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२. विदित्वा वाचिता - उक्त रूप में अन्तेवासी की योग्यता तथा धारणा शक्ति को ग्रांक कर उसे प्रमाण, नय, हेतु, दृष्टांत तथा युक्तिपूर्वक अर्थ-वाचना देना विदित्वा वाचिता है।
____३. परिनिर्वाप्य वाचिता - अन्तेवासी अध्यापित विषयों को असन्दिग्ध रूप से हृदयंगम कर सका है, उसकी स्मति में वे स्थिर हो चुके हैं, यह जानकर उसे वाचना देना परिनिर्वाप्य वाचिता है । अध्यापयिता को ऐसा करना आवश्यक है क्योंकि यदि पूर्व अध्यापित विषय अध्येता यथावत् हृदयंगम नहीं कर सका है तो उस ओर ध्यान दिये बिना आगे से आगे पढ़ाते जाना अध्येता के लिए लाभजनक नहीं होता है। यों अध्यापयिता को वृथा श्रम होता है। उसका अभीप्सित फल नहीं होता।
४. अर्थनिर्यापिकता- सूत्र-अध्यापयिता के लिए आवश्यक है कि सूत्र-निरूपित जीव, अजीव, ग्रास्रव, सम्वर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष, प्रभृति विषयों का उसे पूर्वापर संगति सहित असन्दिग्ध-
निर्णायक वोध हो। उत्सर्ग, अपवाद आदि का रहस्य उसे सम्यक परिज्ञात हो। अनेकान्तवादी दृष्टिकोण से ये समस्त विषय उस द्वारा आत्मसात् किये हुए हों। यह विषय का निर्यापन है। प्राचार्य में ऐसा अध्ययन-अनशीलन होना अपेक्षित है। अपने इस प्रकार के अध्ययन क्रम द्वारा अन्तेवासियों को अर्थ का अवबोध कराना अर्थ निर्यापिकता है ।
यहां यह भी ज्ञातव्य है कि जहां किसी कारणवश उपाध्याय के पद की व्यवस्था नहीं होती या सूत्र-वाचना का कार्य नहीं चलता, वहां प्राचार्य सूत्र-वाचना भी देते हैं। वे सूत्र और अर्थ दोनों की वाचना देने के कारण दोनों पदों का उत्तरदायित्व वहन करते हैं। भगवती वृत्ति' तथा व्यवहार भाष्य प्रादि में ऐसे उल्लेख प्राप्त हैं।
इतना ही नहीं, आवश्यक होने पर प्राचार्य अन्य पदों का भार भी स्वयं ले सकते हैं । वस्तुतः वे सर्वाधिकारी होते हैं। मति-सम्पदा
मन का पदार्थ विषयक निर्णायक व्यापार मति है । मति-सम्पदा का अर्थ बुद्धि-वैशिष्टय है।
मति-सम्पदा के चार' भेद हैं - १. अवग्रह- मति सम्पदा, ३. अवाय-मति सम्पदा, २. ईहा-मति सम्पदा
४. धारणा-मति सम्पदा ' प्राचार्येण सहोपाध्याय: - प्राचार्योपाध्यायः,
सविसयंसि त्ति स्वविषयेऽथंदान - सत्रदानलक्षणं गरणं ति शिष्यवर्ग, अगिलाए ति अखेदेन संगृह्णन् - स्वीकुर्वन - उपसम्मयन् । - भगवती, शतक ५, उद्देशक ६, प्रश्न १७ (वृत्ति) २ दशाथ तस्वन्ध सूत्र, अध्ययन ४, मूत्र ८
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