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सम्मत्त दायगाणं, दुप्पडियारं भवेसु बहुएमु ।
सव्वगुण मिलियाहि वि, उवयारसहस्सकोडीहिं ।।३।। अर्थात्-जो सत्पुरुष, दुखार्त किसी एक भी जीव को प्रतिबोधित कर वीतराग वाणी में उसकी श्रद्धा उत्पन्न करता है तो ऐसा समझना चाहिए कि उस सत्पुरुष ने सम्पूर्ण जीव लोक में प्रमारि (अभय) की घोषणा करवा दी। क्योंकि वह सम्यक्त्वधारी जीव पूर्ण अहिंसक वनकर प्राणिमात्र को अभयदान देने वाला होता है।
सम्यक्त्व प्रदान करने वाले सत्पुरुष के इस महान् उपकार से वह जीव अनेक जन्मों तक करोडों प्रकार के उपकार कर के भी उऋण नहीं हो सकता।
दसणभट्रो भट्रो न ह भट्ठो होइ चरणपन्भट्ठो । दंसरणमणुपत्तस्स हु, परियडरणं नस्थि संसारे ।। दसणभट्टो भट्ठो, दसण भट्रस्स नत्थि णिब्बारणं ।
सिझंति चरण रहिया, दंसरण रहिया न सिझंति ।। इन प्राचार्यों ने प्रवचन को सुरक्षित रक्खा। प्रवचन के अभ्यास से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है :
मेरुव्ब णिप्पकंपं गट्ठट्ठमलं तिमूढ उम्मुक्कं ।
सम्मदंणमणुवममुप्पज्जइ पवयणब्भासा ।। दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र में प्राचार्य की विशेषताओं का विस्तार में वर्णन किया गया है । वहां प्राचार्य की पाठ सम्पदायें बतलाई गई हैं, जो निम्नांकित हैं।'
१. प्राचार-सम्पदा ४. वचन-सम्पदा ७. प्रयोग-सम्पदा तथा २. श्रुत-सम्पदा ५. वाचना-सम्पदा ८. संग्रह-सम्पदा ३. शरीर-सम्पदा ६. मति-सम्पदा
प्राचार-सम्पदा
प्राचार-प्रवणता आचार्य का मुख्य गुण है। प्राचार्य शब्द भी प्रायः इसी आधार पर निष्पन्न हया है। प्राचार-सम्पदा में इसी प्राचार पक्ष का विश्लेषण है, जिसके चार भेद कहे गये हैं :
१. संयम ध्वयोग युक्तता-संयम के साथ प्रात्मा का ध्र व या अविचल सम्बन्ध संयम-ध्र वयोग कहा जाता है। प्राचार्य संयम ध्र वयोगी होते हैं। वे अपनी संयम-साधना में सदा अडिग रहते हैं।
____२. प्रसंप्रगृहीतात्मता - जिसे जाति, पद, तप, वैदुष्य प्रादि का मद या अहंकार होता है, उसे संप्रगहीतात्मा कहा जाता है। प्राचार्य निरहंकार होते हैं जो गरिमायें उन्हें प्राप्त हैं, उनका जरा भी मद उन्हें नहीं होता। फलतः वे क्रोध, मानसिक ' दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र २
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