Book Title: Agam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEERINNREATERTAIEEES भी बंदरशसिसूनम् । VIRALEKHARINEEDDHISA संत-गानामानातिगात नियमाख्यानित पणितानि सीनीयाबाटजीमहाराजा व शान्तबार सपाकापोली Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर- पूज्य श्री घासीलालजी महाराजविरचितया - चंद्रशतिप्रकाशिकाख्यया व्याख्यया संमलङ्कृतं श्रीचंद्रप्रज्ञप्तिसूत्रम् -: नियोजक :— संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात- प्रियव्याख्यानिपण्डित मुनिश्री कन्हैयाकालजी महाराजः । -: प्रकाशकः :--- श्रीीकानेरनिवासि श्रेष्ठश्री अगरचंदजी भेरुदानजी सेठिया तत्पुत्र प्रदत्तद्रव्य साहाय्येन श्री. अ. भा. श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धार समिति प्रमुखः श्रेष्ठि भी शांतिलाल मंगलदासभाई महोदयः मु. राजकोट म आ: प्रति १२०० वीर संवत् २४९९ विक्रम संवत् २०२९ मूल्यम् रु. ३०-०० ईसवी सन् १९७३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણું : શ્રી અ. ભા. સ્થાનકવાસી જૈન શાણપર સમિતિ है. रेडिमा २४, २812, (सौराष्ट्र) Published by : Shri Akhil Bharat S.S. Jain Shastroddhar Samiti Garedla kuva Road RAJKOT (Saurashtra), W. Ry. India 卐 ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञा, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः। उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालोमयं निरवधिविपुला च पृथ्वी ॥१॥ हरि गीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । 1.जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्वं इससे पायगा ।" है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यानमें यह लायगा ॥१॥ मृत्य रु. ३०-०० प्रथम आवृत्ति प्रति १००० वीर. संवत् विक्रम ,, ०२९ ईसवी सन् १९७३ सुरक-श्रीरामानन्द प्रिन्दिा प्रेस, कांकरिया रोड, अहमदाबाद-२२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् सेठ श्रीभैरोंदानजी सेठिया की संक्षिप्त जीवनी जैन समाज के महान स्तम्भ एवं अमूल्यरेत्न श्री भैरोदानजो सेठिया का सम्पूर्ण जीवन शिक्षा प्रसार एवं समाज सेवा में हि व्यतीत हुआ । युवक सा साहस, संतों के मदृश समभाव एवं उदार दानवीरता के गुणों की त्रिवेणो उनके स्वभाव का अंग थी । मानव जीवन को सार्थक बनाकर आपने सेवा और त्यागमय जीवन का आदर्श समाज के सन्मुख प्रस्तुत किया । आपका जीवन पूरा इतिहास है और आप द्वारा स्थापित " श्री अगरचन्द भैरोंदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था बीकानेर" एक "प्रकाश-स्तम्भ" ज्ञान को विलुप्त रश्मियाँ पुनः प्रतिष्ठित कर यह संस्था चिरकाल तक समाज की सेवा करती रहेगी। श्री भैरोदान जी सेठिया का जन्म बीसा ओसवाल कुल में विक्रम संवत् १९२३ विजयादशमी को बीकानेर रियासत के कस्तूरिया नामक गाँव में हुआ । आपके पिता का नाम श्री मान् सेठ धर्मचन्द जी था । आप चार भाई थे । श्री प्रतापमल जो और श्री अगर चन्द जो आप से बड़े और श्री हजारीमल जी आपसे छोटे थे । दो वर्ष की अल्पायु में ही आपके पिताजी . का स्वर्गवास हो गया। सात वर्ष की आयु में बीकानेर के बड़े उपाश्रय में साधुजी नामक यति के पास मापैकी शिक्षा का आरम्भ हुआ । दो वर्ष पढ़ कर वि. सं. १९३२ में कलकत्ते की यात्रा की ओर लौटकर बीकानेर के निकट शीवबाड़ी गाँव में रहे । सं. १९३६ में आपने बम्बई की यात्रा की। वहाँ अपने बड़े भई श्रीअगर चन्द जी के पास रहकर व्यापारिक एवं व्यावहारिक शिक्षा पाई । साथही आपने हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती भाषाएँ सीखी। सं. १९४० में बम्बई से लौटे। इसी वर्ष में आपका विवाह बीकानेर राज्य के आडसर गाँव के श्रीमान् दुलीचन्द जी नाहर की सुपुत्री रूपकुंवर के साथ हुआ । भाईयों में सम्पत्ति आदि का विभाजन होने पर आपने स्वावलम्बी जीवन में प्रवेश किया । सं. १९४१ में ओप पुनः बम्बई के लिए रखना हुए और वहाँ एक फर्म मुनीम नियुक्त हुए । इसो वर्ष आपकी मातेश्वरी गंगाबाई का वम्बई में स्वर्गवास हो गया पर आपने धैर्यपूर्वक इस कष्ट को सहन किया । बम्बई में आप सात वर्ष रहकर संवत १९४८ में कलकत्ते गये । कार्यकुशल, धर्म परायण एवं मितव्ययी पत्नी के सहयोग से आपने बम्बई में ३०००. रु. एकत्र कर लिये थे। इस पूंजी से मनिहारी और रंग की दुकान खोली और गोली सूता का कारखाना शुरू किया । अध्यवसाय, परिश्रम, नम्रता, ईमानदारी, व्यापारिकज्ञान आदि गुणों के कारण आपके व्यापार Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ में आशातीत बिस्तार हुआ य श्रीमान् अमर चन्द का ओ भी अपनो फर्म में सम्मिलित कर लिया और अब फर्म का नाम "ए. सो. बी सेठिया एन्ड कम्पनी रख दिया । वेल्जियम, स्विटजर - लैन्डबर्लिन के रंग के कारखानों की तथा गाँवलाँज gablan आष्ट्रिया के मनिहारी कारखाने की सोल एजेन्सियाँ प्राप्त करली । आपने हावड़ा में 'धी सेठिया कलर एन्ड केमिकल वर्क्स लिमिटेड” नामक रंग का कारखाना खोला जो भारत वर्ष का सर्व प्रथम रंग का कारखाना था रंग विश्लेषण के फार्मुले सीखने केलिए आपने एक जर्मन विशेषज्ञ को दैनिक पाँच मिनट के लिए ३०० रुपये मासिक पर नियुक्त किया था । सं. १९७१ (सन् १९१४) के प्रथम विश्वयुद्ध में रंगों के भाव बढ़ जाने से रंग के कारखानेसे आशातीत लाभ हुआ । होमिय पैथी चिकित्सा पद्धति को आपने सं. १९६५ में अपनाया और उसकी अनुकू लता, सुगमता से प्रभावित हुए । फलस्वरूप आपने प्रख्यात डाक्टर जतीन्द्रनाथ मजमूदार के पास होमियोपैथी का अभ्यास किया और प्रवीणता प्राप्त की । इसका साकार रूप आज " सेठिया जैन होमियोपैथिक औषधालय " जहां वार्षिक ५५००० की संख्या में जनता निःशुल्क चिकित्सा पा रही है । वि.सं. १९६९ (१९१३ ) में बीकानेर में महात्मा गांधी रोड (पूर्व नाम किंग एडवर्ड - मेमोरियल रोड ) पर “बो सेठिया एन्ड सन्स" नाम से दुकान खोली वह आज भी बीकानेर की प्रथम श्रेणी की विश्वस्त जो जनरल एवं फेन्सी सामान के लिए प्रसिद्ध हैं । I सं. १९७० में वीकानेर में स्कूल स्थापित को जहां बच्चों को व्यावहारिक शिक्षा के साथ साथ धार्मिक शिक्षा भी दी जाती थी । इससे भी पहले आपने शास्त्र भण्डार का काम शुरू करा दिया था । सं. १९७२ (१९१६ ) से पुस्तक प्रकाशन का काम शुरू किया लागत मूल्य और उससे भी कम मूल्य पर साहित्य उपलब्धकर जैन समाज के विकास में आपने महत्वपूर्ण भूमिका अदा को । संस्थाने अब तक अर्थात् सं. २०२८ तक १४० ग्रन्थ प्रकाशित किए हैं जिनमें किसी किसी की १८ आवृत्ति तक छप चुकी है । कतिपय महत्वपूर्ण ग्रन्थों के नाम इस प्रकार है: -- जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भाग १ से ८ जैन दर्शन दशवैकालिक सूत्र उत्तराध्ययन सूत्र प्रश्न व्याकरण सूत्र आचारांग सूत्र प्रश्रुत स्कंध अहित प्रवचन नवतत्त्व ( विस्तार सहित ) भगवती सूत्र एवं पन्नवणा सूत्र के थोकड़े. शब्दार्थ, अन्वयार्थ भावार्थ सहित Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत् १९७८ में श्री अगर चन्द जी एवं आपने मिलकर समाज में शिक्षा एवं धर्म प्रचार के लिए अगरचन्द भैरोदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्थाएँ स्थापित को जिसका नवीन ट्रस्टडोड २१ सितम्बर १९४४ ई० को कलकत्ते में (सं. २००१ आसोज सुदी ६) कराया गया। संस्था में उस समय भी चल और अचल पांच लाख रुपये की संपत्ति थी। २१. ३. ४६ को व्याख्यन भवन (सेठिया कोठड़ी) एवं ता. २८. ३. ४६ को संस्था को संस्था के कार्यालय बीकानेर में ट्रष्टडोड रजिस्टर्ड कराया । औषधालय, कन्यापाठशाला, छान्नावग्स, पुस्तकालय, का सिद्धान्तशाला आदि विभागों के माध्यम से संस्था समाज को सेवा कर रही है। सं. १९७९ श्रावण वदो १० पन्द्रह वर्ष की उम्र में आपके पुत्र उदयचन्द जी का. आसामयिक निधन हो जाने के कारण आपके मन पर संसार की असारता का गहरा प्रभाव पडा । आपने कलकत्ते का व्यापार समेट लिया और धार्मिक ज्ञान प्रसार ओर लगे । सं. १९९४ में मापने "ज्ञान इकावनी' की रचना को जो सं. १९९८ में प्रकाशित हुई । सन्. १९२६ में आप अ. भा. श्वे. स्था. जैन कांन्फ्रांस के प्रथम अधिवेशन के सभापति बने । बीकानेर नगर और राजा के लिए की गई आपकी सेवाएं अविस्मरणीय है: १० वर्ष तक बीकानेर म्युनिसिपल बोर्ड के कमिश्नर रहे । सन् १५२९ में सबसे पहले जनता में से आप हो सर्व सम्मति से बोर्ड के वाइस-प्रेसिकेन्ट चुने गये। सन् १५३१ में राज्य ने आपको ऑनरेरी मजिष्ट्रेट बनाया । दो वर्ष तक आप बेंच ऑफ ऑनरेरी मजिष्ट्रेट्स में कार्य करते रहे । आपके फैसले किये हुए मामलों की प्रायः अपोलें नहीं हुई। सन् १५३८ में म्युनिसिपल बोर्ड की ओर से आप बीकानेर लेनिस्छेटिव एसेबली के सदस्य चुने गये। मई १५४९ में महिला जागृति परिषद् , बीकानेर की स्थापना के समय मुक्तहाथ से दान दिया। सन् १९३० में बीकानेर ऊलन प्रेस खरीदा और ऊल बरिंग फैक्टरी (Wool Burring Factory) खरीदो । यहां की बंधी गांठे अमेरिका, लीवरपूल आदि स्थानों को जाती हैं । बिकानेर में ऊनव्यवसाय की प्रगति में ऊन प्रेस का भी हाथ है । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गायगोधो के पास, कबूतरों के चुगे के लिए एवं अन्य सहायता के लिए पृथक् पृथक् फंड स्थापित कर सेठिया जी ने परोपकार भावना का सुन्दर उदाहरण उपस्थित किया है । सेठिया नाइट कॉलेज की स्थापना करके आपने ज्ञान के नये आयाम प्रदान किये । रात्रि को हाईस्कूल इन्टर बी. ए., एम. ए. एवं संस्कृत व हिन्दी की परीक्षाओं के लिए यहां नियमित कक्षाएं लगती थी । रात्रि में आशुलिपि (शोर्ट हेन्ड) की कक्षा भी खोली गई थी। ___ उल्लेखनीय है कि उस समय बीकानेर में मेट्रिक से आगे की पढ़ाई नहीं थी और दिन को अर्थोपार्जन कर रात्रि को विद्याध्ययन कर अपनी उन्नति कर सके इसी दृष्टि से नाइट कॉलेज खोला गया था। उस समय बीकानेर में शिक्षा की चेतना कम थी उसे जागृत कर जो सेवा सेठिया जी ने की है उसे बीकानेर भूलेगा नहीं। सेठिया जो स्वनिर्मित महापुरुष थे । गरीबी और अभाव की परिस्थितियों से उठकर उन्होंने अध्यवसाय, साहस एवं अथाक परिश्रम से अपने परिवार को ही समृद्धिशाली नहीं बनाया, समाज की सेवा भी की । वे स्वावलम्बी थे और अहंकार उनसे कोसों दूर था । मुनि न होते हुए भी आपका त्यागमय जीवन देखकर सबका मस्तक झुक जाता था । सदा साधक रहकर नवीन ज्ञान सीखते रहे और आपने अपने व्यवसायिक अनुभवों के आधार पर अनेक व्यापारी बनाये । दिनांक २०-८-६१ को प्रातः दस बजकर पचास मिनिट पर संथारा पूर्वक आपने पार्थिव शरीर छोड़ा पर उनके कार्य अमर हैं । सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था आज चहुंमुखी प्रगति पर है और समाज की सेवा कर रही है । संस्था ने शताधिक विद्वान तैयार किए हैं जो विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर हैं। आप सदा स्वावलम्बी, साहसी, अध्यवसायशील एवं कर्मठ रहे । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान शेठश्री अगरचन्दजी भेरुदानजी शोठिया:-बीकानेर Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આધમુરબ્બીશ્રીએ શેઠ શ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ અમદાવાદ. સ્વ, સુધીરભાઇ જ્યંતીલાલ ઝવેરી સુબઈ. શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી રાજકાટ. (સ્વ.) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણી રાજકાટ ᄒ (સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર અમદાવાદ, बच्चे बेठेला-लालाजी किशनचंदजी सा. जौहरी ભેજા-સુપુત્ર ચિ. મહેતાવચલી સા. नाना - अनिलकुमार जैन दोयत्ता दिल्ही Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ (સ્વ.) રોઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિ ભાણવડ. (સ્વ.) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહુ અમદાવાદ, રોશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઇ અમદાવાદ (સ્વ.) શેઠ ૨ગજીભાઈ મેહનલાલ શાહ અમદાવાદ. સ્વ, શેઠશ્રી જીવરાજભાઈ મૂલચંદભાઇ ધ્રાંગધ્રા સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ પટેલ ડોસાભાઈ ગોપાલદાસ એ બાણ દે (જી. અમદાવાદ) ૧ અમીચંદભાઈ તથા ૨ ગીરધરભાઈ બાટવિયા મુ. બે ગલેર મદ્રાસવાલા સ્વર્ગસ્થ ન્યાયમૂનિ" રતીલાલભાઈ ભાયચંદભાઈ મહેતા शाहजी श्री मोडीलालजी गलुन्डिया मुः उदयपुर સ્વ. શેઠે માણેકચંદ નેમચંદ | મુ. માંગરેલ श्रीमान् शेठ कानुगा श्री धींगडमलजी-अहमदाबाद Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આવમુરબ્બીશ્રીએ स्व. शेश्री हरिसाइ अनोपय शाल स्व. शेठ श्री ताराचंदजी साहेब गेलडा मंलात. मद्रास. श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋखभचंदजा सा. अजीतवाले (सपरिवार ) बच्चे बेठेला-मोटाभाइ श्रीमान् मूलचंदजी जवाहरलालजी बरडिया बाजुमां बैठेला- भाई मिश्रीलालजी बरडिया उमेला - सौथी नानाभाई पूनमचंदजी बरडिया शेठ श्री कीशनलालजी फुलचंद सा० बेंगलोरवाले श्रीमान् सेठश्री खींवराजजी सा. चोरडिया मु० मद्रास Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. आद्यमुरब्बीश्रीओ શ્રીમાન શેઠ પોપટલાલ માવજીભાઈ મહેતા, જામજોધપુર श्रीमान् शेठ धनराजजी पन्नालालजी जांगडा, मु. जालना शेठश्री मिश्रीलालजी लालचंदजी सा. लुणिया । मुहासभा भूमाहाशी तथा शेठश्री जेवतराजजी अमदावाद રાજકોટ 52 उरीसा भीane भता भदास स्व. श्रीमान् शेठश्री मुकनचंदजीसा बालिया पाली मारवाड Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्यमुरब्बीश्रीओ - શ્રીમાન શેઠ મણીલાલ પોપટલાલ વોરા અમદાવાદ, જન્મ તા. ૧૦-૬-૧૯૦૬ જમાન સ્ટાઢાની જૂનવાણી नाहटा, मु. देहली શ્રી વૃજલાલ દુલભજી પારેખ રાજકોટ, છે કેડારી -હરવિંદ જેચંદભાઈ રાજકેટ, શ્રીમાન લાલાજી કપુરચંદ્રજી નાહુટા • કાં શેઠશ્રી મણીલાલ જેઠુભાઈ - પાલનપુરવાળા - Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्यमुरब्बीश्रीओ (સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ આરસી श्रीमान् शेठ जगजीवनभाई रतनसीभाई बगडिया, मु. दामनगर શ્રી વિનાદ્રકુમાર વિરાણી રાજકોટ शेठ श्री देवचंदभाई फोजीलालभाई वलाणी-सुरत શે' શ્રી અમુલખભાઈ મલુકચંદ પાલનપુરવાલા Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ अमलनेर पारख छोगमलजी मुलतानमलजी शेठ रघुनाथमलजी, शेठ बाबुलालजी " पन्नालालजी, शेठ सुगनचंदजी - ભાનુભાઈ કેશવલાલ ભણસાલી પાલનપુર-સુ ઈ માનવતા આદ્ય મુરખ્ખી શેઠ શ્રી માણેકલાલભાઈ અમુલખભાઈ મહેતા ઘાટકોપર-મુંબઈ श्रीमान लालाजी हजारी लालजी शेठ श्री लक्ष्मीचंदजी जसकरणजीझवेरी झवेरी-देहली पालनपुर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्रस्य विषयानुक्रमणिका प्रथमं प्राभृतम् विषय क्रमांक १ २ शास्त्रप्रतिज्ञा ३ विंशति प्राभृत संख्या तदर्थश्च ४ प्राभृतान्तर प्राभृत तद्गतविषयनिरूपणम् ५ प्रथम प्राभृतान्तरप्राभृतविषयनिरूपणम् ६ द्वितीयप्राभृतान्तरप्राभृतविषयनिरूपणम् मङ्गलाचरणम् ७ दशमप्राभृतगतान्तरप्राभृतनिरूपणम् ८ मुहूर्त्तद्वय प्रवृद्धि निरूपणम् ९ सूर्यादिमासाऽहोरात्रवृद्धिहानिनिरूपणम १० बाह्याभ्यन्तरमण्डलसंचारि रात्रिंदिवप्रमाणनिरूपणम् ११ आदिस्य संवत्सर निरूपणम् १२ रात्रिदिवयोर्हानिवृद्धिक्रम निरूपणम् १३ परिपूर्ण पश्चदश मुहूर्त्तरात्रिंदिवयोरर्भावनिरूपणम् १४ दाक्षिणात्यार्द्धात्तरार्द्ध मण्डलसंस्थितिस्वरूपनिरूपणम् १५ सूर्यपरिभ्रमण विचारः १६ द्वौ सूर्यो परस्परं कियदन्तरेण चारं चरतः १७ द्वितीयमासे द्वयोः सूर्ययोरान्तर्यम् १८ सूर्यस्य द्वि समुद्रावगाहनिरूपणम् १९ सूर्यस्य एकरात्रिंदिवे यावत् प्रथमद्वितीय षण्मासाऽहोरात्र क्षेत्रसंचरण निरूपणम् २० चन्द्रादि मण्डलसंस्थितिं मण्डलपदानां प्रमाणनिरूपणम् २१ द्वितीयषण्मासे सूर्यपरिभ्रमण निरूपणम् २२ आदितः अष्टप्राभृतेष्वागत विषयस्योपसंहारः पृष्ठांक १-३ ३-४ ४-५ ५-९ ९-१० १०-११ ११-१४ १५ १५-१८ १९-२३ २३-२५ २५-३० ३०-३३ ३३-४३ ४३= ४९ ४९-५८ ५८-६१ ६१-६८ ६८-७८ ७८-९० ९१-९६ ९६-९९ द्वितीयं प्राभृतम् २३ सूर्यस्य द्वितीय षण्मास होरात्रे क्षेत्रसंचरणम् तथा च सूर्यस्य मण्डलात् मण्डलान्तर संचरणम् ९९ - १११ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रतिमुहूर्त सूर्यस्य गतेनिरूपणम् २५ गतिविषये स्वसिद्धांतप्रतिपादनम् २६ सर्वाभ्यन्तामण्डले सूर्यस्य प्रवेशः २७ चन्द्रसूर्ययोः : प्रकाशक्षेत्रनिरूपणम् २८ प्रका शस्य. संस्थाननिरूपणम् २९ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् ३० सूर्यलेश्यायाः प्रतिघातस्वरूपम् ३१ ओजसंस्थितिनिरूपणम् ३२ सूर्यावरणनिरूपणम् ३३ सूर्यस्य उदयसंस्थितिनिरूपणम् ३४ भगवता प्रदर्शितदिवसरात्रिप्रकारस्तन्मुहूर्तमाने च ३५ दक्षिणार्धात्तरार्धे वर्षाकालादिनिरूपणम् ३६ सूर्यः पौरुषि छायां कति काष्ठां निवर्तयिष्यति ३७ पौरुषोच्छायायाः प्रमाणनिरूपणम् ३८ पौरुषीच्छयाविषयेऽन्यतोर्थिकमतम् स्वमतनिरूपणं च ३९ चन्द्रसूर्ययोः आवलिकानिपातः ४० नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगनिरूपणम् ४१ एवंभागनक्षत्रस्वरूपनिरूपणम् ४२ योगस्यादि निरूपणम् १३ योगसम्बन्धान्नक्षत्राणां कुलत्वादिकम् ४४ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् ४५ पूर्णिमायां कुलोपकुलादिकम् ४६ अमावास्या योगकारी कुलादिनक्षत्रम् तथा च नक्षत्रसन्निपातः . ४७ नक्षत्रसंस्थाननिरूपणं तथा च नक्षत्राणां तारासंख्यानिरूपणम् ४८ नक्षत्राणां नेतृत्वं तथा च पौरुषी प्रमाण प्रतिपादकगाथार्थः ४९ चन्द्रमार्गनिरूपणम् ५० चन्द्रमार्गान्तरम् तथा च चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरं च ५१ नक्षत्राणां देवतादिकम् ११२-१२० १२१-१३४ १३४-१४१ १४२-१४९ १४९-१५२ १५२--१६६ १६७-१७१ १७२-१८३ १८४-१८५ १८६-१९१ १९२-१९९ २००-२०६ २०७-२१० २१०-२१६ २१६-२२५ २२६-२२८ २२९-२३९ २४०-२४४ २४५-२५६ २५७-२५९ २६०-२८४ २८४-२८९ २८९-३१० ३१०-३१५ ३१६-३३० ३३०-३३४ ३३४-३५१ १.३५१-३५३ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक विषय ५२. पञ्चदश दिवसरात्रीणां नामानि तथा च तिथिनामानि ५३ अष्टाविंशतिनक्षत्राणां गोत्राणि भोजनानि च ५४ चन्द्रादित्यचारनिरूपणम् ५५ लौकिकलोकोत्तरमासनामानि ७ ५६ संवत्सरस्वरूपनिरूपणम् ५७ द्वितीय युगसंवत्सरनिरूपणम् ५८ प्रमाणसंवत्सरनिरूपणम् ५९ लक्षण संवत्सर निरूपणम् ६० नक्षत्रचक्रद्वारनिरूपणम् ६ १ नक्षत्रस्वरूपनिरूपणम् ६२ सीमाविष्कंभनिरूपणम् ६३ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगकरणम् ६४ पौर्णमास्यमावास्यानिरूपणम् ६५ सूर्यस्य पौर्णमासी परिसमाप्तिदेशः ६६ चन्द्रस्यामावास्या परिसमप्तिदेशनिरूपणम् ६७ सूर्यस्यामावास्या परिसमाप्तिदेशनिरूपणम् ६८ चन्द्रसूर्यो वा केन नक्षत्रेण पौर्णमासी समापयतीति ६९ सूर्यचन्द्रयोरमावास्या परिसमाप्तिनिरूपणम् ७० नक्षत्रेण सह योगकालनिरूपणम् ७२ नक्षत्र परिभागनिरूपणम् ७२ संवत्सराणामादिस्वरूपनिरूणम् ७३ नक्षत्रादि संवत्सराणां संख्यादिकनिरूपणम् ७४ पञ्चसंवत्सराणां संमेलने रात्रिंदिवपरिमाणं ७५ संवत्सराणां समादि समपर्यवसानम् - ७६ ऋतुवक्तव्यता प्रतिपादनम् ७७ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ७८ सूर्यचन्द्रयोः हैमन्तीमावृत्तिस्वरूपम् ७९ छत्रातिछत्रयोगे चन्द्रयोगनिरूपणम् पृष्ठांक ३५३-३६१ ३६१-३६६ ३६६-३६८ ३६८-३६९ ३७०-३७६ ३७६-४०३ ४०४-४११ ४१२ - ४१५ ४१५-४२० ४२०-४२४ ४२४-४२९ ४२९-४३१ ४३२-४३५ ४३६-४३९ ४४०-४४२ ४४२-४४४ ४४५-४५६ ४५७- ४६४ ४६४-४७० ४७०-४७३ ४७४-४८८ ४८९-५०० ५०१-५०६ ५०६ - ५१५ ५१५-५३५ ५३५-५५६ ५५६-५६६ ५६७-५६९ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक पृष्ठांक ५७०-५७५ ५७६-५९२ ५९२-५९६ ५९६-६०२ ६०२-६०७ ६०७-६१८ ६१८-६२३ ६२५६२६-६२८ ६२९-६३४ .. विषय ..८० चन्द्रमसो वृद्धयपवृद्धिनिरूपणम् . . ८१ मण्डलेषु चन्द्रार्धमासचारनिरूपणम् .८२ ज्योत्स्नाधिक्यनिरूपणम् .८३ ज्योतिष्काणां शीघ्रगतिनिरूपणम् ८४ चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभागनिरूपणम् 1. ८५. चन्द्रादीनां नक्षत्रमासचरणनिरूपणम् .: ८६ अहोरात्राद्याश्रित्य चन्द्रादीनां मण्डलचारम् . ८७ चन्द्रस्य ज्योत्स्नालक्षणादिनिरूपणम् ८८ चन्द्रसूर्याणां च्यवनोपपातनिरूपणम् ८९ भूमितः सूर्यचन्द्रयो रुच्चत्वनिरूपणम् . . ९० ताराविमानाधिष्ठातृणां अणुत्वतुल्यत्वम् ९१ मन्दरलोकान्तपर्वतात् चन्द्रस्य परिवारज्योतिश्चक्रचारम् .९२ सर्वाभ्यन्तरादि चारसूत्रनिरूपणम् ९३ विमानपरिमाणनिरूपणम् . ९४ चन्द्रविमानवाहकदेवानां संख्या ९५ ताराणांपरस्परमन्तरनिरूपणम् ९६ चन्द्रसूर्याणामग्रमहिण्य कथनम् ___९७ ज्योतिष्कदेवानां स्थितिनिरूपणम् ...... ९८ चन्द्रादीनां अल्पबहुत्वम् ... ९९ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् १०. मनुष्यक्षेत्रस्थितचन्द्रादिदेवानां उत्पत्तिक्षेत्रम् १०१ पुष्करवरद्वीपसंबन्धी वक्तव्यता १०२ इन्द्रादि द्वीपसमुद्रनिरूपणम् १०३ चन्द्रसूर्याणामनुभावनिरूपणम् .१०४ राहु वक्तव्यता १०५ चन्द्रस्य 'शशी' सूर्यस्य 'आदित्य, नामकारणम् १०६ चन्द्रसूर्ययोरग्रमहिषीणां संख्यादिवर्णनम् १०७ अष्टाशीतिग्रहनामानि समाप्त ६३७६३८-६४१ ६४१-६४२ ६४२-६४४ .. .. ... . ६४६-६४९ ६४९-६५० ६५१६५२-६८० ६८०-६८४ ६८४-६८८ ६८८-६९० ६९१-६९३ ६९३-७०२ ७०२-७०४ ७०४-७१० ७१० ७१५ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्रीवीतरागाय नमः । जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्य - श्री - घासीलालवतिविरचितया चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम्श्री - चन्द्र प्रज्ञाप्तिसूत्रम् । मङ्गलाचरणम् नम्रीभूत पुरन्दरादिमुकुट, -भ्राजन्मणिच्छायया, चित्रानन्दकरी सदा भगवती यस्याङ्घ्रिलक्ष्मीः परा । सद्विज्ञान - निरन्तसिन्धुलहरी, - मग्नाः स्वकर्मक्षयं, कृत्वाऽनन्त सुखस्य धाम भविनः प्रापुः श्रये तं जिनम् ॥१॥ विमलः केवलाssलोक, - प्रभासंभारभासुरः । त्रिजगन्मुकुरो धीरो, वीरो विजयतेतराम् ॥२॥ श्रीसुधर्मा महावीर - लब्धरत्नोज्ज्वलो गणी । निबबन्ध तदुक्तार्थे, नमस्तस्मै दयालवे ॥३॥ अथैतत्करुणालब्ध, –विवेकामृतबिन्दुना । तन्यते घासिलालेन, 'चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका' ॥४॥ पूज्य ईश्वरलालच, गणिवय हि विश्रुतः । चन्द्रप्रज्ञप्तिवृत्तिश्च तत्स्मृत्यर्थ विरच्यते ॥५॥ अथ सूत्रकारोsविघ्नेन शास्त्रसमाष्ट्यर्थम् इष्टसिद्ध्यर्थं च प्रथम मिष्टदेवताप्रीत्यर्थं तत्स्तव - माह - 'जय' इत्यादि । मूलम् — जयइ नवनलिणकुवलय - वियसियसयवत्तपत्तलदलच्छो । वीरो गइंदमयगलसललियगयविकमो भयवं ॥ १ ॥ छाया - जयति नवनलिन कुवलयविकसितशत पत्रपत्रलदलाक्षः । वीरो गजेन्द्रमदकलसललितगतविक्रमो भगवान् ||१|| व्याख्या - अत्र स्तवो द्विविधः - गुणोत्कीर्त्तनरूपः, साक्षात्प्रणामरूपश्च । तत्र साक्षात्प्रणाम - रूषः स्तवः साम्प्रतकाले नैव संपद्यते, सम्प्रति तीर्थकरस्याविधमानत्वात् । यत् स्थापनातीर्थकरस्य Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwww चन्द्रप्राप्तिसूत्रे साक्षात्प्रणामरूपः स्तवः कत्तुं शक्यते, इति कथ्यते तन्मिथ्यात्वविलसितम् , स्थापनायां तन्निस्सारत्वेन तत्र तीर्थकरत्वस्यासंभवात् । एतद्विषये विस्तरतो मत्कृतायामनुयोगद्वारस्यानुयोगचन्दिकाटीकायां विलोकनीयम् । गुणोत्कीर्तनरूपः स्तवश्चात्र प्रस्तूयते-'जयई' जयति विजयवान् भवति रागादिशत्रुजेतृ. त्वात् , कः ! इत्याह-वीरो, वीरः श्रीमहावीरश्चरमतीर्थकर इत्यर्थः । अत्र 'जयति' इति वर्तमानप्रयोगः कथम् ! नैवात्र संप्रतिकाले भगवान् वीरो विद्यते ? इति न, तीर्थकराणां ज्ञानसत्तायाः सर्वत्र सर्वदा कालत्रयेऽपि विद्यमानत्वात् तेषां सदैव वर्तमानत्वमेवेति न किमपि शङ्कनीयम् । ____ अथवा रागादिशत्रवस्तु पूर्वमेव निर्मूलीकृताः किन्तु तत्फलभूतं सिद्धत्वमघाप्यप्रतिहतमेव तिष्ठति, इति सिद्धत्वफले हेतुत्वेन उपचारात् 'जयतीत्युक्तम् । अथवा सम्प्रत्यपि भक्त्या ध्यानगोचरीभूतो ध्यातॄणां रागादिशत्रन् अपाकरोति उक्तञ्च-'भत्तीइ जिणवराणं, खिप्पंति पुन्चसंचिया कम्मा । आयरियणमोकारे, विज्जा मंता य सिझंति ॥ भक्त्या जिनवराणां क्षिप्यन्ते पूर्वसंचितानि कर्माणि । आचार्यनमस्कारे विद्या मन्त्राणि च सिध्यन्ति, इति वचनात् , ततो जयतीति प्रयोगो युक्त एव । यद्वा जयति सर्वानपि सुरासुरादीन् अतिशेते धातूनामनेकार्थत्वात् , यो हि सुरासुरेभ्योऽपि स्वगुणैरतिशायी वर्तते स प्रेक्षावतां नमस्करणीयो भवत्येव गुणाधिक्यात् ततो जयतीति युक्तमेव । कौऽसौ ? इत्याह वीरो-वीरः, 'शूर-वीर विक्रान्ती' इति धातोः वीरयति कषायादिशत्रनु प्रति विक्रामतीति वीरः । अस्य वीर इति नाम न यादृच्छिकं किन्तु यथावस्थितमेव परीषहोपसर्गादिजेतृत्वविषयं वीरत्वमाश्रित्य सुरैः कृतमिदं नामानन्यसाधारणमिति । अनेन अपायापगमरूपोऽतिशयो ध्वन्यते । अथवा 'ई' गतिप्रेरणयोः' इति धातोः वि-विशेषेण ईरयति-प्रेरयति अपुनर्भावरूपेण आत्मनः सकाशात् अष्टविधकर्माणि च्यावयतीति वीरः, यद्वा ईातुर्गत्यर्थकोऽपि, अतः वि-विशेषेण शीघ्रतया ईरयति गच्छति शिवमिति वीरः, अत्र भगवतोऽपायावगमातिशयप्रतिपत्तिः सूचिता सूत्रकारेणेति । किविशिष्टो वीरः ? इत्याह-'नवनलिण-कुवलय-वियसिय-सयवत्त-पत्त लदलच्छो' नवनलिन-कुवलय-विकसित-शतपत्र-प्रतलदलाक्षः, तत्र नवं-नूतनम्-अल्पकालिकं-यत् नलिनम्-ईषदक्तं कमलम् तथा कुवलयं नीलोत्पलम् , तथा विकसितं-प्रफुल्लितं शतपत्रं-सामान्यकमले तस्य प्रतले-अस्थूले ये दले-पत्रे तद्वत् अक्षीणि=नेत्रे यस्य स तथा, यस्य भगवतो नेत्रद्वयम् उपान्ते रक्ताभायुक्तत्वेन ईषद्रक्तं, नीलाभायुक्तत्वेन ईषन्नीलम् प्रफुल्लितत्वेन आयतम् कोमलं-मनोहारि च वर्तते इति भावः । पुनः कीदृशो वीरः ! इत्याह-'गइंदमयगलसललियगयविकमो' गजेन्द्रमदकलसललितगतविक्रमः, अत्र-'मदकल' शब्दस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् तेन मदकलः मदेन सुन्दरः तरुण इत्यर्थः, एतादृशो यो गजेन्द्रः गजानां मध्ये इन्द्र इव इन्द्रः शेषगजेभ्यो गुणातिशयित्वात् , Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिप्रकाशिका टीका मङ्गलाचरणं शास्त्रप्रतिज्ञा ३ तस्य सललितं लालित्यसहितं मनोज्ञलीलासहितत्वात् एतादृशं यत् गतं गमनं तद्वत् विक्रमः पदन्यासो यस्य स तथा मदोन्मत्तगजेन्द्रवत् मनोहारिगतियुक्त इत्यर्थः, पुनः कीदृशो बीरः ! इत्याह- 'भयवं' भगवान् - भगः ऐश्वर्यादिरूपः उक्तश्च " ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना ॥१॥ सोऽस्यास्तीति भगवान् । भगवच्छन्दस्य विस्तृतव्याख्या आचाराङ्गसूत्रे प्रथमश्रुतस्कन्धस्य मत्कृतायामाचारचिन्तामणिटीकायां विलोकनीया । अनेन वागतिशयः पूजातिशयश्च सूच्यते । पूजाऽत्र सुरासुरनरनिकर कृतती र्थक रादर सत्कारलक्षणा विज्ञातव्येति । आभ्यां द्वाभ्यामतिशयाभ्यां ज्ञानातिशयो लभ्यते, ज्ञानातिशये सति अपायापगमातिशयस्यावश्यम्भावात् अपायापगमातिशयोऽपि सिध्यति । तीर्थकराणां अपायाऽपगम-पूजा - वाणी - ज्ञानातिशयभेदात् चत्वारो मूलातिशया भवन्ति । एते चत्वारोऽतिशया :- 'अवद्वियकेसमंसुरोमन हे ' अवस्थितकेशश्मश्रुरो मनखः, इत्यादिचतुस्त्रिंशदतिशयानामुपलक्षणम्, उपरोक्तमूलातिशयचतुष्टयमन्तरेण शेषाणां चतुस्त्रिंशदतिशयानामसम्भवात्, ततश्च चतुस्त्रिंशदतिशयोपेतो भगवान् वीरो जयतीति पूर्वेण सम्बन्धः ॥ गा० १ ॥ पूर्व वर्तमानतीर्थ कर श्री वर्धमानस्वामिनं प्रणम्य साम्प्रतं सामान्येन पश्च परमेष्ठिनां नमस्कारमाह - 'नमिकण' इत्यादि । मूलम् — नमिण असुरसुरगरुलभुयगपखिंदिए गयकिले से । अरिहे सिद्धायरिए, उवज्झाए सव्वसाहू य ॥२॥ छाया - नत्वा असुरसुरगरुड भुजगपरिवन्दितान् गतक्लेशान् । अर्हतः सिद्धाचार्यान्, उपाध्यायान् सर्वसाधूच ॥२॥ व्याख्या- 'असुरसुरगरुल भुयगपरिबंदिए' असुरसुरगरुड भुजग परिवन्दितान् तत्रअसुरा=असुरकुमाराः सुराः - वैमानिकदेवाः गरुडा : = सुवर्णकुमारदेवाः, भुजगाः नागकुमारदेवाः उपलक्षणात् शेषाणां - विद्युत्कुमारादीनामपि ग्रहणं भवति, तैः परिवन्दितान् = नमस्कृतान् 'गयकिऐसे' गतक्लेशान् अपगतजन्ममरणादिक्केशान् एतादृशान् अर्हतः - तीर्थकृतः, तथा 'सिद्धायरिए ' सिद्धाचार्यान् सिद्धान् आचार्यांश्च तत्र सिद्धान् = व्यपगतसकलकर्ममलत्वेन सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं प्राप्तान्, आचार्यान् स्वयं पञ्चविधज्ञानाद्याचारं परिपालयन्तः सन्तः परान् प्रति तदुपदेश Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे दानतत्परान् 'उवज्झाए' उपाध्यायान् स्वयं द्वादशाङ्गाध्ययनं कुर्वन्तः परान् तदध्ययनमानसान् कारयन्तस्तान् 'सव्वसाहू य' सर्वसाधूँश्च ज्ञानक्रियातो मोक्षसाधनप्रवणान् अर्द्ध तृतीयद्वीप स्थितान् मुनीन् 'नमिऊण' नत्वा - नमस्कृत्य, किम् ? इत्याह ४ मूलम् —— फुडवियडपागडत्थं, वोच्छं पुव्वसुयसारनीसंदं । सुहुमगणिणोवइहूं, जोइसगणरायपण्णर्त्ति ॥३॥ > छाया-स्फुट विकट प्रकटार्थां वक्ष्ये पूर्वश्रुतसारनिस्यन्दं । सूक्ष्मगणिनोपदिष्टां ज्योतिर्गणराजप्रज्ञप्तिम् ॥३॥ व्याख्या—'फुडवियडपागडत्थं' स्फुटविकटप्रकटार्थाम्–स्फुटः स्पष्टो यथावस्थितो विमलबोधविषयत्वात्, विकटः = गम्भीरार्थः कुशाग्रबुद्धिगम्यत्वात्, प्रकटः = साक्षादक्षरेष्वेव परिस्फुरणशीलः, एतादृशोऽर्थो यस्यां सा तथा ताम् 'पुव्वसुयसारनीसंद' पूर्वश्रुतसारनिस्यन्दम्पूर्वगतं श्रुतं पूर्वश्रुतं तस्य सारः सारभूतं निस्यन्दं सारस्यापि सारभूताम्, अनेन - इयं चन्द्रप्रज्ञप्तिः पूर्वेभ्य उद्घृतेति ध्वन्यते । ननु इयं च न पूर्वाणि स्वयमधीत्य तत उद्धृता किन्तु गुरूपदेशानुसारतः, इत्यत्राह–'सुडुम' इत्यादि 'सुहुमगणिणोवई' सूक्ष्मगणिनोपदिष्टाम्, सूक्ष्म इति सूक्ष्मबुद्धियुको यो गणी - आचार्य:, तेनोपदिष्टाम्, गुरुणा पूर्वाणि यथाव्याख्यातानि तान्यधीत्य तेभ्य उद्धृतामिति भावः, 'जोइसगणरायपण्णत्ति' ज्योतिर्गणराजप्रज्ञप्तिम्, तत्र ज्योतींषि - ग्रहनक्षत्रतारारूपाणि तेषां गणः = समूहस्तस्य राजा = चन्द्रः, तस्य प्रज्ञप्तिम् - प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यतेऽनयेति प्रज्ञप्तिः तत्स्वरूपप्रतिपादिका वचनपद्धतिः, ताम् 'वोच्छं' वक्ष्ये= प्रतिपादयिष्यामि प्ररूपयिष्यामीत्यर्थः ॥ ३॥ पूर्वेषु चन्द्रादिवक्तव्यता गौतमप्रश्नभगवन्निर्वचन रूपैव वर्तते तत इयं चन्द्रप्रज्ञप्तिरपि तथैव प्ररूपणीयेति प्रथमं गौतमप्रश्नस्योपक्षेपं निरूपयति- 'नामेण' इत्यादि । मूलम् - नामेण इंदभूइ-त्ति गायमो वंदिऊण तिविहेणं । पुच्छर जिणवरवसहं, जोइसरायस्स पणति ॥ ४ ॥ छाया - नाम्ना इन्द्रभूतिरिति गौतमो वन्दित्वा त्रिविधेन । पृच्छति जिनवरवृषभं, ज्योतीराजस्य प्रज्ञप्तिम् ॥४॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चद्रप्तिप्रकाशिका टीका विशतिप्राभृतसंख्या तदर्थश्च ५ व्याख्या-'नामेण' नाना 'इंदभूइत्ति' इन्द्रभूतिरिति इन्द्रभूतिरिति नाम्ना प्रसिद्धः, 'गोयमो' गौतमः गौतमगोत्रोत्पन्नः, सः 'तिविहेण'-त्रिविधेन मनोवाकायेन वंदित्ता' वन्दित्वा 'जिणवरवसई' जिनवरवृषमं जिनवरेषु श्रेष्ठं श्रीवर्धमानस्वामिनं 'पुच्छई' पृच्छति । किमित्याह'जोइसरायस्स' ज्योतीराजस्य चन्द्रस्य उपलक्षणात् सूर्यादीनां च 'पण्णत्ति' प्रज्ञप्तिम् प्रज्ञाप्यतेप्ररूप्यते-चन्द्रसूर्यादीनां चारस्य यथावस्थितियत्र सा प्रज्ञप्तिस्तां पृच्छतीति सम्बन्धः ॥४॥ एवं गौतमेन पृष्टः सन् भगवान् प्रथमं तत्सम्बद्धं विंशतिसंख्यकेषु प्राभृतेषु यद् वक्तव्यं तद् गाथापञ्चकेनाह-'कइ मंडलाइ' इत्यादि। मूलम् कइ मंडलाइ वच्चइ १, तिरिच्छा किं व गच्छई २। ओभासइ केवइयं ३, सेयाए किं ते संठिती ४ ॥ गा० ५॥ कहिं पडिहया लेस्सा ५, कहं ते ओयसंठिती ६ । के सूरियं वरयंति ७, कहं ते उदयसंठिती ८॥गा ६ ॥ कइकट्ठा पारिसी-छाया ९ जोगेत्ति किं ते आहिए १०। के ते संवच्छराणाई ११, कइ संवच्छराइ य १२ ॥गा०७॥ कहिं चंदमसो वुड्डी, १३, कया ते जोसिणा बहू १४ । के य सिग्धगई वुत्ते १५ किं ते जोसिणलक्खणं १६॥गा०८॥ चयणोववाय १७ उच्चत्तं १८, सूरिया कइ आहिया १९ । अणुभावे केरिसे वुत्ते, २०, एवमेयाइ वीसई ॥गा०९॥ छाया कति मण्डलानि व्रजति १, तिर्यक् किं च गच्छति २ । अवभासयति कियत्कं, ३ प्रवेतायाः किं ते संस्थितिः४॥ गा०५॥ कुत्र प्रतिहता लेश्या ५, कयं ते ओजःसंस्थितिः ६। के सूर्य वरयन्ति ७, कथं ते उदयसंस्थितिः ८॥ गा० ६ ॥ कतिकाष्ठा पौरुषीछाया ९, योग इति किं ते आख्यातः १० । कस्ते संवत्सर।णामादिः १२, कति संवत्सरा इति च १२॥गा ०७॥ कुत्र चन्द्रमसो वृद्धिः १३, कदा ते ज्योत्स्ना बह्वी १४ । कश्च शीघ्रगतिरुतः १५, किं ते ज्योत्स्नालक्षणम् १६ ॥गा०८। च्यवनोपपातौ १७, उच्चत्वं १८, सूर्याः कति आख्याताः १९। अनभाव कीदृश उक्त २०, एवमेतानि विशतिः ॥गा०९॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे व्याख्या- 'कइ मंडलाइ बच्चई' कति मण्डलानि व्रजति चतुरशीत्यधिकशतमण्डलेषु सूर्यो वर्षमध्ये कति मण्डलानि एकवारं, कति वा मंडलानि द्विःकृत्वो व्रजतीत्येतन्निरूपणाविषयकं प्रथमं प्राभतमस्ति । अस्मिन् अष्टावन्तरप्रभृतानि, चतुर्थान्तरप्राभृतादारभ्याष्टमान्तरप्राभृतपर्यन्तमेकोनत्रिंशत् प्रतिपत्तयश्च सन्ति । 'तिरिच्छा किं व गच्छइ' तिर्यक् किं वा गच्छति सूर्यस्तिर्यग दिशि कथं चलति, इति विषयकं द्वितीयं प्राभृतं वर्त्तते, अस्मिन् त्रीणि अन्तरप्राभृतानि चतुर्दश प्रतिपत्तयश्च सन्ति २ । 'ओभासइ केवइयं' अवभाषते कियत्कम् , चन्द्रः सूर्यश्च कियत्प्रमाणकं क्षेत्रं प्रकाशयतीतिविषयकं तृतीयं प्राभृतम्, अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा द्वादश प्रतिपत्तयः सन्ति ३। 'किं ते संठिती' का ते संस्थितिः, ते मते चन्द्रसूर्ययोः किदृशं संस्थानं वर्त्तते? इति विषकं चतुर्थ प्राभृतमस्ति । अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा षोडश षोडशचेति द्वात्रिंशत् प्रतिपत्तयः सन्ति । अत्र तापक्षेत्रस्यान्धकारक्षेत्रस्यापि च प्ररूपणा उर्ध्वमधस्तिर्यक् च कियत्तपतीत्यपि च प्ररूपणा वर्तते ४॥ गा० ५॥ 'कहिं पडिहया लेस्सा' कुत्र प्रतिहता लेश्या, सूर्यस्य लेश्या तेजः कुत्र प्रतिहता भवतीतिनिरूपकं पञ्चमं प्राभृतम् । अस्मिन् अन्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा विंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति ५ । 'कहं ते ओयसंठिती' कथं ते ओजःसंस्थितिः, ते तव मते कथं केन प्रकारेण सर्वदा एकरूपाऽवस्थायिनी ओजसः प्रकाशस्य संस्थितिः संस्थानम् , अथवा अन्यथा वा संस्थितिर्नानाप्रकारेण वा भवतीतिप्ररूपकं षष्ठं प्राभृतम् । अस्मिन् अन्यतैर्थिकप्ररूणारूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति ६ । 'के सरियं वरयंति के सूर्य वरयन्ति, सूर्य दूरस्थिताः के पुद्गलाः सूर्य सूर्यतेजः वरयन्ति-सूर्यलेश्यां प्राप्तुमिच्छन्ति स्पृशन्तीत्यर्थः, इतिप्रतिपादकं सप्तमं प्राभृतम् । अत्रान्यतैथिंकप्ररूपणारूपाः विंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति ७ । 'कहं ते उदयसंठिती' ते तव मते कथं केन प्रकारेण सूर्यस्य-उदयस्य उपलक्षणात् अस्तस्य च संस्थितिः प्रकारः यत्र दिवसो रात्रि ; भवति तत्र कः प्रकारः ?, यदा दक्षिणोत्तरयोः प्रथमसमयो भवति तदा पूर्वपश्चिमयोः तस्माद् द्वितीये समये प्रथमः समयो भवति । अत्र जम्बूद्वीपादर्धपुष्करद्वीपपर्यन्तस्य वर्णनमस्ति, इतिनिरूपकमष्टमं प्राभृतम् । अस्मिन् अन्यतैर्थिकप्ररूणारूपास्तिस्रः प्रतिपत्तयः सन्ति ८ ॥ गा० ६ ॥ 'कइकट्ठा पोरिसीछाया' कतिकाष्ठा पौरुषीछाया कतिकाष्ठा=कियत्प्रकर्षप्रमाणा पौरुषीछाया पौरुषीकालस्य किंप्रमाणा छाया भवतीति प्ररूपकं नवमं प्राभृतम् , तत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपास्तिस्रः प्रतिपत्तयः सन्ति । अत्र सूर्यतेजसः स्वरूपं वर्णितम् । यस्मिन् Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र सिप्रकाशिका टीका प्रामृतान्तरप्राभृततङ्गतविषयनिरूपणम् ७ समये सूर्यः स्वतेजसा पुरुषस्य छायां निर्वर्त्तयति तद्वर्णनेऽन्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति । पौरुषीच्छायानिर्वर्त्तने द्वे प्रतिपत्ती स्तः, सूर्य: कतिकाठां पौरुषीच्छायां निर्वर्त्तयतीतिविषये षण्णवतिः प्रतिपत्तयोऽपि सन्ति, एवं सर्वमेलने षड्विंशत्यधिकं शतमेकं ( २२६) प्रतिपत्तयः सन्ति । तथा पौरुष्यामर्धपौरुष्यां देहपौरुष्यां च कति दिनानि व्यतीयन्ते ? कति दिनानि अवशिष्यन्ते । तथा पुरुषच्छायायां कति दिनानिगच्छन्ति ? कति दिनानि अवशिष्यन्ते इति, तथा छाया पश्चविशतिविधा भवतीतिनिरूपकं नवमं प्राभृतम् ९ । 'जोएत्ति किं ते आहिए' योग इति किं ते आख्यातः, ते तव मते योग इति किम् ? किस्वरूपो योगः ? इति चन्द्रसूर्याभ्यां सह कतिनक्षत्राणां योगो भवतीतिप्रतिपादकं दशमं प्राभृतम्, अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः पञ्च पञ्चेति दश प्रतिपत्तयः सन्ति १० । 'के ते संवच्छ राणाई' कस्ते संवत्सराणामादिः, ते तव मते संवत्सराणामादिरन्तश्च कः कतिसंख्यकाः संवत्सराः । इतिप्रतिपादकमेकादशं प्राभृतम् ११ । 'कइ संवच्छराइ य' कति संवत्सरा इति च संवत्सराः कति सन्ति !, पञ्च संवत्सरा सन्ति तेषां मासा दिनानि मुहूर्त्ताश्च कति ?, तथा एकस्मिन् युगे चन्द्रऋतोः सूर्यऋतोश्च कथनम् दशविधयोगानां कथनं च, तथा कस्मिन् नक्षत्रे छत्रपरच्छत्रयोर्योगो भवति ? इत्येतद्विषयकं द्वादशं प्राभृतम् १२ ॥ गा० ७ ॥ 'कईं चंदमसो बुढी' कथं चन्द्रमसो वृद्धिः, उपलक्षणात् हानिश्च कथम् ? कृष्णपक्षेचन्द्रस्य विमानं राहुविमानसंयोगेन रक्तो भवति तदा प्रतिदिनं क्रमश उद्योतस्य हानिर्जायते, शुक्लपक्षे राहुविमानेन विरक्तो भवति तदा क्रमश उद्योतस्य वृद्धिर्भवति, एवममावास्यायाश्चरमसमये चन्द्रो रक्तो भवति, पूर्णिमायाश्चरमसमये चन्द्रो विरक्तो भवति, शेषसमये रक्तो विरक्तश्च भवति, मुहूर्त्तादीनां मानं, चन्द्रो युगादौ कुतः प्रविशति, अथ नक्षत्रस्य मासार्धं चन्द्रस्यार्थ - मण्डलानि कति चलन्ति ? एवं चन्द्रस्य मासार्धे चन्द्रमण्डलानि कति चलन्ति ? नक्षत्रस्य - मासा - दारभ्य चन्द्रस्य मासार्धपर्यन्तं चन्द्रस्य मण्डलार्धानि कतिसंख्यकान्यधिकानि चलन्ति, चन्द्रस्य स्वस्य कानि मण्डलानि सन्ति । तथाऽन्यस्य ग्रहादेः कानि मण्डलानि सन्ति ? इत्यादिविषयप्रतिपादकं त्रयोदशं प्राभृतम् १३ 'कया ते जोसिणा बहू' कदा ते ज्योत्स्ना बही, ते तव मते ज्योत्स्ना चन्द्रिका बह्णी प्रभूता कदा वर्त्तते ? उपलक्षणात् अल्पा वा कदा ? इत्यादिविषयकं चतुर्दशं प्राभृतम् १४, 'के य सिग्घगई बुत्ते' कश्च शीघ्रगतिरुक्तः, चन्द्रादीनां पञ्चानां ज्योतिष्काणां मध्ये कः शीघ्रगतिः कश्च मन्दगतिरस्ति, चन्द्रः सूर्यो नक्षत्रं वा एकस्मिन् मण्डले कति भागान् चलति ?, पश्चानां युगानामेकैकस्मिन् मासे चन्द्रः सूर्यो नक्षत्रं च कति कति मण्डलानि चलन्ति ? तथा एकस्मिन् अहोरात्रे चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि कति कति मण्डलानि चलन्ति ? सूर्यस्य नक्षत्रस्य Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे वा एककस्मिन् मण्डले कति कति अहोरात्राणि भवन्ति !, एकस्मिन् युगे प्रत्येकस्य कति मण्डलानि भवन्ति, इत्यादिविषयकं पञ्चदशं प्राभृतम् १५ । 'किं ते जोसिणलक्खणं' किं ते ज्योत्स्नालक्षणम्, ते तव मते ज्योत्स्नायाः चन्द्रसूर्यप्रकाशरूपायाः किं लक्षणम् , उपलक्षणात् छायायाः= अन्धकारस्य किं लक्षणम् ? इत्यादिविषयकं षोडशं प्राभृतम् १६ ।। गा० ८॥ 'चयणोववाय' च्यवनोपपातौ चन्द्रसूर्ययो च्यवनमुपपातश्चेतिविषयकं सप्तदश प्राभृतम् , अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति १७ । 'उच्चत्तं' उच्चत्वम् , चन्द्रसूर्यादीनां समभूमिभागात् कियत्प्रमाणकमुच्चत्वम् ? इत्येतत्प्रतिपादकमष्टादशं प्राभृतम् । अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति १८। 'सूरिया कति आहिया' सूर्याः कति आख्याताः, द्वीपसमुद्रेषु चन्द्रसूर्यादयः कति–कतिसंख्यकाः कथिताः ? इत्येतत्प्रतिपादकमेकोनविंशतितमं प्राभृतम् , अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा द्वादश प्रतिपत्तयः सन्ति १९ । 'अणुभावे केरिसे वुत्ते' अनुभावः कीदृश उक्तः ! चन्द्रसूर्ययोरनुभावः प्रभावः सुखमित्यर्थः स कीदृशः किंस्वरूपकः उक्तः कथितः ! चन्द्रसूर्ययोः सुखस्य वर्णनं युवकपुरुषदृष्टान्तेन तस्मादुत्तरोत्तरमनन्तगुणविशिष्टतरं सुखं वानव्यन्तरादारभ्यासुरकुमारपर्यन्तं वर्णितम् , तेभ्योऽनन्तगुणविशिष्टतरं सुखं ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां कथितम् , तेभ्योप्यनन्तगुणविशिष्टतरं सुखं चन्द्रसूर्ययोः प्रतिपादितम् । चन्द्रसूर्ययोद्मसनविषये राहुवर्णनम्-अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपे द्वे द्वे चेति चतस्रः प्रतिपत्तयः सन्ति, अष्टाशीतिग्रहनामप्रतिपादनम् , चन्द्रप्रज्ञप्तेर्ज्ञानदानादिवर्णनं चेत्यादिविषयकं विशतितमं प्राभृतम् २० । 'एवमेताणि वीसई' एवमेतानि विंशतिः प्राभृतानि चास्यां चन्द्रप्रज्ञप्त्यां सन्ति । एषु विंशतिसंख्यकेषु प्राभृतेषु मध्ये त्रिषु प्रथम-द्वितीय-दशमरूपेषु प्राभृतेषु क्रमशोऽष्ट-त्रिद्वाविंशति-रूपाणि त्रयस्त्रिंशद् अन्तरप्राभृतानि सन्ति, शेषेषु सप्तदशसु प्राभृतेषु अन्तरप्राभृतानि न सन्ति । अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः प्रतिपत्तयः सर्वा मिलित्वा सप्तपञ्चाशदधिकशतत्रयसंख्यकाः (३५७) भवन्ति । अथ प्राभृतशब्दस्य कोऽर्थः ! उच्यते-इह प्राभृतं नाम यन्महापुरुषाय देशकालौचित्येन परिणामसुखदं विशिष्टं वस्तु उपनोयते तत् प्राभृतनाम्ना लोके प्रसिद्धम् । प्राभ्रियते-पोष्यते महापुरुषस्यान्तर्गतं मनो येन तत् प्राभृतम्-उपहारः (भेट) इति भाषाप्रसिद्धम् , अनया व्युत्पत्त्या वक्ष्यमाणा शास्त्रपद्धतयोऽपि परमदुर्लभाः परिणामसुखदाश्च ता विनयादिगुणसंपन्नेभ्यः शिष्येभ्यो देशकालौचित्येन समुपनीयन्तेऽत एताः शास्त्रपद्धतयः प्राभृतानीव प्राभृतानि सन्ति तत एताः शास्त्रपद्धतयोऽपि प्राभृतशब्देन प्रोच्यन्ते । एषु चान्तर्गतानि प्राभृतानि प्राभृतप्राभूतानीति कथ्यन्ते ॥गा०९॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०१ गा०१०-१२ प्रथमप्राभृतगतान्तरप्राभृतविषयनिरूपणम् ९ तदेवं विशतेरपि प्राभूतानामर्थाधिकाराः प्रदर्शिताः, अथ विंशतेरपि प्राभूतानामपान्तर्गतप्राभतप्राभूतानां विषयान् वर्णयन् पूर्व प्रथमप्राभूतगताष्टप्राभृतप्राभूतानां विषयान् वर्णयति-'वुडोवुड्ढी' इत्यादि । मूलम्वु ड्डो-वुड्डी मुहुत्ताणं, अद्धमंडलसंठिई, के ते चिण्णं पडियरइ, अंतरं किं चरति य॥१०॥ ओगाहइ केवइयं, केवइयं च विकंपई। मंडलाण य संठाणे विक्खंभे अठ्ठ पाहुडा ॥११॥ छाया-वृद्धयपवृद्धी मुहर्तानां अर्धमण्डलसंस्थितिः । कस्ते चीर्ण प्रतिचरति अन्तरं किं चरन्ति च ॥१०॥ अवगाहते कियत्कं, कियत्कं च विकम्पते । मण्डलानां च संस्थानं, विष्कम्भः अष्ट प्राभृतानि ॥११॥ व्याख्या-'वुड्ढो-वुड्ढी मुहुत्ताणं' वृद्धयपवृद्धी मुहूर्तानाम् प्रथमस्य प्राभृतस्याष्टौ प्राभृतप्राभृतानि सन्ति, तेषु प्रथमे प्राभृतप्राभृते अन्तरप्राभृते अहोरात्रगतानां मुहूर्तानां वृद्धिः-वर्धनम्, अपवृद्धिः हानिः, इत्येतद्विषयवक्तव्यता वर्त्तते १ । 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिः, दक्षिणोत्तरयोः संचरतोयोः सूर्ययोर्यन्मण्डलार्ध, तस्य प्रत्यहोरात्रं या संस्थितिः=संस्थानम् आकृतिः तस्या वर्णनं द्वितीयेऽन्तरप्राभृते वर्त्तते २ । 'के ते चिण्णं पडियरइ' कस्ते चीर्ण प्रतिचरति, भगवन् ! ते तव मते द्वयोः सूर्ययोर्मध्ये कः सूर्यः कियत्क्षेत्रं स्पृष्ट्वा पुनः अपरेण सूर्येण चीर्णम्=पूर्वसंक्रान्तं क्षेत्रं प्रतिचरति संचरतीति । तथा जम्बूद्वीपे द्वौ सूयौँ स्तः तन्मध्ये कः सूर्यो भरतक्षेत्रस्य, कश्च ऐरवतक्षेत्रस्यास्ति, स्वं प्रति स्वस्य कानि मण्डलानि, कानि चान्यस्य मण्डलानीत्यादिविषयक तृतीयमन्तरप्राभृतम् ३ । 'अंतरं किं चरंति य' अन्तरं किं चरतश्च, द्वावपि सूर्यो परस्परं कियपरिमितस्य क्षेत्रस्यान्तरं कृत्वा चारं चरतः ? इतिविषयकं चतुर्थमन्तरप्राभृतम् , अत्र विषये ऽन्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः षट् प्रतिपत्तयः सन्ति ४ । 'ओगाहइ केवइयं' अवगाहते कियत्कं एकैकेन रात्रिन्दिवेन एकैकः सूर्यः कियत्कंकिय प्रमाणक क्षेत्रमवगाहते-अवगाह्य चारं चरतीतिविषयकं पञ्चममन्तरप्राभृतम् , अत्र परमतरूपाः पञ्च प्रतिपत्तयः सन्ति ५, "केवइयं च विकंपई कियत्कं च विकम्पते, क्रियत्कं-कियत्प्रमाणकं च क्षेत्रं विकम्पते-विमुञ्चति विमुच्य चारं चरतीतिविषयकं षष्ठमन्तरप्राभृतम् , अत्र परमतरूपाः सप्त प्रतिपत्तयः सन्ति ६ । 'मंडलाण य संठाणे' मण्डलानां च संस्थानम् , सूर्यादीनां मण्डलानि कीदृशसंस्थानयुक्तानि वर्तन्ते ! इतिविषयकं सप्तममन्तरप्राभृतम् , अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा अष्ट प्रतिपत्तयः सन्ति ७ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे 'विक्खंभे विष्कम्भः-तेषामेव सूर्यादिमण्डलानां विष्कम्भः कियत्प्रमाण इति, उपलक्षणात् बाहल्यस्य आयामस्य परिधेश्च ग्रहणं भवति , इतिविषयकमष्टममन्तरप्राभृतम् , अत्र परमतरूपास्तिस्रः प्रतिपत्तयो वर्तन्ते ८ । 'अह पाहुडा' अष्ट प्राभृतानि प्रथमे प्राभृते एतानि पूर्वोक्तानि अष्टसंख्यकानि अन्तरप्राभृतानि सन्ति । एतेषु अष्टस्वपि प्राभृतप्राभृतेषु परमतरूपाः सर्वा एकोनत्रिंशत् प्रतिपत्तयः सन्तीति ॥१०-११॥ पूर्वमष्टानामन्तरप्राभूतानां निरूपणं कृतम् , सम्प्रति तेषु कुत्र कति कति परमतरूपाः प्रतिपत्तयः सन्तीति संग्रहगाथामाह-'छप्पंच य' इत्यादि । मूलम् छ-प्पंच य सत्तेव य, अट्ठ य तिन्नि य हवंति पडिवत्ती पढमस्स पाहुडस्स उ, हवंति एयाओं पडिवत्ती ॥१२॥ छाया-षट् पञ्च च सप्तैव च अष्ट च तिस्रश्च भवन्ति प्रतिपत्तयः । प्रथमस्य प्राभृतस्य तु, भवन्ति पताः प्रतिपत्तयः ॥१२॥ व्याख्या-अत्रायेषु त्रिषु अन्तरप्राभृतेषु प्रतिपत्तयो ने सन्ति, चतुर्थमारभ्याष्टमपर्यन्तं प्रतिपत्तयः सन्ति, ता इमाः-'छ' 'इति षट् चतुर्थे प्राभृतप्राभृते परमतरूपाः षट् प्रतिपत्तयो वर्त्तन्ते ४ । 'पंच य' इति पञ्च च पश्चमे पञ्चसंख्याकाः प्रतिपत्तयः सन्ति ५ । 'सत्तेव य' सप्तैव च षष्ठे सप्त ६ । 'अट्ट य' अष्ट च सप्तमेऽष्ट ७ । 'तिन्नि य हवंति पडिवत्ती'तिस्रश्च भवन्ति प्रतिपत्तयः, अष्टमे तिस्रः प्रतिपत्तयः सन्ति ८ । एवम् 'पढमस्स पाहुडस्स उ प्रथमस्य प्राभृतस्य तु प्रथमस्य प्राभृतस्य मूलप्राभृतस्य चतुरादिषु पञ्चसु प्राभृतप्राभृतेषु सर्वा एकोनत्रिंशसंख्यका 'भवंति पडिवत्ती' भवन्ति प्रतिपत्तयः, भवन्ति सन्ति प्रतिपत्तयः-अन्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा इति सर्वेषु प्राभृतप्राभृतेषु परमतमुपप्रदश्ये पश्चात् स्वमतमपि प्रकटीकृतं भगवतेति ॥१२।। अथ विंशतिमूलप्राभृतेषु द्वितीयमूलप्रभृत्गतानां त्रयाणां प्रभृतप्राभृतानामर्थाधिकारानाह-'पडिवत्तीओ' इत्यादि । मूलम्-पडिवत्तीओ उदए, अदुवऽत्थमणेसु य । भेयघाए कण्णकला, मुहुत्ताण गई इय ॥१३॥ छाया–प्रतिपत्तय उदये अथवाऽस्तमयनेषु च । भेदधातः कर्णकला मुहर्तानां गतिर्रािन ॥१॥ व्याख्या—'पडिवत्तीओ उदए अदुवऽत्थमणेसु य' प्रतिपत्तय उदये अथवाऽस्तमयनेषु च द्वितीयप्राभृतस्य प्रथमेऽन्तरमाभृते सूर्यस्य उदये अथवा अस्तमयनेषु च सूर्यः कुत्रोदेति कुत्रास्त Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१ गा० १३-१५ द्वितीयप्राभृतरातान्तरप्राभृतविषयनि. १५ मेतीत्येवंरूपाः प्रतिपत्तयः परमतरूपाः प्रतिपादिताः सन्ति १। द्वितीयेऽन्तरप्राभृते 'भेयघाए कण्णकला' भेदधातः कर्णकला, तत्र भेदः-मण्डलस्यापान्तरालं, तत्र घातो-गमनम् 'हन हिंसागत्योः इतिवचनात्' स केषाश्चिन्मतेनात्र प्रतिपादनीयः, यथा विवक्षितमण्डलं सूर्यः पूरयित्वा तत्पश्चाद् अपरमनन्तरं मण्डलं संक्रामतीत्येवंरूपो भेदधातोऽत्र वर्णनविषयो वर्त्तते । तथा कर्णकलेति-कर्णः कोटिभागः अग्रभाग इत्यर्थः, तमधिकृत्यान्येषां मतेन कला वर्णनीयाः, यथा विवक्षितमण्डले द्वावपि सूर्यों प्रथमक्षणे प्रविष्टौ सन्तौ पूर्वापरस्थितं कोटिद्वयं लक्षीकृत्य बुद्धिद्वारा सम्पूर्णस्य यथावस्थितमण्डलस्य विवक्षितत्वादपरमण्डलस्य कर्णकोटिभाग संमुखीकृत्य एकैकया कलया मात्रयेत्यर्थः अपरमण्डलाभिमुखं गच्छन्तौ चारं चरतः, इत्येवंविषयोऽपि चात्र द्वितीयेऽन्तरप्राभृते वर्तत इति२ । तृतीयेऽन्तरप्राभृते च 'महत्ताणं गई इय' प्रतिमण्डलं मुहूर्तानां गतिरिति गतिपरिमाणं वर्णनीयमस्ति, इति-एवं पूर्वोक्ताः द्वितीयप्राभृतस्य त्रयाणां प्राभृतप्राभूतानां विषयाः कथिता इति ॥१३॥ सूर्यः कदा शीघ्रगतिर्भवति कदा मन्दगतिश्चेति प्रतिपादयिषुराह-'निक्खममाणे' इत्यादि । मूलम्-निक्खममाणे सिग्घगई, पविसंते मंदगई इय । चुलसीइसयं पुरिसाणं, तेसिं च पडिवत्तीओ ॥१४॥ छाया-निष्क्रामन् शीघ्रगतिः, प्रविशन् मन्दगतिरिति । चतुरशीतिशतं पुरुषाणां, तेषां च प्रतिपत्तयः ॥१४॥ व्याख्या-'निक्खममाणे' निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद् बहिर्दक्षिणाभिमुख निर्गच्छन् , उत्तरोत्तरमण्डलं संक्रामन् सूर्यः 'सिग्घगई' शीघ्रगतिः शीघ्रगतिमान् भवति । अस्मिन् समये उत्तरोत्तरं दिनप्रमाणस्य हानिः, रात्रिप्रमाणस्य च वृद्धिर्भवतीति भावः । तथा 'पविसंते' प्रविशन् सर्वबाह्यमण्डलादभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् सूर्यः 'मंदगई मन्दगतिः अन्तोऽन्तो मण्डलमागच्छन् उत्तरोत्तरं मन्दमन्दतरादिना मन्दगतिः मन्दगतिमान् भवति । अस्मिन् समये उत्तरोत्तरं दिनप्रमाणस्य वृद्धिः रात्रिप्रमाणस्य च हानिर्भवतीति भावः । तेसिं च तेषां च मण्डलानां 'चुलसीइसयं' चतुरशीतिशतं-चतुरशीत्यधिकं शतमेकं मण्डलानां वर्तते, सूर्यस्य तानि मण्डलानि चतुरशीत्यधिकशतसंख्यकानि सन्ति, तेषां च मण्डलानां विषये सूर्यस्य प्रतिमुहर्तगतिपरिमाणवक्तव्यतायां 'पुरिसाणं' पुरुषाणाम् अन्यतैर्थिक जनानां 'पडित्तीओ' प्रतिपत्तयः-मतान्तररूपाः सन्ति ॥१४॥ सम्प्रति द्वितीयमूलप्राभृतगतानां पूर्वोक्तानां त्रयाणां प्राभूतप्राभूतानां मध्ये कस्मिन् कस्मिन् प्राभृतप्राभृते कति कति प्रतिपत्तयः सन्तीति निरूपयन्नाह—'उदयमि' इत्यादि । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર चन्द्रप्रशतिसूत्रे मूलम् -- उदयम्मि अट्ठ भणिया, भेयग्धाए दुवे च पडिवत्ती । चत्तारि मुहुत्तगईए, होंति बिइयम्मि पडिवत्ती ॥१५॥ छाया - उदये अष्ट भणिताः, भेदघाते द्वे व प्रतिपत्ती । चतस्रः मुहूर्त्तगतौ, भवन्ति द्वितीये प्रतिपत्तयः ||१५|| - व्याख्या – 'उदयम्मि' उदये उदयशब्दोपलक्षिते प्रथमे प्राभृतप्राभृते 'अट्ठ' अष्टौ अष्टसंख्यका प्रतिपत्तयः 'भणिया' भणिताः कथिताः तीर्थकर गणधरैरिति गम्यते १, 'भेयम्घा ' भेदघाते भेदघातोपलक्षिते द्वितीये प्राभृतप्राभृते 'दुवे च' द्वे च द्विसंख्यके 'पडिवत्ती प्रतिपत्तीवर्तेते २, ‘चत्तारि' चतस्रः चतुःसंख्यकाः प्रतिपत्तयः, कुत्र ! 'मुहुत्तगईए' मुहूर्त्तगतौ 'मुहु'ताई' इतिशब्दोपलक्षिते तृतीये प्राभृतप्राभृते सन्ति ३ । इत्येवं द्वितीयप्राभृतस्य त्रिषु प्राभृतप्राभृतेषु सर्वाश्चतुर्दशसंख्यकाः प्रतिपत्तयो भवन्तीति ॥ १५ ॥ साम्प्रतं विंशतिमूलप्राभृतेषु मध्ये दशममूलप्राभृत गतद्वाविंशति संख्यकान्तरप्राभृतानामर्थाधिकारान् वर्णयितुं गाथाचतुष्टयमाह - 'आवलिया' इत्यादि । मूलम् – आवलिया १ मुहुत्तग्गे २ एवं भागो ३ य जोगस्स ४ । कुला ५ य पुण्णमासी ६ य, संनिवाए ७ य संठिई ८ ॥ १६ ॥ तारगं ९ च णेता इ १०, चंदमग्गत्ति ११ यावरे | देवाण य अज्झयणा १२, मुहुत्ताणं नामया १३ इय ॥१७॥ दिवसा राई यत्ता १४ य, तिहि-गोत्ता १६ भोयणाणि य १७ आइच्च चार १८ मासा १९ य, पंच संवच्छरा २० इय ॥ १८ ॥ जोइसस्स य दाराई, २१ नक्खत्तविस २२ इय । दस पाहुडे एए, बावीसं पाहुडपाहुडा ॥ १९ ॥ छाया - आवलिका १ मुहूर्त्तानं २ एवं भागाश्च ३ योगस्य ४ । कुलाश्च ५ पूर्णमासी ६ च, संनिपातश्च ७ संस्थितिः ८ ॥१६॥ तारा ९ च नेता १० इति चन्द्रमार्ग ११ इति चापरस्मिन् । देवानां च अध्ययनानि, १२ मुहूर्त्तानां नामकानि १३ इति च ॥ १७॥ दिवसा रात्रयश्च उक्ताश्च १४ तिथि: - १५ गोत्राणि १६ भोजनानि १७ च । आदित्यचारः १८ मासाश्च १९ संवत्सरा २० इति ॥१८॥ ज्योतिषश्च द्वाराणि, २१ नक्षत्रविषय २२ इति । दशमे प्राभृते एते, द्वाविंशतिः प्राभृतप्राभृतानि ॥१९॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१ गा०१६-१९ दशमप्राभृतगतान्तरप्रभृतविषयनि. १३ व्याख्या-दशमे मूलप्राभृते द्वाविंशतिसंख्यकानि प्राभृतप्राभृतानि सन्ति, तेषामर्थाधिकारान् दर्शयति-तत्र प्रथमे प्राभृतप्राभृते 'आवलिया' इति-आवलिकाक्रमो वर्णनीयो वर्तते, यथा-अभिजिदादीनि नक्षत्राणि भवन्तीति, अत्र पञ्च प्रतिपत्तयः सन्ति १, 'मुहुत्तग्गे' इति मुहूत्ताग्रम् नक्षत्रविषयकं मुहूर्त्तप्रमाणं द्वितीये प्राभृतप्राभृते वर्तते, अर्थात् चन्द्रेण सह नक्षत्राणां कतिमुहूर्तपर्यन्तं योगो भवति, तथा सूर्येण सह कति अहोरात्रिषु योगो भवतीति २, 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण भागा' इति भागाः पूर्वपश्चिमादिप्रकारेण तृतीये प्राभृतप्राभृते वक्तव्या इति ३, 'जोगस्स' योगस्य. चतुर्थे प्राभृतप्राभृते योगस्यादिवर्णनीयः, यथा वक्ष्यति च-"कहं ते जोगस्स आदी आहियत्ति वएज्जा" इति रूपः, इदमुक्तं भवति-युगस्यादौ चन्द्रेण सह प्रातः सायंकाले च नक्षत्रस्य योगो भवतीति कथनमत्र वर्तते ४, 'कुला य' कुलानि च पञ्चमे प्राभृते कुलानि, च-शब्दात् उपकुलानि कुलोपकुलानि चाधिकृत्य नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगो भवतीति वर्णनं विद्यते ५, 'पुण्णमासी य' पौर्णमासी च, षष्ठे प्राभृतप्राभृते पूर्णमासीवक्तव्यता, च-शब्दाद् अमावास्याया अपि वक्तव्यता विज्ञेया, पूर्णिमायां यस्य नक्षत्रस्य योगो भवति तन्नक्षत्रसत्कस्य कुलस्य कुलोपकुलस्य च वर्णनं वर्त्तते, एवममावास्यायामपि विज्ञेयम् । एकस्मिन् युगे द्वाषष्टि६२ संख्यकाः : पौर्णमास्यः, द्वाषष्टिसंक्ष्यका एवामावास्या इति सर्वाः संमिलिताः चतुर्विशत्यधिकशत(१२४)संख्यकाः पर्वाणि कथ्यन्ते, इयत्परिमितानामेव नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगो भवतीति ६, 'संनिवाए य' संनिपातश्च, संनिपातः संयोग इति, यस्यां पूर्णिमायां यस्य नक्षत्रस्य चन्द्रेण सह योगो भवति तस्यैव नक्षत्रस्य अमावास्यायां कस्मिन् मासे चन्द्रेण सह योगो भवतीति सप्तमे प्राभृतप्राभृते विद्यते ७, 'संठिई' संस्थितिः, अष्टमे प्राभृतप्राभृते अष्टाविंशतिनक्षत्राणां संस्थानकथनं वर्तते ८, ॥ १६ ॥ 'तारग्ग च' ताराग्रं च, नवमे :प्राभृतप्राभृते अष्टाविंशतिनक्षत्राणां तारापरिमाणं, कस्य नक्षत्रस्य कति ताराः ? इति वर्णयिष्यते ९, 'णेता इ' नेता इति, दशमे प्राभृतप्राभृते 'नेता' इति नायकः रात्रेरधिष्ठायकः' यन्नक्षत्रं यस्मिन् मासे स्वस्योदयेन अस्तमयनेन चाहोरात्रस्य समाप्ति नयति, तथा यन्नक्षत्रमाश्रित्य यस्यां तिथौ रात्रेः पौरुषीभागः क्रियते तस्य वर्णनमत्र वर्तते १०, 'चंदमग्गत्ति यावरे' चन्द्रमार्ग इति चापरस्मिन् , अपरस्मिंश्चअन्यस्मिन् एकादशे प्राभृतप्राभृते, इत्यर्थः चन्द्रमार्ग इति चन्द्रमार्गस्य उपलक्षणात् सूर्यमार्गस्य च नक्षत्राणि समधिकृत्य कथनं वर्त्तते, यथा चन्द्रमण्डलस्य कानि कानि नक्षत्राणि दक्षिणोत्तरभागेन योगं योजयन्तीति, चन्द्रस्य यस्मिन् मण्डले नक्षत्रमण्डलानि संक्रामन्ति यस्मिश्च न संक्रामन्ति, इति, सूर्यचन्द्रमण्डलेषु नक्षत्राणां मण्डलानि संक्रामन्ति इति, सूर्यचन्द्रयोर्विकम्पनक्षेत्रं चेत्यादि Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे वर्णनमस्ति ११, 'देवाणं अज्झयणा' देवानामध्ययनानि, द्वादशे प्राभृतप्राभृते देवानां नक्षत्राधिष्ठ'यकदेवानाम् अध्ययनानि - अधीयन्ते ज्ञायन्ते एभिरिति व्युत्पस्या अध्ययनानि अभिधेयानि नामानि वर्णनीयत्वेन सन्ति १२, मुहुत्ताणं नामया इय' मुहूर्त्तानां नामकानीति च त्रयोदशे प्राभृतप्राभृते एकाहोरात्रसम्बन्धिनां त्रिंशन्मुहूर्त्तानां किं किं नामेति वर्णनम् १३ || १७ || 'दिवसा राई वृत्ता य' दिवसा रात्रयश्च उक्ताश्च चतुर्दशे प्राभृतप्राभृते एकस्य पक्षस्य दिवसानां रात्रीणां च प्रकरणात् नामानि उक्तानीति १४, 'तिही' तिथयः, पञ्चदशे प्राभृतप्राभृते 'तिहि' - इति पञ्चदशतिथीनां नामान्युक्तानि १५, 'गोत्ता' गोत्राणि, षोडशे प्राभृतप्राभृते 'गोत्ता' इति - अष्टाविंशतिनक्षत्राणां गोत्राणि प्रोक्तानि १६, ' भोयणाणि य' भोजनानि च सप्तदशे प्राभृतप्राभृते 'भोयणाणि' इति - अष्टाविंशतिनक्षत्राणां भोजनान्युक्तानि यथा - अमुकस्मिन् नक्षत्रे अमुक वस्तु भुक्त्वा गमनं शुभाय भवतीति १७, 'आइच्चचार' आदित्यचारः अष्टादशे प्राभृतप्राभृते आदित्यस्य सूर्यस्य, उपलक्षणात् चन्द्रस्य च चारः - चरणं संचरणलक्षणं कथितम् १८, 'मासा य' मासाश्च - एकोनविंशतितमे प्राभृतप्राभृते एकस्य संवत्सरस्य कति मासाः तेषां च कानि लौकिकनामानि कानि च लोकोत्तरनामानीति कथनम् १९, पंच संवच्छरा इय' पञ्च संवत्सरा इति । पञ्च संवत्सरा इति पञ्चेति पञ्चसंख्यकाः - नक्षत्र - युग - प्रमाण - लक्षण - शनैश्चरसंज्ञकाः संवत्सराः, तेषां वक्तव्यताऽत्र विंशतितमे प्राभृतप्राभृते वर्त्तते २० ॥ १८॥ ' जोइ - सस्स य दाराई, ज्योतिषश्च द्वाराणि - एकविंशतितमे प्राभृतप्राभृते- ज्योतिषः - नक्षत्रचक्रस्य द्वाराणि वाच्यानि यथा - अष्टाविंशतिनक्षत्राणि पूर्वपश्चिमादिप्रकारेण किंकिंद्वाराणि - कस्य नक्षत्रस्य किं द्वारमिति वर्णनम्, अत्र पश्च प्रतिपत्तयः सन्ति २१, 'नखत्तविसए इय' नक्षत्रविषय इति - द्वाविं शतितमे प्राभृतप्राभृते नक्षत्राणाम् उपलक्षणात् चन्द्रसूर्ययोगादीनां च - विषयः - निर्णयोऽत्र वक्तव्यत्वेन वर्त्तते २२ । 'दसमे पाहुडे' दशमे मूलप्राभृते 'एए' एते पूर्वप्रदर्शिताः 'बावीसं' द्वाविंशतिः द्वाविं शतिसंख्यकाः ‘पाहुडपाहुडा' प्राभृतप्राभृतानि सन्तीति । इदमुक्तं भवति - प्रथमप्राभृतादारभ्य दशमप्राभृतपर्यन्तम् (२९-१४-१२-३२-२०- २५-२०-३-१२६-१०) एकनवत्यधिकशतद्वय (२९१) परिमिताः प्रतिपत्तयः सन्ति । तदग्रे एकादशप्राभृतादारभ्य षोडशप्राभृतपर्यन्तं प्रतिपत्तयो न सन्ति । पुनः सप्तदशाद् विंशतिपर्यन्तं चतुर्षु प्राभृतेषु क्रमशः पञ्चविंशति-पञ्चविंशतिद्वादशचतुःसंख्यकप्रतिपतिसंमेलनेन सर्वाः षट्षष्टिः (६६) प्रतिपत्तयः सन्ति । एवं सर्वेषु विंशतिसंख्यकेषु प्राभृतेषु सर्वाः प्रतिपत्तयो मिलित्वा सप्तपञ्चादशदधिकशतत्रय (३५७) संख्यका भवन्तीति कोष्टके प्रदर्शितम् अत्र तृतीयमूलप्राभृतादारभ्य नवममूलप्राभृतपर्यन्तं, तथा एकादशादारभ्य विंशतितममूलप्राभृतपर्यन्तं च प्राभृतप्राभृतानि न सन्तीति ॥१९॥ १४ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका प्रा० १ सू० १ ५ ६ मूलप्राभृतक्रमाङ्काः संख्या १ २ ३ ४ ७ ८ ९ १० मूलप्राभृतान्तरप्राभृत- प्रतिपत्तीनां काष्टकमिदम् — अन्तरप्राभृत ८ ३ ० ० ० ० ० ० ० २२ प्रतिपत्ति संख्या २९ १४ १२ ३२ २० २५ २० ३ १२६ १० मुहूर्त्तवृद्धयपवृद्धिनिरूपणम् १५ मूलप्राभृत- अन्तरप्राभृत- प्रतिपत्ति क्रमाङ्काः संख्या संख्या ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० ० ० o ० ० ० ० 0 ० • ० O ० O ० ० २५ २५ १२ ४ पूर्वं मूलप्राभृतान्तरप्राभृत-तदन्तर्गतप्रतिपत्तिसंख्या, तदधिकाराश्चाभिहिताः । साम्प्रतं प्रथमप्राभृतस्य प्रथमेऽन्तरप्राभृते यदुक्तम् 'बुड़ढो - बुड्ढी मुहुत्ताणं' इति तदेव विवेचयितुं प्रथमं सूत्रमाह 'तेणं कालेणं' इत्यादि । मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समरणं मिहिला णामं णयरी होत्या, वण्णओ । ती से णं मिहिलाए णयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए एत्थ णं मणिभद्दे णामं चेइए होत्था चिराईए वण्णओ । तीसे णं मिहिलाए णयरीए जियसत्तणामं राया, धारणी देवी, क्ण्णओ। ते काणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया जाव राया जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए । तेणं कालेणं तेणं समरणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे गोयमगोत्ते सत्तुस्सेहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी - ता कहं ते मुहुत्ताणं वुड्ढोबुड्ढी य आहिएत्ति वएज्जा 'गोयमा'! ता अट्ठ एगूणवीसे मुहुत्तसयाई सत्तावीसं च सत्तसद्विभागा मुहुत्तस्स आहिएत्ति एज्जा | सू० १ ॥ छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये मिथिलानाम नगरी आसीत्, वर्णकः । तस्याः खलु मिथिलाया नगर्या बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे, अत्र खलु मणिभद्र नाम चैत्यमासीत् चिरातीतं वर्णकः । तस्यां खलु मिथिलायां नगर्यां जितशत्रुर्नाम राजा, धारणी देवी वर्णकः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः परिषत् निर्गता, धर्मः कथितः परिषत् प्रतिगता यावत् राजा यामेव दिशं (आश्रित्य ) प्रादुर्भूतः तामेव Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे दिश प्रतिगतः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमगस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी इन्द्रभतिर्नाम अनगारः गौतमगोत्रः सप्तोत्सेधः यावत् पर्यपासीनः एवमवादीत्तावत् कथं ते मुहूर्तानां वृद्धद्यपवृद्धी च आख्याते इति वदेत् , गौतम ! तावत् अष्टौ एकोनविंशतिः मुहूतशतानि, सप्तविंशतिश्च सप्तषष्टिभागाः मुहूर्तस्य आख्याता इति वदेत् ॥ सू० १॥ व्याख्या-'तेणं कालेणं' तस्मिन् काले भगवद्विहरणकाले 'तेणं समएणं' तस्मिन् समये हीयमानलक्षणे चतुर्थारकरूपे 'मिहिला णाम णयरी होत्था' मिथिला नाम नगर्यासीत् । सा तदा कीदृशी आसीत् ! इत्याह-'वण्णओ' वर्णकः वर्णनप्रकार,: तस्या नगर्या अत्र वर्णनं वक्तव्यम्, तच्च वर्णनम् औषपातिकसूत्रोक्तचम्पानगरीवत् 'ऋद्धस्थिमियसमिद्धा' इत्यादिनगरीवर्णनं सर्वमत्र वाच्यम्। 'तीसेणं' तस्याः खलु 'मिहिलाए णयरीए' मिथिलाया नगर्या बहिया' बहिः बहिर्भागे 'उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए' उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे उत्तरपूर्वयोरन्तराले ईशानकोणे इत्यर्थः 'एत्थ णं' अत्र खलु अत्रैव नान्यत्र 'मणिभद्दे णामं चेइए' मणिभद्रं नाम चैत्यं यक्षायतनम् 'होत्था' आसीत् , कीदृग् ? इत्याह-'चिराईए' चिरातीतम् अत्यन्तातीतकालिकम् अतिपुरातनम् 'वण्णओ' वर्णकः, अस्यापि वर्णनम् औपपातिकसूत्रोक्तपूर्णभद्रचैत्यवद्विज्ञेयम् । 'तीसे णं मिहिलाए णयरीए' तस्यां खलु मिथिलायां नगर्याम् 'जियसत्तू णामं राया' जितशत्रुर्नाम राजा, 'धारणी देवी' धारणी देवी-धारणीनाम्नी पट्टराज्ञी आसीत् । 'वण्णो ' वर्णकः वर्णनमत्र वक्तव्यमिति । राजराज्ञी वर्णनमत्रौपपातिकसूत्रोक्तो वाच्यः । 'तेणं कालेणं' तस्मिन् काले जितशत्रुशासनकाले 'तेणं समएणं' तस्मिन् समये तदुपलक्षितवर्तमानसमये 'सामी' स्वामी श्रीमहावीरः 'समोसढे' समवसृतः सुखसुखेन विहरन् प्रामानुग्रामं द्रवन् यथारूपमवग्रहमवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् तस्मिन् मणिभद्रे चैत्ये समागतः । 'परिसा णिग्गया' परिषन्निर्गता, भगवदागमनं श्रुत्वा मिथिलानगरीतो जनसमूहो भगवद्वन्दनार्थ तद्देशनाश्रव. णार्थ च निर्गत-इत्यर्थः । 'धम्मो कहिओ' धर्मः कथितः अगारानगाररूपः श्रुतचारित्ररूपश्च धर्मों भगवता प्रतिपादितः, अत्रापि औपपातिकसूत्रोक्ता 'अस्थि लोए अस्थि अलोए'तथा 'जह जीवा वच्चंति' इत्यादिरूपा सर्वा धर्मदेशनाऽत्र वक्तव्या । 'परिसा पडिगया' परिषत् प्रतिगता, धर्मदेशनां श्रुत्वा परिषद् यस्या दिशाया प्रादुर्भूता तस्यामेव दिशायां प्रतिगता-गतवती । 'जाव राया जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए' यावत् राजा यामेव दिशमाश्रित्य प्रादुर्भूतः ता मेव दिशं प्रतिगतः, जितशत्रुराजाऽपि भगवतोऽन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टः प्रीतिमना हर्षवशविसर्पहृदयः श्रमणं भगवन्तं महावीरं प्रश्नानि पृष्ट्वा अर्थान् गृहीत्वा श्रमणं भगवन्तं महावीर वन्दित्वा नमस्यित्वा मणिभद्राच्चैत्यात् प्रतिनिष्क्रम्य यामेव दिशमाश्रित्य प्रादुर्भूतः समागतः तामेव Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-१ सू०१ सूर्यादिमासाऽहोरात्रवृतिहानिनि० १७ दिशं प्रतिगतः । तेण कालेणं' तस्मिन् काले परिषत्प्रतिगमनानन्तरं 'तेणं समएणं' तस्मिन् समये परिषद्गमनानन्तरं तदुपलक्षितसमये 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'जेहे अंतेवासी' ज्येष्ठोऽन्तेवासी प्रधानशिष्यः, अनेन गौतमस्य प्रथमागमनं सकलसंघाधिपतित्वं च सूच्यते। 'इंदभूई णामं अणगारे'। इन्द्रभूतिर्नाम-इन्द्रभूतिनामकः अनगारः बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहवर्जित', 'गोयमगोत्ते' गौतमगोत्र:-गोत्रेण गौतमः गौतमगोत्रोत्पन्न इत्यर्थः, किं विशिष्टः ? इत्याह- 'सत्तुस्सेहे' सप्तोत्सेधः सप्तहस्तोच्छ्रेययुक्तशरीरधारौ 'जाव' यावत्, अत्र याव त्पदेन 'समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहनारायसंघयणे' इत्यारभ्य 'मुस्यसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं' इत्यादि संग्राह्यम्, तद्वयाख्यानं च श्रीभगवतीसूत्रस्य प्रथमशतकेऽस्मत्कृतायां प्रमेयचन्द्रिकाटीकायां विलोकनीयम् । 'पज्जुवासमाणे' पर्युपासीनः मनोवाकायरूपया त्रिविधया पर्युपासनया सेवां कुर्वन् ‘एवं वयासी' एवमवादीत्-एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-कथितवान् । किं कथितवान् ? इत्याह-'ता कहं ते' इत्यादि । 'ता कहं ते' तावत् कथं ते तावत् प्रथमम् सन्त्यप्यन्येऽस्यां चन्द्रप्रज्ञप्त्यां बहवो विषया प्रष्टव्यत्वेन, किन्तु आसतां ते, साम्प्रतं पूर्वं त्वेतावदेव पृच्छामि यत्-हे भगवन् ते-तव मते तव ज्ञानविषये कथं केन प्रकारेण 'मुहुत्ताणं' मुहूर्त्तानाम् नक्षत्रसूर्यचन्द्रऋतुमाससम्बन्धिनाम् अहोरात्रविषयाणां 'वुड्ढोवुइढी य' वृद्धयवृद्धी च चकारोऽत्र पृथक्पदापेक्षया, तेन वृद्धिरपवृद्धिश्चति ज्ञातव्यम् । वृद्धिः दिवसरात्रिगतमुहूर्तानां वर्धनम् , अपवृद्धिः-तेषामेव हानिश्च 'आहिएत्ति' आख्याते-कथिते इति 'वएज्जा' वदेत् एतद्विषयं यदि कोऽपि मां पृच्छेत् तदाऽहं किमुत्तरं ददामीति हे भगवन् ! कृपया भवान् घदतु कथयतु । एवमग्रेऽपि विज्ञेयम् । भगवानाह-हे गौतम ! 'ता' तावत् प्रथमम् यथा त्वया यत् प्रथमं पृष्टं तदेव तदुत्तरमाश्रित्य प्रथमं कथयामि, तथाहि-'अह एगूणवीसं मुहुत्तसवाई' अष्टौ एकोनविंशतिर्मुहूर्तशतानि, एकस्य नक्षत्रमासस्य एकोनविंशत्यधिकान्यष्टशतानि(८१९) मुहूर्तानाम्, तथा 'मुहुत्तस्स' मुहूर्तस्य एकस्य च मुहूर्तस्य 'सत्तावीसं च' सप्तविंशतिश्च 'सत्तसहिभागा' सप्तषष्टिभागाः, एकस्य मुहूर्तस्य यदि सप्तषष्टि गाः क्रियन्ते तेषु सप्तविंशतिभांगा गृह्यन्ते (८१९२७) एतावन्मुहूर्तपरिमितो नक्षत्रमासो भवतीति 'आहिए त्ति'आख्यातम् इति 'वएज्जा' वदेत् एवं पृच्छकस्य कथ्यतामिति । एतदेव स्पष्टयति-इह चन्द्र-चन्द्रा-ऽभिवर्द्धित-चन्द्राऽभिवद्धितरूपपञ्चसंवत्सरात्मके युगे सप्तषष्टिनक्षत्रमासा (६७) भवन्ति, अहोरात्ररूपाणि दिनानि च त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) भवन्ति, एतेषां सप्तषष्टिसंख्यकनक्षत्रमासैर्भागे हृते लब्धानि सप्तविंशतिरहोरात्राणि (२७) शेषा तिष्ठत्येकविंशतिः । सा मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुणने जातानि त्रिंशदधिकानि षट् शतानि ६३०। एतेषां सप्तषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धा नव९ मुहूर्ताः, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे शेषा सप्तविंशतिरवतिष्ठते २७, आगतोऽयं नक्षत्रमासः सप्तविंशतिरहोरात्रा नव मुहूर्ताः, एकस्य मुहूर्तस्य च सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २७-९२० । तत्र सप्तविंशत्यहोरात्रा मुहूर्त्तानयनार्थम् एकस्याहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्त्ता भवन्तीति त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि दशोत्तराणि अष्टौ शतानि ८१० तेषां मध्ये उपरिप्रदर्शितनवमुहूर्त्तप्रक्षेपणेन जातानि पूर्वप्रदर्शितानि एकोनविंशत्यधिकाष्टशतानि ८१९ । आगतमेतत् नक्षत्रमासस्य मुहूर्तपरिमाणम्-एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि एकस्य मुहूर्तस्य च सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः ८१९-२० इति । अस्योपलक्षणत्वादेव सूर्यादिमासानामप्यहोरात्रसंख्यां परिभाव्य मुहूर्तपरिमाणं यथासूत्रं परिभावनीयम् । तदपि प्रद य॑ते-सूर्यमासस्य पञ्चदशोत्तरनवशतानि ९१५ मुहूर्तानां भवन्ति, तथाहि-एकस्मिन् युगे सूर्यमासाः षष्ठिर्भवन्ति ६०, अहोरात्राणि च त्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि १८३० । एतेषां सूर्यमासरूपया षष्टया भागो हियते तदा लब्धाः त्रिंशदहोरात्राः, शेषं षष्टया अर्धे त्रिंशदवतिष्ठते, तच्चाहोरात्रस्याधं भवति, एतावत् सार्ध त्रिंशदहोरात्रं (३०॥) सूर्यमासपरिमाणमायातम् । त्रिंशन्मुहूर्त्तश्चाहोरात्रो भवतीति सार्वत्रिंशत् त्रिंशता गुणने कृते जातानि मुहूर्तानां नव शतानि अर्ध चाहोरात्रस्य पश्चदश मुहूर्तास्तत आयातं पूर्वप्रदर्शितं सूर्यमासस्य मुहूर्तानां परिमाणम् पश्चदशोचराणि नव शतानीति ९१५ । अथ चन्द्रमासमुहूर्तपरिमाणं प्रदर्श्यते-एकस्मिन् युगे चन्द्रमासा द्वाषष्टिर्भवन्ति, त्रिंशदुत्तराष्टादशशतानि १८३० चाहोरात्रा भवन्ति । एतेषामहोरात्राणां १८३० चन्द्रमाससंख्यारूपया द्वाषष्ट्या भागे हृते लब्धानि एकोनत्रिंशदहोरात्राः एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः २९३२ अथवा-साधैकोनत्रिंशदहोरात्राणि-एकश्च-द्वाषष्टिभागः२९॥-एते द्वात्रिशद् द्वाषष्टिभागा मुहू नयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते तेन जातानि षष्टयुत्तराणि-नव शतानि ९६० । एतेषां द्वाषष्टया भागे हृते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः, शेषाश्च त्रिंशत् ३० । एकोनत्रिंशत् २९ अहोरा. त्राश्च मुहूर्त्तानयनाथ त्रिशता गुण्यन्ते ततो जातानि सप्तत्युत्तराणि अष्टौ शतानि ८७०, ततः पूर्वप्रदर्शितानां पञ्चदशमुहूर्तानामेषु प्रक्षेपणे समागतं चन्द्रमासे मुहूर्तपरिमाणम् पञ्चाशीत्युत्तराणि अष्टौ शतानि, एकस्य मुहूर्तस्य च त्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः ८८५-३० इति । अथ ऋतुमासमुहूर्तपरिमाणं प्रदर्श्यते---एकस्मिन् युगे त्रिंशद् ऋतवो भवन्ति । ऋतुमासश्च त्रिंशदहोरात्रपरिमितो भवति । अस्य नव शतानि मुहूर्तानां भवन्ति ९००, तथाहि-युगस्याहोरात्रा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-१सू०२बाह्याभ्यन्तरमण्डलसंचारे रात्रिन्दिवप्रमाणनि० १९ त्रिंशदुत्तराष्टादशशतानि १८३० भवन्ति । अस्याः १८३० संख्यायास्त्रिंशता भागे हते एकस्या ऋतोः षष्टिरहोरात्रा भवन्ति ६० । एषां मुहूर्तानयनार्थ त्रिशता गुणने जातानि अष्टादश शतानि १८०० । एकस्या ऋतोद्वो मासौ भवतोऽतोऽष्टादशशतानि द्वाभ्यां विभज्यन्ते ततो जातानि एकस्य ऋतुमासस्य नव शतानि (९००) परिपूर्णानि मुहूर्तानामिति ॥ एतत्सुखावबोधार्थ यन्त्रं प्रदाते । युगमासाः | १ मासस्याहोरात्राः । १ मासस्य मुहूर्ताः नक्षत्रमास २७ दि. ९ मु. २७ ८१९ २७ माश्रित्य, सूर्यमासमश्रित्य | ३० दि. १५ मु. ( ३०॥) चन्द्रमास २९ दि. ३२ माश्रित्य, ८८५-३० अथवा२९दि.१५मु.२९॥-१ | ६२ मासनाम ६७ ६७ ६२ ऋतुमासमाश्रित्य ३० ६७ अथ युगमासानयनविधिः-पञ्चसंवत्सरात्मकस्य युगस्य त्रिंशदुत्तराष्टादशशत-१८३०संख्यका अहोरात्रा भवन्ति, ते च यस्याः संख्याया नक्षत्रादिमासस्याहोरात्रैर्गुणने त्रिंशदुत्तराष्टादशशत१८३० संख्या पूर्यते, ते एव नक्षत्रादिमासमाश्रित्य युगमासा भवन्ति, तथाहिनक्षत्रमासस्याहोरात्राः सप्रविंशतिर्नवमुहूत्र्तयुक्ता (अहो०२७ मु. ९)तथा सप्तविंशतिः सप्तषष्टि - भागाः, इयं संख्या सप्तषष्ट्या गुण्यते तदा जायन्ते युगदिनानि पूर्वोक्तानि त्रिंशदुत्तराष्टादशशतसंख्यकानि १८३०, ततो नक्षत्रमासमाश्रित्य जाता युगमासाः सप्तषष्टिः ६७ । एवं सूर्यादिमासविषयेऽपि विज्ञेयम् , तच्चोपरितनकोष्ठ के प्रदर्शितं ततोऽवसेयम् । तदेवं माससम्बधिनं मुहूर्तपरिमाणं प्रदर्शितम् , एतदनुसारेण चन्द्रादिसंवत्सरसम्बन्धिनं युगसम्बन्धिनं च मुहूर्तपरिमाणं स्वयमूहनीयमिति ॥ सू० १ ॥ पूर्व मुहूर्तपरिमाणं प्रदर्शितम् , साम्प्रतं प्रत्ययनं या दिवसरात्रिविषया मुहूर्तानां वृद्धिरपवृद्धिश्च भवति तां प्रदर्शयितुमाह-'ता जया गं' इत्यादि । मूलम्-ता जया णं ते मूरिए सव्वन्भंतराओ मंडलाओ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, सव्वबाहिराओ मंडलाओ सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे एसा णं अद्धा केवइणं राईदियग्गेणं आहिएत्ति वएज्जा ? ता तिष्णि छावट्ठे राईदियसयाई राईदियग्गेणं आहिएत्ति वएज्जा ।। सू० २ ॥ २० छाया -- तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलात् सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, सर्वबाह्यात् मण्डलात् सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति एषा खलु अद्धा कियता रात्रिंदिवाग्रेण आख्यातेति वदेत् । तावत् त्रीणि षट्षष्टिः रात्रिन्दिवशतानि रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यातेति वदेत् ॥ सू० २ ॥ - व्याख्या – 'ता' तावत् तावच्छब्दार्थः पूर्ववदेव सर्वत्र भावनीयः, यत् - अन्येषु प्रष्टव्यविषयेषु सत्स्वपि प्रथमं सूर्यचारादिविषयं पृच्छामीति गौतमवाक्यम्, हे भगवन्, 'जया णं' यदा खलु यस्मिन् काले 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वभंतराओ मंडलाओ' सर्वाभ्यन्तरात् सर्वेषां मण्डलानां मध्ये यद् आभ्यन्तरं मण्डलं नहि तदग्रे आभ्यन्तरत्वं मण्डलानाम्, तस्मात् निस्सृत्येतिशेषः 'सव्ववाहिरं मंडल' सर्वबाह्यं मण्डलं, सर्वेषां मण्डलानां मध्ये यद् बाह्यं मण्डलं, नहि तद मण्डलानां बाह्यत्वम्, बाह्यत्वेन सर्वान्तिमं मण्डलं 'संकमित्ता' उपसंक्रम्य - आक्रम्यतत्रागत्येत्यर्थः 'चारं चरइ' चारं चरति - गतिं करोति, तथा यदा च 'सव्वबाहिराओ मंडलाओ' सर्वबाह्यात् मण्डलात् प्रतिक्रम्य प्रतिनिवर्त्य 'सव्वन्तरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति तदा 'एसा णं' एषा खलु 'अद्धा' - एषः कालः सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निस्सृत्य सूर्यः सर्वबाह्यमण्डले गत्वा पुनस्तत्रैव सर्वाभ्यन्तरमण्डले समागच्छति, एतद्विषय कोऽन्तरकालः 'केवइएणं राईदियग्गेणं' कियता रात्रिन्दिवाग्रेण कतिसंख्यकेनाहोरात्रप्रमाणेन 'आहिए' आख्यतः - कथितः पूर्वतीर्थकरगणधरैः ? 'त्ति' इति 'वएज्जा' वदेत् कथयतु भवान् इति गौतमप्रश्नः । भगवानाह - हे गौतम ! 'ता' तावत् प्रथमं शृणु, यत् यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निस्सृत्य सर्व बाह्यमण्डलं प्राप्य चारं चरति, एवं सर्वबामण्डलात्प्रतिनिवर्त्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलमभिव्याप्य चारं चरति, एतद्विषयकोऽन्तरकालः 'तिण्णि छावट्ठी राईदियसयाई' त्रीणि षट्षष्टिः रात्रिन्दिवशतानि षट्षष्टयुत्तरत्रिशताहोरात्राणि ( ३६६ ) 'आहिएत्ति' आख्यातः इयद्दिवसप्रमाणोपेतः सूर्यसंवत्सरः कथित इति 'वएज्जा' वदेत् स्वशिष्यादिभ्य इति ॥ सू० २ ॥ पुनः प्रश्नयति - ' ता एयाए णं' इत्यादि । मूलम् – ता एयाए णं अद्धाए सूरिए कई मंडलाई चरइ ? कई मंडलाई दुक्खुत्तो चरइ ? कइ मंडलाई एगखुत्तो चरइ ? । ता चुलसीई मंडलसयं चरइ, बेयासी ई च मंडलसयं दुक्खुत्तो चरइ, तं जहा - निक्खममाणे चेव पविसमाणे चेव । दुवे य खलु मंडलाई एगक्खुत्तो चरइ, तं जहा - सव्वन्तरं चेव मंडलं, सव्वबाहिरं चेव मंडल ॥ सु०३ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०१-२०३-४ सूर्यसंचारमण्डलसंख्या- दिनरात्रिमाननि०२१ छाया -- तावत् पतया खलु अड्या सूर्यः कति मण्डलानि चरति ? कति मण्डलानि द्विः कृत्वश्वरति ? कति मण्डलानि एककृत्वश्वरति ? । तावत् चतुरशीतिर्मण्डलशतं चरति, द्वघशीतं च मण्डलशतं द्विः कृत्वश्चरति, तद्यथा - निष्क्रामन् चैव प्रविशन् चैव । द्वे च खलु मण्डले एककृत्वश्चरति, तद्यथा - सर्वाभ्यन्तरं चैव मण्डलं, सर्वबाह्यं चैव मण्डलम् ॥ सू० ३ ॥ व्याख्या -- 'ता' तावत् प्रथमम् 'एयाए' एतया - 'सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्वबाह्यमण्डले गत्वा पुनस्ततो निवर्त्य सर्वाभ्यन्तरमण्डले समागच्छति एतद्रूपया 'अद्धार' अद्धया - कालेन 'रिए' सूर्यः 'कई मंडलाई' कति मण्डलानि कतिसंख्यकानि मण्डलानि 'चरइ' चरति-भ्रमण - विषयीकरोति ? तेषु पुनः 'कई मंडलाई' कति मण्डलानि 'दुक्खुत्तो' द्विः कृत्वः - द्विवारं 'चरई ' चरति ? तथा ' कइ मंडलाई' कति मण्डलानि 'एगखुत्तो' एककृत्वः - एकवारं 'चरई' चरति ? भगवान् नाद - हे गौतम ! 'ता' इति इति तावत् 'चुलसी६' चतुरशीतिः 'मण्डलसयं' मण्डलशतं च चतुरशीत्यधिकं शतमेकं १८४ मण्डलानां 'चरई' चरति भ्रमणविषयीकरोति ततोऽधिकस्य सूर्यसम्बन्धिमण्डलस्याऽसद्भावात् । तथा 'बेयासीई' द्वयशीतिः 'मंडलसयं' मण्डलशतं च द्वयशीत्यधिकं शतमेकं १८२ मण्डलानां 'दुक्खुत्तो' द्विः कृत्वः द्विवारं 'चरइ' चरति 'तं जहा ' तद्यथा - 'णिक्खममाणे चेव पविसमाणे चेव' निष्क्रामन् चैव सर्वाभ्यन्तर मण्डलाद्वहिर्निर प्रविशन् चैव सर्वबाह्य मण्डलात्सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रापयंश्चेति द्विवारं चरतीति । 'दुबे य खलु मंडलाई ' द्वे च खलु मण्डले सर्वाभ्यन्तर सर्व बाह्यरूपे ' एगक्खुत्तो' एकवारं एकैकवारम् 'चरइ' चरति - 'तं जहा ' तद्यथा - 'सम्वन्तरं चैव मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं चैव मण्डलम् तथा 'सव्वबाहिरं चैव मंडलं' सर्वबाह्यं चैव मण्डलम् एकवारं सर्वाभ्यन्तरमण्डलम्, एकवारं च सर्वबाह्यमण्डलमिति भावः ॥ सू० ३॥ अथादित्य संवत्सरस्य दिवसरात्रिमुहूर्त्तविषये प्रश्नयति - ' जइ खलु' इत्यादि । मूलम् - जइ खलु तस्सेव आइच्चसंबच्छरस्स सईं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सई अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, सई दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सई दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से पढमे छम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई, नत्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे, अस्थि दुवासमुहुत्ते दिवसे, नत्थि दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । दोच्चे छम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे, णत्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई, अस्थि दुवालसमुहुत्ता राई, णत्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । पढमे वा छम्मासे दोच्चे वा छम्मासे णत्थि पणरसमुहुत्ते दिवसे भवइ णत्थि पणरसमुहुत्ता राई भवइ तत्थ को उत्ति एज्जा ? || सू० (४) १ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे छाया–यदि खलु तस्यैव आदित्यसंवत्सरस्य सकृद् अष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, सकृद् अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सकृद् द्वादशमुहतों दिवसो भवति, सकृद् द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । अथ प्रथमे षण्मासे अस्ति अष्टादशमुहर्ता रात्रिः, नास्ति अष्टादशमुहूत्तों दिवसः, अस्ति द्वादशमुहूर्तो दिवसः, नास्ति द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । द्वितीये षण्मासे अस्ति अष्टादशमुहर्तो दिवसः नास्ति अष्टादशमहर्ता रात्रिः, अस्ति द्वाद. शमुहुर्ता रात्रिः, नास्ति द्वादशमुहुर्ती दिवसो भवति । प्रथमे वा षण्मासे द्वितीये वा षण्मासे नास्ति पञ्चदशमुहत्तॊ दिवसो भवति. नास्ति पञ्चदशमुहुर्ता रात्रिर्भवति तत्र को हेतुरिति वदेत् ? ॥ सू० ४(१)॥ व्याख्या-'जइ खलु' यदि खलु सूर्यस्य सामान्यतया परिभ्रमणस्य चतुरशीत्यधिकैकशतसंख्यकानि सर्वाणि मण्डलानि(१८४)सन्ति, तत्र षट्पष्टयधिकशतत्रय(३६६)रात्रिन्दिवपरिमितायामद्धायां मध्यगतानि द्वयीत्यधिकैकशत(१८२)मण्डलानि द्विःकृत्वश्चरति; प्रथमान्तिममण्डलयोश्चैकैकवारं चरतीत्येवं भगवता प्ररूपितम् 'तस्सेव' तस्यैव षट्पष्टयधिकशतत्रयरात्रिन्दिवपरिमाणस्य (३६६) 'आइच्चसंवच्छरस्स' आदित्यसंवत्सरस्य 'सई' सकृत् एकवारम् 'अट्ठारसमुहुत्ते' अष्टादशमुहूर्तः अष्टादशमुहूर्तपरिमितः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति, तथा 'सई सकृत् एकवारम् 'अट्ठारसमुहुत्ता' अष्टादशमुहूर्ता अष्टादशमुहूर्तपरिमिता 'राई भवई' रात्रिर्भवति पुनश्च ‘सई सकृत् एकवारं 'दुवालसमुहुत्तो' द्वादशमुहूर्तः द्वादशमुहूर्तपरिमितः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति, तथा 'सई' सकृत्-एकवारं 'दुवालसमुहुत्ता' द्वादशमुहूर्ता द्वादशमुहूर्तपरिमिता 'राई भवइ' रात्रिर्भवति 'से' अथ तत्रापि 'पढमे छम्मासे' प्रथमे षण्मासे यदा सूर्यः चतुरशी. त्यधिकशततमरूपेऽन्तिमे सर्वबाह्यमण्डले चरति तद्रपे प्रथमे षण्मासे इत्यर्थः 'अस्थि' अस्ति 'अट्ठारसमुहुत्ता राई' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिः, किन्तु 'नत्थि' नास्ति 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे' अष्टादशमुहुर्तो दिवसः, तथा-'अत्थि' अस्ति 'दुवालसमुहुने दिवसे'द्वादशमुहूत्र्तो दिवसः, किन्तु 'नत्थि' नास्ति 'दुवालसमुहुत्ता राई द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । एवम्-'दोच्चे छम्मासे' द्वितीये षण्मासे सूर्यस्य चतुरशीत्यधिकैकशत (१८४) संख्यकेषु मण्डलेषु प्रथममण्डलोपरि परिभ्रमणरूपे द्वितीये षण्मासे सर्वाभ्यन्तरमण्डरूपे इत्यर्थः 'अत्थि' अस्ति 'अहारसमुहुत्ते दिवसे' अष्टादशमुहूत्तों दिवसः किन्तु 'णत्थि' नास्ति 'अठारसमुहुत्ता राई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिः, तथा 'अत्थि' अस्ति 'दुवालसमुहुत्ता राई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिः किन्तु 'णत्थि' नास्ति 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे' द्वादशमुहूर्तों दिवसो भवति । पुनश्चैवमपि भवति यत् 'पढमे वा छम्मासे' प्रथमे वा षण्मासे अन्तिममण्डलोपरि सूर्यसंचरणसमये, तथा 'दोच्चे वा छम्मासे' द्वितीये वा षण्मासे प्रथममण्डलोपरि स्थिते सूर्ये 'णत्यि' अत्र ‘णस्थि' तिनकारवाचकोऽव्ययः ‘पण्णरसमुहुत्ते दिवसे' पञ्चदशमुहूत्तों दिवसः 'भवई' भवति, णत्थि' न 'पण्णरसमुहुनाराई' पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिः भवइ' भवति 'तत्थ' Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-१ सू०४ बाह्याभ्यन्तरमण्डलसंचारेणदिनरात्रिमाननि० २३ तत्र एतादृश्यां स्थितौ 'को हेऊ' को हेतुः-किं कारणम् ? 'त्ति वएज्जा' इति वदेत् इति कथ्यतामिति गौतमप्रश्नः सू० ४ (१) ।। पूर्व गौममेन दिवसरात्रिपरिमाणविषये प्रश्नः कृत इति प्रदर्शितम् , साम्प्रतं भगवता किमुत्तरं दत्तमिति प्रदर्शयन् उत्तरवाक्यमाह-'ता अयं णं' इत्यादि । मूलम् - ता अयं णं जंबुद्दीवे दोबे सव्वदीवसमुदाणं सव्वभंतराए जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ता जयाणं मूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । निक्खममाणे मूरिए नवं संवच्छरं अयमाणे पढमसि अहोरत्तंसि अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहि एगसद्विभागमुहुत्तेहिं अहिया । से णिक्खममाणे मूरिए दोच्चंसि अहोरतंसि अब्भतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए अभितरं तच्चं मंडलं उवंसकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगसद्विभागमहुतेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, चउहिं एगसहिभागमुत्तेहि अहिया । एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सुरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे दो दो एगसद्विभागमुहुत्ते एगमेगे मंडले दिवसखेत्तस्स विव्वुड्ढेमाणे २ रयणिखेत्तस्स अभिवुड्ढेमाणे२ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं मूरिए सव्यबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सव्वभंतरमंडलं पणिहाय एगेणं तेयासीएणं राइंदियसएणं तिण्णि छावढे एगसद्विभागमुहुत्तसयाई दिवसखेत्तस्स निव्वुइढित्ता राइखेत्तस्स अभिवुढित्ता चारं चरई तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे । एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे ।।सू० ४ (२) । से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंक मित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहि अहिए । से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं मूरिए बाहिरं तच्च मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहि एगसहिभागमुडुत्तेहि Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगसद्विभागभुहुत्तेहिं अहिए । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे२ दो दो एगसद्विभागमुहुत्ते एगमेगे मंडले राइखेत्तस्स निव्वुड्ढेमाणे२ दिवसखेत्तस्स अभिबुड्ढेमाणे२ सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए सव्वबाहिराओ मंडलाओ सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता-चारं चरइ तया णं सम्बबाहिरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेयासीएणं राइंदियसएणं तिण्णि छावट्ठिएगसहिभागमुहुत्तसयाई राइखेत्तस्स निव्वुड्ढित्ता दिवसखेत्तस्स अभिवुढित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुरो दिबसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । एस णं आइच्चसंवच्छरे । एसणं आइच्चसंवच्छरस्स पज्जवसाणे ॥ सू० ४(३)॥ इति खलु तस्सेवं आइच्चसंवच्छरस्स सई अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सई अट्टारसमुहुत्ता राई भवइ । सई दुवालसमुहुत्तो दिवसे भवइ, सई दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । पढमे छम्मासे अत्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई, णत्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे, णत्थि दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । दोच्चे छम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे, णत्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, अत्थि दुवालसमुहुत्ता राई, णत्थि दुवालसमहुत्ते दिवसे भवइ । पढमे वा छम्मासे दोच्चे वा छम्मासे णस्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे, णत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, णण्णत्थ राइंदियाणं वुड्ढोवुडूढीए मुहुचाणं चयोवचएणं, णण्णत्थ वा अणुवायगईए ॥ सू० ४॥ ॥ पढमस्स पाहुडस्स पढमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१-१ ॥ छाया तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः यावत् विशेषाधिकः परिक्षेपेण प्रक्षप्तः । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलम् उपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्तों दिवसो भवति, द्वादशमुहुर्ता रात्रिर्भवति । अथ निष्क्रामन् सूर्यः नव सवत्सर अयन् प्रथमे अहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तर मण्डल उपसंक्रम्य चार चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरानन्तर मण्डल उपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु अष्टादशमुहूर्तों दिवसो भवति द्वाभ्याम् एकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यामूनः, द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्याम् एकषष्टिभागमुहर्ताभ्यामधिका, अथ निष्क्रामन् सूर्यो द्वितीये अहोरात्र अभ्यन्तर तृतीय मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तर तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहुर्तेरूनः, द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहू रधिका । एवं खलु एतेन उपायेन निष्क्रामन् सूर्यः तदनन्तरात् Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. ११ सू० ४ आदित्यसंवत्सरनिरूपणम् २५ मण्डलात् तदनन्तर मण्डल संक्रार २ द्वौ द्वौ एकष्टिभागमुहत्तौ एकैकस्मिन् मण्डले दिवस क्षेत्रस्य निर्वर्धयन२ रजनी त्रस्य अभिवर्धयन्२ सर्ववाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चार वरति । तावत् यदा खलु यः सर्वबाह्य भण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा बल पाभ्यन्तर मण्डल प्रणिधाय केन ज्यशीतिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्रीणि षट्षष्टिः एक टभागमुहर्त शतानि दिवसक्षेत्र य निर्वर्थ्य, रात्रिक्षेत्रस्य अभिवयं चार चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठप्राप्ता उत्कर्पिका अ टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यको द्वादशमुहत्तों दिवस भवति । एतत् खलु प्रथमं षण्मासम् । एतत् खलु प्रथमस्थ षण्मासस्य पर्यवसानम् । पथ प्रविशन् सूर्यो द्वितीयं षण्म) म् अयन् प्रथमेऽहोरा बाह्यानन्तर मण्डलमुपसंक्रम्य चार रलि । तावत् यदा खलु सूर्यः बागानन्तर मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा खलुअष्टा दशा त रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेक 'टभागमुहूर्ताभ्यामूना,द्वादमहत्तों दिवसो भवति द्वाभ्य मेकपष्टिभागातभ्यामधिकः । अथ प्रविज्ञान सूर्यो हिलीयेऽहोराने दाह तृतीय मण्डल मुपसंक्रम्य चार चरति । तास यदा खलु सूर्यो बाह्य तृतीयं समुपसंक्रय चार चरति तदा खलु अष्टादशमुहर्ता रावर्भवति चतुभिरेक घटनाग हूतैरूना, द्वादशमहत्तों दिवस भवति चतुभिरेकषाष्टभाग महत्तैरधिकः । एवं खलु एतेन उपायेन प्रविान सूर्यः नदन्तरात् मण्डलात् तदनन्तरं मण्डा संक्रामन् द्वौ द्वौ एकपष्टिागमुहत्ती पककस्मिन् भण्डले रात्रिक्षेत्रस्य निर्वर्धयन २ देवसक्षेत्रस्य अभिवर्धयन २ सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुप मंत्र चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्ववाह्यात् मण्डलात् सर्वाभ्यन्तर भण्डल मुपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु सर्वबाह्यमण्डलं प्रणिधाय एकेन यशीतिकेन गदिवशतेन त्रीणि षट्पष्टिः एकषष्टिभागमुहर्त शतानि रात्रिक्षेत्रम्य निर्बर्ध्य, दिवस क्षेत्रस्याभिवर्ध्य चार चरति : दा खलु उत्तमकाष्ठाप्रातः उत्कर्षक: अष्टादशमुहत्तों दिवस। भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । एतत् खलु द्वितीयं पण्मासम् , एतत् खलु द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् , एष खलु आदित्यसंवत्सरः । एतत् खलु आदि यसंवत्सरस्य पर्यवसानम् ॥ २० ॥ इति खलु तस्यैवम् आदित्यसंवत्सरस्य सकृत् अष्टादशमुहर्तो दिवसो भवति, सकृत् अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सकृत् दशमुहूत्तो दिवसो भति, सकृत् द्वादशमुहर्ता रात्रि भवति । प्रथमे षण्मासे अस्ति अष्टा दशमुहूर्ता रात्रिः, नास्ति अष्टादशमुहत्तौ दिवसो नवतिः अस्ति द्वादशमुहृत्तौ दिवसः, नास्ति द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । दितीये पासे अस्ति अष्टादशमुहत्तौ दिवस.. नारि। अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति. अस्ति द्वादशमहत रात्रि , नास्ति द्वादशमहत्तॊ दिवसो भवति । प्रथमे वा पण्मासे दितीये वा षण्मासे नास्ति पञ्चदशमहत्तों दिवसः, नास्ति पञ्चदशमहत्ता रात्रिर्भवति नान्यत्र रात्रिन्दिवानां वृद्धय वृद्धिभ्यां मुहन्तानां चयोपचये, नान्यत्र वा अनुपातगत्या । सू० ४। । प्रथपस्य प्राभृतम्य थिमं प्राभृतपाभृतं समाप्तम् ॥ १-१।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रतिसूत्रे व्याख्या – 'ता' तावत् 'अयं णं' अयं खलु प्रत्यक्षोपलभ्यमानः 'जम्बूद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः जम्बूद्वीपाभिधानो मध्यजम्बूद्वीपः, स कीदृश: ? इत्याह- 'सव्वदीवसमुद्दाणं' सर्वद्वीपसमुद्राणाम् एतदतिरिक्तावशिष्टानां सर्वेषां द्वीपानां समुद्राणां च मध्ये 'सव्बन्धंतराए' सर्वाभ्यन्तरः सर्वथाऽभ्यन्तरवर्ती 'जाव विसेसाहिए' यावत् विशेषाधिकः, अत्र यावत्पदेन "सव्वखुड्डा वट्टे, तेल्लापूय संठाणसंठिए बट्टे, रहचक्कवालसंठाणसंठिए वट्टे, पुक्खरवरकण्णियासंठाणसंठिए बट्टे, पडिपुण्णचंद संठाणसंठिए जोयणसय सहस्समायामविक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साईं सोलस सहस्साईं दोन्नि य सत्तावी से जोयणसए तिन्नि कोसे अट्ठावीसं च धणुस, तेरस य अगुलाई अद्धगुलं च किंचि" इति पाठः संग्राह्यः । तथा च छायासर्वक्षुल्लको वृत्तः, तैलापूपसंस्थानसंस्थितो वृत्तः, रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितो वृत्तः, पुष्करवरकर्णिकासंस्थानसंस्थितो वृत्तः, प्रतिपूर्णचन्द्र संस्थानसंस्थितः योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन, त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे च सप्तविशतिर्योजनशते (३१६२२७) त्रयः क्रोशाः, अष्टाविंशतिश्च धनुःशतम्, त्रयोदश च अङ्गुलानि, अर्धाङ्गुलं च किञ्चिद् इति विशेषाधिक इति सम्बन्धः 'परिक्खेवेण पण्णत्ते' परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तः । स च - आयामविष्कम्भाभ्यां लक्षयोजनप्रमाणत्वात् सर्वेभ्यो लघुः, 'वट्टे' त्ति वृत्तः गोलाकारः, तत्परिधिश्च - सप्तविंशत्यधिकद्विशतोंतरषोडशसहस्राधिकं लक्षत्रयं (३१६२२७) योजनानाम्, तदुपरि क्रोशत्रयम्, अष्टाविंशत्युत्तरमेकं शतं १२८ धनुषाम् पुनश्च त्रयोदशाङ्गुलानि किञ्चिद्विशेषाधिकमर्धमङ्गुलं चेतिपरिमिता । अस्य विशेषव्याख्याऽन्यत्र विज्ञेया । अस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे 'ता' इति तावत् 'जया णं यदा खलु यस्मिन् काले 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वमंतरमंडलं' सर्वाभ्यन्तरमण्डलम् सूर्यसंचरणस्य सर्वमण्डलानि चतुरशीत्यधिकशत (१८४) संख्यकानि भवन्ति, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमिति मेरोः पार्श्वस्य मण्डलं सर्वप्रथमं मण्डलमित्यर्थः 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य तत्रागत्य 'चारं चरइ' चारं चरति संचरति सायनकर्क संक्रान्तिपूर्वदिवसे इति भावः 'उत्तमक पत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः पराकाष्ठाप्राप्तः, अत्र काष्ठाशब्दः प्रकर्षार्थवाचकस्तेन परमप्रकर्षप्राप्तः इत्यर्थः, अतएव 'उक्को' उत्कर्षकः उत्कृष्टः यतोऽधिकोऽन्यो दिवसो न भवति स इति भाव: 'अहारसमुहुत्ते' अष्टादशमुहूर्त्तः अष्टादशमुहूर्त्तपरिमितकालयुक्तः षट्त्रिंशद्घ टिकायुक्त इत्यर्थः ' दिवसे भवई' दिवसो भवति ' जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता' द्वादशमुहूर्त्ता द्वादशमुहूर्त्तपरिमिता चतुर्विंशतिघटिकायुक्तेत्यर्थः ' राई भवर' रात्रिर्भवति जम्बूद्वीपे क्षेत्रविशेषे इति भावः । एष अहोरात्रः पाश्चात्य सूर्य संवत्सरस्य पर्यवसानम् । २६ अथ सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तर मण्डलात् निष्क्रमणविषये प्राह-- -' से निक्खममाणे ' इत्यादि, 'से' सः 'निक्खममाणे' निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तररूपप्रथम मण्डलाद्द्बहिर्गमन Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशशिप्रकाशिका टीका प्रा० १-१ सू० ४ रात्रिन्दिवयोनि वृद्धिक्रमनिरूपणम् २७ मार्ग प्रति गच्छन् 'सूरिए' सूर्यः 'नव' नवं पूर्वसंवत्सरादन्यं 'सवच्छरं' संवत्सरं 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् तत्र प्रवर्त्तमान इत्यर्थः ' पढमे' प्रथमे तद्विषयके आधे 'अहोरच सि' अहोरात्रे 'अभितराणंतरं' अभ्यन्तरानन्तरं सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् द्वितीयं 'मंडल' मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य तत्र स्थित्वा 'चार चरई' चारं चरति परिभ्रमति गतिं करोतीत्यर्थः । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'अभितराणंतर मंडलं' अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलं पूर्वोक्तं द्वितीयं मण्डलं 'उवसंकमित्ता चार चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु - 'अद्वारसमुहुत्ते' अष्टादशमुहूर्त्तः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहिं' द्वाभ्यां 'एगसद्विभागमुहुत्ते हि' एकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यां 'ऊणे' ऊनः न्यूनो भवति (१७ ) तथा 'राई' रात्रिः 'दुवालसमुहुत्ता' द्वादशमुहूर्त्ता भवति, सा च 'दोहिं एसट्टिभागमुहुत्ते अहिया' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यामधिका भवति ( १२ -- ) कथमेत६१ ५९ ६१ दिव्याह-इह चैकं मण्डलमेकेनाहोरात्रेण सूर्यद्वयद्वारा परिसमाप्यते, प्रत्यहोरात्रं मण्डलस्य त्रिंशदधिकाऽष्टादशशतसंख्यका (१८३०) भागाः परिकल्प्यन्ते तेषु एकैकः सूर्य एकैकं भागं दिवस क्षेत्रस्य रात्रिक्षेत्रस्य वा यथाकालं हापयिता वर्धयिता वा भवति, स च मण्डलगत एको भागस्त्रिंशदधिकाष्टादशशततमोऽन्तिमो भागो मुहूर्तै कष्टिभागेषु द्विभागरूपो भवति (2) ६१ तवेत्थम् - मण्डलस्य ते त्रिंशदधिकाष्टादशशत भागा : (१८३०) सूर्यद्वयमाश्रित्य एकेनाहोरात्रेण प्राप्यते, एकोऽहोरात्रश्च त्रिंशन् मुहूर्त्तप्रमाणो भवति, ते च त्रिंशन्मुहूर्त्ता एकैकसूर्याश्रयणेन सूर्य द्वयापेक्षया षष्टिर्मुहूर्त्ता भवन्ति, ततस्त्रैराशिकगणितक्रमावसरः प्राप्तः तथा च- यदि षष्टिभागाः - मुहू. मुहूर्त्तेषु त्रिंशदधिकाष्टादशशतभागा लभ्यन्ते तदा एकस्मिन् मुहूत्तै कति भागा लभ्यन्ते ? एवं भाजक - भाज्य - गुणक रूपराशित्रयस्थापना यथा - ६० | १८३० | १ अत्रान्त्येन एककरूपेण गुणकराशिना मध्यगतभाग्यराशिर्गुण्यते, भाजक भाज्य गुणकजातानि तान्येव त्रिंशदधिकाष्टादशशतानि (१८३०) एषामाद्येन षष्टि- राशि: राशि- राशि: रूपेण भाजकराशिना भागो हियते तदा लब्धाः सार्वत्रिंशद्भागाः (३०|) एतावन्तो भागा एकस्मिन् मुहूर्त्तं लभ्यन्ते । स चैको मुहूर्त्त एकषष्टिभागीक्रियते, ते एकषष्टिभागाः सार्द्धत्रिंशता विभाज्यते तत आगतौ द्वौ । एवमेको भाग आगतः - द्वाभ्यां मुहूर्तैकषष्टिभागाभ्याम् मुहू० ६१ अथ प्रकारान्तरमेतत्-त्र्यशीत्यधिकैकशताहोरात्रैः (१८३ ) षण्णां मुहूर्त्तानां हानिर्वृद्धिर्वा भवति, Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे अत्र पृच्छ्यते-यदि त्र्यशीत्यधिकैकशताहोरात्रैः षड् मुहूर्त्ता हानौ वृद्धौ वा भवन्ति तदा एकेनाहोरात्रेण अहो ० | मु० अहो ० |१८३ ६ १ || किं लभ्यते ! अत्रापि राशित्रयं भवति, स्थापनाच अत्रापि अन्त्येन राशिना जातास्त एव षट्, एते त्र्यशीत्यधिकशतेन भागह्रियते ततो भाज्यभाजक एककरूपेण मध्यराशिः षट्संख्यारूपो गुण्यते हरणं प्राप्यते किन्त्वत्रोपरितनस्य भाग्यराशेः स्तोकत्वेन भागों न राश्योखि केनापवर्त्तना क्रियते तेन जात उपरितनो राशिर्द्विकरूपः २, अधस्तनो राशिश्व --एकषष्टिरूपः। भगतौ द्वौ मुहूर्तैकषष्टिभागौ २ तौ चैकस्मिन्नहोरात्रे वृद्धिरूपेण हानिरूपेण वा ६१ प्राप्यते इति । 