न दीर्घोष्ठा न ह्रस्वौष्ठा नौष्ठस्थूला इह स्त्रियः ॥ १९ ॥ १९. सुगमः । नवरं नौतुनेत्राः न मार्जारवत्कपिलरौद्राक्ष्यः । न च वृद्धोतुवत्क्रूराशयाः । न च बालौतुवल्लम्पटाः । तथा स्थूलशब्दोत्र गुण १ सी एफ °ति वाक्य २ एफू यस्वे ३ बी सीन व ४ एव । य॰. ५ सी डी स्वैरण्य. ३ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] मात्रवाची । ओष्ठयोः स्थूल: स्थूलत्वं यासां ता ओष्ठस्थूला न । यद्वा । गुणिवचनः स्थूलशब्दः । नौष्ठाभ्यां स्थूलाः । न स्थूलोष्ठय इत्यर्थः ।। दी!ष्ठाः हस्त्रौष्ठाः । वृद्धोतु अभौतु । इत्यत्र "वौष्ठौतौ समासे” [१७] इति वाल्लुक् ॥ समास इति किम् । नौष्ठस्थूलाः । नौतुनेत्राः ॥ अनोपैति जनः खोढां न पोखति परस्त्रियम् । प्रेलितः श्रोत्रियोङ्कारैर्धर्मश्चास्मिन्नुपैधते ॥ २०॥ २०. अत्र पुरे जनो लोकः स्वोढां स्वेनौढामात्मना परिणीतामुपैत्युपगच्छति । सेवत इत्यर्थः । ननु स्वदारांस्तावत्सेवते परदारानपि सेविष्यत इत्याह । परस्त्रियं परेणोढां नारी न प्रोखति धार्मिकत्वान्न गच्छति । अत एवास्मिन्पुरे धर्मश्च न केवलमुक्तनीत्या कामः किं त्वाद्युपुमर्थोप्युपैधते वर्धते । परस्त्रीवर्जनं हि परमधर्मवृद्धिनिबन्धनं स. वंशास्त्रेषु गीयते । उत्प्रेक्ष्यते । श्रोत्रियोंकारैः प्रेलित इव । श्रोत्रियाणां यष्ट्रणां यागादिविधिकाल उच्चारणेन संबन्धिनो य ओंकाराः प्रणवास्तैः प्रेरित इव प्रेरितो वर्धस्व वर्धस्वेति दत्तानुमतिक इवेत्यर्थः । अत्रत्यलोकस्य परदारवर्जकत्वेन धर्मः स्वयमेव वर्धते श्रोत्रियैश्च यागादिविधौ वेदमब्रानुचारयद्भिः स्थाने स्थान ओंकारा उच्चार्यन्ते तेषां चानुमतेरप्यर्थस्य दर्शनादेवमुत्प्रेक्षा । अत्रोत्प्रेक्षा साक्षादनुक्तापि वाक्यार्थसामर्थ्यादवसीयत इति । नचैवंविधे विषय इवादिशब्दप्रयोगमन्तरेणासंबद्धतैवेति शक्यं वक्तुम् । गमकत्वात् । अन्यत्रापि तदप्रयोगे तदर्थावगतिदर्शनात् । यथा माघकाव्ये। १बी “वोष्ठौतौ. सी डी "चौठोतो. २ एफ पैति से'. ३ एफ पि न से'. ४ एफ् यः पु. ५ बी रमं ध. ६ सी डी एफ् प्रेक्षते. ७ सी डी इति । श्रो'. ८ सी डी णां या. ९ए लो. १० एफ °मत्रोच्चा. ११ सी डीक्षा सा. १२ एफ वं विप. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.२.१९.] प्रथमः सर्गः। . त्रासाकुल: परिपतन्परितो निकेतान्पुंभिर्न कैश्चिदपि धन्विभिरन्वबन्धि । तस्थौ तथापि न मृगः क्वचिदङ्गनाभिराकर्णपूर्णनयनेषुहतेक्षणश्रीः॥५.२६. __ परितः सर्वतो निकेतान्परिपतन्नोक्रामन्न कैश्चिदपि चापपाणिभिरसौ मृगोनुबद्धस्तथापि न कचित्तस्थौ त्रासचापलयोगात्स्वाभाविकादेव । तत्र चोत्प्रेक्षा ध्वन्यते । अङ्गनौभिराकर्णपूर्णैर्नेत्रशरैर्हतेक्षणश्री: सर्वस्वभूतास्य यतोतो न तस्थौ । नन्वेतदप्यसंबद्धमस्तु । न । शब्दार्थव्यवहारे हि प्रसिद्धिरेव प्रमाणम् । एवमन्यत्रापि ज्ञेयम् ॥ श्रोत्रियोंकारैः । स्वोढाम् । इत्यत्र “ओमाङि" [१८] इत्यल्लुक् ॥ आङि दीर्घत्वेनैव सिद्धे लुग्विधानमनर्थकं स्यादित्याङित्याङादेशो गृह्यते । तेन आ ऊढा ओढा । ततस्तेन समासः ॥ प्रेलितः । पोखति । इत्यत्र "उपसर्गस्य" [१९] इत्यादिनाल्लुक् । अनिणेधिति किम् । उपैति । उपैधते ॥ अत्र गुर्वर्थपित्रर्थनतिलाकृतिभिर्जनैः । प्रोजायते प्रौषधयन् धर्मः प्रेकत्युपैकितैः ॥ २१ ॥ २१. अत्र पुरे धर्मः प्रोजायते प्रकर्षेणौजस्वीव बलिष्ठ इवाचरति । कैः कृत्वा। जनैः । किंभूतैः सद्भिः । गुरुर्धर्माचार्यो विद्याचार्यो वा तस्मा इयं गुर्वा । पितरौ मातापितरौ ताभ्यामियं पित्रा । द्वन्द्वे ते ये नती प्रणामौ ताभ्यामेव न तु रोगादिना लकारस्येव लकारस्येव वा वक्रा आकृतिः संस्थानं येषां तैः । विनीतैरित्यर्थः । अत एवोपपन्नं यथा स्यादेवमेक इव मुख्या इवाचरन्ति स्म । क्विपि ते च उपैकिताः । तैः । सर्वगुणमूलविनयवत्त्वेन प्रधानैरित्यर्थः । यथौजस्वी स्वौजसा शत्रून् पराभवति १ एफ तान् पत. २ बी एफ नाक्रम. ३ एफ नारा'. ४ सी डी यतो न. ५ सी डी एफ °स्तु । श. ६ वी आङ् दी. ७ एफ धि इति. ८ एफ् यत्वेन. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] 1 दे स्वानुकूलान् स्वजनादींश्च पोषयति तथा धर्मोप्यत्रत्य जनविनय लक्षणेन महाबलेन बलिष्ठत्वादहंकारादीन् स्वशत्रूनभिभवति स्वानुकूलान् दानशीलादींश्च पोषयतीत्यर्थः । अत एव प्रेकति प्रकर्षेणैक इवासाधारण इवाचरति । बलिष्ठत्वेन निःसपत्नत्वान्निरुपमो भवतीत्यर्थः । उत्प्रेक्ष्यते । प्रौषधयन् । पूर्ववदुत्प्रेक्षात्रावसेया । प्रकर्षेण बलकान्त्यादिवृद्धिकरीमोषधिं कुर्वन्निव । णिज् । करोति: सामान्यकरणार्थोपि प्रस्तावादिह विशेषे भक्षकरणे वर्तते । यद्वा । अनेकार्थत्वाद्धातूनां करोतिरिह भक्षणार्थस्तेनौषधिं भक्षयन्निवेत्यर्थः । यो हि बलकान्त्यादिवृद्धिकरीमोषधिं भक्षयति स तत्प्रभावादोजस्वी निरुपमश्च स्यात् । अचिन्त्यो हि मणिमंत्रौषधीनां प्रभावः ॥ 1 1 1 I २० रजतं चारु ईक्षित्वा हारि अत्र च काञ्चनम् । दधियेतन्मधुवेतत्कुमारी एवमूहते ।। २२ ।। २२. सुगमः । नवरं हारि जात्यत्वाद्रम्यम् । एतत्प्रत्यक्षं वस्तु दधि वर्तते । एवं तथैतत्प्रत्यक्षं वस्तु मधु वर्तते । एवं च बालिका वितर्कयति । सावर्ण्याद्वाल्याचैवमूहः । एवमिति भिन्नक्रमे यथास्थानं योजित एव । एवंशब्देनैव कर्मण उक्तत्वाद्दधियेतदित्यत्र मधुवेतदित्यत्र च नामार्थमात्रे प्रथमैव ॥ रोदस्यो पावयन्त्येनोलवन्यौर्वाग्निनायिनी । श्रव्येतिवृत्ता ब्राहृयत्र गव्यनाव्यजला नदी ॥ २३ ॥ २३. अत्र पुरे ब्राह्मी ब्रह्मणोपत्यं नदी सरस्वत्यस्ति । कीदृशी । ब्रह्मणः पुत्रीत्वेन महातीर्थत्वादेनः पापं लूयतेनयेत्येनोलवनी । अत एव रोदस्यो द्यावापृथिव्यौ पावयन्ती पवित्रयन्ती । तथैौर्वाग्निं वडवानलं १ एफ् षति. २ बी क्षणम सी एफ 'क्षणे म. ३ सी डी एफ् 'त्प्रेक्षते. ४ बी सी डी मौष ५ बी सी 'रीमौष ६ एफ् मत्रमहौष ७ सीडी "स्तु मधु 'थैव त ८ फू ९ सी डी 'यन्ति । सा १० ए बी ती. · Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.२.२१.] प्रथमः सर्गः । २१ समुद्रमवश्यं नीतवती “णिन् चावश्यकाधमर्थे" [५. ४. ३६.] इति णिनि और्वाग्निनायिनी । सकलं जगद्भक्षयिष्यामीति वदन्तं वडवाग्निं ब्रह्मादिष्टा सरस्वती समुद्रे प्रक्षिप्तवतीति पुराणम् । अत एव श्रव्यं श्रवणाहमितिवृत्तं चरितं यस्याः सा । तथा गव्यं सुस्वादुशीतलशुभपरिणामत्वादिना गोभ्यो हितं नाव्यं चागाधत्वान्नावा तार्यं च जलं यस्यां सा । एतेनास्य पुरख्यातिपावित्र्यं निर्दोषजलप्राचुर्य चोक्तम् ॥ न गव्यत्यत्र गोयानो नौयानो न च नाव्यति । उपोयमानः श्राव्याभिलौयमानीसुगीतिभिः ॥ २४ ॥ २४. अत्र पुरे गोयानो वृषवाहनो नरो न गव्यति न गामिच्छति तथा नौयानश्च प्रवहणवाहनः पुमान्न नाव्यति न नावमिच्छति। यतः श्राव्याभिर्मधुरतयावश्यं श्रवणार्हाभिलौंयमानीसुगीतिभिः । लूयते कूर्चश्रेण्यां लूयमानो देवलो मार्दङ्गिकादिस्तस्यापत्यानि स्त्रिय: “अत इञ्" [६.१.३१.] लौयमान्यो गायन्यः । यद्वा । लूयन्ते लूयमानाः केदारास्तेषामिमा रक्षित्र्यः "तस्येदम् " [ ६. ३. १६०.] इत्यणि लौयमान्यो गोप्यः । तासां सुगीतयः शोभनगानानि । ताभिरुपोयमानो व्याप्यमानः । आवर्ण्यमान इत्यर्थः । एवं नाम सुगीतीनां माधुर्यादिगुणैर्हृतहृदया यावता स्वस्य यानहेतुत्वेनात्यभीष्टमपि गवादिकं यानं चौराद्यैरपहियमाणमपि गोयानादय: सुगीतिश्रवणभङ्गभयेनावहेलयन्तीत्यर्थः ॥ प्रेकति उपैकितैः । प्रोजायते प्रौषधयन् । इत्यत्र " वा नाम्नि" [२०] इत्यस्य लुग्वा ॥ प्रेकत्युपैकितैः । गुर्वर्थ । पित्रर्थ । लाकृतिभिः । इत्यत्र “इवर्णादेः [२१] इत्यादिना यवरलाः ॥ केचित्त्विवर्णादिभ्यः परान् यवरलानिच्छन्ति । दधियेतत् । मधुवेतत् । तन्मतसंग्रहार्थमिवर्णादेरिति पञ्चमी व्याख्येया ॥ १ सी स्वादशी. २ सी डी °ति त'. ३ एफ वल. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः हारि अत्र । चारु ईक्षित्वा । इत्यत्र “इस्वोपदे वा" [२२] इति वा ह्रस्वः॥ पक्षे । ब्रायन ॥ कश्चित्तु प्रकृतिभावमपीच्छति । कुमारी एवम् ॥ अपद इति किम् । रोदस्यौ ॥ पावयन्ती । औग्निनायिनी । इत्यत्र “एदैतोयाय्" [ २३ ] इत्ययायौ ॥ लवनी । पावयन्ती । इत्यत्र “ओदौतोवाव्" [२४] इत्यवावौ ॥ गव्यति। नाव्यति । श्रव्य । श्राव्याभिः । गव्य । नाव्य । इत्यत्र “व्यक्ये" [२५] इत्यवावौ ॥ अक्य इति किम् । उपोयमानः । लौयमानी ॥ क्यवर्जनायकारादिः प्रत्ययो गृह्यते । तेनेह न भवति । गोयानः । नौयानः ॥ पित्र्ये पक्षेत्र वीक्षन्ते गवाक्षस्थाः पुरन्ध्रयः । गोक्षानन्दितृणां भूमिं गवाक्षानन्दिनी नदीम् ।। २५ ॥ २५. अत्र पुरे पितृषु साधुः पित्र्यस्तस्मिन् पित्र्ये पक्षे श्राद्धपक्षे गवाक्षस्था वातायनस्थिताः पुरन्ध्रयो विलासिन्यो भूमिं वीक्षन्ते विशेषेण पश्यन्ति । यतो गवां धेनूनां वृषभाणां चाक्षाणीन्द्रियाणि तेषां तृप्तिहेतुत्वादानन्दीनि आह्नादनशीलानि तृणानि हरितानि यस्यां ताम् । तथा नदीं सरस्वती च वीक्षन्ते । यतो गवाक्षानन्दिनी तृष्णाधुच्छेदकत्वाद्वेन्द्रियाणामालादयित्रीम् । शरदि हि भूमिहरिताभिरामत्वेन नदी च स्वच्छजलपूर्णत्वेन विशेषेण दर्शनीया स्यात् । एतेनात्र महर्द्धिकातिसुखिता विलासिन्यः सन्तीत्युक्तम् ॥ १ सी डी एफ वीक्ष्यन्ते. १ ए श्रव्यः ।. २ एफ मानः ।. ३ सी डी एफ नः ॥ २४ ॥ ४ सी गवां क्षान. ५ डी एफ णां वाक्षा. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० १.२.३१.] प्रथमः सर्गः । गोष्ट्रिभिर्गवेन्द्रासैर्गवुष्ट्रप्रियवीरुधः । गोअग्रस्थायिभिश्चास्य निषेव्यन्ते वहिर्भुवः ॥ २६ ॥ I २६. अस्य पुरस्य बहिर्भुवो बाह्यभूमयो गावश्रोष्ट्राश्च गवोष्ट्रमस्त्येषां तैर्गवोष्ट्रिभिर्गोपालोष्ट्रपालैर्गवोष्ट्रस्य चारणाय निषेव्यन्ते । किंभूतैः । गवामिन्द्रो गवेन्द्रः शण्डस्तदंसवदंसौ स्कन्धौ येषां तैः । गोदुग्धोष्टीदुग्धपानेनावलितस्कन्धैरित्यर्थः । तथा गोर्वृषस्याग्रमग्रभागः ककुत्प्रदेशस्तत्र तिष्ठन्तीत्येवंशीलास्तैगअग्रस्थायिभिश्च वीवधाहारिभिश्च वीवधाहरणाय च सेव्यन्ते । यतः कीदृश्यः । गवुष्ट्रस्य वृषकरभव्रजस्योपलक्षणादश्वादेश्व प्रिया वीरुधो लता यासु ताः । पत्तनगोचरे हि वृषभोष्ट्रादिप्रियचारिसंकीर्ण महद्वनमस्ति ॥ 1 पित्र्ये । इत्यत्र "ऋतो रस्तद्धिते " [२६] इति रादेशः ॥ पक्षेत्र । गोक्ष । इत्यत्र " एदोत:" [२७] इत्यादिनास्य लुक् ॥ 1 २३ गवाक्ष । इत्यत्र “गोर्नानि " [२८] इत्यादिना अवादेशः ॥ नाम्नीति ४ किम् | गोक्ष || कश्वित्त्वसंज्ञायामपि गवाक्षेतीच्छति ॥ गवोष्ट्रिभिः गवुष्ट्र । इत्यत्र "स्वरे वानक्षे" [२९] इति वावादेश: ॥ अनक्ष इति किम् । गोक्ष ॥ गवेन्द्र । इत्यत्र “इन्द्रे” [३०] इत्यवः ॥ 1 गो । इत्यन्न " वात्यसंधिः " [३१] इति वासंधिः ॥ पक्षे | गोक्ष ॥ व्रज३ आस्स्वेति मा वास्स्व३ इति स्वाधीनभर्तृकाः । इदं ब्रूहि इदं मा वा ब्रूहीत्याहुरिह प्रियम् || २७ ॥ २७. सुगम: । नवरं व्रज३ इत्यत्र इदं ब्रूहि इत्यत्र च वाक्यपरि१ ए ंषां ते गो ं. २ ए एफ् 'ला ये तैगों. ३ डी सी 'दृशो गरौं. ४ एफ् गोक्षः । ५ एफ् गोक्षः . ६ ए सी डी ब्रूहीत्य. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] समाप्त्यर्थ इतिशब्दो योज्यः । तथा स्वाधीनो रतगुणाकृष्टत्वेनायत्तो भर्ता यासां ताः स्वाधीनभर्तृका: "क्षियाशीः औषे" [७.४.९२.] इति सर्वत्र प्लुतः ॥ व्रज३ आस्स्त्र । इत्यत्र "प्लुतोनितौ" [३२] इत्यसंधिः ॥ अनिताविति किम् । आस्स्वेति । अत्र प्लुतस्य संधिः ॥ केचित्त्वितिशब्दे विकल्पमिच्छन्ति । आस्स्व३ इति आस्स्वेति ॥ ब्रूहि३ इदम् । इत्यत्रे "इ३ वा" [३३] इति वासंधिः ॥ पक्षे । ब्रूहीति । अत्रापि प्लुतस्य संधिः ॥ मणी इव जपावर्णकुसुमे हारिणी अपि । अहो३ किं विश्दमू३ अग्नी३ इत्युज्झ्येते इहार्भकैः ॥२८॥ २८. इह पुरे जपावर्णकुसुमे जपा वर्णश्च वृक्षभेदौ तयोः कुसुमे मणी इव रत्ने इव हारिणी अपि । मणयो हि सामान्येन कान्तिमन्तो रक्ताश्च वर्ण्यन्त इति कान्तिमत्तारक्तताढ्यतया मनोहरे अप्यभकैबोलकैरुज्झ्येते त्यज्यते । ननु बालका रम्यं वस्तु कौतुकाद्वालस्वभावाच्च प्रत्युत गृह्णन्ति तत्किमिति हारिणी अपि ते त्यज्येते इत्याह । अहो ३ किंस्वि३दमू३ अग्नी३ इतीति । अमू जपावर्णकुसुमे किमग्नी वह्निकणाविति बुद्ध्या । अहो इति किंस्विदिति च निपातद्वयं वितर्कातिशयद्योतनाय । वितर्कस्य चान्तरात्मप्रश्नरूपत्वात् "प्रश्ने च प्रतिपदम्" [७.४.९८.] इति प्लुतः ॥ सावाद्वाल्याच्चाग्निकणभ्रान्तिः ॥ १ सी डी वणे कु. १ एफ ति प्लु. २ सी डी त्र वा. ३ सी डी [लैरु, ४ सी सनद्व. ५ एफ ल्याद्वाग्नि. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.२.३४.] प्रथमः सर्गः । मणीव मसृणौ चक्रदंपतीव युतौ स्तनौ । विजेतुं रोदसीवात्र स्त्रीणां भातः स्मरायुधे ॥ २९ ॥ २९. अत्र पुरे स्त्रीणां स्तनौ भातः । कीदृशौ । मणीव रत्ने इव मसृणौ कठिनकोमलौ । तथा चक्रदंपतीव । जाया च पतिश्च दंपती चक्रश्च चक्री च चक्रौ चक्रौ च तौ दंपती च चक्रदंपती चक्रवाकमिथुनेम् । तौ यथा प्रेमातिरेकादन्योन्यं युतौ भवतस्तथा युतावतिस्थूलत्वादन्योन्यं मिलितौ । उत्प्रेक्ष्येते । रोदसी द्यावापृथिव्यौ जेतुं पराभवितुं स्मरायुधे इव कामशस्त्रद्वयमिव रोदस्योरपि द्वयोर्जेतव्यत्वात् ॥ 3 I 1 हारिणी अपि । अमू३अग्नी । उज्झयेते इह । इत्यत्र " ईदूदेद्विवचनम् " [३४] इत्यसंधिः ॥ एषां लुतानामितावपि संधिर्न स्यात् । अग्नी३ इति ॥ केचित्तु मणीवोष्ट्रस्य लम्बेते प्रियौ वत्सतरौ ममेति प्रयोगदर्शनान्मणी इव मणीवेत्यादावसंधिप्रतिषेधं वर्णयन्ति तदयुक्तम् । वाशब्देनोपमार्थेन सिद्धत्वात् ॥ अन्ये तु यथादर्शनं संधिमसंधिं वेच्छन्ति । मणीव । दंपतीव । रोदसीवं । मणी इव ॥ अमी अमुमुचस्य नखाः कण्ठे इ ईक्षिताः । अहि त्वमु उत्तिष्ठ यद्या एवं तु मन्यसे || ३० ॥ read अस्मिनी ईदृशि रतिः कथम् । तो अलमनेनेति सखीमाहात्र मानिनी ॥ ३१ ॥ ३०, ३१. अत्र पुरे किल काचिन्नायिका पत्यौ सपत्नीनखक्षता १ सी अत ए १ डी 'नमेतो. ४ सी डी तुं स्म ४ २ एफ् ताविति ५ डी 'ति प्रायो २५ ३ सी डी प्रेक्षेते. एफ् स्प्रेक्षते. ६ ए सीव ॥. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] दिकं दृष्ट्वात्यन्तं रुष्टा पादपातादिकां प्रसादनक्रियां कुर्वाणेपि मानिनीत्वाद्यदी कथमपि न प्रसीदति तदा तत्सखीपात्स तां प्रसादयति । तां च सखीमनुनयार्थं पत्यपराधं निगृहयन्ती मानिनी स्याह ब्रूते । यथा । अ इति संबोधने । हे सखि एहि मद्वचःश्रवणाय मत्पार्श्वमागच्छ । इ इति संबोधने । हे सखि अमूं विप्रकृष्टवर्तिनी सपत्नीमञ्चति गच्छति यस्तस्यामुमुईचोस्य प्रियस्य कण्ठेमी प्रत्यक्षवर्तिनो नखास्त्वयेक्षिता दृष्टाः । एवं तया प्रत्यक्षमपराधे दर्शितेपि यावदद्यापि सखी किंचिन्न प्रतिवदति तावन्मानिनी मदुक्तं सत्यमप्येषा नाङ्गीकरोतीति कोपाविष्टाह । उ उत्तिष्ठ यद्या एवं नु मन्यस इति । उ इति संबोधने । आ निरनुबन्धः पूर्ववाक्यार्थवैपरीत्ये वर्तते । पूर्व यत्त्वया पत्यपराद्धं मनितं तद्यदीदानीमेवं नु मन्यसे नु निश्चितमन्यथा मन्यसे तदा हे सखि उत्तिष्ठ मत्पाद्गिच्छ पूर्वं मनितस्यार्थस्य केनापि द्रव्यलोभादिना हेतुनान्यथाभाषिण्या त्वयापि न प्रयोजनमित्यर्थः ॥ एवं परुषोक्तौ सखी मा रुषदिति विचिन्त्य पुनस्तां साम्नाह । ऊ ऊहस्वेत्यादि । ऊ इत्यक्षमायाम् । पतिमक्षाम्यन्ती प्राह । ए इति संबोधने । हे सखि त्वमूहस्व त्वमेव स्वचेतसि पर्यालोचय । ई इति खेदे । खिचेहमीदृशि व्यक्तमत्यन्तमपराद्धर्यस्मिन् पत्यौ विषये कथं रतिः प्रीतिः स्यात् । न कथमपीत्यर्थः। ओ इति संबोधने । हे सखि तत्तस्माद्धेतोरनेन पत्यालम् । मृतमिति ॥ न जानू अरुजल्लङ्कां भ्रमतो यस्य मारुतेः। अहो आन्तं जिगमिषो रुजेत्तस्यापि जान्विह ॥ ३२ ॥ ३२. जानू इत्यत्र उ लोकसंबोधने । हे लोका यस्य मारुतेर्हनूमतो लङ्कां रावणपुरी भ्रमतो दहनाय पर्यटतः सतो जान्वष्ठीवान्नारुजन्न १ सी सान. डी साधन. २ डी दा कदा क. ३ सी एफ यन्ती मा. ४ एक वं प्र. ५ सी एफ वं पुरु. ६ एक स्तां सकोमलवचसा सा प्राह । ७ एफ त्यो क. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.२.३७.] प्रथमः सर्गः । श्रान्तम् । अहो इत्याश्चर्ये । जान्विहेत्यत्र उ इति संबोधने । हे लोका आश्चर्यं तस्यापि मारुतेरपीह पुर आन्तादन्तं मर्यादीकृत्याभिव्याप्य वा श्रीविशेषविलोकनाय जिगमिषोर्गन्तुमिच्छोः सतो जानु रुजेत् खिद्येत । संभावने सप्तमी । इदमहं संभावयामीत्यर्थः । एतेनास्य लकासकाशादपि महत्तमत्वोक्तिः ।। आन्तमित्यत्र क्रियाविशेषणे द्वितीया [ २. २. ४१.] ॥ अमी अमुमुईचः । इत्यत्र “अदोमुमी" [३५] इत्यसंधिः ॥ अ एहि । आ एवं नु मन्यसे । इ ईक्षिताः। ई ईदृशि । उ उत्तिष्ठ । ऊ ऊहस्व । ए अस्मिन् । ओ अलम् । इत्यत्र “चादिः स्वरोनाङ्" [३६] इत्यसंधिः ॥ स्वरे पर इति प्रत्यासत्तेस्तन्निमित्तकसंधिप्रतिषेधादिह दीर्घत्वलक्षणः संधिर्भवत्येव । जानू अरुजत् ॥ केचित्तु चाद्यचादिस्थानस्याचादिरूपत्वात्स्वरनिमित्तकमपि संधिमिच्छन्ति । जान्विह ॥ अनाङिति किम् । आन्तम् ॥ अहो आन्तम् । इत्यत्र "ओदन्तः" [३०] इत्यसंधिः ॥ उ इत्यूँ इति विति चाहो इत्याह्वायके गुरौ। विभो इति प्रभविति चाहात्र विनयी जनः ॥ ३३ ॥ ३३. सुगमः । नवरं सर्वत्र उ इति संबोधने । आगच्छेत्यादिका च क्रिया सर्वत्राध्याहार्या । संबोध्यानां च बहुत्वादहूनि संबोधनपदानि । तथा विभो इति प्रभवितीत्येतयोः प्रत्युत्तरवाक्ययोरादिशेत्यादिक्रिया. ध्याहार्या । उपलक्षणत्वाद्भगवन्नित्यादीन्यपि गुरुसंबोधनपदानि ज्ञेयानि । प्रत्युत्तरदायिनामनेकत्वात् । इतिः सर्वत्र वाक्यपरिसमाप्तौ ॥ १ ए एफ ति वाहो. ३ डी बोधनीयानां. १ सी डी त्तमोक्तिः ।. २ एफ र उ इति सौ. ४ एफ नि ज्ञेयानि । त°. ५ सी डी ति म. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ 1 . ब्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] विभो इति प्रभविति । इत्यत्र “सौ नवेतौ” [३८] इति वासंधिः ॥ उ इति । इत्यत्र “ॐ चो' [३९] इति वासंधिः । असंधिपक्षे च उञ् ॐ इत्येवंरूपो दी|नुनासिको वा । ॐ इति ॥ पक्षे । संधिः । विति ॥ जिस्करणं स्वरूपपरिग्रहार्थम् । तेन विकृतस्य न भवति । अह डे अहो इति ॥ किमु अम्बा किमु तातः किम्बीशो गीरु इत्यभूत् । गुरुं प्रति नृणामत्र वृद्ध्यै घजु अलं यथा ॥ ३४ ॥ ३४. अत्र पुरे गुरुं धर्माचार्य विद्याचार्य वा प्रति लक्ष्यीकृत्यैवंविधा नृणां गीर्वाणी वृद्ध्यै धनसंतत्यादिवृद्धिनिमित्तमलं समर्थाभवत् । भवति हि वृद्धिः पूज्येषु पूजोपचारवचनादिना । का गीरित्याह । उ हे गुरो वात्सल्यपरमोपकारित्वादिना त्वमस्माकं किमु अम्बा किमु किं वा तातः किम्वीशः किंवा स्वामीति । यथा उ हे लोका घञ् प्रत्ययो आनुवन्धत्वावृद्ध्यायैकारौकारालक्षणायै समर्थो भवति । शब्दसाम्येनोपमा । किम्शब्दा उनिपातयुताः सर्वेपि वितर्कस्य वाचकाः ॥ किम्वीशः । इत्यत्र "अवर्गात् ०" [४०] इत्यादिना वकारो वा स चासन् । असत्त्वादनुस्वारानुनासिकाभावः ॥ पक्षे । किमु अम्बा ॥ वर्गादिति किम् । गीरु इति ॥ अनिति किम् । घशु अलम् ॥ स्वर इति किम् । किमु तातः॥ साम साम ध्रुवं तावद्दधि दधि मधु मधु। श्रूयन्ते सुभ्रुवामत्र न यावन्मधुरा गिरः ॥ ३५ ॥ ३५. सामवेददधिमधूनि हि अतिमधुरत्वादिप्रधानगुणोपेतानि स्युः। १ डी वा भवति प. २ ए बी एफ ति ॥ किं. ३ डी उ अहो अ. ४ डी गुरुधर्माचार्य वा. ५ सी एक् र्य वा. ६ सी डी लक्षीक. ७ वी 'कृत्येत्येवं . सी कृत्येवं. ८ एफ संपत्त्या . ९ सी डी भवेत् ।. १० सी डी 'दि का. ११ सी पि त°, १२ एफ गादि'. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.२.४१.] प्रथमः सर्गः। २९ परमेतानि तावदेव स्वेनस्वेनातिमाधुर्यादिप्रधानगुणेनोपेतानि यावदत्र पुरे सुध्रुवां गिरो न श्रूयन्ते । तासु चातिमधुरतमत्वादिप्रधानतमगुणोपेतासु श्रुतासु सामादि न किंचिदित्यर्थः । अत्राद्याः सामादिशब्दाः सामवेदादिवाचकाः । द्वितीयास्तु तद्गणवाचकाः । तावद्यावतोः "क्रियाविशेषणात्" [२. २. ४१.] इति “कालावनोाप्तौ” [ २. २. ४२. ] इति वा द्वितीया ॥ अमू पाणी मृदू पद्म किमु किं नु नखा अमी। केसराणीति तय॑न्ते जनैरस्मिन्मृगीदृशाम् ॥ ३६॥ ३६. अस्मिन्पुरे जनैर्मगीदृशां स्त्रीणां पाणी नखाश्च तय॑न्ते । कथमित्याह । अमू प्रत्यक्षौ मृदू कोमलौ पाणी किमु पद्मे तथामी पाणिस्था नखा रक्तवान्मृदुत्वाच्च किं नु केसराणि पद्मस्थानि कि जल्कानीति ॥ साम साम । दधिं दधि । मधु मधु । इत्यत्र “अइउवर्णस्य ०" [१] इत्यादिना वानुनासिकः ॥ अन्त इति किम् । गिरः । मधुराः ॥ अनीदादेरिति किम् । पाणी । अमू । मृदू । अमी । किK ॥ द्वितीयः पादो लक्षणतः समर्थितः ॥ एतन्यायान् क्षमौ स्तोतुं न चतुर्मुखषण्मुखौ । हेतुद्धेरेतण्णिद्वझियेत मूरिभिः ॥ ३७॥ ३७. आस्तां तावदेकमुख: कश्चिद्यावच्चतुर्मुखषण्मुखावपि । अ१ एफ् ॥ ३६ ॥ द्वितीयपादो लक्षण । १ सी डी गुणोपे. एफ गणेनोपे'. २ एफ् नगु. ३ डी ३६ ॥ स्त्री. ४ डी त्वाच्च. ५ डी किम् पा. ६ एफ दादिरि. ७ एफ मु ॥ ३६ इति द्वितीयः पादः ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] पिरत्राध्याहार्यः । ब्रह्मस्कन्दावप्येतन्न्यायानस्य पुरस्य नीतीः स्तोतुमेतावन्त ईदृशाश्चात्र न्याया इति वर्णयितुं न क्षमौ न समौँ । एतेनात्रत्यन्यायानां श्रेष्ठतमत्वमसंख्यत्वं चोक्तम् । अत एवैतत्पुरं सूरिभिस्तत्त्वातत्त्वविवेककुशलैर्वृद्धर्धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिसमृद्धिवर्धनस्य हेतुः कारणं डूयेत कथ्यते । वर्तमानाया अर्थेपि क्वचित्सप्तमी दृश्यते । भवति हि न्यायवति पुरे लोकः श्रीपात्रम् । यद्वा । सूरिभिर्वास्तुविद्याकुशलैर्वास्तुविद्यानुसारेण निर्मितत्वाद्वृद्धहेतुडूयेत । वास्तुविद्यानतिक्रमण निर्मिते हि पुरे श्रीविज़म्भते । णिद्वद्विदिति । यथा णित् णानुबन्धो णिगादिर्जित् आनुबन्धो बिजादिश्च प्रत्ययो वृद्धेरैदौदालक्षणाया हेतुः सूरिभिर्वैयाकरणैः कथ्यते ॥ अस्मिन् सागरुधूमेन्दशङ्काभाग्णशिखः शिखी । समुजचञ्चुरुद्गम्य सुवाङवत उद्मनाः ॥ ३८ ॥ ३८. सहागरोधूमेन वर्तते यत्तस्मिन् सागरुधूमेस्मिन् पत्तने गवण्णकाराकारा शिखा चूडौं यस्य स णशिखस्तथा अकाराकारा चञ्चुर्यस्य स अचञ्चुः । नागरलिपौ हि णकारनकारावेवं लिख्यते । यथा । ण च । शिखी मयूर उद्गम्य ग्रीवामूर्वीकृत्य सुवाग्मधुरस्वरं यथा स्यादेवं ङवते केकायते । कीदृक् सन् । अब्दशङ्काभाग मेघवितर्कवान् । अत एव सुहृत्संगमाभिप्रायेण समुत्सहर्षः । अत एव चोद्मना उत्कण्ठितः । एतेनैवं नामात्रांगरुः प्रभूतो देवगृहेषु विलासिभवनेषु च दन्दह्यते यावता तद्भूमो नभस्तलेभ्रपटलविभ्रमं वहतीत्युक्तं स्यात् ॥ १ एफ् °पि अत्रा. २ सी त्रम् । सू. डी `त्रम् । अथवा सू. ३ सी एफ गरधू. ४ सी डी ण इव णका. ५ बीडास्य. ६ बी सी डी 'त्रागुरुः. ७ एफ षु द. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] १.३.२.] प्रथमः सर्गः । न यो मात्रझमात्राभिज्ञः सोपि क्षणाद्भवेत् । ज्ञाता षण्णां दर्शनानामस्मिन्वाङमय सद्मनि ॥ ३९ ॥ ३९. यो नरो न हमात्रझल्मात्राभिज्ञः । हल् व्यञ्जनम् । हलेव हल्मात्रम् । झल् धुट् । झलेव झल्मात्रम् । मात्रशब्दोत्र स्वार्थ एव । द्वन्द्वे । तयोरभिज्ञो ज्ञाता न स्यात् । यो व्यञ्जनधुट्संज्ञामपि न वेत्तीत्यर्थः | सोप्यस्मिन्पुरे षण्णां पहुंख्यानां दर्शनानां जैन १ बौद्ध २ सांख्य ३ वैशेषिक ४ नैयायिक ५ जैमिनीय ६ मतसंबन्धिनां तत्तत्तत्त्वदेवताप्रमाणादिप्रकाशकशास्त्राणां क्षणाज्झटिति ज्ञाता भवेत् । यतः किंभूतेस्मिन् । वाङ्मयसद्मनि वाचां विकारावयवो वा वाङ्मयं व्याकरणतर्क सिद्धान्तसाहित्यादिसर्वशास्त्राणि । तच्च पुरुषविशेषं पुस्तकादि चाधारं विना नावतिष्ठत इत्यर्थाद्वाङ्मयस्य वाङ्मयवतां पुरुषविशेषपुस्तकादीनां सद्मनि गृहे सर्वशास्त्रपाठसामग्र्योपेत इत्यर्थः ॥ 3 * ३१ દ सुवा । नियेत । द्विद्वित् । समुज्य । एतद्वित् । शङ्काभाग्ण । एतन्यायान् । उद्गम्य । षण्मुखौ । उद्मनाः । इत्यत्र " तृतीयस्य पञ्चमे " [१] इति वानुनासिकः ॥ तृतीयस्येति किम् । चतुर्मुखै ॥ पञ्चम इति किम् | क्षणाद्भवेत् । केचित्तु व्यञ्जनस्य स्थानेनुनासिके वानुनासिकमिच्छन्ति । तस्य च "हस्वाडनो द्वे” [१. ३. २७] इति द्वित्वं च नेच्छन्ति । तन्मते । हमात्र झल्मात्र ॥ वाङ्ंय । षण्णाम् । इत्यत्र “प्रत्यये च " [२] इति नित्यमनुनासिकः ॥ पदान्त इत्येव । सद्मनि ॥ १ बी तत्तत्त्व २ एफ ज्झटति. ३ सी डी 'वो वाङ्म ४ बी दि वाधा. ६ डी के चानु ७ एफू मात्रं झ ८ एफू ५ बी सी डी एफ र्मुखः । ॰ल्मात्रम् ।. • ९ डी मयः ष एफ् यं प • Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] तावद्धिमांशुरानन्दी तावद्हेमाद्रिरुन्नतः । वाग्वादिनोत्र नेक्ष्यन्ते यावद्विष्वग्हिता नराः ॥ ४०॥ ४०. हिमांशुश्चन्द्रस्तावदानन्दी जगतामाहादयिता । तथा हेमाद्रिमेरुस्तावदुन्नत उच्चो यावदत्र पुरे नराः सज्जना नेक्ष्यन्ते । किंभूताः । वाग्वादिनो वाचा सत्यमितमधुरया वाण्या ह्लादिनः सकलपृथ्व्या आनन्दनशीलाः । तथा विष्वम्हिता विष्वक् समंततः सर्वैः प्रकारैः सर्वे' च हिता अनुकूलाः । एतेनोन्नतमनस्कत्वसूचा । उन्नताशया हि विष्वरिहताः स्युः । तुच्छाशयास्तु कदाचित्कार्यवशेन हिताः कदाचिन्नेति । वाग्धादिविष्वग्घितानामत्रत्यजनानां दर्शने सुधांशुमेरू आनन्दकोन्नतावपि न किंचित्प्रतिभासेते इत्यर्थः ॥ यशःकृतककुब्भासैङ्कितिप्रथितैर्नृपैः । ककुब्हस्तिबलैरत्र तुराषाड्डियमश्नुते ॥ ४१ ॥ ४१. अत्र पुरे नृपैर्वनराजादिभिहेतुभिस्तुराषाडिन्द्रो व्हियमश्नुते लजते । कीदृशैः । ककुव्हस्तिबलैः । दिग्गजपराक्रमैरत एव द्वितिप्रथितैः । द्विषां शत्रूणां हत्या हननेन सर्वत्र विख्यातैरत एव च यशसा कीर्त्या कृतः ककुभां दिशां हासो लक्षणयोड्योतो यैस्तैः । अत्यनृपान्मनुष्यानपि बलादिना स्वस्मादधिकान् दृष्ट्वेन्द्रो लज्जत इत्यर्थः ॥ अनज्झलिव सोहल्भ्यां धर्मार्थाभ्यां युतो जनः । निरीक्ष्यतेत्र निष्पापं चेष्टयन् हितकाम्यया ॥ ४२ ॥ ४२. अत्र पुरे स सर्वत्र प्रसिद्धो जनो लोको हितकाम्ययैहिकपा१ एफ उच्चस्तरो या. २ सी डी पृथिव्यां आ. ३ सी न्दशी. ४ एफ् घु हिताश्चानु. ५ एफ हन. ६ बीत्र नृ. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] १.३.३. ] प्रथमः सर्गः । रत्रिक श्रेयइच्छया निष्पापं निरवद्यं वस्तु चेष्टयन् व्यवहरन्सन्धर्मार्थभ्यां धर्मधनाभ्यां युतो निरीक्ष्यते । भवतो हि निष्पापव्यापारिणां धर्मार्थाविति । पाणिन्यादयो हि केचित् स्वरव्यञ्जनयोरच्हल्संज्ञां कुर्वन्ति । ततो यथानच् खररहितो हल् व्यञ्जनम् अच्हल्भ्यां स्वरव्यनाभ्यां युतो निरीक्ष्यते । अवरं हि व्यञ्जनं पुरः स्थिताभ्यां स्वरव्यञ्जनाभ्यां युतं स्यात् ॥ वाग्वादिनः विष्वग्हिताः । अनज्झल अहल्भ्याम् । द्विहृति तुराषाडियम् । तावद्विमांशुः तावद् हेमाद्रिः । ककुब्भासैः ककुब्हस्ति । इत्यत्र "ततो हश्वतुर्थः” [३] इति वा चतुर्थः ॥ तत इति किम् । चेष्टयन् हित ॥ वाक्छूरान्वीक्ष्य सोप्यस्मिन्वाक्पतिः स्यादवाक्किराः । राज्ञां यशोभिस्तच्छ्रुतं यच्श्वेतं न कदाप्यभूत् ॥ ४३ ॥ ४३. अस्मिन्पुरे वाक्छूरान् वाचा सुभटान्महावादिनो वीक्ष्य स वाक्पतित्वेन सर्वत्र प्रसिद्धो वाक्पतिरैपि बृहस्पतिरप्यवाकिरा लज्जया नीचैर्मूर्धा स्यात् । संभावनेत्र सप्तमी । अत्रत्यविदुषां वाक्पतेरप्यतिमात्रं वाग्मित्वादिदमहं संभावयामीत्यर्थः । तथा यद्वस्तु कज्जलव्यो - मादि सदा कृष्णत्वेन कदापि श्वेतं शुभ्रं नाभूत्तदप्यत्र राज्ञां वनराजादीनां यशोभिरतिबाहुल्याच् श्वेतमभूत् । कविरूढ्या हि यशः श्वेतं वर्ण्य ॥ ४ पौषट् शान्तिकृतां वाक् श्रयोतति सुधामिह । अछयदेवो नापायी पश्यन् श्रियमिहागताम् ॥ ४४ ॥ ४४. इह पुरे शान्तिकृतां नगरादिक्षुद्रोपद्रवमार्याद्युपशान्तिविधा १ एफू छायी दे . १ बी 'यो के. २ बी सी 'अल्. ३ सी डी प्य महा ५ सी डी 'न्तिध्यायि'. ३३ ४ एफ दि Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] 3 यिनां द्विजानाम् । वषट्पट्शब्दाकव्यये मन्त्राक्षरे इन्द्राहुतौ वर्तेते । शान्तिकर्मार्थाग्निकारिकादिविधानकाले वषट्‌श्रौषरूंपा वाकू वाणी सुधामिव सुधां योति स्रवति । मार्याद्युपद्रवोच्छेदकत्वेनात्याह्लादकत्वात् । एतेनास्य पुरस्य निरुपद्रवत्वमुक्तम् । तथा श्रियं लक्ष्मीदेवीमिह पुर आगतां पश्यन् सन्नप्सु जलेषु शेत इत्येवंशीलो छायी स चासौ देवश्चाच्छायिदेवोन्धिशयनः श्रीपतिर्नापशायी नाब्धिशयनः संभाव्यते । प्रस्तावादत्र संभाव्यत इत्यध्याहार्यम् । श्रियोत्रागमनात्समुद्रेतद्वियोगे निद्राया अभावाच्छ्रीपतिरप्यत्रागत इति संभाव्यत इत्यर्थः ॥ वाक्ळूरान् अवाकिराः । तच्छ्रुतम् यच्श्वेतम् । वपट्टीपट् श्रौषट् शान्ति। अच्छायि अशायी । इत्यत्र “प्रथमाद् " [ ४ ] इत्यादिना वा छः ॥ प्रथमादिति किम् । पश्यञ् श्रियम् ॥ अधुटीति किम् । वाक् योतति ॥ अस्यान्तङ्कृतिभिङ्कल्यैङ्खजैत्रै फलदै परम् । धर्मः प्रीतः कलिः खिन्नः फलितः सन्मनोरथः ॥ ४५ ॥ ४५. अस्य पुरस्यान्तर्मध्ये कल्यैर्दानशीलतपःस्वाध्यायादिभिर्धर्मक्रियाभिः कृत्वा परमतिशयेन धर्मः प्रीतः प्रहृष्टः । विजृम्भित इत्यर्थः । अत एव कलिः पापयुगं खिन्नः संतप्तः । अत एव च सन्मनोरथः सतां साधूनों मनोवाञ्छा फलितः सिद्धः । किंभूतैः सद्भिः । खजैत्रैर्जेतार एव प्रज्ञाद्यणि [७.२.१६४.] जैत्राः । खानामिन्द्रियाणां जैत्रा वशीकारिणस्तैः । अत एव पुण्यहेतुत्वेन कृतं पुण्यमस्त्येषु तैः कृतिभिः । अत एव फलं स्वर्गापवर्गादिकं ददति ये तैः फलदैः ॥ कृतिभिङ्कुल्यैः । अन्तङ्कृतिभिः । कल्यै जैत्रैः । फलदै परम् । खजैत्रैफलदैः । 1 • १ एफ् नांव. २बी रूपवा ३ सी डी एफ् 'ति श्रव ४ सीनां वा ं. ५ एफ जैत्रा व ६ डी दैः । अन्त ७ डी म् । इत्य. • Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० १.३.६. ] प्रथमः सर्गः । ३५ इत्यत्र ‘“रः कखे?” [५] इत्यादिनापौ वा ॥ पक्षे । प्रीतः कलिः । कलिः खिन्नः । धर्मः प्रीतः । खिन्नः फलितः ॥ स्वयंभूःश्रीपतिः शंभुस्सूर्य: सोमष्षडाननः । नृपैः षट्चक्रभृत्तुल्यैरस्यान्तस्स्थापिताः सुराः || ४६ || ४६. नृपैर्वनराजादिभिर्महाधार्मिकत्वादस्य पुरस्यान्तर्मध्ये धर्मार्थकारितनव्यप्रासादेषु स्वयंभूर्भगवान् ब्रह्मा च । श्रीपतिर्विष्णुः । शंभुरः । सोमचन्द्रः । सूर्यो रविः । षडाननः स्कन्दश्च । एते सुरा देवाः स्थापिताः । किंभूतैः । षण्णां चक्रभृतां मांधातृ ( १ ) धुन्धुमार (२) हरिचन्द्र (३) पुरूरवो (४) भरत ( ५ ) कार्तवीर्या (६) ख्यानां समाहारः षट्चक्रभृत् । बलसैन्यादिना तेन तुल्यैः ॥ स्वयंभू श्रीपतिः । सोमध्षडाननः । शंभुस्सूर्यः । अन्तस्स्थापिताः । इत्यत्र “शषसे शषसं वा” [६] इति वा शषसाः ॥ पक्षे । श्रीपतिः शंभुः । नृपैः षट् । सूर्यः सोमः ॥ निस्तन्द्रैश्चञ्चलैश्छेकैष्टीकमानैष्टकारिभिः । तैस्तैस्थ रिहा श्वानां रसति व्यथितेव भूः ॥ ४७ ॥ I | ४७. इह पुरेश्वानां तैस्तैः । अनेकैरित्यर्थः । थद्वैः समूहैः कृत्वा भू रसति शब्दायते । कीदृशैः । निस्तन्द्रैर्निरालस्यैस्तेजस्विभिरित्यर्थः । चश्चलैर्जात्यहयस्वभावेन चपलैः । छेकैः सुशिक्षितत्वेन गतिपञ्चककरणदक्षैरत एव टीकमानैर्बाह्यालिकादौ वल्गद्भिरत एव च ठकाराकारखुरैर्भूम्या हननेर्न ठं ठकारं भूपृष्ठे कुर्वन्तीत्येवंशीला ये तैष्टकारिभिः । उत्प्रेक्ष्यते । व्यथितेव पीडितेव । अन्योपि हि व्यथावान् रटति । भुवश्च १ एफ् खपफ ३ २ सी 'रिनव्याप्रा ३ डी 'भृतानां मां. ४ बी एफ् 'कैस्थ: ५ ए सी र्थः । स्थद्वैः ६ सी डी न ट ७ सी डी त्प्रेक्षते. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भूलराज : ] पीडासंभावनाश्वखुराघातात् । तैस्तैरित्यत्र वीप्सायां द्विरुक्तिः । वीप्सा चात्र बहुगुणेनैव ॥ निस्तन्द्रैश्चञ्चलैश्छेकैष्टीकमानैष्टकारिभिः । तैस्तैः । निस्तन्द्रैः । तैस्थद्वैः । इत्यत्र “चटते” [७] इत्यादिना शषसाः ॥ ३६ गायंस्तारं वश्छायां व्रजेश्वारु वधूजनः । दृश्यतेस्को यूनां कुर्वष्टतमं मनः ॥ ४८ ॥ ४८. अस्मिन्पुरे वधूजनो यूनामेव ठकरछलेक इव दृश्यते । कीदृक् सन् । तारं तारस्वरं यथा स्यादेवं गायन् विप्रलम्भादिप्रधानगी - तीरुच्चारयंश्छायां रूपलावण्यकान्तिवेषादिकृतशोभां वहन् धारयंश्चारु सलीलं व्रजन्नत एव यूनां तरुणानां मनश्चित्तं टलैति विक्लवीभवति अचि प्रकृष्टे तमपि च टलतमं स्मरातिरेकादतिशयेन निःसत्त्वं कुर्वन् । Shiva asarगोपनार्थ लोकच्छलनार्थं च तारं गायति छायां शिष्टजनोचितां वेषादिशोभां वहति चारु शिष्टजनोचितं गच्छति ततश्वर्णक्षेपादिना लोकrai aat faraiकरोतीति जानंस्थूत्कसमान्प्राणाँश्वरँष्टङ्कारिकार्मुकः । पराँश्छ्यन् भटलोकोस्मिँत्रायकः शरणार्थिनाम् ॥ ४९ ॥ ४९. अस्मिन्पुरे भटलोकः शरणार्थिनों प्राणैषिणां त्रायको क्षकोस्ति । एतेनात्रत्यलोकस्य निर्भयत्वोक्तिः । कीदृक् । चरन् गछन् । तथा प्राणांस्थूत्कसमान थूत्कृततुल्यान् थूत्कृतवत्स्वाम्यादिकार्ये परित्याज्याजानन् । एतेन सात्त्विकत्वोक्तिः । तथा टं करोतीत्येवंशीलं टंकारि १ एफ् 'ते सद्वितीये' इति श ं. २ सी एफ ल इ . ३ एफ् लयति. ४ सी डी एफ रोति ॥ . ५ डी नत्रा. ६ सी डी रक्षाकारको ७ एफ् 'विकोक्तिः । • Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.३.८.] प्रथमः सर्गः । कार्मुकं धनुर्यस्य स निरन्तरं धनुरास्फालयन्नित्यर्थः । एतेन धनुर्विद्याकौशलोक्तिः । तथा पराञ् शत्रूश्छ्यन् विनाशयन् । एतेन बलिष्ठत्वोक्तिः। अङ्गान्यस्मिँस्थुष्ठाभकुचो भाति वधूजनः । प्रशाश्चरन् त्सरुकोपि कोपि नैवात्र दारुणः ॥५०॥ ५०. अस्मिन्पुरे ठाभौ ठकारववृत्तौ कुचौ स्तनौ यस्य स वधूजनः कुलाङ्गनालोकोङ्गानि स्तनादीनवयवांस्थुडन्नुत्तरीयादिना संवृण्वन् सन् भाति । कुलाङ्गनानां हि सर्वाङ्गोपाङ्गसंगोपनं शोभातिशयहेतुः । तात्र त्सरौ खड्गादिमुष्टौ कुशल: “कुशले” [६. ३. ९५.] इति के त्सरुकोपि खड्गादिशस्त्रभृद्भटलोकोपि । आस्तां वणिगादिरित्यपेरर्थः । प्रशानुपशान्तः संश्चरन्नस्ति । विचरतीत्यर्थः । अतश्चात्र कोपि नैव दारुणो रौद्रः । एतेनात्र राजाज्ञाया अतिसौष्ठवमुक्तम् ॥ व्रजेश्वारु । प्राणाँश्चरन् । वहंश्छायाम् । पराँश्छयन् । कुर्वष्टल । चरँष्टकारि । अमिष्ठकः । स्थुष्ठाभ । गायंस्तारम् । अस्मिंस्त्रायकः । जानस्थूत्क । अस्सिँस्थुडन् । इत्यत्र “नोप्रशान" [ 4 ] इत्यादिना शषसा अनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य ॥ अप्रशान इति किम् । प्रशाञ्चरन् । अधुट्पर इति किम् । चरन् त्सरुकः ॥ पुंस्कामा अप्यपुंश्चल्य इह (स्कोकिलस्वनाः । अपुंश्छन्नरपुंस्खेटैः पुंश्छेकै न्ति भर्तृभिः ॥५१॥ ५१. इह पुरे स्त्रियो भर्तृभिः सह भान्ति । कीदृश्यः । कोकिल: परपुष्टः । पुमांश्चासौ कोकिलश्च पुंस्कोकिलस्तस्येव स्वनः स्वरो यासां १ एफ °न् भा०. २ एफ °था त्स. ३ सी डी खगश. ४ डी त्यर्थः ।। ५ ए एफ शान्नुप. ६ सी डी संचर. ७ सी डी वत्वमु. ८ सी डी शानो ई. एफ शाने इ. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] तास्तथा पुंस्कामा अप्यपुंश्चल्यः । पुमांसं कामयन्ते पुंस्कामाः । पुमांसं चलयन्ति पुंश्चल्यः कुलटाः । न तथापुंश्चल्यः सत्यः । अपिर्विरोधे । पुंमात्रकामनविवक्षया विरोधः । अविरोधस्तु स्वपतेरेव कामनविवक्षया । अत एवापुंश्चल्यः । किंभूतैर्भर्तृभिः । पुंश्छेकैः पुरुषेषु विदग्धैः । तथापुंस्खेदैः । खेटा अधमाः । पुंमांसो ये खेटो: पुंस्खेटा: । न तथापुंस्खेटास्तैः । परदारसेवादिनिन्द्यकर्मरहितैरित्यर्थः । अतएवापुंश्छन्नैः न पुंसान्येन पुरुघेणाच्छादितैः । विद्वत्तया सदाचारतयाँ च सर्वपुरुषेषु मुख्यैरित्यर्थः । भवति ह्युत्तमगुणानां दंपतीनां संबन्धः शोभातिशयहेतुः ॥ न पुंष्टट्टिभपुयौरा न च पुंस्खल पुंष्ठकाः । न पुंस्फल्गुर्न पुंस्फेरुर्नपुंस्पशुरिह कचित् ॥ ५२ ॥ ५२. टिट्टिभा उत्पादशयनाः पक्षिभेदाः । पुमांसष्टिट्टिभा इवोद्धतत्वात् पुंष्टिट्टिभाः । तथा पुमांसश्च ते चौराश्च पुंश्चौराः । द्वन्द्वे । पुंष्टिट्टि - भपुंश्चौराः । इह पुरे क्वचित्कस्मिन्नपि स्थाने न सन्तीति संटङ्कः । एवं सर्वत्रास्तिक्रिया नञा सह योज्या । खला दुर्जनाः । पुमांसश्च ते खलाचै पुंखलाः । एवं पुंष्ट: पुंछलकाः । ततो द्वन्द्वः । तथा सु फल्गुः पुमर्थविकलत्वेन निष्फलः पुंस्फल्गुः । तथा पुमान् फेरुरिव भीरुत्वात् शुगाल इव पुंस्फेरुः । तथा पुमान् पशुरिव मूर्खत्वात् पुंस्पशुः ॥ पुंस्प्रष्ठैः पुंस्तमैः पुंस्त्वपुंख्यातैः सह सौहृदम् । पुंष्ठ कुराः सपुंस्थट्टाः पुंगवा अत्र कुर्वते ।। ५३ ।। १ बी सी डी है: पुंस्त्वपुंख्यातैः पुंस्तमैः स १ ए पुंमान्काम. बी पुंसोत्र. २ ए बीटा पुं. सी 'टान ३ बी या स.. ४ एफ् त्रापि कि ं . ५ सी डी व ए. ६ सी कास्ततो. ७ ए सी डी एफू पुंस्सुफ ८ डी एफ् निः फल:. - Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० १.३.९.] प्रथमः सर्गः। ___ ५३. अत्र पुरे पुमांसो गाव इव पुंगवा नरश्रेष्ठाः पुंस्तमैः श्रेष्ठपुरुषैः सह सौहृदं मैत्री कुर्वते । किंभूतैः । पुंस्त्वपुंख्यातैः । पुंस्त्वेन पुरुषकारेण शौर्येण पुंसु ख्यातैः प्रसिद्धैः। अत एव पुंस्प्रष्टैः पुरुषेष्वग्रेसरैः। पुंगवाँ अपि किंभूताः । पुंष्ठकुराः । नृणां स्वामिनः अत एव सपुंस्थट्टाः पुरुषौघावृताः । एतेनात्रत्यजना गुणिनो गुणानुरागिणश्चेत्युक्तम् ॥ पुंशूरा अत्र पुंष्टक्काः परपुंस्थुङ्कतासहाः । अपुंक्षुद्राः प्रकुर्वन्ति सेवां चौलुक्यभूभुजाम् ॥५४॥ ५४. अत्र पुरे पुंष्टकाः पुमांसः पौरुषोपेता ये टक्काः क्षत्रियजातिभेदास्ते चौलुक्यभूभुजां मूलराजादीनां सेवां प्रकुर्वन्ति । कीदृशाः । पुं. शूराः पुंसु पौरुषोपेतेषु भटेषु शूराः । अत एव परे शत्रवो ये पुमांसस्तेषां यत् थुट्तं न्यक्काराय मुखविकृतिपूर्व शब्दविशेषस्तस्याप्यसहा अक्षमाः । तथा क्षुद्राः क्लिष्टचेतस्का द्रोहाद्यभिप्रायेण । पुमांसश्च ते क्षुद्राश्च पुंक्षुद्रा न तथा'क्षुद्राः ॥ पुंस्कामाः । पुँस्कोकिल । अपुंस्खेरैः । पुस्खल । अपुंश्चल्यः । पुंश्चौराः । अपुंश्छन्नैः । पुश्छेकैः । पुंष्टिटिभ । पुँष्टक्काः। पुंष्टकाः । पुँष्ठक्कुराः । पुंस्तमैः । पुंस्त्व। पुंस्थट्टाः। पुंस्थुङ्कत । पुंस्पशुः । पुस्प्रष्टैः ।पुंस्फल्गुः। पुंस्फेरुः । इत्यत्र 'पुमोशिष्टि" [९] इत्यादिना रोन्तादेशोनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य ॥ अशिटीति किम् । पुंशूराः । अघोष इति किम्। पुंगवाः । अधुदपर इत्येव । अपुंक्षुद्राः । अख्यागीति किम् । पुंख्यातैः ॥ १ डी स्थुत्कृता . एफू स्थूत्कृता. १ एफ गावः पुं०. २ ए सी डी एफ पुस्सु ख्या'. ३ सी डी वापि. ४ सी डी गुणा. ५ ए सी डी एफ पुस्सु पौ. ६ डी एफ थूत्कृतं. ७ ए छक्काः ।. ८ एफू स्त्वसपुं. ९ सी एफ स्थुत्कृत, डी स्थूत्कृतम्. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] मीन किं हरिचन्द्रो नृपाता किं पुरूरवाः । पुष्यन् किमु मांधतेत्यत्र तर्फेत भूपतिः ॥ ५५ ॥ ५५. अत्र पुरे भूपतिर्नृन्प्रजाः प्रीणन् मधुरवचनादिदानेन सुखयन् सन् किमयं हरिश्चन्द्रस्तृतीयचक्री । हरिश्चन्द्रेण हि प्रजा अत्यन्तं प्रीणिताः । इत्येवं प्रकारेणे तर्येत संभाव्यते । जनैरिति संबन्ध: । अप्रेप्येवं योजना कार्यो । पाता चौरादिभ्यो रक्षन् पुरूरवाश्चतुर्थचक्री । पुष्यन् इत्यत्र पुषिरन्तर्भूतणिगर्थः सकर्मकः । दानसन्मानादिना पोषयनित्यर्थः । मांधाता आद्यचक्री ॥ प्रीणन् नृपाता । इत्यत्र " नॄनः पेषु वा " [१०] इति रोन्तादेशो वानुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य ॥ पक्षे । नृपुष्यन् ॥ कस्कान् रथान्भटान् काँस्कानश्वान् कान् कानिभानिह । न पश्यति सहस्राक्षो दृक्सहस्रं कृतार्थयन् ।। ५६ ।। ५६. सहस्राक्ष इन्द्रो दृक्सहस्रं लोचनसहस्रं कृतार्थयन् कृतार्थमाचक्षाणः सन्निह पुरे कांस्कान् रथान् कांस्कान् भटान् पत्तीनं कानश्वान् कानिभांश्च न पश्यति किं तु सर्वानपि गजादीन् । सर्वोत्कृष्टगुणैनिरुपमत्वेनादृष्टपूर्वदर्शनात्स्वमक्षिसहस्रं सफलं मन्यमानः सहस्राक्षः सतर्ष पश्यतीत्यर्थः । एतेनात्र चतुरङ्गबलसंपद्विशेष उक्तः ॥ कांस्कान् । काँस्कान् । इत्यत्र " द्विः कानः कानि सः " [११] इति सोन्तादेशोनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य ॥ द्विरिति किम् । कान्कान् ॥ १ एफ् न् किं मां. तं प्रणताः २ एकूण वितते सं. ३ एफ् र्या एताश्चौरा • ५ एफ् न् कांस्कान ६ एफ् 'पि राजा. ७ एफ् सहर्ष १ एफू ४ डी ' . Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] १.३.१२.] प्रथमः सर्गः । रत्नसंकरसंस्स्कारित्वष्टा पश्येदिदं यदि । संस्स्कर्तुं स्वःपुरीं कं कमुपस्कारं न चिन्तयेत् ॥ ५७ ॥ ५७. रत्नानां नानाजातीयानां मणीनां संकरो मेलकस्तेन संस्कार: शोभातिशयो विद्यते यत्र तद्रत्नसंकर संस्स्कारीदं पुरं त्वष्टा देववर्धकियदि पश्येत्तदा स्वःपुरीममरावतीं संस्कर्तु विशेष्टुं कं कमुपस्कारं प्रयत्नं न चिन्तयेत् । किं तु येन येन प्रयत्नेन स्वः पुर्येतत्पुरसदृशी स्यात्तं तं सर्वमपि परिभावयेदित्यर्थः । एतेनास्य स्वःपुरीसकाशादप्यधिकं रम्यत्वमुक्तम् ॥ न यथा कोपि सस्कर्ता संचस्कार यथा न च । अरोचकी गुणेष्वत्र सँस्कर्तुं यतते तथा ॥ ५८. अत्र पुरे न रोचते धान्यं क्षुधाभावादस्मिन् [५.३.१२२. ] इति णके अरोचको बुभुक्षाया अभाव : स्थाद्०” [७.२.६०] इत्यादिना रुग्वाचित्वादिनि अरोचकी ४१ ५८ ॥ षु विषये संस्कर्तुं हिङ्गुकर्पूरादिक्षेपेण तथा तेन प्रकारेण यतते प्रवर्तते यथा कोपि पुमान् न संस्कर्ता न संस्करिष्यति यथा कोपि न च नैव संस्कार संस्कृतवान् ॥ संस्कार | कर्तुम् । इत्यत्र “स्सटि समः " [१२] इति सोन्तादेशोनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य ॥ स्सटीति किम् । संकर । कृत् विक्षेपे । संकरणं संकरोल । कुगोभावान्नात्र स्सद् ॥ संचस्कार । इत्यत्र तु व्यवधानान्न भवति । सम इति किम् । उपस्कारम् ॥ • “नॉम्नि पुंसि च " सोस्त्यस्य "प्राणि नरो गुणेषु व्य १ एनां सं . २ सी डी एफ् संस्कारी ३ए न प्र' सीडी न स्वः . ४ एफ् ● क्षुधाभा. . ५ एफ् नास्तिम्नि ६ डी वस्तस्य ७डी ते व एफू तेय. ८ए एफूर्तासं ९ सी एफ संस्कारि १० ए सी सँस्कर्तुम्. ६ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] ___ सस्कर्ता । इत्यत्र "लुक्" [१३] इति लुगन्तादेशः। पृथग्योगादनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्येति निवृत्तमिति तौ न भवतः ॥ केचित्त्वत्राप्यनुनासिकमिच्छन्ति । सँस्कर्तुम् ॥ चतुरं चंचलत्यश्वा मंदं दंद्रमति द्विपाः । रम्यञ्चक्रम्यते स्त्रैणं सर्वोस्मिन्पंफुलद्गुणः॥ ५९॥ ५९. अस्मिन्पुरे चतुरं धौरितकादिगतिबन्धुरं यथा स्यादेवमश्वाश्चंचलति कुटिलं चलन्ति । वल्गन्तीत्यर्थः । यङ्लुबन्तः । तथा द्विपा गजा मन्दं सलीलं यथा स्यादेवं दंद्रमति कुटिलं गच्छन्ति । तथा स्त्रैणं स्त्रीसमूहो रम्यं सलीलेमन्थरं यथा स्यादेवं चंक्रम्यते कुटिलं गच्छन्ति । एवं च न केवलमश्वादीनामुत्कृष्टगुणत्वं किं त्वस्मिन् सर्वोपि घटपटादिः पदार्थः पंफुलतोतिशयेन फलन्तोतिविलसन्तो गुणाः सौन्दर्यादयो यस्य स पंफुलद्गुणोस्ति । सर्वक यत्र वस्तु गुणोत्कृष्टमित्यर्थः ॥ दूरन्दन्द्रमितच्छायान् सदा पम्फुलितांस्तरून् । खचङ्क्रमणकन्याश्च चञ्चूयन्तेत्र कौतुकात् ॥ ६॥ ६०. ख आकाशे कुटिलं क्रामन्तीत्येवंशीला "द्रमक्रम" [ ५.२.४६] इत्यादिनाने खचकमणा विद्याधरादयस्तेषां कन्या बालिका अत्र पुरे वर्तमानांस्तरूनुपवनद्रुमान् कौतुकाच्चञ्चूर्यन्ते मास्मान् जनश्चौर्य इत्यपवादी १ ए सी डी पम्फलि. १ ए बी सी डी धौरतिका . २ सी डी एफ लीलं म. ३ एफ णवत्त्वं. ४ सी डी एफ् दिप. ५ ए पंफल'. सी डी पुंफल'. ६ सी डी तिवि. ७ एफ पंफल'. सीडी पुंफल'. ८ बी डी मतीत्ये'. ९ बी सी ला युचंक्र. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.३.१४.] प्रथमः सर्गः। दिति प्रच्छन्नगत्या गर्हितं विचरन्ति । यतो दूरमनिकटं यथा स्यादेवमत्युन्नतत्वात् दन्द्रमिता कुटिलं गता छाया येषां तांस्तथा वनाधिष्ठायकदैवतविशेषप्रभावात्सदा पम्फुलितानत्यर्थ फलितान् । एतेनात्रत्यतरूणां छायाफलादिना स्वर्वक्षेभ्योप्यत्युत्कृष्टतोक्ता ॥ रंरम्यन्ते जना गोभिरभ्रंलिहवहल्लिहैः । प्रीयन्ते काम्यतपसः संयताः सय्यतैरिह ॥ ६१॥ .६१. इह पुरे जना लोका अभ्रं मेघ लिहन्ति स्थूलोन्नतत्वात्स्पृशन्त्यभ्रंलिहा ये वह ककुदं लिहन्ति जातिस्वभावाजिह्वया स्पृशन्ति वहल्लिहास्तैोभिवृषभैः कृत्वा रंरम्यन्ते वाहादिना होडापातनेन परस्परमत्यर्थ क्रीडन्ति । एतेन जनानामतिसुखितत्वोक्तिः । तथेह काम्यमभिलषणीयं तपो यैस्ते संयताः सुविहितमुनयः सँय्यतैः सुविहितसाधुभिः सह प्रीयन्ते एकधर्मस्नेहेन स्निह्यन्ति । एतेनात्र सुविहितानां सुविहितैः सह श्राद्धभक्तादिना न विरोध इत्युक्तम् ॥ चक्रम्यते चक्रमण । चंचलति चर्यन्ते । दंदमति दन्द्रमित । पंफुलत् पैम्फुलितान् । चतुरं चंचलति रम्यञ्चक्रम्यते । मंदं दंद्रमति दूरन्दंद्रमित । संयंताः सयतैः । अभ्रंलिहवहल्लिहैः । इत्यत्र "तौ मुम" [१४] इत्यादिना म्वागमस्य पदान्ते वर्तमानस्य च मस्य स्वावगुस्वारानुनासिकौ वर्गों पर्यायेण । पदान्त इत्येव । काम्य । स्वाविति किम् । रम्यते । स्त्रैणं सर्वः । १ए सी डी पम्फलि°. २ एफ तान् ए. ३ एफ् भ्योप्युत्कृ. ४ एफ होडपा. ५ ए सी संयुताः. ६ ए सी संयतैः. ७ एफ भक्त्यादि. ८ ए सी डी पम्फल'. ९ ए सी डी पम्फलि. १० ए °यतैः सं. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] अत्र मन्द मलत्स्त्रैणम्सालयेत्कस्य नो मनः। स्वैरै हलत्करिकुलम्हालयत्यवनीमपि ॥ ६२॥ ६२. अत्र पुरे मन्दं मन्थरं झलद्गच्छत् स्त्रैणं स्त्रीसमूहः कस्य वशिनोपि मनो नो ह्यालयेत् सोत्कण्ठं न कुर्यात् । किं तु सर्वस्यापि । तथापिभिन्नक्रमे खैरमित्यस्माज् ज्ञेयः । स्वैरमपि स्वेच्छयापि मन्दमपीत्यर्थः । हलद्गच्छत्करिकुलं हस्तिवृन्दमवनिं भूमिं ह्वालयति गिरिवन्महतमत्वात्कम्पयति । यद्वा । अपिर्यथास्थान एव योज्यः। आस्तां तावद्यजनादि कम्पयति यावतावनीमपि । अवनी ह्यचलत्वेन प्रसिद्धा । अत्र च स्त्रैणहास्तिकयोः समानधर्योक्त्योपमानोपमेयतो व्यज्यते । यथात्र हास्तिकं स्वैरं चलवनीमपि चालयति तथा मन्थरं चलत्रैणं वर्शिनामपि मन इति ॥ अभ्यागतानां निर्मातुं हत्तिल्हादितमानसः । असंहृवान आत्मानन्हृतेर्थे नात्र कश्चन ॥ ६३ ॥ ६३. अत्र पुरेभ्यागतानामतिथीनां हृत्तिं पाद्यभोजनवस्त्राद्यातिथ्यसंपादनेनानन्दं निर्मातुं कर्तुं कश्चन कोप्यर्थ द्रव्यं न हृते सांप्रतं व्यवहारेषु लाभो नास्ति प्रत्युत हानिरेवेत्यतः क द्रव्यमिति प्रकारेण न गोपायति । किं तु तदर्थे सर्वखं व्ययतीत्यर्थः । कीदृक् सन् । हादितं धार्मिकोदारत्वादतिथिं दृष्ट्वा प्रमोदितं मानसं चित्तं येन स तथा । अत एवासहृवानोतिथिदृष्टिवञ्चनेनातिरोधानः॥ १ डी स्त्रैणं झल'. १ सी डी वदव. २ बी सी डी धर्मोक्त्यो ३ ए ता व्यंज्य'. ४ एफशि मां म. ५ एफ ताम'. ६ सी डी त्ति खाद्य”. ७ एफू यते ।। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.३.१६.] प्रथमः सर्गः। पदार्थ ह्यस्तनह्यद्यापश्यल्लोको निषेवते । अत्र त्रैलोक्यसम्राज हरिपूज्यं ज्वलद्दयुतिम् ॥ ६४ ॥ ६४. अत्र पुरे पदार्थ यौवनसंपदादिकं ह्यस्तनं कल्ये भवमद्य वर्तमानेह्रयपश्यन् सन् लोकप्रैलोक्यसम्राजं त्रिजगत्स्वामिनं श्रीमदहन्तं निषेवतेनित्यरूपं संसारं भावयंस्तदुच्छेदायाराधयति । किंभूतम् । हरिपूज्यं शक्राय॑ ज्वलक्ष्युतिं स्फुरत्कान्तिम् । योपि लोको ह्यस्तनं पदार्थ धनादि चौराद्यपहृतत्वेनाद्यापश्यन् स्यात्स तत्प्राप्त्यर्थ ज्वलड्युति स्फुरत्तेजसमत एव हरिपूज्यं विष्णुमिवाय॑ त्रैलोक्यसम्राजं महाराज निषेवत इत्युक्तिः ॥ मन्द हलत् । स्त्रैणम्हालयेत् । असंहृवानः । आत्मानन्द्रुते । पदार्थ ह्यस्तनम् । यस्तनह्यद्य। स्वैरं ह्वलत् । कुलम्हालयति। निर्मातुं हत्तिम् । हत्तिह्लादित। इत्यत्र "मनयवे" [१५] इत्यादिनानुस्वारानुनासिकौ स्वौ पर्यायेण ॥ मादिपर इति किम् । सम्राजं हरि॥ ह इति किम् । पूज्यं ज्वलत् ॥ सम्राजम् । इत्यत्र “सम्राट्" [१६] इति मस्यानुस्वाराभावो निपात्यते ॥ माङ् शौर्यवृत्तौ प्राङ्छास्त्रे प्राङ्गमे प्राङ् समाधिषु । प्राङ् सत्ये माङ् षड्दर्शन्यां प्राङ् षडङ्ग्यामितो जनः ॥६५॥ ६५. अस्मिन् “आद्यादिभ्यस्तस्" [७.२.८४.] इति तसि इतोस्मिन्पुरे जनः शौर्यवृत्तौ प्राङ् प्रथमोस्ति । एवमग्रेतना अपि प्राशब्दा योज्याः । शास्त्रे कार्यकारणयोरभेदाच्छास्त्रशब्देन तत्परिज्ञानमुच्यते तत्र । एवं षर्शनीषडङ्गीशब्दाभ्यामपि । शम इन्द्रियजये । समाधिषु १ एफ् क्यसाम्रा. १ एफ °न् सन् त. २ एफ नय्ह्यद्य ।. ३ एफ वलेल्या. ४ एफण मनयादि. ५ वी डशिनी. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] चित्तैकाग्र्येषु । सत्ये सत्यवादे । पर्शन्यां षण्णां दर्शनानां मतानां जैनादिशास्त्राणां समाहारे । षडङ्ग्यां षण्णामङ्गानां शिक्षाकल्पव्याकरणनिरुक्तिज्योतिषच्छन्दसां समाहारे । सर्वत्र विषयसप्तमी ॥ ४६ स्मृतिगुण्ट् श्रुतिगुण्डास्त्रगुणशब्दगुण्ट् सुवण् सदा । नक्षत्रगुण्ट् षाङ्गुण्यगुण्पटुर्कज्ञोत्र को न हि ॥ ६६ ॥ ६६. अत्र पुरे सदा स्मृतीर्धर्मशास्त्राणि कण्ठस्थत्वाद्गुणयति विपि स्मृतिगुण को नरो नास्ति किं तु सर्वोप्यस्ति । एवं सर्वैर्विशेषणैर्योजना कार्या । श्रुतीति । श्रुतिर्वेदः । शास्त्रेति शास्त्राणि । इदं लोकनिर्दिष्टस्मृत्यादिव्यतिरिक्तानि छन्दोलंकारनाटकादीनि । शब्देति शब्दशब्देन व्याकरणं नाममाला चोपलक्ष्यते । सुष्ठु वणति शब्दायते सुवण् । मधुरध्वनिरित्यर्थः । नक्षत्रेति नक्षत्रशब्देन नक्षत्रवाचकं ज्योतिःशास्त्रमुच्यते । तद्गणयति नक्षत्रगण | ज्योतिःशास्त्रविदित्यर्थः । षाड्गुण्येति । संधिविग्रहयानासनद्वैधीभावसंश्रयाख्या: षड्गुणाः स्वार्थे “भेषजादिभ्ये टण्” [ ७.२.१५५ ] इति णि पाहुण्यं षाड्गुण्यप्रतिपादकं नीतिशास्त्रम् । षण्णां दर्शनानां तर्काः षटुर्कास्तान् जानाति षटुर्कज्ञः || पिकवत्पञ्चमण्डु षडुरसु शिखण्डिवत् । क्रुङ्खिच मध्येममाङ्गु रज्येद्गायत्सु कोत्र न ॥ ६७ ॥ ६७. अत्र पुरे गायत्सु गायनेषु विषये को न रज्येत्को न रागं कुर्यात् । यतः किंभूतेषु । पिकवत्पञ्चमण्डु यथा पिका: कोकिला: पञ्चमस्वरं क्वणन्त्येवं पञ्चमं पञ्चमस्वरं कणत्सूच्चारयत्सु । तथा शिख १ सी चमं क २ सी ध्यमं प्रा. १ एफ् गुण्ट् को. २. बी शब्दे ३ एफ् वण्ट् म ४ डी 'तिषशा● . ५ सी डी भ्यष्टण्. ६ सी डी ति पा. ७ सी डी 'त्रमुच्यते प.. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० १.३.१७.] प्रथम सर्गः । ४७ ण्डिवन्मयूरेष्विव परसु षडुस्वरमुच्चारयत्सु । तथा क्रुङ्क्ष्वव सारसे - ष्विव मध्यमं मध्यमस्वरं प्राञ्चन्ति गच्छन्ति ये तेषु मध्यमप्राङ्सु । उक्तं च षडुं मयूरा ब्रुवते गावस्त्वृषभभाषिणः । अजाविकं तु गान्धारं क्रौञ्च: कणति मध्यमम् ॥ १ ॥ पुष्पसाधारणे काले पिकः कूजति पञ्चमम् । धैवतं द्वेषते वाजी निषादं बृंहते गजः ॥ २ ॥ एतेन गायनानां सर्वस्वरकरणकौशलमुक्तम् || प्राङ्क् शौर्य । प्राङ्छास्त्रे । प्राङ् शमे । प्राक् षड्ढर्शन्याम् । प्राङ् षडङ्ग्याम् । प्राङ्कु समाधिषु । प्राङ् सत्ये । स्मृतिगुण्ट् श्रुति । श्रुतिगुण्डास्त्र । शास्त्रगुण्शब्द । I नक्षत्रगुण्ट् षाङ्गुण्य । षाङ्गुण्यगुण्षट् । शब्दगुण्ट् सुवण् । सुवण् सदा । क्रुङ्क्षु । प्राङ्गु । पञ्चमक्कण्डु । षैजरण्सु । इत्यत्र “ङ्कोः कैटौ " [१७] इत्यादिना कटावन्तौ घा ॥ ङ्कोरिति किम् | गायत्सु ॥ अस्मिन्त्सम्रात्सुराष्ट्रारा सिन्धुरात्सिन्धुरानरणात् । क्ष्मास्वाराट् रच्योतितकराञ्श्योतद्गण्डान्समानयत् ॥ ६८ ॥ ६८. क्ष्मायां भुवि स्वाराडिव क्ष्मास्वाराट्र राजादः श्लोकोक्तासाधारणविशेषणाद्भीमः सम्राट् सर्वनृपशासक: सन् रणाद्रणं विधाय “गम्ययपः”[२.२.७३.] इति पञ्चमी । सुराष्ट्राराष्ट्रिन्धुरौत्सिन्धुरान् सुराष्ट्रासिन्धू देशभेदौ । तत्स्वामिनो: सिन्धुरान् गजानस्मिन्पुरे समानयत् । किंभूतान् । योतिता मैदं स्रोतुमारब्धाः करा: गुण्डा येषां तांस्तथा १ एट् श्चोत. १ एडुस्व. २ डी 'जादिकं . ३ एफ् षङ्गर ४ डी कटावन्तावित्या . एफ कटावन्तौ शिटीत्या ५ बी सी डी राट् सु. ६ डी मदैः श्योतु . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] भ्योतद्गण्डान् मदक्षारिकपोलान् । भीमेन हि सुराष्ट्रशसिन्धुराजौ रणे जित्वा तद्गजेन्द्राः पत्तन आनीताः ॥ सम्राङ्सुराष्ट्रा । अस्मिन्त्सम्राड् । इत्यत्र “ः सः त्सोचः" [१०] इति सस्य त्सादेशो वा ॥ डकारनिर्देशाट्टत्वं न भवति ॥ केचिदृत्वमपीच्छन्ति । सिन्धुल्त्सिन्धुरान ॥ पक्षे। सुराष्ट्रारादसिन्धुराट् ॥ गण्डान् समानयत् ॥ स इति किम् । सिन्धुरान् रणात् ।। अश्व इति किम् । स्वाराट् श्योतित । कराञ्चयोतत् ॥ भजञ्छौर्य वहशौचं पालयञ्शरणागतान् । जनोस्यान्तरनन्तश्रीर्वदञ्च्योतति मर्विव ॥ ६९ ॥ ६९. अस्य पुरस्यान्तर्मध्ये शौर्य भजन्नत एव शरणागतांस्त्राणार्थिनः पालयन जनो भदलोको वदन् मयि रक्षके भवद्भिर्न भेतव्यमिति भाषमाणः सन्नभयवाक्यस्यातिसुखदत्वान्मध्विव श्योतति क्षरति । ननु लोभेन शरणागतान्पालयिष्यति । नेत्याह । शौचं निर्लोभतां वहन् यतो. नन्तश्रीरसंख्यलक्ष्मीकः । बहुलक्ष्मीको हि प्रायेण तृप्तत्वादेवंविधमशौचं न करोति । यद्वा । अनन्तस्येव श्रीर्यस्य सोनन्तश्रीविष्णुतुल्यः । विष्णुर्हि निरपेक्ष एव जगद्रक्षति ॥ प्रातरत्राग्निरादित्या अनन्त इन्द्र आसिताः । सुचेतश्यन्वेहि पय अनेत्रेत्यध्वरे गिरः ॥ ७० ॥ ७०. अत्र पुरेध्वरे यागे गिरो वर्तन्ते । अर्थादध्वयूणाम् । कथमित्याह । प्रातरित्यादि । केषांचिद्याज्ञिकानामेवं वाचो यथा हे सुचेतं३: शोभनमनस्क - १ सी डी °ध्विह ॥ १ एफ चित्तु ट. २ ए रासि. ३ सी डी °न् ग. ४ एफ श्योतति ।. ५ एफ °गतानां स्त्रा. ६ सी डी ति न. ७ एक्ष्मीको हि. ८ डी या गि'. ९ ए °तः३शो'. सी डी तः शो'. एफ त३शो'. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.३.२०.] प्रथमः सर्गः। ४९ प्रातः प्रभाते त्वयाग्निर्वह्निदेवता आदित्या धातृ १अर्यमन मित्र३वरुण ४अंशु५भग६इन्द्र ७ विवस्वन ८पूषन ९पर्जन्य १८ त्वष्ट११विष्णु१२संज्ञा द्वादश सूर्या अनन्तो विष्णुरिन्द्रः शक्रश्चात्र प्रदेश आसिता मत्रैराहूय स्थापिता इति । तथान्येषां पयोग्निमत्रेण जलान्याह्वानं कुर्वतां याज्ञिकानामेवं वाचो यथा हे पयो जलदेवते तथा हे अ३ग्ने वह्निदेवतेत्र प्रदेशेन्वेहि अन्वागच्छावतरेति यावदिति च । इतिर्भिन्नक्रमे । स्थापिता इत्यत्र अग्नेि इत्यत्र च योज्यः ॥ भजञ्छौर्य वहशौचं इत्यत्र “नः शि " [१९] इति च वा ॥ पक्षे पालयञ् शरण ॥ अश्व इत्येव । वदञ् श्योतति ॥ जनोस्य । इत्यत्र “अतोति रोरुः" [२०] इति रोरुकारादेशः ॥ अत इति किम् । आदित्या अनन्त । सुचेत३यन्वेहि। “दूरादामत्र्यस्य" [ ७.४.९९ ] इत्यादिना प्लुतः ॥ अतीति किम् । अनन्त इन्द्र । इन्द्र आसिताः ॥ पय अ३ने । "दूरादामन्यस्य' [७.४.९९] इत्यादिना प्लुतः॥रोरिति किम् । प्रातरत्र ॥ स्वर्वासिनामपि रतिर्भवेदत्र मनोरमे । देहि नः सुमनरेनेति देहिनामिह भारती ॥ ७१ ॥ ७१. अत्र पुरे स्वर्वासिनामपि देवानामपि रतिः सुखं भवेत् । संभावने सप्तमी । इदमहं संभावयामीत्यर्थः । यतः किंभूते । मनोरमे ना. नाद्भुतालयत्वाच्चित्तावर्जके । तथेह पुरे देहिनां प्राणिनां हे सुमन३औदार्यधार्मिकत्वादिगुणैः शोभनचेतस्क नोस्मभ्यं किंचिद्देहीति भारती वाणी नास्ति । सर्वस्येश्वरत्वेन याचकानामभावाद्याचकदर्शनेनैव यथाकामं दानाद्वा ॥ १ ए सी नः३ने. बी न३७°. १ बी सी भाग. २ एफ वन्तो या'. ३ बीतेन्वे'. ४ सी डी अग्ने ३ ई. ५ एफ हि । अ. ६ एफ म् । प. ७ सी डी पि र. ८ ए °नः३ औ'. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] मनोरमे । इत्यत्र “ घोषवति” [२१] इत्युत्वम् ॥ घोषवतीति किम् । देहिनः सुमने३ ॥ अत इत्येव । रतिर्भवेत् । सुमने ३ नेति ॥ रोरित्येव । स्वर्वासिनाम् ॥ ५० भो गन्धर्वा भगो नागा अघो देवाः किमीदृशम् । पुरमस्त्येवमत्रोच्चैर्वदन्ति व्योमचारिणः ।। ७२ ।। ७२. स्पष्टः । नवरमत्रेत्यत्र विषयसप्तम्याः स्थाने त्रप् । निरुपमत्वादत्र पुरविषये व्योमचारिणो विद्याधराद्या एवं वदन्ति | भो भगो अघो इत्यामन्त्रणेव्ययानि ॥ ira भगोः । भो गन्धर्वाः । भगो नागाः । अघो देवाः । इत्यत्र "अवर्णभो" [२२] इत्यादिना रोर्लुक् ॥ घोषवतीत्येव । देवाः किम् ॥ सदा साध्युदयेविन्दुर्निष्कलङ्कगुणान्वितः । भव्याजय्याव्यलोकोस्मिन्न च वृक्ष लता न च ॥ ७३ ॥ ७३. अस्मिन्पुरे भविष्यति गुणपात्रमिति “भँव्यगेय” [५.१.७] इत्यादिना कर्तरि ये भव्यो मोक्षगमनयोग्योत एवाजय्यो भावतः सर्वविर - तिसामायिकान्वितत्वेन रागाद्यान्तरशत्रुभिर्जेतुमशक्योतएव चाव्ययं मोक्षं करोति । णिच् । अव्ययतीति । विचि । अव्यय् मोक्षसाधको यो लोकः समुनिजनः । वृक्ष वृक्षाणां वचनं “ कुत्संपदादिभ्यः क्विपू” [ ५.३.११४ ] ८ 1 1 १ एफू निः क. १ एफ त्युक्तं घो. २ ए बी डी नः ३ अ. ३ ए डी 'नः ३ बी 'न:३ नेंति. ४ डी ए ५D drops the first part, गन्धर्वाभगोः, evidently without understanding the purpose of its insertion which is to illustrate अवर्ण preceeding a visarga. ६ सी भव्यो. ८ए ति किपि अ ९ सी डी को लो १० एफ् वृक्षा एफ वाय. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० १.३.२३. ] प्रथमः सर्गः / ५१ इति किपि वृक्षवृक्षं करोति णिच्यन्त्यस्वरादिलोपे वृक्षवयति किपि वृक्षे वृक्षाणां छेदको न च नैवास्ति । एवं लता न च । लताच्छेदकोपि नै - वास्ति । वृक्षलता जन्मजराजीवन मरैणारोहणाहारादिसचेतनधर्मवत्त्वेन सचेतना इति ताः प्राणातिपातनिवृत्तत्वेन न च्छिनत्तीत्यर्थः । यतोध्यारूढ उमीशमध्युः । स चासाविन्दुश्चाविन्दुः । स इवे निष्कलङ्का निर्दोषा ये गुणा दयादयः । ईश्वरभालस्थस्य हि कलामात्रस्येन्दोः प्रतिपदिन्दो - रिर्व निष्कलङ्कत्वात्तैरन्वितः । नन्वत्र पुरे को गुणो येनैवंविधगुणोपेतो मुनिजनोत्र तिष्ठति तत्राह । यतः सदा सर्वदा साध्युदये साधूनां मुनीनामीस्तपः संयमादिलक्ष्मीस्तस्या उदयो वृद्धिर्यत्र तस्मिन्निर्जीवक्षेत्रताविशुद्धाहार प्रात्यादिसंयमगुणोपेततया मुनिजनप्रायोग्य इत्यर्थः ॥ वृक्षलता । लता न च । अव्यलोक । इत्यत्र “व्योः” [२३] इति व (य ? ) योर्लुक् ॥ पदान्त इत्येव । भव्यजिय्य । कश्चित्तु स्वरजयोरनादिस्थयोर्यकारवकारयोर्घोष - वत्यवर्णादन्यतोपि लोपमिच्छति । अधिवन्दु । साध्युदये ॥ बन्ध एते दृशा अस्याः कमले क इव भ्रमः । क इत्थं नेह कामिन्याः स्तुत्या अन्योन्यमुद्यताः ॥ ७४ ॥ ७४. कामिन्याः स्तुत्यै लोचनाद्यवयवसौन्दर्यवर्णनायेह पुरेन्योन्यं केनोद्यताः । कथमित्याह । हे बन्धो बान्धवास्या: प्रत्यक्षाया: कामिन्या एते प्रत्यक्ष दृशौ ने कमले । अत्रार्थे क इव भ्रमः को नाम संशयः । इस भावनायाम् । एते दृशौ पद्म एव । अत्रार्थे न काप्यसंभावना कार्येत्यर्थ इत्थम् ॥ १ एफू 'ति तीति कि. २ एव्वृ [ व् बहिः ]. ४ बी सी डी रण. ५ एफ् व निः • ६ एफ व निः क ८ बी 'जय्या ।. ३ सी 'रित वृ. 'नयो. ७ एफ् Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये अघ अर्क भगो ईश भो इन्द्र उ चतुर्भुज । इत्यादौ ब्रह्मयज्ञस्य स्मरन्ति ब्राह्मणा इह ।। ७५ ।। Į સ્ ७५. इह पुरे ब्राह्मणा द्विजा ब्रह्मयज्ञस्याध्ययनस्यादौ प्रारम्भेघो अर्क हे रखे भगो ईश हे शंभो भो इन्द्र उ चतुर्भुज हे विष्णो । जयेत्यादिका क्रिया सर्वत्राध्याहार्या । इत्येवंप्रकारेण स्मरन्त्यर्थादर्कादीन् । निर्विघ्नाध्ययनप्रवृत्तये अर्काद्यभीष्टदेवता: स्मृत्वा ब्राह्मणा वेदाध्ययनं कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ अघोयिन्द्र भगोविन्दो भोयादित्यायु विष्णव | असा कयु चोत्रेति नृपे पृच्छन्ति खेचराः ॥ ७६ ॥ ७६. अ नृपेत्र पुरेस्ति यो नृपस्तत्र विषये खेचरा देवा इन्द्रादीन्पृच्छन्ति । कथमित्याह । अघो इन्द्र भगो इन्दो भो आदित्या द्वादशार्का उ विष्णो वो युष्माकं मध्येसौ नृपः कः । किं प्रभे । युष्माकं मध्येसौ किमिन्द्रः किं वेन्दुः किं वा कोप्येको रविः किं वा विष्णुरिति । अत्रत्यनृप ऐश्वर्यकान्तत्वतेजस्वित्वरक्षकत्वादिगुणदर्शनादिन्द्रचन्द्रादित्यविष्णुशङ्कयैवं प्रश्नः । विष्णव असावु कयु इत्यत्र त्रयोप्युनः पादपूरणे ॥ ५२ यीश्वरास्तारामा इमेसाववनीपतिः । बन्धवत्र साधवीक्षस्वागन्ताविति वागिह ॥ ७७ ॥ ७७. इह पुर आगन्तावागन्तुकजनविषये वागस्ति । यथा हे बन्धो [ मूलराजः ] १ सी श शंभो इन्द्र च डीश शंभो इन्द्र उ च २ सी डी त ईश्व • १ एकूण जीवेत्या २ ए दिक्रि° ३ डी सी 'दीननि ४ एफ् त्र पु. ५ ए विष्णुवुः अ. सी विष्णुयु. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० १.३.२६.] प्रथमः सर्गः । ५३ बान्धव साधो शिष्ट ये त्वया पूर्व वार्तया श्रुतास्त इम ईश्वरी आढ्याः। तथा येषां फलान्यमृतरसस्वादूनि त्वमास्वादयो ये त्वया श्रुतपूर्वाश्च त इम आरामा उद्यानानि । तथा यं त्वं यशसा दृष्टपूर्वी सोसाववनीपतिर्भूपो वर्तते । अत्र प्रदेश ईक्षस्वालोकयार्थादीश्वरादीनेवेति ॥ यतिस्मादिं देहि ययितोस्मायिदं पुनः । 1 उदारायीश्वरायाहुरत्रेति स्वनियोगिनः ॥ ७८ ॥ ७८. अत्र पुर उदारायीश्वरा आढ्याः स्वनियोगिनः स्वभाण्डागारिकॉनित्येवंप्रकारेणाहुः । यथा । अहो नियोगिन् यो याचकजन इतोस्मिन् विवक्षिते पूर्वादिदिग्विभागेस्त्यस्मायिदं स्वर्णदुर्वर्णादि देहि । यः पुनरितोस्मिन् विवक्षिते पश्चिमादिप्रदेशेस्त्यस्मायिदं पूर्वस्मादन्यद्भोजनवस्त्रादिकं देहीति || बन्ध एते । दृशा अस्याः । क इव । स्तुत्या अन्योन्य । भो इन्द्र । भगो ईश । अघो अर्क । इत्यत्र “स्वरे वा” [२४] इति व्ययोर्वा लुक् ॥ पक्षे । विष्णव | असावु । कयु । आदित्यायु । भोयादित्याः । भगोयिन्दो | अघोयिन्द्र । इत्यत्र “अस्पष्टा" [२५] इत्यादिना वँययोः स्थाने नित्यमस्पष्टावीपत्स्पृष्टतरौ वयौ । अवर्णात्त्वनुजि वा । बन्धवत्र । साधवीक्षस्व । असाववनीपतिः । आगन्ताविति । तयीश्वराः । तयारामाः । अस्मादिम् अस्मादिम् । ययितः ययितः । उदारायीश्वराः । ईश्वरायाहुः । अनुजीति किम् । उँजि अस्पष्टावेव यथा स्यातां तथा चोदाहृतम् ॥ ययितः । उदारायीश्वराः । भोयादित्याः । भगोयिन्दो | अघोयिन्द्र । इत्यत्र “शेर्यः” [ २६ ] इति रोः स्थाने यः ॥ अवर्णादिभ्य इत्येव । आहुरत्र ॥ १ सी डी राधाः । त. २ बी सी डी त्वमस्वा. ३ सी डी 'था यत् स्वं. एफ् थाय ४ बी सी डी कानाहु:. ५ एदं पूर्वस्मादिं पू. ६ ए एफ् वयो ं. ७ एफ् वयो:. ८ ए बी सी डी रौ यवौ । ९ ए उडि अ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये त्वमीशो भविनामर्हन् भवान् विष्णुर्भवानजः । स्तुवन्नाह सुभण्णेवं श्रद्धया युहाः ।। ७९ ।। ७९ इह पुरेर्हन् देवतास्यार्हतः श्रावकः । श्रद्धया भावनया युङ् युक्तः पुलकाविताङ्गो नेत्रजैलाप्लावितकपोलचेत्यर्थः । ५४ विचि सुभ मधुरगीश्च सन् स्तुवंस्तीर्थकरं नुवन् सन्नेवमाह भक्तिविशेषेणार्हन्तं प्रतीदं ब्रूते । यथा हे अर्हं जिनेश्वर भविनां भव्यानां त्वमीशस्त्वमेव महेश्वरो भवान् विष्णुस्त्वमेव नारायणो भवानजस्त्वमेव स्रष्टा । तवैव मुक्तिप्राप्तिहेतुत्वात्वत्तोन्यर्द्धरहरिब्रह्माख्यं देवतान्तरं भव्यलोकानामाराध्यं नास्तीत्यर्थ इति ॥ [ मूलराज: ] युहि । सुभण्णेवम् । स्तुवन्नाह । इत्यत्र " हस्वात् " [२७] इत्यादिना द्वित्वम् || स्वादिति किम् । भवानजः ॥ ङणन इति किम् | त्वमीशः ॥ स्वर इत्येव । अर्हन् भवान् ॥ पदान्त इत्येव । भविनाम् ॥ आच्छायां दीपिकाच्छाया खट्टाछायेव माच्छिदत् । माच्छायाः कुर्वते रत्नदीपात्राप्रमाछवीन् ॥ ८० ॥ ८०. अत्र पुरे मया लक्ष्म्या छाया शोभा येषां ते माच्छाया ईश्वरा रत्नदीपान रत्नान्येव दीपान् मणिमयान् प्रदीपान् कुर्वते । किंभूतान् । प्रमिमीते विचि प्रमा नास्ति प्रमा परिच्छेत्ता यस्याः सा तथाभूता छविः कान्तिर्येषां तान् । सर्वतः प्रसरत्कान्तीनित्यर्थः । रत्नदीपकरणे हेतु - माह । दीपिकाच्छाया दीपपृष्ठेन्धकारं आच्छायामीषदपि लक्ष्मी माच्छिदमास्म विनाशयत् । यथा खट्टाछाया आच्छायां छिनत्ति । दीपखद्वयोश्छाये हि स्पृश्यमाने अश्रिये स्याताम् । यत्पुराणम् । १ सीतः २ एफ् काचिता ३ एफू जलप्ला. ४ एफ् प्रत्येवं ब्रू ५ एफद्धरिहर ६ ए किं किमत्र स्व. ७ डी रच्छाया आ. ८ एफू 'न्मा वि. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० १.३.३०.] प्रथमः सर्गः। ५५ अजारजः खररजस्तथा संमार्जनीरजः । दीपमञ्चकयोश्छाया लक्ष्मी हन्ति पुराकृताम् ॥ इति ॥ दीपिकाच्छाया खट्दाछाया । इत्यत्र "अनाङ्माङ' [२८] इत्यादिना वा छस्य द्वित्वम् ॥ अनाङ्माङ इति किम् । आच्छायाम् । माच्छिदत् ॥ ङित्करणान्माच्छाया इत्यत्र विकल्प एव । तेन पक्षे माछाया इत्यपि ज्ञेयम् । आमाहचर्येणाव्ययस्य माङो ग्रहणात्प्रमाछवीनित्यत्रापि विकल्पस्तेन प्रमाच्छवीनित्यपि ज्ञेयम् ।। हे३च्छातोदरि हे३छेके तन्विच्छिद्म न यद्विधुः । हीच्छनिच्छति ते वक्रच्छायामत्रेति गीनृणाम् ॥ ८१ ॥ ८१. अत्र पुरे नृणां प्रस्तावात्कामिनामित्येवंविधा गीरस्ति । यथा हे३च्छातोदरि कृशोदरि हे३छेके हे तन्वि३कृशाङ्गि त्वन्मुखेन्दीवरलक्ष्म्या निर्जितत्वादू ह्रीच्छन् लजमानः सन् विधुश्चन्द्रो यत्ते वक्रच्छायां मुखलक्ष्मीमिच्छति प्राप्तुं वाञ्छति तन्न च्छद्म न कूटं किं तु सत्यमेतदित्यर्थ इति ॥ हे३च्छातोदरि हे३छेके । इत्यत्र "प्लुताद्वा" [२९] इति वा द्वित्वम् ॥ हेहैप्वेषामेव" [७.४.१००] इति प्लुतः ॥ दीर्घादित्येव । तन्वि३च्छद्म । “दूरादामन्य" [७.४.९९] इत्यादिना प्लुतः ॥ इच्छति । ह्रीच्छन् । वक्रच्छायाम् । इत्यत्र "स्वरेभ्यः" [३०] इति पदान्ते. पदान्ते च द्वित्वम् ॥ ब्रह्मवद्ब्रह्मवेत्तारो हृतार्काः कर्कशत्विषा । कीर्त्या प्रोर्णोनुवत्याशा अस्मिन्नहीं गुणहदाः ॥ ४२ ॥ ८२. अस्मिन्पुरेर्हन्ति पूजामित्यहाँ योगिनः कीर्त्या साधुवादेनाशा १ ए बी सी डी सन्मार्ज'. २ एफ् राजिंता'. ३ बी वं गी. ४ बी के३हे". ५ एफ हे३त. ६ सी डी वेकामे. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] दिशः प्रोर्णोनुवैत्यत्यर्थ व्याप्नुवन्ति । कीदृशाः सन्तः : अगाधा जलाश्रयभेदा हृदाः । गुणानां शमेन्द्रियजयादीनां ह्रदा इव गुणहदाः । गुणपरिपूर्णा इत्यर्थः । अत एव ब्रह्नमवद्विधातेव ब्रह्म परमज्ञानं विन्दन्ति लभन्त इत्येवंशीला ब्रह्मवेत्तारोत एव च कर्कशत्विषा प्रौढज्ञानतेजसा हृत आच्छादितोको रविर्यैस्ते ॥ अर्काः । कर्कश । ब्रहमवत् ब्रह्म । इत्यन्न “हादर्ह " [३१] इत्यादिना वा द्वित्वम् ॥ अर्हस्वरस्येति किम् । गुणहदाः । अर्हाः । वेत्तारः ॥ स्वरेभ्य इत्येव । हुँत ॥ अन्विति किम् । प्रोर्णोनुवति । अत्र द्विवचने कृते द्वित्वं यथा स्यात् ॥ असरटयतः सय्यतत्वको नास्मिन्नागतोभजत्त् । पित्रर्थमित्रार्थपरान् विधिरत्रैव चासृजत् ॥ ८३ ॥ ८३. एवं नामात्र महात्मानः सर्वसावधविरताः संयता आसन् । यावतात्रागतोसय्यतोपि तान् दृष्ट्वा समुच्छलितविवेकः सय्यतत्वमभजदिति तात्पर्यम् । तथैवंनामात्र बहवः पितृकार्यमित्रकार्यपरायणा जना दृश्यन्ते । यावता ज्ञायतेन्यस्थानकानि मुक्त्वात्रैव विधाता तान् सृष्टवानित्यर्थः ॥ इतविलः कान्तः कृतार्चः प्राह दैवतम् । नमत पाहि गोश्त्रात पाहि घो३त्र भुवः प्रभो ॥४४॥ ८४. इतोस्मिन्पुरे कान्त उच्छलच्छ्रद्धापूरेणोच्छसिताङ्गत्वान्मनोहरः १ ए °तवि'. २ बी °ल:: का. ३ ए तज्याहि. ४. सी एफ प्रभोः.. १ सी डी वत्यर्थं. २ ए न्तः सगा. ३ डी एफ गाधज. ४ सी नं वदन्ति. डी एफ नं विदन्ति. ५ एफ कोपि यैस्ते. ६ ए सी डी शः ।. ७ ए ना द्वि. ८ सी डी हते अं.। ९ सी संय्यता. एफ सय्यता. १० ए बी सी डी तोसंयतो'. ११ ए बी सी डी कः संयत. १२ सी र्यप. १३ सी एफ पूरणो'. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० १.३.३२.] प्रथमः सर्गः । कृतार्यों विहितपूजोपचारः कलो मधुरवा च सन् कविः काव्यकर्ता दैवतमहदादिकां स्वाभीष्टदेवतां प्राहै। कथमित्याह। हे गो३त्रातः संसारसागरोत्तारकत्वेन भूस्थलोकस्य रक्षणशीलात एव हे भुवः प्रभो पृथिव्याः स्वामिस्तथा हे घो३त्र स्वर्गस्थलोकरक्षक दैवत नमतः प्रणम्रानस्मदादीन् पाहि पाहि रक्ष रक्षार्थात्संसारदुःखेभ्य इति । कविरित्यत्र जातावेकवचनम् । वक्ता हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनास्तथा स्तुवन् निन्दन यत्पदमसकृद् ब्रूयात्तत्पुनरुक्तं न दोषायेत्यलंकारविदां समयात्पाहि पाहीति न पुनरुक्तदोषः ॥ गो३त्रातः । घो३त्र । इत्यत्र "दूरादामध्यस्य" [७.४.९९] इत्यादिना प्लुतः ॥ पात्रे यथाविधि प्रत्तधनश्चन्द्रसमो गुणैः । धैर्ययुग्ग् वीर्ययुग् राजत्यत्र सर्वोपि सत्यवाक् ॥ ८५॥ ८५. अत्र पुरे सर्वोपि लोको राजति । यतः कीदृक् । पात्रे ज्ञानदर्शनचारित्राधारे तीर्थकृदादौ यथाविध्यागमोक्तकल्पानुसारेण प्रत्तं प्रदातुमारब्धं धनं वित्तं येन सः। एतेनौदार्यविवेकावुक्तौ । धैर्ययुग्ग् वीर्ययुग् । आपत्स्वप्यचलचित्तता धैर्य वीर्यं पराक्रमस्ताभ्यां युक्तः । सत्यवागवितथवचनः । अत एव गुणैरौदार्यादिभिः कृत्वा चन्द्रसम इन्दुवन्निर्मलः॥ विरामे । धैर्ययुग्ग वीर्ययुग् । अभजत्त् असृजत् ॥ एकव्यञ्जने । मित्रार्थ पित्रर्थ । त्वङ्कः । असरय्यतः सय्यतत्वम् । इतऋविः कविङ्कलः । नमतपाहि गोइत्रातपाहि । कलःः कान्तः कान्तः कृतार्चः। गोइत्रातः घो३त्र। इत्यत्र “अदीर्घात्" [३२] इत्यादिना वा द्वित्वम् ॥ अन्वित्यधिकारात् कत्वगत्वादिषु कृतेषु पश्चावित्वम् । अदीर्घादिति किम् । वाक् । पात्रे ॥ विरामैकव्यञ्जन .. १ सी डी क स. २ सी डी एफ °दिकं स्वा. ३ एफ ह । हे. ४ सी डी क देव. ५ सी डी "ब्धं वि. ६ एफ अने कि. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] इति किम् । चन्द्र । यथाविधि संयुक्तव्यञ्जनेपीच्छन्त्येके । प्रत्त ॥ अर्हस्वरस्येत्येव । सर्वः ॥ सल्लाकारा अनुल्केस्मिन् यद्युल्कान्ति मणिप्रभाः। अवल्म्मीके च वल्मीकन्त्युन्नता द्रव्यराशयः ॥८६॥ ८६. अनुल्के सदारिष्टरहितत्वेन तत्सूचकोल्कोत्पातरहितस्मिन्पुरे यदि परं सह ला लकारेण वर्तते यो ञ् अकारस्तद्वदाकार आकृतिर्यासां ताः सल्लाकारा मणिप्रभा रत्नभास उल्कान्ति बाहुल्यादारक्तत्वाच्चोल्कावदाचरन्ति । तथा बहीयोवास्तव्यजनौतिसंकीर्णत्वेन न विद्यन्ते वल्म्मीकाः सर्पागाराणि मृत्तिकाकूटा यत्र तस्मिन्नवल्मीके चास्मिन् यदि परं द्रव्यराशयो वित्तकूटानि वल्मीकन्ति वल्मीका इव चरन्ति यत उन्नता उच्चाः । च: पूर्ववाक्यार्थापेक्षयासमुच्चये । यदीत्युभयत्र योज्यम् ॥ अनुल्के उल्कान्ति । अवल्म्मीके वल्मीकन्ति । इत्यत्र "अवर्गस्य" [३३] इत्यादिना वा द्वित्वम् ॥ वर्गस्येति किम् । द्रव्य ॥ अनिति किम् । सल्ज ॥ अन्तस्थात इति किम् । उन्नताः ॥ सखि दध्य्यत्र दध्यत्र सखि मध्विह मध्विह । वाग्वाल्यमन्मनात्रेति कुमारीभिः प्रतन्यते ॥ ८७ ॥ ८७. हे सखि । अत्र प्रदेशे दध्य्यस्ति तथात्रापि प्रदेशे दध्यस्ति । १ ए सी नुल्केस्मि. . १ सी नुल्के स. २ एफ कोल्कापात.° ३ एफ °नालिसं. के वास्मि'. ५ एफ क्यापे. ६ डी ना द्वि. ७ एफ ८ सी डीम् । अल्म ॥. ९ बी सी डी °स्था इ. ४ ए. एफ स्येत्येव । द्र. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.३.३४. ] प्रथमः सर्गः । ५९ तथा हे सखि । इह मविहापि स्थाने मध्यस्तीत्येवंप्रकारेणात्र पुरे बाल्यमन्मना बालत्वादव्यक्तमधुरा वाग् वाणी कुमारीभिः प्रतन्यते विस्तार्यते । दध्ययत्रेत्यादि स्वप्रधानमेव वाक्यद्वयमपि । यद्वात्राकृतयवद्वित्वस्य वाक्यस्य “असकृत्संभ्रमे” [७. ४. ७२. ] इति संभ्रमे द्विरुक्तिः । ततो यवयोर्द्वत्वं वा । तदायमर्थः । हे सखि । अत्र प्रदेशे दध्ययस्त्यत्र प्रदेशे दध्यस्ति । एवं मध्वि मध्वित्येवं संभ्रमप्रकारेण ॥ दध्य्यन दध्यत्र । मध्विह मध्विह । इत्यत्र "ततोस्या:" [३४] इति वा द्वित्वम् ॥ तत इति किम् । बाल्य ॥ अस्या इति किम् । वाग्बाल्यमन्मना ॥ कष्टृक्कष्टं कृतञ्च्छन्नञ्छन्नं मे स्फुरितं स्फुटम् । कलिः प्रातः पूत्करोतीत्यत्र शङ्खध्वनिच्छलात् ॥ ८८ ॥ ८८. पत्तने हि किल देवसद्मसु प्रातःक्षणे धर्ममहाराजजागर्याकृतपुङ्खः सदा शङ्खो वाद्यते । तद्धनिमपह्नुत्यान्यदुत्प्रेक्ष्यते । अत्र पुरे प्रातः प्रभाते शङ्खध्वनिच्छलात्कलिः पापयुगं पूत्करोत्युंच्चैः कोकूयत इव । कथमित्याह । मे मम स्फुटं सर्वजगत्प्रकटं स्फुरितं विजृम्भितं सर्वलोकान्यायप्रवृत्तिलक्षणं छन्नं छन्नं गुप्तं गुप्तं कृतम् । प्रस्तावान्नयसद्मनानेन पुरेण तस्मात् कष्टं कष्टं दुःखं दुःखं ममास्तीति । यस्य हि वस्तु केनापि चौरादिना गोप्यते स तद्वियोगेन दुःखितः सन् पूत्करोति । अत्र चान्यायानां नाम्नोप्यभावेन कलिकालस्फुरितस्याज्ञायमानत्वादेवमपद्धतिः ॥ कष्टं कष्टं कृतञ्च्छन्नञ्छन्नमित्यत्र वीप्सायां कष्टच्छन्नयोर्द्विरुक्तिं कृत्वा प्रथमहिती त्वम् ॥ १ डी कृतच्छन्नन्छ.. १ सी डी बाल्यत्वा २ बी °तो वयो". • ३ सी डी त्युच्चकैः को. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] स्त्रैणः कण्ठः कलकान्तकामिभिश्चात्र निश्चितम् । जयशङ्खः स्वरापूर्णपतीपुष्पधन्वनः ॥ ८९॥ ८९. अन्न पुरे स्त्रीणामयं वैणः कलस्वरोपेतत्वात्कलो मधुरोत एव कान्तो मनोज्ञः कण्ठो गलकन्दलो निश्चितमवश्यं पुष्पधन्वनः कामस्य स्वरापूर्णः शब्दायमानो जयशङ्खो विजयहेतुः कम्बुः कामिभिः प्रतीतो ज्ञातः । अत्रत्यत्रीणां कलकण्ठत्वेन वं स्मरजितं दृष्ट्वा कामिभिः कल: स्त्रीकण्ठः शङ्खाकारत्वात्कामराजस्य शब्दायमानो जयशङ्खो निःसंशयं ज्ञात इत्यर्थः ॥ ___ कष्टुं कष्ट कष्टं कृतम् । स्त्रैणः कण्ठः कण्ठः कलः। कलिः प्रातः प्रातः पूत्करोति । कलान्तः कान्तामिभिः । आपूर्णप्रतीतः प्रतीतपुष्प । कामिभिश्चात्र निश्चितम्। कष्टुं कष्टम् । स्प्फुरितं स्फुटम् । इत्यन्त्र “शिटः प्रथम'[३५] इत्यादिना [वा] द्वित्वम् ॥ शिट इति किम् । पूत्करोति । शङ्खः ॥ प्रथमद्वितीयस्येति किम् । स्वर ॥ अनुनासिकादप्यादेशरूपात्केचिदिच्छन्ति। कृतञ्च्छन्नं छन्नञ्छन्नम् ॥ अत्रोच्चश्वसच्श्रवः पेयं षीरं क्षरति गौः सताम् । सतृषट्पदपातव्यं पङ्करुपण्डवन्मधु ॥ ९० ॥ ९०. अत्र पुरे सतां साधूनां गौर्वाणी उच्छश्वसच्श्रव:पेयमुच्श्वसन्ति सुखानुभवेन सोल्लासानि यानि श्रवांसि श्रोत्राणि तैः पेयं पातव्यं षीरं दुग्धं क्षरति परिणामसुन्दरत्वेनं मधुरत्वेन च स्रवतीव । १ बी सी डी कण्ठेन. २ भि: स्त्री. ३ डीष्टं कृ. ४ सी डी कल:. ५ सी डी त स्प्फु. ६ सी डी एफ 'नुभावे. ७ ए न च. ८ ए बी सीडी च श्रव. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . [है० १.३.३६.] प्रथमः सर्गः। यापि गौर्धेनुः साप्युच्श्वसच्श्रवसा तर्णकादिना लेां क्ष्षीरं क्षरतीत्युक्तिः। यथा पङ्करुटमण्डमम्भोजवनं सतृषः साभिलाषा ये षट्पदा भृङ्गास्तैः पातव्यं लेह्यं मधु मकरन्दं क्षरति । अस्यां चोपमायां भरतीति सामान्यपदं गवा स्त्रीलिङ्गेन पङ्करुटमण्डशब्देन नपुंसकेन च सह न भिद्यत इति सामान्यशब्दभेदाख्यदोषाभावः । उक्तं च । । सामान्यशब्दभेदःसोयं यत्रापरत्र शक्येत । योजयितुं नाभग्नं तत्सामान्याभिधायि पदम् ॥ इति ॥ कृतमत्स्स्यध्वजोत्सेकाः स्त्रियः प्स्साताप्सर श्रियः । अस्मिन् सद्यो मनो यूनां मनन्ति ख्यातविभ्रमाः ॥११॥ ९१. अस्मिन्पुरे स्त्रियः सद्यो दर्शनकाल एव यूनां मनो मनन्ति क्षोभयन्ति । यतः साताप्सरःश्रियो रूपलावण्याद्यतिशयेन ग्रस्तदेवागनारूपलावण्यादिलक्ष्मीकास्तों ख्याता अतिरामणीयकेन प्रसिद्धा विभ्रमा विलासा यासां ता अत एव कृतमत्स्यध्वजोत्सेका विहितकामोद्रेकाः ॥ उच्छश्वसच्श्रवः । सतृषट्पद पङ्करुपण्डवत् । मत्स्स्य उत्सेकाः । षीरं क्षरति । साताप्सरः । इत्यत्र “ततः शिटः' [३६] इति वा द्वित्वम् ॥ तत इति किम् । अस्मिन् सद्यः । शिट इति किम् । मनन्ति । ख्यात ॥ तपःकाश्य॑जुषां हर्षकृतां हिंस्रोपि दर्शनात् । धनुस्त्यागं करोत्यस्मिन्नवत्कार्सरोत्स्सवे ॥ ९२ ॥ ९२. अस्मिन् पुरे तपसा न तु रोरत्वादिना काश्य कृशत्वं जु१ सी डी ण्यादि. २ एफ था ता. ३ एफ °यकत्वेन. ४ बी सी डी ति द्वि. . Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] षन्ते सेवन्ते ये तेषां तपस्विनां दर्शनात् हिंस्रोपि क्रूरकर्मा व्याधादिरपि धनुस्त्यागं मृगादिवधार्थमुपात्तस्य धनुषस्त्यागं करोति यतो हर्षकृतां धन्या एते भगवन्तो ये शान्तदान्तास्तपसैवमात्मानं क्लेशयन्ति तत्किं वयं निरपराधजीवव्यापादनपापवृत्त्यात्मानं दुर्गतौ पातयाम इति प्रकारेण व्याधादिलोकस्यापि हर्ष क्रूरत्वोपशमक मनउल्लासमतिशान्त. त्वतीव्रतपश्चरणकरणादिना कुर्वन्ति ये तेषाम् । यथार्को रविः कृसरा सप्तधान्यानि तस्या अयम् अणि कार्सरो य उत्सवस्तस्मिन् कार्सरोत्सव उत्तरायणदिने धनुस्त्यागं धनराशित्यागं करोति । रविद्युत्तरायणदिने धनूराशेर्मकरराशिं संक्रामति । शब्दश्लेषेणोपमा ॥ दर्शनात् । हर्ष । कार्सर । इत्यत्र “न रात्स्वरे'' [३७] इति रात्परस्य शिटो न द्वित्वम् ॥ रादिति किम् । उत्स्सवे ॥ स्वर इति किम् । काय ॥ शिट इत्येव । अर्क॥ पुत्रादिन्पुत्रपुत्रादिन्नथवा पुत्रहत्यपि । पुत्रजग्धीति नाक्रोशत्यस्मिन्मधुरगीर्जनः ॥ ९३ ॥ ९३. अस्मिन्पुरे जनो लोकः पुरुषं स्त्रियं च नाक्रोशति न निष्ठुरं वक्ति यतो मधुरगीर्मुदुवाक्यः । कथं नाक्रोशतीत्याह । हे पुत्रादिन्नभीक्ष्णं पुत्राणां भक्षक हे पुत्रपुत्रादिनभीक्ष्णं पौत्राणां भक्षक त्वयेदं कार्य विनाशितमित्याद्यध्याहार्यम् । इत्येवंप्रकारेण नरम् । अथवा तथा पुत्रो हतोनया "अनाच्छादजात्यादेर्न वा" [२. ४. ४७.] इति ड्यां पुत्र १ ए सी पुत्रह, २ ए सी पुत्रज. १ सी °दि धा. २ एफ शान्ता दा. ३ सी डी सैवात्मा . ४ सी मकम. ५ एफ लासं शा. ६ सी डी रणा. ७ सी डी °न्ति ते. ८ बी सी डी एफ जनः पु. ९ ए सी डो पुत्रह. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.३.३८.] प्रथमः सर्गः । हती तत्संबोधनं हे पुत्रहति । तथाँ हे पुत्रजग्धि भक्षितपुत्रे त्वयेदं दुष्ठु कृतमिति स्त्रियं च ॥ पुत्रादिपुत्रपुत्रादिवर्जितेत्रोपहस्यते । पुत्रादिपुत्रपुत्रादिमत्स्यो न्यायः प्रचेतसः ॥ ९४ ॥ ९४. पुत्रादिनः पुत्रभक्षिणः पुत्रपुत्रादिनश्च पौत्रभक्षिणो मत्स्या यत्र स प्रचेतसोपांपतेर्वरुणस्य न्यायोत्र पुर उपहस्यतेल्लोकैः । यतः पुत्रादिपुत्रपुत्रादिवजिते पुत्रादी पुत्रसंहारी यः पुत्रपुत्रादी पौत्रसंहारी शाकिन्यादिलोकस्तेन वर्जिते रहिते ॥ पुत्रादिन् । पुत्रपुत्रादिन्निति नाक्रोशति । इत्यत्र “पुत्रस्य" [३८] इत्यादिना न द्विस्वम् ॥ आदिन्पुत्रादिनीति किम् । पुत्रहति पुत्रजग्धीति नाक्रोशति ॥ आक्रोश इति किम् । पुत्रादिपुत्रपुत्रादिवर्जिते पुत्रादिपुत्रपुत्रादिमत्स्यः । एषु "अदीर्घात्" [१.३.३२] इत्यादिना विकल्प एव ॥ कम्बुकण्ठ्योत्र तन्वनयश्चञ्चदजन्मलोचनाः। रंरम्यन्ते यद्भुवोग्रे लुठन्किङ्करति स्मरः ॥ ९५ ॥ ९५. अत्र पुरे तन्वङ्गयः कृशाङ्गयो जलक्रीडादिभी रंरम्यन्तेत्यर्थ क्रीडन्ति । कीदृश्यः । कम्बुः शङ्खस्तद्वद्वर्तुलस्त्रिरेखो मधुरस्वरश्च कण्ठो यासां तास्तथा चञ्चदब्जन्मलोचनाः विकस्वरेन्दीवराक्ष्यः यद्भुवोगे यासां भ्रवः पुरो लुठन्परिवर्तमानः स्मरः कामः किंकरति किंकरवदाचरति । अत्रत्यतन्वङ्गीनां यत्रं यत्र भ्रुवोनिक्षेपस्तत्र तत्र स्मरो विज़म्भत इत्यर्थः । किंकरोपि हि भक्तिविशेषख्यापनाय स्वामिनोग्रे लुठति ॥ १ डी हत्येत . २ ए सी डी पुत्रह. ३ एफ था पु. ४ सी डी एफ दुष्ट कृ. ५ एफ री च शा. ६ ए न्तेत्यार्थः ७ सी डी भ्र. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ व्याश्रयमहाकाव्ये मूलराजः] म् । किङ्करति । कैम्बु । न् । तन्वङ्गयः । चञ्चत् । कण्ठ्यः। कवुडोचि कण्ठः । रंरम्यन्ते । इत्यत्र "नां धु' [३९] इत्यादिना निमित्तवर्गस्यैवान्त्यः ॥ धुडिति किम् । अब्जन्म ॥ धुड्वर्ग इति किम् । रंरम्यन्ते ॥ अपदान्त इति किम् । लुठन् किंकरति ॥ पद्मान्युन्मधुलिंहीव सुदृश्यास्यानि सुभ्रुवाम् । चेतांसीहाच्छता षि पुंसां स्वःसिन्धुवारिवत् ॥ ९६ ॥ ९६. यथा पद्मान्युदूर्ध्व मधुलिहौ भृङ्गदंपती येषु तान्युन्मधुलिंहि भृङ्गमिथुनयुतानि स्युस्तथेह पुरे सुभ्रुवामास्यानि मुखानि सुदृशि रम्येक्षणद्वन्द्वानि सन्ति । पश्चार्द्ध स्पष्टम् ॥ पिण्डि गर्व मुखेनेन्दोः स्वःस्त्रीभ्यः स्वं विशिडि च । - इति शास्ति वदन्साधु स्त्रीजनेत्र सखीजनः ॥ ९७ ॥ __ ९७. अत्र पुरे सखीजन: साध्वनेकभङ्गीचतुरं यथा स्यादेवं वदन् सन् स्त्रीजने विषये शास्ति शिक्षा दत्ते । कथमित्याह । पिण्ढीत्यादि । अत्युत्कृष्टवृत्तत्वकान्तत्वादिश्रीशालिना मुखेन कृत्वा चन्द्रगर्वस्य चूर्णने तथातिशयितरूपादिश्रिया देवीभ्यः सकाशात्स्वस्य विशिष्टीकरणे च तवाधुनावसर इत्यर्थ इति ॥ "प्रैषानुज्ञा" [५.४.२९] इत्यादिनात्र पञ्चमी ॥ - म् । पुंसां । न् । सुदृशि । अच्छताजुषि । चेतांसि । उन्मधुलिंहि । इत्यत्र “शिड्डे" [४०] इत्यादिनानुस्वारः ॥ नामिति बहुवचनात् सुदृशीत्यत्र मत्वं बाधित्वानेनानुस्वार एव ॥ शिड इति किम् । इन्दोः ॥ अपदान्त इत्येव । बदन साधु ॥ अन्वित्येव । पिण्ड्डि । शिण्ड्डि । अत्र पिषशिषोहौं तस्य धित्वे पस्य डत्वे च शिडभावाच्छ्रनकारस्यानुस्वारो न भवति ॥ १ सी डी एफ् स्वस्त्री. १ एफ् कम्बुवत् । न्. २ सी डी धुटिति. ३ एफ न्म । रं. ४ सी डी न्ते । लु. ५ सी डी एफ जनवि. ६ एफ तेत्र क. ७ एफ् डेनुस्वार इत्यनु. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० १.३.४१. ] प्रथमः सर्गः । मृदू रक्तः शुची रम्योस्मिन्नाढ्यस्त्रीजनः सुखी । अहो रात्रिं च नो वेत्ति स्वारामाजनसंनिभः ॥ ९८ ॥ - ९८. अस्मिन्पुर आन्यस्त्रीजनोहो रात्रिं च नो वेत्ति । कीदृक् सन् । मृदुः कोमलपाण्याद्यवयवः कोमलवचनो वा । रक्तः स्वपत्यावनुरागवान् । शुचिरुज्ज्वलाङ्गनेपथ्यः कौटिल्यादिपङ्करहितो वा । रम्यो रूपलावण्याद्यतिशयवान् । सुखी नीरोगत्वसर्वसंपत्तिसामग्र्यादिना सुखितः । अत एव स्वारामाजनसंनिभः स्वर्गस्त्रीसदृशः || अतिसुखितत्वेनोदितमस्तमितं च न जानातीत्यर्थः । स्वारामाजनोप्युक्तविशेषणोपेतो दिनं रात्रिं च न जानाति ॥ स्वारामा । शुची रम्यः । मृदू रक्तः । इत्यत्र “रो रे लुगू " [४१] इत्यादिना रस्य लुगकारेकारोकाराणां चानन्तराणां दीर्घः ॥ अन्वित्येव । अहो रात्रिम् | अत्र पूर्वमेव रोरुत्वे रेफाभावाल्लुग्दीर्घाभावः सिद्धः ॥ उमामादिप्रसक्तानां प्रौढानां लीढसौरभः । मधुलिडोकते लेढुं मोढात्रादृढ आननम् ॥ ९९ ॥ ६५ ९९. अत्र पुर उमामाढिप्रसक्तानामुमाया गौर्या माढिर्महनं पूजा तत्र प्रसक्तीनामासक्तानां प्रौढानामिद्धवयोमन्युकामानां प्रगल्भस्त्रीणामाननं मुखं लेढुमात्रातुमावृढ उद्यतः सन् मधुलिट् पूजार्थोपनीतपुष्पसहचरो भृङ्गो ढौकत आगच्छति यतो मोढा मुखे पद्मभ्रमवान् । कुतः । यतो लीढसौरभ आघातमुखसौगन्ध्यः पूजार्थानीतपुष्पाणि १ सी डी 'ढ्यः स्त्री. १ डी 'ताव'. २ सी डी 'कानां. ३ बी सी डी एफ पुष्फस : Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] मुक्त्वा सौरभातिशयाढ्यत्वात्प्रौढानां मुखान्याघ्रातुं भृङ्गः पुनः पुनौकत इत्यर्थः ॥ माढि । लीढ । प्रौढानाम् । इत्यत्र "ढस्तड्डे" [४२] इति ढस्य लुगकारेकारोकाराणां च दीर्घः ॥ तडु इति किम् । मधुलिड् ढोकते । नायं लुप्यमानढकारनिमित्तो ढः ॥ अदिदुत इत्येव । आवृढः ॥ अन्वित्येव । लेढुम् । मोढा । अत्र गुणे कृते पश्चाडलोपः॥ न वोढास्य श्रियां स्वर्गो न सोढा वर्णने गुरुः । व्यूढोत्तम्भितकेतूत्थैरुत्स्तौतीत्यारवैर्मरुत् ॥ १० ॥ १००. मरुद्वायुयूंढा विशाला उत्तम्भिता: कोट्यधिपतिगृहादिपूर्वीकृता ये केतवो ध्वजास्तेभ्य उत्थोत्थानं येषां तैरारवैः पटत्पटिति शब्दैः कृत्वोत्स्तौतीव प्राबल्येन वर्णयतीव । अर्थादिदं पुरम् । कथमित्याह । अस्य पुरस्य श्रियां प्रासादादिलक्ष्मीणां स्वर्गोपि न वोढा न धारयत्यत एवास्य वर्णने गुरुर्वाचस्पतिरपि न सोढौं न समर्थ इति ।। असंस्तब्धः सुसंस्थानः सूत्स्थानः सैप ते पतिः। मुग्धास्मिनिति सख्युक्त्योत्तिष्ठन्त्यङ्गमुदस्तभत् ॥१०१॥ १०१. किल काचिन्नायिका मुग्धा पत्यौ समीपमागतेपि मुग्धत्वादभ्युत्थानादिप्रतिपत्तिं न कृतवतीति सख्या शिक्षार्थमुक्ता । यथा हे सखि स निरुपमगुणैः सर्वत्र प्रसिद्ध एष प्रत्यक्षस्ते तव पतिः सुष्टु त्वदीयचित्तावर्जनापेक्षित्वेन शोभनमूर्ध्व स्थानमवस्थितिर्यस्य स सूत्स्थान १ बी सी ख्युक्तोत्ति. १ एफ पटेति. २ ए तीतिव. ३ ए °ढा सौं. ४ एफ थः ।।. ५ डी खि नि', ६ डी णैः स स. ७ सी पेक्षत्वे . ८ एफ नमुदूर्ध्व. ९ सी डी मूर्ध्वस्था. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ [ है० १.३.४४.] प्रथमः सर्गः । ऊोस्ति । कीदृक् सन् । सुष्टु सर्वसामुद्रिकलक्षणोपेतत्वेन शोभन संस्थानं शरीरावयवरचना यस्य स सुसंस्थानः सुरूप इत्यर्थः । तथासंस्तब्धोनहंकारस्त्वयि सप्रश्रय इत्यर्थः । तदेतदभ्युत्थानाय त्वमप्युत्तिष्ठेति व्यजितमित्येवंप्रकारेणास्मिन्पुरे सख्युक्त्या वयस्याशिक्षयोत्तिष्ठन्ती पत्युरभ्युत्थानायो/भवन्ती मुग्धा नवोढा ख्यङ्गमुदस्तभत् स्तम्भरहितं चक्रे । विनीतं चकारेत्यर्थः । यद्वा । किल कां चन मुग्धां निकदमायान्तं पतिं दृष्ट्वा सद्यः स्मरोद्रेकात्स्तम्भेन सात्विकविकारेणाक्रान्तां किंकर्तव्यतामूढामभ्युत्थानादिप्रतिपत्तिमकुर्वाणां निकटस्था सख्येवमाह । यथा हे सखि स प्रसिद्ध एष प्रत्यक्षस्ते पतिरसंस्तब्धस्त्वदर्शनेपि गाम्भीर्यातिरेकात्स्तम्भरहितोज्ञेयस्तम्भविकार इत्यर्थः । अत एव सुसं. स्थानोविकृताकारः सन सूत्स्थान ऊर्ध्वस्थितोस्ति । एतेनेदं व्यञ्जितं यदुत सखीजनमेलापकेपि त्वं मुग्धतयागम्भीरत्वात्पतिदर्शने स्तम्भान्वितात एव विकृतोपविष्टा चाभूरितीत्येवंप्रकारेणास्मिन्पुरे सख्युक्त्या मुग्धोत्तिष्ठन्ती पत्युरभ्युत्थानायो:भवन्ती सत्यङ्गमुदस्तभेत् स्तम्भरहितं चक्रे । एवं व्यङ्गयोक्त्या सख्या तत्कामचेष्टायां प्रकटितायां पत्युरभ्युत्थानायोत्तिष्ठन्ती स्तम्भसंरम्भमाच्छादयामासेत्यर्थः ।। सोढा । वोढा । इत्यत्र “सहिवहे:०" [४३] इत्यादिना ढस्य लुगवर्णस्य चौकारः ॥ अवर्णस्येति किम् । व्यूढ ॥ केतूत्थैः । उत्तम्भित । इत्यत्र "उदःस्था” [४४] इत्यादिना सस्य लुक् । उद इति किम् । सुसंस्थानः । असंस्तब्धः। स्थास्तम्भ इति किम् । उत्स्तौति ॥ १ सी मुद्रक. २ सी भनसं. ३ सी डी राघव. ४ एफ् सुस्था. ५ बी सी ख्युक्तावयस्याः शि. ६ सी डी त् संरम्भ. ७ ए सी क्रान्तं किं. ८ सी खि प्र. ९ डी स्तम्भोवि. १० सी डी रः सू. ११ एफ कृताविकारायानासत्युप. १२ सी ख्युक्ततामु. १३ सी डी त् संरम्भ. १४ डी म्भमा . १५ एफ् म् । अ. १६ सी डी स्थानम् ।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] स इति किम् । उत्तिष्टन्ती । उदस्तभत् ॥ प्रत्यासत्तेः स्थास्तम्भविशेषणस्यैवोदो ग्रहणादिह न भवति । उत्स्थानः । अत्र ह्युदः स्थानेत्यनेन नाम्ना सिद्धताख्यभावरूपेण संबन्धो न तु पूर्वापरीभूतमात्रवाचिना धातुनेति ॥ सूत्स्थानः ॥ सैष ते पतिः इत्यत्र "तदः से:" [४५] इत्यादिना सेलृक् ॥ यद्विक्रमः सकोप्यस्य यत्प्रस प्रभुतागुणः। . इन्द्र एष भैष वास्माद्राज्येषोत्र स्तुतिक्रमः ॥ १०२ ॥ १०२. अत्र पुरे राज्ञि नृपविषय एष एवंविधः स्तुतिक्रमो वर्णनारीतिर्भवति । यथा यद्यस्माद्धेतोरस्य राज्ञो विक्रमः शौर्य सको यक इन्द्रे । श्रूयते स इत्यर्थः । तस्मादेष राजा इन्द्रः शक्रः । तथा यद्य. स्मादस्य राज्ञः प्रभुतागुण आज्ञैश्वर्य प्रस य इन्द्रे श्रूयते । तस्मात्प्रकृष्ट इत्यर्थः । तस्मात्प्रैष वास्मादस्मादिन्द्रात् प्रकृष्टो वैष राजेति ॥ एषकः किं सकः स्वर्गस्तस्यानेषो हि डम्बरः। सोप्यसः किमभूत्सिद्धैरत्रैवं क्रियते भ्रमः ॥ १०३ ॥ १०३. अनेकाद्भुतश्रीनिधानत्वादत्र पुरविषये सिद्धैर्देवभेदैरेवमेवंविधो भ्रमः संशयः क्रियते यथा सकः सदा दृष्टपूर्वः स्वर्गो नाक: किमेषकः प्रत्यक्षेणोपलभ्यमानपुरलक्षणः । यद्वा । नायं स्वर्गः । कुत इत्याह । तस्यानेषो हि डम्बर इति हि स्फुटं तस्य स्वर्गस्य डम्बर आडम्बरो लक्ष्मीविलासोनेषः प्रत्यक्षेणोपलभ्यमानेदंपुराडम्बर एष नै एषोनेषोन्योन्यादृशो हीन इत्यर्थः। तत्किं सोप्यसोभूत् । अपिरेवार्थे । स एव स्वर्ग एव । किं न सोसोन्य: स्वरूपं परित्यज्य रूपान्तरवानभूत् । अनेर्षे इत्यस्य च प्रत्यक्षोपलभ्यमानपत्तनाडम्बराद्विलक्षणाडम्बरमात्रवाचित्वेन १ ए °स्मादि. २ एफ र ल°. ३ डी न न ए'. ४ एफ घोन्यो'. ५ सी प. बएषस्य. डीप एप इ. ६ सीडी त्वे य. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० १.३.४७. ] प्रथमः सर्गः । यद्यपि स्वर्गडम्बरोधिकोपि वाच्यः स्यात् तथापि पत्तनाम्बरात्स्वर्गडम्बरो हीन एव ज्ञेयः । पत्तनस्यात्र वर्ण्यत्वात् ॥ I एष प्रैषः । सकोपि । प्रैष वा ॥ प्रस प्रभुं । इत्यत्र " एतदश्च ० " [४६ ] इत्यादिना सेलुक् ॥ अननञ्समास इति किम् । एषकः किम् । सकः स्वर्गः । भनेषो हि । असः किम् ॥ व्यञ्जन इति किम् । एषो । सोपि ॥ 3 सरूपयुक्ताः सद्माग्रे राजन्त्यत्र कुलस्त्रियः । व्यञ्जनाग्रे पञ्चमान्तस्थावद्वालोपशोभिताः ॥ १०४॥ १०४. अत्र पुरे वालैः केशैः । बवयोरैक्याद्वालैरर्भकैर्वा । उपशोभिताः कुलस्त्रियः सद्मा गृहद्वारदेशे सरूपयुक्ताः सरूपैः समानरूपैर्भर्तृभिर्युताः सत्यो राजन्तिं शोभन्ते । भवति हि शोभातिशय: स्त्रीणां समानभर्तृयुक्तानाम् । यथा वा विकल्पेन लोपो वालोपस्तेन शोभिता वालोपशोभिताः पञ्चमान्तस्था ज्ञणनमयरलवा वर्णा व्यञ्जना व्यञ्जनात्पराः सरूपयुक्ताः सरूपैः समानरूपैर्डञणनमयरलवैर्युक्ताः सत्यो[ सन्तो ? ] राजन्ति ॥ ६९ 93 कुंड । अदितेरयमादित्यः स देवतास्य आदित्यः स्थालीपाक आदित्य इति वा । इत्यादिषु हि व्यञ्जनात्पराः पञ्चमान्तस्था: सरूपेषु परेषु "व्यञ्जनात्पञ्चमा" [ ४७ ] इत्यादिना वा लुप्यन्ते । एतेन ""यञ्जनात्पचमा'" [ ४७ ] इत्यादिसूत्रोदाहरणानि सर्वाण्यपि सूचितानि ॥ ५ सी शैर्बबयो' डी १ एफू सुतेत्य. २ सी डी हि सकः किं । एफ् हि । असोवाव्य . ३ सी ' षोसोपि ॥ स ं. ४ए शैर्वबयो ं. ६ बी 'क्ताः सह स ७ ए बी एफ न्ति भ.. 'नयुक्तैरू. ११ डी कुंड्डौ कुंड्डौ. 'षु व्य . ८ एफू भिताः पञ्च १२ सी कुंड्डौ ॥ ९ सी रूपैर्ड. १० डी १३ डी दिल्या. १४ एफ् Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] धर्म शिण्ढि गुणाञ् शिण्ड्डि पिण्ड्यघं पिण्ड्डि दुष्कलिम् । प्रत्तं गृहाण नापत्तं शिक्षात्रेति विपश्चिताम् ॥ १०५ ॥ १०५. शिण्डि सदाचाराचरणेन विशिष्टीकुरु । पिण्ढि चूर्णय । प्रत्तं स्वामिना दत्तम् । नाप्रत्त्तम् । नञ् मार्थे । अदत्तं मा गृहाणेत्यर्थः । शिष्टं स्पष्टम् ॥ शाङ्गिणः सक्न उद्भूतां गुणदर्जी सुरस्त्रियम् । अत्र नार्यः कलाबोध्यो विजयन्ते निजैर्गुणैः ॥१०६ ॥ १०६. अत्र पुरे कला गीतनृत्ताद्याश्चतुःषष्टिस्तासां बोद्भयो ज्ञान्यो नार्यः सुरस्त्रियं स्वर्वेश्यां निजैर्गुणै रूपादिभिर्विजयन्ते उत्कृष्टत्वात्पराभवन्ति । किंभूताम् । शाङ्गिणो विष्णोः सक्न ऊरुप्रदेशादुद्भूतां संजाताम् । हरेः किलातितीव्र तपस्तपस्यतः क्षोभाय स्वपदापहारक्षुभितेनेन्द्रेणाप्सरस: प्रेषितास्ताश्च क्षोभनाय नृत्तादिविलासान् कुर्वतीदृष्टा तदर्पापनोदाय हरिणा निजसक्थि विदार्यागताप्सरोरूपजैत्री उर्वशीनाम्नी स्त्री निर्मम इति लोकोक्तिः । अत एव गुणदर्ती गुणै रूपलावण्यादिभिर्दर्पिष्ठीमपि ॥ प्रत्तं प्रत्तम् । शिण्ढि शिण्ड्डि । पिण्ढि पिण्ड्डि । इत्यत्र “धुटो धुटि स्वे वा" [४४] इति धुटो लुग्वा ॥ धुट इति किम् । शाङ्गिणः॥धुटीति किम् । सक्नः ॥ स्व इति किम् । दर्तीम् ॥ व्यञ्जनादित्येव । बोद्रयः ॥ १ सी डी 'कलंम्. १ डी एफ र्थः । शेषं स्प. २ एफ नृत्याद्या'. ३ एफ षष्टिकलास्ता. ४ डी वैशां नि. ५ एफ नृत्यादि. ६ एफ छामिति ॥. ७ एफ ङ्गिणो ॥ धु'. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.३.४९.] प्रथमः सर्गः । अस्तब्धा दुग्धशुद्धात्मन्मा लज्जस्व प्रगल्भ्यताम् । fotos मानं सपत्नीनां मुग्धास्मिन्निति पाठ्यते ॥ १०७ ॥ १०७. अस्मिन्पुरे मुग्धा नवोढा पाठ्यते सखीभिः शिक्ष्यते । कथमित्याह । हे दुग्धशुद्धात्मन्नकुटिलाशये भर्तुः समीपागमे मा लजव किं तु प्रगल्भ्यतां शृङ्गारसारस्वकलाकौशलप्रकाशनेन प्रगल्भीभूयेताम् । ततश्च प्रेयसोतिवल्लभीभवनेन सपत्नीनां मानं सौभाग्यविषयं गर्व पिण्डि चूर्णयेति । यतोस्तब्धा विनीता । यो स्तब्धो विनीतः स्यात् मुग्धो मूर्खोप्युपाध्यायेन पाठ्यते ॥ ७१ लजस्व । दुग्ध । मुग्धा । पिण्डि । शुद्ध । अस्तब्धा । इत्यत्र " तृतीयः ” [४९] इत्यादिना घुट: स्थानिप्रत्यासन्नस्तृतीयः । तृतीयचतुर्थ इति किम् । पाव्यते ॥ घुट इत्येव । प्रगल्भ्यताम् ॥ पर्माणोत्र वाक्पूतास्तत्तद्विद्याककुश्रुताः । विश्वामित्रप्रभाच्छेदे मैत्रावरुणनिष्ठुराः ।। १०८ ।। १०८. षट् कर्माणि यजनयाजनाध्ययनाध्यापनदानप्रतिग्रहलक्षणानि प्रतिदिनकृत्यानि येषां ते षर्माणो द्विजा अत्र पुरे सन्ति । कीदृशा वाक्पूताः सत्यभितवाक्त्वेन वचनेन पवित्राः । एतेन सदनुष्ठानवत्त्वमुपलक्षितम् । तथा तास्ता अनेकप्रकारत्वेन प्रसिद्धा या विद्या: शिक्षाकल्पादयश्चतुर्दश ताभिः ककुप्सु दिक्षु श्रुता विख्याताः । एतेन ज्ञानित्वोक्तिः । अत एव विश्वामित्रप्रभाच्छेदे विश्वस्योपद्रवकारित्वेनामित्राः शत्रवो विश्वामित्रा दैत्यराक्षसादयस्त एवान्यायकारित्वाद्विश्वामित्रो गाधिसूनुस्तस्य १ एफ् स्वप्र° २ सी यत ३ सी डी यं सर्व. ४ सी डी स मू. ५ एफ् ग्धोपि मू. ६ सी स्थानप्र डी स्थानेप्र. ७ एफ् 'वित्रिता: ।. . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] यः प्रभाच्छेदः प्रतापोच्छेदस्तत्र मैत्रावरुणनिष्ठुरा उर्वश्यां मित्रावरुणाभ्यां जातत्वान्मित्रावरुणयोरयमपत्यत्वेन मैत्रावरुणो वशिष्ठस्तद्वनिष्ठुराः प्रचण्डाः। वशिष्ठो ह्यर्बुदाश्रमस्थो विश्वामित्रेण राज्ञार्बुदागतेनापहृताया नन्दिनीधेनोः प्रत्याहरणाय महायागं कृत्वाग्निकुण्डे चतुहस्तं चतुर्वकं कोपावेशात् हुमित्युच्चारयन्तं तेजस्विनं महाभटं निष्पादितवान् । स जित्वा कौशिकं जन्ये धेनुं प्रत्याहरन्मुनेः । प्रीत्युन्मुखात् प्रमाराख्यां प्राप प्राज्यैर्वरैः सह । इति । यथा वैसिष्ठेन महाज्ञानक्रियाबलेन विश्वामित्रस्य माहात्म्यमपहृतमेवं विश्वोपद्रवकारिणां दैत्यादीनां दर्पमपहरन्त इत्यर्थः । यद्वा । षट् कर्माणि देवपूजागुरूपास्तिस्वाध्यायसंयमतपोदानरूपाणि प्रतिदिनकृत्यानि येषां ते षटुर्माणः परमश्रावका अत्र सन्ति । किंभूता वाक्पूतास्तथा तत्तयानेकविधत्वेन प्रसिद्धया विद्यया श्रुतज्ञानेनै मतिज्ञानेन वा ककुप्सु श्रुता अत एव विश्वे समस्ता येमित्रा रागद्वेषाद्यन्तरङ्गशत्रवस्त एव विश्वामित्रस्तत्प्रभाच्छेदे मैत्रावरुणनिष्ठुराः ॥ वाक्पूताः । प्रभाच्छेदे । षट्कर्माणः । तत्तत् । ककुपश्रुताः। अमित्र । इत्यत्र "अघोषे" [५०] इत्यादिना प्रथमः ॥ अघोष इति किम् । विद्या ॥ अशिट इति किम् । निष्ठुराः॥ अवाक् सुवाग सतृट् निस्तृड् सलुप् निर्लन् विमुत्समुद् । देहभागमरैः सध्यङ् भवत्यत्राद्भुतास्पदे ॥ १०९ ॥ १०९. अत्र पुरेवाक् जडजिह्वत्वेन कुत्सितवाग् मूकत्वेन वाग्रहितो १ बी वसिष्ठ. २. सी डी त्रेणावु. ३ सी डी एफ वशिष्ठे'. ४ एफ न वा. ५ सी डी मित्रास्त. ६ एफ द्याः ॥. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.३.५२.] प्रथमः सर्गः। वा देहभाक् प्राण्युपाध्यायमन्त्रौषधिदेवतादिप्रभावेण सुवाग् । संस्कृतवचनो भवति । तथा सतृट् धनधान्यादिषु सतृष्णो निस्तृट् स्वर्णरूप्यादिसिद्ध्या पूर्णमनोरथत्वाद्विगतस्पृहः । तथा सलुप् शरीरावयवच्छेदवान निळुव् देवतादिप्रभावेण पूर्णाङ्गावयवः । तथा विमुत् रोगातकादिना गतहर्षः समुद् महावैद्यादिसंपत्त्या विगतरोगाद्युपद्रवत्वात्सहर्षों भवति । अत एवात्र देहभागमरैर्देवैः सध्यङ् समो भवति । देवा अपि हि सुवाचो निस्तृषो निर्लप: समुदश्च स्युः । यतोद्भुतास्पदे महोपाध्यायसप्रत्ययमन्त्रौषधीदेवतादिजनितानामद्भुतानां स्थाने ॥ अवाक् सुवाग् । सतृट् निस्तृड् । विमुत् समुद् । सलुप् निर्लुब् । अत्र "विरामे वा” [५१] इति वा प्रथमः ॥ विराम इति किम् । देहभागमरैः ॥ धुट इत्येव । सध्यङ् ॥ कण्ठलग्नाः सदा स्त्रीणाम् खेलन्ति इह पिड्गकाः। विरामे न प्रवर्तन्ते कदाचित्संधयो यथा ॥ ११० ॥ ११०. सिन्वन्ति विलासान् “शृङ्गशादियः' इति गप्रत्ययान्तः पञ्चमोपान्त्यः षिङ्ग इति निपातः । यद्वा । सिटानादरेण गच्छति गायति वा "पृषोदरादयः' [३.२.१५५] इति षत्वे षिड्ग इति टवर्गीयतृतीयोपान्त्यः । अज्ञातेर्थे कपि षिङ्गका भुजङ्गाः स्त्रीणां कण्ठलग्नाः कण्ठाश्लिष्टाः सन्त इह पुरे सदा खेलन्ति क्रीडन्ति । यथा विरामे वर्णानां विरतौ सति संधयः संधिकार्याणि "न संधिः" [१.३.५२ ] इति प्रतिषेधात्कदाचिन्न प्रवतन्ते । तथा विरामे खेलनान्निवृत्तिविषये न प्रवर्तन्ते नोद्यच्छन्ति ॥ खेलन्ति इह । स्त्रीणाम् खेलन्ति । इत्यत्र “न संधिः" [५२] इति संध्यभावः ॥ विरामे न प्रवर्तन्ते कदाचित्संधयो यथेत्यनेन चोपमानेन ते आहुः । सद् लुनाति । भवान् लुनाति इत्यादीनि शेषोदाहरणानि ज्ञापितानि ॥ १ एफ ताप २ सी त धा. ३ बीड् सुवर्ण. ४ एफ हाविद्या. ५ सीडी °महौष . ६ °षधदे'. ७ एफ ज्ञाताईं. ८ सी ति नसंधिभा. ९ सीडी त्यादिशे'. १० Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ध्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] यदि स्त्रीणां श्रुतास्मिन् गीर्यदि दृष्टा मुखेन्दवः । कल काणः खरः पिक्याः फल्गुश्चन्द्रोपि तक्यते ॥१११॥ १११. अस्मिन्पुरे स्त्रीणां यदि गीर्वाणी श्रुता तदा पिक्याः कोकिलायाः कलो मधुरोपि काणः शब्दः खरः कठोरस्तय॑ते । अर्थाल्लोकैः । तथा स्त्रीणां मुखेन्दवो यदि दृष्टास्तदास्तां तावदन्यः कमलादिविच्चन्द्रोपि सकलजगदाह्लादनहेतुकत्वेन सर्वत्र प्रसिद्ध इन्दुरपि फल्गुर्निरर्थकस्तय॑ते । स्त्रीमुखेन्दुभिरेव सर्वलोकाादनलक्षणस्य चन्द्रकार्यस्य कृतत्वाञ्चन्द्रेण न किंचित्कार्यमिति लोकैर्विमृश्यत इत्यर्थः ॥ वसन्ताधर्तुभिः सर्वैयुगपत्पर्युपासिते । प्रार्छन्ति क्रीडयोद्याने नापत्या इह नार्कुलैः ॥ ११२ ॥ ११२. नृपतेरपत्यानि “अनि दम्यणि' [६.१.१५] इत्यादिना ज्ये नापत्या राजकुमारा नार्कुलै कुल उपचारान्नृगुणोपेतक्षत्रियवंशे भवैः पौरुषोपेतक्षत्रियकुमारैः सह क्रीडया गेन्दुकक्रीडादिकया हेतुनोद्याने प्राछन्ति गच्छन्ति । यतः कीदृशे सर्वैः षड्भिर्वसन्ताधर्तुभिर्युगपत्समकालं पर्युपासिते सेविते । सर्वक्रीडाहरामणीयक इत्यर्थः ॥ विरामे । मुखेन्दवः । अघोघे । कलः क्वाणः खरः पिक्याः फल्गुः । ऋतुभिः सर्वैः इत्यत्र "रः पदान्ते' [५३] इत्यादिनी रस्य विसर्गः ॥ फल्गुश्चन्द्र इत्यादिषु तु शादय एवापवादत्वात्स्युः ॥ पदान्त इति किम् । तय॑ते । सर्वैः । कथं नार्पत्याः नार्कुलैः वसन्ताद्यर्तुभिः प्रार्छन्तीत्यादि । असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे [न्या० सू० २०] इति बृद्धेरारादेशाश्रयस्य रेफस्यासिद्धत्वाद्विसर्गो न ___ १ एफ् तुत्वे . २ एफ स्य कर्तृत्वा. ३ एफ अणि द. ४ °म्यणू इ ?. ५ सी डी कुलै उ०. एफ °कुलैरुप. ६ डी वंशभ. ७ डी दृशैः स. ८ एफ°ना वि. ९ एफ गइ. १० ए सी डी एफ वृद्ध्यरा. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० १.३.५५.] प्रथमः सर्गः। स्यात् । एवं पावपि ॥ तयोरिति किम् । सयुगपत् । अन्वित्यधिकाराद् गीः इत्यादिषु दीर्घत्वे कृते पश्चाद्विसर्गः । अन्यथा हि पूर्व विसर्गे कृत इरुरोरभावादी? न स्यात् ॥ प्रभुकार्येषु ध्रख्यातैः क्षत्रियैः प्सातसाध्वसैः । भात्यत्र श्रीमतां द्वारं खड्गिभिः त्सरुपाणिभिः ॥ ११३ ॥ ११३. अत्र पुरे श्रीमतां द्वारं सौधबहिर्भागः क्षत्रियैः कृत्वा भाति । कीदृशैः । शक्तिस्वामिभक्त्यतिशयेन प्रभुकार्येषु स्वामिकृत्येषु धूःख्यातैः धुर्यादौ प्रसिद्धैः । प्सातसाध्वसैर्ग्रस्तभयैः । शूरत्वेन निर्भयैरित्यर्थः । खगिभिः खड्गप्रहरणान्वितैः खङ्गे पार्श्वस्थेपि खगिन उच्यन्ते तन्निराकरणायाह । त्सरुः खड्गमुष्टिः पाणौ येषां तैः खगव्यग्रकरैः । धनिनां हि सौधद्वारे रक्षार्थ खगव्यग्रकरामहाभटास्तिष्ठन्ति । धूःख्यातैः । इत्यत्र “ख्यागि" [५४] इति रस्य विसर्ग एव ।। खगिभिः त्सरु । क्षत्रियैः प्सात । ख्यातैः क्षत्रियैः । इत्यत्र “शिट्यघोपात्" [५५] इति रस्य विसर्ग एव ॥ मदाम्भश्योतिनोत्रेभा लावण्याम्भश्श्च्युतः स्त्रियः। दानाम्भःश्च्युत्कराश्चान्या धनं निष्टयूतवद्विदुः ॥ ११४ ॥ ११४. अत्र पुर इभा गजा मदाम्भश्योतिनो मदजलस्राविणो मदोन्मत्ताः सन्ति । तथा स्त्रियो लावण्योम्भश्श्श्युतो लावण्यपात्राणिसन्ति। तथाढ्या धनिनो दानं हि जलदानपूर्व दीयत इति स्मृतेर्दानाम्भःच्युदानस्य जलं क्षरन् करो हस्तो येषां ते तथा सन्तो धनमुदारत्वान्नि १ एफ् ण्याम्भ:श्युतः. २ एफू नाम्भश्श्च्युत्क. १एफ वे प. २ बी भावत्वाद्दी. ३ एफ अस्मिन्पु. ४ All mss. read जलश्राविणः. ५ एफ ण्याम्भः श्च्युतो. ६ एफ नाम्भश्च्यु. ७ सी डी था रसतो ध. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ध्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] ट्यूतवच्छेष्मवद्विदुर्जानन्ति । लीलयैवार्थिभ्यो वाञ्छितमर्थ ददतीत्यर्थः । एतेनार्थकामधर्मसंपद उक्ताः ॥ निष्ठयूतांशुषु दृष्ट्वात्र रत्नवेदीषु वाणिनीः । निःष्ठयूताश्रूस्खलद्वाचस्खलदृष्टीनं कः स्खलेत् ॥ ११५॥ ११५, अत्र पुरे वाणिनीश्छेका मत्ताश्च विलासिनीदृष्टा कः पुमान् न स्खलेद्धैर्यान्न पतेत् । यतो निष्ठ्यूता उन्मुक्ता अंशवः किरणा यकाभिस्तासु रत्नवेदीषु गृहद्वारबहिर्देशवर्तिमणिमयवितर्दिषु स्थितास्तथा नि:ष्ट्यूतानि मुक्तान्यश्रूणि मदवशान्नेत्रजलानि यकाभिस्ताः। तथा स्खलन्ती मदादोक्तेपि विरमन्ती वाक् यासां ताः । तथा स्खलन्ती मदेन साश्रुत्वाद् घूर्णमानत्वाच्च पुरस्थाखिलपदार्थग्रहणेपि संकुचन्ती दृष्टिर्यासां ताश्च । मदे हि व्यभिचारिभावेश्रुक्षरणवाक्स्खलनलक्षणा अनुभावाः स्युस्तत्कार्यत्वादेषाम् । यदुक्तम् । हर्षोत्कर्षोमदः पानात्स्खलदङ्गवचोगतिः । इत्यादि । मदाम्भश्श्योतिनः । निट्यूतवत् । निःट्यूताश्रूस्खलत् । इत्यत्र "व्यत्यये लुग्वा" [५६] इति रस्य लुग्वा ॥ पक्षे । अम्भश्श्च्युतः । दानाम्भःश्युत् । निष्ट्यूत । निःच्यूत । वाचस्स्खलत् । कःस्खलेत् ॥ गीर्षु चेतैःसु च स्वच्छा महत्सु वरिवस्यकाः। धूर्षुचितासु च दृढा राजद्वार्षु नरा इह ॥ ११६ ॥ ११६. इह पुरे राजद्वाएं नृपप्रासाद्वारेषु विज्ञापकानां विज्ञप्तिवि१ डी श्रूस्ख ल'. २ सी डी तरसु. १ एफ़ इछेकम. २ बी सी डी निनिर्मुक्ता . ३ एफ था न. ४ सी डी पुरः स्था. ५ बी सी डी दार्थाग्र. ६ ए सी डी एफ निष्ठवू. ७ ए त । वा. ८ ए चःस्खल. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.३.५७.] प्रथमः सर्गः । ७७ धये नराः प्रतीहाराः सन्ति । किंविधाः । उचितासु योग्यासु धूर्षु योग्यविज्ञापनादिषु राजकार्यप्राग्भारेषु दृढा धारणसमर्था एवंविधा अप्यविनीता विज्ञापकलोकवैमुख्यायैव स्युस्तन्निराकरणायाह । महत्सु पूजाहेषु वरिवस्यका उचितासनदानादिना सन्मानका विनीता इत्यर्थः । कायेन विनीता अपि वचसा मनसों चाविनीता विज्ञापकानां वैमुख्यायैव स्युस्तन्निराकरणायाह । गीर्षु चेत:सु च स्वच्छों अकुटिलवचसोकुटिलाशयाश्चेत्यर्थः ॥ गीर्षु । धूर्षु । द्वाएं । इत्यत्र “अरोः सुपि रः" [५७] इति रेफ एव । अरोरिति किम् । चेतःसु ॥ र इत्येव । महत्सु ॥ गीर्पतिर्गीपतिः सत्यमहर्पतिरहपतिः । वाक्तेजोभ्राजिलोकेस्मिन् कौ हि गी:पत्यहःपती ॥ ११७॥ ११७. अत्र प्रथमौ गीर्पत्यहर्पतिशब्दावनुवाद्यौ द्वितीयौ तु विधेयौ । तथाहि गीर्पतिर्वाचस्पतिः सत्यमवितथं गीपतिर्गिरां वाचां पतिः स्वामीति योन्वर्थस्तेनान्वितोस्तीत्यर्थः । तथाहर्पतिर्दिनकरः सत्यमहरुपतिस्तेजोभिरह्नां कारकत्वाद्यथार्थोह्नां पतिश्चास्ति । परमस्मिन्पुरे जने वाक्तेजोभ्राजि वाणीप्रतापाभ्यां सर्वोत्कृष्टत्वाच्छोभमाने सति गी:पत्यहःपती हि स्फुटं कौ । न कावपीत्यर्थः । इति काका व्याख्या ॥ त्वं भुवो धूर्पतिः कीर्तेधूपतिधू पतिः श्रियः। प्रचेतो राजन् प्रचेता राजन्नत्रेति गीणाम् ॥ ११८॥ ११८. अत्र पुरे गीरस्त्यर्थात् राज्ञि विषये । कथमित्याह । हे १ बीता ज्ञा. २ ए एफ लोके वै'. ३ ए सी सा वावि . एफ °सावि'. ४ डी तस्तु च. ५ सी च्छा कुटिलवचसोकु. एफच्छा अकुटिलाशया इत्य. ६ सी डी तस्सु ॥. ७ एफ गी:पतिवाच. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] प्रचेत औदार्य धार्मिकत्वादिगुणैः प्रकृष्टमनस्कात एव प्रचेता वरुणतुल्य तथा हे राजन् सौम्यत्वेन चन्द्रतुल्य हे राजन्नृप त्वं भुवः पृथ्व्या धूपतिर्धर्यानमुखं धूरिव धूः प्रथमः स चासौ पतिश्च धूर्पतिः । मुख्यस्वामीत्यर्थः । यद्वा धूर्भारस्तस्याः पतिर्धूपतिः । नित्यसापेक्षत्वात्समासः । भुवः कार्यप्राग्भारप्रभुरित्यर्थः । अत एव श्रियो राज्यलक्ष्म्या धूः पतिः । अत एव च कीर्तेर्धूपतिर्वर्तस इति ॥ ४ अहर्पतिः । गीर्पतिः । धूर्पतिः । इत्येतेकृतविसर्गाः प्रचेता राजन्नित्ययं च कृतत्वाभावो " वाहत्यादयः " [ ५८ ] इति वा निपात्याः । पक्षे ॥ अहःपती । अहपतिः । गीः पतिः । गीपतिः । धूःपतिः । धूपतिः । प्रचेतोराजन् ॥ ७८ सम्राट्स्वाराट्समस्तावछ श्रीदवच् श्रीजुषो जनाः । खूषोदक्षमगिरथास्मिन् सन्तो वाक्पतिसंनिभाः ॥ ११९ ॥ ११९. तावच्छब्दः प्रक्रमार्थः । अस्मिन्पुरे सम्राट् राजाधिराजस्ताव - त्स्वाराट्समः परमैश्वर्यादिनेन्द्रतुल्योस्ति । तथा जना: श्रीदवद्धनद इव श्रीजुषस्तथा सन्तश्च विद्वांसश्च वाक्पतिसंनिभा वाचस्पतितुल्याः सन्ति । यतः क्षोदक्षमाः संगतार्थत्वान्महार्थत्वाच्च विचारसहा गिरो येषां ते । एतेनास्य पुरस्य स्वर्गता व्यञ्जिता || उथ्सर्पत्स्वच्छलावण्याः स्त्रियः प्रेक्ष्यात्र मन्यते । अफ्सु जाता अप्सरसो जम्भारिर्जलमानुषीः ॥ १२० ॥ १२०. अत्र पुर उसर्पदुल्लसत्स्वच्छं निर्मलं लावण्यं सौन्दर्य यासां १ सी अप्सु जा.. १ एचेतस् औ. सी डी 'चेता औ. २ सी डी 'त्वे च ३ बी एफ राजल ं. ४ एफ् 'तिः । धूः Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.३.५९. ] प्रथमः सर्गः । ताः स्त्रियो नारी: प्रेक्ष्य जम्भारिरिन्द्रोप्सरसो देवीर्जलमानुषीर्जलमोनवीरिव मन्यते । यतः कीदृशीरप्सर सोफ्सुजलेषु जाताः समुत्पन्नाः । अप्सरसो हि समुद्रे मध्यमाने जलाज्जाता इति प्रसिद्धि: । जलमातुयश्चास्वेव जायन्तेतो जलमानुषीणामिवात्रत्योच्छललावण्यनायिकापेक्षयात्यन्तं निर्लावण्यत्वादप्सरसां जलमानुषीत्वेन मननमित्यर्थः ॥ ख्पोदक्षम । तावछश्रीदवच्श्री । सम्राट्स्वारासमः । उथ्सर्पत्स्वच्छ । अफ्सु अप्सरसः । इत्यत्र " शिव्याद्यस्यै" [ ५९ ] इत्यादिना वा द्वितीयः ॥ आद्यस्येति किम् । अस्मिन्सन्तः । शिटीति किम् । ॥ उच्छशलच्चामरस्मेराः स्फुरच्छत्रोज्वलाः सदा । ज्झतदौर्गत्या अस्मिन् शुशुभिरे श्रियः ॥ १२१ ॥ 2 ४ १२१. अस्मिन्पुरे श्रियो राज्यादिलक्ष्म्यः शुशुभिरे । यतः शैश्वत्सदा झपितं हिंसितं दौर्गत्यं दारिद्र्यं यकाभिस्ताः । एतेन स्वरिपूच्छेद उक्तः । अत एव सोशलन्ति राजादिवीजनायोत्क्षिप्यमाणतयोर्ध्वं गच्छन्ति यानि चामराणि तैः स्मेरा हासान्विता इव विकस्वरा इत्यर्थः । तथ सदा स्फुरन्ति विकस्वराणि यानि च्छत्राणि श्वेतातपत्राणि तैरुज्ज्वलाः । ये हि शश्वज्झपितदौर्गत्याः सदामहर्द्धिकाः स्युस्ते सदोच्शलच्चामरस्मेरा: स्फुरच्छत्रोज्वलाश्च सन्तः शोभन्ते ॥ प्रशाञ्चरञ्जनं प्रीणञ्झषञ्ञकुटिलाशयान् । विद्वछात्रेयत्र तत्वे गीरिव स्वयम् ।। १२२ ।। १ ए शस्वज्झ. २ ए विद्वांच्छा. सी विद्यारछात्रे. डी विद्वाँरछात्रे. १ बी सी डी एफ 'मानवी". २ ए 'मानुपीरि इति प्रथमस्य द्वितीयोवा ॥ . ४ ए बी 'तिः ॥ ६ सी डी 'रिद्र्य. ७ दिवीज. ७९ ३ एफ् स्य द्वितीयो वा ५ ए शस्वत्सदामज्झपितं हसि ८ एफू था स्फु ९ए ये श. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] १२२. अत्र पुरे विद्वान् । जातावेकवचनम् । पण्डितजातिश्छात्रेषु विषये तत्तद्यद्यच्छात्रा अध्येतुमिच्छन्ति तत्तव्याकरणादि बुङवे व्याख्यदतो ज्ञायते गीरिव स्वयं मूर्ता सरस्वतीव । कीदृक् सन् । प्रशान् विद्यावलेपादिरहितस्तथा चरन्नतिभूरित्वेन दूरस्थानां छात्राणामध्ययनात् प्रमाद्यतामुत्साहनाय तन्मध्ये विचरंस्तथा बकुटिलाशयान् । बकारवत्कुटिलचित्तान् परस्परमात्सर्यादिना कलहादि कुर्वतश्छात्रा• नित्यर्थः । झषन् प्रलम्बकम्बया ताडयन्नत एव भव्यरीत्या पाठनेन जनं प्रीणन्। गीरपि प्रशान्ता सर्वत्र स्वेच्छया विहरति अकुटिलाशयान् कुवादिनो झषति निराकरोति जनं प्रीणयति तत्तदनेकविधं शास्त्रजातं व्याख्याति च । यद्वात्र पुरे चरन् कणवृत्त्यै भ्राम्यन् सन् विद्वान्वेदोपाध्यायश्छात्रेषु बैटुषु तत्तद्यद्यदध्येतुमिच्छन्ति तत्तद्वेदशास्त्रं झुडुवे बैटून्पाठितवानित्यर्थः । वेदपाठो हि द्विजैभिक्षाभ्रमणं कुर्वद्भिर्विधीयते । शेषं पूर्ववत् ॥ स यज्ञपुरुषः स्पर्धामस्मिन् राज्ञा कथं वहेत् । द्विषद्याच्चैकवज्रेण पिष्टं यस्याखिलं यशः ॥ १२३ ॥ १२३. दानैकशौण्डत्वेनात्रत्यराजस्य याच्या सर्वथाखण्डितयशस्कत्वादस्मिन् राज्ञात्रत्यनृपेण सह स्पर्धां साम्यं स यज्ञपुरुषो विष्णुः कथं वहेत् । यस्याखिलं यशो द्विषतः शत्रोर्या याच्या प्रार्थना सैव यशःशरीरस्य चूर्णकत्वेनैकमद्वितीयं निरुपमं वज्रमशनिस्ते. पिष्टं चूर्णितम् । मित्रादपि याच्या लाघवहेतोर्यशः पिनष्टि किं पुनः शत्रोः । विष्णुनो तु द्विषन् बलिमिनीभूय त्रिपदी याचित इति ॥ १ सी डी °ति ज. २ एफ बहुपु. ३ एफ बहून्पा. ४ ए °न चू. ५ ए ना तद्वि. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.३.६०.] प्रथमः सर्गः। मूर्धन्यत्वं शश्वदृवट्ठवड्डवड्डवण्णवत् । सूनृतस्फुटवक्तृणामीट्टे को नेह कोविदः ॥ १२४ ॥ १२४. इह पुरे सूनृतस्फुटवक्तृणां सत्यप्रकटवादिनां मूर्धन्यत्वं मूर्धस्थायित्वमन्यस्थानस्थाखिलसूनृतस्फुटवक्तृभ्यः प्रधानतामित्यर्थः । कः कोविदो विद्वान्ने?। किं तु सर्वोपि वर्णयतीत्यर्थः । यथा टस्य ठस्य डस्य ढस्य णस्यै च मूर्धस्थानभवत्वेन मूर्धन्यत्वं मूर्धस्थानभवत्वं कोविदो वैयाकरण ऋवर्णटवर्गरषा मूर्धन्या इति शिक्षापदेन वर्णयति । शब्दश्लेषेणोपमा । तन्वण्डामरतामग्रे कुर्वण्णकुटिलालकाः। स्मरोस्मिण्ढौकितधनुर्विश्वमट्टितुमड्डति ॥ १२५ ॥ १२५. स्मरो विश्वमट्टितुं हिण्डितुं विजययात्रां कर्तुमित्यर्थः । अड्डत्युद्यच्छति । कीहक्सैन् । अस्मिन्पुरे वर्तमाना णकुटिलालका णकारवत्कुटिलकेशीः स्त्रीर्जगजयायाग्रे कुर्वन् । एतेन सैन्यसंपदुक्ता । तथा ढौकितं जगज्जयाय प्रगुणीकृतं हस्ते गृहीतं धनुर्येन सः । धनुशब्दोत्रोदन्तः । सान्ते तु धन्वनादेशः स्यात् । एतेनास्त्रसंपदुक्ता । अत एव डामरतां प्रतापप्रचण्डिमानं तन्वन् विस्तारयन् । योपि सेनाशस्त्रप्रतापसंपदन्वितो विजिगीपुर्नृपः स्यात्स विश्वं जेतुमडुतीति । शकारेण योगे । उच्शलत् । अस्मिञ्शुशुभिरे ॥ चवर्गेण । उच्शलच्चामर । स्फुरच्छन । उज्वल । शश्वज्झषित । तझुडुवे । प्रशाञ्चरञ्जनम् । प्रीणञ्झषञ्च ॥ पूर्वेण चवर्गेण । याजा । यज्ञ । राज्ञा ॥ पूर्वेण शकारेण परेण च षकारेण प्रतिषेधो वक्ष्यते । पूर्वेण तु षकारेण । पिष्टम् ॥ टवर्गेण । शश्वट्टवटवडुवढवण्णवत् ॥ अड्डु । अड्डुति ॥ अट्टि । अट्टितुम् । तन्वण्डामरताम् । अस्मिण्ढौकित। कुर्वण्ण ॥ पूर्वेण टवर्गेण । ईट्टे । इत्यत्र "तवर्गस्य" [६०] इत्यादिना चवर्गटवर्गादेशौ ॥ .. १ एफ °स्य मू. २ सी डी सन् । पुरे ।. ३ ए 'घु नृपः. ४ एफ °चटवर्गा. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] कस्मात्पापट्टि दोष्ष्वात्ता प्रश्ने वम्भषि किं न हि । लज्जा वृश्चेति मुग्धायां शिक्षेह प्रियसंनिधौ ॥ १२६ ॥ १२६. इह पुरे प्रियसंनिधौ सति मुग्धायां विषये शिक्षा । अर्थात्सखीनाम् । कथमित्याह । हे सखि दोष्षु बाहुष्वात्ता भर्ना गृहीता सती कस्मात्पापक्षि कुटिलं गच्छसि पत्युः सकाशाकिमिति वक्रीभूय यासीत्यर्थः । तथा प्रश्ने पत्युः पृच्छायां किं किमिति न हि बम्भषि नैव भृशं भाषसे। तथा लजां वृश्च छिन्द्वीति । मुग्धायामित्यत्र जातावेकवचनम् । अन्यथा दोष्ष्वित्यत्र बहुवचनं नोपपद्येत ।। चवर्गेण । वृश्च लजाम् ॥ षकारेण । दोष्षु ॥ टवर्गेण । पापटि ॥ बम्भषि । इत्यत्र "सस्य शषौ" [६१] इति शषौ ॥ प्रश्ने । अत्र “न शात्" [६२] इति जो न ॥ नगेट्तुङ्गत्वलक्ष्मीजुट्थूत्कृतद्विड्युलिध्वजैः। नागड्नु धवलैः शीर्षविभ्राट् सालोत्र सर्वतः ॥ १२७॥ १२७. अत्र पुरे साल: कोट्टः सर्वत: सर्वासु दिक्ष्वस्ति । कीदृग् । नगेड् गिरीशो मेरुस्तस्य या तुङ्गत्वलक्ष्मीरोन्नत्यश्रीस्तां जुषते सेवते यः सः । तथा धुलिहोत्युच्चप्राकारशिरःस्थत्वेनाकाशस्पृशो ये ध्वजास्तैः कृत्वा थूत्कृतद्विट् थूत्कृतमत्र प्रस्तावादश्वफेनस्तस्य द्विट् जेता । अतिश्वेतकेतुरित्यर्थः । यद्वा थूत्कृतं थूत्करणं द्वेष्टि स्पर्धते जयति द्वेष्टि द्रुह्यति प्रतिगर्जति । आक्रोशत्यवजानाति कदर्थयति निन्दति । १ सी डी अस्मा. २ एफजां वश्चे'. ३ ए गेडुङ्ग. ४ एफ जुड्थू. १ सी डी ती अरमा . २ सी डी किमपि व. ३ सी डी एफ नैवं भृ. ४ एफ र्वत्र स. ५ बी त्यस्य श्री. ६ सीडी तम. ७ एफ तुभिरि'. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.३.६२.] प्रथमः सर्गः । तमन्वेत्यनुबध्नाति तच्छीलति निषेधति । तस्य वानुकरोतीति शब्दाः सादृश्यसूचिनः । इति वचनादनुकरोति ॥थूत्कृतद्विट्युलिडित्यत्र द्युशब्दोपादानादिवं प्रति स्वरामणीयकाहंयुत्वेनावज्ञया द्युलिध्वजैः कृत्वा धूत्कुर्वन्निवेत्यर्थः ।। तथा यथा नागेट शेषाहिवलैः शीर्षैः शिरःसहस्रेण विभ्राजते । एवं धवलैः शीर्षाकारत्वेन शीर्षैः कपिशीर्षैः कृत्वा विभ्राट् शोभमान: ॥ सषण्णवतिपाषण्डं हृष्टाश्रमचतुष्टयम् । स्थितं षण्णगरीः षण्णां जित्वैतच्चक्रवर्तिनाम् ॥ १२८ ॥ १२८. एतत्पुरं षण्णां चक्रवर्तिनां धुन्धुमारादीनां षट् षट्संख्या नगरी राजधानीजित्वा श्रीविशेषेण परिभूय स्थितम् । यतः कीदृग् । षड्दर्शनव्यतिरिक्ताः कुत्सितव्रताचाराः सर्वलिङ्गिन: पाषण्डास्ते च लोकोक्त्या षण्णवतिसंख्यया रूढाः सर्वधर्मसाधनसामग्रीसद्भावेन समनस्वस्वधर्मनिर्वाहात्सह षण्णवत्या पाषण्डैवर्तते तत् । तथा चत्वारोवयवा यस्य चतुःसमुदायस्य तच्चतुष्टयं हृष्टं प्रमुदितमाश्रमाणां ब्रह्मचारि १गृहिरवानप्रस्थ३भिक्षुटणां चतुष्टयं यत्र तत् । एतेनास्यात्यन्तं महद्धिकतोक्ता ॥ द्विषन्षनाम कामादील्लीलया विघ्नशान्तये । तीर्थकृत्षोडशः शान्तिः स्मर्यते तल्लयैरिह ॥ १२९ ।। १२९. इह पुरे षोडशस्तीर्थकृत् शान्तिः शान्तिनाथो विनशान्तयेन्तरङ्गाणां रागादीनां बाह्यानां मार्यादीनां चोपद्रवाणामुपशमार्य तस्मिन् १ एफ रीष°. २ एफ् ॥ २९ इति तृतीयपादः ॥ इ. १ ए बी सी एफ °च्छीलं तंनि. २ बी स्य चानु. ३ सी डी लै: शि. ४ एफ ते इति त. ५ डी ष्टं मु. ६ बी द्धिंतो'. ७ एफ वाणां चोप. ८ ए यस्तरिम Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] शान्तौ लयश्चित्तैकाग्र्यं येषां तैस्तल्लयैर्नरैः स्मर्यते प्रणिधीयते । यतः कीदृक् । षड् नाम । नामेति प्रसिद्धिद्योतको निपातः । षडिति संख्यया प्रसिद्धान् कामादीन् काम १ क्रोध२मान ३ मद४ लोभ ५ हर्षा ६ नान्तररिपूलीलया द्विपम्पराभवन् ॥ W नगेट्नुङ्गव्वलक्ष्मीजुट्द्यूत्कृतद्विड्युलिध्वजैः । नागेड्नु । विभ्राट्सालः । इत्यत्र 3 " पदान्तात् " [ ६३ ] इत्यादिना तवर्गस्योष्टवर्गषौ न ॥ टवर्गादिति किम् । चतुष्टयम् || अनाम्नगरीनवेतेरिति किम् । षण्णाम् । पण्णगरीः । षण्णवति ॥ नामित्यामादेशस्य ग्रहणादिह प्रतिषेधो भवत्येव । षड्नाम || तीर्थकृत्षोडशः । द्विषन्षड् । इत्यत्र "षि तवर्गस्य" [ ६४ ] इति तवर्गस्य टवर्गो न स्यात् ॥ ५ तल्लयैः । कार्मोदील्लीलया । इत्यत्र “लि लौ" [ ६५ ] इति स्थान्यासन्नाव नासिकाननुनासिकौ लौ ॥ तृतीयः पादः ॥ धर्माय चार्थकामाभ्यां चात्र लोका अभीप्सवः । मुक्तये चातिजरसैर्योगिभिः प्रणिधीयते ।। १३० ।। १३०. अत्रत्यलोका धर्ममर्थं कामं च स्वस्वकाले साधयन्तीति पूर्वार्धस्य भावार्थः। तथात्र योगो यमादिरष्टविधोस्त्येषां तैर्योगिभिरतिजरसैः सततयोगाभ्यासेन जरामतिक्रान्तैः सद्भिर्मुक्तये मोक्षाय प्रणिधी - यते परमात्मनो ध्यानं क्रियते ॥ १ए ये वात. १ बी सी डी 'सिद्धयो. एफ् सिद्धोधो २ डी वतिरि. ३ ए बी सी री ।. ४ एफ् मॉली ं. ५ एफ् 'तिस्थित्यास समाधिस्थैर ७ सी डी 'ततं यो.. एफ् 'वतीति. ६ एफ् भिः Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः । अमीभिरेभिरिमकैरमुकैश्च महात्मभिः । भात्यदोतिजरैः सिद्धैरत्रेति जगदुर्जनाः ॥ १३१ ॥ 3 I I १३१. अत्र पुरे जनाः सिद्धाद्भुतगुणरञ्जितत्वेनान्यजनानां पुरो जगदुः । कथमित्याह । अमीभिः प्रत्यक्षविप्रकृष्ठैरेभिः प्रत्यक्षसमीपतरैरिमकैरल्पैरज्ञातैर्वा प्रत्यक्षसमीपतरेर मुकैश्चात्पैरज्ञातैर्वा प्रत्यक्षविप्रकृद्वैश्च महात्मभिरतिजरैर्योगप्रभावेण जरामतिक्रान्तैः सिद्धैर्विद्यासिद्धैः कृत्वादः पुरं भाति पवित्री भवतीत्यर्थ इति ॥ 3 [ है० १.४.३. ] लोकाः । अर्थकामाभ्याम् । धर्माय । इत्यत्र "अत आ" [१] इत्यादिना - आकारः ॥ अत इति किम् | अभीप्सवः ॥ स्यादाविति किम् । मुक्तये ॥ ८५ सिद्धैः । अतिजरैः । इत्यत्र “भिस ऐ" [ २ ] इति भिस ऐस् ॥ एसादे - शेनैव सिद्ध ऐस्करणं संनिपातन्यायस्यानित्यत्वज्ञापनार्थम् । तेन अतिजरसैः । इत्यपि सिद्धम् । अत इत्येव । योगिभिः ॥ इमकैः । अमुकैः । इत्यत्र “इदम् " [३] इत्यादिना भिस ऐस् ॥ अक्वेति किम् । एभिः । अमीभिः ॥ एभिर्नयनयोः प्रीतिरेषां श्रीरेभ्य उत्सवः । I एषु धर्म इति श्रीमहान को नास्य वर्णयेत् ॥ १३२ ॥ १३२.अस्य पुरस्य श्रीमद्गृहानाव्यानां वेश्मानि दारान्वा को न वर्णयेत् । कथमित्याह । एभिः श्रीमद्गृहैः कृत्वा सौन्दर्यातिशयान्नयनयोर्लोके - क्षणयोः प्रीतिराहृदः स्यात्तथैषां श्रीलक्ष्मीर्वर्तते तथैभ्यः सकाशादुत्सवो वसन्तोत्सवादिर्महः प्रवर्तते तथैषु धर्मो देवपूजादानादिरस्ति । भोगधर्मफलत्वेनैषां लक्ष्मीर्न निरर्थिकेत्यर्थ इति ॥ १ सी डी ॥ सि.. २ डी सिद्धैः कृ. ३ सी 'वित्रीत्य'. एफ् वित्रं #°. ४ एफू आः स्यादावित्या . ५ एति मु. ६ ए ऐस् एसा. एफ् ऐसिति एस. ७ बी एफ दिमह:. ८ बी सी डी एफ रर्थके Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] भक्त्या गुरुषु पित्रोश्च मोक्षाय ज्ञानसंग्रहात् । जनेनाजरसाप्यत्र स्फुरज्जरसिन स्थितम् ॥ १३३ ॥ १३३. अत्र पुरे जनेनाजरसापि जरावर्जितेनापि तरुणेनापि स्फुरन्ती जरा यस्य तेन स्फुरजरसिन वृद्धेन स्थितम् । हेतू आह । गुरुषु धर्माचार्येषु पित्रोश्च मातापित्रोश्च विषये भक्त्या विनयेन तथा मोक्षाय यद् ज्ञानं धर्मशास्त्रपरिज्ञानं तस्यैव न तु संसारहेतुकामशास्त्रादिज्ञानस्य यः संग्रहो धारणं तस्माच्च । परिणतानां हि प्रायेण धर्मार्थितया विनयो मुक्तिहेतुज्ञानसंग्रहश्च स्यान्न तु यूनां मर्दमदनबाहुल्यात् ॥ सर्वस्य दूरजरसः प्रत्यासन्नजरस्य च । योगिनातिजरेणेह स्पर्धाध्यात्मे सदा लयात् ॥ १३४ ॥ १३४. इह पुरे सर्वस्य दूरजरसस्तरुणस्य प्रत्यासन्नजरस्य च वृद्धस्य च । कर्तरि षष्ठी। अतिजरेण योगाभ्यासप्रकर्षाजरामतिकान्तेन योगिना सह सदा स्पर्धा जयेच्छास्ति । कस्मादित्याह । आत्मनि विभक्त्यर्थेव्ययीभावे "अनः' [७.३.८८] इत्यति समासान्ते चाध्यात्म तस्मिन्नात्मनि यो लयः सर्वथा बाह्येन्द्रियनिरोधेन तदेकाग्रचित्तता तस्मात् "गम्ययप" [२.२.७४] इत्यादिना पञ्चमी। लयमाश्रित्य यादृग् महाध्यानं योगीन्द्राः कुर्वन्ति तागत्यो लोकः सर्वोपि करोतीत्यर्थः । अध्यात्म इत्यत्र सामान्यविशेषभावेन द्वौ भावौ यथासन आस्तै इत्यत्रासनं सामान्यविशेषभिन्नम् । अध्यात्म इति ह्यात्मनि यो भावस्तत्र लय इति विज्ञायते । तत्र सामान्यभावो वृत्तावन्तर्भूतस्तं प्रत्याधारभावश्च योसौ लयो विशेषभावः स वृत्तौ नान्तर्भूतस्तं प्रति सामान्यभावस्याधारभावश्चेति तत्र सप्तमी भवति ॥ १ सी डी शास्त्रं प. २ सी डी दन'. ३ सी डी एफू 'त्रत्यलो'. ४ सी डीस्त अत्य'. ५ डी वश्चे. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ [है० १.४.६.] प्रथमः सर्गः। एषु । एषाम् । एभिः । एभ्यः । नयनयोः । इत्यत्र 'एबहुस्भोसि" [४] इत्येत् ॥ बह्विति किम् । अस्य । स्भोसीति किम् । गृहान् ॥ अते इत्येव । गुरुषु । पित्रोः॥ जनेन । अतिजरेण । सर्वस्य । प्रत्यासन्नजरस्य । इत्यत्र "टाङसोरिनस्यौ" [५] इतीनस्यादेशौ । अत इत्येव । अजरसा। दूरजरसः । अत्र परत्वान्नित्यत्वाच्च प्रागेव जरसादेशे कृतेकारान्तत्वाभावः । अन्ये तु प्रागेवेनादेशं संनिपातलक्षणस्यानित्यत्वाश्रयणात्पश्चाजरसादेशं चेच्छन्तः स्फुरजरसिन इत्यपि मन्यन्ते ॥ मोक्षाय । संग्रहात् । इत्यत्र "डेङस्योर्यातौ" [६] इति यादादेशौ ॥ सर्वस्मै प्रियकर्तास्मिन् सर्वस्मादुज्ज्वलो गुणैः । नृपः श्रीमूलराजोभूचौलुक्यकुलचन्द्रमाः ॥ १३५ ॥ १३५. अथात्र काव्ये वर्णनीयेषु चौलुक्येषु मध्ये प्रथमो यो राजात्र पुरेभूत्तमासर्गान्तमुपश्लोकयति ॥ मूले चौलुक्येष्वादावत्र पुरे राजा मूलराजो यद्वा मूले नक्षत्रे राजाँ चन्द्रो मूलराजस्तत्र जातत्वान्मूलराजः श्रिया युक्तो मूलराजः श्रीमूलराजो नाम नृपोभूत् । कीहक् । गुणैः परोपकरित्वादिभिः कृत्वा सर्वस्मात्समस्तलोकासकाशादुज्ज्वलोत एव सर्वस्मै प्रियकर्ता वाञ्छितकारी । अत एवं च चौलुक्यकुलचन्द्रमाः । चन्द्रमा अपि गुणैः कान्ततादिभिः सर्वस्मादुज्वलोत एव सर्वस्मै प्रियकर्ता । तथा श्रिय आवासत्वाच्छ्यिो नक्षत्रपतित्वान्मूलस्य मूलनक्षत्रस्य च राजा प्रभुः स्यादित्युक्तिः ॥ १ एफ भ्यः अनयोः. २ एफ °त एव किम् । गु.३ एफ °ध्ये यः प्र.४ सी डी एफ मो रा. ५ एफ मूलन. ६ बी सी डी °ले मूलन. ७ सी जा स्त. डीजा तत्र. ८ एफ °नामा नृ. ९ एफ णैश्च प. १० एफ समस्तलोकसका. ११ सी डी एफ व चौ. १२ एफ न्तत्वादि. १३ एफ लन', Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] विश्वस्मादत्यशेतासौ विश्वस्मायुपकारकः । किंसर्वस्मै परसर्वस्मै च यः कामदोभवत् ॥ १३६ ॥ १३६. यो विश्वस्मै हीनायोत्तमाय चोपकारको रक्षादानादिनोपकर्ता सन् किंसर्वस्मै कुत्सितसर्वस्मै हीनलोकाय परसर्वस्मै च प्रकृष्टसर्वस्मायुत्तमलोकाय च कामदो मनोरथपूरकोभूदसौ स मूलराजो विश्वस्मात्सर्वलोकादत्यशेतोत्कृष्टोभूत् ॥ तमस्तोभिभवः कालेप्यसर्वस्मिन्महोदयः । हीनतास्मादुभौ हेतू उभयस्मिन् रवौ विधौ ॥ १३७ ॥ १३७. उभौ हेतू "सर्वादेः सर्वाः" [२.२.११९] इति प्रथमाया द्वितीयाया वा द्विवचनम्। द्वाभ्यां कारणाभ्यामस्मान्नृपात्सकाशादुभयस्मिन् द्वितये हीनता न्यूनत्वमासीत् । कस्मिन्नुभयस्मिन्नित्याह । रवौ सूर्य विधौ चन्द्रे च । कौ हेतू इत्याह । तमस्तो राहोः सकाशादभिभवो ग्रहणलक्षणपराभः । अपिः समुच्चये । तथासर्वस्मिन्काले महोदयो न सर्वस्मिन्काले महान् जगत्प्रकाशक उदय: स्यात् । रवेर्दिन एव चन्द्रस्य च रात्रावेव महोदयात् । अस्य च राज्ञस्तमस्तोज्ञानोन्नाभिभवो राज्यलक्ष्मीप्रतापादीनां सदा वृद्ध्या सदा महोदयश्चेति ॥ अन्यस्मै भास्करायान्यतरस्मै विष्णुशक्रयोः । रुद्राणामन्यतमस्मै नमोस्मै चक्रिरे नृपाः ॥ १३८ ॥ १३८. नृपा अस्मै मूलराजाय नमो नमस्कारं चक्रिरे यतोन्यस्मै १ डी दतिशे . २ एफ् स्तोविभ. १ एफ र्वस्मै चोत्त. २ सी दभिशे . डी दतिशे'. ३ बी डी एफ णः पं. ४ सी डी वः स. ५ एफ नान्न परिभवो राजल'. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.६.] प्रथमः सर्गः । भास्कराय महाप्रतापित्वाद्वितीयाय रवये तथा विष्णुशक्रयोर्मध्येन्यतरस्मा एकतरस्मै प्रजारक्षापरमैश्वर्यादीनामुभयधर्माणां सद्भावाद्विष्णवे शक्राय वेत्यर्थः । तथा रुद्राणामन्यतमस्मै लीलाविलासित्वादिना अज १ एकपाद २ अहिर्बुध्न ३ विरूपाक्ष ४रैवत ५ हर ६ बहुरूप ७ व्यम्बक ८ सावित्र ९ जयन्त १० पिनाकि ११ नाम्नामेकादशरुद्राणां मध्येजाय यावपिनाकिने वेत्यर्थः । भास्करादिभ्यो हि देवतात्वान्नृपा अपि नमस्कारं कुर्वन्ति ॥ देवेभ्योन्यतमायास्मायितरस्मै फणीशिने । श्लाधित्वा सुधियः कुर्युः कतरस्मै पुनः स्तुतिम् ॥ १३९ ॥ १३९. अस्मै नृपाय श्लायित्वा नृपं श्लाघ्यं परं लोकं ज्ञाप्यं जानन्तं प्रयोज्य नृपं वर्णयित्वेति यावत्सुधियः कतरस्मै कस्मै राज्ञे पुनः स्तुति कुर्युः । यतः कीदृशाय । देवेभ्योन्यतमाय शक्तिरूपाद्यतिशयेन देवानां मध्य एकतरस्मै तथेतरस्मै फणीशिने भूभारधारित्वेन द्वितीयाय शेपाय । सुरशेषाहितुल्यत्वेन सर्वनृपोत्कृष्टत्वादस्य श्लाघायां कृतायामन्यस्य श्लाघां कर्तुं न कोपि वाञ्छतीत्यर्थः ॥ “निर्धारणे पञ्चम्यप्यन्ये" [ श्रीसिद्ध० व्या० बृ० ] इति तन्मतमाश्रित्य देवेभ्य इत्यत्र निर्धारणे पञ्चमी । कतरस्थायित्यत्र संप्रदाने चतुर्थी ॥ यतरस्मै ततरस्मै प्रार्थयित्रे ददावसौ । यतमस्मै ततमस्मै दोषकत्रै चुकोप च ॥ १४०॥ १४०. स्पष्टः । किं तु यतरस्मै ततरस्मै शत्रवे मित्राय च । यतमस्मै ततमस्मै मित्राय शत्रवे च । दोषकत्रैन्यायकारिणे ।। २ डी एफ पाद २ अ. ३ एफ पं च व. १ एफ न्यस्मा. ४ एफ् स्मै श. १२ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] दातृष्वेकतमस्मादेकतरस्माच देस्रयोः । कतमस्मिन्सर्वतमे देशेस्मानाभ्यगायशः ॥ १४१ ॥ १४१. अस्मान्नृपात्सकाशात्सर्वतमेतिशयेन सर्वस्मिन्देशे कतमस्मिन्कस्मिन् यशो नाभ्यगान ययौ । सर्वशब्दोत्र तमप्यसंकुचितवृत्तिस्ततो जगत्रयेप्यस्य यशो विस्तीर्णमित्यर्थः । यतो दातृषु मध्य एकतमस्मादसाधारणात्तथा रूपातिशयेन दस्रयोरश्विनीकुमारयोर्मध्य एकतरस्मादन्यतरस्मात् । दानरूपातिशयेन हि प्रसरति दिशो दिशं यशो नरस्य । त्वस्माद्याच्ञापराविन्द्रोपेन्द्रौ दानैकशालिनः । नेमस्मायपि कल्पेते नास्य हेतुं गुणवतम् ॥ १४२ ॥ १४२. गुणत्वतं हेतुम् । त्वच्छब्दः समुच्चयार्थः । शौयौदार्यादिगुणसमूहेन हेतुनेन्द्रोपेन्द्रौ शक्रविष्णू अस्य राज्ञो नेमस्मायपि खण्डायाप्यर्थाद्गुणशकलायापि न कॅल्पेते नालं भवतः । यतो दानेनैकेनाद्वितीयेन न तु याच्या शालते शोभत इत्येवंशीलो यस्तस्य । प्रभूतगुणैरपीन्द्रोपेन्द्रौ दानैकशालिनोस्य गुणांशमात्रस्यापि तुल्यौ न भवत इत्यर्थः । यतस्त्वस्मादन्यस्माद्याच्यापरौ याचकौ । इन्द्रो हि बलिष्ठे बलिदैत्येप्रभवन् विष्णुं बलिंबन्धं ययाचे विष्णुश्च बलिं त्रिपदीमिति । याच्यायां च सर्वे गुणा भंसन्ते । उक्तं च । देहीति वचनं श्रुत्वा देहस्थाः पञ्च देवताः । नश्यन्ति तत्क्षणादेव श्रीहीधीधृतिकीर्तयः ॥ १ ॥ १ ए दश्रयोः ।. २ बी कल्प्येते. १ सी स्मि य". एफ स्मिन्कतरस्मि'. २ बी शोदशय. 'शो नृपस्य. ४ बी कल्प्येते. ५ ए बी डी लिवधं य. सी ६षी चेति वि. ७ बी सी डी यां स. ३ सी डी लिवन्ध य. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। गुणास्तावद्यशस्तावद्यावाचेत नो नरः । प्रार्थनायां पुनस्तेपि प्रणश्यन्ति हता इव ॥ २ ॥ पूर्वस्माच्च परस्माच्च समस्मादसमाद्गुणैः । उत्कृष्टो राजकाहत्ते सिमस्मै स्मैष विस्मयम् ॥ १४३ ॥ १४३. एष राजा सिमस्मै सर्वस्मै लोकार्य विस्मयमाश्चर्य दत्ते स्म । यत: पूर्वस्माञ्चैतदपेक्षया जन्मना प्रथमात्परमाच्च जन्मना पश्चिमाञ्च किं बहुना समस्मात्सर्वस्माद्राजकान्नृपौघादुत्कृष्ट उत्तमः । ननु तद्राजकं विगुणं भविष्यति तन्मध्ये चासौ केनाप्येकेन गुणेन युक्त उत्कृष्टो भविष्यति यथान्धेषु काणोपि भातीति निर्गुणत्वनिराकरणायाह । गुणैः शौर्यादिभिरसमादसाधारणात् ।। दक्षिणस्मादुत्तरस्मादपरस्मात्तथान्यतः । कृष्णायास्मायवरस्मायधरस्मिन्न को नतः ॥ १४४॥ १४४. दक्षिणस्मादुत्तरस्मादपरस्मात्पश्चिमात्तथान्यतः पूर्वस्माच्च देशादागत्यास्मै राज्ञेधरस्मिन्नधोदेशे पादयोः को न नतो यतः प्रजारक्षाप्रतापादिनावरस्मै कृष्णाय द्वितीयाय विष्णवे । कृष्णाय हि सर्वदेशेभ्य आगत्य जनः प्रणमति । एतेनास्य राज्ञः सर्वजगद्वशीकार उक्तः । दक्षिणस्मादित्यादौ कुसूलात्पचतीत्यादाविवोपात्तविषयेपादाने पञ्चमी ॥ परस्वायास्पृहयालुः स्वस्मायश्लाघनः सदा । दक्षिणाय द्विजस्वाय स्वस्मायिव ददावसौ ॥ १४५ ॥ १४५. असौ राजा दक्षिणाय प्रवीणाय द्विजस्खाय ब्राह्मणज्ञातये खस्मायिवात्मीयाय स्वजनायेव सदा गोधनादि ददौ । दाताप्यन्यायेन १ एफ याचति नो, २ सी यमा. ३ एफ् यतीति. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] परद्रव्याणि गृहीत्वा ददत्सन्निन्द्य एव स्यादित्याह । परस्खायान्यद्रव्यायास्पृहयालुरन्यायेन परद्रव्यमगृह्णन्नित्यर्थः । एवंभूतोपि दत्वा विकत्थनो निन्द्य एव स्यादित्याह । स्वस्मायात्मनेश्लाघनः ।। चक्रुरस्यारयो वस्त्रायान्तरस्मै कृतस्पृहाः । अन्तरायाः पुरो यात्रामन्तरस्माद्गृहादपि ॥ १४६ ॥ १४६. अस्य राज्ञोरयः पुरमध्ये मा स्म वयं प्रत्यभिज्ञायोमही हा इ ?] त्याशङ्कया पुरेषु प्रवेष्टुमशक्तत्वादन्तरायाः पुरैश्चण्डालादिपुर्याः सकाशादन्तरस्माद्गृहादपि । अपि: समुच्चये । नगरवाह्याञ्चण्डालादिगृहाञ्चण्डालादिगृहयुक्ताद्वा नगराभ्यन्तरगृहाच्च सकाशाद्याच्या वस्त्रप्रार्थनां चक्रुः । यतोन्तरस्मै वस्त्राय कृतस्पृहाः । अतिनिःस्वत्वेन वस्त्राभावाद्वस्त्रचतुष्टयमध्ये तृतीयाय चतुर्थाय वा स्पृहयालवः । एवं चानेन राज्ञा शत्रवो रोगः कृता इत्युक्तम् ॥ अमुष्मै तेजसैकस्मै यस्तस्थे समरान्तरे । कृतान्तः कुपितस्त्यस्मै तस्मिन् दैवं पराङ्मुखम् ॥ १४७ ॥ १४७. समरान्तरे रणमध्ये योरातिस्तेजसा प्रतापेनैकस्मायद्वितीयायामुष्मै राज्ञे तस्थे स्थानेनात्मानं वीरं प्रकाशितवास्त्यस्मै शत्रवे कृतान्त: कुपितस्तथा तस्मिञ्शत्रौ देवं पराङ्मुखं स मृत एवेत्यर्थः । अमुष्मा इत्यत्र "श्लाघगुस्था" [ २.२.६० ] इत्यादिना चतुर्थी । तस्थ इत्यत्र "जीप्सास्थेये" [ ३.३. ६४ ] इत्यात्मनेपदम् ॥ यस्मायेतस्मै शासित्रे द्वकयोोर्भुवस्तथा । त्वादृशोस्मादृशां पुण्यरित्यश्लाधिष्ट वासवः ॥ १४८ ॥ १ए सर्वनिन्ध. बी सी डी सर्वत्रनिन्द्य. २ एफ याच्याम". ३ एफ 'रश्नाण्डा. ४ एफ वास्तम्मै. . सी तस्त्यस्मै तरिम दै. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.६.] प्रथमः सर्गः। भवादृक्कीदृगेतस्मिन्नतिसर्वे यदीय॑सि । उत्तरे कोशले मत्र इत्थमस्योद्यमेभवत् ॥ १४९ ॥ १४८,१४९. अस्य मूलराजस्योद्यमे विजययात्रायां सत्युत्तरे कोशले। सामीप्यकाधारेन सप्तमी। उत्तरकोशलाख्यनृपसमीपे मन्त्रः कोशलनृपमत्रिणामभूत् । कथमित्याह । हे राजंस्त्वादृशो भवत्सदृशो भूपोस्मादृशामस्माकं पुण्यैर्वर्तत इत्येवंप्रकारेण । यस्मायेतस्मै राज्ञे वासव इन्द्रोप्यश्लाधिष्ट । यतः किं भूताय । द्वकयोर्द्वयोः शासित्रे रक्षित्रे । कयोकयोरित्याह । द्योः स्वर्गस्य तथा भुवः पृथ्व्याश्च । अन्यायिभ्यो ह्यसौ रक्षन् भुवः शास्ता । न्यायकरग्रहोपार्जितधनैर्यागान्कारयन्द्योश्च शास्ता। यतः __“यज्ञेषु वह्नौ विधिवद्भुतं देवानामुपतिष्ठते" इति श्रुतिः । तथाचोक्तं रघौ । दुदोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम् । संपद्विनिमयेनोभौ धतुर्भुवनद्वयम् ।। १.२६ ॥ इति । अतिसर्वे बलादिना विश्वत्रयेप्युत्कृष्टत्वात्सर्वमतिक्रान्त एतस्मिन्मूलराजविषये हे कोशलेश्वर यत्त्वमीय॑सि कोयं मत्पुर इति यन्न क्षाम्यसि तद्भवादृक्कीदृक् कीदृशः । कियन्मात्र इत्थम् । यस्मायेतस्मा इत्यत्र यदेतच्छब्दौ द्वावप्यनुवाद्यमात्रार्थप्रतीतिकृतौ । यथा यदेतच्चन्द्रान्तर्जलदलवलीलां प्रकुरुते तदाचष्टे लोकः शशक इति नो मां प्रति तथा । १ सी अस्यो'. २ सी शो भू. ३ एफ ईयो'. ४ बी सी एफ तस्मिस्तस्मि'. ५ ए बी लोक इत्यत्र. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] अहं त्वेवं मन्ये त्वदरिविरहाक्रान्ततरुणी कटाक्षोल्कापातव्रणशतकलङ्काङ्किततनुः ॥ इत्यत्र ॥ सर्वस्मै । परसर्वस्मै । किंसर्वस्मै । सर्वस्मात् । विश्वस्मै । विश्वस्मात् । असर्वस्मिन् । अस्मिन् । इत्येतेषु “सर्वादेः सैसातौ' [७ ] " स्मिन्" [८] इत्येताभ्यां स्मैस्मास्मिन्नादेशाः ॥ उभशब्दस्य द्विवचनस्वार्थिकप्रत्ययविषयत्वात्स्मैप्रभृतयो न स्युः । गणपाठस्तु हेत्वर्थप्रयोगे सर्वविभक्त्यर्थः । उभौ हेतू । उभयस्मिन् ॥ अन्यस्मै । अन्यतरस्मै । इतरग्रहणेनैव सिद्धेन्यतरग्रहणं इतमप्रत्ययान्तस्यान्यशब्दस्य सर्वादित्वनिवृत्त्यर्थम् । अन्यतमाय ॥ अन्येत्वाहुः । नायं उतरप्रत्ययान्तोन्यतरशब्दः किंत्वव्युत्पनस्तरोत्तरपदस्तरबन्तो वा। तन्मते डतमान्तस्याप्यन्यशब्दस्य सर्वादित्वम् । अन्यतमस्मै। इतरस्मै। डतरडतमौ प्रत्ययौ। तयोः स्वार्थिकत्वात्प्रकृतिद्वारेणैव सिद्धे पृथगुपादानमत्र प्रकरणेन्यस्वार्थिकप्रत्ययान्तानामग्रहणार्थमन्यादिलक्षणोदार्थं च । कतरस्मै । कतमस्मिन् । यतरस्मै । यतममै । ततरस्मै । ततमस्मै । एकतरसात् । एकतमस्मात् । इह न भवति । सर्वतमे ॥ त्वशब्दोन्यार्थः । त्वस्मात् ॥ त्वच्छन्दः समुच्चये। तस्य स्मायादयो न भवन्तीति हेत्वर्थयोगे सर्वविभक्त्यादि प्रयोजनम् । गुणत्वतं हेतुम् ॥ नेमशब्दोर्धार्थः । नेमस्मै ॥ समसिमौ सर्वाथौं । समस्मात् । सिमस्मै । सर्वार्थत्वाभावे न स्यात् । असमात् ॥ खाभिधेयापेक्षे चावधिनियमे व्यवस्थापरपर्याये गम्यमाने पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि । पूर्वस्मात् । परस्मात् । अवरस्मै । दक्षिणस्मात् । उत्तरस्मात् । अपरस्मात् । अधरस्मिन् । १ सी डी स्मै सौ. २ सी हेतौ। ३ एफ् तरः श. ४ सी णार्थ . ५ सी डी तमस्मै । कतमस्मिन् । ततरस्मै । ततमस्मै । ए°।. ६ ए एफ स्मै ततम. ७ ए स्मात् इ. ८ बी पेक्षयाव. एफ् पेक्षया चा. ९ डी स्मात् उ. १० एफू अध. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ [है० १.४.८.] प्रथमः सर्गः । व्यवस्थाया अन्यत्र न स्यात् । दक्षिणाय द्विजस्त्राय । आत्मात्मीयज्ञातिधनार्थवृत्तिः स्वशब्दः। आत्मात्मीययोः। स्वस्मै । स्वस्मायिव ॥ ज्ञातिधनयोस्तु न । द्विजस्वाय। परस्वाय ॥ बहिर्भावेन बाह्येन वा योगे उपसंध्यान उपसंवीयमाने चार्थेन्तरशब्दो न चेद्वहियोगेपि पुरि वर्तते । अन्तरस्माद्गृहात् । अन्तरस्मै वस्त्राय । पुरि तु न । अन्तरायाः पुरः । बहिर्योगोपसंव्यानादेरन्यत्र तु न स्यात् । समरान्तरे ॥ त्यस्मै । तस्मिन् ।यस्मै। अमुष्मै। अस्मै। एतस्मै । एकस्मै । द्वियुष्मद्भवत्वस्सदा स्मायादयो न संभवन्तीति सर्व विभत्तयादयः प्रयोजनम् । द्वकयोः । त्वादृशः । भवादृक् । अस्मादृशाम् । कीदृक् ॥ सर्वे चामी संज्ञायां सर्वादयो न स्युः । तेनेह न स्यात् । उत्तरे कोशले । सर्वादेरिति षष्ठीनिर्देशेन तत्संबन्धिविज्ञानादिह न भवति । अतिसर्वे ॥ नेमे दासीकृता नेमा हताश्चानेन भूभुजः । अर्धे द्विपा हयाश्चार्धाः सन्नद्धाः सर्व एव न ॥ १५० ॥ १५० अनेन राज्ञा नेमेर्धा भूभुजो दासीकृतास्तथा नेमाश्च भूभुजो हताः । ये नृपास्तं प्रणतास्ते सेवकीकृताः । ये तु दोद्धरत्वान्न प्रणतास्ते समूलमुन्मूलिता इत्यर्थः । तत्किं तजयाय सर्व सैन्यं सन्नद्धमित्याह । अर्ध इत्यादि कण्ठ्यम् । एतेन सैन्यस्यातिबाहुल्यमुक्तम् ।। पूर्व तेजस्विनोभूवन् प्रथम चरमेपि च । न प्रथमा न चरमा उदितेस्मिन् वाविव ॥ १५१ ॥ १५१ पूर्वं मूलराजोदयात्प्रथमं प्रथमे मुख्याश्चरमेपि चामुख्याश्चापि नृपास्तेजस्विनः प्रतापिनोभूवन् । अस्मिन्नृपे महाप्रतापित्वाद्रवाविवोदिते १ सी डी संवी . २ एफ् रमै अमुष्मिन् अ. ३ डी पोंभृतत्वा'. ४ एफ मे चा. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] सति न प्रथमास्तेजस्विनोभूवन्नं च चरमाः । सूर्योदयादपि पूर्व रात्रौ प्रथमे मुख्याश्चन्द्रमहाश्रमेपि चामुख्या नक्षत्रतारास्तेजखिनो भवन्ति रौ तूदिते नेति ॥ द्वये याचतुष्टये पञ्चतयाश्च के चन । गुणानस्य क्षमा वक्तुमल्पेल्पा गीर्पतेर्न ये ।। १५२ ॥ १५२ ये गीर्पतेर्बृहस्पतेः सकाशान्नाल्पा वाग्मितया न न्यूनास्तेल्पे केचन स्तोकाः केप्यस्य राज्ञो गुणान्शौर्यादीन्वक्तुं वर्णयितुं क्षमाः । अल्पेपि कियन्त इत्याह । द्वौ त्रयश्चत्वारः पञ्च वावयवा येषां ते तथा द्वौ यश्चत्वारः पञ्च वेत्यर्थः । द्वय इत्यत्र द्वाववयवो येषामिति यच्छन्दवाच्ययोर्द्वयोरपि गौरवविवक्षायां "गुरावेकश्च" [२.२.१२४] इति बहुवच्चाबहुवचनम् । अन्यथा द्विवचनमेव प्रसक्तम् ॥ कतिपयेपि गीर्वाणा नागाः कतिपया अपि । मणयः कौस्तुभस्यैव बभूवुर्नास्य संनिभाः ॥ १५३ ॥ १५३ कतिपयेपि स्तोका अपि गीर्वाणा ऊर्ध्ववासिदेवाः । नागा नागकुमाराः । ऊर्ध्वलोके धोलोके च मूलराजतुल्यो न कोप्यभूदित्यर्थः । । शिष्टं स्पष्टम् ॥ सर्वे । इत्यत्र “जस ई:” [९] इति-इः | नेमे नेमाः । अर्धे अर्धाः । प्रथमे प्रथमाः । चरमे चरमाः । चतुष्टये पञ्चतयाः । ये त्रयाः । अल्पे अल्पाः । कतिपये कतिपयाः । इत्यत्र “नेमा " [१०] इत्यादिना वा जस इः ॥ १ सी डी न चर. ४ एफ : ने". २ सी डी वच. ३ डी र्थः । शेषं स्प Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.१२. ] प्रथमः सर्गः । शैलाः पूर्वापरे पूर्वापराच जलधेस्तटाः । सैन्ये भरदनक्षुण्णाः कीर्तयन्त्यस्य दिग्जयम् ॥ १५४ ॥ १५४. केण्ठ्यः । परं पूर्वापर इति पूर्वे पूर्वदिग्वर्तिनोपरा : पश्चिमदिग्वर्तिनः ॥ पूर्वापरे पूर्वापराः । इत्यत्र " द्वन्द्वे वा " [११] इति वा जस इः ॥ पूर्वापराच्छ्रियं कर्षन्दक्षिणोत्तरतोप्ययम् । दक्षिणोत्तरपूर्वाणां प्रतीच्या चाभवत्पतिः ।। १५५ । १५५. पूर्वा चापरा च पूर्वापरं तस्मात् । एवं दक्षिणोत्तरतः । चतुभ्यपि दिग्भ्य इत्यर्थः । शिष्टं स्पष्टम् ॥ पूर्वापरात् । दक्षिणोत्तर पूर्वाणाम् । इत्यत्र "न सर्वादि:" [१२] इति सर्वसर्वादिकार्याभावः। ‘“सर्वादयोस्यादौ” [३.२.६१] इति पुंवतु भवत्येव । तत्र भूतपूर्वस्यापि सर्वादेर्ग्रहणात् ॥ ननामास्मै श्रिया पूर्वायोजःपूर्वाय राजकम् । सोस्मायह्नावरायेवास्त्रिधन्मासावराय तु ।। १५६ ॥ १५६. अस्मै राज्ञे राजकं नृपौधो ननाम । यतः श्रिया सैन्यादिसंपदा पूर्वाय प्रथमाय तथौजःपूर्वायौजोभिः पराक्रमैः प्रथमाय । ओजसा पूर्वायेति तु वाक्ये “ओजोञ्जः " [३.२.१२]इत्यादिनालुक् स्यात् । स च राजास्मै राजकायाह्नावरायेव मासावराय नु दिनेन मासेन वा लघव इवास्निह्यदप्रीयत । न तु गर्वेण पराङ्कुखोभूदित्यर्थः । अह्नावराय मासावरायेत्येताभ्यां दिनेन मासेन चानुजो भ्रातैव गम्यतेस्निह्यदिति क्रियापदात् ॥ १ सी डी कण्ट्यम् । २ सी डी व प. ५ डी थेः । शेषं स्प १३ ९७ दि. ३ एकू रा: इ. ४ बी सी ६ एक पिस्यादे'. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] श्रिया पूर्वाय । ओजःपूर्वाय । अह्नावराय । मासावराय । इत्यत्र "तृतीया. न्तात्" [१३] इत्यादिना सर्वादिकार्य न ॥ कृष्णायास्मै द्वितीयस्मै द्वितीयायासिना नृपाः । द्वितीयस्मात्तृतीयाच देशादेत्य नमो व्यधुः ॥ १५७ ॥ १५७. गूर्जरत्रादेशापेक्षया द्वितीयस्मात्तृतीयाच देशादुपलक्षणत्वात्सर्वदेशेभ्य इत्यर्थः । एत्यागत्य नृपा अस्मै राज्ञे नमः प्रणामं व्यधुः । यतो द्वितीयस्मै कृष्णाय । ईदृशायापि कुत इत्याह । यतोसिना द्वितीयाय महाबलत्वेन सैन्यादिसहायनिरपेक्षायेत्यर्थः ॥ द्वितीयस्यास्तृतीयाया नृपकीर्तेरमर्षणः। जगत्यस्मिन्द्वितीयस्मिंस्तृतीये चैष विश्रुतः ॥ १५८ ॥ १५८. एष राजास्मिञ् जगति पृथिव्यां द्वितीयस्मिञ् जगति पाताले तृतीये च जगति स्वर्गे च विश्रुतो विख्यातः । यतो द्वितीयस्यास्तृतीयायाः स्वकीर्यपेक्षयान्यस्या अन्यतरस्याश्चोपलक्षणत्वात्सर्वस्या इत्यर्थः। नृपकीर्तेरन्यराजयशसः कर्मणोमर्षणोसोढा । परिभावुक इत्यर्थः । अतश्चायमेव सर्वत्र प्रसिद्ध इति भावः ॥ तेजसा सूर्यजातीये सर्वेषां प्रलयो द्विषाम् । कान्त्या द्वितीयके चेन्दौ हर्षोस्मिन् सुहृदामभूत् ॥१५९॥ १५९. तेजसा प्रतापेन कृत्वा सूर्यः प्रकारोस्य तस्मिन्सूर्यजातीये सूर्यवत्प्रचण्डेस्मिन् राज्ञि सर्वेषां द्विषां प्रलयः क्षयोभूत् । एतत्प्रता१.सी तीयस्माच्च. १ सी डी °रदे. एफ °रधात्रीदे . २ एफ तीयस्माच्च. ३ बी सी डी एफ पृथ्व्यां द्वि. ४ एफ र्गे वि. ५ बी एफ र्यप्र. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.१५.] प्रथमः सर्गः। ९९ पेनापि सर्वे शत्रवः प्रलीना इत्यर्थः । तथा कान्त्या सौम्यतया कृत्वा द्वितीयकेज्ञाते द्वितीय इन्दौ च चन्द्रे चास्मिन् सर्वेषां सुहृदां मित्राणां हर्ष आनन्दोभूत् । एतदर्शनेनापि सर्वे सुहृद आनन्दिता इत्यर्थः । अस्मिन्नित्यत्र नैमित्तिक आधारे सप्तमी । द्विट्प्रलयसुहृद्धर्षयोरयं निमित्तमित्यर्थः ॥ द्वितीयस्मै द्वितीयाय । द्वितीयस्मात् तृतीयात् । द्वितीयस्मिन तृतीये । द्वितीयस्याः तृतीयायाः । इत्यत्र "तीयं डिस्कार्ये वा" [१४] इति वा सर्वादिकार्यम् । ङित्कार्य इति किम् । तत्रैव सर्वादित्वं यथा स्यान्नान्यत्र । तेनाक् न स्यात्तथा च कप्रत्यये सति स्वार्थिकप्रत्ययान्ताग्रहणात्स्मैप्रभृतयो न स्युः । द्वितीयके ॥ अर्थवतः प्रतिपदोक्तस्य च ग्रहणादिह न स्यात् । सूर्यजातीये ॥ सर्वेषाम् । इत्यत्र “अवर्णस्यामः साम्" [१५] इति साम् ॥ पूर्वे न्याय तथा धर्मे पूर्वस्मिन्नेष तत्परः । पूर्वस्मात्पुरूरवसस्तत्पूर्वान्नाप्यहीयत ॥ १६० ॥ १६०. एष राजी नाहीयत न न्यूनोभूत् । कस्मात् । पुरूरवसो बौधाञ्चतुर्थचक्रिणः सकाशात् । तथा पूर्वस्मात्पुरूरवस एव प्रथमात्तत्पितुर्बुधात् । तथा तत्पूर्वादपि तस्माद्धात्पूर्वः प्रथमः पिता चन्द्रस्तस्मादपि यतः पूर्वे पुरूरवःप्रभृतिपूर्वराजबंद्धे न्याये नीतौ तथा पूर्वस्मिन्धर्मे तदनुष्ठाने तत्परस्तन्निष्ठः । पूर्वनृपाचरितौ न्यायधौं पा. लयन्नित्यर्थः । अहीयतेति कर्मकर्तरि ॥ १ एफ तीयेन्दौ. २ डी तीयस्मा . ३ एफ न् । द्वितीये । तृतीयस्मिन् । तु. ४ एफ स्याः। द्वितीयायाः । तृतीयस्राः । तृ. ५ एफ र्यमिति. ६ सी दि डिकार्यत्वं. ७ सी डी था चाक्प्रत्य. ८ एफ जा न हीयेत. ९ एफ नो भवेत. १० एफ बन्धे न्या. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० द्व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] पूर्व दैत्या बलिमायाः पूर्वाः कर्णादयो नृपाः। क्षमायां स्मारितास्त्यागक्रियाया अमुना किल ॥ १६१ ॥ १६१. किलेति सत्ये । अमुना राज्ञा त्यागक्रियाया दानाद्धेतोर्बलिप्रायाः । प्रायो बाहुल्यतुल्ययोः । बलिसदृशाः पूर्वोतना दैत्याः । तथा कर्णादयः कर्णः कौरवपक्षीयो राजा तदादयो दधीचिजीमूतवाहनाद्याः पूर्वा नृपाश्च स्मारिताः स्मृतिपथमानीताः । बलिकर्णादिवद्ददावित्यर्थः । बलिकर्णादयो हि लोके दानशौण्डत्वेन प्रसिद्धाः । यदुक्तम् । अतिदानाद्वलिबद्धः ॥ त्वचं कर्णः शिबिर्मासं जीवं जीमूतवाहनः । ददौ दधीचिरस्थीनि नास्त्यदेयं महात्मनाम् ॥ निस्त्रिंशे बहुखदायां रिपुकीलालपि व्यधात् । स्थानमेषोनुरक्तायाः क्रीडायै विजयश्रियः ॥ १६२ ॥ १६२. एष राजानुरक्तायाः शौर्यादिगुणैरावर्जिताया विजयश्रियः क्रीडायै विलासाय बहुखट्वायामीषदूनखटायां विस्तृततया पल्यङ्कतुल्ये निस्त्रिंशे खड्ने स्थानमावासं व्यधादत्तवान् । यतो रिपूणां कीलालं रुधिरं पिबति यस्तस्मिशत्रूच्छेदकै इत्यर्थः । शत्रूच्छेदकत्वादस्य खड्ङ्गे विजयश्रीय॑वसदित्यर्थः । याप्यनुरक्ता स्त्री स्यात्तस्या रतये पतिः खट्टायां स्थानं ददाति ॥ पूर्वे पूर्वाः। पूर्वस्मात् पूर्वात् । पूर्वस्मिन् पूर्वे। इत्येषु “नवभ्य'' [१६] इ. त्यादिना-इस्मास्मिनो वा ॥ क्रीडायै । क्रियायाः । अनुरक्तायाः । क्षमायाम् । इत्यत्र " आपो ङिताम्" १ बी लोका दा. २ सी डी नास्ति दे'. ३ एकत्वा. ४ एफ इत्यत्र न. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० १.४.२०.] प्रथमः सर्गः । १०१ [१७] इत्यादिना यै- यास-यास- यामः ॥ आप इति पकारः किम् । कीलालपि । तत्संबैन्धिविज्ञानादिह न भवति । बहुखाय नराय । एतच्चोदाहरणं स्वयं ज्ञेयम् । इह तु भवति । बहुखङ्गायां निस्त्रिंशे ॥ हितः प्रजायै सर्वस्यै सर्वस्याः संपदः पदम् । ख्यातोसौ दिशि सर्वस्यां सर्वस्या नृपसंहतेः ॥ १६३ ॥ १६३. अयं राजा सर्वस्या भूतभवद्भाविन्या नृपसंहतेः सकाशात्सर्वस्यां दिशि दशस्वपि दिक्षु ख्यातोभूत् । यतः सर्वस्यै प्रजायै हितोनुकूलः । तथा सर्वस्याः सैन्यकोशादिकायाः संपदः पदं स्थानम् ॥ सर्वस्यै । सर्वस्याः । सर्वस्याः । सर्वस्याम् । इत्यत्र “सर्वादेः " [14] इत्यादिना पूर्वा यैास्यास्यामः ॥ लीलया भुजयोर्लक्ष्मीवसुधे अस्य विभ्रतः । कुन्दावदातैरोदस्यो यशोभिः पूरिते इमे ।। १६४ ।। १६४. स्पष्टः । लीलया । भुजयोः । इत्यत्र “टौस्येत्” [१९] इत्येत् ॥ पूरिते । इमे । लक्ष्मीवसुधे बिभ्रतः । इत्यत्र “औता” [२०] इत्येत् ॥ चारु चापेषुधी त्यक्त्वा समरेष्वस्य वैरिभिः । गुरू अबलताभीती शिश्रियाते अतिस्त्रियौ ।। १६५ ॥ १६५. अस्य राज्ञः समरेषु वैरिभिश्वारू रणालंकर्मीणौ चापेषुधी धनुस्तूणौ त्यक्त्वाबलताभीती निःसत्वताभये शिश्रियाते आश्रिते । कीदृशे । °र्वस्या । स ं. ४ सी १ सी डी रः । की. डी निःस्वत्व. २ सी बन्धवि. ३ एफ् Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] गुरु महत्यौ । अत एवातिस्त्रियौ । स्त्रीशब्देनात्र स्त्रीगते अबलताभीती उपचारादुच्येते । स्त्रियमतिक्रान्ते स्त्रीगताबलताभीतिसकाशादप्यधिके इत्यर्थः । यदायं राजा रणभूमिमापतति तदा वैरिणः स्त्रीभ्योप्यधिकमबेलाभीताश्च सन्तः शस्त्राणि मुञ्चन्तीत्यर्थः । यावप्यतिस्त्रियौ ब्रह्मचारित्वात्त्रियमतिक्रान्तौ चारु प्रशान्ततया मनोहारिणौ गुरू आचार्यौ भवतस्तौ चापेषुधी त्यक्त्वा वैरिभिरपि श्रीयेते तथाविधैतद्दर्शने वैरानुबन्धोपशमादित्युक्तिः ।। अस्याभूवन्ननाहार्या बुद्धयः कामधेनवः । त्रासादतिस्त्रयोनेन चक्रिरेह्यवोरयः ॥ १६६ ॥ १६६. अस्य राज्ञोनाहार्या अकृत्रिमा मत्र्याद्युपदेशं विनापि संसिद्धा इत्यर्थः। बुद्धयो मनोभीप्सितपूरकत्वेनानाहार्या: केनापि हर्तु - मशक्याः कामधेनव इव कामधेनवो भूवन् । अत एवानेन राज्ञाहयवोहंकारिणोरयस्त्रासाद्भीतेरतिस्त्रयः स्त्रियोपि सकाशाद्भीरवश्चक्रिरे ॥ ε ७ अबलताभीती । गुरू चापेषुधी चारू त्यक्त्वा । इत्यत्र " इदुतो: " [२१] इत्यादिना-ईदूतौ ॥ अस्त्रेरिति किम् | अतिस्त्रियौ । इदमेव चास्त्रिग्रहणं ज्ञापकं परे I णापीयादेशेनेत्कार्यं न बाध्यत इति । तेनातिस्त्रयः ॥ अरयः । अहंयवः । बुद्धयः । धेनवः । अतिस्त्रयः । इत्यत्र “जस्येदोत्" [२२] इत्येतौ ॥ १ एफ् 'तिस्त्रियो ं. १ एफू °ते स्त्रीम .. ४ एफ वाली ८ एफ चास्र्ग्रह ९ एफू नेतत्का २ एफ्बलताभी. ३ ए मुञ्चतीत्य. सी डी मुचुन्ती . ५ एफ् रूपशा ६ डी 'हंका. ७ बी सी 'तिस्त्रियः • · Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है० १.४.२३.] प्रथमः सर्गः। १०३ सुनेरपि मुनेरस्य साधोः साधोरपि स्फुटम् । कीर्तये चारवे यत्नो जज्ञे बुद्ध्याः प्रकर्षतः ॥ १६७ ॥ १६७. अस्य राज्ञो बुद्ध्याः प्रकर्षतश्चारवे निष्कलङ्कायै कीर्तये स्फुटं प्रकटं यत्नोभूत् । यथा यथा लोके कीर्तिः स्यात् तथा तथावर्तिष्टेत्यर्थः । बुद्धिप्रकर्षे हेतुगैर्भ विशेषणद्वयमाह । मुनेरपि सकाशान्मुनेरत्यन्तं जितेन्द्रियस्येत्यर्थः । तथा साधोरपि शिष्टादपि सकाशात्साधोः । स्याद्विजितेन्द्रियस्य सदाचारस्य च नरस्य बुद्धिप्रकर्षः ॥ कीर्तये । चारवे । मुनेः । साधोः । मुनेः । साधोः । इत्येषु “डित्यदिति" [२३] इत्येदोतौ ॥ अदितीति किम् । बुद्ध्याः ॥ ते गुणा अमुना कीर्तिशुचिनात्मनि रोपिताः । शंभोः सख्यावपां पत्यौ योः पतौ च विधौ च ये॥१६८ १६८. शंभोः सख्यौ धनदेपां पयौ वरुणे द्योः पतौ चेन्द्रे च विधौ चेन्दौ च ये गुणा औदार्यन्यायपरमैश्वर्यसौम्यत्वादयः सन्ति ते गुणा अमुना राज्ञात्मनि रोपिताः संस्थापिताः । अत एव कीर्तिशुचिना । महापुरुषगुणधर्धारणे हि निष्कलङ्कं यशः प्रसरति ॥ बहुपत्यौ भुवनानामसखौ रणकर्मणि । अस्मिन्नरपतौ सर्वान्को गुणान्वक्तुमीश्वरः ॥ १६९॥ १६९. भुवनानां बहुपत्यौ भुवनानां पतिर्जगन्नाथो विष्णुस्तस्मिन्नीषदूने शौर्यादिगुणैर्विष्णुतुल्य इत्यर्थः । अत एव रणकर्मणि युद्धक्रियायां १ ए ०यै च की. २ एफू वतिष्ठतीत्य. ३ बी गर्भवि . ४ एफ बुद्धेः प्र. ५ एफ तौ आदि . ६ एफ पतौ व. ७ एफ ताः । अ. ८ एफ धारिणो हि. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ . व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] नास्ति सांस्य तस्मिन्नसखौ सहायानपेक्ष इत्यर्थः । अस्मिन्नरपतौ मूलराजे वर्तमानान गुणाञ् शौर्यादीन्कः पुमान्वक्तुं वर्णयितुमीश्वरः शक्तः । विष्णुसाम्येनास्य गुणानामानन्त्यान्न कोपीत्यर्थः । बहुपत्यावित्यत्रपतिशब्दो यद्यपि भुवनानामित्यपेक्षते तथाप्यस्य नित्यसापेक्षत्वेन तद्वितवृत्तिस्ततो भुवनानां बहुपत्यावित्यस्य नृपविशेषणत्वम् ॥ शुचिना । अमुना । इत्यत्र "टः पुंसि ना" [२४] इति ना ॥ पतौ । विधौ । इत्यत्र “डिडौं" [२५] इति डौः ॥ सख्यौ । पत्यौ । इत्यत्र "केवल" [२६] इत्यादिना-औः ॥ पताविति कश्चित् ॥ केवलग्रहणं किम् । असखौ । नरपतौ । एषु पूर्वेण डौरेव ॥ अन्ये तु बहुप्रत्ययपूर्वादपि पतिशब्दादौकारमेवेच्छन्ति । बहुपत्यौ । हरेः सख्या भुवः पत्या सख्ये चास्पृहयालुना । स्थितं रणेमुना पत्ये वृतश्चायं जयश्रिया ॥ १७० ॥ १७०. अमुना भुवः पत्या राज्ञा रणे स्थितं न कदाचिदपि नष्टमित्यर्थः । नन्वनेन मित्रसाहाय्यान नष्टं भविष्यतीत्याह । सख्ये मित्रायास्पृहयालुना निरपेक्षेण । नन्वस्य मित्रमेव न भविष्यत्यतो दैवेनैवास्पृहयालुः कृत इत्याह । हरेः सख्या च । सख्ये चेति चोप्यर्थो भिन्नक्रमे । नैकयागकरणेन स्वर्गस्य तर्पकत्वादिन्द्रस्य मित्रेणापि सख्यस्योभयनिष्ठत्वादिन्द्रे मित्रे सत्यपीत्यर्थः । एतेनातिपराक्रमित्वोक्तिः । नन्वेवं तर्हि शत्रुशस्त्रज्वलनेस्य पतङ्गायितं भविष्यति । नेत्याह । अयं राजा जयश्रिया पत्ये भर्ने वृतश्चात्मभीकृतश्चेत्यर्थः । १ सी डीखा यस्य. २ सी डी तिडौ. ३ एफच्छति । ब. ४ एफ 'चिन्नष्ट'. ५ एफ मेनेक. ६ ए नापि प Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [हे० १.४.२७.] प्रथमः सर्गः। कान्त्या सदृग्निशः पत्युर्मधोः सख्युश्च रूपतः । शंभोः सख्युः श्रियः पत्युहीयते स्म न संपदा ॥१७१ ॥ १७१. मधोः सख्युश्च कामस्य सहक राजा । शंभोः सख्युर्धनदात् । श्रियः पत्युर्नारायणात् । शिष्टं स्पष्टम् ॥ सख्या । पत्या । सख्ये । पत्ये । सख्युः । पत्युः । सख्युः । पत्युः । इत्यत्र "न नाङिदेत्” [२७] इति न नादेशैकारौ ॥ अस्योपायचतुःस्तन्यै बुद्ध्यै धेन्वै नु साधवे । शुचये कीर्तिदुग्धायै स्पृहयामास वासवः ॥ १७२ ॥ १७२. अस्य राज्ञो बुद्ध्यै धेन्वै न्वर्थात्कामधेनव इव वासवः स्पृहयामास । कामधेनुरिवैतद्बुद्धिर्ममापि भूयादित्यैच्छदित्यर्थः । यतः साधवे मनोज्ञायै । कुतः साधुत्वमित्याह । यत उपायाः सामदानभेददण्डा एव चत्वार स्तना यस्यास्तस्यै । तथा कीर्तिरेव श्वेतत्वाप्यायकत्वादिना दुग्धं यस्यास्तस्यै । बुद्ध्या हि यथौचित्यं नियुज्यमाना उपायाः स्वफलसाधकत्वाद्यशोदुग्धं प्रश्नुवन्ति । तथा शुचये पवित्रायै ।। - तस्याः कीर्त्या मतेस्तस्या अस्मिन्विश्वोपरि स्थिते । सजिष्णोरपि दैत्याजिभीर्वा भीनिर्ययो दिवः ॥ १७३ ।। १७३. तस्याः कीर्त्यास्तस्या मतेः। “गम्ययपः" [२.२.७४] इत्यादिनात्र पञ्चमी । तां शौर्यादिगुणोद्भवां कीर्ति ती पूर्ववर्णितां मतिं च प्राप्य विश्वोपरि स्थिते विश्वत्रयोपरिवर्तिनि सर्वोत्तम इत्यर्थः । अस्मिन् राज्ञि सति दिवः स्वर्गाद्रीनिर्ययौ । कीदृश्याः । सजिष्णोरपि जिष्णुना शक्रेण १ सी डी स्य च स. २ डी त् । शेपं स्प. ३ ए कीर्तेस्त. ४ सी डीतां म. ५ ए रिव'. १४ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] प्रभुणा सहिताया अपि दैत्याजिभीर्वा दानवरणाद्भीरोः। एतेन सर्वोत्कृष्टैः शौर्यादिगुणैर्बुद्ध्या च शक्राजय्या अपि दैत्या अनेन जिता इत्युक्तम् ।। असिधेनोः कामधेन्वा जयाप्त्यां समितौ ग्रहात् । नृपपतया महाबुद्धरपि क्षोभमसौ व्यधात् ॥ १७४ ॥ १७४. असौ राजा समितौ रणेसिधेनोः खड्गयष्टेहात् महत्यतिशयिता बुद्धिः संध्यादीनां यथौचित्येन व्यापारणगोचरा मतिर्यस्यास्तस्या अपि नृपपतयाः क्षोभं संत्रासं व्यधात् । ननु यद्यमुनासिधेनुर्गृहीता तत्किं नृपपतिर्महाबुद्धिरपि क्षुब्धेत्याह । यतो जयाप्त्यां विजयप्रापणे कामधेन्वा अवश्यमेव विजयदाच्या इत्यर्थः । अथ च यस्य जयाप्त्यां जयलाभविषये कामधेन्वा ग्रहोनुग्रहः प्रसादः स्यात्स तस्मात्प्रसादात्समितौ सभायां महाबुद्धेरपि महाविदुषोपि क्षोभं करोति ॥ लम्बश्रुतेः स्निग्धदृष्ट्या अस्यातन्वां तनौ सुराः। जाताश्चयों दिवः पृथ्व्यां पृथ्व्या दिवि च ते ययुः १७५ १७५. ते रूपवत्त्वेन सर्वत्र प्रसिद्धाः सुरा दिवः स्वर्गात्पृथ्व्यां ययुः । पृथ्व्याश्च दिवि ययुः । यतो लम्बश्रुतेः स्कन्धविश्रान्तकर्णस्य स्निग्धदृष्ट्या अरूक्षेक्षणस्योपलक्षणत्वात्सुरूपसश्रीकसर्वाङ्गावयवस्यास्य राज्ञोतन्वां विस्तीर्णायां समचतुरस्रसंस्थानायामित्यर्थः । तनौ देहविषये जाताश्चर्या अत्यद्भुतरूपश्रीकत्वादेतन्मूर्तिदर्शनाय देवा अपि गतागतं चक्रुरित्यर्थः ॥ १एफ जय्याप्तां. ४ एफू १ एफ तौ संग्रामेसि. २ एफ ग्रहणात्. ३ सी डी संशयं. यदामु. ५ डी थवा य". ६ सी गापवर्गात्गृ. ७ ए तुश्रमं'. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० १.४.२७.] प्रथमः सर्गः । पृथ्व्या वध्वाः करं गृह्णल्लक्ष्म्यै वध्वाययं सुखः । लुब्धोन्यकीर्तिवध्वां च परवध्वाः पराङपि ।। १७६ ॥ १७६. सुगमः । नवरं यो वध्वन्तरस्य करं गृह्णात्युद्वाहं करोति स पूर्ववध्वा दुःखायैव स्यात् । योपि परवध्वाः पराङ्मुखः स्यात् सो - न्यवधूं नेच्छतीति विरोधः । तद्भङ्गस्त्वेवम् । पृथ्व्या वध्वाः करं राजग्राह्यं भागं गृह्णन्सन् लक्ष्म्यै वध्वै सुखः सुखकार्यभूत् । लक्ष्म्या वर्धकत्वात् । तथा परवध्वाः पराङ् पराङ्मुखोन्यकीर्तिवध्वां शत्रुकीर्ति - कान्तायां लुब्धश्चाभूत् । अपिगृह्णन्नित्यत्रापि योज्यः ॥ १०७ ग्रामण्येपि खलप्वे नु निस्पृहोसौ परस्त्रियै । सुलक्ष्म्यै च सुवध्वै च न स्म कस्मै चिदीर्घ्यति ॥ १७७॥ १७७. असौ राजा शोभना अतुच्छत्वात्प्रधाना लक्ष्म्यो धनधान्यादिसंपदो यस्य तस्मै सुलक्ष्म्यै च तथा शोभना रूपलावण्याद्यन्विता वधूर्भार्या यस्य । केचित्तु नित्यदितां ङ्यूङन्तानामेव कचमिच्छन्ति तन्मतेत्र कजभावः । तस्मै सुवध्वै च कस्मै चित्कस्मायप्येकस्मै नेयति नासूयति । असहमानो रम्यतमामपि परस्य लक्ष्मीं वधूं च न गृह्णातीत्यर्थः । यतो ग्रामं नयति ग्रामणीग्रमपतिर्महर्द्धिक इत्यर्थः । तस्मै ग्रामण्येपि खलं पुनाति यस्तस्मै खलप्वे नु दासाये दरिद्रायेवेत्यर्थः । अस्पृहयालुर्यथा धनेच्छया दरिद्रं न कोपीच्छति तथायमीश्वरमपीत्यर्थः । तथा परस्त्रियायन्यभार्यायै ग्रामण्येपि रूपलावण्यादिभिरुत्कृष्टायामपि खलवे नु कर्मकर्यायिवास्पृहयालुरनभिलाषुकः ॥ शुचये । कीर्त्याः मतेः । नृपपङ्कयः महाबुद्धेः । जयायां समितौ । 1 १ सी वधूंच्छ. डी 'वधूनेंच्छ २ एफ च्छतिवि. ३ एफ कार्योभू. ४ ए एफ पि गृह्ण५ एफ् नातीति. ६ सी डी येवेत्य ७सी एफ य म . ८ सी डी एफ . म Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] धेन्वै साधवे । भीर्वाः सजिष्णोः । कामधेन्वाः असिधेनोः । अतन्वां तनौ । इत्यत्र "स्त्रियां ङिताम्" [२८] इत्यादिना तत्संबन्धिनामन्यसंबन्धिनां वा ङितां वा दैदास्दास्दामः ॥ अन्ये तु पुरुषस्य समासार्थत्वे सति नेच्छन्ति । तन्मते लम्बश्रुतेरस्येत्येव स्यात् न तु लम्बश्रुत्या इति ॥ अन्यस्तु पुरुषस्यैव समासार्थत्व इच्छति न स्त्रियाः । तन्मते स्निग्धदृष्ट्या अस्येत्यत्रैव स्यात् । न तु स्निग्धदृष्टेः स्त्रिया इति ॥ इदुत इत्येव । दिवः ॥ लक्ष्म्यै । पृथ्व्याः । पृथ्व्याः । पृथ्व्याम्। वध्वै । परवध्वाः । वध्वाः। वध्वाम् । सुलक्ष्म्यै। सुवध्वै कस्मै चित् । इत्यत्र "स्त्रीदूतः” [२९] इति तत्संबन्धिनामन्यसंबन्धिनां वा ङितां दैदास्दास्दामः ॥ स्त्रिया इत्यनुवर्तमाने पुनः स्त्रीग्रहणं नित्यस्त्रीविषयार्थम् । तेनेह न भवति । ग्रामण्ये खलप्वे परस्त्रियै ॥ ईदूत इति किम् । दिवः । दिवि ॥ भुवि श्रियै धिये वासो ह्रियाः स्थानं भियोपदम् । युभुवा आपतत्स्त्रीणां ललासैष भुवो भुवाम् ॥ १७८ ॥ १७८. दिवोभूर्भुभूस्तस्या |भुवाः स्वर्गभूमेः सकाशाद् भुवि मर्त्यलोक आपतत्स्त्रीणामेतदद्भुतरूपादिगुणश्रीदिदृक्षयागच्छद्देवाङ्गनानां ध्रुव एकस्या भ्रवः सकाशाद् भ्रुवामपरस्यां भ्रव्येष राजा ललास चिक्रीड । अत्र भ्रूशब्देन तन्निकटं चक्षुरुपलक्ष्यते । एकस्माच्चक्षुषोपरस्मिंश्चक्षुषि ललास । सर्वाभिरपि देवीभिरहमहमिकयासौ दृष्ट इत्यर्थः । यतः श्रियै रूपादिलक्ष्म्यै धिये बुद्धये च वासः । तादर्थे चतुर्थीयम् । श्रियो बुद्धेश्च गृहमित्यर्थः । तथा ह्रिया लज्जायाः स्थानम् । एतेन कुलीनत्वोक्तिः । तथा भियोपदमस्थानम् । एतेन शूरत्वोक्तिः ॥ १ एफ तां वा. २ एफ तां दै'. ३ एफ अस्यैत्य'. ४ एफ वै व. ५ ए एफ यै इदुत. ६ एफ दिवि ॥. ७ सी भूस्त'. ८ एफ कटचक्षुरूपं ल. ९ सी डी रह. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.३०.] प्रथमः सर्गः। १०९ यवक्रियेस्यारिस्त्रियै भिल्ला नद्यां कट वे । अप्रध्यै कूपवर्षाभ्वायिवाधावन्त निष्कृपम् ॥ १७९ ॥ १७९. अस्य राज्ञोरिस्त्रियै शत्रुभार्यायै निष्कृपं निर्दयं यथा स्या. देवं भिल्ला मेदा अधावन्त ग्रहणार्थं धाविताः । कीदृश्यै । यवा हि कदन्नत्वात्समर्थतरा लभ्यन्त इति यवानेव क्रीणाति या तस्यायतिनिःस्वायायित्यर्थः । तथा मूलराजेन पत्यौ हते भयेनारण्ये पलायमानत्वान्नद्यां नदीमध्ये नावाद्यसंपत्त्या कॅटेनैव वीरणादितृणमयेन प्रवते तरति या तस्यै तथा प्रकर्षेण ध्यायति प्रधीन तथा या तस्यायप्रध्यै । हा दैव कथं भविष्यामीत्यार्तध्यानपरायायित्यर्थः । तथा कूपवर्षाभ्वायिव यथा कूपमण्डूकी कूपादन्यन्न किंचिजानाति तथा राज्ञीत्वात्स्वभवनादन्यन्मार्गामार्गादिकमजानत्यायित्यर्थः । कूपमण्डूक्यायपि भिल्ला निष्कृपं मारणाय धावन्ति । भिल्ला हि दुर्दुरानपि मारयन्ति । - श्रियै धिये। धुभुवाः भ्रवः । ह्रियाः भियः । श्रुवां श्रुवि । इत्यत्र “वेयुवोस्त्रियाः" [३०] इति वा दैदास्दास्दामः । इयुव इति किम् । अप्रध्यै । वर्षावै । पूर्वेण नित्यमेव ॥ अस्त्रिया इति किम् । अरिस्त्रियै ॥ स्त्रीदूत इत्येव । यवक्रिये कट वेरिस्त्रियै ॥ असौ निरुपमश्रीणां नानारूपश्रियामिव । स्त्रीणां नतध्रुवां भ्रूणां रङ्गाचार्यकमाचरत् ।। १८० ॥ १८०. नतध्रुवां नम्रभ्रूणां स्त्रीणां संबन्धिनीनां भ्रूणामसौ राजा र___ १ एफ कूटव. १°डी लाम्लेच्छा अ. २ सी डी तस्यै । इति . ३ एबी निस्वा. ४ एफ कटकेनै . ५ एफ मार्गोन्मार्गादि. ६ एफ ये भु. ७ सी डी स्त्रियामिति. ८ एफ वे ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] गाचार्यकं नटोपाध्यायत्वमाचरच्चक्रे । ऐनं सौन्दर्यतर्जितस्मरं दृष्ट्वा नारीणामभिलाषातिशयेन मुहुर्मुहुर्भुव उल्लसन्ति । ततो यथा रङ्गाचार्यों नायिका नर्तयति तथायं लीलावतीभ्रुवो नर्तितवानित्यर्थः । कीदृशीनाम् । निरुपमा सर्वोत्तमा श्री: सौन्दर्यादिलक्ष्मीर्यासां तासामत एव नानारूपश्रियामिव । एवं ज्ञायते नैता: स्त्रियः किं तयनेकमूर्तयो लक्ष्मीदेव्यस्तासाम् ॥ श्रीणां श्रियाम् । भ्रूणां ध्रुवाम् । इत्यत्र "आमो नाम्वा" [३१] इति वा नाम् ॥ अस्त्रियाँ इत्येव । स्त्रीणाम् ॥ याचकानां महतीनामाशानामेष पूरकः । ग्रामण्यां सोमपां नित्यं तद्वधूनां च पूजकः ॥ १८१॥ १८१. याचकानां द्विजादीनां संबन्धिनीनां महतीनां राज्यादिलाभविषयत्वाद्वृहतीनामाशानां मनोरथानां पूरकोभूत्तथा ग्रामण्यां व्रतनियमादिभिः प्रकृष्टानां सोमपां वल्लीरसपायिनां यायजूकभेदानां तद्वधूनां च सोमपाभार्याणां च नित्यं पूजकोभूत् ॥ याचकानाम् । आशानाम् । महतीनाम् । वधूनाम् । इत्यत्र "ह्रस्वापश्च" [३२] इति नाम् ॥ ह्रस्वापश्चेति किम् । सोमपाम् । ग्रामण्याम् ॥ धामाष्टानां धीगुणानां षण्णां जेतान्तरद्विषाम् । गुणानामतिपञ्चां भूश्चतुर्णा छन्दसामसौ ॥ १८२ ॥ १८२. असौ राजा पण्णां क्रोध १ मान २ मद ३ स्मरै ४ लो - ५ संमदाना६मन्तरद्विषां जेताभूत् । अत एवाष्टानां शुश्रूषा १ श्रवण २. १ बी सी एतं सौ. एफ एतं सौ. altered to एवं सौ. २ ए 'दृशानां. ३. सी डी यामित्ये. ४ एफ ह्रस्वेत्यादिना नाम्. ५ ए ण्या ॥ ६ सी र ४ सं. ७ एफ भ५ हर्षाणामान्त. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.३४. ] प्रथमः सर्गः । १११ ग्रहण ३ धारण ४ ऊह ५ अपोह ६ अर्थविज्ञान ७ तत्वज्ञानानां धीगुणानां धाम स्थानमभूत् । अत एव च पञ्चातिक्रान्ता ये तेषामतिपञ्चञां षण्णां संधि १ विग्रह २ यान३ आसन ४ द्वैधीभाव ५ संश्रयाणां ६ गुणानां भूर्यथौचित्यं प्रवर्तनादुत्पत्तिस्थानमभूत् । तथा चतुर्णामृग् १ यजुः २साम ३ अथर्वणानां ४ छन्दसां वेदानां च भूः पाठेनाध्येत्रध्यापक साहाय्यकरणादिना चोत्पत्तिस्थानमभूत् । निगृहीतान्तरशत्रुर्हि सुस्थचित्तत्वाद्बुद्धिपात्रं स्यात् । धीमांश्च बुद्धिप्रकर्षेण संध्यादीन् सम्यग् नियुङ्क्ते शास्त्रपाठादि च करोति ॥ चतुर्णाम् । षण्णाम् । इत्यत्र "संख्यानां ष्र्णाम्” [३३] इति नाम् ॥ तत्संबन्धिविज्ञानादिह न स्यात् । अपिनाम् ॥ संख्यानामिति किम् । द्विषाम् ॥ बहुवचनं व्यर्थम् । तेन भूतपूर्वनान्ताया अपि । अष्टानाम् । एतेनैव नान्तसंख्याया मूलोदाहरणमपि सूचितम् ॥ अतित्रयाणां वर्णानामतित्रीणामुदन्वताम् । प्रभुरेष त्रयाणां च पुमर्थानां प्रवर्तकः ।। १८३ ।। १८३. एष राजा त्रयाणां पुमर्थानां प्रवर्तक स्त्रीन्धर्मार्थकामान्यथोचितं प्रयुञ्जानः सन् प्रभुरभूत् । केषाम् । अतित्रयाणां त्रीनतिक्रान्तानां चतुर्णी वर्णानां ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राणां न्यायेन पालनात्तथा । त्रयाणां चेत्यत्र चः समुच्चयार्थो भिन्नक्रमे । अतित्रीणां चतुर्णामुदन्वतां च पूर्वपश्चिमदक्षिणोत्तराब्धीनां च चतुर्दिग्विजयात् ॥ त्रयाणाम् । इत्यत्र "स्त्रयः " [३४] इति नाम् यादेशश्च ॥ तत्संबन्धिविज्ञानादिह न स्यात् । अतित्रीणाम् ॥ अतत्संबन्धिनः स्यादित्येके । अतित्रयाणाम् ॥ १ एकः ।। १८३ ॥ स्त्रीन्ध, १ सी डी येषा . २ सी : २३ एफ् पूर्वायाना ४ एफ् ख्यामू. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] मुनेः साधोश्च सत्कर्ता मदं हर्ता कले रिपोः । अद्भुतैरेष विभवैद्योर्विशेषं चकार गोः ॥ १८४ ॥ १८४. एष राजाद्भुतैराश्चर्यकारिभिर्विभवैः सदा प्रवर्तमानमहोत्सवादिलक्ष्मीभिः कृत्वा द्योः स्वर्गात्सकाशाद्गो मेविशेषमतिशयं चकार । ननु कलौ प्रतिक्षणं पदार्थानां हीयमानत्वात्कुतोद्भुतविभवसंभव इत्याह । रिपोः शत्रुभूतात्कलेः कलिकालात्सकाशान्मदं सांप्रतमनीतिरूपा मदाज्ञैव सर्वत्रास्खलितेत्येवं गर्व हो । यतो मुनोनःसङ्गस्य साधोश्च शिष्टजनस्य सत्कर्ता रक्षादानादिना सन्मानकः । यथा यथासौ मुनीन्साधूंश्च सच्चक्रे तथा तथा कलिः क्षीणस्ततश्च महा भूः स्वर्गादपि विशिष्टाभूदित्यर्थः ॥ कलेः । मुनेः । रिपोः । साधोः । द्योः । गोः। इत्यत्र “एदोद्भयाम्" [३५] इत्यादिना सिङसो रेफः ॥ पत्युर्जयश्रियः पत्युः सख्युः सख्युर्बिडौजसः । एनोलून्युरुमाभनन्तुरस्मादभून्नयः ॥ १८५ ॥ १८५. अस्मान्नृपान्नयो न्यायोभूत् । यतः पतिमिच्छति क्यनि दीधत्वे पतीयति विपि यलोपे च पतीस्तस्याः पत्युः स्वामिनमिच्छन्त्या जय. श्रियः पत्युः शत्रूच्छेदेन नायकात्। एतेन सैन्यकोशाद्युत्कृष्टसंपदा महद्धिकत्वमुक्तम् । तथैनोलून्युः पूर्ववत्क्यनि किप्येनोलेनिं पापच्छेदमिच्छतोत एव सख्युः सखायमिच्छतो बिडौजस इन्द्रस्य सख्युर्यागा १ एफ नः । म . २ एफ शत्रुभू. ३ एफ 'न्मन्द सां. ४ सी डी सम्मान. ५ सी डी थासौ. ६ एफ त्वे क्वि. ७ सी डी पि य्वोः प्वय् व्यअने लुक इतिय. ८ एफ किपि यलोपे लूनिः पा'. ९डी लूनीस्तस्यैनोलून्युः पा. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.३७.] प्रथमः सर्गः । ११३ दिधर्मानुष्ठानविधानेनाह्लादकत्वान्मित्रात्तथोमाभर्तुर्हरस्य नन्तुरेतेन विशेषणत्रयेणातिधार्मिकत्वमुक्तम् । महर्द्धिको धार्मिकश्च न्यायमेव करोति ॥ खि । सख्युरसात् ॥ ति । पत्युरस्मात् ॥ खी ती । सख्युर्बिडौजसः । पत्युर्जयश्रियः । इत्यत्र “खितिखीतीय उर" [३६] इति ङसिङसोरुर् ॥ लन्युः । इत्यत्र "क्तादेशोषि" [२.१.६१] इति नस्यासत्वात्तीरूपत्व उर् ।। नन्तुरस्मात् । भर्तुः । इत्यत्र "ऋतो डर" [३७] इति डर ॥ सुधावसारं वोढारमतिनप्तारमुष्णगोः। अमुं भूपप्रशास्तारं लब्ध्वा मुमुदिरे प्रजाः ॥ १८६ ॥ १८६. अमुं भूपप्रशास्तारं राजाधिराजं लब्ध्वा प्रजा मुमुदिरे । यतः सुधायाः स्वसा भगिनी लक्ष्मीर्द्वयोरप्येकस्मिन्नब्धावुत्पन्नत्वात्तां वोढारमिव वोढारं सम्यक्प्रजापालनादिना विष्णुतुल्यमतएवोष्णगो रवेर्नप्तारं पौत्रमतिक्रान्तम् । सूर्यस्य पुत्रो मनुस्तस्य पुत्र इक्ष्वाकुः सूर्यस्य पौत्रस्तस्मादपि नीतिप्रजापालनादिनाधिकमित्यर्थः । अथवातिनप्तारमतिशयितं पौत्रं लब्ध्वा । प्रकृष्टपौत्रजन्मनि प्रजा लोका मोदन्ते ॥ शंभोः क्षत्तारमाज्ञायां त्वष्टारमिव कौशले । अमुं होतारः पोतारो नेष्टारस्तुष्टुवुः क्रतौ ॥ १८७ ॥ १८७. होतारः पोतारो नेष्टारश्च ऋत्विग्विशेषाः कतौ यज्ञेमुं नृपं तुष्टुवुः । यतः शंभोर्हरस्याज्ञायां विषये क्षत्तारं प्रतीहारमिव । यथा शंभो • १ एफू तारो पो. १ एफ येण धा. २ सी डी कश्च. ३ एफ ढारं स. ४ सी डी पि प्र. ५ एफ °लोको मोदते ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] राज्ञां नन्दिप्रतीहारः करोति तथा शंभूक्तयज्ञादिविधिरूपाज्ञायाः कारकमित्यर्थः । तथा कौशले यागादिविधिविषये नैपुणे त्वष्टारमिव । यथा त्वष्टा वर्धकिः शिल्पक्रियाकुशलः स्यात्तथा यागादिधर्म्यक्रियायां कुशलमित्यर्थः । एवं चास्य यागादिविषयं क्रियाज्ञानं चोक्तम् ।। पितरः सन्तु संतुष्टा देवाश्च त्वयि यष्टरि । चण्डिकामात नन्देति प्रस्तोतारोब्रुवन्निमम् ॥ १८८ ॥ १८८. प्रस्तोतार ऋत्विग्विशेषा इमं नृपमब्रवन् । कथमित्याह । चण्डिका चाण्डालदेवीनानी माता यस्य । यद्वा चण्डिका गौरी प्रतिपालिकात्वान्माता यस्य । तस्य संबोधनं हे चण्डिकामात त्वयि विषये पितरः पूर्वजा देवाश्च संतुष्टाः सन्तु । यतो यष्टरि यागैः पितृदेवानां पूजके । ततश्च नन्देति ॥ वोढारम् । स्वसारम् । नप्तारम् । नेष्टारः । त्वष्टारम् । क्षत्तारम् । होतारैः । पोतारः । प्रशास्तारम् । इत्यत्र "तृस्वसृ' [३८] इत्यादिना-आर् ॥ तृशब्दस्यार्थवतो ग्रहणेन प्रत्ययग्रहणान्नप्वादीनामव्युत्पन्नानां संज्ञाशब्दानां तृशब्दस्य ग्रहणं न स्यादिति तेषां पृथगुपादानम् । इदमेव च ज्ञापकम् “अर्थवद्रहणे नानर्थकस्य" [न्या० सू० १४] ग्रहणं भवतीति ॥ व्युत्पत्तिपक्षे तृग्रहणेनैव सिद्धे नप्तादिग्रहणं नियमार्थ तेनान्येषामौणादिकानां न स्यात् ॥ पितरः ॥ के चित्तु प्रस्तोतृउन्नेतृउद्गातृप्रतिहर्तृप्रतिशास्तृशब्दानामौणादिकानामप्यारं मन्यन्ते । प्रस्तोतारः ॥ पितरः । यष्टरि । इत्यत्र “अझै च" [३९] इत्यर् ॥ चण्डिकामात । इत्यत्र "मातुर्मात” [४०] इत्यादिना मात इत्यकारातादेशः ॥ १ बी सी प्रतिहा. २ एफति यथा. ३ सीकिः शल्यक्रि. ४ ए चाण्डल', ५ एफ पालकत्वा. ६ एफ रि योगैः. ७ डी °रः प्र. ८ सी °रः य. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.४४.] प्रथमः सर्गः । मातः क्षितेम्ब हे लक्ष्मि शंभो तद्वधु चण्डिके । अम्बाडे गोत्रदेवि क स्थेत्यस्य प्रालपन्द्विषः ॥ १८९ ॥ १८९. स्पष्टः । नवरं तद्वधु हरप्रिये । अम्बाडे मातः । इति प्रालपन् । अनेन रणे पातिता द्विषः क्षित्यादिदेवताः स्मरन्त एवमकणनित्यर्थः ।। भटाग्रणीः सतां मित्र रूपेण परमे नृप। त्वया श्रीमन् धृतोर्वीत्यूचेमुं सप्रेयसी जनः ॥ १९० ॥ १९०. सुगमः । किं तु परमश्वासाविश्व परमेः । तस्य संबोधनं हे परमे । रूपेण कृत्वा प्रकृष्टकाम । तथा सह प्रेयसीभिर्वर्तते यः स सप्रेयसी सभार्यो लोकः । मातः । क्षिते । शंभो । इत्यत्र "हस्वैस्य गुणः” [४१] इति गुणः ॥ हस्वस्येति किम् । लक्ष्मि । तद्वधु ॥ चण्डिके । इत्यत्र “एदापः" [ ४२ ] इत्येत् ॥ नित्यदित् । देवि । लक्ष्मि । तद्वधु ॥ द्विस्वरीम्बार्थ । अम्ब । इत्यत्र "नित्यदित्” [४३ ] इत्यादिना ह्रस्वः ॥ नित्यदिदिति किम् । भटाग्रणीः । अम्बार्थानां द्विस्वरविशेषणं किम् । अम्बाडे ॥ आप इत्येव । मातः ॥ नृप । अम् । मित्र । परमे । इत्यत्र “अदेतः" [ ४४ ] इत्यादिना सेस्तदादेशस्यामश्च लुक् ॥ १ एफ तद्वन्धु. १ सी डी एफ हरिप्रि. २ एफ तः अति. ३ एफ स्वस्येति -हस्वः । -ह. ४ एफ रार्थ. ५ एफ दिद्विस्वरे त्या. ६ ए एफ °दिति. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] ___ उर्वी । सप्रेयसी । धृता । श्रीमन् । इत्यत्र “दीर्घड्याप्' [ ४५ ] इत्यादिना सेल्क् ॥ एभ्य इति किम् । जनः ॥ अमुम् । इत्यत्र “समानादमोत" [ ४६ ] इत्यमोतो लुक् ॥ चतुर्णी छन्दसां षण्णामङ्गानामेष वेदिता। विद्यानां च चतसृणां शक्तीनां तिसृणां गृहम् ॥१९१॥ १९१. एष राजा चतुर्णां छन्दसां वेदानां तथा षण्णामङ्गानां शिक्षा१ कल्प २ व्याकरण ३ छन्दो ४ ज्योति ५ निरुक्तीनां ६ च वेदितार्थतो ज्ञाताभूत्तथा चतसृणां विद्यानामान्वीक्षिकी १ त्रयी २ वार्ता३ दण्डनीतीनां ४ गृहं तत्तत्पुस्तकसंग्रहादिनाधारोभूत् । तथा तत्तच्छास्त्रोक्तार्थानुसारेण प्रवृत्त्या तिसृणां शक्तीनां प्रभुत्वशक्ति १ उत्साहशक्ति२ मत्रशक्तीनां ३ गृहं स्थानमभूत् । एतेन सर्वशास्त्राणि ज्ञातानि संगृहीतानि । तदुक्ताचरणाच्च फलप्राप्त्यास्य तानि सफलान्यभूवन्नित्यर्थः ।। अङ्गानाम् । शक्तीनाम् । इत्यत्र "दी? नामि" [४७ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ अतिसूचतसृप्र इति किम् । तिसृणाम् । चतसृणाम् । षण्णाम् । चतुर्णाम् । नामीति किम् । छन्दसाम् ।। नृणामीशेत्रारिनृणां शक्तीः प्राणांश्च हर्तरि । न कोपि चतुरदयाजी व्यते यहनि वापतत् ॥ १९२ ॥ १९२. अत्रास्मिन्नृणामीशे नृपेरिनृणां शक्तीः प्रभुत्वोत्साहमन्त्ररूपा बलानि वा प्राणांश्च हर्तर्यपनयनशीले सत्याजौ रणे कोपि शत्रु पतन्न डुढौके । कीदृश्याजौ। चतुर्ध्वहःसु भव इति विगृह्य "भवे" [ ६. ३. १२३] १ ए चतसृणां छ. २ ए एफ ति ५ निरु. ३ एफ तत्त. ४ एफ नि त. ५ एफ न्यभव. ६ ए नि च प्रा. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.४७.] प्रथमः सर्गः । ११७ इत्यण्विषये “सर्वांश '' [ ७. ३. ११७ ] इत्यादिनाट् । अह्लादेशश्च । ततो "द्विगोरनपत्ये' [ ६. १. २४ ] इत्यादिनाणो लुपि चतुरहस्तस्मिंश्चतुरह्नि । एवं व्यह्ने व्यहनि वा स्तोककालीनेपीत्यर्थः । आजे: प्रयोगः पुंस्यपि दृश्यते । तथा च माघे । वाहनाजनि मानास साराजावनौ ततः । [१९.३३] इति । असायाह्नपि सायाह्नीवैषोस्वाप्सीन जातु चित् । अदीप्यत प्रतापेन सायाहनि हुताशवत् ॥ १९३ ॥ १९३. यथा सायाह्नि संध्याकाले निषिद्धत्वान्न कोपि स्वपिति तथैष राजासायाह्नेप्यसंध्यायामपि स्वापाहे कालेपीत्यर्थः । जातु चित्कदाचिदपि नास्वाप्सीत् । सदापि प्रजापालने जागरूकोभूदित्यर्थः । तां यथा सायाहनि हुताशोग्निः प्रतापेन दीप्त्या कृत्वा दीप्यते तथैष प्रतापेन तेजसा कृत्वादीप्यत ॥ पैत्रे व्यह्नि दैवतेपि व्यह्ने ब्राह्मे व्यहन्यपि । गुणानां वर्ण्यमानानां कोप्यन्तं नास्य लब्धवान् ॥१९४॥ १९४. सुगमः । किं तु पितॄणामयं पैत्रस्तस्मिन् । विगतमहो व्यह्नस्तस्मिन् व्यह्नि गतदिने । दैवते दैवसंबन्धिनि । ब्राह्मे विधातृसं. बन्धिनि । पैत्रव्यह्नादि प्रमाणं चेदम् । १ एफ त् ॥ १९३ ॥ सं. २ बी पैव्ये व्य. १ सी डी थापि मा. २ एफ सेमरा . ३ ए बी डी एफ मानतः. ४ एफ स्वापेहें. ५ एफ सीदित्यर्थः । स. ६ ए °था सा. ७ सी एफ प्यते ॥ पै. ८ ए ते देव. ९ डी ब्राहये वि. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] भवेत्पैत्रं त्वहोरात्रं मासेनाब्देन दैवतम् । दैवे युगसहस्रे द्वे ब्राह्ममिति ।। . एतद्गुणानां वर्ण्यमानानां पैत्रदैवतब्राह्मदिनान्यप्यतिक्रामन्ति न तु ते पूर्यन्त इत्यर्थः ॥ नृणाम् नृणाम् । इत्यत्र “नुर्वा' [ ४८ ] इति वा दीर्घः ॥ प्राणान् । इत्यत्र “शसोता" [ ४९ ] इत्यादिना शसोता सह दीर्घः पुंसि शसः सस्य नश्च । पुलिङ्गाभावे तु दीर्घत्वमेव । शक्तीः ॥ चतुरह्नि । यहनि । सायाहि । सायाहनि। व्यहि । व्यहनि । इत्यत्र "संख्यासाय' [ ५० ] इत्यादिनाह्वस्याहनादेशो वा । अहनादेशे च "ईडौ वा" [ २. १. १०९ ] इति वानोस्य लुक् । पः त्र्यढे । असायाह्ने । व्यङ्गे ॥ अष्टाभ्यो दिग्गजेभ्यश्चाष्टभ्योद्रिभ्यश्च धूनियाम् । अत्यष्टानोत्र निधयोत्यष्टाचाभिमुखा ग्रहाः ॥ १९५ ॥ १९५. अत्र नृपंविषयेष्टावतिक्रान्ता अत्यष्टानो नव महापद्म १ पद्म२ शङ्ख ३ मकर ४ कच्छप ५ मुकुन्द ६ कुन्द ७ नील ८ चर्चाख्या ९ निधयः । तथात्यष्टा नव । अर्क १ सोम २ मङ्गल ३ बुध ४ गुरु५ शुक्र ६ शनैश्चर ७राहु ८ केतवो९ ग्रहा अभिमुखा अनुकूला अभवन् । यतः किंभूते । अष्टाभ्य ऐरावत १ पुण्डरीक २ वामन ३ कुमुद४ अञ्जन ५ पुष्पदन्त ६ सार्वभौम ७ सुप्रतीकेभ्यो ८ दिग्गजेभ्यश्च । तथाष्टभ्यो विन्ध्य १ पारिजात २ शुक्तिमत् ३ ऋक्षपर्वत ४ माहेन्द्र १ एफ् त्यष्टश्चा. १ सी डी एफ ब्राहयमि. २ एफ बाहयदि'. ३ सी डी न्यति'. ४ सी डी द्यह्नि सा. ५ एफ नि व्यह. ६ एफ क्षे अढे. ७ बी पतिवि. ८ एफ शनि७°. ९ सीडी अनु. १० सी डी न् । किं. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.५२.] प्रथमः सर्गः । ११९ ५ सह्य ६ व(म?)लय ७ हिमवद्भ्यो ८ दिभ्यश्च कुलाचलेभ्यश्च सकाशात्सम्यक्पालनया भूभारस्यात्मनि निक्षेपाङ्कुरं भूभारं नयत्यात्मानं प्रापयति यस्तस्मिन्धूर्नियां सकलभूभारघर इत्यर्थः । अष्टभिर्दिग्गजैः कुलाचलैश्च भूयित इति कविरूढः । अथ च यो धूर्नीः कार्यप्राग्भार करणक्षमः स्यात्तस्मिन्सर्वोप्यनुकूलः स्यादिति ॥ नियाम् । इत्यत्र "निय आम्” [ ५१ ] इत्याम् ॥ अष्टाभ्यः । अष्टभ्यः । अत्यष्टाः । अत्यष्टानः । इत्यत्र "वाष्टन आः स्यादौ " [ ४२ ] इति वा आकारः ॥ ४ अष्टावष्ट तथात्यष्टावस्य भावान्विजानतः । कीर्त्यात्यष्टौ कृताः क्ष्मांशा दिशोष्टाष्टौ नगाः सिताः।। १९६॥ १९६. अस्य राज्ञः कीर्त्या सिताः श्वेताः कृताः । क इत्याह । अष्टावतिक्रान्ता अत्यष्टौ नवेन्द्रद्वीप १ कशेरुमत् २ ताम्रपर्ण ३ गभस्ति मत् ४ नागद्वीप ५ सौम्य ६ गन्धर्व ७ वरुण ८ कुर्मांरीद्वीपाख्याः ९क्ष्मांशाः पृथ्वीखण्डानि । तथाष्टावैन्यानेयीयाम्यानैरृतीवारुणीवायव्याकौबेर्यैशान्यो दिशः। तथाष्टौ नगाः कुलाचलाः । यतोष्टौ तथाष्ट तथात्यष्टौ नव । सर्वसंख्या पञ्चविंशतिं भावांस्तत्त्वानि विजानतो वेदितुः । सांख्यमते हि पञ्चविंशतिः पदार्था वर्ण्यन्ते । तथाहि सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः १ तदुद्भूतं महत्तत्त्वं २ तस्मादहंकारः ३ तस्माच्च स्पर्शन ४ रसन ५ घ्राण ६ चक्षुः ७ श्रोत्र ८ नामानि पश्च बुद्धीन्द्रियाणि । पायु ९ उपस्थ १० वचः ११ पाणि १२ पादा१३ ख्यानि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि । तथा मनः १४ । तथा रूप १५ रस ง ९ O १ एफ् श्च स २ ए °ति रू. ३ एफ् अत्यष्टानः । इ. ४ ए सी डी °ति आ. ५ सीडी प १ सकेरु ८ सी डी एफ शति भा. ६ बी मारद्वी ९ सी डी एफ तिप ७ए एफू नैऋती. १० सी डी णि म. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] १६ गन्ध १७ स्पर्श १८ शब्द १९ संज्ञानि पञ्च तनुमात्राणि । इति पोडशको गणः। तनुमात्रोद्भूतानि तेजो २० जल २१ पृथ्वी २२ नभो२३ वायु २४ संज्ञानि पञ्चभूतानि । अकर्ता विगुणो भोक्ता चात्मा २५ चेति । सांख्यमते पञ्चविंशतितत्त्वव्यतिरिक्तमन्यजगन्नास्ति । ततश्च सकलजगत्स्वरूपज्ञस्येत्यर्थः । एवंविधस्य च कीर्तिः सर्वत्रापि प्रसरति ।। अष्टौ नगाः । अष्टौ भावान् । इत्यत्र “अष्ट और्जसूशसोः' [ ५३ ] इत्यौः ॥ कृतात्वस्य निर्देशादिह न स्यात् । अष्ट दिशः । अष्ट भावान् । अतत्संबन्धिनोरपीच्छन्त्येके । अत्यष्टौ आमांशाः । अत्यष्टौ भावान् ॥ त्रातुं पडष्ट भुवनान्युचिते ततीह स्थामान्यधुर्यति हराः किल पञ्च पेट् च । तूणे भृशं जयकृते दधतोस्य चास्तां मन्ये हयद्विपबले परिवारमात्रम् ॥ १९७ ।। १९७. किलेति संभावनायाम् । पञ्च षट् च हरा एकादश रुद्रा यति यावन्ति स्थामान्यभवंस्तति तावन्ति स्थामानि बलानीह राशि न्यधुः । स्वकीयानि सर्वाण्यपि बलान्यस्मिंस्थापितवन्त इत्यर्थः । यतः पडष्ट भुवनानि भूर्लोक १ मुँवर्लोक २ स्वर्लोक ३ महर्लोक ४ जनलोक५ तपोलोक ६ सत्यलोका ७ ख्यानि सप्त सप्तभिर्वायुस्कन्धैर्मिलितानि चतुर्दश जगन्ति त्रातुं रक्षितुमुचिते । रक्षितुं क्षमे हि सर्वोपि स्ववस्तु निदधाति । अत एव तथाहं मन्येस्य राज्ञो जयकृते विजयाथं तूणे तूणावुपलक्षणत्वाद्धनुश्च । भृशमत्यर्थं दधतः सतो हयद्विपबले अश्वगज___ १ सी षड्डा. १ बी एफ न्यज्जग'. २ एफ टौ नागाः. ३ एफ् औरित्यादिना औः. ४ बी च ए'. ५ ए° न्ति ब. ६ ए बी भुवोलोक. एफ भुविलोक. ७ डी कज. ८ बी क ४ शान. ९ डी क ५ पाताललो'. १० बीडीएफ तूणीरौ उप.सी. तूणीर उप. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.५८.] प्रथमः सर्गः। १२१ सैन्ये । उपलक्षणत्वाद्रथपत्तिबले अपि । परिवारमानं परिच्छद एवास्तामभूतां स्वबलेनैवास्य जगच्छासितुं क्षमत्वात् ।। __ यति अभवन् । तति न्यधुः । षट् पञ्च हराः। षडष्ट त्रातुम् । इत्यत्र "डतिष्ण" [५४ ] इत्यादिना जस्-शसोलुक् ॥ स्थामानि । भुवनानि । इत्यत्र “नपुंसकस्य शिः" [५५ ] इति जस्-शसोः शिः॥ नपुंसकस्येति किम् । हराः । बले आस्ताम् । तूणे दधतः । इत्यत्र "औरीः" [५६] इति-ईः ॥ परिवारमात्रम् । भृशं दधतः । इत्यत्र “अतः स्यमोम्" [५७ ] इति स्यमोरम् ॥ वसन्ततिलका छन्दः।सर्गान्ते छन्दोन्तरं क्रियत इति हि कविसमयः॥ अन्यदलं किल महोन्यतरद्रवीन्द्वोधैर्य च नेतरदतीतरमस्य सर्वम् । सैन्यं द्विषां कतमदेष न संजहार हृष्टं जगत्कतरदेकतरं न चक्रे १९८ १९८. अस्य राज्ञो बलं पराक्रमोन्यदपूर्व लोकोत्तरमित्यर्थः । तथास्य महस्तेजो रवीन्द्वोः सूर्याचन्द्रमसोर्मध्येन्यतरदेकतरं द्विषां संतापकत्वाद्रवितेजो वा सज्जनानामाह्लादकत्वादिन्दुतेजोवेत्यर्थः । तथास्य धैर्य चित्तावष्टम्भलक्षणो गुणो नेतरन्नान्यादृशमापद्यप्यविचलमित्यर्थः । किं 'बहुनास्य सर्वमौदार्यगाम्भीर्याद्यतीतरमितरानन्यानतिक्रान्तं सर्वोत्कृष्टमित्यर्थः । अतश्चैष राजा द्विषां सैन्यं कतमन्न संजहार । तथा कतरदेकतरं जगद्धृष्टं न चक्रे किं तु सर्वमपि । अन्यत् । अन्यतरत् । इतरत् । कतरत् । कतमत् । इत्यत्र “पञ्चत" [५८] इत्यादिना स्यमोदः ॥ अनेकतरस्येति किम् । एकतरम् ॥ अन्यादेरिति किम् । सर्वम् ॥ अन्यादिसंबन्धिनोः स्यमोर्ग्रहणादिह न स्यात् । अतीतरम् ॥ १ एफ °ति क. २ बीदृशामा . ३ एफ चतोन्या इ. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ध्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] महः । जगत् । इत्यत्र "अनतो लुप्" [ ५९] इति स्यमोलुप् । अनत इति किम् । धैर्यम् । सैन्यम् ॥ सजरसमजरः परित्यजद्विजरः सज्जरसं च संगरे। स्वादो क नु वारि तिष्ठसीत्याक्रन्दत्तृषयास्य शात्रवम्॥१९९॥ १९९. हे स्वादो मिष्ट वारि जल । क न्विति प्रश्ने । कस्मिन् स्थाने त्वं तिष्ठसि । आत्मानं दर्शयेत्यर्थः । इत्येवंप्रकारेणास्य राज्ञः शात्रवं शत्रुसमूहस्तृपया हेतुनाकन्द व्यलपत् । यतः किंभूतम् । संगरे रणेजरो जरारहितं तरुणं शात्रवं कर्तृ सजरसं जरान्वितं वृद्धं शात्रवं कर्म परित्यजत् । तथा सज्जरसं विद्यमानजरं वृद्धं शात्रवं कर्तृ विजरस्तरुणं शात्रवं कर्म परित्यजत् । अन्योन्याप्रतीक्षया भयातिरेकात्पलायमानमित्यर्थः । पलायमानस्य हि गाढायासेन तृषातिरेकः स्यात् ॥ अजरः । संजरसम् । विजरः । संजरसम् । इत्यन्न "जरसो वा” [६० ] इति वा स्यमोलक् ॥ स्वादो । इत्यत्र "नामिनो लुग्वा" [ ६१ ] इति लुग्वा ॥ पक्षे लुबेव । हे वारि ॥ वैतालीयं छन्दः ॥ सक्नायुः पथि खेत्तृणा रिपुनृपा अक्ष्णास्रमोकान्तरं दनोस्भश्च न जानते स्म मधुनोम्बूनां च पर्याकुलाः । अश्वीयानि सुवल्झ्यवल्गिसुमहास्यत्यूर्यर्जि क्षणातेषां दन्तिकुलानि चालमभवनस्मिन् रणारम्भिणि ॥२०॥ १ ए क्ष्णाश्रमो. एफ क्ष्णाश्रुमो. १ सी डी लुक् ।. २ ए °न् त्वं. ३ सी डी °त् विल. ४ सी डी त्। स. ५ एफ सजर', ६ एफ् सज्जर. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.६७.] प्रथमः सर्गः। १२३ 2. २००. अस्मिन्नृपे रणारम्भिणि सति रिपुनृपाः सक्श्नोरुणा हेतुनायुर्जग्मुः। नेशुरित्यर्थः । कीदृशेन । पथि मार्गे खेत्तृणा खिद्यमानेन श्रावितेन । एतेनैषां पूर्व कदाचिदपि न रणे भङ्ग इति सूचितम् । यदि पूर्वमपि रणेमी भग्नाः स्युस्तदाभ्यासेन श्रमजयादेषां सक्थि नो खिद्येत । तथा दध्नोस्भश्च मधुनो माक्षिकस्याम्बूनां चान्तरं विशेषं न जानते स्म । यतोभूतपूर्वपराभवोत्पत्त्यास्रमोका बाष्पमोचनशीलेनाक्ष्णा दृष्ट्योपलक्षिता रोद॑नाजलाविलाक्षा इत्यर्थः । तथा पर्याकुला भयेनोद्धान्ताः । ये पूर्व रणे कदापि न भग्ना न रुदिता न च भीतास्तेप्यस्मिन् रणारम्भिणि सति भग्ना रुदिता भीताश्चेत्यर्थः । ततश्च तेषां रिपुनृपाणां सुमहांसि शोभनतेजस्कान्यत एव सुशिक्षितत्वाञ्च सुष्टु वलगन्ति गतिविशेषान् कुर्वन्ति क्विपि सुवल्जयश्वीयान्यश्वसमूहाः प्रहारैर्जर्जराङ्गतयावलि गतिविशेषरहितानि क्षणाच्छीघ्रमलमत्यर्थमभवन् । तथा सुमहांसि दन्तिकुलानि गजौघा अतिशयेनोर्जयन्ति क्विपि अत्युर्जि । अतिबलिष्ठान्यनूर्जि बलरहितान्यभवन् ॥ अस्रमोनाक्ष्णा । खेत्तृणा । सक्ला । इत्यत्र "वान्यत" [२] इत्यादिना वा पुंस्त्वम् ॥ दनः । अस्भः । सक्ला । अक्ष्णा । इत्यत्र “दध्यस्थि' [६३] इत्यादिनान्त. स्यान् ॥ मधुनः । इत्यत्र "अनामस्वरे नोन्तः" [६४] इति नोन्तः ॥ अनामिति किम् । अम्बूनाम् ॥ अश्वीयानि । इत्यत्र "स्वराच्छौ” [६५] इति नोन्तः ॥ सुमहांसि । इत्यत्र "धुटां प्रा" [६६] इति नोन्तः ॥ अत्यूर्जि अनूर्जि । सुवल्ङ्गि अवलिग। इत्यत्र “ो वा[६७] इति वा नोन्तः॥ शार्दूलविक्रीडित छन्दः॥ - १ सी डी माश्रिते. २ एफ त्याश्रुमो. ३ एफ °दनजला. ४ सी अनुमो. एफ अश्रुमो . ५ ए ना पुं. ६ सी डी क् नो. ७ डी एफ ति नो'. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ट्याश्रयमहाकाव्ये मूलराजः] प्राङ् वीरेषु भवञ्जगन्ति चकृवान् वश्यानि दोष्मानसौ युङ् बुद्ध्या बलयुग् दृढांससुभगोनड्डानिवैकः पुमान् । गौद्यौर्गामवतामुनानयमयः पन्था ऋभुक्षाः सुखी गा विमानवितुं विपक्षजलधौ मन्थाश्च खड्गः कृतः ॥ २०१ ॥ २०१. असौ राजा जगन्त्यू/धोमर्त्यलोकान् वश्यानि स्वायत्तानि चकृवांश्चक्रे । कीदृशः । अनवानिव वृषभ इव दृढौ बलिष्ठौ स्थूलौ च यावसौ स्कन्धौ ताभ्यां सुभगः । तथा शत्रुवधादिस्वकार्यकरणालंकर्मीणत्वात्प्रशस्यौ दोषौ भुजावस्य स्त: प्रशंसायां मतौ दोष्मान । अतएव वीरेषु शूरेषु मध्ये प्राङ् प्रथमो मुख्यः । एतैर्विशेषणैरुत्साहशक्त्यतिशय उक्तः । तथा बुद्ध्या यथौचित्योपायादिप्रयोगविषयया मत्या युङ् युक्त: । एतेन मन्त्रशक्तिरुक्ता । तथा बलयुक् सैन्येन युक्तः । एतेन प्रभुत्वशक्तिरुक्ता। अत एवैकोसाधारणः पुमान् भवन्संपद्यमानः । यथा वश्यानि चवांस्तथाह । गौरित्यादि । अमुना राज्ञा गां पृथ्वीमवतान्यायिभ्यो रेक्षता सता पन्था मार्गो नयः प्रकृतोस्मिन्नयमयो न्यायचुरो न्यायप्रधानो वा कृतो न्यायमार्गः प्रवर्तित इत्यर्थः । अत एवामुना गौ: पृथ्वी द्यौरिव स्वर्गतुल्या कृता। इवो ज्ञेयः । एतेन मर्त्यलोकस्य वश्यत्वमुक्तम् । तथा गा धेनूविप्रांश्चावितुं दैत्येभ्यो रक्षितुं विपक्षजलधौ विपक्षशब्देन सामान्यतः शत्रुवाचकेनापि गा विप्रानवितुमिति विशेषोक्तेर्दैत्या उच्यन्ते । त एव हि गा विप्रांश्च नन्ति । त एव दुर्विगाहत्वाजलधि: समुद्रः । तत्र खड्गः कृपाणो मन्था मन्थानकतुल्यः कृतः । विपक्षाः खङ्गेन मथिता इत्यर्थः । १ एफ ॥२०१॥ इति श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते घ्याश्रयमहाकाव्येणहिलपत्तनश्रीमूलराजयोर्वणनो नाम प्रथमः सर्गः समाप्त: ।। अं. १ डी स्य स प्र. २ बी एफ रक्षिता. ३ एफ तोस्ति । नय. ४ ए सी डी प्रधा. ५ ए इवेशे'. ६ एफन्ते । अत एव च हि. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ [है० १.४.७८.] प्रथमः सर्गः । एतेनाधोलोकस्य वश्यतोक्ता । यतो दैत्याः पातालौकस उच्यन्ते । अत एवामुना ऋभुक्षेन्द्रः सुखी कृतः । एतेनोव॑लोकस्य वश्यतोक्ता । गा विप्रानवितुं विपक्षजलधौ मन्थाश्च खड्गः कृत इत्यनेन गोविप्ररक्षाविपक्षमथनलक्षणमस्यावदातमग्रे वर्णयिष्यत इति सूचितम् ।। प्राङ् । इत्यत्र "अचः" [६९] इति नोन्तः ॥ ऋदित् । भवन् । उदित् । चकृवान् । दोष्मान् । इत्यत्र "ऋदुदितः” [७० ] इति नोन्तः॥ युङ् । इत्यत्र “युजोसमासे" [१] इति नोन्तः ॥ असमास इति किम् । बलयुग्॥ अनड्डान् । इत्यत्र “अनदुहः सौ” [७२] इति नोन्तः ॥ पुमान् । इत्यत्र “पुंसोः पुमन्स्" [७३] इति पुमन्सादेशः ॥ गौः। द्यौः । इत्यत्र "ओत औ" [७४] इति-औः॥ गाम् । गाः । इत्यत्र “आ अम्शसोता" [७५] इति-आः ॥ पन्थाः । मन्थाः । ऋभुक्षाः । इत्यत्र “पथिन्मथिन्" [७६] इत्यादिनान्तस्य आः । “ए:" [७७] इत्यनेनेकारस्याप्याः । “थोन्थ्” [७८] इत्यनेन थस्य न्थादेशश्च ॥ ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासनव्याश्रयवृत्तौ प्रथमः सर्गः समर्थितः ॥ १ ए बी सी एफ °न्तः । भ. २ सी डी सो पु. ३ सी डी °त औः ।।. ४ एसोना इ. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याश्रयमहाकाव्ये द्वितीयः सर्गः। प्रथमसर्गे गोविप्ररक्षाविपक्षमथनमुख्यमस्यावदातम वर्णयिष्यंत इति यत्सूचित्तं तच्छंभूपदेशेन प्रवृत्तमिति पूर्व तमेवाह । महीऋभुक्षोस्य मथोरिदनां नीतेः पथा मां सुपथीं विधातुः॥ रिरक्षिषोर्चा सऋभुक्षिकां च स्वप्ने कदापीदमुवाच शंभुः ॥१॥ १. कदापि शंभुः सोमनाथोस्य राज्ञः स्वप्न इदं वक्ष्यमाणं दैत्यवधेन देवानां सुखीकरणरूपं कार्यमुवाच । यतो महीऋभुक्षः परमैश्वयेण मह्यामिन्द्रतुल्यस्य । तथारय एव स्थूलत्वादधीनि तेषां मथो मन्थानकस्य । शत्रून् मन्नत इत्यर्थः । तथा क्ष्मां पृथ्वी नीते: पथा न्यायमार्गेण कृत्वा शोभनाः पन्थानो मार्गा यस्यां "स्त्रियां नृतः" [२. ४. १] इत्यादिना ङीः । सुभ्वादित्वात्कजभावः । [ ७.३.१८१] तां सुपथीं विधातुः सन्न्यायान्वितां पृथ्वी कुर्वत इत्यर्थः । तथा सह ऋभुक्षा शक्रेण वर्तते या पूर्ववद् ड्या कजभावे च सऋभुक्षी दैत्यभीतिनिष्प्रतापत्वात् । कुत्सिताल्पाज्ञाता वा सऋभुक्षी कपि “ड्यादीदूतः के" [२. ४. १०३] इति हस्वे सऋभुक्षिका । तां द्यां स्वर्ग रिरक्षिषोश्च पालयितुमिच्छोश्च शंभूपदेश्यं कार्य स्वयमेव चिकीर्षत इत्यर्थः । एवंविधगुणोपेतश्चेदशोपदेशाहः स्यात् ।। १ सी इतःप्रभृति ८ श्लोका न सन्ति. १ एफ प्य इ. २ बी एफ ना प. ३ ए तहा स. ४ बी एफ निःप्रता. ५ डी इत्यनेन ह. ६ एफू देशका. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० १.४.७९. ] द्वितीयः सर्गः । १२७ सुपथीम् | पथा । मथः । सऋभुक्षिकाम् । ऋभुक्षः । इत्यत्र "इन् ङीस्वरे लुक्” [७९] इति-इनो लुक् । सर्गेस्मिन्नुपजातिच्छन्दः ॥ अथ वृत्तद्वयेन शंभुः सामान्येनोपदेशमाह । बुद्ध्योशनन्नत्युशन प्रभाभिर्देवेषु भक्त्यानुशनलुक्य | धुर्यत्यनड्डून् प्रियचत्वरेभिर्वर्णैरुपायैः श्रुतिभिः पुमर्थैः ॥ २॥ धुर्योस्यनड्रानिव मेतिचत्वा हरेर्भुजस्त्वं तव के सखायः । चत्वारि पातस्तव दिङ्मुखानि भूयाननेहा स्मर देवकार्यम् ॥३॥ २, ३. हे चुलुक्य चुलुकवंशोद्भव बुद्ध्या कृत्वोशनन् दैत्यगुरुतुल्य । तथा प्रभाभिः कान्तिभिः कृत्वात्युशन शुक्रमतिक्रान्त । तथा देवेषु विषये भक्त्यान्तरप्रीत्या कृत्वानुशनादैत्यगुरो देवेषु हितवांछकेत्यर्थः । तथा धूः कार्यप्राग्भारो धैरिव दुर्वहत्वात् धूर्यानमुखं तत्र धुर्यत्यनन्ननाहं वृषैमतिक्रान्त । तथैभिः सर्वजनप्रत्यक्षैरित्यर्थः । वर्णैर्ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रैरुपायैः सामदानभेददण्डैः श्रुतिभिः ऋग्यजुःसामाथर्वभिः पुमर्थैर्धर्मार्थकाममोक्षैश्च कृत्वा प्रियाश्चत्वारो यस्य हे प्रियचत्वः प्रियवर्णादिचतुष्टयेत्यर्थः । एतेन जनानुरागादिका सर्वसंपदुक्ता । चत्वारि दिड्युखानि सकलभूमिमित्यर्थः । पाँतो रक्षतः सतस्तव भूयाननेहा प्रभूतः कालो भूत् । अथ देवकार्यं स्मर । ननु कियन्मात्रोहं का च मे सहायसं - पद्यदेवंविधं कार्यं भगवता मय्युपदिश्यत इत्याह । असि त्वं हरेश्चतुर्भुजस्य चतुरो भुजानतिक्रान्तोतिचत्वाः पञ्चमो भुजो बाहु: । एतेन नारा - यणांशत्वेनातिपराक्रमित्वमुक्तम् । अतएव मे ममानवानिव वृषभ इव त्वं धुर्यः सर्वकार्यप्राग्भारवहनक्षमः । अतश्च तव के सखायः का तव सहायापेक्षेत्यर्थः ॥ १ एफ् ॥ ३ ॥ युग्मम् । हे. १ डी एफ चुलक्य. २ ए एफ चुलक ५ एफ पम ६ए तो रक्षकस्य स . ३ डी 'नो देवगु ४ बी घूरेव. ७ एफ भूतका Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] सामान्येनोक्त्वाथ विशेषेणोपदेशमाह । विष्णोः सखा यान निहन्तुमीशो न तत्पिता वा पुरदंशऋद्धः। प्रभासविध्वंसपरेषु तेषु दण्डोशना त्वं भव सज्यधन्वा ॥४॥ ४. विष्णोः सखार्जुनो यान् निहन्तुं नेशो न क्षमः । विष्णोः सखेति साभिप्रायम् । विष्णोर्दैत्यारेरपि यः सखा सोपि तथा । वाशब्दोप्यर्थे । तत्पिताप्यर्जुनजनकोप्युद्धः सैन्यादिसंपद्युक्तः पुरदंशा इन्द्रो यान् न निहन्तुमीशः । एतेनातिबलिष्ठत्वोक्तिः । प्रभासविध्वंसपरेषु प्रभासाख्यतीर्थविनाशकारिषु तेषु ग्राहरिप्वादिषु दैत्येषु विषये त्वं सज्यधन्वारोपितचापः सन् । दण्डोशना दण्डो निग्रहः स एवान्यायिशिक्षाहेतुस्वाहण्डो दण्डशास्त्रम् । तत्रोशना शुक्रो भव । यथा शुक्रोन्यायिषु दण्डमुपदिष्टवांस्तथा त्वमेतेषु निग्रहं कुर्वित्यर्थः । एतेनार्जुनेन्द्राजय्यानप्येतान्दैत्यान्मत्प्रसादात्त्वं जेष्यसीति शंभुना सूचितम् । पुरदंशऋद्ध इत्यत्र "ऋति इस्त्रो वा" [१.२.२] इति इस्वः ॥ उशनन् । अत्युशन । इत्यत्र "वोशनस" [0] इत्यादिनानो लुक् चान्तादेशी वा ॥ पक्षेनुशनः ॥ अत्यननन् । प्रियचत्वः । इत्यत्र "उत:" [१] इत्यादिना सस्वरो वादेशः ॥ अनवान् । अतिचत्वाः । चत्वारि । इत्यत्र "वाः शेषे" [१२] इति वाः ॥ शेष इति किम् । अननन् । प्रियचत्वः ॥ सखायः । इत्यत्र “सख्युः [८३] इत्यादिना-ऐकॉरोन्तादेशः ॥ १ एफ पुरुदं. १ बी दिदै'. २ एफ पु वि'. ३ बी इतीति. ४ एफ रोव आदे'. ५ एफ न् प्रि. ६ एफ ख्युरितोशावैत् इति ऐ. ७ बी कारान्ता. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.८५. ] द्वितीयः सर्गः । १२९ तत्पिता । दण्डोशना । पुरदंशा । अनेहा । सखा । इत्यत्र " ऋदुशन" [ ८४] इत्यादिना डा- अन्तादेशः ॥ सज्यधन्वा । दिङ्मुखानि । इत्यत्र “नि दीर्घः " [८५ ] इति दीर्घः ॥ I अथ प्रबुद्धः स महान्नृपाणां श्रेयानयं स्वप्न इति प्रहर्षी । द्विड्डा नृपूषाथ च बन्दिनोपि जगुर्वचांस्युक्तनवार्यमाणि ॥ ५ ॥ ५. अथ स्वप्नदर्शनानन्तरं स मूलराजः प्रबुद्धः । कीदृशः । द्विड्ढा शत्रूच्छेदकः । अत एवं प्रतापैः सकललोकोच्योतकत्वाच्च नृपूषा नरेषु रवितुल्योत एव च नृपाणां मध्ये महान् गुरुस्तथायं स्वप्नः श्रेयानतिप्रशस्य इति हेतोः प्रहर्षी सन् । अत्र च महान् सर्वलोकेन पूज्यः - यानतिश्लाघ्यो द्विड्ढा मन्देहाख्यदैत्योच्छेदकः पूषा प्रबुद्धः । उदित इत्यtयर्थो व्यज्यते । अथ प्रबोधानन्तरम् । चो युगपदर्थः । यदैव प्रबुद्धस्तदैव बन्दिनोपि । अपिः पुनरर्थे । मङ्गलपाठकाः पुनरुक्तो वर्णितो नाम नूतनवर्येषु तानि वचांसि वक्ष्यमाणानि जगुः पेठुः । एतेन राज्ञो रात्रिशेष इदं शुभस्वप्नं जातमिति त्वरितमभीप्सितकार्यसिद्धिः सूच्यते ॥ । अथ प्रभातवर्णकानि बन्दिवचांस्येव त्रिचत्वारिंशता वृत्तैराह । जगन्त्यपूपाण्यभितः प्रसारण्यालोकहानि प्रसभं तमांसि । हन्त्यर्यमाथाददिरे द्विजेन्द्रः सरांस्यनु स्वाम्पि तदर्घ आपः ॥ ६ ॥ ६. तमांस्यर्यमा प्रसभं बलाद्धन्ति । कीहंशि । प्रसारीणि । क । अपूषाणि रविरहितानि जगन्त्यभितः सर्वतः । अभित इति सर्वार्थे निपातः । न तसन्तः । उभयार्थे विहितत्वात्तसः । द्वितीया तु " गौणात्" [२. २. ३३] १. २ बीत्वान्नृपू ३ एफ व्यञ्जते. ४ एफ पिपु Q10 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ध्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] इत्यादिसूत्रे बहुवचनात् । सर्वजगत्स्वित्यर्थः । तथालोकहानि दर्शनप्रतिघानीति । अथ तथा तस्यार्यम्णोर्घः पूजा तदर्घस्तस्मिन् । निमित्तससमीयम् । सूर्यार्घार्थ शोभना आपो येषु तानि स्वाम्पि सरांस्यनुलक्ष्यीकृत्य या आपस्ता द्विजेन्द्रैराददिरेजलौ गृहीताः । एतेन त्वमपि प्रतापेनोदीयमानार्यमश्रीरसि । तस्मात्सर्वजगद्व्यापकान् आः कष्टं लोकान् नतस्तमःप्रकृतीन ग्राहरिप्वादीन् दैत्याञ्जहि । येर्ने द्विजेन्द्ररय॑स इति राज्ञो ज्ञापितम् । एवं च दैवादनुवदद्भिर्बन्दिभिरपि शंभूपदेशोवश्यं कर्तव्यतया राज्ञो ज्ञापितः ॥ कुर्वन्करैः स्वम्पि सरांस्युदेति तमिस्रपिण्डग्र इहोग्रतेजाः । क्रोष्टेव भीमान्विशति प्रभूतकोष्टूनि कुञ्जानि तमिस्रपुञ्जः॥७॥ ७. इहास्मिन्प्रभात उग्रतेजा उष्णांशुरुदेति । कीहक्सन् । करैः किरणैः कृत्वा सरांसि स्वम्पि निर्मलजलानि कुर्वन् । तथा करैरेव तमिस्रपिण्डं तिमिरौघं असते तमिस्रपिण्डग्रः । अत एव क्रोष्टेव यथा शृगाल: प्रातः स्वभावत एव भीमान् भययुक्तः सन् प्रभूतक्रोष्ट्रनि बहुशृगालानि कुञानि वनगहराणि प्रविशति तथा तमिस्रपुञ्जो रवितेजसो भीमान् कुञानि प्रविशति । एतेन त्वमप्युग्रतेजाः प्रचण्डप्रतापोसि । तस्मात्तामसप्रकृतीन ग्राहरिप्वादिदैत्यान् असमानश्चेत्त्वमुत्थितस्तदा ते भीमन्तः कुलेषु प्रवेक्ष्यन्तीति राज्ञो विजयो ज्ञापितः । अत्रं च तमिस्रशब्दद्वयोपादानेपि भिन्नवाक्यत्वान्न पुनरुक्तदोषः । १ एफ ° रैः स्वांपि. २ ए मिश्रमि'. ३ ए एफ मिश्रपु. १ एफ सर्व ज° २ डी मित्ते स. ३ एफ °लक्षीकृ. ४ डी न त्वं द्वि'. ५ एफ °सि स्वापि. ६ बी मिश्रपि. ७ एफ ल: स्व. ८ बी मिश्रपु. ९ बी सो भीमानिव भी. १० एफ व त. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० १.४.९१.] द्वितीयः सर्गः । १३१ श्रेयान् । वचांसि । महान् । इत्यत्र “न्स्मेहतो: " [८६ ] इति दीर्घः ॥ I प्रसारीणि । प्रहर्षी । आलोकहानि । द्विड्डा । अपूषाणि । नृपूषा । नवार्य माणि । I अर्यमा । इत्यन्न “इन्हेन्पूषा" [८७] इत्यादिना दीर्घः ॥ “नि दीर्घः” [८५] इति सिद्धे नियमार्थं वचनम् । एषां शिस्योरेव यथा स्यान्नान्यत्र । तेन बन्दिनः । आपः । इत्यत्र " अपः " [८] इति दीर्घः ॥ स्वाम्पि स्वम्पि । इत्यत्र “नि वा " [८९ ] इति वा दीर्घः ॥ भीमान् । उग्रतेजाः । इत्यत्र " अभ्वादेः " [ ९०] इत्यादिना दीर्घः ॥ अभ्वादेरिति किम् । पिण्डग्रः । 'अतु' इत्युदित्करणादृदितो न भवति । कुर्वन् ॥ क्रोष्टा । इत्यत्र “क्रुशैस्तु नस्तृच्पुंसि" [ ९१] इति तृजादेशः ॥ पुंसी किम् । प्रभूतनि ॥ कोष्टोः सुहृत्कोटरिन प्रतीक्षा क्रोष्ट्रन् शिशून क्रोष्ट्रयपि याति मुक्का कोष्टनभीदं कियते त्वयीव शत्रून्प्रति बाहुशालिन् ॥ ८ ॥ ว ८. अर्क उदिते क्रोष्ट्रोः शृगालस्य सुहृत्क्रोष्टार मित्रशृगाले यन्न प्रतीक्षा । तथा शिशूनपि क्रोष्ट्रन मुक्त्वा क्रोष्ट्री शृगाली यद्याति भयेन पलायते । इदमेतत्सुहृदादित्यजनं क्रोष्टुन क्रोष्टारश्च कोच "पुरुषः स्त्रिया” [३. १. १२६] इति पुरुषशेषे क्रोष्टारस्तानभिलक्ष्यीकृत्य कियत् । न किमपीत्यर्थः । अर्के दुर्भेद्यमन्देहादिदैत्यषष्टिसहस्राणामपि तेजोमात्रेणैव भेदक उदिते सति नृमात्रादपि भीरूणां क्रोष्टृणामातङ्कातिरेकाद्विपत्तिरपि संभाव्येत किं पुनः सुहृदादित्यजनमिति भावः । हे बाहुशालिन् भुजबल १ एफ् ॥ ८ ॥ इति चतुर्थपादः समर्थितः ॥ १ एफू हान्तीत्य ● व ५ एफ् एफू भाव्यत । किं ८ए जावलिवि ४ ए २ एफ् न्स्महेत्यादिना दी. ३ एफ् न्हन्नित्या इत्यादिना तृ. ६ एफू लक्षीकृ ७ डी 'भाव्यते कि. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] विराजमान यथा त्वय्युदिते सति यत्सुहृदादीन मुक्त्वा शत्रूणां स्वशिशुन्मुक्त्वाशत्रुभार्याणां च क्रोष्टुवत्पलायनं तत्कियत् । यतोतिभयादेषां मरणमपि संभाव्यते ॥ कोष्टरि । क्रोष्टोः । इत्यत्र “टादौ स्वरे वा " [ ९२] इति वा तृजादेशः ॥ टादाविति किम् । क्रोष्टृन् ॥ क्रोष्टृन् इत्यपि कश्चित् ॥ क्रोष्ट्री । इत्यत्र “ स्त्रियाम्" [ ९३] इति तृजादेशः || चतुर्थः पादः समर्थितः ॥ प्रेयश्चतस्रः प्रियतिस्र ईशास्तिस्रश्वतत्रोपि वधूर्विहाय । प्रेयश्चतुष्कश्रुतिभित्रिमूर्तवत्रोद्गते सांध्यविधौ यतन्ते ॥ ९ ॥ ९. श्रुतिभिदेः कृत्वा प्रेयस्यो वल्लभाश्चतस्रो यस्य राज्ञो हे प्रेयश्चतुकाभिप्रेतवेदचतुष्टयीक तिस्र ऋग्यजुः सामवेदलक्षणा मूर्तयो यस्य । रविर्हि त्रयीमयो वर्ण्यते । तस्मिंस्त्रिमूर्तावत्रार्क उद्गते सतीशा ईश्वरजना: सांध्यविधौ प्रभातसंध्यावन्दनादिकृत्ये यतन्ते प्रवर्तन्ते । किं कृत्वा । आस्तामेका द्वे वा तिस्रोपि चतस्रोपि च वधूर्विहाय । यतः कीदृशाः । प्रेयस्यश्चतस्रो येषां ते प्रेयश्चतस्रो भार्याचतुष्टयान्विताः । तथ प्रियतिस्रः प्रियात्रयान्विताश्च । एतेनात्यन्तकामिनोप्येतत्साध्यैकृत्यं कुर्वन्ति । तस्मात्त्वमपि कुर्विति सूच्यते । प्रेयश्वतस्त्र इत्यादौ संख्याया विशेध्यत्वेन विवक्षितत्वाद् “विशेषण सर्वादि" [३. १. १५० ] इत्यादिना न प्राग् निपातो विशेषणभूतायाः संख्यायास्तत्र प्राग् निपातात् ॥ सतिस्त्रि भाभिः सुतिसर्युदञ्चञ्चतस्त्रि चञ्चञ्चतसर्यमुष्मिन् । निधौ श्रुतीनां तिसृणां नवार्के जगन्ति राजच्चतसृणि दिग्भिः १० १०. अमुष्मिन्प्रत्यक्षे नवार्के सति जगन्ति दिग्भिः कृत्वा राजन्यो १ एफ् शत्रुभा २ एफ् श्वरा: ज ३ बी मेकां द्वे. ४ ड़ी था प्रियास्तिस्रो येषां ते प्रि. ५ एफ् ध्यविधि कु. ६ एफ् संध्याया, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.१.] द्वितीयः सर्गः । १३३ पावित्र्यस्य तमसश्चापगमाच्चतस्रो येषु तानि राजच्चतसृणि शोभमानादिक्चतुष्टयान्वितानि सन्ति । यतः किंभूतेमुष्मिन् । त्रयीतनुत्वात्तिसृणां श्रुतीनां वेदानां निधौ स्थाने । एतेनातिपावित्र्योक्तिः । तथा भाभिः किरणैः कृत्वा सह तिसृभिर्वर्तते यस्तस्मिन् सतिस्त्रि प्रथमोदितत्वात्किरणत्रयान्विते पञ्चाच्च ता एव भाः सप्रकाशतरा बभूवुरिति भाभिः सुतिसरि सप्रकाशतरकिरणत्रयान्विते ततो भाभिरुदश्चच्चतरुयुदीयमानकिरणचतुष्टये क्षणाच्च भाभिश्चञ्चचतसरि विकसत्तरकिरणचतुष्टयान्विते च किं चिदुत इत्यर्थः । एतेन तमोपहार उक्तः । योपि नवार्क - तुल्योभिनवनृपः प्रवर्धमानतेजाः श्रुतीनां निधिश्च स्यात्तस्मिन्प्रवर्धमानप्रतापत्वात्प्रतापांशेनौतिदुष्टनिग्रहपरे श्रुतिनिधित्वेन न्यायित्वाच्छिष्टपालके च सति जगन्ति राजदिक्चतुष्टयानि भवन्तीत्युक्तिः ॥ इष्ट्यादिभिः सत्तिसरः सतिस्रो द्विजाः क्रियाभिर्जरसं निहन्तुम् । असज्जराः सज्जरसस्तथाद्यं जरामतीतं पुरुषं स्मरन्ति ॥ ११ ॥ ११. तथेति पूर्वोक्तसमुच्चये । असज्जरा अविद्यमानजरास्तरुणाः सज्जरसो वृद्धाश्च द्विजा ब्राह्मणा जरसं जरां निहन्तुम् । मुक्तय इत्यर्थः । जरामतीतं मुक्तमाद्यं पुरुषं विष्णुं स्मरन्ति । कीदृशाः । इष्ट्यादिभिर्य - जनादिभिः क्रियाभिः षड्भिः प्रतिदिनकर्मभिः कृत्वा सत्यो विद्यमानास्तिस्रो येषां ते सत्तिसरः सतिस्रश्वोभयपदार्थमिलने संपपः । षट्कर्मयुक्ता इत्यर्थः । एतेन नैष्ठिकत्वोक्तिः । यद्वा । द्विजो विप्रक्षत्रिययोर्वैश्येदम्भे विहंगमे । इति वचनाद्दिजा निर्दम्भा इष्ट्यादिभिर्देवपूजादिप्रतिदिन क्रियाभिः ५ १ एफ् तेस्मिन् २ सी न्विता. ३ बी 'नापि दु. ४ एफ् यादिभिः. ५ एफ मील. ६ सी डी स एषः. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] षड्भिरन्विता नैष्ठिकश्राद्धा मुक्तय आद्यं पुरुषं प्रथमजिनमृषभं स्मरन्ति । प्रभाते हि नैष्ठिकजना जाग्रतः स्वस्वदेवतां स्मरन्ति ॥ I तिस्रः । चतस्रः । प्रियतिस्रः । प्रेयश्चतस्रः । इत्यत्र " त्रिचतुर " [१] इत्यादिना तिसृचतस्रादेशौ ॥ स्यादाविति किम् । त्रिमूर्तीौं । प्रेयश्चतुष्क श्रुतिभिः ॥ । तिस्रः । चतस्रः । प्रियतिस्रः । प्रेयश्चतस्रः । इत्यत्र " ऋतो रः स्वरेनि” [२] इति रः ॥ अनीति किम् । तिसृणाम् । राजच्चतसृणि ॥ अन्ये तूपसर्जनयोस्तिसृचतसृशब्दयोङौं श्रुटि चानिस्वरादौ रत्वविकल्पमिच्छन्ति तन्मते । सतिखि सुतिसरि । उदञ्चञ्चतैखि चञ्चञ्चतसरि । सतिस्रः सत्तिसरः ॥ जरसं जराम् । सज्जरसः असज्जराः । इत्यत्र "जराया जरस् वा" [३] इति वा जरस् || स्नात्वाद्भिरीशैर्बहुराभिरात्तस्वद्भिर्द्विजेभ्यः परिकल्प्यते राः । युष्मासु नन्वल्पमिदं तथापि प्रसीदतास्मास्विति भाषमाणैः ॥१२॥ १२. शुचिभिर्दानं देयमिति स्मृतेरद्भिर्जलैः स्नात्वा शुचीभूय बहुराभिः प्रभूतधनैरीश्वरैर्द्विजेभ्यो रा द्रव्यं परिकल्प्यते संप्रदीयते । किंभूतैः सद्भिः । उदकदानपूर्व दानं देयमित्यात्ताः पाणौ गृहीताः शोभना आपो यस्तैः । तथौद्धत्यरहितं प्रियवक्सहितं च दानं विदुषां श्लाघ्यमिति भाषमाणैः । किमित्याह । नन्विति संबोधने । यद्यपि युष्मासु बहुदानार्हेष्वित्यर्थः । इदं दीयमानं स्वं स्वल्पं तथाप्यस्मासु विषये प्रसीदत वस्तुग्रहणेनानुग्रहं कुरुतेति । प्रभाते हीश्वरैर्दानं दीयते ॥ १ एफ बहु. १ एफ् ''. ९. २ सी डी ष्ठिकेज ३ एफ् सः प्रिय ५ एस. ६ सी डी वाक्यहि ७ सी डी भाष्यमा ४ सी डी ' यचत'. ८ बी 'नं च स्व. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०२.१.७.] द्वितीयः सर्गः । अद्भिः । स्वद्भिः । इत्यत्र " अपोद्धे " [४] इत्यद् ॥ राः । बहुराभिः । इत्यत्र “आ रायो व्यञ्जने " [५] इत्याः ॥ युष्मासु । अस्मासु । इत्यत्र " युष्मदस्मदो : " [६] इत्याः ॥ त्वया मयातित्वयि चातिमय्याः किं तत्र यन्निस्पृह आवयोः सः । मिथ्याब्रवीद्यद्युवयोर्वशेहं काचिद्वयस्यामिति खण्डिता ॥ १३ ॥ १३. किल कश्चिच्छठोन्यनायिकासङ्गेन द्वे स्वनायिके वञ्चितवान् । तयोरेका खण्डिता वनितान्तरव्यासङ्गादनागते प्रिये दुःखसंतप्तानायिका वयस्यां भर्तृकृतसमानापमान लक्षणव्यसनापातेन संजातमैत्र्यां सखीम् । द्वितीयां खण्डितां सपत्नीमित्यर्थः । इत्येवं प्रकारेणाह यथा । आः कष्टं हे वयस्ये । अतित्वय्यतिमय्यन्यनोयिकासक्तत्वात्त्वां मां चातिक्रान्ते तत्र शठप्रियै विषये त्वया मया च किम् । न किं चिदित्यर्थः । यद्यस्मादावयोस्त्वयि मयि च विषये स शठो निःस्पृहो निरपेक्षः । ननु सोवादीद्युवयोर्वशेहं वर्ते तत्कथमिति ब्रूष इत्याह । युवयोर्वश आयत्तौ वर्तेहं यदब्रवीत्तन्मिथ्यालीकं प्रत्यक्षेणैवमावयोर्वचनात् ॥ त्वया । मया । अतित्वयि । अतिमयि । युवयोः । आवयोः । इत्यत्र “टाड्योसि यः” [७] इति योन्तादेशः ॥ टाड्योसीति किम् । अहम् ॥ युष्मभ्यमस्मभ्यमथो युपभ्यं तथेष्टयुष्मभ्यमथोप्यसभ्यम् | तथा प्रियास्मभ्यमदः प्रभातं षड्भ्योपि राजन् भवतात्सुखाय १४ १३५ १४. हे राजन् । अद् एतत्प्रभातं पड्भ्योपि सुखाय भवतात् । केभ्यः षड्भ्य इत्याह । युष्मभ्यमथो तथास्मभ्यं तथा युषभ्यमस १ बी मैय्या स. २ ए सी डी नायका ३ एफ् ये त्व. ४ एफ् थे श ५ बी एफ यत्तो व ६ एफ् तियान्ता. • Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] भ्यमपि युष्मानस्मांश्चाचक्षाणेभ्यो हितं वदयो गुर्वादिभ्यश्चेत्यर्थः । तथेष्टा यूयं युष्मानाचक्षाणा वा येषां तेभ्यस्तथा प्रिया वयमस्मानाचक्षाणा वा येषां तेभ्यो युष्माकमस्माकं च स्वजनादिभ्यश्चेत्यर्थः ॥ रात्रौ गतायां वियुतावीह स्वपद्यवय्याशु युषान्वसान्नु । आवां युवां चार्ककरान्नमामश्चक्रावली न्वाहतुरुच्चनादैः || १५ || १५. प्रभाते हि विरहापगमेन हृष्टत्वाञ्चक्रवाकास्तारं कूजन्ति । ततोत्प्रेक्ष्यते । इह प्रभाते चक्रश्च चत्री च पुरुषशेषे चक्रौ चक्रवाकमिथुनमली पूर्ववत्पुरुषशेषे भृङ्गमिथुनं कर्मोचनादैस्तारस्वरैः कृत्वाहतुर्नु वत इव । किं तदित्याह । हे अली वियुतौ वियोगिनावावां यस्यां तस्यां तथा स्वपन्तौ निद्रयाचेतनौ युवां यस्यां तस्याम् । आवयोर्युवयोश्वाहितायामित्यर्थः । रात्रौ गतायां गमेरिहान्तर्भूतणिगर्थत्वाद् गमितायामर्ककरैरेवापनीतायां सत्यामावां युवां चार्ककरानाशु नमाम: । यतः किंभूतान् । युषान्नु असान्नु । अत्यन्तं निकटवर्तित्वाद्युष्मानस्मांञ्चाचक्षाणानिव कुशलवार्तादि पृच्छत इवेत्यर्थ इति । इतिरत्राध्याहार्यः । ये हि दीनानाथा - दयो महापुरुषैर्विपत्तेरुद्रियन्ते कुशलवार्ताप्रनादिना संभाष्यन्ते च ते तदुपकारादिर्गुणोत्कीर्तनयान्योन्यं प्रोत्साहयन्तस्तान्प्रणमन्ति || जितास्मयोः किं जितयुष्मयोः स्त्रीशोः प्रबोधे कमलानि हासैः । इत्युत्पलैर्भृङ्गरवैरुदित्वा निमील्यते त्वत्पुरदीर्घिकायाम् ।। १६ ।। ૩ 1 १६. उत्पलैरिन्दीवरैस्त्वत्पुरदीर्घिकायां निमील्यते । किं कृत्वा । भृङ्गरवैर्मध्ये बध्यमानानां भ्रमराणां झङ्कारैरुदित्वेव । इवोत्र ज्ञेयः । किमुक्त्वेत्याह । हे कमलानि सूर्यविकासिपद्मानि जिता वयं यकाभ्यां १ बी क्ष्यन्ते । २ एफ् 'नं क्रमाच्च ३ बी एफ् 'तिर. ४ सी डी 'भाख्यन्ते. एफ् भाव्यन्ते. ५ एफ् च त ६ ए सी गुणकीर्त बी गुणकीर्त ७ फूपुरीदी. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.७.] द्वितीयः सर्गः १३७ 9 तयोः स्त्रीदृशोः प्रबोधे विकासे सति । युष्माकं हासैर्निः श्रीकत्वादुत्पलान्येतानि स्त्रीदृग्भ्यां जितानीति स्मितैः किम् । न किंचित् । अथ च हासैर्विकासैः किम् । यतो जिता यूयं यकाभ्यां तयोः । स्त्रीदृग्भ्यां यूयमपि जितानीत्यर्थः । एतदुक्तं स्यात् । येह्यात्मनापि पराभूताः स्युस्तैरन्येषां पराभूतानां किं हसनीयमिति । प्रभाते हि कमलानि विकसन्त्युत्पलानि च संकुचन्ति । स्त्रीदृशर्श्वोतिविकसन्त्यत इयमुक्तिः ॥ 3 त्वया मदीयोथ मया त्वदीयो राजन्प्रतापोनुकृतस्त्वयीति । तर्काकुलो भानुरुदेति मन्दमित्याशयः संप्रति मद्विधानाम् ||१७|| १७. प्रभाते हि रविर्मन्दं मन्दमूर्ध्वमयते तत इयमुक्ति: । संप्रति प्रातर्मया विधा सादृश्यं येषां तेषां मद्विधानां बन्द्यादिजनानामित्येवंविध आशयश्चित्ताभिप्रायः । इदं वयमुत्प्रेक्षामह इत्यर्थः । यथा हे राजन् मूलराज त्वया मदीयः प्रतापस्तेजो नुकृतोनुहृतोथाथवा मया त्वदीयः प्रतापोनुकृतो द्वयोरप्यावयोस्तुल्यप्रतापित्वादित्येवंप्रकारेण त्वयि विषये योसौ तर्कः संशयपूर्व मनसा भणनं तेनाकुलो व्यामूढः सन् भानुरादित्यो मन्दमनुत्सुकं यथा स्यादेवमुदेति । तर्काकुलो ह्यन्यचित्तत्वात्प्रस्तुतं कार्यं मन्दमेव करोति ॥ योध्यस्मदासीत्त्वयन्नधित्वद्यो मापयन्कोत्र तवानुतापः । दाम्यहं निश्चिनु तत्त्वमेवं मिथः सखीनामधुनेति वाचः ॥ १८ ॥ १८. अधुना प्रभाते मिथः सखीनां कथमप्यन्योन्यं प्रतिपन्नसखीत्वानां सपत्नीनां वाच: संबोधिका वाण्यो वर्तन्ते । कथमित्याह । हे सखि यः १ एफ 'चिदित्यर्थ: । हासैविकासैः । य २ एफ् ग्भ्यां वय.. ४ सी डी चापि वि. ९ सी ते इ. ६ बी न्योन्यप्र'. १८ ३ एफ 'नि सं". Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] प्रियस्त्वदयन् त्वत्समीपेद्याहं वत्स्यामीति त्वामाचक्षाण: सन्नध्यस्मन्मयि मत्समीप आसीदुवास । तथा यो मापयन् त्वत्समीपेद्याहं वत्स्यामीति मामाचक्षाणः सन्नधित्वत्त्वयि त्वत्समीप आसीदवास्मिन् प्रिये विषये कस्तवानुतापः पश्चात्तापः । अयमर्थः । यः शठत्वाद्वासविषये त्वामुक्त्वा मत्समीपेवसन्मां चोक्त्वा त्वत्समीपेवसत्तस्मिञ् शठस्वभावे प्रिये सैषास्य वल्लभा नाहमिति किमित्यनुतप्यसे द्वयोरपि समानापमानकारित्वात् । यद्येवं तर्हि किं कार्यमित्याह । यत्तदोनियाभिसंबन्धाद्यदिति गम्यम् । यदहं वदामि तत्पूर्वोक्तं भर्तुः शठस्वभावत्वमेवं निश्चिनु तथेत्यङ्गीकुर्विति ॥ निशि त्वकं मामहकं तथा त्वां युक्तौ नु नावां विधिजृम्भितानि। प्रमाणमत्रातिवयं तथातियूयं रथाङ्गाविति कूजतो नु ॥ १९ ॥ १९. रथाङ्गौ चक्रवाकमिथुनमिति न्विदमिव कूजतो वदतः । यथा निशि रात्रौ निशामाहात्म्यात् कुत्सिताल्पाज्ञाता वा त्वं त्वकं मां मामाचचक्षे मामवोचस्तथा निशि कुत्सितोल्पोज्ञातोवाहमहकं त्वां त्वामाचचक्षे त्वामनवम् । आवां नु । नुः पुनरर्थे । त्वं चाहं च पुनर्न युक्ती न मिलितौ । यद्यपि निश्यावां संयोगाय प्रेम्णान्योन्यं शब्दायितवन्तौ तथापि न संयुक्तावित्यर्थः । नन्वत्र को हेतुरित्याह । अत्रावयोरयोगे विधिजम्भितानि देवविलसितानि प्रमाणं हेतवो यतोतिवयं तथातियूयं दैवस्य प्रतिमल्लाभावान्मां त्वां चातिक्रान्तानीति ।। युष्मभ्यम् । अस्मभ्यम् । अणिगन्तपक्षे इष्टयुष्मभ्यम् । प्रियास्मभ्यम् । इत्यत्र “शेषे लुक्" [4] इति दस्य लुक् ॥ १ बी था त्वं यु. १ एफ प्रियवि. २ एफ °मथ यः. ३ बी किमत्य'. ४ सी डी °से स द्व'. ५ एफ शाया मा . ६ एफ माच'. ७ एफ °कं त्वा. ८ डी मबूव. एफ °मब्रुव. ९ सी अणि. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.१.१२.] द्वितीयः सर्गः। १३९ युषभ्यम् । असभ्यम्। इत्यत्र “मोर्वा" [९] इति मस्य वा लुक् ॥ पक्षे इष्टयुष्मभ्यम् । प्रियास्मभ्यमिति णिगन्तपक्षे । शेषइत्येव । युषान् । असान् । अन्न पूर्वेण मस्यात्वम् ॥ युवाम् । आवाम् । स्वपधुवयि । वियुतावयि । इत्यत्र “मन्तस्य” [१०] इत्यादिना युवावौ ॥ द्वयोरिति किम् । युष्मभ्यम् । अस्मभ्यम् ॥ द्वयोरिति युष्मदसद्विशेषणं किम् । जितयुष्मयोः । जितास्मयोः । अत्र समास एव द्वित्वविशिष्टेर्थे वर्तते न युष्मदस्मदी इति युवावादेशौ न भवतः ॥ स्वया । मया । त्वयि । मयि ॥ प्रत्यये । त्वदीयः। मदीयः ॥ उत्तरपदे । त्वत्पुर । मद्विधानाम् । इत्यत्र "त्वमौ प्रत्यय" [११] इत्यादिना त्वमौ ॥ त्वदयन् । इत्यत्र नित्यत्वादन्त्यस्वरादिलोपात्प्रागेव त्वमौ ॥ कश्चित्तु पूर्वमन्त्यस्वरादिलोपे त्वमादेशेकारस्य वृद्धौ प्वागमे मापयन्नित्याह ॥ प्रत्ययोत्तरपदे चेति किम् । अध्यस्मत् । अन्तरङ्गत्वात्स्यादिद्वारेणैव त्वमादेशे सिद्धे प्रत्ययोत्तरपदग्रहणं “बहिरङ्गोपि लुबन्तरङ्गानपि विधीन् बाधते" [न्या० सू० ४६] इति न्यायज्ञापनार्थम् । तेन तदित्यादावन्तरङ्गमपि त्यदायत्वादि न स्यात् । एके तु निमित्तनिरपेक्षमेकत्वविशिष्टेथे वर्तमानयोस्त्वमादेशाविच्छन्ति । तन्मते अधित्वत् ॥ . त्वम् । अहम् । इत्यत्र "त्वमहं." [१२] इत्यादिना त्वमहमौ सिना सह ॥ सिनेति किम् । आवाम् ॥ प्राक् चाक इति किम् । त्वकम् । अहकम् । इत्यत्राकः श्रुतिर्यथा स्यात् । अन्यथा पूर्वमकि सति "तन्मध्यपतितस्तद्हणेन गृह्यते" इति न्यायात्साकोप्यादेशः स्यात् ॥ केचित्तु त्वां मां चाचष्ट इति णौ त्वमादेशे वृद्धौ क्विपि मन्तयोरेव त्व-अह-आदेशविधानात्सौ त्वां मामिति । धातोरेव वृद्धि १ एफ स्मदोविशे'. २ बी यि प्र. ३ एफ बाध्यते. ४ एफ °त्, अधिमत् त्व. ५ डी त्वां मामाच. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] रिति मते त्वं ममित्येव च भवतीति मन्यन्ते। ते हि प्रकृतिमात्रस्यादेशान् जस्सीनाममादेशं ङसस्त्वकारमिच्छन्ति । अत्र तु त्वमिति ममिति च स्वयं ज्ञेयम् ॥ अतियूयम् । अतिवयम् । इत्यत्र “यूयं वयं जसा" [१३] इति यूयंवयमौ ॥ त्वां मां धिगावां च युवां तथास्मान्युष्मान्न यत्सत्तव सन्ममेशः। ईक्षेति वाचो नृषु तुभ्यमिष्टमा हितेष्वाश्चधुनोल्लसन्ति ॥ २० ॥ २०. इष्टा वयं यस्य तस्मायिष्टमह्यं तुभ्यं हितेषु त्वय्यत्यन्तं भक्तेषु नृष्वाधारेष्वधुना प्रभात इत्येवंविधा वाच आशूल्लसन्ति । यथा हे मित्र सन् प्रसादपात्रत्वेन प्रधानस्त्वं सन्तौ युवां सन्तो यूयं च यस्य तस्य सत्तव तथा सन्नहं सन्तावावां सन्तो वयं च यस्य तस्य सन्ममेशः स्वामिनो मूलराजस्य यद्यस्मान्नेक्षा दर्शनं नाभूत्तत्तस्मात्त्वां मां युवामावां युष्मानस्मांश्च धिग् धिक्कारोस्त्विति । अतिभक्तत्वात्प्रातस्त्वदर्शनेत्युत्कण्ठिताः सेवका यावत् क्षणमात्रं त्वदर्शनं न भवति तावदकृतार्थं मन्यमानाः स्वं निन्दन्तीत्यर्थः ॥ तुभ्यम् । इष्टमह्यम् । इत्यत्र "तुभ्यं मह्यं ड्या" [१४] इति तुभ्यमह्यमौ ॥ सत्तव । सन्मम । इत्यत्र “तव मम ङसा" [१५] इति तवममौ ॥ त्वाम् । माम् । युवाम् । आवाम् । इत्यत्र "अमौ मः'' [१६] इति अम्-औ-स्थाने म्॥ युष्मान् । अस्मान् । इत्यत्र "शसो न" [१७] इति शसो न ॥ १ ए ईध्येति. १ए °मममा. २ बी एफ तु त्वामि'. ३ एफ ति मामि. ४ एफ स्य स. ५ ए सी स्य तन्म. ६ All Mss read धिक्कारो. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.२०.] द्वितीयः सर्गः। १४१ युष्मभ्यमस्मभ्यमसौहितस्त्वन्मयुष्मदस्मत्प्रवरस्तथेशः। युष्माकमस्माकमिति ब्रुवाणा अमी नृपास्त्वामधुनोपयान्ति॥२१॥ २१. अमी प्रत्यक्षा नृपा अधुना सेवाथै त्वामुपयान्ति । किंभूताः सन्तः । ब्रुवाणाः । किमित्याह । युष्माकमस्माकं चेशः स्वाम्यसौ मूलराजो युध्मभ्यमस्मभ्यं च हितोनुकूलः । तथा त्वत् त्वत्तो मद् मत्तो युष्मद् युष्मतस्तथास्मद् अस्मत्तश्च सकाशात्प्रवरः शौर्यादिगुणैरुत्कृष्टो वर्तत इति ॥ युष्मभ्यम् अस्मभ्यम् । इत्यत्र “अभ्यं भ्यसः" [१८] इत्यभ्यम् ॥ त्वत् । मत् । युष्मत् । अस्मत् । इत्यत्र "डसेश्वात्" [१९] इत्यत् ॥ युष्माकम् । अस्माकम् । इत्यत्र "आम आकम्" [२०] इत्याकम् ॥ अयं स वो नोवति दत्त ईष्टे तथैव वां नौ हित ईट् च ते मे । मिथो जनैरित्युदयन्नुतस्त्वा पुनातु सूर्यस्त्वमिव प्रभो मा ॥२२॥ २२. हे प्रभो स्वामिन् यथा त्वमुदयञ् श्रिया प्रवर्धमानः सन् वर्णाश्रमगुरुत्वेन दर्शनस्तवनादिना पापमलक्षालकत्वान्मा माम् । जातावेकवचनम् । बन्दिजातिं पुनासि । तथा सूर्य उदयन संस्त्वा त्वां पुनातु । किंभूतः सूर्यस्त्वं च । जनैमिथो नुत: स्तुतः । कथमित्याह । स सर्वत्र प्रसिद्धोयं प्रत्यक्षः सूर्यो राजा च वो युष्मान्नोस्मांश्चावति परकृतविघ्नोपद्रवादिभ्यो देवतात्वादधिपतित्वाच्च रक्षति । तथा वो युष्मभ्यं नोस्मभ्यं च दत्ते मनोवाञ्छितं ददाति । तथा वो युष्माकं नोस्माकं चेष्टे चेशो भवति। "स्मृत्यर्थ" [२.२.११] इत्यादिना षष्ठी। यथा वो नोवति दत्त ईष्टे च तथैव वां युवां नावावां चावति युवाभ्यामावाभ्यां च दत्ते युवयोरावयोश्चेष्टे च । तथा ते तुभ्यं मे मह्यं च हितोनुकूलः । तथा ते तव मे ममेट् च स्वामी चेति ॥ १ ए मिऋणत्वे. २ एफ मेट् स्वा. . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] वो नः । इत्यत्र “पदाधुग्” [२१] इत्यादिना द्वितीयाचतुर्थीषष्ठीबहुवचनैः सह वस्नसौ ॥ वां नौ । इत्यत्र "द्वित्वे वाम्नौ' [२२] इति द्वितीयाचतुर्थीषष्ठीद्विवचनैः सह वांनावौ ॥ ते मे । इत्यत्र “डेङसा ते मे" [२३] इति ते मे ॥ त्वा मा । इत्यत्र “अमा त्वा मा" [२४] इति त्वामादेशौ ॥ महर्षयोस्माननुशिष्ट कृत्यं देवाः समे मा परिरक्षतेति । विप्रा वरा मां प्रपुनीत चेति सूर्येश मावेति च वागिदानीम् ॥२३॥ २३. इदानी प्रभाते वाग् वाणी वर्तते । अर्थाद्धार्मिकाणाम् । कथं कथमित्याह । हे महर्षयोस्मान् कृत्यं धर्मकार्यमनुशिष्टोपदिशतेति । इतिरत्राध्याहार्यः । तथा हे देवा अर्हदादयः समे सर्वे मा मां परिरक्षत संसारापायेभ्यः पातेति । तथा हे विप्रा वरा ज्ञानक्रियाभ्यां श्रेष्ठा यूयं मां प्रपुनीताशीर्दानपूर्व मस्तकोपरि मन्त्रपूतदूर्वाक्षतक्षेपादिना पवित्रयतेति च । तथा हे सूर्य ईश स्वामिन् मा मामव रक्षेति । धार्मिका हि प्रातर्धर्मश्रवणादि वाञ्छन्ति । महर्षयोस्मान् । इत्यत्र “असदिव" [२५] इत्यादिना-आमच्यपदस्यासत्वम् ॥ देवाः समे मा विप्रा वरा माम् । इत्यत्र "जस्वि" [२६] इत्यादिना आमज्यविशेष्यस्य वासत्त्वम् ॥ सूर्येश माव । इत्यन्न “नान्यत्" [२७] इति असत्त्वनिषेधः ॥ १ सी डी °ह वां. २ डी वांनौ च ते. एफ वा नौ ते. ३ एफ शीर्वादपूर्वकं म. ४ एफ दिइ. ५ एफू शेषस्य पदस्यास. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ है० २.१.३०.] द्वितीयः सर्गः। नखास्तवाहोरसि वक्षि मां चास्तुभ्यं शपेद्यास्मि तवानपेक्षा । किमीक्षसे मां व्रज तां विमुश्च मामित्यभीकं प्रतिवक्ति का चित् २४ २४. अभीकं प्रभातेनुनयन्तं कामुकं प्रति सपत्नीनखक्षतदर्शनात्कुपिता काचित्कामिनी वक्ति । कथमित्याह । अहेति साभ्यसूये संबोधने । अह अरे धृष्ट तवोरसि वक्षसि नखा नखक्षतानि सन्ति । आ: कष्टं च त्वं पुनी वक्षि भणसि । यदुत तुभ्यं शपे त्वमेव मचित्ते वर्तस इत्यर्थे तव प्रत्ययाथै मात्रादिशपथान्करोमीत्यर्थ इति । यतस्त्वमीदृशोतश्चास्म्यहं तव न विद्यतेपेक्षाकाङ्क्षा यस्याः सानपेक्षा । त्वां नापेक्षे । त्वया मम न प्रयोजनमित्यर्थः । एवं च स्थिते मां किमीक्षसे किं चिन्तयसि ब्रज तां स्वमनोभिप्रेतां मत्सपत्नीम् । विमुञ्च त्यज मामिति ॥ तुभ्यं शपे । मामित्यभीकम्। इत्यत्र “पादाद्योः" [२८] इति तेमादेशाभावः ॥ वक्षि मां च । नखास्तवाह । इत्यत्र "चाहह” [२९] इत्यादिना मा ते आदेशाभावः ॥ किमीक्षसे माम् । इत्यत्र "दृश्यथैश्चिन्तायाम्' [३०] इति मादेशाभावः ॥ यूयं न सुप्ता इति वोलसत्वं वयं तु सुप्ता इति नः पटुखम् । यूयं हि कान्तास्तदिना व ईयुर्वयं न कान्तास्तदिनान औज्झन् २५ यूयं सुमृयो हि तदेष युष्मान् दुनोति भानु वयं हि मृत्यः । तदेष नास्मांस्तुदतीति काकूक्तयः सखीनामुदिता इदानीम् २६ २५,२६. इदानीं प्रभाते सखीनां काकूक्तयः काकुवक्रोक्त्या सो१ एफ सि मां च वक्षि तुभ्यं. २ एफ यं समृ. ३ एफ् ॥ २६ ॥ युग्मम्. १ एफष्टं त्वं च पु. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः]] पहासं भणितय उदिता विजृम्भिताः । कथमित्याह । हे सख्यो हि यस्माद् यूयं कान्ताः सौन्दर्यपात्रं तत्तस्माद्वो युष्माकमिना भर्तारो वो युष्मानीयू रन्तुमागताः । वयं न कान्तास्तदिना न औज्झन् । वयमपि कान्ता एवेत्यस्मद्भर्तारोप्यस्मान् रन्तुमागता एवेत्यर्थः । अत एव हे सख्यो यूयं न सुप्ताः सकलायां निशि निरन्तररमणक्रियया न शयिता इति हेतोर्वो युष्माकमलसत्वमपाटवम् । वयं तु सुप्ता इति नः पटुत्वम् । यूयमिव वयमपि रात्रौ न सुप्ता अतस्तजन्यमेस्माकमप्यपाटवमस्तीत्यर्थः । तथा हि यस्मायूयं सुमृयो भर्तृप्रसादेन सदा सुखितत्वात्सुकुमाराङ्गयस्तत्तस्माद्धेतोरेष प्राभातिकोपि भानुयुष्मान्दुनोति पीडयति न वयं हि मृद्ध्यस्तदेष नास्मांस्तुदति । यूयमिव वयमपि मृद्ध्य एवातोस्मानप्येष भानुस्तुदतीत्यर्थ इति । एतेन यथा वयमालस्यं मुक्त्वा तपं चावगणय्य सर्वप्राभातिककृत्येपूत्सहामहे तथा यूयमप्युत्सहध्वमिति सखीभिर्व्यज्यत इत्यर्थः ॥ इति वः । इति नः । इत्यत्र “नित्यमन्वादेशे" [३१] इति नित्यं वसनसौ ॥ तदिना वः । तदेष युष्मान् । तदिना नः। तदेष नास्मान् । इत्यन्न "सपूर्वात्" [३२] इत्यादिना वा बस्नसौ ॥ पात्रं नयैतच्छुचयैनदेतेनार्धं भजैनेन वलिं च देहि । जुहूसुचावानय तावदेते अथैनयोः प्रक्षिपसर्पिराशु ॥ २७ ॥ १ ए सी डी ख्यो हिर्यस्मा. २ ए °स्माद्रो वो यु'. सी डी स्माद्धेतोर्युष्मा. ३ एफ व रा. ४ एफ तज्ज. ५ एफ मप्यस्माकमपा. ६ ए सी डी हिर्यस्मा . ७ एफप्युत्साह . Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.३२.] द्वितीयः सर्गः। १४५ कुण्डं खनेदं परिलिम्प चैनदिदं फलं धेह्यथ होमयैनम् ।। इदं सदेनेन यजस्व दनानयोः श्रुतं सत्कुरु चैनयोस्तत् २८ बजेमकस्मायथ देहि चास्मायेतेग्नयोथैषु नतिं कुरुष्व । अन्योन्यमित्यादिशतां द्विजानाममूगिरो ब्रह्मपुरीष्विदानीम्२९ २७-२९. इदानी प्रभाते ब्रह्मपुरीषु द्विजानां यायजूकानाममू: प्रत्यक्षा गिर आज्ञावाण्यो वर्तन्ते । यतोन्योन्यमादिशताम् । कथमित्याह । हे द्विजैतत् प्रत्यक्षं पात्रं यज्ञभाजनं नय जलस्थानादि प्रापय । तत एनदेव पात्रं शुचय जलक्षालनादिना पवित्रीकुरु । तथों हे द्विजैतेन पात्रेणाघ पूजोपकरणं पुष्पफलादि भज गृहाणेत्यर्थः । ततोनेनैव पात्रेणेश्वरेन्द्रादिभ्यो बलिमुपहारं देहि । तथैते जुहूँस्रुचौ । जुहूरुत्तरानुक् । ततो गोबलीवर्दन्यायेन स्रुच्शब्देनाधरा झुगुच्यते । द्वन्द्वे जुहूसुचावुत्तराधरस्रुचौ । तावदिति प्रक्रमे । आनय । अथानन्तरमेनयोरुत्तराधरस्रुचोराशु शीघ्रं होमाय सर्पिः प्रक्षिपे । तथेदं कुण्डं खन पुरोवर्तिनी भूमि यागाम्याधानार्थ खननेन कुण्डाकारां कुर्वित्यर्थः । तत एतदेव कुण्डं परिलिम्प च समन्ताल्लिम्बस्व च । तथेदं फलमाम्रादि धेहि पाणौ धर । अथानन्तरमेनमेव फलं होमय जुहुधि । तथेदं दधि सद् वर्तते । ततोनेनैव दना यजस्व यागं कुरु । तथानयोर्यायजूकयोः श्रुतं वेदादिशास्त्रसारं वर्तते । श्रुतवन्तावेतावित्यर्थः । तत्तस्माद्धे १ एफ चैतदि. २ एफ २९ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ इ. १ सी डी २९॥ प्र. २ सी ना प°. डी नात्पवि'. ३ एफ °था द्वि'. ४ सी डी हूरु. ५. ए सी पः ।. ६ एफ °म्प च ।. ७ एफ मेतदेव. ८ एफ तथाने. ९ वी एफ शास्त्रं सा, १९ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] मल तोरेनयोः सत्कुरु सन्मानय । अनयोरित्यत्र संबंन्धे षष्ठी विषयसप्तमी वा ॥ तथेमकस्मै व्रज देशान्तरागतत्वादज्ञातमिमं दूरस्थं प्रत्यक्षं द्विजमानेतुं गच्छ । “गम्यस्याप्ये" [२,२,६२] इति चतुर्थी । अथानयनानन्तरमस्मायेवाज्ञातद्विजाय देहि स्वर्णादि वितर । तथैतेग्नयो दक्षिणाहवनीयगाईपत्याख्यास्त्रयो वह्नयो वर्तन्तेथ ततश्चैतेध्वग्निषु नतिं कुरुष्वेति । ब्रह्मपुरी नाम धर्मार्थमीश्वरैः कारितानि धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिसर्वसामग्रीसहितानि द्विजेभ्यो दत्तानि गृहाणि ॥ शुचयैनत् । भजैनेन । अथैनयोः । इत्यत्र "त्यदामेनद्" [३३] इत्यादिनैनद् ॥ चैनत् । एनेन यजस्व । चैनयोः । इत्यत्र “इदमः" [३४] इत्येनद् ॥ केचित्त्विदम आदेशमेनमिति मान्तं द्वितीयैकवचन आहुस्तन्मते । होमयैनम् ॥ अस्मायित्यत्र "अध्यञ्जने" [३५] इति साक इदमोत् ॥ केचिदेतदोपीच्छन्ति । अथैषु ॥ एभिः करैरंशुमतेमिकस्यै दिशेवतंसान्सृजता न्वनेन । द्यावापृथिव्योरनयोर्निजोयं परोयकं व्यक्तिरियं व्यधायि ३० ३०. अनेन प्राभातिकेनांशुमता द्यावापृथिव्योराकाशभुवोर्मध्येयं निजोयकं कुत्सितोल्पोज्ञातो वायं परोन्य इत्येवंविधा व्यक्तिय॑धायि । किंभूतेन सता । एभिः प्राभातिकैः करैः किरणैः कृत्वारुणत्वादिमिकस्यै १ एफ् “तेमक. २ सी ३० किं भू. १ ए तोः रन. सी डी तोरन. २ एफ बन्धष'. ३ ए तेग्मि. ४ सी °ति । . . . . अनेन. त्रिंशश्लोकस्थ व्यधायि' पर्यन्तं तत्र नास्ति. ५ ए सी त् । अने'. ६ डी ता सूर्येणानयोर्यावा. ७ डी वायकं प०. ८ डी °वं व्य. ९ डी यि अकारि । किं. १० एफ दिमक. २ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.३८.] द्वितीयः सर्गः । १४७ दिशे पूर्व तमोभिभूतत्वेनानुकम्पितायै प्रत्यक्षायै पूर्वस्यायवतंसान्नु रक्तपुष्पमुकुटानिव सृजता कुर्वता । निशि हि द्यावापृथिव्योस्तमसा व्याप्तत्वान्निजपरयोर्ज्ञानं नासीद्रव्युदये तु बभूवेत्यर्थः ॥ एभिः । इत्यत्र “अनक्” [३६] इत्यत् ॥ अनगिति किम् । ईमिकस्यै ॥ अनेन । अनयोः । इत्यत्र "टौस्यनः" [३५] इति-अनः॥ अयम् । इयम् । इत्यत्र "अयम्" [३८] इत्यादिना-अयमियमौ । साकोप्ययमियमादेशौ भवतः ॥ अन्येत्वादेशे कृते पश्चादकमिच्छन्ति । अयकम् ॥ दीपा इमे रव्युदये न राजन्त्यतीदमो हव्यभुजोपि नामी । स्य एष नेन्दु स तारकौघो दैवाद्यतः कोपि कदापि सश्रीः ३१ ३१. इमे रात्रौ येराजस्ते दीपा रव्युदये सति न राजन्ति नि:प्रकाशत्वात् [निष्प्रकाशकत्वात् ? ] । तथामी ये रात्रावराजंस्तेतीदमोतितेजस्वित्वादिमान् दीपानतिक्रान्ता हव्यभुजोप्यग्नयश्च न राजन्ति । तथा स्यो रात्रिं योतिप्रकाशितवान् स ऐष प्रत्यक्ष इन्दुरपि न राजति । तथा स तारकौघो न राजति । यद्वा युक्तमेवैतद्यतो दैवाद्विधिवशात्कोपि कदापि सश्रीः श्रीयुत: स्यात् ॥ संध्या तनुाहयसकाविनोसावैशीद्वयोरप्यमुयोस्तृतीया । त्वं चासुको मौरजिती त्रयीयं साक्षात्ततो नादमुयङ् पुमान्कः ॥ ३२. हे राजन् । असकौ रव्युदयेन गतप्रायत्वादल्पेयं संध्या प्रभातसंध्या ब्रह्मण इयं ब्राह्मी तनुर्मूर्तिः । एवं किल श्रूयते । पुरा सिसृ १ डी त्वं वासु. १ एफ इमक. २ एफ ते सति प. ३ ए सी एव प्र. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ [ मूलराजः ] क्षया प्रजासृजा बह्वयस्तेन्वस्त्यक्तास्तत्र देवान्सृष्ट्वा या तनुस्त्यक्ता साहः संपन्ना । पुनर्दैत्यान्सृष्ट्वा यो तनुस्त्यक्ता सा रात्रिरूपाजायत । भूयो मर्त्यान्निर्माय तनुरुत्सृष्टा या सा प्रातः संध्या समपद्यतेति । तथासौ प्रत्यक्ष इनो रविरीशस्य शंभोरियमैशी तर्नुः । यदुक्तम् । व्याश्रयमहाकाव्ये क्षितिजलपवनहुताशनयजमानाकाशसोमसूर्याख्याः । ईशस्य मूर्तयोष्ट चिरंतनैर्मुनिभिराख्याताः ॥ १ ॥ तथामुयोर्द्वयोरपि ब्रह्मेशतन्वोस्तृतीयासुकः प्रत्यक्षस्त्वं मौरजिती तनुर्वैष्णवी मूर्तिः । नृपो हि प्रजापालकत्वेन वैष्णवी मूर्तिरिति रूढिः । एवं चेयं प्रत्यक्षा त्रयी ब्रह्मशंभुविष्णुरूपा साक्षात्प्रत्यक्षास्ति । ततस्तस्माद्धेतोः कः पुमान्नादमुयङमूं त्रयीं नाश्वति । अधुना संध्यां सूर्य त्वां च त्रयीमूर्तित्वात्सर्वो लोकः पूजयतीत्यर्थः ॥ Ε संध्यां नृपाचमुमुयङ् हरो यद्ब्रह्माप्यमुयद् हरिरप्यदयङ् । ये नामुनामी अपि यान्ति मुक्तेर्निया पथाद्यस्य लुवा च लोकाः ३३. हे नृप संध्यां प्रभातसंध्यामर्च । यद्यस्माद्धेतोर्हरोप्यमूं संध्यामञ्चत्यमुमुयङ् । तथा ब्रह्माप्यमुद्राङ् । हरिरपि विष्णुरप्यदयङ् । अथ प्रत्यक्षेणाप्यस्या जगत्पूज्यतामाहुः । लुवा चेति । चो भिन्नक्रमे । येन च हेतुनामुना पथा संध्याचलक्षणेनामी लोका अप्यासतां तावदागमगम्या हरादयः प्रत्यक्षा ब्राह्मणादयो जना अपि यान्ति संध्याच कुर्वन्तीत्यर्थः । यतः किंभूतेन । अघस्य पापस्य लुवा छेदकेन । अत एव मुक्तेर्मोक्षस्य निया प्रापha || १ डी सी एफ् स्तन्व्यरत्य २ बी यास्तनु ३ डी त्रितयाजा ४ एफ् 'नुः । तदु . ५ सी मुनयो . ६ एफ 'वपि लो. ७ सी डी माह । लु ८ डी तेनाप्यध'. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.४६.] द्वितीयः सर्गः। १४९ वेदानधीयन्त इनं स्तुवन्तो यवक्रियः शिश्रियुरग्निमेके । कुशासकल्यः समिदुन्य एके कटप्पुवः सिन्धुतटान्यथेयुः ॥३४॥ ३४. यवान्होमार्थ क्रीणन्ति यवक्रियः । एकेग्निहोत्रिणोग्निकार्यार्थमाग्निं शिश्रियुः । कीदृशाः सन्तः । वेदानधीयन्तोकृच्छ्रेण पठन्तस्तथेनं रविं स्तुवन्तः । अथ तथैकेन्य ऋषयः कटेन प्रवन्ते तरन्ति कटप्रुवो जलपूर्णनदीमपि तरन्तः सन्त इत्यर्थः । सिन्धुतटानि नदीकूलानीयुः प्रापुः । यतः कुशासकल्लोग्निहोत्रपरिस्तरणाद्यर्थ दर्भाणामसकृच्छेदकास्तथा समिध उन्नयन्ति समिदुन्योग्निज्वालनाय काष्ठाहारका अतिनैष्ठिका इत्यर्थः । नदीतटेषु हि प्रायेण दर्भादि बहु प्राप्यते ।। इमे । इत्यत्र “दो मः स्यादौ" [३९] इति मः ॥ त्यदादिसंबन्धिविज्ञानादिह न स्यात् । अतीदमः॥ कः । कदा । इत्यत्र “किमः कस्तसादौ च" [४०] इति कः ॥ स्थः । सः । असौ । इमे । एषः । द्वयोः । तसादौ । यतः । कदा । इत्यत्र "आद्वेरः" [४१] इति-अः॥ स्यः । सः । एषः । इत्यत्र "तः सौ सः" [४२] इति सः॥ असौ । असकौ । इत्यत्र “अदस" [४३] इत्यादिनादस्य सः सेस्तु डौः। असुकः । इति असुको वाकि" [४४] इति वा निपात्यते ॥ पक्षे । असकौ ॥ अमुयोः । इत्यत्र "मोवर्णस्य" [४५] इति मः ॥ अदमुयङ् । अमुंद्यङ् । अमुमुयङ् । अदद्यङ् । इत्यत्र “वाद्रौ" [४६] इति वा दस्य मः॥ द्वौ चात्र दकारी तयोर्वा मे सति चातूरूप्यम् ॥ १ एफ् ब्रुवं सि. १ बी का इति. २ ए सी ज्ञानना.३ सीडी सः ...... सेस्तु. ४ सी मुमुय'. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ब्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] अमुमुयङ् । इत्यत्र "मादुवर्णोनु” [४७] इति-उवर्णः ॥ अन्विति किमर्थम् । अमुयोरित्यत्र एत्वादिषु कार्येषु कृतेपूवर्णो यथा स्यादित्येवमर्थम् ॥ अमुना । इत्यत्र “प्रागिनात्" [१८] इति उवर्णः ॥ अमी । इत्यत्र “बहुष्वेरीः" [४९] इति ईकारः ॥ निया । लुवा । अधीयन्तः । स्तुवन्तः । इत्यत्र “धातोरिवर्ण" [५०] इत्यादिनेयुवौ ॥ ईयुः । इत्यत्र “इणः" [५१] इति-इय् ॥ यवक्रियः । कटगुवः । शिश्रियुः । इत्यत्र “संयोगात्" [५२] इति यवोरपवादावियुवौ ॥ धातुना संयोगस्य विशेषणादिह न भवति । उन्यः । असकृल्लः ॥ पश्यन्ति सिद्धस्त्रिय उद्बुवोर्कमारानुवन्तं किल पादपातैः । आशास्त्रियः स्त्रीरिव पद्मिनीश्च धुश्रीस्त्रियं स्त्रीमिव खश्रियं च ३५ ३५. अणिमाद्यष्टविधैश्वर्यवन्तः सिद्धास्तेषां त्रिय उदूर्वा भ्रुवो यासां ता उद्भुवः सत्योकं पश्यन्ति । यतः पादपातैः किरणनिक्षेपैरथ च पादेषु पातैश्चरणप्रणामैः कृत्वारानुवन्तं किल प्रसादयन्तमिव । काः । आशास्त्रियो दिगङ्गनास्तथा पद्मिनीः स्त्रीरिव। तथा रविकिरणपञ्चशती स्वर्गमप्युद्योतयतीतिप्रसिद्धेषुश्रीस्त्रियं स्वर्गलक्ष्मीमेवाङ्गनां खश्रियं चाकाशलक्ष्मी च स्त्रीमिव । योपि कान्तः प्रेमानुविद्धः स्वकान्ताः पादपातैराराधयति तमन्यस्त्रियोहो अस्य स्वकान्तासु प्रेमानुबन्धो यद्यस्माकमपीदृशः पतिः स्यादित्यभिलाषेणोद्भुव: पश्यन्ति ॥ उद्भुवः । आराध्नुवन्तम् । इत्यत्र "भ्रूश्नोः" [५३] इति-उव् ॥ १ एफ शाः स्त्रि'. १ ए वन्त्यः ।. २ एफ शाः स्त्रि'. ३ सी डी लक्ष्मी च. ४ एफ प्रेम्णानु'. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.५५.] द्वितीयः सर्गः । सिद्धस्त्रियः । इत्यत्र "स्त्रियाः" [५४] इति-इयं ॥ स्त्रियम् स्त्रीम् । स्त्रियः स्त्रीः । इत्यत्र “वामशसि" [५५] इति वा-इय् ॥ वस्वोवचिच्युः कुसुमानि चैत्याग्रण्यं जगत्प्वं सुधियोथ निन्युः। दृन्भ्वोपि वर्षाभ्व इवाभिलङ्घयोपलभ्य कारभ्वमिव प्रभातम् ३६ ३६. कारो निश्चयस्तत्र तेन वा भवति कारभूरग्रेगूस्तमिव यथाप्रेगूर्मार्गदर्शक: स्यात्तथा सर्ववस्तुदर्शकं प्रभातमुपलभ्य प्राप्य सुधियः पुष्पोच्चयदक्षा मालाकाराः कुसुमान्यवचिच्युरुञ्चितवन्तः । अथ पुष्पावचयानन्तरं जगत्वं लोकानां पवित्रकं चैत्याग्रण्यं चैत्येषु देवायतनेषु श्रेष्ठं महाप्रभावत्वेन सर्वलोकपूज्यं जिनमन्दिरादि कुसुमानि निन्युविक्रयार्थ प्रापयन् । किं कृत्वा । हन् हिंसन भवति हुन् ः । इन्भ्वोपि सविषकीटकानपि वर्षाभ्व इव दर्दुरानिवाभिलङ्घयोत्प्लवनेनातिक्रम्य । अहमॅग्रिकया शीघ्रं गत्वेत्यर्थः । यतो वस्वो वसु द्रव्यमिच्छन्तः। प्रभाते हि मालिकाः पुष्पाण्युचित्य विक्रयणार्थ देवप्रासादेषु नयन्ति। शीतलकालत्वात् हन्भ्वश्च बाहुल्येन विचरन्ति ॥ चिकीविधुढेन्द्रदिशः पुनाः करोति काराभ्वमिनोन्धकारम् । एतद्भुवः पुण्यकरभ्व एनस्तक्ष्णो नु टङ्का दलयन्ति भासः॥३७॥ ३७. इनो रविरन्धकार कारा गुप्तिः कारेव कारा गुहाकूपादि तत्र भवति तिष्ठति यस्तं करोति । कीदृक् सन् । विधुनेन्दुनोदयकाले च संबन्धादूढेवोढा परिणीतेव येन्द्रदिक्पूर्वा तस्याः । पुनर्वाः पुनरूढाया १ सी डी य । स्त्रियः ।. २ सी डी रो विनि. ३ एफ °लाकराः. ४ ए च्युरचि. बी च्युरवचित. ५ एफ क्रयणार्थ. ६ एफ न्भू दृ'. ७ एफ ममिक. ८ एफ वसुं द्र. ९ बी सी वप्रसा. १० बी एफ °ले सं° सी डी लेव सं. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] इव । चिकीचिकीर्षुरुदयेन पूर्वदिशा संबन्धीभवन्नित्यर्थः । योपीनः स्वाम्यन्योढां कन्यां तस्मिन्मृते सति पुनः परिणयति सोन्धकारतुल्यमपवादवादिनमहितजनं काराभ्वं गुप्तिस्थं करोति । तथैतद्भुवो रविप्रभवा भासस्तक्ष्ण वर्धकेष्टङ्का नु टङ्किका यथा पाषाणादि विदारयन्ति तथैनः पापं दलयन्ति । यतः पुण्यस्य धर्मस्य करवोग्रेग्व इव सर्वलोकस्य धर्ममार्गे प्रवर्तकत्वात् ॥ पूर्वाचले धातुवपूंषि वप्राण्यर्वाण उद्यान्त्यघलून्युरंशोः । पकाम्रताम्रेह तर्दहिवृक्णधूल्य भ्रलमेव विभाति संध्या ॥ ३८ ॥ - ३८. अघनिमिच्छति लोकानामिति सापेक्षत्वेपि नित्यसापेक्षत्वेनैका - र्थ्यात्क्यनि अघलून्युर्लोकपापच्छेदे च्छोरंशो रवेरर्वाणोश्वाः पूर्वांचल उदयाद्रिस्थांनि वप्राणि रोधांस्युद्यान्त्युल्लङ्घन्ते । कीहंशि । धातव एव वपुर्येषां तानि धातुमयानि । ततश्चेह पूर्वाद्रौ पक्काम्रताम्रा परिपक्काम्रफलवदारक्ताकाशस्था संध्या भाति । कीदृक् । तेषामर्वणां येंहयः खुरास्तैर्वृक्णोत्खाता या धूली धातुरेणुः सेव ॥ अवचिच्युः । निन्युः । इत्यत्र " योनेकस्वरस्य " [ ५६ ] इति यः ॥ वस्वः । इत्यत्र “स्यादौ व:" [ ५७ ] इति वः ॥ ॥ चैत्याग्रण्यम् । जगत्वम् । इत्यत्र “विबुत्ते:'" [ ५८ ] इत्यादिना यव असुधिय इति किम् । सुधियः ॥ हृन्भ्वः । पुनवः । वर्षाभ्वः । करभ्वम् । इत्यत्र " हन्पुनर् " [ ५९ ] इत्यादिना वः ॥ करशब्देनापीच्छन्त्यन्ये । करभ्वः ॥ काराशब्देनाप्यन्ये । १ बी बी २ बी प्रभावा. डी प्रभूता भा. ३ एर्वस्य लो. सी डी र्वंस्य. ४ डी लूनमि ५ डी स्थाने व ६ एफ आकाशलग्नाका ७ डी एफ् णुः सैव. ८ डीना य्वौ ॥ ९ ए सी डी वौ । दृ. १० एफू काराभ्व, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.१.६१.] द्वितीयः सर्गः।। १५३ काराभ्वम् ॥ दनादिभिरिति किम् । एतद्भुवः ॥ पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थमिदम् । एतैरेव भुवो नान्यैरिति ॥ तक्ष्णः । चिकीः। स्यादिविधौ च । अर्वाणः । वपूंपि। इत्यत्र "णपम्" [६०] इत्यादिना णत्वषत्वानामसत्त्वादनोकालोपैः। पस्य रुरुपान्त्यदीर्घत्वं च स्यात् ॥ पक्व । स्यादिविधौ च । अघलून्युः । इत्यत्र "क्तादेशोषि" [६१] इति वनयोरसत्वाद्धुटि कत्वं त्याश्रित उर् च स्यात् ॥ अपीति किम् । वृक्ण। अत्र क्तादेशस्य नस्य सत्त्वाद् “यजसृज" [२,१,८७] इत्यादिना धुट्रिमित्तः पो न भवति । कत्वे त्वसत्त्वात्तद्भवत्येव ॥ परे स्यादिविधौ चेत्येव । लग्ना । अनास्यादिविधौ पूर्वसूत्रकार्ये "अघोपे प्रथमोशिटः" [१,३,५०] इति प्रथमत्वे नत्वस्यासत्वाभावादघोपनिमित्तः प्रथमो न भवति॥ अश्वा लिलिक्षन्ति विमूर्छदात्मद्युतीः सजशाद्वलशङ्कयेह । तमः पिपिक्षोररुणस्य दीव्यत्तोत्रा गिरो नो गणयन्ति धुर्याः ३९ ३९. अश्वा रवितुरगा लिलिक्षन्ति सिस्वादयिषन्ति । काः । इह पूर्वाचले विमूर्छदात्मद्युतीः । गिरौ मणयो वर्ण्यन्त इति कविरूढिरित्यस्य मणिमयशिलासु विमूर्छन्त्यः प्रतिफलन्यो या आत्मद्युतयः स्वकान्तयस्ताः । कया। सजूःशाद्वलशङ्कया। शाद्वलशब्देनात्रोपचाराद्धरिततृणान्युच्यन्ते। सजूंषि मिथः संबद्धान्यतिसान्द्राणि यानि शाद्वलानि हरिततृणानि तेषां या शङ्का भ्रमस्तया। गिरौ हरितसंभवात्प्रतिफलितस्वकान्तीनां १ बी एफ °शाङ्कल'. २ एफ क्षोरुरु. ३ सी °न्ति धूर्याः । १ ए सी डीम् । पू. २ एरलुक् । सस्य . ३ बी पः। सस्य च लुप् उपा. सीपः । सस्य रु उपा. डी पः । सस्य. ४ डी उरेव स्या. ५ सी डी त्वे स. ६ सी त्वे त्व. ७ एफ नतस्य स. ८ वी तुरङ्गा लि. ९ बी एफ शाडल. १० सी डी समिथः . ११ बी एफ शाडला. १२ सी डी तिकलि'. २० Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] नीलत्वाच्च तानि हरितानि संभावयन्त इत्यर्थः । अत एव धुर्या धुरीणा अश्वा अरुणस्य रविसारथेर्दीव्यद्गाढतोदना देदीप्यमानं तोत्रं प्राजनं यासु ता दीव्यत्तोत्रास्तोत्रतोदनपुरःसरा गिरो हक्कारान्नो गणयन्ति । यदि ते शाद्वललिलिक्षया तोत्रहकारान्न गणयन्ति तत्किं तास्तेषु प्रयुङ्क्ते सावित्याह । तमः पिपिक्षोरुच्छेत्तुकामस्य तमः पेषकार्यकरणोत्सुकस्येत्यर्थः ॥ 3 सुगीर्यमाणोपि गुरुक्तगीर्यन् श्रेयोरथे धुर्यति धुर्यमाणः । कुर्यात्प्रशान् साधुरिहोपयोगं छुर्यादघं मोहजयं जगन्वान् ||४०|| ४ ४०. साधुराईत मुनिरिह प्रभात उपयोगं प्राभातिकानुष्ठानविशेषं कुर्यात् करोति । कीदृक्सन् । सुगीर्यमाणोपि शोभना गीर्वाग्देवी सुगीस्त - द्वदाचरन्नपि गुरूक्तगीर्यन् गुरुभिराचार्यैरुक्तां गिरं वाणीमिच्छन् । अपिर्विरोधे । यो ह्यतिविद्वत्तया वाग्देवीतुल्यः स्यात्तस्य सर्वशास्त्र - पारगत्वेनाध्ययनविमुखत्वादाचार्योक्तगिरा किं प्रयोजनम् । विरोधपरिहारस्त्वेवम् । शोभना मधुरा गीर्वाणी यस्य स सुगीस्तद्वदाचरन्नुपयो E वेलायां गुरोः पुरः स्थितो विनतशिरा इच्छाकारेण संदिशतोपयोगं करोमीत्यादि पृच्छावाक्यानि मधुरमुच्चारयन्नित्यर्थः । तथा गुरुभिराचा - यैरुक्तां गिरं कुर्वित्यादिकामुत्तररूपां वाणीमिच्छन् । एतेन विनीतत्वोक्ति: । तथा धुर्यति धैरमिच्छति श्रेयोरथे । श्रेयोष्टादशशीलाङ्गसहस्रलक्षणो धर्मः । स एवालेख्ये रथाकारत्वाद्रथः । तत्रविषये धुर्यमाणो धू ९ १० १ सी थे धू.. १ बी एफ शाइल २ एसीडी का नग बी कान्न. एफ् कारा न ग. ३ एफ पिपक्षो ४ एफ् वी तद्व ५ एफ् स्य सु. ६ सीडी शिरसा इ. ७ एफू धुरामि . ८ एफ् योष्टा ९ एफ् लेख्यर. १० सी ये धूर्य". Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.६१.] द्वितीयः सर्गः । १५५ रिवाचरन् । यथा धू रथाधारः स्यादेवं यतिधर्मस्याधार इत्यर्थः । अत एव प्रशानुपशान्तरागद्वेषः । अत एवं मोहजयं मोहनीयकर्मपराभवं जगन्वान् प्राप्तः सन्नघं पापं छुर्याच्छिनत्ति । उपयोगविधिश्च श्रीभद्रबाहुस्वामिपादैरुक्तो यथा । आपुच्छणत्थपढमा बिद्देआ पडिपुच्छणा य काया | 3 ५ आवस्सिया अ आ जस्स य जोगो चउत्थोउ ॥ १ ॥ प्रथममापृच्छति यदुत संदिशथोपयोगं करोमि । एसा पढमा || उवओगकारावणिअं काउस्सगं अट्टहिं ऊसासेहिं नमोक्कारं चिन्तेइ । तओनमोक्कारेणं पारेऊणं भणइ इच्छाकारेण संदिसह आयरिओ भणइ लाभो | साहू भणइ किहूं किं गिह्नामित्ति एसा १० पडिपुच्छा तओ आयरिओ भई जहत्ति । यथा साधवो गृहन्तीत्यर्थः । 93 १४ तओ साहू भणइ आवस्सिया जस्स य जोगेत्ति । जं जं संजमस्स उवगारे वट्टइ तं तं गिहिस्सामि ॥ एवमसावनेन क्रमेणापृच्छने सति गुरुभिरनुज्ञात आवश्यकां कृत्वा यस्य च योग इत्यभिधाय भिक्षार्थं निर्गच्छतीत्यर्थः ॥ १ २ बी सी डी एफ् "व ज ं. Asst. ५ एत्थोय ॥ ६ बी सी डी ● मोका ८ ए बी सी मोकारे ९ बी एफ किह गि. ११ बी एफ इ तह. १२ सी डी एफ् त सा १४ बी गिहिस्सा. • इया प. ३ एस्सि आयत ४ बी सी °णियं का.. ७ बीसी १० सी डी 'हं गि १३ बी एफ् जोगुत्ति । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] जङ्गन्म इत्युक्तिपरैः सपर्णध्वद्यष्टिभी रश्मिधृतानद्भिः । ग्राम्यैरविद्वद्भिरुदीक्ष्यतेसौ खास दिन्दुर्दधिपिण्डबुद्ध्या ॥ ४१ ॥ ४१. प्राम्यैरसाविन्दुर्दधिपिण्डबुद्ध्या स्थूलदधिवराटकाशङ्कयोदीक्ष्यत ऊर्ध्वमालोक्यते । कीदृक्सन् । व्यव पृथुत्वात् श्यामत्वाच्चोखा स्थाली तस्याः सकाशात्स्रंसतेधः पतति द्यूखास्रत् । कीदृशैः सद्भिः । जङ्गन्म इत्युक्तिपरैः कुटिलं गच्छाम इत्युच्चारयद्भिः । ग्राम्या हि प्रायेण प्रातः पत्रघासाद्यानयनायान्योन्यमाकारयन्तो बहिर्व्रजन्ति । तथा पर्णानि ध्वंसते पर्णध्वद्यायष्टिर्व्यङ्गुलंदार्वादिः सह तया बदरीपत्रादिपातनार्थं वर्तन्ते ये तैः । तथा पत्रघासादिभारारोपार्थ रश्मौ रजौ धृता अवष्टब्धा अनङ्ग्राहो वृषा यैस्तैः । तथाविद्वद्भिर्ग्राम्यत्वान्मुग्धैः । ग्रामेषु दधिबाहुल्येन ग्राम्याणां स्थाल्यधःपतनदधिपिण्डस्य सुपरिचितत्वादस्तकाले व्योम्नोधः पततीन्दौ तथात्वेनाध्यवसायः ॥ उदीयिवद्दैत्यरणाध्वरत्विक्सहस्रदृग्दिक्स्पृगुदकरस्रक् । अजीवनग्भिर्मुनिभिर्दर्धृग्भिरुष्णिक्स्तु तो वोस्त्वनट्कृतेर्कः ॥ ४२ ॥ ४२. हे राजन् वो युष्माकमघट्कृतेघस्य पापस्य या नट् नाशस्तस्या यत्कृत् करणं तस्यायर्कोस्तु | कीदृक् । उदीयिवांसस्तत्कालोदिता ये दैत्या मन्देहाख्याः पष्टिसहस्राणि तेषां यो रणः स एवाध्वरो यागस्तत्र ऋत्विक् । यथर्विक् पशुमेधयागे पशून् हन्ति तथा दैत्यान् रणे घ्नन्नित्यर्थः । तथा सहस्रदृश इन्द्रस्य दिशं पूर्वी स्पृशति यः सः । १ ए सी ध्वयष्टि. २ए धृद्भिरु. ३ सी डी नङ्कृते . १ सी डी 'लदीर्घा स. २ एफ् रोपणार्थ. ३ बी वृषभा यै . ४ सी ° दत्तका . डी का . ५ सी वो ६ सी डी नङ्कृते ७ डी हन्नि, Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.७०.] द्वितीयः सर्गः। १५७ तथोदञ्चन्त्यूर्ध्व प्रसरंन्ती करैस्रकिरणमाला यस्य सः । तथा नास्ति जीवनॅग्जीवस्य नशनं येषां तैरजीवनम्भिरजरामरैर्दधृग्भिः प्रगल्भर्मुनिभिरष्टाशीतिसहस्रसंख्यैर्वालि(ल?)खिल्याभिधैः कर्तृभिरुष्णिग्भिश्छन्दोभेदैः स्तुत उष्णिवस्तुतः ॥ पिपिक्षोः । लिलिक्षन्ति । इत्यत्र "पढोः कस्सि" [६२] इति कः ॥ विमूर्छत् । दीव्यत् । इत्यत्र "स्वादेर्नामिनः" [६३] इत्यादिना दीर्घः ॥ सजूः । इत्यत्र “पदान्ते" [६४] इति दीर्घः ॥ पदान्त इति किम् । गिरः ॥ धुर्यः । इत्यत्र "न यि" [६५] इत्यादिना न दीर्घः ॥ तद्धित इति किम् । गीर्यन् । सुगीर्यमाणः ॥ केचित्तु क्यन्स्योरपि प्रतिषेधमिच्छन्ति । तन्मते । धुर्यति । धुर्यमाणः ॥ कुर्यात् । छुर्यात् । इत्यत्र "कुरुच्छ्रेः ” [६६] इति न दीर्घः ॥ प्रशान् ॥ म्वोः । जङ्गन्मः । जगन्वान् । इत्यत्र "मो नो म्वोश्च" [६७] इति नः॥ द्यूखासत् । पर्णध्वत् । उदीयिवत् । अविद्वद्भिः । अनडुद्भिः । इत्यत्र "संसध्वंस्” [६८] इत्यादिनी दः॥ ऋत्विक । दिक् । दृक् । स्पृ । स्रक् । दग्भिः । उष्णिक् । इत्यत्र "ऋत्विदिश" [६९] इत्यादिना गः ॥ अजीवनग्भिः । अघनद । इत्यत्र “नशो वा" [७०] इति वा गः ॥ १ डी एफ चत्यूवं. २ डी रतीत्युदङ् क. ३ एफ रसहस्र. ४ सी नजीव. डी वस्य जीवनस्य. ५ ए बी कः स्सि. ६ एफ र्यमा . ७ सी °च्छुररिति. डी °च्छुर इ. ८ एफ न् ज. ९ सी द्भिः उष्णि. १० डी त्र स्रन्सूध्वन्स् इ. ११ डी °ना पदान्तस्थस्यान्तस्यद्. १२ डी सिहस्रदृक् । दिक् । स्पृ. १३ डी क । करस्र. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः युङ् शीकरैः प्राङ् मरुदुन्मदक्रुङ् सजू रजोभिः स्फुटमम्बुजानाम् । आदावहः स्वेष जडत्वदस्तद्रविः कृताहा अकृताह एव ॥ ४३ ॥ I ४३. अहः सु दिनेष्वादौ प्रभात एष मरुद्वातो जडत्वं शैत्यं ददाति जडत्वदोस्ति । कीदृक्सन् । शीकरैर्जलकणैर्युङ् युक्तोत एवोन्मदा उन्मत्ता: क्रुश्च: सारसा यस्मात्सः । प्रातः शीतवातस्पर्शे हि कौचा माद्यैन्ति । तथा प्रशस्तं मृद्वञ्चति गच्छति प्राङ् । तथा विकसितत्वादम्बुजानां रजोभिः स्फुटं व्यक्तं सजूः संबद्धः । तत्तस्माद्धेतो रविः कृताहा अपि । अपिरत्राध्याहार्यः । अकृताह एव । दिने हि रविकिरणैर्जाड्यं खण्ड्यते तच प्राभातिके शीतले वाते वाति तदवस्थमेवे - त्यर्केण दिनं कृतमप्यकृतमेवेत्यर्थः ॥ ५ युङ् । प्राङ् । क्रुङ् । इत्यत्र " युजज्" [ ७१] इत्यादिना ङः ॥ 1 रविः । रजोभिः । इत्यत्र " सो रुः” [ ७२ ] इति रुः ॥ 1 सजूः । इत्यत्र “सजुषः " [ ७३] इति रुः ॥ कृताहाः । अहःसु । इत्यत्र " अह्नः " [ ७४ ] इति रुः ॥ कृताहाः । इत्यत्र रुत्वस्यासत्त्वान्नान्तलक्षणो दीर्घो भवति । कश्चित्तु दीर्घ नेच्छति । तन्मते कृताहः ॥ 1 जयत्यहोरनमहर्विधित्सु स्फूर्जत्य होरूपमथ प्रवृत्ताः । 9 भवत्यहोरात्रकृताशिषोहो रथन्तरं सामविदश्च गातुम् ॥ ४४ ॥ ८ ४४. हे राजन्नहर्विधित्सु दिनं चिकीर्ष्वहोरत्नं दिनमणि: सूर्यो १ सी होरथं'. १ ए क्रुसा. २ सी 'स्माद्धे डी स्माद्धेतोस्स उन्मदक्रुङ् तथा स्फुटं प्रकटमम्बुजानां रजोभिः सजू: सहित एतेन शीतो मन्दः सुरभिश्च | त्रिधा वायुरुदाहृत इति । तत्तस्माद्धे. ३ एफ् द्यन्ते । त ४ ए अकृ. ५ सी डी 'पिर. ६ सी एफ च प्रभा ७ ए सी डी त्यर्थः ८ए दिनीचि . ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० २.१.७५. ] द्वितीयः सर्गः । १५९ जयत्युदेतीत्यर्थः ॥ अथार्कोदयानन्तरं प्रशस्तमहः " प्रशस्ते रूपप्" [७.३.१०] इति रूपपि अहोरूपं स्फूर्जति । तथा भवति त्वयि विषये - होरात्रकृताशिषो नक्तंदिवं दत्ताशीर्वादा: सामविदश्च सामवेदज्ञा अहदिने । दिनारम्भ इत्यर्थः । " कालाध्वभाव" [२.२.२३] इत्यादिनात्र द्वितीया । रथन्तरं सामवेदे सामविशेषं गातुं रागविशेषेणोच्चारयितुं प्रवृत्ताः । प्रातर्हि सामवद्धी रथन्तरं साम गीयत इति स्थिति: । अहर्विधित्सु । इत्यत्र "रोलुप्यरि" [ ७५ ] इति रः ॥ अरीति किम् | अहोरत्नम् । अहोरूपम् । अहोरात्र | अहो रथन्तरम् । अन्ये तु रूपरात्रिरथन्तरेष्वेव रेफादिषु रेफप्रतिषेधमिच्छन्ति ॥ एषाजिनी षट्पदवाग्भिराह सुदुशिशावृत्तमिवैतदंशोः । वियोगमुत्पर्णघुडस्मि गोधुकालात्क यूयं वदत न्येघूवम् ||४५॥ 1 ४५. एषाब्जिनी पद्मिनी सुष्ठु दुःखयति क्विपि णिलुपि संयोगान्तलोपेम्लोपे च सुदुक् सुष्टु कष्टोत्पादकमेतदुच्यमानं निशावृत्तमंशों रखेर षट्पदवाग्भिर्भृङ्गशब्दैः कृत्वाहेव वक्तीव । इवो भिन्नक्रमे । किमि - त्याह । वियोगं बुध्ये वियोगभुत् । युष्मद्विरहदुःखज्ञात एव पर्णानि हामि संकोचामि पर्णघुडस्म्यहं वर्ते । हे अंशो यूयम् । अंशोरेकत्वेपि गौरवविवक्षया “गुरावेकश्च" [२.२.१२४] इति बहुवचनम् । वदते कथयत । दोहनं धुक् । गवां धुक् गोधुक् । तयः कालस्तस्माद्गोधुकालात् । “गम्ययप” [२.२.७४] इत्यादिना पञ्चमी । संध्याकालमारभ्य व न्यघू निलीना इति । यापि पतिव्रता भर्तरि प्रोषिते वियोगभुत्सती पतिवि । १ एथुड. २ एफ् न्यगू १ सीडी 'वेदसा. २ एफ् गोचर° 'योग. ५ सीडी 'तदो. एफ् त प्रक.. ३ बी एफ् 'रात्रम् । अ बी' या '. ४ सी Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० [ मूलराज : ] रहे सतीनां ताम्बूलभक्षणमनुचितमिति पर्णानि नागवल्लीपत्राणि निगूहति लक्षणया न खादति सा भर्तरि समागते कुलवधूत्वेन सलज्जत्वात् षट् पदानि यासु ता या वाचस्ताभिरल्पाक्षरवाणीभिर्विरहकष्टवृत्तान्तं तथेयन्ति दिनानि यूयं कन्यमित्येतेच वक्तीत्युक्ति: ॥ उदेति तुण्ठित्रविविम्बमैन्द्यास्ततस्तमोदामलिडेष लोकः । प्रभोत्स्यते शोत्स्यति दास्यते च विधेयबोद्धा सुकृतं विधित्सुः ॥४६॥ व्याश्रयमहाकाव्ये 1 I ४६. ऐन्या: पूर्वस्या दिशस्तुण्डिभामुन्नतनाभिवतीं करोति णिचि क्विपि च तुण्ढिव् तुण्डिसदृशत्वादैन्द्रीं तुण्डिभाभिव कुर्वद्रविविम्वमुदेति । ततोर्मोदयानन्तरं लोकः प्रभोत्स्यते जागरिष्यति शोत्स्यति स्नास्यति दास्यते च द्विजादिभ्यः । प्रातर्हि स्नात्वा दानं दीयते लोकैः । कीदृक् सन् । विधेयबोद्धा । विवेकित्वात्कृत्यं जानन्नत एव सुकृतं धर्म विधित्सुचिकीर्षुरत एव च तमसो दाममालां लेढि खादति तमोमलिडर्क - स्तमिच्छति क्यनिविपि तमोदामलिट् । कदा रविरुदेष्यति येन प्राभातिकं देवपूजादि धर्मकृत्यं करोमीति खेरुदयैनमिच्छन्नित्यर्थः ॥ धत्थ स्म मानं भ्रकुटिं स्म दात्थ धात्थ स्म धैर्ये यदु तत्पिर्धेद्धम् । संदात कान्तानभिधात्तं चोषः शङ्कोभिधत्ते न्विति मानिनीनाम् ४७ 93 १२ ४७. उषःशङ्खः प्रभाते राजद्वारादौ वाद्यमानः शङ्खो मानिनीनां पुरोभिर्धे तु वक्तीव । किमित्याह । हे मानिन्यो भर्तृकृतापराधकुपि - I १ सी तुण्डिन ं. २ एफ् धध्वम्. ३ एफ् त वोषः . १ एफ् सुया. २ सी 'त्तान्तत ३ डी न्तं वक्ति त ४ एफ् न्यगूढ़ : ५ डी. ६ सी डी तुण्डिम् दृ, एफ् तुण्डिव् तुण्डिवा स ७ ए भितु. ८ सी वाय. ९ सी माला ले.. १३ बी एफ यमि. ११ एतिक्कि १२ एफ् दि . १० सी डी 'दायन १४ डी ते ब. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०२.१.७८.] द्वितीयः सर्गः। ततया भर्तृषु यद्यूयं मानमहंकारं धत्थ स्म धृतवत्योत एव चाटूक्त्यादिना प्रसादयत्सु भर्तृषु यद्यूयं भ्रकुटिं भ्रूविकारं दात्थ स्मात्यथै धृतवत्यस्तथा यद्धैर्यमेषां भर्तृणां संमुखमपि नेक्षिष्यामह इति चित्तावष्टभ्भं धात्थ स्मात्यर्थं धृतवत्यस्तन्मानादिधरणं पिधध्वं स्थगयत । परित्यजतेत्यर्थः । किं तु संदात्त भृशं संधयत । धेट् धातुः पानार्थोपि संपूर्वः संधाने वर्तते । यदुक्तम् । उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते । नीहाराहारसंहारप्रतीहारप्रहारवत् ॥ स्वकान्तैः सह संधानं कुरुतेत्यर्थः । तथा कान्तानमिधात्त भृशं वदत। यद्यपि युष्माभिरवज्ञाततयापमानेन कान्ता युष्मान्न संभाषन्ते तथापि यूयमुपेत्य तान् संभाषध्वमित्यर्थ इति । प्रातर्हि राजद्वारादिषु शङ्खो वाद्यते तत्स्वरं श्रुत्वा रात्रिविभातेति मानिन्यो मानं मुक्त्वा रिरंसौत्सुक्येन कान्तान् भजन्त इत्येवमुत्प्रेक्षा । अभिधत्ते न्विति वचनसंभावनया शङ्खस्यानुक्तमपि वाद्यमानत्वं प्रतीयते ॥ वाग्भिः । षट्पद । अब्जिनी । इत्यत्र "धुटस्तृतीयः" [७६] इति तृतीयः ॥ केचित्तु विसर्गजिह्वामूलीययोरप्यलाक्षणिकयोस्तृतीयत्वं गत्वमिच्छन्ति तन्मते सुदुर ॥ पर्णघुट् । तुण्डिब् । गोधुक् । वियोगभुत् ॥ सादौ । प्रभोत्स्यते ॥ ध्वादौ च । न्यधुदम् । इत्यत्र “गड'' [७७] इत्यादिना आदेश्चतुर्थः ॥ गडदबादेरिति किम् । शोत्स्यति ॥ चतुर्थान्तस्येति किम् । दास्यति ॥ एकस्वरस्येति किम् । तमोदामलिट् ॥ स्वोरिति किम् ।बोद्धा ॥ अभिधत्ते । धत्थ । विधित्सुः । पिधध्वम् । इत्यत्र “धागस्तथोश्च" [७८] १ सी °मुखा नक्षि. डी मुखं ने. २ एफ् नेष्या'. ३ ए बी सी डी °ण हि था. ४ वी एफ द व इ. ५ सी डी ति ए'. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] इति चतुर्थः ॥ गकारः किम् । धयतेर्मा भूत् ॥ द्वेर्यङ्कुषि । संदात्त ॥ दधातेरपि यङुबन्तस्य मा भूत् । “तिवा शवानुबन्धेन” [न्या०सू०१८ ] इत्यादिन्यायात् । दौत्थ ॥ केचिद्यङुबन्तस्यापीच्छन्ति । अभिधात्त । धात्थ ॥ दुग्ध स्म दुग्धं स्म निघत्थ पार्यो पिधत्त दात्थ स्म च दात्तं चापि । तत्राणि वा दाद किमम्बु दाद्धेत्याहुः समं संप्रति घोषवृद्धाः ४८ ४८. संप्रति प्रातर्घोषवृद्धा गोकुले वृद्धनराः समं युगपत्स्वपुत्रादीनाहुः । कथमित्याह । हे पुत्रादयो यूयं दुग्धं क्षीरं दुग्ध स्म क्षारितवन्तः । तथा पार्यो दोहिन्यां दुग्धं निधैत्थ स्म निक्षिप्तवन्तश्च । तथा यूयं पार्यो निहितं दुग्धं पिधत्त वस्त्रादिना स्थगयत । तथा यूयं दुग्धं दात्थ स्मात्यर्थं पीतवन्तो दार्त्ते चापि पुनरप्यत्यर्थं पिबत । वाथवा यूयं तत्राण्युदश्विन्ति दाद्धात्यर्थं पिबत । यदि दुग्धं न रोचते तदा तत्राणि पिबतेत्यर्थः । किमम्बु दाद्ध किमिति जलं पिबथेति ॥ दुग्धम् । दुग्ध । इत्यत्र " अधः" [७९] इत्यादिना तथोर्धः ॥ अध इति किम् । दधातेर्यङुबन्तधयतेश्च मा भूत् । पिधत्त । निवत्थ । दात्त । दात्थ ॥ केचित्तु यङुबन्तधयतेरिच्छन्ति । दाद्ध | दाद्ध ॥ लक्ष्मी पृथिवीं द्वेस्ती द्विषस्तत्सुखमासिषीध्वम् । स्तुध्वं गुरून्सांध्यविधिं कृषी स्तीषमेतद्भुवनं यशोभिः ।। ४९ ।। ४९. अथ पञ्चवृत्त्या मूलराजमुपश्लोकयन्तेः प्राभातिकविध्युप १ बी तवापि . १ सी एफ 'त् । द्वे". सीएफ वापि ८ एफू कतः प्रा९ ए सी डी 'तः प्रभा . २ एफू दात्त । के. ३ एफ् ६ एफ बतेति. ५ डी दुग्धमपि न. 6 ू ध स्म. एफ् ४ बी वृ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.८०.] द्वितीयः सर्गः। १६३ देशगर्भमाशासतश्चाहुः । हे राजन यूयं लक्ष्मी शक्तित्रयरूपां श्रियमवृट्वमववरत स्वीकृतवन्त इत्यर्थः । अत एव द्विषः शत्रूनस्तीमाच्छादितवन्तो जितवन्त इत्यर्थः । अत एवं पृथिवीं ववृट्वे साधितवन्त इत्यर्थः । तत्तस्मान्निष्कण्टकसर्वसंपत्तिसंपूर्णमहाराज्यावाप्तिरूपाद्धेतोः सुखं पञ्चेन्द्रियानुकूलमासिषीध्वमवस्थेयास्त । तथा गुरुन्मातापितॄन्धमोपदेष्ट्रन्वा स्तुध्वं स्तूयास्त । आशिषि पञ्चम्यत्र । प्रभाते हि विशेषतो मङ्गलत्वात्पूज्या: स्तुत्याः । तथा सांध्यविधिं संध्यावन्दनदेवपूजादि प्राभातिककृत्यं कृषीट्वं ततश्चैतद्भुवनं जगत्रयं यशोभिः कृत्वा स्तीर्षीट्वमाच्छाद्यास्त व्याप्यास्तेत्यर्थः । निष्कण्टकसमृद्धराज्यप्राप्तिलक्षणस्य पुमर्थस्यैतान्येव फलानि यत्स्वैरं कामसेवनं गुरुस्तवनादिधर्मानुष्ठानस्य करणं यच्च यशसा जगद्व्यापनमिति । एतानि चाशीर्भझ्या बन्दिभिर्नृप उपदिष्टानीत्यर्थः ॥ अस्तीईम् । स्ती(ढम् । ववृट्वे । अवम् । कृपीड्वम् । इत्यत्र “ म्यन्तात्" [४०] इत्यादिना धस्य ढः ॥ र्नाम्यन्तादिति धातोर्विशेषणं किम् । ऑसिपीध्वम् । परोक्षाद्यतन्याशिष इति किम् । स्तुध्वम् ॥ धियाग्रही निशि निद्रया नाग्राहिद्वमुद्युक्ततयाग्रहीध्वम् । न वा जडिम्ना जगृहित आन्वग्राहिध्वमुत्कृष्टगुणैः सदा हि ॥५०॥ ५०. हे राजन् यूयं धिया काग्रहीट्वमाश्रिता इत्यर्थः । अत एव जडिन्ना मूर्खत्वेन का यूयं न वा जगृहिड्वे नैवाश्रिताः । तथोद्युक्ततयोद्यमगुणेन यूयमग्रहीध्वमाश्रिता अत एव निद्रया नाग्राहिवं ना १ सी शासितश्चा. डी शासिनश्चा. २ डी एफ मनवरतं स्वी'. ३ बी सी डी व च पृ. ४ °पित्रादीन्ध'. ५ ए बी सी डी 'दि प्रभा'. ६ बी °णस्यार्थपु. ७सी वनादि. ८ ए ढ़े । कृ. ९ ए सी डी न्तादि'. १० ए आशिषी. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] श्रिताः । हि यस्मादुत्कृष्टा गुणा बुद्ध्युत्साहादयो येषां तैर्गुणाधिकैर्गुरुभिः सदा यूयमान्वग्राहिध्वं सदुपदेशदानादिना समन्तादनुगृहीताः ॥ किमन्वकारिद्वमुतान्वसारिवं किं नु मेहिध्व इनेन भाभिः । तमोलविवं द्विपतोलविध्वं यूयं हि विश्वं पुपुविद एतत् ॥५१॥ ५१. हे राजन् हि यस्माद्यूयं नीतिशास्त्रादिसकलशास्त्रवेदितृत्वात्तमोज्ञानमलविवेम्। तथा द्विषतोरीनलविध्वम् । तथैतद्विश्वं भूलोकं पुपुविच अन्यायमलापनयनेन पवित्रितवन्तः।तस्माद्धेतोरिनेन रविणा क; भाभिस्तेजोभिः कृत्वा तमोलवनादिस्वकार्यनिष्पादनाय यूयं कर्म किमन्वकारिट्वम् । अन्तर्भूतणिगर्थत्वात्कृगः । किं यूयं रविणात्मानमनुकारिताः स्वसदृशीकृता इत्यर्थः । उत किं वेनेन भाभिः कृत्वा यूयमन्वसारिध्वमनुसृता रविणा किं तेजोभिर्भवतां साहाय्यं कृतमित्यर्थः । किं नु किं वा यूयं भाभिर्मेहिध्वे तेजोदानेन सन्मानिताः । इदमुक्तं स्यात्तमोलवनादीनि हि रविकार्याणि । एतानि च यूयमपि चक्र । ततो बन्दिभिरेवमाशङ्कयते। योपीनेन स्वामिना स्वकार्यकरणक्षमतया स्वसदृशः कृत्वा लोके स्थाप्यते साहाय्याय सैन्यादिनानुगम्यते विभूतिदानादिना सक्रियते वा स स्वामिकार्याणि कुरुते ।। यद्यज्ञविनालुलुविध्व एत्यानुग्राहिषीट्वं ननु तैरिदानीम् । संस्कारिषीवं परिकारिषीवं द्राग्ग्राहिषीवं च गुणैस्तदीयैः ॥५२॥ ५२. हे राजन् यद्यज्ञविनान् येषां मुनीनां यज्ञेषु विघ्नान्दैत्यादिकृतोपद्रवान् यूयं लुलुविध्वे । नन्विति संबोधने । तैर्मुनिभिरिदानी प्रातरेत्याश्रमेभ्य आगत्यानुप्राहिषीट्वमाशिषानुगृह्यध्वम् । मुनयो हि राज्ञः __ १ एफ यमन्व. २ ए सी इंस्तथा. ३ बी एफ किं चेने. ४ सी डी ना का. ५ एफ भूतदा. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.८०.] १ २ प्रातराशिषं ददति । तथा तैर्ययं संस्कारिषी मन्त्रपाठपूर्व तिलककरणेन विशिष्टीकृषीम् । तथा तैर्यूयं परिकारिषीध्वं परिवार्यध्वम् । तथ तदीयैर्मुनिसत्कैर्गुणैरुपशमादिभिः कर्तृभिर्द्राग्यूयं ग्राहिषीध्वं चाश्रीयध्वम् परिवारस्य गुणाः स्वामिन्यध्यारोहन्ति ॥ सिंहासनायोत्सहिषीमाभां हरैर्ग्रहीषीध्वमथाधिसानोः । सदोयिपी लिडंशुरनं प्रौढ्या श्रियं जम्भभिदोयिषीध्वम् ॥५३॥ ५३. हे राजन् यूयं धुलिहो व्योमस्पृशोंशवः किरणा येषां तानि तथाविधानि रत्नानि यत्र तत् सद् आस्थानमण्डपमयिषीद्वं गम्यास्त | तथा सिंहासनायोत्सहिषीमुद्यम्यास्त सिंहासन उपविशतेत्यर्थः । अथ सिंहासनोपवेशानन्तरमधिसानोगिरिप्रस्थमध्यारूढस्य हरेः सिंहस्याभां शोभां ग्रहीषीध्वमाश्रयिषीध्वम् । एवं च प्रौढ्यानभिभवनीयाकारेण जम्भभिद इन्द्रस्य श्रियमयि षीध्वमाश्रयत || दुग्धोज्ज्वलामुग्धदृशाम्बुरुण्मान्धग्मुद्विषां दानवलिप्रियोथ । अमूढधीः कृत्यविधावनुन्मुडूत्रभुंगतिधुडसावुदस्थात् ॥ ५४ ॥ द्वितीयः सर्गः । ५४. अथैवं बन्दिभणनानन्तरमसौ मूलराज उदस्थात्तत्पादुत्थितः । कीदृक् । दुग्धवदुज्ज्वलामुग्धामूढा विगतनिद्रा या दृग्दृष्टिस्तया कृत्वा । जातावेकवचनाद्दुग्धोज्वलामुग्धदृग्भ्यामित्यर्थः । अम्बुरुही अस्य स्तः सोम्बुरुण्मानिवाम्बुरुण्मान् । प्रभाते हि निद्राभ्राणतयाक्षीणि दुग्धोज्वलानि विनिद्राणि च स्युः । कमलानि चेत्युभयोरपि साम्यात्प्रबुद्ध Ε ७ १ सी मात्वग्मु २ बी सी गार्ति • १६५ १ एफ् रि. २ एषी प ३ डी था त्वदी ४ए द्यम्यस्त. ५ एफ् घीमा ६ एफ णि उज्ज्व ७ सी डी 'निवेत्यु. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] कमलतुल्याक्ष इत्यर्थः । तथा मुद्विषां मुह्यन्ति मुहो मूढा अन्यायकारण इत्यर्थः । येद्विषो दैत्यादयस्तेषां दहतीति धक् विनाशयितात एव वृत्राय द्रुह्यति वृत्रधुगिन्द्रस्तस्यार्तिर्देत्योपद्रवजनिता पीडा तस्यै दुह्यति जिघांसति यः सः । तथात एव दानवलिहं दैत्यघातिनं विष्णुमिच्छन्ति दानवलिहो देवास्तेषां प्रियः । तथामूढधीः पटुबुद्धिरत एव कृत्यविधौ नोन्मुह्यत्यनुन्मुट् । शंभुनो स्वप्नेतिगुरुकार्यमुपदिष्टं तत्कथं करिष्य इति न किंकर्तव्यतामूढो भवन्सन्नित्यर्थः ॥ दुग्धास्त्रिगद्रूढमनः स्त्रिडेष स्तुग्धामृतस्तूढवचाः श्रुतिस्तुक् । स्त्रीदैर्द्विजैः स्निग्धततुः सुमन्त्रस्नुद्धिर्वृतः सांध्यविधिं व्यधत्त ॥ ५५ ॥ I ५५. दुग्धा जिघांसिता अस्त्रिहो द्विषो येन स दुष्टान्निजिघृक्षुरित्यर्थः । तथाद्रूढं मनो येषां तेदृढमनसोवञ्चकास्तेषु स्निह्यति यः सः शिष्टपालक इत्यर्थः । एष मूलराज: सांध्यविधिं संध्यावन्दनादि व्यधत्त । कीदृक्सन् । द्विजैर्वृतैः । किंभूतैः स्त्रीढैः । स्नात्वा सांध्यविधिर्विधीयत इति स्नानजलार्द्रत्वात्स्निग्धतनुभिः । तथा सुमन्त्रस्तुति: प्रभात संध्योचितप्रधान वेदमन्त्रानुच्चारयद्भिः । तथा स्निग्धतनुः स्नानजलार्द्राङ्गः । तथा मधुरत्वात्स्नुग्धं क्षरितममृतं येन तत्स्नुग्धामृतमिव स्तूढमुद्गीर्ण वचो येन सः । तथा सन् श्रुतिं वेदं स्तुत्युद्भिरति श्रुतिस्नुक् । प्रभातसंध्याविध्युचितानि वेदवाक्यानि मधुरमुच्चारयंश्चेत्यर्थः ॥ ज्ञेः । अग्ग्राहिदुम् आन्वग्राहिध्वम् । अनुग्राहिपीढुं ग्राहिषीध्वम् । अम्बकारिढुम् अन्वसारिध्वम् । संस्कारिषीढुं परिकारिषीध्वम् ॥ इटः । जगृहि मेहिध्वे । अग्रहीढ्वम् अग्रहीध्वम् । उत्सहिषी ग्रहीषीध्वम् । पुपुविद्वे लुलुविध्वे । १ सी 'न्तिकं दा. २ सी डी नाच स्व. ३ एफ् 'तः । कीदृशैः स्त्री. ४ सी षीध्वम् । अ ५ एफ् षीध्वं पु. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.८४. ] द्वितीयः सर्गः । अलविद्वम् अलविध्वम् । अयिषीद्वम् अयिषीध्वम् । इत्यत्र "हान्तस्थाञ्जीङ्गयां ar " [४१] इति वा ढः ॥ परोक्षायां जिर्न संभवतीति नोदाहृतः ॥ I प्रौढ्या । पदान्ते । द्युलिड् । इत्यत्र " हो घुट्पदान्ते” [ ८२ ] इति हस्य ढः ॥ असत्पर इत्येव । अम्बुरुण्मान् । अत्र दत्वतृतीयत्वयोरसत्त्वात् “मावर्ण०" [२.१.९४] इत्यादिना मतोर्मो वत्वं न स्यात् ॥ दुग्ध । पदान्ते । धग् । इत्यत्र “वादेर्दादेर्घः " [८३] इति घः ॥ भ्वादेरिति किम् | दानवलिट् ॥ दादेरिति किम् । प्रौढ्या । अम्बुरुण्मान् ॥ 1 अमुग्ध अमूढधीः । मुग् अनुन्मुई । दुग्ध अद्रूढ । वृत्रधुगं अर्तिधुड् । स्रुग्ध स्नूढ । श्रुतिस्रुक् मन्त्रस्त्रुद्भिः । स्निग्ध स्त्रीढैः । अस्त्रिक् स्त्रिड् । इत्यत्र “मुहगुह" 1 १६७ [४] इत्यादिना वा हस्य घः ॥ स भक्तिभाग्वाग्नृपनद्धमौलिरत्नाञ्चितोपानदुपोढकृत्यः । द्वास्ये किमात्येति जनेषु वक्तर्यगात्सदो जैम्बक जेहुलाभ्याम् ॥ ५६ ॥ ५६. स मूलराजो जम्बकजेहुलाभ्याम् । जेम्बको नाम मूलराजस्य महमन्त्री । जेहुला खइरालूराणको मूलराजस्य महाप्रधानम् । ताभ्यां सह सदो मत्रमण्डपमगात् । येत उपोढं तयोः पुरो भणनाय चित्ते धारितं कृत्यं शंभूपदिष्टं दैत्यवधकार्य येन सः । क सति । द्वास्थे १४ १ एफू जम्बुक. १ सी अयि . २ डी विध्वं अ. ३ एफ् न्ते लि. ४ डी ते लिट् ध. ५ बी एफ् ढ मु. ६ सी डी ड् द्रुड् द्रु. ७ बी सी एफ ग् आर्ति. ८ एफ् जम्बुक ९ डी जम्बकजेहुलौ नाम मूलराजस्य महाप्रधानौ । ता ं. जम्बुको १० सी 'हाप्र. ११ ए 'हुरश्च. १२ एफ् धान: ता. १३ एफ् यदुपो. १४ एफ् यो : परो. एफू Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] 3 प्रतीहारे । किंभूते । जनेषु विज्ञापकलोकेषु विषये वक्तरि वदति । किमि - त्याह । किमात्थ किमिति ब्रूषेधुना विज्ञापनाय नावसर इति तूष्णीं तिष्ठेत्यर्थ इति । निषेध्यानां जनानां बहुत्वेपि प्रत्येकं निषेधस्य विवक्षितत्वादात्थेत्यत्रैकवचनम् । कीदृक् सः । भक्तिभाग्विनयान्विता वाग्वाणी येषां तैस्तथाभूतैर्नृपैर्नद्धाः परिहिता ये मौलयो नृपचिह्नमुकुटानि तत्र यानि रत्नानि तैरञ्चिते पूजिते उपानहौ पादुके यस्य स तथा । मुकुटबद्धनृपैः कृतप्राभातिकसेवावसर इत्यर्थः ॥ नद्ध । उपानत् । आत्थ । इत्यत्र “नहाहोर्धतौ” [८५] इति धतौ ॥ वक्तरि । वाकूँ । ॐः । भक्ति । भाग् । इत्यत्र “चजः कगम्” [८६ ] इति कौ ॥ विप्रेद् स यष्टेव शतं ऋतूनां मार्श गुणानां गुणराष्टिटगयाम् । सम्राडमूभ्यामरिवर्गभृद्भ्यां स्रष्टेव विभ्राविधिकंसमृद्भ्याम्॥५७॥ ५७. स सम्राड् नृपेशोमूभ्यां जम्बकजेहुलाभ्यां सह विभ्राट् शोभमानोभूत् । कीदृक् । ऋतूनां शतं यष्ठेव शतक्रतुरिव विप्रान् यजते पूजयति क्विपि विट् । यथेन्द्रः ऋतूनां शतं कारयन्विप्रानिष्टवांस्तथा यजन् । तथा गुणानां भीमत्वकान्तत्वादीनां माष्टी यथोचितं व्यापारन निर्मलीकारकः । कीदृग्भ्याममूभ्याम् । गुणराष्ट्रिसृड्भ्यां गुणै राष्टिं राजनं शोभां सृजतः कुरुतो यौ ताभ्यां गुणैः शोभनाभ्यामित्यर्थः । अत एवारिवर्ग स्वस्य राज्ञश्च बाह्यमान्तरं च शत्रुसमूहं भृज्जत: १ डी येषु व. २ एफ यानव ३ सी डी षेधाय वि. ४ एफ ये मूल.. ५ सी चिह्ना मु. डी 'चिह्नानि मु. ६ डी क् इ. एफ् क् भ . ७ सीज क ८ एफू मका. ९ एफ चितव्यापारेण नि . “ह्यमभ्यन्त ं. १० एफू Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०२.१.८६] द्वितीयः सर्गः । १६९ पचतो विनाशयतो यौ ताभ्यां यथा स्रष्टा हरो विधिकंसमृड्भ्यां विधिब्रह्मा । कंसं मार्ष्टि शोधयति विनाशयतीत्यर्थः । कंसमृड् विष्णु - स्ताभ्यां सहितो विभ्राजते ॥ विरुद्धकार्ययोरुपनिपाते हि मन्त्रः स्यादिति ते वृत्तद्वयेनाह । दन्तांशुजालैः परिभृष्टशङ्खक्षादैरिवोद्रष्टि सदः प्रकुर्वन् । स विपतिः प्राह तयोर्निविष्टः प्रभासदृङ्कष्टनिदेशमैशम् ॥ ५८॥ 3 ५८. निविष्टः सिंहासन उपविष्टः स विट्पतिर्विशां पतिर्नृपस्तयोर्जेम्बकजेहुलयोरैशं शांभवं प्रभासं तीर्थ वृश्चन्त्युपद्रवन्ति प्रभासवृचो ग्राहार्यादयस्तेषां त्रष्टा छेदको यो निदेश उपदेशस्तं प्राह । तत्कालापेक्षया वर्तमानकालता । कीदृक्सन् । दन्तांशुजालैरतिश्वेतत्वात्परिभृष्टशङ्खक्षोदैरिव परिभ्रष्टः परिपक्को य: शङ्खस्तस्य ये क्षोदाः क्षुद्यमाना अवयवा अर्थाद्रवीभूतास्तैरिव कृत्वा सदो मन्त्रमण्डपमुदुल्लसन्ती भ्राष्टि - जनं शोभा यस्य तत् । शङ्खद्रवविलिप्तमिवेत्यर्थः । प्रकुर्वन् । राजसभा हि शङ्खद्रवविलिप्ता स्यात् ॥ कृतो मया ग्राहरिपुः स जज्ञे परं परिव्राट्तडलकुलग्नः । प्रष्टास्मि तष्टास्य कथं न्वहं स्यां स्वरोपिते कः प्रजिहीः पुमानूर्क ।। ५९ २ ५९. ग्राहरिपुर्मया कृतः प्रतिष्ठितः । परं केवलं स प्राहरिपुः कुत्सितं लग्नं राश्युदयो यस्य स कुलनः कुमुहूर्तजातोत एव न लज्जतेलग्निर्लज्जः सन्परित्राजस्तपस्विनस्तक्षति हिनस्ति परिव्राट्तट् तापसहिं १ सी डी 'यती'. ४ एफ मुल्ल ५ ए सी डी कृतप्र . २२ २ एफ् 'जम्बुक. ३ ए बी सी एफ 'रिभ्रष्ट. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] सको जज्ञे । अस्म्यहं नु प्रष्टा युवां पृच्छामि । किमित्याह । नु इति वितर्के । युवां वितर्केथां कथमस्य ग्राहरिपोस्तष्टा विनाशकोहं स्यां भवे. यम् । अथ भणिष्यथो यद्यन्याय्येष तच्छिक्ष्यतां किमनेन प्रश्नेनेत्याह । खरोपित आत्मसंस्थापिते जन ऊर्जयतीत्यूर्व सात्त्विकः पुमान्पुरुषगुणोपेतः कः प्रजिहीः प्रहर्तुमिच्छेत् । न कोपीत्यर्थः । एवं चास्य वध्यत्वावध्यत्वरूपयोर्विरुद्धकार्ययोरुपस्थितयोः किं कार्यमित्यहं युवां प्रष्टा॥ तस्माद्यवां यद्विधेयं तद्वदतमित्याह । त्वमभ्यपास्पा गुरुणाभ्यजर्घास्त्वं चोशनस्त्वं रिपुहा महात्मन् । भियामधामन्मतिधाम कृत्यं युवां ब्रुवाथामनहर्विलम्बम् ॥६०॥ ६०. हे महात्मन् विपुलाशय भियां भयानामधामन्नस्थान मतिधाम बुद्धिगृह जम्बक रिपुहा त्वं गुरुणा बृहस्पतिना सहाभ्यपास्पा भृशमस्पर्धथाः । बुध्या त्वं बृहस्पतितुल्य इत्यर्थः। तथा हे महात्मन् मियामधामन्मतिधाम जेहुल रिपुहा त्वमुशनस्त्वं शुक्रत्वमभ्यजर्घा भृशमगृध्यो भृशमकाङ्क्षः । बुद्ध्यर्यो त्वं शुक्रसम इत्यर्थः । तस्माधुवां नास्त्यह्नो विलम्बो यत्र तत् शीघ्रं कृत्यं विधेयं ब्रुवाथाम् । यज् । यष्टा । विप्रेट् ॥ सृज् । स्रष्टा । राष्टिसृड्भ्याम् ॥ मृज् । माट । कंसमृड्भ्याम् ॥ राज् । राष्टि । सम्राट् ॥ भ्राज् । उद्भाष्टि । विभ्राड् ॥ भ्रस्ज् । परिभृष्ट । वर्गभृड्भ्याम् ॥ व्रस्च् । ब्रष्ट प्रभासवृड् ॥ परिव्राज् । परिव्राट् ॥ शकारान्त । निविष्टः । विट् । छादेशोपि शो गृह्यते । प्रष्टा । इत्यत्र “यजसृज" [८७] इत्यादिना षः ॥ १ एफ जम्बुक. २ एफ °तिसम इ. ३ सी डी मका. ४ एफया श्रु. ५ एफ ब्रुवीथा. ६ डी ब्रश्च ।. ७ ए बी यज्स. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.९३.] द्वितीयः सर्गः। १७१ लग्न । अलक् । तष्टा । तड् । इत्येत्र “संयोगस्य" [८] इत्यादिना स्कोलुक् ॥ संयोगस्येति किम् । कृतः॥ पुमान् । इत्यत्र “पदस्य" [८९] इति संयोगस्य लुगन्तादेशः ॥ पदस्थति किम् । स्याम् ॥ प्रजिहीः । इत्यत्र “रात्सः" [९०] इति सस्यैव लुग् ॥ पूर्वेणैव सिद्ध नियमार्थ वचनम् । तेन रात्परस्य सस्यैव लोपो नान्यस्य । ऊ । अभ्यजर्घाः । अभ्यपास्पाः ॥ रिपुहा । इत्यत्र "नौम्नो नः" [९१] इत्यादिना नस्य लुक् ॥ अनह्न इति किम् । अनहर्विलम्बम् । अत्र पर विधौ रेफस्यासत्त्वान्नलोपः स्यात् ॥ महात्मन् । इत्यत्र "नामध्ये' [९२] इति नलोपाभावः ॥ मतिधाम । अधामन् । इत्यत्र “क्लीबे वा” [९३] इति वा नस्य लुक् ॥ नृपेथ तूष्णीवति जेहुलो लक्ष्मीवान् यशस्वान्नयवत्सु धीमान् । मुद्वानदोहीवतिकामुनीवत्यूषीवतीवा शुचिवाग्वभाषे ॥११॥ ६१. अथैवमुक्त्वा नृपे मूलराजे तूष्णीवति मौनस्थिते जेहुलोदो वक्ष्यमाणं बभाषे । उपादेयवाक्योहि मैत्रे भाषेतेत्युपादेयवाक्यताहेतुगर्भविशेषणान्याह । लक्ष्मी राज्यकोशादिश्रीरस्यास्ति लक्ष्मीवान् । लक्ष्मीवान् हि प्रायेण सर्वमान्यतयोपादेयवाक्यः स्यात् । लक्ष्मीवानप्यन्याय्यन्यायोपदेशितयाग्राह्यवागेवेत्याह । नयवत्सु मध्ये यशस्वान् श्लाघ्यः । अतिन्यायित्वान्याय्यपि निर्बुद्धिरग्राह्यवागेवेत्याह । धीमान् । बुद्धिमानपि शोकातुरो विघटमानवाक्यतयाग्राह्यवागेवेत्याह । मुद्वान् हर्षान्वितः । मुद्वानप्यश्लीलवाक्योसुखकत्वादग्राह्यवागेवेत्याह । १ बी लग्नः ।. २ ए त्यसं. ३ सी डी °म् स्या. ४ ए सी डी नामिन ई. बी नाम्न् इ. ५ डी मत्रं भा'. ६ ए सी एफ् न् हि. ७ ए °क्ष्मीमान. ८ एफ करत्वा. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] अज्ञाताहीवत्यहीवतिका । कपि "ड्यादीदूतः के" [२.४.१०४] इति हूस्वः । तस्याश्च मुनीवत्याश्च ऋषीवत्याश्च नदीनां यद्वार्जलं तद्वच्छुचिः पौनरुक्क्यासत्यत्वादिमलरहितत्वेन निर्मला वाग् वाणी यस्य सः । मकारान्तात् । तूष्णीवति ॥ मकारोपान्तात् । लक्ष्मीवान् ॥ अवर्णान्तात् । नयवत्सु ॥ अवर्णोपान्तात् । यशस्वान् ॥ अपञ्चमवर्गात् । मुद्वान् । इत्यत्र "मावर्ण" [९४] इत्यादिना मतोर्मस्य वः॥ मावर्णान्तोपान्तापञ्चमवर्गादिति किम् । धीमान् ॥ अहीवतिका । मुनीवती । ऋषीवती । इत्यत्र "नाम्नि" [९५] इति मस्य वः॥ चर्मण्वतीकर्तृसदृग्रुमण्वदुत्तुङ्ग कक्षीवदनल्पधर्मन् । युक्तं नताष्ठीवदिलेश शंभुराभीरचक्रीवति यन्यदिक्षत् ॥६२॥ ६२. हे चर्मण्वतीकर्तृसदृक् । चर्मण्वती नदी तस्याः कर्ता रन्तिदेवः । तेन हि गोमेधयागः कारितः । तत्र चानेकगोवधेन गोरक्तैर्नदीप्रवर्तिता । तस्याश्चानेकगोचर्मयुक्तत्वेन चर्मण्वतीति नाम प्रसिद्धम् । तस्य सदृक् महायागकारित्वात्तत्तुल्य । तथा हे रुमण्वदुत्तुङ्ग । लवणमस्यास्ति रुमण्वान्नाम पर्वतस्तद्वदुत्तुङ्गोन्नताशय । तथो हे कक्षीवदनल्पधर्मन् । कक्ष्याशब्दो योपान्त्यः सादृश्योद्योगयोर्वर्तते । कक्ष्या धर्मोद्योगोस्यास्ति कक्षीवान्नामर्षिस्तद्वत्प्रभूतधर्म । तथास्थीनि सन्त्येषामष्ठीवन्तो जबोरुसंधयो नता अष्ठीवन्तो येषां ते तथेलेशा यस्य तत्संबोधनं हे प्रणम्रानेकभूप । आभीर आभीरजातिहिरिपुश्चक्रं मण्डलं मेहनान्ते १ बी मन्वती'. २ ए सी मन्वदु. १ एफ वर्णान्तोपान्त इ. २ एफ था क°. ३ डी था हे नताष्ठीवदिलेशास्थी. ४ डीणताने. ५ सी डी रजा. ६ ए एफ तिग्राह. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.१.९६.] द्वितीयः सर्गः। स्यास्ति चक्रीवान् गर्दभ आभीर एवान्यायित्वेन निन्द्यत्वाञ्चक्रीवांस्तस्मिन्विषये शंभुर्यदनुशासनं न्यदिक्षत्तयुक्तम् । धार्मिकस्य सैन्यादिसर्वशक्तियुक्तस्य तवान्यायिनि ग्राहरिपौ विषये यः शांभवोनुशासनादेशः स कर्तव्यो मे प्रतिभातीत्यर्थः ।। अथ राज्ञो मन्यूद्दीपनाय जगत्रयसंतापकानि ग्राहरिपोरनेकान्यन्यायपदानि बलानि च वृत्तचतुर्विंशत्या वदन्नीशादेशस्यैव युक्तता द्रढयति । औदन्वतद्रोहकरेण चर्मवत्यस्थिमत्यर्दिततीर्थपान्थैः । कक्ष्यावतामप्यगमाभ्युदन्वत्प्रभासभूश्चक्रवतामुनाभूत् ॥ ६३॥ ६३. उदन्वन्तं समुद्रमभि "लक्षणेनाभि " [३.१.३३] इत्यादिनाव्ययीभावे अभ्युदन्वदुदन्वन्तं लक्ष्यीकृत्याभिमुखा प्रभासभूः प्रभासतीर्थभूमिः । प्रभासतीर्थ हि समुद्रसमीपेस्ति । यद्वाभ्यभित उदन्वती समुद्रोदकं बिभ्राणा या प्रभासभूः सा कक्ष्यावतामपि । कर्तरि षष्ठी। उद्यमवद्भिरेप्यगमागम्याभूत् । केन हेतुना । अमुना ग्राहारिणा । कीदृशेन । उदकमस्यास्त्युदन्वानृषिस्तस्यापत्यमौदन्वत ऋषिस्तस्य । यद्वोदन्वान्नामाश्रमस्तत्र भवा ऋषयस्तेषाम् । द्रोहकरेण जिघांसुना । तथा चक्रवता सुराष्ट्रादेशस्वामिना । कीदृक्सती भूः । अर्दितामुनैव विनाशिता ये तीर्थपान्था यात्रिकास्तैः कृत्वा चर्मवती चर्मान्विता । तथास्थिमती कीकसान्विता च । अनेनानेकान् यात्रिकान् हतान् दृष्ट्वा यात्राश्रद्धालवोपि भयेन प्रभासे न गच्छन्तीत्यर्थः ॥ चर्मण्वती । अष्टीवत् । चक्रीवति । कक्षीवत्। रुमण्वत् । इत्येते "चर्मण्वती" [९६] इत्यादिना निपात्याः ॥ नाम्नीत्येवं । चर्मवती । अस्थिमती । चक्रवता । कक्ष्यावताम् ॥ १ एफ आहीर. २ एफ ग्राहिरि'. ३ एफ तां दृढ'. ४ एफ कक्षाव. ५ बी रप्याग'. ६ ए बी राष्ट्रदे'. ७ एफू पाताः ॥. ८ ए सी डी व । अ. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] अन्धौ । अभ्युदन्वत् ॥ नाम्नि । अभ्युदन्वत् । औदन्वत । इत्येते "उदन्वा नब्धौ च " [ ९७] इति निपात्याः ॥ राजन्वती या हरिणा सुराष्ट्रा तां दल्मिमानूर्मिमदब्धिभीमः । शौर्योष्मकण्डा कृमिमानिवाद्य स भूमिमात्राजवतीं व्यधत्त ||६४ || ६४. या सुराष्ट्रा देशो हरिणा विष्णुना कृत्वा शोभनो राजास्त्यस्यां राजन्वत्यासीत् । तां सुराष्ट्रामद्य सांप्रतं स भूमिमान्भूपतिर्ग्राहरिपुनिन्द्यो राजास्त्यस्यां निन्दायां मतौ राजवतीं व्यधत्त । कीदृक्सन् । शौर्योष्मकण्डा शौर्यस्य य ऊष्मा तीव्रता तेन या कण्डूः खर्जूर्युद्धविधानेच्छातिरेकस्तया कृमयः सन्त्यस्य कृमिमानिव । कृमिमान् हि कण्डूयुक्तः स्यात् । अत एव दल्मिमान् शस्त्रविशेषान्वितः । अत एव चोर्मिमदब्धिभीमः । यथा कल्लोलान्वितः समुद्रो रौद्रः स्यादेवं दल्मिधारणाद्रौद्रः । सुराष्ट्रायामतिरौद्रोयं कुराजाभूदित्यर्थः ॥ गोन्मुनीनां यवमत्राणां माहिष्मतीशो नु ककुद्मदंसः । पुरे गरुत्मद्धमवजा वसत्यसौ भानुमती कल्पः ॥ ६५ ॥ ६५. असौ ग्राहारिः पुरे वामनस्थल्यां वसति कीदृक्सन् । महिष्मान्देशस्तत्र भवा माहिष्मती पुरी तस्या ईशः सहस्रार्जुनो नु यथा सहस्रार्जुनो मुनीनां गोहत् । तेन हि जमदग्निमुनेः कामधेनुर्हठादपहृतेति पुराणम् । तथा यवमन्तो होमार्थं गृहीतयवाः करा येषां तेषां यागविधानव्यप्राणामित्यर्थः । मुनीनां गा हैयंगवीनहवनार्थं संगृहीता धेनूर्हरति चोरयति गोहृदपि । अपिरत्र ज्ञेयः । ककुद्मतो वृषभस्येवांसौ स्कन्धौ यस्य स ककुद्मदंसोतिबलिष्ठः । किंभूते पुरे । गरुत्मान् गरुडो हनु 3 १ एफ् ट ह २ बी 'यामिति ३ सी डी 'पिर. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.९९.] द्वितीयः सर्गः । १७५ मान मारुतिस्तयोस्तुल्या "न नृ''[७.१.१०८] इत्यादिना कनिषेधे गरुत्मद्धनुमन्तो गरुडहनुमदादिरूपकालंकृता इत्यर्थः । ये ध्वजास्तेषामहे योग्येनेककोटीप्रभुमहेभ्याधिष्ठितहर्म्यरम्यत्वात् । यद्वा । गरुत्मद्धनुमन्तौ ध्वजौ चिह्ने ययोस्तौ गरुत्मद्धनुमद्धृजौ वासुदेवार्जुनौ तयोरहे वासयोग्ये । वामनस्थल्यां हि वासुदेवार्जुनावुषितावभूताम् । चौराहि दुर्गपयादिस्थान एव वसन्त्ययं तु तथाभूतोपि बलिष्ठत्वेन सर्वथाकुतोभयत्वान्महद्धिके पुर एव स्वेच्छया वसतीत्यर्थः । अतश्च महोपन्यायित्वाद्भानुमतीशकल्पो भानुमत्या ईशो भर्ता दुर्योधनस्तत्तुल्यः । सोपि यवमत्कराणां महापुरुषत्वाद्यवाकारसुप्रशस्तलक्षणान्वितहस्तानां मुनीनामुपशमेन मुनितुल्यानां पाण्डवानां गोहृद् द्यूतच्छलेन भूमेरपहर्ता सन् गरुत्मद्धनुमद्धवजाहे पुरे गजपुर उवास ॥ राजन्वती । इति “राजन्वान्सुराज्ञि" [९८] इति निपात्यम् ॥ सुराज्ञीति किम् । राजवतीम् ॥ ऊर्मिमत् । दल्मिमान् । भूमिमान् । कृमिमान् । यवमत् । गरुत्मत् । ककुमत् । माहिष्मती । हनुमत् । भानुमती । इत्यन्न वस्य "नोादिभ्यः" [९९] इति निषेधः ॥ निशाखवस्कन्दिनि निश्यशायिन्यासन्यनासीन इहोगदोषि । मासार्धमासेन स आसनाय मन्येनुजो विंशतिदोण इच्छेत् ॥६६॥ ६६. इह ग्राहरिपौ सति मन्ये स शौर्यादिगुणैः प्रसिद्धो विंशतिदोष्णो रावणस्यानुजो बिभीषणोर्धमासेन मासा मासेन वासनायोपवेशनायेच्छेत् । यतः कीदृशीह । निशास्ववस्कन्दिनि धाटीप्रदे छलपर इत्यर्थः । तथा निश्यपि । अपिज्ञेयः । अशायिनि सदोद्यत इत्यर्थः । १ एफ त एव म. २ डी एफ हान्या. ३ एफ नस्तेन तुल्यः. ४ एफ °ती रा. ५ ए त् । मा . ६ ए सी डी मासे. ७ ए सी डी 'नाये. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] तथोग्रदोषि प्रचण्डबाहुपराक्रमेत एवासनि पीठेनासीने सदा शत्रूनास्कन्दति चेत्यर्थः । मास्मायं छलास्कन्दनेन मामुपद्रवदित्यस्माद्विभ्यद्विभीषणः कुत्राप्यवस्थितिं न बनातीत्यहं संभावयामीत्यर्थः ॥ दुष्टो हृदा क्ष्माहृदयस्य शल्यं पदार्धपादेन स रावणोनः। उद्गां निधेरप्युदकैररोध्यः प्रियासृजोसावपूणविडस्ना ॥ ६७॥ ६७. स प्रसिद्धोसौ ग्राहारिः प्रियमसृग् रुधिरं येषां तान् राक्षसान् द्विडना शत्रुरक्तेनापृणदप्रीणयत्। कीदृक् । हृदा चेतसा दुष्टो मायावी। अत एव क्ष्माया हृदयं चित्तमेव हृदयं वक्षस्तस्य शल्यमिव शल्यं लोकानां हृदये निविष्टः शल्यमिव व्यथाकारीत्यर्थः । तथा स्वाभाविकबलेन विद्याबलेन चोद्गां जलानां निधेः समुद्रस्योदकैरप्यरोध्यो रोद्भुमशक्योत एव पदा चतुर्थभागेनार्धपादेनाष्टमभागेन वा रावणादूनो हीनो रावणोनः । सापेक्षत्वेपि गमकत्वात्समासः । रावणतुल्य इत्यर्थः । सोप्येवंविधः ॥ लुलद्यकृत्युच्छकृति विडै भे नत्रुच्चदन्ते यमदद्भिरः। समद्ययूषेण नु रक्तयूष्णा यनापशनामदयत्पिशाचीः॥६८॥ ६८. स ग्राहरिपू रक्तयूष्णा रुधिररसेन मद्ययूषेण नु सुरारसेनेव तथापगतं निर्गतं शकृद्विष्ठा यस्मात्तेन यता कालखण्डेन पिशाचीळन्तरीविशेषानमदयन्मत्तीचक्रे । यतो यमदद्भिरतिरौद्रत्वात् शत्रूणां मृत्युहेतुत्वाच्चान्तकदन्ततुल्यैरखैः कृत्वोच्चदन्त उन्नतदशने द्विडेभे शत्रूणां गजौघे नन्प्रहरन् । अत एव किंभूते द्विडेभे । लुलत्तीव्रप्रहारवशात्पतद्यकृत्कालेयं यस्य तस्मिन् । तथा भयेनोद्गतं शकृद्विष्ठा यस्य त १ एफ् स्माद्विभी. २ सी ६७ प्र. ३ एफ तुर्भागे . ४ एफ महाभा. ५ एफ मासेरा. ६ सी वणेतु डी वणेन तु. ७ बी सेणम. ८ एफ ल्यैः शस्त्रैः. ९ सी उकृत. डी उच्चैः कृत. १० एफ नन्हर'. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.९९.] द्वितीयः सर्गः। १७७ स्मिन् । शत्रुसैन्यानि हत्वा तेषां रक्तेन मांसेन च कृत्वासौ पिशाचीरपोषयदित्यर्थः । लुलदित्यत्र लुडो धातोफिडादित्वात् [२.३.१०४] डस्य लः । लुलिति धात्वन्तरं के चित् ॥ गिरी स्फुरन्नासिकया न्यकार्षीनसीतदृष्टिं द्विपदीः सृजन्तम् । वैयाघ्रपद्यं द्विपदीयबुद्धि तीर्थे पदां स द्विपदाममित्रः ॥ ६९ ॥ ६९. स ग्राहरिपुर्व्याघ्रस्येव पादावस्य व्याघ्रपान्मुनिस्तस्य वृद्धमपत्यं गर्गादित्वाद्यनि [६.१.४२] वैयाघ्रपद्यं मुनिं स्फुरन्त्यवज्ञया मैंटन्ती नासिका यस्यां तया गिरा दुर्वाक्येन न्यका निभत्सितवान् । ननु वैयाघ्रपद्येनापि कायस्य वाचो मनसो वा तदनभीष्टकुव्यापारेणायमपराद्धो भविष्यति । नेत्याह । महायोगित्वान्नसि नासिकायामिते प्राप्ते दृष्टी यस्य तमितदृष्टिम् । एतेनास्य कायकुव्यापारनिवृत्तिरुक्ता । तथा द्वौ पादौ यासु ता द्विपदीर्गाथाविशेषान् सृजन्तं कुर्वन्तम् । एतेन वचः कुव्यापारनिवृत्तिरुक्ता । तथा द्वौ पादौ यस्यासौ द्विपान्मनुष्यस्तस्मै हिता द्विपदीया सा बुद्धिश्चेतोवृत्तिर्यस्य तम् । एतेन मैनःशुद्धिरुक्ता । तार्ह किमित्येतं न्यकार्षीदित्याह । यतस्तीर्थे प्रभासादिपुण्यक्षेत्रे विषये पदां पद्यमानं गच्छन्तं जनमुपदेशदानेन प्रयुञ्जानानां णिग् । क्विप् । द्विपदामुक्तासाधारणविशेषणान्मुनीनाममित्रः शत्रुः ॥ द्विपात्सु दुष्टेनुपपादुकेस्मिन्वृत्तानि बिभ्रत्यतिगूढपान्दि । लोकाच्चतुष्पाद्यति चैकपादितादप्यपाद्येत कथं न धर्मः ॥७॥ ७. धर्मः कथं नापाद्येत । अत्र पादसमानार्थः पाच्छब्दः । अवि१ सी डी एफ °रा स्फर . २ एफ् पदी स. १ ए बी सी एफ तो ऋफि. २ एफ °नि स्फर. ३ एफ मुदन्ती. ४ बी °स्य कु. ५ सी डी मतेः शु. ६ बी °त्येवं न्य° एफ त्येनं न्य. ७ एफ °आनां. ८ बी एफ णिच ।. ९ ए मित्रं श. १० सी डी ७० क. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] द्यमानः पाचरणो यस्य सोपात्पङ्गुः । स इव कथं नाचरेत् । क । सत्यस्मिन् ग्राहारौ। किंभूते । अनुपपादुकेनुपपदनशीलेनुपपन्ने । कार्याकार्यविचाररहित इत्यर्थः । अत एव द्विपात्सु नृषु विषये दुष्टे वञ्चकाभिप्रायेत एव च लोकः कर्मतापन्न एकं पादं भागमाख्यायते स्म णिचि ते चैकपादितस्तस्मादपि लोकाच्चतुष्पाद्यति। पादसमानार्थः पाच्छब्दोत्र । ततश्च चतुष्पाञ्चतुर्णा पदां भागानां समाहारमिच्छति विश्वासनाय चतुर्थ भाग ग्रहीष्यामीत्युक्तादपि लोकाच्चतुरोपि भागान् ग्रहीतुकाम इत्यर्थः । अत एव चातिगूढपान्दि गूढपादं सर्पमपि रौद्रत्वेन कौटिल्येन चातिक्रान्तानि वृत्तानि लोकदण्डनादीनाचारान् बिभ्रति । कलिमाहात्म्यात्तावदधुना धर्म एकपादेनैवावतिष्ठते । महापापिष्ठेन ग्राहरिपुणी तु धर्मेकपादस्याप्युच्छेदितत्वाद्धर्मः पङ्गुरेवाभूदित्यर्थः । चः पूर्ववाक्यार्थापेक्षया समुच्चये ॥ मासा मासेन । निशि निशासु । आसनि आसनाय । इत्यत्र "मास" [१००] इत्यादिना लुगन्तादेशो वा ॥ ददिः दन्ते । पदा पादेन । नसि नासिकया । हृदा हृदयस्य । द्विडस्ना प्रियासृजः । यूष्णा यूपेण । उद्गाम् उदकैः । दोष्णः दोषि । यक्का यकृति । शना । उच्छकृति । इत्यत्र "दन्तपाद" [१०१] इत्यादिना ददित्याद्यादेशा वा ॥ वैयाघ्रपद्यम् । द्विपदाम् । द्विपँदीः । द्विपदीय । पदाम् । इत्यत्र “यस्वरे" [१०२] इत्यादिना पद् ॥ यस्वर इति किम् । द्विपात्सु ॥ अणिक्यधुटीति किम् । एकपादितात् ॥ क्येति क्यन्क्यडोरविशेषेण ग्रहः । चतुष्पाद्यति । अपायेत । धुटि । गूढपान्दि । नाम्न इत्येव । अनुपपादुके ॥ १ सी डी पन्नमेकं. २ सी डी °णा नु ध. ३ एफ् देशः ।. ४ डी पदीय ।. ५ बी एफ त् । अतिगूढपान्दि । क्ये. ६ बी एफ त । ना. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.१०४.] द्वितीयः सर्गः । १७९ कृत्वा तिरवो नु पुरः पदाचोपाच्यानुदीच्यान्स नृपानहंयुः । वाप्युदीच्यैति हृदाप्युदीचा दिवं जिगीषुर्नृपतिः प्रतीच्याः ७१ ७१. स प्रतीच्याः पश्चिमदिशः पतिर्ग्राहरिपुरपाच्यान्दक्षिणदेशसंबन्धिन उदीच्यानुत्तरदेशसंबन्धिनश्च नृपांस्तिरश्चो न्वजादिपशूनिव पुरोग्रतः पदाचः पादचारिणः कृत्वा भ्रुवाप्युदीच्योत्पाटितया हृदापि चेतसा चोदीचोत्पाटितेनैति गच्छति । यतोहंयुरनेकनृपपदातिभावनयनेन संजातस्वबलवीर्य संपत्त्युत्कर्षाद्गर्वाध्मातः । गर्वाध्मातत्वात्कमपि चक्षुषा नेक्षते चेतसा न स्मरति चेत्यर्थः । उत्प्रेक्ष्यते । नायं गर्वातिरेकादुत्पाटितभ्रूहृदयः किं तु दिवं स्वर्ग जिगीषुर्नु । यो हि यज्जिगीषति स तदभिमुखं मनश्चक्षुश्च निक्षिपति ॥ 1 उदीच्यान् । उदीचा । उदीच्या । इत्यत्र "उदच उदीच्” [१०३] इत्युदीच् ॥ अपाच्यान् । पदाचः । प्रतीच्याः । इत्यत्र “अच्च प्राग्दीर्घश्च" [ १०४] इति चादेशः प्राग्दीर्घश्व ॥ अन्वाचयशिष्टत्वाद्दीर्घत्वस्य तदभावेपि चादेशः स्यात् । तिरश्वः ॥ विदुष्मतः पुंविदुषोप्यधर्मोपेयुष्मतः पापनिषेदुषोस्य । रौद्रात्रवैदुष्यजुषोतिभाराद्विषेदुषी क्ष्मा विदुषी चरित्रम् ॥ ७२ ॥ ७२. अस्य ग्राहरिपोरतिभाराद्विषेदुषी विषण्णा दुःखिता सती क्ष्मास्य चरित्रं पापस्वरूपं वृत्तं विदुषी ज्ञात्री । एतन्महापापभराक्रान्ता पृथ्व्येवैतद्दुर्वृत्तं जानाति नान्य: कोपीत्यर्थः । यतो विद्वांसो भूम्ना सन्त्यस्य तस्य विदुष्मतोपि । अपिरत्रापि योज्यः । अधर्मोपेयिवांसोधर्ममुपगताः पापिष्ठाः प्रशस्याः सन्त्यस्य तस्याधर्मोपेयुष्मतः प्रभूत १ बी 'दीच्योत्पा. २ एफ् ध्मातत्वा ३ एफू चवशि ४ डी ज्ञातवती । ए° ५ बी एफ 'मुपाग Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] विद्वत्सङ्गमेपि पापिष्ठजनसङ्गनिरतस्येत्यर्थः । अतश्च पुंविदुषोपि नृषु मध्ये जातोपि पापनिषेदुषः पापेन्यायकर्माणि तस्थुषः । विद्वज्जनसङ्गत्या धर्माधर्मादिविवेकं जानतोपि पापिष्ठजनसङ्गातिप्रसङ्गेन पापकर्मनिरतस्येत्यर्थः । तथा रौद्राणि भीष्माणि रुद्रदैवतानि वा यान्यस्त्राणि शस्त्राणि तद्विषयं येद्वैदुष्यं नैपुण्यं तज्जुषते सेवते यस्तस्य । रौद्रात्रबलिष्ठ - त्वात्पापकर्मणः केनापि निवर्तयितुमशक्यस्य चेत्यर्थः ॥ वैदुष्य । विदुषः । विदुषी । निषेदुषः । विषेदुषी । विदुष्मतः । उपेयुष्मतः । इत्यत्र “वसुमतौ च" [१०५ ] इत्युष ॥ नृशंसतारण्यशुनोस्य यूनो जिघृक्षतो माघवनीं नु लक्ष्मीम् । मतिः शुनीपुच्छनिभातियूनी शल्यं मघोनीं भजतो मघोनः ॥ ७३ ॥ 1 ७३. यूनस्तरुणस्यास्य ग्राहरिपोर्नृशंसतया क्रूरत्वेनारण्यशुनो वृकतुल्यस्य सतो मतिरस्ति । किंभूता । अतियूनी युवानमतिक्रान्ता । युवा हि प्रायो यौवनेन मदोद्धतः स्यात्तस्मादपि मदोद्धतेत्यर्थः । शुनीपुच्छनिभा कुर्कुरीपुच्छवत्कुटिला च । उत्प्रेक्ष्यते । नास्य मतिर्मदेनोत्ताना वक्रा च किं तु माघवनीं शक्रसत्कां लक्ष्मीं जिघृक्षतो नुं ग्रहीतुमिच्छोरिव । यो ह्युच्चतर्वादिस्थं फलं जिघृक्षति तस्योश्च फलोत्तारणायोत्ताना वक्रेाचाङ्कुटयष्टिः स्यात् । अत एव मघोनीं शचीं भजतोपि । अपिरत्र ज्ञेयः । मघोन इन्द्रस्य शल्यं रतिसुखसागरावगाहकालेपीन्द्रस्य तन्मतिर्हृदयस्था शल्यमिव 'दु:खाकरोतीत्यर्थः ॥ १ एफ् सङ्गति २ सी 'णित'. ३ सी डी यद्विदु. ४ एफ नैः पु°. ५ एफू निर्वृत्तयि ६ एफ् शंसंसतारण्यशुनो नृसंशत ७ए त्प्रेक्षते. ८ एफ् नु गृही. ९ एफू 'क्रा च कुट. १० बी एफ दुःखं क Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.१.१०८.] द्वितीयः सर्गः । स यौवनाच्छौवनमत्तता भृल्लोलो युवत्यां मघवत्यभीरुः । कीलालपेष्वा विनिहत्य राज्ञो राज्ञीरुदस्रा निदधेवरोधे ॥ ७४ ॥ ७४. स ग्राहारिः कीलालपेष्वा रक्तं पिबता शरेण राज्ञो विनिहत्य तेषां राज्ञीरुद॒स्राः कष्टादुदंती : सतीरवरोधेन्तःपुरे निदधे । यतः कीदृक् । यौवनाद्यूनोविकाराद्धेतोः शौवनमत्तताभृत् । शुन इयं शौवनी या मत्ता मदस्तां बिभर्ति यः सः । श्वेव मदनोन्मादीत्यर्थः । अत एव युवत्याम् । जातावेकवचनम् । युवतिषु लोलो लम्पटः । तथा मघवत्यपि । अपिरत्र ज्ञेयः । इन्द्रस्थशक्त्यादिभ्योपीत्यर्थः । अभीरुर्महाश I क्तित्वात् ॥ १८१ शुनी । शुनः । अतियूनी । यूनः । मघोनीम् । मघोनः । इत्यत्र “श्वन् " [१०६ ] इत्यादिना वस्य उः ॥ ङीस्याद्यधुस्स्वर इति किम् । शौवने । यौवनात् माघवनीम् ॥ नकारान्तनिर्देशादिह न स्यात् । युवत्याम् । मघवति । मघवदिति प्रकृत्यन्तरं शक्रवाचकम् ॥ कीलालप । इत्यत्र “लुगातोनापः " [१०७ ] इत्यातो लुक् ॥ अनाप इति किम् । उदस्राः ॥ राज्ञीः। राज्ञः । इत्यत्र “अनोस्य” [१०८ ] इत्यनोतो लुक् ॥ साम्नीव साम्नी इह ताक्ष्णवान्नस्थामनी राजनि धार्तराज्ञे । दुष्कर्मणि स्वर्वणि वीक्ष्य भूना मूर्ध्ना न केघप्रतिदीन्नि नेमुः ॥ ७५ ॥ ७५. अघप्रतिदीनयप्यघस्य पापस्य प्रतिदीनीव दिवस तुल्ये पापै १ एफ् दु:कर्म.. १ सी डी दतीर २ सी डी न मा. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] कप्रवर्तकेपीत्यर्थः । धार्तराज्ञे धृता राजानो येन स धृतराजा ग्राहारिपिता तस्यापत्य इह राजनि ग्राहारौ भूम्ना बाहुल्येन मूधी कृत्वा के न नेमुः । यतः स्वर्वणि शोभनाश्वे । एतेन सैन्यसंपदुक्तिः । तथा दुष्कमणि निस्त्रिंशक्रिये। तथा किं कृत्वा । इह निरीक्ष्य । के । ताक्ष्णवाघ्नस्थामनी । तक्ष्णो देववर्धकेरपत्यं ताक्ष्णो वृत्रासुरः। तथा वृत्रघ्नो वञिणोपत्यं वानोर्जुनः । द्वन्द्वे तयोः स्थामनी पराक्रमौ । वृत्रासुरार्जुनयोरिवाखिलजगजैत्रं बलमत्रालोक्य चेत्यर्थः । यथा साम्नि सामवेद आधारे साम्नी रथंतरबृहद्रथंतराख्यौ सामविशेषौ जिज्ञासादिना के चिन्निरीक्षन्ते । एतेनाघप्रतिदीत्र्यपि तस्मिन्सर्वेपि नेमुस्तत्रास्य सैन्यसंपन्निस्त्रिंशतातिबलवत्ताजनितं भयमेव हेतुर्नान्तरङ्गो बहुमान इत्युक्तम् ॥ साम्नी । स्थामनी । सान्नि । राजनि । इत्यत्र "ईडौ वा" [१०९] इति वानोतो लुक् ॥ ताणें । वार्चन । धार्तराज्ञे । इत्यत्र "पादिहन्” [११०] इत्यादिनातो स्वर्वणि । र्दुष्कर्मणि । इत्यत्र "न वमन्त” [१११] इत्यादिनानोतो न लुक् ॥ संयोगादिति किम् । प्रतिदीनि । भूम्ना ॥ वमन्तेति किम् । मूर्धा ॥ द्विजान्शतघ्न्यात्र मखनि पृथ्वीप्लीह्निनति द्राक स्पृहयन् हविर्यः। अद्यैव मन्ये क्षुधितो बलारिः सृष्टिं धिगस्मिन् कुमतौ विधातुः॥७६॥ १ एफ पृथ्वी प्ली. १ एफ दुःकर्म . २ ए वात्रीनो . सी वावाप्नो'. ३ ए सी डी वेदे सा. ४ बीरीक्ष्यन्ते. डी 'रीक्षेते. ५ बी सी डी स्मिन्यत्सर्वे . ६ सी डी मेक एव. ७ सी डी क्ष्ण धा'. ८ एफ दुःकर्म'. ९ एफन्तसंयोगादिति नो. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है०२.१.११३.] द्वितीयः सर्गः। १८३ ___ ७६. प्लीहोदररोगभेदः । पृथ्व्याः प्लीह्नि प्लीहव्याधिवजनानां दुःखकेत्र ग्राहरिपौ शतघ्न्यायुधविशेषेण द्विजान् द्राग् घ्नति हिंसत्यत एव मखन्नि यागोच्छित्तिकारिणि सति मन्येहमद्यैव सांप्रतमेव न त्वपि बलारिरिन्द्रः क्षुधितः । यतो हविर्य इन्द्रोद्देशेन संप्रदेयमन्त्रपूतहव्यवस्तुभ्यः स्पृहयन् । तस्मात्कुमतौ पापबुद्धावस्मिन् ग्राहरिपो विषये विधातुः स्रष्टुः सृष्टिं निर्माणं धिग्गर्हामहे ॥ शतघ्या । मखन्नि । नति । इत्यन्त्र "हनो ह्रो भ्" [११२] इति न् ॥ हन इति किम् । प्लीहि ॥ स्पृहयन् । मन्ये । इत्यत्र “लुगस्य" [११३] इत्यादिनास्य लुक् ॥ अपद इति किम् । बलारिः अद्यैव ॥ कुमतौ । विधातुः । इत्यत्र “ङित्यन्त" [११४] इत्यादिनान्त्यस्वरादेर्लुक् ॥ भाती प्रथिम्ना मदतो विभान्ती सुगन्मिषन्ती मिषती यमेन । गलिष्यती द्यां नु भुवं गलिष्यन्ती न्वस्य नेत्रे सदृशी तनुश्च ॥७७॥ ७७. अस्य ग्राहरिपोनेंत्रे सदृशी समाने प्रस्तावात्तन्वा । तनुश्च मूर्तिः सदृशी समाना प्रस्तावान्नेत्राभ्याम् । तथा हि नेत्रे तावत्प्रथिना विस्तारेण भाती शोभमाने । तथा मदतः क्षीबतया घूर्णमानत्वारक्तत्वादिनेत्यर्थः । विभान्ती तथा समुन्मिषन्ती मदवशादेवान्तरोन्तरी विकरालं विकसन्ती । अत एव यमेन सह मिषती स्पर्धमाने यमवद्भीष्मे इत्यर्थः । अत एवोत्प्रेक्ष्यते । न स्वभावतो यमेन मिषती किं तु द्यां स्वर्ग गलिष्यती नु संहरिष्यमाणे इव तथा भुवं गलिष्यन्ती नु । तनुरपि प्रथिम्ना स्थौल्यजनितविस्तारेण भाती तथा मदतोहंकारात्स्फु १ डी दुःखकेत्र altered into दु:खकारकेत्र. २ सी तहतव्य. डी तहोतव्य'. ३ एफ सृष्टिनिर्मा. ४ डी 'नत्वर. ५ सी रालं विककारस. एफ रा विकारा'. ६ डी रालम्बिविकारमन्ती ।. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] रस्फुरायमाणात एव समुन्मिषन्त्युच्छसन्ती । शेषविशेषणानामर्थ एकवचनेन प्राग्वत् ॥ यदास्य पार्चे धुनती दलन्ती स्यन्ती परांश्चापलताथ तूणे । तदैव सा द्यौर्दिविषत्सु मुक्तधुषु घुसघूर्युभवेत्कथं नु ॥ ७८ ॥ ७८. यदास्य ग्राहारेः पार्श्वे चापलता स्यात् । कीदृक् । धुनती ज्याकर्षवशेन कम्पमाना तथा परान् शत्रून् दलन्ती शरक्षेपिकात्वेन विदारयन्ती स्यन्ती परानेवान्तं नयन्ती च । अर्थ तथा यदा तूणे तूणीरौ धुनती शराकर्षवशात्कम्पमाने शरक्षेपहेतुत्वात्परान् दलन्ती स्यन्ती च स्यातां तदैव दिविषत्सु मुक्तधुषु भयवशात्त्यक्तस्वर्गेषु सत्सु द्युसदो देवान् दीव्यतीच्छति क्विपि ऊटि च द्युसर्देवानिच्छन्ती सती सा दीव्यति क्रीडति देवैरित्यन्वर्थेन प्रसिद्धा द्यौः स्वर्लोकः कथं न्वद्यौद्यौर्भवेत् शुभवेहीव्यति देवैरित्यन्वर्थयुक्ता कथं नाम स्यात् । न स्यादेवेत्यर्थः ॥ समुन्मिषन्ती । मिषती । गलिष्यन्ती गलिष्यती । विभान्ती भाती । अत्र "अवर्णाद्' [११५] इत्यादिना वातुरन्तादेश ईड्योः ॥ अश्न इति किम् । धुनती॥ स्यन्ती। दलन्ती । अत्र “इयशवः" [११६] इत्यतुरन्तादेशः ईड्योः ॥ द्यौः । इत्यत्र "दिव औः सौ" [११७] इत्यौः ॥ “निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य" [न्या० सू० ३२] इति धातोर्न स्यात् । घुसह्यूः ॥ मुक्तधुषु । घुसत् । इत्यत्र “उ” [११८] इत्यादिना उः ॥ पदान्त इति किम् । दिविषत्सु ॥ अनूदिति किम् । द्यु भवेत् । अत्र “दीर्घश्वि" [४.३.१०८] इत्यादिना च्वौ दीर्घत्वं न स्यात्॥ पञ्चमः पादः ॥ १ बीय यथा. २ एफ °न्ती सा. ३ सी डी त् ॥ इति श्रीप. एफ त् ॥ इति पञ्चमः पादः समर्थितः समाप्तः ॥. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.१.] द्वितीयः सर्गः। १८५ महैनसां कारकवक्रियाणां हेतुः स्वतन्त्रः स कुकर्म कर्ता । विश्वं ततापाट दिशो ललझेब्धीनास दुर्गाणि भयं न लेभे ॥७९॥ ७९. स ग्राहरिपुर्विश्वं ततापोद्वेजितवान् । कीदृक्सन् । स्वतन्त्रः सर्वोत्कटत्वात्कस्याप्यनायत्तः । तथा कुकर्म द्रोहवञ्चनादिकां निन्द्यां क्रियां कर्ता स्वयं कुर्वन् । तथा कारकवत् । यथा कारकं कादि क्रियाणां धात्वर्थानां पाकादीनां हेतुस्तथा महैनसां महापापानां द्रोहवञ्चनादीनां हेतुः । अन्यैरपि महापापानि कारयंश्चेत्यर्थः । विश्वतापप्रकारानेवाह । आट दिशः। लोकलुण्टनाद्यर्थ सर्वाशा भ्रान्तवान् । तथा ललचेब्धीन् । तथास दुर्गाणि । अद्रिकोट्टादिदुर्गस्थानानि बभन्ज । दिक्षु पोयितोप्यब्धौ दुर्गे वा प्रविष्टोपि न कोप्यस्मादैत्याच्छुटित इत्यर्थः । तथा भयं न लेभे । एवं विश्वं सन्तापयन् स्वतन्त्रत्वात्कस्मादपि न भीत इत्यर्थः । योपि कुकर्मरूप: कर्ता विधाता कुदैवं स्यात्सोपि स्वतत्रो महेनसां क्रियाणां हेतुः सन्दुर्भिक्षडमराद्युत्पादनेन विश्वं लोकं तपति । दिगब्धिदुर्गाण्याश्रयन्नपि तस्मान्न छुटतीत्युक्तिः ॥ केल्याप्यटन् भापयते स भूपान्वसूनि गां दोग्ध्यनुशास्त्यधर्मम् । मुनीन सामाह रुणद्धि वृत्तिं न सत्पथं पृच्छति याचतेर्थम् ॥८॥ ८०. केल्यापि राजपाट्याप्यटन् गच्छन् सन् स ग्राहरिपुर्भूपान् भापयते । राजपाट्यामप्येतावता बलेन याति यावताश्वखुरोत्खातधूलीधूसरिताम्बरोसौ नूनमस्मानास्कन्तुमेतीत्याशङ्कातङ्काकुलान्करोतीत्यर्थः । एतेन च्छद्मपरत्वं बलसंपदतिशयश्चोक्ते । तथा गां पृथ्वीं वसूनि द्रव्याणि दोग्धि क्षारयति । एतेनामुनोर्वी करपीडिता कृतेत्युक्तम् । १ ए सी एफ स्तथैन. २ एफ लायमानोप्य'. ३ सी डी श्वं ताप'. ४ बी पातने. ५ एफ कं तापयति. ६ सी डी न छु. ७ एफ स ग्रा. ८ डी याव. ९ एफ श्वखरो'. १० एफ स्कन्दयितुमे . ११ एफ काकु. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] तथा गामेवाधर्म पापमनुशास्ति शिक्षयति पापे व्यापारयतीत्यर्थः । 9 तथा मुनीन् साम मधुरवाक्यं नाह निर्भर्त्सयतीत्यर्थः । तथा मुनीनेव वृत्तिं भिक्षाचर्योच्छादिकां जीविकां रुणद्धि निवारयति । तथा मुनीन् सत्पथं न्यायमार्ग न पृच्छति न कथापयतीत्यर्थः । तथा मुनीन द्रव्यं याचते ॥ रत्नानि रत्नाकरमुच्चिनोति निधीन् कुबेरं विजिगीषतेसौ । प्राणान्विपक्षैर्युधि भिक्ष्यते च स्वभर्तृभावं बत नीयते च ॥ ८१ ॥ ८१. असौ ग्राहारी रत्नाकरं सागरं रत्नान्युचिनोति वियोजयतीत्यर्थः । एतेन कोशसंपदुक्तिः । तथा कुबेरं धनदं निधीन् निधानानि विजिगीषते । एतेन संपूर्णेपि कोशे तद्वृद्धौ निरुद्यभित्वनिरास उक्तः । तथासौ युधि विपक्षैः प्राणान् भिक्ष्यते चास्मान् जीवतो मुश्चेति जीवितव्यं याच्यते च । एतेन पराक्रमित्वोक्तिः । तथा बतेति खेदे । विपक्षैरेवासी स्वभर्तृभावमात्मस्वामितां नीयते चात्मन: स्वामी क्रियत इत्यर्थः । एतेन प्रभुंसंपदुक्तिः । एतेन सर्वेणास्य दुःसाध्यत्वोक्तिः ।। जह्नेन्यदारान् स्वपुरीं दशास्यो गां कार्तवीर्यो यतिनं मुमोष । भ्रूणानकर्षद्भगिनीं च कंसोग्रहीत्किमेतानसकावनीतीः ॥ ८२ ॥ ८२. दशास्यो रावणोन्यदारान् रामभार्या सीतां स्वपुरीं लङ्कां जननाय । तथा कार्तवीर्यः सहस्रार्जुनो यतिनं जमदग्निं गां कामधेनुं मोषाहार । तथा कंसः कंसाख्यो दैत्यो भगिनीं देवकी भ्रूणान् गर्भानकर्षदेव की पार्श्वाद्वधार्थं भ्रूणान् गृहीतवानित्यर्थः । कं १ सी डी 'नीने २ एफ् न् विभक्ष्य ३ ए सी डी ते । ए ४ सी डी 'मनं स्वा. ५ एफ् भुवसं. ६ एफ वेंण प्रकारेणा . ७ ए सी डी तल ८ सी ख्यो भ. ० Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [हे० २.२.१.] द्वितीयः सर्गः । १८७ सस्य पितोग्रसेनो देवकीपिता देवकश्च भ्रातराविति कंसभगिनीत्वं देवक्याः । एतान्दशास्यादीननीतीरन्यदारापहारादिकानन्यायानसको ग्राहारिः किमग्रहीत् । एषां पार्थादेता अनीती: किमसौ जग्राहेत्यर्थः । एतासां सर्वासामप्यनीतीनामत्र दर्शनादेवमाशङ्का ।। गजाश्वगाः सिन्धुपतिं ममन्थ महीभृतो भेदमुवाह चेत्थम् । इन्द्रं गुणान्दण्डितवान्नु कालं स घातयामास न तेन कालः ॥८॥ ८३. स ग्राहारिः सिन्धुपति सिन्धुदेशाधिपं गजाश्वगा हस्तितुरङ्गवृषभान्ममन्थें मथित्वाग्रहीद्दण्डितवानित्यर्थः । तथा महीभृतो नृपान्भेदं संहत्यभावमुवाह च प्रापितवानन्यान्नृपान्कूटप्रयोगेण भेदितवानित्यर्थः । इत्थमनेन प्रकारेणेन्द्रं शक्रं गुणान् सिन्धुपतिमन्थनादीन धर्मान् दण्डितवान्नु किं हठाजग्राह । इन्द्रो हि सिन्धुपतिमब्धिमैरावणं गजमुच्चैःश्रवसमश्वं कामधेनुं गां च ममन्थ । तथा महीभृतोद्रीन्भेदं पक्षच्छेदमुवाह । एते चेन्द्रगुणा अत्रापीक्ष्यन्त इत्येवमाशङ्का । तथा स कालं यमं घातयामास । कर्माविवक्षायां जघान कालः । तं जन्निवांसं स प्रयुयुजे युद्धादिविधानेन स सर्व घातितवानित्यर्थः । न तु कालः कर्ता तेन ग्राहरिपुणा प्रयोज्यका घातयामास । हनने कालस्यापि स प्रयोक्ता न तु तस्य काल इत्यर्थः । इदमुक्तं स्याद्यत्राचं रुष्टस्तमसमयेपि यमो हन्ति यत्र त्वयं प्रसन्नस्तं समयेपि यमो दूरान्नमस्करोति ॥ क्रियाणां हेतुः कारकवदित्यनेन "क्रियाहेतुः कारकम्" [१] इति सूत्रं सूचितम् ॥ १ सी डी वक. २ सी डी °न्धुदे. ३ एफ ङ्गम. ४ एफ °न्य अग्र. ५ बी मथना. ६ एफ °तिमै'. ७ बी सर्वं. ८ एफ त्र चायं. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ध्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] स्वतन्त्रः कर्तेत्यनेन "स्वतन्त्रः कर्ता" [२] इति सूत्रं सूचितम् ॥ प्रयोजकोपि कतैवेति भापयते सः ॥ कर्मेत्यंशेन “कर्तुाप्यं कर्म" [३] इति सूत्रं व्याजि । तत्कर्म त्रेधा। निवर्त्य विकार्य प्राप्यं च । निर्वत्यै यथा । कुकर्म कर्ता ॥ विकार्य यथा। विश्वंतताप॥ प्राप्यं यथा । आट दिशः ॥ त्रिविधमप्येतत्पुनस्त्रिविधमिष्टमनिष्टंमनुभयं च । तत्रेष्टम् । कुकर्मादि ॥ अनिष्टम् । अब्धीन् ललछ । दुर्गाण्यास । भयं न लेभे ॥ अनुभयम् । केल्याप्यटन भापयते स भूपान् ॥ पुनस्तत्कर्म द्विविधं प्रधानेतरभेदात् । तच्च द्विकर्मकेषु धातुषु दुहि-भिक्षि-रुधि-प्रच्छि-चिग्-बूग्-शास्वर्थेषु याचि-जयति-प्रभृतिषु च भवति । दुयर्थ । वसूनि गां दोग्धि । भिक्ष्यर्थ । मुनीन् याचतेर्थम् । एवं मुनीन् रुणद्धि वृत्तिम् । मुनीन्न सत्पथं पृच्छति । रत्नानि रत्नाकरमुच्चिनोति। मुनीन्न सामाह । गामधर्ममनुशास्ति ॥ याचेरनुनयार्थस्योदाहरणं स्वयं ज्ञेयम् ॥ जयतिप्रभृति । निधीन कुबेरं विजिगीषते । जहेन्यदारान्स्वपुरीम्।गांयतिनं मुमोष।भ्रूणानकर्षभगिनीम्।अग्रहीदेताननीतीः। गजाश्वगाः सिन्धुपति ममन्थ । महीभृतो भेदमुवाह । इन्द्रं गुणान्दण्डितवान् ॥ तत्र दुहादीनामप्रधाने कर्मणि कर्मजः प्रत्ययः । असौ प्राणान्विपक्षैर्भिक्ष्यते । नीप्रभृतीनां तु प्रधाने कर्मणि । असौ स्वभर्तृभावं नीयते ॥ कालं स घातयामास न तेन कालः । इत्यत्र “वाकर्मणाम्" [१] इत्यादिमाणिगवस्थायां यः कर्ता स णौ सति वा कर्म ॥ सोजीगमत्वेदमिलां बलौघैरबोधयद्भाररुजं फणीन्द्रम् । अदर्शयत्कालपुरीमरातीनभोजयत्तत्पिशितं पिशाचान् ॥८॥ १ सी डी सूचि. २ एफ °नं व्यञ्जितम् । त°. ३ बी एफ ४ बी एफ भे। उभ'. ५ ए सी ह्यर्थः । व. ६ सी लाक. नीती । ग. ८ एफ मजप्र. टमुभ. ७ ए सी Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.४.] द्वितीयः सर्गः। १८९ ८४. स ग्राहारिबलौघैः कृत्वातिबाहुल्यादिलां महीं खेदं कष्टमजीगमत्प्रापितवान् । अत एव बलौघैः फणीन्द्रं शेषाहिं भाररुजं भारपीडामबोधयत् । तथा बलौघैररातीकालपुरीं संयमन्याख्यां यमपुरीमदर्शयत् व्यापादितवानित्यर्थः । अत एव पिशाचांस्तत्पिशितमभोजयत् । एतेन दिग्विजय उक्तः ॥ आश्रावयन्निग्रहगर्भवाचं बन्दीकृतान्दण्डमवीवदत्सः। संस्थापयन्वैरिशिरःसु पादं तेजोभिरुणैः कमपीपचन्न ॥ ८५॥ ८५. स ग्राहारिर्हठापहृता नरी बन्दा अबन्दा बन्दाः कृता वन्दीकृतास्तान्निग्रहर्गर्भा । यद्येतावन्न दास्यथ तदाहं युष्मान्मारयिष्यामीति विनाशप्रधाना । या वाक् तामाश्रावयन् शृण्वतः प्रयुञ्जानः सन् बन्दीकृतानेव दण्डमवीवगाणितानङ्गीकारितवानित्यर्थः । एतेन म्लेच्छाचारोस्योक्तः । तथा वैरिशिरःसु पादं संस्थापयन शत्रूनतिन्यक्कुर्वन्नित्यर्थः । स उग्रैः प्रचण्डैस्तेजोभिः प्रतापैः कर्तृभिः कं नापीपचत्कं नादीदहत् ॥ स उज्जयन्ते चमरीमंगव्येष्वानाययनादयते श्ववन्दैः। आक्रन्दयन्खादयति प्रभासतीर्थाश्रमणीरपि चित्रकायैः॥८६॥ ८६. स ग्राहारिरुज्जयन्ते रैवतकाद्रौ मृगव्येष्वाखेटकेषु श्ववृन्दैः कुकुरौघैः कर्तृभिश्चमरी!विशेषानानाययन्सन श्ववृन्दैरेव कर्तृभिश्चमरीरादयते खादयति । तथा चित्रकायैीपिभिः कर्तृभिः प्रभासतीर्थे य १सी आश्रव. १ सी स कारया. २ एफ °रा अ. ३ एफ °तास्ता. ४ डी गर्भा य. ५ डी दद्भणि'. ६ ए सी डी वानि. ७ एफ दस्था. ८ बी न् सन् श. ९ सी डी भि: ता. १० एफ कुक्कुरौ . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः आश्रमा मुनिस्थानानि तेषां या एण्यो मृग्यस्ता अपि । आसतां तावद्वनस्था मृग्यः प्रभासतीर्थाश्रमावस्थित्यातिपावित्र्यादवध्या अपीत्यपेरर्थः । आक्रन्दयन् । ऋन्दिरत्रान्तर्भूतण्यर्थः सकर्मकः। तीर्थाश्रमैणीरप्याक्रन्दतः कर्णाद्यवयवग्रहेणाराटयतश्चित्रकायान्प्रयुञ्जानः संश्चित्रकायैरेव कर्तृभिः प्रभासतीर्थाश्रमणीरपि खादयति ॥ तदेवमस्यात्यपन्यायकारितामतिबलिष्ठतां च प्रतिपाद्याधुना कार्यमाह । शब्दायय हायय माध दूतस्तं भक्षयन्तं जगताप्यभक्ष्यम् । शारीढूिपान्वाहय वाहयाज्ञां तद्दण्डचण्डां ननु दण्डनेत्रा ॥८७॥ ८७. तत्तस्माद्धेतोः । नन्विति संबोधने । हे राजन्नभक्ष्यं गोमांसादि कर्म जगताप्यास्तां तावदात्मना लोकेनापि का भक्षयन्तम् । उपलक्षणत्वादभक्ष्यभक्षणाद्यन्यायेषु जगदपि प्रवर्तयन्तं सन्तमित्यर्थः । तं ग्राहारिं दूतैः कर्तृभिर्मा शब्दायय मा वादय । तथा दूतैर्मा ह्वायय माकारय किं तु द्विपान शारीहस्तिपर्याणानि वाहय । शारीर्धारयतो द्विपान् प्रयुङ्घ युद्धाय सन्नाहयेत्यर्थः । तथा दण्डनेत्रा सेनान्या का दण्डचण्डां तन्निग्रहरौद्रामाज्ञां वाहय प्रापय तं विनाशयेत्यर्थः ।। गत्यर्थ । अजीगमत्खेदमिलाम् ॥सामान्यबोधार्थ। अबोधयद्वाररुजं फणीन्द्रम् ॥ विशेषबोधार्थ । अदर्शयत्कालपुरीमरातीन् ॥ आहारार्थ । अभोजयत्तत्पिशितं पिशाचान् ॥ शब्दक्रिय । बन्दीकृतान्दण्डमवीवदत् ॥ शब्दव्याप्य । आश्रावयन्वाचं बन्दीकृतान् ॥ नित्याकर्मक । संस्थापयन् पादम् ॥ इत्यत्र “ग १ एफ चण्डी न. १ ए °न्दतीः क. २ एफ "त्यन्या. ३ एफ चण्डी त°. ४ सी त्यर्थः । अ. ५ ए एफ धार्थः । अ. ६ एफ धार्थः । अ. ७ सी एफ रार्थः । अं. ८ ए सी मकः । सं. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० २.२.७.] द्वितीयः सर्गः । १९१ तिबोध” [५] इत्यादिनाणिकर्ता णौ कर्म ॥ गत्यर्थादीनामिति किम् । तेजोभिः कं नापीपचत् ॥ नयत्यादिवर्जनं किम् ॥ श्ववृन्दैश्वमरीरानाययेन् । चित्रकायैरेणीः खादयति । श्ववृन्दैश्चमरीरादयते । दूतैस्तं मा ह्वाययं । दूतैस्तं मा शब्दायय । चित्रकायैरेणीराक्रन्दयन् ॥ “भक्षे हिंसायाम्” [६] इत्यत्र हिंसायामेवेति नियमोहिंसायामणिकर्तुः कर्मसंज्ञाप्रतिषेधफल एवेत्यस्यं सूत्रस्य जगताप्यभक्ष्यं भक्षयन्तमिति कर्मव्यावृत्त्युदाहरणमेव दर्शितम् ॥ शारीर्द्विपान्वाँहय । इत्यत्र “वहेः प्रवेयः " [७] इत्यणिक्कर्ता प्रवेयो णौ कर्म ॥ वे इति किम् । दण्डनेत्राज्ञां वाहय ॥ ननु यदि ग्राहारिमहान्याय्यभक्ष्यभक्षणाद्यन्याये जनमपि प्रवर्तयति तदा तस्यैव दोषो नास्माकमिति राजा मा वोचदित्याह || विहारयेद्यो जनतां कुवर्त्म विहारयेन्मृत्युपथं हि तेन । अहारयंस्तं किल दण्डमीशः स्वं हारयेद्धर्ममधेन तस्य ॥ ८८ ॥ ८८. यः कोपि जनतां जनौघं कुवर्त्मान्यायमार्ग विहारयेद्मयेतेन कर्त्रा हि स्फुटमीशः समर्थो मृत्युपथं मरणं विहारयेन्मृत्युपथं विहरन्तं तं प्रयुञ्जीत गमयितुमर्हतीत्यर्थः । एतदेव व्यतिरेकेणं द्रढयति । किलेाप्तवादे । ओता एवं वदन्ति । यो जनतां कुवर्त्म विहारयेत्तं नरं दण्डं निग्रहमहारयन्नप्रापयन्नीशः समर्थस्तस्य जनतां कुवर्त्म विहारयितुरघेन पापेन कर्त्रा स्वमात्मीयं धर्मे हारयेच्चारयेत् । एतेन यदि त्व 93 1 १ एफ् बोधाहारार्थेत्या. २ सीडीम् । चम. ३ एफ् यत् । चि. ४ए । चि ५ एफ नीरक ६ सी डी 'स्य ज. ७ बी. वाय. ८ एफम् । . ९ एफ् हान्या १० एफ् रयन्मृ. ११ सी डी एफ् दृढ १२ सी डी आप्त एवं वदति. १३ एफ येद्गमयेतं. १४ सी डी 'येत् वार'. एफू 'येत् ए. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः मीशः सन् पापिष्टमेतं जगत्पापे प्रवर्तयन्तं न निग्रहीष्यसि तदैतत्पापेन त्वमपि ग्रहीष्यस इत्युक्तम् ॥ एवमसावनिगृहीत: परलोकेहित इत्युक्त्वा यथेह लोकेप्यहितस्तथाह ॥ अप्यन्तकं स्थाम निकारयेत्स निकारयेस्तं यदि नात्मदण्डैः । उपेक्षिताः स्खं ह्यविकारयद्भिः सद्भिः खलाः कैन विकारयेयुः॥८९॥ ८९. यदि त्वं तं ग्राहारिमात्मदण्डैः स्वसैन्यैः कर्तृभिर्न निकारयेनिग्रहेण न तिरस्कारयसि तदा स ग्राहारिः स्थाम बलेनान्तकमपि । आसतामन्ये युष्मादृशा नृपाः । सर्वत्रास्खलितबलं यममपि निकारयेद्वाहरिपुः स्वस्थामान्तकं निकुर्वत्प्रयुञ्जीत । स्वस्थाम्ना यममपि पराभवेदित्यर्थः । संभावने सप्तमी । एतेनास्मिन्ननिगृहीते महारोगवद्वर्धमानेसाध्यतां गते त्वमपि विनयसीत्युक्तम् । एतदेवार्थान्तरन्यासेन (द)ढयति। हि यस्माद्धेतोः स्वमात्मानमविकारयद्भिः। अविकुर्वाणं स्वं प्रयुञ्जानैरविकृतीभवद्भिरित्यर्थः । सद्भिरुपेक्षिताः सन्त: खला दुर्जना: कैः कर्तृभिर्न विकारयेयुः कान्विकुर्वाणान्न प्रयुञ्जीरन् । किं तु सर्वानपि स्वपदप्रच्यावनादिना विकृतान्कुर्युरित्यर्थः ॥ . विहारयेजनतां कुवम । विहारयेन्मृत्युपथं तेन । इत्यत्र गत्यर्थत्वात्प्राप्तौ । स्वमविकारयनिः । कैर्न विकारयेयुः । इत्यत्राकर्मकत्वात्प्राप्तौ । अहारयस्तं दण्डम् । हारयेद्धर्ममधेन । अन्तकं स्थाम निकारयेत् । दण्डैस्तं निकारयेः । इ. त्यत्र चाप्राप्तौ "हकोर्न वा" [८] इत्यणिकर्ता णौ कर्म वा ॥ १ बी स्थाम्ना ब. २ सी डी नक्ष्यसी'. ३ ए °णं स्वयं प्र. सी एफ णं स्वप्र. ४ बी कृतैर्भव. ५ एफ् रयेयुरित्य. ६ सी डी "प्तौ । आहा . ७ एफ येरित्य. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.२.९. ] द्वितीयः सर्गः । एवं च दण्डमवेश्यकार्यतयोक्त्वा तत्प्रतिकूलां क्षमां निरस्यंस्तद्धेतुं २ रुषं वृत्तद्वयेन कार्यामाह । दुर्नीतिभिर्दर्शयमानमेतमद्यापि किं दर्शय से प्रसन्नः । मा मायिनं जावभिवादयस्व न्याय्यैर्नयज्ञा ह्यभिवादयन्ते ॥९०॥ ९०. हे राजन्नद्याप्येतन्निग्रहोचितकाल उपस्थितेप्येतं ग्राहारिं त्वं प्रसन्नो नीरोषः सन् किं दर्शयसे । एष त्वां प्रसन्नं पश्यति जानाति तं पश्यन्तं त्वमेवानुकूलाचरणेन किमिति प्रयु । अस्मिन्प्रसन्नं स्वं मा दर्शयेत्यर्थः । यतः किंभूतमेतम् । दुर्नीतिभिः कर्त्रीभिर्दर्शयमानं दुर्नीतीरेतं पश्यन्तीरेतमेवानुकूलाचरणेन प्रयुञ्जानमैपन्यायाश्रयमित्यर्थः । तथैनं मायिनं छद्मपरं सन्तं जातु कदा चिदपि माभिवादयस्व । एतं त्वां माययाभिवदन्तं प्रणमन्तं त्वमेवानुकूलाचरणेन मा प्रयुद्ध । हि यस्माद्धेतोर्नयज्ञा नीतिवेदिनो न्याय्यैन्ययिभिः कर्तृभिरभिवादयन्ते न्याय्यानभिवदतः प्रणमतोनुकूलाचरणेन प्रयुञ्जते नान्याय्यानिति ॥ एतं दर्शयसे । दुर्नीतिभिर्दर्शयमानम् । एतं माभिवादयस्व | न्याय्यैरभिवादुयन्ते । इत्यत्र " दृश्यभि” [९] इत्यादिनाणिकर्ता णौ कर्म वा ॥ नाथ यस्त्वां निशि नाथ नाथं तं नाथसे चेद्यशसामथोच्चैः । स्ववंशधर्म स्मरसि स्मृतेर्वा चेत्तदयस्वेह रूषां क्षमां मा ॥ ९१ ॥ ९१. हे नाथ निशि यस्त्वां ननाथ ग्राहरिष्वादिदैत्यवधं याचितवांस्तं शंभुं नाथं प्रभुं चेन्नाथसे नाथो मे भूयादित्याशंससे। अथाथ वोश्चैरुनतानां यशसां दैत्यवधोत्यकीर्तीनां चेन्नाथसे यदि यशोर्थयसे चेत्यर्थः । तथा स्ववंशधर्म स्ववंशस्य चौलुक्यान्वयस्य धर्मर्मंपन्याय्युच्छेदनरूप १ एका २ एक येनाह । ३ सी र्थः । तथै, ४ ५ बी शोथ्यसि वेल्य.. ६ एफ् मन्या. २५ १९३ एफ् 'मन्या. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] माचारं स्मृतेर्वान्यायिनो निग्राह्या इत्याद्युपदेशरूपाया राजधर्मसंहितायाश्चेत्स्मरसि तत्तदेह ग्राहारौ विषये रुषां कोपानां दयस्व गच्छ कोपं कुर्वित्यर्थः । क्षमों मा क्षान्ति मा दयस्व | तद्वधाय नाहं शक्त इति राजा मा ज्ञासीदिति तद्वधशक्तौ हेतुमाह । त्वमेव तस्येशिष इत्यदिदीशान ईद त्वां तदुपस्कुरुष्व । वलं धियां चास्य वधे रुजेद्धि राज्यस्य राष्ट्रं द्विडुपेक्षणामः ।। ९२ ९२. हे राजंस्त्वमेव नान्यस्तस्य ग्राहारेरीशिषे प्रभवसि तं वशीकर्तुं शक्नोपीत्यर्थः । इति हेतोस्त्वामीशानस्तव स्वामी भवन्सनीट् शंभुस्त्वामदिक्षङ्ग्राहारिवधायादिशत् । यदि त्वं तद्बधाय शक्तो नाभविष्य - स्तदा शंभुस्त्वां तद्वधे नोपादिक्ष्यत् । तस्मात्तद्वधे त्वं शक्त इत्यर्थः । तत्तस्मादस्य ग्राहारेर्वधे बलं सैन्यमुपस्कुरुष्व सन्नाहादिसामग्र्या विशिण्ढि । तथास्य मायित्वेन केवलबलेन हन्तुमशक्यत्वाद्धियां चोपस्कुरुष्व मन्त्रविशेषेण बुद्धीर्विशिण्डि विशिष्टबुद्धिप्रयोगं चेह कुर्वित्यर्थः । असौ स्वपापरिपाकेनैव पक्ष्यते तदस्योपेक्षैव युक्तेति न वाच्यम् । हि यस्माहिडुपेक्षणामः शत्रुपेक्षणमेव मो रोगो राज्यस्य राष्ट्रं देशं च रुजेत्पीडयेत् । अन्यो रोगः किल रोगिणमेव विनाशयति शत्रूपेक्षारो गस्तु राज्यं राष्ट्रं च विनाशयतीति प्राहारिवधोपेक्षां मा कृथा इत्यर्थः ॥ ४ अथ राज्ञस्तद्वधे विशेषेणोत्साहनाय यत्स्वयं सर्वविधेयोपदेनपि युष्मान्प्रति मयैवमुपदिष्टं तत्सर्वं निरर्थकमिति दर्शयन्नाह । संतापयन्तं ज्वरयन्तमुर्वी तमामयं छेत्तुमलं निदेशैः । भुवः किलोज्जासयदद्रिचक्रं केनेन्द्र उज्जासयितुं नियुक्तः ॥ ९३ ॥ १ सी डी कोपं. २ बी मां क्षा ३ ए एफ °दिशत् । ४ बी विशदि ।. ५ बी विंशदि. ६ एफू वासौ रो. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.२.९.] द्वितीयः सर्गः। १९५ ९३. तं ग्राहारि छेत्तुं निदेशैयुष्मान्प्रतिभणनैरलं सृतम् । कीदृशं तम् । उर्वी पृथ्वी संतापयन्तं प्रभूतकरादिभिरुपद्रवन्तं ज्वरयन्तं निनिमित्तसर्वस्वापहारादिभिः पीडयन्तं च । अत एवामयं रोगतुल्यम् । ज्वराद्यामयोपि हि संतापयति ज्वरयति चाङ्गभङ्गादिना बाधते च । यस्मात् । किलेत्याप्तवादे । भुव उजासयत्पातेन हिंसदद्रिचक्रमुज्जासयितुं विदारयितुमिन्द्रः केन नियुक्तो व्यापारितो न केनापीत्यर्थः । अथासौ संप्रत्येव निग्राह्य इति दर्शयन्नाह । लोकस्य पिंषन्तमरि ह्यनुनाटयन्पो नाटयति क्षमायाः। पेष्टा न चेत्तामसि तत्प्रजानामुत्क्राथयन्तं ऋथयैनमद्य ॥९४॥ ९४. हि यस्माल्लोकस्य पिंपन्तं हिंसन्तमरिमनुन्नाटयन्नहिंसन्नृपो नराणां पाता राजा क्षमाया मह्या नाटयति हिनस्ति । सर्वशक्तिमत्त्वेन यथार्थाभिधानः सन्नृपो यदि पृथ्वीविध्वंसिनो हि शत्रून्न निगृह्णाति तदा वस्तुतः स एव पृथ्वी विनाशयतीत्यर्थः । तत्तस्माच्चेद्यद्यसि त्वं तां क्षमा न पेष्टा न हिंसिता तदा प्रजानामुत्काथयन्तं हिंसन्तमेनं ग्राहारिमद्य सांप्रतमेव ऋथय विनाशय मा कालविलम्ब कार्षीरित्यर्थः । अथैवमेतद्वधं हेतुवादेन द्रढयित्वावसरप्राप्तैर्महापुरुषदृष्टान्तैमूढयन्नाह ॥ जम्भं यथाजीजसदुग्रधन्वा मधुं यथानीनटदब्धिशायी । पुरं यथाचिक्रथदीश एवं निघ्नन्तमुळः प्रणिजह्यमुं त्वम् ॥९॥ ९५. यथोग्रधन्वेन्द्रो जम्भं जम्भाभिधं दैत्यमजीजसजधान । यथा चाब्धिशायी विष्णुर्मधुं मधुदैत्यमनीनटैद्धिंसितवान् । यथा चेशो १ डी भिः कृत्वोप. २ ए सी न्तं वात. ३ सी डी ति चा. ४ एफ °शती. ५ ए सी डी एफ न दृढ. ६ बी एफ तैदृढ'. ७ सी था वाब्धि. ८ एफ टद्विध्वंसि. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] हरः पुरं पुराख्यं दैत्यमचिक्रर्थद्धिसितवान् । एवमुर्व्याः पृथ्व्या निम्नन्तममुं ग्राहारिं त्वं प्रणिजहि हिन्दि || श्रुत्वेति वाचं द्विषतां महन्तुं राज्ञा खरादीनिव निमहत्रा | मंत्री दृशा प्रेरित इत्यवोचत्स जैम्बको जाम्बवदग्यबुद्धिः ॥ ९६ ॥ ९६. जेम्बको नाम मत्रीति वक्ष्यमाणमवोचत् । यत इति पूर्वोक्तां वाचं जेहुलवाणीं श्रुत्वा द्विषतां ग्राहरिष्वादीनां शत्रूणां प्रहन्तुं राज्ञा मूलराजेन दृशा प्रेरितो व्यापारितः । शत्रवः कथं हन्तव्या इति दृक्संज्ञया पृष्ट इत्यर्थः । कस्मात्पृष्ट इत्याह । यतो जाम्बवान् सुग्रीवमन्त्री तस्येवाग्र्या बुद्धिर्यस्य सः खरादीन्निप्रहत्रेव यथा खरदूषणादीन्निप्रहा राज्ञा रामेण द्विषतां रावणादीनां प्रहन्तुं दृक्संज्ञया पृष्टो जाम्बवानवोचत् ॥ ""आ" यशसां नाथ तं नाथसे । इत्यत्र " नाथ : " [१०] इति वा कर्म 1 शिषि नाथ: " [३.३.३५ ] इत्यात्मनेपदम् || आत्मन इत्येव । ननाथ त्वाम् || स्मृतेः स्मरसि धर्म स्मरसि । रुषां दयस्व क्षमां मा दयस्व । तस्येशिषे स्वामीशानः । इत्यत्र "स्मृत्यर्थ" [११] इत्यादिना वा कर्म ॥ धियामुपस्कुरुष्व बलमुपस्कुरुष्व । इत्यत्र “कृग: " [१२] इत्यादिना वा कर्म ॥ राज्यस्य रुजेत् राष्ट्रं रुजेत् । इत्यत्र " हजार्थस्य " [१३] इत्यादिना वा कर्म ॥ ज्वरिसंतापिवर्जनं किम् । उर्वी ज्वरयन्तम् । संतापयन्तम् ॥ आमयं भुव उज्जासयत् । अद्विचक्रमुज्जासयितुम् | क्षमाया नाटयति अरिम१ एफ जम्बुको जाम्बुव.. १ एफ् हिंसि २ एफ् जम्बुको ३ एफ् जाम्बुवा. ४ एफ् रुषं द. ५ एफ संतपि ६ एफ रन्त ७ ए क्षमया. " " Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.१६.] द्वितीयः सर्गः । १९७ नुन्नाटयन् । प्रजानामुत्क्राथयन्तम् एनं कथय । लोकस्य पिंषन्तं तां पेष्टा । इत्यत्र "जासनाट' [१४] इत्यादिना वा कर्म ॥ जासनाटकाथानामाकारोपान्तनिर्देशो यत्राकारश्रुतिस्तत्र यथा स्यादित्येवमर्थः । तेनेह न स्यात् । जम्भमजीजसत् । मधुमनीनटत् । पुरमचिक्रथत् । अत एव च क्रार्थः कर्मसंज्ञाप्रतिषेधपक्षे हस्वस्वाभावः । कर्मत्वे तु इस्वत्वमेव ।। उा निघ्नन्तम् । द्विषतां प्रहन्तुम् । इत्यत्र "निप्रेभ्यो नः" [१५] इति वा कर्म ॥ पक्षे । खरादीन्निप्रहन्त्रा। अमुं प्रणिजहि ॥ न केपणायन् सुहृदां सुतांश्च व्यवाहरन्वा विभवानसूनाम् । कार्ये प्रभोर्जेहुलवत्ववादीत्तथ्यं च पथ्यं च न कश्चिदित्थम् ॥१७॥ ९७. प्रभोः कार्ये । नैमित्तिक आधारे सप्तमीयम् । स्वामिकार्यार्थ के स्वामिभक्तभृत्याः सुहृदां मित्राणां सुतांश्च मित्रेभ्यः प्रियतराण्यपत्यानि च नापणायन् । वाथवा । विभवान् बाह्याः प्राणा नृणामर्थ इति सुतेभ्योपि प्रियतराणि द्रव्याण्यसूनां विभवेभ्योपि प्रियतराणां प्राणानां च न व्यवाहरन् यविक्रये द्यूतपणत्वे वा न नियुक्तवन्तः । किं त्वनेकेपि प्रभुकार्यार्थ सुहृदादि व्ययितवन्त इत्यर्थः । तुर्विशेषे । केवलं प्रभोः कार्ये जेहुलवत्तयं च सत्यं च पथ्यं च हितं चेत्थमुक्तरीत्या न कश्चिकोप्यवादीत् । एतेन जेहुलस्यात्यन्तिकी स्वामिभक्तिः प्रज्ञातिशयश्चोक्तः ॥ सुहृदामपणायन् सुतानपणायन् । असूनां व्यवाहरन् विभवान्व्यवाहरन् । इत्यत्र "विनिमेय" [१६] इत्यादिना वा कर्म ॥ १ सीडी थस्ततस्या. २ बी कार्थः क. ३ एफ इ वा. ४ ए विभावन्. ५ सी क्रये. ६ एफ थ्यं हि'. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ध्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] अथ प्रभुकार्ये येसत्यमहितं च भाषन्ते तान दूषयति ॥ कीर्तेः प्रदीव्यन्ति कुलं च दीव्यन्त्यात्मोन्नतेस्ते किल ये हि मत्रे । दीव्यन्ति कूटं चटुना च लोभमध्यासिताः पापमधिष्ठिताश्च ।। ९८॥ ९८. ये मत्रिणो मत्रे कूटमलीकेन चटुना च चाटुकारेण च दीव्यन्ति व्यवहरन्ति । कीदृशाः सन्तः । हि स्फुटं लोभं धनादिगाय॑मध्यासिता आश्रिता अत एव पापं वञ्चनाप्रयोगमधिष्ठिताश्च । लोभान्मन्त्रे सत्यं हितं च न भाषन्त इत्यर्थः । ते । किलेति सत्ये । कीर्तेः कुलं च प्रदीव्यन्ति । तथात्मोन्नतेः स्वमहत्त्वस्य दीव्यन्ति । क्रयविक्रये द्यूतपणत्वे वा विनियुञ्जते कीर्ति कुलमात्मोन्नतिं च निर्गमयन्तीत्यर्थः । तन्मत्रो हि किंपाकफलमिव मुखे मधुर आयतौ नायकस्य महाविपद्धेतुरित्येतेषां कीर्त्याधुच्छिनत्ति ।। ___ अथ यः प्रभुकार्ये सत्यवादी तं वर्णयति ॥ भर्तुः स चेतोधिशयीत सोधिवसेत्सभामावसतां च मौलिम् । गुरोः समीपं स उपोषितश्च ब्रूयात्सदोषितवान् स्फुटं यः॥९९॥ __९९. सदो मन्त्रमण्डपमनूषितवानध्यासितो यः स्फुटं सत्यं ब्रूयात्स नरो भर्तुः स्वामिनश्वेतोधिशयीताध्यासीत । तथा सभामावसतामाश्रयतां सभासदां मौलिमुत्तमाङ्गं मुकुटं वा सोधिवसेदारोहेत् । सर्वकार्येषु प्रष्टव्यतां सभ्येषु मौलिरिवोत्तमः स्यादित्यर्थः । तथा स गुरोः समीपमुपोषितश्च गुरुकुलं सेवितवांश्च तेनैव विद्या सम्यगधीतेत्यर्थः ॥ १ सी कीर्तिः प्र. १ बी ताश्च श्रिताश्च. एक ताश्चाश्रिताश्च. २ सी डी क्रये. ३ सी डी यतीत्य'. ४ बी एफ मुखम. ५ बी एफ हेत स. ६डीया सैन्येषु. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ सभामावसताम् । [है० २.२.२१.] द्वितीयः सर्गः । कीर्तेः प्रदीव्यन्ति कुलं प्रदीव्यन्ति । इत्यत्र "उपसर्गादिवः" [१७] इति वा कर्म ॥ उपसर्गादिति किम् । आत्मोन्नतेर्दीव्यन्ति ॥ अत्र "न" [१८] इत्यनेन नित्यं कर्मसंज्ञा न ॥ फूटं दीव्यन्ति । चटुना दीव्यन्ति । इत्यत्र “करणं च" [१९] इति दीव्यतेः करणं कर्म करणं च । तेन कर्मत्वे द्वितीया करणत्वे च तृतीया ॥ . चेतोधिशयीत । पापमधिष्ठिताः । लोभमध्यासिताः । इत्यत्र “अधेः शी" [२०] इत्यादिना कर्म ॥ . समीपमुपोषितः । सदोनूषितवान् । मौलिमधिवसेत् । सभामावसताम् । इत्यत्र “उपान्व्" [२१] इत्यादिना कर्म ॥ अथासत्यस्य दोषान्सत्यस्य च गुणानुक्त्वा सत्यमेव वक्तुमुपक्रमते॥ तत्तेर्थशास्त्रेभिनिविष्टबुद्धेर्वदाम्यमिथ्याभिनिविश्य पार्श्वम् । गोदोहमीशे त्रुटिमप्युदास्ते य आस्यते द्रामरकं हि तेन ॥१०॥ १००. यस्मात्सत्यासत्ये पूर्वोक्तगुणदोषोपेते तत्तस्माद्धेतोरर्थशास्त्र नीतिशास्त्रेभिनिविष्टबुद्धेः क्षुण्णमतेः सतस्ते तव पार्श्वमभिनिविश्याश्रित्यामिथ्या सत्यमहं वदामि । वर्तमानकालनिर्देशोधुनैव वदामीति भणनस्यातिशैव्यज्ञापनार्थः । शीघ्रवदने हेतुमाह । हि यस्मादीशे स्वामिनि स्वामिकार्यविषय इत्यर्थः । गोदोहं यावता कालेन गौर्दुह्यते तावन्तं कालमित्यर्थः । त्रुटिमपि। प्रयत्नेन विमुक्तस्य यवस्य पततोम्बरात् । द्वियवं यावदध्वानं यः कालः स त्रुटिर्मतः ॥ इत्यतिसूक्ष्मकालमपि यो भृत्य उदास्त उपेक्षते तेन द्राग् नरकमास्यते स्थीयते स्वामिनो द्रोहस्येवोपेक्षाया अपि महापापहेतुत्वात् ॥ १ सी हस्यैवो'. २ सी डी पापे हे'. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] अथ प्रतिज्ञातं सत्यमेव वृत्तनवकेन वदन्प्राग्ग्राहारेदुर्गसंपद्बलसंप दादिबलिष्ठतया दुःसाध्यत्वप्रतिपादनेन ग्राहारिं हन्तुं ससैन्यं दण्डनेतारं प्रेषयेति जेहुलवाक्यमाक्षिपंस्तस्य स्वयमास्कन्द्यतां वृत्तत्रयेणाह ॥ क्रोशे गिरिर्योजनमब्धिरस्य दुर्गं स्वपुर्या वसतोस्त्यमुं तत् । समुत्थितं निश्यपि शालिपाकेप्यशायिनं मा स्म मथाः सुसाधम् १०१ २०० I 1 ६ १०१. अस्य ग्राहारे: स्वपुर्या वामनेस्थत्यां वसतः क्रोशे गिरिरुज्जयन्ताद्रिस्तथा योजनं क्रोशचतुष्टयेब्धिश्च दुर्गे दुर्गस्थानमस्ति । गिरिरविश्वास्यातिनिकटं दुर्गमस्तीत्यर्थः । तत्तस्माद्धेतोरमुं ग्राहारिं सुसाधं सुखजेयं मा स्म मथा मा ज्ञासीः । कीदृशं सन्तम् । निश्यपि समुत्थितमुद्यतम् । अत एव शालिपाकेपि यावता कालेन शालिः पच्यते तावत्यपि काले । शालिर्हि स्तोककाले पच्यत इति स्तोककालमपीत्यर्थः । अशायिनम् । दुर्गबलयुक्तत्वात्सदोद्यतत्वाच्च दुःसाधं जानीहीत्यर्थः । क्रोशे योजनमित्यत्रैकवचनमस्य गिरिसमुद्रदुर्गयोरतिनैकट्यज्ञापनार्थम् । अन्यथा वामनस्थलीतो गिरेः क्रोशतकेच पञ्चयोजन्यां वर्तमानत्वातदनुपपन्नं स्यात् । यद्वा वामनस्थल्यां तदा वास्तव्यानां तथा बाहुल्यात्तथा वासाचैतदुपपन्नम् । यदि पुनर्प्राहारैरन्या का चिद्राजधानी यस्याः सकाशात्क्रोशे गिरियजने चाब्धिस्तां न वेद्मि ॥ गोदोहमप्युद्यममत्यजन्तो भजन्त्यहोरात्रममुं नृपास्तत् । क्रोशान शतं सैन्यपतिं दिशंस्तद्वधाय दात्रेण तरुं लुनासि ॥ १०२ ॥ १०२. गोदोहमपि गोदोहकालमप्युद्यममत्यजन्तः सन्तो नृपा 30 ४ १ बी 'न्यं ने. २ सी व डी 'तद्वयेनाह. ३ बी 'नस्थाल्यां. साध्यं जा. ५सी क्रोशा यो डी क्रोशो यो ६ एफ् गिरि: क्रो. ७ एफ् ● केष्वब्धिश्च ८ बी रेन्या ९ए शेगिंरियोज १० बी डी ने वाधि. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.२५.] द्वितीयः सर्गः । २०१ अमुं ग्राहारिमहोरात्रम् । एतेन भत्त्यतिशयोक्तिः । भजन्ति । एतेन वलसंपदतिशयोक्तिः । तत्तस्मात्तद्वधाय ग्राहारिहतये क्रोशाञ् शतं क्रोशशते दूरदेश इत्यर्थः । एतेन यदि सेनानीः कथमपि तेन भज्येत तदानस्थैर्भवद्भिरस्य साहाय्यं कर्तुं दुःशकमित्युक्तम् । सैन्यपतिं दिशनाज्ञापयंस्त्वं दात्रेण तरुं लुनासि यथा महत्वात्तरुर्दात्रेण च्छेत्तुं न शक्यते तथा त्वद्दण्डेशेनापि ग्राहारिरित्यर्थः ॥ अभिनिविश्य पार्श्वम् । इत्यत्र “वाभिनिविशः" [२२] इति कर्म वा ॥ व्यवस्थितविभाषेयम् । तेन व चित्कर्मसंज्ञैव । क चिदाधारसंज्ञैव । शास्त्रेभिनिविष्टै ॥ काल । त्रुटिमुदास्ते निशि समुत्थितम् । अध्वा । योजनमस्ति क्रोशेस्ति । भाव । गोदोहमुदास्ते शालिपाकेप्यशायिनम् । देश । नरकमास्यते स्वपुर्या वसतः । इत्यत्र “कालावं" [२३] इत्यादिना कालादिराधारः कर्म वा । अकर्मच । यत्रापि पक्षे कर्मसंज्ञा तत्राकर्मसंज्ञापि वा भवतीत्यर्थः । तेन नरकमास्यते इत्यत्र सकर्मकत्वाद्वितीया । अकर्मकत्वाच्च भाव आत्मनेपदम् ॥ अन्ये तु सकर्मकॉणामकर्मकाणां च प्रयोगे कालाध्वभावानामत्यन्तसंयोगे सति नित्यं कर्मत्वमिछन्ति । भर्जन्त्यहोरात्रममुम्।क्रोशान्सैन्यपतिं दिशन् । गोदोहमुथममत्यजन्तः॥ दात्रेण तरुं लुनासि । इत्यत्र "साधक" [२४] इत्यादिनी करणसंज्ञा ॥ तद्वधाय दिशन् । इत्यत्र “कर्माभि" [२५] इत्यादिमा संप्रदानसंज्ञा ॥ १ डी शतदू. २ ए बी सी डी मैं । व्य०. ३ डी ष्टः । का. ४ ए सी ध्वत्या. बी एफ ध्वभावेत्या . ५ एफ म । अ. ६ एफ पि भ. ७ एफ काणां च. ८ ए जन्ति हो . ९ बी जन्तम् । दा. १० बी ना कार'. ११ सी संज्ञा ।.. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] जयाय चेश्वं स्पृहयैर्यशो वा लोकाय कुप्यन्तमसूयमानम् । दुद्यन्तमन्तममुं स्वयं तत्प्रद्रोग्धुमुत्कुध्य कृताभियोगः ॥ १०३ ॥ १०३. जयाय चेत्वं स्पृहयेर्यशो वा जयं कीर्ति वा यदीच्छसि तत्तदामुं ग्राहारिं प्रद्रोग्धुं जिघांसितुं स्वयं कृताभियोगो विहितोद्यमः संस्त्वममुमेवोत्क्रुध्योत्क्रोधविषयं कुरु मा सहस्व । तं स्वयमभिषेणयेत्यर्थः । कीदृशम् । लोकाय कुप्यन्तममृष्यन्तमसूयमानं लोकस्यैव गुणेषु दोषानाविष्कुर्वाणं दुह्यन्तमपचिकीर्षन्तमीयन्तं लोक संपत्तौ चेतसा व्यारुष्यन्तम् ॥ जयाय यशो वा स्पृहयेः । इत्यत्र "स्पृहेर्व्याप्यं वा " [२६] इति वा संप्रदानम् ॥ लोकाय कुप्यन्तं दुह्यन्तमीष्यन्तमसूयमानम् । इत्यत्र " क्रुद्रुह" [२७] इत्यादिना संप्रदानम् ॥ अमुमुक्रुध्ये | अमुं प्रद्रोग्धुम् । इत्यत्र 'नोपसर्गात्कुहा" [२८] इति न संप्रदानम् ॥ अथ दृष्टान्तोक्त्या राज्ञा तस्य स्वयमास्कन्दनं द्रढयति । सिंहो निकुञ्जाद भिसृत्य यूथाद्धन्तीभमुद्दामतमं मृगेभ्यः । यानात्स्वयं मा विरम प्रमाद्यं मा मा जुगुप्सस्व जगत्ततोवन् ॥ १०४॥ १०४. सिंहो निकुञ्जद्वनगह्वरादभिसृत्य निर्गत्य मृगेभ्य आरण्यपशुभ्य उद्दामतमं बलादिनोत्कृष्टतमभिभं यूथान्मृगगणादाकृष्य हन्ति तस्मात्त्वमपि ततो ग्राहारेर्जगदन् रक्षन्सन् स्वयं यानान्मा विरम १ ए ये यश. २ ए दुद्यन्त ३ एफ् द्य त्वं मा जु.. १ एफ् 'विः कुर्वा २ एफ् ध्यः । अ ३ एफ नं दृढ ४ ए वरन्. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (है० २.२.२८.] द्वितीयः सर्गः। २०३ दुःखहेतुरिदमात्मन इति विरज्य मा निवर्तस्व । तथा मा प्रमाद्य यत्कार्य तद्दण्डनेतैव करिष्यतीत्यालस्यं कृत्वा मा निवर्तख । तथा मा जुगुप्सस्व नीचोयं स्वयमास्कन्तुमनुचित इति निन्दित्वा मा निवर्तस्व ।। ननु साहाय्यकृन्मित्रसंपादिरहितोयं सैन्येशेनापि सैन्यैरवष्टब्धो दुर्गस्थोपि निरुद्धधान्यादिप्रवेशस्थानः सुसाध एव तत्किं तत्साधनाय मम स्वयमभिषेणनेनेति राजा मा स्म वददित्यस्य महामित्रसंपदमायाह ॥ युधोपराजिष्णुररेरभीरुखाता तुरुष्कानपि कच्छदेशात् । कुतोप्यनन्तर्दधदस्य सोस्ति लक्षः सखा जात इवैकमातुः ॥१०॥ १०५. सोनेकावदातैः प्रसिद्धो लक्षो नाम कच्छदेशस्वाम्येकमातुर्जात इव सहोदर इवातिस्निग्धः सखास्य ग्राहारेरॅस्ति । कीदृक् । अरेरभीरुरत्रस्नुरत एव युधो रणादपराजिष्णुर्दुःखेयं युदिति तामसहमानोनिवर्तिष्णुरत एव च कच्छदेशात्तुरुष्कानप्यासतामन्ये नृपाः सर्वजगद्भयंकरान्म्लेच्छानपि त्राता रक्षन्नत एवं च कुतोपि कस्मादप्यनन्तर्दधदनिलीयमानोनश्यन् ।। ननु सखास्य दूरे भविष्यति ततः सन्नप्यसत्प्राय एवेति न वाच्यमित्याह । कच्छात्सुराष्ट्राष्टसु योजनेषु दीपोत्सवः पक्ष इवाश्वयुज्याः। फुल्लात्प्रभूतो न तदस्य दूरे स्थानाधिको भूमिपतिभ्य उाम् १०६ १०६. यथाश्वयुज्या आश्विनपूर्णिमाया आरभ्य पक्षे गते दीपो१ बी दा र. २ ए ‘वन्धो'. ३ डी मा वादीदि. ४ सी र संपन्या ॥ नवो. त्तरशततमश्लोकावतरणस्थित 'संपद्भ्याम्' इत्येतत्पदात्प्राक्तनो ग्रन्थो नास्ति. ५ एफ ष्णुदुःखे. ६ एफ व कु. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ व्याश्रयमहाकाव्ये . [ मूलराजः] त्सवो दीपालिका स्यात्तथा कच्छात्कच्छदेशाद्गतेष्वष्टसु योजनेषु सुराष्ट्री सुराष्ट्रादेशो भवति तत्तस्माद्धेतो: फुल्लात्फुल्लाख्यान्महाराजात्प्रभूतो जातो लक्षाख्यः सखास्य ग्राहारेन दूरे । कीदृक् । उया पृथ्वीविषये ये भूमिपतयस्तेभ्यः सकाशात्स्थाम्ना बलेनाधिकः ॥ । __तथापि द्वावेव शत्रू कृतौ । तौ चानेकमहाराजान्वितः सैन्यपतिरेव निग्रहीष्यति तत्किं स्वयमास्कन्दनेनेति न वाच्यमित्यनेकान् द्विप आह ॥ येद्रौ समुद्रे च नृपा दधानाः क्षत्रत्वमात्मन्युपिता दृगग्रे । तेप्यस्य संवर्मयितार आजौ नैको न च द्वौ बहवो द्विषस्तत् ॥१०७॥ १०७. आत्मनि स्वे क्षत्रत्वं क्षात्रधर्म दधानाः । शौर्यादिक्षत्रियगुणान्विता इत्यर्थः । ये नृपा अद्रौ ये समुद्रे चाब्धिसमीपे चोषिता: स्थिताः सन्ति । ये चास्य ग्राहारेर्डगने दृष्टिपुर उषिताः सन्ति । सदा समीपस्था येमुं सेवन्त इत्यर्थः । तेपि । न केवलं स्वयं लक्षश्चेत्यप्यर्थः । अस्य ग्राहारेराजौ रणनिमित्तं संवर्मयितारः संनक्ष्यन्ते । तत्पक्षत्वात्तेपि त्वया सह योत्स्यन्त इत्यर्थः । तत्तस्मान्नको ग्राहारिट् िन च द्वौ ग्राहारिलक्षौ द्विषौ किं तु बहवोनेके द्विषः । "अपायेवधिरपादानम्" [२९] तत्रिविधम् । निर्दिष्टविषयम् । उपात्तविषयम् । अपेक्षितक्रियं च । निर्दिष्टविषयं यथा । निकुञ्जादभिसृत्य ॥ यत्रं धातुर्धात्वन्तरार्थाङ्ग स्वार्थमाह तदुपात्तविषयम् । यथा यूथाद्धन्ति । अत्र ह्याकर्षणाङ्गे हनने हन्तिर्वतते ॥ अपेक्षितक्रियं यथा । मृगेभ्य उद्दामतमम् । अपायश्च कायसंसर्गपूर्वको बुद्धिसंसर्गपूर्वको वा विभाग उच्यते । तेन यानान्मा विरम । यानान्मा १ एफष्टयो'. २ डी एफ ष्ट्रादे'. ३ बी त्रु । तौ. ४ एफ ताः स. ५ एफ म् । उपे'. ६ बीत्र तु धात्व. ७ ए °न्ति वर्त'. ८ एफ ते । उपे. ९ ए वा वा वि. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.२,३०.] द्वितीयः सर्गः। २०५ प्रमाद्य । यानान्मा जुगुप्सस्त्र । इत्यत्र दुःखहेतुं यानं बुद्ध्या प्राप्य नानेन कृत्यमस्तीति यानान्निवर्तमानो राजा जम्बकेन निषिध्यत इति निवृत्तेरङ्गेषु विरामप्रमादजुगुप्सास्वेते धातवो वर्तन्त इति बुद्धिसंसर्गपूर्वकोपायः ॥ तथा जगत्ततोवन् । इत्यत्र राजा यदीदं जगद्राहारिः पश्येनूनमस्य सर्वस्वमपहरेदिति बुद्ध्या ग्राहारिणा संयोज्य तस्मान्निवर्तयतीत्यपाय एवं ॥ तथा युधोपराजिष्णुः इत्यत्रापि युधमसहमानस्ततो न निवर्तत इत्यपाय एव ॥ अरेरभीरुः । इत्यत्रापि वधबन्धक्लेशकारिणमैरिं बुद्ध्या प्राप्य ततो न निवर्तत इत्यपाय एव । यद्यपि निवृत्तेरपेक्षयापादानं स्यात्सा चात्र नजा निषिध्यत इत्यपादानं न प्राप्नोति तथापि निवृत्तेरपेक्षयात्र प्रथममपादानं ततः सा नजा निषिध्यत इति सर्वमुपपन्नम् । एवम. न्यत्रापि ॥ त्राता तुरुष्कान् कच्छदेशात् । इत्यत्र तुरुष्कैदेशसंपर्क बुद्ध्या समीक्ष्य देशस्य विनाशं पश्यंस्तुरुष्कान देशान्निवर्तयतीत्यपाय एव । कुतोप्यनन्तर्दधत् । इत्यत्र भयेन मा मां कोपि द्राक्षीदिति न तिरो भवतीत्यत्राप्यपायः॥ एकमातुर्जात इत्यत्राप्येकमातुः पुत्रो निष्क्रामतीति स्फुट एवापायः ॥ फुल्लात्प्रभूतः । इत्यत्रापि फुल्लालक्षः संक्रामतीत्यपायोस्ति ॥ कच्छात्सुराष्ट्राष्टसु योजनेषु । इत्यत्र कच्छानिःसृत्य गतेषु योजनेषु भवतीत्यर्थः ॥ आश्वयुज्या दीपोत्सवः पक्षे । ततः प्रभृति पक्षे गते भवतीत्यर्थः । उभयत्रापायः प्रतीयते ॥ भूमिपतिभ्योधिक इत्यत्र लक्षः पुंस्त्वादिना भूपैः सह संसृष्ट आधिक्येन धर्मेण ततो विभक्तः प्रतीयत इति सर्वत्राप्यपायविवक्षा ॥ __ वैषयिक । उर्ध्या भूमिपतिभ्यः । औपश्लेषिक । अद्रौ ये। अभिव्यापक । आत्मनि क्षत्रत्वम् । सामीप्यक । समुद्रे ये । नैमित्तिक । आजौ संवर्मथितारः॥ औपचारिक । दृगन उषिताः । इत्यन्न "क्रियाश्रयस्य' [३०] इत्यादिनाधिकरणम् ॥ १ एफ जम्बुके . २ एफ व । यद्य'. ३ डी मरिबु. ४ ए धहिनित्य. ५ एफ ये मा. ६ डी त्यत्र कच्छादित्यत्रा . ७ डी तीति । उ°. ८ डी °यिकम् । उ. ९ डी तिभ्योप्यधिकः । औ. १० एफ भिव्यक. ११ एपकः । आ. १२ डी रिकः । दृ. १३ ए बी यानिय. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] एकः । द्वौ । बहवः । इत्यत्र "नान्नः" [३१] इत्यादिना प्रथमा विभक्तिः ॥ अथैवमुक्तदुर्गमित्रसहायसंपदलेन ग्राहारेरतिबलिष्ठतां वदन्महाराजस्यैवायं साध्यो नान्यस्येति निर्धारयति । मित्रं नृपेन्द्र समया निकषाथ दुर्ग ___ यः सोप्यलं भवति किं पुनरन्तरा ते । तत्तं निहन्तुमवनी दिवमन्तरेण त्वामन्तरेण न हि संप्रति कश्चिदीशः ॥ १०८ ॥ १०८. हे नृपेन्द्र यः शत्रुर्मित्रं समया मित्रसमीपे स्यादथाथ वा दुर्ग निकषा पर्वताब्ध्यादिदुर्गमस्थानसमीपे स्यात्सोप्यास्तां तावदेतद्वयसमीपस्थ एकतरसमीपस्थोप्यलं समर्थों भवति किं पुनस्ते मित्रदुर्गे अन्तरा। भित्रदुर्गयोर्यो मध्यवर्ती स नितरां बलिष्ठ इत्यर्थः । तत्तस्माद्धेतोस्तं ग्राहारि निहन्तुमवनी दिवमन्तरेण द्यावापृथिव्योमध्ये त्वामन्तरेण विना संप्रत्यस्मिन्काले न कश्चित्कोपि सैन्यपत्यादिक ईश: समर्थः । वसन्ततिलका छन्दः ॥ योयं मित्रदुर्गसंपन्यामतिबलिष्ठतया कस्याप्यन्यस्यासाध्यः स कदा चिन्ममाप्यसाध्यः स्यादिति राजा मा शकिष्टेत्याह । तेनाभीरान्येन मुराष्ट्रामतिद्धः पार्थ स्थाना त्वं चलितश्चेत्समराय । हा प्राणेशान्धिग्विधिमेवं प्रलपेयु वैरिटेणानीति विभो मां प्रतिभाति ॥ १०९ ॥ १०९. हे विभो स्वामिन्सुराष्ट्रां सुराष्ट्रादेशं येन लक्ष्यीकृत्य य १ बी महासं. २ एफ हारिर'. ३ एफ दथवा. ४ एफ ईदृश:. ५ एफ राष्ट्रदे'. ६ एफ लक्षीकृ. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.३३.] द्वितीयः सर्गः । २०७ आभीरी आभीरजातिक्षत्रिया ग्राहरिष्वादयस्तांस्तेन लक्ष्यीकृत्य चेयदि त्वं समराय चलितः कृतप्रयाणस्तदा हा प्राणेशान् कष्टं वल्लभानां मृत्युकालावाप्तेः । अत एव विधिं दैवं धिग् गर्हामहे । इत्येवं प्रकारेण वैरिस्त्रैणानि भाविस्वपतिमरणनिश्चयेन प्रलपेयुराक्रन्देयुरित्येवं मां प्रतिभाति मम प्रतिभासते । इत्यहं जानामीत्यर्थः । ननु ग्राहरिष्वाद्यरयो - प्यतिशूरास्तत्तान्प्रति मयि रणायोद्यतेपि तत्पत्नीनां स्वभर्तृमृत्यु निश्च येन विलापः कथं त्वया विमृश्यत इत्याह । यतस्त्वं पार्थमतिस्थान्ना वृद्धोर्जुनस्यातिक्रमेण बलेन स्फीत: । अर्जुनादपि बलिष्ठ इत्यर्थः ॥ नृपेन्द्र । इत्यत्र " आमन्त्र्ये” [३२] इति प्रथमा || मित्रं समया । दुर्गं निकषा । हा प्राणेशान् । धिग्विधम् । अन्तरा ते । अवनीं दिवमन्तरेण । पार्थमति । येन सुराष्ट्राम् । तेनाभीरान् । इत्यत्र “गौजात्" [ ३३ ] इत्यादिना द्वितीया ॥ बहुवचनादन्येनापि युक्ताद्भवति । मां प्रतिभाति ॥ धातुसंबद्धोत्र प्रतिस्तेन "भागिनि च " [३७] इत्यादिना न सिध्यति । मत्तमयूरं छन्दः ॥ अथ मन्त्रमुपसंहरन्नाह | उपर्युपरि भूभृतोध्यधि वनान्यधोधोम्बुधी I द्विषोभिगदितेमुना पुलकभृद्वपुः सर्वतः । भुजावुभयतः क्षिपन् दृशमथो उदस्थान्नृपः 9 स्थितौ तमभितश्च तौ परित उत्थितस्तान् जनः ॥ ११० ॥ ११०. नृपो मूलराज उदस्थात् । कीदृक्सन् । वपुः सर्वतोङ्गस्य १ एफ् इत्याचार्य श्री हेमचन्द्राचार्यविरचिते शब्दानुशासनद्याश्रयमहाकाव्ये प्रभातमन्त्रवर्णनो नाम द्वितीयः सर्गः समाप्तः ॥ १ एफू राजा. २ ए लक्षीकू . ३ एफ् विधम् । ४ ए गिनीवेत्या. सी 'गिनवेत्या. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] Ε सर्वेषु प्रदेशेषु पुलकभृत् । क्व सति । भूभृतो गिरीनुपर्युपरि वनानि काननान्यध्यध्यम्बुधीनधोधः सर्वत्र क्रियाविशेषणादम् । सप्तमी वा । द्विष इत्यत्रेतिशब्दोध्याहार्यः । ततोयमर्थः । भूभृद्वनाम्बुधीनां प्रत्यासन्नं द्विषो ग्राहरिष्यादिशत्रवो वर्तन्त इत्येतस्मिन्नमुना जैम्बकेनाभिगदिते भणिते । यद्वा भूभृद्वनाम्बुधीनां समीपे वर्तमानान्द्विषः शत्रूनभिलेंक्ष्यीकृत्यामुना गदिते पूर्वोक्तरीत्या भैणने द्विषन्नामश्रवणोद्भूतवीर रसोल्लासवशेन सर्वाङ्गीणरोमाञ्चाञ्चित इत्यर्थः । तथा मद्दोर्दण्डयोः सतो: केद्यापि शत्रव इत्यहङ्कारेणोत्पन्नरणकण्ड्डा भुजावुभयतो दृशं क्षिपन् द्वयोरपि भुजयोरुपरि दृष्टिं व्यापारयन् । अथो भिन्नक्रमे नृप इत्यतो ज्ञेयः । अथो नृपोत्थानानन्तरं तं नृपमभित उभयपार्श्वयोः स्थितौ सन्तौ तौ जम्बर्कजेहुलावुदुस्थाताम् । उदस्थादित्येवार्थवशाद्दिवचनान्ततया योज्यम् । तथा चो भिन्नक्रमे जन इत्यतो ज्ञेयः । तान्नृपजेम्बकजेहुलान्परितः सर्वतो मत्रमण्डपबहिः स्थितो जनश्च परिवारलोकश्वोत्थितः । नृप उदस्थादित्यनेनाप्रेतनसर्गे ग्राहारिं प्रति नृपस्य प्रस्थानं वर्णयिष्यत इति सूचितम् ॥ १२ 1 अधोधोम्बुधीन् । अध्यधिवनानि । उपर्युपरि भूभृतः । इत्यत्र “द्वित्वेध: " [३४] इत्यादिना द्वितीया ॥ 1 वपुः सर्वतः । भुजावुभयतः । तमभितः । तान्परितः । इत्यत्र "सर्वोभय" [३५] इत्यादिना द्वितीया ॥ पृथ्वी छन्दः ॥ ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्य लेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासनध्याश्रयवृत्तौ द्वितीयः सर्गः समर्थितः ॥ १० क्षीकू ९ १ सीम् । स्वस २ ए एफ जम्बुके · ३ एम्बुद्वीस ४ए एफू 'ल. ५ डी भणिते दि. ६ डी ङ्गीणं रो ७ बी रं नृ ८ एफ तौ जम्बुक'. • • हु . १० सी डी 'जेहला. ११ एफू जम्बुक १२ सी डी रिं तं प्र Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याश्रयमहाकाव्ये तृतीयः सर्गः। ॥ अहम् ॥ अथ विजययात्रानुकूलं शरत्कालं पञ्चाशता श्लोकैवर्णयति । अथ द्यामभि शुभ्राभ्रा सुनीराभि सरः सरः। अभि दिग्विजयं साधुरुपतस्थे शरत्क्षणात् ॥ १॥ १. अथ मन्त्रावसरानन्तरं क्षणाद्रारिष्वभिषेणनविषयचिन्तासमकालमेव शरदुपतस्थे विजृम्भित । किं भूता । द्यां गगनमभिलक्ष्यीकृत्य शुभ्राभ्रा विशदमेघा । एतेनाभ्राणामवार्षुकत्वेनादित्यातपनिवारकत्वेनं चास्याः सुखदतोक्ता । तथा सर: सरोमि तडाँगं तडागमभिव्याप्य सुनीरा निर्मलजला । एतेन पेयजलत्वोक्तिः । अत एवाभि दिग्विजयं साधुर्विजययात्राविषये साधुत्वप्रकारमापन्ना । एतेन राज्ञो ग्राहरिपुविषयाभिषेणनमनोरथस्य शीघ्रभाविनी सफलतोक्ता । लक्षणे । द्यामभि ॥ वीप्स्ये । अभि सरः सरः॥ इत्थंभूते । अभि दिग्विजयम् । इत्यत्र “लक्षण” [३६] इत्यादिना द्वितीया ॥ वभुः प्रति नृपं ग्रामपतिं पर्यनु कर्षकम् । प्रति ग्रामं दिशं पर्यनु क्षेत्रं सस्यसंपदः ॥२॥ २. नृपमित्यादिषु सर्वेषु जातावेकवचनम् । प्रति ग्रामं दिशं परि १ सी जयाया. २ ए सी द्राहारि . ३ सी डी पये चि. ४ सी डी "ता यां. ५ ए सी डी एफ लक्षीकृ. ६ ए सी डी न वास्याः. ७ सी डी डागम. ८ सी डी एफ वीप्से । अ'. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] अनु क्षेत्रं ग्रामान् दिश: क्षेत्राणि च लक्ष्यीकृत्य सस्यसंपदः प्रति नृपं राज्ञां भागे ग्रामपतिं परि ग्रामठकुराणां भागेनु कर्षकं हालिकानां भागे च बभुः प्राचुर्येण शुशुभिरे । शरदि हि कर्षकाणां धान्यानि निष्पद्यन्ते । तेभ्यो ग्रामभूस्वामित्वाद्वामपतयो भागं गृह्णन्ति । तेभ्यश्च देशपतित्वान्नृपा भागं गृह्णन्ति ॥ प्रतीभमिभमन्वश्वमश्वं गां गां च पर्यसौ । साधुः प्रति मदमनु पालनं बलितां परि ॥ ३ ॥ ३. असौ शरदभमिमं प्रत्यभिव्याप्य मदं प्रति मदग्रहणविषये साधुः साधुत्वप्रकार मापन्नाभूत् । तथाश्वमश्वमन्वभिव्याप्य पालनमनु रक्तस्रावादिचिकित्साकरणेन रक्तोद्बलनोद्भवरोगाद्रक्षणविषये साधुरभूत् । तथा गां गां च परि वृषं वृषैमभिव्याप्य वलितां परि बलिष्टताविषये साधुरभूत । शरदि हीभा माद्यन्ति । अश्राच रक्तस्रावं कृत्वा घृतदानादिना पाल्यन्ते । वृषभाश्च बलिष्ठाः स्युः ॥ भागिनि । प्रति नृपम् । ग्रामपतिं परि । अनु कर्षकम् ॥ लक्षणे । प्रति ग्रामम् । दिशं परि । अनु क्षेत्रम् ॥ वीप्स्ये । इभमिभं प्रति । गां गां परि । अश्वश्वमनु ॥ इत्थंभूते । मदं प्रति । बलितां परि । अनु पालनम् । इत्यत्र "भागिनि च " [३७] इत्यादिना द्वितीया ॥ 9 सरोन्ववसितान्यब्जान्यन्वेयुर्यत्सितच्छदाः । तेनर्तवोनु शरदमुप गङ्गामिवापगाः ॥ ४ ॥ ४. सरोनु । सर इत्यत्र जातावेकवचनम् । अनुः सहार्थे । ततः १ एच्छित '. १ ए लक्षीकृ . २ ए सी डी गे व ३ ए बी एफ् 'कावा'. ४ बी "भम. ५ ए बी ८ बी इति जा श्रावं. ६ बीम् । प ७ सी एफ बीप्से । इ. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.४१.] तृतीयः सर्गः। २११ सरोभिः सह । पिंगु बन्धने । अवसीयन्ते स्मावसितानि संबद्धान्यब्जान्यनु । अत्रानुहेतौ । ततः सरोभिः सह संबद्धैरव्जैहेतुभिः । यदिति क्रियाविशेषणम् । यत्सितच्छदा राजहंसा एयुरागताः । अर्थाच्छरदि। वर्षासु मेघभयान्मानसं गताः शरदं हि तत आगच्छन्ति । तेन हेतुना ज्ञायते । ऋतवोनु शरदमुप गङ्गामिवापगाः । अत्रानूपौ हीनाौँ । यथा गङ्गाया अन्या नद्यो हीनास्तथा शरदोन्य ऋतवः शिशिराद्या हीनास्तेषु सितच्छदागमनाभावात्। यो हि सितच्छदतुल्यैर्महापुरुषैराश्रीयते तस्मादन्ये हीनाः स्युः ॥ अब्जान्यन्वेयुः । सरोन्ववसितानि । इत्यत्र "हेतुसहार्थेनुना" [३८] इति द्वितीया ॥ अनु शरदम् । उप गङ्गाम् । इत्यत्र "उत्कृष्टेनूपेन" [३९] इति द्वितीया॥ शालीन्पक्कान्सप्रमोदं रक्षन्त्यो गोपिका दिनम् । क्रोशं व्यस्तारयन् गीतीनाति गोदोहमप्ययुः ॥५॥ ५. गोपिकाः शालीनां रक्षिकाः स्त्रियो दिनं सकलदिवसं व्याप्य क्रोशं क्रोशप्रमाणभूमिं व्याप्य गीतीर्गानानि व्यस्तारयन्न पुनर्गोदोहमपि यावता कालेन गौर्दुह्यते तावन्तमपि कालमति खेदमयुगताः । यतः पक्कान्निष्पन्नाञ् शालीन् कलमादीन् सप्रमोदं सहर्षे यथा स्यादेवं रक्षन्त्यः शुकादिभ्यः । सुपक्कशालिदर्शनोद्भूतप्रमोदपारवश्येन सकलं दिनमुच्चैःस्वरेण गायन्त्योपि क्षणमपि खेदं न गता इत्यर्थः । शरदि हि शालयः पच्यन्ते ।। शालीन्पक्वान् रक्षन्त्यः । इत्यत्र “कर्मणि" [४०] इति द्वितीया ॥ सप्रमोदं रक्षन्त्यः । इत्यत्र “क्रियाविशेषणात्" [४१] इति द्वितीया ॥ १ वी रदं व. २ डी रदि हि. ३ एफ राश्रिय'. ४ ए °स्माही . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] दिनं रक्षन्त्यः । कोशं व्यस्तारयन् । अत्र "काल" [४२] इत्यादिना द्वि तीया ॥ भावादपीच्छन्त्यन्ये । गोदोहं नार्तिमयुः ॥ पारायणं नवाहेनाधीत्य क्रोशेन चाशिषम् । गोदोहेन द्विजा याज्यानभ्यषिञ्चन्यथाविधि ॥ ६ ॥ 3 ६. गोदोहेन गोदोहमात्रकालव्याघ्या यथाविधि वेदोक्तशान्तिमन्त्रोच्चारणादिविध्यनुसारेण याज्यान्नृपामात्यादियजमानान् द्विजा अभ्यषिञ्चन्नस्नपयन् । किं कृत्वा । नवाहेनाश्विनश्वेतप्रतिपदादिदिननवकस्य नवरात्रनाम्नो व्यायों पारोय्यते गम्यतेनेन पारायण वेदग्रन्थमधीत्याध्ययनेन समाप्य पूर्ण गुणयित्वेति यावत् । तथा क्रोशेन यावता कालेन कोशो गम्यते क्रोशप्रमाणक्षेत्रव्यात्या चाशिषं च सप्त"शतिकाभिधां सप्तशतप्रमाणां चण्डिकास्तुतिं चाधीत्य गुणयित्वा । शरदि हि पारायणिका द्विजा आश्विनश्वेतप्रतिपदि देवायतनेषु दर्भशलाकैकशतमयत्रह्ममूर्तेरग्रतः कुङ्कुमादिसुरभिद्रव्याढ्यजलभृतं कुम्भं स्थापयित्वा ततो महानवमी यावदभुक्ता ब्रह्मचारिणो भूशायिनः पारायणं कार्येन तथाधीयते यथा नवमे दिने पूर्णस्यात्तथा महाप्रभावत्वेन सप्तशतिकां च चण्डिकास्तुति महाशिषं गुणयन्ति । तथा च मार्कण्डेयपुराणे चण्डिकोक्तिः ।। शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी । तस्यां ममैतन्माहात्म्यमुच्चार्य श्राव्यमेव च ॥ १ ॥ 99 एतन्माहात्म्यं सप्तशतिकोक्तम् । तदेवं पारायणं महाशिषं चाधीत्य १ सी एफ न वाशि १ सी डी दोहनं ना° २ एफ् मप्ययुः ॥ या परी ५ ए सी ते तेन. ६ बी सी डी ८ एफ मा ९ सी एफ वमी या एतदेव परा. ११ ए एफ देव पा ३ सी डी 'धि देवोक्त. ४ बी णं देवग्र° ७ सी डी पूर्व गु. १० सीम् । एवेदे एवं डीम् । . Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.२.४२.] तृतीयः सर्गः । २१३ विजयदशम्यां कुम्भमुत्पाट्य तेभ्यः स्थानेभ्यो राजादिभवनमागत्य राजादिमहायजमानान्प्राङ्मुखानुदङ्मुखान्वा शुचिवस्त्रान्फलहस्तान् शान्तिमत्रोच्चारपूर्व शान्तयेभिषिञ्चन्ति ॥ अधीयानैर्दिनमपि च्छन्दो नाग्राहि माणवैः। गोपीगीत्या हृदोद्धान्तैः समेन विषमेण च ॥७॥ ७. अपिभिन्नक्रमे । दिनं सकलदिवसं व्याप्याधीयानैरपि पठद्भिरपि माणवैर्बटुभिश्छन्दो जयदेवादि वेदो वा नाग्राहि नागमितम् । केन कृत्वा । समेन तुल्यलक्षणलक्षितपादचतुष्टयेन श्रियादिसमच्छन्दसा विषमेण च भिन्नलक्षणलक्षितपादचतुष्केण पदचतुरूंछ दिविषमच्छन्दसा च । यद्वा समेन लक्षणया सुखपाठ्यस्थानकेन विषमेण च दुःखपाठ्यस्थानकेन च । यतो गोपीगीत्या गोपीनां शाल्यादिरक्षिकाणां स्त्रीणां गानेन हेतुना हृदा कृत्वोद्धान्तैः शून्यचित्तैः । शून्यचित्तेन बहुपठ्यमानमपि हि शास्त्रं नागच्छति ॥ धान्येनार्थ इतीन्द्रस्य मासा पूर्व पयोमुचः। कौतुकेनार्थिनः पौरा स्तम्भेनाद्राक्षुरुत्सवम् ॥ ८॥ ८. धान्येनार्थः कार्यमिति हेतोर्य इन्द्रस्य स्तम्भेन महाध्वजपताकाकलितोन्नतस्थूणादण्डेनोपलक्षित उत्सवस्तं पौरी अद्राक्षुः । किंभूताः सन्तः । कौतुकेनार्थिनोभिलाषुकाः । केत्याह । पयोमुचो वर्षाऋतोः सकाशान्मासा मासेन पूर्वम् । 'पूर्व तु पूर्वजे । प्रागने श्रुतभेदे च' इत्यभिधानादग्रत आश्विनपूर्णिमायामित्यर्थः । इन्द्रमहोत्सवो हि श्वेताश्विनाष्टम्या आरभ्य पूर्णिमा यावद्विधीयते । तथा चावश्यकचूर्णावस्वाध्यायप्रस्ताव १ बी डी रा: स्त. १ सी श्चति ॥. २ ए डी दिवेंदो. ३ ए बी सी डी एफ °रू दि. ४ डी तमुत्स. ५ सी डी त्सवं पौ. ६ सी रा आद्रा. ७ बी त्यथेभि. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] उक्तम् । इन्दमहो आसो य पुन्निमाए हवइत्ति ॥ भविष्योत्तरपुराणेपि शारदमहोत्सववर्णनावसर उक्तम् ॥ श्रवणादिभरण्यन्तं दिनानामष्टकं नृपः । शुभाथै सर्वलोकानां कुर्यादिन्द्रमहोत्सवम् ॥ १ ॥ श्रवणभरणीनक्षत्रे ह्याश्विनश्वेताष्टमीपूर्णिमोद्देश एव चन्द्रेण युज्यते। अत एवाश्विनपूर्णिमाया आश्वयुजीति नाम । स चेन्द्रोत्सवः प्रचुरधान्यनिष्पत्त्याद्यर्थं क्रियते । तथौ च वराहमिहरसंहितायामैन्द्रं वचः । येषु देशेषु मनुजा भक्तिभारपुरःसराः । जनयिष्यन्ति वर्षान्ते मया दत्तं महाध्वजम् ॥ १॥ तेषु देशेषु मुदिताः प्रजा रोगविवर्जिताः । प्रभूतान्ना धर्मयुक्ता वृष्टमेघा महोत्सवाः ॥ २ ॥ भविष्यन्ति सुवेषाश्च सुभाषाश्च सुभूषणाः ॥ इत्यादि । मित्रैर्मासावरैर्वाचा निपुणैः सह गोकुले। गुडेन मिश्र वेषेण श्लक्ष्णा गोपाः पयः पपुः ॥९॥ ९. स्पष्टः । किं तु वेषेण श्लक्ष्णाः सूक्ष्मा अकर्कशा वा गोकुलस्वामित्वाच्छरद उष्णत्वाञ्च परिहितसूक्ष्ममृदुवस्त्रा इत्यर्थः । गोपा गोष्ठाधिकृता मासा मासेनावरैर्लघुभिरात्मसमानैरित्यर्थः । शरदि हि पित्तोद्रेकः स्यादितीक्षुविकारमिश्रपयःपानश्वेतसूक्ष्मांशुकपरिधानादिशैत्यक्रिया पथ्यत्वाद्विधेया । उक्तं च । शरत्काले स्फुरत्तेज:पुञ्जस्यार्कस्य रश्मिभिः । तप्तानां कुप्यति प्रायः प्राणिनां पित्तमुल्बणम ॥ १ ॥ ततश्च शालीन्दुरुग्घनाम्बूनि श्वेतसूक्ष्मांशुकानि च । क्षीरमिक्षुविकाराश्च सेव्याः शरदि भूरिशः ॥ २ ॥ १एफ त्सवः । श्र. २ ए °स्तवप्र. ३ एफ था व. ४ ए हरिसं. ५ बीणाः शूक्ष्मा. ६ बी तसुशूक्ष्म एफ तसूक्ष्माव. ७ एम् । शा. ८ ए तशूक्ष्मा . Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.२.४४.] तृतीयः सर्गः । trostri गिरिणा काणाः खण्डोः शंकुलया मिथः । ग्राम्या युवत्यान्ना मुष्टिभिः कलहं व्यधुः ॥ १० ॥ १०. युवतया यौवनेनानूना अहीना यौवनस्था ग्राम्यो ग्रामीणदारका मुष्टिभिर्मिथः कलहं युद्धं व्यधुर्यतो दण्डः प्रहरणमस्यां "प्रहरणास्क्रीडायां णः” [६.२.११६] इति णे दण्डा शङ्कलाकन्दुकक्रीडा । तस्यां गिरिणा कन्दुकेन कर्त्री काणाः कृताः शङ्कुलागाढघातेनोर्ध्वमुच्छलितेन कन्दुकेनाक्ष्णो व्याघातात् । तथा शङ्कुलया वक्राग्रया क्रीडनयष्ट्या कर्या खण्डाः खण्डगुणोपेताः कृताः । मिथः प्रतिकूलमा हन्यमाना - त्कन्दुकात्स्खलितायाः शङ्कलायाः पादेषु गाढप्रहारात्कुण्ठीकृता इत्यर्थः । शरदि हि पङ्कस्य शुष्कप्रायत्वाद्रजसश्चोत्थानाभावाद्दाण्डा क्रीडा प्रवर्तते । तस्यां च क्रीडकैः श्रेणीद्वयं कृत्वा शङ्कुलाभिर्मिथः प्रतिकूलं विवक्षितस्वसीमपारप्रापणार्थं कन्दुक आहन्यते ।। I नवाहेन । क्रोशेनाधीत्य । इत्यत्र “सिद्धौ तृतीया” [ ४३] इति तृतीया ॥ सिद्धाविति किम् । अधीयानैर्दिनमपि च्छन्दो नाग्राहि माणवैः ॥ अत्र व्याप्तिमात्रं गम्यते न सिद्धिः ॥ भावादपीच्छन्त्यन्ये । गोदोहेनाभ्यषिञ्चन् ॥ २१५ हेतौ । गोपीगीत्योद्रान्तैः ॥ कर्तरि । माणवैर्नाग्राहि ॥ करणे । हृदोान्तैः । समेन विषमेण च नाग्राहि ॥ इत्थंभूतलक्षणे । स्तम्भेनाद्राक्षुरुत्सवम् । अत्र "हेतु" [४४] इत्यादिना तृतीया ॥ तथा धान्येनार्थः । मासा पूर्वम् । मासावरैः t मुष्टिभिः कलहम् । वाचा निपुणैः । गुडेन मिश्रम् । वेषेण लक्ष्णाः । १ ए दण्डा २ ए सी 'ण्डा शं. ३ डी 'तयोनू १ डी 'तयो यौ° २ डी म्या ग्राम्याणां दा ३ ए बी सी डी मिंथो क ४ डी चदा ५ बी क्ष्णोर्व्याधा. ६ ए बी सी एफ 'कुण्टीकृ. ७ एफ् 'नाभवनाद्दण्डा ८ एफ् 'तमी". Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] युवतयानूनाः । शङ्कुलया खण्डाः । गिरिणा काणाः । इत्यादौ हेतौ कृतभवत्यादिगम्यमानक्रियापेक्षया कर्तरि करणे वा तृतीया ॥ पुलिनानि सह क्षोमैः सरांसि नभसा समम् । ज्यौत्स्योमानामिषन्मेघाः साकं कैलाससानुभिः ॥११॥ ११. शरदि हि नदीतटानि प्रावृषेण्याम्बुपूरक्षालितत्वेन निर्मलानि तरङ्गितजलसंशोषेण तरङ्गितवालुकानि च स्युस्तथा शीतलत्वेन शरत्कालोचितत्वादावलनतरङ्गितानि श्वेतानि क्षौमाणि दुकूलानि लोकैः परिधीयन्ते । तथा सरांसि नभश्चातिनिर्मलानि स्युस्तथा ज्यौल्यो ज्योत्स्नान्विता निशा अहश्चातिसप्रकाशानि म्युस्तथा मेघा निर्जलत्वेन कैलाससानवश्च वार्षिकॉम्बुपूरधौतत्वेनातिश्वेताः स्युस्ततश्च पुलिनादीनि क्षौमाद्यैः सह सादृश्यादमिषन् । येप्येकत्र स्थाने समानगुणा: स्युस्ते मिथः स्पर्धन्ते । अमा सह ॥ बन्धकान्यधरैः स्त्रीणां पद्मानि युगपन्मुखैः । सार्थ हासैश्च कासा(शा?)नि स्पर्धा न्यक्षेण चक्रिरे ॥१२॥ १२. स्पष्टः । नवरं युगपत्सह । न्यक्षेण सह सामस्त्येन । शरदि ह्यारक्तानि बन्धूकर्पुष्पाणि विकसितानि पद्मानि श्वेतानि काशपुष्पाणि च जायन्तेतोधरादिभिः सह स्पर्धा । एतेन चाधरादिसमानैर्बन्धूकादिभिः शरत् कामिनीव भातीति व्यञ्जितम् ॥ १ ए कानि. १ बी तजलवा. २ एफ नि क्षौ . ३ सी नि श्वेक्षौ. ४ एफ काम्बूपू. ५ एफ वेन श्वे. ६ बीण सा. ७ ए बी एफ पुष्पाणि. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.४५.] तृतीयः सर्गः । २१७ कात्स्येनाब्जवनोद्भेदे सुखेनास्थुः सितच्छदाः । दुःखेनाब्दजले प्राप्ये कष्टेनासंश्च चातकाः ॥ १३ ॥ १३. कालान सामस्येन । उद्भेदे विकाशे । अब्दजले मेघजले । शिष्टं स्पष्टम् ॥ सस्येष्वाप्येष्वनायासेनाप्येनायासमम्बुनि। पान्थाः पथि सुखं प्रोषुर्दुःखमूषुश्च तत्प्रियाः ॥ १४ ॥ १४. प्राचुर्येण निष्पन्नत्वाद्धान्येषु सुखेन प्राप्येषु तथा जलापूर्णतडागादिकत्वात्सुखेन जले प्राप्ये सति पान्थाः पथि सुखं प्रोषुर्दशान्तरं गतास्तत्प्रियाश्च पान्थभार्याश्च दुःखमूषविरहात्कष्टेने स्थिताः ॥ सौमैः सह । इत्यत्र “सहार्थे' [४५] इति तृतीया ॥ अर्थग्रहणात् नभसा समम् । अह्रामा । सानुभिः सान्तम् । मुखैर्युगपत् । हासैः सार्धम् ॥ अर्थाद्गम्यमाने अधरैः स्पर्धाम् । न्यक्षेण स्पर्धाम् । कास्येनालवनोद्भेदे । इत्यादावपि सहार्थोस्ति ॥ सुखेनास्थुः । दुःखेन प्राप्ये । कष्टेनासन् । अनायासेनाप्येषु । इत्यादीवास्यादिक्रियाभिः सह सुखादेः सहार्थोस्ति । क्रियाविशेषणत्वविवक्षायां तु द्वितीयैव । अनायासमाप्ये । सुखं प्रोषुः । दुःखमूषुः॥ जात्योपोनु तिमीन्वप्रेस्थात्मकृत्या शठो बकः । अक्ष्णा काणः पदा खञ्जः खलाः प्रायेण मायिनः॥१५॥ १५. जात्या स्वभावेनोग्रः क्रूरस्तथा प्रकृत्या स्वभावेन शठो मा १ ए प्रोखुर्दु:. १ डी ले । शेषं स्प. २ सी डी न प्राप्ये स्थि. ३ सीनाप्रा. ४ डी प्ये । इ. ५ एफ दावस्या . ६ डी वाप्यादि. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] यावी बकस्तिमीन्मत्स्याननुलक्ष्यीकृत्य वप्रे नद्यादितटेस्थात् । कीहक्सन् । अक्ष्णा काणस्तिमिग्रहणायाधोबद्धहक्त्वेन संकोचिकाक्षत्वात्काण इव भवन्नित्यर्थः । तथा पदा पादेन खञ्जो मायित्वात्तिमिविश्वासनाय खोडवन्मन्दं मन्दं गच्छंश्चेत्यर्थः । युक्तं चैतत् । यतः खलाः प्रायेण बाहुल्येन मायिनः स्युः । बकश्च जात्योयत्वात्खलः । शरदि ह्यनगाधे स्वच्छे च जले सुखेन दृश्यांस्तिमीन ग्रहीतुं बका नद्यादितटेषु विचरन्ति ॥ गोत्रेण पुष्करावर्त किं त्वया गर्जितैः कृतम् । विद्युतालं भवत्वद्भिर्हसा ऊचुन्विदं धनम् ॥ १६ ॥ १६. हंसा घनं मेघमिदं न्वेतदिवोचुः । यथा गोत्रेण संतानेन हे पुष्करावर्त पुष्करावर्तगोत्र मेघ स्वसमयाभावेन निष्फलत्वात्त्वया किम् । किमिति प्रतिषेधेव्ययम् । एवं कृतमलं भवत्वित्येतेपि । कृतमित्यकारान्तोनव्ययोपि । त्वया तव गर्जितैर्विद्युताद्भिर्जलैश्च सृतमित्यर्थः । शरदि हि हंसा: कलं शब्दायन्ते तत्प्रतिकूला धनगर्जितादयश्च स्तोकं स्तोकं प्रादुर्भवन्तीत्येवमाशङ्का ॥ अक्ष्णा काणः । पदा खञ्जः । प्रकृत्या शठः । प्रायेण मायिनः । गोत्रेण पुष्करावर्त। जात्योग्रः । इत्यत्र “य दैस्तद्वदाख्या" [४६] इति तृतीया ॥ प्रायेण मायिन इत्यत्र प्रायशब्दो बाहुल्यवचनस्तस्य च भेदो मायित्वं यर्थाक्ष्णः काणत्वं मायित्वेन च बाहुल्यवतां चलानामाख्या । यथा काणत्वेन काणाक्षियुक्तस्य नरस्याख्येति तद्वदाख्यावाचिनः प्रीयात्तृतीया ॥ १ बी न् गृही. २ सी स्वस्वस'. ३ एफ निःफल'. ४ सी डी किमपि. ५ सी डी कृत्यमि. ६ ए °न्ते न त. सीन्ते नात्प्र. डीन्ते तान्प्रति. ७ ए सी डी कं प्रा. ८ ए शङ्काः ॥ ९ डी एफ थाणा का". १०बी खलना. ११ एफ त्वे का. १२ एफ णाक्षयु. १३ एफू प्रायस्त'. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ [है० २.२.४७.] तृतीयः सर्गः । गर्जितैः कृतम् अद्भिर्भवतु । विद्युतालम् । किं त्वया । इत्यन्न "कृताद्यैः” [७] इति तृतीया ॥ मघाभिः पायसं श्राद्धं मघासु ब्रह्मचर्यवत् । श्रुत्या स्मृतौ च प्रसिता विदधुर्विधिनोत्सुकाः ॥ १७ ॥ १७. द्विजा मांभिर्मघाभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्ते काले पायसं दुग्धसंबन्धि श्राद्धं पितृतर्पणं विदधुर्यथा मघासु ब्रह्मचर्य विदधुः । किंभूताः सन्तः । श्रुत्या वेदे स्मृतौ च धर्मशास्त्रे च प्रसिता नित्यप्रसक्तोः श्रुतिज्ञाः स्मृतिज्ञाश्च । अत एव विधिनोत्सुका विधिर्वामजान्ववनमनयज्ञोपवीतापसव्यत्वकरणादिस्तत्रात्यन्तं प्रसक्ताः । शरदि हि श्राद्धपक्षः स्यात्तत्र चावश्यं श्राद्धकृद्भिर्ब्रह्मचर्य विधीयते । यत्स्मृतिः । ताम्बूलं दन्तकाष्ठं च स्निग्धस्नानमभोजनम् । रत्यौषधपरान्नानि श्राद्धकृत्सप्त वर्जयेत् ॥ १ ॥ अन्यथा तद्रेतः पितृमुख उपतिष्ठतीति । तत्र चावश्यं मघाश्चन्द्रेण युज्यन्ते । ततस्तास्वपि श्राद्धकृतो ब्रह्मचर्य विदधति । अत एवोपमाद्वारेणोक्तं मघासु ब्रह्मचर्यवदिति । तथा मघासु पायसमेव श्रौद्धं संकल्परूपं क्रियते । तथा च पितृसंहितायां पितृवचः । अपि नः स कुले जायाद्यो नो दद्यात्रयोदशीम् । पायसं मधुसर्पिभ्या वर्षासु च मघासु च ।। इति । न तु पिण्डप्रदानादि क्रियते प्रत्यवायात् । तदुक्तं स्मृतौ । मघायां पिण्डदानेन ज्येष्ठपुत्रो विनश्यति । इत्यादि । १ ए सी डी घादिभि. एफ घाभिश्च. २ ए सी ताः प्रति. ३ ए सी स्मृति ता . ४ सी एफ श्राद्धसं. ५ ए बी सी एफ पिंभ्यां व. ६ सी डी एफ °ण्डप्रदा'. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] उत्सुकाः करदानेवबद्धाः कृष्या पशुष्वपि । वीहीन् द्विद्रोणान् द्विद्रोणान् द्विद्रोणैश्च तिलान्ददुः ॥१८॥ १८. कृष्या महीकर्षणे पशुष्वपि गोमहिष्यादिषु चावबद्धा नित्यप्रसक्ता अत एव करदाने । करः कृषिपशुचारणादिकृतराजकीयभूम्युपभोगहेतुको राजग्राह्यो भागः । तस्य दान उत्सुका अत्यन्तं प्रसक्ता असाधारणविशेषणोपादानाद्राम्याः करोद्राहकराजपुरुषेभ्यो ददुः। कान् । व्रीहीन् । किंभूतान् । द्रोणश्चतुःषष्टिः कुडवाः । द्वौ द्रोणौ मानमेषां “मानम्" [६.४.१६८] इतीकणो “आनाभ्यद्विप्लब्" [६.४.१४०] इति लुपि वीप्सायां द्विरुक्तौ च द्विद्रोणान्विद्रोणान् । तथा द्विद्रोणैश्च तिलान् । चो भिन्नक्रमे । द्विद्रोणमानान्द्विद्रोणमानांस्तिलांश्च । शरदि हि ग्राम्याः सस्येषु निष्पन्नेषु राजकरं ददते ॥ क्रौञ्चान्सहस्रं सहस्रं पञ्चकेनान्वजीगणन् । सहस्रेण शुकान् गोप्यः पञ्चकं पञ्चकं रसात् ॥ १९ ॥ १९. गोप्यः क्षेत्ररक्षिका नार्यः सहस्रं सहस्रं क्रौञ्चान्पक्षिभेदान् रसात्कौतुकात्पञ्चकेन पञ्च संख्या मानमस्य “संख्या डते:” [६.४.१३०] इत्यादिनाके पञ्चकः संघस्तेनान्वर्जीगणन्पञ्च पञ्च कृत्वा गणितवत्य इत्यर्थः । तथा सहस्रेण सहस्रसंख्यान् सहस्रसंख्यान् शुकान् । पञ्चकं पञ्चकमन्वजीगणन् । पञ्चकं पञ्चकमित्यत्र शुकसामानाधिकरण्येपि पञ्चकशब्दाब्राह्मणाः संघ इतिवदेकवचनम् । शरदि हि क्रौञ्चाः शुकाश्च बाहुल्येन स्युः ।। १ ए हश्रंसहश्र प. २ ए बी हश्रेण. १ एफ दाग्राम्याः. २ एफ “ष्टिकु. ३ बी द्विः प्लु. ४ सी दि ग्रा. ५ एफ स्रं क्रौ. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.५०.] तृतीयः सर्गः । २२१ मघाभिः । मघासु । इत्यत्र "काले भात्" [१८] इत्यादिना वा तृतीया ॥ श्रुत्या प्रसिताः स्मृतौ प्रसिताः । विधिनोत्सुकोः करदाने उत्सुकाः । कृष्यावबद्धाः पशुष्ववबद्धाः । इत्यत्र “प्रसित" [४९] इत्यादिना वा तृतीया ॥ द्विद्रोणैः । पञ्चकेन। सहस्रेण । इत्यत्र "व्याप्ये द्वि" [५०] इत्यादिना वा तृतीया ॥ पक्षे । द्विद्रोणान्विद्रोणान् । पञ्चकं पञ्चकम् । सहस्रं सहस्रम् ॥ तृतीया वीप्सायां विहितेति तृतीयान्तस्य पदस्य द्विरुक्तिर्न स्यात् । द्वितीया तु कर्मणि विहिता न वीप्सायामतस्तदन्तस्य द्विरुक्तिः स्यात् ॥ संजानाना गुणैः प्रेम संजानन्तः पुरा रतेः। संपायच्छन्त दासीभिर्तीहीन् ग्रामीणदारकाः ॥ २० ॥ २०. ग्रामीणदारका ग्राम्यपुत्रा दासीभिश्वेटीनां ब्रीहीन्संप्रायच्छन्त ददुः यतो गुणै रूपलावण्यादिगुणान्प्रेम स्नेहं चार्थाद्दासीनां संजानाना जानन्तस्तथा पुरा पूर्व रतेः सुरतस्य संजानन्तः स्मरन्तः । ग्राम्या ह्यधर्म्यत्वादधासु दासीषु रमन्ते ॥ संपायच्छद्विसं हंस्यै हंसो यत्तन्मुदेभवत् । आत्मने रोचनाल्लब्ध कस्मै न वदतेथ वा ॥२१॥ २१. हंसो यद्विसं मृणालं हंस्यै स्वप्रियायै संप्रायच्छत्प्रेम्णा ददौ तद्विसं हस्या मुदेभवत् । अथ वात्मने रोचनाद्रोचत इत्येवं शील "इडित्.' [५.२.४४] इत्यादिनाने रोचनस्तस्माद्वल्लभाल्लब्धं प्राप्तं वस्तु कस्मै न वदते किं तु प्रीतेर्वर्धकत्वात्सर्वस्मै रुचिमुत्पादयतीत्यर्थः ॥ १ए स्मृत्यौ प्र. २ सी डी काः कृ. ३ सी ना तृ. ४ ए हश्रेण्येत्य'. ५ सी णान् प. ६ ए हश्रंसहश्रम् । तृ. ७ एफ यान्त्यप. ८ एफ ग्रामपु. ९ ए रूपाला . १० ए नाजा. ११ एफ धर्मत्वा. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] जज्ञे स्वात्यम्बु मुक्ताभ्यो दुग्धं दध्ने न्वकल्पत । रिक्तोपि न ययौ मेघः शरदे धारयन्नृणम् ॥ २२ ॥ २२. नुरुपमार्थे । यथा दुग्धं दध्नेकल्पत दधिरूपविकारमापन्नं तथा स्वातिशब्देन स्वातिनक्षत्रयुतरवियुक्त: काल उपचारादुच्यते । स्वातावम्बु मेघजलं स्वात्यम्बु मुक्ताभ्यो जज्ञे मुक्ताफलरूपं विकारमापन्नम् । शरदि दुग्धानि दधीनि चान्यै सकाशात्प्रचुराणि विशिष्टानि च स्युरित्युपमानेनोक्तम् । तथा स्वातौ जलकणा ये के चन शुक्तिमुखेषु पतन्ति ते सर्वेपि मुक्ता: स्युरिति प्रसिद्धिः । तथा मेघो रिक्तोपि जलवर्जितोपि न ययौ । उत्प्रेक्ष्यते । शरदे ऋणं धारयन्नु ध्रियते तिष्ठति स्वरूपान्न प्रच्यवते ऋणं कर्तृ तद्भियमाणं प्रयुजान इव । ऋणिको हि रिक्तो द्रव्यरहित ऋणशोधनाशक्तत्वाद्यत्रोत्तमर्णेन राजाज्ञया प्रियते तस्मात्स्थानान्न गच्छति ।। गुणैः संजानानाः । प्रेम संजानानाः । इत्यन्न “समो ज्ञोस्मृतौ वा" [५१] इति वा तृतीया ॥ अस्मृताविति किम् । रतेः संजानन्तः ॥ दासीभिः संप्रायच्छन्त । इत्यत्र "दामः" [५२] इत्यादिना तृतीया । दाम आत्मनेपदं च ॥ अधर्म्य इति किम् । हंस्यै संप्रायच्छत् । अत्र "चतुर्थी" [५३] इति संप्रदाने चतुर्थी ॥ मुदेभवत् । इत्यत्र "तादर्से" [५४] इति चतुर्थी ॥ रुच्यथैः प्रेये । आत्मने रोचनात् । कस्मै स्वदते ॥ क्लप्यथैर्विकारे । १ एल्पतः ।. १ बी सी डी एफू युक्तर. २ एफ युक्तका. ३ सी मुक्तांफ. ४ सी न्यत्सर्वस. ५ एफ प्रेक्षते ।. ६ सी युञ्जन. डी युञ्जत ई. ७ सी हि रक्तों. ८ एफ नासक्त. ९ डी क्तश्चान्यत्रो. १० एफ धर्म इ. ११ एफ ते । कृप्य. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.५७.] तृतीयः सर्गः। २२३ दुग्धं द कल्पत । जज्ञे स्वात्यम्बु मुक्ताभ्यः ॥ धारिणोत्तमणे । शरदे धारयवृणम् । इत्यत्र “रुचिक्लप्यर्थ' [५४] इत्यादिना चतुर्थी ॥ ध्वानः प्रत्यशृणोन्मैत्री शिखिभ्योनुगृणन्धनः । . तस्मै प्रतिगृणन्तस्तेप्याशृण्वन्केकयाथ ताम् ॥ २३ ॥ - २३. ध्वानैगर्जितैः कृत्वा शिखिभ्यो मयूरेभ्योनुगृणन् शिख्युक्तमनुवदन्निव प्रशंसतो वा शिखिनः प्रोत्साहयन्निव घनो ध्वानरेव मैत्रीमान्तरप्रीतिं शिखिभ्यः प्रत्यशृणोदिव मेघदर्शनमात्रोद्भूतशिखिकेकानन्तरमेव गर्जनादङ्गीचकारेव । अथ धनस्य मैत्रीप्रतिश्रवणानन्तरं केकया तस्मै घनाय प्रतिगृणन्तो घनोक्तमनुवदन्त इव प्रशंसन्तं वा घनं प्रोत्साहयन्त इव । तेपि शिखिनोपि तां मैत्री तस्मै केकया आशृण्वन्निव गर्जानन्तरमेव केकायनादङ्गीचक्रुरिव । शरद्यपि हि मेघा गर्जन्ति तद्गर्जाश्रवणाच्च शिखिनः प्रीताः केकायन्ते । अतश्चैवमुत्प्रेक्षा । अत एव शिखिघनानामाख्यातृत्वार्थिते उपपद्यते । उत्प्रेक्षाद्योतकाश्चेवशब्दा अत्रावसीयन्ते । यो ह्यत्यन्तं स्निग्धौ वयस्यौ भवतस्तावन्योन्यमुक्तमनुवदन्तौ प्रशंसयोत्साहयन्तौ चावां मिथो वयस्याविति वाचापि मानसीं प्रीतिं प्रतिजानाते ॥ शिखिभ्यो मैत्री प्रत्यशृणोत् । तस्मै तामाशृण्वन् । इत्यत्र "प्रति" [५६] इत्यादिना चतुर्थी ॥ अर्थिनीति किम् । शिखिभ्यो मैत्री प्रत्यशृणोदित्यत्र मैत्र्यां मा भूत् ॥ तस्मै प्रतिगृणन्तः। शिखिभ्योनुगृगन् । इत्यत्र “प्रत्यनोः" [५७] इत्यादिना चतुर्थी ॥ आख्यातरीति किम् । तस्मै केकया प्रतिगृणन्त इत्यत्र केकायां मा भूत् ॥ १सी अथाप घ. डी अथापि व. २ सी जोश्राव. ३ सी डी पद्यते ।. ४. एफ भुक्ताम". ५ एफ् नाति शि. ६ बी प्रत्येत्या. ७ सी थीं । आख्या. ८ एफत् प्र. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] रात्स्यन्ति देवतास्तुभ्यं नाथ किं मह्यमीक्षसे । एवमाराधयन्सांयात्रिकेभ्यः कुलयोषितः॥ २४ ॥ २४. कुलयोषितः सांयात्रिकेभ्यः पोतवणिग्भ्यः प्रस्तावाहीपान्तरे जिगमिषुभ्य आराधयन् । द्वीपान्तरजिगमिषुपोतवणिजां क्षेमलाभादिविषयं दैवं पर्यालोचयन् । सविचारमूचुरित्यर्थो ने त्वकुलीना इव संभावितचिरकालीनविरहरूपमहापराधविधानरुष्टत्वात्तांश्चक्रुशुः । कथमित्याह । हे नाथ वल्लभ रात्स्यन्ति देवतास्तुभ्यं तव द्वीपान्तरे गच्छतः क्षेमलाभादिविषयं देवं समुद्रदेवताद्या देवता: पर्यालोचयिप्यन्ति तव क्षेमलाभादिविषये देवताः सांनिध्यं करिष्यन्तीत्यर्थः । अतः किं मह्यमीक्षसे मम विरहेसौ पतिव्रता भीरुः कथं भविष्यतीति क्षेमाक्षेमादिविषयं दैवं किमिति निरूपयसि । देवताप्रसादात्त्वयि क्षेमाभ्युदयादिमति त्वदेकशरणाया मम नितरां क्षेमाभ्युदयाद्येवेति मदैवचिन्तया त्वयाँ न खेद्यमिति भाव एवम् । यद्वा कुलयोषित: सांयात्रिकेभ्य आराधयन् । पोतवणिजां गमनविषयमभिप्रायं विचारितवत्यो विचारपूर्वमूचुरित्यर्थः । कथमित्याह । हे देव देववन्मभाराध्य हे नाथं ता मत्सपत्न्यस्तुभ्यमात्स्यिन्ति अकुलीनत्वेनासतीत्वादेतेस्मत्पतयः परपुरुषाभिसरणविघ्नाः कदा देशान्तरं यास्यन्तीति तव गमनाभिप्राय पर्यालोचयिष्यन्ति न तु वयं कुलीनत्वात्तस्मात्कि मह्यमीक्षसेस्या अभिप्रायः कीदृश इति विमतिपूर्व किमिति निरूपयसि । अहं त्वद्विरहं क्षणमपि नाभिलषामीत्यर्थः । एवम् सांयात्रिकाणां कुलयोषितां च बहुत्वेपि प्रत्येकं स्वस्वभर्तारं प्रति भणनविवक्षया तुभ्यमित्यादावेकव. चनम् ॥ १ एफ न्तरं जि'. २ सी न कु. ३ बी एफ त्वात्ताश्चु. सीत्वाभ्याश्च. डी त्वादिभ्यांश्शु. ४ डी °न्तरमिच्छ'. ५ एफ मादि. ६ सी डी पये दै. ७ ए या निखे. ८ डी मात्रारा . ९ ए °थ म. १० ए रात्सन्ति. ११ ए यं लो. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. २.२.५८.] तृतीयः सर्गः । २२५ असाधयन्न पुत्रेभ्यो दारेभ्यो ददृशुर्न च । पोषुर्लाभाय राध्यन्तोपश्यन्तः श्रान्तयेध्वगाः ।। २५ ॥ २५. अध्वगाः पान्थाः पुत्रेभ्यो नासाधयन् । अस्मद्विरहेमी कथं भविष्यन्तीति पुत्राणां क्षेमाक्षेमादिविषयं दैवं नाचिन्तयन् । एवं दारेभ्यो ददृशुर्न च । किं तु लाभाय राध्यन्तो वृद्धिं विचारयन्तोत एव श्रान्तयेपश्यन्तो मार्गखेदमविचारयन्त: सन्त: प्रोषुः । शरदि हि पान्था व्यवहारार्थ देशान्तरं यान्ति ।। तुभ्यं रात्स्यन्ति । मह्यमीक्षसे । इत्यत्र “यद्वीक्ष्ये राधीक्षी' [५८] इति चतुर्थी॥ राधीक्ष्यर्थधातुयोगेपीच्छन्त्यन्ये । सांयात्रिकेभ्य आराधयन्। पुत्रेभ्यो नासाधयन् । राधिरपरपठितथुरादिर्णिगन्तो वा । साधिर्णिगन्त एव । दारेभ्यो ददृशुः। राधीक्ष्यर्थविषयाद्विप्रष्टव्यादिच्छत्यन्यः । लाभाय राध्यन्तः । श्रान्तयेपश्यन्तः ॥ लोहिनीव तडिज्योत्स्ना तापाय विरहे हि तत् । स्त्रैणं स्म श्लाघते पत्ये तिष्ठते शपते हुते ॥ २६ ॥ २६. विरहे सति हि यस्माज्योत्स्ना लोहिनीव तडिल्लोहिता विद्युदिव तापायासीत् । लोहिता हि विद्युत्सन्तापाय स्यात् । यदुक्तम् । वाताय कपिला विद्युदोतपायातिलोहिनी । पीता वर्षाय विज्ञेया दुर्भिक्षाय भवेत्सिता ॥ इति । तत्तस्मात्स्त्रैणं पत्ये श्लाघते स्म तिष्ठते स्म शपते स्म हुते स्म । १ एडिज्योत्स्ला. १ एफ °मादि . २ बी भीक्ष्यसे. ३ ए °धीक्षार्थ. ४ सी डी वि स" ५ वी दातापा. ६ वी र्पा च वि. ७ सीक्षायाभवमि. २९ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ध्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] स्मति सर्वक्रियासु योज्यम् । श्लाघास्थानशपथापह्नवान् कुर्वाणं स्त्रैणं कर्तृ आत्मानं ज्ञाप्यं जानन्तं पतिं प्रयोजयति स्मेत्यर्थः । पत्य इत्यत्र जातावेकवचनम्। इदमुक्तं स्यात् । पतीनपराधकत्वेन चाटुकशतैरंनुनयतोप्यवगणय्य मानावष्टम्भेनावस्थिता अपि शारदज्योत्स्नोदये कामोद्रेकाद्विगलितमानाः सत्यो नार्यः । श्लाघया वक्रोक्तिभङ्गीभिः स्वप्रशंसया स्थित्यानुरागादिसूचकस्थानविशेषेण शपथेन सपन्युद्भावितस्य मिथ्यारूपस्य व्यलीकस्य निरासेन सपत्न्युद्भावितं पतिभिः संभाव्यमानं व्यलीकं यद्यस्मासु कुत्राप्यस्ति तदा वयं मात्रादिशरीरं स्पृशाम इति प्रत्यायकवाक्येन वा निहवेन च प्राग्मानवशेन कृतस्यावज्ञाद्यपराधस्यापेलापेन चात्यन्तिकानुरागभक्तिरिरंसुतादिगुणोपेतं ज्ञाप्यमात्मानं पतीन् ज्ञापितवत्यः ॥ तापाय लोहिनी तडित् । इत्यत्र “उत्पातेन ज्ञाप्ये" [५९] इति चतुर्थी ॥ पत्ये श्लाघते । द्रुते । तिष्ठते । शपते । इत्यत्र "श्लाघगुस्था” [६०] इत्यादिना चतुर्थी ॥ पाकाय प्रयता जग्मुर्नीवारेभ्यस्तपस्विनः । चतुर्मासोपवासेपि नेयुामं पुराय वा ॥ २७ ॥ २७. पाकाय प्रयताः पक्तुमुद्यताः सन्तस्तपस्विनस्तापसा नीवारेभ्यो वनवीहीनाहतु ययुः । एतेनैषां स्वयंपाकित्वमसंग्रहश्वोक्ते । शरदि हि नीवारा बाहुल्येन स्युः । परं चतुर्पु मासेषु भवो “वर्षाका १ ए बी पश्विनः ।। २ ए युग्रामं. ................ ................................... १ए सु युज्यते श्ला. २ सी मुक्ते स्या . ३ सी रदाज्यो'. ४ सी डी वितं. ५ एफ पलपे. ६ बी पश्चिन. ७ सी श्चोक्तेः श. डी एफ 'श्वोक्तः श. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६० २.२.६०. ] तृतीयः सर्गः । लेभ्यः” [६.३.८०] इतीकणि तस्य लुपि चतुर्मासः स चासावुपवासश्च तस्मिन्नपि चतुरो मासानभुक्त्वापीत्यर्थः । ग्रामं पुराय वा नेयुः पारणे प्रधानभिक्षालाभाद्यर्थं न गताः । एतेनातिनैष्ठिकत्वोक्तिः । महातपसा हि केचिदेवस्वपनैकादश्या आरभ्य देवोत्थानैकादशीं यावच्चतुरो वर्षामा सानुपवासान्कुर्वन्ति । तत्पारणेपि वनस्थितैरेवारण्यक - धान्यैः शिलोच्छवृत्त्यानीतैः स्वयंपकैः प्राणयात्रां कुर्वन्ति न तु प्रधानभिक्षा लाभार्थी ग्रामपुरादि वसत्स्थानमागच्छन्तीत्येषां धर्मः ॥ चित्रां स्वातेर्विशाखायै गन्तुर्भानोस्त्विषार्दिताः । यान्तोध्वानममन्यन्त न शुने स्वं न वा चुसम् ॥ २८ ॥ २२७ I २८. अध्वानं मार्ग यान्तोध्वगाः पान्थाः स्वमात्मानं शुने कुर्कुराय नामन्यन्तायन्तं कष्टाधारत्वेन शुनोप्यात्मानं निकृष्टं मेनिरे । न वा बुसं यद्वाकिंचित्करत्वादात्मानं पलालादप्यसारं मेनिरे । यतश्चित्रां गन्तुः स्वातेर्गन्तुर्विशाखायै गन्तुः । चित्रास्वातिविशाखा नक्षत्रैः संयुज्यमानस्य सत इत्यर्थः । भानो वेस्त्विषातपेनार्दिता अत्युष्णत्वात्पीडिताः । शरदि हि रविश्चित्रास्वातिविशाखाभिरवश्यं युज्यते तद्युक्तञ्च प्रायोत्युद्युतिः स्यात् ॥ नानं नावं शुकं काकं शृगालं मेनिरे दृषम् । पयःपानोन्मदा गोपा महिषं तु शुने तृणम् ॥ २९ ॥ २९. गोपा गोपाला वृष जातावेकवचनम् । शण्डानन्नं नावं शुकं काकं शृगालं वा न मेनिरे । निःसत्त्वतानायासस्ववश्यताकरणादिभि १ सी डी का . १ एफू °ष्ठिकोक्तिः ।. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] रन्नादिभ्योपि निकृष्टमज्ञासिषुः । महिषं तु वृषाद्वलिष्ठत्वेन शुने तृणं वा मेनिरे । यतः पयःपानोन्मंदाः क्षीरपाणोन्मत्ताः ।। न तृणस्य बुसाय स्वं मन्तेवाशुष्यदम्बुदः । मुखो हितोपि पृथव्यै चोर्यदपीणान चातकम् ॥ ३० ॥ ३०. तृणबुससकाशादपि स्वमकिंचित्करं मन्यमान इवाम्बुदोशुष्यन्निर्जलोभूत् । यद्यस्माद्धेतोरम्बुदश्चातकं नाप्रीणान्न तृप्तीचक्रे । कीहक् । पृथ्व्यै सस्याद्युत्पत्तिहेतुत्वाद्योः स्वर्गस्य चानेकसस्यौषध्यादियज्ञोपकरणोत्पत्तिहेतुत्वात्सुखोपि । अपिरत्रापि योज्यः । सुखकार्यपि हितोप्यनुकूलोपि च । योप्यम्बुदै उन्नतो महापुरुषः स पृथ्व्याः स्वर्गस्य च परोपकारित्वातिधार्मिकत्वादिभिर्गुणैः सुखोपि हितोपि च सन् यदा चतते याचते णके चातकं याचकं केनाप्यसामर्थेन न प्रीणाति तदा तृणबुसाभ्यामप्यात्मानमकिंचित्करं मन्यमान; सञ् शुष्यति खिद्यत इत्युक्तिः ॥ पाकाय प्रयताः । इत्यत्र "तुमोर्थे " [६१] इत्यादिना चतुर्थी ॥ नीवारेभ्यो जग्मुः । इत्यत्र “गम्यस्याप्ये” [६२] इति चतुर्थी ॥ ग्रामं नेयुः पुराय नेयुः । इत्यत्र “गतेः'' [६३] इत्यादिना वा चतुर्थी ॥ अनाप्त इति किम् । अध्वानं यान्तः ॥ कृद्योगे तु परत्वात्षष्ट्येव । स्वातेर्गन्तुः ॥ द्वितीयैवेत्यन्ये । चित्रां गन्तुः ॥ चतुर्थी चेत्यन्ये । विशाखाँयै गन्तुः ॥ १ बी न्ते चा. १ सी न्महाः क्षी. २ बी एफ द इवाम्बुद उ. ३ एफ रित्वेनाति' ४ बी मर्थेन. ५ ए बी तुमथे. ६ सी डी तुयॆवेत्य. ७ ए खाये ग. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० २.२.६५ ] तृतीयः सर्गः । २२९ न स्वं शुनेमन्यन्त न स्वं सममन्यन्त । इत्यत्र " मन्यस्य " [ ६४ ] इत्यादिना वा चतुर्थी ॥ अनावादिभ्य इति किम् । न वृषं नावमन्नं शुकं शृगाल काकं वा मेनिरे ॥ कुत्स्यतेनेनेति करणाश्रयणं किम् । न स्वं शुने मेनिरे इत्यत्र स्वशब्दान्न स्यात् ॥ अतिग्रहणं किम् । महिषं तृणं मेनिरे । अत्र नञ्प्रयोगाभावे साम्यमानं प्रतीयते न त्वतिकुत्सां ॥ कुत्सामात्रेपीच्छन्त्येके । महिषं शुने मेनिरे ॥ न स्वं तृणस्य मन्तेति कुद्योगे परत्वात्पष्ठी । चतुर्थ्यपीति कश्चित् । न स्वं बुसाय मन्ता । न स्वं तृणस्य मन्ता ॥ I पृथ्व्यै हितः द्योर्हितः । पृथ्व्यै सुखः द्योः सुखः । इत्यत्र “हित सुखाभ्याम् ” [ ६५ ] इति वा चतुर्थी ॥ शं पथ्यं भद्रमायुष्यं स्तात्क्षेमोर्थच सिध्यतु । राज्ञः प्रजाभ्य इत्यूचेगस्तिरुद्यन्धनखनैः ।। ३१ ।। ३१. अगस्तिरगस्त्यैर्षिरुद्यन्सन्घनस्वनैर्मेघगर्जितैः कृत्वोच इव । वोवसीयते । किमित्याह । राज्ञः प्रजाभ्यश्च शं सुखं पथ्यं हितं भद्रं धनधान्यादिसंपल्लाभ आयुः प्रयोजनमस्य "स्वर्गस्वस्ति” [६.४.१२२] इत्यादिना ये आयुष्यमायुर्वृद्धिहेतुर्वस्तु क्षेमो विपदभावश्च स्तादर्थश्च सिध्यतु कार्य निष्पद्यतां चेति । शरदि ह्यगस्तिरुदेति घनगर्जितानि च स्युरित्येवमुत्प्रेक्षा । मुनिद्यंस्त पोज्ञानादिविशेषेणोदीयमानो राजादिसमीपं गच्छन् घनस्वनैः सान्द्रध्वानैः कृत्वा राज्ञः प्रजाभ्यश्च शमियाद्याशीर्वादं वक्ति || ५ १ एफ् सामत्रे २ एफ् तः पृ. ३ सी स्त्य ऋषिरु ४ एफू क्षेम वि. ५ सी प्रेक्ष्य मु. डी 'प्रेक्ष्यते मु ं. ६ ए ध्वानै कृ. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] श्रेयश्चिरायुः कुशलं स्तात्कार्य सिद्धिमेतु च । पुत्रेभ्यश्च स्नुषाणां चेत्यूचुर्वलिमहे स्त्रियः ॥ ३२ ॥ ३२. बलिमहे बलिराज्यदिने कार्तिकश्वेतप्रतिपद्दिने स्त्रिय ऊचुः । किमित्याह । पुत्रेभ्यः स्नुषाणां च वधूटीनां च श्रेयो धनाद्यर्द्धिलाभश्चिरायश्चिरजीवितं कुशलं च विपदभावश्च स्तात् कार्य सिद्धिमेतु चेत्याशीर्वाक्यानि ॥ बलिमहो हि कार्तिककृष्णपञ्चदशीरात्रौ शुक्लप्रतिपदिने च स्यात् । तत्र च लोका यथाशक्ति सुवेषाः सुचेष्टा: प्रमुदितास्ताम्बूलाद्यास्वादनपरा भगिन्यादिस्त्रीः प्रणमन्ति । ताश्च चन्दनवर्धनादिपूर्व श्रेयः स्तादित्याशीर्वादं ददते । यतः कार्तिकश्वेतप्रतिपदि यच्छुभमितरद्वा चेश्यते तच्चेष्टया सकलं वर्ष याति । यदुक्तं भविष्यत्पुराणे । पुरा वामनरूपेण याचयित्वा धरामिमाम् । बलिं यज्ञे हरिः सर्वं क्रान्तवान्विक्रमैत्रिभिः ॥ १ ॥ इन्द्राय दत्तवान् राज्यं बलिं पातालवासिनम् । कृत्वा दैत्यपतेर्दत्तमहोरात्रं पुनर्नुप ॥ २ ॥ पञ्चदश्यां निशा ह्येका कृष्णपक्षस्य कार्तिके । एकमतनदिनं बलिराज्यति चिह्नितम् ।। ३ ।। कार्तिक कृष्णपक्षस्य पञ्चदश्यां निशागमे । यथेष्टचेष्टं दैत्यानां राज्यं तेषां महीतले ॥ ४ ॥ लोकश्चापि गृहस्यान्तः शय्यायां शुक्लतण्डुलैः । संस्थाप्य बलिराजानं फलैः पुष्पैश्च पूजयेत् ॥ ५ ॥ बलिमुद्दिश्य दीयन्ते दानानि कुरुनन्दन । यानि तान्यक्षयाण्याहुर्मयैवं संप्रदर्शितम् ॥६॥ १ ए भाविश्च. २ ए सी सिद्धमे'. ३ ए तुश्चेत्या. ४ ए °य स्ता. ५ एफ नृपः ॥. ६ ए थेष्टं चे. ७ ए सी डी तन्दुलैः ।। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः । एकमेवमहोरात्र वर्षे वर्षे विशां पते । दत्तं दानवराज्यस्य आदर्शमिव भूतले ॥ ७ ॥ निरुजश्च जनः सर्वः सर्वोपद्रववर्जितः । कौमुदीकरणाद्राजन् भवतीह महीतले ॥ ८ ॥ यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिधिर । हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्ष प्रयाति हि ॥ ९ ॥ रुदितो रोदते वर्ष हृष्टो वर्ष प्रहृष्यति । भुक्तो भोक्ता भवेद्वर्ष सुस्थः सुस्थो भवेदिति ॥ १० ॥ हितार्थं । प्रजाभ्यः पथ्यं स्तात् राज्ञः पथ्यं स्तात् ॥ सुखार्थ । शं प्रजाभ्यस्तात् शं राज्ञः स्तात् ॥ भद्रार्थ । भद्रं प्रजाभ्यः स्तात् । भद्रं राज्ञः स्तात् । श्रेयः पुत्रेभ्यः स्तात् श्रेयः खुषाणां स्तात् ॥ आयुष्यार्थ । प्रजाभ्य आयुष्यं स्तात् राज्ञ आयुष्यं स्तात् । पुत्रेभ्यश्चिरायुः स्तात् स्नुषाणां चिरायुः स्तात् । क्षेमार्थ । प्रजाभ्यः क्षेमः स्तात् राज्ञः क्षेमः स्तात् पुत्रेभ्यः कुशलं स्तात् स्रुषाणां कुशलं १० स्तात् ॥ अर्थार्थ | अर्थः प्रजाभ्यः सिध्यतु अर्थो राज्ञः सिध्यतु । सिद्धिमेत कार्य स्नुषाणां सिद्धिमेतु । इत्यत्र " तद्भद्व" [ ६६ ] चतुर्थी ॥ शरदा किं परिक्रीताः सहस्रायायुतेन वा । अलं केल्यै श्रियै शक्ता हंसास्तस्या यदन्वयुः ॥ ३३ ॥ [ है० २.२.६६. ] २३१ कार्यं पुत्रेभ्यः १ ए हंस्यस्त. १ बी सी डी 'राजस्य २ सी डी तीति म ३ ए 'त्यस्या युधिष्ठिरः । ६. ४ सुस्थसु. ५ए सी तार्थः प्र एफ तार्थे प्र. ६ ए एफ् स्तात् । श्रे ७ ए सी डी क्षेम स्ता. ८ सी स्तात् पु° ९ ए स्तात् । अ पुत्रेभ्यः सिध्यतु राज्ञेोर्थः सिध्यतु अर्थः प्रजाभ्यः सिध्यतु कार्य प्रजाभ्यः षाणां मे इ. ११ ए सी दिवा. १२ डी एफ 'ना च र्थः · 1 33 इत्यादिनो वा १० एफू सिद्धिमेतु कार्य Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ब्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] ३३. केल्यै क्रीडायायलं समर्थास्तथा श्रियै शोभायै प्रस्तावाच्छरद एव शक्ता हंसास्तस्याः शरदो यद्यस्मादन्वयुरनुगमनं चक्रुस्तत्कि शरदा का सहस्राय रूपकादिशशतेनायुतेन वा रूपकादिदशसहरुया वा कृत्वा परिक्रीता नियतकालं स्वीकृताः। ये हि येन परिक्रीताः स्युस्ते सेवकास्तस्य स्वामिनः केल्यायलं नर्मणे शक्ताः श्रियै शोभायै शक्ताश्च सन्तोनुगच्छन्ति ॥ स्वधा पितृभ्य इन्द्राय वषट् स्वाहा हविर्भुजे । नमो देवेभ्य इत्यखिग्वाचः सस्यश्रियाफलन् ॥ ३४॥ ३४, ऋत्विग्वाचो मेघवृष्टिसस्यनिष्पत्त्याद्यर्थं पूर्वकृतकारीरीष्ट्यादीनां प्रस्तावे यायजूकानां मन्त्राक्षरोचारणानि सस्यश्रिया प्रचुरधान्यनिष्पत्त्याफलन् सार्थका आसन् । का वाच इत्याह । पितृभ्यः स्वधा हविर्दानमस्तु । तथेन्द्राय वषट् हविनिमस्तु । तथा हविर्भुजे. ग्निदेवतायै स्वाहा हविर्दानमस्तु । तथा देवेभ्यो नमोस्त्विति ॥ प्रजाभ्यः स्वस्त्यभून्निद्रा समुद्रशयनाद्ययौ । आ सिन्धोः शावलान्यासनश्मरात्पर्यपोषरात् ॥ ३५ ॥ ३५. प्रजाभ्यः स्वस्ति सस्यादिसंपत्त्या लोकस्य क्षेममभूत् । तथा समुद्रशयनाद्विष्णोनिद्रा ययौ । कार्तिकैकादश्यां हि विष्णुर्निद्रां जहातीति रूढिः । तथा आ सिन्धोः समुद्रं मर्यादीकृत्य नदीमभिव्याप्य वा शाद्वलानि सहरितभूखण्डान्युपचाराद्धरितानि चासन् । कथम् । अश्मरात्परि अश्मवन्तं देशं वर्जयित्वा तथोषरादपं रिरिणं (इरिण) देश वर्जयित्वा ।। १ बी शाडला. २ ए पणात् ।। १ एफ °मिनं कल्यायलं निर्मणे. २ सी डी रीष्टया . ३ वी शाडला. ४ सी °न्तं त दे. डीन्तं तं दे'. ५ एफ परिणं. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है० २.२.७२.] तृतीयः सर्गः। २३३ . सहस्राय परिक्रीताः अयुतेन परिक्रीताः । इत्यत्र "परिक्रयणे" [६७] इति वा चतुर्थी ॥ श्रियै शक्ताः । अलं केल्यै । वषडिन्द्राय । नमो देवेभ्यः । प्रजाभ्यः स्वस्ति । स्वाहा हविर्भुजे । स्वधा पितृभ्यः । इत्यत्र "शक्तार्थ' [६८] इत्यादिना चतुर्थी ॥ समुद्रशयनाद्ययौ । इत्यत्र "पञ्चमी' [६९] इत्यादिना पञ्चमी ॥ आ सिन्धोः । इत्यत्र "औडावधौ" [७०] इति पञ्चमी ॥ अश्मरात्परि । उपरादप । इत्यन्न "परि" [१] इत्यादिना पञ्चमी । प्रति द्विपमदामोदाद्गन्धं सप्तच्छदान्यधुः। शेफालीभ्यो ददुलास्य प्रति गन्धाच मारुताः ॥३६॥ ३६. सप्तच्छदानि सप्तपर्णतरुपुष्पाणि द्विपमदामोदात्प्रति हस्तिमदसौरभ्यस्य तुल्यं गन्धमधुरधारयन् । एतेन शरदि द्विपा माद्यन्ति सप्तच्छदाश्च द्विपमदामोदतुल्यं पुष्पन्तीत्युक्तम् । तथा मारुताश्च गन्धात्प्रति गन्धस्य प्रतिदानभूतं लास्यं नृत्तं शेफालीभ्यः शेफालीलतापुष्पेभ्यो ददुः । शेफालीनां गन्धं गृहीत्वा लास्यं ददुरित्यर्थः । अन्येपि नाट्योपाध्याया गन्धद्रव्यादि गृहीत्वा नर्तकीनां लास्यं ददति ॥ द्विपमदामोदात्प्रति । गन्धात्प्रति । इत्यत्र “यतः प्रति" [७२] इत्यादिना पञ्चमी । प्रतिशब्दाद्वितीया म् ॥ उपाध्यायादधीत्येव केकी श्रुत्वा नटस्य वा । प्रासादाग्राननतैनं पौर्यः प्रेक्षन्त चासनात् ॥ ३७॥ १ एफन्त वास. ४ एफ नृत्यं शे'. १ए हाय. २ए आज्ञाव. ३ ए बी पुष्फन्ती'. ५ सी डी ना पञ्च. ६ बी ति । मो'. ३० Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] ३७. प्रासादामाद्देवगृहशिखरमारुह्य केकी मयूरो ननर्त । किं कृत्वा । उपाध्यायादधीत्येव नियमपूर्व नृत्तविद्यां गृहीत्वेव । वाथ वा नटस्य श्रुत्वेव । इवोत्रापि योज्यः । द्रव्यादिदानेन नृत्तविद्यामाकण्येव । यथोपाध्यायान्नियमपूर्वकं नटाद्वा द्रव्यादिदानेनात्तैनृत्तविद्यो नृत्तज्ञत्वानिपुणं नृत्यति तथा जातिस्वभावेन केकी चतुरं ननर्तेत्यर्थः । अत एवैनं केकिनं पौर्य आसनादासन उपविश्य प्रेक्षन्त कौतुकात्प्रकर्षेणापश्यन् । शरद्यपि मयूरा मत्ताः सन्तो जातिस्वभावेन प्रासादाद्युच्चस्थानमारुह्य नृत्यन्ति । यदुक्तम् । प्रोन्मादयन्ती विमदान्मयूरान्प्रगल्भयन्ती कुररद्विरेफान् । शरत्समभ्येति विकास्य पद्मानुन्मीलयन्ती कुमुदोत्पलानि ।। उपाध्यायादधीत्य । इत्यत्र "आख्यातरि०" [७३] इत्यादिना पञ्चमी ॥ आ. ख्यातरीति किम् । नटस्य श्रुत्वा ॥ प्रासादाप्राशनत । आसनात्प्रेक्षन्त । इत्यत्र “गम्ययपः" [७४] इत्यादिना पञ्चमी॥ वर्षात्ययात्प्रभृत्यलोद्मादारभ्य चावभौ । अन्यो वीणाकणाद्भिन्नो वेणुनादादलिस्वनः॥ ३८ ॥ ३८. वर्षात्ययाद्वर्षाकालातिकमात्प्रभृत्यब्जोद्गमात्कमलवनो दाँदारभ्य चालिखन आबभौ । यतो वीणाकणादन्योन्यादृशोतिमधुर इत्यर्थः । तथा वेणुनादाद्भिन्नः । शरदि हि पद्मखण्डविकाशे मधुपानोन्मत्तानां भृङ्गाणां ध्वनिरतिमधुरः स्यात् ॥ १ सी डी त्तवि. २ ए नृत्तति. ३ ए प्रेक्ष्य कौ. ४ एफ दायाच. ५ ए बी सी एफ कुरुर. ६ बी काश्य प. ७ सीडी दार'. ८ सी डी दि प. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० २.२.७४.] तृतीयः सर्गः । गम्येपि पश्चिमे देशे ग्रामात्प्राच्यां ययुर्जनाः । महानवम्या अपरेह्नि कोशात्सीम लङ्घितुम् ॥ ३९ ॥ ३९. महानवम्या आश्विनश्वेतनवम्यां अपरेनन्तरेह्नि दिने विजयदशम्यां ग्रामादुपलक्षणत्वात्पुरादेरपि सकाशात्माच्यां पूर्वदिशि जना ययुः । वसति । ग्रामात्सकाशात्पश्चिमे देशे पश्चिमदिग्विभागे गम्येपि नदीपर्वताद्यभावेन गन्तुं शक्येपि पश्चिमदेशं मुक्त्वेत्यर्थः । किं कर्तुं ययुः । क्रोशाद्द्रव्यूतात्परेण सीम । कीबेपि सीमन् शब्दं हलायुध भारैवी मन्येते । ग्रामादिसीमभूमिं लङ्घितुं शकुनमार्गणाभिप्रायेण ॥ विजयदशम्यां हि अस्तमयदिक्त्वेन लोके सामान्येनाप्रशस्ततया प्रसिद्धत्वात्पश्चिमदिशं वर्जयित्वोदय दिक्त्वेन लोके सर्वदिक्षु मध्ये सामान्येन मङ्गल्यदिक्तया प्रसिद्धत्वात्प्रायः पूर्वस्यां क्रोशात्परतः सकलवर्षशुभाशुभसूचकशकुनान्वेषणाय लोका यान्ति । तस्य च गमनस्य लोके सीमलङ्घनमिति संज्ञा रूढा । यद्वा ग्रामादित्युक्तत्या जना ग्राम्या व्यज्यन्ते । ते विजयदशम्यां क्रोशात्परेण सीम लङ्घितुं ग्रामात्पश्चिमे देशे गम्येपि विजयदशम्यां हि प्रातरेव लोका: सीम लङ्घितुं यान्ति । प्रातश्च पश्चिमदिशि सूर्यस्य पृष्ठवर्तित्वाद्यात्रा कर्तुमुचिता । यदुक्तम् || यामयुग्मेषु रात्र्यन्तयामात्पूर्वादिगो रविः । यात्रास्मिन्दक्षिणे वामे प्रवेश: पृष्ठगे द्वयमिति ॥ गन्तुमर्हेपि प्राम्यत्वाद्वामात्प्राच्यां ययुः । प्राम्या हि मूर्खत्वात्तथाविधगम्यागम्यदिक्परिज्ञाना कौशलेात्सामान्येन लोकव्यवहारे पश्चिमा न तथा प्रशस्या यथा पूर्वेति पश्चिमां गमनाहमपि वर्जयित्वा पूर्वामेव यान्ति ॥ १ या प. २ सी डी रे अन्त ४ए शब्दमा ५ सी डी 'पर: स. ८ सी डी 'यदि'. ९ डी 'ला: सामा ६ २३५ एफ् ३ ए सी डी रती म. व्यञ्ज्यन्ते । • ७ सी दिशो र. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] आरात्तीराबहिर्नीराच्छीतेभ्य इतरै रवेः । अप्युप्रैस्तप्यमानोस्थाहणाबद्धो नु कच्छपः ॥ ४०॥ ४०. कच्छपः कमठो जातावेकवचनम् । शीतेभ्य इतरैरुष्णै रवेरुस्त्रैः किरणैस्तप्यमानोपि दह्यमानोप्यारात्तीरान्नद्यादितटसमीपे नीरावहिश्वास्थात्तस्थौ । उत्प्रेक्ष्यते । ऋणाद्धो नु देयेन हेतुना निगडित इव । ऋणिको हि ऋणादुत्तमर्णेन बद्धो रवरुष्णैः कैरैस्तप्यमानो नद्यादितटे तिष्ठति बद्धत्वान्न तु जलमध्ये प्रविशति । शरदि हि कच्छपा जातिस्वभावेन नद्यादितटेषु बाहुल्येन विचरन्ति । उक्तं च । अपङ्किलतटावट: शफरफाण्टफालोज्ज्वलः पतत्कुररकातरभ्रमभ्रमीनार्भकः । लुठत्कमठसैकतश्चलबकोटवाचाटितः सरित्सलिलसंचयः शरदि मेदुरः सीदति ॥ प्रभृत्यर्थ । वर्षात्ययात्प्रभृति । अब्जोद्मादारभ्य ॥ अन्यार्थ । अन्यः क्वणात् । भिन्नो नादात् । ग्रामात्याच्याम् । बहिनीरात् । आराँत्तीरात् । शीतेभ्य इतरैः । इत्यत्र "प्रभृत्यन्य " [७५] इत्यादिना पञ्चमी ॥ दिशि दृष्टाः शब्दा दिक्शब्दा इति देशकालवृत्तिनापि स्यात् । ग्रामात्पश्चिमे देशे। नवम्या अपरेह्नि ॥ तथा गम्यमानेनापि दिक्शब्देन स्यात् । क्रोशास्सीम । परेणेति गम्यते ॥ ऋणाद्वद्धः । इत्यत्र “ऋणाद्धेतोः" [७६] इति पञ्चमी ॥ सौरभादनुरागेण मुदा बद्धोलिरभ्रमत् । कुमुदस्यान्तिकेजाच दूरे नीपस्य केतकात् ॥ ४१ ॥ १ सी डी टनिष्ठस. २ एफ हिश्च स्था'. ३ एफ करैः स्त'. ४ एफ 'त्यर्थः । व. ५ सी डी त् । शी. ६ ए रानीरा. ७ सी ति गम्य'. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ [है०२.२.७८.] तृतीयः सर्गः । ४१. अलि: सौरभादनुरागेण मुदा बद्धः सौरभहेतुको योनुरागस्तद्धेतुका या मुद्धर्षस्तया हेतुना बद्धो व्याप्तः सन् कुमुदस्याब्जाच पद्मस्य चान्तिकेभ्रमत् । तथा नीपस्य कदम्बस्य केतकात्केतकीपुपाच दूरेभ्रमत् । नीपपुष्पस्य किंचित्तीक्ष्णपत्रत्वेन केतकस्य च कण्दकित्वेन नैकट्येन भ्रमणेङ्गविदारणभयात् । शरदि हि कैरवाण्यजानि च नवान्युद्भिद्यन्ते कदम्बानि केतकानि च वर्षोद्भवान्यपि शरद्यनुवर्तन्ते वर्ण्यन्ते च कविभिः । अथ वा शरद्यतीतप्रायरामणीयकत्वेन नीपकेतकयोरनुपभोग्यत्वाइरेलिरभ्रमत् ।। । सौरभादनुरागेण । इत्यत्र "गुणाद्' [७७] इत्यादिना वा पञ्चमी ॥ अस्त्रियामिति किम् ॥ मुदा बद्धः ॥ केतकारे नीपस्य दूरे । अब्बादन्तिके कुमुदस्यान्तिके । इत्यत्र “आदिथैः” [७८] इति वा पञ्चमी ॥ स्तोकाजातीः स्पृशन् स्तोकेनाब्जान्यल्पाच शीकरान् । ... अल्पेन वानपि मरुत्कृच्छ्रात्सेहे वियोगिभिः ॥ ४२ ॥ ४२. सुगमः । नवरं स्तोकाजातीर्जातिपुष्पाणि स्तोकेनाब्जानि च स्पृशन् । शरदि हि जातिपुष्पाणि स्युः ।। कृच्छ्रेणार्कस्य वीक्ष्यत्वादीष्मः कतिपयाच्छरत् । प्रातिपयेनाल्पैर्मेधैः स्तोकैश्च गर्जितैः ॥ ४३ ॥ ४३. कृच्छ्रेणार्कस्य वीक्ष्यत्वांद्रष्टुं शक्यत्वाच्छरत्कालः कतिपयातोकेन ग्रीष्मोभूत्तथाल्पैर्मेधैः स्तोकैर्जितैश्च कृत्वा कतिपयेन प्रांवृडभूत् ॥ १ ए बी पुष्फाच. २ बी पुष्फस्य. ३ सी डी अथो वा. ४ ए सी डी ना प. ५ एफ रे । अं. ६ सी डी रादेथैः. ७ बी नि पुष्पानि च. ८ ए बी पुप्फाणि. ९ सी डी वाच्छ. १० ए प्रा. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] क्लान्ताः कृच्छ्रेण तापेन ज्योत्स्नायाः प्रागजानत । वीचिहादैस्ततोजानंश्चकोराः सरसां पयः॥४४॥ ४४. कृच्छ्रेण कष्टकारिणा तापेन सूर्यातपेन क्लान्ताः संतप्ताः सन्तश्वकोराः प्राक् सरसां पयो जलं स्वच्छत्वेन ज्योत्स्नाया अजानत ज्योत्स्नाबुद्ध्या प्रवृत्ता इत्यर्थः । प्रवृत्तिरत्र जानातेरर्थः । यद्वा ज्योत्स्नाप्रियत्वाज्ज्योत्स्नायामत्यन्तरक्ताश्चित्तभ्रान्त्या सरःपयो ज्योत्स्नारूपेण प्रत्यपद्यन्तेत्यर्थः । मिथ्याज्ञानवचनोत्र जानातिर्मिथ्याज्ञानं चाज्ञानमेव । ततः पश्चाद्वीचिह्रादैः कल्लोलध्वानैः कृत्वा सरसां पयः सरसां पय एवाजानन् । सरसां पय इत्यनूद्यत्वेन विधेयत्वेन च योज्यम् ॥ स्तोकात् स्पृशन् स्तोकेन स्पृशन् । अल्पात्स्पृशन् अल्पेन वान् । कृच्छ्रात्सेहे कृच्छ्रेण वीक्ष्यत्वात् । कतिपयाद्रीष्मः कतिपयेन प्रावृद । इत्यत्र "स्तोकाल्प" [७९] इत्यादिना वा पञ्चमी ॥ असत्त्व इति किम् । स्तोकैर्जितैः । अल्पैर्मेधैः । कृच्छ्रेण तापेन ॥ ज्योत्स्नाया अजानत । इत्यत्र "अज्ञाने ज्ञः षष्ठी" [८.] इति षष्टी ॥ अज्ञान इति किम् । हादैः पयोजानन् ॥ सरसां पयः । इत्यन्न “शेषे” [८१] इति षष्ठी ॥ शैलस्योपर्यधोवस्तात्परस्तादुत्पतिष्णुभिः । उपरिष्टाच्छरल्लक्षम्या नीलच्छत्रायितं शुकैः ॥४५॥ ४५. शुकैः शरलक्ष्म्या उपरिष्टादूर्ध्वदेशे नीलच्छत्रायितं नीलात१ सी डी लक्ष्मीनी. लाया. ४ ए एफ न् १ ए वृत्त्याइ. २ सी तेर्थः ।। ३ सी अल्पे'. ५ ए न् । अकृ. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.८१.] तृतीयः सर्गः । २३९ पत्रवदाचरितम् । यतः शैलस्य गिरेरुपरि ऊर्ध्वदेशेधे ऊर्ध्वदेशापेक्षयाधस्तादवस्तात्पश्चिमदिग्विभागे परस्ताच्च पूर्वदिग्भागे चोपलक्षणत्वादक्षिणोत्तरभागयोरप्युत्पतिष्णुभिरुच्छलनिः । यथा दण्डोपरि स्थितं नीलवस्त्रेणोपर्यधश्चतुर्दिक्षु चावृतं नीलच्छत्रं राजादेरुपरि धृतं शोभातिशयाय स्यात्तथाद्रेः समन्तादुत्पतिष्णु शुकमण्डलं शरद इत्यर्थः । शरदि हि शुका बाहुल्येन स्युर्जातिप्रत्ययेन शैलाद्युच्च स्थानेषु निबसन्ति च ॥ ध्रुवस्याभाद्दक्षिणतो वातापेः प्सातुरुत्तरात् । पितॄणां दुर्गते त्यागेभ्वा घोर्यानस्य साधकः ॥ ४६ ॥ ४६. पितॄणामध्वा पितृदण्डः स्वर्गदण्डाख्यो वत्सेति नाम्ना ज्योतिषे प्रसिद्धभात् । कीदृक् । पितॄणामेव दुर्गतेस्तिर्यक्त्वादिकुगतेः श्रुतौ तु दन्दशूकत्वाख्यया प्रसिद्धायास्त्यागे सति द्योः स्वर्गस्य कर्मणो यद्यानं गमनं तस्य कर्मणः साधको निष्पादकः । अनेन हि मार्गेण कृत्वा पितरो दुर्गतिं परिहृत्य स्वर्ग यान्तीति प्रवादः । कामादित्याह । ध्रुवस्य दक्षिणतो दक्षिणस्यां दिशि तथा वातापेत्यस्य कर्मण: प्सातुर्भक्षकस्यागस्तेः । द्विजानुपद्रवन्वातापिर्दैत्यो ह्यगस्त्येन भक्षित इति प्रसिद्धिः । उत्तरादुत्तरस्यां दिशि । शरदि हि वत्सस्य व्योममध्यस्थस्य मुखं पूर्वस्यां पुच्छश्च पश्चिमायां स्यात् । यदुक्तम् । कन्यासंक्रान्त्यादित्रितयं पूर्वादौ वत्स इति । तत्रस्थ ध्रुवापेक्षया दक्षिणस्यामगस्त्यापेक्षया चोत्तरस्यां स्यात् ॥ निद्रां योत्यक्तपूर्व्यब्दैर्गर्जकैः साध्वपां पिवैः । स तामत्यजदम्भोधौ कैटभस्य मधुं द्विषन् ॥ ४७ ॥ ४७. सोम्भोधौ तिष्ठन् कैटभस्य मधुं द्विषन् कैटभमधुदैत्ययोः शत्रुर्वि २ एफ् दिग्विभागे ३ सी डी 'स्यां स्यात् ।• १ ए सी डी 'धस्ता. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] 1 ष्णुस्तां निद्रामत्यजत् । योम्भोधावपां पिबैर्जलानि पिवद्भिर्जलभृतैरित्यर्थः । अत एव साध्वत्यन्तं गर्जकैरब्दैर्मेधैर्हेतुभिर्निद्राम् । त्यक्ता पूर्वमनेन त्यक्तंपूर्वी न तथात्यक्तपूर्वी । धनप्रबलगर्जितैरपि यो वर्षासु जागा रेत्यर्थः ॥ 1 शैलस्योपरि । लक्ष्म्या उपरिष्टात् । शैलस्य परस्तात् । शैलस्योवस्तात् । शैलस्याधः । ध्रुवस्य दक्षिणतः । प्सातुरुत्तरात् । इत्यत्र "रिरिष्टात् " [८२] इत्यादिना षष्टी ॥ वातापेः प्सातुः । यानस्य साधकः । अपां पिबैः । द्योर्यानस्य । दुर्गतेस्त्यागे । इत्यत्र " कर्मणि कृतः " [ ८३] इति षष्ठी ॥ क्रियाविशेषणस्य कर्मत्वोभावान्न षष्ठी । साधु गर्जकैः ॥ कृत इति किम् । तामत्यजत् निद्रामत्यक्तपूर्वी ॥ कैटभस्य द्विषन् मधुं द्विषन् । इत्यत्र " द्विषो वा तृशः " [८४] इति वा षष्ठी ॥ पवने खं तुषाराणां तरलत्वस्य वीरुधाम् । १ दिशां नेतरि किञ्जल्कान् श्रान्तानां शायिकाभवत् ॥ ४८ ॥ ४८. श्रान्तानां शायिकाभवत् खेदापगमात्स्वापोभूत् । क सति । पवने । कीदृशे । खं तुषाराणी नेतरि शीकरानाकाशं प्रापयितरि । तथा तरलस्वस्य वीरुधां नेतैरि मृदुत्वालताञ्चलत्वं प्रापयति । तथ दिशां नेतरि किञ्जल्कान् । शरदि ह्यनियतदिको गुणत्रयोपेतो बातो ॥ १ सी डी ॥ खेदा. १ एफ् स्वाधः । २ बी वान्न. ३ एं पूर्वम् ॥• ५ एफ् तमृ ६ एफ या देशान्तरं ने. ४ए णां तेनरि. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.८६.] तृतीयः सर्गः । २४१ खं तुषाराणां नेतरि । तरलत्वस्य वीरुधां नेतरि । यद्वा दिशां नेतरि किञ्जल्कान् । तरलत्वस्य वीरुधां नेतरि । इत्यत्र “वैकत्र द्वयोः" [८५] इति द्वयोः कर्मणोरेकतरस्मिन्वा षष्टी । अन्यत्र पूर्वेण नित्यमेव ॥ श्रान्तानां शायिका । इत्यत्र "कर्तरि" [८६] इति षष्ठी ॥ कृतिः स्वराणां क्रौञ्चीभिर्विपञ्चीनामिवाबभौ । ऋतुमत्येव काशाल्याः कुसुमस्य प्रकाशनम् ॥ ४९ ॥ ४९.. यथा विपञ्चीनां वीणानां कीणां स्वराणां कर्मणां कृतिराबभौ । एवं क्रौञ्चीभिः कर्तीभिः । शरदि हि क्रौच्यो मधुरं कूजन्ति । तथा यथा ऋतुमत्या स्त्रिया का कुसुमस्यै स्त्रीधर्मस्य कर्मणः प्रकाशनं भवत्येवं काशाल्याः काशतरुपङ्क्तेः काः कुसुमस्य । जातावेकवचनम् । पुष्पाणां कर्मणां प्रकाशनमाविर्भावो बभूव ॥ शृङ्गस्य त्याग एणानां मित्रस्येव दुरात्मभिः। . बिभित्सा भेदिका चोक्ष्णां पयसामिव रोधसः॥५०॥ ५०. यथा दुरात्मभिर्दुर्जनैः कर्तृभिमित्रस्य कर्मणस्त्यागः स्यात्तथैणानां कर्तृणां शृङ्गस्य कर्मणस्त्यागोभूत् । शरदि हि रुरुशम्बरादिमृगाणां शृङ्गाणि पतन्ति । तथोक्ष्णां कर्तृणां रोधसस्तटस्य कर्मणो बिभित्सा भेत्तुमिच्छा भेदिकौं च विदारणं चाभूत् । पयसामिव यथा जलैवर्षासु रोधसो बिभित्सा भेदिका चाभूत् । शरदि हि वृषभा मत्ता नद्यादितटानि विलिखन्ति ॥ स्वराणां कृतिर्विपञ्चीनामिवक्रौञ्चीभिः। कुसुमस्य प्रकाशनं काशाल्या ऋतुमत्येव । १ एफरि घ°. २ सी कृतेरी . ३ सी डी °स्य जाता. ४ ए काचिवि. ५ ए नि वलि. ६ सी मस्य. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] शृङ्गस्य त्याग एणानां मित्रस्येव दुरात्मभिः । इत्यत्र “द्विहेतोः " [ ८७ ] इत्यादिना कर्तरि षष्ठी वा ॥ अख्यणकस्येति किम् । बिभित्सा भेदिका चोक्षणां पयसामिव रोधसः ॥ स्तुत्यमान्यानुयानीयं गातव्यादेयसद्गुणः । नृणां देवैश्व स तदा राजा यात्रां प्रचक्रमे ।। ५१ । ५१. स राजा मूलराजेस्तदा शरत्काले यात्रां प्रयाणकं प्रचक्रमे प्रारेभे । कीदृक् । नृणां कर्तॄणां देवैश्च कर्तृभिस्तुत्याः साध्या मान्याः पूज्या अनुयानीया अनुसरणीयाँ गातव्या गेया आदेया ग्राह्याः सन्तः शोभना गुणाः शौर्यादयो यस्य सः ॥ ४ मृणां देवैश्व स्तुत्यमान्यानुयानीयगातव्यादेय । इत्यत्र " कृत्यस्य वा " [८] ก t इति कर्तरि वा षष्ठी ॥ अत्र च नित्यसापेक्षत्वात्समासः ॥ अथ यात्रोपक्रमं पटुिंशता श्लोकैर्वर्णयति । नेतव्यन्तं रिपुः पात्रा गामनेनेच्छुना यशः । पूरं पूरं नभो नादैर्दुन्दुभिः प्रोचिवान्विदम् ॥ ५२ ॥ ५२. नादैः कृत्वा नभः पूरं पूरं व्याप्यव्याप्य दुन्दुभिर्विजययात्राढक्केदं प्रोचिवान्नु । तदेवाह । अनेन मूलराजेन यश इच्छुनत एव गां भुवं पात्रा दुर्नयनिराकरणेन रक्षता सता रिपुंग्रहारिरन्तं क्षयं नेतव्यः ॥ १ए गीत '. १ एफ् स्यैव. २ सी डी 'जराजस्त ३ एफ् या गीत .. ४बी नीयागा. ५ एवेरि. ६ सीडी 'प्य दु. ७ ए 'भिविज ८ ए ना . ९ वी नयिनि १० एफ पुग्राहा. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है० २.२.८९.] तृतीयः सर्गः। २४३ २४३ पवमानो जगत्तन्वन्स्वरं बिभ्राणमुच्चताम् । चक्राणो मङ्गलं शङ्खश्छन्दोधीयन्निव द्विजः॥ ५३॥ ५३. शङ्खो विजयकम्बुर्मङ्गलं राजादीनां चक्राणश्चक्रे । कीहक्सन् । उच्चतामुदात्ततां बिभ्राणं स्वरं तन्वन् । तथा जगल्लोकं पवमानो मङ्गल्योदात्तस्वरत्वात्पवित्रयन् । तथा छन्दो वेदमधीयन्नकृच्छेण पठन्नत एवोच्चतां बिभ्राणं स्वरं तन्वन्नत एव च जगत्पवमानः सन् द्विजो मङ्गलं चक्रे । यात्राकाले हि माङ्गल्यार्थं शङ्खो वाद्यते द्विजाश्च वेदमुच्चारयन्ति॥ ढक्काभिश्चक्रिभिर्ध्वानं दुःसहं दिग्गजैरपि । सोत्रभृत्कारको यात्रां सुज्ञानो वज्रिणाप्यभूत् ॥ ५४ ॥ ५४. दिग्गजैरपि दुःसहं सोढुमशक्यं ध्वानं चक्रिभिः करणशीलाभिढक्काभिर्विजयभेरीभिः कृत्वा स मूलराजो वञिणापि सुज्ञान: सुखेन ज्ञेयोभूत् । कीडक्सन् । यात्रां कारकोस्त्रभृद्यात्रां करिष्यामीति खड्गादिशस्त्रभृत् । “क्रियायाम्" [५.३.१३] इत्यादिना णकच् । यात्रां चिकीपोर्मूलराजस्य युद्धोचितास्त्रग्रहणं ढक्काभिर्वाद्यमानाभिरिन्द्रेणापि ज्ञातमित्यर्थः । राजा हि यात्रां चिकीर्षुर्यदा युद्धोचितास्रग्रहणमुहूर्त साधयति तदा विशेषतो विजयढका वाद्यन्ते ॥ नेतव्योन्तं रिपुरनेन । इत्यत्र "नोभयोर्हेतोः [८९] इति कर्मकोंर्न षष्ठी ॥ तृन् । पात्रा गाम् । उदन्त । यश इच्छुना ॥ अव्यय। नभः पूरंपूरम् ॥ कसु । इदं प्रोचिवान् ॥ आनेत्युत्सृष्टानुबन्धनिर्देशात्कानशानानशां ग्रहणम् । कान । मङ्गलं चक्राणः॥ शान । जगत्पवमानः ॥ आनश् । उच्चतां बिभ्राणम् ॥ अतृश । छन्दोधीयन् ॥ शतृ । स्वरं तत्वन् ॥ डि । ध्वानं चक्रिभिः ॥ णकच् । १ एफ नो माङ्ग. २ सी दन्तः य. ३ सी व्ययं न. ४ ए °नसां . ५ एफ शानः । . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] यात्रां कारकोखभृत् ॥ खलर्थ। दिग्गजैदुःसहम् । सुज्ञानो वज्रिणा । इत्यत्र "तृनुदन्त" [१०] इत्यादिना न षष्ठी ॥ मृदङ्गै रुद्धवद्भिया ध्वनिनानुकृतो घनः। शिखिभिः शीलिताः केका गतैहर्ष सतां मताः ॥ ५५ ॥ ५५. ध्वनिना कृत्वा द्यां व्योम रुद्धवद्भिर्याप्तवद्भिर्मृदङ्गैः कर्तृ. भिर्ध्वनिनैव घनो मेघोर्नुकृतो मेघगर्जिविडम्बितेत्यर्थः । अतश्च घनग र्जाशङ्कया हर्ष गतैः शिखिभिर्मयूरैः केकोः शीलिता अभ्यस्ताः कृता इत्यर्थः । कीदृश्यः । सतां विदुषां केकालक्षणज्ञानां कर्तृणां मता माधुर्यादिगुणप्रधानत्वेन मूलरोंजारब्धयात्रासाफल्यज्ञापकत्वादीष्टाः ॥ आरक्ष रक्षितं भूपस्यासितं प्रति योषितः। कीर्तेः श्रिया नु हसितं मौक्तिकस्वस्तिकान्व्यधुः॥५६॥ ५६. आरक्षरङ्गरक्ष रक्षितं भूपस्य मूलराजस्य कर्तुरास्यतस्मिन् "अद्यर्थाच्चाधारे" [५. १.१२ ] इति क्ते आसितं सिंहासनं प्रति लक्ष्यीकृत्य योषितोविधवनार्यो मौक्तिकस्वस्तिकान्माङ्गलिक्याय व्यधुः । कीदृशान् । कीर्तेः श्रिया हसितं नु । निर्मलत्वात्कीर्तिकर्तृकाणि लक्ष्मीकर्तृकाणि च हास्यानीव ॥ मृदङ्गैरनुकृतः । द्यां रुद्धवद्भिः । हर्ष गतैः । इत्यत्र "क्तयोः' [९१] इत्यादिना न षष्ठी ॥ असदाधार इति किम् । सतां मताः । "ज्ञानेच्छा" [५.२.९२] आदिसूत्रेण सत्यत्रतः ॥ कथं शिखिभिः शीलिताः । आरक्ष रक्षितम् । भूतेयं क्तः । वर्तमाने प्रतीतिस्तु प्रकरणादिना ॥ १ सीता के. १ए °भिध्वनि . २ सी नु में. ३ ए सी का शी'. ४ डी राजस्य या. ५ एफ तं नृप. ६ एफ स्मिन्निति अ. ७ ए एफ लक्षीकृ. ८ सीडी 'णि वा हा . ९ बी एफ मानप्र. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.९४.] तृतीयः सर्गः। २४५ आधारे । भूपस्यासितम् । कीर्तेर्हसितम् । श्रिया हसितम् । इत्यत्र "वा क्लीये" [१२] इति वा षष्ठी ॥ कामुकस्य श्रियां भूपा राज्ञ आज्ञा प्रपादुकाः। मुराष्ट्रां गमिनस्तस्थुस्तत्र कोटिं नु दायिनः ॥ ५७॥ ५७. राज्ञो मूलराजस्याज्ञा प्रपादुका आश्रयन्तो भूपास्तत्रासनसमीपे तस्थुः । कीदृशः सतः । श्रियां शत्रुलक्ष्मीणां कर्मणां कामुकस्येच्छोरत एव प्राहारिदैत्योच्छेदाय सुराष्ट्रां देशं गमिनो गन्तुकामस्य । उत्प्रेक्ष्यते । कोटिं नु दायिनो दीनारादिकोटिं धारयन्त इव । अधमर्णा हि श्रियां कामुकस्याज्ञां प्रपादुकाः सन्तः समीपे तिष्ठन्ति । जगदागामिनोरिष्टस्यावश्यं छेदिनो द्विजाः। एयुस्तत्राशितारो द्विासे मासो द्विरम्बुपाः ॥ ५८ ॥ ५८. तत्रासनसमीपे शान्तिकर्मणे द्विजा एयुः । किंभूताः । मासे द्विद्वौं वारावाशितारो भोक्तारस्तथा मासो मासस्य द्विरम्बुपा द्वौ वारौ जलपायिनस्तीव्रतपश्चारिण इत्यर्थः । अत एव जगलोकमागामिनो भाविनोपीत्यर्थः । अरिष्टस्याशुभस्यावश्यं छेदिनः ॥ आज्ञा प्रपादुकॊः । इत्यत्र 'अकमेरुकस्य" [१३] इति न षष्ठी ॥ अकमेरिति किम् । श्रियां कामुकस्य ॥ सुराष्ट्रां गमिनः । जगदागामिनः । कोटि दायिनः । इत्यत्र "एष्यदृणेनः" [९४] इति न षष्ठी ॥ एष्यहणेन इति किम् । अरिष्टस्यावश्यं छेदिनः । अत्र "णिन् चा वश्यकाधमण्ये”[५.४.३६] इत्यावश्यकेर्थे णिन् ॥ १बी ति घ. २ डी दृशाः सन्तः ।. ३ सी श्रियो श. ४ एफ क्ष्मीनां क. ५ ए प्रेक्षिते।. बी प्रेक्ष्यन्ते ।. सीडी प्रेक्षते ।. ६ सी मणा द्वि. ७ एफ रावशि. ८ ए कार इ. ९ ए °ति किम् । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ पाः ॥ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] एयुतत्रं । इत्यत्र “सप्तमी" [९५] इत्यादिना सप्तमी ॥ मासे द्विराशितारः । इत्यत्र "न वा" [९६] इत्यादिना वा सप्तमी ॥ पक्षे शेषषष्टी । मासो द्विरम्बुपाः॥ सौवस्तिकैः सन्मुहूर्त आयुक्तैस्तपसः श्रुते । मन्त्रे शान्तेश्च कुशलैश्चक्रे हस्त्यश्वपूजनम् ॥ ५९॥ ५९. सौवस्तिकैः पुरोहितैः सन्मुहूर्ते शुभवेलायां हस्त्यश्वपूजनं शान्तये मत्रोच्चारपूर्व पुष्पादिना चक्रे । किंभूतैः । तप॑सस्तपश्चरण आयुक्तैस्तत्परैः । एतेन नैष्ठिकत्वोक्तिः । तथा श्रुत आगम आयुक्तैः । एतेन ज्ञानितोक्तिः । अत एव मन्त्रे कुशलैनिपुणैरत एवं च शान्तेः शान्तिकर्मणि कुशलैश्च ।। __ मन्त्रे कुशलैः । श्रुत आयुक्तैः । इत्यत्र “कुशल" [९७] इत्यादिना वा सप्तमी ॥ पक्षे शेषषष्टी । शान्तेः कुशलैः । तपस आयुक्तैः ॥ स्वामिनोश्वेष्विभानां चानसां पत्तिषु चेश्वराः । लक्ष्म्यां क्षितेश्चाधिपतेः सद्योद्वारं सिषेविरे ॥ ६० ॥ ६०. अश्वेष्विभानां च स्वामिनोनसां रथानां पत्तिषु चेश्वराश्चतुरङ्गबलनायका लक्ष्म्यां राज्यश्रियः क्षितेश्चाधिपतेर्मूलराजस्य द्वारं सिंहद्वारं सद्यः सिषेविरे॥ १ ए लक्ष्यां हिते. १ एफ °त्र । सौ. २ एफ् शेषे षष्ठी. ३ सी डी शातथे. ४ एफ पस्त. ५ एफ नित्वोक्तिः ।. ६ बी व शा. ७ सी ना स. ८ एफ शेषे षष्ठी. ९ बी राजश्रियां क्षि. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ [ है० २.२.९८.] तृतीयः सर्गः। प्रतिभूमिः श्रियः कीर्ती धर्म नीतेश्च साक्षिभिः । शुक्रे गुरोः प्रसूतैर्नु दायादैायि मत्रिभिः॥ ६१॥ ६१. मत्रिभिरायि नृपान्तिक आगतम् । किंभूतैः । धर्मे धर्मस्य नीतेश्च न्यायस्य च साक्षिभिर्लग्नकैः । स्थानभूतैरित्यर्थः । तथा श्रियः कीतौ च प्रतिभूभिर्लग्नकैः स्थानैरित्यर्थः । तथा महामतित्वाच्छुक्रस्य गुरोर्ब्रहस्पतेर्वा प्रसूतैन्पत्यैरिव । यद्वा दायादैर्नु गोत्रिभिरिव ॥ अश्वेष्विभानां स्वामिनः । पत्तिष्वनसामीश्वराः । लक्ष्म्यां क्षितेरधिपतेः । शुक्रे गुरोर्दायादैः । धर्मे नीतेः साक्षिभिः । कीती श्रियः प्रतिभूमिः । शुक्रे गुरोः प्रसूतैः । इत्यत्र "स्वामी" [१८] इत्यादिनी वा सप्तमी । पक्षे शेषषष्ठी ॥ ज्योतिषेधीतिनो जन्म च्छायायां शङ्कुमादधुः । द्विष्यसाधु नृपे साधु लग्नं साधयितुं क्षणात् ॥ ६२ ॥ ६२. जन्म जन्मकालं प्राप्य जर्मन आरभ्येत्यर्थः । “कालाध्वनोाप्तौ” [२.२.४२] इति द्वितीया । ज्योतिषेधीतमेभिरधीतिनः । “इष्टादेः” [७.१.१६७] इतीन् । आजन्माधीतज्योतिषाः । अत्यन्तं ज्योतिःशास्त्रज्ञा इत्यर्थः । आधुः समभूभागेस्थापयन् । क । छायायाम् । छायानिमित्तं शकुं ज्योतिःशास्त्रोक्तसरलत्वादिगुणोपेतं सप्ताङ्गुलादिप्रमाणं कालमानकारणं काष्ठकीलकम् । किं कर्तुम् । लग्नं मेषादि क्षणाच्छीघ्रं साधयितुम् । कीदृक् । द्विषि शत्रावसाधु क्षयकारि नृपे मूलराजे साध्वभ्युद १ डी तिष्यधी'. २ ए °साधुः नृ. १ सी डी ॥ मंभिर्लग्नैः स्थानरि. २ ए की. श्रि. ३ सीना स. ४ एफ शेषे षष्ठी. ५ सी मका. ६ एफ °न्म आ. ७ डी तिथ्यधी. ८ सीडी त्यन्तज्यो . ९ एफ न् । कं छा . १० बी एफ रकं का. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ द्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] यकारि । शङ्कुर्हि च्छायामानानयनायातपवति समभूभागे स्थाप्यते । तेन च कालो मीयते । कालमानेन च लग्नं साध्यते । छायायां शङ्कुमादधुरित्यनेन यात्रालग्नदिनस्य रजोवगुण्डनाद्युत्पातरहितत्वेन श्रेष्ठत्वं सूचितम् ॥ खं प्रत्यसाधून्साधूश्चागणयन्वेत्रिणां पतिः। साधूनस्वामिनि तत्कार्ये निपुणांश्चाग्रतो व्यधात् ॥ ६३ ॥ ६३. वेत्रिणां पतिः प्रतीहारेशः खामिनि मूलराजे साधून्भक्तांस्तकार्ये स्वाम्यर्थे निपुणान्विधानचतुरानग्रतो मूलराजस्य पुरतो व्यधाचक्रे । कीडक्सन् । अतिस्वामिभक्तत्वात्स्वमात्मानं प्रत्यसाधूंनभक्तीन साधूंश्च भक्तानगणयन्नपरिभावयन् ॥ हसन्तो निपुणान्मातुः पितुः साधूश्च शस्त्रिणः। प्रतीशं निपुणास्तस्थुः श्रेण्या द्वारेङ्गरक्षकाः ॥ ६४॥ ६४. अङ्गरक्षकाः श्रेण्या पतया द्वारे तस्थुः । किंभूताः सन्तः । ईशं स्वामिनं प्रति निपुणा रक्षाचतुरी अत एव मातुर्निपुणान्मात्रैव निपुणान्मन्यमानान्पितुः साधूंश्च पित्रैव साधून्मन्यमानान्भटान्हसन्तस्तथा शस्त्रिणः प्रहरणहस्ताः ।। ज्योतिषेधीतिनः । इत्यत्र "व्याप्ये केनः" [९९] इति सप्तमी ॥ व्याप्य इति किम् । जन्माधीतिनो ज्योतिषे । अत्र जन्मनो मा भूत् ॥ छायायां शङ्कुमादधुः । इत्यत्र "तद्युक्ते हेतौ” [१००] इति सप्तमी ॥ १ एफ धूंश्च ग. १ सी डी °ने चौं. २ एफ मिनमू. ३ ए सी धून् भ. ४ एफ °क्तानग. ५ बी ॥ श्रे. ६ ए रात'. ७ डी °तिष्य धी. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.१०३.] तृतीयः सर्गः । २४९ द्विष्यसाधु । इत्यत्र "अप्रैति'' [१०१] इत्यादिना सप्तमी ॥ अप्रत्यादा. विति किम् । स्वं प्रत्यसाधून ॥ नृपे साधु । इत्यत्र “साधुना" [१०२] इति सप्तमी ॥ अप्रत्यादावित्येव । स्वं प्रति साधून ॥ तत्कायें निपुणान् । स्वामिनि साधून् । इत्यत्र “निपुणेन' [१०३ ] इत्यादिना सप्तमी ॥ अर्चायामिति किम् । मातुनिपुणान् । पितुः साधून ॥ अप्रत्यादावित्येव । प्रतीशं निपुणाः ॥ भृत्यानामधि चौलुक्येध्यद्रिषु क्ष्माभुजां बलम् । उपखार्यामिव द्रोणो मिलत्यागाइलेधिकम् ॥ ६५ ॥ ६५. चौलुक्येधि भृत्यानां मूलराजस्येशस्य किंकराणामध्यद्रिषु क्ष्माभुजामीश्येषु पर्वतेषु स्वामिनां राज्ञां बलं सैन्यं बले मूलराजसैन्ये मिलति सत्प्रधिकमर्गलैमागादर्थादेतन्मध्य एव । उपखार्या द्रोण इव । यथा खार्याः षोडशद्रोण्या द्रोणश्चतुराढकी अधिक इत्यर्थः । एतावन्मूलराजबलमामिलद्यावति बहूनामप्यद्रिनृपाणां बलं खार्या द्रोणतुल्यमभूदित्यर्थः ।। वेणी ध्वनति भेर्यास्त भेयाँ वेणुरपि क्षणात् । आसीनेषु द्विजेष्वापुः स्खं भूता एषु च द्विजाः॥६६॥ ६६. वेणुशब्देनात्र वेणूपलक्षितं प्रेक्षणकमभिव्यज्यते । भेरीशब्देन च भेर्युपलक्षितं तूर्यम् । ततो वेणौ वंशोपलक्षिते प्रेक्षणके ध्वनति लयप्रधानं वाद्यमानैर्वेणुवीणादिभिः शब्दायमाने भेरी भेर्युपलक्षितं तूर्य प्रे १ एफ प्रत्याद्वावित्या. २ सी डी °न् । तत्का. ३ बी लममाद". ४ एफ खार्या षो. ५ एफ द्रोण्यां द्रो'. ६ सी डी ण इव तु. ७ एफ व्यज्यते. ८ सी डी माने वी. ९ एफ मानेभैरी. ३२ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] 9 क्षणकस्य विघ्नाभावार्थमास्त निर्ध्वानं स्थिता । तथा भेर्या तूर्ये ध्वनन्त्यां वेणुरपि प्रेक्षणमपि क्षणादास्त निरर्थकत्वात् । यात्रार्थमुद्यते हि नृप उत्सवार्थ पर्यायेण प्रेक्षणकं तूर्यवादनं च स्यात् । तथा द्विजेष्वासीनेषु द्रव्यप्राप्तिरहितेषु सूता भट्टाः स्वं द्रव्यमापुर्लेभिरे । एषु च सूतेवासीनेषु द्विजाः स्वमापुः । यात्रार्थमुद्यतो हि राजा वीराश्च गुणोकीर्तकेभ्यो भट्टेभ्यो यशसे वेदपाठिभ्यो द्विजेभ्यश्च धर्मार्थ द्रव्यं दति ॥ स्वे । अध्यद्विषु क्ष्माभुजाम् ॥ ईशे । अधि चौलुक्ये भृत्यानाम् । इत्यत्र "स्वेशेधिना " [ १०४ ] इति सप्तमी । अधिः स्वस्वामिसंबन्धं द्योतयति ॥ उपखार्या द्रोणः । इत्यत्र “उपेनाधिकिनि ” [ १०५ ] इति सप्तमी । उपोधिकाधिक संबन्धं द्योतयति ॥ बले मलत्यागाद् । इत्यत्र " यद्भावः " [१०६ ] इत्यादिना सप्तमी ॥ यत्र forniarrari द्विपर्ययो वा । यथा भेय ध्वनन्त्यां वेणुरास्त । द्विजेवासीनेषु स्वं सूता आपुः । यत्र च क्रियानहीणामकारकत्वं तद्विपर्ययो वा । यथा सूतेष्वासीनेषु द्विजाः स्वमापुः । वेणौ ध्वनति भेर्यास्त । तत्रापि भावो भावस्य लक्षणं भवतीत्यनेनैव सप्तमी । अत्र च वेण्यपेक्षयोदात्तध्वानत्वेन वाद्येषु मुख्यत्वेन च ध्वानक्रियात्वादेर्याः सूतापेक्षया तपश्चरणादिक्रियाप्रधानत्वेन दानक्रियात्वाद्विजानां च क्रियार्हता । भेर्यपेक्षया वेणोर्द्विजापेक्षया सूतानां च ध्वानदानक्रियानत्वेन क्रियानर्हता ॥ ग्रामो यो योजनान्यष्टौ योजनेषु दशस्वितः । पर्वेवाह्नि त्रयोदश्या यात्रां द्रष्टुं स आययौ ।। ६७ ॥ २५० १ सी डी निध्वानं. २ सी डी वेणुर्वेणु. ३ एफ् 'भ्यो य'. ४ सी डी 'भ्यः ६. ५ बी ददाति ॥ ६ एफ् शे चौ. ७ बी 'धिकीनि. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ [है० २.२.१०७.] तृतीयः सर्गः । ६७. यथा त्रयोदश्यास्तिथेः सकाशादह्नि दिने चतुर्दशीलक्षणे गत इति गम्यते । पर्व पूर्णिमा स्यात्तथेतः पत्तनाद्यो ग्रामो ग्रामस्थो लोकोष्टौ योजनान्यष्टसु योजनेषु गतेषु दशसु वा योजनेषु गतेष्वभूत्स ग्रामो यात्रां प्रयाणं द्रष्टुमाययौ । नानोत्सवादिनात्यद्भुतत्वाद्दूरदेशस्थोपि लोक: कौतुकेन यात्रां द्रष्टुमागत इत्यर्थः ।। इतो ग्रामो योजनान्यष्टौ । इतो ग्रामो योजनेषु दशसु । इत्यत्र “गते गम्ये" [२०७] इत्यादिनैकार्थ्यं वा । पक्षे पूर्वेण सप्तमी ॥ अध्वन इति किम् । त्रयोदश्या अह्नि पर्व । अत्रैकार्थ्याभावे पूर्वेण नित्यं सप्तमी ॥ पौर्यो रुदत्सु बालेषु सीदतां गृहकर्मणाम् । एयुर्द्रष्टुं नृपं श्रेष्ठं नृष्विन्द्रमिव नाकिनाम् ॥ ६८ ॥ ६८. बालेषु रुदत्सु मातृविरहेण रुदतो बालकान् सीदतां गृहकर्मणामप्रवर्तमानान् रन्धनादीन् गृहव्यापारांश्वानादृत्य पौर्यो नृपं द्रष्टुं कौतुकादेयुः । यतो नाकिनां मध्य इन्द्रमिव नृषु मध्ये श्रेष्ठं रूपैश्वयादिगुणैरुत्कृष्टम् ॥ तदास्त्रिभ्यो वरा योधा रेजुर्यैः स्थानकस्थितैः । विद्धः क्रोशात्क्रोशयोर्वा म्रियेत क्षणयोः क्षणात् ॥ ६९॥ ६९. तदा यात्रोपक्रमकालेस्त्रिभ्योत्रं धनुरस्त्येषां तेभ्यो वरा धनुधरेषु श्रेष्ठा योधा रेजुः स्वावसरप्राप्तिसंभावनया तेजस्विनोभूवन् । यैर्योधैः स्थानकस्थितैरालीढादिस्थानावस्थितैः सद्भिः क्रोशाद्व्यूतात्क्रो १ ए युद्रष्टुं. २ सी नृपश्रे. १ सी यात्राप्र. २ सी त्र गम्ये'. ३ एफ भणां प्र. ४ एफ मध्ये श्रे. ५ एफू पा रे. ६ ए स्वाव. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] शयोर्वा विद्धः सन् क्षणयोरल्पमानकालभेदयोः क्षणाद्वा । पूर्वो वात्रापि योज्यः । म्रियेत । ये दूरवेध्यवेधिनो महाप्राणाश्चेत्यर्थः । संभावने सप्तमी॥.. ___ सीदतां कर्मणामेयुः । रुदत्सु बालेष्वेयुः । इत्यन्न “षष्ठी वानादरे" [१०८] इति वा षष्ठी । पक्षे पूर्वेण सप्तमी ॥ नाकिनां नृषु श्रेष्ठम्। इत्यत्र “सप्तमी च" [१०९] इत्यादिना षष्ठीसप्तम्यौ ॥ अन्ये तु पञ्चमीमपीच्छन्ति । अस्त्रिभ्यो वरा योधाः ॥ स्थितैः कोशात्क्रोशयोर्वा विद्धः । क्षणाक्षणयोर्वा नियेत । इत्यत्र “क्रियामध्येध्व" [११०] इत्यादिना पञ्चमीसप्तम्यौ । इह धानुष्कावस्थानमेका क्रिया पुरुषव्यधश्च द्वितीया । तन्मध्ये क्रोशोध्वा । तथा व्यधनमेका क्रिया मरणं च द्वितीया । तन्मध्ये क्षणः कालः ॥ संघदृशीर्णस्त्रीहारैर्मुक्तानां राजवेश्मनि । खार्याः खार्योरप्यधिको द्रोणोर्धेन तदाभवत् ॥ ७० ॥ ७०. तदा यात्रोपक्रमकाले राजवेश्मनि संघटेनान्योन्यं संमर्दैन शीर्णास्युटिता ये नीहारास्तैहेतुभिर्मुक्तानां मुक्ताफलानामधेन ड्याडक्या काधिकोध्यारूढो द्रोण आढकचतुष्कमभूत् । कीदृक् । खार्या मुक्तानामेव द्रोणषोडशकात्खार्योरपि । अपिर्विकल्पार्थः । खारीद्वये वाधिकोध्यारूढवान् । अक्षतक्षेपादिमाङ्गलिक्यविधयेहमहमिकयागतमहेभ्यकुलस्त्रीणामतिबाहुल्यादेवं नाम संमर्दे हारास्युटिता यावता राजगृहाङ्गणे मुक्ताफलानामेका द्वे वा खायौँ सार्धद्रोणेनाधिके अभूतामित्यर्थः॥ १ सी डी भवेत् ।। १ सी डी म्रियते। ये. २ बी द्धः । विद्धः क्ष° ३ सी क्षणकाल 1. डी क्षणकालः ।. ४ ए बी एफ कीधि . ५ बी पिवि॰ ६ एफ पिविक. ७ बी देन हा ८ ए सी डीङ्गणमु. ९ ए ताखला. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.११४.] तृतीयः सर्गः। २५३ अधिको द्रोणः खार्योः । अधिको द्रोणः खार्याः । इत्यत्र "अधिकेन" [१११] इत्यादिना सप्तमीपञ्चम्यौ ॥ अधिको द्रोणोधैन । इत्यत्र "तृतीयाल्पीयसः" [११२] इति तृतीया ॥ नाक्षतैश्चन्दनानाना न दध्नो दूर्वया पृथक् । न पुष्पेभ्यः फलं वार्ते पात्राणि दधिरेङ्गनाः ॥ ७१ ॥ ... ७१. नानापृथक्शब्दावसहायार्थौ । अङ्गनाः पात्राणि न दधिरे । कीशि । अक्षतैरखण्डतण्डुलैश्चन्दनाच्च श्रीखण्डद्रवेण च नानासहायानि । तथा दध्नो दूर्वया च पृथगसहायानि । तथा पुष्पेभ्यः फलं च नालिकेरादि च ऋते विनाभूतानि । अक्षतचन्दनदधिदूर्वापुष्पफलोपेतानि पात्राणि राजादिगृहेषु महेभ्यादिकुलाङ्गनाश्चन्दनवर्धनादिमाङ्गलिक्याय नयन्तीति स्थितिः॥ पृथग्दनः । पृथग्दूर्वया । नाना चन्दनात् । नानाक्षतैः । इत्यत्र "पृथग्नाना" [११३] इत्यादिना पञ्चमीतृतीये ॥ फलमृते । पुष्पेभ्य ऋते । इत्यत्र "ऋते द्वितीया च" [११४] इति द्वितीयापञ्चम्यौ ॥ नासन्विनाङ्गरागेण कौसुम्भं भूषणांत्स्त्रियः। तुल्या रतेः श्रिया चेन्दोः पझेन च समैमुखैः॥ ७२ ॥ ___ ७२. इन्दोः पद्मेन च समैस्तुल्यैर्मुखैः कृत्वा रते: कामपत्न्याः श्रिया च विष्णुभार्यया तुल्याः स्त्रियो नासन् । कथम् । अङ्गरागेण कौसुम्भं कुसुम्भरक्तवस्त्रं च भूषणात्स्वर्णालंकाराच्च विना मङ्गल्यत्वात् । १ बी डी एफ °लं चर्ते. २ ए णा स्त्रि. १ एफ °धिकद्रोण: खार्या इ. २ ए णोधेन ।. ३ सी डी थन्दू. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] सुरूपा विभूषितालंकृतीः सधवाश्च युवतयो राजादिमङ्गल्यकर्मसु व्यामृता अभूवन्नित्यर्थः ॥ विना कौसुम्भम् । विना भूषणात् । विनाङ्गरागेण । इत्यत्र "विना" [११५] इत्यादिनी द्वितीयापञ्चमीतृतीयाः ॥ श्रिया तुल्याः । रतेस्तुल्याः । पद्मेन समैः । इन्दोः समैः । इत्यत्रं "तु. ल्याथैः" [११६] इत्यादिना तृतीयाषष्ट्यौ ॥ दत्ताः प्रासादं पूर्वेण गोपुरस्यापरेण च ।। प्राक्पयाणादुत्सवेन हेतुना कुङ्कुमच्छटाः ॥ ७३ ॥ ७३. प्रयाणात्प्राक्प्रथममुत्सवेन हेतुना यात्रामहोत्सवार्थ कुकुमच्छटा दत्ताः कुङ्कमाम्बुना भूश्छटितेत्यर्थः । क। प्रासादं पूर्वेण पूर्वाभिमुखाद्राजभवनात्पूर्वस्यामदूरवर्तिन्यां दिशि गोपुरस्य पूर्वदिगभिमुखस्य पूर्वारस्यापरेण चापरस्यामदूरवर्तिन्यां दिशि च । प्रासादापेक्षया गोपुरस्य पूर्वत्वाद्गोपुरापेक्षया च प्रासादस्यापरत्वात्प्रासादादारभ्य गोपुरं यावदित्यर्थः ॥ स्नेहाय हेतवे भक्तेनिमित्तान्मुदि कारणे । नरेन्द्रदर्शनस्यार्थस्योत्सुकोभून्न कस्तदा ॥ ७४ ॥ ७४. स्नेहाय हेतवे प्रेम्णा हेतुना भक्तनिमित्ताबहुमानेन हेतुना मुदि कारणे हर्षाद्धेतोर्यन्नरेन्द्रदर्शनं तस्यार्थस्य मूलराजदर्शनेन हेतुना तदा यात्रारम्भकाले क उत्सुको नाभूत् ॥ प्रासादं पूर्वेण । गोपुरस्यापरेण । इत्यत्र "द्वितीया" [११७] इत्यादिना द्वितीयाषष्ट्यौ ॥ अनञ्चेरिति किम् । प्राक्प्रयाणात् ॥ उत्सवेन हेतुना । स्नेहाय हेतवे । भक्तेनिमित्तात् । दर्शनस्यार्थस्य । मुदि कारणे । इत्यत्र “हेत्वथैः" [११८] इत्यादिना तृतीयाद्या विभक्तयः ॥ १ डी ता अलं. २ बी सी डी ताः सुध. ३ वी पृत्यभू. एफ प्रत्याभू. ४ ए नाहिती. ५ ए वस्तुल्या. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.२.१२१.] तृतीयः सर्गः। २५५ यो हेतुर्वाजिनां हेषा यं हेतुं दन्तिनां मदः। हेतुनोक्ष्णां ध्वनिर्येनार्थाय यस्मै भटोद्यमः ॥ ७५ ॥ सोच्छासाँ भूर्यतो हेतोर्यस्य हेतोः सुखो मरुत् । तत्र हेतौ न दूरेण राज्ञो भावी जयो महान् ॥ ७६ ॥ ७५,७६. येन हेतुनाश्वादीनां हेषादयोभवंस्तेन हेतुना राज्ञो मूलराजस्य मूलराजाद्वा महान जयो न दूरे भावी शीघ्रमेव भविष्यति । वाजिहेषादिभिर्यात्राविषयशुभचिकै विनो यात्राकार्यस्य विजयस्य नैकट्यं सूचितमित्यर्थः ॥ संदानितकमिति युग्मस्य संज्ञा । यदुक्तम् । एकद्वित्रिचतुश्छन्दोभिर्मुक्तकसंदानितकविशेषककलापकानि । अथ दूरेपि लोकस्यान्तिके नु तेजसा ज्वलन् । न दूराच्छ्रेयसां सिंहासनमध्यास्त भूपतिः ॥ ७७॥ ७७. अथ सैन्यसज्जनाद्यनन्तरं भूपतिः सिंहासनमध्यास्त । कीहक्सन् । श्रेयसां पुण्यानां मङ्गलकर्मणां वा न दूरान्निकटस्थ इत्यर्थः । अत एव लोकस्य दूरेपि राजसामन्तादिव्याप्तनिकटप्रदेशकत्वादनिकटेपि वर्तमानस्तेजसा प्रतापेन कान्त्या वा ज्वलन् सल्लोकस्यान्तिके नु समीप इव वर्तमानः । न दूराच्छ्रेयसामिति सिंहासनस्य वा विशेषणम् । सिंहासनसमीपे हि मुक्तास्वस्तिकादीनि माङ्गलिक्यानि कृतानि स्युः ॥ १ सी हेषां यं. २ ए° पा ये हे'. ३ सी डी °सा सूर्य'. ४ एफ ॥ ७६ ।। युग्मम् ।. ५ सी रेवि लो° १ सी वितो या . २ एफ थः ॥ युग्मम् ॥ सं. ३ सी °न्त्या च ज्व. त्या व ज्व. डी Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ब्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः]] दूरं राज्ञोपठन् मृता विप्रः सर्वोन्तिकेन तु । अन्तिकाद्गुरुराशास्त गायनाश्चान्तिकं जगुः ॥ ७८ ॥ ७८. राज्ञो नृपस्य नृपाद्वा दूरं सूता भटा अपठेन् । विप्रस्तु ब्राह्मणजातिः पुनः सर्वोपि राज्ञोन्तिके वेदमपठत् । गुरुः पुरोहितजाति: सर्वोपि राज्ञोन्तिकात्समीप आशास्ताशिष दत्तवान् । कृत्यविधिमकथयद्वा । गायनाश्च राज्ञोन्तिकं निकटे जगुः ॥ यो हेतुः । यं हेतुम् । येन हेतुना । यस्सै अर्थाय । यतो हेतोः । यस्य हेतोः । तत्र हेतौ । इत्यत्र “सर्वादेः सर्वाः" [११९] इति सर्वा विभक्तयः ॥ दूरेण राज्ञः । दूराच्छ्रेयसाम् । दूरे लोकस्य । दूरं राज्ञः ॥ अन्तिकार्थ । राज्ञोन्तिकेन । राज्ञोन्तिकात् । लोकस्यान्तिके । राज्ञोन्तिकम् । इत्यत्र “असस्वाराद्" [१२०] इत्यादिना टा-ङसि-डि-अम्प्रत्ययाः ॥ विप्रः सर्वः सूताः । सर्वो गुरुः गायनाः । इत्यत्र "जाति" [१२१] इत्यादिनैकोर्थो बहुवद्वा ॥ स्थास्यावः सुखमद्यावां भास्यामोद्य वयं श्रिया । इति तूर्यप्रतिरवैल्पतः स्मेव रोदसी ॥ ७९ ॥ ७९. तूर्यप्रतिरवैर्यात्रामाङ्गलिक्यविधापनाय सिंहासनमध्यासीने राज्ञि विशेषतो वाद्यमानानी नान्दीतूर्याणां व्योमादौ प्रतिशब्दितैः कृत्वा रोदसी जल्पतः स्मेव । किमित्याह । अद्य संप्रत्यस्मदुपप्लाविदैत्यानामुच्छेत्स्यमानत्वादावां सुखं स्थास्यावोत एवाद्य वयमावां श्रिया भास्यामः ॥ १ सी रुताशा. १ सी डी ठत् । वि. २ बी एफ् न्तिके नि. ३ सी डी तोः । त. ४ एफ °न्तिके । इ. ५ एफ सत्त्वेत्या. ६ ए नां दीतू. ७ ए सीव ज° ८ ए बी सी डी एफ °माणत्वा. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ [है० २.२.१२१.] तृतीयः सर्गः । २५७ वेदयहं तद्वयं ब्रूमः पार्थो यः फल्गुनीष्वभूत् । स त्वं जयेति वक्तास्य पुरोधास्तिलकं व्यधात् ॥ ८०॥ ८०. पुरोधा अस्य राज्ञो यात्रोचितं तिलकं व्यधात् । कीहक्सन् । वक्ता वदन् । किमित्याह । तदहं वेद्मि जाने तथा तद्वयं ब्रूमस्तच्चाई सर्वत्र कीर्तयामि । यत्किम् । यः पार्थः फाल्गुनोर्जुनः फल्गुनीपु फल्गुनीभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्ते कालेभूज्जातः स पार्थस्त्वं भवानेव । तत्पराक्रमादिगुणोपेतत्वात् । तस्माजय शत्रुपराभवेनोत्कृष्टो भव । अर्जुनो हि शत्रुजयेनोत्कृष्टोभूदिति ॥ धूयमाने अलक्ष्येतां राजानमनु चामरे । शशाङ्कमनु फल्गुन्यौ किं नु प्रोष्ठपदे नु किम् ॥ ८१ ॥ ८१. राजानं मूलराजमनुलक्ष्यीकृत्य धूयमाने वीजनाय चल्यमाने चामरे अलक्ष्येतां लोकैरुत्प्रेक्षिते । कथमित्याह । शशाङ्कं चन्द्रमनुर्लेक्ष्यीकृत्य किं नु फल्गुन्यौ किं नु किं वा प्रोष्ठपदे । धूयमानचामरद्वयमध्यस्थो राजा पूर्वफल्गुन्योः पूर्वभद्रपदयोस्तारिकयोर्मध्यस्थश्चन्द्र इव लोकैति इत्यर्थः ॥ यान्तु याम्यां दिशं प्रोष्ठपदासु तव शत्रवः । जय त्वं यूयमेधध्वमिति ज्योतिर्विदोवदन् ॥ ८२ ॥ ८२. ज्योतिर्विदोवदन्नात्मानुरूपा आशिषो ददुः । यथा हे राजस्तव शत्रवो ग्राहरिप्वादयः प्रोष्ठपदासु प्रोष्ठपर्दाभिः पूर्वभद्रपदाभिरुत्त १ ए दिशि प्रो. १ एफ् नीभि. २ ए °भियुक्ते. ३ सी °य वल्य. डी °य चाल्यौं. ४ ए लक्षीकृ. ५. सी डी योर्म'. ६ सी डी लोके ज्ञा. ७ सी तिवेदो . ८ बी दादिभि. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] रभद्रपदाभिर्वा चन्द्रयुक्ताभिर्युक्ते काले याम्यां दिशं दक्षिणां यान्तु । म्रियन्तामित्यर्थः । प्रोष्ठपदासु हि दक्षिणदिशि याने पुनरागमनं न स्यात् । यदुक्तम् ॥ धनिष्ठारेवतीमध्ये चन्द्रे चरति यो ब्रजेत् । दक्षिणस्यां कदाप्यस्य पुनरागमनं न हि ॥ ततश्च जय त्वं तथा यूयमेधध्वं लक्ष्म्या त्वं वर्धस्वेति ॥ युवामच्यौँ गृहा लक्ष्म्या यूयमस्य भुजाविति । कल्याणतिलकाकृष्टा दारा जगुरिवालिनः ॥ ८३ ॥ ८३. अस्य राज्ञो भुजौ कल्याणहेतुत्वात्कल्याणं कल्याणाय वा पुरोधसा कृतं यत्तिलकं तेनाकृष्टाः सौरभेण दूरादानीता अलिनो भृङ्गस्य दारा भृङ्गी जगुरिवं गायन्ति स्मेव । कथमित्याह । हे भुजौ यूयं युवां लक्ष्म्या विजयादिश्रियो गृहा आश्रयावत एव युवामच्यौँ स्थ इति । भुजयोर्गानाशङ्का च तयोरेव भविष्यजयहेतुत्वेन यात्रारम्भकाले गानाहत्वात् । या अपि दारा आकृष्टितिलकाकृष्टा भवन्ति तास्तस्याक्रष्टुर्गानादिकं कुर्वन्तीत्युक्तिः ।। गोदौ ग्राम खलतिकं वनानि देशमश्मकान् । भोक्तारोन्येपि भूपास्तं नमस्कृत्याग्रतोभवन् ॥ ८४ ॥ ८४. स्पष्टः ॥ १ए लक्ष्मा यू. २ बी मस्मका. ३ सी डी ।। ८४ ॥ पुर. १ एफ भिर्यु'. २ ए दिशि द. ३ ए लक्ष्या त्वं. ४ सी डी ल्याणं क. ५ एफू भृङ्गयो ज. ६ सी व क. डी व स्मे. ७ सी लक्ष्मा वि. ८ सीडी त् । यथा अ". Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः । पुरस्खेलिपुरस्पातिपुरस्फक्कैः स तैर्विभान् । नमः करोति स्म महालक्ष्म्यै भक्तिपुरस्कृतः ॥ ८५ ॥ [है० २.३.१.] ८५. महालक्ष्म्यै नमः करोति स्म । नमः शब्दमुच्चारितवान्ननाम वा । इष्टदेवताप्रणामपूर्वे हि यात्रा क्रियत इति स्थितिः । कीदृक्सन् । भक्तिपुरस्कृतो बहुमानेन प्रेरितस्तथा तैर्गोग्रामादिभोक्तभिरन्यैश्च नृपैर्विभान् । यतः पुरस्खेलिपुरस्पातिपुरस्फक्कैः । कैश्चित्पुरस्खेलिभिः प्रसादपात्रत्वादग्रे क्रीडनशीलैः कैश्चिच्च पुरस्पातिभिर्भक्त्यतिशयख्यापनायाग्रे लुठद्भिः कैश्चिच्च पुरस्फक्कैर्विनयान्नी चैर्गच्छद्भिः ॥ 1 आवां स्थास्यावः । वयं भास्यामः । वेकयहम् । वयं ब्रूमः । इत्यत्र "अविशेषणे”” [१२२] इत्यादिमास्मदो द्वावेकश्चार्थो वा बहुवत् ॥ फल्गुन्यौ फल्गुनीषु । प्रोष्ठपदे प्रोष्ठपदसु । इत्यत्र “ फल्गुनी” [ १२३] इत्यादिना द्वावय बहुवद्वा ॥ ४ जयत्वम् । यूयमेधध्वम् । युवामच्यौं । यूयं गृहाः । इत्यत्र "गुरावेकश्च " [१२४] इति द्वावेकवार्थो बहुवद्वा ॥ दाराः । गृहाः । देशमश्मकान् । गोदौ ग्रामम् । खलतिकं वनानि । इत्यत्र सर्वलिङ्गसंख्ये वस्तुनि स्याद्वादमनुपतति मुख्योपचरितार्थानुपातिनि च शब्दात्मनि रूढितस्तत्तलिङ्गसंख्योपादानव्यवस्थानुसतच्या ॥ षष्ठः पादः समर्थितः ॥ नमस्कृत्य । पुरस्कृतः । पुरस्खेलि । पुरस्पाति । पुरस्फक्कैः । इत्यत्र "नमस्पुरसोः " [१] इत्यादिना सः ॥ गतेरिति किम् । नमः करोति । अत्र नमः - शब्दान्तरं न त्वत्ययमिति । नमः शब्दस्य कृद्योगे विकल्पेन गतिसंज्ञाविधानाद्वा ॥ २५९ १ एफू क्तिभर २ एफ् ॥ ८५ ॥ इत्याचार्यश्री हेमचन्द्रविरचितायां शब्दानुशासनद्याश्रयमहाकाव्ये षष्ठपादसमर्थितः । समाप्तः । १ एफू या. २ सी 'नेव प्रे. ३ सी दाष्टपदा. ५ सी डी इति प ६ सी डी 'तः इति षष्ठः पादः समाप्तः ॥ ४ ए 'लिङ्गथसं'. ७ सी 'स्कृतः । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] स्थितं पादं तिरः कृत्वा तिरस्कृतगिरिं गजम् । तिरःकृतारिः सोध्यास्त तिरस्कृत्वा रविं त्विषा ॥ ८६ ॥ ८६. तिरःकृता अन्तर्हिता जिता अरयो येन से तथा स मूलराजस्त्विषा तेजसा कृत्वा रविं तिरस्कृत्वान्तर्धाय विजित्यातितेजस्वी भूयेत्यर्थः । गजमध्यास्त । कीदृशम् । तिरस्कृत गिरिमौन्नत्येन पराभूताद्रिम् | यदि शैलादप्युन्नतो गजस्तर्हि कथं तमध्यास्तेत्याह । यतः पाद तिरःकृत्वा तिरश्चीनं विधायाधोवनम्येत्यर्थः । स्थितं निश्चलीभूतम् । गजो हि पाश्चात्ययोः पादयोर्मध्ये येन केनाप्यारुह्यते । तमसावधोवनमयति । तिरस्कृत्वा रविं त्विषा तिरस्कृतगिरिं गजं सोध्यास्तेत्यनेन यथा रविर्गिरिमुद्याचलमारोहति तथायं गजमिति व्यज्यते ॥ तिरस्कृत तिरःकृत । इत्यत्र " तिरसो वा " [२] इति वा सः ॥ गतेरिति किम् । तिरः कृत्वा ॥ अगतेरप्यन्तर्द्धाविच्छत्यन्यः । तिरस्कृत्वा ॥ पुंस्फाल्गुनः स पुंस्पाता मत्तपुंस्करिणस्तदा । शिरस्पदमलंचक्रे पुंस्खङ्गिभिरधस्पदम् ।। ८७ ।। ८७. स मूलराजस्तदा यात्राकाले मत्तो मदोत्कटः पुमान्पौरुषो - पेतश्च यः करी तस्य शिरस्पदं कुम्भस्थलस्थानमलंचक्रे । कीदृक् । पुंस्सु पौरुषोपेतेषु फाल्गुन इवार्जुन इव पुंस्फाल्गुनोत एव पुंस्पाता पुरुषाणां रक्षकः । तथा पुंस्खङ्गिभिः पौरुषोपेतखङ्गधरैश्वास्पदं हस्तिनोर्धस्थानमलंचक्रे । करीन्द्रो हि राज्ञाध्यासितः परप्रवेशनिवारणाय खड्गिभिरधः परिचार्यत इति स्थितिः || ७ १ सी रवि १ सी समू. २ए यो पा. ३ ए सी येना के ४ ए सी 'रकृत्वा डी र: कृत्वा . ५ डी पुंस्पा, ६ बी धःस्था ७ वी 'रिवार्य. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.४.] तृतीयः सर्गः । २६१ पुंस्करिणः । पुंस्खगिभिः । पुंस्पाता । पुंस्फाल्गुनः । इत्यत्र "पुंसः" [३] इति सः॥ शिरस्पदम् । अधस्पदम् । इत्यत्र “शिरोधसः" [४] इत्यादिना सः ॥ अथ राज्ञः प्रस्थानमेव श्लोकानामेकोनत्रिंशता वर्णयति । श्रेयस्कामः सहस्कंसोयस्कुशावान्यशस्कृते । यान्सोपश्यत्ययस्कुम्भं पयस्कर्णीशुभं पुरः ॥ ८८ ॥ ८८. स राजा पयस्कुम्भं जलघटं पुरोपश्यत् । कीहक्सन् । सहसो बलस्य कंसः पात्रमत एवायःप्रधाना कुशायस्कुशा । अत्र प्रस्तावादकुशः । सास्यास्ति अयस्कुशावान्यशस्कृते शत्रुजयोत्थकीर्त्यर्थं यान् शत्रु प्रति गच्छन्नत एव च श्रेयः कामयते अणि श्रेयस्कामः कुशलार्थी । किंभूतं कुम्भम् । पयश्च की च पयस्कण्यौँ ताभ्यां शुभमभग्नकर्ण जलपूर्ण चेत्यर्थः । यात्रायां हि जलपूर्णस्य पूर्णकलशस्याग्रतो दर्शनं महाशकुनम् ॥ ऊर्जस्पात्रं पुनःकारं गी:कारः सव्यतोस्य गौः। यशस्कल्पो द्विषदुर्ग रोधस्पाशं शशंस नु ॥ ८९॥ ८९. गौः शण्ड: सव्यतो राज्ञो वामदेशे पुनर्वारंवारं कारः करणं यत्र तद्यथा स्यादेवं गिरं शब्दं करोतीति गी:कारः सन्नस्य राज्ञो द्विषहर्ग ग्राहारिदुर्गस्थानं रोधस्पाशं निन्द्यतटं शशंस नूवाचेव । यथाहं रोधस्पाशं सुखेन विक्षिपामि तथा त्वं द्विषहुर्ग विक्षेप्स्यसीति शब्दायमानः शण्डो वददिवेत्यर्थः । कीदृक् । ऊर्जस्पात्रं बलिष्ठस्तथेषदूनं यशो यशस्कल्पः । “वाद्यन्ते स्वार्थिकाः क्वचित्" इति क्लीबत्वाभावः । अतिश्वेतत्वाद्यशस्तुल्यः। यात्रीयामी शण्डः शकुनराजः। १सी पुंस्पल्गु. २ ए सी डी स्कर्णी ता. ३ बी लसस्या . ४ सी निन्छ त'. ५ बी त्रायां हीदृ. ६ सीक सण्ड'. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] गौः पयस्कं क्षरन्सस्य स्वःकल्पायां पुरो भुवि । पयस्काम्यदधःकाम्यदवाःकाम्यत्सुताभवत् ॥ ९०॥ ९०. अस्य राज्ञो गच्छतः पुरः स्व:कल्पायां क्षीरतरुच्छायाहरिततृणशुचित्वादिगुणरम्यत्वेन स्वर्गतुल्यायां भुवि गौर्धेनुरभूत् । कीदृशी सती । पयस्काम्यन् क्षीरकण्ठत्वेन दुग्धाभिलाषुकोत एवाधःकाम्यन् दुग्धपानायाधस्तनप्रदेशस्येच्छुरवाःकाम्यन्नवप्रसूतत्वान्जेलस्याप्यनिच्छुः सुतो वत्सो यस्याः सात एवापत्यस्नेहेन पयस्कमल्पं पयो दुग्धं क्षरन्ती स्रवन्ती । गन्तुकस्य हीदृग्गौः शकुनमतल्लिका ॥ यशस्कृते । श्रेयस्कामः । सहस्कंसः । पयस्कुम्भम् । अयस्कुशावान् । पयस्कर्णी । ऊर्जस्पात्रम् । इत्यत्र “अतःकृकमि" [५] इत्यादिना सः ॥ अत इति किम् । गी:कारः ॥ अनव्ययस्येति किम् । पुनःकारम् ॥ रोधस्पाशम् । यशस्कल्पः । पयस्कम् । इत्यत्र "प्रत्यये" [६] इति सः ॥ अनव्ययस्येत्येव । स्वःकल्पायाम् ॥ पयस्काम्यत् । इत्यन्न "रोः काम्ये" [७] इति सः ॥ रोरिति किम् । अवाःकाम्यत् । अनव्ययस्येत्येव । अधःकाम्यत् ॥ ज्योतिष्काम्यत्सु धूःकाम्यन् धनुष्कल्पध्रुवं स्त्रियम् । ससर्पिष्कामगीष्पाशां निष्कलङ्कां स ऐक्षत ॥९१ ॥ ९१. स राजा ज्योतिर्ज्ञानमिच्छन्ति ये तेषु ज्योतिष्काम्यत्सु धू:काम्यन् धुरमिच्छन् शकुननिमित्तादिज्ञेषु मध्ये धुरीण: सन् स्त्रियमैक्षत । कीदृशीम् । धनुष्कल्पे कुटिलत्वेन चापतुल्ये भ्रुवौ यस्यास्ताम् । १ सी पाशनि. १ बी धरस्य स्त'. २ डी जलं तस्या . .३ ए सी डी स्येव. ४ बी °ध्येपु धु'. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.७.] तृतीयः सर्गः । २६३ एतेन रूपवत्वमुपलक्षितम् । तथासती गीष्पाशा निन्द्या गीर्यस्यास्तां शुभवादिनीम् । तथा निष्कलङ्कामक्षतशीलां सतीमित्यर्थः । कुष्ठादिकलङ्करहितां वा । तथा ससर्पिष्कां घृतभृतभाजनान्विताम् । यात्रायां हीदृक्स्त्रीरत्नदर्शनं शकुनरत्नम् ॥ दुष्प्रापशकुनान्याविष्पुण्यान्याविष्कृतोद्यमः। निष्पिप्रिये बहिष्पश्यन्स बहिष्कृतदुष्कृतः ॥९२॥ ९२. बहिष्कृतदुष्कृतो निर्धूतपाप: स राजा निष्पिप्रिये भाविजयसिद्धिनिश्चयेन नितरां प्रीतः । कीहक्सन् । आविष्कृतोद्यमः प्रकटितयात्रोत्साहः सन् । दुष्प्रापशकुनानि श्रेष्टत्वादुर्लभानि पूर्वोक्तानि शकुनानि बहिः प्रासाद्वाह्यदेशे पश्यन् । कीशि । आविष्कृतं ज्ञापितं पुण्यं शुभं देवं यैः । वृत्तौ गतार्थत्वात्कृतशब्दलोपः। तान्याविष्पुण्यानि ॥ धनुश्चतुष्करं प्रादुष्कुर्वन्स याँश्चतुष्पथे। अदौष्पुरुष्यनैष्कुल्यैः प्रादुष्प्रेमार्चितो न कैः ॥ ९३॥ ९३. स राजा चतुष्पथे चतुष्के यान्सन् प्रादुष्कृतं प्रकटितं प्रेमानुरागो यत्र गतार्थत्वात्कृतशब्दलोपे प्रादुष्प्रेम कैर्चित: पुष्पादिढौकनै पूजितः । किंभूतैः । दुष्टौंः पुरुषा दुष्पुरुषास्तेषां भावो दौष्पुरुष्यं दुष्टपौरुषं कुलानिर्गता निष्कुलास्तेषां भावो नैष्कुल्यमकुलीनता द्वन्द्वे ते न स्तो येषां तैः पुरप्रधानैरित्यर्थः । कीहक्सन् । चतुष्करं चतुर्हस्तप्रमाणम् । अत्र प्रमाणान्मात्रटो “द्विगोः संशये च” [७.१.३४३.] इति लोपः । धनुः प्रादुष्कुर्वन् प्रकटयन् । १ वी 'दुःकृत. २ डी न्यान्स चतु. ३ वी न्स यांश्च'. सीन्सयान् चतु'. १ सी पिकां शृ. २ बी विविज. ३ बी टापु. ४ बी क्सः । च. ५ सी तुर्ह . Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] अगीप्पाशाम् । धनुष्कल्प । ससर्पिष्काम् । ज्योतिष्काम्यत्सु । इत्यत्र "नामिनस्तयोः पः" [८] इति षः ॥ रोः काम्य इत्येव । धूःकाम्यन् ॥ निष्कलङ्काम् । निष्पिप्रिये । दुष्कृतः । दुष्प्राप । बहिष्कृत । बहिष्पश्यन् । आविष्कृत । आविष्पुण्यानि । प्रार्दुष्कुर्वन् । प्रादुष्प्रेम । चतुष्करम् । चतुष्पथे। इत्यत्र "निर्दु" [९] इत्यादिना षः ॥ कथम् अदौष्पुरुष्यनैष्कुल्यैः । एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् ॥ द्विःफलं त्रिःफलं स द्विष्पुष्पं त्रिपुष्पमुज्झतः । द्विष्खे त्रिःखे क्षिप्तलाजान् द्विष्कांस्त्रिज्ञान् जगाद नः॥१४॥ ९४. नृपः कान्पुंसो द्वि: कान्पुंसनिर्वा न जगाद किं तु सर्वानपि वारद्वयं वारत्रयं वा ललापेत्यर्थः । किंभूतान् । राज्ञो माङ्गलिक्यार्थ द्विद्वौँ वारौ फलम् । जातावेकवचनम् । बीजपूरादिफलानि त्रि:फलं त्रीन्वारांश्च फलानि । द्विष्पुष्पं त्रिपुष्पं द्वौ त्रीश्च वारान्पुष्पाण्युज्झतो राज्ञोग्रे वर्षतस्तथा द्विष्खे त्रिखे व्योन्नि च द्वौ वारौ त्रीन्वारांश्च क्षिप्तलाजान्प्रेरिताक्षतान् ॥ द्विष्कान् । द्विष्खे । द्विप्पुष्पम् । द्विष्फलम् । इत्यत्र “सुचो वा" [१०] इति वा षः। पक्षे फौ(पौ) विसर्गश्च । ब्रितान्। त्रिःखे । त्रिपुष्पं । त्रिःफलम् ॥ जनैस्तस्य वपुष्पेक्ष्य ज्योतिष्खर्वयदुष्णगोः । आयुष्काम्यं जनुष्ख्यातं चक्षुष्फलितमूहितम् ॥ ९५ ॥ ९५. जनैरायुर्जीवितं कास्यं मनोज्ञं जनुर्जन्म ख्यातं सर्वत्र प्रसि. १ बी द्विप्फलं. १ सी रो का. २ ए सी डी दु:कुर्व'. ३ बी सी अनैष्कुल्यदौष्कु. डी अनैष्कु. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० २.३.११.] - तृतीयः सर्गः । २६५ द्धम् । कृतकृत्यमित्यर्थः । चक्षुर्लोचनं फलितं सफलमूहितं वितर्कितम् । किं कृत्वा उष्णगो रवेर्ज्योतिस्तेजः खर्वयल्लघयत्तस्य राज्ञो वपुः प्रेक्ष्य || रोचिष्कवलयङ्गानोर्हग्ज्योतिष्फल्गयन्नृणाम् । सर्वार्चिष्पिदधत्खेगाद्वर्हिः पाण्डुरयद्रजः ॥ ९६ ॥ 1 ९६. रजः सैन्यपादधातोत्था धूलि: खेगात् । कीदृक्सत् । बर्हिः । जातावेकवचनम् । दर्भान्पाण्डुरयत् । पृथ्वीस्थं वनगहनादि व्यामुवदित्यर्थः । तथोर्ध्व प्रसृमरत्वाद्धानो रोचि: किरणान्कवलयद्भसमानम् । तथातिनिबिडत्वात्सर्वेषां दीपादीनामचिः कान्तिः सर्वार्चिस्तत्पिद्धदत एव नृणां दृग्ज्योतिर्लोचनदीप्तिं फल्गयन्निष्फलयच्च । रजोतिनिबिडं रोदसी व्यापेत्यर्थः ॥ रोचिष्कवलयत् । ज्योतिष्वर्वयत् । सर्वार्चिष्पिदधत् । हग्ज्योतिष्फलगयत् । आयुष्काम्यम् । जनुष्ख्यातम् । वपुष्प्रेक्ष्य । चक्षुष्फलितम् । इत्यत्र "वेस" [११] इत्यादिना वा षः ॥ पक्षे । बर्हिः पाण्डुरयत् इत्यादि ॥ I अर्चि पारश्वधं ज्योतिन्तं च रुरुचे तदा । २ तन्वदैन्द्रं धनुष्खण्डमीक्ष्यमाणं धनुष्करैः ॥ ९७ ॥ ९७. तदा मेघतुल्ये रजसि नभोव्यापिनि सतीत्यर्थः । पारश्वधं परशुशस्त्र संबन्ध्यचिदप्तिः कौन्तं प्राससंबन्धि ज्योतिश्च रुरुचे । कीदृशम् । स्वर्णमण्यादिखचितत्वेनोल्लसदनेकवर्णप्रभाजालत्वादैन्द्रं शक्रसंबन्धि धनुष्खण्डं तन्वदेत एवं धनुष्करैर्धानुष्कैरद्भुतधनुर्भ्रान्त्येक्ष्यमाणम् ॥ १ बी 'तिफ २ बी 'मीक्षमा १ बी नं च फ २ए ददए. ३ सीडी व चध. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः]] धनुष्फलकयोग्याभिस्तबारुष्पाणयो बभुः । सर्पिष्पाः सुभटा बर्हिष्खननैाह्मणा इव ॥ ९८ ॥ ९८. सर्पिष्पा घृतपायिनोतिबलिष्ठा इत्यर्थः । सुभटा विशेषतो दानसन्मानपात्रत्वाद्वभुः । यतो धनुष्फलकयोश्चापस्फरयोर्या योग्या निरन्तराभ्यासास्ताभिः कृत्वारुणं पाणी येषां ते धनुर्विद्यायां खड्गविद्यायां च कुशला इत्यर्थः । यथा सर्पिष्पा जातिस्वभावेनात्यन्तं घृतप्रियत्वाद् घृतपायिनो ब्राह्मणा भान्ति । यतो बहिष्खननैः पवित्रिकाद्यर्थ दर्भच्छेदनैररुष्पाणयो दर्भाणां तीक्ष्णाग्रत्वाद्वणितहस्ताः क्रियानैष्ठिका इत्यर्थः ॥ नृपो ज्योतिष्लम छ्यद्भिश्छन्नश्छत्रैश्छदिष्फलैः। भ्रातुष्पुत्रं दंढकस्य कस्कोसेविष्ट नानुयान् ॥ ९९ ॥ ९९. कस्को नृपोनुयाँननुव्रजन्सन् दंढकस्य देंढक्काख्यपितृव्यस्य भ्रातुष्पुत्रं भ्रातृजं मूलराजं नासेविष्ट । कीदृक् । छत्रैश्छन्नः सर्वतोप्यावृतो महर्द्धिक इत्यर्थः । कीदृशैः । छदिः पटलं तद्वदवनतप्रान्ततया सर्वतश्छायाकारितया च फलन्ति संपद्यन्ते यानि तैइछदिष्फलैरत एव ज्योतिष्क्लमं सूर्यातपखेदं छयद्भिरपनयद्भिः । सर्वोपि नृपवर्गोमुं महाभजदित्यर्थः ॥ राजिबीजदँढक्कास्त्रयो भ्रातर आदिपुरुषाः । राजेरपत्यं मूलराजो बीजढकयोस्तु भ्रातुष्पुत्रः । ... १ बी दिष्पलैः. २ बी दड क. १ डी पस्फुर'. २ सी दनै'. ३ ए सी डी यान् म. ४ बी दडक्की. ५ बी दडका. ६ सी दिष्पलै'. ७ बी दडका. ८बी दडक. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०२.३.१४.] तृतीयः सर्गः। २६७ दिक्षु प्रसारिसैन्येषु भारातवपुषं महीम् । .. सिषिचुर्मदपाथोभिः पुपूर्णव इव द्विपाः ॥ १० ॥ १००. दिक्षु प्रसारिसैन्येषु बलेषु प्रसरत्सु सत्सु भारातवपुष प्राग्भारेणाक्रान्तदेहां सती महीं द्विपा मदपाथोभिः सिषिचुः । उत्प्रेक्ष्यन्ते पुपूर्षव इवें । ये हि पालयितुमिच्छवो दयालवः स्युस्ते भाराकान्तवपुषं जनं खेदापनयनायाम्भोभिः सिञ्चन्ति । लिलिक्षनिव किं निस्से बहीष्युद्गीर्षु पुस्विति । स्थितः सर्पिःष्विव वशावार्षिभः कथमप्यगात् ॥१०१॥ १०१. इभः कथमपि महता कष्टेनागाद्ययौ । यतः सर्पि:विव घृतेष्विव वशावाणु हस्तिनीमूत्रेषु स्थितोनुरागातिरेकेण तद्गन्धामोदलुब्धत्वादवस्थितः । केषु सत्सु । पुंस्सु हस्तिपकेषु । किंभूतेषु । उद्गीषूच्छलद्वाणीकेष्वपि । कथमित्याह । अहो गज लिलिक्षन्निवात्तुमिच्छन्निव बीषि दर्भान् किं निस्से किमिति चुम्बसीति । ज्योतिधौन्तम्। अर्चिछपारश्वधम् । इत्यत्र "नैकार्थेक्रिये" [१२] इति षत्वाभावः ॥ ज्योतिष्क्लमम् । बर्हिष्खननैः । सर्पिष्पाः । छदिष्फलैः । धनुष्करैः । धनुखण्डम् । अरुष्पाणयः । धनुष्फलक । इत्यत्र “समासेसमस्तस्य' [१३] इति षत्वम् ॥ भ्रातुष्पुत्रम् । कस्कः । इत्यत्र "भ्रातुष्पुत्र" [१४] इत्यादिना रेफस्य षत्वं सत्वं च निपात्यते ॥ १ डी सिषिचुम°. २ ए डी पुंस्त्विति ।. बी पुस्विति ।। १ डी सिषिञ्चुः ।. २ बी व पिपालयिषव इव। ये. ३ सी स्थितानु. ४ बी कायक्रि. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] नामिनः । वपुषम् । सैन्येषु । सिषिचुः । असेविष्ट ॥ अन्तस्थायाः । वाएं । उद्गीर्षु । पुपूर्षवः ॥ कवर्गात् । दिक्षु । लिलिक्षन् ॥ शिनान्तरेपि । सर्पिःषु । बीपि । अत्र "नाम्यन्तस्था" [१५] इत्यादिना षत्वम् ॥ शिग्रहणेनैव सिद्धे नकारोपादानं नकारस्थानेनैवानुस्वारेण यथा स्यादित्येवमर्थम् । तेन मकारानुस्खारेण न स्यात्। पुस्सु ॥ शिटा नकारेण चान्तर इति प्रत्येकं वाक्यपरिसमाप्तेरुभयव्यवधाने न स्यात् । निस्से ॥ अग्निष्टुतः पथि ज्योतिष्टोमायुष्टोमवेदिनः। अग्निष्टोमविदो वन्याः सैन्यमैक्षन्त तापसाः॥ १०२ ॥ १०२, वन्या वनवासिनस्तापसाः पथि सैन्यं कौतुकादैक्षन्त। किंभूताः । ज्योतिषो ज्योतिषे वा स्तोमो यागो ज्योतिष्टोम एवमायुष्टोमश्व तेजोवृद्ध्यर्थमायुर्वृद्ध्यर्थं च क्रियमाणौ यागभेदौ तद्वेदिनः । यद्वा । ज्योतिषां ज्ञानानां स्तोमः संतानस्तेनायुष्टोमवेदिनो जीवितसंतानज्ञास्तथामिष्टोमोग्निस्तुतिप्रधानः प्रथमो यागस्तद्वेदिनः । एतेन ज्ञानितोक्ता । तथा यागाग्निकारिकादिकारित्वेनाग्निं स्तुवन्त्यग्निष्टुतः । एतेन क्रियानिष्ठत्वोक्तिः ॥ अग्निष्टुतः । इत्यत्र “समासेनेः स्तुतः" [१६] इति षत्वम् ॥ ज्योतिष्टोम। आयुष्टोम। अग्निष्टोम। इत्यत्र "ज्योतिः" [१७] इत्यादिना पः॥ मातृष्वसृपितृष्वस्रोवियुग्ग्राम्याको रुदन् । अतिमातुःष्वसृपितुःष्वनाश्वासि चमूस्त्रिया ॥ १०३ ॥ १०३. मातृष्वमृपितृष्वस्रोर्जननीभगिनीजनकभगिन्योर्वियुग्वियुतोत एव रुदन् ग्राम्या कश्वमूस्त्रियाश्वासि मधुरालापादिना१ ए बी डी पिवुः । अं. २ वी पुंसु । शि. ३ सीन. ४ ए यास्वासि. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ [है० २.३.१७.] तृतीयः सर्गः। श्वासितः । यतो वत्सलत्वादिनातिक्रान्ते मातुःष्वसृपितुःष्वसारौ यया तया ॥ मातुःखम्रा पितुःस्वस्रा मुन्नदीनाः सह व्रजाः। क्रीडानिष्णानदीष्णातॄनत्वरन्तेक्षितुं द्विपान् ॥ १०४ ॥ १०४. मातुःस्वस्रा पितुःखस्रोपलक्षणार्थत्वान्मातृपक्षेण पितृपक्षण च सह व्रजा गोकुलस्था जना द्विपानीक्षितुमत्वरन्त ससंभ्रमं चेलुः । यतो मुद्धर्षः सैव पूरेणाप्लावकत्वानदी तत्र स्नान्ति के मुन्नदीनाः । कुतूहलपूराप्लाविता इत्यर्थः । यतः किंभूतान् । नदीष्णातॄन्कौशलान्नद्यां स्नायकान् । एतदपि कुत इत्याह । यतः क्रीडानिष्णान् जलकेलिकरणचतुरान् । गजो हि जलकेलिं कुर्वन्तोत्यद्भुतत्वाद्देश्याः स्युः ॥ खासिन्धाविव निस्नानप्रतिस्नाताः समुच्छ्रयात् । प्रतिष्णातप्रतिष्णानव्यूता ध्वजपटा बभुः ॥ १०५॥ १०५. रथादिस्था ध्वजपटा बभुः । यतः प्रतिष्णातं क्षालनेन शुद्धं यत्प्रतिष्णानं सूत्रं तेन व्यूता निर्मलसूत्रमयाः । उत्प्रेक्ष्यन्ते । समुच्छ्रयादौन्नत्याद्धेतोः स्वःसिन्धौ व्योमगङ्गायाँ निस्नानप्रतिस्नाता इव निनानेन निश्चितस्नानेन कृत्वा प्रतिस्नाता इव निर्मलीभूता इव । येपि प्रतिष्णातमतिव्यात्यादिदोषाभावेन शुद्धं यत्प्रतिष्णानं वेदादिसूत्रं तेन व्यूताः पाठेनात्यन्तं वासिताशयाः स्वःसिन्धौ निश्चितं स्नाताश्च स्युस्ते समुच्छ्रयाँल्लोकमध्य औन्नौद्धजपटा इव भान्तीत्युक्तिः ।। १ वी दीना स. १ ए सी तुः स्वसा. २ सी °जा दि ज. ३ सी दृशाः स्युः ॥ . ४ सीयां न खा. ५ ए सी °तिज्ञाता. ६ सी ल्याः स्वासि. ७बी °या लोक. ८पया ध्वज. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] मातृष्वसृपितृष्वस्रोः । इत्यत्र "मातृपितुः स्वसुः " [१८] इति षः ॥ मातुःष्वसृपितुःष्वस्रा । इत्यत्र “ अलुपि वा " [१९] इति वा षः ॥ पक्षे | मातुः स्वस्रा । पितुः स्वस्रा ॥ २७० निष्णान् । नदीष्णान् । इत्यत्र " निनद्याः " [२०] इत्यादिना षः || कौशल इति किम् । निस्नान । मुन्नदीस्ताः ॥ प्रतिष्णात । इत्यत्र “प्रतेः " [२१] इत्यादिना षः ॥ सूत्र इति किम् । प्रतिस्नाताः ॥ प्रतिष्णान | इत्यत्र " स्नानस्य नाम्नि " [२२] इति षः ॥ रथाश्रीत्कृतिविस्तारैर्वैष्टरा विष्टरं श्रियाम् । दधुर्वनपिविष्टार वृहतीगानविस्तरम् ॥ १०६ ॥ १०६. विष्टरस्य वृक्षस्येमे वैष्ट्रा रथाश्वीत्कृतिविस्तारैः कृत्वा वनर्षिभिः कर्तृभिर्विष्टार वृहत्याइछन्दोभेदस्य यानि गानानि गीतयस्तेषां विस्तरं प्रथां दधुरधारयन् । किंभूतम् । श्रियां गाम्भीर्य माधुर्यादिशोभानां विष्टरमासनं स्थानमित्यर्थः । वनर्षिच्छन्दोगान तुल्यानि चीत्कृतानि रथाञ्चक्रुरित्यर्थः ।। वैष्टः । विष्टरम् । विष्टारबृहती । इत्यत्र " वे खः " [२३] इति षः ॥ नानी 1 त्येव । विस्तारैः । विस्तरम् ॥ अश्वकण्ठेषु मण्याल्योभिनिष्टानावलीनिभाः । शशंसुरभिनिस्ताना युधिष्ठिरगुणं नृपम् ॥ १०७ ॥ १०७. अश्वकण्ठेष्वभिनिष्टानावलीनिभा वर्तुलत्वेन विसर्गश्रेणीस १ बी कृतवि २ सी 'तीमान १ डी तृपि° २ ए सी डी 'तिखान. ३ सी वा नवर्षि, ० Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ [है० २.३.२६.] तृतीयः सर्गः । निभा मण्याल्यो हेमशङ्खादिमयमणिपतयो नृपं शशंसुस्तुष्टुवुरिव । इवोवसेयः । यतश्चलनेनान्योन्यं संसर्गादन्योन्येनैव च कर्ताभिनिस्तन्यन्ते शब्दाय्यन्तेभिनिस्तानाः । किमिति शशंसुरित्याह । यतो युधिष्ठिरगुणं न्यायादिगुणैयुधिष्ठिरतुल्यम् ॥ गविष्ठिराभाः श्रीषेणहरिसिंहादयोवुडन् । विष्वक्सेनोग्रसेनोरुसेनेत्र कटकोदधौ ॥ १०८ ॥ १०८. गविष्ठिराभा न्यायादिना गविष्ठिरमुनिसमाः श्रीषणहरिसिंहादयो राजानोत्र मूलराजीये कटकोधावत्रुडन्नलक्ष्यी बभूवुः। यतो विष्वक्सेनो विष्णुरुप्रसेनः कंसपिता द्वन्द्वे तयोरिवोयो बृहत्यः सेनाः कटकविशेषा यत्र तस्मिन्नतिमात्रानेकनृपसेनालयत्वादयन्तं महाप्रमाण इत्यर्थः ॥ अभिनिष्टान । इत्ययम् "अभिनिष्टानः" [२४] इति निपात्यते ॥ नाम्नीत्येव । अभिनिस्तानाः॥ गविष्ठिर ।युधिष्ठिर । इत्यत्र “गवि" [२५] इत्यादिना पः ॥ श्रीषेण । इत्यत्र "एत्यकः" [२६] इति पः ॥ एतीति किम् । हरिसिंह ॥ अक इति किम् । विष्वक्सेन ॥ नाम्नीत्येव । उरुसेने ॥ नाम्यन्तस्थाकवर्गादित्येव । उग्रसेन ॥ . अग्रे रोहिणिषेणोभूत्पश्चाद्रोहिणिसेनजः । पार्वे शतभिषक्सेनः स पुनर्वसुषेणकः ॥ १०९ ॥ १०९. स्पष्टः । किं तु रोहिणिषेणादयो राजविशेषाः । तथाज्ञातः १ बी वोत्रावत्राव. २ सी लक्षी ब. ३ सी निष्टाना. ४ ए डी सिंहः । अ. ५ सी स्थाव. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] पुनर्वसुषेणः कचि पुनर्वसुषेणकः । यद्वा । पुनर्वसुषेणो मुख्योस्य "सोस्य मुख्यः" [७.१.१८८ ] इति के पुनर्वसुषेणकः सङ्घः । सह तेन वर्तते यः स शतभिषक्सेनो नृपः पार्श्वभूत् । एकस्मिन्पार्श्वे शतभिषक्सेनोपरस्मिंश्च पुनर्वसुषेणकोभूदित्यर्थः ॥ रोहिणिषेणः रोहिणिसेन । इत्यत्र “भादितो वा" [२७] इति वा पः ॥ इत इति किम् । पुनर्वसुषेणकः । पूर्वेण नित्यमेव । शतभिषक्सेनः ॥ विष्टलं कुष्ठलं क्रान्त्वा परिष्ठलकपिस्थले । उष्ट्राः शमिष्ठलं जग्मुः कृष्ट्वा रूढान् कपिष्ठलान् ॥११०॥ ११० उष्ट्राः शमिष्ठलं शमीनां स्थलं जग्मुः शमीतरुपत्रप्रियत्वात् । किं कृत्वा । क्रान्त्वोल्लङ्घय । कानि । विगतं वीनां वा पक्षिणां स्थलं विष्टलं कुत्सितं कोर्वा पृथ्व्याः स्थलं कुष्ठलं परिगतमाम्रादिभिर्याप्तं स्थलं परिष्ठलं कपीनां स्थलं कपिस्थलं द्वन्द्वे ते च । तथा रूढांश्चटितान्कपिष्ठेलान् । कपिष्ठलो नाम गोत्रस्याद्यः प्रवर्तयिता यन्नाम्नापत्यसंततिर्व्यपदिश्यते । उपचारात्तद्वंश्या अप्युच्यन्ते । तान् भटविशेपन्कृिष्ट्वा बलादाकृष्य ।। विष्टलम् । कुष्ठलम् । शमिष्ठलम् । परिष्टल । इत्यत्र "विकुशमि" [२८] इत्यादिना षः॥ कपिष्ठलान् । इत्यत्र "कपेर्गोने" [२९] इति षः ॥ गोत्र इति किम् । कपिस्थले॥ १सी ट्रा श. १ ए सी डी °धान् ब. घेण । रो'. २ सी वीमां वा. ३ सी 'ठलो. ४ बी Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः । द्विष्टत्रिष्टेष्व पुगष्ठेष्वाम्बष्ठ्याम्बष्ठताजुषः । पयोशङ्कुष्ठकाङ्गुष्ठं भूमिष्ठापष्ठपत्तयः ॥ १११ ॥ [ है ० २.३.२९. ] १११. भूमौ तिष्ठन्ति भूमिष्ठा अप मार्ग परिहृत्य तिष्ठन्त्यपष्ठाश्च ये पत्तयस्ते गोष्ठेषु गोकुलेषु पयो दुग्धमपुः पिबन्ति स्म । कथम् । शङ्कौ शल्यास्त्रे तिष्ठन्ति शङ्कुष्ठा अज्ञाताः शङ्कुष्ठाः शङ्कुष्ठका न तथाशङ्कुष्ठकाः पयःपानव्यापृतत्वेनाप्रहरणा अङ्गीववयवे तिष्ठन्त्यङ्गुष्ठा अङ्गुल्यो यत्र पाने तत् । किंभूतेषु गोष्ठेषु । द्विष्ठत्रिष्ठेषु द्वयोः स्थानयोस्त्रिषु वा स्थानेषु तिष्ठत्सु । किंभूता: पत्तयः । अम्बायां मातरि तिष्ठन्ति “ड्यापो बहुलं नाम्नि " [ २.४.९९ ] इति हस्त्रे अम्बष्ठो मातृमुखः । तस्य भावः व्यणि आम्बष्ठयं तस्याम्बष्ठता । अम्बोपह्नवकर्ता तस्यायं कार्यभूतः अणि आम्बोपहवरूपो धर्मस्तत्र तिष्ठति " स्थाप" [५. १. १४१] इत्यादिना के आम्बष्टस्तस्य भावोपवस्तां जुषन्ते सेवन्ते ये ते धनुर्विद्यादि कलाकुशला इत्यर्थः ॥ २७३ अनम्बाष्टा असव्यष्ठकुन्तशेकुष्ठपाणयः । परमेष्ठदिविष्ठा जीन्पुञ्जिष्ठाः पथ्यकीर्तयन् ॥ ११२ ॥ ११२. अनम्बाष्टा अमातृमुखाः शस्त्रविद्यानिपुणा असव्यष्ठो दक्षिपार्श्वस्थः यः कुन्तः प्रासो येषां ते व्यष्टकुन्ताः शेकुः पक्षिविशेषस्तत्प्रकृतिध्वजोप्यभेदात् शेकुः । "न नृपूजार्थ” [ ७.१.१०८] इत्यादिना काभावः । तत्रस्थः पाणिर्येषां ते शेकुष्ठपाणयः । वामपादमोचकमध्यस्थान् महाभटत्वसूचकान् शेकादिजन्तूपलक्षितान्ध्वजान्वामहस्तेनष्टनन्त इत्यर्थः । विशेषणकर्मधारयेस व्यष्ठकुन्तशे कुष्ठपाणयोश्वारोह सुभटाः पथि पुञ्जिष्ठाः समुदायस्था: सन्तोकीर्तयन्नवर्णयन् । १ बी नाय २ बी पुत्र था. ३ ए सी डी ' स्थापत्या' ४ सी 'स्कु . ५ सी 'दमत्रक ३५ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] कान् । परमे पदे तिष्ठन्ति परमेष्ठा दिवि स्वर्गे तिष्ठन्ति दिविष्ठा द्वन्द्वे परमेष्ठदिविष्ठा रामचन्द्रादयस्तेषामाजीन् रणान् ॥ दुःषेधाग्निष्ठमाञ्जिष्टदृष्टीन्बर्हिष्ठपाणयः । परिकारा अकुष्ठाङ्गा गजान्निन्युः सुषेधताम् ॥ ११३ ॥ ११३. परिकारा हस्तिपरिचारका गजान् सुषेधतां प्रशस्तगतितां निन्युः । यतो दुष्टः सेधो गतिर्येषां ते दुःषेधास्तथामौ तिष्ठन्त्यग्निष्ठा मौ शब्दे तिष्ठति मञ्जिष्ठा तया रक्ता माजिष्ठी अग्निष्ठानामिव माञ्जिष्ठी आरक्ता दृष्टिर्येषां ते तथा । ततो विशेषणकर्मधारयः । तान्मदोद्भेदाद्दुष्टगतीनारक्ताक्षांश्च । किंभूताः सन्तः । अश्वारूढत्वेनाकुष्ठमभूमिष्ठमङ्गं येषां ते । यद्वा । पादचारिणोपि हस्तिवेगगामित्वाफलप्रदानैराकाशस्था इव तथा बर्हिः ष्ठपाणयः पिच्छिकाहस्ताः । परिकारा हि पिच्छिकाहस्ता द्विधा हस्तिवेगजैत्राश्वारूढा हस्तिवेगजैत्रा: पादचारिणश्च । त उभयेपि गजायगा मदोद्रेकेण शीघ्रगं गजं पिञ्छिकाभीक्ष्णाच्छोटनैः खेदयित्वा मदं चोपशमय्य स्वभावगतिं नयन्तीति स्थितिः ॥ स्थपुटेष्वप्यनिःषेधैरदुःषन्धिपदैर्हयैः । रथाः सुषंधयो यान्तो निःपंधय इवावभुः ॥ ११४ ॥ ११४. रथा निःषंधय इव संधिरहिता इवाबभुः । यतः सुषंधयः सुष्टिसंधानाः । तथा हयैः कृत्वा यान्तः । किंभूतैः । अदुःपंधीनि गुल्फप्रदेशे दुष्टसंधानरहितानि पदानि पादा येषां तैः । एतेन सुलक्षणत्वोक्तिः । ε १ बी डी हिं: ठ° २ बी दुप १ बी सी 'रिवार" २ बी 'गति नि° ३ सी 'ततो त ४ ए सी डी 'रूढास्तेना ५ सी 'हिंष्ठ ६ ए सी डी 'निये'. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.३०. ] तृतीयः सर्गः । २७५ अत एव स्थपुटेष्वपि विषमप्रदेशेष्वप्यनिःषेधैर संवलितगतिभिः । सुषंधित्वेनास्खलितगतित्वेन चालक्ष्यसंधित्वादेककाष्ठमया इव रथा ज्ञाता इत्यर्थः ॥ निःषामाणो महामात्रैर्दुःषामाणः सुषामभिः । अभीरुष्ठानसैन्यस्य प्रष्टतां निन्यिरे गजाः ॥ ११५ ॥ ११५. साम्नः सामवेदान्निष्क्रान्ता निःषामाणः । गजा हि सामवेदात्प्रसूता इति गजलक्ष्मशास्त्रम् । गजाः सुषामभिः शोभनैः सामवाक्यैः कृत्वा शोभनसामोपायान्वितैर्वा महामात्रैर्हस्तिपकैः कर्तृभिनिन्यिरे नीताः । काम् । अभीरूणां निर्भीकाणां स्थानं निवासो यत्सैन्यं तस्यै प्रष्ठतामप्रेसरत्वम् । यतो दुष्टमरुचितं साम सांत्वनमी येषां तेतिमदोत्कटत्वेनात्यसहना इत्यर्थः । येपि गजा इव गजा बलिष्ठा दर्पिष्ठाच महायोधा युद्धप्रियत्वेन दुःषामाणो रुचितसामोपाया अत एव निःषामाणो मुक्तसामोपायाः स्युस्ते सुषामभिर्महामात्रै: प्रधानैर्युद्धार्थमभीरुष्ठानसैन्यस्य प्रष्ठतां स्वर्णपट्टबन्धेन मुख्यतां नीयन्त इत्युक्तिः ॥ गोष्ठेषु । अनम्बाष्ठाः । "ड्यापो बहुलं नाम्नि " [२. ४९९ ] इति हस्वस्वेन आम्बध्य । श्लिष्टनिर्देशादुभाभ्यामपि स्यात् । आम्बष्ठता । सव्यष्ठ । अपष्ठ । द्विष्ठ । त्रिष्ठेषु । भूमिष्ठ | अग्निष्ठ | शेकुष्ठ । शङ्कुष्ठ | कुष्ठ । अङ्गुष्टि॑म् । माञ्जिष्ठ । पुञ्जिष्ठाः । बर्हिःष्ठ । परमेष्ठ । दिविष्ठ । इत्यत्र “गोम्बाम्ब" [३०] इत्या दिना षः ॥ 1 १ सी सु. १ बी रखलि. ५ बी छ । मा ० २ बी पृष्टता. ३ बी यात ४ बी ले आ. ६ बी हिंए।. ७ बी गोत्या. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] अनिःषेधैः । दुःषेध । सुषेधताम् । निःषधयः । दुःषधि । सुषंधयः । 1 निःषामाणः । दुःषामाणः । सुपामभिः । इत्यत्र “निर्दुः सो: " [३१] इत्यादिना षः । प्रष्ठताम् । इत्यत्र “प्रष्टोग्रगे" [३२] इति पो निपात्यः ॥ भीरुष्ठान । इत्यत्र “भीरुष्टानादय:" [३३] इति पो निपात्यः ॥ रूढारुष्टपुष्टुं सुतेजस्ता बहिष्टराम् । सुदोस्त्वं चेति निष्टयानामर्घति स्म चतुष्टयम् ॥ ११६ ॥ ११६. बहिष्टरामतिशयेन बाह्यदेशे वर्तमानानां निर्गता वर्णाश्रमेभ्यो “निसो गते” [६. ३. १८ ] इति त्यचि निष्ट्यास्तेषां निष्ट्यानां चण्डालानां चतुष्टयं महाभटत्वसूचकत्वादर्घति स्म बहुधनादिना मान्यमभूत् । अर्धधातुरगणपठितः । किं तदित्याह । रूढारैष्टा रूढास्त्रव्रणतोर्जद्वपुष् बलिष्ठशरीरता सुतेजस्ता शोभनप्रतापता शोभनकान्तिता वा सुदोस्त्वं च प्रौढ भुजपराक्रमता चेति ॥ * स्वाम्याज्ञयाथ सूर्यार्चिष्टो निष्टप्तवपुष्टमाः । जम्बूमाल्यां सरित्यूषुर्द्विषन्निस्तापिनो नृपाः ॥ ११७ ॥ ११७. अथ द्विषन्नितपिनः शत्रूनभीक्ष्णं सन्तापयन्तो नृपाः स्वाम्याज्ञया मूलराजादेशेन जम्बूमाल्यामेवनायां सरिति नद्यामृपूर्वसन्ति स्म । यतः सूर्याचिष्ट: । अत्रायादित्वात्तस् [ ७२.८४ ] | रविकिरणैर्निष्टतं संतप्तं वपुष्टममतिप्रशस्यं वपुर्येषां ते ॥ १. बी पि. १ ए सी डी 'धः । सु । २ वी नियं.. ब. ५ बी भुजं प. ६ सी 'स्तान. ७ सी प् ३ बी ढात्र ४ बी टं Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ [है० २.३.३३.] तृतीयः सर्गः। २७७ अथासर्गसमाप्ति सैन्यावासनां वर्णयति । सैनिकानां श्रमं जक्षुः सुष्वापयिषवो नु तान् । सिखेदयिष्विनांशूनासिस्वादयिषवो द्रुमाः ॥११८ ॥ ११८. द्रुमा: सैनिकानां श्रमं मार्गखेदं जक्षुरभक्षयन्नपनिन्युरि. त्यर्थः । किंभूताः सन्तः । सिस्वेदयिषवोत्युष्णत्वेन प्रस्वेदयितुमिच्छवो य इनांशवो रविकिरणास्तानासिस्वादयिषवः सान्द्रपत्रप्रकरेण भक्षयितुमिच्छवोपनयन्त इत्यर्थः । अत एव तान्सैनिकान्सुष्वापयिषवो नु शाययितुमिच्छव इव । ये हि सुष्वापयिषवो भृत्याः स्युस्तेपि पटकुटीबन्धनेन छायाकरणाद्रविकिरणान्निवारयन्तो मार्गश्रममपनयन्ति ॥ तुष्टषुर्वीचिनादैः किं प्रोत्सिसाहयिषुः किमु । वपुः सिसिक्षतो नागानयम्भोभिरसीषिचत् ॥ ११९ ॥ ११९. अङ्ग सिसिक्षतः सिस्नपयिषूनागानम्भोभिः कर्तृभिनंद्यसीषिचदनपयत् । कीहक्सती । वीचिनादैः कृत्वा किं तुष्टुंषुः किं नागान्स्तोतुमिच्छन्ती स्तुवैतीवेत्यर्थः । किमु किं वा प्रोत्सिसाहयिषुः श्रान्तसन्तप्तत्वात्स्नानार्थं प्रोत्सहमानान्नागान्प्रयोक्तुमिच्छुः प्रोत्साहयन्तीवेत्यर्थः । जनन्यादिरपि हि स्तुवैती प्रोत्साहयन्ती च बालकान्स्नपयति ॥ मुषुप्सन्तं न तुष्टाव कंचित्कोपीत्यतर्जयत् । किं सोषुपिषमाणे त्वं व्यतिसुषुपिषे प्रभौ ॥ १२० ॥ १२०. सुषुप्सन्तं शयितुमिच्छन्तं स्वपन्तमित्यर्थः । कंचिद्भत्यं कोपि भृत्यो न तुष्टाव कित्वतर्जयत् । कथमित्याह । प्रभौ स्वामिनि सोषुपिषमाणेत्यर्थ स्वप्नुमिच्छति किं त्वं व्यतिसुषुपिषे प्रभुसंबन्धि १ डी 'टुवुः किं . २ °सी ती स्तुंव'. ३ बी डी वन्तीवे'. ४ बी सी डी वन्ती प्रो. ५ सी किं तु त. ६ सी किं तु व्य. ७ ए सी डी बन्धेस्वा. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] स्वापक्रियाव्यतिहारेण किमिति सुप्त इति । विभौ हि सोपुपिषमाणे भृत्यस्य स्वापोविनयहेतुत्वेनायुक्तः ॥ सोपुपिषमाणोपि कोपीनाज्ञामधीषिषन् । नासिषञ्जयिषच्चक्षुः सिसञ्जयिषुरिन्धनम् ॥ १२१ ॥ १२१. कोपि भृत्यः सुसोषुपिषमाणोपि श्रान्तत्वेनात्यर्थं स्वतुमि - च्छन्नपि चक्षुर्नासिषञ्जयिषन्मेलयितुं नैच्छन्न सुप्त इत्यर्थः । यत इन्धनं सिसञ्जयिषुर्मेलयितुमिच्छन्मेलयन्नित्यर्थः । एतदपि कुत इत्याह । यत इनाज्ञामनेक ग्राहक सद्भावेनेन्धनं पञ्चाद्दुर्लभं भविष्यत्यतोधुनैव त्वया संग्राह्यमित्थंरूपं प्रभुनिदेशमधीषिषन् स्मर्तुमिच्छन्स्मरन्नित्यर्थः । एतेन भृत्यस्यात्यैन्तं स्वामिभक्तिरुक्ता || २७८ रूढारुष्टा । वपुष्ट्वम् । सूर्यार्चिष्टः । निष्टयानाम् । चतुष्टयम् । बहिष्टराम् । वपुष्टमाः । इत्यत्र “हस्वान्नामिनस्ति” [३४] इति षः ॥ ह्रस्वादिति किम् । सुदोस्त्वम् ॥ नामिन इत्येव । सुतेजस्ता ॥ निष्टत । इत्यत्र "निस:" [३५] इत्यादिना षः ॥ अनासेवायामिति किम् । पुनःपुनः करणे मा भूत् । द्विषन्निस्तापिनः ॥ जक्षुः । ऊषुः । इत्यत्र "घस्वसः " [३६] इति षः ॥ सुष्वापयिषवः । तुष्टृषुः । इत्यत्र “णिस्तोरेवा" [३७] इत्यादिना पः ॥ स्वदादिपर्युदासः किम् | आसिस्वादयिषवः । सिस्वेदयिषु । प्रोत्सिसाहयिषुः ॥ स्तौतिसाहचर्यात्स्वदादिपर्युदासेन सदृशग्रहणाच्च ण्यन्तानामपि षोपदेशानामेव ग्रहणम् । तथा च कृतत्वात्सकारस्य "नाम्यन्तस्था" [२. ३. १५ ] इत्यादिसूत्रेणैव सिद्धे नियमार्थं वचनम् । णिस्तोरेव षणि षत्वं नान्यस्य । तेनेह न १ एसी हि सुषपि डी हि सुपुपि २ सी 'वेनन्ध' ३ बी 'त्यन्तस्वा. ४ ए सी 'नामिनस्ति'. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ [है० २.३.३८.] तृतीयः सर्गः। स्यात् । सिसिक्षतः । एवकारः षण्येव णिस्तोरिति विपरीतनियमनिवृत्त्यर्थस्तेनेहापि भवति । असीषिचत् । तुष्टाव । षत्वं किम् । सुषुप्सन्तम् ॥ नकारः किम् । व्यतिसुषुपिषे । नात्र सन् किं तु परोक्षा से ॥ कथमधीषिषन् । षणि निमित्ते धातोः षत्वनियम उक्त इह तु सन एव द्विरुक्तस्य पत्वं न धातोरिति न प्रतिषेधः। अत्र इंदुं दुं शुं श्रृं गतौ ज्ञानेर्थे इण्क गतौ वा। अज्ञानेर्थे हीणो गमादेशः स्यात् ॥ सोषुपिषमाण इत्यत्र यङि पत्वं पश्चात्सन्निति न प्रतिषेधः । येषां तु दर्शने द्विस्वेपि पुनः सनि द्विरुक्तिस्तन्मते सुसोषुपिषमाण इत्यत्र पणि सुशब्दास्परस्य सस्य षत्वं न भवत्येव ॥ असिषक्षयिषत् सिसञ्जयिषुः । इत्यत्र "सजेर्वा" [३८] इति वा पः ॥ हयाननभिषुण्वन्तोभ्यषुण्वन्केचिदम्भसि । धर्माभिषयमाणांश्चाभ्यषुवन्सुहृदो मुहुः ॥ १२२ ॥ १२२. केचिदश्वपाला: शोभनावान्वितत्वेन शोभनं हृद्वक्षो येषां तान्सुहृदो हयान्धर्माभिषूयमाणानातपेनाक्रम्यमाणान्सतो मुहुर्वारधारमम्भसि जलेभ्यषुण्वन्ननपयन् । अन्तर्भूतणिगर्थोत्र सुम् । किंभूताः सन्तोनभिषुण्वन्तो गाढजलप्रहारैरपीडयन्त: । एतेन स्नापनकौशलोक्तिः । स्वयमसान्तो बा । एतेन चैषामात्मनोपि हयेषु बाढं वात्सत्यमुक्तम् । तथा सुहृदो मित्राणि धर्माभिषूयमाणानत एव हयन्तीति हयास्तान लाम्यतः सतोम्भस्यभ्य॑षुवंश्च क्षिप्तवन्तश्च ।। कर्माभिष्टुत्यमभ्यस्यन्येभिष्यत्यनिले श्रमम् । भृत्यांस्ताननभिष्टोभान्स्वामिनोभ्यष्टवन्मुदा ॥ १२३ ॥ १२३. अनिले श्रमं मार्गखेदमभिष्यति नदीशीकरोन्मिश्रत्वेना१ बी भ्यष्यन्ये'. २ ए सी भ्यष्टव'. १बी ज्ञानार्थे. २ ए सी °माणो इ. डी 'माणे इ. ३ बी यज्ञि प. ४ बीते नैषा. ५सी °मान. ६ सी भ्यश्च. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ब्याश्रयमहाकाव्ये मूलराजः] . तिशीतत्वादपनयति सति पुनर्नवीभूताङ्गत्वेनाभिष्टुयं प्रशस्यं कर्म क्रियां ये भृत्या अभ्यस्यन्समापयंस्तानभिष्टोभः स्तम्भो जाड्यं तेन रहितान् दक्षान्भृत्यान्स्वामिनो मुदाभ्यष्टुवन्प्रशशंसुः । भृत्या हि कर्मान्त एव प्रशस्यन्त इति नीतिः । यदुक्तम् । प्रत्यक्षे गुरवः स्तुत्याः परोक्षे मित्रबान्धवाः । कर्मान्ते भृत्यवर्गाश्च पुत्रा नैव मृताः स्त्रियः ॥ १ ॥ अभ्यष्टोभन्त दृष्याणि मां केप्यभिसुसूषवः । अभ्यसुमूषत्स्वामीति तं के चनाभ्यभूसवन् ॥ १२४ ॥ १२४. केपि भृत्याः क्ष्मामभिसुसूषवो दाहोपशमाय शीताम्भोभिः सेक्तुमिच्छवो दूष्याणि पटकुटीरभ्यष्टोभन्ताबनन् । दूष्यबन्धाभावे हि क्ष्मा सिक्ताप्यातपेन शुष्येत् । तथा के चन भृत्याः स्वाम्यभ्यसुसूषस्नातुमैच्छदिति हेतोस्तं स्वामिनमभ्यसूसवन स्नपितवन्तः ॥ शाखामभिसिसासन्तमभिसोमय्य सिन्धुरम् । महामात्रोभितुस्ताव ततः स्तम्भेभितुस्तुभे ॥ १२५ ॥ १२५. शाखामभिसिसासन्तं विनाशयितुमिच्छन्तं सिन्धुरमभिसोसूय्य शाखाभञ्जनायात्यर्थ प्रेर्य महामात्रो हस्तिपकोभितुस्ताव । अहो सिन्धुरस्य कीहक्सामर्थ्यमिति प्रशशंस । तत: स्तम्भे वृक्षप्रकाण्डेभितुस्तुभे बबन्ध । मदोत्कटतया बन्दुमशक्यं सिन्धुरमेवं स्तवनेन सान्त्वयित्वा स्तम्भे बद्धवानित्यर्थः । योपि महामात्रैः प्रधानं महामात्यादिः सोपि सिन्धुरतुल्यं दर्पिष्ठं बलिष्ठं रौद्रं च नृपादिमन्याये प्रवर्तमानं प्रेर्य स्तवनेन च विश्वास्य बध्नाति ॥ १ बी भ्यष्यन्स'. २ बी प्रसरय. ३ ए सी डी वन्धन्. ४ सी डी बद्भुम". ५ बी प्र. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.३९.] तृतीयः सर्गः। २८१ (सु।) अनभिषुण्वन्तः । अभ्यषुण्वन् ॥ सुव । अभिपूयमाणान् । अभ्यषुवन् । सो । अभिष्यति । अभ्येष्यन् ॥ स्तु । अभिष्टुत्यम् । अभ्यष्टुवन् ॥ स्तुभ् । अनभिष्टोभान् । अभ्यष्टोभन्त । इत्यत्र "उपसर्गात्" [३९] इत्यादिना षः ॥ अद्वित्व इति किम् । अभिसुसूषवः । अभ्यसुसूषत् । अन्न पूर्वसकारस्य षत्वं न भवति । मूलधातोस्तु यथाप्राप्तं षत्वं भवत्येव ॥ केचित्तूपसर्गपूर्वाणां सुनोत्यादीनां पञ्चानामपि सन्नन्तस्तौतिवर्जितानां द्वित्वे सति मूलप्रकृतेरपि पत्वं नेच्छन्ति । अभ्यसूसवन् ॥ सुव । अभिसोसूय्य॥ सो। अभिसिसासन्तम् ॥स्तु । अभितुस्ताव ॥ स्तुभ । अभितुस्तुभे ॥ अभिषेणयद्भिरनभिषिषणयिषुश्रिता । क्ष्माधितष्ठे सप्रतिष्ठैर्या प्रत्यष्ठायि वेत्रिभिः ॥ १२६ ॥ १२६. अनभिषिषणथिषुश्रितापि । अपिरत्रावसेयः । अनभिषिषेणयिषवो वणिगादयस्तैरधिष्ठितापि सा स्माभिषेणयद्भिः सेनयाँभियाद्भिपादिभिरधितष्ठे । या वेत्रिभिः प्रत्यष्ठाथि वासाय निर्णीतादिष्टा वा । न तु हठान्निःसत्वान्वणिगादीन्निराकृत्य स्वयमेव वासभूः परिगृहीतेत्यर्थः । यतः किंभूतैरुभयैरपि । सप्रतिष्ठैः प्रतिष्ठा गौरवस्थित्योः । राजमान्यत्वाद्गौरवात्रिभिपैश्च समर्यादैः ॥ यानाभ्यषेणयत्कोप्यभ्यषिषणयिषन्न च । निषिषेधानिषिद्धाज्ञो द्वास्थस्तानसमञ्जसात् ॥ १२७ ॥ १२७. बलादतिप्रचण्डत्वेन यान्नृपान्कोपि नाभ्यषेणयन्नाभ्यषिषेणयिषञ्च सेनयाभियातुमपि नैच्छत्तान्नृपाननिषिद्धाज्ञो मूलराजव्यापारि १ ए सी डी क्ष्माभित. २ ए सी डी 'भ्यस्यन्. ३ बी सुवः । अ. १ ए सी ण्वत । अ. ४ डी 'याद्भि. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] तत्वेनाप्रतिहतादेशो द्वास्थः प्रतीहारोसमञ्जसादन्यायानिषिषेध । एतेन मूलराजस्यात्यन्तमाज्ञैश्वर्यमुक्तम् ॥ भुवि द्विपान्यषेधन्ये दिग्गजान्यषिषेधिषन् । तरून्मूर्धाभिषिक्तेभास्ते न्यषिश्चन्मदाम्भसा ॥ १२८ ॥ १२८. ते मूर्धाभिषिक्तेभाः पट्टहस्तिनस्तरून्मदाम्भसा न्यषिञ्चन्नस्नपयन् । ये भुवि द्विपान्न्यषेधन् । मदोल्बणतया सर्वगजजैत्रत्वाद्भुवि प्रतिद्विपप्रचारं ररक्षुरित्यर्थः । तथा दिग्गजान्न्यपिषेधिषन्यकर्तुमैच्छन् । एतेन स्वर्गेपि येषां प्रतिमल्ला द्विपा न सन्तीत्युक्तम् ॥ पादौ निषिषिचुस्तोयैषिषिक्षश्च सर्पिपा । श्रमाभिषङ्गान् द्वङ्गयोभ्यषिषङ्कन जलाईया ॥ १२९ ॥ १२९. मृदङ्गयः स्त्रियः श्रमाभिषङ्गान्मार्गजखेदसंबन्धाद्धेतो: पादौ जलैर्निषिषिचुः क्षालितवत्यः । सर्पिषा घृतेन न्यपिपिक्षश्च सेक्तुमैच्छंश्च । अभ्यतमैच्छन्नित्यर्थः । तथा जलाईया जलक्तवस्त्रेणाभ्यविषकन्संबन्धयितुमैच्छंश्च । स्नानघृताभ्यङ्गजलार्द्राबन्धनैहि शीतक्रियाभिः श्रम उपशाम्यति ॥ वणिजोभ्यषजन्सौस्थ्यं परिष्ठाप्यापणान्पथि । अनतिस्थितयस्तत्राभिषषजः क्रयार्थिनः ॥ १३० ॥ १३०. स्थिति नातिक्रान्ता अनतिस्थितयो यथोचितस्थानस्थाः समर्यादा वा वणिज: पथि आपणान् हट्टान्परिष्ठाप्य संस्थाप्य विस्तार्य सौस्थ्यमभ्यषजन्नाश्रिताः । व्यवहारप्रवर्तनेन सुखिता बभूवुरित्यर्थः । १ बी दौ न्यपि. २ ए सी डी मृत्यङ्गयो'. ३ वी भिषिष. १ ए सी डी मृत्यङ्गय . २ सी जरवेद'. ३ सी डी श्च सक्तु. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०२.३.४०.] तृतीयः सर्गः । २८३ तथा क्रयार्थिनः क्रायकास्तत्र तेष्वापणेष्वभिषषञ्जुः क्रयार्थ संयुयुजुः । एतेन सैन्येपि नगर इव सर्वोपि क्रयविक्रयव्यवहारोभूदित्युक्तम् ॥ स्था । सप्रतिष्ठैः । अधितष्ठे । प्रत्यष्ठायि ॥ सेनि । अभिषेणयद्भिः । अनभिविषेणयिषु । अभ्यपेणयत् । अभ्यषिषणयिषत् ॥ सेध । निषिद्ध । निषिषेध । न्यषेधन् । न्यपिपेधिषन् ॥ सिंच । अभिषिक्त । निपिपिचुः । न्यपिञ्चन् । अपिषिक्षन् ॥ सँन् । अभिषङ्गात् । अभिषषक्षुः । अभ्यपजन् । अभ्यपिषसन् । अत्र "स्थासेना' [४०] इत्यादिना पः ॥ ण्यन्तानामपि भवति । परिष्ठाप्य ॥ उपसर्गादित्येव । सौस्थ्यम् । पूजार्थत्वान्न सुरुपसर्गः ॥ तथा येन धातुना युक्ताः प्रादयस्तमेव प्रत्युपसर्गसंज्ञा इति अनतिस्थितय इत्यत्र षत्वं न ॥ विष्टब्धदंष्ट्रान्निस्तब्धा व्यतस्तम्भन श्वभिः किरीन् । व्यष्टम्भन्केप्यथ प्रासर्वितष्टम्भुः शरैः परे ॥ १३१ ॥ १३१. निस्तब्धा ऊर्जस्वला: केचिद्भटा विष्टब्धदंष्ट्रान् दृढदाढाकिरीन शूकरान् श्वभिः कर्तृभियंतस्तम्भन्स्तम्भयामासुः । अथ श्वभिः स्तम्भनानन्तरं केपि भटाः प्रासैः कुन्तैय॑ष्ठम्भन् कीलन्ति स्म । परेन्ये च भटाः शरैर्वितष्टम्भुः ॥ प्रतिस्तब्धा अवाष्टमननेकेवष्टब्धशाखिनः। अवष्टम्भमवष्टभ्यावतष्टम्भुस्तटीः परे ।। १३२ ॥ १३२. एके भटा अवष्टब्धशाखिनो नद्याः समीपवर्तितरूनवाटन्नन्नाश्रिताः । यतः प्रतिस्तब्धा बलिष्ठाः । बलिष्ठत्वेनान्यान् जना १ सीटब्ध. १ बी थानतिस्थितः क्र. २ सी याथें सं. ३ बी सिच्. सी सिञ्च. ४ डी पिक्तम् । नि. ५ डी °न् । स. ६ ए पिसन् ।. ७ बी सी सञ्ज । अ. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] नपाकृत्य नदीनिकट द्रुमानाश्रिता इत्यर्थः । तथा परेवष्टम्भं चित्तस्थैर्यमवष्टभ्याश्रित्य तटीरवतष्टम्भुश्छायायुपभोगायाश्रिताः । अपायबहुले हि नदीतटे चित्तावष्टम्भेनैवावस्थीयते ॥ सादिवर्ग उपष्टब्ध उपस्तब्धांस्तुरङ्गमान् । अवातस्तम्भदावासपार्श्वेव स्तब्धकन्धरान् ॥ १३३ ॥ १३३. उपलब्ध ऊर्जस्वी सादिवर्गोश्ववारौघस्तुरङ्गमानावासपार्श्वे स्वाश्रयसमीपेवातस्तम्भदाश्रयं ग्राहितवान् । कीदृशान् । उपस्तब्धाबलिष्ठांस्तथावस्तब्धकन्धरानुन्नतीवान् ॥ विष्टब्ध । वितष्टम्भुः । व्यष्टुम्भन् । इत्यत्र “अडप्रति" [४१] इत्यादिना षः ॥ अडप्रतिस्तब्धनिस्तब्ध इति किम् । व्यतस्तम्भन् । प्रतिस्तब्धाः । निस्तब्धाः ॥ आश्रये । अवष्टभ्य | अवतष्टम्भुः । अवाष्टनन् ॥ ऊर्ज (र्जे?) । अवष्टम्भम् ॥ अविदूरे । अवष्टब्ध । इत्यत्र " "अवाच्चा [ ४२ ] इत्यादिना षः ॥ चकारोड इत्यस्यानुकर्षणार्थौनुक्तसमुच्चयार्थश्च । तेनोपष्टब्ध इत्यत्रोपादपि । उपवादित्यकृत्वा चकारेण सूचनमनित्यार्थम् । तेनोपस्तब्धानित्यपि ॥ आश्रयादिष्विति किम् । अवस्तब्ध ॥ अड इत्येव । अवातस्तम्भत् ॥ अवषिष्वणिषुः कोपि विषष्वाण करम्भकम् । त्वं विष्वणवण त्वं चेत्यवापिष्वणत्परान् ॥ १३४ ॥ १३४. अवषिष्वणिपुर्भोक्तुमिच्छुः सशब्दं बुभुक्षुर्वा भुञ्जान: कंचिच्छन्दं चिकीर्षुर्वा कोपि भटः करम्भकं दधिसक्तन्विषष्वाण बुभुजे सशब्दं भुक्तवान्वा भुञ्जानं: कंचिच्छन्दं चक्रे वा । एवमन्यत्राप्यर्था आविर्भावनीयाः । श्रमतप्ताङ्गा हि बुभुक्षवः शीतत्वात्करम्भं भुञ्जते । तथा त्वं विष्वण भुङ्ग त्वं चावष्वण भुङ्गेत्येवंप्रकारेण 3 १ ए सी. आश्रिया.. २ वी 'नः किंचि. ३ सी भुव त्वं. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.४२.] तृतीयः सर्गः । २८५ परानन्यानपि करम्भमवाषिष्वणदभोजयत् । एतेनास्यात्मभरित्वमपास्तम् ॥ योद्रौ व्यषिष्वणज्जायां स्वयं चैलामवावणत् । सोवस्खनन्करी बद्धो व्यष्वणच्छष्पपूलिकाः॥१३५ ॥ १३५. यः करी अद्रौ विन्ध्यशैले जायां करेणुकामेला सुगन्धितरुविशेष व्यषिष्वणद्भोजितवान् । स्वयं च य एलामवाष्वणद्भुत । स्वभार्यान्वितो य एलां भुक्तवानित्यर्थः । एतेनास्यातिसुखितत्वमुक्तम् । स करी बद्ध आलानस्तम्भे निगडितोवस्खनन्नवबद्धत्वेन बन्धासहत्वादाक्रन्दन्सन् शष्पपूलिका नवतृणपूलान् व्यष्वणदभुत । एतेन सुखदुःखावस्थे महतामपि भवत इत्युक्तम् ॥ उष्ट्रान्विस्वनतो भाराद्विषण्णानौष्ट्रिको जनः । न्यषीपदनिषिषमूनिषसाद न तु स्वयम् ॥ १३६ ॥ १३६. औष्ट्रिको जन उष्ट्राच्यषीषददुपावेशयत् । किंभूतान्सतः । भाराद्धेतीविषण्णान् श्रान्तानत एव निषिषत्सूनुपवेष्टुमिच्छून् । तथा विस्वनत आरटत: । न तु स्वयं विषसादोष्ट्रसंबन्धिभि रावतारणचार्यानयनादिभिरनेकव्यापारैर्व्यापृतत्वान्न पुनरात्मना भूम्यामुपाविशत् । एतेनौष्ट्रिकाणामुष्ट्रेवतिहितत्वोक्तिः ॥ न्यषीदत्प्रतिसन्नोभॊम्बामपि प्रत्यसीषदेत् । साप्यप्रतिसिषत्सुं तत्पितरं प्रत्यसीसदत् ॥ १३७ ॥ १३७. प्रतिसन्नः श्रान्तोर्नो बालको न्यषीददुपाविशत् । अम्बा ? बी दन् । १ सी मुक्त । स्व. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] मपि मातरमपि प्रत्यसीषददुपवेशितवान् । साप्यम्बाप्यप्रतिसिषत्सुमनुपविविलु तत्पितरमर्भजनकं प्रत्यसीसदत् ॥ श्रमात्पतिसिसत्सन्तीः परिष्वक्ताब्जिनीदलाः । योषितोभ्यध्वजन्तेशाः प्रतिषिष्वङ्गवोम्भसि ॥ १३८ ॥ १३८. श्रमात्प्रतिसिसत्सन्तीरुपविविक्षुरतिश्रमातुरा इत्यर्थः । अत एव परिष्वक्ताजिनीदला: श्रमसन्तापोपर्शमायाश्लिष्टपद्मिनीपत्रा योषित ईशा भर्तारोभ्यष्वजन्तालिङ्गन्ति स्म यतोम्भसि जले प्रतिषिवङ्गवो योषितः सम्बद्धाः कर्तुमिच्छवः । सन्तप्तत्वादात्मना सह सिस्नपयिषव इत्यर्थः ॥ येभिषस्वजिरे दूर्वा पर्यषेवन्त चान्तिकम् । मुदाश्वांस्तेभ्यषस्वञ्जन्मन्दुरापरिषेवकान् ॥ १३९ ॥ १३९. ये स्थानपाला दूर्वामभिषस्वजिरे भक्षणायाश्वैः सहाभिसंबध्नन्ति स्म । ये चान्तिकमश्वानां समीपं मक्षिकाभक्षणाद्युपद्रवोपनयनस्थानशुचीकरणादिशुश्रूषया पर्यषेवन्त शिश्रियुस्ते मन्दुरापरिपेवानश्वशालासंश्रविणोश्वान्मुदा काभ्यषध्वञ्जन्समयोजेयन् हृष्टी चक्रुरित्यर्थः । ये हि येषां कृते भोज्यं मीलयन्ति भक्तत्वेनान्तिकं सेवन्ते च ते भृत्यास्तान्स्वामिनो विनीतत्वेन हर्षयन्ति ॥ कश्चिन्यषेवतैधांसि चुल्ली परिषिषेविषुः । पिष्टं निषेवते स्मान्यो मण्डकानिषिषेविषुः ॥ १४०॥ १४०. कश्चित्कान्दविकचल्लीमन्तिकां परिषिपेविषुः संधुक्षणेन १ बी न्ती प. १ बी शमया. २ सी ध्वक्षवो'. ३ बी वान. ४ डी कान् शा. ५ ए जन्. ६ सी स्तामि. ७ ए श्शुली--प. बी चलीं प. सी °श्चली--प. Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० २.३.४२. ] तृतीयः सर्गः । २८७ सेवितुमिच्छु रेघांसीन्धनानि न्यषेवत मेलनभङ्गादिना सेवते स्म । तथान्यो मण्डकान्पोलिका निषिषेविषुश्चिकीर्षुरित्यर्थः । पिष्टं गोधूमादिचूर्ण छेदनमर्दनादिना निषेवते स्म ॥ व्यवत पयः कश्चित्किलाटं विधिषेविषुः । मापान्मतिसिषेवेन्यो वटानि विषेवितुम् ॥ १४१ ॥ १४१. कश्चित्किलाटं क्षीरविकारविशेषं विषिषेविपुश्चिकीर्षुरित्यर्थः । पयो दुग्धं व्यषेवत संस्कारविधानादिना सेवते स्म । अन्यश्च वटकानि विषेवितुं कर्तुं माषान्प्रतिसिषेवे मर्दनसंस्कारादिनासेवत || देवं प्रतिसिसेवे च कश्चित्परिषिताञ्जलिः । निषितो भक्तिनिषयैर्विषयाविषितोद्यमः ।। १४२ ॥ १४२. कश्चिच धार्मिको देवमर्हदाद्यभीष्टदेवतां प्रतिसिसेवे पूजादिना पर्युपासांचक्रे । कीदृक्सन् । भक्ति: श्रद्धा सैवान्यव्यापारनिवर्तकत्वान्निसीयत एभ्य इत्यपादानेलि निषया बन्धनानि तैनिषितो - बद्धोत एव विसिन्वन्ति यूनां मनांस्येष्विति “पुंनाम्नि घः” [५.३.१३१] इति घे विषया: शब्दरूपरसगन्धस्पेशी स्तेष्वविपितोबोकृत उद्यमो व्यापारो येन स एकाग्रचित्त इत्यर्थः । अत एव च परिषिताञ्जलि - बेद्धकरकुड्मलः ।। बद्धा भृतिपरिषयैः केचिन्निः सितपत्तयः । 2 विषीव्यन्ति स्म निष्यूतं परिष्यूतदृशः पुढान् ॥ १४३ ॥ १४३. निःसितपक्तयः समर्थित पाकाः केचित्कान्दविका: सुभटादिभोजनार्थं पुटान्वटादिपत्रमयान्भाजनभेदान्घृतादिद्रवद्रव्यागलनाय ?' सी 'किट'. २ बी व्यषी. ३ बी निष्टयतं ४ बी रिष्टयत . १ एसी पपर. २ एस्परस्ते'. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] निरन्तरं स्यूतं सेवनं यत्र तन्निष्यूतं यथा स्यादेवं विषीव्यन्ति स्म तृणै: प्रोयन्ते स्म । किंभूताः सन्तः । परिष्यता इव परिष्यता दृशो येषां ते पुढेष्वत्यन्तं न्यस्तदृशः । यतो भृतिर्मूल्यं सैव वशीकारकत्वात्परिषया बन्धनानि तैर्बद्धा वशीकृताः । वशीकृता हि दुष्करमपि कुर्वन्ति ॥ वृक्षा विषेहिरे भारं प्रहारं परिषेहिरे । २८८ ? निषेहुञ्चानिसोढव्यं विष्किरैरपरिष्कृताः ॥ १४४ ॥ १४४. विष्किरैः पक्षिभिरपरिष्कृता अपरिवारिताः । सैनिकभयेन मुक्ता इत्यर्थः । वृक्षा भारं वर्मपल्ययनादिसंबन्धिनं विषेहिरे । तथा प्रहारमिन्धनाद्यर्थं कुठारादिघातं परिषेहिरे । तथानिसोढव्यं सोदुमशक्यं शाखाभङ्गादि च निषेदुः । यौजादिकस्य विकल्पेन ण्यन्तस्य सहो रूपमिदम् । येप्यपरिष्कृता एकाकिनो रङ्काः स्युस्तेपीन्धनादीनां भारं चपेटादिप्रहारं चानिसोढव्यं दुर्वाक्यादि च सहन्त इत्युक्तिः ॥ विसोढं परिसोढव्यं कष्टं मातो विसीषहः । 1 निसी षिवोर्करुग्भर्मेति युक्त्या कोप्यदात्स्थुलम् || १४५॥ १४५. कोपि स्त्रीवश आतपकष्टनिवारणाय स्थुलं पटकुटीमदादबघ्नात् । कया । इत्येवंविधया युक्त्या भार्यावचनेन । यथा परिसोढव्यं कष्टं मार्गश्रमादि सोढमतोस्मात्परं कष्टुं मा विसीषहः । कष्टं सहमानां मां मा प्रयुङ्क्थाः । कष्टमेव स्पष्टयति । अर्करुग्भिः सूर्यातपैः aara faraोर्करुचः कर्यो निषीव्यन्ति संबध्नन्ति मामात्मना तास्त्वं मा प्रयुङ्क्थाः ॥ यद्वा । अर्करुचो निषीव्यन्ति संबध्नन्ति मया सह कष्टं तास्त्वं मा प्रयुङ्क्थाः । आतपकष्टं निवारयेत्यर्थ इति || १ बी 'रिस्कृता २ सी सीपि ३ ए विसी. १ बी निष्टतं. २ बी 'रिता ३ बी रिष्टता ४ बी 'ता से. ५ सी ज्यादि ६ ए बी सी 'नन्त'. ७ बी 'रिस्कृता. ८ ए सी डी र्मा विसी, Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० २.३.४७. ] तृतीयः सर्गः । विष्वण | अवष्वण । विषष्वाण | अवषिष्वणिषुः । व्यध्वणत् । अवाध्वणत् । व्यषिष्वणत् । अवाषिष्वणत् । इत्यत्र "व्यवात्" [ ४३ ] इत्यादिना षः ॥ अशन इति किम् । विस्वनैतः । अवस्वनन् ॥ विषण्णान् । निषिषत्सून् । न्यषीदत् । न्यषीषदत् । इत्यत्र “सदोप्रतेः " [ ४४ ] इत्यादिना षः ॥ परोक्षायां त्वादेरेव । निषसाद ॥ अप्रतेरिति किम् । प्रतिसन्नः । प्रत्यसीषदत् । अप्रतिसिषत्सुम् । अत्र प्रतेः परस्याद्यसकारस्य षो न स्यात् । प्रकृतिसस्य नामिनः परस्य "नाम्यन्तस्था" [२.३.१५] आदिसूत्रेण स्यादेव || अस्यापि नेच्छन्त्येके । प्रत्यसीसदत् । प्रतिसिसत्सन्तीः ॥ परिष्वक्त । प्रतिषिष्वङ्गवः । अभ्यष्वजन्त । अभ्यषष्वञ्जन् । इत्यत्र " स्वञ्जच " [ ४५ ] इति षः ॥ योगविभागादप्रतेरिति नानुवर्तते । तेन प्रतिषिष्वङ्गवः ॥ चकारः परोक्षायां स्वादेरित्यस्यानुकर्षणार्थः । अभिषस्वजिरे । ततश्चोत्तरत्राननुवृत्तिः ॥ २८९ परिषेवकान् । परिषिषेविषुः । पर्यषेवत । निषेवते । निषिषेविषुः । न्यषेवत । विषेवितुम् । विषिषेविषुः । व्यषेवत । इत्यत्र “ परिनिवेः सेव:" [४६] इति षः ॥ परिनिवेरिति किम् । प्रतिसिषेवे । अत्रोपसर्गाश्रितं पत्वं न स्यात् । धातोस्तु द्वित्वाश्रितं भवत्येव । उभयत्र नेच्छन्त्येके । प्रतिसिसेवे ॥ I परिषयैः । निषयैः | विषय | परिषिर्त । निषितः । अविषित । इत्यत्र "सयसितस्य” [४७] इति षः ॥ परिनिवेरिति नियमादन्योपसर्गपूर्वात्स्यते: “उपसर्गात्सुग्०” [२.३.३९] इत्यादिनापि षत्वं न स्यात् । तेन निःसित ॥ परिष्यूत । निष्यूतम् । विषीव्यन्ति । परिषेहिरें । निषेदुः । परिषेहिरे । अपरि 1 १ डी 'पुः । न्यष्व २ ए सी डी 'नत् । अ. ३ बी "सन्न । प्र. ४ बीः । अ ५ ए सी डी 'वक्तः । प्र ६ ए डी षितः । नि. ७ बी वेरेवेति ८ बी रिष्टवृत । निष्टत ९ ए सी डी °र । अ° स्कृताः. १० बी रि ३७ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] कृताः। विष्किरैः । इत्यत्र “असोड" [८] इत्यादिना षः ॥ असोडेति किम् परिसोढव्यम् । अनिसोढव्यम् । विसोढम् । मा निसीषिवः । मा विसीषहः ॥ क्ष्मां पर्यष्टौत्तृणैरद्भिर्यष्टौद्यष्टोत्तथेन्धनैः। विभुयाँ तां च पर्यस्तौन्यस्तौद्यस्तोत्परिच्छदः॥ १४६ ॥ १४६. विभुर्या प्रशस्यतृणजलेन्धनामवोचत्तां मां पृथ्वी परिच्छदोपीत्यर्थः । एतेन परिच्छदस्य च्छन्दोनुवर्तित्वेन स्वामिन्यात्यन्तिकी भक्तिरुक्ता ॥ ओजो व्यष्वत मुत्पर्यष्वत न्यष्वत विक्रमः । व्यस्खक्त धीर्यस्खल श्रीन्पर्यस्खल न श्रमः ॥ १४७॥ १४७. प्रस्तावात्सैन्यावासने सति नृन्सैनिकान् श्रमो न पर्यष्व(स्व?)त नालिङ्गन्नदीनानादिना व्यपगत इत्यर्थः । अत एव बलहर्षोत्साहबुद्धिशोभा नृनालिङ्गन्नित्यर्थः ॥ क्ष्मां व्यपीव्यन्यपीव्यद्वाः पर्यषीव्यदरी रजः। व्यसीव्यन्यसीव्यत्वं पर्यसीव्यदिशश्च यत् ॥ १४८॥ १४८. यद्रजोत्यन्तं निविडत्वेन द्रून् व्यसीव्यत्प्रोतवानिव व्याप्नोदित्यर्थः । तथा खं न्यसीव्यदिशश्च पर्यसीव्यत्तद्रज: क्ष्मां व्यषीव्यत् । तथा वा: जातावेकवचनम् । जलानि न्यषीव्यत्तथा दरीर्गर्ताः पर्यषीव्यत् । सैन्ये चलति तुरगादिखुरोत्खातं यद्रज अर्ध्वमुच्छलितमासीत्तत्सैन्य उषितेधः पपातेत्यर्थः । योप्युच्चैस्तमपदारूढः स्यात्सोपि 'उच्चैश्चटितस्यावश्यं पातः' इति लोकोक्तेरधः पततीति ॥ १ सी व्यद्वाः. १ ए सी विष्करैत्य. डी विष्करै'. २ सी जोत्यं नि. ३ सी खं व्यसी'. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.४९.1 तृतीयः सर्गः । २९१ व्यषहिष्ट तटीपातं पङ्क पर्यषहिष्ट च । न्यपहिष्ट पय शोषं व्यसहिष्ट न किं नदी ॥ १४९ ॥ १४९. नदी जम्बूमाली तटीपातं सैन्यसंमर्दजन्यं तीरभ्रंशं व्यषहिष्ट । तथा वस्त्रादिधावनविगाहनादेः पकं पर्यषहिष्ट । तथा पानादेः पयःशोषं न्यषहिष्ट । अतश्च तटीपातादिसहनाकिं न व्यसहिष्ट ॥ न न्यसायातपः कैश्चित्पर्यसाहि तृषा न च । पर्यष्कारि तरुच्छाया पर्यस्कारि सरिच यत् ॥ १५० ॥ १५०. स्पष्टः । किं तु पर्यस्कारि समाश्रयणेनालंकृता ॥ पर्यष्टौत् पर्यस्तौत् । न्यष्टौत् न्यस्तौत् । व्यष्टौत् व्यस्तौत् । पर्यष्वक्त पर्यस्खत । न्यष्वत न्यस्वत । व्यष्वत व्यस्वत । पर्यषीव्यत् पर्यसीव्यत् । न्यषीव्यत् न्यसीव्यत् । व्यपीव्यत् व्यसीव्यत् । पर्यषहिष्ट पर्यसाहि । न्यषहिष्ट न्यसाहि । व्यपहिष्ट व्यसहिष्ट । पर्यष्कारि पर्यस्कारि । इत्यत्र "स्तुस्वाश्चाटि न वा" [४९] इति वा पः॥ विष्यन्दिमदनिःष्यन्दैः कराभिष्यन्दिशीकरैः । सल्लक्या रसनिष्यन्दः स्म परिष्यन्द्यते गजैः ॥ १५१ ॥ १५१. गजैः सल्लक्या गजप्रियतरुविशेषाद्रसनिष्यन्दो रसप्रवाहः परिष्यन्द्यते स्म चर्वणेन स्राव्यते स्म । कीदृशैः । विष्यन्दी प्रसृमरो मदनिःष्यन्दो मदप्रवाहो येषां तैस्तथा करेभ्यः शुण्डाभ्योभिष्यन्दिनः स्रवणशीलाः शीकरा वमर्थवो येषां तैः ॥ १ बी न्यस्याह्या. २ डी रि स. १ बी र्दजं ती. २ सी त । व्यष्व. ३ सीट ! प. ४ ए सी डी षाणां रस'. ५ डी दो मद. ६ ए सी न श्राव्य. ७ बी नि:स्यन्दो. ८ ए सी डी °नः श्रव. ९ ए सी थतो ये . डी °थतौ ये. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ब्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] निःस्यन्दिस्वेदनिस्यन्दात्फेनाभिस्यन्दतो हयैः । विस्यन्दिभिरिवाम्भोदैः परिस्यन्दिन्यभून्मही ॥ १५२ ॥ १५२. विस्यन्दिभिर्वर्षकैरम्भोदैरिव हयैः कृत्वा मही परिस्यन्दिन्यााभूत् । कुतः । निःस्यन्दी श्रमवशात्स्रवणशीलो यः स्वेदनिस्यन्दो धर्मप्रवाहस्तस्मात् । फेनाभिस्यन्दतः अमेणैव मुखफेनस्रवणाच्च । क्षुब्धसिन्धौ बलैः स्मानुष्यन्देते झषकाम्भसी। यादोर्णसी इव स्मानुस्यन्देते मन्दराद्रिणा ॥ १५३ ॥ १५३. बलैः सैन्यैः क्षुब्धसिन्धौ विलोडितायां जम्बुमालीनद्यां झषकाम्भसी ह्रस्वमत्स्यजातिजले अनुष्यन्देते स्म प्रसरतः स्म तटान्यतिचक्रमतुरित्यर्थः । यथा मन्दराद्रिणा मेरुणा क्षुब्धसिन्धौ विलो. डितेब्धौ यादोर्णसी जलजन्तुजातिजले अनुस्यन्देते स्म प्रसृते॥ विस्यन्दिदन्त्यविष्कन्तमदेविस्कन्तृभिर्भुवः । विस्कन्नः सर्वतो रेणु व विस्कन्नवान् दृशः ॥ १५४ ॥ १५४. रेणुरुपशान्तत्वादृशो नैव विस्कन्नवान्न व्याप्नोद्यतो विस्यन्दिनो मदक्षरणशीला ये दन्तिनस्तेषामविष्कन्तारोशुष्यन्तो ये मदास्तैः कर्तृभिः सर्वतो विस्कन्न आर्टीकरणेन व्याप्तः । किंभूतैः । बहुलत्वाद्भुवो विस्कन्तुभिर्व्यापकैः ।। निःष्यन्दैः निःस्यन्दि । अभिष्यन्दि अभिस्यन्दतः । अनुष्यन्देते अनुस्यन्देते । परिष्यन्द्यते परिस्यन्दिनी । निष्यन्दः निस्यन्दात् । विष्यन्दि विस्यन्दिभिः । इत्यत्र “निरभ्यनोश्च" [५०] इत्यादिना वा षः ॥ अप्राणिनीति किम् । १ बी 'शाच्छ्व. २ बी स्मात्तथा फे'. ३ ए बी सी डी नव. ४ बी विष्कन्न ५ बी विष्कन्न ६ बीन्दते. ७ बी ध्यन्द नि०. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ [है० २.३.५१.] तृतीयः सर्गः। विस्यन्दिदन्ति । पर्युदासोयं न प्रसज्यप्रतिषेधस्तेन यत्र प्राणी चाप्राणी च कर्ता स्यात्तत्राप्राण्याश्रयो विकल्पो भवति न तु प्राण्याश्रयः प्रतिषेधः । अनुष्यन्देते झषकाम्भसी अनुस्यन्देते यादोर्णसी ॥ विष्कन्तु विस्कन्त्तृभिः । इत्यत्र "वेः" [५१] इत्यादिना पो वा ॥ अक्तयो. रिति किम् । विस्कन्नः । विस्कन्नवान् ॥ परिष्कण्णापरिस्कन्नान्वृषानिःष्फुलनिःष्फुरान् । निःस्फुला निःस्फुरा गोपा निन्युःक्ष्मां निष्फुरत्तृणाम् १५५ १५५. निःस्फुलाः संहता निःस्फुराः स्फुरणान्विता गोपा गोपाला वृषान्निष्फुरत्तॄणामुल्लसच्छष्पां क्षमा चारणार्थ निन्युः । किंभूतान् । परिष्कण्णं श्रमोद्भवः समन्ताच्छोप: पातो वा तेनापरिस्कन्नानपरिगतान्बलिष्ठत्वेन भूरिमार्गगमनेनाप्यश्रान्तानत एव निःफुलनिःस्फुरान् विशेषणकर्मधारये संहतान्सतेजस्कांश्च । निष्फुलनिस्फुरद्वातैर्निस्फुलद्विष्फुरवजाः । विस्फुरद्विष्फुलच्छायाः पतया विस्फोलिता रथाः॥१५६॥ १५६. रथाः पतया श्रेण्या विस्फोलिताः संचायिता: संस्थापिता इत्यर्थः । किंभूताः । निष्फुलन्तः संहतीभवन्तो निस्फुरन्तो विचरन्तश्च ये वातास्तैः कृत्वा निस्फुलन्तोन्योन्यं संहतीभवन्तो विस्फुरन्तश्चञ्चला ध्वजा येषु ते। अत एव विस्फुरन्त्यश्चलन्त्यो विस्फुलन्त्यः संहतीभवन्त्यश्छाया ध्वजसंबन्धिन्यो येषां ते ॥ १ ए निःस्फरा'. २ सी फुर. १ बी °णी यत्र चा. २ डी स्कन्नवा'. ३ ए सी डी संहिता . ४ ए निष्पुर'. ५ ए सी डी रिकन्ना. ६ बी निष्फुर।. ७ ए सी डी स्फुरन्तो'. ८ डी श्च चल. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याश्रयमहाकाव्ये परिष्कण्णापरिस्कन्नान् । इत्यन्त्र " परेः " [ ५२ ] इति वा षः ॥ १ निःष्फुरान् निःस्फुराः । निष्फुरत् निस्फुरत् । निःष्फुल निःस्फुलाः । निष्फु I लत् निस्फुलत् । इत्यत्र “निनै:" [ ५३ ] इत्यादिना वा षः ॥ विष्फुरत् विस्फुरत् । विष्कुलत् विस्फोलिताः । इत्यत्र "वे : " [ ५४ ] इति वा षः ॥ २९४ रिपुविष्कम्भ विष्कञ्नत्सैन्यं पादपदुःषमाः । क्ष्माः स्थलीनिःषमा गर्तविषमाः सुषमा व्यधात् ॥ १५७॥ १५७. सैन्यं क्ष्मा: सुषमा वृक्षोच्छेदस्थल्युत्खननगर्तपूरणैः समत्वापादनात्सुपम व्यधात् । कीदृक्सत् । पराक्रमित्वेन रिपून्विष्कनात्यवष्टभ्रातीत्येवं शीलं रिपुविष्कम्भ । तथा विष्कभ्रत्सर्वत्रावासनेन प्रसरत् । कीदृशीः क्ष्माः । पादपदुःषमा वृक्षैर्दुष्टसमत्वाः । तथा स्थलीनि:माः स्थलैः समत्वान्निष्क्रान्ताः । तथा गर्तविषमा दरीभिर्विगतसमस्वा: । पादपादिभिर्दुर्गमा इत्यर्थः । एवं नाम सैन्यं बाहुल्येन प्रासरद्यावता भग्नवृक्षैरुत्खातस्थलीभिश्च गत: पूरयित्वा भुवः समाचक्र इत्यर्थः । यदपि सैन्यं विष्कनत्प्रसरद्रिपुविष्कम्भ युद्धाय शत्रववष्टम्भकं स्यात्तदपि रणविघ्नभूत वृक्षस्थलीगर्तैर्विषमा रणभुवो वृक्षादिभङ्गादिभिः सुषमाः करोतीत्युक्तिः ॥ छायाविषूतिफल निःषूतिपुष्पसुषूतयः । वनदुःषूतिवृक्षाणां कृतार्थ्यन्ते स्म सैनिकैः ॥ १५८ ॥ १५८. वनेरण्ये नैष्फल्याहुष्टा सूतिरुत्पत्तिर्येषां ते ये वृक्षास्तेषां १ बी निष. १ ए निस्फरा: । २ डी स्फुली । नि. ३ सी वृक्षाच्छे . ४ डी 'मा न्यधा'. ५ बी वस ६ सी 'क्तिः ॥ या'. [ मूलराज : ] Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.५४.] तृतीयः सर्गः। २९५ छायाविषूतिफलनिःपूतिपुष्पसुपूर्तयः । विशिष्टा सूतिरुत्पत्तिवृक्षकर्तृकोत्पादना वा । एवं निश्चिता सूतिनि:पूतिः । शोभना सूतिः सुषूतिः । ततः षष्ठीतत्पुरुषगर्भो द्वन्द्वः । छायाफलपुष्पाणामुत्पत्तयः सैनिकैः सैन्यैः कृतार्थ्यन्ते स्मोपभोगेन सफलीकृताः ॥ रत्यानिःसमितोरुनिःषमितदृग्निःसूतलीलाङ्गनानिःपूतथ्यविषुप्तकामुकमनिःषुप्तस्मरं तत्क्षणात् । तदुःषुप्तसुषुप्तवर्जितभदं प्रादुःपदहें विष न्सुस्वप्नो नु मुदं दिदेश शिबिरं गंधर्वपुर्याः समम् ॥१५९॥ १५९. यथा विषन्विशेषेण भवन्सुस्वप्नः परिपूर्णचन्द्रपानादिः शोभनः स्वप्नो मम कोपि महाभ्युदयो भावीत्यभिप्रायेण सुस्वप्नालोकिनः पुंसो मुदं करोति । तथा तत्पूर्वव्यावर्णित शिबिरं सैन्यसन्निवेशो द्रष्टणां मुदं हर्ष दिदेश चक्रे । यतो गन्धर्वपुर्या ऐन्द्रजालिकपुर्याः समं तुल्यम् । एतदपि कुत इत्याह । यतस्तत्क्षणाद्यदैव जम्बूमाल्यां सैन्यमवसत्तमेव कालमाश्रित्यानिःषुप्तस्मरं तत्कालोत्पन्नानेकशीतोपचारैः श्रमोपशान्त्या महर्दिकत्वातिसुखितत्वादिना च सैन्यजनस्योजम्भितस्मरत्वाजागरितकन्दर्पमत एवाविषुप्तकामुकमनवरतं सुरतक्रियया जागरितकामिजनमत एव च रत्या निधुवनेन कृत्वा पम टम वैलव्ये इति सम्धातोः क्ते आनिःसमितौ समन्तान्निश्चितं विक्लवीभूतावूरू सक्नी यासां तास्तथा । तथा रत्यैव निःषमिते विक्लवीभूते निद्राभङ्गेन गह्वरिते दृशौ यासां तास्तथा । तथा रत्यैव निःसूता पू धातुः सकर्मकोपि । उत्पादिता लीला शृङ्गारचेष्टाविशेषो यासां तास्तथा। विशेषणकर्मधारये १ बी निः नु मु. २ सी दुःसुप्त”. १ ए सी °तयोविशि. २ बी न्यमाव'. ३ बी पन्नोने. ४ डी म वै. ५ बी था र. ६ बीपमते. ७ सी थार. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२९६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] तथाविधा या अङ्गनास्ताभिर्निःपूतोत्पादिता श्री शोभा यत्र तत् । तथा तत्क्षणादेव प्रादुः पदट्टे व्यवहारार्थं प्रकटीभवदापणमत एव कामासक्तानामर्थासक्तानां च जनानां रक्षार्थं दुःपुप्तसुषुप्तवर्जिता दुष्टस्वापशोभनस्वापाभ्यां रहिता: सर्वथा जागरूका भटा योधा यत्र तत् । गन्धर्वपुर्येपि तात्कालिकानिः पुप्तस्मरत्वादिविशेषणविशिष्टा सती द्रष्टृ - णामाचर्याद्धर्षं करोति । शार्दूलविक्रीडितं छन्दः ॥ प्रादुःष्युरप्सरस आजिमहः स विषयात्सेसिच्यमान इषुभिर्भटपिस्स्यमानः । तत्राभिसेधितुमना अभिसोष्यते यो गङ्गासुः स इति सैन्यभटाः प्रदध्युः ।। १६० ।। १६०. सैन्यभटाः प्रदेध्युरचिन्तयन् । किमित्याह । भटपिरस्य - मानो युद्धार्थ योधैर्गम्यमानः । अत एवेषुभिः सेसिच्यमानोत्यर्थ व्याप्यमानः । स प्रसिद्ध आजिमहो रणोत्सवो विष्याद्विशेषेण संपद्यताम् । ततश्चाप्सरसः प्रादुःष्युराजिकौतुकदिदृक्षया भटवुवूषया च प्रकटीभवन्तु । “विधिनिमन्त्रणा " [ ५.४.२८. ] इत्यादिनात्र प्रार्थने सप्तमी । एतेन भटानां रणविषयोभिलाषातिरेक उक्तः । तथा तत्राजिमहेभिसेधितुमना गन्तुकामो यो भटोभिसोष्यते धारातीर्थे स्नास्यति शत्रुभट - सिध्यते वा स भटो गङ्गासुसूः सुरापगायां स्नातुमिच्छुर्देवीभवितुमिच्छतीत्यर्थः । रणे हि मृताः स्वर्गे यान्तीति स्मृतिरिति ॥ विष्कश्नत् । विष्कम्भि । इत्यत्र “स्कनः " [ ५५ ] इति षः ॥ निःषमाः । दुःषमाः । सुपमाः । विषमाः । निःषूति । दुःपूति । सुषूतयः । १ ए श्रीशो. २ डी नां र ३ ए सी डी सुप्त ४ सी 'दध्यार ५ बी 'तुकादि ६ ए विष्वन• बी विष्कम्नत् । सी डी विष्वभूत् ।. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.६२.] तृतीयः सर्गः । २९७ विषति । इत्यत्र “निर्दुःसु" [५६] इत्यादिना पः ॥ समगुंतीतिनामग्रहणाद्धातोर्वैरूप्ये च न स्यात् । निःसमित । निःसूत ॥ अन्ये तु समसूत्योर्धात्वोरेवेच्छन्ति। तन्मते निःपमित निःपूतेत्यादावेव स्यात् ॥ निःषुप्त । दुःषुप्त । सुषुप्त । विषुप्त । इत्यत्र "अवः स्वपः" [५७] इति पः॥ अव इति किम् । सुस्वप्नः ॥ प्रादुःप्युः । विष्यात् । प्रादुःषत् । विषन् । इत्यत्र "प्रादुः” [५८] इत्यादिना षः॥ पिस्स्यमानः । इत्यत्र "न स्सः" [५९] इति न षः ॥ सेसिच्यमानः । इत्यत्र “सिचो यङि" [६०] इति न षः ॥ अभिसेधितुमनाः । इत्यत्र “गतौ सेधः" [६१] इति न षः ॥ अभिसोध्यते । गङ्गासुसूः । इत्यत्र "सुगः स्यसनि" [६२] इति न षः। वसन्ततिलका छन्दः ॥ ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासनद्याश्रयवृत्तौ तृतीयः सर्गः समर्थितः ॥ ॥ ग्रन्थ ११५८ ॥ अं २२॥ १ ए सी डी सूति. २ डी निःसू. ३ ए सी मितः । निः.४ ए सी डी सूतः । अ. ५ ए सी डी निःपू. ६ ए सीडी अतिसे°. ७ बी ध्यन्ते । ग. ८ ए सी ध्यपले. ९ बी अ २७ ॥. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये चतुर्थः सर्गः। अवतीर्णमथापगावनान्तर्नरनाथं कषणक्षमं रिपूणाम् । इति नीतिमणवाक्पपुष्णनगृणादाहरिपोरुपेत्य दूतः ॥ १॥ १. अथ सैन्यावासनानन्तरं रिपूणां कषणक्षमं विनाशनसमर्थमंत एवाभिषेणनेनापगावनान्तर्जम्बूमालीवनमध्येवतीर्णमावासितं नरनाथं मूलराजमुपेत्य ग्राहारेर्दूत इति वक्ष्यमाणमगृणादवदत् । कीहक्सन् । नीति न्यायं प्रपुष्णन्वर्धयन्नीतिशास्त्रोक्तानुसारेणेत्यर्थः । तथावृक्णाविच्छिन्नाप्रतिहता वाग् यस्य सः । सर्गेत्रौपच्छन्दसिकं छन्दः ॥ ___ तदेवाष्टादशभिर्वृत्तैर्विवक्षुर्दूतः स्वामिनः स्वस्य च नामसंकीर्तनपूर्व स्वव्यापारणकारणमाह । तव शौर्यकिरीटिनो रसेनाविरलेनागमकारणं बुभुत्सुः । नयवर्जनकर्शनादिशन्मां द्रुणसं ग्राहरिपुर्विकर्तनाभः ॥२॥ २. नयं न्यायं वर्जयन्ति । “रम्यादिभ्यः कर्तरि" [५. ३. १२७ ] इत्यने नयवर्जनान्कर्शयति तनूकरोति यस्तस्य संबोधनं हे नयवर्जनकर्शनान्यायिनिग्राहिन्नविरलेन सान्द्रेण रसेनानुरागेण तवागमकारणमागमनहेतुं बुभुत्सु तुकामो ग्राहरिपुर्दुणसं द्रुणसाभिधं मामादिशत् प्रेषितवानित्यर्थः । यतः शौर्यकिरीटिनः शौर्येणोपलक्षकत्वात्प्रतापादिना च कि १ डीत: ग्राहा. यति । र'. ४ ए १बी वासान. २ ए सी दसकं. ३ ए सी सी भ्यः कीर्त'. ५ ए सी लेण सा. ६ बी क्षणत्वा. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.६३.] चतुर्थः सर्गः । रीटिनोर्जुनेतुल्यस्य सोपि च विकर्तनाभः शौर्यप्रतापादिगुणैरादित्यसमः । भवति ह्युत्तमानामुत्तमेष्वनुरागः ॥ तदेवं मूलराजागमकारणजिज्ञासया स्वव्यापारण उक्तेपि राज्ञि स्वागमकारणमवदति स्वयमेवं वितर्क्यागमकारणानि पृच्छन्सामोक्त्या परिहरंश्च वृत्तदशकमाह । ऋगयनपठनेन दुर्णसैस्तैः प्रवणान्तर्वणनिर्वणोषितैः किम् । चलितोसि मृषा द्विजैब्रुवाणैराम्रवणेक्षुवणानि नः खनद्भिः ॥ ३ ॥ ४ ३. तैर्ग्राहार्युपदुतैर्मृषा ब्रुवाणैर्निरपराधा वयं ग्राहारिणोपद्रुता इत्यलोकवादिभिः सद्भिर्द्विजैः किं चलितोसि चलन्प्रयुक्तस्त्वं तेन तेत्रागम इत्यर्थः । इदं चागमकारणं मृषा श्रवाणैरिति विशेषणेनैवायुक्तमिति परिहृतम् । नन्वमी कमपराधं चक्रुर्यन्मृषा ब्रुवाणा उच्यन्त इत्याह । प्रवणान्तर्वणनिर्वणनामानि यानि वनानि । यद्वा । प्रकृष्टानि वनानि प्रवणानि । अन्तर्मध्ये वनान्यन्तर्वणानि । निश्चितानि वनानि निर्व णानि । द्वन्द्वे तेषूषितैः स्थितैः सद्भिर्नोस्माकमाश्रवणेक्षुवणानि खनद्भिः । यत ऋगयनपठनेन ऋचः सामिधेन्यः । यकाभिः समिधोग्नावाधीयन्ते । तासामयनमृगयनं वैदिको ग्रन्थस्तत्पाठेन दुर्णसैर्विकृतनासिकैः । अनेन द्विजानामग्नौ समिदाधानं सूचितम् । तत्रावश्यमृगयनपाठात् । ऋगयनपाठेन पलाशाश्वत्थप्रायस्यैव सभिधोग्नावाधीयन्त इति श्रुतिरित्येते पलाशप्रायस्यैव समिध ऋगयनपठनेनाग्नौ जुह्वति । परं तत्प्रसङ्गेनास्मदाश्रवणेक्षुवणानि खनन्तीत्येते पराधिन इत्यर्थः ॥ १ सी मन . १ ए सी डी नस्य २ बी डी वर्णानि. ५ बी 'मिवाधा'. २९९ पारेण उ° ३ बी व वितवर्य वि. ४ ए सी ६ ए 'स्यैवं स ं. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] खदिरवणाग्रेवणस्थपीयुक्षावणकार्यवणस्थितैर्नृपैनः । प्लक्षवणगतैश्च विद्रवः किं शरवणशिवणेश्वरैश्च चक्रे ॥ ४ ॥ ४. स्पष्टम् । किं तु पीयुक्षा द्राक्षा । कार्याः शालाख्या वृक्षाः । खदिरवणं चाग्रेवणं च तत्स्थाश्च ते पीयुक्षावणकार्यवणस्थिताश्च तैर्नोस्माकं नृपैर्विद्रवः उपद्रवः । शिग्रुः शोभाञ्जनः ॥ बदरीवणवन्न कण्टकास्ते शिवने बदरीवने च नोत्र । माषवणान्वेषको न नीवारवणे माषवेनं लभेत जातु ॥५॥ ५. यथा बदरीवणे कण्टकास्तीक्ष्णाग्रा बदर्यवयवा भवन्ति तथात्रास्मिन्नोस्माकं शिवने बदरीवने चोपलक्षणत्वात्खदिरवनादिषु च ते तव कण्टकाः शत्रवो न भवन्ति । दृष्टान्तमाह । माषवणान्वेषक: पुमानीवारवणे वनव्रीहिवनमध्ये जातु कदाचिदपि न माषवनं लभेत । एवमस्माकं युष्मन्मित्राणां वनेषु युष्मच्छत्रवो न सन्त्यतः खदिरवणादिवनस्थास्मन्नृपकृतोपद्रवस्याभावादयमागमने न हेतुरित्यर्थः ।। नीवारवनोल्लसद्विदारीवनसुरदारुवनेरिकावनेषु । गिरिणद्यतिरंहसा मृगव्ये गिरिनद्यां नु सुनीरपाणमागाः ॥६॥ ६. उल्लसद्विदारीवनमुद्यच्छालपर्णीलताविशेषवनम् । सुरदारुवनं देवदारुवनम् । इरिकावनमोषधिविशेषवनम् । द्वन्दे तेष्वाधारेषु मृगव्य आखेटार्थम् । न्विति पृच्छायाम् । आगा आगतोसि । केन कृत्वा । गिरिणद्यतिरहंसा पर्वतोद्भूतापगावदतिवेगेन । कथम् । गिरिनद्यां जम्बूमाल्यां शोभनं नीरपाणं जलपानं यत्रागमने तद्यथा स्यादेवम् । १ बी सी पैन।. २ ए सी वणं ल. १ बी लाक्षा वृ. २ बी न सन्ति. ३ ए सी ताचवि. ४ बी नमौष. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.६५.] चतुर्थः सर्गः । ३०१ अस्य चागमकारणस्य परिहाराभणनान्मृगयार्थं चेत्तवात्रागमस्तदा युक्तमित्यनुमतिय॑ज्यते ॥ यदुभिर्मधुनीरपानगोष्ठयामुत दुरभाषि कषायपाणहस्तैः । वचने हि कषायपानपाणेर्न सुरापाणसुराष्ट्रकेषु दोषः ॥ ७ ॥ ___७. मधु मद्यं तदेव प्राचुर्यात्प्रसन्नत्वाच्च नीरं जलं तस्य या पानगोष्ठयापानं तस्यां पीयतेनेन पानं पात्रं कषायस्य सुरभिरसस्य प्रस्तावान्मद्यस्य पानं चषको हस्ते येषां तैर्मद्यं पिबद्भिः सद्भिरित्यर्थः । यदुभि दिवैः । उतेति प्रश्ने । दुरभाषि किं दुष्टं किंचिदुक्तम् । अर्थात्तव । तेन तवात्रागमः । एतदपि परिहरति । सुराया मद्यस्य पानं येषु ते सुरापाणा ये सुराष्ट्रका मद्यपत्वादेव कुत्सिताः सुराष्ट्रदेशस्था जनास्तेषु कषायपानपाणेः सुरापात्रकरस्य मद्यपस्येत्यर्थः । वचने दुर्वाक्ये हि स्फुटं न दोषः । मद्यपवाक्ये हि विदुषामनास्थैवेत्येतद्धेतुकं त्वदागमनं तदानुचितमित्यर्थः।। अवतीर्णम् । प्रपुष्णन् । अगृणात् ॥ व्यवधानेपि । कारणम् । रिपूणाम् । कषण । अवृक्ण । इत्यत्र “रपृवर्णात्" [१३] इत्यादिना णः ॥ रघुवर्णादिति किम् । वन ॥ एकपद इति किम् । अन्तर्नर ॥ पद इत्येतावतैवैकपदे लब्ध एकग्रहणं नियमार्थम् । एकमेव यन्नित्यं तत्र यथा स्यात् । यदेकं चानेकं च तत्र मा भूत् । नरनाथम् ॥ अनन्त्यस्येति किम् । पुष्णन् ॥ लादिवर्जनं किम् । अविरलेन । वर्जन । किरीटिनः । विकर्तन । कर्शन । रसेन ॥ गुणसम् । इत्यत्र "पूर्वपद” [६४] इत्यादिना णः ॥ अग इति किम् । ऋगयन ॥ दुर्णसैः । इत्यत्र "नसस्य" [६५] इति णः ॥ १ सी गोष्ठया त° डी गोष्टी त . २ ए सी डी किंत्रि. ३ बी ता सु. ४ बी के चेदा. ५ ए सी डीर्ण । प्र. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] .. निर्वर्ण । प्रवण । अग्रेवण । अन्तर्वण । खदिरवण । कार्यवण । आम्रवण । शरवण । इक्षुवण । प्लक्षवण । पीयुक्षावण । इत्यत्र "निष्प्रान्तर" [६६] इत्यादिना णः ॥ ओषधि । माषवण माषवनम् । नीवारवेणे नीवारवन ॥ वृक्ष । शिग्रु. वण शिग्रुवने । बदरीवण । बदरीवने इत्यत्र "द्वित्रिस्वर” [६७] इत्यादिना वा णः ॥ द्वित्रिस्वैरेति किम् । सुरदारुवन ॥ ओषधिवृक्षेभ्य इति किम् । विदारीवन ॥ अनिरिकादिभ्य इति किम् । इरिकावनेषु ॥ गिरिणदी गिरिनद्याम् । इत्यत्र "गिरिनद्यादीनाम्" [६८] इति वा णः ॥ भाव । नीरपाणम् नीरपान । करणे । कषायपाण कषायपान । इत्यत्र "पानस्य' [६९] इत्यादिना वा णः ॥ सुरापाणसुराष्ट्रकेषु । इत्यत्र “देशे" [७०] इति नित्यं णः ॥ इषुवाहणवीरवाहणाग्रण्युदधिर्जतग्रामणीः श्रितो नः । करिवाहनयुग्दुनोति वः किं दीर्घाह्नयाः शरदो यथापराह्नः ॥८॥ ८. दीर्घाण्यहानि यस्यां तस्या दीर्घायाः शरदः शरत्कालस्यापराह्रोह्रोपरो भागोत्यन्तमुपतापकत्वेन यथा दुनोति तथा जर्तग्रामणीर्ज? देशविशेषस्तत्रत्या भटा वा तत्राधिपत्वेन ग्रामणी: प्रधानो लक्षाख्यो नृपः किं वो युष्मान्दुनोति सदास्कन्दनैः पीडयति । तेन तवात्रागमः । यत इपूणां शराणां वाहणा(ना)नि शकटोष्ट्रादीनि वीराणां भटानां वाहणा(ना)नि वीरवाहणानि रथाश्वादीनि । द्वन्द्वे तेषामग्रणीनि उत्कृष्टानि तेषामनेकानामाश्रयत्वादुधिरिवोदधिस्तथा करिणो यानि वाहनानि तैर्युनक्ति संबद्धीभवति यः सः । एतेन प्रधानचतुरङ्गसैन्यबाहुल्योक्तिः । तथा नोस्मान् श्रित आश्रितोस्मदायत्त इत्यर्थः । इदमुक्तं १ ए सी डी णः । प्र. २ सी वन ।. ३ बी स्वर इ. ४ ए सी डी न । औष'. ५ बी णः । नी. ६ ए सी डी हनानि. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.३.७४.] चतुर्थः सर्गः। ३०३ स्यादयमतिबलिष्ठोस्मदाश्रितश्चेत्यस्मत्पार्शदात्मना सह लक्षं मित्रं कारयितुमिहागत इति । अस्याप्यागमकारणस्य परिहारानुक्तेयद्येतदर्थमिहागास्तदा युक्तमित्यनुमतिय॑ज्यते ॥ क्षपयितुमरिविग्रहं न आगा नु चतुर्हायनकं त्रिहायनं वा । सोरिदुरहो द्विषां न योग्यः सुचतुर्हायणकत्रिहायणाश्वः ॥९॥ ९. चतुर्हायनकं चतुर्वार्षिकं वा त्रिहायनं वा नोस्माकमरिविग्रहं शत्रुभिः सह विरोधं क्षपयितुं सख्येन शत्रूच्छेदाद्विनाशयितुम् । न्विति प्रश्ने । आगाः । परिहरति । स ग्राहारिद्विषां न योग्यो जेतुमशक्य इत्यर्थः । यतः शुभलक्षणाद्युपेतत्वेन शोभनाश्चतुर्हायणका अज्ञाताश्चतुर्वार्षिकानिहायणाश्चै तरुणा इत्यर्थः । अश्वा यस्य सः । एतेन सैन्यसंपदुक्ता । तथारीणां विनाशकत्वाइष्टमहररिदुरह्नः । अतिविक्रान्तश्चेत्यर्थः । तस्मादस्माकमरिविग्रहनिवृत्तये तवागमनं न युक्तमित्यर्थः । ग्रामणीः । अग्रणि । इत्यत्र "ग्राम" [१] इत्यादिना णः ॥ इषुवाहण । वीरवाहण । इत्यत्र “वाह्याद्वाहनस्य" [७२] इति णः ॥ वाह्यादिति किम् । करिवाहन ॥ अपराह्नः । इत्यत्र “अतोहस्य" [७३] इति णः ॥ अत इति किम् । दुरतः ॥ अब इत्यकारान्तनिर्देशादिह न स्यात् । दीर्घायाः ॥ चतुर्हायणक । त्रिहायण । इत्यत्र “चतुस्त्रेः[७४] इत्यादिना णः ॥ वयसीति किम् । चतुर्हायनकं विहायनं वारिविग्रहम् ॥ १ डी योग्यो जेतु. १ ए °तः श्वे. २ सी मित्रका. ३ सी डी श्च तुरणा. ४ सी रिकाह' ५ बी यणाश्वः । . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] अथ सागरवाहिणं जिगीषुर्नृपतिं कंचन गर्ववाहिनं त्वम् । क्षतरिपुवापेण तं स जिष्णुः शरवापेन न किं दिशः परीण्वन् ॥१०॥ १०. अथेति प्रश्ने । सागरशब्देनात्र लक्षणया सागरकूलमुच्यते । तं वहति स्वामितया प्राप्नोतीत्येवंशीलो यस्तं वेलाकूलाधिपं गर्ववाहिनमहकारिणं कंचन नृपतिं जिगीपुस्त्वमागाः । आगमकारणप्रश्नप्रस्तावात्पूर्ववृत्तादागा इति क्रियात्र संबैध्यते । एवमप्रेतनवृत्तत्रयेपि । एतदपि परिहरति । स ग्राहारिस्तं नृपतिं किं न जिष्णुरपि तु साधु जयत्येव । कीदृक्सन् । क्षता विदारिता ये रिपवस्तान्भूमौ पातनेन वपतीव अणि क्षतरिपुवापस्तेन । यद्वा । क्षतो रिपुवापो लक्षणया शत्रुसन्तानो येन तेन शरवापेन बाणसन्तानेन दिशः परीण्वन् व्याप्नुवन् । तव कथनेन प्राहारिरेव निकटस्थः सुखेनैव तव शत्रुं जयेत्तस्मादेतज्जयाय तवागमनं न युक्तमित्यर्थः ॥ क्षत्रिययूनः परीन्वतः क्ष्मां दीर्घायां शरदि त्वमस्य वोल्कः । परिपकेनाद्य नः शुभेनाः परिपक्कानि फलानि तत्कृतानि ॥ ११ ॥ ११. दीर्घायां बृहद्दिनायां शरदि शरत्काले क्षत्रिययूनो विशेपणकर्मधारये क्षत्रियतरुणस्य क्ष्मां परीन्वतः स्वामित्वेन व्याप्नुवतोस्य ग्राहारे: । वेति प्रश्नान्तरे । किमुत्कः स्नेहेनोत्कण्ठितः सन्नागाः । दीर्घायां शरदि निर्व्यापारस्य दिनेगच्छति ग्राहारेमित्रस्यै मिलनायोन्मनाः किमत्रागत इत्यर्थः । यद्येवं तर्हि । आ विस्मये । नोस्माकं परिपक्वेन परिपूर्ण निष्पन्नेन शुभेन पुण्यकर्मणा कृत्वा तत्कृतानि शुभनिष्पादितानि फलानि कार्याण्यद्य परिपक्कानि परिपूर्ण निष्पन्नानि । यदि मिलनाय तवागमनं तदातिश्रेयस्तममित्यर्थः ॥ । १ सी नावद्य. डी 'नावाद्य. १ बी बन्ध्यते. २ ए सी डी 'पेण वा ३ बी 'स्य मेल'. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.७५.] चतुर्थः सर्गः । ३०५ उत्तरपदान्त । सागरवाहिणम् गर्ववाहिनम् ॥ नागम । परीण्वन् परीन्वतः ॥ स्यादि । रिपुवापेण शरवापेन । इत्यत्र “वोत्तर' [७५] इत्यादिना वा णः ॥ अयुवपक्वाह्न इति किम् । क्षत्रिययूनः । परिपक्वानि । परिपक्केन । दीर्घाह्वयाम् ॥ द्रष्टा वृपगामिणं नु बिभ्रद्गुरुकामाणि बलानि सन्नृपाणि । तं वृत्रहणं सुराष्ट्रपाणां सन्चमुखेण न हि व्यबोधयः किम् ॥१२॥ १२. वृषगामिणं वृषभवाहनं सोमनाथं सन्नृपाणि विद्यमानराजकानि बलानि सैन्यानि विभ्रद्धारयन्सन्नु किं द्रष्टा आगा: । नन्वहं चेत्सोमनाथदर्शनायागां तत्किमिति सन्नृपाणि बलान्यबिभरमित्याशङ्कयाह । यतो गुरुमहान्कामो वृषगामिदर्शनाभिलाषो येषां तानि । सुराष्ट्रदेशे हि सोमनाथोस्ति । यद्येवं तर्हि सुराष्ट्रपाणां सुराष्ट्रदेशरक्षिणां नृपाणां वृत्रहणमिन्द्रं तं पाहारि सन्नृमुखेण प्रधानपुरुषमुखेन हि स्फुट किं न व्यबोधयः किमिति नाज्ञापयः । येनायं सौहार्दातिशयात्तवाभिगमनादिप्रतिपत्तिं कुर्यादित्यर्थः ॥ वरपक्केनेक्षुणा समं किं शङ्खोद्धारान्तर्णिनीपुरम्भः। प्रणमामि तव प्रयाणि तत्कि पहिणोमि स्म वनानि मा प्रमीणाः १३ १३. वरपक्केन वरेण सुस्वादुना पक्केन परिपूर्ण निष्पन्नेनेक्षुणेक्षुरसेन समं माधुर्यादिभिस्तुल्यं किं शङ्खोद्धारान्तः शङ्खोद्धाराख्यतीर्थमध्यादम्भो जलं निनीपुर्नेतुमिच्छुस्त्वमागाः । सुराष्ट्रेषु हि शङ्खोद्धाराख्यं तीर्थमस्ति । प्रश्नयन्नेवोत्तरमाह । किं तव प्रणमामि तथा किं प्रयाणि शङ्खोद्धारजलानयनाथै गच्छामि । तथा तदम्भः किं प्रहिणोमि प्रेषयामि । वनानि काननानि मा स्म प्रमीणा मा विनाशय । १ ए सी दृष्टा. डी दृष्ट्वा वृ. १बी पवा. २ ए सी डी कि दृष्टा. ३ ए सी डी गाः । अन्व'. ४ ए सी डी न्यवितर. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] तदैवं मैत्रीगर्भेषु बहुष्वप्यागमकारणेषूक्तेष्वमन्यमान इव राज्ञि किंचिदप्रतिवदत्यन्यकारणाभावानिरर्थकं बलभ्रमणं न युक्तमिति वदति । प्रहयानि बलान्यदुर्नयस्त्वं न मुधैव भ्रमयेः प्रनायकानि । परिणश्यति जीवितेपि मैत्री नान्तर्णश्यति नोप्रनष्टपूर्वा ॥१४॥ १४. हे राजन् प्रहयानि प्रकृष्टाश्वानि प्रनायकानि प्रकृष्टस्वामिकानि च बलानि मुधैव पूर्वोक्तनीत्या कारणाभावेन निरर्थक न भ्रमयः । नो मार्थे । नाचीचलः । यतस्त्वमदुर्नयो न्यायीत्यर्थः । न चास्माशत्रुतांशङ्कयैवं सैन्यसंरम्भेणागमनं सार्थकं यतोप्रनष्टपूर्वा पूर्वमनपगता नो युष्माकमस्माकं च । “त्यदादिः" [३. १. १२० ] इत्यमच्छेषैः । मैत्री जीविते परिणश्यत्यपि नान्तर्मध्ये हृदये नश्यति । येयन्ति दिनानि न गता साद्यापि मैत्री कथंचन नापयातीत्यर्थः ॥ कवर्ग । वृषगामिणम् । गुरुकामाणि । नृमुखेण ॥ एकस्वर । वृत्रहणम् । सन्नृपाणि । सुराष्ट्रपाणाम् । इत्यत्र “कवर्ग" [७६] इत्यादिना नित्यं णः ॥ अपक्कस्येत्येव । वरपक्केन ॥ ण । प्रणमामि ॥ अन्तर् । अन्तर्णिनीषुः ॥ हिनु । प्रहिणोमि ॥ मीना । मा प्रमीणाः ॥ आनि । प्रयाणि । इत्यत्र “अदुरुपसर्ग" [७७] इत्यादिना णः ॥ आनीत्यर्थवत एव ग्रहणादनर्थकस्य न भवति । प्रहयानि । अदुरिति किम् । अदुर्नयः ॥ येन धातुना युक्तोः प्रादयस्तमेव प्रत्युपसर्गसंज्ञा भवन्तीतीह न भवति । प्रनायकानि ॥ परिणश्यति । अन्तर्णश्यति । अत्र "नशः शः" [७८] इति णः ॥ श इति किम् । अप्रनष्टं ॥ १बी । माची. २ सी शक्यैवं. ३ बीपः । मेत्री. ४ बीर्थ ए. ५ बी ताः प्रदाय. ६ ए सी डी तिर्नशः. ७ बी नष्टः ।। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.७८.] चतुर्थः सर्गः। ___ तदेवं सामोक्त्यात्यन्तसौहार्दे ख्यापितेपि राज्ञः किमप्यप्रतिवदतो दौहार्द प्रकटयन्नेवमागमैनकारणं पृच्छति ॥ परिणिमिमीते दिशः स सैन्यैः प्रणिमयते प्रणिदायकेथ भीतान् । प्रणिदयतेरीन्प्रणिद्यतीति प्रणिधिगिरा प्रणिपद्यसे किमीवा॑म् १५ १५. स ग्राहारिः सैन्यैर्दिशः परिणिमिमीते परिमायतिबाहुल्याब्याप्नोतीत्यर्थः । तथा प्रणिदायके मैत्र्यादिना गजाश्वधनादिढौकनं स्थापनिकां वा ददति पुंसि प्रणिमयते प्रतिददाति न्यायित्वान्नगृहीत्वा तिष्ठतीत्यर्थः । अथ तथा भीतान् शरणागतान्प्रणिदयते रक्षति । तथारीन्प्रणिद्यति खण्डयतीत्येवंविधया प्रणिधिगिरा चरवाचा किमीयो ग्राहारेः सैन्यादिसंपत्तौ न्यायादिगुणसंपत्तौ च चेतसो व्यारोष प्रणिपद्यसे आश्रयसि । परसंपत्त्यसहा हि प्रायः क्षत्रियास्तेनैतं विग्रहीतुं तवेत्थमत्रागमनमित्यर्थः ॥ ___ अथ कालप्राप्तया सामदण्डगर्भोक्त्येदमप्ययुक्तमित्याह । प्रणिधयति यशो द्विषां प्रणिनन्मणिवपति प्रणिपातिषु श्रियं यः। पणिगदति नयं तदत्र मैत्री प्रणिनादीभघटे स्म मा प्रणिश्यः १६ १६. यो ग्राहारिद्विषां प्रणिनन् शत्रून् हिंसन्सन् द्विषामेव यशः प्रणिधयति पिबत्यपहरति । तथा प्रणिपातिषु नम्रेषु श्रियं राज्यादिसंपदं यः प्रणिवपति निवेशयति। एतेन निग्रहानुग्रहसामर्थ्यमुक्तम् । तथा यो नयं न्यायं च प्रणिगदति प्रकर्षेण वक्ति । तदत्र से चासावेष च तदेष तस्मिन्नेतस्मिन् ग्राहारौ प्रणिनादिनी गर्जन्तीभघटा यस्य तस्मिन्मैत्री १ सी श्रियः । १ बी मका. २ डी सि म. ३ डी तौ वा चे. ४ बी सचैष. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] मास्म प्रणिष्यो मा स्म विनीनशः । ईयाँ मा कृथा इत्यर्थः । एतेन ग्राहारिसंबन्धिषूक्तेषु गुणेष्वेकगुणोपेतमपि मित्रं दुर्लभं किं पुनरुक्तसर्वगुणोपेतम् । यदुक्तम् । पराक्रमगुणेनैकं सदी चाश्रितपोषकम् । सन्यायं संपदोपेतं मित्रं पुण्यैरवाप्यते ॥ इति । एवंविधेन चानेन चेद्विग्रहं करिष्यसि तदा त्वमेव विनङ्ग्यसीत्यपि च व्यजितम् ॥ अाजन्यभूम्युपद्रवमपि सामदण्डगर्भोक्त्याविधेयं वदन्मैत्रीमेव विधेयतया सूचयन्नाह । प्रणिशान्तरिपाविहामणिद्रे प्रणिवहति प्रणिचायि सख्यमुच्चैः । प्रणिवात्पणिदिग्धसैन्यरेणुः प्रणियास्यस्य किमुर्वरां प्रणिप्सान् १७ १७. इह ग्राहारौ प्रणिचीयते स्वयमेवेत्येवंशीलं प्रणिचाय्युपचितं सख्यं प्रस्तावात्त्वद्विषयमुच्चैरत्यर्थं प्रणिवहति धारयति सत्यस्य ग्राहारेरुर्वरां सर्वसस्याट्यभूमिं किं किमिति प्रणियासि गच्छसि । कीदक्सन् । प्रणिप्सान्भक्षयन् । तथा प्रणिवानुड्डीयमानः प्रणिदिग्ध उपचितः सैन्यरेणुर्यस्य सः । प्रभूतसैन्यैर्विनाशयन्नित्यर्थः । कीदृशीह । अप्रणिद्रे सोद्यमेत एव प्रणिशान्तरिपौ वशीभूतशत्रौ । शक्तस्य स्निग्धस्य च मित्रस्योर्वरोपद्रोतुं नोचितेत्यर्थः । अथ च । इह ग्राहारौ प्रणिशान्ते पराभूत्या गतदर्प रिपौ विषये न तु त्वत्सदृशे दर्पोद्रे प्रणिचायि सख्यं प्रणिवहति सत्यस्योर्वरां त्वं प्रणिप्सान्सन्कि प्रणियासि १ बी डी वान्प्रणि'. २ ए सी यास्यि कि'. १ ए सी °दा वा श्रि. २ डी श्रित्य पो. ३ डी दोपत्यं मि. ४ सीमेवं वि. ५ सी चैरित्य'. ६ सी ये तनुत्व'. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.३.७८.] तृतीयः सर्गः । ३०९ पश्चाद्गमिष्यसि । अत्रैव त्वं विनवयसीत्यर्थः । तस्मादुर्वराया अविनाशनेन मैत्री कुर्वित्यर्थः ॥ अथैवं भक्तिशक्त्युपदर्शनेन मैत्र्यां विधेयतयोक्तायामपि राज्ञि किमप्यवदत्यवाच्यं छलं संभाव्य पृच्छंस्तदुचितदण्डोक्त्योत्तरयंश्चाह । अथ दुर्निगदं छलं त्वमन्तर्घ्यदधास्तत्पणिजल्पितेन किं नः । मा पनिजल्पाधुना कृतान्तः प्रनिकुर्व-प्रनिखेलतु प्रनिविद् ॥१८॥ १८. अथेति प्रश्ने। दुर्निगदं पापैत्वाहुःखेन वाच्यं छलमतिप्रच्छन्नास्कन्दनादिकूटप्रयोगं त्वमन्तश्चित्ते न्यद्धा निहितवांस्तत्तदा नोस्माकं प्रणिजल्पितेन पूर्वोक्तेन किम् । निरर्थकत्वान्न किंचिदित्यर्थः । तथा मा प्रनिजल्प त्वमपि मा वादीस्त्वत्प्रतिवचनेनापि सृतमित्यर्थः । केवलं हे प्रनिद्विट् प्रकृष्टनिश्चितशत्रोधुना प्रनिकुर्वन् रणेन मृत्युरूपं शाठ्यं कुर्वन्कृतान्तो यमः प्रनिखेलतु प्रक्रीडत्वर्थात्त्वया सह । आशिषि पञ्चमी । त्वं ग्राहारिणा व्यापाद्यस्वेत्यर्थः ॥ तदेवं दण्डमुक्त्वा राज्ञेश्छलं ग्राहारेञ्जपयितुं स्वयानमाह । प्रनिचिखनिषता त्वयामदाख्यां निचक्रे प्रणिपापचत्रकोपम् । तदलं प्रनिपापचन्मनास्त्वत्मणिदिष्टं निदेष्टुमेष यामि ॥१९॥ १९. यस्मादस्मदाख्यामस्मत्कीर्ति प्रनिचिखनिषतैवमास्कन्दनेन खनितुमिच्छता त्वया प्रणिपापचदत्यर्थसंतापकः प्रकोपः प्रबलक्रोधो यत्र तद्यथा स्यादेवं पँनिचक्रे पराभूतम् । अस्माकं पराभवः कृत १ ए सी डी प्रतिखे'. २ डी प्रतिच. ३ ए सी डी प्रतिदि'. ४ सी डी प्रतिदे. १ सी र्शमेन. २ बी °परूपत्वा. ३ सी प्रतिदि. ४ बी प्रतिखें. ५ ए सी डीज्ञस्थलं. ६ ए सी °नेख. ७ डी प्रतिच. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ब्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] इत्यर्थः । तत्तस्मादलमत्यर्थ त्वत्प्रणिदिष्टं प्रत्युत्तरादानात्त्वया ज्ञापितमन्तश्छलेप्रकरणं प्रैनिदेष्टुं ग्राहारेापयितुमेषोहं यामि । “सस्सामीप्ये सद्वद्वा" [५. ४. १.] इति वर्तमाना । अधुनैवाहं यास्यामीत्यर्थः । कीडक्सन् । अभीक्ष्णं प्रणिपचसि त्वं मदीयं मनः स त्वमेवं विवक्षसे नाहं प्रणिपापच्ये किं तु स्वयमेव प्रणिपापचत् । अत्र यङ्गुबन्तस्य धात्वन्तरत्वाद् "एकधातौ” [ ३. ४. १७.] इत्यादिना कर्मकर्तर्यात्मनेपदायभावः । खयमभीक्ष्णं सन्ताप्यमानं मनो यस्य सः ॥ ङकारोपलक्षितो माङ् मा । तेन माँझेडोग्रहणम् । परिणिमिमीते । प्रणिमयते । दासंज्ञ । प्रणिदायके । ददातेर्यच्छतेर्वा रूपम् ॥ प्रणिदयते । प्रणिधति । प्रणिधि । प्रणिधयति ॥ पतादि । प्रणिपातिषु । प्रणिपद्यसे । प्रणिनादि । प्रणिगदति । प्रणिवपति । प्रणिवहति । प्रणिशान्त । प्रणिचायि । प्रणियासि । प्रणिवात्। अप्रणिद्रे । प्रणिप्सान् । मा म प्रणिष्यः। प्रणिनन् । प्रणिदिग्ध । अन्तरः खल्वपि । अन्तर्घ्यदधाः। इत्यत्र “ने दा" [७९] इत्यादिना नेणः॥अडागमस्य धात्ववयवत्वेन व्यवधायकत्वाभावादन्तर्घ्यदधा इत्यादावपि स्यात् ॥ अदुरित्येव । दुर्निगदम् ॥ प्रणिजल्पितेन प्रनिजल्प । प्रणिपापचत् प्रनिपापचन् । इत्यत्र “अकखादि [८०] इत्यादिना वा णः ॥ अकखादीति किम् । प्रैनिकुर्वन् । निखेलतु ॥ अषान्त इति किम् । प्रनिद्विद ॥ पाठ इति किम् । इह च प्रतिषेधो यथा स्यात् । प्रनिचक्रे । प्रनिचिखनिषता ॥ इह च मा भूत् । प्रणिदिष्टम् प्रनिदेष्टुम् ॥ यपि नेच्छन्त्येके । तन्मते प्रनिपापचदित्याद्येव स्यात् ॥ १ए सी डी न्तस्थल. २ बी लक'. ३ डी प्रतिदे. ४ सी माझे. ५ डी णिधि. ६ सी णिया . ७ बी डी वान् । अ. ८ ए बीत्र "नै . ९ सी डी प्रतिकु. १० सी डी प्रतिखे. ११ सी प्रणिदे. डी प्रतिदे. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.३.८०.] चतुर्थः सर्गः। ३११ __ अथैवं दूतस्य निर्भीकतया स्वभर्तृपक्षपोषिकया सप्राणयोक्त्या चित्ते रञ्जितो राजा दूतं प्रशंसन्नाह । अप्राणिणिषाविहेतिवादिन्युत्माणं पर्यण्पराणु पर्यन् ।. पर्यणतां पर्यननसीत्थं तं पर्याणिणदित्युवाच चेशः ॥२०॥ २०. इह दूतेप्राणिणिषौ जीवितुमनिच्छौ शूरत्वान्मृत्युभयरहित इत्यर्थः । अत एवोत्प्राणमुद्गतबलं यथा स्यादेवमिति वादिनि पूर्वोक्तवदनशीले सतीशो मूलराजस्तं दूतं पर्याणिणदुदजीजिवत् । जीवत्सु जीवन्तमुवाचेत्यर्थः । कथमित्याह । उ हे पर्यन् पूर्वोक्तवादित्वेन हे समन्ताज्जीवंस्तथा हे पर्यण्पराण पर्यणतां समन्ताजीवतामपि मध्ये पराणतिशयेन जीवन्दूत पर्यणतः समन्ताजीवेतां मध्ये पर्यनन्नसि त्वमेव जीवन्भवसि । ममाप्यग्र एवं वदतस्तवैव जीवनं सफलमित्यर्थः । इत्थम् । तथेति वक्ष्यमाणमुवाच । इह च पर्यन्नित्यनेन सामान्यतो जीवद्गुणविशिष्टं पर्यण्पराणियनेन च विशिष्टजीवद्गुणविशिष्टं दूतं संबोध्य पर्यणतां पर्यनन्नसीत्यनेन जीवद्गुणविशिष्टेषु त्वमेव जीवद्गुणविशिष्ट इति विधेयतयोक्तः ॥ __ इत्युवाचेत्युक्तं तदेव वृत्तविंशत्या विवक्षुः पूर्व त्रिवृत्त्या दूतस्य निर्भयवादित्वं प्रशंसन्नाह । पाणिणिनिष आत्मभपक्षं त्वं पर्यानिन आत्मनो नियोगम् । भूपरिहणनैय्वनिहाशङ्केतान्तहणनं हि दुर्हनोपि ॥ २१ ॥ - २१. इह मत्सभायां भूपरिहणनैर्भूम्यास्फालनैर्बुवन् निःशकं ब्रु१ ए बी सी च वेशः ॥ २ डी हान्तहणनं ह्याशङ्केत दु. ३ डी पि ॥ भूप'. १ ए सी भीतकया. बी भीकया. २ सी क्तवादि'. ३ बी ण् पर्यन् प. ४ °ता जीव. ५ सी वन्भ. ६ सी र्यनतां. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] वाणः सन्नित्यर्थः । त्वमात्मभर्तृपक्षं प्राणिणिनिष उदजीवयः सातिशयं चकर्थेत्यर्थः । तथात्मनो नियोगं दूतकर्म पर्यानिन उज्जीवितवान् । ननु यद्यहं भूपरिहणनैरुक्तवानेतावता कः स्वामिपक्षः को वात्मनो नियोगो मयोजीवित इति हेतुमाह । हि यस्मादिह सभायां भूपरिहणनैय्वन्दुःखेन हन्यते दुर्हनोप्यास्तां त्वादृशो दूतादिः । समर्थो महाभटादिरप्यन्तहणनं स्वचित्ते विनाशमाशङ्केत संभावयेत् । भूपरिहणनैय्वन्निहेत्युभयत्रापि योज्यम् ॥ द्वित्वे । अप्राणिणिषौ ॥ अद्वित्वे । उत्प्राणम् ॥ अन्ते । पराण ॥ परेस्तु वा द्वित्वे । पर्याणिणत् पर्यानिनः ॥ अद्वित्वे । पर्यणताम् पर्यनन् ॥ अन्ते । पर्यण् पर्यन् । इत्यन्त्र "द्वित्वेपि" [८१] इत्यादिना णः । परिपूर्वस्य तु वा ॥ ये तु द्वित्वे कृते पुनर्द्वित्वमिच्छन्ति तन्मतेपि द्वित्व इति वचनाद्वयोरेवाद्ययोर्णत्वं न तृतीयस्य । प्राणिणिषयते. प्राणिणिनिषः ॥ परिहणनैः । अन्तर्हणनम् । इत्यत्र "हनः" [८२] इति णः॥ अदुरित्येव । दुर्हनः । प्रहण्मितरां प्रहन्मि चान्तहण्मोन्तर्हन्मो भृशं प्रहण्वः । परिहन्व इति क्रुधा जिघांसौ नृपचक्रेत्र वदन्मुसौष्ठवोसि ॥२२॥ २२. अत्र मत्सभायां वदन्संस्त्वं शोभनं सौष्ठवं प्रौढिमा यस्य स सुसौष्ठवोतिप्रगल्भोसि । क । सति नृपचक्रे । किंभूते । क्रुधा त्वां जिघांसौ । कथमित्याह । अहं प्रहन्मि प्रहिनस्भि अर्थादेतं दूतम् । तथा प्रहण्मितरामतिशयेनाहं प्रहिनस्मि । तथान्तहण्मो मध्ये हिंस्मः । १ ए सी हन्मोन्त. १ सी य स. २ बी हं परिहण्मि प्र. ३ ए सी हमि प्र. ४ बी देनं दू. ५ डी तं तथा. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०२.३.८४.] चतुर्थः सर्गः। ३१३ तथा वयं भृशं शीघ्रमन्तर्हन्मः । तथावां प्रहण्वस्तथावां परिहन्वः सामस्त्येन हिंस्व इति ॥ प्रहण्वः परिहन्वः । प्रहण्मितरां प्रहन्मि । अन्तर्हण्मः अन्तर्हन्मः । इत्यत्र "वमि वा" [२] इति वा णः॥ प्रभुकार्यमिति स्फुटं प्रणिसंस्त्वमिव भयापरिनिक्षितो वदेत्कः । मदिरापरिणिंसनप्रणिन्येष्वपरानिसितपूर्वमप्रनिन्धम् ॥ २३॥ २३. भयापरिनिक्षितो भयेन नाश्लिष्टः प्रभुकार्य प्रणिक्षंश्चुम्बनिव सपक्षपातं स्थापयन्सन्नित्यर्थः। त्वमिव को दूत इत्युक्तप्रकारेण प्रभुकार्य स्फुटं प्रकटं वदेत्त्वां मुक्त्वा न कोप्येवं वक्तुं शक्त इत्यर्थः । नन्वेवंभाषिणः सुराष्ट्रेष्वनेके दूताः सन्ति तत्किमेवं राज्ञोच्यत इत्याशङ्कयाह । मदिराया यत्प्रणिसनमास्वादनं तेन प्रैणिन्येषु गर्हणीयेष्वर्थात्सौराष्ट्रेषु मध्येप्रनिन्धं स्फुटत्वेन श्लाघ्यं वचनमपरोनिसितपूर्व न चुम्बितमनुक्तपूर्वमित्यर्थः । मद्यपेषु सौराष्ट्रेष्वित्थं स्फुटं त्वयैवोक्तमित्यर्थः ॥ परिणिंसन परानिसित । प्रणिक्षन् परिनिक्षितः । प्रणिन्येषु प्रनिन्द्यम् । इत्यत्र “निंसनिक्ष" [५] इत्यादिना वा णः ॥ परिहीणमतिः प्रहीणवान्वं परियाणीयमिनः प्रयायमाणः । न स वेत्ति तव प्रयायिणां नः परियाणे परिवक्तिं चाप्रयाणिम् ॥ ___२४. अहो दूत स तवेन: स्वामी ग्राहारिः परिहीणमतिः प्रनष्टज्ञानोत एव स्वमात्मानं प्रहीणवांस्त्यक्तवाननेककुकर्मकरणेन त्यक्तखमर्याद इत्यर्थः । अत एव च प्रयायमाणोस्माभिरास्कन्धमानः सन् स्वमा १ ए सी °रि आणी. २ सी क्ति वाप्र . १ बी डी येनाना. २ सी कार्य प्र. ३ ए सी मुक्ता न. ४ ए सी प्रनिन्छ. ५ बी रानिसि. ६ बीत्र निस'. ४० Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ व्याश्रयमहाकाव्ये मूलराजः त्मानं परियाणीयमस्माभिरास्कन्दनीयं न वेत्ति न जानात्यपि तु स्वकृतैमहापन्यायहेतुभिः स स्वं परियाणीयं जानात्येवेति काका व्याख्या । अथ च प्रयायिणां प्रयाणं कुर्वतां नोस्माकम् । कर्तरि षष्टी । परियाणे प्रयाणे विषयेप्रयाणिं परिवक्ति च प्रयागंमा भूदिति शापं ब्रूते च । एवमनेकान्महापन्यायान् ग्राहारिश्चक्रेन्यच्चास्मानभिषेणयतो निषेधेतीत्यर्थः । एतेन रसेनाविरलेनागमकारणं बुभुत्सुरिति यहूतेनोक्तं तन्निरस्तम् ।। अथ सामोक्तिगर्भ सामदण्डोक्तिगर्भ च यहूतेन मैव्येव कार्यतयोक्ता तामेकादशभिर्वृत्तैरनेकापन्यायरूपापराधप्रकाशनेन निराकुवन् ग्राहारेनिग्रहणीयतामेव समर्थयति । ___ परिभुनप्रेक्षमाणचापो यत्तीर्थाभिप्रेङ्गिणां स पापः । प्रेङ्गणमरुणत्प्रमङ्गनैस्तच्छासितुमेष प्रेङ्गणीय एव ॥ २५॥ . २५. स ग्राहारिस्तीर्थाभिप्रेङ्गिणां तीर्थयायिनां यात्रिकाणां प्रेङ्गणं तीर्थेषु गमनं यद्यस्माद्धेतोररुणनिरुरोध । कीडक्सन् । पापः पापात्मा। तथा परिभुमप्रेङ्खमाणचाप: कुटिलोल्लसद्धन्वा तत्तस्मात्प्रमङ्गनैः प्रयाणैः कृत्वा शासितुं शिक्षयितुमेव ग्राहारिः प्रेङ्गणीय एवास्कन्दनीय एव न तु मित्रीकार्य इत्यर्थः । प्रेङ्खमाणेत्यत्र शीले शानः ॥ परिहीण । ग्रहीणवान् । परियाणे । प्रयायमाणः । प्रयायिणाम् । अप्रयाणिम् । परियाणीयम् । इत्यत्र "खरात्" [८५] इति गः ॥ स्वरादिति किम् । परिभुनै ॥ प्रेङ्गणम् । प्रेडमीण । प्रेङ्गिणाम् । प्रेङ्गणीयः । इत्यत्र "नाम्यादेरेव ने" [८६] इति णः । नाम्यादेरित्येव । प्रमङ्गनैः ॥ १ सी भि: संस्वं. २ ए सी डी का वाख्या ।। ३ ए सी रि आणे. ४ बी सी एकम'. ५डी धयती'. ६ सी न मिव स. ७ ए निरांकु. ८ सी ङ्गिणा ती. ९ डी णवा. १० ए सी रिआणी. ११ ए सी डी मः । प्रे. १२ ए सी °माणे । प्रे. ----... रियो Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.८७.] चतुर्थः सर्गः। ३१५ परिकोपणमप्रकोपनोथाहःप्रवपणदुष्प्रेहणं सहे चेत् । अघनिरवश्यं प्रगोपणीया कथमिव तर्हि मया प्रगोपनीया ॥२६॥ २६. अथेति दूतप्रश्ने। दूत पृच्छामि त्वां चेद्यद्यहमप्रकोपनः क्षमाशील: संस्तं ग्राहारिं सहे न निगृह्णामीत्यर्थः । कीदृशं सन्तम् । परिकोर्पणं धार्मिकमप्यसहिष्णुं तथांहस: पापस्य वञ्चनादेः प्रवपति नन्दाद्यने प्रोप्यतेनेनेति करणेनटि वा प्रवपण उत्पादक इत्यर्थः । यो दुष्प्रेहणो दुष्टचेष्टो दुष्टाभिप्रायो वा तम् । तर्हि तदावश्यं प्रगोपणीया पृथ्वीपत्वेन रक्षणीयावनिः पृथ्वी कथमिव । इवशब्दो वाक्यालंकारे। केन प्रकारेण मया प्रगोपनीया रक्षणीया। न कथमपि । तस्मान्न सह इत्यर्थः । अत्र घप्रगोपणीयेत्यस्यानुवाद्यत्वेन प्रयोगः। प्रगोपनीयेत्यस्य तु विधेयत्वेन ॥ परिकोपणम् अप्रकोपनः । प्रगोपीया प्रगोपनीया । इत्यत्र “व्यञ्जमादेः" [८७] इत्यादिना वा णः ॥ व्यञ्जनादेरिति किम् । दुष्प्रेहणम् । नाम्युपान्त्यादिति किम् । प्रवपण ॥ परिमापणमाः प्रयापणीयः परिमापनपरियापनीयविमः। सत्पथपरिमापिणां नृपेणानिर्विण्णं परिमापिना हि भाव्यम् ॥२७॥ २७. मींग्श हिंसायामिति मींग्शो हिंसार्थत्वाद्धन्त्यर्थाश्चेति चुरादिपाठात् "चुरादिभ्यो णिच्" [३.४.८५.] इति णिचि “मिग्मीगोखलचलि" [४.२.८] इत्यात्वे पावनटि च परिमापनं हिंसां परियापनीयाः प्रापणीया विप्रा येन स ग्राहारिः । आ इति कोपे । परिमापणं हिंसां प्रयापणीयः प्रापणीयो मया ने तु मित्रीकार्य इत्यर्थः । हि यस्माद्धेतोनूपेण राज्ञा १ ए सी नोथाहप्र. १ बी न । हे दू. २ ए बी सी पनं. ३ बी मिकानप्य. ४ डी नन्द्याद्य. ५ सी °भियो'. ६ ए सी डी °णीयाः प्र. ७ ए सी किम् ॥ परि'. ८ ए सी लवलि". ९ ए सी पणहिं. १० ए ननु मि०.. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] सत्पथपरिमापिणां धर्मोच्छेदकानामन्यायिनाम् । कर्मणि षष्ठी । अनिर्विण्णमनिवेद यथा स्यादेवं परिमापिना हिंसनशीलेन भाव्यम् । राजरक्षितानि हि तपोवनानि स्युः ॥ ३१६ निर्विण्णवदाप्रवेपमानामप्यानाप्रख्यानमप्रभानम् । अमुना परिभूयमानमुच्चैः कतमब्रह्मपुरं दुनोति नास्मान् ॥ २८ ॥ २ २८. कतमद्ब्रह्मपुरं ब्राह्मणस्थानमस्मानुचैर्न दुनोति न पीडयति । कीहक्सत् । अमुना प्राहारिणा परिभूयमानमत एवाप्रवेपमानं भयेन समन्तात्कम्पमानम् । तथाप्रध्यानमनुपचितं क्षीणमित्यर्थः । अत एवाविद्यमानं प्रख्यानं प्रसिद्धिर्यस्य तन्निर्नामकमित्यर्थः । ततो विशेषणकर्मधारयः । अत एव निर्विण्णवद्धर्मकर्मसु निर्विण्णमत एव चाविद्य-, मानं प्रभानं प्रभा यस्य तन्निस्तेजस्कम् । तस्मात्कानेर्ने मैत्रीति भावः । यदपि ब्रह्मपुरं ज्ञानाधारः शरीरं तदपि पापै रोगादिना वा परिभूयमानमत एवाप्रवेपमानाप्राप्यानाप्रख्यानं निर्विण्णवदप्रभानं च सत्कतमन्न दुनोति किं तु सर्वमपि ज्ञानोच्छेदशङ्कया दुःखयतीत्युक्तिः ॥ अप्रपवनमस्य चान्यदारमगमनदुष्परिकामिनः कुकर्म । प्रभवति परिभाव्यमानमंप्रख्यापनमप्रप्यायनं भृशं नः ॥ २९ ॥ २९. कुकर्म परस्त्रीगमनादि । अस्य प्राहारेरन्यदारप्रगमनदुष्परिकामिनः परस्त्रीसेवनविषयदुष्टाभिलाषशीलस्य सतः प्रभवतीष्टे । कीदृशम् । अप्रपवनमिहलोक परलोकविरुद्धत्वेनापवित्रमत एव भृशमत्यर्थ परिभाव्यमानमस्माभिश्चिन्त्यमानं सन्नः । कर्तरि षष्ठी । अस्माभिरप्रख्यापनमप्रप्यायनं च । चो भिन्नक्रमेत्र योज्यः । प्रख्यातेः प्रप्या 1 १ ए सी डी मंत्र प्र . • १ ए बी सी डी 'पिणा हिं. २ बी 'ति । अ. ३ सी 'भाय ४ बी 'न मै. ५ एसी त्रीरिति ६ ए सी डी 'त ईष्टे प्रभवति । की. ७ सी डी 'यन व चो.. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.८७.] चतुर्थः सर्गः । येश्च णिगि भावेनटि नत्रा बहुव्रीहिः । लोकमध्ये प्रकाश्यमेतत्कारकनिग्रहेणावर्धनीयं चेत्यर्थः । कुकर्मायत्तोयं तदनेन सह का मे मैत्रीत्यर्थः ॥ अमुना परिवेपनेन भग्नः परिपावनपरिभापनः प्रभासः । दुष्प्रख्याणप्रकामनेनान्तर्हननत्वं सुप्रगम्यमानः ॥ ३० ॥ ३०. परिपावनः पापमलापनेतृत्वात्पावित्र्यहेतुर्य: परिभापनो लक्ष्म्यादिसंपादनेन शोभापादनहेतुः स प्रभासस्तीर्थममुना प्राहारिणा भग्नः । यतोन्तर्हननत्वमन्तर्हन्यते स्मिन्नित्यन्तर्हननो देशो यत्र मध्यभागे लोको हन्यते तद्भावं मध्यभागे लोकघातमित्यर्थः । सुप्रगम्यमानः प्राप्यमाणः । कीदृशेन सता । दुष्प्रख्याणे दुष्टख्यातौ प्रकामनमभिलाषो यस्य तेनात एव परिवेप्यते जगद्येन तेने परिवेपनेन प्रच्छन्नधाटीप्रदानादिनाखिललोककम्पकेन । मध्येलोकं नता प्रभासदेशोमुनोपद्रुतोतोमुना सहालं मैत्र्येत्यर्थः ॥ अन्तरयनतां जहाँ सुराष्ट्रा येनान्तरयणवारिणा जनानाम् । सोन्तर्हणनात्कथं ह्युपेक्ष्यः सर्पिष्पानप्रावनद्धपिण्डः ॥ ३१ ॥ ३१. जनानामन्तरयणं मध्ये गमनं प्रच्छन्नधाटीप्रदानादिना वारयतीत्येवंशीलो यस्तेनान्तरर्येणवारिणा सता येन कृत्वा सुराष्ट्रादेशो - न्तरयनतामन्तर्मध्ये सुस्थत्वेनाय्यते गम्यते यैस्यां सान्तरयनी तद्भावं जहौ तत्याज । येन कृत्वा दुर्गमाभूदित्यर्थः । स प्राहारिः सर्पिष्पानेन प्रावनद्धं पीनं पिण्डमङ्गं यस्य सोतिबलिष्ठ इत्यर्थः । हि स्फुटमन्तईणनात्सुराष्ट्रामध्ये वधात्सकाशात्कथमुपेक्ष्यो मोच्यः सुराष्ट्रामध्ये वध्य एवेत्यर्थः ॥ १ बी 'म. 'यनवा ५ बी ध्ये स्वस्थ.. ३१७ २ डीन प्र ३ ए सी मैत्रेय'. ४ ए सी डी ६ ए सी 'स्यां सांरतय. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] प्राणद्धाञ्छुष्कगोमयेण प्रघ्नन्यो नरिनति यायजूकान् । तस्य नरीनृत्यमानखड्गस्याक्षुभ्नन्मनसः किमन्यदागः॥ ३२॥ ३२. यायजूकानृत्विजः प्रणिघ्नन्सन्यो ग्राहारिरिनति संतोषेणाभीक्ष्णं नृत्यति । कीदृशान्सतः । शुष्कगोमयेणाग्नौ हवनार्थं गृहीतेन करीषेण प्राणद्धान् । एतेन साक्षाद्यागकारितोक्तिः । क्रियमाणे हि यागे वैवस्वतं कालमुद्दिश्य कारीषहोमः क्रियते । तस्य ग्राहारेरक्षुभ्नन्मनसो निर्भीकस्यात एव नरीनृत्यमानखड्गस्य यायजूकवधाय पोस्फूर्यमाणासे: किमन्यदागोपराधः । इदमेव महदाग इत्यर्थः ॥ परिमाणम् परिमापन । परिमापिणाम् परिमापिना । प्रयापणीयः परियापनीये । इत्यत्र "गर्वा" [८] इति वा णः॥ ' निर्विण्णम् । अत्र "निर्विण्णः" [८९] इति णत्वं निपात्यते ॥ कश्चित्तु निर्विण्णवदिति चेच्छति ॥ अप्रख्यानम् । अप्रपवनम्। परिभूयमानम् । अप्रभानम् । दुष्परिकामिनः । प्रगमन । अप्रप्यान । अप्रवेपमान ॥ ण्यन्तेभ्योपि । अप्रख्यापनम् । परिपावन। . परिभाव्यमानम् । परिभापनः । प्रकामनेन । सुप्रगम्यमानः। अप्रप्यायनम् । परिवेपनेन । इत्यत्र "न ख्यापूरभूभा” [९०] इत्यादिना न णः ॥ ख्यातेर्णत्वमिति कश्चित् । दुष्प्रख्याण ॥ . अन्तरयनताम् । अन्तर्हननत्वम् । इत्यत्र "देशे” [९१] इत्यादिना न णः॥ देश इति किम् । अन्तरयण । अन्तर्हणनात् ॥ . ........... सर्पिष्पान । इत्यत्र “पोत्पदे" [९२] इति न णः ॥ १ सी नविन'. २ बी थे ग्रही'. ३ बी पण प. ४ ए बी सी डी पनम् । प. ५ ए सी डी नीयः । परियापनीयः । इ... ६ बी “णे वा" इ. ७ बी पात्यम् । क'. ८ सीन। आप्र. ९ सी वनम् । प. १० बी ख्याणः ॥ अ. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.३.९९.] चतुर्थः सर्गः । ३१९ प्रावनद्ध । इत्यत्र “पदेन्तरे' [९३] इत्यादिना न णः । अनाडीति किम् । प्राणद्धाम् ॥ अतद्धित इति किम् । शुष्कगोमयेण ॥ प्रघ्नन्,। इत्यत्र "हनो घि' [९४] इति न णः ॥ .. नरीनृत्यमान । नरिनति । इत्यत्र "नृतेर्यङि" [९५] इति न णः ॥ अक्षुश्नत् । इत्यत्र “शुभ्नादीनाम्" [१६] इति न णः ॥ गर्भनमत्वष्कणासहैणीष्ट्यूताः ष्टयायंस्तमुज्जयन्तम् । यो विस्रमकल्पयत्स नः किं मित्रं स्यान्म्लेच्छीकृपीटकृप्तः ॥३३॥ ३३. यो ग्राहारिस्तं महातीर्थराजतया प्रसिद्धमुजयन्तं वित्रं दुर्गन्धमकल्पयच्चके । यतो गर्भेण नमन्त्यः प्रवीभवन्त्योत एव ध्वष्कणासहा गमनाक्षमा या एण्यो मृग्यस्ताभिः प्ठयूतानि प्रहारवशानिरस्तानि यान्यस्राणि रक्तानि तैः कृत्वा तं ष्टयायन्संबन्धयन्स ग्राहारिम्र्लेच्छयाः कृपीटमुदरं तस्मात्कृप्तो जात इवोक्तरीत्यातिनिकृष्टाखेटेककारित्वात्किरातादिनीचजातितुल्यो नोस्माकं क्षत्रियाणां मित्रं किं स्यान्नैवेत्यर्थः ॥ नमत् । इत्यत्र “पाढे धातु” [९७] इत्यादिना णस्य नः ॥ सहा । इत्यत्र ":" [९८] इत्यादिना पस्य सः ॥ ष्टयादिवर्जनं किम् । ष्ट्यायन् । ठयूत । ष्वष्कण॥ • कृप्तः । अकल्पयत् । इत्यत्र "कर ललम्” [९९] इत्यादिना ऋरयोललौ॥ अकृपीटादिष्विति किम् । पीट ॥ प्लत्ययमानान्पलायमानान्यो गिलति निजेगिल्यते परस्तम् । गिरति तमन्योस्य मात्स्यनीतौ भुजपलिघः परिघत्वभाकथं नः॥३४ ३४. नोस्माकं भुजपलिघो भुजार्गला कथं परिघत्वभाक् स्यात् । १ सी थं न ॥ १ सी 'नो यि" इ. २ बी टका'. ३ बी " स' इ. ४ बी कुप्त । अ. ५ ए डी पीटः॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] कस्यां सत्याम् । अस्य ग्राहारेर्मात्स्यनीतौ स्वजातावन्योन्यं गिलनरूपे मात्स्ये न्याये । कथमित्याह । प्लत्ययमानान्भयेन व्यावर्तमानान्पलाय. मानांश्च नश्यतो वणिगादीन्यो गिलति संहरति तं परोन्यो निजेगिल्यते गर्हितं गिलति तं च निजेगिलकमन्यो गिरतीति । एतन्मात्स्यनीतिनिवारणाभावान्मभुजार्गला कर्मकारी न स्यादेवेत्यर्थः । तस्माकानेन मैत्रीति ॥ पलियोगविदां गुरुं धरित्रीपल्यत परियोगिणं य आर्दीत् । लुफिडमृफिडजास्तर्फिलस्त्रीरघपर्यङ्कममुं सहे जवाक्षम् ॥ ३५ ॥ ३५. यो ग्राहारिः परियोगिणं महाध्यानिनमुफिडमृषिभेदमार्दीदपीडयत् । कीदृशम् । परि समन्ताद्योगं ध्यानं विदन्ति ये तेषां योगिनां गुरुं शिक्षकत्वादाचार्यम् । एतेनातिज्ञानितोक्ता । तथा धरित्र्येव पल्यङ्कः खट्वा यस्य तं भूमिशायिनमित्यर्थः । एतेन क्रियावत्तोक्तिः । तथा ऋफिडजानृफिडपुत्रांस्तथा ऋफिलस्त्रीफिलभार्याश्च य आर्दीत् । तममुं ग्राहारिं सहे क्षमे न सह इति काका व्याख्या। कीदृशम्। अघस्य महर्षित्रीभ्रूणघातादिपापस्य पर्यङ्कमिवाघपर्यकं पापविश्रामस्थानमित्यर्थः । तथा. कोपात्सदा मद्यपानाद्वा जपापुष्पवदक्षिणी यस्य तं रक्ताक्षम् ॥ तदेवमस्य सर्वथा मैत्र्ययोग्यत्वर्मुक्त्वा मैत्र्यकरणेधुना कृतान्तः प्रेनिकुर्वन्यनिखेलतु प्रेनिद्विडित्यनेन यहूतो राज्ञो मृत्युरूपं दण्डमुक्तवांस्तं स्वासियष्टेः सामोपवर्णनद्वारेण ग्राहारेरेवाह । १ डी डां. १ ए सी मासे न्या. डी मात्स्यना. २ ए सी गिल्ये ग. ३ बी डी गिलती . ४ ए सी गिणः म. बी गिनं म. ५ ए बी सी स्त्री ऋफि. ६ डी स्यर्षि. ७ ए सी मर्षि. ८ ए सी डी मुक्तम् । मै. ९ बी सी डी प्रतिकु. १० ए बी सी डी प्रतिखे'. ११ बी प्रतिदि. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.३.१०५.] चतुर्थः सर्गः । ३२१ रिपुरक्तजपार्चितासियष्टिविजयिन्यष्ट दिशः प्रकाशयित्री । प्रजिघत्सति तं स्वसेव मृत्योर्म्यायस्यद्य मुहिन्नसौ लसन्ती ॥३६॥ ३६. असौ प्रत्यक्षा करतलस्था लसन्ती स्फुरन्त्यसियष्टिरद्य तं पाहारि प्रजिघत्सति भक्षयितुमिच्छति । कीटक्सती । विजयिनी विजयहेतुरत एव सुहिन सुष्टु हिंसिकार्थादरीणामत एव रिपुरक्तजपार्चिता शत्रुरुधिरमेवारक्तत्वाजपापुष्पं तेनार्चितात एव चाष्ट दिशः प्रकाशयित्री तदावरणरूपशत्रूच्छेदेन प्रकेटयित्री । अतश्च यमादपि पूर्व ग्राहारौ मरणरूपस्य यमकार्यस्य चिकीर्षुत्वादतिकृष्णरौद्रत्वाञ्चोप्रेक्ष्यते । मृत्योर्यमस्य ज्यायसी बृहती स्वसेव भगिनीव । अनेन चासियष्टेम॒त्युस्वसृत्वारोपेण मृत्योरपि स्वादेशकारित्वं व्यजितम् । तेन चाधुना कृतान्त इत्यादि यहूतेनोक्तं तदपास्तम् ॥ पलायमानाम् । प्लत्ययौनान् । इत्यत्र "उपसर्गस्यायौ" [२००] इति लः ॥ निजेगिल्यते । इत्यन्न “यो यङि" [१०१] इति लः ॥ गिलति । गिरति । इत्यत्र “न वा खरे" [२०२] इति वा लः ॥ पलिंघः परिघु । पल्यङ्कम् पर्यम् । पलियोग परियोगिणम् । इयंत्र "परेतियोगे" [१०३] इति वा लः ॥ लफिडम् ऋफिडजान् । ऋफिल ऋफिडजान् । इत्यत्र "ऋफिड' [१०४] इत्यादिना ऋत लुत् डस्य च लो वा ॥ जवा जपा । इत्यन्न "जपादीनां पो वः" [२०५] इति वा पस्य वः ॥ सप्तमः पादः समर्थितः ॥ १ ए बी सी जयन्य. १ ए सी रि जि. २ ए सी कयि'. ३ ए सी सृग्त्वारो'. ४ ए सी मान् ।. ५ वी गिरीत्य'. ६ ए सी डी लिघ । प°. ७ बी रिघः । १. ८ ए सी त्यप. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] विजयिनी । प्रकाशयित्री । इत्यत्र "स्त्रियां नृतः [२] इत्यादिना डीः ॥ स्त्रियामिति किम् । अष्ट दिशः ॥ नान्तायाः संख्याया युष्मदस्मदोरिवालिजत्वादत एव नलोपे “आत्" [१८] इत्यावपि न स्यात् ॥ अस्वस्रादेरिति किम् । स्वसा ॥ उदित् । ज्यायसी ॥ ऋदित् । लसन्ती । इत्यत्र "अधातु" [२] इत्यादिना डीः ॥ अधास्विति किम् । सुहिन् ॥ तदेवं ग्राहारिविषयं वधाभिलाषमुक्त्वा वधे कृते यद्भावि फलं तदाशीर्वादपूर्व वृत्तद्वयेनाह। प्राची तमसामवावरी भास्करधीवर्यतिशर्वरी यथा हि । अद्य तथा तेन बह्ववावा मदृश्वर्यनवावरी प्रजासु ॥ ३७॥ ३७. यथा प्राची पूर्वदिग् हि स्फुटं तमसां तिमिराणामवावरी ओणतेर्वनि “वन्याङ् पञ्चमैस्य" [ ४.२. ६५.] इत्यात्वे च अपनायिका स्यात् । कीदृक्सती । अतिशर्वरी रात्रिमतिकान्तात एव भास्करधीवरी रविं बिभ्रती तथा तेन ग्राहारिणा कृत्वा बहवोवावानोपनायकाः क्षयकारका यस्याः सा प्रजाद्य सांप्रतं मदृश्वरी मां दृष्टवती मत्स्वामिका सत्यस्तु । कीदृशी । न विद्यन्तेवावानो यस्यां सानवावरी क्षय. कारकरहिता ॥ अचिरेण भवत्वसौ सुराष्ट्रा धृतधीवर्यथवा विनष्टधीवा । गायन्द्विपदश्चतुष्पदीर्वा कुण्डोनीरिह पातु चारणौषः ॥३८॥ ३८. असौ सुराष्ट्राचिरेण शीघ्रं भवतु । कीदृक् । ध्यायति कुकर्मेति १ सी पा चा. १ सी सती । ३. २ ए सी मस्यात्वे. ३ ए बावो य. सी वाचो य. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.२.] चतुर्थः सर्गः । ३२३ "ध्याप्योर्धीपी वा" इति औणादिके क्वनिपि धीवा चण्डालो धीवेव कुकर्मकारित्वाद्धीवा ग्राहारिधृतो गृहीतो बन्दौ क्षिप्तो धीवा यस्यां सा धृतधीवरी । अथवा विनष्टो मृतो धीवा यस्यां सा च । तथेह सुराष्ट्रायां चारणौधो मङ्गलपाठकभेदसमूहो द्वौ पादौ यासां ता द्विपद एवं चतुष्पदीर्वा राजादिवर्णनोपेतांश्छन्दोभेदान् गोवधकस्य ग्राहारेर्वधेन निर्भयत्वाद्गायन्सन् कुण्डमिवोधो यासां ता: कुण्डोनी राजादिभ्यो लब्धा धेनू: पातु दुग्धपानाय रक्षतु ॥ तदेवमस्य वधे फलान्युक्त्वा वधहेतौ रणकरणे ग्राहारिमनुमन्यमानो दूतमाह । शतकुण्डोधा रथोस्वशिश्वीर्योक्तास्याश्वतरीस्त्रिहाणीस्ताः। मुक्खा मदिरां त्रिहायनां सोश्वाः सन्नाहयतु क्षणाविदाम्नीः॥३९।। ३९. अस्य ग्राहारे रथस्ताः पराक्रमित्वादिगुणैः सर्वत्र प्रसिद्धा अश्वतरीसरीर्योक्ता रणायात्मना सह संबन्धयितास्तु । कीदृक् । शतेन कुण्डोनीभिः क्रीतः शतकुण्डोधा । एतेन महार्घत्वोक्तिः । कीदृशीरश्वतरी: । त्रयो हायना वर्षाणि यासां ता यौवनस्था इत्यर्थः। एवंभूता अपि सापत्या अबला एव स्युरित्याह । अविद्यमानाः शिशवो बालका यासां ता अशिश्वीः । तथा द्वे दाम्नी कण्ठाभरणमाले यासां ता अश्वाः क्षणात्सन्नाहयतु । किं कृत्वा त्रिहायनां त्रिवार्षिकीम् । एतेन परिपक्रिमत्वोक्तिः । मदिरां मुक्त्वात्यन्तं रणोत्कण्ठया त्यक्त्वा । एवं च स्वयं ग्राहारेः सैन्यस्य च रणोद्यमेनुमतिरुक्ता । अनया चानुमत्याथ दुर्निगदं छलं त्वमन्तर्घ्यदा इति यहूतेनोक्तं तन्निरस्तम् ॥ १ ए सी योक्तस्या. १ सी ध्यापो धी पी. २ ए प्यो थी पी. ३ ए सी यस्ता प. ४ सी डी क्रीता श. ५ बी हाय॑त्वो'. ६ बी शिश्वी । त°. ७ ए सी डी क्रिमोक्तिः ।। ८ ए बी सी डी धादिति. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये ३२४ प्राची । इत्यत्र " अञ्चः " [३] इति ङीः ॥ ण | ओ | अवावरी ॥ स्वर । धा । धीवरी ॥ अघोष | मदृश्वरी । इत्य ‘“णस्वर” [४] इत्यादिना ङीवनोन्तस्य रश्च ॥ विहितविशेषणं किम् । शृणातीति शर्वरी । स्वराद्विहितत्वादुणे कृते घोषवतो यथा स्यात् ॥ [ मूलराजः ] अनवावरी बह्नवावा । धृतधीवरी विनष्टधीवा । इत्यत्र "वा बहुव्रीहेः " [५] इति वा ङीर्वनोन्तस्य रश्च ॥ बहु मेरुदृश्वरी बहु मेरुदृश्वेति स्वयमभ्यूह्यम् ॥ चतुष्पदीः द्विपदः । इत्यत्र "वा पादः " [६] इति वा ङीः ॥ कुण्डोनीः । इत्यत्र “ऊनः” [७] इति ङीः ॥ समासान्तविधावूनित्यादेशे नान्तत्वादेव ङीः सिध्यति किं तु शतेन कुण्डोनीभिः क्रीत इतीकणि तल्लुपि च शतकुण्डोनिति प्रकृतेः सौ शतकुण्डोदिति स्यात् शतकुण्डोधेति चेष्यते । अशिश्वीः । इत्यत्र “अशिशोः " [८] इति ङीः ॥ त्रिहायणीः । इत्यत्र "संख्यादेः " [९] इत्यादिना ङीः ॥ अत्र "घतुखेः ०" [२.३.७४.] इत्यादिना णः ॥ वयसीति किम् । विहायनां मदिराम् ॥ द्विदानीः । इत्यत्र “दाम्नः " [१०] इति ङीः ॥ अथ त्वत्प्रणिदिष्टं प्रनिदेष्टुमेष यामीति यहूतेन स्वयानमुक्तं तद्रणार्थ ससैन्यस्य सन्नद्धस्य ग्राहारे: स्वदेश सीमन्यागमनं चानुमन्यमान आह । व्रज शतराज्ञः सहस्रराज्ञीरधिराज्ञीबहुसाम्यधीश्वरः । पृतनाः कृतवर्मणोतिसानो व्युद्य युधे सीमानमेखिनस्ते ॥ ४० ॥ ४०. हे दूत व्रज ग्राहारिसमीपम् । तथा ते तवेन: स्वामी ग्राहा१ एसी राचैः ।. १ सी स्व. २ ए सी ङीर्वानो ३ बी शृणोती ४ बी व्रीहिः” इ. ५ ए सी 'ति ङी । ६ ए सी ण्डोधिति. ७ ए सी डी ति । त्रि. ८ डी प्रतिदे". Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.१४.] चतुर्थः सर्गः । ३२५ रियुधे युद्धार्थ सीमानं स्वदेशमर्यादाभूमिमेत्वागच्छतु । किं कृत्वा । पृतनाश्चमूर्युह्य । किंभूताः । अधिका राजानो यस्यां साधिराज्ञी नाम ग्रामो बहूनि सामानि यस्यां सा बहुसाम्नी नाम पुरी । द्वन्द्वे तयोरधीश्वरास्तदाद्यैर्नृपैः कृत्वा। शतं राजानो यासु सहस्रं राजानो यासु वा ताः । अत एवातिसाम्नः सामोपायमतिक्रान्ता युद्धायैव सदोद्यता इत्यर्थः। अत एव च कृतवर्मणः संनद्धाः ॥ इति स विसृष्टो वनान्तसीमास्वतिपर्वासु कोन्वजाः शताज्याम् । द्विपदस्त्रिपदा ऋचो महर्षीन्पठतो गोपजुषो जगाम पश्यन् ॥४१॥ ४१. इत्येवंप्रकारेण विसृष्टो राज्ञा मुत्कलित: स दूतो जगाम प्राहारिं प्राप । कीहक्सन् । अतिपर्वासु मूलराजागमनानन्देनातिशयितोत्सवासु वनान्तसीमासु काननपर्यन्तसीमभूमिषु वर्तमानान्महर्षीन्मारणेच्छया क्रूरं पश्यन् । वृको नु यथारण्यश्वा शताज्यां शतस्याजानां समाहारे वर्तमाना अजाश्छागीारणेच्छया पश्यति । कीदृशान् । गोपजुषो गोकुलस्थांस्तथा द्वौ पादौ यासां ता द्विपद एवं त्रिपदाच ऋचो मत्रविशेषान्पठतः ॥ सहस्रराज्ञीः शतराज्ञः । इत्यत्र “अनो वा" [११] इति वा ङीः ॥ अधिराज्ञी । बहुसाम्नी । इत्यत्र "नाम्नि" [१२] इति ङीः ॥ कृतवर्मणः । इत्यत्र “नोपान्त्यवतः" [१३] इति न डीः ॥ सीमानम् । इत्यत्र "मनः" [१४] इति न डीः ॥ अन्निन्नस्सन्ग्रहणान्यर्थवतानर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति । तेन सामातिक्रान्ता अतिसाम्न इत्यादावपि डीप्रतिषेधः स्यात् ॥ १ ए सी डी दारुचो. १ ए सी नृपौ कृ. २ ए सी हश्र रा. ३ ए सी इर्थः ।. ४ ए सी डी श्च रुचो . ५ ए सी हश्ररा . ६ डी अनिनस्म'. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ) सीमासु | अतिपर्वासु । इत्यत्र " ताभ्यां वाबू डित्" [१५] इति वा डिदापू ॥ पक्षे पूर्वाभ्यां प्रतिषेधाद्ङीर्न भवति । सीमानम् । कृतवर्मणः ॥ उपान्त्यलोपिनस्तु बहुव्रीहेर्डीरपि स्यात् । शतराज्ञः । सहस्रराज्ञीः ॥ अजा । इत्यत्र “अजादेः " [ १६ ] इत्याप् ॥ अजादेरित्यावृत्या षष्ठीसंबन्धः किम् | अजादिसंबन्धिन्यामेव स्त्रियामभिधेयायां यथा स्यात् । तेनेह न स्यात् । शताज्याम् । अत्र समाहारः समासार्थः स्त्री । नासावजशब्दसंबन्धिनी ॥ द्विपदः । त्रिपदों ऋचः । इत्यत्र " ऋचि” [१७] इत्यादिना पाच्छब्दस्याबन्तस्य पात्पदे निपात्येते ॥ अशृणोदय ताः कथाः प्रभोपा भीमा भूरिनदा नदीर्नु तस्मात् । ग्राहरिपुः प्रकोपतः से बन्दीगौरीरौत्सीस्तापसीः प्रपश्यन् ॥४२॥ ४२. अथ दूतप्राप्त्यनन्तरं स ग्राहारिस्तस्माद्दूतात्ता मूलराजोक्ता: कथा उक्तीरशृणोत् । कीदृक्सन् । औत्सीरुत्सस्यैर्षेरपत्यानि स्त्री: प्रकोपत एताः पापिष्ठा अस्य विग्रहस्य हेतव इति रुषा प्रपश्यन् । कीदृशीः। वन्दीर्हठापहृतास्तथा गौरी: स्वर्णवर्णास्तथा तपास्त्यासां " ज्योत्स्त्रादिभ्योण् ७. २. ३४. ] इत्यणि तापसीस्तपंस्विनी: । कीद्देशीः कथाः । भीमा दण्डोपायार्थत्वाद्रौद्रा अत एव भूरिः प्रभूतो नद आहतिप्रत्याहतिरूपः शब्दो यासु ताः । अत एव च प्रभां माहात्म्यं पिबन्ति परिभी कोक्त्या प्रसन्ते यास्ताः नदीन्विति । यथा ग्राहरि - पुग्रहाणां जलचरजन्तूनां रिपुर्धीवरो भूरिनदाः प्रभूतवहाः प्रभूतशब्दा "" १ ए बी सी 'भापो भी २ डी से बन्दी, १ बी डी 'वा डि. २ बी 'त् । शित ३ ए सी हरा° ४ ए सी ध कि.५ ए सी डी दारुच् । ३ ६ ए सी डी ' रुचि . ७ बी स् ऋषेर. ८ ए सी नदी हठा' ९ ए सी 'प्रश्निनी १० ए सी डी 'शी: तथा. ११ बी 'भावको.. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २,४.१७. ] चतुर्थः सर्गः । ३२७ वात एव भीमा नदीः शृणोति मत्स्यग्रहणाभिलाषेण तासु जिगमिषुत्वाल्लोकादाकर्णयति ॥ उत्क्षिमुः सोरिकम्पकारी शैलेय्या भुजया गदां शिलेयीम् । सौपर्णेयी सहोदरौजाः शाक्तीकी: पौस्त्रीदिदेश सेनाः ॥ ४३ ॥ ४३. स ग्राहारिः शाक्तीकीः शक्तिप्रहरणा: पौंस्त्री: पुंसां पौरुषगुणोपेतानां नराणामिमाः सेना आदिदेश रणारम्भायाज्ञापयत् । कीदृक् । सुपर्ण्यः । केचित्वेनमजादिषु पठन्ति । तन्मते सुपर्णाया वापत्यं स्त्री सौपर्णेय सुमतिनाम्नी सगरपत्नी तस्याः सहोदरो गरुडस्तद्वदोजो बलं यस्य सः । अत एव शिलायास्तुल्या " शिलाया एयच्च ” [ ७.१. ११२] इति चकारादेय शैलेयी तया शिलादृढया भुजया कृत्वा गदां मुद्गरविशेषमुत्क्षिप्रुरुल्लालयन् । कीदृशीम् । शिलेयीं शिलाभिस्तुल्याम् । अत्रेय । अत एवारिकम्पकारीम् ॥ ग्राहारेरादेशे सेना यथामिलंस्तथादशभिर्वृत्तैराह । सेनान्योस्याज्ञया तदैयुस्त्यक्त्वा स्त्रैणीराक्षिकीः सलीलाः । औशनसाश्राथ पाणिनीयाः सहसा चारुवलित्रया वधूटीः ॥ ४४ ॥ ४४. तदास्य प्राहारेराज्ञया सेनान्यो दण्डनायकाः सेनायुक्ता नृपा वैयुर्ग्राहारिसमीप आगताः । किं कृत्वा । वधूटीर्नवोढाः पत्नीराक्षिकीरक्षैर्दीव्यन्तीः सतीः सहसाकस्मात् त्यक्त्वा । कीदृशीः । चारु मनोज्ञं वलित्रयमुदर मध्यवर्ति रेखात्रयमुपलक्षणत्वाच्छेषाङ्गोपाङ्गानि च यासां ताः । अथ तथा पाणिनीयाः पाणिनिप्रोक्तमहाशब्दानुशासनज्ञाः । एनेन विद्वत्तोक्तिः । तथौशनसाश्च शुक्रप्रोक्तनीतिशास्त्रज्ञाच । एतेन १ बी सां पुरु २ बीच | अ° ३ बी 'राजाया. ४ सी 'टीवो'. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ढ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] लोकव्यवहारज्ञतोक्ता । तथा लीला शृङ्गारचेष्टाविशेषः । सह तया । उपलक्षणत्वाद्विलासादिभिश्च स्वाभाविकालंकारैर्वर्तन्ते यास्ताः । तथा स्त्रीभिः संस्कृताः सखीभिर्मण्डनालंकारादिभिः शोभिताः । “प्राग्वतः" [ ६.१. २५ ] इत्यादिना नजि स्त्रैणीश्च । तदेवं विशेषणसूचितैरालम्बनविभावोद्दीपनविभावैः शृङ्गारस्य प्रकर्षप्राप्तत्वाद्वधूनामत्यन्तं दुस्त्यजानामपि दण्डनायकैः सहसा त्यागेन स्वस्वामिनि ग्राहारावुत्कृष्टा भक्तिः सेनायुक्तनृपैस्तु ग्राहारेः प्रचण्डाज्ञता सूचिता । सेनान्य इत्यनेनाभिधेया: सेनायुक्ता नृपास्तु त एवात्र ज्ञेया येमित्रा ग्राहारिणा निर्जिय स्वसेवकीकृतास्तेषामेव ह्यादेशाकरणेतिभीरुत्वादेवमागमनसंभवः । एवं चात्रामित्रबलागमनमुक्तम् ॥ वृद्धाकृतमङ्गलास्त्रिशल्यीभृत ईयुः सुभंटाः श्रितास्तुरङ्गीः। द्विद्रोणीः षड्नुषास्त्रिपण्याः शतकम्बल्या याचितास्त्रिबिस्ताः ॥४५॥ ४५. सुभटा ईयुरागताः । किंभूताः सन्तः । वृद्धाभि: स्थविरस्त्रीभिः कृतं मङ्गलं चन्दनवर्धनादि येषां ते । तथातिबलिष्ठत्वात्रिशल्यीभृतस्त्रीणि शल्यास्त्राणि धारयन्तः । तथा तुरङ्गीः श्रिता आरूढाः । कीदृशीः। द्रोणश्चतुराढकी धान्यमानभेदः । अत्र चोपचाराद्रोणस्थं धान्यमुच्यते । द्वाभ्यां द्रोणाभ्यां क्रीता द्विद्रोणीः । षविषैर्वृषभैः क्रीता: षडषाः । त्रिभिः पणैः कार्षापणैरनेकस्वर्णमाषसमुदायरूपैर्मानभेदैः क्रीता: " पणपाद ” [६. ४. १४७ ] इत्यादिना ये त्रिपण्यास्तथा कम्बलोस्य स्यात् “ कम्बलान्नाम्नि" [ ७.१. ३४ ] इति ये कम्बल्यमूर्णापलशतम् । शतेन कम्बल्येन क्रीताः । तथाचित: कर्पासादिक्रया १ ए बी सी भटाश्रि. २ ए सी पण्या श°. १ ए सी डी वियोगः । स. २ ए सी °ण्डलालं'. ३ बी णि शिल्पास्त्रा'. ४ सी यतः । त?. ५ सी द्रोणी प. Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ [है०२.४.२०.] चतुर्थः सर्गः । णकानां दश भाराः । द्वाभ्यामाचिताभ्यां क्रीता व्याचिताः । तथा विस्तः स्वर्णस्य षोडश माषाः । त्रिभिविस्तैः क्रीताः । एषु पञ्चस्वपि "मूल्यैः क्रीतः" [६.४.४९.] इतीकणो "अनान्यद्विप्लब्ण६.४.१४०] इति लुप् । एषु च विशेषणेषु तत्तद्धान्यादिक्रीतानेकभेदतुरङ्गयपेक्षया समुच्चयार्थाश्चा अध्याहार्याः। यत्रैतानि धान्यादीनि दुर्लभानि तत्तद्देशोद्भवत्वस्य विवक्षितत्वेन तत्तद्देशापेक्षया द्विद्रोण्यादिना बहुमूल्येन क्रीतत्वादतिश्रेष्ठा इत्यर्थः । पूर्ववृत्ते मित्रबलमुक्तमप्रेतनवृत्तेषु चाटविकादीनि चत्वारि बलानि वैक्ष्यन्त इत्युद्धरितन्यायादनेन भृतकबलागमनमुक्तम् ॥ कथाः। भीमाः । ताः । इत्यत्र "आत्" [१८] इत्याप् ॥ गौरीः । वन्दीः । नदीः । इत्यत्र "गौरादिभ्यो मुख्याद्डीः" [१९] इति डीः ॥ मुख्यादिति किम् । भूरिनदाः ॥ अण् । तापसीः । कम्पकारीम् ॥ अन् । औत्सीः ॥ एयण् । सौपर्णेयी ॥ ए. यच् । शिलेयीम् ॥ एयञ् । शैलेय्या । निरनुबन्धनिर्देशः सामान्यग्रहणार्थः ॥ इकण् । आक्षिकी: ॥ नञ् । खैणीः ॥ स्नञ् । पौंस्त्रीः ॥ टित् । शाक्तीकीः । इत्यत्र "अणजेये" [२०] इत्यादिना डीः ॥ अणादीनां षष्टीनिर्देशेनाकारस्य विशेषणं किम् । पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम् । तदधीयत इत्यण् । तस्य "प्रोतात्" [६.२.१२९.] इति लोपे पाणिनीया वधूटीरिति ङीर्यथा मा भूत् ॥ प्रत्यासत्या तैरेवाणादिभिः स्त्रिया विशेषणं किम् । उशनसा प्रोक्ता नीतिरौश. नसी तामधीयत इत्यण् । तस्य "प्रोक्तात्" [६.२.१२९] इति लोपे "ड्यादेः" [२.४.९५] इत्यादिना डीलोपे कीर्यथा न स्यादौनसा वधूटीः । अस्त्यत्राणाकारो न तु तदभिधेया नीतिलक्षणा स्त्री प्रत्ययारे । यदभिधेया तु वधूटीलक्षणा स्त्री प्रत्ययाहाँ न तस्याकारोस्तीति । तथा चारुवलित्रया वधूटीः ॥ १बी द्विः प्लु. २ बी वक्षन्त'. ३ सी पसी। क. ४ ए सी अझ् । अङ् । औ. ५ बी पोस्लीम् । टि. ६ ए सी क्तं प्राणि'. ७ बी शसना व. ८ ए सी डी णो अका. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] वधूटीः । इत्यत्र “वयसि" [२१] इत्यादिना डीः ॥ अनन्त्य इति किम् । वृद्धा ॥ त्रिशल्यी । इत्यत्र “द्विगो:' [२२] इत्यादिना डीः ॥ द्विद्रोणीः । इत्यत्र “परिमाणात्" [२३] इत्यादिना डीः ॥ परिमाणादिति किम् । षड्डषाः॥तद्धितलुंकीति किम् ।त्रिपण्याः॥ अवि(बि)स्ताचितकम्बल्यादिति किम् । त्रिवि(बि)स्ताः । ब्याचिताः । शतकम्बल्याः॥ मेदा बद्धोत्कचास्त्रिकाण्ड्या नवकाण्ड्या दशकाण्डया च रज्वा। क्षेत्रभुवः फालया द्विकाण्डाः षट्पुरुषीः परिखा विलङ्घय चेयुः॥४६ ४६. मेदा भिल्ला एयुः । किं कृत्वा । द्विकाण्डा द्विशरप्रमाणाः क्षेत्रभुवः क्षेत्रभूमी: षट्पुरुषीः षट्पुरुषप्रमाणाः परिखाश्च फालया विलङ्घयोत्प्लुत्य । कीदृशाः सन्तः । नवकाण्ड्या दशौण्डया च नवभिर्दशभिर्वा काण्डैः शरैः क्रीतया रज्वा कृत्वा बद्धा उदूर्ध्व कचा यैस्ते । कीदृश्या । त्रीणि काण्डानि शराः प्रमाणं यस्याः । “ प्रमाणान्मात्रट्" [७.१. १३९ ] इति मात्रट् । “द्विगोः संशये च” [७.१. १४३] इति लुप् । तया त्रिकाण्ड्या । अनेनाटविकबलागमनमुक्तम् । जातिरलंकारः ॥ द्विपुरुषया भान्स कुन्तयट्या रेवत्यामतिरोहिणीशशत्रुः । नील्यावन्त्याथ नीलयोचैः पैठ्या नील्यादिर्नु लक्ष आगात् ॥४७॥ ४७. स प्रसिद्धो लक्षो नाम राजागात् । कीदृशः । द्विपुरु१ वी 'दोक्तचा'. २ सी डी त्याथ'. ३ ए सी पल्यानी . ४ ए सी 'द्रि नु ल'. १ सी °णादि . २ बी लुगीति. ३ बी चिता । श. ४ ए सी काण्ड्यां च. ५ ए सी डी भिर्वा. ६ ए सी मातृत् ।। ७ ए सी लक्ष्यो ना. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.२७.] चतुर्थः सर्गः। ३३१ षया द्विपुरुषप्रमाणया कुन्तयष्टया कृत्वा भान् शोभमानः । तथा यथादिर्नाल्यौषधिविशेषेणोपलक्षितः स्यादेवं नीलया नीलवर्णयोच्चैरतिशयितया पट्या वस्त्रेणाथ तथा नील्या हरितयावन्त्याश्वयोपलक्षितोत एवातिरोहिणीशशत्रू राहुमतिक्रान्तः । कागादित्याह । रेवत्यां रेवत्या चन्द्रयुक्तया युक्ते काले द्वादशे चन्द्र इत्यर्थः । लक्षो हि नाम राशिनाश्विनीजातत्वान्मेषराशिजातो रेवत्यां च चन्द्रो मीनराशौ स्यादनेन चास्यावैश्यंभावी मृत्युः सूचितः । एतेन मित्रबलागमोक्तिः ॥ त्रिकोण्ड्या । इत्यत्र 'काण्डात्" [२४] इत्यादिना ङीः ॥ प्रमाणादिति किम् । दशकाण्डया ॥ अप्रमाणादपीच्छन्त्यन्ये । नवकाण्ड्या ॥ अक्षेत्र इति किम् । द्विकाण्डाः क्षेत्रभुवः ॥ षट्पुरुषीः । द्विपुरुषया । इत्यत्र “पुरुषाद्वा" [२५] इति वा ङीः ॥ रेवत्याम् । रोहिणी । इत्यत्र "रेवत' [२६] इत्यादिना ङीः ॥ नील्यावन्त्या । नील्या । इत्यत्र “नीलोत्" [२७] इत्यादिना डीः ॥ प्रा. ण्योषध्योरिति किम् । नीलया पट्या ॥ नीलीनीलामबद्धलूनीबद्धविलूनामामकीषु जाताः। . एयुस्तस्यात्मजाः स्वभूभ्यो ज्ञात्वा समयं केवलीविदो नु ॥४८॥ ४८. प्रबद्धा चासौ लूना च प्रबद्धलूनी । बद्धा चासौ विलूना च बद्धविलूना । नील्यादिनामका ग्राहारेर्भार्यास्तासु जातास्तस्य ग्राहारेरात्मजाः पुत्राः केवलीविदो नु केवल्यो ज्ञानशास्त्राणि तज्ज्ञा इव समय रणकालं ज्ञात्वा स्वभूभ्यः स्वदेशेभ्य एयुः । एतेन मौलबलागमनोक्तिः ॥ १ ए सी दो नुः ॥ १ बी सी द्रिनील्यौ०. २ ए सी वस्यं भा. ३ ए सी डी काण्डा। इ०. ४ ए बी सी डी वत्या । नी. ५ए सी डी लादि. ६ सी मय र. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] आर्यकृती भेषजीसुमङ्गल्यपरीपापी भागधेय्य आयुः । सैकोत्तरतः समं समान्या भक्त्या केवलयास्य पीठदेव्यः ॥ ४९ ॥ ३३२ ४९. समान्या समानीसंज्ञया पीठदेव्या समं सहार्य कृत्यादिनान्यः पीठदेव्यो योगिन्योस्य ग्राहारेः संबन्धिन्या केवलयैकया भक्त्या हेतुना सैकोत्तरत एवंनाम्नोब्धिस्थादद्विविशेषादायुः । अनेनापि मौलबागमनोक्तिः । यतो वेलाकूलाधिपतित्वात्तस्य क्रमागतास्ताः सांनिध्यकारिण्यो देव्यः ॥ नीली नीला | प्रबद्धलूनी बद्धविलूना । इत्यत्र "क्तोच्च नाम्नि वा " [२८] इति वा ङीः ॥ 1 केवली । मामकीषु । भागधेय्यः । पापी । अपरी । समान्या । आर्यकृती | सुमङ्गली | भेषजी । इत्यत्र " केवल " [२९] इत्यादिना ङीः ॥ नाम्नीति किम् । केवलया भक्त्या || भाजीकाली कुशीरदायां नागीभिः कुम्भस्थलीभिरुच्चाम् । अधिकटिकवरीजुषोध्यरोहन गुणगोणीं गजतां निषादिनोपि ५० ५०. अधिकटिकवरीजुषः श्रोणीं यावत्प्रलम्बमानवेणीका निपादिनोपि मौलबलसंबन्धिनो हस्त्यारोहाचे गजतां गजौघमध्यारोहन् । कीदृशीम् | भाजी कशाकस्तद्वत्कालीं कृष्णां तथा कुश्ययोविकारस्तद्वन्निबिडास्तीक्ष्णाः प्रलम्बाश्च ये रदा दन्तास्तैरस्यामुत्कृष्टां तथा नागीभिः स्थूलाभिः कुम्भस्थलीभिरुच्चामुन्नतां तथा गुणानां शौर्यादीनां गोणीमिव गुणगोणीं गुणस्थानमित्यर्थः । अस्य च वृत्तस्य पूर्वार्धे नागी १ ए सी णीं जगतां. १ एसी ध्यकरि . २ ए सी काना ३ ए सी 'श्व जगतां ४ बी पक्क: शा . ५ सी गोणी गु. ६ बी डी नागीका . सी नागीकाली कु .. - Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.४.२९.] चतुर्थः सर्गः। ३३३ काली कुशीरदाग्रामालमदभाजीभृत्कटस्थलीकामिति पाठान्तरं प्रायो गतार्थम् । केवलमलिप्रधानो यो मदः स एव भाजी तभृत्कटस्थली यस्यास्ताम् ॥ कामुकि भाजाभु कान्तिकुण्डे गोणे लावण्याम्बुकुण्डि नागे । काले कामस्थले खरन्तामित्यूचुहिणीभटाः प्रयातुम् ॥ ५१ ॥ ५१. प्रयातुं प्रयाणाय भटा मौलबलसत्कयोधा गृहिणी: प्रोचुः । कथमित्याह । हे कामुकि रिरंसो तथा भाजा नाम काचिद्देवी तस्या इव भ्रुर्धर्यस्याः । भ्रशब्द उकारान्तोत्र भ्रूवाचकः । अत “उतो प्राणिनश्च" [२.४.७३] इत्यादिनोङ् । हे भाजाभ्रु भाजाभ्रूसंज्ञे स्त्रि । तथा कुण्डते दहति सपत्नीम् । अच् । कुण्डा । कान्या तेजसा कुण्डा हे कान्तिकुण्डे । तथा हे गोणे गोणाख्ये स्त्रि । तथा हे लावण्याम्बुकुण्डि लवणिमजलपात्रि । तथा हे नागे नागाख्ये स्त्रि । तथा हे कामस्थले स्मरास्थानि । तथा हे काले कालाख्ये खि भवत्यस्त्वरन्तां शीघ्रीभवन्त्विति ॥ जानपदी वृत्तिमास्थिता सा पात्री जानपदा सुरां प्रजापि । सकुशा रणकामुकाक्षिभासा शोण्या कबरा पाप रोषशोणा ॥५२॥ ५२. जानपदी जनपदे देशे भवाम् "उत्सादेर" [६.१.१९] इत्यञ् । वृत्तिं पाशुपाल्यकर्षणरूपामास्थितां सा सुराष्ट्रादेशवास्तव्या प्रजापि । आस्तां राजसेवावृत्ती राजलोकः । आभीरजातिकर्षकादिलोकोपि ग्रा १ ए ले कलङ्कामि . २ ए सी डी पदी सु. १ ए डी कटिस्थ . २ बी मृतकट'. ३ ए सी भ्रुभ्रर्य'. ४ बी तो उ. ५ ए सी अतो'. ६ डी था हे ना. ७ सी हे कामकाला. ८ डी काले. ९ ए मकाला. १० बीता श्रिता सा. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] हारिसमीपं प्राप । कीदृक्सती । जानपदां सुराष्ट्रादेशोद्भवां सुरां मद्यं पात्री पिवन्त्यत एवं शोण्या रक्तयाक्षिभासा नेत्रज्योतिषा कैवरा कर्बुरा । तथा रणकामुका युद्धेच्छुरत एव रोपशोणा क्रोधादारतात एव च कुशायोमिश्रं काष्ठमयं शस्त्रं सह तया वर्तते या सा । एतेन श्रेणिबलागमनोक्तिः । श्रेणिबलं तत्रादिकम् ॥ भाजी | गोणीम् । नागीभिः । स्थलीभिः । कुण्डि । कालीम् । कुशी । कामुकि । अधिकटि । कबरी । इत्यन्त्र " भाजगोण" [३०] इत्यादिना ङीः ॥ अन्यत्र | भाजा । गोणे । नागे । स्थले । कुण्डे । काले । सकुशा । कामुका । कबरा ॥ कटा । इति स्वयं ज्ञेयम् ॥ जनपदशब्दादपि वृत्ताविच्छत्यन्यः । जानपदीं वृत्तिम् । वृत्तेरन्यत्र जानपदां सुराम् ॥ शोण्या शोणा । इत्यत्र " न वा शोणादेः " [३१] इति वा ङीः ॥ हयखुरहतिजन्मधूलिरुच्चैरथधूलीनिचिता मदाम्बुवृष्ट्या | ज्योनिं गजपद्धतेः सुगन्ध्या परितः प्राप समस्तपद्धतीषु ॥ ५३ ॥ ५३. षडिधेपि प्राहारिसैन्ये मिलति रथधूलीनिचिता स्यन्दनरेणुभिः सान्द्रीकृतोच्चैरतिशयिता हयखुरहतिजन्मधूलिरश्वशफघातोत्था रेणुः समस्तपद्धतीषु सर्वमार्गेषु परितो ज्यानिं क्षयं प्राप । कया कृत्वा गजपद्धतेर्हस्तिपङ्क्तेः सक्तया सुगन्ध्या नवोद्भेदात्सुरभ्या मदाम्बुवृष्ट्या । अम्बुवृष्ट्या हि धूलि : शाम्यति ।। १ सी 'निविश म २ ए सी ज्यानं ग १ ए सी हारीस .. ५ सी शोण्या । ३° नभोद्धे. २ सी व शाण्या. ३ बी कर्बु. ६ बी मिलिते र. ७ सी 'तोत्रे. ४ ए 'त्र जन. ८ ए सी डी Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.३४.] चतुर्थः सर्गः। ३३५ धूली धूलिः । इत्यत्र “इतोक्त्यर्थात्” [३२] इति वा डीः ॥ अस्यादिति किम् । हति । वृष्टया । ज्यानिम् ॥ अन्ये त्वञ्चति-अति-अंहति-शकटि-शास्त्रिशारि-तारि-अहि-कपि-मुनि-रात्रि-यष्टिभ्यः कटिश्रोण्यादिप्राण्यङ्गवाचिभ्यः क्तिवर्जितकृदन्तेभ्यश्चेकारान्तेभ्य इच्छन्ति नान्येभ्यस्तन्मते सुगन्ध्येत्यादिषु डीन स्यात् । क्तिमात्रवर्जनाच्च ज्यानिप्रभृतिषु न निषेधः॥ पद्धतीषु पद्धतेः । इत्यत्र “पद्धतेः" [३३] इति वा डीः ॥ तदेवं षडिधबलमीलनमुक्त्वा ग्राहारेः स्वयं प्रस्थानं वृत्तपञ्चकेनाह। ग्राहरिपुः शक्तिमान्स पव्या शक्त्या शक्तीभृन्निभः प्रतस्थे । पटुभिः प्रपिपासुभिर्नु वायुं खरुभिः पाण्डुभिरश्वधोरणीभिः॥५४॥ ५४. स ग्राहरिपुरश्वधोरणीभिः कृत्वा प्रतस्थे रणाय प्राचालीत् । कीहक्सन् । शक्तिमान् । शक्तयः प्रभुमत्रोत्साहपूर्वास्तिस्रः । शक्तिः सामर्थ्य वा । तद्वान् । तथा पटव्या तीक्ष्णया शयास्त्रभेदेन कृत्वा शक्तीभृन्निभः कार्तिकेयतुल्यः । किंभूताभिः । खरुभिः खैरुः स्यादश्वहरयोर्दर्पदन्तसितेषु च । इति वचनात्खरुर्दर्पस्तद्युक्तोप्युपचारादुच्यते । ततो दर्पवतीभिरत एव पटुभिर्दक्षाभिरत एव चातिवेगवत्त्वेनोत्प्रेक्ष्यते । वायुं वातं प्रपिपासुभिर्नु वेगावातानुव्रजनेन वातं पातुमिच्छन्तीभिरिव वातवद्वेगेन गच्छन्तीभिरित्यर्थः । तथा पाण्डुभिः श्वेताभिः ॥ शक्ती शक्त्या । इत्यत्र "शक्तेः शस्त्रे" [३४] इति वा डीः ॥ शस्त्र इति किम् । शक्तिमान् ॥ __ १ ए सी त्या सक्ती'. २ ए सी वायु ख’. १ सी धूलि . २ बी टि शस्त्रि. सी टि-शाकटि-शा. ३ ए सी गन्धेत्या. ४ बी सी देव घ. ५ ए बी सी शक्ति सा. ६ बी त्या अभे". ७ ए खरुः श्वा. सी डी खरं इवा. ८ डी द्वातोनु. ९ वी तद्वे. १० एसी डीम् । भक्ति. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] पदव्या पटुभिः । इत्यत्र "स्वराद्” [३५] इत्यादिना वा ङीः । स्वरादिति किम् । पाण्डुभिः ॥ गुणादिति किम् । प्रपिपासुभिः ॥ अखरोरिति किम् । खरुभिः ॥ श्येनीरेनीर्हयीरुपेयुर्भरणीहरिणी रोहिणीश्च योधाः । श्येतामेतां तनौ दधाना भरतां हरितां रोहितां च माठिम् ॥५५॥ २ ४ ५५. श्येतां श्वेतामेतां कर्बुरां भरतां धूसरां पाटलां वा हरितां शुकाभां रोहितां चारक्तां च माठिं कवचं तेनौ दधाना योधा हयीस्तुरङ्गीरुपेयुरारोहेन्नित्यर्थः । कीदृशीः । श्येतामेतां भरतां हरिती रोहितां च माठिं दधाना धारयन्तीः । तथा श्येनीरेनीर्भरणीर्हरिणी रोहिणीश्च ॥ श्येनीः श्येताम् । एनीः एताम् । हरिणीः हरिताम् । भैरणीः भरताम् । रोहिणी : रोहिताम् । इत्यत्र " श्येतैत" [३६] इत्यादिना वा ङीस्तस्य नश्च ॥ असिताप्यनसिक्न्यभान्नभः श्रीरपलिक्न्यः पलितो चमूसुकेश्यः । खचरसुकेशानिमेषकृद्भिः सैन्योत्खातरजोभिरुच्छलद्भिः ॥ ५६ ॥ 3 ५६. असितापि कृष्णापि नभः श्रीरनसिक्नी श्वेताभात् । तथा चमू संबन्धिन्यः शोभनकेशा नायिका अपलिक्न्योपि । पूर्वोपरत्रापि योज्यः । अपलिता अपि पलिता इव पलिता अभुः । कैः कृत्वा । सैम्योत्खातरजोभिः । किंभूतैः । उच्छलद्भिरत एव युद्धदर्शनायागतानां खचरसुकेशानां विद्याधरस्त्रीणां निमेषकृद्भिरक्षिषु पातादक्षिन - मीलनाकारिभिः ॥ १० १ ए सी णीरो. २ ए सी डी ताश्रयम् ३ डी 'न्योत्खोत . १ डी ततो द° २ ए सी ङ्गीपे ३ बी 'हयन्नि ४ बी 'शीः । श्वेता . ५ ए सी 'तां लोहि. ६ ए सी डी भरिणीः ।. ७ डी भरिता ८ ए सी बन्ध्यन्य ९ ए सी जोपि । किं . १० सी 'स्त्रीणा नि. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.३६. ] चतुर्थः सर्गः । ३३७ सहकेशाः सर्वतोप्यकेशा अपशोफा विकफा मयाः सुवेगाः । आरुरुहुर्विद्यमान केशा स्तोयदृतिक्रोडाः स्त्रियो भटानाम् ॥ ५७ ॥ ५७. विद्यमानकेशाः स्त्रियो रणे भटानां जलपानाय तोयदृतिर्जलभृतखल्ले: कोडेङ्के यासां तास्तथा सत्यो मयाः सण्ढीर्वेसर्वा रुरुहुः । कीदृशीः । सर्वतः सहकेशा अलूनवालास्तथा सर्वतोकेशा अपि लूनकेशाश्च । तथापशोफा विगतश्वयथस्तथा विकफा विगतश्लेष्मकाः । एतैन नीरोगतोक्तिः । अत एव सुवेगाः ॥ दीर्घमुखायां गजाः पदव्यां छायामूर्ध्वमुखीमधोमुखां वा । स्वामप्यसहिष्णवो वृता दृक्ष्वविकेश्यापव्यर्क्षकेशया च ॥ ५८ ॥ ५८. दीर्घं मुखं प्रारम्भो यस्यां तस्यां पदव्यां बहुगम्यत्वात्प्रलम्बे मार्ग इत्यर्थः । गजा दृक्षु नेत्रेष्वावृता आच्छादिताः । कया । पट्या वाट्या वाजवन्या । कीदृश्या । अवेर्मेषस्य केशा यस्यां तयोर्णामय्येत्यर्थः । यद्वा । अविगतकेशया सकेशयेत्यर्थः । तथा ऋक्षाणां भालूकानां केशा यस्यां तया च ऋक्षवालनिर्मितया च । यत: स्वामपि च्छायां प्रतिबिम्बमसहिष्णवो मदान्धत्वात्प्रतिद्विपोयमित्याशङ्कयाक्षमणशीलाः । कीदृशीम् । ऊर्ध्वमुखीं नद्यादिजल ऊर्ध्ववकामधोमुखां वा आतपे चाधोवां वा ॥ अथैवं प्रस्थितस्य ग्राहारे: पराजयसूचकान्यरिष्टानि वृत्तद्वादशकेनाह ॥ नाभिमुखास्तुङ्गनासिका कानासिक्यो लम्बोष्ठ्य उन्नतोष्ठाः । लम्बोदर्यः कृशोदराः काजङ्घाः पृथुजेङ्क्षयोन्वयुः पिशाच्यः ॥५९॥ ५९. स्पष्टम् । किं तु । नाभिरिव मुखं यासां ता नाभिमुखा अति१ ए बी सी डी मूर्द्धमु. २ ए बी सी 'जोन्व'. १ ए सी 'लः । कोडे'. २ ए सी 'ते नी. ३ ए सी नेत्र्येष्वा ४ बीणां भल्लू. ५ ए बी सी डी ऊर्द्धमु. ६ ए बी सी डी ऊर्द्धव. ७ सी पे वाधो. ૪૨ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ढ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः लघुमुखा इत्यर्थः । कानासिक्यः कुत्सितनांसाः । पिशाच्यो दुष्टव्यन्तरीभेदाः । अन्वयुाहारिमनुजग्मुः । पिशाच्यो हि नृमांसप्रियत्वादनुयान्त्यो महारिष्टाय स्युरिति ग्राहारेरिदं महारिष्टमभूदित्यर्थः । एवमप्यरिष्टभावना स्वयं ज्ञेया ॥ चेलुईलदन्त्य ओतुदन्ताः करिकर्णाः कपिकर्ण्य उक्षशृङ्गयः । मृगशृङ्गा रासभाङ्गय उष्ट्राङ्गा राक्षस्योसक्पिपासयाजौ ॥ ६० ॥ ६०. स्पष्टम् । किं तु । चेलुयाहारिसैन्येन सह चलिताः॥ अहिगाव्यगगात्र ऋश्यकण्ठोत्कण्ठीहलचिबुकातिदीर्घजिह्वी । कृशगण्डादीर्घजिह्वऋक्षीमुख्योतुमुखाः प्रेत्य आविरासन् ॥ ६१॥ ६१. स्पष्टम् । किं तु । अगगात्रा गिरिमहाकाया । अत्र "ऋलति हस्त्रो वा" [१.२२] इति ह्रस्वः। कृशगण्डा चुटितगल्ला प्रेत्यो दुष्टव्यन्तरीभेदाः॥ सूर्पनखा दात्रनख्यभात्कालमुखा वज्रणखा सुताश्च तत्र । ऋजुपुच्छा दीर्घपुच्छ्यथान्या मणिपुच्छी विषपुच्छयपि त्वराभाक् ॥६२॥ ६२. तत्र तासु पूर्वोक्तासु प्रेतीषु मध्ये सूर्पनखा दात्रनखी च प्रेती नृपलरक्तेच्छया त्वराभाक्सत्यभात् । तथा कालमुखावणखाख्ये प्रेत्यौ तत्सुताश्च ऋजुपुच्छादयः प्रेत्यस्त्वराभाजः सत्योभान् । अथापी समुच्चये । मणिः पुच्छेस्या मणिपुच्छी । विषं पुच्छेस्या विषपुच्छी ॥ १ बी ऋश्य०. २ ए सी डी. जिह्वीः । अ. १ ए बी सीडी नाशाः। पि. २ ए सी डी गलाः । प्रे'. ३ ए सीर्वोक्ता प्रे. ही र्वोक्तप्रे'. ४ ए सी °ध्ये शूर्प. ५ डी खाख्यौ प्रे. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.३८.] चतुर्थः सर्गः । ३३९ नभसि कबरपुच्छय आशुचियः शरपुच्छयो न्वहिभिःसुपर्णपक्ष्यः गोपुच्छी तां च शशंसुः समरक्रीती राजिनंन्दनेन ॥ ६३ ॥ ६३. नभसि व्योम्नि वर्तमानाश्चियः शम्बलीति प्रसिद्धाः शकुनयो गोरिव पुच्छं यस्यास्तां गोपुच्छी गोपुच्छाकृतिपृष्ठानीका तां ग्राहारिसत्कां च शशंसुः । कीदृशीम् । राजिनन्दनेन मूलराजेन काशु शीघ्रं समरेण क्रीयते स्म या ताम् । एतां चमू मूलराजो रणेन हैनिष्यतीति रक्तपिशितेच्छासूचकेन नभोवस्थानेन सूचयामासुरित्यर्थः । किंर्भूताः । कबरं कर्बुरं कुटिलं वा पुच्छं यासा तास्तथाहिभिर्भक्षणार्थ गृहीतैः सर्पः कृत्वा शरः पुच्छे यास ता: शरपुच्छयो नु । तथा सुपर्णो गरुडस्तत्पक्षाविव स्वर्णवर्णों पक्षौ यासां ताः ॥ अपलिमयः पलिताः । अनसिन्यः [क्की] असिता । इत्यत्र "क्तः” [३०] इत्यादिना वा ङीस्तस्य कादेशश्च ॥ सुकेश्यः सुकेशा। इत्यत्र "असहनञ्'[३८] इत्यादिना वा डीः ॥ असहनविद्यमानपूर्वपदादिति किम् । सहकेशाः । अकेशाः । विद्यमानकेशाः ॥ अक्रोडादिभ्य इति किम् । तोयदृतिकोडाः ॥ अविकारोद्वं मूर्त प्राणिस्थं स्वाङ्गमुच्यते । च्युतं च प्राणिनस्तत्तन्निभं च प्रतिमादिषु ॥ इति च स्वाङ्गम् ॥ अविकार इति किम् । अपशोफाः ॥ अद्वमिति किम् विकफाः ॥ मूर्तमिति किम् । सुवेगाः ॥ प्राणिस्थमिति किम् । दीर्घमुखायां १ ए बी सी डी क्रीन्ती रा. २ ए सी नन्दिने ॥. १ ए सी गोच्छीं. २ सी डी तिपुच्छानी ३ डी हरिष्य. ४ ए सी डी भूता क. ५ ए सी डी °सां ता श. ६ बी नयः । अप. ७ ए सी डी वा ङीः । सु. ८ सी केश्यत्य. ९ सी क्रोडा ॥. १० ए सी च्युचं त प्रा. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] पदव्याम् ॥ च्युतं च प्राणिनस्तदिति किमर्थम् । अप्राणिस्थादपि पूर्वोक्ताद्यथा स्यात् । अविश्या । ऋक्षकेशयापट्या ॥ तन्निभं च प्रतिमादिष्विति किमर्थम् । । प्राणिसदृशादपि पूर्वोक्ताद्यथा स्यात् । ऊर्ध्वमुखीम् । अधोमुखां छायाम् ॥ अस्वाङ्गपूर्वपदादेवेच्छन्त्येके । नाभिमुखा [ : ] ॥ कानासिक्यः तुङ्गनासिकाः । लम्बोदर्यः कृशोदराः । लम्बोष्ठयः उन्नतोष्ठाः । पृथुजङ्घथः काजङ्घाः । हलदन्त्यः ओतुदन्ताः । कपिकर्ण्यः करिकर्णाः । उक्षशृङ्ग्यः मृगशृङ्गाः । रासभाङ्गय: उष्टाङ्गाः । अहिगोत्री अगगात्रा । उत्कण्ठी । ऋश्यकण्ठा । इत्यत्र "नासिकोदर " [ ३९ ] इत्यादिना वा ङीः ॥ पूर्वेण सिद्धे नियमार्थमिदम् । तेन नासिकोदराभ्यामेव बहुस्वराभ्यामोष्ठादिभ्य एव संयोगोपान्तेभ्यः स्यान्नान्येभ्यस्तेन हलचिबुकेत्यादौ बहुस्वरात्कृशगण्डेत्यादौ च संयोगोपान्त्यान्न स्यात् ॥ केचित्तु दीर्घजिह्नशब्दादपीच्छन्ति । दीर्घजिह्वी दीर्घजिह्वा ॥ दानखी सूर्पनखा । ऋक्षीमुखी ओतुमुखा । अत्र " नख" [४०] इत्या दिना वा ङीः । अनाम्नीति किम् । वज्रणखा । कालमुखा ॥ दीर्घपुच्छी ऋजुपुच्छा । इत्यत्र " पुच्छात्” [४१] इति वा ङीः ॥ कबरपुच्छेयैः । मणिपुच्छी । विषपुच्छी । शरपुच्छयः । इत्यत्र “कबर" [४२] इत्यादिना ङीः ॥ सुपर्णपक्ष्यः । गोपुच्छीम् । इत्यत्र "पक्षाच" [४३] इत्यादिना ङीः ॥ समरक्रीतीम् । इत्यत्र “क्रीतात्" [ ४४] इत्यादिना ङीः ॥ १ ए सी डी 'क्ता यथा अ ५ ए सी डी ऋस्यक. ह्री । दा. ९ डी ङीः । सुप १२ ए सी 'पुच्छ: । ३° २ ए बी सी ऊर्द्धमु. ३ बी दराः । ४ बी गात्री: ६ डी 'पान्त्येभ्य: . ७ ए सी कृशैग ८ सी १० बी च्छ्य । म ११ ए सी च्छी । श Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ [है० २.४.४६.] चतुर्थः सर्गः। रुधिरविलिप्ती रजोविलिप्ताभूयोर्दन्तकृताथ दन्तजाता । दन्तमिता गण्डशुष्क्यकाण्डे दन्तप्रतिपन्ना च दन्तिपतिः ॥ ६४ ॥ ६४. अथ तथा रजोविलिप्तानल्पेन रेणुना लिप्ता द्यौर्योमाल्पेन रुधिरेण विलिप्यते स्म रुधिरविलिप्तीव रुधिरविलिप्त्या रक्ताभूत् । तथा दन्तिपतिश्चाकाण्डे प्रस्तावे गण्डौ शुष्कौ यस्याः सा गण्डशुष्की निर्मदाभूत् । कीदृक् । दन्तौ जातौ निष्पन्नौ यस्याः सा । अनेन मत्कुणत्वनिरासः । तथा दन्तौ मितौ परिमाणोपेतौ न ह्रस्वौ नातिदीघौं यस्याः सा । तथा दन्तप्रतिपन्ना दन्तशब्देनात्र दन्तगुणविशिष्टौ दन्तौ गृह्यते न सामान्येन । ततो दन्तौ दन्तगुणोपेतौ दन्तौ प्रतिपन्नौ परीक्षकैरङ्गीकृतौ यस्याः सा सर्वसल्लक्षणोपेतदन्तेत्यर्थः । अत एव दन्तौ कृतौ स्वर्णपट्टमठनतीक्ष्णीकरणादिना संस्कृतौ यस्याः सा । अनेन मूर्धाभिषिक्तत्वोक्तिः । पट्टहस्तिनां ह्यकाण्डे मदशोषो महारिष्टसूचकः। रुधिरविलिप्ती । इत्यत्र "क्तादल्पे" [१५] इति ङीः ॥ अल्प इति किम् । रजोविलिप्ता ॥ गण्डशुष्की । इत्यन्न "स्वाङ्गादेः'' [१६] इत्यादिना डीः ॥ कृतादिवर्जन किम् । दन्तकृता दन्तमिता । दन्तजाता । दन्तप्रतिपन्ना ॥ मांसेष्टया शोणितेष्टयोचैधाल्या बहुयातयोपरिष्टात् । अजिनच्छन्नेव वाहिनी सा तिष्ठत्पतिरपि नष्टपल्यलक्षि ॥ ६५॥ ६५. सा ग्राहारिसत्का वाहिनी चमूस्तिष्ठत्पतिरपि विद्यमानग्राहारिलक्षणस्वामिकापि नष्टपत्नीव व्यपगतस्वामिकेवालक्षि लोकैमा॑ता । १ ए सी °वलि. १ बी ती रु. २ ए सी डी मूर्धाभि. ३ ए सी क्तवाक्तिः । ४ ए सी रवलि°. ५ सी कृताः । द. ६ सी मिताः। द. ७ ए सी डी नी व्यवप. Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] यतो गृधाया दूरदृपक्षिश्रेण्या कत्र्य गृधालेर्बाहुल्येनान्योन्यं सान्द्रत्वादजिनं चर्म च्छन्नं परिहितं येया सेव । यस्याः पतिर्न स्यात्सैव ह्यजिनं परिधत्ते । कीदृश्या गृध्रात्या । उच्चैरत्यर्थं मांसमिष्टं यस्यास्तया । तथा शोणितमिष्टं यस्यास्तया । अत एवोपरिष्टात्सैन्यस्योपरि बहु यातं भ्रमणं यस्यास्तया ॥ I मांसेष्टा शोणितेष्टया । इत्यत्र "अनाच्छाद" [ ४७ ] इत्यादिना वा ङीः ॥ अनाच्छादग्रहणं किम् | अजिनच्छन्ना ॥ जात्यादेरिति किम् । बहुयातया ॥ नष्टपत्नी तिष्ठत्पतिः । इत्यत्र " पत्युर्न: " [४८ ] इति वा ङीरन्तस्य नश्च ॥ परिधिमती देवतोपत्नी पतिरभूद्भवभालदृक्सपत्नी | अतिपतयो या न जातु पूर्वं ता राज्ञां पल्योतिपत्य आसन् ६६ ६६. उस्रपत्न्युस्राणां किरणानां पतिः स्वामिनी द्युपतिर्व्योम स्वामिनी देवतार्क लक्षणाभूत् । कीदृक् । परिधिमती परिवेषान्विता । तथा समानः पतिरस्याः समानस्य पतिरिति वा सपत्नी भवभालशो रुद्रललाटाक्ष्णः सपत्नी लक्षणया सदृशी पिङ्गातिसंतापिका च । रविर्हि परिधिमान्पिङ्गोतिसन्तापकश्चारिष्टाय स्यात् । तथ या राज्ञां पत्यो भार्या जातु कदाचिदप्यतिपतयो भर्तारमतिक्रान्ता नासन्कुलाङ्गनात्वेन या: पतिच्छन्दोनुवर्तिन्य आसन्नित्यर्थः । ता अतिपढ्यो भर्तारमतिक्रान्ता दुर्विनीता आसन् । एतदप्यरिष्टम् ॥ उस्रपत्नी द्युपतिः । इत्यत्र “सादे: " [ ४९ ] इति वा ङीनश्वान्तादेशः ॥ मुख्यादित्येव । अतिपतयः ॥ गौणादपि केचित् । अतिपत्यः ॥ सपत्नी । इत्यत्र “सपल्यादौ " [५० ] इति ङीर्नश्चान्तादेशः ॥ पत्न्यः । इत्यन्न “ऊढायाम्" [ ५१] इति ङीर्नश्चान्तादेशः || १ ए सी डी पृा. २ ए सी डी यथा से. ३ सी डी 'व्योम्नस्वा', ४ सी दृशा रु. ५ बी का वा । २. ६ बी था रा° ७ ए सी 'पदयो. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.५३.] चतुर्थः सर्गः। ३४३ पाणिगृहीतीस्ततर्जुरन्तर्वनीः पतिवनीष्वयोग्यमेके । केपि करात्तीधृताञ्चलास्तु प्लवगीवढपलीरिव प्रजघ्नुः ॥ ६७ ॥ ६७. एके भटा अन्तर्मध्ये गर्भोस्त्यासां ता अन्तर्वनीर्मुर्विणीः पाणिगृहीतीरूढास्ततर्जुनिर्भसयामासुः। कथम् । पतिरस्त्यासां तासु पतिवत्नीषु जीवत्पतिकास्खयोग्यं हे रण्डे किमित्यधुना रोदिषीत्यादि पतिविनाशसूचकोक्त्यानुचितं यथा स्यादेवम् । एतदपि महारिष्टम् । तुः पुनरर्थे । केपि भटाः पुनः करात्तीरूढा वृषलीरिव दासीरिव प्रजनयुद्धविन्नभूता इति कोपाञ्चपेटादिना निर्दयमताडयन् । यत: प्लवगीवद्वानरीरिव धृताञ्चला युद्धगमननिषेधायावष्टब्धपटप्रान्ताः । अञ्चलधरणेन स्खलनं भार्याहननं च द्वयमप्यरिष्टम् ॥ शूद्राश्च क्षत्रियाश्च बिभ्युर्यकाः पत्यंशुकेषु यच्च । जयदा क्षणपाक्यथाखुकर्णी गोवाली नष्टाथ शालपर्णी ॥६॥ ६८. यद्यस्माद्धेतोयूँकाः पत्यंशुकेष्वभवन् यच्च यस्माद्धेतोश्च । जयदेति सर्वपदेषु योज्यम् । जयदा विजयकारिणी क्षणपाक्यथ तथाखुकर्णी तथा गोवाल्यथ तथा शालपर्णी च नष्टा । एवंनाम्य ओषध्यो गतास्तस्माद्धेतोः शूद्राश्च मिश्रजातिस्त्रियश्च क्षत्रियाश्च क्षत्रियजातिस्त्रियश्च विभ्युर्महारिष्टान्येतानीति मनसि चुक्षुभुः ॥ पाणिगृहीतीः । करात्तीः। इत्येतौ "पाणिगृहीती" [५२] इति यन्तौ निपात्यौ ॥ पतिवत्रीषु । अतर्वनीः । इत्येतौ "पतिवनी" [५३] इत्यादिना निपात्यौ ॥ १ सी भ्युका:. २ बी शालिप. १ सीम् । तु पु°. २ बी शालिप'. ३ ए सी ड्यन्यौ नि. ४ ए सी 'ना मिपा. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] लगी । वृषलः । इत्यत्र " जाते: " [ ५४ ] इत्यादिना ङीः ॥ जातेरिति किम् । धृतोञ्चलाः । अयान्तेति किम् | क्षत्रियाः ॥ नित्यस्त्रीवर्जनं किम् । यूकाः ॥ शूद्रवर्जनं किम् । शूद्राः ॥ क्षणपाकी । आखुकर्णी | शालपर्णी । गोवाली । इत्यत्र पाककर्ण" [ ५५ ] इत्यादिना ङीः ॥ शतपुष्पां जिष्णुशङ्खपुष्पी प्राक्पुष्पां जयंदां च काण्डपुष्पाम् । सत्पुष्पां प्रान्तपुष्पयामा वासीफल्या सार्धमेकपुंष्पाम् ॥ ६९ ॥ भवाफलया समं जयिन्या पिण्डफलैकफले च संफलां च । अजिनफलादर्भमूल्यमूलाः सशणफला अदहन्पतन्त्य उल्काः ७० ६९. ७०. स्पष्टे । किं तु । शतपुष्पादीनां निरुक्तिः स्वयं ज्ञेया । जिष्णुर्जयनशीला या शङ्खपुष्पी ताम् । जयदामिति सर्वेषु द्वितीयान्तेषु पदेषु योज्यम् । प्रान्तपुष्पयामा सह । जयिन्या विजयवत्या भस्त्राफलया । सह शणफलया वर्तन्ते यास्ताः । अजिनफलादर्भमूल्यमूला इत्यत्र द्वन्द्वः । शतपुष्पाद्याः शणफलान्ताः सर्वा एता जयकारिण्य ओषध्योत एव जिष्णु जयदां जयिन्येति विशेषणानि कासां - चिदुक्तानि । यासु चैवं विशेषणं नास्ति तासु स्वयमभ्यूह्यम् । उल्कापातो जयदौषधिदाहश्च द्वावप्यरिष्टे || शङ्खपुष्पीम् । इत्यत्र " असत्काण्ड" [ ५६ ] इत्यादिना ङीः ॥ सदादिप्रतिषेधः किम् । सत्पुष्पाम् । काण्डपुष्पाम् । प्रान्तपुष्पया | शतपुष्पाम् । एकपुष्पाम् । प्राक्पुष्पाम् ॥ १ ए यदा च. सी यदा चं का. २ ए सी पुष्पा । भ. • १ एसी 'ताला २ सी 'यावेति ३ वी शालिप ४ ए सी यादु चै.. ५ सी सुय Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.६०.] चतुर्थः सर्गः । ३४५ वासीफैल्या । इत्यत्र "असंभस्रा" [५७] इत्यादिना डीः ॥ समादिप्रतिषेधः किम् । संफलाम् । भवाफलया । अजिनफला । एकफेले ॥ एकान्नेच्छन्त्येके । शणफलाः । पिण्डफला ॥ दर्भमूली । इत्यत्र "अनमो मूलात्" [५८] इति डीः । अनज इति किम् । अमूलाः॥ अंष्ठीगोपालिकाकुसीदायीकुसितायीहद्वषाकपायीम् । गृधुर्मेने न तान्यरिष्टान्यनायीपूतक्रताय्यरिः सः॥ ७१ ॥ ७१. स ग्राहारियॊर्मदात्तानि पूर्वोक्तान्यरिष्टान्यशुभसूचकानुत्पातान्न मेनेवज्ञातवान् । कीदृ । प्रष्ठोग्रग ऋषिर्वा तस्य भार्या प्रष्टी । गोपालको बल्लव ऋषिर्वा तस्य भार्या गोपालिका। कुसीदकुसितौ ऋषी तयोर्भार्ये कुसीदायी कुसितायी च द्वन्द्वे ता हरति शीलभ्रंशार्थमपहेरति यः सः । तथा वृषाकपायीं वृषाकर्विष्णोर्भायी लक्ष्मी गृघ्नरिच्छुः । तथाग्नेर्भार्यानायी स्वाहा पूतक्रतोत्विजो भार्या पूतक्रतायी द्वन्द्वे तयोररिः॥ प्रष्टी । इत्यत्र "धवाद्" [५९] इत्यादिना कीः ॥ अपालकान्तादिति किम् । गोपालिका ॥ पूतक्रतायी । वृषाकपायीम् । अग्नायी । कुसितायी । कुसीदायी । इत्यत्र "पूतक्रतु" [१०] इत्यादिना कीरैश्चान्तादेशः॥ १ बी पृष्ठी'. १ एसी डी फला । इ. २ ए सी फलै । ए'. ३ ए सी दा नि. ४ ए सी मेदेव. ५ ए सी क् । पृष्ठो'. ६ ए सी र्या पृष्ठी।. ७ ए सी 'ल शा. ८बी भंसार्थ. ९ ए सी हति. १० ए सी ष्णो भार्या. ११ ए सी यी। अ. १२ वी अग्नयी । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] मनुरिन्द्राण्यां मुदा मनाव्यां वरुणानी च मृडान्यथो मनाय्याम् । शर्वाणीशस्तदा भवान्यां रुद्राणीशे चास्य रिष्टमाख्यत् ॥ ७२ ॥ २ ७२. तद रिष्टभवनकालेस्य ग्राहारे रिष्टं जातावेकवचनम् । अशुभसूचकोत्पातान्मनुर्मन्वृषेर्भार्या मुदा दानववधसंभावनोद्भूतेन हर्षेण हेतुनेन्द्राण्यामिन्द्रभार्यायामाख्यदवदत् । तथा मनाव्यां मनुभार्यायां वरुणानी च वरुणभार्या च मुदाख्यत् । अथो तथा मृडानी मृडभार्या गौरी मनाय्यां मुदाख्यत् । तथौ शर्वाणीशः शंभुर्भवान्यां गौर्या मुदाख्यत् । रुद्राणी च गौरी चेशे शंभौ मुदाख्यत् । स्त्रियो हि जातिप्रत्ययेन दंपती च स्नेहानुबन्धेन हर्षवार्ता मिथः प्रायेणाख्यान्ति । अनया च देवताभिररिष्टोत्क्त्यारिष्टानां सत्यभावित्वोक्तिः ॥ धृतवणिजानीयुताहिताग्यान्याचार्यानीश्वासवेत्प्रचण्डैः । पवनैर्मुमुदे स मातुलानीदुहितृपतिर्हरिमा तुलीशतुल्यः ॥ ७३ ॥ ७३. मातुलस्य भार्या मातुलानी तस्या दुहिता पुत्री तस्या: पतिर्भर्ता । यदि भवति तदा सौराष्ट्रैरवश्यं मातुलानीत्र्येव परिणीयत इति देशाचारः । स ग्राहारिः पवनैवतैः कृत्वा मुमुदे । किंभूतैः । धृता मार्गे देशपुरादिभङ्गेन बन्दीकृता वणिजानीयुता वणिग्भार्यासहिता या आहितान्यान्याचार्यान्योग्निहोतृभार्या आचार्य भार्याश्च तासां ये श्वासा दुःखाद्दीर्घसंतप्ता निश्वासास्तद्वत्प्रचण्डैरत्यन्तमुष्णत्वाद्दीर्घत्वाच्च रौद्रैरपि । यतः कीदृक् । हरेर्विष्णोर्मातुलः कंसो देवकी भ्रातृत्वात्तस्य भार्या हरिमा तुली जीवयशा लौकिकर्मतेस्तिस्वस्त्याख्ये द्वे भायें तयो - शो भर्ता कंस एव दैत्यत्वात्तत्तुल्यः । ग्राहारिर्यथा दैत्यत्वात्तदा बन्दी १ बी सी 'ताग्नान्या २ एसी व प्रचण्डै । ३ ए सी 'हिर्तृप. १ बी 'दा अरि २ ए सी डी नी व ३ सी था सर्वा ४ ए ताः पु. ५सी वश्येमा ६ ए सी पुत्रेव. ७ डी 'चार्या. ८ सी मतैस्ति'. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० २.४.६०. ] चतुर्थः सर्गः । कृतानां वणिजान्यादीनां प्रचण्डैर्निःश्वासैर हृष्यत्तथारिष्टसंसूचकत्वात्तदा प्रचण्डीभूतैरपि वातैरहृष्यदित्यर्थः ॥ रामाचार्याः स याज्ञवल्क्योपाध्याय्या अभिमन्युमातुलायाः । आयतनान्यावभञ्ज पार्थोपाध्यायानी पुत्रशेषणो यान् ॥ ७४ ॥ ७४. स ग्राहारियन्सन्नायतनानि प्रासादान्बभञ्ज पातितवान् । कासाम् । रामस्य परशुरामस्याचार्यः शंभुस्तस्य भार्या रामाचार्थी गौरी तस्याः । तथा यज्ञवल्कस्यापत्यं वृद्धं गर्गादित्वाद् [ ६.१.४२ ] यत्र याज्ञवल्क्यः स्मृतिकारस्तस्योपाध्यायो रविस्तस्य भार्यो याज्ञवल्क्योपाध्यायी राज्ञीदेवी तस्याः । तथाभिमन्युरर्जुनसुतस्तस्य मा तुला लक्ष्मीर्बलाच्युतयोर्भगिन्या अर्जुनपत्याः सुभद्राया अपत्यत्वेन हरेर्भागिनेयत्वात्तस्याश्च । यतः पार्थोर्जुनस्तस्योपाध्यायो द्रोणाचार्यस्तस्य भार्या पार्थोपाध्यायानी कृपी तस्याः पुत्रोश्वत्थामा तद्वद्रोषणोतिकोपनः ॥ प्रासादान्पातयन्स नोपाध्यायाचार्ये मन्यते स्म दृप्तः । सूरीतनयोजसोस्य किं वा सूर्याणीस्नोव मान्यमस्ति ॥ ७५ ॥ ३४७ ७५. दृप्तत्वात्स ग्राहारिः प्रासादान्देवगृहाणि पातयन्सन्नुपाध्यायाचार्ये देवायतनभङ्गो दुरन्त इत्युपदेशिके स्वस्य पाठकव्याख्यातृभार्ये न मन्यते स्म तदुपदेशावगणनेनावगणितवान् । वा यद्वा । अस्य ग्राहारे: सूर्यस्य भार्या सूर्याणी राज्ञीदेवी तस्याः सूनोश्च यमस्य च किं मान्यं गणनीयमस्ति । यतः सूर्यस्य भार्या मानुषी कुन्ती सूरी तस्यास्तनयः कर्णस्तस्येवौजो बलं यस्य तस्य कर्णस्येवं दुर्नयत्वालोकप्रमाथिबलस्येत्यर्थः 11 १ ए सी वल्कोपा. १ बी पाटित. २ बी र्या यज्ञ. ३ ए बी सी 'क्ष्मी बला' ४ ए सी 'देवीः त ५ सी 'स्ति यरं सू. डी 'स्ति या: सू. ६ एसी 'वदुर्णस्येव दु. ७ एसी वालोक'. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] सूर्यासनयातटे हिमानीशीतयवानीतृप्तदन्तिदानैः। यवनान्या लेखयन्प्रशस्ति न्वेषोरण्यानीः क्षणाल्ललझे ॥७६॥ ७६. एष ग्राहारिररण्यानीमहारण्यानि क्षणाल्ललचे । कीदृक्सन् । महद्धिमं हिमानी तया यच्छीतं शीतस्पर्शस्तेन दग्धत्वाद्या यवानी दुष्टो यवस्तेन तृप्ता ये दन्तिनस्तेषां यानि दानानि मदास्तैः कर्तृभिर्यवनानामियं लिपिर्यवनानी । उक्तार्थत्वात् “तस्येदम्” [६.३. १६०.] इत्यण्न । तया देशभेदलिप्या कृत्वा प्रशस्ति वर्णनाकाव्यमर्थात्स्वस्य लेखयन्नु । क । सूर्यस्य भार्या सूर्या राज्ञीदेवी तस्यास्तनया सुराष्टेषु प्रसिद्धा भद्राख्या नदी तत्तटे । मषीमेचकानां करिमदानां लिप्यनुकारेण भद्रातटे पातेनाहो ग्राहारेदिग्गजानुकारिणो गजा अहो ग्राहारेः सैन्यसामग्रीत्यादिप्रशंसाहेतुत्वादेवमुत्प्रेक्षा ॥ मनाव्याम् मनाय्याम् मनुः । इत्यत्र “मनोरौ च वा" [६१] इति वा डीरौदैञ्चान्तादेशौ ॥ वरुणानी । इन्द्राण्याम् । रुद्राणी । भवान्याम । शर्वाणी । मृडानी । इस्यत्र "वरुणेन्द्र” [६२] इत्यादिना डीरान् चान्तादेशः ॥कश्चित्वाहिताझ्यानी वणिजानीत्यादावपीच्छति ॥ मातुलानी । मातुली ॥ क्षुम्नादित्वाण्णत्वाभावे ।आचार्यानी । रामाचार्याः। पार्थोपाध्यायानी । उपाध्याय्याः । इत्यत्र "मातुला" [६३] इत्यादिना डीरान् चान्तः ॥ अन्ये तु मातुलायाः ॥ आचार्ये । उपाध्याया। इत्यपीच्छन्ति तदर्थ कीरपि विकल्पनीयः॥ १ ए सी °ण्यानी क्ष. १ ए सी यपच्छी’. २ ए सी "स्तै क. ३ बी र्यवानान्या यव. ४ ए सी वीस्तस्या. ५ बी रेणोज्ज्वले भ.६ बी रे दिग्ग'. ७ बी म् । सर्वा. ८ सी डी ध्यायाः । ई. ९ सी डी °चार्याये । उ'. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.६७.] चतुर्थः सर्गः। ३४९ सूर्याणी सूर्या । इत्यत्र "सूर्याद्" [१४] इत्यादिना वा डीरान् चान्तः ॥ देवतायामिति किम् । सूरी ॥ यवानी । यवनान्या। अरण्यानीः । हिमानी । इत्यत्र “यव" [६५] इत्यादिना डीरान् चान्तः ॥ आर्याणी क्षत्रियाण्यभीः किं शुभचातुर्यात्क्षत्रिया किमार्या । इत्यहांचक्र आत्मसैन्ये धृतवात्सीवात्स्यायनीपतिः सः ॥ ७७॥ ७७. वत्सस्यर्षेरपत्यं वृद्धं स्त्री वात्सी । एवं वात्स्यायनी तस्याः पतिर्भर्ता वात्स्यायनीपतिः । द्वन्द्वे धृतौ बन्दीकृतौ वात्सीवात्स्यायनीपती येन स तथा स ग्राहारिरात्मसैन्य इत्यूहांचक्रे वितर्कितवान् । किमित्याह । अभीनिर्भया पराक्रमिण्यार्याणी प्रेक्षापूर्वकारिणी वणिगादिजातिः स्त्री किं क्षत्रियाणी क्षत्रियजातिः स्त्री वर्तते भीरुत्वादेवमाशङ्का । क्षत्रियाणी ह्यभी: स्यात् । तथा क्षत्रिया क्षत्रियजातिः स्त्री शुभचातुर्याच्छुभं परिणामे हितं यच्चातुर्य पर्यालोचितकारित्वं तस्माद्धेतोः किमार्या वणिगादिजातिः स्त्रीति । ग्राहारिः स्वसैन्य आर्या अपि पराक्रमिणीः क्षत्रिया अपि प्रेक्षापूर्वकारिणीः पश्यन्मत्सैन्ये स्त्रियोपि बुद्धिपराक्रमपात्राण्यतः केनाप्यहं न जैय्य इति स्वचित्ते परिभावितवानित्यर्थः ॥ आर्याणी आर्या । क्षत्रियाणी क्षत्रिया । इत्यत्र "आर्यक्षत्रियाद्वा" [६६] इति वा डीरान् चान्तः ॥ अधवयोगेयं विधिः॥ वात्सी वात्स्यायनी । इत्यत्र “यम" [६७] इत्यादिना डीयिन् चान्तो वा॥ १५ सी स्यानी. - १ बी भीनिर्भ'. २ सी णीक्षा'. ३ बी भीकत्वा'. ४ बी मिणी क्ष. ५ ए सी जज्य इ. ६ सी र्याक्षणीः । आ', ७ सी वात्साय. Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मूलराज: ] लौहित्यायन्यपेहि सांशित्यायनि कात्यायिन्ययि त्वरस्व । शाकल्यायन्ययस्व गौकक्ष्यायणि गौकक्ष्यासुतेपसर्प ॥ ७८ ॥ आवट्यापुत्रि तूर्णमावट्यायनि कौरव्यायणि व्रजेति । अनुवनमिह यात्युवाच भीता माण्डूकायन्यासुरायणी च ॥ ७९ ॥ ३५० व्याश्रयमहाकाव्ये ७८,७९. कण्ठ्ये । किं तु । लोहित - संशित-कत - शकल-गोकक्षअवटा ऋषिभेदास्तेषामपत्यानि वृद्धानि स्त्रियो गर्गादित्वाद् [ ६. १. ४२ ] जि लौहित्यायन्यादय ऋषिपुत्र्यो गौकक्ष्यायाः सुर्ती एवमावट्यापुत्री तासां संबोधनानि । अयख गच्छ । अपसर्पापसर । कौरव्यायणि कुरो: क्षत्रियस्यापत्य स्त्रि " कुर्यादेः " [६. १. ९९ ] इति “दुनादि " [६.१.११७] इत्यादिना वा यः । अनुवनं वनस्य समीप इह ग्राहारौ याति सति भीता सती माण्डूकायनी मण्डूकस्य द्विजस्यापत्यं स्त्री “पीला” [६.१. ६८.] इत्यादिनां । आसुरायणी चासुरस्यर्षेरपत्यं स्त्री ८ च बाह्वादित्वाद् [६.१. ३२] इन् । इति पूर्वोक्तमुवाच ॥ लौहित्यायनि । सांशित्यायनि । कात्यायनि । शाकल्यायनि । अन्त्र "लोहितादि" [ ६८ ] इत्यादिना ङीडयन् चान्तः ॥ गौकक्ष्यायण गौर्केक्ष्या । आवव्यायनि आवट्या । अत्र "पावटाद्वा" [ ६९ ] इति वा ङीडयन् चान्तैः ॥ कौरव्याणि । माण्डूकायनी । आसुरायणी । इत्यत्र " कौरव्य ० " [ ७० ] इ त्यादिना ङीडयन् चान्तः ॥ १ ए सी डी यहि लौ २ ए बी सी डी 'त्यान्या • ३ ए सी डी या सु. ४ बी 'ता गौकक्ष्यासुता ए. ५ बी डी पत्यं स्त्रि. ६ ए सी वा ङथ: ।. ७ बी 'ण् । असु. ८ एसी दित्यादि ९ डी लोहि. १० ए सी डी १२ डी न्तः ॥ सौतं', व्यायिनि । ११ ए सी कक्षा | आ. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०२.४.७२. ] चतुर्थः सर्गः । सौतंगम्या हृता नगर्या वाराह्या दाक्षीश्च विप्रबन्धूः । तित्तिरिवत्र्यङ्कुवच्च बध्नन्कर्कन्धूवनमत्यगात्स लुब्धः ॥ ८० ॥ ८०. स ग्राहरिः कर्कन्धूवनं बदरीवणमत्यगादत्यक्रामत् । कीदृक्सन् । लैब्धः स्त्रीलम्पटोऽत एव वाराह्या वराहस्यर्षेरपत्यानि स्त्रीः । बाह्वादित्वाद् [६.१.३२] इन्। दाक्षीर्दक्षर्षिपुत्रीर्विप्रो बन्धुर्जातिरेवासां ता विप्रबन्धूध जात्यापि या ब्राह्मण्यस्ताचेत्यर्थः । बन्नन्भार्यीकर्तुं बन्दौ क्षिपन् । कीदृशीः । सौतङ्गम्याः सुतंगमेनर्षिणा निर्वृत्ताया: सुतंगमादेरिञ् [६.२. ८५]। नगर्याः पुराद्धृता अपहृताः । तित्तिरिवद्यथा तित्तिरीः पक्षिणीभेदान् न्यङ्कुवच्च यथा न्यश्च मृगीभेदांश्च बन्नन् लुब्धो व्याधः कर्कन्धूवनमत्येति ॥ पटुरज्जुयतामिव स्खलन्तीं पश्यन्सोध्वर्यु कमण्डलूं च । कोमलबाहुं च मद्रबाहूं कद्रूजसमः माप जम्बुमाल्याम् ॥ ८१ ॥ ८१. स ग्राहारिर्जम्बुमाल्यां नद्यां प्राप । कीदृक्सन् । कद्रूजसमः कवा जात: कद्रूज: सर्पस्तेन क्रूरत्वादिधर्मैः सदृशोत एवाध्वर्युं यजुवित्खियं कमण्डलूं चैवनाम्नीं स्त्रियं च कोमलबाहुं मृदुभुजां मद्रबाहूं चैवनाम्नीं स्त्रियं च पश्यन् । कीदृशीम् । पटुर्रज्जुयतामिव यथा गाढशृङ्खलाबद्धा स्खलत्येवं तद्भयात्पदेपदे स्खलन्तीम् । सर्पादपि स्त्रियो गच्छन्त्योतिभयेन स्खलन्ति ॥ ३५१ सौतंगम्या । अत्र “इज इतः " [ ७१] इति ङीः ॥ इञ इति किम् । इजादेशाध्यान्मा भूत् । वाराह्याः ॥ दाक्षीः। इत्यत्र “नुर्जातेः” [ ७२] इति ङीः ॥ नुरिति किम् । तत्तिरि " १ एसी हारिक २ बी 'दत्रका ३ ए सी लुब्धस्त्री. ४ ए सी डी निवृत्ता ं. ५ बी न्यङ्कंश्च. ६ डी 'कूर्बन.. ७ एसी धर्मः स ८ सी 'रज्जूय'. ९ ए सी 'ति श्रीः ॥ नु. १० ए सी डी 'रि । ब्रह्म'. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] विप्रबन्धुः । अप्राणिनश्च । कर्कन्धू । इत्यत्र "उतोप्राणिनश्च" [७३] इत्यादिनोङ ॥ अप्राणिनश्चेति किम् । न्यकु ॥ जातेरित्येव । पटु ॥ अयुरज्वादिभ्य इति किम् । अध्वर्युम् । रज्जु ॥ __ मद्रबाहूम् । कद्रू । कमण्डलूम् । इत्यत्र "बाह्वन्त" [७४] इत्यादिनोङ् । नाम्नीति किम् । कोमलबाहुम् ॥ करभोरु सहोरु संहितोरुवामोविशफोरु लक्ष्मणोरु । सहितोरु सुखं वरोरुनारीश्वश्रूसख्यभ्यर्णगा इहाध्वम् ॥ ८२॥ युवते पशूर्नु दैवदत्त्ये वाराह्ये वाराहि दाक्षि यूनि । वासिष्ठी कापटव्युपान्ते माध्वं पश्यत बाहुविक्रमं नः ॥ ८३ ॥ पौणिक्ये क्रौड्य एहि लाड्ये सूत्ये भोज्ये तिष्ठ मुश्च भोजे । ब्रज सूते दैवयज्ञि काण्ठेविद्ध्ये काण्ठेविद्ध्यनुप्रपन्ने ॥ ८४ ॥ धीरा भव सात्यमुनि दैवयन्यासखि मास्वातिसात्यमुठ्या। शौचेक्ष्येथ शौचिक्ष्यालीत्यूचुः प्रयुयुत्सवः स्वकान्ताः॥८५॥ ८२-८५. प्रेयुयुत्सवो योद्धुमिच्छवो भटाः स्वकान्ता इत्यूचुः । यथा हे करभोरु करभः कनिष्ठाङ्गुलेर्मणिबन्धस्य चान्तरं स इव मृदू निर्मलौ वोरू सैक्नी यस्याः । तथा हे सहोरु सह संबन्धसादृश्ययोगपद्यसमृद्धिषु । साकल्ये विद्यमाने च इति वचनात्सह सदृशावेकादृशौ समृद्धौ वोरू यस्याः । तथा हे सं१ एसी हाउद्ध. डी हाथ. २ ए सी क्रौड ए'. ३ ए सी डी वृक्षाली". १ ए सी डी बाहुम् ।. २ ए सी डी प्रायु. ३ बी सक्थनीय'. ४ ए सी डी स्याः । यथा. ५ ए सी डीह ब. ६ बी ति वाच. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.७४.] चतुर्थः सर्गः। ३५३ हितोरूवामोवौँ संहितौ जानुकटीभ्यां सह सुसंधानावूरू यस्याः सा च वामोरूश्च चारुसक्थिका च। तथा हे अशफोरु अनिन्द्यसक्थिके हे लक्ष्मणोरु लक्ष्मीरस्त्यनयोः “लक्ष्म्या अनः" [७.२. ३२] इत्यनेन लक्ष्मणौ श्रीमन्तावूरू यस्याः । तथा हे सहितोरु सुघटितोरु सुखं यथा स्यादेवमिह प्रदेशे वरोरुनारीश्वश्रूसख्यभ्यर्णगाः प्रशस्योरूणां वनिताश्वश्रूवयस्यानां निकटस्था यूयमाध्वं तिष्ठत । तथा हे युवते तरुणि हे दैवदत्त्ये देवदत्तस्य पौत्रि हे वाराह्ये वराहस्य पौत्रि हे वाराहि वराहपुत्रि हे यूनि तरुणि दाक्षि दक्षपौत्रि वसिष्ठस्यापत्यं पौत्रादि स्त्री "ऋषिवृष्णि" [६.१. ६०] इत्यादिनाणि वासिष्ठी कपटोरपत्यं वृद्धं स्त्री कापटवी । द्वन्द्वे तयो: समीपे पशूर्नु पादरहितेव माध्वं मा तिष्ठत । तर्हि किं कुर्म इत्याहुः । नोस्माकं बाहुविक्रमं पश्यत । तथा हे पौणिक्ये पुणिकस्य पौत्रि "अत इञ्” [६.१.३०] एवं हे क्रौड्ये च क्रोडस्य पुत्रि त्वं चैह्यागच्छार्थाद्रणभुवम् । तथा हे लाड्ये लाडपुत्रि हे सूत्ये प्राप्तयौवने स्त्रि यद्वा सूतसंबन्धिनि स्त्रि भोज्ये च भोजवंशजे क्षत्रिये त्वं च तिष्ठात्रैवास्स्व । तथा हे भोजे भोजाख्ये स्त्रि मुञ्च त्यज प्रस्तावाद्रणे थियासुं माम् । तथा हे सूते प्रसूते कान्ते हे दैवयज्ञि हे काण्ठेविद्ध्ये देवयज्ञस्य कण्ठेविद्धस्य च पुत्रि पौत्रि वा काण्ठेविद्ध्यनुप्रपन्ने च काण्ठेविद्धीमाश्रिते खि त्वं च व्रज गच्छार्थाद्रणाङ्गणम् । तथा हे सात्यमुनि सत्यमुग्रस्य पुत्रि पौत्रि वा धीरा निर्भया भव। हे दैवयझ्यासखि दैवयझ्याया वयस्ये त्वमतिसात्यमुग्र्या धैर्यात्सात्यमुग्र्यामतिक्रान्ता सती मास्स्व मा तिष्ठ धीरत्वाद्रणदर्शनाय प्रचलेत्यर्थः । शौचेवृक्ष्ये इति शौचेरिति गम्यपरत इत्यपेक्षया "प्रभृत्यन्यार्थ" [२.२.७४.] इत्यादिना पञ्चमी । अत्र च शब्दार्थयोरभेदाच्छौचिवृक्ष्य इति शब्देन वाच्यो योर्थः शुचिवृक्षापत्यस्त्रीरूप: १ ए सी लक्षणो°. २ ए सी रोरूना. ३ ए सी हे वरा . ४ बी दक्षिपौ. ५ ए सी तयो स. ६ ए सी क्रौडि च. ७ ए सी द्वास्तत्संब. डी द्वा तत्संब. ८ ए सी यज्ञास. ९ सी शौचरि. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] स शौचिवृक्ष्य इति शब्देनाभिन्नस्तेन शौचेरिति परपञ्चम्यन्तविशेषणं वृक्ष्ये इति शब्दसंबन्ध्यप्यर्थस्य स्याद्यथा समस्तवस्तुविस्तर इत्यत्र विस्तरशब्दस्य वचनप्रथावाचकत्वेपि शब्दार्थयोरभेदादर्थप्रथायामुपन्यास इति । एवमग्रेप्येवंविधे प्रयोगे सर्वत्र ज्ञेयम् । ततः शौचक्ष्ये इति कोर्थो हे शौचिवृक्ष्ये शुचिवृक्षस्य पुत्रि पौत्रि वाथ तथा हे शौचिवृक्ष्यालि शौचिवृक्ष्याः सखि त्वमप्यतिसात्यमुग्र्या सती मास्स्वेति ॥ करभो । सहितोरु । संहितोरू । सहोरु । अशफोरु। वामोवौं । लक्ष्मणोरु। इत्यत्र "उपमान''[७५] इत्यादिनोङ् ॥ उपमाद्यादेरिति किम् । वरोरुनारीत्यादि। नारी । सखी। पङ्खः । श्वश्रू । इत्येते "नारीसखी' [७६] इत्यादिना ड्यूङन्ता निपात्याः ॥ युवते । इत्यत्र “यूनस्तिः” [७७] इति तिः ॥ यूनीत्यपि कश्चित् ॥ देवदत्त्ये । वाराह्ये । इत्यत्र "अना" [७८] इत्यादिनान्तस्य ष्यः ॥ अनार्ष इति किम् । वासिष्ठी ॥ वृद्ध इति किम् । वाराहि ॥ बहुस्वरेति किम् । दाक्षि ॥ गुरूपान्त्यस्येति किम् । कापटवी ॥ पौणिक्ये । इत्यत्र "कुलाख्यानाम्" [७९] इति प्यः ॥ कौड़ये । लाड्ये । इत्यत्र "क्रौड्यादीनाम्" [८०] इति ष्यः ॥ भोज्ये । सूत्ये । अत्र “भोज" [१] इत्यादिना प्यः ॥ क्षत्रियायुवत्योरिति किम् । भोजे सूते ॥ दैवयझ्या दैवयज्ञि । शौचिव(चे... ?)क्ष्ये शौचिवृक्षी । सात्यमुग्र्या सात्यमुनि । काण्ठेविये काण्ठेविद्धी । इत्यत्रं “दैवयज्ञि" [८२] इत्यादिना वा व्यः ॥ पक्षे सर्वत्र "नुर्जातेः" [२.४.७२] इति डीः ॥ १ ए सी डी रश. २ ए सी डी मुग्रास'. ३ डी रु । सं. ४ सी तोरु । स. ५ ए सी नार्थ इ. ६ ए सी डी रे इति. ७ डी ड्ये इ. ८ डी वृक्षी ।. ९ ए सी विद्धे का?. १० बीत्र देव'. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ है० २.४.८४.] चतुर्थः सर्गः । कौमुदगन्धीपतिः पुरोभूत्कौमुदगन्धीपुत्र आददेतः । कौमुदगन्ध्यापतिध्वजिन्यां कौमुदगन्धीबन्धुभिश्च वर्म॥८६॥ ८६. कौमुद्गन्ध्या कुमुदगन्धेः कुमुदगन्धस्य वापत्यं स्त्री राज्ञी पतिः स्वामिनी यस्या: सा या ध्वजिनी चमूस्तस्यां कौमुद्गन्धीपतिः कौमुदगन्ध्याया राज्या भर्ता पुरो प्राहारिसैन्यस्याग्रतो यतोभूदतोस्माद्धेतोः कौमुदगन्धीपुत्रः कौमुदगन्ध्याङ्गजो वर्माददे जग्राह । तथा कौमुदगन्ध्या राज्ञी बन्धुर्येषां तैश्च कर्तृभिर्वर्माददे गृहीतम् । आदद इत्यत्र कर्तरि कर्मणि चात्मनेपदम् । अत्र च ध्वजिन्या राज्ञश्च स्त्रीपतित्वोक्त्या पुत्रस्य मातृपुत्रत्वोक्त्या च स्त्रिया इवाग्रसैन्यस्य भावी पराजयो व्याजि ॥ कौमुदगन्धीपुत्रः । कौमुदगन्धीपतिः । इत्यत्र “स्था पुत्र" [८३] इत्यादिनाबन्तष्य ईच् ॥ तत्पुरुष इति किम् । कौमुदगन्ध्यापतिध्वजिन्याम् ॥ कौमुदगन्धीबन्धुभिः । इत्यत्र “बन्धौ” [८४] इत्यादिनाबन्तष्य ईच् ॥ सौगन्धीमात आत्तधन्वा पाङ्कजगन्धीमातृभिः सहाभूत् । सौगन्ध्यामातदर्शनाद्यत्पाङ्कजगन्ध्यामातरोत्यहृष्यन् ॥ ८७ ॥ ८७. सौगन्ध्यामातदर्शनात्सौगन्ध्या माता येषां भटानां तदर्शनात्पाङ्कजगन्ध्या माता येषां ते पाङ्कजगन्ध्यामातरो भटा यद्यस्माद्धेतोरैत्यहृष्यन्सहायिलाभात्तुष्टाः । अतो हेतोः सौगन्धीमात: सौगन्ध्याजननीको भट आत्तधन्वा सन्पाङ्कजगन्धीमातृभिः पाङ्कजगन्ध्याजननी १ ए सी भूकौमु°. बी भूत्कोमु. २ डी रोभ्यह. १बी यस्या सा. २ ए सीधीपुः कौ. ३ डी यो व्यजि. ४ डी रभ्यह. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] कैर्भटैः सह संयुक्तोभूत् । अत्र च भटाना मातृपुत्रत्वोक्त्या साहाय्यापेक्षोक्त्या च पराजेष्यमाणता व्यजिता ॥ औद्गन्धीमातृकः पदे स्वे लघुमौद्गन्ध्यामातृकं निवेश्य । अद्रिचरी व्यौहत द्विपाली चलमत्सीनयनाप्सरोरिरंसुः ॥८॥ ८८. औद्गन्धीमातृको राजा स्व आत्मीये पदे स्थाने राज्ये लघुमौद्गन्ध्यामातृकं स्वानुजं निवेश्य संस्थाप्य द्विपाली गजघटां व्यौहत युद्धाय व्यूहवतीं चक्रे । कीदृशीम् । अद्रौ चरत्यद्रिचरी तां विन्ध्याद्रिभवाम् । यतश्चलमत्सीवच्चञ्चलशफरीवल्लोलानि नयनानि यासां ता या अप्सरसस्ता रिरंसुः अन्तर्भूतण्यर्थत्वात्सकर्मकत्वे रमयितुमिच्छुः । “श्रितादिभिः” [३.१.६२] इति सः । रणे मरणादेवीबुभूषुरित्यर्थः ॥ सौगन्धीमातः सौगन्ध्यामात । पाङ्कजगन्धीमातृभिः पाङ्कजगन्ध्यामातरः । औद्गन्धीमातृकः औद्गन्ध्यामातृकम् । इत्यत्र "मात" [८५] इत्यादिनाबन्तष्यो वेच् ॥ अनिचरीम् । इत्यत्र “अस्य ड्या लुक" [८६] इत्यस्य लुक् ।। अस्येति किम् । द्विपालीम् ॥ मत्सी । इत्यत्र "मत्स्यस्य यः" [८७] इति यस्य लुक् ॥ जलमनुषीकाद्रवेय्युदीक्ष्यः सौरी सौरीयो नु भां दधानः । आगस्तीयो नु सिन्धुराजः संनद्यागस्त्यां दिशि स्थितो भात् ॥८९॥ ८९. मनुष्यो नार्यः कट्ठा अपत्यानि स्त्रियः शुभ्रादित्वाद् [६.१. १ ए सी चरी व्यौ . २ ए सी रीं सूरी'. ३ ए राजसं° सी राज्यं जसं'. ४ ए सी गस्त्यादिदि. १ बी क्या सहा. २ बी पेक्ष्योत्तया. ३ ए सी व्यक्षता. ४ बी त्मीयप. ५ बी ति समासः ।. ६ ए सी डी मातः । पा. ७ सी "स्य लुक् ॥ अ. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.४.८९. ] चतुर्थः सर्गः । ७३. ] यणि काद्रवेय्यो नाग्यः । द्वन्द्वे । जलस्य या मनुषीकाद्रवेय्यस्ताभिरुदीक्ष्यो मत्स्वाम्ययमिति बुद्धयोर्ध्वं विलोक्य: सिन्धुराजः समुद्राधिपत्वा यथार्थनामा सिन्धुराजाख्यो नृपः संनह्याभात् । कीदृक्सन् । सौरी सौयो नु भां दधनः । यथा सूर्यो देवतास्य देवताणि सौर्य: । सौर्याय हितः " तस्मै हितः " [ ७.१.३५ ] इतीये सौरीयोर्कः । सौरी सूर्यसत्कां भां तेजो धत्ते तथारिभिरसह्यत्वात्सौरीमिव सौरीं भां प्रतापं दधानः । तथागस्तीयो नु । अगस्त्यो देवतास्यागस्त्यस्तस्मै हितोगस्त्यर्षिः स इवागस्त्यामगस्तिर्संत्कायां दिशि दक्षिणस्यां सैन्यरचनाविशेषेण स्थितः । यमदिक्श्रयणोक्त्या चास्यावश्यंभावी पराजयः सूचितः । योपि सिन्धुराजो नदीपतिरब्धिः सोपि जलमानुषीकाद्रवेय्युदीक्ष्यः सौरीं सुरासंबन्धिनीं भां श्रियं सुरानुकारिनीरत्वात्सुराजनकत्वाद्वा दधान आगस्त्यां दिशि स्थितो भातीत्युक्तिः ॥ मनुषी । इत्यत्र " व्यञ्जनात्तद्धितस्य " [ ८८ ] इति यस्य लुक् ॥ व्यञ्जनादिति किम् । काद्रवेयी ॥ सौरीम् । सौरीयः । आगस्त्याम् । आगस्तीयः । अत्र " सूर्या" [ ८९ ] इत्यादिना यलुक् ॥ ननु सैधम सैध्यमप्यदोहः पौषातैषाणां नृणां हि सिद्ध्यै । जल्पन् गार्गीयतां यदूनामिति गार्गीभूतः ससज्ज लक्षः ॥९०॥ ९०. लक्षः ससज्ज युद्धाय प्रगुण्यभूत् । कीदृक्सन् । जल्पन् । किमित्याह । नन्विति संबोधने । हे यदुभटा अदो रणसंबन्ध्यहार्दिनं १ बी सैधम. २ ए सी गागीय.. १ ए सी स्मत्साम्य २ ए डी 'रीं सोरी ३ ए सी धान: सूर्योय ४ ए सी 'थाभिरि ५ ए सी 'स्यागस्त्य 'सक्तायां, ७ बी 'चनां वि ं. ८ ए सी सुराः सं ३५७ धानो सूर्योय. डी ६ ए सी डी Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ [मूलराजः ] सैधं सिध्यः पुष्यस्तेन चन्द्रयुक्तेन युक्तमसैध्यमपि पुष्येण चन्द्रयुक्ते - नायुक्तमपि पौषातैषाणां पुष्ये जाता “भर्तुसंध्यादेरण” [६.३.८९] इत्यणि पौषा एवं तिष्ये पुष्ये जातास्तेषा न तथातैषा द्वन्द्वे तेषां पुष्यजातानामपुष्यजातानां च नृणां सिद्ध्यै रणे मृता वै स्वर्गं यान्तीति स्मृते: स्वर्गप्राप्तिरूपकार्यसिद्धये हि स्फुटं भवति । सैधं हि दिनं किल । अपि द्वादशमे चन्द्रे पुष्यः सर्वार्थसाधकः । इतिवचनात्पौपाणामपौषाणां च नृणां सिधै स्यादिदं त्वसैधमपीत्यर्थ इति । केषाम् । यदूनां यादवभटानां पुरतः । यतो गार्गीयतां गर्गो गोत्रादिभूतो ब्राह्मणस्तस्यापत्यं वृद्धं गार्ग्यस्तमिच्छन्ति । क्यन् । तेषाम् । जयसिद्धिहेतु दिन पृच्छार्थं गार्ग्यब्राह्मणमिच्छतां यथा तथेदमहः सर्वकार्यसिद्धिकरमिति किं ब्राह्मणपृच्छयेति यदूनामग्रे वदन्नित्यर्थः । अत एवं चागाय गायों भूतो गार्गीभूतो गार्ग्यब्राह्मणवत्पृच्छकानां यदूनां कार्यसिद्धिकरं दिनं वदन्नित्यर्थः । अमुना च जल्पेन लक्षस्य रणे भावी मृत्युः सूचितः ॥ पौषातैषाणाम् । इत्यन्त्रं " तिष्य" [ ९०] इत्यादिना यलुक् ॥ तिष्यपुष्ययोरिति किम् । असैध्यम् ॥ अन्ये तु तिष्यपुष्ययोर्नक्षत्रे वर्तमानयोः सामान्येणि नित्यं सिध्यशब्दस्य तु विकल्पेन यलोपमिच्छन्ति । तन्मते तिप्यो देवतास्य तैष्य ( ? ) इत्यत्रापि प्राप्नोति । तथा सैधमसैध्यमित्यपि ॥ गार्गीयताम् । गार्गीर्भूतः । अत्र " आपत्यस्य " क्यच्च्योः " [ ९१] इति यस्य लुक् ॥ व्याश्रयमहाकाव्ये वात्स्यवात्सीयवात्स्यायनैर्वैल्वकैर्वैणुकैरागतं दैत्यराजन्यकम् । शस्त्रिमानुष्यकं तत्सपञ्चाग्निभिर्मूलराजस्य विप्रैः शशंसे तदा ॥ ९१ ॥ ९१. तदा शस्त्र प्रहरणान्वितं मानुष्यकं भटौघो यत्र तत्तथा दै१ सी नैव २ ए बी सी डी 'कैर्वेणु'. • १ डी पि पौ २ ए सी जास्त. ३ डी 'दशे च . ४ ए सी जयिसि .. ५ बी वगा. ६ ए सी षाणम् । ७ सी 'त्र त्यष्य ८ डी भूताः । अ. • Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.९१.] चतुर्थः सर्गः । त्यराजन्यकं दानवराजन्यौघ आगतमस्य मूलराजस्याने विप्रैः शशंसे कथितम् । किंभूतैः । बिल्वाः सन्त्यस्यां “नडादेः कीयः" [६.२.९२] इति कीये विल्वकीया नाम नदी तत्र भवैस्ततो वागतैर्बिल्वकैरेवं वैणुकैश्च । तथा स पञ्चाग्निभिः पञ्चाग्नाय्यो दक्षिणाहवनीयगार्हपत्यसभ्यावसथ्याख्यानां पञ्चानामग्नीनां भार्या देवता येषां देवताणो लुपि पञ्चाग्नय आहिताग्नयः सह तैर्ये तैस्तथा वत्सो गोत्रादिभूतो ब्राह्मणर्षिस्तस्यापत्यं वृद्धं वात्स्यस्तत्र साधवो वात्स्यास्तथा वात्स्यस्येमे शिष्या वात्सीयास्तथा वात्स्यस्यापत्यानि युवानो वात्स्यायना विशेषणन्नयद्वन्द्वे तैः । स्रग्विणी छन्दः ॥ पञ्चरामत्रिरम्भोरुषगोणिषमुचिषट्सप्तयूनां द्विपदाजिनाम् । हेषितं चाशृणोत्सोसिदण्डं दधत्पटुमारी रिपुस्त्रीत्वदोथोत्थितः ॥९२॥ ९२. द्विषद्वाजिनां शवश्वानां हेषितं स मूलराजोशृणोच्च । चस्तुल्ययोगितार्थः । यदैव दैत्यराजन्यकमागतं विप्रैः शशंसे तदैव स हेपितमँशृणोदित्यर्थः। किंभूतानाम् । पञ्चभी रामाभिर्नारीभेदैरीद्वन्दीभिः क्रीता इकणो "अनान्यद्विः प्लुप्" [६.४.१४१] इति प्लुपि पञ्चरामाः । एवं तिसृभी रम्भोरुभिः कदलीस्तम्भनिभोरुभिर्बन्दीभिः षड्भिर्गोणीभिरर्थान्मञ्जिष्ठादिक्रयाणकभृतैरावपनैः षभिः सूचीभिः पिशुनभार्याभिर्बन्दीभी रत्नसूचीभिर्वा षड्वा सप्त वा षटुप्तास्ताभिर्युवतिभिस्तरुणीभिश्च बन्दीभिः क्रीतास्त्रिरम्भोरवः षङ्गोणयः षट्सूचयः षट्प्तयुवानः । विशेषणद्वन्द्वे । तेषाम् । अथ हेषितश्रवणानन्तरमुत्थितः । कीदृक्सन् । असिदण्डं खङ्गं १ ए सीडी चासणो. १ ए सी विप्रैश. २ ए सी डी त्यस्या न. ३ ए बी सी तैबिल्व' ४ ए बीसी वं वेणु. ५ सी डी सत्वाख्या.६ ए सी चाम्यय०.७ ए सीडी मसणो'. ८ ए द्वन्दैभिः. सी डी द्वन्दिभिः. ९ सी दिप्लुपि प. १० ए सी रूभिक. ११ ए सी यष. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] दधत् । किंभूतम् । षटुमारों वसिष्ठादन्यैः पतिर्मुनिभिर्भर्तृभिः परित्यक्तत्वेन महाब्रह्मचारिणीत्वात्कुमारीव कन्येवाचरन्ति क्विपि तल्लुपिच कुमार्यः कृत्तिकास्ततः षण्णां कुमारीणामयं पटुमार्यो देवता अस्येति वा कृत्तिकानक्षत्रकत्वात् “द्विगो: " [ ७.१.१४४ ] इत्यादिनाणो लुपि पटुमारी तम् । खड्गस्य हि कृत्तिकानक्षत्रम् । यत्पुराणम् । असिर्विशसैनः खड्गस्तीक्ष्णधर्मा दुरासदः । श्रीगर्भो विजयश्चैव धर्माधारस्तथैव च ॥ इत्यष्टौ तव नामानि स्वयमुक्तानि वेधसा । नक्षत्रं कृत्तिका चैव स्वयं देवो महेश्वरः ॥ इति । अत एवारीणां स्त्रीत्वं ददात्यरिस्त्रीत्वदः । असिग्रहणेनातिभयंकरवींदरीन्स्त्रीरिवातिभीतान्कुर्वन्नित्यर्थः ॥ वात्स्य । वात्सीय । इत्यत्र " तद्धित " [ ९२] इत्यादिना यलुक् ॥ अनातीति किम् | वात्स्यायनैः ॥ बैल्वकैः । वैणुकैः । इत्यत्र “बिल्वकीयादेरीयस्य " [ ९३] इति यस्य लुक् ॥ राजन्यकम् । मानुष्यकम् । इत्यत्र “न राजन्य" [९४]इत्यादिना न यस्य लुक् ॥ पञ्चाग्निभिः । पञ्चराम | त्रिरम्भोरु | पप्तयूनाम् । इत्यत्र "ङयादेः " ११ [९५] इत्यादिना ङयादेर्लुक् ॥ अक्विप इति किम् । पटुमारी ॥ तद्धितलुकीति किम् । स्त्रीत्व ॥ अगोणीसूच्योरिति किम् । षङ्गोणि । षट्सूचि २ ॥ स्रग्विणी छन्दः ॥ १ ए सी डी वशिष्ठा° २ बी न्यैष ३ ए सी 'सन्नः ख डी स्वतमु . ५ डी स्त्रीत्वदः । ६ ए सी 'वादी स्त्री'. सी 'नैः । खेव' ८ बी कैः । वेणु. ९ ए सी डी 'क् । अकि. ११ सी डी री । १२ ए सी 'चि स्वस्र. ४ ए सी ७ बी नै: । बेल्व. १० बी 'जन इ. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० २.४.९६.] चतुर्थः सर्गः । निस्तिरस्करिणिराददेनतिब्रह्मबन्धुरयमुष्णगुप्रभः । वर्म पेष्टुमरिमर्द्धपिप्पलीवन्नृपः सहमहीयसी भुवा ॥ ९३॥ ९३. अयं नृपो मूलराजोर्धपिप्पलीवत् खण्डपिप्पलीमिवारिं पाहारि पेष्टुं हिंसितुं वर्माददे। कीदृक् । निस्तिरस्कैरिणिस्तिरस्करोतीत्येवंशीला णिनि बाहुलकादृयभावे तिरस्करिण्या जर्वन्या निष्क्रान्तः । तथानतिब्रह्मबन्धुब्रह्मबन्ध्वो जातिमात्रेण ब्राह्मण्योतिधार्मिकत्वात्ता अपि नातिक्रान्तः । तथोष्णगुप्रभः प्रतापेनार्कसमोत एव भुवा भूम्या कृत्वा सह महीयस्यातिमहत्या वर्तते यः स सहमहीयसी । अतिमहाप्रमाणोर्वीक इत्यर्थः ॥ उष्णगुप्रभः । निस्तिरस्करिणिः । अनतिब्रह्मबन्धुः । इत्यत्र "गोश्चान्ते" [९६]इत्यादिना ह्रस्वः ॥ अनंशिसमासे यो बहुव्रीहाविति किम् । अर्धपिप्पली। सहमहीयसी । थोद्धता छन्दः॥ स्फूर्जत्सारधि विप्रबन्धुसुहृदा तद्ब्रह्मबन्धूप्रियं लक्ष्मीवल्लभलक्ष्मिपुत्रसदृशा तेनाशु सज्जीकृतम् । गार्गीपुत्रमहेन्द्रसुतयुतैः कारीषगन्धीपतिप्रायैः श्रीसदनैर्नृपैः सह बलं भ्रूभङ्गभीमाननैः ॥ ९४ ॥ ९४. तेन मूलराजेन तत्स्वकीयं बलमाशु सज्जीकृतं सन्नाहितमित्यर्थः । किंभूतेन । लक्ष्मीवल्लभो विष्णुः लक्ष्मिपुत्रः कामः । ताभ्यां १ ए सी स्करणि. २ ए सी नैनृपैः. १ ए सी डी वत्पिप्प. २ सी सिव'. ३ ए सी स्करणि'. ४ ए सी वण्या नि. ५ डी निःक्रान्तः. ६ ए सी स्करणिः ।. ७ ए सी "गोस्वान्ते'. ८ ए सी रतोद्ध. डी रतो च्छन्दः. ९ ए सी डी पुत्रका. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ब्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] सदृशा । पराक्रमित्वप्रजापालकत्वरूपवत्त्वादिना तुल्येन । अत एव विप्रबन्ध्वो जातिमात्रेण ब्राह्मण्यस्तासामपि सुहृदा पालनया मित्रेण । कीदृग्बलम् । स्फूर्जन्ती स्फुरन्ती सारा स्थिरोत्कृष्टा वा धीयुद्धविधिविषयं परिज्ञानं यस्य तत् । अत एव निश्चितदैत्यबलविनाशनेन ब्रह्मबन्धूप्रियं जातिमात्रब्राह्मणीनामपि वल्लभम् । तथा कारीषगन्धीपतिप्रायैः कारीषगन्ध्याख्यराज्ञीभर्तृप्रमुखै पैः सह सहितम् । किंभूतैः । गार्गीपुत्रा द्विजाः । प्रस्तावात्तेत्र मत्रिणः । तथा महेन्द्रं ह्वयति महे. न्द्रहूर्नाम राजा । तस्य सुता महेन्द्रहूसुताः । द्वन्द्वे । तद्युतैः । तथा श्रीसदनैश्चतुरङ्गबलादिलक्ष्मीनिवासैः । तथा भ्रूभङ्गभीमानेनैः कोपवशाद्धकुटीविधानरौद्रवः ॥ सारैधि । इत्यत्र “क्लीबे" [९७] इति ह्रस्वः ॥ लक्ष्मिपुत्र लक्ष्मीवल्लभ । विप्रबन्धुसुहृदा ब्रह्मबन्धूप्रियम् । इत्यत्र "वेदूत" [१८] इत्यादिना वा इस्त्रः ॥ अव्ययादिवर्जनं किम् । अव्यये । सजीकृतम् ॥ वृत् । महेन्द्रहूसुत ॥ ईच् । कारीषगन्धीपति ॥डी। गार्गीपुत्र ॥ इयुत् । श्रीसदनैः। भूभङ्ग ॥ शार्दूलविक्रीडितं छन्दः ॥ ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्रा भिधानशब्दानुशासनद्याश्रयवृत्तौ चतुर्थः सर्गः संपूर्णः ॥ १ ए सी तैगागी . २ ए सी ननै को. ३ ए सी 'रधैत्य'. ४ बी सी ल्लभः । वि° ५ ए सी य । अजी. ६ सी दनै भ्रू'. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये पञ्चमः सर्गः । शैलप्रस्थमहित्रातरेवतीमित्रभूभुजाम् । सैन्येभूत्तस्य पुंनाट्यनान्दीतूर्य ध्वनद्धनुः ॥१॥ १. तस्य मूलराजस्य सैन्ये । शिलानां प्रस्थामिव शिलप्रस्थं नाम पुरं तत्र भवःशैलप्रस्थः । मही त्रासीष्टासौ “तिकृतौ नाम्नि" [५.१.७१] इति क्ते महित्रातो नाम । रेवती मित्रमस्य रेवतीमित्रो नाम । पदत्रयद्वन्द्वे ते ये भूभुजो मूलराजनृपास्तेषां ध्वनज्याकर्षवशाच्छब्दायमानं धनुरभूत् । कीहक् । नान्दी पूर्वरङ्गाङ्गं द्वादशतूर्याणां निर्घोषः । तानि चेमानि । भम्भा-मुकुन्द-मद्दल-कडम्ब-झल्लरि-हुँडुक्क-कंसाला । काहल-तिलिमा सङ्खो वंसो पैणवो य बारसमो॥ तूर्य तूरम् । नान्दी च तत्तूर्यं च नान्दीतूर्यम् । पुंसां पौरुषोपेतानां महावीराणां नाट्याय नृत्ताय नान्दीतूर्यमिव । महाभटा हि धनुर्ध्वनिश्रवणैर्नृत्यन्तीव ॥ मित्रे रेवतिमित्रस्य रणायोत्तस्थतुस्तदा । गङ्गाद्वारपती गङ्गमहगङ्गामहानुजौ ॥२॥ २. तदा गङ्गमहगङ्गामहानुजौ गङ्गमहाख्यस्तल्लघुभ्राता च मूलराजनृपौ रणायोत्तस्थतुः। किंभूतौ । गङ्गाद्वारपती गङ्गाया द्वारं यत्र तद्गङ्गा १ बी त्रस्य'. २ ए सी नाक. ३ बी हुडक. ४ ए पणमो य वा सम्मे । सी पणेमा य वा सम्मे।. ५ डी वो दुवालस. ६ ए सी नादीतू'. ७ ए सी नादीतू. ८ सी ङ्गाम. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ज्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] द्वारं नाम पुरं देशो वा तत्स्वामिनौ । तथा रेवतिमित्रस्यैवनाम्नो नृपस्य मित्रे ॥ महित्रोत | शैलप्रस्थ । इत्यत्र "ड्या : " [ ९९ ] इत्यादिना I लवचनात्क्वचिद्विकल्पः । रेवतिमित्रस्य रेवतीमित्र । गङ्गम चिन्न | नान्दीतूर्यम् । गङ्गाद्वार ॥ रोहिणित्वमजत्वं च नृपैर्दातुं प्रतिश्रुतम् । भयस्पृशे रोहिणीत्वमेजात्वमभयस्पृशे ॥ ३ ॥ ३. नृपैर्मूलराजसत्कभूपै रोहिणित्वं गोत्वमजत्वं च छागीत्वं च दातुं प्रतिश्रुतं प्रतिज्ञातम् । सामान्येनोक्त्वा विशेषेणाह । भयेत्यादि । भयस्पृशे कातराय रोहिणीत्वं दातुं प्रतिश्रुतम् । गौवध्येत भरूिणामवध्यत्वमङ्गीकृतमित्यर्थः । अभयस्पृशे शूरायाजात्वम् । अजा हि वध्येति शूरा एवास्माभिर्हन्तव्या इति प्रतिज्ञातमित्यर्थः । एतेन नृपाणां क्षात्रो धर्म उक्तः ॥ रोहिणित्वम् रोहिणीत्वम् । अजत्वम् अजात्वम् । इत्यत्र "वे” [ १०० ] इति बहुलं ह्रस्वः ॥ भटा भटेषु भ्रुकुटिं भ्रुकुंसा नर्तकीष्विव । दधुं कुंस कौन्तेय भ्रकुटीभृद्यमोपमाः ॥ ४ ॥ ४. भटा मूलराजयोधा भटेष्वरियोधेषु विषये भ्रुकुटिं सकोपभ्रूविकारं दधुः । यथा भ्रुकुंसाः स्त्रीवेषधारिणो नटा नर्तकीषु विषये १ बी 'मजत्व.. २ बी धुर्भुकुं ३ बी 'कौतेय'. खः ॥ बहु • गङ्गामह । - १ बी नो मित्रस्य. ४ ए सी ह । क'. stories. २ ए सी डी 'त्रातः । शै. ३ एसी हु. ५ ए सी डी 'तूर्य । ग ६ ए सी णां क्षेत्राध. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.१०१.] पञ्चमः सर्गः । ३६५ स्खलितादौ भ्रुकुटं ति । कीदृशाः । भ्रुवौ कुंसयति लिहाद्यचि [ ५.१.५० ] भ्रकुंसः स्त्रीवेषधारी नटो यः कौन्तेयः कुन्त्या अपत्यं “द्विस्वरादनद्याः” [६.१.७१] इत्येयण् । अर्जुनो विराटगृहे छद्मना नाट्याचार्योसावभूदिति प्रसिद्धिः । अत एवास्य बृहन्नट इत्याख्या । तद्वद्भकुटीभृतः सकोपभ्रूविकारधारिणोत एव रौद्रत्वाद्यमोपमा मृत्यु तुल्याः । विशेषणकर्मधारयः ॥ ५ भ्रू कुटीचापा मेनिरे मालभारिणः । suhagraद्योधाः पकेटकचितोर्गपि ॥ ५ ॥ ५. योधा मूलराजभटाः पक्का या ईंष्टका मृद्विकारास्ताभिश्चितं खचितं यगृहादि तद्वद्यदूर्ग बलिष्ठं भटादि तदपि मेनिरे । कीदृशम् । महाबलतयेषीकतूलवत् । इषीका कूचिका तस्यास्तूलमनस्थि कर्पासादि तद्वदसारम् । इषीकाया मुखे तूलमपि स्यात् । कीदृशः । भ्रूकुंस भ्रुकुटीचापा नर्तकोपाध्याय भ्रुकुटिवत्कुटिलकार्मुकाः । तथा मालभारिणः पुष्पमालाधारिणः || भ्रुकुंसाः । भ्रकुंस । भ्रुकुटिम् । भ्रकुटी । इत्यत्र "भ्रुवोच्च " [ १०१] इत्यादिना -हस्वोच ॥ भ्रूकुंसभ्रू कुटी शब्दावपीच्छन्त्यन्ये ॥ १२ मालभारिणः । इषीकतूलवत् । इष्टकचित । इत्यत्र " मालेषी" [ १०२ ] इत्यादिना -हस्वः ॥ 99 • १ ए सी डी 'दौ भ्रकु° २ बी न्तेयकु . ३ ए सी डी इत्यण् । ४ ए सी ५ ए सी 'शेषेण ६ बी इष्टिका. ७ बी 'खे मूल ८ ए सी 'शाः । कुं. ९ बी कुटव १० ए च । भ्रुकुं° सी च कुतूहल : १२ बी 'पीक' इ. कु. ११ ए सी · Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] गोणि बाणौघमर्यस्रपकं कर्कन्धुकाधनुः । पट्टिका भिल्लचमुकाधाद्धर्तुं रिपुलक्ष्मिकाम् ॥ ६॥ ६. पट्टिकाज्ञाता धनुर्विद्यादिषु कुशला भिल्लचमुका मूलराजसत्का नीचजातित्वात्कुत्सिता मेदसेना रिपुलक्ष्मिकां शत्रूणामन्यायार्जितत्वास्कुत्सितां लक्ष्मी हतु बाणौघमधाधारयत् । किंभूतम् । गोणि गोण्या मितं यावता गोणी भ्रियते तावन्तमित्यर्थः । तथा सुतीक्ष्णत्वेनारीणामस्रं रक्तं पिबति विचि अर्यस्रपा अज्ञातोर्यस्रपा अर्यस्रपकस्तम् । तथा कर्कन्धुकाधनुश्चाज्ञातबदरीचापं चाधात् । भिल्ला हि प्रायः सुप्रापत्वाद्वदरीधनुरतिलघुहस्तत्वादहून्बाणांश्च बिभ्रति ॥ गोणिम् । इत्यत्र “गोण्या मेये" [१०३] इति ह्रस्वः ॥ पष्टिका । अर्यस्रपकम् । लक्ष्मिकाम् । चमुका । कर्कन्धुका । इत्यत्र "ड्यादीदूतः के" [१०४] इति हस्वः ॥ सुलक्ष्मीकाः सुशक्तीकाचमूकाः कुरवोभ्रमन् । जिताम्रपाकाः खारीकातूणाकानयंतूणकाः ॥७॥ ७. कुरवः कुरुराजस्यापत्यानि भटा मूलराजसेवकाँ अभ्रमन् युद्धाय व्यचरन् । किंभूताः । सुलक्ष्मीकाः शोभनबलादिसंपदः । तथा सुशक्तीकाः शोभनशक्तिशस्त्राश्वम्वः सेना येषां ते सुशक्तीकाचमूकाः "तद्धिताक'' [३.२.५४] इत्यादिना पुंवत्त्वनिषेधः। तथा जिता अस्रपा रुधिरपायिनो दैत्या यै: "शेषाद्वा" [७.३.१७५] इति कचि जितात्रपाका दैत्यरणेष्वनेकशो लब्धजयपताका इत्यर्थः । तथा खारीकाः खार्या १डी म् । गोण्या. २ एसी मियतं. ३ सी वन्ता गो. ४ ए सी डी ज्ञाब'. ५ डी त्वाद्वाणां. ६ ए सी टिकाः । अ, ७ बी काभ्र. ८ ए सी य विच'. ९ बी क्ष्मीका शो'. Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.१०६.] पञ्चमः सर्गः। ३६७ क्रीता: “खारीकाकणीभ्यः कच्” [६.४.१४९] इति कच् । तूणा निषङ्गा येषां ते । तथानाः स्वर्णमण्यादिविच्छुरितत्वेन निर्मूल्यास्तूणा येषां ते तथा । ततो द्वन्द्वः । केचित्खारीकातूणाकाः केचिच्चानऱ्यातूणका इत्यर्थः ।। सुलक्ष्मीकाः । जितास्रपाकाः । सुशक्तीकाचमूकाः । खारीका । इत्यत्र "न कचि" [१०५] इति ह्रस्वो न ॥ खारीकातूणाकानय॑तूणकाः । इत्यत्र "न वापः" [१०६] इति वा ह्रस्वः ॥ जेतुं द्विट्सेनिकां स्कन्दसेनका इव भूभुजाम् । सेनाकाः कृत्निकाश्चक्रुर्दुर्गकाधिष्ठितास्त्वराम् ॥ ८॥ ८. कृत्निका अज्ञाताः सर्वा भूभुजां मूलराजनृपाणां सेनाका विशेषस्वामिसंबन्धित्वानवगमेनाज्ञातांश्चम्वो विटेनिकां द्विषो ग्राहारेः कुत्सितां सेनां जेतुं त्वरां वेगं चक्रुः। कीदृश्यः सत्यः । दुर्गकाधिष्ठिताः "ते लुग्वा" [३.२.१०८] इति देवीशब्दस्योत्तरपदस्य लोपे सकललोकवल्लभत्वेनानुकम्पिता दुर्गा "लुक्युत्तर" [७.३.३८.] इत्यादिना कमि(पि?) दुर्गका चामुण्डा । तयाधिष्ठिता अधिष्ठायकत्वेनाश्रिताः । स्कन्दसेनका इवेति स्कन्दस्य प्रियत्वादनुकम्पिता: सेना यथा द्विट्लेनिकां तारकदैत्यसेनां जेतुं त्वरां चक्रुः ॥ सेनिकाम् । सेनकाः । सेनाकाः । इत्यत्र “इच्च' [१०७] इत्यादिनेकारो हस्त्रश्च वा ॥ अपुंस इति किम् । कृत्निकाः । अनिदिति किम् । दुर्गका ॥ स्विका मृत्योः सुरेभस्य स्वकागर्जजयस्विका । ओजःस्वका गजघटा ज्ञिका युद्धे यते ज्ञका ॥९॥ ९. मूलराजीया गजघटागर्जद्गुलुलारवं चक्रे । एतेन राज्ञो भावी १ बी णाका के. २ ए बी सी सुशक्तीका । जितास्रपाकाः । सुलक्ष्मीकाः । सुशक्तीका च. ३ बी ताश्चाम्वो. ४ बी ठायिकात्वे. ५ डी सेना, ६ बी °लुगुला . डी लुगुलुटार'. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] विजयः सूचितः शुभनिमित्तत्वात् । कीदृशी । युद्धे रणकर्मणि ज्ञिकाज्ञातपण्डिता तथा यते निषादिनां पादकर्मणि ज्ञका तथौजो बलं तेजो वा तदेव स्वं धनं यस्याः सात एव जय एव स्वं धनं यस्याः सात एवं सुरेभस्यैरावणस्य स्वकाज्ञातज्ञतिरिव तथानेकजन्तु संहारित्वाद्रौद्राकीरत्वाच्च मृत्योर्यमस्य स्विका ॥ अजिका चर्मपर्याणारं हन्तुमजकामिव । तत्वरेश्वचमूः सेषुभस्त्रिका साम्बुभत्रका || १० | 1 १०. अश्वचमूर्मूलराजीयाश्वसेनारिमैजकामिव कुत्सितां छागीमिव हन्तुं तत्वरे रयेणाचलत् । कीदृशी । अज्ञाता छाग्यजिका तस्यावर्मणा पर्याणं पल्ययनं यस्याः सा । तथा सेषवो बाणभृता भस्त्रास्तूणा यस्यां सा । तथा सहाम्बुभस्त्रया जलदृतिना वर्तते या सा । तथाज्ञाता साम्बुभखा साम्बुभस्त्रका ॥ क्षत्रियिकाः क्षत्रियकापुत्रांश्रटकिकाचटौ । द्विषच्चटक काश्येनानूचुः सुनयिका युधि ॥ ११ ॥ ११. क्षत्रियिका अज्ञातक्षत्रियस्त्रियो द्विषच्चटक काश्येनाव् शत्रुकुत्सितचटकासु श्येनतुल्यान् क्षत्रियकापुत्रान्क्षत्रियान्युधि युद्धार्थमूचुः युद्धं क्रियतामित्यूचुरित्यर्थः । कीदृश्यः सत्यः । अज्ञाताः सुनया: सुनयिका: शोभननीतिज्ञों अत एव चटौ चाटुवचने विषये चटकिका अज्ञातचटकातुल्याश्चाटुकारिण्यः । एतेन मूलराजीयक्षत्रियस्त्रीणामपि युद्धविषय उत्साह उक्तः ॥ १ बी 'काः ॥ २ एसी युधिः ॥ सी युधेर.. २ ए सी तेजे वा. वि. ५ सी सहा ६ ए सी ८ ए सी पत्य ९ डी टका ३ बी व च सु.. ४ ए सी ज्ञारिकारित्वा ७ ए बी सी डी 'मजिका. १० बी युक्तार्थ. ११ बी 'ज्ञात'. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.१०७.] पञ्चमः सर्गः। ३६९ निःशकिकैलिष्ट रणामात्यिका पत्तिसंहतिः। द्विके युत्सूतिके तूणे द्वके श्रीसूतके भुजे ॥ १२ ॥ १२. पत्तिसंहतिर्मूलराजपदातिपतिर्युत्सूतिके युधो युद्धस्य सूतिके अज्ञाते सूते जननीतुल्ये जनितयुद्धे इत्यर्थः । द्विके अमेयशरंभृतत्वेनाज्ञाते द्वे तूणे तूणीरौ । तथा श्रीसूतके विजयलक्ष्मीजनन्यौ दुके अमेयबलत्वेनाज्ञाते द्वे भुजे बाहू चैक्षिष्ट। यतो निःशङ्किकाज्ञाता निर्भया शूरेत्यर्थः । तथा रणामायिका युद्धविषयेज्ञाता मत्रिणी । यथा राजादिरमात्यिकाभिप्रायेण प्रवर्तत एवं रणकर्मप्रवीणत्वाद्यदभिप्रायेण रणं प्रवर्तत इत्यर्थः ।। एषिका पुत्रिका मृत्योरेषका नासिपुत्रका । वृन्दारिका वृन्दारकापतिदेत्याददे भटैः॥ १३॥ १३. भटैराददे गृहीतासिपुत्रकैव । हेतुमाह । एषका प्रत्यक्षा । कृत्रिमः पुत्रः सूनुः “पुत्राणु" [७.३.२३] इति के पुत्रकः । स्त्री चेत्पुत्रका । असेः पुत्रकेवासिपुत्रका क्षुरिका । नासिपुत्रका न टुरिका । असिपुत्रकाशब्दः पुनरावय॑ते । किं तर्हि । एषिका मृत्योर्यमस्य पुत्रिका । यतो वृन्दारकापतीन्देवीनाथान्देवानपि द्यति खण्डयति । यद्वा । वृन्दारकाभ्यो देवीभ्यः पतिं ददाति या । अनया हि हताः सन्तोप्सरोभित्रियन्त इति । सा मृत्युहेतुरित्यर्थः । ईदृश्यपि कुत इत्याह । यतो वृन्दारिकातितक्ष्ण्यचन्द्रिकाधिष्ठितत्वादिना प्रशस्येति ।। स्त्रिका स्वका । जयस्विका ओजःस्वका । ज्ञिका ज्ञका । अजिका अजकाम् । सेषुभस्त्रिका साम्बुभस्त्रका ॥ यकार । क्षत्रियिकाः क्षत्रियका ॥ ककार । १एत्रकाः । वृ. १ सी रभूत°. २ ए सी डी पुत्रिकै. ३ ए बी सी डी न्दारिका'. ४ ए बी सी डी °न्दारिका. ५ ए सी रोमि बियं. ६ बी चण्डिका. ७ ए सी डी 'यिका । क्ष, Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ध्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] चटकिकाः चटकका । इत्यत्र "स्वज्ञाज" [१०८] इत्यादिना वेकारः ॥ धातुत्यवर्जनं किम् । सुनयिकाः । निःशङ्किका । अमात्यिका ॥ द्विके द्वके । एषिका एषका । सूतिके सूतके । पुत्रिका पुत्रका । वृन्दारिका वृन्दारका । इत्यत्र "येष' [१०९] इत्यादिना वेकारः॥ द्विड्भ्यो हर्तुं श्रियं श्येनी वर्तकाभ्यो नु वर्तिकाम् । युद्वर्तिका जटिलिकोत्तस्थौ मींशबन्धुता ॥ १४ ॥ १४. युद्धर्तिका रणकृत्सती मर्वीशबन्धुता मूलराजसेवकमरुदेशाधिपबन्धुसमूहो द्विड्भ्यः सकाशाच्छ्रियं जयलक्ष्मी हर्तुमुत्तावुद्यताभूत् । कीदृशी। जटा: संश्लिष्टकेशाः क्षेप्याः सन्त्यस्या जटिलाज्ञाता जटिला जटिलिका लोमशा । स्वरूपविशेषणमिदम् । यथा श्येनी पत्रिणी वर्तकाभ्यश्चटकाभ्यः सकाशाद्वर्तिकां चटकां हर्तुमुत्तिष्ठति ॥ नन्दका वः सकास्तु द्विद्धिपका ध्रुवका यका। भुजेति नरिकामूचुर्मामिकासीत्यहंयवः ॥१५॥ १५. नरानाद्भटान्कायति वर्णयति नरिका तां वृद्धस्त्रियं भट्टिनी वा मामिकासि मदीया त्वमित्यहंयवोहंकृता मूलराजयोधा ऊचुस्तव योगक्षेमौ वयं करिष्याम इति बहु मेनिर इत्यर्थः । कथं नरान्कायतीत्याह । सकाज्ञाता सा वो युष्माकं भुजानन्दकारिजाँद्वृद्धिहेतुरस्त्वाल्लोकानाम् । यकाज्ञाता या ध्रुवका दृढा सती द्विगु शत्रुषु क्षिपके १ ए सी डी जटलि'. २ ए सी स्थौ मुर्वी. ३ ए सी का दुव.. १ ए सी डी किका । चौ. २ ए सी डी स्वजाज. ३ ए डी °यिका । नि?. सी यिका । अ. ४ ए सी का । वृन्दिका । वृ. ५ बी इतत्र. ६ ए सी स्थावद्य. ७ ए सी जटासं. ८ ए सी डी ला जटिलि'. ९ए सी डी वर्तिका. १० बी वृद्धिस्त्रि. ११ ए सी या वृद्धि, Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० २.४.११२.] पञ्चमः सर्गः । ३७१ वास्त्रभेद इव द्विट्टिपका । यद्वा । द्विड या क्षिपका तस्या ध्रुवकेवावपनभेद इव द्विद्विपका ध्रुवकारिवधार्थं क्षिपकास्त्रभृदस्तीत्यर्थ इति ॥ वर्तिकाम् वर्तकाभ्यः । इत्यत्र "वौ वर्तिका " [ ११० ] इतीत्वं वा निपात्यम् ॥ वाविति किम् | युद्वर्तिका ॥ जैटिलिका । इत्यत्र " अस्यायत्" [११३] इत्यादिनेकारः ॥ अनिस्कीत्येव । नन्दका । आशिष्यकन् ॥ यत्तत्क्षिपकादिवर्जनं किम् । यका । सका । क्षिपका । 3 ध्रुव ॥ रिकाम् । मामिका । इत्यत्र 'नरिका मामिका” [१२] इतीत्वं निपात्यम् ॥ तारकातारिकास्त्रत्विर्णकावर्णिका दिवः । जयेष्टकाप्रतिज्ञानां कीर्तेः खार्यष्टिका न्वभात् ॥ १६ ॥ १६. तारकातारिका नक्षत्रवद्दीप्रा सत्यत्रत्व शस्त्रप्रभाभात् । कीदृशी । दिवो व्योम्नः कर्मणो वर्णकावर्णिका । वर्णयति वर्णका तान्तवः पटविशेषस्तयेव कृत्वा वर्णिका श्येतवर्णीकारिकातिसान्द्रत्वाद्वापद्यां श्वेतयन्तीत्यर्थः । यद्वा । दिव: सबन्धित्वेन वर्णकानां पदभेदानां वर्णिकेव लेश इव । तथा जयेरिविजये सत्यष्टकायाः पितृदैवत्यकर्मणः प्रतिज्ञाभ्युपगमो येषां तेषां मूलराजसैनिकानां संबन्धिन्याः कीर्ते: सत्काष्टिकाष्टद्रोणप्रमाणा खारी नु । अस्त्रत्विट् सितत्वाहुलत्वाच्चैवमाशङ्किता । अष्टद्रोणामपि खारी केचिदिच्छन्ति ॥ तारका । वर्णका । अष्टका । इत्येते "तारका" [११३] इत्यादिना निपात्याः ॥ अन्यत्र | तारिका । वर्णिका । अष्टिका खारी ॥ अष्टमः पादः समर्थितः ॥ १ ए सी डी जटलि. २ ए वी सी 'निक्तीत्ये'. 'काम् । मा'. ५ बी मामकेति इति नि ६ बीट शास्त्र ३ बी 'नं य° ४ सी ७ सी षां । तथा मू". Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः मूर्धाभिषिक्ता ग्राहारेः प्रणिनन्तोथ ताश्चमः । आगुरंध्युपलम्भाय जयस्येषुसुसिक्तखाः॥१७॥ १७. अथ मूलराजसैन्यस्य युद्धोपक्रमानन्तरं ग्राहारेर्मूर्धाभिषिक्ता नृपा जयस्योध्युपलम्भाय प्राप्यायागुः । किंभूताः सन्तः । इषुसुसिक्तखाः शरैः सुष्टु व्याप्तीकाशा अत एव ता मूलराजीया युद्धायोद्यता. श्वमूः प्रणिनन्तः प्रहरन्तः॥ शरौघैरतिसिञ्चन्तः पर्यानिन्युर्दिशोन्धताम् । अति स्थित्वोररीकृत्योरीकृत्यानि धनूंषि ते ॥ १८ ॥ १८. शरौघैः कृत्वा दिशोतिसिञ्चन्तोतिव्याप्नुवन्तस्ते मूर्धाभिषिक्ता दिश एवान्धतां विलोकाभावाद्विच्छायत्वाच्चान्धा इवान्धास्तावं पर्यानिन्युः प्रापयन् । किं कृत्वा । अति स्थित्वातिकमार्थोत्रातिः । शवतिक्रमणालीढादिस्थानं कृत्वा तथोरीकृत्यान्यङ्गीकर्तु योग्यानि धनूंप्युररीकृत्याङ्गीकृत्य ॥ दैत्यैः पटपटाकृत्य घुसृत्य स्वीकृतासिभिः । प्रसृत्य कारिकाकृत्य पत्तीन्सत्कृत्य दध्वने ॥ १९॥ १९. स्वीकृतासिभिर्गृहीतख दैत्यैर्दानवनृपैः कर्तृभिर्दध्वने सिंहनादः कृतः । किं कृत्वा । पटपटाकृत्य त्वरया पादन्यासैः पटत्पटच्छब्दं कृत्वा घुसृत्य च शत्रुष्ववज्ञया घुडिति शब्दं कृत्वा च । तथा १ सी 'रध्याप. २ ए सी ति स्थत्वो'. १ ए सी रेमूर्धा . २ सी स्याध्याप. ३ ए सी भूता स. ४ बी सिक्ताखा. ५ सीतावराशा. ६ डी लोकमा . ७ बी च्छायित्वा. ८ सीलीतादि. ९ डी वा xx च । त. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.१.] पञ्चमः सर्गः । ३७३ प्रसृत्य रणाङ्गणे विस्तीर्य । तथा कारिकाकृत्य रणे स्थितिं यत्नं क्रियां वा कृत्वेत्यर्थः । तथा पत्तीन्सत्कृत्याधुना युष्माकं हस्तैर्जेष्यत इति वचनैर्वस्त्रद्रव्यदानादिना च बहु मानयित्वा ।। भग्नं कुन्तमसत्कृत्यालंकृत्यासि च पाणिना । अदःकृत्यान्तर्हत्यैकः कणेहत्य पयः पपौ ॥ २० ॥ २०. एकः कश्चिद्दैत्यभटः कणहत्य पयः पपौ । शत्रुवधेनातिसंतुष्टत्वाद्यावत्तृप्तस्तावज्जलं पीतवानित्यर्थः । किं कृत्वा । भग्नं शत्रुप्रहारेण कुंटितं कुन्तमसत्कृत्यानादृत्य । तथासिं च पाणिनालंकृत्य गाढं मुष्टिग्रहणेन भूषयित्वा गृहीत्वेत्यर्थः । तथादः कृत्यावश्यं मया शत्रुर्घात्य इति चिन्तयित्वा तथान्तर्हत्यारं मध्ये हिंसित्वा च ॥ यशः पिबन्मनोहत्यारेः पुरस्कृत्य विक्रमम् । अस्तंनीयारिमच्छेत्याच्छोद्य कोप्यनमत्प्रभुम् ॥ २१ ॥ २१. कोपि दैत्यभटः प्रभुमनमत् । यतोरेर्यशो मनोहत्य पिबन्या - वत्तृप्तस्तावत्पिबन्नत्यन्तं स्वीकुर्वन्नित्यर्थः । किं कृत्वा । विक्रमं शौर्य पुरस्कृत्याकृत्वा । ततोच्छेयं । अच्छेत्यभ्यर्थे दृढार्थे वा । अभिमुखं दृढं वा गत्वा । तथाच्छोद्याभिमुखं दृढं वोक्त्वा । एतेन च्छलपरिहार उक्तः । ततोरिमस्तंनीय क्षयं नीत्वा । जित्वा हि भटाः संतोषोत्पादनाय प्रभुं प्रणमन्ति || प्रणिघ्नन्तः । अभिषिक्ताः । उपलम्भाय । इत्यत्र "धातोः पूजार्थ" [3] १ डी पौ xxx शत्रु". १ सी डी यलक्रि. २ ए र्थः था. ३ ए सी 'तुष्टात्वा ४ बी 'ण त्रुटि. ५ डी कुण्ठितं. ६ सी "त्यान्यादृ ७ सी गाढमु. ८ बीत्यभ्य ९ डी °¿ à°• १० सी क्षयनी .. Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ब्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] इत्यादिना प्रादिरुपसर्गसंज्ञः प्राक्क धातोः ॥ एषूपसर्गसंज्ञायां णत्वषत्वनागमाः सिद्धाः ॥ पूजार्थस्वत्यादिवर्जनं किम् । पूजार्थी स्वती । सुसिक्त । अतिसिञ्चन्तः । अत्रोपसर्गसंज्ञाया अभावे षत्वं न ॥ गतार्थावधिपरी । अध्युपलम्भाय । पर्यानिन्युः । अधिकभावः सर्वतोभावश्च प्रकरणोदेः प्रतीयत इति गतार्थत्वम् ॥ अत्र प्राक्स्वनियमाभावः । ततश्चोपलम्भायाधिनिन्युः । परीत्यपि स्वयमभ्यूह्यम् । पर्यानिन्युरित्यत्रानुपसर्गत्वापणश्च न स्यात् ॥अतिक्रमार्थोत्रातिः। अति स्थित्वा । अत्र षत्वं न स्यात् ॥ ऊर्यादि । ऊरीकृत्यानि । उररीकृत्य ॥ अनुकरण । घुट्कृत्य ॥ व्यन्त । स्वीकृत ॥ डाजन्त । पटपटाकृत्य ॥ चकारादुपसर्ग । प्रसृत्य । इत्यत्र "ऊर्यादि" [२] इत्यादिना गतिसंज्ञा धातोः प्राक्त्वं च ॥ गतित्वाद् "गतिः" [१.१.३६] इत्यव्ययत्वम् । “गतिकु” [३.१.४२] इत्यादिना समासश्च फलम् । एवमपि ज्ञेयम् ॥ कारिकाकृत्य । इत्यत्र “कारिकाo" [३] इत्यादिना गतिः प्राक्क ॥ अलंकृत्य । सत्कृत्य । असत्कृत्य । इत्यत्र “भूषादर'' [४] इत्यादिना गतिः प्राक्क॥ अन्तर्हत्य । अदःकृत्य । इत्यत्र “अग्रह" [५] इत्यादिना गतिः प्राक्क ॥ कणेहत्य । मनोहत्य । इत्यत्र “कणे' [६] इत्यादिना गतिः प्राक॥ पुरस्कृत्य । अस्तनीय । इत्यत्र "पुर" [७] इत्यादिना गतिः प्राच ॥ अच्छेत्य । अच्छोद्य । इत्यत्र “गत्यर्थ" [4] इत्यादिना गतिः प्राक्क ॥ १ सी अध्याप. २ सी जादे प्र. ३ बी तिः ।. ४ बी णम् । ५. ५ ए सी डी प्रात्कः । अ. ६ ए सी डी गति प्रा. ७ सी "त्य “पु. ८ सी डी अच्छो . ९ सी डी "नातिः, Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.९. ] पञ्चमः सर्गः । वल्गन्को प्यतिरोभूयाङ्गं तिरस्कृत्य वर्मणा । चर्मणां तिरः कृत्वा मध्येकृत्येभमप्यहन् || २२ ॥ २२. कोपि दैत्यभटो वल्गन्नृत्यन्सन्निभमपि । आस्तां पयश्वादि । महाबलं गजमप्यहन् । किं कृत्वा । अतिरोभूयाभयेनानिलीय रणाङ्गणे प्रकटीभूयेत्यर्थः । तथा वर्मणाङ्गं तिरस्कृत्याच्छाद्य तथांसं स्कन्धं चर्मणा स्फरण तिरः कृत्वापिधाय तथा मध्येकृत्य चिन्तयित्वार्थात्प्रहारप्रस्तावम् ॥ मध्ये कृत्वा नृपांस्तर्जन्पदेकृत्यापरो हयम् । पदे कृत्वा निवचने कृत्य वाचाजयत्परान् ॥ २३ ॥ ३७५ २३. अपरोन्यदैत्यभटो नृपान्मध्ये कृत्वान्तर्भाव्य नृपैः सहेत्यर्थः । पराञ् शत्रुभटांस्तर्जन्निर्भर्त्सयन्सन् वाचैव न तु प्रहारेणाजयत् । किं कृत्वा । यमश्वं पदेकृत्याहो अश्वरत्नमित्यादिकेस्त्याद्यन्तके पदे कृत्वा श्लाघित्वेत्यर्थः । ततः पंदे कृत्वा पादयोः कृत्वा युद्धार्थ चालवित्वेत्यर्थः । ततः परान्वाचा साक्षेपगिरा निवर्चनेकृत्य संक्षोभोत्पादनेन निर्वच नान्कृत्वा ॥ कश्चिन्निवचने कृत्वेशाज्ञां मनसिकृत्य च । यशो मनसि कृत्वोरसिकृत्य जयमुत्थितः ॥ २४ ॥ २४. कश्चिद्दैत्यो रणायोत्थितः किं कृत्वा । निवचने कृत्वा मौनं कृत्वा । ईशाज्ञां युद्धविधिविषयं स्वाम्यादेशं मनसिकृत्य च चित्ते धृत्वा १ सी 'शाज्ञाम १ ए सी डी त्यव्यादि. २ बी सी भूय भ. ३ सी 'र्था प्रा. ४ बी रोन्यो दें. ५ एसी पदेः कृ. ६ सी 'चकृ. ७ सी क्षोभ्योत्पा. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] च । यशो रिपुजयोत्थकीर्ति मनसि कृत्वा च । जयमुरसिकृत्य च चित्ते कृत्वा च । च: सर्वत्र क्त्वान्तेषु योज्यः ॥ खकानुरसि कृत्वान्य उपाजेकृत्य सादिनः । पत्तीनुपाजकत्वान्वोजे भानयुध्यत ॥ २५ ॥ २५. अन्यो दैत्यनृपोयुध्यत । किं कृत्वा । स्वकाज्ञातीनुरसि कृत्वा स्वहृदयाग्रे कृत्वा । तथा सादिन उपाजेकृत्य । पत्तीनुपाजे कृत्वा । इभानन्वाजे कृत्वा । दुर्बलानां भग्नानां वाश्वारोहपदातिहस्तिनां बला ४ धानं कृत्वा ॥ अन्वाजे कृत्य पुत्रं वे पदे कोप्यधिकृत्य च । सैन्ये स्वमधि कृत्वाभात्साक्षात्कृत्यास्त्रदेवताः || २६ ॥ १६. कोपि दैत्यनृपोभाद्दिदीपे । किं कृत्वा । पुत्रमन्वाजे कृत्य दुर्बलस्य भग्नस्य वा बलाधानं कृत्वा । तथौ स्व आत्मीये पदे राज्ये - धिकृत्य च स्वामिनं कृत्वा च । तथा सैन्ये स्वमात्मानमधि कृत्वा स्वामीकृत्य । तथास्त्रदेवताः शस्त्राधिष्ठायिका दुर्गाद्या: साक्षात्कृत्य च पूजावलिमत्र स्मरणादिना प्रत्यक्षीकृत्य || साक्षात्कृत्वासिकृत्यां स्वममिथ्याकृत्य दोर्बलम् । मिथ्या कृत्वा खलान्कीर्ति हस्तेकृत्यापरोनदत् ॥ २७ ॥ २७. अपरो दैत्यानदज्जगर्ज । किं कृत्वा । असिरेवारि मृत्युहेतुत्वात्कृत्या मारिदेवता तां साक्षात्कृत्वा प्रत्यक्षीकृत्य । तथा स्वमात्मीयं १ ए बी सी डी कृत्येभा'. १ एसी कीर्ति म ४ ए सी डी रोपप. २ बी सर्वः क्त्वा ३ ए बी सी डी कृत्य । दु. ५ ए सी था वे आ. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.१४.] पञ्चमः सर्गः। ३७७ दोर्बलममिथ्याकृत्य शत्रुवधेन सत्यीकृत्यात एव खलान् गेहेशूरेणामुना रणे न किंचिनिष्पाद्यत इत्यसत्यभाषिणः पिशुनान्मिथ्या कृत्वा । तथा कीर्ति जयोत्थं यशो हस्तेकृत्य भायां कृत्वा ॥ पाणौकृत्य रिपोर्लक्ष्मी प्राध्वंकृत्यापरः परम् । खाम्याज्ञां जीविकाकृत्योपनिषत्कृत्य चाययौ ॥ २८ ॥ २८. अपरो दैत्य आययौ स्वामिसमीपमागतः । किं कृत्वा । परं शत्रु प्राध्वंकृत्य बन्धनेनानुकूलं कृत्वा बद्धा वा । तथा रिपोर्लक्ष्मी हस्त्यश्वादिकां पाणौकृत्य भार्या कृत्वा गृहीत्वेत्यर्थः । तथा स्वाम्याज्ञां जीविकाकृत्य जीविकामिव कृत्वा यथा जीवनोपायः सर्वादरेण क्रियते तथा कृत्वेत्यर्थः । उपनिषत्कृत्य चोपनिषदमिव कृत्वा च । यथा रहस्यं सर्वादरेण पाल्यते तथा पालयित्वेत्यर्थः ।। अतिरोभूय । इत्यत्र “तिरोन्तौं ” [९] इति गतिः प्राक्क ॥ तिरस्कृत्य तिरः कृत्वा । इत्यत्र “कृगो न वा"[१०] इति वा गतिः प्राक्क ॥ मध्येकृत्य मध्ये कृत्वा । पदेकृत्य पदे कृत्वा । निवचनेकृत्य निवचने कृत्वा । मनसिकृत्य मनसि कृत्वा । उरसिकृत्य उरसि कृत्वा । इत्यत्र "मध्ये पदे" [११] इत्यादिना वा गतिः प्राक्क ॥ उपाजेकृत्य उपाजे कृत्वा । अन्वाजेकृत्य अन्वाजे कृत्वा । इत्यत्र "उपाजेन्वाजे" {१२] इति वा गतिः प्राच ॥ अधिकृत्य अधि कृत्वा । इत्यत्र "स्वाम्येधिः" [१३] इति वा गतिः प्राक्क ॥ साक्षात्कृत्य साक्षात्कृत्वा । अमिथ्याकृत्य मिथ्या कृत्वा । इत्यत्र "साक्षाद" [१४] इत्यादिना वा गतिः प्राक्क ॥ ४ ए सीण:. १बी बैलं म. २ डी कृत्या. ३ बी डी निष्पद्य'. पशु. डी णः पशुभान्मि'. ५ ए सी डी क्षादिना. ४८ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] हस्तकृत्य । पाणौकृत्य । इत्यत्र "नित्यं” [१५] इत्यादिना गतिः प्राक ॥ प्राध्वंकृत्य । इत्यत्र "प्राध्वं बन्धे" [१६] इति गतिः प्राक्क ॥ जीविकांकृत्य । उपनिषत्कृत्य । इत्यत्र “जीविका" [१७] इत्यादिना गतिः प्राक्क ॥ समासे नाम नाम्नेव शस्त्रं शस्त्रेण युध्यथ । ऐकायेंयोजि विस्पष्टपटुभिजेरै टैः॥२९॥ २. अथैवं दैत्यैर्युद्धस्य प्रारम्भानन्तरं युधि रणे समासे मिथः संबन्धेसत्यैकार्थे । निमित्तसप्तम्यत्र । विजयलक्षणैककार्येण हेतुना विस्पष्टपटुभिः प्रकटं शस्त्रविद्यानिपुणैर्गुजरै टैः शस्त्रं खड्गादि शस्त्रेणारिप्रहरणेन सहायोजि मीलितम् । यथैकार्थे सामानाधिकरण्ये सति यः समाँस ऐकपद्यं तस्मिन्नाम नाम्ना सह विस्पष्टपटुभिः प्रकटं शब्दविद्याचतुरैर्योज्यते ॥ समासे नाम नाम्नैकार्थे इत्युपमया "नाम नाम्ना' [१८] इत्यादि समाससंज्ञासूत्रं ज्ञापितम्। लक्षणं चेदमधिकारश्च । तेन बहुव्रीह्यादिविशेषसंज्ञाभावे यत्रैकार्थता दृश्यते तत्रानेनैव समाससंज्ञा स्यात् । यथा विस्पष्टपटुभिरित्यत्र गुणविशेषणस्य गुणवचनेन समासः ॥ त्रिदशारिषु ते द्विवानासन्नत्रानदूरपान् । अधिकाष्टानध्यर्धषान्युगपटषुः शरान् ॥ ३० ॥ ३०. ते गूर्जरभटास्त्रिदशारिषु त्रिर्दश त्रिदशा देवाः "प्रमाणीसंख्याडुः" [७.३.१२८.] इति डः। त्रिंशदेता देवतास्त्रयस्त्रिंशदेता देवतास्त्रिं १ सी इतत्र. २ बी कृत्त । इ. ३ ए सी कात्यत्र उ. ४ बी त्कृत । इ. ५ ए सी त्यैक्यार्थे । नि. ६ डी यत्समा. ७ सी डी मासे ऐ. ८ ए सी डी ससूत्रं सं. ९ बी विशिष्ट. १० ए सी त्रिदश त्रिर्दशा. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.१९.] पञ्चमः सर्गः। ३७९ शदक्षरा विराडिति श्रुतेः । तेषामरिषु दैत्येषु शरान्युगपदेककालं ववृधुर्मुमुचुः । कतिसंख्यान् । आसन्नास्त्रयो येषां तांश्चतुरः । तथादूरे षड् येषां तान्पञ्च सप्त वा । तथाधिका अष्टौ येभ्यो येषु वा तान्दशादीन् । अधिकत्वं चाष्टानामेकाद्यपेक्षम् । अवयवेन विग्रहः । समुदायः समासार्थः । तथाधिकमधैं येषु तेध्यर्धाः षड् येषां तानध्यर्धषान्नव च ॥ अर्धपञ्चमविंशान्केप्यश्वानुपदशा अपि । आरूढसुभटाञ्जनुष्ट्वैिन्ये मैत्तबढिभे ॥ ३१ ॥ ३१. मत्तबबिभे मदोत्कटानेकहस्तिके द्विदैन्ये वर्तमानान्केपि गूर्जरभटा अश्वाजघ्नुः । कीदृशान् । आरूढाः सुभटा यांस्तान् । तथार्ध पञ्चमी विंशतिर्यासु ता अर्धपञ्चमा विंशतयो येषां तान्नवतिमित्यर्थः । कीदृशाः । उप समीपे दश येषां तेपि नवाप्येकादशापि वा स्तोका अपीत्यर्थः ॥ उच्चैर्मुखानुष्ट्रमुखान्कृषस्कन्धान्सनन्दनान् । सौजा दक्षिणपूर्वास्थोदहत्कोप्यग्निवत्परान् ॥ ३२ ॥ ३२. दक्षिणपूर्वास्थो दक्षिणस्याश्च पूर्वस्याश्च दिशोर्यदन्तरालं सा दक्षिणपूर्वाग्नेयी दिक्तत्रस्थः सौजा विद्यमानप्रतापः कोपि गूर्जरभटोग्निवद्वह्निदेवतेव परानदहत्तीव्रप्रहारैः संतापितवान् । किंभूतान् । उच्चैःस्थाने मुखं येषां तान् । तथोष्ट्रमुखानुष्टमुखवद्वीभत्सवक्रान् । तथा वृषस्कन्धान्वृषभस्कन्धर्वत्पीनस्कन्धान्बलिष्ठानित्यर्थः । तथा सनन्दनान्पुत्रोपेतान् । अग्निरपि दक्षिणपूर्वदिगधिपत्वात्तत्रस्थः सतेजस्कश्च स्यात् ॥ १सी मन्यब. १ सी दृश उ. २ सी वत्मीन. Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] त्रिदश । द्विवान् । इत्यत्र “सुज्वार्थे" [१९] इत्यादिना बहुव्रीहिः ॥ आसन्नत्रान् । अदूरषान् । अधिकाष्टान् । अध्यर्धषान् । अर्धपञ्चमविंशान् । इत्यत्र “आसन्नादूर" [२०] इत्यादिना बहुव्रीहिः ॥ उपदशाः । इत्यन्न “अव्ययम्" [२१] इति बहुव्रीहिः ॥ आरूढसुभटान् ॥ अनेकं च । मत्तबबिभे ॥ अव्ययम् । उच्चैर्मुखान् । इत्यत्र "एकार्थं च” [२२] इत्यादिना बहुव्रीहिः ॥ उष्ट्रमुखान् । वृषस्कन्धान । इत्येतौ "उष्ट्रमुखादयः" [२३] इति बहुलं निपात्यौ॥ तुल्ययोगे । सनन्दनान् ॥ विद्यमानार्थे । सौजाः । इत्यत्र “सहस्तेन" [२४] इति बहुव्रीहिः ॥ दक्षिणपूर्वा । इत्यत्र “दिशो रूंढ्या' [२५] इत्यादिना बहुव्रीहिः ॥ केषुचिद्विदधानेषु कुन्ताकुन्ति कचाकचि । भूमिोहितगङ्गं नु रक्तैः पञ्चनदं न्वभूत् ॥ ३३ ॥ ३३. केषुचिद्भटेषु कुन्ताकुन्ति कुन्तैश्च कुन्तैश्च मिथः प्रहृय कृतं युद्धं केषुचिच्च कचाकचि कचेषु च कचेषु च मिथो गृहीत्वा कृतं युद्धं विदधानेषु सत्सु भूमी रणाङ्गणमभूत् । कीदृशम् । रक्तैलोहितैः कृत्वाँ लौहित्यालोहितगङ्गं नु लोहिता गङ्गा यत्र देशे स इव । तथा रक्तातिबाहुल्यात्पञ्चनदं नु पञ्चानां नदीनां समाहार इव ॥ द्विगोदावरि मेनेन्योथ त्रिगोदावरं रणम् । एकमुनि धनुर्वेदं द्विमुन्यस्य च दर्शयन् ॥ ३४ ॥ ३४. अन्यो गूर्जरो रणं द्विगोदावरि द्वयोर्गोदावर्योः समाहारमेवं १ ए सी डी कुतिक. १सी बीहे । आ. २ वीरूढ्योत्या. ३ बी त्यकुन्तयु'. ४ बी 'घु क. ५ बी पु मि. ६ बी "त्वाल्लौहि. ७ ए डी सी वों स. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.२६.] पञ्चमः सर्गः। ३८१ त्रिगोदावरं च मेने । प्राणत्यागेन स्वर्गफलत्वाहिगोदावरित्रिगोदावरतीर्थयोस्तुल्यं मेन इत्यर्थः । लोके हि द्विगोदावरि त्रिगोदावरं च तत्र प्राणत्यागिनां स्वर्गहेतू महातीर्थे प्रसिद्ध । कीदृक्सन् । एको मुनिर्वंश्य आद्यः कारणपुरुषोस्य तदेकमुनि धनुर्वेदं धनुर्विद्याशास्त्रं दर्शयन्सदभ्यस्तधनुर्विद्यत्वेनालीढादिस्थानानि सम्यक्सत्यापयन् । तथास्य धनुर्वेदस्य द्विमुनि च द्वौ मुनी वंश्यौ च दर्शयन् द्विमुनिकृतधनुर्वेदोक्तधनु:कलानां सम्यक्सत्यापनेन द्वौ मुनी साक्षादिव दर्शयन् ॥ सप्तकोशि स्वराज्यस्य गङ्गापारपंतिः स्मरन् । पारेरिचमु मध्येश्वमिभमध्येर्दयन्ययौ ॥ ३५ ॥ ३५. गङ्गापारपतिर्गङ्गातीराधिपो मूलराजसेवकः काशिदेशराजः पारेरिचरौं शत्रुसेनापारं ययौ । कीडक्सन् । स्वराज्यस्य सप्तकाशि सप्रकाशीन्काशिदेशाधिपान्स्ववंश्यान्स्मरन् सप्तापि स्वानि कुलानि रणपारगतादिगुणोपेतानि परिभावयन्नित्यर्थः । अत एव मध्येश्वं तुरङ्गचमूमध्य इभमध्ये हस्तिचमूमध्येर्दयन्नरिचमूंनन् ॥ कोप्यन्तर्धनुराज्यन्तः कराग्रेग्रेधिपं शरान् । यावदिपु परिक्लीवमपात चाजयं न्यधात् ॥ ३६॥ ३६. कोपि गूर्जर आज्यन्ता रणमध्येोधिपं स्वस्वाम्यग्रे वर्तमानोन्तर्धनुश्चापमध्यभागे कराग्र आकर्णान्तमाकृष्टत्वाद्धस्तयोरग्रभागे च वर्तमानाब् शरान्यधाच्छत्रुष्वक्षिपत् । कथम् । परिक्लीवं निःसत्वा १ ए सी कासि स्व. २ ए सी पति स्म'. १ बी वरीती. २ ए सी शास्त्रद'. ३ बी च तु द. ४ ए सी मु सित्रु. ५ डी मध्ये ह. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] न्वर्जयित्वापात चं प्रहारादिना पीडितांश्च वर्जयित्वा । तथा चावद्रिपु यावन्तो रिपवस्तार्वत इत्यर्थः । तथा आजयं विजयं मर्यादीकृत्य ॥ सेना प्रागर्बुदं राज्ञां बहिर्गृहं प्रतिद्रिपम् । अभ्यश्वं च प्रसृत्यानुजम्बुमालि स्थिता बभौ ॥ ३७॥ ३७. प्रागर्बुदमर्बुदाद्रेः प्राक्पूर्वदिग्वासिनां राज्ञां मूलराजनृपाणां सेना बभौ । कीहक्सती । बहिव्यूह मूलराजीयाञ्चक्रगरुडादेव्यूहादहिभूता । तथा प्रतिद्विपमभ्यश्वं च प्रसृत्य रिपूणां द्विपानश्वांश्च लैक्ष्यीकृत्याभिमुखं विस्तीर्यानुजम्बुमालि स्थितातिबहुत्वाजम्बूमाल्या लक्षणभूताया आयामेनावस्थिता । अर्बुदसेनातिशूरत्वान्यूहान्निर्गत्य युद्धार्थ शत्रूनभि प्रसृतेत्यर्थः ॥ कचाकचि । कुन्ताकुन्ति । इत्यत्र "तत्रादाय" [२६] इत्यादिनाव्ययीभावः॥ लोहितगङ्गम् । इत्यत्र "नदीभिर्नाम्नि" [२७] इत्यव्ययीभावः ॥ पञ्चनदम् । त्रिगोदावरम् । इत्यत्र "संख्या" [२८] इत्यादिनाव्ययीभावः ॥ अन्ये तु पूर्वपदप्राधान्येव्ययीभावो गोदावरीणां त्रित्वं त्रिगोदावरम् । समाहारे तु द्विगुरेवेत्याहुः । द्वयोर्गोदावर्योः समाहारो द्विगोदावरि ॥ द्विमुन्यस्य । सप्तकाशि स्वराज्यस्य । इत्यत्र “वंश्येन" [२९] इत्यादिनाव्ययीभावः ॥ यदा तु विद्यातद्वतामभेदविवक्षा तदैकमुनि धनुर्वेदमित्यादि सामानाधिकरण्यं स्यात् ॥ १ सी हं मूलराजी. १ ए सी च प्राहा. २ ए सी डी वन्त इ०. ३ ए सी ४ सी डी क्षणाभू. डी लक्षीकृ'. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.३५. ] पञ्चमः सर्गः । ३८३ पारेरिचमु गङ्गापार | मध्येश्वम् इभमध्ये । अग्रेधिपम् कराग्रे । अन्तर्धनुः आज्यन्तः । इत्यत्र "पारे" [३०] इत्यादिना वाव्ययीभावः ॥ यावद्विषु । इत्यत्र " यावदियत्वे " [३१] इत्यव्ययीभावः ॥ परिक्लीबम् | अपार्तम् । आजयम् । बहिर्व्यूहम् । प्रागर्बुदम् । इत्यत्र “पैर्यपाड़" [३२] इत्यादिनाव्ययीभावः ॥ अभ्यश्वम् । प्रतिद्विपं प्रसृत्य । इत्यत्र "लक्षणेन" [३३] इत्यादिनाव्ययीभावः ॥ अनुजम्बुमालि स्थिता । इत्यत्र "दैर्घ्येनुः " [३४] इत्यव्ययीभावः ॥ अनुस्खाम्यनु नद्यास्ते तिष्ठपि वहद्भिव । युध्यमाना अमन्यन्त धारयन्तः श्रमप्रति ॥ ३८ ॥ 1 ३८. युध्यमानाः शत्रुषु प्रहरन्तस्तेर्बुदात्याच्या नृपास्तिष्ठन्ति गावो यस्मिन्काले दोहाय वत्सेभ्यो निवासाय जलपानार्थं वा तत्तिष्टद्वपि संध्याकालमप्यमन्यन्ताज्ञासिषुः । कीर्हेशम् । वहन्ति गावो यत्र चरणाय जलपानाय वा तद्वद्भिव प्रभातमिव संजातघटिकाद्वयप्रमाणदिनमिव । यतः श्रमप्रति खेदाल्पत्वं धारयन्तः । कुत एतदित्याह । यतोनुस्खामि स्वामिनः समीपे नद्या जम्बूमाल्या अनु समीपे च वर्तमानाः । समीपस्थे स्वामिनि श्लाघादि कुर्वाणे नादेयशीतलजललवोन्मिश्रवायुसंपर्के च श्रमो ह्यल्पीयान्स्यात् । एतेनैषामत्यन्तं युद्धरसिकत्वमुक्तम् ॥ अनुस्वामि । अत्र " समीपे” [३५] इत्यव्ययीभावः ॥ अनोरव्ययत्वाद् १ एसीयन्तं धा. १ डी इवम् अ. २ बी धेनु आ. ३ ए सी "पयुपा'. ४ सी दृशे । व ५ ए सी 'हग्विव. ६ सी मिन: स. ७ सी 'तेनेषा'. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ व्याश्रयमहाकाव्ये मूलराजः] "विभक्तिसमीप” [३९] इत्यादिनैव समासे सिद्धे विकल्पार्थं वचनम् । तेन वाक्यमपि । अनु नद्याः॥ तिष्टट्नु । वहद्नु । इत्यत्र “तिष्ठंगु" [३६] इत्यादिनाव्ययीभावः ॥ श्रमप्रति । इत्यत्र “नित्यं" [३५] इत्यादिनाव्ययीभावः ॥ शलाकापर्यक्षपरि द्विपरीवाजयैः परैः। तेध्याज्युपनदि क्षुण्णैः मुभिक्षं रक्षसां व्यधुः॥ ३९ ॥ ३९. परैः शत्रुभिः कृत्वा तेर्बुदात्याच्या नृपा रक्षसां सुभिक्षं भिक्षाणां समृद्धिं व्यधुरनेके शत्रवो हता इत्यर्थः । किंभूतैः । अजयैनिःप(प्प)राक्रमित्वाजयरहितैः। शलाकापर्यक्षपरि द्विपरीवेति । एकया शलाकया द्विधाकृतमल्लकवंशादिमय्या तथैकेनाक्षेण पाशकेन तथा द्वाभ्यामक्षाभ्यां शलाकाभ्यां वा न तथा वृत्तं यथा पूर्वजय इति विग्रहः । सर्वत्र सप्तम्या लुक् । इवशब्दः प्रत्येकं संबध्यते । पञ्चिका नाम छूतं पञ्चभिरक्षैः शलाकाभिर्वा स्यात् । तत्र यदा सर्व उत्ताना अवाञ्चो वा पतन्ति तदा पातयितुर्जयोन्यथा पाते पराजयस्ततोयमर्थः । यथा प. ञ्चिकाद्यूत एकया शलाकयैकेनाक्षेण वा द्वाभ्यां शलाकाभ्यामक्षाभ्यां वान्यथापाते द्यूतकारा अजया जयरहिताः स्युः । अत एवाध्याँजि रण उपनदि जम्बुमालीसमीपे क्षुण्णैर्विदारितैः ।। दुःसुराष्ट्र निःसुराष्ट्रमतिम्लेच्छं विधायिषु । तेष्वत्यत्रं ब्रुवन्तोनुद्विपं जग्मुर्द्विषद्भटाः॥४०॥ ४०. अनुद्विपं हस्तिनां पश्चाद् द्विषद्भटा दैत्या जग्मुः । प्राणरक्षार्थं १ बी नद्या ॥. २ ए सी डी गु" इ. ३ ए सी यक्षिप. ४ बी पूर्व ज'. ५ सी थाते. ६ ए सी ते जप. ७ ए सी ध्यारिजि. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.१.३८. ] पञ्चमः सर्गः । ३८५ निलीना इत्यर्थः । किंभूताः सन्तः । अत्यत्रं शस्त्राणां ग्रहणे प्रस्तावाभावं ब्रुवन्तः । केषु सत्सु । तेष्वर्बुदात्प्राच्येषु नृपेषु । कीदृक्षु । दुःसुराष्ट्रं सुराष्ट्राणां सुराष्ट्रादेशस्यभटानां छत्रपातनादिना ऋद्धेविंगमं निःसुराष्ट्रं सुराष्ट्राभटानामभावमतिम्लेच्छं म्लेच्छौनां भिल्लादीनामतीतत्वं सतामेवातिक्रमं च विधायिषु ॥ २ नानुज्येष्ठमयुध्यन्तेतिमूलराजमिच्छवः । 7 सचक्रं धेहि सकुलं कुर्वित्यन्योन्यवादिनः ॥ ४१ ॥ ४१. अर्बुदात्प्राच्या नृपा अनुज्येष्ठं ज्येष्ठानुक्रमेण नायुध्यन्त क्रमं मुक्त्वाहमहमिकया युयुधिर इत्यर्थः । कीदृशाः सन्तः । इतिमूलराजं मूलराजशब्दस्य लोके जयोत्थां ख्यातिमिच्छवोत एव सचक्रं धेहि सकुलं कुर्वित्यन्योन्यवादिनश्चक्रास्त्रेण सहैककालं खङ्गादिकं धारय चक्राणि वा युगपद्धारय । तथोत्कृष्टयुद्धेन कुलस्य सदृशं कुर्विति मिथो भाषिणः ॥ कीर्ति सार्णवं भर्तुर्भूयादित्यर्बुदेश्वरः । सनामारीन हन्प्रत्यर्यनुरूपं कृतायुधः ॥ ४२ ॥ ४ ४२. भर्तुर्मूलराजस्य सकीर्ति कीर्तेः संपत्सार्णवमर्णवसाकल्येन स - कलेष्वर्णवेष्वित्यर्थः । यद्वार्णवपर्यन्तं यथा स्यादेवं भूयादिति हेतोर्बुदे - श्वरोनहन् । कीदृक्सन् । प्रत्यर्यरिमरिं प्रत्यनुरूपं रूपस्य स्वाकृतेयोग्यं यथा स्यादेवं कृतायुधो व्यापारितास्त्रः । कथमहन् । सनाम १ सी हिसंकु २ सी 'रूपक'. १ डी राष्ट्र. २ ए सी निःपुरा° ३ ए सी च्छाभि ४ सी कीर्तिः सं ५ बी वसा ६ सी 'पस्या स्वा. ४९ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ व्याश्रयमहाकाव्ये मू मूलराजः] नाम्ना सह यशःपर्यन्तं नामधेयपर्यन्तं वा यश:साकल्येन नाम । धेयसाकल्येन वा यशो नामधेयं वा यथा पश्चान्न स्थितमेवमित्यर्थः ॥ प्रहरन्स यथाधर्म सद्रोणं धनुषा वहन् । त्रायमाणो यथावस्तं तथा रेजे यथार्जुनः ॥ ३ ॥ ४३. यथार्जुनो रेजे तथा सोर्बुदेश्वरो रेजे यतो यथाधर्म क्षात्रधर्मस्यानतिक्रमेण प्रहरंस्तथा धनुषा धनुःकर्मणा कृत्वा सद्रोणं द्रोणाचार्यसादृश्यं वहंस्तथा यथात्रस्तं येये भीतास्तांस्त्रायमाणो रक्षन् । द्विपरि । अक्षपरि । शलाकापरि । इत्यत्र "संख्याक्ष" [३८] इत्यादिना. व्ययीभावः ॥ अध्याजि । उपनदि । सुभिक्षम् । दुःसुराष्ट्रम् । निःसुराष्ट्रम् । अतिम्लेच्छम् । अत्यस्त्रम् । अनुद्विपम् । अनुज्येष्ठम् । इतिमूलराजम् । सचक्रम् । सकुलम् । सकीर्ति ॥ साकल्येन्ते च । सार्णवम् । सनाम । इत्यत्र “विभक्ति" [३९] इत्यादिनाव्ययीभावः ॥ अनुरूपम् । प्रत्यरि । यथाधर्मम् । सद्रोणम् । इत्यत्र "योग्यता' [४०] इत्यादिनाव्ययीभावः ॥ यथात्रस्तम् । इत्यत्र “यथाथा" [१] इत्यव्ययीभावः ॥ अथा इति किम् । यथार्जुनः॥ स्वीकृत्याकुज्यकं धन्वोत्क्षेतुं कुतृणवत्परान् । सोदुष्कृतजयश्चके सुराजा शरदुर्दिनम् ॥४४॥ ४४. सुराजा न्यायित्वात्पूजितो नृपोर्बुदेश्वरः परान्कुतृणवदसार१ सी र्जुनो रे. १ ए सी अज्याजि । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.१.१४.] पञ्चमः सर्गः। ३८७ तृणानी.वोत्क्षेप्नुमुत्पाटयितुं शरदुर्दिनं शरैः कृत्वा प्रकाशाभावेन निन्दित दिवसं चक्रे । किं कृत्वा । असती कुत्सिता ज्या यत्र तदकुज्याक श्रेष्ठप्रत्यञ्च धन्व धनुः स्वीकृत्य । यतः कीदृक् । अदुष्कृतो महाशूरत्वादकृच्छ्रेण विहितो जयोनेकारिपराभवो येन सः । अनेकरणेपु लब्धजयपताक इत्यर्थः ॥ स्वीकृत्य । कुतृणवत् । इत्यत्र "गतिकु” [४२] इत्यादिना तत्पुरुषः ॥ अन्य इति किम् । अकुज्यकम् । अत्र बहुव्रीहित्वात्कच् स्यात् ॥ दुर्दिनम् । दुष्कृत । इत्यत्र "दुर्" [४३] इत्यादिना तत्पुरुषः॥ सुराजा । इत्यत्र "सुः पूजायाम्" [४४] इति तत्पुरुषः ॥ श्रीमालस्यातिराजातिसिञ्चन्नाताम्रदृक् शरैः। विपक्षमभटान्व्यामोदतिवेल इवार्णवः ॥४५॥ ४५. श्रीमालस्य भिल्लमालापरनाम्नः पुरस्यातिराजा न्यायपालनेन पूजितोधिपोर्बुदेश्वरो विरुद्धाः पक्षा विपक्षाः शत्रवो ये प्रभेंटाः प्रकृष्टा भटास्ताञ् शरैर्व्याप्नोदाच्छादयत् । कीहक्सन् । आताम्रकोपेनारक्ताक्षोत एव शरैरतिसिञ्चन् रणाङ्गणमतिक्रमेण व्याप्नुवन्नत एव चोत्प्रेक्ष्यते । अतिवेलो निर्मर्यादोर्णव इव ।। प्रतिलोमान्यवेभानि संवर्माणि बलानि सः । उद्रणः परियुद्धानि नियुद्धान्यपभीय॑धात् ॥ ४६ ।। ४६. सोर्बुदेश्वरोपभीरपगतो भियोत एवोद्रणो रणायोयुक्तः सन्ब १ ए सी डी भीव्यधा. १ सी नीवाक्षेप्तु. २ ए सी डी यतो की . ३ ए सी पक्षाश. ४ बी भटाप्र. ५ डी रक्षाक्षो. ६ बी रैरिति. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ व्याश्रयमहाकाव्ये मूलराजः] लानि शत्रुसैन्यानि परियुद्धानि युद्धाय परिग्लानानि नियुद्धानिए युद्धानिष्क्रान्तानि च व्यधात् । कीद्वंशि सन्ति । प्रतिलोमानि लोपानि प्रतिगतानि प्रतिकूलं गतानीति व्युत्पत्तिमात्रं लक्षणया द्विषन्ति । तथावेभानीभैरवक्रुष्टानि गजबृंहितोपेतानीत्यर्थः । तथा संवर्माणि वमणा संनद्धानि ॥ अतिक्रमे । अतिसिञ्चन् ॥ पूजायाम् । अतिराजा । इत्यत्र "अतिर" [४५] इत्यादिना तत्पुरुषः॥ आताम्र । इत्यत्र “आङल्पे” [४६] इति तत्पुरुषः ॥ प्रादयः । प्रभटान् । विपक्ष ॥ अत्यादयः । अतिवेलः । प्रतिलोमानि ॥ अवादयः । अवेभानि । संवर्माणि ॥ पर्यादयः । परियुद्धानि । उद्गणः ॥ निरादयः । निर्युद्धानि । अपभीः । इत्यत्र “प्रात्यव” [४७] इत्यादिना तत्पुरुषः ॥ पुनःप्रवृद्धरोमाञ्चपुनरुत्स्यूतकञ्चकः। परमारः सोसिघातं शख्याघातं द्विषोक्षिपत् ॥ ४७ ॥ ४७. पराञ् शत्रून्मारयति "कर्मणोण्" [५.१.७२] इत्यणि परमारः । परमारः क्षत्रियविशेषजातिः । सोर्बुदेश्वरोसिघातं खड्न हत्वा शरुयाघातं क्षुरिकथा हत्वा च द्विषोक्षिपन्निराकरोत् । कीडक्सन् । पुनः प्रवृद्धा वीररसोत्कर्षाद्भूयः स्फीतीभूता ये रोमाञ्चास्तैः पुनरुत्स्यूतो भूयस्तुटितः कञ्चुको वर्म यस्य स तथा ॥ पुनःप्रवृद्ध । पुनरुत्स्यूत । इत्यत्र “अव्ययम्” [४८] इत्यादिना तत्पुरुषः । परमारः । इत्यत्र "डस्युक्तं कृता" [४९] इति तत्पुरुषः ॥ १ ए सी युधाय, २ ए सी नियु. डी "नि यु. ३ सी. "नि प्रति प्र. ४ बी संबद्धा. ५ ए सी डी पः ॥ अता. ६ ए सी दय । अ. ७ ए बी सी मारक्ष. ८ सी पु. ९ बी वृद्धः । पु. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.०.५१.] पञ्चमः सर्गः। ३८९ असिघातम् । शस्याघातम् । इत्यत्र "तृतीयोक्तं वा" [५०] इति वा तत्पुरुषः॥ । अहितानकृतासूर्यपश्यान्स शरदृष्टिभिः।। है अपुनर्गेयवाक् क्रुद्धोश्राद्धभोजी द्विजो यथा ॥४८॥ ४८. सोर्बुदेश्वरोहितानरी शरवृष्टिभिः कृत्वा व्याप्तव्योमत्वात्सूयमपि न पश्यन्यसूर्यपश्यास्तानकृत चक्रे । कीदृक्सन् । क्रुद्धोत एव पुनर्न गेया न वक्तुं शक्या वाग्यस्मिन्स तथातिरौद्र इत्यर्थः । श्लेषोपमामाह । यथाश्राद्धभोजी श्राद्धं न भुत इतिव्रतोतिनैष्ठिक इत्यर्थः । द्विज: क्रुद्धोत एवापुनर्गेयवाक्सञ् शरवृष्टितुल्यैः शापवचनैरहितानपराद्धृनसूर्यपश्यानन्धान्करोति । अतिनैष्ठिकद्विजो हि कुपितः सत्यशाप एव स्यात् ।। वक्षोलवणभोजीवाकार्णवेष्टकिकान्स तान् । अवत्सीयानवध्यत्रोभि नासान्तापिकोभवत् ।। ४९ ॥ ४९. अवध्यान्वधाननि द्विजगोवत्सादीन्दैत्यत्वेन नन्ति ये तानवध्यन्नोत एवावत्सीयान्न वत्सेभ्यो हितांस्तान्दैत्यानभि इत्थंभूतेत्राभिः । सोर्बुदेश्वरः सांतापिक: "तस्मै योगादेः शक्ते" [६.४.९४] इतीकणे। संतापाय न शक्तो नाभूत् । द्वौ नौ सातिशयमर्थ गमयत इत्यत्यन्तं संतापाय शक्तत्वप्रकारमापन्नोभवत् । यतोकार्णवेष्टकिकान्कर्णवेष्टकाभ्यां न शोभमानान्कर्णाद्यगावयवच्छेदेन कुण्डलशोभारहितान् । स च कीदृक् । स्वक्षो जितकाशित्वेन प्रमुदितत्वात्पटुविकसितनेत्रोलवणभोजीव । यथा लवणमभुञ्जानो रक्ताशुद्रेकोत्थरोगाभावेन स्वक्षः स्यात् । अर्बुदेश्वरं हसिताक्षं वीक्ष्य प्रहारजर्जरिताङ्गाः शत्रवः संतेपुरित्यर्थः ।। १ सी श्राद्धं. २ ए सी ण । सांता . ३ बी तकांसित्वे'. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराज: ] अहितान् । इत्यत्र “नञ्” [ ५१] इति तत्पुरुषः ॥ निवृत्यमानताश्चो त्तरपदार्थः । पर्युदासे नन्समासार्थः । प्रसज्यप्रतिषेधे तु नन्पदान्तरेण संबध्यत इत्युत्तरपदं वाक्यवत्स्वार्थ एव प्रवर्तते तत्रासामर्थ्येपि यथाभिधानं बाहुलासमासः । असूर्यपश्यान् । अपुनर्गेय । अश्राद्ध भोजी । अलवणभोजी । अकार्णवेष्टकिकान् । अवत्सीयान् । अवध्य | असांतापिकः ॥ पूर्वकाये पर काये धरकायोत्तराङ्गयोः । स्वान्क्षुण्णान्वीक्ष्य सायाह्नानिवद्राहारिरज्वलत् ॥ ५० ॥ ५०. सायाह्ने संध्यायां योग्निस्तद्वद्वाहारिरज्वलत्कोपाज्जाज्वल्यमानोभूत् । किं कृत्वा । स्वानात्मीयान्भटाञ् ज्ञातीन्वा वीक्ष्य । किंभूतान् । कायस्य पूर्वभागे हृदयादौ कायस्यापरभाग ऊर्वाद कायस्याधरभागे पादादावङ्गस्योत्तरभागे मूर्धादौ क्षुण्णान्प्रहृतान् ॥ मध्याह्नार्कनिभैः सोर्घदृष्टयैक्षिष्ट द्विषां बलम् । दृष्ट्यर्धेन च बाहू स्वौ दंष्ट्रिका परामृशन् ॥ ५१ ॥ ५१. स ग्राहारिर्मध्याह्नार्कनिभः कोपाटोपाचिभिः प्रहरद्वयसत्करविवज्जाज्वल्यमानः सन्नर्धदृष्ट्या बलावलेपादवज्ञया नेत्रार्धभागेन द्विषां बलं सैन्यमैक्षिष्ट । तथा दंष्ट्रिका परामृशन्स्व पौरु पावलेपोत्कर्षाद्दाढिकाकेशार्धभागं पाणिना गृह्णन्सन् पौरुपमदेन वक्रीकृताक्षत्वादृनवौ बाहू चैक्षिष्ट ॥ पूर्वकाये | अपरकाये | अधरकाय । उत्तराङ्गयोः । इत्यत्र “पूर्वा " [ ५२] इत्यादिना तत्पुरुषः ॥ १ ए सी न्वीक्ष सा १ एसी दृष्ट २ सी 'भः सौ. २ ए सी अभ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.१६.५४.] पञ्चमः सर्गः । ३९१ सायाह्नमध्याह्नौ “सायाह्नादयः" [५३] इति साधू ॥ अर्धदृष्टया । दृष्टयर्धेन । इत्यत्र “समेंशेधैं न वा" [५४] इति वा तत्पुरुषः ॥ समेंश इति किम् । दंष्ट्रिकार्धम् ॥ धिगधजरतीयं वः प्राग्जरत्यर्धहासिनाम् । भग्ना द्वितीयसेना नो यत्तृतीयारिसेनया ॥ ५२ ॥ भूद्वितीयं श्रीतृतीयं तुर्यकुप्यं मुधैव वः । प्रदत्तं माषतुर्याल्पा इत्युक्त्वा सोग्रहीद्धनुः ॥ ५३॥ ५२,५३. स ग्राहारिर्धनुरग्रहीत् । किं कृत्वा । उक्त्वा । किमित्याह । हे माषस्य मदनधान्यस्य तुर्यश्चतुर्थो भागस्तद्वदल्पास्तुच्छा अल्पसत्त्वाः प्राक्पूर्व जरत्या अर्ध जरत्यर्ध किंचिद्यौवनं किंचिद्वार्धक्यम्। अनेन च शुभाशुभरूपमर्धनिष्पन्न कार्य व्यज्यते । तद्धासिनां महाशूरंमन्यतयान्यदीयजयाजयरूपार्धनिष्पन्नकार्योपहासिनां वो युष्माकमधु जरत्या अर्धजरती किंचिद्यौवनं किंचिद्वार्धक्यं तस्यास्तुल्यं "काकतालीयादयः" [७.१.११७] इतीये अर्धजरतीयं जयाजयरूपमर्धनिष्पन्नं कार्य धिग्गामहे । यद्यस्माद्धेतोर्नोस्माकं द्वितीयसेना सेनाया द्वितीयो भागस्तृतीयारिसेनया शत्रुसेनायास्तृतीयेन भागेन भग्ना नाशिता तथात एव वो युष्मभ्यं भूद्वितीयं भूमेद्वितीयो भागः श्रीतृतीयं लेक्ष्म्यास्तृतीयो भागस्तुर्यकुप्यं कुप्यस्य हेमरूप्याभ्यामन्यस्य ताम्रादेश्चतुर्थों भागो मुधैव निरर्थकमेव प्रदत्तमिति ॥ १बी द्वार्धिक्य . २ डी रूपं द्वयम'. ३ ए सी य विज्य. ४ ए भूदिती सी भूढ़ि'. ५ ए लक्ष्मातृ. सी लक्ष्मीतृ. डी लक्ष्मास्त. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये सोध्यास्तोत्तलपादोग्रहस्तोपात्तवरत्रया गजं पादतलन्यञ्चद्भुवं हस्ताग्रमुद्गरम् ॥ ५४ ॥ | ५४. स ग्राहारिरारोहवशादुदूर्ध्वस्तलपादः पादतलं यस्य स तथा सन्नग्रहस्तेन हस्ताग्रेणोपात्ता गृहीता या वस्त्रा कक्षा तया गजमध्यास्तारुरोह | किंभूतं सन्तम् । हस्ताने शुण्डाग्रे मुद्गरो यस्य तम् । तथा पादतलेन न्यञ्चन्ती भारातिरेकान्नमन्ती भूर्यस्य तम् ॥ ३९२ 1 अर्धजरतीयम् जरत्यर्ध । इत्यत्र “जरत्यादिभिः " [ ५५ ] इति वा तत्पुरुषः ॥ द्वितीयसेना | तृतीयारिसेनया । तुर्य कुप्यम् । अग्रहस्त । उत्तलपादः । इत्यत्र " द्वित्रि" [ ५६ ] इत्यादिना वा तत्पुरुषः । पक्षे । भूद्वितीयम् । श्रीतृतीयम् । मातुर्य | हस्ताय । पादतल ॥ मूलराज : ] वर्षजाताहि भीमभ्रूरुयब्दजातहरेः समः । सैन्यं स स्वयमुद्युक्तास्थापयत्सामिविद्रुतम् ॥ ५५ ॥ 1 ४ ५५. स ग्राहारि: सामिविद्रुतमर्धोपतं सैन्यमस्थापयत्समधीरयत् । कीदृक्सन् । वर्षे जातस्य वर्षजातो योहिः सर्पस्तद्वद्भीमे कोपाटोपाद्रौ भ्रुवौ यस्य सः । वर्षप्रमाणोहिः प्रौढत्वादतिभीमः स्यात् । तथा त्रयोदा वर्षाणि जातस्य त्र्यन्दजातो यो हरिः सिंहस्तस्य समः शौर्येण तुल्योत एव स्वयमुद्युक्तो रणायोद्यतः ॥ १ सी सध्या. १ बी कक्ष्यात. २ ए ग्रे शृण्डा सी ग्रे मु. ३ सी रत्या ४ बीणो हि अहि: ५ बी मः सौर्ये ६ सी द्यत व Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.५८.] पञ्चमः सर्गः। ३९३ वर्षजात । व्यब्दजात । इत्यत्र “कालः'' [५७] इत्यादिना तत्पुरुषः॥ स्वयमुद्युक्तः । सामिविद्रुतम् । इत्यत्र "स्वयं'' [५८] इत्यादिना तत्पुरुषः ॥ अखट्टारूढभूपालाः षण्मुहूर्ता न्वहःसृताः। तस्थुस्तद्वृद्धये पार्वेहोरात्रस्नेहशालिनः ॥ ५६ ॥ ५६. अखट्वारूढा अनिन्द्या ये भूपाला नृपास्ते तद्वृद्धये तस्य ग्राहारेविजयोत्थस्फीत्यर्थ ग्राहारेः पार्वे तस्थुः । यतोहोरात्रं सदा यः स्नेहोनुरागस्तेन शालन्ते शोभन्ते तं शलन्ति वा गच्छन्तीत्येवंशीलाः षण्मुहूर्ता न्वहःसृता इति । यथा षड् मुहूर्ता घटिकाद्वयमानकालविशेषा अहोरात्रस्नेहशालिनो दक्षिणायने रात्रिचारित्वादुत्तरायणेहश्चारित्वाच्चाहोरोत्रेषु यः स्नेहः सदा सहचारित्वेनानुराग इव तच्छालिनोत एवाहर्दिनं सृताः संक्रान्ताः सन्तस्तद्वृद्धयेहर्वृद्धये पार्वे दिनमध्ये तिष्ठन्ति । मध्यदेशे हि सूर्योदयास्तविशेषेण दिनं नक्तं च परमबृहदृष्टादशमुहूर्तमानं परमलघु च द्वादशमुहूर्तमानम् । तत्र यदा दक्षिणायनं स्यात्तदा कर्कसंक्रान्त्यादिदिनादारभ्य धनुःसंक्रान्त्यन्त्यदिनं यावत्प्रतिसंक्रान्ति दिनेभ्यो रात्रिध्वेकैकं मुहूर्त संचरति । यावउनुःसंक्रान्त्यन्त्यदिने षडपि मुहूर्ता रात्रिषु दिनेभ्य: संक्रामन्ति । यदा चोत्तरायणं स्यात्तदा मकरसंक्रान्त्यादिदिनादारभ्य मिथुनसंक्रान्त्यन् दिनं यावत्प्रतिसंक्रान्ति रात्रिभ्यो दिनेष्वेकै मुहूर्त संचरति । यावन्मिथुनसंक्रान्त्यन्त्यदिनं रात्रिभ्यो दिनेषु षण्मुहूर्ताः संक्रामन्ति । अत एव वृत्तावुक्तं षण्मुहूर्ताश्चराचरास्ते रात्रौ गच्छन्ति दक्षिणायन उत्तरायणे त्वहरिति । तथा चोक्तं भगवति श्रीजैनागमे । १ ए सी डी हः स्मृताः ।। १ डी रात्रं स्ले . २ सी होसनेषु. ३ सी °न्त्यदि. ४ सी दिनरा. ५ सी वुक्तष. ५० Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये कक्कड - संकन्ति - दिणे छत्तीसं नाडियाड दिण-माणं । चवीसं घडिआओ रयण- पमाणं विणिद्दि ॥ १ ॥ 9 २ 3 तीय दिणा चउ-गुणिआ सद्वि-विहत्ता हवन्ति घडियाओ । या सिहाणि बुडी दिण-रेंयणीसुं तऔ पुरओ ॥ २ ॥ किंचिदूनत्वाविवक्षया चतुर्भिर्गुणनम् ॥ मयरे पुण दिण-माणं चउवीसं नाडियाड पढम दिणे । छत्तीसं घडिआओ रयणि-पमाणं मुणेयव्वं ॥ ३ ॥ परओ दिणस्स वुड्डी रयणी-हाणी य पुत्र- निद्दिट्ठा । ता नायवा जावउ उत्तर - अयणस्स चरम - दिणं ॥ ४ ॥ ३९४ एवं च पडइ चडइव घडिया पक्खेण दुन्नि मासेण । दिण - रयण- पमाणाओ भणिय पमाणेण अयण- दुगे ॥ इति । खारूढ । इत्यत्र “द्वितीया" [ ५९ ] इत्यादिना तत्पुरुषः ॥ अहःसृताः । इत्यत्र “काल:" [६० ] इति तत्पुरुषः ॥ अहोरात्रस्नेह । इत्यत्र "व्याप्तौ " [६१] इति तत्पुरुषः ॥ [ मूलराज: ] सोत्रश्रितः सुरातीतो योद्धुं प्रवदृते दृतः । प्राप्तजीविकया चम्वा नृपैश्चापन्नजीविकैः ॥ ५७ ॥ ५७. सुरातीतः सुरारित्वाद्देवानतिक्रान्तः स ग्राहारियद्धुं प्रववृते । कीदृक्सन् । अत्रश्रितः शस्त्राण्याश्रितः । तथा प्राप्तजीविकया जीविकां वृत्तिं फलितं प्राप्तया चम्वापन्नजीविकैर्जीविकां प्राप्तैर्नृपैश्च वृतः ॥ ८ १ बी 'डियाओ. २ बी 'णिया स° ३ बी विहित्ता. ४ सी रणीसु त ५ बी ओ पर ६ बी 'डियाओ. ७ सी अहस. ८ सी 'विकावृत्तिफ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.६५.] पञ्चमः सर्गः । ३९५ अस्त्रश्रितः । सुरातीतः । इत्यत्र “श्रितादिभिः " [६२] इति तत्पुरुषः ॥ प्राप्तजीविकया । आपन्नजीविकैः । इत्यत्र " प्राप्त" [ ६३ ] इत्यादिना तत्पु रुषोनयोरन्तस्य चाकारः ॥ ईषत्ताम्रः क्रुधा तस्याभ्रमन्मदपटुर्द्विपः । स्मारयन् शङ्कुलाखण्डाद्विषो भ्रमितमुद्गरः ॥ ५८ ॥ ५८. तस्य ग्राहारेमैदपटुर्मत्ततया प्रचण्डो द्विपो रणेभ्रमत् । कीदृक्सन् । क्रुधा कोपेनेपन्नाताम्र आरक्तोत एव भ्रमितमुद्गरोत एव च द्विषः शत्रून् शङ्कुलाखण्डाञ् शङ्कुलया कृतान्खोडान्नरान् । यद्वा । शङ्कुलया कृताः खैण्डाः खण्डत्वानि खण्डीकरणानि पादाद्यङ्गभङ्गा इत्यर्थः । तान्स्मा - रयन् ज्ञापयञ् शङ्कुलयेव भ्रमितमुद्गरेण कुण्ठीकुर्वन्नित्यर्थः ॥ ईषत्ताम्रः । इत्यत्र “ ईषद्” [ ६४ ] इत्यादिना तत्पुरुषः ॥ ε शङ्कुलाखण्डान् । मदपटुः । इत्यत्र " तृतीया " [ ६५ ] इत्यादिना तत्पुरुषः ॥ अन्ये तु गुणवचनैर्गुणमात्रवृत्तिभिरपि समासमिच्छन्ति । तन्मतेन द्वितीयव्याख्याने शङ्काखण्डान् इति ज्ञेयम् ॥ म्लेच्छैरनुसृतैरर्धचतस्रोक्षौहिणीस्तले । अवीनाः स कृत्वा भीविकलोलोलयत्परान् ॥ ५९ ॥ ५९. स प्राहारिभविकलो भयेन रहितः सन्परानलोलयदमनात् । किं कृत्वा । अक्षौहिणीस्तलेधोभागे कृत्वा । किंभूताः । अवीर्योना न वीर्येणोनास्तथार्नुसृतैराश्रितैम्र्लेच्छैस्तुरुष्कभिल्लाद्यैः कृत्वार्धचतस्रो १ ए डी खन्दाद्वि. १ सी विवाया । २ सी रतस्य ३ सी त ४ सी 'न्मनोता. ५ ए सी डी खण्डा ख. ६ डी 'तीये व्या. ७ बी 'भीविंक ८ ए सी डी 'नुश्वतै'. ९ एसी 'चतुस्रो'. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] र्धन कृताश्चतस्रोध्यर्धतिस्रः । अक्षौहिणीशब्दो हस्ति २१८७० रथ २१८७० अश्व ६५६१० पदाति १०९३५० एवंप्रमाणचतुरङ्गबलवाचकोप्यत्र म्लेच्छरित्युक्तेरेकदेशे १०९३५० इतिमानेषु पत्तिज्वेव वर्तते । ततस्त्रिलक्षी व्यशीतिसहस्री पञ्चविंशत्यधिकसप्तशतीप्रमाणास्तात्पर्येणातिभूयिष्ठम्लेच्छपत्तिमयीरित्यर्थः॥ तस्मान्मासावरैर्मासपूर्वैर्वा योधिभिर्नूपैः। अस्त्रभिन्नारिवान्तामृक्पकोभूत्पादहारकः ॥ ६ ॥ ६०. अस्त्रैः करणैर्भिन्ना विदारिता येरयस्तैः कर्तृभिर्वान्तानि व्युसृष्टानि यान्यमृद्धि रक्तानि तेषां पङ्कः कर्दमोभूत् । कीदृक् । नृपः कर्तृभिः पादैहियते "बहुलम्" [५.१.२] इति कर्मणि णके पादहारकश्चरणापसार्यः । किंभूतैः । अस्माद्वाहारेः सकाशान्मासावरैर्मासेन लघुभि सपूर्वैर्वा । वा समुच्चये । मासेन प्रथमैश्च । तथा योधिभिः सुभटान्वितैरवश्यं युध्यमानैर्वा । आवश्यके णिनिः ॥ घनघात्यान्परान्वाष्पच्छेद्यवघ्नन्नमृग्नदीः। काकपेयाः स एकानविंशं भूतं नु निर्ममे ॥६१॥ ६१. स ग्राहारिरसृग्नदी रक्तसिन्धूः काकपेया निर्ममे पूर्णाश्चकारेत्यर्थः । कीदृक्सन् । घनघात्यानत्यन्तं दृढाङ्गत्वाद्धनैर्लाहमुंद्रैर्हन्तुं शक्यानत्यन्तायासेन घात्यानित्यर्थः । पराञ् शत्रून् बाष्पच्छेद्यवद्वाष्पैः श्वासैश्छेद्यांस्तृणादीनिव नन्नत्यन्तमनायासेन हिंसन्नित्यर्थः । उत्प्रेक्ष्यते । एकानविंशमेकेन न विंशतिरेकानविंशतिस्तस्याः पूरणं भूतं नु किल । सुंर १ असुर २ यक्ष ३ राक्षस ४ कश्मल ५ भस्मक ६ पितृ ७ १ए सी श्चतुस्रो'. २ ए सी लक्षीं घ्या. डी लक्षी घ्याशीति'. ३ सी णाति भू. ४ ए सी कासान्मा. ५ ए सी डी वास'. ६ बी सी णिनि ॥. ७ बी "मुद्गुरै . ८ सी पैः स्वासै'. ९ए सी प्रेक्षते ।. १० ए सी सुरा र असुरा २ य. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.६८. ] पञ्चमः सर्गः । ३९७ विनायक ८ प्रलाप ९ पिशाच १० अन्त्यंज ११ योनिज १२ भूत १३ अपस्मार १४ ब्रह्मराक्षस १५ क्षत्रराक्षस १६ वैश्यराक्षस १७ शुद्रराक्षसाख्या १८ नारायणीसंहितायामुक्ता अष्टादशैव भूतजातयः प्रसिद्धाः । अयं त्वेकोनविंशतितमं भूतमिव । भूत एव हीदृशः स्यात् । भूतशब्द: पुंक्कीबः ॥ तेनात्येकान्नपञ्चाशन्मरुता कुन्त उद्धृतः । यूपदाविव युद्यज्ञेभाच्छ्रीसुखयशोहितः ॥ ६२ ॥ ६२. युयज्ञे रणयागे यूपदाविव यूपाय यज्ञकीलकाय काष्ठैमिव यज्ञस्तम्भ इव तेन ग्राहारिणोद्धृतः कुन्तोभात् । यतः श्रिये जयलक्ष्म्यै सुखः सुखकारी यो यशोहितो जयोत्थकीर्तयेनुकूलः स तथा । यूपदावपि यागकारयितुः श्रीर्मुखं यशोहितं च स्यात् । कीदृशा तेन । अत्येकान्नपञ्चाशन्मरुता । एकान्नपञ्चाशन्मरुतो भौमप्रवहादीने कोनपञ्चाशद्वायून् गणदेवता अतिक्रान्तेनैकोनपञ्चाशद्वायुभ्योप्यधिकबलेनेत्यर्थः ॥ अर्धचतस्रः । इत्यत्र “चतस्रार्धम् " [ ६६ ] इति तत्पुरुषः ॥ 1 1 [ऊनार्थ |] वीर्योनाः । भीविकलः ॥ पूर्वाद्य । मासपूर्वैः । मासावरैः । इत्यत्र “ऊनार्थ” [६७] इत्यादिना तत्पुरुषः ॥ कर्तृ । अरिवान्त || करण । अस्त्रभिन्न । पादहारकः । इत्यत्र " कारकं कृता " [ ६८ ] इति तत्पुरुषः ॥ बहुलाधिकारात्स्तुतिनिन्दार्थतायां प्रायेण कृत्यैः समासः । कर्तृ । काकपेया असृनदीः । एवं नाम पूर्णा इत्यर्थः ॥ बाष्पच्छेद्यवत् । एवं नाम मृदूनीत्यर्थः ॥ अन्यत्रापि । घनघात्यान् ॥ करण । १ डी . ९ बी न्त्यजः ११ यो. २ ए डी क्षमा १८ ना. सी क्षस १८ ना. ३ बी g इव. ४ ए सी डी कुम्भोभा° ५ ए सी डी सुखका 'सुख'. ७ ए सी कात्स्तु ८ बी 'रास्तुति ९ बी 'त्याम् ॥ ए. ६ सी Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] एकान्नविंशम् । एकान्नपञ्चाशत् । इत्यत्र “नविंशति" [ ६९ ] इत्यादिना तत्पुरुष एकशब्दस्य चादन्तः ॥ यूपदारु । इत्यत्र “चतुर्थी प्रकृत्या " [ ७०] इति तत्पुरुषः ॥ ३९८ यशोहितः । श्रीसुख । इत्यत्र “हितादिभिः " [ ७१] इति तत्पुरुषः ॥ जयार्थमत्रं तन्वानेस्मिन्न मृत्युभयेपतन् । सिंहभीता इवैणाः केप्यल्पान्मुक्ताः परःशताः ॥ ६३ ॥ ६३. सिंहाद्भीता ऐणा इव । केपीत्यत्रापिभिन्नक्रमे । परःशता अपि शतात्परेपि बहवोपीत्यर्थः । के भटा मृत्युभये मरणाद्भीतौ नापतन् । यतोल्पान्मुक्ताः स्तोकाच्छुटिताः । क्व सति । अस्मिन् ग्राहारौ । कीदृशे । जयार्थमत्रं शस्त्राणि तन्वाने || 3 1 असौ परःसहस्रारिनृणामुज्जासितं दिशन् । उद्यच्छरोभी राहूणां ज्ञानं भानोरजीजनत् ॥ ६४ ॥ ६४. असौ प्राहारी राहूणां ज्ञानं सादृश्याद्राहुभिः करणैः प्रवर्तनम् । यद्वा । अरित्वेन राहावत्यन्तं विरक्तत्वाच्चित्तभ्रान्त्याने कराहुरूपेण प्रतिपत्तिं भानो खेरजीजनद्रसनार्थमागच्छतामनेकेषां राहूणां शङ्कां भानोरुत्पादितवानित्यर्थः । कैः कृत्वा । उद्यच्छिरोभिः प्रहार - वशोवच्छलन्मस्तकैः । यतः कीदृक् । सहस्रात्परे परः सहस्रा बहवो येरीणां नरः पुरुषास्तेषां कर्मणामुज्जासितं हिंसां दिशन् कुर्वन् ॥ ε जयार्थम् । इत्यत्र “तदर्थार्थेन " [ ७२] इति तत्पुरुषः ॥ मृत्युभये । सिंहभीताः । इत्यत्र “पञ्चमी भयाद्यैः” [७३] इति तत्पुरुषः ॥ १ ए सी डी 'श्चात् . ४ बी सी शङ्का भा ५ सी डी २ सी एता इ. ३ ए सी डी 'टिता क. स्तेपा क े ६ सी 'सित हिं . Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.७९.] पञ्चमः सर्गः । ३९९ अल्पान्मुक्ताः । इत्यत्र "क्तेनासत्त्वे" [७४] इति तत्पुरुषः ॥ "असत्त्वे उसेः" [३.२.१०] इत्यलुप् ॥ पर शताः । परःसहस्र । इत्येतौ "परःशतादिः" [७५] इति साधू॥ अरिनृणाम् । इत्यत्र “पष्टी" [७६] इत्यादिना तत्पुरुषः॥अयलादिति किम् । नृणामुजासितम् ॥ शेष इति किम् । राहूणां ज्ञानम् ॥ द्विगतिव्रश्चनो देवयाजकद्वेषिपूजकः । नन्नाभूद्रथगणको न पत्तिगणकोपि सः॥६५॥ ६५. स ग्राहारिनन्नरीन्हिंसन्सन् रथगणको नाभूत्पत्तिगणकोपि नाभूत् । असंख्यारथान्पत्तींश्च व्यनाशयदित्यर्थः । कीदृक् । द्विङ्गतिब्रश्चनो द्विषां कर्तृणां गतिः संग्रामे विचरणं तस्याः कर्मणः सर्वथा प्राणहारित्वाद्र्श्वनेश्छेदको रम्यादित्वादनद [५.३.१२६]। तथा देवानां याजका ऋषिद्विजादयस्तेषां द्वेषिणो दैत्यास्तेषां पूजकः॥ द्विगतिव्रश्चनः । इत्यन्त्र “कृति" [७७] इति तत्पुरुषः ॥ देवयाजक । द्वेषिपूजकः । इत्यत्र “याजकादिभिः" [७८] इति तत्पुरुषः॥ पत्तिगणकः । रथगणकः । इत्यत्र "पत्ति' [७९] इत्यादिना तत्पुरुषः॥ सर्वपश्चाद्भटांस्तर्जन्स नन्सर्वचिरं परान् । युनूतभञ्जिकां चक्रेरीभाना दन्तलेखकः ॥६६॥ ६६. स ग्राहारियुदेव रणमेव हर्षेण कार्यत्वाचूतभञ्जिकाम्राणां भञ्जयित्री काचित्क्रीडा तां चक्रे क्रीडामिव युधं हर्षाञ्चकारेत्यर्थः । कीहक्सन् । सर्वपश्चात्सर्वेषां मध्ये पश्चात्पश्चाद्भागे स्थितान्भटांस्तर्जन्साक्षेपवाक्यैनिभर्स्यन् । तथा सर्वचिरं सर्वेषां मध्ये चिरं चिरकालं १ बी 'शता । प. २ बी नच्छेद. ३ बी ति । गतिव्र. ४ डी कादेरिति. ५ बी युद्धं ह. ६ सी नि°ि. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ढ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] यावन्तं कालं न कोपि हन्ति तावन्तं कालमित्यर्थः । परान्नन् । तथारीभानां शत्रुहस्तिनां दन्तानां लेखको दन्तलेखको दन्तविलेखनाजीवः स इव यथा दन्तलेखको दन्तकर्म कुर्वन्दन्तान्भिनत्ति तथारिगजदन्तान्भिन्दंश्च ॥ सर्वपश्चात् । सर्वचिरम् । इत्येतौ "सर्व" [८०] इत्यादिना साधू ॥ चूतभञ्जिकाम् । दन्तलेखकः । इत्यत्र "अकेन" [८१] इत्यादिना तत्पुरुषः ॥ गजानामासिका कुम्भेष्वस्त्राणां क्षेपकोतनोत् । क्रुद्धः मुराष्ट्रभूभर्ता पुरां भेत्तेव दुस्सहः ॥ ६७॥ ६७. सुराष्ट्रभूभर्ता ग्राहारिगजानां कर्तृणामासिकामवस्थानमतनोचक्रे । तीव्रप्रहारैगजान् रणेपातयदित्यर्थः । कीहक्सन् । पुरां भेत्तेव तिसृणां दानवपुरीणां कर्मणां विदारको रुद्रः स इव क्रुद्धः सन् दुस्सहो दुर्धर्षात एव कुम्भेषु कुम्भस्थलेष्वस्त्राणां कर्मणां क्षेपकः॥ गजानामासिकाम् । इत्यत्र “न कर्तरि" [८२] इति न तत्पुरुषः ॥ अस्त्राणां क्षेपकः । पुरा भेत्ता । इत्यत्र “कर्मजा तृचा च" [८३] इति न तत्पुरुषः ॥ कथं भूभर्ता । भर्तृशब्दो यः पतिपर्यायस्तेन संबन्धषष्ठया याजकादिपाठात्कर्मषष्ट्या वायं समासः ॥ गवां दोह इवागोपै राज्ञां भृत्यानुशासनम् । नश्यतां दुष्करमभूत्तस्योग्रायां युधः कृतौ ॥ ६८॥ ६८. उग्रायां तस्य ग्राहारेः कर्तुयुधः कर्मणः कृतौ करणे सत्यां नश्यतां राज्ञां कर्तृणां भृत्यानुशासनं प्रेष्याणां कर्मणां भो मा पलॉयिध्व १ सी गवा दो'. १ डीन्तवि. २ डी 'पु स्थ'. ३ सी पुरा भै'. ४ सी 'ब्दो xx पटिप. ५ बी डी लायध्व. Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.८४.] पञ्चमः सर्गः । ४०१ मित्यादि शिक्षणं दुष्करमभूत् । यथा गोपैरगोधुग्भिः कर्तृभिर्गवां कर्मणां दोहो दोहाज्ञत्वेन दुष्करः स्यात् । यद्वा । यथागोपैरभूपै राजगुणविकलैर्गवां भुवां दोहो रत्नादिक्षारणं दुष्करः स्यात् ।। गवां दोह इवागोपैः । इत्यत्र "तृतीयायाम्" [४] इति कर्मजा षष्ठी न समस्यते ॥ तृतीयायामिति किम् । दुष्करं राज्ञां भृत्यानुशासनम् ॥ कर्तरि षष्ठ्यामपि न समास इति कश्चित् । तस्य युधः कृतौ ॥ मांसस्य तृप्तान्सोस्रस्य सुहितान् राक्षसान्व्यधात् । लङ्कापतेर्द्वितीयो नु राज्ञां साक्षाद्धरेपिन् ॥ ६९ ॥ ६९. हरेषिन्दैत्यत्वादिन्द्रस्य शत्रुः स ग्राहारी राज्ञां साक्षात्समक्षं राक्षसान्व्यधात् । किंभूतान् । अनेकारिवधेन मांसस्य तृप्तानोबाणानस्य रक्तस्य च सुहितान् । अतश्च राक्षसानां तृप्त्यापादनलक्षणतुल्यकार्यविधानालङ्कापते रावणस्य द्वितीयो ने द्वितीय इव रावण इत्यर्थः ॥ विक्रान्तानां स्तुवानोसौ त्रस्तानां विब्रुवन्नहन् । राज्ञां ज्ञातान्सतां बुद्धान्यमस्येष्टः कलेर्मतः ॥ ७० ॥ ७०. असौ ग्राहारिर्भटानहन् । कीहक्सन् । विक्रान्तानां शूराणां स्तुवानस्तथा त्रस्तानाम् । पूर्वबान च संबन्धे षष्ठी। विब्रुवन्निन्दन् । तथानेकारीणां वधकत्वेन यमस्य मृत्योरिष्टः । कले रणस्य मतः संमतः । यद्वा । पापिष्ठत्वात्कलेः कलिकालस्य मतः । कीदृशान् । राज्ञां ज्ञाताञ् शौर्यादिगुणैः प्रसिद्धान् । तथा सतां शिष्टानां बुद्धान् न्याययोधित्वादिशिष्टोचितक्षात्रधर्मैः प्रसिद्धान् ।। १ सी क्षण दु. २ ए सी नाभ्रणा'. ३ ए सी सर. ४ ए सी तृप्तापा. ५ डी नुर्द्विती. ६ ए सी मत सं. . Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] दैत्यानां पूजितो जज्ञे रक्षसामर्चितस्तदा । विक्रमस्यासितः सोरिकीर्तेः शौक्लयं कदर्थयन् ।।७१॥ ७१. दैत्यानां पूजितः स ग्राहारिस्तदा युद्धकाले मांसासृक्सुभिक्षकरणाद्रक्षसामर्चितो जज्ञे । कीडक्सन् । विक्रमस्य । आस्यते स्मात्रेति "अद्यर्थाञ्चाधारे" [५.१.१२] इति क्ते आसितः स्थानम् । अत एवारिकीर्तेः शौक्ल्यं श्वेततां कदर्थयन्पराभूयोत्प्लवमानः ।। हस्तलाघवतोस्येषुरूपं नालक्षि कैरपि । रणशौण्डस्याक्षधृर्तस्येव कैतवपाशकः ॥७२॥ ७२. रणे पँसक्तः शौण्ड इव रणशौण्डस्तस्यास्य ग्राहारेर्हस्तलाघवतो हस्तदाक्ष्यादिषुरूपं शराकारः कीदृगयं शर इति कैरपि नालक्षि न ज्ञातं यथाक्षेषु पाशकेषु धूर्तो वञ्चकोक्षधूर्तस्तस्य प्रवीणद्यूतकारस्य हस्तलाघवतः कैतवाय दम्भाय पाशको देवनः कैतवपाशंकः कूटपाशकः कैरपि न लक्ष्यते कूटोयं पाशक इति न ज्ञायते ॥ तृप्तीथ । मांसस्य तृप्तान् । अलस्य सुहितान् ॥ पूरण । लङ्कापतेर्द्वितीयः ॥ अव्यय । राज्ञां साक्षात् ॥ अतृश् । हरेषिन् ॥ शतृ । त्रस्तानां विब्रुवन् ॥ आनश । विक्रान्तानां स्तुवानः । अत्र "तृप्तार्थ." [८५] इत्यादिना न तत्पुरुषः॥ राज्ञां ज्ञातान् । सतां बुद्धान् । यमस्येष्टः । कलेर्मतः । रक्षसामर्चितः । दैत्यानां पूजितः। विक्रमस्यासितः । इत्यत्र "ज्ञानेच्छा" [८६] इत्यादिना न समासः ॥ १ बी मांसांसू. २ डी तेस्मिन्निति. ३ बी त्योपप्लव'. ४ बी प्रशक्तः. ५ ए सी क्ष्यातिहिपु. ६ ए सी न: केत'. ७ ए सी शक कू. ८ ए सी-डी पि ल'. ९ ए कूटायं. सी कूटाय पा. १० ए तार्थः । मां. बीतार्थम् । मा. ११ बी तृशू । ह'. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.१.९०.] पञ्चमः सर्गः। ४०३ कीर्तेः शौक्यम् । इत्यत्र "अस्वस्थगुणैः" [८७] इति न तत्पुरुषः ॥ अत्र च शुक्लादेर्गुणस्य शुक्लारिकीर्तिरित्यादौ द्रव्येपि वृत्तिदर्शनादस्वास्थ्यमस्त्येव । गुणशब्देन चेह लोकप्रसिद्धा रूपरसगन्धस्पर्शा गुणा अभिप्रेतास्ततस्तद्विशेषैरेवायं प्रतिषेधस्तेन हस्तलाघवत इत्यत्र प्रतिषेधो न स्यात् ॥ अस्वस्थगुणैरिति किम् । इषुरूपम् ॥ रणशौण्डस्य । अक्षधूर्तस्य । इत्यत्र "सप्तमी" [८८] इत्यादिना तत्पुरुषः॥ रणसिंहेन तेनाजिव्याघ्रा अपि कृताः परे । तीर्थकाकास्तीर्थबकाः प्रहारैर्युधि विहेलाः ॥ ७३ ॥ ७३. रणे सिंह इवातिशूरत्वाद्रणसिंहस्तेन तेन ग्राहारिणा परे शत्रव आजिव्याघ्रा अपि शूरत्वाद्रेणव्याघ्रतुल्या अपि प्रहारैविह्वला विधुराः सन्तः कृताः । कीदृशाः । युधि तीर्थकाकास्तीर्थे काका इव तीर्थबकास्तीर्थे बका इव यथा तीर्थे काका बकाश्चानवस्थिताः स्युरेवं रणे क्षणदृष्टनष्टाः कृता इत्यर्थः ॥ रणसिंहेन । आजिव्याघ्राः । इत्यत्र "सिंहाथैः पूजायाम्" [८९] इति तत्पुरुषः ॥ तीर्थकाकाः । तीर्थबकाः । इत्यत्र “काकाद्यैः क्षेपे" [२०] इति तत्पुरुषः ॥ काकाद्यैरिति किम् । युधि विह्वलाः ॥ ते पात्रेसमिताः पात्रेबहुलाश्चाभवन्परे । यद्भस्मनिहुतं तत्रप्रहृतं तैरजायत ॥ ७४ ॥ ७४. ते पूर्वश्लोकोक्ताः परे पात्रेसमिता: पात्रे भोजनवेलायामेव १ सी कास्ती. २ सी हला......विधु'. ३ सी निहुन्तं. १ ए सी कीर्ते शौ. २ बी स्वच्छगु . ३ सी डी लादिकी. ४ ए सी न लो चे. ५ बी द्रणे व्या . ६ सी °धि का. ७बी तीथे. ८ ए सी डी इति का. ९ सी बला ॥ ते'. Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] समिता मिलिताः । अकिंचित्करा इत्यर्थः । अभवन् । च: समुच्चये । परे चान्ये च शत्रवः पात्रेबहुला: पात्र एव बहुला बहवोकिंचित्करा अभवन् । यद्यस्माद्धेतोस्तैरुभयैरपि तत्रप्रहृतं ग्राहारौ प्रहरणं भस्मनिहुँतमाहुँतिरिवाजायत निष्फलमभूदित्यर्थः ।। यत्पूर्वाह्नपतिज्ञातं पूर्वरात्रप्रतिश्रुतम्। तदरण्येतिलक्षुद्रैविस्मृतं तत्र निघ्नति ॥ ७५ ॥ ७५. यत्प्रस्तावाशुद्धं पूर्वाह्नप्रतिज्ञातमपराह एवमेवं योत्स्यत इति पूर्वदिनेङ्गीकृतं तथा यत्पूर्वरात्रप्रतिश्रुतं प्रातरेवमेवं योत्स्यत इति पूर्वरात्रेङ्गीकृतं तदरण्येतिलक्षुद्रररण्ये तिलास्तिलभेदास्तद्वरक्षुद्रनिःसत्त्वैर्भटैस्तत्र ग्राहारौ [नि?]न्नति प्रहरति सति विस्मृतम् ॥ पात्रेसमिताः । पात्रेबहुलाः । एतौ “पात्रेसमितेत्यादयः" [९१] इति साधू ॥ भस्मनिहुँतम् । इत्यत्र "क्तेन" [९२] इति तत्पुरुषः ॥ तत्रप्रहृतम् । पूर्वाह्नप्रतिज्ञातम् । पूर्वरात्रप्रतिश्रुतम् । इत्यत्र "तत्र" [९३] इत्यादिना तत्पुरुषः॥ अरण्येतिल । इत्यत्र “नाम्नि" [९४] इति तत्पुरुषः ॥ रणदेयां न्वदात्पूजां मौलिनीलोत्पलैर्दिषाम् । लोहितस्तक्षकः सर्पो नयतीव्रोस्य युध्यसिः ॥७६ ॥ ७६. अस्य ग्राहारेरसिर्द्विषां मौलिनीलोत्पलैर्मस्तकैरेव नीलत्वानीलाजैः कृत्वा रणदेयां रणेवश्यं देयां पूजामिव युधि युद्धार्थमदाददौ । ग्राहारीयासिच्छिन्नानेकारिमौलीनां रणाङ्गणे लुठितत्वादेवमाशङ्का । कीदृक् । उग्रो यमजिह्वाकरालो यस्तीबस्तीक्ष्णः स उग्रतीव्रोत १ ए सी पलद्विषा. २ सी 'ध्यसि ॥. १ सीता अ°. २ सी हुन्तमा . ३ ए डी सी हुरिति वा. ४ ए सी °हुभम् ।। ५ सी रुष ॥ त. ६ सी रुष । अ. ७ सी रुष ॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.१.९५.] पञ्चमः सर्गः। एव तक्षकः शत्रूणां वधकोत एव च लोहितस्तक्षकः सर्पो नु । नुरि. वार्थे । लोहितो रक्तवर्णस्तक्षकनामा यः सर्पस्तत्तुल्यः॥ तीव्रोग्रः सोर्जुनः कार्तवीर्यो नु कृष्णसर्पभः । दृष्टनष्टाव्यधात्सर्वभटानेकधनुर्धरः ॥ ७७ ॥ ७७. स ग्राहारिरेकधनुर्धरः सन्सर्वभटोन्दृष्टनष्टान्पूर्व दृष्टान्पश्चानष्टानयुध्वैव नष्टानित्यर्थः । व्यधात् । कीदृक् । कृष्णवर्णत्वात्क्रूरत्वाच कृष्णसर्पभः कालाहितुल्योत एव तीव्रोग्र: कटुरौद्रोत एव च कार्तवीयोर्जुनो नु कृतवीर्यस्यापत्यं योर्जुनः सहस्रार्जुनस्तत्तुल्यः॥ जरत्क्रोडः पुराणाहिः केवलोर्जा नवेन्द्रजित् । स क्ष्वेडों विदधे जित्वा सेना सोत्तरकोशलाम् ॥७८॥ ७८. स ग्राहारिरुत्तराश्च ते कोशला देशास्तेषां राजानोप्युत्तरकोशला: सह तैर्या तां सेनां गूर्जरच जित्वा श्वेडां जयसूचकं सिंहनादं विदधे । यतः कीदृक् । केवलोर्जा द्वितीयबलेन कृत्वा जरत्कोडो जीर्णवराहरूपधारी हरिरिव तथा पुराणाहिश्चिरंतनसर्पः शेष इव तथा नवेन्द्रजिदभिनवरावणिरिव ॥ आपरार्णवमादध्मौ शङ्ख चाधिकषाष्टिकम् । प्रत्यग्गवधनान्त्रीणन्नन्सोधिकगवपियः ॥ ७९ ॥ ७९. अधिका गावः प्रिया यस्य सः । सौराष्ट्रा हि स्वभावेनाधिकं १ सी डां वद. २ ए सी अप. १ सी तुल्य ॥. २ ए सी टान्दुष्ट'. ३ ए सी डी युध्वैव. ४ ए बी सी वीरस्या . ५ सी तुल्य ॥. ६ बी लाश्चोत्तरकोशलादेशस्ते'. ७ सी तीयाव. ८ ए सी त्वा रजको . ९ ए सी डी रीरिव. १० ए सी जितभि. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] धेनुप्रियाः स्युः । स प्राहरिः शङ्खमादध्मौ च न केवलं क्ष्वेडां विदधे विजयशङ्खमवादयच्च । कीदृक्सन् । प्रतीच्यः पश्चिमाः कविरूढिमा - श्रित्य मध्यदेशापेक्षया वैयाकरणमतं चाश्रित्येशानतो नैर्ऋतिं गच्छन्त्याः शरावतीया अपेक्षया सुराष्ट्राणां पश्चिमत्वात्सुराष्ट्र देशोद्भवा गावो धेनवो धनं येषां तान्प्रयैग्गवधनान्नृन् सौराष्ट्रान्प्रीणन् शत्रुजयेनाहादयन् । कीदृशं शङ्खम् | आपरार्णवं पश्चिमान्धौ जातम् । तथाधिकषाष्टिकमधिकया षष्टयार्थाद्रम्मादीनां क्रीतं श्रेष्ठत्वेन महामूल्यमित्यर्थः ॥ मूलराजोय दाशार्हपाण्मातुरगुरूपमः । arrated सास्त्रां द्वितूणीं दधदुत्थितः ॥ ८० ॥ ८०. अथ शङ्खध्मानानन्तरं द्वे अहनी जातस्य "सर्वाश” [ ७.३. ११८] इत्यादिनाव्यह्नादेशे च व्यह्नजातो य आहवो रणस्तत्र मूलराजो रणायोत्थितः । कीदृक्सन् । दशार्हस्य वसुदेवस्यायं दाशाहों विष्णुः षण्णां मातॄणां कृत्तिकानामपत्यं "संख्यासम्" [६.१.६६ ] इत्यादिनाणि मातुरादेशे च षाण्मातुरः स्कन्दस्तस्य गुरुः पिता शिवो द्वन्द्वे ताभ्यासुपमा शूरत्वादिगुणैः साम्यं यस्य सः । अत एव सास्त्रां बाणपूर्णां द्वितूणीं तूणीरौ दधत् ॥ रणदेयाम् । इत्यत्र “कृद्येन" [१५] इत्यादिना तत्पुरुषः ॥ नीलोत्पलैः । इत्यत्र “विशेषणं" [ ९६] इत्यादिना कर्मधारयः || विशेषणविशेष्ययोः संबन्धिवचनत्वादेकत रोपादानेनैव द्वये लब्धे द्वयोरुपादानं परस्परमुभयोर्व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकत्वे समासो यथा स्यादित्येवमर्थम् । तेनेह न स्यात्तक्षकः सर्पः । लोहितस्तक्षकः । नासर्पोन्यवर्णो वा तक्षकोस्ति ॥ यस्तु गुणादिशब्दानामेव समासस्तत्रो भयोरपि पदयोरप्रधानत्वात्कामचारेण पूर्व१ सी हरिश° २ ए सी डी नैरुति. ३ ए व्ययग्ग. ४ सी मुपप. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.९९.] पञ्चमः सर्गः । निपातः । उग्रतीवः । तीव्रोग्रः ॥ बहुलाधिकारात्क्वचित्समासो न स्यात् । अर्जुनः कार्तवीर्यः ॥ क्वचिन्नित्यः । कृष्णसर्प ॥ पूर्वकाल । दृष्टनष्टान् ॥ एकादि। एकधनुर्धरः । सर्वभटान् । जरत्क्रोडः। पुराणाहिः । नवेन्द्रजित् । केवलोजी । इत्यन्न "पूर्वकाल' [९७] इत्यादिना कर्मधारयः॥ [संज्ञायाम् ।] सोत्तरकोशलाम् । तद्धिते । आपरार्णवम् ॥ उत्तरपद(दे)। प्रत्यग्गवधनान् । अधिकं तद्धिते। आधिकषाष्टिकम् ।। उत्तरपदे । अधिकगवप्रियः । इत्यत्र “दिगधिकं” [९८] इत्यादिना कर्मधारयः ।। संज्ञायाम् । दाशार्ह ॥ तद्विते । पाण्मातुरः(र)। उत्तरपदे । ब्यह्नजात ॥ समाहारे। द्वितूणीम् । इत्यत्र "संख्या” [१९] इत्यादिना तत्पुरुषः ॥ कर्मधारयोयमेव चानाम्नि द्विगुः ॥ अनाम्नीति किम् । दाशार्ह । अत्र द्विगुत्वेनपत्यप्रत्ययस्य लुप् स्यात् ॥ क्षत्रखेटः पापदैत्यः स वृतोणकयोद्धृभिः । शस्त्रीश्यामः क्वेति जल्पन्नृव्याघ्रो ज्यामवीवदत् ॥ ८१॥ ८१. नृव्याघ्रो मूलराजो ज्यामवीवदत् । कीदृक्सन् । जल्पन्। किमित्याह । स ग्राहारिः कास्ते । कीदृक् । क्षत्रखेट: क्षत्रियाधमस्तथा पापदैत्यो निन्द्यदानवस्तथाणकयोद्धृभिनिन्द्यभटैर्वृतस्तथा शस्त्रीश्यामः क्षुरिकेव कालः ॥ १ ए सी डी र्जुन का. २ सी णाहि । ज. ३ ए सी बलौर्जा । ४ ए सी डी "व वा ना. ५ सी शाहम् । अ. ६ सी राज्यो ज्या. ७ ए सी हारि का. ८ ए सी क्षत्र: खे. ९ ए सी श्याम भु. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्याश्रयमहाकाव्ये नृसिंहः पूर्वपुरुषो वपेरार्कः स तेजसा । हन्तुं प्रथमदैत्यं नु डुढौके चरमासुरम् ॥ ८२ ॥ ८२. स मूलराजश्चरमासुरं ग्राहारिं हन्तुं डुढौके । कीदृक्सन् । नृसिंहो नरश्रेष्ठोत एव तेजसा प्रतापेनापरार्को द्वितीयादित्यः । पूर्वपुरुषो नु यथा प्रथमपुरुषो विष्णुर्नृसिंहो नरसिंहरूपधारी सन् प्रथमदैत्यं नु हिरण्यकशिपुमिव हन्तुं डुढौके || मध्यलोकपतिर्वीरपुमान्मध्यमपार्थवत् । ४०८ अजघन्यौजसारेभे सोसमानरणोत्सवम् ॥ ८३ ॥ ८३. मध्यलोकपतिर्मर्त्यलोकस्वामी स मूलराजो समानरणोत्सवं निरुपमं युद्धमारेभे । यतो वीरपुमाञ् शूरनरस्तथाजघन्यौज सोत्कृष्टबलेन कृत्वा मध्यमपार्थवन्मध्यमस्तृतीयो यः पार्थः पाण्डवोर्जुनस्तत्तुल्यः ॥ वीरपूर्वाः श्रेणिकृतास्तेन पूगकृताः परे । [ मूलराज : ] श्रेणिमतः पूगमतो न्वेकोप्यैक्षि स तैर्भयात् ॥ ८४ ॥ ८४. तेन मूलराजेन पूर्वे च ते वीराश्च वीरपूर्वाः प्रथमशूराः परेपूगौ: पूगाः कृताः पूगकृताः समूहीकृता मृत्युभयेनान्योन्याश्रयणात्संयुक्तीकृता इत्यर्थः । कीदृशाः सन्तः । अश्रेणयः श्रेणयः कृताः श्रेणिकृता युद्धार्थं प्राहारिणा पङ्कीकृताः । स मूलराज एकोपि तैः परैर्भयादेक्षि । कीदृश: । अश्रेणिः श्रेणिर्मतः संमतः श्रेणिमतो नु । नुरत्रापि योज्यः । पङ्कीभूत इवेत्यर्थः । एवं पूगमतो नु समूहीभूत इवेत्यर्थः ॥ 19 १ सी परां कस. २ ए सी गित:. १ ए बी सी कसिपु . २ ए सी पार्थोडो. ३ ए सी 'गाः कृ ४ ए सी य थे. ५ ए सी द्धार्थ या ६ ए सी डी कृता स ७ बी 'णिमत: • ८ बी इत्य Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.१०४.] पञ्चमः सर्गः । ४०९ क्षत्र खेटः । इत्यत्र " निन्द्यं" [१०० ] इत्यादिना कर्मधारयः ॥ अपापा रिति किम् । पापदैत्यः । अणकयोद्धृभिः ॥ शस्त्रीश्यामः । इत्यत्र “उपमानं सामान्यैः " [ १०१] इति कर्मधारयः ॥ नृव्याघ्रः । नृसिंहः । इत्यत्र " उपमेयं " [ १०२ ] इत्यादिना कर्मधारयः ॥ पूर्वपुरुषः । अपरार्कः । प्रथमदैत्यम् । चरमासुरम् | अजघन्यौजसा । असमानरण | मैध्यलोक । मध्यमपार्थ । वीरपुमान् । इत्यत्र " पूर्वापर " [ १०३ ] इत्यादिना कर्मधारयः । "विशेषणं विशेष्येण ' [९६] इत्यादिनैव सिद्धे "स्पर्धे" [ ७.४.११९] परम् इति पूर्वनिपातस्य विषयप्रदर्शनार्थमद्रव्यवाचिनोरनियमेन पूर्वापरभावप्रसक्तौ पूर्वनिपातनियमार्थं च वचनम् । तेन वीरपूर्वाः ॥ 1 0,9 श्रेणिकृताः । पूगकृताः । श्रेणिर्मतः । पूगमतः । इत्यत्र "श्रेण्यादि " [ १०४ ] इत्यादिना कर्मधारयः ॥ कृताकृतरणेप्यस्मिन्किष्टाक्लिशितमूर्तयः । suharatdian ७ ८५. अस्मिन्मूलराजे किंचित्कृतं किंचिदकृतं च रणं येन तस्मि - सति परे मुर्घातविह्वलतया भ्रमिं प्राप्ता इत्यर्थः । किंभूताः सन्तः । छाताच्छिताः शरैः किंचिच्छिन्नाश्च किंचिदच्छिन्नाश्चात एवावहीनं पीतमवपीतमपीतप्रायमित्यर्थः । इषुभिः शरैः किंचित्पीतं च किंचि - दुवपीतं चात्रं रक्तं येषां तेत एव च क्लिष्टाक्किशितमूर्तयः किंचित्पीडित किंचिदपीडिताङ्गाः ॥ ९ छाताच्छिताः परे ।। ८५ ।। १ए सीताचा मु. १ ए सामन्यैः २ सी 'रुषाः । अ. ३ ए सी ममध्य ४ ए सी डी ● शेषेण ०.५ बी व ६ ए सी डी मत । पृ. ७ ए सी 'चिकृतं. ८ ए सी मप्र ९ एसी 'पीडता', ५२ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज : ] कृताकृत । इत्यत्र "क्तं” [१०५] इत्यादिना कर्मधारयः ॥ इटः कावयवत्वाद्विकारस्य चैकदेशविकृतानन्यत्वान्न भेदकत्वम् । तेन क्लिष्टाक्किशित । छाताच्छिताः ॥ आदिग्रहणात् पीतावपीत ॥ ४१० चक्रे क्लिशितमक्लिष्टं पुनः परमविह्वलम् । उत्तमास्त्रैर्महेभस्थः सन्नृपः स द्विषां बलम् ॥ ८६ ॥ ८६. सन्नृपः श्रेष्ठभूपः स मूलराजो महेभस्थः सन् द्विषां बलं सैन्यमक्किष्टं पूर्वमपीडितं सदुत्तमात्रैर्दिव्यप्रभावादिनोत्कृष्टैः प्रहरणैः कृत्वा पुनर्भूयोपि क्लिशितं पीडितं चक्रे । कीदृशम् । परमविह्वलं भयेनातिकातरम् ॥ * उत्कृष्टास्त्राण्यथो वर्षन्दैत्यवृन्दारकः कुधा । पुन्नागैराकृतं राजकुञ्जरं प्रत्यधावत ॥ ८७ ॥ ८७. अथो दैत्यवृन्दारको दानवश्रेष्ठो प्राहारिरुत्कृष्टास्त्राणि वर्षन्मुञ्चन्सन् राजकुञ्जरं नृपश्रेष्ठं मूलराजं प्रति क्रुधाधावत । कीदृशम् । पुमांसो नागा इव गजा इव तैः पुन्नागैर्नरश्रेष्ठैरावृतम् ॥ क्किशितमक्किष्टम् । इत्यत्र " सेनानिटा ” [१०६ ] इति न कर्मधारयः ॥ सन्नृपः । महेभ । परमविह्वलैम् । उत्तमात्रैः । उत्कृष्टास्त्राणि । इत्यत्र “सन्महत्" [ १०७ ] इत्यादिना कर्मधारयः ॥ दैत्यवृन्दारकः । पुन्नागैः । राजकुञ्जरम् । इत्यत्र " वृन्दारक" [१०८ ] इत्यादिना कर्मधारयः ॥ १ ए पीत्याव २ सी 'शित पी ३ बी अथ दै० ४ सी 'हल उ. ५ बी न्दारिक Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.११०. पञ्चमः सर्गः। ४११ कतरकठः कतमौत्सस्ते ज्ञातोमि किनृप । इत्याक्षिपन्तावन्योन्यमयुध्येतामुभौ नृपौ ॥ ८८॥ ८८. उभौ नृपावन्योन्यमयुध्येताम् । किंभूतौ सन्तौ । अन्योन्यमाक्षिपन्तौ तर्जयन्तौ । कथमित्याह । हे किंनृप कुत्सितभूप कतरकठः कर्तमौत्सश्च द्वयोः कठयोर्मध्ये को नाम कठः कठप्रोक्तवेदाध्यायी द्विजभेदो बहूनामुत्सानां मध्ये को नामौत्सश्चोत्सस्यापत्यं मुनिभेदश्च । भीरुत्वादिधमैरस्म्यहं ते त्वया ज्ञातो ज्ञायमानोस्मि । "ज्ञानेच्छा" [५.२.९२] इत्यादिनासति तोत एवं त इत्यत्र कर्तरि षष्ठी । "क्तयोरसदाधारे" [२.२.९१] इत्यत्र कर्तृषष्ट्या अनिषिद्धत्वादिति ॥ कतरकठः । कतमौत्सः । इत्यत्र “कतर" [१०९] इत्यादिना कर्मधारयः॥ किंनृप । इत्यत्र “ कि क्षेपे" [११०] इति कर्मधारयः ॥ इभ्यपोटेभ्ययुवतिवत्तस्थुर्दूरतस्तयोः । हता हयकतिपयैर्गजस्तोकैश्च भूभुजः ॥ ८९ ॥ ८९. हया ये कतिपयास्तैर्ह यकतिपयैरल्पाश्वैर्गजस्तोकैश्चाल्पगजैश्च वृता भूभुजस्तदा रणकर्मानुपयोगित्वात्तयोर्दूरतस्तस्थुः । इभ्यपोटेभ्ययुवतिवदिभ्या हस्तिन्यः स्त्रीजातिभेदः । कामशास्त्रे हि पीनस्तनत्वसूक्ष्माक्षत्वादिहस्तिनीधर्मोपेता स्त्री हस्तिनीत्युच्यते । पुरुषवेषधारिण्यः स्त्रिय: पोटाः । गर्भ एव दास्यं प्राप्ता वोभयव्यञ्जना वा भुजिध्यदास्यो वा । तथेभ्या हस्तिन्यः स्त्रीजातिभेद: करेणव एव वा । १ सी स्मि कं न. २ ए नृपः ।. १ डी स्तदा ।. १एसी ध्येताः किं. २ बी तमोत्स. २ ए सी कण्ठयो'. ४ ए सी नासौत्स. ५ सी °व म इ. ६ ए सी डी कयै. ७ ए सी श्वैगज. ८ ए सी भेदा का.बी भेदाः का. ९ ए सी माकृत्या. १० बी पेतां स्त्री. ११ सी प्रावाम. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] युवतयस्तरुण्यः । कर्मधारयगर्भो द्वन्द्वः । यथेभ्यपोटा इभ्ययुवतयश्च तयोर्दूरे तस्थुः । हस्तिन्यपि शूरत्वाद्युद्धे तथा नोपयुज्यन्त इति रणाद्दूरे तिष्ठन्ति ॥ ४१२ गोष्टtosगोवेहगोवशा इव । तौ भूगोघेनुगोपालावयोद्धृन्न प्रजघ्नतुः ॥ ९० ॥ ९०. तौ मूलराजग्राहारी अयोद्धृव्रणकौतुकालोक्यादिलोकान्न प्रजन्नतुः । गोगृष्टिगोवष्कयिणीगोवेगोवशा इव । गृष्टिः सकृत्प्रसूता । arataणी या बकये वृद्धवत्सेन दुह्यते । वेदर्भघातिनी । वशा वन्ध्या । कर्मधारयगर्भे द्वन्द्वे ता इव । सर्वा हि गावोवध्याः । यत: किंभूतौ । धेनुर्नवप्रसूता गौश्वासौ धेनु गोधेनुर्भूरेव पाल्यत्वाद्गोधेनुस्तस्यां गोपालौ पालकत्वाद्वलवतुल्यौ । गोपालौ हि गाः पालयतो न तु हिंस्त इति ॥ I कठश्रोत्रियकालापाध्यायकौत्स प्रवक्तृवत् । कधूर्तो नु सौराष्ट्र चौलुक्यास्त्राण्यवञ्चयत् ॥ ९१ ॥ ९१. सौराष्ट्र ग्राहारिचौलुक्यास्त्राण्यवञ्चयँभ्यस्तस्त्रिविद्यत्वात्स्वतोटालयत् । यथा कठधूर्तो वभ्वकः कठः कठश्रोत्रियकालापाध्यायकौत्सप्रवक्तृवत् । श्रोत्रियश्छन्दोध्यायी । कालोपः कलापिप्रोक्तग्रन्थाध्यायी । प्रवक्तोपाध्यायः । कर्मधारयगर्भे पेदत्रयन् । एतान्वञ्चयति ॥ १ सी गर्भे व ४ सी शा वेध्या । क ८ ए सी 'स्तावि ११ ए सी . डी 'गर्भव २ बी 'रे तस्थुः |. ३ ए सी गृद्ध. ५ बी श्च गौधे ६ डी सदाभ्य° ७ ए सी 'यदाभ्य. ९ बी त्रियं का. १२ ए सी लापाः क. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ [है० ३.१.११२.] पञ्चमः सर्गः । ४१३ गदामतल्लिका सोथ दैत्यतल्लजकोमुचत् । । भ्रष्टाश्वगर्भिणीगर्भ गर्जन् गूर्जरभूपतौ ॥ ९२ ॥ ९२. अथ स दैत्यतल्लजको दानवश्रेष्ठो ग्राहारिर्गदामतल्लिका श्रेष्ठं गदाख्यमायुधभेदं गूर्जरभूपतांवमुचदक्षिपत् । कीहक्सन् । अश्वाश्च ता गर्भिण्यश्चाश्वगर्भिण्यो भ्रष्टाः साध्वसातिरेकादधःपतिता अश्वगर्भिणीनां गर्भा यत्र तद्यथा स्यादेवं गर्जन्महासिंहनादं मुञ्चन् । स्वभावान्मतल्लिकादयः प्रशंसायां रूढा आविष्टलिङ्गाश्च ॥ इभ्यपोटा । इभ्ययुवति । गजस्तोकैः । हयकतिपयैः । गोगृष्टि । गोधेनु । गोवैशाः । गोहत् । गोबष्कयिणी । औत्सप्रवक्तृवत् । कठश्रोत्रिय । कालापाध्यायक । कठधूर्तः । गदामतल्लिकाम् । दैत्यतल्लजकः । इत्यत्र "पोटायुवति" [१४] इत्यादिना कर्मधारयः ॥ अश्वगर्भिणी । इत्यत्र "चतुष्पाद्गर्भिण्या" [११२] इति कर्मधारयः ॥ शिरस्काधुवखलतिर्बुद्धेर्युवजरन्नथ । स्मितायुवपलितस्तां शक्त्या चिच्छेद राजिंभूः॥ ९३ ।। ९३. अथ राजिंभूर्मूलराजस्तां गदां शक्त्यास्त्रभेदेन चिच्छेद । कीहक्सन् । शिरस्काच्छिरस्त्राणायुवखलतिस्तरुणः सन्खल्वाटस्तथा बुद्धेर्युवजरंस्तरुणः सन्वृद्धस्तथा स्मिताद्दाक्षेपोत्थहासाावपलितस्तरुणः सन्सितकचः ॥ १ सी स्कायव. २ डी तिर्युद्धे युव. ३ डी जिसू:. १ ए सी रिगदा. २ ए सी ताचद. डी तावुद. ३ ए सी अभ्य'. . ४ ए सी डी °वशा । गो. ५ ए सी यकः । क. ६ बी तुष्फाग. ७ डी जिसूर्मू. ८ ए सी स्तरण:. ९ डी थायुन्व. १० ए सी बुदेर्यु. ११ ए सीरुण सौ. Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] ग्राहारियुववलिनोभूद्भालवलिभिः क्रुधा । भोज्यतिक्तं न भुञ्जानस्तुल्यसारे दृशौ दधत् ॥ ९४ ॥ ९४. ग्राहौरि: क्रुधा ये भालवलयो ललाटरेखास्तैः कृत्वा युवैवलिनो युवा सन्वलियुक्तो वृद्धोभूत् । कीदृक् । साने क्रुधाश्रुयुते तुल्ये च ते साने च तुल्यसा दृशौ दधत् । भोज्यतिक्तं भुञ्जानो नु तिक्तं कटु तीक्ष्णरसमपि कटुत्वात्तिक्तशब्देनोच्यते । भोज्यं च तत्तिक्तं च भोज्यतिक्तं तीक्ष्णं त्रिकटुकादि तद्भुञ्जान इव । त्रिकटुकादि भुञ्जानस्याक्षिणी सारे भवतः ॥ दोभ्या सदृशपीनाभ्यां भोज्यमन्नं नु लीलया। स गृहीत्वायसौ शङ्ख तुल्यौ साविवाक्षिपत् ॥९५ ॥ ९५. स ग्राहारिरायसौ लोहमयौ शङ्क शर्वले मूलराजाभिमुखमक्षिपत् । किं कृत्वा । सदृशपीनाभ्यां तुल्यपीवराभ्यां दोभ्यां कृत्वा भोज्यमन्नं नु कवलमिव लीलयातिबलिष्ठत्वादनायासेन गृहीत्वा । किंभूतौ । तुल्यौ मिथः सदृशौ साविव कृष्णत्वाद्भीष्मत्वाच्च भुजङ्गाविव ॥ युवखलतिः । थुवपलितः । युवजरन् । युववलिनः । इत्यत्र "युवाखलति" [११३] इत्यादिना कर्मधारयः ॥ भोज्यतिक्तम् । तुल्यसास्ने । सदृशपीनाभ्याम् । इत्यत्र "कृत्य" [११४] इत्यादिना कर्मधारयः ॥ अजात्येति किम् । भोज्यमन्नम् । तुल्यौ सौ ॥ १ ए सी हारि क्रु. २ए सी डी रेवास्तैः. ३ बी वबलि'. ४ ए सी क्तं न भु. डी क्तं नु भु. ५ सी भवेत् ॥. ६ सी लोमहयौ. ७ सी खलितः । युवजववलि. ८ ए सी युवज'. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.११५.] पञ्चमः सर्गः । ४१५ तौ चौलुक्यः कुमारप्रव्रजिताशापदुःसहैः॥ कुमारश्रमणाशीलतीक्ष्णैर्वाणैः स्म कृन्तति ॥ ९६ ॥ ९६. चौलुक्यो मूलराजस्तौ शङ्क बाणैः कृन्तति स्माच्छिनत् । किंभूतैः । कुमारश्रमणाशीलतीक्ष्णैरपरिणीतभिक्षुकीव्रतवन्निशितैः । कुमारश्रमणाया ह्याजन्मब्रह्मचारिणीत्वेन सर्वदाप्यक्षतत्वाच्छीलमत्यन्तं तीक्ष्णं स्यात् । अत एव कुमारप्रव्रजिताशापदुःसहैः कुमारप्रव्रजिताक्रोशवदेसद्यैः । कुमारप्रव्रजिताया ह्याबालकालागतस्थत्वेन महाप्रभावत्वाच्छापोतिदुःसहः स्यात् ॥ कुमारश्रमणा । कुमारप्रव्रजिता । इत्यत्र "कुमारः" [११५] इत्यादिना कर्मधारयः ॥ मयूरव्यंसकच्छात्रव्यंसको नु धियाय तौ। पतद्भी रेजतुः प्लक्षन्यग्रोधाविव पत्रिभिः ॥ ९७ ॥ ९७. अथ तौ नृपौ पतद्भिः पत्रिभिः शरैः कृत्वा रेजतुर्यथा पक्षन्यग्रोधौ पतद्भिः पत्रिभिः पक्षिभी राजतः । प्लक्षो वृक्षभेदः । किंभूतौ तौ । धिया कृत्वा मयूरव्यंसकच्छात्रव्यंसकौ नु बाह्यविकारादर्शनेन रम्याकारदेहनेपथ्यत्वान्मयूर इव मयूरः । व्यंसयति छलयति चेतसा व्यंसकः । एवं विनयादिदर्शनेनच्छात्र इवच्छात्रः । व्यंसकः पूर्ववत् । कर्मधारयगर्भे द्वन्द्वे । ताविव । अन्योन्यं पराभवार्थमत्यन्तं छलकबुद्धी इत्यर्थः ॥ १ ए सी कृतन्तस्मा. २ सी श्रणा'. ३ ए सी दशौः । ४ ए सी सह स्या. ५ ए सी त्रिभि प. ६ सीतौ धि° ७ सी ति चे. ८ ए सी ने तच्छा. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ व्याश्रयमहाकाव्ये तौ स्त्रिग्धं वाक्त्वचं पीठच्छत्रोपानहमुद्वहन् । धवखदिरपलाशान्प्रविश्यैक्षिष्ट नारदः ॥ ९८ ॥ ९८. नारदः कलिकारकर्षिः शेत्रापातभयाद्धवखदिरपलाशांस्तरुभेदान्प्रविश्य तौ नृपावैक्षिष्ट । कीदृक् । स्निग्धमरूक्षं वाक्त्वचं वचनमङ्गच्छविं च पीठच्छत्रोपानहं मुनित्वाद्वृसीछत्रिकापादुकाश्चोद्वहन्धारयन् ॥ मयूरव्यंसकच्छा "मयूर " [११६] इत्यादिना निपात्यौ ॥ लक्षन्यग्रोधौ । वाक्त्वचम् । धवखदिरपलाशान् । पीठच्छत्रोपानहम् । इत्यत्र 1 “चार्थे” [११७] इत्यादिना द्वन्द्वः ॥ [ मूलराज : ] अथोत्क्षिप्य भ्रुवौ वक्रे कुटिले दंष्ट्रिके रुपा । पृथुभीमे दृशौ दैत्यो महाभीमे भुजे दधत् ॥ ९९ ॥ तुल्यो हरीणामुत्पच्याध्यास्त चौलुक्यदन्तिनम् । शस्त्रीखङ्गौ वहन्मातृमातारौ कीर्तियुद्धयोः ॥ १०० ॥ 1 ९९,१००. अथानन्तरं दैत्यो ग्राहारिरुत्पत्योत्लुत्य चौलुक्यदन्तिनमध्यास्त मूलराजवधायारोहत् । किं कृत्वा । रुपा कोपेन कुटिला च वक्रा च वक्रे भ्रू व भ्रुवौ नयनोर्ध्वरोमपद्धती उक्षिप्योत्पाट्य । तथा कीदृक्सन् । दधद्धारयन् । के के इत्याह । रुषा वत्रा च कुटिला च कुटिले । दंष्ट्रिका च दंष्ट्रिका च दंष्ट्रिके श्मश्रुणी । ५ १ एसी वौ चक्रे . १ ए सी कर्षिश. २ बी शस्त्रपा. ३ ए सी वाक्त्वं च । ध ४ ए सी ● श्च ० ५ सीणी सं ० Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.११९.] पश्चमः सर्गः । ४१७ 3 रुषां हि श्मश्रुणी संस्फुरन्ती वकीस्याताम् । नासिकाग्रस्थ सीमन्तकल्पश्मश्रुमध्यभूतप्रदेश विशेषेण द्विधाकृतत्वात् श्मश्रुणो द्वित्वम् । तथा रुषा पृथुभीमा च महाभीमा च पृथुभीमे हक्क हक दृशौ । रुषा हि दृशौ विस्तरतो रौद्रीस्यातां च । तथा रुषा चिकीर्षितोत्प्लवनवशेन वा पृथुभीमा च महाभीमा च महाभीमे भुजा च भुजा च भुजे च । तथा कीर्तियुद्धयोर्यथासंख्यं मातृमातारौ जननीपरिच्छेदको कीत्युत्पादिकारणसमापकावित्यर्थः । शस्त्रीखङ्गौ क्षुरिकासी वहन् । तथा हरि सिंहो हरि मर्कटो हरिश्च दर्दुरस्तेषां हरीणां तुल्य उत्प्लवनेन सदृशश्च ॥ वक्रे । कुटिले | पृथुभीमे । महाभीमे । इत्यत्र “समानाम् " [ ११८] इत्यादिनैकशेषः ॥ अर्थेन समानामिति किम् । शस्त्रीखङ्गौ । कीर्तियुद्धयोः ॥ हरीणाम् । भ्रुवौ । दंष्ट्रिके । दृशौ । भुजे । इत्यत्र “स्यादौ " [११९] इत्यादिनैकशेषः ॥ स्यादाविति किम् । माता च जननी माता च परिच्छेत्ता मातृमातारौ । अत्र ह्येकत्र मातरावन्यत्र मातारावित्यौकारे रूपं भिद्यते ॥ तौ भ्रात्रोः सुतयोर्वर्थे यमपुत्रौ नु शरूयसी । स्वसोदयौं नु विभ्राणावेकेभस्थौ प्रजतुः || १०१ ॥ १०१. स च ग्राहारिश्व मूलराजश्च तौ | भ्रात्रोर्भ्रातुश्च स्वसुश्च सुर्तयोर्वा । वाशब्दो ज्ञेयः । सुर्तस्य दुहितुश्च वार्थे नु कार्य इव प्रजहृतुर्मिथो जन्नतुः । किंभूतौ सन्तौ । एकेभस्थावेकगजे वर्तमानौ । तथा 1 १ ए सी 'यो न्वर्थे. १ पाणिम. ५ ए सी डी कादित्य .. 'श्रो भ्रातु●● ८ ए सी 'तयच । भुजे. ५३ ३ बी 'कीर्पतो. ४ ए सी ६ ए सी डी 'जां तेन उ. ७ एसी ९ बी तश्च दुहितश्च २ ए सी डी स्थसम Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] शरूयसी क्षुरिकाखौ स्वसोदय नु स्वकीयौ भगिनीमिव सोदर्यमिव चादरादित्यर्थः । बिभ्राणौ । कीदृशौ शरूयसी । यमपुत्रौ तु यमस्य सुता च पुत्रश्च पुत्राविव मृत्युहेतुत्व कृष्णत्वादिना यमपुत्रिकापुत्रतुल्यौ || । तौ । इत्यत्र " त्यदादिः " [ १२० ] इति त्यदादेः शेषः ॥ I भ्रात्रोः । सोदयौं । पुत्रौ । सुतयोः । इत्यत्र “भ्रातृ" [ १२१ ] इत्यादिना भ्रात्रपुत्रार्थयोः शेषः ॥ कुमारमातापितरौ प्रद्युम्नपितरौ च ते । क्रुद्धाद्येति चौलुक्यो ब्रुवन्दैत्यमपातयत् ॥ १०२ ॥ १०२. चौलुक्यो दैत्य पातयद्गजाद्भूमाव भ्रंशयत् । कीदृक्सन् । ब्रुवन् । किमित्याह । कुमारमातापितरौ गौरीश्वरौ प्रद्युम्नपितरौ च लक्ष्मीविष्णू च ते तवाद्य क्रुद्धाविति ॥ पितरौ । इत्यत्र “पिता मात्रा वा " [ १२२ ] इति पितुर्वा शेषः ॥ पक्षे | मातापितरौ । मातुरच्यत्वात्पूर्वनिपातः ॥ स तं शिर्वश्वशुरयोः पुत्रो नूत्पत्य दुर्धरः । आन्दिश्वश्रूश्वशुरं बबन्धेभवरत्रया ॥ १०३ ॥ १०३. स मूलराजस्तं ग्राहारिभिभवरत्रया बबन्ध । किं कृत्वा । दुर्धरो महाबलत्वात्केनापि धर्तुमशक्यः सन् शुरश्च श्वश्रूश्व श्वशुरौ शिवस्य शंभो: श्वशुरौ शिवश्वशुरौ तयोर्हिमाद्रिमेनयोः पुत्रो नु मैनाका १ ए सी वद्वेति. १ सी दारे: शे. 'क्ष्मीतिष्णू, ५ ए सी २ बी वस्वसुर". २ एसी दर्यो । पु . ३ सी 'ममातभ्रं सुर. ६ बी डी वसुरौ, ७ ए सी 'नयो पु ४ ए सी Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०३.१.१२६. ] पञ्चमः सर्गः । द्विरिवोत्पत्योत्त्य यथा मैनाक: सपक्षत्वेनोत्पतत्येवं दुर्धरत्वाद्द्वजाद्भूमौ निपत्येत्यर्थः । कथं बबन्ध । आक्रन्दिनौ रुदन्तौ ग्राहारेः श्वश्रूश्वशुरौ यत्र तद्यथा स्यात् ॥ श्वशुरयोः श्वश्रूश्वशुरम् । इत्यत्र “श्वशुरः श्वश्रूभ्यां वा " [१२३] इति वा र्श्वशुरस्य शेषः ॥ गाग्य वात्स्यौ तुष्टुवरिन्द्रौ च ब्राह्मणाविव । इन्द्रेन्द्राण्यो रिपौ बद्धे तमुपेन्द्रं बलाविव ॥ १०४ ॥ १०४. इन्द्रेन्द्राण्यो रिपौ ग्राहारौ बलाविव बलिदैत्य इव बद्धे तं मूलराजमुपेन्द्रमिव विष्णुमिव तुष्टुवतुः । कौ कावित्याह । गार्ग्यव गार्ग्यायणच गाग्य वात्सी च वात्स्यायनश्च वात्स्यौ । तथेन्द्रौ चेन्द्रेन्द्राण्यौ । किंवत् । ब्राह्मणश्च ब्राह्मणी च ब्राह्मणाविव भट्टभट्टि - न्याविवेत्यर्थः ॥ ८ 1 गाग्यौ । इत्यत्र “वृद्धो यूनां " [ १२४ ] इत्यादिना वृद्धशेषः ॥ वात्स्यौ । इत्यत्र “स्त्री पुंबच्च” [१२५ ] इति वृद्धस्त्रियाः शेषः । पुंवच्चेयं स्यात् ॥ ब्राह्मणौ । इत्यत्र “पुरुषः स्त्रिया” [ १२६ ] इति पुरुषशेषः ॥ तन्मात्रभेद इत्येव । इन्द्रेन्द्राण्योः । अत्र धवयोगलक्षणोर्थभेदः । अन्ये तु तन्मात्रभेददिधिके प्रकृतिभेद एवैकशेषं नेच्छन्ति । अर्थभेदे विच्छन्त्येव । इन्द्रौ ॥ १ ए सी 'नाकस. ● श्वसुर ५ बी श्वसुरः किंव ब्रा. डी किंच ब्रा. ११ डी दाधि, ४१९ २ ए सी डी ६ बी श्वसुर ०. ९ ए सी सुरौ ३ बी श्वसुर . ४ एसी७ ए सी मूलं रा ८ एसी शेषं पुं. १० ए सी 'त्र धुव Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः। इमा गाव इमे वत्सा इमेश्वा रुरवो रयात् । यान्त्वित्यस्य ग्रहे जल्पल्लँक्षोथाधावत क्रुधा ॥ १०५॥ १०५. अथ लक्षः क्रुधा मूलराजं प्रत्यधावत । कीदृक्सन् । स्नेहातिरेकाजल्पन् । किमित्याह । अस्य ग्राहारेHहे बन्धे सति रयाच्छीघ्र यान्त्वपगच्छन्तु । के क इत्याह । गावश्च स्त्रियो गावश्च पुरुषा इमा गावो धेनुवृषास्तों वत्साश्चेमे वत्साश्चेमा इमे वत्सास्तथाश्वाश्चेम अश्वाश्चेमा इमेश्वास्तथा रुरवेश्च मृगभेदाश्चेमे रुरवश्च {गीभेदाश्चेमा इमे रुरवश्च । ग्राहारिग्रहे गवादिभिर्मे न किंचित्प्रयोजनमित्यर्थ इति । इँमा गावः । इत्यत्र "ग्राम्या' [१२७] इत्यादिना स्त्रीशेषः ॥ ग्राम्येति किम् । आरण्यानां मा भूत् । इमे रुरवः ॥ अशिशुग्रहणं किम् । इमे वत्साः । द्विशफेति किम् । इमेश्वाः ॥ वासोङ्गरागं मालां च विभ्रत्सितानि तत्सितम् । ढुवानो दन्तकोन्यैत्य चौलुक्यमिति सोभ्यधात् ॥१०६॥. १०६. स लक्षश्चौलुक्यमेत्यागत्येति वक्ष्यमाणमभ्यधादवोचत् । कीहक्सन् । सितं च सितश्च सिता च सितानि श्वेतानि वासो वस्त्रमङ्गरागमङ्गविलेपनं मालां च पुष्पस्रजं च बिभ्रत् । तथा दन्तकान्या कृत्वा सितं श्वेतानि तत्तानि वासोङ्गरागं मालां च ढुवानः श्वेतत्वाधिक्यादाच्छादयन् ॥ १ए सी क्षोधाताव, डी क्षोधावत तत्क्रुधा ॥. २ ए सी कान्तत्य. १ए सी ति यर'. २ डी यान्तु ग'. ३ ए सीत्व ग. ४ ए सी था त्सा. ५ डी वश्चमे मृगा: रु. ६ ए सी मृ...गी. ७ ए सी इवागा. ८ बी मे अश्वाः ॥. ९ सी च मिवा. १० ए डी नि वा. ११ ए सी माला च तुष्प. १२ ए सी बिभत्. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.१.१२९.] पञ्चमः सर्गः । ४२१ तत्सितम् सितानि । इत्यत्र "क्कीबम्" [१२८]: इत्यादिना क्लीबं शिष्यते तच्चैकमेकार्थं वा ॥ मूल पुष्यपुनर्वस्वोश्चन्द्रस्तेद्योद्रणे मयि । यन्मे ग्राहारेश्च तिष्यपुनर्वस्वोर्नु नान्तरम् ॥ १०७ ॥ १०७. हे मूल मूलराज "ते लुग्वा" [३.२.१०८] इत्युत्तरपदलोपः । अनेन च संबोधनेनास्य मूलनक्षत्रजातत्वमुक्तम् । मूलजातानामेव हि प्रायेण नामादौ मूलशब्दः स्यात् । मय्युद्रणे रणायोद्यतेद्य ते तव चन्द्रो वर्तते । क्व । पुष्यपुनर्वस्वोः । अत्र पुनर्वस्वन्त्यैकपादे पुनर्वसुशब्दः । पुष्यश्च पुनर्वसू च पुष्यपुनर्वसू तयोः । उपश्लेषसप्तमीयम् । पुष्यपुनर्वसुभ्यां संयुक्त इत्यर्थः । अष्टमश्चन्द्र इत्यर्थः । मूलपूर्वाषाढोत्तराषाढापाद एको धनुरिति वचनान्मूलजातस्य राज्ञो धनू राशिः । पुनर्वसुपाद ऐकः पुष्याश्लेषाश्च कर्क इत्युक्तेः पुनर्वस्वन्त्यैकपादपुष्याश्लेषायुक्तश्चन्द्रः कर्कराशिस्थो धनूराशेश्च कर्कोष्टम इति तत्स्थश्चन्द्रोप्यष्टमः । अष्टमे प्राणसंदेह इत्युक्तेश्च तवाद्य प्राणसंदेह इति तात्पर्यम् । स्वस्योद्रणत्वे हेतुमाह । यदित्यादि । यद्येस्माद्धेतोर्मे ग्राहारेश्च नान्तरं न विशेषो मिथोन्तरङ्गमैत्र्यावयोरेक एवात्मेत्यर्थः । अत्रैव शब्दश्लेषोपमामाह । तिष्यपुनर्वस्वोर्नु यथा पुष्यपुनर्वसुनक्षत्रयोर्व्यवधायकान्यनक्षत्राभावेनान्तरं व्यवधानं न स्यात् ।। पुष्यपुनर्वखोः । तिष्यपुनर्वस्त्रोः । इत्यत्र "पुष्या" [१२९] इत्यादिना पुनवसुंधर्थ एकार्थः स्यात् ॥ १ ए सी डी स्वोच्चन्द्र १एसी सू च पुष्यपुनर्वसू त'. २ बीर्थः । मू. ३ ए सी डी एकपु. ४ सी श्च कार्को. ५सी चममाद्धे'. ६ ए सी षो मियोन्तरं न विशेषो मि. ७बी सुद्ध्यर्थ. Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] मुञ्चामुं क्रोधमानौ च लाभालाभं स्मरात्मनः । सुखदुःखौ भजेद्भावौ लाभालाभौ हि चिन्तयन् ॥१०८॥ १०८. हे राजन्नमुं ग्राहारिं क्रोधमानौ च कोपाहंकारौ च मुञ्च तथात्मनो लाभालाभं स्मर । एवं कुर्वतो मम लाभोलाभो वेति परिभावय । हि यस्माल्लाभालाभौ चिन्तयन्परिभावयन्सुखदुःखा सुखदुःखहेतू भावौ पदार्थों भजेत् । लाभार्थमलाभपरिहाराय च सुखहेत्वर्थवैदुःखहेतुमप्यर्थमङ्गीकरोतीत्यर्थः । तस्माद्राहारेर्मोचनं स्वस्य ससैन्यस्यानेकसंपत्तिहेतुत्वाल्लाभकारणममोचनं तु क्षयहेतुत्वादलाभकारणं परिभाव्य दुष्करमपि ग्राहारिमोचनं कुर्विति तात्पर्यार्थः । लाभालाभम् लाभालाभौ । अत्र “विरोधिनाम्'' [१३०] इत्यादिना द्वन्द्वो वैकार्थः ॥ विरोधिनामिति किम् । क्रोधमानौ । अद्व्याणामिति किम् । सुखदुःखौ भावौ ॥ अथाश्ववडवाविच्छेबट्वाश्ववडवं न्विमम् । तत्वे पूर्वापरे ब्रूहि ब्रूमः पूर्वापरं युधि ॥ १०९॥ १०९. अश्ववडवं नु तुरंगतुरङ्गयाविवामुं ग्राहारिं बद्धवाथ यद्यश्ववडवो तुरगतुरङ्गयौ । उपलक्षणत्वाद्धस्तिरत्नवर्णादिदण्डं चेच्छेाञ्छसि तत्तदा स्खे आत्मीये पूर्वापरे आद्यन्ते पूर्वजान भ्रातृपुत्रपौत्रादि पाश्चात्यं स्वसंतानं च कथय त्वद्वंशे यो ग्राहारेर्दण्डं जग्राह यो ग्रहीप्यति च तौ प्रकटयेत्यर्थः । इदमुक्तं भवति । मयि सति तव वंशे स कोपि नाभून भविष्यति च यो ग्राहारेर्दण्डं गृहीतवान् ग्रहीष्यति वा । १ सी वौ पादा. २ सी हाय. ३ बी °वदुख. ४ डी वाल्लोभ. ५ सी रङ्गतु. ६ बी दि पश्चा. ७ डी वंशो यो'. ८ ए सी योहा. ९एन् गृही. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.१३०.] पञ्चमः सर्गः । ४२३ तस्मात्त्वमपि दण्डग्रहणविषयासद्धाहं मा कृथा इति । ननु त्वमपि तं स्ववंश्यं कंचन प्रकटय येन मया बद्धः शत्रुर्मोचितो मोचयिप्यते वेत्याशङ्कयाह । ब्रूमः पूर्वापरं युधि । वयं तु वं पूर्वापरमाद्यन्ते युधि रणे ब्रूमः स्वदोर्बलप्रकटनेनाधुनैव प्रकटयामः ॥ माघरोत्तरमीक्षस्व कोधरोत्तरयोस्तव । गोमहिषेणेव गोमहिषौ युध्यस्व भो मया ॥ ११० ॥ ११०. अधरोत्तरं मेक्षस्व भयाकुलतयाधरदेशमूर्ध्वदेशं च मा विलोकय । यतोधरोत्तरयोरधरो_प्रदेशयोस्तव संबन्धी कोस्ति । न न कोपीत्यर्थः । तर्हि किं कार्यमित्याह । यथा गोमहिषौ शण्डलुलायौ गोमहिषेण शण्डमहिषाभ्यां सह युध्येते तथा भो मूलराज त्वं मया सह युध्यस्व ॥ चौलुक्योथाह कोपेपि क्षरन्दधिघृतं गिरा । असौ मोच्यः कथं यस्य गावो दधिघृते सदा ॥ १११॥ १११. अथ चौलुक्यः कोपेपि क्रोधे सत्यपि महापुरुषत्वाद्राि कृत्वा दधिधृतं मधुरत्वाद्दधिसर्पिषी इव क्षरन्सन्नाह । किमित्याह । यस्य ग्राहारेः सदा गावो दधिघृते दधिघृततुल्या महापापिष्टत्वाद्धेनवो यस्य भोज्या इत्यर्थः । असौ ग्राहारिः कथं मोच्यस्त्याज्यो न कथमपीत्यर्थः ॥ १ बीपि त्वं स्व. सी °पितः स्वं वं. २ ए सी ब्रूम पू. ३ ए सी दोर्वप्र. ४ ए सी °मूर्द्धदे. ५ ए सी रोईप्र. ६ ए सी डी त्वा......६. ७ ए सी डी पिष्ठाद्धे . ८ ए सी °हारिक'. Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ व्याश्रयमहाकाव्ये मूलराजः अश्ववडवम् अश्ववडवौ । पूर्वापरं पूर्वापरे । अधरोत्तरम् अधरोत्तरयोः । इत्यत्र "अश्ववडव'' [१३१] इत्यादिना वैकार्थता ॥ अश्ववडवेति निर्देशादेवेतरेतरयोगे इस्वत्वं निपात्यते ॥ ___ पशु । गोमहिषेण गोमहिषौ ॥ व्यञ्जन । दधिघृतम् दधिघृते । अत्र "पशु" [१३२] इत्यादिना द्वन्द्व एकार्थो वा ॥ कुशकाशमसौ पापः कुशकाशा इमे नृपाः। सारो धवाश्वकर्ण नु त्वं मुमोचयिषन्नमुम् ।। ११२ ॥ ११२. पापोसौ ग्राहारिः । कुशकाशं कुशा दर्भाः काशा इषीकाख्यास्तृणभेदा द्वन्द्वे । कुशकाशैमिवासारः इत्यर्थः । तथेमे पाहारिसत्का नृपाः कुशकाशाः । ग्राहारिमोचनेशक्तत्वादसारा इत्यर्थः । एवं च यदि परममुं ग्राहारिं मुमोचयिषन्मोचयितुमिच्छंस्त्वमेव धवाश्वकर्णं नु। धवाश्वकर्णाख्यवृक्षभेदा इव सारो बलिष्ठः । काकुव्याख्ययोपहासगर्भवाक्यार्थत्वादयमत्र तात्पर्यार्थः । न हि ग्राहारिस्तन्नृपाश्चासमर्था आसन्परं पाहारिः सर्वेषु नृपेषु पश्यत्सु मया बद्धोतस्त्वमेकोमुं मुमोचयिषुः कियन्मात्र इति ॥ युध्यसे चेदसौ दोस्त्वां तिलमाषान्नु पेक्ष्यति । भता धवाश्वकर्णान्कि तिलमाषेनिलः स्खलेत् ॥ ११३ ॥ ११३. चेद्यदि युध्यसे त्वं तदासौ मामकीनो दोस्तिलमाषान्नु तिलमाषानिवासारत्वाल्लीलया त्वां पेक्ष्यति संचूर्णयिष्यति । दृष्टान्त १ सी शम. २ ए सी भसो पा. १ ए सी डी ते । गो. २ ए सी शनिवा'. ३ ए सी ममुग्रा. ४ सी हि गृया. Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०३.१.१३३.] पञ्चमः सर्गः । ४२५ माह । धवाश्वकर्णान्भङ्कानिलः किं तिलमाषे स्खलेत् । तदिदमत्राकूतम् । यो धवाश्वकर्णवत्सारान् ग्राहार्यादीन्भङ्का सोनिलेमहाबलो मद्दोर्दण्डस्तिलमाषर्तुच्छे त्वयि किं कदाचित्स्खलेत् ॥ ऋश्यैणानां समैरश्वैर्यद्युश्यैणं नु नङ्क्ष्यसि । याहीदानीं मा तित्तिरिकपिञ्जलमिवारेट ॥ ११४ ॥ ११४. ऋश्यैणानां भालूकानां मृगभेदानां च समैः शीघ्रत्वादिना तुल्यैरवैः कृत्वा ऋश्यैणं नु ऋश्यैणा इव यदि त्वं यसि तदेदानी - मेव याहि । यदि पश्चादपि रणे नमयसि तदा प्रथममेव नश्येत्यर्थः । तित्तिरिकपिञ्जलमिव । तित्तिरि: प्रसिद्धः । कपिञ्जलो गौरतित्तिरिः । बहुवचनसमाहारे । तदिव मारट स्वविकत्थनेन मा पूत्कुरु ॥ 1 इत्युक्तः सोग्रहच्चापं मन्वानोश्वरथं श्रितान् । द्विषो न दंशमशकं न तित्तिरिकपिञ्जलान् ।। ११५ ।। ११५. इत्येवंप्रकारेणोक्तः स लक्षश्चापमग्रहीत् । कीदृक्सन् । अश्वरथं श्रितानश्वान्रथांश्वारूढान्द्विषो दंशमशकं दंशा मशकाश्च क्षुद्रजन्तुभेदा: प्रसिद्धा असारत्वात्ततुल्यानपि न मन्वानो न मन्यमानस्तथा तित्तिरिकपिञ्जलांस्तित्तिरिकपिञ्जलतुल्यानपि न मन्वानश्च ॥ १० तरु । धवाश्वकर्णम् धवाश्वकर्णान् ॥ तृण । कुशकाशम् कुशकाशाः ॥ धान्य | तिलमाषे तिलमाषान् ॥ मृग । ऋश्यैणम् ऋश्यैणानाम् ॥ पक्षिन् । तित्तिरिकपिञ्जलम् तित्तिरिकपिञ्जलान् । अत्र "तरुतृण” [ १३३] इत्यादिना एकार्थी वा ॥ १ एरय ॥ २ बी "त्रिक". १ ए सी 'लवहा डी 'लवन्महा'. ४ बीनां भलू. ५ ए सी डी नइसि. ८ सी तुल्यो ९ बी तिरक ५४ २ सी 'तु त्व ६ सी 'रुते १० सी ० श्यैणा . ॥ ३ बी 'चित्खले'. ७ ए सी 'रत्वोत्त'. ११ बी तिरक Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] सेनाङ्ग । अश्वरथम् ॥ क्षुद्रजन्तु | दंशमशकम् | अन्त्र " सेनाङ्ग" [ १३४ ] इत्यादिना द्वन्द्व एकार्थः ॥ बदरामलकं धानाशष्कुलीवांशितुं परान् । वर्षतीपून्द्विजक्षत्रविद्वास्तत्र तत्रसुः ॥ ११६ ॥ ११६. द्विजक्षत्रविद्वास्तत्रसुः । विवैश्यः । क सति । तत्र लक्षे । कीदृशि । इपून्वर्षति । किं कर्तुम् । परान्बदामलकमिव । ईवोत्रापि योज्यः । बदरीफलामलकीफलानीव । तथा धानाशष्कुलीव । धानौ भृष्टा यवाः । शष्कुली प्रसिद्धा । खाद्यभेदः । द्वन्द्वे तदिवे चाशितुं भक्षयितुमनायासेन विनाशयितुमिति यावत् । द्विजक्षत्रिय विद्धं त्राताप्यध्वनयद्धनुः । जयाय भेरीशङ्खं च सद्यो भैरिकशाङ्खिकम् ॥ ११७ ॥ ११७. द्विजक्षत्रियविटूद्रं त्रातापि रक्षितापि मूलराजोपि सद्यस्तत्क्षणादेव जयाय धनुरध्वनयज्याकर्षणेनावादयत् । तथा मूलराजसत्कभैरिकशाङ्खिकं भेरीवादनशिल्पाः शङ्खवादनशिल्पाश्च जयाय विजयसूचकं भेरीशङ्खमध्वनयत् ॥ ज्यानादैर्धनुरस्योच्चैः शिरोग्रीवमधुन्वतः । प्रत्यष्टात्कठकालापमुदगाच्चेत्युवाचं नु ॥ ११८ ॥ ११८. अस्य मूलराजस्य धनुर्धरोत्तमत्वेन लक्षबद्धदृष्टित्वाच्छिरो १ एसी वासितुं. २ एच नुः ॥ १ बी इतोत्रा. १ ए सी फलम. ३ बी 'ना भ्रष्टा शक्ष' सी ' व वांशक्ष. सत्क". ४ एव चां ५ ए सी रक्षता ६ एसी 'लसज डी 'ल Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.१३९. ] पञ्चमः सर्गः । ४२७ ग्रीवमधुन्वतो कम्पयतः सतो धनुः कर्तृ । उच्चैरुदात्तैर्ज्यानादैः कृत्वोवाच कठकालापारिदैत्यानां निर्णीतवधत्वेन बभाष इव । किं तदित्याह । roi: कालापाश्च शाखाध्ययननिमित्तव्यपदेशभाजोद्विजाचरणाख्या द्वन्द्वे । तत्प्रत्यष्ठादुद्गौश्च प्रतिष्ठामभ्युन्नतिं च प्राप्तमिति ॥ २ बदरामलकम् । इत्यन्र “फलस्य जातौ” [१३५] इति द्वन्द्व एकार्थः ॥ धानाशष्कुलि । इत्यत्र "अप्राणि" [१३६ ] इत्यादिना द्वन्द्व एकार्थः ॥ प्राणिपश्वादिवर्जनं किम् । द्विजक्षत्रियविद्वाः द्विजक्षत्रियविम् । गोमहिषौ गोमहिषम् । इत्यादीनि पूर्वोक्तान्येव ज्ञेयानि ॥ प्राण्यङ्ग । शिरोग्रीवम् ॥ तूर्याङ्गम् । भेरीशङ्खम् । भैरिकशाङ्खिकम् । अत्र "प्राणि” [१३७] इत्यादिना द्वन्द्व एकार्थः ॥ प्रत्यष्टात्कठकलापम् । उद्गात्कठकालापम् । अत्र “चरणस्य" [१३८] 19 इत्यादिना द्वन्द्व एकार्थः ॥ वाजपेयचयनयोरिवेषुवज्रयोर्नु तौ । अर्काश्वमेधे नु रणे चक्रतुः शरमण्डपम् ॥ ११९ ॥ ११९. यथा वाजपेय- चयन- इषु वज्र अर्क - अश्वमेधाख्येषु यागभेदेषु च्छायाद्यर्थं शरमण्डपं कौचित्कुरुतस्तथा रणे तौ मूलराजलक्षौ निरन्तरमोक्षैः शरमण्डपं वाणमण्डपं चक्रतुः ॥ अर्काश्वमेधे । इत्यत्र “अक्कीबे” [१३९] इत्यादिना द्वन्द्व एकार्थः ॥ अक्कीब इति प्रसज्यप्रतिषेधः किम् । वाजपेयं च चयनं च तयोर्वाजपेयचयनयोः । इमौ १ ए सी 'चन'. १ बी 'ठाः कला. २ बी 'निनिमि', सीडी : +++ प्रत्य ५ सी 'काप'. दिनो ए.. डीना, ३ ए सी गाश्च प्र०. ४ ए ६ सी 'ठला. ७ ए सी Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] ऋतूं पुंलिङ्गावपि स्त इति पयुदासाश्रयणेत्रापि स्यात् ॥ अध्वर्युग्रहणं किम् । इषुवज्रयोः । अध्वर्यवो यजुर्वेद विदस्तेषां वेदोप्यध्वर्युस्तत्र विहिताः क्रतवोश्वमे. धादयोध्वर्युक्रतवः । इषुवज्रौ तु सामवेदविहिताविति ॥ . युत्संहिताया विस्तारात्पदकक्रमकं नु तौ । स्तुतौ देवासुरैः सर्पनकुलं नु विरोधतः ॥ १२० ।। १२०. तौ देवासुरैः स्तुतौ देवैर्मूलराज: प्रशंसितोसुरैस्तु लक्ष इत्यर्थः । किंभूतौ सन्तौ । विरोधतो वैराद्धेतोः सर्पनकुलं नु सर्पनकुलतुल्यावत एव युद्रणं सैव स्वर्गफलत्वात्संहिता वैदिको ग्रन्थस्तस्या विस्ताराद्विस्तारणाद्धेतोः पदकक्रमकं नु पदानन्तरं क्रमस्य पाठीत्पदक्रमौ निकटपाठौ पाठविशेषावधीयाते “पदक्रम” [६.२.१२६] इत्यादिनाके पदकश्च क्रमकश्च तदिव । यथा पदाध्यायकक्रमाध्यायको यथोक्तेन संहितास्थपदक्रमपठनेन संहिताया विस्तारकावेवं युधो विस्तारकावित्यर्थः ॥ पदकक्रमकम् । इत्यत्र “निकटपाठस्य" [१४०] इति द्वन्द्व एकार्थः ॥ सर्पनकुलम् । इत्यत्र “नित्यवैरस्य" [१४१] इति द्वन्द्व एकार्थः ॥ तौ गूर्जरत्राकच्छस्य द्वारकाकुण्डिनस्य नु । नाथौ शरोमिमालाभिर्गङ्गाशोणं प्रचक्रतुः ॥ १२१ ॥ १२१. तौ मूलराजलक्षौ गूर्जरत्राकच्छस्य गूर्जरत्राकच्छदेशयो १ ए बी सी डी तू पुल्लिङ्गा . २ सी थेवा य'. ३ ए सी ध्वर्यस्त. ४ ए सी युक्रवत'. ५ बी रैः सुरैर्देवै. ६ ए सी डी कुल°. ७ ए सी दक्र. ८ ए सी डी ठत्पाद. ९ ए सी शेषव. १० ए सी धीयते. डी धीयते. ११ बी क्रमध्या'. १२ सीतास्थाप'. Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.१४२.] पञ्चमः सर्गः। ४२९ थौ शरा एव संततोच्छलितत्वादूर्मयः कल्लोलास्तेषां या मालाः श्रेणयस्ताभिः कृत्वा गङ्गाशोणं प्रचक्रतुः जाह्नवीनदमिव प्रचक्रतुः । नुरुपमायाम् । यथा द्वारकाकुण्डिनस्य नाथौ। द्वारकापुरीनाथो विष्णुः। कुण्डिनपुरनाथश्च विष्णुश्यालो रुक्मी । रुक्मिण्यपहारकाले महायुद्धविधानाच्छरोमिमालाभिर्गङ्गाशोणं प्रचक्रतुः ॥ वाराणसीकुरुक्षेत्रं प्राप्याजि तावहृष्यताम् । शौर्यकेतवतस्येशौ शोर्यकेतवते इव ॥ १२२ ॥ १२२. स्पष्टः । किं तु । वाराणसी च पू: । कुरुक्षेत्रं च देशः । द्वयमपि लोके महातीर्थत्वेन प्रसिद्धम् । इवोत्र ज्ञेयः । स्वर्गहेतुत्वेने वाराणसीकुरुक्षेत्रतीर्थतुयामित्यर्थः । शौर्य पुरम् । केतवता च ग्रामः॥ दायेन गौरीकैलांसौ तदा तावनुचक्रतुः । अस्त्रैरस्त्राणि तक्षन्तौ तक्षायस्कारमक्षतौ ॥ १२३ ॥ १२३. तदा दाढ्यन बलिष्ठत्वेन स्थैर्येण वा गौरीकैलासौ गिरिभेदाविव तौ मूलराजलक्षौ तक्षायस्कारं काष्ठतडोहकारमनुचक्रतुः । यतोरस्त्राणि तक्षन्तौ छिन्दन्तौ । तथाक्षतौ स्वयं प्रहाररहितौ । तक्षायस्कारमपि हि स्वयमक्षतं सदस्वैर्वासीघनादिभिरस्त्राणि चापखगादीनि तक्षति ॥ नदी । गङ्गाशोणम् ॥ देश । गूर्जरत्राकच्छस्य ॥ पुर् । द्वारकाढुण्डिनस्य । १ बी बाणारसी. २ ए सी डी लासो त. १ वी माला श्रे. २ बी णं जा. ३ बी नाच्छिरो'. ४ बी तु । बाणारसी. ५ बी न बाणारसी. ६ ए सी ल्यानित्य. ७ ए सी डी शौर्यपु. ८ ए सी रत्राणि. ९ ए सी तक्षिन्ती. १० सी न्तौ . स्व. ११ बी सी डी पुर । द्वा. १२ वी द्वारिका. १३ ए सी डी कुण्डन. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] इत्यत्र “नदीदेश' [१४२] इत्यादिना द्वन्द्व एकार्थः ॥ स्वैरित्येव । शौर्यकेतवते ॥ पुरग्रामसभेदेपीच्छत्यन्यः । शौर्यकेतवतस्य ॥ पूर्देशसंभेदेपोत्यपरे। वाराणसीकुरुक्षेत्रम् ॥ देशग्रहणेन चैह जनपदानां ग्रहणं पृथग्नदीपूर्ग्रहणात् । तेनेह न स्यात् । गौरीकैलासौ ॥ तक्षायस्कारम् । इत्यत्र “पाव्यशूद्स्य" [१४३] इति द्वन्द्व एकार्थः ॥ आनीयेषून गवाश्वेनोष्ट्रखरेणार्पयन्भटाः । सध्रीची दधिपयसोः कीर्तिमाकाङ्कतोस्तयोः ॥ १२४ ॥ १२४. तयोर्मूलराजलक्षयोर्गवाश्वेनोष्ट्रखरेण च कृत्वेषूनानीय भटा आर्पयन् । एतेन वाणक्षेपस्यातिबाहुल्यमुक्तम् । कीदृशोः सतोः। दधिपयसोर्दधिदुग्धयोः सधीची निर्मलां जयोत्था कीर्तिमाकाङ्कतोः ।। षभिर्गोमहिषैर्वाह्य सदृग्दृग्मधुसर्पिषोः। तुल्योर्मुपदशैर्नागाश्वैर्लक्षः कुन्तमुद्दधे ॥ १२५ ॥ १२५. षड्भिर्गोमहिषर्वाह्यं वोढुं शक्यं महाभारमित्यर्थः । लक्षः कुन्तमुद्दधे मूलराजे क्षेपार्थमुत्पाटितवान् । कीदृक् । मधुसर्पिषोः सदृग्हक्कोपारक्तत्वात्तुल्याक्षः । तथोपगताः समीपगता दर्श दशत्वं येषां तैनवभिरेकादशभिर्वा नागाश्चैर्हस्तियैस्तुल्यो समानबलः ॥ १बी धैर्बाह्यं. १ बीरे । बाणारसी. २ ए सी चेय ज. ३ ए सी डी पात्रशू. ४ बी लल'. ५ सीजक्ष. ६ बी पर्वाह्यं. ७ बी धेमूल°. ८ ए सी शभि द. ९ ए सी डी त्वं तै'. १० ए बी सी डी ल्योग स. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.१४३.] पञ्चमः सर्गः । ४३१ नागाश्च द्यन्नुपदशं धन्नासन्नदशान् रथान् । राजदन्तैर्दशनोष्ठं प्रासमुल्लास्य सोक्षिपत् ॥ १२६ ॥ १२६. स लक्षः प्रासं कुन्तमुल्लास्य स्फोरयित्वाक्षिपन्मूलराजाभिमुखं प्रेरितवान् । कहिक्सन् । उपदशं नवसंख्यमेकादशसंख्यं वा नागाश्वं यन्महाबलत्वात्खण्डेयंस्तथासन्नदशान्नवैकादश वा रथान् द्यस्तथा राजदन्तैर्दन्तानां राजभिरुपर्यधश्च मध्यदन्तरोष्ठं कोपाद्दशन् । लिप्तवासितदिक्कीाथोष्णगुश्रीः षड्डन्नतः। कुन्तेन सर्वसारेणावधील्लक्षं चुलुक्यराट् ॥ १२७ ॥ १२७. अथ चुलुक्यराड् मूलराजः सर्वः सारः प्रधानलोहभेदो यत्र तेन सर्वसारलोहमयेन कुन्तेन लक्षमवधीत् । कीदृशः । महापुरुषत्वेन सल्लक्षणलक्षितत्वात्पट् शिरो हृत्स्कन्धौ पादौ चोन्नता उच्चा यस्य सः । तोष्णगुश्री रवितुल्यतेजा अत एव कीर्त्या लिप्तवासिताः पूर्व वासिता आमोदिताः पश्चालिप्ता व्याप्ता दिशो येन सः ॥ धन्याख्यन्याः सुराः स्त्रीभिः पुष्पवृष्टिमथ व्यधुः । कृतप्रिये क्षणात्तस्मिन्कृतोग्ररिपुनिग्रहे ॥ १२८॥ · १२८. अथ सुराँस्तस्मिन्मूलराजे क्षणात्पुष्पवृष्टिं व्यधुः । कीदृशाः सन्तः । स्त्रीभिः स्वभार्याभिर्देवीभिः कृत्वा द्वे अन्ये येषां ते व्यन्यास्तिस्रोन्या येषां ते व्यन्याः । केचिद्देवीद्वयोपेताः केचिच्च देवी–ययुक्ता इत्यर्थः । यतः कीदृशे । कृतप्रिये विहितसुराभीष्टे । एतदपि कुत १ ए सी न्यानन्याः. २ ए सी सुरा स्त्री. १ए सी प्रासकु. २ सी °ण्डयस्त'. ३ सीथ चूलु. ४ सी सर्वसा. ५ ए सी डी सलक्ष. ६ बी थोष्णुगु. ७ ए सी ता अमो. ८ सी राजे. ९ ए र्यादिदें. सी र्यादिदेवी. १० ए सी त्रयं यु. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ध्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] इत्याह । यतः कृत उग्रो मारणात्मको रिपोर्लक्षस्य निग्रहो येन तस्मिन् ॥ ग्राहारि सोमुचत्कृत्ताङ्गुलीकं भिक्षितः पतिम् । तस्य पाणिगृहीतीभिर्वालहीतपाणिभिः ॥ १२९ ॥ १२९. स मूलराजो ग्राहारिममुचत् । कीदृशं सन्तम् । कृत्ता छिन्नाङ्गुल्यर्थात्कनिष्ठा येन यद्वाङ्गुल्यां कृत्तं येन तं स्ववेलायत्तं कृत्वेत्यर्थः । यतो बालैः कर्तृभिर्गृहीतपाणिभिरात्तहस्ताभिः सतीभिर्मूलराजस्य कृपातिरेकोत्पादनाय बालकान्हस्तेषु गृहीत्वेत्यर्थः । तस्य ग्राहारेः पाणिगृहीतीभिर्भार्याभिः पतिं भर्तारं भिक्षितोस्मभ्यं पतिभिक्षां देहीति याचितः ॥ ततः प्रभृति सौराष्ट्रः स्त्रीवेषो जातजन्मभिः। अजन्मजातैश्वोपात्तः प्राह राजिभुवो यशः ॥१३० ॥ १३०. ततः प्रभृति तस्मान्मोक्षदिनादारभ्य स्त्रीवेष आप्रपदीनशाटिकापरिधानकच्छादानाभावलक्षणो नारीवेषो राजिभुवो मूलराजस्य यशः सौराष्ट्रजयोत्यां कीर्तिं प्राह । संप्रत्यपि ज्ञापयतीत्यर्थः । कीहक् । सौराष्ट्र: सुराष्ट्रादेशोद्भवैलॊकैरुपात्तो वयं मूलराजस्य पुरः स्त्रीकल्पा इति ज्ञापनाय गृहीतः । कीदृशैः । जातजन्मभिः । जन्मशब्दोत्र जन्मप्रभृतिजीवितकालवाची । जातं बाल्ययौवनवार्धक्यावस्थात्रयोपभोगेन कृतकृत्यत्वान्निष्पन्नं परिपूर्णीभूतं जन्म जन्मवारी येषां तैरतिवृद्धैरित्यर्थः । तथा न जातं वार्धक्यानुपभोगेनाकृतार्थस्वादपरिपूर्णीभूतं जन्म येषां तैश्च बालैस्तरुणैश्चेत्यर्थः ॥ १ ए सी कृत्वा छि'. २ सी ही. ३ सी तिरोको'. ४ बी णिYही. ५ ए सी डी हीभि.° ६ बी शः सुरा. ७ ए सी वैलोकै. ८ सी जम्मश. ९ डी मवा. Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.१५०. ] पञ्चमः सर्गः । सुखयातान्यतीन्यात सुखान्विप्रांश्च भूपतिः । दुःखहीनों हीनदुःखान्यथावत्संस्थया व्यधात् ॥ १३१ ॥ १३१. भूपतिर्मूलराजो हीनमपगतं दुःखं यस्मात्स तथा सन्संस्थया व्यवस्थया व्यधात् । कांस्कानित्याह । यातं प्राप्तं सुखं दैत्यवधोत्थं शर्म यैस्तान्सुखयातान्यतींस्तथा यातसुखान्विप्रांश्चोभयानपि यातसुखत्वेन हीनदुःखान् । कथं व्यधात् । यथावयः प्रकारो यथ यथास्यास्ति “तदस्य ं” [७.२.१.] इत्यादिना मतुः । यद्वा यथेत्येतस्यार्हं “तस्यार्हे" [ ७.१.५१] इत्यादिना वत् । क्रियाविशेषणं यथाविधीत्यर्थः ॥ गवाश्वेन । उष्ट्रखरेण । इत्यत्र " गवाश्वादिः " [ १४४ ] इति द्वन्द्व एकार्थः ॥ दधिपयसोः । मधुसर्पिषोः । अत्र " न दधि" [ १४५] इत्यादिना न द्वन्द्वैकत्वैम् ॥ पङ्गिर्गोमहिषैः । इत्यत्र "संख्याने " [१४६ ] इति न द्वन्द्वैकत्वम् ॥ उपदशम् नागाश्वम् । उपदशैः नागाश्वैः । अत्र “वान्तिके” [१४७] इति वा द्वन्द्वैकत्वम् ॥ आसन्नदशान् । इत्यन्न “प्रथमोक्तं प्राकू” [ १४८ ] इति प्रथमान्तेन यन्निदिष्टं तत्पूर्व निपतति ॥ राजदन्तैः । लिप्तवासित । इत्यत्र " राजदन्तादिषु" [ १४९ ] इत्यप्राप्तपूर्वनिपातं प्राग्निर्पतति ॥ विशेषण | उष्णगुश्रीः ॥ सर्वादि | सर्वसारेण ॥ संख्या । षडुन्नतः । इत्यन्त्र "विशेषण" [ १५० ] इत्यादिना विशेषणादेः पूर्वनिपातः ॥ शब्दस्य स्पर्धे पर १ ए डी 'नो दीन'. १ बी 'स्तान्य° २ ए सी डी 'नभिया "थास्या. ५ सी त्वम् उप ६ डी पति ।. ८ सी स्प ५५ ४३३ ३ डी 'थाय:. ४ सी डी ७ ए सी डी 'गुश्रीस. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ध्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] त्वात्सर्वादिसंख्ययोः संख्याया एव पूर्वनिपातः । व्यन्याः ॥ उभयोस्तु सर्वादित्वे स्पर्धे परस्य पूर्वनिपातः । ब्यन्याः ॥ कृत्ताङ्गुलीकम् । इत्यत्रं "क्ताः" [१५१] इति क्तान्तस्य प्राग्निपातः ॥ क्तान्तस्य विशेषणत्वात्पूर्वेण सिध्यति विशेष्यार्थं तु वचनम् । अङ्गुल्यां कृत्तमनेन कृत्ताङ्गुलीकम् । स्पर्धे परत्वार्थ च । कृतोपरिपुनिग्रहे ॥ बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् । तेन कृतप्रिये । इत्यत्र परेणापि स्पर्धे क्वान्तस्यैव प्राग्निपातः ॥ जाति । पाणिगृहीतीभिः गृहीतपाणिभिः ॥ काले । अजन्मजातैः जातजन्मभिः ॥ सुखादि। सुखयातान् यातसुखान् । दुःखहीनः हीनदुःखान् इत्यत्र “जाति" [१५२] इत्यादिना जात्यादेर्वा प्राग्निपातः ॥ प्रजया पुत्रजातो नु तेजोम्यन्याहितोथ सः। प्रभासं जातपुत्रैवंगात्मीतैराहिताग्निभिः ॥ १३२ ॥ १३२. अथ स मूलराजो जातपुत्रैॠत्पन्नतनयैरिव प्रीतैदैत्यवधातुष्टैराहिताग्निभिरग्निहोत्रिभिर्द्विजैः सह प्रभासं तीर्थमगात् । कीदृक् । प्रजया कृत्वा जातः पुत्रो येन(यस्य ?) स पुत्रजातो नु प्रजा पुत्रमिव पश्यन्नित्यर्थः । तथा तेजोग्निना प्रतापवह्निना कृत्वाहितः प्रज्वालितोग्निर्येन सोन्याहितोग्निचित्तुल्यो जाज्वलत्प्रताप इत्यर्थः ।। आहिताग्निमिः अग्याहितः । जातपुत्रैः पुत्रजातः । इत्यत्र “आहितान्यादिषु" [१५३] इति क्तान्तस्य वा प्राग्निपातः ॥ १ डी 'त्र तान्त. २ बी वेणापि सि. ३ बी °ल । आज. ४ ए त्रैरुत्प. सी त्रैकवृत्प. ५ ए सी डी ग्निचत्तु. ६ ए प्राहि. ७ ए सी डी मिः आम्या. Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५ [है० ३.१.१५६.] पञ्चमः सर्गः । सोस्युर्वतः पद्मनाभो नूयतासिभिराकृतः । इन्दुमौलिं शूलपाणिं स्पृष्ट्वा नत्वेति तुष्टुवे ॥ १३३ ॥ १३३. स्पष्टः । किंतु । उद्यत ऊर्वीकृतोसियेन सोस्युद्यतः । प्रजापालकत्वात्पद्मनाभो नु विष्णुरिव । इन्दुमौलिं सोमनाथलिङ्गं स्पृष्ट्वा हस्तेन संस्पृश्य ॥ उद्यतासिभिः अस्युद्यतः । अत्र “प्रहरणात्" [१५४] इति क्तान्तं वा प्राग्निपतेत् ॥ इन्दुमौलिम् । पद्मनाभः ॥ प्रहरणात् । शूलपाणिम् । अत्र "न सप्तमी" [१५५] इत्यादिना सप्तम्यन्तस्य न प्राग्निपातः ॥ यस्त्वां श्रीकण्ठ नौत्यातः कण्ठेगडुररुःशिराः । भवत्यगडुकण्ठः सोशिरस्यरुरपि क्षणात् ॥ १३४ ॥ १३४. श्रीकण्ठ हे शंभो गडुणं कण्ठे यस्य स कण्ठेगडुर्गण्डमालामहारोगान्वितस्तथारुणं शिरस्यस्य सोरुःशिराश्च । उपलक्षणत्वादन्यैरपि रोगैर्युक्तश्च सन्नार्तो रोगपीडितो नरो यस्त्वां नौति स्तौति सक्षणादगडुकण्ठोशिरस्यरुरपि । अपिः समुच्चये । उपलक्षणत्वादन्यरोगविमुक्तश्च भवति ॥ कण्ठेगडुः गडकण्ठः । शिरस्यरुः अरुःशिराः । अत्र “गड्वादिभ्यः" [१५६] इति सप्तम्यन्तं वा प्राग्निपतेत् ॥ १ सी द्यता. १ ए बी सी डी ऊर्तीकृ. २ सी धवः । प्र. ३ डी भो वि. ४ ए सी डी नाभम् । प्र. ५ सी कन्ते य. ६ बी शिरोः । अ. Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] विश्वप्रिय प्रियमृषावादस्य त्वन्निरासतः । स्याज्जैमिनिकडारस्य तुल्यः कडारजैमिनिः ॥ १३५ ॥ १३५. हे विश्वप्रिय प्रिया विष्णुमूर्त्या पालनीयत्वाद्भवकष्टाब्धेनिस्तार्यत्वाच्चाभीष्टा विश्वे समस्तजना यस्य । अनेन शंभोः सर्वमान्यतोक्ता। त्वन्निरासतो नास्ति सर्वज्ञः प्रमाणपञ्चकातीतत्वात्खरविषाणवदित्यादिकुवादैस्त्वदभावमननाप्रियमृषावादस्य जैमिनिकडीरस्य कडारः पिगलो दासो वा सर्वज्ञाभावमननेन सर्वजनानां क्षेप्यत्वात्कडार इव कडारो यो जैमिनिर्मीमांसकस्तस्य तुल्यः कडारजैमिनि: कॉरमी. मांसक एव स्यान्नान्यः । त्वन्निरासं दुरात्मा मीमांसक एवाह नान्य इत्यर्थः । तथा च मीमांसकमताभिप्रायेणोक्तम् ॥ अपौरुषेयो वेदश्च प्रामाण्यं षट्माणतः । सर्वज्ञाभाव इत्येव मीमांसकमतं मतम् ॥ १॥ वृद्धमन्वादिभिस्तुत्यं त्वां स्तुयान्मनुवृद्धगीः । योर्थधर्मप्रियः स स्याद्धर्मार्थाभ्यां न वञ्चितः ॥१३६ ॥ १३६. वृद्धश्चिरन्तनो यो मनुराधर्षिस्तद्वद्भक्तिसारतार्थसारतादिगुणोपेता गीर्वाणी यस्य स तथा सन्यः पुमांस्त्वां स्तुयात् । यतोर्थधौं प्रियावभिलषणीयौ यस्य सः । अर्थधर्माभिलाषेणेत्यर्थः । किंभूतं त्वाम् । वृद्धमन्वादिभिश्चिरन्तनमर्नुऋष्याद्यैरादिपदाव्यासाद्यैस्तुत्यम् । स धर्मार्थाभ्यां वञ्चितो वियुक्त इत्यर्थः । न स्यात्तस्य धर्मार्थों भवत एवेत्यर्थः ॥ १ ए सी डी तुल्य क. २ ए सी डी स्तुल्यं त्वां. १ सी स्वाभी. २ बी मस्ता ज°. ३ ए सी डी डारः. ४ सी दास्यो वा. ५ ए वाकडा. सी डी वाकमार. ६ ए सी डार: मी'. ७ सी गोकाम् ।। ८ ए सी नुरुष्या. ९ ए सी डी स्तुल्यम् ।. Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.१५७.] पञ्चमः सर्गः। ४३७ ब्रह्मादीनां त्वमन्तादी तवाद्यन्तौ न कश्चन । अग्नीषोमौ वायुतोयाद्याश्च ते तिलमाषवत् ॥ १३७ ॥ १३७. ब्रह्मादीनामादिपदाद्विष्ण्वादीनामन्तादी संहारांत्सर्जनाच्च निधनोत्पत्तिकारणं त्वम् । यदुक्तम् । ब्रह्मादीनपि भगवंस्त्वमेव संसृजसि संहरसि चैव । इति । तव त्वाद्यन्तावुत्पत्तिविनाशहेतुरनादिनिधनत्वान्न कश्चन । उक्तं च। अनादिनिधनं देवं जगत्कारणमीश्वरम् । इति ॥ अतश्चाग्नीषोमौ वह्निदेवतासोमदेवते वायुतोयाद्याश्च वायुदेवताजलदेवताद्याश्चाद्यपदादेवतादयश्च ते तव तिलमाषवत्तिलमाषा इवाल्पास्त्वदंशमात्रमित्यर्थः ॥ स्कन्दश्रीदसुतेसखे त्यक्त्वा सखिसुतादिकम् । यस्त्वां ध्यायेत्रिलोक्यां स्यादनशस्त्रैः स दुर्जयः ॥१३८॥ १३८. स्कन्दश्रीदौ कार्तिकेयधनदौ सुतसखायौ यस्य हे स्कन्दश्रीदसुतसखे हे शंभो सखिसुतादिकमादिपदाद्भार्यादिकं संसारबन्धनं त्यक्त्वा यस्त्वां ध्यायेत्स नरखिलोक्यामस्त्राण्याग्नेयादीनि दिव्यायुधानि शस्त्राणि खगादीनि द्वन्द्वे तैर्दुर्जयः स्यात् । केनौप्यसौ न जीयेतेत्यर्थः ॥ १ सी नां दी त. २ ए सी डी तसुखे. १ ए सी रास्रजं. २ ए सी डी ताद्या . ३ बी याद्य. ४ ए सी डी "द्भूतदे'. ५ बी तसुखा. ६ सी धने त्य'. ७ सी नाप्यासौ. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्य [मूलराजः] श्रद्धातपोभ्यां संपन्ना अर्चित्वा बिल्वगुग्गुलैः । शङ्खदुन्दुभिवीणाभिर्धन्यास्त्वां पर्युपासते ॥ १३९ ॥ १३९. सुगमः । किं तु । श्रद्धातपोभ्यां संपन्ना इत्यनेन बिल्वगुग्गुलैरित्यनेन च शिवरात्रिपर्व ज्ञापितम् । तत्रैव हि विशेषतो बिल्वपत्रैर्गुग्गुलैश्च शंभोः श्रद्धोपवासतपःसंपन्नैर्जनैरर्चा क्रियते ॥ वीणादुन्दुभिशङ्खास्ते प्रिया इति पुरस्तव । गृह्णन्ति नारदप्रख्यास्ते वीणाशङ्खदुन्दुभीन् ॥१४॥ १४०. सुगमः । नवरम् । ते गन्धर्वविद्याकौशल्यादिना प्रसिद्धा नारदप्रख्या नारदो देवब्रह्मा तन्मुख्यास्तत्सदृशा वा गन्धर्वविद्याधराद्याः॥ प्रियमृषावादस्य विश्वप्रिय । इत्यत्र "प्रियः" [१५७] इति वा प्रियः प्राग्निपतेत् ॥ कडारजैमिनिः जैमिनिकडारस्य । वृद्धमनु मनुवृद्ध । इत्यत्र "कडार" [१५८] इत्यादिना कडारादेवा प्राग्निपातः ॥ धर्मार्थाभ्याम् अर्थधर्म । आद्यन्तौ अन्तादी । इत्यत्र "धर्मार्थ" [१५९] इत्यादिनाप्राप्तपूर्वनिपातं वा पूर्व निपतेत् ॥ - लघ्वक्षर । तिलमाष ॥ असखीदुत् । अग्नीषोमौ वायुतोय ॥ स्वराद्यत् । अस्वशस्त्रैः ॥ अल्पस्वर । बिल्वगुग्गुलैः ॥ अर्घ्य । स्कन्दश्रीद । इत्यत्र “लध्वक्षर[१६०]इत्यादिना लध्वक्षरादि प्राग्निपतेत् ॥ स्पर्धे परमेव । श्रद्धातपोभ्याम् ॥ १ ए सी ज्ञास्त्वां. . १ ए सी लै इत्य. २ बी ल्वपात्रै'. ३ ए सी मिनिजै. ५ ए सी थमर्थ । आ. गुग्गु. ४ ए सी Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.१.१६१.] पञ्चमः सर्गः। ४३९ सखिवर्जनं किम् । सुतसखे । सखिसुत ॥ एकमिति किम् । युगपदनेकस्य पूर्वनिपाते प्राप्त एकस्यैव यथा पूर्व निपातः शेषाणां तु कामचार इति प्रदर्शनार्थम् । शङ्खदुन्दुभिवीणाभिः। वीणादुन्दुभिशङ्खाः । वीणाशङ्खदुन्दुभीन् ॥ विनायकस्कन्दगुरो पुण्यैः फाल्गुनचैत्रयोः। ब्राह्मणक्षत्रविद्वैः प्रेक्ष्यसे ग्रीष्मदोलयोः ॥ १४१॥ १४१. विनायकस्कन्दगुरो हे गणेशकार्तिकेययोः पितः फाल्गुनचैत्रयोर्ये ग्रीष्मदोले ग्रीष्मपर्वदोलापर्वणी तयोर्ब्राह्मणक्षेत्रविद्रैः कर्तृभिः पुण्यैः कृत्वा त्वं प्रेक्ष्यसे । फाल्गुने पौर्णमासी ग्रीष्मपर्वाच्यते । यतोत्र काष्ठखगव्यग्रकरैर्बालकैः शिशूनां महासन्तापकत्वेन ग्रीष्मतुल्यत्वादीष्मा ढुण्डाराक्षसीकृतोपद्रवा उत्तार्यन्ते। यदुक्तं भविष्योत्तरे । पुरा रंघुर्नाम राजासीत् । तस्य राज्ये वर्तमाने ढुण्ढा नाम राक्षसी बभूव । सा बालानामुपद्रवं कुरुते। ततो विरागयुक्ताः सदुःखाः सर्वेपि पौरा नृपमूचुः । देव तव राज्येस्मद्वालानां महानुपद्रवो भवति । तत्रायस्व । ततो राजा गुरु वशिष्ठं सप्रश्रयमुवाच। कोसावदृष्टो बालानामुपद्रवकारी । तच्छ्रुत्वा वशिष्ठ ऊचे । देव ढुण्डेति नाम राक्षसी तपःप्रभावाल्लब्धवरा बालेभ्योन्यैरवध्या। अतः सा बालान्पीडयति । तदद्य फाल्गुने पूर्णिमायाः। अस्या निशागमे पार्थ संरक्ष्याः शिशवो गृहे । गोमयेनोपसंलिप्ते सचतुष्के गृहाङ्गणे । आकारयेच्छिशून्प्रायः खड्गव्यग्रकरानरान् ॥ १ ॥ १ ए सी डी एवमि. २ ए सी न्दुभिरीन् ।. ३ बी १४१ हे वि. ४ ए सी डी र्वणी. ५ ए सी क्षत्रेवि . ६ ए सी ल्गुनै पौ. ७ सी व्यद्यग्र'. ८ सी यते । य. ९ सी रघूनाम. डी रघुनामा रा. १० बी वसिष्ठ'. ११ ए सी शिवावो. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० व्याश्रयमहाकाव्ये ते काष्ठखङ्गैः संस्पृश्य गीतैर्हास्य करैः शिशून् । रक्षन्ति तेषां दातव्यं गुडं पक्वान्नमेव च ॥ २ ॥ एवं ढौण्डितमात्रस्य स दोषः प्रशमं व्रजेत् । बालानां रक्षणं कार्य तस्मात्तस्मिन्निशागमे ॥ ३ ॥ अस्मिंश्च पर्वणि सोमनाथस्यापि लोकाचार इति कृत्वा प्रीष्मोतारणं विशेषपूजा च चतुर्वर्णलोकैः क्रियते ॥ दोलापर्व च चैत्रशुक्लचतुर्दश्युच्यते । यतोत्र शंभुगौरीसहितो महोत्सवेन दोलामारुरोह । यदुक्तं भविष्योत्तरे । गौरी शंकरमाह । 1 11 कौतुकं मे समुत्पन्नं पन्नगाभरण प्रभो । अन्दोलकं मम कृते कारयस्व स्वलंकृतम् ॥ त्वया सहान्दोलयेयं यथा चैत्रे त्रिलोचन । गौरीवचनं चारु श्रुत्वा गोवृषभध्वजः ॥ २ ॥ सँ दोलं कारयामास आहूय सुरवर्धकिम् । स्तम्भद्वयं रोपयित्वा इष्टापूर्तमयं दृढम् ॥ ३ ॥ सत्यं चैवोपरितनं श्रेष्ठं काष्ठमकल्पयत् । वासुकिं दण्डिकास्थाने बद्धा ध्वान्ताय सप्रभम् ॥ ४ ॥ तर्फणासंचयं पीठं कृतवान्मणिमण्डितम् । तत्रारूढस्तु भगवान्सोमः सोमविभूषणः ॥ ५ ॥ [ मूलराज: ] 99 मन्दिरं दोलयामास पार्श्वस्यैः पादैः सह । इति ॥ ४ ए सी १ ए सी 'रैः रिशू . २ बी सी ढौढित. ३ ए सी दोषप्र लोकांचा. ५ सी चतु६ ए सी 'च्य' डी 'दश्यामुच्य ७ सी सा लोलं. डी स दोलां का ८ सी त्फर्ण सं. ९ ए पीढं कृ. १० ए सी 'पण ॥. ११ ए सी डी मन्दि". Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.१.१६१.] पञ्चमः सर्गः। ४४१ फलमाह । प्राप्ते वसन्तसमये सुरसत्तमानामान्दोलनं नरवरा ननु कुर्वते ये । ते प्राप्नुवन्ति भुवि जन्मतरो: फलानि दुःखार्णवोत्कुलशतान्यपि तारयन्ति । अस्मिंश्च पर्वणि सोमनाथस्य चतुर्वर्णैर्महाविस्तरेण दोलामहोत्सवः क्रियते ॥ फाल्गुनचैत्रयोः । ब्राह्मणक्षत्रवि द्वैः । विनायकस्कन्द । इत्यत्र "मासवर्ण" [१६१] इत्यादिना मासाद्यनुपूर्व पूर्व निपतेत् ॥ स प्रादुरदद्मविभ्रममिभत्वग्भस्मतः कृत्तिकारोहिण्यात्मजसंनिभः क्षितिपतिः स्तुत्वेति देवं ततः। उत्को ग्रीष्मवसन्तयोरतिमघाश्लेषे विधौ द्वादशा श्रीः पञ्चषवास र्निजपुरं नागाष्टशत्या ययौ ॥ १४२ ॥ १४२. ततः स्तवनानन्तरं स क्षितिपतिर्मूलराजो द्वादशार्कश्रीविजयादतिप्रतापी सन्नागाष्टशत्या हस्तिनां शताष्टकेन सह पञ्चषवासरैः पञ्चभिः षड्भिर्वा दिनैः । शीघ्रमित्यर्थः । स्वपुरं ययौ । यतो ग्रीमवसन्तयोरुपचाराद्वसन्तर्तुग्रीष्मर्तुसहचरितासु पुष्पोच्चयजलक्रीडादिक्रियासु विषय उत्क उत्कण्ठितः । किं कृत्वा ययौ । देवं शंभुमित्युक्तरीत्या स्तुत्वा। कीहक्सन् । कृत्तिकारोहिण्यात्मजौ स्कन्दबुधौ तयोः संनिभः शंभुविषयान्तरभक्तिपाण्डियाभ्यां तुल्यः । किंभूतं देवम् । इभत्वग्भस्मतो गजचर्माच्छादनभस्माङ्गरागाभ्यां सकाशात्प्रायटरदभ्रविभ्रम १ ए सी भ्रम. १ ए सीडी ननु व. २ एसी वाकुल'. ३ बी ऎमहा. ४ एसी है। वि. ५ डी रंक्षि.६ सी नाष्ट. ७ सीहिणीत्म. ८ बीवमभ.९ सी तो जगच'. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] वर्षाशरन्मेवतुल्यम् । क सति ययौ । विधौ चन्द्रे । कीदृशे । अतिमघाश्लेषेश्लेषामघानक्षत्रातिक्रान्ते । अस्य च विशेषणस्याप्रावेशिकनक्षत्रातिक्रमस्योपलक्षणत्वात्पूर्वफल्गुन्या अप्यप्रावेशिकत्वात्तामप्यतिक्रान्ते । उत्तरैफल्गुनीस्थ इत्यर्थः । उत्तरफल्गुनी हि स्थिरस्वभावत्वात्प्रावेशिकनक्षत्रम् । अश्लेषा क्रूरस्वभावत्वेन मघापूर्वफल्गुन्यौ चोग्रस्वभावत्वेनानिष्टफलत्वादप्रावेशिक्यः । यदुक्तं रत्नमालायाम् । शुभः प्रवेशो मृदुभिर्धवक्षैः क्षिप्रैश्चरैः स्यात्पुनरेव यात्रा। उप्रैर्नृपो दारुणभैः कुमारो राज्ञी विशाखासु विनाशमेति ॥ उग्रादिभिभैः प्रवेशे नृपादिविनाशमेतीति संबन्धः । अश्लेषामघापूर्वफल्गुनीरतिक्रान्ते चेन्दौ मूलराजस्याष्टमो नवमश्चेन्दुरशुभोपयातीति हेतोश्चातिमघाश्लेष इति विशेषणं विधोः॥ भ। कृत्तिकारोहिणी ॥ ऋतु । प्रावृष्टरत् । अत्र “भर्तु" [१६२] इत्यादिना भमृतश्चानुपूर्व प्राग्निपतेत् ॥ तुल्यस्वरमिति किम् । मघाश्लेपे । ग्रीष्मवसन्तयोः॥ . बहुव्रीहौ । पञ्चष॥ द्विगौ । अष्टशत्या ॥ द्वन्द्वे । द्वौ च दश च द्वादश । इत्यत्र "संख्या समासे" [१६३] इति संख्यानीमनुपूर्वं पूर्व निपतेत् ॥ शार्दूलविक्रीडितं छन्दः ॥ नवमः पादः समर्थितः॥ - इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेम . चन्द्राभिधानशब्दानुशासनध्याश्रयवृत्तौ पञ्चमः सर्गः समर्थितः ॥ १बी तिमेघा. २ बी फाल्गु. ३ बी रफाल्गु. ४ बी रफाल्गु. ५ बी वफाल्गु.६ ए सी डी °वक्षैः क्षि. ७ बी 'दि विना. ८ बी फाल्गु. ९ बी 'तुपू. १० बी नामानु. Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याश्रयमहाकाव्ये षष्ठः सर्गः। अहम् ॥ यथावदाराधयतस्त्रिवर्ग चामुण्डराजोस्य सुतोथ जज्ञे । परस्परां वाकमला च तेजःसौम्ये च नूनं मिषती श्रिते यम् ॥१॥ १. अथानन्तरमस्य मूलराजस्य यथावद्यथोचियेन परस्परानाबाधया । स्ववेलायामित्यर्थः । त्रिवर्ग धर्मार्थकामानाराधयत आसेवमानस्य सतश्चामुण्डराजः सुतो जज्ञ उत्पेदे । यं चामुण्डराजं वाक् सरस्वती च कमला च लक्ष्मीस्तेजः प्रतापः सोम इवाह्लादकत्वात्सोमः कान्तस्तद्भावः सौम्यं कान्तत्वम् । द्वन्द्वे। ते च श्रिते । नूनं शङ्के । परस्पराम् । स्पर्धमानः स कृष्णम् । मेरु स्पर्धिष्णुनेवान्यो धृतो नाको हिमाद्रिणा । इत्यादाविव प्राप्येत्यध्याहारेण परस्परस्य व्याप्यत्वात्परस्परं कर्म परस्परेण सह वा परस्परार्थं वा परस्परस्मात्सकाशाद् गम्ययबपेक्षया "गम्ययपः" [२.२.७४] इति पञ्चम्यां परस्परमाश्रित्य वा परस्परस्य संबन्धिनो वा परस्परस्मिन्वा मिषती स्पर्धमाने । ये हि मिथो मिषतस्ते मिथोभिभवेच्छयोत्कृष्टस्वामिनं श्रयेते। वाक्कमले तेजःसौम्ये च मिथो विरुद्ध अमुं चाश्रिते इत्येवमाशङ्का । सर्गेस्मिन्नुपजातिच्छन्दः ॥ १ बी ती क. २ ए सी डी मानस. ३ ए सी डी पनी मर्टप. ५बी मलते. वापर'. Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ व्याश्रयमहाकाव्ये चामुण्डराजः] द्वेषं परित्यज्य परस्परेण परस्परं चाप्रतिबाधनेन । अन्योन्यमुत्कर्षितया च मित्राणीवात्र विद्याश्च गुणाश्च तस्थुः॥२॥ २. मिथो विरुद्धा अपि धर्मशास्त्रकामशास्त्रादिविद्या दानाविकस्थनत्वादयो गुणाश्च मित्राणीवात्र कुमारे तस्थुः । कथमित्याह । परस्परेण सह द्वेषमेकत्रानवस्थानरूपं विरोधं परित्यज्य । तथा परस्परं परस्परेण कृत्वा परस्परार्थं वा परस्परस्मात्सकाशात्परस्परमाश्रित्य वा परस्य कर्मणो वा परस्परस्मिन्वा प्रतिबाधनेनोचिते स्वस्वकाले द्वयानामप्यासेव्यमानत्वादपीडनेन । तथान्योन्यं यथार्थसंबन्धम् । सर्वविभत्त्यर्थः पूर्ववद्भावनीयः । एवमग्रेपि । उत्कर्षितया च मिथो विशेषेकत्वेन च हेतुना। तथाहि । धर्मशास्त्रविद्यानुसारेण धर्मप्रवृत्तिर्भोगफलत्वेन विशिष्टकामहेतुरिति कार्यद्वारेण धर्मशास्त्रविद्या कामशास्त्रविद्योत्कर्षिणी । कामशास्त्रविद्यानुसारेण च कामप्रवृत्तिः संततिवृद्धिफलत्वाद्धर्मवृद्धिहेतुरिति कार्यद्वारेण कामशास्त्रविद्यापि धर्मशास्त्रविद्योत्कर्षिणी । तथा दानेनाश्लाघा विशिष्यतेश्लाघया तु त्याग इति । मित्राण्यपि मिथो द्वेषं त्यजन्ति मिथः कलहादिना न बाधन्ते च मिथो गुणोत्कीर्तनादिनोत्कर्षयन्ति च ॥ शक्तिक्षमे यौवनसंयमित्वे युते न दृष्टे इतरेतरां हि । तथापि ते तादृशनीतिभाज्यन्योन्यां चिरं चक्रतुरत्र योगम् ॥३॥ ३. यद्यपि शक्तिक्षमे यौवनसंयमित्वे तारुण्येन्द्रियजयौ च हि स्फुटमितरेतरामन्योन्यं युते संबद्धे मिथो विरुद्धत्वान्न दृष्टे । यद्वा । १ सी र वाप्र . २ ए सी तिराज्य'. १ ए सी डी रस्य. २ ए सी डी पत्वे'. ३ डी विद्यो का. ४ वी °द्यापि का. ५ ए सी यजियो. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.१.] षष्ठः सर्गः । ४४५ इतरेतरस्माद्युतेन पार्थक्येन दृष्टे तथापि ते शक्तिक्षमे यौवनसंयमित्वे चात्र कुमारेन्योन्यां चिरं योगं संबन्धं चक्रतुः । यतस्तादृशनीतिभाज्यनन्यसदृशन्यायनिष्ठे शक्तिक्षमाद्यनुरूपाचरिते वा । यो हि ताहशनीतिभागपूर्वन्यायनिष्ठो विरुद्धभृत्यानुरूपाचरणभाग्वा स्वामी स्यात्तत्र मिथो विरुद्धोपि भृत्यजनः स्वाम्यावर्जनाविशेषेण विरोधं विहायान्योन्यं चिरं योगं करोति ॥ संकेतयोगादितरेतरं नु कलाश्च शास्त्राणि च धीगुणाश्च । चकुर्विशेषानितरेतरस्यान्योन्यस्य भूषां च वितेनिरेस्मिन् ॥४॥ ४. इतरेतरं संकेतयोगान्नु संकेतो वयमत्र कुमारेन्योन्यं विशेषान्भूषां च विधास्याम इति मिथोभ्युपगमस्तल्लक्षणो यो योग: संबन्धस्तस्मादिवास्मिन्कुमारे कलाश्च धनुःकलाद्याश्च शास्त्राणि च धनुर्वेदादीनि च धीगुणाश्च शुश्रूषाद्या अष्टौ बुद्धिगुणाश्चेतरेतरस्य विशेषान् गुणोत्कर्षांश्चक्रुराधारस्यास्य विशिष्टत्वात्कलादयोन्योन्यं विशेषितवन्त इत्यर्थः । अत एवान्योन्यस्य भूषां च शोभां च वितेनिरे । कृतसंकेता हि संकेतिते स्थाने मिलिताः संकेतितमर्थं कुर्वन्ति ॥ वाक्कमला च तेजःसौम्ये च परस्परां मिषती। शक्तिक्षमे यौवनसंयमित्वे अन्योन्यां योगं चक्रतुः । शक्तिक्षमे यौवनसंयमित्वे इतरेतरां युते । अत्र "परस्पर" [१] इत्यादिनापुंसि स्थादेरामादेशो वा ॥ परस्परमप्रतिबाधनेन मित्रैरिव विद्याँभिः । अन्योन्यमुत्कर्षितया मित्रैरिव १ सी नु काला १डी न्योन्यं चि०. २ डी ते च । यो. ३ सी °षा भू|श्च वि. ४ ए भूषांश्च वि. डी भूषाश्च वि. ५ ए सी थोत्युप. ६ सी शिषत्वा. ७ बी धादिभिः. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] विद्याभिः । इतरेतर संकेतयोगात्कलामिः शास्त्रैः । इत्यत्र "परस्पर" [२] इत्यादिनापुंस्यमादेशो वा ॥ परस्परमप्रतिबाधनेन गुणैः । अन्योन्यमुत्कर्षितया गुणैः । इतरेतरं संकेतयोगाद्धीगुणैः । इत्यत्र "परस्पर" [१] इत्यादिना पुंसि स्यादेरम्वा ॥ पक्षे । द्वेषं परस्परेण । अन्योन्यस्य भूषाम् । इतरेतरस्य विशेषान् ॥ शेषविभत्त्यन्तानि विकल्पोदाहरणानि ज्ञेयानि । एवं च स्त्रीनपुंसकयोरमामौ द्वावादेशौ वा भवतः॥ यत्सेवमानः स्पृहयंश्च भक्तस्तथोपवृद्धं विरमन्नुपाक्षात् । असावधिस्यव्यसनी तदस्योपप्राच्यसंस्कारमलं निमित्तम् ॥ ५॥ ५. यदिति क्रियाविशेषणम् । यदसौ कुमारोभूत् । कीदृक् । उपवृद्ध वृद्धा ज्ञानादिवृद्धास्तेषां समीपाय स्पृहयंश्च ज्ञानाद्यर्थमभिलषन्वृद्धानां समीपस्य भक्तस्तथा बहुमानवांश्चात एव वृद्धानां समीपमासेवमानोत एव चोपाक्षात् । अक्षब्देनात्र पाशकोपलक्षितं द्यूतमुच्यते । तत्समीपाद्विरमन् द्यूतव्यसनानिवृत्त इत्यर्थः । यद्वा । विषयविषयिणोरभेदोपचारादाशब्देनेन्द्रियविषयाः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शा उच्यन्ते । तत्समीपाद्विरम जितेन्द्रिय इत्यर्थः । अत एव चाधिस्त्रि स्त्रीष्वव्यर्सन्यत्यासक्तिरहितः । तज्ज्ञायतेस्य कुमारस्योपप्राच्यसंस्कार प्राच्याः पूर्वजन्मभवा ये संस्कारा वृद्धसेवादिनिरन्तराभ्यासजनिता वासनास्तेषामनन्तरपूर्वभवापेक्षया सामीप्यं कर्तृ अलं समर्थ निमित्तं कारणम् । यदयं स्वभावेनैव गुरुसेवापरायणत्वादिगुणोपेतस्तत्रानन्तरपूर्वभवाभ्यास एव हेतुरित्यर्थः ॥ १ सी शोशा । प. २ एतयोः गा. ३ बी न्यभू. ४ ए नि वक. ५ बी वंस्त्री. ६सी तं श्वद्य. ७बी यऽत ए. ८ ए सी सनी सत्या. ९ °स्कारा वृ. Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.४.] षष्ठः सर्गः। ४४७ प्रियोपतृद्धः स निशम्य पार्थवृत्तान्युपव्यासमुपेशगेहे । किमूपतूणेन किमूपचापं गुरो रणाज्ञां हि विनेति दध्यौ ॥६॥ ६. स कुमारः प्रियमुपवृद्धं ज्ञानवृद्धादिसमीपं यस्य स तथा सन्नुपेशगेहे रुद्रप्रासादसमीपे कथामण्डपादावुपव्यासं व्याससमीपे पार्थवृत्तानि शत्रुजयादिविषयाण्यर्जुनचरितानि निशम्याकर्ण्य दध्यावचिन्तयत् । किमित्याह । गुरोः पितू रणाज्ञां युद्धविषयादेशं विना हि स्फुटमुपतूणेन निषङ्गयोः सामीप्येन किमु तथोपचापं धनुःसामीप्येन च किमु । यावत्पितू रणाज्ञो न स्यात्तावन्निरर्थकत्वाद्धनुर्विद्याभ्याससूचकेन रणार्थ पार्श्वस्थेन तूणद्वयेन चापेन च मम न किंचिदिति पूर्वमहापुरुषावदांताकर्णनोद्भूतातिरिक्तरणोत्साहादचिन्तयदित्यर्थः ।। ___ उपप्राच्यसंस्कारम् । उपवृद्धं सेवमानः। उपवृद्धं स्पृहयन् । उपवृद्ध भक्तः । इत्यन्न "अम्" [२] इत्यादिना स्थारैम् ॥ अव्ययीभावस्येति किम् । पार्थवृत्तानि ॥ तत्संबन्धिनः स्यादेरिति किम् । प्रियोपवृद्धः ॥ अत इति किम् । अधिस्त्रि ॥ अपञ्चम्या इति किम् । उपाक्षात् ॥ किमुपचापम् किमूपतूणेन । इत्यत्र “वा तृतीयायाः"[३] इति वाम् ॥ उपव्यासम् उपेशगेहे । अत्र “सप्तम्या वा” [४] इति वाम् ॥ सुगूर्जरं हेतुरनेकभारद्वाजं वरो गीतगुणस्त्रिगङ्गम् । स्थितोधिसद्भक्त्युपगूर्जरेन्द्रे स्वरीशितुः पुत्र इवैष रेजे ॥ ७॥ ____७. एष कुमारः स्वः स्वर्गस्येशितुः स्वामिनः शक्रस्य पुत्र इव १ ए सी निसम्य. २ सी चाप गु. ३ ए सी सगू। १ ए सी गयो सा. २ ए सी ज्ञानं स्या'. ३ सी °णार्थ पा. ४ डी किम् । ... ... ... पार्थ". ५ बी दानाक'. ६ ए सी रन् ।। म. ७ एसी डी स्वः सर्ग. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] जयन्त इव रेजे । यतः कीदृक् । सुगूर्जरं गूर्जराणां गूर्जरदेशोद्भवनृणां शोभनायामृद्धौ न्यायपालकत्वाद्धेतुः । तथानेकभारद्वाजं भरद्वाजस्यर्षे. रिमेपत्यत्वेन भारद्वाजा अनेकोविद्यमान एको येष्विति कृत्वानेका वा भारद्वाजा वंश्या अर्थात्स्वस्य । भारद्वाजा हि चौलुक्यानामाद्याः प्रवर्तयितारो धर्मगुरवश्चेति श्रुतिः । तेषु धर्मगुरुषु विषये वरो धार्मिकत्वाद्भक्तिपूजादिकरणेन श्रेष्ठः । तथोपगूर्जरेन्द्रे मूलराजसमीपेधिसद्भक्ति प्रधानभक्तौ विनीतत्वात्स्थितोत एव त्रिगङ्गं तिस्रो भूर्भुवःस्वस्त्रयस्था गङ्गाः समाहृतास्तत्र । लोकत्रयेपीत्यर्थः । गीतगुणः । जयन्तोप्यनेकभारद्वाजं वर इन्द्रसमीपेधिसद्भक्ति स्थितोत एव त्रिगङ्गं गीतगुणश्च ॥ ऋद्ध । सुगूर्जरम् ॥ नदी । त्रिगङ्गम् ॥ वंश्य । अनेकभारद्वाजम् । इत्यत्र "ऋद्ध" [५] इत्यादिना सप्तम्या अम् ॥ अधिसद्भक्ति । इत्यत्र “अनतो लुप्" [६] इति स्वादेर्लुम् ॥ अनंत इति किम्। उपगूर्जरेन्द्रे । स्वः। इव । अत्र "अव्ययस्य" [७] इति स्यादेर्लुप् ॥ यशस्यति क्ष्मानयसूत्रधारे सदा परस्त्रैणमनङ्गरूपे । यत्प्राक्श्रियंमन्यमिहाश्रिमन्यं स्त्रींमन्यतामप्यभितोमुचत्तत् ॥ ८॥ ८. यत्परखैणमन्येषां स्त्रीसमूहः प्राक्पूर्व सौभाग्यादिगुणश्रीगण सदा श्रियंमन्यं हरिप्रियातुल्यमात्मानं मन्यमानमासीत्तदिह कुमारे सत्यश्रियंमन्य लक्ष्मीतुल्यमात्मानममन्यमानं सत्स्त्रींमन्यतामप्यास्तामश्रियंमन्यतां १ ए सी प्राप्रियं. १ए सी गुरुव. २ ए सी डी रुष वि. ३ सी कवये'. ४ ए सी °न इ. ५ सी श्रियम'. Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ex [है० ३.२.९.] षष्ठः सर्गः। ४४९ नारिंमन्यतामप्यभितः सामस्त्येनामुचत् । यतः किंभूते । अनङ्गरूपेपि । अपिरत्र ज्ञेयः । एतेन स्त्रीप्रार्थनीयत्वोक्तिः । परम् । यशस्यति पैरनारीसहोदरोयमित्यादियशोभिलाषिणि । अत एव क्ष्मायाः पृथ्वीस्थलोकस्यापि नये परस्त्रीसेवननिवृत्त्यादिन्यायविषये सूत्रधारे सूत्रधारवत्प्रवर्तके । लोकस्यापि नये प्रवर्तकत्वात्स्वयमत्यन्तं न्यायनिष्ठ इत्यर्थः । यदासौ रूपप्रकर्षण स्त्रीप्रार्थनीयोपि यशोर्थित्वेनातिसदाचारत्वाद्रूपसौभाग्यादिनिधीनामपि साभिलाषाणामपि परस्त्रीणां संमुखमपि नालोकत तदा ता आत्मानं रूपादिगुणहीनं सामान्यस्त्रियोपि निकृष्टं च मेनिर इत्यर्थः ॥ अनङ्गरूपे । मानयसूत्रधारे । यशस्यति । सूत्रधारे । स्त्रैणम् । इत्यत्र अनङ्ग अस । रूप स् ॥क्ष्मा अस् । नय इ । सूत्रधार स् ॥ यशस अम् य ॥ सूत्र अम् धार ॥ स्त्री आम् नञ् ॥ इति स्थिते "ऐकायें" [८] इति स्यादेर्लुप् ॥ ऐकाथ्य इति निमित्तसप्तमीविज्ञानादैकार्योत्तरकालस्य न स्यात् । अनङ्गरूपे ॥ स्त्रींमन्यताम् । श्रियंमन्यम् । अत्र "न नामि" [९] इत्यादिनामो न लुप्॥ अन्ये वाहुर्यथा प्रेष्ठादयः शब्दा धवयोगास्त्रियां वर्तमानाः स्वं लिङ्गं विहाय स्त्रीलिङ्गमुपाददते तथा श्रीशब्दः स्त्रैणे वर्तमानः स्वलिङ्गत्यागेन वर्तते । ततो नपुंसकलक्षणं हस्वस्वममो लुप्च स्यात् । अश्रिमन्यम् ॥ १ ए सी नारिम'. २ बी मस्तेना. ३ बी नीयोक्तिः ।. ४ ए सी 'त्वोक्ति । प. ५ ए सी यसस्य'. ६ बी परं ना. ७ ए सी डी धार'. ८ ए सी दिधी. ९ डी पि कनिष्ठं च, १० ए सी निष्ट. ११ ए सी र यस् ।. १२ ए सी ते “एकार्थे” इ. १३ बी ति सपदे'. १४ ए सी ° । ऐक्यार्थ इति स्यादेखेंपू । ऐ. १५ सी न्यता । श्रि. १६ ए सी डी दयाः श. १७ ए सी नाः स्वेलि. डी नाः स्वलि. १८ बी था स्त्रीश'. Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] स ब्राह्मणाच्छंसिजनेन्तिकादागते हिमाद्रेस्तपसाकृतोर्जे । त्यक्तान्यकर्मा सहसाकृतोत्थोम्भसाकृता|भिमतान्यदत्त ॥९॥ ९. ब्राह्मणाच्छंसिजने ऋत्विग्विशेषलोकविषये से कुमारोभिमतानि धनादीन्यदत्त । तदिच्छानुसारेणादादित्यर्थः । यतस्तपसा कृतास्तपश्चरणेन विहिता ऊर्जा व्योमगमनादयः शक्तयो यस्य तस्मिंस्तथा हिमाद्रेरन्तिकादागते । औदार्योत्थकीर्तिश्रवणाहूरदेशान्तरेभ्योपि चामुण्डराजसमीपमायात इत्यर्थः । कीडक्सन् । सहसाकृतोत्थः संभ्रमेण झटिति विहिताभ्युत्थानः । तथा त्यक्तान्यकर्मा मुक्तव्यापारान्तरः । तथाम्भसाकृता? जैलेन विहितपादशौचाद्युपचारः॥ ने तेन किं चित्तमसाकृतं वौजसाकृतं वा विकृतं प्रजायाम् । पुंसानुजायां नु यदञ्जसात्तो दोषावलोके जनुषान्धभावः॥१०॥ १०. तेन कुमारेण प्रजायां लोकविषये पुंसानुजायां नु पुंसा करणेन पश्चाजातायामिव लघुभगिन्यामिवेत्यर्थः । किंचित्स्तोकमपि विकृतं विकारो न वा तमसाकृतमज्ञानेन कोपेन वा कृतं न वौजसाकृतं बलात्कारेण कृतम् । यद्यस्मात्तेन प्रजायां विषये पुंसानुजायामिव दोषावलोके जनुषान्धभाव आजन्मान्धत्वमञ्जसात्तः स्नेहेनाङ्गीकृतः । अथ च या प्रजापत्यं तस्यां स्नेहादोषावलोकनाभावेन न केनचित्किचिद्विकृतं तमसा वौजसा वा क्रियत इत्युक्तिः । अन्तिकादागते । अत्र "असत्वे उसेः" [१०] इति ङसेन लुप् ॥ १ ए सी तोजै ।. २ सी न केचि. १ ए सी °ने रुत्वि. २ सी स सकु. ३ सी दाते ।. ४ सी यान्त इ. ५ ए सी डी जनेन. ६ सी कृता अ. ७ सी त्युक्ति ॥. ८ बी °से न लु°. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.२.१३.] षष्ठः सर्गः । ४५१ ब्राह्मणाच्छंसि । इति "ब्राह्मणाच्छंसी" [११] इत्यनेन निपात्यम् ॥ भोजसाकृतम् । अञ्जसात्तः । सहसाकृत । अम्भसाकृत । तैमसाकृतम् । तपसाकृत । इत्यत्र "ओजः" [१२] इत्यादिना टो न लुप् ॥ पुंसानुजायाम् । जर्नुपान्ध। इत्यत्र "पुंजनुष' [१३] इत्यादिना टो न लुप्॥ स मानसाज्ञायिक आत्मनाज्ञाय्यासात्मनाविंश इवाङ्गभाभिः। प्रसन्नयापन्मनसायदेव्यात्मनेपदं पुस्विह डिन्नु धातुः॥११॥ ११. स कुमारः प्रसन्नया संतुष्टया मनसेत्याद्यं यस्याः सा या देवी तया मनसादेव्या सरस्वत्या कृत्वेह जगति पुंस्सु(सु?) मध्य आत्मन आत्मार्थं पदं बुद्ध्यादिगुणोन्नतिरूपां पदवीमापत्प्राप । प्रतिभादिगुणैः सर्वनरेषूत्कृष्टोभूदित्यर्थः । शब्दश्लेषोपमामाह । डिन्नु धातुर्यथा ङानुबन्धो धातुर्गाकादिरात्मनेपदं सर्वविभक्तीनां पराणि नव नवं वचनानि कानानशौ चाप्नोति । अत एवं सोङ्गभाभिः सर्वशास्त्रपरिज्ञानप्रकर्षोदूताङ्गतेजोभिः कृत्वात्मनाविं0 इव स्वेन कृत्वा विंशतेः पूरण इव विंशतिगुण इवेत्यर्थः । आस बभूव । कीदृक्सन् । मनसा ज्ञातुं शीलमस्य मनसाज्ञायी विद्वांस्तेन संस्कृतः सर्वविद्याध्यापनेनं कृतसंस्कारः । यद्वा । मनसाज्ञायिभिर्जयति दीव्यति चरति वा इकणि मानसाज्ञायिकोत एव चात्मना ज्ञातुं शीलमस्यात्मनाज्ञायी विषमशास्त्राद्यपि स्वयं सामस्येन जानन् । धातूनामनेकार्थत्वात्सत्तीवृत्तेरसतेरासेत्ययं प्रयोग ईक्षामासेत्यादौ णवन्तानुप्रयोगप्रतिरूपकनिपातस्य वा ॥ १बी °च्छंसी". २ सी डी कृतम् । अ. ३ डी तप०. ४ सी 'नुष्यन्ध ।। ५ सीमार्थप. ६ बी वच. ७ ए सी व साङ्ग. ८बी श इव स्वेन कृत्वा विंश इ. ९ सी न च कृ. १० ए सी स्यामनो ज्ञा. ११ सी वृत्तरा. १२ ए सी ईक्षामा . १३ ए सी पकानि. १४ ए सी डी °स्य च ॥. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ चामुण्डराजः ] धातुर्नु शेषः स सहः परस्मैपदाय राज्ञातियुधिष्ठिरेण । अज्ञाय्यरण्येतिलवत्तदन्यस्त्वक्सारवच्चान्तरसार एव ॥ १२ ॥ ४५२ १२. अतियुधिष्ठिरेण सत्यभाषित्वादिगुणैर्युधिष्ठिरमतिक्रान्तेन राज्ञा मूलराजेन स कुमारः परस्मायन्यस्मै शत्रुसंबन्धिने पदाय राज्यरूपाय स्थानाय सहः समर्थोज्ञायि । पूर्वोक्तसर्वनृपगुणोपेतत्वाच्छत्रुलक्ष्मीग्रहणसमर्थो ज्ञात इत्यर्थः। यथा शेष आत्मनेपदोपयुक्तादन्यो भूर्वादिर्धातुः परस्मैपदाय सर्वविभक्त्याद्यवचननवकशतृकसुप्रत्ययेभ्यः सहो ज्ञायते । तदन्यश्चामुण्डराजादपरस्त्वरण्येतिलवदरण्येतिलाख्यवनधान्यभेदववक्सारवच्च वंशवच्चान्तर्मध्येसार एवाज्ञायि ॥ स कीर्तिमुक्तात्वचिसारंकः स्तूपेशाणदैर्दार्षदिपाषिकैश्च । स्म गीयते यूथपशुपदैश्व स्तम्बेरमौजाः खचराधिपश्रीः ॥ १३॥ १३. स कुमारः । स्तूपो गवादिराशि: । शाणः स्वर्णमाष चतुष्टयम् । स्तूपे स्तूपे शाणो देयः । वृत्तौ वीप्साया दानस्य चान्तर्भावः । स्तूपे - शाणः करभेदस्तं ददति ये तैदीषेदिमाषिकैश्च । दृषदि दृषदि माषः पञ्चगुञ्जो देयो दृपदिमाषः करभेदस्तत्र नियुक्तैश्च । यूथं तिरश्चां जातम् । यूथे यूथे पशुर्देयो यूथपशुः करभेदस्तं प्रददति ये तैश्च करपीडाद्यभावेन हर्षाद्गीयते स्म । कीदृशः । स्तम्बेरमौजा गजबलः । तथा खचराधिपश्रीरिन्द्रतुल्यलक्ष्मीकः । तथा कीर्तिमुक्तात्वचिसारको यशोमुक्ताफलेष्वज्ञातवंशतुल्यः । वंशो हि मुक्तायोनिर्वर्ण्यते । यदुक्तम् । 1 हस्तिमस्तकदन्तौ तु दंष्ट्रा शुनवराहयोः । मेघो भुजङ्गमो वेणुर्मत्स्यो मौक्तिकयोनयः । इति ॥ 1 १ ए बी सी 'रकस्तू २ ए सी ' दैदार्थ. १ ए सी डी ने रा° २ बी न्यो भुवादि Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.२.१३. ] षष्ठः सर्गः । ४५३ किं खेचरो गोषुचरो नु विष्णुः शल्योथवा मद्रचरो हृदिस्पृक् । सोतताभस्मनिमीढकर्मा मध्ये गुरुनन्तगुरूंचे धिन्वन् ॥ १४ ॥ 9 १४. स कुमारोतत । कथमित्याह । किमसौ खेचरो विद्याधरो देवो वा । नु किं वा गोपालावस्थायां गोषु चरति गोषुचरो विष्णुरथवा मद्रेषु चरति मद्रचरो मद्रदेशस्वामी शल्य इति । यतः कीदृक् । हृदयं स्पृशति हृदिस्पृग्हृदयज्ञ इत्यर्थः । तथा मध्येगुरून् मध्ये मध्यवयसि वर्तमानान् गुरून् पूज्यानन्तगुरूंश्चान्त्यवयसि वर्तमानान् गुरूंश्च धिन्वन्विनयपूजादिना प्रीणयन् । तथा भस्मनि मीढं सेचनं भस्मनिमीढं तदिव कर्म क्रिया यस्य स भस्मनिमीढकर्मा न तथा सफलकर्मा । खेचरादयो हि हृदिस्पृक्तादिगुणान्विताः ॥ नृणामनन्ते गुरुरेकदाथ सिंहो नु सोमध्यगुरुः सभायाम् । नृपं प्रणम्योरसिलोमकण्ठे कालोपमं मूर्धशिखो न्यषीदत् ॥ १५॥ १५. अथैकदा सिंहो नु मृगेन्द्र इवामध्यगुरुः कृशोदरो नृणामनन्तेगुरुः प्रथमपूज्यो मूर्धनि शिखा शिखण्डिका यस्य स मूर्धशिख: कुमारः सभायां न्यषीदत् । किं कृत्वा । नृपं प्रणम्य । किंभूतम् । महापुरुषत्वादुरसि लोमानि यस्य स तथ यः कण्ठेकालोपम आश्रितानां सर्वकामपूरकत्वात्सोमनाथ तुल्यस्तम् ॥ अत्रान्तरे मस्तकमाल्य ऊचे वेत्र्यर्थशौण्डोञ्जलिहस्तबन्धः । स्वशीर्षकामेण रथः सुचक्रेबन्धोद्य ते प्रेष्ययमङ्गभत्र ॥ १६ ॥ १ ए सी ष्णुः शिल्यो. २ बीच धेन्व'. ३ ए सी 'हो न सो. १ एसी १४ कुमा. २ बी 'कर्मा: खे• ३ बी स्पृक्त्वादि. ४ बी 'था सन् यः . Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] १६. अत्रान्तरेस्मिन्प्रस्तावे । वेत्री । नाट्ये तु __पताकाभ्यां तु हस्ताभ्यां संश्लेषादञ्जलिः स्मृतः । विनीतत्वात्तद्रूपो हस्ते बन्धो यस्य स तथा सन् । करौ योजयित्वेत्यर्थः । नृपमूचे । कीदृक् । भोगित्वान्मस्तके माल्यं पुष्पमाला यस्य सः। तथा सदा विज्ञापककार्यनिवेदने व्यापृतत्वादर्थे विज्ञापककार्ये प्रसक्तः शौण्ड इव मद्यप इवार्थान्मद्यपानेर्थशौण्डः । यदूचे तदाह । राजन् स्वशीर्षे कामो यस्य तेन जीवितुमिच्छता सताङ्गभङ्गदेशस्वामिनाद्यायं प्रत्यक्षं प्राभृतीकृतो रथस्ते त्वदर्थं प्रैषि । कीदृक् । शोभनश्चक्रे बन्धो रत्नखचितस्वर्णपट्टादिना रथाङ्गे बन्धनं यस्य सः । उपलक्षणत्वादशेषरथगुणोपेत इत्यर्थः ॥ त्वयेभवन्धो नृपतिः सहस्तेबन्धः कृतो यः कृतचक्रबन्धः। तस्यातिपूर्वाह्नतनांशुमन्पूर्वाह्नेतनाब्जाग्रकरो गजोयम् ॥१७॥ १७. हे अतिपूर्वाहृतनांशुमन्महाप्रतापितया पूर्वाह्नेभवं सूर्यमतिक्रान्त य इभबन्धो बध्नाति अचि बन्ध इभानां बन्धो बन्धको विन्ध्याद्रिस्वामी नृपतिर्बलिष्ठत्वात्कृतश्चक्रे त्वदीयसैन्ये बन्धो बन्धनं येन। यद्वा ।कृतश्चके सैन्ये बन्धो यस्य स तथा सन्संह हस्ते बन्धेन सहस्तेबन्धस्त्वया कृतः । जित्वा हस्तयोर्बद्ध इत्यर्थः । तस्यायं प्रत्यक्षो गजस्त्वदर्थ प्राभृतमस्ति । कीहक् । पूर्वाह्नेतनाब्जाप्रकरः प्रशस्यलक्षणत्वात्प्राभातिकपद्मवद्विकसितरक्तहस्तानः । उपलक्षणत्वाच्छुभलक्षणोपेतसर्वाङ्गः ॥ १ बी संश्रेषा. २ सी ...प्र. ३ ए कार्यप्र. ४ बी नेथे शौ. ५ सी यं प्रा. ६ ए सी डी दि र. ७ ए सी हे इति'. ८ ए बी सी डी तमांशु. ९ सीन्सह स्ते. Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ३.२.१६.] . षष्ठः सर्गः। संध्यां नु पूर्वाह्नतरे नतो पूर्वाह्नेतरां योर्चति पादुके ते । ज्योत्लाश्रियं पाण्डुपतेरमी पूर्वाद्धेतमा बिभ्रति तस्य हाराः॥१८॥ १८. यः पूर्वाहतरे प्रभाते पूर्वाह्नेतरां प्रदोषे च यथा संध्यां प्रात:संध्यां प्रदोषसंध्यां च नतः सन्नर्चत्येवं ते पादुके अर्चति तस्य पाण्डुपतेः पाण्डुदेशाधिपस्यामी प्रत्यक्षं प्राभृतीकृता होराः पूर्वाह्तमां प्रभातेप्यतिकान्तिमत्त्वाज्योत्स्नाश्रियं चन्द्रिकालक्ष्मी बिभ्रति । एतेन चन्द्रादप्येषां कान्तिमत्तोक्ता । चन्द्रो हि प्रातर्न चन्द्रिकाश्रियं बिभर्ति ॥ रत्नानि पूर्वाह्नतमार्कभांसि स सिन्धुराट् प्रेषितवानमूनि । पूर्वाह्नकालेत्ति न नाप्यपूर्वाह्नेकाल आत्ताङ्गुलिकस्त्वया यः॥१९॥ १९. हे राजन्स सिन्धुराडब्धिस्वामी राजामूनि प्रत्यक्षौणि रत्नानि प्राभृतं प्रेषितवान् । कीडेंशि । पूर्वाह्नतमे । प्राभातिक इत्यर्थः । योर्कस्तस्येवातिरक्ताः प्रवर्धमानाश्च भासो येषां तानि । यस्त्वयात्ताङ्गुलिको वेलायत्तीकृतः सन्न पूर्वाह्नकाले दिनस्य प्रथमप्रहरद्वयेत्ति नाप्यपूर्वाहकाले दिनस्य पश्चिमप्रहरद्वयेत्ति । निशायां भुत इत्यर्थः । वेलायत्तो हि स्वामिन्यदृष्टे निशायामेवात्तीति स्थितिः ॥ आत्मनाविंशः । इत्यत्र "आत्मनः पूरणे" [१४] इति टोलुप् ॥ मानसाज्ञायिकः । आत्मनासायी । इत्पन्न “मनसश्च" [१५] इत्यादि. नालुप् ॥ मनसादेव्या । इत्यन्न “नान्नि" [१६] इत्यलुप् ॥ १ सी के ज्यो'. २ ए सी सिन्धरा . १बी अचिंति. २ ए बी सी डी हारा पू. ३ ए सी डी क्षानि र. ४ बी मप्रथमप्र. ५ ए सी डी येति नि. ६ ए सी ज्ञातीयात्य. Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ व्याश्रयमहाकाव्ये - [चामुण्डराजः] परस्मैपदाय । आत्मनेपदम् । अत्र “पर”[१७] इत्यादिनालुप् ॥ अदन्त । अरण्येतिलवत् ॥ व्यञ्जन । युधिष्ठिरेण ॥ इत्यत्र “अध्यञ्जनात्" [१८] इत्यादिना सप्तम्या न लुप् ॥ बहुलवचनात्वचिद्विकल्पः । त्वचिसार त्वक्सार ॥ नाम्नीत्येव । अन्तरसारः ॥ अदन्त । स्तूपेशाण ॥ व्यञ्जन । दार्षदिमाषिकैः ॥ अत्र “प्राक्कारस्य' [१९] इत्यादिनालुप् ॥ प्रागिति किम् । यूथपशु । उदीचां देशे कारोयं न प्राचाम् ॥ . अदन्त । स्तम्बेरम ॥ व्यञ्जन । भस्मनिमीढ ॥ इत्यत्र "तत्पुरुषे कृति"[२०] इत्यलुप् ॥ बहुलाधिकारात्वचिदन्यतोपि । गोषुचरः ॥ क्वचिनिषेधो न स्यात् । मद्रचरः ॥ क्वचिद्विकल्पः । खेचरः खर्चेर ॥ क्वचिदन्यदेव । हृदयं स्पृशति हृदिस्पृक् । द्वितीयार्थेत्र सप्तमी ॥ मध्येगुरून् । अनन्तगुरुः। अत्र "मध्य" [२१] इत्यादिनालुप् ॥ मध्यगुरुः । अन्तगुरून् । इत्यप्यन्ये ॥ . कण्ठेकाल । उरसिलोम। इत्यन्न "अमूर्ध" [२२] इत्यादिनालुप् ॥ अमूर्धमस्तकादिति किम् । मूर्धशिखः । मस्तकमाल्यः ॥ स्वाङ्गादिति किम् । अर्थशौण्डः ॥ अकाम इति किम् । स्वशीर्षकामेण ॥ हस्तेबन्धः हस्तबन्धः । चक्रेबन्धः चक्रबन्धः। अत्र “बन्धे घजि न वा" [२३] इत्यलुब्वा ॥ घजीति किम् । अजन्ते मा भूत् । इभबन्धः ॥ पूर्वाह्नेतन पूर्वाह्नतन । पूर्वाह्नेतराम् पूर्वाह्नतरे । पूर्वाह्नतमाम् पूर्वाह्नतम । पूर्वाह्नकाले पूर्वाह्नकाले । अत्र “कालात्तन" [२४] इत्यादिना वालुप् ॥ १ ए सी ष्ठिरण ।. २ सी पिकेः। अ. ३ ए सी °त् । द्रमच. ४ बी चरः। क. ५ ए सी गुरुः । नित्य . ६ बी ठेकल ।. ७ ए सी शौडः । अ. ८ ए सी डी ध: । च. ९ ए सी डी काल । अ. १० बी ले। "का. Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ३.२.२५. ] षष्ठः सर्गः । तोयेशयं तोयशयाग्यमीशान्तेवासिनं वा विनयान्तवासी । त्वां मन्यते यो वनवासभर्ता स्वर्ण वनेवासकरोत्र तस्य ॥ २० ॥ २०. हे राजन् यो वनवासभर्ता वासयति अचि वासो व वासो वनवासो देशभेदस्तस्य भर्ता विनयान्तवासी विनयेन प्रणामादिना शिष्य इव संस्त्वां मन्यते । कमिव तोयेशयं विष्णुमिवं तोयशयाम्यं वासुदेवाप्रजं बलभद्रमिवेशान्तेवासिनं वा परशुराममिव वा । तस्य राज्ञः संबन्ध्यत्र प्रत्यक्ष देशे स्वर्णं वनेवासकरो वनवासदेशस्योपभोगदण्डोस्ति । वनवासदेशे हि स्वर्णं बहु स्यात् ॥ 3 अब्जान्यसायाह्नशयानि वर्षेज सेव याप्तानि शरेजदेवात् । स वर्षजे दण्ड इमन्यदात्तेप्सुजाक्ष राजा शरजाचलस्य ॥ २१ ॥ ४५७ २१. हे असुजाक्ष कमललोचन स प्रसिद्धः शरजाचलस्य शरे जातः शरजः स्कन्दस्तस्य योचलो देवगिरिस्तस्य राजेमानि प्रत्यक्षं प्राभृतीकृतान्यब्जानि वर्षजे सांवत्सरिके दण्डे ते तुभ्यमदात् । किंभूतानि । वर्षेजसेवया वर्षे जाता या सेवा तथा शरेजदेवात्स्कन्दादाप्तान्यत एव न सायाह्ने प्रदोषे शेरते संकुचन्त्यसायाह्नशयानि निश्यपि विकस्वराणि || ५ सरोजवासावरजो महाकालिकावरेजश्च स पद्मरागान् । मैषीनं सारसिजं नु कोल्लापुरेश्वरस्ते रिमनोजशंभोः ॥ २२ ॥ २२. सरोजे वासो यस्याः सा सरोजवासा लक्ष्मीस्तस्या वर: प्र १ एसी तेयौ व २ ए मान्नदा' सी 'मादान्नदा'. १ सी न्यसे । क. २ डी 'व वा तो ३ बी 'मित्रे'. ४ डी स... दे. ५ सी रेजादे ६ ए सी 'कस्करा ५८ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] सादस्तत्र जातो महाकालिकावरेजश्च गौरीप्रसादे जातश्च स प्रसिद्धः कोल्लापुरेश्वरः कोल्लापुराख्यमहापुराधिपः पद्मरागाँल्लोहितकमणीन्प्रैषीत् । कीदृशान् । सारसिजं वनं नु रक्तत्वादिगुणै रक्तोत्पलसत्कवनतुल्यान् । कोल्लापुरे ह्यतिश्रेष्ठाः पद्मरागाः स्युः । यतः किंभूतस्य ते । अरय एव मनोजः कामस्तत्र शंभोविनाशकस्येत्यर्थः । शंभोहि पूजार्थं शंभुर्भक्त: सारसिजं वनमिव पद्मरागान्प्रेषयति ॥ अस्त्रं नवं मानसिजं वरैणक्षरेजपङ्घ क्षरजाग्नितेजः । इन्द्राण्युरोजोचितमद्विजोरसिजोचितं ढोकयति स्म कीरः॥२३॥ ___ २३. क्षरो मेघो जलं वा तत्र जातो योग्निविद्युद्वडवानलो वा तद्वत्तेजो यस्य हे क्षरजाग्नितेजो वराः सुजात्या य एणास्तेषां यः क्षरो मूत्रं तत्र जातो यः पङ्कस्तं जात्यकस्तूरिकामित्यर्थः । कीरः कश्मीराधिपो ढोकयति स्म त्वदर्थं प्रेषितवान् । कीदृशम् । नवमग्रेतनास्त्रेभ्यः पुष्पेभ्यो गन्धोत्कृष्टत्वेनात्यन्तं कामिनां वशीकारकत्वादभिनवं मानसिजं कान्दर्पमस्त्रं शस्त्रमिव । अत एवेन्द्राण्युरोजोचितमद्रिजोरसिजोचितं च । शचीगौरीस्तनयोर्मण्डनाय योग्यम् । कश्मीरेषु हि मृगविशेषमूत्रात्प्रकृष्टकस्तूरिका स्यात् ॥ तोयेशयम् तोयशैय । अन्तेवासिनम् अन्तवासी। वनेवास वनवास । इत्यत्र "शय" [२५] इत्यादिना वा सप्तम्यलुप् ॥ अकालादिति किम् । सायाह्नशयानि ॥ वर्षेज वर्षज । क्षरेज क्षरंज । वरेजः वरजः । अप्सुज अब्जानि । सारसिजम् सरोज । शरेज शरज । उरसिज उरोज । मानसिजम् मनोज । इत्यत्र “वर्ष" [२६] इत्यादिनी वालुप् ॥ १ बी डी रागालो. २ ए सी भक्त सा. ३ ए सी नास्येभ्यः. ४ बी पुष्फेन्यो'. ५ ए सी रत्वा. ६ ए बी सी च । सची. ७ सी डी शयः । अं. ८ सी सम्य'. ९ बी रजः । व° १० बी नाल. Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.२७.] षष्ठः सर्गः। ४५९ वर्षामुजं तदिविजेशधन्व रत्नैर्दधत्पावृषिजो नु मेघः । नीलं कुरोश्छत्रमिदं निरस्यत्कालेजमप्यातपशारदिज्यम् ॥ २४॥ २४. इदं प्रत्यक्षं कुरोः कुरुदेशराजस्यच्छत्रं वर्तते । कीदृशम् । प्रावृषिजो मेघो नु यथा वार्षिको घनो वर्षासुजमिन्द्रधनुर्दधत्स्यादेवं वर्षासुजं वर्षाकालजातं तत्पञ्चवर्णत्वेन प्रसिद्धं दिविजेशधन्व दिविजानां देवानामीशः शक्रस्तस्य चापमिव रत्नश्छत्रानुलोम्याद्वक्राकारेणानुस्यूतैः पञ्चवर्णमणिभिः कृत्वा दधत्तथा नीलं हरितवर्णं तथा कालेज शरत्काले जातमातपशारदिज्यमपि शरदि जातः शरदिजस्तस्य कर्म शारदिज्यमातपस्य यच्छारदिज्यं संतापकत्वं तदप्यत्युग्रं शरत्कालातपमपीत्यर्थः । निरस्यत् सान्द्रच्छायाकारित्वात् ॥ दिविज । प्रावृषिजः । वर्षासुजम् । शारदिज्यम् । कालेजम् । अत्र “धुग्रावृड्” [२७] इत्यादिना सप्तम्यलुप् ॥ अप्सव्यदिव्याश्वसमास्तुरङ्गास्तेजस्य नावो नु रयेप्सुचर्यः । एतेप्सुयोनिच्छवयो जनो यैः पिपासितोप्यप्सुमतिन हि स्यात् ॥२५॥ २५. यैः कृत्वा जनः पिपासितोप्यप्सु जलेषु मतिर्मनो यस्य सोप्सुमतिर्न हि स्याद्रूपकान्त्यादिलक्ष्म्याक्षिप्तचित्तत्वाद्यान्पश्यल्लोकस्तृषमपि न जानातीत्यर्थः । त एते प्रत्यक्षास्तेजस्य तेजदेशराजस्य तुरङ्गाः । किंर्भूताः । अप्सुयोनिच्छवयो विद्युद्दीप्तयस्तथा रये वेगविषये सुचर्यो नाबो नु जलचारिवेडातुल्या अत एवाप्सव्यो१ ए सी रोच्छत्र. १ ए सी जात श. २ ए सी द्रच्चाया. ३ ए सी विजः । व. डी विजः । प्रा. ४ ए सी म् । अ. ५ ए सी डी तिर्नमो य. ६ ए सी भूत अ. ७ वी रिबेडा. ८ बी वाप्साव्यो. Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] ब्धेर्जातत्वेनाप्सु जलेषु भवो दिव्यः स्वर्गस्थत्वादिवि स्वर्गे भवश्च योश्व उच्चैःश्रवास्तत्समाः ॥ अप्सव्य । अप्सुयोनि । असुमतिः । अप्सुचर्यः । इत्यत्र "अपो य" [२८] इत्यादिना सप्तम्यलुप् ॥ काम्पील्यसिद्धः खधुनीतटस्थोध्ववति चौरस्यकुलं दधानान् । त्वदाज्ञयोच्छिद्य खसान्स दास्याःपुत्रानमंतच्छ्यिमार्पयत्ते॥२६॥ २६. स प्रसिद्धः काम्पील्यसिद्धः काम्पील्यं पञ्चालदेशस्थं पुरं तत्राधिपत्वात्सिद्धो विख्यातः पञ्चालराज: खधुनीतटस्थः खसजयार्थ काम्पील्यपुरपरिसरवर्तिगङ्गातटे कृतावासः सन्खसान्क्षत्रियभेदांस्त्वदाज्ञयोच्छिद्योत्पाट्या प्रत्यक्षां तच्छ्रियं खसँद्धिं ते तुभ्यमार्पयत् । किंभूतान्खसान् । अध्ववर्ति पान्थलुण्टनाय मार्गसमीपस्थं चौरस्यकुलं निन्दितचौरवर्ग दधानांस्तथा दास्या:पुत्रान्दासीपुत्रत्वेन निन्द्यान् ॥ शैलोनतः प्रेषित एष दासीपुत्रंद्रिपो द्वारपलाटभा । हृत्पाश्यतोहर्यधरोतिवाचोयुक्तिर्दिशोदण्डपदे महेभः ॥२७॥ २७. दासीपुत्रंन्तोकिंचित्करत्वादासपुत्रवदाचरन्तो रिपवो यस्य हे दासीपुत्रंद्रिपो एष प्रत्यक्षं प्राभृतीकृतो महेभो द्वारपलाटभा द्वारपाख्येन लाटदेशाधिपेन दिशोदण्डपदे दक्षिणाशामुक्तिपदे प्रेपितः । कीदृक् । शैलोन्नतोत एव पश्यन्तमनादृत्य हरति लिहायचि [५.१.५०.] पश्यतोहरो यः पश्यतो हरेदर्थं तस्य भावः पाश्यतोहयं हृदां जनचित्तानां पाश्य १ ए सी त्रद्विपो. १ ए सी डी पील्यं. २ ए सी डी थं...ग. ३ ए सी “त्यख्या त°. ४ ए सी सद्धि ते. ५ बी व्रतोकिं. ६ सी द्विपो. ७ ए सी वः पश्य. Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.३२.] षष्ठः सर्गः। तोहयं धरति यः सः । अत्यौन्नत्यगुणेन पश्यत एव लोकस्य चित्तानि हरन्नित्यर्थः । अत एवातिवाचोयुक्तिर्वाचोयुक्तिमतिकान्तो वर्णयितुमशक्य इत्यर्थः ॥ अथ चैष शैलोन्नतो महेभः कुलक्षणत्वादमहायानुत्सवायामाङ्गलिक्यायेभोमहेभः प्रेषितः । कीदृक् । कुलक्षणत्वेन सर्वस्वविनाशकत्वाद्धृदः स्वामिचित्तस्य शून्यत्वापादनेन पाश्यतोहर्यधरोत एवातिवाचोयुक्तिरवर्णनीय इत्यर्थः । अयमप्यर्थो गजलक्षणज्ञत्वाद्वेत्रिणा श्लेषोत्त्योक्तः ॥ अध्ववर्ति। काम्पील्यसिद्धः। तटस्थः । अत्र "नेन्" [२९] इत्यादिना सप्तम्या [न?] लुनिषेधः ॥ चौरस्यकुलम् । अत्र "पेंष्ट्याः क्षेपे" [३०] इति पध्वलुप् ॥ क्षेप इति किम् । त्वदाज्ञया ॥ दास्याःपुत्रान् दासीपुत्रत् । इत्यत्र “पुत्रे वा" [३१] इति वा षष्ट्यलुप् ॥ पाश्यतोहर्य । वाचोयुक्तिः । दिशोदण्ड । अत्र "पश्यद्" [३२] इत्यादिना षष्ठयलुएँ ॥ तदेवाह । दिशन्दृशाथ द्विरदं तमामुष्यपुत्रिका भूमिपतिर्बुभुत्सुः । कुमारमालोकत सोपि नत्वामुष्यायणः प्राञ्जलिरेवमूचे ॥२८॥ २८. अथ वेत्रिणा स्तुतिनिन्दारूपश्लेषोत्या गजस्य दुर्लक्षणतासूचनान्तरं भूमिपतिः कुमारमालोकत । कीटक्सन् । आमुष्यपुत्रिकाममुष्यपुत्रस्य भावं "चोरादेः" [७.१.७३.] इत्यकज । अमुष्य भद्रस्य म १ए सी डी स्वादिचि. २ ए सी कापील्य'. ३ ए सी डी धः ॥ चोर'. ४ बी "पष्ठया क्षे. ५ सी दा ... सी. ६ बी प् । पश्य. ७ ए बी सीडी दण्डे । अ. ८ वी प् ॥ २७ ॥ दि. ९ ए सी डी भा. Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] न्दस्य मृगस्य मिश्रस्य वा हस्तिनोयं पुत्र इत्यर्थं बुभुत्सुर्जिज्ञासुरत एव तं द्विरदं दृशा दिशन्कीदग्गजोयमिति कुमारं ज्ञापयन् । ततोमुष्य प्रख्यातस्य मूलराजस्य पितुरपत्यं नडाद्यायनणि [६.१.५३.] आमुष्यायणः सोपि कुमारोपि प्राञ्जलिः सन्नत्वैवं वक्ष्यमाणमूचे ॥ आमुष्यपुत्रिकाम् । आमुष्यायणः । अत्र "अदसः" [३३] इत्यादिना षष्ठयलुप् ॥ तदेवाह । यथा शुनःपूर्वकशेपपुच्छलाङ्गुलमुख्यैर्गजलक्ष्म बुद्ध्वा । वाचस्पतीयं जगदे ममादेवानांपियनॆषगजस्तथायः ॥ २९ ॥ २९. अदेवानांप्रियैः पण्डितैः शुन इति पूर्वं येषां ते शुन:पूर्वका अभिधानाभिधेययोरभेदोपचारादभिधेयविशेषणत्वे ये शेपपुच्छलाङ्गलास्ते। तथा शुनः शेपमिव शेपमस्येत्यादिविग्रहे शुनःशेपशुनःपुच्छशुनोलाङ्गलाख्या मुनयस्तदाद्यैर्मुनिभिर्वाचस्पतीयं बृहस्पतेरिदं गजलक्ष्म गजलक्षणप्रतिपादकं शास्त्रं बुद्धा गुरूपदेशेन ज्ञात्वा यथा ममाग्रतो जगदे व्याख्यातं तथा ज्ञायत एष गजो नार्यो न पूज्यो वाचस्पतीयगजलक्ष्मशास्त्रोक्तलक्षणानुसारेण न प्रशस्य इत्यर्थः ॥ __ अथास्यानयतामेवाष्टवृत्त्याह । ईदृग्दिवोदासनुतस्य वास्तोष्पतेरपीभो हि दिवस्पतित्वम् । हरेत होतुःसुतहोतुरन्तेवास्युद्यताशीःप्वपि दीर्घहस्तः ॥ ३० ॥ ३०. ईदृगिभो दिवोदासनुतस्य दिवोर्दीसैर्देवविशेषैः स्तुतस्य वा१ सी दि ति. २ बी स्युद्यता. १ ए सी प्याणः ।। २ सी शुनपू. ३ ए डी त्वे ते ये ४ ए सी स्पदेते. ५ बी म ल. सी म नज. ६ ए सी दासिदेवविशैः स्तु. Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०३.२.३४.] षष्ठः सर्गः। ४६३ स्तोष्पतेरपीन्द्रस्यापि दिवस्पतित्वमैन्द्रं पदं हि स्फुटं हरेतापनेतुं शक्तः संभाव्यते । कासु सतीषु । होतुःसुतहोतुरन्तेवास्युद्यताशी:ध्वपि ऋत्विक्पुत्रऋत्विक्शिष्याणां सप्रभावेष्वप्याशीर्वादेषु । यतो दीर्घहस्तः प्रलम्बशुण्डः । अलक्षणं ह्येतत् । योपि दीर्घहस्तः प्रलम्बपाणिः स्यात्स दिवस्पतित्वतुल्यमुन्नतं फलादि वस्तु हरतीत्युक्तिलेशः ॥ ईदृग्गजो भगृहेस्थिदन्तो हन्यात्पितुःशिष्यपितुस्तनूजान् । पितुःस्वसारं स्वसपत्यपत्यं स्वसुःपतिं नाम पितृष्वमृणाम् ॥३१॥ ___३१. ईदृग्गजो भर्तृगृहे वर्तमानो हन्यादुच्छेत्तुं शक्तः संभाव्यते । कान् । पितुःशिष्यपितुस्तनूजाञ् जनकान्तेवासिनो जनकपुत्रांश्च । तथा पितुःस्वसारं जनकभगिनीं च तथा स्वमृत्यपत्यं भगिनीभर्तृसन्ततिं च तथा स्वसुःपति भगिनीभर्तारं च तथा पितृष्वसृणां जनकभगिनीनां नामापि । अपिरत्र ज्ञेयः । यतोस्थिवनिःश्रीको दन्तौ यस्य सः । सर्वसंबन्धिजनक्षयहेतुः । अपलक्षणं ह्येतत् ॥ ताम्यन्ति होतुःस्वमृयुक्तहोतृवनात्मजा याज्यगृहागते हि । मातापितृभ्यां सममेव होतापोतार ईदृग्गज ओतुनेत्रे ॥ ३२ ॥ ३२. ईदृग्गज ईदृशे द्विपे याज्यस्य यजमानस्य राजादेहमायाते सति होतुःस्वसृभित्विग्भगिनीभिर्युक्ता होतृस्वस्रात्मजा ऋत्विम् - गिनीपुत्रा येषां ते होतापोतारो होतारः पोतारश्च ऋत्विग्विशेषा मातापितृभ्यां सममेव सहैव हि स्फुटं ताम्यन्ति याज्यस्य संपत्क्षयेण दक्षिणादिलाभाभावात्खिद्यन्ते । यत ओतुनेत्रे मार्जारपिङ्गलाक्षे । संपत्क्षयहेतु_दमलक्षणम् ॥ १ ए सी लक्ष्यणं. २ ए पाणिं स्या'. सी पाणि स्या. ३ ए सी शक्तसं. ४ सी पत्यं. ५ बी भित्वि. ६ ए सी डी स्वश्रात्म. ७ ए सी ग्भटिनी'. “ ए बी सी डी हि स्फटं. ९ डी संक्षेपेण. Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः ] स्वसादुहित्रोः क्षपकं पितापुत्रयोश्च नामुं शुकपिच्छपुच्छम् । जिघृक्षतो दक्षिणयापि होतापुत्रावतीन्द्रावरुणः किमु त्वम् ॥३३॥ ३३. उ हे राजन्नमुं गंजं होतापुत्रावृत्विक्तत्पुत्रश्च याचकावपि दक्षिणयापि धर्मेणापीत्यर्थः । न जिघृक्षतः । यतः स्वसादुहितो: क्षपकं पितापुत्रयोश्च क्षपकं विनाशकम् । एतदपि कुत इत्याह । यतः शुकपिच्छपुच्छम् । नीलपुच्छो हि गजः कुलक्षयाय स्यात् । किं पुनरतीन्द्रावरुणो महर्द्धिकत्वादिगुणैरिन्द्रं वरुणं चातिक्रान्तस्त्वं जिघृक्षसि । नैवेत्यर्थः ॥ वाय्वग्निभः कर्मभिराग्निसौमाग्नावैष्णवैः कृष्णनखे गजेस्मिन् । मुधेभशान्ति रचयेविजोग्नीषोमोपमोग्नीवरुणोपमो वा ॥ ३४ ॥ ३४. द्विजः पुरोहितः कृष्णनखेस्मिन् गजे विषये कर्मभिः शान्तिक्रियाभिः कृत्वेभशान्तिम् । इभशब्देनेभस्थकृष्णनखत्वकुलक्षणेजनिता राज्यराष्ट्रादेरुपद्रवा उपचारादुच्यन्ते । तेषां शान्तिमुपशमकर्म मुधा निरर्थकमेव रचयेत् । संभावनेत्र सप्तमी। नोपशमयितुं शक्तः संभाव्यत इत्यर्थः । कीदृशोपि। तपोमन्त्रादिप्रभावोत्थदिव्यशक्त्या वाय्वग्निभो वायुदेवताग्निदेवतातुल्यमहिमाग्नीषोमोपमोग्नीवरुणोपमो वा। वाय्वग्नी अग्नीषोमावग्नीवरुणौ च द्वौ द्वौ सहचरौ देवभेदाः। किंभूतैः कर्मभिः । आग्निसौमाग्नावैष्णवैरग्नीषोमावग्नाविष्णू च सहचरौ देवभेदौ देवते येषां तैः ॥ १ए सीणवै कृ. १ए सी गजा हो . २ बी त्रोः पि. ३ ए बी सी नैवेत्य'. ४ सी द्विज पु. ५ सी °णनि. ६ ए सी शक्त सं?. ७ ए सी ग्मितु. ८ बी नीवार'. ९ ए सी हरौ. १० बी मिसोमा. ११ ए सी डी वते. Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.२.४३. ] षष्ठः सर्गः । अदेवानांप्रियैः । अत्र "देवानांप्रियः " [३४] इति षष्ठयलुप् ॥ शुनःशेप । शुनःपुच्छ । शुनोलाङ्गूल । इत्यत्र “शेपपुच्छ" [३५] इत्या दिना षष्ट्यलुप् ॥ 1 वाचस्पतीयम् । वास्तोष्पतेः । दिवस्पतित्वम् । दिवोदास । इत्येते "वाचस्पति" [ ३६ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ होतुः सुत | होतुरन्तेवासि । पितुस्तनूजान् । पितुः शिष्य । इत्यत्र "ऋतां" [३७] इत्यादिना षष्ठयलुप् ॥ विद्यायोनिसंबन्ध इति किम् । भर्तृगृहे ॥ ४६५ होतुःस्वसृ होतृस्वसृ । पितुःस्वसारम् पितृष्वसृणाम् । स्वसुः पतिम् स्वसृपति । इत्यत्र “स्वसृपत्योर्वा " [३८] इति वा पछ्यलुप् ॥ होतापोतारः मातापितृभ्याम् । अत्र "आ द्वन्द्वे" [३९] इत्याकारः । केचि - स्वादुहित्रोः इत्यत्रापीच्छन्ति ॥ इह तु मते विद्यायोनिसंबन्धः प्रत्यासत्तेः समस्यमानानामृदन्तानामेव मिथो द्रष्टव्यो न येन केन चित् । तेनेह न स्यात् । न हि स्वसा होतापुत्रयोः स्वसा भवन्ती दुहितरमपेक्षते दुहिता वा स्वसारमिति ॥ होतापुत्रौ । पितापुत्रयोः । अत्र “ पुत्रे " [४०] इति आत् ॥ २ इन्द्रावरुणः । इत्यत्र "वेदसह " [४१] इत्यादिनात् ॥ वायुवर्जनं किम् । वाय्वग्नि ॥ अग्नीषोम | अग्नीवरुण । इत्यन्त्र " ईः षोम" [४२] इत्यादिना ईः ॥ आग्निसौम । इत्यत्रै “ इर्वृद्धि" [ ४३] इत्यादिना इः । अविष्णाविति किम् । 1 वैष्णवैः ॥ १ ए सी त्यीपी २ एसी पेक्ष्यते ३ बी 'युर्वर्ज ४ ए सी ' ५ ए सी डी आग्निवै. ५९ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] द्यावापृथिव्योमघवत्यदृश्ये दिवस्पृथिव्योर्नहुषेण पात्रा । दिवःपृथिव्युत्तरधीः स पृष्टो गुरुर्निनिन्देदृशमल्पवंशम् ॥ ३५ ॥ ३५. दिव:पृथिव्युत्तरधीर्यावापृथिव्योर्मध्ये सर्वोत्कृष्टबुद्धिः स प्रसिद्धो गुरुर्ब्रहस्पतिरीदृशमल्पवंशं लघुपृष्ठावयवविशेषं गजं निनिन्द । बार्हस्पतीयगजशास्त्रे हि गजस्याल्पवंशत्वं महापलक्षणमुक्तम् । कीहक्सन् । द्यावापृथिव्योर्मध्ये मघवतीन्द्रेदृश्ये ताभ्यां बहिर्नष्टत्वाददृश्यमाने सति दिवस्पृथिव्योः कर्मणोः पात्रा रक्षकेण तयोः स्वामिनेत्यर्थः । नहुषेण नहुषाख्येण नृपेणेन्द्रीभूतेन पृष्टः ॥ किल वृत्रदैत्यं रणे हन्तुमशक्नुवञ् शक्रस्तं मित्रीकृत्य विश्वस्तं सुप्तमवधीत्ततश्च वृत्तकपालरूपिणी विश्वस्तमित्रहत्येन्द्रस्य पृष्ठं कथमपि यावन्न मुञ्चति तावदिन्द्रो द्यां सप्तद्वीपवती पृथ्वीं चोल्लङ्घय क्षीराब्धिसमीपस्थाब्जनालमध्ये कृमीभूय निलीनस्ततो नि:स्वामिकत्वाद्व्याकुलैःवैस्तदा सर्वोत्कृष्टो नृपो नहुषः स्वर्गे नीत्वेन्द्रः कृतो रोदस्यौ पाति स्मेति पुराणम् ॥ यावापृथिव्योः । अन्न "दिवो द्यावा" [४४] इति दिवशब्दस्य द्यावा इत्यादेशः॥ दिवस्पृथिव्योः दिवःपृथिवी । अत्र “दिवस्' [५] इत्यादिना दिवस इति दिव इति चादेशौ वा ॥ पक्षे द्यावापृथिव्योः ॥ १ ए सी टोगुरु. - १ ए सी डी दिवस्पृथि. २ ए सी धुप्रष्ठा . ३ सी °स्पत्यीय. ४ ए सी मणो पा. ५ बी र्थः । निहुषेण निहु. ६ ए सी तो निस्वा. डी तोस्वा. ७ ए दिवपृथि . सी दिवपृथि . Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.४८.] षष्ठः सर्गः 1 ४६७ तौ मातरप्राक्पितरावुषासानक्तस्य देवौ यदि पश्चिमायाम् । इहोदयेतां कचिदप्युषास सोमौ तदोष्ठे वलिमाशुभोयम् ॥ ३६ ॥ ३६. तौ प्रसिद्धावुषासानक्तस्य प्रभातराज्योर्मांतरप्रापितरौ जनकत्वान्मातरपितरतुल्यावुषासासोमौ सूर्यश्च सोमश्च देवाविह जगति कचिदपि कस्मिन्नपि काले यदि पश्चिमायां दिश्युदयेतां तत्र्त्तदोष्ठे वलिमान् रेखावानयं गजः शुभः । गजस्यौष्ठे हि वलयो महादोषः ।। मृगौ च मातापितरावमुष्य श्वासस्तथावस्कर गन्धिरेषः । दुःखास्पदं स्यादमुना हि रम्भोरुभार्यः शोभनभार्यको वा ३७ ३७. मृगौ च मृगजाती च हस्तिनावमुष्य गजस्य मातापितरौ तथामुष्य गजस्यैष प्रत्यक्षोपलभ्यमानः श्वासो मुखैवातोवस्क रोन्नमलं तत्संबन्धात्तदेशोप्यवस्करस्तस्यैव गन्धो यस्य सोस्त्यत एवामुना गजेन कृत्वा रम्भोरूभार्यकः कदलीस्तम्भ सुकुमारोरुभार्योपि शोभनभार्यको वा प्रेमाद्यतिशायिभार्यो वापि नृपादिः प्रकृष्टुभार्योपभोगभङ्गहेतुमहाविपदात्या दुःखास्पदं स्यात् ॥ ૪ उषासानक्तस्यै । इत्यत्र " उषासोषसः " [ ४६ ] इत्युषस उपासादेशः ॥ केचित्तु सूर्यशब्दस्यापीच्छन्ति । उपासासमौ ॥ मातरपितरौ । मातापितरौ । इत्यत्र " मातर" [ ४७ ] इत्यादिना मातरपितरेति वा निपात्यते ॥ अवस्कर आस्पदशब्दौ “वर्चस्कादिषु" [४८ ] इत्यादिना निपात्यौ ॥ १ बी डी तदौष्ठे- २ ए सी 'रुतार्थ ०. १ बी डी तदौष्ठे. २ ए सी 'लभ्यः मा. ३ ए सी डी 'खतो. ४ ए सी पि सोभ ५ सी स्यत्य', Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ चामुण्डराजः ] शोभनभार्यकः । अत्र " परतः स्त्री" [ ४९ ] इत्यादिना पुंवद्भावः ॥ अनू ङिति किम् । रम्भोरुभार्यकः ॥ श्येतायितायास्तददर्शनीयमानी स लाटो भवदीय कीर्तेः । इभापदेशादिह दर्शनीयपाशां हि कृत्यां पटयन्दिदेश ॥ ३८ ॥ ३८. तत्तस्माद्धेतोः स प्रसिद्धो लाट इभापदेशाद्दजव्याजादिह त्वंत्समीपे दर्शनीयपाशां रौद्रत्वात्कुत्सितदर्शनां कृत्यां मारिदेवतां पटयन् पैटीं कुर्वन् हि स्फुटं दिदेश तुभ्यं ददौ । कीदृक्सन् । श्येतायितायाः air ज्योत्स्नादिश्वेतपदार्थजातिस्तद्वदाचरन्त्याः । निर्मलाया इत्यर्थः । भवदीय कीर्तेरदर्शनीयमानी त्वदीयकीर्ति दर्शनायोग्यां मन्यमानस्त्वशोसहमान इत्यर्थः ॥ नीत्वा लौहित्यमिषूः पटिष्ठा दारद्यमुन्मूल्य तमानयामि । सहास्तिकांश्चेभवरान्नियुङ्खायते विक्रमरौहिणेय || ३९ ॥ ४ । ३९. हे आग्नेयायीनामग्निभार्याणां पण्णां कृत्तिकानां स्तनपायित्वादपत्यमाग्नेयः स्कन्दस्तत्तुल्यतेजस्क । तथ है विक्रमरौहिणेय शौर्येण बलभद्रतुल्य मूलराजै । चः पुनरर्थे भित्रक्रमो गम्येन त्वमित्यनेन सह योज्यः । त्वं पुनः सहास्तिकान् हस्तिनी समूहान्वि - तानिभवरान्पट्टहस्तिन उपलक्षणत्वादवान्रथान्भटांच नियुङ्ग लाटा - स्कन्दनाय व्यापारय येन दारयं दरदो राज्ञोपत्यं स्त्री "पुरुमगध " [६.१.११६ . ] इत्यादिनाणो “ देरजण " [६.१.१२३. ] इत्यादिना लुपि दरद् राज्ञी तत्र साधुं भर्तृत्वात्तं लाटमुन्मूल्यानयामि । किं कृत्वा । पटिष्टा अतितीक्ष्णा इषूरस्रलौहित्यं रक्तेन लोहिनीनां भावमारक्ततां नीत्वा प्रापय्य ॥ १ ए सी दारिद्य'. १ ए सी डी प्समी २ सी 'पांशो रौं. ३ एसी पट्टीकु . ४ ए सी शेय ५ एसीय स्क६ डी था वि° ७ सी 'ज । च पु. ८ सी 'वनार. ४६८ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ३.२.५३. ] ४६९ मानिन् । अदर्शनीयमानी भवदीयकीर्तेः ॥ क्यङ् । इयेतायितायाः ॥ पित्तद्धित । दर्शनीयपाशाम् । अत्र "क्यानि " [५० ] इत्यादिना पुंवत् ॥ णि । पटयन् ॥ तद्धितैय | लौहित्यम् ॥ तद्धितस्वर | पटिष्ठाः ॥ जातितद्धितयं । दारद्यम् ॥ तद्धितस्वर । हास्तिकान् । अत्र “जातिश्व” [५१] इत्यादिना पुंवत् ॥ दौरयम् । इत्यत्र पुंवद्भावादणो लुबू निवर्तते ॥ षष्ठः सर्गः 1 आग्नेय | इत्यत्र “एग्रेग्नायी” [ ५२] इति पुंवत् ॥ पूर्वेण सिद्धे नियमार्थं वचनम् । तेन रौहिणेय इत्यत्र पूर्वेणापि पुंवद्भावो न स्यात् ॥ राजा तमूचेथ सहस्व कल्याणीपञ्चमाः पञ्च निशाः कुमार । लाटं रटन्तीप्रियमाशुं भव्याभक्ते विधातुं यतितव्य मूर्ध्वम् ||४०|| ४०. अथ राजा तं कुमारमूचे । तदेवाह । हे भव्याभक्ते प्रशस्यगुरु बहुमान कुमार पञ्च निशाः सहस्व । ननु पञ्च निशाः किमिति सह्यन्त इत्याह । यतः कल्याणी पञ्चमी यासु ताः प्रस्थानार्हनक्षत्रवारलग्नाद्युपेतत्वेन हि पञ्चमी रात्रिर्यात्रायां शुभास्त्यतः पञ्चमीरात्रिं यावत्प्रतीक्षस्वेत्यर्थः । ऊर्ध्वं तदनन्तरं पञ्चम्यां निशीत्यर्थः । लाटं रटन्तीप्रियं लाटवधेन रुत्प्रेयसीकं विधातुमाशु यतितव्यम् ॥ । अप् । कल्याणीपञ्चमा निशाः ॥ प्रियादि । रेन्तीप्रियम् ॥ भव्याभक्ते । इत्यत्र "नाप्रियादौ " [ ५३ ] इति न पुंवत् ॥ १ ए सी शुया. २ ए बी डी मूर्द्धम् । सी मूईन् । १ सी कीर्तिः । पि. २ सी 'न् । तयः । लौ . ३ एतयः । लौ ४ ए सी दारिद्य ५ बी म् । ते. ६ ए सी स्वहमा ८ डी ... व. ९ ए बी सी डी ऊर्द्ध त'. ११ ए सी रीतीप्रि डी 'तय ।... दार.. ७ बी 'सुता प्र यर्थाला. १० बी Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] त्वं मद्रिकाम्बो नु सहोसि दत्ताभार्य द्वितीयामतिराशु कर्तुम् । आक्रन्दिकाभार्यममुं तथाप्येष्यामो वयं विक्रममीक्षितुं ते ॥४१॥ ४१. हे कुमार यद्यपि त्वं द्वितीया लोकेभ्योन्या सर्वोत्कृष्टेत्यर्थः । मतिर्यस्य स तथा सन् दत्ताख्या भार्या यस्य तममुं लाटमाक्रन्दिकाभार्य लाटवधेन रुदद्भार्यमाशु कर्तुं सहोसि शक्तोसि । क इव । मद्रिकाम्बो नु । मद्रेषु भवा । वृजि' [६.३.३८] इत्यादिना के मद्रिकाम्बा माता यस्य स नकुलः सहदेवो वा स इव । तथापि ते तव विक्रममीक्षितुं वयमेष्यामः॥ तद्धित। मद्रिकाम्बः ॥ अंक । आक्रन्दिकाभार्यम् ॥ पूरणी । द्वितीयामतिः ॥ आख्या । दत्ताभार्यम् । इत्यत्र "तद्धिताक' [५४] इत्यादिना न पुंवत् ॥ तं वैदिशीमातृकमेतु नैयङ्कवीमतिं कुञ्जर एष लाटम् । प्रामोतु नैयङ्कवबुद्धितायाः फलं स माञ्जिष्ठपटीक आरात् ॥४२॥ ४२. एष कुञ्जरो वैदिशी विदिशापुयाँ भवा जाता वा माता यस्यं स तं लाटमेतु । यतः किंभूतम् । न्यङ्कर्मंगभेद: कृष्णस्त्रिकेण विपुल: कुटिलस्वभावश्च । तस्येयं नैयङ्कवी सा मतिर्यस्य तं महाकुलक्षणेभप्रेषणात्कुटिलमतिमित्यर्थः । ततश्च स लाटो नैयङ्कवबुद्धिताया अस्याः कूटमतेः फलमाराददूराच्छीघ्रं प्राप्नोतु । किंभूतः । माजिष्ठी मंञ्जिष्ठया रक्ता पटी यस्य सः । लाटदेशे हि माञ्जिष्ठी पटी भूमिजलादिगुणेनातिसुरङ्गा प्रायः स्यात् ॥ १ ए सी लाधव. २ ए सी डी ससह. ३ ए सी ते व. ४ बी अक् । आ. ५ ए सी त् । इव । तथापि ते न विक्रममी ॥. ६ ए सी डी दिशि पु. ७ ए सी डी ता च मा. ८ ए सी स्य ततं. बी स्यतं. ९ डी 'तः । म. १० ए सी मजिष्ठ'. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.५६.] षष्ठः सर्गः। ४७१ व्यसर्जयदेव्यथ हैमयष्टिः सेभान्कठीमातृकलाटभट्टान् । तेयुः सलज्जाकठमानिमाकाः पू.सुकेशीललनैर्हसद्भिः ॥ ४३ ॥ ४३. अथ हैमयष्टिः स्वर्णमयदण्डो वेत्री सेभान् गजयुक्तान कठ्यः शाखाध्ययननिमित्तकठ्यपदेशभाजो ब्राह्मण्यो मातरो येषां ते ये लाटभट्टा लाटाधिपस्य विशिष्टभूता द्विजास्तान्व्यसर्जयन्यकारपूर्व प्रतिप्रेषितवान् । ततस्ते लाटभट्टा अयुर्लाटपार्श्वे गताः । किंभूताः सन्तः । हसद्भिः पू:सुकेयः पुरस्य प्रवरचिकुरस्त्रियो ललना: कान्ता येषां तैरुपलक्षिताः । न्यकृतत्वात्पौरतरुणैरुपहस्यमाना इत्यर्थः । अत एव सलज्जा अकठमानिन्योकठीरात्मनो मन्यमाना मातरो येषां ते ।। वैदिशीमातृकम् । अत्र "तद्धितः स्वर" [५५] इत्यादिना न पुंवत् ॥ स्वरेति किम् । नैयकवबुद्धितायाः ॥ अन्ये तु वृद्धिमानहेतोणितस्तद्धितस्य पुंवत्प्रतिषेधमिच्छन्ति तन्मते नैयङ्कवीमतिम्॥ अरक्तविकार इति किम् । माञ्जिष्ठपटीकः । हैमयष्टिः॥ सुकेशीललनैः ॥ जाति। कठीमातृक । इत्यत्र “स्वाङ्गात्' [५६] इत्यादिनी न पुंवत् ॥ स्वाङ्गादिति किम् । अकठमानिमातृकाः ॥ अमानिनीति किम् । अकठमानि ॥ भव्यप्रियां रौचनिकोत्पटीं नु तन्वंस्त्विषं द्रावकवीक्षणीयाम् । हरेरिबैकादशमूर्तिरेषोन्येधुः कुमारानुगतः प्रतस्थे ॥ ४४ ॥ ४४. अन्येचुरेष मूलराजः कुमारानुगतः प्रतस्थे लाटास्कन्दनाय - १ए सी डी न् काठ्यः. २ ए सी स्तान्विस'. ३ डी श्यः प्र. ४ बी तृकः । अ. ५ ए सी तोणित. ६ ए सी ना, ७ सी राजकु. OX Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराज: ] प्राचालीत् । किंभूतः । द्राविकाङ्गान्निर्गच्छन्ती या वीक्षणीया स्वर्णवर्णत्वाद्दर्शनीया तां त्विषं तन्वन् । उत्प्रेक्ष्यते । भव्या ऋक्ष्णत्वादिगुणैः प्रशस्यात एव या प्रिया सर्वजनवल्लभा तां रौचनिकी रोचनया रक्ता योत्पद्र्युपरितनवस्त्रं तां नु तामिव तन्वन् । यद्वा । नुरुपमायाम् । यथा रौनिकोत्पटी परिधानेन तनोत्येवं त्विषं तन्वन्नत एव हरेर्विष्णोरेकादशमूर्तिरिव । एकादश्येकादशानां पूरणी या मूर्तिः सेव । हरेर्हि मत्स्य १ कूर्म २ वराह ३ नारसिंह ४ वामन ५ राम ६ राम ७ कृष्ण ८ बुद्ध ९ कल्क्या [१०]ख्या दशैवावतारा : प्रसिद्धाः । अयं त्वेकादशोवतार इवेत्यर्थः । हरेरपि हि मूर्तिः पीताम्बरत्वाद्रौ - चनिकोत्पटी तनोति ॥ 3 ४७२ समुत्सुको दारददत्तभार्यापतिं स तं वैदिशनार्यपत्यम् । हन्तुं कठस्त्रीजुपि दीर्घकेशपौरीप्रिये श्वभ्रवतीतटेगात् ॥ ४५ ॥ ४५. स मूलराजः श्वभ्रवतीतटे श्वभ्रवत्याख्य नदीतीरे वसीम - सन्धावगात् । कीदृक्सन् । तं लाटं हेतुं समुत्सुकः । कीदृशम् । दत्ता चासौ भार्या च दत्तभार्या दरदरदो राज्ञोपत्यं स्त्री या दत्तभार्या तस्याः पतिम् । तथा वैदिशी विदिशानगरीजाता या नारी स्त्री तस्या अपत्यम् । किंभूते तटे । कट्यो याः स्त्रियस्तदाश्रये । तथा दीर्घकेश्यों याः पौर्य: पुराङ्गनास्तासां पुष्पोश्चय क्रीडादिहेतुत्वात्प्रिये ॥ १ ए सी डी दिसना १ ए सी डी की च'. २ ए सी नुरूप . ५ ए सी डी हन्तुमु ४ ए सी डी बुधक. ३ ए सी डी वारा. ६ बी 'इयो या पौ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.५७.] षष्ठः सर्गः । ४७३ "नाप्रियादौ" [५३] इत्युक्तम् । तत्रापि भव्यप्रियाम् । "तद्धितीककोपान्यपूरणाख्याः" [५४] इत्युक्तम् । तत्रापि रौचनिकोत्पटीम् । द्रावकवीक्षणीयाम् । एकादशमूर्तिः । दत्तभार्या । "तद्धितः स्वरवृद्धिहेतुररक्तविकारे" [५५] इत्युक्तम् । तत्रापि वैदिशनारी । “स्वाङ्गाद कीर्जातिश्वामानिनि" [५६] इत्युक्तम् । तत्रापि दीर्घकेशपौरी। कठस्त्री । दारददत्तभार्या । अत्र "पुंवस्कर्मधारये" [५७] इति पुंवत् ॥ नद्या वसत्स्नायकमद्रकाद्यजातीयनारीभिरभिद्रुताभिः । पुरी द्विषोभूदथ भग्नदेशीया व्याकुलत्वापटुते प्रपन्ना ॥ ४६॥ ४६. अथ द्विषो लाटस्य पुरी भग्नदेशीयोपप्लुतप्रायाभूद्यतो व्याकुलत्वापटुते भीतिं किंकर्तव्यतामूढतां च प्रपन्नाश्रिता । काभिहेंतुभिः । नद्यां श्वभ्रवत्यां वसत्स्नायकमद्रकाद्यजातीयनारीभिर्वसत्स्नायकमद्रकेति शब्दा आद्या यस्य स तथा जातीयेति शब्दो यासां तास्तथा या नार्यस्ताभिर्वसजातीयस्नायकजातीयमद्रकजातीयनारीभिवसन्त्यः स्नायिका मद्रिकाचं प्रकार आसां ताभिर्वा स्तव्याभिर्मुनिपत्नीभिः स्नायिकाभिमंद्रिकाभिर्मद्रदेशोद्भवाभिश्च नारीभिः । कीदृशीभिः । अभिद्रुताभिः । परसैन्यदर्शनोत्थातिभयेन पुराभिमुखं पलायिताभिः । नश्यदायान्तीदृष्ट्वेत्यर्थः ॥ पलायकत्वं जगृहुर्विहाय परस्त्रियः पाचकतामकाण्डे । म्लेच्छीत्वमज्ञायि न नो कठीता तासां महद्भूतभियैक्यभानाम् ॥४७॥ ४७. परस्त्रियः शत्रूणां नार्यो भयभीतत्वादकाण्डेप्रस्तावे पाचकतां १ सी पाठक'. १ ए सी नाप्रिया. २ ए सी ताकाको'. ३ ए सी ङ्गानीर्जा. ४ ए सी डी प्रपप. बी प्रतिप०. ५ ए सी भिविसर्जाती'. ६ ए सी डी सत्यः स्ना०. ७ बी 'श्च आ. ८ बीमद्रका. सी मद्रदे. ९बी अतिद्रु. १० ए सी °लायता . डी लायन्तीभिः । ११ ए सी डी दृष्टेत्य'. Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ व्याश्रय महाकाव्ये [ मूलराजः ] पत्रीणां भावं विहाय पलायकत्वं पलायिकानां भावं जगृहु: । ततस्तासां परस्त्रीणाममती महतीभूता महद्भूता या भीस्तयैक्यभाजां मिथो भिन्नानां सतीनां न म्लेच्छीत्वमन्त्यजातित्वं नो वा कठीताज्ञायि ॥ या गोमतीभूय चिराय पद्वीभूताः प्रजास्ता अपटूभवन्त्यः । तथाद्रवंस्तत्रं यथा निपेतुः सर्वासु रथ्यास्वपि सर्ववालाः ॥ ४८ ॥ ४८. याः प्रजा गोमतीभूय गावः सन्त्यासां ता गोमत्योगोमत्यो गोमत्यो भूत्वोपलक्षणत्वान्महद्धिकीभूयेत्यर्थः । चिराय चिरकालं पट्टीभूता महर्द्धिकत्वाद्याश्चिरं सौजस्का आसन्नित्यर्थः । ताः प्रज ऋद्धिविगमाशङ्कयापटूभवेन्त्यः सत्यस्तत्र पुर्यां तथा तया प्रकृत्याद्रवन्परचक्रागमनभयेन नष्टा यथा यया प्रकृत्या सर्वास्वपि रध्यासु सर्वबालाः सर्वासां प्रजानां बालका बालिकाश्च निपेतुरत्यौत्सुक्ययानेन मिथः संमर्देन च कटीभ्यो निपतिताः ॥ वजातीय। मद्रकजातीय | स्नायकजातीय । भग्नदेशीया । इत्यत्र " रिति" [ ५८ ] इति पुंवत् ॥ याकुलत्वापटुते । अत्र "स्वते गुण:" [ ५९ ] इति पुंवत् ॥ गुण इति किम् । म्लेच्छीत्वम् | कठीता ॥ केचित्तु जातिसंज्ञावर्जितस्य विशेषणमात्रस्य पुंवद्भावभिच्छन्ति । पलायकत्वम् । पाचकताम् ॥ महद्भूतभिया । इत्यत्र " च्वौ कचित्" [६० ] इति पुंवत् ॥ कचिहणागोमतीभूयेत्यादौ न स्यादेव ॥ पट्टीभूताः । अपटूभवन्त्यः । इत्यादौ विकल्पः ॥ १ ए सी डी 'त्र सथा. १ बी 'लायका. २ सी या प्र. 'जरुद्धवि. ५ ए सी 'वन्त्य स . तयः । म ३ ए सी 'जसका आ. ४ ए सी डी ६ ए सी डी कृष्टा स. ७ ए डी Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.६१.] षष्ठः सर्गः। ४७५ सर्वबालाः । यथा । तथा । तत्र । इत्यत्र "सर्वादयोस्यादौ” [६१] इति पुंवत् ॥ अस्यादाविति किम् । सर्वासु ॥ . प्रियं मृगक्षीरमभून्न ते प्राक्पेयं मृगीक्षीरमतः परेण। .. पचत्तरेत्थं मृगशावमुक्त्वा नष्टा मृगीशावविलोचनाभिः॥४९॥ ४९. पचत्तरा प्रकृष्टा पाचिका राजादिसूपकारी मृगीशावविलोचनाभिर्मगीबालवद्भयचटुलविशालाक्षीभिः स्त्रीभिः सह नष्टा । किं कृत्वा । मृगशावं हेरिणीपोतमुक्त्वा । कथमित्याह । हे मृगशाव मृगीपोतक प्राक्पूर्वं ते तव सुखादुदुग्धाद्यास्वादनेन मृगक्षीरं हरिणीदुग्धं निरास्वादत्वेन प्रियं ना दतः परेणातोनन्तरं मृगीक्षीरं हरिणीदुग्धं पेयमित्थम् । राजादिसूपकार्यों हि मांसपाकस्यातिसुखादुतार्थ मृगशावादीन दुग्धादिभव्याहारैः पोषयन्ति ॥ लाव्यः पचन्तीतरया पचन्तितरा इवोष्णाशुरुचाभितप्ताः । ज्यायस्तरोरोजतटी कटीं ज्यायसीतरां त्रासजुषो निनिन्दुः॥॥५०॥ ५०. लाट्यो लाटदेशस्त्रियो ज्यायस्तरोरोजतटीमुपचिततरस्तनाभोगं ज्यायसीतरां कटीं च गतिविघ्नत्वान्निनिन्दुः । कीÉश्य: सत्यः । पचन्तितरा इव । यथा प्रकृष्टपाचिका: सदाग्निसांनिध्यादभितप्ताः स्युरेवं पंचन्तीतरयातिशयेन संतापिकयोष्णांशुरुचाभितप्ताः । तथा त्रासजुषोरिचक्रागमैनेन भीताश्च ॥ . १ ए सी चन्तरा. २ ए सी शुरचातित. १ ए सी स्त्रीभि स. २ ए सी हरणी'. ३ ए सी डी पोतं मु. ४ ए सी ततक. ५ सी प्रियमाभूतः । प०.६ ए भूतः। पडी भूत् । प. ७ ए सी °रेणतो. ८ बीदृशाः स. ९ ए सी सत्य प. १० ए सी मिसाध्या". ११ ए सी पचीत. १२ सी मते भीनाश्च. १३ ए ने भी. Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः ] सा ज्यायसिप्राक्तरपुर्यभान्तीरूपैणनेत्राभिरभान्तिरूपा । नद्या नदन्तीतमया नदन्तितमप्रजाभिश्च नदत्तमाभूत् ॥५१॥ ५१. सा लाटेशसत्का ज्यायसिप्राक्तरपुरी ज्यायसितरपुर्यत्यन्तं प्रशस्या वृद्धा वा नगरी भृगुकच्छाख्या प्रशस्ता भान्ती भौन्तिरूपा न तथाभान्तिरूपाशोभमानाभूत् । काभिः कृत्वा । अभान्तीरूप भयव्याकुलत्वेनाशोभमाना या एणनेत्रास्ताभिः । तथा नदत्तमाव्यक्तशब्दमैय्यभूत् । काभिः कृत्वा । नदन्तीतमया भयत्रस्तलोकप्रवेशेनाव्यक्तं शब्दायमानया नद्यातिसमीपस्थया नर्मदाख्यनद्या नदन्तितमप्रजाभिचायन्तं कोलाहलं कुर्वाणैर्लोकैश्च ॥ भाद्रूपताभूत्पुरि यान्तिकल्पा यात्कल्पलक्ष्म्यां स्फुरतीबुवायाम् । स्फुरहुवाभूज्जनता प्रयान्तीकल्पस्फुरन्तिब्रुव जीवया च ॥ ५२ ॥ ५२. पुरि भाद्रूपता । प्रशस्यशोभेत्यर्थः । यान्तिकल्पा नश्यत्प्रायाभूत् । कीदृश्यां सत्याम् । यात्कल्पलक्ष्म्यां वास्तव्यजननाशान्नश्यत्प्रायसमृद्धावत एव स्फुरती विलसन्ती या ब्रुवा कुत्सिता तस्याम् । निन्दितशोभायामित्यर्थः । तथा जनता जनौघश्च स्फुरढुवा निन्दितस्फुरणाभूत् । कया कृत्वा । प्रयान्तीकल्पा भयेन नश्यन्तीप्रायात एव स्फुरन्ती ब्रुवा कुत्सितं निश्वसन्ती या जीवा प्राणा । जीव: प्राणेषु केदार इति वचनात्रिलिङ्गः । तया || १० १ बी 'रूपेण .. १ ए सी न्तं अश २ ए सी ती रू. ३ बी भातिरू .. ४ ए सी डी. ५ ए सी 'वेन शो.. ६ ए सी मज्यमू. ७ बी "ब्दामा', ८ सी 'त्यन्तको '. ९ एसी र साहू १० ए सी निश्चिस. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.६२.] षष्ठः सर्गः। ४७७ नैतच्चलेच्चेलि दिनं चलन्तीचेल्या भवोच्चरचलन्तिचेली। याद्गोत्रया यास्यनयाथ यान्तीगोत्रे नु गा मा तदयान्तिगोत्राम् ॥५३॥ समं लपन्तीमतया लपन्तिमता स्म मा भूरलपन्मते त्वम् । काञ्च्या रसन्तीहतयारसन्तिहते कृथा मास्म रसद्धतां द्याम् ॥५४॥ गार्गिब्रुवे वात्सितरे कुमारिकल्पौत्सिरूपे कठिचेलि यात । प्रतीक्ष्यते चण्डितमा किमाङ्गिहतेयमात्रेयिमतौर्विगोत्रा ॥ ५५ ॥ पङ्गुब्रुवा भोगवतिब्रुवेयं पत्रुवा गौरिमतिब्रुवासौ । अस्त्रीतराश्च स्त्रितरास्तथोचुः सविड्वरायामिति लाटपुर्याम् ॥५६॥ ५३-५६. सविवरायां सोपद्रवायां लाटपुर्यामस्त्रीतराश्चाप्रकृष्टाः स्त्रियश्च तथा स्त्रितराः प्रकृष्टस्त्रियश्चेतीदमूचुः । तदेवाह । हे चलच्चेलि मन्दगतित्वान्निन्द्यगमने चलन्तीचेल्या मन्दगतिकाया नैतदिनं भयेन नश्यमानत्वाच्छीघ्रगतेरेवायमवसर इत्यर्थः । तस्मादुच्चैरतिशयेनाचलन्तिचेली शीघ्रगमना भव । अथ यदि हे यान्तीगोत्रे निन्द्यगमनेनया प्रत्यक्षया याद्गोत्रया निन्द्ययानया सह यासि तत्तदायान्तिगोत्रामनिन्धगमनाम् । मामित्यर्थः । मानुयासीमत्पृष्ठे मा स्म लग इत्यर्थः । तथा हेलपन्मतेवाचाले लपन्तीमतया वाचाटया संमंसह त्वं लपन्तिमता वाचाटा मा स्म भूः। भयेन निभृतं नश्यमानत्वेन शब्दस्यानवसरात् । तथा रसन्तीहतया शब्दस्यानवसरेण निन्द्यशब्दया काच्या कृत्वा हे रसन्तिहते १ ए सी नैतिच्च. २ ए सी लच्चैलि° ३ ए सी भवैच्चैः. ४ बी या प्रया. ५ ए सी द्धता था. ६ ए सी तौविगो . ७ ए सी डी पङ्गु. ८ ए सी थोचु स. १ ए सी °या पत्य. २ ए सी डी निन्द्यासन'. ३ डी सह ल'. ४ बी °सरणे नि. Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] निन्द्यं शब्दायमाने रसन्तीहतया काव्यैव कृत्वा द्यां व्योम रसद्धतां निन्द्यशब्दान्वितां मा स्म कृथाः । तथा हे गागिनुवे गर्गपनिन्ये पौत्रि है वात्सितरे वत्सः प्रकृष्ठे पौत्रि हे कुमारिकल्पौत्सिरूपे कुमारिकल्पा सतीत्वादिगुणैगौरी तुल्या यौत्सिरूपोत्सस्यापत्यं स्त्री प्रशस्ता तस्याः संबोधनम् । तथा हे कठिचेलि निन्द्ये कठि यूयं यात नैश्यत । तथेयं चण्डितमातिकोपनेय माङ्गिताङ्गस्यापत्यं स्त्री निन्द्येयमात्रेयिमतात्रेर्निन्द्या पुत्रीयमौर्विगोत्रोर्वपर्निन्द्या पौत्रीयं पङ्गब्रुवा निन्द्या पङ्गर्भोगवतिब्रुवा निन्द्या भोगवत्याख्या रुयसौ पङ्गब्रुवा गौरिमतिब्रुवा च निन्या गौरिमत्याख्यस्त्री च । चोत्र ज्ञेयः । किं किमिति युष्माभिः प्रतीक्ष्यते परिपाल्यते । विपक्षाणां निकटागमनेन चण्डितमादिप्रतीक्षणे नावसर इत्यर्थ इति ॥ मृगक्षीरम् मृगीक्षीरम् । मृगशावम् मृगीशाव । इत्यत्र " मृग " [६२ ] इत्यादिना वा पुंवत् ॥ 90 [तर | ? ] पचन्तितराः पचत्तरा पचन्तीतरया । ज्यायसितर ज्यायस्तर ज्यायसीराम् ॥ तम । नदन्तितम नदत्तमा नदन्तीतमया ॥ रूप। अभान्तिरूपा भाद्रूपता अभान्तीरूप ॥ कल्प । यान्तिकल्पा यात्कल्प प्रयान्तीकल्प | ब्रुव । स्फुरन्तिब्रुव स्फुरढुवा स्फुरती वायाम् || चेलट् । अचलन्तिचेली चलच्चेलि चलन्तीचेल्याः॥ गोत्र । अयान्तिगोत्राम् याद्गोत्रया यान्तीगोत्रे ॥ मत । लपन्तिमता अलपन्मते लपन्तीमतया || हत । रसन्हिते रसद्धताम् रसन्तीहतया । इत्यत्र " ऋदुद्” [ ६३ ] इत्यादिना हस्वः पुंवञ्च वा ॥ बुवादयः कुत्साशब्दाः | "निन्द्यं कुत्सनैः " [३. १. १०० ] इति समासः ॥ ऋदुदिति किम् । कुमारिकल्पौत्सिरूपे ॥ १ एसी पेंनिधे पौ. २ डी हे... कु. ३ बी तुल्यया ४ वी तस्या सं ५ ए सी डी नस्यत. ६ डी माङ्गि • ७ ए सी त्रवनिन्धा. • एसी डी ' ' . ९ ए सी डी 'तरा । त १० ए सी तीते ०. ११ बी रन्ती. १२ ए सी दय कु .. . Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.६८.] षष्ठः सर्गः। ४७९ वासितरे। चण्डितमा । औरिसरूपे । कुमारिकल्प । गार्गिब्रुवे । कठिचेलि। और्विगोत्रा॥ आत्रेयिमता। आङ्गिहता। इत्यत्र “ड्यः" [६४] इति हस्वः॥ आङ्गि। इत्यत्राङ्गस्य प्राच्यत्वाद् "द्रेर' [६. १. १२३] इत्यादिनॊ नाणो लुप् ॥ भोगवतिबुवा । गौरिमतिबुवा । इत्यत्र “भोगवद्"[६५] इत्यादिना ह्रस्वः॥ स्त्रितराः स्त्रीतराः । अत्र "नवैक" [६६] इत्यादिना वा ह्रस्वः ॥ पङ्गुब्रुवा पब्रुवा। इत्यत्र “ऊङः” [६७] इति वा ह्रस्वः ॥ महाकरज्ञान्स्वमहाविशिष्टान्धृत्वा महापासमिवाथ लाटः । युधे महद्धाससमैः ससज्जामहत्करज्ञैरमहद्विशिष्टैः ॥ ५७॥ ५७. अथ लाटो युधे ससज्ज । किं कृत्वा । स्वमहाविशिष्टान्स्वान्स्वकीयान्महतां पितृपितामहादीनां वृद्धनृपाणां विशिष्टान्प्रधानानि महाघासमिव महतोरण्यादेस्तृणमिव धूत्वा युद्धान्निषेधतो निराकृत्येत्यर्थः । किंभूतान् । महतां राज्यलक्ष्म्यादिना बृहतां राज्ञां करो दण्डो महाकरस्तं जानन्ति ये तान्महाकरज्ञान्महाराजानां यो यस्य करो दीयते तद्वेदिनः । कैः सह ससज्ज । अमहद्विशिष्टैः पाश्चात्यैः प्रधानैः। किंभूतैः। महद्वाससमैनिःसत्त्वान्महारण्यादिसत्कघासतुल्यैः । तथामहत्करज्ञैराधुनिकत्वान्महतां राज्ञां दण्डमविद्वद्भिः । महाविशिष्टतिरस्कारोक्त्या महाविशिष्टकृतं महारिष्टसूचकं स्खलनरूपमनिमित्तमस्य ध्वनितम् ॥ महाकर महत्कर । महाघासम् महद्धास । महाविशिष्टान् महद्विशिष्टैः । अत्र "महतः कर' [६८] इत्यादिना वा डा अन्तादेशः ॥ - १ ए सी 'टा धू. २ ए सी समै स. १ ए सी सिरेत. २ ए सी डी यिमाता।. ३ बी ङ्गिहिता ।. ४ ए सी डी नानणो ५ ए सी डी स्वः ॥... म. ६ सी तृमंपि. ७ सी श्चात्यै प्र. ८ बी मैनिःस. ९ बी हाविशिष्ट. १० ए सी हामक. ११ ए सी वा ड्या अ. Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० घ्याश्रयमहाकाव्ये चामुण्डराजः ] महाविशिष्टं च महाकरं च क्षिप्त्वा महाघासभुगुक्षमत्तः। महावलान्यत्वरयन्महाजातीयावलेपेन महाभुजः सः ॥५८॥ ५८. स लाटो महान्प्रकारोस्य महाजातीयो महान्योवलेपो बलादिकृतोहंकारस्तेन कृत्वा महाबलान्यत्वरयाद्धाय प्रेरितवान् । किं कृत्वा । महाविशिष्टं च महत्या राज्यादेः प्रधानं महाकरं च महत्याराश्यादेर्हस्तं च क्षिप्त्वा तिरस्कृत्य । अनेनापि स्खलनरूपमनिमित्तमस्यो. क्तम् । यतो महत्या अरण्यान्या यो घासस्तं भुते य उक्षा वृषस्तद्वन्मत्तः । एतदपि कुत इत्याह । यतो महाभुजः ॥ श्रुत्वा महद्भूतबलं तु यष्टायष्टयुत्सुकं मामहतीप्रियं तम् । चामुण्डराजोपि चचाल यष्टीयष्टयस्यसिक्रीडनकौतुकेन ॥५९॥ ५९. चामुण्डराजोपि चचाल । किं कृत्वा । मया पृथ्व्या कृत्वा महती प्रिया भार्या यस्य तं विशालभूवधूकं तं तु लाटं पुनः श्रुत्वा । किंभूतम् । यष्टायष्टि यष्टिभिश्च यष्टिभिश्चै मिथः प्रहृत्य कृते युद्ध उत्सुकमत एव युयुत्सयानेकस्थानकेभ्यो मिलितत्वादमहन्महद्भूतं संपन्नं बलं सैन्यं यस्य तम् । युधि प्रगुणीभूतमित्यर्थः । केन हेतुना चचाल। यष्टीयष्टि यष्टिप्रहरणोपाधिके युद्धेस्यस्यसिपहरणोपाधिके युद्धे च वि. षये क्रीडनकौतुकेनातिशूरत्वेनास्य युद्धस्य सुखसाध्यमानित्वादत्यन्ताभिलाषुकत्वाच क्रीडाकुतूहलेन ॥ महाकरम् । महाघास । महाविशिष्टम् । इत्यत्र "स्त्रियाम्" [६९] इति डाः॥ १ डी तीयोव. १ ए सी महोजा. २ ए सी डी भुक्ते य. ३ डी यष्टयुत्सुकं य. ४ ए सी °ष्टिभिश्च. ५ ए सी श्च मथः. ६ ए सी स्थानेके. ७ बी युधे प्र. ८ सी क्रीडान. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ३.२.७२. ] षष्ठः सर्गः । ४८१ महाजातीय | महाबलानि । महाभुजः । अत्र “जातीय" [ ७०] इत्यादिना डाः ॥ अच्चेरिति किम् । महद्भूत ॥ क्ष्मामहतीप्रियम् । अत्र “न पुंवन्निषेधे " [ ७१] इति न डाः ॥ यष्टयष्टि । यष्टायष्टि । इत्यत्र "ईच्य" [ ७२ ] इत्यादिना पूर्वपदस्य दीर्घ आच्चान्तादेशः ॥ अस्वर इति किम् । अस्यसि ॥ अष्टाकपालं नु हविर्द्विषो युन्मेखे जुहूषौ नृपतिः कुमारे | आदिक्षदष्टापदबाणयुग्यैरष्टोगवैद्रवपुरगावणेशम् ॥ ६० ॥ २ I ६०. कुमारेष्टसु कपालेषु संस्कृतमष्टाकपालं हविर्नु द्विषो युन्मखे रणयागे जुहूषौ भस्मसाच्चिकीर्षौ सति नृपतिर्मूलराज: पुरगावणेशं पुरगा वृक्षभेदास्तेषां वनं पुरगावणं नाम वनं तस्य य ईशस्तं द्रागा - दिक्षुद्रणायाज्ञप्तवान् । कैः सह । अष्टापदस्य स्वर्णस्य ये बाणास्तेषां युग्यानि वाहनानि शैकटास्तैः । किंभूतैः । अष्टागवैरष्टौ गावो वृषा युक्ता येषु तैः । यद्वा । समाहारे द्विगौ साहचर्यादुपचारादष्टगवेन युतान्यप्यष्टागवानि तैर्महाभारान्वितत्वादृष्टभिर्गोभिर्वायैरित्यर्थः ॥ स कोटराप्राग्वणनाथसारिकामिश्रका पूर्ववणेश्वरांश्च । खाक्सिनका पूर्ववणेश साल्वागिर्यञ्जनागिधिपान्यदिक्षत् ॥ ६१ ॥ ε ६१. स्पष्टम् । किं तु । स मूलराजः । कोटरावणसारिकावणमिश्रकावणसिकावणाख्यानि कोटरादितरुसत्कानि वनानि । साल्वा देशास्तेषां १ सीन्महेखे. २ ए सी 'टावगैर्द्रा ३ डी द्राक्सि° ४ ए सी डी क्सक 'लजः । १ ए बी सी डी इचेत्या २ ए ६० पुरगा वृक्षभेदास्तेषां कु . ३ बी वणं पु. ४ डी 'क्षदाज्ञ. ५ ए सी शकास्तैः । ६ ए सी डी रे गौ० ७ एसी ८ए सीट ९ ए बी सी देशस्ते. ६१ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] गिरिः सात्वागिरिः । अञ्जना वृक्षभेदास्तेषां गिरिरञ्जनस्य कज्जलस्य वाश्रयो गिरिरञ्जनागिरिरेवंनामको गिरिभेदौ || अष्टाकपालं हेविः । अत्र " हविषि" [ ७३ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ अष्टागवैर्युग्यैः । अत्र “गवि" [ ७४ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ अष्टापद । इत्यत्र “नाम्नि” [ ७५ ] इति दीर्घः ॥ कोटरावण | मिश्रकावण । सिध्रकावण । पुरगावण | सारिकावण । इत्यत्र "कोटर " [ ७६ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ अञ्जनागिरि । साल्वागिरि । इत्यत्र "अञ्जन” [७७] इत्यादिना दीर्घः ॥ ज्ञातापि राजात्यमरावतीशभोगावतीशं सुतमुत्सुकोयम् । शरावतीशाजिरवत्यलंकारवत्यधीशांश्च युधे दिदेश ॥ ६२ ॥ ६२. अयं राजा मूलराजः शरावत्यजिरवत्यलंकारवत्याख्यपुरीनृपांर्श्वे । च: पूर्वादिष्टनृपापेक्षया समुच्चये । युधे दिदेशाज्ञापयत् । सुतं बलेनामरावतीशभोगावतीशी शक्रशेषाही अतिक्रान्तं ज्ञाताप्युत्सुक उत्कण्ठितः प्रेमातिरेकात्पुत्रपरिभवाशङ्काकुलचित्तः सन्नित्यर्थः ॥ & बहुस्वर | अमरावती ॥ शरादि । शरावती । इत्यन्त्र " अनजिरादि " [ ७८ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ बहुवचनमा कृतिगणार्थम् । तेन भोगावती ॥ बहुवरस्यानजिरादिविशेषणं किम् | अजिरवती । अलंकारवती ॥ वैश्वानरो नु प्रभयातिविश्वामित्रः स विश्वावसुगीतकीर्तिः । दन्तावलान्प्रेरयति स्म विश्वासडिश्वराजोपि च वत्सलत्वात्॥ ६३॥ ६३. स नृपो वत्सलत्वात्पुत्रवात्सल्याद्धेतोर्दन्तावलान् गजान् १ एसी मुसको . १ एसी हवि । अ. २ एसी इत्यात्र. ३ बी काब' ४ ए सी डी श्च पू. ५ बी 'ण्ठित प्रे. ६ सी दीर्घ । ब Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.२.७९. ] षष्ठः सर्गः । ४८३ विश्वस्मिन् राजन्ते ये तान्विश्वराजोपि च नृपांश्च प्रेरयति स्म । कीदृक् प्रभयाङ्गकान्त्या कृत्वा वैश्वानरो नु विश्वानरं स्यर्षेरपत्यमिव बिदादित्वादम् [ ६.१.४१ ] । वहितुल्यस्तथा प्रभया क्षात्रतेजसातिविश्वामित्रो विश्वामित्रं गाधिनन्दनमतिक्रान्तोत एव विश्वावसुना देवविशेषेण गीता कीर्तिर्यस्य सोत एव च विश्वस्मिन्सर्वत्र राजते विश्वाराट् ॥ न पैतृवल्यं न च मातृवल्यं सूनो रणे सप्तचितीकवद्यत् । एकाक्यगादित्यनुचिन्त्य दात्राकर्णेद्विपैः स स्वयमप्यचालीत् ॥ ६४ ॥ ६४. दात्रमिव दात्रं चिह्नं कर्णयोर्येषां तैर्द्विपैः स मूलराज: स्वयमप्यचालीत् । किं कृत्वा । अनुचिन्त्य । किमित्याह । यद्यस्मा - द्धेतोः सूनोश्चामुण्डराजस्य पितास्यास्ति पितृवलस्तस्य भावः पैतृवल्य पितृयुक्तता नास्ति मातृवल्यं मातृयुक्तता च नास्ति तस्मात्परमार्थतः सूनुरेकाक्यसहाय एव सप्तचितीकवत् । सप्त चितयोस्मिंस्तस्मिन्निवातिरौद्रत्वात्सप्तचितिश्मशानतुल्ये रणेगादिति ॥ दृष्ट्वाष्टक र्णाश्वसमैः पुरोश्चैरच्छिन्नकर्णैर्वलितान्नृपांस्तान् । स विष्टकर्णैः सह भिन्नकणैर्दध्याविति स्वस्तिककर्णकैश्च ॥ ६५ ॥ 1 ६५. स मूलराज इति वक्ष्यमाणं दध्यौ । किं कृत्वा । अवैः सह तान्युद्धार्थं प्राक्प्रेरितान्पुरगावणेशादिनृपान्वलितान्पुरो दृष्ट्वा । किंभूतैरश्वैः । अष्टकर्णाश्वसमैः स्वामिचिह्नार्थमष्टप्रकारौ कर्णौ यस्य स योश्व उच्चैःश्रवास्तेन समैः । तथा न च्छिन्नौ स्वामिचिह्नार्थं छेदा १ बी डी 'तृबल्यं. १ ए सी डी 'रस्यार्षे. "त्यं...मा ं. ५ डी योस्मिन्नि २ ए सी गाधन ३ सी 'तो सू. ४ डी ६ बी 'पान्चलि. ७ ए सी 'मिनि चि. Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] न्वितौ कर्णौ येषां तैः । तथ स्वामिचिह्नार्थत्वाद्विष्टौ मध्यलीनौ प्रमाणानुगतौ वा कर्णौ येषां तैः । तथा भिन्नौ स्वामिचिह्नार्थत्वेन भेदान्वितौ कर्णौ येषां तैः स्वस्तिककर्णकैश्च स्वस्तिकाकारस्वामिचिह्नाङ्कितकर्णैश्च ॥ किं छिद्रकर्णवकर्णपञ्चकर्णान्तकृतिंककर कर्मघोरात् । रणादमी नीत एव मर्मावित्कण्टकेभ्यो निरुपानहो नु ॥ ६६ ॥ ६६. छिद्रं चिह्नं कर्णयोर्येषां ते तथा स्रुवो यज्ञोपकरणभेदाकारं चिह्नं कर्णयोर्येषां ते तथा पञ्च पञ्चसंख्यालिप्याकारं चिह्नं कर्णयोर्येषां स्वामिचिह्नार्थत्वात्पञ्चप्रकारौ कर्णौ येषां वा ते तथा । त्रिपदे द्वन्द्वे । कृत्किरा यमकिंकरास्तेषां यत्कर्म मारणं तेन घोराद्रणात्सकाशादमी नृपाः किं नीवृत एव किमिति निवर्तन्त एव ममवित्कण्टकेभ्योदकण्टकेभ्यः सकाशान्निरुपानहो नु यथा पादुकारहिता निवर्तन्ते ॥ युत्प्रावृषोमी अनृतीषहो भीपरीततः कुत्र नु राजहंसाः । यास्यन्ति नीरूग्निरुगस्त्रभाजो नीक्केदवेन्तो रहिताः प्रहारैः ||६७ || ६७. अमी प्रत्यक्षा राजहंसाः प्रशस्यवंशोद्भवत्वेन नृपश्रेष्ठा युदेव शरवृष्टिमत्त्वात्प्रावृङ्खर्षास्तस्या नै ऋतिं पीडां सहन्तेनृतीषहोत एव भियं परितन्वन्ति भीपरीततो रणाद्विभ्यतः सन्तः क्व नु यास्यन्ति । राजहंसा हि प्रावृषो विभ्यतः सन्तो मानसे यान्ति । एषां तु त्रिभुवनेपि स्थानं न जान इत्यर्थः । कीदृशाः । निरोचन्ते विपि नीरुश्चि परेषु १ ए सी वन्दो र • १ सी था मि° २ डी. 'षां ते स्वा° ३ बी षां ते. ४ ए सी 'विक्तण्ट'. ५ बी भ्योरंतु. ६ सी असमी. ७ ए सी न रुति. Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.७८.] .. षष्ठः सर्गः। प्रहाराकरणेन रुधिराद्यालेपाभावान्नितरां दीप्तानि निरजि निर्भङ्गानि यान्यस्त्राणि तानि भजन्ति ये ते । तथा नोक्छेदवन्तो रणत्वरितपलायनोत्थश्रमातिरेकात्स्खेदवन्तस्तथा प्रहारै रहिताः ॥ स नः प्रसादोपतिहाररोधं प्रासादकक्षासु यतां मुधैषाम् । यनारकान्धीतमसं प्रवेष्टुमपप्रतीहारमिदं प्रनष्टम् ॥ ६८॥ ६८. अतिमान्यत्वान्नास्ति प्रतिहारैत्रिभी रोधो निवारणं यत्र तद्यथा स्यादेवं प्रासादकक्षासु सोधप्रकोष्ठेषु यतां गच्छतामेषां नृपाणां स महत्त्वेन प्रसिद्धो नोस्माकं प्रसादो देशदानाद्यनुग्रहो मुधा निष्फलम् । यद्यस्माद्धेतोरेषामेतत्कर्तृकमिदं प्रत्यक्षं प्रनष्टं पलायनमपप्रतीहारमपगतकाष्ठिकं यथा स्यादेवं नारकान्धातमसं नरकस्य महान्धकारं प्रवेष्टुमभूत् । रणे हि नष्टा नरकं यान्तीति स्मृतिः ॥ एपोनिकाशो नरकोथ वान्धतमस्यनीकाशभयं पराद्यत् । एतैरधीकण्ठ इव द्विषन्दक्षिणापथेज्ञाय्यधिकण्ठजीवैः ॥ ६९ ॥ ६९. अथ वेति राज्ञां नरकान्तरोपदर्शनगर्भ पक्षान्तरे । अथ वा यत्पराच्छनोरन्धतमसं महामूढतात्रास्तीत्यन्धतमसि । अनीकाशभयमतिप्रकर्षप्राप्तत्वेन निरुपमं भैयम् । एष एवानिकाशो निरुपमो नरकः । प्रस्तुतार्थेन योजनायैषां राज्ञां भङ्ग्या भयमाह । एतैर्नृपैरधिकण्ठा महाभयेन कण्ठमधिगता जीवाः प्राणा येषां तैस्तथा सद्भिद्विषन् १ ए सी यतामु. २ ए सी धाएत'. ३ ए सी डी नत्थम् ॥. १ए सी डी निभङ्गा. २ डी यन. ३ ए सी नोश्र०. ४ बी के प्रासा. ५ ए सी नाथुनु. ६ ए सी डी नत्थं प. ७ सी देव ना. ८ ए सी यातीति. ९ ए सी वेदिति. १० सी गर्भप. ११ ए सी य ए. १२ ए सी तैनृपै०. १३ ए सी द्भिद्विष Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] लाटो दक्षिणः पन्था दक्षिणापथस्तस्मिन्वर्तमानोधिकाः कण्ठा यस्य सोधीकण्ठो दशकन्धर इवाज्ञायि रावण इवाजय्यो ज्ञात इत्यर्थः । तमात्राद्भयमेष एवैषामिह लोकेपि निरुपमो नरकः संपन्न इति परलोकभाविनरकचिन्तया किमिति तात्पर्यार्थः ॥ * विश्वामित्रः । अत्र " ऋषौ " [ ७९] इत्यादिना दीर्घः ॥ वैश्वानरः । अत्र "नरे" [ ८० ] इति दीर्घः ॥ विश्वावसु । विश्वाराड् । इत्यत्र " वसुराटो: " [१] इति दीर्घः ॥ रोडिति विकृतिनिर्देशादिह न स्यात् । विश्वराज (जः) ॥ दन्तावलान् । इत्यत्र “वलचि" [८२] इत्यादिना दीर्घः ॥ अपित्रादेरिति किम् । पैतृवल्यम् । मातृवल्यम् ॥ सप्तचितीकवत् । इत्यत्र “चितेः कचि” [८३] इति दीर्घः ॥ दात्राकणैः । अत्र "स्वामिचिह्नस्य " [ ८४ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ विष्टादिवर्जनं किम् । विष्टकर्णैः । अष्टकर्ण । पञ्चकर्ण । भिन्नकणैः । छिन्नकणैः । छिद्र कर्ण । स्रुवकर्ण । स्वस्तिककर्णकैः ॥ I [नहू |?] निरुपानहः ॥ वृत् । नीवृतः ॥ वृष् । प्रावृषः ॥ व्यध् । मर्मावित् ॥ रुच् । नीरुग्॥ सह्। अनृतीर्षैहः ॥ तन् । परीततः । अत्र “गतिकारकस्य'" [८५] इत्यादिना दीर्घः ॥ केचित्तु रुजाविच्छन्ति न रुचौ । तन्मते नीरुगिति रूपं रुजेर्निरुगिति तु रुचेरेवं च रुजिरुच्योर्मतभेदेन विकल्पः सिद्धः ॥ नीक्केद । इत्यत्र " घजि" [८६ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ क्वचिन्न स्यात् । प्रहारैः ॥ क्वचिद्विकल्पः । प्रतीहारम् प्रतिहार ॥ क्वचिद्विषयभेदेन । प्रासाद गृह । प्रसादोनुग्रहः ॥ बहुलवचनादनुपसर्गस्याप्यधन्यपि च स्यात् । १ बी 'णः पथा द° २ सी मित्र । अ. ३ ए सी राज्ञिरिति ४ सीम् । स. ५ एसी । भि° ६ ए सी 'षहेः । त ७ ए सी डी 'गृहः । प्र ८ ए सी 'स्याद्यप्य'. Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ [ है० ३.२.८६.] षष्ठः सर्गः। दक्षिणापथे । क्वचिद्विकल्पः। अन्धन्तमोन्धातमसम् अन्धतमसि ॥ क्वचिद्विषयभेदेन । अधीकण्ठः । अयमाधिक्ये । अन्यत्राधिकण्ठ ॥ क्वचिदनुत्तरपदेपि विकल्पः। मारक नरकः ॥ काशशब्दे च धैजन्ते विकल्पः । नीकाश निकाशः ॥ अजन्ते तूत्तरविधिः ॥ वीकाशमेते रिपुनीत्तपृष्ठा मुनीवहं पीलवहं च यान्तु । श्वाकूर्दकैः श्वापदमन्दधीभिः श्वापुच्छरैः श्वमुखैः किमेभिः ७० ___७०. विकाशते विकाश्यते वा अचि वीकाशं प्रकटं यथा स्यादेवं रिपूणां नीत्तं नष्टत्वान्निदातुमारब्धं पृष्ठं यैस्त एते नृपा मुनीवहं पीलुवहं च पुरं यान्तु मुनीनां पीलूनां च वहं धारकमियन्वर्थनौम्नैव मुनीवहपीलुवहपुरयोररण्यप्रायत्वं सूचितम् । ततश्च रिपुदत्तपृष्ठत्वेन 'मद्देशेन्यराजदेशे च स्थानाभावादरण्यतुल्ये मुनीवहे पीलुवहे च मुनिवृत्ाँ पीलुवृत्त्या चैते वर्तन्तामित्यर्थः । यत एभिनॅपैः किं न किंचिदित्यर्थः । यतः शुन इव कूर्दो निष्फलं वल्गनं येषां तैस्तथा श्वापदं व्याघ्रादि तद्वन्मन्दा मूढा धीवुद्धिर्येषां तैस्तथा श्वापुच्छेवैः कुटिला. शयैस्तथा श्वमुखैभषणवत्रैः॥ षोडद्वृषाभाः श्वपदापवित्राः पोढा बलेनापि युता न शक्ताः । षड्डा तथैकादश षोडशार्थ वाराञ् श्वपुच्छं नमितं न चर्जु ॥७१॥ ७१. श्वपदापवित्रा रणे भग्नत्वात्कुक्कुरोह्रिवदस्पृश्या एते नृपा रि १ सी हं च. २ ए सी वकै श्व'. ३ ए सी डी मुखै कि°. ४ ए सी थ रोजान्. ५ ए सी चर्जुः ।. १ ए बी सी रकः न. डी रकः । का. २ ए सी घडन्ते. ३ बी त्यर्थः । ना. ४ ए सी डी नान्नैव. ५ ए सी द्देश्येन्य. ६ डी त्या चै. ७ ए सी चैतै व. ८बी ततामि'. ९ ए सी भिनृपैः. १० ए सी तै तथा. ११ बी धीबुद्धि. १२ ए सी तै तथा. १३ ए सीवकैः कु. Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] I 3 पुविजये न शक्ताः किंभूताः । षोडषाभा अपि । अपिरत्रापि योज्यः । षड्डून्ता यस्य स षोडन् युवेत्यर्थः । यो वृषो वृषभो बलयौवनादिना तत्समा अपि । तथा षोढा मौलॅबल १ भृतकबल २ श्रेणिबल ३ अरिवल ४ सुहृद्बल ५ आटविकबल ६ भेदैः षडिधेन बलेन सैन्येन युता अपि । युक्तं चैतद्यतः षड्डा षड्भिः प्रकारैस्तथैकादश वारानथ तथा षोडश वria aपुच्छं नमितमृजूकृतं न चर्जु न च सरलं स्यात्तथास्वभावत्वात् ॥ वीकाशम् । अत्र "नामिनः काशे" [८७ ] इति दीर्घः ॥ नी । इत्यन्त्र " दस्ति" [८] इति दीर्घः ॥ मुनीवहम् । अत्र " अपील्वादेर्वहे " [ ८९ ] इति दीर्घः ॥ अपील्वादेरिति किम् | पीलुवम् ॥ श्वाकूर्दकैः । अत्र “शुनः” [९०] इति दीर्घः ॥ बहुलाधिकारात्कचिद्विकल्पः । श्वापुच्छ श्वपुच्छम् ॥ क्वचिद्विषयान्तरे । व्याघ्रादौ श्वापद | शुनः पदे श्वपद || क्वचिन्न स्यात् श्वमुखैः ॥ एकादश । पोडश । पोडत् । षोढा । षड्ढा । इत्येते "एकादश " [ ९१] इत्यादिना निपात्याः ॥ द्वित्रा अथ द्वादश वा त्रयोदशाष्टादशाथ द्विशतं व्यशीत्या । लाटेश्वराः सन्तु स तांस्त्रिचत्वारिंशद्गजोग्र्जेतुमलं कुमारः ॥ ७२ ॥ ७२. द्वित्रा द्वौ वा त्रयो वाथाथ वा द्वादश त्रयोदश वाथाथ वाष्टादशाथ वा व्यशीत्या सह द्विशतं लाटेश्वराः सन्तु तथापि स कुमारस्ता - · १ सी शक्ता षो. २ ए भूता षो. ३ ए सी डी र्थः । वृ ४ ए सी डी. ५ ए सी न्येतयु. ६ ए सी 'पर्यात. ७ एसी शुनप ८ ए सी षड्डा । ३. डी षड्डा । इ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.२.९३.] षष्ठः सर्गः। ४८९ लॉटेश्वराज जेतुमलं समर्थः । यतस्त्रिचत्वारिंशतो गजानामिवोर्बलं यस्य स तथा ॥ एवं विचिन्त्य यच्चके तदाह । द्वापष्टिमष्टानवति त्रयश्चत्वारिंशतं साष्ट नवत्यशीतिम् । शतं द्विषष्टययमिषून्क्षिपन्तं स तं सुतं वीक्षितुमत्वरिष्ट ॥७३॥ ७३. स्पष्टम् । किं तु । साष्टनवत्यशीतिमष्टनवतिसहितामशीतिम् । द्विषष्ट्यग्यं द्विषट्याधिकं शतम् । स मूलराजः ॥ द्वादश । त्रयोदश । अष्टादश । इत्यत्र “द्विव्यष्टानां" [९२] इत्यादिना द्वा-त्रयस्-अष्टादेशाः ॥ प्राकृतादिति किम् । द्विशतम् ॥ अनशीतिबहुव्रीहाविति किम् । व्यशीत्या । द्वित्राः ॥ द्वाष्टिम् द्विषष्टि । त्रयश्चत्वारिंशतम् त्रिचत्वारिंशत् । अष्टानवति[म्] अष्टनवति । इत्यत्र "चत्वारिंशदादौ वा" [२३] इति वा द्वा-त्रयस्-अष्टाः ॥ ऊचुः प्रणम्येत्यथ हृद्यहार्दहल्लासहल्लेखजुषो नृपास्ते । दिल्या जयी द्विड्दयाम तुक्ते द्विषां हृदामो ने ऋते पदातीन् ॥७४॥ ___७४. अथ राज्ञः सुतवीक्षात्वरानन्तरं ते नृपा राजानं प्रणम्येत्यूचुः । किंभूताः सन्तः । हृदयस्य प्रियं "हृद्यपद्य" [७.१.११] इत्यादिना ये हृदये भवं “दिगादि'' [६.३.१२४] इत्यादिना ये हृदयायं हितं युगादित्वाये [७.१.३०] वा हृद्यं यद्धार्द हृदयस्य भावः कर्म वा “युवादेः" [७.१.६७] अण् । स्नेहस्तेन यो हल्लासो हृदयोत्साहस्तेने यो १ ए सी चदाईह°. २ ए सी न रुते. १ ए सी डी तश्चत्वा. २ ए सी वोर्गलं. ३ ए सी देशः ॥ प्रा. ४ बी °दि कि. ५ ए सी डी हादिति. ६ बी षष्टि द्वि'. ७ ए सी नं तरं ते नृपा राजानं. ८ डी °य सहि'. ९ बी यभा. १० ए सी डी न ह'. Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० ध्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] हल्लेख उत्कण्ठा तं जुषन्ते सेवन्ते ये ते । किमूचुरित्याह । हे द्विडुदयाम दुःखत्वाच्छत्रुहृदयेषु रोगतुल्य ते तव तुक्पुत्रो द्विषां हृदामो हृदयरोगतुल्यो नोस्मान्पदातीन्विना दिष्ट्या क्षेमेण जयी वर्तते । योपि हृदामः क्षयव्याधिः सोपि द्विषां द्वेषं कुर्वतां नृणां जयी द्वेषेण प्रवर्यमानत्वादतिपरिभावुकः स्यादित्युक्तिलेशः ॥ पदाजयस्ते पदगैः पदोपहतक्षमैर्यावदमी न यामः । तावच दृष्टस्त्रसतामरीणां पत्काषिणां पद्धतिपद्यपांशुः ॥७५ ॥ ७५. हे राजंस्ते तवामी अस्मल्लक्षणाः पदाजयः पत्तयः पादाभ्यामुपहता क्षमा भूयस्तै: पदगैः पत्तिभिः सह यावन्न यामस्तावच्चारीणां पद्धतेर्गिस्य पद्यः पादोत्थो यः पांशुः स दृष्टः । कीदृशां सताम् । असतां कुमाराद्विभ्यतामत एव पत्काषिणां पादावभीक्ष्णं मार्गेण सह कषतां नश्यतामित्यर्थः ॥ पद्गाः शरैः पादुपहत्यभाजोयुः पद्धिमार्ता इव विभवेषाः । पच्छः प्रगायन्त ऋचोपपादर्शब्दाः सपच्छन्दरथान्विनैके ॥७६ ॥ ____७६. एके भटाः सपच्छब्दरथान् गमनहेतुत्वात्पादा इव पादा. श्चक्राणि तेषां शब्दश्चीत्कृतिः सह तेन ये ते ये रथास्तान्विना । सपच्छब्दत्वेन भयहेतुत्वाद्रथान्मुक्त्वेत्यर्थः । पद्गाः पादचारिणोयुगताः । किंभूताः सन्तः । पद्धिमार्ता इव पादयोर्हिममवश्याय: पद्धिमं तेन १ बी पद्गा श°. २ ए डी द्विमः . सी द्विमता इ°. ३ ए सी तप. ४ ए सी शब्दा स. १ बी °खकत्वा० २ ए सी रोमतु. ३ बी द्विषान् ह. ४ ए सी डी दामोक्षव्या. ५ बी त्वादिति. ६ ए सी 'स्ते तावा. ७ ए सी य: पदा. ८ ए सी डी भीक्ष्णमा. ९ ए सी मुक्तेत्य. १० डी द्धिमतर्ता . ११ ए सी श्याय ५०. Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.२.९४.] षष्ठः सर्गः । ४९१ ऋता: पीडिता यथा पादुपहत्यभाजः स्युस्तथा शरैः कृत्वा पादयोरुपहता: पदुपहतास्तेषां भावः पादुपहत्यं तद्भजन्ति ये ते। तथा पादव्यथा. न्विता अत एवापपादशब्दाः शनैर्गमनेन पादोत्थघोषरहिताः । अत एव च विप्रवेषा मन्दगतीनस्मान्मा कोपि शीघ्रमन्वागत्य परिज्ञाय च वधीदिति स्वाकारापह्नवाय ब्राह्मणवेषधारिणः । अत एव च ऋचो मन्त्रभेदान्पच्छः प्रगायन्तै ऋचा पादं पादं वेदध्वनिभेदेनोच्चारयन्तः ।। पद्धोषि पन्मिश्रमपादमिश्रं प्रोज्झ्याश्वमुष्टैरपपादघोषैः । त्यक्तात्मपन्निष्ककलत्रपादनिष्काश्च नस्तोसुषु जग्मुरन्ये ॥७७॥ ७७. अन्ये भटा नस्तः आद्यादित्वात्तस् [७.२.४४.]। नासिकायां सत्स्वसुषु । मरणमहाभयेन नासिकागतेषु प्राणेष्वित्यर्थः । उष्ट्रैर्जग्मुनष्टाः । यतोपपादघोषैरपगतांहिशब्दैः । उष्ट्राणां हि गच्छतां पादघोषो न स्यात् । किंभूताः सन्तः । त्यक्ता मरणभयेनैव व्युत्सृष्टा आत्मनः स्वस्य पनिष्का: पादयोनिष्का वीरकैटकाद्यलंकारीकृतानि स्वर्णानि कलत्राणां पादनिष्काश्च पादयोपुराद्यलंकारीकृतानि स्वर्णानि च यैस्ते तथा । किं कृत्वा जग्मुः । पन्भिों बहीयेस्त्वेन मिथः पादसंकरात्पादेषु मिश्रं संकीर्णं तथापादमिश्रं सुलक्षणत्वान्न पादेषु स्वकीयांहिषु मिश्रं मिलितमुपलक्षणत्वादन्यैरप्यपलक्षणै रहितमाश्वमश्वौधं प्रोझ्य त्यक्त्वा । यत: पद्धोषि पादशब्दान्वितम् । आश्वस्य हि यातः पादघोष: स्यात्तेन च नश्यन्तो लक्ष्यन्ते । नाक्षुद्रकाः के चन नस्यघातैर्वक्तुं न नासिक्यमलं बभूवुः। शीर्षण्यघातैश्च लुलच्छिरस्याः शीर्षण्यपाशाननियन्तुमीशाः॥७८॥ ७८. के चन भटा नस्यघातैर्नासिकायो भवैः प्रहारैनःक्षुद्रका. __ १ ए नक्षुःद्र. सी नक्षुद्र. १ ए सी च रुचो . २ ए सी पां. ३ सी ककका . ४ डी ° वही . ५ ए सी यस्तेन. ६ ए सी यांशिषु. Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] श्छिन्ननासिकत्वात्स्वल्पनासिकाः सन्तो नासिक्यं नासिकास्थानं वर्ण वक्तुमुञ्चारयितुं नालं न समर्था बभूवुः । के चन च शीर्षण्यघातैः शिरसि भवैः प्रहारैः कृत्वा लुलन्तो विसंस्थुलाः शिरस्याः शिरसि भवाः केशा येषां ते तथा सन्तः शीर्षण्यपाशान्केशकलापान्नियन्तुं संवरीतुं नेशा न समर्था बभूवुः । यद्वा । शिरसा तुल्यानि शाखादित्वाचे [७.१.११४] शीर्षण्यानि शिरस्त्राणानि तेषु घातैः कृत्वा लुलैच्छिरस्या भ्रंसमानशिरस्त्राणा: सन्तः शीर्षण्यपाशा शिरस्त्राणबन्धान्नियन्तुं नेशा बभूवुः ॥ हृल्लास । हृल्लेख । हार्द । हृय । इत्यत्र "हृदयस्य' [९४] इत्यादिना हृदादेशः ॥ हृदयशब्दसमानार्थेन हृच्छब्देनैव सिद्धे हृदादेशविधानं लासादिषु हृदयशब्दप्रयोगनिवृत्यर्थम् । अन्यत्र तूभयं प्रयुज्यते ॥ हेदामः हृदयाम ॥ ___ पदाजयः । पदातीन् । पदगैः । पदोपहत । इत्यत्र “पदः” [९५] इत्या. दिनी पदः ॥ पद्धिम । पद्धति । पत्काषिणाम् । पद्य । इत्यत्र “हिमहति" [१६] इत्यादिना पत् ॥ अन्ये तु गोपहतयोरपीच्छन्ति । पैगाः । पादुपहत्य ॥ पच्छे ऋचः प्रगायन्तः। अत्र "चश्शसि” [९७] इति पत् ॥ पच्छब्द पादशब्दाः । पन्निष्क पादनिष्काः । पदोषि पादघोषैः । पन्मिश्रम् पादमिश्रम् । अत्र “शब्दनिष्क” [९८] इत्यादिना [वा] पत् ॥ नस्तः। नःक्षुद्रकाः । अत्र "नस्" [९९] इत्यादिना नस् ॥ १ ए सी रस्या शि°. २ ए सी यन्तु सं. ३ बी लच्छर.४ बी भ्रंशमा. ५ डी हृद. ६ ए सी दाम हृ.७ एबीसीडी यामः । प०.८. डीना पादशब्दस्य प. ९ ए सी डी 'द्धिमः । ५. १० ए सी पद्गा पा. ११ बी डी पच्छः क. १२ ए सी च्छ रुच:. १३ ए बी डी ऋचः इश. १४ ए सी डी च्छब्दः पा. १५ ए सी द्धोषिः पा. १६ सी स्तः। नक्षु. Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ३.२.१०२. ] षष्ठः सर्गः I ४९३ नस्ये । इत्यत्र "येवर्णे" [ १०० ] इति नस् ॥ अवर्ण इति किम् | नासिक्यम् ॥ शीर्षण्यघातैः । अत्र “शिरसः शीर्षन् " [१०१] इति शीर्षन् ॥ शीर्षण्यपाशान् शिरस्याः । अत्र " केशे वा [ १०२ ] इति वा शीर्षन् ॥ केचित्तु इल्वला मृगशीर्षस्य शिरस्यास्तारकाः स्मृताः । इति प्रयोगदर्शनात्केशादन्यत्रापि विकल्पमिच्छन्ति । शाखादियप्रत्यये च शीर्षन्निति नेच्छन्त्येव । तन्मतमाश्रित्य शिरस्या इत्यत्र द्वितीयव्याख्याने शिरसः शीर्षन्नभावः ॥ द्रोकैर्षिकाः केप्युदपेषमेणमदेन पिष्टेन सुगन्धयोयुः । मिया विहायोदधिकुम्भचारूदवाहनों अभ्युदवासजत्रि ॥ ७९ ॥ ad ७९. उदपेषं पिष्टेनोदकेन घृष्टेनैणमदेन कस्तूरिकया सुगन्धयो विलेपनात्सौरभाढ्याः केपि भटा अध्युदवासजस्त्रि । उदके वास उदवासस्तस्माज्जाता याः स्त्रियोप्सरेसस्तासु द्रागयुर्देवीभूता इत्यर्थः । यतः शैषिकाः शिरसा दीव्यन्तो जयन्तो वा । इण् । महाशूरत्वाद्रणे शिरःपणीकारकाः । किं कृत्वा । प्रियाः स्वभार्या विहाय । किंभूताः । उदकं धीयत एष्वित्युदधयो रणश्रान्तकान्तानां पानाय जलभृता कुम्भा - स्तै युवाहनानि जलवाहनानि शकटानि यासां ताः । एतेन प्रियेष्वत्यनुरागोक्तिः ॥ १ ए सी द्राकर्ष. २ सी मेदे. ३. ए सी डी 'नादध्यु. म ४ ए सी भूपाः । उ "रूण्यद ७ बी येथ १ एसी नस । इ° २ ए सी रस्ता ३ ए सी कण । म डी कणि ५ ए सी 'श्चारुण्यदद डी 'श्चारुण्यद ६ बी Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये शैर्षिकाः । अत्र “शीर्षः” [१०३] इत्यादिना शीर्षः ॥ उदपेषम् । उदधिकुम्भ । उदवास । उदवाहनाः । अत्र "उदकस्य [ १०४ ] इत्यादिनोदः ॥ भिन्नोन्य आशुदककुम्भभेत्रोदकुम्भवत्स्वमिययोदहार्या | साश्रूदबिन्दूदक बिन्दुपतयोक्ष्यमाण आपोदकहारभूषाम् ||८०|| ४९४ [ मूलराजः ] ५ ८०. अन्यो भट उदकहारभूषामुदकबिन्दूनां हाराकारेण पाता - दुदकस्य यो हारस्तस्य भूषां शोभामाप । कीदृक्सन् । उदकुम्भवद्यथा जलैघट उदककुम्भक्षेत्रा जलघटभेदकेन नरेण भियत एवमाशु भिन्न: कुमारभटेन केनचिद्विदारितः । अत एवोदहार्या पत्युर्जलपानाद्यर्थं जलमानेच्या स्वप्रिययोक्ष्यमाणः सिच्यमानः । कया कृत्वा । अश्रूणि पतिदुःखोद्भुत कष्टोत्थानि नेत्रजलानि तान्येवोदविन्दवो जलकणाः सह तैर्या सा तथा योदक बिन्दुपतिर्मूर्छापनोदाय प्रक्षिता जलकणश्रेणिस्तया || सिन्धुर्दमन्थोदके मन्थजे भोदवज्रनादोर्युदकौदनादी । उदौदनं नृवभीमसिना निपिष्टोपि ननर्त कश्चित् ॥ ८१ ॥ १ एसी 'दनिन्थो २ ए सी 'कमिन्थ', १ ए सी शोपिं. २ बी 'लकुम्भ उ ५ ए सी 'तिदुषोद्ध' ६ ए सी उद. ८१. कश्चिद्भटो ननर्त महाशूरत्वाद्रणचिकीर्षया ववल्ग । कीदृशः । अरय एवोदकमिश्र ओदनोर्युद्कौदनस्त मत्तीत्येवंशीलः । महाबलत्वादनायासेनारिविनाशक इत्यर्थः । अत एव सिन्धोरब्धेर्य उदकं मध्यतेनेन “पुंनाम्नि” [५.३.१३०] घे उदद्मन्थो मन्दरस्तेन य उदकमन्थो जलविलो. ०१३ ३ बी नार्थ ४ डी कुममा.. Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०३.२.१०५] पष्ठः सर्गः । डनं तस्माजातौ याविभोदवज्रावैरावणविद्युतौ तयोरिव नादोरिजयसूचकः सिंहनादो यस्य स तथा सन्कुमारभटेन केनाप्युदकवज्रभीमासिना विद्युद्रौद्रखङ्गेन कृत्वोदौदनं नूदकमिश्रौदनमिवै निपिष्टोपि छिन्नमूर्धापि ॥ रणोदगाहाद्रुधिरोदभाराः केपि क्षणेनोदकगाहमीयुः ।। प्रियोदसक्तूदकभारजन्तुव्यग्रा व्रणाग्रोदकसक्तुशुभ्राः ॥ ८२ ॥ ८२. केपि भटाः क्षणेनोदकैगाहं नद्यादिजलमध्यविलोड मीयू रुधिरप्रक्षालनार्थ प्रापुः । किंभूताः सन्तः । रणमेव दुष्करत्वादुदगाहो जलविलोडनं तस्मादनेकप्रहारव्याप्ताङ्गत्वाद्धेतोरित्यर्थः । रुधिरमेवातिबाहुल्यादुदभारो जलप्रवाहो येषां तेत एव रुधिरप्रवाहोपशमाय व्रणाग्रेषु प्रहारक्षतमुखेषु य उदकसक्तवो जलमिश्रसक्तुपिण्डिकाः । प्रहारेषु हि पथ्यत्वात्सक्तुपिण्डिका बध्यन्ते । तैः शुभ्राः श्वेता अत एव च प्रिया उदैसक्तर्वं उदकमिश्राः सक्तवो येषां ते य उदकभारजन्तवो जलप्रवाहजन्तवो यादांसि तैर्व्यग्रा नद्यादिजलप्रदेशे व्याप्ताः ॥ क्षीरोदविस्फाटुंदवीवधाभैर्मन्दपानोदकवीवधाभाः । देवेति दत्तेत्यथ देवदत्तेत्यूचुर्मिथः केपि हतास्त्वदीयैः ॥८३।। ८३. केपि भेटा: पीडार्तत्वेन तुच्छत्वेन च शरणार्थित्वान्मिथोन्योन्यमूचुः । किमित्याह । देवेति हे देव मां रक्षेति । मां रक्षेत्याद्यध्याहार्यम् । तथा दत्तेति हे दत्त मां रक्षेति । अथ देवदत्तेति हे देवदत्त मां रक्षेति च । किंभूताः सन्तः। उदकं पीयतेस्मिन्नुदपानं कूपाहावादि निपानं तस्योदवीवधो जलमार्गोल्पत्वेन स्वाक्रम्यत्वात्तेनाभा साम्यं येषां ते तथा १ सी यच०. २ ए सी व नपि. ३ ए सी कग्राहं. ४ ए सी 'नमयू. ५ ए सी तस्मे द. ६ ए सी पु पिथ्य. ७ डी दक. ८ ए सी 'व द. ९ ए सी डी भटा पी. १० ए सी वीविधे ज. Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः ] त एव क्षीरमेवोदकं यत्र स क्षीरोदः क्षीराब्धिस्तस्य विस्फारी प्रसृमरो य उदवीवध उदकमार्गो महत्त्वेनानाक्रम्यत्वात्तेनाभा येषां तैस्त्वदीयैर्भटैमङ्क हताः प्रहृताः ॥ उदकुम्भ उदककुम्भ । इत्यत्र “वैक' [१०५] इत्यादिना वोदः ॥ उदमन्थ उदकमन्थ । उदौदनम् उदकौदन। उदसक्तु उदकसक्तु । उदबिन्दु उदैकबिन्दु । उदवज्र उदकवज्र । उदभाराः उदकभार । उदहार्या उदकहार । उदवीवध उदकवीवध । उदगाहात् उदकगाहम् । अत्रे “मन्थौदन" [१०६] इत्यादिना वोदः ॥ उदपान ॥ उत्तरपदस्य । क्षीरोद । इत्यत्र "नाम्नि" [१०७] इत्यादिनोदः॥ देव दत्त देवदत्त । इत्यत्र "ते लुग्वा" [१०८] इति पूर्वोत्तरपदयोलुंग्वा ॥ द्वीपान्तरीपप्रभवः परापानूपेश्वरा लाटसखाय एयुः। मूनोस्तवाग्रेङ्गुलिमप्रतीपंमन्यावलंमन्यतयाच्छिदंस्ते ॥ ८४ ॥ ८४. द्विधा गता आपो यत्र तवीपम् । अन्तर्गता आपो यत्र तदन्तरीपम् । यद्यप्यनयोर्नाममालाँस्वेकार्थता तथापि जलमध्यस्थं बेटकमिति प्रसिद्धं द्वीपं जलसमीपस्थं चान्तरीपमिति भेदो ज्ञेयः । तयोः प्रभवः । परावृत्ता आपोस्मिन्पेरापं पुरभेदः । अनुगता आपोस्मिन्ननूपो जलबहुलो देशस्तयोरीश्वराश्च लाटसखायो लाटेशसाहाय्यकारिणः सन्तो यत्तदोनित्याभिसंबन्धाद्य एयुरागतास्ते तव सूनोरग्रेङ्गुलिं कनिष्ठामच्छिदन वेलायत्तीबभूवुरित्यर्थः । कया हेतुना । १ डी परीपा०. २ ए सी लाखस'. १ ए सी नाभ ये°. २ ए सी कबि. ३ सी दव'. ४ ए सी डी 'भारः। उ° बी भारम् । उ°. ५ ए सी त्र मेथौद. ६ ए सी डी तxxद. ७ ए सी लाप्वेका. ८ डी द्वीपस्थं. ९ डी परीपं. १० ए सी कारणः. Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.१०९.] . षष्ठः सर्गः । ४९७ अप्रतीपंमन्यावलंमन्यतया । अप्रतीपानप्रतिकूलानात्मनो मन्यन्तेप्रतीपमन्या येबलंमन्या निःसत्त्वादबली: स्त्रिय आत्मनो मन्यमानास्तेषां भावेन ॥ अस्तुदास्त्रैः सृजतीह दोषामन्यं दिनं त्वत्तनयेर्ण्यते स्म । गीर्मन्यकैः कैरपि दण्डसत्यं कारोगदंकारनिभे खपुत्राः ॥ ८५ ॥ ८५. अगदंकारनिभे वैद्य इव सकलजगद्धित इत्यर्थः । इह त्वत्तनयेरुंतुदास्त्रैर्मर्माविच्छस्त्रैः कृत्वा दिनं दोषामन्यं वैराच्छादित - त्वेनान्धकारितत्वाद्रात्रिमात्मानं मन्यमानं सृजति कुर्वति सति कैरपि नृपैः स्वपुत्रा दण्डसत्यंकारो दण्डे करविषये सत्यंकारोयते स्म । यतः सुप्रतिष्ठवाक्या गिरं वाग्देवीमात्मानं मन्यन्ते गीर्मन्याः कुत्सिता गीर्मन्यो गीर्मन्यकास्तैर्लोकमध्ये कुत्सितवाक्प्रतिष्ठमात्मानं मन्यमानैः । ते हि लोके कुत्सितवाक्प्रतिष्ठमात्मानं मन्यन्त इति तव दण्डं दास्याम इति स्ववाक्प्रतीत्यर्थं त्वत्पुत्रे स्वपुत्रानेव सत्यंकारं ददुरित्यर्थः ॥ नष्टप्रनष्टतेषु सोस्तुंकारोतिमध्यंदिन सूर्यतेजाः । लाटोथ लोकंपूणमप्यनभ्यांशमित्यैमेत्याह्वयतात्मजं ते ।। ८६ ।। ८६. अथातिमध्यंदिनसूर्यतेजा अतितेजस्वित्वात्प्रहरद्वयस्थसूर्यमतिक्रान्तः स लार्टस्त आत्मजमेत्यागत्याह्वयत सस्पर्धमकारयत् । कीदृक्सन् । नष्टप्रनष्टप्रहतेषु स्वभटेष्वस्तुंकारः । अस्त्विति निपातोभ्युपगमे । अस्तु करोति कर्मण्यण् । नष्टप्रनष्टप्रहताश्चेन्नष्टप्रनष्टप्रहताः ९ १ ए सी डी कंपण २ ए सी 'भ्यासमि° ३ डी 'त्यमित्या. १ डीलः श्रियं २ ए सी दिन्यं दो, ३ ए सी 'वेवाच्छा' ४ ए सी वाग्वेदीमा ५ ए सी 'न्या गैर्म'. ६ ए सी 'सिकवा" बी "त्सितं वा' ७ ए सी डी प्रसिद्धमा ८ ए सी 'टस्तेन आ डी 'टस्ते तव आ ९ सी णाण् ।• ૬૨ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ व्याश्रयमहाकाव्ये . [मूलराजः] सन्विति स्वभटानां नष्टप्रनष्टप्रहतत्वं स्वभुजबलावलेपेनाङ्गीकुर्वन्नित्यर्थः। कीदृशम् । लोकंपृणमपि कान्ततादिगुणैर्जगदाह्लादकमपि । अपिविरोधे । अनभ्योशमित्यमनभ्यांशं दूरमित्यं गन्तव्यं यस्मात्तम् । अनभ्याशेनेयं दूरेण प्राप्यमिति वा । तदातिरौद्रत्वाद्दूरात्परिहर्तव्यमित्यर्थः ॥ तमात्मलोकंप्रिणमात्मलोकंप्रीणः कुमारोपि रुचाग्निमिन्धः । मत्स्यंगिलो मत्स्यमिवारिधानौघभ्राष्ट्रमिन्धस्तरसाभ्यधावत् ।।८७॥ ८७. कुमारोप्यात्मलोकप्रिणं स्वप्रजाह्लादकं तं लाटं तरसा वेगे. नाभ्यधावत्संमुखं धावितः । कीहक्सन् । रुचा तेजसाग्निमिन्धोग्निरिवेन्धो दीप्यमानोत एवारय एवं धाना उपचाराद्भर्जनार्था यवास्ते. षामोधे भ्राष्ट्रमिन्धे प्रज्वलयति भ्राष्ट्रमिन्धो भ्राष्ट्राजीवी यथा भ्रौष्ट्राजीवी धाना अग्निना पचत्येवमरीस्तेजसा पचन्नत एवात्मलोकंप्रीणः । यथा मत्स्यंगिलो मत्स्य गिलनेच्छयाभिधावति ॥ रणाब्धितैमिंगिलगिल्यभाजौ स्वपक्षभद्रकरणावभूताम् । अन्योन्यमुष्णंकरणाय रात्रिचरारिरात्रिंचरराड्डलौ तौ ॥ ८८ ॥ ८८. स्वपक्षभद्रंकरणौ स्वकीयवर्गस्य रक्षया क्षेमंकरौ तौ कुमारला. टावन्योन्यमुष्णकरणायोष्णस्य संतापस्योत्पादनायाभूताम् । किंभूती सन्तौ । रात्रिचरारिरात्रिंचरराड्डलौ रामरावणतुल्यशक्ती । अत एव १ सी डी स्यरिवा. २ ए सी डी 'भ्राष्टमि'. ३ ए सी करुणा. ४ ए सी करुणा. १ बी ति सुभ. २ सी ववेना. ३ ए लेना. ४ ए सी डी दिर्गुणै. ५ बी भ्यासमि. ६ ए सी डी भ्यासि दू'. बी भ्यासंदू. ७ ए सी डी 'त्तम् । अभ्या". ८ बी व प्रधा. ९ ए सी डी परा. १० ए सी यथास्ते. ११ डी भ्राष्ट्रा. १२ ए सी डी भ्राष्टाजी. १३ ए सी करुणा. Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । है० ३.२.१०९.] षष्ठः सर्गः। ४९९ गिलस्य गिलो गिलगिलस्तिमीनां गिलगिलस्तिमिगिलं गिलति वा तिमिंगिलगिलस्तस्य भावस्तैर्मिगिलगिल्यं महत्तमतिमिनिगलनं तेन चात्र रणस्याब्धित्वेन रूप्यमाणत्वाद्भटनिगलनशक्तमहाभटनिगलनमाक्षिप्यते । रणाब्धौ तैमिंगिलगिल्यं भजतो यौ तौ । तथा रात्रिचरारिरात्रिंचरराजावप्युक्तविशेषणोपेतौ मिथ उष्णंकरणायाभूताम् । यावप्यन्धितमिगिलगिल्यभाजौ तिमिगिलगिलौ महामत्स्यौ स्यातां तावपि मिथ उष्णंकरणाय भवतः ॥ तैर्थकरे तैर्थकरान्तरे वा कथानकेप्यश्रुतपूर्वयुद्धे । भूधेनुभव्यावृषराज रात्रिमन्यं दिनं चक्रतुरायुधैस्तौ ॥ ८९॥ ८९. हे धेनुश्चासौ भव्या च धेनुभव्या भूरेव रत्नपयोदोहहेतुत्वाद्धेनुभव्या तत्र वृषराज वल्लभत्वादृषभश्रेष्ठ तौ कुमारलाटावायुधैः कृत्वा दिनं रात्रिमन्यं चक्रतुः । क । अश्रुतपूर्वयुद्धभूतपूर्वत्वेनाश्रुतपूर्व ययुद्धं तस्मिन्निरुपमे युद्धे । काश्रुतपूर्वमित्याह । कथानकेपि । आस्तां सांप्रतमित्येपेरर्थः । किंभूते कथानके । तैर्थकरे । तीर्थंकरो भगवानहस्तदुपलक्षितः कालोप्युपचारात्तीर्थंकरस्तत्र भवे विद्यमानतीर्थकरकालभवे भरतबाहुबलिकथादौ। तैर्थकरान्तरे वा । तीर्थकरान्तरालकालभवे वा रामायणादिकथायाम् । कचित् 'अश्रुतपूर्वबुद्धे' इति पाठस्तदा तैर्थंकरे तैर्थकरान्तरे वा कथानकेपि सर्वोत्तमत्वेन न श्रुतपूर्वा बुद्धियस्य तस्य राज्ञः संबोधनम् ॥ १ सी रात्रि. १ बी निगिल'. २ ए सी हाप्यम'. ३ ए सी मिव उ. ४ ए सी त्वेमाश्रु. ५ डी 'त्यर्थः ।. ६ ए सी स्तलुप° ७ सी तीर्थंक. ८ ए सी मायिणा. Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः] रसादनन्यार्थपरैश्च धेनुं भव्यासुतौ न्वस्पृहितान्यदर्थौ । et सुरैः स्वैस्त्वकृतान्यदास्थान्यद्रागमेतौ युदनन्यदूती ॥ ९० ॥ ९०. एतौ कुमारलाटावनन्यार्थपरैरनन्यप्रयोजननिष्ठैर दूतरणकारित्वात्तदर्शन एवात्यन्तास कैरित्यर्थः । सुरैर्देवै रसात्कौतुकात् स्वैस्तु स्वकीय सैन्यैः पुनरकुतावन्येदास्थान्यस्मिन्स्वप्रभोरितरस्मिन्नास्थालम्बनमन्यद्रागोन्यस्मिन्स्वप्रभोरितरस्मिन् रागः स्नेहश्च यत्र तद्यथा स्यादेवं दृष्टौ च । चः पूर्ववाक्यार्थापेक्षया समुच्चये । किंभूतौ सन्तौ । अस्पृहितोन्यः प्रस्तावाद्रणादपरोर्थः कार्यं यकाभ्यां तौ तथात एव युधः सकाशादविद्यमानान्यत्रोतिः संबन्ध आसक्तिर्ययोस्तौ तथात्यन्तं रणासक्तौ । धेनुंभव्यासुतौ न्विति । यथा प्रधानगोपुत्रौ महाशण्डावस्पृहितान्यर्थौ युद्नन्यदूती सन्तावनन्यार्थ परैर्लोकै रसादृश्येते ॥ किमन्यदौशीर्वचनान्यदाशान्यदास्थितत्त्वैरिति न व्यधत्ताम् । तदान्यदुत्सुक्यमिमौ जयस्यान्यत्कार के स्याद्धि यशोन्यदीयम् ॥ ९१ ॥ ५०० ९१. इमौ कुमारलाटौ तदान्यस्मिन्मित्रभृत्यादावुत्सुकावुत्कण्ठितावन्यदुत्सुकौ तयोर्भाव आन्यदुत्सुक्यं तन्न व्यधत्तां विजये कस्यापि साहाय्यं नापेक्षितवन्तावित्यर्थः । कुत इति हेतोस्तमेवाह । हि यस्माद्वेतोर्जयस्य कर्मणोन्यो यः कारकस्तस्मिन्नन्यत्कार के स्वस्मादितरस्मिन्विधातरि सति यशोन्यदीयमन्यसंबन्धि स्यात्तस्मादन्यस्मिन्खस्मादितरस्मिन्मित्रभृत्यादौ साहाय्यकर आशीर्वचनानि त्वं महिषो जीया इत्यादिमङ्गलशंसनान्यन्यदाशीर्वचनानि तथा स्वादन्यस्मिन्मि४ ए सी कारे के. १ सी कृद २ ए सी युनन ३ बी दासी ३ डी 'व्यन्तर". १ ए सी 'सत्कैरि २ ए सी डी न्यदस्था ४ ए सी सादृश्यते ।. ५ ए सी कारे. ६ ए सी डी न्यदा. ७ ए सी तस्मान्यस्मि बी तथा अस्मि .. • Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ३.२.११७.] षष्ठः सर्गः। ५०१ त्रभृत्यादावाशा जयमनोरथोन्यदाशा तथान्यदास्थितत्वमन्यस्मिन्मित्रादौ शत्रुविजयार्थमाश्रयणम् । द्वन्द्वे । तैः किम् । न किंचिदित्यर्थ इति॥ द्वीप । अन्तरीप । प्रतीप । इत्यत्र "यन्तर' [१०९] इत्यादिनाप ईम् ॥ भनवर्णादिति किम् । परीप ॥ अनूप । इत्यत्र "अनोर्देशे उप” [११०] इत्यैप उप् ॥ अप्रतीपंमन्य । अबलंमन्य ॥ अरुस् । अरंतुद । इत्यत्र “खिति" [१११] इत्यादिना मोन्तो यथासंभवं ह्रस्वश्च ॥ अनव्ययेति किम् । दोषामन्यम् ॥ अरुःशब्दोपादानादनव्ययस्य व्यञ्जनान्तस्य मो न स्यात् । गीमन्यकैः ॥ सत्यंकारः । अगदंकार । अस्तुंकारः । इत्यत्र "सत्यागद” [११२] इत्यादिना मोन्तः ॥ लोकंपृणम् । मध्यंदिन । अनभ्याशमित्यम् । इत्येते "लोकंपृण" [११३] इत्यादिना निपात्याः ॥ अन्ये तु प्रीणातेर्णिगन्तस्याचि इस्वस्वं निपात्य लोकप्रिणमित्युदाहरन्ति ॥ कश्चित्वकृतहस्वत्वमेव मन्यते । लोकंत्रीणः ॥ भ्राष्ट्रमिन्धः । अग्निमिन्धः । इत्यत्र “भ्राष्ट्र" [११४] इत्यादिना मोन्तः ॥ मत्स्यंगिलः । तैमिगिलगिल्य । इत्यत्र "अगिलाद्" [११५] इत्यादिना मोन्तः ॥ अगिलादिति किम् । तैमिगिलगिल्य ॥ भद्रकरणौ । उष्णंकरणाय । इत्यत्र "भद्रोष्णात्करणे" [११६] इति मोन्तः॥ रात्रिंचर रात्रिचर । इत्यत्र "न वाखिद्" [११७] इत्यादिना मोन्तो वा। खिद्वर्जनं किम् । रात्रिमन्यम् ॥ केचित्तथैकरे । तैर्थकर । इत्यत्रापि विकल्पमिच्छन्ति । तदर्थं न वाखित्कृदन्त इति रात्रेरिति च योगो विभजनीयः ॥ १ ए सी डी राप् । अ. २ ए त्यप् उ°. ३ ए सी गन इ. ४ ए सी भ्यासमि'. ५ ए सी मिधः । अ. ६ ए सी मिन्द्रः । ३. ७ ए सी गिल्यः ।. ८ एसी रात्रिंच०. ९ बी मोन्तो खि०. १० ए सी रे। तीर्थ'. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] धेनुं भव्या धेनुभन्या । इत्यत्र " धेनोर्भव्यायाम्" [११८] इति वा मोन्तः ॥ अन्यदर्थौ । अनन्यार्थ । इत्यत्र " अषष्ठी " [११९] इत्यादिनां वा दोन्तः ॥ अन्यदाशीः । अन्यदाशा । अन्यदास्थितस्वैः । अन्येदास्था । आन्यदुत्सुक्यम् । अनन्यदूती । अन्यद्भागम् । अत्र “आशीराशा " [ १२० ] इत्यादिनों दोन्तः ॥ अन्यदीयम् । अन्य कारके । अत्र “ईयकारके" [ १२१] इति दोन्तः ॥ लाटोथ तयङ्गजहार सर्वव्यग्भिः शरैः सम्यगहीन्द्रसध्यङ् । विष्वेद्यगोजा रथमस्य तिर्यक्चक्रे च देवव्यगिषुः कुमारः ॥ ९२ ॥ ९ ९२. अथ लाटः सर्वद्र्यग्भिः सर्वगैः शरैः कृत्वास्य कुमारस्य रथं सम्यक्सुप्रयुक्तशरं यथा स्यादेवं प्रजहार । कीदृक्सन् । विषुवति विषू: समर्थस्तमञ्चति विष्वक्तमप्यञ्चति गच्छति विष्वद्व्यक् । अतिबलिष्ठेप्यस्खलितमित्यर्थः : । यद्वा । विष्वगित्यव्ययं सर्वतोर्थे । विष्वगभ्यति विष्वक्रयक् सर्ववैिषयमोजो बलं यस्य सोत एवाहीन्द्रसध्यङ् शेषाहिसदृशोत एव च तं कुमारमभ्वति प्रहरणाय गच्छति तद्र्यङ् । तथा देवद्यञ्चः सर्वत्राप्यस्खलितगतित्वाद्देवानप्यश्चन्त इषवो बाणा यस्य स कुमार चामुण्डराजोपि रथं तिर्यक्प्रहारवश्वनाय तिरोगामि यथा स्यादेवं चक्रे मण्डलाकारेण भ्रमयति स्मेत्यर्थः ॥ मा गास्तिर चीनमजीवसि त्वमवीर दुर्गाहुन गेत्युदित्वा । लाटोगतुङ्गः स नखायुधो नु नभ्राट् कुमारं निजघान मुष्ट्या ॥ ९३ ॥ ९३. हे अवीराशूरात एव दुष्टौ रणकर्मकरणाक्षमत्वेन निन्द्यौ १ एसी पूर्व. २ ए सी 'इगो'. ३ डी 'गोजो र. ५ ए सी जीरसि. ४ ञ्चक्रे, ५०२ १ बी 'ना दो. २ ए सी न्यदस्था । ३ ए सी 'ना वोन्तः । ४ ए बी सी 'विति ५ बी 'ध्वथम ६ ए सी 'ति विष्वक्तमप्यञ्चति गं. ७ डी 'विजय' ८ ए सी । ९ ए सी वो माणा. १० एसी स्य कु. ११ ए सी 'कणा'. Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.२.१२८.] षष्ठः सर्गः। ५०३ बाहू एवातिस्थूलत्वान्नगौ गिरी यस्य हे दुर्बाहुनग त्वमजीवसि कुत्सितं प्राणिषि तस्मात्तिरश्चीनं तिर्यग्मा गा मृत्युभयेन रथं तिर्यग्मा स्म भ्रमयेत्यर्थः । इत्युदित्वोक्त्वा कुमारं मुष्टया निजघान । कीडक्सन् । अगतुङ्ग उत्प्लवनेनाभ्रंलिहत्वागिरिवदुन्नतोत एव न भ्राजते स्वकालादन्यत्र नभ्राड । नुरत्रापि योज्यः । मेघतुल्यः । तथा नैषां खमस्तीति नखा नखरास्त एवायुधानि यस्य स नखायुधो नु सिंहतुल्यश्च । नखायुध इति नामोपन्यासेनैव नखानामायुधत्वान्यथानुपपत्त्या सिंहः कृतमोसूचि । अतश्चागतुङ्गत्वादिधमैाटस्य तुल्यत्वान्नखायुध उपमानमिति ॥ सर्वाग्भिः । तथ्यङ् । विष्वद्यग् । देवद्यग् । इत्यत्र "सर्वादि" [१२२] इत्यादिना डदिः॥ सध्यङ् । सम्यग् । इत्यत्र “सह" [१२३] इत्यादिना सध्रिसम्यादेशौ ॥ तिर्यक् । इत्यत्र "तिरसस्तियति" [१२४] इति तिरिः ॥ अतीति किम् । तिरश्चीनम् ॥ अधीर । इत्यत्र "नजत्" [१२५] इति नञ् अस्यात् ॥ अजीवस्यवीर । इत्यत्र "त्यादौ क्षेपे" [१२६] इति नात् ॥ नग अग। इत्यत्र “नगोप्राणिनि वा" [१२७] इति वा नजोन्निपात्यः ॥ नख । नभ्राह । इत्यत्र “नखादयः" [१२८] इत्यदभावो निपात्यः ॥ कथं न नखमस्त्यस्य नखो न न भ्राजते किं तु भाजत एवेति नभ्राट् । पृषोदरादिस्वाद् [३.२.१५५] एकस्य नो लोपे भविष्यति ॥ १ ए सी बाहन. २ ए सी मजब. ३ बी लिहित्वा. ४ ए सी "रिवुदन्न. ५ ए सी डी सिंहकृ. ६ बी क्रमः सूचितः । अ. ७ ए सी डी न... अं. ८ ए गोप्रीणि. Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ मूलराजः ] अनायुधायै कुवदं कदश्वतं ददानं कुरथं प्रहारान् । अकथोक आत्मजस्ते तं मुष्टिभिः कत्तृणवत्पिपेष ॥ ९४ ॥ ५०४ ९४. कदश्वतं कुत्सिताः कुलक्षणादिना निन्दिता येश्वास्तैरपि दृप्तभज्ञत्वाद्गर्विष्ठं कुरथं कुलक्षणनिन्दितरथं तं लाटं ते तवात्मजो मुष्टिभिः कृत्वा कत्तृणवत्कुत्सितं तृणं कत्तृणं रोहिषाख्या तृणजातिस्तदिव सुखेन पिपेष परासुं चकारेत्यर्थः । किंभूतम् । अनायुधाज्यै । अनायुधाखरहिता याजिर्युद्धं तस्यै । मल्लविद्यार्थं कुत्सिता वदा वक्तारो यस्याज्ञत्वात्तं मूर्खमपि । अपिरत्र ज्ञेयः । बाहुयुद्धे कुशलमपीत्यर्थः । प्रहारान्मुष्टिघातान्ददानम् । कीदृगात्मजः । नास्ति कद्रथः कुत्सितो रथो यस्य सोकद्रथः । यद्वा । कुत्सितो रथो यस्य स कद्रथो न तथाकद्रथस्तथानायुधाज्यै कुत्सितो वेदः कद्वदो न तथा । यद्वा । कुत्सिता वदा वक्तारो यस्य स को न तथा बाहुयुद्धे कुशलः सन् ॥ 1 अनायुध । इत्यत्र “अन्स्वरे " [१२९] इति नजोन् ॥ I कदश्व । इत्यत्र “कोः” [ १३०] इत्यादिना कत् ॥ कद्रथः । कद्वदः । इत्यत्र “रथवदे” [१३१] इति कत् ॥ तत्पुरुष एवेच्छ न्त्येके । अन्यत्र कुरथम् । कुवदम् ॥ तृण । इत्यत्र " तृणे जाती” [ १३२ ] इतिकत् ॥ कीणि यत्कापथकौ पुरुप्यकाक्ष्याणि लाटस्य तदाभवन्न । किंत्रिद्विषामप्सरसां ततो भूदकापतिः कापुरुषेतरोसौ ॥ ९५ ॥ ९५. यद्यस्माद्धेतोस्तदा युद्धकाले कत्रीणि कुँ कुत्सितानि कानि वा कुत्सितानि त्रीणि तस्य लाटस्य क्षत्रियोत्तमत्वान्नाभवन् । कानि त्रीणी - * 1 ४ ए सी त्रीणित्या. १ सी 'मज्ञात्वा . २ सी वद क ३ बी कुत्सि Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०३.२.१३६ ] षष्ठः सर्गः। ५०५ त्याह । कुत्सितः पन्थाः कापथोक्षत्राचारेण युद्धं कुत्सितोल्पो वा पुरुषः कुपुरुषस्तस्य भावः कर्म वा कौपुरुष्यं शत्रो रणे पृष्ठदानादि निन्द्यं पुरुषकर्म कुत्सितमक्षमिन्द्रियं कोक्षं कुत्सितमक्ष्यस्येति काक्षो वा तस्य भावः काक्ष्यं भयविह्वलेन्द्रियता । द्वन्द्वे । तानि । ततस्तस्माद्धेतोः कापुरुषतरः कुत्सितादल्पाद्वा पुरुषादन्यः पुरुषसिंहोसौ लाटोभूत् । कीदृक् । कुत्सितानि त्रीणि कापथकौपुरुष्यकाक्ष्याणि येषां ते किंत्रयस्तान्महाशूरप्रियत्वाहिषन्ति यास्तासामप्सरसा देवीनी नाल्पः पतिरकापतिरतुच्छाशयो भर्ता ॥ कत्रीणि । इत्यत्र “कत्रि" [१३३] इति कोः किमो वा कन्निपात्यः ॥ किमो नेच्छन्त्येके । किंत्रि ॥ काक्ष्याणि । कापथ । इत्यत्र “काक्षपथोः" [१३४] इति कादेशः ॥ कापुरुष कौपुरुष्य । इत्यत्र “पुरुषे वा" [१३५] इति वा कादेशः ॥ अनीषदर्थे विकल्पोयम् । ईपदर्थे तु परत्वादुत्तरेण नित्यमेव । तत्रापि विकल्प एवेति कश्चित् । कापुरुष । कौपुरुष्य ॥ अकापतिः । अन्न “अल्पे" [१३६] इति कादेशः॥ कवाग्निनेवाहिफणाः कवोष्णाः कदग्निवत्कोडमुखं कदुष्णम् । स काग्निकोष्णं कमठेन्द्रपृष्ठं कुर्वन्वलैः पश्य कुमार एति ॥९६॥ ९६. हे राजन्मेश्य स पूर्वव्यावर्णितः कुमार एति । कीदृक्सन् । बलैः सैन्यैः कृत्वा कवाग्निनेवाल्पेन कुत्सितेन वा वहिनेवाहिफणाः १ बी रुषस्त. २ सी काकु कु. ३ ए सी ना माल्पः. ४ सी तिका. डी तिः का. ५ ए सी कोः कथो वा. ६ सी कापक्ष. ७बी रुषः । कौ. ८ ए सी रेति. ९ ए सी पस्य स. १० ए सी ति । हे राजन्पस्य स पूर्वव्यावर्णित । की. Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] शेषस्फटा ईषत्कुत्सिता वोष्णाः संतप्ताः । यद्वा। ईषत्कुत्सितं वरुणं संतापो यासु ताः कुर्वन् । एवं कोष्णमित्यत्रापि समासः । तथा कदमिवदल्पेन कुत्सितेन वाग्मिनेवे क्रोडमुखमादिवराहदंष्ट्रां कदुष्णं कुर्वस्तथा कमठेन्द्रपृष्ठं काग्निकोष्णमल्पेन कुत्सितेन वाग्निनेव कोष्णं, कुर्वन् ॥ कोष्णम् कवोष्णाः । इत्यत्र "काकवौ वोणे" [१३७] इति वा काकवौ ॥ पक्षे यथाप्राप्तमिति तत्पुरुषे कदुष्णम् ॥ अन्यस्त्वनावपीच्छति । काग्नि । कवाग्निना । कदग्निवत् ॥ अवश्यगम्ये सहितोर्जि राज्ञि श्रीसंहिते गन्तुमनस्यैथागात् । प्रणन्तुकामः सततं सकामः स संततीजाः समनाः कुमारः॥९॥ ९७. अथ नृपाणामेवमुक्तौ स कुमार आगात् । की। संतत निचितमोजो बलं यस्य सोत एव सततं सदा संगतः कामेन सम्यकामो यस्य वा स सकामः शत्रुजयेन पूर्णमनोरथोत एव च संगतो मनसा सम्यग्मनो यस्य वा स समनाः समाहितचित्तोत एव च राज्ञि मूलराजपादान्तिके प्रणन्तुकामः । शत्रुजयाद्यवदातकर्मणि हि कृते प्रीतिविशेषोत्पादनाय पितरं पुत्रः प्रणमति । किंभूते राज्ञि । अवश्यगम्ये पूज्यत्वावश्यमभिगम्ये । तथा संधीयते स्म सहिता संबद्धोबलं येन तस्मिन् । तथा श्रीसंहिते विजयादिलक्ष्म्या परीते । तथा गन्तुमनसि स्वपुत्रशौर्यावलोकनाय रणं यातुकामे ॥ १ ए सी स्यगाथात् ।. १ ए सी सितो वो . २ ए यास्तुताः. ३ ए सी डी व क्रोड. ४ ए सी डी °न् ॥ कवो. ५ सी 'ग्निना ।. ६ ए सी क् । सत. ७ डी ततमाचि. ८ ए सी तं मिवित. ९सी शत्रुज'. १० बी स्म संहि. ११ ए सी दोर्गलं. १२ बी श्रीसिंहते. Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है.. १.१.१४०.] षष्ठः सर्गः। अवश्यगम्ये । अत्र “कृत्ये" [१३८] इत्यादिना मस्य लुक् ॥ सततम् संतत । सहित संहिते । इत्यत्र "सम' [१३९] इत्यादिना वा मस्य लुक् ॥ गन्तुमनसि । प्रणन्तुकामः । समनाः । सकामः । इत्यत्र "तुमच" [१४०] हत्यादिना मस्य लुक् ॥ सन्यान्तरे मांसपचन्य आशु मांस्पाकमौज्झन्मियमांसपाकाः । द्रष्टुं द्विषन्मांस्पचनप्रतापं समागतं दक्षिणतारतस्तम् ।। ९८॥ ९८. सैन्यान्तरे कुमारसैन्यादन्यस्मिन्मूलराजसैन्ये वर्तमानामांसपचन्यो मांसपाचिकाः प्रियमांसपाका अपि । अपि यः । आशु मांस्पाकं मांसपचैनमौज्झन्नत्यजन् । किं कर्तुम् । दक्षिणतारतो दक्षिणस्या दिशो दक्षिणस्य देशस्य वा तीरात्समागतं तं कुमारं द्रष्टुम् । यतो द्विषतां मस्पिचनो मांसस्य संतापैनः प्रतापो यस्य तं शत्रुजयेनात्यद्भुतप्रतापमित्यर्थः । अथ च यो हि मांस्पचनप्रतापो यस्य प्रतापोपि मांस्पचनस्तं देशान्तरादागतं समानधर्मातिशयेनोत्पादितात्याश्चर्यत्वाद्रष्टुं प्रियमांसपाका अपि मांसपचन्यो मांस्पाकमाशूज्झन्तीत्युक्तिलेशः ॥ सहाजसो दक्षिणतीरराजद्रोः पातनेसौ सपिशाचवात्या । सौजाश्रुचुम्बे सरसादृष्टया वर्षात्समासान्नु नृपेण दृष्ट्वा ॥९९॥ ९९. असौ कुमारो नृपेण चुचुम्बे । किं कृत्वा । सह रसेन सरसा दूर्वा तद्वदाी स्निग्धा या दृष्टिस्तया दृष्ट्वा । उत्प्रेक्ष्यते । समासाद्वर्षान्नु गम्ययपेक्षया पञ्चमी । मासाधिक संवत्सरमतिक्रम्येव । १ ए सी द्रोः पिताने. १ए बी सी डी हितत्य. २ बी चमौ. ३ ए सी पनप्र. ४ ए सी माविश. ५ ए सी डी पेक्ष्यया, ६ ए सी मी । सामाधि'. ७ ए सी तिक्राम्ये'. Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] चिरात्पुत्रस्येक्षणे ह्यतिस्नेहदर्शनपूर्व चुम्बनं स्यात् । कीदृक्कुमारः । सहौजसा य: स सौजा बलिष्ठोत एव सहौजसो बलिष्ठस्य दक्षिणतीरराजद्रोबटेश्वरतरोः पातेने सह पिशाचेन दुष्टव्यन्तरभेदेनास्ति या सा तथा या वात्या वातौघस्तत्तुल्यो लाटस्य समूलोन्मूलक इत्यर्थः ॥ मांस्पचन मांसपचन्यः । मांस्पाकम् मांसपाकाः । अत्र "मांसस्य'[१४37 इत्यादिना वातो लुक् ॥ दक्षिणतारतः दक्षिणतीर । इत्यत्र "दिक्शब्दात्" [१४२] इत्यादिना वा तारः॥ सौजाः सहौजसः । अत्र “सहस्य" [१४३] इत्यादिना वा सः॥ सरसा। इत्यत्र "नाम्नि" [१४४] इति सः ॥ अदृश्ये । सपिशाचवात्या ॥ अधिके । समासात् । इत्यत्रं "अदृश्याधिके" [१४५] इति सः ॥ ऊचे च राजा द्विषतः समूलघातं निहत्रेद्य सहापराह्नम् । ज्योतिः सकाष्ठं भवतेववोद्रे भूयाचिरं स्वस्ति सहानुगाय ॥१०॥ १००. राजा मूलराज ऊचे चे । चश्चुम्बनापेक्षया समुच्चये । यदूचे तदाह । भवते तुभ्यं चिरं स्वस्ति भद्रं भूयात्। किंभूताय सते। सकाष्ठं काष्ठाष्टादशनिमेषप्रमितकालभेदस्तद्वाचको ग्रन्थोपि काष्ठा तया सह अन्तव्ययीभावः । काष्ठाशास्त्रमन्ते कृत्वेत्यर्थः । ज्योतिर्योति:शास्त्रमववोढ़े बिभ्रतेत्यन्तं ज्योतिर्विद इत्यर्थः । एतेन जयाद्यनुकूल - १ सी चिरस्व. १ए सी तमे सौ. २ सी क्षिणं ती . ३ ए सी श्ये । अपि. ४ ए सी 'त्र द. ५ सी डी चश्च. ६ ए सी डी य तसे का. ७ बी मितः का. Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.२.१४८.] षष्ठः सर्गः। ५०९ मूहूर्तवेदितास्योक्ता । अत एव जयहेतुमुहूर्ते रणकरणेनाद्यास्मिन्दिने सहापराहं साकल्येन्ते वाव्ययीभावः। क्रियाविशेषणं सकलमपराह्न यावदपराह्नमन्ते कृत्वा वेत्यर्थः । द्विषतो लाटस्य समूलघातं मूलेन पितृपितामहामात्याचाद्यपुरुषौधेन सह सेकलं साकल्येव्ययीभावः । निहत्रे तथा सहानुगाय परिवारसहिताय ॥ खस्ति स्वदेशाय गवे हलाय वत्साय साधाय यथा सदैव । भद्रं सहाद्याय गवे हलाय वत्साय देशाय तथास्त्वमुष्मै ॥१०॥ ___१०१. सशब्द आद्यो यस्य गव इत्यादिशब्दस्य तस्मै साद्याय गवे हलाय वत्साय च सगवे सहलाय सवत्सायेत्यर्थः । स्वदेशाय लाटेशद्विधेन यथा सदैव स्वस्ति क्षेमोस्तु तथा सहाद्याय गवे हलाय वत्साय सहगवे सहहलाय सहवत्साय चेत्यर्थः । अमुष्मै देशाय लाटदेशाय भद्रमस्तु । आशिषि पञ्चमी ॥ समूलघातम् । अत्र "अकाले" [१४६] इत्यादिना सः ॥ अकाल इति किम् । सहापराह्नम् ॥ सकाष्ठम् । इत्यत्र "ग्रन्थान्ते" [१४७] इति सः ॥ सहानुगाय भवते स्वस्ति भूयात् । इत्यत्र "नाशिषि" [१४८] इत्यादिना न सः ॥ अगोवत्सहल इति किम् । स्वस्ति स्वदेशाय सगवे सवत्साय सहलाय । भद्रमस्तु देशाय सहगवे सहवत्साय सहहलाय ॥ १ सी डी हान्याय. १ ए सी डी हं व. २ सी मूले. ३ ए सी महमहात्या . डी महमहामात्या. ४ ए सी यापु०. डी धादिपु. ५ ए सी डी सफलं. ६ ए सी आद्या य. Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] सोगात्पुरी श्रीदसमानधर्मालकासधर्मामसमानरूपः अन्वक्सरूपस्तनयोप्यमुष्य सब्रह्मचारी नलकूबरस्य ॥ १०२ ॥ १०२. असमानरूपो निरुपमरूपः स राजा श्रीदसमानधर्मा महकित्वादिना धनदतुल्यः सन्नलकासधर्मा सर्व_पेतत्वाद्धनदपुरीतुल्यां पुरीमणहिलपाटकमगात्तथान्वञ्चोनुचरा अपि सरूपा रूपनेपथ्यावस्थादिभिः सदृशा यस्य सोमुष्य मूलराजस्य तनयोपि पुरीमगात् । कीहक्सन् । नलकूबरस्य धनदपुत्रस्य सब्रह्मचारी शौर्यादिगुणैस्तुल्य इत्यर्थः । यथा श्रीदो नलकूबरान्वितोलकां यात्येवं मूलराजश्चामुण्डराजान्वितोणहिलपुरीमगादित्यर्थः ॥ सधर्माम् । सरूपः । अत्र “समानस्य' [१४९] इत्यादिना सः ॥ अन्ये तु धर्मादिषु नवसु वचनान्तेषु विकल्पमिच्छन्ति । सधर्माम् । समानधर्मा । सरूपः समानरूपः ॥ सब्रह्मचारी । इति “सब्रह्मचारी" [१५०] इत्यनेन निपात्यते ॥ बुद्ध्या सदृशं सदृशं प्रतापैः सुतं नृपः शक्रसदृग्यधित्सत् । स्वर्गादनन्यादृश आत्मराज्येन्यादृक्षमेतन हि तादृशानाम् ॥१०३॥ १०३. स्पष्टम् । किं तु । न्यधित्सत्स्थापयितुमैच्छत् । स्वर्गादनन्यादृशे महा स्वर्गतुल्ये । युक्तं चैतत् । हि यस्माद्धेतोरेतत् खानुरूपे पुत्रे स्वराज्यस्य निधित्सनं तादृशानां मूलराजतुल्यानां महाराजानां नान्यादृक्षं नासदृशमुचितमेवेत्यर्थः ॥ १ ए सी राजेन्या. १ सी तुल्या पु. २ ए सी डी हिलपा. ३ सी सरू. ४ ए सी रीत्य. डी री । स. ५ ए सी स्वानरू. ६ डी नान्यास'. Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३२.१५२.] षष्ठः सर्गः। त्यादृश्यनन्यादृशि तादृशस्तांस्त्यादृक्षबुद्धिः सचिवानिहार्थे । स त्यादृशाज्योतिषिकान् गुरूंश्च तादृक्षमन्त्रावृप आजुहाव ॥१०४॥ १०४. स नृपत्याशि' बृहत्तमत्वेन प्रसिद्धनन्याहशि सर्वोत्तमत्वेन निरुपम इहास्मिन्नर्थे पुत्रस्य राज्यन्यसनरूपे कार्य विषये सचिवानाजुहाव । किंभूतान् । तान् महाबुद्ध्यादिमैत्रिगुणैः सर्वत्र प्रसिद्धानत एव तादृशस्ताहकार्ये प्रष्टव्यान् । तथा त्यादृशांत्रिकालवेत्तृत्वादिदैवज्ञगुणैः सर्वत्र प्रसिद्धाञ् ज्योतिषिकाञ् ज्योतिर्विदो राज्याभिषेकशुभलमपृच्छार्थमाजुहाव । तथा तादृक्षा महाप्रभावत्वादिना प्रसिद्धा मत्रा येषां तान् गुरूश्च पुरोहितांश्च राज्याभिषेकमङ्गलकर्माद्यर्थमाजुहाव । यद्वा। तादृक्षमत्रांस्तदर्थानुसारिपर्यालोचान् गुरूंश्च पूज्यान कुलमहत्तरांश्चाजुहाव । यतः कीदृक् । त्याहक्षा पुत्रराज्याभिषेककरणविषया बुद्धिर्यस्य सः ॥ सहक् । सदृशम् । सदृक्षम् । अन्न "दृग्दृशक्षे" [१५१] इति समानस्य सः॥ अनन्यादशि । अनन्यादृशे । अन्यादृक्षम् । त्यादृशि । त्यादृशान् । त्यादृक्ष । तादृशः । तादृशानाम् । तादृक्ष । इत्यत्र “अन्य" [१५२] इत्यादिना आत् ॥ कीदृक्ष ईदृक्ष इनः शशीदृक्कीदृक्क भौमादय ईदृशाश्च । स्युः कीदृशाः पृष्टवतीति राज्ञि विमृश्य ते साध्ववदन्न वा ॥१०५॥ १०५. ते मन्त्रिज्योतिषिकगुरवो विमृश्य पर्यालोच्यामूवा मोहमगत्वा सम्यग्ज्ञात्वेत्यर्थः । साध्ववदन् । राज्या‍वयं कुमार इति म १ ए सी डी ताद. २ ए सी डी गुरुंश्च. ३ ए मूद्वा ॥ १ ए सीशि वहित्त. डी "शि मह. २ ए सी डी मन्त्रगु. ३ ए सी डी गुरुंच. ४ बी 'दृक्षेति. ५ ए सी डी दृक्षः । त्यादृ. ६ ए सी डी तं म. ७ ए सी मृश्यः प. Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ घ्याश्रथमहाकाव्ये [मूलराजः] त्रिणो गुरवश्वोचुरिदं च लग्नं सर्वग्रहैः श्रेष्ठमिति ज्योतिषिकाश्वोचुरित्यर्थः । क सति । राज्ञि मूलराजे पृष्टवति। किमित्याह । ईदृक्षश्चामुण्डराजलक्षण इनो राज्यस्थापनेन सुष्माकं स्वामी युक्तो न वा । अन्यथापीदं व्याख्येयम् । तद्यथा । ईदृक्षो राज्याभिषेकाहवृषादिलग्नतृतीयस्थानगतत्वादिगुणोपेत इनो रविः कीदृक्षः स्यात्तथेग्लनमूर्तिस्थत्वोच्चैःस्थत्वादिगुणोपेतः शशी च कीदृक् स्यात् तथेदृशा लग्ननवमस्थानद्वितीयस्थानकादशस्थानदशमस्थानषष्ठस्थानस्थतोच्चैःस्थत्वादिगुणोपेता भौमादयश्च मङ्गलबुधगुरुशुक्रशनिराहवश्च कीदृशाः स्युरिति ।। ईदृक् । ईदृशाः । ईदृक्षः । कीदृक् । कीदृशाः। कीदृक्षः । अत्र "इदंकिमीत्की" [१५३] इतीकारकीकारौ ॥ विमृश्य । इत्यन्न "अनमः क्त्वो यप्" [१५४] इति यप् ॥ अनज इति किम् । अमूढा ॥ छत्रेण मौक्तिकवतंसपृषोदरेण जीमूतडम्बरवता श्यवतंसकेन । राज्येभ्यषिच्यत नृपेण तदा कुमारो वर्णाश्रमाभ्यवनवक्रयपुण्य योग्यः॥ १०६॥ १०६. तदा तस्मिञ् शुभलग्ने नृपेण कुमारो राज्येभ्यषिच्यत । यतो वर्णा ब्राह्मणादय आश्रमा ब्रह्मचारिगृहस्थवानप्रस्थयतयो द्वन्द्वे तेषां यदभ्यवनं रक्षा तदेवं वक्रयो मूल्यं यस्य तत्तथा वर्णाश्रमाभ्यवनेनं क्रीतमित्यर्थः । यत्पुण्यं धर्मस्तस्य । यद्वा । वर्णाश्रमाभ्यवनस्य वक्रय इव भाटकतुल्यं यत्पुण्यं तस्य योग्यो वर्णाश्रमरक्षासमर्थ इत्यर्थः। किंभूतेन सता। मौक्तिकेषु वतंसा इव मौक्तिकवतंसाः प्रकृष्टमुक्ताफलानि तैः कृत्वाँ पृषन्ति जलबिन्दव इवोदरे यस्य तेन वक्षःस्थले १ए सी राज्यं स्था. २ डी नस्थितो. ३ ए सी क्षः। ईदृ. ४ बी ज्येभिषि'. ५ ए सी डी वक्र. ६ ए सी °न कीत. ७ ए सी त्वा वृष. Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है. ३.२.१५५.] षष्ठः सर्गः। ५१३ ललमानजलबिन्दुस्वच्छमुक्ताकलापेन तथा श्रीयुक्तोवतंस आपीडो यस्य तेन । “शेषाद्वा" [७. ३. १७५] इति कच् । यद्वा । श्रियो राज्यलक्ष्म्याः शोभाहेतुत्वादवतंसक इव यस्तेनात एव जीवनस्य जलस्य मूतः पुटबन्धो जीमूत इन्द्रस्तस्येव डम्बरो लक्ष्म्याडम्बरो यस्यास्ति तेन । कीटक्सन् । छत्रेणोपलक्षितः । किंभूतेन । मौक्तिकानां वतंसैः शिरोमालाभिः कृत्वा पृषोदरेण जलबिन्दुवृन्दाध्यासितमध्येनेव तथा जीमूतडम्बरवता नीलत्वादिन्द्र पापानुकारखचितानेकवर्णमणित्वाच्छायाहेतुत्वाच्च मेघाडम्बरवतात ऎव यवतंसकेन राज्यलक्ष्म्याः शेखरतुल्येन । वसन्ततिलका छन्दः ॥ अथ प्राची गत्वा हृहिणतनयां श्रीस्थलपुरे वपुः खं हुत्वात सुपिहितपिनद्वापरयशाः । ययौ राजेः सूनुर्दिवमनपिनद्धापिहितधीग्रहीतुं स्वर्गादप्यवनविधिनावक्रयमिव ॥ १०७॥ १०७. अथ पुत्रस्य राज्याभिषेकानन्तरं विजितसर्वशत्रुत्वात्सुकपिहितं पट्याद्यावरणेनेवात्यन्तमाच्छादितं सुपिहितमप्यनिवारितप्रसरं कदाचित्कथमपि पिधानमतिक्रम्य प्रकटं स्यादित्याह । पिनद्धं च । छोहशृङ्खलथेव निगडितं चापरयशः शत्रुकीर्तिर्येन स राजे: सूनुर्मू राजोवनविधिना प्रभूभूय रक्षाकरणेन स्वर्गादप्यवक्रय भाटकं गत होतुमिव दिवं स्वर्ग ययौ । किं कृत्वा। श्रीस्थलपुरे सिद्धपुरापर-गम्नि श्रीस्थलांख्ये नगरे पूर्वदिगभिमुखं प्रवहमानत्वात्प्राची द्रुहिण_नयां ब्रह्मपुत्री सरस्वती सर्वतीर्थोत्तमत्वेनात्मसाधनार्थं गत्वा तथाग्नौ १ ए सी न् । छात्रे. २ ए सी ते । मौ. ३ ए सी डी एत श्य: सं.४ ए सी अत्र पु. ५ बी के गृही. ६ ए सी लास्थे न. Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ व्याश्रयमहाकाव्ये [मूलराजः] करीषवह्नौ स्वं वपुर्तुत्वा क्षिप्त्वा । अङ्गुष्ठे करीषाग्नेर्दानेन स्वाङ्गं भस्मसात्कृत्वेत्यर्थः । यतोपिनद्धा मोहेन नियन्त्रितापिहिता मोहेनाच्छादिता विशेषणकर्मधारयगर्भे नन्समासेनपिनद्धापिहिता धीर्यस्य स तथा। स्वशरीरेप्यमूढ इत्यर्थः । योपि सूनुः सूर्यः सोप्यस्तसमये खं वपुः किरणरूपमग्नौ हुत्वा क्षित्वाथानन्तरं प्रभाते प्राची पूर्वां दिशं गत्वा दिवमाकाशं यातीत्युक्तिः ॥ पृषोदरेण । जीमूत । इत्येतौ "पृषोदरादयः" [१५५] इति साधू । वतंस अवतंसकेन । वक्रय अवक्रयम् । सुपिहित अपिहित । पिनद्ध अपिनद्ध । इत्यत्र "वावाप्योः" [१५६] इत्यादिनावाप्योर्वप्यादेशौ वा। शार्दूलविक्रीडितं (शिखरिणी) छन्दः ॥ दशमः पादः समर्थितः ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेम चन्द्राभिधानशब्दानुशासनद्याश्रयवृत्तौ षष्टः सर्गः समाप्तः ॥ १ सी षणं क. २ बी रूपं हु. ३ ए सी डी त । पिन. Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्याश्रयमहाकाव्ये सप्तमः सर्गः । मौलराजिः सोथ पृथ्वीं पार्थो वैलो नु पालयन् । राज्ञां प्रभवति स्मोच्चैर्गुणवृद्धिमनोहरः ॥ १ ॥ १. अथ स मौलराजिश्चामुण्डराजो राज्ञां प्रभवति स्म प्रभुरभूदित्यर्थः । कीदृक्सन् । उच्चैरुदात्तानां गुणानां शौर्यादीना या वृद्धिः स्फीतता तथा । यद्वा । गुणाश्च वृद्धिश्च कोशसैन्यादिवर्धनं 'गुणमूला वृद्धि:' इति गुणानामर्यत्वात्प्राग्निपाते ताभिः । मनोहरः । अत एव पार्थो नु । पृथाया अपत्यम् "अदोर्नदी” [६-१.६६ ] इत्यादिनाणू । युधिष्ठिर इव । ऐलो नु । इलाया अपत्यम् प्राग्वदणु पुरूरवा इव पृथ्वीं पालयन् ॥ गुणवृद्धीत्यनेन "वृद्धिरैदीत्" [१] गुणोरेदोत्" [२] इति संज्ञासूत्रे सू चिते । तयोश्च प्रयोजनम् । पालयन् । पार्थः । ऐल: । मौलराजिः । इत्यत्र 1 “वृद्धिः स्वरेषु” [७.४.१] इत्यादिनारेदतः ॥ मनोहरः । पालयन् । प्रभवति । इत्र च "नामिनो गुणोक्किति” [४.३.१] इत्यरेदोतः ॥ प्रभवति । इत्यत्र "क्रियार्थो धातुः" [३] इति क्रियार्थो भूशब्दो धातुसंज्ञः ॥ नोत्सुकायत स कापि कीर्त्यै सोभ्यमनायत । अदीयत मही तेन तेनादीयन्त च द्विषः ॥ २ ॥ २. से चामुण्डराजः कापि कस्मिन्नपि कार्ये नोत्सुकायत नोत्सुक्य १ सी डी 'नां सौर्या २ सी डी सका. ३ सी डी यें चामुण्डराजः नौ . Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] भूत् । “व्यर्थे भृशादे स्तोः" [३.४.२९] इति क्यङ्। विमर्शकत्वात्सर्वस्मिन्कार्ये स्थिरप्रकृतिरभूदित्यर्थः । तथा तेन चामुण्डराजेन मही पृथ्व्यदीयत देवद्विजादिभ्यो धर्मार्थ दत्ता पालिता वा । दाम्दादेङा रूपमिदम् । तथा तेन द्विषोदीयन्त चाखण्ड्यन्त च । यतः स चामुण्डराजः कीर्त्या अभ्यमनायत सस्पृह्यभूत् । अभिमनसः क्यङ् ॥ अस्यावदाता दातारेः परोक्षापि हि धीयते । . ह्यस्तन्यद्यतनी वर्तमानेवाद्यापि सत्कथा ॥३॥ ३. दातारेरुच्छिन्नशत्रोरस्य चामुण्डराजस्य सत्कथा शोभनचरितं हि स्फुटं परोक्षापीन्द्रियाणामविषयापि चिरकालीनापीत्यर्थः । ह्यस्तैनीव कल्ये भूतेवाद्यतनीवाद्य भूतेव वा । इव: प्राग्वदत्रापि योज्यः । वर्तमानेव विद्यमानेव प्रत्यक्षेवं वेत्यर्थः। अद्यापि सांप्र. तमपि धीयते सदोत्कीर्तनेन धार्यते । यद्वा । पीयते सदादरेण श्रूयत इत्यर्थः । धांग्क् डे इत्येतयो रूपमिदम् । यतोवदाता निष्कलङ्कानेकावदाताधिष्ठितत्वेन पवित्रा वा ॥ पश्चमी सप्तमी मूर्तिष्णवी सोरिशासनात् । क्रियातिपत्ति शङ्कि तस्यै श्वस्तन्यपि कचित् ॥ ४॥ ४. स राजारिशासनाच्छत्रुशिक्षणाद्धेतोवैष्णवी विष्णुसत्का १ सी तना व. २ ए वी शोरि . ३ ए बी सी डी ई स्य स्वस्त. १ए बी क्यङ्य । वि. २ बी दत्त्वा पा. ३ सी डी म्दांग्कदैङा. ईम्दांग्कदैङां. ४ ए ग्क्₹डां. ५ बी नसा क्य. ६ ए बी सी डी क्यङ्य ॥ ७ सी °था सौभ. ८ बी स्तनेव. ९ ई °व चेत्य. १० ए यः । धांग्क् डे इ. बी र्थः । धाक डे २०. सी थः । धांक दे इ. डी थः । धांक इ. ई र्थः । धाक दे इ. ११ ए णाद्धेतो. Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१७ [है० ३.३.४ ] सप्तमः सर्गः। पञ्चमी मूर्ति मनाख्या सप्तमी मूर्ती रामचन्द्राख्याभूत्तयोस्तुल्योभूदित्यर्थः । अतश्चास्य चामुण्डराजस्य क्रियातिपत्ति: कार्यविनाशः श्वस्तन्यप्येष्यदिनभाविन्यप्युपलक्षणत्वाचिरकालभाविन्यपीत्यर्थः । आस्तां तावदद्यभाविनीत्यपेरर्थः । कचित्कस्मिन्नपि स्थाने नाशङ्कि न संभाविता । अर्थात्सर्वजनेन ॥ ...... आशिषास्य भविष्यन्तीं जनता पितरौ सुराः। अस्यति स्मास्यतः स्मास्यन्ति स्म चाजस्रमापदम् ॥ ५॥ । ५. आशिषा जय जीव नन्देत्यादिमङ्गलशंसनेनास्य राज्ञो भविव्येन्ती भाविनीमापदमजस्रं सदा जनता जनौघोस्यति स्म क्षिप्तवती। पितरौ च मातापितरौ चास्यतः स्म । सुराश्चास्यन्ति स्म । एतेन न्यायित्वविनीतत्वधार्मिकत्वादिगुणैर्जनतापितृसुरा अनेनानन्दिता इ. त्युक्तम् ॥ किं न पश्यसि पश्यामि पश्यावः पश्यथो नु किम् । • पश्यामः पश्यथेत्यासद्वारेस्य क्ष्माभुजां गिरः ॥ ६॥ ६. अस्य राज्ञो द्वारे सिंहद्वारे माभुजां गिरोभवन् । कथमियाह । किंशब्दौ नुश्चाक्षमागर्भे प्रश्नत्रये । अहो क्ष्माभुक त्वमर्थान्ममोपरिपतनादि कुर्वन्कि न पश्यसि मां नालोकयसि । एवं पृष्टः स प्रत्याह । पश्याम्यवलोकयन्नस्मि । तथा हे क्ष्माभुजौ युवां नु किं न पश्यथः । नत्रापि योज्यः । तावपि प्रत्याहतुः । पश्यावः । तथा ... १ ई आसिषा. २ सी यन्ती ज. ३ ए गिxxx रोभ. १ई 'श्चामु. २ सी यार्य'. ३ ए सी डी श: स्वस्त. ४ ए ई काले भा'. ५ सी ध्यन्ती भा . ६ सीडी रे मा. ७ सी किमश. ८ सी डी शब्दो नु. ९ ए हो क्षाभु. १० ए °सि मा ना. ११ डी वां किं. १२ बी श्यथ । न. Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] हे माभुजो यूयं किं न पश्यथ । तेपि प्रत्याहुः पश्याम इति । एतेन सेवार्थमहमहमिकयास्य सिंहद्वारे प्रविशतां बहूनां राज्ञां मिथोतिसंघर्ष उक्तः ॥ अभ्यमनायत । इत्यत्र "न प्रादिः" [2] इत्यादिना प्रादि व्युदस्य ततः पर एव धातुसंज्ञः । अप्रत्यय इति किम् । औत्सुकायत ॥ अदीयत । अदीयन्त । धीयते । अन्न "अवौ दाधौ दा" [५] इति दा संज्ञा ॥ अवाविति किम् । दाव् । दात ॥ दैव् । अवदाता ॥ वर्तमाना सप्तमी पञ्चमी यस्तन्यथतनी परोक्षा श्वस्तन्याशिषा भविष्यन्ती (न्ती) क्रियातिपत्तिरित्यतैः ॥ “वर्तमाना तिव् तस् अन्ति सिव् थस् थ मिव् वस् मस् ते आते अन्ते से आथे ध्वे एवहे महे" [६-९,११-१६] इत्यादीनि दश संज्ञासूत्राणि सूचितानि ॥ अन्यदि । जनतास्यति । पितरावस्य॑तः । सुरा अस्यन्ति ॥ युष्मदि । पश्यसि । पश्यथः । पैश्यथ ॥ अस्मदि । पश्यामि । पश्यावः। पश्यामः । इत्यत्र "त्रीणि" [१७] इत्यादिना त्रीणि त्रीणि वचनान्यन्यस्मिन्नर्थे युष्मदर्थेस्मदर्थे , यथाक्रम परिभाष्यन्ते ॥ “एकद्वि" [१८] इत्यादिना चैकद्विबहुष्वर्थेषु परिभाष्यन्ते ॥ परस्मैपदमेतेनात्मनेपदमिव प्रियम् । क्रियते स्मान्यकार्यार्थं कृतिभिर्भूयतेथ वा ॥ ७ ॥ ७. एतेन राज्ञा परस्मायन्यार्थं प्रियं पदं नृपत्वादिमहापदवी १एते तथा ॥ १ ए बी अदावि . २ ई दातारे । दै'. ३ बी स्तनीय. ४ बी क्षा स्वस्तिन्या. ५ ए "न्तीति क्रि. ६ ए °ति प्रतिप. ७ बी येभिर्वर्त. ८ ए बी सी डी नि ॥ ज०. ९ बी स्यत । सु. १०ए पस्यथः । . ११ सी डी °णि व°. १२ ए च तथा'. Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.३.२२. ] सप्तमः सर्गः । ५१९ → त्राणं वात्मन आत्मार्थं पदमिव क्रियते स्म कृतम् । अथ वा कृतमस्त्येषां तैः कृतिभिर्विद्वद्भिः परमार्थज्ञैरन्यकार्यार्थं भूयते ॥ दुर्द्धर्षे धीयते श्लाघ्ये सुस्थानं यत्रे च श्रिया । जज्ञे बल्लभराजोस्य दुत्रानोकं स तेजसा ॥ ८ ॥ ८. अस्य राज्ञस्तेजसार्क हुवानोपलपन्स वल्लभराजो नामार्थात्पुत्रो जज्ञे । यत्र श्रिया राज्यादिलक्ष्म्या कर्ष्या सुस्थानं सुखेन स्थीयते । यतः लाये । एतदपि कुत इत्याह । यतो दुर्द्धर्षे शत्रुभिरनभिभाव्ये | धीयते च । यत्र चेति चो भिन्नक्रमेत्र योज्यः । नीतिशास्त्रादिविषयबुद्धियुक्ते च । 'भाविनि भूतवदुपचार:' इति न्यायेन शूरत्वान्नीतिज्ञत्वाच यो राज्यधुराधरणक्षम इत्यर्थः ॥ परस्मैपदम् इत्यनेन "नवाद्यानि " [१९] इत्यादिसूत्रम् आत्मनेपदम् इत्यनेन "पराणि" [२०] इत्यादिसूत्रं चासूचि ॥ कर्मणि । क्रियते । ध्ये । युते । दुर्द्धर्षे ॥ भावे । भूयते । कार्य । कृतिभिः । सुस्थानम् । इत्यत्र " तत्साध्य" [२१] इत्यादिनात्मनेपदकृत्यक्तखलर्थाः स्युः ॥ Q जज्ञे । हुवानः । इत्यत्र 'इङितः कर्तरि " [२२] इत्यात्मनेपदम् ॥ क्रीडत्सु व्यतिचिक्रीडे सवयस्सु हत्सु च । व्यतिज क्रीडनकं प्रत्सु व्यतिजघान सः ॥ ९ ॥ १ सी ' चाश्रि २ ए राज्ञस्य. ४ बी 'रस्सु च ।. ३ ए 'र्क स्वते'. बी 'र्कं सुते. १ सी आत्मनार्थं. २ ए 'स्थानसु. ३ ए त्र ज्योज्यः । ४ डी 'त्वाच. ५ सी 'ज्यधूरा ६ बी रणे क्ष° ७ सी श्लाव्य । यु. ८ सी डी ई कार्यम् । कृ. ९ ई 'र्तर्यात्म. Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२०. ध्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः ] हिंसत्सु च व्यत्यहिनद्यत्यूहेस्त्रं वहत्सु च । पठत्सु व्यत्यपाठीच वदत्सु व्यत्युवाद च ॥ १०॥ .." ९-१०. स वल्लभराजः सवयस्सु मिनेषु बालेषु क्रीडत्सु बालक्रीडया रममाणेषु सत्सु व्यतिचिक्रीडे विनिमयेन रेमे । तथा सवयस्सु क्रीडावशाक्रीडनकं गेन्दुकादि हरत्सु शङ्कुलादिनापनयत्सु क्रीडनकं व्यतिजढे च । तथा सवयस्सु नत्सु क्रीडावशान्मुंट्यादिना प्रहरत्सु व्यतिजघान च । तथा सवयस्स्वत्रं बालोचितं लघु चापादि वहत्सु शस्त्रविद्याभ्यासार्थं धारयत्सु व्यत्यूहे च। तथा हिंसत्सु कौतुकेनास्त्रविद्याभ्यासपरीक्षया वा पक्ष्यादि विनाशयत्सु व्यत्यहिनञ्च । तथा पठत्सु शब्दविद्याद्यधीयानेषु व्यत्यपाठीच । तथा वदत्सूक्तिं कुर्वत्सुं व्यत्युवाद च ॥ यद्यपि क्रियाणां साध्यैकस्वभावानां व्यतिहारो न संभवति तथापीतरचिकीर्षितायां क्रियायामितरेण यद्धरणं करणं स क्रियाव्यतिहार इति यदा सवयसः क्रीडादि चक्रुस्तदा कुमारोपि. चकारेत्यर्थः ॥ तं व्यतीयुगुणा लक्ष्म्यो व्यत्ययुस्तस्य चाभयैः। वृत्तैर्व्यत्यहसन्धाग्यो व्यत्यपश्यन्परस्परम् ॥ ११ ॥ ११. गुणास्तं वल्लभराजं व्यतीयुर्विनिमयेन जग्मुः । सर्वेपि गुणास्तमुपस्थिता इत्यर्थः । तथा लक्ष्भ्यः सर्वसंपदस्तं व्यत्ययुः। तथा तस्य वल्लभस्याभयैर्भीरहितैर्वृत्तै-पोरैर्मन्दुरास्थमर्कटकर्णग्रहणादिभिर्धात्र्य उ. १ बी सस्सु च. २ बी सी डी त्सु व्युत्यु. ३ सी डी लक्ष्योव्य'. १ ए यत्सु की. २ ए °नकगे'. ३ सी त्सु सकुलयादि . डी त्सु संकुलयादि. ४ बी Gives margin ally पुष्पादिना besides. ५ ई पक्षादि. ६ डी द्याधी'. ७ बी सु व्युत्यु'. ८ ए बी सी डी यद्वर. ९ सीडी वा स०.१० डी येज'. ११ बी लक्ष्म्याः स. १२ ए बीई रैन्दु. Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है० ३.३.२५. सप्तमः सर्गः। ५२१ पमातरो व्यत्यहसन् परस्परमन्योन्यं कर्म व्यत्यपश्यंश्च । स्त्रीणां जातिस्वभावोयं यदा बालक: स्वावस्थाननुरूपां विशिष्टां चेष्टां करोति तदानन्दाश्चर्याभ्यां हसन्ति मिथः पश्यन्ति च ॥ व्यतिक्रिीडे। व्यतिजहे । व्यत्यूहे । अत्र "क्रियाव्यति" [२३] इत्यादिनात्मनेपदम् ॥ अगतिहिंसाशब्दार्थहस इति किम् । व्यतीयुः । व्यत्ययुः । व्यत्यहिनत् । व्यतिजघान । व्यत्युवाद । व्यत्यपाठीत् । व्यत्यहसन् ॥ अनन्योन्यार्थ इति किम् । व्यत्यपश्यन्परस्परम् ॥ चित्ते न्यविशत न्यास्यन्मुदं न्यास्यत विस्मयम् । सोपोहत्संशयं राज्ञोपोहतारिमनोरंथान् ॥ १२ ॥ १२. स वल्लभोद्भुतविनयशौर्यादिगुणै राज्ञः पितुश्चित्ते न्यविशेतावसत् । तथा राज्ञश्चित्ते मुदं न्यास्यत्समस्थापयत् । तथा राज्ञश्चित्ते विस्मयं न्यास्यत । तथा राज्ञश्चित्ते संशयं कीÉगयं पुत्रो भविष्यतीति संदेहमपौहच्चिच्छेद । अत एवारिमनोरथांश्चामुण्डराजानन्तरं वयं सुखं स्थास्याम इत्यहिताशा अपौहत । न्यविशत । इत्यत्र "निविशः' [२४] इत्यात्मनेपदम् ॥ न्यास्थत न्यास्यत् । अपौहत अपौहत् । इत्यत्र "उपसर्गादस्योहो वा" [२५] इति वात्मने ॥ १ सी रकान् ॥ १ सी में वित्य'. २ सी स्थानपां. डी स्थानुरू. ३ सी क्रीड । व्य. ४ सी डी व्यत्युहे ।। ५ सी शतोव. ६ सी डी दृग् पु, ७ सी हमारोह. ८ ए सी ई रथाश्चा. ९ ई यं स्था'. १० एन्यवश°. ११ डी निवशः. १२ ए "स्यो वा. १३ ई °नेपदम् ॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ चामुण्डराजः ] राज्ञो दुर्लभराजोभूत्पुत्रोन्य इति तर्कभूः । नोदयुङ्गासुरः कोपि स्वं न्ययुतेह किं हरिः ॥ १३ ॥ १३. राज्ञो दुर्लभराजो नामान्यो द्वितीय: पुत्रोभूत् । कीदृक् । तर्कभूः । एवंविधस्य लोकवितर्कस्य स्थानम् । एवं लोकैर्वितमाण इत्यर्थः । कथमित्याह । यस्मादिह दुर्लभराजे सत्युद्भूतभयातिरेकेण कोप्यसुरो नोदयुङ्क नोदयच्छन्न कोपि दैत्यो मस्तकमुत्पाटि - तवानित्यर्थः । तत्किमिह दुर्लभे हरिर्विष्णुः स्वमात्मानं न्ययुङ्क व्यापारितवान् । दुर्लभराजरूपी किमयं हरिरभूदित्यर्थः । हरौ ह्युत्पन्नेसुरः कोपि नोयुङ्ग इति ॥ प्रयुञ्जन्यज्ञपात्राणि परिक्रेष्यत आशिषः । बुद्ध्या विक्रेप्यते शुक्रं सतोवक्रेप्यते गुणैः ॥ १४ ॥ शैलान्विजेष्यते स्थाम्नारीन्पराजेष्यते बलैः । ज्ञैः संक्ष्णविष्यते प्रज्ञां दैवज्ञैरित्यशंस्यसौ ॥ १५ ॥ १४, १५. असौ दुर्लभो देवज्ञैर्ज्योतिषिकैर्जन्म कुण्डलिकास्थशुभग्रहपातविचारणयेत्येवंविधोशंसि कथितः । यथा यज्ञपात्राणि यागभाजनानि प्रयुञ्जन्यज्ञे व्यापारयन्यज्ञं कारयन्नित्यर्थः । असावाशिषो यैष्ट्रादिप्रयुक्ताशीर्वादान्परिष्यते संग्रहीष्यतीत्यर्थः । तथा बुद्ध्या कृत्वा शुक्रं विक्रेध्यते पराजेष्यत इत्यर्थः । तथा गुणैः कृत्वा सतः साधूनवत्रेष्यत आवर्जयिष्यतीत्यर्थः । तथा स्थाना स्थैर्येण बलेन वा कृत्वा शैलान्विजेष्यते । तथा बलैः सैन्यैः कृत्वारीन्पराजेष्यते । १ सी 'ज्ञोभू. १ ए ह । कस्मादि . २ डी 'रूपः कि० ३ डी 'शैज्योंति ४ डी यज्वादि . ५ सी 'वावीन्य'. Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.३.३२.] सप्तमः सर्गः। ५२३ तथा ज्ञैः पण्डितैः सह प्रज्ञां संक्ष्णविष्यते शास्त्रविनोदेन निर्मलीकरिष्यति । सर्वगुणान्वितो महाराजाधिराजोयं भविष्यतीति सर्वविशेषणतात्पर्यार्थ इति ॥ उदयुत । न्ययुत । इत्यत्र "उत्स्वराद्” [२६] इत्यादिनात्मने ॥ अयज्ञतत्पात्र इति किम् । प्रयुञ्जन्यज्ञपात्राणि ॥ परिफ्रेष्यते । विक्रेष्यते। अवक्रेप्यते । अत्र "परिवि०" [२७] इत्यादिनात्मने ॥ पराजेष्यते । विजेष्यते । अत्र “परावेर्जेः" [२८] इत्यात्मने ॥ संक्ष्णविष्यते । अत्र "समः क्ष्णोः” [२९] इत्यात्मने ॥ जन्मास्योचरमाणोपस्किरमाणदृषध्वनिः । संचेरे तुरगैास्थलोको वर्धयितुं नृपान् ॥ १६ ॥ १६. द्वास्थलोको नृपान्वर्धयितुं तुरगैः कृत्वा संचेरेभ्रमत् । कीहक्सन् । अस्य दुर्लभस्य जन्मोच्चरमाण: । अन्तर्भूतणिगर्थः सकर्मकः । उच्चारयन् । अत एवापस्किरमाणो हृष्टत्वात्तटादि विलिखन्यो वृषः शण्डस्तस्येव हर्षप्रेकर्षेणोदात्तो गम्भीरश्च ध्वनिर्यस्य सः॥ अपस्किरमाण । इत्यत्र “अपस्किरः" [३०] इत्यात्मने ॥ जन्मोच्चरमाणः । अत्र "उदश्चरैः साप्यात्" [३१] इत्यात्मने ॥ तुरगैः संचरे । अत्र "समस्तृतीयया" [३२] इत्यात्मने ॥ १ सी डी °न्वितम. २ ए शेषेण. ३ बी उत्सरा'. ४ ए समक्ष्णोः . ५ बी सी डी भराजस्य. ६ डीभूतोत्रणि. ७ ए एवोप. ८ सी डी विलखन्या वृ. ९ सी डी प्रहर्षे. १० सी डी °रः सोप्या. Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] संक्रीडच्छ कटारूढाः समक्रीडन्त बन्दकाः। सद्यो मुक्ताः परिक्रीडमानैमिलितवन्धुभिः ॥१७॥ १७. बन्दका गुप्तौ क्षिप्ता नराः परिक्रीडमानैर्हपीद्धास्यचस्तर्यादिकरणेन रममाणैर्मिलितबन्धुभिर्गुप्तेश्छुटिता इत्यानन्दान्मिलितैर्बान्धवैः सह समक्रीडन्तोद्यानादिषु रेमिरे । किंभूताः सन्तः । सद्यो दुर्लभजन्मकाल एव मुक्ता गुप्तेस्त्यक्ता अत एव संक्रीडन्तो नूतनत्वेनाव्यक्तं शब्दं कुर्वन्तो ये शकटाः क्रीडाप्रस्तावात्क्रीडारथास्तेषु हर्षेणारूढाः ॥ अननुक्रीडमानायाक्रीडमानाः कृतक्रुधे । राजन्या अशपन्तास्मै नाथन्ते स्म यतोस्य ते ॥१८॥ १८. राजेन्या राजपुत्राः कृतधे केनाप्यपराधेन विहितकोपायात एवाननुक्रीडमानायारममाणायास्मै दुर्लभायाशपन्त । वयं त्वयि भक्ता एवाज्ञानात्त्वेवमपराद्धमित्यादि कोपोपशमायेममबोधयन्नित्यर्थः। यद्वा । वाचा मात्रादिशरीरस्पर्शनेनेमं स्वाभिप्रायमबोधयन्नित्यर्थः । कीदृशाः सन्तः । आक्रीडमानाः कुमारत्वाद्वालोचितक्रीडाभि: क्रीडन्तः । शपने हेतुमाह । यतस्ते राजन्या अस्य दुर्लभस्य नाथन्ते स्म नाथोस्माकं भूयादित्याशंसैन् । अस्येत्यत्र "नाथः" [२.२.१०] इति षष्ठी ॥ समक्रीडन्त । इत्यत्र "क्रीडोकूजने" [३३] इत्यात्मने ॥ अकूजन इति किम् । संक्रीडच्छकेट ॥ - १ए °न्त वन्द'. २ ए सी मुक्ता प. ३ ए °माना कृ. ४ डी नाध्यन्ते. १ ए बी वन्द. २ ए बी सेच्छुटि'.३ सीडी तात?.४ डी तो श.५ सी जपु. ६ई पुत्रा कृ. ७ बी हिताको'. ८बी णास्मै. ९ सी डी 'माय सम°. १० बी त्यर्थाय. ११ बी नेमं. १२ डी मं स्वमभि. १३ ए °सतः । अ. वीई °सत । अ. १४ सी डी कटा । अ°. Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.३.३६.] सप्तमः सर्गः । ५२५ __ अननुक्रीडमानाय । आक्रीडमानाः । परिक्रीडमानैः । अत्र “अन्वारेः” [३४] इत्यात्मने ॥ अशपन्तास्मै । अत्र "शपः” [३५] इत्यादिनात्मने ॥ अस्य नाथन्ते । अत्र "आशिषि नाथः" [३६] इत्यात्मने ॥ सह तेनाग्रजो भुङ्क्ते स्माभुनक्सोपि तद्वचः । पितुस्तावनुजलाते नयमानौ नयागमे ॥१९॥ १९. तेन दुर्लभेन सहाग्रजो वल्लभो भुङ्क्ते स्मात्ति स्म । सोपि दुर्लभोपि तद्वचोग्रजवचनमभुनक् पालितवान् । एतेनैतयोरत्यन्तं स्नेहानुबन्ध उक्तः । तथा नयागमे नीतिशास्त्रे नयमानौ नयागमे संध्यादीन्सद्गुणान्युक्तिभिः स्थिरीकृत्यान्योन्यस्य सहाध्यायिराजकुमाराणां वा बुद्धि प्रापयन्तावित्यर्थः । तौ कुमारौ पितुरनुजहाते पितुर्गुणविषयं क्रियाविषयं वा सादृश्यमविकलं शीलितवन्तौ पितुर्गमनमविच्छेदेन शीलितवन्तौ वा पितृवजग्मतुर्वा पितृवच्छीलयामासतुवेत्यर्थः ॥ जज्ञे विनेष्यमाणोर्थानागराजो नृपस्य तुक् । मातोदानयमाना यं नयते स्म सुधारसे ॥२०॥ २०. शुभलक्षणसूचितौदार्यधार्मिकत्वादिगुणत्वादर्थान्धनानि विनेष्यमाणो धर्माद्यर्थं तीर्थादिषु विनियोक्ष्यमाणो नागराजो नाम नृपस्य तुक् तृतीयः पुत्रो जज्ञे । यं नागराजमुदानयमानोत्सङ्ग आरोपणायोक्षिपन्ती सती माता सुधारसे नयते स्म सुधारसविषयं प्रमेयमास्वादं निश्चिनोति स्म । अमृतपानसुखमनुबभूवेति तात्पर्यम् ॥ १ सी °मभून. २ सी डी नैव त'. ३ ए °न्ध रक्तः ।. ४ बी जरमुतु. सी जन्मतु. ५ डी जो नृ. ६ ए °तीयपु. Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ढ्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] उपनिन्ये गुरुस्तांस्त्रीभृत्यानिव महीपतिः। कारं विनयमानाश्च प्रजाः प्रेक्षन्त तान्मुदा ॥२१॥ २१. यथा महीपतिश्चामुण्डराजो भृत्यानुपनिन्ये वेतनेनात्मसमीपं प्रापयत्तथा गुरुरुपाध्यायंस्त्रींस्तान्कुमारीनुपनिन्य आत्मानमाचार्य कुवंस्तानध्यापनार्थमात्मसमीपं प्रापयत् । तथा कारं राजग्राह्यं भागं विनयमांना दानेने शोधयन्त्यः प्रजास्तांस्त्रीन्मुदामी नः पालयिष्यन्तीति चिन्तोत्पन्नहर्षेण प्रेक्षन्त च ॥ भुङ्क्ते । अत्र "भुनजोत्राणे" [३०] इत्यात्मने ॥ अत्राण इति किम् । अभुनक् ॥ पितुरनुजहाते । अत्र "हृगो गत" [३८] इत्यादिनात्मने ॥ नयमानौ नयागमे । गुरुस्तानुपनिन्ये । भृत्यानिवोपनिन्ये । यमुदानयमाना । नयते सुधारसे । कारं विनयमानाः । अर्थान्विनेष्यमाणः । अत्र "पूजाचार्यक" [३९] इत्यादिना पूजादिषु क्रमेणात्मने ॥ व्यनयन्तारिषड्वर्ग ते कर्फ व्यनयञ्श्रमात् । व्यनयञ्शीयमानस्य म्रियमाणस्य चार्तताम् ॥ २२ ॥ २२. ते कुमारा अरिषड़र्गम् । षण्णां क्रोधादीनां वर्गः षड्डोरिः शत्रुर्यः षड़र्गस्तम् । व्यनयन्त जितेन्द्रियत्वेनाशमयन्त । तथा श्रमाच्छनाभ्यासाद्धेतोः कर्फ श्लेष्माणं व्यनयन् । श्रमेण हि कफः शाम्यति । तथा कारुणिकत्वाच्छीयमानस्य परपराभवादिना दुःखिनो म्रियमाणस्य महाव्याध्यादिना प्राणांस्त्यजतश्चार्ततां पीडां व्यनयपरित्राणभैषज्यादिसंपादनेनोपाशमयन् ॥ १ ए प्रजा प्रै'. २ ए ता मुदा ॥. ३ सी माण'. १ सी डी यस्त्रीतान्कु . २ ए रान्नुप. ३ सी डी°मानदा. ४ सी न सोध' डी न साध'. ५ सी मान । न. ६ बी नोपश. Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.३.४३.] सप्तमः सर्गः। ५२७ मा मृषीष्टेत्यनिद्रायद्गुर्वाशीष्वपि शात्रवम् । ताननिद्रायमाणान्द्राक्श्रुत्वामृत नु मूर्छितम् ॥२३॥ २३. अनिद्रावन्तो निद्रावन्तो भवन्ति “डाँचोहितादिभ्यः पित्" [३.४.३०] इति क्यति निद्रायमाणा न तथा ये तानुद्यमिनः कुमाराञ् श्रुत्वा शात्रवमरिवृन्दं द्राङ् मूर्छितं महाभयाकुलत्वेनाचेतनं सदमृत नु मृतमिवाभूत् । कास्वपि सतीषु । अनिद्रायन्तस्तपोध्यानादौ जागरूका ये गुरवस्तेषामाशीःषु । कथमित्याह । मा मृषीष्टेति कुशली भूया इत्यर्थ इति ॥ अरिषड्वर्ग व्यनयन्त । इत्यत्र “कर्तृस्थ" [४०] इत्यादिनात्मने ॥ कर्तृस्थेति किम् । आर्ततां व्यनयन् । अमूर्तेति किम् । कर्फ व्यनयन् ॥ शीयमानस्य । इत्यत्र “शदेः शिति" [१] इत्यात्मने ॥ अमृत । मा मृषीष्ट । म्रियमाणस्य । इत्यत्र “म्रियतेः " [४२] इत्यादिनात्मने ॥ अनिद्रायमाणान् । अनिद्रायत् । इत्यन्न "क्यको न वा" [४३] इति वात्मने ॥ नाद्योतिष्ट तथानीनां छन्दसामधुतन्न च । नारोचिष्टादिपुंसां वा यथैषामरुचत्रयी ॥२४॥ २४. स्पष्टः । किं तु । अग्नीनां दक्षिणाग्निगार्हपत्याहवनीयानाम् । १ ई त्रयम् ॥ १ सी डाउलोहि'. २ बी 'तिक्यिलि. ३ एङि यनि. ४ डी सद् मृतमि. ५ डी तीष्वप्यनि. ६ सी जागुरू. ७ ए गुरुव. ८ ई शीष्वपि । क. ९ सी षड् व्य. १० ए °ने । Xxx अनि. ११ बी न् । सीय. १२ सी क्यङो न. Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] छन्दसामृग्यजुस्साम्नाम् । आदिपुंसां ब्रह्मविष्णुहराणाम् । एषां कुमाराणाम् ॥ अद्योतिष्ट अद्युतत् । अरोचिष्ट अरुचत् । इत्यत्र "द्युयोद्यतन्याम्" [४४] इति वात्मने ॥ कृते विवर्तिषमाणा न्यविकृत्सन्कलेरमी । काले वय॑त्यवतिष्यमाणे तन्नेदृशा ध्रुवम् ॥२५॥ २५. यस्माद्धेतोरमी कुमाराः कृत उपचारात्कृतयुगकालोचिते दानशीलादिधर्मकृत्ये । विवर्तिषमाणाः प्रवर्तितुमिच्छन्तैः सन्त: कले: कलिकालोचितात्परद्रोहवञ्चनादिमहापापान्यविवृत्सन्निवर्तितुमैच्छन् । तत्तस्माद्धेतोः । वर्त्यति भविष्यति । अवर्तिष्यमाणे भूते वर्तमाने च काले । ध्रुवमवश्यम् । नेदृशा नैषां सदृशाः पुण्यात्मानः केपि सन्ति भविष्यन्त्यभूवन्निति च गम्यते ॥ प्रविवर्धिषमाणोपि नैषां वर्धिष्यते खलः। विवृत्सन्वय॑ति सुहृनिश्चिक्य इति कोविदः ॥२६॥ २६. स्पष्टः । किं तु । कोविदैरङ्गविद्यादिनिपुणैर्निश्चिक्ये शारीरिकतादृकुभलक्षणादिसम्यग्विचारेणया निर्णीतम् ॥ वस्य॑ति अवर्तिष्यमाणे। न्यविवृत्सन् विवर्तिषमाणाः ॥ वृधूङ् । वर्त्यति वर्धिष्यते । विवृत्सन् प्रविवर्धिषमाणः । अत्र "वृधः स्यसनोः" [५] इत्यात्मने वा ॥ १ ए वर्सत्य. · १ ए °सा रुग्य'. २ ई नेपदम् ॥. ३ बी सी डी दिमहाध. ४ ए माणा प्र. ५ ई न्तः क. ६ बी चित्यात्प०. ७ ए तापर. ८ सी दिमिहा. ९ ए तिमै १० ए सन्त्यम. ११ ए किंतुः। को१२ ई रणाया. १३ सी माणा अ° डी माणाः । अ. १४ ए °सरित्या'. - - - Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.३.४७.] सप्तमः सर्गः। ___ ५२९ कल्प्तास्थ प्रभवोस्माकं भृत्या वः कल्पितास्महे । कामदक्रममाणानां समक्रामन्हदीति ते ॥ २७ ॥ २७. स्पष्टः । किं तु । कल्तास्थ संपत्स्यध्वे । ते कुमाराः । क्रामदक्रममाणानां क्रामन्तश्च गच्छन्तस्तरुणा अक्रममाणाश्चाजङ्गमा वृद्धाः । तेषां हृदि चित्ते समक्रामन्संक्रान्ताः । प्रभुत्वोचिताखिलगुणालंकृतत्वात्सचराचरलोकस्यापि चित्ते भाविप्रभुत्वेनामी प्रतिभासिता इत्यर्थः ॥ कल्तास्थ कल्पितामहे । अत्र “कृपः श्वस्तन्याम्" [१६] इति वात्मने ॥ अक्रममाणानाम् कामत् । इत्यत्र "क्रमः” [४७] इत्यादिना वात्मने ॥ अनुपसर्गादिति किम् । समक्रामन् ॥ विनये क्रममाणानां शास्त्राय क्रमते स्म धीः । क्रममाणा च सा तेषां पराक्रमत सर्वतः ॥ २८ ॥ २८. तेषां कुमाराणां विनय उपाध्यायस्य नम्रतादिक्रियायां क्रममाणानामस्खलितात्मनामात्मानं यापयतां वा विनयपराणां सतामित्यर्थः । धीः शास्त्राय तर्कादिग्रन्थाय क्रमते स्मोत्सहते स्म तत्परा वानुज्ञाता वाभूत् । सा च तेषां धीः क्रममाणा शास्त्रार्थावगाहनास्फीतीभवन्ती संतानेन प्रवर्तमाना वामीभिरेवानुकूलाहाराद्यासेवनेन पाल्यमाना वा सती सर्वतः सर्वकार्येषु पराक्रमताप्रतिहताभूदात्मानं यापितवती वोत्सहते स्म वा तत्पग वानुज्ञाता वाभूत्स्फीत्यभूद्वा संतानेन प्रावर्तिष्ट वा ।। १ डी के भूत्या. २ ए त्या व क. १सी किं तुः क. २ बी रुणा आक्र° ३ बी सी ई ०५: स्वस्त° ४ बी समाका. ५ डी नमनादि. ६ सी र्काय प्र. ७ ए °ते स्म. ८ सी सेवाने. ९ सीर्वका. १० एपिभव'. Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० व्याश्रयमहाकाव्ये [चामुण्डराजः] उपाक्रमत धर्मोर्थे धर्मेर्थश्वानुचक्रमे । अनुचकाम कामोपि तयोस्तेषां विवेकिनाम् ॥ २९ ॥ २९. तेषां कुमाराणां धर्मोर्थ उपाक्रमत । अप्रतिहतोभूदात्मानं यापितवान्वा द्रव्यार्थमुत्सहते स्म वा तत्परोनुज्ञातो वाभूत्स्फीत्यभूद्वा संतानेन प्रावर्तिष्ट वा तैरेव पाल्यते स्म वार्थहेतुग्भूदित्यर्थः । अर्थश्च धर्मेनुक्रमे धर्मस्थानेषु विनियोज्यमानत्वाद्धनमपि धर्मार्थमभूदित्यर्थः । तथा कामोपि तयोरनुचक्राम सन्तानवृद्धिहेतुत्वात्सन्तानवृद्ध्या राज्याद्यर्थवृद्धिहेतुत्वाच्च धर्मार्थयोhतुरभूदित्यर्थः । क्रियार्थाः सर्वेप्युभयत्रापि प्राग्वद्भाव्याः । यतः कीदृशां तेषाम् । विवेकिनां युक्तायुक्तविचारकाणाम् ॥ वृत्तौ । विनये क्रममाणानाम् ॥ सर्गे । शास्त्राय क्रमते ॥तायने । क्रममाणा। इत्यत्र “वृत्ति" [४८] इत्यादिनात्मने ।। पराक्रमत सर्वतः। उपाक्रमतार्थे । अत्र “परोपात्" [१९] इत्यात्मने ॥ परोपीदेवेति किम् । अनुचक्राम ॥ अन्ये तु परोपाभ्यां पराक्रमेत्त्याद्यर्थाभावेपीच्छन्ति । तेन पराक्रमत । उपाक्रमत । इत्यात्मनेपदमेव । वृत्यादिपु त्वन्योपसर्गपूर्वादपि पूर्वेण मन्यन्ते । अनुचक्रमे ॥ साधु विक्रममाणत्वं गजानां प्राक्रमन्त ते । उपाक्रमन्त चाश्वानां यदाक्रमत भास्करः ॥ ३०॥ ३०. यदा भास्करोर्क आक्रमतोदेति स्म तदा प्रभाते ते कुमाराः साधु सुशिक्षया चतुरं यथा स्यादेवं गजानां विक्रममाणत्वं गतिं प्राक्रमन्त प्रारेभिरेङ्गीचक्रुर्वा । तथाश्वानां च विक्रममाणत्वं धौरितादिगतिपञ्च १ ए ई स्म त°. २ ए वार्थो हे'. ३ सी °चपक्र. ४ ई थः । xxx क्रिया. ५ डीभाव्या । य. ६ बी ‘मतः स. ७ सी मतसर्थे । डी मत धमोर्थे ।। ८ ई पादिति. ९ बी न्ये प०. १० डी मते । उ॰. ११ सी ममण. Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३१ [ह० ३.३.५३.] सप्तमः सर्गः। कमुपाक्रमन्त । एतेनैषां गजाश्वशिक्षाकौशलोक्तिः । प्रातर्हि गजाश्वशिक्षाकुशला राजपुत्रा हस्तिनोश्वांश्च सुगतिं शिक्षयन्तीति स्थितिः ।। विक्रममाणत्वम् । अत्र "वेः स्वार्थे" [५०] इत्यात्मने ॥ प्राक्रमन्त । उपाक्रमन्त । इत्यन्न "प्रोपादारम्भे' [५१] इत्यात्मने ॥ आक्रमत भास्करः । अन्न "आङः" [५२] इत्यादिनात्मने ॥ पित्राज्ञामाददानोथ वल्लभः कण्टकच्छिदे । प्रतस्थेश्वैर्मुखं कूर्मो व्यादाढ्यादाच भूर्यथा ॥३१॥ ३१. अथ वल्लभः पित्राज्ञां चामुण्डराजादेशमाददानोङ्गीकुर्वन्सन्कण्टकच्छिदे मालव्यदेशाधिपतेः शत्रोरुच्छित्तयेश्वैः कृत्वा तथातिबाहुल्याद्गाढसंमर्दैन प्रतस्थे । यथा कूर्मः कमठो मुखं व्यादागाढभारपीडया प्रसारितवान् । भूः पृथ्वी व्यादाच्च विदीर्णा ॥ चामुण्डराज: किलातिकामाद्विकलीभूत: सन्भगिन्यों वाचिणिदेव्या राज्यात्स्फेटयित्वा तत्पुत्रो वल्लभो राज्ये प्रतिष्ठितः । चामुण्डराजेन चाभिमानवशादात्मसाधनार्थं वाराणस्यां गच्छता मालविकैविलुण्ठितच्छत्रादिराजचिह्नकेन पत्तन आगत्य वल्लभस्याज्ञा दत्ता यदि त्वं मदीयः पुत्रस्तदा मालविकेभ्यो मदीयच्छत्रादीन्मोचयेति वस्तुस्वरूपम् । एतच्च वर्ण्यत्वेनाधिकृतस्योपनिबध्यमानमनुचितमिति पित्राज्ञामाददान इत्यनेन सूचितम् ।। आददानः । अत्र “दागः" [५३] इत्यादिनात्मने ॥ अस्वास्यप्रसारविकाश इति किम् । कूर्मो मुखं व्यादात् । भूादात् ॥ १ ए बी सकण्ट. २ बी कच्छेदे. ३ डी लवदे'. ४ °ई एफ 'न्या चाचि. ५ ई एफ ज्यात्स्फोट'. ६ ए वारणस्यां. बी वाणारस्यां. ७ ए सी डी लवकै. ८ बी अश्वास्य'. ९ बी प्रकार, Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ घ्याश्रयमहाकाव्ये [वल्लभराजः] आपृच्छतागतान्कांश्चिदानुवानपयूरवाक् । कांश्चिदागमयांचक्रे स दत्त्वैकं प्रयाणकम् ॥ ३२॥ ३२. स वल्लभ एकं प्रयाणकं दत्त्वा कांश्चिद्वन्धुमित्रामात्यादीनागताननुब्रजनायायातानापृच्छत वियुज्यमानः प्रयाणकविषयेनुज्ञापितवान् । कीहक्सन् । आनुवान उत्कण्ठापूर्व शब्दायमानो यो मयूरस्तस्येव स्निग्धा मधुरा च वाग्यस्य सः । तथा कांश्चिन्नपादीनागमयांचके कंचित्कालं प्रतीक्षितवान् । एतेन सर्वसैन्यमेलनमुक्तम् ॥ आनुवान । आपृच्छत । इत्यत्र “नुप्रच्छः" [५४] इत्यात्मने ॥ आगमयांचक्रे । अत्र “गमेः क्षान्तौ” [५५] इत्यात्मने ॥ तं नाहन्त नृपा यान्तमाह्वयन्तं जयश्रियम् । बन्धून्संह्वयमानास्तु न्यह्वयन्तार्थहेतवे ॥ ३३ ॥ ३३. तं वल्लभं नृपा अन्तरालस्था राजानो नाह्वन्त स्पर्धमाना नाकारितवन्तः । किंभूतं सन्तम् । जयश्रियमाह्वयन्तं मालव्यराजजयेच्छुमित्यर्थः । अत एव मालवान्प्रति यान्तम्। तुर्विशेषे । किं तु बन्धून्संह्वयमाना मेलनायाकारयन्तः सन्तो नृपा अर्थहेतवे पूजार्थं तं न्यह्वयन्त न्यमन्त्रयन् ॥ व्यह्वास्तारान्नतांस्तान्स तद्वन्धूनप्युपाहत । तत्याभृतान्युपायंस्तोपतस्थे चाध्वदेवताः ॥ ३४ ॥ ३४. स वल्लभस्तान्नृपानारात्समीपे नतान्सतो व्यह्रास्ताललाप । तद्वन्धूनपि नृपाणां बान्धर्वाश्वोपाहताललाप । तथा तत्प्राभृतानि नृपढौकनान्युपायंस्ताङ्गीचक्रे । तथाध्वदेवता देवकुलादिस्था मार्गाधिष्ठातृदेवता निरुपद्रवायोपतस्थे च पुष्पफलादिनार्चितवान् । एतेनास्य सौंचित्यज्ञतोक्ता ॥ १ सी डी के किंचि. २ सी डी न् । इत्येते. ३ ए. °यन्तं न्य'. . Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.३.५९] सप्तमः सर्गः । ५३३ अत्रोपतिष्ठते पारा सिन्धुमध्वैष कुन्तलान् । ब्रुवन्त इति राजान उपातिष्ठन्त केपि तम् ॥३५॥ ३५. केपि नृपास्तं वल्लभमुपातिष्ठन्त मैच्या हेतुना फलेन वाराधयन् । कीदृशाः सन्तः । ब्रुवन्तो वेत्रिवद्विज्ञपयन्तः। किमित्याह । अत्र देशे पारा पाराख्या नदी सिन्धुं सिन्ध्वाख्यनदीमुपतिष्ठत उपश्लिष्यति । तथैष प्रत्यक्षोध्वा मार्गः कुन्तलान्देशभेदानुपतिष्ठते गच्छतीति । एतेन वल्लभोवन्तिमध्ये प्रविष्ट इत्युक्तम् । तत्र हि पारासिन्धुमेलनादि वर्तते ॥ उपातिष्ठन्त तं मत्रैस्ते मार्गाश्रमतापसाः। उपास्थुर्यानतिथयो ये दावृन्नोपतस्थिरे ॥ ३६ ॥ ३६. अतिथिवात्सल्यमहाधर्मनिष्ठत्वेन यानतिथय उपास्थुर्लिप्सयोपाश्रितास्तथा ये महातप:पात्रत्वेन शिलोञ्छवृत्तित्वाद्दातृन्दायकवृन्नोपतस्थिरे न लिप्सयोपाश्रितास्ते मार्गाश्रमतापसा मार्गनिकटाश्रमवर्तिमुनयस्तं वल्लभं वर्णाश्रमगुरुत्वान्मत्रैराशीमत्रादिभिरुपातिष्ठन्ताराधयन् ॥ तं नाह्वन्त । इत्यत्र "ह्वः स्पर्धे" [५६] इत्यात्मने ॥ स्पर्ध इति किम् । जयश्रियमाह्वयन्तम् ॥ संयमानाः । न्यह्वयन्त । व्यह्वास्त । इत्यत्र “संनिवेः" [५७] इत्यारमने ॥ उपाहृत । इत्यत्र "उपात्" [५८] इत्यात्मने ॥ उपायंस्त । इत्यत्र “यमः स्वीकारे" [५९] इत्यात्मने ॥ अध्वदेवता उपतस्थे । तमुपातिष्ठन्त । पारा सिन्धुमुपतिष्ठते । एषोध्वा १बी निष्ठित्वे. २ सी प:प्रावत्वे', डी पःप्रभावत्वे. ३ सी डी य. कान्नो ४ ई कर्तृन्नो ५ बी हयत. Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ वल्लभराजः ] कुतानुपतिष्ठते मत्रैस्तमुपातिष्ठन्त । इत्यत्र “देवाच" [६०] इत्यादिना देवार्चादिषु क्रमेणात्मने ॥ दातृन्नोपतस्थिरे यानुपास्धुः । अत्र " वा लिप्सायाम्" [६१] इति वात्मने ॥ मुक्तावतिष्ठमानास्ते पुरो यावद्वितस्थिरे । उदस्थादासनात्तावत्सोवतस्थे च साञ्जलिः ॥ ३७ ॥ ३७. मुक्तौ मोक्षार्थमुत्तिष्ठमाना धर्मानुष्ठानेन चेष्टमानास्ते मार्गाश्रमतापसाः पुरो वल्लभस्याग्रतो यावद्वितस्थिरे विशिष्टेन मुनिजनोचितेन संस्थानेन स्थितास्तावत्स वल्लभो विनीतत्वेनासनादुदस्थत्साश्चलिश्च योजित करयुगश्चावतस्थेवस्थितः ॥ मा प्रतिष्ठस्व संतिष्ठखाद्य तिष्ठामहे हि त्वयि नस्तिष्ठते प्रीतिः केप्यूचुरिति तं नृपाः ॥ ३८ ॥ ३८. केपि भक्ता नृपास्तं वल्लभमूचुः । कथमित्याह । मा प्रतिष्ठ मा प्रस्थानं कार्षीरद्य संतिष्ठस्वात्रैव तिष्ठ । हि यस्मादद्य वयं वो युष्मभ्यं तिष्ठामहे स्वाभिप्रायप्रकाशनेनात्मानं रोचयामः । ननु किमिति यूयमस्मभ्यं तिष्ठध्व इत्याशङ्कयाहुः । यस्मान्नोस्माकं प्रीतिरन्तरङ्गस्त्रेहस्त्वयि तिष्ठते त्वया प्रमाणभूतेन मानितास्मत्प्रीतिः प्रमाणमि - त्यर्थ इति ॥ मुक्ताबुत्तिष्ठमानाः | अन्न "उद: " [६२ ] इत्यादिनात्मने ॥ अनूर्ध्वेह इति किम् । आसनार्बुदस्थात् ॥ संतिष्ठस्व । वितस्थिरे । प्रतिष्ठस्व । अवतस्थे । अत्र "संविप्रावात् " [ ६३ ] I इत्यात्मने ॥ १ डी ते इ. ५ सी डी र्थः ॥ २ई. चदिषु . ३ एरे वशि. ए बी सी डी एफ 'दुत्तस्थौ ॥ सं ६ ४ई स्थात्प्रा . Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.३.६९.] सप्तमः सर्गः। ५३५ तिष्ठामहे वः । त्वयि तिष्ठते प्रीतिः। अत्र "ज्ञीप्सास्थेये" [६४] इत्यात्मने ॥ केष्वप्यभयमातस्थे राज्यं समगरिष्ट च । कानप्यवागरिष्टेवापजानानः स तेजसा ॥ ३९॥ ३९. स वल्लभः केष्वपि भीतेषु राजस्वभयं भयाभावमातस्थे प्रतिज्ञातवान् । तथा केष्वपि निश्छद्माश्रितेषु राज्यं समैगरिष्ट च प्रतिज्ञातवांश्च । प्राक्तनं केष्वपीत्यत्रापि योज्यम् । तथा कानप्यनतान्नृपास्तेजसा प्रतापेनापजानानोपलपन्सन्नवागरिष्टेव समूलोन्मूलनेन नानोप्युच्छेदाद्स्तवानिव ॥ आतस्थे । अत्र "प्रतिज्ञायाम्" [६५] इत्यात्मने ॥ समगरिष्ट । इत्यत्र “समो गिरः" [६६] इत्यात्मने ॥ अवागरिष्ट । इत्यत्र "अवात्" [६७] इत्यात्मने । अपजानानः । अत्र “निवे ज्ञः" [६८] इत्यात्मने ॥ संजानानास्तादृशं तं संजानन्तो हरेस्तदा । जगज्झम्पननाम्नोच्चैः प्रत्यजानत भूभुजः ॥४०॥ ४०. तदा यात्राकाले तं वल्लभं भूभुजो जगज्झम्पननाम्ना जगतोर्थाच्छत्रुलोकस्य झम्पनोतर्कितमुपरिपातुकस्तेन नानोच्चैः प्रत्यजानताभ्युपागच्छन् । किंभूताः सन्तः । तादृशं जगज्झम्पनेति नाम्नः सदृशं शत्रुलोकं झम्पयन्तमित्यर्थः । संजानानाः पश्यन्तोत एव हरेः सिंहस्य संजानन्तः स्मरन्तोस्मिञ् जगज्झम्पनतालक्षणसिंहसाधर्म्यदर्शनासिंह स्मरन्त इत्यर्थः ।। तं संजानानाः । तं प्रत्यजानत । इत्यत्र “संप्रतेरस्मृतौ" [६९] इत्यात्मने । अस्मृताविति किम् । हरेः संजानन्तः ॥ १बी सी निछमा डी निच्छद्मा . २ सी समाग'. ३ ए मगिरि. ४ ए प्रत्युजा. ५ सी डी नाः। प्र. Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ व्याश्रयमहाकाव्ये योस्य जिज्ञासते स्मौजोन्वजिज्ञासन्न केपि तम् । तमशुश्रूषमाणानां नाशुश्रूषन्वचोपि हि ॥ ४१ ॥ 9 ४१. यो नृपोस्य वल्लभस्योजो बलं स्वबलावलेपेन रणकरणाजि - ज्ञासते स्म ज्ञातुमैच्छत्तं नृपं केपि स्वकीयमन्त्रिमित्रादयो नान्वजिज्ञासन्नानुमतिमप्यदित्सन्नित्यर्थः । तथा तं वल्लभमशुश्रूषमाणानां मानासेवितुमनिच्छूनां नृपाणां वचोपि । आस्तां मैत्रीविधानादीत्यपेरर्थः । केपि न हि नैवाशुश्रूषन्नीषदपि श्रोतुमैच्छन् । केपीति प्राक्तनमत्रापि योज्यम् ॥ जयाय प्रतिशुश्रूषत्यस्मिन्केपि महीभुजः । नादिरक्षन्त दोःशक्तिममुमूर्षन्त निम्बजाम् ॥ ४२ ॥ [ वल्लभराजः ] 1 ४२. अस्मिन्वल्लभे जयाय प्रतिशुश्रूषति प्रतिज्ञां चिकीर्षौ सति न केपि महीभुजो दोः शक्तिमदिदृक्षन्त युद्धेन परीक्षितुमैच्छन् । सर्वोत्कृष्टबलत्वादनेन सह न केपि युयुधिर इत्यर्थः । किंतु परित्राणाय निम्बजां निम्बजाख्यां सप्रत्ययां लोकप्रसिद्धां देवतामसुरमूर्धन्त स्म - र्तुमैच्छन् ॥ 1 जिज्ञासते । अत्र "अननोः सनः " [ ७०] इत्यात्मने || अननोरिति किम् । अन्वजिज्ञासन् ॥ शुश्रूषमाणानाम् । अन्त्र “श्रुवः " [ ७१ ] इत्यादिनात्मने ॥ अनाहुतेरिति किम् । आशुश्रूषन् । प्रतिशुश्रूषति ॥ असुमूर्षन्त । अक्षिन्त । अत्र " स्मृदृशः " [७२] इत्यात्मने ॥ १ सी 'दिशन्नि २ ई. न्त । इत्यत्र. Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.३.७३.] सप्तमः सर्गः। दैवात्सोस्याथ रोगोभूच्छिक्षांचक्रे न कोपि यम् । यमेदिधिषमाणं च व्यजिगीपन्त नागदाः ॥४३॥ ४३. अथ देवाद्विधिवशादस्य वल्लभस्य स रोगः शीतलिकाख्योभूधं रोगं कोपि वैद्यादिर्न शिक्षांचके । शरीरान्तर्गतत्वेन न ज्ञातुं शक्नुयामितीच्छति स्मेत्यर्थः । यं च रोगमेदिधिषमाणं विवर्धिषमाणमगदा औषधानि न व्यजिगीषन्त । असाध्यो व्याधिरुत्पन्न इत्यर्थः ।। सोङ्गे चिक्रंसमानं तमीक्षांचक्राण आत्मना। । समाधि बिभरांचके विभयांचवान हि ॥ ४४ ॥ ४४. स वल्लभो न हि बिभयांचकृवान्नैव भीतः । कीहक्सन् । अङ्गे चिक्रसमानं स्फायितुकामं तं रोगमात्मनेक्षांचक्रोणो बाधावृद्ध्या ज्ञातवान् । किं तर्हि समाधि चित्तैकाग्र्यं बिभरांचक्रे पोषितवान् । एतेनास्य विद्वत्तोक्ता ॥ बिभरांचकवानस्थैर्यमुत्कुर्वाणः कलिं तदा । संसारं सोवचक्रेथोपचक्रे योगिनां पदम् ॥ ४५ ॥ ४५. तदा स वल्लभः कलिं कलिकालकर्म रागद्वेषादिकं कलह वोत्कुर्वाणः परिजिहीर्षया सदोषं प्रतिपादयन्धैर्य चित्तावष्टम्भं बिभरांचकृवान्पोषितवान् । अथ तथा संसारं रागद्वेषादिदोषात्मकं भवप्रपञ्चमवचक्रे तिरस्कृतवानत एव योगिनां पदमुपचक्रे सिषेवे । योगिनो हि कलिमुत्कुर्वाणा धैर्य बिभ्रति संसारं चावकुर्वते ॥ १ सी. च विजि. डी च वाजि. १ ए तिः । यं. २ ए क्राणा बा. ३ सी डी लहमुत्कु. ६४ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ व्याश्रयमहाकाव्ये [वल्लभराजः नान्यदारान्नान्यवादान्ये पवित्राः प्रचक्रिरे । श्रियं तेषु प्रकुर्वाणः श्रेयसां स उपास्कृत ॥४६ ॥ ४६. स वल्लभः श्रेयसां पुण्यानामुपास्कृत तेषु गुणान्तरमादधौ तानि विशिष्टतराणि चक्र इत्यर्थः । कीदृक्सन् । ये पवित्रा यमनियमैः पूतात्मानो मुनयोन्यदारान्परस्त्रियो न प्रचक्रिरे न विनिपातमविभाव्य तानभिजग्मुरित्यर्थः । तथा येन्यवादान्परकथा न प्रचक्रिरे न कथयितुमारेभिरे न प्रकर्षणाकथयन्वेत्यर्थः । तेषु श्रियं प्रकुर्वाणो धर्मार्थ विनियुञ्जानः ॥ शिक्षांचक्रे । अत्र "शकः" [७३] इत्यादिनात्मने ॥ अनुबन्धेन । एदिधिषमाणम् ॥ उपपदेन । व्यजिगीपन्त ॥ अर्थविशेषेण । अङ्गे चिक्रसमानम् । अत्र “प्राग्वत्" [७४] इत्यात्मने ॥ ईक्षांचक्राणः इत्यत्राफलवत्यपि । बिभयांचकृवान् इत्यत्र फलवत्यपि “आमः कृगः" [७५] इत्यात्मनेपदं स्यान्न स्यान्चेति विधिप्रतिषेधावतिदिश्यते । यत्र तु पूर्वस्मादुभयं तत्र फलवत्यफलवति चोभयं स्यात् । बिभरांचक्रे । बिभरांचकृवान् ॥ कलिमुत्कुर्वाणः । संसारमवचक्रे । पदमुपचक्रे । अन्यदारान्न प्रचक्रिरे । श्रेयसामुपास्कृत । नान्यवादान्प्रचक्रिरे । श्रियं तेषु प्रकुर्वाणः । अत्र “गन्धन" [७६] इत्यादिना गन्धनादिषु क्रमेणात्मने ॥ स कालमधिकुवाणो वदमानः सुहृज्जने । तत्त्वेषु वदमानचावदिष्ट परमात्मनि ॥ ४७ ॥ ४७. स वल्लभः परमात्मनि परमः क्षीणसकलकर्माशत्वाच्छ्रेष्ठो य १ ई. शिष्टानि च . २ ई. र्थः । ये'. ३ ई. 'ति वोभ', Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.३.७७.] सप्तमः सर्गः । ५३९ - आत्मा तस्मिन्सर्वज्ञे देवेवदिष्ट परमात्मैवाधुना मे शरणमिति तद्विप्रयमुत्साहं वाचाविष्कृतवान् ध्यानेन तत्रोत्सहते स्म वेत्यर्थः । परमात्मानं दध्याविति तात्पर्यम् । कीदृक्सन् । कालं कृतान्तमधिकुर्वाणः पूर्वोक्तधर्मध्यानेनाभिभवंस्तेनापरराजीयमानो वा शक्तोशक्तो वा तमुपेक्षमाणो वेत्यर्थः । तथा सुहृज्जने वदमान इन्द्रियो - पघाताभावेन सम्यग्ज्ञानाच्छोकापनोदायानाकुलसंबोधनाच्च विकसितमुखत्वाद्दीप्यमानो वदेन्वा वदन्दीप्यमानो वा दीप्यमान एव वेत्यर्थः । तथा तवेषु परमात्मोक्तेषु पदार्थेषु वदमानश्च ज्ञात्वा वदन् वदितुं जानन्वा वदन्सन् जानन्वा जानन्नेव वेत्यर्थः ॥ कार्ये विवदमानान्स उपावदत मन्त्रिणः । उपावदत सेनान्यमथात्मानमसाधयत् ॥ ४८ ॥ ४८. कार्ये सैन्य व्याघोटनादौ राजकृत्ये विवदमानान्मिथ एकसंमत्यभावेन विमतिपूर्वकं विचित्रं भाषमाणान्विविधं मन्यमानान्वा मन्त्रिणः स वल्लभ उपावदत युष्माकं कुल क्रमागतानां मत्रिणामधुनैवं नानामतिकरणं न युक्तमित्युपसान्त्वयामास । इयन्तं कालं मया मत्पूर्वजैश्च यद्ययं सर्व पोषितास्तत्किमधुना विमतिकरणेन राज्यक्षयार्थमित्युपालभत वेत्यर्थः । तथा सेनान्यं सेनापतिमुपावदत यदि त्वं मम स्वामिन उपकारान्स्मरसि तदा त्वया मदीयमृत्युं कुत्राप्यज्ञापयतेदं सैन्यं शीघ्रमण हिलपुरे नेयमियगजाश्वधनादि मया तुभ्यं प्रसादाद्दत्तमिति रहस्युपालोभयत् । अथानन्तरमात्मानमसाधयत् पण्डितमरणेन दिवं गत इत्यर्थः ॥ कालमधिकुर्वाणः । अत्र “अधेः " [७७ ] इत्यादिनात्मने ॥ १ बी सी डी ई विस्कृत'. २ ई दन्दी ३ एषुव ४ ई वा मानने ५ इ. विविधं भा. ६ सी डी 'दिव्य'. Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ वल्लभराजः ] वदमानः सुहृज्जने । तत्त्वेषु वदमानः । परमात्मन्यवदिष्ट । कार्ये विवदमानान् । उपावदत मन्त्रिणः । उपावदत सेनान्यम् । अत्र " दीप्तिज्ञान" [ ७८ ] इत्यादिना दीत्यादिषु क्रमेणात्मने ॥ सैन्यैः प्रवदमानै धिगित्याशु शुकैरिव । सेनानीरुललाटवीं संप्रवदच्छुकाम् ॥ ४९ ॥ ४९. अथ सैन्यैः सह सेनानीराश्वटवीमुलल । किंभूतैः । शोकेन विलापित्वाद् हा धिगिति प्रवदमानैः । कैरिव शुकैरिव । सहोपमे - यम् । सैन्यशोकाक्रन्दश्रवणेन शोकाक्रान्तत्वाद् हा धिगिति प्रवदमानैः शुकैः सहेत्यर्थः । अत एवं किंभूतामटवीं संप्रवदच्छुकां संभूयविलपच्छुकाम् । एतेन वल्लभविरहे पक्षिणामपि शोक उक्तः ॥ 1 3 सैन्यैः प्रवदमानैः । इत्यत्र "व्यक्त" [ ७९] इत्यादिनात्मने ॥ व्यक्तवाचामिति किम् । संप्रवदच्छुकाम् ॥ शुकसारिकादीनामपि व्यक्तैवाक्त्वात्सहोक्ताविच्छन्त्यन्ये । प्रवदमानैः शुकैः ॥ विप्रावदन्त नामात्या अन्ये विप्रावदन्न वा । ५४० मिथोनुवदमानास्तु सेनान्योन्ववदन्वचः ॥ ५० ॥ I ५०. वल्लभेनोपसान्त्वितत्वादुपलब्धत्वाचामात्या न विप्रावदन्त मिथो वचो निषेधेन युगपद्विरुद्धं नोचुरित्यर्थः । एवं न वा न चान्ये नृपसामन्तादयो विप्रावदन् । तुर्विशेषे । किं तु सेनान्यो दण्डनेतुर्वचोमात्या अन्ये चान्ववदन् सेनान्या पूर्वमुक्ते पश्चादवदन् । प्रमाणीचक्रुरित्यर्थः । किंभूताः सन्तः । मिथोनुवदमाना मिथ एकसांमत्येन यथै वदन्ति तथापरे वर्दन्त एकैः पूर्वमुक्तेपरे पश्चाद्वदन्तो वेत्यर्थः ॥ १ एकाका २ सी डी व च किं . ३ ए दीनां व्य° ४ ई 'क्तत्वात्स'. ५ ए वान्ये ६ सी डी 'दन्ति । ए. Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.३.८१.] सप्तमः सर्गः । ५४१ विप्रावदन्त । विप्रावदन् । इत्यत्र "विवादे वा " [ ८० ] इति वात्मने ॥ मिथोनुवदमानाः । अत्र “अनोः " [१] इत्यादिनात्मने ॥ कर्मण्यसतीति किम् | वचोन्ववदन् ॥ राजपुत्रस्य जानानोपतस्थे जनतोन्मुखी । संगच्छमाना संपृच्छमाना संशुश्रुवे तथा ॥ ५१ ॥ ५१. जनता ग्रामादिजनौघ उन्मुखी सैन्यसंमुखोपतस्थे डुढौके । यतो राजपुन्नस्य वल्लभस्य जानाना राजपुत्रेण कृत्वा प्रवर्तमाना राजपुत्रे रक्ता सेनान्यमपि राजपुत्रतयाध्यवस्यन्तीवेत्यर्थः । ततश्च तथ सं यथावृत्तमर्णितवती । यतः संगच्छमाना सैन्यैः सह मिलन्ती संपृच्छमाना सैन्यान्प्रश्रयन्ती च ॥ संविदानां तथा संस्वरमाणां विनिवार्य ताम् । सैन्या धैर्ये समित्राणाः समृच्छन्ते स्म पत्तने ॥ ५२ ॥ ५२. तथा कुमारस्य तं मृत्युप्रकारं संविदानां जानतीमत एव संस्वरमाणां शोकेन विलपन्तीं तां जनतां विनिवार्य सैन्याः पत्तने समृच्छन्ते स्म प्राप्ताः । ऋच्छेरतैर्वा रूपमिदम् । किंभूताः सन्तः । धैर्ये समियाणा: संगच्छमानाः ॥ राज्ञि संपश्यमानेथ शोकपूर्णा विचक्रिरे । ते स्वरानविकुर्वाणा धैर्यात्तत्सर्वमूचिरे ॥ ५३ ॥ ५३. अथ राज्ञि चामुण्डराजे संपश्यमाने सैन्याभिमुखं पश्यति ते सैन्याः शोकपूर्णाः सन्तो विचक्रिरे । आक्रन्दनादिकचेष्टाभिनिष्फलमचेष्टन्तेत्यर्थः । ततश्च धैर्याच्चित्तावष्टम्भमाश्रित्य स्वरानविकुर्वाणा नानाविधान् शब्दानकुर्वाणास्तद्यथावृत्तं सर्वमूचिरे ॥ १ए था शु. Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ वल्लभराजः] न स्वरं व्यकरोद्राजानानयायच्छ मानया। शुचा नायच्छते स्मांही नाहते स्म शिरोपि च ॥ ५४॥ ५४. आयच्छमानया दीर्धीभवन्त्या अत एवान्नानया पीडयन्त्या शुचा शोकेन हेतुना राजा न स्वरं व्यकरोद्विनाशितवान् । महापुरुषत्वाच्छोकेन न घर्घरस्वरोभूदित्यर्थः । तथांही नायच्छते स्म न विसंस्थुलं प्रसारितवान्नापि च शिर आहते स्म ॥ राजपुत्रस्य जानाना । इत्यत्र "ज्ञः” [८२] इत्यात्मने । “अज्ञाने ज्ञः षष्ठी" [२.२.८०] इति षष्ठी॥ उपतस्थे । अत्र "उपात्स्थः" [८३] इत्यात्मने ॥ संगच्छमाना । समृच्छन्ते । संपृच्छमाना । संशुश्रुवे । संविदानाम् । संस्वरमाणाम् । अर्तीति सामान्यनिर्देशादादिरदादिश्च गृह्यते । समृच्छन्ते । समियाणाः । संपश्यमाने । अत्र “समो गम्' [८४] इत्यादिनात्मने ॥ शोकपूर्णास्ते विचक्रिरे । स्वरानविकुर्वाणाः । अन्न ":" [८५] इत्यादिनात्मने ॥ अनाश इति किम् । स्वरं व्यकरोत् ॥ आयच्छमानया। आनानयो । स्वेङ्गे च कर्मणि । आयच्छते स्मांही। आहते स्म शिरः । अत्र “आङो यम" [८६] इत्यादिनात्मने ॥ शुचा वितपमानानितुल्ययोत्तपमानया । उत्तेपेझं नृपोन्ये वा के नाङ्गानि वितेपिरे ॥ ५५ ॥ ५५. उत्तपमानयातितीव्रत्वेन प्रज्वलन्त्यात एव वितपमानो जा १ सी डी नाशत. २ ए स्म वि०. ३ सी. °या। स्वाङ्गे. Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.३.८९.] सप्तमः सर्गः। ५४३ ज्वल्यमानो योग्निस्तेन तुल्यया शुचा कृत्वा नृपश्चामुण्डराजोङ्गमुत्तेपे संतापितवान् । वा यद्वा । युक्तमेवैतत् । यतः केन्ये शुचाङ्गानि न वितेपिरेपि तु सर्वे सगरादयः पूर्वे महात्मानोपि पुत्रशोके नाङ्गानि संतापितवन्त इत्यर्थः॥ वितपमानाग्नि । उत्तपमानयों । स्वेङ्गे कर्मणि । अङ्गानि वितेपिरे । अङ्गमुत्तेपे। अत्र “ब्युदस्तपः" [१७] इत्यात्मने ॥ राजा दर्शयते स्मीस्तीर्थमस्मरयच्च तम् । स कलिं गर्धयांच नावञ्चयत तं कलिः॥५६ ॥ ५६. राजा ऋषीन्धर्मोपदेशेन शोकापनोदायागतान्मुनीन्दर्शयते स्म पश्यन्ति स्म राजानमृषयस्तान्संमुखालोकनाभ्युत्थानधर्मशुश्रूषाद्यनुकूलाचरणेन राजैव प्रयुङ्क्ते स्म । तथा मुनिभ्यो धर्मश्रवणोभूतभववैराग्यतस्तं राजानं तीर्थ पुण्यक्षेत्रमस्मरयच्च तीर्थ स्मरति स्म स तं स्मरन्तं तीर्थमेवे महाप्रभावत्वाद्यनुकूलाचरणेन प्रयुङ्क्ते स्मात्मसाधनार्थं प्रत्यक्षदृश्यमानप्रभाव शुक्लतीर्थं राजा सस्मारेत्यर्थः । अत एव स राजा कलिं कलिकालं गर्धयांचक्र एवं धर्माभिलाषणांवञ्चयत । तथा तं नृपं कलि वञ्चयत तदोद्भूतधर्माभिलाषाच्यावनेन न प्रतारितवान् । प्रवर्धमानधर्मपरिणामोभूदित्यर्थः ॥ राजा दर्शयते स्मर्षीन् । इत्यत्र "अणिक्कर्म णि" [८] इत्यादिनात्मने । अस्मृताविति किम् । तीर्थमस्सरयत्तम् ॥ कलिं गर्धयांचके । तं नावञ्चयत । इत्यत्र "प्रलम्भे" [८९] इत्यादिनात्मने। १ ए सी ते स्माषी. १ए सग.२ ए या। स्वाङ्गक.सीडी या। स्वाङ्गे. ३ बी पनोदेन. ४ ई देशशो. ५ ए वप्र. ६ ए ववत्वा .७ ए "ञ्चत.८ ई °लापोत्पादनेन. ९ ए सी ते रमापीन्. Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ घ्याश्रयमहाकाव्ये [दुर्लभराजः] द्विषोपलापयमानं स राज्ये न्यस्य दुर्लभम् । तपसा लापयांचके नोदलापयत स्वमु ॥ ५७ ॥ ५७. उ इति चामुण्डराजीयमहावदातश्रवणाय लोकानामभिमुखीकरणे । अहो लोकाः स राजा द्विषोपलापयमानमभिभवन्तं दुर्लभं दुर्लभराजं राज्ये न्यस्य तपसानशनेन लापयांचक्रे परैरात्मानमपूजयत् । अत एव स्वमात्मानं नोदलापयत नावञ्चयत ॥ तेन स्मालाप्यते विस्मापयमानैस्तपोगुणैः । विस्मापनकृता शुक्लतीर्थे गत्वाधिनर्मदम् ॥ ५८ ॥ ५८. अधिनर्मदं नर्मदानद्यां शुक्लतीर्थे तिलादिकृष्णवस्तुन इवात्मनोपि पापमलक्षालनेन नैर्मल्यहेतुत्वाच्छुक्लं यत्तीर्थं तस्मिन् गत्वा तेन चामुण्डराजेनालाप्यते स्म परैरात्मा पूज्यते स्म । यतो विस्मापयमानैरतितीव्रत्वेन लोकं विस्मयमानं प्रयुञ्जानैस्तपोगुणैनिस्पृहतादिभिः कृत्वा विस्मापनकृताश्चर्यकारिणा । नर्मदायां शुक्लतीर्थे तपोभिरास्मानं साधितवानिति तात्पर्यार्थः ॥ तपसा लापयांचक्रे । द्विषोपलापयमानम् । स्वं नोदलापयत । इत्यत्र "लोडिनो (न:)" [९०] इत्यादिनात्मन आच्चान्तस्याकर्तर्यपि ॥ अकर्तर्यपीति किम् । तपोगुणैस्तेनालाप्यते ॥ विसापयमानैः । अत्र “स्मिङ' [९१] इत्यादिनात्मन आञ्चान्तस्याकर्तयपि ॥ अकर्तर्यपीत्येव । विस्मापन ॥ अभीषयत निर्भीषानप्यरीनथ दुर्लभः । यद्भापनभुजः शक्रमप्यभापयतोचकैः ॥ ५९॥ १ ए इ तश्राव. २ सी डी स्पृहिता'. Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.३.९२.] सप्तमः सर्गः। ५४५ ५९. अथ चामुण्डराजस्यात्मसाधनानन्तरं दुर्लभो निर्भीषानपि निर्भयानप्यरीनभीषयत भीतवतः प्रयुक्तवान् । यद्यस्मात्स उच्चकैः शक्रमप्यभापयत । यतो भाप्यत आभ्यां भापनौ भुजौ यस्य सः । अभीषयत । इत्यत्र “बिभेतेभीष्च" [१२] इत्यात्मने । अस्य च भीषादेशः॥ पक्षे । अभापयत । इत्यत्रान्तस्याच्चाकर्तर्यपि । यद्यप्यत्र परमार्थतो भापनभुजाभ्यां कृत्वा भय तथाप्यवयवावयविनोरभेदेन भुजावपि दुर्लभ एवेति प्रयोतुरेव स्वार्थ इत्यात्वं स्यात् ॥ अकर्तर्यपीत्येव । निर्भीषान् । भापन । अत्र न करणादयं किं तु करणाझापनमिति प्रयोक्तुः स्वार्थ एवाकर्तर्यप्याकारः ॥ मिथ्याकारयमाणास्य कीर्तिः कृष्णं हिमोज्वला । पर्यमोहयतात्यन्तमायासयत च श्रियम् ॥ ६० ॥ ६०. अस्य दुर्लभस्य हिमोज्वला कीर्तिः श्रियं कृष्णभार्यामत्यन्तं पर्यमोहयत कृष्णस्यानुपर्लक्ष्यत्वेन व्यपगमाद्याशङ्कया परिमुह्यन्ती मू छन्ती प्रायुतात्यन्तमायासयताखेदयच्च । यतः कृष्णवर्णत्वात्कृष्णं विष्णु मिथ्याकारयमाणा कृष्णं मिथ्या कूटं करोत्युञ्चारयति लोकस्तं प्रयुजाना कृष्णवर्णापह्नवाल्लोकेन कृष्णमन्वर्थाभावरूपदोषदुष्टमसकृत्पाठयन्तीत्यर्थः । अत्र च व्याख्यानेाल्लोकेनेति ज्ञेयम् । यद्वा । कीर्तिः कृष्णं कृष्णवर्णापह्नवेन मिथ्या कूटं करोति विदधाति प्रयोक्तैवं विवक्षते नेयं कृष्णं मिथ्याकरोति किं तु कृष्णः स्वयमेव मिथ्याक्रियते मिथ्याभवति तं कीर्तिः प्रयुञ्जाना । एवं विवक्षायां णिगि सत्यपि मिथ्याकारयमाणासकृन्मिथ्यावतीत्यर्थः । तात्पर्येण कृष्णं श्वे. तयन्ती ॥ १ सी डी जस्य चात्म'. २ ए सी भीष्वा” इ. ३ सी डी णत्वस्या. ४ बी लक्षत्वे. ५ ई. यं मि. ६ डी कुर्वन्तीत्य. Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [दुर्लभराजः] स आयामयमानो वादयमानोर्थिनः किल । मधून्यधापयत किं किमपाययतामृतम् ॥ ६१ ॥ ६१. स दुर्लभः । किलेति सत्ये । आर्थिनो याचकान्कि मधून्यधापयत पाययामास किममृतं सुधामपाययत । कीदृक्सन् । आर्थिन आयामयमानः । पूर्ववत्कर्मकर्तृविवक्षयाकर्मकाद्धातोर्णिगि महादानेन वर्धयंस्तथा वादयमानः प्रियमालपन् । कूर्म दमयमानां गामवासयत दोष्ण्यसौ । प्रतापेनादयांचवे द्विषः खड्न चादयत् ॥ ६२ ॥ ६२. असौ दुर्लभः प्रतापेन को द्विषो दैयाद्यन्यायिशत्रूनादयांचक्रे खङ्गेन च कर्जा द्विष आदयत् । कानपि द्विषः प्रतापेनैव क्षयं नीतवान्कानपि युद्धेनेत्यर्थः । अत एव कूर्म कमठरूपिणं विष्णुं दमयमानां गुरुत्वात्खेदयन्ती गां पृथ्वी दोष्णि भुजादण्डेवासयंत स्थापितवान् । सर्वशत्रूच्छेदेनाखिलपृथ्वीं ववशीचकारेत्यर्थः ॥ लोकं रोचयमानोसौ नानर्तयत के मुदा। चक्रे धर्म सुरानीजे व्यधत्तायतनानि च ॥६३ ॥ ६३. असौ दुर्लभो धर्म दानादिकं चक्रे । तथा सुरानर्हदादिदेवानीजे पूजितवानायतनानि प्रासादान् व्यधत्त च कारितवांश्च । अत एव लोकं रोचयमानः प्रीणयन् के मुदा हर्षेण नानर्तयत ॥ स साधूनयजत्तत्त्वं जानानस्तत्पजानतः। अपावदिष्ट चैकान्तं समयच्छत शुद्धताम् ॥ ६४॥ १ बी वक्षाया. २ ए मद्धा. ३ ई दै. ४ ए °य स्था', Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.३.९३ ] सप्तमः सर्गः । ६४. स दुर्लभो वसतिमार्गप्रकाशकसुगृहीतनामधेयश्रीजिनेश्वरसूरिभिजैनधर्मे प्रतिबोधितत्वात्तत्त्वम् । जातावेकवचनम् । जीवाजीवपुण्यपापाश्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाख्यानि नव तत्त्वानि जानानो यथावस्थितान्यवबुध्यमानः संस्तत्तत्त्वं प्रजानत: साधू जैनमुनीनयजत्सत्कारसन्माननादिनाचितवान् । अत एवैकान्तमेकान्तवादं बौद्धादिसिद्धान्तपावदिष्टानेकान्तवादित्वानिराकार्षीत् । अत एव च शुद्धतां पापमलापनोदेन निर्मलतां समयच्छतात्मना सह संबद्धीचक्रे ॥ आयुरायच्छमाना उद्यच्छमानाः श्रियं नृपाः। अस्योद्येमुः कथां स्वं हि नात्मानं पर्यमोहयन् ॥६५॥ ६५. नृपा अस्य दुर्लभस्य कथामवदातवर्णनाग्रन्थमुद्येमुः कथाग्रन्थ उद्यमं चक्रुरित्यर्थः । यत आयुरायच्छमाना दुर्लभावर्जनयाँ जीवितव्य दीर्घाकुर्वन्तः । तथा श्रियमुद्यच्छमाना राज्यलक्ष्मीविषयमुद्यमं कुर्वन्तो जीवितव्यं च श्रियं च वाञ्छन्त इत्यर्थः । अत एव स्वमात्मीयमात्मानं हि स्फुटं न पर्यमोहयन्न विचेतनीचक्रुरात्मानमजानन्नित्यर्थः । यद्वा । सर्वस्वापहाराद्युत्थाधिव्याधिपीडाया अभावेन न मूर्छयामासुः ।। परिमोहयमानः स्वान् द्विषोये दोष्मतां भवन् । राज्ञाहायि महेन्द्रेण स्वसुः सोथ स्वयंवरे ॥ ६६ ॥ ६६. अथ स दुर्लभः स्वसुः स्वयंवरे महेन्द्रेण राज्ञा मरुदेशेशेनाहाय्याकारितः । कीदृक् । दोष्मतामग्रे धुरि भवन्वर्तमानोत एव स्वान्द्विषः परिमोहयमानस्तीव्रप्रहारादिपीडया मूर्छयन् ॥ १ सी शसु. २ सीभिर्जिन. ३ सी जीव. ४ सी ञ् जिन. ५ बी सी डी ई न्माना. ६ सी डी या दी. ७ बी सी डीई व्यं श्रि. Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ ध्याश्रयमहाकाव्ये [दुर्लभराजः] कृष्णं मिथ्याकारयमाणा । इत्यत्र “मिथ्या" [९३] इत्यादिनात्मने ॥ पर्यमोहयत श्रियम् । आयामयमानोर्थिनः । आयासयत श्रियम् । अपाययतामृतम् । अधापयत मधूनि । वादयमानोर्थिनः । अवासयत गाम् । कूर्म दमयमानाम् । प्रतापेनादयांचके । लोकं रोचयमानः । कं नानर्तयत । इत्यत्र "परिमुहा” [९४] इत्यादिनात्मने ॥ अदेनेच्छन्त्येके । खङ्गेनादयत् ॥ ईजे । चक्रे । अन्न "ईगितः” [९५] इत्यात्मने ॥ फलवतीत्येव । साधूनयजत् । केचित्त्वीगितो धातोर्णिगर्थ एव प्रेषणाध्येषणविशेषे प्रतिविधाननाम्नि वर्तमानादात्मनेपदमिच्छन्ति । व्यधत्त । व्यधापयतेत्यर्थः ॥ तत्त्वं जानानः । अत्र "ज्ञोनुपसर्गात्" [९६] इत्यात्मने ॥ अनुपसर्गादिति किम् । तत्प्रजानतः॥ एकान्तमपावदिष्ट । इत्यत्र "वदोपात्" [९७] इत्यात्मने ॥ समयच्छत शुद्धताम् । श्रियमुद्यच्छमानाः । आयुरायच्छमानाः। अत्र "समुद् [९८] इत्यादिनात्मने ॥ अग्रन्थ इति किम् । कथामुद्येमुः॥ स्वान् द्विषः परिमोहयमानः । स्वमात्मानं पर्यमोहयन् । इत्यत्र "पदान्तरगम्ये वा" [९९] इति वात्मने ॥ भवन् । इत्यत्र “शेषात्परस्मै" [१००] इति परस्मैपदम् ॥ प्रास्थितेन्द्र पराकुर्वन्ननुकुर्वन्स पूर्वजान् । सानुजोतिक्षिपन्सेनां तद्भूल्याकं प्रतिक्षिपन् ॥ ६७ ॥ ६७. स दुर्लभः सानुजो नागराजसहितः प्रास्थित । कीदृक्सन् । सेनामतिक्षिपन् । गमनायात्यन्तं प्रेरयन्नत एवातिबाहुल्याच्च तद्रूल्या सेनारेणुनार्क प्रतिक्षिपन्नाच्छादयन्नित्यर्थः । तथेन्द्र पराकुर्वन्महा न्यकुर्वन्नत एव पूर्वजान्मूलराजादीननुकुर्वन् ॥ १ ए लोकान्तरो'. २ सी डी विशेषणप्र. ३ ए नेपदम् । उप. ४ ए वतन्न. Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.३.१०१.] सप्तमः सर्गः। ५४९ अभिक्षिपन्तो हस्ताग्रं गन्धेभाः प्रवहन्मदाः । सैन्येस्यापरिमृष्यन्तोन्योन्यं पर्यवहन्पृथक् ॥ ६८॥ ६८. अस्य दुर्लभस्य सैन्ये गन्धेभा गन्धप्रधाना गजा हस्ताग्रं शुण्डाग्रभागमभिक्षिपन्त इतस्ततोभिमतं प्रेरयन्तः सन्तः पृथग्भिन्नाः पर्यवहन्समन्ताजग्मुः । यतोन्योन्यमपरिमृष्यन्तोसहमानाः। एतदपि कुत इत्याह । यतः प्रवहन्मदाः ॥ पराकुर्वन् । अनुकुर्वन् । इत्यत्र “परा" [१०१] इत्यादिना परसै ॥ प्रतिक्षिपन् । अभिक्षिपन्तः । अतिक्षिपन् । इत्यत्र "प्रत्यभि०" [१०२] इ. त्यादिना परस्मै ॥ प्रवहत् । इत्यत्र “प्राद्वहः" [१०३] इति परस्मै ॥ परिमृष्यन्तः । पर्यवहन् । इत्यत्र “परेम॑षश्च" [१०४] इति परस्मै ॥ ययावविरमन्पथ्यारमद्भिर्नर्मबन्धुभिः । समं परिरमन्नन्योदन्तादुपरमन्त्रयम् ॥ ६९ ॥ ६९. अयं दुर्लभ: पंथि ययौ । कीदृक्सन् । अविरमन्ननवरतं गच्छंस्तथारमद्भिः क्रीडद्भिर्नर्मबन्धुभिर्नर्मसचिवैः समं परिरमन्परिखेलंस्तथान्योदन्तात्स्वयंवरनायिकोदन्तादन्यस्या वार्ताया उपरमन्निवर्तमानः स्वयंवरकन्यकोदन्तमेव कुर्वन् ॥ कापि सोश्वमुपारंस्तेभेनारोहयत कचित् । काप्यासयन् रथे मित्राण्यकारयत सत्कथाः॥७॥ १एन्येस्य प. १ ए प्रावृह. २ ए परिय. ३ ई मस. ४ बी डी नायको. Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० व्याश्रयमहाकाव्ये [दुर्लभराजः] ७०. स दुर्लभः कापि कस्मिन्नपि स्थानेश्वमुपारंस्त । अत्र रमिरन्तभूतण्यर्थः सकर्मकः प्राप्त्युपसर्जनो वा सकर्मकः । आरुह्य गतिपञ्चकेनाखेलयत् । क्वचिच्चेभेन कीरोहयत । आरोहदिभं स: । न्यग्भवन्तं न्यगभावयेत् । स एवं विवक्षितवान् । नाहमारोहं किं तु स्वयमेवारुह्यतेभः स्वयमेव न्यगभूदित्यर्थः । ततः स्वयमेवं वारूढं न्यग्भूतं स प्रायुत णिग् । “वाकर्मणाम्" [ २.२.४] इत्यादिना कर्तुर्वा कर्मत्वात् । इभेनेभं वा स आरोहयत्पुनः । स एवं विवक्षितवान्नाहमारोहयं किं विभः स्वयमेवारोहयत न्यगभूदित्यर्थ इति पञ्चम्यवस्थानन्तरं पुनरपि स्वयमेवारोहयमाणमिभं स प्रायुत । पुनर्णिग् । न्यगभावयदित्यर्थः । कापि कस्मिंश्च प्रदेशे मित्राणि रथ आसयन्नुपवेशयन्सन्सकथाः साश्चर्याणि पूर्वपुरुषावदातवर्णनान्यकारयत ॥ स्खेदं शोषयमाणोभूच्चलयन्वीरुधस्तदा। पताकाः कम्पयन्वायुर्मुदे मध्विव भोजयन् ॥ ७१॥ ७१. तदा दुर्लभस्य गमनकाले वायुर्मुदेभूत् । कीहक्सन् । स्वेदं श्रमसंतापोत्थं धर्म शैत्याच्छोषयमाणस्तथा वीरुधो लताश्चलयन् । एतेन सौरभोक्तिः । तथा पताका रथादिस्था वैजयन्तीमुंदुत्वात्कम्पयनतश्चात्यन्तं सुखहेतुत्वान्मधु भोजयन्निव । एतेनास्य कार्यसिद्धिसूचकं शुभशकुनमुक्तम् ॥ तस्याभ्युदस्थुवारानाशयन्तो मृगार्भकान् । बोधयन्तोध्यापयन्तो बटून् ग्रन्थान्वनर्षयः॥ ७२ ।। ७२. वनर्षयस्तापसास्तस्य दुर्लभस्याभ्युदस्थुराश्रमगुरुत्वेनाभिमु१ डी टूनन्वि. १ सी डी र्थः प्रा, २ ई °यन्स ए. ३ सी मेवा'. ४ बीई व चारू'. ५ सी डी चमाव. Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.३.१०५.] सप्तमः सर्गः। ५५१ खमुत्थिताः । किंभूताः। कारुणिकत्वान्मृगार्भकान्नीवारानाशयन्तो भक्षयन्तस्तथा बटून् ग्रन्थानध्यापयन्तः पाठयन्तो बोधयन्तोर्थतोवगमयन्तश्च ॥ धुरा धुरं योधयद्भिः प्रावयद्भिरनोपथम् । द्रावयद्भिर्दुमूलानि स्रावयद्भिर्लता रसम् ॥ ७३ ॥ जनयद्भिः कलकलं नाशयद्भिः सरित्स्वपः । अविच्छायरलैः सोथ पुरी गोपायतो मरुम् ।।७४ ॥ ७३, ७४. स दुर्लभो मरुं मरुदेशं गोपायतो रक्षतो नडुलदेशाधिपस्येत्यर्थः । महेन्द्रस्य पुरी बलैः कृत्वाविच्छायद्ययौ । किंभूतैः । औत्सुक्येन युगपदनेकरथानां प्रेरणाद्भुरा सह धुरं योधयद्भिरा. स्फालयद्भिरत एवानः । जाताचेकवचनम् । रथान् । न पथोपथं "पथः संख्याव्ययोत्तर” इति क्लीबता । तदपथममार्ग प्रावयद्भिः प्रापयद्भिरत एव द्रुमूलानि रसं द्रावयद्भिर्घर्षणेन क्षारयद्भिस्तथा लता वल्ली रसं स्रावयद्भिः पीलनेन क्षारयद्भिस्तथा कलकलं जनयद्भिस्तथातिप्राचुर्यात्सरित्स्वपो नाशयद्भिः ॥ सोतिधूपायद तं पनायन्नुचितं व्यधात् । लक्षस्य पणमानेषु पणायन्कोटिमुद्भटः ॥ ७५ ॥ ७५. स महेन्द्र उचितं दुर्लभस्य योग्यं महाविस्तराभिमुखगमनदानसन्मानादि व्यधात् । कीदृक्सन् । उद्भट उदारोत एव लक्षस्य पणमानेषु हस्त्यश्वालंकारादिप्राभृतदानेन यावता द्रम्मादि लक्षं स्या १ बी सोपि धू. १बी ई विस्तारा. २ बी क्षणस्य. Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ दुर्लभराजः ] त्तावद्व्यवहरत्सु मैत्र्यादिना लक्षेणोपचैरत्स्वित्यर्थः । अर्थान्नृपेषु विषये कोटिं पणायन कोट्या प्रत्युपचरन्नित्यर्थः । तथातिधूपायदकं प्रतापातिशयेन संतापयन्तं सूर्यमतिक्रान्तं दुर्लभं पनायैन्स्तुवन् ॥ ५५२ अविरमन् । आरमद्भिः । परिरमन् । इत्यत्र "व्याडू" [१०५ ] इत्यादिना परस्मै ॥ उपरमन् उपारंस्त । इत्यत्र "वोपात्" [ १०६ ] इति वा परस्मै ॥ आसयन्मित्राणि । इत्यत्र “अणिगि” [ १०७ ] इत्यादिना परस्मै ॥ अणिगीति किम् । स्वयमेवारोहयमाणमिभं प्रायुङ्क्त । इभेनारोहयत ॥ प्राणिकर्तृकेति किम् । शुष्यति स्वेदः । शोषयमाणः स्वेदं वायुः ॥ अनाप्यादिति किम् । सत्कथाः कुर्वन्ति मित्राणि प्रायुङ्काकारयत सत्कथाः ॥ चल्यर्थ । चलयन् । कम्पयन् ॥ आहारार्थ । भोजयन् । आशयन्तः ॥ इङ् । अध्यापयन्तः ॥ बुधू । बोधयन्तः ॥ युधू । योधयद्भिः ॥ प्रु । प्रावयद्भिः ॥ गु 1 द्रावयद्भिः ॥ स्रु । स्त्रावयद्भिः ॥ नशू । नाशयद्भिः ॥ जन् । जनयद्भिः । इत्यत्र “चल्याहारा° [१०८] इत्यादिना परस्मै ॥ एकादशः पादः समर्थितः ॥ गोपायतः । धूपायत् । अविच्छायत् । पणायन् । पनार्थन् । इत्यत्र " गुपौ - धूप ” [१] इत्यादिनायः ॥ व्यवहारार्थात्पणो नेच्छन्त्येके । पणमानेषु ॥ ,, कन्यां कामयमानस्तामन्येद्युः प्राविशत्पुरीम् । ऋतीयमानः स्वर्गोप्ला सोथ गोपायिता भुवः ॥ ७६ ॥ ७६. अथान्येद्युः स भुवो गोपायिता रक्षिता दुर्लभः पुरीं प्राविशत् । कीदृक्सन् । स्वर्गोप्लेन्द्रेण ऋतीयमानो महद्धर्ज्या स्पर्धमानस्तथा १ सी गोपाच° २ए 'चयर ३ डी 'यन्ब्रुव ४ डी उपार. ५ बी “यम् । इ. ६ डी ई पर्ने. Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.४.१.] सप्तमः सर्गः। तां रूपाद्यतिशयेन प्रसिद्धां कन्यां महेन्द्रस्वसारं कामयमानोभिलषन् ॥ दृष्ट्वा विच्छायितारं तं पणायितृपथे तदा । अनुविच्छिन्यभूत्काचित्पणित्री नेष्टवस्तुनः॥ ७७ ॥ ७७. तदा पुरप्रवेशकाले काचिन्नायिका तद्रूपाक्षिप्तत्वादनुविच्छित्री दुर्लभस्य पश्चौद्यान्ती सतीष्टवस्तुनः पणित्री व्यवही नाभूत् । किं कृत्वा । पाँयितृपथे वणिक्पथे हट्टमार्गे विच्छायितारं गच्छन्तं तं दुर्लभं दृष्टा ॥ पुरधूपायितुर्जेता धूपिता नः स्मरो ह्ययम् । इत्थमेनं पनायित्र्यां पनिळ्यासीन का तदा ॥ ७८ ॥ ७८. एनं दुर्लभं पनायित्र्यां स्तुवत्यां सत्यामर्थात्कस्यां चित्कामिन्यां का कामिन्येनं पनित्री स्तोत्री नासीत् । कथं पनायिच्यामित्याह । अयं प्रत्यक्षो दुर्लभो हि स्फुटं निश्चितं पुरधूपायितुत्रिपुरदाहकस्य हरस्य जेता स्मरोस्ति । यतः किंभूतः। नोस्माकं धूपिता रूपातिशयेनोत्कण्ठारणरणकादिविधानात्संतापकोस्माकं सन्तापकत्वादयं नूनं स्वारिं हरं जित्वा स्वमूर्तिधारी कामो वर्तत इत्यर्थ इत्थम् ॥ शचीकामयितुस्तुल्यं कमित्री कापि तं तदा । : अन्वर्तितारं खं बालमृतीयित्र्यजुगुप्सत ॥ ७९ ॥ । ७९. तदा प्रवेशकाले काप्यन्वर्तितारमनुयान्तं स्वं बालमजुगुप्सत १ सी डी गायतृ. २ डी ल्यं कामि'. १ ए °न्द्रदुहितरं. २ सी डी श्चादयन्ती'. ३ सी पणयित्री. ४ सी डी bणायतृ. ५ बी सी डी ई न्तं दु. ६ डी °स्य जे. ७ डी ता स्मा. ८ सी हरि जि. ९ई त्वा मू. १० डी त्यर्थः ।।. ७० Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [दुर्लभराजः ] गतिविघ्नत्वादनिन्दत् । कीदृक्सती । शचीकामयितुरिन्द्रस्य सौन्दर्यादिसंपदा तुल्यं तं दुर्लभं कमित्रीच्छन्ती । अत एव तमेव ऋतीयित्री दर्शनाय गच्छन्ती ॥ ५५४ अतितिक्षत न स्थानं विचिकित्सुः स्वजीविते । अचिकित्स्ये तदा कापि शीशांसति शरान्स्मरे ॥ ८० ॥ ८०. तदाचिकित्स्यै दुर्लभदर्शनेन प्रकर्षप्राप्तत्वात्प्रतिकर्तुमशक्ये स्मरे शरान् शीशांसत्युत्तेजयति सति कापि कामिनी स्वजीविते विचिकित्सुः संशयाना सती स्थानं नातितिक्षत स्थातुं नाशक्नोत् । दुर्लभदर्शनायानवरतं तेन सह ययावित्यर्थः ॥ मीमांसमानां दीदांसमानां च तिलकं सखीम् । atreennai मेने काप्यस्य दर्शनविघ्नतः ॥ ८१ ॥ ८१. कापि कामिन्यस्य दुर्लभस्य दर्शनविघ्नतो हेतोः सखीं बीभत्समान विरूपां प्रतिकूलां मेने । कीदृशीं सतीम् । तिलकं मीमांसमानां भव्यमभव्यं वेति विचारयन्तीं दीदांसमानां च वक्रत्वापन - यनेन ऋजूकुर्वतीं च ॥ कामयमानः । अत्र “कमेर्णिङ् ” [२] इति णिङ् ॥ 66 ऋतीयमानः । अत्र "ऋतेङीय:" [३] इति ङीयः ॥ 1 ७ गोपायिता गोप्ता । धूपायितुः धूपिता । विच्छायितारम् अनुविच्छिन्नी । पर्णायितु पणिनी । पनायिभ्याम् पनित्री । कामयितुः कमित्री । ऋतीयित्री अन्वर्तितारम् । अत्र “अशवि ते वा" [४] इति वायादयः ॥ • १ डी भं कामि २ ए बी 'तीयत्री ३ सी डी 'त्स्ये तदा दु. "हसंय ५ बी डी ई 'कुर्वन्तीं च. 'तीयती अ. डी 'तीयन्ती अ. ४ डी ६ डी णायट. ७ बी 'तीयत्री. सी • Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.४.७.] सप्तमः सर्गः। अजुगुप्सत । अतितिक्षत । इत्यत्र “गुप्तिजः" [५] इत्यादिना सन् ॥ विचिकित्सुः । अचिकित्स्ये । अत्र “कितः" [६] इत्यादिना सन् ॥ शीशांसति । दीदांसमानाम् । मीमांसमानाम् । बीभत्समानाम् । अत्र "शान्दान्” [७] इत्यादिना सन् दीर्घश्चैषां द्विवचने सति पूर्वकारस्य ॥ महीयमाना नारीषु कण्डूयन्ती मुधा श्रवः । लालस्यमाना तमनु दोर्मूलं काप्यदर्शयत् ॥ ८२ ॥ ८२. कापि कामिनी तं दुर्लभमनुलक्ष्यीकृत्य मुधा निरर्थकं श्रवः कर्ण कण्डूयन्ती सती दोर्मूलं कक्षाधस्तनप्रदेशं संक्षोभना(णा?)दुर्लभमेवादर्शयत् । कीदृक् । लालस्यमानात्यर्थ सविलासा तथा नारीषु मध्ये महीयमाना सौन्दर्योत्कर्षेण पूजा ॥ भृशं पुनः पुनः कापि लसन्ती भृशमैक्षत । भृशं चकासतं जाजाग्रीयमाणस्मरा नृपम् ॥ ८३ ॥ ८३. कापि कामिनी भृशं चकासंतं शोभमानं नृपं दुर्लभं भृशमैक्षत । कीदृक्सती । जाजाग्रीयमाणस्मरात्यर्थमभीक्ष्णं वा जागरूककामात एव भृशमत्यर्थं लसन्ती विलसन्ती दुर्लभक्षोभना(णा ?)य गमनादिविशेषं कुर्वतीत्यर्थः । तथा पुनः पुनर्लसन्ती च ॥ काचिदंसात्पतद्दादरियमाणोदरांशुकम् ।। नावाव्यताटाव्यमानारार्यमाणैस्तदार्दिता ॥ ८४ ॥ ८४. तदा प्रवेशकाले काचिदादरियमाणोदरांतिकृशोदरी कामिन्यंसात्स्कन्धात्पतदंशुकं नावाव्यत भृशमभीक्ष्णं वा नारक्षत् । कीदृक्सती। १ बी सी डी ई क्षास्त. २ सी डी "तं तं शो'. ३ सी डी जागुरू. ४ई ले दाद. ५सी डी रा इति°. Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ व्याश्रयमहाकाव्ये . [दुर्लभराजः] अटाट्यमाना दुर्लभाददृक्षया भृशं पुनः पुनर्वा यान्ती तथारार्यमाणेरहमहमिकया दुर्लभदर्शनाय भृशं पुनः पुनर्वा गच्छद्भिोकैर्दिता संमर्दैन पीडिता स्वकृशोदरस्तनदर्शनेन राज्ञो रागोत्पादनायोदरस्तनपिधायकं वस्त्रं लोकसंमदेवशात्पतन्नारक्षदित्यर्थः ॥ अशाश्यमानं मोमूत्र्यमाणं काप्युज्झितुं शिशुम् । असोमूत्र्यत सोसूच्यमाने तस्यागमोत्सवे ॥ ८५ ॥ ८५. तस्य दुर्लभस्यागमोत्सवे सोसूच्यमाने नान्दीतूर्यनिर्घोषादिनाभीक्ष्णं भृशं वा ज्ञाप्यमाने दुर्लभदर्शनेत्युत्सुकत्वात्कापि शिशुमुज्झितुमसोसूज्यते प्रायतत । यतोशाश्यमानं भृशमभीक्ष्णं वा भुञ्जानं मोमूत्र्यमाणं भृशमभीक्ष्णं वा मूत्रयन्तम् ॥ दृशौ प्रोर्णोन्यमानां नीरङ्गी काप्युदक्षिपत् । चङ्गम्यमाणा जङ्गम्यमानां चाग्रेभ्यतर्जयत् ॥ ८६ ॥ ८६. कापि कुलाङ्गना दृशौ प्रोर्णोनूयमानां भृशमभीक्ष्णं वाच्छादयन्तीं नीरङ्गी मुखाच्छादकवस्त्राञ्चलमुदक्षिपहुर्लभावलोकनविनत्वादूर्ध्व चिक्षेप । तथा चङ्गम्यमाणा कुटिलं क्रामन्त्यग्रे पुरो जङ्गम्यमानां कुटिलं गच्छन्ती स्त्रीमभ्यतर्जयच्च ॥ कण्डूयन्ती । महीयमाना । इत्यत्र " धातोः " [ 0] इत्यादिना यक् ॥ लालस्यमाना । इत्यत्र " व्यञ्जनादे:०" [९] इत्यादिना यङ् ॥ पक्षे । " भृशं पुनः पुनर्वा लसन्ती ॥ व्यञ्जनादेरिति किम् । भृशमैक्षत ॥ एकस्वरादिति १ डी मूत्रमा, १ सी डी दनव. २ ए वी सी ई °त प्रयते । य'. Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०३.४.११] सप्तमः सर्गः । किम् । भृशं चकासतम् ॥ केचिजागर्तेरिच्छन्ति । जाजाग्रीयमाण ॥ सर्वसाद्धातो. रायादिप्रत्ययरहितात्केचिदिच्छन्ति । आवाव्यत । दादरियमाण ॥ अटाव्यमाना । अरार्यमाणैः । असोसूत्र्यत । मोमूत्र्यमाणम् । सोसूच्यमाने । अशाश्यमानम् । प्रोर्णोनूयमानाम् । अत्र "अव्यर्ति" [१०] इत्यादिना यङ् ॥ चङ्कम्यमाणा । जङ्गम्यमानाम् । अत्र “गत्यात्कुटिले" [११] इति या ॥ दृशा जेगिल्यमानेव तं लावण्यसुधामयम् । सासद्यमाना कामेन काप्यलोलुप्यत त्रपाम् ॥ ८७॥ ८७. कापि कामिनी त्रपामतिसानुरागदृष्टिपरपुरुषालोकोत्थल. ज्जामलोलुप्यतात्यन्तं विलोपागर्हितं चिच्छेद । कीहक्सती । कामेन सासद्यमाना गर्हितं सद्यमाना निर्दयं पीड्यमानेत्यर्थः । अत एव लावण्यमेवाप्यायकत्वात्सुधा सा प्रकृता यत्र तं लावण्यसुधामयं केवलसौन्दर्यघटितं तं दुर्लभं दृशा जेगिल्यमानेव सानुरागं निरन्तरं विलोकनाद्गर्हितं गिलन्तीव । यापि कामेन भोजनाभिलाषेण सासद्यमाना सती स्थूलंकवलाहारेण निजेगिल्यमाना स्यात्सापि “आहारे व्यवहारे च त्यक्तलेजः सदा भवेत्” इति वचनाद्बहुभक्षणोत्थां त्रपां लुम्पति ॥ काप्यचर्यताजञ्जभ्यताजञ्जप्यतापि च । दन्दश्यमाना दन्दह्यमाना नु तदवीक्षणे ॥ ८८॥ ८८. कापि कामिन्यचञ्चूर्यत तदर्शनौत्सुक्येन स्वाभाविकलीलागतित्यागेन शीघ्रगत्याश्रयणाद्गर्हितमर्गमत् । अजअभ्यत च कामो . १ बी सी डी "न्ति । अवा. २ बी सी डी माणा ॥. ३ सासद्यमानेत्यारभ्य कामेनेत्यन्तो ग्रन्थांश ई संज्ञके पुस्तके न दृश्यते. ४ डी लकेव'. ५ ए सी डी लज्जा स. ६ बीमत ।। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ दुर्लभराजः ] लासंवशेन मोट्टायितस्योज्जृम्भितत्वाद्गर्हितमजभेत । जभैङो रूपमिदम् । अत्यर्थं गात्रं मोटितवतीत्यर्थः । अज जप्यतापि हा मया मन्दभाग्ययासौ विश्वनेत्रामृतं नेक्षित इत्यादिस्वगर्हणातिचिन्तया गर्हितमचिन्तयश्च । यतस्तदवीक्षणे दुर्लभस्यानालोके सति दन्दश्यमाना नु मर्शकादिभिर्गर्हितं भक्ष्यमाणेव । दन्दह्यमाना न्वग्निना गर्ह्य दह्यमा नेवात्यन्तमरतिमनुभवन्तीत्यर्थः । यापि हि दन्दश्यमाना दन्दह्यमाना वा स्यात्सापि कष्टभयेन पलायनाश्चर्यतेङ्गस्यातिव्यथितत्वाज्जज्जभ्यते चँ जञ्जप्यते च मनसा गर्छं ध्यायति चेत्युक्तिः । जेगिल्यमाना । अलोलुप्यत । सासद्यमाना । अचञ्चूर्यत । अजञ्जप्यत । अजञ्जभ्यत । दन्दश्यमाना । दन्दह्यमाना । इत्यत्र गृलुप" [ १२ ] इत्यादिना यङ् ॥ स्त्रीभृशं शोभमानास्ताः क्षोभयन् गृणतीर्बुवम् । अगादृशं रोचमानः स स्वयंवरमण्डपम् ॥ ८९ ॥ ८९. स दुर्लभः स्वयंवरमण्डपमगात् । कीदृक्सन् । भृशमत्यर्थं रोचमानो रूपवेषादिना शोभमानोत एव भृशं रूपवेषादिना शोभमानास्ताः पूर्वोक्ताः स्त्रीः क्षोभयन् । अत एव कीदृशीः । ब्रुवं ग हा दुर्लभ प्राणवल्लभात्मसंगमेनास्माकं प्राणांस्त्वद्विर हे निर्गच्छतो रक्ष रक्षेत्यादिपरपुरुषाभिलाषप्रकटकवाक्यैः कुलस्त्रीणामनुचितं यथा स्यादेवं गृह्णतीर्वदन्तीः ॥ १ बी स्त्री भृशं. (C २ एती व ३ सी डी आगा . १ ए सवासन. २ ए डी भत् ।. ३ सी डी या स वि. ४ सी 'शक्यदि'. डी 'शक्यादि . ५ सी डी 'ष्टभावेन. ६ बी चम ७ सी डी ● मागा ८ए दिनाप ९ बी सी डी 'नन्तीर्व'. Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.४.१५.] सप्तमः सर्गः ५५९ ब्रुवं गृणतीः । भृशं शोभमानाः । भृशं रोचमानः । अत्र “न गृणा" [१३] इत्यादिना न यङ् ॥ तत्र बोभूयमानश्रीबोंभुवच्छ्रीषु राजसु । कुर्वन्मण्डपपोपूयां सोध्यास्तोचितमासनम् ॥ ९० ॥ ९०. स दुर्लभस्तत्र स्वयंवरमण्डप उचितं स्वयोग्यमासनमध्यास्त । कीहक्सन् । बो वत्यरुचौ नवनवभङ्गीरचनया पुनः पुनर्भवन्ती श्रीर्वेषाभरणमण्डनादिता शोभा येषां तेषु राजसु मध्ये बोभूयमानोस्कृष्टीभवन्ती श्रीर्वेषादिसंपद्यस्य सोत एव मण्डपपोपूयां स्वयंवरमण्डपपावित्र्यं कुर्वन् ॥ बोभूयमान । बोभुवत् । इत्यत्र “बहुलं लुप्" [ १४ ] इति यडो बहुलं लुप् ॥ बहुलग्रहणं प्रयोगानुसरणार्थम् । तेन क्वचिन्न स्यात् । पोपूयाम् ॥ पोपुवैस्तैः स योयूयः क्ष्मापैर्वरणमण्डपः । नाटयन्निखिलार्कस्याचोरयन्नभसः श्रियम् ॥ ९१ ॥ ९१. पोपुवैः सश्रीकत्वेन पवित्रकैस्तैः प्रसिद्धैः क्षमापैर्योयूयोत्यर्थं संयुक्तीभवन्सन्स प्रसिद्धो वरणमण्डपः स्वयंवरमण्डपो नभसः श्रियमचोरयत् । किंभूतस्य । नाटयन्तो विजृम्भमाणा निखिला द्वादशार्का यत्र तस्य द्वादशार्कभासुरादपि व्योनोनेकराजमार्तण्डैर्वरणमण्डपोत्यन्तं सश्रीकोभूदित्यर्थः ।। पोपुवैः । अत्र "अचि" [१५] इति यङो लुप् ॥ १ए पोपवै. १ डी मानाः ।. २ डी भुवन्त्य'. ३ ए रणं म. ४ ए बी डी "कृतशो. ५ सी डी °ण्डपेपो. ६ एन् ॥ भू. ७ ए °ण्डपं स्व. Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ब्याश्रयमहाकाव्ये [दुर्लभराजः] योयूयः । अत्र “नोतः" [१६] इति न यङो लुप् ॥ अचोरयत् । नाटयत् । इत्यत्र "चुरादिभ्यो णिच्" [१७] इति णिच् ॥ नियोजयत्या वेत्रिण्याः संयोजन्ती करे करम् । नाम्ना दुर्लभदेव्यागान्महेन्द्रस्य स्वसा ततः ॥ ९२॥ ९२. ततोनन्तरं नाम्ना दुर्लभदेवी महेन्द्रस्य स्वसा स्वयंवरमण्डपमागात् । किंभूता सती । नियोजयन्त्या राजन्यचक्रदर्शनार्थं प्रेरयन्त्या वेत्रिण्याः प्रतीहार्याः करे करं संयोजन्ती संबध्नन्ती हस्तिका ददतीत्यर्थः ।। विलम्ब नासहन्भूपा नान्योदन्तमसाहयन् । सदो भावयमानां तां वीक्ष्य क्षोभं बभूविरे ॥ ९३ ॥ ९३. सदः सभां भावयमानां प्राप्नुवतीं तां दुर्लभदेवीं वीक्ष्य नृपाः क्षोभं बभूविरे प्रापुः । अत एव विलम्ब नासहन् । तत्प्राप्त्यौत्सुक्यात्कालक्षेपं न चक्षमुः । तथा तत्रैव गतचित्तत्वादन्योदन्तं दुर्लभदेव्या अन्यस्याः कामिन्या वार्तामपि नासाहयन्न सेहिरे॥ स्त्रीषु रत्नं बभूवैषा भवन्ती तादृशीं श्रियम् । जीवयन्ती यतोनङ्ग किंकरत्वमकारयत् ॥ ९४ ॥ ९४. एषा दुर्लभदेवी स्त्रीषु नारीजातिमध्ये रत्नमुत्कृष्टा बभूव । यतो यस्माद्धेतोरेषानङ्गं किंकरत्वं स्वादेशकारितामकारयत् । कीह - - १ ए नन्तं किं. २ ए योजं सं. बी योजयन्ती. ३ सी डी नती ह. १ डी ति य. ४ ए भं विभू. Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.४.१८. ] सप्तमः सर्गः । 3 क्सती । तादृशीमतिशायित्वेनानाख्येयां श्रियं रूपलावण्यादिशोभां भवन्ती प्राप्नुवेत्यत एवान शंभुना दग्धाङ्गत्वादशरीरिणं कामं जीवयन्ती सर्वनृपेष्वस्योल्लासितत्वाज्जनयन्ती । यच्च तादृशीं श्रियं निरुपमा प्रभावलक्ष्मीं प्राप्नुवद्रत्नं चिन्तामण्यादि स्यात्तदेव ' अचिन्त्यो हि मणिमत्रौषधीनां प्रभावः' इत्युक्तेरनङ्गं महारोगादिना गतप्रायशरीरं नरं जीवयत्रित्वं स्वसेवकां कारयति ॥ यान्भिक्षावासयद्यानागमयद्भूपतिर्द्विजान् । उमामुद्राहयन्तोत्र ते स्वात्येन्दुमयोजयन् ।। ९५ ।। १ बी 'तिशयत्वे. यप्राचु बी यन्प्राचु ७ बी न्दिनुमि ७१ 9 ९५. यन्द्विजान्भिक्षावासर्येत्प्राचुर्यव्यञ्जनवत्वादिनिमित्तभावेन वसतः प्रायुङ्क महाव्रतस्थत्वेन भिक्षावृत्तिं य उपाजीवन्नित्यर्थः । अत एव यान्भूपतिर्महेन्द्र आगमयद्दिजानागच्छत आख्यानेन प्रायुङ्कातिपून्यत्वादहो द्विजा आगताः सन्त्येषामासनादि दीयतामित्यात्मना यदागमनमाख्यदित्यर्थः । तेत्र स्वयंवरमण्डप उमां गौरीमुद्वाहयन्त उमामुद्वहन्तीमभिनयेन प्रयुञ्जाना विवाहप्रस्तावादुमोद्वाहमभिनयन्तः सन्त इत्यर्थ: । स्वात्या स्वातिनक्षत्रेण सहेन्दुमयोजयन् स्वात्येन्दुं युजीनं ज्ञानेन प्रायुञ्जत । उद्वाहविषये श्रेष्टोद्य स्वात्येन्दुयोगोस्तीत्यगणयन्नित्यर्थः॥ स्वदेशात्मस्थिताः सूर्यं येत्रोदगमयन्नृपाः । तस्याद्वास्था बुवृस्ताशशंसेत्यजुगुप्सिषा ॥ ९६ ॥ ९६. तान्वुवूर्पून्वरीतुमिच्छ्रन्नृपांस्तस्या दुर्लभदेव्या द्वास्था प्रतीहारी नास्ति जुगुप्सिषा निन्दितुमिच्छा यस्याः सा प्रशंसितुकामा सतीति वक्ष्यमाणप्रकारेण शशंसास्तावीत् । ये नृपाः स्वदेशात्प्रस्थिता अत्र ७ ५६१ २ सी डी वत्युत ३ सी डी रं जी . ४ ए ५ सी त्वादाहो. डी 'वादाह द्वि. ६ डी 'आना ज्ञा. ८ डी 'सास्तवी. Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढ्याश्रयमहाकाव्ये [दुर्लभराजः ] मण्डपे सूर्यमुदगमयन्प्राप्त्योद्गच्छन्तं सूर्य प्रायुञ्जत । ये स्वयंवरे शीघ्रमागता इत्यर्थः ॥ न युयुत्सितुमिच्छन्ति द्विषो यं जीवकाम्यया। जीवीयज्जीवदोङ्गोयमिदंकाम्यसि सुभ्र किम् ॥ ९७ ॥ ९७. जीवीयजीवदो जीवितव्येषिणां जीवितव्यदातायमङ्गोङ्गदेशाधिपोस्ति । यं जीवकाम्यया जीवितव्यवाञ्छया द्विषो युयुत्सितुं प्रजिहीर्षितुमपि नेच्छन्ति । तस्माद्धे सुभ्र किमिदंकाम्यसीममङ्गमिच्छसि ॥ स्वःकाम्या न स्वरिच्छन्ति न किमिच्छन्ति चर्षयः । पुत्रीयन्तो यमस्मिन्कि कोशिराजे पतीयसि ॥ ९८ ॥ ९८. अस्मिन्काशिराजे काशिदेशाधिपे किं पतीयसि पत्याविवाचरसि । यं पुत्रीयन्तो धार्मिकत्वेन पुत्रवत्पालकत्वाद्विनयाद्युपचारकत्त्वाच्च पुत्रमिवाचरन्त ऋषयः स्वःकाम्या अपि । अपिरत्राध्याहार्यः । महाकष्टानुष्ठानासेवनेन स्वर्गेषिणोपि न स्वरिच्छन्ति परिपूर्यमाणसकलसमीहितार्थत्वेन सदा सुखितत्वान्न स्वर्गमिच्छन्ति । न किमिच्छन्ति च किमप्यपवर्गादिकमपि नेच्छन्ति ॥ नियोजयन्त्याः संयोजन्ती । असाहयन् असहन् । इत्यत्र "युजादेन वा" [१८] इति वा णिच् ॥ भावयमानाम् बभूविरे । अत्र "भूङः प्राप्तौ णि" [१९] इति वा णिङ् ॥ भूङ इति ङकारनिर्देशो णिङभावेप्यात्मनेपदार्थः । प्राप्तेरन्यत्र बभूव । प्राप्तावपि परस्मैपदमित्यन्ये । श्रियं भवन्ती ॥ १ सी डी 'न्तो जम. २ बी कासिरा. १ डी खेतोः सु. २ सी डीन्ति च. Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६३ [है ० ३.४.२४] सप्तमः सर्गः । प्रेषणेन प्रयोक्तृव्यापारे । अनङ्गं किंकरत्वमकारयत् ॥ अध्येषणेन । अनङ्गं जीवयन्ती॥ निमित्तभावेन । यान्भिक्षावासयत् ॥ आख्यातेन । यानागमयत् ॥ अभिनयेन । उमामुद्वाहयन्तः ॥ ज्ञानेन । स्वात्येन्दुमयोजयन् ॥ प्राया । स्वदेशात्प्रस्थिताः सूर्यं येत्रोदगमयन् । इत्यत्र "प्रयोक्तृ'' [२०] इत्यादिना णिग् ॥ वुवू'न् । इत्यत्र “तुमर्हाद्” [२१] इत्यादिना सन् ॥ अतत्सन इति किम् । युयुत्सितुमिच्छन्ति ॥ तद्रहणं किम् । अजुगुप्सिषा ॥ जीवकाम्यया। इदंकाम्यसि । स्वःकाम्याः । अत्र “द्वितीयायाः काम्यः" [२२] इति काम्यः ॥ जीवीयत् । इत्यत्र “अमा” [२३] इत्यादिना क्यन् ॥ अमाव्ययादिति किम् । किमिच्छन्ति । स्वरिच्छन्ति ॥ यं पुत्रीयन्तः । काशिराजे पतीयसि । इत्यत्र "आधाराच" [२४ ] इत्या. दिना क्यन् ॥ ऐन्यामिन्द्रति यः शास्त्रे गल्भते न तु होडते । अक्लीवमानेवन्तीशे किमत्र त्वं शचीयसे ॥ ९९ ॥ ९९. अक्लीवमाने क्लीबवदनाचरति शूरेत्रावन्तीशे मालवाधिपे किं त्वं शचीयस इन्द्राणीवाचरसि । य ऐन्यां पूर्वस्यामिन्द्रतीशत्वेनेन्द्रवदाचरति । तथा यः शास्त्रे गल्भते गल्भतेचि गल्भः प्रगल्भस्त द्वदाचरति । शास्त्राणि सम्यगवबुध्यत इत्यर्थः । न तु नै पुनर्होडते होडते के होडो मूर्खस्तद्वदाचरति ॥ १ बी सी ख्यानेन. २ डी 'न्तिय । यं. ३ सी तेचि. ४ सी न हो. Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ व्याश्रयमहाकाव्ये [दुर्लभराजः] इन्द्रति । गल्भते। अक्लीबमाने । होडते । अत्र “कर्तुः क्विप्" [२५] इत्यादिना विप् । गल्भक्लीबहोडेभ्यः पुनः स एव ङित् ॥ शचीयसे । अत्र "क्यङ्" [२६] इति क्यङ् ॥ यस्य वाचः पयायन्ते लावण्यं च पयस्यते । चैद्येप्सरायमाणा त्वं रन्तुमोजायसेत्र किम् ॥ १० ॥ १००. अत्र चैद्ये चेदिदेशाधिपेप्सरायमाणा त्वं किं रन्तुमोजायस ओजस्विनीवाचरस्युद्यच्छसीत्यर्थः । यस्य वाचो माधुर्यात्पयायन्ते दु. ग्धवदाचरन्ति । लावण्यं च सौन्दर्यं च पयस्यते ॥ ओजस्यन्ते भृशायन्ते संश्चायन्ते चतुर्दिशम् । कीर्तयो यस्य तत्रास्मिन्कुरौ किं सुमनायसे॥१०१॥ १०१. तत्रास्मिन्कुरौ कुरुदेशेशे किं सुमनायसेसुमनाः सुमना भवस्यनुरज्यसीत्यर्थः । यस्य कीर्तय ओजस्यन्त ओजस्विन्य इवाचरन्त्यतिप्राचुर्येण प्रबलीभवन्तीत्यर्थः । तथा चतुर्दिशं व्यञ्जनान्तादपि केचिदापमिच्छन्ति तन्मते दिक्शब्दादपि । चतस्रो दिशा यत्र तद्यथा स्यादेवं भृशायन्तेभृशा भृशा भवन्ति । चतुर्दिक्षु मङ्गु प्रसरन्तीत्यर्थः। तथा संश्चायन्ते संश्चत्कुहको विस्मापक इत्यर्थः । असंश्चतः संश्चतो भवन्ति प्रतिदिनं नवनवावदातेभ्य उद्भवेन सदा नवत्वाचतसृष्वपि दिवाश्चर्यकारिण्यः स्युरित्यर्थः ।। पयायन्ते पयस्यते । अत्र “सो वा लुक्क" [२७] इति क्यङन्त्यसस्य च लुग्वा ॥ ओजायसे । अप्सरायमाणा । इत्यत्र "ओजोप्सरसः" [२८] इति क्यङ् स. लोपश्च ॥ अन्ये वोजःशब्दे सलोपविकल्पमिच्छन्ति । ओजायसे ओजस्यन्ते ॥ The ms. eit omits the part of the commentary from धि in देशाधिपे to the verse biginning with ओजस्यन्ते. २ बी सी रन्तिऽति. ३ सीन्ति दि. Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.४.२९. ] सप्तमः सर्गः । ५६५ भृशायन्ते । सुमनायसे । संश्चायन्ते । अत्रे “च्यर्थे” [२९] इत्यादिना 1 क्यङ् सतयोर्यथासंभवं लोपश्च ॥ लोहितायन्मुखांचर्मायतः पटपटायतः । द्विषोकष्टायमानोहयोमुंहूणं वृणोषि किम् ।। १०२ । १०२. अमुं हूणं हूणदेशेशं किं वृणोषि । योकष्टायमानः कष्टाय पापकर्मणेक्षत्राचारयुद्धादिकायाक्रामन् क्षत्राचारेण युध्यमानः सन्नित्यर्थः । द्विषोहञ् जघान । किंभूतान्सतः । चर्मायतश्चर्मणः स्वतश्रार्थवृत्त्या प्रकृतिविकारभावाप्रतीतेव्यर्थो नास्तीति तद्वृत्तेः प्रत्यय इति । अचर्मवतश्चवतो भवतः प्रहाररक्षार्थं सखेटकीभवतोत एव पटपटायतेः पटच्छन्दोप्यत्र तद्वति वर्तते । स्फेरिकास्फालनोत्थपटच्छब्देनापटत्वत: पटत्वतो भवतः । युद्धोद्यतानित्यर्थः । अत एव च लोहितायन्त्यतिको पादलोहितानि लोहितानि भवन्ति मुखानि येषां तान् ॥ न यः कक्षायते कोपालोभात्कृच्छ्रायते न च । नापि सत्रायते कामान्माथुरं किं भजस्यमुम् ॥ १०३ ॥ Ε १०३. अमुं माथुरं मथुरायां भवं नृपं किं भजसि । यः कोपान्न कक्षायते कक्षाय वधबन्धादिकाय पापकर्मणे न क्रामति न च लोभाकृच्छ्रायैते कृच्छ्राय प्रजातीत्रकरपीडनादिकाय पापकर्मणे न कामति नापि कामात्कन्दर्पात्सत्रायते सत्राय पररुयपहारादिकाय पापकर्मणे न क्रामति ॥ १ सी 'त्र "वायें ". २सी 'क्षार्थी स ३ बी सी डी 'तः पटप ४ डी 'दोत्र. ५ एस्फरका ६ सी डी °ति नापि . ७ एय प्र. <° 1°. Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ व्याश्रयमहाकाव्ये गहने गहनायन्ते न रोमन्थायितैणके । व्याधा अप्याज्ञया यस्य विन्ध्येशे रमसेत्र किम् ।। १०४ ॥ १०४. अत्र विन्ध्येशे किं रमसे । यस्याज्ञया हेतुना व्याधा अपि मृगयाजीविनोपि गहने वने न गहनायन्ते गहनाय मृगादिवधाय पापकर्मणे न क्रामन्ति । अत एव किंभूते गहने । रोमन्थायिता मृत्युभयाभावेन सुखितत्वाद्रोमन्थमभ्यवहृतं द्रव्यमुद्रीये चर्वितवन्त एणा मृगा यंत्र तस्मिन् । एतेने तस्यातिधार्मिकत्वोक्तिः ॥ । पटपटयतः । लोहितायत् । चर्मायतः । इत्यत्र “डाज्” [३०] इत्यादिना षिक् ॥ कष्टायमानः । कक्षायते । कृच्छ्रायते । सत्रायते । गहनीयन्ते । अत्र “कष्ट " [३१] इत्यादिना क्यङ् ॥ रोमन्थायित । इत्यत्र "रोमन्थाद् " [३२] इत्यादिना क्यङ् ॥ फेनायन्ते बाष्पायन्ते चोष्मायन्ते च यद्विषः । धूमायावोढुं किमन्त्र सुखायसे ।। १०५ ॥ [दुर्लभराजः] १०५. अग्नौ विवाहाग्निकारिकावहौ धूमायिते यवादिक्षेपेण धूममुद्रमति सत्यन्ध्रेन्ध्रदेशाधिपे विषय उद्घोढुं किं सुखायसे सुखमनुभवसि । यद्विषः फेनायन्ते बाष्पायन्ते चोष्मायन्ते च युद्धादिना - त्यन्तं खेदितत्वात्फेनान्मुखे फेनबुदान्वाप्पांश्च पराभवोत्थानि नेत्रवायूँष्मणच संतप्तोच्छ्रासानुद्वमन्ति ॥ १ एन्थायतै. १ सी डी यत्रास्मि. ४ ए बी सी डी 'नायते. २ बी सी डी ई न यस्या'. ३ बी टायितः. ५ सी डी ते यु. ६ सी डी 'यूष्माण . Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.४.३५.] सप्तमः सर्गः । ५६७ श्रीन दुःखायते यत्र वाण्या वैरायते न च । शब्दायितयशःशङ्खः सोयं श्रीगूर्जरेश्वरः ॥ १०६ ॥ १०६. सोयं प्रत्यक्ष: शब्दायितयशःशङ्खः सशब्दीकृतकीर्तिकम्बुर्गुर्जरेश्वरोस्ति । यत्र श्री राज्यादिलक्ष्मीन दुःखायते न्यायोत्साहादिगुणैरस्मिन्सुखेन सदा वासित्वान्न दुःखमनुभवति । न च नापि वाण्या सह वैरायते वैरं करोति । स्वभावाभिथो विरुद्ध अपि श्रीवाण्यौ विरोधत्यागेन यत्र तिष्ठत इत्यर्थः । अनेन च यदि त्वममुं वृणोषि तदा त्वमपि श्रीरिवात्र न दुःखायसे नापि सपत्नीभिः सह वैरायसे तस्मादमुं वृणीष्वेति दुर्लभदेवी ज्ञापिता ॥ फेनायन्ते । ऊष्मायन्ते । बाप्पायन्ते । धूमायिते । इत्यत्र “फेनोप्म" [३३] इत्यादिना क्यङ् ॥ सुखायसे । दुःखायते । अत्र "सुखादेः" [३४] इत्यादिना क्यङ् ॥ शब्दायित । वैरायते । अत्र "शब्दादेः कृतौ वा" [३५] इति वा क्यङ् ॥ नमस्यन्वरिवस्यंश्वाचित्रीयत तपस्यताम् । यश्च दुर्लभराजं तं नाम्नामुं कि वुवर्षसि ॥ १०७॥ १०७. अमुं नाम्ना दुर्लभराजं किं वुवूर्षसि । यश्च । चः पूर्ववाक्यापेक्षया समुच्चये । नमस्यन्नमस्कुर्वन्वरिवस्यंश्च वरिवः कुर्वन्सेवमानश्च संस्तपस्यतां तपः कुर्वतां कर्मणो वृत्तावन्तर्भूतत्वादकर्मकत्वम् । तपोधनानामचित्रीयताहो राजाधिराजस्याप्यस्य कीदृग्विनय इत्याश्चर्यमकरोत् । नाम्ना दुर्लभमिति नामनिर्देशेन दुर्लभदेवीदं ज्ञापिता १ सी डी श्रीगुर्ज. १ ए सितत्वा. २ डी यन्ते वै. ३ डी वाण्योर्विरो'. ४ सीमायते. डी मायन्ते वै. Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ दुर्लभराजः ] यदुतेक नामत्वेने करा शित्वादेकनक्षत्रत्वाच्च तवामुना सहातिश्रेष्ठो योग इति ॥ तपस्यताम् । अत्र " तपस: क्यन्" [ ३६ ] इति क्यन् ॥ 012 नमस्यन् । वरिवस्यन् । अचित्रीयत । इत्यत्र " नमः दिना क्यन् ॥ साथ हस्तयमानास्य कण्ठे चिक्षेप च खजम् । अश्वैरुत्पुच्छयमानैर्ययौ कुप्यच्च राजकम् ॥ १०८ ॥ १०८. अथैवं द्वास्थाभणनानन्तरं सा दुर्लभदेवी हस्तयमाना हस्तमुत्क्षिपन्त्यस्य दुर्लभस्य कण्ठे स्रजं वरमालां चिक्षेप च । तथा राजक नृपौघः कुप्यद्दुर्लभवरणेन क्रुध्यत्सदुत्पुच्छयमानैर्वेगेन प्रेरितत्वात्पुच्छानुर्ध्वमस्यद्भिरश्वैः कृत्वा ययौ च स्वयंवरमण्डपान्निर्जगाम च ॥ [ ३७ ] इत्या परिपुच्छयमानेभैरश्वैः पुच्छयमानकैः । द्राग्विपुच्छयमानोक्षरथैरागाच्च बन्धुता ।। १०९ ।। 3 १०९. बन्धुता दुर्लभस्य बान्धवौधो विवाहोत्सवविधय आगात् । कैः कृत्वा । परिपुच्छयमानेभैः पुच्छान्समन्तादस्य द्भिर्गजैस्तथा पुच्छयमानकैरज्ञातैः पुच्छानस्यद्भिरश्वैस्तथा विपुच्छयमानाः पुच्छान्विविधं विशिष्टं वास्यन्त उक्षाणो वृषा येषु ते तथा ये रथास्तैश्च ॥ हस्तयमाना । इत्यत्र “अङ्गात् " [३८] इत्यादिना णिङ् ॥ उत्पुच्छयमानैः । परिपुच्छयमान । विपुच्छयमान । पुच्छयमानकैः । अन्र "पुच्छाद्” [३९] इत्यादिना णिङ् ॥ १ सी डी 'च्छान्यूर्ध्व . २ सी डी 'द्विरुचैः कृ. ३ ए इ विषये . Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.४.४२.] सप्तमः सर्गः । संभाण्डयन्ते संचीवरयमाणा मखाय ये । ते मत्रयन्तो ब्रह्माणस्तयोः पाणी अमिश्रयन् ॥ ११० ॥ ११०. ते ब्रह्माणो द्विजा मन्त्रयन्तो विवाहोचितमन्नानाचक्षाणाः सन्तस्तयोर्वधूवरयोः पाणी अमिश्रयन् संयुक्तीचक्रुः । ये यागेषु सदोद्यतत्वान्मखाय यागार्थ संभाण्डयन्ते भाण्डानि यज्ञोपकरणानि समाचिन्वन्ति । किंभूताः । संचीवरयमाणाश्चीवरं वस्त्रं समाच्छादयन्तो यजमानेभ्यो भिक्षयोपार्जयन्तो वा ।। संभाण्डयन्ते । अत्र "भाण्डात्' [ ४० ] इत्यादिना णिङ् ॥ संचीवरयमाणाः । अत्र “चीवरात्" [४१] इत्यादिना णिङ् ॥ अमिश्रयन् । मन्त्रयन्तः । अत्र “णिच्” [४२ ] इत्यादिना णिचू ॥ ये पयो व्रतयन्त्यन्नं व्रतयन्ति च ये द्विजाः। वेदापयन्तस्ते चक्रुर्मधुपर्कादिकं तयोः ॥ १११ ॥ १११. ते द्विजा वेदापयन्तो वेदमाचक्षाणास्तयोर्मधुपर्कादिकं मधुपर्क दना संपृक्तं मधु । तेनात्रोपचाराद्वधूवराभ्यां यन्मधुपर्कस्य प्राशनं तदुच्यते । तदादिर्यस्य प्रदक्षिणादापनादेविवाहाचारस्य तं चक्रुः। ये पयो दुग्धं व्रतयन्त्यस्माभिः पय एव भोक्तव्यमिति व्रतं कुर्वन्ति गृह्णन्ति वा तथा येन्नमस्माभिर्न भोक्तव्यमिति व्रतयन्ति च ॥ चौलुक्याय महेन्द्रोथ सत्यापितमनोरथः। अर्थापयश्वेतयन्नश्वयंस्तत्तत्तदा ददौ ॥ ११२॥ ११२. अर्थे तथा तदा विवाहकाले सत्यापिता: परिपूर्णीकरणेन १ ए पनोचस्ते. १ बी पकारक. २ ई संयुक्तं. ३ सी डी °थ तदा. ४ ए °णे च सत्यीकृत्या म'. Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० व्याश्रयमहाकाव्ये [ दुर्लभराजः ] सत्यीकृता मनोरथा येन स महेन्द्रस्तत्तदर्थादि चौलुक्याय ददौ । कीदृक्सन् । अर्थापयञ् श्वेतयन्नश्वयन्न हो अर्थाः श्वेताश्वा अश्वतराचानीयन्तामित्यर्थान्धनानि श्वेताश्वान् श्वेततुरङ्गानश्वतरान्वे सरानुपलक्षणत्वाद्धस्त्यादींश्चाचक्षाणः ॥ गालोsयितृशाङ्गव सोथानावरयन्नदात् । कनिष्ठां भगिनीमन्यां नागराजाय जिष्णवे ॥ ११३ ॥ ११३. अथ स महेन्द्रो जिष्णवे जैत्राय नागराजाय दुर्लभानुजायान्यां कनिष्ठां भगिनीं लक्ष्मीनाम्नीमदात् । कीदृक् । अनाह्वरयन्नाह्वरति कुटिलीभवतीति अचि कुत्सिताद्यर्थे कपि च आह्नरकं कुटिलं वोक्यं कुटिलः पुरुषो वा । ऋजुस्वभावत्वेन कौटिल्याप्रियत्वात्तत्तं वानाचक्षाणः । श्लेषोपमामाह । गालोडेयितृशाङ्गवेति । गोडित लोडनम् । गुप्तं लोडितमिति तु क्षीरस्वामिना निरुक्तिः कृता । उभयत्रापि पृषोदरादित्वाद्गादेशे गालोडितं गोदोहनं विलोडनं वेत्यर्थः । गोपावस्थायां गालोडितं करोति गालोडयिता यः यथानाह्वरयन्कनिष्ठां भगिनीं सुभद्राख्यां जिष्णवेर्जुनायादात् ॥ शार्ङ्ग विष्णुः स पयो व्रतयन्ति । अन्नं व्रतयन्ति । इत्यत्र “व्रताद्" [४३] इत्यादिना निघू ॥ सत्यापित | अर्थापयन् । वेदापयन्तः । अत्र “सत्यार्थ” [४४] इत्यादिना आदन्तादेशः ॥ श्वतयन् । अश्वयन् । गालोडयितृ । अनाह्वरयन् । इत्यत्र “श्वेताश्व" [ ४५ ] इत्यादिनाश्व-तर- इत-कानां लुप् ॥ १ए यन्निश्चय २ ए वा कु. ३ ई तत्तत्त्वं वा. ४ सी डी 'डयतृ. ५ ई ° तं गोलो. ६ ई णिज् ॥• Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है०३.४.४६ ] सप्तमः सर्गः । ५७१ चकासांचक्रतुस्तौ च चकासामासतुश्च ते । तेषामुद्राहहर्षेण स चकासांबभूव च ॥ ११४ ॥ ११४. स्पष्टः । कि तु तौ वरौ चकासांचक्रतुरनुरूपवधूसंयोगेन रेजतुस्ते च वध्वौ च । तेषां वधूवराणाम् । स महेन्द्रः॥ महेन्द्रः स्वांचकारानु यथावद्विससर्ज तौ। स्वमुक्षांप्रचकारेवामृतैस्तत्परिरम्भणात् ॥ ११५ ॥ ११५. महेन्द्रस्तौ वरौ स्वांचकार स्वमिवाचचार वाल्लभ्यातिशयेनात्मानमिवाज्ञासीदित्यर्थः । एके तु कर्तुः संबन्धिन उपमानावितीयान्ताक्विपक्यडाविच्छन्ति तन्मतेनात्र कर्तुः संबन्धिन उपमानाद्वितीयान्तात्स्वारिका । अनु पश्चाद्यथावदानसन्मानादिविसर्जनविध्यनतिक्रमेण विससर्ज । तथा तत्परिरम्भणाद्वरयोराश्लेषादमृतैः स्वमात्मानमुक्षांप्रचकारेव सुखातिरेकात्सिषेचेव । अथ च यो महेन्द्रो महाशक्रः स स्वममृतैरुक्षतीत्युक्तिलेशः ॥ चकासांचक्रतुः । चकासांबभूव । चकोसामासतुः । अत्र "धातोरनेक" [४६] इत्यादिना परोक्षायाः स्थान आम् । आमन्ताच्च परे कृभ्वस्तयः परोक्षान्ता अनुप्रयुज्यन्ते ॥ कश्चित्तु प्रत्ययान्तादेकस्वरादपीच्छति । स्वांचकार ॥ अनुग्रहणं विपर्यासव्यवहितनिवृत्त्यर्थम् । तेन चकार चकासाम् । ईहां देवदत्तश्चक्रे । इत्यादि न स्यादित्यन्वित्यनेनासूचि । उपसर्गस्य तु क्रियाविशेषकत्वाध्यवधायकत्वं नास्ति । तेनोक्षांप्रचकार । इत्यादि स्यादेव ॥ १ बी °स्तौ तु चका. २ ए मुद्रह . १ सी डी गाद्वयो. २ ई "कासमा . ३ बी श्चित्प्र. ४ ए पत्वा. Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ व्याश्रयमहाकाव्ये स्वस्रोदसीयांचक्रे दयामास च दासकान् । दयांबभूव कोशं च सोन्वयामास चाजलम् ॥ ११६ ॥ [दुर्लभराजः] ११६. स्पष्टः । परं स्वस्रोर्भगिन्योदयांचक्रे ददौ । स महेन्द्रः । आजलं जलमवधीकृत्यान्वयामास चानुययौ || दुर्लभोयांवभूवाथान्वयांचक्रे च नागराट् । वाटीषु नासांचक्राते नाप्सु चासांबभूवतुः ॥ ११७ ॥ I ११७. स्पष्टः । किं तु । अयांबभूव ययौ । अन्वयांचक्रे चानुययौ तथात्यौत्सुक्यगमनेन वाटीवमात्याद्युपवनेषु नासांचक्राते दर्शनको - तुकान्नस्थितौ ॥ सामासुर्वरीतुं तां येकासांचक्रिरेपिच । कुधा तान्दृष्ट्वा स कासामास दुर्लभः ॥ ११८ ॥ I ११८. ते नृपाः क्रुधाम्रेस्थुश्छलयुद्धाय स्थितास्तांश्च दृष्ट्वा स दुर्लभः कासामास कोपाद्विरुद्धमूचे । ये नृपास्तां दुर्लभदेवीं वरीतुमा सामासुः स्वयंवरमण्डपे तस्थुः कासांचक्रिरेपि च । दुर्लभवरणे रुष्टत्वाद्दुर्लभं प्रति विरुद्धानि वचांस्यूचुश्च ॥ कासांवभूवुस्ते दर्पात्समीहामासुराहवम् । ईहांवभूवुर्नामात्यान्नचेहांचक्रिरे सखीन् ॥ ११९ ॥ ११९. ते नृपा दुर्लभं प्रति कासांबभूवुस्तथा दर्पात्स्वबलाँद्य वलेपादाहवं युद्धं समीहामासुरीषुः । अत एवामात्यान्नेहांबभूवुर्युक्तायुक्त १ बी आशामा'. १ईने वा २ ए 'कान्निस्थि'. ३ई 'लाव. ४ई ससमी'. • Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.४.४७. ] सप्तमः सर्गः । ५७३ विचारणया युद्धस्य नित्वान्ने पुर्न च सखीनीहांचक्रिरे बलाद्यवलेपात्सहायानपि नापेक्षितवन्त इत्यर्थः ॥ खमानछर्जुनावाशा नृपाणां तुमुलस्तथा । प्रजागरांचकाराशु ग्रसनाय यथान्तकः ॥ १२० ॥ १२०. नृपाणां तुमुलो व्याकुलो रवोत्युचैस्त्वात्तथा खमानर्छ व्याप तथाशा दिशस्तथोर्णुनाव व्याप यथान्तको प्रसनाय नृपाणामेव निगलनायाशु शीघ्रं प्रजागरांचकार । उद्यतोभूदित्यर्थः । गाढव्याकुलस्वरेण हि सुप्तोकस्मादेव जागर्ति ॥ अलक्ष्मीर्जागरामास न जागरांबभूव धीः । यत्तं जजागरुर्जेतुं समिन्धांचक्रिरे च ते ॥ १२१ ॥ १ 1 १२१. यदिति क्रियाविशेषणम् । तं दुर्लभं जेतुं यत्ते नृपा जजागरुरुद्येमुः समिन्धांचक्रिरे च तेजस्विनो बभूवुश्च । यत्तदोर्नित्याभिसंबन्धात्तत्तेषामलक्ष्मीजीगरामास । धीर्बुद्धिर्न जागरांबभूव । तस्यातिशक्तत्वेन केनाप्यजेयत्वात् ॥ समीधेग्निर्यथा यद्वदिन्धांचक्रे च वाडवः । ईधे तेजस्तथा तेषां विश्वमोषांचकार नु ॥ १२२ ॥ १२२. यथाग्निः समीधे जज्वाल यद्वच्च वाडवै इन्धांचक्रे तथा तेषां नृपाणां तेजः कोपाटोपोत्थप्रचण्डप्रताप ईधे । अत एव विश्व जगदोषांचकार नु ददाहेव || १ सी डी 'मिघांच'. १ बी सी डी 'मियांच. २ डी वुः । य० ३ ए बी ई व ईधांच. Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ ध्याश्रयमहाकाव्ये [दुर्लभराजः] उवोषेव दिशो वह्निः मा विभायेव कम्पभृत् । न ते तथापि विभयांबभूवुर्मेदिनीभुजः ॥ १२३ ॥ १२३. वह्निर्दिश उवोषेव । नृपपराजयसूचकोत्पातोद्भवादिशोग्निना दह्यमाना इवालक्ष्यन्तेत्यर्थः । तथा कम्पभृत्क्ष्मा बिभायेव । तथाप्येवमुत्पातसद्भावेपि ते मेदिनीभुजो न विभयांबभूवुर्बलावलेपान्न भीताः॥ नेन्द्रायो विभयामास विभयांचवान्स किम् । प्रजियांचकाराजौ तैः प्रत्युत चुलुक्यराट् ॥ १२४ ॥ १२४. स्पष्टः । किं तु तै पैः सहाजौ रणे सति प्रत्युत प्रजिह्रयांचकार किमेभिरतिहीनैः सह युद्धेनेति लज्जितः ॥ जिह्वाय यद्यपि तथाप्यजगावं वभार सः । पुरो दिधक्षोबिभरांबभूवेशस्य विभ्रमम् ॥ १२५॥ १२५. स दुर्लभो यद्यपि जिहाय तैः सह युद्धेन लजितस्तथापि तेषां वृथाबलाभिमानापनोदायाजगावं धनुर्बभाराधारयत् । अजगावशब्दः सामान्यधनुष्यपि वर्तते । अत एव पुरस्तिस्रः पुरीदिधक्षोर्दग्धुमिच्छोरीशस्य शंभोर्विभ्रमं बिभरांबभूव । पुरो दिधक्षुरीशो ह्यजगावं पिनाकं बभार ॥ तत्राग्नाविव केपीपुसमिधो जुहुवुनृपाः । केपि स्वं जुहवांचक्रुर्विदांचक्रुर्न तद्धलम् ॥१२६ ॥ १२६. केपि नृपास्तत्राजावनाविवेपुसमिधः शरैधाञ् जुहुवुश्चि १ ए नैन्द्रा . २ बी स्वं जहुवां. ३ ए सी डी जुहुवां . १ ए °गावःश° २ बी सी डी रो दधिक्षु. Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.४.४७.] सप्तमः सर्गः । ५७५ क्षिपुः । अग्नौ क्षिप्ताः शरा रणे स्वमेव भस्मीचक्रुर्न तु शत्रुवधादि स्वकार्य चक्रुरित्यर्थः । केपि च नृपाः स्वमात्मानं जुहवांचकुर्न तबलं दुर्लभसैन्यं विदांचक्रुरियत्परिमाणमिति परिच्छिन्नवन्तः । शश्वविनाशनेनात्मानमेव विनाशितवन्त इत्यर्थः ॥ विदांबभूवुनैव स्वं विदामासुश्च नापरम् । रजोभिर्विविदुर्नाक विदांकुर्वन्तु किं जनाः ॥ १२७ ॥ १२७. जना भटलोका रजोभिः कृत्वा स्वमात्मीयं नैव विदांबभूवुर्ज्ञातवन्तो न चापरं शत्रु विदामासुर्न चार्क विविदुः । अतश्च रोदस्यो रजोभिरावरणेन सुज्ञेयानामप्येषामदर्शनास्किं विदांकुर्वन्तु जानन्तु । न किमपीत्यर्थः ॥ अमी विदन्तु मे शक्तिमध्यासीदिति दुर्लभः । अस्पाक्षीत्पाणिना श्मश्रूण्यस्पृक्षदिषुधिं ततः ॥ १२८ ॥ १२८. पूर्वार्धं स्पष्टम् । ततश्चिन्तानन्तरं स्वशक्त्यवलेपेन श्मश्रूणि दंष्ट्रिकां पाणिनास्पाक्षीत्ततश्चेषुधिं शराकर्षायास्पृक्षत् ॥ निषङ्गादिषुमकाक्षीदकक्षदथ कार्मुकम् । यां लीलामर्जुनोम्राक्षीत्ताममुक्षदसौ तदा ॥ १२९ ॥ १२९. अक्राक्षीदाकृष्टवान् । यां लीलां शोभामर्जुनोम्राक्षीत्पस्पर्श तां लीलां तदा कार्मुकाकर्षणकालेसौ दुर्लभोमृक्षत् । शिष्टं स्पष्टम् ॥ अद्राप्सुर्ये भुजस्थाम्ना मन्त्रास्त्रैरपंश्च ये ।। स तैः कृतान्तमत्राप्सीदतृपयशसा न हि ॥ १३० ॥ १३०. स्पष्टः । किं तु । अद्राप्सुर्गर्वं चक्रुः । तैर्नपैः कृत्वा स १ डी नै श०. २ ई °दि का. ३ बी सी डी जुहुवां. ४ ई °ति न प. ५ डी वुन शा. ६ ई दरोर'. Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ दुर्लभराजः ] दुर्लभः कृतान्तमत्राप्सी तृप्तीचक्रे | अन्तर्भूत निगर्थौत्र तृषिः सकर्मकः । तान्नृपाश्ञ्जघानेत्यर्थः । दयांचक्रे । दयांबभूव । दयामास । अन्वयांचक्रे । अंयांबभूव । अन्वयामास । आसचक्राते । आसांबभूवतुः । आसामासुः । कासांचक्रिरे । कासांबभूवुः । कासामास । इत्यत्र "दया" [ ४७ ] इत्यादिना - आम् ॥ Friart | ईहांबभूवुः । समीहामासुः । इत्यत्र "गुरु" [ ४८ ] इत्यादिना-आम् ॥ अनुच्छूर्णोरिति किम् । आनछे । ऊर्णुनाव ॥ प्रजागरांचकार । जागरांबभूव । जागरामास । जजागरुः ॥ ओषांचकार । उवोष ॥ समिन्धांचक्रिरे । समीधे । अत्र " जाग्रुष" [ ४९ ] इत्यादिना - आम्वा | सम्ग्रहणं किमूँ । इन्धांचक्रे । समोन्यत्रापीन्धेरा विकल्प इन् । इन्धांच | ईधे ॥ ४ 1 बिभयचक्रवान् । बिभयांबभूवुः । बिभयामास । बिभाय ॥ प्रजिह्यांचकार । जिह्वाय ॥ बिभरांबभूव । बभार ॥ जुहवांचक्रुः । जुहुवुः । इत्यत्र “भीही" [५० ] इत्यादिना वा आम् । स च तिव्वत् ॥ विदांचक्रुः । विदांबभूवुः । विदामासुः । विविदुः । अत्र " वेत्तेः कित्" [ ५१] इति वा आम् स च कित् ॥ विदांकुर्वन्तु । विदन्तु । इत्यत्र “पञ्चम्याः कृग् " [ ५२] इति पञ्चम्याः स्थाने वा किदाम् तदन्ताच्च पञ्चम्यन्तः कृगनुप्रयुज्यते ॥ अध्यासीत् । इत्यन्न “सिज्" [ ५३ ] इत्यादिना सिच् ॥ अस्माक्षीत् अस्पृक्षत् | अम्राक्षीत् अमृक्षत् | अकाक्षीत् १ सी डी ई अन्वयां . २ बी 'मिधां च ३ ई म् । ईधांच. ४ई ये । ईधांच ५ सी डी 'भूवुः । ब ६ बी सी डी जुहुवां° ७ बी 'त्र "वावेर्त्तः कि'. अकृक्षत् । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.४.५५. ] सप्तमः सर्गः । ५७७ अत्रासीत् अतृपत् | अद्वाप्सुः अहपन् । इत्यत्र " स्पृशमृश" [ ५४ ] इत्या दिनों वा सिच् ॥ य आविक्षस्तमद्विक्षस्तमद्राक्षुश्च दर्पतः । तान्यघुक्षच्छरैरेष न्यकोषीतदसूनपि ॥ १३१ ॥ 3 १३१. तान्नृपानेष दुर्लभः शरैर्न्यघुक्षदाच्छादितवांस्तदसूंस्तत्प्राणान्यकोषी दप्याकृष्टवानपि । तानवधीचेत्यर्थः । ये नृपास्तं दुर्लभमद्विक्षन् द्विष्टवन्तः । अत एवाविक्षन्कोपात्तस्मिन्संरम्भं चक्रुः । तथा दर्पतो बद्यवलेपोत्तमद्राक्षुश्च ॥ न्यघुर्क्षत् | आविक्षन् । अक्षिन् । इत्यत्र “हशिट: " [ ५५ ] इत्यादिना स || अदृश इति किम् | अद्राक्षुः । अनिट इति किम् । न्यकोषीत् ॥ यथाश्ववमुपाश्लिक्षथो रथमुपाश्लिषत् । नाचीकमत कोप्यस्त्रं तथौजो यमशिश्रियत् ॥ १३२ ॥ १३२. अयं दुर्लभस्तथौजो बलमशिश्रियद्यथाश्वोश्वमुपाश्चिद्रथो रथमुपाश्लिषत् । भयेन युगपच्छीत्रं संमर्देन नाशादश्वा रथाश्च मिथ आस्फलन्नित्यर्थः । तथा यथा कोपि पत्तिरखं नाचीकमत द्रुतं नाशेन नैच्छत् । एतेनाश्वरथपत्तिनाश उक्तः ।। अथ गजानामाह । गजतादुद्रुवत्तस्माद्भयान्मूत्रमसुखवत् । न चाचकमत स्थातुं पयस्यपि नचादधत् ॥ १३३ ॥ १३३. स्पष्टः । किं तु तस्माद्दुर्लभात्सकाशाद्दुद्रुवद्भयान्नष्टा । पयांस्यपि जलानि च न चादधन्नैव पपौ ॥ ८ १ डी अद्रा . २ सी डी 'ना सिच् वा ॥ ३ ई दिवा° ४ ई 'लाव ५ ई 'पास्तम'. ६ बी 'क्षन् । आ. ७ ए 'स्मात्स ं. ८ ई 'नि चा'. ७३ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ व्याश्रयमहाकाव्ये [दुर्लभराजः] अल्झोधात्पयो नाश्वबैर्यमाशा अशिश्चियत् । गन्तुं ये चाशिपन् व्यत्यशिषताख्यच साधु तान् ॥१३४॥ १३४. अल् भयातिरेकोत्थमनःपीडयाङ्गोङ्गदेशाधिपो धैर्य चित्तावष्टम्भं नाश्वन्नागमदत एवाशा दिशोशिश्वियन्नष्ट इत्यर्थः । किं बहुना पयो जलमपि नाधान्न पपौ । तथा ये भटा गन्तुं नंदुमशिषन्नशिक्षयन्नात्तं तानङ्गो गन्तुं व्यत्यशिपत विनिमयेनाशिक्षयत्तान्साधु यथा स्यादेवमाख्यच्चें साधु साधूक्तं भवद्भिरिति तान्प्रशंसितवांश्चेत्यर्थः ।। अपास्थतास्त्रं मालव्यो न्यवोचच्च पलायितुम् । शासत्सु व्यत्यशासिष्ट नाभ्यसादपासरत् ॥१३५ ॥ १३५. मालव्योस्त्रमपास्थत तत्याज पलायितुं न्यवोचच्च पलाय्यत इत्यवदच्चेत्यर्थः । तथा पलायितुं शासत्सूपदिशहूं व्यत्यशासिष्ट विनिमयेनोपादिक्षदत एव नाभ्यसार्षीन्नाभिमुखमगमत्किं त्वपासरदनेशत् ॥ त्रस्तैः समाष्टं नो पुत्रैः कलत्रैर्न समारत । हूणो निरारदन्वार्षीन्नष्टानात्तथापरान् ॥ १३६ ॥ १३६. हूणो हूणदेशाधिपस्वस्तै तैः पुत्रैः सह न समाष्टं न समगस्त । तथा कलत्रैश्च न समारत किं तु निरारद्रणान्निर्गतः । भयभीतान्पुत्रान्कलत्राणि च मुक्त्वा स्वप्राणानादाय नष्ट इत्यर्थः । अत एव नष्टानन्वार्षीदन्वगमत् । तथापरानन्याननष्टानाह्वदाकारयत् ।। १ डी शिश्रिय'. २ ए तात्रं मा. ३ ए शाशत्सु. १ सी डी शिश्रिय. २ ए तुं नष्ट'. ३ बी विनम'. ४ डी च स सा. ५ ए °त त्या. ६ ए °यितं शा. ७ ए शाशत्सू. ८ ए त्सु शा. ९ सीडी व्यतिशा. १० सी डी त्रस्तः पु. ११ ए बी सी ई न्यानष्टा . Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ३.४.५९.] सप्तमः सर्गः । ५७९ स स्वेदेनालिपद्गात्रमसिचत्क्ष्मां च माथुरः। य आह्वास्त तुरुष्केशान्पर्वतीयान्य आह्वत ॥१३७ ॥ १३७. स माथुरः स्वेदेन भयोत्थप्रस्वेदेन गात्रमलिपत् । क्ष्मां चासिचदायत् । यो महाशूरत्वेन तुरुष्केशानाह्वास्त युद्धेच्छया सस्पर्धमाकारयत् । तथा यः पर्वतीयान्पर्वतदुर्गभवान्नृपानाह्वत ॥ अलिप्तासिचतान्ध्रः क्ष्मामसृजा मूर्छितस्तदा । असिक्तालिपतैनं वाश्चन्दनन्दिनां गणः ॥ १३८ ॥ १३८. तदा युद्धकाले मूर्छितः संक्षोभातिरेकेण वैचित्त्यं गतः सन्नन्ध्रोन्ध्रदेशाधिपोसृजा मुखानिर्गतेन रक्तेन कृत्वा क्ष्मामसिचत धाराप्रवाहेणार्टीचक्रे । तथा क्ष्मामलिप्त धाराप्रवाहस्याविच्छेदबाहुल्याभ्यामुपचितीचके । अत एव बन्दिना भट्टानां गण एनमन्धं वाश्वन्दनैरसिक्तालिपत च मूर्छापनोदाय वारिभिः सिक्तवांश्चन्दनैलितवांश्चेत्यर्थः ।। अश्वोश्वमुपाश्लिक्षत् । इत्यत्र "श्लिषः" [५६] इति सक् ॥ रथो रथमुपाश्लिषेत् । इत्यत्र "नासत्त्वाश्लेषे” [५७] इति सन्न ॥ अचीकमत । अशिश्रियत् । अदुद्रुवत् । असुस्रुवत् । अचकमत । इत्यत्र "णिनि' [५८] इत्यादिना ङः ॥ अदधत् अधात् । अशिश्वियत् अश्वत् । इत्यत्र "टेश्वेर्वा" [५९] इति वा ङः ॥ १ सी डी तुरष्टेन्प'. १ डी तुरश्धेना. २ डी वैवश्यं ग. ३ ए “ीच । त°. ४ ए°ष । इ, Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० व्याश्रयमहाकाव्ये [ दुर्लभराजः] अशिषन् । व्यत्यशिषत । अपास्थत ॥ वचंक् बॅग्क् वा । न्यवोचत् ॥ ख्यांक् चक्षिक् वा। आख्यत् । इत्यत्र “शास्ति' [६०] इत्यादिना-अझै ॥ शास्तरात्मनेपदे नेच्छन्त्येके । व्यत्यशासिष्ट ॥ अपासरत् अभ्यसार्षीत् ॥ ऋ अदादिद्मदिवा । निरारत् अन्वार्षीत् । समारत समार्ट । । इत्यत्र "सत्यतैर्वा" [६१] इति वा-अङ् ॥ आह्वत् । अलिपत् । असिचत् । इत्यत्र "हालिप्सिचः” [६२] इत्यङ् ॥ आह्वत आह्वास्त । अलिपत अलिप्त । असिचत असिक्त । इत्यत्र “वात्मने" [६३] इति वा-अङ्॥ नाशकन्नाद्युतच्चैयो नारुचन्नापुषत्कुरुः । अशुषच्छासमरुधद्वचोरौत्सीच्च काशिराट् ॥ १३९ ॥ १३९. चैद्यो नाशकद्भयातिरेकाद्गन्तुं न समर्थोभूत्तथा विच्छायत्वानाद्युतत् । तथा कुरु पुषद्भयातिरेकात्कृशोभूदत एव नारुचत् । तथा काशिराडशुषच्छुष्काङ्गोभूच्छासमरुधवचश्चारौत्सीत् ।। काश्वत्प्रियाश्वयीत्पुत्रोम्रोचीन्मत्र्यम्रचत्सखा । चिन्तयेत्यस्तभन्न स्खं नास्तम्भीत्कोपि वा रथम् ॥१४०॥ १४०. क कस्मिन्प्रदेशे प्रियाश्वद्गता क पुत्रोश्वयीत् । क मत्र्यम्रो. चीद्गतः । सखा कात्रुचत् । इति चिन्तया कोपि नृपादिः स्वमात्मानं नास्तभन्न गतिरहितं चक्रे रथं वा नास्तम्भीप्रियाद्यर्थं नाधारयत् । १ डी तयाव्यस्त. २ सी ये व्यस्त. १ ई °त ॥ न्य. २ ई त् ॥ आ. ३ ई उ ॥ कश्चित्कर्तर्यपि नेच्छति । व्य. ४ ए दिवा । नि. ५ ए यंत्येविति. ६ ई न्तुं स०. ७ ए °यारिका. ८ ए °रुच्चत”. ९ बी छुषाङ्गो . १० डी द्वचोरौ . Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.४.६४ ] सप्तमः सर्गः । ५८१ मृत्युमहाभयेन प्रियादिचिन्तां मुक्त्वा स्वस्वप्राणानादाय सर्वोपि नृपादिजनो नष्ट इत्यर्थः ॥ योम्लोचीत्सोम्लुचद्भीरो ग्रोचीत्तस्य जीवितम् । तेजोग्रुचद्यशोग्लोचीचौलुक्यो नाम चाग्लुचत् ॥ १४१॥ १४१. यो भीरुभयेनाम्लोचीद्रणाद्गतः स भीरुरम्लुचद्गत एव यतस्तस्य भीरोश्चौलुक्यो जीवितं नाग्रोचीन्नाहरकि तु चौलुक्यो भीरोस्तेजः प्रतापमग्रुचद्यशश्चाग्लोचीदहरत् । नाम च लोकेग्राह्यनामत्वात्तस्याभिधामप्यग्लुचत् । यद्वा । युचू ग्लुचू गतावपीत्येके। ततश्चौ. लुक्यस्तेजोग्रुचत्प्राप्तो यशश्च सर्वदिग्गामिनी पराक्रमकृतां वा प्रसिद्धिं चाग्लोचीन्नाम चैकदिग्गामिनी पुण्यदानकृतां वा प्रसिद्धिं चाग्लुचत्॥ एवं द्विषोजरदसौ सुदमप्यजारीदग्लुञ्चदच्युततुलामिति चेष्टितेन । खामग्लुचच्च नगरीमथ पात्रताम ग्लुञ्चीत्ससंभ्रमवधूजनलोचनानाम् ॥ १४२ ॥ १४२. असौ दुर्लभ एवमुक्तरीत्या द्विषोजरत् । अन्तर्भूतणिगर्थो जृष्। निःसत्वतापादनेन जीर्णीचक्रे । तथा मुदमपि द्विषामजारीदपानैषीदित्यर्थः । यद्वा । महापुरुषत्वान्मुदमपि द्विड्योत्थं हर्षमप्यजारीत्वस्मिन्नेवाजरयदुत्सेकं न चक्र इत्यर्थः । अतश्चेति चेष्टितेन द्विषजरणोत्सेकाकरणरूपेणाचरितेनाच्युततुलां विष्णुसाम्यमग्लुञ्चत्प्राप। १ ए नालोची. २ सी डी कि चौ. ३ ए मग्लुच. ४ सी डी यथा. ५ ए वा ग्लुचू ग. ६ सी ग्रुच ग्रुच गये. डी ग्रुच ग्लुच ग° ई ग्रुचू ग. ७. बी त्र जषः ।. ८ ए जीणे च. ९ ए सीक्रे । यथा. १० बी नैषादि. ११ डी द्विषोत्थं. १२ ई योत्थह. १३ ए वाजार. Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ याश्रयमहाकाव्ये [ दुर्लभराजः] तथा स्वां नगरी पत्तनमग्लुचञ्च । अथ तथा संभ्रमः कौतुकादिना चित्तात्तो ?]क्षेपात्त्वरणमादरो वा सह तेन ये वधूजनास्तेषां यानि लोचनानि तेषां पात्रतां विषयत्वमग्लुचीच प्राप च । महोत्सवेन पुर्या प्रविशन्पौरीभिः ससंभ्रमं ददृश इत्यर्थः ॥ लूदित् । अशकत् ॥ धुतादि । अद्युतत् । अरुचत् ॥ पुष्यादि। अपुषत् । अशुषत् । अत्र "लदिद्" [६४] इत्यादिना-अङ् ॥ अरुधत् अरौत्सीत् । अश्वत् अश्वयीत् । अस्तभत् अस्तम्भीत् । अघुचत् अम्रोचीत् । अम्लुचत् अम्लोचीत् । अग्रुचत् अग्रोचीत् । अँग्लुचत् अग्लोचीत् । अग्लुचत् अग्लुञ्चीत् । अजरत् अजारीत । इत्यत्र "ऋदिच्छि' [६५] इत्यादिना वा-अङ् । ग्लुचग्लुञ्चोरेकतरोपादानेपि रूपत्रयं सिध्यति । अर्थभेदात्तु द्वयोरुपादानम् ॥ अन्ये त्वनिधानसामर्थ्याद्चेर्नलोपं नेच्छन्ति । तेनाग्लुञ्चत् ॥ वसन्ततिलका छन्दः ॥ ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेम चन्द्राभिधानशब्दानुशासनव्याश्रयवृत्तौ सप्तमः सर्गः समाप्तः ॥ १ ए सी डी ई चित्ताक्षेपा. २ बी विश्यन्पौ. ३ सी त् । अत्र. ४ डी अम्लुच. ५ डी अम्लोची. ६ डी अग्लोचीत्. ७ ए दिच्छीत्या. ८ई ग्लुञ्चो'. Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्याश्रयमहाकाव्ये अष्टमः सर्गः । नागाद्भीमोथोदपाद्यद्भुतश्रीर्चालो प्युच्चैरग्निवद्योत्यदीपि । अर्को वादीपिष्ट सोत्राजनिष्टाद्येो भीमः किं सोजनीन्द्रानुजो वा ॥ १ ॥ १. अथानन्तरं नागान्नागराजाद्दुर्लभानुजाद्भीमो भीमाख्यः पुत्र उदपादि । यो भीम उच्चैरतिशयेन बालोपि तद्दिनजातोपीत्यर्थः । अद्भुतश्रीराश्चर्यकारितेजस्वितादिलक्ष्मीकः सन्नत्यदीप्यतिशयेन दिद्युते । अभिवदक वादीपिष्टेति यथाग्निरक वा दिद्युते । अत एवोत्प्रेक्ष्यते । स तेजस्वितादिगुणैः सर्वत्र प्रसिद्ध आद्यः पूँर्वो भीमः पाण्डवोजनिष्ट किं वा स इन्द्रानुजो विष्णुरजनि ॥ सर्गेस्मिन्विर्शेतिं वृत्तानि यावच्छालिनी । ततः परं स्वागता छन्दः ॥ तस्योत्पच्या निष्पितॄणं व्यबुद्धात्मानं राजा नागराजोप्यबोधि । द्वारं लोकोपूर्यपूरिष्ट मध्यं हर्षं सद्योताय्यतायिष्ट गीतम् ॥ २ ॥ २. तस्य भीमस्योत्पत्त्या राजा दुर्लभ आत्मानं निष्पितॄणं पितृणात्पूर्वज ऋणान्निष्क्रान्तं व्यबुद्धामंस्त । तथा नागराजोप्यात्मानं निष्पितॄणमबोधि । जायमानो हि नरो मुनिदेवतापितॄणामृणबद्धः स्यात्तत्र ब्रह्मचर्यस्वाध्यायाभ्यामृषीणामनृणो भवति यागेन देवानां Ε १ बी निपितॄ . १ ए अनान' २ बी ई जश्विता ३ सी डी पूर्वभी ४ बी सी डी "शतिवृ' ५ सी डी 'निक्रान्तं. ६ ई 'बीनाम', Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] 9 संतत्या पितॄणामिति स्मृतिः । तथा लोकः सद्यो हर्षमतायि विस्तारि तवानत एव द्वारं सिंहद्वारमपूरि व्यापत् । तथा मध्यं प्रासादमध्यभागं चापूरिष्ठे तथा गीतं चातायिष्ट । क्ष्माप्यायिष्टाप्यायि राजा मुदाभाज्यापाथोधेर्मङ्गलैश्च व्यजृम्भि । कीर्तिर्यच्चायिष्यते चेष्यते श्रीधर्मश्वेता चायितानेन वंशः ॥ ३ ॥ 3 ४ ७ ३. यद्यस्माद्धेतोरनेन भीमेन श्री राज्यादिलक्ष्मीश्चेष्यते वर्धयिष्यते । तथा धर्मश्वेता वर्धयिष्यते तथा संतानवर्धनाद्वंश चौलुक्यान्वयश्चायिता । अनेनास्य भाव्यर्थधर्मकाम संपदतिशय उक्तः । अत एव कीर्तिश्चायिष्यते । तस्माद्धेतोः क्ष्मा पृथ्वीप्याष्टि स्फीतोच्छु सितेत्यर्थः । महापुरुषोत्पत्तौ हि श्रीवृद्ध्यादिशुभसूचकाः क्ष्मोच्छ्रासादयः सदुत्पाताः स्युः । यद्वा । क्ष्मा पृथ्वीस्थो जनोध्यायिष्ट मुदोच्छ्वसिता । तथा राजा दुर्लभो मुदा कर्याभाज्याश्रितः । अत एवाप्यायि स्फीतीभूतः । तथा मङ्गलैश्च माङ्गलिक्यहेतुभिर्नान्दीतूर्यगीतादिभिश्चाजलधेजलधिमभिव्याप्य व्यजृम्भ्युल्लसितम् ॥ चेषीष्टायं नो गिरा चायिषीष्ट श्रेयोभिर्नचेति वाग्भिर्मुनीनाम् । रोदस्यावाचायिषातां तदानीमाचेषातां मन्त्रनादैश्च मन्द्रैः ॥ ४ ॥ ४. अयं भीमो नोस्माकं गिरा चेषीष्ट वर्ध्यतां तथा नोस्माकं श्रेयोभिश्च पुण्यैरपि कर्तृभिश्चायिषीष्ठेत्येवंविधाभिर्मुनीनां वाग्भिस्तदानीं पुत्रोत्पत्तिकाले रोदस्यावाचायिषातां व्याप्ते तथा मन्त्रैर्गम्भीरैर्मश्रनादैश्वाचेषाताम् || १ बी ध्यं प्रसा ५ डी 'शयोक्तिः । अ ८ सी नोच्छु ९ई वर्द्धतां. २ई ॥ मा ३ ए वेक्ष्यते. ४ ई. ६ सी डी 'ट स्पीतो'. ७ ई 'सिता । तथा रा. Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.४.६६. ] अष्टमः सर्गः । ५८५ ग्राहिष्यन्ते विग्रहीष्यन्त उच्चैर्घानिष्यन्ते निर्हणिष्यन्त ईशाः । तेनासौ द्रक्ष्यते यैर्न भक्त्या यैर्दोः शक्त्याध्याजि दर्शिष्यते वा ॥५॥ एतेन क्ष्मा ग्राहिताब्धिर्ग्रहीता द्रष्टा तत्त्वं दर्शिता न्यायमार्गः । हन्तोत्सेको घानितांहःप्रचारः केनाप्येतौ यौ हि नाघानिपाताम् ॥६॥ यै स्यावासा तामवाग्रहीषातां न्यग्राहिषातां च दैत्यैः । पुण्याघे नादर्शिषातां निजान्यौ नादृक्षातां तेमुना घानिषीरन् ॥७॥ लक्ष्मीः साक्षादर्शिषीष्ट प्रसन्ना सा दृक्षीष्ट ब्रह्मकन्यापि तुष्टा । धर्मश्वानुग्राहिषीष्ट ग्रहीषीष्टेन्द्रे मैत्री चेति खे वाक्तदाभूत् ॥ ८ ॥ ५८. तदा पुत्रजन्मकाले खे वागभूदैवी वाणी बभूवेत्यर्थः । कथमित्याह । असौ भीमो यैर्भक्त्या न द्रक्ष्यते वा यद्वा यैर्दोः शक्त्या बाहुबलेन हेतुनाध्याजि रणे दर्शिष्यते त ईशाः समर्था अनेन भीमेनोच्चैर्विग्रहीष्यन्ते योधयिष्यन्ते । ततः केचिद्राहिष्यन्ते बढा लास्यन्ते । केचिच घानिष्यन्ते प्रहरिष्यन्ते । केचिच्च निर्हणिध्यन्ते व्यापादयिध्यन्ते । अत एव क्ष्मा ग्राहिता वशी करिष्यते । तथाब्धिर्ग्रहीता । तथा तत्त्वं परमब्रह्म द्रष्टा ज्ञास्यते । अत एव न्यायमार्गों दर्शिता । अत एव चोत्सेको गर्यो हन्तोच्छेत्स्यते । तथांहः प्रचारः पापविस्तारो घानिता । याचेतावत्से कांहः प्रचारौ हि स्फुटं केनापि नाघानिषातां दुर्जेयत्वान्नोच्छेदितौ । एतेन सर्वेपि भीमेन बाह्या आन्तराश्च द्विषो जेष्यन्त इत्युक्तम् । तथामुना भीमेन ते दैत्या घानिषीरन् हन्यन्तां यैर्दैत्यै रो१ डी या ना. 1 १ए ईशा स ५ सी डी मेनैते. ७४ २ सी डी . ३ बी हा दृष्टा ४ बी ई वेणापि . ६ बी 'न्यन्त्यां यै. Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ ब्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] दस्यावाहसातां लगुडादिप्रहारैराहते । अवाग्रहीषातां च कारागृहादौ निक्षेपेण प्रतिबद्धे च। न्यग्राहिषातां च सर्वस्वाद्यपहारेण दण्डिते च । तथा नास्तिकत्वेन यैः पुण्याघे धर्माधर्मों नादर्शिपातां न ज्ञाते । तथा यैर्निजान्यावात्मपरौ नादृक्षातां बलाद्यवलेपान्धतया स्वमात्रां परमात्रां च ये नाजानन्नित्यर्थः । अत एवानेन लक्ष्मीः प्रसन्नानुग्रहपरा साक्षादर्शिषीष्ट दृश्यताम् । तथा सा प्रसिद्धा ब्रह्मकन्यापि सर• स्वती च तुष्टा साक्षादृक्षीष्ट । तथा धर्मश्चानुग्राहिषीष्टानुकूलाचरणेनानुगृह्यताम् । तथेन्द्रे शक्रविषये मैत्री चे ग्रहीषीष्टाङ्गीक्रियतामिति ॥ उदपादि । इत्यत्र “जिच्ते" [६६] इत्यादिना जिच्तलुक्क ॥ अत्यदीपि अदीपिष्ट । अजनि अजनिष्ट । अबोधि व्यबुद्ध । अपूरि अपूरिष्ट । अतायि अतायिष्ट । अप्यायि अप्यायिष्ट । इत्यत्र “दीपजन” [६७] इत्यादिना वा जिच्तलुक्क ॥ व्यजृम्भि । अभाजि । इत्यत्र "भाव" [६८] इत्यादिना जिच्तलुक्क ॥ चायिष्यते चेष्यते।आचायिषाताम् आचेपाताम् । चायिषीष्ट चेषीष्ट । चायिता चेता । ग्राहिष्यन्ते विग्रहीष्यन्ते । न्यग्राहिषाताम् अवाग्रहीषाताम् । अनुग्राहिषीष्टं ग्रहीपीष्ट । ग्राहिता ग्रहीता। दर्शिष्यते द्रक्ष्यते। अदर्शिपाताम् अदृक्षाताम्। दर्शिषीष्ट दृक्षीष्ट । दर्शिता द्रष्टा । घानिष्यन्ते निर्हणिष्यन्ते । आधानिषाताम् आहसाताम् । घानिषीरन् । घानिता हन्ता । इत्यत्र “स्वरग्रह" [६९] इत्यादिना वा जिट् ॥ हन्तेस्त्वाशिषि विकल्पोदाहरणं स्वयं ज्ञेयम् ॥ १बी द्यप्रहा. २ डी °ण्याथें ध. ३ डी स्वमन्यं च, ४ डी सादृक्षी. ५ सी डी च गृही. ६ बी °त्र “निच्ते. ७ बी ना जि. ८ ई °लुक् वा ॥ व्य. ९ सी डी °ते । अचा. १० ए °ष्ट ग्राही. ११ सी डी निर्हिणि०. १२ बीई न्ते । अघा. Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८७ [ है०३.४.७०. ] अष्टमः सर्गः । राज्ञोनेनाशय्यत क्रीडताङ्के दत्त्वा सार्धं दीव्यतां स्मात्ति चैषः । प्रासादाग्रेष्वभ्रमद्भासमानः स्प्रष्टुं सोग्रे भ्राम्यतो भ्रास्यमानान् ॥९॥ ९. अनेन भीमेन क्रीडता राज्ञो दुर्लभस्याङ्क उत्सङ्गेशय्यतातिवल्लभत्वात्सुप्तम् । तथैष भीम उदारप्रकृतित्वात्सार्धं दीव्यतां राजबालकानां दत्त्वाम्रफलादि भक्षयति स्म च । तथा स भीमो भ्रासमानो रूपवेषादिना शोभमानो भ्रास्यमानानप्रे भीमाग्रे भ्राम्यतः केल्या गच्छतो राजकुमारकान्स्प्रष्टुं छोतुं प्रासादात्रेष्वभ्रमत् । जातिरलंकारः ॥ कण्ठे निष्कः क्राम्यतो भ्लास्यमानस्यास्य कामेभ्लासते स्मात्रुटच्छ्रीः । धन्वा त्रुट्यत्कान्ति संक्षिप्य दत्तं मन्ये सख्यं लेष्यताखण्डलेन ॥ १० ॥ १०. लास्यमानस्य रूपादिना शोभमानस्यास्य भीमस्य कण्ठेत्रुटच्छ्रीर नेकवर्णमणिखचितत्वेन संपूर्णशोभो निष्कः कण्ठालंकारो भ्लासते स्म । कीदृक्सन्। क्रामंश्चलन् । यतः किंभूतस्यास्य काम्यतो बालत्वेन चपलखभावत्वादितस्ततश्चलतः । सश्रीकत्वाद्वितीयेन्दुवक्रत्वाचोत्प्रेक्षते कविः । मन्ये सख्यमनेन सह मैत्री लभ्यतेच्छताखण्डलेनेन्द्रेणा त्रुट्यत्कान्ति अखण्डत्वेन सश्रीकं धन्व धनुः संक्षिप्य लघुकृत्य दत्तमर्थादस्मै ॥ द्राक्संयस्यत्यश्वशालाप्लवङ्गे त्रस्यद्यस्यत्क्लाम्यदन्यार्भकेषु । नैषोक्लामन्नात्रसन्नायसच्च द्रष्टुं केल्यासंयसंश्रालपत्तम् ॥ ११ ॥ ११. अश्वशालाप्लवङ्गेश्वशालायां यः वङ्गोवानां चक्षुर्दोषाभावाय १ सी डी 'मद्भ्लास २ ए लक्ष्यता. १ बी सी भ्लासमा २ ए बी क्रामतो. ३ ए लक्ष्यते ४ई यां प्ल. Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ व्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] वानरस्तस्मिन्संयस्यति बालकाभिमुखधावनार्थमुद्यच्छति सति द्राक् त्रस्यन्तो विभ्यतोत एव यस्यन्त आत्मरक्षायै प्रयतमानास्तथा क्लाम्यन्तो दीनीभवन्तोन्ये भीमाव्यतिरिक्ता येर्भकास्तेषु तथा सत्स्वेष भीमो नात्रसत् । अत एव नालामन्नायसच्च किं त्वसंयसन्नप्रयत्नवान्सन्केल्या कौतुकेन तं प्लवङ्गं द्रष्टुमलषदैच्छत् ॥ - अशय्यत । इत्यत्र "क्यः शिति" [७०] इति क्यः ॥ . क्रीडता । इत्यत्र "कर्तरि” [१] इत्यादिनों शव् ॥ अनन्ध इति किम् । अत्ति ॥ दीव्यताम् । अत्र "दिवादेः श्यः" [७२] इति इयः ॥ भ्रास्यमानान् भ्रासमानः । भ्लास्यमानस्य भ्लासते । भ्राम्यतः अभ्रमत्। क्राम्यतः कामन् । क्लाम्यत् अक्लामत् । त्रस्यत् अत्रसत् । अत्रुव्यत् अत्रुटत् । लप्यता अलपत् । यस्यत् । अयसत् । संयस्यति असंयसन् । इत्यत्र "भ्रासभ्लास” [७३] इत्यादिना वा इयः ॥ कुष्यत्कूर्चः कुष्यमाणावतंसोरज्यद्राजारज्यतामात्यवर्गः। संसिन्वानेङ्कन तस्मिन्प्रसुन्वन्हर्ष कान्वा नानुरागो निराक्ष्णोत् ॥१२॥ १२. तस्मिन्भीमेङ्केनोत्सङ्गेन सह संसिन्वाने संबद्धी भवति राजा दुर्लभोरज्यदरजद्रागयुक्तं राजानमकरोद्भीमः । प्रेमवशादनायासेन राज्ञो रञ्जितत्वात्प्रयोक्रा विवक्ष्यते ना{ भीमोरजत्किं तु स्वयमेवारज्यत्तथामात्यवर्गश्चारज्यत स्वयमेव रागयुक्तोभूत् ।कीहक्सन् । कुष्यत्कूर्चः कुष्णात्याकर्षति बालस्वभावेन कूर्च भीमः । प्रयोक्रा विवक्ष्यते नामुं १ए सी नेकेन. १ डी माद्यति'. २ ए बी सी डी लाम्यन्ना. ३ बी यस्यन्न. ४ ई स. केल्या. ५ सी ना सिव्. ६ ए बी शच् ॥. ७ बी सी वादे श्यः. ८ बी ध्यत् अ. ९ ए ने सह सं. १० सी युक्तरा. Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.४.७४.] अष्टमः सर्गः । भीमः कुष्णाति किं तु स्वयमेव कुष्यति शतरि कुष्यन्स्वयमेवाकृष्यमाण: कूच दाढिका यस्य सः । तथा कुष्यमाणावतंसः स्वयमाकृष्यमाणमूर्धमाल्यः । कूर्चेवतंसे चाङ्कस्थेन भीमेनाकृष्यमाणे राजामात्याश्च हर्षेण रञ्जिता इत्यर्थः । वा यद्वा तस्मिन्नङ्केन संसिन्याने हर्षं प्रसुन्वन्संदधानो वर्धयन्नित्यर्थः । अनुरागस्तद्विषय आन्तरस्नेहः कान्न निराक्ष्णोन्न व्याप्नोत्किं तु सर्वानपीत्यर्थः ॥ अक्षन्मौदिं सोथ शृङ्गाण्यतक्ष्णोक्रीडैणानामभ्यतक्षन्नखांश्च । चापेस्तनाच्चैष पूर्वां दृशं चांस्तनोत्स्तुभ्नोति स्म नोचैर्गुरौ स्वम् ४ ॥ १३ ॥ १३. अथ प्रौढिं शरीरोपचयमक्षन्व्याप्नुवन्स भीमश्चलैलक्ष्यव्यधनाभ्यासाद्यर्थं मृगयाचिकीर्षया क्रीडैणानां हस्तलेयमृगाणां शृङ्गाण्यतक्ष्णोच्चिच्छेद नखांश्च खुराग्रभागांश्चाभ्यतैक्षत् । शृङ्गच्छेदे ह्येषां शरीरे कार्ण्य न स्यात् । मृगीसादृश्यं च स्यात्ततो मृग्य एता इति ता नारण्यमृगा अभिसरन्ति । वर्धितनखच्छेदे त्वेषामस्खलिता गतिः स्यादिति मृगयार्थिनो हस्तलेयकृष्णसार मृगाणां शृङ्गाणि नखांच छिन्दन्तीति स्थितिः । तथैष भीमचललक्ष्यमृगादिवधर्थं चाप उपचाराद्धनुर्ग्रहविषये पूर्वी च कलाचिकां चास्तम्नान्निश्चल्यकरोदृशं चास्तनोन्निश्चलां स्थापितवान् । एतदपि कुत इत्याह । यतो गुरौ विद्याचार्य उच्चैरत्यन्तं स्वमात्मानं न स्तुनोति स्म न स्तब्धं चक्रे विनीतो - भूदित्यर्थः । यद्वा प्रौढिमक्षन्स भीमः क्रीडैणानां शृङ्गाणि नखांश्च 90 93 १४ ५८९ १ ए सी डी चास्तुनो. १ ई. २ एकूचोदा. ३ ए दाडिका. ४ सी डी 'र्वान्नपी'. ५ ई 'लक्ष्य'. ६ बी लक्षव्य. ७ सी डी 'तक्ष्यत । ८. ८ एसी 'ति ना. ९ ए 'लक्षमृ. १० सी डी ई 'दिव्यधा. ११ सी चार्थे चा १२ बी सी डी व क १३ सी नं ते स्तु. १४ डी क्रीडेणा. Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० व्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] बाणैश्चिच्छेद यत एष चापे पूर्वी दृशं च निश्चली चक्रे । एतदपि कुत इत्याह । यतो गुरौ स्वं न स्तब्धं चक्रे गुरौ विनयेन धनुर्वे. दोक्तकलाचिकादृढस्थापनादौ सदभ्यस्तत्वाद्दयालुत्वाच्च क्रीडामृर्गशृङ्गादि सूक्ष्मं क्रीडामृगनखादि सूक्ष्मतरं च निर्जीवमेव चलमपि लक्ष्यमसौ शरैर्विव्याधेत्यर्थः ॥ इष्वास्तुभ्नाद्वेध्यमुळ सहासावस्कनोच स्कन्नतो मल्लयुद्धे । अस्कुघ्नात्तं स्कुनुवानं च नान्यः स्कुन्वानेनानेन नैवास्कुनाच ॥१४॥ १४. असौ भीम इप्वा बाणेन कृत्वोा सह वेध्यं लक्ष्यमस्तुभ्नानिश्चल्यकरोत् । महाबलत्वाद्वेध्यं भूमिं च युगपद्भिन्नवानित्यर्थः । तथा मल्लयुद्धे स्कन्नतः पाशबन्धादिना बनतो मल्लानस्कन्नोच । ने च न पुनस्तं भीमं स्कुंभुवानं बघ्नन्तमन्यो मल्लोस्कुघ्नात् । तथा स्कुन्वानेन पादादिना लवणगोण्यादिमहाभारमुद्धरमाणेनानेन भीमेन सहान्यो नैवास्कुनाच नैवोद्धृतवांस्तस्मादन्यस्य सर्वस्याप्यबलत्वात् ।। कुष्यत् कुष्यमाण । अरज्यत् अरज्यत । इत्यत्र "कुपिरोः [७४ ] इत्यादिना वा परस्मैपदं तत्सन्नियोगे श्यश्च ॥ प्रसुन्वन् । संसिन्वाने । अत्र "स्वादेः श्रुः" [७५ ] इति श्नुः ॥ निराक्ष्णोत् अक्षन् । इत्यत्र "वाक्षः" [ ७६ ] इति वा नुः ॥ अतक्ष्णोत् अभ्यतक्षत् । इत्यत्र "तक्षः स्वार्थे वा” [ ७७ ] इति वा नुः ॥ अस्तनात् अस्तभ्नोत् । अस्तुभ्नात् स्तुभ्नोति । स्कन्नतः अस्कन्नोत् । १ सी डी स्कुश्नाने. २ ई °नेमाने'. १ सी डी स्वं स्तब्धं न च . २ डी गन'. ३ बी लक्षम'. ४ ए लक्षम. ५ सी डी नपु. ६ बी स्कुश्नवा. ७ ए त् । अथा. ८ सी डी स्कुम्नाने. ९ ए श्च ॥ असु १० ए अस्तुभ्नोत् । अस्तुना. Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.४.८०.] अष्टमः सर्गः। ५९१ अस्कुन्नात् स्कुनुवानम् । अस्कुनात् स्कुन्वानेन । इत्यत्रं "स्तम्भू” [ ७८ ] इत्यादिना ना नुश्च ॥ क्रीणन्प्रीणन्स्वैर्गुणैः क्ष्मां गृहाणारीस्तेजोभि जमानस्तुदंस्त्वम् । तीर्थ रुन्धे कर्मपाशान्भनज्मीत्यूचे राज्ञा सोथ कुर्वन्सदाज्ञाम् ॥१५॥ १५. अथ सदाज्ञां कुर्वन्स भीमो राज्ञा दुर्लभेनोचे । कथमित्याह । हे भीम क्ष्मां गृहाणाङ्गीकुरु । कीहक्सन् । स्वैर्निजैर्गुणैः शौर्यन्यायादिभिः कृत्वा मां प्रीणन्नत एव क्रीणन्वशीकुर्वंस्तथारीस्तेजोभिः प्रतापर्भुजमानः सन्तापयन्नत एव तुदन्पीडयन् । अहं तु तीर्थ रुन्ध आँवृणोमि सेव इत्यर्थः । तथा तीव्रतपोनुष्ठानात्कर्मपाशान्मोहनीयादिकर्मबन्धनानि भैनज्मि त्रोटयामीति ।। व्यातन्वानोश्रूण्यमन्वान एतन्नम्रो भक्त्येत्यब्रवीद्राजपुत्रः । तातासर्जि स्रक्ष्यते सृज्यतेन्यां सर्वां भक्तिं न विदं ते जनोयम् ॥१६॥ १६. राजपुत्रो भीम इत्यब्रवीत् । कीदृक्सन् । अश्रूणि नेत्रजलानि व्यातन्वानो समाधिना विस्तारयंस्तथैतद्राजोक्तममन्वानोप्रतीच्छंस्तथा भक्त्या नम्रः । यद्ब्रवीत्तदाह । हे तातायं मल्लक्षणो जनस्ते तान्यां सर्वां भक्तिमसऱ्याकार्षीत्स्रक्ष्यते करिष्यति सृज्यते करोति च । न तु न पुनरिदं क्ष्माग्रहणमसर्जि स्रक्ष्यते सृज्यते च ।। क्रीणन् । प्रीणन् । इत्यत्र "त्र्यादेः" [ ७९ ] इति ना ॥ गृहाण । इत्यत्र "व्यञ्जनाद्' [ ८० ] इत्यादिना भायुक्तस्य हेः स्थान आनः ॥ १ ए क्रीडन्प्री'. २ ए भक्तेल्य. ३ ए बी ते स्रज्य'. १ ए°त्र "सम्भू. २ ए क्रीडन्व. ३ ए आदृणो' ४ ए शामोह'. ५ बी भजन्मि त्रो. ६ई °वाशां स. ७ ए क्रीडन् ।. Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ व्याश्रयमहाकाव्ये तुदन् । भृज्जमानः । अत्र " तुदादेः शः " [ ८१ ] इति शः ॥ रुन्धे । भनज्मि । इत्यत्र " रुधाम्" [ ८२ ] इत्यादिना स्वरात्परः श्नः । प्रकृतिनस्य च लुगन्वाचीयते ॥ " -3: कुर्वन् । व्यातन्वानः | अमन्वानः । अत्र “कृग् ” [ ८३ ] इत्यादिना उः ॥ असर्जि । सृज्यते । त्रक्ष्यतेयं भक्तिम् । अत्र "सृजः " [ ८४ ] इत्यादिना 1 कर्तरि जिक्यात्मनेपदानि ॥ एतेन क्ष्मां गृहाणेति राज्ञा यदुक्तं तन्निषिध्ये तीर्थं रुन्धे कर्मपाशान्भनज्मीत्यनेन तपोङ्गीकरणं यत्सूचितं तत्फलं राज्येप्युपपत्त्या दर्शयंस्तपोङ्गीकरणं वृत्तद्वयेन निषेधन्नाह । 3 ये तप्यन्ते तत्तपस्तेपिरे वा तान्पातस्तेकारि तीव्रं तपो हि । कारिष्यन्ते सिद्धयोथ क्रियन्तेपाचिश्रेयः पच्यते पक्ष्यते वा ॥ १७॥ १७. हे राजंस्तत्तीर्थसेवातीब्रत्वादिना प्रसिद्धं तपो व्रतं ये तपखि नस्तप्यन्ते कुर्वन्ति तेपिरे वा चक्रुर्वा । उपलक्षणत्वात्तस्यन्ते वा तान्पातो रक्षतस्ते तव । हि यस्मात्तीव्रं तपोकारि अकार्षीस्तीव्रं तपस्त्वम् । अनायाससाध्यत्वात्प्रयोक्तैवं विवक्षितवान्नायमकार्षीत्किं त्वकारि तपः स्वयमेव । तपस्विरक्षकत्वेन तत्तपोविभागित्वात्ते स्वयमेव तपो निष्पन्नमित्यर्थः । तस्मात्सिद्धयो मनोरथपरिपूर्तयस्तव कारिष्यन्ते करिष्यसि त्वं सिद्धीः । कारिष्यन्ते सिद्धयः स्वयमेव । निष्पत्स्यन्ते स्वयमेवेत्यर्थः । अथ तथा सिद्धयः क्रियन्ते स्वयमेव निष्पद्यमानाः सन्तीत्यर्थः । उपलक्षणत्वात्स्वयमेव निष्पन्नाञ्च । वाथ वा युक्तमेवैतद्यत्सिद्धयः करिष्यन्ते क्रियन्तेकॉरिषत चेति । यतस्तव श्रेयस्तपोजनितं पुण्यमपाचि अपाक्षीः श्रेयस्त्वम् । अपाचि श्रेयः स्वयमेव स्वयं परि [ भीमराजः ] १ एन्वादीय. २ एध्य तर्थ. ३ ई ङ्गीकारं वृ. ४ बी सी डी 'धयन्ना', ५ सी डी रक्ष्यत ६ ई 'मेवेत ७ सी रिष्यत, डी 'रिष्यन्त चे'. Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.४.८५.] अष्टमः सर्गः। ५९३ पकम् । एवं पच्यते पक्ष्यते च । कृतं क्रियमाणं करिष्यमाणं च श्रेयस्तवाभीष्टफलदानोन्मुखमभूद्भवति भविष्यति चेत्यर्थः । एतेन सर्वेण राज्ञस्तपोङ्गीकारो निषिद्धः ॥ तद्वदुग्धे गौस्तवासौ वसूनि स्वामिन्यद्वद्वेनसूनोरदुग्ध । हृद्विड्डोकोपक्त ते क्षत्रवृत्त्या नो वारुद्धामुत्र लोकः किमेतत् ॥१८॥ १८. यद्वद्यथा वेनसूनोः पृथुराजस्य गौः पृथ्वी वसूनि रत्नानि द्रव्याणि वादुग्धाधुक्षदँदुग्ध वा गां वसूनि वेनसूनुः । स एवं विवक्षितवान्नाहं गामधुक्षि किंत्वदुग्ध गौः स्वयमेव न्यायपालनेन महर्द्धिकत्वात्स्वयमेव क्षरितवती तद्वत्तथा हे स्वामिस्तवासौ गौर्वसूनि दुग्धे स्वयमेव क्षरति । तथा ते तव क्षत्रवृत्त्याभङ्गशौर्यादिना क्षत्रियाचारेण कृत्वा द्विट्लोको हृद्धृदयमपक्त । पचिरत्र द्विकर्मकोन्तर्भूतण्यों वा। अपाक्षीत्क्षत्रवृत्तिद्विलोकं हृत् । प्रयोक्रैवं विवक्ष्यते नेयमपाक्षीत्किं तु द्विलोको हृत्स्वयमेवापक्त स्वयं संतापितवानित्यर्थः । नो वा न च क्षत्रवृत्त्या कृत्वा तेमुत्र लोकः परलोकोरुद्धं नारौत्सीन्नारुधी । निवर्तमानं न न्यवीवृतत्क्षत्रवृत्तिरमुत्र लोकं नो वारुद्ध स्वयमेव । तस्माकि किमर्थमेतद्राज्यत्यागेन तपोग्रहणम् । तपोग्रहणं हि निःसपत्नमहर्द्धिकभूमिस्वामित्वरूपेहलोकफलार्थ स्वर्गापवर्गादिपरलोकफलार्थं च क्रियते । तच्च तव सर्वं राज्यस्थस्याप्यप्रतिहतमस्ति तस्माकिमनेन तपोग्रहणेनेत्यर्थः ॥ ये तपस्तप्यन्ते । तेपिरे । अत्र "तपेः" [ ८५] इत्यादिना कर्तरि जिक्यास्मनेपदानि ॥ . १ सी डोक्योप'. १ सी डी एव प. २ सी डी नि द्रव्याणि रत्नानि वा.३ सी डी दधुग्ध. ४ सी सूनुः स एवं वि किं त्वदु. ए सूनुरदु. ५ई दुधव गौः. ६बी यं हृदयं सं. ७ सीद्ध नोरौ . ८ ई द्वाऽनि. ९ बी नं मन्य. १० सी कं नावा. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढ्याश्रयमहाकाव्ये . [भीमराजः] अकारि तपः। क्रियन्ते कारिष्यन्ते सिद्धयः । अत्र ‘एकधातौ” [८६] इत्यादिना जिक्यात्मनेपदानि ॥ .. श्रेयोपाचि । पच्यते । पक्ष्यते । अपक्त द्विड्डोको हृत् । दुग्धे । अदुग्ध गौर्वसूनि । इत्यत्र “पचिदुहेः" [ ८७ ] इति जिक्यात्मनेपदानि ॥ - अपक्त द्विड्लोको हृत् । अदुग्ध गौर्वसूनि। इत्यत्र "न कर्मणा जिच्” [ ८८ ] इति न जिच् ॥ _ नो वारुद्धामुत्र लोकः । अत्र "रुधः" [ ८९ ] इति न जिच् ॥ .. अथ भीमो राज्ये स्वमनधिकारिणमेवाह । को वाकारि व्याकृतेति स्मृतिः का पुत्र राज्यं यत्सति भ्रातरीशे । मैवं कार्षीौरदुग्ध स्वयं चेदुग्धानहें सा हि नादोहि तात ॥१९॥ १९. हे तात भ्रातरीशे राज्यधुराधरणक्षमे सति विद्यमाने यत्पुत्रे राज्यं भवतीत्येवंविधा स्मृतिः का व्याकृत । व्याकार्षीदपप्रकटदेवंविधां स्मृति स्मृतिकारः । प्रयोक्रैवं विवक्ष्यते नायं व्याकार्षीकिं त्विति स्मृतिः स्वयं व्याकृत । न काप्येवंविधा स्मृतिः प्रकाशते स्मेत्यर्थः । वा यद्वा भ्रातरीशे सति कः पूर्वो नृपः । इतिरत्रापि योज्यः । इतीदृशस्त्वत्सदृशः पुत्रे राज्यस्य स्थापयितेत्यर्थः । अकारि अकार्षीदित्येवंविधं पुत्राय राज्यस्य दातारं कश्चिदमात्यादिरुपदेशदानादिना । स एवं विवक्षितवान्नाहमकार्ष किं त्विति स्वयमेवायमकारि भ्रातरि समर्थे सति पुत्राय राज्यस्य दाता त्वमिव न कोपि पूर्वनृपोभूदित्यर्थः । एतेनात्मनो राज्यानहत्वमुक्तम् । तस्मादेवमिदं मह्यं राज्यसमर्पणं मा कार्षीः । नन्वेवं कृते को दोष इत्याशङ्कय दृष्टान्तोपदर्शनद्वारेण दोषमुद्भावयति । -१बी शे । मेवं. . १ ए त् । अ°. २ ई °धिकरण'. ३ सी डी गमाह'. ४ ई वीदेवं. . Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९५ [है० ३.४.९१.] अष्टमः सर्गः। गौरित्यादि । हि यस्माद्धेतोर्दुग्धानह उदररोगादिदोषेण दुग्धपानायोग्यवत्सादिनिमित्तं निमित्तसप्तमीयम् । चेद्यद्यपि गौर्धेनुः स्वयंमदुग्धाधुक्षदक्षारयद्गां वत्स एवं न । किं तु स्वयमदुग्ध वत्सस्नेहादिना स्वयं क्षरितवतीत्यर्थस्तथापि सा गौर्नादोहि पूर्ववत्कर्मकर्तृत्वविवक्षायां तत्त्वतो न स्वयं क्षरितवती यदर्थमदुग्ध तस्यायोग्यत्वात्। एवं भ्रातरि समर्थे सति राज्यानस्य मह्यं राज्यं दत्तमप्यदत्तमित्यर्थः ॥ व्याकृत अकारि । अदुग्ध अदोहि । इत्यत्र "स्वरदुहो वा' [ ९०] इति वा जिन्न ॥ राज्ञाथोक्तो नागराजोप्यतप्तोचे च ज्येष्ठो यत्तपोतप्त पार्थः । नो राज्यायातप्त केनापि पश्चाभात्रायं तत्कि जनोद्यान्वतप्त ॥२०॥ ___२०. अथ भीमोक्त्यनन्तरं राज्ञा दुर्लभेनोक्तो राज्याङ्गीकाराय भणितो नागराजोप्यास्तां भीम इत्यप्यर्थोतप्त राजा नागराजमताप्सीदेवं न । किं तु स्वयमेवातप्तासमाधिना संतप्तस्तथोचे च । किमित्याह । यदिति यदार्थे । यदा ज्येष्ठः पार्थो युधिष्ठिरस्तपो व्रतमतप्ताकार्षीत्तदा पश्चात्केनापि भ्रात्रा भीमादिना राज्याय नो अतप्त नात्यन्तमुत्कण्ठितं किं तु सर्वैरपि तपश्चरितमित्यर्थः । तत्तस्माद्धेतोरयं जनो मल्लक्षणोद्य सांप्रतं भ्रात्रा दुर्लभेन किमन्वतप्त किमिति राज्यभारारोपेणानुताप्यते स्म । एतेनाहं राज्यं नाङ्गीकरिष्ये किं तु भ्रात्रा सह तपोनुचरिघ्यामीत्युक्तम् ॥ कर्मकर्तरि । नागराजोप्यतप्त ॥ कर्तरि । अतप्त तपः पार्थः ॥ भावे । केनापि नो अतप्त ॥ कर्मणि । अन्वतप्तायं भ्रात्रों । अत्र "तपः कर्तृ" [ ९१] इत्यादिना न जिच् ॥ १ डी यमेवादु. २ वी सी भिच् ॥ ३ सी डी तमि. ४ ई रोपणादनु'. ५ ए बी त्रा । त°. - - - Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः] नेत्यचीकरत न व्यकृतायं नोदशिश्रियत किं तु तदाभ्याम् । अभ्यषेचि स विनीय सुतः प्रास्नोष्ट खं कुसुमवर्षणतश्च ॥ २१॥ २१. अयं नागराज इति पूर्वोक्तप्रकारेण नाचीकरत नाकार्षीदिति प्रकार इमं राजानं प्रयोक्रैवं विवक्ष्यते नायं नाकार्षीतिक तु नाकार्ययं स्वयमेव तं स्वयमक्रियमाणमिति प्रकारः । प्रायुत णिगि नाचीकरदिति प्रकार इमं राजानं पुन: प्रयोक्तवं विवक्षते एवं न किं विति नाचीकरतायं स्वयमेव । यद्वा नाकार्षीदिति प्रकार इमं राजानं तमकृतवन्तं दुर्लभः प्रायुक्त णिगि नाचीकरदिति प्रकारेणेमं राजानं दुर्लभः स एवं विवक्षितवान्नाहं नाचीकरं न चेति प्रकारो नाकार्षीत्किं त्विति नाचीकरतायं स्वयमेवोक्तरीत्यायं स्वयमेव राजा नाभूदित्यर्थः । राज्यदानप्रस्तावादत्र राजेति गम्यते । तथेत्युक्तप्रकारेणायं न व्यकृत विकरोतिर्वल्गनेन्तर्भूतण्यर्थः कर्मस्थक्रियः न व्यकार्षीन्न विकृत्य(त्या?)कार्षीदिति प्रकार इममेवं न किं तु न व्यकृतायं स्वयमेवोक्तरीत्या राज्यादिवाञ्छोत्थविकारवान्नाभूदित्यर्थः । तथेति नोदशिश्रियत नोदशिश्रियन्नौद्धत्य (त्या)कार्षीदिति प्रकार इममेवं न किं तु नोदशिश्रियतायं स्वयमेव । उक्तरीत्या बृहद्धातुरुचितप्रतिपत्तिकरणान्नोद्धतोभूदित्यर्थः । किं तु तदाभ्यां दुर्लभनागराजाभ्यां स सुतो भीमो विनीय मधुरालापशिक्षया संबोध्याभ्यषेचि राज्येभिषिक्तः । तथा खं व्योम कुसुमवर्षणतः पुष्पवर्षात्प्रोस्नोष्ट च । अन्तर्भूतण्यर्थत्वात्सकर्मकत्वे प्रास्नावीकुसुमवर्षणं कर्तृ खं कर्म । एवं न किंतु प्रास्नोष्ट च खं स्वयमेव। देवताप्रभावात्पुष्पवर्षेण क्षरितं चेत्यर्थः । वस्तुल्ययोगितार्थः । यदैव सोभ्यषेचि १ बी ई "युक्त णि° २ बी योवं. ३ बी सी डी वक्ष्यते. ४ बी ई युक्त णि. ५ बी वान्नहं. ६ सी डी ज्यप्रदा . ७ ए सी डी ई °यन्नोद्ध'. ८ ए °लापायशि. ९ बी सी प्राश्नोष्ट. १० डी व स ताभ्यामभ्य. Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ३.४.९२.] अष्टमः सर्गः। ५९७ तदैव कुसुमवर्षणतः खं प्रास्नोष्टेत्यर्थः । एतेनास्य राज्याभिषेकेतिशुभनिमित्तोक्तिः ॥ __णि । नाचीकरतायम् ॥। प्रास्त्रोष्ट खम् ॥ भि। नोदशिश्रियतायम् ॥आत्मनेपदाकर्मक । न व्यकृतायम् । अत्र “णिस्नु' [९२] इत्यादिना न मिच् ॥ राट्सथालमकृताभिनवः सोलंकरिष्यत इतो न यथान्यः । खापुरे पुनरबूभुषताद्योथानुजः सममलंकुरुते स्म ॥ २२ ॥ २२. सोभिनवो राडाजा भीमस्तथालमकृतालमकार्षीत् । तथा प्रकारः । तमेवं नालमकृत स स्वयमेव राज्यश्रिया तथा रेज इत्यर्थः । यथेतो भीमादन्योपरोभिनवोराडालंकरिष्यते नालंकरिष्यत्यन्यं यथा प्रकार एवं न नालंकरिष्यतेन्यः स्वयमेव न शोभिष्यत इत्यर्थः । उपलक्षणत्वाद्यथान्यो न शुशुभे न शोभते च । सर्वराजोत्कृष्टो राजाभूदित्यर्थः। तथाद्यः पूर्वो राट् पुनर्दुर्लभैः स्वःपुरे स्वर्गनगरेबूभुषत । आद्यराजं स्वःपुरं कर्जबूभुषत्स्वमहालमकार्षीदेवं न स्वयमेवाबूभुषतं रेज इत्यर्थः । अथ तथानुजो नागराजः स्वःपुरे समं सहालंकुरुते स्म । कर्मकर्तृविवक्षा पूर्ववत् । दुर्लभनागराजौ स्वर्गे महर्द्धिको देवौ सहचरावभूतामित्यर्थः ॥ मात्र भूमिभुजि भूषयते भूर्भूषयिष्यत इवाधिवलि द्यौः। कीर्तिरत्र चजयिन्यचिकीर्षिष्ट स्म चाम्बुधि चिकीर्षत ऋद्धिः ॥२३॥ २३. अधिबलि बलिदैत्ये रक्षकत्वेनाधारे रक्ष्यत्वेनाधेया द्यौः १ ए सी जयन्य. १ सी डी केशु. २ डी स्नु । प्रस्नो. ३ बी राजमी'. ४ बी सी डी वं ना. ५ ए न्योन्यशु ६ सी डी तदाथः. ७ बी भः स्वपु. ८ सी डी षत् । आ', ९ सी जं स्वपु. १. डीपत् रे'. ११ ली जः स्वपु. १२ ए रक्षावे. Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] I स्वर्गे यथा भूषयिष्यते । बलिरिन्द्रो भविष्यतीति प्रसिद्धेर्भूषयिष्यति यां बलिरेवं न । स्वयमेव भूषयिष्यते द्यौर्बले: सुप्रभुत्वाच्छोभिष्यत इत्यर्थः । तथात्र भूमिभुजि भीमे न्यायरक्षकत्वेनाधारे वर्तमाना भूर्भूषयते स्म । कर्मकर्तृविवक्षा प्राग्वत् । अत एवात्र भूमिभुजि सति जयिनी सर्वकीर्त्यत्कृष्टत्वेन विजयमाना कीर्तिश्चैतदानपुण्यकृता ख्यातिश्चाम्बुधि समुद्रमभिव्याप्या चिकीर्षिष्ट । अचिकीर्षीदयं कीर्तिमेवं न । किं त्वचिकीर्षिष्ट कीर्तिः स्वयं भवितुमैषीद्विस्तृतेत्यर्थः । तथा ऋद्धिश्चैतदीया भूसैन्यादिसंपञ्चाम्बुधि चिकीर्षते स्म । पूर्ववत्कर्मकर्तृविवक्षा ॥ 9 की सुयशस्य चिकीर्षिष्यन्त आद्यचरितानि तदुच्चैः । अञ्जसा रिपुगणश्च चिकीर्षीष्टेति तत्र किरते स्म नृणां वाक् ॥ २४॥ २४. तत्र भीमविषये नृणां वोक्किरते स्म । किरन्ति स्म वाचं नर एवं न । किं तु स्वयमेव किरते स्म प्रससारेत्यर्थः । किंभूता । यद्यस्माद्धेतोरस्य भीमस्य सुयशः पराक्रमकृता ख्यातिर्व्यकीर्ष्ट । व्यकारीत्सुयशोयमेवं न । किं तु स्वयं व्यकीष्टे सुयशः सर्वत्रैतस्ततो गतमित्यर्थः । तत्तस्मादुच्चैरतिशयितान्याद्यानां पूर्वेषां रामचन्द्रादीनां चरितानि दैत्योच्छेद सर्व दिग्जयादीनि चरित्राण्यस्य चिकीर्षिष्यन्ते । चिकीर्षिष्यत्याद्यचरितान्ययमेवं न । किं तु स्वयमेवाद्यचरितान्यस्य चिकीर्षिष्यन्ते भवितुं वाञ्छिन्ति । यशोविस्तारादयं रामचन्द्रादिपूर्वनृपतुल्यो भविष्यतीत्यर्थः । इत्येवंविधा । अग्रेतन इतिरत्रापि योज्यः । तथास्य रिपुगणोसा सामस्त्येन चिकीर्षीष्ट । चिकीर्याद्विक्षिप्यद्धिस्याद्रिपु ७ १ ए र्षिष्ट कीर्तिः, ४ बी वाक्किर. ५ एयं वाकी ८ सी 'व्यन्ते भवितुं वान्छिष्यन्ति ।. २ एथा रुद्विचै ३ एम्बुद्वि चि' बी 'बुधिं चि . ७ ए दिग्गया. • ६ ए 'त्यो सर्वच्छे ९ डी प्याद्रि . Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ३.४.९३.] अष्टमः सर्गः। ५९९ गणमयमेवं न । किं तु स्वयमेव चिकीर्षीष्ट स्वयमेव विक्षेपविषयो भूयादित्येवंविधौ च । एतेनात्यन्तं जनानुरागोक्तिः ॥ यद्यगीष्ट गिरते परिगीर्षीष्टेत्यकारयत सिन्धुषु नीतिः । न प्रजासु पुनरुच्छ्रयते स्मास्मिन्कलिर्विकुरुते स्म न चापि ॥२५॥ २५. अस्मिन्भीमे राज्ञि सत्यगीष्ट । अगारीन्महामत्स्यो मत्स्यान्तरमेवं न । किं त्वगीष्ट स्वयमेव प्रकरणान्मत्स्यः स्वयमेव गलविवरेणाधो गतः । तथा गिरते तथा परिगीर्षीष्ट । उभयत्रापि पूर्ववत्कमकर्तृविवक्षायां मत्स्यः स्वयमेव गलविवरेण संचरति संचर्याचेत्यर्थः । इत्येवंविधा भूतवर्तमानभाविकालत्रयविषया नीतिः स्वजातेरप्यबलिनो बलिना पराभवरूपो मात्स्यो न्यायो यदि परं सिन्धुष्वन्धिष्वकारयत । अकुर्वन्निति नीतिं मत्स्यास्तान्कुर्वतोनुकूलाचरणेन सिन्धवः प्रायुञ्जत । णिग् । इति नीतिमकारयन्मत्स्यैः सिन्धवः । प्रयोक्तैवं विवक्षितवान्न सिन्धवो मत्स्यैरिति नीतिमकारयन् । न चेति नीति मत्स्या अकुर्वन् । किं त्विति नीतिः स्वयमकारयत । समुद्रेष्वेव मात्स्यो न्यायः प्रावर्ततेत्यर्थः । न पुनः प्रजासु लोकमध्य इति नीतिरुच्छ्रयते स्म । प्रजा इति नीतिं नोच्छ्रयन्ति स्मैवं न । किं तु नोच्छ्रयते स्मेति नीतिः स्वयमेव । भीमस्यान्यायिनां शासकत्वात्प्रजासँ मात्स्यो न्यायो नोज़म्भते स्मेत्यर्थः । अत एवास्मिन्सति कलिरपि कलिकालोपि कलहोपि वा न च नैव विकुरुते स्म व्यकृतेतिवत्कर्मकर्तृविवक्षायां नोजजम्भ इत्यर्थः ॥ १ डी मेव न ।. २ ए भूआदि. ३ डी धा वा च ।. ४ डी गिराते. ५ बी पो मत्स्यो. ६ ई मात्स्यन्या. ७ ए दिपरि प०. ८ सी वो मात्स्यै. ९ डी मत्सरि. १० सी नीति स्व. ११ ए च्छ्ते. १२ सी नीति स्व. १३ बी सु मात्स्यो. १४ ए °लिका. १५ डी तिपूर्वव. Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० ब्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] प्रस्तुते स किल गौः स्वयमस्मिन्पर्यवारयत चास्य चमूस्ताम् । मच्छिनत्ति युधि साध्वसिरस्येयाज चारिरुधिरेण कृतान्तम् ॥२६॥ २६. किलेति सत्ये । अस्मिन्नृपे सति गौः पृथ्वी प्रेस्नुते स्म । प्रेस्नौति स्माक्षारयद्गां रत्नान्ययमेवं न । किं तु स्वयमेव प्रस्नुते स्म । सुप्रभोरस्यानुरागेण स्वयमेव रत्नादिदानोन्मुखी बभूव । तथास्य भीमस्य चमूश्च तां गां पर्यवारयत । पर्यवारयत्तां चम्वा कृत्वायमेवं न । किं तु चमूः स्वयं तां पर्यवारयत रक्षार्थमेतञ्चमू: पृथ्वी परिवेष्टितवतीत्यर्थः । एतेन पृथ्वीभीमयोमिथ उपकार उक्त: । परिवृत्तिरलंकारः । तथास्यासिः खड्गो युधि साधु क्षत्रियोचितं यथा स्यादेवं छिनत्ति स्म । असिना साधुच्छिनत्त्ययमरीनेवं न। किं तु साध्वसिश्छिनत्ति स्म स्वयमेव । अत एव चास्यासिररिरुधिरेण कृत्वा कृतान्तमियाजापूजयत् ॥ कोपि नाचकमतापनिनायाप्याचकाणदिह राज्ञि परस्त्रीम् । नीतिवम॑नि यदेष जजागारातितिक्षत च न कचिदागः ॥२७॥ २७. इहास्मिन् राज्ञि सति कोपि परस्त्रीं नाचकमत नेयेष तथा नापनिनाय नापजढे नाचकाणदपि । अपिः समुच्चये । कामवशादातस्वरपूर्वं नाशब्दाययंत् । एतेन परस्त्रीविषया मनःकायवचसां निवृत्तिरुक्ता । यद्यस्माद्धेतोरेष भीमो नीतिवद्मनि न्यायमार्गे जजागारोद्यतोभूत् । तथा कचिन्मित्रादावप्यागोपराधं नातितिक्षत नासहत । १ए प्रश्नुते. १ डी पृथ्वीः पृस्नु. २ बी प्रस्नुते. ३ बी प्रश्नौति. ४ वी वृत्तिर. ५ ए °स्यासिख'. ६ ए तं तथा. ७ बी ई °धु स्मच्छि. ८ ए सी अपि स. ९ डी. ब्दायत्. १० सी डी यत । ए. ११ बी. °हत् ॥.. Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ३.४.९३. ] अष्टमः सर्गः । ६०१ araateeyeगाम स तेनाटाट्यांटिटिपति स्म न चौरः । कोपि नाड्डिडिपट्टिटिषायां सर्व उब्जिजिषति स्म यथावत् ||२८|| 1 २८. स भीमोपथगान्स्तेयाद्यन्यायमार्गगाँल्लोलवीति स्म भृशमभीक्ष्णं वा चिच्छेद । तेन हेतुना चौरो नाटाट्यत चौरिकार्थं न बम्भ्रम्यते स्म । नाटिटिषति स्म न चाटितुमैच्छत् । तथा कोप्याट्ट - टिषायां हिंसेच्छायामतिक्रमेच्छायां वा नाडिडिपन्नाभियोक्तुमैच्छत् । किं तु सर्वोपि यथावद्यथोचितमुब्जिजिषति स्म ऋजूभवितुमिच्छति स्म ॥ बाढमिन्दिदिषदेर्चिचिषच्चारर्यदत्र नृपचक्रमशेषम् । साजिजीयिषति नापि वृकोन्यः को हाजीयियिषति स्म बुभुक्षुः ॥ २९ ॥ २९. अशेषं नृपचक्रमत्र भीमेरर्यदर्य स्वामिनमाख्यत् । कीटक्सत् । बाढमत्यर्थमिन्दिदिषदीश्वरीभवितुमिच्छदत एवार्चिचिषदर्थाद्भीमं पूजयितुमिच्छच्च । तथात्र नृपे सति दयालुत्वेन सर्वयत्नानिरपराधजन्तुमारि व्यसनवारकत्वाद्वृकोप्यरण्यश्वापि बुभुक्षुः क्षुधार्त्तः सन्नाजिजीयिपैंति स्माजेच्छां नेच्छति स्म । मोदकार्थी बुभुक्षां वाञ्छतीतिवदिच्छाया अपीच्छा । हि स्फुटमन्यः को बुभुक्षुरजीयियिषति स्म न कोपीत्यर्थः । अनेनास्यातिधार्मिकत्वोक्तिः ॥ ३ ए सी 'चारा'. ? eft. °aifèfèq°. २ ए बी ई दर्श्विचि ४ ए जीजिविष यामिति १ "दर्य स्वा. ५ बी ८ ए च्छाया । हि. ७६ ३ बीर्यदार्थ. ४ ए ७ सी त मा. २ एसी मेरा डी 'आर'. 'क्सन् । बा. ६ वी ढमित्य.. ९ए भुक्ष्यजीजियिष Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ व्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] जात्वजीयिषिषति स न कश्चिद्यच्छ्रियः क्षितिभुजीह यथेष्टम् । . द्राक्स्वराद्यपरनामजधात्वेकस्वरावयववद्विरभूवन् ॥ ३० ॥ ३०. यद्यस्माद्धेतोरिह क्षितिभुजि राज्ञि सति श्रियो लक्ष्म्यो या या श्रीरिष्टा यथेष्टं यथेप्सितं द्विरभूवन् द्विगुणीबभूवुराल्लोकस्य । किंवत्स्वरादेरपरेन्ये व्यञ्जनादयो ये नामजधातवो नामधातवस्तेषां य एकस्वरा अवयवास्ते यथा । पुपुत्रीयिषति । पुतित्रीयिषति । पुत्रीयियिषति । पुत्रीयिषिषति । इत्यादौ यथेष्टं प्रथमाद्यवयवानामन्यतमा द्विर्भवन्ति द्विरुच्यन्ते तस्माद्वहुधनत्वाद्धेतोर्जातु कदाचिदपि न कश्चित्कोप्यजीयिषिषति स्म । यदि ममाजा स्यात्तदा शोभनमिति छागेच्छां नेच्छेति स्म । एतेन प्रजोपरि राज्ञः शुभचेतस्कत्वोक्तिः । शुभचित्ते हि राज्ञि प्रजाः श्रिया वर्धन्ते ।। भूषार्थ । अलमकृत सः। नालंकरिष्यतेन्यः। सम[म]लंकुरुते । अबूभुषताद्यः । भूषयिष्यते द्यौः । भूषयते भूः ॥ सन्नन्त । अचिकीर्षिष्ट । चिकीर्षियन्ते । चिकीर्षते ॥ किरादि । व्यकीष्ट । चिकीपीष्टं । किरते । अगीष्ट । परिगीर्षीष्ट । गिरते ॥ ण्यन्त । अकारयते ॥ स्नु । प्रस्तुते गौः ॥ श्रि । नोच्छ्रयते ॥ आत्मनेपदाकर्मक । विकुरुते । एषु “भूषार्थ'' [ ९३ ] इत्यादिनी जिक्यौ न ॥ पर्यवारयत चमूस्ताम् । इत्यत्र 'करण' [ ९४ ] इत्यादिनात्मनेपदं क्वचिस्यात् ॥ क्वचिन्न । साध्वसिश्छिनत्ति ॥ द्वितीयः ( द्वादशः ) पादः समर्थितः ॥ १ डी ई तवस्ते'. २ ई राव, ३ बी यिषष. ४ सीडी °च्छन्ति स्म. ५ सी प्रजा श्रि. ६ वी अबुभु. ७ सी पयंते. ८ सी ध्यते । चि° ९ ए °ष्टगि. १० ए °त ॥ स । प्रचुते. ११ सीना निक्यौ. १२ ई दः लक्षणतः स. Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.८. ] अष्टमः सर्गः । ६०३ इयाज | अचकमत । इत्यत्र " द्विर्धातुः " [१] इत्यादिना द्विरुक्तिः ॥ प्रागिति किम् । अपनिनाय । अत्र वृद्ध्यादेः स्वरविधेः पूर्वमेव द्वित्वं सिद्धम् ॥ जजागार । अ (आ) चकाणत् । इत्यत्र “आद्योंश" [२] इत्यादिना द्विरुक्तिः ॥ अतितिक्षत । लोलवीति । अत्र " सन्यङश्च " [ ३ ] इति द्वित्वम् ॥ ४ अटिटिषति । आटाढ्यत । इत्यत्र "स्वरादेर्द्वितीयः " [४] इति द्वित्वम् ॥ उब्जिजिषति । अट्टिटिषायाम् | आडिडिषत् । इन्दिदिषत् । इत्यत्र "ने बद ०" [ ५ ] इत्यादिना संयोगस्यादयौ बदना न द्विः स्युः ॥ अर्चिचित् । इत्यत्र " अयि रः ' ," ६] इति रस्य न द्वित्वम् ॥ अयीति किम् | आर्यत् ॥ अजिजीयिषति । अजीयियिषति । अजीयिषिषति । इत्यत्र "नाम्नः" [ ७ ] इत्यादिना द्वितीयादारंभ्यैकस्वरोवयवो द्विः स्यात् ॥ ११ स्वराद्यपरनामजधात्वेकस्वरावयैव वह्निरभूवन्नित्युपमया "अन्यस्य " [८] इति 93 सूत्रोदाहरणानि पुपुत्रीयिपतीत्यादीनि सूचितानि ॥ नाभ्यसूययिषति स्म ने चाकण्डूयियत्परधनेष्विह कश्चित् । नासुसोपुपिषतैष दिवा यन्नापि सोपुपिषते स्म निशायाम् ॥ ३१॥ ३१. इह राज्ञि सति कञ्चित्कोपि नरः परधनेषु विषये नाभ्यसूयियिषति स्म राजावग्रहपाताद्यर्थं चौर्य द्रोहोपार्जितत्वाद्यस दोषानु१ ए बी सी डी न वाक.. २ ए बी ई सोप, १ ए आद्योश.. २ सी लवंति. ३ सी डी ईति । इत्यत्र . ४ बी सी डी 'ति । अटा. ५ सी डी नवदनेत्या. ई नवेत्या. ६ ए सी डी ई 'यो वद. ७ ई अचिचि. ८ए अति. अरार्यत. १० ई रम्येक. ११ ए वो द्विस्या 'नि सुपुत्री १४ सी राज्ञाव. १२ बी ९ वह्नि सीम् । १३ ए Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] द्भावयितुं नैच्छन्नाकण्डूयिश्च । कण्डूयन्तं न प्रायुङ्क । लक्षणयाह । तानि प्राप्नोमीति वाच्छातिरेकं कुर्वन्तमन्यं न प्रयुक्तवान् । यद्यस्माद्धेतोरेष भीमो दिवा नासुसोपुपिषतात्यर्थं स्वप्नं नैच्छन्नापि निशायां सोषुपिषते स्म प्रजापालनायां सदोद्यतोभूदित्यर्थः ॥ अकण्डूथियेत् । अभ्यसूयियिषति । इत्यत्र “कण्डादेस्तृतीयः” [९] इति द्वित्वम् ॥ 19 असोपुपित । इत्यत्र “पुनरेकेषाम्” [१०] इति द्विवे कृते पुनर्द्वित्वम् ॥ केषामिति किम् । सोपुपिषते || श्रीरिहेयियिषति स्म न वाचा वागपीष्यैिषिषति स्म तया न । तां जुहोति विदुषां स्म च जिहेत्युच्चकैश्च सचराचरकीर्तिः ॥ ३२ ॥ ३२. इह भीमे श्रीर्वाचा सह नेयियिषति स्म नेयितुमैच्छद्वागपि तया श्रिया सह यति स्म अन्योन्यविरुद्धे अपि श्रीवाचौ विरोधं विहायत्रावतस्यतुरित्यर्थः । अत एव विदुषां तां लक्ष्मीं जुहोति स्म च ददौ च । तथा चराचरे सकले जगति चराचरा परिभ्राम्यन्ती वा या कीर्तिर्दानपुण्योत्था विद्वत्कृता ख्यातिः सह तया यः स तथा सन्नुच्चकैरतिशयेन जिह्वेति स्म च । एतेन महापुरुषत्वोक्तिः ॥ क्रीडयापि चलितेत्र महीपाटूपटात पतापतघूल्या | द्राक्कलाचलघनाघनबुद्ध्या भूदावदमुखो गुहबहीं ॥ ३३ ॥ ३३. अत्र भीमे क्रीडयपि राजपाट्यापि चलिते प्रस्थिते मद्या १ बी ष . १ बी ई युक्त । ल. सी 'सोषपि. ८ बीष ९ ई 'यात्र त . २ ए नि पाप्नो ३ बी वर्तम ५ वी यत । अ. ६ सी 'विष्यति. १० बी या रा. ४ ए बी ७ एसोि Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.१.१५.] अष्टमः सर्गः । ६०५ भुवः पाटूपटानि खुरप्रहारैर्विदारकोणि यान्यार्वतान्यश्वौघास्तैः पतापतोच्छलन्ती या धूली तया कृत्वा चलाचलघनाघनबुझ्या स्थिराम्बुदाशङ्कया गुहबी स्कन्दमयूरो द्राग्वदावदमुखः केकाशब्दकोरिवकोभूत् । अनेनाश्वसंपदुत्कर्षोस्योक्तः ॥ ऐभमस्य मदचिक्लिदहस्तैश्चनसाचलपटूपटदन्तम् । मीदङ्गणमसाहदिहाब्दान्विस्मयं जगति कस्य न दोश्वत् ॥३४॥ ३४. अस्य भीमस्यै हस्तिवृन्दमिह पृथ्व्यां कस्य विस्सयमाश्चर्य न दोश्वन्न ददौ । यतो मदेन चिक्लिदा आH ये हस्ताः शुण्डास्तैः कृत्वाँङ्गणं भूमि मीसिक्तवन्मदोन्मत्तमित्यर्थः । तथा चनसा निर्मलाः कुटिला वाचलपटूपटा दाढयेनाद्रीणामपि विदारका दन्ता यस्य तत्तथाब्दान्मेघानसावत्प्रति द्विपाशङ्कयासोढवत् ।। ईयियिषति । ईयिषिषति । इत्यन्त्र “यिः सन्वेयः" [११] इति द्वित्वम् ॥ जुहोति । जिहेति । अत्र “हवः शिति'' [१२] इति द्वित्वम् ॥ चराचर । चलाचल । पतापत । वदावद । घनाधन । पाटूपट । इत्येते "चरा. चर०" [१३] इत्यादिनाचि कृतद्वित्वा निपात्या वा । पक्षे । अचल इत्यादि। केचित्तु पटूपटेति निपातयन्ति ॥ चिक्लिदचनसौ । “चिक्लिद०" [१४] इत्यादिना निपात्यौ ॥ दाश्वत् । असाह्वत् । मीढ़त् । इत्येते "दाश्वत्०" [१५] इत्यादिना निपात्याः॥ २ ई दास्वत्. १ सीडी कानि या . २ सी कारव'. ३ ए °स्यैवं ह°. ४ ई दास्वन्न. ५ ए दौ । ततो. ६ ए वागणं. ७ ए ढन्सिक्त. ८ सी °ला वांच'. ९ ए चिद. १०बी दचिक्कुसौ. डी दचिन. Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ ब्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] ज्ञीप्सतीप्सति सतः स्म स ईर्मुः स्माभिधीप्सति च धिप्सति शत्रौ । मोक्षति स विमुमुक्षति चोर्नामुमुक्षदनिमित्सति शस्त्रम् ॥३५॥ ३५. स भीमः सतः साधूनीसुरन्तर्भूतणिगर्थतया वर्धयितुमिच्छुः सन्नीप्सति स्म प्राप्तुमिच्छति स्म । तथा ज्ञीप्सति स्म ज्ञपयितुं तोयितुमियेष । तथा धिप्सति दम्भितुमिच्छति शत्रौ विषयोभिधीप्सति स्म च । तथा क्षत्रियोत्तमत्वेन शस्त्रं विमुमुक्षति मोक्तुमिच्छति शस्त्रमोक्षमिच्छतीत्यर्थः । शत्रौ विषये शस्त्रमुच्चैरतिशयेन मोक्षति स्म च । तथा शस्त्रमनिमित्सति कातरत्वेन निमातुं प्रक्षेप्नुमनिच्छति शत्रौ शस्त्रं नामुमुक्षन्न प्रक्षेप्नुमैच्छत् ॥ न ह्यमित्सदपशस्त्रममित्सत्क्ष्मां बलैर्जलधिमप्यमिमासत् । दित्सया सँ च स धित्सति लक्ष्मी दित्सति स खलु नार्थिन आशाम् __३६. स भीमोपशस्त्रं शस्त्ररहितं न हि नैवामित्सद्धन्तुमैच्छत् । तथा बलैः सैन्यैः कृत्वा क्ष्माममित्सजलधिमप्यमिमासद् मातुमैच्छत् । एतेन सार्वभौमत्वोक्तिः । तथा दित्सया दानेच्छया लक्ष्मी धित्सति स्म वर्धयितुमियेष । अत एव खलु निश्चयेनार्थिन आशां मनोरथं न दित्सति स्म न खण्डयितुमैच्छत् ॥ १ सी डी ईत्सुः स्मा. २ ए नाममुक्ष. ३ बी मिच्छति. ४ ए मिच्छद. ५ ए दिच्छया. ६ डी स्म स. ७ ए लक्ष्मी दिच्छति. ८ डी स्म न ख. १ डी र्थस्तया. २ बी मित्सुः स. ३ ए पमि. ४ ई °न वि०. ५ ए ई ये उचै. ६ ए बी सी मिच्छति. ७ ए सतुमा. ८ सी डी थिनामाशां. Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.१६.] अष्टमः सर्गः। ६०७ धित्सति स न पयोप्यवितीर्ण तजनः कथमलिप्सत वित्तम् ।। नात्र कोपि समरिप्सत कोपात्सोन्तकेप्यविनये यदशिक्षत् ॥३७॥ ३७. यद्यस्माद्धेतोः स भीमोविनयेपन्याये सत्यन्तकेपि यमेपि विषयेशिक्षच्छक्तुमैच्छत् । अनुशासितुं समर्थोभूदित्यर्थः । तत्तस्माखेतोरत्र जगति जनोवितीर्णमदत्तं पयोपि जलमपि न धित्सति स्म न पातुमियेष । कथं पुनरवितीर्णं वित्तं द्रव्यमलिप्सत प्राप्नुमैच्छन्न कथमपीत्यर्थः । तथा न कोपि कोपात्समरिप्सत संरम्भं चक्रे । चौर्य कलहं च न कोपि चक्र इति भावार्थः ।। पित्सते स्म शरणार्थमपित्सन्नारिरात्सुरथ वा य इमं हि । तं स्म रित्सति न कोपि न कौचिद्रेधतुर्न खलु केपि च रेधुः॥३०॥ ३८. यो नरोपित्सन्पतितुमनिच्छन्नभ्रंशितुकामः सञ् शरणार्थं स्वरक्षायायथ वा य आरिरात्सुः सेवितुकामः सन् हि स्फुटमिमं भीमं पित्सते स्म जिगमिषति स्मं तं नरं कोपि न रित्सति स्म न हिंसितुमैच्छन्न कौ चित्कावपि तं रेधतुर्जन्नतुर्न केपि च तं खलु निश्चयेन रेधुः॥ त्वं हि रेधिथ रराध तु नायं त्वं विरेणिथ विरेणुरमी तत् । नो यदा बभणिथावभणुः के सोन्वशादिति विबोध्य सवादान् ॥३९॥ ३९. स भीमः सहवादेन ये तान्सवादान्मिथो विवदमानान्नरा. १ ए तद्यनः. २ सी त्र केपि. ३ बी पिच्छन्ना ४ बी रेणथ. १ ई सितं स. २ सी डी च्छत् । क. ३ई के । क्रौर्य. ४ बी हं न च को . ५ डी र्थः ॥ वित्स ६ए पते स्म. ७ ए स्म नं तरं. ८ सी डीर न को. ९ डी पि न रे'. १० बी तुजघतु. ११ ई च ख°.. Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः] ०२१४ न्विबोध्य संबोध्यान्वशात्पुनरेवं न कार्यमित्यशिक्षयत् । कथं संबोध्येत्याह । अहो पुरुष हि स्फुटं त्वं रेधिथ घातं कृतवान्न तु नै पुनरयं नरो रराध । तथाहो यस्मात्त्वं विरेणिय विरुद्धमवोचस्तत्तस्मादमी नरा विरेणुर्यदा त्वं नो बभणिथ नावोचस्तदा क आबभणुः । न केपीषदप्यूचुरित्यर्थः । तस्मात्तवैव दोषोयमित्युक्तं स्यादिति ॥ ज्ञीप्सति । ईप्सति । इत्यत्र "ज्ञप्याप०" [१६] इत्यादिना ज्ञीपीपादेशौ न च द्विः ॥ ईर्मुः । अत्र "ऋध ई” [ १७ ] इति-ई न च द्विः ॥ धिप्सति । अभिधीप्सति । इत्यत्र “दम्भ०" [१८] इत्यादिना धिधीपौ न च द्विः॥ मोक्षति विमुमुक्षति । इत्यत्र “अव्याप्यस्य मुचेोग्वा" [१९] इति वा मोक् न च द्विः ॥ अव्याप्यस्येति किम् । शस्त्रं नामुमुक्षत् । डुमिंगृ । अनिमित्सति ॥ मीति मीडमींग्शोर्ग्रहणम् । नामित्सदपशस्त्रम् ॥ मेति माक्माङ्कमेडा ग्रहणम्। अमित्सत्क्ष्माम् ॥ दासंज्ञ । दित्सया । दित्सति । धित्सति लक्ष्मीम् । न धित्सति । इत्यत्र “मिमी०" [ २० ] इत्यादिना स्वरस्येन्ने च द्विः ॥ मांङ्कमडोरुदाहरणे स्वयं ज्ञेये । मातेनेच्छन्त्येके । अमिमासत् ॥ समरिप्सत । अलिप्सत । अशिक्षत् । अपित्सत् । पित्सते । अत्र “रभलभ०" [२१] इत्यादिना स्वरस्येन्न च द्विः ॥ १ए बोधेत्या. २ ए तु पु. ३ सी नर'. ४ डी ईत् न. ५ बी धिपधीपौ. ६ सी विमुक्ष. ७ बी अवाप्य'. ८ प नानामु. ९डी डुमेन्ट् । अ. १० ए बी मिन्ट् । अ०. ११ बी मिन्छति. १२ बी ति मी मीशो' सी ति मीत मी. १३ डी मीङ्ग मी. १४ एक मीग्शो'. १५ सी मांक मां° १६ डी मांङ्कमे . बी मांङ्कमेंडां. १७ सी न द्विः. १८ बी द्विः ॥ माङ्कमँडो'. १९ डी "सत् । अ. २० डी अपि. २१ बी सन् । पि. १६ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः । ६०९ 3 रिसति । इत्यत्र "राधेर्वधे " [ २२ ] इति स्वरस्येन्न च द्विः ॥ वध इति किम् | आरिरात्सुः || [६०४.१.२४.] रेधतुः । रेधुः । रेधिथ । इत्यत्र " अवित्" [२३] इत्यादिना स्वरस्यैन्न च द्विः ॥ अविदिति किम् । रराध ॥ विरेणुः । विरेण । इत्यत्र “अनादेशादेः " [ २४ ] इत्यादिनैन्न च द्विः ॥ अनादेशादेरिति किम् | आबभणुः । बभणिथ | तं चरौ रहसि भेजतुरन्येद्युः प्रफेलतुरिदं च वर्चस्तौ । ४०. 3 स्वेन फेलिथ विभेजिर्थं चाज्ञां यन्निमित्तमवधारय तन्नौ ॥ ४० ॥ अन्येद्यू रहस्येकान्ते चरौ हेरिकौ तं भीमं भेजतुस्तथा तौ चराविदं वचः प्रफेलतुश्च । फलिरत्रान्तर्भूतणिगर्थः सकर्मकः । निष्पादितवन्तावूचतुरित्यर्थः । तदेवाह । हे राजन्यन्निमित्तं यस्य कार्यस्य हेतोस्त्वं नावावयोः स्वेन धनेन कृत्वा फेलिथ फलितवाना - ज्ञामादेशं विभेजिथ च विभागेन दत्तवांश्च तद्वधारय शृणु ॥ आवयोस्त्वमवतेरिथ यस्मात्तेन तेरिव महीं किल पुण्डाः । त्रेपिरे न वचसाज्ञपयन्यत्स्वेनिथार्हमथ सस्वनिधान्यत् ॥ ४१ ॥ ४१. हे राजन्यस्मात्त्वमावयोरवतेरिथ धनादि दत्तवांस्तेन हेतुनावां महीं तेरिव तीर्णौ परिभ्रान्तावित्यर्थः । किलेति सत्ये । यदमुचितं संदेशाद्यैाज्ञपयंस्त्वं स्वेनिथावोचोथाथ वान्यदनहं दण्डादिकमोंज्ञ १ सी च सौ | स्वे'. २ सी मिथ. ३ सीडी थवाशां. २ बी अविव् इ. ३ ए निष्कादि. १ बी रिच्छति. ५ ए सी डी ६ डी 'निथ वाचोचिथा . ८ डी कर्म ज्ञाप. 1919 द्याज्ञाप. ९ ए सी माज्ञाप. ४ बी 'रिभ्रातावि'. ७ बी वोचाथा. Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्व्याश्रयमहाकाव्ये ६१० [ भीमराजः ] पयन्सस्वनिथ यत्तदोर्नित्यभिसंबन्धात्तेन वचसाज्ञावचनेन पुण्ड्राः पुण्ड्रदेशराजा न त्रेपिरे न हीणा दृष्टतुष्टास्त्वदाज्ञामङ्गीचक्रुरित्यर्थः । तेरिवेत्यत्र स्मरणं सदपि न विवक्षितं किं तु तत्पूर्वकोनुभव इति कृतास्मरणाः । निह्नवे “ परोक्षा” [ ३.३.१२] इति परोक्षा ॥ यत्रे बभ्रमिथ केशिनमुच्चैर्जेरिथोञ्जजरिथापि च कंसम् । भ्रेमियाभिबलि वेमिथ वेदांस्तैत्तिरीं ववमिथापि च शाखाम् ॥ ४२ ॥ फेणिथापफणिथार्भककेल्या त्रेसषदभितत्रसिथोच्चैः । गोषु रेजिथ रराजिथ गोपैः स्येमिथापि न च सस्य मिथापि ॥ ४३ ॥ केपि नैषु विषयेषु तचाज्ञां जेरुरीश न भयं जजरुश्च । मुरभ्टविबभ्रमुरौ मुरम्बु रुधिरं ववमुश्च ॥ ४४ ॥ ४२ - ४४. हे ईश स्वामिन्नेषु विषयेषु देशेषु तवाज्ञामादेशं केपि नृपा न जेरुरन्तर्भूतणिगर्थत्वाज्जरितवन्तोवज्ञया न विनाशितवन्त इत्यर्थः । तथा भयं न जर्जेरुश्च न व्यनाशयंश्च भीता इत्यर्थः । अत एवाभ्यव्यवीं लक्ष्यीकृत्याभिमुखं प्रेमुस्तथाद्रौ बभ्रमुस्तथाम्बु स्वेदजलं वेमुरक्षरन्नित्यर्थः । तथा रुधिरं वत्रमुच । भयातिरेकेण हि स्वेर्दैस्रवणं रक्तवमनं च स्यात् । के ते विषया इत्येष्वित्यनेन ये विषया विवक्षितास्तान्ना विष्णुः पृथिवीपतिरिति स्मृतिवचनाद्भीमनृपे तत्तद्देशसंजातानामच्युतावदातानां वर्णनाद्वारेण ज्ञापयन्ता वाहतुर्यत्रेत्यादि । यत्रेति प्रतिवाक्यं ज्ञेयम् । यत्र वृन्दावनाख्ये देशे भ्रमिथ १ एत्र विभ्र बी 'त्र बिभ्र १ एत्यापिसं . २ बी पुण्ड्र “जरश्च. ३ ए बी 'जानः त्रे' डी ई जानो न. ४ ए ५ ए लक्ष्मीकु. सी लक्षीकृ. ६ ए बी सी डी 'दश्रव.. ७ ए सी डी नाद वि. ८ सी डी पृथ्वीप ९ बी वाहुतु १० एशे विभ्र. • Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है० ४.१.२५.] अष्टमः सर्गः। कृष्णावतारेण केश्यादिदैत्यवधार्थं भ्रान्तः । यथोच्चैः केशिनं केशिसंज्ञमश्वरूपं दैत्यं जेरिथ मुखमध्ये स्वबाहुप्रवेशेन विनाशितवान् । तथा यत्र देशे मथुरायां कंसं दैत्यमुज्जजरिथापि च । तथा यत्र देशे शोणितपुरेभिबलि बलिदैत्यं लक्ष्यीकृत्याभिमुखं भ्रमिथ वामनरूपेण बलिबन्धनीय भ्रान्तः । तथा यत्र देशे क्षीरसमुद्रोपकण्ठे वेदानृग्यजुःसामाख्यान्वेमिथ मत्स्यरूपेणोद्गीर्णवान् । पुरा हि किल चतुर्दशभुवनप्रलये हरि भिपद्मे ब्रह्माणं निर्ममौ । स च वेदानस्मार्षीन्मानसानृषींश्च निर्ममौ । तस्य च वेदान्स्मरतो जृम्भायामागतायां मुखे विवृतेकस्माच्छङ्घाख्यो दैत्यः प्रविश्य वेदानाहृत्य क्षीराब्धौ प्रविष्टस्ततश्च ज्ञानवैकल्येन ब्रह्मा शून्योभून्मानसर्षिभिश्चामुं शून्यतावृत्तान्तं विज्ञपितो हरिर्दिव्यचक्षुषा ज्ञातपरमार्थो मत्स्यरूपेण क्षीराब्धौ प्रविश्य शङ्ख हत्वा वेदानाहृत्य ब्रह्मणो मुखे वान्तवानित्यैतिह्यम् । तथा यत्र देशे मिथिलोपवने तैत्तिरी तित्तिरेरिमां शाखां यजुर्वेदांशं ववमिथापि च याज्ञवल्क्यरूपेणोद्गीर्णवांश्च । अत्र किल कस्यापि नृपतेः प्रणयिन्या निरपत्यतादुःखमपनेतुमाशिषं दातुं शाकल्यगुरोरादेशेन शान्तवेषाकारा विनेया: सदा ययुः । कदाचिदन्येषामसंनिहिततया गुरुयाज्ञवल्क्यमेव प्राहिणोत्तं च नववयस्तया रचितचारुवेषाकारं सविकारमिवाशिषं दातुमुद्यतं दृष्ट्वाहो अस्य महर्षेराशिषः प्रभावः स्थाणुमपि पल्ल. वयतीति राज्ञी सविस्मयमुपजहास । स च क्रुद्धस्तत्पुरः स्थाणुमेव सप्रभावतया तैरेव खैरक्षतैः पल्लवयित्वा गुरोः समीपमाययौ । सा च संभ्रान्ता तमानेतुं नृपेण गुरुमर्थयामास । नृपानुरोधाद्गुरुणा निर्बध्यमानोपि स यदा न ययौ तदा गुरुणा क्रुद्धेन स्वयमध्यापि १ सी शिसं. २ ए लक्षीकृ. ३ सी नादय. ४ ए नवान. ५ एमात्सा. ६ बी श्च तान. ७ बी विज्ञापि. ८ ए ययुर्वे. ९ सी क्यस्त'. १० ए र्याइयव . ११ बी त्पुरुस्था सी 'त्युरंस्था'. १२ ए व प्र. Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] 9 तानि तैत्तिरीयाणि यजूंषि प्रतीपं याचितः संस्तानि मूर्तनि तित्तिरिरूपाणि योगप्रभावाद्वमति स्म । वमनानन्तरं महर्षिणा तित्तिरीभूय प्रसित्वा तेषां च यजुषां शिष्येभ्यः प्रतिपादनाद्येजुर्वेदप्रसिद्धा तैत्तिरी शाखा जज्ञे । तस्याश्व याज्ञवल्क्येन वान्तानि तित्तिरिरूपाणि यजूंषि कारणमिति कार्यकारणयोरभेदोपचाराद्ववमिथापि च शाखामित्युपपन्नं स्यात् । याज्ञवल्क्यस्य विष्णुत्वेनोपवर्णनं महाप्रभावत्वात् । यदुक्तम् । यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं प्रभावोत्कटमेवे वा । तत्तदेवावगच्छेत्वं मम तेजोंशसंभवम् ॥ इति ॥ तथा यत्र देशेषु यमुनातटेष्वर्भक केल्या गेन्दुकशङ्कुला क्रीडादिकया बालक्रीडया हेतुना फेणिथ गोपबालकैः सह गतः । तथापफणिथागतश्च । तथेषन्मनाक् प्रेसिथ गेन्दुकादिप्रहाराशङ्कया भीतः । तथोचैरभितत्रसिथ चाभिमुख्येन भीतश्च । विष्णुर्हि कृष्णावतारे कंसभयेन बालकाले यमुनातटस्थेषु नन्दगोकुलेषु गोपरूपेणोषित इत्यागमिकाः । तथा यत्र देशे यमुनातटे वृन्दावने वा गोषु धेनुषु मध्ये रेजिथ गोरक्षाद्यर्थं गोवर्धनायुद्धरणाद्यवदातैः शोभितः । तथा गोपैः परिवारभूतैर्गोपालैः कृत्वा रराजिथ । तथा स्येमिथापि सिष्टाशब्दांश्च। कर्थ च न च सस्यमिथाप्यन्यकार्यव्यग्रतायां सिण्टाशब्दान्न चकर्थ च । गोपा हि जातिस्वभावेनान्यकार्याव्यग्रतायां सिण्टाशब्दान्कुर्वन्ति । केशिकंसवधादीनि वृत्तानि लोकप्रसिद्धान्येवेत्यत्र नोक्तानि ॥ 99 १२ १ बी री . २ एयुर्वे. ३ ए बी सी याइयव ४ बी सी 'वल्केन. ५ सी डी व च । त. ६ सी डी 'शेय ं. ७ सी डी न्दकु ८ एटे वन्दा ९ सी डी 'नाभ्युद्ध . १० डी 'थाकार्येप्यन्यव्य 'था कार्यप्यन्यव्यः. सी ११ बी यां शण्टा १२ ए सिण्ढाश. Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०४.१.२५.] अष्टमः सर्गः। ६१३ खेनुरेषु पफणुस्तव सूताः सस्खनुस्तव गुणांश्च विफेणुः। तत्रसुः स्वविषये न हि यत्रेसुरत्र न चरा अपि तद्वत् ॥ ४५ ॥ ४५. हे राजंस्तव सूता भट्टा एषु पूर्वोक्तेषु वृन्दावनादिविषयेषु पफणुर्जग्मुः । तथा विफेणुर्भयाभावेन स्वेच्छाचारित्वाद्विशिष्टं जग्मुः । तथा स्वेनुस्त्वदाशीर्वादायूचुः । तथा तव गुणान्सस्वर्नुश्चाकीर्तयंश्च । तथा तव चरा अपि हेरिका अपि । किं पुनः सूतादय इत्यप्यर्थः । यद्वद्यथा स्वविषये निजदेशे गूर्जरत्रायां न हि नैव तत्रसुर्बिभ्युस्तद्वत्तथात्रैषु देशेषु वृन्दावनादिषु न त्रेसुः ॥ सस्यमुर्यदलयो यदु हंसाः स्येमुराः कुरुषु तन्न रराजे । रेज ईश तव कीर्तनमावभ्राज इन्द्रसुतवर्णनक वा ॥४६॥ ___४६. उ हे ईश स्वामिन्नलयो भृङ्गा यत्सस्यमुः शब्दायिता यच्च हंसा: स्येमुस्तत्स्यमनम् । आ इति खेदे । कुरुषु देशेषु न रराजे सुखदं नाभूदित्यर्थः । खेदश्च तच्छब्दानां मधुरत्वेन सुखदानामप्यसुखकत्वात् । तर्हि किं रराज इत्याह । तव कीर्तनं वर्णनकं कुरुषु रेजे । वा यद्वा। इन्द्रसुतवर्णनकमर्जुनवर्णनाबभ्राजे कर्णाह्लादकमभूदित्यर्थः ॥ भ्रेज ऐल इति राघव आवभ्रास ईश्वरगणः परिभ्रेसे । भ्लेस आर्किरजभूपतिराबभ्लास इत्यनुदिशं त्वयि वादाः ॥४७॥ ४७. इत्येवंविधा वादास्त्वयि विषयेनुदिशं प्रतिदिशमभूवन् । के १ बी कीर्तिन. १ सी डी नुस्तदा . २ सी नुश्चकी'. ३ बी मन् मा इ. ४ ए शे न. Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] तइत्याह । यथ न्यायित्वादिना प्रकारेण त्वं भ्राजसे तथेत्यर्थः । ऐल: पुरूरवा भेजे । तथेति राघवो रामचन्द्र आबभ्रासे शुशुभे । तथेती - श्वरगण ईश्वरस्य हरस्यान्तरङ्गभक्त्याराधकत्वाद्गुणः श्वेताख्यो रौजा बाणो वा परिभ्रे । तथेत्याकिर कस्यापत्यं कर्णो मनुर्वा भ्लेसे शुशुभे तथेत्यजभूपती रघुपुत्र आबभ्लासे । इयैलाद्या औद्यनृपाः स्वगुणैस्त्वया र्नृणां स्मार्यन्त इत्यर्थः । परिभ्रेस इत्यत्र रसंयोगे हस्वस्य गुरुत्वाभा - वान्नच्छन्दोभङ्गः । यदुक्तम् । “विसर्गानुखारव्यञ्जनाहादिसंयोगे" । जिह्वामूलीय उपध्मानीये विसर्जनीयेनुस्वारे व्यञ्जने हादिवर्जिते संयोगे च परे हस्वोपि गुरुः स्यात् । अह्नादीति समस्तव्यस्तसंग्रहात् हसयोगे हसंयोगे रसंयोगे च न गुरुः । आदिशब्दाद्यथादर्शनं क्वादिसंयोगे च । एष्वतीव्रप्रयत्नत्वं संयोगस्य गुरुत्वाभावे हे - तुस्तीव्रप्रयत्रे तु स्यादेव गुरुः ॥ 19 १० तेरिव । अवतेरिथ । त्रेपिरे । प्रफेलतुः । फेलिथ । भेजतुः । विभेजिथ । इत्यत्र I “तृत्रप” [२५] इत्यादिनैन्न च द्विः ॥ जेरुः जजरुः । जेरिथ उज्जजरिथ । भ्रमुः बभ्रमुः । मिथ बभ्रमिथ । वेमुः १२ ववमुः । वेमिथ ववमिथ । त्रेसुः तत्रसुः । त्रेसिथ अभितत्रसिथ । विफेणुः पफणुः । फेणिथ आपफैणिथ । स्येमुः सस्यमुः । स्येमिथे सस्यमि । स्वेनुः सस्वनुः । 1 ૧૬ 1 स्वेनिथ सस्वनिथ । रेजे रराजे । [ रेजिथ रराजिथ । ] भेजे आबभ्राजे । परिभ्रंसे आबभ्रासे । भ्लेसे आबभ्लासे । अत्र “भ्रम" [२६] इत्यादिना वैवं न 1 १७ च द्विः ॥ ० १ सी था ज्ञायि २ सी श्वरास्य ३ डी राजबा° ४ ए त्यं वर्णों. ५ बी आद्या नृ. ६ सी नृणामा ७ बी दो भागः । य ८ ई 'नं क्तादि ९ बी 'भावहे ' १० एरिथः । अ° डी °रिथ । अ०. ११ ए 'मुः वे. १२ सी 'मिथः व. १३ ए फलिथ. १४ सी 'थि: स्ये. १५ ए थ वे. १६ सी निथ: स . १७ ए सी डी ई 'द्विः ॥ थि Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.२७.] अष्टमः सर्गः । श्रेथिथ श्लथमिमं किमु हारं श्रेथुरेवमपरेप्यथ न त्वम् । ग्रेथिथेति परिभर्त्स्य वधूः शैश्रन्धुरन्धनरपा भवदर्थम् ॥ ४८ ॥ ५ ε ४८. अन्ध्रनरपा अन्ध्रदेशराजा भवदर्थं हारं श्रन्धुः स्वयं गुम्फितवन्तः । किं कृत्वा । वधूः स्वभार्याः परिभये प्रत्येकं संतये । कथमित्याह । इमं हारं किमु किमिति थं शिथिलं त्वं थथ गुम्फितवती । अथाथ वा न त्वमेव हारमेवं श्लथं प्रेथिथ । गुम्फितवती किं तर्ह्यपरेप्यन्ये मध्यादयोपि हारं कथं श्रेथुरिति । अनेनैषां भीम आदरातिशय उक्तः ॥ ग्रेथुरग्र्यमितिहासमथो जग्रन्धुरद्भुत कथा चरितैस्ते । मागधा न खलु देभुरतः शश्रन्थिय स्वकगुणैः कतमं नो ॥४९॥ ४९. मगधस्य राज्ञ इमे मागधा मगधराजलोकास्ते तव चरितैः कृत्वाग्र्यं प्रधानमितिहासम् । इतिहासो यथावृत्तम् । तत्प्रधानः प्रबन्धोप्युपचारादितिहासः । तं वर्णनाविरहेण पुरावृत्त प्रतिबद्धं प्रबन्धभेदं थुररचयन् । तथाद्भुतकथा अद्भुता रसालंकारैराश्चर्यकारिण्यो याः कथा धीरशान्तनायका गद्यबन्धाः पद्यबन्धा वा सर्वभाषावर्णनारूपाः प्रबन्धभेदस्तांश्च जग्रन्थुः । खलु निश्चयेन न देभुर्न दम्भं चक्रुरान्तरभक्त्या चक्रुरित्यर्थः । अतो हेतोः स्वकगुणैः स्वका गुणाः शौर्यादय एव गुणा रज्जवस्तैः : कृत्वा कतमं नरं नो शश्रन्थिथ न बद्धवान् किं तु सर्वमपि वशीच कथेत्यर्थः ॥ १ डी 'रंथु . २ ए थ प ३ ई शस्रन्थु. १ डी 'जानो भ° २ ई शस्रन्थुः 'त । क. ५ सी किमि ६ डी त्वं थु. ९ सी डी 'धानप्र १२ ए सी डी रव. ६१५ ० ३ सी रिभ्रर्य प्र. ४ सी डी थि° ७ सी डी अथ. ८ बी सी डी १० बी सी 'दास्ताश्च ११ ए दम्भ च Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्याश्रयमहाकाव्ये भीमराजः] नो न देभिथ ददम्भिथ नो जग्रन्थिथार्जवमिवाच्युतगोपः । सोर्सि देम्भिथ पुनः किमिति त्वां संदिशन्ति यमुनातटघोषाः॥५०॥ ५०. यमुनातटघोषा: कालिन्दीतटगोकुलस्थलोकास्त्वां संदिशन्ति । कथमित्याह । हे राजन् । इवो भिन्नक्रमे । अच्युतगोप इवाच्युतो विष्णुर्यो गोपो गोधुक्स यथा गोपगोप्यादिषु दम्भं चक्रे न चार्जवं चकारैवं त्वं नो न देभिथ न नच्छद्माकार्षीः किं तु ददम्भिथ । प्रथममयोगव्यवच्छेदे वाक्यम् । दम्भेन सहायोगो व्यवच्छिद्यते । द्वितीयं त्वन्ययोगव्यवच्छेदे । अन्यस्यापि दम्भो घटते । परं त्वमेव ददम्भित्यन्यस्य दम्भेन योगो व्यवच्छिद्यते । त्वमेव शत्रुष्वनेकधा छलं चकथैवेत्यर्थः । दम्भवानप्ययं कदाचिदार्जवमपि कृतवान्भविष्यति नेत्याह । न जग्रन्थिथार्जवं मायाविष्णुः कदाचिदपि सरलस्वभावं नो चकर्थेत्यर्थः । यद्येवं ततः किमित्याह । असि त्वं सो. च्युतगोपः । किमिति पुनः किमर्थं पुर्नर्देम्भिथान्यादृशरूपप्रकाशनेनाच्युतगोपो नास्मीति मायां चकर्थेत्यर्थ इति । एतेन यमुनातटघोषाणामच्युत इव भीमे भक्त्यतिशय उक्तः ।। श्रेन्थिथोच्चिचयिथापि न पुष्पं ग्रेन्थिथ सज इहाखिलदिक्षु । कीर्तिभिः शशसिथाशु तमिस्रं दूरगान्ववणिर्थव पुरस्तात् ॥