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१३. अव्यत्यानेडित : अन्य सूत्रों, शास्त्रों के पाठ को समानार्थक जान कर
उच्चार्य पाठ के साथ मिला देना व्यत्यानेडित
है । ऐसा न करना अव्यत्यानेडित है । १४. प्रतिपूर्ण : पाठ का पूर्ण रूप से उच्चारण करना, उसके किसी
अंग को अनुच्चारित न रखना। १५. प्रतिपूर्णघोष : उच्चारणीय पाठ का मन्द स्वर, जो कठिनाई से
सुनाई दे, द्वारा उच्चारण न करना, परे स्वर से
स्पष्टता से उच्चारण करना। १६. कण्ठोष्ठविप्रमुक्त : उच्चारणीय पाठ या पाठांश को गले और अोठों में
अटका कर अस्पष्ट नहीं वोलना । सूत्र पाठ को अक्षुण्ण तथा अपरिवर्त्य वनाये रखने के लिए उपाध्याय को सूत्र-वाचना देने में कितना जागरूक तथा प्रयत्नशील रहना होता था - यह उक्त विवेचन से स्पष्ट है।
लेखनक्रम के अस्तित्व में आने से पूर्व वैदिक, जैन और वौद्ध सभी परंपरागों में अपने प्रागमों, आर्ष शास्त्रों के कण्ठस्थ रखने की प्रणाली थी। मूल पाठ का रूप अक्षुण्ण बना रहे, परिवर्तमान समय का उम पर प्रभाव न पाए, इस निमित्त उन द्वारा ऐसे पाठ-क्रम या उच्चारण-पद्धति का परिस्थापन स्वाभाविक था, जिससे एक से सुन कर या पढ़ कर दूसरा व्यक्ति सर्वथा उसी रूप से शास्त्र को प्रात्मसात् बनाये रख सके। उदाहरणार्थ- मंत्रपाठ, पदपाठ, जटापाठ आदि के रूप में वेदों के पठन का भी बड़ा वैज्ञानिक प्रकार था, जिसने अब तक उनको मूल रूप में बनाये रखा है।
एक से दूसरे द्वारा श्रति परम्परा से प्रागम प्राप्तिक्रम के वावजूद जैनों के प्रागमिक वाङ्मय में कोई परिवर्तन पाया हो, ऐसा सम्भव नहीं लगता। सामान्यतः लोग कह देते हैं कि किसी से एक वाक्य भी सुनकर दूसरा व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति को बताए तो यत्किंचित् परिवर्तन पा सकता है फिर यह कब सम्भव है कि इतने विशाल प्रागम-वाङ्मय में काल की इस लम्बी अवधि के बीच भी कोई परिवर्तन नहीं पा सका। साधारणतया ऐसी शंका उठना अस्वाभाविक नहीं है। किन्तु प्रागम-पाठ की उपर्युक्त परंपरा से स्वतः समाधान हो जाता है। जहां कि मूल पाठ की सुरक्षा के लिए इतने उपाय प्रचलित थे, वहां प्रागमों का मूल स्वरूप क्यों नहीं प्रव्याहत और अपरिवतित रहता।
अर्थ या अभिप्राय का पाश्रय सूत्र का मूल पाठ है। उसी की पृष्ठभूमि पर उसका पल्लवन और विकास सम्भव है । अतएव उसके शुद्ध स्वरूप को स्थिर रखने के लिए सूत्र-वाचना या पठन का इतना बड़ा महत्व समझा गया कि संघ में उसके लिए उपाध्याय का पृथक् पद प्रतिष्ठित किया गया।
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