'से' सः 'णिक्खममाणे' निष्क्रामन् बहिर्निस्सरन् 'सूरिए' सूर्यः 'दोच्चंसि द्वितीये प्रथमस्यायनस्य द्वितीये 'अहोरत्तंसि' अहोरात्रे 'अब्भंत रं' आभ्यन्तरं 'तच्चं ' तृतीयं सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया तृतीयं 'मंडल' मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य प्राप्य 'चारं चरई' चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'अभितरं तच्चं मंडलं' आभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'अहारसमुहुत्ते' अष्टादमुशहूर्त: 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति किन्तु सः 'चउहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेर्हि' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तैः 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ताराई भवः' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति किन्तु सा च ' चउहिं एगसट्टिभागमुहुत्तेर्हि' चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूतैः 'अहिया' अधिका भवति, प्रत्यहोरात्रं प्रतिमण्डलं द्वाभ्यामेकषष्टिभागाभ्यां हीनत्वाधिकत्वसद्भावात् ' एवं खलु' एवं खलु एवम् अनेनैव प्रकारेण खलु निश्चितम् 'एएणं' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन प्रत्यहोरात्रं प्रतिमण्डलमेकषष्टिभागेषु द्विभागरूपहानिवृद्धिरूपेण 'उवाएणं' उपायेन अनया रीत्या इत्यर्थः 'णिक्खममाणे ' ' निष्क्रामन् मण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैः सर्वबाह्यमण्डलरूपदक्षिणाभिमुखं गच्छन् ' म्ररिए' सूर्यः ' तयाणंतराओ' तदनन्तरात् विवक्षितात् पूर्वस्थानरूपात् 'मंडलाओ' मण्डलात् 'तयाणंतरं' तदनन्तरं तदग्रेतनं 'मंडल' मण्डलं 'संकममाणे' संक्रामन् प्राप्नुवन, प्रत्यहोरात्रं 'दो दो' द्वौ द्वौ 'एगसद्विभागमुहुत्ते' एकषष्टिभागमुहूर्त्तो 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले प्रतिमण्डलमित्यर्थः ' दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य दिवस भागस्य 'निब्बुड्ढेमाणे २' निर्वर्धयन् २ हापयन् २ दिवस न्यूनं कुर्वन्नित्यर्थः, तथा 'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रस्य रात्रिभागस्य 'अभिवुड्ढेमाणे २' अभिवर्धयन् २ रात्रिभागमधिकं कुर्वन्नित्यर्थः क्रमेण 'सव्वबाहिरं' सर्व बाह्यं चतुरशीत्यधिकशततमम् यत् त्र्यशीत्यधिकशततमें अहोरात्रे प्रथमषण्मास Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-१ सू० ४ रात्रिन्दिवयोहानिवृद्धिक्रमनिरूपणम् २९ पर्यवसानभूतं भवति तत् सर्वमण्डलेभ्यो बाह्यमन्तिममण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । इदमुक्तं भवतिसूर्यस्य सर्वाणि मण्डलानि चतुरशीत्यधिकशतसंख्यकानि (१८४) भवन्ति, तेषु सूर्यस्य भ्रमणं तु सर्वाभ्यन्तररूपं विहाय शेषत्र्यशीत्यधिकशतसंख्यकेष्वेव मण्डलेषु भवति ततरुयशीत्यधिक शततमेहोरात्रे चतुरशीत्यधिकशततमं मण्डलं प्राप्नोत्येवेति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'मूरिए' सूर्यः 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति 'तया गं' तदा खलु 'सव्वभंतरमंडलं' सर्वाभ्यन्तरमण्डलं 'पणिहाय' प्रणिधाय आश्रित्य तत्र सूर्यस्य स्थितत्वात्तमपरिगणय्य द्वितीयमण्डलादारभ्येत्यर्थः 'एगेणं' एकेन 'तेयासीएणं' त्र्यशीतिकेन त्र्यशीत्यधिकेन 'राईदियसएणं' रात्रिंन्दिवशतेन त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यकैरहोरात्रैरित्यर्थः 'तिन्नि छावट्ठी एगसहिभागमुहुत्तसयाई त्रीणि षट्षष्टिः एकषष्टिभागमुहूर्तशतानि षट्पष्टयधिकशतत्रयसंख्यकमुहूर्तेकषष्टिभागान् (१) दिवसक्षेत्रस्य 'निबुढित्ता' निर्वर्थ्य हापयित्वा 'राइखेत्तस्स' रात्रिक्षेत्रस्य तानेव भागान् 'अभिवुड्ढित्ता' अभिवयं चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकर्षप्राप्ता अत एव 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा ततः परमाधिक्याभावात् 'अट्ठारसमुहुत्ता' अष्टादशमुहूर्ता षट्त्रिंशद्घटिकापरिमिता 'राई भवई' रात्रिभवति तथा 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वन्यूनः ततः परं न्यूनत्वाभावात् 'दुवालसमुहत्ते' द्वादशमुहूर्तः चतुर्विशतिघटिकापरिमितः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति । 'एस णं' एतत् खलु 'पढमे छम्मासे' प्रथम षण्मासम् । सूत्रे आर्षत्वात्पुंस्त्वम् एवमग्रेपि 'एस णं' एतत् खलु त्र्यशीत्यधिकैकशततमाहोरात्रं 'पढमस्स छम्मासस्स' प्रथमस्य षण्मासस्य 'पज्जवसाणे पर्यवसानम् अन्तिममहोरात्रमित्यर्थः । अथ द्वितीयम् उत्तराभिमुखं षण्मासं प्रदर्श्यते-'से पविसमाणे' इस्यादि । 'से' इति सः अथवा 'से' अथ-दक्षिणाभिमुखसूर्यचारानन्तरं 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वबाह्यमण्डलात्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रविशन् उत्तराभिमुखं गच्छन् 'सूरिए' सूर्यः 'दोच्चं' द्वितीयं 'छम्मासं' षण्मासं उत्तरदिक्सम्बन्धि 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् 'पढमंसि' प्रथमे 'अहोरतसि' अहोरात्रे द्वितीयषण्मासस्य प्रथमे रात्रिन्दिवे 'बाहिराणंतरं' सर्वबाह्यमण्डलादनन्तरं 'मंडलं' मण्डलं पश्चानुपूर्त्या सर्वबाह्यमण्डलात् द्वितीयं-चतुरशीत्यधिकशततममण्डलात् त्र्यशीत्यधिकशततमं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः 'बाहिराणंतरं मंडलं' बाह्यानन्तरं मण्डलं सर्ववाद्यमण्डलादर्वाक्तनमभ्यन्तरं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चार चरति । 'तया णं' तदा खलु 'अद्वारसमुहुत्ता' अष्टादशमुहूर्ता 'राई भवई' Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे रात्रिर्भवति, सा च 'दोर्हि एगसट्टिभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यां 'ऊणा' ऊना न्यूना भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ते' द्वादशमुहूर्त्तः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति स च 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेर्हि' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यां 'अहिए' अधिको भवति अत आरभ्यरात्रेर्होन्यभिमुखत्वात् दिवसस्य च वृद्ध्यभिमुखत्वात् । 'से' अथ पुनश्च 'पविसमाणे' प्रविशन् अभ्यन्तरं गच्छन् 'सूरिए' सूर्यः 'दोच्चंसि' द्वितीये 'अहोरत्तंसि' अहोरात्रे 'बाहिरं' बाह्यं - पश्चानुपूर्व्या बाह्यमार्गतः समापतन्तं सर्व बाह्यमण्डलादर्वाक्तनं 'तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलं 'उबसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्य: 'वाहिरं' बाह्यं पूर्वोक्तरूपं तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, सा च 'चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तेर्हि' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'ऊणा' ऊना भवति, प्रतिरात्रि द्वाभ्यां मुहूत्तैकषष्टिभागाभ्यां हीनत्वक्रमसद्भावात्, 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूर्त्ते दिवसो भवति, स च ' चउहिं एगसट्टिभागमुहुत्ते हि' चतुर्भिश्कषष्टिभागमुहूत्तैः 'अहिए' अघिको भवति प्रतिदिवस द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यां वृद्धित्वक्रमसद्भावात् । 'एवं' एवम् अनयारीत्या 'खलु' निश्चितं 'एएणं' एतेन अव्यवधानप्रदर्शितेन 'उबाएणं' उपायेन प्रकारेण 'पविसमाणे' प्रविशन् एकतो द्वितीयमभ्यन्तरं मण्डलं प्रति गच्छन् 'सूरिए' सूर्यः 'तयाणंतराओ' तदनन्तरात् एकस्मादनन्तरभूतात् 'मंडलाओ' मण्डलात् 'तयाणंतरं' तदनन्तरं एकस्मादवतनं द्वितीयं ‘मंडलं' मण्डल ‘संकममाणे' संक्रामन् प्राप्नुवन् ' दो दो' द्वौ द्वौ ' एगसट्टिभागमुहुत्ते' एकषष्टिभागमुहूर्त्तो' 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मंण्डले 'राइखेत्तस्स' रात्रिक्षेत्रस्य रात्रिभागस्य 'निब्बुड्ढेमाणे२' निर्वर्धयन् २ हापयन् २, तथा 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य दिवसभागस्य 'अभिवुड्ढेमाणे२' अभिवर्धयन् २ 'सव्वमंतरमंडलं' स र्वाभ्यन्तरमण्डलं तृतीया - च्चतुर्थे चतुर्थात्पञ्चममिति क्रमेण सर्वेभ्यो मण्डलेभ्यो यदभ्यन्तरं पश्चानुपूर्व्या चतुरशीत्यधिकशततमं त्र्यशीत्यधिकशतसंख्य काहोरात्रैर्गम्यमानं पूर्वानुपूर्व्या च सर्वप्रथम' मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वबाहिराओ मंडलाओ' सर्वबाह्यात् मण्डलात् 'सव्वमंतरमंडल' सर्वाभ्यन्तरमण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति 'तया णं तदा' खलु 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलं 'पणिहाय' प्रणिधाय आश्रित्य अभ्यन्तरप्रयाणसमये तत्र सूर्यस्य स्थितत्वात्तमपरिगणय्यतदर्वाक्तन द्वितीयमण्डलादारभ्येत्यर्थः 'एगेणं' एकेन 'तेयासीएणं' त्र्यशीतिकेन त्र्यशीत्यधिकेन 'राईदियस एणं' रात्रिन्दिवशतेन त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यकै रहोरात्रैरित्यर्थः ' तिण्णि' त्रीणि 'छावट्टी' षट्षष्टिः ' एगसट्टिभागमुहुत्तसयाई' एकषष्टिभागमुहूर्त्तशतानि षट्षष्ट्यधि Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-१ सू०४ परिपूर्ण पञ्चदशमुहूर्तरात्रिन्दिवयोरभावनि० ३१ कशतत्रयसंख्यकमुहूर्त्तकषष्टिभागान् (३६.६) राइखेत्तस्स' रात्रिक्षेत्रस्य रात्रिभागस्य निव्वुड्ढित्ता' निर्वर्थ्य हापयित्वा तथा 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य दिवसभागस्य 'अभिवुढित्ता' अभिवर्ध्य 'चारं चरइ चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्ठपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्ष प्राप्तः अत एव 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः ततः परमाधिक्याभावात् 'अट्ठारस मुहुत्ते' अष्टादशमुहूर्तः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति, तथा 'जहणिया' जवन्यिका सर्वलध्वी ततः परं लघुत्वाभावात् 'दुवालसमुहुत्ता' द्वादशमुहूर्ता 'राई भवइ रात्रिर्भवति, 'एस गं' एतत् खल्- 'दोच्चे छम्मासे' द्वितीयं षण्मासं जातम् । 'एस णं' एतत् खलु 'दोच्चस्स उम्मासस्स' हि तीयस्य षण्मासस्य 'पज्जवसाणं' पर्यवसानम् अन्तिममहोरात्रमिति । साम्प्रतमुपसंहरति- इइ खलु' इत्यादि । 'इइ' इति--यस्मादेवं तस्मात् कारणात् 'खलु' निश्चितं 'तस्स' तस्य षट्पष्टयधिकशतत्रयाहोरात्रपरिमितस्य 'आइच्चसंवच्छरस्स' आदित्यसंवत्सरस्य मध्ये ‘एवं' इनि अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण 'सई' सकृत् एकवारं 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, तथा ‘सई' सकृत् एकवारं 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ' अष्टादशमुहुर्ता रात्रिर्भवति । 'सई' सकृत् एकवारं 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूतों दिवसो भवति सई सकृन एकवारं 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । तथा 'पदमे छम्मासे' प्रथमे षण्मासे 'अस्थि अट्टारसमुहुत्ता राई' अस्ति अष्टादशमुहूर्ता रात्रिः सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद्वाह्यमण्डलं प्राप्ते सूर्ये रात्रेर्वृद्धिसद्भावात् , सा च प्रथमषण्मासस्य अन्तिमेऽहोरात्रे भवति किन्तु 'नत्थि अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवइ' नत्वष्टादशमुहुर्तो दिवसो भवति तदा दिवसस्य हानिसद्भावात् । तथा तस्मिन्नेव षण्मासे 'अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे' अस्ति द्वादशमुहुत्तों दिवसः, स च प्रथमषण्मासस्य अन्तिमेऽहोरात्रे भवति, किन्तु 'नत्थि दुवालसमुहुत्ता राई भवई' न तु द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । एवम्-'दोच्चे छम्मासे' द्वितीयस्मिन् षण्मासे सूर्यस्य पुनः सर्वबाह्य मण्डलात सर्वाभ्यन्तामण्डलं प्रति गमनलक्षणे 'अस्थि अट्ठारमुहुत्ते दिवसे' अस्ति अष्टादशमुहुत्तों दिवसः सदा दिवसस्य वृद्धिसद्भावात् , किन्तु 'णथि अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' न त्वष्टादश मुहुर्ता रात्रिर्भवति तदा रात्रैर्वृद्ध्यसद्भावात् । तथा 'अस्थि दुवालसमुहुत्ता राई' अस्ति द्वादश मुहूर्ता रात्रिः तदा रात्रेानिसद्भावात् , किन्तु 'नस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' न तु द्वादश मुहूर्तो देवसो भवति तदा दिवसस्य हान्यसद्भावात् । तथा 'पढमे वा छम्मासे दोच्चे वा छम्मासे' प्रथमे वा षण्मासे द्वितीये वा षण्मासे प्रथमद्वितीयरूपोभयोरपि षण्मासयोः 'णत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे' नास्ति पञ्चदशमुहूर्तो दिवसः, एवमेव ‘णत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ' नैव पश्चदशमुहूर्ता रात्रिभवति, ‘णणत्थ' नान्यत्र 'राईदियाणं वड्दोवड्ढीए' रात्रिन्दिवानां Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे वृद्धयपवृद्धिभ्यां रात्रिन्दिवानां वृद्धिमपवृद्धिं च विहाय अन्यत्र न भवति, वृद्धिरपवृद्धिश्च रात्रिन्दिवानां मर्यादया भवति मर्यादामतिक्रम्य वृद्धयपवृद्धी कदापि न भवतः अतो मर्यादया षण्मासद्वयेऽपि न पञ्चदशमुहूर्त्ते दिवसो भवति, न च पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । ते वृद्ध्यपवृद्धी च कथं भवेताम् ? तत्राह - 'मुहुत्ताणं चओवचएणं' मुहूर्त्तानां पञ्चदशसंख्यकानां चयेन - अधिकत्वेन वृद्धिः, अपचयेन-होनत्वेन अपवृद्धिः कदाचित् किञ्चिद् हीन पञ्चदशमुत्तों दिवसो भवति, कदाचित् किश्चिदधिकपश्चदशमुत्तों दिवसो भवति, एवं रात्रिविषयेऽपि विज्ञेयम्, किन्तु परिपूर्णपञ्चदश. मुहूर्त्तो न दिवसो भवति, न च परिपूर्णपञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति दिवसरात्र्योरेवमेव क्रमसद्भावात्, पञ्चदशमुहूर्त्तानां होनाधिकत्वेन दिवसरात्री भवतः । एवम् 'णण्णत्थ वा अणुवायगईए' नान्यत्र वा अनुपातगत्या, अनुपातगतिं विहायान्यत्र न भवति, अनुपातगतिः - अनुसारगतिः, सा चैवम् - सूर्यसंवत्सरस्य सर्वे अहोरात्राः षट्षष्ट्यधिकशतत्रयसंख्यका (३६६) भवन्ति, षण्मासे च तद रात्रिन्दिवानां त्र्यशीत्यधिकशतं (१८३) भवति, त्र्यशीत्यधिकशततमे मण्डले षड् मुहूर्त्ता हानिवृद्धिवेन प्राप्यन्ते तदा तदर्धे कृते त्रयो मुहूर्त्ता हानिवृद्धित्वेन लभ्यन्ते । इतश्व त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यकाहोरात्राणामर्ध क्रियते तदा लभ्यते सार्धा एकनवतिः (९१|| ) ततः एकनवतिसंख्यकेषु पूर्णतया समाप्तेषु सत्सु तदुपरि द्विनवतितमस्य मण्डलस्य चार्धे गते पञ्चदश मुहूर्त्ता लभ्यन्ते, अहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणत्वात्, ततो मण्डलस्यार्ध कल्पनायां पञ्चदशमुहूर्त्ता दिवसः पञ्चदशमुहूर्त्ता च रात्रिर्लभ्यते। सा च मण्डलार्धकल्पना कर्त्तुं न शक्यते यतः सूर्यस्य मण्डलान्मण्डलान्तरगमनं शास्त्रसंमतं नत्वर्धमण्डलस्य विवक्षाऽपि । इयमत्र भावना - सूर्यस्य प्रत्यहोरात्रं द्वाभ्यामेकषष्टिभागाभ्यां गतिर्भवति ततः सर्वाभ्यन्तरमण्डले गते सूर्ये अष्टादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति, द्वादशमुहूर्त्ता च रात्रिर्भवति, एवं सर्व बाह्यमण्डले गते सूर्ये अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति द्वादशमुहूर्त्तश्च दिवसो भवति, तदनन्तरं सूर्यः प्रतिमण्डलमे कषष्टिभागेषु द्विभागपरिमितेन कालेन चारं चरति, एतावत्प्रमाणकालेन मण्डलात् मण्डलान्तरं गच्छति, न त्वर्धमण्डलम् एवं द्वितीयेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् द्वितीयं बाह्य सम्बन्धिमण्डलं गच्छति तदा, तथा सर्व बाह्यमण्डलात् द्वितीयमाभ्यन्तरसम्बधिमण्डलं गच्छति तदा च द्वाभ्यामेकषष्टिभागाभ्यामहोरात्रस्य हानिर्वृद्धिर्वा भवति । एवं क्रमेण कृतायां योजनायां सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद्वहिर्गमनसमये एकनवतितमे मण्डले गते सूर्ये त्रिभिरेकषष्टिभागैरधिकः पञ्चदशमुहूर्त्तो (१५ ) दिवसो भवति, अष्टपञ्चाशद्भिरेकषष्टि , ६१ ३२ भागैरधिका चतुर्दशमुहूर्त्ता (१४–६३) रात्रिर्भवति । एवं द्विनवतितमे एकेनैकषष्टिभागेनाधिकः पञ्चदशमुहूर्तो (१५-३ दिवसो भवति, 1 मण्डले गते सूर्य षष्टिसंख्य कैरेकषष्टि Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-२ सू० ५ दाक्षिणात्यार्द्धमण्डलसंस्थितिस्वरूपम् ३३ भागैरधिका चतुर्दशमुहूर्ता (१४-६०) रात्रिर्भवति, एवं सर्वबाह्यमण्डालात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखगमनसमये दिवसस्य वृद्धिः, रात्रेश्च हानिः कर्तव्या । तथा च सूर्यस्य बाह्यादभ्यन्तरगमनसमये एकनवतितमे मण्डले गते सूर्य अष्टपञ्चाशद्भिरेकषष्टिभागैरधिकश्चतुर्दशमुहूत्तों (१४-१८) दिवसो भवति, रात्रिश्च त्रिभिरेकषष्टिभागैरधिका पञ्चदशमुईत (१५-६३) भवति एवं द्विनवतितमे मण्डले गते सूर्ये षष्टिसंख्यकैरेकषष्टिभागैरधिकश्चतुर्दशमुहूत्तों । दिवसो भवति, रात्रिश्च एकेनैकषष्टिभागेनाधिका पञ्चदशमुहूर्त्ता (१५ . १) भवति । एवं करणे पञ्चदशमुहूर्तो दिवसः पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिश्च कदापि न लभ्यते । एकनवतितममण्डलादुपरि द्विनवतितमं मण्डलमधं स्थाप्यते तदा दिवसस्य रात्रेश्च पञ्चदशमुहूर्तात्मकं समानत्वं लभ्यते नान्यथा, तच्च भगवता न विवक्षितम् अतः पञ्चदशमुहूत्तों दिवसः, पञ्चदशमुहर्ता च रात्रिः परिपूर्णत्वेन कदापि न भवतीत्यवधारणीयमिति । 'पाहुडियागाहाओ' प्राभृतिका गाथाः पर्वोक्तार्थसंग्राहिका गाथाः अत्र 'भाणियवाओ' भणितव्याः वक्तव्याः । एता गाथाः साम्प्रतं कापि पुस्तके न लभ्यन्तेऽतो व्युच्छिन्ना जाता इत्यनुमीयते ॥ सू० ४ ॥ इति प्रथमस्य प्राभृतस्य प्रथमं प्राभृतमाभृतं समाप्तम् ॥१-१॥ पूर्व प्रथमस्य प्राभृतस्य प्रथमं मुहूर्त्तवृद्धयपवृद्धिप्रतिपादकं प्राभृतप्राभृतं प्रतिपादितम् ,साम्प्रतमर्द्धमण्डलसंस्थितिनिरूपकं द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं प्रतिपादयन्नाह-'ता कहं ते अद्धमंडलसंठिई' इत्यादि । मूलम्-'ता कहं ते अद्धमंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमा दुविहा अद्धमंडलसंठिई पण्णत्ता, तं जहा-दाहिणा-चेव अद्धमंडलसंठिई, उत्तरा चेव अद्धमंडलसंठिई २ । ता कहं ते दाहिणा अद्धमंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा ? ता अयण्णं जंबुद्दीचे दीवे सव्वदीवसमुदाणं जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ता जया णं सरिए सव्वभंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से निक्खममाणे सरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए अभितराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरइ : ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं उत्तरं अदमंडलसंठिई उक्संकमित्ता चारं चरइ तयाणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगटिभागमहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे से णिक्खममाणे सरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए अभितरं तच्चं दाहिणं अद्धमंडलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए अभितरं तच्चं दाहिणं अद्धमण्डलसंठिंई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया । एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे मूरिए तयाणंतराओ तयाणंतरंसि तंसि २ देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई संकममाणे२ दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए सव्वबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए सव्वबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जद्दण्णएदुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे । एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे ।। से पविसमाणे सरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए बाहिराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं मूरिए बाहिराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगद्विभागमुहुत्तेहिं अहिए । से पविसमाणे मुरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए बाहिराणंतरं तच्चं उत्तरं अदमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए बाहिराणंतरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ तयाणंतरं तसि २ देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई सकममाणे२ उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए सव्वभंतरं दाहिणं अद्धमंडलसठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया ण सरिए सबब्भतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिबसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । एसणं आइच्चे संवच्छरे । एस ण भाइचसंवच्छरस्स पज्जवसाणे ॥स० ५॥ ॥ दाहिणा अद्धमंडलसंठिई समत्ता ।। छाया तावत् कथं ते भर्धमण्डलसंस्थितिः आख्यातेति वदेत् तत्र बलु इयं द्विविधा अर्धमण्डलसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-दाक्षिणात्या चैव मधमण्डलसंस्थितिः ! Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-२ सू०५ दक्षिणात्यार्द्धमण्डलसंस्थितिस्वरूपम् ३५ औतरा चैव अर्धमण्डलसंस्थितिः २। तावत् कथं ते दाक्षिणात्या अर्धमण्डलसंस्थितिः भाज्यातेति वदेत् ? तावत्अयं खलु जम्बुद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां यावत्-परिक्षेपेण प्रशप्तः । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणाम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपक्रम्य चारं चरति । तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति। अथ निष्कामन् सूर्यः नवं संवत्सरं अयन् प्रथमे अहोरात्रे दाक्षिणात्यात् अन्तरात् भागात् तस्यादिप्रदेशात् आभ्यन्तरानन्तराम औत्तराम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः आभ्यन्तरानन्तराम औत्तरां अर्द्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चति तदा खलु अष्टादशमुहूत्तॊ दिवसो भवति द्वाभ्याम् एकपष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् ऊनः,द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्याम् एकषष्टिभगमुहूर्ताभ्याम् अधिका । अथ निष्क्रामन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे औत्तरात् अन्तरात् भागात् तस्यादिप्रदेशात् आभ्यन्तरां तृतीयां दाक्षिणात्यां अर्धमण्डलसंस्थितिं उपसंक्रम्य वारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः आभ्यन्तरी तृतीयां दाक्षिणात्याम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहूर्तों दिवसो भवति चतुर्भिः एकषष्टिभागमुहूत्र्तेः ऊनः, द्वादशमुहर्ता रात्रिभवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूत्तैः अधिका। एवं खलु एतेन उपायेन निष्क्रामन् सूर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरस्मिन् तस्मिन् २ देशे तां तां अर्धमण्डलसंस्थिति संक्रामन् २ दाक्षिणात्यात् अन्तरात् भागात तस्यादिप्रदेशात् सर्वबाह्याम् औत्तराम् अर्धमण्डलसंस्थितिम उपसंक्रम्य चारं बरति। तापत् यदा खलु सूर्यः सर्वबाह्याम् औत्तराम् अर्धमण्डलस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहूर्तों दिवसो भवति। एतत् खलु प्रथमम् षण्मासम् । एतत् खलु प्रथमस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् । अथ प्रविशन् सूर्यः द्वितीयं षण्मासम् अयन् प्रथमे अहोरात्रे औत्तरात् अन्तरात् भागात् तस्यादिप्रदेशात्-बाह्यानन्तरां दाक्षिणात्याम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं घरति । तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्यानन्तरां दाक्षिणात्याम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्याम् एकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् ऊना, द्वाशमुहूर्तो दिवसो भवति द्वाभ्याम् एकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् अधिकः । अथ प्रविशन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्र दाक्षिणात्यात् अन्तरात्भागात् तस्यादिप्रदेशात् बाह्यानन्तरां तृतीयाम् औत्तराम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सर्यः बाह्यां तृतीयाम् औतराम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिः एकषष्टिभागमुहूतैः ऊना, द्वादशमुहूतों दिवसो भवति चतुर्भिः एकषष्टिभागमुहूर्तः अधिकः । एवं खलु पतेन उपायेन प्रविशन् सर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरां तस्मिन् २ देशे तां ताम् अर्धमण्डलसंस्थितिं संक्रामन् २ औतरात् अन्तरात् भागात्-तस्यादिप्रदेशात सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणात्याम अर्धमण्डलसंस्थितिम उपसंक्रम्य चारं चति । तावत यदा खलु सर्वाभ्यन्तरा दाक्षिणात्याम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः अष्टादशमुहूतौ दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । एतत् खलु द्वितीयं षण्मासम् । एतत् खलु द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् । एष खलु आदित्यसंवत्सरः। एतत् खलु आदित्यसंवत्सरस्य पर्यवसानम् ॥ सू० ५॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे व्याख्या- हे भदन्त ! 'ता' तावत् पूर्ववत् 'कह' कथं 'ते' तव मते 'अद्धमंडलसंठिई' भर्धमण्डलसंस्थितिः अर्धमण्डलव्यवस्था 'आहिया' आख्याता 'ति' इति 'वएज्जा' वदेत् वदतु इति भावः । 'अर्धमण्डलसंस्थितिः' इत्यस्य क आशयः ?-अर्धमण्डलस्य मण्डलार्धस्य संस्थितिः सूर्यपरिभ्रमणव्यवस्था सा अर्धमण्डलसंस्थितिरुच्यते, तथा च-इह यत् एकैकः सूर्यः एकैकाहोरात्रेण एकैकस्य मण्डलस्याभागमेव भ्रमणेन परिप्रयति अत्र कथमेकैकस्य सूर्यस्य प्रत्यहोरात्रं प्रत्येकाधमण्डलपरिभ्रमणव्यवस्था वर्तते इति प्रश्नः । भगवानाह-'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ खलु' तत्र अर्धमण्डलसंस्थितिविचारे खलु निश्चयेन 'इमा' इयं वक्ष्यमाणा दुविहा' द्विविधा द्विप्रकारा 'अद्धमंडलसंठिई अर्धमण्डलसंस्थितिः ‘पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता मया अन्यतीर्थकरैश्च 'तं जहा' तद्यथा सा यथा-'दाहिणा चेव' दाक्षिणात्या चैव दक्षिणदिक्चारिसूर्यविषया 'अद्धमंडलसंठिई' अर्ध. मण्डलसंस्थितिः तथा 'उत्तरा चेव' औत्तरा चैव उत्तरदिश्चारिसूर्यविषया 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमडलसंस्थितिः २ । पुनः प्रश्नयति-ता'क' ते' इत्यादि, ज्ञाता द्विविधा अर्धमण्डलसंस्थितिः किन्तु तत्र 'ता' तावत् प्रथमं द्वयोर्मध्ये 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' तव मते 'दाहिणा' दाक्षिणात्या दक्षिणदिग्भवा दक्षिणदिक्चारिसूर्यविषया 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिः 'आहिता' आख्याता कथिता 'ति' इति 'वएज्जा' वदेत् वदतु भवान् । भगवानाह-'ता अयणं' इत्यादि, 'ता' तावत् अयण्णं अयं खलु प्रत्यक्षं दृश्यमानोऽयं 'जंबुद्दीवे दीवे' जंबूद्वीपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः 'सव्वदीवसमुदाणं' सर्वद्वीपसमुद्राणां जाव' याधत् यावत्पदेन 'सव्वभंतराए सव्वखुडाए' इत्यादि जम्बूद्वीपवर्णनं संक्षेपतः पूर्व प्रथमप्राभृतस्य प्रथमेऽन्तरप्राभृते कृतं तत्र विलोकनीयम् 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः। 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'मूरिए' सूर्यः 'सव्वब्भंतरं' सर्वाभ्यन्तरां सर्वाभ्यन्तरमण्डलसम्बन्धिनीम् 'दाहिणं' दाक्षिणात्यां दक्षिणदिग्भवां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति तया गं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्तः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः ततः परमाधिक्याभावात् अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति 'जहणिया' जघन्यिका सलध्वी ततः परं हीनत्वाभावात् 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतदाक्षिणात्याधमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रान्तः सन् प्रथमक्षणादूर्व सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलाभिमुखं शनैः शनैः तथा कथश्चिदपि मण्डलगत्या परिभ्रमति येनाहोरात्रपर्यन्तभागे ये सर्वाभ्यन्तरमण्डलगता भष्टचत्वारिशदेकषष्टिभागास्तान्, अपरं च योजनद्वयमतिक्रम्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरं द्वितीयं यद् उत्तरार्धमण्डलं तस्य सीमां प्राप्नोति, तदेवाह 'से' अथ तदनन्तरं 'निक्खममाणे' निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरदाक्षिणात्यार्धमण्डलसंस्थितितः प्रथमक्षणादूर्घ शनैः शनैर्निस्सरन् 'रिए' सूर्यः अहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति 'ण' नवं नूतनं स्थितसंवत्सरा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०१-२ सू० ५ दाक्षिणात्याऽर्द्धमण्डलसंस्थितिस्वरूपम् ३७ दपरं 'संवच्छ' संवत्सरं 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् 'पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे नूतन वत्सरस्य आदिमेऽहोरात्रे 'दाहिणाए' दाक्षिणात्यात् दक्षिणदिग्भवात् 'अंतराए' अन्तरात् अपान्तरालभागात् सर्वाभ्यन्तरम डलगताष्टचत्वारिंशयोजनैकषष्टिभागाधिक योजनद्वयप्रमाणरूपात् विनिर्गत्य 'तस्स' तस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरं यद् उत्तरार्धमण्डलं तस्य 'आइपरसाए' आदि: देशात् आदिप्रदेशमाश्रित्येत्यर्थः 'अभितराणंतरं' आभ्यन्तरानन्तरां सर्वाभ्यन्तरमण्डलाग्रेऽनुपर वर्तमानां 'उत्तरं' औत्तरां उत्तरदिग्भवां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिं 'उबसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति विचरति परिभ्रमतीत्यर्थः । स चात्रापि पूर्ववदादिप्रदेशाचं शनैः शनैरग्रेतनापरमण्डलाभिमुखं यथाकथञ्चनापि चरति येन तस्याहोरात्रस्यान्ति भागे तदपि मण्डलमष्ट चत्वारिंशदे कषष्टिभागरूपम् अन्यच्च योजनद्वयं परित्यज्य दक्षिणदिग्भवः य तृतीयमण्डलस्य सीमायां वर्तते । 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'अभितराणंतरं' आभ्यन्तरानन्तरां द्वितीयां 'उत्तरं' ओत्तरां 'अद्धमंडलसंठिई' अधमण्डलसंस्थितिं 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तथा णं तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति किन्तु 'दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहुर्ताभ्यां 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुर्ता रात्रिर्भवति किन्तु 'दोहिं एगद्विभागमुहुत्तेहिं' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्ताभ्यां 'अहिया' अधिका भवति । 'से अथ-३ नन्तरं द्वितीयस्यामुत्तरार्धमण्डलसंस्थितौ परिभ्रमणानन्तरं 'निक्खममाणे' निष्क्रामन् तत्स्थानात् पूर्वोक्तप्रकारेण निस्सरन् 'सूरिए' सूर्यः तस्यैवाभिनवसंवत्सरस्य 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीये होरात्रे 'उत्तराए' अत्तरात् उत्तर दिग्भवात् 'अंतराए' अन्तरात् द्वितीयोत्तरार्धमण्डलगतात् पूर्वप्रदर्शितप्रमाणोपेतापान्तरालरूपात् विनिर्गत्य 'तस्स' तस्य दक्षिणदिग्भावितृतीयार्धमण्डलस्य 'आइपएसाए' आदिप्रदेशात् आदिप्रदेशमाश्रित्येत्यर्थः 'अभितरं तच्चं' आभ्यन्तरां तृतीयां सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया तृतीयां 'दाहिणं' दाक्षिणात्यां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्घमण्डल. संस्थितिं 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । अत्रापि पूर्ववदेव तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते पूर्वोक्तविनैव चतुर्थोत्तरार्धमण्डस्य सीमायां समागत्य सूर्योऽवतिष्ठते । 'ता' तावत् 'जया णं यदा रूलु 'सरिए सूर्यः अभितरं' आ यन्तरां तच्च' तृतीयां 'दाहिणं' दाक्षिणात्यां 'अद्धमंडलरं ठिई अर्धमण्डलसंस्थितिं 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'टारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्ठाद शमुहूर्तो दिवसो भवति किन्तु 'चउहिं एगद्विभागमुहुत्तेहि पतुर्भि रेकषष्टिः गमुहत्तैः 'ऊणे' : नो हीनो भवति तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुइर्ता रात्रिभवति किन्तु 'चउहिं एगढिभागमुहुत्तेहि' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'अहिया' अधिका भवति एवं' एकमेव 'खलु' निश्च येन 'एएणं' एतेन पूर्वप्रदर्शिताधमण्डलसंस्थितित्रय Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे रूपेण 'उवाएणं' उपायेन क्रमेण प्रत्यहोरात्रं तत्तन्मण्डलगताष्टचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागतदनन्तरयोजनद्वयोल्लकनपूर्वकं तत्तदनेतनानन्तरस्थितप्रत्येकार्धमण्डलसंस्थितिपरिभ्रमणरूपेण विधिना 'णिक्खममाणे' निष्क्रामन् पूर्वस्थानादनन्तरस्थानं गच्छन् 'मूरिए' सूर्यः 'तयाणंतराओ' तदनन्तरादधमण्डलात्. 'तयाणंतरं' तदनन्तरां तदनन्तरस्थितां 'तंसि तंसि' तस्मिन् तस्मिन् 'देसंसि' देशे प्रदेशे दक्षिणपूर्वभागे उत्तरपश्चिमभागे वा 'तं तं' तां तां 'अद्धमंडलसंठिई' भर्धमण्डलसंस्थितिं 'संकममाणे २' संक्रामन् संक्रामन् एकृस्या अर्धमण्डलसंस्थितेरपरामर्धमण्डल. संस्थितिं स्वगत्या गच्छन् २ प्रथमस्य षण्मासस्य व्यशीत्यधिकशत(१८२) तमाहोरात्रस्य पर्यन्तभागे गते सति 'दाहिणाए' दाक्षिणात्यात् दक्षिणदिग्भवात् 'अंतराए' अन्तरात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमधिकृत्य द्वयशीत्यधिकशत-(१८२)-तममण्डलगताष्टचत्वारिंशद्योजनैकषष्टिभागतदनन्तरबाह्ययोजनद्वयप्रमाणोपेतापान्तरालरूपात् 'भागाए' भागात् निस्सृत्य 'तस्स' तस्य सर्वबाह्यमण्डलगतस्योत्तरार्धमण्डलस्य 'आइपएसाए' आदिप्रदेशात् अदिप्रदेशमाश्रित्य 'सव्वबाहिरं' सर्वबाह्यां 'उत्तरं' औत्तराम् उत्तरदिग्भवां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिं 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'सम्बबाहिरं' सर्वबाह्यां 'उत्तरं' औत्तराम् उत्तरदिग्भवां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थिति 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकर्षप्राप्ता 'उकोसिया' उत्कर्षिका सर्वगुर्वी-तत आधिक्याभावात् 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, तथा 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः ततो हीनत्वाभावात् 'दुवालसमुहुत्ते' द्वादशमुहूर्तः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति । उपसंहरन्नाह-'एस णं' इत्यादि, 'एस णं' एतत् खलु पढमे छम्मासे' प्रथमं षण्मासम् । 'एस णं' एतत् खलु 'पढमस्स छम्मासस्स प्रथमस्य षण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं पर्यन्तभागः ॥ अथार्धमण्डलसंस्थितिविषये द्वितीयं षण्मासं विवृणोति-से पविसमाणे' इत्यादि । 'से' अथानन्तरं निष्क्रमणानन्तरं प्रथमषण्मासस्य अन्तिमेऽहोरात्रेऽतिकान्ते सतीत्यर्थः 'पविसमाणे' प्रविशन अभ्यन्तरं गच्छन् 'मरिए' सूर्यः 'दोच्चं' द्वितीय 'छम्मासं' षण्मासं 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् ‘पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमे अहोरात्रे 'उत्तराए' मौत्तरात् उत्तरदिग्भागस्थितसर्वबाह्यमण्डलसम्बन्धिनः 'अंतराए भागाए' अन्तराद् भागात् सर्वबाह्यानन्तरस्थितार्धमण्डलगताष्टचत्वारिंशद्योजनैकषष्टिभागतदनन्तरपूर्वभावियोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद् भागात् विनिर्गत्य 'तस्स' तस्य दक्षिणदिग्भाविसर्वबाह्यानन्तरदक्षिणार्धमण्डलस्य 'आइपएसाए' आदिप्रदेशात् आदिप्रदेशमाश्रित्य 'बाहिराणंतरं' बाह्यानन्तरं सर्वबाह्यमण्डलादनन्तरभूता Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-२ सू०५ दाक्षिणात्यार्द्धमण्डलसंस्थितिस्वरूपम् ३९ मार न्तरां 'दाहिणं' दाक्षिणात्यां 'उद्धमण्डलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिं 'उवसंकमित्ता चार चरइ' उपसंक्रग्य चारं चरति । अत्रापि रवचारगत्या सूर्यस्याओतनसीमायामागमनं पूर्ववदेव भावनोयम् । एवमग्रेऽपि विज्ञेयम् । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः 'बाहिराणतरं' बाह्यानन्तरां पूर्वोक्तरूपां 'दाहिण' दाक्षिणात्यां 'अद्धमंडलसंठिई. अर्धमण्डलसंस्थिति 'उवर कमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई अष्टादश् मुहुर्ता रात्रिभवति किन्तु सा 'दोहिं एगढिभागमुहुत्तेहिं द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्तान्यां 'ऊणा' ऊना पूर्वगतरात्र्यपेक्षया हीना भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्तायां 'अहिए' अधिकः पूर्वगतदिवसापेक्षयाऽधिको भवति । 'से' अथ प्रथमाहोरात्रादनन्तः 'पविसमाणे' पूर्ववत् प्रविशन्नेव 'सरिए' सूर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीयेऽहो रात्रे 'दाहिणाए' दाक्षिणात्यात् 'अंतराए भागाए' अन्तराद् भागात् पूर्वप्रदर्शितप्रमाणापान्तरालरूभागान्निस्सृत्य 'तस्स' तस्य सर्वबाह्यादभ्यन्तरतृतीयोत्तरार्धमण्डलस्य 'आइपएसाए' आदिप्रदेशात् आदिप्रदेशमाश्रित्य 'वाहिराणंतरं' बाह्यानन्तरां बाह्यादनन्तरभूतामाभ्यन्तरां तच्च" तृतीयां सर्वबाह्यार्धमण्डलसंस्थितिमपेक्ष्य तृतीयां 'उत्तसं' मौत्तरां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिः 'उवसंकमित्ता चार चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया ण' यदा खलु सर्यः 'वाहिराणंतर' बाह्यानन्तरां पूर्वोक्तां 'तच्च' तृतीयां पूर्वोक्तरूपां 'उत्तरं' औत्तरां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थिति 'उपसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति तया णं' तदा खल 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति,, सा च 'चउहिं एगद्विभागमुहुत्तेहि' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूत्र्तेः 'ऊणा' ऊना होना भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्तो दिवसो भवई' द्वादशमहत्तॊ दिवसो भवति स च 'चउहि एगद्विभागमुहुत्तेहि' चतुर्भिरे कषष्टिभागमहत्तैः 'अहिए' मधिको भवति ‘एवं' पूक्तरीत्या 'खलु' निश्चयेन 'एएणं' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन अर्धमण्डलसंस्थितित्रयरूपेण 'उवाएणं' उपायेन क्रमेण विधिना 'पविसमाणे' प्रविशन् अभ्यन्तरं गच्छन् 'मरिए' सूर्यः 'तयाणंतराओ' तदनन्तरात् अर्धमण्डलात् 'तयाणंनरं' तदनन्तरां तदग्रेस्थितां 'तंसि तसि'- तस्मिन् तस्मिन् 'देससि' देशे-प्रदेशे दक्षिणपूर्वभागे उत्तरपश्चिमभागे वा 'तं त' तां तां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिं 'संकममाणे२' संक्रामन्२ एकस्याधमण्डलसंस्थितेरपरामर्धमण्डलसंस्थिति स्वगत्या गच्छन् गच्छन् द्वितीयस्य षण्मासस्य व्यशीत्यधिकशत-(१८२)-तमाहोरात्रस्य पर्यन्तभागे गर्ने सति 'उत्तराए' औत्तरात् उत्तरदिग्भवात् 'अंतराए भागाए' अन्तरात् भागात् सर्वबाह्यमण्डालापेक्षया चशीत्यधिकशततममण्डलगताष्टचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागतदनन्तराभ्यन्तर Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे योजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपभागात् 'तस्स' तस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतदक्षिणार्धमण्डलस्य 'आइपएसाए' आदिप्रदेशात् आदिप्रदेशमाश्रित्य 'सबभंतरं' सर्वाभ्यन्तरां 'दाहिणं' दाक्षिणात्यां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिं 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति, सूर्यस्य चारविधिना सीमायामागमनं पूर्ववदेवाबसेयम् । 'ता' तावत् 'जया ण' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः 'सबभंतरं' सर्वाभ्यन्तरां 'दाहिणं' दाक्षिणात्यां 'अद्धमंडलसठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिं 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रग्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षगतः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः तत आधिक्याभावात् , 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी ततो लाघवाऽभावात् 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । उपसंहरन्नाह-'एस णं' इत्यादि । 'एस गं' एतत् खलु 'दोच्चे छम्मासे' द्वितीयं षण्मासम् । 'एस णं' एतत् खलु 'दोच्चस्य छम्मासस्स' द्वितीयस्य षण्मासस्य ‘पज्जवसाणे' पर्यवसानं सर्वान्तिमभागो वर्तते । 'एस गं' एष खलु 'आइच्चे संवच्छरे' आदित्यः संवत्सर 'एस णं' एतत् खलु 'आइच्चसंवच्छरस्स' आदित्यसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे'पर्यवसानं पर्यन्तभागः ॥सू०५॥ ॥ इति दाक्षिणात्या अर्धमण्डलसंस्थितिः समाप्ता॥ गता दाक्षिणात्या अर्धमण्डलसंस्थितिः, साम्प्रतमौत्तरामर्धमण्डलसंस्थिति विवृण्वन्नाह'ता कहं ते उत्तरा अद्धमंडलसंठिई' इत्यादि । मूलम् - ता कहं ते उत्तरा अद्धमंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा ? ता अयण्णं जंबुहीवे दीवे सव्वदीवजावपरिक्खेवेणं पण्णत्ते । ता जया णं सरिए सव्वभंतरं उत्तरं अदमंडससंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से निक्खममाणे गवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाए तरसाइपएसाए अब्भंतराणंतरंदाहिणं अद्धमंडलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए अभंतराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिंएगद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिया । सेणिक्खममाणे सरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए अभितराणंतरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उव संकमित्ता चारं चरइ। ता जयाण सरिए अब्भतराणतरं तच्चं उत्तरं अदमंडलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणे. दुवालसमुहत्ता राई भवइ चउहि एगहिभाग Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-१-२ सू०६ औत्तरार्द्धमण्डलसंस्थितिखरूपम् ४१ मुहुत्तेहिं अहिया । एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सरिए तयाणंतराओ तयाणंतरं तंसि तंसि देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई संकममाणे २ उत्तराए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए सव्वबाहिरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जयाणं-सरिए सव्वबाहिरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमूहुत्ते दिवसे भबह । एस णं पढमे छम्मासे । एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए बाहिराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जयाणं मूरिए वाहिराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया गं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए । से पविसमाणे सरिए दोच्चंसि अहोरतसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए बाहिरं तच्चं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जयाणं मूरिए बाहिरं तच्चं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उबसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगद्विभागमुहुत्तेहिं अहिए । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे मूरिए तयाणंतराओ तयाणंतरं तंसि तसि देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई संकममाणे २ दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए सव्वभंतरं उत्तर अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए सव्वभंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अवारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । रस गं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे एस ण आइच्चे संवच्छरे । एस णं आइच्चसंवच्छरस्स पउजवसाणे ।। सूत्र ६॥ ॥ उत्तरा अद्धमंडलसंठिई समत्ता ॥ पढमस्स पाहुडस्स बीयं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ १-२ ॥ छाया- तावत् कथं ते औत्तरा अर्धमण्डलसंस्थितिः आख्यातेति वदेत् ? तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीप सर्वद्वीप-यावत्-परिक्षेपेण प्रशप्तः । तावत् सदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरां औत्तराम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । अथ निष्का Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे मन् सूर्यः नवं संवत्सरं अयन् प्रथमे अहोरात्रे औत्तरात् अन्तराद् भागात् तस्यादि. प्रदेशात् अभ्यन्तरानन्तरं दाक्षिणात्यां अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरां दक्षिणात्यां अर्धमण्डलसंस्थितिं उपसंक्रम्य चारं चरतितदा खलु अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति द्वाभ्याम् एकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यां ऊनः, द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यां पकषष्टिभागमहर्ताभ्यां अधिका। अथ निष्क्रामन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे दाक्षिणात्यात् अन्तराद् भागात् तस्यादिप्रदेशात् अभ्यन्तरानन्तरां तृतीयां औत्तरां अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अम्यन्तरानन्तरां तृतीयां औत्तरां अर्धमण्डलसंस्थितिं उपसंक्रम्य चारं चति तदा खलु अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूर्तः ऊनः, द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूत्तैरधिका । एवं खलु पतेन उपायेन निष्क्रामन् सूर्यः तदन्तरात् तदनन्तरां तस्मिन् तस्मिन् देशे तां तां अर्धमण्डलसंस्थितिं संक्रामन् २ औत्तरात् अन्तरात् भागात् तस्यादिप्रदेशात् सर्वबाह्यां दाक्षिणात्यां अर्धमण्डसंस्थितिं उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सर्वबाह्यां दाक्षिणात्यां अर्धमण्डसंस्थितिं उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति एतत् खलु प्रथमं षण्मासम् । एतत् खलु प्रथमस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् । __ अथ प्रविशन् सूर्यः द्वितीयं षण्मार्स अयन् प्रथमे अहोरात्रे दाक्षिणात्यात् अन्तराद् भागात् तस्यादिप्रदेशात् बाह्यानन्तरां औत्तरां अर्धमण्डलसंस्थितिं उपसंक्रम्य चार घरति तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्यानन्तरां औत्तरां अर्धमण्डलसंस्थितिं उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् ऊना, द्वादशमुहूर्तों दिवसो भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यामधिकः । अथ प्रविशन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे औत्तरात् अन्तराद् भागात् तस्यादिप्रदेशात् बाह्यां तृतीयां दाक्षिणात्यां अर्धमण्डलसंस्थिति उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु बाह्यां तृतीयां दाक्षिणात्यां अर्धमण्डलसंस्थिति उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकष्टिभागमुहूर्तः ऊना, द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूत्तरधिकः । एवं खलु एतेन उपा. येन प्रविशन् सूर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरां तस्मिन् तस्मिन् देशे तां तां अर्धमण्डलसंस्थितिं संक्रामन् २ दाक्षिणात्यात् अन्तराद् भागात् तस्यादिप्रदेशात् सर्वाभ्यन्तरां औत्तरां अर्ध मण्डलसंस्थितिं उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सर्वाभ्यन्तरां औत्तरां अर्धमण्डलसंस्थितिं उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्पकः अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भर्वात । एतत् खलु द्वितीयं षण्मासम् । एतत् खलु द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् । एष स्खलु आदित्यः संवत्सरः । एतत् खलु आदित्यसंवत्सरस्य पर्यवसानम्' । सू० ६। । औत्तरा अर्धमण्डल संस्थितिः समाप्ता ॥ 'प्रथमस्य मामृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१-२॥ व्याख्या- 'ता तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' तव मते उत्तरा' भौत्तरा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा० १ - २५०६ औतरार्द्धमण्डलसंस्थितिस्वरूपम् ४३ 'अद्धमंडल संठिई' अर्द्धमण्डलसंस्थितिः 'आहिया' आख्याता 'त्तिवएज्जा' इति वदेत् एतद् वदतु भगवान् इति - प्रश्नः । भगवानाह - 'ता' तावत् 'अयण्णं' अयं खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीप द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः 'सव्वढीव जाव परिक्खेवेणं' सर्वद्वीप यावत् परिक्षेपेण सर्वद्वीपसमुद्राणां मध्ये सर्वाभ्यन्तरः सर्वेभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लकः एकलक्षयोजनायामविष्कम्भपरिमाणवत्त्वात्, परिक्षेपेण परिधिना पूर्वप्रदर्शितप्रमाणेन 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः । 'ता' तावत् 'जया' यदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वव्यंतरं ' सर्वाभ्यन्तरं सर्वाभ्यन्तरस्थितां 'उत्तर' औत्तरां उत्तरदिग्भाविनीं 'अद्धमंडल संठिई' अर्धमण्डसंस्थितिं ' उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तम कट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उक्कोसए' उत्कर्षकः 'अट्ठा - रसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलम्वी 'दुवाल - समुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । अग्रे प्रथमे षण्मासे, द्वितीये षण्मासे इति परिपूर्णे आदित्य संवत्सरे यथा दाक्षिणात्याया अर्धमण्डलसंस्थितेर्व्याख्या कृता तथैवास्या औत्तराया अर्ध मण्डलसंस्थितेरपि सर्वा व्याख्याऽवसेया, विशेषस्तु एतावानेव यद् दाक्षिणात्यार्घमण्डलसंस्थितौ 'दाहिणं दाहिणाए' दाक्षिणात्यां दाक्षिणात्यात्' इति दाक्षिणात्य शब्देन व्याख्यात तदत्र औत्तरायामर्धमण्डसंस्थितौ सर्वत्र उत्तरं उत्तराए' 'औत्तरां औतरात्' इति शब्देन व्याख्येयम्, शेषं सर्वं दाक्षिणात्यार्धमण्डसंस्थितिदेव विज्ञेयमतोऽत्र विस्तरभयान्न व्याख्या कृता । मूलार्थः सर्वोऽपि छायागम्यत्वात् सुगम एवेति विरम्यते ॥ सू० ६ ॥ ।। इत्यौत्तरा अर्धमण्डलसंस्थितिः समाप्ता ॥ ॥ इति प्रथमस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ गतं प्रथमस्य मूलप्राभृतस्य द्वितीय प्राभृतप्राभृतम्, साम्प्रतं ' किं ते चिण्णं पड़िचर' | इति चीर्णप्रतिचरणाधिकारविषयकं तृतीयं प्राभृतप्राभृतं व्याख्यायते - ' ता किं ते चिणं' इत्यादि । मूलम् - ता किं ते चिण्णं पडिचरइ आहितेति वदेज्जा ?, तत्थ खलु इमे दुवे सूरिया पण्णत्ता तं जहा - भारहे वेव सूरिए 2, एखए चैव सूरिए । ता एते णं दुवे सूरिया पत्तये २ तीसाए २ मुहुत्तेहिं एगमेगं अद्धमंडल चरइ सट्ठीए सट्ठीए मुहुत्तेर्हि एगमेगं मंडलं संघाएं ते । ता णिवखममाणा खलु एते दुवे सूरिया णो अण्णमण्णस्स चिणं पडिचरंति, पविसमाणा खलु एते दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स चिणं पडिचरंति, तत्थ णं को हेउ-त्ति वदेज्जा ? ता अयणं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । तत्थ णं अयं भारहे चेव सूरिए जंबुद्दीवस्स दीवस पाईणपडीणाययाए उदीणवाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सरणं Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे छेत्ता दाहिणपुरथिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि बाणउई मरियमयाइं जाइं सरिए अप्पणा चेव चिण्णाइं पडिचरइ, उत्तरपच्चथिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि एक्काणउई मरियमयाइं जाइं सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाइं पडिचरइ । तत्थ अयं भारहे सूरिए एरवयस्स सूरियस्स जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणाययाए उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सएणं छेत्ता उत्तरपुरस्थिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि बाणउई सूरियमयाई जाइं सरिए परस्स चिण्णाई पडिचरइ, दाहिणपच्चथिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि एक्काणउइं सूरियमयाइं जाई सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरई । तत्थ अयं एरवए सूरिए जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणाययाए उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सएणं छेत्ता उत्तरपच्चस्थिमिल्लसि चउभागमंडलंसि बाणउई मरियमयाइं जाइं सुरिए अप्पणा चेव चिण्णाइं पडिचरइ, दाहिण पुरथिमिल्लंसि चउब्भागमंडलंसि एक्काण उइं सूरियमयाइं जाई सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरई । तत्थ णं अयं एरवए मूरिए भारहस्स सूरियस्स जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणाययाए उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सरणं छित्ता दाहिणपच्चत्थिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि बाणउई मरियमयाइं जाइं सूरिए परस्स चिण्णाई पडिचरइ, उत्तरपुरथिमिल्लिंसि चउभागमंडलंसि एक्काणउई सूरियमयाइं जाई सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरह । ता निक्खममाणा खलु एते दुवे सूरिया णो अण्णमण्णस्स चिणं पडिचरंति, । पविसमाणा खलु दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरंति । सयमेगं चोत्तालं ॥ गाहाओ ॥ सू० ७ ॥ ॥ पढमपाहुडस्स तइयं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ १-३ ॥ छाया-तावत् किं ते चीर्ण प्रतिचरति आख्यातमिति वदेत् ? तत्र स्खलु इमौ द्वौ सू? प्रक्षप्तौ तद्यथा-भारतकश्चैव सूर्यः १ ऐरवतिकश्चैव सूर्यः २ । तावत् पतो खलु द्वौ सूर्या प्रत्येकं २ त्रिंशता २ मुहूर्तः एकैकमर्धमण्डलं चरतः, षष्टया षष्टया मुहत्तः एकै मण्डलं संघातयतः । तावत् निष्कामन्तौ खलु एतौ द्वौ सा नो अन्योन्यस्य चीर्णप्रतिचरतः, प्रविशन्तौ खलु पतौ द्वौ सूर्यो अन्योन्यस्य चीर्ण प्रतिचरतः, तत्र को हेतुः १ इति वदेत् । तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । तत्र खलु अयं भारतकप्रचैव सूर्यः जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीप्रतीच्यायतया उदीचीदक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विशतिकेन शतेन छित्वा दक्षिणपौरस्त्ये चतुर्भागमण्डले द्वानवतिं सूर्यमतानि यानि से आत्मनैव चोर्णानि प्रतिवरति. उत्तरपाश्चात्ये चतर्भागमण्डले पकनवतिं सूर्यमतानि यानि सूर्य आत्मनैव चोर्णानि प्रतिचरति । तत्रायं भारतकः सूर्यः ऐरवतिकस्य सूर्यस्य जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीप्रतीच्यायतया उदीचीदक्षिणायतया जीवया Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा० १-३सू०७ सूर्यपरिभ्रमणविचारः ४५ मण्डलं चतुर्विशतिकेन शतेन छित्त्वा उत्तरपौरस्त्ये चतुर्भागमण्डले द्वानवति सूर्यमतानि यानि सूर्यः परस्य चोणानि प्रतिवरति, दक्षिणपाश्चात्ये चतुर्भागमण्डले एकनवर्ति सूर्यमतानि यानि सूर्यः परस्यैव चीर्णानि प्रतिचरति । तत्रायम् ऐरवतिकः सूर्यः जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीप्रतीच्यायतया उदीचादक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विशतिकेन शतेन छित्वा उत्तरपाश्चात्त्ये चतुर्भागमण्डले द्वानवति सूर्यमतानि यानि सूर्य आत्मनैव चीर्णानि प्रतिचरति, दक्षिणपौरस्त्ये चतुर्भागमण्डले पकनवतिं सूर्यमतानि यानि सूर्यः आत्मनैव चीर्णानि प्रतिचरति । तत्र खलु अयम्-ऐरवतिकः सूर्यः भारतकस्य सूर्यस्य जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीप्रतीच्यायतया उदीचीदक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विशतिकेन शतेन छित्त्वा दक्षिणपाश्चात्ये चतुर्भागमण्डले द्वानवति सूर्यमतानि यानि सूर्यः परस्य चीर्णानि प्रतिचरति, उत्तरपौरस्त्ये चतुर्भागमण्डले एकनवति सूर्यमतानि यानि सूर्यः परस्यैव चीर्णानि प्रतिचरति ततो निष्क्रामन्तौ खल पत्तौ द्वौ सूर्यो नो अन्योन्यस्य चीर्ण प्रतिचरतः । “शतमेकं चतुश्चत्वारिंशम्" । गाथा । स्त्र ॥७॥ ॥ प्रथमप्राभृतस्य तृतीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ।। १-३ ॥ व्याख्या-'ता' तावत् 'किं' किम् कथं केन प्रकारेण 'ते' तव मते चिण्णं पडिचरई' 'कि चीर्ण पतिचरति' इति 'आहिय' इति आख्यातं कथितम् ? इति-एतद्विषयं 'चएज्जा' वदेत् वदतु कथयतु भगवान् ? इति प्रश्न:-उत्तरमाह-'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ खल' तत्र खल 'इमे' इमौ शास्त्रप्रसिद्धौ ‘दुवे' द्वौ 'सरिया' सूn 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तौ कथितौ पूर्वतीर्थकरगणधरैरिति, 'तं' जहा' तद्यथा तौ यथा-भारहए चेव सुरिए' भारतकश्चैव यः सर्वबाह्यमण्डलस्य दक्षिणात्येऽधमण्डले चारं चरितुं समारभते स भरतक्षेत्रप्रकाशकत्वाद् भारतः सूर्यः, 'एरवए चेव सूरिए' ऐरवतश्चैव यस्तस्यैव सर्वबाह्यमण्डलस्य औत्तरेऽर्धमण्डले चारं चरति स ऐरवतक्षेत्रप्रकाशकत्वाद ऐरवतः सूर्यः २ । 'ता' ततः 'एते गं' एतौ भरतैरवतक्षेत्रे चारिणौ खलु 'दुवे सूरिया' द्वौ सूयौँ पत्तेयं २ प्रत्येकं २ एकैकत्वमाश्रित्य 'तीसाए तीसाए' त्रिंशता त्रिंशता मुहत्तेहि' मुहूर्तेः 'एगमेगं' एकैकं 'अद्धमंडलं' अर्धमण्डलं 'चरंति' चरतः परिभ्रमतः 'सट्टीए सट्ठीए षष्ट्या षष्ट्या -पष्टिषष्टिसंख्यकैः ‘मुहुत्तेहि' मुहूर्तेः 'एगमेगं' एकैकं 'मंडलं' मण्डलं 'संघाएंति' संघातयतः सार्द्ध मेव परिपूरयतः, न तु पूर्वापरेण 'तो' तत्र-एकसूर्य. संवत्सरमध्ये 'निक्खममाणा खलु' निक्रामन्तौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निस्सरन्तौ खलु “एते दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो ‘णो' नौ नव 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परस्य 'चिणं' चीर्ण तत्तद्वारा पूर्व सेवितं क्षेत्रं 'पडिचरंति' प्रतिचरतः अपरोऽपरेण चीण क्षेत्रे, अन्योऽन्येन च चीर्णे क्षेत्रे तौ न परिभ्रमतइत्यर्थः, ( इदं जम्बूद्वीपचित्रवशादवसे यम् ) किन्तु 'पविसमाणा' प्रविशन्तो सर्वबाह्यमण्डलादभ्यन्तरं चतुरशीत्यधिकशततमं मण्डलं गच्छन्तौ खलु - एते दुवे सूरिया एतौ द्वौ सूर्यो 'अण्णमण्णस्त' अन्योन्यस्य 'चिण्णं चीर्ण तत्तद्वारा पूर्व सेवितं क्षेत्र Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'पडिचरंति' प्रतिचरतः परिभ्रमतः । गौतमः पृच्छति-'तत्थ णं' तत्र एवंविधव्यवस्थायां 'को हेऊ' को हेतुः किं कारणम् ! 'त्तिवएज्जा' इति वदेत् इति भगवन् ! कथयतु । भगवानाह-'ता' तावत् श्रूयताम् 'अयण्णं' अयं खलु 'जंबूद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः 'जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते' यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञतः जम्बूद्वीपपरिमाणं पूर्व प्रतिपादितं ततो विज्ञेयम् । 'तत्थ णं' तत्र खलु 'अयं' प्रत्यक्षं दृश्यमानः 'भारहे चेव' भारतश्चैव भरतक्षेत्रप्रकाशकत्वाद् भारतः 'मूरिए' सूर्यः 'जंबुद्दीवस्स दीपस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य 'पाईणपडीणाययाए' प्राचीप्रतीच्यायतया पूर्वदिशातः पश्चिमदिशापर्यन्तं या दीर्घा तया तथा-'उदीणदाहिणाययाए' उदोचीदक्षिणायतया उत्तरदिशातो दक्षिणदिशापर्यन्तं या दीर्घा तया 'जीवाए' जीवया जीवासा दृश्याज्जीवा प्रत्यश्चा, तया उ.+द. ते द्वे अपि जीवे अधिकृत्येत्यर्थः 'मंडलं' मण्डलं यस्मिन् प. यस्मिन् मण्डले सूर्यः परिभ्रमति तत्तन्मण्डलं 'चउवीसएण सएणं' चतुर्विशतिकेन चतुर्विशत्यधिकेन शतेन (१२४) 'छेत्ता' छित्वा विभज्य तस्य तस्य मण्डलस्य. चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यकान् भागान् परिकल्प्य, तेषां चतुर्दिक्त्वात् चतुर्भिर्भागो हर्त्तव्यः, तेनागताः प्रतिदिक् एकैकमण्डलस्य एकत्रिंशद् एकत्रिंशद्भागाः, ततस्तेषु 'दाहिणपुरथिमिल्लंसि' दक्षिणपौरस्त्ये दक्षिणपूर्वदिक् स्थिते आग्नेय्यां दिशि वर्तमाने 'चउब्भागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले चतुर्भागीकृते मण्डले मण्डलस्य चतुर्भागे तस्य तस्य चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यकत्वेन परिकल्पितस्य मण्ड लस्य चतुर्थे भागे एकत्रिंशत्संख्यकरूपे इत्यर्थः सूर्यसंवत्सरसम्बन्धिनि द्वितीये षण्मासे 'वाणउई' द्विनवतिं द्वयधिकनवतिसंख्यकानि मण्डलानि चतुर्भागरूपाणि 'सूरियमयाई, सूर्यमतानि सूर्येण भारतसूर्येण पूर्व मतानि अतएव 'जाइ' यानि 'अप्पणा चेव आत्मनैव स्वयं 'चिण्णाई' चीर्णानि पूर्व सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद्वहिनिष्क्रमणसमये आसेवितानि तानि 'सूरिए' सूर्यः 'पडिचरई' प्रतिचरति तेषु परिभ्रमतीत्यर्थः । तानि न परिपूर्णचतुर्भागमात्राणि किन्तु स्व स्वमण्डलगतचतुर्विशत्यधिकशतसम्बध्यष्टा दशाष्टादशभागप्रमितानि । ते चाष्टादशाष्टादशभागा न सर्वेष्वपि मण्डलेषु भवन्ति, प्रतिनियतदेशे एष भवन्ति, किन्तु कापि मण्डले कुत्रापि, केवल दक्षिणपौरस्त्यस्य चतुर्भागमध्ये भवन्ति तत आह-दाहिणपुरथिमिल्लसि' इति । तथा स एव भारतः सूर्यः तस्यैव द्वितीयषण्मासस्य मध्ये 'उत्तरपच्चत्थिमिल्लंसि' उत्तरपाश्चात्ये वायव्यकोणे 'चउभागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलस्य चतुर्भागे 'एक्काणउई' एकनवति एकनवतिसंख्यकानि मण्डलानि पूर्ववत् स्वस्वमण्डलगतचतुर्विशत्यधिकशतसम्बन्ध्यष्टादशाष्टदशभागप्रमितानि 'सूरियमयाई' सूर्यमतानि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-३ सू०७ सूर्यपरिभ्रमणविचारः ४७ सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रमणकाले मतानि, एतदेव स्पष्टयति- 'जाई अप्पणा चेव' यानि - आत्मनैव स्वयं पूर्व चिण्णाई' चीर्णानि तानि 'सूरिए' सूर्यः भारतः सूर्यः 'पडिचर इ' प्रतिचरति । अत्र चतुरशीत्यधिकशतसंख्यकेषु सर्वेषु मण्डलेषु सर्वबाह्यमण्डलात् शेषाणि त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यकानि मण्डलानि सन्ति, तानि च प्रत्येकं द्वितीयषण्मासमध्ये द्वाभ्यामपि सूर्याभ्यां परिभ्रम्यन्ते, अर्थात् द्वितीयषण्मासे तेषां त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यक मण्डलानां मध्ये एकस्मिन् एकस्मिन् मण्डले द्वावपि सूर्ये परिभ्रमतः । सर्वेष्वपि दिग्विभागेषु प्रत्येकस्मिन् दिग्विभागे एकस्मिन् मण्डले एक एव सूर्यः परिभ्रमति, द्वितीये तु अपरः सूर्यः । एवं सर्वान्तिममण्डलपर्यन्तमपि परिभावनीयम् । तत्र द्वितीयषण्मासे दक्षिणपौरस्त्ये दिविभागे भारत: सूर्यो द्विनवतिसंख्यकानि मण्डलानि परिभ्रमति, ऐरवतश्च सूर्यएकनवतिसंख्यकानि मण्डलानि परिभ्रमति । उत्तरपाश्चात्ये दिगविभागे च ऐरवतः सूर्यो द्विनवतिसंख्यकानि मण्डलानि परिभ्रमति भारत: सूर्यश्च - एकनवतिसंख्यकानि मण्डलानि परिभ्रमति । एवं व्यशीत्यधिकशतसंख्यकेषु सर्वेष्वपि मण्डलेषु द्वयोः सूर्ययोः परिभ्रमणं भवतीति । एतच्च पट्टिकादौ मण्डलानि विलिख्य परिभावनीयम् । अतएव - म- दक्षिणपौरस्त्ये द्विनवतिसंख्यकानि मण्डलानि, उत्तरपाश्चात्ये च एकनवतिसंख्यकानि मण्डलानि भारतः सूर्यः स्वयं पूर्वं चीर्णानि प्रतिचरतीति । तदेवं भारतसूर्यस्य स्वचोर्णप्रति - चरणपरिमाणं प्रदर्शितम् अथ च तस्यैव भारतसूर्यस्य परचीर्णप्रतिचरणपरिमाणं प्रदर्शयति'तन्थ णं अयं भारहे' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र मध्यजम्बूद्वीपे 'अयं' अयं प्रस्तुत प्रकरणोल्लि खितो जम्बूद्वीपसम्बन्धीभरत क्षेत्र प्रकाशकारित्वाद् भारतः सूर्यः 'जंबुद्दीवस्स दीवस्स' जंबू.. द्वीस्य द्वीपस्य 'पाईणपडीणाययाए प्राचीप्रतीच्यायतया पूर्वपश्चिमदीर्घया, तथा 'उदीणदाहिणाययाए' उदीचीदक्षिणायतया उत्तरदक्षिणदीर्घया 'जीवाए' जीवया जीवासादृश्यात् जीवा तया दवरिकयेत्यर्थः 'मंडल' मण्डलं चतुर्भिर्विभक्तं तत्तन्मण्डलं 'चउबीसएणं सरणं' चतुर्विंशतिकेन चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन शतभागेन 'छेत्ता' छित्त्वा - हृत्वा 'उत्तरपुरत्थिमिलंसि' उत्तरपौरस्त्य उत्तरपूर्वदिग् विभागे ईशानकोणे इत्यर्थः 'चउब्भागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलस्ये चतुर्थे भागे तेषामेव द्वितीयानां षण्णां मासानां मध्ये 'एरवयस्स सूरियस्स' ऐरवतस्य सूर्यस्य 'बाणउहं' द्वानवति द्विनवतिसंख्यकानि 'सूरियमयाई' सूर्यमतानि ऐश्वतसूर्येण पूर्व निष्क्रमणकाले मतानि मती कृतानि - जाई' यानि 'सूरिए' सूर्यः भारतः सूर्यः 'परस्स चिण्णाई' परस्य ऐरवतस्य सूर्यस्य द्वारा 'चिण्णाई' चीर्णानि निष्क्रमणकाले तानि 'पडिचरइ' प्रतिचरति, तथा 'दाहिणपच्चत्थिमिल्लं सि' दक्षिणपाश्चात्ये नैऋतकोणे च 'चउन्भागमं - डलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलस्य चतुर्थे भागे 'एक्काणउई' एकनवतिं एकनवतिं संख्यकानि 'रियमया सूर्यमतानि एरवतसूर्यमतानि ऐरवतसूर्य सम्बन्धीनि 'जाई' यानि 'सूरिए' सूर्यः Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे भारतः सूर्यः 'परस्स चेव' परस्यैव ऐरवतसूर्यस्यैव द्वारा 'चिण्णाई' चीर्णानि 'पडिचरइ' प्रतिचरति । एकस्मिन् भागे द्विनवतिरेकस्मिन् भागे च एकनवतिरित्यत्रापि भावनीयम् । इत्थं च भारतः सूर्यो दक्षिणपौरस्त्ये भागे द्विनवतिसंख्यकानि, उत्तरपाश्चात्ये भागे च एकनवति संख्यकानि स्वयं चीर्णानि प्रतिचरति, उत्तरपौरस्त्ये भागे द्विनवतिसंख्यकानि दक्षिणपाश्चात्ये भागे च एकनवतिसंख्यकानि परचीर्णानि ऐरवतसूर्यचीर्णानि प्रतिचरतीतिभावः । साम्प्रतमैरवतसूर्यविषयं प्रतिपादयति-तत्थ' तत्र जम्बूद्वीपमध्ये 'अयं' अयं प्रत्यक्षतउपलभ्यमानः जम्बूद्वीपसम्बन्धी एरवए सूरिए' ऐरवतक्षेत्रप्रकाशकारित्वात् ऐरवतः सूर्यः 'जंबुद्दीवस्स दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य पाइणपडीणाययाए प्राचीप्रतीच्यायतया पूर्वपश्चिमदीर्धया 'उदीणदाहिणाययाए' उदीचीदक्षिणायतया उत्तरदक्षिणदीर्घया 'जीवाए' जीवया 'मंडलं' मण्डलं चतुर्भिवर्भिक्तं तत्तन्मण्डलं 'चउबीसएणं सएणं' चतुर्विंशकेन शतेन चतुर्विशत्यधिकैकशतेन 'छेत्ता' छित्त्वा 'उत्तरपच्चथिमिल्लंसि' उत्तरपाश्चात्ये भागे 'चउ. भाग मंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलस्य चतुर्थे भागे 'बाणउई-द्विनवति द्विनवतिसंख्य कानि 'सूरियमयाई' सूर्यमतानि-ऐरवतसूर्येणैवमतानि मतीकृतानि 'जाई' यानि 'सूरिए' सूयः ऐरवतसूर्यः 'अण्पणा चेव' आत्मनैव स्वयं 'चिण्णाई' चीर्णानि 'पडिचरई' प्रतिचरति, तथा 'दाहिणपुरस्थिमिल्लसि' दक्षिणपौरस्त्ये भागे 'चउब्भागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलचतुर्थभागे एकाणउई' एकनवति एकनवतिसंख्यकानि सूरियमयाई' सूर्यमतानि ऐरवतसूर्येशैव मतानि 'जाई' यानि सूरिए' सूर्यः ऐरवतसूर्यः 'अण्पणाचेव' आत्मनैव स्वयं 'चिण्णाई' चीर्णानि 'पडिचरई' प्रतिचरति । 'तत्थ णं' तत्र खलु जम्बूद्वीपे 'अयं' अयं पूर्वप्रदर्शितः ‘एरवए सरिए' ऐवतः सूर्यः' जंबूद्दीवस्स दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य जम्बूद्वीपनामकस्य द्वीपस्य 'पाईणपडि णाययाए'प्राचीप्रतीच्यायतया पूर्वपश्चिमदीर्घया 'उदिणदाहिणाययाए' उदीची दक्षिणायतया उत्तरदक्षिणदीर्घया जीवया 'मंडलं' मण्डलं तत्तन्मण्डलं'चउवीसएणं सएणं' चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्ता' छित्वा विभज्य 'दाहिणपच्चत्थिमिल्लंसि' दक्षिणपाश्चात्ये भागे 'चउब्भागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलचतुर्भागे 'भारहस्स सूरियस्स' भारतस्य सूर्यस्य भारतसूर्यसम्बन्धीनि 'बाणउई' द्वानवति द्वानवतिसंख्यकानि 'सूरियमयाई' सूर्यमतानि भारत सूर्यमतानि 'जाई' यानि 'मूरिए' सूर्यः ऐरवतः सूर्यः 'परस्स' परस्य भारतसूर्यस्य द्वारा 'चिण्णाई'चीर्णानि 'पडिचरइ' प्रतिचरति, तथा 'उत्तरपुरस्थिमिल्ल सि' उत्तरपौरस्त्ये भागे 'चउब्भागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलचतुर्थभागे तस्यैव भारतसूयस्य एक्काणउई' एकनवति एकनवतिसंख्यकानि 'सूरियमयाई' सूर्यमतानि भारतसूर्यप्रतिसेवितानि 'जाई' यानि 'मरिए' सूर्यः ऐरवतसूर्यः 'परस्स चेव' परस्यैव द्वारा चिण्णाई'चीर्णानि 'पडिचरई' प्रतिचरति । अयं भावः-ऐरवतः सूर्यः उत्तरपश्चिमे भागे द्वीनवतिसंख्यकानि मण्डलानि, दक्षिणपूर्वे Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०१-४सू०८ द्वयोः सूर्योः परस्परमन्तरं लभ्यते ४९ भागे च एकनवति संख्यकानि मण्डलानि स्वयं चीर्णानि प्रतिचरति, दक्षिणपश्चिमे भागे द्विनवति संख्यकानि मण्डलानि उत्तरपूर्वे च एकनवति संख्यकानि मण्डलानि परचीर्णानि अर्थात् भारतसूर्य चीर्णानि प्रतिचरतीति । उपसंहारमाह-'ता' इत्यादि 'ता' तावत् 'निक्खममाणा' निष्क्रामन्ती खलु 'एते' एतौ शास्त्रप्रसिद्धौ ‘दुवे' ही भारतैरवतसम्बन्धिनौ 'सूरिया' सूर्यो ‘णो' नो नैव 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परस्य 'चिण्णं' चीणं क्षेत्रं 'पडिचरति' प्रतिचरतः,किन्तु 'पविसमाणा' प्रविशन्तौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलामिमुखं गच्छन्ती खलु ‘एते दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परस्य 'चिण्णं' चीण क्षेत्रं 'पडिचरंति' प्रतिचरतः, किन्तु 'पविसमाण' प्रविशन्तौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुरवं गच्छन्तौ खलु 'एते दुवे सूरिया' एतो द्वौ सूर्यो'अण्णमण्णस्य' अन्योन्यस्य 'चिण्णं' चिर्ण क्षेत्रं पडिचरंति' प्रतिचरतः । अत्र 'सयमेगं चोतालं' शतमेकं चतुश्चत्वारिंश, एवम्भूतादिपदगर्भिताः ‘गाहाओ' गाथाः संग्रह गाथा पठितव्याः। ताश्च नोपलभ्यन्तेऽतः कथयितुं न शक्यन्ते । अस्य सूत्रस्यायमाशयः ___ अत्र भारतः सूर्यः अभ्यन्तरं प्रविशन् प्रत्येकं मण्डलं द्वौ चतुर्भागौ स्वयं ची# प्रतिचरति, द्वौ च परची# अर्थात् ऐरवतसूर्यची# प्रतिचरति । एवम् ऐरवतः सूर्योऽपिअभ्यन्तरं प्रविशन् प्रत्येकं मण्डलं द्वौ चतुर्भागौ स्वयं ची# चरति, द्वौ च परचीणो अर्थात् भारतसूर्यचीणों - प्रतिचरति इत्येवं प्रतिमण्डलमेकं केनाहोरात्रद्वयेन उभय सूर्यचीर्णप्रतिचरणविवक्षायां सर्वेऽष्टो चतुर्भागाः प्रतिचीर्णा लभ्यन्ते, ते च चतुर्भागाश्चतुर्विंशत्यधिकशतसम्बन्ध्यष्टादशभागप्रतिता भवन्ति, तच्च प्राक प्रदर्शितमेव, तत एतेऽष्टौ चतुर्भागा अष्टादशभिर्गुणिताभवन्ति चतुश्चत्वारिंशधिकैकशतसंख्यकाः । (१४४) इति ॥सू० ७॥ । इति प्रथमस्य प्राभृतस्य तृतीयं प्राभृतमामृतं समाप्तम् ॥१-३॥ गतं प्रथमस्यमूलप्राभृतस्य तृतीयं प्राभृतप्रामृतम् ' साम्प्रतम् 'अंतरं किं चरंति य' द्वौ 'सूर्यों परस्परं कियदन्तरेण चारं चरतः, इत्यधिकार विषयकं चतुर्थ प्राभृतां विक्रयते -'ता केवइयं ते' इत्यादि । मूलम्-ता केवइयं ते एए दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरंति आहितेति वएज्जा ! तत्थ खलु इमामो छ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थ एगे एवमासु-ता एगं जोयणसहस्स एगं च तेत्तीसं जोयणसयं, अण्णमण्णस्स । अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, एगे एवमाहंसु ।१। एगे पुण एवमाहंसु ता एगं Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे जोयणसहस्सं एगं चउतीसं जोयणसयं अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, एगे एवमाहंसु ।२। एगे पुण एवमासु- ता एर्ग जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसयं अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंत, एगे एवमासु !३। एगे पुण एवमाहंसु ता एगं दीवं एंग समुई अण्णमण्णस्स अतरं कटु सूरिया चारं चरंति, एगे एवमाहेसु ।४। एगे पुण एवमाहंसु-ता दो दीवे दो समुद्दे अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, एगे एवमाहंमु १५। एगे पुण एवमासु-ता तिण्णि दीवे तिण्णि समुद्दे अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, एगे एवमाहंसु ।६। एयं पुण एवं वयामो ता पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं अभिवुड्ढेमाणा वा निव्वुड्ढे माणा वा सूरिया चारं चरंति । तत्थ णं को हेऊ आहि तेति वएज्जा ! ता अयण्णं जम्बुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते, ता जया णं एते दुवे सूरिया सयभंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं णवणउइं जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसयाई अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति तया णं उक्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से निक्खममाणा सूरिय णवं संवच्छरं अयमाणा पढमंसि अहोरत्तंसि अन्भितराणं तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति । ता जयाणं एते दुवे सूरिया अन्भितराणं तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं णवणवई जोयणसहस्साइं छच्चापणताले जोयणसयाइं पणतीसं च एगद्विभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे अवइ दोहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगहिभागमुहुत्तेहि अहिया । से निक्खममाणा सूरिया दोच्चंसि अहोरत्तंसि अन्भितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति । ता जयाणं एते दुवे सूरिया अब्भितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं णवणवई जोयणसहस्साई छव्व इक्कावणे जोयणसयाई नव य एगट्ठिभागे जोयणस्य अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगढिभागमुहुत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगद्विभागमुहुर्तेहिं अहिया । एवं खल एएणं उवाएणं णिक्खममाणा एते दुवे सूरिया तयाणं तराओ मंडलाओ, तया णं तरं मंडलं संकममाणा २ पंच-पंच जोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एग मेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं अभिवड्ढेमाणा २ सव्वबाहिरं मंडलं उवमंकमित्ता चारं चरंति । ता जयाणं एते दुवे सूरिया सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं एगं जायणसयसहस्स छच्चसटे जोयणसयाई अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा. १- उसू०८ द्वयोः सूयर्योः परस्परमन्तरं लभ्यते ५१ उक्कोसिया अट्टारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एसणं पढमे छम्मासे । एसणं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे ।। सूत्रसू ८॥ छाया तावत् कियत्कं ते एतौ द्वौ सूर्यो अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा चारं चरतः ! असंव्यातमिति वदेत् तत्र खलु इमाः षट् प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-रात्र एके एवमाहुः-तावत् एकं योजनसहस्त्रम् एकं व त्रयस्त्रि शत् योजनशतम् अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा सूर्यो चार चरनः, एके एवमाहः । ____एके पुनरेवमाहुः तावत् एक योजना स्त्रम् एकं चतुस्त्रिंशत् योजनशतम् अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा स्यों नारं चरतः, एके एवमाहुः ।२। पके पुनरेव माहुः तावत् एकं योजनसहस्त्रम् एकं च पञ्चत्रिंशत् योजनशतम् अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा सूर्यो चारं चरतः, पके श्चमाहुः ।।। एके पुनरेवमाहुः तावत् एकं द्वीपं एकं समुद्रं अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा सूर्यो चारं चरतः, एके एवमाहुः ।४। पके पुनरेवमाहुः तावत् द्वौ द्वीपौ द्वौ समुद्रौ अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा सूर्यो चारं चतः, एके पवमाहुः ५। पके पुनरेघमाहुः-तावत् त्रीन् द्वीपान् श्रीन समुद्रान् अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा सूर्यों चारं घरतः, एघमाहुः ।।। क्यं पुनरेवं वदामः-तापत् पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिशच्च पकषष्टिभागान् योजनस्य एकैकस्मिन् मण्डले अन्योन्यस्य अन्तरं अभिवध्यन्तौ वा निर्वर्धयन्तो वा सूयौं चारं चरतः । तत्र खलु को हेतुराख्यातः ? इति वदेत् । तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्रक्षप्तः । तावत् यदा खलु एतौ द्वां सूयौं सर्वाभ्यन्तरमण्डलं उपसंक्रम्य यारं चरतः तदा खलु नवनवति योजनसहस्त्राणि पट् च चत्वारिंशत् योजनशतानि अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा स्यौं घारं बरतः तदा खल्लु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहूत्तों दिवसोभवति, जन्यिका द्वादशमुहुहूर्ता राश्रित । तो निक्रामन्ती सूर्यो नवं संवत्सरं अयन् प्रथमे अहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तरं मंडलं उपसंक्रम्य चारं चरतः तावत् यदा खलु एतौ द्वौ सूर्यो अभ्यन्तरानन्तरं मंडलं उपसंक्रम्य चारंचरतः तदा स्खल नदनशति योजनलहसस्त्राणि षट च च चत्वारिंशत् योजनशताः पञ्चत्रिशच्च एक पष्टि भागान् योजनस्य अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा चार चरतः तदा स्खलु अष्टादशमुहर्तो दिवसो भवति द्वाभ्यामेकषष्टि भागमुहूर्ताभ्यां ऊनः, द्वादशमुहर्मा रात्रिभति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यामधिका । तौ निष्क्रामन्तौ सयौं द्वितीये अहोपत्रे अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलं उपसंक्रम्य चारं चरतः। तावत् यश एलु एतौ द्वौ सूर्यो अन्तरं तृतीयं मण्डलं उपसंक्रम्य चारं चरत तदा खलु नवनवति योजनसहसस्त्राणि षट्रच एक पञ्चशत् योजनशतानि नव च एकषष्टिभागान योजास्य अन्योन्यस्य अंतरं कृत्वा बारं चरत तदा खलु अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तरूनाद्वादशः हूर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकष्टिभागमुहूर्तरधिका । एवं खलु एतेन उपायेन निष्कामन्ती द्वौ सूचौं तदनन्तरात् मण्डलात् तदनन्तरं मडलं संक्रामन्तौ २ पञ्चपञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशः एकषष्टिभागान् योजनस्य एकैकस्मिन् मण्डले अन्यान्यस्य अन्तरं अभिवर्धयन्ती, सर्व बाह्ममण्डलं उपसंक्रम्य चार चरतः । तावत् यद खलु पतों द्वौ सूर्यो सर्वबाम मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरत तदा खलु पकं योजना Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे शतसहस्त्रं षट् च षष्टिः योजनशतानि अन्योन्यस्य अंतरं कृत्वा चारं चरत तदा खलु उत्तमकाष्टाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति । एतत् स्खलु प्रथमं षण्मासम् । एतत् स्खलु प्रथमस्य षण्मास्य पर्यवसानम् ॥सू० ८॥ व्याख्या-'ता' तावत् ते तव ते केवइयं कियत्कं 'एए' एतौ भारतैरवतसम्बन्धिनौ 'दुवे सरिया' द्वौ सूयॊजम्बूद्वीपगतौ 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परस्य 'अंतरं' अन्तरं 'कटु' कृत्वा 'चारचरंति' चारंचरतः इति 'आहितं' आख्यातम् 'त्ति' इति 'वदेज्जा' वदेत् वदतु हे भगवन् । अथ भगवान् अस्मिन् विषये अन्यतैर्थि कमतरुपाः षट्र प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति-तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ खलु' तत्र खलु तस्मिन् चास्यान्तरविषये 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणस्वरुपाः 'छ' षट् 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतमान्यताविषयाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः पूर्वतीर्थंकरगणधरैः ता एव प्रदर्शयति-तत्थ एगे' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र तत्तत्प्रतिपत्तिप्ररुपकाणां मध्ये 'एगे' एके केचन प्रथमाः ‘एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः स्व शिष्यान् परान् वा प्रतिकथयन्ति, तदेव दर्शयति-'ता' तावत् 'एगं जोयणसहस्सं' एकं योजनसहस्त्रं सहस्त्रयोजनं 'च' तथा 'एगं तेत्तीसं जोयणसयं' एकं त्रयस्त्रिंशत् योजनशतं त्रयस्त्रिंशदधिकैकशतसंख्यकं (११३३) 'अण्णमण्णस्य' अन्योन्यस्य अंतरं कटु' अन्तरं व्यवधानं कृत्वा जम्बूद्वीपे 'सरिया' सूर्यो द्वौ सूर्यो 'चारं चरंति' चारं चरतः, उपसंहारमाह 'एग्गे एवमाहंसु' एके एवमाहुः एके केचन एवं पूर्वोक्त प्रकारेण कथयन्ति । इति प्रथमा प्रतिपत्तिः १। अथ द्वितीयामाह'एगे पुण एवमासु' एके पुनरेवमाहुः अर्थः पूर्वोक्तवद् भावनीयः, एवं सर्वत्रापिभावना कार्यो । 'ता' तावत् 'एगं जोयणसहस्सं' एक योजनसहस्त्रं तदुपरि 'एगं उत्तीसं जोयणसयं' एकं चतुस्त्रिंशदयोजनशतं चतुस्त्रिंशदधिकं शतमेकं योजनानां (११३४) 'अण्णमण्णस्स अंतरं कटु' अन्योन्यस्यान्तरं कृत्वा 'सरिया' सूर्यो 'चारं चरंति' चारं चरतः । पूर्वोक्तप्रकारेण एगे एवमासु एवं एवमाहुः इति द्वितीयां प्रतिपत्तिः । अथ तृतीयामाह-'एगे पुण एवमाहंमु' एके पुनरेवमाहुः-'ता' तावत् 'एगं जोयणसहस्सं' एकं योजनसहस्त्रं 'एगं च पणतीसं जोयणसयं' एकं च पञ्चत्रिंशद् योजनशतं पञ्चत्रिंशदधिकैकशतं (११३५) 'अण्णमण्णस्स अंतरं कटु' अन्योन्यस्यान्तरं कृत्वा 'मरिया' द्वौ सूया 'चारं चरंति' चारं चरतः । एगे एवमासु' एके एवमाहुः । इति तृतीया प्रतिप्रत्तिः ३॥ अथ चतुर्थी माह 'ता' तावत् 'एगे पुण एवमासु' एकेपुनरेवममाहुः-एगं दीवं एगं समुई' एकं द्वीपमेकं समुद्रं 'अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु' परस्परस्य अन्तरं कृत्वा 'सूरिया' सूयाँ 'चारं चरंति' चार चरतः ‘एगे एवमाहंसु' एके एवमाहुः इति चतुर्थी प्रतिपत्तिः ४॥ अथ पञ्चमीमाह-'ता' तावत् 'एगे पुण एवमासु' एके पुनरेवमाहुः 'ता' तावत् 'दो दीवे' दो समुद्दे' द्वौ द्वीपौ द्वौ समुद्रौ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-४ सू०८ द्वयोः सूयर्योः परस्परमन्तरं भभ्यते ५३ 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतर कटु' अन्तरं कृत्वा 'सूरिया' सूर्यो 'चारं चरंति' चारं चरतः । 'एगे एवमाहंसु' एक-एवमाहुः । इति पञ्चमीप्रतिपत्तिः ५॥ अथ षष्ठीमाह-'एगे पुणएकमाइंसु' एके पुनरेवमाहुः-एके केचन षष्ठाः पुनः परमतवादिन एवं वक्ष्यमाण प्रकारेण आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'तिण्णि दीवे तिणि समुद्दे' त्रीन् द्वीपान् त्रोन् समुद्रान् 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतरं कटु' अन्तरं व्यवधानं कृत्वा 'सूरिया' सूर्यो 'चारं चरंति' चारं चरतः । 'एगे एवमाहंस' एके एवमाहुः षष्ठ समाः परमतवादिनः पूर्वोक्त प्रकारेण प्रति पादयन्ति । इति षष्ठी प्रतिपत्तिः ६।। एते पूर्वोक्ता अन्यतैर्थिका यथावस्थितवस्तुतत्त्वज्ञानाभावात् मिथ्यावादिनः सन्ति । अथ भगवान् पूर्वपूर्वतीर्थकरान् आश्रित्यबहुवचनेन स्वमतं प्रकटयति-'वयंपुण' इत्यादि । 'वयं पुण'वयं पुनः अद्यावधि अस्मत्पर्यन्त येऽनन्तस्तीर्थकरा पूर्व जाताः वर्तमाने च पूर्व वर्तमाने च पूर्वा महाविदेहक्षेत्रेसन्तिस्तानपेक्ष्य वयं सर्वे इतिभावः ‘एवं' एव वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो वदामः कथयामः प्ररूपयामइत्यर्थः । तदेवदर्शयति-'ता' इत्यादि । 'ता' तावत् द्धावपिसूया सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्कामन्तौ प्रतिमण्डलं 'पंच पंच जोयणाई' पञ्च पञ्च योजनानि तदुपरि 'पणतीसं च एगाट्ठिभागे जोयणस्स' पञ्चविंशज एकषष्टिभागान् योजनस्य, एकस्य योजनस्य पञ्चत्रिंशत्संख्यकान् भागान् ‘एगमेगेमडले' एकैकस्मिन् मण्डले प्रत्येकस्मिन् मण्डले 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परस्य भारतः सूर्यः ऐरवतस्य, ऐरवत सूर्यो भारतस्य पूर्वपर्वमण्डलगतान्तरापेक्षयाऽग्रेड 'अंतरं' अन्तरं अन्तरपरिमाणं 'अभिवुड्ढेमाणा वा' अभिवर्धयन्तौ वा, 'या' अथवा निवुइढेमाण' निर्वर्धयन्तौ हापयन्तौ सर्वबाह्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ प्रतिमण्डलं पूर्वोक्त प्रमाण न्यूनं कुर्वन्तौ 'सूरिया' द्वावपि सूयौ 'चारं चरंति' चारं चरतः परिभ्रमतः इत्युत्तरम् । कथमेतावत्प्रमाणं प्रतिमण्डलमन्तरं लभ्यते ? इति चेदुच्यते-इह एकः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतान् अष्टचत्वारिंशद् एकषष्टि भागान् योजनस्य तथा-अपरे च द्वे योजने स्पृष्ट्वा सर्वाभ्यन्तरादनन्तरं यदने तनं द्वितीयं मण्डलं, तस्मिन् द्वितीये मण्डले चारं चरति, एवं द्वितीयोऽपि सूर्यः पूर्वोक्त प्रमाणमेव क्षेत्रं स्पृष्ट्वा सर्वाभ्यन्तरादनन्तरे द्वितीयेमण्डले चारं चरति, एवं द्वे योजने अष्टचत्वारिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्येति द्वयोः सूर्ययोः संमेलने जाताः पञ्चयोजनानि पञ्चत्रिशच्च एक षष्टिभागा योजनस्य तथा चाङ्कस्थापना | २-३८ । संमेलने जाता ४-८६ चतुरग्रेतना । षटशीति ।२-४८ संख्याचैकषष्ट्या ६१ विभाज्यते तदालब्धमेकम् १ तच्च चतुः संख्यायां योजने जाताः पञ्च, ३५ शेषाः पञ्चत्रिंशत् तत आगतं पूर्वोक्त प्रमाणं- पञ्चयोजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागाः ५ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे योजनस्य एतावत्प्रमाणाद्वयोः सूर्ययोरन्तरे वृद्धिर्हानिर्वा अग्रेऽग्रे प्रत्येकस्मिन्नहोरात्रे भवतीति सर्वत्र भावनीयम् । एवं श्रुत्वा भगवान् गौतम पुनः पृच्छति-'तत्थ णं' इत्यादि । 'तत्थ णं' तत्र तस्यां भवत्प्रदर्शितव्यवस्थायां खलु हे भदन्त ! 'को हे उ' को हेतुः किं कारणं, तदवगमेका उपपत्ति ? 'त्ति' इति 'वएज्जा' वदेत् , प्रसादं कृत्वा कथयतु हे भगवनिति । एवं गौतमेन पृष्टे भगवान् पूर्वोक्त विषयं स्पष्टयति-ता अयण्णं' इत्यादि । 'ता' तावत् प्रथमं जम्बूद्वीपपरिमाणं श्रूयताम् 'अयण्णं' अयं प्रत्यक्षं दृश्यमानः खलु 'जंबुदीवो दीवो' जम्बूद्वीपो द्वीपः मध्यजम्ब्वोपः 'जाव' यावत्-यावत्पदेन पूर्वप्रदर्शितं सर्वमपि जम्बूद्वीपपरिमाण प्रतिपादकं वाक्यमत्रापि भावनीयम् । 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण अयं पूर्वप्रदर्शितपरिमाणेन परिधिना 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः कथितः । 'ता' तावत् 'जयाणं' यदा स्वल 'एते दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सू? 'सव्वन्भंतर मंडलं' सर्वाभ्यन्तरमण्डमं 'उपसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरंति' चारं चरतः 'तया णं' तदा खलु 'णवणउइं जोयणसहस्साई' नवनवति योजनसहस्त्राणि नवनवति सहस्त्रसंख्यकानि योजनानि तदुपरि 'छच्च' षट् 'चत्ताले' चत्वारिंशत् 'जोयणसयाई' योजनशतानि चत्वारिंशदधिक षट् शतसंख्याकानि (९९६४.) योजनानि 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतरं कटु' अन्तरं कृत्वा 'सूरिया' सूर्यो 'चारं चरंति' चारं चरतः अतएव 'तया णं तदा खलु 'उत्तमकट्ठपत्ते उत्तमकाष्ठा प्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्तः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः ततः परमुत्कर्षाभावात् 'अट्ठारसमुहुरो' अष्टादशमुहूर्तः षट् त्रिंशद् घटिकायुक्तः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'जहणिया' जधन्यिका सर्वलध्वी ततः परं लाघवाभावात् 'दुवालसमुहुत्ता' द्वादशमुहूर्ता द्वादशमुहूर्त्तवती चतुर्विंशति घटिका युक्ता 'राई भवई' रात्रिर्भवति । अत्राह-सर्वाभ्यन्तरे मण्डले द्वयोः सूर्ययोः परस्परं 'णवणउइं जोयणसहस्साई' इत्यादि कथितप्रमाणकमन्तरे कथमुपलभ्यते ? इति चेदाहइह जम्बूद्वीपो द्वीपः आयामविष्कम्भाभ्यामेकलक्ष योजनप्रमाणः (१०००००) तत्रैकः सूर्यो जम्बूद्वीपस्य मध्ये अशीत्यधिकमेकं शतं योजनानि समवगाह्य सर्वाभ्यन्तरमण्डले 'चारं चरति' एवं द्वितीयोऽपि अशीत्यधिकमेकं शतं योजनानां समवगाह्य चारं चरति अशीत्यधिकं शतमेकं द्वाभ्यां गुणितं द्वयोः सूर्ययोः संमिलितं जातं षष्ट्यधिकं शतत्रयम् (३६०) एतत् जम्बूद्वीपस्य लक्षयोजनप्रमाणादपनीयते तत आगतं पूर्वोक्तमन्तरपरिमाणं चत्वारिंशदधिक षट्शत्तोत्तरनवनवति सहस्रयोजनरूपम् (९९६४०)। तथा च कोष्ठकम् जम्बूद्वीपप्रमाणम्-१००००० --लक्षमेकम् , एष अपनेय राशिः सूर्य द्वयावगाह्यक्षेत्रम् ३६०-षष्ट्यधिकं शतत्रयम् , एष अपनयन सूर्यद्वयान्तरक्षेत्रम्-९९६४०-चत्वारिंशदधिक षट् शतोत्तरनवनवति सहनशशिः संख्यकम् एष अपनीत राशिः सूर्यः द्वयान्तरम् । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-४सू०८ द्वयोः सूयर्योः परस्परमन्तरं लभ्यते ५५ 'ता' तौ द्वौ निक्खममाणा' निष्क्रामन्तौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद् वहिर्गच्छन्तौ 'सूरिया' सू? णवं संवच्छरं' नवं संवत्सरं सूर्यसंवत्सरं 'अयमाणा' अयन्तौ प्राप्नुवन्तौ तस्यैव नवसंवत्सरस्य ‘पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'अभितराणं तरं मंडलं' अभ्यन्तरानन्तरं अभ्यन्तरातनं मण्डलं ‘उवसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः । 'ता' तावत् 'जयाणं' यदा खलु ‘एते दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सू? 'अभितराणं तरं मंडलं' अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलं 'उवसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया णं' तदा खलु 'नवनवई जोयणसहस्साई' नवनवति योजनसहस्त्राणि तदुपरि 'छच्च' षट् 'पणताले' पञ्च चत्वारिंशत् जोयणसयाई' योजनशतानि पञ्च चत्वारिंशदधिकानि षट् शतानि (९९६४५) योजनानिमिति भावः पुनः ‘पणतीस च' पश्चत्रिशच्च ‘एगढिगमागे एकषष्टिभागान् ‘जोयणस्स' योजनस्य, तथा चाङ्कतः-९९६४५ २५, एतावत्प्रमाणं अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्स परस्यरस्य एकतो द्वितीयस्य 'अंतरं' अन्तरं व्यवधानं 'कटु' कृत्वा चारं चरंति' चारं चरतः अतएव 'तया णं' तदा तस्मिन् काले खलु 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहिं एगाद्विभागमुहुत्तेहिं' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यां 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सा च 'दोहि एगद्विभागमुहुत्तेहिं' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यां 'अहिया' अधिका भवति, यावत्प्रमाणेन दिवसो न्यूनो भवति तावत्प्र. माणेनैव रात्रेवृद्विसद्भावात् । पुनरपि ते णिक्खममाणा सूरिया' तौ निष्क्रामन्तौ द्वितीयमण्डलान्निस्सरन्तौ सूर्यो नवस्य सूर्य संवत्सरस्य 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीये अहोरात्रे 'अन्भितरं' आभ्यन्तरं सर्वाभ्यन्तरं तच्चं मंडलं' तृतीयं मंडलं 'उवसंकमित्ता चारं चरंति'उपसंक्रम्य चारं चरतः 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलं 'एते दुवे सरिया' एतौ दो सूर्यो 'अभितरं तच्च 'मंडलं' आभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलं 'उवसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया णं तदा खलु 'नवनवई' नवनवतिं 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्त्राणि 'छच्च एक्कावण्णे जोयणसयाई' षट् एक पञ्चाशत् योजनशतानि एक पञ्चाशदधिकानि षट्शत्योजनानि 'नव य एगद्विभागे जोयणस्स' नव च एक षष्टिभागान् योजनस्य 'अण्णमण्णस्य' अन्योन्यस्य 'अंतरं कटु चारं चरंति' अन्तरं कृत्वा चारं चरतः, अतएव 'तया णं' तदा तस्मिन् समये खलु 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, किन्तु सः 'चउहिं एगद्विभागमुहुत्तेहिं' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तः 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ताराईभवई' द्वादशमुइर्ता रात्रिमवति, किन्तु सा 'चरहिं एगद्विभागमुहुत्तेहि' चतुर्भिरकषष्टिभागमुहूर्तेः 'अहिया' अधिका भवति । द्वयोः सूर्य योरेतावदन्तरं कया रीत्या समुपलभ्यते ! अत्रोच्यते Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे एतौ द्वौ सूय यदा सर्वाभ्यन्तरमण्ले चारं चरतः तदा चत्वारिंशदधिकषट्शतोत्तरनवनवतिसहस्त्रसंख्यक (९९६४०) योजनानि द्वयोः सूर्ययोः परस्परमन्तरं भवतीति प्रतिपादितम् । ततोऽग्रे निष्क्रमणसमये वृद्धःप्राप्तत्वात् प्रत्यहोरात्रं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागान् योजनस्य संवयें सूया गतिं कुरुतः, इति पूर्व सिद्धान्तरूपेण प्ररूपितम् । तदनुसारेण सूर्यो यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलादलेतनं मण्डलमुपसंक्रामतः, तदा तस्मिन् प्रथमेऽहोरात्रे पूर्व प्रदर्शितप्रमाणे(९९६४०) पञ्चत्रिंशदेक पष्टिभागोत्तरपञ्चयोजनानां (५-२५ ) संमेलने निष्क्रामणावसरत्वादन्तरमध्येवृद्धिमाश्रित्य आगतं (९९४५ २५) प्रथमाहोरात्रप्रमाणम् । एवं द्वितीयेऽहोरात्रे गताहोरात्र संख्यायां (९९६४५ ३६) पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाधिकपञ्चयोजनानांसंमेलने आगतं (९९६५१) द्वितीयाहोरात्रप्रमाणाम् । एवमग्रेऽपि संवर्धनक्रमः परिभावनीयः यावत् प्रथम षण्मासस्यान्ते सर्वबाह्यमण्डलचारसमये षष्टयधिकषट्शतोत्तरमेकं लक्ष योजनानां (१००६६०) द्वयोः सूर्ययोः परस्परमन्तरं लभ्यते तावत्पर्यन्तं योजनीयमिति । तदेव संक्षेपेण दर्शयति-‘एवं खलु' इत्यादि । ‘एवं' इति अनेनपूर्वोक्तेन 'उवाएणं' उपायेन विधिना तथा च एकतएकः सूर्यः प्रतिमण्डलं द्वे योजने अष्टचत्वारिंशच्च एकषष्टिभागान् (२४८) योजनस्यविकम्प्य (उपभुज्य) चारं चरति, अपरतो द्वितीयोऽपिसूर्यएवमेव अष्टचत्वारिंशदेकषष्टि भागयुतं योजनद्वयं (२- विकम्प्य चारं चरति, एवं द्वयोमलने जातं पञ्चयोजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागाः (५-२८) परिमाणम्, एवं रूपेण निष्क्रामन्तौ तौ द्वावपि जम्बूद्वीपगतौ सूर्यों पूर्वपूर्वस्मात् तदनन्तरस्थितात् मण्डलात् तदनन्तर स्थितं मण्डलं संक्रामन्तौ एकैकस्मिन् मण्डले पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणापेक्षयापञ्च पञ्च योजनानि पञ्चैत्रिंश चैकषष्टि भागान् (५-३१) योजनस्यपरस्परमभिवर्धयन्तौ २ नवसूर्यसंवत्सरस्य व्यशीत्यधिकशत(१८३)तमेऽहोरात्रे प्रथम षण्मास पर्यवसानभूते सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः, तस्मिन् समये द्वयोः सूर्ययोरन्तरं षष्टयत्तर षट् शताधिकं लक्षमेक (१००६६०) योजनानां प्राप्यते, इत्यने स्पष्टी भविष्यति । एतेन विधिना 'निक्खममाणा' निष्क्रामन्तौ 'एते दुवे सूरिया' एतौ दो सूर्यो 'तया णं तराओ' तदनन्तरात् यत्र सूर्यो स्थितौ तस्मात् 'मंडलाऔं' मण्डलात् 'तयाणं तरं' तदनन्तर तदने स्थितं 'मंडलं' मण्डलं 'संकममाणा, २ संक्रामन्तौ २ पंच Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ ६१ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-४सू०८ द्वयोः स्यर्योः परस्परमान्तर्यनिरूपणम् ५७ पंच जोयणाई' एञ्च पञ्च योजनानि 'पणतीसं च एगसहिभागे जोयणस्स' पञ्चत्रिंशच्च एकषष्टिभागान् (५-२० ) योजनस्य 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले 'अण्णमण्णस्स, अन्योन्यस्य परस्परस्य भारतः सूर्य ऐरवतस्य, ऐरवतश्च सूर्यो भारतस्य 'अंतरं' व्यवधानं 'अभिवुड्ढेमाणा २' अभिवर्धयन्तौ २'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरंति' चारं चरतः 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'एते दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्य मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया ण' तदा खलु 'एगं जोयणसहस्सं' एकं योजनशतसहस्रं लक्षमेकं योजनानां, तथा 'छच्च सहे जोयणसयाई' षट् च षष्टिः षष्टयधिकानि योजनशतानि षष्टयधिकषट्शतोत्तरेकलक्षयोजनपरिमितम् (१००६६०) 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतरं कट्टु' अन्तरं व्यवधानं कृत्वा 'चारं चरंति' चारं चरतः । अतएव 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकहपत्ता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकर्षप्राप्ता 'उकोसिया' उत्कषिका सर्वाधिकपरिमाणा ततः परमाधिक्याभावात् 'अट्ठारसमुहुत्ता' अष्टादशमुहूर्ता 'राई भवई' रात्रिर्भवति, तथा 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघु प्रमाणः ततः परं लाघवाभावात् 'दुवालसमुहुत्ते' द्वादशा मुहूर्त्तः 'दिवसे भवई' दिवसो भवतीति । यदा द्वौ सूर्यो सर्वबाह्यमण्डले चारं चरतस्तदा तयोरन्तरं षष्टयधिकषट्शतोत्तरैकलक्ष. योजन (१००६६०) परिमितं भवतीति यत् प्रतिपादितं तत् कथमुपलभ्यते ? इति तदेव प्रदर्शयामः-एतयोर्द्वयोः सूर्ययोर्मध्ये एकैकस्य सूर्यस्य प्रतिमण्डलं योजनद्वयमष्टचत्वारिंशच्च एकषष्टिभागाः-(२ ) योजनस्य संचरणक्षेत्रं भवति, ततः एतत्क्षेत्रप्रमाणमेकस्य सूर्यस्य भवेत् तत् द्वयोः सूर्ययोः क्षेत्रपरिमाणर्य संमेल्यते तदा जातं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य (५-२५) इति पूर्व प्रदर्शितम् , तच्चात्र द्वयोः सूर्ययोनिष्क्रमणावसरत्वादभिवर्धमानं गृह्यते । सर्वाभ्यन्तरमण्डलाच्च सर्वबाह्यं मण्डलं ज्यशीत्यधिकशततमं (१८३) वर्तते, ततः पूर्वप्रदर्शितं यदभिवर्धनक्षेत्रं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशञ्चैकषष्टिभागाः (५-एतद्रूपं तत् त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते । तत्र पञ्चानां योजनानां त्र्यशीत्यधिकशतेन गुणने समागतं गुणनफलं पञ्चदशोत्तरनवशत (९१५)संख्यकम् । ततः शेषा एकषष्टिभागसंख्या पञ्चत्रिंशत् (३५)इयमपि त्र्यशीत्यधिकशतेन गुण्यते प्राप्तं गुणनफलं पञ्चोत्तर चतुः-षष्टिशत (६४०५) संख्यकम् । एषः शशिरेकषष्ट्याराधिकत्वादेकषष्ट्या भागो हियते लब्धं Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~~~ ~~ ~ ~ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे पञ्चोत्तरमेकं शतम् (१०५)। एषा संख्या-पूर्वगुणिते योजनराशौ पश्चोत्तरनवशत (९१५) रूपे प्रक्षिप्यते तदा जातं विंशत्यधिकदशशत (१०२०) संख्यकम् । एष राशिः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतोक्तपरिमाणे चत्वारिंशदधिकषट्शतोत्तरनवनवतिसहस्रयोजनरूपे (९९६४०) प्रक्षिप्यते ततः समागतं यथोक्तं षष्टयधिकषट्शतोत्तरैकलक्ष (१००६६०) संख्यक सर्वबाह्यमण्डले चारं चरतोईयोः सूर्ययोरन्तरपरिमाणमिति । उपसंहरन्नाह-'एस णं पढमे छम्मासे' एतत् खलु प्रथम षण्मासम् । 'एस णं' एतत् खल 'पढमस्स छम्मासस्स' प्रथमस्य षण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तिममहोरात्रमिति" ॥सूत्रम् ॥ उक्तं चतुर्थप्राभृतप्राभृतस्य सूर्यान्तरविषयं प्रथमं षण्मासम् , अथ तस्यैव तदेव द्वितीय षण्मासं प्रस्तौति-'ते पविसमाणा' इत्यादि । मूलम् - ते पविसमाणा सरिया दोच्चं छम्मासं अयमाणा पढमंसि अहोरतसि बाहिराणंतरं मडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति । ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं एग जोयणसयसहस्सं छच्चउप्पण्णे जोयणसयाइं छत्तीसंच एगसट्ठिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं अहिए । ते पविसमाणा सूरिया दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति । ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं एगं जोयणसयसहस्स छच्च अडयाले जोयणसयाई बावण्णं च एगसहिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति तया गं अटारसमुहुत्ता राई भवइ चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेहिं अहिए । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणा एते दुवे सूरिया तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणां २ पंच पंच-जोयणाई पणतीसे एगसहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं निव्वुड्ढेमाणा २ सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति . ता जया णं एते दुषे सूरिया सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं णवणउई जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसयाइं अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति, तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुकालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एसणं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जक्साणे । एस णं आइच्चे संवच्छरे । एस णं आइच्चसंवच्छरस्स पज्जवसाणे ॥ सूत्रम् ९॥ पढमस्स पाहुडस्स चउत्थं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१-४॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-१-: सू०९ द्वितीयषण्मासे द्वयोः सूर्ययोरान्तर्यम् ५९ छाया-तौ प्रविशन्तौ सूर्या द्वितीयं षण्मासम् अयन्तौ प्रथमे अहोरात्रे बाह्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरनः । तावत् यदा खलु एतौ द्वौ सूर्या बाह्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः तदा खलु एकं योजनशतसहस्रं षट् च चतुष्पञ्चाशद योजनशतानि षत्रिंशच्च एकष्टिभागान् योजनस्य अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा चारं चरतः तदा खलु अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् ऊना, द्वादशमुहृत्तॊ दिवसो भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् अधिकः । तौ प्रविशन्तौ सूर्यो द्वितीये अहोरात्रे बाह्यं तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः । तावत् यदा खलु पतौ द्वौ सो बाह्य तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः तदा खलु एकं योजनशतसहस्र षट् न अष्टचत्वारिंशद् योजनशतानि द्विपञ्चाशच्च एकषष्टिभागान् योजनस्य अन्योन्यस्य अन्तर कृत्वा चारं चरतः तदा खलु अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूर्त ऊना, द्वादशमुहूर्तों दिवसो भवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूर्तरधिकः। एवं खलु एतेन उपायेन प्रविशन्तौ एतौ द्वौ सूर्यो तदनन्तरात् मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रा. मन्तौ २ पञ्च एञ्च योजनानि चत्रिंशद एकषष्टिभागान् योजनस्य एकैस्मिन् मण्डही अन्योन्यस्य अन्तरं निर्वर्धयन्तौ निर्वर्धयन्तौ सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चार चरत तावत् यदा खलु एतौ द्वौ सूचौं सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः तदा खलु नवनवतिं योजनसहस्राणि षट् ८ चत्वारिंशद् योजनशतानि अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा चार बरतः तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहूत्तो दिवसो भवति, जघ. न्यिक द्वादशमुहूत्र्ता रात्रिर्भवति । एतत् खलु द्वितीयं षण्मासम् । एतत् खलु द्वितीयस्य षण्मा पस्य पर्यवसानम् । एष खलु आदित्यः संवत्सरः । एतत् खलु आदित्यसंवत्सरस्य पर्यवसानम् ।।सू० ९॥ ॥प्रथमस्य मामृतस्य चतुर्थं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१-४॥ व्याख्या-'ते' तो तावेव रतैरवतसम्बधिनौ 'पविसमाणा' प्रविशन्तौ सर्वबाह्याद् मण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन्तौ 'सूरिया' सूर्यो 'दोच्च छम्मासं' द्वितीयं षण्मासम् 'अयगाणा' अयन्तौ प्राप्नुवन्तौ तस्यैः 'पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'बाहिराणतरं' बाह्यान्तरं सर्वबाह्यमण्डलादभ्यन्तराभिर खं द्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरि' चारं चरतः । 'ता' तावत् 'ज्या गं' यदा खलु ‘एते दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो 'बाहिराणंतरं मंडल' बाह्यानन्तरं बा भागतोऽन्तःस्थितं द्वितीयं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरंति, उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया ' तदा खलु 'एगं जोयणसयसहस्सं' एक योजन शतसहस्रं 'छच्च चउपपणे जोयणसयाई' षट्चतुष्पञ्चाशयोजनशतानि चतुष्प वाशधिकषटशतोत्तरमेकं लक्षम् 'सव्वीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स' षड्वंशतिं चैकपष्टिभ गान योजनस्य (१००६५४ . अत्र सूर्ययोरभ्यन्तरप्रवेशकाले प्रथमषण्मासप्रदर्शितविधिना षष्टयधिकषट्शतोक्रैकलक्षरूपात् (१००६६०) सर्वबाह्यमण्डलस्थित Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे ~ ~~ ~ ~ ~ ~ ६१/ सूर्यान्तरपरिमाणात् पश्चत्रिंशदेकषष्टिभागयुक्तयोजनपञ्चक (५-२०) प्रमाणस्य प्रतिमण्डलं हानेरवसरत्वात् हानिकरणादेतावत्प्रमाणम् 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतरं कटु' अन्तरं कृत्वा चारं चरंति' चारं चरतः 'तया णं' तदा खलु 'अट्ठारसमुहत्ता राई भवई' भष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति किन्तु सा 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यां 'ऊणा' ऊना हीना भवति । 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्याम् 'अहिए' अधिको भवति, अहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणत्वेन रात्रेर्यावत्प्रमाणमूनत्वं भवेत् तावत्प्रमाणेनैव दिवसाधिकत्वस्यावश्यम्भावात् 'ते' तौ द्वौ 'पविसमाणा' प्रविशन्तौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन्तौ 'मूरिया' सू: 'दोच्चंसि अहोरत्तसि' द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरं' बाह्य सर्वबाह्यभागात्प्राप्तम् 'तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलं 'उपसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'एते दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो 'वाहिरं' बाह्यं तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया णं' तदा खलु 'एग जोयणसयसहस्सं' एकं योजनशतसहस्र 'छच्च अडयाले जोयणसयाई' षड् अष्टचत्वारिंशयोजनशतानि अष्टचत्वारिंशदधिकषट्शतोत्तरमेकं लक्षं (१००६४८) तथा 'बावणं च एगसट्ठिभागे जोयणस्स' द्विपञ्चाशच्च एकषष्टिभागान् योजनस्य (१००४८ १अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतरं कटु' अन्तरं कृत्वा 'चारं चरंति' चारं चरतः 'तया णं, तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ' अष्टदशमुहर्ता रात्रिर्भवति किन्तु सा 'चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'ऊणा' ऊना होना भवति' तथा 'दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहत्ततॊ दिवसो भवति किन्तु सः 'चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं चतुमिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'अहिए' अधिको भवति । ‘एवं' अनेन प्रकारेण 'खलु' निश्चितम् 'एएण' एतेन पूर्वमनुपदर्शितेन प्रतिमण्डलं पञ्चयोजनपञ्चत्रिंशदेकषष्टिभाग (५-३५ हायनरूपेण उवाण उपायेन विधिना 'पविसमाणा' प्रविशन्तो सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रति गच्छन्तौ 'एए दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो 'तयाणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तरान्मण्डलात् स्वस्थानरूपात् 'तयाणंतरं मडलं' तदनन्तरं तदनेऽनुपदं वर्तमानं मण्डलं 'संकममाणा २' संक्रामन्तौ २ 'पंच पंच जोयणाई' पञ्च पञ्च योजनानि 'पणतीसे एगसहिभागे जोयणस्स' पश्चत्रिंशदेकषष्टिभागान् योजनस्य 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले 'अण्णमण्णस्स' ५२ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-४ सू०९ द्वितीयषण्मासे द्वयोः सूयर्योरान्तर्यम् ६१ अन्योन्यस्य 'अंतरं' अन्तरं व्यवधानं 'निव्वुढेमाणा २' निर्वर्धयन्तौ २' हापयन्तौ २ 'सव्वभतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः मण्डलान्मण्डलं गच्छत इति भावः । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'एए दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो ‘एवंरीत्या' संचरन्तौ 'सव्वन्भंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया णं' तदा खलु 'नवनवइं जोयणसहस्साई' नवनवतियोजनसहस्राणि छच्च' षट् 'चत्ताले चत्वारिंशत् 'जोयणसयाई' योजनशतानि चत्वारिंशदधिकानि षट् शतानि योजनानां च (९९६४०) 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य अंतरं कटु' अन्तरं व्यवधानं कृत्वा 'चारं चरंति' चारं चरतः 'तया णं' तदा तस्मित् काले खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परम प्रकर्षसंपन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः ततः परमाधिक्याभावात् 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहतों दिवसो भवति, तथा 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी ततः परं हीनत्वाभावात् 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । अयं भावः द्वयोः सूर्ययोः सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थितौ चत्वारिंशदधिकषट् शतोत्तरैनवनवतिसहस्रं योजन (९९६४०) संख्यकंसर्वजघन्यमन्तरं भवति तथा सर्वबाह्यमण्डलस्थितौ षष्टयधिकषट्शतोत्तरैकलक्षयोजन (१०.६६०) संख्यकं सर्वोत्कृष्टमन्तरं भवति। अत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डलतः सर्वबाह्यमण्डलगमनार्थ निष्क्रमणकाले द्वयोः सूर्ययोरन्तरस्य वृद्धिः, सर्वबाह्यमण्डलतः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगमनार्थ प्रवेशकाले च हानिर्भवतीति । उपसंहरन्नाह-'एस णं' इत्यादि । 'एस णं' एतत् पूर्वोक्तं खलु 'दोच्चे छम्मासे द्वितीयं षण्मासम् । 'एस णं' एतत् खलु 'दोच्चस्स छम्मासस्स' द्वितीयस्य षण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम् अन्तिममहोरात्रम् 'एस णं' एष खलु 'आइच्चे संवच्छरे' आदित्यः संवत्सरः षण्मासद्वयरूपो वर्त्तते । ‘एस णं' एतत् खलु 'आइच्च संवच्छरस्स' आदित्यसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तभागः ॥सू० ९॥ ॥पथमस्य मूलमाभृतस्य चतुर्थ प्राभृतपाभृतं समाप्तम् ॥१-४ गतं प्रथमस्य मूलप्राभृतस्य चतुर्थ प्राभृतप्राभृतम् । अथ तद्त पञ्चमं प्रारभ्यते, अस्य 'चायमभिसम्बन्धः पूर्वम् 'ओगाहइ केवइय' कियन्तं द्वीपं समुद्रं वा सूर्योऽवगाहत इति यत् संग्रहगाथायां प्रोक्तं तदेवात्र प्रदर्शयिष्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्य पञ्चमप्राभृतप्रामृतस्येदमादिमं सूत्रम् ‘ता केवइयं ' इत्यादि । ___ मूलम्-ता केवइयं ते दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सुरिए चारं चरइ आहितेति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-तत्थेगे एवमाइंसु ता एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सरिए Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ चन्द्रप्रशतिसूत्रे चारं चरs, एगे एवमाहंसु १। एगे पुण एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्से एंग चउत्तीसं जोयणसयं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एमासु २ । एगे पुण एवमाहंसु - ता एगं जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसयं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु ३ । एगे पुण एवमाहंसु-ता अवं दीवं वा समुदं वा ओगाहिता सूरिए चार चरs, एगे एवमाहंसु ४ । एगे पुण एवमाहंसु - ता नो किंचिदी वा समुहं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ एगे एवमाहंसु ५० तत्थ जे ते एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं एगं तेत्तीस जोयणसयं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ ते एवमाहंसु - जया णं सूरिए सव्वन्तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं जंबुद्दीवं दीवं एगं जोयणसहस्सं एगं तेत्तीस जोयसयं ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया णं सूरिए सव्ववाहिरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं लवणसमुदं एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमक पत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भव जण दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एवं चोत्तीसं जोयणसयं २ । पणतीसे वि एवं चैव भाणियव्वं ३ । तत्थ णं जे ते एवमाहंसु-ता अवढं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सुरिए चारं चरइ ते एवमाहंसु - जया णं सूरिए सव्वमंतरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ तथा णं अवइढं जंबुद्दीवं दीवं ओगाहित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एवं सव्वबाहिरे वि, णवरं अवइदं लवणसमुदं तया णं राई दियं तत्र ४ । तत्थण जे ते एवमाहंसु-ता णो किंचि दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरई, ते एवमाहंसु - ता जया णं सरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरड़ तया णं णो किंचि जंबुद्दीवं दीवं ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तहेव एवं सव्वबाहिरए मंडले, णवरं णो किंचि लवणसमुद्दे ओगाहित्ता चारं चरइ, राई दियं तहेव, एगे एवमाहं ॥ ५ ॥ वयं पुण एवं वयामो ता जया णं सूरिए सम्बन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं जंबूद्दीवं दीवं असीई जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमक पत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहण्णिया दुवालसमुत्ता राई भवइ । 'ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं लवणसमुद्द Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-५ सू०१० सूर्यस्य द्वीपसमुद्रावगाह निरूपणम् ६३ तिणि तीसंजोयणसयाई ओगाहित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ ।। सूत्र ।। १० “पढमस्स पाहुडस्स पंचमं पाहुडं समत्तं" १-५॥ छाया . तावत् कियत्कं ते द्वीपं वा समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति आख्यातमिति वदेत् ? । तत्र खलु इमाः पञ्च प्रतिपत्तयः प्राप्ताः, तद्यथा- एके एवमाहुः तावत् एकं योजनसहस्रम् एकं च त्रयस्त्रिशद् योजनशतं द्वीपं वा समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति, एके एवमाहुः १ । एके पुनरेवमाहुः-तावत् एकं योजनसहस्रम् एकं चतुस्त्रिंशद् योजनशतं द्वीपं वा समुद्र वा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति एके एवमाहुः २। एके पुनरेवमाहुः तावत् एकं योजनसहस्रम्, एकं च पञ्चत्रिंशद् योजनशतं द्वीपं वा समुद्र वा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति, एके एवमाहुः ३॥ एके पुनरेवमाहुः-तावत् अपार्द्ध द्वीपं वा समुद्र घा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति, एके एवमाहुः-४॥ एके पुनरेवमाहुः-तावत् नो कञ्चित् द्वीपं वा समुद्र वा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति, एके एवमाहुः ५। तत्र ये ते पवमाहुः तावत् एकं योजनसहस्रम्, एकं त्रयस्त्रिंशद् योजनशतं द्वीपं वा समुद्र वा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति, ते एवमाहुः-यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु जम्बूद्वीपं द्वीपम् एकं योजनसहस्रम्, एकंच त्रयस्त्रिंशद् योजनशतम् अवगाह्य सूर्यः चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । तावत्-यदा खलु सूर्यः सर्ववाह्यं मण्डम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु लवणसमुद्रम् एकं योजनसहस्रम् एकं च त्रयस्त्रिंशद् योजनशतम् अवगाह चारं चरति तदा स्खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहूर्तों दिवसो भवति । एवं चतुस्त्रिंशद् योजनशतम् २। पञ्चत्रिंशत्यपि एवमेव भणितव्यम् ३॥ तत्र स्खलु ये ते एवमाहुः-तावतू अपार्च द्वीपं वा समुद्र वा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति, ते एवमाहुः-यदा खलु सूर्यः सर्वा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अपार्द्ध जम्बूद्वीपं द्वीपम् अवगाह्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, जयन्यिका द्वादश मुहूर्ता रात्रिर्भवति । एवं सर्वबाह्येऽपि; नवरं अपार्द्ध लवणसमुद्रं । तदा खलु रात्रिन्दिवं तथैव ४। तत्र खलु ये ते एवमाहुः-तावत् नो किञ्चित् द्वीपं वा समुद्र वा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति, ते एवमाहुः-तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा स्खलु नो कञ्चित् जम्बूद्वीपम् द्वीपम् अवगाह्य सूर्यः चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, तथैव । एवं सर्वबाह्ये मण्डले, नवरं नो कञ्चित् लवणसमुद्रम् अवगाह्य चारं चरति । रात्रिन्दिवं तथैव एके एवमाहुः ५। वयं पुनरेवं वदामः तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु जम्बूद्वीपं द्वीपम् अशीतिः योजनशतं अवगाह्य चारं चरति, तदा स्खलु Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Annanoranmon Narainrarunmanna चन्द्रप्राप्तिसूत्रे उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहूर्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । तावत् यदा खल सूर्यः सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खल लवणसमुद्र त्रीणि त्रिंशद्योजनशतानि अवगाह्य चारं चरति तदा खल उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका · अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति ॥सुत्र १०॥ प्रथमस्य प्राभृतस्य पञ्चमं प्राभृतपाभृतं समाप्तम् ॥१-५॥ व्याख्या-'ता' तावत् 'केवइयं' कियत्कं कियत्प्रमाणं 'ते' तव मते 'दीवं वा समुई वा' द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य उल्लङ्घय 'सूरिए' सूर्यः 'चारं चरई'-चारं चरति एतद्विषये 'आहितेति' किम् आख्यातम् ? इति 'वएज्जा' वदेत् वदतु हे भगवन् ! इति गौतमस्य प्रश्नानन्तरमेतद्विषये भगवान् प्रथमं परमतरूपाः पञ्च प्रतिपत्तीः सामान्यत उपदर्शयतिहे गौतम ! 'तत्थ' तत्र सूर्यस्य द्वीपसमुद्रावगाहविषये खलु 'इमाओ' इमाः अनुपदं वक्ष्यमाणाः 'पंच' पश्च पश्च संख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परतीर्थिकमान्यतारूपाः 'पण्णताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः । ताः काः १ इत्याह-'तं जहा' तद्यथा ता यथा-'एगे' एके केचन पश्चसु प्रथमाः परतीर्थिकाः 'एवमाइंसु' एवमाहुः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् प्रथमम् अन्यबहुवक्तव्यतासु प्रथमं श्रूयताम्-'एगं जोयणसहस्सं' एकं योजनसहस्रम् एकसहस्रयोजनानि 'एगं च तेत्तीसं जोयणसयं' एकं च त्रयस्त्रिंशत् योजनशतम् एकं शतं योजनानां तदुपरि त्रयस्त्रिंशच्च योजनानि त्रयस्त्रिंशदधिकैकशतोत्तरैकसहनं (११३३) योजनानीत्यर्थः, एतावत्प्रमाणं 'दीवं वा समुदं वा' द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'मूरिए' सूर्यः 'चारं चरई' चारं चरति, उपसंहरन्नाह-'एगे' एके केचन प्रथमाः परतीर्थिकाः 'एवं' एवं-पूर्वोक्तप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्तीति प्रथमा प्रतिपत्तिः १। अथ द्वितीयामाह-'एगे पुण' एके केचन प्रथमतोऽन्ये द्वितीयाः पुनः ‘एवमाहंसु' एवमाहुः वक्ष्यमाणप्रकारेण कथयन्ति-'ता' तावत् 'एग जोयणसहस्सं 'एगं चउतीसं जोयणसयं' एकं योजनसहसमेकं चतुर्विंशत् योजनशतं चतुस्त्रिंशदधिकैकशतोत्तरैकसहस्रं (११३४) योजानानि 'दीवं वा समुदं वा' द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'मूरिए' सूर्यः 'चारं चरइ' चारं चरति, उपसंहारमाह-'एगे एवमासु' एके पूर्वोक्ता द्वितीयाः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः । इति द्वितीया प्रतिपत्तिः २। अथ तृतीयामाह-'एगे' एके केचन पूर्वोक्तद्वयादन्ये तृतीया परतीर्थिकाः 'एवमाहंसु' एवमाहुः वक्ष्यमाणप्रकारेण कथयन्ति–'ता' तावत् 'एगं जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसयं' एकं योजनसहस्रम् एकं च पञ्चत्रिंशद् योजनशतम्-पञ्चत्रिंशदधिकशतोत्तरकसहस्रं (११३५) योजनानि 'दीवं वा समुदं वा' द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका प्रा० १-५ सू० १० सूर्यस्य द्वीपसमुद्रावगाहनिरूपणम् ६५ हित्ता' अवगाह्य 'रिए' सूर्यः चारं चरई' चारं चरति 'एगे एवमाहंसु' एके एवं पूर्वोकप्रकारेण आहुः । इति तृतीया प्रतिपत्तिः ३ । अथ चतुर्थीमाह - 'एगे' एके केचन पूर्वोक्त त्रयादन्ये चतुर्थाः परतीर्थिकाः ' एवं ' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति - 'ता' तावत् 'अवड्ढ' अपार्द्धम् - अपगतम् अर्द्ध यस्मात् तदपार्द्धं शेषीभूतमर्द्धम् - अर्द्ध मात्रमित्यर्थः 'दीवं वा समुदं वा द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'सूरिए' सूर्यः 'चारं चरई' चारं चरति । 'एगे एवमासु' एके एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः । इति चतुर्थी प्रतिपत्तिः ४ । अथ पञ्चमी - माह - ' एगे' एके केचन पूर्वोक्तचतुष्टयादन्ये पञ्चमाः परतीर्थिकाः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः- कथयन्ति - 'ता' तावत् 'नो' नैव 'किंचि' किञ्चित् किञ्चित्प्रमाणमपि 'दीवं वा समुहं वा' द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'सूरिए' सूर्यः 'चारं चरइ' चारं चरति, 'एगे एवमाहंसु' एके एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति पञ्चमा प्रतिपत्तिः ॥५॥ एताः पूर्वप्रदर्शिताः पञ्चसंख्यकाः परमतरूपाः प्रतिपत्तय एतद्विषये सन्ति ताः संक्षेपेण प्रदर्शिताः, अथ ता एव परतीर्थिक मान्यतारूपाः पञ्च प्रतिपत्तीः एकैकशः स्पष्टीकरोति - 'तत्थ जे ते ' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र तासु पञ्चसु प्रतिप्रत्तिषु 'जे ते' ये ते पूर्वोक्ताः प्रथमाः परतीर्थिकाः 'एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः - 'ता' तावत् ' एगं जोयणसहस्सं एग तेत्तीस जोयणसयं' एकं योजनसहस्रम् एकं त्रयत्रिंशद्द्योजनशतम्-त्रयस्त्रिंशदधिकैकशतोत्तरैकसहस्रं (११३६) योजनानि 'दीवं वा समुदं वा' द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'सूरिए' सूर्यः 'चारं चरइ' चारं चरति ये एवं कथयन्ति 'ते' ते प्रथमाः ' एवं ' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेन आशयेन 'आहंसु' आहुः कथयन्ति, तदाशयं प्रदर्शयति'जया'णं' इत्यादि जया णं' यदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'जंबुद्दीवं दीवं' जम्बूद्वीपं द्वीपं मध्यजम्बूद्वीप' 'एगं' इत्यादि - त्रयस्त्रिंशदधिकैकशतोत्तरैक सहस्रयोजनप्रमाणं (१९३३) 'ओगाहित्ता सूरिए चारं चरई' अवगाह्य सूर्यः चारं चरति अतएव ' तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्ठपत्ते' उत्तमकाष्ठा प्राप्तः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारसमुहुसे दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्त्तो दिवसो भवति, तथा 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवर' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । अथ 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'रिए' सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रामन् अग्रेऽग्रे गच्छन् 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबा - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रशतिसूत्रे अन्तिमं त्र्यशीत्यधिकशततमं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'लवणसमुद्द' लवणसमुद्रम् ' एगं' इत्यादि - त्रयस्त्रिंशदधिकैकशतोत्तर क सहस्रं (११३३) योजनपरिमितं 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'चारं चरई' चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकर्षप्राप्ता 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोकृष्टा 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, तथा ' जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति । इति प्रथमप्रतिपतिस्पष्टीकरणम् ॥१॥ ६६ " अथ द्वितीयप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणमतिदेशेनाह - ' एवं ' इत्यादि ' एवं चोत्तीसं जोयणसयं' एवं चतुस्त्रिद् योजनशतं चतुस्त्रिंशदधिकमेकं शतम् । एवम् प्रथमप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणवदेव द्वितीयप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणं सर्वं पठनीयं, विशेषस्त्वयम् तत्र - प्रथमप्रतिपत्तौ त्रयस्त्रिंशदधिकैकशतोत्तरेकसहस्रयोजनपरिमितं जम्बूद्वीपं सर्वाभ्यतरमण्डलोपसंक्रमणसमये, एतावदेव सर्व बाह्य मण्डलोपसंक्रमणसमये लवणसमुद्रमवगाह्य सूर्पस्य चारं चरणमुक्तम् अत्र द्वितीयप्रतिपत्तौ तु चतुस्त्रिशदधिकैकशतोत्तरैक सहस्रयोजन परिमितं (१९३४) जम्बूद्वीपं लवणसमुद्र चावगाह्य सूर्यस्य चारं चरणं परिभावनीयम् । इति द्वितीयप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणम् २, अथ तृतीयप्रतिपत्तिस्पष्टीकरण मप्यतिदेशेनाह - ' पणत्तीसे वि' इत्यादि । ' पणती से वि' पश्चत्रिंशत्यपि - पञ्चत्रिंशदधिकैकशतोत्तरैकसहस्रयोजनपरिमितजम्बूद्वीपलवण समुद्रावगाहनविषयेऽपि सर्वं सूत्रम् ' एवं चेव' एवमेव प्रथमप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणसूत्रवदेव 'भाणियव्वं' भणितव्यं कथितव्यम् । द्वयोरपि सूत्रालापकः स्वयमूहनीयः स्पष्टत्वान्नोल्लिखितः । इति तृतीयप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणम् ३, अथ चतुर्थी प्रतिपत्तिस्पष्टीकरणमाह- 'तत्थ जे ते' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र पञ्चसु प्रतिपत्तिषु 'जे ते' ये ते चतुर्थप्रतिपत्तिवादिनोऽन्यतीर्थिकाः 'एवमाहंसु' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेन प्रकारेण आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'अवड्ढँ' अपार्द्धम् अपगर्द्धम्' अर्द्धमात्रं "दीवं वा समुद्दे वा' द्वीपं वा समुद्रं वा .' ओगाहित्ता' अवगाह्य 'सूरिए' सूर्यः 'चारं चरइ' चारं चरति, एवं कथयन्ति 'ते' ते चतुर्था स्तीर्थान्तरीयाः' एवं ' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेन आशयेन 'आहंसु' आहुः कथयन्ति, तथाहि - 'जया णं' यदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वन्भंतरं मंडल' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंक मित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति ‘तया णं' तदा खलु 'अवड्ढ' अपार्द्धम् अपगतार्द्धम् । अर्द्धमात्रं ' 'जंबूद्दीवं दीवं' जम्बूद्वीपं दीपं मध्यजम्बूद्वीपम् 'ओगाहित्ता चारं चरह' अवगाह्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुत्तों दिवसो भवति, तथा 'जहण्णिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, ' एवं सव्वबाहिरे वि' एवं अनेनैव प्रकारेण सर्वबाझेऽपि Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रविका शतिप्रकाटीका प्रा० १-५ सू० १० सूर्यस्य द्वीपसमुद्रावगाहनिरुपणम् ६७ सर्वबाधमण्डलविषयेऽपि वाच्यम् । 'नवरं' नवरं केवलं, विशेषस्त्वयम् यदत्र 'अवड्डुं लवण समुद' अपार्द्ध लवणसमुद्रम् इति वाच्यम् तथाहि - यदा सूर्यः सर्व बाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु |पार्द्धं लवणसमुद्रमवगाह्य चारं चरतीति । तथा - ' तया णं राईदियं तदेव' तदा स्खल रात्रिदिवं तथैव रात्रिदिवसप्रमाणं तथैव प्रथमप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणे सूर्यस्य सर्वबाह्यमण्डलसंचरणसमये यथा कथितं तथैवात्रापि वाच्यम् । यथा-यदा सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्यापार्द्धलवणसमुद्रं वाऽवगाह्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठा प्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, तथा जघन्यःः द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवतीति । संपूर्ण आलापकप्रकारस्तु स्वयमूहनीयः । इति चतुर्थप्रतिपति स्पष्टीकरणम् ॥४॥ अथ पश्चमप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणमाह- 'तत्थ जे ते' इत्यादि 'तत्थ' तत्र पञ्चसु प्रतिपत्तिषु 'जे ते' ये ते पञ्चमाः परतीर्थिकाः 'एवमाहंसु' एवमाहु- एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण कथयन्ति'ता' तावत् 'णो' नो नैव 'किंचि' किञ्चित् किञ्चिन्मात्रमपि 'दीवं वा समुहं वा' द्वीपं वा समुद्र वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'सूरिए' सूर्यः 'चारं चरइ' चारं चरति ते पञ्चमाः परतीर्थिकाः 'एवं' वक्ष्यमाणाशयेन 'आहंसु' आहुः कथयन्ति । तदेव प्रदर्शयति- 'ता' तावत् 'जया पं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वमंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'णो' नो नैव 'किंचि' किञ्चित् किञ्चिन्मात्रमपि 'जंबुद्दीवं दीवं' जम्बूहीपं द्वीपम् ' ओगाहित्ता' अवगाह्य 'सूरिए' सूर्यः 'चारं चरइ' चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षवान् 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः सकलसूर्य संवत्सर दिवसमानप्रमाणादन्तिमगुरुप्रमाणयुक्तः 'अट्ठारहुते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूत्त दिवसो भवति, 'तहेव' तथैव पूर्ववदेव रात्रिरपि विज्ञेया तथा च ' जहणिया दुबालसमुहुत्ता' राई भवइ' इति पाठ संयोज्य, जबन्यिका सर्वलध्वी सकलसूर्यसंवत्सररात्रिमानप्रमाणादन्तिम लघुप्रमाणयुक्ता द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवतीति । एवं पूर्वोक्तप्रकारेणैव 'सव्वबाहिरे मंडले' सर्वबाह्ये मण्डले भावना कर्त्तव्या 'नवरं' केवलं विशेष एतावानेव यत् सूर्यः 'णो' नो नैव 'किंचि' किञ्चित् किञ्चिन्मात्रमपि लवणसमुद्द लवणसमुद्रम् 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'चारं चरई' चारं चरति । अयं भावः - पञ्चमास्तीर्थान्तरीया एवं कथयन्ति यत्-सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलोपसंक्रमणकालेऽपि न किञ्चिदपि जम्बूद्वीपमवगाहते किं पुनः शेषमण्डलपरिभ्रमणकाले । एवं सर्व बाह्य मण्डलोपसंक्रमणकालेऽपि सूर्यो लवणसमुद्रमपि न किञ्चिदवगाहते किं पुनः शेषमण्डलपरिभ्रमणकाले । तर्हि कथं चारं चरति : इत्याशङ्कायां शृणु द्वीपसमुद्रयोरपान्तराल एव सकलेष्वपि मण्डलेषु चारं चरतीति । 'राई दियं तहेत्र' रात्रिन्दिवं तथैव रात्रिदिवसप्रमाणं पूर्वोक्तवदेव, तथा च-सूर्यो यदा सर्व Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ चन्द्रप्राप्ति बाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा न किञ्चिल्लवणसमुद्रमवगाहते, तदा च उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति जघन्यः द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति, इति पञ्चमप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणम् ५, उपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु' एके एवमाहुः एके केचन पञ्चमप्रतिपत्तिवादिनः एवं पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण आहुः कथयन्तीति ५। पूर्व परतीथिकानां पञ्च प्रतिपत्तयः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं भगवान् तेषां मिथ्याभावप्रदर्शनार्थ स्वमतमुप्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं पुनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः तच्छृणु 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु "जंबुद्दीवं दीवं' जम्बूद्वीपम् द्वीपं 'असीई जोयणसयं' अशीतिः योजनशतं च अशीत्यधिक मकं शतं योजनानाम् 'ओगाहित्ता' अवगाह्य उल्लङ्घय 'चार चरइ' चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षसंपन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुता राई भवई' द्वादशमुहर्ता रात्रिभवति 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः सव्वबाहिरं मंडलं' सर्ववाद्यं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'लवणसमुई' लवणसमुद्रं 'तिण्णि तीसं जोयणसयाई त्रीणित्रिंशत् योजनशतानि त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि (३३०) योजनानाम् 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'चारं चरई' चारं चरति 'तया णं' तदा खल 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकर्षवती 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वगुर्वी 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः ‘दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवतीति । 'गाहाओ भाणियव्वाओ अत्र सूत्रार्थसंग्रहविषया गाथा भणितव्याः ता नोपलभ्यन्ते । इति ॥सूत्र १०॥ ॥ प्रथमस्य मूलमाभृतस्य पञ्चमं माभृतपाभृतम् ॥१-५॥ अथ प्रथमस्य मामृतस्य षष्ठं प्रामृतमामृतम् । गतं प्रथमस्य मूलप्राभृतस्य पञ्चमं प्राभृतप्राभृतम् , अथ षष्ठमारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः पूर्व संग्रहगाथायां यदुक्तम् 'केवइयं च विकंपई' कियत्कं च विकम्पते सूर्य एकेन रात्रिन्दिवेन कियन्मानं क्षेत्र चलति ? इत्यत्र प्रदर्शयिष्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्य षष्ठप्राभृतप्रामृतस्येदमादिसूत्रम्-'ता केवइयं' इत्यादि, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-६ सू०११ सूर्यस्य एकरात्रिंदिवे क्षेत्रसंचरणम् ६९ मूलम् –ता केवइयं ते एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ सरिए चारं चरइ आहि. तेति वदेज्जा ? । तत्थ खलु इमाओ सत्त पडिवत्तीओ, पण्णत्ताओ तं जहा-तत्थेगे एवमाहंसु - ता दो जोयणाई अद्धदुचत्तालीसे तेसीई सयभागे जोयणस्स एगमेगेणं राइदिएण विकंपइत्ता २ सरिए चारं चरइ, एगे एवमासु ॥१॥ एगे पुण एवमाहसु-ता अड्ढाइज्जाइं जोयणाइं एगमेगेणं राइंदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु ।२। एगे पुण एवमासु-ता तिभागूणाई तिन्नि जोयणाई, एगमेगेणं राइंदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु ।३। एगे पुण एवमाहंसु -ता तिण्णि जोयणाई अद्धसीतालीसं च तेसीइसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं राइं. दिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु ।४। एगे पुण एवमाइंसुता अद्भुट्ठाई जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ सरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु ।५। एगे पुण एवमाहंसु-ता चउब्भागूणाई चत्तारि जोयणाई एगमेगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु ।६। एगे पुण एवमाइंसु-ता चत्तारि जोयणाई अद्धबावण्णं च तेसीइंसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं राइंदिएणं विकंपइत्ता २ सरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु ।७। वयं पुण एवं वयामो ता दो जोयणाई अड़यालीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरइ । तत्थ णं को हेऊ ? इति वदेज्जा । ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते, ता जया णं सुरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तसि अभितराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए अम्भितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं दो जोयणाई अडयालिसं च एगसद्विभागे जोयणस्स एगेणं राइं. दिएणं विकंपइत्ता२। चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसटिभागमुहुतेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहि अहिया । से णिक्खममाणे सरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अभितरं तच्चं मंडलं उवसंकमिता चारं चरइ । ता जया णं मूरिए अभितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं पंच जोयणाई पणतीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स दोहिं राइदिएहिं विकंपइत्ता चारं चरइ तया ण अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगस विभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहि एगसहिभागमुहुत्तेहिं अहिया । एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सरिए Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे तयाणंतराओ मंडलाओ तथाणंतरं मंडलं संकममाणे २ दो जोयणाई अडयालीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स एगमेगं मंडल एगमेगेणं राई दिएहिं विकंपमाणे २ सव्व बाहिरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए सव्वन्तराओ मंडलाओ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सव्वन्तरं मंडल पणिहाय एगेणं ते सीए राईदिसणं पंचदमुत्तरजोयणसए विकंपइत्ता चारं चरइ तया णं उत्तमक पत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे । एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे || सूत्र ११ ॥ ७० छाया - तावत् कियत्कं ते एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य विकम्प्य सूर्यः वारं चरति ? आख्यातमिति वदेत् । तत्र खलु इमाः सप्त प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्रैके पवमाहुः तावत् द्वे योजने अर्द्धद्विचत्वारिंशतः त्र्यशीतिशतभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिदिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चारं चरति, एके एवमाहुः |१| एके पुनरेवमाहुः - तावत् अर्द्धतृतीया नियोजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चारं चरति, एके एवमाहुः |२| पके पुनरेवमाहुः तावत् त्रिभागोनानि त्रीणि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चारं चरति, एके पवमाहुः | ३| एके पुनरेवमाहुः - तावत् त्रीणि योजनानि अर्द्धसप्तचत्वारिंशता व्यशीतिशत भागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यः वारं चरति, एके पवमाहुः |४| एके पुनरेवमाहुः - तावत् अर्द्धचतुर्थानि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चारं चरति पके पवमाहुः | ५| एके पुनरेवमाहुः तावत् चतुभगोनानि चत्वारि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चारं चरति, एके एवमाहुः ६ एके पुनरेवमाहुः - तावत् चत्वारि योजनानि अर्द्धद्विपञ्चाशतश्च व्यशीति शतभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चारं चरति, एके पवमाहुः । ७ वयं पुनरेवं वदामः - तावत् द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतश्च एकषष्टिभागान् योजनस्य एकैकं मण्डलम् एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चारं चरति । तत्र खलु को हेतुः ! इति वदेत् तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । तावद् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । स निष्क्रामन् सूर्यः नवं संवत्सरम् अयन् पढमे अहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलम् उवसंक्रम्य चारं चरति । ताबद् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतश्च एकषष्टिभागान् योजनस्य एकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्याम् ऊन, द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमहूर्त्ताभ्याम् अधिका । स निष्क्रामन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशश्च पकषष्टिभागान् योजनस्य द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां विकम्प्य चारं चरति Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिप्रकाशिका टीका प्रा० १-६ सू० ११ सूर्यस्य एकरात्रिन्दिवे संचरणम् ७१ तदा खलु अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति चतुर्भिः एकषष्टिभागमुहूत्तैः ऊनः, द्वादशमुहर्ता रात्रिभवति चतुर्भिः एकषष्टिभागमुहूर्तः अधिका । एवं खलु एतेन उपायेन निष्क्रामन् सूर्यः तदनन्तरात् मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् २ वे योजने अष्टचत्वारिंशतश्च एकष्टिभागान् योजनस्य एकैकं मण्डलम् पकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्पमानः २ सर्वबाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति। तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तराद् मण्डलात् सर्वबाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधाय एकेन त्र्यशीतिकेन रात्रिन्दिवशतेन पञ्चदशोत्तरयोजनशतानि विकम्प्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति, एतत् खलु प्रथमं षण्मासम् । एतत् खलु प्रथमस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् सू०११ व्याख्या—'ता' तावत् 'केवइयं कियत्कं कियत्परिमितं क्षेत्रं 'ते' तवमते 'एगमेगेणं राई दिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन अहोरात्रेण 'विकंपइत्ता २' विकम्प्य २ अवष्ठष्ठय २ विकम्पनं नाम स्व स्वमण्डलादहिः शनैर्गत्या निस्सरणमभ्यन्तरप्रवेशनं वा शनैर्गत्या स्पृष्ट्वा २ वेत्यर्थः 'मरिए' सूर्यः 'चारं चरई' चारं चरति, इति 'आहितेति' भाख्यातमिति 'वदेज्जा' वदेत् बदतु हे भगवन् इति प्रश्नः । भगवान् एतद्विषयेऽन्यतैर्थिकमतरूपाः सप्त प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ तत्र सूर्यविकम्पनविषये खलु 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'सत्त' सप्त-सप्त संख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परतीर्थिकमान्यता रूपाः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः कथिताः । ताः काः ! इत्याह तं जहा' तयथा ता यथा-ता एव प्रदर्शयति 'तत्येगे' इत्यादि 'तत्य तत्र सप्तसु प्रतिपत्तिप्रतिपादकेषु मध्ये 'एगे' एके केचन प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति, किमाहुरित्याह'ता दो जोयणाई' इत्यादि 'ता' तावत् 'दो जोयणाई' द्वे योजने 'अददुचत्तालीसे' भर्द्धद्विचत्वारिंशतः, अौं द्विचत्वारिंशदिति द्विचत्वारिंशत्तमो मागो यत्र संख्यायां ते अर्द्धद्विचत्वारिंशतस्तान् अर्द्धाधिकैकचत्वारिंशत्संख्यकान् 'तेसीइसयभागे' घ्यशीतिशतभागान् व्यशीत्यधिकशतसम्बन्धिभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यक (१८३) गर्योजने विभक्ते सति ये शेषा अधिकैकचत्वारिंशत्संख्यका भागाः [२९] तान् एतावद्योजनप्रमाणं क्षेत्रमित्यर्थः 'एगमेगेणं' एकैकेन 'राइंदिएणं' रात्रिन्दिवेन एकैकाहोरात्रकालेन 'विकंपइत्ता २, विकम्प्य २ शनैः शनैरुल्लङ्गयेत्यर्थः 'मरिए' सूर्यः 'चारं चरइ' चारं चरति, अथोपसंहारमाह-'एगे एवमाइंस' एके एवमाहुः, एके केचन प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः एवं पूर्वकथितप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति प्रथमा प्रतिपत्तिः ।। 'एगे पुण' एके केचन द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः पुनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु माहुः कथयन्ति तदेवाह-'ता' तावत् 'अडूढाइज्जाइं अर्द्धत्तीयानि सार्द्धदिसंख्यकानि Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'जोयणाई' योजनानि सार्द्धद्विसंख्यकयोजनप्रमाणं क्षेत्रम् ‘एगमेगेणं' एकैकेन 'राइंदिएणं' रात्रिन्दिवेन महोरात्रेण 'विकंपइत्ता' २ विकम्प्य २ 'सरिए चारं चरइ' सूर्यः चारं चरति, 'एगे एवमाहंमु' एके द्वितीया एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति द्वितीया प्रतिपत्तिः २ 'एगे पुण एवमासु' एके पुनरेवमाहुः 'ता' तावत् 'तिभागूणाई' त्रिभागोनानि तृतीयो भाग ऊनो येषु तानि त्रिभागोनानि 'तिण्णि जोयणाई' त्रीणि योजनानि 'एगमेगेणं राइंदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन 'विकंपइत्ता' २, विकम्प्य २ 'सरिए चारं चरई' सूर्यः चारं चरति, 'एगे एवमाइंसु' एके तृतीया एवं पूर्वोक्तरीत्या आहुः कथयन्ति । इति तृतीया प्रतिपत्तिः ३ 'एगे पुण एवमासु' एके केचन चतुर्थाः पुनः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'तिण्णि जोयणाई' त्रीणि योजनानि 'अद्धसीतालीसे च' अर्द्धसप्त चत्वारिंशतश्चेति सार्दषट्चत्वारिंशतश्च (४६॥.) 'तेसीतिसयभागे' व्यशीतिशतभागान् ज्यशीत्यधिकशतसंख्यक ( १८३ ) भागान् 'जोयणस्स' योजनस्य [३१] एतावत्परिमितक्षेत्रे 'एगमेगेण राइदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन एकेन एकेन-अहोरात्रेणेत्यर्थः 'विकंपइत्ता' विकम्प्य २ 'सरिए' चारं चरई' सूर्यः चारं चरति, 'एगे एवमाइंसु' एके केचन चतुर्थाः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति चतुर्थी प्रतिपत्तिः ४ 'एगे पुण एवमासु' एके केचन पञ्चमाः पुनः एवं वक्ष्यमाणरीत्या आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'अधुढाई अर्द्धचतुर्थानि सार्द्धत्रीणि (३॥.) 'जोयणाई' योजनानि 'एगमेगेणं राइदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन 'विकंपइत्ता २' विकम्प्य २ 'मूरिए' सूर्यः 'चारं चरई' चारं चरति, 'एगे एवमाहंस' एके केचन पञ्चमाः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति पश्चमी प्रतिपत्तिः ५ 'एगेपुण एवमाइंसु' एके केचन षष्ठाः पुनः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'चउभागृणाई' चतुर्भागोनानि चतुर्थों भाग ऊनो येषु तानि भागत्रयसहितानि 'चत्तारि जोयणाई' चत्वारि योजनानि (३॥.) एगमेगेणं राइदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन 'विकंपइत्ता २' विकम्प्य सूरिए चारं चरई' सूर्यः चारं चरति ‘एगे एवमाहंसु' एके केचन षष्ठाः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति षष्ठी प्रतिपत्तिः ६ 'एगे पुण' एके केचन सप्तमाः पुनः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति-ता' तावत् 'चचारि जोयणाई' चत्वारि योजनानि 'अद्धबावण्णे च' अर्द्धद्विपश्चाशतश्च अद्धों द्विपञ्चाशत्तमो भागो यत्र तान् साईकपञ्चाशतश्च 'तेसी तिसयभागे' त्र्यशीतिशतभागान् व्यशीत्यधिकशतसंख्यकभागान् 'लोयणस्स' योजनस्य [४५१॥ एतत्परिमितं क्षेत्रं 'एगमेगेण राईदिएणं' एकैकेन राशि १८३ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१-६ सू०११ सूर्यस्य प्रथमषण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचरणम् ७३ न्दिवेन 'विकंपइत्ता २' विकम्प्य २ 'मूरिए चारं चरइ' सूर्यः चारं चरति, 'एगे एवमाहंसु' एके केचन सप्तमाः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति सप्तमा प्रतिपत्तिः ७ पूर्व परमतवादिनां सप्तप्रतिपत्तीः प्रदर्य साम्प्रतं भगवान् स्वमतं प्ररूपयति-'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं पुनः पूर्वपूर्वतीर्थकरानुद्दिश्य वयं पुनः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः केवलालोकेनाऽऽलोक्य कथयामः- 'ता' तावत् - 'दो जोयणाई' द्वे योजने 'अडयालीसं च एगसहिभागे' अष्टचत्वारिंशतश्च एकषष्टिभागान् [२-8'जोयणस्स' योजनस्य, अष्ट चत्वारिंशदेकषष्टिभागसहितयोजनद्वयपरिमितम् 'एगमेगं मंडलं' एकैकं मण्डलम् ‘एगमेगेणं राइंदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन अहोरात्रेण 'विकंपइत्ता' २' विकम्प्य २ 'मूरिए चारं चरई' सूर्यः चारं चरति । सूर्य एकेन अहोरात्रेण द्वे योजने अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् एकैकं मण्डलं स्पृष्ट्वा २ चारं चरतीति भावः । गौतमः पुनः पृच्छति-'तत्थ णं' त्त्र भवत्प्रतिपादितपूर्वोक्तविषये खलु 'को हेऊ' को हेतुः किं कारणं का तत्र व्यवस्थेत्यर्थः 'इति' इति-एवं तां व्यवस्थां 'वदेज्जा' वदेत् हे भगवन् ! कथयतु, इति प्रश्नः । भगवानाह-'ता अयण्णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'अयणं' अयं खलु 'जंबुहीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः पूर्वप्रतिपादितस्वरूपः पूर्वप्रदर्शितप्रमाणः 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः कथितः । तत्र 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः ‘सम्वन्भंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चार चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टापत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्तः सर्वथा वृद्धगतः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः उत्कृष्टः अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, तथा 'जहण्णया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहर्ता रात्रि र्भवतीति । 'ता' तावत् तत्पश्चात् 'से' सः 'निक्खममाणे सुरिए' निष्क्रामन् सूर्यः ‘णवं संवच्छरं अयमाणे' नवं संवत्सरमयन् प्राप्नुवन् 'पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'अभंतराणंतरं' अभ्यन्तरानन्तरं सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरस्थितं 'मंडलं' द्वितीयं मण्डलं 'उवसंक मित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'मूरिए' सूर्यः 'अभितराणंतरं' अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं सण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु दो 'जोसणाई' द्वे योजने 'अडयालीसं च एगसट्ठिभागे' अष्टचत्वारिंशतं च एकषष्टिभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य-[२-857 एगेणं राइदिएणं' एकेन Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे रात्रिन्दिवेन एकाहोरात्रेण 'विकंपइत्ता २' विकम्प्य २ उल्लङध्य २ 'चारं चरई' चार चरति 'तया णं' तदा खलु 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यां 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति न तु परिपूर्णाऽष्टादशमुहूत्र्तो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति सा च 'दोहिं एगद्विभागमुहुत्तेहिं' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यां 'अहिया' अधिका भवति यावन्मात्रा दिवसस्य हानिर्भवति तावन्मात्राया रात्रेवृद्धिसद्भावात् । ‘से निक्खममाणे सूरिए' स निष्क्रामन् सूर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीयेऽहोरात्रे 'अभितरं' अभ्यन्तरम् अभ्य न्तरसम्बन्धिनं 'तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सुरिए' सूर्यः 'अभितरं' अभ्यन्तरम् अभ्यन्तरगतं 'तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति । 'तया गं' तदा खल 'पंच जोयणाई' पंच योजनानि 'पणतीसं च एगसहिभागे' पञ्चत्रिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य 'दोहिं राइदिएहि' द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्याम् अहोरात्रद्वयेन 'विकंपइत्ता' विकम्प्य २ 'चारं चरइ' चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति किन्तु सः 'चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं' चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहतैः 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सा च 'चउहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तः 'अहिया' अधिका भवति, दिवसहान्यां रात्रेराधिक्यस्य स्वभावात् । अग्रेऽतिदेशेनाह-एवं इत्यादि ‘एवं' एवम्-अनया रीत्या खलु 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'उवाएणं' उपायेन विधिना 'णिक्खममाणे सूरिए' निष्क्रामन् सूर्यः 'तयाणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तरात् तृयीयादेर्मण्डलात् 'तयाणंतरं मंडलं' तदनन्तरं चतुर्थादिकं मण्डलम् यत्र सूर्यः स्थितस्ततोऽग्रेऽप्रेतनं मण्डलं 'संकममाणे २' संक्रामन् २ चलन् चलन् 'दो जोयणाई' द्वे योजने 'अडयालीसं च एगसद्विभागे' अष्टचत्वारिंशतं च एक षष्टिभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'एगमेगं मंडलं' एकैकं मण्डलम् 'एगमेगेणं राइदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन 'विकंपमाणे २' विकम्पमानः २ स्पर्शन् स्पर्शन् प्रथमषण्मासस्य अन्तिमे ज्यशीत्यधिकशततमेऽहोरात्रे 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया गं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'सबभंतराओ मंडलाओ' सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलात् 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चार चरति 'तया गं' तदा खलु 'सव्वभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं 'पणिहाय' प्रणिधाय अवधीकृत्य तत आरभ्येत्यर्थः 'एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं' एकेन ज्यशीत्यधिकेन रात्रिंदिवशतेन त्र्यशीत्यधिकैकशत (१८३) संख्यकैः अहोरात्रैः 'पंचदमुत्त Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टोका प्रा० १-६सू११ सूर्यस्य प्रथमषण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचरणम् ७५ राई जोयणसयाई' पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि दशोत्तराणि पञ्चशतयोजनानि (५१०) 'विकंपइत्ता' विकम्प्य 'चारं चरई' चारं चरति । कथमेतदुपलभ्यते ? इति प्रदर्शयाम :- एककस्मिन् रात्रिदिवे द्वे द्वे योजने तदुपर्यष्टचत्वारिंशद् एकषष्टिभागा योजनस्येत्येतत्प्रमाणं क्षेत्र सूर्यश्चलति तत्र पूर्वं योजनद्वयं त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते, जातानि षट्षष्ट्यधिक त्रीणि शतानि (३६६) तत्पश्चादष्टचत्वारिंशदे कषष्टिभागाः त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातास्ते चतुरशीत्यधिक सप्ताशीतिशत (८७८४) संख्यकाः । एषा संख्या योजनानयनार्थमेकषष्ट्या विभज्यते, लब्धं चतुश्चत्वारिंशदधिकं शतमेकम् (१४४) । एषा संख्या पूर्व या योजनसंख्या (३६६) जाता तस्यां प्रक्षिप्यते, ततो जातानि दशोत्तराणि पञ्चशतानि ( ५१० ) इति । एतावत्प्रमाणं क्षेत्रं सूर्यो विकम्प्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ता' उत्तमका"ठाप्राप्ता परमप्रकर्षसंपन्ना 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा सर्वगुर्वीत्यर्थः 'अट्ठारस - मुहुत्ता' अष्टादशमुहूर्त्ता 'राई भवः' रात्रिर्भवति, तथा 'जहण्णए ' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवासलमुहुत्ते' द्वादशमुहूर्त्तः 'दिवसे भवः' दिवसो भवति । अथ प्रथमषण्मासस्य उपसंहारमाह'एस णं' एतत् खलु 'पढमे छम्मासे' प्रथमं षण्मासम् - 'एस णं' एतत् खलु 'पढमस्स छम्मासस्स' प्रथमस्य षण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम् - अन्तिममहोरात्रम् ॥ सू० ११॥ पूर्व प्रथमषण्मासपर्यन्त भूताहो रात्रिपर्यन्ते सर्व बाह्य मण्डलगत योजनाष्टचत्वारिंशदे कषष्टिभागयुक्तयोजनद्वयमतिक्रम्य सूर्यः सर्व बाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलसीमायां वर्त्तते इति प्रदर्शितम्, साम्प्रतं ततो द्वितीयस्य षण्मासस्य अनन्तरे प्रथमेऽहोरात्रे प्रथमक्षणे सर्वबाह्यानन्तरमभ्यन्तरं द्वितीयं मण्डलं सूर्यः प्रविशतीति प्रदर्शयन्नाह - ' से पविसमाणे' इत्यादि । मूलम् - से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढ़मंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरः । ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं दो जोयणाई अडयालीसं च एगसट्ठिमागे जोयणस्स एगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता चारं चरह तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई, दोहिं एगसट्टिभागमुहुत्तेर्हि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिए, से परिमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तच्चं मंडल उवसंकमित्ता चारं चर । ता जया णं सरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं पंचजोयणाई पणतीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स दोहिं राईदिएहिं विकंपइत्ता २ चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तेर्हि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तर्हि अहिए एवं खलु एएणं उवाएणं परिमाणे सूरिए Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशंप्तिसूत्रे तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मडलं संकममाणे २ दो जोयणाई अडयालीसं च एगसट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राइदिएणं विकंपमाणे २ सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए सव्ववाहिराओ मंडलाओ सब्बभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई तया णं सव्वबाहिरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं पंचदसुत्तरे जोयणसए विकंपइत्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवादसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । एस णं आइच्चे संवच्छरे । एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे ॥सू० १२॥ पढमस्स पाहुडस्स छटुं पाहुडपाहुड समत्तं ॥१-६॥ छायास प्रविशन् सूर्यः द्वितीयं षण्मासम् अयन् प्रथमे अहोरात्रे बाह्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य एकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, द्वाभ्यामेकषष्टिभागमहर्ताभ्याम् ऊना, द्वादशमहत्तों दिवसोभवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमहर्ताभ्याम् अधिकः। स प्रविशन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्र बाह्य तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्य तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु पञ्चयोजनानि पञ्चत्रिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां विकम्प्य२ चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति चतुभिरेकषष्टिभागमुहूत्तैः ऊना, द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः अधिकः । एवं खलु एतेन उपायेन प्रविशन् सूर्यः तदनन्तरात् मंडलात तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् २ योजने अष्टचत्वारिंशतं च एकषष्टिभागान योजनस्य एकैकं मण्डलं एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्पमानः २ सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसं. क्रम्य चार चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वबाह्यात् मण्डलात् सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा स्खलु सर्वबाह्य मण्डलं प्रणिधाय एकेन ज्यशीतेन रात्रिन्दिवशतेन पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि विकम्प्य चारं चरति तदा स्खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्तः अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । एतत् खलु द्वितीयं षण्मासम् । एतत् खल द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् । एषः खलु आदित्यः संवत्सरः। एतत् खलु आदित्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानम् ॥१२॥ ॥प्रथमस्य प्राभृतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ १-६॥ व्याख्या—'से' सः 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमन्डलाभिमुखं गच्छन् 'सूरिए' सूर्यः 'दोच्च छम्मासं' द्वितीयं षण्मासम् 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् ‘पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'बाहिराणंतरं मंडलं' बाह्यानन्तरं मण्डलं सर्वबाह्यमण्डलादनन्तरमभ्यन्तरं द्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं वरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः 'बाहिराणंतरं' बाह्यानन्तरं सर्वबाधमण्डलादनन्तरं यत् अभ्यन्तरं द्वितीय Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०१-६सू०१२ सूर्यस्य द्वितीयषण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचरणम् ७७ मण्डलं तत् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'दो जोयणाई द्वे योजने 'अडयालीसं च एगसहिभागे' अष्टचत्वारिंशतं च एकषष्टिभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'एगेणं राइदिएणं' एकेन रात्रिन्दिवेन 'विकंपइत्ता' विकम्प्य 'चारं चरइ' चारं चरति, 'तया णं' तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, किन्तु सा 'दोहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् 'ऊणा' ऊना हीना भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति, स च 'दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्याम् 'अहिए' अधिको भवति । 'से' सः 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रति गच्छन् 'सरिए' सूर्य: 'दोच्चंसि' अहोरत्तंसि' द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरं तच्चं' बाह्य तृतीयं बाह्यभागाद् गमनसम्बन्धित्त्वाद् बाह्यं सर्वबाह्यमण्डलादभ्यन्तरं तृतीयं 'मंडलं' मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चार चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'बाहिरं तच्चं' बाह्यं तृतीयं बाह्यात् तृतीयं वा 'मंडलं' मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चहइ' चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'पंच जोय. णाई' पश्च योजनानि 'पणतीसं च एगसट्ठिभागे जोयणस्स' पञ्चत्रिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य 'दोहिं राइदिएहिं' द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां 'विकंपइत्ता' विकम्प्य 'चारं चरई' चारं चरति, 'तया णं' तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति किन्तु सा 'चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहि' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'ऊणा' ऊना होना भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति, सच 'चउहिं एगद्विभागमुहुत्तेहि' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'अहिए' अधिको भवति । 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण खलु 'एएणं' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन 'उवाएण' उपायेन विधिना 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'मूरिए' सूर्यः 'तयाणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तरात् यत्र सूर्यों वर्तते तस्मात मण्डलात् 'तयाणंतरं मंडलं' तदनन्तरं तदने स्थितं मण्डलं 'संकममाणे २' संक्रामन् २ 'दो जोयणाई वे योजने 'अडयालीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य 'एगमेगेणं राइंदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन अहोरात्रेण 'विकंपमाणे २' विकम्पमानः २ 'सम्वन्भंतरं मंडलं' सर्वाभ्यिन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'रिए' सूर्यः 'सव्वबाहिराओ मंडलाओ' सर्वबाह्यात् मण्डलात् 'सव्वभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलं 'पणिहाय' प्रणिधाय अवधीकृत्य तत आरभ्येत्यर्थः 'एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं' एकेन त्र्यशीतिकेन रात्रिन्दिवशतेन व्यशीत्यधिकशतसंख्यकैः रात्रिन्दिवैः 'पंचदमुत्तरे जोयणसए' पंचद Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ . चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे शोत्तराणि योजनशतानि दशोत्तरपञ्चशतसंख्यकयोजनानि (५१०) 'विकंपइत्ता' विकम्प्य 'चारं चरई' चारं चरति । कथमेतद् जायते इति प्रकारः प्रथमषण्मासव्याख्यायां प्रदर्शित इति ततोऽवसेयः । 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षयुक्तः 'उकोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, तथा 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवतीति । उपसंहारमाह - ‘एस गं' इत्यादि 'एस णं' एतत् खलु 'दोच्चे छम्मासे' द्वितीयं षण्मासम् । 'एस णं' एतत् खलु 'दोच्चस्स छम्मासस्स' द्वितीयस्स षण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तिममहोरात्रम् । 'एस गं' एष खलु 'आइच्चे संवच्छरे' आदित्यः संवत्सरः । 'एस णं' एतत् खलु 'आइच्चस्स संवच्छरस्स' आदित्यस्य संवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं--पर्यन्तमहोरात्रम् ॥सू० १२॥ प्रथमस्य मूलमाभृतस्य षष्ठं प्रामृतपाभृतं समाप्तम् ॥१-६॥ । अथ प्रथमस्य प्राभृतस्य सप्तमं प्राभृतमामृतम् । गतं षष्ठं प्राभृतप्राभृतम् , अथ सप्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पूर्व द्वारगाथायां 'मंडलाणं य संठाणं' मण्डलानां च संस्थानम् , इत्युक्तं तदेवात्र प्रदर्शयिष्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिसूत्रम्-'ता कहं ते मंडलसंठिई' इत्यादि । मूलम् - ता कहं ते मंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा ? । तत्थ खलु इमाओ अट्ठ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा-तत्थेगे एवमाहंसु-ता समचउरंससंठाणसंठिया मंडलसठिई आहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु ।१। एगे पुण एवमाहंसु ता विसमचउरंससंठाणसंठिया मंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु ।२। एगे पुण एवमाइंसुता समचउक्कोणसंठिया मंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु ।३। एगे पुण एवमासु ता विसमचउक्कोणसंठिया मंडलसंठिई आहितेति वदेज्ना, एगे एवमाहंसु ।४। एगे पुण एवमाहंसु-ता समचक्कवालसंठिया मंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा एगे एवमाहंसु ।५। एगे पुण एवमाहंसु ता-विसमचक्कवालसंठिया मंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा, एगे एकमाइंसु ।६ एगे पुण एवमाहंसु-ता चक्कद्धचक्कवालसंठिया मंडलसंठिई आहितेति बदेज्जा, एगे एवमाहंसु ।७। एगे पुण एवमाहंमु-ता छत्तागारसंठिया मडलसंठिई आहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु ।८। तत्थ जे ते एवमासु-ता छत्तागारसंठिया मंडलसंठिई आहि तेति वदेज्जा एएणं गएणं णायव्वं,णो चेव णं इयरेहिं ।।सू० १३॥ पढमस्स पाहुडस्स सत्तमं पाहुडं समत्तं । १-७ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटोका प्रा०१-७ सू०१३ चन्द्रादिमण्डलसंस्थितिनिरूपणम् ७९ छाया- तावत् कथं ते मण्डलसंस्थितिः आख्याता ? इति वदेत् , तत्र खलु इमा अष्टौ प्रतिपत्तयः प्रक्षप्ताः, तद्यथा-तत्र एके एवमाहुः तावत्-समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् , एके एवमाहुः ।१। एके पुनरेवमाहुः-तावत् विषमचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् एके एवमाहु ।२। एके पुनरेवमाहुः तावत् समचतुष्कोणसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् एके पवमाहुः ।३। पके पुनरेवमाहुः तावत् विषमचतुष्कोणसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् एके पवमाहुः ।४। पके पुनरेवमाहुः तावत् समचक्रवालसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् एके एवमाहुः ।५। एके पुनरेवमाहुः-तावत् विषमचक्रवालसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् , एके पवमाहुः ।६ एके पुनरेवमाहु:तावत् चक्रार्द्धचक्रवालसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् , एके पवमाहुः ७। एके पुनरेवमाहुः-तावत् छत्राकारसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् एके पवमाहुः ।। तत्र ये ते पवमाहुः-तावत् छत्राकारसंस्थिता मण्डलसंस्थिति आस्यातेति वदेत् एतेन नयेन ज्ञातव्यम् , नैव खलु इतरैः ॥स. १३॥ ॥ प्रथमस्य प्राभृतस्य सप्तमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ १-७ __ व्याख्या -- 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण कीदृशीत्यर्थः 'ते' तवमते 'मंडलसंठिई' मण्डलसंस्थितिः मण्डलानां चन्द्रादिमण्डलानां संस्थितिः संस्थानम् आकृतिरित्यर्थः 'आहिता' आख्याता कथिता 'इति वदेज्जा' इति वदेत्-वदतु हे भगवन् । इति गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'तत्थ' तत्र मण्डलसंस्थितिविषये खलु निश्चितम् 'इमाओ' इमाः अग्रेऽनुपदं पदर्शयिष्यमाणा 'अट्ठ' अष्टौ अष्टसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः मिथ्यात्वगर्भिताः परतीर्थिकमतरूपाः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः तैस्तीर्थान्तरीयै रिति । 'तं जहा' तद्यथा-'ता' यथा-ता एव प्रदर्शयति-'एगे एवमासु' इत्यादि, 'एगे' एके केचन प्रथमास्तीर्थान्तरीयाः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्ति । तदेव प्रदर्शयति -'ता' इत्यादि । 'ता' तावत् 'समचउरंससंठाणसंठिया' समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता समाः तुल्या चतस्रः अस्रयो भागाः यत्र तत् समचतुरखं तादृशं संस्थानम् -आकृतिः समचतुरस्रसंस्थानं तेन संस्थिता तदाकारेण स्थिता सा तथा, एतादृशी 'मंडलसंठिई' मण्डलसंस्थितिः चन्द्रादिमण्डलसंस्थानम् 'आहिता' आख्याता कथिता 'इति' इति - अनेन प्रकारेण ‘वदेज्जा' वदेत् कथयेत् इति वक्तव्यं सर्वैरिति भावः । उपसंहारमाह-'एगे' एके केचन प्रथमाः 'एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्तीति प्रथमा प्रतिपत्तिः ।१। एवमग्रेऽपि व्याख्यातव्यम् । तथा च द्वितीया, विषमचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता मण्डलसंस्थितिरिति वदन्ति ।२। तृतीयाःसमचतुष्कोणसंस्थिता समत्वेन चतुष्कोणा मण्डलसंस्थितिरिति वदन्ति ।३। चतुर्थाः विषमचतु. कोणसंस्थिता यत्र चतुष्कोणे सत्यपि समत्वं न वर्तते एतादृशी मण्डलसंस्थितिरिति वदन्ति Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिसूत्रे ।४। पञ्चमाः - समचक्रवालसंस्थिता समत्वेन चक्राकारा मण्डलसंस्थितिरिति वदन्ति |५| षष्ठाःविषमचक्रवालसंस्थिता चक्राकारे सत्यपि निम्नोन्नतत्वेन विषमत्वं वर्त्तते एतादृशी मण्डलसंस्थितिरिति वदन्ति | ६ | सप्तमाः - चक्रार्द्धचक्रवालसंस्थिता अर्द्धचक्राकारा मण्डलसंस्थितिरिति |७| अष्टमास्तीर्थान्तरीयास्तु छत्राकारसंस्थिता उत्तानीकृत छात्रा कृतियुक्ता मण्डलसंस्थितिरिति वदन्ति ८] एता अष्ट प्रतिपत्तयः परमतरूपाः तीर्थान्तरीयाणां वर्त्तन्ते । अथ भगवान् स्वमतं प्रकट यति - 'तत्थ जे ते' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र अष्टसु प्रतिपत्तिषु मध्ये 'जे ते' ये ते केचित् अष्टमा इत्यर्थः ' एवं ' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति - यत् 'ता' तावत् छत्तागारसंठिया' छत्राकारसंस्थिता उत्तानीकृतछत्राकारवती 'मंडलसंठिई' मण्डलसंस्थितिः 'आहिते ति' आख्याता 'इति' इति 'वदेज्जा' वदेत् कथयति । 'एएणं' एतेन पूर्वमनुपदं प्रदर्शितेन 'नएणं' नयेन नयो नाम यथावस्थितवस्तुजाताभिप्रायविशेषः 'ज्ञातुरभिप्रायो नयः' इति वचनात् तेन यथावस्थितस्वरूपेण 'उत्तानीकृतछत्राकार संस्थिता मण्डलसंस्थितिर्वर्त्तते' एवं रूपेण 'णायव्वं' ज्ञातव्यं हे गौतम ! किन्तु 'नो चेवणं' नैव खलु-निश्चयेन न खलु 'इयरे हिं' इतरैः अष्टमप्रतिपत्तेः पूर्वं प्रदर्शितैः सप्तभिर्ज्ञातव्यं तेषु यथावस्थितवस्तुतत्त्वाभावादित्यवधेयम् ॥ ॥ प्रथमस्य प्राभृतस्य सप्तमम् प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१-७॥ ८० ॥ अथ प्रथमस्य प्राभृतस्याष्टमं प्राभृत प्राभृतं प्रारभ्यते ॥ पूर्वं सप्तमे प्राभृतप्राभृते मण्डलसंस्थानमुक्तम् अत्र च - पूर्वं द्वारगाथायां यत् 'विक्रंखभ' इति विष्कम्भ इति कथितं तदत्र मण्डलपदानां बाहल्यायामविष्कम्भपरिक्षेपत्वेन प्रमाणं प्रदर्शयति - 'ता सव्वा विणं मंडलवया' इत्यादि । मूलम् - ता सव्वा वि णं मंडलवया केवइया बाहल्लेणं, केवइया आयामविक्खंभेणं, केवइया परिक्खेवेणं आहिया ? तिवदेज्जा । तत्थ खलु इमा तिणि पडि ओ पण्णत्ताओ तं जहा तत्थेगे एवमाहंसु - ता सव्वावि णं मंडलवया जोयणं वा हल्लेणं एग जोयणसहस्सं एगं तेत्तीस जोयणसयं आयामविक्खंभेणं, तिष्णि जोयणसहस्सा तिणि य णवणउई जोयणसयाई परिक्खेवेणं पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु । १ । एगे पुण एवमाहंसु - ता सव्वा वि णं मंडलवया जोयणं बाहल्लेणं, एगं जोयणसहस्सं एवं चचउत्तीस जोयणसयं आयामविक्खंभेणं तिष्णि जोयणसहस्साइं चत्तारि बिउत्तराई जोयणसयाईं परिक्खेवेणं पण्णत्ता एगे एवमाहंसु |२| एगे पुण एवमा सु-ता सव्वा बिणं मंडलवया जोयणं बाहल्लेणं, एगं जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसयं आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसहस्साइं चत्तारि पंचुत्तराई जोयणसयाई परिवखेवेणं पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु |३| Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "onnar चद्रप्तिप्रकाशिका टोका प्रा० १. ८ सू० १४ मण्डलपदानां प्रमाणनिरूपणम् ८१ वयं पुण एवं वयामो-ता सवाविणं मंडलवया अडयालीसं एगसद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, अणियया आयाम पदखभपरिक्खेवेणं आहियाति वदेज्जा । तत्थ ण को हैऊ? ति वदेज्जा । ता अयण जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ता जया सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवर कमित्ता चारं चरइ तया णं सा मंडलवया अडयालीस एगसद्विभागे जोयणस्स वाहाण, णवणउइजोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं, तिष्णि जं यणसयसहस्साई पण्णरसजोयणसहस्साई एगणणउई जयणाई किंचिविसेसाहिया परि खेवेणं, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्त दिवसे भवइ, जहणिया दुवाल पमुहुत्ता राई भवई । से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोर। अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ता जगा णं सूरिए अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सा सव्वावि मंडलवधा अडयालीसं एगसद्विभागा जोयणस्स बाहल्लेणं, णवणवइजोयणसहस्साई उच्च पणयाले जोयणसयाई. पणतंसं च एगसद्विभागा जोयणस्स आयामविक्खभेणं, निणि जोयणसयसहस्साई पण रसं च सहस्साई एगं सत्त्तरं जोयणसयं किंचि विसे सूर्ण परिक्खे वेण, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालमुद्दत्ता राई भवइ दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं अहिया। से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अतिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए अभितरं तचं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सा मंलवया अडयालीस एगसहि भागा जोयणस्स बाहल्लेणं, णवणवइजोयणसहस्सा छच्च एकावन्ने जोयणसय इं णव य एगसट्ठिभागा जोयणस्स आयामविक्खं भेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई पण्णरस य सहस्साइं एगं च पणवीसं जोयणसयं परिक्खेवेण पण्णत्ता, तया णं अट्ठा समुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवद चउहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेंहि अहिया । एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे मरिए तया तराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं उवसंकममाणे ६ पंच जोयणाई पणतीसं च एगसहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खभवुति अभिवुड ढेमाणे २ अट्ठारस २ जोयणाई परिरयवुइढिं अभिवइढेमाणे २ सव्वबाहिरं डलं उबसंकमित्ता चारं चरइ : ता जयाणं सूरिए सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया गं सा सव्वा कि मंडलवया अटयालीसं एगसट्ठिभागा जोयणस्स बाहल्लेणं. एगं जोयणसयसहस्सं छन् वसट्ठी जोयणसयाई आयामविवभेणं, तिण्णि जोयणसरसहस्साई अट्ठारससहस्साइं तिणि य पण्णरसुत्तरे जोयणसयाई परिक्खेवेणं, ११ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmm चन्द्रप्राप्तिसूत्रे तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे । एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे ॥ सू० १४॥ छाया--तावत् सर्वाण्यपि खलु मण्डलपदानि कियत्कानि बाहल्येन कियत्कानि आयामविष्कम्भेन ? कियत्कानि परिक्षेपेण आख्यातानि इति वदेत् , तत्र खलु इमाः तिस्रः प्रतिपत्तयः प्रशप्ताः, तद्यथा-तत्रैके एवमाहुः-तावत् सर्वाण्यपि खलु मण्डलपदानि योजनं बाहल्येन, एकं योजनहस्रम् एकं त्रयस्त्रिशद्योजनशतम् आयामविष्कम्भेण त्रीणि योजनसहस्राणि त्रीणि च नवनवतियोजनशतानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तानि, एके एवमाहुः ।१। एके पुनरेवमाहुः-तावत् सर्वाण्यपि वलु मण्डलपदानि योजनं बाहल्येन, एकं योजनसहस्रम् पकं च चतुस्त्रिशद् योजनशतम् आयाविष्कम्भेण, त्रीणि योजनसहस्राणि चत्वारि द्वयुत्तराणि योजनशतानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तानि, एके पवमाहुः ।२। एके पुनरेवमाहुः-तावत् सर्वाण्यपि मण्डलपदानि योजन बाहल्येन, एक योजनसहनम् एकं च पञ्चत्रिशद योजनशतम् आयामविष्कम्भेण, त्रीणि, योजनसहस्राणि चत्वारि पञ्चोत्तराणि योजनशतानि परिक्षेपेण प्राप्तानि, एके एवमाहुः ।। वयं पुनरेवं वदामः-तावत् सर्वाण्यपि खलु मण्डलपदानि अष्टचत्वारिंशद् एकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन, अनियतानि आयामविष्कम्भपरिक्षेपेण आख्यातानि; इति वदेत् । तत्र खलु को हेतुरिति वदेत् ? तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्रशप्तः। तावत् यदा स्खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु तानि मण्डलपदानि अष्टचत्वारिंशत् एकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन, नवनवतियोजनसहस्राणि षट्र चत्वारिंशद् योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, त्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चदश योजनसहस्राणि एकोननवतियोजनानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिभवति । स निष्क्रामन् सूर्यः नवं संवत्सरम् अयन् प्रथमे अहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलम् उपसक्रम्य चारं चरति तदा खलु तानि सर्वापि मण्डल पदानि अष्टचत्वारिंशत्-एकष्टिभागा योजनस्य वाहल्येन, नवनवति योजनसहस्राणि षट् च पञ्चचत्वारिंशद् योजनशतानि पञ्चत्रिंशत् च एकष्टिभागा योजनस्य आयाविष्कम्भेण, त्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चदश च सहस्राणि एक सप्तोत्तरं योजनशतं किञ्चिद्विशेषोन परिक्षेपेण, तदा खलु अष्टादशमुहूतों दिवसो भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् ऊनः, द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति द्वा टिभागमुहूर्ताभ्याम् अधिका । स निष्क्रामन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चार चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु तानि मण्डलपदानि अष्टचत्वारिंशद् एकषष्टिभागा योजनस्य बाह. ल्येन, नवनवतियोजनसहस्राणि षट् एकपञ्चाशद् योजनशतानि नव च एक षष्टिभागा योजनस्य आयामविष्कम्भेण, त्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चदश च सहस्राणि एकंच पञ्चविंशतिः योजनशतं परिक्षेपेण पक्षप्तानि, तदां खलु अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति चतुर्भि Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्ति प्रकाशिका टोका प्रा० १-८ सू० १४ मण्डलपदानां प्रमाणनिरूपणम् ८३ रेकषष्टिभागामुहूर्तरूनः, द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूर्तरधिका । एवं खलु पतेन उपायेन निष्क्रमन् सूर्यः तदनन्तरात् मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलम् उपसं. क्रामन् २ पञ्च योजनानि पञ्चत्रिशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य एकैकस्मिन् मण्डले विष्क म्भवृद्धिम् अभिवर्धयन् २ अष्टादश योजनानि परिरयवृद्धिम् अभिवर्धयन् २ सर्वबाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वबाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु तानि सर्वायपि मण्डलपदानि अष्टचत्वारिंशद् एकष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन, एकं योजनशतसहस्रं षट् षष्टिः योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादशसहस्राणि त्रीणि च पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि परिक्षेपेण, तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति । एषा खलु प्रथमा षण्मासी । एतत् खलु प्रथमायाः षण्मास्याः पर्यवसानम् ॥१४॥ व्याख्या---'ता' तावत् ' 'सव्वा वि णं' सर्वाण्यपि खलु 'मंडलवया' मण्डलपदानि मण्डलरूपाणि पदानि सूर्यमण्डलस्थानानीत्यर्थः 'केवइयं' कियत्कानि कियत्प्रमाणानि 'बाहल्लेणं' बाहल्येन स्थौल्येन तथा 'केवइयं' कियत्कानि कियत्प्रमाणानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण' आयामः दैध्ये विष्कम्भः विस्तारः तयोः समाहारे आयामविष्कम्भं, तेन आयामविष्कम्भेणेत्यर्थः दैर्येण विस्तारेण च कियत्प्रमाणानि सर्वाण्यपि मण्डलपदानीति भावः, तथा 'केवइयं' कियत्कानि कियत्प्रमाणानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना, कियत्प्रमाणा तेषां परिधिरिति भावः 'आहिता' आख्यातानि कथितानि तीर्थकरैः 'इति' इति-एतद्विषयं 'वदेज्जा' वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् इति गौतमस्य प्रश्नः । भगवानाह-'तत्थ' तत्र खलु निश्चयेन 'इमा' इमा वक्ष्यमाणाः 'तिण्णि' तिस्रः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतरूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिता अन्यैरन्यैस्तीर्थान्तरीयैरिति, 'तं जहा' तद्यथा-ता यथा-'तत्थ' तत्र तिसृषु प्रतिपत्तिषु. मध्ये 'एगे' एके केचन प्रथमास्तीर्थान्तरीयाः ‘एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति । किमाहुरित्यत्राह-'ता' इत्यादि 'ता' तावत् 'सव्वावि णं' सर्वाण्यपि खलु 'मंडलवया' मण्डलपदानि, 'मंडलवया' इति सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , तानि सर्वाण्यपि मण्डलपदानि प्रत्येकं 'जोयणं' योजनमेकं 'बाहल्लेणं' बाहल्येन स्थौल्येन, तथा 'एग जोयणसहस्सं' एकं योजनसहस्रम् एक सहस्रयोजनम् , 'एग' एकं 'तेत्तीसं' त्रयस्त्रिंशत् 'जोयणसयं' योजनशतम् , त्रयस्त्रिंशदधिकमेकं शतं योजनानाम् 'आयामविक्खंभेणं' आयाभविष्कम्मेण दैर्ध्यविस्तारेण, 'तिष्णि जोयणसय. सहस्साई' त्रीणि योजनशतसहस्राणि सहस्रत्रययोजनानि 'तिणि य नवनवईजोयणसयाई' त्रीणि च नवनवतियोजनशतानि नवनवत्यधिकशतत्रय योजनानां 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि कथितानि मण्डलपदानि । उपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु' एके केचन प्रथमाः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्तीति प्रथमा प्रतिपत्तिः ।१। एषामेवं कथनं मिथ्याभावगर्भितं वर्तते, कथमित्याह-एषां प्रथमास्तीर्थान्तरीया स्वमते आयामविष्कम्भप्रमाणं Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे त्रयस्त्रिंशदधिकशतोत्तरैकसहस्र (११३३) योजनपरिमितं प्रतिपादयन्ति परिधिपरिमाणं च ते वृत्तपरिमाणात् परिपूर्ण त्रिगुणमेव समिच्छन्ति न तु विशेषाधिकं तेन तेषां मते आयामविष्कम्भपरिमाणं त्रिगुणितं जायते नवनवत्यधिकत्रिशतोत्तरसहस्रत्रययोजनपरिमितं (३३९९) समागच्छति, इदं परिधिपरिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुणकरणे वहस्स परिरओ होइ” विष्कम्भवर्गदशगुणकरणे वृत्तस्य परिरयो भवति, इति परिधिगणितेन तन्न समीचीनम् । एवं करणे परिधिमाणं द्वयशोत्यधिकपञ्चशतोत्तरसहस्रत्रययोजनपरिमितं (३५८२) किञ्चित्समधिकमायाति. तथा हि-त्रयस्त्रिंशदधिकशतोत्तरैकसहन (११३३) योजनानि आयामविष्कम्भपरिमाणं स्थाप्यते. एतेषां वर्गों विधीयते तदा द्वादशलक्षाणि व्यशीतिसहस्राणि एकोननवत्यधिकानि षट् शतानि च (१२८३६८९) । एषा दशभिर्गुण्यते तदा एका कोटिः अष्टाविंशतिर्लक्षाणि षट्त्रिंशत् सहस्राणि नवत्यधिकाष्टशतानि च (१२८३६८९०) जायन्ते, एतेषां वर्गमूलानयने यथोक्तं द्वयशीत्यधिकपञ्चशतोत्तरसहस्रत्रयं (३५८२) किश्चिद्विशेषाधिकमित्यतः परिधिपरिमाणमसमीचीनत्वान्न सिध्यति । एवं करणादपरमपि मतद्वयं परिधिपरिमाणमसङ्गतमेवेति । अथ द्वितीयां प्रतिपत्तिमाह-‘एगे पुण' इत्यादि, ‘एगे पुण' एके केचन द्वितीयाः पुनः ‘एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु'कथयन्ति-'ता' तावत् 'सव्वावि णं मंडलवया' :सर्वाण्यपि खलु मण्डलपदानि प्रत्येक 'जोयणं' योजनमेकं 'बाहल्लेणं' बाहल्येन, तथा 'एग जोयणसहस्सं' एकं योजनसहस्रम् 'एगं च चउतीसं जोयणसयं' एकं च चतुस्त्रिंशद् योजनशतं चतुत्रिंशदधिकशत्तोरैकसहस्र(११३४) योजनपरिमितानि 'आयामविक्खंभेणं' मायामविष्कम्भेण, तथा 'तिण्णि जोयणसहस्साई' त्रीणि योजनसहस्रानि, 'चत्तारि विउत्तराई जोयणसयाई' चत्वारि व्युत्तराणि योजनशतानि चधिकचतुःशत (४०२) योजनपरिमितानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण, 'एगे एवमासु' एके द्वितीया एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः-कथयन्तीति द्वितीया प्रतिपत्तिः ।२। एषाऽपि मिथ्याभावप्रदर्शनगर्भिता प्रथमप्रतिपत्तिप्रदर्शितरीत्या गणिते कृते साते परिधिपरिमाणस्यासङ्गतत्वदर्शनात् ॥ अथ तृतीयां प्रतिपत्तिमाह-'एगे पुण' एके केचन तृतीयाः परमतवादिनः पुनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'सव्वावि मंडलवया' सर्वाण्यपि मण्डलपदानि प्रत्येकं 'जोयणं' योजनमेकं 'बाहल्लेणं' बाहल्येन. तथा 'एग जोयणसहस्सं' एक योजनसहस्रम् ‘एगं च पणतीसं जोयणसयं' एकं च पञ्चत्रिंशद् योजनशतम्-पञ्चत्रिंशदधिकशत्तोत्तरैकसहस्र (११३५) परिमितानि 'आयामविक्खंभेण" आयामविष्कम्भेण, तथा 'तिण्णि जोयणसहस्साई त्रीणि योज-सहस्राणि 'चत्तारि पंचुत्तराई जोयणसयाई' चत्वारि पञ्चोत्तराणि योजनशतानि पोत्तरचतुःशताधिकसहस्रत्रय (३४०५) परिमितानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण, उपसंहरति-‘एगे एवमाइंसु' एके केचन तृतीयाः एवं Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०१-८ सू० १४ मण्डलपदानां प्रमाणनिरूपणम् ८५ पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः - कथयन्तीति तृतीया प्रतिपत्तिः | ३ | एषाऽपि मिथ्याभावपोषिका पूर्ववदेव गणितरीत्या परिधिपरिमाणस्यासाङ्गव्यगर्भितत्वात् । इति तिस्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्याभावप्ररूपकत्वादनादरणीयाः । साम्प्रतं भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति- 'वयं पुण' इत्यादि 'वयं पुण' वयं पुनः ' एवं ' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः - कथयामः कथमित्याह - 'ता' तावत् 'सव्वावि मंडलवया' सर्वाण्यपि मण्डलपदानि प्रत्येकम् 'अडयालीसं एगसद्विभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशद् ४८ एकषष्टिभागा ( ) योजनस्य ' बाहल्लेणं' वाहल्येन एतद् बाहल्यपरिमाणं नियतं सर्वत्र ६१ बाहल्यपरिमाणस्यैतावत एव सद्भावात् किन्तु 'अणियया' अनियतानि ' आयामविक्खं भेणं' आयामविष्कम्भेण, तथा 'परिखेकवेणं' परिक्षेपेण च आयामविष्कम्भपरिक्षेपैः पुनरनियतानि सर्वाण्यपि मण्डलपदानि वर्त्तन्ते तत्र सर्वेषां पृथक्त्वेन लाभात् अत आयामविष्कम्भपरिक्षेपैरनिय तानि सर्वाण्यपि मण्डलपदानि ‘अहिया' आख्यातानि कथितानि ' इति वदेज्जा' इति वदेत् गौतमः पुनः पृच्छति 'तत्थ णं' इत्यादि ' तत्थ णं' तत्र खलु एवं मण्डपदानामनियतत्वप्रतिपादने 'को हेऊ' को हेतुः किं कारणं का व्यवस्था ? ' इति वदेज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ! ततो भगवानाह-‘ता' तावत् अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे' अयं खलु जम्बुद्वीपो द्वीपः 'जाव' यावत् अत्र यावत्पदेन जम्बूद्वीपपरिमाणं पूर्ववद् वोच्यम् पूर्वप्रदर्शितप्रकारः 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः कथितः । 'ता' तावत् ' जया णं' यदा खलु 'सूरिए ' सूर्यः 'सव्वन्भंतर मंडळ" सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चार चरण, उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया ण" तदा खलु 'सा मंडलवया' तानि मण्डल पदानि मण्डलस्थानानि 'अडयालीस एगसद्विभागजोयणस्स' अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य ' बाहल्लेणं' बाहयेन पृथुत्वेन,बाहल्यपरिमाणस्य नियतत्वेनाग्रे सर्वत्र एतावत्प्रमाणत्वेनैव व्याख्यातव्यम् । तथा 'नवनवइजोयणसहस्सा ई' नवनवतियोजन सहस्राणि 'छच्च चत्ताले जोयणसयाई' षट् च चत्वारिंशद् योजनशतानि चत्वारिंशदधिक षट् शतोत्तरनवनवतिसहस्र ( ९९६४०) योजनपर - मितानि ' आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण आयामेन निष्कम्भेण च, तथा 'तिण्णि जोयणसयसहस्साईं ' त्रीणि योजनशतसहस्राणि 'पण्णरस जोयणसहस्साई' पञ्चदशयोजन सहस्राणि 'ए गूणण वई जोयणाई' एकोननवतियोजनानि एकोननवत्यधिक पञ्चदशसहस्रोत्तरलक्षत्रय ( ३१५०८९) परिमितानि 'किंचिविसे साहियाई' किञ्चिद्विशेषाधिकानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण वर्त्तन्ते 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठा प्राप्तः परमप्रकर्षसम्पन्नः तदग्रे प्रकर्षताया अभावात् 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्ट ततोऽनन्तरमुत्कर्षाभावात् 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे " Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे भवई' अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति इदं सूत्रोक्तमायामविष्कम्भपरिमाणं कथं लभ्यते इति प्रदर्शयामः, तथाहि-सर्वाभ्यन्तरमण्डलमेकतोऽशीत्यधिकमेकं शतं (१८०) जम्बूद्वीपमवगाह्य स्थितम् एवमपरतोऽपि-अशीत्यधिकमेकं शतं (१८०) जम्बूद्वीपमवगाह्य स्थितमिति तयोः संमेलने जातं षष्टयधिकं शतत्रयम् (३६०) एषा संख्या लक्षयोजनरूपज्जम्बूद्वीपपरिमाणम् शोध्यते ततो जातं यथोक्तपरिमाणमायामविष्कम्भयोः चत्वारिंशदधिकषट् शतोत्तरनवनवतिसहस्रयोजनपरिमितम् (९९६४०) । परिक्षेपपरिमाणानयनं यथा सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्य विष्कम्भो नवनवतियोजनसहस्राणि चत्वारिंशदधिकषट्शतोत्तराणि (९९. ६४०) अस्याः संख्याया वर्गो विधीयते जातः सः नवनवतिः अष्टाविंशतिः, द्वादश, षण्णवतिः, द्वे च शून्ये (९९२८ १२९६००) इत्येवं रूपः, ततो दशभिर्गुणने एकशून्याधिका पूर्वोक्का संख्या (९९२८१२९६०००), अस्या वर्गमूलानयने लब्धं यथोकं त्रीणि लक्षाणि नवाशीत्यधिक पञ्चदशसहस्रोत्तराणि(३१५०८९) परिक्षेपपरिमाणमिति, शेषं द्वेलक्षे एकोनाशीत्यधिकाष्टादशसहस्रोत्तरे (२१८०७९) एतावत्प्रमाणं स्थितं तत्त्यक्तमिति भगवन्मतं केवलालोकालोकितत्वेन समीचीनं सिद्धमिति । 'से' सः 'णिक्खममाणे' निष्क्रामन् 'मूरिए' सूर्यः 'णवं संवच्छरं अयमाणे नवं संवत्सम् अयन् प्राप्नुवन् सन् 'पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'अभितराणंतरं मंडलं' अभ्यन्तरमण्डलादनन्तरं स्थितं द्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'मरिए' सूर्यः 'अभितराणतरं मंडलं' आभ्यन्तरानन्तरं सर्वाभ्यन्तरानन्तरंद्वितीयं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खल 'सा सव्वा वि मंडलवया' तानि सर्वाण्यपि मण्डलपदानि प्रत्येकम् 'अडयालीस एगसट्ठिभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशद् एकषष्टिभागा योजनस्य 'बाहल्लेणं' बाहल्येन वर्त्तन्ते, तथा 'णवणवइजोयणसहस्साई' नवनवतियोजनसहस्राणि 'छच्च पणताले जोयणसयाई षट्च पञ्चचन्वारिंशद् योजनशतानि पणतीसं च एगसद्विभागा जोयणस्स' पञ्चत्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य (९९६४५ ३५/६१) 'आयामविक्खंभेणं' आयाभविष्कम्भेण सन्ति तथा 'तिण्णि जोयणसयसहस्साई' त्रीणि योजनशतसहस्राणि 'पण्णरसं च सहस्साई' पञ्चदश च सहस्राणि 'एगं सत्तुतरं जोयणसयं' एकं सप्तोत्तरं योजनशतम् -सप्तोत्तरशताधिकपञ्चदशसहस्रोत्तरलक्षत्रयम् (३१५१०७) 'किंचिविसेसूर्ण' किञ्चिद्विशेषोनं किञ्चिद् त्रयोविंशत्येकषष्टिभागहीनत्वात् । व्यवहारनयमतेन लोकेऽपि किञ्चिन्न्यूनसंख्याया अपि परिपूर्णत्वेन विवक्षा लभ्यते । निश्चयनयमतेन तु एतावती संख्या भवति तथा च (३१५१०६-३८।६१) इति एतावत्परिमितानि सर्वाण्यपि मण्डलपदानि परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना वर्तन्ते। अत्र यत् 'किंचिविसेरणं' इति कथितं तत् अन्तिमाङ्कसप्तसंख्यायाः परिपूर्णाभावात् कथितम् । 'तया गं' Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-१-८ सू० १४ मण्डलपदानां प्रमाणनिरूपणम् ८७ तदा पूर्वोक्तपरिस्थितौ खलु ‘अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भबई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहि एगसद्विभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिभवति सा च 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्याम् 'अहिया' अधिका भवतीति । कथमेतदायामविष्कम्भयोः परिधेश्च परिमाणं लभ्यते इति तदेव प्रदर्शयामः, तत्र प्रथममायामविष्कम्भयोः परिमाणं प्रदर्श्यते, तथाहि-एकः सूर्यो द्वे योजने एकस्य योजनस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलगताष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागांश्च-(२-४८।६१) बहिरवष्टभ्य द्वितीये मण्डले चारं चरति । एवमेव द्वितीयोऽपि सूर्यो द्वे योजने, सर्वाभ्यन्तरमण्डलगताष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागांश्च (२-४८।६१) बहिरवष्टभ्य पुनर्द्वितीये मण्डले चारं चरति ततो द्वयोः संमेलने जातानि पञ्चयोजनानि तदुपरि योजनस्य पञ्चत्रिंशदेकषष्ठिभागाश्च (५-३५।६१) भवन्ति । एषा संख्या प्रथममण्डलायामविष्कम्भपरिमाण (९९६४०) मध्येऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यते ततो जातं यथोक्तमायामविष्कम्भपरिमाणं पञ्चचत्वारिंशदधिकषट्शतोत्तरनवनवतिसहस्रयोजनानि, पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य (९९६४५-३५।६१) इति । इदमायाविष्कम्भपरिमाण लब्धम् । परिधिपरिमाणमेवं लभ्यते, तथाहि-पञ्चयोजनानि, पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य, इत्यस्य सर्वे. एक षष्टिभागाः क्रियन्ते तदर्थ पञ्च योजनानि एकषष्टया गुण्यन्ते, जातानि पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि (३०५) एषु एकषष्टिभागेषु उपरितनाः शेषाः ये पञ्चत्रिंशत् (३५) एकषष्टिभागास्ते प्रक्षिप्यन्ते ततो जातानि चत्वारिंशदधिकानि त्रीणि शतानि (३४०) एतेषां वर्गकरणात् जातं षट् शताधिकपञ्चदशसहस्रोत्तरमेकं लक्षम् (११५६००) एषोऽङ्कसमुदायो दशभिर्गुण्यते ततो जाता एकशून्याधिका पूर्वोक्ता संख्या (११५६०००)। एषां वर्गमूलानयने लभ्यते पञ्चसप्तत्यधिकमेकं सहस्रम् (१०७५) । अस्य योजनकरणार्थमेकषष्टया भागो हियते तदा लब्धानि सप्तदशयोजनानि अष्टत्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य (१७-३८।६१) शेषाऽष्टत्रिंशदूपासंख्या तिष्ठति सा त्यक्ता । एतत् (१७-३८।६१) पूर्वमण्डलपरिधिपरिमाण (३१५०८९) मध्येऽधि कत्वे प्रक्षिप्यते ततो जातं यथोक्तं परिधिपरिमाणं सप्तोत्तरशताधिकपञ्चदशसहस्रोत्तरं लक्षत्रयम् (३१५१०७) किञ्चिद्विशेषोनं-किश्चिदूनत्रयोविंशत्येकषष्टिभागानां होनत्वादिति । 'से णिक्खममाणे सुरिए' स निष्क्रामन् सूर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीयेऽहोरात्रे अभितरं मंडलं' अभ्यन्तरम् अभ्यन्तरसम्बन्धित्वादभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः 'अभितरं तच्चं मंडलं' अभ्यन्तरं तृतीय मण्डलम् "उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'तया णं' तदा खलु 'सा मंडलवया' तानि मण्डलपदानि 'अडयालीसं एगसद्विभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिं Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे शदेकषष्टिभागा योजनस्य 'बाहल्लेणं' बाहल्येन, ‘णवणवइजोयणसहस्साई' नवनवतियोजनसहस्राणि 'छच्च एकावण्णे जोयणसयाई' षट् च एकपञ्चाशद् योजनशतानि 'णव य एगसद्वि भागा जोयणस्स' नव च एकषष्टिभागा योजनस्य एकपञ्चाशदधिकषट्शत्तोत्तरनवनवतिसहस्रयोजनानि योजनस्य नवैकपष्टिभागसमधिकानि (९९६५१-९।६१) 'आयामविक्खभेणं' आयामविष्कम्भेण वर्तन्ते, । ___ कथमेतत्परिमाणं लभ्यते ? इति प्रदर्श्यते-पूर्ववदत्रापि प्रतिमण्डलचारं वृद्धिमर्यादया पश्चयोजनानि पञ्चविंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य (५-२१) पूर्व मण्डलायामविष्कम्भपरिमाणादधिकत्वेन प्राप्यन्ते ततो भवति यथोक्तमायामविष्कम्भपरिमाणं ( ९९५१ :) तथा च-पूर्वमण्डलायामविष्कम्भपरिमाणं पञ्चचत्वारिंशदधिकषट्शतोतरनवनवतिसहस्रयोजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागाः । पञ्चयोजनानि तन्मध्ये पञ्चत्रिशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य ( (९९६४५-३५) संयोज्यन्ते यथा ५-३५ (९९६५०-७०) संयोजनेन समागताः सप्ततिसंख्यका (७०) एक षष्टिभागास्ते एकषष्टया ६१ विभज्यते लब्धमेकं योजनं तद् योजनसंख्यायां प्रक्षिप्यते शेषाः नव- एक षष्टिभागाः स्थिता इति जातं यथोक्तं परिमाणम् (९९६५१३) इति । 'तिण्णि जोयणसयसहस्साई' त्रीणि योजनशतसहस्राणि 'पण्णरस य सहस्साई' पञ्च दश च सहस्राणि 'एगं च पणवीसं जोयणसयं' एकं च पञ्चविंशतिः योजनशतम्-पञ्च विंशत्यधिकशतोत्तरपञ्चदशसहस्राधिकं-लक्षत्रयं योजनानाम् (३१५१२५) 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना वर्तन्ते सर्वाणि मण्डलपदानीति । कथमेतत् परिधिपरिमाणमुपलभ्यते ! इति प्रदर्श्यते तथाहि पूर्वमण्डलपरिधिपरिमाण-(३१. ५१०७) मध्ये अष्टादशयोजनानि अधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते ततो भवति सूत्रोक्तमेतन्मण्डलपरिधिपरिमाण पञ्चविंशत्यधिकशतोत्तरपञ्चदशसहस्राधिकत्रिलक्षयोजनपरिमितं (३१५१२५) भवतौति । अत्र निश्चयनयमतेन तु सप्तदशयोजनानि अष्ट त्रिंशच्चैकषष्टिभागाः (१७ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-८ सू०१४ मण्डलपदानां प्रमाणनिरूपणम् ८९ प्रक्षेपकराशिरस्ति किन्तु . सूत्रकृता व्यवहारनयमनुसृत्य परिपूर्णाष्टादशयोजनानि कथितानि लोके हि व्यवहारनयेन किञ्चिदूनराशेरपि परिपूर्णत्वेन व्यवहियमाणत्वात् । पूर्वमण्डलपरिमाणे 'किंचिविसेसूर्ण' इति प्रोक्तं तदपि व्यवहारनयमतेन परिपूर्णमिव विवक्ष्यते । तथाचोक्तम्-- "सत्तरसजोयणाइं अट्टतीसं च एगसहिभागा, एवं निच्छएणं, सववहारेण पुण अट्ठारसजोयणाई" इति 'सप्तदशयोजनानि अष्टत्रिंशच्च एकषष्टिभागा एतत् निश्चयेन, सव्यवहारेण पुनः अष्टादशयोजनानि" इति छाया । "तया णं' तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति किन्तु सः 'चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेहिं' चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'उणे' उनः हीनो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, सा च 'चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेहिं' चतुर्भिरेकषष्ठिभागमुहूर्तेः 'अहिया' अधिका भवति । 