५१॥ ५१. हे राजंस्त्वं पुष्पं कुसुमजातिं नोच्चिचयिथ नोचितवान्न श्रेन्थिथापि न प्रथितवांश्च । परमिह जगत्यखिलदिक्षु कीर्तिभिः कृत्वा १बीसीडी 'सि देभि. २ ए श्रेथियो'. ३ ए °थाश्रु त°. ४ ए बी सी डी मिश्रं दू. १ सी गोपादि. २ बी रैव त्वं. ३ डी काषीं किं. ४ डी त्यस्य. ५ बी ई दनुवन्नप्य. ६ सी मथि कृ. ७ बी डी ई विषु क०. ८ बी ई °वं न च'. ९ सी डी निर्देभिः. १० सी थे इ. ११ बी क्तः ॥ श्रन्धि.' १२ बी पुप्फ कु. १३ ए °च्चियथ. १४ वी °न्न श्रन्थि'. १५ सी श्रेथिया'. १६ डी ग्रन्थित. Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.२९.] अष्टमः सर्गः । स्रजः पुष्पमालो ग्रेन्थिथ गुम्फितवान् । श्वेतत्वात्सौरभ्याच पुष्पमालातुल्या: कीर्तीदिशि दिशि प्रसारितवानित्यर्थः । तथा कीर्तिभिर्दिश्वाशु तमिस्रमन्धकारं शशसिथ व्यनाशयो दिशो निर्मलीचकर्थेत्यर्थः । तथा कीर्तिभिर्दूरगान्दूरदेशस्थाञ्जनान्पुरस्तादिवास्थितानिव वेवणिथावोच इव । निकटस्थैरिव दूरस्थैरपि त्वं गीतकीर्तिरित्यर्थः ॥ त्वद्यशः शशसतुर्दददाते चायशः शशरतुश्च गुणांस्ते । ईग्रयां ववणतुस्त्वयि दोषानिसन्धुचेदिनृपती इह दृप्तौ ॥५२॥ ५२. हे राजन्निह पृथ्व्यां सिन्धुचेदिनृपती सिन्धुदेशचेदिदेशराजौ दृप्तौ दर्पिष्ठौ सन्तावीर्यया त्वत्संपत्तौ चेतसो व्यारोषेण त्वद्यशः शशंसतुर्जघ्नतुः । ते तवायशोवर्णवादं दददाते च । तथा ते गुणाञ् शशरतुश्च । तथा त्वयि विषये दोषान्ववणतुश्च । चोत्रापि योज्यः॥ श्रेथुः शश्रन्थुः । श्रेथिथ शश्रन्थिथ । ग्रेथुः जग्रन्थुः । ग्रेथिथ जग्रन्थिथ । इत्यत्र “वा श्रन्थ" [२७ ] इत्यादिना वैत् । एतत्संनियोगे नस्य लुग्न च द्विः ।। देभुः । अत्र "दम्भः" [२८ ] इत्येन्नस्य लुग्न च द्विः ॥ देभिथ ददम्भिथ । इत्यत्र “थे वा” [ २९ ] इति वैत्तत्संनियोगे च नस्य लुम्न च द्विः ॥ अन्ये तु श्रन्थिग्रन्थिदम्भीनां नलोपे सति नित्यमेत्वमिच्छन्ति । नलोपं त्ववित्परोक्षायां नित्यमेव । तेन श्रेथुः । ग्रेथुः । देभुः ॥ नलोपाभावे १ डी ईध्यया. १बी पुष्फमा. २ सी °ला ग्रन्थि . ३ सी ई शि प्र. ४ ए बी सी डी मिश्रम'. ५ ए रं शिशसि. ६ ए °चकार्थे. ७ सी र्ति भूर्दूरदे. ८ ए प्रस्थादि. ९ ए वणि?. १० ए शसःतु. ११ ई श्च च यो' १२ ए थिथः ज°. १३ डी मेवैत्व. १४ डी विति परो'. १५ सी व श्रे. १६ डी श्रेयतुः । ग्रेथतुः । देभतुः ॥ न. Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः] तु शश्रन्थिथ । जग्रन्थिथ । ददम्भिथ । इत्येव स्यात् ॥ अन्यस्त्ववित्परोक्षासेटवोर्नित्यमेत्वमिच्छति नलोपं त्ववित्परोक्षायामेव । तेन श्रेथुः । ग्रेथुः । देभुः ॥ नलोपाभावेपि । श्रेन्थिय । ग्रेन्थिय । देम्भिथ । इत्येवेच्छति ॥ शशसतुः। शशसिथ । दददाते । ववणतुः । ववणिथ । शशरतुः। उच्चिचयिथ । इत्यन्न “न शंस" [ ३० ] इत्यादिना नैत् ॥ देहि चाच्छलमथो अवधेहि श्रूयतां व्यधित सिन्धुपतिर्यत् । दिग्य इष्टसुरकोशमपीप्यत्त्वजिघांसुसुभटान्प्रजिघाय ॥ ५३॥ ५३. हे राजन्नच्छलं छलस्याभावं देहि वितर। यपि अत्यर्थं वितर वा । आवयोर्वदतोः स्खलितं न गणनीयमित्यर्थः । चः पूर्ववाक्यार्थीपेक्षया समुच्चये । अथो अनन्तरमवधेह्यवधानं कुरु । तथा सिन्धुपतिर्यव्यधिताकृत यत्तदोनित्याभिसंबन्धात्तच्छृयताम् । तदेवाहतुः । त्वजिघांसुसुभटांस्तव घातुकान्भटान्सिन्धुपतिदिग्ये भूरिद्रव्यादिदानेन पालितवान् । तथेष्टः समभावत्वेनाभिमतो य: सुरो मरुचण्डीशादिस्तस्य कोशं दिव्यजलमपीप्यत् । वयं भीमं हनिष्याम एवेति तद्वचसि स्वप्रत्ययोत्पादनायेष्टदेवतां संस्नप्य तान्नानजलं पायितवानित्यर्थः । तथा प्रजिघाय त्वत्पार्वे प्राहिणोत् ॥ ---- १ ए धे श्रू . २ सी डी यत्त्वांजि. . १ बी वो नित्य. २ ए मेवे । ते'. ३ डी वे । श्रे. ४ सी °थ । ग्रन्थि०. ५ सी °थ । दम्भि. ६ ए इत्यवे'. ७ ए णतु । व. ८ ए रतु । उ. ९ ए ई शश इ. १० ए स्खललि°. ११ सी डी न्धाच्छ्र. १२ सी डी देवहेतु:. १३ ए जिघासुः सुभ०. १४ ए दिये भू. १५ सीस्त को. Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०.४.१.३१.] अष्टमः सर्गः । ६१९ तं जिगाय शिवशाणपतिं प्राजीहयत्स्वकटके स च दूतैः । यं जिगीषति न कोपि चिकीर्षु वाजिभियुधि न चापचिकाय॥५४॥ ५४. तं शिवशाणपति शिवशाणदेशाधिपं स सिन्धुपतिर्जिगायाभिभूतवान्दूतैः कर्तृभिः स्वकटके प्राजीयच्चानाययच्च । चो भिन्नक्रमे । जित्वा सदा स्वसेवकं चकारेत्यर्थः । एतेनास्य प्रभुत्वशक्तिरुक्ता । प्रचुराश्वसाधनत्वाद्वाजिभिरश्वैश्चिकीपुमुपचेतुमिच्छन्तं यं न कोपि युधि जिगीषति । तथा यं कोपि न चापचिकाय नापचितं क्षीणबलं चक्रे ॥ निश्चिका(चा)य बलमस्य न कश्चिनिश्चिचीपति न चाशयमस्य । दुर्मतिस्त्वयि यदेष इयेषोवोष नः म तदियय॑नलत्वम् ॥५५॥ ५५. अस्य सिन्धुपतेर्बलं पराक्रमं न कश्चिदलिष्ठोपि निश्चिका(चा)2तावदिति निर्णीतवान । एतेनोत्साहशक्तिरुक्ता । तथातिगूढहृदयत्वादस्याशयं चित्तं न कश्चिन्निश्चिचीपतीहशमिदमिति ने निर्णिनीषति । एतेन तु मन्त्रशक्तिः । अत एवैष दुर्मतिर्दुष्टाशयः संस्त्वयि विषये यद्धिसादिकमियेषैच्छत्तन्नोस्मानुवोष ददाह । अत एव तन्नोस्माकमनलत्वमग्नितामिति स्म जगामाग्नितुल्यमभूदित्यर्थः ॥ १ ए जिघाय. २ ए कीपु वा. सी कीर्षु वा . ३ ए चिषाय, १ सी वान्तैः क. २ बी चान्नायच्च. ३ ई "क्रमो जि. ४ सी डी की(मु. ५ ए श्चिद्विलि. ६ ए बी लिप्टोपि. ७ डी ई ति न नि', ८ एवानेनो. ९ए न निर्णि. Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० व्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] यस्तवारिररियति तमेषोर्यति तांस्त्वदुदयं न य ईषुः। ताञ्जहार विदुधाव चखानादिद्युतन्परिजगुर्य इह त्वाम् ॥५६॥ ५६. यस्तवारिस्तमेष सिन्धुपतिररियर्त्यत्यर्थं गच्छति त्वदरिं मित्रीकरोतीत्यर्थः । तथा येन्यायिनश्चरटाद्यास्त्वदुदयं तवोन्नतिं स्वविनाशाशङ्कया नेषुस्तानयति । तथा तांस्त्वन्मित्रादीनसौ जहार सर्वस्वापहारेणालुण्टयद्विदुधावेतस्ततो व्यक्षिपञ्चखान व्यदारयत् । य इह सिन्धुदेशे त्वां परिजगुर्गुणग्रहणेनाकीर्तयन्नत एवादिद्युतन्प्रकटीचक्रुः ॥ देहि । अवधेहि । इत्यत्र “हौ दः" [ ३१ ] इत्येन्न चायं द्विः ॥ न च द्विरित्युक्तेः कृतमपि द्वित्वं निवर्तते । तेन यङ्लुप्यपि देहीति स्यात् ॥ दिग्ये । अत्र "देर्दिगिः” [३२] इत्यादिना दिग्यादेशः ॥ अपीप्यत् । इत्यनें “के पिबः पीप्य्” [३३] इति पीप्य् ॥ प्रजिघाय । जिघांसु। इत्यत्र “अछे हि" [३४] इत्यादिना मूलहस्य घः॥ अङ इति किम् । प्राजीहयत् ॥ जिगीषति । जिगाय । इत्यत्र "जेर्गिः" [३५] इत्यादिना गिः ॥ चिकीर्षु निश्चिचीषति । अपचिकाय निश्चिचाय । इत्यत्र "चेः किर्वा" [३६] इति वा किः ॥ इयेष । उवोष । इयति । इत्यत्र “पूर्वस्य” [ ३७] इत्यादिना-इयुवौ ॥ अर्तेर्यङ्लुपि द्वित्वे पूर्वस्याकारे "रिरौ च लुपि" [४.१.५६ ] इति रिरी-आगमे तदिवर्णस्य चेयभावे सति अरियति । एके त्वत्रेयं नेच्छन्ति । अर्यति । तन्मत १ए रियर्त्य . २ ए द्विगुंधा'. ३ ई सी व्यक्षेप. ४ सी त्र दे पि'. ५ ए पीप्य ॥. ६ बी प्रतिजि. ७डी ना पूर्वह. ८ बी कीर्षु नि'. ९ सी वा दिः ।। इ. १० सी त्याका. ११ बी चेयभा. १२ डी यत्ति । त. Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.४३.] अष्टमः सर्गः। ६२१ संग्रहार्थ पूर्वस्येति योः समानाधिकरणं विशेषणं तेनेकारोकारमात्रस्यैव पूर्वस्येयुवौ ॥ अस्व इति किम् । ईषुः ॥ जहार। इत्यत्र "ऋतोत्" [३८]इति ऋतोत् ॥ परिजगुः । विदुधाव । इत्यत्र “हस्वः" [३९] इति हैस्वः ॥ परिजगुः । जहार । इत्यत्र “गहोर्जः" [ ४० ] इति जः ॥ अदिद्युतन् । इत्यत्र "द्युतेरिः" [ ४१ ] इति-इः ॥ चखान । विदुधाव । इत्यत्र "द्वितीय” [४२ ] इत्यादिनाद्यतृतीयौ ॥ नो ऋतिच्छिषति सामनि तिष्ठेवाभ्यचिच्छिषति किं तु स दण्डे । छीञ्चकार स यदा परिटिष्ठेवाथ जीव बुडुवे नृपचक्रम् ॥ ५७॥ ५७. स सिन्धुपतिरुद्धतत्वात्सामनि सान्त्वनोपाये नोऋतिच्छिषति । न जिगमिषति। ऋच्छ गतावप्यन्ये। तथा सामन्येव विषये तिष्ठेवावज्ञया थूचकार । तर्हि व जिगमिषतीत्याह । किं तु दण्डेन्त्योपायेभ्यूचिच्छिषत्याभिमुख्येन यियासति । अत एव स सिन्धुपतिर्यदा छीच्चकार चुक्षावाथाथ वा यदा परिटिष्ठेव थूत्कृतवांस्तदा नृपचक्रं जीव जुडुवे बभाषे । जीवेति कर्मपदमनुकरणम् । अनुकार्यानुकरणयोरभेदविवक्षया द्वितीयाया अभावः। यद्वात्रेति शब्दोगम्यः । जीवेत्युवाचेत्यर्थः॥ तिष्ठेव टिष्ठेव । इत्यत्र "तिर्वा ष्ठिवः” [४३ ] इति वा तिः ॥ केचित्तु "स्वरेभ्यः" [ १.३.३० ] इति द्विरुक्तस्य छस्य द्वित्वे सति पूर्वस्य त्यादेशमिच्छन्ति । तन्मते ऋतिच्छिषति इति स्यात् ॥ १ बहुषु पुस्तकेषु ष्ठिव् इति धातो रूपाणां स्थानेषु त् इत्यत्र द इति दृश्यते। .. १ डी त्रस्ये'. २ सी ति रितो'. ३ ए हस्व ॥. ४ सी डी °च्छत् ग. ५ ए येभ्यचि. Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ ४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः] अभ्यचिच्छिषति । इत्यत्र "व्यञ्जनस्य' [ ४४ ] इत्यादिना पूर्वस्य व्यअनस्यानादेल ॥ तिष्ठेव । इत्यत्र "अघोषे शिटः' [४५] इति शिटो लुक् ॥ छीच्चकार । झुडुवे । अत्र "कङश्चञ्" [ ४६ ] इति चौ ॥ चोकवीषि किमु चीनपते कोकूयसे किमिति बर्बरराज । कोकवीषि किमु तेजनृपेत्थं वावदीति नृपतीनुवतोसौ ॥ ५८ ॥ ५८. यदा नृपास्तं प्रसादनाय स्तुवन्ति तदासौ लक्ष्म्यादिमदेनावहेलया रे चीनबर्बरतेजदेशाधिपाः किमिति पूर्वारुथेति निर्भर्त्सयतीत्यर्थः । वृत्तद्वयेनामुनास्यानेके नृपा दासभूताः सन्तीति दुःसाध्यत्वोक्तिः ॥ बेभिदीति स जहेति वनीवञ्चीति भेद्यपरिहेयसमर्थान् । जात्वनाकुलमतिर्न सनीस्रंसीति चोन्नतमनोरथशैलात् ॥ ५९॥ ५९. स सिन्धुपतिर्भेद्यपरिहेयसमर्थान् भेद्यानुपजापाऱ्यान्नृपान्बेभिदीत्युभयवेतननरव्यापारणादिनात्यर्थमुपजपति । तथा परिहेयान्महादुर्गाद्याश्रितत्वेन बह्वायाससाध्यत्वात्साधनेप्यल्पंफलत्वात्परित्याज्यान्नृपाञ्जहेत्यत्यर्थं त्यजति । तथा समर्थानधिकबलान्नृपान्वनीवचीति कुटिलं याति । अन्यदिगभिमुखं यात्राकरणेन समन्विश्वास्य तेष्वज्ञायमानश्छलेन पततीत्यर्थः । अत एव शत्रुभयाभावा १ ए बी नीसंस्त्रीति. १ डी च्छिष्यति. २ डी क् न ॥. ३ ई व । टिष्टेव । इ. ४ सीधे शटः. ५ डी लुक्न ॥. ६ ए चडौ ॥. ७ ए कुथे. ८ बी बह्वया . ९ बी ल्पत्वा. १० ए त्याजान्न. ११ ए पाम्वनी. १२ बी नच्छले'. सी डी नस्थले . Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.४७.] अष्टमः सर्गः। दनाकुलमतिनिश्चिन्तः सन्नुन्नतमनोरथशैलाज्जातु न सनीखंसीति च नात्यर्थं पतति च । चः पूर्ववाक्यार्थापेक्षया समुच्चये । एतेनास्य नीतिशास्त्रोक्तानुसारित्वाहुर्जेयतोक्ता ॥ द्रावनीकसति दिक्षु दनीध्वस्यन्त आपदि पनीपतति स्म । आपनीपदति मत चनीस्कन्दत्यमुष्य कटकेम्बुधिभूपाः॥६०॥ ६०. अमुष्य सिन्धुपते: कटके मङ शीघ्रप्रयाणैश्चनीस्कन्दतिच्छलचारित्वेन यियासितदिग्विशेषगोपनाय कुटिलं गच्छति आपनीपदति च कुँटिलमायाति चेतस्ततो भ्राम्यति सतीत्यर्थः । अम्बुधिभूपा द्वीपवासिनृपा द्राक् दिक्षु चनीकसति स्म मा स्मेदमस्मासुच्छलेन पप्तदिति भयेन कुटिलं गच्छन्ति स्म । अत एव दनीध्वस्यन्ते स्म सैन्यादिनात्यर्थं क्षीणाः । अत एव चापदि विपत्तौ पनीपतति स्मात्यर्थं पेतुः । एतेनास्य सैन्ये चलिते महादुर्गस्था अपि भयान सुखेन शेरत इत्युक्तम् ॥ जङ्गमीति च बलैः स बनीभ्रंश्यन्त उच्चशिखराणि गिरीणाम् । जञ्जभत्यहिपतौ परिबम्भञ्जीति जीर्णकमठोपि च पृष्ठम् ।। ६१॥ ६१. स सिन्धुप॑तिर्बलैर्जङ्गमीति दिग्जयायच्छलचारित्वात्कुटिलं गच्छति । ततश्च गिरीणामुञ्चशिखराण्युन्नतशृङ्गाणि बनीभेंश्यन्ते चानन्तबलसंमर्दैन गिरीणां कम्प्यमानत्वादत्यर्थमधः पतन्ति • १ ए डी द्राकनी. २ ए सी डी मुख्यक. ३ सी डी स वनी'. ४ बी भ्रस्यन्त. ५ डी बम्भ्रजी. ६ ए बी पृष्टम् . १ सी ई °श्चितः. २ बी नीअंसी'. ३ ए बी सी ई °ति छल°. ४ सी कुल'. ५ ए बी सी डी पतदि. ६ ए पति वलै०. ७ ए दिग्गया. ८ एडी °णि वनी. ९ सी नीभृश्य. १० बी भ्रस्यन्ते. ११ ए “त्यर्थः म. Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ ध्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] च । चो भिन्नक्रमे । तथाहिपतौ शेषराजे जञ्जभति बलभारेणातिखिन्नत्वाद्गर्हितं गात्रं विनमयति सति जीर्णकमठोप्यादिकोपि पृष्ठ परिबम्भञ्जीति चात्यर्थं मोटयति च ॥ ये हि दन्दहति दन्दशति द्राक्पंपशत्यपि च तान्किल मत्रान् । जञ्जपीत्यनयचञ्चुरितासौ पम्फुलीति च समीहितचूा ॥६२॥ ६२. हि स्फुटं ये मत्रा दन्दहत्यग्निरूपविधानेन गर्हितं दहन्ति द्राग्दन्दशति सर्पादिरूपविधानाद्र्य दशन्ति पैम्पशत्यपि च । पैशिति सौत्रो धातुः । पेषी बाधनस्पर्शनयोः । पंषीस्थाने पशीति केचित् । शिलावृष्टिनागपाशबन्धादिविधानेनात्यर्थं पशन्ति बाधुन्ते च । तान्मत्रान्किलेति सत्ये । अनयचञ्चुरितान्याये गर्य चरणशीलोसौ सिन्धुपतिर्जञ्जपीति गर्य जपति हिंसाभिप्रायेण जापाजापस्य गीता । तथा समीहितचूर्त्या वाञ्छितक्रियया पम्फुलीति चात्यन्तं फलयुक्तश्च स्यान्मन्त्रजापोस्य न निष्फल इत्यर्थः । एतेनास्य दैवतोस्वशत्युक्तिः ॥ कोयसे । अत्र “न कवतेयङः” [४७ ] इति पूर्वस्य ने चः ॥ शनिर्देशः कौतिकुवत्योनिवृत्त्यर्थः । यपि च निषेधो न स्यात् । चोवीषि ॥ अन्ये तु यङ्गुप्यपि प्रतिषेधयन्ति कोकवीषि ॥ १ सी ति xxx द्राग्दन्दशति. २ ए क्पंशपत्य'. १ सी ति ॥. २ ई हि स्फटं. ३ बी °म्पश्यत्य. ४ डी पशति. ५ई पथी बा. ६ ई पथीस्थानीप. ७ ए नाशग° ८ ई धन्ति च. ९ सी 'नयं च. १० ए ई युक्तः स्या. ११ बी सी डी °स्य देव. १२ सीतास्वश.१३ बी सी डीई यते । अ.१४ ए यंत्रः इ. १५ सी डी न च ॥.१६ बी सी डी शवनि'. १७ए निवृत्त्य. १८ डी वीति ॥ अ. १९ डी वीति ॥ वा. Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.१.५४.] अष्टमः सर्गः। ६२५ वावदीति । बेभिदीति । इत्यत्र "आगुणावन्यादेः" [४८ ] इत्याद्गुणौ ॥ अन्यादेरिति किम् । वनीवञ्चीति ॥ जहेति । इत्यत्र “न हाको लुपि” [ ४९ ] इति पूर्वस्य नात् ॥ वनीवञ्चीति । सनीस्रंसीति । दनीध्वस्यन्ते । बनीभ्रंश्यन्ते । चनीकसति । पनीपतति । आपनीपदति । चनीस्कन्दति । इत्यत्र “वञ्चलंस." [५० ] इत्यादिना नीरन्तः ॥ जङ्गमीति । इत्यत्र "मुरतः" [५१] इत्यादिना मुरन्तः ॥ जञ्जपीति । जञ्जभति । दन्दहति । दन्दशति । परिबम्भञ्जीति । पम्पशति । इत्यत्र "जप" [५२ ] इत्यादिना मुरन्तः ॥ चरिता । पम्फुलीति । इत्यत्र “चरफलाम्" [ ५३ ] इति मुरन्तः ॥ चचुरिता। चूा । पम्फुलीति । इत्यत्र “ति च” [ ५४ ] इत्यादिनात उः। नाधिचेदि च वचांसि नरीनृत्यन्त आशु न च धीनरिनति । नतीति यदसौ भुजदर्पादिग्नरीनृतदवारितसेनः ॥ ६३ ॥ ६३. यद्यस्माद्धेतोरसौ चेदिर्भुजदोन्नतीत्यत्यर्थं नृत्यति । कीहक्सन् । दिक्षु नरीनृतत्यो जैत्रत्वेन दर्पोद्धरत्वादतिशयेन वल्गन्योत एवावारिताः केनाप्यनिषिद्धाः सेना यस्य सः । तस्मादधिचेदि च चेदिराजविषये च न केवलं सिन्धुपताविति चार्थः । वचांस्येतावन्मात्रदोसावित्यौवयोर्वचनान्याशु शीघ्र स्तोककाले न नरीनृत्यन्ते नात्यर्थं प्रसरन्ति । धीश्चैतदर्पमानविषया बुद्धिश्चाशु न नरिनति । एतद्दो बहीयस्त्वादस्मदादिभिर्बहुकालेन ज्ञेयो वाच्यश्चेत्यर्थः ॥ १ डी ई दीत्य. २ डी नीध्वंस्यते । चनीक. ३ सी ई भ्रस्यन्ते. ४ सी डी मीत्य. ५ ए बी सी डी अपति. ६ ए ति पुर'. ७ सी डी . । पुम्फली. ८बी नृत्यतो जै. ९ ए ई शयव. १० ए वावारि?. ११ सी डी रिता के १२ सी डी षिद्धा से. १३ बी त्यादीनि वच. १४ बी सी डी र्पो वही. १५ बी दस्सादा. Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः] नरीनृत्यन्ते । अत्र “क्रमतारी(री:) [५५ ] इति रीः॥ नरिनर्ति । नतीति । नरीनृतत् । इत्यत्र "रिरौ च लुपि" [५६ ] इति रिरौ रीश्च ॥ क्ष्मामनेनिजुरवेविषुरिन्दोन ह्यवेविजुरिहेश यशांसि । यानि तेन स पिपर्ति विभर्तीयति तान्यहह सीम जिहीते ॥६४॥ ६४. हे ईश ते तव यानि यशांसि क्ष्मामनेनिजुर्निर्मलीचरवेविषुाप्नुवन्नत एवेन्दोश्चन्द्रान्न ह्यवेविजु व पृथगभवन्निन्दुतुल्यानीत्यर्थः । तानि सं चेदिर्न पिपर्ति त्वदरिभिविलुप्यमानानि न रक्षति न बिभर्ति गानेन न पोषयति न धारयति वा नेयर्ति न याति नाश्रयतीत्यर्थः । अतश्चाहहेति खेदे कष्टं सीम सकलभूमण्डलव्याप्तिलक्षणा त्वंद्यशोमर्यादा जिहीते याति भ्रश्यतीत्यर्थः ।। अम्बुधिं प्रमृतिभिः स मिमीते यो मिमासति तदश्वरथेभम् । तं जिजावयिषुरत्र न कालोप्यस्य संयियविषुयुधि कोन्यः॥६५॥ ६५. यो नरस्तदश्वरथेभं तस्य चेदेरश्वान्थान् गजांश्च मिमासति संख्यातुमिच्छति सोम्बुधिं प्रेमृतिभिश्चलुमिमीते संख्याति । तथात्र युधि कालोपि यमोपितं चेदि न जिजावयिषुरस्यातिशूरत्वेन स्वमरणाशङ्कया नात्मानं गमयितुमिच्छुस्ततो युधि कोन्योस्य संयियविषुः संवद्धीभवितुमिच्छुः ॥ १ डी विभ्रर्ती. १ सी नरिनर्ति । नरी . २ ए तां रीः ॥ न. ३ ए बी सी डी नृत्यत्. ४ सी निर्म'. ५ ए क्रुरुवेर्विषु. ६ सी स चिदि. ७ ए ई न पो. ८ सी 'त्यर्थोतत'. ९ सी व्याधिल'. १० सी त्वद्योशो'. ११ सी योन्यर.१२ बी प्रभृति. १३ सी डी भिश्चलु. १४ ए नात्मं ग. १५ ए संनियि १६ ए विमि. Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.६०.] अष्टमः सर्गः। ६२७ क्ष्मा रिरावयिषता कटकेनारील्लिलावयिषतीह सहेलम् । को विभावयिषति स न सख्यं कः शुशावयिषति स्म न भक्तिम् ॥६६॥ ६६. कः सख्यं चेदिना सह मैत्री न बिभावयिषति स्म भावयितुमिच्छति स्म। सर्वोपि मृत्युभयात्सख्यं चिकीर्षति स्मेत्यर्थः । तथा को भक्तिं न शुशावयिषति स्म नाविवर्धयिषत् । क सति । इह चेदौ । किंभूते । मां रिरावयिषता पादाघातैः शब्दायमानां प्रयोक्तुमिच्छता कटकेन का सहेलं लीलयैारील्लिलावयिषति छेदयितुमिच्छति । एतेन यात्रारम्भिण्यप्यस्मिन्सर्वेपि नृपा वशीभूता इत्युक्तम् ॥ अनेनिजुः । अवेविजुः। अवेविषुः । अत्र "निजां शित्येत्” [५७] इति पूर्वस्यैत् ॥ पिपर्ति । इयर्ति । बिभर्ति । मिमीते । जिहीते । अत्र "पृभृ" [५८ ] इत्यादिना पूर्वस्य-इः॥ मिमासति । इत्यत्र "सैन्यस्य" [ ५९] इति-इः ॥ जिजावयिषुः । संयियविषुः । रिरावयिषता । लिलावयिषति। बिभावयिषति। इत्यत्र “ओर्जान्तस्था” [ ६०] इत्यादिना-इः ॥ ननु ण्यन्तानां वृघ्यावादेशयोः कृतयोर्द्वित्वे सति पूर्वस्योकारान्तता न संभवति । तत्र "सन्यस्य" [५९ ] इत्यनेनैव सिद्धे किं गुरुणा सूत्रेण । एतावत्तु विधेयम् । ओः पयेवर्ण इति । पिपविषते । यियविषतीत्यत्र पूर्वस्योकारान्तस्येत्वं यथा स्यात् । सत्यम् । णौ यत्कृतं कार्य तत्सर्व स्थानिवदिति न्यायज्ञापनार्थम् । तेन शुशावयिषतीत्यादि सिद्धम् ॥ - १ ए शुभाव. .१ सी डी था भक्तिं को न. २ ए शुभावायि'. ३ ए बी त् । ई. ४ सी पादघा. ५ ए हे लील'. ६ ए वारीलि. ७ सी डी यितु. ८ ए विषुः । अ. ९ए जो सत्ये. बी जां शेत्ये. १० बी स्यैतत्. ११ वी सनस्य. १२ सी यिषु । सं. १३ ए °त्र ऊर्जा. १४ सी ततत्स. Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] अन्यभूमिपतिनाम सदा शिश्रावयिष्यत इहास्य न कैश्चित् । एक एव हि भवान्नृपतिः शुश्रावयिष्यत इदं स्म समग्रैः ॥ ६७ ॥ ६२८ ६७. इह पृथ्व्यामन्यभूमिपतिनाम सदा न कैश्चित्कैरपि नृपादिभिः शिश्रावयिष्यतेहयुत्वेनान्यनृपनाम्नोप्य सहिष्णुत्वादस्य न संभालयितुमिष्यते किं तु हे चेदिपते हि स्फुटमेक एव भवान्नृपतिरिदमस्य समयैः सर्वैः शुश्रावयिष्यते स्म । इदमिति भिन्नक्रमे । अस्येत्यस्य व्याप्यत्वेपि संबन्धविवक्षया षष्ठी । एतेनायं त्वन्नामापि न सहत इत्युक्तम् ॥ तैरनेन वसु दण्डपदे सिस्रावयिष्यत इलापतिवर्गैः । यैः किलोद्भटभुजैरभितो सुस्रावयिष्यत धनं धनदेन ||६८ || ६८. तैरिलापतिवर्गै राजौघैः कर्तृभिरनेन चेदिना हेतुकर्त्रा use दण्डस्थाने व द्रव्यं सिस्रावयिष्यते क्षारयितुमिष्यते । किलेति सत्ये । उद्भटभुजैर्वलिष्ठबाहुभिर्यैर्हेतुकर्तृभिरभितः सामस्त्येन धनदेन प्रयोज्यकर्त्रा धनमसुंस्रावयिष्यत भुंजाबलेन यैर्धनदोपि दण्डं जिघृक्षित इत्यर्थः । एतेनास्य कोशसंपदतिशयोक्तिः ॥ अस्य कोपकठिनं हृदयं दिद्रावयिष्वरिकुलं चटु वक्ति । भक्तिवाग्भिरमुना खलु नादुद्रावयिष्यत जनः पुनरन्यः ॥ ६९ ॥ ६९. अस्य चेदेः कोपकठिनं हृदयं दिद्रावयिषुः प्रसिसादयिष्वि १ ए सिम्राव बी सिश्राव १ एयुक्तेना. २ए सर्वैषुः श्रा° ३ डी राजोवैः ४ ए हेतुः क े. ५ ए बी 'लिष्ट'. ६ बी बाहूभि . ७ ए भियैहैतु. ८ ई 'मस्तेन. ९ बी सुश्राव १० सी डी भुजब. ११ ए घृक्षत. १२ ई 'नंदि. Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.६१.] अष्टमः सर्गः। ६२९ त्यर्थः । अरिकुलं चटु चाटुकारान्वक्ति । अमुना चेदिना पुनरन्यो जैनः शत्रुलक्षणः खलु निश्चयेन भक्तिवाग्भिर्भक्तिप्रधानवचनैर्नादुद्रावयिष्यत । एतेनामुनारीणां मानो भग्नो न त्वस्य केनापीत्युक्तम् ॥ अस्स चाश्ववलमुद्भटमुत्पिप्रावयिष्विव रयादधिरूढान् । वीक्ष्य सप्ततुरगी ध्रुवमुत्पुप्रावयिष्यत इनेन न सापि ॥ ७० ॥ ७०. ध्रुवं सापि सकलाश्वोत्कृष्टतया प्रसिद्धापि सप्ततुरगीनेन रविणा नोत्पुप्रावयिष्यते नोवं गमयितुमिष्यते । किं कृत्वास्य चेदेरश्वबलं वीक्ष्य । किंभूतम् । उद्भटमश्वेषूत्कृष्टमत एव रयाद्वेगादधिरूढानश्ववारानुत्पिप्रावयिष्विवोवं गमयितुमिच्छ्वि । उद्भटत्वादधिरूढानां रयेणोत्पिप्रावयिषुत्वाँच्चैतदश्वबलं मत्कां सप्ताश्वीमुपरि यान्तीं मा भिषिषणदित्याशङ्कयार्केण नैतदूर्ध्व गमयिष्यत इति संभावयामीत्यर्थः ॥ पर्वतप्रतिममस्य महीं पिप्लावयिष्विभकुलं मदपूरैः।। चिन्तयन्स नियतं न मुदापुलावयिष्यत हरिः स्वगजेन।।७१॥ ७१. स ऐरावणवाहनत्वेन सर्वत्र प्रसिद्धो हरिरिन्द्रोपि नियतं निश्चितं मुदा हेतुना स्वगजेनैरावणेन हेतुका नापुप्लावयिष्यंत मुदा प्लवमानो हर्षावस्थां प्राप्नुवन्हरिः स्वगजेन प्रयोक्तुं नैष्यतेत्यर्थः । कीहक्सन् । अस्य चेदेरिभकुलं चिन्तयन्परिभावयन् । किंभूतं पर्वतप्रतिमं तथा मदपूरैर्महीं पिप्लावयिषु । वृत्तद्वयेनामुनायमुत्कृष्टाश्वेभसंपदा दुर्जेय इत्युक्तम् ।। १सी जन श. २ ए प्यथ । ए° ३ सी डी °णां मदो भ. ४ ए नोपुप्रा. ५ ए यति नो'. ६ सी त्वा चे. ७ ए बी वोई ग. ८ ए त्वाञ्चेत'. ९ ई मम स. १० सी ध्यते मु. ११ ए सी मही पि. १२ सी पिप्लव'. १३ सी यिष्ट । वृ. १४ ए ययत्कृष्.. १२ १३ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] राजभिर्बहुभिरप्यसको चिच्यावयिष्यत उदग्रतरः कैः । येन सोपि किल दर्पजुषा चुच्यावयिष्यत इनस्त्रिदशानाम् ॥७२॥ ६३० ७२. येन चेदिना दर्पजुषा सता से शौर्यादिगुणैः प्रसिद्धस्त्रिदशानामिनोपि शक्रोपि चुच्यावयिष्यत इन्द्रपदाशयितुमिष्यते स कौ चैद्य उदयतरः पूर्वोक्तबलादिसंपदोद्भटतरो बहुभिरपि राजभिः कैश्चिश्यावयिष्यते । एतेन त्वां विना त्वन्नृपैर्बहुभिरप्यसौ न इत्युक्तम् ॥ शिश्रावयिष्यते शुश्रावयिष्यते । सिस्रावयिष्यते असुखावयिष्यत । दिद्रावयिषु अदुद्रावयिष्यत । उत्पिप्रावयिषु उत्पुप्रावयिष्यते । पिलावयिषु अपुलावयिष्यत । चिच्यावयिष्यते चुच्यावयिष्यते । अत्र "श्रुस्रु” [ ६१] इत्यादिना पूर्वोत इर्वा ॥ दीर्घनिद्रमथ सोरिगणं सुष्वापयिष्वसिकरोचकथत्तत् । मन्त्रिणां बलमचीकरदग्रे केतुभिर्गगनमौर्जुनवद्यत् ॥ ७३ ॥ ७३. अथैवं चरोत्त्यनन्तरं स भीमस्तञ्चरवचनं मत्रिणाम चकर्थत्तैः सहामन्त्रयदित्यर्थः । कीदृक्सन् । दीर्घा कदाचिदप्यजागरणेन प्रलम्बा निद्रा मृत्युरूपा यत्र तद्यथास्यादेवमरिगणं सुष्वापयिषुः शाययितुमिच्छुरैसिः करे यस्य सः । कोपावेशाच्छेच्छेदायात्तखड्ग इत्यर्थः । १ सी 'रिमण सु. २ बी 'गमन'. १ बी सी डी स सौर्या° २ ए 'तेशकौ ३ ए लालिसं. ४ सी सिश्राव'. ५ ए अशुश्राव ६ बी ष्यते । दि. ७ सी यते । चि. ८ ए 'त्र खुस्रु इ. ९. १० डी 'पुः स्वापयि ११ सी 'रसिक'. १२ डी कोपवे, १३ सी 'ख'. Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.६४.] अष्टमः सर्गः। ६३१ सापेक्षत्वेप्यत्र समासो नित्यसापेक्षत्वात् । तथा यदलं केतुभिर्ध्वजैः कर्तृभिर्गगनमौर्णनैवद्वंहीयस्त्वेनाच्छादयत्त(लमग्रे स्वस्याग्रतोचीकरत् । शवभिषेणनायासंख्यं सैन्यमग्रे कृत्वा चचालेत्यर्थः ॥ सुष्वापयिषु । इत्यत्र "स्वपो णावुः" [ ६२] इति पूर्वस्योत् ॥ अचीकरत् । इत्यत्र “असमान" [ ६३ ] इत्यादिना पूर्वस्य सनीव कार्यम्॥ असमानलोप इति किम् । अचकथत् ॥ अचीकरत् । इत्यत्र "लघोर' [ ६४ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ अस्वरादेरिति किम् । औणुनवत् ॥ तंस सिन्धुवहमाप महीं योतस्तरत्क्षितिभृतोददरच । नोत्तितीर्घमुदतत्वरदब्धि द्रागसमरदपारपयोभिः ॥ ७४ ॥ ७४. स भीमस्तं सिन्धुवहं पञ्चनदाख्यं वहनमाप प्राप यो वहो महीमपारपयोभिरपर्यन्तजलैः कृत्वातस्तरत्प्लावितवान्क्षितिभृतोद्रीनददरच जलाघातैर्व्यदारयच्च । अत एव द्रागब्धिमसस्मरत्स्मरयामासा दिब्धि दृष्टपूर्विणो लोकान् । अत एव चोत्तितीर्घमुत्तरीतुमिच्छं नरं नोदतत्वरद्दुस्तरत्वाशङ्कया नोत्सुकमकार्षीत् ॥ द्यामपस्पशदपप्रथदम्भोमम्रदत्तटतरूंश्च तरङ्गैः । यस्तटानि मकरैरववेष्टदोविवेष्टदथ के न भयेन ॥ ७५ ॥ ७५. यो वहस्तरङ्गैः कर्तृभिर्या व्योमापस्पशत्स्पर्शितवान् । तथाम्भोपप्रथब्यस्तारयत् । तथा तटतरूनमम्रदच्चोन्मूलयामास च । तथा -~- नद: १ ए °दाधिवे. १ सी त्यशापे'. २ डी वद्वही . बी ई °वद्वंही'. ३ सी संख्यसै . ४ सी कायें ॥ भ. ५ सी दाख्यव'. ६ सी ददार. ७ सी डी ई रत्स्मार. ८ डी तिरीपुं. Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ [ भीमराजः ] यः कूलंक षत्वेन मकरैर्मत्स्यैः कर्तृभिस्तटान्यववेष्टव्यापयामास । अथैवं सति यो भीष्मत्वाद्भयेन कर्त्रा कं नरं नाविवेष्टत् ॥ योम्बुधिर्नु जलदानचचेष्टत्स्वर्वधूः सुरसरित्र्वचिचेष्टत् । न त्ववाजगणदत्र जनोयं कण्ठभूषणमजीगणदुर्व्याः ॥ ७६ ॥ व्याश्रयमहाकाव्ये ७६. यो वहोम्बुधिर्नु जलदानेचचेष्टज्जलग्रहणाय व्यापारितवान् । तथा यो निर्मलजलत्वेन सुरसरिन्नु व्योमगङ्गेव स्वर्वधूर्देवीरचिचेष्टज्जलक्रीडार्थं व्यापारयत् । अत एवात्र पृथ्व्यां यं वहं जनो न त्ववाजगणद्ल्पीयान्निष्फलञ्चायमिति नैवावज्ञातवान् । किंतु यं जन उर्व्याः पृथ्वीरमण्याः कण्ठभूषणं मैवेयकमेतदाकारत्वादजीगणज्ज्ञातवान् ॥ असस्मरर्तुं । अददरत् । उदतत्वरत् । अपप्रथत् । अमम्रदत् । अतस्तरत् । अपस्पशत् । अत्र “स्मृदृत्वर” [ ६५ ] इत्यादिना पूर्वस्यात् ॥ अववेष्टत् आविवेष्टत् । अचचेष्टत् । अचिचेष्टत् । इत्यत्र " वा वेष्टचेष्टः" [ ६६ ] इति वात् ॥ अजीगणत् । अवाज गणत् । इत्यत्र ""ईच्च गणः " [ ६७ ] इति - ईदच्च ॥ आदुरानृधुरथानशिरे चानजुराच्छुरभितोपि यदापः । वाश्छलेन गिरिराद्विमिहानाञ्छेति येन च बभूव वितर्कः ॥७७॥ ७७. येन वन हेतुना वितर्कोर्थान्नृणां बभूव च । कथमित्याह । यद्यस्माद्धेतोरापोभितः समन्तादूर्ध्वं तिर्यग्दिक्षु चानृधुर्ववृधिरे । अथ वृद्ध्यनन्तरमभित आनशिरे व्यापुस्तथाभित आनञ्जुश्च क्षयामासुराद्रचक्रुश्चेत्यर्थः । चो भिन्नक्रमे । आच्छुरपि दीर्घबभूवुश्च । अँपिः समु१ बी 'विचेष्ट'. २ ए नववेष्ट. ३ ए 'रविचे'. ५ एषण ६ डी 'त् । उ. ७. १० ए बी ईच गं. ११ बी सी डी सुश्चाद्री. १३ ए सी अपि स . ४ सी डी 'निफल'. ८ बी अचचेष्ट. ९ डी 'तू अवि द्भिन्न. १२ ए श्वो Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.१.६८. ] अष्टमः सर्गः । ६३३ चयार्थी भिन्नक्रमे । अत एवाभित आदुरिव सामस्त्येन भुक्ता इव । ये हि यथाकामं भुक्ताः स्युस्ते ह्यङ्गेन वर्धन्ते । ततः स्थौल्याद्दिशो व्याप्नुवन्ति स्निग्धाङ्गेत्वचा म्रक्षिता इव च स्युर्दीर्घीभवन्ति चेति । अतश्च वाश्छलेनैवं प्रवृद्धव्यापक दीर्घीभूतजलव्याजेनेह सिन्धुदेशे किं गिरिराडिमालय आनाञ्छ दीर्घीबभूवेति ॥ किं बभूव इह चन्द्रमसा सुष्वाप किं हरिरिहेह बुभूवे | किं श्रिया भृगुसुतः किममुं विव्याध चेति जनता यमनूचे ॥ ७८ ॥ ७८. यं वहमनु लक्ष्यीकृत्य जनतोचे । कथमित्याह । चन्द्रमसा किमिह व बभूव उत्पन्नम् । तथा हरिर्विष्णुः किमिह वहे सुष्वाप तथेह व किं श्रिया बुभूवे तथा भृगुसुतः परशुरामः किममुं वह विव्याध च शरेणाताडयच्चेति । समुद्रे हि किल चन्द्रश्रियावुत्पन्ने हरिश्च सुष्वाप रामश्च समुद्रपर्यन्तायां भूमौ विप्रेभ्यो दत्तायां स्वावासभूम्यर्थमबिंध शरेणाताडयदिति प्रसिद्धि: । अयं वहो महाप्रमाणत्वेनाच्धितुल्य इति जनतान्त्रैवमाशङ्कतेत्यर्थः ॥ वर्त्म विव्ययिथ जिज्यिंथ सीमां किं नु विव्यचिथ वारिधिरेव । को भ्रमादिदमुवाद न यस्मिन्विव्यथे च हृदि को न तितीर्षुः 1108 11 ७९. भ्रमात्समुद्रभ्रान्तेर्यस्मिन्वहविषय इदं को नोवाद नावर्दत् । किमित्याह । विव्ययिथातिदीर्घत्वेनाच्छादितवान्रुद्धवानित्यर्थः । तथातिविस्तीर्णत्वात्सी मामियत्प्रमाणोयमिति मर्यादां जिज्यिथ तत्य १ सी बुभुवे. २ सी 'जियव सी. १ सी डी 'त्वाचाम्र २ ए स्युद्दीघी ४ सी 'हे कं श्रि'. ५ ए सी या बभू. किम' सी 'मः केम. ८ सी को नावा. ८० ३ बी वाछले. डी वा स्थले . ६ सी डी पर्शुरा. ७ एमः ९ बी । कि. J Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] 1 क्थाप्रमाण इत्यर्थः । अतो नुं इति वितर्के । संभावयेहं त्वं वारिधिरे तत्किं विव्यचिथ वोहं न तु वारिधिरिति व्याजं किमिति चकर्थ । तथा तितीर्षुस्तरीतुमिच्छुः को हृदि न विव्यथे कर्थंमयं तरिष्यत इति चित्ते सर्वोपि तितीर्षुः पीडित इत्यर्थः ॥ आदुः । अत्र " अस्यादेर्" [ ६८ ] इत्यादिना पूर्वस्यात् ॥ आनृधुः । आनशिरे । आनञ्जुः । अत्र "अनात: " [ ६९ ] इत्यादिना- आ नश्चान्तः ॥ अनात इति किम् । आन्छुः । कश्चिदत्रापीच्छति । आनाञ्छ || बभूव । बभूवे । सुष्वाप । इत्यत्र “भूस्खपोरदुतौ” [ ७० ] इत्यदुतौ ॥ केचित्तु कर्तयैव भुवोकारमिच्छन्ति न भावकर्मणोः । तेनें बुभूवे श्रिया ॥ जिज्यिथ । विव्ययिथ । विव्याध । विष्यचिथ । विव्यथे । अत्र " ज्याव्ये" 1 [ ७१ ] इत्यादिनी - इः ॥ किं न्वियाज किमुवाश तरङ्गैर्द्यामुवाच नु च यः स्वमगाधम् । युरभ्रपटली मिहिकास्ता यत्र याः परिववौ पवमानः ॥ ८० ॥ ८०. यो हो द्यामाकाशं तरङ्गैः कृत्वा किं न्वियाज । किं Fan | तरङ्गाणामूर्ध्वगामित्वेनोत्क्षिप्यमाणार्घाञ्जलितुल्यत्वात्किमानर्च । किं किं वा तरङ्गैर्द्यामुवाश तरङ्गाणां द्योभिमुखोच्छलितत्वात्साभिलाषोत्क्षिप्त भ्रूतुल्यत्वाच्चाभिललाष । नु च किं वा तर १ सी टीम . १ ए नु वि. २ सी डी 'हं वा° ३ ए बी 'वारधि'. 'व चत'. ५ सी 'मि च ६ सी डी 'थमियं. ७ई चि १० ए न वुभू. ९ सी डी 'भूवे । शुष्वा डी आन्नश्चा'. सीना - इ ॥ ४ सी डी ८ बी सी ११ बी Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.७६.] अष्टमः सर्गः। ६३५ डैद्या स्वमात्मानमगाधमतलस्पर्शमुवाच । तरङ्गाणां द्योसमीपगतत्वात्सशब्दत्वाच्च तैोरग्रे स्वमगाधं किमुवाचेत्यर्थः । तथा यत्र वहे ता मिहिका नीहारा अभ्रपटली धूमरीमूयुः संतेनुर्या मिहिकाः पवमानो वायुः परिववौ मेलितवान् ॥ न युवाय ववतुर्न नै चोवुः कोपि कावपि च केपि च यद्धि । वेधसा तदुपवाय परिज्यायाभ्यदर्शि वसनं नु य उाः ॥८१॥ . ८१. यद्वसनं हि स्फुटं न हि नैव कोपि तन्तुवायादिरुवार्य व्युतवान् कावपि च न ववतुः केपि च न चोवुरुा भूरमण्याः संबन्धि तद्वसनं नु वस्त्रमिव यो वहो वेधसाभ्यदर्शि ज्ञापितमर्थान्नृणां यद्वोळ अभ्यदर्शि दर्शितं दत्तमित्यर्थः । किं कृत्वा परिज्याय स्वस्य हानि कृत्वा कष्टं कृत्वेत्यर्थः । तयोपवार्य व्युत्य ॥ इयाज । उवाय । उवाश । उवाच । इत्यत्र “यजादि' [ ७२ ] इत्यादिना पूर्वस्य सस्वरान्तस्था वृत् ॥ ऊयुः । अत्र "न क्योय्” [ ७३ ] इति वयेर्यो वृन्न । परिवैवौ । इत्यत्र "वेरयः" [ ७४ ] इति बन्न ॥ अय इति किम् । उवाय ॥ ववतुः जवुः । अत्र "अविति वा" [७५] इति वा वृन्न ॥ अय इत्येव । ज्युः ॥ परिज्याय । उपवाय । इत्यत्र "ज्यश्च यपि" [ ७६ ] इतिवृन्न ॥ १ ए न वोवु:. १ डी ी खमा . २ सी मिहका. ३ ए ई मिहि'. ४ ई °य व्यूत. ५ बीपि न. ६ बी नृणां. ७ ए दशि द. ८ ई य व्यूत्य ॥. ९ सी डी वृतः ॥ ऊ'. १० ए वों. ११ सी वनौ । इ. १२ सी वा स्व. Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ न्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] सर्वतोपि हि सरांसि किमु प्रव्याय किं नु परिवीय नदौन्वा । किं तु सर्वसरितोपि परिव्याय स्थितो य उदकैः प्रतिभाति ॥८२॥ ८२. यो वह उदकैः कृत्वा प्रतिभाति मम मनसि प्रतिभासते । कीहक् । स्थितः । किं कृत्वा । हि स्फुटं सर्वतोपि सरांसि किमु प्रव्यायात्मनि प्रक्षेपात्संवृत्याच्छाद्य वा किं नु किं वा नदान्वौं । वा समुच्चये । वहांश्च परिवीय संवृत्य किं नु किं वा सर्वसरितोपि सर्वनदीश्व परिव्याय संवृत्य । अतिमात्रजलत्वात्कवेरित्याशङ्का ॥ इज्यते जलनिधिं किल संवीय स्थितः कलशभूः स मुधैव । उह्यते यदमुनैष न संव्यायेति यत्र नृभिरुच्यत उच्चैः॥ ८३॥ ८३. यत्र वहविषये नृभिरुच्चैरुच्यते । कथमित्याह । किलेल्यागमे । जलनिधि संवीय पानेन संवृत्य स्थित: स प्रसिद्धः कलशभूरगस्त्यो मुधैवेज्यते । अब्धिः पीतोनेनेत्यचिन्त्यवैभवतयाँ लोकैर्यदयं पूज्यते तन्निरर्थकमित्यर्थः । यद्यस्माद्धेतोरेष वहः संव्याय पानेन संवृत्यामुना कलशभुवा नोह्यते स्वात्मनि न धार्यते । वहेत्रापीतेब्धिः पीतोप्यपीत इति भावार्थ इति ॥ प्रव्याँय । इत्यत्र "व्यः" [ ७७ ] इति वृन्न ॥ संव्याय संवीय । परिव्याय परिवीय । इत्यत्र “संपरेर्वा" [७८ ] इति वा वृन्न ॥ इज्यते । उह्यते । उच्यते । अत्र “यजादिवचेः किति" [७९ ] इति वृत् ॥ १ बी सी डी किं तु प. २ ए °दान्वाः । किं. ३ ई किं नु स'. १ बी भासि म'. २ बी सी डी किं तु किं. ३ सी न्वा स. ४ बी सी डी किं तु किं. ५ ए निधिसं. ६ ई °या कै. ७ बी व्याज । इ. ८ सी वृत ॥ डी स्वृतः॥. Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.८०.] अष्टमः सर्गः। सोषुपीत्यहिगणोनुतटं सास्वप्ति नक्रनिचयोपि च यस्य । पर्यसुप्यत यमेन नु नासोषुप्यत क्षणममूषुपदन्यः ॥ ८४ ॥ ८४. यस्य वहस्यानुतटं तटसमीपेहिगणः सोपुपीति निरुपद्रवत्वादत्यर्थं शेते । तथा नक्रनिचयोपि च सास्वप्ति । एतयोश्च मृत्युहेतुत्वादुत्प्रेक्ष्यते । यमेन न्वनुतट पर्यसुप्यत शयितम् । अत एवान्योहिनकेभ्य इतरो नरादिर्यस्यानुतटं क्षणं क्षणमात्रमपि नासोषुप्यत मृत्युभयेन नात्यर्थमशेत । तथान्यो नासूषुपन्न च कं चन स्वापयामास । सिन्धुराडसुषुपद्भयजीनो दुर्गमं यमजिनन्द्रिडविद्धः।। आशु विध्यति च विद्विप उग्रोरुज्यचा नु विचिता विचति स्म।।८५॥ ८५. सिन्धुराडसुषुपत्स्वापमकार्षीत् । कीदृक्सन् । दुर्गमं दुःखेन गम्यं यं वहमजिनन्नत्यजन्नत एव द्विडविद्धो द्विभिरविद्धः पराभवेनापीडितोत एव भयजीनो भयरहितः । तथोग्रोरुव्यचा नु यथा प्रचण्डो वृश्चिको विद्विषः पदादिघटनेन स्वशत्रून्कण्टकेनातर्कितमेव विध्यति तथायं विद्विष आश्वतर्कितं विध्यति च तीव्रप्रहारादिना पीडयति च । तथा विचिता । अत्र तॄन् । श्वस्तन्यास्ता वा। वञ्च यते वञ्चयिष्यते वा। विचति स्मच्छलितवान् । एतदुर्गबलेनायं स्वयं सुखेन तिष्ठति शत्रूश्च पराभवतीत्यर्थः ।। असोषुप्यत । सोषुपीति । असूषुपत् । पर्यसुप्यत । इत्यत्र "स्वपेर्यके च" [८० ] इति वृत् ॥ यङ्लुपि नेच्छन्त्यन्ये । सास्वप्ति ॥ घन्तादपि केचिदिच्छन्ति । असुषुपत् ॥ १ सी पी xxx ति निरु. २ ए °स्वस्ति न. १ ए मेव न्व. २ ए गम्य यं. ३ ए भवोना. ४ बी सी डी षः पादा. ५ सी बेनकण्ट'. ६ बी न् । स्वस्त. Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ___ जीनः । अजिनन् । अविद्वैः । विध्यति । इत्यत्र "ज्याव्यधः कृिति" [८१] इति वृत्। विचिता । विचति । इत्यत्र “व्यचोनसि" [८२ ] इति वृत् ॥ अनसीति किम् । उरुव्यचाः ॥ याशन्ति पवना गरुडो वावश्यतेनुशितमन्यजनेन । लङ्क्तुिं यमगृहीतपयोन्तं संजिघृक्षुमिव सागरलक्ष्मीम् ॥ ८६ ॥ ८६. यदीति संभावने । यदि परं पवना वाता अतिवेगवाद्यं वह लचितुमुशन्तीच्छन्ति । गरुडो वा वावश्यतेत्यर्थं वाञ्छति । यतोगृहीतँपयोन्तमपर्यन्तजलमत एव सागरलक्ष्मीमब्धेरनन्ताम्भोरूपां श्रियं संजिघृक्षुमिव संग्रहीतुमिच्छमिवाब्धितुल्यमित्यर्थः । अतएवान्यजनेन लवितुमनुशितमवाञ्छितम् ॥ वृक्णमेव परिश्चति भृष्टं भृजतीह परिपृच्छति पृष्टम् । विश्रुतं जगति गौरवमावाव्यक्ति यस्य समुदाहरमाणः ॥ ८७ ॥ ८७. यस्य गौरवं महत्त्वं समुदाहरमाणः कथयन्नरो वृणमेव च्छिन्नमेव परिवृश्चतिच्छिनत्ति भृष्टमेव पक्कमेव भृजति पृष्टमेव परिपृच्छति । यत आवाव्यक्ति वाव्यच्यादित्याशास्यमानः तिकि वाव्यक्तिरेवंनामा कश्चिजनमात्रम् । आङा मर्यादार्थेनाव्ययीभावः। जनमात्रस्यापीत्यर्थः । जगति विश्रुतम् । यथा छिन्नादेश्छेदनादि निरर्थकमेवमेतगौरवस्य जगत्रयेपि प्रसिद्धत्वात्कथनं निरर्थकमेवेत्यर्थः ।। __ १ सी वृक्रमे'. २ ए भृयती'. १ सी डी नत् । अ. २ सी डी द्धः । व्यध्य. ३ ए °ध: जिति. ४ ए त्र वाचो . ५ सी व्यचा ॥. ६ ए वाव'. ७ई तजलपर्यन्तम. ८ ई संगृही. ९बी म् ॥ विक्ण. १० सी रवम ११ सी नरा वृ'. १२ ई व प. १३ सी र्याभा. १४ ई द्धस्य कथ'. Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.१.८३.] अष्टमः सर्गः। ६३९ विव्यधुस्तटमहीरपवेवित्यंहिपांश्च विविधुर्यत आपः। वेवयीति नु नभः ककुभो वेवीयते नु य उदुर्मिकरायः॥८८ ॥ ८८. यतो यस्मिन्वह आद्य[द्यादि ?]त्वात्तस् । आपस्तटमहीविव्यधुरभ्रंशयन्नित्यर्थः । तथा व्यचेर्यङ्लुपि वेविच्यादित्याशास्यमानः तिकि वेविक्तिर्नाम कश्चिन्नरोपर्गतोहिपाणामद्भिरुन्मूल्यमानत्वान्नष्टो वेविक्तिर्येभ्यस्ते येह्रिपा वृक्षास्तांश्च विविधुरुन्मूलितवेत्यः । अनेनास्य जलातिपूर्णतोक्ता । अत एव यो वह उदुच्छ्रिता ऊर्मय एव कराग्राणि पाण्यग्राणि शुण्डाग्राणि वा यस्य स तथा सन्नभो वेवयीति नु भृशमाच्छादयतीव तथा ककुभो दिशो वेवीयते नु । सेसिमीषि किमहो परितः सेसिम्यते जलमदेन यथाब्दः । संस्यमन्विति दृशा किल वाव्यत्तं नृपः प्रवटतेथ नियन्तुम् ॥८९॥ ८९. अथ नृपो भीमस्तं वह नियन्तुं सेतुना बन्टुं प्रववृते प्रारेभे । कीक्सन् । अहो वह जलमदेन जलबाहुल्यदर्पण यथाब्दो मेघः सेसिम्यतेत्यर्थं गर्जति तथा त्वं किमिति जलमदेन सेसिमीषि । अत्यर्थं शब्दायसे । एतेन त्वजलमदोपनेष्यत इत्युक्तम् । इत्येवं प्रकारेण दृशा संस्थमन्नु । यात्राविघ्नोयमिति कोपाद्भुकुट्या साटोपं विलोकनाद्वावद्यमान इव तथा दृशा तं किल वाव्यत् । किलेवार्थे । कोपाल्ललाटारोपितदृष्टित्वेन वहस्याखिलस्याप्याक्रामकत्वादृशा वहमत्यर्थं संवृण्वन्निव लघूकुर्वन्निवेत्यर्थः ॥ १ सी ति तु न. २ सी ते तुय. १ सी च्यात्या . २ ए °गतोहि°. ३ सी डी क्तिएभ्य. ४ बी विव्यधु. ५ ए बी सी डी वन्तोने'. ६ बी उदच्छ्रि. ७ बी पाण्याग्रा. ८ ई 'ति भृसी ति तु भृ. ९ सीते तु ॥. १० ए सेतुबद्धप्र. ११ ई दृक् । अ. Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० ध्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः] अनुशितम् । उशन्ति । इत्यत्र “वशेरयङि” [ ८३ ] इति वृत् ॥ अयङीति किम् । वावश्यते ॥ गृहीत । संजिघृक्षुम् । वृक्णम् । परिवृश्चति । भृष्टम् । भृजति । पृष्टम् । परिपृच्छति । इत्यत्र "ग्रह" [ ८४ ] इत्यादिना य्वृत् ॥ व्यचिवशिवस्चिनस्जिप्रच्छीनां पञ्चानां यङ्लुबन्तानां नेच्छन्त्यन्ये । आवाव्यक्ति ॥ अन्ये तु यङ्लुप्यपि मन्यन्ते । अवेविक्ति ॥ अपरे तु विचतिवृश्चतिभृजतिपृच्छत्तीनां नित्यं य्वृत् । ज्यादीनां त्वनित्यमिति मन्यन्ते । तेन विव्यधुः ॥ अन्ये तु विविधुरित्येवाहुः ॥ वैवीयते । वेवयीति । सेसिम्यते । सेसिमीषि । इत्यत्र “व्यस्यमो यडि" [ ८५ ] इति वृत् ॥ यङ्लुपि नेच्छन्त्येके । वाव्यत् । संस्यमत् ॥ आजुहावयिषति स्म च स क्ष्माचेक्यितोथ चतुरः प्रतिहारः । आजुहाव निरजूहवदार्जिह्वायकीयिषत आशु चमूपान् ॥ ९ ॥ ९०. क्ष्माचेक्यितः मया पृथ्वीस्थलोकेनात्यर्थं पूजितः स भीमश्वमूपान्नृपानाजुहावयिषति स्म चाकारयितुमियेष च । यत आजिहायकीयिषत आह्वायकेच्छामिच्छतः । प्रागेवाह्वानमिच्छत इत्यर्थः । अथ चमूपाकारणेच्छानन्तरं चतुरो नृपाभिप्रायज्ञ: प्रतिहार आशु शीघ्रं चमूपानाजुहाव स्वयमाकारितवान् । निरजूहवदन्यैराहायितवान्।। चेक्यितः । अत्र "चायः कीः" [ ८६] इति कीः ।। १ ए बी डी हायिकी. १ सी क्षु । वृ. २ ए भृद्यति. ३ डी ब्रश्चिभ्र. ४ सी तु जङ्लु. ५ ए पचेवि'. ६ सी वेव. ७ ए 'त्र वेस्य. डी त्र वेस्यमोर्यङि. ८ ई मोर्यङि. ९ बी चेक्यतः. १० ई पाना . ११ बी हायिकी'. १२ सीन् ॥चे. Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०.४.१.८९.] अष्टमः सर्गः । ६४१ आजुहाव । इत्यत्र "द्वित्वे हः" [ ८७ ] इति वृत् ॥ अनेनैव सिद्ध उत्तरसूत्रकरणं णेरन्यस्मिन्दुित्वनिमित्तप्रत्ययव्यवधायके वृन्मा भूदित्येवमर्थम् । तेनेह न भवति। आह्वायकमिच्छति आह्वायकीयति ततः सनि आजिह्वायकीयिषतः ॥ निरजूहवत् । आजुहावयिषति । इत्यत्र “णौ ङसनि" [८८ ] इति य्वृत् ॥ तेष्वशूशवदसौ क्षितिपाज्ञां सेतवे भृशमशिश्वयदोजः। ते शुशावयिषवश्व जयं शिवाययिष्वनुचराः स्म यतन्ते ॥ ९१॥ ९१. असौ प्रतिहारस्तेषु चमूपेषु विषये क्षितिपाज्ञां वहबन्धविषयं भीमादेशमशूशवद्गमयत् । ज्ञापितवानित्यर्थः । तथासौ सेतवे सेतुबन्धार्थं तेषु विषय ओज उत्साहमशिश्वयवर्धयत् । ते च चमूपाः सेतवे यतन्ते स्म च । चो यौगपद्ये । यदैव प्रतिहारः क्षितिपाज्ञामशूशवत्तदैवोयेमुरित्यर्थः । यतः किंभूताः । जयं राज्ञो विजयं शुशावयिषवो विवर्धयिषवस्तथा जयं शिश्वाययिषवो विवर्धयिषवोर्नुचराः सेवका येषां ते। सापेक्षत्वेप्यत्र गमकत्वात्समासः ॥ अशूशवत् अशिश्वयत् । शुशावयिषवः शिवाययिषु । इत्यत्र “श्वेर्वा" [८९] इति वा वृत् ॥ कथं कथं यतन्ते तत्राह। शिश्वियुः सपदि केपि दृषद्भ्यस्तत्र केपि शुशुवुश्च तरुभ्यः। शोशवीति हनुमान्स यथा किं शेश्वयीपि न तथेति वदन्तः॥१२॥ -- १ ए डी सी श्वावयि?. २ डी शेश्चियी. - १ए तिप्राज्ञां. २ सी डी श्वावयि०. ३ डी वोनु. ४ ई नुचाराः, ५ ए वः शिश्वावयिषवः शि. ६ ए सी डी श्वावयि ७ ई तिवृ. ८ई °थं य. ९ ए यत्रन्ते. १० बी न्त्रा. Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ व्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] ९२. तत्र तेषु चमूपेषु मध्ये केपि चमूंपाः सपदि दृषयः । "गम्यस्याप्ये" [ २.२.६२. ] इति चतुर्थी । शिला आहर्तुं शिश्वियुजग्मुः । केपि च तरुभ्यो वृक्षानाहर्तुं शुशुवुः । किंभूताः सन्तः । यथा हनुमाञ् शोशवीति स्म रामेणाब्धिसेतुबन्धे दृषदाद्याहरणायेतस्ततो भ्रमणात्कुटिलं गतस्तथा त्वं किं न शेश्वयीषीत्यन्योन्योत्साहनाय वदन्तः ॥ शुशुवुः शिश्वियुः । शोशवीति शेश्वयीपि । इत्यत्र “वा परोक्षायङि" [९० ] इति वा वृत् ॥ पिप्यिरे प्रतिरवा गगनान्तः पेप्यिताचलदरीषु च पीनाः । पीनवत्परशुपाणिनिकृत्तोप्यानपादपपरापतनोत्थाः॥ ९३ ॥ __९३. प्रतिरवाः प्रतिशब्दा गगनान्तः पिप्यिरे वृद्धिं गतास्तथा पेप्यिता अतिवृद्धा या अचलदोद्रिगुहास्तासु च पीना बहूभूताः । किंभूताः। पीनवन्तः स्थूला: परशवः पाणावेषां तैनिकृत्तानां छिन्नानामुत्प्यानानामतिस्थूलानां पादपानां यत्परापतनं परावृत्त्या निपतनं तस्मादुत्तिष्ठन्ति ये ते तथा ॥ पिप्यिरे । अत्र "प्यायः पीः" [ ९१] इति पीः ॥ दीर्घनिर्देशो यङ्लुबर्थः । पेप्यित॥ पीनाः । पीनवत् । इत्यत्र "क्तयोर्'' [१२] इत्यादिना पीः ॥ अनुपसर्गस्येति किम् । उत्प्यान ॥ १ सी कृत्योत्पान. १बी मूपा स. २ डी शेश्वियी. ३ डी शेश्वियी. ४ ई न्तः पेप्यि. ५ डी ई बहुभू. ६ बी प्यितः ॥. ७ सी पीना । डी पीन ।। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.९४. ] अष्टमः सर्गः । स्फीतवतुमुलधावदनापीनान्धुसैनिकसमूहमुदीक्ष्य । स्फीतभीतिरटदाटविकापीनोभिकागण उदत्रसदारात् ॥ ९४ ॥ ९४. अटन्त्यो भ्राम्यन्त्य आटॅविक्योरण्यचारिण्यो या आपीनोनिका अज्ञाता आपीनोभ्यश्चमर्यस्तासां गण आरादन्तिकादुदत्रसदनश्यत् । यतः कीदृक् । स्फीतभीतिः प्रवृद्धभयः । किं कृत्वोदीक्ष्य | कम् । स्फीतवान्संततस्तुमुलो व्याकुलरवो यस्य स तथा धावञ्जवेन गच्छं - स्थानापीनोप्रवृद्धोन्धुर्व्रणं यस्य स तथा निर्व्रण इत्यर्थः । यः सैनिक - समूहस्तम् । आटविकेत्यत्र “चति” [ ६.४.११ ] इतीकण् ॥ स्फातटङ्ककुलिशैः प्रसमाद्यस्तीतपङ्कमिव चिच्छिदुरद्रीन् । स्फातवद्भुजभृतः प्रसमाद्यस्तीतवद्दृषद उद्दधिरे च ॥ ९५ ॥ * ९५. स्फातवद्भुजभृतः पीवरबाहुधारिणो बलिष्ठभटाः स्फाता: स्थूला ये टङ्काः पाषाणदारकास्त एव कुलिशानि तैः कृत्वाद्रींश्चिच्छिदुः । प्रसमाद्यस्तीतपङ्कमिव प्रसमीद्यस्तीतः प्रसंस्तीतः कठिनीभूतो यः पङ्कस्तं यथा केचिच्छिन्दन्ति तथानायासेन चिच्छिदुरित्यर्थः । तथा प्रसमाद्यस्तीतवद्दृषदोतिकठोरशिला उद्दधिरे चोत्पाटितवन्तञ्च ॥ अनापीनान्धु । आपीनोनिका । इत्यत्र “ आङोन्धूधसोः " [ ९३ ] इति पीः ॥ १० 99 । स्फीत । स्फीतवत् । स्फीत । स्फातवत् । इत्यत्र "स्फायः स्फी वा (स्फीर्वा ?)” [ ९४ ] इति वा स्फीः ॥ १ ए दीक्ष। स्फी. ६४३ १ बी श्रामन्त्य २ ए म्यन्त आ . ३ सी 'टकिक्यो' ४ ई 'रिण्य आ. ५ डी 'कुलो र ६ बी डी ई 'ती' सी 'रतीकथा ॥ स्फा ७ सी 'माधुस्तीप्र. ८ बी 'च्छिदन्ति ९ सी दोभिकवोर १० ई पी ॥ स्पीत । स्फीतवान् । स्फा. ११ सी स्फीतः । स्फी. १२ सी स्फातः । स्पात १३ ई स्फाय स्फी. Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] प्रसंस्तीत । प्रसंस्तीवत् । इत्यत्र “प्रसमेः स्त्यः स्तीः " [ ९५] इति स्तीः ॥ शीतशीनमकरन्दलवः प्रस्ती मशीनवदुदम्बुतुषारः । श्यानतां नृषु दिशन्पवनः प्रस्तीतघर्मसलिलानि जहीर ॥ ९६ ॥ 3 ९६. पवनः प्रस्तीतधर्मसलिलानि श्रमोद्भवान्संहत स्वेद बिन्दूञ्जहार कीदृक् । शीतेन शीतलगुणेन शीता द्रवीभूय कठिनतां गता यद्वा शीताः शीतला अत एव शीना मकरन्दलवा: पुष्परसलेशा यत्र सः । तथा प्रस्तीमाः संहताः शीनवन्तो द्रवीभूताः सन्तः कठिनतां गता उदुत्कटा ॲम्बुतुषारा वहजलसंबन्धि हिमकणा यत्र सः । तथा मृदुत्वान्नृषु श्यानतां गतिमत्तां दिशन्ददत् ॥ प्रस्तीम प्रस्तीत । इत्यत्र " प्रात्तश्च मो वा " [ ९६ ] इति वा मः ॥ ६७ शीन शीर्नवत् । स्पर्शे शीत । इत्यत्र “श्यः शी" [ ९७ ] इत्यादिनां शीः ॥ द्रवमूर्तिस्पर्श इति किम् । श्यानताम् ॥ प्रातिशीन्यमभिशीनमभिश्यानेन जाड्यमवशीनमथापि । सेतुबन्धनपरत्वमवश्यानेभ्य ओज इह नाभ्यवशीनम् ॥ ९७ ॥ ९७. इह वहे सेतुबन्धनपरत्वं सेतुबन्धतात्पर्यमवश्यानेभ्यः प्रातेभ्यो भटेभ्यः सकाशादभिश्याने नेतस्ततो भ्रमणेन प्रातिशीन्यं रोगित्वमभिशीनमपगतम् । अथानन्तरं जाड्यमपि रोगादिकृतालस्यम 93 १ ए हारः ॥ प. २ ए ओह इ. १ बी 'मस्त्यस्ती • २ सी 'ति स्ती ॥. ५ ई 'बन्धहि ६ ए शीना शी. ९ सी नाशी ॥ १३ सी डी 'शीतम. १० बी 'हे शेतु . १ • ७ ३ ए शीता द्र° ४ ए अम्बतु . ई नव ११ बी 'त्वं शेतु. ८ सी नवात्. १२ए 'नेनैत'. Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०४.१.१००.] अष्टमः सर्गः । ६४५ प्यवशीनं गतम् । इह सेतुबन्धविषय ओज उत्साहस्तु नाभ्यवशीनम् । व्यायामेन हि रोगजाड्ये प्रायोपयात ओजस्तु वर्धते ॥ श्यानमभ्यवपरं तरुजालं ग्रावजातमभिसंपरशीनम् । तद्वहान्तरपथैरभिसंश्यानं पयोर्धशतद्गुग्धहविर्वत् ॥ ९८ ॥ ९८. तद्वहान्तस्तस्य वहस्य मध्ये तरुजालमभ्यवैपरं श्यानमभ्यवैश्यानं पतितं ताँ प्रावजातं शिलौघोभिसंपरशीनमभिसंशीनमत एव पयोम्भोपथैरुन्मागैरभिसंश्यानं वहमध्यस्य तर्वादिभिर्व्याप्तत्वात्तजलमितस्ततो गतमित्यर्थः । अर्धशतदुग्धहविर्वद्यथार्धशृते स्वयमर्धपक्के दुग्धहविषी क्षीरघृते अपथैरभिसंश्यायेते उत्फणनेन स्थाल्या बहिर्गच्छतः ॥ प्रातिशीन्यम् । अत्र "प्रतेः" [ ९८ ] इति शीः ॥ अभिशीनम् अभिश्यानेन । अवशीनम् अवश्यानेभ्यः । अत्र “वाभ्यवाभ्याम्" [१९] इति वा शीः ॥ केचित्तु समा व्यवधानेपीच्छन्ति । अभिसंशीनम अभिसंश्यानम् । तदा वाभ्यवाभ्यामिति तृतीया व्याख्येया॥ समस्ताम्यामपीछन्त्यन्ये । अभ्यवंशीनम् अभ्यवश्यानम् ॥ गृतदुग्धहविर्वत् । इत्यत्र "श्रः शृतम्' [ १०० ] इत्यादिना तेति निपात्यम् ॥ १ सी ह शेतु. २ ए वश्यानं प. ३ बी वशानं प. ४ ए था जाग्रा. ५ सी डी परिशी. ६ डी शीतम. ७ ए मत. ८ बी भिशी. ९ डी वाज'. १० बी श्रित. ११ बी श्रिते. १२ डी स्थाल्यां ब. १३ ए तिसैन्य. १४ डी शीतं अ. १५ ई अवश्यानेभ्यः. १६ ए नेभ्यः. १७ डी वाभ्या'. १८ सी च्छन्तोन्ये. १९ डी वश्या'. Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] यज्ञकृद्भिरशतश्रपिते संवीय दुग्धहविषी इव वह्नौ । संजिहीर्षुरिपुचक्रजिघांसोतैर्न्यधायि वह आर्द्रमनार्द्रम् ॥ ९९ ॥ ६४६ ९९. श्रतः श्रायतो वा दुग्धहविषी स्वयमेव ते यज्ञकृद्भिः प्रायुज्येतां शृते एवं श्रपिते नैं शुते असृते ते च ते श्रपिते चाशुतश्रपिते अपक्कपके दुग्धहविषी संवीय संवृत्य संमिश्रयेत्यर्थः । यथा यज्ञकृद्भिः सर्वस्वारयागादौ वह्नौ निधीयेते तथा संजिहीर्षु विनाशयितुमिच्छु यद्रिपुचक्रं तस्य जिघांसा हन्तुमिच्छा तयोतैः संबद्धैर्भीमभटैरार्द्र वृक्षाद्यनार्द्र च काष्ठशिलादि संवीय वहे न्यधायि सेतु - बन्धाय निक्षिप्तम् ॥ 99 तत्र कैश्चिदजिंगांस्यत पाथः कान्त्व ऋक्षपतिफालतितासैः । बन्धकर्म वितितंसदनीकं क्रन्त्व ऋद्धभुजविक्रमकान्तैः ॥ १०० ॥ १.२ १००. कैश्चिन्महाभटैस्तत्र वहेजिगांस्यत गन्तुमिष्टम् । किं कृत्वा । पाथो वहाम्भ: क्रान्त्वा यतः किंभूतैः । ऋक्षपतेरिव जॉम्बस्येव फालस्योत्प्लुतेस्तितांसा विस्तारयितुमिच्छा येषां तैर्यथा जम्बवोब्धिमुत्योहल तथा वहेत्लवितुमिच्छुभिरित्यर्थः । तथा बन्धकर्म सेतुबन्धकर्म सेतुबन्धक्रियां वितितंसञ्चिकीर्षदनीकं सैन्यं कन्त्वो १९ १५ ३ ई द्भिः प्रयु. १ एसृत. २ ए जघा . ३ बी 'तिस्फाल'. ४ डी 'तिसंस'. १ ए सी श्रतश्रा . २ ए ते जज्ञ. ४ सी 'ते श्रते ते. ५ ई 'न सृते असृतेच. ६ ए अस ते ७ एसी मिश्रेत्य ८ सी यज्ञ. ९ ए बी धीय ते. १० सी था सजि० ११ सी 'बद्धे भीम. १२ बी तैः I दृक्ष. १३ डी जाम्बुवतस्ये १४ सी 'वतस्ये. १५ बी 'स्तिस्तांसा. सी °स्तितासा. १६ सी जाम्बूवतोब्धि डी जाम्बुवतोब्धि . १७ बी सी डी ● मुलुवि १८ बी सी डी 'कि. १९ बी 'कीर्षुद. Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.१०१.] अष्टमः सर्गः । ६४७ लङ्घय यत ऋद्धः स्फीतो यो भुजविक्रमस्तेन कान्तै रम्यैः । अतिशूरत्वेन सैन्यात्पूर्वमेव योद्धुं कैश्चिद्वह उत्लवितुमिष्ट इत्यर्थः ॥ किं प्रशानसि भुजौ तव शंशान्तो वदत्यवनिवृत्रहणीत्थम् । सेतुकष्टमपि शामति सामप्रश्नपृष्टजनतासु किल स्म ॥ १०१ ॥ १०१. सामप्रश्नपृष्टजनतासु साम्ना मधुरालापेन यः प्रश्नः पृच्छा तेन पृष्टा या जनता लोकौघास्तासु विषये किलेति सत्ये सेतुकष्टमपि सेतोर्बन्धजनितं दुःखमपि शामति स्म शमित्र सुखमिवाचरति स्म । क सत्यवनिवृत्रहणि पृथ्वीन्द्रे भीमे । किंभूते । वदति । कथमित्याह । अहो भट किं प्रशानसि सेतुबन्धादुपशाम्यन्भवसि । तथा तव भुजौ किं शंशान्तो भृशमुपशाम्यत इत्थम् ॥ 3 स्योमभिः स वह आहितसेतुस्यूत उत्पथविडम्बुभरट्यूः । हुं मुवो मम गिरीनिति सेष्योति स्म मोमकृंतमूतिनिमित्तात्॥१०२॥ १०२. स वहो मोमभिर्मवद्भिर्बन्धकैर्नरैः कृता या मूतिर्बन्धः सा चासौ निमित्तं च तस्माद्गिरीन्समीपस्थानद्रीन्सेध्योति स्मात्यर्थं बबन्ध सर्वतोप्लावयदित्यर्थः । कीदृक्सन् । सीव्यन्ति स्योमानो बन्धकनरास्तैः स्योमभिराहितः कृतो यः सेतुस्तेन स्यूतो बद्धोत एवोत्पथानुन्मार्गान्विच्छति गच्छति योम्बुभरस्तं ष्ठीवति निरस्यति यः सः । उत्प्रेक्षते । न गिरीन्मोमकृतमूतिनिमित्तत्सेध्योति स्म किं तर्हि हुं मुवो ममेति । इतिर्भिन्नक्रमे । इव उत्प्रेक्षाद्योतको ज्ञेयः । हुमिति कोपे । २ सी कृतिमू २ एनः प्रच्छा. ३ डी किं शशा° ४ बी न्धः द्रीन सेष्यो . ६ ए बी न स्फूतो. ७ बी ई •प्रेक्ष्यते. १ बी सी 'नति. १ ई ऋद्ध स्फी". स चा ५ बी ८ बी 'तात्सैयो ९ बी सी 'प्रेक्ष्याद्यो'. Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ व्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] मम मुवो बन्धका एत इति हेतोरिव । गिरिपाषाणैर्हि वहो बद्धस्ततस्तन्जलमुत्पथैः प्रसरगिरीन्प्लावितवदित्येवमाशङ्का ॥ ओमतूर्मभिरजूर्मभिरासेषेषि किं नृभिरनूः कृतभूते । श्रोमवारिणि सुजूः परितूः श्रूर्नकचक्र इति नूनमराटीत् ॥१०३॥ __१०३. नकचक्रो नूनमित्येवंप्रकारेणाराटीत् । तमेवाह । कृता भुवः पृथ्व्या ऊतिरैवनं येन तस्य संबोधनं हे कृतभूते भीम अजूमंभिरज्वरद्भिर्नीरोगैस्तथा । अवन्तीयोमानस्त्वद्रक्षकास्त्वत्सेवका इ. त्यर्थः । त्वरन्ते तूर्माणो वहबन्धार्थं त्वरावन्त ओमानो ये तूर्माणस्तैर्नृभिर्भटैः सहितस्त्वमनूर्ममारक्षकः सन्कि किमित्यासेषेष्यत्यर्थं बध्नास्यान्मदाश्रयं वहमिति । कीदृक्सन् । श्रोमोत्पथगत्या स्तोकीभूतत्वाच्छुष्यद्यद्वारि तत्राधारे श्रूः स्तोकाम्बुत्वेन शुष्यन्नत एव सुजूः सुष्टु पीडावान् । अत एव च परितः समन्तात्त्वरते संभ्रमेणेतस्ततो गच्छति यः स परितः । नकचक्रो हि शुष्यजले संतप्यमानत्वादारटन्कविनैवमुत्प्रेक्षितः ॥ श्रूतिपूर्तिकृतजूर्तिरमूभिर्मोममूर्तिरिव तोर्मचमूपैः। प्रागतूः स वह उज्झति फेनं तूर्ण उग्रविधिपाकनियोगात्॥१०४॥ १०४. मोर्मा मूर्छावती मूर्तिरङ्गं यस्य स इव वहः फेनमुज्झति स्म । मूर्छावान् हि मुखेन फेनमुज्झति । कीडक्सन् । प्राक्पूर्वमविद्यमानास्तुरस्तूर्वन्तः सेतुबन्धेन पीडका यस्य सोन्तरब्धितुल्यत्वेन १ वी रनू कृ. २ ए रितस्तूनक्र. १ सी डी स्तज्ज. २ सी रत'. ३ ए °न्तीतमा . ४ ए ५ एमेणत. तास्त्वर'. Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ४.१.१०१.] ६४९ केनाप्यवद्धपूर्व इत्यर्थः । तथा॑प्युग्रोननुकूलत्वेन रौद्रो यो विधिपाको दैवपरिणामस्तस्य नियोगादवैश्यंभावाद्धेतोर मैर्भिरमूर्च्छद्भिः सोद्यमैरित्यर्थ: । तोर्मचमूपैस्तोर्माणस्तूर्वन्तः सेतुबन्धेन पीडका ये चमूपास्तेस्तूर्ण : सेतुबन्धेन पीडितोत एव श्रुतौ जलशोषे या तूर्तिः सैन्यपौनां त्वरणं तया कर्या कृता जूर्तिर्ज्वरः पीडा यस्य सः ॥ सोद्रवक्रमुरुकूजमसंकोचं च भगुभिरनाशि तदोघात् । न्यङ्कुवञ्चमभिवञ्चति सैन्ये मेघदृष्टिवदव्यनुयेाजैः ॥ १०५ ॥ अष्टमः सर्गः १०५. मर्दुभिर्जलवाय सैस्तदोघाद्वहप्रवाहादनाशि भयेन पलायितैंम् । कथम् । सहोद्गवक्राभ्यामार्जव कौटिल्याभ्यां वर्तते यत्तत्सोद्भव तोरुर्महान्कू जो व्यक्तशब्दो यत्र तदुरुकूजं तथासन्सकोचोङ्गावयवानां मीलनं यत्र तच्च यथा स्यादेवम् । क्क सति । सैन्ये । किंभूते । न्यङ्कुमृगभेदस्तस्येव बच्चो गमनं यत्र तद्यथा स्यादेवं द्रुतमित्यर्थः । अभिवञ्चति गच्छति । यथा मेघस्य वृष्टिर्यतः सा मेघवृष्टिः कारीरीष्टिस्तस्यां सत्यामटव्यामनुयाजा आहुतिविशेषा अटव्यनुयाजास्तैर्नश्यते । वृष्टिकामैर्हि कारीरीष्टिररण्ये क्रियते तस्यां चानुयाजाख्यास्त्रय आहुतिविशेषा न दीयन्त इति श्रुतिः ॥ ॐ मेवा ( रागविशेषः अशृते दुग्धहविषी यज्ञकृद्भिः । अत्र “श्रपेः " [ १०१ ] इत्यादिनां शुभावो निपात्यः ॥ अन्ये तु श्रपिं चुरादौ पठन्ति । तस्यैव पर्निपातनम् । प्रयोजकण्यतस्य त्वेकस्यापि प्रयोगं नेच्छन्ति । तन्मते श्रपिते दुग्धहविषी यज्ञकृद्भिरित्येव स्यात् ॥ १२ १ बी मुरकू २ बी 'जाजै:. १ डी था तुन. २ ई वस्यभा 'पानानां. ६ डी 'हुर्भिर्ज'. ई 'दुद्भिर्ज' ९ सी डी 'नं तत्र. १० ई °ष्टिः करी'. १३ सी अश्रूते. १४ सी 'ना श्रना. १५ ए ८२ 1 ३ सी मूत्तिर. ४ ए तूर्ति सै'. ५ डी ७ सी डी 'तङ्गतम् । ८ डी 'स्तस्यैव. ११ ई "कामे हि का". १२ ए दीन्त. पे. १६ एकस्य ण्य. Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः] - संवीय । इत्यत्र" वृत्सकृत्" [ १०२ ] इति वृदेकवारमेव ॥ "दीर्घम्" [ १०३ ] इत्यादिना च दीर्घः ॥ अव इति किम् । उतैः ॥ - संजिहीर्षु । जिघांसा । अजिगांस्यत । इत्यत्र "स्वरहन्” [१०४ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ तितासैः वितितंसत् । इत्यत्र-तनो वा' [ १०५ ] इति वा दीर्घः ॥ क्रान्त्वा क्रन्त्वा । इत्यत्र "क्रमः क्त्वि वा" [ १०६ ] इति वा दीर्घः ॥ क्विपि । प्रशान् ॥ किति । कान्तैः ॥ ङिति । शंशान्तः । अत्र "अहन्" [ १०७ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ अहन्नितिकिम् । वृत्रहणि ॥ कश्चित्त्वाचारकावपि दीर्घत्वमिच्छति । शमिवाचरति शामति ॥ .. प्रश्न । क्वि । उत्पथविद ॥ धुद । पृष्ट । स्योममिः ॥ क्वि । अम्बुभरष्ट्यूः ॥ ध्रुट । स्यूतः । अत्र अनुनासिके च" [१०८] इत्यादिना छवोः शूटौ ॥ सिवेर्यङ्लुपि तु सेप्योति ॥ अन्ये त्वासेषेषीत्येवेच्छन्ति । तन्मतसंग्रहार्थं कृितीत्यनुवर्तनीयं यजादिसूत्रे च च्छग्रहणं कार्यम् ॥ मव् । मोम । मुवः । मूति ॥ अव् । ओम । अनूः। उते ॥ श्रिव् । श्रोम ॥ श्रूः । श्रूति ॥ ज्वर । अजूर्मभिः । सुजूः । जूर्तिः ॥ त्वर । अतूर्मभिः (तूर्मभिः?) परितः । तूर्ति । अत्र "मव्यवि' [ १०९ ] इत्यादिनानोट् ॥ मुर्छ । मोर्म । अमूर्मिः। मूर्तिः ॥ तुबै । तोर्म । अतूः । तूर्णः । अत्र "रा. लुक्" [११० ] इति छवोर्लक् ॥ १ बी ना दी. २ सी तिता सैः. ३ ए ई ः ॥ प्र. ४ ए सी 'शात । अ. डी शान्तैः । अ. ५ सी ः ॥xxत्व. ६ ए °श्चिचाचा. ७ सी 'सेषषी . ८ सी डी मम् । मु. ९ डी मूतिः ॥ १० बी डी ओम् । अं. ११ सीडी सुर्जू । जू. १२ बी डी जूर्ति ।।. १३ ई तूर्तिः ॥ अ. १४ ए सी दिनो. १५ बी मूर्ति ॥ तु. १६. डी तोमम् । अतुः । तू. १७ प छलुक्. १८ डी क् ॥ नि. Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.१.११४.] अष्टमः सर्गः। ६५१ पाकनियोगात् । इत्यत्र "तेनिटें" [१११] इत्यादिना चजोः कगौ ॥ तेनिट इति किम् । असंकोचम् । कूजम् ॥ न्यङ्गु । वक्र । उद्ग । मद्गुभिः । मेघ । ओघात् । इत्येते "न्यक्क्' [ ११२ ] इत्यादिना निपात्योः ॥ वञ्चमभिवञ्चति । इत्यत्र “न वञ्चैर्गतौ" [११३ ] इति न कत्वम् ॥ अनुयाजैः । अन्न “यजेर्यज्ञाङ्गे' [ ११४ ] इति नैं गत्वम् ॥ राडहर्षयदवश्यविरेच्यावश्यभञ्ज्यवहकर्मनियोज्यान् । सत्प्रयोज्यनवभोज्यगणेनात्याज्ययाज्यसुभटानुपरिस्थः ॥१०६॥ १०६. राशीम उपरिस्थ उपरि वर्तमानः सन्नत्याज्याः सर्वभृत्यगुणोपेतत्वेनौहेयाः संगतार्हा इत्यर्थः । याज्याश्च सत्कार्या ये सुभटास्तानहर्षयत् । केन कृत्वा । संञ् शोभनोत एव प्रयोज्यो व्यापारयितुं शक्यो नैवो यो भोज्यगणः खण्डखाद्यादिभक्ष्यौघस्तेन । किंभूतान् । अवश्यविरेच्योवश्योदञ्चनीयोवइयभन्ज्यश्च सेतुबन्धेनावश्यं द्विधा कार्यों यो वहस्तस्य कर्म बन्धनक्रिया तत्र नियोज्यान्व्यापारयितुं शक्यान् ॥ न प्रवाच्यगतवाक्यवदापद्वाच्यतां भुजबलेन वहं सः । न्युनजिनियमयन्निति से न्यग्रोधवीरुदवरोधचमूकः ॥ १०७ ॥ १०७. स भीम इत्युक्तप्रकारेण भुजबलेन वहं नियमयन्नियत्रय १ ए सः । न्यज'. २ सी स निग्रो. १बी निट्र इ. २ सी °ति किः अ. ३ सी मेघः । ओं. ४ बी त्याः ॥ पञ्च. ५ ए ञ्चगतो. ६ सी न त्व. ७ सी 'नादेयाः, ८ ई ताही इ. ९ सी टाकान. १० सी डी सत् शो'. ११ सी नको भो. १२ डी वो भो'. १३ ई गण ख. १४ ए ई भक्षौष. १५ ई वश्यं भ. Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः] न्सन् वाच्यतां भीमेन परिपूर्णो वहो बन्टुं न शकित इति लोकापवाद नापत्परिपूर्णं बबन्धेत्यर्थः । यतः कीदृक् । वहबन्धे स्वयमुद्यतत्वेन न्युब्जं रोगविशेषं जितवान् न्युजजित्तयाँ न्यग्रोधा वटा वीरुधो लता द्वन्द्वे सह ताभिर्या सा तथावरोधा सेतुबन्धाय वहमध्येवरोहन्ती चमूर्यस्य सः प्रवाच्यगतवाक्यवत्प्रवाच्यः पाठविशेषस्तद्योगाह्रन्थोपि प्रवाच्यस्तद्गतं वाक्यं विशिष्टपदसमुदायो यथा वाच्यतामत्रेदं पदं लक्षणादिदोषदुष्टमिति लोकापवादमार्फत्वान्न प्राप्नोति ॥ अवश्यविरेच्य । अवश्यर्भय । इत्यत्र "ध्यण्यावश्यके" [ ११५] इति न कगौ ॥ नियोज्यान् । प्रयोज्य । इत्यत्र “निप्राद" [११६] इत्यादिना न गः ॥ भोज्य । इत्यत्र " जो भक्ष्ये" [११७ ] इति न गः ॥ त्याज्य । याज्य । प्रवाच्य । इत्यत्र "त्यज्यज' [ ११८ ] इत्यादिना न कगौ॥ वाच्यताम् । इत्यंत्र "वचोशब्दनाम्नि" [ ११९] इति न कः ॥ अशब्दनाम्नीति किम् । वाक्य ॥ भुज । न्युब्ज । इत्येतौ "भुज" [१२० ] इत्यादिना निपात्यौ ॥ वीरुत् । न्यग्रोध । इत्येतो “वीरुत्" [ १२१ ] इत्यादिना निपात्यौ ॥ अवरोध । इत्यप्यन्ये॥ त्रयोदशः पादः समाप्तः॥ १ डी ! विहो. २ सी पूर्णि ब.३ सी था निग्रो. ४ सी डी स्य सप्र. ५ डी मापन्न. ६ ए भज । इ° ७ सी भुज्यो भ. ८ ए भक्ष इ. ९ डी त्याज्यः । प्र. सी त्याज्यः । या. १० ए त्र ज्य. ११ बी वचो. १२ सीत् । निग्रो'. १३ ए बी रुत्या. १४ सी दशपादस. Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.२.४.] अष्टमः सर्गः । ६५३ लाय मा किमपि सुम्ल वहं यत्त्वं न विव्यंयिथ विव्यय नाहम् । स्फारवानिह हि भूपतितेजःस्फाल इत्यजनि बन्धकृतां वाक् ॥ १०८ ॥ १०८. बन्धकृतां सेतुबन्धकारिणां वागजनि । कथमित्याह । हे सुम्लायं वहं बद्धवानहं तु मन्दत्वान्नेति मनः संतापेन विच्छायमुख किमपि स्तोकमपि मा म्लाय मा विच्छायमुखो भूः । यद्यस्मा - तोर्वहं न त्वं विव्ययिथ नाच्छादितवान्न बद्धवानित्यर्थः । अहमपि न विव्यय त्वयेव मयापि वहो न बद्ध इत्यर्थः । तर्हि केन बद्ध इत्याह । इह सेतुबन्धविषये हि स्फुटं भूपतितेजः स्फालो भीमनृपप्रतापसंचयः स्फारवान्स्फुरतीति ॥ सुम्ल । इत्यत्र“आत्संध्यक्षरस्य " [ १ ] इत्यात् ॥ अनैमित्तिकत्वादात्वस्य प्रागेव कृतत्वादाकारान्तलक्षणो डः स्यात् [ ५.१.७६. ] ॥ ग्लाय । इत्यत्र " नैं शिति” [ २ ] इति नात् ॥ विव्ययिथ । विव्यय । इत्यन्त्र " व्यस्थव्णवि" [ ३ ] इति नातू ॥ स्फीर । स्फालः । अत्रे“स्फुर” [ ४ ] इत्यादिनात् ॥ क्ष्मापगारमिव गिर्यपगोरं सोदिदासुरपि दत्तदिदीषः । तैर्बलैरनुपदाय बबन्धे दीनमी नकुलवार्युपदायः ॥ १०९ ॥ १०९. तैर्भीमसंबन्धिभिर्बलैरनुपदाय क्षेयैमगत्वा सुखेनेत्यर्थः । स वहो बबन्धे बद्धः । कीदृक्सन् । अदिदासुरपि क्षेतु१ सी ई व्ययथ. २ बीमार'. १ सी डी यस्मा'. २ एद्धेहोर्व'. ३ सी डी 'वान्वद्ध. ४ सी व्यि त्वयेव सम. ५ ए °ति ॥ मुम्ल. ६ ई 'भित्तक'. ७ ए न शीति इति वात् ८ बी सी 'स्थवर्ण' ९ ईत् ॥ स्पार १० ए स्फारः । स्फा. 'त्र स्फर. १२ एयगमत्वा. ११ बी Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ ध्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः] मनिच्छन्नपि दत्ता दिदीषा क्षेतुमिच्छा यस्य स तथा। किं कृत्वा मापगारमिव क्ष्मां मृदमपगूर्येवोद्यम्येव गिर्यपगोरं गिरीनुद्यम्य । उभयत्र "द्वितीयया" [५.४.७८] इति णम् । यथा केनापि मृत्खण्डमुत्पाट्यत एवं वहे प्रक्षेपार्थं गिरीनुत्पाट्येत्यर्थः । अत एव दीनं भयेन कातरं मीनकुलं मत्स्यौघो यत्र स तथा वायुपदायो जलक्षयो यत्रं सः ॥ तैरदीयत वहः परिबद्धोद्राक्प्रमाय च निमाय च वृक्षान् । तं प्रमातुमरिमाशु निमातुं दिक्षु कीर्तिमचलच्च चुलुक्यः ॥११०॥ ११०. वहोदीयताक्षीयत । कीहक्सन् । वृक्षान्प्रमाय च हिंसित्वा छित्त्वेत्यर्थः । निमाय च वहे क्षिप्त्वा च द्राक् तैर्बलैः परिबद्धः । तथा चुलुक्यो भीमोचलच्च । किं कर्तुं तमरि सिन्धुराज प्रमातुं हिंसितुं दिक्षु कीर्ति निमातुं च निक्षेप्तुं विस्तारयितुम् ॥ सैन्धवस्य निमयः प्रमयो वास्त्वद्य दुर्निमयदुष्प्रमयस्य । इत्यनामयमयावचमूपा मेतुकाममभिमातुमिहोचुः ॥ १११ ॥ १११. आमीनातीत्यामयो रोगो मिन्वन्तीति अचि मया उष्ट्रा अनामयं नीरोगं मयाँश्वं मया अश्वाश्च येषां ते ये चमूपा नृपास्त इह भीमसमीप ऊचुः । किं कर्तुम् । मेतुकामं जिघांसुं सिन्धुराज. मभिमातुं हिंसितुम् । किमूचुरित्याह । दुर्निमयदुष्प्रमयस्य दुःखेन क्षेप्यस्य हिंस्यस्य च सैन्धवस्य सिन्धुराभिजनो निवासोस्य "सिन्ध्वादेर" [६.३.२१६ ] इत्यञ् । तस्य सिन्धुराजस्याद्य निमायो निरासः प्रमैयो वा हिंसा वास्त्विति । सिन्धुराजोद्यास्माभिनिरस्यो हिंस्यो वेति प्रतिज्ञा चक्रुरित्यर्थः ।। १ ए मनच्छ. २ डी म्येच गि. ३ ए तिणम । य. ४ ए सी डी ई युपादायोपल'. ५ सी डी त्र सः ॥. ६ सी तु मतरि. ७ ए प्रमांतुं. ८ डी॥ अमी. ९ बी नामीत्या. १० ए या अ°. ११ ए 'भिहातुं. १२ ई यदुःप्रम १३ ई प्रमेयो. Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५५ [ है० ४.२.९.] अष्टमः सर्गः। मापगारं गिर्यपगोरम् । अत्र “वाप" [५] इत्यादिना वा-आत् ॥ अदिदासुः दिदीषः । अत्र "दीङः सनि वा" [६] इत्याद्वा ॥ अनुपदाय । उपदायः । अत्र "यबकृिति" [७] इत्यात् ॥ यबफूि. तीति किम् । दीन । अदीयत ॥ निमाय । निमातुम् । प्रमाय । प्रमातुम् । अत्र “मिग्मीगोखलचलि” [ 0] इत्यात् ॥ अखलचलीति किम् । दुर्निमयदुष्प्रमयस्य ॥ अचि । मय । अनामयं ॥ अलि । निमयः । प्रमयः । मिग्मीग इति किम् । मोड हिंसायामित्यस्य मा भूत्। मेनुकामम् । अस्याप्यात्वमिच्छन्त्यन्ये । अभिमातुम् ॥ नो विलात ऋजुरद्य विलेता नो युगेष्वपि स सेतुरतर्कि । बन्धसन्धिरगमन्न विलायात्राविलीय चलिते यदनीके ॥ ११२॥ ११२. ऋजुः सरल: स भीमबद्धः सेतु.कैरतर्कि । कथमित्याह । अद्य वर्तमानकालेयं नो विलाता विश्लेक्ष्यति । युगेष्वपि कृतयुगादिध्वपि नो विलेतेति । यद्यस्माद्धेतोरविलीय मिलित्वा चलितेप्यनीके भीमसैन्ये विलाय विश्लिष्य बन्धसंधिबन्धनसंधानमत्र सेतौ नागमन्नात्रुट्यत् । अद्येत्यनेन निकटवर्तिनो माससंवत्सरादय उपचारादुच्यन्त इति शास्त्रोक्तोद्यतनोत्र नास्तीति विलातेत्यत्रं श्वस्तनी न दुष्यति ॥ __ विलाय अविलीय । विलाता विलेता । इत्यत्र "लीलिनोर्वा" [९] इति वा-आत् ॥ १ ई तर्कि। ब. १ ए ई दायः । उ. २ ई ती किम् । अ. ३ सी 'मातु. ४ डीई यदुःप्रम. ५ ईय ॥ नि. ६ ए ई ‘मय ॥ मि. ७ डी "म् । मींड. ८ बी मी हि .ई मीच हिं°. ९ए °रलस. १०.सी डी मानेका.११ ए नो बेले' १२ बी सी व स्वस्त, १३ डी विला. १४ बी लीडनो . Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भीमराजः ] क्रापयद्विषदसून्विशिखैरध्यापयच्च रुदितान्यरिनारीः । जापयत्स्वमभिसाधयदर्थं व्याप सेधयदरीशमनीकम् ॥ ११३ ॥ ६५६ व्याश्रयमहाकाव्ये ११३. अनीकं भीमसैन्यं व्याप सर्वत्र प्रससार । कीदृक्सत् । विशिखैः कर्तृभिर्द्विषदसून कापयद्वाहयदत एवारिनारी रुदितान्यध्यापयच्च रोदयदित्यर्थः । तथा स्वमात्मानं ज्ञातिमात्मीयं वा जापयद्विजयमानं प्रयुञ्जानम् । तथार्थ स्वकीयं देशस्वी कारादिकमभिसाधयन्निष्पादयत् । तथारीशं सिन्धुराजं सेधयदहं तवोपर्यागच्छामीति ज्ञापयत् ॥ कापयत् । जापयत् । अध्यापयत् । इत्यत्र "णौ कीजीङ: " [ १० ] इत्यात् । अर्थमभसाधयत् । इत्यन" सिध्यतेरज्ञाने " [ ११ ] इत्यात् । अज्ञान इति किम् | अरीशं सेधयत् ॥ स्फारयद्धनुरचापयदुच्चैः स्फोरयद्धनिमचाययदेतत् । गाः प्रवापयति यश्च बलाका यः प्रवाययति वा स इवर्तुः ॥ ११४ ॥ 3 ११४. एतद्भीमानीकं कर्तृ धनुश्चापं स्फारयदाकर्षत्सद्धनुरेवोच्चै - रचापयद्व्यस्तारयत्तथोच्चैरुदात्तं ध्वनिं सिंहनादं स्फोरयच्छालयत्सनिमचाययव्यस्तारयत् । उपमामाह । य ऋतुर्गा धेनूः प्रवापयति गर्भ ग्राहयति य ऋतुर्बलाकाश्च पक्षिणीभेदांश्च प्रवाययति स ऋतुरिव वर्षाकाल इवेत्यर्थ: । वर्षासु हि पुरोवाते वाति गावो बलाकाच गर्भ गृह्णन्ति । यथा वर्षर्तुर्धनुरिन्द्रचापं ध्वनिं गर्जितं च विस्तारयति तथेत्यर्थः ॥ १ः । स्वमात्म. २ सी कार्यदे. ३ सी दं स्फार. ४ ई दुत्साल ५ एवा तो वा ६ बी धनु. Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०४.२.१३.] अष्टमः सर्गः। ६५७ अचापयत् अचाययत् । स्फारयत् स्फोरयत् । इत्यत्र "चिस्फुरोर्न वा" [१२] इत्याद्वा ॥ गाः प्रवापयति बलाकाः प्रवाययति । इत्यत्र "वियः प्रजने" [ १३ ] इत्याद्वा ॥ धन्व रोपयत रोहयतेषु मा विलीनयत सर्पिरिदानीम् । मा विलालयत वा नवनीतानीति सैन्धवजनैर्निरघोषि ॥११५॥ ११५. सैन्धवजनैः सिन्धुनिवासिलोकैरितीदं निरघोषि घोषितम्। तदेवाह । हे जना धन्व धनू रोपयत सज्यं कुरुत तथेषु बाणं रोहयत संधत्तेदानी सर्पिघृतं मा विलीनयताग्निसंपर्केण मा द्रवीकुरुत नवनीतानि वा मा विलालयतेति ।। भो विलापयत सर्पिरशङ्का एष सिन्धुमभिपालयितास्मि । प्रीणयञ्जनपदानिति धन्वोधूनयन्समिति हम्मुक आगात्॥११६॥ ११६. हम्मुको हम्मुकाख्यः सिन्धुपतिः समिति रण आगात् । कीहक्सन् । जनपदान्प्रीणयन् । कथमित्याह । भो जना अशङ्का निर्भयाः सन्तः सर्पिविलापयत द्रवीकुरुत यत एष प्रत्यक्षोस्म्यहं सिन्धुदेशमभिपालयिता स्वयमेव पायमानं सिन्धुं प्रयुञ्जानः सिन्धुरक्षाशीलोहं वर्त इत्यर्थ इति । तथा धन्वोद्भूनयन् गुणाकर्षणेन क. म्पयन् ॥ पाययत्स्वमभिधावयदद्रीन्वाजय वमपाययदोजः । छाययैनमभिशायये वेत्थं जल्पदस्य च बलं प्रससार ॥ ११७ ॥ ११७. अस्य हम्मकस्य बलं प्रससार । कीहक्सत् । ओजो बल १ ई °य चेत्थं. २ बी य चेत्थं, १ ई कैः रि. २ एपिंघृतं. ३ सी डी पालय, Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भीमराजः ] ४ ५ मपाययच्छत्रुभिरखादयदशोषयद्वा प्रकाशयदित्यर्थः । अत एव भुवं वाजयद्गाढपादप्रहारैः कम्पयत एव वाद्रीनभिधावयत्कम्पयत्तेथाहो एनं भटं छाययौरीश्छिन्दन्तं प्रयुङ्खाभिशपर्यं वास्रस्तक्ष्णुवन्तं प्रयुङ्खेति जल्पच्छत्रुवधार्थं स्वभटान्प्रयुञ्जानमित्यर्थः । अत एव स्वमात्मीयं ज्ञातिं वा लोकं प्राययत्प्रीणयत् ॥ 3 हाययत्समवसाययदाशु व्याययत्समभिवाययदस्त्रैः । ब्लेपयद्भयमनर्पयदन्योन्यं चमृद्वयमरेपयदुच्चैः ॥ ११८ ॥ I ११८. भयमनर्पयदात्मानं भयमप्रापयन्निर्भीक मित्यर्थः । चमृद्वयमुचैरतिशयेनान्योन्यं कर्मारेपयद्गमयामास मिलितमित्यर्थः । कीदृक् । अन्योन्यं ह्राययत्सस्पर्धमाकारयत्तथान्योन्यं ग्लेपयद्वरयत्तथाखैरन्योन्यमाशु व्याययदाच्छादयत्तथान्योन्यमस्त्रैः कर्तृभिः समभिवाययदस्त्राणि सीव्यन्ति प्रयुञ्जानं किं बहुनान्योन्यं समवसाययदन्तं प्रापयत् ॥ क्ष्माप्यते किमु चमूरिति भीमः क्रोपयन्स्वयमहेपितवंश: । प्रापयन्समिति सिन्धुपतिश्च स्फावयन्निषुगणं प्रडुढौके ॥ ११९ ॥ ६५८ व्याश्रयमहाकाव्ये 93 ११९. भीमः स्वयं समिति रणे प्रडुढौके । कीदृक्सन् । अहेपितवंशोने कावदातैरलज्जापितान्वयोत एव क्रोपयन् भट्टमुखेन हम्मुखं जल्पयन् । किमित्याह । अहो हम्मुक चमूः किमु किमिति क्ष्माप्यते १८ 1 १ बी सी डी ई खैः । ब्लेप. . १ सी डी प्र° २ बी तदाहो. ५ ए छिदन्तं. ६ बी ई 'य चात्रै ९ डी 'स्व'. १२ ए समवि र. डी पन्. १८ डी किमि. १६ ३ बी यारीच्छिन्द.. ४ डी 'स्थिन्द'. ७ सी वास्तैरंरीस्त ८ ए रीस्त ११ बी सी डी ई न्यं ब्लेप'. १४ सी 'म्मुखेन हम्मुखं. १५ सी डी ई ह । हो. बी 'ह । हे ह. १० डी 'यन्नभीक'. १३ ए बी सी णे दु. सी °न् । कथमि. १७ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०.४.२.२२.] अष्टमः सर्गः । ६५९ क्षयं नीयत इत्यर्थः । अहं च त्वं च स्वयं युध्यांवहे इत्यभिप्राय इति। तथा सिन्धुपतिश्च हम्मुकोपि स्वयं प्रडुढौके । कीहक्सन् । इषुगणं प्रापयन् प्रियं कुर्वन्नत एव स्फावयन्वर्धयन् ॥ रोपयत रोहयत । इत्यत्र "रुहः पः" [१४] इति वा पः॥ . . विलीनयत । इत्यत्र “लियो नोन्तः" [१५] इत्यादिना वा नः । विलाययत । इति पक्षोदाहरणं ज्ञेयम् ॥ विलालयेत विलापयत । इत्यत्र "लो लः" [१६] इति वा लः ॥ . . अभिपालयिता । इत्यत्र “पातेः" [१७] इति लः ॥ धूर धूग्श धूग्ण वा । उद्धृनयन् ॥ प्रीश प्रींग्ण वा । प्रीणयन् । इत्यत्र "धूम्प्रीगोनः' [१८] इति नः ॥ यौजादिकयोर्नेच्छन्त्येके । अभिधावयत् । प्राययत् ॥ वाजयत् । इत्यत्र “वो वि" [१९] इत्यादिना जः ॥ पां पाने पैं वा । अपाययत् । अभिशायय । छायय । समवसाययत् । समभिवाययत् । व्याययत् । ह्वाययत् । इत्यत्र “पाशा' [२०] इत्यादिना यः ॥ अंर्पयत् । अरेपर्यते । ब्लेपयत् । अहेपित । नोपयन् । माप्यते । प्रापयन् । इत्यत्र "अतिरी” [२१] इत्यादिना पुः ॥ . स्फावयन् । इत्यत्र "स्फॉयः स्फा" [२२] इति स्फाव् ॥ १ई ध्यामहे. २ ए बी सी ई यं डु'. ३ सी रोह. ४ बी 'लालययत. डीई लापयत. सी लाxxxxx णयन् । इत्यत्र धूम्प्री ५ डी यत् वि. ६ ए प । इ. ७ बी ग्श् प्रीपण . ८ ई यन् । प्रा. ९ ई जः ॥ पं या. १०. बी नपय. ११ सीत् । ब्ले. १२ बी डी ई त् । ब्लेप. १३ ए स्फाय स्फा. Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० व्याश्रयमहाकाव्ये शांतयन्विघटयन्व्यथयन्वारोदसी ध्वनिरघाटि धनुर्भ्याम् । खेतयोरिपुगणोघटि घाटघाटमाशु विघविघटं च ॥ १२० ॥ 3 १२०. ध्वनि: क्रेङ्कारस्तयोर्भीम हम्मुकयोर्धनुर्भ्यामघाटि कृतः । कीदृग् । रोदसी शातयन्पातयन्निव विघटयन्वी द्विधा कुर्वन्निव वा । विपूर्वी घटरिनन्तो विदारणेपि वर्तते । यथा काष्ठं विघटयति । व्यथयन्वा पीडयन्निव वा । एष्विवा अवसीयन्ते । अतितीव्रध्वानो शैलशृङ्गादीनि भ्रंशयति पृथिव्यादीनि विदारयति नरादींश्च व्यथयतत्यितितीव्रत्वादेवमाशङ्कितः । तथा धनुर्भ्यां कर्तृभ्यामिषुगण: घटि निक्षेपेण योजितः । किं कृत्वा । आशु घाटघाटमात्मभ्यां सह संयोज्य संयोज्याशु विघर्टविघटं च निक्षेपकाल आत्मसकाशाद्वियोज्य वियोज्य च ॥ [ भीमराजः ] इषुभिरनयोर्व्यार्थव्याथं व्यर्थव्यथमव्यथि प्रतिकगयिता काकागं कर्गकगमाकगि । प्रतिजरैयिता जारंजारं जरंजरमाजरि क्रसयितृजन: क्रासंक्कासं कसंक्रमनसि ॥ १२१ ॥ १२१. अनयोर्भीमहम्मुकयोरिषुभिः कर्तृभिः प्रतिकगयिता प्रतीपं हन्ता प्रत्यर्थी व्यार्थव्याथं व्यर्थव्यथमभीक्ष्णं दुःखयित्वा दुःखयित्वा - व्यथि दुःखितः । तथेषुभिरेव प्रतिकगयिता काकागं कर्गकगमभीक्ष्णं प्रहृत्य प्रहृत्याकगि प्रहृतः । तथेषुभिरेव प्रतिजरयिता प्रतीपं क्षयं १ ए शान्तय.. २ सी थं व्य ३ बी 'रयता. ४ बी "ससक्त '. १ डी वाधा. २ बी डी 'टिरन' ३ ए 'ति प्रथि° ४ ई योज्या'. ५ सीटं च. ६ एणं दुख. ७ डी 'वाय'. ८. Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.२.२३.] अष्टमः सर्गः । नेता शत्रुर्जारंजारं जरंजरमभीक्ष्णं निर्जरय्यं निर्जरय्य विनाश्याजरिविनाशितः । तथेषुभिः क्नसयितृजन: क्रसयिता वञ्चयिता सन्तापयितौ वा जनः शत्रुः नासंक्नासं क्नसंनसमभीक्ष्णं वञ्चयित्वा वञ्चयित्वा संताप्य संताप्य वाक्नसि वञ्चितः संतापितो वा । व्यार्थव्याथमित्यादिभिरेवाभीक्ष्ण्येवगतेपि जणम्परे णौ वा इस्वोदाहरणानां लाघवेनोपन्यासार्थं व्यंव्यथमित्यादीनामा भीक्ष्ण्य एव वर्तमानानां पुनः प्रयोगोतिशयेनाभीक्ष्ण्यं वक्ति । एवमन्यत्रापि ॥ हरिणी छन्दः || ५ प्रतिजनयता जानंजानं जनंजनमाग आ वनयितुरसुन्वानवानं वनंवनमोजसा । रजयसि मृगान् राजराजं रजरजमाः किमित्यति सकृता भीमस्याव्याथ्यतीव मनो द्विषा ॥ १२२ ॥ 93 १२२. ओजसा बलेन प्रयोज्यर्कत्रसून्हम्मुकप्राणान्वानंवानं वनवनमभीक्ष्णं याचयित्वा याचयित्वावनयितुर्याचयितुर्ग्राहयितुर्बलेन हम्मुकं मिमारयिषोरित्यर्थः । भीमस्य मनो द्विषा हम्मुकेनातीवात्यर्थमव्याथि पीडितम् । यतः कीदृशा । अतिहस कृतात्यर्थं हसता । कथमित्याह । आ इति खेदे । कष्टमहो भीम किमिति मृगान् राजं - राजं रजंरजमभीक्ष्णं रमयित्वा रमयित्वा रजयसि रमयसि व्याध इव मृगतुल्यानेतान्भटान्किमिति खेलयसि ममैव पार्श्वे ढौकस्वेत्यर्थ इति । १० ६६१ ३ सी डी 'ताज'. १ ए सी ई य्य वि. २ ए 'शित । त ४ ई व्याथ व्या. ५ बी भीक्ष्योव' सी 'भीक्ष्णेव ६ सी 'व्यथ ७ सी भीक्ष्ण ए. ८ सी हरणी ९ए 'त्र तेन हम्मु १० X The ms. becms to have omitted one line The omission is hointidoret but not filled in. ११ एत्वाव १२ ए 'तुयाच. सी 'तुर्मा १३ ए 'नोह द्वि'. Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] तथागो दुर्वाक्यजनितमपराधं जानंजानं जनजनमभीक्ष्णमुत्पाद्योत्पाद्य प्रतिजनयता कुर्वता || मिरज मयान्वेणोराजि त्वया न्विति जल्पता तंदजनि बलं तेजोजानि व्यकागि च तत्तथा । अवनि स यशोवानि प्राणानजारि च मार्गणैः शशिकलभुवा बद्धानासि द्विषन्त्रसयन्यथा ॥ १२३ ॥ १२३. नुशब्दो विकल्पार्थः । किं मया वैणो मृगतुल्यो भटजनोरजिं युद्धेन रमयांचक्रे किं त्वया नु भवता वैणोराजीत्येवं जल्पता शशिकुलभुवा सोमवंशोद्भवेन भीमेन तत्तत्रत्यलोकप्रसिद्धं बलं तथाजनि कृतं तत्तेजः प्रतापस्तथजानि । तथा तद्बलं तेजश्च तथा व्यकागि च व्यापारितं यथा स द्विषन्हम्मुको मार्गणैः शरैः प्रयोज्यकर्तृभिर्भीमेन कर्त्रा यशोवनि याचितः प्राणांश्चावानि तत्संमुखप्रेरित - बाणपार्श्वद्भीमेन मह्यं स्वकीयं यशः प्राणांश्च देहीति याचित इवेत्यर्थः । अजारि च बलहीनः कारितोत एव बाक्नासि कुटिलीकृतः । कीदृक्सन् । मार्गणैः स्नसयन्भीमं निराकारयन्प्रहारयन्नित्यर्थः ॥ शातयन् । इत्यत्र “शदिः " [२३] इत्यादिना शात् ॥ ५ विघयन् । अघाटि अघटि । घाटघाटम् विघटंविघटम् । व्यथयन् । अव्याथि अव्यथ । व्यार्थव्याथम् व्यर्थव्यथम् । अत्र "घटादेः " [२४] इत्यादिना णौ इस्त्रो जणम्परे तु णौ दीर्घो वा ॥ १ ए ० . १ सी डी तत्र. ५ ए थि । व्या". २ ए थाजोनि ३ ए था वका ४ य Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.२.२५. ] अष्टमः सर्गः । ६६३ 3 प्रतिकiयिता । व्यकागि आकगि । कागंकागम् कगंकगम् । आवनयितुः । अवनि अवनि । वानवानम् वनंवनम् । प्रतिजनेयता । अजानि अजनि । जानंजानम् जनजनम् । प्रतिजरयिता । अजारि आजरि । जारंजारम् जरंजरम् । नसयितुं | अक्कासि अक्नसि । क्नासंनासम् नसंक्नसम् । रजयसि मृगान् । एणोराज अरजि । राजराजम् रजरजम् । अत्र " कगेवनू” [२५] इत्यादिना ह्रस्वो जिणम्परे तु णौ वा दीर्घश्च । केचित्तु ष्णसूचोपीच्छन्ति । स्त्रसयन् ॥ अदमि न सुरैर्नो वा दैत्यैरदामि य आहवे स्म दमयति तं दादामं दमंदममोजसा । चुलुककुलभूः कामं कामं कामयदामयतमथ निगडं ग्रामंप्रामं य आमिन केनचित् ।। १२४ ॥ १२४. यो हम्मुक आहवे रणे सुरैर्नामि न दमितो नो वा दैत्यैरदामि तं हम्मुकं चुँलुककुलभूर्भीम ओजसा बलेन प्रयोज्यकर्त्रा दामंदामं दमंदममभीक्ष्णं दमयित्वा दमयित्वा दमयति स्म । अथानन्तरं हम्मुकं निगडं शृङ्खलां हि स्फुटं कामंकाममभीक्ष्णं वाञ्छयित्वाकामयदवाञ्छयत्तथा निगडं प्रामंप्रामं प्रापय्य प्रापय्यामयप्रापयद्य हम्मुकः केनचित्केनापि निगडं नामि न प्रापितः || नाचामि नाकामि च केनचिद्या तां सोथ चौलुक्यकुलावतंसः । आचाममा चाममि भाश्व सैन्यान्याचामयत्सेक्षुयवां तदुर्वीम् ॥ १२५॥ १२५. अथ योर्वा केनचित्केनापि खसैन्यपार्श्वान्नाचामि न १ ई चुलक. २ ए मं ह्य'. ३ ए 'तंस | आ. १ सी गयता. २ ए बी नयिता. ३ ई °रि अज ४ सी डी 'तृ । आक्का.. ५ ए म् । २°. ६ ई चुलक ७ ए 'भूमी ओ. ८ डी निगंड, Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः] खादयांचवे नाकामि च । आस्तां तावदाचामनं नैवाभिलाषयांचकेपि । एतेनातिनिरुपद्रवत्वेन तद्भूमेरतिशालतोक्ता । तां सेक्षुयवामिक्षुवाटक्षेत्रयवोपेतां तदुर्वी हम्मुकपृथ्वी स चौलुक्यकुलावतंसो भीम इभाश्वसैन्यानि प्रयोज्यकर्तृण्याचाममाचामें खादयित्वा खादयित्वाचामयत् । इभैरिक्षनश्वैश्च यवानखादयत् ॥ दमयति । अदामि अदमि । दामंदामम् दमंदमम् । इत्यत्र “अमोकमि" [२६] इत्यादिना इस्वो जिणम्परे तु णौ वा दीर्घः ॥ अकम्यमिचम इति किम् । अामयत् । अकामि । कामकामम् । आमयत् । आमि । प्रामंप्रामम् । आचाँमयत्। आचामि । आचाममाचामम् ॥ इन्द्रवज्रा छन्दः ॥ ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्ध. हेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासनव्याश्रयवृत्तावष्टमः सर्गः ॥ १ ए नापिनि. २ ए शादलितोत्कांतारकां तां से'. ३ सी लस्तात्का तां से'. ४ ए °चासं खा. ५ डी कामि. ६ एम् । अचा. ७ डीममा. ८ ईर्ग: समाप्तः ॥ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्याश्रयमहाकाव्ये नवमः सर्गः। 'परिस्खादंपरिस्खादं परिस्खदंपरिस्खदम् । स परिस्खदयन्दृप्तान्भीमोथ प्रतिवेद्यगात् ॥१॥ १. अथ हम्मुकवशीकरणानन्तरं स प्रसिद्धो भीमः प्रतिचेदि चेदिदेशाभिमुखमगात् । कीहक्सन् । दृप्तान्दर्पिष्ठान्नृपान्परिस्खादंपरिस्खादं स्खदि हिंसास्थैर्ययोः । रैणे स्थिरैर्भाव्यमिति स्थिरीकृत्य स्थिरीकृत्य परिस्खदंपरिस्खेदं स्वसैन्यैर्घातयित्वा घातयित्वा परिस्खदयन् स्थिरीकुर्वन्धातयंश्च ॥ अपस्खादमपस्खादमपस्खदमपस्खदम् । यैरपास्खादि तै पास्खद्यस्य वहतो बैले ॥२॥ २. तैश्चरटेश्वरैरस्य भीमस्य वहतो गच्छतो बले नापोस्खदि मृत्यु. भयान्न किमपि विनाशितम् । यैरपस्खादमपस्खादमपस्खदमपस्खदमभीक्ष्णं स्वभटैर्घातयित्वा घातयित्वापास्खादि घातः कारितो यैर्नृपादयोपि गच्छन्तः प्रच्छन्नधाटीपातादिनोपद्रुता इत्यर्थः ॥ १ बी सी बी अहम् । प. २ ए °रिरकादं. ३ ई बलेः ॥. १ सी दिदे'. २ ए °सास्तैर्य'. ३ ए रणे स्थि. ४ सी स्खद. ५ वी पास्खादि. ६ बी सी डी क्ष्णं सुभ. Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये पर्यस्खादि च नो तेनाप्यनपरखदयन्पथि । किं तु प्रस्खादयन्नेव पर्यस्खदि महौजसा ॥ ३ ॥ ३. तेनापि न केवलं तैरस्य वहतो बले नांपास्खदि किं तु न्यायनिष्ठत्वाद्भीमेनापि पध्यनपस्खद्यन्नहिंसयन्नो च नैव पर्यस्खादि । शिष्टं २ ૪ ६६६ स्पष्टम् ॥ परिस्वदयन् । पर्यस्खादि पर्यस्खदि । परिस्खादं परिस्खादं परिस्खदंपरिस्खदम्। अनपस्खदयन् । अपास्खादि अपास्खदि । अपस्वादमपस्खादम् अपस्खदमपस्खदम् । अत्र "पर्यपात्स्खदः " [२७] इति णौ ह्रस्वो जिणम्परे तु णौ वा दीर्घः ॥ स्खदेर्घटादिपाठेन सिद्धे नियमार्थं वचनमम्योपसर्गपूर्वस्य मा भूत् । प्रखादयन् ॥ न्यशामि शमयन्भिल्लाय् शामंशामं शमंशमम् । भीमश्च चेदिना दोश्च यशाम्यशमि नो पुनः ॥ ४॥ ४. चेदिना चेदीशेन भीमश्च न्यशाम्यागच्छन् श्रुतः । कीदृग् । भिल्लान् म्लेच्छभेदान् शामंशामं शमंशममभीक्ष्णमुपशमय्योपशमये शर्मयन्निराकुर्वन्नित्यर्थः । ततो दोश्च भुजा च न्यामि बलावलेपीत्स्वभुजसंमुखं विलोकितमित्यर्थः । नो पुनश्वेदिना दोरशम्युपशमितं सावष्टम्भं कृतमित्यर्थः ॥ १२ शमयं । न्यामि अशमि । शामंशामम् शमशमम् । इत्यत्र “शमोदर्शने " [२८] इति ह्रस्वो जिणम्परे तु णौ वा दीर्घश्च ॥ अदर्शन इति किम् । दोशामि ॥ १४ [ भीमराजः ] १ डी 'नाथन'. २ एम. १ सी डी नापख २ ए 'सयेन्नो. सी सन्नोत्रैव. ३ डी 'नो नै ४ ई दि । शेषं स्प. ५ ए स्खदि पारि. ६ ए अपरख'. ७ ए 'त् परखा. ८ए 'मय्य श° ९ई य्य निरा १० ए मन्नि ११ ई 'पाचभु १२ सी र्थः ॥ सम° १३ सी डी 'न् । निशा. १४ ए दोन्यंशा. Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.२.२९.] नवमः सर्गः। ६६७ रिपून्यमयितुमैद्य यामयामं यमंयमम् । मैत्र्यै किमुदयम्येषोमैत्र्य किमुदयामि वा ॥५॥ न विधिर्यामयत्यर्क मां चाप्रज्ञपयन्नितः। भीमोरी ज्ञपयन्नेति ज्ञापंज्ञापं ज्ञपंज्ञपम् ॥ ६॥ अज्ञापि ज्ञपयित्वास्त्रं चहयित्वा तु नाज्ञपि ।। यत्पूर्वैः किं जयेत्सोयं चाहंचाहं चहचहम् ॥ ७ ॥ न चाहिता चहिता नाज्वाल्यज्वल्यमुनेति वा । नाज्ञात्वा ज्वलयाम्येनं ज्वालंज्वालं ज्वलंज्वलम् ॥ ८॥ ज्वालयन्मज्वलयन्वा विग्रहं बलयन्परम् । संधि वा ह्वालयन्दूतं मलयेद् मालयन्नयम् ॥९॥ इति यावदभूचिन्तानमितम्लपिताननः । चैद्यस्तावद्रजोपश्यन्नामयद् ग्लापयद्दिशः ॥ १० ॥ ५-१०. चैद्यश्चेदिदेशाधिपश्चिन्तयानमितं नम्रीकृतं ग्लपितं च क्षीणहर्ष कृतमाननं मुखं येन स तथा यावदभूत्तावदिशो ग्लापयन्मलिनीकुर्वदत एव नामयन्नीचैः कुर्वद्रजः सैन्यखुरोत्खातरेणुमपश्यत् । का चिन्तेत्याह । अद्य सांप्रैत मे मम रिपून यामंयामं यमंयममभी १ ए मॅचं या. २ ए यस्येषो'. ३ ए “त्यक्य मां. ४ ए त्वा ना. ५ ए °नेभि वा. ६ डी ति चा ।। ७ ए सी संधि वा. ८ सी डी ये मा. ९ ए इयनाम'. . १ ए एवाना . २ ए नीचै कुर्वरजा सैन्यखरो'. ३ ए प्रत मे. ४ ई तं म. ५ एमपीक्ष्ण. . Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] 3 ७ क्ष्णमुपरमय्योपरमय्य यमयितुरुपरमयितुस्तिरस्कुर्वतः सत इत्यर्थः । मै बलिष्टतायं संप्रति शत्रून्पराभवन्मा भीममपि पराभूदिति सख्याय किमेष भीम उदयमि मत्रिभिरुद्यमं कारितः । किं वा मैत्र्यै संप्रत्ययं शत्रूञ्जयन्मा भीमस्य दुःसाध्यो भूदित्याशयेन विग्रहायोदयामि । तथा विधिर्देवमर्क न यामयति न परिवेवेष्टि परचक्रकृतराष्ट्रभङ्गादि सूचकं दुर्दैवकृतमर्कपरिवेषाद्यरिष्टं न किं चिदस्तीत्यर्थः । चः परंमर्थे । परं भीम इतोस्मिन्देश एति । कीदृक्सन् । अरी 1 ज्ञापंज्ञापं ज्ञपंज्ञपमभीक्ष्णं हिंसित्वा हिंसित्वा ज्ञपयन्हिसन्नत एव मामप्रज्ञपयन्नपरितोषयन् । तथा यत्पूर्वैर्थस्य भीमस्य पूर्वजैर्मूलराजाद्यैरस्त्रं ज्ञपयित्वा तीक्ष्णीकृत्याज्ञाप्यमारि शत्रुहिंसा चक्रे । भावेत्र जिच् । 'तुः परमर्थे । परं चहयित्वा शाठ्यं कृत्वा यत्पूर्वैर्नाज्ञपि न हिंसितं सोयं भीमोतर्कितमभिषेणकत्वात्किं चाहचाहं चहचहमभीक्ष्णं छलयित्वा छलयित्वा जयेच्छत्रुं वशीकुर्यात् । "विधिनिमन्त्रण” [५-४-२८] इत्यादिना संप्रश्ने सप्तमी । तथैनं भीमं ज्वालंज्वालं ज्वलंज्वलं प्रत्यवस्कन्दनौदिनाभीक्ष्णं कोपयित्वा कोपयित्वा न ज्वलयामि न कोपयामि । किं कृत्वाज्ञात्वा । किमित्याह । अमुना भीमेन न चाहिता न शाठ्यं करिष्यते चहिता वा । वा शब्दोत्रापि योज्यः । शाठ्यं करिष्यते वा । तथामुन नाज्वालि कोपेनात्मा न ज्वालित ज्वलि वेति । तथा परं शत्रुं ज्वालयप्रतापैः संतापयन्प्रज्वलयन्प्रकर्षेण संतापयंश्च भीमो दूतं झलयेत्प्रेषयेत् । कीदृक्सन् । विग्रहं व हलयंश्चालयन्प्रवर्तयन्नि 93 १५ ६६८ • ५ ए १ए तो स २ सी डी 'भूयादि ३ डी मैत्र्ये सं. ४ ए 'स्य दुसा मकै न. ६ ए सी डी रमार्थे', ७ए १ चहयित्वा शाठ्यं कृत्वा यत्पूर्वेर्नाज्ञपि न हिंसितं सोयं भीमोतर्कितन्हि ", ८ पूर्वैर्मू ९ ई वे जि. १० सी तुप. ११ ए पूर्वेर्ना १२ सी नाभी'. १३ सीडी 'ते चाहि". १४ सी डावा. १५ बी 'तो ज्वालिचेति. १६ ए repeats from यन् to लयन्. १७ ए ई प्रज्वाल. १८ ए पयश्च भीमौ दू. १९ डी 'ये की. २० ए वा हुल, - Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.२.२९.] नवमः सर्गः । त्यर्थः । संधिं वा ह्वालयन्प्रवर्तयन् । यतः कीदृक् । नयं न्यायं कालयन्प्रवर्तयन् । यद्ययं मया सह विग्रहं संधिं वा चिकीर्षुः स्यात्तदा न्यायनिष्ठत्वातं मत्पाश्र्वे प्रेषयेन्न तु प्रेषितवांस्तस्मान्मैत्र्यमैत्री च न कारणं किं त्वन्यत्किमपीत्यर्थ इति ॥ वर्णवर्माशुभिर्योम स्नपयत्स्नापयदिशः। कूर्मेण वमयत्फेनं गरं शेषेण वामयत् ॥ ११ ॥ अवन्या वानयत्कम्पं निश्छद्म वनयत्तथा । शिखिच्छदच्छचयैर्धामच्छद्भिश्छदिःश्रियम् ॥ १२ ॥ दिव्यप्रैच्छदसाद्याश्वमालुलोकच्च चेदिपः । कालोचितं च वेत्रीशेनाशांसदचीकरत् ॥ १३ ॥ ११-१३. चेदिप आश्वमश्वौघमालुलोकच्च न केवलं रजोपश्यदिति चार्थः । कीदृशम् । स्वर्णवर्माशुभिव्योम स्नपयदुज्वलीकारकत्वेनाभिषिञ्चदिवैवं दिशः स्नापयत् । तथा कूर्मेण कातिभाराक्रान्त्या फेनं वमयदुद्गारयत् । तथा शेषेण क; गरं विषं वामयत् । तथावन्या कम्पं वानयदवनी कम्पं याचमानां प्रयुञ्जानं पृथ्वी कम्पयदित्यर्थः । तथा निश्छद्म निर्मायं यथा स्यादेवं धामातपं छादयन्ति विप् । तैर्धामच्छद्भिः शिखिनां मयूराणां ये छदा: पक्षास्तेषां छत्रचयैः १ ए यन्दिशः. २ ए °फेर्न ग'. ३ बी निच्छम. ४ ए त्रत्रथै०. ५ सी डी प्रच्छाद. ६ ए शाशद. १ ए व्यमित्री. २ ए सी वल र'. ३ बी म श्नप. ४ बी षिञ्चिदि. ५ ई शेषक. ६ ए गर वि. ७ ए वनीयं की. ८ ए चनानां. ९ बी निच्छम. Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० व्याश्रयमहाकाव्ये ... [भीमराजः] श्रीकरीनिकरैः कर्तृभिश्छदिःश्रियं गृहाच्छादकतृणपतिशोभा वनयद्याचयदङ्गीकारयदित्यर्थः । तथा दिव्याः प्रधानाः प्रच्छदा वस्त्राणि येषां ते तथा सादिनोश्ववारा यत्र तत् । ततश्च चेदिपो वेत्रीशेन का कालोचितमाशशासद्भाणितवानचीकरच कारितवांश्च ॥ असस्वामत्ततो द्वास्थ आशशासच्च पर्षदम् । खाधिकारमवभ्राजद्वाचं चैवमसिस्वदत् ॥ १४ ॥ १४. ततश्चेदिपेन कालोचितस्य भणनकरणविषये व्यापारणानन्तरं द्वास्थोसखामत्स्यामिनमाख्ययुष्मदादिष्टमधुनैव कैरोमीति चेदिपमुवाचेत्यर्थः । तथा पर्षदमाशशासत्स्ववचःश्रवणसाभिलाषां चक्रे यतः वाधिकारं विज्ञप्य विज्ञपनरूपमबभ्राजदप्रकटयत् । एतदपि कुत इत्याह । यत एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वाचमसिखदच्च चारुरचनयों खाद्वीमकार्षीच ॥ - यथासौ वाचमसिस्वदत्तथा । छत्रैरविभ्रेजव्योमाबीभसत्कुन्तकान्तिभिः । अबभासँकिरीटोhषारावैरबीभषत् ॥ १५ ॥ खुराौरवभाषत्क्ष्मामदिदीपदपीपिडत् । भारेण कोडदंष्ट्रामप्यपिपीडददीदिपत् ॥ १६ ॥ १ एम् । स्थाधि'. २ सी डी त्रैराबि. ३ ए भ्रमयो'. ४ ए °सत्क्षिरीटोस्त्रैः हषा. १बी दिश्रि. २ ए पो वित्री'. ३ ए रत्व का. ४ ए दिन'. ५ ए 'यै व्या'. ६ ए ई करिष्ये चे. ७ ए वच. ८ सी डी वणे सा. ९ बी सी डी रूपं स्वव्यापारम.. १० ए मववाज. ११ डी या साध्वीम. १२ बी स्वाधीनम सी स्वाध्वीम. Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.२.२९.1 नवमः सर्गः। अजिजीवत्तमस्तेन रजो यदुदमीमिलत् । अस्त्राण्युदमिमीलत्तान्युयोतं यैरजीजिवत् ॥ १७ ॥ दुन्दुभीनचकाणत्तान्यनिकुञ्जान्यचीकणत् । अरराणच्च ढक्कास्ता यकाभिर्यामरीरणत् ॥ १८॥ काहला अववाणच निजोत्कर्ष न्वबीभणत् । शङ्खानवीवणचोचैर_भाणन्नु मङ्गलम् ॥ १९ ॥ कापि क्षोभमशश्राणद्विमयं काप्यशिश्रणत् । अजुहावद्वेषयाश्वमार्क चैन्द्रं वजूहवत् ॥२०॥ अजिहेठदगांस्तान्भुव्यलुलोटदलूलुपत् । नयानजीहिठत्कश्चिदलुलोपदलूलँटत् ॥ २१॥ नाललापन्मिथो नालीलपदन्यं तथापि हि । अचिकीर्तत्प्रभोः शक्तिं निजां भक्तिमचीकृतत् ॥ २२ ॥ भीमस्य दूतेन सहैपोववर्तदिहागतिम् । अश्वायुतं चमूलेशो नोपद्रवमवीवृतत् ॥ २३ ॥ १५-२३. एष युष्माभिरत्यासन्नं दृश्यमानो भीमस्य चमूलेशो १ ए करत्. २ बी भिस्ताम'. ३ सी बी त्वबी. ४ ए °ववाण'. ५ ए क्षोत्सम. ६ बी यं काप्य'. ७ ए बी सी न्वैन्द्र. ८ डी °न्द्रं त्वजू. ९ ए हिउत्क. १० ए लुपत्. ११ सी डी सहाषो. १डी भिरित्या Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ व्याश्रयमहाकाव्ये भीमराजः] श्वायुतमश्वानां दशसहस्राणि दूतेन सहेह प्रत्यक्षे देश आगतिमागमनमववर्तच्चक्रे । कीदृगित्याह । एषैच्छत्रैमहासामन्तादिमूर्धापरिस्थि तैरातपत्रैः कृत्वा व्योमाबिभ्रजदशोभयत् । तथैष कुन्तकान्तिभिः कृत्वा व्योमाबीभसदुददीपयत्। तथैष किरीटोमहासामन्तशिरःस्थमुकुटांशुभिः कृत्वा व्योमाबभासत् । तथैष हेपारवैः कृत्वा व्योमाबीभषत्प्रतिशब्दितैरशब्दाययत् । तथैष खुराप्रैः कृत्वा क्ष्मामबभाषच्छब्दायमानां प्रायुतादिदीपत्समतापयदपीपिडत्पीडितवांश्च । तथैष भारेण का क्रोडदंष्ट्रामपि न केवलं क्ष्मामादिवराहदाढामप्यपिपीडददीदिपञ्च । तथा यद्यस्माद्धेतोरेष रजो धूलिमुदमीमिलदुच्छालितवांस्तेन हेतुना तमोजिजीवदुल्लासितवानित्यर्थः । तथैष तान्यस्त्राण्युदमिमीलदप्रकटयद्यैः कृत्वैष उदयोतमजीजिवत् । तथैष तान्दुन्दुभीन्पटहानचकाणदवादयद्यैः कृत्वैष निकुञ्जानि गिरिगह्वराण्यचीकणत्प्रतिशब्दैः शब्दायितवान् । तथैष ता ढका विजयभम्मा अरराणचावादयश्च यकाभिः कृत्वा द्यामरीरणत् । तथैष काहला अववाणचावादयत् । एतत्स्वरस्यात्युदात्तत्वादुत्प्रेक्ष्यते । एष निजोत्कर्ष न्वात्मीयोत्कृष्टतामिवाबीभणदभाणयत्प्रस्तावात्काहला एव । “गतिबोध०" [२.२.५] इत्यादिना णिकर्तुः कर्मता । कालापाादित्यर्थः । तथैष उच्चैः शङ्खानवीवणञ्च । एतत्स्वरस्य च मङ्गल्यत्वादुत्प्रेक्ष्यते । मङ्गलं न्वबौणन्द्राणितवान् । प्रस्तावाच्छवानेव । तथैष कापि शत्रुषु क्षोभं भयेनाकुलतामशश्राणददात् । तथैष कापि नागरिकेषु ऋद्धिविशेषेण विस्मयमाश्च १सी डी हश्राणि. २ ए पस्थ त्रैम'. ३ ए °दिमहामू. ४ बी सी डी "रिधृत . ५ ए स्थितेरा . ६ ए बीसस'. ७ बी शिरस्थ. ८ ए पारावः कृ. ९ ए मानब १० बी ई युक्तादि . ११ ए °लं म्यानादि. १२ ए बी डी उद्योत. १३ ए जिषस्तथै . १४ ई ढक्कावि. १५ ए विषय. १६ ए °णच्च वा. १७ बी सी डी कृत्वैष द्या. १८ ए णत्वावा. १९ ईणिकर्तुः. २० ए पार्श्वदि २१ बी थैव उ २२ डी लं त्वब. २३ ए णप्राणि. Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ४.२.३०.] नवमः सर्गः। यमंशिश्रणत् । तथैष हेषयाश्वशब्दितेन का रविसंबन्योश्वमश्वौघमजुहावन्नु स्वाश्वशौर्यावलेपेन सस्पर्धमाकारितवानिव । तथैष हेषया कत्र्येन्द्र शेकसंबन्धिनमश्वमुच्चैःश्रवसमजूहवन्नु । तथैष तानगान्वृक्षानजिहेठन्मत्तगजादिभिर्बाधितवान्भुवि 'पृथिव्यामलुलोटत्पातितवानलूलुपच्छेदितवांश्च यान्कश्चिन्नाजीहिठन्नालूलुटन्नालुलोपञ्च । तथैष यद्यपि मिथो नाललापदहो अस्मत्प्रभोः सामर्थ्य येनेत्थमित्थं हेलयैव हम्मको बद्ध इति । तथा वयं स्वप्रभुकार्ये जीवितं तृणायापि न मन्यामह इत्यादिप्रकारेणान्योन्यं न संभौषितवान्नचान्यं स्वस्माव्यतिरिक्तं कं चनालीलपद्भाषितवांस्तथापि हि स्फुटं प्रभोर्भीमस्य शक्तिं तेजस्विताश्रीविशेषाद्याडम्बरप्रकाशनेन बलादिसामर्थ्यमचिकीर्तज्ज्ञापितवान् । तथा निजां भक्तिं तथाविधदुष्करपरराष्ट्रप्रवेशरूपभादेशकरणेन स्वभर्तृविषयं बहुमानं चाचीकृतत् । तथैष इह देश उपद्रवं नावीवृतन्न चक्रे ॥ यमयितुः । उदयामि उदयमि । यामयामम् यमंयमम् । अत्र "यमोपरि" [२९] इत्यादिना ह्रस्वादि ॥ अपरिवेषण इति किम् । यामयत्यम् ॥ मारणे । अरीज् ज्ञपयन् ॥ तोषणे। मामप्रज्ञपयन् ॥ निशाने । ज्ञपयित्वास्त्रम् । अज्ञापि अज्ञपि । ज्ञापंज्ञापम् ज्ञपंज्ञपम् । अत्र “मारण' [३०] इत्यादिना ह्रस्वादि ॥ १ ए °मशश्राण बी मशश्र. २ ए कत्र्यांर्कर'. ३ सी यार्कर'. ४ सी डी ध्याश्वं तुरगौघ. ५ ए शत्रसं. ६ सी डी नमाश्व. ७ एई 'समाजू. ८ बी जूहाव'. ९ ए °हेवन्म. १० बी सी पृथ्व्याम'. ११ ए जीवन्ना. १२ ए लुठन्ना. १३ बी संतोषि. १४ सी डी भावित. १५ ए सी डीनं वाची'. १६ बी कृत्तथै'. १७ ए सी त्यकम्. १८ डीपि ज्ञा'. १९ ए ° । ज्ञ. २० ए अर मा. Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] चहfai | चहिता चाहिता । चाहंचाहम् चहचहम् । अत्र "चहणः शाठ्ये " [ ३१ ] इति हस्वादि ॥ ज्वलयामि ज्वालयन् । ह्वलयन् ह्वालयन् । ह्मयें ह्यालयन् । ग्लपित ग्लापयत् । स्त्रपयत् स्त्रापयत् । वनयत् वानयत् । वमय वामयत् । नमित नामयत् । अत्र “ज्वलह्वल" [३२] इत्यादिना वा हस्वः ॥ अज्वाल अज्वलि । ज्वालंज्वालम् ज्वलंज्वलम् । इत्यादिषु दीर्घविकल्पः सिद्ध एष || अनुपसर्गस्येति किम् । प्रज्वलयन् ॥ ११ इसि । छदिः ॥ मनि । छद्मं ॥ त्रटि । छेत्र ॥ विपि । धामच्छद्भिः । अत्र "छदे:" [ ३३ ] इत्यादिना ह्रस्वः ॥ प्रच्छद । शिखिच्छेद । इत्यत्र “ एकोप" [ ३४ ] इत्यादिना ह्रस्वः ॥ ६७४ arathi | इत्यत्र "उपान्त्यस्या" [ ३५ ] इत्यादिना हस्वः ॥ असमानलोपिशास्वदित इति किम् । असस्वामत् । यत्रान्त्यस्वरादिलोपस्तत्र स्थानिवसावेने न सिध्यतीति वचनम् । यत्र तु स्वरस्यैव लोपस्तत्र स्वरादेशस्वास्थानिवद्भावेनैव सिध्यति । मालामाख्यदममालत् । ननु यत्रापि स्वरव्यञ्जनलोपस्तत्रावयवावयविनोरभेदनयेन स्वरादेश एवेति स्थानिवद्भावेनैव सिध्यति किमसमानलोपिवचनेनेति । सत्यम् । स्थानिवद्भावस्यानित्यत्वख्यापनार्थं वचनम् । तेनासिस्वदत् । अत्रोकारस्य "नामिनोकलिहलेः " [ ४.३.५१ ] इति वृद्धौ कृतायामन्त्यस्वरादिलोपादसमानलोपित्वम् ॥ शासू | ૧૪ १ ईत्वा । चाहिता । चहिता । चाहं. २ ए चाहं. ३ ए ई इत्यादिना है. ४ सी डी 'लयत्. ५ ए 'तू ह्वाल . ६ सी 'त् न'. ७ बी सी डीप सि ८ डी द्धयेव. ९ डी ' ॥ त्रटि " १० बी सी डी ई छत्र ॥. ११ ए कपि. १२ एच्छब्द । इ.. सी डी 'च्छद् ३०. १३ ए . 'रदित्यादित्य. १४ बी सी डी ई 'दितीति. १५ डी न सि. १६ सी 'भेदेन.' १७ सी वस्या". १८ ई "सू । आश'. Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०४.२.३७.] नवमः सर्गः । ६७५ १ अशशासत् ॥ आशासोपीच्छत्यन्यः । आशशासत् ॥ ऋदित् । लोकॄ । आलुलोकत् ॥ 3 अविभ्राजत् अबभ्राजत् । अबीभसत् अबभासत् । अबीभपत् अबभाषत् । अदीदिपत् दिदीपत् । अपीपिडत् अपिपीडत् । अजीजिवत् अजिजीवत् । अमीमिलत् अमिमीलत् । अचीकणत् अचकाणत् । अरीरणत् अरराणत् । अवीचणत् अववाणत् | अबीभणत् अबभाणत् । अशिश्रणत् अशैश्राणत् । ह अजूहवत् अजुहावत् । अजीहिठत् अजिठत् । अल्लुटत् अलुलोटत् । अलुलुपत् अलुलोपत् । अलीलपत् अललापत् । अत्र "भ्राजभास" [ ३६ ] इत्यादिना वा ह्रस्वः ॥ अवीवृतत् अववर्तत् । अचीकृतत् अचिकीर्तस् । अत्र " ऋहवर्णस्य " [३७] इति वा ऋतू ॥ दूतः सोजिघ्रपद्वाहाद्वारं रत्नांशुशीलम् । तं तत्रातिष्ठिपं देवाज्ञासौरभमजिधिपम् ॥ २४ ॥ २४. स भीमसत्को दूतो वाहानश्वान्द्वारं सिंहद्वारमजिघ्रपत् । द्वारं वाहानुगतहरित तृणाशङ्कया जिघ्रतः प्रयुक्तवान् । यतः कीदृग्द्वारं रत्नांशुशाडुलं रत्नांशुभिः शाङ्खशब्दसांनिध्यान्नीलमणिकान्तिभिः शाडुलमिव हरित तृणान्वितमिव द्वारदेशे दूत आयातोस्तीत्यर्थः । तं दूतं तत्र द्वारेहं प्रतीहारोतिष्ठिपं स्थापयामास । यतो देवाज्ञासौरभं १ सी डी 'शाद'. १ सी ॥ रुदि. २ ए सी कृ । अलु. अदीदिप ५ सी 'शक्षण'. ६ ए सी 'हिवत. 'जना'. ८०सी अची. ९ सी डी 'तृणश'. ३ बी 'विभ्राज', ४ ए. ७ ए 'त्मास' बी सी १० डी 'लमि'. Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ घ्याश्रयमहाकाव्ये [भीमरानः देवस्य राज्ञो याज्ञा तस्याः सौरभं गुणगौरवं प्रधानादेशमित्यर्थः । अहमजिघ्रिपं घ्रापयामास । तवाज्ञां प्रतीच्छन्तं दूतमहं प्रयुक्तवानित्यर्थः ।। अजिघ्रिपम् अजिघ्रपत् । इत्यत्र “जिघ्रतेरिः" [ ३८ ] इति वा-इः । अतिष्ठिपम् । अत्र “तिष्ठतेः" [३९] इति नित्यमिः ॥ अदूषयद्भिः प्रतिभामदूष्यैः सोप्यदोषयन् । धीगृहितेङ्गितैः पुम्भिराहतोत्रैतुमिच्छति ॥ २५ ॥ २५. सोप्यदोषयन्न केवलं पुम्भिः प्रतिभामदूषयद्भिः किं तु दूतोपि प्रतिभा प्रज्ञां स्वामिद्रोहाद्यभिप्रायेणाकलुषयन्सन्नत्र देवपादान्तिक एतुमिच्छति । कीदृक् । पुम्भिनरैरावृतः। किंभूतैः। अदूये: (प्यैः) कुलीनत्वादिसद्गुणोपेतत्वेन श्लाध्यैरत एव प्रतिभामदूषयद्भिः । तथा धिया प्रयोज्यका गृहितं संगोपितमिङ्गितं चेष्टितं दुर्वचोव्यापारादि यस्तैगम्भीराशयैरित्यर्थः॥ अदूष्यैः । अत्र "ऊँहुषो गौ" [ ४० ] इत्यूत् ॥ प्रतिभामदूपयद्भिः प्रतिभामदोषयन् । इत्यत्र “चित्ते वा" [ ४१] इति वोत् ॥ चित्तग्रहणेन प्रज्ञाया अपि ग्रहणात् ॥ गृहित । इत्यत्र “गोहः स्वरे" [ ४२ ] इत्यूत् ॥ तेन्वभूवञ्जनास्तं नु पार्थदूतो बभूव यः। येमुं दामोदरं द्रष्टुं जग्मुर्जनुन संशयम् ॥ २६ ॥ २६. ये, दूतं दामोदरं दामोदराख्यं द्रष्टुं जग्मुस्ते जना यः १ ए प्यदूष. १ बी जिध्रिप. २ सी डी जिघ्रिते. ३ ए सी डी प्यदूष. ४ ए यस्तार्ग'. सी डी यैर्ग'. ५ ए उदोषो. ६ ए °मदो. ७ ए गोहे: स्व. ८सी दूसदा. Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ हैं०.४.२.४४. ] नवमः सर्गः I 3 पार्थदूतो युधिष्ठिरसंदेशहारको बभूव तं नु दामोदरं विष्णुमिवन्यभूवज्ञातवन्तः । युधिष्ठिरेण हि युद्धात्पूर्वं पञ्चग्रामीप्राप्त्या संधानाय कौरवाणां पार्श्वे विष्णुर्दूतः प्रेषित आसीदिति भारतम् । तथा संशयमयं विष्णुः स्यान्न वेति संदेहं न जन्नुर्नापजहुर्विष्णुविषयः संशयोतिनैकट्येप्येषां न व्यपगत इत्यर्थः ॥ ૪ न यचनुर्न यक्षुर्न यद् घ्नन्ति स्म किं चन । नारितामगमन्नेते तेन जज्ञे ममेति धीः ॥ २७ ॥ २७. यद्यस्माद्धेतोरेते सैनिकाः किं चन लताद्यपि न चख्नुनत्पाटितवन्तस्तथा यद्यस्मादेते किं चन तृणाद्यपि न जक्षुर्नाभक्षयंस्तथा यद्यस्मादेते किं चन मृगाद्यपि न घ्नन्ति स्म तेन हेतुनैतेरितां शत्रुतां नागमन्नित्येवंविधा धीर्मम जज्ञे बभूव ॥ बभूव, A अन्वभूवन् । इत्यत्र “भुवो वः' [ ४३ ] इत्यादिनोपान्त्यस्य-ऊत् ॥ किति । जग्मुः । जघ्नुः । जज्ञे । चख्नुः । जक्षुः ॥ ङिति । नन्ति । इत्यत्र "गमहन" [ ४४ ] इत्यादिनोपान्त्यस्य लुक् ॥ अनङीति किम् । अगमन् ॥ अनिन्दिताध्वस्तबलोग्लुचत्कलचुरिर्मदम् । नेत्रोक्त वा भूपाञ्चितः प्रावेशयच्च तम् ॥ २८ ॥ ܝܕ ६७७ 97 २८. कलचुरिश्चेदीशः । कलचुरिर्हि चेदिदेशः । इति द्वास्थोक्तयो मदं हर्षमग्लुचत्प्राप । कीदृशोनिन्दितमकुत्सितमध्वस्तं चानिराकृतं १ ए ग्लुकल २ सी डी 'रिर्मुद.. १ए वास्भू २ ए 'विष्णुदूतः ३ ए ति पुराणम् ४ए हैं त जम्नुनाप ५ बी 'ष्णुर्विष ६ सी त्यर्थं ॥ ७ए चखुनौत्पादित '. डीनारि ९ बी धीर्बुद्धिर्मं १० ए सी डी मत् ॥ १२ सी डी क्त्या मुदं. १३ ए प्रापः । ८ए "तुते". ११ डी 'देशेश: • Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ व्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] बलं भीमसैन्यं येन । यद्वा भीमचमूलेशेनानिन्दितमविध्वस्तं च बलं यस्य सः । तथा कलचुरि पाञ्चितो नृपैः पूजित: स्वसेवकैर्नृपैरापूरितसभः सन्नित्यर्थः । नेत्राभ्यामुदक्तोर्वीकृता या भ्रूस्तया भ्रूसंज्ञया कृत्वा द्वास्थेन का तं दूतं प्रावेशयञ्च ॥ ध्वस्त । अग्लुचत् । इत्यत्र “नो व्यञ्जनस्य' [ ४५ ] इत्यादिना नस्य लुक् ॥ अनुदित इति किम् । अनिन्दित ॥ नेत्रोदक्त । अत्र "अञ्चोनायाम्" [ ४६] इति नस्य लुक् ॥ अनायामिति किम् । नृ(भू)पाञ्चितः ॥ तेनाविकैपितेनाविलगितैः स्वैर्निषीदता। नाभाजि विनयो नाभञ्ज्यवष्टम्भः सजन्यशः ॥२९॥ २९. तेन दूतेन विनयः प्रणामाधुचितप्रतिपत्ति भाजि न भग्नः । कीदृशी तेन । अविकपितेन संक्षोभोत्थस्तम्भादिविकाररहितेन । तथाविलगितै रोगादिनानुपतप्तैः स्वैरात्मीयभटैः सह निषीदता चेदिसभायामुपविशता । तथा तेन यशः सजन्बध्नन्नव॑ष्टम्भ और्जित्यं नाभन्जि । तावानेव विनयः कृतो यावता स्वावष्टम्भो न भ्रष्ट इत्यर्थः ॥ दर्शन्क्रमुककर्पूरं सोथ रागी रजन्सदः । रजकक्षालितक्षौमचोक्षदैन्तांशुरब्रवीत् ॥ ३० ॥ ३०. अथ स दूतोब्रवीत् । कीडक्सन् । रागी शृङ्गार्यत एव १ सीडी कम्पिते. २ ए °शनकमु. ३ सी डी दन्ताशु. १ ए स्वसैव. २ सी क्तोद्वीकृ. डी तोकि. ३ बी तंप्रवे'. ४ बी सी डी शा सतावि. ५ सी कम्पते. डी कम्पिते. ६ ए गिती रो". ७ ए भव्यैः स. ८ ए व औ'. Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.२.५०.] नवमः सर्गः । ६७९ मुककर्पूरं पूगीफलानि कर्पूरं च दशन्भक्षयन्नत एव च सदवेदि - सभां रजन्स्वऋद्धिविशेषे सस्पृहां कुर्वन् । तथा रजकेन क्षालितं धौतं यत्क्षौमं दुकूलं तद्वच्चोक्षा निर्मला दैन्तांशैवो यस्य सः ॥ विलगितैः । विकपितेन । इत्यत्र "लङ्गि " [ ४७ ] इत्यादिना नस्य लुक् ॥ अभाजि अभञ्जि । इत्यत्र “भजौं वा " [ ४८ ] इति वा नस्य लुक् ॥ दशन् । सजन् । इत्यत्र " दंशसञ्जः शवि" [ ४९ ] इति नस्य लुक् ॥ रजक । रागी । रजन् । इत्यत्र “अर्कट्" [ ५० ] इत्यादिना नस्य लुक् ॥ स्यदिनो रजयन्त्येव मृगांस्तेपि त्वदाज्ञया । येषां रागोनवोदौद्मव्यस्य दशने परः ॥ ३१ ॥ ३१. तेपि व्याधा अपि मेद्देशे केनापि मृगा न घात्या इति त्वदाज्ञया कृत्वा स्यदिनैस्त्वरावतो मृगान् रजयन्त्यैव रमयन्त्येव न तु मारयन्तीत्यर्थः । नास्त्यवोद: पाको यस्य तदनवोदमपक्कम् । उद्यत इति औणादिके मनि ओद्म पक्कम् । विशेषणकर्मधारये तद्यकव्यं मांसं तस्य दशने भक्षणे येषां परः प्रकृष्टो रागः स्पृहा । एतेन चेदेरावतिधार्मिकत्वे उक्ते ॥ 13 १४ दग्धाभोयतैर्विन्ध्यस्त्वद्यशः प्रश्रेथैस्ततैः । गतो हिमश्रथाद्रित्वमव्याहतमतेरपि ॥ ३२ ॥ ३२. दग्धा य एधाः काष्ठानि तदाभैस्तत्सदृशः काल इत्यर्थः । १ एयन्त्यैव. २ एस्. १ एशेषो स° सी 'शेषा स्पृ. डी 'शेषात्सस्पृ. २ए वस्तथा ३ बी दन्ताश ४ ° शवौ य. ५ ए 'गिन्तै: ।. ६ सी डी 'कम्पिते. "जेौ वा. ८ एकम् इ°. ९ सी मम दे के डी मम देशे. १० एन ११ ए सी डी 'वन्तो मृ. १२ ए व न. १३ ए के ननि. १४ ए ७ ए १५ ए भत्तत्स.. स्वरा • चेदैरा". Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] विन्ध्योव्याहतमतेरपि ज्ञानकारणेन्द्रियपाटवादप्रतिहतज्ञानस्यापि पुंसो हिमश्रथाद्रित्वं हिमेन अथ्यते व्याप्यते हिमश्रथो हिमवान्योद्रिस्तद्भावं गतः। पहिन्द्रियोप्येवं जानाति यदयं विन्ध्यो न किं तु हिमाद्रिरित्यर्थः । कैर्हेतुभिः । अयतैरनुपरतैस्ततैविस्तीर्णैस्त्वद्यशःप्रश्रंथैर्भवदीयकीर्तिसन्दर्भेः ॥ अक्षतेनौजसा काशिमवमत्य निहत्य च । साध्वनैषीर्दशार्णेशमनारतवति नतिम् ॥३३॥ ३३. दशार्णेशं दर्णिदेशाधिपमनारता निरन्तरा वति: सेवा यस्यां तां नतिं साधु यथा स्यादेवं त्वमनैषीः । किं कृत्वा । अक्षतेन केनाप्यविध्वस्तेनौजसा बलेन कृत्वा काशि वाणारसीराजमवमय रणे तिरस्कृत्य निहत्यै च ॥ परितत्य प्रसत्येभान्प्रवत्यागत्य दूरतः। त्वां प्रणत्याधिगम्याभूत्सुखी भद्रभटो नृपः ॥ ३४॥ ३४. भद्राः सुजात्येभा एव भटा यस्य स भद्रभट एवंनामा नृपो गजबन्धदेशस्य राजी सुख्यकुतोभयत्वात्सुखितोभूत् । किं कृत्वा । दूरंतो दूरदेशादागत्य त्वामधिगम्य प्राप्य त्वां प्रणत्य नत्वा त्वां प्रवत्य सेवित्वेभान्हस्तिनः परितत्य विस्तार्य प्रसत्य दत्त्वा च ॥ १बी तेनोज. २ ए शार्णेश'. १ ए श्रथ्याप्य. २ ए °वानयोद्रि'. ३ ए विध्यो न. ४ ए किं हि'. ५ ए श्रद्धैर्भ. ६ ए शार्णेशं दशाणेशा. ७ ए सेव य. ८ सी त्वमानेपीः. डी त्वमानै. ९ सी ध्वस्तनौ . १० डी स्तनोज°. ११ बी शि बाणा. १२ ए त्य रेणे. १३ ए °त्यवः ।।. १४ ए जा मुखीश्चकु. १५ सी रदे. १६ बी णम्य न. १७ ए°वर से. Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.२.५३.] नवमः सर्गः । नियत्येभान्नियम्याश्वानावासे तान्प्रणम्य च । विरम्यस्त्राद्विरत्य वत्संयतो यन्तिरांड्ययौ ॥ ३५ ॥ 3 ३५. यन्तिराज्यम्यादित्याशास्यमानो यन्तिः “तिकृती नाम्न्नि” [ ५-१-७१ ] इति तिकू । एवमन्येष्वपि रन्त्यादिषु । यन्तेर्यन्त्याख्यदेशस्य यन्तिनामा वा राहू राजा ययौ नष्टः । किं कृत्वेभानावासे हस्तिशालायां नियत्य बद्धाश्वांश्चाश्वशालायां नियम्य बैङ्का गजानश्वांश्च मुक्त्वेत्यर्थः । तथा तान् गजानश्वांश्च प्रणम्य च नमोस्तु भवद्भ्य इति नमस्कृत्य चास्त्राद्विरम्य शस्त्रं मुक्त्वेत्यर्थः । त्वत्संयतो भवद्रणाद्विरत्य निवृत्य च ॥ रन्तिदेवा कीर्तेस्ते सत्परीतत्कलिङ्गगत् । नेन्तिर्गन्तिस्तथा हन्तिर्वन्तिर्मन्तिः सतन्तिकः ॥ ३६ ॥ ' ३६. हे रन्तिदेवाभ महायागकरणादिभी रन्तिदेवाख्यपूर्वरातुल्यकलिङ्गं गच्छति कलिङ्गगत्कलिङ्गदेशाधिपः सतन्तिक स्तन्त्या - ख्यनृपसहितो नन्तिर्गन्तिस्तथा हन्तिर्वन्तिर्मन्तिरेवनामा नृपौघश्च ते कीर्तेः सद्दाता स्वत्कीर्तेरुत्कीर्तक इत्यर्थः । तथा परीतद्विस्तारयिता ॥ रजयन्ति मृगान् । इत्यन्त्र " णौ मृग " [ ५१ ] इत्यादिना नस्य लुक् ॥ राग । इत्यत्र " घञि " [ ५२ ] इत्यादिना नस्य लुक् ॥ स्यदिनः । अत्र "स्यदो जवे" [ ५३ ] इति स्यदो निपात्यः || १ एरायौ. २ ए नतिर्ग. ३ ए बी तिस°. १ एतिकू. २ ए 'पु । र्यंतेर्य'. ३ ए निगम्य. ५ ए निच्छत्य. ६ ए 'लिङ्गगत्क'. ७ बी 'नामनृ. ९ सकी. ८६ ६८१ १० एवघ. ४ बी बद्वान्गजा . ८ डी स्वकीतें.. Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ व्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] दशने । अवोद । एंध । ओद्म । प्रश्रथैः । हिमश्रथ । इत्येते "दशन" [५४ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ अयतैः । अनारत । नतिम् । गतः । अव्याहतमतेः । वतिम्। ततैः । अक्षत । इत्यत्र “यमिरमि' [ ५५] इत्यादिनान्तस्य लुक् ॥ निहत्य । अवमत्य । प्रवत्य । परितत्य । प्रसत्य । इत्यत्र “यपि" [ ५६] इत्यन्तस्य लुक्॥ नियत्य नियम्य । विरत्य विरम्य । प्रणत्य प्रणम्य । आगत्य अधिगम्य । अत्र "वा मः" [५७ ] इत्यन्तस्य लुग्वा ॥ सणोतीति (षणूयी दाने ) कलिङ्गगत् । संयंतः । परीतत् । सत् । इत्यत्र "गमां क्वौ" [५८ ] इयंन्तस्य लुक् ॥ यन्ति । रन्ति । नन्तिः । गन्तिः । हन्तिः। मन्तिः । वन्तिः । तन्ति । इत्यत्र “न तिकि दीर्घश्च" [५९ ] इति लुक् दीर्घश्च न ॥ अजीतसातिरुत्खातोयोध्येशस्ते सिषासति ।। जञ्जन्यमानभक्तीनां धुरि जाजायते च सः ॥ ३७॥ ३७. अजातासंपन्ना सातिर्दानं यस्य स पूर्व केनाप्यगृहीतकर इत्यर्थः । अयोध्येश उत्खातस्त्वया राज्यादुत्पाटितः संस्ते तव सिषासति दण्डं दौतुमिच्छति । तथा जञ्जन्यमानमतिशयेनोत्पद्यमानं यथा स्यादेवं भक्तिर्येषां तेषां भक्तिमतां धुर्यादौ सोयोध्येशो जाजायते च बोभवीति च ॥ १ सी जादिसा. डी जातिसा. २ ए च स ॥.. १ ए एधः । ओप्रः । प्र. २ ए पात्यौ ॥. ३ ए हत्यः । अवमन्त्यः । प्र. ४ बी त्यन्त्यस्य. ५ सी डी यत् । प. ६ बी सी डी यन्त्यस्य. ७ ए यन्तिः । रन्तिः । न. ८ ए सी डी नन्ति । ग. ९ सी गन्ति । ह. १० सी डी हन्ति । मन्ति । वन्ति। त. ११ ए तिकिं दी. १२ ए°तः सन्तिस्तव, १३ ए दातुमिच्छन्ति । त. १४ ए 'नोत्पाद्य. १५ ए °सोपयो. १६ एते बो. Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ह० ४.२.६२.] नवमः सर्गः। निखन्यासन्यमानः प्राक्कोश उत्खाय सायते । प्राणान्सन्याः स्थिति साया गौडेनं त्वेति जल्पता ॥३८॥ ३८. गौडेन गौडदेशाधिपेन प्राक्पूर्व निखन्य निधानीकृत्यासन्यमानोदीयमानः कोशो भाण्डागारमुत्खाय निखातादुद्धृत्य सायते तुभ्यं दीयते । किंभूतेन सता । त्वा त्वां जल्पता । कथमित्याह । हे चेदे प्राणोजीवितं सन्या देयाः स्थितिमवस्थानं देशं च साया इति ॥ उत्खातः । सातिः। अजात । इत्यत्र “आः खनि" [६० ] इत्यादिनान्तस्यात् ॥ सिषासति । इत्यत्र “सैनि" [६१ ] इत्यन्तस्यात् ॥ उत्खाय निखन्य । सायते सन्यमानः । जाजायते जञ्जन्यमान । इत्यत्र “ये न वा" [ ६२ ] इति वान्तस्यात् ॥ य इत्यकारान्तनिर्देशादिह न स्यात् । सन्याः । अन्यथा यीति क्रियेत । केचिदत्रापीच्छन्ति । सायाः ॥ तन्यतेर्जुनवंशश्रीयशोब्धिवाव तायते । सातेः सन्तेः सतेश्चाग्रेगाना खाना द्विषां त्वया ॥ ३९ ॥ ३९. सहस्रार्जुनवंशोत्पन्नत्वात्त्वयार्जुनवंशश्रीः सहस्रार्जुनान्वयलक्ष्मीस्तन्यते विस्तार्यते । यतो द्विषां खान्नोन्मूलकेन तथा सातेः सन्तेः सतेश्चैवंनामराजविशेषेभ्योगेगाना स्वामित्वादग्रेसरेण । अत एवाब्धिषु घोणते भ्राम्यत्यब्धिवाव यशस्तायते विस्तार्यते ॥ १ ए सी प्राकोश. २ बी न विति. ३ ए ब्धिष्वाव. ४ अत्र “कवर्गकखरवति' [२-३-७६ ] इति णत्वेन भाव्यमिति भाति ।। १ ए हे वेत प्रा. २ ए णाच्छीवि'. ३ ए सी डी ति । अ. ४ ए समि इ. ५ ए खाया निखन्य । स्पेयतो । मन्य. ६ सी न । सन्यः । अ. ७ ए सी साया ॥. ८ ए हार्जु. ९ सी डी ई हश्रार्जु. १० ए ब्धिश्चावयवश, ११ सीते ॥ ता. Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये भीमराजः] तायते तन्यते । अत्र "तनः क्ये" [ ६३ ] इत्यन्तस्याद्वा ॥ सतेः । सातेः । सन्तेः । इत्यत्र "तौ सनस्तिकि" [६४ ] इति लुगातौ वा ॥ खाना । अग्रेगाना । ध्वाव । इत्यत्र “वन्याङ् पञ्चमस्य" [ ६५ ] इत्यात् ॥ तन्नृपापंचितिनं श्रीभीमो हनवानिति । त्वामाह किमरिर्मित्रं वासि मे ह्रतिकृविधा ॥ ४० ॥ ४०. तद्यस्मात्त्वं पूर्वोक्तनीत्या राजाधिराजस्तस्माद्धेतोर्नृपाणामपचितिः पूजा तया हून्नं प्रमुदितं त्वां श्रीभीमो हन्नवान्प्रमुदितः सन्नियेवमाह । यथासि त्वं मे किमरिमित्रं वा द्विधा शत्रुत्वमित्रत्वरूपाभ्यां द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां त्वं मे हत्तिकृदाह्लादक इति ॥ अपचिति । इत्यत्र “अपाद्' [ ६६ ] इत्यादिना चिः॥ लग्नम् । हन्नवान् । हत्ति । इत्यत्र "हाद'' [६७ ] इत्यादिना ह्रद् ॥ वितीर्णवानथ नयानुत्तीर्ण लूनसंशयम् । कर्णः कर्णावतीणिर्नु यशोलीन इदं वचः ॥ ४१ ॥ ४१. अथैवं दूतोक्त्यनन्तरं कर्णः कर्णाख्यश्चेदीशो नयानुत्तीर्ण न्यायादनपेतं लूनसंशयं छिन्नसंदेहमिदं वक्ष्यमाणं वचो वितीर्णवान्ददौ । कीदृक् । यशोलीनो दानविक्रमोत्थकीर्त्याश्लिष्टोत एव कर्णावतीणिर्नु राधेयावतार इव ॥ अलूनिः सोमवंशः श्रीकृतलीनिर्जयत्यसौ । अधोलीनवतां तापं लूनवान्पूर्तिपावनः ॥४२॥ ४२. असौ सोमवंशश्चन्द्रान्वयो जयति । कीदृक् । असती लूनि१ सी तत्वं नृ.२ डीपचति. ३ ई °नुयशो'. ४ डी कृताली'.५ ए वात्पूर्ति . १ ए दा ॥ सेतेः. २ सी भ्यां त्वं. ३ ए ई हुन्नः । ह्र. ४ ५ °तं नून. Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.२.६८.] नवमः सर्गः । विच्छेदो यस्य सोलूनः सदा संततस्तथा श्रिया राज्यादिलक्ष्म्या कृता लीनिराश्रयणं यस्य सः । तथी पूर्त्या लोकरक्षया पार्वनः पवित्रोत एवाधोलीनवतां शरणार्थमध आश्रितानां तापं खेदं लूनवान् । योपि वंशोलूनिरच्छिन्नः स्यात्सोपि श्रिया पत्रलब्धौन्नत्यादिलक्ष्म्या कृतली - निरत एवाधोलीनवतां तापं लूनवान्पूर्त्या नभोव्यात्या पावनश्च स्यात् ॥ पूर्णिक्षमबलैः पूर्तः पूर्तवान्क्ष्मां पुरूरवाः । यशोभिः पूर्णवानाशास्तत्र पूर्णेन्दुनिर्मलैः ॥ ४३ ॥ ४३. तत्र सोमवंशे पुरूरवाः क्ष्मां पूर्तवानपालयत् । कीदृक्सन् । पूर्णौ पूँरणे व्याप्तौ पालने वा क्षमाणि समर्थानि यानि बलानि सैन्यानि तै: पूर्तः परिपूर्णः । शिष्टं स्पष्टम् ॥ ६८५ भयं छिन्नेन्द्रद्यर्नघुषश्छिन्नवानिह । मूर्तो नु तेजसां राशिः क्षात्रो धर्मो नु मूर्तवान् ॥ ४४ ॥ ४४. इह सोमवंशे नेघुषो नाम नृपो द्यो: स्वर्गस्य भयं निर्ना 99 १२ 8 थत्वजां भीतिं छिन्नवानिन्द्रीभूयापहे । कीदृश्या: । छिन्ना वृत्रदै - त्यस्य मित्रीकृतस्य विश्वस्तस्य पृष्ठमैया हत्येयोच्छेदितेन्द्रस्य शक्ति: प्रभुत्वं यस्यां तस्याः। यतः कीदृक् । मूर्तस्तेजसां राशिनु तथा मूर्तवान्क्षात्रो १ शक्ष.. ४ ए १ सी 'था मर्त्या. २ बी वनं प. ३ सी डी 'रर्णार्थ. 'स्याशोपि ५ डी 'लम्बन. ६ ए वान् पा ७ सी पूणव्या. डी पूर्णव्या. ८ एतैर्तः सी डी तैः प. All Mss. write this name as नघुष here whilethey write १० ई द्यो: सर्ग. ११ ए भीति छि.. की. १४ ए प्रवाह'. it as नहुष in the sixth canto. १२ ए निद्रीभू'. १३ सी डी 'जहें । १५ सी डी °त्यया छेदि. १६ ए योच्छादि Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः] धर्मो नु । अत्यन्तं प्रतापी विक्रान्तश्चेत्यर्थः ।। अयं च नघुषवृत्तान्तः षष्ठे सर्गे पञ्चत्रिंशे वृत्ते प्रागेवोक्त एव । रणाप्रमत्तान्दुत्तवतः सूनानयानिह । अदूनो दूनवान्दैत्यान्भरतः सूनवान्यशः ॥ ४५ ॥ ४५. इह सोमवंशे भरतो नाम नृपोदूनोनुपतप्तः सन्दैत्यान्दूनवाजघानेत्यर्थः । किंभूतान् । रणाप्रमत्तान्संग्रामे सोद्यमान्दुमत्तवतो दुष्टमदानत एव सूनानयाञ्जनितान्यायानत एव यशः सूनवानुत्पादितवान् ॥ अनिद्राणवतः शत्रूननिद्राणोत्र वृक्णवान् । वृक्णपापो ध्यातधर्मः ख्यातः पूतो युधिष्ठिरः ॥ ४६॥ ४६. स्पष्टः॥ पूनावाचूनयज्ञोंनेः समनाविन्द्रतक्षकौ । पात्रोदक्ताहुतेर्यस्मादभूत्पारीक्षितोत्र सः ॥४७॥ ४७. अत्र सोमवंशे परीक्षितः परीक्षितेर्वापत्यं पारीक्षितोर्जुनप्रपौत्रो जनमेजयो नाम राजाभूत् । यस्मात्पारीक्षितात्सकाशान्मृत्युभयेनेन्द्रतक्षको समैनौ मिलितौ सन्तौ पूनौ नष्टौ । यत आयूनः सर्पकुलकोटिभक्षकत्वेनौदरिको यज्ञाग्निर्यागवह्निर्यस्य तस्मात्तथा पात्रादाहुतिभाजनात्मुच उदक्तोद्धृतास्तीकर्षिप्रार्थनयोत्तारितेत्यर्थः । आहु १ डी तान्दूम'. २ ए मतव ई मतव'. ३ ए क्णमापो ध्यायत'. ४ ए सी पूतावा. ५ ए ज्ञाग्रेः स. . १ सी धमनान्दु. २ बी सी डी यो रा. ३ ए मनो मि. सी डी मक्तौ मि. ४ सी पादहु. Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ४.२.६८.] नवमः सर्गः। ६८७ तिरिन्द्रतक्षकरूपं हव्यं येन तस्मात् ॥ किल जनमेजयस्तक्षकाहिदंशेन पितरि मृते सर्पेषु क्रुद्धः सर्पहोतव्यं यागं प्रकृतवांस्तत्रं च यागे याचकॅस्वेच्छायां पूरितायामेवाहुतिरग्नौ क्षिप्यत इति विधिः । इतश्चविग्भिः केषुचित्सपेंधू हुतेषु तक्षको भीत इन्द्रं शरणीचक्रे तज्ज्ञात्वातिकुपितेन जनमेजयेन सेन्द्रस्यापि तक्षकस्याहवनायादिष्टा यायजूका यावन्मत्रैराकृष्य तक्षकेन्द्रावाहुतित्रुचि न्यवेशयंस्तावदास्तीकर्षिर्यज्ञवाटकाद्वहिरर्थी सन्वेदं जगौ तं श्रुत्वा जनमेजयः प्राह । यदसौ मुनिर्याचते तहत्त्वाहुतिरनौ क्षिप्यतां ततस्त्वं किं याचस इत्युक्तोसौ मुनिराह । या काचिधुनाहुतिरग्नौ होतुमारब्धास्ति सैव मह्यं दीयतामिति निर्बन्धात्तेनोक्ते यदा यज्ञाग्नितः साहुतिरुत्तारिता तदा तदाजातमिवात्मानं मन्यमानौ तौ झगिति पलायिताविति पुराणविदः ॥ क्षीणद्यूतास्तथेहान्येप्यसिनग्रासतेजसः। अद्याप्यक्षीणवन्तो नु यशोभिः क्षितवर्जितैः ॥४८॥ ४८. तथेह सोमवंशेन्येपि नृपाः क्षितवर्जितैरक्षयैर्यशोभिः कृत्वाद्यापि संप्रत्यप्यक्षीणवन्तो न्वक्षया इव जीवन्तीवेत्यर्थः। यतः कीदृशाः । क्षीणद्यूता अपगतदुरोदैरव्यसनास्तथा सीयते स्म सिनो बद्धो ग्रासोन्यनृपतेजोभिप्रेसनं यस्य तत्सिनग्रास न तथासिनग्रासमग्रस्त तेजः प्रतापो येषां ते ॥ १ ए °न्तोत्थय. १ ए हिदशे. २ बी मृत स'. ३ सी डी त्र या . ४ ए कस्मेच्छा. ५ ए श्चत्रिभिः के. ६ सीडी पु हते° ७ एक्षका भी . ८ डी स्त्वं किया ९ ई नौ झ. १० सी डीवन्त एवे'. ११ ए रस्यस. १२ ए तथाः सि. Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ व्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] भवसीणिः । अनुत्तीर्णम् । वितीर्णवान् । अलूनिः । लैन । लूनवान् । लीमिः । लीमः । लीनवताम् । अत्र "ऋल्वादेः” [६८ ] इत्यादिना तस्य नः ॥ अप्र इति किम् । पूर्ति । पूर्णीत्यपि कश्चित् । पूर्तः । पूर्तवान् ॥ पूर्णि पूरै । पूर्ण । पूर्णवान् । छिन्न । छिन्नवान् । इत्यत्र “रदाद" [ ६९] इत्यादिना नः ॥ अमूर्छमद इति किम् । मूर्तः । मूर्तवान् । अप्रमत्तान् । दुर्मत्तवतः॥ सूनः(न) । सूनवान् । अदून (नः)। दूनवान् । वृषण । वृक्णवान् । इत्यत्र "सूयति" [७० ] इत्यादिना नः ॥ अनिद्राणः । अनिद्राणवतः । अत्र "व्यञ्जन' [ ७१ ] इत्यादिना नः ॥ अख्याध्य इति किम् । ख्यातः । ध्यात ॥ पूनौ । आयूँन । समक्नौ । इत्यत्र "पूदिवि' [ ७२ ] इत्यादिना नः ॥ नाशायूँतानपादान इति किम् । पूतः। द्यूताः । पानोदेक्ता ॥ असिनग्रास । इत्यत्र “ससे' [७३ ] इत्यादिना नः ॥ क्षीण । अक्षीणवन्तः । अत्र "क्षेः क्षी" [७४] इत्यादिना नः क्षी-आदेशश्च । अध्यार्थ इति किम् । क्षित । भावेत्र क्तः । ध्यणर्थश्च भावकर्मणी ॥ १ सी तीणि । अ°. २ ई लूनि । लू'. ३ बी सीडी लूनः। लू. ४ ए लीनिः । ली. ५ ए °त्र अल्वा . ६ सी पूर्तिः पूर्त . डी पूर्तिः । पू. ७ ए पूरौ । पू. ८ ए सी डी पूर्णः । पू. ९ ए छिन्ना । छि. सी डी छिन्नः । छिौं. १० ए दरिति”. ११ बी मूर्त । मू. १२ बी दूनः । अदू° सी डी दून । अदू'. १३ सी डी वृक्णः । वृ. १४ ए ई द्राण । अ. १५ सी डी वत् । अ. १६ ए ख्यातम् । ध्या'. १७ सी डी ध्यातः ॥ पू. १८ ए 'घून् । स. बी धुनः । स . १९ ए सी मक्तौ। ई. २० डी 'धूनान. २१ बी डी द्यूता । पा. २२ बी सी डी दक्त ॥ अ. २३ बी सेग्रसे. २४ बी क्षीयादे'. Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है० ४.२.७५.] नवमः सर्गः। ६८९ अन्यून एभ्यः पूर्वेभ्यो भीमो जयति संप्रति । यत्र न क्षितकः कोपि क्षीणकः केवलं कलिः ॥४९॥ ४९. संप्रत्येभ्यः पूर्वेभ्य: पूर्वजेभ्यः पुरूरवआदिभ्योन्यूनोहीनो भीमो जयति । यत्र भीमे सति सर्वस्य सुखितत्वान्न कोपि क्षितकः परपराभवादिना दीन: केवलं परं कलि: कलिकालः क्षीणको धर्मोदयाद्दीनः ॥ मैत्री हि सहजा सद्भिः सतामित्यावयोरिमाम् । अन्यथा ख्यापयन्कोस्तु क्षितायुः क्षीणसंततिः ॥ ५० ॥ ५०. हि स्फुट सतां साधूनां सद्भिः सह सहजा स्वाभाविकी मैत्रीति हेतोरावयोः सतोरिमां मैत्रीमन्यथामैत्रीप्रकारेण ख्यापर्यंन्कः क्षीणायुः क्षीणतसंततिः क्षीणसन्तानश्चास्तु । अकृत्रिममैत्रीपवित्रयोरावयोरमैत्री मुमूर्षुरेव वक्तीत्यर्थः । क्षीणं यद्वा स्वयं तेन किं हि तस्य क्षितेन नः । त्वं श्लाघाहीण नः पुण्यैर्ऋतं स्वाम्यनृणागतः ॥ ५१ ॥ ५१. यद्वा तेनावयोमँत्रीमन्यथा ख्यापयता नरेण स्वयं क्षीणं महालीकोक्तिरूपतीव्रपापपातादात्मनैव क्षयं गतम् । ततश्च हि स्फुटं तस्य स्वयं क्षीणस्य क्षितेन क्षयेण नोस्माकं किं न किंचित्तत्मयस्य मृतमारणतुल्यत्वात्तस्मोत्तद्वार्तामपि वयं न कुर्म इत्यर्थः । अथात्मानुगतमेव तात्पर्यमाह । हे श्लाघाह्रीण महापुरुषत्वात्प्रशंसया लजित तथा १ बी सहजामि . ए सत्यमि'. २ ए बी ई °ण्यै अतं. १ बी सी डी भ्यः पु. २ ए तकोप'. ३ ए दीनो के. ४ ए लि: का. सी लिकालक्षी'. ५ बी हि स्फट. ६ सी डी हजा. ७ ई त्रीहि हे'. ८ ए °यक्षः क्षी. ९ ए बी ई "युः क्षितसं. १० सी मूर्खरे. डी मूर्खरे. ११ ए यं तेन हितस्य, १२ सीडी स्माद्वा. Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० ब्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः] ऋतं सत्यं यथा स्यादेवं स्वाम्यनृण स्वामिनो भीमस्य सर्वकार्यसंपादकत्वादनृण जीविकोपयोगरूपत्रणवर्जित दामोदर त्वं नोस्माकं पुण्यैरागतः । अर्थादव ॥ इति प्रश्नान किं ह्रीतो भीमस्त्वं ह्रीतवान वा । हीणवानस्मि सौहार्दाघ्रात आघ्राणसत्पथ ॥ ५२॥ ५२. हे आघ्राणसत्पथाङ्गीकृतसाधुमार्गेति प्रश्नाकिमरिमित्रं वेति पृच्छया किं भीमो न ह्रीतो न लजितो वाथ वा त्वं न ह्रीतवानस्म्यहं पुनः सौहार्दाघातो मैत्र्या सामस्त्येन वशीकृतः सन्निति प्रश्नाद् ह्रीणवान् ॥ ध्रातमध्राणमप्यद्य भीमोत्रैतीति मे मनः । अत्राणोत्कण्ठया नुन्नं नुत्तमत्रातया मुदा ॥ ५३ ॥ ५३. मे मनोध्राणमपि को मामभिषेणयतीति चिन्तयातृप्तमप्यनिर्वृतमपीत्यर्थः । अत्र देशे भीम एतीति हेतोरद्य त्वदागमकाले ध्रातं निवृतमत एवात्राणारंक्षिता निरर्गला योत्कण्ठा भीमाभिगमेच्छा तया नुन्नं प्रेरितं तथात्रातया मुदा नुत्तम् ।। अवित्तमभियाम्यद्योन्नगण्डोत्तकरैरिभैः। राज्ञा रेवा न लङ्घ येति लोकविन्नं तु विघ्नकृत् ॥ ५४ ॥ ५४. इभैः कृत्वाद्यावित्तमविचारितं निःशङ्कमित्यर्थः । अभियामि १ बी मोत्रेती०. २ बी वित्तं नु वि. १बी ग. २ ए परण'. ३ ए पुस्तके 'दूतस्य नाम' इति टिप्पणी समासे वर्तते. ४ ए सी रिमित्रं. ५ ई त्वं किं न. ६ ए सौर्हार्दा. ७ बी सी डी ५३ म. ८ बी वृत्तम. ९ बीयत्वादा. १० बी रक्षतानिनिर. ११ बी सी डी गमनेच्छा. १२ ई °न्नं त°. १३ ए ‘दा वुत्त. १४ ए कृताद्या. Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.२.७६.] नवमः सर्गः। ६९१ भीमाभिमुखं गच्छामि । किंभूतैरुन्नौ मदक्लिन्नौ गण्डौ येषां ते य उत्तकरा मदक्लिन्नशुण्डाःण्डा जात्यैगजानां हिं करा अपि मदं क्षरन्ति तैः । तु परं राज्ञा कर्णेन रेवा रेवाख्या नदी न लङ्या विनहेतुत्वान्नातिक्रम्येत्येवंविधं लोकविन्नं नैमित्तिकादिलोकविचारितं विनकृद्धीमाभिगमनान्तरायकारि ॥ ओकोशे। क्षीणसंततिः क्षितायुः ॥ दैन्ये । क्षीणकः क्षितकः । अत्र "वाक्रोशदैन्ये" [ ७५ ] इति वा नः ॥ अध्यार्थ इत्येव । किं तस्य क्षितेन ॥ कश्रित्तु भावेपि विकल्पमिच्छति । क्षीणं तेन किं तस्य क्षितेन ॥ अनॅण । तम्। ह्रीण हीणवान् । ह्रीतः हीतवान् । आोण आघ्रातः । अघ्राणं धातम् । अत्राण अत्रातया। उन्न 'उत्त । नुन्नं नुत्तम् । विन्नम् अवित्तम् । अत्र "नहीं" [ ७६ ] इत्यादिना वा नः ॥ गृहाणेभांस्तददूनोन्येभग्नेपि कोपनान् । अशुष्कपक्कपूगाभानिर्वाणाक्षामतेजसः ॥ ५५ ॥ ५५. तत्तस्माद्धेतोरेदूनो यद्ययं भीमे भक्तस्तत्कि भीमं नाभियातीत्येवं मनःखेदरहितः संस्त्वमिभान्भीमस्य प्राभृतार्थं गृहाण । किंभूतान् । अशुष्कमाई पकं निष्पन्नं यत्पूगं पूगीफलं तदाभमतिरक्तम १ ए डी नात् ।. १ डी उक्तक. २ ए क्लिन्नं शु. ३ ए दहा जा. ४ ए त्यराजा. ५ डी हि म'. ६ सी डी वाख्या. ७ ए रेवख्या. ८ ई °तिक्राम्ये. ९ ए क्रोशेः । क्षी'. १० ए ति पक्षि. ११ ए क्षि का. १२ ए ई °च्छन्ति । क्षी'. १३ सी डी नृणः क. १४ डी त। ही. १५ सी डी हीणः ह्री. १६ डी घ्राणः आघात । अ. १७ डी त्राण: अ. १८ डी उत्तं । नु. १९ ए त । सुन्नं वुत्तं. २० डी नुत्त । नुत्तं । वि. २१ ए रनूनो २२ ए निष्फन्नं. सी निष्फन्नं. २३ एरस्कम. Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः ] निर्वाणमक्षीणमक्षाममकृशं तेजः प्रतापो येषां तानत एवान्येभगू नेपीतरगजपुरीषेपि कोपनानसहनन् || वातनिर्वातगमनान्वात निर्वाणजिद्रयान् । उल्लाघानकृशान्क्षीवान्नयाश्वान्फुलपद्मभान् ॥ ५६ ॥ ५६. अश्वान्नय भीमपार्श्वे प्रापय । कीदृशान् । वा तस्य कर्तुर्यन्निर्वातं निरुपहतं गमने॑ तेंद्वद्गमनं येषां तान् । तथा वातस्य यन्नर्वाणं गमनं तज्जिद्रयो वेगो येषां तान्कांश्चिद्वातवच्छीघ्रगान्कांश्चिच्च वातादव्यतिशीघ्रगानित्यर्थः । तथोल्लाघान्नीरोगांस्तथा कुशपीनांस्तथा क्षीबान्मत्तांस्तथा फुलपद्मभान्विकसितपद्मवत्सश्रीकानं ॥ ६९२ संफुल्लकीर्ति भोजस्य स्वर्णमण्डपिकामिमाम् । श्रीवासोत्फुल्लपद्माभां हरापरिकृशश्रियम् ॥ ५७ ॥ ५७, ईमां प्रत्यक्षां स्वर्णमण्डपिकां हर नय । कीदृशीम् । श्रियो लक्ष्म्या वासोवस्थानं यत्र तच्छ्रीवासमुत्फुलं स्मेरं यत्पद्मं तदाभामत एवापरिकृशश्रियं स्फीतशोभाम् । तथा भोजस्य मालवाधिपभोजराजस्य संफुल्लकीर्ति विस्मेरां कीर्तिमिव तत्कारितत्वात् । कर्णेन हि भोजराजं जित्वा तन्मण्डपिकेयमानीतासीदिति ॥ १२ 93 १ ए सी 'कीर्तिभो. २ बी कार्मिमा ३ ए 'मिनाम्. १ एषां तांनवमवा. २ ई तानेवा° ३ सी डी 'पेति को. ४ए ना ॥ ५ ई नं. ६ ए तद्ग. ७ए तथौला ८ए शान्नीनां ९ एन् ॥ सफु १० ए इमं प्र. ११ ए नर । की. १२ ए सी कीर्तिवि ई 'कीर्ति'. १३ बी रित्वा". १४. एत् । कीर्णे . Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.२.८२. ] नवमः सर्गः । उष्ट्रैश्च नाययोल्लाघवद्भिः प्रक्षीवितेतरैः । मेरुभित्ततया वित्तं स्वर्णवित्तमुपायैनम् ॥ ५८ ॥ ५८. जात्यत्वाद्वंहीयत्वाच्च मेरुभित्ततया मेरो: खण्डमिदमिति मेरुशकलत्वेन वित्तं ख्यातं स्वर्णवित्तं स्वर्णरूपं धनमुपायनं च भी - मार्थ ढौकनिका चौः कर्तृभिर्नायय । किंभूतैः । उल्लाघवद्भिर्नीरोगेस्तथा प्रक्षीवितेतरैः प्रक्षीविता इव मत्ता इवोत्कूर्दकत्वात् प्रक्षीवितो अदान्तास्तेभ्य इतरैर्दान्तैः ॥ 1 ५ अदून: । गून । इत्यत्र “दुगोरू च" [ ७७] इति न ऊश्च ॥ 1 अक्षाम | अशुष्क । पक्व । इत्यत्र “क्षैपि" [ ७८ ] इत्यादिना मकवाः ॥ निर्वाण । इति "निर्वाणमवतेि" [ ७९ ] इति निपात्यम् ॥ अवात इति किम् । वात निर्वात ॥ केचिदू वातनिर्वाण इतीच्छन्ति ॥ ६९३ क्षीबान् । उल्लाघान् । कृशान् । परिकुंश | फुल । उत्फुल्ल । फुल । इत्येते "अनुपसर्गा" ८० ] इत्यादिना क्तान्ता निपात्याः ॥ क्तवत्यपि केचित् । उल्लाघवद्भिः ॥ अनुपसर्गा इति किम् । प्रक्षीबित ॥ भित्त । इत्यतेत् " भित्तं शकलम्” [८१ ] इति निपात्यम् । स्वर्णवित्तम् । वित्तं । इत्येतौ “वित्तम्” [ ८२ ] इत्यादिना निपात्यौ || एतज्जुहुधि भीमस्य मित्रं मां विद्धि शाधि च । जैहि शङ्कामेधि सज्जो निश्चिनु व्रज हि ॥ ५९ ॥ ५९. एतद्द्वजाद्युपायनं भीमस्य जुहुधि देहि । तथा मित्रं विद्धि १ डी 'रुवित्त '. २ सी वित्त ३ ए यन् ॥ ४ ए 'ज्जुहोधि. ५ ए 'हि सङ्का ६ ए राध्वहि. १ एत्वादीय ४ ए सी गोरुच. ८ सी डी वा इ. डी 'खाही'. २ एकां चौधैः ३ सी 'तास्ते'. ५ सी डी 'ति तस्य न. ९ए कुशान् । फु. ६ ए नक्रश्च. ७. १० सी डी म् । एतौ . Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ ब्याश्रयमहाकाव्ये [ भीमराजः] जानीहि शाधि च मां मित्रं भीमस्य कथयेश्च । तथा शैङ्को जहि यज । तथा सज्जः प्रस्थानप्रगुण एधि भव । तथा निश्चिन्वयमस्माकं मित्रमेवेति निर्णय । तथा ब्रज गच्छ। तथा रानुहि मत्कृते भीममाराधय॥ जुहुधि । विद्धि । इत्यत्र "हुधुटो हेर्धिः" [ ८३] इति धिः ॥ शाधि । एधि । जहि । इत्येते "शासस्" [८४ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ ब्रज । इत्यत्र “अत" [८५ ] इत्यादिना हेर्लक् ॥ निश्चिनु । इत्यत्र "असंयोगादोः" [८६ ] इति हेर्लुक् । असंयोगादित्योविशेषणादिह न स्यात् । रानुहि ॥ यथावां तनुवः प्रीतिं तन्वोर्थान्कुर्व आर्जवम् । तन्मः क्ष्मां तनुमो मां शं कुर्मः कुर्यास्ताँध नः॥ ६० ॥ ६०. तां तं प्रकारं नोस्माकं भीमस्य मम चाद्य कुर्या यथावां प्रीतिं तनुवः कुर्वार्थान्कार्याणि तन्व आर्जवमकौटिल्यं कुर्वः क्षमा तन्मः शत्रुजयेन विस्तारयामो मां लक्ष्मी तनुमः शं सुखं कुर्मः ॥ "अविशेषणे द्वौ चासदः" [२.२.१२२] इत्यस्मदो बहुत्वे तन्म इत्यादिषु बहुवचनम् ॥ १ ए वोर्षान्कु. २ एमः क्षां त°. ३ सी डी कुर्म कु. ४ ए थाद्ध नः. १ डी जानाहि. २ बी धि मां. ३ ए ई श्च। श. ४ सी शङ्कामद्विषयामरित्वाशङ्काज. ५ बी कां मद्विषयामरित्वाशङ्कां ज. ६ ई त्रमिवे. ७ सी था प्र. ८ ए सी डी र्थात्कार्या'. ९ एवः क्षां त°. १० ए 'नुम शं. ११ डी स्मदौब. Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.२.९० ] नवमः सर्गः। ६९५ तत्तनोमि करोमीति व्याकुर्वन्नाहतोपदः । दामोदरोकरोद्यानं रुन्धक्ष्मां सत्तुरंगमैः ॥ ६१ ॥ ६१. दामोदरो यानमकरोत् । कीहक्सन् । यदुक्तं त्वया तत्तनोमि विस्तारयामि करोमि विधामीति व्याकुर्वन्कथयंस्तथाहतोपदो गृहीतप्राभृतः । तथा सत्तुरंगमैर्जात्याश्वैः क्ष्मा रुन्धन्नावृण्वन् ॥ तन्वः तनुवः । तेन्मः तनुमः । अत्र "वम्यविति वा" [ ८७ ] इति-ओर्वा लुक् ॥ अवीति किम् । तनोमि ॥ कुर्याः । कुर्वः । कुर्मः। अत्र “कृगो यि च" [८८] इत्योर्लुक् ॥ अवितीत्यवे । करोमि ॥ व्याकुर्वन् । अत्र “अतः शित्युत्" [ ८९ ] इत्यस्योत् ॥ उकारनिमित्तत्वेनाकारविज्ञानात्कुर्या इत्यादावुकारलोपेपि स्यात् ॥ अवितीत्येव । अकरोत् ॥ रुन्धन् । सत् । इत्यत्र "नास्त्योर्लक्” [ ९० ] इत्यस्य लुक् ॥ अद्विपुर्नोपभीमं तं मत्रिणोन्येपि नाद्विषन् । किं त्वभ्ययुरयान्हर्षमकाएः प्रत्युत स्तुतिम् ॥ ६२ ॥ ६२. उपभीमं भीमसमीपे वर्तमाना मत्रिणस्तं दामोदरं नाद्विपुर्भीममस्मांश्चानापृच्छयैवानेनात्मबुद्ध्ये दं कुसंधानं कृतमिति प्रकारेण न द्वेषं चक्रुस्तथान्येपि सामन्तादयोपि नाद्विषन्कि तु तमभ्ययुरभिमुखं गतास्तथा किं तु हर्षमयान्प्रापुस्ती प्रत्युत स्तुतिमकार्षुः ॥ १ सी डी मकर्षः. १ डी "त् । य. २ सी मि वि. ३ ए तन्वः त°. ४ ए ति ओर्वा. ५ बी सी डी अवितीति. ६ ए कुर्मः । अ. ७ ए "स्योत ॥ उ. ८ ए नात्योर्लु. ९ ए लुगू ॥. १० ए त्ममुद्धेदं. ११ ई किं त्वत. १२ बी था कि म. सी था किंपुष. डी था किं तु प्र. Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ व्याश्रयमहाकाव्ये भीममेवाविदुर्भीमविदन्वा विडौजसम् । कृतार्थमागतं पौरा अन्वभूवंश्च मङ्गलम् ॥ ६३ ॥ ६३. कृतार्थं कृतकार्यमागतं पत्तनसमीप आयातं भीमं पौरा भीममेव पाण्डवमेवाविदुर्जानन्ति स्म बिडौजैसे वैन्द्रं वविदस्तथा मङ्गैलं प्रावेशिकं नगरशोभादिमङ्गलकर्मान्वभूवंश्च समवेदयंश्च चत्रुश्वेत्यर्थः ॥ अद्विषुः अद्विषन् । अभ्ययुः अर्थान् । इत्यत्र "वा द्विष" [ ९१ ] इत्या दिनानो वा पुस् ॥ अकार्षुः । अविदुः । अत्र “सिज्विदोभुव:" [ ९२ ] इति पुस् ॥ अविदन्नि - त्यपि कश्चित् । अभुव इति किम् । अन्वभूवन् ॥ नृपागममशासुर्ये तथैभ्योजुहवुर्जनाः । नादरि ुर्यथाजक्षुरचकासुरजागरुः ॥ ६४ ॥ [ भीमराज: ] १४ 6930 ६४. ये नरा नृपागमं भीमार्गमनमशासुरभणन्नेभ्यो जना: पौरास्तथ जुहवुर्ददुर्यथा नादरिदुरीश्वरीवभूवुरित्यर्थः । अत एवाजक्षुर्बुभुजिरे सविलासा हसुर्वा चकासुर्दिव्यवस्त्रादिना रेजुस्तर्थं जागरुरुद्यता बभूवुः ॥ १८ अजुहवुः । अजक्षुः । अदरिद्रुः । अजागरुः । अचकींसुः । अशासुः । अत्र "युक्त" [ ९३ ] इत्यादिनानः पुस ॥ १ ए नृपोग.. २ ए योजह ३ सी डी 'जुहुवु ४ बी सी 'जागुरु: . 'ङ्गमं प्रा. ६ ए र्मादि ७ए १० डी 'मम'. ११ ए 'थाजह'. १४ एरिद्र. १५ सी जहंसु . १८ °रिद्रः । अ. १९ए 'कामुः । अ १ ई जसमिन्द्रं. २ ए 'सं विन्द्र ३ सी वेन्द्रवा ४ ए वाविदस्त ५ ए 'वं समंवे'. ८ए अजानू. ९ए 'ति बुस्. १२ सी डी 'जुहुवु'. १३ बी 'दुयथा. १६ ए "थाजोग'. १७ सी डी 'जुहुवु:. २० सी अत्र. २१ एत्र युक्त. Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( है० ४.२.९५.] नवमः सर्गः। शासद्विभ्रद्धवं भीमो विशन्त्रैणान्युदैवत । दृशं ददन्ति जक्षन्ति वाचं ददति जक्षति ॥६५॥ ६५. भुवं शासद्रक्षन्बिभ्रत्पोषयन्भीमो विशन्पुरे प्रविशन्सन स्त्रैणान्युदैक्षत । कीशि । दृशं चक्षुर्ददन्ति भीमदर्शनाय भीमाभिमुखं क्षिपन्ति सन्ति जक्षन्ति रूपातिशयोत्थहर्षाद्धसन्ति । तथा वाचं ददति भीमरूपातिशयवर्णनायान्योन्यं वचनं वितरन्ति सन्ति जक्षति हर्षान्मिथो हसन्ति ॥ बिभ्रत् । शासत् । इत्यत्र “अन्तो नो लुक्” [ ९४ ] इति नस्य लुक् ॥ ददति ददन्ति । जक्षति जक्षन्ति । अत्र "शौ वा" [ ९५ ] इति नस्य वा लुक॥ तस्यादरिद्रल्लावण्यं प्रीणत्प्रविशतस्तदा। मिमते स्म न पौर्योपि मिमीतामितरः कथम् ॥ ६६ ॥ ६६. तस्य भीमस्य तदा प्रविशतो लावण्यं सौन्दर्य पौर्यापि वैदग्ध्येन प्रसिद्धा नागरिकी अपि न मिमते स्म । एतावदिदमिति न परिच्छिन्दन्ति स्म। यतोदरिद्रत्प्रचुर तथा प्रीगत्सर्वलोकान्हर्षयत्तस्मादितरो ग्राम्यस्त्रीलोकः कथं मिमीताम् ।। स प्रीणीते स दत्ते स धत्ते स्म च तथा श्रियम् । दरिद्रितः स न यथा विभितः स्म न रोदसी॥६७॥ ६७. स भीमस्तथौचित्यरूपेण तेन प्रकारेण श्रियं प्रीणीते स्म या १ ए तस्माद. २ सी डी रिद्रत:. ३ ए द्रित स्म. १ सी डी शन्प्र. २ ए °णान्यदै'. ३ ए कीदृशि. ४ ए भिम्वखं क्षिपति स. ५ सी डी खं विक्षि. ६ बी न्ति यक्ष. ७ ई विरमन्ति. ८ ए सी क्षन्ति ह. ९ ए °त्र सौ वा. १० ए काश्चपि. ११ एथात्प्रीण. १२ ए थं तिमी. ८८ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ व्याश्रयमहाकाव्ये [भीमराजः गादिविधौ तर्पयामास । तथा दत्ते स्म द्विजादिभ्यो ददौ धत्ते स्म भाण्डागारेधारयच्च । यथा रोदसी ने दरिद्रितः स्म न दुस्थ्यभूतां न बिभितः स्म न भीते च । औचित्येन तेन यागादौ श्रियस्तर्पणे देवानां तृप्तत्वाद् द्यौरदरिद्राभूद्याचकानां च श्रियो दाने भूरदरिद्राभूत् । श्रियः संग्रहे चायतौ यागभवनाव्युच्छित्तिसंभावनया द्यौर्न भीता । भूश्चातौ दानसंभावनयानुचितदण्डपातपरचक्रोपद्रवाद्यसंभावनया च न भीतेति भावः ॥ बिभीतः सेव वार्यनी यजहीतः स्म विप्लवम् । जहितः स्म ने शान्तत्वं तसिञ् शासति मेदिनीम् ॥६८॥ ६८. तस्मिन्भीमे मेदिनी शासति रक्षति सति यद्यस्माद्धेतो - र्यग्नी विप्लवमतिवृष्टिपुरदाहाद्युपद्रवं जहीतः स्मात्यजताम् । तथा शान्तत्वं न जहितः स्म निरुपद्रवौ सदास्थातामित्यर्थः । तस्माज्ज्ञायते बिभीतः स्मेव भीमाद्भीताविव भीतो युक्तप्रकार एव स्यात् ॥ मिमते । अदरिद्वत् ॥ ना । प्रीणत् । अत्र "नश्चातः" [ ९६ ] इत्यातो लुक्॥ मिमीताम् । प्रीणीते । अत्र “एषामी' [ ९७ ] इत्यादिनात ईत् ॥ अद इति किम् । दत्ते । धत्ते ॥ दरिद्वितः । अत्रै “इदरिद्रः" [ ९८ ] इति-इः ॥ १ बी न सान्त. १ बी सी डी स्म च स्वभा. २ ए न रि'. ३ डी रिद्रतः. ४ ई विभतः. ५ ए णा दे'. सी डी र्पणाद्देवा. ६ डी चायंयतो या. ७ ए यतो दा. ८ ए तो वार्य. ९ बी था सान्त. १० ए थः । स्तस्मा. ११ ई तथा ज्ञाय. १२ ए विवाभी. १३ ए °मतो । अ. १४ ए 'त्र ईदारि. बी व ईदरि. १५ ए बी सी ई °ति-इत् ॥. Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.२.१०२.] नवमः सर्गः। ६९९ बिभितः बिभीतः । अत्र “भियो न वा" [ ९९ ] इति वा-इः ॥ जैहितः जहीतः । अत्र "हाकः" [१०० ] इति वा-इः ॥ जहीहि मा कृपां युद्धं जहाहि जहिहि क्रुधम् । तव जह्यां न सेवामित्यूचे कैस्तं न पार्थिवः ॥ ६९ ॥ ६९. कः पार्थिवस्तं नोचे । कथमित्याह । हे भीम कृपां माँ जहीहि मा यज युद्धं जहाहि मुञ्च क्रुधं जहिहि तव सेवां न जह्यां नाहं मुंञ्चेयमिति ॥ जहाहि । जहिहि । जहीहि । इत्यत्र “आ च हौ" [ १०१] इति-आदितौ वा ॥ जह्याम् । अत्र “यि लुक्" [ १०२] इत्यन्तस्य लुक् ॥ निश्यञ्जानन्कलाः क्षेमराजोथाजायतास्य तुक् । जञ्जन्ति स्मैष किं धर्मो जाज्ञाति सेति यं जनः ॥ ७० ॥ ७०. अथ क्षेमराजो नामास्य भीमस्य तुक्पुत्रोजायत । कीहक् । कला धनु:कलाद्यास्तत्तच्छौस्त्रावबोधेन जानंस्तथा निश्यञ् ज्ञात्वापि सतताभ्यासेनोत्तेजयन्सस्फुराः कुर्वन्नित्यर्थः । यं क्षेमराजमतिधार्मिकत्वाजनो जाज्ञाति स्मात्यर्थं जानाति स्म । कथमित्याह । किमेष धर्मो जञ्जन्ति स्मात्यर्थ जात इति ॥ १ बी जहहि क्रु. २ ए कर्त्त न. ३ ए अत स्मै . ४ ए ति स्मोति तं ज. ५ सी डी ति तं ज. ६ बी अन्तः 'त' समासे यं'. १ ए वा-ई: ॥ २ ए जहीतः जहितः । अ. ३ सी डी मा जिही ४ ई "ञ्च चक्रु. ५ ई मुचेय. ६ बी जहहि । ज. ७ ए लुकीत्य. ८ ए जो मामास्य. ९ एत्रो जोयतः की'. १० बी ई क वला. ११ ए रतच्छब्दास्त्रा. १२ ई छात्राव. १३ ए जमिति. Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० घ्याश्रयमहाकाव्ये [क्षेमराजः] निश्यन् । इत्यत्र “ओतः इये" [ १०३ ] इति-ओतो लुक् ॥ जानन् । अजायत । इत्यत्र “जा ज्ञा” [ १०४] इत्यादिना जादेशः ॥ अत्यादाविति किम् । जाज्ञाति । जञ्जन्ति ॥ पुनन्प्रीणञ्जगदक्षावतारोस्यापरः सुतः। वीणन्ध्रीणश्रियमभूत्कर्णः कीर्ति त्रिणन्धिणन् ॥७१॥ ७१. स्पष्टः । किं त्वतिधार्मिकत्वादशावतारो दक्षस्यर्षेरवतार इवात एव जगत्पुनन्पवित्रयन्प्रीणंस्तोप॑यंस्तथा श्रियं राज्यादिलक्ष्मी व्रीणन्वरयन्ध्रीणन्पोषयन् राज्याई इत्यर्थः ॥ पुनन् । इत्यत्र “वादेर्ह स्वः'' [ १०५ ] इति ह्रस्वः ॥ प्वादेरिति किम् । प्रीणन् ।व्रीणन् । भ्रीणन् ॥आगणान्तात्प्वादय इत्यन्ये । वृत्करणं ल्वादिसमास्यर्थ तन्मते। विणन् । निणन् ॥ नाम्ना देवप्रसादो भूत्क्षेमराजस्य चात्मजः । गच्छति माद्भुतां ख्यातिं यच्छन्नर्थ य इच्छताम् ॥७२॥ ७२. योपि देवस्य देवताया राज्ञो वा प्रसादः प्रसन्नता स्यात्सो. पीच्छतां याचकानामर्थं यच्छन्नद्भुतां ख्यातिं गच्छतीत्युक्तिः । मौलार्थस्तु स्पष्टः ॥ गच्छति । इच्छताम् । यच्छन् । इत्यत्र “गमि" [ १०६ ] इत्यादिना छः ॥ १ए पुणन्प्री'. २ ए सी कीर्ति त्रि. १ ए ओलु. २ ए किं स्वति'. ३ ए मीणांस्तो'. ४ ई पयस्त. ५ ए ताप्वाद. ६ बी सी डी ई मोलोर्थ'. Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०.४.२.१०४.] नवमः सर्गः । ७०१ येनाधावन्दिवे पूर्वाः शृण्वन्भीमोपि वर्त्म तत् । राज्यायोचे क्षेमराजं तदाज्ञा नाधिनोच तम् ॥ ७३ ॥ ७३. येन वर्मना कृत्वा पूर्वाः पूर्वजा मूलराजादयो दिवे स्वर्गायाधावन्वेगेन जग्मुस्तद्वर्त्म तपश्चरणरूपं मार्ग शृण्वन्भीमोपि न केवलं पूर्वा इत्यप्यर्थः । क्षेमरौंजं राज्यायोचे राज्यं गृहाणेत्यूचे । तदाज्ञा राज्याङ्गीकारविषयो भीमादेशस्तं क्षेमराजं नाधिनोत्पितृवियोगकारित्वान्नाप्रीणात् । पितृमार्गमनुसरिष्यन् राज्यं नाङ्गीचकारेत्यर्थः।। न्याये तिष्ठन्सदाप्याज्ञामकृण्वन्नामनन्कलाः । कर्णोथ मूर्ध्नि जिघ्रयां ताभ्यां राज्येभ्यपिच्यत ॥७४ ॥ ७४. अथ मूर्ध्नि जिघ्रझ्या प्रेमातिशयाँचुम्बद्भ्यामित्यर्थः। ताभ्यां भीमक्षेमाभ्यां करें राज्येभ्यषिच्यत । यतः कीदृग् । न्याय तिष्ठंस्तथा सदाप्याज्ञां भीमादेशमकृण्वन्नहिंसंस्तथा कला आमनन्नभ्यस्यन् ।। असीद शीयमानांहाः पश्यन्ब्रह्मामृतं पिबन् । तत्त्वे यच्छन्मनो भीमदेवो द्यामृच्छति स च ।। ७५ ॥ ७५. भीमदेवो द्यां स्वर्गमृच्छति स्म ययौ । कीहक्सन् । तत्त्वे परमार्थे संसारानित्यत्वादौ मनो यच्छन्ददत् । तत्त्वं परिभावयन्नित्यर्थः । अत एव शीयमानांहा विशीर्यमाणाज्ञानादिमलोत एव च ब्रह्म परमज्ञानस्वरूपमात्मानं पश्यन्साक्षात्कुर्वन्नत एव चासीदन्नखिद्यमानः केवलसुखे निमन्जन्नित्यर्थः । अत एव चामृतमिव पिबन् । योपि देवः स्यात्सोप्युक्तविशेषणोपेतो द्यामृच्छतीत्युक्तिः ॥ १ डी धिनाच. २ सी डी ज्येभिषि'. ३ ए ञ् श्रीयमामाहाः, १ ए स्तप०. ई स्तत्तप. २ बी सी रूपमा. ३ ई वलं इ. ४ राज्यं रा. ५ डी प्रीणपितृ. ६ ए तिसयाथुम्ब. ७ ई शयचुम्ब'. ८ बी याच्चम्बुया. ९ सी डी ज्येभिषि. १० ए बी सी डी भ्यसन्. ११ ए पेता यां. Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ घ्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] ष्ठीवनश्रु धमञ्शोकाग्निं क्षेमोधिसरस्वति । अक्लामस्तीर्थमकामदाचामस्तपतां यशः ॥ ७६ ॥ ७६. क्षेम: क्षेमराजोधिसरस्वति सरस्वतीनद्यां तीर्थं दधिस्थलीसमीपस्थं मण्डूकेश्वराख्यं पुण्यक्षेत्रमकामद्ययौ । कीडक्सन् । वियोगाच्छोकाग्निं धमन्नुद्दीपयन्नत एवाश्रु ष्ठीवन्मुञ्चस्ताँतिवैराग्येणोत्कृष्टतप:करणात्तपतां तपस्विनां यश आचामन असमानस्तथाक्लॉमंस्तपसाग्लायन् ॥ अधावन् । इत्यत्र “वेगे सतैर्धाव्" [ १०७ ] इति धाव् ॥ शृण्वन् । अकृण्वन् । अधिनोत् । पिबन् । जिघ्रयाम् । धमन् । तिष्ठन् । आमनन् । यच्छन् । पश्यन् । ऋच्छति । शीयमान । असीदन् । इत्यत्र "श्रौति कृ' [ १०८ ] इत्यादिना शुप्रभृत्यादेशाः ॥ अक्रामत् । इत्यत्र “क्रम” [ १०९ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ ठीवन् । अक्लामन् । आचामन् । इत्यत्र “ष्ठिव्" [११०] इत्यादिना दीर्घः॥ अताम्यतोस्य सेवार्थं ददौ कोप्रमाद्यते । शाम्यते दाम्यते देवप्रसादाय दधिस्थलीम् ॥ ७७॥ ७७. अतान्यतस्तपःकरणेनाखिद्यमानस्यास्य दधिस्थलीसमीपती१ ए क्लामस्ती. २ ए आता'. ३ डी स्थलम् . १ सी डी क्षेमरा. २ बी केस्वरा'. ३ डी वाशुष्ठी'. ४ सी थापिवै. ५ ए ई पश्विनां. ६ सी डी न् अस. ७ ए सी डी क्लामस्त". ८ डी साक्लामस्तपसाग्ला. ९ ए धायव. १० ए र्तेधाव्, ११ ए धाव ॥ शृ. १२ सीडी न् । कृ. १३ सी त् । जि०. १४ डीम् । ति?. १५ ए मन् । सी मन । य. १६ ए वश्वौति. १७ ए बी कृन्वित्या. १८ ए "त्यादिशा:. १९ ए ष्ठिथित्या. Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०४.२.११२.] सर्गः । ७०३ स्थस्य क्षेमराजस्य सेवार्थं कर्णो देवप्रसादाय क्षेमराजपुत्राय दधिस्थल ग्रामं ददौ । यतः किंभूतायाप्रमाद्यते क्षेमराज सेवादौ सोयमाय तथा शाम्यत उपशान्ताय तथा दाम्यते जितेन्द्रियाय गुरुशुश्रूषाक्लेशसहाय वा ।। नोक्षाम्याम्यदश्राम्यत्सैन्यः कर्णोभिधामपि । द्विषतां फेननिष्ठीवनानिष्ठेने दिशन् ॥ ७८ ॥ ७८. कर्णो द्विषतामभिधामपि नाक्षाम्यद्विपः समूलमुन्मूलितवानित्यर्थः । कीदृक्सन् । भ्राम्यत्सर्वासु दिक्षु प्रसरदश्राम्यदखिद्यमानं सैन्यं यस्य सोत एव द्विषतां फेननिष्ठीवनासृनिष्ठेने रणेत्यन्तं खेद्नान्मुखेन फेनोद्वमनरक्तोद्वमने दिशन्ददत् ॥ नवमः असीवनं कीर्तिपटं दिवसेवनं नयामि ते । नयावश्च नयामश्चेत्यूचुस्तं के न भुभूजः ॥ ७९ ॥ ७९ तं कर्ण के भूभुजो नोचुः । कथमित्याह । असीवनं सेवनरहितस्फुटितमेकखण्डं वेत्यर्थः । ते कीर्तिपटं दिक्सेवनं दिग्भिः सह बन्धनं नयामि त्वद्यशः सर्वत्राहं विस्तारयामीत्यैर्थः । आवां नयावो वयं नामश्चेति || शाम्यते । दाम्यते । अताम्यतः । अश्राम्यत् । भ्राम्यत् । अक्षाम्यत् । अप्रमाद्यते । अत्र “शम्" [ १११ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ 029 निष्ठीवन निष्ठेवने । असीवनम् सेवनम् । इत्यत्र “ष्ठिव्" [ ११२] इत्यादिना वा दीर्घः ॥ १ई नायाम्य.. १ सी नाकाम्य २ एबी सी डी 'मस्फटि° ३ ए °त्यर्थकी स्तेकी ४ ए पटां दिक्स. ५ ए बी त्यर्थ । आ. ६ बी 'ते । आता ७ ए निष्टीव'. Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः ] नयामि । नयावः । नयामः । अत्र “मव्यस्याः " [ ११३ ] ईत्यस्यात् ॥ 9 २ भुवि संविद्रते ये च दिवि संविदते च ये * । समशेरत तेप्यस्याग्रे नैव निरचिन्वत ॥ ८० ॥ ७०४ ८०. ये नरा भुवि संविद्रतें व्याकरणतर्कधातुवादादिशास्त्राणि सम्यग्जानते ये च देवा दिवि संविदते तेप्यस्य कर्णस्याग्रे समशेरत प्रज्ञातिशयादनेनापूर्वप्रमादौ कृते तदुक्ते वा निर्दोठिते संशयं चक्रुनैव निरचिन्वत न निर्णिन्युः । एतेनास्य सर्वेभ्योपि विद्वत्तोक्ता * ॥ निरचिन्वत । इत्यन्त्र “अनत" [ ११४ ] इत्यादिनान्तोत् ॥ समशेरत । इत्यत्र “शीङो रत्" [ ११५ ] इत्यन्तो रत् ॥ संविद्वते | संविदृते । अन्न " वेत्तेर्न वा " [११६ ] इत्यन्तो रद्वा ॥ 3 वेद विद्या न वेत्थ विविंद | ५ ना 99 ८१. अत्र कर्णविषये के नरा नानुवन् । किमित्याह । अस्य कर्ण - स्याहं न वेद न वेदयावां न विद्व वयं न विद्म । अर्थ तथा न त्वं वेत्थ न वेत्सि युवां न विदथुयं न विद किंबहुनान्योपि कोपि न वेद न वेत्ति कावपि न विदतुः केपि न विदुरिति ॥ वेदवितुर्विदुः केत्रेति ब्रुवन् ॥ ८१ ॥ १ए विद्रिते . २ए विदिते. ३ एवेत्थं वि. ४ए 'स्याये वे. ५ ए "विपुः के. ६ ए नाव ' * सी पुस्तके 'च ये' इत्येतदारभ्य 'विद्वत्तोक्ता' इत्येतदन्तग्रन्थस्याक्षराणि लेखकप्रमादाद्व्युत्क्रमवन्ति जातानीति दृश्यते. १ ए सी डी ई इत्यात्. २ बी ये च न. ३ ए कर्मस्या ४ सी पूर्वं प्र. ५ एर्णिन्यु । ए . ६ एन्तोता स. ७ ए वेतेर्न. ८ ए नाध्रुव ९ डी वत् । कि ं. १० ए थ पत. ११ ए वेल्स न. Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.२.११७.] नवमः सर्गः। इन्दुर्दस्रौ हुताशाः स वेत्ति वित्तो विदन्त्यमुम् । वेत्सि वित्थो वित्थ वेनि विद्वो विद्म इतीरिणः ॥ ८२॥ ८२. अमुं कर्णमिन्दुर्वेत्ति स्म । दस्रौ नासत्यौ वित्तः स्म । हुताशा दक्षिणाहवनीयगार्हपत्याख्यास्तिस्रोग्निदेवता विदन्ति स्म । किंभूताः सन्तः । वेत्सि वित्थो वित्थ वेद्मि विद्वो विद्म इतीरिणः । इन्दो वममुं वेत्सि स आह वेद्मि दस्रौ युवां वित्थतीवाहतुर्विद्वो हुताशा यूयं वित्थ तेप्याहुर्विद्म इत्येवं मिथोवादिनः । एतेनायं स्वर्गेपि प्रसिद्ध इत्युक्तम् ॥ वेद । विदतुः । विदुः । वेस्थ । विदथुः । विद । वेद । विद्व । विम । वेत्ति । वित्तः । विदन्ति । वेसि । वित्थः । वित्थ । वेनि । विद्वः । विभः । अत्र "तिवाम्" [ ११७ ] इत्यादिना तिवादीनां णवादय आदेशा वा ॥ न तथाग्रे ब्रुवन्ति स्म ब्रूतः स्मै स्मै ब्रवीति वा । नाहुराहतुराहापि यथासौ सत्यमुक्तवान् ।। ८३ ॥ ८३. यथासौ कर्णः सत्यमुक्तवांस्तथाग्रे पूर्व न कोपि ब्रवीति स्म कावपि न ब्रूतः स्म केपि ने ब्रुवन्ति स्म । तथा वर्तमानकालेपि न कोप्याह न कावप्याहतुर्न केप्याहुः ॥ १3 १ ए ताशा स्म. २ सी डी म ब. ३ ई म ब्रुवी. १ सी डी दक्षगा. २ ए नीर्यगा. ३ ए सी भूता सौ. ४ ए विद्रो वि'. ५ ए युर्वा वित्थ: वि. ६ ए °स्तादाह. ७ ए दिना । ए°. ८ ए °त्ति । वेत्तः. ९ ए वित्थ । वित्थः । वे. सी वित्था । वे'. १० बी वामेत्या. ११ ई पि ब्रवी'. १२ ए न ध्रुवान्ते स्म. १३ सी डी ले न. १४ ए कोप्योह. १५ ए केणाहुः. ८९ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] याहथुः शिवाविन्द्रौ ब्रूथः कृष्ण ब्रवीषि च । ब्रह्मन्नात्थ तथासावित्याख्यत्तं दिवि नारदः ॥ ८४ ॥ ८४. तं कर्ण दिवि शिवादीनां पुरो नारद आख्यत् । कथमित्याह । शिवश्च शिवा च हे शिवौ यथा यादृशममुं कणं युवामार्हथुवर्णयथ इत्यर्थः । तथा हे इन्द्रौ शचीन्द्रौ यथामुं युवां ब्रूथो हे कृष्ण यथाँमुं त्वं ब्रवीषि च हे ब्रह्मन् यथामुं त्वमात्थ तथा तादृशोसौ कर्ण इति ॥ आह । आहतुः । आहुः । आत्थ । आहथुः । ब्रवीति । ब्रूतः । बुधन्ति । अवीषि । बूथः । अत्र "ग" [ ११८] इत्यादिना पंञ्चानी तिवादीनां पञ्च णवादयो वा तत्संनियोगे ब्रूग आहश्च ॥ जयताजय जयतु विजयेतां भुजौ च ते । राजेते यावदर्केन्दू जगौ तत्रेत्यृषिव्रजः ॥ ८५॥ ८५. ऋषिव्रजस्तत्र कर्णविषये जगावाशिषो ददौ । कथमित्याह । यावदन्दू राजेते तावद्भवांस्त्वं वा जयतात्त्वं जय भवाञ्जयतु ते तव भुजौ च विजयेतामिति ॥ भजेथे स पुरा यत्तद्भजेथां माधुना धनुः । भजेतं कर्णपादावित्यूचुस्तदरयो भुजौ ॥८६॥ ८६. तदरयः कर्णारयो भुजौ स्वबाहू ऊचुः । कथमित्याह । हे १ डी थाहेथुः. २ ए विद्रौ बू. ३ सी डी ब्रूथ कृ.° ४ डी च तौ । रा. ५ ए डी जेथा माधुमा ध. १ सी डी हतुर्वर्णयथा इ. २ बीन्द्रौ अमुं. ३ ए सी थामु त्वं. ४ सी 'न्ति । ब्रूवी. ५ सी पञ्च ण. ६ ए 'नां वेति'. ७ बी सी डी दयस्तत्सं. ८ए जग वा. Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.२.१२१.] नवमः सर्गः । भुजौ पुरा यद्धनुर्युवां भजेथे स्म रणायाश्रयेथे स्म तद्धनुरधुना कर्ण उदिते मा भजेथां किं त्वधुना कर्णपादौ युवां भजेतमिति ॥ जयतात् । इत्यत्र “आशिषि " [ ११९] इत्यादिना तुझोर्वा तात ॥ पक्षे | जयतु | जय ॥ जगौ । अत्र "आतो णव औ" [ १२० ] इति णव औः ॥ 1 विजयेताम् । राजेते | भजेथाम् । भजेथे । अत्र "आतामाते” [ १२१ ] इत्यादिना इः ॥ भजेतम् । अत्र "यः सप्तम्याः " [ १२२ ] इति - इः ॥ यदि श्रियः श्रयेयुस्त्वां श्रयेयं क्ष्माश्रितं कथम् 1 इति क्रुधेव यत्कीर्तिर्दिशो दिशमशिश्रियत् ॥ ८७ ॥ ७०७ ८७. यत्कीर्तिर्यस्य कर्णस्य यशो दिशः सकाशद्दिशमशिश्रियत् । एकस्या दिशोपरदिशं ययावित्यर्थः । उत्प्रेक्षते । क्रुधेव । कथं क्रुदित्याह । यदि त्वां क्ष्माश्रितं श्रियः श्रयेयुस्तत्कथं किमहं त्वां श्रयेयं नैवेत्यर्थ इति । अन्यापि मानिनी सपत्त्याश्रितं पतिम् । यद्येता निरभिमाँनत्वात्त्वां सर्पत्यांश्रितमपि श्रयन्ते तत्किमहमपि त्वां श्रयेय ε 90 93 मिति कोपेनोक्त्वा दिशो दिशं श्रयति तामनुनेतुं यस्यां दिशि पतिरभिमुखो भवति कोपात्तस्या दिशो विमुखीभवन्त्यन्यां दिशं श्रयति ॥ १ ए क्रुद्धेव २ एशिश्रय". १ एसी व औ ॥. २ एता । रा. ३ए ॥ भ° सी 'त इति । भ'. ४ ए 'शादश'. ५ वी त्प्रेक्ष्यते. ६ सी डी पि कामिनी, ७ ए मानित्व'. डी पय: . ९ सी न्याश्रयते त. १० ए 'नोक्ता दि. ११ सी दिशो. Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः] श्रयेयम् । श्रयेयुः । अत्र "याम्युसोर" [१२३ ] इत्यादिनेयमियुसौ ॥ चतुर्दशः पादः समर्थितः ॥ श्रयेयम् । अयेयुः । अत्र “नामिनो गुणोकिति" [ 8 ] इति गुणः ॥ अक्कितीति किम् । श्रितम् । अशिश्रियत् ॥ नांधूनोन्नातनोत्खङ्गं तेषु येबिभयुयुधि । हेपयन्मल्लयोअन्नामेघजागरितः श्रमे ॥ ८८॥ ८८. युधि येबिभयुर्भातास्तेषू भीरुषु विषये कर्णः खड्ग नातनोद्वाताय न व्यापारयत्कि बहुना नाधूनोनाकम्पयदपि । एतेन क्षत्रियोत्तमत्वोक्तिः । नन्वसौ कदापि शस्त्रश्रमाकरणेन यथाकामीनभोजनेन च सर्वाङ्गीणमतिमेदुरत्वादत्रं व्यापारयितुमेव न शक्ष्यतीत्याशङ्याह । नामेद्यन्नोपचितमेदोधातुरभूत् । कीदृक्सन् । श्रमे खड्गाद्यभ्यासे जागरितः सदोद्यतोत एव मल्लयोद्धृन्मल्लभंटान्हेपयन्पराजयेन लज्जयन् । श्रमे ह्यकिंचित्करत्वहेतु दोधातूपचयो न स्यात् ॥ धर्म जजाऍवानर्थे जजागर्वान्स वेत्रिणा। इदं व्यज्ञपि यद्वारि चित्रकृत्कश्चिदासरत् ॥ ८९ ॥ ८९. स कर्णो वेत्रिणेदं व्यज्ञपि । कीहक्सन् । धर्मे जजागृवान्सोद्यमस्तथार्थे द्रव्ये जजागन्स्विस्ववेलायां धौथौँ साधयन्नित्यर्थः । किं ___ १ डी नाधुनो'. २ सी डी विभियु. ३ ए श्रमो ॥. ४ ए 'गृथान. १ डी येयुः. २ ए सी पाद सौ. ३ सी डी विभियु. ४ डी पु विषयेषु क. ५ बी बहूना. ६ सी डी नत्वसौ, ७ ए ई न स. ८ ए बी सी डी मेदधा. ९ एभयंहेपयत्परा. १० ई तुमेदो . ११ ए बी सी डी मैदधा. १२ ए वश्विस्व'. १३ सी डी स्ववे'. १४ ए आर्थोससा. सी माथों सा. Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.३.२.] नवमः सर्गः। ७०९ व्यज्ञपीत्याह । द्वारि सिंहद्वारे कश्चिदज्ञायमानश्चित्रकृञ्चित्रकर आसरत्कुतोपि स्थानादाययौ ॥ स आनछे बहून्देशानदर्शचामृतानि सः । यानि संचस्करुः पृथ्वीं वितेयानि विस्मयम् ॥ ९० ॥ ९०. स चित्रकृद्धहून्देशानानछे भ्रान्तवानत एव सोद्भुतान्याश्वर्यकारिवस्तून्यदर्शञ्च । यान्यद्भुतानि पृथ्वी संचस्कररतिशायित्वेनालं चक्रुरत एव यानि विस्मयमाश्चर्य वितरुर्ददुः । अर्थाल्लोकानाम् । एतेनासौ राज्ञोपि किंचिदद्भुतं दर्शयिष्यति तस्मात्प्रवेश्यतामिति राज्ञो वेत्रिणा ज्ञापितम् ॥ सोथानृच्छापादेशात्प्रणम्योचे कृताञ्जलिः। न के सस्मरुरारुस्त्वां तन्मया मर्यसेर्यसे ॥ ९१ ॥ ९१. अथैवं विज्ञप्त्यनन्तरं स चित्रकृन्नृपादेशात्कर्णाज्ञयानृच्छान्नपॉन्तिकमागतः सन्प्रणम्य कृताञ्जलिरूचे । यथा राजन् यस्मात्त्वां के नरा न सस्मरुः के च नारुं ययुः । न्यायपालकत्वौदार्यादिगुणोपेतत्वेन सर्वैरपि त्वं स्मोभिगम्यश्चेत्यर्थः । तत्तस्माद्धेतोर्मया स्मयसेर्यसे गम्यसे च ॥ अरार्यमाणाः सास्वर्यमाणास्ती| नदीः क्लमम् ।। विस्मर्यासं शमर्यास कीर्तिचेच्येत्युपागमम् ॥ ९२॥ १ ए °शाप्रण. २ बी साश्चर्य'. ३ ए नदी छौं. ४ ए विस्मार्या . ५ ए चेन्येत्यु. ६डी त्युपोग. १ ए सी पृथ्वी सं. २ ए क्रुरुभ ए'. ३ ए चिदेद्भु. ४ ए पिताम्. ५ बी सी प्यन. ६ ए कन्न. ७ ए पातिक. ८ए सत्प्रण. ९ ए रुनार्ययुः . १० ए° णोपित. ११ सी डी र्योभ्यग'. १२ बी तोमया. १० Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः ] 1 ९२. हे कीर्तिचेच्य । यशसोत्यर्थमुपचायक | अहमुपागमं त्वत्स - मीपमागतः । किं कृत्वा । अरार्यमाणा अत्यर्थं प्रसरन्तीरत एव सांखर्यमाणा अत्यर्थ शब्दायमाना नदीस्तीर्त्वातिविषमं बहुमार्ग मुल्लङ्घयेत्यर्थः । कैस्मादित्याह । कुमं मार्गश्रमादिकृतां ग्लानिमहं विस्मर्यासं त्वद्दर्शनेन विस्मरेयं तथा शं सुखमर्यासं प्राप्नुयामिति हेतोः ॥ दध्यां दधति वाचस्ते दध्ययन्त्यर्थिनश्च ताः । दिष्ट्या मय्यपि दीधियो वेवियो दधयन्तु ताः ॥ ९३ ॥ ७१० ५ ९३. हे राजंस्ते वाचो दध्यां दधीवाचरन्ति । किप लोपे दधैयनं “शंसिप्रत्ययद्” [ ५.३. १०५ ] इत्यः । माधुर्येण दन इवाचरणं दधति धारयन्ति । तथार्थिनश्च याचकाश्च तास्त्वद्वाचः कर्म दध्ययन्ति दानकाले माधुर्येण दधीवाचरन्तीः प्रयुञ्जते । दधिशब्दकिल १२ बन्तीणिम् । तास्त्वद्वाचो दिव्यानन्देन मय्यपि दधयन्तु दधीवाचरन्तु । यूँ मधुरवाग्भिर्मामप्यालपतेत्यर्थः । कीदृश्यः सत्यो दीधियो दीप्तिमत्य ओजोर्गुणान्विता इत्यर्थः । तथा वेवित्र्यः कान्तिगुणोपेता । दीधीङ् दीप्तिदेवनोः । वेवीङ् वेतिना तुल्ये । वेतिना वीं धातुना तुल्येर्थे वर्तते । एतावपरपठितौ ॥ १८. १ डीयो वियो २ ए वित्रो द°. • १ बी साधर्य २ ए 'स्तीव्व इति. ३ ए कस्यादि ४ए शं मुख° ५ सी डी कपिलो . ६ ई लोपो द° ७ डी 'धन शं. ८ ए बी सी याद इ ई 'या इ. ९ रन्ती प्रयुञ्जति । द १० एब्दात्किल. ११ ए सी न्ताणिग्. १२ बी दे म. १३ ए यूअं म. १४ एग्भिमांम. १६ ए गुणोचिता. १७ ए च । दीधींङ दीप्ति. १८ सी ल्ये वे, १९ बी 'पचितौ . सी पवितौ . १५ एते इत्य. व डी येथें । Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.३.३.] नवमः सर्गः। ७११ वेव्यते दीध्यते लक्ष्म्या भवानग्रेधुनानया । यदि वेवीत दीधीतेत्यालेख्यपटमार्पयत् ॥ ९४ ॥ ९४. चित्रकृदालेख्यपट चित्रपटमार्पयद्राज्ञे ददौ । कथम् । इत्येवर्मुक्तिदानप्रकारेण । इत्युक्त्वेत्यर्थस्तमेवाह । हे नृपाग्रे पूर्व भवांस्त्वं लक्ष्म्या राज्यश्रिया का वेव्यते धीरललितनायकत्वात्काम्यते । तथा दीध्यते । अन्तर्भूतणिगर्थत्वाद् रम्यते च । अधुना सांप्रतं पुनरनयालेख्यपटस्थकन्यकया सहितां लक्ष्मी यदि वेवीत दीधीत च । इच्छा मे यदि कामयेत रमयेच्चेत्यर्थः । असंजातपूर्वसपत्नीका लक्ष्मीरधुनानया ससपत्नीका यदि भवेत्तदा ममात्यभिप्रेतं स्यादिति भावः । अन्न "कामोक्तावकच्चिति" [५. ४. २६ ] इति कामोक्तौ गम्यमानायां सर्वविभक्त्यपादा सप्तमी । यदि च भवानग्र इति पाठस्थाने पूर्वमेष इति पाठः स्यात्तदा सर्वापीयमुक्तिः कवेः स्यात्ततश्च पूर्वमेष कर्णो लक्ष्म्या वेव्यते दीध्यते चाधुना त्वेषोनया सहितो लक्ष्मी यदीति यथार्थे । यथा वेवीत दीधीत च । वर्तमानार्थेपि सप्तमी दृश्यते । ततश्च यथाभिलषति क्रीडयति चेति हेतोरालेख्यपटमार्पयदिति सरल एवान्वयः स्यात् । विशिष्टाम्नायविद्भिरन्यथा वैतदर्थः स्वयं व्याख्येयः ॥ अतनोत् । अधूनोत् । इत्यत्र "उश्नोः" [ २ ] इति गुणः ॥ अविभयुः । हेपयन् । इत्यत्र “पुस्पौ” [३] इति गुणः ॥ १ ए ई त देधी. १ सी डी मुक्तदा'. २ ए सी भवास्त्व ल'. ३ ए वेव्येते. ४ ए ई त देधी'. ५ बी येच्च र. सी डी येत् र. ६ ए येचेत्य'. ७ बी सी डी वकिच्चि. ए वकिन्विति. ८ बी वादः स. ९ बी सी डी हितां ल'. १० ए दी य. ११ ए ई त देधी . १२ एर्तकमा . १३ बी ई पते की .सी डी षयते क्री. १४ सी डी यवद्भि. १५ बी ई था चैत. Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ व्याश्रयमहाकाव्ये योद्धृन् । इत्यत्र "लघोरुपान्त्यस्य " ४ ] इति गुणः ॥ अमेद्यत् । इत्यत्र “मिदः श्ये" [ ५ ] इति गुणः ॥ जागरितः । अन्न "जागुः किति" [ ६ ] इति गुणः ॥ जजागृवान् । इत्यन कस्मान्न स्यात् । जागर्तेः क्वसुरनभिधानाद्भाषायां नास्तीत्येके ॥ गुणमेवेच्छन्त्येके । जजागेर्वान् ॥ अपरे तु वसुकानयोर्गुणप्रतिषेधमेवाहुः । जजागृवान् ॥ I [ कर्णराजः ] आसरत् । अदर्शत् । इत्यत्र " ऋवर्णदृशोडि” [ ७ ] इति गुणः ॥ संचस्करुः । आनर्च्छ । वितेरुः । अन्न “स्कृच्छ्रत" [ ८ ] इत्यादिना गुणः ॥ I अकीति किम् । आनृच्छ्रान् ॥ सस्मरुः। आरुः । इत्यन्त्र " संयोगादत्तेः " [ ९ ] इति गुणः ॥ स्मर्यसे । अर्थसे । सास्वर्यमाणाः । अरार्यमाणाः । विस्मर्यासम् । अर्यासम् । अत्र “क्ययडाशीर्ये” [१०] इति गुणः ॥ ε चैथ्य । इत्यन्न “न वृद्धिर्” [११] इत्यादिना न गुणः ॥ केचित्वप्रत्यये णिगि च दध्यां दध्ययन्ति इत्यत्रापि । गुणवृद्ध्योः प्रतिषेधमिच्छन्ति । तन्मतसंग्रहार्थं किलोपे सत्यविति प्रत्यये परे गुणवृद्धी न स्यातामिति व्याख्येयम् । विति 'तु दधयन्तु ॥ केचित्तु दीधीवेव्योरिवर्णे यकारे वान्तस्य लुकमन्यत्रं तु गुणवृद्धि निषेधमारभन्ते । दीधित्र्यः । वेवित्र्यः । दीधीत । वेवीत । दीध्यते वेव्यते ॥ ११ १ एगवान्. २ए दर्श्यत् ३ ए अउ कृच्छ्र. ४ ए चेच । इ . ५ एत्ययो णि ६ ए जल्लो. ७ ए 'ति सुद. ८ 'बी रे चान्त'. ९ बी. सीडी त्र गुणनि १० बी त्र्यः । वीवि ११ ए वेध्यते. Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 1 तंत्रेक्ष्य लिखितां कन्यामुत्को भूद्राडुवाच च । Feri सुवै रत्नगर्भाप्येवं न चिन्तयेत् ।। ९५ ।। ९५. तत्रालेख्यपटे लिखितां कन्यांमीक्ष्यालोक्य राङ्कर्ण उत्कः कन्यां प्रत्युत्कण्ठितोभूत्तथोवाच चे । यथेदृक्सर्वोत्कृष्टं रत्नं कन्यारूपमहं 3 सुवै जनयितुं समर्था मतान्तरेणात्र समर्थनायां पञ्चमी । एवं कर्मतापन्नं रत्नगर्भायस्तामरत्नगर्भा योषिदादीनि रत्नानि गर्भे यस्याः सापि भूरपि न चिन्तयेत् । संभावनेत्र सप्तमी ॥ ε अभूत् । इत्यत्र " भवतेः सिज्लुपि" [१२] इति न गुणः ॥ सुवै । अत्र "तेः पञ्चम्याम्" [ १३ ] इति न गुणः ॥ मोमुदीति वंशः को जुहुत्या श्रियमेतया । बन्धुतां यन्ति के चास्या नाम तेजुहवुश्च कि ॥ ९६ ॥ ९६. अनया कन्यया कृत्वा को वंशः प्रमोमुदीत्यत्यर्थं प्रमोदते । यतो रूपादिगुणातिशयेन वंशस्यैव श्रियं शोभां जुहत्या ददत्या । तथास्याः कन्यायाः के च बन्धुतां स्वजनतां यन्ति प्राप्नुवन्ति तथा ते बन्धवोस्याः किं नाम (मा) जुहवुर्ददुः || अधियानस्तदेतस्या अधीयानोन्यदप्यहो । यानि यथा तोषं वसु ते जुहवानि च ॥ ९७ ॥ [हे० ४.३.१३. ] ५ १ ई तत्रैक्ष्य. २ ए त्रेख्य लि° ३ ए सी डी 'न्धुता य'. ४ सी डी म् ॥ ५ ए ब्रूया ६ ए वस्तु ते. एतया. ७१३ १ एन्यामे ख्यालो . ई 'न्यामेक्ष्या २ डी च । ईदृ. ३ ए र्था गता. ४ डी प्यास्तां म ५ ए बी सी डी 'दी र ६ ए सिजुपि. ७ए सूते. ८ए यति प्रा. ९० Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः ] ९७. अहो चित्रस्याः कन्यायास्तद्वंशादि ब्रूहि । यतोस्यास्तदधियनः स्मर्तु शक्तः स्मरणशीलो वा तथान्यदपि कलाकौशलाद्यधीयानो यथाहं तोषमयानि प्राप्तवानि तथा ते तुभ्यं वैसु द्रव्यं यथा जैहवानि च ददानि च ॥ Ε प्रमोमुदीति । इत्यत्र “युक्तोपान्त्य " [ १४ ] इत्यादिना न गुणः ॥ १० १५ जुह्वत्या । यन्ति । इत्यन्न “हिण ( णोः ) ” [ १५ ] इत्यादिना वयौ ॥ अवितीति किं । पुस् । अजुहवुः ॥ वित् । जुहवानि । अयानि ॥ अर्धियानः । अधीयनैः । इत्यत्र “इको वा " [ १६ ] इति वा यकारः ॥ अकुटित्वेति राज्ञोक्तोनुत्कोटो नुवितेति सः । वचोनुत्कोटयेन्माहालेखनीयकृतां वरः ।। ९८ ।। I २१ ९८. आलेखनीयकृतां चित्रकृतां वरः श्रेष्ठ आह स्मोचे कीदृक्सन् । अकुटित्वा कौटिल्यमकृत्वेत्युक्तरीत्या राज्ञा कर्णेनोक्तोत एवानुत्कोटोकुटिलमनस्कोत एवं वचोनुत्कोटयन्नकुटिलयन्सन्निति वक्ष्यमाणरीत्या नुविता कन्यावंशदेः स्तोता ॥ २७ १९ १ एन्साहा'. १ ईदस्य क. २ ए 'याना म.. ७ सी डी ४ ए वस्तु द्र° ५ बी जुहुवा च ॥ प्र ं॰ ८ ए °ति । अत्र ९ बी सी डी ई युक्त इ. इति यकारवकारादेशौ ॥ अ० ११ डी अविती. १२ बी १० ए द्विणोरष्वितिव्यौ सी डी ई म् । अ १३ ए पुस्स अहहवुः, १४ बी सी डी ई वुः । जु. १५ सी नि । अधीया, १६ ए॰यानिः । अ°. १७ बी सी डी ई नः । अत्र. १८ बी डी ई वा यः ॥ सी वाय ॥ १९ डी ई 'तां व. २० ए स्मोवाच । की. २१ ए 'टिलस्वाकौ . २२ ए ई त्या क°. २३ बी डी व चव. २४ एन्नि व° २५ ई नया री २६ बी शादे स्तो. २७ एस्तो ॥. I • ३ ए प्राप्तवा बी सी डी प्राप्नुवा ६ ए'नि वदामि च. Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः । अवाच्या स्फरिकाश्रयस्ति नाम्ना चन्द्रपुरं पुरम् । कैडस्फलकस्त्रैणं धर्मानुद्विजित्प्रजम् ॥ ९९ ॥ [ है० ४.३.१८. ] 3 ९९. अवाच्यां दक्षिणस्यां दिशि नाम्ना चन्द्रपुरं पुरमस्ति । कीटके । स्फरिका स्फुरन्ती श्रीलक्ष्मीर्यत्र तत् । " तद्धिताक” [ ३.२.५४ ] इत्यादिना न पुंवत् । तथा कडकानि माद्यन्ति स्फलकानि सविला - सानि स्त्रैणानि यत्र तत् । तथा धर्मादनुद्विजित्र्योनुद्विजमानाः प्रजा यत्र तत् । एतेनाँत्रार्थकामधर्माणां संपदुक्ता ॥ १३ अकुटित्वा । नुविता । इत्यत्र “कुटादेर्” [ १७ ] ईत्यादिना प्रत्ययो द्वित् ॥ अदिति किम् । अनुत्कोटः । अनुत्कोटयन् ॥ कुटादेरिति कि । आलेखनीय ॥ अपरे कैडस्फरस्फुलान्कुटादौ पठित्वा पाठसामर्थ्याद् णिति वृद्धि निषेधमिच्छन्ति । कैडेके । स्फेरिका । स्फलैक ॥ १४१५ ७१५ १८ अनुद्विजितृ । इत्यत्र “विजेरिट् ” [१८] इतीड् ङिद्वत् ॥ दिशां प्रोर्णुविता कीर्त्या द्विषां प्रोर्णवितौजसा । राजेह जयकेशी यं स्तुतो वित्तश्च रोदसी ॥ १०० ॥ १ ए बी अपाच्यां. २ सी 'च्यां स्पुरि ३ बी कडं क ई कटक .. ४ बी फुल. ४ ई १ बी अपाच्यां २ ए कू । स्फुरि° ३ सी डी ई 'क्ष्मी यत्र. कटका ५ बी 'न्ति स्पल'. ६ ए यत्र त ७ सी डी 'नार्थ'. ८ ए इत्योदि. ९ डी 'त्यया ङि°. १० ए अज्ञिदि. ११ एत्कोटय. डी 'कोट । अ १२ एम् । ले.. १३ ई कटस्फ०. सी कडस्फुला.. १४ ई १६ बी स्फरक । स्फ. १७ ए 'लका । अ. १८ ए १५ °डका । स्फ ं. कटक. 'रिडीतिट्. Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः ] 1 १००. इह चन्द्रपुरे जयकेशी नाम राजास्ति । कीदृक् । ओजसा प्रतापेन बलेन वा द्विषां प्रोर्णविता छादकोत एव कीर्त्या दिशां प्रोर्णुविता व्यापकोत एव च यं जयकेशिनं रोदसी स्तुतः श्लाघेते वित्तश्च जानीतश्च ॥ कन्या जयति तस्यैषा मयणल्लेति नामतः । समीधेस्या न दध्वंसे कान्तिर्निन्ये जगन्मुदम् ॥ १०१ ॥ ७१६ १०१. नामतो मयणल्लेति मयैणल्लाख्यैषा चित्रपटस्था तस्य जयकेशिनः कन्या पुत्री जयति सर्वत्रैणादुत्कर्षेणास्ति । यतोस्याः कन्याया: कान्तिः कमनीयता समीधे दिदीपे न दध्वंसे न क्षीणा । अत एवास्याः कान्तिर्जगन्मुदं हर्षं निन्ये प्रापयत् ॥ प्रोर्णुविता । प्रोर्णविता । इत्यत्र “ वोर्णोः " [१९] इतीवा ङिद्वत् ॥ स्तुतः। वित्तः। अत्र “शिदवित्" [२०] इति शिद् ङिद्वत् ॥ अविदिति किम् । जयति ॥ समीधे । निन्ये । अत्र “इन्ध्यसम्" [२१] इत्यादिना परोक्षा किद्वत् ॥ इन्ध्यसंयोगादिति किम् । ध्वंसे ॥ यौवनेनाथ सस्वजे सा विकारैर्न सखजे । नष्ट्वा याति स्मराख्यायामास्ते वालिनर्मणि ॥ १०२ ॥ १०२. अथ सा मयणल्ला यौवनेन सस्वज आलिङ्गिता परं १ एलिम ०. १ ए ई ह पु. २ ए प्रोर्णवि. ५ एता । इ. ६ ईशिदिति. अन्धस. ९ ए दध्वसो ॥. ३ ए ययण ४ डी दिहीपे ८ए अत्रेध्यस बी ७ ए शिङद्वित् ॥ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.३.२२.] नवमः सर्गः । सौभाग्य are at चित्तस्यनिवेशनाद्विकारैः सरागप्रेक्षितादिभिः स्मरविकृतिभिर्न सस्वजे । अत एव स्मराख्यायां कामप्रधान वार्तायां नष्ट्रा याति । तथालिनर्मणि सखीनां हास्यकर्मणि नंद्रास्ते ॥ भक्त्वापा भ्रुवं भक्त्वा प्रेक्षते पुरुषं न सा । आस्ते कौमारमर्तित्वा ऋतित्वापि हि यौवनम् ॥ १०३. सा मयणल्ला पुरुषमस्वानुरूपत्वान्न प्रेक्षते । किं कृत्वा । अपाङ्गमक्षिप्रान्तं भक्त्वा कुटिलीकृत्य ध्रुवं भङ्क्त्वा च । अतश्च सास्ते । किं कृत्वा । यौवनमृतित्वापि प्राप्यापि हि स्फुटं कौमारं वाल्यमतित्वेव । इवो लुप्तोत्र ज्ञेयः ॥ अकर्शित्वाप्यमर्षित्वापीषून्किरति मन्मथे । तृषित्वास्यां कृशित्वाथ मृषित्वास्थुः स्फुटं नै के || १०४ ॥ १ ए भक्ता २ एवं भुङ्क्त्वा . १०४. के राजपुत्राः स्फुटं नास्थुः । किं कृत्वा । अस्यां तृषित्वा साभिलाषीभूयात एव कामातिरेकात्कृशित्वा कृशीभूयाथ मृषित्वा मन्मथेषूनेव क्षान्त्वा च । क्व सति । मन्मथे शरान्किरति क्षिपति । किं कृत्वा । अकर्शित्वाप्यतनूभूयापि बलिष्ठीभूयापीत्यर्थः । तथामर्षित्वपि । कुपित्वापीत्यर्थः । यद्यप्यतितरां स्मरः प्रहरति तथाप्यस्या अनिच्छुत्वादस्या अभिलाषुकाः सर्वेपि राजपुत्राः स्मरशरान्क्षान्त्वस्थुः । न कोपि प्रतीकारोजनीत्यर्थः ॥ I १ ए पापि २ सी 'स्याविवे'. ५ ए भुक्ता च ६ ए ई त्वा कु. ७१७ १०३ ॥ ३ ए न केः ॥ ३ ए कारौ स ं. ४ ए 'दिभि स्मरे. ७ ए प्य ८ एवास्थः । न. Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः]] वञ्चित्वालं वयो जन्मालं वचित्वेतिवादिनीः । वृणोम्यननुरूपं किं तर्षित्वेत्याह सा सखीः ॥ १०५॥ १०५. सा मयणल्ला सखीराह । कथमित्याह । हे सख्यस्तर्षित्वा तृष्णां विधायाननुरूपं स्वस्यासदृशं वरं किं वृणोमीति । यतः कीदृशीर्वयो यौवनं वैञ्चित्वा । अन्तर्भूतणिगर्थो गमनार्थोत्रं वचिः । ततो गमयित्वालं वरानङ्गीकरणाद्वयोतिक्रमेण सृतमित्यर्थः । एवं जन्म वचित्वालमित्येवंवादिनीः ॥ रत्नैर्ग्रथित्वा ग्रन्थित्वांजैगुंफित्वोत्पलैः सजः । पुष्पैः सान्यैश्च गुम्फित्वाचैत्युमां सुवरेच्छया ॥१०६ ॥ १०६. स्पष्टः । किं त्वन्यैश्च पुष्पैर्मालत्यादिभिः ॥ लुचित्वा श्मश्रु लुञ्चित्वा शिरो ये तेपिरे तपः। ते लेखित्वा मुदित्वास्या भाविनं सत्पतिं जगुः ॥ १०७॥ १०७. श्मश्रु दंष्ट्रिकास्थान्केशाल्लुचित्वापनीय शिरैः शिरःस्थान्केशाहुँञ्चित्वा ये बौद्धादिमुनयस्तपो व्रतं तेपिरे चक्रुस्तेस्या मयणल्लाया भाविनं भविष्यन्तं सत्पतिं शोभनं वरं जगुः । किं कृत्वौं । १ ए °लं वचि. २ बी जैगुफि'. ३ ए स्रजा । पुष्फैरन्यै . ४ बी. पुष्फैः सा. ५ एर्चतोमां. ६ बी वा स्मश्रु. १ ए वचित्वा. २ सी ई वचित्वा. ३ ए बी त्वातर्भू. ४ बी ई त्र बंचिः ५ ए बी °लं बरा. ६ बी योरति . ७ बी त्यर्थ । ए'. ८ ए बी पुष्फर्मा'. सी डी पुप्फर्मा. ९ए °कास्वान्के. १० ई °रःस्था . ११ सी डी क्रुस्तस्या. १२ ए यति स. १३ सीत्वा । लिखत्वा. डी त्वा । लिखि Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है• ४.३.२३.] नवमः सर्गः। - ७१९ लेखित्वा लग्नादि गणयित्वा तथा मुदित्वा भाव्युत्कृष्टपतिलाभदर्शनेन हर्ष गत्वा । शोभनोस्याः पतिर्भविष्यतीति ज्ञानबलेनोचुरित्यर्थः ॥ मोदित्वा त्वां लिखित्वागादन्येयुः कोपि चित्रकृत् । तस्सा मुमुदिषोः सख्या मुमोदिष्वा स दर्शितः ॥१०८॥ १०८. अन्येद्यः कोप्यज्ञातश्चित्रकृचन्द्रपुर आगात् । किं कृत्वा । मोदित्वा त्वद्रूपातिशयेन हर्षित्वात एव त्वां चित्रपटे लिखित्वा ततो मुमुदिषोरनुरूपवरदर्शनाजिहर्षिषोर्हषियन्या इत्यर्थः । तस्यो मयणल्लायाः सख्या स चित्रकृत्तस्या एव दर्शितः ॥ तस्यालिलिखिषच्छ्याध्ये पश्यन्ती त्वां पटे तदा । दिदेविषं तां कामोत्रैर्देवित्वा व्यलिलेखिपत् ॥ १०९॥ १०९. कामो देवित्वा क्रीडित्वा वल्गित्वेत्यर्थः । अस्पैः शरैस्तां कन्यां व्यलिलेखिषद्विदारयितुमैच्छत् । यत आलिलिखिषद्भिरालेखितुमिच्छद्भिश्चित्रकरैः इलाध्ये प्रशस्ये तस्य चित्रकृतः पटे त्वां तदा पश्यन्ती ती दिदेवियुं त्वया सह रिम्सुम् ॥ सस्वजे सस्वजे । अत्र "स्व न वा" [२२] इति परोक्षा वा किद्वत् ॥ भक्त्वा भक्त्वा । नष्ट्वा नंष्ट्वा । अत्र “जनशोनि' [२३ ] इत्यादिना क्त्वा किद्वद्वा॥ १ ए °स्या मोमुदि. २ ए लिषिष. ३ बी सी डी ई श्यतीं त्वां. ४ ए टेत्तदा, १ ए 'तिभवि. २ ई तचित्र. ३ डी त्वा तद्रू'. ४ ए "प्यता ई. ५ ए "स्या मिय'. ६ ए खिखिष. ७ सी डी लेपितु. ८ सी डी था देदिवि. ९ ए°क्षाद्वा वा. Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] ऋतित्वा अर्तित्वा। तृषित्वा तर्षित्वा । मेषित्वा अमर्षित्वा । कृशित्वा अकर्शित्वा । वचित्वा वञ्चित्वा । लुचित्वा लुञ्चित्वा । ग्रथित्वा ग्रन्थित्वा । गुफित्वा गुम्फित्वा । इत्यत्र "ऋत्तृष' [ २४ ] इत्यादिना क्त्वा किद्वद्वा । मुदित्वा मोदित्वा । मुमुदिषोः मुमोदिष्वा । लिखित्वा लेखित्वा । आलिलिखिषत् व्यलिलेखिषत् । इत्यत्र “वौं” [२५] इत्यादिना क्त्वासनौ वा किद्वत् ॥ अय्व इति किम् । देवित्वा । दिदेविषम् ॥ त्वयास्या द्युतितं चित्ते द्योतितं च मनोभुवा । सद्यः प्रद्युतिता भावाः प्रद्योतितसखीजनाः ॥ ११०॥ ११०. अस्याः कन्यायाश्चित्ते त्वया युतितं विलसितं मनोभुवा चास्याश्चित्ते द्योतितम् । सद्यो मनोभूद्योतनानन्तरमेव भावाः स्तम्भस्वेदादयः प्रद्युतिता उल्लसितुमारब्धाः । किंभूताः । प्रद्योतितो हर्षोत्कर्षाद्विलसितुमारब्धः सखीजनो येषु ते ॥ यया न रुदितं बाल्ये क्रीडयापि न रोदितम् । सा स्मरार्ता प्ररुदिता प्ररोदितसखीजना ॥ १११ ॥ १११. स्पष्टः प्रायः । किंतु क्रीडयो प्रीतिकौतुकेनापि । प्ररुदि. ता रोदितुमारब्धा । द्युतितम् द्योतितम् । प्रद्युतिसाः प्रद्योतित । रुदितम् रोदितम् । प्ररुदिता प्ररोदित । इत्यत्र "उति" [२६] इत्यादिना क्तौ वा किद्वत् ॥ १ सी डी यथा न. १ डी मृर्षित्वा. २ ए मुमोदि. ३ सी डी लेषित्वा. ४ ए लिष. ५ ए °सनो वा. ६ ए अपव्व इ. ७ ए ततान'. ८ डी म्भखेदा. ई म्भश्वेदा. ९ ए हर्षात्क. १० ए रब्ध स. ११ बी जना ये. १२ ए सी प्राय । किं. १३ ए °यापीति . १४ ए °तितः। रु. १५ बी सी डी तिता । रु. एत। प्र. १६ बी सी डी दि तं प्र. १७ सी ना क्तो वा. Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.३.२९.] नवमः सर्गः । ७२१ शयिता पविते तल्पे स्मरबाणप्रधर्षिता। सा पृच्छति तवोदन्तमुदण्डयितपक्षिणः ॥ ११२ ॥ ११२. सा कन्योदीच्या उत्तरस्या दिशो डयिता उड्डीना ये पक्षिणस्तान्कर्णपादिमी आगता इति तवोदन्तं कुशलवार्ता पृच्छति । किंभूता सती। स्मरबाणप्रधर्षिती कामास्त्रैः परिभूतात एव पविते पवित्रे तल्पे शयिता ॥ प्रस्वेदिताप्रमेदिता धैर्याप्रक्ष्वेदितापि सा । न मर्षितवती तापं सेवित्वाप्यम्बुजस्थितिम् ॥११३॥ ११३. सा कन्याम्बुजस्थिति कमलपत्रशय्यायामवस्थानं सेवित्वापि तापं स्मरोद्रेकोत्थं संतापं न मर्षितवती न क्षान्तवती पँद्मसेवया तस्यात्यन्तं समुल्लासात् । कीदृशी। प्रस्वेदिता सात्विकविकारोजृम्भणात्स्वेदं क्षरितुमारब्धा । तथा धैर्याप्रक्ष्वेदितापि धैर्येणामुक्ताप्यप्रमेदितामेदुरा कृशेत्यर्थः ॥ डयित । शयिता । पविते । प्रधर्षिता । अप्रक्ष्वेदिता । प्रस्वेदिता । अप्रमेदिता। इत्यत्र “न डी' [२७] इत्यादिनां कौ न किद्वत् ॥ मर्षितवती । इत्यत्र "मृषः क्षान्तौ” [ २८ ] इति न किद्वत् ॥ सेवित्वा । इत्यत्र "क्त्वा" [२९] इति किद्वन्न ॥ १ डी ताप से'. १ ई उद्दीना. २ ई तात. ३ ए पठिते. ४ सी वित्रे. ५ ए ई ° न. ६ बी सी डी पद्मासे'. ७ ए. स्वेवि. ८ सी डी यितः । श. ९ए ना क्तो न. १० ए न किं वृत्. ११ एति विकि. ९१ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ व्याश्रयमहाकाव्ये कर्णराजः ] स्यन्त्वा स्वेदमियं स्कन्वा मा गादिति सखीजनैः । अनास्कन्धाभ्युपस्कद्य पयः प्रस्यन्य धार्यते ॥११४॥ .. ११४. इयं कन्या स्वेदं प्रस्वेदं स्यन्त्वा क्षरित्वात एव स्कन्त्वा परिशुष्य मा गान्मा विने(न ?)शदित्यर्थः । इति हेतोः सखीजनैर्धार्यते जीव्यत इत्यर्थः । किं कृत्वा । अनास्कन्द्यापरिशुष्यं । स्नेहातिरेकादोर्द्रहदयीभूयेत्यर्थः। अत एवाभ्युपस्कद्याभिमुंख्येन समीपे गत्वा तथा पयो जलं प्रस्यन्द्य क्षरित्वा ॥ प्रस्यद्यालं पयः सख्यो गुधित्वालं जलाया । क्षुधित्वालं क्लिशित्वालमुदित्वा सेति मूर्छति ॥ ११५ ॥ ११५. सा कन्या मूर्छति । किं कृत्वा । उदित्वोक्त्वा । किमित्याह ।हे सख्यः पयः प्रस्यद्यालं जलश्रा(स्रा)वणेन सृतं तथा जलाया क्लिन्नवाससा करणेन गुधित्वालं परिवेष्टनेन मृतं तथा क्षुधित्वा बुभुक्षयालं तथा क्लिशित्वा युष्मक्लेशेनालमिति ॥ हृद्युषित्वा कुषित्वास्त्रं मृदित्वा क गच्छसि । अमृडित्वा रुदित्वेति सख्योस्याचुक्रुशुः स्मरम् ॥११६॥ ११६. अंमृडित्वासुखं कृत्वा रुदित्वा चास्याः सख्यः स्मरं चुकंशुः । कथमित्याह । रे स्मर क त्वं गच्छसि । किं कृत्वा हृद्यस्या १ डी त्वामुं क. २ ए त्वा ऋचित्वेति संख्यास्या'. १ डी घ्य । नेहा. २ बी दाद्रहृ. ३ ए त्यर्थात. ४ डी 'मुखेन. ५ बी. पेन ग'. ६ ई दित्वे । कि. ७ ए °णे निस. ८ ए असृत्वित्वा. ९ डी क्रुसुः । क. १० ई °ह । स्म. ११ ए र कथं ग. सी डी र कथं ग. Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.३.३०.] नवमः सर्गः। ७२३ श्चित्त उषित्वा स्थित्वा तथास्त्रं शरं कुषित्वा पूर्व न्यस्तं निष्कृष्यात एवामूं मृदित्वा पीडयित्वेति ॥ मुषित्वेव मुमुषिषुः पृष्ट्वैव च पिपृच्छिषुः । विदित्वेव विविदिपुगृहीत्वेव जिघृक्षकः ॥ ११७ ॥ सुप्त्वेव च सुषुप्सुस्तामहं रुरुदिषुर्मुहुः । आलिख्यास्मिन्निहानीयाभूवं कृतचिकीर्पितः ॥ ११८ ॥ ११७-११८. अहं कृतचिकीर्षितः कृतकृत्योभूवम् । किं कृत्वा मुहुर्वारंवारं रुरुदिपुस्तहुँःखेन रोदितुमिच्छुः संस्तां कन्यामस्मिन्पट आलिख्य तथेह त्वत्समीप आनीय यथा मुमुषिषुश्चोरयितुमिच्छुर्मुषित्वा मोष्यं चोरयित्वा यथा पिपृच्छिषुः प्रच्छनीयं पृष्ट्वा यथा विविदिषुर्जिज्ञासुर्विदित्वा ज्ञेयं ज्ञात्वा यथा जिघृक्षको ग्राह्यं गृहीत्वा यथा सुषुप्सुः सुत्वा कृतचिकीर्षितः स्यात् ॥ असंशिशयिषुस्त्वेशं सा बुभुत्सुरबुद्ध च । तां भुत्सीष्ठाः कृषीष्ठास्तद्वैदा यन्त्रलोकृत ॥ ११९ ॥ ११९. सा कन्यासंशिशयिषुः संशयितुमनिच्छनिःसंशया सती त्वामेवेशं प्रियं बुभुत्सुर्ज्ञातुमिच्छर दबुद्ध च ज्ञातवती च मम भर्ता १ ए पुगृही. २ ई पुत्सुस्ता . ३ ए सी र्षित ॥ अ. ४ ए शं ता बु. ५ ए कृतः ॥ सा. १ए निकृष्या. ई निःकृष्या . २ ए वासू मृ. डी वा, मृ. ३ ए xxxष्यं. ४ बी सी 'दुखे'. ५ ए °च्छिपु पृच्छन्नीयं. सी च्छिषु प्र. ६ ए विवदिषुजिज्ञा. ७ ए न्याशंसिश. ८ ई ती त्वात्वा . ९ ए भूतबुद्ध. Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] कर्ण एवेति मनसा प्रतिज्ञातुमैच्छत्प्रतिज्ञातवती चेत्यर्थः । अतश्च तां कन्यां त्वं भुत्सीष्टा उक्तस्वरूपामवगम्याः । तथा नलो नैषधियद्वैदा दमयन्त्यां विषयेकृत तत्त्वं तस्यां कृषीष्ठास्तां प्राणेश्वरी क्रिया इत्यर्थः ॥ स्कन्वा । स्यन्वा । अनास्कन्ध । पँस्यन्द्य । इत्यत्र "स्कन्दस्यन्दः" [३०] इति क्त्वा किन्न ॥ केचिंत उपस्कद्य प्रस्यद्य इति यपः कित्त्वमिच्छन्ति । तन्मतसंग्रहार्थ क्त्वेति द्वितकारो निर्देशस्तकारीदिः क्त्वेत्यर्थः ॥ क्षुधिस्वा । क्लिशित्वा । कुषित्वा । गुधित्वा । अमृडित्वा । मृदित्वा । 3. दिवा । उषित्वा । इत्यत्र 'क्षुध” [३१] इत्यादिनों क्त्वा किद्वत् ॥ रुदित्वा । रुरुदिषुः । विदित्वा । विविदिपुः । मुषित्वा । मुमुषिषुः । गृहीत्वा । जिघृक्षकः । सुस्वा । सुषुप्सुः । पृष्ट्वा । पिपृच्छिषुः । अत्र "रुदविद" [३२] इत्यादिना सन् क्त्वा च किद्वत् ॥ चिकीर्षितः । अत्र "नामिनोनिद" [३३] इति सन् किद्वत् ॥ अनिडिति किम् । असंशिशयिषुः ॥ बुभुत्सुः । अत्र "उपान्त्ये" [३४] इति सन् किद्वत् ॥ अबुद्ध । भुत्सीष्ठाः । अन्न "सिज्' [३५] इत्यादिना किद्वत् ॥ अकृत।कृषीष्ठाः । अत्र "ऋवर्णात्" [३६] इति किद्वत् ॥ १ ए कन्या त्वां भु. २ एसीपुष्फक्त'. ३ ए धिय?'. ४ ए वीस्वास्तां. ५ ए सी श्वरी क्रि. ६ ए न्त्वा । स्यन्त्वा । अ. ७ ए प्रस्कन्ध, ८ ए द्वत्त ॥ के. ९ ए बी सी डी त् अप०. १० डी स्कद्या प्र. ११ ए रादिक्त्वे. १२ डी उषि. १३ बी सी क्षुध् ई. ई क्षुधिधेत्या. १४ डी नाxxxसन्. १५ ए 'दिषु वि. १६ ए घुः । नुषि. १७ ए °नो अनडिति. १८ ए अनडि. १९ ए अशंशि. २० सी शयषु। वु. २१ ए यिषु। षुभु. २२ ए बुद्धः । भु. २३ ए कृतः । कृ. Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.३.३९.] नवमः सर्गः। ७२५ यथा समगतोमेशे श्री कृष्णे समगस्त च । संगसीष्ट त्वयि तथा सा शुभैः संगसीष्ट च ॥ १२० ॥ १२०. यथेशे शंभावुमा गौरी समगत संबद्धाभूद्यथा कृष्णे श्रीः समगस्त च तथा सा कन्या त्वयि संगंसीष्ट संबद्धीभूयात्तथा शुभैः पुत्रलाभादिभिः संगसीष्ट च ॥ समगत समगस्त । संगसीष्ट संगसीष्ट । इत्यत्र “गमो वा [३७] इति वा किद्वत् ॥ मा ते व्याहत विघ्नोत्रेत्युक्त्वा चित्रकृति स्थिते । रागमन्तर्गतं राज्ञो रोमोद्गम उदायत ॥ १२१ ॥ १२१. राज्ञः कर्णस्य रोमोद्गमो रोमाञ्चोन्तर्गतं रागमुदायतासूचयत् । दोषाविष्करणं चात्र धैर्यगाम्भीर्यगुणान्वितस्य राज्ञो रागदोषस्य प्रकटनात् । क सति । चित्रकृति स्थिते । किंकृत्वा । उक्त्वा । किमित्याह । हे राजन्नत्र मयणल्लाविषये ते तव विनोन्तरायो मा व्याहत मा व्याघातं कार्षीदिति ॥ व्याहत । इत्यत्र "हनः सिच्" [३८] इति सिंच किद्वत् ॥ उदायते । इत्यत्र “यमः सूचने” [३९] इति सिच् किद्वत् ॥ उपायत नृपो रत्नान्युपायंस्त च काश्चनम् । अदितासै गृहीत्वासौ प्रास्थिताधित संमदम् ॥ १२२ ॥ १ डी म् । आदि. १ बी मो विति. २ ए कृत्वेक्त्वा. सी डी कृत्वेत्युक्त्वा. ३ बी सी डीई ये त.° ४ ई सिच कि. ५ बी सी डी त । अत्र. Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः ] १२२. नृपः कर्णो रत्नानि जयकेशिना प्राभृतार्थं प्रेषितांश्चित्रकरे - णोपढौकितान्मणीनुपायैत स्वीकृतवन्काञ्चनमुपायंस्त च । ततो नृपो I ७२६ रत्नानि काञ्चनं च गृहीत्वास्मै चित्रकृतेदित ददौ । ततश्चासौ चित्रकृत्प्रास्थित प्राचालीत् । तथा संमदं कार्यसिद्धिजं हर्षमधित दधार || उपर्यंत उपायंस्त । इत्यन्त्र " वा स्वीकृतौ " [४०] इति सिच् किद्वा ॥ प्रास्थित | अदित । अधित । इत्यत्र "इश्व स्थाद: " [४१] इति सिच् कितत्संनियोग इकारश्च ॥ अत्रान्तरे च पुष्पेषुः पुङ्खान्मा मृजन्निपून् । मार्जन्धनुरधिज्यत्वमनैषीन्यधुवीदपि ॥ १२३ ॥ १२३. अत्रान्तरे च पुष्पेषुः स्मरो धनुरधिज्यत्वमनैषीदारोपयदित्यर्थः । न्यधुवीदपि ज्याकर्षेणाकम्पयच्च । कीदृक्सन्पुङ्खान् शरपत्राणि मार्श करस्पर्शेन समारचनशीलस्तथे पून्मृजन्नुत्तेजनेन निर्मलीकुर्वन् । तथा धनुर्मार्जश्चिरमव्यापारणादुद्भूतस्य रजोमलादिसङ्गस्यापनयनेन निर्मलयन् ॥ 97 "" मार्श । इत्यत्र "मृजोस्य वृद्धिः " [४२] इति वृद्धिः ॥ मार्जन् मृजन् । इत्यत्र " ऋतः खरे वा " [ ४३] इति ऋतो वा वृद्धिः ॥ १ एपेषुर्मुखान्मा सृज े सी पेपुपुषान्मा २ ए 'षीन्नधु. १ ५ ए • प्रकर्षितां २ए रेणौप ३ ए य स्वी. ४ एवान्वाञ्चमुपायं च मु.. डी ते आदि. ६ सी पायं. ७ ई सिच कि. ८ डी त । आदि. ९ एन्पुखाञ्. १० सी डी 'जनुत्ते'. ११ ए मांजश्चि १३ बी इत्यस्य वृ. १४ ए स्वरो वा. १२ सी डी 'द्धि: । माँ, Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२७ [है० ४.३.४४.] नवमः सर्गः। अनैषीत् । इत्यत्र "सिचि" [ ४४ ] इत्यादिना वैद्धिः । अङितीति किम् ॥ न्यधुवीत् ॥ न काप्यराजीनादेवीनारौत्सीदिङ्गितं नृपः । प्रौर्णावीन्नाकृतिं नौक्यं प्रौर्णवीत्सोकणीत्परम् ॥१२४॥ १२४. कामेन धनुपि कम्पिते स नृपः कापि शयनासनभोजनादौ नाराजीनारज्यन्नादेवीजलक्रीडादिक्रीडाभि क्रीडत् । तथेङ्गितं मयणल्लारूपलेखनादिस्मरविकारचेष्टितं नारौत्सीत्स्मरोद्रेकेण धैर्यभ्रंशान संवृतवान् । तथाकृति स्तम्भादिविकारान्वितमाकारं न प्रौर्णावीन्न संवृतवांस्तथौत्क्यं मयणलाविषयोत्कण्ठां न प्रौर्णवीत्परं केवलमकणीत्कामोत्थसंतापातिरेकेणार्तस्वरं व्यलपत् ।। सोकाणीद्यावदज्वालीदत्सारीच तदुत्सुकः । आबाजीदित्यवादीच तावन्ना जयकेशिनः ॥ १२५॥ १२५. स कर्णस्तर्दुत्सुको मयणल्लायामुत्कण्ठित: सन्यावदज्वालीसैमताप्सीदत एवाकाणीदोर्तस्वरं व्यलपदत्सारीच्च शून्यचित्ततयालीकगतिं च चक्रे तावजयकेशिनो ना पुरुष आवाजीदाययाविति वक्ष्यमाणमवादीच्च ॥ १४ १५ १ ए सी दिगितं. २ ए कृतं नौवयं प्रौ. ३ ए त्सुका । आ. सी "त्सुक । आ. १ ए सिषि इ. २ ए वृद्धौ ॥ अ. ३ ई दिमि. ४ ए °भिन्ात्तथे . ५ ए नाविस्म'. ६ ए सी कृतिस्त. ७ ए योक्त्यं म. बी थौक्ष्यं म. ८ ए "त्कण्ठा न. ९ ई पन् ॥ सो'. १० बी दुत्सको. ११ ए °ण्ठितासत्यावदद्वतली. १२ डी समन्तादता. १३ बी सी डी दार्च व्य. १४ ए सी रीश्च शू. १५ सी डी कमतिं. १६ बी सी डी तिं चक्रे च ता. Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ घ्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] __ अरौत्सीत् । इत्यत्र “व्यञ्जनानामनिटि" [४५] इति वृद्धिः ॥ बहुवचनं जात्यर्थं तेनानेकव्यञ्जनव्यवधानेपि स्यात् । अरासीत् ॥ अनिटीति किम् । अदेवीत् ॥ प्रौर्णावीत् प्रौर्णवीत् । इत्यत्र “वोर्तुगः सेटि" [४६] इति वृद्धिर्वा ॥ अकाणीत् अकणीत् । इत्यत्र "व्यञ्जनादे" [ ४७] इत्यादिना वा वृद्धिः । अवादीत् । आबाजीत् । अज्वालीत् । अत्सारीत् । इत्यत्र “वद०" [४८] इत्यादिना वृद्धिः ॥ मा शसीन्मा ग्रहीत्कश्चिन्मा श्वयीदिति तर्जता । भळ नः प्रेषिता रत्नोपदास्ति श्रीरिव स्वयम् ॥ १२६॥ १२६. नोस्माकं भे; स्वामिना जयकेशिना रत्नोपदा माणिक्यढौकैन जोत्यत्वेनातिसश्रीकत्वात्स्वयं मूर्ता श्रीरिव लक्ष्मीदेवीव प्रेषितास्ति । किंभूतेन । तर्जता । कथमित्याह । युष्मासु मध्ये रत्नोपदा माँ कश्चिच्छसीद्विनीनर्श तथा कश्चिन्मा ग्रहीत्तथा मा श्वयीद्युष्मत्पादेिषोपदा मा यासीदिति । अत्यादरेणैषा रक्ष्येत्यादिशतेत्यर्थः ॥ यत्सदाजागरीः शत्रूनाणी: साम चास्यमीः । नाहयीन कैखीस्तन्नः स्वामीभान्प्राहिणोच ते ॥१२७॥ १ ए ना. २ बी क्षणी सा. ३ ई कस्वीस्तन्यः स्वा. १ एनिदि ई. २ ए त्यथिं ते'. ३ ए अक्षिीत्. ४ डी निटाविति. ५ ए देरिना. ६ सी वदेरित्या. ७ सीडी ना वा वृ. ८ बी सी ई ॥ भ; ज. ९ ए भर्ता स्वा.१० डी' ज. ११ ए. पहा मा. १२ ए कन जा. १३ ई जाजात्य. १४ ई मा मा क. १५ सी डी ई सीधनी. १६ ए शस्तथा. १७ ए रक्षेत्या. १८ सी दिनाश. डी दिना शपते , Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.३.४९.] नवमः सर्गः। ७२९ १२७. तत्तस्माद्धेतोर्नोस्माकं स्वामी जयकेशी ते त्वदर्थमिभान्प्राहिणोच्च । च: पूर्ववाक्यापेक्षया समुच्चये । यद्यस्माद्धेतोस्त्वं सदाजागरीरुद्यम्यभूस्तथा शत्रूनैक्षणीरहिंसीस्तथा साम मधुरवाक्यमस्यमीश्चावीचश्च । प्रियवाक्यैः सर्वमप्यसुखय इत्यर्थः । तथा नायीविपद्यपि नाक्लमीन व्यषद इत्यर्थः । तथा नाखी: संपद्यपि नाहसी - हृष्य इत्यर्थः । त्वं महाराजो महापुरुषश्चेति तात्पर्यार्थः ।। श्रान्तांस्तानमवीनागान्भाजयन्दून्परिच्छदः। अभाजि तु मया देवोनायि चात्मा पवित्रताम् ॥ १२८॥ १२८. परिच्छदो मम परिवार: श्रान्तान्बहुमाईतिक्रमेण खिनांस्ताञ्जयकेशिप्रेषितान्नागान् गजानमवीवृक्षेष्वबध्नात् । कीडक्सन । दून्वृक्षान्भाजयन्नागैः सेवयन् । मयो तु मया पुनर्देवः कर्णोभाजि सेवितो देवसेवयात्मा पवित्रतामनायि नीतश्च । देवसेवया ह्यात्मा पवित्रः स्यात् ॥ तं न नापीपटद्राजापपटत्किं तु तुष्टिमान् । मा नागा जहलन्मा चकलन् गच्छेति चादिशत् ॥१२९॥ १२९. राजा कर्णस्तुष्टिमांस्तुष्टः संस्तं जयकेशिनरं न नापीपटन १ ए यन्दून्प. २ सी जि त म. ३ ए नाय चा. ४ सी डी गा हजल'. ५ डी गच्छति. १ बी सी डी क्यार्थीपे०. २ ए तोस्त्व स. ३ ए नक्षीणर. ४ डी "स्यमी: प्रावो'. ५ ए वोचः प्रि. ६ ईर्थः । स्तथा. ७ ए कधीः सं°. ८ई पि माह?. ९ ए द्विष्य. १० ए र्थः । त्व म. ११ ए क्सन्नृक्षा. १२ डी या पु. १३ ए कौँभा. १४ ई णतुष्टि'. १५ ए स्तुटिमांस्तुष्टुः सं. १६ ए टन्नं न. Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः न पटुं दक्षमाख्यत्किं त्वपपटत्पटुमाख्यत् । तथा तैमादिशञ्च । कथमित्याह । नागौ गजा मा जहलन् हलिं महेंद्धलं मा ग्रहीषुस्ततो मा चकलन् मा मिथः कलिं ग्रहीषुस्तस्माद्गच्छ नागान्तिके याहीति ॥ मा श्वयीत् । अजागरीः । मा शसीत् । अक्षणीः । मा ग्रहीत् । अस्यमीः । अहयीः । अकखीः । इत्यत्र "न श्वि" [ ४९ ] इत्यादिना वृद्धिर्न ॥ वकारान्तस्यापि प्रतिषेधमिच्छत्यन्यः । अमवीत् ॥ अभाजि । भाजयन् । इत्यत्र "णिति" [५० ] इति वृद्धिः ॥ अनायि । इत्यत्र "नामिनः" [५१ ] इत्यादिना वृद्धिः ॥ कलिहलिवर्जनान्नाम्नोपि । तेन अपीपटत् इत्यत्र वृद्धावन्त्यस्वरादिलोपे चासमानलोपित्वात्सन्वद्भावः सिद्धः ॥ कलिहलिवर्जनं किम् । मा चकलैन् । मा जहलन् ॥ अन्ये तु नाम्नो वृद्धिमनिच्छन्तोन्त्यस्वरस्योकारस्यैव णिचि लोपमिच्छन्तः समानलोपित्वात्सन्वद्भावप्रतिषेधेपपटदित्याहुः ॥ अजागारि यथा मार्गे जजागार तथा स ना । शतं दायीव दायार्थे यावन्नादाय्युपायनम् ॥ १३०॥ १३०. यावदुपायनं रत्नादिढौकनं तेन नादायि कर्णाय न दत्तं तावत्तेन यथा मार्गेजागायुपायनरक्षार्थमुद्यतं तथा तत्रावासेपि स ना जयकेशिनरो जजागार । यथा शतं द्रम्मादिशतं दायी दास्यन्नधमर्णो दायार्थे दानं दायो योर्थः कार्यं तस्मिञ् शतदानविषये जागति ॥ १ ए तवा स. २ ए सी डी दाव्युपा . बी °दायुपा. १ ए °माक्षत्कि त्वपट° २ ए तमदिशश्च । क. ३ ई °गा राजा. ४ ई °हदलं. ५ ई °च्छन्नांगा. ६ ए नागीन्ति'. ७ ई ति ॥ नाव. ८ बी शशीत् . ९ डी अक्षीणः । मा. १० डीजxx नं किम्. ११ ई नानो १२ ए वन्त्यिस्व १३ ए लत् । मा. १४ ए °च्छत्योन्त्य. १५ ए य द. १६ ए °पि ना. १७ डी शते दा. Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है.. ४.३.५४.] नवमः सर्गः। ७३१ अजांगारि । जजागार । इत्यत्र “जागुर्जिणवि" [ ५२ ] इति वृद्धिः ॥ दाय । शतं दायी। अदायि । इत्यत्र “आत ऐः कृऔ" [ ५३ ] इत्येत् ॥ किं जातिप्रजना जन्ययोग्या ब(व?)ध्या बे(व?)धोद्यतैः। इतीभान्वीक्षितुं राजा छन्नोगात्सह वेत्रिणा ॥ १३१ ॥ १३१. इभान्वीक्षितुं वेत्रिणा सह राजा कर्णश्छन्नो वेषपरावर्तादिना गुप्तः सन्नगात् । कस्मादित्याह । किममी इभा जातौ भद्रजातौ प्रजनो जन्म येषां ते जातिप्रजनाः किं जात्यास्तथा किं जन्ययोग्याः संग्रामास्तिथा किं ब(व?)धोद्यतैबन्धनोद्यतै राजभिर्ब(?)ध्या आलानयितुं योग्याः किं सुलक्षणा इत्यर्थः । इति हेतोः ॥ यत्राजनि तदावासो गजव्यूहः स चावधि । तत्रारामेविशद्राजा शमदोशमकात्मनाम् ॥ १३२ ॥ १३२. स्पष्टः । किं तु अवधि बद्धः । अशमकात्मनां बलाचंवलेपेनाशाम्यतां द्विषां शमदो दर्पङ्गेनोपशमकः ।। न जात्वशैमि यैर्यश्चाजी क्रीडाकाम्यरॉमि च । जयश्रीकामुकोपश्यन् गजान्सोविरामकः ॥ १३३ ॥ १३३. मदोत्कटत्वाद्यैर्गजैर्जातु कदाचिदपि नाशमि सदा कुपित १ए बन्धोद्यतै । इतीभीन्वी'. २एगा सह. ३ बी चाबधि. ४ ए शम य. ५ ए रापि च. ६ ए तानाजानवि. ७ ई रामिकः, १ ए जागरि. २ ए दायः । श. ३ सी यीत्य. ४ ए. कृन्नावित्येत् . ५ ए क्षित्री वे'. ६ ए णच्छन्नो. ७ बी थिा. ८ बी तैवन्ध ९ ए भिवृद्धा आ. १० ए हेतो ॥. ११ सी वलोपे. १२ ए दोदाभिङ्गे. ई दो दोभङ्गे. १३ डी भङ्गोप. १४ ए जैजातु. Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] मेवेत्यर्थः । अत एव यैराजौ रणे क्रीडा रेणकेलिरकामि च वाञ्छितारामि च युद्धेनाजौ क्रीडितं च रणे निव्यूढ मित्यर्थः । तान् गजान्स कोविरामको दर्शनादनिवर्तमानः सन्नपश्यद्यतो जयश्रीकामुकः ।। व्यायामच्छेदकामेन तेनागामि लतागृहे । दृष्टा चागामुका श्रीर्नु काप्यायामकचक्षुपा ॥ १३४ ॥ १३४. तेन कर्णन लतागृहेगामि गतं यतो व्यायामच्छेदकामेन खेदापनोदेच्छुना। तत्र च कापि नायिका श्रीर्नु रूपाद्यतिशयेन लक्ष्मीरिवागामुकागच्छन्ती तेन दृष्टा च। कीदृशा सता । आयामके तदर्शनाद्विशेषेण दीर्धीभवन्ती चक्षुषी यस्य तेन ॥ नानाम्यायामि हाम्भोवाम्याचामि सुधेव च । उन्नामिकाभ्रवस्तस्य दृशा निर्नामपक्ष्मणा ॥ १३५ ॥ १३५. तस्य कर्णस्य दृशाक्ष्णा नानामि न नीचैर्भूतम् । कीदृशस्य सतः । उन्नामिके अद्भुतरूपदर्शनेन विस्मरत्वादुन्नमन्त्यावूर्वीभवन्त्यौ ध्रुवौ यस्य तस्य । यतः किंभूतया । रूपदर्शनभङ्गभयान्निर्नामानि निर्नमनानि निमीलनरहितानीत्यर्थः । पक्ष्माणि यस्यास्ति॑या । किं त्वायामि दीर्घाभूतम् । तथा हर्षाम्भं आनन्दाचँ । अवामि च क्षरितं च यतः सुधेवाचामि सुखैदरूपावलोकनेनामृतमिवास्वादितम् ॥ १ बी च्छेदिका . २ ए लगागृ. ३ ए डी दृष्ट्वा चा. १ ए त्यथो ए. २ सी डी रणे के'. ३ ई रिकका. ४ ए कौवि'. ५ बी के उद्भु. ६ ए प्रत्यादुन्नमत्यावू. ७ बी सी डी स्तथा । किं. ८ ई किं त्वया'. ९ई भयान'. १० सी डी श्रु । आचामि. ११ ए क्षरतं. १२ ए °खलरू. Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०४.३.५६.] नवमः सर्गः। वामाचामं सुधाचामकानां मेने चमं नृपः । पुलकोद्वामको दृष्ट्या तस्या लावण्यचामतः ॥ १३६ ॥ १३६. पुलकोद्वामको रोमाञ्चोझेदवान्नृपः कर्णः सुधाचामकानाममृतास्वादकानां देवानां चमं चम्यते चमः कर्मणि घन् । भक्ष्यं सुधां वामाचामं प्रतिकूलजेमनं मेने । कस्मात् । तस्या नायिकाया दृष्ट्या दर्शनेन कृत्वा लावण्यचामतः सौन्दर्यास्वादाद्धेतोः । तल्लावण्यमास्वाद्यामृतमवाहीलयदित्यर्थः । प्रजनाः । जन्य । अजनि । बध । वध्याः । अवधि । इत्यत्र “न जनवधः" [ ५४ ] इति ने वृद्धिः॥ । शम । अशर्मक । अशमि । इत्यत्र "मोकमि" [५५] इत्यादिना न वृद्धिः॥ कम्यादिवर्जनं किम् । कामेन । कार्मुकः । अकामि । व्यायाम । आयामक । आयामि । आरामे । अविरामकः । अरामि । निर्नाम । उन्नामिका । अनामि । आगामुकाँ । अगामि । वाम । उद्वामकः । अवामि । आचामम् । आचामकानाम् । आचामि ॥ आंचम इति किम् । चमम् ॥ अन्ये तु सामान्येन निषेधमिच्छन्ति । चामतः॥ यस्यां विश्रामकं चक्षुर्मनो विश्रमकं च मे । सा श्रीविश्रमभूः केयं कामविश्राममन्दिरम् ॥ १३७ ॥ १६ १ एनपकेः सु. २ ए भक्ष्य सु. ३ ई ततस्या. ४ ए वण्याचा. ५ ई तमिवा. ६ ए लअदि. ७ ए सी जना । ज. ८ ई अवधि. ९ ए न द्धि:. १० डी शमः । अ. ११ ए मका । अ. १२ ई त्यत्रामो . १३ ए "द्धिः ।। काम्या . १४ सी मुक । अ. १५ डी म । अया. १६ डी मि । अ. १७ बी का । आगा. १८ ए सी डी ई °मक। अ. १९ सी डी आचाम. २० सी मत. Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः यया चित्रपटे व्यश्राम्यथ व्यश्रमि मे हृदि । दृक्पथं किल निर्नय तां निनायोद्यम स्मरम् ।। १३८ ॥ संशयोपरमायास्या रौमि रोरोत्वसावपि । अस्याः सखी वा रोरौतु जुहोतु मम निर्णयम् ॥१३९ ॥ वितर्येति यथोणौति ज्योत्स्ना{ोति चन्दनम् । ऊोनोति मधूर्णोनौत्यमृतं स तथाब्रवीत् ॥ १४० ॥ १३७-१४०. स कर्णस्तथा तेनाह्लादकत्वसंतापापहारकत्वशैत्यमाधुर्याद्यतिशयरूपेण प्रकारेणाब्रवीद्यथा यः प्रकारो ज्योत्स्ना{ोत्याच्छादयति । अधः करोतीत्यर्थः । तथा चन्दनमूोति तथा मधूर्णोनोति । अत्यर्थमधः करोतीत्यर्थः । तथामृतमू!नौति । किं कृत्वा । वितयं । किमित्याह । यस्यामित्यादि । तत्राद्यः श्लोक: स्पष्टः । किं तु विश्रामकं सुखेन स्थास्नु । तथा यया नौयिकया चित्रपटे व्यश्रामि स्थितमथ तथा यया मे हृदि व्यश्रम्युषितम् । किलेति संभावने । संभावयामि तां नायिकामहं दृक्पथं दृग्गोचरं निनय प्रापयं तथा १ ए पदे व्यश्राम्यव्यथश्र. २ ए नयितां. ३ सी ई अस्या स. ४ ई यथौर्णी. ५ डी थोणोंति. ६ ई तिज्योत्स्ना. ७ डी मूणौति. ८ सी डी !नौति. ९ सीडीणोंनोत्य. १ ए सी डी ई मोत्या. २ सी रोति । तथा xxxमृ. ३ ए सी डी ई मूर्णौति. ४ डी धूर्णोनौति. ५ ए बी डी 'रोति । त. ६ डी गोनोति. ७ सी डी नायक. ८ ए कस्या चि. Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.३.६१.] नवमः सर्गः। ७३५ किल स्मरमहमुद्यममुत्साहं निनाय कृतास्मरणे परोक्षात्र । तथास्या नायिकायाः कर्मणो यः संशयो मत्कर्तृकः संदेहस्तस्योपरमाय निवृत्तय उक्तरीत्या संशय्यमाणा(ना)या अस्याः संदेहनिवृत्तय इत्यर्थः । रौम्यहं वदाम्यसावपि नायिकापि रोरोत्वत्यर्थ वदतु । अथ वास्याः सखी रोरौतु । ततो मम निर्णय जुहोतु ददात्विति ।। विश्राम विश्रम । विश्रामकम् विश्रमकम् । व्यश्रामि । व्यश्रमि । इत्यत्र "विश्रमेवा" [ ५६ ] इति वा न वृद्धिः ॥ उद्यमम् । उपरमार्य । इत्येतौ "उद्यमोपरमौ" [५७ ] इति निपात्यौ ॥ निनय निनाय । इत्यत्र "णिद्वान्त्यो णव्" [५८ ] इति णव्वा णित् ॥ १०११ रौमि । इत्यत्र "उत और" [५९] इत्यादिना-औः ॥ अद्वेरिति किम् । जुहोतु । रोरोतु ॥ केचिद्यङ्लुबन्तस्यापीच्छन्ति । रोरौतु ॥ ऊर्जाति ऊर्णोति । इत्यत्र "वोर्णोः" [६० ] इति वा-औः ॥ अद्वेरित्येव । ऊर्णोनोति ॥ यङ्लुबन्तस्यापीच्छन्त्यन्ये । ऊर्णोनौति ।। सुधैं त्वां मा स्म भीः प्रोर्णोत्स्वं प्रोर्णोर्मा स्म वा मयि । तृणेढि संशयं मूर्तिः कुलं चोचैर्ब्रवीति ते ॥ १४१॥ १ ए ८ मा स्म भीः प्रोणों न मा स्म वा प्रोोस्त्वं म. २ ए सी मूर्ति कु. १ सी नायका'. २ ए काया क. ३ ए संसय्य. ४ सी डी शयमा'. ५ ए श्रामः विश्रमः । व्यश्रामकं व्य. ६ डी य । एतौ. ७ डी निना: ८ ए णदाणि'. सी डी णवो णि'. ९ए होतुः । रो". १० डी ऊोंति ऊौति. ११ ए °ौँ ऊ. १२ ए ति । अत्र' Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] १४१. हे सुभ्र भीरदृष्टपूर्वमदर्शनोत्था भीतिः कीं त्वां मा स्म प्रोर्णोद्व्यापत् । मा स्म वा । वा समुच्चये। मा स्म च मयि विषये स्वमात्मानं त्वं प्रोर्णोराच्छादयेर्यथावस्थितमात्मानं प्रकटयेरित्यर्थः । यतस्ते मूर्तिराकृतिरेव संशयमद्भुतगुणत्वादिविषयं संदेहं तृणेढ्यपनयति तथोचैरुन्नतं कुलं वंशं ब्रवीति च । आकृतिरेव त्वदीयं स्वरूपं वंशं चोन्नतं वक्तीति तवात्मनोपह्नवो निरर्थक एव यत इत्यर्थः ।। मा स्म प्रोर्णोत् । मा स्म प्रोर्णोः । अत्र “न दिस्योः" [६१ ] इति-और्न ॥ तृणेढि । इत्यत्र "तृहः श्नादीत् ” [ ६२ ] इति-ईत् ॥ ब्रवीति । इत्यत्र “बूतः परादिः” [६३ ] इति-ईत् ॥ बोभवीष्यप्सराः किं किं बोभोष्युद्यानदेवता । यत्ते वर्वति लावण्यं दिव्यतां वावदीति तत् ॥ ४२ ॥ १४२. किं त्वमप्सरा देवी बोभवीष्यत्यर्थं भवसि किं वोद्यानदेवता बोभोषि । यस्माद्यत्ते लावण्यं वर्वर्त्यतिशयेन वर्तते तल्लावण्यं ते दिव्यतां स्वर्गभवत्वं वावदीति ॥ तौषि क वंशे काम्बेति स्तौषि तातेति रौषि च । किं तवीष्यत्र के वा संस्तवीषि न रवीषि किम् ॥१४३॥ १४३. क वंशे तौषि वर्तसे । क कस्यां स्त्रियांमम्बेति मातेति १ए °त्र किं वा सस्त. १ ए रइष्ट. २ बी मदर्श'. सी मदर्श. ३ ए °दयोर्य. सी डी 'ययथा. ४ ए दिश्योः इ. ५ ए औनं ॥ तृ'. ६ ए °यानम्बे. Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है.. ४.३.६५.] नवमः सर्गः। ७३७ स्तौषि वर्णयसि । वदसीत्यर्थः । तथा कस्मिंस्तातेति जनकेति रौषि च वक्षि च । तथात्रास्मिन्स्थाने किं किमिति तवीषि वर्तसे कं वा पुरुषं संस्तवीषि परिचिनोषि कस्ते बन्धुरित्यर्थः । किं न रवीषि किमिति न किंचिद्भवीषि ॥ बोभवीषि बोभोपि । तवीषि तौषि । रवीपि रौषि । संस्तवीषि स्तौषि । इत्यत्र “यङ्तु” [६४] इत्यादिना वा-ईत् ॥ क्वचिन्न स्यात् । वर्वति ॥ क्वचिन्नित्यम् । वावदीति ॥ कुतो वाव्यथितेवासीरकार्षीरश्रु यत्किल । किमासीदुर्लभः कोपि यस्तेकार्षीत्पदं हृदि ॥ १४४ ॥ १४४. कुतः कस्माद्धेतोस्त्वं वाव्यथितेवात्यर्थं दुःखितेवासीरभूः । ननु कथं मे व्यथा त्वया ज्ञायते तीह । अकार्षीरेश्रु यत्किलेति । किलेति सत्ये । यदिति क्रियाविशेषणम् । यत्त्वमश्रु नेत्राम्ब्वकार्यित्त्वमरोदीरित्यर्थः । अथ व्यथाहेतुं स्वयमेवाशक्य पृच्छति । यस्ते हृदि चित्ते रूपाधतिशयेन पदमवस्थितिमकार्षीत् स किं कोपि युवा दुर्लभ आसीत् ॥ अकार्षीत् । अकार्षीः । आसीत् । आसीः। इत्यत्र “स” [६५] इत्यादिना-ईत् ॥ १ ए °सीचकारि य. १ ए सि । वेद. २ एषि व. ३ डी पि । तौषि तवीषि । र. ४ ए रवौषि. ५ बी यङतु. ६ ए सी ईत ॥ क. ७ ए मे धथा. ८ बी 'त्रा का. ९ ए रस य. १० ए ये । वदि. ११ ए त्राष्वकार्यर्य. १२ ए अच व्य. १३ सीत् ॥xxx व पीडि. Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] यच्चोलकमधास्तनाद्यापि कन्यात्वमत्यगाः । आर्तेवास्था यदेव त्वं सरस्तत्त्वां शरैरदात् ॥ १४५ ॥ १४५. यत्त्वं चोलकं कन्योचितं सर्वाङ्गीणकञ्चुकविशेषर्मधाः परिधानेनाधारयस्तैज्ज्ञायते त्वमद्यापि कन्यात्वं नात्येगा नात्यक्रमीः । तथा यत्त्वमत्र शैत्यरम्यत्वादिसुखकारिसर्वगुणोपेतकदलीगृह आतेव पीडितेवास्थास्तज्ज्ञायते त्वां स्मरः शरैरदादखण्डयत् । अत्र हि स्थाने कामाँति मुक्त्वान्या पीडा न स्यादेवेत्यर्थः । एतेन मनोभीष्टः कोपि ते दुर्लभोस्तीति द्रढितम् ॥ अथ दुर्लभमेव नामादिना स्पष्टं पृच्छति ॥ सुभगं के दृशापास्त्वं येन तेभूदृशेदशी । अङ्गोष्माश्रूण्यधासीयच्छ्वासोधादधरच्छविम् ॥ १४६ ॥ १४६. त्वं कं सुभगं वल्लभं दृशापा अपिवः किं नामाद्युपेतं सुभगं त्वं सतर्षमपश्य इत्यर्थः । येन सुभगेन हेतुना ते तवेदृशी दशावस्थाभूद्यत्किं यदङ्गोष्माङ्गसंतापोशूणि नेत्राम्बून्यधासीदपाद्गण्डस्थलोपरि पतितान्यशोषयदित्यर्थः । यच्च श्वासो दुःखान्निश्वसनमधरच्छविं सरसत्वरूपामधरशोभामधादशोषयत् ॥ अथोद्यानसंभविनावन्यावपि व्यथाहेतू आशङ्कय पृच्छति ॥ किं वा किंपाकमच्छासीरघासीश्वेह दारुणम् । अच्छा अघ्रा अयुक्पर्ण वाथ यत्सुभ्र दूयसे ॥ १४७ ॥ १ ए त्वसत्य. २ ए दव त्वं. ३ ए सीवेह. ४ ए यसुभ्रु. १ बी डी चितस. २ ए मधा प. ३ ए स्तद्जाय'. ४ बी डी ते तत्त्वम . ५ ए त्यरगा. ६ बी डी पेते क°. ७ ए °मार्तमु. ८ सी ति ॥ दु. ९ ए यद्यश्वा. Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.३.६६.] नवमः सर्गः। १४७. वा यवहोद्याने दारुणमुग्रगन्धि किंपाकं विषवृक्षफलमेच्छासी रैम्यत्वेन कौतुकादत्रोटयस्तथाघ्रासीश्च । वाथ यदायुक्पर्ण सप्तच्छदपुष्पमच्छा अघ्राश्च । हे सुभ्र यत्त्वं दूयसे कर्मकर्तरि प्रयोगोयम् । यत्त्वमेवमार्तीभवसीत्यर्थः । किंपाकफलाघ्रोण हि मूर्छाहेतुत्वेन सप्तच्छदपुष्पाघ्राणं चातिमदकत्वेन पीडके स्याताम् ॥ मा नरैः शोत्मरो मा स्म शासीद्व्याधिश्च मा स्में सात् । हृत्स्थो माधिश्च सासीत्त्वां ब्रूहीति विभज व्यथाम् ॥ १४८॥ १४८. व्यथां सुभगस्मरणाद्युत्थां पीडां ब्रूहि ततो विभज मय्यपि विभागेन स्थापय । व्यथा युक्ता निर्मलाशयत्वात्सजने दर्पण इव संक्रामति । स्वव्यथा निवेदकस्य लघूस्याच्च । यदुक्तम् । निवेद्यं दुःखं सुखी भवतीति । कुत इत्याह । हृत्स्थस्त्वद्धृदयवर्ती नरः सुभगस्त्वां मा शाहुःखोत्पादनेन मा तनूकार्षीत्तथा हृत्स्थः स्मरो मा स्म शासीत्तथा व्याधिश्च स्मरोत्थः किंपाकाद्याघ्राणोत्थो वा संतापादिस्त्वां मा स्म सान्मान्तं नैषीत्ताधिश्च मानसी व्यथा च त्वां मा सासीदिति हेतोः ॥ अपाः । अत्यगाः ॥ दासंज्ञ । अदात् । अधाः । अभूत् । अस्थाः । अत्र "पिबैति" [६६] इत्यादिना सिचो लुप् ॥ अधात् अधासीत् । अघ्राः अघ्रासीः । मा शात् मा स्म शासीत् । अच्छाः १४.१५ १ ए °रः स्यात्सरो. २ सी शास्मरो. ३ ए °सीश्वाधि. ४ डी म स्मात्. १ एणसुग्र. २ ए मत्सारसी. ३ डी रस्सत्वे'. ४ ए वाव य. ५ डी घाणे हि.६ ए णं हि मूर्छाहेतुत्वेन सप्तच्छदपुष्पाघ्राणं चा. ७ ए सी °द्युत्था पी. ८ सी डी मयापि. ९ ए °स्यास्व । य. सी डी स्यात् । य'. १० बी °द्य दुरकं सु. ११ ए कार्ष त्तथाद्वत्स्थः. १२ ए थाविश्च. १३ सी अत्य. १४ सी पिबेत्या. १५ बी वैत्या. Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४.० व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] अच्छासीः । मा स्म सात् मा सासीत् । इत्यत्र “टेना” [६७] इत्यादिना वा सिचो लुप् ॥ अथ प्रथममाशङ्कितं कं चित्सुभगमेतेनापि स्त्रीरत्नेनाभिलष्यमाणतया धन्यं मन्यमानोसौ श्लोकद्वयेन स्तौति ॥ तीर्थतत स किं दानमतनिष्ट तपः स किम् । अतनिष्ठा रतिं यस्मिनुत्कण्ठामतथास्तथा ॥ १४९ ॥ १४९. स सुभगस्तीर्थे गयादौ किं दानमंतत ददावित्यर्थः । तथा स किं तपोतनिष्ट चक्रे यस्मिंस्त्वं रतिं मनःप्रीतिमतनिष्ठास्तथा यस्मित्रुत्कण्ठामतथाः॥ वरं कस्यासनिष्टोमा हरोसातासत स्मरः । असनिष्ठा दृशं यत्र मनोसाथा यशोसथाः ॥ १५० ॥ १५०. उमा गौरी कस्य वरं प्रसादमसनिष्टादात्तथा कस्य हरो वरमसात तथा कस्य स्मरो वरमसत । यत्र नरे त्वं दृशमसनिष्ठा दर्शनायादास्तथा यत्र मनोसाथा अनुरागेणादी अत एव यत्र यशो रूपगुणाद्यतिशयोत्था कीर्तिमसथाः ॥ अतते अतनिष्ट । अतथाः अतनिष्ठाः । असेत असनिष्ट । असथाः असनिष्ठाः। अत्र "तन्भ्यो वा' [ ६०] इत्यादिना सिचो लुब्वा । तत्संनियोगे नणयोश्च लुप्॥ १बी अतिनि. २ एस्मिन्नुत्कण्ठात. १ए °च्छासी । मा. २ सी डी मा म सा. ३ बी थमा. ४ ए °माशंसितं. ५डीतं किंचि. ६ ए मनत. ७ ए चक्रो य. ८ ए तथा ॥. ९ ए °सासद'. १०डीदात् अ. ११ए योत्था की .१२ एतता अ. १३ एनिष्टः । अं. १४ ए निष्टा । अ. १५ ए सता अ°. १६ एनिष्टाः । अ. १७ ए तन्यो वा. १८ ए लुप्त्वा । त° १९ए णवोश्च. Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.३.७०.] नवमः सर्गः 1 ७४१ असात असत | असाथाः असथाः । अत्र “सेनस्तत्रा वा" [ ६९ ] इति लुपि सत्यां वा-आत् ॥ कृथा मय्यप्रसादं मा विरुद्धा मेति वादिनं । भूपेकृत हियं वक्तुं सोपारुद्ध संखीं वा ॥ १५१ ॥ १५१. सामयणला हियं लज्जामकृतै । ततो भ्रुवा भ्रसंज्ञया सखीं सन्निहितवयस्यां वक्तुमुँपारुद्ध प्रेरितवती । क्व सति । भूपे कैर्णे । किंभूते । मयि विषयेप्रसादं मा कृथाँ मयि मा विरुद्धा विरोधं मा कृथा इति वादिनि ॥ सख्यूचे त्वमभाषिष्ठा अभाषिष्ट यथा सुहृत् । इमामन्वग्रहीः पृच्छन्यच्च सत्सु चकाधि तत् ।। १५२ ॥ I १५२. सख्यूंचे । हे महापुरुष त्वमिमां तथा भाषिष्ठा यथा सुहृन्मित्रमभाषिष्ट्रावादीत् । यच्च यत्पुनः पृच्छन्कुलादिकं प्रश्नयन्निमां कन्यमन्वग्रहीः । अस्यां यत्त्वं प्रसादं चैकथेत्यर्थः । तत्सत्सु सज्जनेषु त्वमेव चकाधि शोभव || 1 चकाद्व्यवहितः श्रोतासि चेदेषा हि नः सखी । अनया द्योतयामाहे कदम्बकुलमुज्वलम् ॥ १५३ ॥ १५३. चेद्यदि त्वं श्रोतासि भवसि तदावहितः सावधानः संश्चकाद्धि शोभव सावधानो भवेत्यर्थः । एषा कन्या हि स्फुटं नोस्माकं १ ए कृत्वा म. २ डी °नि नृपे ३ ए सखी श्रु. १ सी डी 'सात् अ. २ डी सतस्त ३ बी 'तस्ततो. ४ ए मुद्रारु. ५ ए कर्मे । किं . ६ ए °षयेः प्र० ७ सी 'थास्तथा म. ८ ए विरुद्धं मा कुद्ध इ. ९ ए ख्यूचो । हे. १० ए न्यायाम. ११ ए चकार्येत्य .. Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] सखी । तथानयास्मत्सख्योज्वलं निष्कलङ्कं कदम्बकुलं कदम्बाख्यवंशो द्योतयामाहे स्त्रीरत्नत्वेनाशोभ्यत ॥ दक्षिणा द्योतयामासे येन योब्धिमधुक्षत । अदिग्धादुग्ध गां तस्य पुत्रीयं जयकेशिनः ॥ १५४ ॥ २५४. तस्य जयकेशिनो रोज्ञ इयं कन्या पुत्री येन दक्षिणा दिग् द्योतयामासे स्वामित्वेनाशोभ्यत तथा योब्धिमधुक्षत प्रभुत्वाद्रनान्यक्षारयत्ताँ यो गां पृथ्वीमदिग्ध दिह उपचय इत्येके । न्यायपालनेनोपचितीचक्रे तथादुग्ध रत्नान्यक्षारयच्च । अदृष्टेष्टवरा नान्नमलीढाघुक्षताशयम् । न्यगूढाकारमेषा को न यथा समधिक्षत ॥ १५५ ॥ १५५. एषा कन्या दृष्टेष्टवरा सती तथान्नं नालीढ नाभुक्त तथैषाशयमिष्टवराप्राप्त्यसमाहितं चित्तं तथा महाकष्टेनाधुक्षत संवृतवती । तथैषाकारमिष्टवराप्राप्तिदुःखोद्भवं मुखविकारादि तथातिकष्टेन न्यगूढ यथा को न समधिक्षत न संदिग्धवान्। किं तु सर्वोप्येवंविधावस्थासौ किं जीविष्यति न वेति संदेहे पपातेत्यर्थः ॥ नेपालिक्षत यत्तन्नालिक्षातां पितरावपि । मुखेदरिद्रीत्वजनोदरिद्रासीत्सखीजनः ॥ १५६ ॥ १५६. यद्यस्मादेषा कन्या नालिक्षत नामुक्त तत्तस्माद्धेतो: पितरा १ ए अदुग्धा. २ बी म् । न्यंगू. ३ ए °क्षता ॥. ४ डी जनाः ॥. १एम्बास्यवं. २ ए राज इ° ३ ए योच्चिम. ४ बी था पृ. ५ डी चितां च. ६ ए हे यथाते. Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है०४.३.७७. नवमः सर्गः। ७४३ वपि नालिक्षातामत एव स्वजन एतद्वन्धुवर्गः सुखेदरिद्रीदरिद्रोभूत्सुखरहितोभूदित्यर्थः । तथा सखीजनः सुखेदरिद्रासीत् ॥ उपारुद्ध । मा विरुद्धाः । अकृत । मा कृथाः । अत्र "धुड्" [ ७० ] इत्यादिना सिचो लुक् ॥ अनिट इति किम् । अभाषिष्ट । अभाषिष्ठाः ॥ अन्वग्रहीः । इत्यत्र “इट ईति" [ ७१ ] इति सिचो लुक् ॥ चकाधि चकाद्धि । इत्यत्र “सो धि वा" [ ७२ ] इति सस्य वा लुक् ॥ असि ॥ हस्त्वेति । द्योतयामाहे । अन्न “अस्तेः सि हस्त्वेति" [७३] ईति सस्य लुगेकारे तु हः ॥ परोक्षाया एकारे नेच्छन्त्यन्ये । द्योतयामासे ॥ अदुग्ध अधुक्षत । अदिग्ध समधिक्षत। अलीढं अलिक्षत । न्यगूढ अघुक्षत । इत्यत्र “दुहेदिह" [ ७४ ] इत्यादिना सको लुग्वा ॥ अलिक्षाताम् । अत्र "स्वरेतः" [ ७५ ] इति सकोस लुक् ॥ अदरिद्रीत् अदरिद्रासीत् । इत्यत्र "दरिद्रोद्यतन्यां वा" [७६] इत्यन्तस्यै लँग्वा ॥ दरिद्रांचक्रुषामन्तर्दरिद्रामीति कोप्यदात् । कर्णरूपं लिखित्वास्या अदरिद्रायकोन्यदा ॥ १५७ ॥ १५७. कोपि चित्रकरोन्यदा कर्णरूपं लिखित्वास्याः कन्याया अदात् । कीदृक्सन् । दरिद्रांचक्रुषामन्तदरिद्राणां मध्ये दरिद्राम्यहं दरिद्रोस्मीति हेतोरदरिद्रायको दरिद्रिष्यन्नीश्वरीभवितुमित्यर्थः॥ १ ए °चक्षुषा. सी चक्षपा. २ डी रिद्रोमी. १ ए क्षातां त. २ सी द्रीभू. ३ ए त्यथाः । त°. ४ ए पिष्टं । अ. ५ ए सी ग्रहीदित्य. ६ ए ति तस्य. ७ डी तम् । अ. ८ ए अली . ९ सी ढम् अ. १० सी डी क्षत् । न्य. ११ ए अधुक्ष. १२ ए दुहिदुह. १३ बी ई °रे इ. १४ ए लुग्व ॥. १५ ए चक्षुष्वा. १६ ए दलिद्रा . १७ ए सी हैं. Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] एषादरिद्राणमुद्यददरिद्रायिका ददौ । तस्यातोदिदरिद्रासोर्न दरिद्रायिकाभवत् ॥ १५८ ॥ १५८. एषा कन्या यद्रव्यादि ददौ । कीहक्सती । अदरिद्रोयिकोदारा तथाविद्यमानं दरिद्रोणं दारिद्र्यं यस्याः सा तथा मुत्कर्णरूपदर्शनोत्थो हर्षों यस्याः सा तथा । अतस्तस्माद्दानाददिदरिद्रीसोरीश्वरीबुभूपोस्तस्य चित्रकृतो दरिद्रायिका दारिद्र्यं नाभवत् ॥ ____ कान्तेरददरिद्रावद्रूपमेषाबिभश्च तत् । न नाचकाः किं त्वचकादमुनेति न कोन्वशात् ॥१५९॥ १५९. तत्कर्णरूपमेषा कन्याविभश्चात्मपार्श्वेधारयञ्च । यतः कान्तेः सौन्दर्यादिशोभायाः सकाशाददरिद्रावददरिद्रितं परिपूर्णकान्तीत्यर्थः । ततश्चैतां को नान्वशान्नावदत् । कथमित्याह । हे कन्येमुना कर्णरूपेण कृवीं त्वं न नाचका न नाशोभेथाः किं त्वचकादत्यन्तं त्वमेवाशोभथा एवेत्यर्थ इति ॥ मां रुणो विरुणन्मा स्म मां भिनः संमिनत्म मा। वशं जङ्गमिता तेस्मीत्येषावावद्यत स्मरम् ॥ १६० ॥ - १६०, कर्णरूपदर्शनेन स्मरपैरवशत्वादेषी कन्या स्मरेमवावद्यताभीक्ष्णमवोचत् । कथमित्याह । हे स्मर त्वं मां मा स्म रुणो मा बाधिष्ठास्तथा मा स्म मां विरुणन्मा विद्विक्षस्तथा त्वं मां स्म मामा स्म भिनो १ ए बी सी ई "द्रायका.२ सी डी त्॥ कर्ण. ३ ए रुणोन्मा. ४ एनत्समा. १ ए यद्रव्यदि. २ ए बी सी ई द्रायको'. ३ सी डी द्राणां दा. ४ ए सी द्रासौरी'. ५ बी रीवभू. ६ ए भूषास्त. ७ ए कान्त सौ. ८ सी त्वा त्वमे. ९ए भयाः किं. १० ए भया ए. ११ ए ई ति ॥ मा रु. १२ ए रपवरश. १३ ए °षा कन्या, १४ डी रमेवावाव. १५ ए त्या हे'. १६ ए मा सामि. Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.३.७८. ] नवमः सर्गः । बाणैर्विदारयस्तथा स्म मा संभिनत्सम्यग्विदारयो यतोस्म्यहं ते तव वशमायत्ततां जङ्गमिता कुटिलं गन्ता नृत्यन्ती [ नृत्यं ? ] करिष्यामीत्यर्थ इति ॥ कर्णे शाशयिता शाशय्यिताहेथ पावके । समिधिष्यति समिधिष्यमाणेत्याग्रहीदियम् ।। १६१ ॥ १६१. इयं कन्याग्रहीन्निर्बन्धं चक्रे । कथमित्याह । कर्णे कर्णसमीपेहूं शाशयिताहेत्यर्थं स्वप्स्याम्येथाथ वा यदि कर्णसमीपे शयनं न स्यात्तदाहं सम ( मि ? ) धिष्यति प्रज्वलितत्वात्काष्ठान्यभिलषिष्यमाणे पावशायिता । कीदृक्सती । सैमिधिष्यमाणा । काष्ठतुभविष्यन्तीति ॥ मध्यष्यति कामानौ द्राक्सैमिध्यिष्यते ह्यसौ । नान्यो भिषजितात्रार्थे कर्ण एव भिषज्यिता ।। १६२ ॥ १६२. हि स्फुटमसौ कन्या समिध्यिष्यति काष्ठान्यभिलषिष्यमाण इव । अतिप्रज्वलिष्यतीत्यर्थः । कामानौ द्राक्समिध्यिष्यते समिदिवाचरिष्यति । कामाग्निसंतापेनासौ भस्मसाद्भविष्यतीत्यर्थः । अत्रार्थे कामाग्निसंतापरोगविषयेन्यो न भिषजिता न चिकित्सिता । भिजिधातुः कण्वादौ चिकित्सितार्थः । किं तु कर्ण एव भिषज्यिता । E ७४५ दरिद्रांचकुषाम् । अत्र “अशिति” [ ७७ ] इत्यादिनान्तस्य लुक् ॥ अशितीति किम् । दरिद्रामि ॥ सन्नादिवर्जनं किम् । सनि । अदिदरिद्रासोः ॥ १ ए बी समधि.. २ बी समध्यि'. ३ एक्समध्येक्ष्यते . १ सी डी गता नित्यं क २ ए म्यथथ वा. ३ ए धिष्टाति ४ ए 'शयिता'. ५ बी सी डी समधि ६ ए 'कित्सता. ७ ए 'वजधा बी 'षज्धा' ८ बी सीडी 'कित्सार्थ:. ९ए 'शिशीत्या १० ए डी ई 'मि । रसनादि सी 'भि । स्मना ११ सी डी 'द्रासो ॥ ण, · ९४ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] णकचि । अदरिदायकः ॥ "पर्यायाह" [५.३. १२० ] इत्यादिना णके। दरिद्रायिका ॥ “णकैतृचौ" [५.१.४८ ] इति णके । अदरिद्रायिका ॥ अनटि । अदरिद्राण ॥ केचिद्दरिदातेरनिटि क्वसावालोपं नेच्छन्ति । तन्मत इद आम् चाभिधानान्न स्याताम् । अददरिद्रावत् ॥ अन्वशात् । अबिभः । अत्र "व्यञ्जनाद्" [७८] इत्यादिना देर्लुक् यथा. संभवं धातुसस्य च दः॥ अचकास्त्वम् अचकात्त्वम् । म मा भिनः म मा संभिनत् । मा स्म रुणः मा स्म विरुणत् । इत्यत्र “सेः सद्धां च रुर्वा" [ ७९ ] इति सेर्लुक् सकारदकारधकाराणां च वा रुः ॥ जङ्गमिता । शाशयिताहे । अत्र “योशिति"[८०] इति यस्य लुक् ॥ शीडो (!) शयादेशे व्यञ्जनान्तता ॥ अन्ये तु लाक्षणिकव्यञ्जनान्तेभ्यो यलोपं नेच्छन्ति । तेन शाशय्यिताहे । तन्मतसंग्रहार्थं व्यञ्जनान्ताद्धातोर्विहितस्येति विहितविशेषणं कार्यम् ॥ अशितीति किम् । अवावद्युत ॥ समिधिष्यति समिध्यिष्यति । समिधिष्यमाणा समिध्यिष्यते । अत्र "क्यो वा" [८१ ] इति क्यन्क्यडोर्वा लुक् ॥ केचित्तु यकोपि लुग्विकरूपमिच्छन्ति । भिषजिता भिषध्यिता । तन्मतसंग्रहार्थ केनोपलक्षितो यः क्य इति व्याख्ये यम् ॥ १डी द्राकः. २ ए कनृचौ अति. ३ ए 'यिक । अनदि । द. ४ ए सी डीई °टि । द. ५ डी रनटि. ६ डी आमचा .७ ए णः मा स्म रुणः मा. ८ सी सेः सं द्वा च. ९ ए शासयि. १० ए यच ॥ स. ११ सी प्यते. १२ ए मिधिष्य. १३ ए क्यो व्येति. १४ ए क्यनोलिक्. १५ ए सी तो य क्य. डी तो य् क्य. Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४७ [ है• ४.३.८५.] नवमः सर्गः। ७४४ वरयित्रीमिमां कर्ण तद्देशेत्राटिटत्पिता। उपायनं प्रेषितवान् गजैरगणितैस्तथा ॥ १६३ ॥ १६३. तत्तस्माद्धेतोः । कर्ण वरयित्रीमीप्सन्तीमिमां कन्यामत्र देशे गूर्जरत्रायां पिता जयकेश्याटिटत्प्रेषितवान् । तथागणितैरसंख्यातेगजैः सहोपायनं रत्नोपदां प्रेषितवान् । वरयित्रीम् । अत्र “अतः” [ ८२ ] इत्यस्य लुक् ॥ आटिटत् । इत्यत्र “णेरनिटि" [ ८३ ] इति लुक् ॥ अनिटीति किम् । वरयित्रीम् ॥ अगणितैः । प्रेषितवान् । इत्यत्र “से ट्रयोः" [ ८४ ] इति णेलुक् ॥ स्पृहयालुः स्पृहयाय्यं वरयामास यं सखी । भूमण्डयन्तो घोषेण गदयिजुर्न सोसि किम् ॥ १६४ ॥ १६४. स्पृहयालुरभिलाषुका सती सख्यस्मद्वयस्या स्पृहयाय्यं स्पृहयालु यं कर्ण वरयामांसेप्सामास स त्वं कर्णः किं नासि। कर्ण एव त्वमित्यर्थः । यतः कीदृक् त्वम् । भूमण्डयन्तो रूपादिगुणातिशयेन पृथ्व्या भूषणम् । तथा महापुरुषत्वाद्धोषेण कृत्वा गदयिलुमेंघो मेघगम्भीरस्वर इत्यर्थः ॥ वरयामास । मण्डयन्तः । स्पृहयालुः । स्पृहयाय्यम् । गदयित्नुः । अत्र "आमन्त" [८५] इत्यादिना जेरयादेशः॥ १ ए शेवाटि. १ए त्राया पिता के. २ ए °वा तथागणितै ३ ए होपय'. ४ ए टिवत्. ५ ए डी यालु यं. ६ डी मासैप्मा. ७ सी डी यतो रू. ८ एगुणोनि. ९ ए "यितुमें. १० सी यन्त । स्पृ ११ ए हयांय्यतोरू. १२ ए बी सी 'यित्नु । म. Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] नृपानवगणय्यान्यान्खेदं प्रापय्य नः सखी । कर्ण प्राप्य मनोत्रागादप्रमित्य वचोसि किम् ॥ १६५ ।। १६५. नोस्माकं सख्यत्र गूर्जरत्रायामागात् । किं कृत्वा । अन्यानृपानुद्वोढुमिच्छून् राज्ञोवगणय्यावज्ञाय । अत एव तान्खेदं प्रापय्य ततो मनः स्वचित्तं कर्ण प्राप्य नीत्वानुरागेण कर्ण मनसि कृत्वेत्यर्थः । तस्माद्वचोहं कर्ण इति वचनमप्रमित्याप्रतिदाय किमसि किमिति तिष्टसि । प्रतिवचनं दत्स्वेत्यर्थः ॥ अप्रमाय करं कर्णश्चेत्सराजय्यतां भजेत् । अयशोकय्यमक्षय्यमेषा प्रक्षीय दास्यति ।। १६६ ॥ १६६. चेत्कर्णः करमप्रमायैतत्करग्रहणपूर्व स्वपाणिमदत्वैतामपरिणीयेत्यर्थः । स्मराजय्यतां स्मरस्य कतुर्जेतुमशक्यतां भजेद्धैर्यातिशयात्स्मरेण जेतुमशक्यो यदि स्यादित्यर्थः । तदेषा कन्या प्रक्षीय विनश्यायशो दास्यत्यर्थात्कर्णस्य । किंभूतम् । अक्रय्यमकस्मादुपनतमित्यर्थः । अक्षय्यमनेकावदातैरपि क्षेतुमशक्यम् ।। अवगणय्य । इत्यत्र "लघोर्यपि" [ ८६ ] इत्यय् ॥ प्रापय्य प्राप्य । इत्यत्र “वाप्नोः” [ ८७ ] इति वाय ॥ अप्रमित्य अप्रमाय । इत्यत्र “मेडो वा मित्" [ ८८ ] इति वा मित् ॥ प्रक्षीय । इत्यत्र "क्षेः क्षी(क्षी:)" [ ८९ ] इति क्षीः ॥ अक्षय्यम् । अजय्यताम् । अत्र "क्षय्यजैय्यौ'' [९०] इत्यादिना निपात्यौ ॥ ऋय्यम् । इति "क्रय्यः क्रयार्थ" [ ९१ ] इति निपात्यम् ॥ १ ए 'श्वेत्सरा. १ ए जरावा. २ ए बी सिकृत्येत्य. ३ बी सी किमि . ४ सीडी करग्र. ५ ए स्वप्राणि'. ६ डी °णीयो इ. ७ ए बी डी अनव. ८ ए त्यव ल. ९ बी वाप्नोतिरिति. १० ए वाइय्. सी वाडय. ११ डी त्र क्षः क्षी. १२ सी म् । अजय्यम् । अ. १३ ए °जयो क्षय्य इ. १४ बी ग्यौ क्षय्य इ. Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.३.९२.] नवमः सर्गः । ७४९ शृण्वत्यवात्सीदिति राज्ञि चिन्तासौ मे दिदीयानधृतिदिदीये । नाल्यः पपुस्त्वामवितासि कर्णः कष्टे हहाँ तस्थिथ चेत्यथावत् ॥१६७॥ १६७. शृण्वति पूर्वोक्तमाकर्णयति राज्ञि कर्ण इत्येवंविधा चिन्तावात्सीदुवास । चिन्तामेवाह । असौ मयणला दिदीयाना मद्वियोगेन क्षीणा धृतिः स्वास्थ्यं यस्याः सा तथा सती मे मदर्थं दिदीये क्षीणा । अथैवं चिन्तानन्तरं मयणल्लामाह्वच्चावदच्च । कथमित्याह । हे मयणल्ले । हहा खेदे । त्वं कष्टे दुःखे तस्थिथ स्थितवती । परमाल्य: सख्यस्त्वां न पपुर्न ररक्षुरधुनाहं कर्णस्त्वामवितास्मि रक्षिष्यामीति । इन्द्रवनाछन्दः ।। पाणिं ते व्यतिले नतभ्र गुरवो यत्त्वामदुर्मे ततो ग्लेयाद्भूपजनस्त्वदिच्छुरखिलो ग्लायाच दिव्यो जनः । धेयास्त्वं महिषीपदं मैम रतिं देया विहेयास्त्रपा निष्पेया मधुपर्कमित्यभिदधत्तां पर्यणैषीनृपः ॥ १६८ ॥ १६८. नृपः कर्णस्तां पर्यणैषीत् । कीहक्सन् । अभिधद्वदन् । किमित्याह । हे नतभ्र यद्यस्मात्ते गुरवः पितरस्त्वां मे मह्यमदुस्ततस्तस्मादहं ते पाणिं व्यतिले विनिमयेन गृह्णामि । ततस्त्वत्पाणिग्रहणानन्तरं त्वदिच्छुरखिलो भूपजनो ग्लेयात्क्षीणहर्षो भूयात्तथा त्वदिच्छुदिव्यो जनो देवोघो ग्लायाच्च । तथा त्वं मधुर्पक दना संयुक्तं मधु निष्पेयाः । विवाहकाले हि वधूवरौ मधुपर्क पिबत इत्याचारः । मत्पत्नी भूया इत्यर्थः । तथा महिषीपदं पट्टराज्ञीपदवीं धेया धार्या १ ए पुत्वाम. २ ए हा वस्थि. ३ ए मग र. ४ ए देद्या वि. ५ ए निष्फेया. बी निप्पेया. १ए हृत् । अवदस्व क. २ ए °टे त. ३ ए रक्षताह. ४ ए गुरुवः. ५ ए आणि व्य. ६ सी डी विनम. ७ ए तस्त्व'. ८ई °पर्क द. Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] स्तथा त्रपां रतिकाले लज्जां विहेयास्त्यज्या अत एव रैतिं सुखं देया इति । शार्दूलविक्रीडितं छन्दः ॥ गेयासं गीतैर्वां सुसूत्रेण मेयासं स्थेयासं चाग्रेवसेयासमंहः । अभ्यागात्तत्राथेति जेगीयमानं बन्धूनां स्त्रैणं कुङ्कुमापीतपॉणि ॥१६९ ॥ १६९. अथेत्यारम्भे । अथ विवाहारम्भकाले बन्धूनां वैधूवरस्वजनानां त्रैणं तत्रोद्वाहस्थानेभ्यागात्। कीदृग्जेगीयमानमत्यर्थं गायद्वद्वा । किमित्याह । हे वधूवरौ वां युवामहं गीतैर्विवाहोचितगानैर्गेयासं गायानि । तथाहं सुसूत्रेण सुष्टु कुमारिकांकर्तितत्वात्रुटितत्वादिशात्रोक्तगुणोपेतत्वाच्छोभनं यत्सूत्रं तेन कृत्वा मेयासं पुङ्खणं क्रियासमित्यर्थः । तथाहमने लवणोत्तारणाद्यर्थं युवयोः पुरः स्थेयासं ताहमहश्चक्षुर्दोषाशुद्भवं पापं कष्टमित्यर्थः । अवसेयासं लवणांद्युत्तारणेनान्तं नयेयमिति । तथावृत्त्या व्याख्याने जेगीयमानं कुटिलं गच्छत्सलीलगामीत्यर्थः । तथा कुङ्कुमेनापीता आरक्ताः पाणयो घुटिकाधोभागा अपि यस्य तत्कुङ्कुमपिञ्जरितसर्वाङ्गमित्यर्थः । एतेनास्याविधवत्वोक्तिः । वैश्वदेवी छन्दः ॥ १ई मेषासं. २ सी समहं । अं. ३ ई मह । अ. ४ ए अभ्यगात्तथे ५ ए पाणिः ॥. ई पाष्णि ॥. १ ए त्रपा र. २ बी सी डी यास्त्याज्या. ३ बी रतिसु. ४ ई वरवधूस्व. ५ ए नमित्यर्थः गा. ६ई ° दत् । कि. ए दद्व्य कि. ७ ए वधौव. ८ ए °महंगी'. ९ ए संगीया. सी °सं गेया. १० ई काकीतितत्वात् त्रुटित्वादि. ११ ए दिशोस्रो . १२ ए गुणापे. १३ ए पुखणं. सी पुस्वणं. १४ ए 'हमहचक्षु०. १५ बी सी °णादुत्ता. १६ ई गीअमा'. १७ ई गामित्य. १८ ए पाणयो. १९ ई विधिवत्वोक्तिः, २० ई वी छ ।. Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.३.९२.] नवमः सर्गः । ७५१ तेष्ठीयेते तौ स पेपीयमानौ दृष्ट्यान्योन्यं धाम देधीयमानौ' । देदीयन्तेनमेमीय्यमानान्साप्ताश्चाचारानसेषीयर्माणाः ॥१७०॥ १७०. धामोद्वाहसंबन्धोत्थं श्रीविशेष देधीयमानावत्यर्थ बिभ्रतौ तौ वधूवरौ तेष्ठीयेते स्मात्यर्थं स्थितौ । कीदृशौ सन्तौ । दृष्टया कृत्वान्योन्यं पेपीयमानावत्यर्थं पिबन्तौ । तारामेलकं कुर्वाणावित्यर्थः । तथाप्ता वधूवरयोः प्रत्ययिताः स्वजना अमेमीय्यमानानत्यर्थमसंख्यानर्थान्द्रव्याणि देदीयन्ते स्मात्यर्थमन्योन्यं वितेयंत आचारान्दानादीनि विवाहकर्माण्यसेषीयमाणा अत्यर्थमविनाशयन्तः । शालिनी छन्दः॥ जेहीयन्ते ये मदं नैव येद्रीन्मामायन्तेङ्गरहीनैगजांस्तान् । चौलुक्यः संवन्धिभिर्दीयमानानादायाथामीयमानांश्चचाल ॥१७१ ॥ १७१. अथ विवाह विध्यनन्तरं चौलुक्यः कर्णश्चचाल । किं कृत्वामीयमानॉनप्रतिदीयमानास्ताँ संबन्धिभिः श्वशुरचर्यलोकैर्दीयमानांस्तान् गजानादाय ये मदं नैव जेहीयन्ते नात्यर्थं परिहरन्ति न कदापि मदरहिता इत्यर्थः । तथा येहीनैश्चत्वारिंशद्वर्षत्वेन परिपूर्णैरङ्गैः कृत्वाद्रीन्मामायन्तेत्यर्थ मिमते येद्रिप्रमाणाङ्गा इत्यर्थः ॥ अमीयमानैरविषीयमाणैनिधीयमानैः पथि पौरलाजैः। आस्थीयमानः स नवोढवध्वा तया सहोचैर्निजहऱ्यामागात ॥१७२ ॥ १७२. स कर्णस्तया नवोढवध्वा सहोचैरुन्नतं निजयंमागात् । कीहक्सन् । पौरलाजै गैराक्षतैः पथ्यास्थीयमान आश्रीयमाणः । किं १ एनौ । दिदी. २ ए निमे'. ३ ई 'रान्नसे'. ४ ए बी सी माणा ॥. ५ए 'न्मानाय. ६ ए नैगजां. ७ ए °लुक्य सं.८ ए °भिदीय'. ९ ए चालः ॥ अ. १ सी धोत्थश्री. २ बी यिता स्व. ३ ए र्थसं. ४ ए 'ख्यामर्थी . ५ डी 'नान्प्र. ६ ई थाxxxयेहीनैश्च. ७ ए °वर्गलो . सी वर्गलो. ८ सी डी ये गजा मो. ९ बी सी डी गरिकाक्ष. Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] भूतैः । अमीयमानैरसंख्यैरविषीयमाणैः प्रचण्डवातादिनाविनाश्यमाननिधीयमाननिक्षिप्यमाणैः ॥ अवात्सीत् । इत्यत्र “सस्तः सि" [ ९२ ] इति सस्य तः ॥ दिदीये । दिदीयान । इत्यत्र “दीय' [ ९३ ] इत्यादिना दीय् ॥ पपुः । आह्वत् ॥ इद । तस्थिथ ॥ एत् । व्यतिले ॥ पुस् । अदुः । इत्यन्न "इडेद्" [ ९४ ] इत्यादिनातो लुक् ॥ ग्लेयात् ग्लायात् । अत्र “संयोगा' [ ९५ ] इत्यादिना वा-एत् ॥ गैयाँसम् । निष्पेयाः । स्थेयासम् । अवसेयासम् । दासंज्ञ । देयाः । धेयाः॥ मेयासम् । विहेयाः । भन्न “गापा' [ ९६ ] इत्यादिना-ऐत् ॥ गै गौंडा । जेगीयमानम् । गीतैः ॥ पा । पेपीयमानौ । आपीत ॥ स्था। आस्थीयमानः । तेष्ठीयेते ॥ सो । अविषीयमाणैः । असेषीयमाणाः ॥ दासज्ञ । दीयमानीन् । देदीयन्ते । निधीयमानः । देधीयमानौ ॥ मा इति मामाङ्मेङां त्रयाणां ग्रैहण । मा माङ्का । अमीयमानैः । अमेमीय्यमानानं ॥ मेङ् । अमी. यमानान् । हाक् । जेहीयन्ते । अहीनैः । अत्र "ईय॑ञ्जनेयपि" [९७] इति-ईः॥ मातेनेच्छन्त्यन्ये । मामायन्ते । अयपीति किम् । आदाय ॥ उपजातिश्छन्दः॥ ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्रा. भिधानशब्दानुशासनद्याश्रयवृत्तौ नवमः सर्गः ॥ १ ई "माणैनि'. २ सी डी णैः ॥ आवा'. ३ ई त्र देयीत्या. ४ ए दीया ॥ प.५ ए स्थिथा ॥ ए. ६ ए पुरु । अ. ७ ए ई डेत्या . ८ सी गेयाः । स्थे'. ९ ए यासाम्. १० ए संज्ञः । दें. ११ ए हेया । अ. १२ ए त् । गौगाड़ी । जंगी. डी त् । गैंगा. १३ ई गाङ । जे. १४ ए °मानाम्. १५ ए पीता ॥ स्था. १६ ए ते ॥ सौ । अ. १७ ए संज्ञा । दी. १८ ईन् । दिदी. १९ ए ई 'मानौ । दे'. २० ए ई मानैः ॥ मा. २१ ए °हणाम् । मोमोङा ।। २२ सी म् । माडा.२३ सी डीन् । हा. २४ ए बी ईव्या. २५ बी सी डी ई तिच्छन्दः. Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेघीय्यमाणोरुयशा नृपः सा देध्मीय्यमानैकसतीव्रता च । जेघ्रीत उच्चैः शिवयोः श्रियं स्म जाघ्रीत आभ स च विष्णुलक्ष्म्योः ॥ १ ॥ १. नृपः कर्णः सा च मयणल्ला च शिवयोर्हरगौर्योरुच्चैरतिशयितां श्रियं शुभसंबन्धरूपां शोभां जेन्रीतः स्मात्यर्थं जिघ्रतः स्म । जगृहतुरित्यर्थः । तथा विष्णुलक्ष्म्योराभां च जाघ्रीतः स्म । कीदृग्नृपः । जेनीय्यमाणं सुरभित्वादत्यर्थं लोकैराघ्रायमाणम् । संकीर्त्यमानमित्यर्थः । उरु महद्यशो यस्य सः । सा च कीदृशी । देष्मीय्यमानं निर्मलत्वालोकैरत्यर्थं संकीर्त्यमानमेकमसाधारणं सतीव्रतं यस्याः सा ।। व्याश्रयमहाकाव्ये दशम सर्गः । ११ 93 जेत्रीयमणि । देमीय्यमान । इत्यत्र " घ्राध्मोर्य डि” [ ९७] इति - ईत् ॥ यङीति किं । जानीतः । अत्र "एषामीर्व्यञ्जनेदः " [ ४.२.९८ ] इति-ईः ॥ अन् लुप्यपीच्छन्ति । जेीः ॥ सर्गेस्मिन्नुपजातिच्छन्दः ॥ १ ए 'श्रीयामा बी 'श्रीयमा'. २ ई देनीय्य. ३ ए आभा म. भासि च डी 'भां स च . १ साम. २ ए 'योर्हेर - ३ बी रायतां. ५ ए जेघ्रीः तस्मा ६ ए कीर्यमा. श्रি देशीय्य. ९ए लोके. मा. १२ ए म् । जोनी, ९५ ४ सी ४ए 'यिनं श्रि ई ता ७ ए सः । स च. ८ ई १० ए बी माणा । दे. ११ सी डी 'धमी १३ ए 'मीव्यम'. १४ ए अडे य. Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः] जेनीयते यां न हि नो जघान तां मे प्रजा जङ्घनिता नु कोपि। आसीदसूनोरिति धैर्यघाती नृपस्य चिन्ताकुलिशाभिघातः ॥२॥ २. धैर्यघाती धैर्य व्यसनेप्यकातयं तद्विनाशी नृपस्य कर्णस्य चिन्ताकुंलिशाभिघातश्चिन्तैवातिदुःखकत्वाद्वैज्राघातोभूत् । कथमित्याह । तां मे ममासूनोनिष्पुत्रस्य सतः प्रजां लोकम् । नु इति संभावने । संभावयेहं कोपि जङ्घनिता मत्तोनन्तरं कुटिलं गमिष्यत्यभिषेणयिध्यतीत्यर्थः । अत्यर्थं हनिष्यति वा । यां न हि नैव कोपि जेनीयतेत्यर्थं हिनस्ति न जघान वेति ॥ योनेशदाघानि मया स नाजौ नश्यामि नो नाप्यनशं स्वयं च । परस्त्रियो नाश्वमवोचमास्थं कथं न्वपप्तं विसुतत्वदुःखे ॥३॥ ... त्वमात्मजेनाभ्युदियाः प्रतीयास्तत्स्पर्शसौख्यं प्रतियाः प्रमोदम् । मयीत्यसंशय्य समुह्यते स्म यद्ध्यानशय्यैस्तदु किं नु शेते ॥ ४॥ मां संततीयनंधियासमास्तूयासं शुचीभूय भृशायमानः । चेचीयमानः परिचीयमानं वल्गूयदोजास्तदहं समाधिम् ॥५॥ १ सी डी जेघीय. २ ए हि भोज'. ३ ए न ता मे. ४ सीता न को. ५ सी डी 'नोरति. ६ ई कुलशा. ७ ए नि यमा स. ८ ई भ्युदयाः... ९ ए °तिया प्र. १० ए यद्वानशब्योथर्तिक नु. ११ ई शेतम् ॥ मां. १२ ए न--स. १३ बी समांस्तू. १४ ए °मान प. १५ ए °स्तमहं. १६ ए धि ॥ मा. १ए कार्य तद्वि. २ ई कुलशा'. ३ ए द्वजापा. ४ ए नोनिष्पु. बी नोनिप्पुत्र. ५ ई नित्पुत्र'. ६ ए तामुत्तो'. ७ बी णयषती. ८ ए न दि नै. ९ ए सी डी जेनीय. १० बी ई °न चेति. Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.३.९९.] दशमः सर्गः। ५५ मात्रीयतामापदि यात्र मात्रीयतेथ मात्रीभवति क्रियाभिः। क्रियात्कृपामह्रियमाणभक्त ह्रीय्यमाणा तपसाद्य सा मे ॥६॥ इत्थं सुतीयन्स वितयं दीपीकृतैर्दिवाभूतनिशं प्रदीपैः। श्रीवेश्म मालीकृतकेतु यातोदन्याशनायो विधनाय आपत् ॥७॥ ३-७. स कर्णः श्रीवेश्म लक्ष्मीदेवताभवनमापत्तोप । कीदृक्सन् । सुतीयन्पुत्रमिच्छन्नत एव याते विगते उदन्याशनाये भोजनेच्छोदकेच्छे यस्य सः। तथा विगत धनाँया धनेच्छा यस्य स निर्लोभश्च । कीदृशं श्रीवेइम । दीप्रीकृतैः प्रज्वालितः प्रदीपैः कृत्वा दिवाभूता दिवसीभूता निशा यत्र तत् । तथा मालीकृतकेतु पतीकृतध्वजम् । किं कृत्वा । वितळ । कथमित्याह । आजौ रणे योनेशन्नष्टः स मया नाघानि न हतस्तथाहं स्वयं चाजो नो नश्यामि ना. प्यनशं न नष्टस्तथाहं परस्त्रियो नाश्वं नागमं नावोचं नौलपं न चास्थं सतीत्वेन मद्वचोमन्यमाना नाह तिरश्चक्रे । नष्टप्रहारादीनि क्षात्रधर्मबाधकानि महापापानि मया न कृतानीत्यर्थः । ततो नु इति संशये । संशयितोस्मि कथमहं विसुतत्वदुःखेपुत्रत्वकष्टेपप्तं पतितः । तथा ध्यानमेव सदा विश्रामसुखहेतुत्वाच्छय्या येषां तैर्योगिभिरसंशय्य सम्यग्ज्ञानेन निश्चित्य मयि विषये यत्समुह्यते स्म चिन्तितम् । १ ए तेस मा. २ ई °भिः । कृया'. ३ ए तेयेही. ४ ए तर्का दी. ५ सी डी त् । पञ्चभिः कुलकम् । स. १बी ताभुव. २ ए प्राप् । कीदृन्. ३ सी डी यत्पुत्र. ४ ए न्याराना. ५ ए बी °दकोच्छे. ६ ए ता या ध. ७ई नाय ध. ८ ए दित्वाभू. ९ बी मिथ्याह. १० ई यं आजौ. ११ ए परिस्त्रियो. १२ बी भं नोवाचं. १३ ए नालंप न. १४ सी हं वसु. १५ ए म्यग्जाने. Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ ध्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] कथमित्याह । आत्मजेन पुत्रेण कृत्वा त्वमभ्युदिया अभ्युदितपुत्रो भूया इत्यर्थः । तथा तत्स्पर्शसौख्यं पुत्रस्पर्शसुखं प्रतीया अनुभवेजीव॑न्पुत्रसुखं पश्येरित्यर्थः । तथा प्रमोदं पुत्रराज्याभिषेकायुद्भवं हर्ष प्रतिया इति । उ इति संबोधने । तैतिक नु शेते यन्नाद्यापि पुत्रो भवतीत्यर्थः ॥ तत्तस्माद्धेतोरहं वल्गूयच्छोभनमोजः सत्त्वं यस्य सोतिसात्त्विकोत एव शुचीभूय बाह्याभ्यन्तरमलप्रक्षालनेन निर्मलीभूय परिचीयमानमभ्यस्यमानं समाधि चित्तैकाग्र्यं चेचीयमानोत्यर्थं पोषयन्सन्मां लक्ष्मीदेवतामधियासं संस्मर्यासमास्तूयासं संकीर्तयेयम्। यतः कीदृशोहं संततीयन्संततिमिच्छंस्तथा भृशायमान: संततिप्राप्तौ त्वरमाणः । तथात्र जगति या लक्ष्मीरापदि मात्रीयतां मातरमिच्छतां नृणां क्रियाभिः पालनपोषणादिभिः कृत्वा मात्रीयते मातेवाचरत्यथाथ वा मात्रीभवति जनन्येव स्यात् सा लक्ष्मीरद्याहियमाणभक्तनिश्चलभक्तेर्मे मम तपसा जेहीय्यमाणात्यर्थमावीमाना सती कृपां दयां क्रियान्ममैवेत्थम् ॥ जेनीयते । अत्र “हनो शीर्वधे' [ ९९ ] इति नीः ॥ वध इति किम् । गतौ जङ्घनिता ॥ केचिद्धन्तेर्वधे नी-आदेशं वाहुस्तन्मते वधार्थेपि जवनितेति स्यात् ॥ अभिधातः । धैर्यघाती । इत्यत्रै "णिति घात् " [ १०० ] इति घात् ॥ अघानि । जघान । इत्यत्र "मिणवि |न् " [१०] इति घन् ॥ १ई °था स्तत्स्प. २ सी सौत्यर्थः । तत्त'. ३ ए वेजीवन्पु. ४ बीडी 'वत्पुत्र. ५ ए ई त्रमुखं. ६ए तत्कं नु. ७ए चीय. ८ डी मस्य'. ९सी माधि. १० बी यमनो. ११ ई समां ल', १२ ए °णा मा. १३ बी चरित्य. १४ डी त्यथ. १५ बी निश्चिल'. १६ ई यत । अ. १७ ए नोधी वधे. १८ बीनीवधे. १९ ए ति घी ॥ व. बी सी डी तिनी॥ व. २० ए शं चाहु. ईशं नाहु. २१ बी जघनि. २२ ए ई धैर्यघा. २३ एत्र णिति. २४ ए घङ् इ. Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है० ४.३.११०.] दशमः सर्गः। अनेशत् अनशम् । अत्र “नशेर्नेश्वाङि" [ १०२ ] इति वा नैश ॥ अङीति किम् । नश्यामि ॥ अश्वम् । आस्थम् । अवोचम् । अपप्तम् । अत्र “श्वयति" [ १०३ ] इत्यादिना श्व-अस्थ-वोच-पैताः ॥ शेते । अत्र “शीङ ए: शिति" [ १०४ ] इत्येत् ॥ असंशय्य । ध्यानॆशय्यैः । अत्र “क्विति यि शय्" [ १०५] इति शय् ॥ समुद्यते । अत्र "उपसर्गाद्" [ १०६ ] इत्यादिना इस्वः॥ अभ्युदियाः । अत्र "आशिषीणः" [ १०७ ] इति ह्रस्वः ॥ ननु प्रतीयाः इत्यन्न समानलक्षणे दीर्घे सति कथं न इस्वः । न । दीर्घे सत्युपसर्गात्परस्येणोभावात् । केचिदनापीच्छन्ति । प्रतियाः ॥ इकोपि समानदीर्घत्व इच्छन्त्येके । अधियासम् ॥ चि । शुधीभूय ॥ यङ् । चेचीयमानः ॥ यक् । वल्गूयत् ॥ क्यन् । संततीयन् ॥ क्यङ् । भृशायमानः ॥ क्य । परिचीयमानम् ॥आस्तूयासम् । अत्र "दीर्घश्वि" [१०८ ] इत्यादिना दीर्घः ॥ बहुवचनात्क्यशब्देन क्यन्क्यङ् क्यज्य(?)क्यानामविशेषेण ग्रहणम् ॥ मात्रीभवति । जेहीय्यमाणा । मात्रीयताम् । मात्रीयते । अत्र "ऋतो री'(:) [ १०९] इति रीः ॥ क्रियाभिः । अह्रियमाण । क्रियात् । इत्येत्र "रिः श" [११०] इत्यादिना रिः॥ १ई शेनेश्वा. २ ए नेश ॥ अ. ३ ए सी पप्ता | शे'. ४ ए 'नशाय्यैः. ५ ई शय्य । अति. ६ बी यि शिय्. ७ ए ई °म् । च्चि । शु. ८ ए सी डीम् । अ. ९ ए दीर्घश्चि इ. १० ए क्यच्क्य°. ११ सीडी हीयमा. १२ ए सी 'ता। मा०. १३ डी यन्ते । अ°. १४ ए बी सीई तिरी ॥ क्रि. १५ ए त्यव रिःशदित्या. Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ घ्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] दीप्रीकृतैः। मालीकृत । इत्यत्र “ईश्वौ" [१११] इत्यादिना-ईः ॥ अनव्ययस्येति किम् । दिवाभूत ॥ सुतीयन् । इत्यत्र “क्यनि" [ ११२ ] इति-ईः ॥ अशनायोद॑न्याधनायाः । "क्षुत्तृड्' [ ११३ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ तत्राषस्यन् गुरुणाप्यनश्वस्यता रहोध्यापितलक्ष्मिमत्रः। वारिस्यतां विस्मयमप्यवार्यस्यंस्तापसानां नृपतिस्ततान ॥ ८॥ ८. तत्र श्रीवेश्मनि नृपतिः कर्णोवार्यस्यन्वार्यपि पातुमनिच्छन्सन्वारिस्थतां वारि पातुमिच्छतां तापसानामपि । अपिरत्र योज्यः । आस्तामन्येषामित्यप्यर्थः । विस्मयमाश्चर्य ततान चक्रे । कीदृशः । अवृषस्यन् । वृष मैथुनमनिच्छन् । तथा गुरुणापि मत्राचार्येणाप्यनश्वस्यताश्वं मैथुनमनिच्छता सता रह एकान्तेध्यापितलक्ष्मिमन्त्रः पाठितलक्ष्मीदेवतामत्रः ॥ अवृषस्यन् । अनश्वस्यता । इत्यत्र “वृष" [११४] इत्यादिना सो(स्सो?)न्तः॥ वारिस्थतीम् । अवार्यस्यन् । इत्यत्र “अस् च लौल्ये" [ ११५] इति सो(स्सो?)स् चान्तः ॥ पञ्चदशः पादः संपूर्णः ॥ १ए दीघ्रीकृ. २ ए °नाई ॥ अ०. ३ ए व्ययः । स्ये'. ४ ए °त ॥ स्तृती. ५ ए सी क्यति इ०. ६ बी °दन्यध. ७ ए बी सी नाया। क्षु. ८ एन्वापि. ९ बी °च्छन्वा. १० ए सस्वारि . ११ ए मामनि'. १२ बी वृपं मैं. १३ ए इष्णादि. १४ ए ता । अ. १५ ए °सू चालोल्यति. Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.४.१] दशमः सर्गः। ७५९ न पर्यभूत्कं चने न व्यवोचज्जपाक्षरं सास्ति रहो ब्रुवाणः । स्त्रीणां समाजे समजे न्वजानां विवाय दृष्टिं स वशी न जातु ॥९॥ ९. स कर्ण उपशमिततमोगुणत्वेन कं चन शत्रुमपि न पर्यभून्न न्यकृतवांस्तथा कं चन न व्यवोचन विरुद्धं भाषिवांस्तथोपशमितरजोगुणत्वाद्वशी जितेन्द्रियः सन्सोजानां छागीनां समजे नु समूह इव स्त्रीणां समाजे वृन्दे जातु दृष्टिं न विवाय रागेण न चिक्षेप किं तु रह एकान्ते जपाक्षरं जापर्वण मन्त्रं ब्रुवाण उच्चारयन्नस्ति स्म तस्थौ ॥ स विट्मज्यां तनुगां प्रवेतांहः प्राजिता प्राजनवत्तपोभिः । द्राक्पाँवयण्यं कलयद्भिरविन्नान्प्रवेतुं श्रियमर्चति स्म ॥१०॥ १०. स कर्णोब्जैः कृत्वा श्रियमर्चति स्म । किंभूतैः । विनानन्तरायान्प्रवेतुं क्षेप्तुं प्रावयण्यं तोत्रदण्डतां कलयद्भिर्धारयद्भिः। सौरभीतिशयेन विघ्नविनायकानां वशीकारित्वाद्विघ्नक्षेपदक्षैरित्यर्थः । कीक्सन् । प्राजनवत्तोदनतुल्यैरतितीक्ष्णैरित्यर्थः । तपोभिः कृत्वा तनुगामन्तरङ्गां द्वितमज्यां कामाद्यरिषकसभा दाक्प्रवेता क्षेप्तात एवाहः पापं प्राजिता ॥ १ ए र्यसूक्तं च. २ ए न च व्य. ३ डी जे त्वजा. ४ ए विचार्य वृष्टिं स. ५ ए जातुः ॥ स. ६ डी प्रवाता. ७ ए प्राचवण्यं. ८ एरनैर्वि. ९ ए °मर्थति. -१ बी नां छगी. २ ए जे वन्दे. ३ ए विवरनवविमेणचि. ४ सी डी °ण चि. ५ एन्ते पा. ६ सी वर्ण म. ७ एबं ध्रुवा'. ८ ए यन्वस्ति स्म तस्थौ. ९ ए गोब्जैकृ. १० ए °मर्थति. ११ ए यद्भि । सौ. १२ डी भाविजये. १३ ए द्विश्नक्षे. १४ ए रङ्गा द्वि. १५ ए एवाहः. Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० व्याश्रयमहाकाब्बे [कर्णराजः क्शाता न हि प्राजितुमप्यनिष्टख्यातारमों ब्रह्म स किं नु चक्शे । ब्रह्मा न चख्शे मुरजिन्न चख्ये न चाचर्चक्षे च यथेन्दुमौलिः ॥११॥ ११. स कर्ण उपशान्तत्वादनिष्टख्यातारमप्यप्रियवक्तारमपि नरं प्राजितुं निराकर्तुं न हि नैव क्शाता वक्ता किं तु ब्रह्म परमध्येयमोमोकारं तथा चक्श उच्चारितवान् यथा ब्रह्मा न चख्शे यथाँ मुरजिद्विष्णुर्न चख्ये यथेन्दुमौलिश्च हरश्च नाचचक्षे ॥ पर्यभूत् । व्यवोचत् । इत्यत्र "अस्ति" [१] इत्यादिना भूवचौ ॥अशि. तीति किम् । अस्ति । बुवाणः ॥ विवाय । इत्यत्र “अर्घ' [२] इत्यादिना वीः ॥ अघक्यबलचीति किम् । समाजे । समज्याम् । समजे । अजानाम् ॥ प्रेवेता प्राजिता । प्रावयण्यम् प्राजन । इत्यन्न "नने वा" [३] इति वा वीः ॥ अन्ये त्वने प्रत्यये यकाररहिते व्यञ्जनादौ चाविशेषेण विकल्पमिच्छन्ति । प्रवेता प्राजिता । प्रवेतुम् प्राजितुम् ॥ क्शाता । ख्यातारम् । अत्र "चक्षो वाचि" [४] इत्यादिना क्शाङ्ख्यागौ। चक्शे । चख्शे । चख्ये । अत्र "न वा" [५] इत्यादिना वा क्शाङ्ख्याङ्गौ ॥ पक्षे । आचचक्षे ॥ चख्शे । अत्र "शिव्याद्यस्य द्वितीयो वा " [१.३.५९] इति कस्य खः ॥ १ ए बी ख्शे सुर. २ बी चक्ष्ये च. ३ ए क्षेथ य. १ ए भो ओङ्कार त. सीमो आकारं. २ सी ख्शेन चख्शे मु. डी ख्शे मु. ३ ए थासुर . ४ बी चख्शे य. ५ए चौ ॥ प्रशि. ६ ए स्ति । ध्रुवा'. ७ सी डी णः ॥ व्यवा. ८ ए °घड् इ. ९ ए बी ई क्यवल . १० ए ज्या । समजो । अं. ११ ए प्रचेता. १२ ए प्रायवण्यम् प्रोज'. १३ बी दौ वावि. १४ ए ता । ख्योता. १५ बी चक्शौ । च. डी चक्षे । च. १६ ए चख्वे । . Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.६.] दशमः सर्गः। भटुं बलिं भ्रष्टुमथाज्यमांज्ञा प्रत्तः प्रदत्तः कुसुमानि राजा। नीत्ताहुतिस्तैर्गुरुवीत्तमत्रैर्देव्यै विदत्तासन आबभासे ॥ १२ ॥ १२. राजा कर्ण आबभासे शुशुभे । कीहक्सन् । गुरुणाचार्येण विशेषेण दीयन्ते स्म गुरुवीत्ता ये मन्त्रास्तैः कृत्वा देव्यै लक्ष्म्यै विदत्तासनो वितीर्णपीठस्तथा बलिमुपहारं भैष्टुं पक्तुमथ तथाज्यं घृतं भ्रष्टुं विलीनयितुमाज्ञामुत्तरसाधकानामादेशं प्रत्त: प्रदातुमारब्धस्तथा देव्यै कुसुमानि प्रदत्तः प्रदातुमारब्धस्तथा तैर्बल्याज्यकुसुमैः कृत्वा देव्यै नीत्ताहुतिर्दत्तहव्यः । पीठमंत्रोच्चारपूर्व देवीं पीठे स्थापयित्वा बँलिभिः पुष्पैराहुतिभिश्च पूजयन् राजाभादित्यर्थः ॥ जजाप नासाग्रनिदत्तनेत्रोक्षसूत्रसूत्ताङ्गुलिकः क्षितीशः । सुदत्तचित्खे विदवत्तमौरनूतपुष्पैरनुदत्तहोमैः ॥ १३ ॥ १३. क्षितीश: कर्णो जजाप । कैः कैः कृत्वा विदवत्तमंत्रैर्विदा गुरुणावत्ता दत्ता ये मन्त्रास्तैस्तथानूत्तपुष्पैर्दत्तकुसुमैस्तथानुदत्ता ये होमा अग्नौ तिलादिहवनौनि तैश्च मन्त्रजापं पुष्पजापंहोमजापं च चकारेत्यर्थः । कीदृक्सन् । नासाग्रनिदत्तनेत्रस्तथाक्षसूत्रसूत्ताङ्गुलिको जैपमालिकायां संस्थापिताङ्गुलिकस्तथा ख आकाशे सुदत्तचित्संनिवेशितचित्तोखिलेन्द्रियविषयव्यावृत्त्या निराकारध्यानं कुर्वन्नित्यर्थः । १ ए माज्ञा प्र. २ ए नीत्याहु . ३ सी डी °से ॥ स रा . ४ ए नाशान. ५ बी डी पुष्पर. १ सी डी ण हीय. २ ए यते स्म. ३ ए सी डी वीत्ता म'. ४ ए भष्टु प. ५ ए तं स्रष्टुं. ६ ए °व्यैनीत्वाहु. ७ ए मत्रोच्चा. ८ ए बहुलि'. ९ ए°मत्रिवि . १० बी °माऽसौ. ११ सी डी नादि तै. १२ ए क्षमूत्रसूत्रागुलि . १३ ए पनालि'. १४ एचित्सनि. १५ बी तोखले. Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] आत्तावदत्तैलिभिः स इत्थं समाहितो धीतसुधारसो नु। स्थितः सितांहा अदितामितौजा दिनान्यमातानि तपःशिताङ्गः ॥१४॥ १४. स कोमातान्यसंख्यानि दिनानि स्थितः । कीडक्सन् । इत्थमुक्तरीत्यात्तावदत्तैरात्ताः पूर्वमुत्तरसाधकेभ्यो गृहीता येवदत्ताः पश्चालक्ष्म्यै प्रदत्तास्तलिभिः पूँजोपकरणैः कृत्वा सितांहा विनाशितविघ्नस्तथा तप:शिताङ्गस्तपश्चरणकृशदेहोत एवादितामितौजा अप्रतिहतासंख्यर्तपःप्रभावस्तथा समाहितः समाधिवानत एव धीतसुधारसो नु पीतपीयूष इव ॥ अन्येचुरच्छातनिशातबुद्धौ हित्वान्यकर्माच्छितसंशितेसिन् । अभूजहित्वा समयं स्वसामग्रिकामजाहित्व ऋतुर्घनानाम् ॥ १५॥ १५. अन्येधुर्घनानामृतुर्वर्षाकालोभूत् । किं कृत्वा । समयं स्वकालं जहित्वा त्यक्त्वाकाल इत्यर्थः । तथा स्वसामग्रिकां विद्युदादिसंपदमजाहित्वा गृहीत्वा । क सति । अस्मिन्कएँ । किंभूते । अच्छाताखण्डिता निशाता तीक्ष्णा बुद्धिर्ज्ञानं यस्य तस्मिन् । तथान्यकर्म तपस इतरद्राज्यादि कार्य हित्वांच्छितमखण्डितं संशितमसिधारातीक्ष्णं व्रतं यस्य तस्मिन् । यद्वा । अकर्मकत्वविवक्षीयां संश्यति स्म संशितो व्रते यत्नवान् । अँच्छितो यः संशितस्तस्मिन् ॥ १ ए बी सी आत्तावदत्तैर्व. २ ए तः सतां. ३ ए तासितौ . ४ ए हितान्य. ५ सी डी स्थित. १ ए बी सी त्यात्तावदत्तरात्ताः पू. २ डी दत्ताः प. ३ डी दत्तास्तै. ४ ए पूजौप. ५ ए देशोत. ६ ए तपप्र. ७ ए तमुधा. ८ बीयूख ई. ९ ए क्त्वा इका. १० सी डी त्वा क. ११ ए त्वा इच्छि. सी डी त्वा स्थित . १२ ए क्षाया सं. १३ ए संसितो. १४ ए अस्थितो. १५ एन् । भ्रष्टुं भ्र. Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.१४.] दशमः सर्गः। ७६३ भटुंम् भ्रष्टुम् । अत्र "भृजो भ" [ ६ ] इति वा भर्ज ॥ प्रस्तः प्रदत्तः । अत्रै “प्राद्दाग' [ ७ ] इत्यादिना वा त्तः ॥ नीत्त निदत्त । वीत्त विदत्त । सूत्त सुदत्त । अनूत्त अनुदत्त । भवत्त अवदत्तैः । अत्र "निवि" [ ] इत्यादिना वा त्तः ॥ आत्त । इत्यत्र "स्वराद्" [९] इत्यादिना त्तः ॥ अध इति किम् । समाहितः॥ अवदत्तैः । अत्र "दत्" [१०] इति दत् ॥ अध इत्येव । धीत ॥ अदित । सित । अमित । स्थितः । अन "दोसोमास्थ इ." [११] इतिइः ॥ गामादाग्रहणेष्वविशेष इति मा-माङ्-मेडा ग्रहणम् । अन्यस्तु माझमेडोरेवेच्छति । मातेस्तु । अमातानि ॥ अच्छित । अच्छात । शित निशात । इत्यत्र "छाशोवा" [१२] इति वा-इः॥ संशिते । अत्र "शो व्रते" [१३ ] इति-इः ॥ हित्वा । इत्यत्र "हाको हिः क्त्वि" [१४] इति हिः ॥ यङ्लुपि । जहित्वा ॥ द्वित्वे पूर्वदीर्घत्वमपीच्छन्त्येके । अजाहित्वा । उभयत्रेटि-आतो लुक् ॥ जग्धप्रकाशा विहितान्धकारा दिवं प्रजग्ध्याभिजिघत्सवः क्षमाम् । मेघा जलौघैरघसन्सपासैः स्फुटप्रैवासिप्रघसैदिगन्तान् ॥ १६ ॥ १६. मेघा जलौघैर्दिगन्तानघसन्व्यापुः । कीदृशाः सन्तः । जग्ध१ ए वः क्ष्भ्याम् । २ ए जलोधै'. ३ ए प्रकासि'. १ ए भर्ज ॥ प्र. २ डी "त्तः अ. ३ ए °त्र प्रद्दा. ४ डी दत्तः । वी'. ५ ए ई त । सुत्त. ६ डी वद. ७ ए दत्तेः । अ. ८ ए माङों. ९ ए डी अस्थितः । अ. १० सी च्छितः । अच्छातः । शि. ११ बी ति-इः॥. १२ बी ति। हि'. १३ ए त्वे दीर्घपू. १४ ए डी टि-अतो. Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः ] प्रकाशा भक्षितोद्योता: । अत एव विहितान्धकारास्तथा दिवमाकाशं प्रजग्ध्य व्याप्येत्यर्थः । क्ष्मामभिर्जिघत्सवो व्याप्तुमिच्छवः । कीदृशैजलौघैः । सघासैर्विद्यमानतृणैस्तथा स्फुटं प्रवासिनां पान्थानां प्रघसैः पीडकै: 5: प्रादन्तीत्यच् । यद्वा । प्रादनम् अलि प्रघसः । स्फुटः प्रवासिनां प्रसः पीडा येषु तैः ॥ २ faहित । इत्यत्र “धागः " [ १५ ] इति हिः ॥ जग्ध । प्रजैग्ध्य । इत्यन्न " यपि " [ १६ ] इत्यादिना जैग्धः ॥ अभिजिघत्सवः । अघसन् ॥ कर्मणि वैजि । घासैः । प्रघसैः । अत्र "घस्लृ " [ १७ ] इत्यादिना घस्लः ॥ श्रुतीर्जघासाद दृशो यथाव्दस्तथा ववौ नादमुवाय वज्रम् । नदीः पूर्वान्पवासरांसि स्थलीः शिशीर्वान् शशृवान् गिरींव ॥ १७ ॥ I १७. अब्दो मेघस्तथा नादं गर्जा ववौ संबद्धवान् । यथा श्रुती: कर्णाञ्जघासाभक्षयदिव । तथा वज्रं विद्युतं तथोवायारचयद्यथा दृशोक्षीण्याद ग विद्युतं चातितीत्रां चकारेत्यर्थः । उत्तरार्धं स्पष्टम् ॥ योद्रीन्दिदीर्वान्दवान्बलं तं वध्याः स्मरास्त्रैरैथ घानिषीष्ट । त्वया वियोगी मरुतापि कोपि त्वां मा वधीदित्यरसनुमेघः ||१८|| १८. मेघ इति न्विदमिवारसदवोचत् । किं तदित्याह । हे स्मर योद्रीन्दिदीर्वान्वज्रेणादारयत् । तथा यो बलं बलाख्यं दैत्यं दद्द्वांस्त १ ए बी . २ सी डी गिरीश्व ३ डी 'रखघा'. १ ए 'जिधित्सिवो व्याघुमि २ ए सी 'ति हि ॥ ज° ३ ए बी सी 'जग्ध । • ६ ए बी घस्रः ॥ श्रु ४ डी 'जग्ध् ॥ अ. ५ ए घङि । घा ८ ए सी डी °तीनं च . इ. ७ए बद्दवा Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.१९.] दशमः सर्गः । ७६५ मिन्द्रं त्वमस्त्रैः शरैर्वध्या अर्थ तथा वियोगी कर्मतापन्नस्त्वया की मरुताप्यासतामस्त्राणि पुरोवातेनापि कृत्वा घानिषीष्ट हन्यतां तथा त्वां कोपि हरादिरपि मा वधीदिति । वर्षासु हि मेघा गर्जन्ति स्मरश्वातिजैत्र: स्यादित्येवमाशङ्का ॥ पुष्पैः स्मरो व्याहत नावधिष्ट शस्त्रैर्न मत्रायुधमध्यंगाद्वा । प्रत्याययशक्तिमगाजयं स वशं त्रिलोकी गमयंस्तथापि ॥१९॥ १९. यद्यपि स्मरः पुष्पैाहत प्राहरन्नं तु शखैरयोमयास्त्रैरावधिष्ट न च मैत्रायुधं मत्रप्रधानमत्रं वायव्याद्यध्यगादस्मरत्तथापि स स्मरो वर्षामाहात्म्येन जयमगात्प्राप । कीहक्सन् । शक्तिं स्वसामर्थ्य प्रत्याययज्ञापयन्नत एव त्रिलोकीं वशं स्वायत्ततां गमयन्प्रापयन् ।। केकारवैस्तन्त्र्यधिगम्यते यैयरावि षड्डाधिजिगांसया तैः। सद्यश्च हंसैरजिगांस्यतार्थ स्म मानसस्याधिजिगांस्यते च ॥२०॥ २०. यैर्मयूरैः केकारवैः कृत्वातिमाधुर्यात्तत्री वीणाधिगम्यते स्मायंते तैर्मयूरैः पड्डाधिजिगांसया षड्जस्वरपिपठिषया व्यरावि फँड्जस्वरः कृत इत्यर्थः । मयूरा हि षड्गस्वरं कुर्वन्ति । तथा सद्यः केकाश्रवणकाल एव हंसैश्चौजिगांस्यत गन्तुमिष्टमथानन्तरं मानसस्य सँरसोधिजिगांस्यते स्म च सुस्मूर्षितम् ॥ जघास आद । इत्यत्र “परोक्षायां न वा” [ १८ ] इति वा घेस्टुः ॥ उवाय ववौ । अत्र “वेर्वय्" [१९] इति वा वय् ॥ १ डी ध्यगीद्वा. २ बी °थ मा मा. १ए °थ यथा. २ सी न्न शास्त्रै'. ३ सी स्त्रैरव'. ४ बी मत्रायु. ५ डी 'ध्यगीद. ६ सी जमागा. ७ ए°यमापत्प्रा. डी यमागा. ८ डी षङ्गाधि'. ९ डी षड्गस्व. १० बी डी षड्गव. ११ बी डी षङ्गस्व. १२ सी डी 'श्चाधिजि . १३ ए °मब्दान. १४ डी सरोधि'. १५ सी घस्ल ॥ उ. Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ घ्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] शशृवान् शिशीर्वान् । ददृवान् दिदीर्वान् । पपृवान् पुपूर्वान् । अत्र "ऋः शूदृप्रः" [ २० ] इति [ वा] ऋः ॥ वध्याः । अत्र "हन" [२१] इत्यादिना वधः । अनाविति किम् । घानिषीष्ट ॥ मा वधीत् । इत्यत्र "अद्यतन्यां वा” [२२] इत्यादिना वधः । वा त्वात्मने । आवधिष्ट । व्याहत ॥ अगात् । अध्यगात् । इत्यत्र “इणिकोर्गाः" [२३] इति गाः ॥ गमयैन् । अधिगम्यते । अत्र "णौ” [ २४ ] इत्यादिना गमुः ॥ अज्ञान इति किम् । प्रत्याययन् ॥ इङ् । अधिजिगांस्यते ॥ इक् । अधिजिगांसया ॥ इण् । अजिगांस्येत । इत्यत्र "सनीडश्च" [२५] इति गमुः॥ खनद्धनेनाधिजिगापयिष्यमाणो मयूरोधिजगे सुनृत्तम् । तेनैव चाध्यापिपयिष्यमाणामध्यापिपत्स्वां दयितां च हृष्टः॥२१॥ २१. मयूरो नृत्तमधिजगेधीतवांश्चकारेत्यर्थः । यतः स्वनद्वनेन गर्जता मेघेन का नृत्तमधिजिगापयिष्यमाणो गर्जया पाठयितुमिष्यमाण इव । तथा तेनैवं च व॑नद्धनेनैव च नृत्तमध्यापिर्पयिष्यमाणां शिक्षयितुमिष्यमाणां स्वां दयितां च मयूरी च हृष्टः सन्मयूरो नृत्तमध्यापिपदपाठयत्। मेघगर्जा श्रुत्वा मयूरदम्पती नृत्ताविति तात्पर्यार्थः॥ १ ए शुदृप्रः. २ डी यत् । अं. ३ सी डी इक । अं. ४ ए सी डी अधिजि. ५ डी स्यते । इ. ६ ए ई पाठितु. ७ ए ई व स्व. ८ ई स्वन्द्ध. ९एप xxx दपा. १० बी यिनां च. ११ ई च हृ'. Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.२६.] दशमः सर्गः । ७६७ अध्यैष्ट यांस्तान्पुनरध्यगीष्टाध्यजीगपत्स्त्रैणमितश्च रासान् । हल्लीसमध्यैष्यत चेद्भवत्यध्यगीष्य इत्याशु मिथो ब्रुवाणम् ॥२२॥ २२. इतोस्मिन्वर्षाऋतौ स्त्रैणं यान् रासानध्यैष्ठापाठीत् । तानासान् गेयकाव्यविशेषान्पुनर्भूयोप्यध्यगीष्टाध्यजीगपञ्चान्यस्त्रैणमेव कर्मापीपठच्च रासान्स्वयं द्विस्त्रिर्वोच्चार्यान्यस्त्रैणेनोचारयामासेत्यर्थः । वृष्टौ हि स्त्रियः प्रमुदिता रासान्ददति । कीदृक् । मिथोन्योन्यं ब्रुवाणम् । किमित्याह । चेद्यदि भवती वं हल्लीसं नारीणां मण्डलीनृत्तमध्यैष्यताशिक्षयिष्यत तदाहमपि हल्लीसमाश्वध्यगीध्ये शिक्षिष्य इति । केचिद्भूतेपि हेतुफले क्रियातिपत्तिमिच्छन्ति तन्मतेत्र क्रियातिपत्तिः ॥ मूर्थीप्रिया मेत्यवदंश्चिरायाध्यायन्निरायन्पथि कष्टमासन् । पान्थास्तदा व्योम्नि यदा पयोद आटीद्वलाकाततिराटदारात् ॥२३॥ २३. यदा व्योम्नि पयोदो मेघ आटीप्रससार तथारान्निकटे बलाकाततिराटदेभ्राम्यंत्तदा पान्थाश्विरायाध्यायन्नस्मरन्नवदंश्च । किमित्याह । प्रिया जातावेकवचनम् । वल्लभा मा मू दस्मद्वियोगे मा विचेतीभूदिति । अत एव निरायन्यस्मिन्देशे गता आसंस्ततो निर्गता अत एव च पथि जलदुर्गत्वात्कष्टमासन् ॥ न चेद्धनाटिष्य इहाभविष्यं कथं तृषाहं भविता विहस्तः । चिरंतदास्स्वेति वदन्किलास्ते स्म चातकः पत्रपयोपि लिप्मुः॥२४॥ २४. चातक आस्ते स्म तस्थौ । कीहक्सन् । वदन् किल मेघदर्श१ई पस्त्रैण०. २ ए सी मध्येष्य'. ३ बी यत्पथि. १ए पात्पुन.२ ए मध्येष्य'. ३ ई 'यिक्षत. ४ सी यति तदा . ५ ए शिष्य. ६ ई ते क्रि. ७ सी प्रशसा. ८ बी तदारा. ९ सी दवा. १० ए म्यस्तदा. ११ ए तस्वौ । की. Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ घ्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः]] नोत्थकूजितैर्भणन्निव । किमित्याह । हे घन चेत्त्वमिहाकाशे नाटिष्यस्तदाहं तृषा कृत्वा विहस्तो भविता व्याकुलो भवन्कथमभविष्यंस्तत्तस्माखेतोस्त्वं चिरं बहुकालमास्स्व तिष्ठेति । यतः पत्रपयोपि वृक्षपर्णात्पतज्जलबिन्दुमात्रमपि मेघोन्मुक्तजलकणभ्रान्त्या लिप्सुः । एतेनास्य तृष्णाधिक्यमुक्तम् ॥ अधिजगे । अत्र "गा' [२६] इत्यादिना गाः ॥ अधिजिगापयिष्यमाणः अध्यापिपयिष्यमाणाम् । अध्यजीगपत् अध्यापिपत् । इत्यत्र “णौ सन्डे वा” [ २७ ] इति वा गाः ॥ अध्यगीष्ट अध्यैष्ट । अध्यगीध्ये अध्यैष्यत । इत्यत्र “वाद्यतनी" [२८] इत्यादिना वा गीड़। अवदन् । अध्यगीष्ट । अध्यगीष्ये । अत्र "अंड् धातोर" [२९] इत्यादिनाअडादिः ॥ अमाडेति किम् । मा मूीत् ॥ निरायन् । अध्यायन् । आसन् । इत्यत्र "एति" [३०] इत्यादिना वृद्धिः ॥ आटीत् । आटिष्यः । आटत् । इत्यत्र "स्वरादेस्तासु" [३१] इति वृद्धिः ॥ अभविष्यम् । भविता । इत्यत्र "स्तादि” [३२] इत्यादिना-इट् ॥ अशित इति किम् । आस्स्व । आस्ते ॥ अत्रोणादेरिति किम् । पत्र । उणादि । विहस्तः ॥ चक्रे धनुष्कम्पितिसंगृहीतीर्जयं ग्रहीतुं शमसंवरीता । शरैर्जगत्पावरिता वरीता प्रीते रतेर्वा वरिता स देवः ॥ २५ ॥ २५. शमसंवरीतेन्द्रियजयस्याच्छादयिता प्रीतेर्वरीता वरो रतेर्वा १ ई धनुःकम्पि. २ सी डी यं गृही. १ई ठेत । य . २ सी अत्र. ३ ए बी °माणम्. ४ डी अधैष्य'. ५ ई भडतो . ६ सी ध्यास. ७ सी डी पत्र । उ॰. ८ सी डी यस्यच्छा. Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६९ [है.. ४.४.३३.] दशमः सर्गः । वरिता स प्रसिद्धो देवः कामो धनुष्कम्पितिसंगृहीतीः अल्पस्वरत्वात्कम्पितेः प्राग्निपाते धनुषः संग्रहणानि कम्पनानि च चक्रे । यतो जयं ग्रहीतुं वर्षाबलेन प्राप्तुं शरैर्जगत्प्रावरिता व्याप्नुवन् । तटान्दरित्रीविंटपान्दरीत्रीनंदीः सुखं तेरिथ नाथ कचित् । सद्यो रतिस्त्वां वरिषीष्ट विस्तरिषीष्ट चेत्थं पथिकं प्रियोचे ॥२६॥ २६. प्रिया पथिकमूचे । कथमित्याह । कच्चिदिष्टपरिप्रश्ने । हे नाथ नदीः सुखं सुखेन तेरिथ । कीदृशीरतिजलापूर्णत्वेन तटान्दरित्रीविदारयित्रीस्तथा विटपान्वृक्षान्दरीत्रीः । तथा सद्यो नदीतरणानन्तरमेव त्वां रतिः सुखं निधुवनं वा वरिषीष्ट सेवतां तथा रतिर्विस्तरिषीष्टं च विस्तृणीयाच्चेति ॥ व्यस्तारिषुः षटुरणाः कदम्बान्यावारिषुर्वासवकार्मुकं च । समास्तरिष्टाम्बरमावरिष्ट व्यस्तीष्टं गां प्राकृत शावलं च ॥२७॥ ___ २७. षटुराँ भृङ्गा व्यस्तारिषुर्बाहुल्याद्विस्तृता अत एव कर्दम्बानि कदम्बतरुपुष्पाणि कर्मावारिषुराच्छादयन् । वर्षासु हि धारीकदम्बाः पुष्प(प्य ?)न्ति । तथा वासवकार्मुकं चेन्द्रधनुश्च समास्तरिष्ट विस्तृतमत एवाम्बरं व्योमावरिष्ट व्याप । तथा शाड्वलं च । जातावेकवचनम् । सस्येन हरितानि स्थानकान्युपचाराद्धरिततृणानि वा व्यस्तीर्दीत एव गां पृथ्वी प्रावृत ॥ १ ई कश्चित्. २ ए °मासरि'. १ ए ता सः प्र. २ बी कम्पति'. ३ ए सी डी नि चक्रे. ४ सी डी 'यं गृही. ५ डी ष्टप्र. ६ एट वि. ७ ए याश्चेति. ८ ए णाभ्यङ्गा. ९ ए दम्बोनि. १० ए बी सी पुष्पाणि. ११ सी डी राभिः क. १२ ए वान्तरं. १३ ए °तनृणा. १४ सीवृतः ॥. ए वृतः ॥ नृषी. Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजा] वृषीष्ट केकां मृदु लास्यमास्तीष्टिाशु ते चेद्भवतास्मृषाताम् । पुरा हि ये व्यसरिपूर्वपातां शिखण्डिनीतीव ललाप कान्तम् ॥२८॥ २८. शिखण्डिनी मयूरी कान्तं मयूरं ललापेव मेघदर्शनोत्थस्वरेणोवाचेव । कथमित्याह । हे कान्त भवता ये केकालास्ये हि स्फुटं पुरा वर्षाकालात्पूर्व व्यस्मरिपूर्वषातां व्यस्मरिषातां चिरं त्यागाद्विस्मृते ते केकालास्ये चेद्भवतास्मृषातां मेघालोकेन स्मृते तदाशु केकां भवान्वृषीष्टाश्रीयात्तथा मृदु लॉस्यं नृत्तमास्तीर्षीष्ट विस्तीर्यादिति ॥ स्मृषीष्ट गोप्त्री भवतेष्टदेवी प्रगोपिता वा स्मरिषीष्ट देवः । यत्ते घेवित्री तरुखण्डधोत्री भोः पान्य झञ्झेत्यरसन्नु मेघः ॥२९॥ २९. मेघोरसन्नु गर्जयावोचदिव । किमित्याह । भोः पान्थ तरुखण्डधोत्री वृक्षवनस्य कम्पिका झञ्झा संशीकरो वातो यद्यस्मात्ते छवित्री कामोद्दीपकत्वेन कम्पिका तस्माद्भवता गोप्वी रैक्षिकेष्टदेवी स्मृषीष्ट स्मर्यतां प्रगोपितेष्टदेवो वो भवता स्मरिषीष्टेति ॥ ररन्धिमैनं ने न किं तु रेध्मापिस्फायिषुर्यो मदनं न चाता । पिस्फासुरस्त्वस्य निचोयिता तत्केतक्य इत्यूचुरिवालिनदिः ॥३०॥ १ एर्षीष्टांशु. २ डी तां कान्तंललापेव शिषण्डिनीति ॥ शिषण्डिनी म. ३ ए शिषण्डि'. ४ सी नी म. ५ ए धरित्री. ६ डी ई षण्ड'. ७ ई °न्धिमेनं. ८ बी मैतं न. ९ ए बी डी ननु किं. सी न तु किं. १० डी रेनापि . ११ ए "पिस्पायि. १२ ए "चायता. १३ सी इत्युचूरि . डी इत्युचु. १४ ए नादौ ॥ के. १ए रिपूर्वषातां चपं त्या . २ सी चिरत्या . ३ ए द्विस्सरिते. ४ ए सीवानषी'. ५ ए लासं न. ६ बी विस्तार्या'. ७ ए भो भ्यान्थ. ८ डी पान्था त°. ९ बी ससीक.१० सी डी धरित्री. ११ ए ई रक्षके . १२ बी वा स्म'. १३ ए भविता. Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०४.४.३५.] दशमः सर्गः। ७७१ ३०. केतक्योलिनादैरूचुरिव । किमित्याह । अपिस्फायिषुर्वधितुमनिच्छुः सन्यो मदनं न चाता न पूजयत्येनं मुन्यादिजनं वयं ने न ररन्धिम न न हतवन्तः किं तु रेध्म वैयमेव तं हतवन्त एवेत्यर्थः । तत्तस्माद्यः पिस्फासुर्जीवितव्यादिना वर्धितुमिच्छति सोस्य मदनस्य निचायिता पूँजकोस्त्विति ॥ प्याता घनः प्यायितृकॉम एवं मनांसि निष्कोष्टुमलं जनानाम् । ध्यानक्रियानिष्कॅषितं तु राज्ञो मनो न निष्कोषितुमीपदासीत् ॥३१॥ ३१. एवमुक्तरीत्या प्याता वर्धिष्णुर्घनो जनानां मनांसि निष्कोष्टुमाक्रष्टुं कामवासनया व्याकुलीकर्तुमित्यर्थः । अलं समर्थ आसीत् । यत: प्यायिता वर्धिष्णुः कामो यत्र सः । राज्ञस्तु कर्णस्य पुनर्मनो निष्कोषितुमीषन्मनागपि नालमासीत् । यतो ध्यानक्रियानिष्कुषितं प्रणिधानेनाकृष्टं वशीकृतमित्यर्थः ॥ संगृहीतीः । कम्पिति । इत्यत्र "तेर्' [ ३३ ] इत्यादिना-इदै ॥ ग्रहीतुम् । संगृहीतीः । अन्न “गृह्ण' [३४] इत्यादिना दीर्घः ॥ वृग् । संवरीता प्रावरिता। वृछ। वरीता वरिता । ऋदन्त । दरीत्री: १ बी यिनका . २ ई कास ए. ३ ए मनासि. ४ बी नि:कोष्टुं. ५ ए ई कुपितं. ६ ए कोपितु. १ बी सी येतं मु. २ ए ई न र'. ३ ए वयंमे'. ४ ए जीवत'. ५ ए पित्तमि. ६ ए पूजितो कोस्तिति. ७ डी विष्णुर्घ'. ८ ए मनासि, ९ ई टुका. १० ए सी विष्णुका. ११ ए कोपितु. १२ ए कृष्णं व. १३ बी हीती। क. १४ डी ट्॥ गृही. १५ ए रीत्या व. १६ ए ता। ऋद. १७ ए ई दन्ता। द. १८ ई दरित्रीः दरीत्रीः । अ. Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ घ्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः]] दरित्रीः । अत्रं "वृतो न वा” [ ३५ ] इत्यादिना वा दीर्घः ॥ परोक्षादिवर्जन किम् । तेरिथ । वरिषीष्ट । विस्तरिषीष्टे । आवारिघुः । व्यस्तारिषुः ॥ प्रावृत आवरिष्ट । व्यस्तीष्टं समास्तरिष्ट । वृषीष्ट वरिषीष्ट। आस्तीर्षीष्ट विस्तरिषीष्ट । इत्यत्र “इड्" [ ३६ ] इत्यादिनवा ॥ अस्मृषाताम् व्यस्मरिषाताम् । स्मृषीष्ट स्मरिषीष्ट । इत्यत्र “संयोगादृतः" [३७ ] इतीवा ॥ धोत्री धवित्री । गोप्त्री प्रगोपिता । इत्यत्र “धूगौदितः" [ ३८ ] इतीड्वा ॥ स्ताद्यशित इत्येव । रधौच । ररन्धिम ॥ अन्यस्त्वत्रापि विकल्पमिच्छति । रेम ॥ एके तु चायिस्फायिप्यायीनामपि विकल्पमिच्छन्ति । चाता निचायिता । पिस्फासुः अपिस्फायिषुः । प्याता प्यायितृ ॥ निष्कोष्टुंम् निष्कोपितुम् । अत्र “निष्कुषः” [३९] इतीवा ॥ निष्कुषितम् । अत्र “क्तयोः” [ ४० ] इतीद ॥ वश्चित्व ऋद्धं तिमिरं जरित्वा देवित्व ऋक्षाध्वनि हार्युषित्वा । द्यूत्वास्तभूभृत्युषितः क्षुधित्वेवात्रान्तरे प्रोपितवान्दिनेशः॥३२॥ ३२. अत्रान्तरेस्मिन्प्रस्तावे दिनेशो रविः 'क्षुधित्वेव बुभुक्षितीभूयेव प्रोषितवान्देशान्तरं ययौ । यतोस्तभूभृत्यस्ताचले द्यूत्वा विलस्योषितः स्थितः । पूर्व कीदृग्भूत्वापि । ऋद्धं स्फीतं तिमिरं ब्रश्चित्वा १ ए °श्चित्तु ऋ. १ एत्र नृतो. २ बी ना दी. ३ बी ट। अवा. ४ ए रिषु । व्य. ५ ई °स्तीष्ट । स. ६ सी डी मातरि . ७ ए इतोड़ा. ८ सी डी डा ॥ धात्री. ९ ई धिन् ॥ अ. १० सी डी म ॥ अपरे तु. ११ सी कोषि. १२ ए ई निःकुषः. १३ ए ई निःकुषि. १४ सी डी षितुम्. १५ ए ई तीइ ॥. १५ ए क्षुषित्वेव पुभु०. १६ ए त्वा । ऋ. १३ १४ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.४१.] दशमः सर्गः। ७७३ खण्डशः कृत्वा जरित्वा क्षयं नीत्वा च तथैध्विनि व्योनि देवित्वा क्रीडित्वा तत्रैव हारि मनोज्ञं यथा स्यादेवमुषित्वा स्थित्वापि । योपीश ईश्वरः पृथ्व्यां हायुषित्वास्तभूभृति क्षीणनृप आधारे धूत्वा व्यवहृत्य स्थितः स्यात्स क्षुधित्वा सर्वर्द्धिक्षयाबुभुक्षितो भूत्वा देशान्तरं यातीत्युक्तिलेशः॥ गुहासु यद्वावसितं वने वा वावस्तवत्तत्क्षुधितं नु रक्षः । दृशो लुभित्वा लुभितालकत्रिशकाश्चिताशां तिमिरं निराश॥३३॥ ३३. यद्गुहासु वावसितैमत्यर्थं स्थितं यच्च वने वा वनगहने वावस्तवत्तत्तिमिरं दृशोक्षीणि लुभित्वा व्याकुलीकृत्य शक्राञ्चिताशां पूर्वा निराशाभयव्यापेत्यर्थः । कीडक्सन् । लुभिता आकुलीकृता येलकाः केशास्तद्वच्छ्रीर्यस्य तत्सर्वदिक्षु प्रसृमरं कृष्णं चेत्यर्थः । अत एव क्षुधितं नु रक्षो बुभुक्षितराक्षस इव। तदपि हि गुहाँसु वने वावसति विसंस्थुलवालं च स्यादत एवं रौद्राकारत्वाल्लोकदृशो व्याकुलीकरोति स्याद्यप्यत्ति च ॥ दिशो ध्वजैरश्चितवद्रमौकोश्चित्वाभिपूतं परिपूतत्क्ष्माम् । वपुः पवित्वा सुकलाश्च पूत्वाप्सरोगणोथो पवितः प्रपेदे ॥३४॥ ___३४. अथो तिमिरप्रसरणानन्तरं पवितो रूपादिश्रिया पवित्रोप्स १ ए ई वा चाव'. २५ त्तक्षुधि. सीतषुधि'. ३ डी तं तु र. ४ °कोग्जित्वा . ५ ए वक्ष्याम्. सी वतक्ष्मा. ६ सी डी त्वा स्वक. ७ ए पेदेः ॥ अ०. १ सी डी तथा . ई तथावं. २ ए थक्षाध्व. ३ ए तमित्य'. ४ सी वा वावस्त'. ५ ए बी ने वा वाव. ६ ई क्षया. ७ ए याप्येत्य'. ८ ए भित्वा आ. ९ बी सी लका के. १० ए हि सुगुहासु भुव. ११ ई हाव. १२ ई स्थुलं वा. १३ बी सी डी व च रौ'. १४ ए खालोक. १५ ई ख्याधिप्य. १६ बी °विता रू. १७ °विवोप्स. Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] रोगणो रमौको लक्ष्मीभवनं प्रपेद आगतः । किं कृत्वा । रमौकोञ्चित्वा पुष्पगन्धादिभिः पूजयित्वा । किंभूतम् । ध्वजैः कृत्वा दिशोञ्चितवत्पूजितवत्सर्वदिग्व्यापकध्वजान्वितमित्यर्थः । तथाभिपूर्त चन्दनच्छटादिना पवित्रम् । तथा मां पृथ्वीस्थं लोकं परिपूतवद्दारियमलोच्छेदेन पवित्रितवत् । तथा वपुः स्वाङ्गं पवित्वा वेषेण संस्कृत्य। तथा कलाश्च गीतनृत्तादिकाः प॑त्वा सतताभ्यासेन निर्मलीकृत्य ॥ तत्र्या करावक्लिशितौ क्लिशित्वा क्लिष्ट्वांसमक्लिष्टमथेह काचित् । भावपुः क्लिष्टवती विलोभित्र्यलोब्धरि क्ष्माभुजि दत्तदृष्टिः॥३५॥ ३५. अथेह रमौकसि काचिदेवी भावैः सात्विकै रत्यादिभिर्वा कृत्वा वपुः क्लिष्टवत्यपीडयत् । राज्ञि भावानां निरर्थकत्वाद्वपुःक्लेशमेव चकारेत्यर्थः । किं कृत्वा । अक्लिशितावपीडितौ मृदू इत्यर्थः । करौ तच्या वीणया कृत्वा क्लिशित्वा वादनाय तत्र्याघातेन पीडयित्वा तथाक्लिष्टमंसं स्कन्धं वीणादण्डस्थापनेन क्लिष्ट्वा वीणां वादयित्वेत्यर्थः । कीहक्सती । विलोभित्री साभिलाषात एवालोब्धरि वशित्वान्निःस्पृहेपि क्ष्माभुजि कर्णे दत्तदृष्टिः॥ न नैष सोढा सहितैव किं त्वेषित्रीरनेष्टाप्यविरोषिता नः । रोष्ट्रीय चेन्नौय्यत एष रेष्टेति भीतिरेषित्र्यपरा ननत ॥ ३६॥ ___३६. अपरा काचिदेवी ननर्त । कीदृक्सती । भीतिरेषित्री मर १ डी क्लिष्ट्वास . २ ए तीवलो'. ३ सी ता न । रो. ई ता नाः । रो. ४ एष्टाप्य चे.सी ष्टा चे. १ ए मौकाञ्चि'. २ ए दिशाचित. ३ ए भिभूतं. ४ ए ई तच्छ. ५ ए च्छेदन. ६ ए वत । त. ७ ई पूर्वा स. ८ ए भावै सा. ९ बी कैरित्या . १० ए बपु कि. ११ ए तौ पूदू. ई तौ पटू इ. १२ ए 'भित्ती सा. १३ ए ती रे". Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.४१. ] सर्गः । दशमः ७७५ ४ ७ ८ यस्यापनायिका । कथमित्याह । एष कर्णोनेष्टपि वशित्वान्नि:स्पृहोप नोस्मानेषित्रीः साभिलाषा: सतीर्न न सोंढा किं तु सहितैव क्षमिष्यत्येवेत्यर्थः । यतोविरोषिताक्रोधनोथाथ वा चेद्यदि रोष्टा कौत्स्यति तदाप्येष कर्णोतिदयालुत्वादय्यतो रौद्रेणास्मान्न रेष्टा ने हैं निष्यतीति ॥ भर्तासि शच्या भरिता नु भानां व्योमाशिताष्टा च दिशस्त्विषेति । जगावसंस्तोत्र्यपरा स्तवित्री वस्युत्तरीयं वसनं वसित्री ॥ ३७ ॥ ३७. असंस्तोत्र्यपरिचितादृष्टपूर्वेत्यर्थः । अपरा देवी कर्णं जगौ गायति स्म । कीदृशी सती । उत्तरीयमुपरितनं वस्त्रं वयेकेन करेण परिदधाना । तथा वसनं पारिशेष्यादधोवस्त्रमपरकरेण वसित्री । कर्णस्य मनः क्षोभनाय वस्त्रपरिधानमिषेण स्तनाद्यवयवान्दर्शयन्तीत्यर्थः । तथा स्तवित्री कर्ण स्ववशीकर्तुं गीतमध्ये वर्णयन्ती । कथमित्याह । 1 हे राजंस्त्वं त्विषा कृत्वा व्योमोशिता सिता व्यापक इत्यर्थः । दिशश्चाष्टा व्यापकस्तदसि त्वं शच्या भर्ती नु किमिन्द्रः । भानां नक्षत्राणां भरिता नु भर्ता वा किं वा चन्द्रोसीत्यर्थः । इन्द्रचन्द्र हि व्योम दिशश्च त्विष व्याप्नुत इति ॥ शोमदोत्रीं दवितोसि किं मां न शोचिता किं रविता न किं वा । रोत्री प्रणोत्रीति च वेणुगीत्योपालब्ध तं श्रीनवितारमन्या ||३८|| ३८. अन्या देवी श्रीनवितारं लक्ष्मीदेव्याः स्तोतारं तं कर्णमुपा १ ए भसि. २ एसी तास किं. ३ ई च वी ४ बी लब्धं तं. १ई 'णादयस्थाप. २ एष्टाभि व° ई 'टा व ३ सी डी ई 'त्वान्निःस्पृ. ४ए 'तीना न. ५ ईक्रोस्यति. ६ ई तो रोद्र्येण नोमा . ७ सी डी येणा ८ द्रेणोसान्ना रे ९ ए न हिनि° १० सी डी हरिष्य. ११ ए परिक. १२ ए १३ सी डी ग्राशिता. १४ ए भत्ता नु. १५ एषावा, " 'मासिता Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] लब्ध सैनिन्दमवोचत् । यतः कीदृशी । वेणुगीत्या वंशस्य गानेन कृत्वा रोत्री वदन्ती प्रणोत्री च परमार्थतः कर्णरूपसौभाग्यादि स्तुवती च । कथमित्याह । हे राजब् शोकी त्वद्विरहदुःखेन सशोकां तथादोत्रीमसन्तापिकां त्वमेव मे प्रिय इति प्रतिज्ञया ते सुखयित्रीमित्यर्थः । मामसि त्वं किं दवितानङ्गीकारेण किमिति संतापयसि तर्थी त्वं मां ने किं शोचिता हा मद्विरहेणासौ वराकी दुःखितेत्येवं किं न शोचसि किं वा मां न रविता नालपसीति ॥ सोतेष कोपं सविता क्षमा वा दुयूपुरस्मानदिदेविषुर्वा । इतीसंदूहार्दिधिषुस्मरान्या समार नाधीतमपीह गीतम् ॥ ३९॥ ४०. अन्या देवीह कर्णविषयेधीतमपि पूर्वपठितमपि गीतं न सस्मार । यतः कीदृशी । ईसन्विवर्धिषुरूहो यस्याः सा वितर्काकुला । कथमित्याह । एष कर्णः कोपं मद्ध्यानस्य विनाधायिका ऐता इति क्रोधं सोता जनयिता सुप्रैसवैश्वर्ययोः । वाथ वा संप्रति प्रशान्तत्वारक्षमा सविता तथैषोस्मान्दुयूपू रिरंसुरदिदेविषुर्वेति । तथादिधिषुः कर्णरूपदर्शनाद्विवर्द्धिषुः स्मरो यस्याः सा कामविह्वला च ॥ १ ए मां व दु. ई मां च दु. २ ए तीत्सपूहा'. ३ ए °ह गतिम् . १ डीब्ध तमिदम'.२ सी समिदम . ३ ए यत की. ४ ए तीत । क. ५ डी °त्रीससन्ता. ६ ए °था त्व गां न. ७ सी वं मा किं न शो'. ८ डी मां किं न शो' ९ बी न शो'. १० एति ॥ सौतै'. ११ ए पि गी'. १२ बी ईछवि . १३ ए तर्काकु. १४ ए एसा इ. १५ ए क्रोध सो. १६ डी सोता ज. १७ बी सी डी ई ता सुं प्र. १८ सी डी प्रशवै. १९ डी सुरादि. २० बी चिघु म. Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७० [ है. ४.४.४१] दशमः सर्गः। अधिप्सुमाशियिषु युयूर्षु शिश्रीषसे किं नै दिदम्भिषो माम् । बिभ्रक्ष्यमाणां यियविष्वनङ्गानलेन बिभ्रजिषसि त्वमाः किम् ॥४०॥ धार्य _भूबिभरिष्वलज्जामितीङ्गित काचिदर्जुनूषुः । भावैर्बलात्योMनविष्यमाणा तालं बिभर्षुः सहसा तमूचे ॥४१॥ ४०. ४१. काचिद्देवी सहसा रत्यादिपरवशत्वेनापर्यालोचितमेव तं कर्णमूचे । कीदृक्सती। कर्णदर्शनाद्भावै रत्यादिभिर्बलात्प्रोणुनविष्यमाणा व्याप्नुमिष्यमाणात एवालजां निर्लज्जतां बिभरिएं पोषयितुमिच्छु धारयितुमिच्छ वा धाय प्रागल्भ्यं बुभूपुरत एव चेङ्गितं स्मरचेष्टितमैर्गुनूषुः प्रकटयितुमिच्छुरत एंवे च तालं चच्चपुटादि बिभपुर्धारयितुमिच्छुस्तालं वादयन्तीत्यर्थः । कथमूच इत्याह । हे दिदम्भिषो 'दम्भितुमिच्छो मां किमिति न शिश्रीषसे न सेवितुमिच्छसि । किंभूतामधिप्सुं दम्भितुमनिच्छं तथाशिश्रयिषु सिसेविषु तथा युयूमोलिङ्गितुमिच्छु तौँ आः खेदे यियविष्वनङ्गानलेन संब १ई शिश्रियि. २ ए यिषु यु. ३ ए न विद, ४ सी ई भ्रजिष. ५ ए त्वमा कि. ६ एर्थ्य विभू. ७ डी बुर्भूर्भु. ८ ई भूघुवि. ९ए पुंबिभ. १० डी मिताङ्गि. ११ ए नूर्णनू. १ ए कर्ममू. २ ई °भिबला. ३ बी णुर्नवि. ४ ए माणो ध्यानुमि. ५ सी मिच्छुरतxxएव च ता. ६ डी लज्जा नि. ७ सी ई रिपुं पो. ८ ई °j प्रोष. ९ ए तुनिच्छु. १० एमिच्छ वा. ११ ए धाष्टय प्रा. १२ ए भूपुर'. १३ ए °मचूर्णनूषुः. १४ ई नूर्णनू. १५ बी सी डी व ता. ई °वथ ता. १६ ए पोर्दम्भि'. १७ ई दन्दम्भि'. १८ ए निच्छुत. १९ ए ई °शिश्रीपुं. २०ई °धुं त°. २१ ए पुना लि°. २२ सी डी °मालङ्गि. २३ ई गितमि. २४ ए °था आ खे. २५ बी °दे ययिवि. २६ ए नबले. ९ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ওও व्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः] द्धीभवितुमिच्छुना कामाग्निना बिभ्रक्ष्यमाणां दग्धुमिष्यमाणां मां किमिति बिभ्रजिषस्यनङ्गीकारेण 'दग्धुमिच्छसीति । अलजामित्यत्रेतिशब्दो भिन्नक्रमेत्र योज्यः ॥ मानाद्यया जिज्ञपयिष्यसे न वुवूय॑से नापिपतिष्यसे न । ज्ञीप्सुः प्रपित्सुर्विवरीपुरास्तां ध्यातासि चित्ते सिसनिष्वलजः ॥४२॥ ततः सिषावा तितनिष्यमा॑णमुदा मया शुष्कधुनी तितीर्वा । तितस्यतेनुत्तितरीषु चक्षुर्मुधा त्वयीत्येष कया चिदूचे ॥४३॥ ४२. ४३. कयाचिद्देव्या एष कर्ण ऊचे । कथमित्याह । यस्मात्वं यया सुमंगया मानात्सौभाग्याहंकारान्न जिज्ञपयिष्यसे न तोषयितुमिष्यसे न वुवूय॑से याचितुं सेवितुं वा नेयसे न चापिपतिष्यस आगन्तुमपि नेष्यसे । आः खेदे कोपे वा । तां नायिकां सिसनिषुः सेवितुमिच्छरलज्जा यस्य स निर्लज्जोसि त्वं चित्ते ध्याता स्मरसि । कीहक्सन् । तां ज्ञीसुस्तोषयितुमिच्छुः प्रपित्सुर्गन्तुमिच्छर्विवरीषुः सेवितुमिच्छुश्च । ततस्तस्माद्धेतोस्तितनिष्यमाणा त्वद्रूपातिशयदर्शनाद्विस्तारयितुमिष्यमाणा मुद्यया तया । अत एवं रागोल्लासेन सिषास्वा त्वां १ ए वर्षसे. २ डी पुरीस्तां. ३ ए °निष्टल'. ४ ए °माणः मु. ५ई शुष्कधु. ६ ए तीर्था । ति . ७ ए क्षुर्मधान्वयी . ८ डी त्वयात्ये . ९ बी सी डी चे ॥ एष कर्णः क. १ ए °ना विवक्ष्य. २ ई दभ्रमि'. ३ ई °णां कि. ४ ई दमि. ५ बी सी डी ई देव्योचे. ६ ई भया. ७ ए ध्यते न. ८ ए ध्यते न. ९ ए स्य नि. १० ए रप्ति । कीदृक्संज्ञांस्तां झी. ११ ई तां जीप्सु. १२ ए "मित्सु प्र° सी मिच्छवि . १३ ई पिच्छुर्ग. १४ सी डी छुस्तत. १५ बी तत्तस्मा . १६ ए द्रिस्तर. १७ सी डी व च रा. Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ [ है० ४.४.४१.] दशमः सर्गः। ७७९ सेवितुमिच्छन्त्या मयानुत्तितरीष्वगाधलावण्यामृतनिमग्नत्वेनोत्तरीतुमनिच्छु चक्षुस्त्वयि विषये मुधा निरर्थकं तितस्यते दर्शनाय विस्तारयि. तुमिष्यते । यतः कीदृश्या । शुष्कंधुनी निर्जलनदी तितीर्वानुरागरसरहितत्वाच्छुष्कनदीतुल्यं त्वां दुःखकारि निरर्थक चार्भिलपन्त्येत्यर्थ इति ॥ दिपाग्दरिद्रासुतनुस्तपोभिलक्ष्मी भजेतादिदरिद्रिपुर्ना । विसिस्मयिष्वा पिपविष्यमाणोरिरिष्यसेङ्गेशिशिषुश्रिया त्वम्॥४४॥ तेजस्तमिस्रं चिकरीपदाजिगरीपदास्त्वाञ्जिजिषत्यधीशम् । त्वया तपः किं दिधरिष्यते तद्यद्भिक्षुकैरादिदरिष्यते हि ॥४५॥ पिपृच्छिषु मां निहनिष्यसि त्वं करिष्यसे नोत्तरमुच्चित्सुः । चिचर्तिषुश्छद्म च चेत्तितृत्स्वा'तर्दिष्यसेन्जेन मयामुना तत् ॥४६॥ चिकर्तिपूनप्यचिकृत्सुमुच्चिच्छ्रुत्सावचिच्छिर्दिषुमित्यमुं द्राक् । उक्त्वा निवृत्सुः प्रनिनर्तिपुश्रूः काचिद्विलक्षाजदलान्यकर्तीत् ॥४७॥ - १ एग्ददिद्रा . २ ए क्ष्मी भुजे'. ३ ए ई जेथादि'. ४ ए विस्म'. बी ई विसरम. डी वि जिस्म'. ५ सी डी रिरष्य. ६ ई रिषिसे. ७ ए सी मिश्रां चि. बी मिश्रं चि. ई मिश्रा चि. ८ ई दिधिरि . ९ ए बी ई 'च्चिभृत्सुः. १० डी तर्हिष्य. ११ ए °चिछर्दि. १२ ए उक्ता नि . १३ ई निनित्सुः. १४ ई चिदल'. १५ ए बी ई तीन् ॥ का. १ ए त्वेन त्वत्त. सीत्वेनत्त. ई त्वेन तूत्त. २ ए कधनी. ३ सी डी तीर्वानु. ४ एससहि. ५ ए दुःरकका. बी दुरक का.. ६ बी 'भिलाष'. ७ ए पन्तेत्य'. ई पन्तीत्य. Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कर्णराजः ] ५ 30 ११ १२ ४४-४७. काचिद्देवी कर्णक्षोभलक्षणकार्यासिद्धेर्विलक्षा सत्यब्जदलानि क्रीडाकमलपत्राण्यकर्तीञ्चिच्छेद । विलक्षो हि पत्रकर्तनभूविलेखनादि कुरुते । किं कृत्वा । विलक्षौमं कर्णमुक्त्वा । कीदृक्सती । कर्णमनःक्षोभनार्थं निनृत्सुर्नर्तितुमिच्छुस्तथा प्रैनिनर्तिषु नर्तितुमिच्छू भ्रुवौ यस्याः सा च । कीदृशममुम् । चिकर्तिपूनपिच्छेत्तुमि च्छूनपि रोद्धुमिच्छ्रनपि वा शत्रूनपीत्यर्थः । अचिकृत्सुं जितद्वेषत्वास्प्रतिकर्तुमनिच्छ्रं तथोच्चिच्छ्रुत्सावपि । अपिरत्रापि योज्यैः । क्रीडितुमिच्छावपि मित्रेपीत्यर्थः । अचिच्छर्दिषु जितरागत्वात्क्रीडितुमनिच्छुम् । कथमुक्त्वेत्याह । हे राजन्नदिदरिद्रिषुर्देरिद्रः सन्नदरिद्रीभवितुमिच्छुन नरो लक्ष्मी देवतां दारिद्र्योच्छेदाय भजेत सेवितुमर्हति । कीदृक्सन् । तपोभिः कृत्वा दिप्राग्दरिद्राँसुर्दिदरिद्रासुः कृशीभवितुमिच्छ्रुस्तै नुरङ्ग यस्य स त्वं तु विसिस्मयिष्वाश्चर्य भूतैया शिशिषुश्रिया सर्वाङ्गं व्याप्तमिच्छन्त्या लक्ष्म्या राज्यश्रिया पिपविष्यमाणः पवित्रीकर्तुमिष्यमाणः १४ ૨૩ २४ २५. २७ 1 । सन्नङ्गेरिरिष्यसे गन्तुमिष्य से सेवितुमिष्यस इत्यर्थः । अत एव । आ विस्मयै । तमिस्रं तिमिरं चिकरीषत्क्षेप्तुमिच्छ्वाजिगरीर्षे सितुमिच्छु प्रचण्डमित्यर्थः । तेजोङ्गदीप्तिस्त्वा त्वामधीशं राजानमजिजिषति प्रकटयितुमिच्छति तस्माद्धि स्फुटं यत्तपो भिक्षुकैर्भिक्षाचरैरादिदरिष्यतेङ्गीचिकीर्ष्यते तत्तपस्त्वया किं केन हेतुना दिधरिष्यते । 3. ૭૮૦ व्याश्रयमहाकाव्ये १ एद्धे विल २ ए तींचिच्छे. ३ ए सी डी 'लेषना. ५ सी क्षोभाय ६ ए बी ई 'य ननृ. ७. प्रतिनि ८ ए षूनेंतितु "ज्यः । कीडि°. १४ ए जिगत. कृ. १८ ए 'द्रासुकृसीभ १९ २२५ बी माणस. २३ ई रिरंध्य २६ ई °ये । तिमि° २७ए मिस्रांति मिच्छाजि . सी रीषुत्क्षे २९ ए षहुसि ३० सी डी 'तेत. ३१ बी 'ना दधिरि, ९ ईसा । की. १० ई विश. ११ ए 'त्सुं चित. १२ ई र्तुमिच्छु. १३ ई १५ बी 'षुदरि. १६ ई लक्ष्मीदे . १७ डी 'द्रासुः स्तमुरंगं य २० ए ई विसम्म २१ ' तया: शि. २४बी से रन्तु' सी 'से पन्तु २५ए से इ. सी ई मिश्रां ति २८ ए रीपत्क्षेषु ४क्षासुंक, Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१० ४.४.४६. ] दशमः सर्गः । ७८१ ष्ट अन्तर्भूतणिगर्थः सकर्मकः । धेर्तुमिष्यते चरितुमिष्यत इत्यर्थः । 3 ५ तथा त्वमुचित्सुः कोपेन हन्तुमिच्छुः सन् पिपृच्छिषुमुक्तरीत्या प्रष्टुमिच्छु मां निहनिष्यसि चपेटादिना ताडयिष्यसि । तथा चेवं छद्म ध्यान्यहं मौन्यहमित्यैवं माय चिचर्तिपुर्ब्रन्थितुमिच्छुचिकीर्षुः सैनुत्तरं पूर्वपृष्ठप्रतिवचनं न करिष्यसे च तत्तदा तितृत्स्वा जिघांस्वा मयामुना प्रत्यक्षेणाब्जेन कृत्वा त्वं तर्दिष्यसे हनिष्यस इति ॥ 93 १७ जरित्वा । व्रश्चित्वा । इत्यत्र "जर्वेश्वः क्त्वः [ ४१ ] इतीद ॥ देवत्वा द्यूत्वा । इत्यत्र " उदितो वा ” [ ४२ ] इति वेद ॥ 1 २० क्षुधितम् | क्षुधित्वा । उषितः । प्रोषितवान् । उषित्वा । इत्यत्र " क्षुधू ०" [ ४३ ] इत्यादिना - इट् ॥ यङ्लुपि वावसितम् । यङ्लुपि नेच्छन्त्यन्ये । वावस्तवत् ॥ लुभित । लुभित्वा । अञ्चित । अञ्चितवत् । अञ्चित्वा । इत्यन [४४] इत्यादिना - इट् ॥ अभिपूर्तम् परिपूतवत् क्लिष्टवती क्लिष्ट्वा अक्किशितौ इत्यादिना वेट् ॥ २३ २४ सोढा सहिता । अलोब्धरि विलोभित्री । अनेष्टा एषित्रीः । रोष्टा अविरोषिता । 1 १९ ए क्षुषित्वा २३ एटा पषि पूत्वा पवितः क्किशित्वा । “लुभि" पवित्वा । अक्लिष्टम् । इत्यत्र "पूङ्ग' [ ४५ ] १ बी धृङ्का अ० २ ए धमि ३ ए ४ ए बी मित्सुः स ५ए 'मिच्छु मां. ई ७ए °त्येव मा. ८ सी ई 'यां विवर्ति ९ए पुग्रन्थि ११ मित्सुश्चि. १२ ए समुत्त. १३ ई नंक १४ सी डी च वत्त ं. १६ ए 'त्वा स्व तदिष्य. १७ ए सी से इ. १८ बी सी 'व्रश्च क्त्वः. २० ई °षित। प्रो. २१ एसीत । प. २२ ए अनिष्ट.. २४ ए त्रीः । रौटा । रोषित्रीश्च वि डी 'त्रीः । राष्ट्रटा. चिभृत्सु को बी ई चिभृत्सुः • 'मिच्छं मां. ६ ए मौनाह. १० डी प्रथितु 'ष्यसि च. १५ ए Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ घ्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः ] रेष्टा रेषित्री । इत्यत्र “सहलुभ” [ ४६ ] इत्यादिना वेद ॥ कश्चित्तु पठति । अशिभृग्स्तुशुचिवस्तिभ्यस्तकारादौ वेद । अष्टा अशितो। भर्ता भरिता। असंस्तोत्री स्तवित्री । शोक्रीम् शोचिता । वस्वी वसित्री ॥ तथाँ रे-नु-सु. दुभ्योपरोक्षायां वेट् । रोत्री रविता । प्रणोत्री नवितारम् । सोता सविता । अदोत्रीम् दविता ॥ इवन्त । दुयूषुः अदिदेविषुः। ईर्सत् अदिधिषु । बिभ्रेक्ष्यमाणाम् बिभ्रजिषसि । अधिप्सुम् दिदम्भिषो। शिश्रीषसे आशिश्रयिषुम्। युयूषुम् यियविषु । अनूनूंषुः प्रोणुनविष्यमीणा । बुभूर्षुः बिभरिषु । जीप्सुः जिज्ञपयिष्यसे । सिषास्वा सिसनिषु । तितस्यते तितनिष्यमाण । प्रपित्सुः आपिपतिष्यसे । बुवूयॆसे विवरीषुः । ऋदन्त । तितीर्खा अनुत्तितरी । दिदरिद्रीसु। अदिदरिदिषुः । अत्र "इवृध०” [ ४७ ] इत्यादिना वेट् ॥ भरेति शवा निर्देशो यङ्लुपो बिभर्तेश्च निवृत्त्यर्थः । बुभूर्षुः । बिभर्तेरपीच्छन्त्येके । इडभावपक्षे गुणमपि । बिभर्षुः बिभरिषु । तन्मतसंग्रहार्थ कृतगुणस्य भृगो निर्देशस्तेनेडभावपक्षेपि गुणः स्यात् ॥ अरिरिष्यसे । विसिस्मयिष्वा । पिपविष्यमाणः । अञ्जिजिषति । २४२५ १बी पिती । इ. २ ए°चिव्यस्ति'. ३ ए ता । सा. ४ बी त्रीम् । शो'. ५ सी डी की शो'. ६ ए शोतिता. ७ ए °था ऋतुषुसु. डी °था अनु. ८ सी रुतुदु'. ९ ए इदं च । दु. १० ए भ्रक्षमाणा बि. ११ बी युयूंषुम् । यियिवि. १२ ए यूए यि. १३ ए नृपुः प्राणु. १४ ए माणो । बु. १५ डी निपुः । ति?. १६ डी माणा प्र. १७ ए ण । प्रेषित्सु आ. १८ सी "पित्सु आ. १९ वुभूय॑ . २० ए सी रीषु । ऋ. २१ ए पु । दद. २२ डी °द्रासुः अ. २३ ए अदद. २४ सी रिद्रषु । अ. २५ ए द्रिषु । अव इ. २६ ए भरति. २७ ए बी सी डी तिशिवा. २८ डी रिपुः। त. २९ डी गोनिदें. ३० सी निदेश'. ३१ ए येषा । पि. Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.५०. ] दशमः सर्गः । ७८३ अशिशिषु । चिकरीषत् । आजिगरीषत् । दृङ् । आदिदरिष्यते । शृङ् । दिधरिष्यते । पिपृच्छिम् । अत्र "ऋस्मि ०" [ ४८ ] इत्यादिना - इट् ॥ निहनिष्यसि । करिष्यसे । अत्र "हनृतः स्यस्य " [ ४९ ] इतीट् ॥ ५ ε ७ ८ 20 कृतैत् कृतैर् वा। चिकृत्सुम् चिकर्तिषून् । उच्चिचत्सुः । चिचर्तिषुः । निनृत्सुः प्रनिनर्तिषु । उच्चिच्छ्रुत्सो अचिच्छर्दिषुम् । तितृत्स्वा तर्दिष्यसे । अत्र " कृते चृत • ' [ ५० ] इत्यादिना वेट् ॥ असिच इति किम् । अकर्तीत् ॥ स्वस्त्वं गमिष्यस्युत गंस्यते धिजिगां सुनान्तः किमपीह मोक्षः । यत्तेधिपूर्वं जिगमिष्वभिख्यां स्त्रैणं प्रति स्त्रवितासि नान्तः ॥४८ उक्ष्णा यदा स्त्रोत आशु शैलैरुत्क्रस्यतेब्धेः क्रमितथ वौर्वः । भूर्वामित्र ऋमितासि मां त्वं तदा प्रकल्प्तासि रतौ विवृत्साम् ॥ ४९ ॥ पाता न मां त्वं शकिताप्यशत्क्रीमखेदिता यद्यधुनातिखेत्रीम् । क वेदिता मां ननु मृत्युवेत्रीं यत्कृत्यबोद्धापि न बोधिता किम् ॥ ५० ॥ क्ष्वेत्ता त्वमक्ष्वेदितृवन्मयासि वृतः श्रितः कीर्णहियेत्युदित्वा । स ऊर्णुतो ध्यानयुतो जिघृक्ष्वा करेण निलूनभिया कया चित् 11:48 11 . १ए 'गांमुना २ ए 'भिख्या स्त्रै ३ ए प्रस्नंवि० ४ सी 'दा स्तोष्य' ५ ए 'रुत्कंस्य ०. ६ ए 'तानचौर्वः ७ए कस्फासि. ८ एवं शंकि. ९ ए 'नभया. १ ए 'शिपुः । विक, 'नृतस्य. "तिषु । नि ११ ए डी षु । ति २ बीते । धृङ्. ३ ए सी षु । अ ४ ए ६ बी चिकिर्ति". ७ ए च्चि मृत्सुः ८ए १० ए डी तिंषुः । उच्चिनृत्सौ अनिच्छ', १२ ए 'तभृत्यत्या. सी 'तभृतेत्या'. ५ बी 'तैपु वा. ९ए सुनि Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराज ] ११ ४८-५१. कया चिद्देव्या निर्लूनभिया निर्भययात एव करेण कृत्वा जिघृक्ष्वा तं ग्रहीतुमिच्छन्त्या सत्या ध्यानयुतो योगी स कर्ण ऊर्णुत आच्छादित: स्वाङ्गेन व्याप्त आलिष्ट इत्यर्थः । किं कृत्वा । उदित्वा । किमित्याह । हे राजंस्त्वद्गतचित्तत्वात्तेभिख्यां कर्ण इति नामान्तैश्चित्तेधिपूर्व जिगमिष्वधिजिगमिषु पठितुमिच्छु स्मर्तुमिच्छु वा स्त्रैणं देवाङ्गनौघं प्रति लक्ष्यीकृत्य यदसि त्वं न प्रेनविता नार्द्रहृदयीभवसि न प्रसीदसीत्यर्थः । तत्त्वं किं स्वर्गमिष्यस्युताथ वेह लक्ष्मीगृहेन्तश्चित्ते किमप्यैज्ञेयं रहस्यमधिजिगांसुना पिपठिषुणा जपतेत्यर्थः । त्वया मोक्षो गंस्यते । ईदृशैस्तपोजपैः स्वर्गापवर्गौ स्वप्नेपि ते दुर्लभा - वित्यर्थः । अथ वा यदोक्ष्णा बलीवर्देन स्तोष्यते पयः क्षरिष्यतेथ वा यदा शैलैरींशुकंस्यत ऊर्ध्वं यास्यतेथ वा यदौव वडवाग्निरब्धेः सकाशौक्कमिता गन्ता निःसरिष्यतीत्यर्थः । वा यद्वौ भूः पृथ्वी क्रमित्री स्वपदाभ्यां संचरिष्यतीत्यर्थः । तदा त्वं मां क्रमितासि गमिष्यसि सेवि १२ १४ १५ १९ २४ २५ २६ २८ यस इत्यर्थः । तथा तदा रतौ निधुवनविषये विवृत्सां प्रवर्तनेच्छां प्रकल्पासि विधास्यसि '" क्लृप्र अन्तर्भूतणिगर्थः सकर्मकः । यँदोक्षादीनां प्रश्न (न)वादि भविष्यति तदानया देव्या सहाहं रंस्य इति त्वया ७८४ १ बी तं गृही. २ सी 'त्वादित्वादिशकि° ३ ए 'दिव्या । कि° ४ एवाभि मित्सु स्म ८ ए लक्ष्मी • ५ बी सी डी न्तश्चेतस्यधि ६ ए मिषु प० कृ. ९ए प्रश्नवि० १० ए दयांभ ११ बी ङ्गमि. १२ ए हेतश्चि. १३ ए "व्यजेयं. १४ ए 'गांसना, १५ ए क्षो गम्यते. १६ ए 'वर्गों स्व. १७ ए यथायवोक्ष्णा. १८ ए सी डी 'न स्तोष्य. १९ ए तेय वा. २० ए कं. २१ शाक्रम २२ बी सी 'द्वा यदा भू: २३ ए 'थ्वी कृमि २४ एवं नां क्र. सीमा २५ए सेथिष्य २६ ए विमृत्सां २७ ए नेच्छाप्र. २८ सी सि कृपू. ए °सि कृ इ अ. २९ ए 'न्तभूत. ३० ए यदाक्षादीना प्र° ३१ सी प्रस्तवनांदि. डी प्रस्तवनादि ३२ ए 'व्यसि तयान . Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.५१.] दशमः सर्गः । ७८५ तीब्रोभिग्रहः कृतोथ वेत्यहं जानामीत्यर्थः । परमधुना संप्रति मां यदि त्वं न पाता स्वाङ्गसङ्गामृतास्वादनेन न रक्षसि । कीदृशीम् । अशक्रीं कामशरैर्जर्जरीकृतत्वात्किचिदपि कर्तुमसमर्थामत एवातिखेत्रीमत्यन्तं दीनीभवन्ती परितप्तीभव॑न्तीं वा । यत: खिदंपरिताप इति केचित्पठन्ति । कीदृशः संस्त्वं शकितापि समर्थोपि । अत एवाखेदिताप्यदीनोपि । तदा नन्विति प्रश्ने । पृच्छामि त्वां मां क वेदिता लभसे यतो मृत्युवेत्री त्वदुपेक्षायां कामाग्निदाहातिरेकेण मरणे वर्तमानां भृत्योर्लब्धी वाद्य श्वो वा मे मृत्यु वीति मृत्योर्विचारिकां वा । तस्माद्यत्कृत्यबोद्धापि यच्च तत्कृत्यं च यत्कृत्यं स्वयमखिन्नशक्तेन खिन्नाशक्तपालनलक्षणं महाधर्मकृत्यं तस्य बोद्धापि सर्वशास्त्रेषु लोके च प्रसिद्धत्वाज् ज्ञातापि सन्किमिति न बोधिता न जानासि तस्याकरणात् । तस्मान्मां रक्षेति तात्पर्यार्थः । यद्वा किं बहूक्तेन श्वेत्तापि । अपिरध्याहार्यः । जापवशेनाव्यक्तं वदन्नयनङ्गीकारान्मां त्यजन्नपि वाक्ष्वेदितृवव्यक्ताक्षर मामालपन्निवात्यजन्निव वा त्वं मया वृतो भर्तृत्वेन वरितः श्रितश्चासि यतः कीर्णहिया व्यक्तलजयेति ॥ कोपं जुघुलन्निजुगूहिषुः स्वं नृपः पुपूषन्नतितिक्षतैतत् । उड्डीनवद्विघ्नभयः स लग्नो ब्रह्मण्यनुड्डीनसमाधिशूनः ॥ ५२ ॥ ५२. नृपः कर्ण एतदप्सरःकृतमनुकूलोपसर्गवृन्दमतितिक्षताक्षाम्यत् । कीदृक्सन् । कोपं जुधुक्षन्निरुन्धस्तथा स्वमात्मानं निजुगूहिषु१ ए पन्निति . २ सी उदीन. डी उडीन'. ३ ए भवः स. ४ ए °ण्यमुड्डी. १ सी ग्रहं कृ. २ ए हः कुतो'. ३ ए °मर्थीम. ४ बी सी वन्ती वा. ५ एभते य. ६ ए त्योप्त्री वा. ७ ए °पि त्वत०. ८ बी सी त्यं य.९ ए °न्किगिति. १० ए डी क्तेनावे. ११ ए पव्यसेना. १२ ए प्यनंदगीकारान्यात्य. १३ वी ङ्गीकरा. १४ ए डी ई °पि श्वे. १५ए दिशव . १६ ए डी र नामाल. १७ ए निर्वा त्वं. १८ ए रिता श्रि. १९ बी सी डी निजगू. Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः ] वंशीचिकीर्षुरित्यर्थः । अत एव स्वमेव पुपूषन्पवित्रीचिकीर्षुः। यतः स कर्णो ब्रह्मणि परमध्येये लग्न आसक्तोभूत् । कीदृक्सन । अनुड्डीनोक्षीणो यः समाधिश्चित्तैकाग्र्यं तेन शूनो वृद्धोतिस्फीतसमाधिरित्यर्थः । अत एवोडीनवन्नष्टं विघ्नभयं यस्य सः॥ गम्ल । गमिष्यसि । इक् इड्डा। अधिजिगमिषु । अत्र “गमोनात्मने" [५१] इतीद ॥ इङो नेच्छन्त्येके । अधिजिगौसुना ॥ अनात्मैन इति किम् । गंस्यते ॥ प्रस्नविता । इत्यत्र "नोः" [५२ ] इतीद ॥ ऋमितासि । इत्यत्र "क्रमः" [५३] इतीद ॥ अनात्मन इति किम् । उत्क्रस्पते ॥ क्रमिता । ऋमित्री । इत्यत्र "तुः" [ ५४ ] इतीट् ॥ विवृत्साम् । प्रकल्प्तासि । इत्यत्र “न वृयः" [ ५५ ] इति नेद ॥ पांक् । पाता ॥ शैक्लुत् शकींद्वा । अशक्क्रीम् ॥ विदिच् विदंती विदिप्वा । वेन्त्रीम् ॥ खिदिंच खिदत् खिदिप्वा । अतिखेत्रीम् । अत्र “एकस्वरा' [५६] इत्यादिना नेट् ॥ शक्यतिविन्दतिखिन्दतीनामिटमिच्छन्त्येके । शकिता। वेदिता। अखेदिता ॥ अनुस्वारेत इति किम् । शिक्ष्विी लिक्ष्विदोङ् जिदिवौव्वा। १ए पुः । यतः, २ बी ध्येयल'. ३ ए तम शू. ४ सी विघ्नं भ'. ५ एत्म ई. ६ ए सी गांमुना. ७ वी त्म इ. ८ डीम् । गम्यते. ९ ए गम्यते. १० ए उक्तंस्य. ११ ए डी मिती । इ.१२ बी सी डी शर्कट शकींच्वा । अ०. १३ ए विदिप्वा. १४ बी वेत्रीम्. १५ ए दित्. १६ ए खिदिप्त्वा । अ. डी दिप्त्वा । अ. १७ बी सी डी स्वरादित्या. १८ बी सी खिदती. १९ एम् । निक्ष्वि. २० सी दाच्चा । श्वे. २१ डी जिदाङ् निक्ष्विदाच्वा । श्वे. २२ ए दाद्वा । वे'. २३ बी दाध्वा । श्वे. Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८७ [ है० ४.४.६२.] दशमः सर्गः। श्वेदितृ ॥ असादपीटं नेच्छन्त्येके । श्वेत्ता ॥ बुधग् बुध वा । बोधिता। आभ्याम पीटं नेच्छन्त्येके । बोद्धा ॥ वृतः । कीर्णः(र्ण)। श्रितः । ऊर्गुतः। अत्र "ऋवर्ण" [५७] इत्यादिना नेद॥ युतः । लून । इत्यत्र "उवर्णात्" [ ५८ ] इति नेट् ॥ जिघृक्ष्वा । जघु^न् । पुपूषन् । इत्यत्रं "ग्रह'' [५९ ] इत्यादिना नेट् ॥ गुहेरिटमिच्छत्यन्यः । निजुगूहिषुः ॥ अतितिक्षत । इत्यंत्र "स्वार्थे" [ ६० ] इति नेद ॥ अनुड्डीन । उड्डीनवत् । शूनः ॥ एदित् । लग्नः । अत्र "डीय'' [६१] इत्यादिना नेट ॥ मुव्यक्तमित्यस्तरुचिः स्मरांस्वासितैः समर्णो युवधूजनोथ । नभोदितैरुत्पतितो विमानणस्त्रपां व्यर्णरुगणबुद्धिः ॥ ५३॥ ५३. अथ कर्णस्य ध्यानाचलनानन्तरं वधूजनो नभोदितैयोमप्राप्तैर्विमानैः कृत्वोत्पतितः । कीदृक्सन् । स्मरौत्रासितैः कर्णरूपदर्शनोत्थकामशरःपैः समर्णः पीडितस्तथेत्युक्तरीत्या सुव्यक्तमस्तरुचिर्भममनोरथोत एव त्रपां लजां न्यर्णः प्राप्तस्तथा व्यर्णरुग्विच्छायस्तथाणबुद्धिर्गतधीः ॥ १ ए त्यरु. ए रास्वासि. ३ ए नोव । न. ४ बी नैन्यर्ण'. ५ ए पां त्यर्णरगरुणबु. १ ए बी सी बुधृग् २ बी डी बुध् वा. ३ ए पीटा ने. ४ डी क्षत् । पु. ५ सी त्र गुह. ६ डी हगुह इ°. ७ ए निजगू. ८ ए त्यव स्वा. ९ ए शून् ॥ ए. १० ए र स्व. ११ ए नभ्योर्दि'. १२ ए रास्वासि. १३ एमर्थपी. १४ सी डी यरुचिस्त. Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] __ अौ। सुव्यक्तम् । असू । अस्त । इत्यत्र “वेटोपतः” [ ६२ ] इति नेट् ॥ केचिदस्यतेर्भावेक्ते नित्यमिटमिच्छन्ति । असितैः॥ अपत इति किम् । उत्पतितः॥ , समर्णः । न्यणः । व्यर्ण । इत्यत्र “संनि" [ ६३ ] इत्यादिना नेट् ॥ संनिवेरिति किम् । अदितैः ॥ कश्चित्केवलादपीच्छति। अर्ण ॥ अभ्यर्णमागादथ वृत्तमत्रे नृपे विशस्तौजसि कोपि धृष्टः । कष्टः पुमान्घुष्टगुणावबद्धातिकष्टकेशो घुषितानि कुर्वन् ॥ ५४॥ ५४. अथ देव्युत्पातानन्तरं कोप्यज्ञात: पुमान् पुरूपधारी सुरोभ्यर्ण कर्णसमीपमागात् । क सति । विशस्तौजसि प्रौढप्रतापे नृपे कर्णे वृत्तमत्रे जपितलक्ष्मीमत्रे । कीदृग् । धृष्टः प्रगल्भस्तथा कष्टः कषिष्यति कष्टं कृच्छ्रे तस्य हेतुस्तथा घुष्टेन संबद्धावयवेन निबिडेनेत्यर्थः । गुणेन ज्वावबद्धाः संयमिता अतिकष्टा अतिगहनाः केशा यस्य सः । तथा घुषितानि नानाशब्दितानि कुर्वन् । अभ्यर्णम् । अत्र "अविदूरेभेः” [ ६४ ] इति नेट् ॥ वृत्तमन्त्रे । अ "वृत्तेः(तेः ?)'' [ ६५] इत्यादिना वृत्तेति निपात्यम् ॥ पृष्टः । विशस्त । इत्यत्र "भूष” [ ६६ ] इत्यादिना नेट् ॥ कष्टः । अतिकष्ट । इत्यत्र “कषः" [ ६७ ] इत्यादिना नेट् ॥ घुष्टगुण । इत्यत्र "घुषः” [ ६८ ] इत्यादिना नेद ॥ अविशब्द इति किम् । घुषितानि ॥ १ए °माथावथ. २ ए °पि सृष्टः ।. १ ए अमू । अ. २ एणः । व्य'. ३ सी अर्णम् ॥ अ. डी अर्णः ।। अं. ४ सी डी ण स. ५ ए सि नृ. ६ बी निवडे. ७ ए रज्व अव. ८ ए केनाय”. ९ बी सी डी शा येन सः. १० ए बी ई त्र वत्तें: इ. ११ ए "त्य ॥धृ. १२ ए अधिष्टष्टेत्यकष्टेत्य. Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.६९. ] दशमः सर्गः । ध्वान्ताकृतिर्वाढैदृढाचलेन्द्रक्षुब्धाम्बुधिम्लिष्टविरिब्धकण्ठः । 3 स पारिदृढ्यं नु दधन्नृपं स्म दुःखान्त इत्याह समाधिलग्नम् ||५५॥ 1 ५५. स पुमान्समाधिलग्नं ध्यानलीनं नृपमिति वक्ष्यमाणनीत्याह स्मान्नवीत् । कीदृक्सन्ं । ध्वान्ताकृतिः । तथा बाढं भृशं दृढो बली स्थूलो वा योचलेन्द्रो मन्दराद्रिस्तेन क्षुब्धो मथितो योम्बुधिस्तस्येव म्लिष्टमस्पष्टं विरिब्धं स्वरो यस्य स तथा कण्ठो गलो यस्य सः । तथा दुःखान्तो दुष्टचेतास्तथा पारिवृढ्यं नु प्रभुत्वमिव दधत्स्वामीव निःशङ्क इत्यर्थः ॥ फाण्टं नु मिन्नो विदितोसि मिन्नं मम क्रुधा मेदितमीयया च । प्रमेदितव्याज तव प्रमिन्नं वपुः किमत्तुं शक्तिं मर्यां न ॥ ५६ ॥ ५६. प्रमेदितं स्निग्धीकर्तुमारब्धमाश्रितमित्यर्थः । व्याजं तपोजपरूपं छद्मं येन हे प्रमेदितव्याज फाण्टं न्वनायाससाध्यमपितमपि - ष्टमुदकसंपर्कमात्राद्विभक्तरसंमौषधं कषायादि फाण्टं तदिव भिन्नः स्निग्धोत्युपचित इत्यर्थः । असि त्वं मया विदितो दृष्ट इत्यर्थः । अतश्च मिथो विरुद्धाङ्गोपचयतपोध्यानावलोकेन तव मायित्वावगत्या मम क्रुधा कर्त्या मिन्नमुपचितमीयां चाक्षमया च मेदितमतश्च प्रमिन्नमुपचेतुमारब्धं तव वपुत्तुं किं मया न शक्तिं न शक्ष्यते । अत्र "वा हेतुसिद्धौ क्तः " [ ५.३.२ ] इति भविष्यति क्तः । चेन्मम कोपेन मिन्नं तदा त्वद्वपुरेत्तुं शक्ष्यत एवेत्यर्थः ॥ ७८९ 4 १ एवढा २ए विरप्तक'. बी 'विरब्ध' ३ पं स्वदुः ४ डी दुःखान्त. ५ ए नु सिन्नो. ६ ए या त ॥. १ "न् । कन्ता. ५ सी डी 'लोस्य. 'जेन. १० ए 'समोष २ ए थावढं. ३ ए 'तोर्योधि'. ६ सी डी दुःखान्तो. एवं मा. ८ए तज ९ ए ४ ए बी विरब्धं. • ११ए मीर्षया बी 'मीया. १२डी ' या वाक्ष. १३ ए "तुं किं. १४ एशष्यते. डी शक्यते. १५ ए ते । तत्र. १६ ए रत्वं शष्यतः Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९० ब्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः] न शक्तैमास्थातुमशान्तदान्तैः श्रीवेश्म मे स्पष्टमदासिता.ः । ततस्त्वमच्छन्नमदस्तपूर्णबलिमयाँ स्पाशित एवमन्ये ॥५७॥ ५७. श्रीवेश्मास्थातुमाश्रयितुं न शक्तं न शक्यते स्म । कैः कैरित्याह । अशान्तैदान्तैरजितेन्द्रियतपःक्लेशासहैस्तथा मे मह्यं स्पष्टमदासिता.रदत्तपूजैश्च । तत्तस्माद्धेतोरच्छन्नं प्रकटमदस्तपूर्णबलिमह्यमदत्तपर्याप्तपूजोपचारस्त्वं मया स्पाशित एव भक्षणाय गृहीत एवेति मन्ये । यद्यपि राज्ञ: स्पशनं भावि तथाप्यनेनातिस्वाधीनत्वेन कृतमिव संभावितमित्यतीते क्तः ॥ रक्षोभिराच्छादितपूरितं प्राक् संज्ञप्तविश्वैर्दमितामरैर्हि । विश्वस्तया पातुमिदं श्रियौक आज्ञापितोहं शमितान्यशक्तिः॥५८॥ ५८. इदं प्रत्यक्षमोको लक्ष्मीगृहं पातुं रक्षितुं विश्वस्तया मयि कृतविश्वासया श्रियाहमाज्ञापितो नियुक्तः । यतः कीदृशम् । प्राक्पूर्व संज्ञप्तविश्वैर्मारितलोकैर्दमितामरैः परिभूतदैवै रक्षोभिर्हि स्फुटमाच्छादितपूरितमाक्रान्तं संभृतं च । यतः कीदृशोहम् । बलिष्टत्वेन शमितान्येषां राक्षसादिशत्रूणां शक्तिर्येन सः॥ ___ कथमाज्ञापित इत्याह ॥ जप्तॉपि मत्रैर्जपितापि पुष्पैस्तूर्णं भवाम्युच्छ्रसिता न तस्य । न ते बलिं यस्त्वरितो दिशेत्माग्वलिः स भावी रुषितस्य ते च ॥ ५९॥ १ ए क्तमस्था'. २ ए °वेशने स्प. सी वेस्म मे. ३ ए लि. ४ बी या स्फाशि. ५ ई साभिम'. ६ ए जप्तापि. ७ बी पुष्पैस्तू. ८ ए मुच्छसि'. ९ ए वी ऋषि. १सी वेस्मास्था . २ सी शक्य'. ३ बी °न्तदीतैर. ४ बी ततस्तस्मा. ५ ए राज्ञ स्प. ६ ए सी डी व सश. Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.६९.] दशमः सर्गः। अभ्यान्तरक्षोवमितास्रष्टा वान्ताश्रुरास्वान्तवतीति वृत्तिम् । संघुष्टवाग्मेभ्यमितस्य देवी प्रतिज्ञया संघुषितस्वनस्य ॥ ६० ॥ ५९,६०. देवी लक्ष्मीर्मे वृत्तिं जीविकामास्वान्तवत्युवाच । कीहक्सती । अभ्यमन्ति स्माभ्यान्तान्यभिमुखमागतानि यानि रक्षांसि तैर्वमितमरुच्योद्गीण यदलं पूर्वपीतं मनुष्यादिरक्तं तेन रुष्टात एव वान्ताश्रुः कोपावेशेन नेत्रेभ्योश्रूणि क्षरन्ती । कीदृशः सतो मेभ्यमितस्य देव्यभिमुखं गतस्य तथा प्रतिज्ञया त्वद्वेश्म मया सर्वदुष्टेभ्यो रक्ष्यमेवेत्यभ्युपगमेन संघुषितस्वनस्य नानोच्चारितशब्दस्य । कां वृत्तिमित्याह । यो नरस्त्वरित उत्सुकः संस्ते तुभ्यं प्राग्बलिं न दिशेन्न दद्यात्तस्य प्राक्तुभ्यं बलेरदातु!च्छ्सिता न प्रसन्ना भामि। कीदृशी। मत्रैस्तूर्ण जैतापि स्मृतापि पुष्पैत्रिपूतकुसुमैर्जपितापि मन्त्रोच्चारपूर्व करवीरादिपुष्पक्षेपेण स्मृतापीत्यर्थः । तथा स प्रोक्तुभ्यं बलेरदाता रुषितस्यापूजया क्रुद्धस्य ते बलिर्भावी च स त्वया ग्रसनीय इत्यर्थ इति । न च वाच्यमवहेलया प्रतिज्ञातं संकुच्चैतां वृत्तिं देवी तेवोचदिति । यतः संघुष्टवागेवंविधा ते वृत्तिरेवेति प्रतिज्ञातवचनैवंविधा ते वृत्तिरित्यसकृदुच्चारितवचना वा ॥ १ ए क्षोवामिताश्रु. २ ई ताश्रुरु. ३ ए सी वान्तांश्रु. सी वाताश्रु. ४ ए वाग्मभ्य'. १ए °न्तिमासमाभ्या. २ ए रक्ता तेन रष्टा'. ३ ए वाताः श्रुः . ४ ए देभ्योभि. ई देव्या अभि. ५ ए रक्षमे'. ६ ए त्यभ्यप. ७ सी डी गमनेन. ८ ए त्सुकसं. ९ ई कः सँस्ते. १० सीडी वामीति । की. ११ ए ई ता स्मृ. १२ ई प्राक् बलैर'. १३ ए °ता ऋषि'. १४ ई क्रुधस्य. १५ बी नवा. १६ ए °च्यसव. १७ ए बी डी कृच्चतां. सी कृत्वेती वृत्ति दे. १८ बी सी त्तिरेवं विधा ते वृत्तिरि, Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ घ्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] तद्भोक्तुमित्यास्त्रनितं श्रिया त्वामहष्टदन्ताहषिताग्रदंष्ट्रः । सजोसि धाादृषितारकेशलोमन्महेष्टोन्नतकेशलोमा ॥ ६१ ॥ ६१. तत्तस्माद्धेतोहे धाष्टान्न तु सत्त्वातिरेकाद्धृषितायेकेशलोभन्नुषितवालरोमाओत्युक्तरीत्या श्रियाखेनितमादिष्टं दत्तमित्यर्थः । त्वां भोक्तुं ग्रसितुमहं सज्जोस्मि । कीहक्सन् । प्रहृष्टोन्नतकेशलोमा त्वत्सदृशापूर्वभक्ष्यप्रापणोत्थहर्षातिरेकादुच्छ्रसितोच्चकेशलोमा तथाहृष्टा अप्रतिहता दन्ता यस्य स योहृषिताप्रदंष्ट्रोप्रतिहतदंष्ट्राग्रः स तथा ॥ किं चासि हृष्टो हृषितो न को वा ससर्जिथाद्यापचितं न यन्मे । सस्रष्ठ देव्या अपचायितं त्वं न मां तु दद्रष्ट ददर्शिथाः किम् ॥६२॥ ६२. किं चेति विशेषे । अद्य यत्त्वं मे मैंमापचितं पूजां न ससजिथ न चकर्थ तेनास्म्यहं हृष्टो विस्मितो वाथ वा को न हृषितः किं त्वभिनवः कोप्ययं ध्याता य: प्राक्पूज्यममुं व्यन्तरमपूजयित्वा मन्त्रध्यानफलं साधयिष्यतीति सर्वोपि साश्चर्योभूदित्यर्थः । ननु मयान्योपि कोपि नार्चितस्ततस्ते कोपमानो येनैवं वक्षीत्याह। त्वं देव्या लक्ष्म्या अपचायितं पूजां सस्रष्ठ चकर्थ मां तु मां पु¥न दद्रष्ठ पूजायै न स्मृतवानतस्त्वम् । आ: कोपे । किं ददर्शिथ मूलस्मरणीयास्मरणान्न किमप्यस्मर इत्यर्थः ॥ __१ ई दृष्टान्न'. २ ए 'यित्वं तं न. १ सी तोहि धा. ई तोहे धाष्टयान्न, २ ए ग्रक्लेशनोम. ३ बी °नुद्धषि. ४ बी सी डी 'तबाल'. ५ ए "स्वमित. ६ ए धान स. ७ ए मप'. ८ए कथं ते. ९ ए विस्मृतो. १० ए किं तु भि'. ११ सी डीस्ततः स को . १२ ए °यितां पू. १३ ए कथमा तु. १४ ए °ननं द. १५ ए' यै स्मृ'. १६ ई कोपि। किं. १७ ए °णान्ना कि. Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.६९.] दशमः सर्गः । ७९३ मत्रेण संचस्करिथाथ संचस्कथयतत्रैः स्व शेकिथास्त्रैः । शशक्थ दोर्भ्यामथ चेत्ततोपि क्षयं ययाथाययियात्र यत्त्वम् ॥ ६३ ॥ I ६३. उ हे राजंश्चेद्यद्यपि त्वं मन्त्रेणाङ्गरक्षामन्त्रेण स्वमात्मानं संचस्करिथ । अथ तथाग्र्यतन्त्रैः संप्रभावैरङ्गरक्षा हेतुमुद्रा विशेषादितत्रैश्च स्वं यद्यपि संचस्कर्थार्थ तथा यद्यपि त्वमत्रैर्वारुणादिर्भिः शेकिथ समर्थोभूस्तथा यद्यपि दोर्भ्यां शशक्थ ततोपि तथापि यत्त्वमत्र श्रीगृह आयर्थिथागास्ततस्तस्मात्क्षयं ययाथ प्राप्त एव ॥ जहर्थ यर्च्छिश्रयिथारिथाथ संस्वर्थ विप्राग्वरिथादिथापि । त्वं यच्च संविव्ययिथापस स्वरिथेह तद्गर्हय तेस्मि मृत्युः ॥ ६४ ॥ ६४. हे राजन्निह जन्मनि यदहाये देवद्रव्यादि जहर्थापहृतवान् यच्चासेव्यमसत्सङ्गादि शिश्रयिथार्थ तथा यद्गम्यं परख्याद्यारिथ गतो यच्चावाच्यं सस्वर्थोक्तवान्यदपीड्यं साध्वादि पीडितवान् यच्चायाच्यमधिककरादि विप्राग्वरिर्थं विवरिथ याचितैवान्यच्चाभक्ष्यमादियापि 99 २१ भक्षितवांश्च यचानाच्छाद्यं प्रच्छन्नपापं संविव्ययिथाच्छादितवान्यच्चापसस्वरिथ विरुद्धभवोचस्तत्त्वं गर्हय निन्दये यतस्तेहं मृत्युर्मरणहेतु १. ५ ए सत्वर्थ. २ ईशोक". ३ ए रोकथा ४ ई च्छित्रियि'. ६ डी 'रितेह. २० ३ डी 'खैर्बाणा' ७ए विप्रामास्त ८ ए १ बी सभा २ ई भावर ५ ए 'शक्त ६ ई तवापि १० ए सत्वाथ त ११ ई तोथावा. १२ एन्यपी. १४ एतन्वा. १५ ई वान् य'. १६ ए सी डी 'थ या. १८ ए यच ना.. २२ ए ई 'त'. पापसं २० ए ई संव्य १०० १९ २३ बी "त्युमर'. ४ ए ई 'भिः शोकि.. हार्य दे ९ ए यथासे. "वायिदपी. १३ ए १७ ए तथाच्यत्वाभ'. २१ ए 'दिवा'. Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] वते । मृत्युकाले हि पापगीं क्रियते । यद्यप्यत्र विशेषानुक्तैर्यच्छब्देन निन्धर्मनिन्द्यं चोच्यते तथापि तद्र्ह येत्युक्तेनिन्द्यमेवोच्यते ॥ दृढ । इति "बलि'' [ ६९ ] इत्यादिना निपात्यम् ॥ क्षुब्ध । विरिब्ध । स्वान्तः । ध्वान्त । लग्नम् । म्लिष्ट । फाटेम् । बाद पारिवृह्यम् । एते 'क्षुब्ध” [ ७० ] इत्यादिना निपात्याः ॥ मिन्नैः । भत्र "आदितः" [१] इति नेट् ॥ मिन्नं क्रुधा मेदितमीग्रंया । प्रमिन्नम् अमेदित । इत्यत्र “न वा” [७२ ] इत्यादिना नेवा ॥ शक्तम् शकितम् । अत्र "शकः कर्मणि" [७३ ] इति वा नेट् ॥ दान्तैः दमित । अशान्त शमित । पूर्ण पूरितम् । अदस्त अदासित । स्पष्टम् स्पाशितः । अच्छन्नम् आच्छादित। संज्ञप्त आज्ञापितः। एते “णौ दान्त' [७४] इत्यादिना वा निपात्याः ॥ विश्वस्तया उसिता । जप्ता जपिता । वान्त वमित। रेष्टा रुषितस्य । तूर्णम् त्वरितः । संघुष्टवाक् संघुषितस्वनस्य । आस्वान्तवती आस्वनितम् । अभ्यान्त अभ्यमितस्य । इत्यत्र "श्वसजप” [ ७५ ] इत्यादिना वा नेट् ॥ १ ए र्ते । का. २ ए हां क्रय'. ३ ए तेच्छ०. ४ ए मनन्धं व्योच्य. ५ सी डी पिगई . ६ ए बी ई विरब्ध. ७ डीई स्वान्त ।. सी स्वान्त । धात । ल'. ८ ए °न्तः । ध्वन्त. ९ ए सी ग्न । म्लि'. १० सी टम् । फा. ११ ए डी °ण्ट । बा. १२ सी °ढम् । पारिवृट्य । ए°. १३ ए मिन्न । अ. १४ सी मिन्न क्रु. १५ ए डी ई मितः । अ. १६ सी शान्तः श. १७ ए पूर्णा पू.१८ सी त । स्फष्टं स्फाशि. १९ डी शित । अ. २० ए डी ई दिता । सं. २१ डी ज्ञप्तः आ. २२ सी 'पित । ए'. २३ बी णौ दीन्त”. २४ ई उच्छृसि'. २५ ए बीई सित । ज. २६ ई 'पित । वा. २७ सी डी वान्ता व. २८ ई रुष्ट रु, २९ सी 'रित । सं. ३० एम् । आभ्या. Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०४.४.८१.] दशमः सर्गः । प्रहृष्टोन्नतकेशलोमा हृषितारकशलोमन् । टोस्मि हुचित न कः। अन्त अहृषिताग्रदंष्ट्रः । अत्र "हॅपेः' [ ७६ ] इत्यादिना वा नेद ॥ अपचितम् । इति "अपचितः" [ ७७ ] इति निपात्यं वा । पक्षे । अपचायितम् ॥ सस्रष्ठ ससर्जिथ । दँद्रष्ठ ददर्शिथ । संचस्कर्थ संचस्करिथ । स्वर । ययार्थं आययिथ । अस्वत् । शशक्थ शेकिथ । अन्न “सृजिदृशि' [ ७८ ] इत्यादिना वेड्स ॥ तृजिति किम् । किति नित्यानिटो मा भूत् । शिश्रयिथ ॥ अनिट इति किम् ॥ शिश्रयिथ ॥ जहर्थ । इत्यत्र "ऋतः" [ ७९] इति नेद ॥ तृज्नित्यानिट इत्येव । अपंसस्वरिथ ॥ अत्रापि निषेधमिच्छन्त्येके । सस्वर्थ ॥ आरिथ । विवरिथ । संविव्ययिथ। आदिथ । इत्यत्र "ऋ" [८०] इत्यादिनेट् ॥ यत्तुष्टुमाथादधिमाहितास्थिशाणेषु संचस्करिमायुधं प्राक् । शुश्रोथ यत्त्वं बभृमाधुना तद्धन्तुं भवन्तं वसमान्तकत्वम् ॥६५॥ ६५. प्राग्यदायुधं वयमहितास्थिशाणेषु । अहितास्थीन्येव तेजोहेतुत्वाच्छाणा निकषोपलास्तेषु । आदधिम संस्थापितवन्तोथ तथा १ ए सी द्धन्तं भ. १ ए सी डी मा ऋषि'. २ सी ई अदृष्ट'. ३ ए बी डी दन्ता हृ'. ४ ए ई हृषेत्या. ५ डी इत्यत्र अ. ६ सी म् ॥ अस्र. डीम् ॥ स्र. ७ ए ददृष्ट. ८ ए°थ यययि. डी ई थ य . ९ ई त् । अशशक्थ. १० बी क्थ शकि. ११ सी किथः । अ. १२ ए तृजित्या. १३ ए °पस्व. १४ डी त्रापीट नि. १५ ए 'त्र व ३०. १६ ए °यसाहि° सी डी °यमाहि°. १७ सी डी षु । आहि°. १८ ए °स्थात. Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९६ ज्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] संचस्करिम सततव्यापारणेनोत्तेजितवन्तश्च । येनारयो हता इत्यर्थः । अत एव येत्तुष्टुम श्लाधितवन्तोत एर्वं च सर्वत्र प्रसिद्धत्वाद्यत्त्वं शुश्रोथ जनवार्तयाशृणोस्तदायुधमधुना भवन्तं हन्तुं वयं बभृम धृतवन्तो यतो भवन्तं हेन्तुमन्तकत्वं वयं ववृमाङ्गीचकृम ॥ सुस्रोथ दुद्रोथ ससर्थ न त्वं यजग्लिवान्नैव ने चोचिवान्वा । तज्जापो जन्निवदत्रमुजग्मिवन्ममोत्पश्य मदं जगन्वान् ॥६६॥ ६६. यद्यस्मात्त्वं न सुस्रोथ मृत्युभयेन नामूत्रयो न दुद्रोथै ने खिन्नो न च ससर्थ न कापि नष्ट इत्यर्थः । नैव च जग्लिवान्न क्षीणहर्षोभून चोचिवान्वा न च दीनवचनायुक्तवान् । त्वं शूर इत्यर्थः । तत्तस्माजक्षुषस्त्वां प्रस्तवतो मम जन्निवद्वत्तकमस्त्रमुज्जग्मिवत्त्वन्मारणायोद्यतं सत्त्वं पश्य । कीहक्सन् । मदं हर्ष जगन्वान्प्राप्तः । मम प्रहारः शूरेष्वेव त्वं च शूरस्तस्माद्धृष्टः सन्मत्प्रहारं पतन्तं पश्येत्यर्थः ।। पोच्येति पादेन भुवं जघन्वान्स वैविशुष्यं क चनापि भेजे । तदाशुष्यं प्रति वैविदुष्यमाञ्जीचुलुक्यश्व समाधिलँग्नः॥ ६७ ॥ ६७. इति पूर्वोक्तं प्रोच्योक्त्वा भयोत्पादाय कोपाटोपात्पादेन भुवं १ ए सी डी ई न वोचि. सी डी न वौचि०. २ सी डी पो जिग्नि'. ३ ए सर्वेवि ४ ए ई शुष्कं क. ५ ई दातृशु. ६ बी माजींच्चु. ७ सी डी धिमग्नः. ८ ए लग्न ॥. १ सी डी त्यों अ. २ ई यत्रुष्ट'. ३ सी डी तो अत. ४ ए व स. ५ सी डी न्तं हेतुं व०, ६ ए वयववृम. ७ ई धृव'. ८ सी न्तं हेतुम. ९ ए हन्तुंम . १० ई न शुश्रोथ. ११ ए यो दु. १२ ए °थ सवि. १३ सी डी न श्चिन्नो. १४ डी न न स. १५ बी पोंभून चो'. ई पो न चो. १६ ए 'र्थः । स्तत्त. १७ बी ई द्वातुक. १८ ई वन्मा. १९ डी तं संत्त्वं, २० सी न् । मंदह. २१ ई न्वात्प्राप्तः. २२ ए हार शू. Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.८५.] दशमः सर्गः। ७९७ जघन्वान्हतवान्स सुरः क चनापि कापि स्थाने वैविशुष्यं प्रवेश भेजे कर्णस्य स्वध्यानाचलनेन विलक्षः सन्काप्यन्तर्हित इत्यर्थः । समाधिलग्नो ध्यानस्थश्शुलुक्यंश्च कर्णोपि तादृशुष्यं देवदर्शनं कर्माञ्जीयजितवान् । कथम् । वैविदुष्यं लाभं प्रति लक्ष्यीकृत्य अन्तर्भूतणिगोंक्षिः सकर्मकोत्र । यथा व्यनक्ति पदार्थान् रविः । देवदर्शनं विफलं न स्यादिति देवदर्शनादात्मनः फलसिद्धिं ज्ञातवानित्यर्थः ।। संचस्करिम ॥ सायन्येभ्यः । आदेधिम । इत्यत्र “स्मृ" [ ८१] इत्यादिना-इंदै ॥ स्रादिवर्जनं किम् । ससर्थ । ववृम । बभृम। तुष्टुम । दुद्रोथ । शुश्रोथै । सुस्रोथ ॥ जक्षुषः ॥ एकस्वर। उचिवान् । जग्लिवान् । इत्यत्र “घसेक" [ ८२ ] इत्यादिना-इट् ॥ उज्जग्मिवत् । जगन्वान् । जन्निवत् । जघन्वान् । वैविदुष्यम् । वैविशुष्यम् । दीदृशुष्यम् । अत्र “गमहन” [ ८३ ] इत्यादिना वेट् ॥ इट्यनिटि च ध्यण्येकरूपत्वाद्विकल्पपक्षेपि विदृविशदृशां वैविदुष्यमित्यौघेवोदाहरणम् ॥ आजीत् । इत्यत्र “सिचोजेः" [ ८४ ] इतीट् ॥ लक्ष्मीयंधावीत्स्वशिरो नृपं चास्तावीदसावीच मुदश्रुपूरैः । विनायरंसीहुरितं न्ययंसीन्मुदोदनंसीत्सविधेभ्ययासीत् ॥६८॥ ६८. लक्ष्मीः स्वशिरो व्यधावीदाश्चर्यकारितद्धैर्यदर्शनादकम्पय१ सीडी न्वान्स'. ए वाहतवान्सु सु. २ बी पि स्था. ३ डी ने वि'. ४ ई °स्थ श्चलु. ५ सी क्यक. ६ई दातृशु. ७ ए सी ई लक्षीकृ. डी लक्षाी कृ. ८ सी लसुद्धिं. डी लशुद्धिं. ९ ए द्धिं जात. १० ई म ॥ श्राद्य. ११ ए ई धनेभ्यः. १२ सी डी ददिम. १३ ए स्क्रमित्या. सी स्क्रसित्या. ई स्क्रश्रित्या. १४ ए °ट । xxx वि. १५ ई °थ । ज°. १६ ई जप्तवान्. १७ सी घस्वान्. १८ ए ई दातृशु. १९ ए ध्यण्यैक. सी डी ध्यणैक. २० ए त्यादेवो. Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] तथा नृपं कर्णमस्तावीच । तथा मुदश्रुपूरैर्मुदा कर्णधैर्यातिशयदर्शनोत्थानन्देन येश्रुपूरास्तैरसावीच्च स्नाता च । तथा विघ्नादनुकूलप्रतिकूलान्तरायाढ्यरंसीन्निवृत्ता । तथा दुरितं कष्टं न्ययंसीन्ययन्त्रयत् । तथा मुदा कृत्वोदनंसीदुश्वसीत् । तथा सविधे कर्णसमीपेभ्ययासीदभिमुखं गतां ॥ व्यधावीत् । असावीत् । अस्तावीत् । इत्यत्र "धूग्सु" [ ४५ ] इत्यादिनेट् ॥ न्ययंसीत् । व्यरंसीत् । उदनंसीत् । अभ्ययासीत् । अत्र “यमि" [८६] इत्यादिना सिंच आदिरिद । एषां च सोन्तः ॥ ईशिध्वमीशिध्व उ चेदथोचेदीडिध्व ईडिध्वंमु मातरोमुम् । ईशिष्व चेदीशिष ईडिषे चेदीडिव चण्डिं स्वपिषीह किं त्वम् ॥ ६९॥ किं रोदिषि प्राणिहि जक्षिहि मे धर्म श्वसिह्यद्य हि मा स्म रोदीः। त्वं मार्थ रोदः स च किं तु जक्ष्या गीर्मा स रोदीच वृथा ह्यरोदत् ॥७०॥ विनेट् स्म मादः स्वयशोस्स विघ्नैर्मा सादर्दन्योपि यदद्य लक्ष्मीः। वरैः सुसंस्कारममुं परिष्करोतीत्यथाभाष्यत वेत्रवत्या ॥ ७१ ॥ ७१. अथ वेत्रवत्या लक्ष्मीप्रतीहार्या काभाष्यतोक्तम् । किमि१ ए ध्वनु मा. २ ए शिषू चे'. ३ ए डिथ चौं. ४ ए °ण्डि ध्वपि. ५ ए किं त्वाम् ॥ सी किं वि ॥ किं. ६ एम श्चसिद्यद्य हि. ७ सी डी रोदीत्. ८ ए नेत्प्रमादस्वेय. ९ बी दन्यौपि. १० बी सी डी रिस्करों'. १ ए वीरव । त°. २ ई रैमुदा. ३ ए याद्वारं. ४ ए 'दनसी. ५ ए पेभ्याया. ६ ए सी डी ता ॥ न्या . ७ ए सी डी 'त् । अरं. ८ए यसि इ. ९ बी सिच् । आ. १० ए एसो, ११ सी ७१ ल. ११ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०. ४.४.८७.] दशमः सर्गः । ७९९ त्याह । उ हे मातरो ब्राहृयाद्याः सप्त मातृदेवताश्चेदमुं कर्ण यूयमी - शिध्वे पालयथेत्यर्थः । तदेशिध्वं पालयैत । अत्रार्थे ममानुज्ञेत्यर्थः । अथ तथा हे मातरमीडिध्ये निर्व्यूढधैर्यादिगुणावर्जितत्वत्सुष्टीडिवे तदेवं स्तुत । तथा हे चण्डि गौरि त्वं चेदर्मुमीशिषे पासिं तदेशिष्व चेदीडिषे तदेडिष्व किं किमिति त्वमिह कर्णस्य पालने स्तवने च विषये स्वपिषि निरुद्यमीभवसि । तथा हे क्ष्मे भूदेवते किं रोदिषि मम भर्ता कर्णानेन दुष्टसुरेण भक्ष्यते लग्न इति शोकेन किमित्यश्रूणि मुञ्चसि किं तु प्राणिहि मद्भर्ता विजयमानोस्तीत्युज्जीव तथा जक्षिहि स्वभर्तुरभ्युदयदर्शनेन हस । तथा हे धर्म हि स्फुटमद्य मा स्म रोदी: किं 'तुं श्वसिहि तथा हे अर्थ त्वं मा स्मरोदः किंतु जैक्ष्या हस तथा गीः सरस्वत्यद्य मा स्म रोदीच हि निश्चितं वृथा 99 १२ ३४) १५ निरर्थकं गीः पूर्वमरोदीत् । तथा हे विघ्ने विघ्नविनायकास्य कर्णस्य विन्नैः कृत्वा स्वयशो मा स्मादो माँ विनाशयः । अत्रोपसर्गा अकिंचित्करत्वात्तत्वाश एव करिष्यन्तीति भावः । तथान्योपि यक्षराक्षसादिरप्यस्य विघ्नैः स्वैस्यायशो मा स्मादद्यद्यस्माद्धेतोः सुसंस्कारं स्थिरवासनममुं कर्ण लक्ष्मीरद्य धेरै: प्रसाददानैः परिष्करोत्यलंकरोतीति ॥ २५ ईशिषे । ईशिध्वे । ईशिष्व । ईशिध्वम् । ईडिषे । ईडि । ई । 1 २८ ईडिध्वम् । अत्र “ईशीङ : " [ ८७ ] इत्यादिनेट् ॥ १ एरो ब्रह्माद्याः. २ सी ब्राह्माद्याः. ३ ए यतीत्रा सी डी 'यतेत्यत्रा'. ४ बी वास्तु . ५ एत्सुतडिवं. ६ ए मुनीशि. ७ ए सि च चेशीव. ८ सी डी 'देशीष्व. ९ सी डी ' लनस्त'. १० बी तु स्वसि ११ ए मा. १२ ए रोह किं. १३ ए जक्षा हसा त १४ बी 'रोदत्त । त. १५ बी नेट् वि. १६ बीमा स्म. १७ डी 'शय । अ. १८ ए र्गा किं. १९ ए व्यतीति. २० ए विस्तैः स्व. २१ ए बी स्वयं. २२ ए स्मानद्य. बी स्मादाद्य सी डी 'स्मादद्यस्मा'. २३ ए 'लक्ष्मीर'. २४ ए वचैः प्र. २५ बी सी डी 'रिस्क'. २६ ए ईसिध्व. २७ डीम् । ईडिषे ईडिध्वे । ईडिष्व । ईडिध्वम् । अ. २८ एशी इ. 1 Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः ] रोदिषि । स्वपिषि । प्राणिहि' । श्वसिहि । जक्षिहि । इत्यन्त्र "रुत्पञ्चै" [८८ ] इत्यादिना इट् ॥ अय इति किम् | जैक्ष्याः || - मा स्म रोदीत् । मा स्म रोदीः । इत्यत्र " दिस्योरीट् ” [ ८९ ] इतीट् ॥ दि स्योरिति किम् । प्राणिहि ॥ दिसाहचर्यासि स्तन्या एव । तेन रोदिषि ॥ मास्मादत् । मास्मादः । अरोदत् । मा स्म रोदः । अत्र "अदश्चाद" [९०] इत्यट् ॥ संस्कारम् । परिस्क (ष्क ? ) रोति । इत्यत्र "सं" [ ९१ ] इत्यादिना स्सद || देवी स्मितज्योतिरुपस्कृतेनोपस्कुर्वती द्यामनुपस्कृतं तम् । नृपं प्रसन्ना रभसादुपस्कुर्वाणानुपस्कारमिदं बभाषे || ७२ ॥ ८०० 90 1 ७२. देवी लक्ष्मीरनुपस्कारं वाक्याध्याहाररहितं यथा स्यादेवमिदं वक्ष्यमाणं बभाषे । कीदृक्सती । प्रसन्नात एवानुपस्कृतं रागद्वेषादिविकाररहितं तं नृपं कर्णं रभसादौत्सुक्येनोपस्कुर्वाणा पुत्रलाभवरेण विशेषयन्ती । अत एवं स्मितज्योतिरुपस्कृतेन स्मिर्तेस्य प्रसादोद्भवहसितस्य ज्योतिषां कान्तीनामुपस्कृतेन समुदायेन कृत्वा द्यां व्योमोपस्कुर्वत्यलंकुर्वती ॥ द्यामुपस्कुर्वती । ज्योतिरुपस्कृतने । तमुपस्कुर्वाणा । अनुपस्कृतम् । अनुपस्कारम् । अत्र “उपाद्” [ ९२ ] इत्यादिना स्ट् ॥ १ ए डी 'पर्व'. २ भस्मादु १ एहि । स्वसि २ एव्यच. ५ ए रोदीत् । इ. ६ ए 'तिसांस्तस्या ए. "स्कार । प ९ ए देवीं ल १० ए १२ बी सी डी व स्मि. १३ डी 'तस्य. “पस्का". १६ सीना स्मट् ३ एामु ४ एभाषेः ॥ ४ बी जक्ष्या ॥. ३ सी डी 'चक इ. ७ ए सी 'पि ॥ सा स्मा, ८ बी 'रं व्याक्या'. ११ एत्सुकोनो. १४ए 'तस्म प्र १५ सी १७ एस इ ॥ तु. Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.९५.] दशमः सर्गः। ८०१ तुष्टास्म्युपस्कीर्य लुनामि तेघ मा भूत्पतिस्कीर्णमतः परं ते । यदप्युपस्कीर्णमिहोपसर्गस्तैस्ते तपः प्रत्युत दीपितं हि ॥७३॥ ___७३. हे राजन्नस्म्यहं तुष्टा सती ते तवाघं कष्टमुपस्कीर्य विक्षिप्य लुनामि । अतश्चातोस्मादिनात्परं पश्चात्ते प्रतिस्कीर्णं हिंसानुबन्धी विनेटकृतो विक्षेपो मा भूत् । यदप्युपसगैविनेटतोपद्रवकर्तृतमुपस्कीर्ण हिंसानुबन्धी विक्षेप इह स्थानेभूत्तेन परीक्षानिर्वाहशाणभूतेनोपस्कीऐन तैरुपसँगैः कर्तृभिर्हि स्फुटं प्रत्युत विशेषेण ते तपो दीपितमुजवालितम् ॥ उपस्कीर्य लुनामि । इत्यत्र “किरो लवने" [ ९३ ] इति स्सद ॥ प्रतिस्कीर्णम् । उपस्कीर्णम् । अत्र "प्रतेश्च वधे" [ ९४ ] इति' स्सट् ॥ अपस्किरन्ते श्वकविष्किरीक्षाणः क्षेत्रपालाच्युतशंकराणाम् । प्रस्तुम्पति स्वर्गिगवीं च वत्सो यत्रास्तु तत्राप्यहता तवाज्ञा ॥७४॥ ___७४. तत्रापि स्वर्गेपि तवाज्ञाहता मत्प्रसादादस्खलितास्तु । यत्र स्वर्गे क्षेत्रपालाच्युतशंकराणाम् । अज्ञातः श्वा श्वकः कुक्कुरः । विकिरः पक्षी। अर्थाद्गरुडोत्र । उक्षा वृषभैः । द्वन्द्वे ते वाहनान्यपस्किरन्ते विक्षिपन्तीति सामान्यार्थः । विशेषस्त्वयम् । श्वा आश्रयार्थी सन् विलिख्य भस्म विक्षिपति । विष्किरी भक्ष्यार्थी सन् विलिख्याव १ डी पस्कार्य. २ सी तेषमा. ३ ए विकरो . सी डी विस्करों'. ४ डी °म् । प्रास्तु. १ ए वायं क. २ ए स्माद्विना. ३ ए यदिप्यु. ४ सी विघ्नंकृतो. डी विनकृतो. ५ ए कर्णिक. ६ ए सी स्कीणि हिं. ७ ए सगैंक'. ८ ए प्रत्यत. ९सी डी नाति । इ.१०सी तिष्कीर्ण । उ॰.११सी ति सद्द ॥ अ. १२ए कुकरः. सी कुक्कुरः. डी कुर्कुरः. १३ ए °भः । थीदेते. १४ एपरिकर'. १५ ए °मान्यर्थः. १६ ए °लिष्यति स्म. सी लिष्य भ. १७ बी विष्करो. १८ ए सी डी भक्षार्थी. १०१ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः ] 3 स्करं विक्षिपति । उक्षा हृष्टः सन् विलिख्य तटं विक्षिपति तथा यत्र च वत्सः स्वर्गिर्गवीं कामधेनुं प्रस्तुम्पत्युत्तुण्डयति । पयःपानायोध आघातपूर्वं लेढीत्यर्थः ॥ प्रस्तुम्पतिर्गौरपि मास्तु देशः प्रस्तुम्पको नन्दतु तैद्य वत्स | । मासिश्च मुञ्चाद्य समाधिमुद्रामुम्भामि यत्तेन्यदभीप्सितं वा ॥ ७५ ॥ ८०२ ७५. हे वत्स पुत्र ते गौरपि धेनुरपि वृषोपि वा प्रकृष्टस्तुम्पति - हिंसा यस्य स प्रस्तुपतिर्मास्तु । तथा तव देशश्च प्रगतस्तुम्पोस्मात् कचि प्रस्तुम्पकः परचक्रोपद्रवादिरहितः सन्नन्दतु । अत एवाद्य समाधिमुद्रां योगनिरोधं मा सिञ्च मा वर्धयेत्यर्थः । किं तु मुञ्च । वा यद्वा यत्तेन्यत्स्वर्गेप्यस्खलिताज्ञाभवनादेरपीत रदभीप्सितं समाधिमुद्राया अमोक्षलिङ्गेनाभिलषितमस्ति तदप्युम्भामि पूरयामि ॥ । शुम्भन्नदृम्फन्सुधयेव तृम्फन्गुम्फनु हारान्वचनैरजम्भः । आरम्भरन्धोन्मुदितोथ लक्ष्मीं स रेघुषीमारभतेति नोतुम् ॥७६॥ 99 ७६. अथैवंभणनानन्तरं स कर्णो रेघुषीं संसिद्धां फलदानोन्मुखीमित्यर्थः । लक्ष्मीमिति वक्ष्यमाणरीत्या नोतुं स्तोतुमारभत । कीदृक्सन् । अजम्भो मैथुनरहितो ब्रह्मचारीत्यर्थः । अत एवारम्भरन्धोन्मु I • १ एतिगोर. २ ए स्तुम्यको ३ ए ते व डी तेह्य व ४ डी तृफन्गु०. ५ डी नैरंज .. ६ए धोमुदितोय . ७ नम् १ बी विक्षप. २ ए 'ति विष्किरो भक्षार्थी सन्विलिख्यावस्करं विक्षिपति उ. ३ बी विक्षप ४ ए सी 'गवी का. ५ डी 'कृष्टा स्तु. ६ ए 'स्तुन्तिर्मा ७ वी "गत: स्तु॰. ८ ए रहि: स. ९ एरोध मा १० ए लषत. ११ एवभ १२ एन्तरसंस. १३ ए वक्ष्ममा १४ ए नोत्तुं स्तो. १५ डी ' भत् । की. Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ४.४.९५. ] दशमः सर्गः । ८०३ दितः कार्यस्य संसिद्ध्या हृष्टोत एव चाहम्फंस्तपोध्यानादिना क्लिश्यमानोत एव च शुम्भञ् शोभमानोत एव च सुधया तृम्फन्निवात एवं च वचनैः कृत्वा हारानिव राज्ञोतिहृष्टत्वेन वचसां स्मितसितत्वात्सुसंबद्धत्वाच्च मुक्ताकलापानिव गुम्फन् ग्रनन् ॥ आरेभ आलम्भ्यपशून नालम्भयन्पुरो यः करुणां लभन्तीम् । त्वामचितुं तेन यशांसि लम्भं लम्भं विभोलम्भ्युपलम्भ्यसिद्धि: ॥ ७७ ॥ ७७. हे विभो स्वामिनि यस्त्वामचितुमारेभे । कीदृक्सन् । पुरस्तात्तत्वाप्रत आलम्भ्यपशून्वध्यांश्छागादिपशूननालम्भयन्नहिंसन् । यतः किंभूतां त्वाम् । करुणां लभन्तीं प्राप्नुवतीम् । तेन पुंसा कर्त्रा यशांसि लम्भं लम्भमुपलम्भ्यसिद्धिः प्रशस्य कार्यनिष्पत्तिरलम्भि प्राप्ता ॥ १६ असूपलम्भां मतिमत्र लाभं लाभं तैवालाभि पदार्चनं यैः प्रालम्भि नात्मा हि कलिं प्रलम्भं प्रलम्भमेभिः सशिवोपलम्भैः 1106 11 ७८. यैर्नरैरसूपलम्भां दुःप्रा (दुष्प्रापां मर्ति ज्ञानं लाभं लाभमत्र जगति तव पदनिर्मलाभि । सज्ञानैर्यैस्त्वत्पादपूजा प्रातेत्यर्थः । ए १ए आम्भप. २ बी लम्भप. ३ ए 'चिंतं ते. तबाला ६ ए प्रलिम्भं. ७ बी लभं प्र. ८ए प्रलिम्भ ४ डी भंनवा ५ ए १ डी दितोक्कि. २ ए तृफन्नि ३ बी वा तृप्यंन्निवात. ४ सी डी व व ५ ए चनैः. ६ डी 'संबंद्ध ं. ७ए मुक्काक. ८ ए बी सी ई ग्रथन्. ९ए तथा . १० बी 'लम्भप. ११ व १२ बी शून्वंध्यां १३ ई 'भती प्रा. १४ बी वन्तीम्. १५ ए बी सी डी 'लभ्यसि १६ बी निप्पत्ति ०. १७ डी 'रंसू. १८ सी लाभम. १९ सी डी 'ति नव. २० ए दार्थन. २१ ए लापि । स. २२ ई त्यर्थ । ए०. Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] भिनेरैः कलिं पापयुगं प्रलम्भं प्रलम्भमभीक्ष्णं वञ्चयित्वा हि स्फुटमात्मा न प्रालम्भि परमपुरुषार्थमोक्षप्रापणेन न वञ्चितः । किंभूतैः । सशिवोपलम्भैः परमात्मदर्शनयुक्तैः । ते परमज्ञानिन: सन्तः सिद्धा इत्यर्थः ॥ अपस्किरन्ते श्वकविष्किरीक्षाणः । अत्र “अपात्" [९५] इत्यादिना स्सट्॥ विकिर । इत्यत्र “वी विष्किरो वा" [९६] इति वा स्सँद निपात्यः ॥ प्रस्तुम्पति वत्सः स्वर्गिगवीम् । अत्र "प्रात्" [९७] इत्यादिना स्सट् ॥ अन्ये तु प्रात्परस्य तुम्पतिशब्दस्य गव्यभिधेये स्सडादिः स्यात् । प्रस्तुंम्पतिौः । तुम्पतिधातोस्तु स्सट् न स्यादिति मन्यन्ते ॥ एके तु प्रात्तुम्पतेः कपीत्यारभन्ते । कपि हिंसायां कपर्याये वा कपि समासान्त इति च व्याचक्षते । प्रस्तुम्पति वत्सः स्वर्गिगवीम् । दुग्धक्षारणायोधसि हिनस्तीत्यर्थः । प्रस्तुम्पकः ॥ नन्दतु । इत्यत्र “उदितः” [ ९८ ] इत्यादिना नोन्तः ॥ मुञ्च । सिञ्च । तृम्फन् । अदृम्फन् । गुम्फन् । शुम्भन् । उम्भामि । इत्यत्र "मुचादि' [९९] इत्यादिना नोन्तः ॥ अजम्भः । अत्र “जभः स्वरे" [ १०० ] इति नोन्तः ॥ रन्ध । इत्यत्र “रध" [१०] इत्यादिना नोन्तः ॥ इटि तु परोक्षायां रेधुषीम् । अत्र नस्य लुक् ॥ आरम्भ । इत्यत्र "रभ" [१०२] इत्यादिना नः ॥ अपरोक्षाशवीति किम् । आरेभे । आरभत ॥ २२ २३ १ डी रपुषा. २ ई °क्तैः । प. ३ ई °विष्करो. ४ बी अपीत्या. ५ ए इना. ६ ए सी डी किरो. ७ ए स्सद्भिपा. ८ ए स्वगिंग. डी स्वर्गग'. ९ ए स्तुपति. १० ई तिगौः । तु. ११ ए तोस्स. १२ सी डीस्तु न. १३ बी रम्भे । क. १४ ए कन्यर्या . सी कत्या. ई कभ्यर्या. १५ सी डी ति व्या. १६ ए वत्स्तास्व. १७ डी न्तः ॥ मुंञ्च. १८ ए तृफत् । अ° १९ ए उभात्य. सी डी उम्भन् । इ. २० ए अतजभस्व. २१ डी क्षाया रे. २२ ए रेधुंषी . २३ ए सी डी पी । अं. २४ एनः ॥ स्वप'. Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ४.४.१०८] दशमः सर्गः। ८०५ अनालम्भयन् । इत्यत्र “लभः" [ १०३] इति नः ॥ लभेः परस्मैपदस्याप्यभिधानाल्लभैन्तीमिति केचित् ॥ आलम्भ्य । इत्यत्रे “आङो यि" [१०४] इति नः ॥ उपलम्भ्य । इत्यत्र "उपात्स्तुतौ" [१०५] इति नः॥ अलाभि अलम्भि। लाभं लाभम् लैम्भं लम्भम् । इत्यत्र “जिख्णमोर्वा"[१०६] इति वा नः ॥ खल । असूपलम्भाम् । घञ् । उपलैम्भैः॥जि।प्रालम्भि। प्रलम्भं प्रलम्भम् । अत्र “उपसर्गात्” [ १०७ ] इत्यादिना नः ॥ अभक्तिभाजां त्वमिहातिदुर्लम्भतोतिदुर्लम्भ ऋतं ब्रवीमि । भक्तात्मनां चातिसुलम्भतोतिसुलम्भ ऋद्ध्यास्पदमस्यजस्रम् ॥ ७९ ॥ ७९. हे प्रभो अहमृतं सत्यं ब्रवीमि । किं तदित्याह । इह भुव्यभक्तिभाजामभक्तानां त्वमतिदुर्लम्भतोप्यतिशयदुःप्रा(दुष्प्रा)प्यादपि वस्तुनोतिदुर्लम्मा ती ऋद्ध्यास्पदमणिमादिमहर्बीनां स्थानमसि त्वं भक्तात्मनां चातिसुलम्भतोप्यतिसुलैम्भा ॥ खल । अतिसुलम्भतः । अतिदुर्लम्भतः ॥ घञ् । अतिसुलम्मा। अतिदुर्लम्भा। इत्यत्र “सुदुर्व्यः" [ १०८ ] इति नः ॥ १ ए जां तमि'. २ ए ऋभं ब्रवीसि । भ. ३ बी सुम्भंतो'. ४ ए लभ ऋ. १ डी स्यामि . २ बी धान्नाल'. ३ ए भन्तः । मि. ४ बी डी लम्भ । इ'. ५ सी °त्र उपा. ६ बी लम्भ । इ', ७ ए पासुतौ. ८ ई नः ॥ ला". ९ ए लाभ लाभ ल'. १० बी लभं लभम् ।. ११ ए इत्रत्य लिख्ण. १२ ए "म्भाः ॥. सी डी म्भा ॥. १३ सी डी उपाल°. १४ डी लम्भः ।। १५ ए लम्भिः । प्र. १६ बी म्भि । रुणम् । प्र. १७ सी डी त्याना. १८ ई मि । कित. १९ ए त इत्याह । दुह भु. २० ए °क्तिराजामाभ. २१ ई थास्प°. २२ ए सी डी लभा ॥. २३ ए दुर्लभ्य इ. Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः ] नंष्ट्रीं च मेडीं च यदाम्बुधौ त्वां स्रष्टापि नैं द्रष्टुमलं तदा हि । दृष्टं निसृष्टं जगतोपि दौस्थ्यं स्पष्टुं विमष्टी तव कः कलां तत् ॥ ८० ॥ 3 ८०. स्रष्टाप्यास्तामन्यो जनो ब्रह्मापि यदा नालं न समर्थोभूत् । किं कर्तुम्। त्वां द्रष्टुम् । किंभूतां सतीम् । नंष्ट्रीं च ऋषिशापेन जगतो नश्यन्तीं च । तथाम्बुधौ मङ्कीं च मज्जन्तीं च । तदा हि स्फुटं जगतोपि सकलविश्वस्यापि निसृष्टं स्वाभाविकं दौस्थ्यं दारिद्र्यं दृष्टम् । अब्धिमथनात्पूर्वं किल दुर्वासोमुनिनात्यादरेण दत्तायां सन्तानकर्पु - ष्पमालायामिन्द्रेणैरावणकुम्भस्थेले क्षेपेणावज्ञातायां क्रुद्धेन शोपो दत्तो यथा लक्ष्मीगणैवमवज्ञेति निःश्रीकं जगद्भूयादिति । ततो लक्ष्मीरब्धौ तथा निलीनाँ यथा स्रष्टापि न द्रष्टुं शकिता जर्गेचातिदुःस्थमासीदिति पुराणम् । तत्तस्मात्तव कैली माहात्म्यं स्पष्टुं ज्ञातुं को विमर्श विमृशति । अहं लक्ष्मी माहात्म्यं ज्ञास्यामीति चिन्तामपि न कोपि करोतीत्यर्थः ॥ स्पष्टास्त्रमाष्ट ऋतं च शास्त्रं सप्ता गिरीन्वारिनिधींश्च सप्त । अस्त्वग्निचिद्वा यजमान औदासीन्यं भवत्या यदि तन्मुधैतत् ॥ ८१ ॥ १९ २३ २४ ८१. अत्रं धनोपार्जनार्थं चापादि शस्त्रं स्पष्ट स्वविद्यानैपुणेन १ सी ई नंष्ट्री च. २ बी मङी च. ३ बी न दृष्टु. ४ ए तथा हि. ५ सीडी स्पष्टस्त्र. ६ ई श्च स्रप्ता 1. ७ ए 'द्वाजयमा . १. ई ह्यादि य. डीई जीं म. ५ ८ए सन्तान ९ १२ ए लक्ष्मींग. १६ बी लां महा. २० बी 'नायें चा २३ सी पुष्पेन. २ सी डी 'लं स°. ३ ए सी डी 'ष्ट्रीं ऋ° ४ ए. सी बी चं द्रष्ट. ६ ए दृष्टा अश्विम '. ७ई सामु. १० सी डी 'स्थलक्षे. १४ गत्वाति, १५ ई "स्मात्ते क. बी पुष्कमा ११ ए शापाद. १३ ए 'ना ख १७ ई 'त्म्यं स्प्रष्टुं ज्ञा. १८ ए बी स्पष्टुं ज्ञा. १९ एमी चि. २१ सी स्प्रष्टाः स्त्ववि २२ बीष्टात्रवि . डी ई 'टास्त्रवि डी पुण्येन. २४ ई न गृही Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशन [ है० ४.४.११५.] दशमः सर्गः। ग्रहीता नरोस्तु । ऋतं सत्यं शास्त्रं शब्दशास्त्राद्याम्रष्टा च यथावस्थिताविगमेन विचारयिता वा नरोस्तु । उद्यमित्वाद्रीिन रोहणादिशैलान् सप्ता वा गन्ता वा नरोस्तु । वारिनिधीन्सता च गन्ता वास्तु । यजमानोनिचिद्वा धनवृद्धिहेतुयागस्य कारयिता वास्तु । परं यदि भवत्या औदासीन्यमुपेक्षानाराधितत्वेनास्प्रष्टा(ष्ट्रा)दिषु चेन्नानुकूलासीत्यर्थः । तत्तथैतदस्वस्पर्शनादि मुधा विफलम् ॥ नंष्ट्रीम् । अत्र "नशो धुटि" [१०९] इति नः ॥ मडीम् । अन्न “मस्जेः सः" [११० ] इति सस्य नः ॥ स्रष्टा । द्रष्टुम् । अत्र “अः सृजि" [१११] इत्यादिना-अः । अकितीति किम् । निसृष्टम् । दृष्टम् ॥ स्प्रष्टा स्पष्टुंम् । आम्रष्टा विमी । सप्ता सप्ती । इत्यत्र "स्पृश' [११२ ] इत्यादिनी वा-अः ॥ अग्निचित् । इत्यत्र "हस्त्रस्य" [ ११३] इत्यादिनी तोन्तः ॥ यजमानः । अत्र "अतो म आने" [ ११४ ] इति मः ॥ औदासीन्यम् । अत्र "आसीनः" [ ११५] इत्यौसीनशब्दो निपात्यः ॥ वचः सुधामुद्गिरति न्वकीर्ण मुखं च पूर्तेन्दुरुचिं जिहीर्षु । पोपूर्यते कौस्तुभतां नखश्रीः शिष्टः करौ खर्दुमपल्लवत्वम् ॥४२॥ १ ए कीर्ण मु. २ ए च मूतें. ३ ए रुचि जि. . १ सी शाद्या . २ ए दशब्दशा. ३ बी. थास्थि. ४ ए सी धीन्सुप्ता". ५ ए नास्वस्प्र. ६ सी स्त्रस्पृष्टा . ७ बी त्तदैत. ई त्तदैतत्तद. ८ ए थैदतदस्वस्प”. ९ ए °दि सुधा. १० ई °टि नः. ११ बी मस्जे श इति शस्य. १२ ए स्जे: श इ. १३ ए ति शस्य मः ॥. १४ ए सी डी नः ।। स्प्रष्टा. १५ ए अती. १६ सी डीम् । स. १७ ई म् । द्रष्ट. १८ सी डी त्र दृश०.१९ बी ना अ:. २० सी ना नोतः ॥ य. डी ना नोन्तः, २१ बी त्याशीन. Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] इयं विशिष्टाशिषदलवासे तवार्यशीः कामगवीत्वमाशीः । अक्रूतमक्ष्मापितपादमेतद्गजेन्द्रयानं दिदिवत्प्रयातम् ॥ ८३ ॥ किं क्रूय्यते वा विनिषेव्यसे त्वं सहोदरैः कीर्तितसेवनैर्नु । मां प्रणिस्ते घनघात्यविघ्नो दानीय एषोपि जनस्तवाही ॥८॥ ८२-८४. हे अब्जवासे लक्ष्मि अकीर्ण संबद्धं ते वचस्तुष्टास्मीत्यादिगीराह्लादकत्वात्सुधौं न्वमृतमिवोद्गिरति क्षरति तथा ते मुखं पूर्तेन्दुरुचिं परिपूर्णचन्द्रलक्ष्मी जिहीर्षु पूर्णेन्दुतुल्यं मुखमित्यर्थः । तथा नखश्रीरत्यारक्तत्वादिगुणैः कौस्तुभता कौस्तुभमणित्वात्मनः पोपूर्यतेत्यर्थ पोषयति । तथा करौ मार्दवादिगुणैः स्वर्दुमपल्लवत्वं पारिजातकिशलयतां स्वस्य शिष्टो वदतः । तथार्यान्पुण्यवतः शास्ति वक्तयायशीः । पुण्यपात्रेषु भवन्तीत्यर्थः । इयं प्रत्यक्षा विशिष्टा साधितविशेषकार्याशीरस्तु तत्राप्यहता तवाज्ञेत्यादिनोक्तपूर्व मङ्गलशंसनं कामगवीत्वं सर्वकार्यसाधकत्वात्स्वस्य कामधेनुतामशिषदवोचत् । तथैतत्प्रत्यक्षमतं निःशब्दमक्ष्मापितपादमकम्पितांहि प्रयातं मत्समीपेभिगमनं कर्तृ गजेन्द्रयानमैरावणगति दिदिवजितवत् । वा यद्वा किं नूय्यते वचः सुधामुद्रितीत्यादि किमित्युच्यते। उपमानोपमेयतोक्त्या यद्वचनादेः सकाशाद्भेदो मयोक्तः सोयुक्त एवेत्यर्थः । यतो नु शङ्के कीर्तितसेवनैर्वचनादिव्याजेन ज्ञापितसेवैः सहोदरैः सुधादिभिरेव साक्षात्त्वं सेव्यसे सर्वसहोदरेषत्कृष्टत्वादाश्रीयसे । न तु ते सुधादितुल्यं वचनादि किंचिदस्तीत्यर्थः । सुधेन्दुकौस्तुभस्वर्दुमपल्लवकामधेनु__ १ सी डी तथार्य. २ ए विनेषे'. ३ बी णिस्तै घ. ४ ई ही ॥ अ. १ ए कीर्ण सं. २ ए °मीदि. ३ ए धां तृम ई धां त्वमृ. ४ ई वोद्गर. ५ ए ते सुखं. ६ ए सी लक्ष्मी जि. ७ ई मात्मानः. ८ डी वाहते त. ९ बी पूर्वम°, १० ई ङ्गलं. ११ डी वन्जित. १२ ए सी डी दो नयो'. १३ ए दिरे. Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ४.४.१२२.] दशमः सर्गः । ८०९ गजेन्द्रा अब्धेरुत्पन्नत्वालक्ष्म्या: सहोदरा इति । अतश्चैषोपि मल्लक्षणो जनस्तवाही मूी प्रणिस्त चुम्बति नमतीत्यर्थः । येतः कीदृक् । घनैलोहघनैर्घात्या हन्तुं शक्या विना निष्पुत्रत्वाद्यन्तराया यस्य सः कृच्छ्रोत्तार्यविघ्न इत्यर्थः । तथा दीयते यस्मै स दानीयः प्रसाददानयोग्यः ॥ अकीर्णम् ॥ डिति । गिरति । अत्रं "ऋतां किती” [११६] इतीर ॥ बहुवचनं लाक्षणिकस्यापि परिग्रहार्थम् । जिहीर्षु ॥ पूर्त । पोपूर्यते । अत्र “ओष्ठ्यादुर्" [ ११७ ] इत्युर् ॥ अङि । अशिषत् ॥ किति व्यञ्जने । शिष्टः । विशिष्टा । इत्यत्र "ईसासः" [११८] इत्यादिना-ईस् ॥ आर्यशीः। अत्र "क्वौ" [११९] इतीस् ॥ आशीः । अत्र “आङः" [१२० ] इतीस् ॥ अक्ष्मापित । अनूतम् । दिदिवत् । इत्यत्रै "टवोः” [१२१] इत्यादिना यवयोर्लक् ॥ यवर्जनं कि । क्य्य ते । विनिषेव्यसे ॥ व्यञ्जन इति किम् । सेवनैः॥ कीर्तित । इत्यत्र "कृतः कीर्तिः" [ १२२ ] इति की ॥ घोडशः पादः समाप्तः १ ई अब्धरु. २ ए लक्ष्म्या सौ. सी लक्ष्मा सौ. ३ ई ओ पणिं. ४ ए °स्ते युवति. बी °स्ते स्पृशति न०. ५ ए यता की'. ६ ए सी °नीय प्र. ७ ए ण ॥ ङि. ८ ए गिरिति. ९ ए °त्र ऋतान्तिती. १० सी तीर । ब०. ११ डी र् । ब. १२ ए तीरा । ब. १३ ई बलुव. १४ ई जिजिही . १५ ई तम् । पो. १६ डी यत्ते । अ. १७ ए त् । न्विति. १८ बी °ने । विशिष्टा । शिष्टः । इ०. १९ सी डी इशास:. ई इ. सा. २० ए दिन् ई. २१ ई इम् ॥ आर्यसी । अ. २२ सीत। दि°. २३ ए °त्र द्योः इ. २४ ए °म् । नक्कय्य. २५ ए "त्र कृतः. २६ ए बी सी ई कीर्त ॥. डी कीर्त्त ।. २७ सी षोडः पा. २८ सी पादस. २९ ई °दः ॥. १०२ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१० व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः ] धनर्धात्य । इत्यत्र “आतुमः” [ ] इत्यादिना प्रत्ययः कृत् ॥ अत्यादिरिति किम् । प्रणिस्ते ॥ दानीयः । अत्र “बहुलम्" [ २ ] इत्युक्तादर्थादन्यत्रापि कृत् ॥ त्वनन्दनस्यास्य पुरापि मातर्न न्यूनमहश्छिदुरेस्ति किंचित् । यत्कृष्टपच्यान्नमयी धरित्री भिदेलिमं भङ्गुरधैर्यमारम् ॥८५॥ ८५. हे अहंश्छिदुरे पापच्छेदिके मातस्त्वन्नन्दनस्य मल्लक्षणस्य पुरापि साक्षात्त्वदाशीर्दानात्पूर्वमपि न किंचिन्यूनमस्ति । यद्यस्मात्त्वप्रसादप्रतापमात्रादपि पृथ्वी कृष्टपच्यानि कृष्टे स्वयं पंक्वान्यन्नानि प्राचुर्येण प्राधान्येन वा यस्यां "अस्सिन्” [७.३.२] इति मयटि कृष्टपच्यानमय्यस्ति । तथारमरिसमूहो भङ्गुरधैर्य स्वयंविशीर्यमाणधैर्यमत एव भिदेलिमं स्वयमेव विदीर्यमाणमास्ते ।। नन्दनस्य । इत्यत्र “कर्तरि" [३] इति कर्तरि कृत् ॥ भङ्गुर । छिदुरे । भिदेलिमम् । कृष्टपच्य । इत्यत्र "व्याप्ये" [४] इत्यादिना घुरकेलिमौ प्रत्ययौ कृष्टपच्यशब्दश्च कर्मकर्तरि स्युः ॥ १२ १3 १ ए हस्तिदु. सी हस्थिदु. २ ए पश्चान्न. ३ बी भिदिलि'. ४ ए "लिसुर. १ डीपुस्तके समासे–'धनधात्य इत्यत्र कारकं कृतेति समासः'. २ए घात । ह'. ३ ए दिनाः प्र. ४ बी त्यादेरि . ५ डी पुस्तके समासे-'प्रणिस्त इत्यत्र कृत्संज्ञायां निसनिक्षेति णत्वविकल्पः स्यात्स तु न. ६ बी हच्छिदु. सी हस्थिदु. ७ बी प्रतापप्रसा. सी प्रस्मात्वत्प्रसा. ८ ए °यं न्य. ९ सी डी पव्यान्य. १० ए स्वर्य वि०. ११ सी डी णमस्ति ॥. १२ सी तरी क. १३ ए °रिरिति. बी °रि कृत् इ. १४ ए सी डी दुर । मि. १५ ए °ब्दस्य क. १६ सीरि स्फु ॥. डी रिस्फुः ॥. Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०५.१.५.] दशमः सर्गः। ८११ धत्सेजयं रुच्यमव्यथ्यभव्ये वास्तव्या चेन्मेसि चित्ते तदानीम् । जन्यं रम्यं सूनुना जन्यरम्यापात्याप्लाव्यस्फातिनापात्यमझे ॥८६॥ ८६. अव्यथ्येषु मुनिषु भव्या रक्षकत्वेन प्रधाना यद्वाव्यध्या निर्भया च सा भव्या च हे अव्यथ्यभव्ये लक्ष्मि चेत्त्वं रुच्यं मनोज्ञमजर्यमार्यसंगतं धत्से तथा चेन्मे चित्ते वास्तव्या वसन्यसि भवसि तदानीं सूनुना जन्यमुत्पत्तव्यं तथाङ्के ममोत्सङ्गे पात्यं पतनीयं रम्यं च कूर्चाकर्षणादिना क्रीडनीयं च । किंभूतेन सता । जन्या जायमाना रम्या मनोहरापात्यागच्छन्त्याप्लाव्योच्छलन्ती स्फातिवृद्धिर्यस्य तेन त्वत्प्रसादात्पुत्रस्योत्पत्तिवृद्धिश्च स्तादित्यर्थः । शालिँनी छन्दः ॥ गान्धारगर्यजनगेययशोभिराप्ला व्याशेन वत्स भवतस्तनयेन भव्यम् । लक्ष्मीरिति प्रवचनीय तोक्त्युपस्था नीया जगत्प्रवचनीयगुणा तिरोभूत् ।। ८७ ॥ ८७. लक्ष्मीस्तिरोभूत् । कीदृशी । ऋतोक्तयः सत्यवचनान्युपस्थानीयाआराधिका यस्याः सा। यद्वा ऋतोक्तिभिरुपस्थानीयाराध्या । तथा जगतां प्रवचनीयाः कीर्तनीया गुणा यस्याः सा । तथा प्रवचनीया वदन्ती सती । किमित्याह । हे वत्स भवतस्तनयेन भव्यमुत्पत्तव्यम्। १ बी त्सेजयं रु. २ ए व्यसरफा. ३ सी स्फाटिना. ४ ए ययन'. ५ ए °भिसप्लाव्याशैन. ६ ए °येयेन. ७ सी ऋत्योक्त्यु'. १ ए कक्षो प्र. २ बी गते ध. ३ ए तथीके समो. ४ सी मान्या र. ५ ए स्य-व. ६ ए बी तिवृद्धि'. ७ ए श्च तादि. ८ एलिनी छ'. Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः ] कीदृशा । गान्धारस्य तृतीयग्रामस्य गेयो गाता यो जनो देवलोकस्तेनैव गान्धारस्य गेयत्वात्तेन गेयानि यानि यशांसि तैः कृत्वाप्लाव्याशेन पूरणीयदिकेनेति ॥ अजयम् । इति “संगतेजर्यम्" [५] इति निपात्यम् ॥ रुच्यम् । अव्यथ्य । वास्तव्या। एते “रुच्य" [ ६ ] इत्यादिना कर्तरि निपायाः ॥ भव्ये । गेय । जन्य । रेम्य । आपात्य। [आ ?]प्लाव्य । इत्येते "भव्य'' [७] इत्यादिना कर्तरि वा निपात्याः ॥ पक्षे । तनयेन भव्यम् । जनगेय । सूनुना जन्यम् । रम्यम् । आपात्यम् । आप्लाव्याशेन ॥ प्रवचनीयोपस्थानीयाशब्दौ "प्रवचनीयादयः" [८] इति कर्तरि वा निपात्यौ ॥ पक्षे । प्रवचनीयगुणा ॥ तत्पुरुषे । ऋतोक्त्युपस्थानीया । वसन्ततिलका छन्दः ॥ आश्लिष्टैर्दयितां नभोधिशयितैः खं यानमध्यासितैलक्ष्मी शश्वदनूषितैर्मुदमुपारुदैस्त्वरामास्थितैः । पुष्पक्षेपमिषोत्तदामरजनैरारूढहर्षों नृपः किं श्लिष्टः किमुपासितोधिशयितः किं वाथ वानूषितः।।८८॥ ८८. तदा लक्ष्म्या वरप्रदानकाल आरूढ आश्रितो हर्षो येन स आरूढहर्षो नृपः कर्णः पुंष्पक्षेपमिषात्कुसुमवर्षव्याजादैमरैः किं श्लिष्टो १ बी शस्वद. २ ए पास्तदा'. ३ ए पोन्नृपः. ४ ए पाशितो. १ बी सी डी नि य°. २ बी डी दिकेने'. ३ ए डी ई स्तव्य । ए. ४ ए °त्याः ॥ सव्ये. ५ ए रम्या । पा. ६ बी रि नि. ७ सी डीन व. ८ सी डी स्थापनी. ९ ए पोन्नृपः. १० बी पुप्फक्षे. ११ ए °दनरैः. Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.१.९.] दशमः सर्गः। ८१३ मित्रैरिव स्नेहातिरेकादालिङ्गितः । किं वोपासितो बान्धवैरिव सदा समीपावस्थानेन सेवितः । किं वाधिशयितः परिचितलोकैरिव सुखवार्तालापेनाश्रितः । अथ वानूषितः प्रेष्यैरिवोनुगमनादिनानुसृतः । किंभूतैर्दयितामाश्लिष्टैः सभारित्यर्थः । तथा नभोधिशयितैराश्रितैस्तथा स्वं यानं विमानमध्यासितैस्तथा लक्ष्मी श्रीदेवीं शश्वदनूषितैरर्नुसृतैस्तथामुदमुपारूढैराश्रितैस्तथा त्वरामौत्सुक्यमास्थितैराश्रितैः ॥ शार्दूलविक्रीडितं छन्दः ॥ अविभक्तचित्तैः सुजनैरुपस्थितो जननीविजातैर्वनुजीर्णकल्मषः। स विजात उा प्रविभक्त उन्नति न तपोनुजीर्णः प्रकृतो न च स्मयम् ॥ ८९ ॥ ८९. स कर्णः सुजनैः पुरप्रधानलोकैरुपस्थितो वर्धापनकसूचकवस्त्राापढौकनेनाश्रितः । किंभूतैः । सद्भिः । जननीविजातैर्नु । एकमात्रा प्रसूतैरिव सहोदरैरिवाविभक्तचित्तैमिथोभिन्नमनोभिः । यतः कीहक् सः । उामुन्नतिमभ्युदयं विभक्तो विभागेन स्थापितवान् । ईटैकुंत इत्याह । यत उन्नतिं पुत्रलाभवररूपमभ्युदयं विजातः प्रसूतः । ईदृशोपि कुत इत्याह । यतो नु जीर्ण लक्ष्मीप्रसादेन क्षयं नीतं कल्मषं १६ १ ए न विस्म. १ ए वाभूषि. २ ए °वामुग. ३ बी नुश्रितः. सी डी नुधृतः. ४ ए तागाश्लि०. ५ ए श्रियितैतथा. ६ ए नुमृतै. बी नुश्रित'. ७ ए सी डी णः स्वज. ८ ए°नीनुजा. ९ ए °मात्रोन्न. १० ए र्व्यापुन्न. ११ सी °न् । इक्रुत°. ए ईक्रुत. १२ बी दृक्कुत. १३ ए भपुत्रलाभव. १४ ए सी जात प्र. १५ ए यं कल्मषं निपु . १६ सी षं निपु. Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ ब्याश्रयमहाकाव्ये [ कर्णराजः निःपु(निष्पु)त्रत्वरूपं पापं येन सः । ईदृशोपि कुत इत्याह । यतस्तपो नानुजीर्णः सात्विकत्वात्तपः प्राप्य न क्षीणस्तथा महापुरुषत्वात्स्मयं लक्ष्मीसाक्षात्करणोद्गवं न प्रकृतो न कर्तुमारब्धवान् । योपि तपो नानुजीर्णः स्मयं च न प्रकृतोत एवानुजीर्णकल्मषो निपापो मुनिः स्यात्सोपि सुजनैस्तपःप्रभावान्निवर्तितवैरत्वाज नीविजातैरिवाविभक्तचित्तैः सद्भिः सेव्यत उन्नतिं प्रभावनां विजात: सन्नुतिमुर्त्या विभजतीत्युक्ति: ।। सुदन्तं छन्दः । स्यौ रजौ गे: सुदन्तम् ।। प्रकृतोत्सवैः सोनुगतो मुदं गतैरमृतं नु पीतैर्विनिपीत ईक्षणैः । रुचिरासितः कुञ्जरपृष्ठ आसितः सदनं प्रयातोभ्यनुयातवासवः ॥९ ॥ ९०. स कर्णः सदनं राजभवनं प्रयातः। कीक्सन् । मुदं गतैहष्टैरतः प्रकृतः कर्तुमारब्ध उत्सवो नगरशोभादिमहो यैस्तैः पौरैरनुगतस्तथामृतं नु पीतैः स्वस्वामिदर्शनानन्देन सुधां पीतैरिवेक्षणैर्विनिपीतः सहर्ष दृष्टस्तथा कुञ्जरपृष्ठ आसितः स्थितस्तथा रुचिरमासितमासनबन्धो यस्य सोत 'एवाभ्यनुयातवासवोनुकृतेन्द्रः॥ आश्लिष्टैर्दयिताम् नृपः श्लिष्टः । नभोधिशयितैः नृपोधिशयितः । त्वरामास्थितैः उपस्थितः सः। यानमध्यासितैः नृप उपासितः । लक्ष्मीमेनूषितैः १ ए वैः सानु. १ ए णः स्यत्वि. २ ए णादूर्व. ३ ए योति त°. ४ ए जीर्णःक. ५ ए नमैवि. ६ए भाविना जा. ७ ए नतमु. ८ ए क्तिः । मुद. ९ ए ग: मुद. १० ए कर्ण स. ११ बी रत एव प्रकृतः प्रक. १२ बी दिमहो. १३ ए होदय. १४ बी तैः सुस्वा. १५ ए नातिदेन मुधां. १६ ए हघ दृ. १७ ए एडानु. १८ सी डी °वानु. १९ ए °शयैः नृ. २० बी यितः नृ'. २१ ए °यितैः । नृपोधिशयिता । त्व. २२ ए °मभूषि. Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.१.११.] दशमः सर्गः। ८१५ नृपोनूषितः । उन्नतिं विजातः जननीविजातैः । मुदमुपारूढः आरूढहर्षः। तपो नानुजीर्णः अनुजीर्णकल्मषः । उन्नतिं प्रविभक्तः अविभक्तचित्तैः । अत्र "श्लिष" [ ९ ] इत्यादिना कर्तरि वा तः ॥ स्मयं न प्रकृतः प्रकृतोत्सवैः । अत्र "आरम्भे"[१०] इति कर्तरि वा क्तः॥ गत्यर्थ । मुदं गतैः सोनुगतः । सदनं प्रयातः अभ्यनुयातवासवः ॥ अकर्मक । आसितः रुचिरासितः ॥ पिब । अमृतं पीतैः स विनिपीतः । अत्र "गत्यर्थ" [११] इत्यादिना तो वा कर्तरि ॥ ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्ध हेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासनव्याश्रयवृत्तौ दशमः सर्गः ॥ १ सी डी लिष्य इ. २ ए सी रि क्तः. ३ बी त्यर्थः । मु. ४ ए गतै सो . ५ ए अत्यनु. ६ बी सित । रु. ७ बी पीत । . ८ ए 'तरिः ।। Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BOMBAY SANSKRIT & PRAKRIT SERIES. Edited under the superintendence of Prof. V. S. Ghate, M. A. and Dr. S. K. Belvalkar, M. A., Ph. D. Apastambiya Dharmasûtra, Part I., with Critical Notes and Index and various Readings of the Hiranyakes'i-Dharmasûtra, by Dr. G. Bühler (B. S. S. No. 44) ور 1 4 Part II., containing extracts from Haradatta's Commentary called Ujjvala, by Dr. G. Bühler (B. S. S. No. 50) 1 2 Atharvana Upanishads and Commentaries, by Col. G. A. Jacob. (B. S. S. No. 40)-Under revision. Bhatti-Kavya with Mallinâtha's Commentry, Vol. I., by R. B. K. P. Trivedi, B. A. (B, S. S. No. 56) 9 Vol. II., by R. B. K. P. Tridevi, B. A. (B. S. S. No. 57) Concordance to the Principal Upanishads and Bhagavadgîtâ, by Col. G. A. Jacob (B. S. S. No. 39 )... Das'akumâracharita of Dandin, Part I., with Critical Notes, 0 6 0 etc., by Dr. G. Bühler (B. S. S. No. 10)-Under revision. 23 وو 29 31 23 440 *** *** ... *** *** Part II., by Dr. P. Peterson (B. S. S. No. 42)—Under revision. ... ... Des'înâmamâlâ Part I., Text and Critical Notes, by Prof. Pischel and Dr. G. Bühler (B. S. S. No. 17) *** Rs. a. 1 6 *** Ekâvali of Vidyâdhara, with the Commentary, Tarala, of Mallinatha, and Critical Notes, etc., by R. B. K. P. Trivedi, B. A. (B. S. S. No. 63) .... 14 0 Gauḍavaho, by Vâkpati, by S. P. Pandit, M. A. (B. S. S. No. 34) १०३ 3 C 4 0 0 8 1 0 Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hand-book to Rigveda Part I., by Dr. P. Peterson, (B. S. S. No. 41) Part II., by Dr. P. Peterson (B. S. S. 19 ... No. 43) Harshacharita, by Dr. A. A. Führer (B. S. S. No. 66) Hitopades'a of Nârâyana, by Dr. P. Peterson (B. S. S. No. ... 33) 13 39 ... "" ... 800 ... 2 *** ... Hymns from the Rigveda, 3rd edn., by Dr. P. Peterson and S. R. Bhandarkar, M. A. (B. S. S. No. 36) Hymns from the Rigveda (Second Selection), by Dr. P. Peterson (B. S. S. No. 58) Kâdambarî, Vol. I. (Text), by Dr. P. Peterson (B. S. S. No. 24) ... ... *** ... ... ... ... ... ... ... Vol. II. (Introduction and Notes ), by Dr. P. Peterson (B. S. S. No. 24) Kîrti-Kaumudi, by A. V. Kathavate, B. A. (B. S. S. No. 25) ... -Copy-right restored to the Editor Kumârapâla-Charita, by S. P. Pandit, M. A. (B. S. S. No. 60) 8 8 Mrichchhakatika with two Commentaries and various Read ings, by N. B. Godbole, B. A. (B. S. S. No. 52) Mâlavikâgnimitra, by S. P. Pandit, M. A. (B. S. S. No. 6), 2nd edition. Under revision Malati-Mâdhava, with Critical Notes, etc., by Sir Dr. R. G. Bhandarkar (B. S. S. No. 15), 2nd edition Mahabhashya of Patanjali, Vol. I., ... ... ... Parts I., II and III, (together), 2nd edition, by Dr. F. Kielhorn (B. S. S. Nos. 18-20) Vol. II., Parts I., II. and III. (together), 2nd edition, by Dr. F. Kielhorn (B. S. S. Nos. 21, 22 and 26) Vol. III, Parts I., II. and III. (together), 2nd edn., by Do. (B. S. S. Nos. 28-30)... Mudrârâkshasa, with the Commentary of Dhundirâja, by K. T. Telang, M. A. (B. S. S. No. 27)-Copy-right restored to the Editor ... ... ... Rs. 8. ... 9.0 1 8 2 8 2 0 0 14 2 4 4 0 20 4 8 3 8 2 2 4 4 4 8 9 0 9 0 Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 1 10 . Rs. a. Mahânârâyaņa Upanishad, by Col. G. A. Jacab (B. S. S. No. 35) ... ... ... ... ... ... ... 07 Naishkarmyasiddhi, with the Chandrikâ of Jõânottama, by Col. G. A. Jacob (B. S. S. No. 38), 2nd Edn. ... ... 2 8 Navasâhasânkacharita, Part I., by Vamanashastri Islampur kar (B. S. S. No. 53) ... ... ... ... Nîti and Vairagya S'atakas, with Notes and extracts from two Commentaries, by K. T. Telang, M. A. (B. S. S. No. 11)-Copyright restored to the Editor ... ... Nyâyakos'a, by Mahîmahopâdhâya Bhimacharya Zaļkikar (B. S. S. No. 49 ) ... ... ... ... ... to Pafchatantra, Book I., with Notes, by Dr. F. Kielhorn (B. S. S. No. 4)... ... ... ... Books II. and III., with Notes, by Dr. G. Bühler (B. S. S. No. 3) ... ... Books IV. & V., with Notes by, Dr. G. Bühler (B. S. S. No. 1)... ... ... ... 04 Parâs'ara Smriti, Vol. I., Part I., by Vamanshastri Islampur kar ( B. S. S. No. 47 ) ... ... 2 2 Vol. I., Part II., by Do. (B. S. S. No. 48) 20 , Vol. II., Part I., by Do. (B. S. S. No. 59) 4 0 Vol. II., Part II., by Do. (B. S. S. No. 64) 5 0 , Vol. III., Part I., by Do. (B. S. S. No. 67) 4 0 Paribhâshendus'ekhara, Part I., Text and various Readings, by Dr. F. Kielhorn (B. S. S. No. 2) 08 Part II.. Translation and Notes, by Do. (Paribhâshâs 1-37 ), (B. S. S. No. 7) 0 8 Part II., Translation and Notes, by Do. (Paribhâshâs 38 to 69), (B. S. S. No. 9) O 8 Part II., Translation and Notes, by Do. (Paribhâshâs 70 to 122) (B. S. S. No. 12) 0 8 Pâtañjala Sû trâņi, with the Scholium of Vyâsa and Vachas pati's Commentary, by Mahâmahopadhyâya Râjârâm Shâstri Bodas ( B. S. S. No. 46 ) Under revision. ... 1 10 Pratâparudrayas'obhúshaņa of Vidyânâtha, by R. B. K. P. Trivedi, B. A. (B. S. S. No. 65) ... ... ... 11 0 Raghuvams'a, Part I. (Cantos i-vi), with Mallinâtha's Com mentary and Notes, by S. P. Pandit, M. A. (B. S. S. No.5) ... ... ... . . s ... 18 Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ... 18 . ... 3 Rs. Raghuvama'a, Part II. (Cantos vii-xiii), with Mallinatba's Commentary and Notes, by S. P. Pandit, M. A. (B. S. S. No. 8) ... ... ... O 12 Part III. (Cantos xiv-xix), with Mallina tha's Commentary and Notes, by Do. (B. S. S. No. 13)... ... ... ... ... ... 0 8 Rajatarangini, Vol. I., by Pandit Durgaprasad ( B. S. S. No. 45) ... Vol. II., by Do. (B. S. S. No. 51)... ... 14 Vol. III.. by Dr. P. Peterson (B.S.S. No. 54) 1 2 Rekhagaaita, Vol. I., by H. H. Dhruva, B. A. and R. B. K. P. Trivedi, B. A. (B. S. S. No. 61)... ... 120 Do. Vol. II., by Do. Do. (B. S. S. No. 62)... ... 9 S'arngadharapaddhati, Vol. I., by Dr. P. Peterson (B. S. S. No. 37) ... . S'ribhashya. Vol. I., by Vasudeva Shastri Abhyankar. (B. S. S. No. 68). ... ... ... ... ... 11 Subhashitavali of Vallabhadeva, by Dr. P. Peterson (B. S. S. No. 31) ... ... ... ... ... ... 2 8 Tarka-Kaumudi of Laugakshi Bhaskar, by M. N. Dvivedi, B. A. (B. S. S. No. 32)--Copy-right restored to the Editor ... ... ... ... Tarka-Samgraha, with two Commentaries and Notes, by Y. V. Athalye, M. A. (B. S. S. No. 55)... ... Vasishtha Dharmas'astra, by Dr. A. A. Fuhrer (B.S.S. No. 23) 0 8 Vikramarikadevacharita, by Dr. G. Buhler (B. S. S. No. 14 ) -Copy-right restored to the Editor Vikramorvas'iya, with Notes, 3rd edn., by S. P. Pandit, M. A. and B. R. Arte, M. A. (B.S, S. No. 16) ... ... 20 SANSKRIT PUBLICATIONS NOT INCLUDED IN THE BOMBAY SANSKRIT AND PRAKRIT SERIES. Amarakos'a, the Thesarus of Sanskrit Words of Amara Simha with the Commentary of Mahes'vara. Edited by Raghunath Shastri Talekar with Index ... ... ... 0 13 Atharvaveda-Samhita with the Commentary of Sayanacharya. Edited by S. P. Pandit, M. A., Vols. I., II., III., and IV., each at ... ... ... ... ... ... 0 10 Kavyaprakas'a (2nd edition ), edited by Vamanacharya Zalkikar -Under revision Pahlavi.. Vendidad, complete in 2 Volumes ... ... ... ... 5 0