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पववरण जल हि - जलोयर, पहायामल-बुद्धि-सुद्ध-छावामो ।
मेरुव्व रिगप्पकंपो, सूरो पंचागरणो वज्जो ||२६||
देस-कुल- जाइ सुद्धो, सोमंगो संग-भंग विम्मुक्को । गयरणव्व रिरुवलेवो, प्राइरियो एरिसो होई ||३०|| संग्रह - गुग्गह- कुसलो, सुत्तत्थ-विसार पहिय- किती । सारण-वारण-सोहण, किरियुज्जुत्तो हु ग्राइरियो ।। ३११ ।।
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प्राचार्यों का गुरुतम उपकार :- प्रस्तुत खण्ड में जिन श्राचार्यों का पावन इतिवृत्त प्रस्तुत किया जा रहा है, उनका संसार के प्राणिमात्र पर इतना गुरुतम उपकार है कि उनके द्वारा किये गये महान् उपकार के प्रति ग्राभार प्रकट करने में न लाखों लेखनियां ही सक्षम हैं धौर न सहस्रों जिह्वाएं एवं संसार के समस्त शब्दकोश ही ।
आज से लगभग २५३० वर्ष पूर्व निखिल विश्वैकवन्धु श्रमण भगवान् महावीर ने सम्पूर्ण संसार के जड़, चेतन, रूपी ग्ररूपी, चर-ग्रचर जीवाजीवादि कालयवर्ती समस्त भावों का हस्तामलक के समान सकल एवं युगपद् साक्षात्कार कराने वाले केवलालोक की उपलब्धि के पश्चात् संसार सागर के सेतु रूप धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया । लगभग ३० वर्ष तक प्रभु अपने प्रमोध उपदेशामृत से प्राणिमात्र का कल्याण और भव्यों का उद्धार करते रहे ।
प्रभु के निर्वाण पश्चात् की क्रमबद्ध प्राचार्य परम्परा में हुए त्यागी तपस्वी आचार्यों ने भगवान् महावीर की दिव्य-ज्ञान की ज्योति को अपने अपने प्राचार्य-काल में अनवरत अध्ययन, अध्यापन, प्रवचन- प्रख्यापन एवं गहन चिन्तनमनन के स्नेह से सिंचित कर प्रक्षुण्ण श्रखण्डित वनाये रखा। इसी कारण निर्युक्तिकार महान् नैमित्तिक प्राचार्य भद्रबाहु ने उन श्राचार्यों को निम्नलिखित शब्दों में उस दीपक की उपमा दी है, जो स्वयं प्रकाशित होते हुए श्रौरों को भी प्रकाशित करता है और जिससे अन्य सैकड़ों सहस्रों दीप प्रदीप्त किये जा सकते हैं
जह दीवादीवसयं पंईप्पए, सो य दीप्पए दीवो । दीव समा आयरिया, अप्पं च परं च दीवंति ।। '
वीर निर्वारण के पश्चात् हुए इन परम परोपकारी प्राचार्यों ने भगवान् महावीर की सकल भूत-हितानुकम्पामयी वाणी को न केवल प्रक्षुण्ण बनाये रखा श्रपितु अपने अपने समय में उसे नगर-नगर डगर-डगर में जन-जन तक पहुँचा कर
गणित लोगों को सम्यक्त्व प्रदान कर प्राणिमात्र पर कितना वड़ा उपकार किया है, इसका अनुमान प्राचार्य हरिभद्र के निम्नलिखित पदों से लगाया जा सकता है :
सयलमत्रि जीव लोए, तेण इह घोसिश्रो श्रमाधाम्रो । इक्क वि जो दुहतं, सत्तं बोहेइ जिरण वयणे ||३२||
9 श्राचारांग निर्युक्ति, गाथा ८
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