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कहीं विहार-यात्रा नहीं करते। इसे चातुर्मासिक प्रवास कहा जाता है। इसके अतिरिक्त वे जन-जन को धर्मोपदेश या अध्यात्म-प्रेरणा देने के निमित्त घूमते रहते हैं। रोग, वार्धक्य, दैहिक अशक्तता आदि अपवादों के अतिरिक्त वे कहीं भी एक मास से अधिक नहीं ठहरते ।
चातुर्मासिक प्रवास के लिए कौनसा क्षेत्र कैसा है, साधु-जीवन के लिए अपेक्षित निरवद्य पदार्थ कहाँ किस रूप में प्राप्य हैं, अस्वस्थ साधुओं की चिकित्सा, पथ्य, पाहार ग्रादि की सुलभता, जलवायू व निवास-स्थान की अनकलता आदि बातों का ध्यान प्राचार्य को रहता है। चातुर्मासिक प्रवास में इस बात का और अधिक महत्व है। वर्ष भर में वर्षावास के अन्तर्गत ही श्रमणों का एक स्थान पर सबसे लम्बा प्रवास होता है। अध्ययन, चिकित्सा आदि की दृष्टि से वहाँ यथेष्ट समय मिलता है। इसलिए इन बातों का विचार बहुत आवश्यक है।
धर्म-प्रसार की दृष्टि से भी क्षेत्र की गवेषणा का महत्व है। यदि किसी क्षेत्र के लोगों को अध्यात्म में रस है तो वहाँ बहुत लोग धर्म भावना से अनुप्राणित होंगे, धर्म की प्रभावना होगी।
२. प्रातिहारिक प्रवग्रह-परिक्षा - श्रमरण अपनी अावश्यकता के अनुसार दो प्रकार की वस्तुएं लेते हैं। प्रथम कोटि में वे वस्तुएँ पाती हैं, जो सम्पूर्णतया उपयोग में ली जाती हैं, वापिस नहीं लौटाई जाती, जैसे -- अन्न, जल औषधि प्रादि । दूसरी वे वस्तुएँ हैं, जो उपयोग में लेने के बाद वापिस लौटाई जाती हैं, उन्हें प्रातिहारिक कहा जाता है। प्रातिहारिक का शाब्दिक अर्थ भी इसी प्रकार का है। पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि इस कोटि में पाते हैं ।
प्राचार्य के दर्शन तथा उनसे अध्ययन आदि के निमित्त अनेक दूसरे साधु भी पाते रहते हैं। उनके स्वागत-सत्कार, सुविधा आदि की दृष्टि से जब जैसे अपेक्षित हो, पीठ, फलक, प्रासन आदि के लिए प्राचार्य को ध्यान रखना आवश्यक होता है। कौन वस्तु कहाँ प्राप्य है, यह ध्यान रहने पर आवश्यकता पड़ते ही शास्त्रीय विधि के अनुमार वह तत्काल प्राप्त की जा सकती है। उसके लिए अनावश्यक रूप में भटकना नहीं पड़ता।
३. काल सम्मान परिज्ञा - काल के सम्मान का प्राशय साधुजीवनोचित क्रियायों का समुचित समय पर अनुष्ठान करना है। ऐसा करना व्यावहारिक दृष्टि मे जहां व्यवस्थित जीवन का परिचायक है, वहाँ प्राध्यात्मिक दृष्टि से जीवन में इममे अन्तः स्थिरता परिव्याप्त होती है। क्रियायों के यथाकाल अनुष्ठान के लिए काल का सम्मान करना - ऐमा जो प्रयोग शास्त्र में पाया है, उससे स्पष्ट है कि यथासमय धामिक क्रियाओं के सम्पादन का कितना अधिक महत्व रहा है। प्राचार्य सारे संघ के नियामक और अधिनायक होते हैं। उनके जीवन का क्षण क्षगग अन्तेवासियों एवं अनुयायियों के समक्ष प्रादर्श के रूप में विद्यमान रहता है। उसका उन पर अमिट प्रभाव होता है। इसलिए यथाममय मव क्रियाएं
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