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प्रलंकृत सत्य, प्रिय, हित, परिमित तथा प्रसंगानुरूप होना शब्द की सुषमा है। अनलंकृतता, असत्यता, अप्रियता, अहितता, अपरिमितता तथा अप्रासंगिकता शब्द के दोष हैं। इनके वर्ज से घोष या शब्द विशुद्ध कहा जाता है। प्राचार्य की यह सहज विशेषता होती है। वे सुन्दर, सत्य, प्रिय, हित, परिमित और प्रसंगानुरूप शब्द बोलते हैं । श्रुत-सम्पदा के अन्तर्गत यह उनका शब्द-सौष्ठव है । शरीर-सम्पदा
शरीर-सम्पदा या शारीरिक सुप्ठुता भी चार' प्रकार की मानी गई है। १. पारोह परिणाह सम्पन्नता, ३. स्थिरसंहननता तथा २. अनवत्राप्यशरीरता, ४. बहुप्रतिपूर्णेन्द्रियता
१. पारोह परिणाह सम्पन्नता - देह की समुचित लम्बाई और चौड़ाई को प्रारोह परिणाह कहा जाता है। अपने पुण्योदय के कारण प्राचार्य के देह की यह विशेषता होती है।
२. अमवत्राप्यारीरता- प्रवत्राप्य का अर्थ लज्जायोग्य है । जो शरीर कुरूप, अंगहीन, घृणोत्पादक तथा उपहासजनक होता है, वह अवत्राप्यशरीर कहलाता है, जो हीन व्यक्तित्व का द्योतक है। प्राचार्य का शरीर इस प्रकार का नहीं होना चाहिये । यह सुरूप सांगोपांग, सुन्दर तथा आकर्षक होना चाहिये ।
३. स्थिरसंहननता - प्राचार्य का दैहिक संहनन - शारीरिक गठन सुदृढ होना चाहिये । आचार्य पर जो संघ का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व होता है, उसके निर्वाह ... के लिए सुदृढ़, स्थिर और सशक्त देह का होना भी आवश्यक है। ताकि अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियों का अनाकुल भाव से निर्वाह किया जा सके।
४. बहुप्रतिपूर्णन्द्रियता - नेत्र, श्रोत्र, घ्राण प्रादि इन्द्रियों का सर्वथा निर्दोष, अपने-अपने विषयों के ग्रहण में सक्षम होना बहुप्रतिपूर्णेन्द्रियता कहा जाता है। प्राचार्य में इसका होना अपेक्षित है। सर्वेन्द्रियपरिपूर्णता में जहां देह की प्रभावकता फलित होती है, वहां उससे व्यक्ति की गम्भीरता भी प्रकट होती है। प्राचार्य में ऐसा होना चाहिए। वचन-सम्पदा
वचन-सम्पदा चार प्रकार की कही गई है :१. प्रादेयवचनता
३. अनिश्चित वचनता २. मधुर वचनता
४. असन्दिग्ध वचनता १. प्रादेयवचनता-जो वचन ग्रहण करने योग्य होता है, वह आदेय वचन कहा जाता है। ग्रहण करने योग्य वही वचन होता है, जिसमें उपयोगिता तथा
'दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, मध्ययन ४, सूत्र ५ २ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४ सूत्र ६
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