'एवं' एवम् अनेनैव प्रकारेण खलु 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'उवाएणं' उपायेन विधिना 'णिक्खममाणे मूरिए' निष्कामन् सूर्यः 'तयाणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तरात् पूर्वमण्डलादनन्तरस्थितात् यत्र सूर्यो वर्तते तस्मादित्यर्थः मण्डलात् 'तयाणंतरं मंडलं' तदनन्तरं मण्डलं तदने स्थितं मण्डलम् 'उवसंकममाणे २, उपसंक्रामन् २ 'पंच जोयणाई' पञ्च योजनानि 'पणतीसं च एगसटिभागे जोयणस्स' पञ्चत्रिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य (५३१) एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले प्रत्येकमण्डले इत्यर्थः 'विक्खंभबुद्धि' विष्कम्भवृद्धिम् 'अभिबुड्ढेमाणे २' अभिवर्धयन् २ तथा 'अट्ठारस २ जोयणाइं' अष्टादश २ योजनानि 'परिरयढि ' परिरय. वृद्धिं परिधिवृद्धिम् 'अभिवड्ढेमाणे २' अभिवर्धयन् २ 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्य मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं सा मंडलवया' तदा खलु तत् मण्डलपदम् 'अडयालिसं एगसद्विभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य 'बाहल्लेणं' बाहल्येन सन्ति 'एग जोयणसहस्सं' एकं योजनसहस्रं 'छच्च सही जोयणसयाई' षट् षष्टिः योजनशतानि षष्ट्यधिकानि पद शतानि योजनानां षष्ट्याधिकषट्शतोत्तरैकलक्षयोजनानि (१००६६०) 'आया मविक्खं भेणं' आयामविष्कम्भेण तथा 'तिन्नि जोयणसयसहस्साई' त्रीणि योजनशतसहस्राणि 'अट्ठारससहस्साई' अष्टादशप्तहस्राणि 'तिण्णि य पण्णरसुत्तराई जोयणसयाई' त्रीणि च पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि-पञ्चदशाधिकत्रिशतोत्तराष्टादशसहस्राधिकत्रिलक्षयोजनानि (३१८३१५) परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना वर्तन्ते । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwmmmmmmmmmmmmmmmwwwanmananmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmonwin. चन्द्रप्राप्तिसत्रे कथमायामविष्कम्भयोः परिधेश्च परिमाणमेतावत्परिमितमुपलभ्यते ! इति प्रदर्शयामः, तत्र पूर्वमायामविष्कम्भपरिमाणं प्रदर्श्यते, तथाहि -सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्वबाह्यं मण्डलं त्र्यशीत्यधिकैकशततमं (१८३) वर्तते, प्रत्येकस्मिन् मण्डले च विष्कम्भे २ पञ्चपञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागाः ( ५२४) योजनस्य वर्द्धन्ते ततः एतत् त्र्यशीत्यधिकैकशतेन गुण्यते, तत्र पञ्च योजनानां ज्यशीत्यधिकशतेन गुणने जातानि पञ्चदशोत्तरनवशतानि योज नानि (९१५) एकषष्टिभागानां त्र्यशीत्यधिकशतेन गुणने जातानि पञ्चाधिकचतुःशतोत्तराणि षट् सहस्राणि, (६४०५) एतावन्त एक षष्टिभागाः जाताः, एषां योजनानयनार्थ मेकषष्ट्या ६१ भागो हियते, लब्धं पञ्चोत्तरं शतम् (१०५) एषा योजनसंख्या लब्धा, एतां पूर्वलब्धयोजनराशौ पञ्चदशाधिकनवशत (९१५) रूपे प्रक्षिप्यते तदा जातं विंशत्यधिकमेकं सहस्रम् (१०२०) एषोऽङ्कसमुदायः सर्वाभ्यन्तरमण्डलायामविष्कम्भपरिमाणे (९९६४०) ऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यते ततो जायते यथोक्तं षष्ट्यधिक षट् शतोत्तरै कलक्ष (१००६६.) रूपं परिमाणमायामविष्कम्भयोर्भवतीति । अथ परिधिपरिमाणं कथं लभ्यते ? इति प्रदर्श्यते, तथाहिपरिक्षेपपरिमाणे यत् 'पञ्चदशोत्तराणि' इति कथितं तानि पञ्चदशोत्तराणि किश्चिन्यूनानि ज्ञातव्यानि । तथाहि-अस्य मण्डलस्यायामविष्कम्भपरिमाणं षष्टयधिकषट्शतोत्तरमेकं लक्षम् (१००६६०), अस्य वर्गकरणात् जातम् एककः शून्यमेककस्त्रिको द्विकश्चतुष्कस्त्रिकः पञ्चकः षट्को द्वे शून्ये (१०१३२४३५६००) इति ततो दशभिर्गुणने जातमेकं शून्यमधिकम् (१०१३२४३५६०००) अस्य वर्गमूलानयने लब्धानि-चतुर्दशोत्तरशतत्रयाधिकाष्टादशसहस्रोत्तरलक्षत्रयम् (३१८३१४), शेषमवतिष्ठते-चतुरुत्तरचतुःशताधिकत्रिपञ्चाशत्सहस्रोत्तरं लक्षपञ्चकम् (५५३. १०४) छेदराशिः अष्टाविंशत्यधिकषदेशतोत्तरषद्मशत्सहस्राधिकं लक्षषटकम् (६३६६२८)। एवं रीत्या पञ्चदशतमं योजनं किंचिदूनं प्राप्यते तथापि व्यवहारनयमतेन सूत्रकृता परिपूर्ण विव. क्षाया पञ्चदशोत्तराणीत्युक्तम् । अथवा द्वितीयप्रकारेण प्रदर्श्यन्ते-पूर्वपूर्वमण्डलमधिकृत्याऽग्रेऽग्रे प्रतिमण्डले परिधिवृद्धौ सप्तदश सप्तदश योजनानि अष्टत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य(१७२८) प्राप्यन्ते तत एते व्यशीत्यधिकशतेन गुण्यन्ते, तत्र पूर्व योजनानां गुणने जातानि- एकादशोतरैकशताधिकानि त्रीणि सहस्राणि (३१११), ततो येऽष्टत्रिंशदेकषष्टिभागास्तेऽपि व्यशीत्यधिकशतेन गुण्यन्ते, जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकनवशतोत्तराणि षट् सहस्राणि (६९५४), एतेषां योजनकरणार्थमेकषष्टया भागो हियते, तेन लब्धं चतुर्दशोत्तरमेकं शतम् (११४), एतानि योजनानि लब्धानि, तानि पूर्वोक्ते गुणनफलभूते योजनराशौ (३१११) प्रक्षिप्यन्ते ततो जातानि Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-८सू०१४ मण्डलपदानां प्रमाणनिरूपणम् ९१ पञ्चविशत्यधिकद्विशतोत्तराणि त्रीणि सहस्राणि (३२२५) एषोऽङ्कसमुदायः सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिमागे नवाशीत्यधिकपंचदशसहस्रोत्तरत्रिलक्ष (३१५०८९) रूपेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यते, तेन जातानि चतुर्दशोत्तरत्रिशताधिकाष्टादशसहस्रोत्तराणि त्रीणि लक्षाणि (३१८३१४) इति सूत्रोक्त परिधिपरिमाणमुपलब्धम् । ___ तथा सप्तदशयोजनानाम् , अष्टत्रिंशदेकषष्टिभागानामुपरि पञ्चसप्तत्यधिकानि त्रीणिशतानि (३७५) शेषत्वेनोद्धरन्ति तानि त्र्यशीत्यधिकशतेन गुणनात् जातानि पञ्चविंशत्यधिकषट्शनोत्तराणि अष्टषष्टिसहस्राणि (६८६२५)एतेषां पञ्चाशदधिकशतोत्तरसहस्रद्वयरूपेण (२१५०) छेदराशिना भागो हियते तदा लब्धा एकत्रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य, शेषमल्पत्वात्त्यकम् परं सूत्रकृता व्यवहारनयमतेन परिपूर्णयोजनविवक्षया 'पञ्चदशोत्तराणि" इत्युक्तम् । ___ एवं यदाऽऽयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं भवति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता परमप्रकर्षसम्पन्ना 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा सर्वगुर्वीयतोऽनन्तरमाधिक्याभावात् 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, तथा 'जहण्णए' जघ. न्यकः सर्वलघुः यतोऽनन्तरं लाघवाभावात् 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवतीति । 'एस णं' एतत् खलु ‘पढमे छम्मासे' प्रथमं षण्मासम् । 'एस णं' एतत् खलु ‘पढमस्स छम्मासस्स' प्रथमस्य षण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तिममहोरात्रम् । यतोऽ सूर्यस्य चारक्षेत्राभावात् ।।सू०१४॥ ॥ एतत् रात्रिवृद्धिरूपं प्रथमं षण्मासम् ॥ गत सूर्यसंवत्सरस्य मण्डलपद रूपं प्रथमं षण्मासम् साम्प्रतं तत्सम्बद्धमेव द्वितीयं षण्मासं प्ररूप्यते, तस्येदमादिसूत्रम्-‘से पविसमाणे सुरिए' इत्यादि । मूलम्-से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि वाराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया | सा मंडलवया अडयालीसं एगसट्ठिभागा जोयणस्स बाहल्लेणं, एगं जोयणसयसहस्सं छच्च चउप्पण्णे जोयणसयाइं छव्वीसं च एगसटिभगा जोयणस्स आयामविक्खंभेण, तिण्णि जोयणसयसहस्साई अट्ठारससहस्साई दोण्णि य सत्ताणउए जोयणसयाई परिक्खेवणं, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई दोहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिए । से पविसमाणे सरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगसद्विभागा जोयणस्स बाहल्लेणं, एगं जोयणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसयाई बावण्णं च एगसट्ठिभागा जोयणस्स आयाम विक्खंभेणं, तिष्णि जोयणसयसहस्सोईं अट्ठारससहस्साईं दोणि च एगूणासी ई जोयणसयाइं परिक्खेवेणं, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउर्हि एगसट्टिभागमुहुत्तेर्हि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं अहिए | एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे २ पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुटि निव्वुढे माणे २ अट्ठारसजोयणाई परिरयवुइटिं णिव्वुड्ढेमाणे २ सव्वन्तरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरह ता जया णं सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंक्रमित्ता चारं चरइ तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगसट्टिभागा जोयणस्स बाहल्लेणं, णवणवई जोयणसहस्साइं छच्च चत्ताले जोयणसयाईं आयामत्रिक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साईं पण्णरससहस्साई एगूणणउई च जोयणाई किंचिविसेसाहियाइं परिक्खेवेणं, तया णं उत्तमकद्वपत्ते उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । एस णं आइच्चे संवच्छ रे । एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे ||० १५ ॥ छाया - स प्रविशन् सूर्यः द्वितीयं षण्मासम् अयन् प्रथमे अहोरात्रे बाह्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तद्यदा खलु सूर्यः बाह्यानन्तरं मण्डलं उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु तानि मण्डलपदानि अष्टचत्वारिंशद् एकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन, पकं योजनशतसहस्रं षट् च चतुष्पञ्चाशत् योजनशतानि षडविंशतिश्च पकर्षाष्टभागा योजनस्य आयामविष्कम्भेण त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादशसहस्राणि द्वे व सप्तनवतियोजनशते परिक्षेपेण, तदा खलु अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्याम् ऊना, द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवति द्वाभ्यामेकषष्टभाग मूहूर्त्ताभ्याम् अधिकः । स प्रविशन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे बाह्यं तृतीयं मण्डलम् उयसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्यं तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु तानि मण्डपदानि अष्टचत्वारिंशद् एकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन, पकं योजनशतसहस्रं षट् च अष्टचत्वारिंशद् योजनशतानि द्विपञ्चाशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य आयामविष्क्रमेण श्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादशसहस्राणि द्वे च एकोनाशीतिः योजनशतानि परिक्षेपेण तदा खलु अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरे कषष्टिभागमुहूत्तैः ऊना, द्वादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूर्तैः अधिकः । एवं खलु पतेन उपायेन प्रविशन् सूर्यः तदनन्तरात् मंडलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् २ पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिशतमेकषष्ठभागान् योजनस्य पकैकस्मिन् मण्डले विष्कम्भवृद्धिं निर्वर्धयन् २ अष्टादश Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटोका प्रा०१-८ सू०१५ द्वितीयषण्मासे सूर्यपरिभ्रमणम् ९३ योजनानि परिरयवृद्धिं निर्वर्धयन् २ सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । तावद् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु तानि मण्डलपदानि अष्टचत्वारिंशद् एकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन, नवनवतियोजनसहस्राणि षट् चत्वारिंशद् योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, त्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चदश च सहस्राणि एकोननवतिश्च योजनानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण । तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहतों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति एतत् खलु द्वितीयं षण्मासम् । एतत् खलु द्वितीयस्य षण्मासस्य पवर्यसानम् । एष खलु आदित्यः संवत्सरः। एतत् खलु आदित्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानम् ।।स० १५॥ व्याख्या-ततः ‘से पविसमाणे सूरिए' स प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'दोच्चं छम्मासं' द्वितीयं षण्मासम् दिवसवृद्धिरूपम् 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् 'पढमंसि अहो. रत्तसि' प्रथमे अहोरात्रे 'बाहिराणंतरं मंडलं' सर्वबाह्यानन्तरमभ्यन्तरमार्गगतद्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चार चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'मूरिए' सूर्यः ‘बाहिराणंतरं मंडलं' बाह्यानन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति तया णं तदा खलु ‘सा मंडलवया' तानि मण्डपदानि 'अडयालीसं एगसद्रिभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः योजनस्य बाहल्येन वर्तन्ते, 'एगं जोयणसयसहस्सं' एक योजनशतसहस्रं 'छच्च चउप्पण्णे जोयणसयाई' : षट् च चतुष्पञ्चाशद् योजनशतानि 'छब्बीसंच एगसहिभागा जोयणस्स' पविंशतिश्च एकषष्टिभागा योजनस्य चतुष्पञ्चाशदधिकषट्शतोत्तरैकलक्षयोजनानि योजनस्य षविंशत्येकषष्ठिभागसहितानि (१००६५४-२६ 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण वर्तन्ते । कथमेतत्परिमाणमुपलभ्यते ? इति विशदी क्रियते, तथाहि-मण्डलमेतत् एकतो द्वे योजने सर्वबाह्यमण्डलगतानष्टचत्वारिंशतमेकषष्टिः भागांश्च (२-१८) योजनस्य मुक्त्वाऽभ्यन्तरमवस्थितम् , 'अपरतोऽपि द्वे योजने सर्वबाह्य ६१ मण्डलगतानष्टचत्वारिंशतमेकपष्टिभागांश्च (२-४८) योजनस्य मुक्त्वाऽभ्यन्तरमवस्थितमिति तयोर्द्वयोः सम्मेलने जातानि पञ्चयोजनानि पंचत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य (५-३५) त्ति' एतत् सर्वबाद्यमण्डलगतायामविष्कम्भपरिमाणात् (१००६६०) शोध्यते ततो जातं यथोक्तं चतुष्पञ्चाशदधिकषट्शतोत्तरैकलक्षयोजनानि पविंशतिश्चैकषष्टिभागाः (१००६५४-आयामविष्कम्भपरिमाणमिति । तथा 'तिण्णि जोयणसयसहस्साइ' त्रीणि योजनशतसहस्राणि 'अदारस द Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे सहस्साई' अष्टादशसहस्राणि 'दोण्णि य सत्ताणउए जोयणसयाई द्वे च सप्तनवतिःयोजनशते सप्तनवत्यधिकद्विशतोत्तराष्टादशसहस्राधिकत्रिलक्षयोजनानि (३१८२९७) 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण वर्तन्ते । कथमेतदवसीयते ? इत्याह पूर्वमण्डलात् अस्य मण्डलस्य आयामविष्कम्भपरिमाणे पंच योजनानि पंचत्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य न्यूनत्वेन भवितुमर्हन्ति सूर्यस्याभ्यन्तरगतिकत्वात् पंचत्रिंशदेकषष्टिभागसहितानां पंचानां योजनानां (५-२१) परिरये निश्चयनयमतेन सप्तदशयोजनानि अष्टत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य लभ्यन्ते किन्तु सूत्रकृता व्यवहारनयमाश्रित्य परिपूर्णानि अष्टादश योजनानि कथितानि । प्रागुक्तात् सर्वबाह्यमण्डलपरिधिपरिमाणात् पंचदशोतरशतत्रयाधिकाष्टादशसहस्रोत्तरत्रिलक्ष(३१८३१५) रूपात् अष्टादशयोजनानि शोध्यन्ते ततो जातं यथोक्त सप्तनवत्यधिकद्विशतोत्तराष्टादशसहस्राधिकत्रिलक्षयोजन (३१८२९७) परिमितपरिधिपरिमाणं भवतीति । 'तया णं' तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति किन्तु ‘सा दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् 'ऊणा' ऊना होना भवति तथा 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति, स च दोहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् 'अहिए' अधिको भवतीति । 'से पविसमाणे' ततः 'से' सः 'पविसमाणे' प्रविशन् 'मूरिए' सूर्यः दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिर' बाह्यं बाह्यमार्गात्प्राप्तं तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलम् 'उबसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'मरिए' सूर्यः बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' बाह्यं तृतीयं मंण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । 'तया णं' तदा खल्ल तद् मण्डलपदम् 'अडयालीसं एगसट्ठिभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य 'बाहल्लेणं' बाहल्येन । एगं जोयणसयसहस्सं' एकं योजनशतसहस्रम् एकलक्षयोजानानि 'छच्च अडयाले जोयणसयाई' षट् च अष्टचत्वारिंशद्योजनशतानि अष्टचत्वारिंशदधिकषदशतयोजनानि 'बावण्णं च एगसट्ठिभागा जोयणस्स' द्विपञ्चाशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य (१००६४(5) एतावत्परिमितम् 'आयामविक्खंभेणं' आयामवि कर मेण, एतत्परिमाणं कथं लभ्यते ! तत्प्रदर्श्यते, तथाहि-अस्मात् प्राक्तनमण्डलस्यायामवि ष्कम्भपरिमाणं लक्षमेकं चतुष्पञ्चाशदधिकषट्शतोत्तरम् , षइविंशतिश्चैकषष्टिभागा योजनस्य (१००६५४२६ वर्तते, एतत्परिमाणात् पूर्वमण्डलात् पञ्चयोजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टि भागाः (५-३५) शोभ्यन्ते तत आगतं पूर्वोत्तमायामविष्कम्भपरिमाण तृतीयमण्डलपद Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चद्रतिप्रकाशिका टीका प्रा० १८ सू० १५ द्वितीयषण्मासे सूर्यपरिभ्रमणम् ९५ स्येति । तथा 'तिणि जोयणसय सदस्साई' त्रीणि योजनशतसहस्राणि त्रिलक्ष योजनानि, 'अट्ठा रससहस्साई' अष्टादशसहस्राणि 'दोणि य एगूणासीई जोयणसयाई' द्वे च एकोनाशीतिः योजनशते एकोनाशीत्यधिके द्वेशते च योजनानाम् (३१८२७९) 'परिक्खेवेण' परिक्षेपेण परिधिना विद्यते । तथाहि - अस्मात् प्राक्तनमण्डलस्य परिधिपरिमाणम् (३१८२९७ ) इत्येवं रूपम् । प्राक्तन मण्डलविष्कम्भपरिमाणादिदं मण्डलं योजनस्य पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागसहितैः पञ्चभिर्योजनैर्विष्कम्भतो न्यूनमस्ति, विष्कम्भन्यूनत्वे परिक्षेपन्यूनत्वस्यावश्यंभावात् पञ्चानां योजनानां पञ्चत्रिंशदे कषष्टिभागसहितानां परिधिप्रमाणं व्यवहारतोऽष्टादशयोजनानि लभ्यन्ते तानि च पूर्वमण्डलपरिमाणात् (३१८२९७) इत्येवं रूपात् अष्टादश हीनाः क्रियन्ते तत आगतं यथोक्तं ( ३१८२७९) परिधिपरिमाणम् । 'तया णं' तदा तस्मिन् काले खलु एतद्रूपपरिक्षेपपरिधिपरिमाणसमये इत्यर्थः, ‘अट्ठारसमुहुता राई भवः' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति किन्तु 'चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तेर्हि ऊणा' चतुर्भिरकषष्टिभागमुहूर्तेरूना हीना भवति । तथा ' दुबालसमुहुत्ते दिवसे भव' द्वादश मुहूर्ती दिवसो भवति, स च 'चउहिं एगसट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिए' चतु. भिरेक षष्टिभागमुहूर्त्तेरधिको भवतीति । 'एवं खलु' इत्यादि ' एवं ' एवम् अनेन प्रकारेण खलु - निश्चितम् 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'उवाएणं' उपायेन युक्तिना 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रतिगच्छन् 'सूरिए' सूर्य: ' तयाणतराओ मंडलाओ' तदनन्तराद् मण्डलाद् ' तयाणंतरं मंडलं' तदनन्तरं तदप्रेननं मण्डलं 'संकममाणे २' संक्रामन् २ 'पंच पंच जोयणाई' पञ्च पञ्च योजनानि 'पण - तसंच एगसद्विभागे जोयणस्स' पञ्चत्रिंशच्च एकषष्टिभागान् योजनस्य ' एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले 'विक्खंभवुर्द्धि' विष्कम्भवृद्धि 'निव्वुड्ढेमाणे २' निर्वर्धयन् २ ' हाप - यन् २' होनां कुर्वन् २ इत्यर्थः, तथा 'अट्ठारसजोयणाई' अष्टादशयोजनानि 'परिरयबुद्धिं' परिरयवृद्धिं परिधिपरिमाण वृद्धिं 'निव्वुड्ढेमाणे २' निर्वर्धयन् २ हापयन् २ ' सव्वन्भं. तर मंडल' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति सर्वाभ्य. न्तरमण्डले परिभ्रमतीत्यर्थः 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वब्भंतरं मंडल' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'सा मंडलवया' तन्मण्डलपदम् ' अडयालीस एगसद्विभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशदेकष. ष्टिभागा योजनस्य ' बाहल्लेणं' बाहल्येन, तथा 'णवणवइजोयणसहस्साई' नवनवतियो. जनसहस्राणि 'छच्च चत्ताले जोयणसयाई' षट् च चत्वारिंशद् योजनशतानि चत्वारिंशदधिकषट् शतयोजनानि (९९६४०) 'आयाम विक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण । तथा 'तिणि जोयण 1 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे सयसहस्साई' त्रीणि योजनशतसहस्राणि त्रीणि लक्षाणि 'पण्णरस य सहस्साई पञ्चदशसहस्राणि 'एगूणणवई य जोयणाई एकोननरतिश्च योजनानि (३१५०८९) 'किंचिविसेसाहियाई' किश्चिद्विशेषाधिकानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण वर्त्तते 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकद्वपत्ते' उत्त. मकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्तः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, तथा 'जहणिया' जघन्या सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवतीति । ‘एस ण दोच्चे छम्मासे' एतत् खलु द्वितीयं षण्मा. सम् । 'एस ण दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' एतत् खलु द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यव. सानम् अन्तिममहोरात्रम् । ‘एस णं आइच्चे संवच्छरे' एष खलु आदित्यः संवत्सरः । ‘एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे' एतत् खलु आदित्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानंपर्यन्तभागः ॥सू० १५॥ अथ प्रथममूलमाभृतगताष्टमप्रामृतप्राभृतकथितविषयवक्तव्यतामुपसंहरन्नाह–'ता सव्वा वि णं इत्यादि। मूलम् –ता सव्वा वि णं मंडलवया अडयालीसं च एगसद्विभागा जोयणस्स बाहल्लेणं, सव्वा वि णं मंडलंतरिया दो जोयणाइं विक्खंभेण, एस णं अद्धा एगे तेयासीई जोयणसए सपडिपुण्णा पंचदसुत्तराई जोयणसयाई आहितेति वदेज्जा । ता अभंतराओ मंडलवयाओ बाहिरा मंडलवया बाहिराओ मंडलवयाओ अभितरा मंडलवया एस णं अद्धा पंचदमुत्तराई जोयणसयाई, अडयालीसं च एगसद्विभागा जोयणस्स आहिया । ता अभितराओ मंडलवयाओ बाहिरा, मंडलवया वाहिराओ मंडलणयो अभितरा मंडलवया, एस णं अद्धा पंचनवुत्तराई जोयणसयाई तेरस एगसद्विभागाजोयणस्स आहितेति वदेज्जा। अभितराओ मंडलवयाओ, बाहिराओ मंडलवयाओ वाहिरा मंडलवया अभितरा मंडलवया, एस णं अद्धा केवइया आहितेति वदेज्जा ?, ता पंचदमुत्तराई जोयणसयाई आहिते िवदेज्जा ॥ सू०॥ १६ "इय चंदपण्णत्तीए पढमस्स पाहुडस्स अट्ठमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ १-८॥ "इय पढमं पाहुडं समत्तं ॥१॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिप्रकाशिका टीका प्रा०१-८ सू०१६ आदितः अष्टप्राभृतेग्यागत विषयस्योपसंहारः ९७ छाया -- तानि सर्वाण्यपि खलु मण्डलपदानि अष्टचत्वारिंश एकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन सर्वाण्यपि खलु मण्डलान्तराणि द्वे योजने विष्कम्भेण । पष खलु अध्वा पकं त्र्यशीतिः योजनशतम् सप्रतिपूर्णानि पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि आवधाता इति वदेत् । तावत् अभ्यन्तराद् मण्डलपदाद् बाह्यं मण्डलपदं बाह्याद् मण्डलपदाद् अभ्यन्तरं मण्डलपदम् एष खलु अध्वा पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि अष्टचत्वारिंशच्च एक षष्टिभागा योजनस्य आख्याता । तावद् आभ्यन्तराद् मण्डलपदाद् बाह्य मण्डलपदं बाह्यांद् मण्डलपदाद् आभ्यन्तरं मण्डलपदम् एष खलु अध्वा पञ्चनवोत्तराणि योजनशतानि, त्रयोदश एकषष्टिभागा योजनस्य आख्यात इति वदेत् । अभ्यन्तरेभ्यः मण्डलपदेभ्यः, बाह्येभ्यः मण्डलपदेभ्यश्च बाह्यानि मण्डलपदानि, अभ्यन्तराणि मण्डलपदानि एष बलु अध्वा कियत्कः आख्यात इति वदेत् ? तावत् पंचदशोत्तराणि योजशतानि आण्यात इति वदेत् ॥सूत्र १६ ॥ 3 इति चन्द्रप्रप्त्यां प्रथमस्य प्राभृतस्य अष्टमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१८॥ ॥ इति प्रथमं प्राभृतं समाप्तम् ॥१॥ व्याख्या- 'ता सव्वा वि णं' तानि सर्वाण्यपि खलु 'मंडलवया' मण्डलपदानि प्रत्येकम् 'अडयालीसं च एगसट्टिभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य 'बाहल्लेणं' बाहल्येन नियतानि सन्ति । बाहल्यस्योपलक्षणत्वात् आयामविष्कम्भपरिक्षेपैर्यथासम्भवं प्रत्येकमनियतानि सन्तीति वाच्यम् । तथा 'सव्वा विणं मंडलंतरिया' सर्वाण्यपि मण्डलान्तरकाणि मण्डलान्तराणि प्रत्येक मण्डलमाश्रित्य व्यवधानानि 'दो दो जोयणाई' द्वे द्वे योजने 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण सन्ति । 'एस णं' एष खलु योजनस्याष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागयुक्तयोजनद्वयरूपः 'अद्धा' अध्वा सूर्यमार्गः 'एगं तेयासीई जोयणसयं' एकं त्र्यशीतिः योजनशतं त्र्यशीत्यधिकमेकं योजनशतं ( १८३ ) त्र्यशीत्यधिकैकशतयोजन समुत्पन्नः 'सपडिपुण्णाई' स प्रतिपूर्णानि संपूर्णानि न न्यूनाधिकानि 'पंचदमुत्तराई जोयणसयाई' पश्चदशोत्तराणि योजनशतानि दशोत्तराणि पञ्चशतयोजनानि ( ५१०) 'आहिए' आख्यातः मार्गः ' इति वज्जा' इति वदेत् तानि दशोत्तर पश्चशतयोजनानि कथं भवेदिति प्रदश्यते सूर्यस्य प्रत्यहोरात्रं प्रतिमण्डलभ्रमणं योजनस्याष्टचत्वारिंशदे कषष्टिभागयुक्त योजनद्वयेन (२-४८ ६१) भवति । लानि च त्र्यशीत्यधिकमेकं शतमतो द्वयोर्गुणनं कर्त्तव्यम्, तथाहि प्रथमं द्वे योजने त्र्यशीत्यधिकशतेन गुण्येते जातानि षट्षष्ट्यधिकानि त्रीणि शतानि (३६६) पुनश्च अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागास्त्रयशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते ते च जाताः चतुरशीत्यधिकसप्ताशीतिशत ( ८७८४ ) संख्यकाः । एते च योजनानयनार्थमेकषष्ट्या विभज्यन्ते लब्धं चतुश्चत्वारिंशदधिकमेकं शतम् (१४४) तच्च पूर्वप्राप्तयोजनराशौ (३६६) प्रक्षिप्यते जातानि दशोत्तराणि पश्चशतानि (५१०) अस्यैवार्थस्य स्पष्टीकरणार्थं पुनराह - 'ता' इत्यादि । मण्ड १३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे 'ता' तावत् - तत्र 'अभितराओ मंडळवयाओ' अभ्यन्तरात् सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलपदात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमध्यभागचरमान्तरूपात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमध्य भागचरमान्तमवधी कृत्येत्यर्थः यावत् 'बाहिर मंडळवया' बाह्यं सर्वबा मण्डलपदम्, सर्वबाह्यमण्डलबहिर्भागचरमान्तरूपम् एवं 'बाहिराओ मंडलवयाओ' बाह्यात् सर्वबाह्यात मण्डलपदात् सर्वबाह्यमण्डल बहिर्भागचरमान्तरूपात् सर्वबाह्यमण्डल बहिर्भागचरमान्तमवधौ कृत्येत्यर्थः यावत् 'अन्भितरा मंडलवया' आभ्यन्तरं सर्वाभ्यन्तरं मण्डलपदम् सर्वाभ्यन्तरमडलमध्यभाग चरमान्तरूपम् 'एस णं' एषः अभ्यन्तरमध्यभागचरमान्तबाह्यबहिर्भागचरमान्तरूपयोः बाह्यबहिर्भागचरमान्ताभ्यन्तरमध्यभागचरमान्तरूपयोश्च मण्डलपदयोर्व्यवधानरूपः 'अद्धा' अध्वा सूर्यसंचरणमार्गः 'पंचदमुत्तराई योजनसयाई' पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि दशोत्तरपञ्चशतयोजनानि तदुपरि 'अडयालीसं च एगसद्विभागजोयणस्स' अष्टचत्वारिंशच्च एकषष्टिभागयोजनस्य 'आहिए' आख्यातः । पूर्वस्मादध्वपरिमाणादस्याध्यपरिमाणस्य सर्वबाह्यमण्डलगतबाहल्यपरिमाणेनाधिक्यसद्भावात् । तथा - 'ता' तावत् 'अभितराओ मंण्डलवयाओ' अभ्यन्तरात् मण्डलपदात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलबहिर्भागचरमान्तरूपात् 'बाहिरा मंडळवया' बाह्य मण्डलपदं सर्वबाह्यमण्डलमध्यभागचरमान्तरूपम्, तथा 'बाहिराओ मंडलवयाओ' बाह्यात् मण्डपदात् सर्वबाह्यमध्यभागचरमान्तरूपात् 'अभितरा मंडलवया' अभ्यन्तरं मण्डलपदं सर्वाभ्यन्तरमण्डल बहिर्भागचरमान्तरूपम् 'एस णं' एषः द्वयोर्द्वयोर्मण्डलयोर्मध्यगतव्यवधानरूपः खलु 'अद्धा' अध्वा सूर्यमार्गः 'पंच नवुत्तराई जोयणसयाई' पञ्चनवोत्तराणि योजनशतानि नवोत्तरपञ्चशतयोजनानि तदुपरि 'तेरस ए गाट्टिभागा जोयणस्स' त्रयोदश एकषष्टिभागा योजनस्य (५०९ - १३, ६१) एतस्परिमितो मार्गः 'आहिते' आख्यातः अस्याध्वपरिमाणस्य पूर्वस्मादध्वपरिमाणात् एकं योजनं पश्चत्रिंशश्च एकषष्टिभागा योजनस्य ( १ - ३५।६१ ) इत्येवंरूपेण सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतसर्व बाह्यमण्डलगत बाहल्यपरिमाणेन हीनत्वात् इति 'वएज्ज' इति वदेत् । तथा - अभितराओ मंडलवयाओ' अभ्यन्तरात् मण्डलपदात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमध्यभागचरमान्तरूपात् ' एवं 'बाहिराओ मंडलवयाओ' बाह्यात् मण्डलपदात् सर्वबाह्यमण्डलमध्यभागचरमान्तरूपाच्च 'वाहिर मंडलवा' बाह्यं मण्डलपदं सर्वबाह्य मण्डलबहिर्भागचरमान्तरूपम् एवम् 'अभितरा मंडळ या ' अभ्यन्तरं मण्लपदं सर्वाभ्यन्तरमण्डल बहिर्भागचरमान्तरूपं च 'एस णं' एषः द्वयो योर्मण्डलयोर्व्यवधानरूपः खलु 'अद्धा' अध्वा सूर्यमार्गः 'केवइया' कियत्कः कियत्परिमितः किं परिमाण: 'आहितेति वदेज्ज' आख्यातइति वदेत् । भगवानाह - 'ता' इत्यादि 'ता' तावत् स मार्ग: पंचदमुत्तराई जोयणसयाई' पश्चदशोत्तराणि योजनशतानि दशोत्तरपश्ञ्चशत ९८ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-१-८-सू०१६ अष्टप्राभृतेष्वागतविषयस्योपसंहारः ९९ योजनानि ( ५१० ) दशोत्तरपञ्चशतयोजनपरिमितः 'आहितेति वदेज' आख्यात इति वदेत्" सूत्र ॥१६॥ इति श्री–विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुछत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित -कोल्हापुर राजगुरु बालबह्मचारी-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालबति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रप्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायाां व्याख्यायां प्रथमं मूलप्रामृतप्राभृतं सम्पूर्णम् ॥१-८॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ द्वितीयं प्राभृतं प्रारभ्यते ॥ गत विंशतिमूलप्राभृतेषु प्रथ ' मूलप्रामृतम्, अथ, द्वितीतं प्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र त्रीणि प्राभृतप्रा भृतानि सन्ति तेषु प्रथमं प्राभृतप्राभृतं प्रोच्यते, तत्र चायमर्थाधिकारः-'कथं सूर्यस्तिर्यक् परिभ्रमति" इति एतद्विषये प्रथम सूत्रमाह-'ता कहं ते तिरिच्छगई' इत्यादि मलम-ता कहं ते तिरिच्छगई आहितेति वएज्जा ? तत्थ खलु इमाओ अट्ट पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा तत्थेगे एवमाइंसु-ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ मरीची भागासंसि उत्तिहइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चस्थिमिल्लंसि लोयंसि सायं आगासंसि विद्धंसइ एगे एवमाहंसु २१। एगे पुण एवमाइंसु-ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सूरिए आगासंसि उत्तिइ से ण इमं लोयं तिरिय करेइ, करित्ता पच्चथिमिल्लंसि लोयंसि सायं सरिए आगासंसि विदंसइ, एगे एवमाइंसु ।२। एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सरिए आगासंसि उत्तिटइ, से णं इमं लोय तिरियं करेइ, करिता पच्चथिमिल्लंसि लोयंतसि सायं आगासं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता. अहे पडियागच्छइ पडियागच्छित्ता पुणरवि अवरभूपुरस्थिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सरिए आगासंसि उत्तिट्टइ, एगे एवमासु ।३। एगे पुण एवमाइंसु-ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सूरिए पुढविकायंसि उत्तिट्टइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चस्थिमिस्लंसि लोयतंसि सायं सुरिए पुढविकार्यसि विद्धसइ, एगे एवमाहंसु ।४। एगे पुण एवमासु ता पुरथिमिल्लाओ लोयं ताओ पाओ सरिए पुढविकायंसि उत्तिट्टइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ करित्ता पच्च, थिमिल्लंसि लोयंसि सायं मूरिए पुढविकायंसि अणुपविसइ, अणुपबिसित्ता अहे पडियागच्छई, पडियागच्छित्ता पुणरवि अवरभूपुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सरिए पुढविकायसि उत्तिट्ठइ, एगे एवमासु ।५। एगे पुण एवमासु ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सरिए आउकायंसि उत्तिटइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चथिमिल्लंसि लोयतंसि सायं सरिए आउकायंसि विसइ एगे एवमाहंमु ।६। एगे पुण एवमाइंसु-ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ मुरिए आउकार्यसि उत्तिट्टइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ करिता पर्चाथमिल्लंसि लोयतंति सायं सरिए आउकायंसि पविसइ, पविसित्ता अहे पडियागच्छइ, पडियागच्छित्ता पुणरवि अवरभूपुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सरिए आउकायंसि उत्तिट्टइ, एगे एव माहंसु ७। एगे पुण एवमाइंसु-ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ बहूई जोयणाई, बहूइं जोय Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका प्रा०२-१ सू० १ सूर्यस्य द्वितीयषण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचरणम् १०१ साई, बहूई जोयणसहस्साई, उड् दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं पाओ सूरिए आगासंसि उत्ति, सेणं इमं दाहिणड्ढं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता उत्तरढलोयं तमेव राओ, से णं इमं उत्तरड्ढलोयं तिरियं करेइ, करिता दाहिणड्ढलोयं तमेव राओ से णं इमाई दाहिणउत्तरढलोयाई तिरियं करिता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ बहूई जोयणाई वह जोयणसयाई, बहूईं जोयणसहस्साईं उडू दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं पाओ सूरिए आगासंसि उत्ति, एगे एवमाहं | ८ | वयं पुण एवं वयामो- जंबूद्दीवस्स तादीवस्स पाईणपडीणायय-उदीणदाहिणायायाए जीवाए मंडलं चउन्त्री सेणं सरणं छेत्ता दाहिणपुरथिमिल्लंसि उत्तरपच्चत्थिमिल्लंसि य चभागमंडलंसि इमी से रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अजोगणसयाई उड्ढं उप्पइत्ता एत्थ गं पाओ दुवे सुरिया उत्तिद्वंति, ते णं इमाई दाहिणुतराई जंबूदीवभागाईं तिरियं करेंति, करिता पुरत्थिमपच्चत्थिमाई जंबूदीवभागाई तामेव राओ, ते णं इमाई पुरत्थिमपच्चत्थिमाई जंबुद्दीत्रभागाई तिरियं करेंति, करित्ता दाहिणुत्तराई जंबूद्दीवभागाई तामेव राओ, ते णं इमाई पुरत्थिमपच्चत्थिमाई जंबूद्दीवभागाई तिरियं करेंति, करिता दाहिणुत्तराई जंबूदीवभागाई तामेव राओ, ते णं इमाई दाहिणुत्तराई पुरस्थमपच्चत्थिमाई य जंबुद्दीवभागाईं तिरियं करेंति, करिता जंबूद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणायय-उदीण दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउव्वीसरणं सरणं छेत्ता दाहिणपुरथिमिल्लंसि उत्तरपच्चत्थिमिल्लंसि य चउब्भागमंडलंसि इमी से रयण, भाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अट्ठ जोयणसयाई उड्ढं उप्पइत्ता, एत्थ पाओ दुवे सूरिया आगासंसि उत्तिति ॥ सू० १ || बितिस पाहुडस्स पढमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ २-१ छाया - तावत् कथं ते तिर्यग्गतिराख्यातेति वदेत् ? । तत्र खलु इमा अष्टप्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - तत्रैके एवमाहुः - तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः मरीचिः आकाशे उत्तिष्ठति, स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चात्ये लोकान्ते सायम् आकाशे विध्वंसते, एके एवमाहुः |१| पके पुरनरेवमाहुः- तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात्म् प्रातः सूर्यः आकाशे उत्तिष्ठति, स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चात्ये लोकान्ते सायं सूर्यः आकाशे विध्वंसते, एके पवमाहुः |२| पके पुनरेवमाहुः - तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः आकाशे उत्तिष्ठति स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चावे लोकान्ते सायम् आकाशम् अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य अधः प्रत्यागच्छति, प्रत्यागत्य पुनरपि अपरभूपौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्य आकाशे उत्तिष्ठति, एके पवमाहु ३। एके पुनरेवमाहुः - तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः पृथिवीकाये उत्तिष्ठति, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ चन्द्रप्रज्ञप्ति स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चात्ये लोकान्ते सायं सूर्यः पृथिवीकायं विध्वंसते, एके पवमाहुः |४| एके पुनरेवमाहुः - तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः पृथिवीकाये उत्तिष्ठति, स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चात्ये लोकान्ते सायं सूर्यः पृथिवीकार्य अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य अधः प्रत्यागच्छति प्रत्यागत्य, पुनरपि अपरभूपौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः पृथिवीकाये उत्तिष्टति, एके पवमाहुः |५ पके पुनरेवमाहुः - तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः अप्काये उत्तिष्ठति स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चात्येलोकान्ते सायं सूर्यः अप्काये विध्वंसते, एके पवमाहु |६| एके पुनरेषमाहुः - तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः अपूकाये उत्तिष्ठति, स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चात्ये लोकान्ते सायं सूर्यः अप्काये प्रविशत, प्रविश्य अधः प्रत्यागच्छति, प्रत्यागत्य पुनरपि अपरभू पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः अप्काये उत्तिष्ठति, एके एवमाहुः ॥७॥ एके पुनरेवमाहुः - तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् बहूनि योजनानि बहूनि योजनशतानि, बहूनि योजन सहस्राणि ऊर्ध्वं दूरम् उत्पत्य अत्र खलु प्रातः सूर्यः अकाशे उत्तिष्ठति, स खलु इमं दक्षिणार्ध लोकं तिर्यक् करोति कृत्वा उत्तरार्धलोकं तस्यामेव रात्रौ स एव इमं उत्तरार्धलोकं तीर्थक् करोति कृत्वा दक्षिणार्धलोकं तस्यामेव रात्रौ स खलु इमा दक्षिणोत्तरार्धलोकौ तिर्यक् कृत्वा पौरस्त्यात् लोकान्तात् बहूनि योजनानि बहूनि योजनशतानि बहूनि योज - नसहस्राणि ऊर्ध्वं दूरम् उत्पत्य अत्र खलु प्रातः सूर्यः आकाशे उत्तिष्ठति, पके एवमाहुः |८| वयं पुनरेवं वदामः तावत् जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीप्रतीच्यायतोदीची दक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विंशतिकेन शतेन छित्त्वा दाक्षिणपौरस्त्ये उत्तरपाश्चात्ये च चतुर्भागमण्डले अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् अष्टयोजनशतानि ऊर्ध्वम् उत्पत्य अन खलु प्रोतः द्वौ सूर्यो उत्तिष्ठतः, तौ खलु इमौ दक्षिणोत्तरौ जम्बूद्वीपभागौ तिर्यक् कुरुतः, कृत्वा पौरस्त्यपाश्चात्यो जम्बूद्वीपभागौ तस्मामेव रात्रौ तो खलु इमौ पौरस्त्यपाश्चात्यो जम्बूद्वीपभागौ तिर्यक् कुरुतः, कृत्वा दक्षिणोत्तरौ जम्बूद्वीपभागौ तस्यामेव रात्रौ तौ खलु इमौ दक्षिणोत्तरौ पौरस्त्यपाश्चात्यौ च जम्बूद्वीपभागौ तिर्यक् कुरुतः, कृत्वा जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राची प्रतीच्यायतोदीचीदक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विंशतिकेन शतेन छित्वा दक्षिणपौरस्त्ये उत्तरपाश्चात्ये च चतुर्भागमण्डले अस्याः रत्नप्रभाया पृथिव्याः बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् अष्ट योजनातानि ऊर्ध्वम् उत्पत्य, अत्र खलुं प्रातः द्वौ सूर्ये आकाशे उत्तिष्ठतः ॥ सू० १ ॥ ॥ द्वितीयस्य प्राभृतस्य प्रथमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ||२-१ व्याख्या - 'ता' तावत् - प्रथम प्रष्टव्यप्रभूते विषये सत्यपि प्रथममेतावदेव पृच्छामि यत् ‘कहूं' कथं केन प्रकारेण 'ते' भवतो मते 'तिरिच्छगई' तिर्यग्गतिः तिर्यक्तया परिभ्रमण सूर्यस्य 'आहिता' आख्यता ? ' इति वदेज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् !, गौतमेन एवं पृष्टे भगवन् प्रथममेतद्विषये परतीर्थिक मिथ्याभावोपदर्शनाय तेषां मान्यतारूपा अष्टप्रत्तिपत्तीः प्रदर्शयति 'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र सूर्यस्य तिर्यग्गतिविषये खलु 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-१ सू०१ सूर्यस्य द्वितीयषण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचरणम् १०३ 'अट्ट' अष्टौ अष्टसंख्यकाः 'पडिवतीओ' प्रतिपत्तयः परतैर्थिकमान्यतारूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा-ता एव क्रमेणाह -'तत्थेगे' इत्यादि । 'तस्थ' तत्र तेषु अष्टसु परतीर्थिकेषु मध्ये 'एगे' एके केचन प्रथमाः परतीर्थिकाः ‘एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः-कथयन्ति--'ता' तावत् 'पुरथिमिल्लाओ' लोयंताओ' पौरस्त्यात् पूर्वदिग्भागवर्तिनः लोकान्तात् लोकान्तिमभागात् ऊर्वमितिशेषः पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः 'मरीची' इति मरीचिसंघातः किरणसमूह इत्यर्थः 'आगासंसि उसिटइ' आकाशे उत्तिष्ठति उत्पद्यते एतेनायमाशयः-नैतद्विमानं, न रथः, न च कोऽपि देवता रूपः सूर्यः किन्तु तथाविधलोकस्वाभाव्यात् एष किरणसङ्घात एव वर्तुल गोलाकारः प्रतिदिनं पूर्वे दिग्विभागे प्रातराकाशे समुत्पद्यते येन सर्वत्र प्रकाशः प्रसरति । ‘से णं' स खलु एवम्भूतः मरीचिसंघातः समुत्पन्नः सन् 'इमं' इमं दृश्यमानं 'लोयं' लोकं तिर्यक् लोकं 'तिरियं करेइ' तिर्यक् करोति तिर्यक् परिभ्रमन् एष मरीचिसंघात इमं तिर्यगूलोकं प्रकाशयतीतिभावः, 'करित्ता' कृत्वा तिर्यक् कृत्वा च 'पच्चस्थिमिल्लंसि लोयंसि' पाश्चात्ये लोकान्ते पश्चिमदिग्वर्तिलोकान्तिमभागे 'सायं' सन्ध्यासमये 'विद्धंसई' विध्वंसते तथा विधलोकानुभावात्तत्राकाश एव ध्वंसमुपयाति विलीनो भवतीति भावः। एवं सकलकालमेव भवतीति, अत्रोपसंहारमाह-'एगे एवमासु' एके प्रथमास्तीर्थान्तरीयाः एवं-पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः-कथयन्तीति । एषा प्रथमा प्रतिपत्तिः ।१॥ द्वितीयामाह-'एगे पुण' एके केचन द्वितीया पुनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहेसु' आहुः कथयन्ति । किं कथयन्तीत्याह- 'ता' इति वाक्यालङ्कारे 'पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् पुर्वदिग्विभागात् उर्व 'पाओ' प्रातः 'सूरिए' सूर्यः लोकप्रसिद्धो देवतारूपः 'आगासंसि उतिहई' आकाशे उत्तिष्ठति उदेति तथाविधलोकस्वाभाव्यात् आकाशे उत्पद्यते 'से' स खलु उत्पन्नः सन् सूर्यः 'इमं लोयं' इमं तिर्यग्लोकं 'तिरियं करेइ' तिर्यकरोति तिर्यक परिभ्रमन् प्रकाशयतीति भावः ।' करित्ता' कृत्वा तिर्यक् कृत्वा 'पच्चथिमिल्लसि लोयंतसि' पाश्चात्ये लोकान्ते पश्चिमायां दिशि 'सायं' सायं सन्ध्याकाले 'मरिए' सूर्यः 'आगासंसि' आकाशे एव 'विद्धंसइ' विध्वंसते विलीयते इति भावः । उपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु' एके केचन पूर्वप्रदर्शिता द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति द्वितीया प्रतिपत्तिः ।२॥ अथ तृतीयां प्रत्तिपत्तिमाह-'एगे पुण' एके पुनः तृतीयास्तीर्थान्तरीयाः 'एवमासु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः-कथयन्ति, तदेव प्रदर्श्यते 'ता' तावत् 'पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् उर्व 'पाओ' प्रातः 'मूरिए' सूर्यः देवतारूपः तथाविध पुराणशास्त्रप्रसिद्धः सदावस्थायी 'आगासंसि उत्तिट्टई' आकाशे उत्तिष्ठति ‘से णं' स खलु उत्थितः सन् 'इमं लोयं तिरियं करेइ' इमं मनुष्यलोकं तिर्यक् करोति 'करित्ता' कृत्वा च 'पच्चथिमिल्लंसि लोयंतंसि' पाश्चात्ये लोकान्ते लोक Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ चन्द्रप्रतिस्चे चरमभागे 'सायं' सायं सन्ध्याकाले 'आगासं अणुपविसई' आकाशमनुप्रविशति 'अणुपविसित्ता' अनुप्रविश्य 'अहे पडियागच्छति' अधः अधोभागेन प्रत्यागच्छति अधोलोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्त्तते । एषां मते पृथिवी गोलाकाराऽत एव लोकोऽपि गोलाकार एव । इदं च मतं तीर्थान्तरीयेषु सम्प्रतिकालेऽपि विद्यते ततस्तद्गतपुराणशास्त्रादेव सम्यक ज्ञातव्यम् । अस्मिन् मतेऽपि त्रयो भेदा वर्तन्ते, तथाहि-एके मन्यन्ते सूर्य आकाशे प्रातरुद्गच्छति १, अन्ये कथयन्ति पर्वतशिरसि उद्गच्छति २, अपरे मन्यन्ते समुद्रादुत्तिष्ठति ।३। अत्र तु प्रथमानां मतमुपन्यस्तमिति । 'पडियागच्छित्ता' प्रत्यागत्य अधोलोकात्प्रतिनिवर्त्य 'पुणरवि' पुनरपि यथा पूर्वदिने तथैव भूयोऽपि 'अवरभूपुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' अपरभूपौरस्त्यात् लोकान्तात् पृथिव्या अधोभागात् विनिर्गत्य-पूर्वदिग्वर्तिलोकान्ताद् ऊर्ध्वम् 'पाओ' प्रातः प्रभातकाले 'सरिए' सूर्यः 'पागासंसि' आकाशे 'उत्तिद्वति' उत्तिष्ठति उदयमेति । एवमेव सर्वदैव-इयं व्यवस्था वर्तते तथाविधलोकस्व भाव्यात् । उपसंहारे-'एगे' एके तृतीयाः परतीर्थिका 'एवमासु' एवं पूर्वोक्तरीत्या आहुःकथयन्तीति तृतीया प्रतिपत्तिः ।३। अथ चतुर्थीमाह-'एगे पुण' एके पुनः चतुर्थाः 'एवमाहंमु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति, तथाहि-'ता' तावत् पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् 'पाओ' प्रातः 'सरिए' सूर्यः देवतारूपः 'पुढिवीकार्यसि' पृथिवीकाये पृथिकायमध्ये उदयाचलाभिधपर्वतशिरसीत्यर्थः 'उत्तिट्टई' उतिष्ठति उदयमेति से णं' स खलु सूर्यः 'इमं लोयं तिरियं करेइ' इमं लोकं मनुष्यलोकं तिर्यक्करोति तिर्यक् परिभ्रमन् मनुष्यलोकं प्रकाशयतीत्यर्थः । एवमग्रेऽप्यर्थों वाच्यः । 'करित्ता' कृत्वा तिर्यक् कृत्वा 'पच्चस्थिमिल्लंसि लोयंतसि' पाश्चात्ये लोकान्ते 'सायं' सायं सन्ध्यासमये 'सरिए' सूर्यः 'पुढवी कायंसि' पृथिवीकाये अस्ताचलाभिधपर्वतशिरसि 'विद्धंसइ' विध्वंसते विलयमेति । एवं प्रतिदिनं भवति एवंविधजगत्स्थितिस्वाभाव्यादिति । उपसंहारः----'एगे' एके चतुर्थाः ‘एवं' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्तीति चतुर्थी प्रतिपत्तिः ।४। अथ पश्चमी प्रतिपत्तिमाह-एगे पुण'एके पश्चमाः पुनः ‘एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसु' माहुः-कथयन्ति-'ता' तावत् 'पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्याल्लोकान्तात् उर्ध्व 'पाओ' प्रातः 'मरिए' सूर्यः देवतारूपः 'पुढवीकायंसि' पृथिवीकाये 'उत्तिइ' उत्तिष्ठति उदयाचलपर्वतशिरसि उद्गच्छति 'से गं' स खलु 'इमं लोयं' इमं मनुष्यलोकं 'तिरियं करेइ' तिर्यक् करोति 'करिता' तिर्यक् कृत्वा 'पच्चथिमिल्लंसि लोयंतंसि' पाश्चात्ये लोकान्ते 'सायं' सन्ध्याकाले 'सरिए' सूर्यः 'पुतवीकायंसि' पृथिवीकाये अस्ताचलपर्वतमस्तके 'अणुपविसई' अनुप्रविशति 'अणुपविसिचा' अनुप्रविश्य 'अहे' अधः अधोभागवतिनं लोकं प्रकाशयन् 'पडियागच्छाई' प्रत्यागच्छति प्रतिनिवर्त्तते 'पडियागच्छित्ता' प्रत्यागत्य 'पुणरवि' पुनरापे द्वितीयदिवसे भूयो Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-१ सू०१ सूर्यस्य द्वितीयषण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचरणम् १०५ ऽपि 'अवरभूपुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' अपरभूपौरस्त्यात् लोकान्तात् अवः पृथिवीसम्बन्धिपूर्वदिग्भागात् 'पाओ' प्रातः 'सूरिए' सूर्यः 'पुढवीकार्यसि' पृथिवीकाये पुनरुदयाचलपर्वतमस्तके 'उत्तिहइ' उत्तिष्ठति उदयमेति उपसंहारमाह-'एगे' एके पञ्चमाः परतीथिका 'एवं' पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंस' आहुः कथयन्तं ति पश्चमी प्रतिपत्तिः ।५। अथ षष्ठीमाह-'एगे पुण' एके केचन षष्ठमतवादिनः पुनः ‘एवमासु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति, तदेवाह'ता' तावत् 'पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् 'पाओ' प्रातः 'सूरिए' सूर्यः 'आउकायंसि' अप्काये पूर्वदिग्वतिसमुद्रे 'उत्तिट्टइ' उत्तिष्ठति 'से णं' स खलु सूर्यः 'इमं लोयं' इमं लोकं मनुष्यलोकं 'तिरियं करेई' तिर्यक् करोति 'करित्ता' कृत्वा 'पच्चत्थिमिल्लसि लोयंतसि' पाश्चात्ये लोकान्ते 'सायं' सायं सन्ध्यासमये 'आउकायंसि' अप्काये पश्चिमदिग्वर्तिसमुद्रे विद्धंसइ' विध्वंसते ध्वंसमेति । उपसंहारः ‘एगे' एके षष्ठाः षष्ठप्रतिपत्ति वादिनः 'एवमाहंसु' एवं पूर्वोक्तरोत्या आहुः कथयन्तीति षष्ठी प्रतिपत्तिः ।६। अथ सप्तमी माह-एगे पुण' एके सप्तमाः पुन 'एबमाइंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति, किं कथयन्तीत्याह-'ता' तावत् पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् ऊर्ध्व 'पायो' प्रातः 'सूरिए' सूर्यः 'आउका यंसि' अप्काये पूर्वसमुद्रे उत्तिट्टई उत्तिष्ठति उद्गच्छति ‘से णं' स खलु उद्गतः सन् 'इम लोयं' इमं लोकं तिरियं करेइ' तिर्यक् करोति प्रकाशयति 'करित्ता' कृत्वा 'पच्चथिमिल्लंसि लोयंतंसि' पाश्चात्ये लोकान्ते 'सायं' सायं सन्ध्यायां 'सूरिए' सूर्यः 'आउकार्यसि' अप्काये पश्चिमीयसमुद्रे 'पविसई' प्रविशति 'पविसित्ता' प्रविश्य 'अहे' अधः अधोलोके गत्वा तं प्रकाश्य 'पडियागच्छई' प्रत्यागच्छति पुनगयाति 'पडियागच्छित्ता' प्रत्यागत्य अधोभागात्पुनरागत्य 'पुणरवि' पुनरपि द्वितीयदिने 'अवरभूपुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' अपरभूपौरस्त्यात् लोकान्तात् अधः पृथिव्याः पूर्वदिग्भागात् 'पाओ' प्रातः 'सरिए' सूर्यः आउकायंसि' अप्काये पूर्वसमुद्रे 'उत्तिट्टइ' उत्तिष्ठति उपसंह रनाह-'एगे' एके पूर्ववर्णिताः सप्तमाः परतीर्थिकाः 'एवमासु' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्तीति सप्तमी प्रतिपत्तिः ।७। अथाष्टमी प्रदर्शयति-'एगे पुण' एके अष्टमाः पुनः 'एवमासु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रथमं 'बहुई जोयणाई' बहूनि योजनानि, ततः क्रमशः 'बहुई जोयणसयाई' बहूनि योजनशतानि. तदनु पुनः क्रमेण 'बहुइं जोयणसहस्साई' बनि योजनसहस्राणि 'उड्ढं दुरं' ऊर्ध्वं दूरम्-ऊर्ध्वत्वेन दरम् 'उप्पइत्ता' उत्पत्य उपरि गत्वा 'एत्थ णं' अत्र खलु 'पाओ' प्रातः प्रगतसमये 'सूरिए' सूर्यः देवतारूपः 'आगासंसि' Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे आकाशे पूर्वदिगाकाशभागे 'उत्तिटइ' उत्तिष्ठति उदयमेतिः 'से णं' स उदितः सन् खलु 'इम' इमं प्रसिद्धं 'दाहिणड्ढे लोयं' दक्षिणा? दक्षिणदिक्थितमद्ध लोकं 'तिरियं करेइ' तिर्यक् करोति स्वतेजसा प्रकाशयति 'करित्ता' कृत्वा दक्षिणार्द्धलोकं प्रकाश्य 'उत्तरड्ढलोयं' उत्तरा लोकम् उत्तरदिक् स्थितं लोकं 'तमेव राओ' तस्यामेव रात्रौ करोति 'दक्षिणाद्ध दिनसद्भावे उत्तरार्धे रात्रेवश्यम्भावात् 'से गं' स खलु सूर्यः तिर्यक् परिभ्रमन् 'इमं उत्तरढलोयं' इममुत्तरदिस्थितं लोकार्द्ध 'तरियं करेइ तिर्यक् करोति 'करित्ता' कृत्वा पुनः 'दाहिणड्ढलोयं' दक्षिणार्द्धलोकं दक्षिणदिग्भवमर्द्ध लोकं 'तमेव राओ' तत्यामेव रात्रौ करोति उरत्तरार्द्ध दिनसत्त्वे दक्षिणाद्धे रात्रिसद्भावात् । एवं 'से णं' स खलु सूर्यः 'इमाई दाहिणुत्तरड्ढलोयाई' इमौ दक्षिणोत्तरार्द्धलोको दक्षिणदिक्स्थितमई लोकम् उत्तरदिस्थितमर्द्ध लोकं चेति द्वावपि लोको 'तिरियं करित्ता' तिर्यक् कृत्वा पुनः 'पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् .पूर्ववदेव "बहुई जोयणाई' बहूनि योजनानि 'बहूई जोयणसयाई' बहूनि योजनशतानि 'बहूइं जोयणसहस्साई' बनि योजनसहस्राणि 'उहंदूरं' ऊर्व दूरं उर्ध्वत्वेन दूरम् 'उप्पइत्ता' उत्पत्य उपरिगत्वा 'एस्थ णं' अत्र खलु अस्मिन् स्थाने 'पाओ' प्रातः प्रभातकाले 'सरिए' सूर्यः 'आगासंसि' आकाशे 'उत्तिट्टई' उत्तिष्ठति उद्गच्छति । उपसंहारमाह-'एगे' एके मष्टमाः परतीथिकाः 'एवमासु' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्तीत्यष्टमी प्रतिपत्तिः ।। एवमष्टापि प्रतिपत्तीः प्रदर्श्य भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि । . 'वयं पुण' वयं पुनः अत्र पुनः शब्दः 'तु' इत्यस्यार्थवाचकः, तेन वयं तु 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः, तदेवाह 'ता' इत्यादि 'ता' तावत् "जबूद्दी वस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य मध्यजम्बूद्वीपस्य 'पाईण पडीणायय-उदीणदाहिणाययाए' प्राचीप्रतीच्यायतोदीचीदक्षिणायतया जीवया दवरिकया 'मंडलं' मण्डलं सूर्यमण्डलं 'चउव्वीसएणं' चतुर्बिशतिकेन शतेन चतुर्विशत्यधिकैकशतेन (१२४) छेत्ता' छित्त्वा विभज्य मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकैकशतसंख्यकान् भावान् परिकल्प्य तन्मण्डलं पुनः पूर्वोक्तजीवया चत्वारो भागाः क्रियन्ते दक्षिणपूर्वोत्तरपश्चिमरूपाः अतस्तत्राह-'दाहिणपुरथिमिल्लंसि' दक्षिणपौरस्त्ये, 'उत्तरपच्चथिमिल्लंसि' उत्तरपौरस्त्ये च एतद्रूपे 'चउम्भागमंडलंसि' चतुर्भागगमण्डले मण्डलचतुर्भागे एकत्रिंशत्प्रमाणरूपे 'इमी से' अस्याः शास्त्रप्रसिद्धायाः 'रयणप्पभाए पुंढवीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः ‘बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् रत्नप्रभापृथिवीसमतलभागात् 'अट्ठजोयणसयाई' अष्ट योजनशतानि-अष्टशतसंख्यकयोजनानि 'उड्डं' उर्व उपरि 'उप्पइत्ता' उत्पत्य-गत्वा रत्नप्रभापृथिवीसमतलभागादुपरि अष्टशतयोजनातिक्रमणानन्तरमित्यर्थः 'एत्थ णं' अत्र खलु अस्मिन् स्थाने 'पाओ' प्रातः 'दुवे Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-१ सू०१ सूर्यस्य द्वितीयषण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचारणम् १०७ सरिया' द्वौ सूर्यो 'उत्तिटुंति' उत्तिष्ठतः उद्गच्छतः, तत्रैको भारतः सूर्यो दक्षिणपौरस्त्ये मण्डलचतुर्भागे, अपर ऐरवतः सूर्यश्च उत्तरपौरस्त्ये मण्डलचतुर्भागे उद्गच्छति, एवं क्रमेण द्वावपि सूर्यो तत्र तत्र स्थाने उदयं प्राप्नुत इतिभावः 'ते णं, ता खलु द्वौ सूर्यो यथाक्रमम् 'इमाई' इमो 'दाहिणुत्तराई' दक्षिणोत्तरौ जंबुद्दीवभागाई' जम्बद्वीपभागौ 'तिरियं करेंति' तिर्यक् कुरुतः प्रकाशयतः । अयमाशयः-दक्षिणपौरस्त्ये मण्डल चतुर्भागे भारतः सूर्य उद्गत्य तिर्यक् परिभ्रमन् मेरोदक्षिणभागं प्रकाशयति, उत्तरपाश्चात्ये मण्डलचतुर्भागे ऐरवतः सूर्य उद्गत्य तिर्यक् परिभ्रमन् मेरोरुत्तरभाग प्रकाशयतीति, 'द्वीकरित्ता' कृत्वा जम्बूद्वीपस्य दक्षिणोत्तरभागौ प्रकाश्य 'पुरथिमपच्चत्थिमाई' पौरस्त्यपाश्चात्यौ 'जंबुद्दीवभागाई' जम्बूद्वीपभागौ जम्बूद्वीपस्य पूर्वपश्चिमभागौ पूर्वपश्चिमभागद्वयं 'तमेव राओ' तस्यामेव रात्रौ कुरुतः तत्तदिवसस्य रात्रिभागौ कुरुतः जम्बूद्वीपस्य दक्षिणोत्तरभागयोः सूर्यद्वयस्य संचरणसमये पूर्वपश्चिमभागे रात्रि र्भवति, तदा नैकोऽपि सूर्यः पूर्वभागं पूर्वपश्चिमभागं वा प्रकाशयितुं शक्यतेऽतस्तदा पूर्वपश्चिमजम्बूद्वीपभागे रात्रि भतीति भावः । द्वौ सूयौं दक्षिणोत्तरभागयोस्तियकरणानन्तरं पूर्वपश्चिमभागौ तिर्यक् कुरुत इतिक्रमप्रदर्शनार्थ 'करित्ता' इत्युच्यते । पुनश्च 'ते णं' तो खलु द्वावपि सूर्यो दक्षिणोत्तरभागदिवससमाप्त्यनन्तरम् 'इमाई' इमौ प्रसिद्धौ ‘पुरस्थिमपच्चत्थिमाइं पौरस्त्यपाश्चात्यौ पूर्वपश्चिमरूपौ 'जवुद्दीवभागाइं' जम्बूद्वीपभागौ 'तिरियं करेंति' तिर्यक् कुरुतः पूर्वपश्चिमभागौ प्रक शयतः । अयं भावः-मेरोरुत्तरभागे ऐरवतः सूर्यस्तिर्यक् परिभ्रम्य तत्पश्चात् मेरोरेव पूर्वदिशि तिर्यपरिभ्रमति, भारतः सूर्यश्च पूर्व मेरोदक्षिणभागे तिर्यक्परिभ्रम्य तत्पश्चात् मेरोः पश्चिमभागे तिर्यपरिभ्रमतीति । 'करिता' कृत्वा जम्बूद्वीपपूर्वपश्चिमभागौ तिर्यक् कृत्वेत्यर्थः 'दाहिणुत्तराई' दक्षिणोत्तरौ 'जंबुद्दीबभागाई' जम्बूद्वीपभागौ जम्बूद्वीपस्य दक्षिणभागम् उत्तरभागं च 'तामेव राओ' तस्यामेव रात्रौ कुरुतः । अयं भावः-यदा द्वौ सूर्यो क्रमेण.पूर्वपश्चिमभागौ प्रकाशयतस्तदा दक्षिणभागे उत्तरभागे च रात्रिर्भवेत् , सूर्ययोः पूर्वपश्चिमभागसंचरणसमये उत्तरदक्षिणभागयोरेकोऽपि सूर्यः प्रकाशं न करोतीति । एवं 'ते णं' तो खलु सूर्यो 'इमाई' इमौ पूर्वप्रदर्शितौ दाहिणुत्तराई दक्षिणोत्तरौ, तथा 'पुरथिमपच्चत्थिमाइं य' पौरस्त्यपाश्चात्यौ च 'जंबुद्दीवभागाई' जम्बूद्वीपभागौ 'तिरियं करेंति' तिर्यक् कुरुतः प्रकाशयतः 'करित्ता' कृत्वा जम्ब्द्वीपस्य दक्षिणोत्तरभागौ पूर्वपश्चिमभागौ च क्रमेण प्रकाश्य 'जंबुद्दीवस्स दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य ‘पाईणपडिणायय-'उदीचीणदाहिणाययाए' प्राची प्रतीच्यायतोदीचीदक्षिणायतया पूर्वात पश्चिमपर्यन्तमायतया दीर्घया उत्तगत् दक्षिणपर्यन्तमायतया दीर्घया 'जीवाए' जीवया जीवाः प्रत्यञ्चा तत्सदृशत्वात् जीवा तया जीवया दवरिकयेत्यर्थः 'मंडलं' सूर्यमण्डलं 'चउव्वीसएण सपणं' चतुर्विशत्यधिकेन शतेन 'छेत्ता' विभज्य मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकसंख्यकान् भागान् Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे परिकल्प्येत्यर्थः 'दाहिणपुरथिमिल्लंसि' दक्षिपौरस्ये तथा 'उत्तरपच्चथिमिल्लसि' उत्तरपाश्चात्ये च 'चउभागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलस्य चतुर्भागे एकत्रिंशद्भागपरिमिते 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' अस्याः शास्त्रप्रसिद्धाया रत्नप्रभा याः पृथिव्याः 'बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात् समतलभूमिभागात् 'अट्ट जोयणसयाई' अष्ट योजनशतानि अष्टशतयोजनानि 'उड्ढं' उर्वम् उपरिभागे 'उप्पत्ता' उत्पत्य गत्वा उपर्यष्टशनयोजनगमनानन्तरं य आकाशभागो वर्तते 'एत्थ णं' अत्र खलु 'पाओ' प्रात: 'दुवे सूरिया' द्वौ सूर्यो, तत्र यो भारतः सूर्यः स उत्तरपश्चिममण्डलचतुर्भागे, ऐरवतसूर्यश्च दक्षिणपौरस्त्यगतमण्डल चतुर्भागे 'आगासंसि' आकाशे उत्तिटुंति' उत्तिष्ठतः स्वस्वक्रमेण उदयमासादयतः । __पूर्वस्मिन्नहोरात्रे य उत्तरभागं प्रकाशितवान् स दक्षिणपौरस्त्ये दक्षिणपूर्वदिग्गतमण्डलचतुर्भागे उदयमेति, यश्च दक्षिणभागं प्रकाशितवान् स उत्तरपश्चिमदिग्गतमण्डलचतुर्भागे उदयमासादयति सर्वकालं, तथाविधजगत्स्वाभाब्यादिति ।।सू. १ ॥ ॥ इति द्वितीयस्य प्राभृतस्य प्रथमं प्राभृतप्राभृतं सम्पूर्णम् ॥ २-१॥ गते द्वितीयस्य मूलप्राभृतस्य प्रथमं प्राभृतप्राभृतम् , तत्र भरतैरवतसूर्ययोस्तिर्यक् परि भ्रमणवक्तव्यता प्रोक्का । साम्प्रतं द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं प्रारभ्यते, अस्यायमर्थाधिकारः-'कथं दयों मण्डलान्मण्डलान्तरं संक्रामति' इत्येतद्विषयकं प्रथमं सूत्रमाह-'ता कहं ते मंडलामो मंडलं इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए चारं चरइ आहिएति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थेगे एवमाइंसुका मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए भेयघाएणं संकामइ, एगे एवमासु ।१। एगे पुण एवमाइंसु-ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सुरिए कण्णकलं निवेढेइ, एगे एवमासु ।२। __ तत्थ णं जे ते एवमाइंसु-ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए भेयघाएणं संकामह तेसि णं अयं दोसे ता जेणंतरेणं मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए भेयघाएणं संकमइ एवइयं च णं अद्धं पुरओ न गच्छइ, पुरओ, अगच्छमाणे मंडलकालं परिहवेइ, तेसि णं अयं दोसे ।१। तत्थ णं जे ते एवमाहंसु ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सुरिए कण्णकलं णिवेढेइ, तेसि णं अयं विसेसे-ता जेणंतरेणं मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं णिवेढेइ, एवइयं च णं अद्ध पुरओ गच्छइ, पुरओ गच्छमाणे मंडलकालं ण परिहवेइ, तेसि णं अयं विसेसे ।२। तत्थ जे ते एवमाहंसु-मंडलाओ मंडलं संकममाणे परिए कण्णकलं णिवेढेइ, एएणं णएणं णेयव्वं णो चेव णं इयरेणं ॥सु० १॥ ॥ बितियस्स पाहुडस्स बितिय पाहुडपादुडं समत्तं ॥२-२॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०२-२ सू०१ सूर्यस्य मण्डलात् मण्डलान्तरसंचरणम् १०९ छाया-तावत् कथं ते मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः चारं चरति आख्यात इति वदेत् तत्र खलु इमे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते, तद्यथा-तत्रैके पवमाहुः-तावत् मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः मेदधातेन संक्रामति, एके एवमाहुः ।।। एके पुनः एवमाहुः तावत् मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्य कर्णकलां निर्वेष्टयति, एके एवमाहुः ।। तत्र स्खलु ये ते एवमाहुः-ताबत् मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः भेदघातेन संक्रामति तेषां खलु अयं दोषः-तावत् येनान्तरेण मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः भेद्घातेन संक्रामति. पतावती च खलु अद्धां पुरतः न गच्छति, पुरतः अगच्छन् मण्डलकालं परिभवति, तेषां खलु अयं दोषः ।। तत्र खलु ये ते पवमाहुः-तावत् मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः कर्ण कलां निर्वेष्टयति, तेषां खलु अयं विशेषः तावत् येनान्तरेण मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः कर्णकलां निर्वेष्टयति, पतावती च खलु अद्धां पुरतो गच्छति, पुरतः गच्छन् मण्डल कालं न परिभवति, तेषां खलु अयं विशेषः ।२। तत्र ये ते एवमाहुः-मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः कर्णकलां निर्वेष्यति, एतेन नयेन ज्ञातव्यम् नो चैव खलु इतरेण ॥२०॥ ॥द्वितीस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥२-२॥ . व्याख्या-'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण हे भगवान् ? 'ते' ते तव भवन्मते 'मंडलाओ मंडलं' मण्डलात् एकस्मात् मण्डलात् 'मंडलं' अपरं मण्डलं 'संकममाणे' संक्रामन् 'सुरिए' सूर्यः 'चारं चरइ' चारं चरति परिभ्रमति केन प्रकारेण सूर्यश्चारं चरन् 'आहितेति वदेज्जा' आख्यातः कथितः इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ? अत्र हि सूर्यस्य एकस्मान्मण्डलादन्यस्मिन् मण्डले संक्रमणमेव वक्तव्यमस्ति, अतस्तदेव प्रधानं कृत्वा वाक्यस्य भावार्थभावना कर्तव्या । भगवानाह -हे गौतम 'तत्थ' तत्र एवंविधसंक्रमणविषये खल 'इमे' इमे वक्ष्यमाण स्वरूपे 'दुवे' द्वे 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तो परतीथिंकमान्यतारूपे 'पण्णत्ताओं' प्रज्ञप्ते कथिते 'तं जहा' तद्यथा ते द्वे प्रतिपत्ती यथा - तदेव दर्शयति-'तत्थ' तत्र मण्डलान्मण्डलसंक्रमणविषये 'एगे' एके केचन परमतवादिनः 'एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः-कथयन्ति । किं कथयन्तीत्याह-'ता मंडलाओ मंडलं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'मंडलाओ मंडलं' मण्डलात् यत्रस्थितस्तस्मात् मण्डलात् मण्डलम्-अग्रेतनमपरमण्डलाभिमुखं 'संकममाणे' संक्रामन् गतिं कुर्वन् 'सरिए' सूर्यः 'भेयघाएणं' भेदघातेन, तत्र भेदः प्रतिमण्डलस्यापान्तरालभागः, तत्र घातः गमनं तेन मण्डलस्य नाम मण्डलाऽपान्तरालगमनपूर्वकमित्यर्थः ‘संकामइ' संक्रामति स्वचारगत्या गच्छति, विवक्षितं मण्डलं पूरयित्वा तदनन्तरमपान्तरालगमनेनापरं द्वितीयं मण्डल संक्रम्य च तत्र मण्डले चारं चरति, उपसंहारमाह-'एगे' एके पूर्वोक्ताः प्रथमास्तीर्थान्तरीयाः ‘एवं' पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण आहुः कथयन्तीति प्रथमा प्रतिपत्तिः ।१। अथ द्वितीयां दर्शयति-'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः 'एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति, तदेवाह-'ता' तावत् 'मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए' मण्डलान्मण्डलं संक्रामन्-संक्रमितुमिच्छन् सूर्यः यत्र गन्तुमिच्छति Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० चंद्रप्तिप्रकाशिका तदधिकृतमप्रेतनं मण्डलं प्रथमक्षणालमारभ्य कर्णकलां यथास्यात्तथा क्रियाविशेषणमेतत् 'निव्वेदेई' निर्वेष्टयति मुश्चति तथा चात्रेयं भावना-भारतो वा ऐवतो वा सूर्यः स्वस्वस्थाने उदितः सन् अपरमण्डलगतं कर्ण मण्डलस्य प्रथमकोटिभागलक्षणं लक्ष्यीकृत्याधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणादुपरि प्रतिक्षणं कलयातिक्रान्तं यथास्यात्तथा निर्वेष्टयतीति द्वितीया प्रतिपत्तिः ।२। अथात्र प्रतिपत्तिद्वये भगवान् वस्तुतत्त्वं प्रदर्शयति-तत्थ णं' इत्यादि, 'तत्थ णं' तत्र प्रतिपत्तिद्वयमध्ये खलु 'जे ते एवमाहंमु' ये ते एवमाहुः यत् 'ता तावत् मंडलाओ मंडलं संकममाणे सारए' मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् सूर्यः 'भेयघाएणं' मेदघातेन 'संकामई' संक्रामति स्वगत्या गच्छति 'तेसि गं' तेषां प्रथमप्रतिपत्तिवादिनां खलु मते 'अयं' अयं वक्ष्यमाणस्वरूपः 'दोसे' दोषो वर्तते, को दोषः ? इति दर्शयति-ता जेणंतरेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जेण' येन कालेन यावत्परिमितं कालमाश्रित्येत्यर्थः 'अंतरेण' अन्तरेण अपान्तरालेन 'मंडलाओ' मंडलं संकममाणे सरिए' मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् सूर्यः 'भेयघाएण' भेदघातेन 'संकामई' संक्रामतीति यदुक्तं तन्न सम्यक् यतः 'एवइयं च णं अद्धं' एतावती च खलु अद्धाम् आश्रित्य एतावत्कालेनेत्यर्थः सूर्यः 'पुरओ' पुरतः अग्रेतने द्वितीये मण्डले 'न गच्छई' न गच्छति ! न गन्तुं शक्नोतीत्यर्थः । कथं न गच्छति ! इति प्रदर्श्यते -एकस्मात् मण्डलादपरस्मिन् मण्डले संक्रमणं कुर्वन् सूर्यः यावता कालेनापान्तरालं गच्छति तावत्परिमितकालानन्तरं परिभ्रमितुमिच्छति तदा द्वितीयमण्डलसम्बन्ध्यहोरात्रमध्यात् त्रुटयति ततो द्वितीये परिभ्रमन् तत्पर्यन्ते तावत्परिमितं कालं परिभ्रमितुं न शक्नोति तद्गताहोरात्रस्य परिपूर्णीभूतत्वात् , यतो हि 'पुरक्ते अगच्छमाणे' पुरतः अगच्छन् द्वितीयमण्डलपर्यन्ते च न गच्छन् 'मंडलकालं' मण्डलकालं मण्डलपरिभ्रमणकालं यावत्परिमितकालेन परिपूर्णमण्डले भ्रम्यते तत् कालं परि हवेइ' परिभवति-हापयति न्यूनीकरोति तस्य कालस्य हानिरुपजायते, एवं सति सर्वजगत्प्रसिद्ध प्रतिनियताहोरात्रपरिमाणव्याघातः प्रसज्येताऽतो न तेषामिदं मतं समीचीनम् तस्माद्धेतोराह'तेसि णं' तेषां प्रथमानां खलु मते 'अयं' अयं पूर्वप्रदर्शितः 'दोसे' दोषोऽस्ति अथ द्वितीयप्रतिपत्तिविषये कथयति 'तत्थ णं जे ते' इत्यादि । 'तत्थ णं' तत्र खलु प्रतिपत्ति द्वयमध्ये 'जे ते' ये ते 'एवमाहंसु' एवमाहुः-'ता' तावत् 'मंडलाओ मंडलं' मण्डलान्मण्डलं 'संकममाणे सुरिए' संक्रामन् सूर्यः 'कण्णकलं' कर्णकलं पूर्वोक्तस्वरूपं यथास्यात्तथा 'निवेढेइ' निर्वेष्टयति अधिकृतमण्डलं मुश्चति 'तेसि णं' तेषां खलु 'अयं' अयं वक्ष्यमाणप्रकारकः 'विसेसे' विशेषः गुणः अस्ति, तमेवाह-'ता' तावत् 'जेणंतरेण' येन यावत्परिमितेन कालेन अंतरेण-अपान्तरालेन 'मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए' मण्डलामण्डलं संक्रामन् सूर्यः 'कण्णकलं' कर्णकलं कलयाऽतिक्रान्तं मण्डलस्य प्रथमकोटिभागरूपं कर्ण यथास्यात्तथाऽधि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. २-२सू१ सूर्यस्य मण्डलात् मण्डलान्तरसंचरणम् १११ कृतमण्डलं 'निवेढेइ' निर्वेष्टयति मुञ्चति, 'एबइयं च णं अद्ध' एतावती च खलु अद्धां यावत् एतावता कालेनेत्यर्थः 'पुरओ गच्छई' पुरतो द्वितीयमण्डलपर्यन्ते गच्छति तथा च 'पुरओ गच्छमाणे' पुरतो गच्छन् द्वितीयमण्डलपर्यन्तं प्राप्नुवन् 'मंडलकालं' मण्डलकालं मण्डला पान्तरालप्समयं 'न परिहवेइ' न परिभवति न हापयतीति, तथा च अधिकृतमण्डलस्य किल कर्णकलापूर्वकं निर्वेष्टितत्वात अपान्तरालकालोऽधिकृतमण्डलसम्बन्धिन्येवाहोरात्रेऽन्तर्भूतः, एवं च द्वितीयमण्डले सूर्यस्य संक्रमणे सति तद्गतकालस्य मनागपि हानिनस्यात् ततो यावता कालेनापान्तरालं गम्यते तावत्प्रमाणेन कालेन सूर्यः पुरतो गच्छति एवं च मण्डलकालं न हापयति-प्रसिद्धेन यावत्परिमितेन कालेन तन्मण्डलं परिसमाप्यं भवेत् तावत्परिमितेन कालेन तन्मण्डलं पूर्णतया समापयति न तु किश्चिन्मात्रापि मण्डलकालहानिर्भवति ततो जगद्विदितप्रतिनियताहोरात्रपरिमाणे न कोऽपि व्याघातः प्रसज्येत । 'तेसि णं' तेषां खलु द्वितीयानाम् अयं' अयं पूर्वप्रदर्शितः 'विसेसे' विशेषः गुणो वर्त्तते । पुनरस्यैव मतस्य समीचीनतां प्रदर्शयति-'तत्य' इत्यादि, तत्थ' तत्र 'जे ते एवमासु' ये ते एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति यत्'मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए' मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् सर्यः 'कण्णकलं निव्वेढेइ' कर्णकलां निर्वेष्ट यति इति, 'एएणं' एतेन द्वितीयप्रतिपत्तिवादिकथितेन ‘णएणं' नयेन - अभिप्रायेण अस्माकं मतेऽपि मण्डलान्मण्डलान्तरसंक्रमणं 'णेयव्वं' ज्ञातव्यम् किन्तु 'नो चेव गं' नैव खलु 'इयरेणं' इतरेण प्रथमप्रतिपत्तिवादिकथितेन, अन्यैर्वा कैश्चित् कथितेन नयेन । तत इदमेव मतं ज्ञातव्यम् इतरेमते दोषसद्भावेन अस्यैव मतस्य समीचीनत्वात् तीर्थकरसंमतत्वाञ्चेति ॥ ॥ इति द्वितीयस्य मूलप्राभृतस्य द्वितीयं प्रामृतप्राभृतं सम्पूर्णम् ॥२-२॥ द्वितीयस्य मामृतस्य तृतीयं प्राभृतमाभृतम् । तदेवमुक्तं द्वितीयमूलप्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतम् , अथ तृतीयमाह अस्यायमर्थाधिकारः- "मण्डले २ प्रतिमुहूत्तं सूर्यस्य गतिर्वक्तव्या" इत्येतद्विषयकं सूत्रमाह- 'ता केवइयं' इत्यादि । मूलम् ता केवइयं खेत्तं सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ ? आहितेति वएज्जा । तत्थ खलु इमाओ चत्तारि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- तत्थ एगे एवमाहंसु-ता छ छ जोयणसहस्साइं सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एवमाइंसु ॥१॥ एगे पुण एवमाहंस ता पंच पंच जोयणसहस्साइं सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एव Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे माइंसु ।२। एगे पुण एवमाइंसु-ता चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एवमासु ।३। एगे पुण एवमाहंसु ता छवि पंचवि चत्तारि वि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेण मुहुत्तेणं गच्छइ एगे एवमासु ।४। तत्थ णं जे ते एवमासु-ता छ छ जोयणसहस्साई सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, ते एवमाइंसुता जया णं सरिए सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, तंसि च णं -दिवसंसि एगं जोयणसयसहस्सं अट्ठ य जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते । ता जया णं सरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ. तंसि च णं दिवसंसि चावत्तरि जोयणसहस्साइं तावक्खेते पण्णत्ते तया णं छ छ जोयणसहसाइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ ॥१॥ तत्थ णं जे ते एवमाहंसु-ता पंच पंच जोयणसहस्साई मूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ ते एवमाइंसु-ता जया णं सरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ तंसि च णं दिवसंसि नउइजोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते जया णं सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तंसि च णं दिवसंसि सढि जोयण सहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते तया णं पंच पंच जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ ॥२॥ - तत्थ णं जे ते एवमाहंसु-चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ ते एवमाहंसु ता जया णं सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं दिवस-राई तहेव, तंसि च णं दिवसंसि बावत्तरि जोयणसहस्साइं तावक्खेत्ते पण्णत्ते, ता जया णं सरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं राइंदिवं तहेव, तंसि च णं दिवसंसि अडयालीसं जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते, तया णं चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साइं सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ ॥३॥ - तत्थ णं जे ते एवमाइंसु छवि पंचवि चत्तारि वि जोयणसहस्साई सरिए एगमेगेणं Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०२-३ सू०१ मण्डले २ प्रतिमुहूर्त सूर्यस्य गतेनिरूपणम् ११३ मुहुत्तेणं गच्छइ ते एवमाहंसु ता सूरिए उग्गमणमुहत्तंसि अत्थमणमुहत्तंसि य सिग्घगई भवइ तया णं छ छ जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, मज्झिमं तावक्खेत समासाएमाणे २ सूरिए मज्झिमगई भवइ तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, मज्झिमं ताव क्खेत्तं संपत्ते सूरिए मंदगई भवइ तया ण चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साइं एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ । तत्थ को हेऊ ? त्ति वएज्जा, ता अयगणं जंबद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पप्णत्ते । ता जया णं सरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया ण उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता-राइ भवइ, तंसि च णं दिवसंसि एक्काण उइजोयणसहस्साई तावखत्ते पण्णत्ते । ता जया णं मूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तम. कट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तंसि च णं दिवसंसि एगसहिजोगणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते तया णं छ वि पंच वि चत्वारि विजोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एवमाइंसु ।४। सू० १॥ छाया-तावत् कियत्कं क्षेत्रं सूर्यः एकैकेन मुहूर्तन गच्छति आख्यातम् इति वदेत् तत्र खलु इमाः चतस्रः प्रतिपत्तयः प्राप्ताः तद्यथा तत्र एके एवमाहुः-तावत् षट् षड् सहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, एके एवमाहुः।। एके पुनः पवमाहुःतावत् पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, एके एवमाहुः ।२। पके पुनरेवमाहुः तावत् चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहूर्तन गच्छति, एके एवमाहुः ।३। एके पुनः पवमाहुः तावत् षडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति ।। तत्र खलु ये ते पवमाहुः तावत् षट् षड्योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहत्तेन गच्छति, ते एवमाहुः-यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा स्खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति जयन्यिका द्वादशमुहू र्सा रात्रिर्भवति, तस्मिश्च खलु दिवसे एकं योजनशतसहस्रम् अष्टयोजनसहस्राणि तापक्षेत्र प्राप्तम् । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वबाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति जघन्यकः द्वादशमुहूत्तोंदिवसो भवति, तस्मिश्च खलु दिवसे द्वासप्ततिं योजनसहस्राणि तापक्षेत्र प्राप्तम् तदा खलु षट् षड्योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति ।।। तत्र खलु ये ते पबमाहुः तावत् पञ्च पञ्चयोजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहूतन गच्छति, ते पवमाहुः-तावद् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहूतौ दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, तस्मिश्च स्खलु दिवसे नवति योजन सहस्राणि तापक्षेत्रं प्राप्तम् । यदा खलु सर्वबाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्ता मष्टादशमहूर्ता रात्रिभवति जघन्यकः द्वादशमुहूत्तों दिवसो भति, तस्मिश्च खलु दिवसे षष्टिं योजनसहस्राणि तापक्षेत्र प्राप्तम् तदा खलु पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहूत्तेन गच्छति ।। - तत्र खलु ये ते एवमाहुः तावत् चत्वारि चत्वारि योजनलहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहूतेन गच्छति ते एवमाहुः-तावद् यदा स्खल सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु दिवस-रात्री तथैव, तस्मिश्च खलु दिवसे द्वासप्तति योजनसहस्राणि तापक्षेत्र प्राप्तम, तावद यदा खलु सूर्यः सर्वबाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य सारं चरति तदा रात्रिन्दिवं तथैव, तस्मिश्च खलु दिवसे अष्टवत्वारिंशद्योजनसहस्राणि तापक्षेत्रं प्रक्षतम्, तदा खलु चत्वारि चत्वारि योजनसहनाणि सूर्यः एकैकेन मुहतेन गच्छति ॥३॥ तत्र खलु ये ते एवमाहुः-षडपि पञ्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्यः पकैकेन मुहर्तेन गच्छति,ते एवमाहुः तावत् सूर्य उद्गममुहूर्ते च अस्तमयनमुहूर्ते च शीघ्रगतिर्भवति तदा खल षट् षडयोजसहस्राणि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति। मध्यमं तापक्षेत्रसमासादयन् २ सूर्यः मध्यमगतिर्भवति तदा खल पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति । मध्यमं तापक्षेत्र संप्राप्तः सूर्यः मन्दगतिर्भवति तदा स्खलु चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति । तत्र को हेतुः । इति वदेत्-तावद् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्रशप्तः । तावद् यदा स्खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसम्क्रम्य चारं चरति तदाखलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमहत्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिभवति तस्मिश्च खलु दिवसे एकनवति योजनसहस्राणि तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम् । तावद् यदा खल सूर्यः सर्वबाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमका ष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति जघन्यकः द्वादशमूहूर्तों दिवसो भवति तस्मिश्च खलु दिवसे एकपष्टियोजनसहस्राणि तापक्षेत्र प्राप्तम्, तदा खलु षडपि पञ्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहत्तेन गच्छति, एके पवमाहुः ।४।। सू० १ ॥ . व्याख्या-'ता केवइयं' इत्यादि । 'ता' इति तावत् 'केवइयं कियत्कं कियत्परिमितं 'खेत्त क्षेत्रं परिभ्रमणमागे 'सरिए' सूर्यः ‘एगमेगेणं' एकैकेन 'मुहुत्तेणं' मुहूर्तेन 'गच्छई' गछति ? एतद्विषये हे भवगन् भवता किम् 'आहिए' माख्यातम् ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् इति वदतु कथयतु । गौतमेन एवमुक्ते सति भगवान् प्रथमं परमतस्य मिथ्याभावप्रदर्शनाया न्यतैर्थिकानां प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति-तत्थ' इत्यादि । 'तत्थ खलु' तत्र सर्यस्य परिभ्रमणमार्गविषये खलु निश्चयेन 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'चत्तारि चतस्रः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमताभिप्रायरूपाः ‘पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा ता यथा-'तत्थ' तत्र चतुषु प्रतिप्रत्तिवादिषु मध्ये 'एगे' एके केचन प्रथमाः परतीर्थिकाः 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०-२-३ सू० १ मण्डले २ प्रतिमुहूर्त्त सूर्यस्य गतेर्निरूपणम् ११५ आहुः कथयन्ति-यत् 'ता' तावत् 'सूरिए' सूर्यः 'छ छ जोयणसहस्साई' षट् षड्योज - नसहस्राणि षट् षट् सहस्रयोजनपरिमितं क्षेत्रं 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्त्तेन 'गच्छइ' गच्छति पारयतीत्यर्थः, 'एगे' एके प्रथमाः ' एवं ' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति । १ । 'एगे पुण' एके द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः पुनः ' एवं ' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण ‘आहंसु' आहुः कथयन्ति - 'ता' तावत् 'सूरिए' सूर्यः पंच पंच जोयणसहस्साईं' पश्च पञ्चयोजनस्हस्राणि 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्त्तेन 'गच्छइ' गच्छति 'एगे' एके द्वितीयाः ' एवं ' पूर्वकथितप्रकारेण 'आहंसु' आहुः |२| 'एगे पुन' एके केचन तृतीयप्रतिपत्तिवादिनः पुनः एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति - 'ता' तावत् 'सूरिए' सूर्य: 'चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साईं' चत्वारि चत्वारि योजन सहस्राणि 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्त्तेन 'गच्छइ' गच्छति, 'एगे' एके तृतीयाः परतीर्थिकाः ' एवं ' एवं पूर्वोत प्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति | ३ | 'एगे पुण' एके पुनश्चतुर्थाः परतीर्थिकाः पुनः ' एवं ' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति - 'ता' तावत् 'सूरिए' सूर्यः 'छवि पंच विचत्तारिवि जोयणसहस्साई' षडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्त्तेन 'गच्छइ' गच्छति 'एगे' एके चतुर्थाः ' एवं ' पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति |४| चतुर्थस्यायं भावः:- सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन षट्सहस्रयोजनानि पञ्चसहस्रयोजनानि चतुः सहस्रयोजनान्यपि च गच्छतीति । भगवान् तेषां यथाक्रमं स्वरूपं प्रदर्शयति 'तत्थ णं जे ते ' इत्यादि । ‘तत्थ णं' तत्र चतुर्षु प्रतिपत्तिवादिषु मध्ये खलु 'जे ते एवमाहंसु' ये ते प्रथमाः परमतवादिनः एवमाहुः एवं कथयन्ति यत् 'ता' तावत् 'छ छ जोयणेसहस्साई' षट् षड्योजनसहस्राणि ष्ट् षट् सहस्रयोजनानि 'सुरिए' सूर्यः 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छइ' गच्छतीति 'ते' ते एवं वक्तारः ' एवं ' एवं अनेन वक्ष्यमाणेन अभिप्रायेण 'आइस' आहुः कथयन्ति, तदेव प्रदर्शयति 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्य : 'सव्वन्मंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्ष प्राप्तः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वाधिकप्रमाणकः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूत दिवसो भवति 'जहण्णिया' जघन्यका सर्वलवी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवर' द्वादशमुत्त' रात्रिर्भवति, सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डल संचरणसमये अष्टादशमुहूर्त्तेभ्यो न न्यूनो नाधिको दिवसो भवति, न च द्वादशमुहूर्तेभ्यो न्यूनाधिका वा रात्रिर्भवतीति भावः । ' तंसि च णं दिवसंसि' तस्मिव खलु दिवसे 'एगं जोयणसयसइस्सं' एकं योजनशतसहस्रम् एकलक्षयोजनं तदुपरि 'अट्ठ य जोयणसहस्साई' अष्ट च योज Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे नसहस्राणि अष्टसहस्रयोजनानि अष्टसहस्राधिकैकलक्षयोजनपरिमितं 'तावक्खेत्ते' तापक्षेत्र 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् । अयं भावः-सूर्यो यदा सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरति तदा दिवसोऽष्टादशमुहूत्तों भवति एकेन मुहूर्तेन च षट्सहस्रयोजनानि सूर्यो गच्छतीति कथितं ततोऽष्टादशसंख्या षट्सहस्रैर्गुण्यते ततो जातमेकं लक्षमष्टसहस्राधिकं (१०८०००) तापक्षेत्रप्रमाणम् । एवमग्रेऽपि मण्डले मण्डले निष्क्रमणकाले तत्तन्मण्डलसत्कहीनदिवसपरिमाण प्रतिमुहूर्तगतिपरिमाणेन षट्सहस्रयोजनरूपेण गुणनात् तापक्षेत्रपरिमाणं हानिरूपेण प्रत्येकमण्डलस्य स्वयमूह नीयम् । एवं क्रमेण बहिनिष्क्रामन् 'सूरिए' सूर्यः 'ता' तावत् 'जया गं' यदा स्खलु 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्य मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति, सूर्यो यदा सर्वबाह्यं मण्डलं प्राप्नोति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति, 'तंसि च णं दिवसंसि' तस्मिन् च खल दिवसे 'बावत्तरि जोयणसहस्साई द्वासप्तति योजनसहस्राणि द्वासप्तति (७२०००) सहस्रयोजनपरिमितं 'तावक्खेत्ते पण्णत्ते' तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम् । 'तया गं' तदा खलु 'छ छ जोयणसहस्साइं सुरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छई' षट् षड्योजनसहस्राणि षट् घट् सहस्रयोजनानि एकैकेन मुहूतेन गच्छाते । अत्रापि पूर्ववद् विभावनीयम् यथा-तापक्षेत्रं तु दिवसे एव भवति ततो दिवसपरिमाणं गृह्यते सूर्यस्य सर्वबाह्यमण्डलसंचरणसमये दिवसस्य द्वादशमुहूर्ता भवन्ति, एक मुहूर्त्तस्य गमनकालः षट्सहस्रयोजनपरिमितस्तेनात्र द्वादशमुहूर्ताः षट्सहस्रैर्गुण्यन्ते जातं द्वासप्ततिसहस्रयोजनपरिमितं तापक्षेत्रमिति । एवमेव सर्वबाह्यमण्डलादभ्यन्तरं सूर्यस्य गमनकाले क्रमेण प्रतिमण्डलस्य तापक्षेत्रपरिमाणं वृद्धित्वेन स्वयं भावनीयम् , अनेन क्रमेण प्रविशन् सूर्यो यदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्राप्नोति तदा तदेव अष्टसहस्राधिकलक्षपरिमितं तापक्षेत्र भविष्यतीति । अनेनाभिप्रायेण ते प्रथमास्तीर्थान्तरीया एवं कथयन्तीतिभावः ।। अथ भगवान् द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनामभिप्रायं प्रदर्शयति-तत्थ णं' इत्यादि 'तत्थ णं' तत्र चतुर्पु मध्ये खल 'जे ते' ये ते द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः 'एवमाहंसु' एवमाहुः-'ता' तावत् 'पंचपंच जोयणसहस्साई' पञ्च पश्च योजनसहस्राणि पश्चसहस्रयोजनानि 'मूरिए' सूर्यः एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छई' एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, इति ये वदन्ति ‘ते एवमाहंसु' ते द्वितीयास्तीर्थान्तरीयाः एवम्-अनेन वक्ष्यमाणेन अभिप्रायेण आहुः कथयन्ति, तमेवाभिप्रायं प्रदर्शयति-ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल सरिए' सूर्यः 'सव्वभंतरं मंडलं उसकमित्ता Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीको प्रा०२-३ सू०१ मण्डले २ प्रतिमुहूर्त सूर्यस्य गतेर्निरूपणम् १९७ चारं चरई' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया गं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए' उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'भट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादश मुहत्तॊ दिवसो भवति 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादश मुहूर्ता रात्रिभवति, 'तंसि च णं दिवसंसि तस्मिंश्च खलु दिवसे अष्टादशमुहूर्तप्रमाणे 'नउई जोयणसहस्साई' नवति योजनबहस्राणि नवतिसहस्रयोजनपरिमितमित्यर्थः 'ताक्खेत्ते पण्णत्ते' तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम् कथमेतदित्याह-एषां मते सूर्यः एकैकेन मुहूर्तेन पञ्च पश्चसहस्रयोजनानि गच्छति सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलसंचरणसमये दिवसः अष्टादशमूहूत्तों भवति ततः पञ्चसहस्रसंख्या अष्टादशभिर्गुण्यते तत आयाति तापक्षेत्रस्य यथोक्तं परिमाणं नवतिसहस्रयोजनपरिमित (९००००) तस्मिन् दिवसे, इनि एवमग्रे सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखगमने मध्ये मध्ये प्रतिमण्डले दिवसपरिमाणस्य पञ्चसहस्रैर्गुणने तत्तन्मण्डलस्य दिवसस्य होनत्वेन हीनं हीनं तापक्षेत्रमायाति । एवं सर्वचाह्यमण्डल्लाभिमुखं संचरन् ‘जया णं' यदा खल 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति सर्वबाह्यमण्डले आयाति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाष्टाप्राप्ता परमप्रकर्षसम्पन्ना उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वगुर्वी 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवड' द्वादशमुहूर्तों दिवसो भवति 'तंसि च णं' तस्मिश्च द्वादशमुहूर्तपरिमिते खलु 'दिवसंसि' दिवसे 'सद्विजोयण सहस्साई'षष्टियोजनसहस्राणि षष्टिसहस्रयोजनपरिमितं' 'तावखेत्ते पण्णत्ते' तापक्षेत्रं प्रज्ञप्रज्ञप्तम् । अत्रापि दिवसमुहूर्तसंग्यां द्वादशपरिमितां पञ्चसहस्रैर्गुणयित्वा यथोक्तपरिमाणं षष्टिसहस्रयोजनरूपं परिभावनीयम् तत एवाह-'तया णं' तदा खलु 'पंच पंच जोयणसहस्साई पञ्चपञ्चयोजनसहस्राणि 'सरिए' सूर्यः ‘एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छई' एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति अनेनाभिप्रायेण ते द्वितीयास्तीर्थान्तरीयाः सूर्यस्य एकैकमुहूर्तगम्यमार्ग पश्च पश्च सहस्रयोजनपरिमितं कथयन्तीति । एवं यदा सर्वबाह्यमण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं सूर्यो गन्तुमारभते तदा मध्ये मध्ये तत्तन्मण्डलगतदिवसमुहूर्त्तसंख्यायाः पञ्चसहस्रैर्गुणने तत्तन्मण्डलस्य ताप क्षेत्रं वृद्धित्वेनायाति, एवं यदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं सूर्यः प्राप्नोति तदा यथोक्तं नवतिसहस्रयोजनपरिमितं द्वितीयतीर्थान्तरीयाभिमतं तापक्षेत्रं भवतीति ॥२॥ अथ भगवान् तृतीयप्रतिपत्त्यभिप्रायं प्रदर्शयति-'तत्थ गं' इत्यादि 'तत्थ णं' तत्र तापक्षेत्रविषये खलु 'जे ते' ये ते तृतीयास्तीर्थान्तरीयाः 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु आहुः कथयन्ति, तदेव दर्शयति-'चतारि चत्तारि जोयणसहस्साई' चत्वारि चत्वारि योजनसह स्राणि चतुश्चतुः सहस्रयोजनानि 'मरिए' सूर्यः ‘एगमेगेणं मुहुत्तण' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छइ' Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे " गच्छति, इति 'ते णं' ते खलु ' एवं ' एवम् अनेन वक्ष्यमाणाभिप्रायेण 'आहंसु' कथयन्ति, तमेव प्रकारमाह- 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्य: 'सव्वन्भंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति 'तया णं' तदा खलु ' दिवसराई तहेव' दिवस रात्री तथैव-: व - तथा च उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवतीति, 'तंसि च णं दिवसंसि' तस्मिंश्च खलु दिवसे 'बावन्तरिं जोयणसहस्साईं ' द्वासप्ततियोजन सहस्राणि - द्वासप्तति सहस्त्रयोजन परिमितं तावखेते पण्णत्ते' तापक्षेत्र प्रज्ञप्तम् । तथाहि - एतेषां तृतीयानां मते सूर्यः प्रतिमुहूत्तै चतुःसहस्रयोजनानि गच्छति सर्वाभ्यन्तरमण्डले अष्टादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति ततश्चाष्टादशमुहूर्त्ताश्चतुःसहसैर्गुण्यन्ते तदा भवति द्वासप्ततिसहस्रयोयनप्रमाणं ( ७२०००) तापक्षेत्रमिति, 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'सन्चबाहिरं मंडल' सर्वबाह्यं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'ताण' तदा खलु 'राईदियं तदेव' रात्रिन्दिवं तथैव तथा च उत्तम उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, जघन्यक: द्वादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति, 'तंसि च णं' तस्मिश्च द्वादशमुहूर्त्तपरिमिते खलु 'दिवसंसि' दिवसे 'अडयालीसं जोयणसहस्साईं' अष्टचत्वारिंशद्योजन सहस्राणि अष्टचत्वारिंशत्सहस्रयोजनपरिमितं 'तावखेत्ते पण्णत्ते' तापक्षेत्र प्रज्ञप्तम् । कथ मिति दर्शयति- एषां तृतीयानां मते सूर्यस्य गमनं प्रतिमुहूर्त्ते चतुश्चतुःसहस्रयोजनपरिमित मस्ति, सर्वबाह्यमण्डले च द्वादशमुहूर्त्तपरिमितो दिवसो भवति तेन चतुःसहस्र संख्याद्वादशभिर्गुण्यते तदा समायाति अष्टचत्वारिंशत्सहस्रयोजन परिमितं तापक्षेत्रम् अनेन प्रकारेण ते कथयन्ति ' तया णं' तदा खलु 'चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई' चत्वारि चत्वारि योजन सहस्राणि 'सूरिए' सूर्य: ' एगमेगेणं मुहुत्तणं' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छ इ' गच्छति । मध्यमध्य मण्डलेषु पूर्वोक्तरीत्या तत्तन्मण्डलगतं तापक्षेत्रं सूर्यस्य निष्क्रमणसमये प्रवेशसमये हान्या वृद्धचा चावसेयमिति एवं सूर्यो यदा सर्वबाह्य मण्डलाद् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छति तदा मध्यमध्यमण्डल - संचरणसमये यस्मिन् यस्मिन् मण्डले यावत्परिमितं दिवसपरिमाणं भवति तत्तत्संख्यया चतुः सहस्राणां गुणने गुणनफलपरिमितमेव तत्तन्मण्डले तापक्षेत्रं भवति । अनेन क्रमेण गच्छन् सूर्यो यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्राप्नोति तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डले गते सूर्ये तदेव पूर्वोक्तं तदभिमतं ताप क्षेत्रप्रमाणं द्वासप्ततिसहस्रयोजनपरिमितमायातीति | ३ | " अथ चतुर्थप्रतिपत्त्याभिप्रायमाह - 'तत्थ णं' इत्यादि । ' तत्थ णं' तत्र तापक्षेत्रविषये स्खलु 'जे ते' ये ते चतुर्थास्तर्थान्तरीयाः ' एवं ' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' कथयन्ति तदेवाह - 'छवि पंचविचत्तारि वि' षडपि पश्चापि चत्वार्यपि 'जोयणसहस्सा ई' योजन सहस्राणि षट् सहस्रयोजनान्यपि, पञ्चसहस्रयो जनान्यपि चतुःसहस्रयोजनान्यपि च ' सूरिए' सूर्यः 'एग - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू०१ मण्डले २ प्रतिमुहूत्तं सूर्यक्ष्य गतेनिरूपणम् ११९ मेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तन 'गच्छइ' गच्छति, इति ये कथयन्ति 'ते' ते पूर्वोक्तरूपेण वक्तारः ‘एवं' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेनाभिप्रायेण 'आईसु' आहुः-कथयन्ति तच्छ्रयताम्'ता' तावत् 'सरिए' सूर्यः 'उग्गमण मुहुत्तंसि' उद्गमनमुहूर्ते एवम् 'अत्थमणमुहुत्तंसि य' अस्तमयनमुहूर्ते च उदयकाले अस्तकाले चेत्यर्थः 'सिग्धगई भवई' शीघ्रगतिर्भवति ततः 'तया णं' तदा उदयास्तसमये खलु सूर्यः 'छ छ जोयणसहस्साई' षट् षड्योजनसहस्राणि 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन गच्छइ' गच्छति, सूर्य उदयास्तकाले शीघ्रगतित्वेन एकस्मिन् मुहूर्ते षट्सहस्रयोजनपरिमितं क्षेत्रं पारयतीति भावः ततः पश्चात् 'मज्झिमं तावखेत्त' मध्यमं तापक्षेत्रं 'समासाएमाणे २' समासादयन् २ प्रापयन्२ 'सूरिए' सूर्यः मज्झिमगई भवई' मध्यमगतिर्भवति 'तया णं' तदा तस्मिन् काले खलु 'पंचपंचजोयणसहस्साई' पञ्चपञ्चयोजनसहस्राणि पञ्चपञ्चसहस्रयोजनानि 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छई' गच्छति । तथा 'मझिम तावखेत्तं' मध्यमं तापक्षेत्रं 'संपत्ते' सम्प्राप्तो भवेत् तदा 'सूरिए' सूर्यः 'मंदगई भवई' मन्दगतिर्भवति 'तया णं' तदा खलु 'चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई' चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि चतुश्चतुःसहस्रयोजनानि 'एगमेगेणं मुहुत्तेगं गच्छई' एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, यदा सूर्यो मध्यमतापक्षेत्रेऽधिरूढो भवति तदा मन्दगतित्वेन एकैकस्मिन् मुहत्तं चतुश्चतुःसहस्रयोजनपरिमितमेव क्षेत्रं पारयितुं शक्नोति न ततोऽधिकमिति भावः । ___ एवं भगवता कथिते सति गौतमः पृच्छति-तत्थ' तत्र सूर्यस्य एवं गमने 'को हेऊ' को हेतुः किं कारणम् 'तिवएज्जा' इति वदेत् तद्गतिकारणं कथयतु भगवन् ! एवं गौतमेन पृष्टे भगवान् तत्कारणं प्रतिपादयति-'ता अयं णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'अयं णं' अयं लोकप्रसिद्धः खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वोपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः जम्बूद्वापस्य वर्णनं सर्वमत्र वाच्यम् , कियत्पर्यन्तम् ? इत्याह 'जाव परिक्खेवेणं पण्णगे' यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः परिधिपर्यन्तं वाच्यम् । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'रिए' सूर्यः 'सव्वब्भर मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं तदा खलु 'उत्तमकट्ठपने' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति 'जहणिया' जधन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहत्ता राई भवई' द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । 'तं सि च णं' तस्मिन् च खलु पूर्वोक्तप्रमाणे 'दिससंसि' दिवसे 'एक्काणउई' एकनवतिं 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि एकनवतिसहस्रयोजनपरिमितं 'तावखेत्ते पण्णत्ते' तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम् । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे तथाहि-सूर्योदयसमयमुहूर्तेऽस्तसमयमुहूर्ते च प्रत्येकं षट् षड्योजनसहस्रपरिमितो गमनकालः कथितः, तयोर्द्वयोर्मीलने जातानि द्वादशसहस्रयोजनानि (१२०००) सर्वाभ्यन्तरं मुहूर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्रं सम्प्रति न गृह्यते मध्यमे च तापक्षेत्रे पश्चदशमुहूर्तगम्यप्रमाणं पञ्च पञ्चसहस्रयोजनानि सूर्यो गच्छतीति, पञ्चदशयोजनसहस्राणि पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते तदा जातानि पञ्च सप्ततिसहस्रयोजनानि (७५०००) अथ च सर्वाभ्यन्तरमुहूर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्रं चतुःसहस्रयोजन (४०००) परिमितं, तत् तथा उदयास्तसमयसंपन्नानि पूर्वोक्तानि द्वादशसहस्रयोजनानि च, एवं १२-७५-४ सर्वमीलने जातानि एकनवतिसहस्राणि (९१०००)। एव मष्टादशमुहूर्तप्रमाणे दिवसे समागतं यथोक्तं तापक्षेत्रप्रमाणमिति । अन्यथा चैतानि न घटन्त इति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'मुरिए' सूर्यः 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्य मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई'उपसंक्रम्य चारं चरति 'तयाणं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता सर्वोत्कृष्टप्रकर्षसंपन्ना 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ' अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलधुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति, 'तंसि च णं' तस्मिंश्च द्वादशमुहूर्तपरिमिते. 'दिवसंसि' दिवसे 'एगसहिजोयणसहस्साई' एकषष्टियोजनसहस्राणि एकषष्टिसहस्रयोजनपरिमितं (६१०००) 'तावखेत्ते पण्णत्ते' तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम् । कथमेतद् घटते ! इति प्रदर्श्यते-उदयकालमुहूर्त, अस्तकाल मुहूर्ते च प्रत्येकं षट् षड्सहस्रयोजनानि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छतीति द्वयोर्मीलने जातानि द्वादशसहस्रयोजनानि (१२०००) सर्वाभ्यन्तरं मुहूर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्र सम्प्रति न गृह्यते, शेषा नवमुहूर्ताः तेषु सूर्यः पञ्च पञ्चसहस्रयोजनानि प्रतिमुहूत गच्छति ततः पञ्चसहस्रयोजनानि नवभिर्गुण्यन्ते जातानि पञ्चचत्वारिंशत् सहस्रयोजनानि (४५०००) सर्वाभ्यन्तरे मुहूत्तैकगम्ये तापक्षेत्र चतुःसहस्रयोजनानि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छतीति चत्वारि योजनसहस्राणि (४०००) तथा उदयास्तकालसंपन्नानि पूर्वोक्तानि द्वादशसहस्रयोजनानि (१२०००) •एवं १२-४५-४ सर्वसंमेलने जातं यथोक्तम् एकषष्टिसहस्रयोजनपरिमितं (६१०००) द्वादशमुहूर्तपरिमिते दिवसे तापक्षेत्रप्रमाणम् । न चैतदन्यथोपपद्यत इति, 'तया णं' तदा खलु एवं कृते सति 'छ वि पंच वि चत्तारि वि' षडपि पञ्चापि चत्वार्यपि 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि षट्पञ्चचतुःसहस्रयोजनपरिमितं क्षेत्रं 'सूरिए' सूर्यः ‘एगमेगेणं मुहुत्तेण' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छइ' गच्छति । एतदभिप्रायेण चतुर्थास्तीर्थान्तरीयाः सूर्यस्य प्रतिमुहूर्तगमनकालं षट्पञ्चचतुःसहस्रयोजनपरिमितं प्रतिपादयन्तीति विज्ञेयम् । उपसंहारमाह-एगे' एके चतुर्थाः परमतवादिनः 'एवं' एवं पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्तीति ॥