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देश या सूत्रवाचना देने का उल्लेख है, उसका तात्पर्य यह है कि सूत्रों के पाठोच्चारण की शुद्धता, स्पष्टता, विशदता, अपरिवर्त्यता तथा स्थिरता बनाये रखने के हेतु उपाध्याय पारंपरिक व भाषा वैज्ञानिक प्रादि दृष्टियों से अंतेवासी श्रमणों को मूलपाठ का सांगोपांग शिक्षण देते हैं ।
अनुयोगद्वार सूत्र में 'पागमतः द्रव्यावश्यक' के सन्दर्भ में पठन या वाचन का विवेचन करते हुए तत्मम्बन्धी विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है, जिससे प्रतीत होता है कि पाठ की एक अक्षुण्ण तथा स्थिर परंपरा जैन श्रमरणों में रही है । प्रागम-पाठ को यथावत् बनाये रखने में इससे बड़ी सहायता मिली है।
आगम-गाथाओं का उच्चारण कर देना मात्र पाठ या वाचन नहीं है। अनुयोग द्वार में पद के शिक्षित, जित, स्थित, मित, परिजित, नामसम, घोषसम, अहीनाक्षर, प्रत्यक्षर, अव्याविद्धासर, अस्खलित, अमिलित, अव्यत्याग्रंडित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण-घोष तथा कण्ठोष्ठविप्रमुक्त विशेषण दिये गये हैं।' संक्षेप में इनका तात्यर्य यों है - १. शिक्षित : साधारणतया सीख लेना। २. स्थित : सीखे हुए को मस्तिष्क में टिकाना। ३. जित
अनुक्रमपूर्वक पठन करना। ४. मित
: अक्षर ग्रादि की मर्यादा, संयोजन आदि जानना। ५. परिजित : अनुक्रम - व्यतिक्रम या अनुक्रम के विना पाठ करना। ६. नामसम : जिस प्रकार हर व्यक्ति को अपना नाम स्मरण
रहता है, उस प्रकार सूत्र का पाठ याद रहना अर्थात सूत्रपाठ को इस प्रकार प्रात्मसात् कर लेना कि
जब भी पूछा जाए, यथावत् रूप में बतलाया जा सके। ७. घोषसम : स्वर के उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के रूप में
जो उच्चारण सम्बन्धी तीन भेद वैयाकरणों ने किये
हैं, उनके अनुरूप उच्चारण करना । ८. अहीनाचर : पाठक्रम में किसी भी अक्षर को हीन,-लुप्त या
अस्पष्ट न कर देना। ६. अनत्यक्षर : अधिक अक्षर न जोड़ना। १०. अव्याविद्धासर : अक्षर, पद आदि का विपरीत-उलटा पठन न करना। ११. अस्खलित : पाठ में स्खलन न करना, पाठ का यथा प्रवाह
उच्चारण करना। १२. अमिलित : अक्षरों को परस्पर न मिलाते हए उच्चारणीय पाठ
के साथ किन्हीं दूसरे अक्षरों को न मिलाते हुए
उच्चारण करना। अनुयोग द्वार, सूत्र २ उच्चरुदात्तः । नीचरनुदात्तः । समाहारः स्वरितः। - सिद्धान्त कौमुदी १. २. २६-३१
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