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प्रवर्तक
प्राचार्य के बहुविध उत्तरदायित्वों के सम्यक् निर्वहन में सुविधा रहे, धर्मसंघ उत्तरोत्तर उन्नति करता जाए, श्रमणवन्द श्रामण्य के परिपालन और विकास में गतिशील रहे, इस हेतु अन्य पदों के साथ प्रवर्तक का भी विशेष पद प्रतिष्ठित किया गया। प्रवर्तक पद का विश्लेषण करते हुए लिखा है
तपः संयमयोगेषु, योग्यं हि यो प्रवर्तयेत् ।
निवर्तयेदयोग्यं च, गणचिन्ती प्रवर्तकः ।।' प्रवर्तक गण या श्रमण-संघ की चिन्ता करते हैं अर्थात् वे उसकी गतिविधि का ध्यान रखते हैं। वे जिन श्रमरणों को तप, संयम तथा प्रशस्त योगमूलक अन्यान्य सत्प्रवृत्तियों में योग्य पाते हैं, उन्हें उनमें प्रवृत्त या उत्प्रेरित करते हैं। मूलतः तो सभी श्रमण धामण्य का निर्वाह करते ही हैं पर रुचि की भिन्नता के कारण किन्हीं का तप की ओर अधिक झुकाव होता है, कई शास्त्रानशीलन में अधिक रस लेते हैं, कई संयम के दूसरे पहलुओं की भोर अधिक प्राकृष्ट रहते हैं। रुचि के कारण किसी विशेष प्रवृत्ति की ओर श्रमण का उत्साह हो सकता है पर हर . किसी को अपनी यथार्थ स्थिति का भली-भांति ज्ञान हो, यह प्रावश्यक नहीं। अति उत्साह के कारण कभी कभी अपनी क्षमता का प्रांक पाना कठिन होता है। ऐसी परिस्थिति में प्रवर्तक का यह कर्तव्य है कि वे जिनको जिस प्रवृत्ति के लिए योग्य मानते हों, उन्हें उस ओर प्रेरित और प्रवृत्त करें। जो उन्हें जिस प्रवृत्ति के सम्यक् निर्वाह में योग्य न जान पड़ें, उन्हें वे उस ओर से निवृत्त करें। साधक के लिए इस प्रकार के पथ-निर्देशक का होना परम आवश्यक है। इससे उसकी शक्ति और पुरुषार्थ का समीचीन उपयोग होता है। ऐसा न होने से कई प्रकार की कठिनाइयां उपस्थित हो जाती हैं। उदाहरणार्थ-कोई श्रमण प्रति उत्साह के कारण अपने को उग्र तपस्या में लगाये पर कल्पना कीजिये, उसकी दैहिक क्षमता इस प्रकार की न हो, स्वास्थ्य अनुकूल न हो, मानसिक स्थिरता कम हो तो वह अपने प्रयत्न में जैसा सोचता है, चाहता है, सफल नहीं हो पाता। उसका उत्साह टूट जाता है, वह अपने को शायद हीन भी मानने लगता है । प्रतएव प्रवर्तक, जिनमें ज्ञान, अनुभव तथा भनूठी सूझ-बूझ होती है, का दायित्व होता है कि वे श्रमणों को उनकी योग्यता के अनुरूप उत्कर्ष के विभिन्न भागों पर गतिशील होने में प्रवृत्त करें, जो उचित न प्रतीत हो, उनसे निवृत्त करें। उक्त तथ्य को स्पष्ट करते हुए और भी कहा गया है :
तवसंजमनियमेसुं, जो जुग्गो तत्थ तं पवते।
असहू य नियत्तती, गणतत्तिल्लो पवत्तीमो।। तपः संयमयोगेषु मध्ये यो यत्र योग्यस्तं तत्र प्रवर्तयन्ति, असहांश्च 'धर्मसंग्रह, अधिकार ३, गाथा १४३
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