सू० १॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. २-३ सू २ पूर्वोक्तविषये स्वसिद्धांतप्रतिपादवम् १२१ पूर्व परमतरूपाश्चतस्रः प्रतिपत्तयः प्रदर्शिताः, साम्प्रतं भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति'वयं पुण' इत्यादि । वयं पुण एवं वयामो-ता साइरेगाइं पंच पंच जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ तत्थ को हेऊ ? त्ति वएज्जा ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेण पण्णत्ते ता जया णं सरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई तयाणं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि य एकावण्णे जोयणसयाई एगृणतीसं च सद्विभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ तया णं इहगयम्स मणुसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं, दोहि य तेवढेहिं जोयणसएहिं, एक्कवीसाए य सहिभागेहिं जोयणस्स सरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से निक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई । ता जया णं सरिए अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि य एकावण्णे जोयणसयाई सीयालीसं च सद्विभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ तया णं इह गयस्स मस्सस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं अउणासीए य जोयणसए सत्तावण्णाए सर्टिभागेहि जोयणस्स, सद्विभागं च एगडिहा छेत्ता एगृणवीसाए चुण्णियामागेहि सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसहिभागमुहुतेहिं अहिया। से निक्खममाणे सरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अब्भतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए अभितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं पंच २ जोयणसहस्साई दोण्णि य बावण्णे जोयणसयाई पंच य सहिभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं छण्णउईए य जोयणेहिं तेत्तीसाए य सहिभागेहि जोयणस्स सहिभागं च एगसहिहा छेत्ता दोहि चुणियाभागेहि सूरिए चक्खुप्फार्म हव्वमागच्छइ, तया णं अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं होणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउर्हिएगसद्विभागमुहुत्तेहि अहिया । एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराभो तयाणंतरं मंडलाओ मंडलं संक्रममाणे २ अट्ठारस २ सहिभागे जोयणस्स एग Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ चद्रशतिप्रकाशिका मेगे मंडले मुहुत्तगई अभिबुड्ढेमाणे २ चुलसीई साइरेग जोयणाई पुरिसच्छायं णिव्बुइढेमाणे २ सव्वबाहिरं मंडल उवसंकमित्ता चार चरइ । ता जया णं सूरिए सच्चाहिरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं पंच जोयणसहस्साई तिन्नि य पंचुतराई जोयसाई पण्णरस य सद्विभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया णं इस मणूसस्स एक्तीसाए जोयणसहस्सेहिं अहिं एक्कती सेहिं जोयणस एहिं तीसाए यसद्विभागे जोयणस्स सूरिए चक्खुष्फासं हव्वमागच्छ तथा णं उत्तमकट्टपत्ता उक्को - सिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे । एस णं पढमस्य छम्मासस्स पज्जवसाणे ||०२|| छाया - वयं पुनरेवं वदामः - तावत् सातिरेकाणि पञ्च पञ्त्र योजनसहस्राणि सूर्यः पकैकेन मुहूर्त्तेन गच्छति । तत्र को हेतुः ? इति वदेत् तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे च एकपञ्चाशद्योजनशते कोन - त्रिशतं षष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन मुहूर्त्तेन गच्छति, तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशता योजनसहस्रैः द्वाभ्यां व त्रिषष्टाभ्यां योजनशताभ्याम् एकविंशत्या च षष्टिभागैः योजनस्य सूर्यः चक्षुःस्पर्श हव्यमागच्छति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति जयन्यिका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रि भवति । स निष्क्रामन् सूर्यः नवं सवत्सरम् अयन् प्रथमे अहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु पञ्चपञ्चभोजनसहस्राणि द्वे च एकपञ्चाशद्योजनशते सप्तचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्थ एकैकेन मुहूर्त्तेन गच्छति, तदा खलु इह गतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशतायोजन सहस्रः एकोनसप्ताधीति च योजनशतानि सप्त पञ्चाशता षष्टिभागैः योजनस्य षष्टिभागं च एकषष्टिधा छित्त्वा एकोनविंशत्या चूर्णिकाभागैः सूर्यः चक्षुःस्पर्श हव्यमागच्छति तदा खलु अष्टादशमुहून्त दिवसो भवति द्वाभ्यामेएकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यामेधिका । स निष्क्रामन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु पञ्च २ योजनसहस्राणि द्वे च द्विपञ्चाशतं योजनशते पञ्च च षष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन मुहूर्त्तेन गच्छति तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशता योजनसह सैः षण्णवत्या च योजनैः त्रयस्त्रिंशताच पष्टिभागैः योजनस्य षष्टिभागं एकषष्टिधा छित्वा द्वाभ्यां चूर्णिका भागाभ्यां सूर्यः चक्षुःस्पर्श हव्यमागच्छति तदा खलु अष्टादश मुहूर्ती दिवसो भवति चतुर्भिरे कषष्टिभागमुहूर्त्तहीनः द्वादशमुहूर्त्ता रात्रि र्भवति चतुर्भिः एकषष्टिभागमुत्तैरधिका । एवं खलु एतेन उपायेन ष्क्रिामन् सूर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरं मण्डलात् Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू०२ पूर्वोक्तविषयेस्वसिद्धांतप्रतिपादनम् १२३ मण्डलं संक्रामन् २ अष्टादश २ षष्टिभागान् योजनस्य एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्त्तगतिम् अभिवर्धयन २ चतुरशीति सातिरेक योजनानि पुरुषच्छायां निर्वधयन् २ सर्वबाहा मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु . सूर्यः सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं घरति, तदा खलु पञ्च योजनसहस्राण त्रीणि च पञ्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्चदश च षष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य एकत्रिंशता योजनसहौः अष्टभिः एकत्रिशता योजनशतैः त्रिंशता च षष्टिभागैः योनस्य सूर्यः चक्षुः स्पर्श हव्यमागच्छति, तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति जघन्यकः द्वादशमुहूर्तों 'देवसो भवति । एतत् खलु प्रथमं षण्मासम् । पतत् खलु प्रथमस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् । सूत्र २ ॥ व्याख्या-'वयं पुण' इति 'वयं पुण' वयं पुनः वयं तु ‘एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः, तदेव दर्शयति-'ता' तावत् 'साइरेगाई' सातिरेकाणि किञ्चिदधिकानि 'पंच पंच जोयणसहस्साई' पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि पञ्चपञ्चसहस्रयोजनानि 'सरिए सूर्यः एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूत्र्तेन 'गच्छइ गच्छति । एवं भगवता प्रोक्ते गौतमोऽत्र हेतुं पृच्छति'तत्थ को हेऊ' तत्र सूर्यस्य एकैकाहूर्तपरिमितकालेन सातिरेकपच्चसहस्रयोजनगमने को हेतुः किं कारणं कोपपत्तिः ? 'इलि' इति 'वएज्जा' वदेत् हे भगवन् ! वदतु कथयतु । भगवान् तत्कारणं प्रदर्शयति -'ता' तावत् 'अयं ' अयं खलु 'जम्बुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वोपः मध्यजम्बूद्वीपः ‘जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते' यावत्परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः अत्र यावत्पदेन जम्बूद्वीपवर्णनं सर्व पठनीयं परिधिपरिमाणपर्यन्तमिति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वब्भंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तयाणं' तदा खलु ‘पंच २ जोयणसहस्साई' पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि 'दोणि य एकावण्णे जोयणसयाई' द्वे च एकपञ्चाशद्योजनशते एकपञ्चाशदधिकद्विशतयोजनानि (५२५१) 'एगणतीसं च सद्विभागे जोयणस्स' एकोनत्रिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य (५२५१. एतावत्परिमितं क्षेत्रं सूर्यः ‘एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ' एकैकेन मुहूत्तन गच्छति प्रत्येकं मुहूर्ते एतावत्परिमितं क्षेत्रं पारयनीति भावः । एतत्कथमुपलभ्यते । इति प्रदर्श्यतेभरतैरवतसम्बन्धिनौ द्वौ सूर्यो एकैकं मण्डलम् एकैकेन अहोरात्रेण परिसमापयतः, एकैकस्य सूर्यस्यैकैकाहोरात्रगमने वस्तुतो द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां परिभ्रमणमाश्रित्य मण्डलपरिसमाप्तिभवति । द्वयोरहोरात्रयोः षष्टिर्मुहर्ता भवन्ति प्रत्येकाहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणत्वात् । एषा षष्टिसंख्या भाज कराशित्वेन विज्ञेया, भायरा शिश्च मण्डलपरिधिपरिमाणसंख्या, मण्डलपरिधिपरिमाणं च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले एकोननवत्यधिकपञ्चदशसहस्रोत्तराणि त्रीणि लक्षाणि-(३१ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे ५०८९) । एषा भाज्यराशिसंख्या पूर्वप्रदर्शितेन षष्टिसंख्य केन (६०) भाजकराशिना विभज्यते भाज्यराशेर्भाजकराशिना भागो हियते, भागे हृते लब्धं यथोक्तं सूर्यस्य एक मुहूर्त्तगम्यक्षेत्रम् - एकपञ्चाशदधिकद्विशतोत्तरपञ्च सहस्रयोजन परिमितं जनस्यैकोनत्रिंशत्षष्टिभागाधिकम् १२४ ६० (५२५१ इति । अथ सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरन् उदयमानः सूर्य इहगतानां मनुष्याणां कियत्परिमिते क्षेत्रे व्यवस्थितो दृष्टिगोचरी भवतीति प्रदर्शयन्नाह - ' तया णं' इत्यादि । ' तया णं' तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डल संचरणसमये खलु 'इहगयस्स' इहगतस्य भरतक्षेत्रस्थितस्य 'मणूस ' मनुष्यस्य अत्र जातावेकवचनं तेन इहगतानां मनुष्याणामित्यर्थः 'सीयाली साए जोयणसहस्सेहिं' सप्तचत्वारिंशता योजनसहस्रैः सप्तचत्वारिंशत् सहस्रयोजनैः (४७०००) 'दोहि य तेहिं जोयणसएहिं' द्वाभ्यां च त्रिषष्टाभ्यां योजनशताभ्यां त्रिषष्ट्यधिकद्विशतयोजनः (२६३) ‘एकवीसाए य सद्विभागेहिं जोयणस्स' एकविंशत्या च षष्टिभागैर्योजनस्य (६) योजनस्यैकविंशतिषष्टिभागयुक्तैः त्रिषष्ट्यधिकशतद्वयोत्तरसप्तचत्वारिंशत्सहस्रयोजनैरित्यर्थः (४७२६३–२१) ‘स्वरिए’ सूर्यः 'चक्खुप्फार्स' चक्षुः स्पर्श 'इच्छं' इति शीघ्रम् ‘आगच्छड्’ आगच्छति प्राप्नोति दृष्टिगोचरीभवतीत्यर्थः । अस्योपपत्तिमाह - इह दिवसार्द्धेन यावत्परिमितं क्षेत्र व्याप्तं भवति तावत्परिमिते क्षेत्रे व्यवस्थितः सूर्य उपलभ्यते, यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वारं चरति तदाऽष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, अष्टादशानामर्द्धे कृते लभ्यन्ते नवमुहूर्त्ताः सर्वा - भ्यन्तरे मण्डले चारं चरन् सूर्य एकपञ्चाशदधिकद्विशतोत्तरपञ्चसहस्रयोजनानि योजनस्यैकोन 9 २९ त्रिंशत् षष्टि भागाश्च (५२५१६०) एकैकेन मुहूर्तेन गच्छतीति भगवता पूर्वे प्रतिपादितम् एषा संख्या दिवसस्यार्द्धरूपैर्नवभिर्मुहूर्त्तेर्गुण्यते ततः समायाति यथोक्तं सूर्यस्य दृष्टिगोचरबिषयकं परिमाणमिति । गणितप्रकारो यथा - एक पञ्चाशदधिकद्विशतोत्तर पञ्चसहस्रसंख्या - (५२५१) भर्गु जातानि एकोनषष्ट्यधिकशतद्वयोत्तर सप्तचत्वारिंशत् सहस्राणि - (४७२५९) ततश्च - एकोनत्रिंशत् षष्टिभागा नवभिर्गुण्यन्ते जातम् - एकषष्टयुत्तरं शतद्वयम् - (२६१) अस्य योजनानयनार्थं षष्ट्या भागो हियते लब्धाश्चत्वारः - ४, एते च पूर्वं संपादितायां संख्यायां (४७ ९ योज्यते, तदा जातं (४७२६३) शेषा एकविंशतिः (२१) षष्टिभागाः स्थिता इति समा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू०२ पूर्वोक्तविषये स्वसिद्धांत प्रतिपादनम् १२५ rary ० गतं यथोक्तं सूर्यस्य दृष्टि पथप्राप्तताविषयकं परिमाणम् (१७२६३ ११) इति । 'तया णं' तदा तस्मिन् सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलसंचरणसमये खल 'उत्तमकट्ठपत्त' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्तः उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालस मुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ती रात्रिर्भवतीति । ___अथ सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रमणवक्तव्यतामाह-'से निक्खममाणे' इत्यादि । 'से' सः सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारगतः 'निक्खममाणे' निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'सरिए सूर्यः 'णवं संवच्छरं' नवं संवत्सरं दिवसहानिरात्रिवृद्धिरूपम् 'अय माणे' अयन् प्राप्नुवन् ‘पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'अभितराणंतरं' अभ्यन्तरानन्तरं सर्वाभ्यन्तरमण्डलादग्रेतनं 'मंडलं' द्वितीय मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'अभितराणंतरं मंडलं' अभ्यन्तरादनन्तरं स्थितं मण्डलं द्वितोयमण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं'तदा खलु "पंच पंच जोयणसहस्साई' पञ्चपञ्चयोजनसहस्राणि 'दोणिय एकावण्णे जोयणसयाई' द्वे एकपञ्चाशते योजनशते 'सीयालीसं' च सहिभागे जोयणस्स' सप्तचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य एकपञ्चाशदधिकशतद्वयोत्तरपञ्चसहस्रयोजनानि योजनस्य सप्तचत्वारिंशत्यष्टिभागसहितानि (५२५१-3) एगमेगेणं मुहुत्तेण' एकैकेन मुहूर्तेन सूर्यः 'गच्छइ' गच्छति चलति कथमेतदवसीयते ! इत्याह-सर्वाभ्यन्तरमण्डलादनन्तरे द्वितीये मण्डले परिधिपरिमाणं सप्तोत्तरशताविकपञ्चदशसहस्रोत्तराणि त्रीणि लक्षाणि (३१५१०७) व्यवहारतः परिपूर्णानि, निश्चयेन तु किञ्चिन्यूनानि, ततश्च प्रागुक्तयुक्त्याऽस्य षष्टया भागो ह्रियते, ततो लभ्यते यथोक्तमस्मिन् द्वितीये मण्डले सूर्यस्य मुहूर्तगतिपरिमाणम् (५२५१७)। अथवा एवमपि ज्ञायते-पूर्वोक्त सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिधिपरिमाणात् (३१५०८९) अस्य द्वितीयमण्डलस्य परिधिपरिमाणे व्यवहारतः परिपूर्णाष्टादशयोजनानि वर्धन्ते, तदा जायन्ते (३१५१०७, निश्चयनयमतेन किश्चिन्यूनानि, ततश्च अष्टादशानां योजनानां षष्टयाभागे हृते लभ्यन्तेऽष्टादशषष्टिभागा योजनस्य, ततश्च षष्टिभागाः षष्टिभागेष्वेव प्रक्षिप्यन्ते इति नियमात् एतेऽष्टादशघष्टिभागाः प्राक्तनमण्डलगतमुहूर्त्तपरिमाणगतेषु (५२५१-१.) एकोनत्रिंशत्यष्टिभागेषु प्रक्षिप्यन्ते Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ चन्द्रश प्रति सूत्रे ततो भवति यथोक्तं अस्मिन् द्वितीयमण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्षष्टिभागसहितम् ४७ ६० (५२५१- -) ' तया णं' तदा द्वितीयमण्डलचारसमये खलु 'इहगयस्स मणूसस्स' इहगतस्य भ‍ तक्षेत्रस्थितस्य मनुष्यस्य जातावेकवचनत्वात् भरतक्षेत्रस्थितानां मनुष्याणामित्यर्थः, 'सीयालीसाए' जोयणसहस्से हिं' सप्तचत्वारिंशता योजन सहस्रैः 'अउणासीए य जोयण सरणं' एकोनाशीतेन योजनशतेन एकोनाशीत्यधिकेन योजनशतेन (१७९) सत्तावण्णाए सद्विभागेहिं जोयणस्स' सप्तपञ्चाशता षष्टिभार्गैर्योजनस्य, 'सद्विभागं च' षष्टिभागमेकं च 'एगट्टिदा छेत्ता' एकषष्टिधा छित्वा एकषष्टिछेदराशिं कृत्वा तेन छित्त्वेत्यर्थः तत्सम्बन्धिभिः 'अउणावीसाए चुण्णिया भागेहिं ' ५७ १९ एकोनविंशत्या चूर्णिकाभागैः- (४७१७९ 'रिए' सूर्यः 'चक्खुफासं' चक्षुः६० ६१ स्पर्शम् 'हवं' शीघ्रम् 'आगच्छइ' आगच्छति प्राप्नोति दृष्टिगोचरीभवतीत्यर्थः । कथमेतदवसीयते ? तदेवाह - 1 अस्मिन् द्वितीये मण्डले सूर्यस्य महूर्त्तगतिपरिमाणं पूर्वप्रदर्शितम् एकपञ्चाशदधिकशतद्वयोत्तरपञ्चसहस्रयोजनानि सप्तचत्वारिंशच्च षष्टिभागा योजनस्य (५२५१ ४७/६१ ) इति. अत्र द्वितीयमण्डले सूर्यस्य संचरणसमये दिवसोऽष्टादशमुहूर्त: द्वाभ्यां मुहत् कषष्टिभागाभ्यां चहीनो भवति निष्क्रमणकाले प्रतिमण्डलं दिवसरात्र्योः मुहूर्त्ते कषष्टिभागद्वयस्य क्रमेण हानिवृद्धि नियमसद्भावात्, दिवसस्य हानिः रात्रेश्च वृद्धिर्भवतीतिभावः । ततो दिवस प्रमाणस्यार्ध क्रिय तस्यार्धं नवमुहूर्त्ताः एकेन मुहूर्तैकषष्टिभागेन हीनाः, तत एषामेकषष्टिभागकरणार्थं नवमुहूर्त्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते जातानि एकोनपञ्चाशदधिकानि पञ्चशतानि ( ५४९ ) दिवसप्रमाणः एकेन एकषष्टिभागेन होनोऽतोऽस्मात् एकं रूपं निष्कास्यते ततो जातानि - अष्टचत्वारिंशदधिकानि पञ्चशतानि (५४८ ) । ततोऽस्य द्वितीयमण्डलस्य सप्तोत्तरशताधिक पञ्चदशसहस्रोतराणि त्रीणि लक्षाणि (३१५१०७) परिधिपरिमाणमिति । एषा संख्या अष्टचत्वारिंशदधिक पञ्च शतैः (५४८) गुण्यते, तेन जातः - एककः, सप्तकः, द्विकः, षट्कः, सप्तकः, अष्टकः, षट्कः, त्रिकः, षट्कः इति सप्तदश कोटयः, षड्विंशतिर्लक्षाः, अष्टसप्ततिः सहस्राणि षट् शतानि तदुपरि षट् त्रिंशच्च - (१७२६७८६३६) । तत्र एकषष्टिः षष्टया गुण्यते जातानि षष्ट्यधिकषट्शतोत्तराणि त्रीणि सहस्राणि (३६६० ) । अनया संख्यया पूर्वोक्तसंख्याया भागो हियते, हृते च भागे लब्धानि एकोनाशीत्यधिकशतोत्तराणि सप्त चत्वारिंशत्सहस्राणि योजनानाम् (४७१ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०२-३ सू०२ पूर्वोक्तविषये स्वसिद्धांतप्रतिपादनम् १२७ ७९), शेषे षण्णवत्यधिक चतुःशतोत्तराणि त्रीणि सहस्राणि (३४९६) अवतिष्ठन्ते । ततोऽस्माद् योजनानि न समायान्ति, अतः षष्टिभागानयनाथै सूत्रे 'सद्विभागं च एगद्विहा छेत्ता' इति कथितं, तद्वचनादत्र छेदराशिरेकषष्टिप्रिंयते, अनेन भागे हृते लभ्यन्ते सप्तपञ्चाशत् षष्टि भागाः (५७/६०) एकस्य च षष्टिभागस्य सम्बन्धिन एकोनविंशतिरेकषष्टिभागाः (१९।६१) इति । जातानि (४७१७९ ५७/६०-१९६१ चर्णिका भागः) इति । एवं संप्राप्त मूलसूत्रोक्तं सूर्यस्य चक्षुःपथप्राप्तताविषयक परिमाणमिति । 'तया णं' तदा पूर्वोक्तप्रमाणैर्योजनैः द्वितीयमण्डलगतस्य सूर्यस्य चक्षुःप्राप्तिसमये खलु 'अट्ठारसमुहुत्तो दिवसो भवई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेर्हि ऊणे' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यामूनः- हीनो भवति, 'दुवालसमुहत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति. सा च 'दोहि एगसद्विभागमुहुत्तेहिं अहिया' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यामधिका । अथ तृतीयमण्डलवक्तव्यतामाह-'से निक्खममाणे' इत्यादि । से 'सः निक्खममाणे निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'सरिए' सूर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' नवसंवत्सरस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'अभितरं' आब्भ्यन्तरसम्बन्धिनं 'तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपमंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया ण' यदा खलु 'मूरिए' सूर्यः 'अभितरं तच्चं मंडलं' अभ्यन्तरं तृतीय मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु पंच पंचजोयणसहस्साई' पञ्च पञ्च योजन सहस्राणि 'दोण्णि य बावण्णे जोयणसयाई द्वे च द्विपञ्चाशदधिके योजनशते 'पंच य सहि भागे जोयणस्स' पञ्च च षष्टिभागान् योजनस्य द्विपञ्चाशदधिकशतद्वयोत्तरेपञ्चसहस्रयोजनानि योजनस्य षष्टिभागपञ्चकसहितानि (५२५२ ५/६०) 'एगमेगेणं मुहुत्तेण' एकैकेन मुहूर्तेन प्रतिमुहूर्त्तमित्यर्थः 'गच्छइ' गच्छति चलति । कथमेतदित्याह-अस्मिन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्तृतीये मण्डले मण्डलपरिधिः पञ्चदशसहस्रोत्तराणि त्रीणि लक्षाणि, तदुपरि पञ्चविंशत्यधिकं शतमेकं च (३१५१२५) अस्याः संख्या. याः पूर्वोक्तयुक्त्या षष्ट्या भागे हृते लभ्यतेऽस्य तृतीयस्य मण्डलस्य मुहूर्तगतिपरिमाणम् (५२५२ ५/६०) इति । अथवा अस्मात्प्राक्तनमण्डलमुहत्तगतिपरिमाणादस्मिन् तृतीये मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणविचारे प्राक् प्रतिपादितरीत्या अष्टादश एकषष्टिभागा योजनस्य अधिका लभ्यन्ते ततस्ते पूर्वमण्डलमुहूर्तगतिपरिमाणे (५२५१ ४७/६०) अधिकत्वेन प्रक्षि Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे प्यन्ते ततो भवति यथोक्तमस्मिन् तृतीये मण्डले सूर्यस्य मुहूर्तगतिपरिमाणम्-(५२५२५/६०) इति । 'तया णं' तदा खलु ‘इहगयस्स मणूसस्स' इहगतस्य मनुष्यस्य जातावेकवचनत्वात् भरतक्षेत्रगतानां मनुष्याणामित्यर्थः 'सीयालीसाए जोयणसहस्सेहि' सप्तचत्वारिं शत्ता योजनसहनैः 'छण्णउइए य जोयणेहिं' षण्णवत्या च योजनैः 'तेत्तीसाए य सद्विभागेडिं जोयणस्स' त्रयस्त्रिंशता च षष्टिभागैर्योजनस्य ‘सद्विभागं च एगसद्विदा छेत्ता' एक षष्टिभागम् एकषष्टिधा छित्त्वा 'देहिं चुण्णियाभागेहिं' द्वाभ्यां चूर्णिकाभागाभ्यां (४७०९६ ३३/६० । २.६१ चू) 'मरिए' सूर्यः 'चक्खुप्फासं' चक्षुःस्पर्श 'हव्वमागच्छई' शीघ्रमागच्छति सूर्यः पूर्वप्रदर्शितयोजनादिना दुरतश्चक्षुर्गोचरी भवतीतिभावः। तदेव दर्शयति । ____ अस्मिन् तृतीये मण्डले यदा सूर्यश्चारं चरति तदा योजनस्य चतुर्मुहूर्तेकषष्टिभागहीनोऽष्टादशमुहूत्तों दिवसी भवति, अस्या द्विमुहकषष्टिभागहीना नवमुहूर्ता भवन्ति । नव मुहूर्तान् एकषष्टया गुणयित्वा द्वावेकषष्टिभागौ तेभ्योऽपनीयेते तदा जाताः सप्तचत्वारिंशदुत्तराणि पश्च शतानि एकषष्टिभागाः (५४७) तदनु अनेन राशिना तृतीयमण्डलपरिधिपरिमाणं गुण्यते, तच्च पञ्चविंशत्युत्तरैकशताधिक पञ्चदशसहस्रोत्तराणि त्रीणि लक्षाणि (३१५१२५) अस्याः संख्यायाः पूर्वसम्पादितैः सप्तचत्वारिंशदुत्तरपञ्चशतै (५४७) र्गुणने जाताः सप्तदशकोट्यः त्रयोविंशतिलक्षाणि त्रिसप्ततिः सहस्राणि पञ्चसप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि च (१७, २३७३, ३७५) । एषाम् एकषष्टयाः षष्टिसंख्यया गुणने यानि लब्धानि षष्टयधिकानि षट् त्रिंशच्छतानि (३६६०) तैर्भागो हियते तदा लब्धानि षण्णवत्यधिकानि सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि (४७०९६), शेषमुद्धरति पश्चदशधिके द्वेसहने (२०१५)। तत इयं संख्या भाजकान्न्यूनत्वाद् योजनानि न लभ्यन्तेऽतः षष्टिभागानयनार्थम् 'एगसट्ठिहा छेत्ता' इति मूलसूत्रवचनात् छेदराशिरेकषष्टियिते, तेन भागे हृते लब्धास्त्रयस्त्रिंशत् षष्टिभागा (३३।६०), एकस्य च षष्टिभागस्य सत्को द्वावेक षष्टिभागौ (२०६१), एष एव चूर्णिका भागः । एवं गणितरीत्या लब्धं मूलसूत्रोक्तम्-४७०९६. ३३।६०-२।६१चू०) सूर्यस्य भरतक्षेत्रस्थमनुष्याणां दृष्टिपथप्राप्तता विषयकं परिमाणमिति । _ 'तया णं' तदा तृतीय मण्डलगतस्य सूर्यस्य चक्षुःपथप्राप्तिकाले स्खलु 'अद्वारसमुहत्तो दिवसो भवइ' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति किन्तु सः 'चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणे' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तरूनः हीनो भवति तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिभवति, सा च 'चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहि' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'अहिया' अधिका भवति सूर्यस्य निष्क्रमणकाले दिवसस्य हान्याः रात्रेश्च वृद्धेनियमसद्भावात् । अथाग्रेतनानां चतुर्थादिमण्डलानां विषयेऽतिदेशमाह -'एवं' इत्यादि । 'एवं खलु' एवम्-अनेन रीत्या खलु 'एएणं उवाएणं' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन उपायेन विधिना सूर्यस्य प्रतिमुर्तगतिपरिमाणस्या Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रनप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०२-३ सू० २ पूर्वोक्तविषये स्वसिद्धांतप्रतिपादनम् १२१ ष्टादशाष्टादशषष्टिभागवृद्धिमाश्रित्यर्थः ‘णिक्खममाणे' निष्क्रामन् अभ्यन्तरान्मण्डलात् सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'सूरिए' सूर्यः 'तयाणंतराओ तयाणंतरं' तदनन्तरात् तदनन्तरं 'मंडलाओ मंडलं मण्डलान्मण्डलम् एकस्मान्मण्डलाद् द्वितीयं मण्डलं 'संकममाणे२' संक्रामन् संक्रामन् 'अट्ठारस २ सट्ठिभागे जोयणस्स' भष्टादशाष्टादशषष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपू र्णान् निश्चयतः किश्चिन्यूनान् ‘एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले 'मुहुत्तगई' इत्यत्र सप्त. म्यर्थे द्वितीया तेन मुहूर्तगतौ परिवुइटेमाणे' २' परिवर्धयन् परिवर्धयन् 'चुलसीई' चतुरशति 'सीयाई' इति शीतानि किञ्चिन्यून न योजनानि, किञ्चिन्न्यूनचतुरशीतियोजनानि 'पुरिस छायं' अत्रापि सप्तम्यर्थे द्वितीया तेन पुरुषच्छायायां, पुरुषछाया पुरुषस्य छाया यतो भवति, सा, प्रस्तावात् प्रथमत उदयमानस्य सूर्यस्य दृष्टिपथप्राप्तता गृह्यते तस्यामेकै कस्मिन् मण्डले किञ्चिदूनचतुरशीति योजनानि 'निव्वुड्ढेमाणे२' निर्वर्धयन् २ हापयन् २ हीनानि कुर्वन्नित्यर्थः सूर्यः 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलं त्र्यशीत्यधिकशततमं मण्डलम् उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । अत्रायं भावः पूर्व किञ्चिन्यूनानि चतुरशीतियोजनानि' इत्युक्तं तत्स्थूलदृष्टया प्रोक्तम् , परमार्थतस्तु तदेवम-त्र्यशीतिर्योजनानि, त्रयोविंशतिश षष्टिभागा योजनस्य, एकस्य षष्टिभागस्य एकषष्टिधा छिन्नस्य सत्का द्विचत्वारिंशद्भागाश्च (८३-२३।६०-४२।६१) एषा संख्या दृष्टिपथप्राप्तताविषये विषयहानी ध्रुवराशि र्जातः । ततो यस्य यस्य मण्डलस्य दृष्टिपथप्राप्ततां ज्ञातुमिच्छद्भिः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगततृतीयमण्डलादारभ्य अर्थात् तृतीयं मण्डलं प्रथमं परिकल्प्य ततोऽग्रे तत्तन्मण्डलसंख्यया षट्त्रिंशत्संख्या गुणनीया, तथा च-सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्ततीये मण्डले एकेन, चतुर्थे द्वाभ्यां पञ्चमे त्रिभिः-यावत् सर्व बाह्यमण्डले द्वयशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते । गुणनाद् यद् आगतं तद् ध्रुवराशिमध्ये प्रक्षेपणीयम् प्रक्षिप्ते सति यद् जायते तत् पूर्वमण्डलगतदृष्टिपथः प्राप्ततामध्यादपकृष्यते । अपकृष्टे या संख्या जाता तत्प्रमाणा तस्मिन् विवक्षिते मण्डले दृष्टिपथप्राप्ता ज्ञातव्या । अथ त्र्यशीतियोजनानीत्यादिरूपो ध्रुवराशिः कथमुत्पद्यते ! अत्रोच्यते अत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डले दृष्टिपथप्राप्तता परिमाणम् त्रिषष्टयधिकशतद्वयोत्तराणि सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि, तदुपरि योजनस्य एकविंशतिः षष्टिभागाश्च (४७२६३-२१।६०), एतच्च अष्टादशमुहूर्त्तदिवसाधैं नवमुहूर्नगम्यं परिमाणं वर्त्तते तत एकस्मिन् मुहूर्तेकषष्टिभागे पर्वोक्तदृष्टिपथप्राप्तताविषयकं परिमाणं कियदागच्छतीति विचारणायां मुहूर्तानामेकषष्टिभागकरणार्थं नवमुहूर्त्ता एकषष्टया गुण्यन्ते जातानि एकोनपञ्चाशदधिकानि पञ्चशतानि (५४९) मुहू क षष्टिभागाः । एतैर्भागो हियः लब्धाः षडशीतिर्योजनानि पञ्चषष्टिभागा योजनस्य, एकस्य च षष्टिभागस्य एकषष्टिधा छि नस्य सत्काश्चतुर्विशतिभागाः-( ८६-५।६०२४) ६१ १७ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे इति । गणितप्रकारश्चेत्थम्-सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि त्रिषष्टयुत्तरशतद्वयं च, एकविंशतिश्च षष्टिभागाः (४७२६३-२१।६०) एतस्याः संख्याया एकोनपञ्चाशदधिकपञ्चशत (५४९) संख्यया भागो हियते, तत्र-योजनानां (४७२६३) भागे हृते लब्धा षडशीतिः (८६), शेषमेकोनपञ्चाशत् (४९) उद्धरति, अस्याल्पत्वाद् योजनानि ना यान्ति तत् एतस्य षष्टिभागानयनार्थे षष्ट्या गुण्यते, जातानि चत्वारिंशदधिकानि एकोन त्रिंशच्छतानि (२९४०) अस्मिन् उपरिस्था एकविंशतिः षष्टिभागाः क्षिप्यन्ते जातानि-एकषष्ठ्यधिकानि एकोनत्रिंशच्छतानि (२९६१), अस्य एकोनपञ्चाशदधिकपञ्चशतेन (५४९) भागो हियते लब्धाः पञ्चषष्ठिभागाः (५।६०) शेष षोडशाधिकं शतद्वयमुद्धरति (२१६) पुनरप्यस्याल्पत्वात् षष्टिभागानायान्ति तत एक पष्टिभागानयनाथै शेषमेकषष्ट्या गुण्यते जातानि त्रयोदशसहस्राणि शतमेकं षट् सप्तत्यधिकं च (१३१७६), पुनश्चास्य एकोनपञ्चाशदधिकपञ्चशतैः (५४९) भागो हियते लब्धाश्चतुर्विशतिरेकषष्टिभागाः पूर्णाङ्काः, न किञ्चिदवशिष्यते-तच्च-(८६-५।६० । २४६१) इति । तथा चाङ्कतो गणितमिदम्५४९) ४७२६३ (८६ ४३९२ X३३४३ ३२९४ ४९ गुणनम् २९४० गुणनफलम् २१ षष्टिभाग प्रक्षेपणे २९६१ जाता अङ्क श्रेणिः ५४९) २९६१ (५ भागाः।-पष्टिभागाः ५ २७४५ २१६ शेषम्। २१६ गुणनम् १३१७६ गुणनफलम् Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू० २ ५४९)१२१७६ | २४ | तथा च ८६६०/६१ ×२१९६ पूर्वोकविषये स्वसिद्धांत प्रतिपादनम् १३१ २४ इति सम्पन्नम् । २१९६_पूर्णाङ्काः । ०००० पूर्वपूर्व मण्डलादनन्तरानन्तर प्रत्येकमण्डले परिधिपरिमाणविचारणायामष्टादशाष्टादशयोज - । एक नानि व्यवहारतः परिपूर्णानि वर्धन्तेऽतः पूर्वपूर्व मण्डलगत मुहूर्त्तगतिपरिमाणादनन्तरानन्तरे प्रतिमण्डलं मुहूर्त्तगतिपरिमाणविचारणायामष्टादशाष्टादश एकषष्टिभागा योजनस्य प्रतिमुहूर्त प्रवर्धमाना ज्ञातव्याः । प्रतिमुहूर्तैकषष्टिभागाश्चाष्टादश एकस्य षष्टिभास्य सत्का एकषष्टिभागाः । सर्वाभ्यन्तरमण्डलादनन्तरे मण्डले नवभिर्मुतः, एकेन मुहूर्त्तकषष्टिभागेन होने र्यावन्मात्रं क्षेत्रं व्याप्यते तावन्मात्रे क्षेत्रे स्थितः सूर्यो दृष्टिपथप्राप्तो भवति, ततोऽष्टादश मुहूर्त्त दिवस परिमाणस्यार्ध नव ततो मुहूर्त्तानामेकषष्टिभागानयनार्थं नवमुहूर्त्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि एकोनपञ्चाशदधिकानिपञ्चशतानि ( ५४९ ) । सूर्यस्य निष्क्रमणकाले प्रतिमण्डलं दिवसो मुहूर्त्तस्य द्वाभ्यामेकषष्टिभागाभ्यां हीनो भवतीति द्वयोरेकषष्टिभागयोरप्यर्थं क्रियते ततो जात एकएकषष्टिभागः, अयमेकोनपश्चाशदधिक पंञ्चशतेभ्योऽपनीयते जातानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि पश्चशतानि ( ५४८ ) । एतैरष्टादशानां गुणने जातानि चतुःषष्ट्यधिकानि अष्टनवतिशतानि ( ९८६४ ) एषामेक षष्टिभाग करणार्थमेकषष्ट्या भागो हियते लन्धा एकषष्ट्यधिकशतसंख्यकाः ( १६१ ) षष्टिभागाः तथा त्रिचत्वारिंशच्च एकषष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागाः (१६१ | २३)। षष्ट्यधिकशतसंख्यकानां षष्टिभागानां योजनानयनार्थे षष्ट्या भागो हियते लवे द्वे योजने, शेषा एकचत्वारिंशत् षष्टिभागाः स्थिताः, ततो जातं द्वे योजने एकचत्वारिंशच्च षष्टिभागा योजनस्य, एकस्य षष्टिभागस्य सत्काखििचव्चारिंशदेकषष्टिभागाः (२-६०|) इति । एषा संख्या, पूर्वोक्तात् - षडशीतियोजनानि पश्चषष्टिभागाः योजनस्य, एकषष्टिभागस्य च सत्काश्चतु५ २४ विंशतिरेक षष्टिभागाः ( ८६-- - ) इत्येतस्मादपकृष्यते । अपकृष्टे च तस्मिन् ६० । ६१ स्थिताः शेषाः त्र्यशीति योजनानि त्रयोविंशतिः षष्टिभागा, योजनस्य, एकस्य षष्ठिभागस्य सत्का २३ ४२ द्विचत्वारिंशदे कषष्टिभागा: ( ८३> एतावत् द्वितीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता ६१ विषये सर्वाभ्यन्तरमण्डल गतदृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् हानितया लभ्यते । अनेन किमित्याह - Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे सर्वाभ्यन्तरमण्डलगताद् दृष्टिपथप्राप्ततायां हानौ ध्रुवराशिरस्ति, अतएव भ्रुवराशिपरिमाणाद् द्वितीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता परिमाणमेताबता हीनं जायत इति । एतदेव अतोऽग्रेऽनन्तरानन्तरविषयदृष्टिपथप्राप्तताविचारणायां हानौ ध्रुवराशिरिति ध्रुवराशेरुत्पत्तिः । ततो द्वितीयमण्डलादनन्तरं तृतीये मण्डले एष एव ध्रुवराशिः एकस्य षष्टिभागस्य सत्कैः षट् त्रिंशता एकषष्टिभागैः सहितः सन् यावान् भवति तथाहि त्र्यशीतिर्योजनानि चतुर्विंशतिः २४/१७) षष्टिभागा योजनस्य, एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः सप्तदश एकषष्टिभागाः (८३- ६०/६१ १३२ इति । एतावान् द्वितीयमण्डलगताद् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् शोध्यते ततो भवति यथोक्तं तृतीयमण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषयकं परिमाणमिति । एवं चनुर्थे मण्डले एष एव ध्रुवराशिसप्तत्या सहितः कार्यः, यतोहि चतुर्थ मण्डलं तृतीयमण्डलमाश्रित्य गण्यते तदा द्वितोयं - भवति ततः षट्त्रिंशत् द्वाभ्यां गुण्यते तदा द्वासप्ततिर्भवतीत्यतो द्वासप्तत्या सहितः क्रियते तदा जायते - त्र्यशीतियजनानि चतुर्विंशतिः षष्टिभागा योजनस्य, एकस्य षष्टिभागस्य सत्कास्त्रिपश्चा२४ ५३ शद् एकषष्टिभागाः (८३- ) इति । एष राशितृतीयमण्डलगताद् दृष्टिपथ६० । ६१ प्राप्ततापरिमाणात् शोध्यते ततो भवति चतुर्थे मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषयकं परिमाणम्, तथाहि त्रयोदशाधिकानि सप्तचत्वारिंशत्सहस्रयोजनानि, अष्टौच षष्टि भागा योजनस्य, एकस्य '' च षष्टिभागस्य सत्का दश एकषष्टिभागाः, ते चाइतो यथा - (४७०१३ ६० ६०/६१ अनया युक्त्या पश्चममण्डलादारभ्य यावत् एकाशीत्यधिकशततममण्डलपर्यन्तं दृष्टिपथ प्राप्तताविप - यकं परिमाणं स्वयमूहनीयम् । अथ सर्वान्तिमसर्व बाह्यमण्डलव्यवस्था क्रियते, तथाहि - सर्व बाह्यमण्डलं च तृतीयमण्डलमवधीकृत्य द्वयशीत्यधिकशततमं (१८२) मण्डलं भवति, अतः पूर्वोक्तनियमेन षट्त्रिंशद् द्वयशीत्यधिकशतेन गुण्यते, जातानि द्विपश्चाशदधिकानि पञ्चषष्टिशतानि (६५५२) ततः अस्य राशेः षष्टिभागानयनार्थमेषष्ट्या भागो हियते तदा लब्धं सप्तोत्तरमेकं शतम् (१०७) शेषाः पश्चविंशतिरे कषष्टिभागास्तिष्ठन्ति (२५) एषा पञ्चविंशति ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यते, प्रक्षेपणे च जातम् - पश्चाशीतियों जनानि एकादश षष्टिभागा योजनस्य, एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षट् एकषष्टिभागाः (८५-६० द Sप्रेतने मण्डले दिवसो द्वाभ्यां द्वाभ्यां मुहूर्त्तेकषष्टिभागाभ्यां हीनो भवति, प्रतिमुहूर्ते कषष्टिभागच्चाष्टादश एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा हीयन्ते ततो द्वयोरष्टादशक रूपयो ६ । षट् त्रिशतश्चोत्पत्तिर्यथा - पूर्वस्मात् २ मण्डलादप्रेतने Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ३१० चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू०५ पूर्वोक्तविषये स्वसिद्धांतप्रतिपादनम् १३३ रेकषष्टिभागयोर्मीलने जाताः षट्त्रिंशत् । एते चाष्टादश एकषष्टिभागाः निश्चयनयेन कलया न्यूना भवन्ति न तु परिपूर्णाः, किन्तु व्यवहारनयमाश्रित्य पूर्व परिपूर्णतया बिवक्षिताः । तच्च कलया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवद् भवद् यदा द्वयशीत्यधिकशततमे मण्डले एकत्र पिण्डित क्रियते तदा एकषष्टिभागाः षष्टिसंख्यका हीना भवन्ति, एतदपि व्यवहारत एव ज्ञातव्यम् निश्चयतस्तु किश्चिद धिका अपि एकषष्टिभागा हीयन्ते, इत्यवसेयम् । तत एते अष्टषष्टिभागाः अपनीयन्ते, तदपनयने च पश्चाशीतियोजनानि नवषष्ठिभागा योजस्य । एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः (८५- ) इति जातम् ,, तत एतत् सर्वबाह्यमण्ड-लात् पूर्वस्थितात् एकाशीत्यधिकशततममण्डलगतात् -एकत्रिंशत्सहस्राणि षोडशोत्तराणि नवशतयोजनानि, एकोनचत्वारिंशत् षष्टिभागा योजनस्य, एकस्य च षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ) इत्येवं रूपात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् शोध्यते ततो जायते यथोक्तं सर्वबाह्ये मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणम् तच्च सूत्रकारः स्वयमेवाग्रे कथयिष्यति । तत एवं पुरुषच्छायायां दृष्टिपथप्राप्तनारूपायां द्वितीयादिषु केषुचिन्मण्डलेषु चतुरशीनि २ किश्चिन्यूनानि योजनानि उपरितनेषु तु मण्डलेषु अधिकानि अधिकतराणि योजनानि हापयन्-हापयन् तावदवसेयं यावत् सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । अथाग्रे मूलं व्याख्यायते-'ता जयाणं' इत्यादि। _ 'ता' तावत् ' जया णं' यदा खलु — सूरिए' सूर्यः ‘सवबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा स्खलु 'पंच जोयणसहस्साई' पंचयोजनसहस्राणि 'तिन्नि य पंचुतराई जोयणसयाई त्रीणि च पश्चोत्तराणि योजनशतानि ‘पण्णरस य सट्ठिभागे जोयणस्स' पञ्चदश च षष्टिभागान् योजनस्य (५३०५१५.) 'एगमेगेणं मुहुत्तेण' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छइ' गच्छति चलति । तत्कथमित्याह-अस्मिन् सर्वबाह्ये मण्डले परिधिपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादशसहस्राणि, पञ्चदशोत्तराणि त्रीणि शतानि च (३१८३१५) ततोऽस्य पूर्वोक्तयुक्त्या षष्टया भागो हियते, ततो लभ्यते यथोक्तं पञ्चाधिकशतत्रयोत्तराणि पञ्चसहस्राणि पञ्चदश चैकषष्टिभागा योजनस्य (५३०५-१) मुहूर्तगतिपारमाणमिति । 'तथा णं' तदा खल 'इह गयस्स मणूसस्स' इह गतस्य मनुष्यस्य जातावेकवचनत्त्वात्-भरतक्षेत्रगतानां मनुष्याणामित्यर्थः 'एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहि' एकत्रिंशता योजनसहजैः 'अहिं एक्कतीसेहिं जोयणसएहि' Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे अष्टभिरेकत्रिंशैरेकत्रिंशतासहितैः योजनशतैः 'तीसाए सद्विभागेहिं जोयणस्स' त्रिंशता च षटिभागैर्योजनस्य (३१८३१३०) 'सूरिए' सूर्य : 'चक्खुप्फासं' चक्षुः स्परी चक्षुर्विषयगोचरं १३४ 'हं' शीघ्रम् 'आगच्छर' आगच्छति प्राप्नोति । अस्मिन् सर्वबाह्यमण्डले सूर्यस्य संचरणसमये दिवसो द्वादशमुहूर्त्त प्रमाणो भवति । दिवसस्य चार्थेन यावः परिमितं क्षेत्रं व्याप्तं भवति तावत्परिमिते क्षेत्रे व्यवस्थित उदयमानः सूर्य उपलभ्यते । द्वादशानां मुहूर्त्तानामधे षड्मुहूर्त्ता भवन्ति ततो यदस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणं पञ्चोत्तरशतत्र्याधिकानि पञ्चसहस्रयो - जनानि पञ्चदश च षष्टिभागा योजनस्य (५३०५ १५ एतत् षड्भिर्गुणने समायाति यथोक्तं दृष्ट ६० पथप्राप्तता परिमाणमिति । 'तया णं' तदा खलु 'उत्तम कट्टपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता परमप्रकर्षसंपन्ना 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्ठा समुहुत्ता राई भवर' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रि र्भवति, तथा 'जहणए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भव३' द्वादशमुहूर्त्तो दिवसो भवति । 'एस णं' एतत् खलु 'पढमे छम्मासे' प्रथमं षण्मासम् । 'एस णं' एतत् खलु 'पढमस्स छम्मासस्स' प्रथमस्य षण्मासस्य 'प्रज्जवसाणे' पर्यवसानम् - अन्तिममहोरात्र मिति ॥ सू० २ || प्रोक्तमिदं सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रमणविषयकं प्रथमं षण्मासम्, अथ सर्वाभ्यन्तरमण्डले सूर्यस्य प्रवेशविषयकं द्वितीयं षण्मासं प्रोच्यते - 'से पविसमाणे सूरिए' इत्यादि मूलम् - से पविसमाणे सरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए बाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं पंच २ जोयणसहस्पाई तिण्णि य चउरुत्तराई जोयणसयाई सत्तावण्णं च सहिभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया णं इह गयस्स मणूसस्स एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहिं नवहिं य सोलसुत्तरेहिं जोयणसएहिं एगूण चालीसा सहभागेहिं जोयणस्स, सद्विभागं च एगसहिहा छेत्ता सहीए चुणियाभागेहिं सरिए चक्खुफासं हच्वमागच्छइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसद्विआगमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसट्टिभागमुहुत्तेर्हि अहिए । से पविसमाणे सूरिए दोच्चसि अहोरतसि बाहिरं तच्च मंडल उसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्च मंडल उवसंकमिता चारं चरइ तथा णं पंच जोयण सहस्साई तिन्निय चउत्तराई जोयणसयाई एगुणवत्तालीसं च सद्विभागे जोयणस्स Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ ०३ सर्वाभ्यन्तरे मण्डले सूर्यस्य प्रवेशः १३५ एममेगे। मुहत्तणं गच्छइ तया णं इहायस्स मणूसस्स एगाहिएहि बत्तीसाए जोयणसहस्से हिं एगणगाए य सद्रिभागेहि जोयणस्य, सट्ठिभागं च एगढिहा छेत्ता तेवीसाए चुण्णियामागेहिं मूरिए चक्खुप्फासं यमागच्छइ तया गं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउति एगसहिभागमुहुत्तेहि ऊणा. दुवा समुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहि अहिए एवं खलु एण उवाएणं पसमाणे सूरिए तयाणंतराभो तयाणंतरं मंडलामो मंडलं संक्रममाणे संकममाणे अट्ठारस २ सद्विभागे जायणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्ता णिचुड्ढेमाणे २ साइरेगाई पंचासीई २ जोयणाइं पुरिसच्छायं अभिवुड्ढेमाणे : गव्वमंतर मंडलं उवसंकरिता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवर्शकसित्ता चारं चर तया णं पंच जोयणसहस्माइं दोण्णि य एक्कावण्णे जोयणसयाइं गूणतीसं च सहिभागे जो णस्स एगमेगेणं मुदुत्तेण गच्छइ तथा णं इहगयस्स र शसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवढेहिं जोयणसएहिं एक्कवसाए य सट्ठिभागेहि जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हव्यमागच्छइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोर ए अद्वारस मुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच् उम्मासे । एस पं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । एस णं आइच्चे संवच्छरे । एस णं गइच्चसंवच्चरस्म पज्जवसाणे ॥सू० ३॥ !! वितियस्स पाहुडस्स तइयं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ २ ॥ ३ ॥ ॥ बितिय पाहुडं समत्तं ॥२॥ छाया स प्रविशन् सूर्यः द्वितीयं षण्मासम् अयन् प्रथमे अहोरात्रे बाह्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्यानन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति दा खलु गञ्चयोजनसहस्राणि श्रीणि च चतुरुत्तणि योजनशतानि, सप्तपञ्चाशतं च रष्टिभागान योजनस्य एकैकेर मुहूर्तन गच्छति तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य एकत्रिंशता योजनसहनैः नवभिश्च पोडशोत्तरै योजनशतैः एकोनचत्वारिंशता षष्टि भागैजिनस्य, पष्टिभागं च एकषष्टिधा छित्त्वा षट्या चूणिकाभागैः सूर्यः चक्षुः स्पर्श हव्यमाग छति, तदा खलु अष्टादशहूर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहर्ताभ्याम् ऊना द्वादशमुर्ती दिवसो भवति द्वाभ्यामेक.ष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् अधिकः । स प्रविशन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे बाह्य तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्य तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति ता खलु पञ्च योजनसहस्राणि श्रीणि च चतुरुत्तराणि योजनशतानि एकोनचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन मुहत्तेन गच्छति, तदा खलु इह गतस्य मनुष्यम्प एकाधिकैः द्वात्रिंशता योजनसदौः एकोनपञ्चा. शता च प्टिभगै र्योजनस्य षष्टिभागं च एकषष्टिधा छित्त्वा त्रयोविंशत्या चूर्णिकाभागैः सूर्यः चक्षुःस्पर्श हव्यमागच्छति तदा खलु अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति चतुभिरेकषष्टिभागमु Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्र हूतैः ऊना, द्वादशमुहूतौ दिवसो भवति चतुभिरेकष्टिभागमुहूतरधिकः । एवं खलु पतेन उपायेन प्रविशन् सूर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरं मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् २ अष्टादश अष्टादशषष्टिभागान् योजनस्य पककस्मिन् मण्डले मुहूर्तगति निर्वर्धयन् २ सातिरेकाणि पञ्चाशीति २ योजनानि पुरुषच्छायाम् अभिवर्धयन् २ सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु पञ्चयोजनसम्राणि द्वे च एकपञ्चाशते योजनशते एकोनत्रिशतं च षष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशता योजनसहनैः द्वाभ्यां च त्रिषष्टाभ्यां योजनशताभ्यां एकविंशत्या च षष्टिभागैर्योजनस्य सूर्यः चक्षुःस्पर्श हव्यमागच्छति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्वा रात्रिर्भवति । एतत् खलु द्वितीयं षण्मासम् । एतत् स्खल द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् । एष खलु आदित्यः संवत्सरः । पतत् खलु आदित्यसंवत्सरस्य पर्यवसानम् । सू० ३। द्वितीयप्राभृतस्य तृतीयं प्रामृतप्राभृतं समाप्तम् ।२-३। द्वितोयं प्राभृतं समाप्तम् ॥२॥ व्याख्या- 'से' सः 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वबाह्यमण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'दोच्चं छम्मासं' द्वितीय दिवसवृद्धिरूपं षण्मासम् 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवत् ,पंढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'बाहिराणंतरं मंडलं' बाह्यानन्तरं सर्व बाह्यमण्डलादनन्तरं सर्वाभ्यन्तरगमनमार्गस्थितं मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'बाहिराणंतरं मंललं' बाह्यानन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा स्खलु 'पंचजोयणसहस्साई' पश्चयोजनसहस्राणि पश्चसहस्रयोजनानि 'तिण्णि य च उत्तराई जोयणसयाई त्रीणि च चतुरुत्तराणि योजनशतानि सत्ता पण्णं च सट्रि भाष जो यणस्य सप्तपञ्चाशतं च षष्टिभागान् योजनस्य (५३०४५७) एगमेगेणं मुहुत्तणं गच्छई' एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति । तथाहि-अत्रमण्डले परि धिपरिमाणं--सप्तनवत्यधिक द्विशतोत्तराष्टादशसहस्राधिक त्रिलक्ष योजनानि (३१८२१७) । ततो ऽस्याः संख्यायाः प्रागुक्तयुक्त्या षष्टया भागो ह्रियते तदा लब्धं यथोक्तं मुहूर्तगतिपरिमाणम् (५३०४-७) अथ दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाह- तयाणं' इत्यादि । 'तया णं' तदा खलु 'इहगयस्स मणूसस्स' इहापि पूर्ववज्जातावेकवचनं तत इहगताना भरतक्षेत्रस्थितानां मनुष्याणाम् 'एक्कतीसाए जोयण सहस्सेहि' एकत्रिंशता योजनसहत्रैः 'नवहि य सोलमुत्तरेहिं जोयणसएहि' नवभिश्च षोडशोत्तरैर्योजनशतैः, 'एगणचत्तालीसाए सद्विभागेहिं जोयणस्स' एकोन चत्वारिंशताषष्टिभागैयोजनस्य 'सट्ठिभागं च एगद्विहा छेत्ता' षष्टिभागं च एकषष्टिधा छित्त्वा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२ सू० ३ सर्वाभ्यन्तरे मण्डले सूर्यस्य प्रवेशः १३७ तत्सत्तैः ‘सट्टीए चुण्णियाभागेहि' षष्ट्या चूर्णिकाभागैः (३१९१६ २०६९) 'सरिए सूर्यः 'चक्खुप्फासं' चक्षुः स्पर्श 'हव्वमागच्छ' हव्यमागच्छति-चक्षुर्गोचरी भवतीत्यर्थः । कथमिति दर्श्यते-सूर्यस्यास्मिन् मण्डले प्रथमेऽहोरात्रे संचरणसमये द्वाभ्यां मुहूत्तैकष्टिभागाभ्यामधिको द्वादश मुहूत्र्तो दिवसो भवति, ततो द्वादशानां दिवसमुहूर्तानाम) क्रियये तदा जाताः षड् मुहूर्ताः द्वयोर्मुहूर्तकभागयोरर्धको मुहूर्त कषष्टिभागश्च ततः षड् मुहूर्ताः एकश्च मुहूर्त कषष्ठिभागः (६) इति जातम् । तत एषां सर्वेषामेकषष्टिभागानयनार्थमेतान् षडपि मुहूर्तान् एकषष्ट्या गुणयित्वा एकएकषष्टिभागस्तत्राधिकत्वेन प्रक्षिप्यते ततो जातानि सप्तषष्टयुत्तराणि त्रीणि शतानि (३६७) । ततः सर्वबाह्यमण्डलादग्रेतने द्वितीये मण्डले यत्परिधिपरिमाणम्-सप्तनवत्यधिकद्विशतोत्तराष्टादशसहस्राधिकत्रिलक्षयोजनसंख्यकम्-(३१८२९७) तत् एभिर्दिवसमु इ‘िनामेकषष्टिभागैः सप्तषष्टयुत्तरत्रिशत (३६७) संख्यकैर्गुण्यते जाता एकादश कोटयः, अष्टषष्टिलक्षाः, चतुर्दशसहस्राणि, नवनवत्यधिकानि नवशतानि च (११, ६८, १४, ९९९) अस्याः संख्याया एकषष्टिगुणितया षष्टया षष्टयधिक षट् त्रिशच्छतरूपया (३६६०) भागो हियते । हृते च भागे लब्धानि षोडशोत्तरनवशताधिकानि एकत्रिंशत् सहस्राणि (३१९१६)। उद्धरन्ति, शेषाणि एकोनचत्वारिंशदधिकानि चतुर्विशतिशतानि (२४३९) । एभिर्योजनानि नायान्ति ततोऽस्य षष्टिभागकरणार्थमेकषष्टया भागो हियते, लब्धा एकोनचत्वारिंशत् षष्टिभागाः, शेषा स्थिताः षष्टिः ते च एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः, तथा चाङ्कतः-(३१९१६-१७) इत्यायातं--यथोक्तं चक्षुःपथप्राप्तताविषयं परिमाणम् 'तया णं' तदा खल सूर्यस्य सर्वबाह्यानन्तराक्तिनद्वितीयमण्डलचारकाले खलु 'अट्ठारसमुहुत्ता' अष्टादशमुहूर्त्ता 'राई भवइ' रात्रिर्भवति, सा 'दोहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं' दूभ्यामेकषष्टिभागमुमुहूर्त्ताभ्याम् 'ऊणा' ऊना हीना भवति, । 'दुवालसमुहुत्तो दिवसो भवई' द्वादशमुहतों दिवसो भवति, स च 'दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं द्वाभ्यामेकष्टिभागमुहर्ताभ्याम् 'अहिए' अधिको भवति । तथा 'से' सः 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् सर्वबाह्यान न्तराक्तिन द्वितीयस्मात् मण्डलादने गच्छन्नित्यर्थः 'सूरिए' सूर्यः 'दोच्चंसि अहोरतसि' द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरं' बाह्यं बाह्यमार्गप्राप्तत्वाद् बाह्यं तच्चं मंडलं' तृतीयं सर्वबाह्यमण्डलमाश्रित्य तृतीयस्थानगतं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उ५ 'कम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः 'बाहिरं तच्चं मंडलं' बाह्यं तृतीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता ६०६१ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ चन्द्रशतिसूत्रे चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'पंचजोयणसहस्साईं ' पञ्चयोज - नहसहस्राणि पञ्चसहस्रयोजनानि 'तिन्नि य चउत्तराई जोयणसयाई' त्रीणि च चतुरुत्तराणि योजनशतानि ‘एगूणचत्तालीसं च सट्टिभागे जोयणस्स' एकोनचत्वारिंशतं च षष्टि भागान् योजनस्य (५३०४ 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्त्तेन 'गच्छइ' गच्छति । अत्र मण्डले परिधिपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादशसहस्राणि एकोनाशीत्यधिकशतद्वयोत्तराणि (३१८२७९) अस्य षष्ट्या भागे हृते लभ्यते यथोक्तं मुहूर्त्तगतिपरिमाणम् (५३०४हे.) इति । ‘तया णं' तदा खलु ‘इह गयस्स मणूसस्स' इह गतस्य मनुष्यस्य भरतक्षेत्रस्थित ६० ३९ ७६ मनुष्यानामित्यर्थः 'एगाहिएहिं बत्तीसाए जोयणसहस्से हिं' एकाधिकैः द्वात्रिंशता योजनसहस्रैः 'गुणपण्णा य सहिभागेहिं जोयणस्स' एकोनपञ्चाशता च षष्टिभागैर्योजनस्य, 'सट्टिभागं च एगसट्ठिहा छेत्ता' षष्टिभागं च एकपष्टिधा छित्त्वा षष्टिभागस्यैकषष्टिधा छेदनप्राप्तैः ' तेवीसाए चुण्णियाभागेहिं' त्रयोविंशत्या चूर्णिकाभागैः (३२०१'चक्खुफासं' चक्षुः स्पर्श 'हव्वमागच्छइ' हव्यमागञ्छति । तथाहि १९६०२२) 'रिप' सूर्यः सूर्यस्य प्रवेशसमयेऽत्र तृतीयमण्डले दिवसः मुहूत्तै कषष्टिभागचतुष्टयाधिको द्वादशमुहू२ प्रमाणो दिवसो भवति, तस्यार्धं षड्मुहूर्त्ताः द्वाभ्यां मुहर्ते कषष्टिभागाभ्यामधिकः (मु. ६--- ६२ तत एकषष्टिभागकरणार्थं षडपि मुहूर्त्ता एकषष्टया गुण्यन्ते जाता षट् षष्ट्यधिकानि त्रीणि शतानि (३६६) अत्र द्वावेकषष्टिभागौ प्रक्षिप्येते ततो जातमष्टषष्ट्यधिकं शतत्रयम् (३६८ ) गुणकसंख्या विज्ञेया । ततोऽस्मिन् तृतीयमण्डले परिधिपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादशसहस्राणि एकोनाशीत्यधिके द्वे शते च (३१८२७९) एते गुण्याका ज्ञातव्याः । पूर्वसम्पादितगुणकसंख्या (३६८) गुण्याङ्काः (३१८२७९) गुण्यन्ते जातानि एकादश कोटयः, एकसप्ततिर्लक्षाणि, षड्विंशतिः सहस्राणि द्विसप्तत्यधिकानि षट् शतानि च - (१९१-७१-२६-६७२) । ततश्च षष्टिरेकषष्टया गुण्यते तदा षष्टयधिकषट् त्रिशत् शतानि (३६६०) जायन्ते, अनेन भागो - ह्रियते, हृते च भागे लब्धानि द्वात्रिंशत्सहस्राणि तदुपर्येकं च ( ३२००१) शेषतया द्वादशोत्तराणि त्रीणि सहस्राणि (३०१२ ) समुद्धरन्ति । एतेषां षष्टिभागकरणार्थमेकषष्ट्या भागो हियते ४९ लब्धा एकोनपञ्चाशत् षष्टि भागाः त्रयोविंशतिश्च एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एक Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्ति प्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू०३ सर्वाभ्यन्तरे मण्डले सूर्यस्य प्रवेशः १३९ घष्टिभागाः २३) सर्वसंख्या - ( ३२००१ - ४९ २३) ६१ ६० ६१ इति । 'तया णं' तदा पूर्वोक्ते सूर्यस्य चक्षुःस्पर्शसमये खलु 'अद्वारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति किन्तु सा 'नउर्हि एगसद्विभागमुहुत्तेर्हि ऊणा' चतुर्भिरे कषष्टि भागमुह्त्तैः ऊना हीना भवति 'दुवालसमुहुत्तो' दिवसो भवः' द्वादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति सच 'चउहिं एगसट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिए' चतुर्भिरे कषष्टिभागमुहूर्तेरधिको भवति । अथा चतुरादि मण्डलेषु चातिदेशमाह - ' एवं खलु' इत्यादि ? ' एवं ' एवम् - अनेन प्रकारेण खलु निश्चितम् 'एएण' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन 'उवारण' उपायेन विधिना 'प्रविसमाणे' प्रविशन् तत्तदभ्यन्तर चतुरादि मण्डलाभिमुखं गच्छन् 'सूरिए' सूर्य : ' तयाणंतराओ तयाणंतरं तदनन्तरात् तदनन्तरं 'मंडलाओ मंडलं' मण्डलान्मण्डलम् एकस्मात् मण्डलाद् द्वितीयं मण्डलं 'संकममाणे २' - संक्रामन् २ अग्रेऽग्रे गतिं कुर्वन् 'अट्ठारसअट्ठारस' सद्विभागे जोयणस्स' प्रतिमण्डलमष्टादशाष्टदशषष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान्, निश्चयतः किञ्चिन्न्यूनान् ‘एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले प्रत्येकमण्डले 'मुहुत्तगई' मुहूर्त्तगतिम् अत्र सप्तम्यर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात् तेन मुहूर्त्तगतौ - मुहूर्त्तगतिपरिमाणे 'णिव्वुड्ढेमाणे २ निर्वर्धयन् २ हापयन् २ परिरयमधिकृत्य हा निसद्भावात् 'साइरेगाई' सातिरेकाणि किश्चिदधिका 'पंचासीइं जोयणाई' पञ्चाशीतिं योजनानि ' पुरिसच्छायं' पुरुषच्छायाम् अत्रापि सप्तम्यर्थे द्वितीया भावाद् पुरुषच्छायायां दृष्टिपथप्राप्तारूपायाम् 'अभिबुड्ढमाणे २' अभिवर्धयन् २ 'सव्वब्भंतरं मंडल' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । अत्र तृतीयमण्डलादारभ्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलं द्वयशीत्यधिकशततमं भवति ततश्चतुर्थमण्डलादारभ्य एकाशीत्यधिकशततममण्डलपर्यन्तं हापनाभिवर्धनप्रकारः पूर्वोक्तयुक्त्या स्वयमूहनीयः । विस्तरतो व्याख्या च सूर्यप्रज्ञप्तिसुत्रस्य मत्कृतायां सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिकायां व्याख्यायां विलोकनीया । अथ सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्य पणितप्रकारः प्रदर्श्यते, तथाहि - यदा तु सर्वाभ्यन्तर मण्डले सूर्यश्चारं चरति तदा यदि दृष्टिपथप्राप्तताविषयकं परिणामं ज्ञातुमिष्यते तदा षट्त्रिंशत् ( ३६ ) द्वयशीत्यधिकशतेन (१८२) गुण्यते तृतीयमण्डमधिकृत्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्य द्वयशीत्यधिकशततमसंख्यकत्वात् । ततो गुणने जातानि द्विपञ्चाशदधिकानि पञ्चषष्टिशतानि (६५५२) एषामेकषष्ट्या भागो ह्रियते लब्धं सप्तोत्तरमेकं शतं (१०७ ष्टिभागानाम् Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चद्रप्रज्ञप्तिसूत्रे शेष पञ्चविंशतिरेकषष्टिभागाः (२५)एतञ्च पञ्चाशीतियोंजनानि नवषष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः (८५-६७) इत्येवं रूपात् ध्रुवराशेरपकृष्यते जातानि पश्चात् त्र्यशीतियोजनानि, द्वाविंशतिः षष्टिः भागा योजनस्य, एकस्य षष्टि भागस्य सत्काः पञ्चत्रिंदेकषष्टिभागाः (८३- २५ । अत्र यत् षट्त्रिंशत् २ एकषष्टिभागाः प्रोक्तास्ते परमार्थतः कलया न्यूना लभ्यन्ते इति प्रागेवोक्तम्, तच्च कलान्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् २ यदा द्वयशीत्यधिकशततमे मण्डले एकत्र पिण्डितं क्रियते तदा अष्टषष्टिरेकषष्टि भागा लभ्यन्ते । तत एतेऽपि भूयः प्रक्षिप्यते ततो जायते-त्र्यशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिः षष्टिभाग योजनस्य, एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः(८३५/-) इति । एतेषु सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं संयोज्यते, तच्चसप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि एकोनाशीत्यधिकमेकं शतं च योजननाम् सप्तपञ्चाशत् षष्टिः भागा योजनस्य, एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकोनविंशतिरेकषष्टिभागाः (४७१७९ - इत्येवंरूपमस्ति । एतस्य संयोजने भवति यथोक्तं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता परिमाणम्-सप्तचत्वारिंशत् सहस्राणि त्रिषष्टयधिकं शतद्वयं योजनानाम्, एकविंशतिश्च षष्टि भागा योजनस्य (४७२६३ -)इति । एतच्चाने सूत्रकारः स्वयं प्रदर्शयिष्यतीति । एवं दृष्टिपथप्राप्ततायां कतिपयेषु मण्डलेषु पञ्चाशीति योजनानि सातिरेकाणि, अतनेषु चतुरशीति योजनानि, पर्यन्ते यथोक्ताधिकसहितानि त्र्यशीतिं योजनानि अभिवर्धयन् २ तावद् वक्तव्यं यावत् सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । तदेव सूत्रे दर्शयति 'त' जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया गं' यदा खलु 'रिए' सूर्यः 'सव्वभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता 'चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'पंचयोजणसह स्साई' पञ्चयोजनसहस्राणि 'दोण्णि य एकावण्णे जोयणसयाई द्वे एकपञ्चशते योजनशते एकपञ्चाशदधिके द्वे शते योजननाम् ‘एगणतीसं च सद्विभागे जोयणस्स' एकोनत्रिंशतं चष ष्टिभागान् योजनस्य (५२५१-२९, एगमेगेणे' मुहुत्तेणं एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छइ' Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० २-३ म०३ सर्वाभ्यन्तरे मण्डले सूर्यस्य प्रवेशः १४१ गच्छति चलति, 'तया णं तदा खलू 'इहगयस्स मणूसस्स' इहगतस्य मनुष्यस्य जातावेकवचनात् भरतक्षेत्रस्थितानां मनुष्याणां 'सीयालीसाए जोयणसहस्सेहि' सप्त चत्वारिंशता योजनसहनैः 'दोहि य तेवढेहिं जोयणसएहि' द्वाभ्यां च त्रिषष्टाभ्यां त्रिषष्टयधिकाभ्यां योजन शताभ्यां त्रिषष्टयधिक द्विशतयोजनैः 'एक्कवोसाए सठिभागेहिं जोयणस्स' एकविंशत्या षष्टि भागैर्योजनस्य (४७२६३ २५) 'रिए' सूर्यः 'चक्खुप्फास' चक्षुःस्पर्श दृष्टिगोचरतां 'इव्वमागच्छइ' हव्यमागच्छति शीघ्र प्राप्नोति, 'तया गं' तदा खलु उत्तमकट्ठपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षता सम्पन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्टरसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिभवति । एतच्च मुहूर्तगतिपरिमाणं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं च यत् पूर्वमेव प्रदर्शितं तत्तु सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रमणप्रारम्भविषयकं प्रदर्शितम् अत्र तु सूर्यस्य सर्वबाह्यमण्डलात्सर्वाभ्यन्तरमण्डलप्राप्तिविषय कमिति नात्र पुनरुक्तेः शंकाऽपीति । अथोपसंहार माह 'एस गं दोच्चे छम्मासे एतत् खलु द्वितीयं षण्मासम् 'एस णं एतत् खलु दोच्चस्स छम्मासस्स' द्वितीयस्य षण्मासस्य 'पज्जबसाणे' पर्यवसानम्-अन्तिममहोरात्रम् 'एस गं' एष खलु 'आइच्चे संवच्छरे' आदित्यः संवत्सरः सम्पूर्णो जातः । ‘एस गं' एतत् खलु 'आइच्च संवच्छरस्स' आदित्यसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-समाप्तिदिवसोऽस्ति ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुछत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारी-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालवति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां द्वितीयप्राभृतस्य तृतीयं प्रामृतप्राभृतं समाप्तम् ॥२-३॥ द्वितीयं मूलप्राभृतं समाप्तत् ॥२॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीयं प्राभृतं प्रारभ्यते गतं द्वितोयं मूलप्राभृतम्, तत्र सूर्यः तिर्यक् कथं गच्छतीत्युक्तम् । संप्रति तृतीयमारभ्यते, अत्र 'चन्द्रौ सूर्यो च कियत्क्षेत्र प्रकाशयन्ति ?' इत्येतद्विषयं प्रदर्शयन्नाह-'ता केवइयं' इत्यादि मूलम् --ता केवइयं खेत्तं चंदमसरिया ओभासेंति उज्जोवेंति त ति पगासें ति आहितेति वएज्ज तत्थ खलु इमाओ बारसपडिवत्तीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-तत्थेगे एवमाहंसु-ता एगं दीवं एगं समुदं चंदिमसूरिया ओभासे ति उज्जोवेंति तवेंति पगासेंति एगे एवमाहंसु ॥१॥ एगे पुण एबमाइंसु-ता तिणि दीवे तिण्णि समुद्दे चंदि मसूरिया ओभासेंति ४ एगे एवमाहंसु ।२। एगे पुण एवमाहंसु-ता अद्धचउत्थे दीवे. अद्धचउत्थे समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासेंति ४, एगे एवमाहंसु ।३। एगे पुण एवमाहंसु ता सत्तदीवे सत्त समुद्दे चंदिममूरिया ओभाति ४, एगे एवमाहंसु ।४। एगे पुण एवमाहंसु-ता दसदीवे दससमुद्दे चंदिमसूरिया ओभासेंति ४, एगे एवमाहंसु ।५। एगे पुण एवमाहंसु ता वारस दीवे वारससमुद्दे चंदिमसूरिया ओभासेंति ४, एगे एव माहंसु ।६। एगे पुण एवमाहंसु-ता वायालीसं दीवे वायालीसं समुद्दे चंदिमसरिया ओभासेंति ४, एगे एवमाहंसु ७। एगे पुण एवमाहंसु-ता बावत्तरि दीवे बावत्तरि समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासेंति ४, एगे एवमाहंसु ।८। एगे पुण एवमाहंसु-ता बायालीसं दीवसयं बायालीसं समुदसयं चंदिमसूरिया ओभासेंति ४, एगे एवमाहंसु ।९। एगे पुण एवमाहंसु-ता बावत्तरि दीवसयं वावत्तरि समुदसयं चंदिमसूरिया ओभासेंति ४, एगे एवमाहंसु ।१०। एगे पुण एवमाहंसु-ता वायालीस दीवसहस्सं बायालीसं समुद्दसहस्सं चंदमसरिया ओभासें ति ४, एगे एवमाहंसु ।११। एगे पुण एवमाहंसुता बावत्तरि दीवसहस्सं बावत्तरि समुद्दसहस्सं चंदिमसूरिया ओभासेंति उज्जोवेंति तवेंति पगासें ति, एगे एवमाहंसु ।१२। वयं पुण एवं वयामो-अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुदाणं जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । से णं एगाए जगईए सव्यो समंता संपरिक्खित्ते । सा णं जगई अट्ठजोयणाई उडू उच्चत्तण पण्णत्ता एवं जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए तहेव निरवसेसं जाव एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोदस सलिलासयसहस्सा, छप्पण्णं च सलीलासहस्सा भवंतीतिमक्खायं । जंबुद्दोवे दीवे पंच चकभागसंठिए आहिए त्ति वएज्जा, ता कहं जंबुदीवे दीवे पंचचक्कभागसंठिए आहिए तिवएज्जा ? ता जया णं एए दुवे सूरिया सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं जम्बुद्दीवस्स दीवस्स तिणि पंचचक्कभागे Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा-३ सू० १ चन्द्रसूर्यायोः प्रकाशक्षेत्र निरूपणम् १४३ ओभर्सेति उज्जोवेंति तवेंति पभासेति, तं जहा - एगे वि सूरिए एगं दिवढं पंचचकभागं ओमासेइ उज्जोवे तवेइ पगासेइ, एगे वि सूरिए एगं दिवड पंच चकभागं ओमासे उज्जवे तवेइ पगासेइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भव, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया णं एए दुवे खरिया सन्त्रवाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं जबुद्दीवस्स दीवस्स दोणि पंच चकभागे ओभाति उज्जोवेंति तवेंति पगासेंति । ता एगे विसूरिए एगं पंचचक्कभागं ओभासेइ उज्जवे तवे पगासेइ तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवर, जहणए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ ॥ सू० १ ॥ छाया - तावत् कियत्कं क्षेत्र चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति उद्योतयन्ति तापयन्ति प्रकाशयन्ति ( अत्र किम् ) आख्यातम् ? इति वदेत् । तत्र खलु इमा द्वादश प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा तत्रैके पवमाहुः तावत् पकं द्वीपम् एकं समुद्रं चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति उद्योतयन्ति तापयन्ति प्रकाशयन्ति एके एवमाहुः || एके पुनरेवमाहुः तावत् त्रीन् द्वीपान् त्रीन् समुद्रान् चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४ पके एवमाहुः |२| एके पुनरेवामाहुः तावत् अर्द्धर्थान् द्वीपान् अर्धचतुर्थान् समुद्रान् चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, एके एवमाहुः | ३ | एके पुनरेववाहः तावत् सप्तद्वीपान् सप्तसमुद्रान् चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, पके एवमाहुः || पके पुनरेवमाहु:- तावत् दशद्वीपान् दशसमुद्रान् चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, एके पवमाहुः ५ एके पुनरेवमाहुः तावत् द्वादशद्वीपान् द्वादशसमुद्रान् चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, एके एवमाहुः || एके पुनरेवमाहुः तावत् द्विचत्वारिंशतं द्वीपान् द्विचत्वारिंशतं समुद्रान् चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, एके एवमाहुः | ७| एके पुनरेवमाहुःतावत् द्वासप्तति द्वीपान् द्वासप्ततिं समुद्रान् चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, एके एवमाहुः [८] एके पुनरेवमाहुः तावत् द्वाचत्वारिंशतं द्वीपशतं द्विचत्वारिंशतं समुद्रशतं चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४ एके पवमाहुः | ९| एके पुनरेवमाहुः तावत् द्विसप्ततिं द्वीपशतं द्विसतति समुद्रशतं चन्द्रसूर्या अवभासन्ति ४, एके पववमाहुः | १०| एके पुनरेवमाहुः तावत् द्विचत्वारिंशतं द्वीपसहस्रं द्विचत्वारिंशतं समुद्रसहस्रं चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, एके एवमाहुः ||११| एके पुनरेवमाहुः - तावत् द्विसप्ततिं द्वीपसहस्रं द्विसप्तति समुद्रसहस्रं चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति उद्योतयन्त तापयन्ति प्रकाशयन्ति, पगे एवमाहुः ॥१२॥ वयं पुनरेवं वदामः - अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । स खलु एकया जगत्या सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः । सा स्खलु जगती अष्ट योजनानि उर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ता एवं यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां तथैव निरवशेषं यावत् पबमेव पूर्वापरेण, जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्दश सलिलाशतसहस्राणि षट् पञ्चाशच्च सलिला सहस्राणि (१४५६०००) भवतीति आख्यातम् । जम्बूद्वीपो द्वीपः पञ्चचक्रभागसंस्थितः आख्यात इति वदेत् । तावत् कथं जम्बूद्वीपो द्वीपः पञ्चचक्रभागसंस्थित आख्यातः ? इति वदेत् तावत् यदा खलु पतौ द्वौ सूर्यो सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे तदा खलु जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य त्रीन् पञ्चचक्रभागान् अवभासयतः उद्द्योतयतः तापयतः प्रकाशयतः, तद्यथा-एकोऽपि सूर्य: एक द्वयधं (द्वितीयाध-सा मेक) पञ्चचक्रभागम् अव. भासयति ४, एकोऽपि सूर्यः द्वयधं (द्वितीयाधं-सार्द्धमेक) पञ्चचक्रभागम् अवभासयति उद्द्योतयति तापयति प्रकाशयति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । तावत् यदा खलु एतौ द्वौ सूर्यो प्रर्वबाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः तदा खलु जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य द्वौ पञ्च चक्रवालभागान् अवभासयतः उद्द्योतयतः तापयतः प्रकाशयतः । तावत् एकोऽपि सूर्य एकं पञ्च, चक्रभागम् अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रकाशयति । तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, जघन्यको द्वादशमुहूतौ दिवसो भवति सू० १॥ ॥ चन्द्रप्रज्ञप्त्यां तृतीयं प्राभृतं समाप्तम् ॥४॥ व्याख्या-'ता केवइयं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'केवइयं' कियत्कं कियत्परिमितं क्षेत्रं 'चंदिमसूरिया' चन्द्रसूर्याः बहुवचनं च जम्बूद्वीपे चन्द्रद्वयसूर्यद्वयसद्भावात् 'ओभासेंति' अवभासयन्ति, तत्र अवमासस्तु ज्ञानस्य प्रतिभासोऽपि भवेदितितन्निराकर्तुमाह-'उज्जोति' उद्द्योतयन्ति, 'द्युतिर्दीप्तौ' इति धातोः प्रेरणायां रूपम-दीपयन्तीत्यर्थः, 'तवेंति' तापयन्ति, एतत् चन्द्रे कथं घटते तस्य शीतरश्मित्वेन प्रसिद्धत्वात, तत्राह-चन्द्रप्रकाशेऽपि आतपशब्दस्य लोके व्यवहारो दृश्यते, उक्तश्च "चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना, तथा चन्द्रातपः स्मृतः ॥" इति कोषवचनात् आभाससहितं कुर्वन्तीत्यर्थः, तथा 'पगासें ति' प्रकाशयन्ति स्वतेजसा प्रकाशयुक्त कुर्वन्ति ? प्राय एकार्थिका इमे धातवः, देशभेदात् सर्वदेशीयानामवबोधार्थ प्रयुक्ता इति विज्ञेयम्' आहितं' आख्यातम् हे भगवन् भवन्मत एतद्विषये किमाख्यातम् ? 'ति' इति 'वएज्जा' वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! आषत्वाद् वदेत्, इति स्थाने वदतु, इति तकारख्यत्ययः कर्त्तव्यः । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानेतद्विषये परतीथिकानां मिथ्याभावप्रदर्शनाय प्रथमं तेषां प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति-'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र चन्द्रसूर्याणां क्षेत्रावभासनविचारे खलु 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'बारस' द्वादश 'पडिबत्तीओ' प्रतिमत्तयः परमतरूपाः ‘पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा ता यथा 'तत्थ' तत्र तेषु द्वादशसु प्रतिपत्तिवादिषु मध्ये 'एगे एके केचन प्रथमाः 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति । किं कथयन्तीत्याह-'ता' तावत् 'चंदिममोरया' चन्द्रसूर्यो, प्राकृते द्विवचनस्थाने बहुबचनं भवति तत्र द्विवचनाभावात्, तदुक्तम्-"बहुवयणेण दुवयणं' इति । अत्र चन्द्रसूयौ इति द्विवचनं तेषां परतीर्थिकानां मते एकस्य चन्द्रस्य एकस्य च सूर्यस्य मान्यता सद्भावात् एतौ चन्द्रसुयौ 'एगं दीवं' एक द्वीपं “एगं समुदं एकं समुद्रं च 'ओभासेंति' अवभासयतः 'उज्जोवेति उद्योतयतः 'तवेंति' तापयतः 'पगासेंति' प्रकाशयतः । 'एगे' एके इमे प्रथमास्तीर्थान्तरीया 'एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति ।१। एवमग्रेऽप्येकादशस्वपि प्रतिपत्तिषु योजना कर्तव्या, व्याख्यातु छायागम्याऽतो न Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चन्द्रनप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०३ सू०१ चन्द्रसूर्ययोः प्रकाशक्षेत्रनिरूपणम् १४५ विवियते । विशेषस्तु' खल्वेतावानेव, तथाहि-द्वितीयाः प्रतिपत्तिवादिनश्चन्द्रसूर्ययोरवभासनादिविषये त्रीन् , द्वीपान् त्रीन् समुद्रान कथयन्ति ।। तृतीया अर्द्धचतुर्थान् सार्धान् त्रीन् द्वीपान् सार्द्धान् त्रीन् समुद्रान् ३, चतुर्थाः सप्तद्वीपान् सप्तसमुद्रान् ४, पश्चमाः दश द्वीपान् दशसमुद्रान् ५ षष्ठाः द्वादशदीपान् द्वादशसमुद्रान् ६, सप्तमा द्विचत्वारिंशतं द्वीपान् द्विचत्वारिंशतं समुद्रान् ७, स्पष्टमा द्विसप्ततिं द्वीपान् द्विसप्ततिं समुद्रान् , नवमा द्विचत्वारिंशदधिकशतसंख्यकान् द्वीपान् द्विचत्वारिंशदधिकशतसंख्यकान् समुद्रान् ९, दशमाः द्विसप्तत्यधिकशतसंख्यकान् द्वीपान् द्विसप्तत्यधिक शतसंख्यकान् समुद्रान् १०, एकादशा द्विचत्वारिंशदधिकसहस्रसंख्यकान् द्वीपान् द्विचत्वारिंशदधिकसहस्रसंख्यकान् समुद्रान् ११ द्वादशाः द्विसप्तत्यधिकसहस्रसंख्यकान द्वीपान् द्विसप्तत्यधिकसहस्रसंख्यकांश्च समुद्रान् चन्द्रसूर्यौ अवभासयतः, उद्योतयतः, तापयतः प्रकाशयत इति कथयन्ति । इति द्वादशप्रतिपत्तिस्वरूपम् । साथ भगवान स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं तु अत्र पुनः शब्दस्त्वर्थ एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः-कथयामः 'अयण्णं' अयं लोकप्रसिद्धः स्खल 'जम्बूद्दीवे दीवे' 'जम्बूद्वीपो द्वीपः मध्यमम्बूद्वीपः 'सव्वदीवसमुदाण' सर्वद्वीपसमुद्राणां मध्यस्थितः सर्वलघुः 'जाव' यावत् 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिनां 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः । अस्य वर्णनमादौ प्रदर्शितम् । ‘से णं' स खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः 'एगाए जगईए' एकया जगत्या 'सवओ समंता' सर्वतः समन्तात् 'संपरिक्खित्ते' संपरिक्षिप्तः परिवेष्टितो वर्तते । 'सा णं जगई' सा स्खलु जगती 'तहेव जहा जंबृद्दीवपन्नत्तीए' तथैवास्ति यथा येन प्रकारेण जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां कथितम् । कियत्पर्यन्तं कथनीयमित्याह-'जाव' यावत् 'एवामेक सव्वावरेणं' एवमेव सपूर्वापरेण पूर्वापरसहितेन । 'जंबूद्दीवे दीवे' जम्बूदीपे द्वीपे 'चोइस सलिलासय सहस्सा' चतुर्दशसलिलाशतसहस्राणि सलिलानां चतुर्दशलक्षाणि, 'छप्पन्नं च सलिलासहस्सा' षट् पश्चाशच्च सरित्सहस्राणि षट् पञ्चाशत्सहस्राणि सलिलानां सरितां नदीनामित्यर्थः (१४५६०००) 'भवंति' भवन्ति-सन्ति 'इति मक्खाया' इत्याख्यातं भगवतेति । विशेषजिज्ञासुभिर्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रमेव द्रष्टव्यमिति । 'जंबूद्दीवे णं दीवे' जम्बूद्वीपः स्वल द्वीपोऽसौ 'पंच चक्कभागसंठिए' पश्चचक्रभागसंस्थितः पञ्चभिः चक्रभागैः चक्रवालभागैः संस्थितः पञ्चचक्रवालसंस्थानसंस्थित ह यथः । 'आहिते' माझ्यातो मया 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्य इति । एवं भगवता प्रोक्ते गौतमः पुनः पृच्छति-'ता कह' इत्यादि । 'ता' तावत् 'कह' कथं केन कारणेन हे भगवन् ! भवता 'जंबूहीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः 'पंच चक्कभागसंठिए आहिए' पञ्च Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिसूक चक्रभागसंस्थितः माख्यातः ! 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह–'ता जयाणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'एए' एतौ प्रवचनवेतृणां प्रसिद्धौ ‘दुवे सरिए' दो समुदितौ सूर्यो 'सयभंतरंमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया गं' तदा खलु 'जंबुद्दीबस्स दोवस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य 'तिण्णि पंच चक्कभागे' त्रीन् पञ्च चक्रभागान् पञ्चचक्रवालभागान् 'ओमासेति' अवभासयतः 'उज्जोति' उद्योतयतः 'तवेंति' तापयतः, 'पगासेंति' प्रकाशयतः 'तं जहा' तद्यथा-तथाहि-'एगे वि सूरिए' एकोऽपि सूर्यः एकस्तु सूर्यः 'एग दिवड्डे' एकं परिपूर्णमेकं द्वय, द्वितीयाधै च साश्रूकमित्यर्थः 'पंच चक्कभार्ग' पञ्च चक्रभाग पञ्चमं चक्रवालभागम् अयं भावः-एकं पञ्चमं चक्रबालभागं द्वितीयस्य पञ्चमस्य चक्रबालभागस्यार्धेन सहितम् 'ओभासेइ उज्जोवेइ तवेइ पगासेइ' अवभासयति उद्घोतयति तापयति प्रकाशयति । 'एगे वि' सूरिए' एकस्तु अपरः सूर्यः 'एग दिवइढं' एकं तदन्यं परिपूर्णमेकं द्वयर्घ द्वितीयमधं च सार्धमेकमित्यर्थः पंच चक्कभार्ग' पञ्चमं चक्रवालभागम् 'ओभासेई' ४, अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रकाशयति । अयं भावः अनयोईयोः सूर्ययोः प्रकाशितभागमीलने परिपूर्ण भागत्रयं प्रकाश्यं भवति । अयमाशयः-जम्बूद्वीपगतानां पञ्चानां चक्रवालानां षष्टयधिकषट्शत्तोत्तरसहनत्रयभागाः(३६६०) कल्प्यन्ते, तस्य पञ्चभागकरणार्थ पश्चभिर्भागो हियते लब्धानि द्वात्रिंशदधिकानि सप्तशतानि (७३२) 'एग दिवढं' इति कथनात् इयं संख्या सार्धा क्रियते तदा जातमष्टानवत्यधिक सहस्रमेकम् (१०९८) ततः सर्वाभ्यन्तरमण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्यः षष्टयधिकषट्शतोचर सहस्रत्रय (३६६०) संख्यकानां भागानां मध्यात् अष्टानवत्यधिकैकसहस्र (१०९८) परिमितं भागम् अवभासयति । एवमपरोऽपि सूर्यः-अष्टानवत्याधिकैकसहस्र (१०९८) परिमितं भागम् अवभासयति, उभयोर्योगकरणे जातानि षण्णवत्यधिकानि एकविंशतिशतानि (२१९६)। एतत्परिमितभाग चक्रवाळप्रकाश्यमानं लभ्यते शेषं चतुष्षष्टयधिकचतुर्दशशत (१४६४) परिमितभागेऽन्धकारो लभ्यते, तदा च पञ्च चक्रवाळभागमध्यात् द्वौ चक्रवालभागौ रात्रिः, त्रयश्चक्रवालभागाः दिवसः । तथाहि-एकतोऽपि एकः पञ्चमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशत(७३२) भागा रात्रिः, अपरतोऽपि एकः पञ्चमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशत (७३२) भागा रात्रिः । द्वयोर्मीलने जातानि चतुष्षष्टयधिकानि चतुर्दशशतानि (१४६४), एतत्परिमितोऽन्ध. कारभागो लभ्यते । शेषाः षण्णवत्यधिकैकविंशतिशत (२१९६) भागाः। एतत्परिमितः प्रकाश भागो-दिवसो-लभ्यते, ततः सर्वेषामन्धकारभागानामुद्योतभागानां च संमेलने भवन्ति Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टोका प्रा०३ सू० १ चन्द्रसूर्ययोः प्रकाशक्षेत्र निरूपणम् १४७ षष्ट्यधिकानि षट् त्रिंशच्छतानि (३६६०) जम्बूद्वीपस्य पश्चचक्रवालभागानां कल्पिताः सर्वे भागाः । तथाच कोष्ठकम् - सर्वाभ्यन्तरमण्डले द्वयोः सूर्ययो प्रकाशभागाः अन्धकारभागाः सर्वमे - २१९६ १४६४ ३६६० सम्प्रति दिवस रात्रिप्रमाणमाह - ' तया णं' इत्यादि । 'तया णं' तदा - पूर्वोक्त परिमितप्रकाशान्धकारसमये स्खल्लु 'उत्तमकद्वपत्ते' उत्तम काष्ठा प्राप्तः परमप्रकर्षसंपन्नः 'उक्कोस ए' उत्कर्षकः सर्वगुरुः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, 'जहण्णिया' जधन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुडुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । अथ सर्वबाह्यमण्डलवक्तव्यतामाह-- ' ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदाखल 'एए दुबे सरिए' एतौ द्वौ सूर्यो 'सव्वबाहिरं मंडळं उवसंकमित्ता चारं चरंति' सर्वबाह्यं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया णं' तदा खलु 'जंबुद्दीवस्स दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य 'दोणि चक्कभागे' द्वौ चक्रभागौ चक्रवालभागौ ' ओभासेंति ४' अवभासयतः उद्योतयतः, तापयतः, प्रकाशयतः । अथ - एकैकसूर्यमधिकृत्याह'ता एगे वि' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एगे वि सूरिए' तयोर्मध्ये एकोऽपि सूर्य:- एकः सूर्यः अपि वाक्यालङ्कारे 'एगं पंचचक्कभागं एकं पश्चमं चक्रवालभागं द्वात्रिंशदधिकसप्तशत (७३२) भागरूपम् 'ओभासेइ ४' अवभासयति, उद्द्योतयति, तापयति, प्रकाशयति । एवम् - 'एगेबि सूरिए' एकोsपरोऽपि सूर्यः 'एगं चक्कभागं' एकं पश्चमं चक्रवालभागं द्वात्रिंशदधिकसप्तशत (७३२) रूपम् 'भोभासेइ ४' अवभासयति, उद्योतयति, तापयति, प्रकाशयति । अयं भावः - सर्वबाह्यमण्डले द्वयोः सूर्ययोश्चारसमये तौ समुदितौ द्वौ सूर्यौ द्वौ चक्रवालभागौ चतुष्षष्ट्यधिक चतुर्दशशत (१४६४) भागरूपौ प्रकाशयतः, अतः सर्व बाह्यमण्डलचारसमये चतुष्षष्ट्यधिक चतुर्दशशत (१४६४) भागपरिमितः उद्घोतभागो दिवसरूपो लभ्यते शेषास्त्रयश्चक्रवालभागाः षण्णवत्यधिकैकविंशतिशत (२१९६) भागपरिमितोऽन्धकारभागो रात्रिरूपो लभ्यते, तथा चैवं सर्वेषामुद्योतान्धकारभागानां संमेलने भवन्ति षष्ट्यधिकानि षट् त्रिंशच्छता नि (३६६०) जम्बूद्दीपभागाः । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे कोष्ठकम् सर्वबाह्यमण्डले द्वयोः सूर्ययोः प्रकाशभागा: १४६४ मध्यमण्डलेषु द्वयशीत्यधिकैकशत (१८२)संख्यकेषु प्रातमण्डलं प्रतिसूर्यनिष्क्रमणकाले भागद्वयस्य हानिः प्रवेशकाले च भागद्वयस्य वृद्धि अन्धकारभागाः २१९६ सर्वमेलने -- ३६६० विज्ञेयेति । अयमाशयः- सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारसमये प्रत्येकसूर्यस्याष्टानवत्यधिकदशशत (१०९८) भागपरिमितोद्योतभागसद्भावात् द्वयोः सूर्ययोः षण्णवयधिकैकविंशतिशत (२१९६) भागपरिमित उद्योतः, शेष चतुष्षष्टयधिकचतुर्दशशत (१४६४) भागपरिमितोऽन्धकारभागयोर्मीलने षष्टयधिकानि षट् त्रिंशच्छतानि (३६६०) भागा जम्बूद्वीपस्य पञ्च चक्रवालसम्बन्धिनो लभ्यन्ते सर्व बाह्यमण्डलचारसमये च एतद्विपरीतं भवति, यथा-द्वयोः सूर्ययोःचतुष्षष्टयधिकचतुर्दशशत (१४६४) भागपरिमित उद्योतभागः, षण्णवत्यधिकैकविंशतिशत (२१९६) भागपरिमितोऽन्धकारभागो भवति, द्वयोर्मीलने च भवन्ति षष्टयधिकानि षट्त्रिंशच्छतानि (३६६०) भागाः जम्बूद्वीपस्येति सर्व पूर्व कोष्ठकद्वये प्रदर्शितमिति ।। मथ रात्रिदिवसप्रमाणमाह-'तया णं' इत्यादि । 'तया गं' तदा पूर्व प्रदर्शितपरिमितप्रकाशान्धकारसमये खलु 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकर्षसंपन्ना 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा सर्वगुर्वीत्यर्थः 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिभवति, 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवतीति । एवं द्वितीयमण्डलादारभ्य द्वयशीत्यधिकशततममण्डलपर्यन्तविचारणायामेवं ज्ञातव्यम्-सर्वबाह्यमण्डले यदा सूर्यश्चारं चरति तदा एकं सूर्यमधिकृत्य द्वात्रिंशदधिकसप्तशत (७३२) भागाएकस्य पञ्चमस्य चक्रवालस्य सम्बन्धिनः उद्योतस्य लभ्यन्ते, तथा-अष्टनवत्यधिकदशशत(१०९८) भागाः शेषाः चतुश्चक्रवालसम्बन्धिनः अन्धकारस्य लभ्यन्ते । सर्वाभ्यन्तरमण्डल चारसमयेऽष्टनवत्यधिकदशशत (१०९८) भागाः सार्धं कचक्रवालसम्बन्धिनो भवन्ति, एतेभ्यो सर्वबाह्यमण्डलगता द्वात्रिंशदधिकसप्तशत (७३२) भागाः शोध्यन्ते तदा शेषाः षट्पष्टधिकत्रिंशत (३६६) भागा न्यूना लभ्यन्ते । एषा न्यूनसंख्या त्र्यशीत्य-धिकैकशत (१८३) संख्यकेषु मण्डलेषु भवति ततोऽनेन (१८३) षट्पष्टयधिकत्रिशत (३६६) भागानां भागो हि यते तदा लभ्येते द्वौ भागौ। अनयोईयो र्भागयोर्हानिः प्रत्येकमण्डलेषु क्रमेण भवति । एवं सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्वबाह्यमण्डलं प्रतिसूर्यस्य गमनसमये प्रतिमण्डलं भागद्वयमुद्योतस्य Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोक प्रा० ३-४ चन्द्रसूर्ययोः प्रकाशक्षेत्रनिरूपणम् १४२ हापयन् २ यदा सर्वबाह्यमण्डलं सूर्यः प्राप्नोति तदा द्वात्रिंशदधिक सप्तशत (७३२) भागा उद्योतस्य भवन्ति । एवमेव द्वितीयसूर्यविषयेऽपि स्वयम्हनीयम् । द्वयोर्मीलने द्वयोः सूर्ययोः सर्वबाह्यमण्डलस्थितौ षष्टयधिकषट्त्रिंशच्छत (३६६) भागमध्यात् चतुष्षष्टयधिकचतुर्दशशत (१४६४) भागा जम्बूद्वीपे द्वीपे प्रकाश्यमाना भवन्ति, शेषेषु षण्णवत्यधिकैकविंशतिशत(२१९६) भागा अन्धकारस्य भवन्ति, एषु रात्रिर्भवतीत्यर्थः । सर्वमीलने भवन्ति जम्बूद्वीपस्य पञ्चचक्रवालसम्बन्धिनः षष्टयधिकषत्रिशच्छत (३६६०) भागा इति । एवं यथा प्रथमे षण्मासे सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रामतोर्द्वयोः सूर्ययोर्जम्बूद्वीपविषयकः प्रकाशविधिः क्रमेण प्रतिसूर्य भागद्वयहान्या हीयमानः प्रोक्तस्तथैव द्वितीयषण्मासे सर्वबाह्यमण्डलात्सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रविशताईयोः सूर्ययोर्जम्बूद्वीपविषयकः प्रकाशविधिः प्रतिसूर्यक्रमेण भागद्वयवृद्धया वर्धमानो ज्ञातव्य इ ते स्वयमूहनीयम् । अत्रोक्तमन्यत्र -छत्तीसे भागसए, सर्टि काऊण जंबुदीवस्स । तिरियं तत्तो दो दो, भागे वड्ढेइ हायई वा ॥१॥ छाया-पटत्रिंशद्भागशतानि षष्टिं (३६६०) कृत्वा जम्बूद्वीपस्य तिर्यक् (शनैः शनैः क्रमेण) ततो द्वौ द्वौ भागौ वर्धते हीयेते वा ॥१॥ अत्रविषये पुनरपि विस्तरतो व्याख्यानं सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रस्य मत्कृतायां सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिकाव्याख्यायामवलोकनीयमिति ॥सू० १॥ ॥ अथ चतुर्थ भाभृतम् मारभ्यते ॥ ___ गतं तृतीयं प्राभृतम् , तत्र सूर्यचन्द्रयोः प्रकाश्यमानक्षेत्रमुक्तम् । साम्प्रतं चतुर्थमारभ्यते, अस्मिन् 'कहं ते सेययाए संठिई आहिया' कथं श्वेततायाः संस्थितिराख्याता इति प्रकाशस्य संस्थानरूपोऽर्थाधिकारः प्ररूपयिष्यते ततस्तद्विषयं सूत्रमाह-'ता कहते सेययाए" इत्यादि। मूलम् ता कहं ते सेययाए संठिई अहिया ? तिवएज्जा तत्थ खल इमा दुविहा संठिई पण्णत्ता, तं जहा-चंदिमसरियसंठिई य १ तावक्खेत्तसंठिईय २॥ ता कहं ते चंदिमसरियसंठिई आहिया ? ति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ सोलस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थेगे एवमासु ता समचउरंससंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहसु १। एगे पुण एवमाहंसु ता विसमचउरंससंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु ।२। एवं एएणं अभिलावेणं समचउक्कोणसंठिया ३, विसम चउक्कोणसंठिया .४। समचक्कवाळसंठिया ५, विसमचक्कवालसंठिया ६, चक्कद्ध Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे चक्कवालसंठिया ७, छत्तागारसंठिया ८, गेहसंठिया ९, गेहावणसंठिया १०, पासाय संठिया ११, गोपुरसंठिया १२ पेच्छाघरसंठिया १३, वळभीसंठिया १४, हम्मितलसंडिया १५, एगे पुण एवमाहंसु-वालग्गपोइया संठिया चंदिमसूरियसंठिई षण्णताएगे एवमाहंसु १६ । तत्थ णं जे ते एवमाहंसु-ता समचउरंसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एएणं णरणं णेयव्वं नोचेव णं इयरेहिं | ० १ ॥ १५० छाया - सावत् कथं ते श्वेततायाः संस्थितिः आख्याता १ इति वदेत् । तत्र खलु इयं द्विविधा संस्थितिः प्रशप्ताः तद्यथा - चन्द्र सूर्यसंस्थितिश्च १ तापक्षेत्रसंस्थिति २, तावत् कथं ते चन्द्रसूर्यसंस्थितिः आख्याता ? इति वदेत् । तत्र खलु इमाः षोडश प्रतिपत्तयः प्रशप्ताः । तद्यथा तत्रैकं श्वमाहुः - तावत् समचतुरस्रं संस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रशता, एके एवमाहुः | १| एके पुनरेवमाहुः - तावत् विषमचतुरस्रसंस्थिता बन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रशता, एके पवमाहुः |२| एवम् एतेनाभिलापेन समचतुष्कोणसंस्थिता ३, विषमचतुष्कोणसंस्थिता ४, समचक्रवालसंस्थिता ५ विषमचक्रवालसंस्थिता ६, चक्रार्धचक्रवालसंस्थिता ७ छत्राकार संस्थिता ८, गेहसंस्थिता ९, गेहापणसंस्थिता १०, प्रासादसंस्थिता ११, गोपुर संस्थिता १२ प्रेक्षागृहसंस्थिता १३, वलभीसंस्थिता १४ इर्म्यतलसंस्थिता १५, एके पुनरेव माहुः वालाग्र पोतिकासंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रशप्ता एके पवमाहु:-१६, तत्र खलु ये ते एवमाहुः तावत् समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, एतेन नयेन ज्ञातव्यं नो चैव खल इतरैः ॥ सू०१ ॥ व्याख्या- 'ता' तावत् 'कहं' कथं केन प्रकारेण 'ते' तव भवतां मते 'सेययाए ' श्वेततायाः शुक्लतायाः 'संठिई' संस्थितिः संस्थानम् 'आहिया' आख्याता कथिता ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु भगवन् ! | भगवानाह - 'तत्थ' इत्यादि । ' तत्थ' तत्र श्वेतताविषये स्वल 'इमा' इयं वक्ष्यमाणस्वरूपा 'दुविहा' द्विविधा द्विप्रकारा 'संठिई' संस्थितिः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा - सा यथा 'चंदिमसूरियसंठिई य' चन्द्रसूर्यसंस्थितिश्च १, 'ताव - क्खेत्तसंठिई य' तापक्षेत्रसंस्थितिश्च २। श्वेतता च चन्द्रसूर्यविमानानां तत्कृततापक्षेत्रस्य चेत्युभ-योरपि श्वेततायोगात् श्वेतता, सा द्विविधा भवति । अथ द्वयोर्मध्ये पूर्वं चन्द्रसूर्यसंस्थितिमाह'ता कहं ते' इत्यादि 'ता' तावत् हे भगवन् 'कहं' कथं केन प्रकारेण कीदृशीत्यर्थः 'ते' त्वया 'चंदिमसूरियसंठिई' चन्द्रसूर्य संस्थितिः चन्द्रसूर्यविमानसंस्थानरूपा 'आहिया' आख्याता 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु भगवन् । इयं चन्द्रसूर्येविमानसंस्थितिः द्वयोश्चन्द्रयोईयोः सूर्ययोरिति चतुर्णामपि अवस्थानरूपा पृष्टा गौतमेनेति ज्ञातव्यम् । एवं गौतमेन पृष्टे सति भगवान् पूर्वमस्मिन् श्वेतताविषये परतीर्थिकानां यावत्यः प्रतिपत्तयो लोके प्रचलन्ति तावतीः प्रदर्शयति- 'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र चन्द्रसूर्य संस्थितिविषये खलु 'इमाओ' इमा वक्ष्यमाणः 'सोलस' षोडश षोडशसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतरूपाः 'पण्ण Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ४ सू०१ प्रकाशस्य संस्थाननिरूपणम् १५१ साओ' प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा ता यथा-'तत्थ' तत्र षोडशसु प्रतिपत्तिवादिषु 'एगे' एके केचन प्रथमा ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'समचउरंससंठिया' समचतुरस्रसंस्थिता समाः चतस्रः अम्रयः भागा यस्याः सा तथा समचतुर्भागवती 'चंदिमसरियसंठिई' चन्द्रसूर्यसंस्थितिः चन्द्रसूर्यविमानानां संस्थानरूपा 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता । उपसंहारमाह-'एगे एवमहिंसु' एके प्रथमास्तीर्थान्तरीया एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति ।१। इदमुपसंहारवाक्यमने सर्वत्र वाच्यम् । 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः 'एवमासु' एबमाहुः 'ता' तावत् 'विसमचउरंससंठिया' विषमचतुरस्रसंस्थिता विषमचतुर्भागवती चंदिमसू रियसंठिई' चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रज्ञप्ता 'एगे एवमाइंसु' एके एवमाहुः ।२। ‘एवं एएणं कमेणं' एवमेतेन प्रतिपत्तिद्वयप्रदर्शितेन क्रमेण आलापककमेणाने सर्वत्र योजना कर्त्तव्या । तृतीया एवमाहु-समचउक्कोणसंठिया' समचतुष्कोणसंस्थिता ३। इति । चतुर्थाः-'विसमचउक्कोणसंठिया' विषमचतुष्कोणसंस्थिता-विषमतया चतुष्कोणसंस्थानवतीति ४ पञ्चमा:-'समचक्कवालसंठिया' समचक्रवालसंस्थितेति ५। षष्ठाः-'विसमचक्कवालसंठिया' विषमचक्रवालसंस्थितेति ६। सप्तमाः-'चक्कद्धचक्कवालसंठिया' चक्रार्धचक्रवालसंस्थिता, चक्रं रथचक्रं, तस्य यदर्ध चक्रवालं तत्सदृशसंस्थानवतीति ७। अष्टमाः-'छत्तागारसंठिया' छत्राकारसंस्थितेति ८। नवमाः-'गेहसंठिया' गेहसंस्थिता-वास्तुविद्ययोपनिबद्धस्य गृहस्येव संस्थितं संस्थान यस्याः सा तथा, तादृशीति ९। दशमाः-'गेहावणसंठिया' गेहापणसंस्थिता-गृह युक्त आपणः गेहापणः वास्तुविद्या प्रसिद्धः, तत्सदृशसंस्थानवतीति-१०। एकादशाः-'पासायसंठिया' प्रासाद संस्थिता “प्रासादो धनिनां गृहम्" तत्सदृशसंस्थानवती ११। द्वादशाः-'गोपुरसंठिया' गोपुरसंस्थिता गोपुरं-पुरद्वारं, तत्सदृशसंस्थानवती १२॥ त्रयोदशाः-'पेच्छाघरसंठिया' प्रेक्षागृहसंस्थिता-प्रेक्षागृहं वास्तुशास्त्रप्रसिद्ध नाटकादिगृहं तत्सदृशसंस्थानवती १३। चतुर्दशाः-'वलमीसंठिया' वलभीसंस्थिता-वलभीगृहाच्छादनार्थ दीयमानं दीर्घलम्बं काष्ठं, तद्वत्संस्थानं यस्या सा ताहशीति १४। पश्चदशाः-'हम्मियतलसंठिया' हयंतलसंस्थिता-हयं-राजगृहं तस्य तलं, तत्सदृशमिति वदन्ति १५। 'एगे पुण' एके षोडशाः-पुनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंमु' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'वालग्गपोइया संठिया' वालाग्रपोतिकासंस्थिता तत्र 'वालाग्रपोतिका' देशीशब्दोयं आकाशतडागमध्ये व्यवस्थितक्रीडास्थानवाचकः लघुप्रासाद इत्यर्थः, तद्वत् संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा तत्सदृशसंस्थानयुक्ता 'चंदिमसरियसंठिई' चन्द्रसूर्यसंस्थितिः ‘पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, 'एगे' एके षोडशाः 'एवं' एवं-पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्तीति १६। प्रदर्शिताः परमतवादिनां षोडश प्रतिपत्तयः अथ भगवान् एतासु-प्रतिपत्तिषु या समीचीना प्रतिपत्तिस्तां प्रदर्शयन्नाह-'तत्थ' इत्यादि । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रमाप्तिसूने 'तस्थ णं' तत्र षोडशसु प्रतिपत्तिवादिषु खलु 'जे ते' ये ते केचित् प्रथमाः 'एवमाइंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण माहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'समचउरंससंठिया' समचतुरस्रसस्थिता समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता 'चंदिमसूरियसंठिई' चन्द्रसूर्यसंस्थितिः ‘पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता इति । 'एएणं' एतेन अनुपदं पूर्वकथितेन 'नएणं' नयेन अभिप्रायेण 'नेयव्वं ज्ञातव्यम् अस्माकं मतेऽपि चन्द्रसूर्यसंस्थितिः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता कथिता एतस्या एव सत्यत्वात् , अतः 'नो चेव णं इयरेहि' नैव खलु इतरैः शेषपश्चदशप्रतिपत्तिवादिनां नयैः अभिप्रायैश्चन्द्रसूर्यसंस्थितिर्ज्ञातव्या तेषां मिथ्यारूपत्वादिति । पूर्व चन्द्रसूर्यसंस्थितिः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितेति भगवता प्रदर्शितम् , मा च कथं संगच्छते ? इति प्रदर्यते, तथाहि-इह सर्वेऽपि कालविशेषाः सुषमसुषमादयो युगमूलाः, युगम्य चादौ श्रावणे मासे कृष्णपक्षस्य प्रतिपदि प्रातरुदयसमये एकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्या मित्याग्नेयकोणे वर्त्तते, तद्भिन्नो द्वितीयः सूर्यः पश्चिमोत्तरस्यामिति वायव्यकोणे वर्त्तते । एवं चन्द्रश्च तत्समये एको दक्षिणपश्चिमायामिति नैऋत्यकोणे वर्तते, तदन्यस्तु उत्तरपूर्वस्यामिति ऐशान्यकोणे वर्तते तस्माद् युगस्यादौ चन्द्रसूर्याः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता भवन्तीत्यतो भगवता चन्द्रसूर्ययोः संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थिता प्रतिपादिता । यश्चात्र मण्डलापेक्षया चन्द्रयोः संस्थितिविषये वैषम्यं लभ्यते यथा तस्मिन् समये सूर्यो सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरत', चन्द्रौ च तदा सर्वबाह्यमण्डले वर्तेते तेन चन्द्रयोः संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थिता न भवेत तत्तु अल्पमिति कृत्वा सूत्रकृता न विवक्षिता, यतः सुषमासुषमादिरूपाणां समस्तकालविशेषाणामादिभूतस्य युगस्यादौ समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्ययोः संस्थितिर्भवति तत एतेषां संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थानतया वर्णिता । अन्यथा वा स्व स्व सम्प्रदायानुसारेण समचतुरस्रसंस्थितिर्विचारणीयेति ॥सू० १॥ अथ पूर्वप्रतिज्ञातां तापक्षेत्रसंस्थितिं प्रतिपादयन्नाह–'ता कहं ते तावक्खेत्तंसठिई' इत्यादि। मूलम्-ता कहं ते तावक्खेत्तसठिई आहिया ? ति वएज्जा, तत्थ खल इमाओ सोलस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा-तत्थ णं एगे एव माहंसु-ता गेहसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता ।। एवं ताओ चेव अट्ठ पडिवत्तीओ णेयवाओ जाव वालग्गपोइया संठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता एगे एव माहंसु ।८। एगे पुण एव माइंसुता जस्संठिए जंबुद्दीवे दीवे तस्संठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमासु ।९। एगे पुण एवमाइंसु-ता जस्संठिए भारहे वासे तस्संठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०३ ०२ तापक्षेत्र संस्थिति निरूपणम् १५३ एगे एवं मासु | १० | एवं उज्जाणसंठिया | ११ | निज्जाणसंठिया १२ । एगओ सिधसंठिया १३ | दुहओ सिधसंठिया १४ । सेयणगसंठिया तावक्खेत्तसैठिई पण्णत्ता एगे एवमाहं | १५ | एगे पुण एवमाहंसु-ता सेणगपिट्ठसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता एगे एवमाहंस १६ । वयं पुण एवं वयामो-ता उद्धीमुहकलंबुया पुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता अंत संकुडा बार्ह वित्थडा, अंतो वहा बाहिं पिहला, अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थि मुहसंठिया, उभओ पासेणं तीसे दुवे बाहाओ अवद्वियाओ भवंति पणयालीसं पणयालीस जोयणसहस्सा आयामेणं, तीसे दुवे वाहाओ अणवद्वियाओ भवंति तं जहासतरिया चैव बाहा, सव्वबाहिरिया चैव बाहा । तत्थ को हेऊ ? ति वदेज्जा । ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ता जया णं सूरिए सव्वन्तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तथा णं उद्धीमुहकलं बुया पुष्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई आडिया ति वज्जा - अंतो संकुडा बाहिं वित्थडा, अंतो वट्टा बाहिं पिहुला, अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थियमुहसंठिया दुहओ पासेणं तीसे तहेव जाव सव्ववाहिरिया चेव बाहा । तीसेण सव्वन्तरिया बाहा मंदरपव्वयंतेणं णव जोयणसहस्साईं, चत्तारि य छलसीई जोयणसयाई, णव य दसभागा जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिया तिवएज्जा । ता सेणं परिक्खेवविसेसे कओ आहिए ? ति वएज्जा, ता जे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे, तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहिं छित्वा दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिdaविसे आहिए तिवएज्जा । तीसे णं सव्क्वाहिरिया बाहा लवणसमुदं ते णं चउउई जोयणसहस्साईं, अट्ठ य अट्ठसट्ठि जोयणसयाई चत्तारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिया तिवएज्जा । ता से णं परिक्खेवविसेसे कओ आहिए ? ति वएज्जा, ता जेणं जंबुद्दीवस्स दीवस्स परिक्खेवे, तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहि छत्ता सहि भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिए ति वएज्जा । ता से णं तावक्खेत्ते केवइए आयामेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता अट्ठत्तरिं जोयणसहस्साइं तिष्णि य तेत्तीसाई जोयणसयाई जोयणतिभागे य आयामेणं आहिए ति वएज्जा । तया णं किं संठिया अंधगारसंठिई आहिया ? ति वएज्जा, उद्धीमुहकलंबुया पुप्फसंठिया तदेव जब बाहिरिया चैव बाहा । तीसे णं सव्वन्तरिया बाहा मंदरपव्वयंतेणं छज्जीय सहस्सा तिणि य चउवीसे जोयणसयाई छच्च दस भागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिया ति वज्जा । तीसे णं परिक्खेवविसेसे कओ आहिए ? ति वएज्जा, ता जे णं २० Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बद्रप्राप्तिसूत्रे मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे, तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता सेसं तहेव । तीसे णं सन्चबाहिरिया बाहा लवणसमुदंतेणं तेवहिजोयणसहस्साई, दोण्णि य पणयाले जोयणसयाई छच्च दसभागा जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिया ? तिवएज्जा । ता से णं परिक्खेवविसे से कओ आहिए ? तिवएज्जा, ता जे णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स परिक्खेवे, त परिक्खेवं दोहिं गुणित्ता दसहि छेत्ता, दसहि भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिए तिवएज्जा । ता से णं अंधयारे केवइए अयामेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता अट्टतरि जोयणसहस्साइं तिण्णि य तेत्तीसाइं जोयणसयाई, जोयणतिभागं च आयामेणं आहिएति वएज्जा । तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ ।। सू० २॥ छाया-तावत् कथं ते तापक्षेत्रसंस्थितिः आख्याता ? इति वदेत् । तत्र स्खलु इमा षोडश प्रतिपत्तयः प्राप्ताः । तद्यथा-तत्र खलु एके एवमाहुः-तावत् गेहसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्राप्ता ।। एवं ता एव अष्ट प्रतिपत्तयः ज्ञातव्या यावत् वालाप्रपोतिका संस्थिता तापक्षेत्रस्थितिः प्रक्षताः । पके एवमाहुः ।८। एके पुनरेवमाहुः तावत् यत्संस्थितः जम्बूद्वीपो द्वीपः तत्संस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रशप्ता, एके पषमाहुः ।९। एके पुनरेवमाहुः-तावत् यत्संस्थितः भारतो वर्षः तत्संस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्राप्ता, पके पवमाहुः १० एवम् उद्यानसंस्थिता ११, निर्याणसंस्थिता १२, एक तो निषधसंस्थिता १३, विधातो निषधसंस्थिता १४, सेचनकसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रसप्ता, पके एवमाहुः ॥१५॥ एकेपुनरेवमाहुः-तावत् सेचनकपृष्टसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, एके एवमाहुः १६ वयं पुनरेवं वदामः-तावत् उर्ध्वमुखकलम्बुका पुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रक्षप्ताअन्तः संकुचिता बहिविस्तृता, अन्तर्वृत्ता बहिः पृथुला, अन्तः अङ्कमुखसंस्थिता बहिः स्वस्तिकमुखसस्थिता, उभयतः पावेन तस्याः द्वै बाहे भवस्थिते भवतः, पञ्चचत्वा. रिंशत् पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि आयामेन, तस्या २ बाहे मनस्थिते भवतः, तद्यथा-सर्षाभ्यन्तराचैव बाहा ।। सर्वबाह्या चैव वाहा ।