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उत्ताप मादि से मुक्त होते हैं। प्रतः वे प्रसंप्रगृहीतारमा कहे जाते हैं। अर्थात् उनको मात्मा अहंकार, मद एवं क्रोध आदि से जकड़ी नहीं रहती।
३. अनियतवृत्तिता-जिनका पाहार, विहार नियत या प्रतिबद्ध होता है, उनसे विशुद्ध प्राचारमय जीवन भली भांति सध नहीं पाता। अनेक प्रकार की प्रौद्देशिकता का जुड़ना वहां सम्भावित होता है, जो निर्दोष संयम-पालन में बाधक है । प्रतः प्राचार्य अनियत - वृत्ति होते हैं । शास्त्रीय प्राचार-परम्परा के अनुरूप उनका प्राचार अप्रतिबद्ध होता है।
४. सशीलता - युवा और चिरदीक्षित न होने पर भी प्राचार्य में वयोवृद्ध और दीक्षा-मर्यादा में ज्येष्ठ श्रमणों जैसा शील, संयम, नियम, चारित्र प्रादि पालने की विशेषता होती है । अतः वे वृद्धशील कहे जाते हैं।
वृद्धशील का प्राशय यों भो हो सकता है - प्राचार्य वृद्ध या रोग मादि के कारण जो वृद्ध की तरह प्रशक्त हो मये हैं, उन श्रमरणों की सेवा या सुव्यवस्था में सदा जागरूक रहते हैं। भुत-सम्पदा
श्रुत-सम्पदा का भी चार प्रकार से विवेचन किया गया है। :१. बहुश्रुतता ३. विचित्र-श्रुतता। २. परिचित-श्रुतता ४. घोषविशूद्धिकारिता
१. बहुभ तता- प्राचार्य बहुश्रुत होते हैं । वे अपने समय में उपलब्ध प्रागम सम्यकतया जानते हैं। अपने समय-सिद्धान्त या शास्त्रों के अतिरिक्त परसमय अन्य शास्त्रों के भी वेत्ता होते हैं। यों उनका श्रुत-शास्त्रीय ज्ञान बहुत विस्तीर्ण मोर व्यापक होता है।
२. परिचित भूतता- प्राचार्य प्रागमों के रहस्यवित्-मर्मज्ञ होते हैं। वे सूत्र पौर अर्थ - दोनों को भली-भांति प्रात्मसात् किये हुए होते हैं। उनमें क्रम सेप्रादि से अन्त तक और उत्क्रम से -- अन्त से आदि तक धारा-प्रवाह रूप में सूत्रवाचन की क्षमता होती है। संक्षेप में प्राशय यह है कि प्रागों का उन्हें चिरपरिचय, सूक्ष्म परिचय और सम्यक् परिचय होता है।
३. विचित्र-तता - प्राचार्य बहुश्रुत के साथ विचित्रश्रुत भी होते हैं । उनके द्वारा अधिकृत श्रुत अनेक विचित्रतायें या विभिन्नतायें लिए होता है। प्राचार्य को जीव, मोक्ष प्रादि सूक्ष्म विषयों का निरूपण करने वाले विविध प्रागमों का अन्तःस्पर्शी ज्ञान होता है। वे उत्सर्ग, अपवाद आदि विभिन्न पक्षों को विशद रूप से जानते हैं। जिस प्रकार अपने सिद्धान्तों का अंग-प्रत्यङ्ग उन्हें अभिगत होता है, उसी प्रकार अन्य दर्शनों के सिद्धान्तों का भी उन्हें तलस्पर्शी बोध होता है।
४. घोषविशुद्धिकारकता - घोष का अर्थ शब्द या ध्वनि है। अपने पाप में ' दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ४
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