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सुव्यवस्थित रूप में संपादित करना, उस और अनवरत यत्नशील रहना आचार्य के लिए प्रावश्यक है।
४. गुरु-संपूजना-परिमा- जो दीक्षा-पर्याय में अपने से ज्येष्ठ हों, उन श्रमणों का वन्दन, नमन आदि द्वारा बहमान करने में प्राचार्य सदा जागरूक रहते हैं। इसे वे आवश्यक और महत्वपूर्ण समझते हैं, ऐसा करना गुरु-संपूजना-परिज्ञा है।
प्राचार्य की यह प्रवत्ति अन्तेवासियों को बड़ों का सम्मान करने, उनके प्रति आदर एवं श्रद्धा दिखाने की ओर प्रेरित करती है। संघ के वातावरण में इससे सौहार्द का संचार होता है। फलतः संघ विकसित और उन्नत बनता है । उपाध्याय
जैन दर्शन ज्ञान और क्रिया के समन्वित अनुसरण पर आधृत है। संयममूलक प्राचार का परिपालन जैन साधक के जीवन का जहाँ अनिवार्य अंग है, वहाँ उसके लिए यह भी अपेक्षित है कि वह ज्ञान की प्राराधना में भी अपने को तन्मयता के साथ जोड़े। सद्ज्ञान पूर्वक प्राचरित क्रिया में शुद्धि की अनुपम सुषमा प्रस्फुटित होती है। जिस प्रकार ज्ञान-प्रसूत क्रिया की गरिमा है, उसी प्रकार क्रियान्वित या क्रिया-परिणत ज्ञान की ही वास्तविक सार्थकता है। ज्ञान और क्रिया जहां पूर्व और पश्चिम की तरह भिन्न दिशाओं में जाते हैं, वहाँ जीवन का ध्येय सधता नहीं। अनुष्ठान द्वारा इन दोनों पक्षों में सामंजस्य उत्पन्न कर जिम गति से साधक साधना-पथ पर अग्रसर होगा, साध्य को प्रात्मसात् करने में वह उतना ही अधिक सफल बनेगा।
जैन-संघ के पदों में प्राचार्य के बाद दूसरा पद उपाध्याय का है। इस पद का सम्बन्ध मुख्यतः अध्यापन से है, उपाध्याय श्रमणों को सूत्र-वाचना देते हैं। कहा गया है :
बारसंगो जिरणक्खाओ, सज्झायो कहियो बुहे।
तं उवदिसति जम्हा, उवज्झाया तेण वच्चंति ।।' जिन प्रतिपादित द्वादशांगरूप स्वाध्याय - सूत्र-वाङ्मय ज्ञानियों द्वारा कथितवरिणत या ग्रथित किया गया है। जो उसका उपदेश करते हैं, वे (उपदेशश्रमण) उपाध्याय कहे जाते हैं,
यहां सूत्र-वाङ्मय का उपदेश करने का प्राशय आगमों की सूत्र-वाचना देना है। स्थानांग वृत्ति में भी उपाध्याय का सूत्रदाता (सूत्रवाचनादाता) के रूप में उल्लेख हुअा है।
प्राचार्य की सम्पदामों के वर्णन-प्रसंग में यह बतलाया गया है कि आगमों की अर्थ-वाचना प्राचार्य देते हैं। यहां जो उपाध्याय द्वारा स्वाध्यायोप' भगवती सूत्र, १. १. १ मंगलाचरण वृत्ति २. उपाध्याय : सूत्रदाता । स्थानांग सूत्र, ३. ४. ३२३ वृत्ति
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