२। तत्र को हे तुः १ इति वदेत् । तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्राप्तः । तावत् यदा स्खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः आख्याता इति वदेत्- अन्तः संकुचिता बहि विस्तृता, अन्तर्वृत्ता बहिः पृथुला, अन्तः अंकमुखसंस्थिता बहिः स्वस्तिकमुखसंस्थिता, द्विधातः पाइँन तस्या तथैव यावत् सर्वबाह्या चैव बाहा। तस्याः खलु सर्वाभ्यन्तरा पाहा मन्दरपर्वतान्ते नवयोजनसहस्राणि चत्वारि च षडशीति योजनशतानि, नव च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण आख्याता इति वदेत । तावत स बल परिक्षेपविशेषः कृतः आख्यातः ? इति वदेत् तावत् यः खलु मन्दरस्य पर्वतस्य परिक्षेपः, तं परिक्षेपं त्रिभिगुणयित्वा वशभिच्छित्त्वा, दशभिर्भागे हियमाणे पष स्खलु परिक्षेपविशेष आख्यात इति घदेत् । तस्याः खलु सर्वबाह्या बाहा लवणसमुद्रान्ते चतुर्नवति योजनसहस्राणि, अष्ट च Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा. ३- सू० २ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् १५५ अष्टषष्टि योजनशतानि चतुरश्च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण आख्याता इति वदेत् । तावत स खल परिक्षेपविशेषः कुत आख्यातः? इति वदेत् । तावत यः खल जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य परिक्षेपः, तं परिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा दशभिपिछत्त्वा-दशभिर्भागे हियमाणे एष खलु परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत् । तावत् तत् खलु तापक्षेत्र कियत्कम् आयामेन आख्यातम् ? इति वदेत् । तावत् अष्टसप्ततिं योजनसहस्राणि त्रीणि च त्रयस्त्रिंशतं योजनशतानि, योजनविभागांश्च आयामेन आख्यातम् इति वदेत् । तदा खलु किं संस्थिता अन्धकारसंस्थितिः-आख्याता ? इति वदेत् ऊ/मुखकलम्बुका पुष्पसंस्थिता तथैव यावत् बाह्या चैव बाहा। तस्याः खलु सर्वाभ्यन्तरा बाहा मन्दरपर्वतान्ते षड्योजनसहस्राणि त्रीणि च चतुर्विशति योजनशतानि षड्दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण आख्याता इति वदेत् । तस्याः खलु परिक्षेपविशेषः कुत आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् यः खलु मन्दरस्य पर्वतस्य परिक्षेपः, तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुणयित्वा शेषं तथैव । तस्याः खलु सर्वबाह्या बाहा लवणसमुद्रान्ते त्रिषष्टियोजनसहस्राणि द्वच पञ्चचत्वारिंशतं योजनशते षड्दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण माख्याता इति वदेत् । तावत् स खलु परिक्षेपविशेषः-कुत आख्यातः? इति वदेत् । तावत् यः खलु जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य परिक्षेपः, तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुणयित्वा दशभिश्छित्त्वा दशभिर्भागे ह्रियमाणे एष खलु परिक्षेपविशेषः आख्यात इति वदेत् । तावत् स खलु अन्धकारः कियत्कः आयामेन आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् अष्टसप्तति योजनसहस्राणि, त्रीणि च त्रयस्त्रिशतं योजनशतानि, योजनविभागं च आयामेन आख्यात इति वदेत् । तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहूतों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । सू०२॥ व्याख्या--'ता' तावत् कह' कथं केन प्रकारेण कीदृशीत्यर्थः ते तव भगवतो मते 'ताबक्खेत्तसंठिई' तापक्षेत्रसंस्थितिः तापक्षेत्रस्य संस्थानं 'आहिया' आख्याता कथिता किं संस्थितं तापक्षेत्रमाख्यातमिति भावः, 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु भगवान् । 'तत्थ' तत्र तापक्षेत्रसंस्थितिविषये 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणप्रकाराः 'सोलस' षोडश षोडशसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतरूपाः ‘पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा -ता यथा'तत्थ णं' तत्र तापक्षेत्रसंस्थितिविषये खलु ‘एगे पुण' एके केचन प्रथमाः प्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहेसु' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'गेहसंठिया' गेहसंस्थिता वास्तुशास्त्रप्रसिद्धगृहाकारा तावक्खेत्तसंठिई' तापक्षेत्रसंस्थितिः ‘पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, 'एगे' एके पूर्वोक्ता प्रथमा ‘एवं' एवं पूर्वोक्तरूपेण 'आहेसु' अहुः-कथयन्ति १ 'एवं' एवम्-अनेन आलापक प्रकारेण 'ताओ चेव' त। एव पूर्वोक्ताः पूर्वसूत्रोका नवमीगेहसंस्थितित आरभ्य अन्तिमाः 'अट्ठपडिवत्तीओ' अष्टप्रतिपत्तयः षोडशपर्यन्ता अत्र 'णेयवाओ' ज्ञातव्याः, कीहक् प्रतिपत्ति. पर्यन्तभित्याह-'जाव' यावत् षोडशीयाऽत्राष्टमी भवेत् सा 'वालग्गपोइया संठिया' वालाग्रपोतिका संस्थिता 'तावक्खेत्तसंठिई' तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, 'एगे' एके अष्टमाः प्रतिपत्ति Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रमाक्षप्तिसूत्रे वादिनः 'एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहेसु' आहुः-कथयन्ति ।८। एषामष्टानां व्याख्या पूर्व चन्द्रसूर्यसंस्थितिप्रकरणे कृता तत्रतोऽवगन्तव्या, नात्र प्रपश्चितेति, ‘एगे पुण' एके नवमाः पुनः 'एवं' एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहे' आहुः-कथयन्ति-'ता' तावत् 'जस्संठिए जम्बूहीबेदीवे' यत्संस्थितः यत्संस्थानवान् जम्बूद्वीपो द्वीपः 'तस्संठिया' तत्संस्थिता 'तावक्खेत्तसंठिई' तापक्षेत्रसंस्थितिः ‘पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, 'एगे एवमासु' एके एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति ९, एगे पुण' एके दशमाः पुनः ‘एवमाहंस' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः - 'ता' तावत् 'जस्संठिए भारहे वासे' यत्संस्थितः भारत वर्ष भरतक्षेत्रं 'तस्संठिया' तत्संस्थिता 'तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता' तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, 'एगे एमाहंसु' एके दशमा एवं पूर्वोक्त प्रकारेण आहुः १० 'एवं' एवम् अनेन प्रकारेण आलापककरणेन 'उज्जाणसंठिया' उद्यानसंस्थिता ११, 'निज्जाणसंठिया' निर्याणसंस्थिता, निर्याणनाम पुरस्य निर्गमनमार्गः, तत्संस्थिता १२, 'एगो णिसधसंठिया' एकतो निषधसंस्थिता, एकतो रथस्यैकस्मिन् पार्वे निनितरां यः सहते स्वपृष्टभागे समारोपितं भारमिति निषधः-बलीवर्दः, तस्येव एकतः पार्श्वसंलग्नबलीवर्दस्येव संस्थानं यस्याः सा तथा १३, 'दुहओ णिसधसंठिया' द्विधातो निषधसंस्थिता, रथस्य उभयपार्श्वयोर्यो बलीवर्दी तयोरिवसंस्थानं यस्याः सा तथा १४, ‘सेयणगसंठिया' सेचनकसंस्थिता सेचनकः श्येनकः पक्षिविशेषः बाज इति प्रसिद्धः, तस्येवसंस्थितं संस्थानं यस्या सा तथा, 'तावक्खेत्तसंठिई' तापक्षेत्रसस्थितिः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता 'एगे एवमासु' एके एवमाहुः, १५ । 'एगे पुण' एके षोडशाः प्रतिपत्तिवादिनः पुनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'सेयणगपिट्ठसंठिया' सेचनकपृष्टसंस्थिता श्येनक पक्षिपृष्टभागस्य संस्थानसमाना 'तावक्खेत्तसंठिई' तापक्षेत्रसंस्थितिः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता 'एगे एवमासु' एके षोडशा एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्तीति ॥१६॥ तदेवं प्रदर्शिताः षोडशापि प्रतिपत्तयो मिथ्या रूपाः, ता निराकृत्य भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं पुनः वयं तु 'एवं' एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः, तदेवाह-'उद्धीमुह' इत्यादि । 'ता' तावत् 'उद्धीमुहकलंबुया पुप्फसंठिया' उर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थिता उर्वीभूतमुखस्य कलम्बुका नाम नालिका बनस्पतिविशेषः तस्य पुष्पस्येव संस्थितं संस्थानं यस्या सा तभाविधा तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता । सा कीदृशी भवेदित्याह-'अंतो संकुडा बाहिं वित्थडा' अन्तः संकुचिता बहिर्विस्तृता, अन्तः मेरुदिशि, बहिर्लवणसमुद्रदिशि क्रमेण संकुचिता विस्तृता चेति । पुनश्च 'अंतो वट्टा' अन्तर्वृत्ता, अन्तर्मेरुदिशि वृत्तेति अर्धवलयाकारा अर्धगोलाकारा इत्यर्थः सर्वतोवृत्तमेरुस्थितान् त्रीन् द्वौ वा दशभागान् अभिव्याप्य तस्या व्यवस्थितत्वात् 'बाहिं पिहुला' बहिः पृथुला बहिः लवणसमुद्रदिशि विस्तारमुपगता। एतदेव पुनः स्पष्टयति 'अंतो अंकमुह Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्रातिप्रकाशिका टीका प्रा०-३२०२ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् १५७ संठिया' अन्तः अङ्कमुखसंस्थिता, अन्तः मेरुदिशि अङ्कः उत्सङ्गः स च पद्मासनोपविष्टस्य तद्रप आसनवन्धः, तस्य मुखम् अग्रभागः अर्धवलयाकारस्तदाकारवत्संस्थानं यस्याः सा तथा, 'बाहिं सत्थियमुहसंठिया' बहिः स्वस्तिकमुखसंस्थिता बहिर्लबणसमुद्रदिशि स्वस्तिकः मङ्गलाकृतिविशेषः प्रसिद्धः, तस्य मुखम् अग्रभागः तस्येवातिविस्तीर्णतया संस्थानेन संस्थिता । 'उभो पासेणं' उभयतः पार्श्वन मेरोरुभयोः पार्श्वयोः 'तीसे' तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेः सूर्यभेदेन द्विधाऽवस्थितायाः 'दुवे बाहाओ' द्वे बाहे प्रत्येकमेकैकभावेन 'अवट्ठियाओ भवंति' अवस्थिते भवतः जम्बूद्वीपगतमायाममाश्रित्यावस्थिते इतिभावः। सा एकैका बाहा कियत्प्रमाणा ? इत्याह'पणयालीसं' इत्यादि । 'पणयालीस पणयालीसं' प्रत्येकं बाहा पञ्चचत्वारिंशत् पञ्चत्वारिंशद् योजनसहस्राणि (४५०००) आयामेन । तथा 'तीसे' तस्याः तापक्षेत्रसंस्थितेकैकस्याः 'दुवे बाहाओ' द्वे बाहे 'अणवटियाओ भवंति' अनवस्थिते भवतः 'तं जहा' तद्यथा ते यथा'सम्बन्भंतरिया चेव सम्बबाहिरिया चेव' सर्वाम्यन्तरा चैव बाहा सर्वबाह्या चैव बाहा, तत्र सर्वाभ्यन्तरा या मेरुमसीपे विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा, सर्वबाह्या च या लवणदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्तभागे विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा । अत्र आयामः दक्षिणोत्तरायतत्वमाश्रित्य विज्ञेयः, विष्कम्भश्च पूर्वापरायतत्वमाश्रित्य विज्ञेय इति । भगवता एवमुक्ते गौतमः स्पष्टावबोधार्थ पुनः पृच्छति'तत्थ' इत्यादि । 'तस्थ' तत्र तस्यामेवंविधायां व्यवस्थायां 'को हेऊ' को हेतुः ? किं कारणम् अत्रोपपत्तिः का ? 'आहिए' आख्यातो भवता कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे-भगवन् । भगवानाह-'ता' इत्यादि । 'ता' तावत् 'अयण्णं' अयं लोकप्रसिद्धः खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपोद्वीपः मध्य जम्बूद्वीपः 'जाव' यावत्-यावत्पदेन जम्बूद्वीपस्य तत्परि धेश्च सर्व वर्णनमत्र वाच्यम्, तत्र प्रतिपादितपरिमितो जम्बूद्वीपः 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परि धिना 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः । ततः किम् ? इत्याह-'ता जयाणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जयाण' यदा खलु 'मूरिए' सूर्यः 'सव्वभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, 'तया णं' तदा खलु उद्धीमुहकलंबुयापुप्फसंठिया'ऊर्ध्वमुखकलम्बुका पुष्पसंस्थिता 'तावक्खेत्तसंठिई' तापक्षेत्रसंस्थितिः 'आहिया' आख्याता 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । सा कीदृशी ? इत्याह-'अंतो संकुडा बाहिं वित्थडा' अन्तः संकुचिता बहिहिस्तृता, पुनश्च-'अंतो वहा बाहिं पिहुला, अन्तो वृत्ता अर्धवलयाकारा, बहिः पृथुलाविस्तीर्णा, पुनश्च-'अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थियमुहसंठिया' अन्तः अङ्कमुखसंस्थिता, बहिः स्वस्तिकमुखसंस्थिता, अर्थः प्राग्वत् 'दुहओ पासेणं' द्विघातः पार्श्वेण उभयपार्श्वे इत्यर्थः 'तीसे' तस्याः तापक्षेत्रसंस्थितेः 'तहेव जाव सव्वबाहिरिया चेव बाहा' तथैव पूर्वोक्तवदेव यावत् सर्वबाह्या चैव बाहा, यावत् पदेन 'दुवे बाहाओ' इत्यादि पूर्वोक्त मालापः सर्वो Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र वाच्यः । 'तीसेणं' तस्या तापक्षेत्रसंस्थितेः खलु 'सव्वन्भंतरिया बाहा' सर्वाभ्यन्तरा बाहा 'मंदरपब्वयंते णं' मन्दरपर्वतान्ते मेरुपर्वतसमीपे तत्परिक्षेपगततया 'नव जोयणसहस्साई' नव योजनसहस्राणि 'चत्तारि य छअसीई जोयणसयाई' चत्वारि षडशीतिः योजनशतानि षडशीत्यधिकानि चतुःशतयोजनानि 'नव य दसभागे जोयणस्स' नव च दशभागान् योजनस्य (९४८६ ) परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना पूर्वोक्तपरिधिवती सर्वाभ्यन्तरा बाहा मेरु पर्वतसमीपे 'आहिया' आख्याता 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्य इति । गौतमः पुनः प्रश्नयति-ता सेणं' इत्यादि । 'ता तावत् हे भगवन् 'से गं' सः तापक्षत्रसंस्थितिविषयः खलु 'परिक्खेवविसेसे' परिक्षपविशेषः मन्दरपरिरय-परिक्षेपणविशेष इत्यर्थः 'को' कुतः कस्मात् कारणात् इयत्परिमितः 'आहिए' माख्यातः ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु भवान् हे भगवन् । भगवानाह-'ता जे गं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जेणं' यः खलु 'मंदरस्स पन्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'परिक्खेवे' परिक्षेपः परिरयगणितसिद्धः त्रयोविंशत्यधिकषट्शतोत्तरैकत्रिंशत्सहस्र (३१६२३) परिमितो वर्तते 'तं परिक्खेवं तं परिक्षेपं 'तिहिं गुणित्ता' त्रिभिर्गुणयित्वा ततः 'दसहिं छित्ता' दशभिन्छित्त्वा-विभज्य भागं हत्वा दशभिर्विभज्यते इति भावः 'दसहिं भागे हीरमाणे'दशभिर्भागे हियमाणे यो राशिर्लभ्यते 'एस गं' एष खलु राशिः (९४८६. 'परिक्खेवविसेसे' परिक्षेपविशेषः मन्दरसमीपे तापक्षेत्रपरिमाणमागच्छति, कस्मादेवं क्रियते ! इति चेदाह-इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यदा सूर्यो वर्तते तदा जम्बूद्वीपसम्बन्धिनश्चक्रवालस्य यत्र तत्र प्रदेशे तत्तच्चक्रवालक्षेत्रप्रमाणानुसारेण त्रीन् दशभागान् (२) प्रकाशयतीति पूर्वमेवोक्तम् । साम्प्रतं मन्दरसमीपगततापक्षेत्रचिन्ता क्रियतेऽतः प्रथमं यथा मन्दरपरिरयः सुखेनावबुध्यते तदर्थमेवं क्रियते इति । तथा हि गणितप्रकारः-मन्दरपर्वतस्य विष्कम्भपरिमाणं दशसहस्रयोजन(१००००) परिमितम् । अस्य वर्गः क्रियते, या संख्या भवेत् सा तत्परिमितसंख्ययैव गुणनेनवर्गों भवति । एवं वर्गे कृते जाता दशकोट्यः (१००००००००) एकाङ्कोपरि अष्टशून्यानि, तासां दशकोटिकानां दशभिर्गुणने एक शून्यं दशकोट्याउपरिवर्धते तेन जातं कोटिशतम् (१००००. ०००००) एकाङ्कोपरि नवशून्यानि । अस्य राशेरासन्नवर्गमूलानयने लब्धानि किञ्चिन्यून त्रयोविंशत्यधिकषट्शतोत्तराणि एकत्रिंशत्सहस्राणि-(३१६२३) निश्चयतः, व्यवहारतस्तु परिपूर्णानीति विवक्ष्यते, अयं राशिस्त्रिभिर्गुण्यते तदा जायन्ते चतुर्नवतिसहस्राणि एकोनसप्तत्यधिकानि अष्टशतानि (९४८६९) एषां दशभिर्भागे हृते लभ्यन्ते षडशीत्यधिकचतुःशतोत्तराणि नवसहस्रयोजनानिशेषा Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रश्चप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ३ सू० २ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् १५९ नवच दश भागा योजनस्य(९४८६ २) इति लब्धं यथोक्तं मन्दरसमीपें तापक्षेत्रपरिमाणमिति, उक्तञ्चान्यत्रापि-'मंदरपरिरयरासी, तिगुणे दसभाइयमिज लद्धं । त होइ तावखेतं अभितरमंडले रविणो ॥१॥ इति । छोया-मन्दरपरिरयराशौ, त्रिगुणिते दशभाजिते यल्लब्धम् । तद्भवति तापक्षेत्रं, अभ्यन्तरमण्डले रवेः॥१॥ इति । उक्तं च सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थितिसमये मन्दरसमीपे तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरबाहाया विष्कम्भपरिमाणम् । अथ च लवणसमुद्रदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्ते स्थितायाः सर्वगाया बाहाया विष्कम्भपरिमाणमाह-'तीसे णं' इत्यादि, 'तीसे ण' तस्याः खलु तापक्षेत्रसंस्थितेः 'सव्वबाहिरिया बाहा' सर्वबाह्या बाहा 'लवणसमुईने णं' लवणसमुद्रान्ते 'चउणउइं जोयणसहस्साई चतुर्नवतियोंजनसहस्राणि 'अट्ठय अद्वसहे जोयणसयाई' अष्ट च अष्टषष्ठि योजनशतानि अष्टषष्टयधिकानि अष्टशतयोजनानि 'चत्तारि य दमभागे जोयणस्स' चतुरश्चदशभागान् योजनस्य (९४८६८१) यावत् 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण जम्बूद्वीपपरियपरिक्षेपेण 'आहिया' आख्याता 'ति वरज्जा' इति वदेत् । अथास्य स्पष्टबोधार्थ गौतमः प्रश्नयति-ता से गं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'से णं' स खलु एतावान् परिक्षेपविशेषस्तापक्षेत्रसंस्थितेः 'कओ आहिए' कुत आख्यातः कस्मात्कारणात् कथितः 'ति वएज्जा ' इति वदेत् वदतु भगवन् । इति गौतमेन प्रश्ने कृते तदेव भगवान् ददर्शयति-ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जेणं' यः खलु जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः परिरयगणितप्रसिद्धः 'परिक्खेवविसेसे' परिक्षेपविशेषः अस्ति 'तं परिक्खेवं' तं परिक्षेपम् 'तिहिं गुणित्ता' त्रिभिर्गुणयित्वा 'दसहिं छित्ता' दशभिछित्त्वा दशभिर्भागं द्वत्वा, दशभिर्विभज्यते इति भावः, 'दसहि भागे हीरमाणे' दशभिभागे हियमाणे दशभिर्विभाजिते सति यो राशिलभ्यते 'एस णं' एष : भागलब्धः खलु 'परिक्खेवविसेसे' परिक्षेविशेषः 'आहिए' आख्यातः। एतच्च यथोकं जम्बूद्वीपपर्यन्ते लवणदिशि तापक्षेत्रपरिमाणं भवति 'ति वएज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्य इति । तद्गणितविधिश्चेत्थम्-जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः-सप्तविंशत्यधिकद्विशतोत्तरषोडशसहस्राधिकानि त्रीणि लक्षाणि योजनानाम् (३१६२२७) तदुपरि गव्यूतत्रयम् (३) अष्टाविंशत्यधिकमेकं धनुः शतम् (१२८) सार्धत्रयोदशाङ्गुलानि (१३॥) च' मत्र निश्चयत एकं योजनं किञ्चिन्न्यूनं वर्त्तते किन्तु व्यवहारतः अष्टाविंशत्यधिकं एतद्वयं परिपूर्ण विज्ञेयं ततः-अष्टाविंशत्यधिकशतद्वयोत्तरषोडशसहस्राधिकानि त्रीणि लक्षाणि योजनानां (३१६२२८) जम्बूद्वीपपरिधिर्महीतव्यः । एषा संख्या त्रिभिर्गुण्यते जातानि-चतुरशीत्यधिकषट्शताधिकाष्टाचत्वारिंशत्सहस्रोत्तराणि Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिसूत्रे मवलक्षाणि (९४८६८४) एतेषां दशभिर्भागे ढ़ते लभ्यते यथोक्तं जम्बूद्वीपपर्यन्ते२, सर्वबाह्याबाहाया विष्कम्भपरिमाणम्-(९४८६८,१) इति । तदेवमुक्त जम्बूद्वीपे तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तराया सर्वबाह्यायाश्च बाहाया विष्कम्भपरिमाणम् । साम्प्रतं सामस्त्येन तापक्षेत्रपरिमाणमायामतः कियत् ? इति जिज्ञासायामाह--- 'ता सेणं' इत्यादि । ____ 'ता' तावत् 'से णं' तत् खलु ‘तावखेत्ते' तापक्षेत्रं 'केवइयं' कियत्कं । कियत्प्रमाणकम् 'भागामेणं' आयामेन सामस्त्येन दक्षिणोत्तरायततया 'आहियं' आख्यातम् । 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् । भगवानाह-'ता अत्तरि' इत्यादि । 'ता' तावत् 'अत्तरि' मासप्ततिं 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि अष्टसप्ततिसहस्रयोजनानि 'तिण्णि य तेत्तीसं बोयणसयाई' त्रीणि त्रयस्त्रिंशतं योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकत्रिशतयोजनानि 'जोषणतिभागं च' योजनत्रिभागं च एकस्य योजनस्य तृतीयं भागं यावत् ७८३३३१) योजनत्रिभागं 'जोयण तिभागं च' आयामेय दक्षिणोत्तरायतया 'आयामेणं' मायामेन दक्षिणोत्तरायतया 'आहिय' आख्यातं कथितम् 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । मयमाशयः-सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यदि सूर्यश्चारं चरति तदा तस्य तापक्षेत्रं दक्षिणोत्तरायततामाश्रित्य मेरोर्मध्यभागाद् आरभ्य यावत् लवणसमुद्रस्य षष्ठो भागो भवेत् तावद् वर्षते, भत्रार्थे चाह मेरुस्सममभागा, जाव य लवणस्स रुंदछब्भागा । तावायामो एसो, सगडुद्धी संठिओ नियमा ॥१॥ छाया-मेरोमध्यभागात् यावच्च लवणस्य रुंद षड्भागाः । तापायामः, एष शकटो द्विसंस्थितो नियमात् ॥१॥ इति । एषः तापक्षेत्रस्यायामः । तत्र मेरोरारभ्य जम्बूद्वीपपर्यन्तभागं यावत् पञ्चचत्वारिंशत्सहस्रयोजनानि (४५०००) लवणसमुद्रस्य विस्तारश्च द्विलक्षयोजनानि, एषां षष्ठो भागः षष्ठेन भागहरनात् लब्धः त्रयस्त्रिंशत्सहस्रयोजनानि, त्रयस्त्रिंशदधिकशतत्रयोत्तराणि योजनस्य च त्रिभागः ततोऽस्यां संख्यायां पञ्चचत्वारिंशत् सहस्रयोजनानां संमेलने जातं यथो कम् (७८३३३१) आयामपरिमाणम् । मेरोरारभ्य जम्बूद्वीपपर्यन्तभागं यावत् पश्चचत्वारिशसंहनयोजनानि कथं स्युरित्याह-जम्बूद्वीपपरिमाणमेकलक्षयोजनकम् तस्मात् मेरोर्भागः-दशसहन Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०४ सू०२ तापक्षेत्र संस्थिति निरूपणम् १६९ योजन परिमितः, स जम्बूद्वीपपरिमाणात् शोध्यते ततो भवेयुः नवतिसहस्रयोजनानि, एष भागद्वयकरणे एकस्य भागस्य लभ्यन्ते पञ्चचत्वारिंशत्सहस्र योजनानीति । उक्तं तापक्षेत्रपरिमाणं, साम्प्रतं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमाश्रित्यान्धकारसंस्थितिं प्रतिपादयन्नाह - 'तया णं' इत्यादि - 'तया णं' तदा खलु सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारसमये 'किं संठिया' किं संस्थिताकीदृक्संस्थानवती 'अंधगारसंठिई' अन्धकारसंस्थितिः 'आहिया' आख्याता ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ? भगवानाह - 'ता' तावत् 'उद्धीमुहकलबुया पुष्कसंठिया' उर्ध्वमुखकलम्बुका पुष्पसंस्थिता 'तहेत्र जाब बाहिरिया वेब बाहा' तथैव यावत् बाह्याचैव बाहा तथैव पूर्वोक्तवदेवात्र पाठो ग्राह्यः । कियत्पर्यम्तमित्याह - यावत् बाह्या चैव बाहा, तत्रत्य प्रकरणं चेत्थम् - आख्याता इति वदेत् कीदृशी सा अन्धकारसंस्थिति: ? अत्राह तथा च तत्पाठ:- 'अंतो संकुडा बाहिं बित्थडा, अंतो वा बार्हिपिहुला, अंतो अंकमुहसंठिया, बाहिं सस्थियमुहसंठिया, उभओ पासेणं तीसे दुवे बाहाओ अवट्टियाओ भवंति पणयालीसं पणयालीसं जोषणसहस्साई आयामेणं, तीसे दुबे बाहाओ - अणवट्टियाओ भवंति, तंजहा - सव्वन्तरिया चैव बाहा सव्वबाहिरियाचेव बाहा " , एषां पदानामर्थः पूर्वव्याख्यातः, स तत्र विलोकनीयः । द्वे वाहे अत्र अन्धकारसंस्थितैर्ज्ञातव्ये, इति विशेषः । तयोर्द्वयोर्बाहयोर्मध्ये प्रथमं सर्वाभ्यन्तराया वाहाया विष्कम्भमाश्रित्य परिमाणमाह- 'तीसे णं' इत्यादि । 'तीसे णं' तस्या अन्धकार संस्थितेः खलु सव्वग्भतरिया वाहा' सर्वाभ्यन्तरा बाहा या 'मंदरपव्वयं तेण' मन्दरपर्वतान्ते मन्दरपर्वतसमीपे वर्तते सा 'छज्जोयणसहस्साई' षड् योजनसहस्राणि षट्सहस्रयोजनानि 'तिण्णि य चउवीसे' जौयणसयाई, त्रीणि च चतुर्विंशतिः योजनशतानि चतुर्वि ंशत्यधिकत्रिशतयोजनानि 'छच्च दसभागे जोयणस्स' षट् च दशभागान् योजनस्य ६ ६३२४. 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण 'आहिया' आमाता 'ति वएज्जा' इतिवदेत् कथयेत् १० स्वशिष्येभ्य इति । अत्र गौतमः पृच्छति 'ता से णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'से णं' स खलु पूर्वोक्तः 'परिक्खेव बिसेसे' परिक्षेपविशेषः 'कओआहिए' कुतः कस्मात्कारणात् आख्यातः ! 'तिव एज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! | भगवानाह - हे गौतम : 'ता' तावत् 'जेणं' यः खलु 'मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेचे' मन्दरस्य पर्वतस्य परिक्षेपः प्राक् प्रतिपादितप्रमाणोऽस्ति 'तं परिक्खेवं' तं परिक्षेपम् ' दोहिं गुणित्ता' द्वाभ्यां गुणयित्वा 'सेसं तहेव' शेषं तथैव पूर्ववदेव २१ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे अनुसंधेयम्, तथाहि—'दसहिं छित्ता दसहि भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिएति वएज्जा' छाया-दशभिश्छित्त्वा, दशभिर्भागे हियमाणे एष खलु परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत् । किगर्थ द्वाभ्यां गुणनम् ! दशभिश्च भागहरणम् ? इति चे दाह इह द्वयोः सूर्ययोः सर्वाभ्यन्तरमण्डलचरणसमये एकस्यापि सूर्यस्य जम्बूद्वीपगतचक्रवालस्य यस्मिन् तस्मिन् वा प्रदेशे यत्तच्चक्रवालक्षेत्रानुसारेण त्रयोदशभागाः प्रकाश्याः स्युः, तत उभयसंयोगे दशभागाः षड् भवन्ति, तेषां प्रत्येकं त्रयाणां त्रयाणां दशभागानामपान्तराले द्वौ द्वौ दशभागौ रजनी भवतः, ततः कारणात् द्वाभ्यां गुणनं कथितम् । तौ च द्वौ दशभागाविति दशभिर्भागहरणं कथितम्। 'सेसं तहेव' शेषं तथैव पूर्ववदेव' अथ सर्वबाह्यबाहा विषये प्राह-'तीसेणं' तस्याः खलु अन्धकारसंस्थितेः 'सव्वबाहिरिया बाहा' सर्वबाह्या बाहा 'लवणसमुदंतेणं' लवणसमुद्गान्ते लवणसमुद्रसमीपे जम्बूद्वीपपर्यन्तभागे 'तेवढि जोयणसहस्साई' त्रिषष्टिजोयनसहस्राणि 'दोण्णि य पणयाले जोयणसयाई द्वे पञ्चचत्वारिंशते योजनशते पश्चचत्वारिंशदधिके द्वे शते 'छच्च दसभागे जोयणस्स' षड् च दशभागान् योजनस्य (६३२४५.३) यावत् 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण जम्बूद्वीपपरिरयपरिक्षेपेण 'आहिया' आख्याता ति वएज्जा' इति वदेत् । पुनीतमः स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधार्थ प्रश्नयति—'ता से गं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'से गं' स खलु अन्धकारसंस्थितेः 'परिक्खेवविसेसे' परिक्षेपविशेषः 'कओ' कुतः कस्मात् कारणात् 'आहिए' माख्यातः ? 'ति वएज्जा' इति वदेत्-वदतु कथयतु हे भगवन् ! एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवान् तदर्शयति-'ता जेणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जे णं' यः खलु 'जंबुद्दीवस्स दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपः पूर्वप्रदर्शितः 'तं परिक्खेवं' तं परक्षेपम् 'दोहि गुणित्ता' द्वाभ्यां गुणयित्वा 'दसहिं छेत्ता' दशभिश्छित्वा दशभिर्विभज्यते इति भावः ततः 'दसहिं भागे होरमाणे' दशभिर्भागे हियमाणे यो राशिर्लभ्यते 'एस'णं' एष खलु-परिक्खेवविसेसे' परिक्षेपविशेषः अन्धकारसंस्थितेः 'आहिए' आख्यातः 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिध्येभ्यः । अस्य कारणं पूर्वं प्रदर्शितमेव । तथा च तद्दीते-जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपपरियाणम् अष्टाविंशत्यधिकशतद्वयोत्तरषोडशसहस्राधिकानि त्रीणि लक्षाणि (३१६२२८) एष राशिभ्यां गुण्यते जातानि अस्य द्विगुणानि षड् लक्षाणि षट्पञ्चाशदधिकचतुःशतोत्तरद्वात्रिंशत्सहस्राधिकानि (६३२४५६) एषामङ्कानां दशभिर्भागो हियते तदा लब्धानि पश्चचत्वारिंशदधिकद्विशत्तोत्तराणि त्रिषष्टि Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तापक्षेत्र संस्थितिनिरूपणम् १६३ एवमेष सूत्रप्रदर्शित प्रमाणेs चन्द्रप्रकाशिका टीका प्रा० ४- सू० २ सहस्रयोजनानि षट् च दश भागा योजनस्य (६३२४५। न्धकार संस्थितेः परिक्षेपविशेष आगच्छतीति । उक्तं सर्वबाह्याया अपि षाहाया, विष्कम्भपरिमाणम्, साम्प्रतं सामस्त्येनान्धकारसंस्थितेयाप्रमाणविषये गौतमः पृच्छति' ता से णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'से णं' स खलु अन्धकारः ' केवइए' कियत्कः कियत्प्रमाणः 'आयामेणं' आयामेन 'आहिए' आख्यातः - कथितः भवता ? 'ति वएज्जा' इति वदेत्-वदतु हे भगवन् भगवान् तत्प्रमाणं प्रदर्शयति - ' ता अट्ठतरिं' इत्यादि । 'ता' तावत् स अन्धकारः 'अतरिजोयणसहस्साइं 'अष्टसप्ततियोजनसहस्राणि अष्टसप्ततिसहस्रयोजनानि 'तिष्णि य तेत्तीसं जोयणसयाई' त्रीणि च त्रयस्त्रिंशद् योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकशतत्रययोजनानि 'जोयण ति भागं च' योजनत्रिभागं च यावत् (७८३३३ - ३) 'आयामेणं' आयामेन 'आहिए' आख्यातः 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः कथयेत् । अथ तत्समयगतदिवसरात्रिप्रमाणमाह- 'तया णं' इत्यादि । 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठा प्राप्तः परमप्रकर्षसम्पन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, 'जहण्णिया' जघन्यिका सर्वलघ्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति ॥ सू० २॥ तदेवमुक्का सर्वाभ्यन्तरे मण्डले तापक्षेत्रसंस्थितिः अन्धकार संस्थितिश्च, साम्प्रतं सर्व बाह्यमण्डलगतां तामाह 'ता जया णं' इत्यादि । मूलम् - ता जया णं सुरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तथा णं किं संठिया तावक्खेत्त संठिई आहिया ? तिवएज्जा, ता उद्धीमुहकलंबुया पुप्फ संठिया तावक्खेत्तसंठिई आहिया ति वएज्जा । एवं जं अग्भितरमंडले अंधयारसंठिईए पमाणं तं बाहिरमंडले तावक्खेत्तसंठिईए पमाणं जं तर्हि तावक्रखेत्तसंठिईए पमाणं तं बाहिरमंडळे अंधयारसंठिईए पमाणं भाणियव्वं जाव तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । ता जंबुद्दीवेणं दीवे सूरिया केवइयं खेत्त उर्द्धतवेंति ? केवइयं खेत्तं अहे तवेंति ? केवइयं खेत्तं तिरियं तवेंति ! | ता जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया एगं जोयणसयं उडूढं तवेंति, अट्ठारसजोयणसयाई आहे Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रमशसिस्शे तवेंति, सीयालीसं जोयणसहस्साई दुन्नि य तेवड्ठे जोयणसए एकवीसं च सद्विभागे जोयणस्स तिरियं तवेंति ॥सू० ३॥ चंदपन्नत्तीए चउत्थं पाहुडं समत्तं ॥४॥ छाया-तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु किंसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः आख्याता ? इति वदेत् । तावत् ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः आख्याता, इति वदेत् । एवं यत् अभ्यन्तरमण्डले अन्ध. कारसंस्थित्तेः प्रमाणं तबाह्यमण्डके तापक्षेत्रसंस्थितेः प्रमाणम् यत् तत्र तापक्षेत्रसंस्थितेः प्रमाणं तद् बाह्यमण्डले अन्धकारसंस्थितेः प्रमाणं भणितव्यम् यावत् तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति । तावत् जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे सूर्यो कियत्कं क्षेत्रम् ऊर्ध्व तापयतः ? कियत्कं क्षेत्रम् अधः तापयतः। कियत्कं क्षेत्र तिर्यग्तापयतः। तावत् जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे सूर्यो एक यो जनशतम् अवं तापयतः, अष्टादशयोजनशतानि अधः ताफ्यतः, सप्तचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि द्वे त्रिषष्टिः योजनशते एकविंशतिं च षष्टि भागान् योजनस्य तिर्यक् तापयतः। सू०३॥ चन्द्रपज्ञप्त्यां चतुर्थ पाभृतं समाप्तम् ॥४॥ व्याख्या-'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल्ल 'मूरिए' सूर्यः 'सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमिता चारं चरई' सर्वबाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'कि संठिया तावक्खेत्तसंठिई आहिया' किं संस्थिता कीदृक् संस्थानवती तापक्षेत्रसंस्थितिराख्याता 'तिवएज्जा' इति वदेद् बदतु हे भगवन् एवं गौतमेन प्राने कृते भगवानाह-'ता' तावत् 'उद्धीमुहकलंबुया पुप्फसंठिया तापक्खेत्तसंठिई आहिया' ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिराख्याता" 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः अथ पूर्वसूत्रातिदेशमाह-'एवं' इत्यादि । 'एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'ज' यत् 'अभितरमंडले' सर्वाभ्यतरमण्डले सूर्यस्य चारसमये 'अंधयारसंठिईए पमाणं' अन्धकारसंस्थितेः प्रमाणमुक्तम् 'त' तत् प्रमाणं 'बाहिरमंडले' सर्वबाह्यमण्डले सूर्यस्य चारसमये 'ताबक्खेतसंठिईए' लापक्षेत्रसंस्थितेः 'पमाणं' प्रमाणं विज्ञेयम् । 'ज' यत् 'तहिं' तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डले सूर्यस्य चार समये 'तावक्खेत्तसंठिईए पमाणं' तापक्षेत्रसंस्थितेः प्रमाणमुक्तम् 'त' तत् 'बाहिरमण्डले' सर्वबाह्यमण्डले सूर्यस्य चारसमये 'अंधकारसंठिईए' अन्धकारसंस्थितेः 'पमाणं' प्रमाणं ज्ञातव्यम् । सर्वाभ्यन्तरमण्डगतेसूर्ये यत् अन्धकारसंस्थितिप्रमाणं तत् बाह्यमण्डलगते स्यें तापक्षेत्रस्य प्रमाणं बोच्यम् । यत् सर्वाभ्यन्तरमण्डले सूर्यस्य चारसमये तापक्षेत्रसंस्थितिप्रमाणं लदत्र बाघमण्डलेअन्धकारसंस्थितिप्रमाण बोध्यम् । सर्वाभ्यन्तरसर्वबाह्यमण्डयोः परस्परमन्धकारतापक्षेत्रसंस्थितिप्रमाणं वैपरोल्येन सदृशं विज्ञेयमितिभावः । इदं प्रकरणं पूर्वोक्तं कियत्पर्यन्तं बोध्यम् ! तदेवाह-'जाच' इत्यादि, 'जा' यावत् वक्ष्यमाणं रात्रि Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ४ सू० ३ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् १६५ दिवस परिमाणमायाति तावत्-वक्तव्यम् । तदेवाह--'तया गं' तदा खलु 'उत्तमकहपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिभवति, 'जहष्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति, इत्यालापकपर्यन्तं सर्वे पूर्वोक्तं प्रकरणमत्र बोच्यम् । विशेषः केवलमयम्-यत् तत्र अष्टादशमुहूर्तों दिवसः द्वादशमुहूर्ता रात्रिः कथिता, अत्र तु अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्वादशमुहूत्र्तो दिवसो भवतीति प्रदर्शितमेवेति । तत्रत्या सूत्ररचनात्वेवम् – 'उद्धीमुहकलंबुयापुप्फसठिया तावखेत्तसंठिई उर्ध्वमुखकलबुकापुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिरित्युक्तम्, सा च-'अंतो संकुडा बाहि वित्थडा, अंतो वट्टा बाहिं पिहुला, अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थियमुहसंठिया, उभो पासेणं तीसे दुवे बाहाओ अवटियाओ०" इत्यादि, सर्वोऽपि पाठोऽत्र पठनीयः, विस्तरभयाद् विरम्यते। एषां व्याख्याऽपि तत्र विलोकनीया विस्तरजिज्ञासुभिः सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रस्य मत्कृतायां सूर्य ज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां विलोकनीयम् । तत्रायं सर्वोऽपि पाठः संगृहीत इति । यत् तापक्षेत्रचिन्तायां मन्दरपरिरयादेख्भ्यां गुणनं कृतं तत् अन्धकारचिन्तायां त्रिभिर्गुणनं कृतम्, ततोऽनन्तरं विभाजनं तूभयत्रापि दशभिरेव कृतम् । तथा सर्वबाह्यमण्डले चारं चरतः सूर्यस्य लवणसमुद्रमध्ये तदनुरोधात् तापक्षेत्रं पञ्चहनयोजनपरिमितं भवति, अन्धकारश्चायामतो वर्धतेऽतः स व्यशीतिसहस्रयोजनपरिमितः कथित इति । उक्तं च तापक्षेत्रसंस्थितेः, अन्धकारसंस्थितेश्च परिमाणम् । अथ च जम्बूद्वीपे द्वौ सूर्यो ऊर्ध्वमधः, पूर्वाऽपरे च विभागे कियत्क्षेत्रं तापयतः : इति तन्निरूपणार्थमाह—ता जंबुद्दीवेणं दीवे' इत्यादि । __'ता' तावत् 'जंबुद्दीवेणं दीवे' जम्बूद्वीपे खल द्वीपे 'सूरिया' सूर्यों द्वौ सूर्यों प्रत्येक 'केवइयं खेत्तं' कियत्कं कियत्प्रमाणं क्षेत्रम् ‘उड्ढं तवेंति' ऊवं तापयतः प्रकाशयतः, । 'केवइयं खेत्तं कियत्कं कियत्प्रमाणं क्षेत्रम् 'अहे' अधः 'तवेंति' तापयतः । 'केवइयं खेत्तं' कियत्कं कियप्रमाणं क्षेत्रम् 'तिरियं तवेंति' तिर्यक् तापयतः । इति प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता' इत्यादि 'ता' तावत् 'जंबुद्दीवे णं दीवे' जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे 'मरिया' द्वौ सू? प्रत्येकम् ‘एगं जोयणसयं' एक योजनशतम् एकशतयोजनपर्यन्तम् ‘उड्ढं' ऊर्ध्व स्वविमानाद् ऊर्श्वभाग 'तवेंति' तापयतः, 'अट्टारस जोयणसयाई' अष्टादशयोजनशतानि अष्टादशशतयोजनपर्यन्तम् 'अहे' अधः स्वविमानादधोभागे अधोलोकग्रामापेक्षया 'तति' तापयतः, तथा 'सीयालीसजोयणसहस्साई' सप्तचत्वारिंशयोजनसहस्राणि सप्तचत्वारिंशत्सहस्रयोजनानि 'दुन्निय तेवढे जोयणसयाई द्वे च त्रिषष्टिः योजनशते त्रिषष्टयधिकद्विशत योजनानि 'एक्कवीसं च सद्विभागे जोयणस्स' एकविंशति च Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे षष्टिभागान् योजनस्य (४७२६३/२१) तिरिय तिर्यक् स्वविमानात् पूर्व भागेऽपरभागे च 'तति' तापयतः प्रकाशयतः । अयमाशयः-अधोलौकिकमामाः समतलभूभागाद् अधः एकसहस्रयोजनेन व्यवस्थिताः, तत्रापि सूर्यप्रकाशः प्रसरति । ततः समतलभूभागस्याध एकसहस्रयोजनपर्यन्तं, तदूर्ध्व चाष्टशत योजनानि, इत्युमयमीलनेऽष्टादशशतयोजनानि भवन्ति, तिर्यक् च स्वविमानात् पूर्वापरभागद्वये सूों प्रत्येकं त्रिषष्टयधिकशतद्वयोत्तराणि सप्तचत्वारिंशत्सहस्रयोजनानि, एकविंशतिं च षष्टिभागान् योजनस्य (४७२६३ २१) प्रकाशयत इति ।।सू ० ३॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-जप्रसिद्धवाचक पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशानाचार्य" पदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालवति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्राप्तिप्रकाशिकायां चतुर्थ मूलप्रामृतं समाप्तम् ॥४॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ पंचमं प्राभृतं प्रारभ्यते ॥ व्याख्यातं चतुर्थ प्राभृतं, तत्र श्वेततायाः संस्थितिरुक्का, साम्प्रतं पश्चमं प्रारभ्यते मत्रायमधिकारः - 'कहिं पडिहया लेस्सा, कस्मिन् लेश्या प्रतिहता । इत्येतद्विषयोऽत्रप्ररूपयिष्यते, तस्य चेदमादिमं सूत्रम् — 'ता कस्सि णं' इत्यादि । मूलम् - ता कसि णं सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिया ! ति वएज्जा । तत्थ खलु इमाओ वीस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु ता मंदरंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिया तिवएज्जा, एगे एवमाहंसु । १। एगे पुण एवमाइंसु - ता मेरुंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिया तिवएज्जा, एगे एबमाहंसु |२| एवं एएणं अभिलावेणं ता मणोरमंसि णं पव्वयंसि | ३| ता सुदंसणंसि णं पव्वयंसि |४| ता सयंपर्भसि णं पव्वयंसि | ५ | ता गिरिरायंसि णं पव्वयंसि |६| ता रयणुच्चयंसि णं पव्वयंसि | ७| ता सिलुच्चयंसि णं पव्वयंसि | ८ | ता लोयमज्झसिं णं पव्वसि । ९ । ता लोयणाभिसि णं पव्वयंसि | १० | ता अच्छंसि णं पव्वयंसि । ११ । ता सूरियावत्तंसि णं : पव्वयंसि । १२ । ता सूरियावरणंसि णं पव्वयंसि | १३ | ता उत्तमंसि णं पव्वयंसि | १४ | वा दिसादिसि णं पव्वयंसि । १५। ता अवयंसंसि णं पव्वयंसि । १६ । ता धरणिखी लंसि णं पव्वयंसि | १७| ता धरणिसिगंसि णं पव्वयंसि | १८ | ता पव्वविंदंसिणं पव्वयंसि । १९ । एगे पुण एवमाहंसु ता पव्वयरायंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पsिहया आहियाति वएज्जा, एगे एवमाहंसु ||२०|| वयं पुण एवं वयामो- ता मंदरेवि पवुच्चर, मेरु वि पवुच्चइ जाव पव्वपरायावि पवुच्चइ (२०) ता जे णं पुग्गला सूरियस्स लेस्सं फुसंति ते णं पुग्गला सूरियस्स लेस्सं डिति अदिट्ठा विणं पुग्गळा सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति, चरिमले संतरगया वि पुग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति ॥ सू० १ ॥ || चंदपन्नत्तीए पंचमं पाहुडं समत्तं ॥ ५ ॥ छाया तावत् कस्मिन् खलु सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता ? इति वदेत् । तत्र खलु इमा विंशतिः प्रतिपत्तयः प्रशप्ताः तद्यथा-तत्र एके पवमाहुः - तावत् मन्दरे बलु पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता, इति वदेत्, एके पवमाहुः |१| एके पुनरेव माहुःतावत् मेरोः खलु पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत्, एके पवमाहुः |२| पवम् एतेन अभिलापेन तावत् - मनोरमे खलु पर्वते ३ तावत् सुदर्शने खलु पर्वते |४| तावत् स्वयंप्रभे खलु पर्वते । ५। तावत् गिरिराजे खलु पर्वते । ६ । तावत् रत्नोच्चये खलु पर्वते ॥७॥ तावत् शिलोच्चये खलु पर्वते |८| तावत् लोकमध्ये बलु पर्वते ९॥ तावत् लोकनाभौ खलु पर्वते |१०| तावत् अच्छे बलु पर्वते ।११। तावत् सूर्यावन्ते खलु पर्वते । १२ । तावत् सूर्यावरणे खलु पर्वते | १३ | तावत् उत्तमे खलु पर्वते । १४ तावत् दिशादौ खलु Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे पर्वते ।१५। तावत् अवतंसे खळु पर्वते ।१६। तावत् धरणिकीले खलु पर्वते ।१७। तावत् धरणिशृङ्गे खलु पर्वते ।१८ तावत् पर्वतेन्द्रे खलु पर्वते ।१९। एके पुनरेव माहुः-तावत् पर्वतराजे खलु पर्वते सूर्यस्थ लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत् , एके एवमाहुः ।२०। वयं पुनरेवं वदामः-तावत् मन्द्रोऽपि प्रोच्चते, मेहरषि प्रोच्यते तावत् पर्वतराजोऽपि (२०) प्रोच्यते । तावत् ये खलु पुद्गलाः सूर्यस्य-लेश्यां स्पृशन्ति ते खलु पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां प्रतिघ्नन्ति, अदृष्टा अपि खल पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां प्रतिघ्नन्ति, चरमलेश्यान्तरगता अपि खलु पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां प्रतिघनन्ति सू० ॥१॥ चन्द्रप्रशत्यां पञ्चमं प्राभृतं समाप्तम् ॥५॥ व्याख्याः–'ता' तावत् सर्वाभ्यन्तरमण्डले यदा सूर्यश्चारं चरति तदा सूर्यस्य लेश्या प्रसरतीति 'कस्सि गं' कस्मिन् खलु स्थाने 'सूरियस्स लेस्सा' सूर्यस्य लेश्या तेजो रूपा पडिहया' प्रतिहता अवष्टब्धा प्रतिरुद्धेत्यर्थः 'आहिया' आख्याता ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ।। इदमत्र तात्पर्यम्-इहाभ्यन्तरं प्रविशन्ती सूर्यस्य लेश्याऽवश्यं प्रतिहता भवति, सा च कस्मिन् स्थाने प्रतिहता भवतीति जिज्ञासा जायते यतो हि सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले चारसमये पश्चचत्वारिंशत्सहस्रयोजनपरिमितमेव जम्बूद्वीपगतं तापक्षेत्रमायामतः प्रोक्तम् , इयत्परिमितं तापक्षेत्रं च सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थिते सूर्ये लेश्याप्रतिघातं विना नोपलभ्यते, यद्येवं न मन्यते तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद्वहिः सूर्यस्य निष्क्रमणसमये तत्सम्बन्धिनस्तापक्षत्रस्यापि निष्क्रमणसद्भावात् , सूर्यस्य सर्वबाह्यमण्डलचारसमये तापक्षेत्रमायामतो हीनमायाति, किन्तु तस्य हीनत्वं न प्रतिपादितम् , अतो ज्ञायते सूर्यस्य लेश्या क्वापि प्रतिहताऽवश्यं जाता भवेत् , इति तद वबोधाय एष प्रश्नो गौतमेन कृतः । इमं प्रश्नं स्पष्टी कर्तुंकामो भगवान् प्रथममेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयः सन्ति ता उपदर्शयति -'तत्य खलु' इत्यादि। ___'तत्थ खलु' तत्र लेश्याप्रतिघातविषये खलु 'इमाओ' इमा अग्रे वक्ष्यमाणस्वरूपाः 'वीसं' विंशतिः विंशतिसंख्यकाः 'पडिबत्तीओ' प्रतिपत्तवः परमतमान्यतारूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कविताः. 'तं जहां तद्यथा-ता यथा-'तस्थ' तत्र विंशतिप्रतिपत्तिवादिषु मध्ये 'एगे' एके कैचम प्रथमास्सीर्थान्तरीयाः 'एषे माइंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण माहुः कथयन्ति - 'ता' तावत् 'मैदरंसि णं पव्वेयसि' मन्दरे खलु पर्वते 'सरियस्स लेस्सा' सूर्यस्य लेश्या तेजोरूपा 'पडिया' प्रतिहता 'आडिया' आख्याता 'ति वएज्जा' इति वदेत् इति कथनीयमिस्वर्थः ‘एगे' एके प्रथमाः पवमाहंसु एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः ।१। 'एगे पुण' एके केचन द्वितीया 'एवमासु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'मेरुसि णं पव्वयसि' मेरौ खल पर्वते 'सरियस्स लेस्सा' सूर्यस्य लेश्या 'पडिहया आहिया' प्रतिहता Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रालित्रकाशिका टीका प्रा०-५सू०१ सूर्यलेश्यायाः प्रतिघातस्वरूपम् १६९ आख्याता 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः कथयेत् ‘एगे' एके पूर्वोक्ता द्वितीयाः एकमाहंसु' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति ।२। 'एवं' मनेन प्रकारेण 'एएणं' एतेन पूर्वमनुपदप्रदर्शितेन 'अभिलापेण' आलापकप्रकारेण शेषा अपि प्रतिपत्तयः कथनीयाः । मत्रतु केवलं प्रतिपत्तय एव प्रदर्श्वन्ते, आलापकयोजना स्वयं करणीया, तथाहि--'ता मणोरमंसि गंपन्नयंसि' तावत् मनोरमे खलु पर्वते ।३। 'ता सुदंसगंसि णं पव्वयंसि' तावत् सुदर्शने खलु पर्वते ।४। 'ता सयंपभंसि ण पव्वयंसि' तावत् स्वयंप्रभे खलु पर्वते ५। 'ता गिरिरायंसि णं पब्वयंसि' तावत् गिरिराजे खलु पर्वते ।६। 'ता रयणुच्चयंसि णं पव्वयंसि' तावत् रत्नोचये खलु पर्वते ।७। 'ता सिलुच्चयंसि णं पव्वयंसि' तावत् शिलोच्चये खलु पर्वते ।। 'ता लोयममंसि णं पव्वयंसि' तावत् लोकमध्ये खलु पर्वते ।९। 'ता लोयणाभिंसि ण पन्चयंसि' तावत् लोकनाभौ खलु पर्वते ।१०। 'ता अच्छंसि खलु पव्वयंसि तावत् अच्छे खलु पर्वते ।११। 'ता सूरियावत्तंसि णं पव्वयंसि' तावत् सूर्यावत्तें खलु पर्वते ।१२। 'ता सूरियावरणंसि णं पव्वयंसि' तावत् सूर्यावरणे खलु पर्वते ।१३। 'ता उत्तमंसि णं पव्वयंसि' तावत् उत्तमे खलु पर्वते ।१४। 'ता दिसादिसि णं पव्वियंसि' तावत् दिशादौ खलु पर्वते ।१५। 'ता अवतंसंसि णं पव्वयंसि' तावत् अवतंसे खलु पर्वते ।१६। 'ता धरणिखीलंसि णं पव्वयंसि' तावत् धरणिकीले खलु पर्वते ।१७। 'ता धरणिसिंगंसिणं पव्वयंसि' तावत् धरणिशृङ्गे खलु पर्वते ।१८० 'ता पबतिदंसि णं पन्वयसि' तावत् पर्वतेन्द्रे खलु पर्वते ।१९। 'एगे पुण' एके विंशतितमप्रतिपत्तिवादिनः पुनः ‘एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण माहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'पन्वयरायसि णं 'पव्वयंसि' पर्वतराजे खलु पर्वते 'सरियस्स' सूर्यस्य 'लेस्सा' लेश्या तेजोरूपा 'पडिहया' प्रतिहता 'आहिया' अख्याता ‘ति वएज्जा' इति वदेत् । उपसंहारमाह'एगे' एके विंशतितमाः परमतवादिनः ‘एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्ति ॥२०॥ यद्यप्येते मन्दरादयः सर्वेऽपि शब्दा वस्तुत एकार्थिका एव, तथापि भिन्नाभिप्रायत्त्वेन कथितत्वादेते विंशतिरपि प्रतिपत्तिवादिनो मिथ्याप्ररूपका एवेति प्रदर्य साम्प्रतं भगवान् स्वमतप्रदर्शयन्नाह-'वयं पुण इत्यादि । 'वयं पुण' वयं तु अत्र 'पुनः' शब्दः 'तु' इत्यर्थे, 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः । तदेवाह-'ता' इत्यादि । 'ता' तावत् यत्र लेश्या प्रतिहता भवति स पर्वतः ‘मंदरे वि पवुच्चई' मंदरोऽपि प्रोच्यते, 'मेरूवि पवुच्चई' मेरुरपि प्रोच्यते 'जाव' यावत् , यावत्पदेन मध्यगतानां मनोरमादारभ्य पर्वतेन्द्रपर्यन्तानां सप्तदशानां ग्रहणं भवति द्वौ मन्दरमेरुनामानी पर्वतो पूर्व सूत्रे प्रोको । 'पव्ययरायावि पवुच्चइ' पर्वतराजोऽपि विंशति २२ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० पत्रपति नमः प्रोच्यते, पर्वतराजोऽपि स एव प्रोच्यते नान्यः कश्चिदन्यः पर्वत इति । अयमेको पर्वतो विंशतिनामभिः कथं ख्यात इति तेषामर्थाधिकारः प्रदर्श्यते तथाहि . (१) मन्दरः - पल्योपमस्थितिक मन्दराभिधदेवनिवासस्थानयोगात् । (२) मेरु:- तस्य समस्ततिर्यगूलोकमध्यभागस्य मर्यादाकारित्वात् । (३) मनोरमः — अतिसुरूपतया देवानां मनोरमणहेतुकत्वात् । (४) सुदर्शनः -- जाम्बूनदजातीय सुवर्णमयत्वेन वज्ररत्न बहुलत्वेन च मनोमोदजनक सुष्ठुद नवत्त्वात् । (५) स्वयंप्रभः - रत्नबहुलतया आदित्यादिनिरपेक्षस्वयं प्रभावत्त्वात् । (६) गिरिराजः - सर्व गिरीणामुच्चैस्त्वेन तीर्थकरजन्मोत्सवाभिषेकाश्रयत्वेन च गिरीणां मध्ये राजसादृश्यात् । (७) रत्नोच्चयः – नानाविधरत्नानामतिशयेन चयस्थानत्वात् । : (८) शिलोच्चयः – पाण्डुकम्बलादिशिलानां तदुपरि चय सद्भावात् । (९) लोकमध्यः - समस्त तिर्यगू लोकस्य मध्यवर्त्तित्वात् । (१०) लोकनाभिः --- स्थालमध्यस्थित समुन्नतवृत्तचन्द्रतुल्यत्वेन स्थालाकारतिर्यग्लोकस्य नाभिसादृश्यात् । (११) अच्छ:- - अतिनिर्मलजाम्बूनद सुवर्णवज्रादिरत्नबहुलत्वेन स्वच्छकान्तिमत्त्वात् । (१२) सूर्यावर्त :- सूर्यस्य उपलक्षणाच्चन्द्रग्रहनक्षत्रतारारूपाणां प्रदक्षिणावर्त्तस्थानत्वात् । (१३) सूर्यावरणः - सूर्यादिभिः परिभ्रमणशीलैरावृतत्वात् । (१४) उत्तमः – गिरीणां मध्ये सर्वोत्कृष्टत्वेन उत्तमत्वात् । (१५) दिशादिः - गोस्तनाका राष्ट्रप्रदेशात्मकरुचका देव दिग्विदिशामादिर्ज्ञायते, तस्यमध्यवर्त्तित्वात् (१६) अवतंसकः - गिरीणां चूडामणिसादृश्यात् । एषां षोडशानां नामसंग्राहकं गाथाद्वयं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिप्रसिद्धं — यथा- - "मंदर - मेरु- मनोरम, - सुदंसण - सयंप्रभेय गिरिराया । रयणोच्चए सिलोच्चय, मज्झे लोगस्स नाभी य ॥१॥ अच्छे सूरियावत्ते, सूरियावरणे इय । उत्तमे य दिसाई य वर्डिसे इय सोळसे ॥२॥ छाया पूर्वप्रदर्शितनामभिः सुगमैवेति । (१७) धरणिकील: - पृथिव्याः कीलकसादृश्यात् । (१८) धरणिशृङ्गः --- पृथिव्याः शृङ्गसादृश्यात् । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीक प्रा० ५ सू०१ सूर्यलेश्यायाः प्रतिघातस्वरूपम् १७१ (१९) पर्वतेन्द्रः -पर्वतानां मध्ये इन्द्रसादृश्यात् । (२०) पर्वतराजः-पर्वतानां मध्ये राजसादृश्यात् । इति विंशतिर्नामानीति । एतेषां शब्दानामेकार्थिकस्वे सत्यपि भिन्नार्थप्रतिपादकत्वेन एता विंशतिरपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपा एवेति विज्ञेयम् । अथ भगवान् सूर्यलेश्यायाः प्रतिहतिस्वरूपं प्रदर्शयति- 'ता जेणं' इत्यादि । इय च लेश्याप्रतिहतिः मन्दरेऽप्यस्ति अन्यत्रापि चास्तीत्याह-'ता' तावत् 'जे णं पुग्गला' ये खल्लु पुद्गलाः मेरुतटभित्तिसंस्थिताः 'सरियस्स लेस्सं, सूर्यस्य लेश्यां 'फुसंति' स्पृशन्ति 'ते णं पुग्गला' ते खलु पुद्गलाः 'सरियस्स लेस्सं' सूर्यस्य लेश्यां 'पडिहणंति' प्रतिध्नन्ति अभ्यन्तरं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायास्तैः प्रतिस्खलितत्वात् । तथा 'अदिहा विण पोग्गला' अदृष्टा अपि खलु येऽपि पुद्गला मेरुतटभित्तिसंस्थिता अपि दृश्यमानपुद्गलान्तर्गताः सन्तः सूक्ष्मत्वान्न चक्षुः स्पर्शमायान्ति ते अदृष्टा अपि पुद्गला 'सरियस्स लेस्स' सूर्यस्य लेश्यां 'पडिहणंति' प्रतिघ्नन्ति तैरपि अभ्यन्तरं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायाः स्वशक्त्यनुरूपं प्रतिस्खल्यमानत्वात् । तथा पुनरपि 'चरिमलेस्संतरगयावि णं पोग्गला' चरमलेश्यान्तरगता अपि खलु पुद्गलाः येऽपि च मेरोरन्यत्र भागेऽपि न चरमलेश्याविशेष संस्पर्शवन्तः पुद्गला अपि 'सरियस्स लेस्सं' सूर्यस्य लेश्यां 'पडिहणंति' प्रतिघ्नन्ति तैरपि चरमलेश्यासंस्पर्शकत्वेन चरमलेश्यायाः प्रतिहन्यमानत्वात्।।सू० १॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-जप्रसिद्धवाचक पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त “जैनशास्त्राचार्य' प्रदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालवति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायां पञ्चमं प्राभृतं समाप्तम् ॥५॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ षष्ठं प्राभृतं प्रारभ्यते ॥ व्याख्यातं पश्चमं प्राभृतम् तत्र सूर्यस्य लेश्याप्रतिघातः प्रोक्तः । साम्प्रतं षष्ठं व्याख्यायते, तस्य चायमर्थाधिकारः-'कहं ते ओयसंठिई' कथं ते ओजः संस्थितिः, इति पूर्वप्रतिज्ञात-विषयं विवृण्वन् आदिमं सूत्रमाह-'ता कहं ते ओयसंठिई' इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते ओयसठिई आहिया ति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-तत्थेगे एवमाहंसु ता अणुसममेव सूरियस्सोया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहेसु । १। एगेपुण एवमाहंसु ता अणुमुहुत्तमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जई अण्णा अवेइ, एगे एवमासु । २ । एवं एएणं अभिळावेण-ता अणुराइंदियमेव । ३ ! ता अणुपक्खमेव । ४। ता अणुमासमेव । ५। ता अणुउउमेव । ६। ता अणु अयणमेव । ७। ता अणुसंवच्छरमेव । ८। ता अणु जुगमेव ।९। ता अणुवाससयमेव । १० । ता अणुवाससहस्समेव । ११। ता अणु वाससयसहस्समेव । १२। ता अणुपुत्वमेव । १३। ता अणुपुव्वसयमेव । १४ । ता अणुपुब्बसहस्समेव । १५ । ता अणुपुत्वसयसहस्समेव । १६। ता अणुपलिओवममेव । १७ । ता अणुपलिओवमसयमेव । १८ । ता अणुपलिओवमसहस्समेव । १९ । ता अणुपलिओवमसयसहस्समेव । २० । ता अणुसागरोवममेव । २१। ता अणुसागरोवम सयमेव । २२। ता अणुसागरोवमसहस्समेव । २३ । ता अणुसागरोवमसयसहस्समेव । २४ । एगे एबमाइंसु-ता अणुउस्सप्पिणि ओसप्पिणिमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाइंसु । २५।। वयं पुण एवं वयामो-ता तीसं तीसं मुहुत्ते सूरियस्स ओया अवडिया भवइ, तेण परं सूरियस्स ओया अणवट्ठिया भवइ । छम्मासे सूरिए ओयं णिबुड्ढेइ, छम्मासे सरिए ओयं अभिवुड्ढेइ । णिक्खममाणे सूरिए देसं णिव्वुड्ढेइ, पविसमाणे सुरिए देसं अभिवुड्ढेइ । तत्थ को हेऊ ! तिवएज्जा, ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ता जया णं सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तसि अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगेणं राइदिएणं एगं भागं ओयाए दिवसखित्तस्स णिव्वुड्डित्ता रयणिखित्तस्स अभिवइढित्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसहिं तीसेहिं सएहिं छित्ता, Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकारीका प्रा० ६ सू० १ मोजसंस्थितिनिरूपणम् १७३ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं अहिया । से णिक्खममाणे सरिए दोच्चंसिरहोरतसि अभितराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए अभितराणं तरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं दोहिं राइदिएहिं दो भागे ओयाए दिवसखेत्तस्स णिव्बुद्वित्ता, २ रयणिखेत्तस्स अभिवड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसेहिं तीसेहिं सएहि छेत्ता, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगसद्विभागमुहुतेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं अहिया । एवं खलु एएण उवाएणं णिक्खममाणे सरिए तयाणंतराओ तयाणंतरं मंडलाओ मंडल संकममाणे २ एगमेगे मंडले एगमेगेणं राइदिएणं एगमेग २ भागं ओयाए दिवसखेत्तस्स निव्वुड्ढेमाणे २ रयणिक्खेत्तस्स अभिवड्ढेमाणे २ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए सव्वम्भंतराओ मंडलाओ सम्बबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सबभंतरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं एग तेसीयं भागसयं ओयाए दिवसखेत्तस्स णिव्वुढ्डेता रयणिखेत्तस्स अभिवुडडेत्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसहिं तीसेहि सरहिं छेत्ता, तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवाळसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे । एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । से पविसमाणे सरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरह । ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगेणं राइदिएणं एगं भागं ओयाए रयणिखेत्तस्स णिव्वुड्ढेत्ता, दिवसखेत्तस्स अभिव्वुड्ढेत्ता चारं चरइ मंडलं अट्ठारसहिं तीतेहिं सएहिं छेत्ता, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं उणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं अहिए । से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं दोहि राइदिएहि दोभाए ओयाए रयणि खेत्तस्स णिचुड्ढेत्ता, दिवसखेत्तस्त अभिव्वुड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडळ अट्ठारसहि तीसेहि सएहि छेत्ता, तया णं अट्टारसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहि उणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगसहि भागमुहुत्तेहि अहिए । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराभो तयाणंतरं मंडलाओ मंडलं सकममाणे २ एगमेगेणं Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ चन्द्रप्राप्तिसूत्र राईदिएणं एगमेगं भागं ओयाए रयणिखेत्तस्स णिवुड्ढेमाणे २, दिवसखेत्तस्स अभिव्वुड्ढेमाणे २ सयभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता नया णं मूरिए सव्वबाहिराओ मंडलाओ सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सव्वबाहिरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं एगं तेसीयं भागसयं ओयाए रयणि खेत्तस्स णिव्वुड्ढेत्ता, दिवसखेत्तस्स अभिव्वुड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडलं आहारसहि तीसेहि सएहि छेत्ता, तया णं उत्तमकहपत्ते उक्कोमए अारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एसणं दोच्चस्रा छम्मासस्स पज्जवसाणे। एसणं आइच्चे संवच्छरे। एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे ॥सू०१।। छद्रं पाहुडं समत्तं ॥६। छाया- तावत् कथं ते ओजः संस्थितिः आख्याता ? इति वदेत् तत्र खलु इमाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः प्राप्ताः तद्यथा-तत्र एके ५वमाहुः-तावत् अनुसमयमेव सूर्यस्य ओजः अन्यत् उत्पद्यते अन्यत् अपैति, एके एवमाहः । एके पुनः पव प्राहः-तावत अम. हूर्तमेव सूर्यस्य ओजः अन्यत् उत्पद्यते, अन्यत् अपैति, एके एवमाहुः ।२. एवं एतेन अभिला पेन-तावत् अनुरात्रिन्दिवमेव ।३। तावत् अनुपक्षमेव । तावत् अनुमासमेव ।५ तावत् अनु ऋतुमेव ।६। तावत् अन्वयनमेव ७ तावत् अनुसंवत्सरमेव ।८। तावत् अनुयुगमेव ।। तावत् अनुवर्षशतमेव ।१०तावत् अनुवर्षसहस्रमेव ।।१। तावत् अनुवर्षशतसहस्रमेव ।१२। तावत् अनुपूर्वमेव ।१३ तावत् अनुपूर्वशतमेव ।१४। तावत् अनुपूर्वसहस्रमेव । १५/ तावत् अनुपूर्वशतसहस्रमेव ।१६। तावत् अनुपल्योयमेव । ७. तावत् अनुपल्योपमशतमेव ॥१८॥ तावत् अनुपल्योपमसहस्रमेव ।१९। तावत् अनुपल्योपमशतसहस्रमेव 10 तावत् अनुसा गरोपममेव ।२१। तावत् अनुसागरोपमशतमेव २२० तावत् अनुसागरोपमसहस्रमेव २३। तावत् अनुसागरोपमशतसहस्रमेव ।२४ एके पुनः एवमाहुः-तावत् अनूत्सर्पिण्यवसर्पिणीमेव सूर्यस्य ओजः अन्यत् उत्पद्यते अन्यत् अपैडि, एके एव माहुः २५। वयं पुनः एवं वदामः-तावत् त्रिशतं त्रिंशतं मुहूर्तान् सूर्यस्य ओजः अवस्थित भवति, ततः परं सूर्यस्य ओजः अनवस्थितं भवति । पण्मासान् सूर्यः ओजः निर्वर्धयति, षण्मासान् सूर्य ओजः अभिवर्धयति। निष्क्रामन् सूर्य, देशं निर्वर्धयति, प्रविशन् सूर्यः देशमभिवर्धयति । तत्र को हेतुः ? इति वदेत् । तावत् अयं स्खलु जम्बूद्वीपो द्वोपः यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः। तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहूर्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिभवति । स निष्क्रामन् सूर्यः नवं संवत्सरं अयन् प्रथमे अहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलमपसंक्रम्य चार चरति । तावत यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलमपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु एकेन रात्रिन्दिवेन एकं भागम् ओजसा दिवसक्षेत्रस्य निर्वध्य, रजनीक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् अष्टादशभिः त्रिंशता शतैः छित्त्वा तदा खलु अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् ऊनः, द्वादशमुहूर्ता रात्रि Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ६ सू० १ भोजसंस्थितिनिरूपणम् १७५ भवति द्वाभ्यामेकष्टिभागमुत्तभ्यामधिका । स निष्क्रामन् सूर्यः द्वितीयेऽहोरात्रे आभ्य न्तरानन्तरं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः आभ्यन्तरानन्तरं तृतीयं मडण्लमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां द्वौ भागौ ओजसा दिवसक्षेत्रस्य निर्वर्ध्य २ रजनी क्षेत्रस्य अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् अष्टादशभिः त्रिशता शतैः छत्वा तदा खलु अष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति चतुर्भिरेक षष्टिभागमुहूर्तैः ऊनः द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूर्तेरधिका । एवं खलु एतेन उपायेन निष्क्रामन् सूर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरं मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् २ पकैकस्मिन् मण्डलै एकैकेन रात्रिन्दिवेन पकैकं भागम् ओजसा दिवसक्षेत्रस्य निर्वर्धयन् २, रजनीक्षेत्रस्य अभिवर्धयन् २ सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलात् सर्वबाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधाय एकेन व्यशीतिकेन रात्रिन्दिवशतेन एकं व्यशीतिकं भागशतम् ओजसा दिवसक्षेत्रस्य निर्वर्ध्य, रजनीक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् अष्टादशभिः त्रिशता शतैः छित्त्वा तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति जघन्यकः द्वादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति । पतत् खलु प्रथमं षण्मासम् । एतत् खलु प्रथमस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् ॥ सः प्रविशन् सूर्यः द्वितीयं पण्मासम् अयन् प्रथमे अहोरात्रे बाह्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्यानन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु एकेन रात्रिन्दिवेन एकं भागम् ओजसा रजनीक्षेत्रस्य निर्वर्ध्य दिवसक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् अष्टादशभिस्त्रिशता शतैः छित्त्वा तदा खलु अष्टदशमुहूर्त्ता रात्रिभवति द्वाभ्यासेकषष्टिभागमुहूताभ्याम् ऊना द्वादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्त्ताभ्याम् अधिकः । स प्रविशन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे बाह्यानन्तरं तृतीयं मण्डलम्वसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्यानन्तरं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु द्वाभ्यां रात्रिदिवाभ्यां द्वौ भागौ ओजसा रजनीक्षेत्रस्य निर्वर्ध्य, दिवसक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् अष्टादशभिः त्रिंशता शतैः छिवा, तदा खलु अष्टादशमुहर्त्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेक षष्टिभागमुहूतैरूना, द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवति चतुभिरेकषष्टिभाग रधिकः । एवं खलु एतेन उपायेन प्रविशन् सूर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरं मण्डलाद् मण्डलं संक्रामन् २ एकैकेन रात्रिन्दिवेन एकैकं भागम् ओजसा रजनीक्षेत्रस्य निर्वर्ध्य २, दिवसक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य २ सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं उपसंक्रम्य वारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वबाह्यात् मण्डलात् सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु सर्वबाह्यं मण्डलं प्रणिधाय पकेन त्र्यशीतिकेन रात्रिन्दिवशतेन एकं त्र्यशीतिकं भागशतम् ओजसा रजनीक्षेत्रस्य निर्वर्ध्य दिवसक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् अष्टादशभिः त्रिंशता शतैः छित्त्वा तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भति । पतत् खलु द्वितीयं षण्मासम् । एतत् खलु द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् । एष खलु आदित्यः संवत्सरः । एतत् खलु आदित्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानम् ॥ सू० १ ॥ || चन्द्रप्रज्ञप्त्यां षष्ठं प्राभृतं समाप्तम् ६ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ चन्द्रप्राप्तिसूत्र व्याख्या -'ता' तावत् 'ते' तव भवतो मते 'कह' कथं-केन प्रकारेण किं सर्वदा एकरूपा उतान्यथा 'ओयसंठिई' भोजः संस्थितिः ओजसः प्रकाशस्य संस्थितिः-संस्थानम् अवस्था नमित्यर्थ 'आहिया' आख्याता कथिता ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् हे भगवन् कथयतु । इति गौतममस्य प्रश्नः । अथ भगवान् एतद्विषये अन्यतैर्थिकानां मान्यतारूपा यावत्यः प्रतिपत्तयः सन्ति ताः प्रदर्शयति-'तत्थ' इत्यादि । 'तत्थ खलु' तत्र भोजः संस्थितिविषये खलु 'इमाओ' इमा अग्रे वक्ष्यमाणाः 'पणवीस' पञ्चविंशतिः 'पडिवत्तो' प्रतिपत्तयः परमतरूपा पण्णताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः 'तं जहा' तयथा ता यथा 'तत्थेगे' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र पञ्चविंशति संख्यकेषु प्रतिपत्तिवादिषु 'एगे' एके केचन प्रथमाः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणपकारेण 'आहंसु' कथयन्ति, किं कथयन्तीति प्रदर्शयति-'ता अणुसमयमेव' इत्यादि 'ता' तावत् 'अणुसमयमेव' अनुसमयमेव प्रतिसमयमेव समये समये प्रतिक्षणमित्यर्थः 'मरियस्स' सूर्यस्य 'ओया' ओजः प्रकाशः, सूत्रे 'ओया' इति स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् 'अण्णा उप्पज्जई' अन्यत् उत्पद्यते' तथा 'अण्णा' अन्यत् अपरमेव औजः 'अवेइ' अपैति पृथक् भवति, अयं भावः सूर्यस्यौजः प्राक्तनं भिन्नप्रमाणमुत्पद्यते प्राक्तनाद् भिन्नमेव ओजः विनश्यति इति । उपसंहाग्माह-'एगे' एके प्रथमाः ‘एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्तीति ।१। 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः ‘एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः-'ता' तावत् 'अणुमुहुत्तमेव' अनुमुहूर्तमेव प्रतिमुहूर्तमेव 'सरियस्स ओया' सूर्यस्य ओजः 'अण्णा उप्पज्जई' अन्यत् उत्पद्यते, 'अण्णा अवेई' अन्यत् यत् पूर्वमासीत् तत् अपैति विनश्यति, उपसंहारः-'एगे' एके द्वितीयाः ‘एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति ।२। 'एवं' एवम् ‘एएणं' एतेन आद्य प्रतिपत्तिद्वयप्रोक्तेन 'अभिलावेणं' अभिलापेन अभिलापप्रकारेण अग्रेऽपि विज्ञेयमिति भावः । तथा च-'ता' तावत् अणुराइदियमेव' अनुरात्रिन्दिवमेव प्रत्येकमहोरात्रमेव ।३। 'ता अणुपक्खमेव' तावत् अनुपक्षमेव ।४। 'ता अणुमासमेब' तावत् भनुमासमेव ।५।'ता अणुउउ मेव' तावत् अनुऋतुमेव प्रतिवसन्तादिरूपमेव ।६। 'ता अणुअयणमेव' तावत् अन्वयनमेव, अयनंनाम दक्षिणायनोत्तरायणरूपं द्वयम् ।७। 'ता अणुसंवच्छरमेव' तावत् अनुसंवत्सरमेव, संवत्सरः-द्वादशमासरूपः ।८। 'ता अणुजुगमेब' तावत् अनुयुगमेव पञ्चवर्षा त्मकयुगमेव ।९। 'ता अनुवाससयमेव तावत् अनुवर्षशतमेव ।१०। 'ता अणुवाससहस्समेव' तावत् अनुवर्षसहस्रमेव ॥११॥ ता अणुवाससयसहस्समेव' तावत् अनुवर्षशतसहस्रमेव अनुलक्षवर्षमेवेत्यर्थः ।१२। 'ता अणुपुव्वमेव' तावत् अनुपूर्वमेव ॥१३॥ ता अणुपुव्वसयमेव तावत् अनुपूर्वशतमेब ।१४। 'ता अणुपुन्बसहस्समेव तावत् अनुपूर्वसहस्रमेव, ।१५। 'ता अणुपुन्चसयसहस्समेव' तावत् अनुपूर्वशतसहस्रमेव, शतसहस्रमिति लक्षम् ।१६। 'ता. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०६ सू० १ ओजसंस्थितिनिरूपणम् १७७ अणुपलिओवममेव' तावत् अनुपल्योपममेव ।१७। 'ता अणुपलिओवमसयमेव' तावत् अनु. पल्योपमशतमेव ।१८। ता अणुपलिओवमसहस्समेव' तावत् अनुपल्योपमसहस्रमेव ।१९। 'ता अणुपलिओवमसयसहस्समेव तावत् अनुपल्योपमशतसहस्रमेव ।२०। 'ता अणुसागरोवममेव' तावत् अनुसागरोपममेव ।२१। 'ता अणुसागरोवमसयमेव तावत् अनुसागरोपमशतमेव ।२२। ता अणुसागरोवमसहस्समेव' तावत् अनुसागरोपमसहस्रमेव ।२३। 'ता अणुसागरोवमसयसहस्समेव' तावत् :अनुसागरोपमशतसहस्रमेव ।२४। 'एगे पुण' एके पञ्चविंशतितमाः परतीर्थिकाः पुनः ‘एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति 'ता' सावत् 'अणुउस्सप्पिणिओसप्पिणिमेव' अनुत्सर्पिण्यवसर्पिणीमेव प्रत्येकोत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालमेव 'सरियस्स ओया' सूर्यस्य ओजः 'अण्णा' अन्यत् अपरं पूर्वस्थितम् 'अवेई' अपैति बिनश्यति 'एगे' एके पञ्चविंशतितमाः परमतवादिनः ‘एवं' एवं पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति । इति पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः ।२५। इति, ___ इमाः पूर्वप्रदर्शिताः सर्वा अपि प्रतिपत्तयः मिथ्यारूपाः सन्ति मत आसां निराकरणेन भगवान् स्वमतमुपन्यस्यति-'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं तु 'एवं' एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'क्यामो' वदामः कथयामः, तदेवाह'ता तीसं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'तीस तीस मुहुत्ते' त्रिंशतं त्रिंशतं मुहूर्त्तान् जम्बूद्वीपे प्रतिवर्ष परिपूर्णतया त्रिंशन्मुहूर्त्तपरिमितकालपर्यन्तम् 'सूरियस्स ओया' सूर्यस्य ओजः-प्रकाशः 'अवहिया भवई' अवस्थितं यथावस्थितं भवति । अयमाशयः-सूर्यसंवत्सरस्य पर्यन्तभागे यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरति तदा सूर्यस्य जम्बूद्वीपगतमोजः त्रिंशतं मुहूर्तान् यावत् परिपूर्णप्रमाणयुक्तं भवति । 'तेणं परं तेन परं ततोऽनन्तरं सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्परम् 'सूरियस्स ओया' सूर्यस्य ओजः 'अणवट्टिया' अनवस्थितं नियतप्रमाणरहितं 'भवइ' भवति । कस्मात् कारणादित्याह-'छम्मासे' इत्यादि । यतो हि सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् अग्रे चरतः सूर्यस्य निष्क्रमणसमय गतान् प्रथमान् सूर्यसंवत्सरसम्बन्धिनः 'छम्मासे' षण्मासान् यावत् 'मरिए' सूर्यः 'ओयं ओजः जम्बूद्वीपगतं प्रकाशं 'णिव्वुड्ढेइ' निर्वर्धयति प्रत्यहोरात्रमेकैकस्य त्रिंशदधिकाष्टादशशत १८३० संख्यकभागसम्बन्धिनो भागस्य होनकरणेन हापयति । एवं तदनन्तरं सूर्यसंवत्सरस्य द्वितीयान् प्रवेशसमयगतान् 'छम्मासे' षण्मासान् यावत् षण्मासपर्यन्तमित्यर्थः 'सुरिए' सूर्यः 'ओय' ओजः प्रकाशम् 'अभिवडढेइ' अभिवर्धयति प्रत्यहोरात्रं त्रिंशदधिकाष्टा दशशत (१८३०) संख्यभागसत्कैकभागवर्धनेन तत्र वृद्धिं करोति । एतदेव स्पष्टयति-णिक्खममाणे' इत्यादि 'णिक्खममाणे' निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाहिर्निर्गच्छन् 'मूरिए' सूर्यः २३ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्ति 'देस' देशं भागैकरूपं प्रत्येकमण्डले 'णिव्वुड्ढेई' निर्वर्धयति हापयति, 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वबाह्यमण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'मरिए' सूर्यः 'देसं' देशं भागैकरूपं प्रत्येकमण्डले 'अभिवड्ढेई' अभिवर्धयति तत्र वृद्धिं करोतीति । अत एवोच्यते सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारसमये त्रिंशन्मुइर्लान् यावत् परिपूर्णतया सूर्यस्य ओजः अवस्थितं तिष्ठति, ततः परम् अनवस्थितमिति । अत्र गौतमः प्रश्नयति-'तत्थ' इत्यादि । 'तत्य' तत्र-सूयौजसोऽवस्थितानवस्थितविषये 'को' किदृशः 'हेऊ' हेतुः तत्र किंकारणम् १ 'तिवएज्जा' इति वदेत् हे भगवन् तत्र कारणं वदतु कथयतु । अथ भगवान् तत्कारणं प्रदर्शयन्नाह-'ता अयण्णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'अयण्णं' अयं खलु लोकप्रसिद्धः 'जम्बुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः 'जाव' यावत् 'परिक्खेवेणं पण्णत्ते' परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, यावत्पदेन जम्बूद्वीपप्रमाणं सर्वमत्र वाच्यम् । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'रिए' सूर्यः 'सव्यभंतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरई' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षसंपन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अद्वारसमुहत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवतीति ज्ञातव्यम् ।। ____ अथ सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रमणसमयव्यवस्था प्रदर्शयति-से णिक्खममाणे इत्यादि । 'से' सः ‘णिक्खममाणे' निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'मरिए' सूर्यः ‘णवं संवच्छरं' नवं संवत्सरं दिवसहापनरात्रिवर्धनरूपम् 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् 'पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'अभितराणंतरं मंडलं' अभ्यन्तरानन्तरं सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद् द्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चार चरति । 'ता' तावत् जया णं' यदा खलु 'मुरिए' सूर्यः' अभितराणंतरं मंडलं' अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं तदा खलु 'एगेणं राइदिएणं' एकेन रात्रिन्दिवेन एकाहोरात्रेण सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेन 'एगं भागं ओयाए' एक भागमोजसः 'दिवसखित्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य दिवसक्षेत्रगतस्य 'णिव्वुढित्ता' निर्वयं हापयित्वा प्रथमक्षणादूवं शनैः शनैः कलामात्रहापनेन अहोरात्रस्य पर्यन्तभागे न्यूनीकृत्य, तथा एवमेव 'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रस्य रजनीक्षेत्रगतस्य ओजसस्तमेव एकं भागम् 'अभिवइढित्ता' अभिवयं च 'चारं चरई' चारं चरति मण्डलं कैच्छित्वा एक भागं हापयति वर्धयतीत्यत्राह 'मंडलं' मण्डलं सर्वाभ्यन्तराद् द्वितीयं मण्डलम् 'अट्ठारसहिं तीसेहिं सएहि' अष्टादशभिः त्रिंशता शतैः त्रिंशदधिकाष्टादशशतैः (१८३०) 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य । अयं भावः-एकस्य मण्डलस्य त्रिंशदधिकाष्टादशशतभागाः कत्थ्यन्ते, तत्सम्बन्धिनमेकं भागमिति । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०--६ सू० १ ओजसंस्थितिनिरूपणम् १७९ एते पुनस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतभागाः कथं कल्प्यन्ते ? इति प्रदश्यते-इह-एकैकं मण्डलं द्वौ सूर्यो एकैकेनाहोरात्रेण परिभ्रम्य प्रयतः । अहोरात्रश्च त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणो भवति, प्रतिसूर्य चाहोरात्रगणनायां परमार्थतो द्वयोः सूर्ययोः द्वौ अहोरात्रौ भवतः । अतो द्वयोरहोरात्रयोर्मुहूर्ताः षष्टिसंख्यका जायन्तेऽतो मण्डलं प्रथमतः षष्ट्या भागैर्विभज्यते एकस्य मण्डलस्य षष्टिभागा जाता इत्यर्थः । अथ निष्क्रामन्तौ द्वौ सूर्यों प्रत्यहोरात्रं प्रत्येकं द्वौ दौ मुहर्तकषष्टिभागौ हापयतः, प्रविशन्तौ चाभिवर्धयतः, ततश्च द्वौ मुहूर्तेकषष्टिभगा। समुदितौ भवतः, तयोरेकः सार्धत्रिंशत्तमो भागो भवति, ततः षष्टिरपि भागाः सार्धत्रिंशता. गुण्यन्ते जातास्त्रिंशदधिकाष्टादशशतभागा (६०४ ३०=१८३०)। अत्र गुण्याङ्काः षष्टि(६०) गुणकाङ्काः सार्धत्रिंशत् (३०॥) अनयोर्गुणने समायाति यथोका संख्या (१८३०) इति । ____ एवं निष्क्रामन् सूर्यः प्रति मण्डलं त्रिंशदधिकाष्टादशशतसंख्यकभागानां सत्कमेकैकं भागं दिवसक्षेत्रगतस्य ओजसः (प्रकाशस्य) हापयन् हापयन् रजनीक्षेत्रस्य चाभिवर्धयन् अभिवर्धयन् सूर्यः सर्वबाह्यमण्डले गच्छति ततः सर्वबाह्यमण्डलपर्यन्तमेव वक्तव्यम् । सर्वबाह्यमण्डले त्र्यशीत्यधिकमेकं शतं (१८३) भागानां दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापनेन रजनीक्षेत्रस्य चाभिवर्धनेन भवति । एतच्च त्र्यशीत्यधिकं भागशतं त्रिंशदधिकाष्टादशशतभागानां दशमो भागो भवति, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् सर्वबाह्यमण्डले दिवसक्षेत्रस्य जम्बूद्वीपचक्रवालदशभागस्त्रुटयति, रजनी क्षेत्रस्य चाभिवर्धते इति पूर्वमभिहितमेव । ___एवमेव सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रविशन् प्रतिमण्डलं त्रिंशदधिकाष्टादशशतभागानां सत्कमेकैकं भागं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्याभिवर्धयन् रात्रिक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य च हापयन् तावद् वक्तव्यं यावत् सर्वाभ्यन्तरे मण्डले व्यशोत्यधिकैकशतभागं (१८३) दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्याभिवर्धयति, रजनीक्षेत्रस्य च त्र्यशोत्यधिकैकशतभागं हापयति । एतत् ज्यशीत्यधिक भागशतं च जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दशमो भागो भवति, ततः सर्वबाह्य मण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डले दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्यैको दशमश्चक्रवालभागोऽभिवर्धते, रजनीक्षेत्रस्य चैषस्त्रुट्यति, इति यत् प्रागभिहितं तत्समुचितमेवेति । एतत्सर्वे भगवान् मूले प्रदर्शयिष्यति । तदेवाह-'तया णं' इत्यादि। 'तया णं तदा सूर्यस्य निष्क्रमणसमये खलु यदा एकेन रात्रिन्दिवेन एक भागं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापयित्वा, रजनीक्षेत्रस्य चाभिवर्ध्य सूर्यश्चारं चरति तदा - इत्यर्थः, 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणे' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहर्ताभ्यामूनः-हीनो भवति, 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिभवति, सा च 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं' अहिया द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहद्भ्यामधिका भवतीति । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvv १८० चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे पुनश्च–'से' सः 'णिक्खममाणे सुरिए' निष्क्रामन् सूर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीयेऽहोरात्रे 'अभिंतराणंतरं तच्चं मंडलं आभ्यन्तरानन्तरम् सर्वाभ्यन्तरमण्डलादतनं तृतीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उवसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा बलु 'सूरिए' सूर्यः 'अभितराणंतरं तच्चं मंडलं, आभ्यन्तरानन्तरं तृतीयं मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'दोहिं राइंदिरहिं' द्वाभ्यां रात्रिन्दि. वाभ्यां 'दो भागे' दो भागौ 'ओयाए' ओजसः 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य दिवसक्षेत्रगतस्य 'णिव्वुइढित्ता' निर्वर्य-हापयित्वा, तथा-'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रस्य रजनीक्षेत्रगतस्य 'अभिवड्ढेत्ता' अभिवर्ध्य 'चारं चरई' चारं चरति, ‘मंडलं' मण्डलम् 'अद्वारसहिं तीसेहि सएहिं' अष्टादशभिः त्रिंशता शतैः त्रिंशदधिकाष्टादशशतैः 'छेत्ता' छित्त्वा विभज्य मण्डलस्य. विभागाः करणीया इत्यर्थः । 'तया गं' तदा खलु 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' भष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, स च 'चउहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूत्तः 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति । तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सा च 'चउहिं एगस. द्विभागमुहुत्तेहिं' चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'अहिया' अधिका भवति । 'एव खलु' एवम्अनेन प्रकारेण खलु 'एएण' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन 'उवाएण' उपायेन युक्तिरूपेण 'णिक्खममाणे सूरिए' निष्क्रामन् सूर्यः 'तयाणंतराओ तयाणंतरं' तदनन्तरात् तदनन्तरं 'मंडलाओ मंडलं' मण्डलान्मण्डलम् एकस्मान्मण्डलाद् अग्रेतनं द्वितीयं मण्डलं-'संकममाणे २' संका. मन् २ 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले 'एगमेगेणं राइदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन'एगमेगं भागं' एकैकं भागम् 'ओयाए' ओजसः 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य दिवसक्षेत्रगतस्य 'णिव्वड्ढेमाणे २' निर्वर्धयन् २ हापयन् २, 'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रगतस्य ओज सश्च एकैकं भागम् 'अभिबढेमाणे २' अभिवर्धयन् २, 'सन्चबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्य मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल्ल 'सरिए' सूर्यः 'सव्वभंतराओ मंडलाओ' सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलम् 'उबसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'सव्वम्भंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं 'पणिहाय' प्रणिधाय अवधीकृत्य 'एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं' एकेनत्र्यशीतिकेन त्र्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्र्यशीत्यधिकैकशतसंख्यकैरहोरात्रैः (१८३) 'एगं तेसीयं भागसयं' एकं त्र्यशंतिकं भागशतं व्यशीत्यधिकै कशततमं भागम् 'ओयाए' ओजसः 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रगतस्य 'णिव्वुड्ढेत्ता' निर्वयं हापयित्वा, ‘रयणिखेत्तस्स' रजनी क्षेत्रस्य च 'अभिब्बुड्ढेत्ता' अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् तन्मण्डलं 'अट्ठारसेहिं तीसेहि सरहिं' अष्टादशमिः त्रिंशता अधिकैः शतैः (१८३०) 'छेत्ता' छित्त्वा विभज्य विभज्यन्ते इत्यर्थः Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०६ सू०१ ओजसंस्थितिनिरूपणम् १८१ भागाः क्रियन्ते इति भावः । 'तया णं' तदा खलु तत्प्रस्तावे खलु 'उत्तमकट्टपता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकर्षयुक्ता 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वगुर्वी 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति 'जहण्णए' जयन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमु. हूतॊ दिवसो भवति । उपसंहारमाह-'एस ' इत्यादि । 'एस गं' एतत् पूर्वप्रदर्शितं खलु ‘पढमे छम्मासे' प्रथमं सूर्यस्य निष्क्रामणेन संजातं रात्रिवृद्धि-दिवसहानिरूपं षण्मासम् । 'एस गं' एतदेव खलु 'पढमस्स छम्मासस्स' प्रथमस्य षण्मासस्य ‘पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तिममहोरात्रमिति ॥ अथ सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डले प्रवेशस्य वक्तव्यतामाह-'से पविसमाणे' इत्यादि । 'से सः 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'मरिए' सूर्यः 'दोच्चं' द्वितीयं दिवसवृद्धिरात्रिहानिरूपं 'छम्मासं' षण्मासं 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् 'पढमंसि अहोरसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'बाहिराणंतरं मंडळ' बाह्यानन्तरं सर्वबाह्यमण्डलाद्वितीय मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल्लु 'मरिए' सूर्यः 'बाहिराणंतरं मंडलं' बाह्यानन्तरं द्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खल्ल 'एगेणं राईदिएणं' एकेन रात्रिन्दिवेन 'एगं भागं' एकं भागम् 'ओयाए' ओजसः प्रकाशस्य, कीदृशस्य ?- 'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रगतस्य 'णिव्बुड्ढित्ता' निर्वर्थ्य हापयित्वा, तथा 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य ओजसः-एक भाग 'अभिवुड्ढेत्ता' अभिवर्ध्य 'चारं चरइ' चारं चरति । 'मंडलं' मण्डलं च 'अट्ठारसहिं तीसेहि सरहिं' अष्टादशशतैस्त्रिंशदधिकैः ‘छेत्ता' छित्त्वा विभज्य मण्डलस्य त्रिंशदधिकाष्टादशशतभागाः कर्त्तव्या इति भावः । 'तया णं' तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सा च 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् 'उणा' ऊ हीना भवति, 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति, स च 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं अहिए' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यामधिको भवति । पुनश्च 'से' सः 'पविसमाणे सूरिए' प्रविशन् सर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिराणंतरं' बाह्यानन्तरं बाह्यभागादगेतनं तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरइं' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं' बाह्यानन्तरं तृतीय मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा स्खलु 'दोहिं राई. दिएहि' द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां 'दो भाए, द्वौ भागौ 'ओयाए' ओजसः 'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रगतस्य ‘णिव्वुडढेत्ता' निर्वयं हापयित्वा 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रगतस्य च ओजसो द्वौ भागौ 'अभिव्वुड्ढेत्ता' अभिवय चारं चरति, 'मंडलं' तन्मण्डलं च 'अट्ठारसेहिं तीसेहि Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwanmohinnavar. १८२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे सएहि' त्रिंशदधिकाष्टादशशतैः 'छेत्ता' छित्त्वा विभज्य मण्डलस्य भागान् कृत्वा सूर्यश्चारं चरतीति भावः । 'तया णं' तदा खलु अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, सा च 'चउहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं उणा' चतुमिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः ऊना भवति । 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहतों दिवसो भवति, स च 'चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं' चतुर्मिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'अहिए' अधिको भवति । 'एवं खलु' एवमनेन प्रकारेण खलु 'एएणं उवाएणं' एतेन पूर्वोक्तरूपेण उपायेन विधिना 'पविसमाणे मरिए' प्रविशन् सूर्यः 'तयाणंतराओ तयाणंतरं' तदनन्तरात् .तदनन्तरं 'मंडलाओ मंडलं' मण्डलान्मण्डलं 'संकममाणे २' संक्रामन् २ 'एगमेगेणं राइंदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन 'एगमेगं भागं' एकैकं भागम् भोजसः 'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रगतस्य 'णिव्वुड्ढमाणे २' निर्वर्धयन् २ हापयन् २, तथा 'दिवस खेत्तस्स दिवसक्षेत्रगतस्य 'अभिवुड्ढेमाणे २' अभिवर्धयन् २ 'सबभतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'मूरिए' सूर्यः 'सब्वबाहिराओ' सर्वबाद्यान्मण्डलात् 'सबभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'सव्वबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यमण्डलं 'पणिहाय' प्रणिधाय अवधीकृत्य तत आरभ्येत्यर्थः ‘एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं' ज्यशीत्यधिकैकशत (१८३) संख्यकैः रात्रिन्दिवः 'एग तेसीयं भागसयं' व्यशोत्यधिकैकशततम भागम् 'ओयाए' ओजसः 'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रगतस्य 'णिव्वुड्ढेत्ता' निर्वर्ध्य हापयित्वा, तथा 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रगतस्य च ओजसः एकं भागं 'अभिवुड्ढेत्ता' अभिवर्ध्य 'चारं चरई' चारं चरति, 'मंडलं' तन्मण्डलं च 'अट्ठारसेहिं तीसेहिं सएहिं' त्रिंशदधिकाष्टादशशतसंख्यकैः छित्त्वा भागान् कृत्वा मण्डलस्य भागाः कर्तव्याः । 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकहपत्ते' उत्तमकाष्ठा प्राप्तः परमप्रकर्षसंपन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, 'जहणिया' जयन्यिका सर्वलध्वी 'दुवा. लसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवतीति । उपसंहार एवं वाच्यः, तथाहि-एवं पूर्वोक्तप्रकारेण व्यवस्थायां सत्यां कथ्यते यत्-प्रति सूर्य संवत्सरपर्यन्तभागे सर्वाभ्यन्तरे मण्डले त्रिंशनं मुहूर्तान् यावत् सूर्यस्य परिपूर्णमोजः अव स्थितं भवति, ततः परमनवस्थितं भवति । सर्वाभ्यन्तरेऽपि च मण्डले त्रिंशद् मुहूर्तान् यावत् परिपूर्णमवस्थितमोजः कथ्यते, एतद् व्यवहारतो विज्ञेयम्, निश्चयतः पुनस्तत्रापि प्रथमक्षणादूर्ध्व शनैः शनैः ह्रियमाणं ज्ञातव्यम् यतो हि प्रथमक्षणादूचं सूर्यः एकस्मान्मण्डलादनन्तरं द्वितीयमण्डलाभिमुखं चारं चरतीति । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ६ सू १ माजसंस्थितिनिरूपणम् १८३ उप संहारमाह-'एस णं' इत्यादि । 'एस गं' एतत्खलु 'दोच्चे छम्मसे' द्वितीयं षण्मासम् । 'एस णं' एतत्वल 'दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जबसाणे' द्वितीयस्स षण्मासस्य पर्यवसानम् अन्तिममहोरात्रमिति । 'एस णं आइच्चे संवच्छरे' एष खलु आदित्यः संवत्सरः समाप्तः । 'एस णं' एतत् खलु 'आइच्चस्स संवच्छरस्स' आदित्यस्य संवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसा. नम्-अन्तिममहोरात्रमस्तीति ॥सू० १॥ इति श्री–विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित -कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायां षष्ठं प्राभृतं समाप्तम् ॥५॥ || श्रीरस्तु ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यातं षष्ठं प्राभृतम् व्याख्यातं षष्ठं प्राभृतम् । तत्र -ओजःसंस्थिति प्रतिपादिताः, अथ सप्तमं प्राभृतं व्याख्यायते तस्य चायमर्थाधिकारः किं ते सूरियं वरइ' किं ते सूर्य वरयति ! हे भगवन् तव मते सूर्य कः वरयति प्रकाशयति, इत्येतदधिकारं विवृण्वन्नाह–'ता किं ते सरियं' इत्यादि । ___ मूलम् ता किं ते सरियं वरइ आडितेति वएज्जा । तत्थ खलु इमाओ वीसई पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थ खलु एगे एवमाहंसु-ता मंदरे णं पब्बए सूरियं वरइ, एगे एवमाहंसु ।१। एगे पुण एवमासु-ता मेरुवणं पव्वए सूरियं वरइ, एगे एव मासु ।२। एवं एएणं अभिलावेणं जाव वीसइमा पडिवत्ती जाव ता पन्धयराएणं पव्वए सूरियं वरइ, एगे एवमाहंसु ।२०। वयं पुण एवं वयामो मंदरे वि पवुच्चइ, मेरू वि पवुच्चइ, एवं जाव पव्ययराओ वि पवुच्चइ। ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते गं पोग्गला सूरियं वरंति, अदिट्ठावि णं पोग्गला सूरियं वरंति, चरमलेस्संतरगया वि णं पोग्गला सूरियं वरंति ॥सू० १॥ चंद पन्नत्तीए सत्तमं पाहुडं समत्तं ॥७॥ छाया--तावत् कस्ते सूर्य परयति आख्यात इति वदेत् । तत्र खलु इमा विशतिः प्रतिपत्तयः प्रक्षप्ताः, तद्यथा-तत्र स्खलु एके एवमाहुः-तावत् मन्दरः खलु पर्वतः सूर्य वरयति, एके पवमाहुः ।। पके पुनरेवमाहुः-तावत् मेरुः खलु पर्वतः सूर्य वरयति, एके एवमाहुः ।२। एवम् एतेन अभिलापेन यावत् विंशतितमा, प्रतिप्रत्तिः, यावत्-तावत् पर्वतराजः खलु पर्वतः सूर्य वरयति एके एवमाहुः ।२०। वयं पुनरेवं वदामः-मन्दरोऽपि प्रोच्यते, मेरुरपि प्रोच्यते, एवं यावत् पर्वतराजोऽपि प्रोच्यते । तावत् ये खलु पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते खलु पुद्गलाः सूर्य वरयन्ति, अदृष्टा अपि खलु पुद्गलाः सूर्य वरयन्ति, चरमलेश्यान्तरगता अपि स्खलु पुद्गलाः सूर्य वरयन्ति ।।सू० १॥ चन्द्रप्राप्त्यां सप्तमं प्राभृतं समाप्तम् ॥७॥ व्याख्या-'ता' तावत् 'कि' कः 'ते' तवमते 'सूरियं' सूर्य 'वरइ वरयति' वर ईप्सायाम् वरयन् आप्तुमिच्छन् स्वप्रकाशकत्वेन स्वीकुर्वन् 'आहिए' आख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् । अत्र भगवान् प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति-'तत्थ खलु' तत्र सूर्यस्य वरणविषये खलु 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'वीसई' विंशतिः विंशतिसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतरूपाः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा-ता यथा-'तत्थ खलु' तत्र विंशति-प्रतिपत्तिवादिषु मध्ये खलु 'एगे' एके प्रथमाः ‘एवं' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'मंदरे ण पबए' मन्दरः खल पर्वतः 'सरिय' सूर्य 'वरई' वरयति मन्दरः पर्वतो हि सूर्येण Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशति प्रकाशिकाटीका प्रा० ७ सू० १ सूर्यवरणनिरूपणम् १८५ मण्डलपरिभ्रम्या सर्वतः प्रकाश्यते ततः सः सूर्यं स्वप्रकाशकत्वेन वरयतीति प्रोच्यते । एवमग्रेऽपि बोध्यम् । 'एगे एवमाहंसु' एके प्रथमा एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः ॥ १ ॥ 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः ' एवं ' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः 'ता' तावत् 'मेरू णं पव्वए' मेरुः खलु पर्वतः 'सूरियं' सूर्य 'वर' वरयति, 'एगे एवमाहंसु' एके द्वितोया एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः । ' एवं ' अनेन प्रकारेण 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'अभिलावेणं' अभिलापेन अग्रेऽपि आलापकाः कर्त्तव्याः । कियत्पर्यन्तमित्याह - 'जान' इत्यादि । 'जान' यावत् 'वीसइमा ' विंशतितमा 'पडिवत्ती' प्रतिपत्तिः भवेत् 'जाव' यावत् 'ता' पूर्ववत् 'पव्वयराए णं पव्वए' पर्वतराजः खलु पर्वतः 'सूरियं वरइ' सूर्य वरयति 'एगे एवमाहंसु' एके विंशतितमाः प्रतिपत्तिवादिनः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । अत्र मन्दरादारभ्य पर्वतराजपर्यन्तं विंशतिशब्दानां व्याख्या पूर्व पञ्चमप्राभृते सूर्यस्य लेण्याप्रतिघातप्रकरणे कृतेति तत्र विलोकनीया । एता विंशतिरपि - प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः एकस्य मन्दरस्यैव विंशतिनामवत्त्वात् तदेव भगवान् स्वमतं प्रदर्शयन्नाह - 'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं पुनः वयं तु ' एवं ' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः – 'मंदरेवि पवुच्च३' मन्दरोऽपि प्रोच्यते – एते विंशतिप्रतिपत्तिवादिनः अन्यान्य नाम आश्रित्य कथयन्ति किन्तु विंशतिनामवान् एक एव पर्वतो वर्त्तते नान्यः । एष एव पर्वतः मन्दर इति प्रोच्यते । तथा 'मेरू वि पच्चर' मेरुरपि प्रोच्यते ' एवं जाव पव्वयराभो वि पवच्चइ' एवं यावत् मनोरमादारभ्य विंशतितमनामवान् पर्वतराजोऽपि प्रोच्यते एषां नाम्नां सार्थकत्वं पञ्चमप्राभृते सविस्तरं प्रदर्शितं तत्तत्र विलोकनीयम् । न केवलं मेरुरेव सूर्यं वरयति किन्तु अन्येऽपि पुद्गलाः सूर्य वरयन्तीत्याह- ता जेणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जेणं' ये खलु 'पोग्गला' पुग्दला ः 'सूरियस्स लेस्सं फुसंति' सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति 'ते णं पोग्गला' ते खलु पुग्दलाः 'सूरियं वरंति' सूर्य वरयन्ति पुनश्च 'अदिट्ठा वि णं पोग्गला' अदृष्टा अपि खलु पुद्गला ये च प्रकाश्यमानपुद्गलस्कन्धान्तर्गता मेरुस्थिताः सूर्येण प्रकाशिता अपि अतिसूक्ष्मत्वान्न दृष्टिस्पर्शमुपयान्ति ते अदृष्टा अपि पुद्गलाः खलु प्रागुक्तरीत्या 'सूरियं वरंति' सूर्य वरयन्ति तेषामपि सूर्येण प्रकाश्यमानत्वात् । पुनश्च 'चरमले संतरगया विणं पोग्गळा' चरमश्यान्तर्गता अपि सूर्यप्रकाशान्तर्वर्त्तिनोऽपि खलु पुद्गला 'सूरियं वरंति' सूर्यं वरयन्तीति ॥ सू०१ || इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ- प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलित ललितकला पालापक- प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक- श्री शाहु छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य” पदभूषित - कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि - जैनशास्त्राचार्य - जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालवति - विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका - ख्यायां व्याख्यायां सप्तमं प्राभृतं समाप्तम् ॥ ५ ॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ २४ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ अष्टमं प्राभृतम् ॥ गतं सप्तमं प्राभृतम् , तत्र कः सूर्य वरयतीत्युक्तम् । अथाष्टममारभ्यते, अस्य चाय मर्थाधिकारः -'कहं ते उदयसंठिई' कथं ते उदयसंस्थितिः केन प्रकारेण सूर्य उदेति, इति पूर्वप्रति ज्ञातमेवार्थ प्रदर्शयति-'ता कहं ते उदयसंठिई' इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते उदयसंठिई आहिया ? ति वएज्जा । तत्थ खलु इमाओ तिण्णि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, त जहा-तत्थ एगे एवमाइंसु-ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ । ता जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तयाणं दाहिणड्ढे वि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ । ता जया णं दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, ता जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढे वि सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एवं एएणं अभिलावेणं सोलसमुहुत्ते, पण्णरसमुहुत्ते, चोदसमुहुत्ते तेरसमुहुसे। ता जया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिगडढे वि बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ । तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम पच्चत्थिमेणं सया पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सया पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, अवट्ठिया णं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता समणाउसो एगे एवमासु ॥१॥ एगे पुण एवमाहंसु-ता जया णं जबुद्दीवेदीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि अहारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढे वि अहारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ । एवं परिहवियव्वं-सत्तरसमुहुत्ताणंतरे, सोलसमुहुत्ताणंतरे, पण्णरसमुहुत्ताणंतरे, चउइसमुहुत्ताणंतरे, तेरसमुहुत्ताणंतरे, ता जया णं दाहिणइढे बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि बारसमहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढे वि बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्य पञ्चयस्स पुरथिमपच्चत्थिमेणं नो सया पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, नो सया पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, अणवटिया णं तत्य राइंदिया पण्णत्ता समणाउसो ! एगे एवमाहंसु ॥२॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ८ सू० ३ सूर्यस्य उदयसंस्थितिनिरूपणम् १८७ एगे पुण एवमासु-ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया णं दाहिणडूढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइःतया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं दाहिण ड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एवं सत्तरसमुहुत्ते दिवसे, सत्तरसमुहुत्ताणंतरे, सोलसमुहुत्ते सोलसमुहुत्ताणंतरे, पण्णरसमुहुत्ते, पण्णरसमुहुत्ताणंतरे, चउद्दसमुहुत्ते चउद्दसमुहुत्ताणंतरे, तेरसमुहुत्ते, तेरसमुहुत्ताणंतरे । ता जया णं दाहिणडूढे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ, जया ण उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तयाण जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमपच्चस्थिमेण णेवत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे णेवत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ वोच्छिण्णाणं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता समणाउसो एगे एवमासु ॥३॥ सू० १॥ छाया-तावत् कथं ते उदयसंस्थितिः आझ्याता इति वदेत् । तत्र खलु इमाः तिस्रः प्रतिपत्तयः प्राप्ताः तद्यथा-तत्र एके एवमाहुः-तावत् यदा खलु जम्बुद्वीपे द्वीपेदक्षिणार्धे अष्टादशमुहूतौ दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि अष्टादशमुहूर्तों दिवसो भवति । तावत् यदा खलु उत्तरार्धे अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धेऽपि अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति । तावत् यदा स्खलु दक्षिणार्धे सप्तदशमुहूत्र्तो दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि सप्तदशमुहूर्तो दिवसोभवति, तावद् यदा खलु उत्तरार्धे सप्तदशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धेऽपि सप्तदशमुहूर्तों दिवसो भवति । पम्व एतेन अभिलापेन षोडशमुहूर्तः, पञ्चदशमुहूर्तः, चतुर्दशमुहूर्तः, त्रयोदशमुहूर्तः। तावत् यदा खलु दक्षिणार्धे द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि द्वादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति यदा खलु उत्तरार्धे द्वादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धेऽपि द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति, तदा खलु जम्बुद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यपाश्चात्ये सदा पञ्चदशमुहूर्तो दिवसो भवति, सदा पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, अवस्थितानि खलु रात्रिन्दिवानि प्राप्तानि श्रमणायुष्मन्तः, एके एवमाहुः ।। एके पुनरेवमाहुः-तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति, यदा स्खलु उत्तराधे अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धेऽपि अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति । एवं परिहातव्यम्-सप्तदशमुहूर्तानन्तरः, षोडशमुहूर्तानन्तरः, पञ्चदशमुहूर्तानन्तरः, चतुर्दशमुहूर्तानन्तरः, त्रयोदशमुहूर्तानन्तरः । तावत् यदा खलु दक्षिणार्धे द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि द्वादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति, यदा खलु उत्तरार्धे द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धेऽपि Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति, तदा खलु जम्बुद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यपाश्चात्ये नो सदा पञ्चदशमुहूर्तो दिवसो भवति, नो सदा पञ्चदशमुहर्ता रात्रिभवति, अनवस्थितानि खलु तत्र रात्रिन्दिवानि प्रज्ञप्तानि श्रमणायुष्मन्तः, पके पवमाहुः ।। एके पुनरेवमाहुः--तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धे द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, यदा खलु उत्तरार्धे अष्टादशमुहूत्र्तों दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धे द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । तावत् यदा खलु दक्षिणार्धे अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्ध द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, यदा खलु उत्तरार्धे अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धे द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । एवं सप्तदशमुहूत्र्तो दिवसः; सप्तदशमुहूर्तानन्तरः षोडशमुहूर्तः, षोडशमुहूर्तानन्तरः, पञ्चदशमुहूर्तः, पञ्चदशमुहूर्तानन्तरः, चतुर्दशमुहूर्तः, चतुर्दशमुहूर्तानन्तरः, त्रयोदशमुहूर्तः, त्रयोदशमुहूर्तानन्तरः, तावत् यदा खलु दक्षिणार्धे द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा ख द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, यदा खलु उत्तरार्धे द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति, तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यपाश्चात्ये नैवास्ति पञ्चदशमुहूत्र्तो दिवसः, नैवास्ति-पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, व्यवच्छिन्नानि खलु तत्र रात्रिन्दिवानि प्रक्षप्तानि भवणायुष्मन्तः पके एवमाहुः ।३।।।सू० १॥ व्याख्याः -'ता' इति तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' तव भवन्मते 'उदय संठिई' उदयसंस्थितिः 'आहिया' आख्याता कथिता ? ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु भवान् ! गौतमेन एवं प्रश्ने कृते भगवान् पूर्वमेतद्विषये परमतरूपास्तिस्रः प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति-'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ खलु' तत्र-उदयसंस्थितिविषये खल्लु 'इमाओ' इमाः अग्रे प्रदर्यमानाः 'तिण्णि' तिस्रः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः ‘पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ता कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा ता यथा-'तत्थ' तत्र त्रिषु प्रतिपत्तिवादिषु मध्ये 'एगे' एके प्रथमाः 'एवं' एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे जम्बूद्वीपनामके द्वीपे मध्यजम्बुद्वीपे 'दाहिणड्डे' दक्षिणार्धे दक्षिणदिक् स्थितेऽधभागे 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तरड्ढेवि' उत्तरार्धेऽपि उत्तरदिकू स्थितेऽर्धभागेऽपि 'अट्ठारसमुहुत्तो दिवसे भवई' अष्टादशमुहर्मों दिवमो भवति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरड्ढे' उत्तरार्धे अटारसमुहत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'दाहिणड्ढे वि' दक्षिणार्धेऽपि अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे 'सत्तरसमुहुत्तो दिवसे भवइ' सप्तदशमुहूर्तो दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तरड्ढेवि' उत्तरार्धेऽपि 'सत्तरसमुहुत्तो दिवसो भवई' सप्तदशमुहूर्तो दिवसो Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०-८ सू० १ सूर्यस्य उदयसंस्थितिनिरूपणम् १८९ भवति, 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरड्ढे ' उत्तरार्धे 'सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ' सप्तदशमुहूर्त्तो दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'दाहिणड्ढे वि' दक्षिणार्धेऽपि 'सत्तरसमुहुत्तो दिवसो भवइ' सप्तदशमुहूर्त्ती दिवसो भवति । ' एवं ' एवम् अनया रीत्या 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'अभिलावेणं' अभिलापेन पूर्वोक्ताभिलापानुसारेण - एकैकमुहूर्त्तहान्या षोडशमुहूर्त्तदिवसादारभ्य त्रयोदशमुहूर्त्तदिवसपर्यन्तमभिलापाः कर्त्तव्या इति भावः । तदेवाह - 'सोलसमुहुत्ते' घोडशमुहूर्त्तः, 'पण्णरसमुहुत्ते' पश्चदशमुहूर्तः, 'चोद्दसमुहुत्ते' चतुर्दशमुहूर्त्तः, 'तेरसमुहुत्ते त्रयोदशमुहूर्त्तः । एषामालापकाः स्वयमूहनीयाः । अथ द्वादशमुहूर्त्तविषये सूत्रकारः स्वयमाह - 'ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु ' दाहिणड्ढे ' दक्षिणार्धे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति 'तथा णं' तदा खलु 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'बारसमुहुत्ते दिवसे भव' द्वादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ते दिवसे भव' उत्तरार्धे द्वादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति ' तथा णं' तदा खल 'दाहि गड्ढेवि बारसमुहुत्ते दिवसे भवः' दक्षिणार्धेऽपि द्वादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति । 'तया णं' तदा अष्टादशमुहूर्त्तादि दिवसकाले खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बुद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्त्रयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिमपच्चत्थि मेणं' पौरस्त्यपाश्चात्ये पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि पूर्वपश्चिमयोर्दिशोरित्यर्थः 'सया' सदा सर्वदा सर्वकाले 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवई' पञ्चदशमुहूर्त्तो दिवसो भवति, तथा 'सया' सदा सर्वदा सर्वकाले 'पण्णरसमुहुत्ता राई भवई' पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति न तत्र न्यूनाधिकानि रात्रिंदिवानि भवन्तीति भावः । कुतः किं तत्र कारणमित्याह - ' अवट्टिया णं' अवस्थितानि सर्वदैकप्रमाणानि खलु 'तत्थ' तत्र मन्दरपर्वतस्य पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'राईदिया' रात्रिन्दिवानि पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि कथितानि अस्माकं पूर्वाचार्यैः 'समणाउसो' श्रमणायुष्मन्तः हे श्रमणाः हे आयुष्मन्तः चिरजीविनः शिष्याः !, उपसंहारः -- ' एगे' एके प्रथमा: प्रतिपत्तिवादिनः ' एवं ' एवं - पूर्व प्रदर्शितप्रकारेण 'आहंस' आहुः कथयन्ति प्रतिपादयन्ति । एषा प्रथमा प्रतिपत्तिः ॥ १॥ अथ द्वितीयां प्रतिप्रत्तिमाह - 'एगे पुण' इत्यादि । 'एगे' एके द्वितीयप्रतिप्रत्तिवादिनः पुनः ' एवं ' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कययन्ति । तदेव दर्शयति- 'ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे ' दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे "अट्टारसमृहुत्ताणंतरे' अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरः Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे अष्टादशमुहूर्तेभ्यो न्यूनः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति । अत्र-अनन्तरशब्दो न्यूनार्थवाची वर्त्तते । 'तया णं' तदा खलु 'उत्तरड्ढेवि उत्तरार्धेऽपि 'अट्ठारसमुहुत्ताणतरे' अष्टादशमुहूर्तानन्तरः 'दिवसो भवई' दिवसो भवति। 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरड्ढे' उत्तरार्धेः 'अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'दाहिणड्ढे वि' दक्षिणार्धेऽपि 'अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति । 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'परिहावेयव्वं' परिहातव्यम् एकैकमुहूर्तहान्या न्यूनीकर्तव्यम् । तदेव परिहाणिप्रकारमाह ‘सत्तरस' इत्यादि । सत्तरसमुहुताणतरे' सप्तदशमुहूर्त्तानन्तरः, सोलसमुहुत्ताणंतरे' षोडशमुहूर्तानन्तरः, 'पण्णरसमुहुत्ताणंतरे' पञ्चदशमुहूर्तानन्तः, 'चउद्दसमुहुत्ताणंतरे' चतुर्दशमुहूर्त्तानन्तरः, 'तेरसमुहुत्ताणंतरे' त्रयोदशमुहूर्त्तानन्तरः । अथ द्वादशमुहूर्तानन्तरसूत्रं सूत्रकारः स्वयं दर्शयति–'ता जया ' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे 'बारसमुहुत्ताणंतरे' द्वादशमुहूर्तानन्तरः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'दुवालसमुहुत्ताणंतरे' द्वादशमुहूर्तानन्तरः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति । 'जया णं' यदा खलु उत्तरड्ढे उत्तरार्धे 'दुवालसमुहुत्ताणंतरे' द्वादशमुहूर्तानन्तरः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'तया गं' तदा खलु 'दाहिणड्ढेवि' दक्षिणार्धेऽपि 'दुवालसमुहुत्ताणतरे' द्वादशमुहूर्तानन्तरः, द्वादशमुहूर्तेभ्यो न्यूनः ‘दिवसे भवइ' दिवसो भवति । 'तया ण' तदा अष्टादशादिद्वादशमुहूर्तानन्तरदिवससमये स्खलु 'जम्बुद्दोवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पब्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिमपच्चत्थिमेणं' पौरस्त्यपाश्चात्ये पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि 'नो' नैव 'सया' सदा सर्वकाले 'पण्णरसमहुत्ते दिवसे भवई' पञ्चदशमुहूत्तों दिवसो भवति, तथा 'नो' नैव सया' सदा सर्वकालं 'पण्णरसमहत्ता राई भवई' पञ्चदशमुहूर्ता रात्रि र्भवति । तत्र को हेतुः ! इत्याह-'अणवडिया' इत्यादि, 'अणवट्ठिया णं' अनवस्थितानि अनियतप्रमाणानि खलु तत्र मन्दरस्य पूर्वापरदिशोः 'राइंदिया' रात्रिन्दिवानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञतानि अस्मत्पूर्वाचार्यैः कथितानि 'समणाउसो' श्रमणायुष्मन्तः हे चिरजीविनः श्रमणा इति । उपसंहारः'एगे' एके द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंसु' आहुः-कथयन्ति । एषा द्वितीया प्रतिपत्तिः ।२। अथ तृतीयां प्रतिपत्तिमाह-'एगे' इत्यादि । एगेपुण' एक तृतीयाः परतीर्थिकाः पुनः एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहेसु' आहुः कथयन्ति, तदेवाह -'ता जयाणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जयाणं' यदा खलु जंबु द्दीवे दीवे जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिणइढे' दक्षिणार्धे दक्षिणदिक् स्थिते जम्बूद्वीपस्यार्धे भागे 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहर्तो दिवसो भवति Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीक प्रा० ८ सू० १ सूर्यस्य उदयसंस्थितिनिरूपणम् १९१ 'तया णं तदा खलु 'उत्तरड्ढे' उत्तरार्धे उत्तरदिकू स्थिते जम्बूद्वीपस्यार्धे भागे 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, 'जया णं' यदा खलु उत्तरड्ढे उत्तरार्धे 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहतों दिवसो भवति 'तयाणं' तदा खलु 'दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे 'अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरः अष्टादशभ्यो मुहूर्तेभ्यो हीनो दिवसो भवति 'तया णं' तदा स्खलु 'उत्तरड्डे' उत्तरार्धे 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरड्ढे' उत्तरार्धे 'अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे' अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरः अष्टादशमुहूर्तेभ्यो होनः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'दाहिणड्डे' दक्षिणार्धे 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिभवति । ‘एवं' एवम् -अनेन अभिलापप्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावत् त्रयोदशमुहूर्तानन्तरदिवससूत्रमायाति । अत्र पूर्णमुहूर्तः, अनन्तरैः किञ्चिन्न्यूनैश्च मुहूर्तेः द्वौ द्वौ आलापको कर्तव्यो, सर्वत्र रात्रिस्तु द्वादशमुहूर्तेव वक्तव्या । तदेवाह-सत्तरसमहुत्ते दिवसे' १, सप्तदशमुहूत्तों दिवसः १, 'सत्तरसमुहुत्ताणंतरे' सप्तदशमुहूर्तानन्तरः २, 'सोलसमुहुत्ते' षोडशमुहूर्तः ३, 'सोलसमुहुत्ताणंतरे' षोडशमुहूर्त्तानन्तरः ४, 'पण्णरसमहुत्ते' पञ्चदशमुहूर्तः ५, 'पण्णरसमुहुत्ताणंतरे' पञ्चदशमुहूर्तानन्तरः ६ चउद्दसमुहुत्ते' चतुर्दशमुहूर्तः ७, 'चउद्दसमहुत्ताणंतरे' चतुर्दशमुहूर्तानन्तरः ८, 'तेरसमुहुत्ते' त्रयोदशमुहूर्त: ९, 'तेरसहुत्तणंतरे' त्रयोदशमुहूर्तानन्तरः १०,। एते दशआलापकाः पूर्वप्रदर्शितरीत्या स्वयमूहनीयाः । अथ द्वादशमुहूर्तालापकद्वयं सूत्रकारः स्वयं प्रदर्शयति–ता जया णं' इत्यादि। 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे 'बारसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तरड ढे' उत्तरार्धे 'बारसहुत्ता राई भबई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, 'जया णं' यदा खलु 'उत्तर'ढे उतरार्धे 'बारसहुत्ताणंतरे' द्वादशमुहूर्तानन्तरः दिवसे भवई' दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरथिमपच्चत्थिमेणं' पौरस्त्यपाश्चात्ये पूर्वापरदिग्भागे ‘णेवत्थि' नैवास्ति 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे' पञ्चदशमुहूत्तों दिवसः, तथा 'णेवत्थि' नैवास्ति ‘पण्णरसमुहुत्ता राई' पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिः 'भवई' भवति । कथमित्याह - 'वोच्छिण्णा णं' व्यवच्छिन्नानि विनष्टानि खलु 'तत्थ राइंदिया' तत्र रात्रिन्दिवानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि अस्मदाचार्यैः 'समणाउसो' हे श्रमणायुष्मन्तः ! उपसंहारः- 'एगे' एके तृतीयाः 'एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्तीति । इति तृतीया प्रतिपत्तिः ।३।सू०॥१॥ उक्तास्तिस्रः प्रतिपत्तयः, एता स्तिस्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः सन्ति भगवतामनभिमतत्वात् । अत्रापि ये तृतीयाः परतीर्थिकाः सदैव द्वादशमुहूर्ती रात्रिं प्रतिपादयन्ति तेषां प्ररूप Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चद्रप्राप्तिसूत्रे णायां विरोधः प्रज्ञक्ष एव लोके राहीनाधिकरूपत्वेन समुपलभ्यमानत्वात् । एवं सति भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-वयं पुण' इत्यादि । मूलम्-वयं पुण एवं वयामो-ता जंबुद्दीवे दीवे सरिया उदीणपाईणं उग्गच्छति पाईणदाहिणं आगच्छंति । पाईणदाहिणं उग्गच्छंति दाहिणपडीणं आगच्छति २। दाहिण पडीणं उग्गच्छंति पडीण उदीणं आगच्छति ३। पडीणउदीणं उग्गच्छंति उदीणपाईणं आगच्छति ४ ॥१॥ ___ता जया णं जबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे दिवसे भवइ तया णं जबुद्दीवे दीवे मदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपच्चत्थिमेण राई भवइ । जया णं जबुद्दीवे दीवे मदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं दिवसे भवइ तया णं पच्चत्थिमेणं वि दिवसे भवइ, जया ण पच्चत्थिमेण दिवसे भवइ तया ण जबुहीवे दीवे मदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं राई भवइ ।२। ता जया णं जबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ ।, जया ण उत्तरड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तयाणं जबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पचयस्स पुरथिमपच्चस्थिमेण जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया णं जबुद्दीवे दीवे मंदस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया ण पच्चत्थिमेण वि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ ।, जया णं पच्चत्थिमेणं उक्कोसए अट्ठारस्समुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जवुद्दीवे दीवे मंदरस्स पबयस्स उत्तरदाहिणेणं जहणिया दुबालसमुहुत्ता राई भवइ । एवं अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, साइरेगा दुवालसमुहुत्ता राई भवई, सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ता राई भवइ । सत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे साइरेगा तेरसमुहुत्ता राई भवइ । सोलसमुहुत्ते दिवसे चउद्दसमुहुत्ता राई भवइ । सोलसमुहुाणंतरे दिवसे साइरेगा चउद्दसमुहुत्ता राई भवइ । पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ । पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेगा पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ । चउद्दसमुहुत्ते दिवसे सोलसमुहुत्ता राई भवइ । चउद्दसमुहुत्ता णंतरे दिवसे साइरेगा सोलसमुहुत्ता राई भवइ । तेरसमुहुत्ते दिवसे सत्तरसमुहुत्ता राई भवइ । तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेगा सत्तरसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया णं जबुद्दीवे दिवे दाहिणड्ढे जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे विजहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । ता जया णं उत्तरड्ढे जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पच्चत्थिमेण उक्कोसिया Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ८सूर भगवताप्रदर्शित दिवसरात्रिपकारस्तन्मुहूर्तमानं च १९३ अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया णं जबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं पच्चत्थि भेण वि जहण्णए दुवालस्समुहुत्ते दिवसे भवइ । जया णं पच्चत्थिमेणं जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं दाहिणेणं उक्कोसिया अट्टारसमुहुत्ता राई भवइ ॥३॥ सू०२॥ छाया-वयं पुनरेवं वदामः तावत् जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यो उदीचीप्राच्याम् उद्गच्छतः प्राचीदक्षिणस्याम् आगच्छतः ।। प्राची दक्षिणस्यामुद्गच्छतः दक्षिण प्रतीच्यामागच्छतः २ दक्षिणप्रतीच्यामुद्गच्छतः ३ प्रतीच्युदीच्यामुद्गच्छतः उदीवीप्राच्यामागच्छतः ४ ॥१॥ तावत् यदा स्खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि दिवसो भवति । यदा खलु उत्तरार्धे दिवसो भर्वात तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यपाश्चात्ये रात्रिर्भवति । यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मदरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये दिवसो भवति तदा खलु पाश्चात्येऽपि दिवसो भवति । यदा खलु पाश्चात्ये दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरदक्षिणे रात्रिर्भवति ॥२॥ तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे उत्कर्षक: अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि उत्कर्षक: अष्टादशमुहृत्तॊ दिवसो भवति । तदा खलु उत्तरार्धे उत्कर्षक: अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वोपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यपाश्चात्ये जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता राधिर्भवति । तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वोपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा स्खलु पाश्चात्येऽपि उत्कर्षकः अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, यदा खलु पाश्चात्ये उत्कर्षकः अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा खलु जम्बूदीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरदक्षिणे जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । एवम्-अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति, सातिरेका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति। सप्तदशमुहूत्तों दिवसः त्रयोदशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । सप्तदशमुहूर्ता नन्तरो दिवसः सातिरेका त्रयोदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । षोडशमुहूत्तों दिवसः चतुर्दशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । षोडशमुहूत्तानन्तरः दिवसः सातिरेका चतुर्दशमुहूर्त्ता रात्रिभवति । पञ्चदशमुहूतौ दिवसः पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । पञ्चदशमुहूर्तानन्तरो दिवसः सातिरेका षञ्चदशमुहूत्ता रात्रिर्भवति । चतुर्दशमुहूर्तो दिवसः षोडशमुहूर्ता रात्रिर्भवति। चतुर्दशमुहर्तानन्तरो दिवसः सातिरेका षोडशमुह रात्रिभ. घति । त्रयोदशहूतों दिवसः सप्तदशमुहर्ता रात्रिर्भवति । त्रयोदशमुहर्तानन्तरो दिवसः सातिरेका सप्तदशमुहूर्ता रात्रिभवति । तावत् यदा खलु जम्बुद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धजघन्यकः द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि जघन्यकः द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति । तावत् यदा खलु उत्तरार्धे जघन्यकः द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये पाश्चात्ये उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति तावत यदा खल जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्थ पौरस्त्ये जघन्यकः द्वादशमहतों दिवसो भवति तदा खलु पाश्चात्येऽपि जघन्यको द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति । यदा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्र खलु पाश्चात्ये जघन्यको द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे दक्षिणे उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति ।३ । सू० २॥ व्याख्या—'वयं पुण' वयं तु 'एवं' एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः । किं वदामः । तदेवाह-'ता जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'सरिया' सूर्यौ द्वौ सूर्यो भरतैरवतसम्बन्धिनौ मण्डलगत्या परिभ्रमन्तौ 'उदीणपाईणं' उदीचीप्राच्या उत्तरपूर्वस्याम् ईशानकोणे 'उग्गच्छंति' उद्गच्छतः उद्गत्येत्यर्थः ‘पाईणदाहिणं प्राचीदक्षिणस्यां पूर्वदक्षिणायाम्-अग्निकोणे 'आगच्छति' आगच्छतः अस्तं प्राप्नुतः १। 'पाईणदाहिणं' प्राचीदक्षिणस्याम् अग्निकोणे 'उग्गच्छंति' उद्गच्छतः उद्गत्य 'दाहिणपहीणं' दक्षिणप्रतीच्या नैर्ऋतकोणे 'आगच्छंति' आगच्छन्तः अस्तं प्राप्नुतः २ । 'दाहिणपडीणं' दक्षिणप्रतीच्याम् 'उग्गच्छंति' उद्गच्छतः उद्गत्य 'पडीणउदीणं' प्रतीच्युदीच्या वायुकोणे 'आगच्छंति, आगच्छतः अस्तं प्राप्नुतः।३। 'पडीणउदीणं' प्रतीच्युदीच्यां वायुकोणे 'उग्गच्छंति' उद्गच्छतः उद्गत्य 'उदीणपाईणं' उदीचीप्राच्याम् ईशानकोणे 'आगच्छंति' आगच्छतः अस्तं प्राप्नुतः ४। एवं द्वौ भरतैरवतसूर्यो ईशानकोणाद् उद्गत्य चतुर्पु विदिक्षु उदयास्तक्रमेण परिभ्रम्य अन्ते ईशानकोणे एव अस्तं प्राप्नुतः । एवं जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य परितः द्वौ सूयौं मण्डलगत्या परिभ्रम्य चारं चरतइति भावः ।। अयं तावत् सामान्यतः समुदितयोयोः सूर्ययोरुदयास्तविधिः प्रदर्शितः । विशेषत एकैकसूर्यमाश्रित्य तद्विधिरेवं ज्ञातव्यः-अत्र एकः सूर्यो द्वितीयसूर्यस्य सन्मुखं प्रतिकूलदिशि चारं चरति इति लोकव्यवस्थाया नियमः, यथा-यदा एकः सूर्यः उत्तरपूर्वस्यामीशानकोणे उद्गछति तदा द्वितीयः दक्षिणपश्चिमायां नैर्ऋतकोणे उद्गच्छति, यदा उत्तरपूर्वस्यामुद्गतः सूर्यः प्राचीदक्षिणस्याम् आगच्छति पूर्वक्षेत्रापेक्षया अस्तमेति तत्क्षेत्रापेक्षया चोद्गच्छतीत्यवधेयम्तदा दक्षिणप्रतीच्या नैऋतकोणे उद्गतः सूर्यः प्रतीच्युदीच्याम् वायव्यकोणे आगच्छतीति पूर्वक्षेत्रापेक्षयाऽस्तमेति तत्क्षेत्रापेक्षया चोद्गच्छतीति ज्ञातव्यम् न कदापि सूर्य उद्गच्छति न चास्तमेति च किन्तु सूर्यस्य चक्षुषोः स्पर्शास्पर्शमाश्रित्य लोका उदयास्तशब्देन व्यवहरन्ति । सूर्यस्य चक्षुःस्पर्श सूर्य उदितः, इति चक्षुःस्पर्शाभावे सूर्यः अस्तंगतः इति लोका व्यवहरन्तीति विवेकः । प्रकृतमनुसरामः-यदा एकः सूर्यः पूर्वदक्षिणस्याम् अग्निकोणे उद्गच्छति तदाऽपरः प्रतीच्युदीच्यां तत्सन्मुखं वायव्यकोणे समुद्गच्छति, एष द्वयोः सूर्ययो उदयविधिः । यदा पूर्वदक्षिणोद्गतश्च भारतः सूर्यो भरतादीनि क्षेत्राणि मेरुदक्षिणदिग्भावीनि मण्डलगत्या परिभ्रमन् प्रकाशयति. तदाऽपरः सूर्यः पश्चिमोत्तरस्यां वायव्यकोणे समुद्गतः सन् तत ऊर्व मण्डलगत्या परिभ्रमन् ऐरवतादीनि क्षेत्राणि यानि मेरोरुत्तरदिग्भावीनि वर्तन्ते. तानि Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०८सू०२ भगवताप्रदर्शितदिवसरात्रिप्रकोरस्तन्मुहर्तमानं च १९५ प्रकाशयति । यदा भारतश्च सूर्यः पूर्वदक्षिणस्यामुद्गत्य दक्षिणप्रतीच्या नैऋतकोणे समागतः सन् अपरविदेहक्षेत्रमाश्रित्य उदयमेति तदा ऐरवतः सूर्यः प्रतीच्युदीच्या वायव्यकोणे. समुद्गत्य उत्तरपूर्वस्यामागतः सन् पूर्वविदेहमाश्रित्य उदयमेति । दक्षिणप्रतीच्या नैऋतकोणे समुद्गतः सन् सूर्यः तत ऊवं मण्डलगत्या परिभ्रमन् अपरविदेहान् प्रकाशयति । उत्तरपूर्वस्याम् ईशानकोणे समुद्गतस्तु तत ऊर्ध्व मण्डलगत्या परिभ्रमन् पूर्वविदेहान् प्रकाशयति । तत एष पूर्वविदेहप्रकाशकः सूर्यों पूर्वदक्षिणस्याम् आग्नेयकोणे भरतादि क्षेत्रापेक्षया उदयमेति, अपरविदेहप्रकाशकः सूर्यस्तु प्रतीच्युदीच्यां वायव्यकोणे उदयमेतीति । तदेवं जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्ययो रुदयविधिः प्रदर्शितः, साम्प्रतं क्षेत्रविभागेन दिवसरात्रि विभागमाह-'ता जया गं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिणड्ढे दिवसे भवई' दक्षिणार्धे दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'दिवसे भवई' दिवसो भवति द्वयोः सूर्ययोः परस्परं समकालं सन्मुखं प्रतिकूलदिक्चारित्वात् । तदा एकः सूर्यः दक्षिणदिशि परिभ्रमति तदाऽपरः सूर्योऽवश्यमुत्तरदिशि परिभ्रमति ततः दक्षिणार्धे उत्तरार्धे च उभयत्र दिवसो भवत्येवेति भावः । 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरड्डे' उत्तरार्धे उपलक्षणात् दक्षिणार्धे च 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'तया णं तदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपेद्विीपे 'मदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरथिमपच्चत्थिमेणं' पौरस्त्यपाश्चात्ये पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'राई भबई' रात्रिर्भवति द्वयोः सूर्ययो दक्षिणोत्तरचरणापूर्वपश्चिमयोरेकस्यापि सूर्यस्योपस्थितेरभावात् । 'जया णं' यदा खलु जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरथिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वस्यां दिशि 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पच्चत्थिमेणं पि' पाश्चात्येऽपि पश्चिमायां दिशायामपि 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति द्वयोः सूर्ययोः परस्परं विपरीतदिशोः समकालं संचरणस्वभावत्वात् उभयत्र दिवसो भवत्येव । यदा एकः सूर्यः पूर्वस्यां चारं चरति तदाऽपरः पश्चिमायां दिशि चारं चरत्येवेति । 'जया णं' यदा खलु 'पच्चत्थिमेणं' पाश्चात्ये पश्चिमायां दिशि उपलक्षणात् पूर्वस्यां च दिशि 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'तया गं' तदा खल 'जवुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तर दक्षिणे उत्तरस्यां दक्षिणस्यां च दिशि 'राई भवई' रात्रिर्भवति द्वयोः सूर्ययोः पूर्वपश्चिमदिशोः संचरणसमये उत्तरे दक्षिणे च एकस्यापि सूर्यस्योपास्थत्यभावात् ।२॥ एवं दिवसरात्रिविभागमुपदर्य साम्प्रतं तत्प्रमाणमुपदर्शयति-'ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिणडूढे' दक्षिणार्धे 'उक्कोसए' उत्कर्षकः 'अट्ठार Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे समुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तर देवि' उत्तराचेंऽपि ‘उक्कोसए' उत्कर्षक: 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूत्तों दिवसों भवति । द्वयोः सूर्ययोः परस्परं विपरीत समकालसन्मुखमण्डलचारित्वेन यदा एकः सूर्य दक्षिणा सर्वा भ्यन्तरमण्डले चारं चरति तदाऽपरोऽपि उत्तरार्धे सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरति तथा स्वाभा व्यात् ततो दक्षिणोत्तरयोरुभयत्र समानदिवसप्रमाणत्वं समीचीनमेवेति भावः । 'जया णं' यदा खलु ‘उत्तरड्ढे' उत्तरार्धे उपलक्षणात् दक्षिणार्धे च 'उक्कोसए अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भव' उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति 'तया णं जंबुद्दीवे दीवे' तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं' पौरस्त्यपाश्चात्ये पूर्वस्यां पश्चिपायां च दिशि 'जहणिया' जयन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवर' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरतोः द्वयोः सूर्ययोः सर्वत्रापि द्वादशमुहूर्त्ताया एव रात्रे - र्भावात् । यतो हि त्रिंशन्मुहूर्त्ताहोरात्र सत्त्वेऽष्टादशमुहूर्त्तास्तत्र दिवसभागे व्यतीता जाता तो द्वादशमुहूर्त्ता एव रात्रेः शेषास्तिष्ठेयुरिति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वस्यां दिशि 'उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'पच्चत्थिमेण वि पाश्चात्येऽपि पश्चिम दिशायामपि 'उक्कोसए अट्ठारससुहुत्ते दिवसे भवइ' उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति । द्वयो सूर्ययोः परस्परविपरीत संमुखमण्डल समकालचारित्वेन यदा पूर्वदिक्चारी सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरति तदाऽपरः पश्चिमदिक्चारी सूर्योऽपि सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरति तथा स्वाभाव्यात् ततः पूर्वपश्चिमयोः उभयत्रापि दिवसयोः समानप्रमाणत्वं भवत्येवेति भावः । ' जया णं' यदा खलु 'पच्चत्थिमेणं' पाश्चात्ये पश्चिमदिशायाम् उपलक्षणात् पूर्वस्यां दिशि च 'उक्कोसर' उत्कर्षकः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादश मुहूत्त दिवसो भवति 'तथा णं' तदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तरदक्षिणे उत्तरस्यां दक्षिणस्यां च दिशि 'जहण्णिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' र्द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । सूर्ययोः सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारसमये रात्रे र्द्वादशमुहूर्त्ताया एवं सर्वत्र सद्भावात् त्रिंशन्मुहूर्त्ताहोरात्रप्रमाणेऽष्टादशमुहूर्त्तानां तत्र दिवसभागे व्यतीतत्वाच्चेति । ' एवं ' एवम् अनेनाभिलापप्रकारेणा सर्वत्र भावना करणीया । तत्र यदा 'अट्ठारस मुहुत्ताणंतरे' अष्टादश मुहूर्त्तानन्तरः अष्टादशमुहूर्त्तात् किश्चिन्न्यूनः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति तदा 'साइरेगा ' सातिरेका किञ्चिदधिका यदा दिवसे यावत्परिमितं न्यूनत्वं भवति तदा रात्रौ तावत्परिमितमेवाधिकत्वं भावनीयम् । ‘दुवालसमुहुत्ता राई भवर' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भति । एवमेकैकमुहूर्त्तस्य Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटोका प्रा०८ सू०२ भगवताप्रदशितदिवसरात्रिपकारस्तन्मुहूर्त्तमानं च १९७ किंचित्प्रमाणस्य वा दिवसप्रमाणे यथा यथा न्यूनत्वं जायते तथा तथा रात्रिप्रमाणे एकैकमुहूर्तस्य किंचित्प्रमाणस्य वाऽधिकत्वं ज्ञातव्यम् । तथाहि यदा-'सत्तरसमुहुत्ते दिवसे' सप्तदश मुहूर्तो दिवसः तदा 'तेरसमुहुत्ता राई भवइ' त्रयोदशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । यदा ‘सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे' सप्तदशमुहूर्तानन्तरः सप्तदशमुहूर्तेभ्यः किंचिन्न्यूनो दिवसो भवति तदा 'साइरेगा. तेरसमुहुत्ता राई भवई' सातिरेका किंचिदधिका त्रयोदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । यदा ‘सोलसमुहुत्ते दिवसे' षोडशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा 'चउद्दसमुहुत्ता राई भवई' चतुर्दशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । यदा ‘सोलसमुहुत्ताणतरे दिवसे' षोडशमुहूर्तानन्तरः षोडशमुहूर्तेभ्यः किंचिम्यूनो दिवसो भवति तदा 'साइरेगा' सातिरेका किंचिदधिका 'चउडसमुहुत्ता राई भवई' चतुर्दशमुहर्ता रात्रिभवति । यदा 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे' पञ्चदशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा 'पण्णरसमुहुत्ता राई भवई' पश्चदशमुइर्ता रात्रिर्भवति । अत्र पूर्व प्रथमप्राभृतस्य प्रथमे प्राभृतप्राभृते कथितम्-'नत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे नत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवई' नास्ति परिपूर्णपञ्चदशमुहूर्तो दिवसो नास्ति परिपूर्णा पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिर्भवतीति, अस्य कारणमपि गणितेन तत्र प्रदर्शितम् तत्रत्यमेतत्कथनं निश्चयनयमाश्रित्य कृनं वर्तते, अत्र व्यवहारनयमाश्रित्य 'पञ्चदशमुहूत्तों दिवसः पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिः' इति कथितमतो न कोऽपि दोषः। दृश्यते हि लोके किञ्चिन्न्यूनाधिकशतसंख्यायाम् इदमेकं शतम्' इति व्यवहार इति । ___ प्रकृतमनुसरामः- यदा ‘पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे' पञ्चदशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति पञ्चदशमुहूर्तेभ्यः किञ्चिन्यूनो दिवसो भवति तदा 'साइरेगा' सातिरेका किञ्चिदधिका 'पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ' पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । यदा-'चउद्दसमुहूत्ते दिबसे' चतुदेशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा सोलसमुहुत्ता राई भवइ' षोडशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । यदा चउदेसमुहुत्ताणंतरे दिवसे' चतुर्दशमुहूर्त्तानन्तरः चतुर्दशमुहूर्तेभ्यः किञ्चिन्न्यूनो दिवसो भवति तदा 'साइरेगा' सातिरेका किञ्चिदधिका 'सोलसमुहुत्ता राई भवई' षोडशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । यदा 'तेरसमुहुत्ते दिवसे' त्रयोदशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा 'सत्तरसमुहुत्ता राई भवई' सप्तदशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । यदा 'तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे' त्रयोदशमुहूर्तानन्तरः त्रयोदशमुहूर्तेभ्यः किञ्चिन्यूनो दिवसो भवति तदा 'साइरेगा' सातिरेका किञ्चिदधिका 'सत्तरसमुहुत्ता राई भवई' सप्तदशमुहूर्ता रात्रिभवति । अथाने सूत्रकारः स्वयमालापकं प्रदर्शयति 'ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बुद्वीपे द्वीपे 'दाहिणड्डे' दक्षिणार्धे 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादश Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे मुहूत्तों दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'जहण्णए' जघन्यकः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति । 'ता' तावत् 'जया गं' यदा खलु उत्तरड्ढे' उत्तरार्धे उपलक्षणाद्दक्षिणार्धं च 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालासमुहुत्ते दिबसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति 'तया णं' तदा खल 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बुद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरथिमेणं पच्चत्थिमेणं' पौरस्त्ये पाश्चात्ये पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु जंबुद्दीवे दीवे' जम्बुद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वस्यां दिशि 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'पञ्चत्थिमेण वि' पाश्चात्येऽपि पश्चिमायां दिशायामपि 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति । 'जया णं' यदा खलु पच्चत्थिमेणं' पाश्चात्ये पश्चिमदिशि उपलक्षणात् पूर्वदिशि च 'जहण्णए' जघन्यकः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति । 'तया णं' तदा खलु 'जंबुद्दीवेदीवे' जम्बुद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्स पर्वतस्य 'उत्तरेणं दाहिणेणं' उत्तरे दक्षिणे 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति ॥३॥ अत्रायं निष्कर्षः-दो सूर्यौ जम्बुद्वीपे परस्परं प्रतिकूलदिशि संमुखं स्व स्व क्षेत्रे समकालं समानगत्या चारं चरतः, ततो दक्षिणोत्तरयोः सर्वाभ्यन्तरमण्डल चारसमये उभयत्र अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवेत् , सर्वबाह्यमण्डल चारसमये उभयत्र समकालं द्वादशमुहूर्तों दिवसो भवेत् । यदा सूर्यौ दक्षिणोत्तरयोश्चारं चरतस्तदा पूर्वपश्चिमयोः रात्रिभवेत् , यदा पूर्वपश्चिमयोश्चार चरतस्तदा दक्षिणोत्तरयोः रात्रिभवेदिति सुज्ञातमेव । . यदा सूर्यौ दक्षिणोत्तरयोः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमाश्रित्य चारं चरतस्तदोभयत्र समकालम् अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, पूर्वपश्चिमयोश्चोभयत्र समकालं द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिभवेदिति प्रथमः प्रकारः ।१। यदा सूर्यो दक्षिणोत्तरयोः सर्वबाह्यमण्डलमाश्रित्य चारं चरतस्तदा तत्रो भयत्र समकालं द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति, पूर्वपश्चिमयोश्चाष्टादशमुहूर्ता रात्रिभवति, अहो. रात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणत्वात् । इति द्वितीयः प्रकारः ।२। यदा सूर्यो पूर्वपश्चिमयोंः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमाश्रित्य चारं चरतस्तदा तत्रोभयत्र समकालम् अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, दक्षिणो. त्तरयोश्चोभयत्र द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवतीति तृतीयः प्रकारः ।३। यदा सू? पूर्वपश्चिमयोः सर्व Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाकिा टीक प्रा०८सू०२ भगवता प्रदर्शितदिवसरात्रिप्रकारस्तन्मुहूर्वमानं च १९९ बाह्यमण्डलमाश्रित्य चारं चरतस्तदा तत्रोभयत्र समकालं द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति, दक्षिणोत्तरयोश्चोभयत्र अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवतीति चतुर्थः प्रकारः ।। अथैषां चतुर्णामपि प्रकाराणां सुगमबोधार्थं चत्वारि कोष्ठकानि प्रदर्श्यन्ते - प्रथमप्रकारकोष्टकम (१) | द्वितीयप्रकारकोष्टकम् (२) दक्षिणोत्तरयो: सूर्यद्वयस्य सर्वाभ्यन्तर-दक्षिणोत्तर्योः सूर्यदयस्यसर्वबाह्यमण्डलगतौ २ द्वादश मुहर्तारात्रिः। मण्डलगत्तौ १८ अष्टादश मुहत्तारात्रिः पू० पू. " जबूज बू । उ मेरुः)-द. | उ. मेरुः-द. १८ाष्टा यसः _१२ द्वादशमुहूर्तारात्रिः। । १८ अष्टादशमुहूर्तरात्रिः! | - तृतीयप्रकारकोष्टकम् (३) चत्तुर्यप्रकारकोष्टकम् (४) पूर्वपश्चिमयोः सूर्यद्वयस्यसम्विन्तर-पूर्वपश्चिमयोः सूर्यदयस्यसर्यबाह्ममण्डलगतौ १८ अष्टादशमुहत्तौ दिवसः। मण्डलगती १२ द्रादेशमुहत्तॊ दिवसः। जिंब द. उ. १२ द्वादशमुहत्तागाँत्रः। उ. -१२द्वादश-१८ अष्टा| महत्तों-दशमुहत्तानदीप: “रात्रिः। रात्रिः । । द्रापः दशमुहूत्ता रात्रिः १८ अष्टादश मुत्तौ दिवसः १२ द्वादश मुहूर्तो दियशः। पूर्व दक्षिणाङ्केत्तरार्द्धयोदिवसरात्रिप्रकारः, तन्मुहूर्तमानं च प्रदर्शितम् , साम्प्रतं दक्षिणार्धेउत्तरार्धे कदा कदा वर्षाकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते इति दर्शयितुमाह-'ता' जया णं इत्यादि । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे मूलम् - ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणइढे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं उत्तरड्ढे वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पच्चत्थिमेणं अणंतरपुराकडे कालसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिबज्जइ तयाण जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं दाहिणेणं अणंतरपच्छाकडे कालसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिपुण्णे भवइ । जहा समए एवं आवलिया, आणपाणू, थोवे, लवे, मुहुत्ते, अहोरत्ते, पक्खे, मासे, उऊ,एए दस आलावगा वासाणं भाणियव्वा ।४। ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दहिणड्ढे हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं उत्तरड्ढे वि हेमंता णं पढमे समए पडिवज्जइ, जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पच्चत्थिमेणं अणंतरपुराकडे कालसमयसि यं हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ० एयस्स वि दस आलावगा जाव उऊ भाणियव्वा ।५। ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं उत्तरड्ढेवि गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ । ता जया णं उत्तरदाहिणड्ढे गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे पुरत्थिमेणं पच्चत्थिमेणं अणंतरपुराकडे कालसमयसि गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ० एयस्स वि दस आलावगा जाव उऊ भाणियव्वा ।६। ता जया णं जंबुहीवे दीवे दाहिणड्ढे पढमे अयणे पडिवज्जइ । जया णं उत्तरड्ढे वि पढमे अयणे पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पच्चत्थिमेणं अणंतरेपुराकडे कालसमयंसि पढमे अयणे पडिवज्जइ । ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पढमे अयणे पडिवज्जइ तया णं पच्चस्थिमेण वि पढमे अयणे पडिवज्जइ । ता जया णं पच्चत्थिमेणं पढमे अयणे पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेण दाहिणेण अणंतरपच्छाकडे कालसमयंसि पढमे अयणे पडिपुन्ने भवइ ! एवं संवच्छरे जुगे वाससए वाससहस्से वाससयसहस्से पुव्वंगे, पुव्वे, तुडियंगे, तुडिए, अववंगे, अववे, हुहुयंगे, हुहुए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे. णलिणंगे, णलिणे, अच्छ निउरंगे, अच्छनिउरे अउयंगे, अउए, नउयंगे, नउए चूलियंगे, चूलिया, सीसपहेलियंगे, सीसपहेलिया, पलिओवमे, सागरोवमे । ता जया ण जंबुद्दीवे दीवे दाहिगड्ढे पढमे समए उस्सप्पिणी पडिवज्जइ तया णं उत्तर पुढे वि पढमे समए उस्सप्पिणी पडिवज्जइ, जया णं उत्तरड्ढे पढमे समए उस्सप्पिणी पडिवज्जइ तया णं जवुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्बयस्स पुरथिमेणं पच्चत्थिमेणं उस्सप्पिणी, नेवत्थि अवहिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो १७॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-८ सू०३ दक्षिणार्धोत्तरार्धे वर्षाकालादिलमयनिरूपणम् २०१ एवं लवणसमुद्दे धायईसंडे कालोए ता अभितरपुक्खरद्वेण वि सूरिया उत्तरपाई - मुगच्छति पाईणदाहिणं आगच्छंति । एवं जंबुद्दीववत्तन्वया भाणियन्वा जाव उस्सप्पिणी वि ॥ सू० ३ ॥ चंदपन्नत्तीए अट्टमं पाहुडे समत्तं ॥८॥ छाया - तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा खलु उत्तरार्धेऽपि वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते । यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये पाश्चात्ये अनन्तरपुराकृते कालसमये वर्षार्णां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे दक्षिणे अनन्तरपश्चात्कृते कालसमये वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपूर्णो भवति । यथा समयः एवम् - आवलिका, आनप्राणौ, स्तोकः, लवः, मूहूर्तः, अहोरात्रः, पक्षः, मासः, ऋतुः, एते दश आलापका वर्षाणां भणितव्याः |४| तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे हेमन्तानां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा खलु उत्तरार्धेऽपि हेमन्तानां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते, तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये पाश्चात्ये अनन्तर पुराकृते कालसमये हेमन्तानां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते एतस्यापि दश आलापका यावत् ऋतुम् भणितव्याः | ५| तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे ग्रीष्माणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा खलु उत्तराधेऽपि ग्रीष्माणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते । तावत् यदा खल उत्तरदक्षिणार्धे ग्रीष्माणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे पौरस्त्ये पाश्चात्ये अनन्तरपुराकृते कालसमये ग्रीष्माणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते । पतस्यापि दश आलापका यावत् ऋतुम् भणितव्याः ||६|| तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वोपे दक्षिणार्धे प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते तदा खल उत्तराsu प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते । यदा खल उत्तरार्धे प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये पाश्चात्ये अनन्तरपुराकृते कालसमये प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते । तावत् यदा खउ जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते तदा खलु पाश्चात्येपि प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते । तावत् यदा खल पाश्चत्येप्रथम् अयनं प्रतिपद्यते । तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे दक्षिणे अनन्तरपश्चात्कृते कालसमये प्रथम् अयनं प्रतिपूर्ण भवति । एवं संवत्सरः, युगम् वर्ष शतम् वर्षसहस्रम् वर्षशतसहस्रम् पूर्वाङ्ग, पूर्वम्, त्रुटिताङ्गं त्रुटितम्, अटटाङ्ग, अटटम्, अथवाङ्ग, अववम् हुहुका, हुहुकम्, उत्पलानं, उत्पलम्, पद्माङ्ग, पद्मम् नलिनाङ्ग, नलिनम् अच्छनिकुराङ्ग अच्छनिकुरम्, अयुताङ्गम्, अयुतम्, नयुताङ्ग नयुतम्, चूलिकाङ्ग चूलिका, शीर्षप्रहेलिकाङ्ग शीर्षप्रहेलिका पल्योपमं, सागरोपमम् । तावत् यदा खल जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाधें प्रथमे समये उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते तदा खलु उत्तरार्धेऽपि प्रथमे समये उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते यदा खलु उत्तरार्धे प्रथमे समये उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते तदा खल जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये पाश्चात्ये उत्सर्पिणी नैवास्ति अवस्थितस्तत्र कालः प्रशप्तः श्रमणायुष्मन् १७ " २६ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे एवं लवणसमुद्रे, धातकीखण्डे, कालोदे, तावत् अभ्यन्तरपुष्करार्धेऽपि स्यौं उत्तर ग्दच्छतः । प्राचीदक्षिणस्यामागच्छतः । एवं जम्बूद्वीपवक्तव्यता भणितव्या यावत् उत्सर्पिण्यपि ॥ सू० ३ ॥ चन्द्रप्रक्षप्त्याम् अष्टमं प्राभृतं समाप्तम् ॥ ८ ॥ व्याख्या- 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिगड्ढे' दक्षिणार्धे 'वासाणं' वर्षाणां वर्षाकालस्य सूत्रे बहुवचनमार्णत्वात् 'पढमे समए पडिवज्जई' प्रथमः समयः प्रारम्भसमयः प्रतिपद्यते आरब्धो भवति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तरढे' वि उत्तरार्धेऽपि 'वासाणं पढमे समए पडिवज्जई' वर्षाणां वर्षाकालस्य मासचतुष्टरूपस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते दक्षिणोत्तरयोः समकालमेव द्वयोः सूर्ययोश्चारचरणात् । 'तया णं' तदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मन्दरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य पुरथिमेणं पच्चत्थिमेणं' पौरस्त्ये पाश्चात्ये पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'अणंतरपुराकडे' अनन्तरपुराकृते अनन्तरं दक्षिणोत्तरयोर्वर्षाणां प्रथमसमयात् द्वितीये पुराकृते अग्रे स्थिते 'कालसमयंसि' कालसमये, समयस्तु अनेकार्थवाचकः-'समयः शपथाचारकालसिद्धान्तसंविदः' इति वचनात् , ततस्तद्वयवच्छेदार्थ कालेति विशेषणं दत्तम् , तेन कालपमये काल रूपे समये इत्यर्थः 'वासाणं पढमे समए पडिवज्जई' वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते 'तया गं' तदा खलु 'जवुद्दीवे दीवे जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरेणं दाहिणेणं' उत्तरे दक्षिणे च 'अणंतरपच्छाकडे' अनन्तरपश्चात्कृते पश्चाद्गतानन्तरसमये पश्चानुपूर्व्या द्वितीये तस्मात् पूर्वस्मिन्ननन्तरे ‘कालसमयंसि' कालसमये 'वासाण पढमे समए' वर्षाणां प्रथमः समयः 'पडिपुण्णे भवई' प्रतिपूर्णो भवति । दक्षिणोत्तरयोः वर्षाणां प्रथमसमयसमाप्यनन्तरमेव पूर्वपश्चिमयोः वर्षाणां प्रथमसमयस्य प्रारम्भन्यायात् । यदा दक्षिणोत्तरयोः वर्षाकालसमयस्य पूर्णानन्तरमेव पूर्वपश्चिमयोः सूर्यगतिसद्भावात् एकस्य सूर्यस्य दक्षिणभागात् पश्चिमे भागे गतिर्भवति, द्वितीयस्य उत्तरभागात् पूर्वे भागे गतिर्भवति, ततः समीचीनमेव पूर्वकथनमिति ।१। 'जहा समए' यथा समयः यथा समयमाश्रित्य आलापकप्रकारः प्रदर्शितः ‘एवं' एवम्-अनेनैवालापकप्रकारेण शेषा नव 'आवलिया' आवलिका २, 'आणपाण' आनप्राणौ श्वासोच्छास समयः ३, 'थोवे स्तोकः ४ लवे' लवः ५ 'मुहुत्ते' मुहूर्तः ६, 'अहोरत्ते' अहोरात्रः ७, 'पक्खे' पक्षः ८, 'मासे' मासः ९, 'ऊऊ' ऋतुः १० 'एए' एते पूर्वोक्ताः 'दस' दश समयमवधीकृत्य दश संख्यका 'आलावगा' आलापकाः 'वासाणं' वर्षाणां वर्षाकालस्य 'भाणियव्वा' भणितव्याः आलापकाः करणीया इत्यर्थः, आलापक प्रकारश्च स्वयमूहनीयः ।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०८ सू०३ दक्षिणार्धात्तरार्धे वर्षाकालादिसमयनिरूपणम् २०३ अथ वर्षाकालं प्रतिपाद्य हेमन्तकालं प्रदर्शयितुमाह-'ता जया णं हेमंताण' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जयाणं' यदा खल 'जवुदीवे दोवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे 'हेमंताण' हेमन्तानां हेमन्तकालस्य मासचतुष्टयरूपस्य 'पढमे समए' प्रथमः समयः 'पडिवज्जई' प्रतिपद्यते प्रविष्टो भवति-'तया णं' तदा खलु 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जई' हेमन्तानां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते, 'जया णं' या खलु जवुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरथिमेणं पच्चथिमेणं' पौरस्त्ये पाश्चात्ये पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'अणंतरपुराकडे' अनन्तरपुराकृते तदनन्तरे दक्षिणोत्तरहेमन्तप्रथमसमयादनन्तरं द्वितीये पूर्वानुपूर्व्या अग्रे स्थिते 'कालसमयंसि' कालसमये कालरूपे समये 'हेमंताणां' हेमन्तानाम् 'पढमे समए' प्रथमः समयः 'पडिवज्जइ' प्रतिपद्यते तदा दक्षिणोत्तरयोरनन्तरपश्चात्कृत्ते पश्चानुपूर्त्या पूर्वस्मिन् कालसमये हेमन्तानां प्रथमः समयः परिपूर्णो भवतीति सुगममेव । 'एयस्स वि' एतस्यापि हेमन्तकालस्यापि 'दसआलावगा' दश-आलपकाः 'जाव ऊऊ' यावत् ऋतुम् समयादारभ्य ऋतुपर्यन्ताः 'भाणियव्वा' भणितव्याः ॥५॥ अथ सूत्रकारः ग्रीष्मकालं प्रदर्शयितुमाह-'ताजया णं गिम्हाणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे 'गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ' ग्रीष्मणां ग्रीष्मकालस्य चतुर्मासरूपस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते 'तया णं' तदा खलं 'उत्तरड्ढे बि' उत्तरार्धेऽपि 'गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जई' ग्रीष्माणां ग्रीष्मकालस्य चतुर्मासरूपस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरदाहिगड्ढे' उत्तरदक्षिणार्धे उत्तरार्धे दक्षिणार्धे च 'गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ' प्रोष्माणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते 'तया णं' तदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'पुरथिमेणं पच्चत्थिमेणं पौरस्त्ये पाश्चात्ये च 'अणंतरपुराकडे' अनन्तरपुराकृते उत्तरदक्षिणगतग्रीष्मकालस्य द्वितीये 'कालसमयंसि' कालसमये 'गिम्हाणं पढमे समए' ग्रीष्माणां प्रथमः समयः 'पडिवज्जई' प्रतिपद्यते, इत्यादि 'एयस्स वि' एतस्यापि ग्रीष्मकालस्यापि 'दस आलावगा' दशालापकाः 'जाव ऊऊ' यावत् ऋतुम् समयादारभ्य ऋतुपर्यन्ताः 'भाणियव्या' भणितव्याः पूर्वोक्तालापकवत् करणीयाः ।। पूर्व वर्षाहेमन्तग्रीष्मरूपऋतुत्रयस्य वक्तव्यता प्रतिपाद्य साम्प्रतम्-अयनादि वक्तव्यता माह-'ता जया णं अयणे' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिणढे' दक्षिणार्धे 'पढमे अयणे' प्रथमम् अयनम् 'पडिवज्जइ' प्रतिपद्यते 'तया गं' Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ चन्द्रप्रशतिसूत्रे तदा खलु 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'पढमे अयणे पडिवज्जर' प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते । 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरड्ढे' उत्तरार्धे उपलक्षणात् दक्षिणार्धेऽपि च उभयत्र सूर्यसद्भावात् 'पढमे अयणे पडिवज्ज' प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते ' तया णं' तदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य ' पुरत्थिमेणं पच्चत्थिमेणं' पौरस्त्ये पश्चात्ये पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'अणंतरे पुराकडे' अनन्तरे पुराकृते अग्रेतने अनन्तरे 'काळसमये' दक्षिणोत्तरगतायनप्रथमसमयात् द्वितीये समये इत्यर्थः ' पढमे अयणे' प्रथमम् अयनं 'पडिवज्जइ' प्रतिपद्यते भवति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल्लु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स ' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वदिशायां 'पढमे अणे पडिवज्जइ' प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते भवति 'तया णं' तदा स्खलु 'पच्चत्थिमेण वि' पाश्चात्येऽपि पश्चिमदिशायामपि 'पढमे अयणे पडिवज्जइ' प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते भवति पूर्वपश्चिमयोः सूर्यद्वयस्य समकालं समरेखायां संचरणस्वभावात् । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा स्खलु 'पच्चत्थिमेणं' पाश्चात्ये पश्चिमभागे पूर्वभागे च ' पढमे अयणे पडिवज्जइ' प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते ' तया णं' तदा खल 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरेण दाहिणेणं' उत्तरे दक्षिणे च उत्तरदिशि दक्षिणदिशि च 'अणंतरे पच्छाकडे' अनन्तरे पश्चात्कृते पश्चानुपूर्व्याऽनन्तरे पूर्व पश्चिम भागसमापन्नायनसमयात्पूर्वमन् 'काल समयं सि' का समये 'पढमे अयणे' प्रथमम् अयनं 'पडिपुन्ने भवइ' प्रतिपूर्ण भवति तत्र प्रतिपूर्णानन्तरमेवात्र तत्सद्भावो भवेदिति न्यायात् । इदं सर्वं व्याख्यानं पूर्वोक्त समयसूत्रवदेव वाच्यम् । ' एवं ' एवम् अनयैव रीत्या अनेनैवाऽऽलापकप्रकारेण च अग्रे संवत्सरयुगादेरारभ्य पल्योपमसागरोपमपर्यन्तमवसेयम् । तदेव दर्शयति- 'संवच्छरे जुगे' इत्यादि । संवत्सरयुगादितः पल्योपमसागरोपमपर्यन्तं सर्वोऽपि पाठः तद्वयाख्या चेति सर्वं सुगमं छाया गम्यमेवेति विरम्यते । सांप्रतमुत्सर्पिणी कालमधिकृत्याह - 'ता जया ण' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे ' दाहिणड्ढे ' दक्षिणार्धे 'पढमे समए' प्रथमे समये 'उस्सप्पिणी पडिवज्जइ' उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते प्रारभते 'तया णं' तदा खलु ‘उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'पढमे समये' प्रथमे समये 'उस्सप्पिणी पडिवज्जइ ' उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते प्रारभते 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरड्ढे' उत्तरार्धे दक्षिणार्धे च 'पढमे समए' प्रथमे समये 'उस्सप्पिणी पडिवज्जइ' उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते ' तया णं' तदा तस्मिन् समये खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्य पव्त्रयस्स' मन्दरस्स पर्वतस्य 'पुरत्थिमेणं पच्चत्थिमेणं पौरस्त्ये पाश्चात्ये पूर्वपश्चिमयोः 'उस्सप्पिणी' उत्सर्पिणी उपलक्षणाद् अवसर्पिण्यपि 'वस्थि Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०८ सू०३ दक्षिणार्धात्तरार्धे वर्षाकालादिसमयनिरूपणम् २०१५ नैवास्ति 'अवढिए णं' अवस्थितः खलु सदा समानः 'तत्थ' तत्र पूर्वपश्चिमयोः 'काले पण्णत्ते' कालः प्रज्ञप्तः कथितः तथास्वाभाव्यात् 'समणाउसो' हे श्रमण ! आयुष्यन् ! गौतम ? ॥७॥ तदेवं जम्बूद्वीपवक्तव्यता प्रोक्ता, साम्प्रतं लवणसमुद्रादि वक्तव्यतामाह-'एवं लवणसमुद्दे' इत्यादि। ‘एवं' एवम् - अनेन जम्बूद्वीपे सूर्ययोरुद्गमादि प्रदर्शितं तथैव 'लवणसमुद्दे' लवणसमुद्रे तथा 'धायईसंडे' घातकी षण्डे 'कालोए' कालोदे समुद्रे 'ता' तावत् 'अभितरपुक्खरद्धेण वि' आभ्यन्तरपुष्करार्धेऽपि 'सरिया' सूर्याः द्वासप्ततिसंख्यकाः 'उत्तरपाईणमुग्गच्छति' उत्तरप्राच्याम् ईशानकोणे उद्गच्छन्ति 'पाईणदाहिणं आगच्छंति' प्राचीदक्षिणस्याम् अग्निकोणे आगच्छन्ति । 'एवं' एवम्-अनेन आलापकप्रकारेण 'जवुढीववत्तव्यया' जम्बूद्वीपवक्तव्यता 'भाणियन्वा' भणितव्या। कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव' इत्यादि 'जाव उस्सप्पिणी वि' यावत्उत्सर्पिण्यपि उत्सर्पिण्यालापकपर्यन्तमिति । अत्र यो विशेषः स प्रदर्श्यते, लवणसमुद्रेऽयं विशेषः जम्बूद्वीपे द्वौ सूर्यौ स्तः किन्तु लवणसमुद्रे चत्वारः सूर्याः सन्ति द्विगुणक्षेत्र विस्तारात् । तेषु चतुर्ष सूर्येषु द्वौ सूर्यो जम्बूद्वीपदक्षिणार्धसूर्यस्य समश्रेणिप्रतिबद्धौ स्तः, द्वौ च उत्तरार्धसूर्यस्य समश्रेणिप्रतिबद्धौ स्तः । यदा जम्बूद्वीपे एकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्यामुदेति तदा तस्य समश्रेणिप्रति. बद्धौ द्वौ सू? लवणसमुद्रे दक्षिणपूर्वस्यामुदयं प्राप्नुतः। एवं जम्बूद्वीपगतो द्वितीयः सूर्यो दक्षिणपूर्वकोणस्य सम्मुखं पश्चिमोतरे उदयमेति तदा लवणसमुद्रेऽपरौ द्वौ सूर्यौ जम्बूद्वीपगतसूर्यस्य समश्रेणिप्रतिबद्धौ पश्चिमोत्तरे उदयं प्राप्नुतः । एवमुदयविधिर्जम्बूद्वीपसूर्यवदेव ज्ञातव्यः विशेषः केवलमेतावानेव यदत्र द्वौ सूर्यो, लवणसमुद्रे च चत्वार इत्यतो द्वौ द्वौ एकैकस्यां दिशि वक्तव्यौ । एवमेव यदा लवणसमुद्रस्य दक्षिणार्धे दिवसो भवति । तदा उत्तरार्धेऽपि दिवसो भवति । एवं यदा उत्तरार्धे दिवसो भवति तदा दक्षिणार्धेऽपि दिवसो भवति । यदा लवणसमुद्रस्य दक्षिणार्धे उत्तरार्धे च दिवसो भवति तदा पूर्वपश्चिमयोः रात्रिभवति तदानीं तत्र सूर्याचारभावात् । यदा लवणसमुद्रस्य पूर्वपश्चिमयोर्दिवसो भवति तदा दक्षिणोत्तरयोः रात्रिर्भवति तदानीं तत्र सूर्याभावात् । दिवस रात्र्योर्यावत्कं प्रमाणं जम्बूद्वीपे कथितं तावन्मानं लवणसमुद्रेऽपि भणितव्यम् , तच्च 'नेवत्थि तत्थ ओसप्पिणी अवढिएणं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो' इत्येतत्पर्यन्तं सर्व जम्बूद्वीपवक्तव्यतावदेव पठितव्यमिति ॥ आलापकप्रकारः स्वयमूहनीयः । एषा लवणसमुद्रस्य वक्तव्यता कथिता । यथा लवण समुद्रस्य वक्तव्यता कथिता तथैव धातकी खण्डस्य वक्तव्यता वाच्या विशेष एतावान् यत्-अत्र क्षेत्रस्य विशालता सद्भावात् द्वादशसूर्या द्वादशैव चन्द्राः सन्ति तेषां परस्परं समत्वात् , एवमग्रेऽपि विज्ञेयम् तेषु द्वादशसु सूर्येषु षट्र सूर्या Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ चद्रप्राप्तिसूत्र दक्षिणार्धे षट् च उत्तरार्धे पूर्वोक्तजम्बूद्वीपक्रमेणैव चारं चरन्ति । एते द्वादशापि सूर्याः जम्बूद्वीपलवणसमुद्रगतसूर्याणां समश्रेणिप्रतिबद्धास्तेनैव क्रमेण चारं चरन्ति । एषामुदयास्तविधिः जम्बूद्वीपगतसूर्यवदेव विज्ञेयः । दिवसरात्रिप्रकारोऽपि जम्बूद्वीपवदेवावसेयः। उत्सर्पिण्यवसर्पिणीपर्यन्तं सर्वोऽपि प्रकारो जम्बूद्वीपवदेव भणितव्यः । आलापकाः स्वयं करणीया इति । कालोदधिसमुद्रस्यापि वक्तव्यता लवणसमुद्रवदेव पठितव्या, विशेषोऽत्रैतावान् यत् अत्र क्षेत्रविस्ताराधिक्यात् द्विचत्वारिंशत् सूर्याः सन्ति, तेषु एकविंशतिः सूर्या दक्षिणविभागे, एक विंशतिरेव उत्तरविभागे चार चरन्ति । एतेऽपि जम्बूद्वीपलवणसमुद्रधातकीखण्डगतसूर्याणां समश्रेणिप्रतिबद्धास्तेनैव क्रमेण स्वस्वक्षेत्रं प्रकाशयन्ति । दिवसरात्र्यादिप्रकारः पूर्ववदेव विज्ञातव्य इति । अथाभ्यन्तरपुष्करार्धविषये कथ्यते-अत्रापि सर्वा वक्तव्यता जम्बूद्वीपवदेव विचारणीया, विशेषस्त्वयम्-यदत्र द्वा सप्ततिः सूर्याः सन्ति । तेषु पूर्ववदेव षट्त्रिंशत् सूर्या दक्षिणे षट्रे त्रिंशदेव उत्तरे प्रकाशयन्ति । अन्यत्सर्वे दिवसरात्रिप्रकारः, तथा वर्षाऋतु समयादारभ्योत्सर्पिण्यवसर्पिणी वक्तव्यतापर्यन्तं सर्वोऽपि विचारश्चेत्यादि जम्बूद्वीपवक्तव्यतासदृशमेव भणितव्यम् । एवं क्रमेण सार्धतृतीयद्वीपवक्तव्यता भवति, तत्र द्वात्रिंशदधिकैकशत (१३२) संख्यकाः सूर्याः निरन्तरं चारं : चरन्ति । सर्वत्र जबूद्वीपादारभ्य साधतृतीयद्वीपपर्यन्तं यत्र यावन्तः सूर्यास्तत्र तावन्त एव चन्द्रा भवन्तीति विज्ञेयमिति ॥सू०३॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त “जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालवति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायाम् अष्टमम् प्राभृतं समाप्तम् ॥५॥ ।। श्रोरस्तु ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ नवमं प्राभृतं प्रारभ्यते तदेवमुक्तमष्टमं प्राभृतम्, तत्र जम्बूद्वीपे सूर्योदयमर्यादा प्रदर्शिता । अथ नवमं प्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र पूर्व द्वारकथनावसरे 'कइ कट्ठा पोरिसी छाया' कतिकाष्ठा पौरुषी छाया, इति कथितम्, सूर्यः पौरुषी छायां कतिकाष्ठां निवर्तयति ! इत्यर्थाधिकारो निरूपयिष्यते इति सम्बन्धेनायातस्यास्य नवमस्य प्राभृतस्येदमादिमं सूत्रम्-'ता कइकडं' इत्यादि । मूलम्-ता कइकडं ते सूरिए पोरिसीं छाया णिवत्तेइ आहितेति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ तिण्णि पडिवत्तीओ पण्णताओ, तं जहा-तत्थ एगे एवमाहंसु-ताजेणं पोग्गला सूरियस्स लेस्सं फुसंति ते णं पोग्गला संतप्पंति, ते णं पोग्गला संतप्पमाणा तयाणंतराई बाहिराई पोग्गलाई संताविति-त्ति एस णं से समिए तावखेत्ते, एगे एवमासु।१। एगे पुण एवमाहंसु-ता जेणं पोग्गला सूरियस्स लेस्सं फुसंति तेणं पोग्गला नो संतप्पंति, ते णं पोग्गला असंतप्पमाणा तयाणंतराई बाहिराइं पोग्गलाई नो संतावेंति एस ण से समिए तावखेत्ते, एगे एवमाहंसु ।२। एगे पुण एवमाइंसु-ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेस्सं फुसंति ते णं पोग्गला अत्थेगइया संतति, अत्थे गइया नो संतति, अत्थेगइया संतप्पमाणा तयाणंतराई बाहिराई पोग्गलाई संताति, अत्थेगइयाअसंतप्पमाणा तयाणंतराई बाहिराई पोग्गलाई नो सतावेंति, एस णं से समिए तावखेत्ते, एगे एवमाहंसु ।३। वयं पुण एवं वयामो–ता जाओ इमाओ चंदिमसूरियाणं देवाणं विमाणेहितो लेस्साओ बहिया अभिनिस्सडाओ ताओ पयाविति, एयासि ण लेस्साणं अंतरेसु २ अण्णयराओ छिन्नलेस्साओ संमुच्छंति, तए णं ताओ छिन्नलेस्साओ समुच्छियाओ समाणीओ तयाणंतराइं बाहिराइं पोग्गलाई संताविति त्ति, एस ण से समिए ताव खेत्ते ॥०॥ छाया--तावत् कतिकाष्ठां ते सूर्यः पौरुषीं छायां निवर्तयति आख्यातमिति वदेत् । तत्र खलु इमास्तिस्रः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र पके एवमाहुः तावत् ये खलु पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते खलु पुद्गलाः संतप्यन्ते, खलु पुद्गलाः संतप्यमानाः तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् संतापयन्ति इति पतत् खलु तत् समितं तापक्षेत्रम् , एके पवमाहुः ।। एके पुनरेवमाहुः--तावत् ये खलु पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते खलु पुद्गला नो संतप्यन्ते, ते स्खलु पुद्गला असंतप्यमानाः तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान नो संतापयन्ति, पतत् खलु तत् समितं तापक्षेत्रम् एके एवमाहुः ।२। एके पुनरेवमाहुः-- तावत् ये खलु पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते खलु पुद्गलाः अस्त्येके संतप्यन्ते, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ चन्द्रप्रक्षप्तिस्त्रे अस्त्येके नो संतप्यन्ते (ये) अस्त्येके संतप्यमानाः (ते) तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् संतापयन्ति, अस्त्येके असंतप्यमानाः तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् नो संतापयन्तीति, पतत् खलु तत् समितं तापक्षेत्रम् एके एवमाहुः ।। वयं पुनरेवं वदामः-तावत् या इमाः चन्द्रसूर्ययोर्देवयोः विमानेभ्यः लेश्याः बहिः अभिनिस्सृताः ता प्रतापयन्ति, पतासां खलु लेश्यानाम् अन्तरेषु अन्यतराः छिन्नलेश्याः समूर्छन्ति, ततः खलु ताः छिन्नलेश्याः संमूछिताः सत्यः तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् संतापयन्तीति एतत् खलु तत् समितं तापक्षेत्रम् ॥॥सू०१॥ व्याख्या- 'ता' तावत 'कइकट' कतिकाष्ठं कति कतिप्रमाणा काष्ठा प्रकर्षों यस्याः सा कतिकाष्टा तां किंप्रमाणामित्यर्थः 'ते' तवमते 'मूरिए' सूर्यः पोरिसिं पुरुषे भवा पौरुषी तां 'छायं' छायां पुरुषसम्बन्धिनी छायां 'निव्वत्तेइ' निर्वर्त्तयति करोति, अत्रविषये भवता किम् 'आहियं' आख्यातम् ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! इति गौतमस्य प्रश्नः । अत्र भगवान् पूर्वमेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयो वर्तन्ते ता दर्शयति-'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र पौरुषी छायाप्रमाणविषये खलु तापक्षेत्रस्वरूपविषयाः 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'तिण्णी' तिम्रः' 'पडीवत्तीओ' प्रतिपत्तयः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा तद्यथा-'तत्थ' तत्र त्रिषु प्रतिपत्तिवादिषु मध्ये 'एगे' एके प्रथमाः एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति । किं कथयन्तीत्याह—'ता जे णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जे णं' ये खलु पोग्गला पुद्गलाः ' 'सूरियस्स लेस्सं' सूर्यस्य लेश्यां 'फूसति' स्पृशन्ति 'ते णं पोग्गला' ते खलु पुद्गलाः 'संतप्पंति' संतप्यन्ते, अत्र कर्मकर्तरि प्रयोगः, 'ते णं पोग्गला' ते खल पुद्गलाः सतप्पमाणा' संतप्यमानाः सूर्यलेश्यातापेन संतप्ता भवन्तः सन्तः 'तयाणंतराई तदन्तरान् संतप्यमानपुद्गलानामव्यवधानाऽग्रे स्थितान् ‘बाहिराई' बाह्यान् तत्प्रदेशाबहिःस्थितान् 'पोग्गलाई' पुद्गलान् सूत्रे नपुंसंकल्बमार्षत्वात् , 'संतावेंतित्ति' सन्तापयन्ति, इति, अत्र इति शब्दः प्रस्तुतवाक्यपरिसमाप्तिसूचकः 'एस गं' एतत् एवं स्वरूपं खलु 'से' तस्य सूर्यस्य 'समिए' समितं संपन्न 'तावखेत्ते' तापक्षेत्रमस्ति । अत्र पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । उपसंहारः ‘एगे' एके प्रथमाः ‘एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्ति । इति प्रथमा प्रतिपत्तिः ॥१॥ ___ अथ द्वितीयां प्रतिपत्तिमाह-'एगे पुण' इत्यादि ‘एगे पुण' एके द्वितीया पुनः ‘एवं एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति- 'ता' तावत् 'जे णं पुग्गला' ये खलु पुद्. गलाः 'मूरियस्स लेस्सं' सूर्यस्य लेश्यां 'फुसंति' स्पृशन्ति ते ण पोग्गला' ते खलु पुद्गलाः 'नो संतप्पति' नो संतप्यन्ते संतप्ता न भवन्ति 'ते ण पोग्गला' ते खलु पुद्गलाः 'असंतप्पमाणा' असंतप्यमानाः नसंतप्ता भवन्तः सन्तः 'तयाणंतराई' तदनन्तरान् अव्यवधानेन तद Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ९ सू०१ सूर्यः पौरुषीं छायां कतिकाष्ठां निवर्तयन्तीति २०९ तदप्रस्थितान् 'बाहिराई' बाह्यान् बहिःस्थितान् 'पोग्गलाई' पुद्गलान् 'नो संतप्यति' नो सन्तापयन्ति, ते णं पोग्गला' ते खलु पुद्गलाः 'असंतप्पमाणा' असंतप्यमानाः 'तयणंतराई तदनन्तरान् अव्यवहिताग्रे स्थितान् 'बाहिराई बाह्यान् 'पोग्गलाई पुद्गलान् 'नो संताति' नो संतापयन्ति संतप्तान् न कुर्वन्ति, 'एस गं' एतत् खलु 'से' तस्य सूर्यस्य 'समिए' समितं संपन्नं 'तावखेत्ते' तापक्षेत्रम् । 'एगे' एके एते द्वितीयाः परतीर्थिकाः ‘एवं 'एवं पूर्वोक्तरीत्या 'आहेसु' आहुः कथयन्तीति द्वितीया प्रतिपत्तिः ।२।। ___ अथ तृतीयां प्रतिपत्तिमाह- 'एगे पुण' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एगे पुण' एके तृतीया प्रतिपत्तिवादिनः पुनः ‘एवं' एवम्-वक्ष्यमाण प्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्ति । तदेवाह 'ता जे णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जे गं पोग्गला'ये स्खलु पुद्गलाः 'सूरियस्स लेस्स फुसति' सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति 'ते णं पोग्गला' ते खलु पुद्गलाः 'अत्थेगइया' अस्त्येके सूर्यलेश्या स्पर्शकारिपुद्गलानां मध्ये केचित् पुद्गला: 'संतप्पंति' संतप्यन्ते तथा 'अत्थेगइया' अस्त्येके तेषां मध्ये केचित्पुद्गलाः 'नो संतप्पंति' नो संतप्यन्ते तत्र ये 'अत्थेगइया' अस्त्येके 'संतप्पमाणा' संतप्यमाना भवन्ति ते 'तयाणंतराई' तदनन्तरान् तदनन्तरस्थितान् 'बाहिगई' ब्राह्यान् 'पोग्गलाई' पुद्गलान् 'संतावेंति' संतापयन्ति । ये च 'अत्थेगइया' अत्त्येके के चन सूर्यलेश्यास्पर्शकपुद्गलाः 'असंतप्पमाणा' असंतप्यमानाः न संतप्ता भवन्तः सन्तः 'तयाणंतराई' तदन्तरान् स्वस्याग्रे स्थिनान् ‘बाहिराई ‘बाह्यान् तत्प्रदेशाद्वहिःस्थितान् 'पोग्गलाई 'पुद्गलान् 'नो संताविति-त्ति नो सन्तापयन्तीति । 'एस णं' एतत् खलु से' तस्य सूर्यस्य 'समिए' समितं संप्राप्तम् 'तावखेत्ते' तापक्षेत्रम् । उपसंहारः-'एगे' एके तृतीयाः ‘एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंसु. १आहुः कथयन्ति । इति तृतीया प्रतिपत्तिः ३॥ · अथ भगवान् मिथ्या रूपा स्तिस्रः परतीर्थिक प्रतिपत्तीः प्रदर्य स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण इत्यादि । 'वयं पुण एवं वयामो' वयं पुनरेवं वदामः- 'ता' तावत् 'जाओ इमाओ' या इमाः 'चंदमुरियाणं देवाणं' चन्द्रसूर्याणां देवानां' जम्बूद्वीपे द्विद्विचन्द्रसूर्ययोः सद्भावाद् बहुवचनम् 'विमाणेहिंतो' विमानेभ्यः लेस्साओ' लेश्याः 'बहिया अभिनिस्सडाओ' बहिरमिनिस्सृताः 'ताओ' ताः बाह्यं यथोचितमाकाशम् पयाविति१ प्रतापयन्ति प्रकाशयन्ति 'एतासिणं' एतासां विमानेभ्यो निस्सृतानां 'लेस्साणं' लेश्यानां 'अंतरेसु२' अन्तरेषु२ प्रत्येकमपान्तरालेषु अण्णयरात्रो' अन्यतराः काश्चिदन्यतमाः 'छिन्नलेस्साओ' छिन्नलेश्याः छिन्नमूला लेश्याः 'संमुच्छंति, संमूर्छन्ति तथास्वभावात् समुद्भवन्ति । 'तए णं' १ततः खलु 'ताओ' ताः पूर्वोक्ता 'छिन्नलेस्साओ' छिन्नलेश्याः छिन्नमूला लेश्याः 'समुच्छ्यिाओ समाणीओ' १संमूछिताः २७ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० AAAAAAAAAAAnamnnar चन्द्रमसियो सत्यः 'तयगंवराई' तदनस्तरान्-अव्यवधानेन तदने स्थितान् 'बाहिराई पोग्गलई' बाह्यान् फुगदलान् 'संताविती' संतापयन्ति । इति पूर्ववत् 'एस णं'. एतत् खलु 'से' तस्य सूर्यस्य 'मिए' समितं संपन्नं 'तावखेत्ते' तापक्षेत्रम् ॥ सू० १।। ___ पूर्व तापक्षेत्रस्य स्वरूपप्रतीपन्नता प्रोक्ता, साम्प्रतं किं प्रमाणां पौरूषों छायां सूर्यो निर्वर्तयतीति प्रदर्शयन्नाह- 'ता कइकटं ते' इत्यादि । __ मूलम्-ता कहकहते सुरिए पोरिसी छायं निव्वत्तेइ ? आहिते? ति वदेज्जा। तत्य खलु इमाओ पण्णवीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा-तत्थ एगे एवमाहंसु ता अणुसमयमेव सरिए पोरिसी छाय निव्वत्तेइ एगे एवमासु ।१। एगे पुण एवमाइंसु ता अणुमुहुत्तमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेइ एगे एवमाहंसु ।२। एवं एएणं अभिलावेण जाओ चेव ओयसंठिईए (मामृतं ६) पण्णवीसं पडिवत्तीओ ताओ चेव णेयवाओ जाव एगे पुण एवमासु ता अणुउस्सप्पिणीओसप्पिणीमेव सूरिए पोरिसि छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु ॥२६॥ वयं पुण एवं वयामो-ता सूरियस्स णं उच्चत्तं लेस्स च पडुच्च छाया उद्देसो, उच्चत्तं छायं पडुच्च लेस्सुदेसे, लेस्सं च छायं पडुच्च उच्चत्तद्देसो ।२। तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-एगे एवमाहंसु-ता अस्थि णं से दिवसे जसि च णं दिवसंसि सरिए चउ पोरिसिं छायं निव्वत्तेइ, अहवा दुपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु ।१। एगे पुण एवमाहसु-ता अस्थि णं से दिवसे जंसि च णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ, अहवा नो किंचिवि पोरिसिं छायं निव्वत्तेइ एगे एवमासु ।२। तत्थ णं जे ते एवमासु-ता अस्थि णं से दिवसे जंसि च णं दिवसंसि सूरिए चउपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ, अहवा अस्थि ण से दिवसे जंसि च णं दिवसंसि मूरिए दुपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ, ते ण एवमाहंसु-ता जया ण सरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ तंसि च णं दिवसंसि मूरिए चउपोरिसिं छायं निव्वत्तेड, तं जहा उग्गमणमुहुत्तसि अत्थमणमुहुत्तंसि य लेस्सं अभिबुड्ढेमाणे वा निव्वुड्ढेमाणे वा॥ ता जयाणं सरिए सन्वबाहिरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ, तयाणं उक्तमकठपत्ता उक्कोसिया-अहारसमुहुत्ता राई अभइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तंसि च णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ, तंजहा-उग्गमणमुहुत्तंसि य अत्त्यमणमुहुत्तंसि य लेस्सं अभिवुड्ढे माणे वा निव्वुड्ढेसाणे वा ।। तत्थ णं जे ते एवमासु-ता अस्थि णं से दिवसे जंसि च णं दिवसंसि सरिए दुपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ, अहवा अस्थि णं से दिवसे जंसि च णं दिवसंसि सूरिए नो किंचिवि पोरिसिं Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.-९ सू०२ पौरुषीछायायाः प्रमाणनिरूपणम् २११ निव्वत्तेइ ते एवमाहंसु-ता जया णं सरिए सव्वभंतरं मंडलं उबसंकभित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ तंसि च णं दिवसंसि सरिए दुपोरिसीं छायं णिव्बत्तेइ, तं जहा उग्गमणमुहुत्तंसि य अत्थमणमुहुर्तसि य, लेस्सं अभिवुड्ढेमाणे वा निव्वुड्ढे माणे वा । ता जया णं सूरिए सवबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राईभवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तंसि च णं दिवसंसि सूरिए नो किंचिवि पोरिसिं छायं निव्वत्तेइ, तं जहा उग्गमणमुहुत्तसि य अत्थमणमुहुत्तंसि य, नो चेव णं लेस्सं अभिवुड्ढेमाणे वा निवुड्ढे माणे वा ॥सू० २॥ छाया-तावत् कतिकाष्ठांते सूर्यः पौरुषों छायां निवर्त्तयति ? आख्यातमिति वदेत् । तत्र स्खल इमाः पञ्चविंशतिः प्रत्तिपत्तयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-तत्र एके एवमाहुः-तावत् अनुस. मयमेव सूर्यः पौरुषी छांयां निवर्तयति एके एवमाहः ।। एके पुनरेवमाहः-तावत अनमुहूर्तमेव सूर्यः पौरूषी छायां निर्वत्तयति एके एवमाहुः ।२। एवम् पतेन अभिलापेन या पव ओजः संस्थितौ (प्रा०६) पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः, ता एव सातव्याः, यावत्-पके पुनः एवमाहुः-तावत् अनुत्सर्पिण्यवसर्पिणीमेव सूर्यः पौरूषी छायां निर्वर्त्तयति, पके एवमाहु ।२५। ___ वयं पुनरेवं वदामः -तावत् सूर्यस्थ खलु उच्चत्वं लेश्यां च प्रतीत्य छायोद्देशः १ उच्चत्वं छायां च प्रतीत्य लेश्योद्देशा, लेश्यां च छायां च प्रतीत्य उच्चस्वोदेशः २। तत्र खलु इमे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते तद्यथा एके एवमाहुः तावद् अस्ति खलु स दिवसः यस्मिश्च खलु दिवसे सूर्यः चतुःपौरूषीं छायां निर्वत यति, अथवा द्विपौरूषों छायां निर्वत यति, एके एवमाहुः ।। एके पुनरेवमाहुः-तावत् अस्ति खलु स दिवसः यस्मिश्च खलु दिवसे सूर्यः द्विपौरूषों छायां निर्वत्तयति, अथवा नोकाञ्चिदपि पौरुषी छायां निर्वत्तं यति, एके एक्माहुः ।२। तत्र खलु ये ते एवमाहुः-तावत् अस्ति खलु स दिवसः यस्मिश्च खलु दिवसे सूर्यः चतुःपौरूषीं छायाँ निर्वतयति अथवा अस्ति खलु सः दिवसः यस्मिश्च खलु दिवसे सूर्यः द्विपौरूषी छायां निवर्तयति, ते खलु एवमाहुः तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तर मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहत्तॊ दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता राति भवति तस्मिश्च खलु दिवसे सूर्यः चतुःपौरुषी छायां निवर्तयति, तद्यथा-उद्गमनमुहूर्ते च, अस्तमनमुहूर्ते च लेश्याम् अभिवर्धयन् वा निर्वर्धयन्वा । तावत् यदा स्खलु सूर्यः सर्ववाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कषिक दशमुहूत्र्ता रात्रिर्भवति जघन्यकः द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति तस्मिश्च खलु दिवसे सूर्यः द्विपौरुषी छायां निर्वत्यति तद्यथा उद्गमनमुहूर्ते च अस्तमनमुहूर्त च लेश्यां अभिवर्धयन् वा निर्वधयन् वा ।। तत्र खलु ये ते एवमाहुः तावत् अस्ति खलु स दिवसः यस्मिश्च खलु दिवसे सूर्यों द्विपौरूषीं छायां निवर्तयति, अथवा अस्ति खलु स दिवसः Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे यस्मिश्च खलु दिवसे सूर्यो न किञ्चिदपि पौरुषी छायां निवर्तयति ते एवमाहुः-तावद् यदा खलुं सूर्यः सर्वाभ्यान्तरंमण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कषकः अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, जन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति तस्मिश्च खलु दिवसे सूर्यः द्विपौरूषों छायां निर्वतयति, तद्यथा-उद्गमनमुहूर्ते च अस्तमनमुहूर्त च लेश्याम् अभिवर्धयन् वा निर्वर्धयन वा । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्ववाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भयति, जघन्यकः द्वादशमुहूर्तों दिवसो भवति तस्मिश्च खलु दिवसे सूर्यः नो काञ्चिदपि पौरूषीं छायां निवर्सयति, तद्यथा उद्गमनमुहूत्ते च अस्तमन् मूहूर्त च नो चैव खलु लेश्याम् अभिवर्धयन् वा निर्वर्धयन् वा । “सूत्र २॥ ... व्याख्या-'ता' तावत् 'कइकलु' कतिकाष्ठां कियत्प्रकर्षोपेतां प्रकर्षतः कियत्परिमितां हे भगवन् 'ते' तवमते 'सरिए' सूर्यः ‘पोरिसी छायां' पौरुषों छायां-पुरुषेण निर्वृत्ता पौरुषी पुरुषप्रमाणा तां तादृशी छायां 'निव्वत्तेई' निवर्तयति रचयति करोतीत्यर्थः । कियत्प्रमाणां परा काष्ठासंपन्नां पौरुषी छायां सूर्यो निवर्तयतीति भावः । एतद्विषये किम् 'आहिए' आख्यातम् ? 'तिबएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! गौतमेन एवं प्रश्ने कृते भगवानाह हे गौतम ! 'तत्थ णं' तत्र पौरुषीछायाविषये खलु 'इमाओ' इमाः अनुपदमने प्रदर्यमानाः 'पंचविसई' पञ्चविंशतिः पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः अन्यतैर्थिकमतरूपाः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः कथिताः 'तं जहा' तद्यथा ता यथा- 'तत्थ' तत्र पञ्चविंशतिप्रतिपत्तिवादिषु मध्ये 'एगे' एके प्रथमाः ‘एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'अणुसमयमेव' अनुसमयमेव समयं समर्य प्रति-प्रतिसमयमित्यर्थः मरिए' सूर्यः 'पोरिसीं छायं' गैरुषी छायाम् । अत्र पौरुषीछाया लेश्यावशेन संपधतेऽतः पौरुषी छायेति शब्देन लेश्या ग्रहीतल्या कारणे कार्योपचारात् तेन लेश्यां निवर्तयतीति भावः । उप संहारः 'एगे' एके प्रथमा ‘एवं' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहेसु' आहुरिति १ ! 'एवं' एवत् अनया रीत्या 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः 'एचमाहंसु' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'अणुमुहुत्तमेव' अनुमुहूर्तमेव-प्रतिमुहूर्त 'मूरिए' सूर्यः 'पोरिसिं छायं पौरुषों छायां 'णिवत्तेइ' निवर्तयति करोति :एगे' ऐके द्वितीयाः ‘एवं' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति २ । 'एएणं अभिलापेणं' एतेन प्रथमेन द्वितीयेन च अभिलापेन प्रथमद्वितोयामिलापप्रकारणे 'जाश्रो चेव' या एव 'ओयसंठिईए' ओजःसंस्थितौ षष्ठमाभृतोके ओनःसंस्थितिप्रकारेण 'पंचवीसई पडिवत्तीओ' पञ्चविंशतिः प्रतित्तयः प्रतिपादिता 'ताओ चेव' - ता एवात्रापि समयानन्तरं समयमुहूर्तानन्तरमहोरात्रादिरूपाः 'णेयव्वाओ' ज्ञातव्याः । कियत्पर्यन्तमित्याह-जावेत्यादि । 'जाव' यावत् तासु पञ्चविंशतिप्रतिपत्तिषु चरमप्रतिपत्तिः उत्सपण्यवसर्पिणीरूपाऽऽयाति तावदिति तामेव चरमप्रतिपत्ति सूत्रकारः स्वयं Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रश्चप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०९ सू २ पौरुषोछायायाः प्रमाणनिरूपणम् २१३ प्रदर्शयति 'एगे पुण' इत्यादि, ‘एगे पुण' एके पञ्चविंशतितमाः प्रतिपत्तिवादिनः पुनः 'एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहेसु' आहुः-कथयन्ति-यत् 'ता' तावत् 'अणुउस्सप्पिणीओसप्पिणीमेव' अनूत्सर्पिण्यवसर्पिणीमेव प्रत्येकमुत्सर्पिणीमवसर्पिणों चाधिकृत्य 'सूरिए' सूर्यः ‘पोरिसी छायं' पौरुषी छायां 'निव्वत्तेइ' निर्वर्शयति निर्माति । उपसंहारः-'एगे' एके पञ्चविंशतितमाः 'एवं' एवम्-पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्ति ।२५। आसां पञ्चविंशतिप्रतिपत्तीनामालापकप्रकारः प्रथमप्रतिपत्तिप्रोक्तालापकप्रकारेण स्वयमूहनीयः । अथ भगवान् ‘एताः परमतरूपाःविशतिरपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः सन्ति इति कृत्वा स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि । _ 'वयं पुण' वयं पुनः वयं तु 'एवं' एवम् वक्ष्यमाणरीत्या 'वयामो' 'वदामः कथयामः 'ता' तावत् 'सूरियस्स णं' सूर्यस्य खलु 'उच्चत्तं लेस्सं च' उच्चत्वं लेश्यांतेजोरूपां च ‘पडुच्च' प्रतीत्य आश्रित्य 'छाया उद्देसो' छायोद्देशः छायाप्रकारो भवति, अयमाशयः यदा सू! लेश्यां तेजोरूपां प्रसारयन् उदयमेति तदा पुरुषस्य प्रकाश्यवस्तुनो वा छाया दीर्घा भवति, उदयसमये लोकव्यवहारेण 'सूर्य आसन्नं वर्तते' इति कथ्यते । तदनन्तरं सूर्यो यथा यथा उच्चैरुच्चैस्तरं चाधिरोहति तथा तथा तेजोरूपा लेश्या वर्धते पुरुषस्य प्रकाश्य वस्तुनो वा छाया च हीना हीनतरा भवन्तीति दृश्यते । एवं मध्याह्नपर्यन्तं छाया होना हीन तरा हीनतमा भवति । अयं प्रथमच्छायोदेशः ।१॥ अथ 'उच्चत्तं छायं च पडुच्चलेस्मुद्देसो" सूर्यस्य मध्यागतस्य उच्चत्वं छायां च प्रतीत्य लेश्योद्देशः लेश्याप्रकारो भवति । अयं भावः-यदा सूर्यो मध्याह्नसमयेऽस्माकं मस्तकोपरि वर्त्तते तदा लोक व्यवहारेण ज्ञायते-सूर्यः सर्वोच्चभागे समागत इति, यदा च पुरुषस्य प्रकाश्यवस्तुनो वा छायापरमप्रकर्षेण हीना लध्वी जायते, सा चेतस्ततः पार्श्वभागेन भवति, तदा सूर्यस्य लेश्या तेजोरूपा पराकाष्ठा प्राप्ता जायतेऽतोऽयं लेश्योदेशो द्वितीयो भवतीति ।२। 'लेस्सं च छायं च पडुच्च उच्चत्तउद्देसों' लेश्यां च छायां च प्रतीत्य उच्चत्वोद्देशः । अयमाशयः मध्याह्रादूर्ध्वं सूर्यो यथा यथा उच्चत्वतो नीचैर्नीचैस्तरमतिक्रामति तथा तथा लोकव्यवहारेण कथ्यते- सूर्यः उच्चप्रदेशादधो गच्छतीति, यथा यथा सूर्यो नीचैर्गच्छति तथा तथा तेजोरूपा लेश्याऽपि होना हीनतरा भवति, पुरुषस्य प्रकाश्यवस्तुनो वा छायाऽपि दीर्घा भवतीति ज्ञायते । मध्यान्हगतोच्चत्त्वमधि. कृत्यायमुद्देशो वर्त्ततेऽतोऽयमुच्चत्वोदेशस्तृतीयो भवतीति ।३। एते त्रयोऽप्युदेशाः प्रतिक्षणमन्यथा ऽन्यथा निवर्तन्ते तत एषु एकतरस्य तथा तथा प्रतिक्षणं विवर्तमानस्योद्देशत उपलम्भादितरस्याप्युद्देशस्यावगमः स्वयं कर्तव्य इति । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञप्तिसूत्र तदेवं लेश्या स्वरूपं प्रतिपादितम्, अथ पौरुषीछायापरिमाणविषये ऽन्यतैर्थिकप्रतिपत्ति द्वयं वर्त्तते तत्प्रदर्शयितुमाह - ' तत्थ' इत्यादि । २१४ 'तत्थ खलु' तत्र पौरुषोछायापरिमाणविषये खलु 'इमाओ' इमे वक्ष्यमाणस्वरूपे 'दो पडिवत्तीओ' द्वे प्रतिपत्ती 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ते कथिते । 'तं जहा' तद्यथा ते द्वे यथा 'एगे ' एके द्वयोर्मध्ये प्रथमाः प्रतिपत्तिवादिनः ' एवं ' एवम् - वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति, तथाहि 'ता' तावत् 'अस्थि णं' अस्ति खलु 'से दिवसे' स दिवसः एतादृशो दिवसो भवति खलु 'जंसि च णं' यस्मिंश्च खलु 'दिवसंसि' दिवसे 'सूरिए' सूर्य उदयास्तसमये 'चउ - पोरिसिं छायं निव्वत्तेइ' चतुष्पौरुषं छायां निर्वर्त्तयति उत्कृष्टेन रचयति करोतीत्यर्थः । चतुः पौरुषी मिति चतुः पुरुषप्रमाणां पुरुषशरीरचतुर्गुणामित्यर्थ उपलक्षणात् अन्यस्य कस्यापि प्रकाश्य वस्तुनस्तस्मिन् दिवसे तद्वस्तुतश्चतुर्गुणां छायां निर्वर्त्तयतीति भावः । ' अहवा' अथवा ' अस्ति स दिवसो यस्मिंश्च दिवसे सूर्यः 'दुषोरिसिं छायं' द्विपौरुषों छायां द्विगुणां छायाम् उद्गमना - स्तमनसमये 'निव्वत्तेइ' निर्वर्त्तयति नान्यथेति । 'एगे' एके ' एवं' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंसृ' आहुः कथयन्ति | १ | 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः एवं एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति यत्- 'ता' तावत् 'अस्थि णं' अस्ति भवति खलु 'से दिवसे' सदि वसः 'जंसि च णं' यस्मिन् खलु 'दिवसंसि' दिवसे उद्गमनास्तमनमुहूर्त्ते 'सूरिए' सूर्यः 'दुपोंरिसिं छायं' द्विपौरुष छायां कस्यापि प्रकाश्यवस्तुनः द्विगुणां छायामित्यर्थः "निव्वत्तेइ' निर्व र्त्तयति निर्माति । 'अहवा' अथवा 'अस्थि णं' अस्ति खलु 'से दिवसे' स दिवस: 'जंसिचणं दिवसंसि यस्मिंश्च खलु दिवसे उदयास्तसमये 'न किंचिवि पोरिसिं छायां न काश्चिदपि पौरुष छायां 'निव्वत्तेइ' निर्वर्त्तयति । 'एगे' एके द्वितीयाः ' एवं ' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति ।२। तदेवं द्वे अपि प्रतिपत्ती प्रदर्श्य साम्प्रतं केन कारणेन एतौ द्वौ प्रतिपत्तिवादिनौ एवं कथयतः इत्येवं भावयति-'तत्थ' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र द्वयोर्मध्ये 'जे ते' ये ते प्रथमा ' एवं ' एवम् - वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति - यत् 'अस्थि णं से दिवसे' अस्ति खलु स दिवस: 'जैसि चणं दिवसंसि' यस्मिंश्च खलु दिवसे 'सूरिए' सूर्यः 'चउपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ' चतुष्पौरुषीं छायां निर्वर्तयति, 'अहवा' अथवा 'दुपोरिसिं छायं निव्वत्ते ' द्विपौरुषीं छायां निर्वर्त्तयति 'ते णं' ते खलु ' एवं ' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेन कारणेन 'आहंस' आहुः कथयन्ति तदेवकारणं दर्शयति- 'ता' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा: खल्ल 'सरिए' सूर्यः 'सव्वन्तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रममकाशिका टीका प्रा०९० २ पौरुषी छायायाः प्रमाणनिरूपणम् 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठा प्राप्तः परमप्रकर्षसंपन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षक: सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारसमुहुते दिवसे भव' अष्टादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति, 'जहण्णिया' जधन्यिका सर्वलघ्वी 'दुवालसमुडुता राई भवई' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति 'तंसि च णं दिवसंसि तस्मिंश्च खलु सर्वोत्कृष्टदिवस सर्वजघन्यरात्रिरूपे दिवसे 'सूरिए' सूर्यः 'चउपोरिसिं छायं चतुष्पौरुष छायां 'निव्वत्ते ' निर्वर्त्तयति । कस्मिन् समये : इत्याह- 'तं जहा' तद्यथा 'उगमणमुहुत्तंसि' य अत्थमणमुहुसंसि य' उद्गमनमुहूर्ते च अस्तमनमुहूर्ते च 'लेस्सं' लेश्यां तेजो रूपाम् 'अभिवुड्ढेमाणे वा' अभिवर्धयन् वा उद्गमनमुत्तै तेजोरूपां स्वलेश्यां प्रवर्धयन् वा, तथा 'निव्वुइढेमाणे वा' निर्वर्धयन् वा सूर्योऽस्तमनसमये स्वलेश्यां हापयन् वा । २९५ सूर्यो द्विपौरुषीं छायां कदा निर्वर्त्तयतीति दर्शयति 'ता जया णं इत्यादि, । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्य: 'सन्नबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं 'चर' सर्व बाह्यमण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता परमप्रकर्षसंपन्ना 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई ' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, 'जहण्णए' जघन्यकः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूतों दिवसो भवति तंसि च णं' तस्मिंश्च सर्वोत्कृष्टरात्रि - सर्वजघन्यदिवस रूपे खलु 'दिवसंसि' दिवसे 'सूरिए' सूर्य : 'दुपोरिसिं छायं निव्बत्तेह' द्विपौरुषीं छायां निर्वर्त्तयति पुरुषस्य प्रकाश्यवस्तु नो वा द्विगुणां छायां निर्वर्त्तयतीति भावः । कदा द्विपौरुषी छाया भवतीत्याह 'तं जहा' तद्यथा 'उग्गमण मुहुत्तंसि य अत्थमणमुहुत्तंसि य' उद्गमन मुहूर्ते च अस्तमनमुहूर्त्ते च उदयास्तसमये इत्यर्थः । तच्च 'लेस्सं' लेश्यां स्वतेजोरूपां 'अभिवुड्ढेमाणे वा' अभिवर्धयन् वा 'निव्वुड्ढे माणे वा' निर्वर्धयन् वा लेश्या हापयन् वा, उदयसमये लेश्यां वर्धयन् अस्तमनसमये च लेश्यां हापयन् हीनां कुर्वन् वा द्विपौरुषीं छायां सूर्यो निर्वर्त्तयतीतिभावः । इति प्रथमप्रतिपत्तेर्भेदद्वयस्य स्पष्टी करणम् ।१। अथ द्वितीयप्रतिपत्तेर्भेदद्वयस्य स्पष्टीकरणमाह- 'तत्थ णं जे ते' इत्यादि, 'तत्थ णं' तत्र द्वयोर्मध्ये ये ते द्वितीयाः प्रतिपत्तिवादिनः यत् 'एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणाहुः यत् 'ता' तावत् 'अस्थि णं से दिवसे' अस्ति भवति खल स दिवस: 'जंसि णं दिवसंसि' यस्मिन् स्खलु दिवसे 'स्वरिए' सूर्यः 'दुपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ' द्विपौरुषीं छायां निर्वत्तयति । ' अहवा' अथवा 'अत्थि णं' अस्ति खलु 'से दिवसे' स दिवस: 'जंसि णं दिवसंसि' यस्मिन् खलु दिवसे 'रिप' सूर्यः 'नो किंचिवि' नो नैव काश्चिदपि किञ्चिन्मानामपि 'पौरिसिं छायां' पौरुषीं छायां 'निव्वत्तेइ' निर्वर्त्तयति, 'ते' ते द्वितीयाः प्रतिपत्तिवादिनः ' एवं ' एवम् वक्ष्यमाण Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे कारणेन अनुपदं प्रदर्श्यमानं कारणमाश्रित्य 'आइंसु' आहुः-कथयन्ति । तदेव दर्शयति 'ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'मूरिए' सूर्यः 'सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति 'तया णं' तदा खल्ल 'उत्तमकढपत्ते उक्कोसए' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षतां प्राप्तः अतएव उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवा. लसमुहुसा राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति 'तसि च णं दिवसंसि' तस्मिंश्च खलु दिवसे अष्टादशमुहूर्तपरिमितदिवसद्वादशमुहूर्तपरिमितरात्रिरूपे दिवसे सूरिए' सूर्यः 'दुपोरिसी छायं निव्वत्तेई' द्विपौरुषी छायां निवर्तयति, कदा ! इत्याह 'तंजहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा तथाहि -'उग्गमणमुहुत्तसि य' उद्गमनमुहूर्ते-उदयकाले च अत्र मुहूर्तशब्दः कालवाची, एवं सर्बत्रापि । तथा 'अत्थमणमुहुत्तंसि य' अस्तम मुहर्ते सूर्यास्तकाले चेति । कथमित्याह-'लेम्स' लेश्यां स्वतेजोरूपाम् अभिबुड्ढे माणे वा' अभिवर्धयन् वा 'निव्वुड्ढेमाणे वा' निर्वर्धयन् हापयन् वेति । तथा-'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु मूरिए' सूर्यः 'सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' सर्वबाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता परमप्रकर्षसंपन्ना अतएव 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्टारसमुहुत्ता राई भवइ' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति, तसि च णं' 'दिवसंसि' तस्मिश्च तादृशे पूर्वोक्तरात्रि दिवसप्रमाणरूपे दिवसे 'सूरिए' सूर्यः ‘णो' नैव किंचिवि' किश्चिदपि किञ्चिन्मात्रामपि 'पोरिसीं छायां' पौरुषी छायां निवर्तयति, कदेति दर्शयति-तं जहा' तद्यथा तथाहि-'उग्गमणमुहुत्तसि य' उद्गमनमुति उदयकाले च तथा 'अत्थमणमुहुत्तसि य' अस्तमनमुहूर्ते अस्तकाले च 'नो चेव गं' नैव च खलु 'लेस्सं' लेश्यां स्वतेजोरूपाम् 'अभिवुड्ढेमाणे वा' अभिवर्धयन् वा 'निव्वुड्ढेमाणे वा' निर्वर्धयन् वेति । दिवसपरमहानिरात्रिपरमवृद्धिरूपे दिवसे सूर्यः स्वलेश्याया वृद्धि हानि वा अकुर्वन् उदयका मस्तकाले च कदाचिदपि किञ्चिन्मात्रामपि पौरुषी छायां नो निर्वत्तयतीति भावः ॥१० २॥ पूर्व परतीथिकानां प्रतिपत्तिद्वयं, तत्स्पष्टीकरणं च श्रुत्वा गौतमो भगवन्तं स्वमतविषये प्रश्नयति-'ता कइकटं' इत्यादि । __ मूलम् :-ता कइकटते सूरिए पोरिसिं छायं निव्वत्तेइ आहिए। ति वएज्जा। तत्थ खलु इमाओ छण्णउई पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थेगे एवमाहंसु-ता अस्थि णं से देसे जसि च णं देसंसि सूरिए एगपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु ॥१॥ एगे पुण एवमासु-ता अस्थि णं से देसे जंसिच णं देसंसि सूरिए दुपोरिसिं छायं Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ९ सू ३ पौरुषी छायाविषये ऽन्यतोर्थिकमतम् २१७ निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु | २ | एवं एएणं अभिलावेणं णेयव्वं जाव - एगे पुण एवमामु-ता अस्थि णं से देसे जंसि च ण देसंसि सूरिए छण्णउइ-पोरिसिं छायं णिव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु । ९६ । तत्थ णं जे ते एवमा सु-ता अस्थि णं से देसे जंसि च णं देसंसि सूरिए एगपोरिसिं छायं णिवत्ते, ते एवमाहंसु-ता सूरियस्स णं सव्वदेहिमाओ सूरियप्पडिहिओ बहित्ता अभिणसिद्वाहिं लेस्साहि ताविज्ञमाणोहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ जावइयं उड़ढं उच्चत्तेणं एवइयाए एगाए अद्धाए एगेणं छायामाण पमाणेण ओमाए एत्थ गं से सूरिए एगपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ |१| तत्थ जे ते एवमाहंसु - ता अस्थि णं से देसे जंसि च णं देसंसि सूरिए दुपोरिसिं छायं निव्वत्ते, मासु-ता सूरियस णं सव्वदेहिमाओ सूरियप्पडिहिओ बहित्ता अभिणिसिट्टा हिं लेस्साहिं ताविजमाणीहिं इमी से रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ जावइयं सूरिए उडूढं उच्चचेंण एवइयाहिं दोहिं अद्धाहिं दोहिं छायाणुमाण माहिं ओमाए एत्थ णं से सूरिए दुपोरिसिं छायं णिव्वत्तेइ |२| एवं यव्वं जाव तत्थ जे ते एवमाहंसु-ता अस्थि णं से देसे जंसि च णं देसंसि सरिएः छण्णउइपोरिसिं छायं णिव्वत्ते, ते एवमाहंसु-ता सूरियस्स णं सव्वहिट्टिमाओ सूरियप्पडिहिओ बहित्ता अभिणिसिद्वाहिं लेस्साहिं ताविज्जमाणी हिं इमी से रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमा णिज्जाओ भूमिभागाओ जाasi सूरिए उटं उच्चत्तेगं एवइयाहिअ छण्णउईए अद्धाहिं छण्ण उईए छायामाण पमाणेहिं ओमाए, एत्थ णं से सूरिए छष्णउइ - पोरिसिं छायं णिव्वत्ते १९६॥ सू० ३ ॥ छाया - तावत् कतिकाष्ठां ते सूर्यः छायां निर्वन्त्तयति १ आख्यातमिति वदेत् । तत्र खलु इमाः षण्णवतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः तं जहा तत्र एके पवमाहु:- अस्ति खलु सदेश: - यस्तिश्च खलु देशे सूर्यः एकपौरुष छायां निर्वर्त्तर्यात एके पुनः एवमाहुः - तावद् अस्ति स देशः यस्मिश्च खलु देशे सूर्यः द्वि पौरुषीं छायां निर्वर्तयति, एके पवमाहुः २ एवं एतेन अभिलापेन नेतव्यं यावत् एके पुनः पवमाहुः - तावत् अस्ति खलु स देशः fa खल देशे सूर्यः षण्णवतिपौरूषीं छायां निर्वर्त्तयति, एके एक्माहुः । ९६ । तत्र खलु ये ते पत्रमाहुः तावत् अस्ति खलु स देशः यस्मिश्च खलु देशे सूर्यः एकपौरूष छायां निर्वर्त्तयति, ते पत्रमाहुः - तावत् सूर्यस्य खलु सर्वाधस्तनात् सूर्यप्रतिषेः हस्तात् अभिनिस्सृष्टाभिः श्यामिः तप्यमानाभिः अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहु समरमणीयात् भूमिभागात् यावत्कम् ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एतावता एकेन अध्वना एकेन छायानुमानप्रमाणेन अवमितः अत्र स सूर्यः एक पौरूष छायां निर्वर्त्तयति |१| तत्र खलु ये ते एवमाद्दुः तावत् अस्ति खलु स देशः यस्मिंश्च खलु देशे सूर्यः द्विपौरूषां छायां निर्वर्त्तयति ते एवमाद्दुः तावत् सूर्यस्य खलु सर्वाधस्तनात् सूर्यप्रतिधेः बद्दिस्तात् अभिनिस्सृष्टाभिः २८ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ चन्द्रप्रशसियो लेश्याभि- तप्यमानाभिः अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहुसमरमणीयाद् भूमिभामाद यावत्कं सूर्यः ऊर्ध्वमुच्यत्वेन पतावद्भयां द्वाभ्याम् अध्वभ्यां द्वाभ्यां छायानुमान. प्रमाणाभ्याम् अमितः, अत्र खलु स सूर्यः द्विपौरूषीं छायां तिर्वर्तयति ।। एवं नेतव्यं यावत्-तत्र ये ते एवमाहुः तावत् अस्ति खल स देशः यस्मिश्च खलु देशे सूर्यः षण्णवतिपौरूषी छायां निर्वतर्यात, ते एवमाहुः तावत् सूर्यस्य स्खलु सर्वाधस्तनात् सूर्यप्रतिधेः बहिस्तात् अभिनिस्सृष्टाभिः लेश्यामि तप्यमानाभिः अस्याः खल रत्नप्रभायाः पृथिव्याः वहुसमरमणीयात् भूमिभागात् यावत्कं सूर्यः ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पतावद्भिः षण्णवत्या अभिः षण्णवत्या छायानुमानप्रमाणः अमितः अत्र स्खलु स सूर्यः षण्णवतिपौरूषीं छायां निवर्तयति ॥९॥सू०३॥ व्याख्या-'ता' तावत् 'कइकट्ठ' कतिकाष्टां उत्कर्षेण किं प्रमाण 'ते' तव भवतो मते 'मूरिए' सूर्यः 'पोरिसिं छायं' पौरुषी पुरुषप्रमणाम् उपलक्षणात् कस्यापि प्रकाश्यवस्तुनस्तत्प्रमाणां देशविभागेन छायां 'निव्वत्तेइ' निवर्तयति, एतद्विषये भवता किम् 'आहियं' आख्या तम् ! 'ति वएज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भगवन् भगवान् । स्वमतेन देशविभागमाश्रित्य पौरुषी छायां पृथक् २ तथा तथा-अनियतप्रमाणामग्रे वक्ष्यति, परतीर्थिकास्तु देशविभागेन प्रतिदिवसं प्रतिनियतामेव पौरुषी छायां प्रतिपादयन्ति ततः प्रथमं तन्मता एव प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति-'तत्थ' इत्यादि । 