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१. प्रवाह हा, अवाय और धारणा - मति-ज्ञान के परिणति-क्रम के ये चार सोपान हैं। सबसे पहले ज्यों ही इन्द्रिय किसी पदार्थ का साक्षात्कार करती है, तब उस (पदार्थ) का प्रति सामान्य ज्ञान होता है।
सामान्य का तात्पर्य उस बोध से है, जहां पदार्थ के स्वरूप, नाम, जाति प्रादि की कल्पना नहीं रहती, वे अनिर्दिष्ट रहते हैं। वह मनःस्थिति अवग्रह कही जाती है। प्रवग्रह की प्रशस्त क्षमता का होना अवग्रह सम्पदा है। प्राचार्य में सहज ही यह विशेषता होती है।
२. ईहा मति-सम्पदा- अवग्रह में ज्ञेय पदार्थ विषयक अस्पष्ट मनः स्थिति रहती है। तब निश्चोयन्मुख जिज्ञासा का स्पन्दन होता है। मन तदनुरूप चेष्टोन्मुख बनता है। अवग्रह द्वारा गहोत स्वरूपादि के वैशद से रहित अति सामान्य ज्ञान के पश्चात् विशेष ज्ञान की ओर ईहा, मननात्मक चेष्टा, ज्ञान की निर्णीत स्थिति की और बढ़ते क्रम का रूप है। ऐसी उदात्त स्फुरणा का होना ईहा-सम्पदा कहा जाता है। प्राचार्य इससे युक्त होते हैं।
३. प्रवाय-मति सम्पा- ईसा का उत्तरवर्ती क्रम अवाय है। ईहा चेष्टात्मक है, अवाय निश्चयात्मक निर्णय । पदार्थ के साधक और बाधक प्रमाण या गुणागुण विश्लेषण के माध्यम से जो निश्चित मनः स्थिति बनती है, वह अवाय है। रज्जू और सर्प के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है । अंधेरे में सहसा निश्चय नहीं हो पाता कि जिज्ञासित पदार्थ सर्प है या रज्जू। जब साधक प्रमाण द्वारा या स्पष्टता करने वाले हेतु द्वारा यह निश्चित रूप से अवगत हो जाता है कि यह रज्जू है, तब अवाय की स्थिति आ जाती है। अवाय तक सूक्ष्मतापूर्वक पहुंचना या यथावत् अवायात्मक - निश्चयात्मक स्थिति अभिगत कर लेने की विशिष्ट क्षमता प्रवाय-सम्पदा के नाम से अभिहित होती है, जो प्राचार्य में स्वभावतः होनी चाहिये।
४. धारणा मति सम्पदा - अवाय-क्रम में ज्ञान जिस निश्चिति में पहुंचता है, उसका टिकना, स्थिर रहना, स्मरण रहना धारणा है। इसे वासना या स्मृति भी कहा जाता है । यह संस्कारात्मक है। मन के स्मति-पट पर उस ज्ञान का एक भावात्मक रूप अंकित हो जाता है। दूसरे किसी समय वैसे पदार्थ को देखते ही पहले के पदार्थ की स्मृति जाग उठती है। यह जागने वाली स्मति उसी संस्कार का फल है, जो उस पदार्थ के मत्यात्मक मनन-क्रम में मन पर अंकित हो गया था। धारणा, वासना या स्मति का वैशिष्ट्य या वैभव धारणा-मतिसम्पदा है। प्राचार्य इसके धनी होने चाहिये।
जिसकी मननात्मक क्षमता जितनी अधिक विकसित होती है, . उसे मति के इस उत्थान क्रम में उतना ही वैशिष्ट्य प्राप्त रहता है। प्राचार्य में यह क्षमता अपनी विशेषता लिये रहनी चाहिये । उदात्त व्यक्तित्व की दृष्टि से प्राचार्य के लिए ऐसा होना आवश्यक भी है।
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