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४. बस्तु-मान पूर्वक बार का प्रयोग - वस्तु का अर्ध वाद का विषय है। जिस विषय पर वाद या वैचारिक ऊहापोह किया जाना है, वह वादी के ध्यान में रहना प्रावश्यक है। उस विषय के विभिन्न पक्ष, उस सम्बन्ध में विविध धारणा उनका समाधान इत्यादि दृष्टि में रखते हुए वाद में प्रवृत्त होना हितावह होता है। प्राचार्य में यह विशेषता भी होनी चाहिए।
संक्षेप में सार यह है कि प्राचार्य का संघ में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। उनकी विजय सारे संघ को शोभा है, उनकी पराजय सारे संघ का अपमान । अतः यह बांछनीय है कि प्राचार्य में वाद-प्रयोग सम्बन्धी विशेषताएं, जिनका उल्लेख हुअा है, हों। जिससे उनका अपना गौरव बढ़े, संघ की महिमा फैले। संग्रहपरिज्ञा सम्पदा
__ जैन श्रमण के जीवन में परिग्रह के लिए कोई स्थान नहीं है। वह सर्वथा निप्परिग्रही जीवन यापन करता है। यह होने पर भी जब तक साधक सदेह है, उसे जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए कतिपय वस्तुओं की अपेक्षा रहती ही है। शास्त्रीय विज्ञान के अनुरूप उन वस्तुओं को ग्रहण करता हुप्रा साधक परिग्रही नहीं बनता क्योंकि उन वस्तुप्रों में उसकी जरा भी मूळ या आसक्ति नहीं होती। परिग्रह का आधार मूर्छा या आसक्ति है । यदि अपने देह के प्रति भी साधक के मन में मूर्छा या प्रासक्ति हो जाए तो वह परिग्रह हो जाता है । प्रात्मसाधना में लगे साधक का जीवन अनासक्त और अमूच्छित होता है, होना चाहिए। यही कारण है कि उस द्वारा अनिवार्य आवश्यकताओं के निर्वाह के लिए प्रमूच्छित एवं अनासक्त भाव से अपेक्षित पदार्थों का ग्रहण प्रदूषणीय है।
संग्रह का अर्थ श्रमण के वैयक्तिक तथा सामष्टिक संघीय जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का अवलोकन, प्राकलन है या स्वीकार है। वस्तुओं की आवश्यकता, समीचीनता, एवं सुलभता का ज्ञान संग्रह-परिज्ञा कहा जाता है। प्राचार्य पर संघ के संचालन, संरक्षण एवं व्यवस्था का उत्तरदायित्व होता है अतः उन्हें इस प्रोर जागरूक रहना अपेक्षित है कि कब किस वस्तु की आवश्यकता पड़ जाए और पति किस प्रकार सम्भव हो। इसमें जागरूकता के साथ-साथ सूझ-बूझ तथा व्यावहारिक कुशलता की भी आवश्यकता रहती है। यह प्राचार्य की अपनी असाधारण विशेषता है।
संग्रहपरिज्ञा-सम्पदा के चार' प्रकार बताये गये हैं - १. क्षेत्र प्रतिलेखनापरिज्ञा
३. काल सम्मान परिज्ञा तथा २. प्रातिहारिक अवग्रह परिज्ञा ४. गुरु संपूजनापरिज्ञा
१. क्षेत्र प्रतिलेखनापरिजा- साधुओं के प्रवास और विहार के स्थान क्षेत्र कहे जाते हैं। जैन श्रमण वर्षा ऋतु के चार महीने एक ही स्थान पर टिकते हैं, 'दसाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र १०
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