'तत्थ खलु' तत्र देशविभागेन प्रतिदिवसं प्रतिनियतपौरुषों छाया विषये 'इमाओ' इमाः अनुपदवक्ष्यमाणाः 'छण्णउई' षण्णवतिः षण्णवतिसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतरूपाः ‘पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, तं जहा' तद्यथा- ता यथा-'तत्थ' तत्र परतीर्थिकानां षण्णवति प्रतिपत्तिवादिनां मध्ये 'एगे' एके प्रथमाः ‘एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंमु' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'अस्थि णं' अस्ति खलु ‘से देसे' स एतादृशो देशः प्रदेश: 'जसिच ण देससि' यस्मिंश्च खलु देशे 'मूरिए' सूर्यः आगतः सन् ‘एगपोरिसिं' एक पौरुषी एक पुरुषपरिमितां पुरुषसमानामेव, पुरुषशब्दस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनः स्वस्व. प्रमाणां 'छायं' छायां 'निव्वत्तेई' निवर्तयति करोति, 'एगे' एके प्रथमाः ‘एवं' एवम् पूर्वकथितप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति ।१। 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः ‘एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'अस्थि णं से देसे' अस्ति खलु कोऽपि स देशः प्रदेशः 'जसि च णं देसंसि' यस्मिंश्च खलु देशे 'मूरिए' सूर्यः समागतः सन् 'दुपोरिसिं छायं" द्विपौरुषों द्विपुरुषप्रमाणां पुरुषस्य प्रकाश्यस्य कस्यापि वस्तुनः द्विगुणां हायां 'निव्वत्तेई' निवर्तयति, उपसंहारः ‘एगे' एके द्वितीयाः ‘एवं' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंस' आहुः-कथयन्ति ।२। ‘एवं' एवम्-अनेनैव पूर्वोक्तेन प्रकारेण 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'अभिलावणं' अभिलापेन सूत्रपाठगमेन शेषं त्रिनवतिसंख्यकानां मध्यगतानां तृतीयप्रतिपत्तित आरभ्य Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ९ सू०३ पौरुषीछायाविषयेऽन्यतीर्थिकमतम् २१९ पञ्चनवतितमप्रतिपत्तिपर्यन्तं तावत् 'नेयवं' नेतव्यं ज्ञातव्यं 'जाव' यावत् षण्णवतितमप्रतिपत्तिसूत्रमायाति । तामेव षण्णवतितमा प्रतिपत्तिं सूत्रकारः स्वयं प्रदर्शयति 'ता अस्थि णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'अस्थि णं से देसे' अस्ति विद्यते खलु सः देशः 'जसि च णं देसंसि' यस्मिंश्च खलु देशे 'सूरिए' सूर्यः आगतः सन् 'छण्णउइपोरिसिं छायं' षण्णवतिपौरुषों षण्णवतिपुरुषप्रमाणां पुरुषस्य प्राकाश्यवस्तुनश्च षण्णवतिगुणां छायां 'निव्वत्तेई' निवर्तयति । मध्यगतानिनवतिसंख्यका आलापाश्च पूर्वोक्तरीत्या स्वयमेव विधातव्याः सुगमत्वान्न प्रदर्शिताः उपसंहारः ‘एगे' एके षण्णवतितमप्रतिपत्तिवादिनः ‘एवं पूर्वोक्तरीत्या 'आईसु' आहुः कथयन्ति ।९६। ___ अथ भगवान् ‘एते षण्णवतिप्रतिपत्तिवादिनः केन हेतुना एवं कथयन्ति ?' इति तेषां भावनिका प्रदर्शयति-'तत्थ णं जे ते' इत्यादि । 'तत्थ णं जे ते' तत्र षण्णवतिप्रतिपत्तिवादिषुमध्ये ये ते प्रथमाः ‘एवं' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति, तदेव दर्शयति'ता अस्थि णं' इत्यादि, 'ता अत्थि णं से देसे जसि च णं देसंसि सरिए एगपोरिसिं छायं नियत्तेइ' अर्थः सुगमः पूर्वप्रदर्शितश्च, 'ते' प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेन हेतुना 'आइंसु' आहुः कथयन्ति, तमेव हेतुं प्रदर्शयति-ता सूरियस्स णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'सूरियस्स णं' सूर्यस्य खलु 'सव्वहेटिमाओ' सर्वाधस्तनात् सर्वथाऽधस्तनस्थितात् 'मूरियप्पडिहिओ' सूर्यप्रतिधेः सूर्यप्रतिधानात् सूर्यनिवेशात् सूर्यनिवेशस्थानादित्यर्थः 'बहित्ता' बहिस्तात् बहिर्भागे 'अभिणिसिहाहिं' अभिनिस्सृष्टाभिः बहिनिस्सृिताभिरित्यर्थः 'लेस्साहिं' लेश्याभिस्तेजोरूपाभिः, कीदृशीभिः ! 'तविज्जमाणीहि तप्यमानाभिः सूर्यतेजसा तप्ताभिः सह 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' अस्याः प्रसिद्धायाः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'बहुसमरमणिज्जाओ 'भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् रत्नप्रभापृथिवीसमतलभूमिभागात् 'जावइयं' यावत्कं यावत्परिमितम् 'उडं उच्चत्तेणं' उर्ध्वमुच्चत्वेन उच्चत्वमाश्रित्य ऊर्ध्व स्थितः 'एवइ. याए' एतावता 'एगाए अद्धाए' एकेन अध्वना 'एगेणं छायाणुमाणपमाणेणं' एकेन छायानुमानप्रमाणेन प्रकाश्यवस्तुप्रमाणेन प्रकाश्यस्य वस्तुनो यमुद्देश्यमाश्रित्य प्रमाणमनुमीयते तेन, अत्राकाशप्रदेशे सूर्यसमीपे प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रमाणं साक्षात् परिग्रहीतुं न शक्यते किन्तु देशतः-अनुमानेन ततश्छायानुमानप्रमाणेनेत्युक्तम् , 'ओमाए' अवमितः अनुमितः यः प्रदेशः 'एत्थ णं' अत्र एकेन छायानुमानप्रमाणेन अनुमितप्रदेशे समागतः सन् 'सूरिए' सूर्यः 'एगपोरिसिं छायं' एकपौरुषी पुरुषप्रमाणां प्रकाश्यवस्तुप्रमाणां वा छायां 'निव्वत्तइ' निर्वर्तयति । अत्रेदं बोध्यम्-प्रथमं सूर्ये उदयमाने या लेश्या विनिर्गत्य प्रकाशमाश्रिताः ताभिः प्रकाश्यवस्तुदेशे ऊर्ध्व क्रियमाणाभिः किञ्चित्पूर्वाभिमुखमबनताभिः प्रकाश्येन वस्तुना च यः परि Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे च्छिन्न आकाशप्रदेशः सन्ताप्यते तत्र समागतः प्रकाश्यवस्तुप्रमाणां छायां निवर्तयति एवमुत्तरत्रापि विज्ञेयम् ।। अथ द्वितीयप्रतिपत्तिभावं प्रदर्शयति-'तत्थ णं' इत्यादि । 'तत्य णं' तत्र षण्णवतिप्रतिपत्तिवादिषु मध्ये खलु-'जे ते' ये ते द्वितीयाः एवं' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'अत्थि णं से देसे जंसि च णं देससि सरिए दुपोरिसिं छायं निव्वत्तेई' इति अर्थः सुगम एव पूर्व प्रदर्शितश्च, 'ते' द्वितीयाः ‘एवं' एवम्-अनेन हेतुना 'आईसु' आहुः कथयन्ति, तमेव हेतुं प्रदर्शयति 'ता' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सूरियस्स णं' सूर्यस्य खलु 'सव्वहेडिमाओ' सर्वांधस्तनात् सर्वथाऽधोभागे स्थितात् 'मूरियप्पडिहिओ' सूर्य प्रतिधेः सूर्यनिवेशात् 'बहित्ता' बहिस्तात् 'अभिणिस्सिदाहि' अभिनिस्सृष्टाभिः बहिनिर्गताभिः 'लेस्साहि' लेश्याभिः तेजोरूपाभिः 'तविज़्जमाणीहिं' तप्यमानाभिः तापं मुञ्चन्तीभिः सह 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'बहुसमरमणिज्जाओ भूमि भागाओ' बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् समतलभूमिभागात् 'जावइयं' यावत्कं यावत्परिमितम् 'मूरिए' सूर्यः 'उद्डं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन उच्चत्त्वमाश्रित्य ऊर्ध्व स्थितः ‘एचइयाहि एतावद्भयां 'दोहिं अद्धाहि' द्वाभ्यामध्वभ्यां, 'दोहिं छायाणुमाणप्पमाणेहि' द्वाभ्यां छायानुमानप्रमाणाभ्यां प्रकाश्यवस्तुप्रमाणाभ्याम् 'ओमाए' अवमितः अनुमितः परिच्छिन्नो यो देशः 'एत्थ णं' अत्र खलु देशे स्थितः सन् 'सूरिए दुपोरिसिं छायं णिवत्तेइ सूर्यः द्विपौरुषीम् प्रकाश्यवस्तुनः पुरुषस्य वा द्विगुणां छायां निवर्तयतीति ।२। एवं' एवम्-अनेन अभिलाप प्रकारेण-एकैकप्रतिपत्तौ एकैकछायानुमानप्रमाणवृद्धिरूपेण 'णेयव्वं' नेतव्यं तावत् ज्ञातव्यं 'जाव' यावत् पञ्चनवतितमप्रतिपत्त्यभिलापः संपूर्णो भूत्वा षण्णवतितमप्रतिपत्त्यभिलापः प्रारभेत तावत्पर्यन्तमित्यर्थः सूत्रालापकाश्च स्वयमूहनीयाः । अथ षण्णवतितमप्रतिपत्तिभावनिकां सूत्रकारः स्वयं प्रदर्शयति-तत्थ' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र षण्णवतिप्रतिपत्तिवादिमध्ये 'जे ते' ये ते षण्णवतितमाः प्रतिपत्तिवादिनः सन्ति ते 'एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति, 'तदेवाह-'ता' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अस्थि णं' अस्ति विद्यते खलु ‘से देसे' स देशः सूर्यसंस्थितिप्रदेशः 'जसि च णं देसंसि' यस्मिंश्च खलु देशेऽवस्थितः सन् 'सूरीए' सूर्यः 'छण्णउइ पोरिसिं छायं' षण्णवतिपौरुषों छायां पुरुषस्य अन्यस्य वा प्रकाश्यवस्तुनः षण्णवतिगुणां छायां 'निव्वत्तेइ' निवर्तयती करोतीति ये कथयन्ति ते 'एवं' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेन कारणेन अग्रे कथ्यमानं कारणमाश्रित्येत्यर्थः 'आहेसु' माहुः कथयन्ति । तदेव कारणं प्रदर्शयति-'ता सूरियस्स णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सूरियस्स ण' सूर्यस्य खलु 'सव्वहिद्विमानो' सर्वाधस्तनात् 'सरियप्पडिहिओ' सूर्यप्रतिधेः सूर्यनिवेशात् 'बहिता' बहिस्तात् बहिः 'अभिनिम्हिाहि' Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ९ सू०२ पौरुषी छायाविषये ऽन्यतीर्थिकमतम् २२१ • अभिनिस्सृष्टाभिः बहिर्निस्सृताभिरित्यर्थः 'लेस्सा हिं' लेश्याभिः 'तविज्जमाणीहिं' तप्यमानाभिः सूर्यतेजसा तप्ताभिः सह 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात् भूमिभागत् रत्नप्रभापृथिवी समतलभागात् 'जावइयं' यावत्कं' यावत्परिमितं 'सूरिए' सूर्यः 'उडूढं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन उच्चत्वमाश्रित्य ऊर्ध्वं वर्त्तते 'एवइयाहिं' एतावत्कै 'षण्णउईए' षण्णवत्या षण्णवतिसंख्यकैः 'अद्धाहिं' अध्वभिः 'छण्णउईए' षण्णवत्या षण्णवतिसंख्यकैः 'छायाणुमाणप्पमाणेहिं' छायानुमनप्रमाणैः छायाया अनुमानप्रमाणान्याश्रित्य सूर्यसमीप स्थित प्रकाश्यवस्तुप्रमाणस्य ग्रहणा शक्यत्वात् 'ओमाए' अव मितः अनुमितः अनुमानविषयीकृतो भवेत्, 'एत्थ णं' अत्र अस्मिन्देशे खलु 'सूरिए' सूर्यः 'छण्णा उइपोरिसिं छायां' षण्णवतिपौरुषीं षण्णवतिगुणां पुरुषादिसम्बन्धिनीं छायां 'निव्वत्ते ' निर्वर्तयति रचयति पूर्वप्रदर्शितप्रदेशे पुरुषस्य प्रकाश्यवस्तुनो वा छायां षण्णवतिगुणा दीर्घा भवतीति भावः || सू० ३ ॥ उक्ता अन्यतीर्थिकानां षण्णवतिः प्रतिपत्तयः ताश्च मिथ्यारूपाः अतोऽस्वीकरणीयाः सन्ति अथ भगवान् सम्यगुरूपं स्वमतं प्रकटयति- वयं पुण' इत्यादि । " मूलम् - वयं पुण एवं क्यामो- सूरिए - साइरेगअउणद्विपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ । ता अवड्ढपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता तिभागे गए वा सेसे वा । ता पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता चन्भागे गए वा सेसे वा । ता दिवड्ढपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता पंचभागे गए वा सेसे वा । एवं अद्धापोरिसिं छोडुं २ पुच्छा दिवसस्स भागं छोढुं छोडुं२ वागरणं जाव ता अवड्ढएगूणसद्विपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसेवा ? ता एगुणवीसइसयभागे गए वा सेसे वा ? ता एगूणसद्विपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? बावीस सहस्स भागे गए वा सेसे वा । ता साइरेगए गूणसहिपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता णत्थि किंचि गए वा सेसे वा । तत्थ खलु इमा पणवीस निविद्या छाया पण्णत्ता तं जहा - खंभछाया १, रज्जुच्छाया २, पागारछाया ३, पासायछाया ४, उच्चत्तछाया अणुलोमछाया ६, पडिलोमछाया ७, आरोविया छाया ८, उच्चारो विया छाया ९, समापहिया छाया १०, खीलछाया ११, पंथछाया १२, पुरओ दग्गा पिओ दग्गा १३, पुरिमकट्टभागोवगया छाया १४, पच्छिमक भागोवगया १५, छायाणुवादिणी १६, कट्ठाणुवादिणी १७, छायाइकंपदीहा सगडच्छाया तत्थ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रमशिस्त्र णं इमा अट्ठविहा गोलच्छाया पण्णत्ता तं जहा-गोलच्छाया १८, अवड्ढ मोलच्छाया १९, गोलच्छाया २०, अवड्ढगोलच्छाया २१, गोलावलिच्छाया २२, अवड्ढगोलावलिच्छाया २३, गोलपुंजच्छाया २४, अवड्ढगोल पुंजच्छाया २५, ॥सू० ४॥ नवमं पाहुडं समत्तं ॥९॥ छाया-वयं पुनरेवं वदामः सूर्यः सातिरेकैकोनषष्टिपौरुषी छायां निर्वतयति । तावत् अपार्धपौरूषी स्खल छाया दिवसस्य किं गते वा शेषे वा ? तावत् त्रिभागे गते वा शेषेवा ३॥ तावत् पौरुषी खलु छाया दिवस्य किं गते वा शेषे वा ? तावत् चतुर्भागे गते वा शेषे वा १. तावत् द्वयर्धपौरूषी खलु छाया दिवसस्य किं गते वा शेषे वा १ तावत् पञ्चभागे गते वा शेषे वा ?। एवम् अर्धपौरुषी क्षिप्त्वा २ पृच्छा । दिवसस्य भागं क्षिप्त्वाव्याकरण यावत् तावत् अपार्धकोनषष्टिपौरूषी खलु छाया दिवसस्य किं गते वा शेषे वा । तावत् एकोनविंशतिशतभागे गते वा शेषे वा ?। तावत् एकोनषष्टिपौरूषी खलु छाया दिवसस्य कि गते वा शेषे वा ? द्वाविंशतिसहस्रभागे गते वा शेषे वा । तावत् सातिरेकैकोनषष्टिपौरुषी खलु छाया दिवसस्य किं गते वा शेषे वा ? तावत् नास्ति किञ्चिद्गते वा शेषे वा । तत्र खलु इमा पञ्चविंशतिनिविधा छाया प्रज्ञप्ता तद्यथा स्तम्भच्छाया१, रज्जुच्छाया २, प्राकारच्छाया ३, प्रासादच्छाया ४. उच्चत्वच्छाया५, अनुलोमच्छाया ६, प्रतिलोमच्छाया ७, आरोपिता छाया ८ उच्चारोपिता छाया ९. समा प्रतिहताछाया १०, कोलच्छाया ११, पान्थच्छाया १२, पुरत उग्रा पृष्ठतउदग्रा १३, पौरस्त्यकाष्ठभागोपगता छ'या १४ । पाश्चात्यकाष्ठभागोपगता १५, छायानुवादिनी १६, काष्ठानुवादिनी १७, छायातिकम्पदीर्घा शकटच्छाया, तत्र खलु इमा अष्टविधा गोलच्छाया प्रक्षप्ता, तद्यथा-गोलच्छाया१८, अपार्धगोलच्छाया १९, गोलच्छाया २०, अपाधगोलच्छाया २१, गोलावलिच्छाया २२, अपार्धगोलावलिच्छाया २३, गोलपुञ्जच्छाया २४, अपार्धगोलपुञ्जच्छाया २५ ॥ सू०४ नवमं प्राभृतं समाप्तम् ।।१।। व्याख्या-'वयं पुण' वयं पुनः ‘एवं' एवम्- वक्ष्यमाणप्रकारेण 'क्यामो' वदामः कथयामः । तदेवाह-'सरिए' इत्यादि 'सरिए' सूर्यः 'साइरेगअउणटिपोरिसिं' सातिरेकैकोनषष्टिपौरुषीम्, उदयसमयेऽस्तसमये च 'छायं' छायां निव्वत्तेई' निवर्तयति । एतदेव स्पष्टयति -'ता अवड्ढ' इत्यादिः 'ता' तावत् 'अवड्ढपोरसी णं छाया' अपार्धपौरुषी खलु छाया, अपगतमद्धं यस्याः सा अपार्धा सा चासौ पौरुषीचेति-अपार्धपौरुषी छाया अर्धपौरुषी छायेत्यर्थः पुरुषस्य उपलक्षणात् प्रकाश्यस्य सर्वस्यापि वस्तुन इत्यग्रेऽपि विज्ञेयम्, अपार्धपौरुषी अर्धपुरुषप्रमाणेत्यर्थः छाया 'दिवसस्स' दिवसस्य 'किं' किम् कतमें भागे 'गए वा' गते वा व्यतीतेवा कतितमे 'सेसे वा' शेषे वा अवशिष्टे वा भागे भवति, अपार्धपौरुषी छाया दिवसस्य कतितमे भागे व्यतीते कतितमे वा भागेऽवशिष्टे भवतीति प्रश्नः Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतिलाशिका टीका प्रा०९ सू०३ पौरुषीछायाविषये स्वमनिरूपणम् २२२ भगवानुत्तरमाह-'ता' इत्यादि, 'ता' ताक्त् 'ति भागे' त्रिभागे दिवसस्य भागत्रये गए वा" गते वा व्यतीते वा 'सेसे वा' शेषे वा अवशिष्टे वा, दिवसस्य 'भागऋये गते' इति एक स्मिन्नन्तिमे भागे 'भागत्रये शेषे' इति दिवसस्यादिमे एकस्मिन् भागे अपार्धपौरुषी छाया भक्तीति भावः । पुनः प्रश्नयति—'ता' तावत् 'पोरसी गं छाया पौरुषी खलु संपूर्णपुरुष प्रमाणा छाया 'दिवसस्स' दिवसस्य 'किं गए वा सेसे वा' किं गते वा शेषे वा भवति ? अर्थः पूर्ववत् भगवानाह–'ता' तावत् 'चउभागे' दिवसस्य चतुर्भागे भागचतुष्टये गते वा, व्यतीते वा अस्तमनसमये इत्यर्थः 'सेसे वा' शेषे वा दिवसस्य भागचतुष्टयेऽवशिष्टे उद्गमनसमये इत्यर्थः संपूर्णपुरुषप्रमाणा छाया भवतीति । इयं छायाऽन्यत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतं सूर्यमाश्रित्य प्रोक्ता, उक्तश्च- "पुरिस-ति संकू पुरिससरीरं वा तो पुरिसे निप्पन्ना पोरिसी, एवं सव्वस्स वत्थुणो जया सयप्पमाणा छाया भवइ तया पोरिसी हवइ, एवं पोरिसीपमाणं उत्तरायणस्स अंते, दक्षिणायणस्स आइए इक्कम्मि दिणे हवइ, अओ परं अद्धएगसहिभागा अंगुलस्स दक्षिणायणे बदति. उत्तरायणे हस्संति । एवं मण्डले मण्डले अन्ना पोरिसी'' इति छाया-पुरुष इति शङ्खः, पुरुषशरीरं वा, ततः पुरुषे निष्पन्ना पौरुषी एवं सर्वस्य वस्तुनो यदा स्वप्रमाणा छाया भवति तदा पौरुषी भवति, एवं पौरुषीप्रमाणम् उत्तरायणस्य अन्ते, दक्षिणायनस्य आदौ एकस्मिन् दिने भवति, अतः परम् अधैंकषष्टिभागा अंगुलस्य दक्षिणायने वर्धन्ते, उत्तरायणे हासति, एवं मण्डले मण्डले अन्या पौरुषी, इति । अत इदं सकलमपि पौरुषीविभागपरिणामकथनं सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारसमयमाश्रित्य विज्ञेयम् । तथा पुनः प्रश्नयति-'ता' तावत् 'दिवाढपोरसी गं' छाया, द्वयर्धपौरुषी खलु द्वितीयायाः पौरुष्या अर्ध यत्र सा द्वयर्धा, सा चासौ पौरुषी चेति तथा सार्धे क पुरुषप्रमाणा पौरुषीत्यर्थः, एतादृशी छाया 'दिवसस्स' दिवसस्य 'किं गते का सेसो वा' किं-कतमे भागे गते वा अवशिष्टे वा भवतीति प्रश्नः । उत्तरमाह 'ता' तावत् 'पंचमभागे' पञ्चमभागे 'गते वा सेसे वा' गते वा शेषे वा भवति, दिवसस्य पञ्चभागाः कल्प्यन्ते तत्र पञ्चमे भागे द्वयर्धपौरुषी छाया मवतीति भावः । ‘एवं' एवम् अनेन पूर्वोक्तेन क्रमेणा अग्रेऽपि 'अद्धपोरिसिं' अर्धपौरुषी प्रत्येकस्मिन् प्रश्ने 'छोढुं २' क्षिप्त्वा २ संवर्ध्य संवर्येत्यर्थः 'पुच्छा' पृच्छा प्रश्नः कर्त्तव्या, तथा प्रत्येकस्मिन् उत्तरवाको 'दिवसस्स' दिवसस्य 'भाग' भागमेकं 'छोटु २' क्षिप्त्वा २ संवर्ध्य २, 'वागरणं' व्याकरणम् उत्तरं कर्त्तव्यम् । तच्चैवम् – “बिपोरिसी णं' छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता छब्भागे गए वा सेसे वा । ता अड्ढाइज्जयोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ?, ता सत्तभागे गए वा सेसे वा" इत्यादिरीत्या सूत्रालापकाः स्वयमूहनीयाः-कियत्पर्यन्त मित्याह Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરક चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'जाव' इत्यादि, जाव' यावत्- 'अवड्ढए गूणसट्ठिपोरसी णं छाया' अपार्धे कोनषष्टि पौरुषी खलु छाया, अपगता अर्धा यायाः सा अपार्धा, सा चासौ एकोनषष्टिरिति अपार्धेकोनषष्टिः सार्धाष्टपञ्चाशद्रपा, सा च पौरुषीति अपाधै कोनषष्टिपौरुषी खलु छाया 'दिवसरस' दिवखस्य 'कि गए वा सेसे वा' किं गते वा शेषे वा भवति ? । उत्तरमाह-'ता' तावत्'एगणवीसइसयभागे' एकोनविंशतिशतभागे दिवस्य एकोनविंशतिशतभागशरणे एकोनविंशतिशततमे भागे 'गए वा सेसे वा' गते वा शेषे वा आपाधै कोनषष्टिपौरुषी छाया भवतीति भावः । प्रश्नयति-'ता' तावत् 'एगृणसहिपोरिसी णं छाया' एकोनषष्टिपीरुषो रूल छाया 'दिवसस्स' दिवसस्य 'किं गए वा सेसे वा' किं गते वा शेषेवा भवतीति प्रश्नः । उत्तरमाह- 'बावीस हस्सभागे' द्वाविंशतिसहस्रभागे, दिवसस्य द्वाविंशति सहस्रभागकरणे द्वाविंशतिसहस्रतमे भागे 'गए वा सेसे वा' गते वा शेषे वा एकोनषष्टिपौरुषोछाया भवति । पुनः प्रश्नयति 'ता' तावत् 'साइरेगएगूणसट्ठिपोरिसी णं' सातिरेकैकोनषष्टिः साधिका अधिकेन सहिता किञ्चिदधिका एकोनषष्टिरिति सातिरेकैकोनषष्टिः, सा चासौ पोरुषी चेति सातिरेकपौरुषी खलु छाया' छाया 'दिवसस्स' दिवसस्य किं गए वा सेसे वा' किं गते वा शेषे वा भवतीति प्रश्नः । उत्तरमाह -'ता' तावत् ‘णस्थि किंचि गए वा सेसे वा' नास्ति न भवति एतादृशी पौरुषी छाया दिवसस्य किञ्चिन्मात्रोऽपि भागे गते वा शेषेवेति ।। 'तत्थ' तत्र छायाविचारे खलु 'इमा' इमाः वक्ष्यमाणा 'पणवीसनिविट्ठा' पञ्चविंशतिनिविष्ठा पञ्चविंशतिनिवेशवत्यः, पञ्चविंशतिप्रकारसंनिवेशयुक्ता 'छाया' छाया 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा-खंभछाया स्तम्भछाया, स्तम्भवदीर्घा छाया १ 'रज्जुच्छाया' रज्जुच्छाया दवरिकाछाया रज्जुवत्तिर्यग्भूता छाया २, पागारच्छाया' प्राकारच्छाया, प्रकारो नगरवेष्टनभित्तिः, तदाकारा छाया ३ 'पासायच्छाया' प्रासादच्छाया 'प्रासादो धनिनां गृहम्' इति वचनात् प्रासादवद्विस्तीर्णा छाया ४, 'उच्चत्तच्छाया' उच्चत्वच्छाया शिखरवदुच्चत्वमाश्रित्य छाया ५, 'अणुलोमच्छाया' अनुलोमच्छाया सरलछाया ६, 'पडिलोमच्छाया' प्रतिलोमच्छाया बक्रच्छाया, 'आरोविया छाया' आरोपिता छाया आरोपितस्य यष्टयादेश्छाया, ८, 'उच्चारोविया छाया' उच्चारोपिता छाया ऊर्वीकृतयष्टयादेश्छाया ९, समापडिहया छाया' समाऽप्रतिहता समा समतया हस्ते गृहीता अतएव अप्रतिहता केनापि वस्तुना न प्रतिहता या यष्टिः तस्याश्छाया १०, 'खीलच्छाया' कोलच्छाया-कीलस्य काष्ठकीलस्य लोह कीलस्य वा छाया ११, 'पंथच्छाया' मार्गे चलतश्छाया १२, 'पुरओ दग्गा पिट्टओ दग्गा' पुरतउदग्रा पृष्ठतउदग्रा-पूर्व पुरतः अग्रे हस्तमूर्वीकृत्य पश्चादधः करोति, तस्यैतादृशस्य हस्तस्य छाया पुरतः पृष्ठतश्चोदना छाया कथ्यते १३, 'पुरिमकहभागोवगया' पौरस्त्यकाष्ठभागोपगता, पौरस्त्ये सूर्यमधिकृत्य Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०९सू०२ पौरुषीछायायाः प्रमाणनिरूपणम् २२५ पूर्वस्यां दिशि स्थापितकाष्ठभागमुपगता छाया १४, 'पच्छिमकट्ठभागोवगया' पाश्चात्य काष्ठभागोपगता एवं पाश्चात्ये सूर्यमधिकृत्य पश्चिमायां दिशि स्थापितकाष्ठभागमुपगता छाया १५, 'छायाणुवादिणी' छायानुवादिनो छायानुवादकारिणी छाया प्रमाणकारिणी छाया १६, 'कहानुवादिणी' काष्ठानुवादिनी काष्ठप्रमाणकारिणी छाया १७,छायाइकंपदीहा सगरच्छाया' छायादि कम्पदीर्धा शकटच्छाया छायादिकम्पनकारिणीत्वेन दीर्घा लम्बा शकरच्छाया गन्त्री छाया 'तस्थ' तत्र तस्यां छायायां खलु 'इमा' इयं वक्ष्यमाणा 'अट्टविहा' अष्टविधा अष्टप्रकारा 'गोलच्छाया' गोलाकारा वर्तुला छाया 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा-'गोलच्छाया' 'गोलच्छाया-गोलवद्वर्तुला छाया १८, अवड्ढगोलच्छाया' अपार्धगोलच्छाया - अर्धगोलछाया १९, 'गोलगोलच्छाया' गोलगोलच्छाया गोलैर्बहुभिगोलैमिलित्वा यो निष्पादित एको गोलः स गोलगोलः, तस्य छाया वलयाकारा २०, अवढगोलगोलच्छाया' अपार्धगोलगोलच्छाया अर्धगोलच्छाया काचनिर्मित बालक्रीडनकगोलाकारा २१, 'गोलावलिच्छाया' गोलावलि. च्छाया- गोलानाम्-अनेकगोलानां या आवलिः पंक्तिः सा गोलावलिः, तस्याश्छाया मध्याह्नसूर्याकारा २२ 'अवड्ढगोलावलिच्छाया' अपार्धगोलावलिच्छाया-अर्धोलावलिच्छाया पूर्णिमा मध्यरात्रिवर्तिचन्द्राकारा २३, 'गोलपुंजच्छाया' गोलपुञ्जच्छाया, गोलानां पुञ्जः-समूहः तस्य छाया गम्भीरगर्ताकारा २४, 'अवड्ढगोलपुजच्छाया' अपार्धगोलपुआच्छाया; गोलसम्हस्या तस्य छाया अर्धगम्भीरगर्ताकारा २५, इति ॥सू० ४॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित -कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालवति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायाम् नवमम् प्राभृतं समाप्तम् ॥५॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दशमं प्राभृतम् ॥ गतं नवम ं प्राभृतम् तत्र सूर्यस्य पौरुषी छाया निर्वर्त्तनं प्रदर्शितम् । अथ दशमं प्राभृतं प्रारभ्यते, तत्र पूर्व द्वारगाथायां ' जोएत्ति किं ते आहिए' योग इति किं ते आख्यात इति प्रतिज्ञातमिति तद्विषयमत्र दशमे प्राभृते प्रतिपादयिष्यते अत्र द्वाविंशतिः प्राभृतप्राभृतानि सन्ति, तत्र प्रथमे प्राभृतप्राभृते नक्षत्र परिपाटी, प्रतिपाद्यते - 'ता जोगे त्ति' इत्यादि । मूलम् ता जोगेत्ति वत्थुस्स आवलिया निवाए आहिएत्ति वएज्जा । ता कहं ते जोगेत्ति वत्थुस्स आवलियाणिवाए आहिए ? त्ति एज्जा । तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु - ता सव्वे वि णं णक्खत्ता कत्ति - यादिया भरणपज्जवसाणा पण्णत्ता एगे एवमाहं ॥ | १ || एगे पुण एवमाहंसु-ता सव्वे विणं नक्खत्ता मघादिया अस्सेसापज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु || २ || एगे पुण एवमाहं सु-ता सव्वे विणं नक्खत्ता घणिठाइया सवणपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु || ३ || एगे पुण एवमाहंसु ता सव्वे वि णं णक्खत्ता अस्सिणीआदिया रेवई पज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु ||४|| एगे पुण एवमाहंसु ता सव्वे वि णं णक्ख भरणीआइया अस्सिणीपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहं ॥ ५ ॥ वयं पुण एवं वयामो-ता सव्वे वि णं णक्खत्ता अभिई आदिया उत्तरासाढापज्जवसाणा पण्णत्ता, तं जहा - अभिई सवणो जाव उत्तरासादा || सू० १ || ||दसमस्स पाहुडस्स पढमं पाहुडं समत्तं ॥ १०१ ॥ -- छाया- - तावत् योग इति वस्तुनः आवलिकानिपात आख्यात इति वदेत् तावत् कथं ते योग इति वस्तुनः आवलिकानिपात आख्यातः । इति वदेत् । तत्र खलु इमाः पश्च प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा तत्रैके एवमाहुः तावत् सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि कृत्तिकादिकानि भरणीपर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि, पके एवमाहुः |१| एके पुनः एवमाहुः – तावत् सवयपि खलु नक्षत्राणि मघादिकानि अश्लेषापर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि, एके पवमाहुः |२| एके पुनः पवमाहुः - तावत् सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि धनिष्ठादिकानि श्रवणपर्यवसानानि प्रज्ञतानि, एके एवमाहुः । ३। एके पुनः पवमाहुः - तावत् सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि अश्विन्यादिकानि रेवतो पर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि, एके एवमाहुः |४| पके पुनः पवमाहुः - तावत् सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि भरण्यादिकानि अश्विनी पर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि, एके पवमाहुः |५| वयं पुनः एवं वदामः -- तावत् सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि अभिजिदादिकानि उत्तराषाढापर्यवसानानि प्रशतानि तद्यथा - अभिजित् १ श्रवणः २ यावत् उत्तराषाढा २७ ॥ सू० १॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिप्रकाशिका टीका प्रा० १० १ सू १ चन्द्रसूर्ययोः आवलिकानिपातः २२७ व्याख्या 'ता जोगेति' इति । 'ता' तावत् - आस्तां तावदन्यत् कथनीयं साम्प्रतमेतावदेव कथ्यते यत् 'जोगेत्ति' योग इति 'वत्थुस्स' वस्तुनः नक्षत्रजातस्य 'आवलियानिवाए' आबलिकानिपातः आवलिकया पंक्तचा क्रमेणेत्यर्थः निपातः चन्द्रसूर्यै: सह संपातः संयोगः स एव योग इति 'आहिए' आख्यातः कथितो मया 'त्ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः कथयेत् । भगवता एवमुक्ते गौतमः पृच्छति 'ता कहं ते' इत्यादि, 'ता' तावत् प्रथमं हे भगवन् ! 'ते' त्वया 'कहूं' कथं केन प्रकारेण 'जोएत्ति' योग इति 'वत्थुस्स' वस्तुनः नक्षत्रजातस्य 'आवलियाणिवाए' आवलिकानिपातः क्रमेण चन्द्रसूर्यैः सह संपात : 'आहिए' आख्यातः कथितः, तस्य कः प्रकारः ? 'त्तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु भगवान् अथात्र भगवान् प्रथममन्यतीर्थिकाणां प्रतिपत्ती: प्रदर्शयति 'तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र नक्षत्राणां योगविषये खलु 'इमाओ' इमाः अग्रे प्रवक्ष्यमाणाः 'पंच' पञ्चेति पश्चसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा ता यथा - ' तत्थ' तत्र पञ्चसु प्रतिपत्तिवादिषु मध्ये 'एगे' एके प्रथमा: ' एवं ' एवम् - वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'सव्वे वि णं णक्खता' सर्वाणि समस्तानि अपि खलु नक्षत्राणि 'कत्तियादिया भरणी पज्जवसाणा' कृत्तिकादीनि भरणीपर्यवसानानि कृत्तिकात आरभ्य भरणीपर्यन्तानि सर्वेषां नक्षत्राणामादौ कृतिका अन्ते भरणी इति 'पण्णत्ता' प्रज्ञतानि । उपसंहारः - 'एगे' एके प्रथमाः ' एवं ' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति | १| 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः ' एवं ' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु 'आहुः कथयन्ति - 'ता' तावत् 'सव्वे वि णं णक्खत्ता' सर्वाण्यापि खलु नक्षत्राणि 'मघाइया अस्से सापज्जवसाणा' मघादिकानि अश्लेषा पर्यवसानान मघात आरभ्य अश्लेषापर्यन्तानि सर्वेषां नक्षत्राणां आदौ मघा, अन्ते अश्लेषा, इति 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि कथितानि, 'एगे एवमाहंस' एके एवमाहुः द्वितीया एवं कथयन्ति |२| 'एगे पुण' एके तृतीयाः पुनः ' एवं ' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'सव्वा विणं णक्खत्ता' सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि 'घणिट्ठादिया सवणपज्जवसाणा' घनिष्ठादिकानि श्रवणपर्यवसानानि घनिष्ठात आग्भ्य श्रवणपर्यन्तानि सर्वेषां नक्षत्राणामादौ धनिष्ठा, अन् श्रवणः, इत्येवं रूपाणि 'पण्णता' प्रज्ञप्तानि 'एगे एवमाहु' एके तृतीया एवमाहुः | ३ | 'एगे पुण' एके चतुर्थाः पुनः ' एवं ' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति - 'ता' तावत् 'सब्वेवि णं णक्खत्ता' सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि 'अस्सिणीआदिया रेवई पज्जवसाणा' अश्विन्यादिकानि रेवतीपर्यवसानानि, अश्विनीत आरभ्य रेवतीपर्यन्तानि सर्वेषां नक्षत्राणामादौ अश्विनी अन्ते रेवती, इत्येवं रूपाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि कथितानि, 'एगे एवमाहंसु' एके चतुर्था एव माहुः |४| 'एगे पुण' के पश्चमा पुनः ' एवं ' एवम् वक्ष्माणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः 'सव्वेवि णं णक्खत्ता' सर्वाण्यपि स्खलु नक्षत्राणि 'भरणीआदिया अस्सिणीपज्जवसाणा' भरण्यादिकानि अश्विनीपर्यवसानानि, भरणीत आरभ्य अश्विनीपर्यन्तानि, सर्वेषां नक्षत्राणामादौ भरणी, Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ चन्द्रप्राप्ति अन्ते चाश्विनी, इत्येवंरूपाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, 'एगे एवमाहंमु' एके पश्चमा एवमाहुः ।। तदेवमन्यतीर्थिकाणां पश्च प्रतिपत्तीः प्रदर्य भगवान् साम्प्रतं स्वमतं प्रकटयति-'वयं प्रण' इत्यादि, 'वय पुण' वयं पुनः 'एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः, तदेवाह-'ता' इत्यादि, 'ता'तावत् 'सव्वे विणं णक्खत्ता' सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि 'अभिईआदिया उत्तरासाढा पज्जवसाणा' अभिजिदादिकानि उत्तराषाढापर्यवसानानि, अभिजित आरभ्य उत्तराषाढा. पर्यन्तानि, सर्वेषां नक्षत्राणामादौ अभिजित्, अन्ते च उत्तराषाढा वर्तते, इत्येवं रूपाणि 'पण्णत्ता' प्राप्तानि कथितानि, वस्तुतो नक्षत्राणां गणनाक्रमः अभिनिदादिकः उत्तराषाढापर्यवसान एव भवति, नान्यः क्रमः समीचीनः, अन्यतीर्थिकाणां पञ्चापि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपा अतो न स्वीकरणीयाः । तान्येव नक्षत्राणि दर्शयति-'अभिई' इत्यादि, अभिजित् १, 'सवणे' श्रवणः २, 'जाव' यावत् , यावत्पदेन धनिष्ठा ३, शतभिषक् ४, पूर्वाभाद्रपदः ५, उत्तराभाद्रपदः ६, रेवती ७, अश्विनी ८, भरणी ९, कृत्तिका १०, रोहिणी ११, मृगशिरः १२, मार्दा १३, पुनर्वसुः १४, पुष्य १५, अश्लेषा १६, मघा १७, पूर्वाफाल्गुनी १९, हस्तः २०, चित्रा २१, स्वातिः २२, विशाखा २३, अनुराधा २४, ज्येष्ठा २५, मूलम् २६, पूर्वाषाढा २७ इति संग्राह्यम् 'उत्तरासाढा' उत्तराषाढा २८, इत्यष्टाविंशतितमं नक्षत्रं वाच्यम् । अत्राशङ्कयते यत्-सर्वेषां नक्षत्राणामादौ अभिजित् मन्ते च उत्तराषाढा, इत्येव कथम् ? इत्याह-इह सर्वेषामपि सुषमसुषमादि रूपकालविशेषाणामादि च युगं भवति, उक्तश्च-'एए उ मुसमसुसमादओ अद्धाविसेसा जुगादिना सह पवत्तति जुगंतेण सह समप्पंति' छाया-एते तु सुषमसुषमादयः अदाविशेषा युगादिना सह प्रवर्तन्ते, युगान्तेन सह समाप्यन्ते, इति । युगस्यादिश्च-श्रावणमासे बहुलपक्षे प्रत्तिपत्तिथौ बालवकरणे अभिजिन्नक्षत्रे चन्द्रेण सह योग प्राप्ते सति भवति, तथा चोक्तम् "सावणबहुलपडिवए, बालवकरणे अभीइनक्खत्ते । सव्वत्थ पढमसमए, जुगस्स आई वियाणाहि" ॥१॥ छाया-श्रावणबहुलप्रतिपदि, बालवकरणे अभिजिन्नक्षत्रे । सर्वत्र प्रथमसमये, युगस्य आदि विजानीहि ॥१॥ सर्वत्रेति भरते, ऐरवते, महाविदेहे चेति । अतएव भगवता कथितम्-अभिजिदादीनि उत्तराषाढापर्यवसानानि सर्वाणि नक्षत्राणि भवन्तीति ॥सू०१॥ इति-श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रतिशुद्धगद्यगद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रापति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीधासीलालवति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रप्रज्ञप्तिप्रकाशिकाख्यातां व्याख्यायाम् दशमप्रामृते प्रथममं प्राभृतं समाप्तम् ॥१०-१॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतम् ॥ पूर्व दशमस्य प्रथमे प्राभृतप्राभृते नक्षत्रपरिपाटी प्रतिपादिता, अथात्र द्वितीये प्राभृतप्राभृते चन्द्रसूर्याभ्यां सह नक्षत्राणां योगविषयकं मुहर्त्तपरिमाणं वक्तव्यं स्यादिति तद्विषयकमिदमादिमं सूत्रम्-'ता कहं ते मुहुत्तग्गे' इत्यादि मूलम्- ता कहं ते मुहुत्तग्गे आहिए ? ति वएज्जा, ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अस्थि णक्खत्तं जं णं णवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तसद्विभाए मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ ? अत्थि णवत्ता जे णं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति २, अत्थि नक्खत्ता जे णं तीसं मुहत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ३, अत्थि णंनक्खत्ता जे गं पणयालीसे मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ४, ता एएसि णं अहावीसाए णक्खत्ताणं कयरं नक्खत्तं ज णं नवमुहुत्ते सतावीसं च सत्तद्विभाए मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ१, कयरे णक्खत्ता जे णं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति २. कयरे णक्खत्ता जेणं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएं ति ३, कयरे णक्खत्ता जे णं पणयालीसे मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जएंति ४, ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तत्थ जं तं णक्खत्तं जं णं णवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तद्विभाए मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएई से णं एगे अभीई १, तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं छ तं जहा-सतभिसया १, भरणी २' अद्दा ३, अस्सेसा ४, साई ५, जेट्ठा ६२। तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं तीसं मुहुते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति ते णं पण्णरस, तं जहा-सवणे १, धणिट्टा २, पुन्वाभदवया ३, रेवई ४, अस्सिणी ५, कत्तिया ६; मग्गसिरा ७, पुस्सं ८ महा९ पुन्वाफग्गुणी १०; इत्थो ११; चित्ता १२, अणुराहा १३, मूलो १४, पुव्वआसाढा १५, ३। तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं पणयालीसे मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति तेणं छ, तं जहा–उत्तराभदबया १, रोहिणी २, पुणव्वस ३ उत्तराफग्गुणी ४, विसाहा ५, उत्तरासाढा ६, ।४। ॥सू० १॥ ___ छाया -- तावत् कथं ते मुहूर्ताग्रम् आख्यातम् १३ इति वदेत्, तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतः नक्षत्राणां अस्ति नक्षत्रं यत् खलु नव मुहूर्तान् सप्तविंशतिं च सप्तषष्टिभागान् मुहूर्त्तस्य चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति १, सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चदश मुहूर्तान् चन्द्रेण साधं योगं युञ्जन्ति २, । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु त्रिंशत् मुहूर्तान् चन्द्रेण सार्ध योग युञ्जन्ति ३। सन्ति खलु नक्षत्राणि Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे यानि खलु पञ्चचत्वारिंशद मुहूर्तान् चन्द्रेण साधं योगं युञ्जन्ति ४॥ तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां कतरत् नक्षत्रं यत् खलु नव मुहूर्तान् सप्तविंशति च सप्तषष्टिभागान् मुहूर्तस्य चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति १, कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चदश मुहूर्तान् चन्द्रेण सार्धं योग युञ्जन्ति २। कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु त्रिंशद् मुहूर्तान् चन्द्रण साध योगं युञ्जन्ति ३। कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चचत्वारिंशद् मुहू नि चन्द्रेण साधू योग युञ्जन्ति ।४. तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशते नक्षत्राणां तत्र यत्तन्नक्षत्रं यत् खलु नव मुहूर्तान् सप्तविंशतिं च सप्तर्षाष्टभागान मुहूर्तस्य चन्द्रेण सार्धं योग युनक्ति तत् खलु एकम् अभिजित् । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चदशमुहूर्तान् चन्द्रेण साधं योगं युञ्जन्ति तानि खलु षट् तद्यथा-शतभिषक् १, भरणी, आर्द्रा ३, अश्लेषा ४, स्वातिः ५, ज्येष्ठा ६।२। तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु त्रिंशत् मुहूतीन चन्द्रेण साध योगं युजन्ति तानि खलु पञ्चदश, तद्यथा-श्रवणः १, धनिष्टा २, पूर्वाभाद्रपदा ३, रेवती ४, अश्विनी ५, कृत्तिका ६, मृगशिरः ७, पुष्यः ८, मघा ९, पूर्वाफाल्गुनी १०, हस्तः ११, चित्रा १२, अनुरावा १३ मूलम् १४, पूर्वाषाढा १५,३ तत्र यानि तानि क्षत्राणि यानि खलु पञ्चचत्वारिंशत् मुहर्तान् चन्द्रेण साधं योगं युञ्जन्ति तानि खलु षट्, तद्यथा-उत्तराभाद्रपदा १, रोहि णी २, पुनर्वसु ३, उत्तराफाल्गुनी ४ विशाखा ५, उत्तराषाढा ६।४। ॥सू ० १। व्याख्या- 'ता कहते' इति, 'ता' तावत् 'कह' कथं हे भगवन् ! केन प्रकारेण 'ते' त्वया प्रतिनक्षत्रं 'मुहुत्तग्गे' मुहूर्ताग्रं चन्द्रेण सह नक्षत्राणां योगसम्बन्धि मुहूर्तपरिमाणम् 'आहियं' आख्यातम् ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयतु । एवं गौतमेनोक्ते भगवानाह 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां मध्ये 'अत्थि' अस्ति 'नक्खत्तं' नक्षत्रं 'जणं' यत्खल नक्षत्रं 'नवमुहुत्ते' नवमुहूर्तान् ‘सत्तावीसं च सत्तहिभागे' सप्तविंशतिं च सप्तषष्टिभागान् ‘मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य, सप्तषष्टिभागयुक्तान् नवमुहूर्तान् यावत् 'चंदेण सद्धि' चन्द्रेण साधं 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति १। 'अत्थि' सन्ति 'नक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जेणं यानि खलु नक्षत्राणि 'पण्णरसमुहुत्ते' पञ्चदशमुहूर्तान् यावत् पञ्चदशमुहूर्तपर्यन्तमित्यर्थः 'चंदेण सद्धि' चन्द्रेण साधं 'जोयं जोएंति' योगं युञ्जन्ति कुर्वन्ति २ । 'अत्थि' सन्ति ‘णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु नक्षत्राणि तीस मुहुत्ते' त्रिशन्मुहूर्तान् त्रिंशन्मु. हूर्तपर्यन्तं 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण साधं योगं युञ्जन्ति ।३। 'अत्थि' सन्ति 'णक्खत्ता'नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु ‘पणयालीसे मुहुत्त'पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तान् यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण साध योगं युजन्ति ४। एवं भगवता सामान्येन कथितान् चन्द्र नक्षत्रयोगरूपान् चतुरो विषयान् श्रुत्वा भगवान् गौतमो विशेषनिर्णयार्थं प्रत्येकमेकैकशः पृच्छति 'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं'अष्टाविंशते नक्षत्रणां मध्ये ‘कयरं' कतरत् किं नामकं ‘णक्खत्तं' नक्षत्रं 'जे णं' यत् खलु नक्षत्रं 'नवमुहुत्ते Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशशिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-२ सू०१ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगनिरूपणम् २३१ सत्तावीसं च सत्तट्टिभाए मुहुत्तस्स' सप्तविंशति सप्तषष्टिभागयुक्तान् नवमुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेण सर्द्धि जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति १। 'कयरे णक्खत्ता' कतराणि नक्षत्राणि किं नामधेयानि नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'पण्णरसमुहुत्ते' पञ्चदशमुहूर्त्तान् यावत् 'चंदे सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति २ । 'कयरे णक्खत्ता' कतराणि नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु 'तीसं मुहुत्त' त्रिंशन्मुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति ३ | 'कयरे' कतराणि कानि 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'पणयाळीसे मुहुत्ते पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेण सद्धिं जोय जोएंति' चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति ४ । एवं गौतमेन पृष्टे सति भगवान् एकैकशः कृत्वा चतुरोऽपि प्रश्नान् स्पष्टीकरोति - 'ता एसि णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां ‘तत्थ ं तत्र मध्ये ‘जं तं णक्खत्तं' यत्तत् नक्षत्रं 'जे णं' यत् खलु 'णवमुहुत्ते सत्तावीसं च सतट्टिभाए मुहुत्तस्स' सप्तविंशतिं सप्तषष्टिभागयुक्तान् नवमुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेणं सद्धिं जोयं जोए ' चन्द्रेण सा योगं युनक्ति 'से णं' तत् खलु 'एगे अभीई' एकम् अभिजित् नक्षत्रमस्ति । एतत् कथम् ? इति प्रदर्श्यते इदमभिजिन्नक्षत्रं सप्तषष्टिस्खण्डीकृतस्याहोरात्रस्यैक विंशतिभागान् यावत् चन्द्रेण सह योग प्राप्नोति, मुहूर्त्तगतभागकरणार्थमेते च एकविंशतिरपि भागा एकस्याहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्त्त प्रमाणत्वात् त्रिंशता गुन्यन्ते ( २१ x ३० ) जातानि त्रिंशदधिकानि षट्शतानि (६३०) कालमाश्रित्य एतावान् सीमा विस्तारोऽभिजिन्नक्षत्रस्य भवति, उक्तं चाऽन्यत्रापि “छच्चेव सया तीसा भागाणं अभिई सीमविवक्खंभो । दिट्ठो सम्बडहरगो सव्वेहिं अनंतनाणीहिं ॥१॥ छाया - षडेव शतानि त्रिंशत् भागानाम् अभिजित्सीमा विष्कम्भः दृष्टः सर्वलघुकः सर्वैः अनन्तज्ञानिभिः || १ || इति तानि त्रिंशदधिकषट्शतानि (६३०) सप्तषष्ट्या विभज्यन्ते ततो लब्धा नवमुहूर्त्ताः एकस्य मुहूर्त्तस्य च सप्तविंशतिः सप्तषष्ठिभागाः (९६) अतएवोक्तम् “अभिहस्स चंदजोगो सत्तट्ठीर्खडिओ अहोरत्तो । भागा य सत्तवीस पुण अहिया नव मुहुत्ता" ॥१॥ छाया - अभिजितः चन्द्रयोगः सप्तषष्टिस्खण्डितम् अहोरात्रम् । भागाश्च सप्तविंशतिः, ते पुनः अधिका नवमुहूर्त्ताः । १ । इति । इत्यादि । ' तत्थ ' अथ भगवान् पञ्चदशमुहूर्त विषयकं द्वितीयं प्रश्नं तत्र अष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये 'जे ते णक्खत्ता' यानि 'पण्णरसमुहुत्ते" पञ्चदशमुहूर्त्तान् यावत् योगं युञ्जन्ति 'णं' तानि खलु 'छ' स्पष्टयति- ' तत्थ' तानि नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चंद्रेण सार्धं षट् सन्ति 'तं जहा ' तथथा 'सयभिसया' Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'शतभिषक् १ 'भरणी' भरणी २, 'अदा' आर्दा ३, 'अस्सेसा' अश्लेषा ४, 'साई' स्वातिः ५, 'जेहा' जेष्ठा ।६॥ एतेषां षण्णामपि नक्षत्राणां प्रत्येकं सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सम्बन्धिनः साभन् त्रयस्त्रिंशद्भागान् (३३॥) यावत् चन्द्रेण सह योगो भवति तत एते सार्धत्रयस्त्रिंशद्भागाः मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते तत्र प्रथम त्रयस्त्रिंशत् त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि नवधिकनवशतानि (९९०) ततो यदुपरि अध तदपि त्रिंशता गुण्यते लब्धाः पञ्चदशमुहूर्तस्य सप्तषष्टिभागाः, तेषां पूर्वराशौ प्रक्षेपणे जातं पञ्चोत्तरं सहस्रमेकम् (१००५)। एवं चैतेषां षण्णां नक्षत्राणां प्रत्येकं कालमाश्रित्य सीमाविस्तारः पञ्चोत्तरसहस्रमुहूर्तगतसप्तपष्टिभागप्रमितः, अत्राह “सयभिसया भरणीए, अहा अस्सेसा साइ जिहाए । पंचोत्तरं सहस्सं भागाणं सीमाविक्खभो ॥१॥ छाया-शतभिषग्भरण्योः आHऽश्लेषा-स्वातिज्येष्ठानाम् । पञ्चोत्तरं सहस्रं भागानां सीमाविष्कम्भः ॥१॥इति । अस्य पञ्चोत्तरसहस्रस्य सप्तषष्टया भागे हृते लब्धाः पञ्चदशमुहूर्ताः । अतएवोक्तं च.. "सयभिसया भरणी य अद्दा अस्सेससाइजिट्ठा य । एए छन्नक्खत्ता, पण्णरसमुहत्तसंजोगा " ॥१॥ छाया - शतभिषक् भरणी च आर्द्रा अश्लेषा स्वातिः ज्येष्टा च एतानि षड्नक्षत्राणि, पञ्चदशमुहूर्तसंयोगानि ॥२॥इति। अथ त्रिंशन्मुहूर्त्तविषयक प्रश्नं स्पष्टयति तत्थ' इत्यादि, 'तत्थ' तत्राष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये 'जे ते णक्खत्ता 'यानि तानि नक्षत्राणि 'जे ण' यानि खलु 'तीस मुहुत्ते' त्रिंशन्मुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण साधू योगं युञ्जन्ति, 'ते णं पण्णरस' तानि खलु पञ्चदश, 'तं जहा 'तद्यथा-'सवणो' श्रवणः १. 'धणिहा' धनिष्ठा २. 'पुव्वाभदवया पुर्वाभाद्रपदा ३, 'रेवई' रेवती ४, 'अस्सिणी' अश्विनी ५, 'कत्तिया' कृत्तिका ६, 'मग्गसिरं 'मृगशिरः ७, 'पुस्सं पुण्यम् ८, 'मघा' 'मघा' ९, पुवाफग्गुणी' पूर्वाफाल्गुनी १०, हत्थो' हस्तः ११, 'चित्ता' ,चित्रा १२. 'अनुराहा' अनुराधा १३, 'मूलो' मूलम् १४, 'पुव्वआसाढा' पूर्वाषाढा १५, । तथाहि एतेषा पञ्चदशानां नक्षत्राणां कालमाश्रित्य प्रत्येकं सीमा विष्कम्भो मुहर्तगतसप्तषष्टिभागानां दशोत्तरं सहस्रद्वयम् (२०१०] भवति । तत्कथमित्याह एषु प्रत्येक नक्षत्रमेकाहोरात्रस्य सप्तषष्टिसप्तषष्टिभागान् (६५) यावत् चन्द्रेण सह योगं करोति ततोऽहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तप्रमाणत्वात्सप्तषष्टिः त्रिंशता गुण्यते तदा जायते यथोक्तो राशिः (२०१०)। तस्य सप्तषष्टया भागो हियते लब्धा स्त्रिंशत् मुहूर्ताः ३०॥इति अथ चतुर्थ पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तविषयकं प्रश्नं स्पष्टयति-तत्थ' इत्यादि । 'तत्य' तत्र भष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'जे णं' यानि Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-२ सू० १ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगनिरूपणम् २३३ खल 'पणयालीसं मुहुत्ते' पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेम साधं योगं युञ्जन्ति 'तेणं छ' तानि खलु षट् सन्ति, 'तंजहा' तद्यथा 'उत्तराभवया' उत्तराभाद्रपदा १, 'रोहिणी' रोहिणी २, 'पुणव्वसू, पुनर्वसुः३, 'उत्तराफग्गुणी' उत्तराफाल्गुनी४, 'विसाहा, विशाखा,५, 'उत्तरासाढा, उत्तराषाढा६ । एतेषां षण्णां नक्षत्राणां प्रत्येकं काळमाश्रित्य सीमाविष्कम्भः पञ्चदशोत्तरसहस्रत्रय (३०१५) मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागप्रमितो वर्त्तते एष कथं जायते ? इत्याह- एषां प्रत्येकमेकस्याहोरात्रस्य एका?त्तरं शतमेकं सप्तषष्टिभागान् (४०) यावत् चन्द्रेण सह योगं करोति ततः एकार्थोत्तरं शतमेकं (१००) सप्तषष्टया गुण्यते तदा जायते पूर्वोक्तो राशिः (३०१५) इति अस्य पश्चोत्तरसहस्रनयराशेः (३०१५) सप्तषष्टया भागो हियते ततो लब्धाः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ताः, उक्तञ्च "तिन्नेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य । एए छन्नक्खत्ता, पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥१॥ छाया-तिन एव उत्तरा ३ (उत्तराभाद्रपदा १, उत्तरा फाल्गुनी २ उत्तराषाढा ३, )पुनर्वसुः४, रोहिणी ५ विशाखा ६ च । एतानि षड नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तसंयोगानि ॥१॥ शेष नक्षत्रमुहूर्तविषये पुनश्चोक्तम् ‘अवसेसा नक्खत्ता णव पण्णरस हुंति तीसइमुहुत्ता । चंदंमि एस जोगो , नक्खत्ताणं समवखाओ ॥२॥ छाया-अवशेषाणि नक्षत्राणि अभिजिदेकम्१, शतभिषगादयः षद६ श्रवणादयः पञ्चदश १५, इति द्वाविंशतिनक्षत्राणि क्रमेण नव पञ्चदश भवन्ति त्रिंशन्मुहूर्त्तानि चन्द्रे एष योगः नक्षत्राणां समाख्यातः।। २। सू १ ॥ उक्तोऽयं नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगः, सांप्रतं सूर्येण सह योग प्रदर्शयन्नाह-'ता एएसि गं' इत्यादि । मूलम:-ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अत्थि णक्खत्ते जे णं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएइ ।१। अत्थि णक्खत्ता जे णं छ अहोरत्ते एक्कवीसं च मुहुत्ते सरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ।२। अस्थि णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते बारस य मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ३ । अत्थि णक्खत्ता जेणं वीसं अहोरत्ते तिण्णि य मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोय जोएंति ।४। . ३० Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे ता एसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरं णक्खत्तं चत्तारि अहोरते छच्च मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएइ |१| कयरे णक्खता जेणं छ अहोरत्ते एक्कवीससुहत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति २। कयरे णक्खत्ता जेणं तेरस अहोरचे बारस य मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जो जोएंति ३ । कयरे णक्खत्ता जेणं वीसं अहोरत्ते तिन्निय मुहु सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ४ । ता एएसि णं अट्ठावीसाए णवखत्ताणं तत्थ जे से क्खत्ते जेणं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरिण सद्धिं जोयं जोएइ से णं अभई १| तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं छ अहोरत्ते एकवीसं च मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जो ति ते णं छ तं जहा सयभिसया १, वरणी २, अद्दा ३, अस्सेसा ४' साई ५, जेट्टा ६, २। तत्थ जे ते नक्खत्ता ते सअहोरते दुवालस य मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं पण्णरस तं जहा - सत्रणो १, धणिट्ठा २, पुव्वाभदवा ३, रेवई ४, अस्सिणी ५, कत्तिया ३, मग्गसिरं ७, पूसो ८, मघा९ पुव्वाफल्गुणी १० हत्थो ११, चित्ता १२, अणुराहा १३, मूलो १४, पुव्वाआसाढा १५।३ तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं वीस अहोरते तिष्णि य मुहुत्ते सूरिए ण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं छतं जहा उत्तराभद्दवया १, रोहिणी २, पुणव्वसू ३, उत्तराफग्गुणी ४, विसाहा ५, उत्तरासाडा ६|४ ||०२|| २३४ छाया - तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां अस्ति नक्षत्रं यत् खलु चत्वारि अहोरात्राणि षट् च मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्धं योगं युनक्ति १। सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु षड् अहोरात्रान् एकविंशतिं च मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति २ | सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु त्रयोदश अहोरात्रान् द्वादश च मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति ३। सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु विंशति अहोरात्रान् त्रीन् च मुहूर्त्तान् सूर्येण साधे योग गुञ्जन्ति ४ तावत् पतेषां खलु अष्टाविंशतेः नक्षात्राणां कतरत् नक्षत्रं यत् चतुरोऽहोरात्रान् षट् च मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्धं योगं युनक्ति । कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु षड् अहो - रात्राणि एकविंशति मुहूर्तान् सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति २ । कतराणि नक्षत्राणि यानि खल त्रयोदश अहोरात्रान् द्वादश च मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति ३ । कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु विंशतिम् अहोरात्रान् त्रीन् मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति ४ । तवत् तेषां खलु अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां तत्र यत्तत् नक्षत्रं यत् खलु चतुरोऽहोरात्रान् षट् च मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्धं योगं युनक्ति तत् खलु अभिजित् १। तत्र यानि तानि नक्षाणि यानि खलु षड् अहोरात्रान् पकविशति च मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्धं योगं युजन्ति तानि खलु षट् तद्यथा - शतभिषक् १, भरणी २, आर्द्रा ३, अश्लेषा ४, स्वातिः ५ ज्येष्ठा ६, तत्र यानि तानि नक्षत्राणि त्रयोदश अहोरागन् द्वादश च मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति तानि खलु पञ्चदश तयथा-श्रवणः १, धनिष्ठा २, पूर्वाभाद्रपदा३, रेवती ४, अश्विनी ५, कृत्तिका ६, मृगशिरः ७, पुष्यम् ८, मघा ९, पूर्वाफाल्गुनी, हस्तः ११, Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टोका प्रा०१०- २०१ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह सहयोग निरूपणम् २३५ चित्रा १२, अनुराधा १३, मूलम् १४, पूर्वाषाढा १५/३ | तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खल विंशतिम् अहोरात्रान् त्रीन् च मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति तानि खलु षट् तद्यथा— उत्तराभाद्रपदा १, रोहिणी २, पुनर्वसुः ३, उत्तराफाल्गुनी ४, विशाखा ५, उत्तराषाढा ६|४| |सू २ || || दशमस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ||१०-२ ॥ व्याख्या - भगवानाह - 'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'अट्ठावीस णक्खत्ताणं' अटाविंशतेर्नक्षत्राणाम् 'अस्थि' अस्ति भवति 'णक्खत्ते' नक्षत्रं 'जंणं' यत् खलु 'चत्तारि अहोरत्ते' चतुरोऽहोरात्रान् 'छच्च मुहुत्ते' षट् च मुहूर्तान् यावत् 'सूरिएण सद्धिं' सूर्येण सार्धं 'जोयं जोइ' योगं युनक्ति १, तथा - 'अस्थि' सन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'छ अहोरते' षड् अहोरात्रान् एकविंशतिं च मुहूर्त्तान् यावत् 'सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति' सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति २ | 'अस्थि' सन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु ‘तेरस अहोरते' त्रयोदश अहोरात्रान् 'बारस य मुहुत्ते' द्वादश च मुहूर्त्तान् 'सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति' सूर्येण साधे योगं युञ्जन्ति ३ | 'अस्थि' सन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु 'वीस अहोरते' विंशतिमहोरात्रान् 'तिष्णि य मुहुत्ते' त्रीन् च मुहूर्त्तान् 'सूरिएणं सद्धिं जोयं जोएंति' सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति ४ । एवं भगवता सामान्येन कथितान् सूर्यनक्षत्रयोगविषयकान् चतुरो विषयान् श्रुत्वा गौतमः पृच्छति - 'ता एएसि णं' इत्यादि, हे भगवन् 'ता' तावत् प्रथमं कथय 'एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' एतेषां खलु अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां मध्ये 'कयरं णक्खत्तं' कतरत् किं नामधेयं नक्षत्रम् 'जं णं' यत् खलु 'चत्तारि अहोरते' चतुरोऽहोरात्रान् 'छच्च मुहुत्ते' षट् च मुहूर्त्तान् यावत् 'सूरिएण सद्धिं जोयं जोएइ' सूर्येण सार्धं योगं युनक्ति १, 'कयरे णक्खत्ता' कतराणि किंनामधेयानि नक्षत्राणि 'छच्च अहोरते' षट् चाहोरात्रान् 'एकवीसं मुहुत्ते' एकविंशतिं मुहूर्त्तान् यावत् 'सूरिएण सदि जोयं जोएति' सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति २ | 'कयरे णक्खत्ता' कतराणि कानि नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'तेरस अहोरत्ते' त्रयोदश अहोरात्रान् 'बारस य मुहुत्ते ' द्वादश च मुहूर्त्तान् यावत् 'सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति' सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति ३। 'करे णक्खत्ता' कतराधि कानि नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'वीसं अहोरत्ते' विंशतिमहोरात्रान् 'तिणि य मुहु' त्रीन् च मुहूर्त्तान् यावत् 'सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति' सूर्येण साधं योगं युञ्जन्ति ४ । एवं गौतमेन पृष्टे सति भगवान् चतुरोऽपि प्रश्नान् एकैकशः स्पष्टीकरोति तत्र प्रथममाह'ता एएसि णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'तत्थ' तत्र तेषु नक्षत्रेषु 'जे से णक्खत्ते' यत्तत् नक्षत्रं 'चत्तारि अहोर ते ' Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे चतुरोऽहोरात्रान् 'छच्च मुहुत्ते'षट् च मुहूर्तान् यावत् 'मरिएण सद्धिं' सूर्येण साधै 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति ‘से ण' तत् खलु 'अभीई' अभिजिन्नक्षत्रमवगन्तव्यम् । कथमित्याह-इह च यन्नक्षत्रमेकस्याहोरात्रस्य सम्बन्धिनो यावतः सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण सह योगं करोति तन्नक्षत्रं सूर्येण सह अहोरात्रस्य तावतः पञ्चभागान् यावत् योगं करोति, उक्तश्च-'जं रिक्खं जाव. इए वच्चइ चंदेण भागसत्तट्ठी । तं पणभागे राइंदियस्स-सूरेण तावइए ।१। छाया-यत् ऋक्षं यावत्कान् व्रजति चन्द्रेण भागान् सप्तसष्टिम् । तत् पञ्च भागान् रात्रिन्दिवस्य तावत्कान् ॥१॥ इति । अत्रेदं बोध्यम्-यन्नक्षत्रमभिजिन्नामकं चन्द्रेण सह नवमुहूर्तान् सप्तविंशतिं च सप्तषष्टिभागान् यावत् योगं करोति तदत्र सूर्येण सह चतुरोऽहोरात्रान् षड् मुहूर्तान् यावत् योगं करोति १ । यानि च शतभिषगादीनि षड् नक्षत्राणि प्रत्येकं चन्द्रेण सह पञ्चदशमुहूर्तान् यावद् योगं कुर्वन्ति तान्यत्र प्रत्येकं सूर्येण सह षड् अहोरात्रान् एकविंशतिं च मुहूर्तान् यावत् योगं कुर्वन्ति २ । यानि च श्रवणादीनि पञ्चदश नक्षत्राणि प्रत्येकं त्रिंशद् मुहूर्तान् यावत् चन्द्रेण सह योगं कुर्वन्ति तान्यत्र सूर्येण सार्ध त्रयोदशाहोरात्रान् द्वादश च मुहूर्तान् यावत् योग कुर्वन्ति ३ । यानि उत्तराभाद्रपदादीनि षड् नक्षत्राणि प्रत्येकं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तान् यावत् चन्द्रेण सह योगं कुर्वन्ति तान्यत्र सूर्येण साध विंशतिमहोरात्रान् श्रीन् मुहूर्ताश्च यावत् योगं कुर्वन्ति ४ । कोष्ठकं यथाचन्द्रसूर्याभ्यां सह नक्षत्राणां योगकोष्ठकम् चन्द्रेण सह मुहूर्तानां नक्षत्रनामानि सूर्येण सहाहोरात्राणां योगः मुहूर्तानां च योगः अभिजित् १ | मु० ९-२७ अहो० ४ मु. ६ सप्तषष्टिः भागाः ६७ शतभिषक १, भरणी २, मार्दा ३, अश्लेषा ४, | स्वातिः ५, ज्येष्ठा ६ । प्रत्येकम् ६-२१ श्रवणः १, धनिष्ठा २, पू० भा० ३, रेवती ४, अश्विनी ५, कृतिका ६, मृगशिरः ७, पुण्यं ८, १३-१२ मधा ९, पू० फा० १०, हस्तः ११, चित्रा१२, अनुराधा १३, मूलम् १४, पू० फा०. १५, प्र० उ० भा० १, रोहिणी २, पुनर्वसुः ३, उ० २०-३ फा० ४, विशाखा ५, उ० षा० ६, प्र० Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-२ सू०१ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगनिरूपणम् २३७ अयमाशयः– यदभिजिन्नक्षत्रं चतुरः अहोरात्रान् षड् मुहूर्ताश्च यावत् सूर्येण सह योगं करोति तदेवम्-सामान्यतया एकस्मिन् युगे एक नक्षत्रं सप्तषष्टिवारान् चन्द्रेण सह योगं करोति, सूयण च सह पञ्चवारान् योगं करोतीति सिद्धान्तः । यदभिजिन्नक्षत्रं चन्द्रेण सह नवमुहूर्तान् सप्तविंशतिं च सप्तषष्टिभागान् यावत् योगं करोति, एनं राशिम् अभिजिन्नक्षत्रमेकस्मिन् युगे चन्द्रेण सह सप्तषष्टिवारान् यावद् योगं करोति, अतएव सप्तषष्ट्या गुणयेत्(९७४६७) ततो जायते त्रिंशदधिकानि षट् शतानि (६३०) तच्चैवम्- नवमुहूर्तानां सप्तषष्ट्या गुणने जातं त्र्यधिकं षट्शतम् (६०३) अस्मिन् राशौ सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते जातो यथोक्तो राशिः (६३०)। एकस्याहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्ताः भवन्त्यतः पूर्वोक्तो राशिः (६३०) त्रिंशता (३०) विभज्यते लब्धा एकविंशतिः (२१) सप्तषष्टि भागाः, एतदेव नक्षत्रमेकस्मिन् युगे पञ्च वारान् योगं करोति तत एकविंशतिः सप्तषष्टि भागा पञ्चभिर्विभज्यन्ते तत आगच्छन्ति चत्वारः ४, एकं च शेषं तदपि त्रिंशता गुणितं जातास्त्रिंशत् एतेऽपि पञ्चभिर्विभज्यन्ते लब्धा षट् ६ ततोऽभिजिन्नक्षत्रं चतुरः अहोरात्रान् षट् च मुहूत्तन् यावत् सूर्येण सह योगं करोतीति सिद्धम् १। उक्तञ्च "अभिई छच्च मुहुत्ते चत्तारि य केवले अहोरत्ते । सरेण समं वच्चइ, इत्तो सेसाण वुच्छामि" ॥१॥ छाया-अभिजित् षट् च मुहूर्तान् चतुरः केवलान् अहोरात्रान् । सूर्येण समं व्रजति, इतः शेषाणां वक्ष्यामि ॥१॥ इति ।१। अथ द्वितीयं प्रश्नं स्पष्टयति'तत्थ' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु 'छच्च अहोरत्ते' षट् च अहोरात्रान् 'एक्कवीसं च मुहत्ते' एकविंशति च मुहूर्तान् 'मुरिएण सद्धिं जोय जोएति' सूर्येण साधू योगं युञ्जन्ति 'तेणं छ' तानि खलु षट्, 'तं जहा' तयथा—'सयभिसया' शतभिषक् १, 'भरणी' भरणी २, 'अदा' आर्दा ३, 'अस्सेसा' अश्लेषा ४, 'साई' स्वातिः ५, 'जेहा' ज्येष्ठाः ६ इति । तत्कथमिति प्रदर्श्यतेएतानि षड् नक्षत्राणि प्रत्येकं चन्द्रेण सह पञ्चदशमुहूर्तान् योगं कुर्वन्ति, चन्द्रेण सह युगे सप्तषष्टिवारयोगकरणत्वेन पञ्चदश सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते जातं पञ्चोत्तरमेकं सहस्रम् (१००५), ततः अहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तत्वेनास्य त्रिंशता भागो हियते लब्धा अर्धेन सह त्रयस्त्रिंशत् (३३॥) सप्तषष्टिभागाः, ततो युगे सूर्येण सह पञ्चवारयोगकरणत्वेन एषा संख्या (३३॥) पञ्चभि Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ चन्द्रप्राप्ति विभज्यते तत्र त्रयस्त्रिंशतः पञ्चभिर्भागे हृते लब्धाः षट (६) अहोरात्राः । तदुपरि शेष साधं त्रयम् (३.५)तदपि त्रिंशता गुणयित्वा पञ्चभिर्विभज्यते लब्धा एकविशतिः (२१) इति, अतः षड् अहोरात्रान् ६ एकविशति च मुहूर्तान् यावत् षण्णां मध्ये प्रत्येकं नक्षत्राम् सूर्येण सह योगं करोतीति सिद्धम् । अत्रोक्तम् - "सयभिसया १ भरणी २ य अद्दा ३, अस्सेस ४ साइ ५ जिट्ठा ६ य । वच्चंति मुहुत्ते इक्कवीसं छच्चेवऽहोरत्ते" ॥१॥ छाया-शतभिषा १, भरणी २ च, आH ३, अश्लेषा ४, स्वातिः ५ ज्येष्ठा ६ च । ___ ब्रजन्ति मुहूर्तान् एकविशति षट् चैवाहोरात्रान् इति ।२। अथ तृतिय प्रश्नं स्पष्टयति- 'तत्थ' इत्यादि , 'तत्थ' 'तत्र अष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'तेरस अहोरत्ते' त्रयोदश अहोरात्रान् 'दुवालस य मुहूत्ते' द्वादश च मुहूर्तान् 'सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति' सूर्येण साधू योगं युञ्जन्ति 'ते णं' तानि खलु ‘पण्णरस' पञ्चदश सन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'सवणो' श्रवणः 'धणिहा' धनिष्ठा ।२, 'पुन्वाभदवया' पूर्वाभाद्रपदा ३, 'रेवई' 'रेवतिः ४ 'अस्सिणी' अश्विनी ५, 'कत्तिया' 'कृत्तिका ६, 'मग्गसिरं 'मार्गशिरः ७, 'पूसो 'पुण्यम् ८, 'मघा' मघा ९, 'पुवाफग्गुणी' पूर्वाफाल्गुनी १०, 'हत्थो' हस्तः ११, 'चित्ता' चित्रा १२, 'अणुराहा' अनु. राधा १३, 'मूलो' मूलम् १४, 'पुव्वाआसाढा' पूर्वाषाढा १५, इति, तथाहि-एतानि पश्चदश नक्षत्राणि प्रत्येकत्वेन चन्द्रेण सह त्रिंशन्मुहूर्तान् योगं कुर्वन्ति ततस्त्रिंशत् (३०) सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते जाते दशोत्तरे द्विसहस्र (२०१०) अस्य राशेस्त्रिंशता भागो हियते लब्धाः सप्तषष्टिः (६७) ततः सप्तषष्टयाः पञ्चभिर्भागो हियते लब्धास्त्रयोदश (१३) अहोगत्राः, शेष द्वयं (२) तदपि त्रिंशता गुण्यते जाता षष्टिः (६०) पञ्चभिर्भागे हृते लब्धाः द्वादश (१२) अतःत्रयोदशाहोरात्रान् द्वादशमुहूर्ताश्च यावत् सूर्येण सह योगो भवतीति सिद्धम् । उक्तंचात्र"अवसेसा नक्खत्ता पण्णरस वि सूरसहगया जंति बारस चेव मुहुत्ते' तेरस य स मे अहोरत्ते छाया-अवशेषाणि नक्षत्राणि पञ्चदशापि सूर सहगता यान्ति द्वादश चैव मुहूर्तान् । त्रयोदश च समान् अहोरात्रान् इति अत्र 'अवसेसा' इति पदेन ज्ञायते यदियं गाथा तत्रत्य प्रकरणेऽन्तिमा भवतुमर्हतीति विवेकः ।। ___ अथ चतुर्थ प्रश्नं स्पष्टयति- 'तत्थ 'इत्यादि, 'तत्थ' तत्र अष्टाविंशति नक्षत्राणां मध्ये 'जे ते एक्णत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'विस अहोरत्ते' विंशतिमहोरात्रान् 'तिण्णि य मुहूत्ते' त्रीश्च मुहूर्तान् 'मूरि Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१०-२ सू० १ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगनिरूपणम् २३९ एणं सद्धिं जोय जोएंति 'सूर्येण साध योग युञ्जन्ति 'तेणं छ' तानि खलु षटू सन्ति, 'तंजहा 'तद्यथा- 'उत्तरा भद्दवया 'उत्तराभाद्रपदा १, 'रोहिणी' रोहिणी २, 'पुणव्वर' पुनर्वसुः ३, 'उत्तराफग्गुणी' 'उत्तसफाल्गुनी ४, 'विसाहा 'विशाखा ५, उत्तरासाढा उत्तराषाढा ६, इति । तदेवं जायते-- एतानि नक्षत्राणि प्रत्येकत्वेन चन्द्रेण सह पञ्चचत्वारिंशत् (४५) मुहर्तान यावत् योगं कुर्वन्ति ततः पञ्चचत्वारिंशत् सप्तषष्टया गुण्यन्ते जातानि पञ्चदशोत्तराणि त्रीणि सहस्राणि (३०१५) एतेषां त्रिंशता भागो हियते लब्धमधेन सहितं शतमेकम् ( १००१) अत्र शतस्य पञ्चभिर्भागे हृते लब्धाः विंशतिरहोरात्राः २०, उपरि यदधै, तदपि त्रिंशता गुण्यते जाताः पञ्चदश १५, एषां पञ्चभिर्भागे हृते लब्धं त्रयम् ३, इति विंशतिमहोरात्रान् त्रींश्च मुहूर्त्तान् यावत् सूर्येण सह योगो भवतीति सिद्धम् । विशेषबोधार्थ पूर्वस्थं कोष्ठकं द्रष्टव्यमिति सू०॥२॥ इति-श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रतिशुद्धगधगद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक- श्रीशाहुच्छत्रापति कोल्हापुररानप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीधासीलालवति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायाम् दशमप्राभृतेः द्वितीयं प्राभृतं समाप्तम् ॥१०-२॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमस्य मूलप्राभृतस्य तृतीयं प्राभृतप्राभृतम् । व्याख्यतं दशमस्य मूलप्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतम् , तत्र चन्द्रसूर्याभ्यां सह नक्षत्राणां योगः प्रतिपादितः अथ तृतीयं प्राभृतप्राभृतं व्याख्यायते, अत्र नक्षत्रयोगप्रसंगात्- 'कथमेवं भागानि नक्षत्राणि आख्यातानि,, इत्येवं व्याख्यास्यते, अनेन सम्बन्धे. नायातस्यास्य तृतीयप्राभृतप्राभृतस्येदं सूत्रम् –'ता कहं ते एवं भागा' इत्यादि । मूलमः-ता कहं ते एवं भागा णक्खत्ता आहिया ? तिवएज्जा, ता एएसिणं अहावीसाए णक्खत्ताणं अत्थि णक्खत्ता पुव्वंभागा समखेत्ता तीसमुहुत्ता पण्णत्ता १। अस्थि णक्खत्ता पच्छंभागा समखेत्ता तीसमुहुत्ता पण्णत्ता २॥ अस्थि णक्खत्ता णतंभागा अवड्ढखेत्ता पण्णरसमुहुँत्ता ३। अस्थि णक्खत्ता उभयंभागा दिव. ड्ढखेत्ता पणयालीसं मुहुत्ता पण्णत्ता ४। ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णकखत्ता जेणं पुन्वंभागा समखेत्ता तीसंमुहुत्ता पण्णत्ता १॥ कयरे णक्खत्ता जे णं पच्छंभागा समखेत्ता तीसं मुहुत्ता पण्णत्ता २ । कयरे णक्खत्ता जे णं गत्तं भागा अवडूहखेत्ता पण्णरसमुहुत्ता पण्णत्ता ३॥ कयरे णक्खत्ता जे णं उभयंभागा दिवड्ढखेत्ता पणयालीसंमुहुत्ता पण्णत्ता ४। ता एएसिणं अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता पुव्वंभागा समखेत्ता तीसं मुहुत्ता पण्णत्ता ते णं छ,तं जहा पुव्वभवया १, कत्तिया २, महा ३, पुव्वाफग्गणी ४, मूलो ५, पुव्वासाढा ६१। तत्थ जे ते णक्खत्ता पच्छंभागा समखेत्ता तीसं मुहुत्ता पण्णता, ते णं दस तं जहा-अभिई १, सवणो २, धणिट्ठा ३, रेवई ४, अस्सिणी, मिगसिरं ६, पूसो ७, हत्थो ८, चित्ता ९, अणुराहा १०१२। तत्थ जे ते णक्खत्ता णत्तं भागा अवड्ढखेत्ता पण्णरसमुहुत्ता पण्णता ते णं छ, तं जहासर्याभसया १, भरणी २, अद्दा ३, अस्सेसा ४, साई ५, जेहा ६,३। तत्थ जे ते णक्खत्ता उभयं भागा दिवढखेत्ता पणयालीसं मुहुत्ता पण्णत्ता ते णं छ, तं जहाउत्तराभवया १, रोहणी२' पुणव्वसू ३, उत्तराफरगुणी ४ विसाहा ५, उत्तरासाढा ६४॥०१॥ दसमस्स पाहुडस्स तइयं पाहुडं समत्तं ॥१०॥३ छाया तावत् कथं ते एवं भागानि नक्षत्राणि आख्यातानि ? इति वदेत् । तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशते नक्षत्राणां सन्ति नक्षत्राणि पूर्वभागानि समक्षेत्राणि त्रिशन्मुहूर्तानि प्राप्तानि १। सन्ति नक्षत्राणि पश्चाद्भागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्तानि प्रक्षतानि । सन्ति नक्षत्राणि नक्तभागानि अपार्धक्षेत्राणि पश्चदश मुहूर्तानि प्रक्षतानि ३॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१०-३ सू० १ एवंभागनक्षत्रस्वरूपनिरूपणम् २४१ सन्ति नक्षत्राणि उभयभागानि द्वयर्धक्षेत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि प्रज्ञप्तानि । __ तावत् पतेषां खलु अष्टाविंशतः नक्षत्राणां कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु पूर्वभागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्त्तानि प्रज्ञप्तानि १। कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु पश्चाद्भागानि समक्षेत्राणि त्रिशन्मुहूर्त्तानि प्राप्तानि २ कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु नक्तंभागानि अपाधक्षेत्राणि पञ्चदशमुहूर्त्तानि प्रज्ञप्तानि ३। कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु उभयभागानि द्वयर्धक्षेत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानि प्राप्तानि ४।। तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशते नक्षत्राणां तत्र यानि तानि नक्षत्राणि पूर्वभागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्त्तानि प्रज्ञप्तानि तानि खलु षट्, तद्यथा-पूर्वाभाद्रपदा १, कृत्तिका २, मघा ३, पूर्वाफाल्गुनी ४, मूलम् ५, पूर्वाषाढा ६, ॥१॥ तत्र यानि तानि नक्षत्रणि पश्चाद्भागानि समक्षोणि त्रिंशन मुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि तानि खलु दश, तद्यथा-अभिजित् ।। श्रवणः २, धनिष्ठा ३, रेवती ४, अश्विनी ५, मृगशिरः ६, पुष्यम् ७, हस्तः ८, चित्रा ९, अनुराधा १० ।२। तत्र यानि तानि नक्षत्राणि नक्तंभागानि अपार्धक्षेत्राणि पञ्चदशमुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि तानि खलु षट्, तद्यथा-शतभिषक् १, भरणी २, आर्द्रा ३, अश्लेषा ४, स्वातिः ५, ज्येष्ठा ६, ३॥ तत्र यानि तानि नक्षत्राणि उभयभागानि द्वयर्धक्षेत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि प्रक्षप्तानि तानि खलु षट्, तद्यथा-उत्तराभाद्रपदा १, रोहिणी २, पुनर्वसुः ३, उत्तराफाल्गुनी ४, विशाखा ५, उत्तराषाढा ६, ४॥ सू० १॥ ___॥ दशमस्य प्राभृतस्य तृतीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥ व्याख्या-ता कहं ते' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण हे भगवन् 'ते त्वया' एवं भागानि एवम्-अनेन वक्ष्यमाणप्रकारेण भागा येषां तानि एवंभागानि वक्ष्यमाण प्रकारभागसंपन्नानि 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'आहिया' आख्यातानि 'त्ति' इति-एतद्विषयं 'वएज्जा' वदेत् वदतु कथयतु ममेति गौतमस्य प्रश्नः । भगवानाह-'ता' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘एएसि गं' एतेषां खलु 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'अत्थि' सन्ति कियन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'पुव्वंभागा' पूर्वभागानि पूर्व दिवपस्य भागः पूर्वभागः प्रातः कालरूपः स चन्द्रयोगस्यादिमाश्रित्य विद्यते येषां तानि पूर्वभागानि, चन्द्रेण सह नक्षत्रयोगस्य यः प्रातःकाल आदिभागः स एव दिवसस्य पूर्वभागो ब्यपदिश्यते, एतादृशपूर्वभागानीत्यर्थः 'समखेत्ता' समक्षेत्राणि, समं सम्पूर्ण क्षेत्रम् - अहोरात्ररूपं चन्द्रयोगमाश्रित्यास्ति येषां तानि समक्षेत्राणि प्रातः कालादारभ्य सम्पूर्णाहोरात्रभोग्यानि अतएव 'तीसंमुहुत्ता' त्रिंशन्मुहूर्तानि त्रिंशन्मुहूर्त्तप्रमाणानि Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि १ । तथा - 'अस्थि' सन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि कानिचित् यानि 'पच्छं 'भागा' पश्चाद्भागानि चन्द्र योगस्यादिमाश्रित्य दिवसस्य सायंकालादारभ्य द्वितीयदिवससायंकालपर्यन्तभोग्यानि तानि पश्चाद्भागभोग्यानि कथ्यन्ते 'समखेत्ता' समक्षेत्राणि रात्रिन्दिवभो - ग्यानि 'तीसं मुहुत्ता' त्रिंशन्मुहूर्त्तानि चन्द्रयोगस्यादिमाश्रित्य दिवसस्य पश्चाद्भागात्सायं कालादारभ्य द्वितीयदिवससायंकालपर्यन्तं त्रिशन्मुहूर्त्तभोग्यानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि २ । तथा'अस्थि' सन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि कानिचित् यानि 'नत्तंभागा' नक्तं भागानि, नक्तं- रात्रौ चन्द्रयोगस्यादिमाश्रित्य भागः अवकाशो येषां तानि तथा, 'अवड्ढखेत्ता' अपार्धक्षेत्राणि अपगतमर्धे यस्य तदपार्धम् - अर्द्ध मात्रं क्षेत्रं येषां चन्द्रयोगमाश्रित्य तानि - अपार्धक्षेत्राणि रात्रिमात्रक्षेत्राणि, अतएव 'पण्णरसमुहुत्ता' पश्ञ्चदशमुहूर्त्तानि चन्द्रयोगमाश्रित्य पञ्चदशमुहूर्त्ता विद्यन्ते येषां तानि पञ्चदशमुहूर्त्तानि पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि ३ | तथा 'अस्थि' सन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि कानिचित् यानि 'उभयंभागा' उभयभागानि दिवसरात्रिभागानि चन्द्रयोगस्यादिमाश्रित्य भागो येषां तानि तथा एतानि कियत्प्रमितक्षेत्राणि सन्ति ? तत्राह - ' - 'दिवड्ढखेत्ता' द्वयर्षक्षेत्राणि द्वितीयम् अर्धं यत्र तद् द्वय सार्धमहोरात्रप्रमितं क्षेत्रं येषां तानि - प्रथमतया प्रातः कालादारभ्य संपूर्णमेकमहोरात्रं त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं पुनश्चार्द्धाऽहोरात्रः, द्वितीयदिवस मात्ररूपः पश्चदशमुहूर्त्तात्मकः न तु रात्रिभागः एतद्रूपं द्वयर्धमिति सार्धमहोरात्ररूपं क्षेत्रं येषां तानि द्वयर्धक्षेत्राणि, अतएव 'पणयालीस मुहुत्ता' पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि ४ । एवं भगवता सामान्येन प्रोक्ते विशेषजिज्ञासया भगवान् गौतमः पृच्छति 'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं' एतेषां खलु अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'कयरे णक्खत्ता' कताराणि कानि नक्षत्राणि 'पुब्वंभागा' पूर्वभागानि प्रातः कालव्यापीनि 'समखेत्ता' समक्षेत्राणि समस्ताहोरात्रभोग्यानि, 'तीसंमुहुत्ता' त्रिंशन्मुहूर्त्तानि पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि १ । तथा - 'कयरे णक्खत्ता' कतराणि कानि नक्षत्राणि 'पच्छंभागा' पश्चाद्भागानि सायंकालव्यापीनि 'समखेत्ता' समक्षेत्राणि 'तीसंमुहुत्ता' त्रिंशन्मुहूर्त्तानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञतानि १२ । तथा - ' कयरे णक्खत्ता' कतराणि कानि नक्षत्राणि 'णत्तं भागा' नक्तंभागानि - रात्रिभागानि - रात्रिमात्रभोग्यानि 'अवड्ढखेत्ता' अपार्धक्षेत्राणि—अर्धक्षेत्रभोग्यानि 'पण्णरसमुहुत्ता' पञ्चदशमुहूर्त्तानि रात्रिमात्र व्याप्तत्वात् पञ्च दशमुहूर्त्तमात्रयोगकारकाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि १३ । २४२ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-३ सू० १ एवंभागनक्षत्रस्वरूपनिरूपणम् २४३ तथा-'कयरे णक्खता' कतराणि कानि नक्षत्राणि 'उभयं भागा' उभयभागानि दिवसरात्रिभागव्यापीनि 'दिवड्ढखेला' द्वयर्धक्षेत्राणि सार्धाहोरात्रयोगकारीणि एकः सम्पूर्णोऽहोरात्रः, द्वितीयाहोरात्रस्यादिवसमात्ररूपम् , इत्येवं द्वयर्धक्षेत्राणि, अतएव 'पणयालीसं मुहुत्ता' पञ्च चत्वारिंशन्मुहर्त्तानि ‘पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि १४ । एवं गौतमेन प्रश्नचतुष्टये पृष्टे सति भगवान् चतुरोऽपि प्रश्नान् एकैकशः कृत्या समाधत्ते-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' एतेषां खलु अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां 'तत्थ' तत्र मध्ये 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'पुव्वंभागा' पूर्वभागानि प्रातःकालव्यापीनि 'समखेत्ता' समक्षेत्राणि संपूर्णक्षेत्रचारीणि अतएव 'तीसं मुहुत्ता' त्रिंशन्मुहूर्त्तानि त्रिंशन्मुहूर्तभोग्यानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'ते णं' तानि खलु 'छ' षट्, 'तं जहा' तद्यथा-'पुव्वपोहवया' पूर्वप्रोष्ठपदा १, 'कत्तिया कृत्तिका २, 'मघा' मधा ३, 'पुच्चाफग्गुणी' पूर्वाफाल्गुनी ४, 'मूलो' मूलम् ५, 'पुव्वासाढा' पूर्वाषाढा इति ६ । तथा —'तत्थ' तत्र अष्टाविंशतिनक्षत्रेषु 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'पच्छंभागा' पश्चाद्भागानि सायंकालव्यापीनि 'समखेत्ता' समक्षेत्राणि अतएव 'तीसंमुहुत्ता' त्रिंशन्मुहूर्त्तानि त्रिशन्मुहूर्तभोग्यानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'ते णं दस' तानि खलु दश, 'तं जहा' तयधा- 'अभीई' अभिजित् १, 'सवणो' शवणः २, 'धणिट्टा' धनिष्ठा ३, 'रेवई' रेवती ४, 'अस्सिणी' अश्विनी ५, 'मिगसिरं' मृगशिरः ६, 'पूसा' पुष्यम् ७, 'हस्तो' हस्तः ८, 'चित्ता' चित्राः ९, 'अणुराहा' अनुराधा १०, । अत्र दशसु नक्षत्रेषु श्रवणादीनि नवनक्षत्राणि समक्षेत्राणि सन्ति, एकमभिजिन्नक्षत्रं समक्षेत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तास्मकस्य सप्तषष्टिभागाः क्रियन्ते तेषु-एकविंशतिभाग (२१/६७) क्षेत्रभोग्यमस्ति तथापि अस्याभिजितः समक्षेत्रे एव गणना कृता व्यवहारनयमाश्रित्येति विवेकः । इति २ । तथा-'तत्थ' तत्र अष्टाविंशतिनक्षत्रेषु 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि, णतं. भागा' नक्तंभागानि रात्रिमात्रच्या नि, अतएव 'अवइढखेत्ता' अपार्ध क्षेत्राणि अर्धक्षेत्रस्थायोनि रात्रिमात्रस्थायित्वात् अत एव च पण्णरसमुहत्ता' पञ्चदशमुहूर्ताग्न पञ्चदशमुहूर्तभोग्यानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि तेणं छ' तानि स्खलु षट्, 'तं जहा' तद्यथा--'सयभिसया' शतभिषकू १, ‘भरणी' भरणी , 'अदा' आर्द्रा ३, 'अस्सेसा' अश्लेषा ४, 'साई' स्वातिः ५, 'जेहा' ज्येष्ठा ६, इति ३ ।। 'तत्थ' तत्र अष्टाविंशात क्षत्रेषु जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'उभयंभागा' उभयभागानि दिवसरात्रिरूपभागद्वयव्यापीनि 'दिवढखेत्ता' द्वयर्धक्षेत्राणि सार्धाहोरात्रस्थायीनि प्रथमदिवसस्य प्रातःकाले चन्द्रेण सह योगमुपेत्य सम्पूर्णमहोरात्रं त्रिंशन्मुहूत्तत्मिकं भुक्त्वा पुनस्तदुपरि द्वितीयदिवसस्य सायंकाल पर्यन्तं पञ्चदशमुहूर्ताश्च यावत्तिष्ठन्ति, इत्येवं रूपं द्वयधक्षेत्राणि Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या चन्द्रप्रमसिस्ने सन्ति, अतएव 'पणयालीसं मुहुत्ता' पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तभोग्यानि 'पण्णसा' प्रज्ञप्तानि 'ते णं छ' तानि खलु ष, 'तं जहा' तयथा - 'उत्तराभनया' उत्तरा भाद्रपदा १, रोहणी' रोहिणी २, 'पुणव्यम्' पुनर्वसुः ३, 'उत्तरा फग्गुणी' उत्तराफाल्गुनी ४, 'विसाहा' विशाचा ५, 'उत्तरासाढा' उत्तराषाढा ६ इति ४, एषां सर्वेषां नक्षत्राणामभिजि. दादि क्रमेण स्पष्टीकरण भावना सूत्रकारः स्वयमग्रे चतुर्थ प्राभृतप्राभृते करिष्यते इति सू०।१।। ___ अष्टाविंशतिनक्षत्राणां पूर्वभागादि ज्ञानार्थ कोष्टकम् नक्षत्रनामानि । किंभागानि कियत्क्षेत्राणि कियन्मुहूर्तानि पूर्वाभाद्रपदा १ कृत्तिका २, मधा३ पूर्वाफाल्गुनी ४, मूलम् ५ पूर्वभागानि समक्षेत्राणि ३० त्रिंशन्मु. पूर्वाषाढा ६, | हूर्तानि अभिजित् १, श्रवणः २ धनिष्ठा ३, रेवती ४, आश्विनो ५, मृगशिरः ६ ३० त्रिंश पुण्यम् ७, हस्त. ८, चित्रो ९. | पश्चाद्भागानि | समक्षेत्राणि | महानि __ अनुराधा १०, शतभिषक् १, भरणी २, आर्द्रा ३. अश्लेषा ४, स्वातिः ५, जेष्ठा ६, नक्तं भागानि अपार्ध | १५ पञ्च क्षेत्राणि दशमुहूर्तानि उत्तराभाद्रपदा १, रोहिणी, पुनर्वसुः३, | ४५ पञ्च उत्तराफाल्गुनी ४, विशाखा ५, उभय । १ द्वयर्ध | चत्वारिंशन्म उत्तराषाढा ६। भागानि १२ हूर्तानि क्षेत्राणि इति श्री-विश्वविख्यात- जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुन्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित -कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालबति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायाम् दशमस्य प्राभृतस्य तृतीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् १०-३॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमस्य मूलपाभृतस्य चतुर्थ प्राभतप्राभृतम् तदेवं तृतोये प्राभृतप्राभृते चन्द्रेण सह नक्षत्राणां पूर्वभागादि निरूपितम् तत्प्रसङ्गात् चतुर्थं प्राभृतप्राभृतं व्याख्यायते, अत्र पूर्वोक्तानां चन्द्रेण सह योगस्यादिर्वक्तव्यः स्यात् यतो नक्षत्राणां पूर्व भागादिकं योगस्यादिज्ञानमन्तरेण न ज्ञातुं शक्यते, अतोऽस्मिन् चतुर्थे प्राभृतप्राभृते अभिजिदाद्यष्टाविंशतिनक्षत्राणां क्रमेण योगस्यादि निरूपयन्नाह-- 'ता कहं ते जोगस्स आदी' इत्यादि। मूलम्-ता कहं ते जोगस्स आदी अहिते? ति वएज्जा ता अभीइ सवणा खलु दुवे णक्खत्ता पच्छाभागा समखेत्ता साइरेगउणयालीसमुहुत्ता तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, तओ पच्छा अवरं साइरेगं दिवसं, एवं खलु अभिइसवणा दुवे णक्खत्ता एगराई एगंच साइरेगं दिवसं चंदेण सद्धि जोयं जोएति, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियटुंति जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं धणिहाणं समप्पंति ।२। ता धणिट्ठा खलु णक्खत्ते पच्छा भागे समखत्ते तीसंमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता तओ पच्छा राई अवरंच दिवसं, एवं खलु धणिहा णक्खत्ते एगं च राई एगं च दिवसं चंदेणं सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोय अणुपरियट्टइ, अणुपरियट्टित्ता सायं चंद सयभिसयाणं समप्पेइ ३। ता सयभिसया खलु णक्खत्ते णत्तंभागे अबढखेत्ते पण्णरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ णो कभइ अबरं दिवसं, एवं खलु सयभिसया णक्खत्ते एग राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियइ, जोयं अणुपरिएट्टित्ता पाओ चंदं पुव्वापोट्टवयाणं समप्पेइ ४। ता पुव्वापोहवया खलु णक्खत्ते पुव्वंभागे समखेते तीसं मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण संद्धिं जोयं जोएइ, तो पच्छा अवरराई' एवं खलु पुव्वापोटवया णक्खत्ते एगं च दिवसं एग च राइं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टई' अणुपरियद्वित्ता पाओ चंद उत्तरापोढवयाणं समप्पेइ ५, ता उत्तरापोट्टवया खलु णक्खत्ते उभयं भागे दिवड्ढखेत्ते पणयालीसमुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ अवरंच राई तओ पच्छा अपरं दिवसं, एवं खलु उत्तरापोहवया णक्खत्ते दो दिवसे एग च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं रेवईणं समप्पेई ६। ता रेवई खलु णक्खत्त पच्छे भागे समखेत्ते तीसं मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, तो पच्छा अवरं दिवसं एवं खलु रेवई णक्खत्ते Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे एगं राइं एगं च दिवस चदेण सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अस्सिणीणं समप्पेइ ७ । ता अस्सिणी खलु णक्खत्ते पच्छं भागे समखेत्ते तीसं मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जो यं जोएइ, तओ पच्छा अवरं दिवसं एवं खलु अस्सिणी णक्खत्ते एगं च राइं- एगं च दिवसं चंदेण सद्धि जोय जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, अणुपरिट्टित्ता सायं चंदं भरणीणं समप्पेइ ८ । ता भरणी खलु णक्खत्ते णत्तं भागे अवड्खे त्ते पण्णरसमुहुत्ते तप्पढ. मयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, णो लभइ अवरं दिवसं, एवं खलु भरणी णक्खत्ते एगं राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियदृइ अणुपरियहित्ता पाओ चंदं कत्तियाणं समप्पेइ ९। ता कत्तिया खलु णक्खत्ते पुव्वंभागे समखेत्ते तीसं मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ तो पच्छा राई एवं खलु कत्तिया णक्खत्ते एगं च दिवस एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियदृइ, अणुपरियहित्ता पाओ चंदं रोहिणीण समप्पेइ १० । रोहिणी जहा उत्तराभदवया ११ । मगसिरं जहा धणिट्ठा ।१२। अद्दा जहा सयभिसया १३, पुणव्वसू. जहा उत्तराभवया १४ । पुस्सो जहा धणिट्ठा १५ । अस्सेसा जहा सयभिसया १६ । महा जहा पुन्याफरगुणी १७ । पुव्वाफग्गुणी जहा पुव्वाभवया १८। उत्तराफग्गुणी जहा उत्तराभदवया १९। हत्थो चित्ता य जहा धणिट्ठा २०-२१॥ साई जहा सयभिसया २२। विसाहा जहा उत्तराभवया २३। अणुराहा जहा धणिट्ठा १४ जिट्ठा जहा सयभिसया २५। मूलं २६, पुव्वासाढा य जहा पुव्वाभदवया २७। उत्तरासाढा जहा उत्तराभवया २८, ॥सू० १०॥ दसमस्स पाहुडस्स चउत्थं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०-४॥ छाया तावत् कथं त्वया योगस्य आदिः आख्यातः ? इति वदेत्, तावत् अभि. जिच्छवणी खलु वे नक्षत्रे पश्चाद्भागे समक्षेत्रे सातिरेकैकोनचत्वारिंशन्मुहूर्ते तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण लाधं योगं युङ्क्तः, ततः पश्चाद् अपरं सातिरेक दिवसम्, एवं खलु अभिजि. च्वछणौ द्वे नक्षत्रे एकरात्रिम्, पकं च सातिरेक दिवसं चन्द्रेण सह योग युङ्क्तः, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयतः योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्र धनिष्ठायै समर्पयतः ।। तावत् धनिष्ठा खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूत तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण सार्ध. योगयुनक्ति, योगं युक्त्वा ततः पश्चात् रात्रिम् अपरं च दिवसम्, एवं खलु धनिष्ठा नक्षत्रम् एकां च रात्रिम् एकं च दिवसं चन्द्रेण साध योग युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रं शतभिषजे समर्पयति ३ तावत् शतभिषक खलु नक्षत्र नक्त भागम् अपार्धक्षेत्र पञ्चदशमुहूर्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साध योगं Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०१०-४ सू०१ योगस्यादिनिरूपणम् २४७ युनक्ति, नो लभते अपरं दिवसम्, एवं खलु शतभिषग् नक्षत्र एकां रात्रि चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रं पूर्वाप्रोष्ठपदायै समर्पयति ।४। तावत् पूर्वाप्रोष्ठपदा खलु नक्षत्र पूर्वभागं समक्षेत्र त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, ततः पश्चात् अपररात्रिम्, एवं खलु पूर्वाप्रोष्ठपदानक्षत्रम् एकं च दिवसम् एकां च रात्रि चन्द्रेण सार्ध योगं युक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रम् उत्तराप्रोष्ठपदायै समर्पयति ५। तावत् उत्तरा प्रोष्ठपदा खलु नक्षत्रम् उभयभाग द्वयर्धक्षेत्र पञ्चचत्वारिंशन्मुहूत तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण सार्धं योग युक्ति-अपरां च रात्रि, ततः पश्चात् अपरं दिवसम्, एवं खलु उत्त. गपोष्ठपदा नक्षत्रद्वौ दिवसौ एकां च रात्रिं चन्द्रण साधं योगं युक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, अनुपरिर्त्य सायं चन्दं रेवत्यै समपर्यात ६ तावत् रेवतो खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं समक्षेत्रं त्रिशन्महूर्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रण साधू योगं युनक्ति, ततः पश्चात् अपरं दिवस एवं खलु रेवतीनक्षत्रम् ए रात्रिम् पकं चदिवसं चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रम् अश्विन्यै समर्पयति ।। तावत् अश्विनी खलु नक्षत्रं पश्चाद्भारां समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, लतः पश्चात् अपरं दिवसम् एवं खलु अश्विनी नक्षत्रम् एकां च गत्रिम् एकं च दिवसं चन्द्रण साधं योगं युनक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्र भरण्यै समर्पयति ।। तावत् भरणी खलु नक्षत्र नक्तंभागम् अपार्धक्षेत्र पञ्चदशमुहत्तं तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति, नो लभते अपरं दिवसम्, एवं खलु भरणी नक्षत्रम् एकां रात्रि चन्द्रण साधं योगं युक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रं कृत्तिकायै समर्पयति ।। तावत् कृत्तिका खलु नक्षत्रं पूर्वभागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूत्तं तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रण सार्ध योगं युनक्ति ततः पश्चात् त्रिम्, एवं खलु कृत्तिकानक्षत्रम् एकं च दिवसम्, एकांच रात्रिं चन्द्रेण साधं योगं थुनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्र रोहिण्यै समर्पयति ।१०। रोहिणी यथा उत्तराभाद्रपदा ११। मृगशिरः यथा धनिष्ठा ।१२। आर्द्रा यथा शतभिषक् ।।३। पुनर्वसुः यथा-उत्तराभाद्रपदा ।१४। पुष्यं यथा धनिष्ठा ।१५। अश्लेषा यथा शतभिषक् ।१६। मघा यथा पूर्वाफाल्गुनी ।१७ पूर्वाफाल्गुनी यथा पूर्वाभाद्रपदा ।१८. उत्तराफाल्गुनी यथा-उत्तराभाद्रपदा ।१९ हस्तः चित्रा च यथा धनिष्ठा ।२०-२१॥ स्वातिः यथा शतभिषक् ।२२। विशाखा यथा- उत्तराभाद्रपदा ।२३॥ अनुराधा यथो धनिष्ठा २४। ज्येष्ठा यथा शभिषक् ।२५ मूलं पूर्वाषाढा च यथा पूर्वा भाद्रपदा ।२६-२७। उत्तराषाढा यथा उत्तराभाद्रपदा .८ । सू. १। । । इति दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्थं प्राभृत प्राभृतं समाप्तम् १०-४॥ व्याख्या- 'ता कहं ते' इति । 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'जोगस्स' योगस्य चन्द्रनक्षत्रयोगस्य 'आई' आदिः योगस्य प्रथमसमयरूपः 'आहिए' आख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् । अत्र निश्चयनयमतेन चन्द्रयोगस्यादिः सर्वेषां नक्षत्राणां न प्रतिनियतकालप्रमाणोऽस्ति, किन्तु अप्रतिनियतकालप्रमाणो वर्त्तते ततः स करणवशादव Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwvvvvvvvvvvv ૨૪૮ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे गन्तव्यम् तच्च करणम्--अन्यग्रन्थेभ्योऽवसेयम् । अत्रतु व्यवहारनयाश्रयणेन बाहुल्यतो यस्य नक्षत्रस्य यदा चन्द्रयोगस्यादिर्भवेत् तं प्रतिपादयितुमाह-'अभीई' इत्यादि 'ता' तावत् 'अभिइसवणा' अभिजिच्छ्वणो खल 'दुवे णक्खत्ता द्वे नक्षत्रे 'पच्छभागा' पश्चाद्भागे दिवसस्य पश्चाद्भागव्यापके 'समखेत्ता' समक्षेत्रे समस्तक्षेत्रभोग्ये अत्रायं विवेकः इदम भिजिन्नक्षत्रं समक्षेत्रम् अपार्यक्षेत्र द्वयर्धक्षेत्रं वा न किमप्यस्ति, किन्तु तत् श्रवण नक्षत्रेण सह संबद्धं गृहीतमित्यभेदोपचारेण समक्षेत्रं परिकल्प्य समक्षेत्रत्वेनोपात्तमिति । इमे द्वे नक्षत्रे 'साइरेग उणयालीसमुहुत्ते' सातिरेकैकोनचत्वा रिंशन्मुहूर्ते 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतयेति प्रथममेव 'सायं' सायं संध्याकाले, अत्र 'सायं' इति दिवसस्य कतितमाच्चरमभागादारभ्य यावद्रात्रेः कतितमो भागो भवेत् अर्थात् यावत्कालं नक्षत्रमण्डलालोकः परिस्फुटो न भवेत् तावत्परिमितः कालविशेषः 'साय' इति विवक्ष्यते तस्मिन् सायंकाले 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण साधं योगं युङ्कः । तत्र अभिजिन्नक्षत्रस्य च नव मुहूर्ताः तथा चतुर्विशतिरेकषष्टिभागाः, एकोनचत्वारिंशच्च सप्तषष्टिभागाः सन्ति, श्रवणस्य त्रिंशन्मुहर्ताः इत्युभयोमीटने द्वयोर्नक्षत्रयोः सातिरेका एकोनचत्वारिंशन्मुहूर्ता भवन्तीत्यत उक्तम् 'साइरेगउणयालीसमुहुत्ता' इति । यद्यपि अभिजिन्नक्षत्रयोगे प्रातः काले युगस्यादि भवति तथापि एकविंशनि सप्तषष्टिभागान् यावत् श्रवणनक्षत्रेण सह समक्षेत्रं भवति तत एवास्यापि पश्चाद्भागत्वेन विवक्षा कृता । श्रवणनक्षत्रं च मध्याह्लादूर्ध्वमपसरति दिवसे चन्द्रेण सह योगं करोति ततः श्रवणनक्षत्रसाहचर्यादभिजिन्नक्षत्रस्यापि सायंकाले चन्द्रेण सह योगं युनतीति विवक्षामवल म्ब्य सामान्यतः 'सायं चंदेण सद्धिं जोय जोएंति' इति कथितम् । अथवा युगस्यादिमति. रिच्याऽन्यदा बाहुल्यमाश्रित्येदं कथितमिति नात्र कश्चिद्दोषो विभावनीयः । एवमुक्तनक्षत्रद्वयं 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् रात्र्यनन्तम् 'अवरं साइरेगं दिवसं' अपरं सातिरेकचतुविंशत्येक षष्ठिभागैकोनचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागरूपाधिक्यसहितम् अपरं द्वितीय दिवसं यावत् चन्द्रेण सह योगं युङ्कः । उपसंहारमोह - ‘एवं खलु' इत्यादि ‘एवं' एवम् अनेन प्रकारेण खलु-निश्चयेन 'अभिइसवणा' अभिजिच्छ्रवणौ 'दुवे णक्खत्ता' द्वे नक्षत्रे सायं समयादारभ्य 'एगराइं' एक रात्रिम् 'एगं च साइरेगं दिवसं' एकं च सातिरेकं किञ्चदधिकचतुर्विशत्येकषष्टिभागैकोनचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाधिकं चंदेण सद्धिं जोगं जोएंति' चन्द्रेण साधू योगं युक्तः योग कुरुतः 'जोयं जोएत्ता' चन्द्रेण सार्धमेतावन्तं कालं योगं युक्त्वा तदन्तरं 'जोयं अणुपरियटुं ति' योगम् अनुपरिवर्तयतः ततः परावर्तेते, आत्मानं चन्द्रात् पृथक् कुरुत इत्यर्थः 'जोयं अणुपरियट्टित्ता' योगं चानुपरिवर्त्य 'सायं' सायं सन्ध्याकाले दिवसस्य कतितमे पश्चाद्भागे इत्यर्थः 'चंद' चन्द्रं धणिहाणं' घणिष्ठायै' 'चतुत्थीए छट्ठी' इति वचनात् प्राकृते चतुथ्यर्थे षष्ठी, वहुवचनं चात्विात् तेन धनिष्ठायै इत्यर्थः ‘समप्पंति' समर्पयतः तत्समये अभिजिच्छ्रवणधणिष्ठा Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशस्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-४ सू० १ योगस्यादिनिरूपणम् २४९ इति श्रीणि नक्षत्राणि किश्चित्कालं चन्द्रेण सह प्रथमतो योगं युञ्जन्ति तेन एतानि त्रीण्यपि नक्षत्राणि पश्चाद्भागानि बोध्यानि २ । 'ता' तावत् ततः 'धणिट्ठा खलु णक्खत्ते' धनिष्ठा खल्ल नक्षत्रं 'पच्छंभागे' पश्चाद्भागं सायं समये तस्य चन्द्रेण सह प्रथमतो योगकारकत्वात् 'समखेत्तं' समक्षेत्र रात्रिदिवसरूपसमस्तक्षेत्रस्थापित्वात् अतएव 'तीस मुहूत्ते' त्रिंशन्मुहूर्त्तात् यावत् 'तप्पढम, याए' तत्प्रथमतया प्रथममेव ' सायं' संन्ध्याकाले 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति ‘जोयं जोइत्ता' योगं युक्त्वा चन्द्रेण सह योगं कृत्वा 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् सायंसमयादूर्ध्वं 'राई' तां रात्रि 'अवरं च दिवस' अपरं द्वितीयं च दिवसं यावत् चन्द्रेण सह तिष्ठति । उपसंहारमाह – ' एवं खलु' इत्यादि ' एवं ' एवम् उक्तरीत्या 'खलु' निश्वयेन 'धणिट्ठा णक्खत्ते ' धनिष्ठा नक्षत्रं 'एगं च राई' एकां च तां रात्रिम् 'एग च दिवस' एकंचद्वितीय दिवसं यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति 'जोयं जोएत्ता' पूर्वोक्तकालं त्रिंशन्मुहूर्त्त रूपं यावत् योगं युक्त्वा तदनन्तरं 'जोयं अणुपरियहइ' योगमनुपरिवर्त्तयति चन्द्रात्स्वमात्मानं पृथक्करोति 'जोयं अणुपरियद्वित्ता' योगमनुपरिवर्त्य 'सायं' सायं द्वितीदिवसस्य सन्ध्यासमये 'चंदं' चन्द्रं 'सयभिसयाणं' शतभिषजे 'समप्पे ' समर्पयति ३॥ 'ता' तावत् ततः 'सयभिसया खलु णक्खत्ते' शतभिषक् खलु नक्षत्रं 'णत्तभागे' नक्तं भागं रात्रिमात्रव्यापित्वात् 'अवड्ढखेत्तं' अपार्धक्षेत्रम् अर्धक्षेत्र स्थायित्वात् अतएव 'पण्णरसमुहुत्ते ' पञ्चदशमुहूर्त्ते पश्चदशमुहूर्त प्रमाणकमेतन्नक्षेत्रे 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथममेव ' सायं' सायं काले 'चंदे सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति एवं च योगयुक्तं सदेतन्न क्षत्रं 'णो लभइ अवरं दिवस' नो नैव लभते अपरं द्वितीयं दिवसं नक्तंभागत्वेन रात्रिमात्र व्यापित्वात् किन्तु चन्द्रेण योगं युक्त्वा राज्यन्त एव समाप्तिमुपैति अत आह- ' एवं ' एवम् उक्तरीत्या खलु निश्चयेन 'सयभिसया णक्खत्ते' शतभिषक् नक्षत्रम् 'एगं राई' एकामेव रात्रिं यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएई' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति 'जोयं जोएत्ता' योगं युक्त्वा 'जोय अणुपरिय' योगम् अनुपरिवर्त्तयति, 'जोयं अणुपरियद्वित्ता' योगम् अनुपरिवर्त्य 'पाओ' प्रातः प्रभातकाले 'चंदं' चन्द्रं 'पुव्वपोट्ठवयाणं' पूर्वाप्रोष्ठपदायै पूर्वाभाद्रपदायै 'समप्पेइ ' समर्पयति ४। ता, तावत् ततस्तत् 'पुम्वापोट्ठवया खलु णक्खत्ते' पूर्वाप्रोष्ठपदा खलु नक्षत्रं 'पुव्वं भागे' पूर्वभागं प्रातः काव्यापित्वात् 'समखेते' समक्षेत्र संपूर्णक्षेत्र - स्थायित्वात् अतएव 'तीसं मुहुत्ते' त्रिंशन्मुहत्ते त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणयुक्तं 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथममेव, 'पाओ' प्रातः प्रभातकाले 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, 'जोयं जोएत्ता' योगं युक्त्वा 'तओ पच्छा' तत् पश्चात् योगकरणानन्तरं दिवसं तद्दिवसं ३२ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० चन्द्रप्रज्ञप्तिसू सकलम् 'अवरं च राई' अपरां च रात्रिम् एकं दिवसं द्वितीयां च रात्रि यावत् योगं युनक्ति । उपसंहारमाह - ' एवं खलु' एवम् उक्तप्रकारेण खलु 'पुव्वापोट्ठवयाणक्खत्ते' पूर्वप्रोष्ठपदानक्षत्रम् 'एगं दिवसं एगं च राई' एकं दिवसमेकांच रात्रिं यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, 'जोयं जोएत्ता' योगं युक्वा - 'जोयं अणुपरियहइ' योगमनुपरिवर्त्तयति 'जोयं अणुपरियट्टित्ता' योगमनुपरिवर्त्य ' पाओ' प्रातः प्रभातसमये 'चंदं' चन्द्रम् ' उत्तरापोडवयाणं' उत्तराप्रोष्ठपदायै- उत्तराभाद्रपदायै 'समप्पेइ' समर्पयति ||५|| 'ता' तावत् ततः 'उत्तरापोह - वया खलु णक्खत्ते' उत्तराप्रोष्ठपदा स्खलु नक्षत्रम् ' उभयभागं' उभयभागं दिवसरात्रिरूपोभयस्थायि 'दिवडूढखेत्ते द्व्यर्धक्षेत्रं सार्धेकाहोरात्रक्षेत्रम् अतएव 'पणयाली समुहुत्ते' पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तं 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथमं 'पाओ' प्रातः प्रभातसमये 'चंदेण सद्धि जोयं जोए ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति 'जोयं जोएत्ता' योगं युक्त्वा 'तं सकलं दिवस' तं सकलं दिवस तदिवसानन्तरम् 'अवरं च राई' अपरां दिवससमाप्त्यनन्तरं जायमानां रात्रिं 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् रात्रिसमाप्त्यनन्तरं जायमानम् 'अवरं दिवस' अपरं द्वितीयं दिवसं यावत् चन्द्रेण सार्धं तिष्ठति, एतदेवोपसंहाररूपेण स्पष्टीकरोति 'एवं खलु' इत्यादि, ' एवं ' एवम् उक्तरीत्या स्खलु निश्चयेन 'उत्तरापोट्ठवया णक्खत्ते' उत्तराप्रोष्ठपदा नक्षत्रं 'दो दिवसे एगं चराई' द्वौ दिवसौ एकः प्रथमयोग करणदिवसः, द्वितीयः राज्यनन्तरं जायमानो दिवसः एवं द्वौ दिवसौ एकां च रात्रि दिवसद्वयमध्यगतां रात्रिं यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति 'जोयं जोइता' योगं युक्त्वा, 'जोयं अणुपरियटूटइ' योगमनुपरिवर्त्तयाति, 'जोयं अणुपरियट्टित्ता' योगमनुपरिवर्त्य 'सायं' सायं सन्ध्याकाले 'चंद' चन्द्रं 'रेवईणं' रेवत्यै 'समप्पे ' समर्पयति । ६ । 'ता' तावत् ततः 'रेवई खलु णक्खत्ते' रेवती खलु नक्षत्रं 'पच्छंभागे' पश्चाद्भागं सायंकालव्यापित्वात् 'समखेत्ते' समक्षेत्र परिपूर्णाहोरात्ररूपक्षेत्रस्थायित्वात् अतएव 'तीसं मुहुत्ते ' त्रिशन्मुहूर्त्त तत् 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथमं 'सायं' सायं सन्ध्यासमये 'च'देण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति योगं प्राप्नोति, 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् तद्राज्यनन्तरम् 'अवरं दिवस' अपरं द्वितीयं दिवसं यावत् चन्द्रेण सार्धं तिष्ठति । तदेव स्पष्टयति - ' एवं खलु' इत्यादि, 'एवं खलु' अनेन प्रकारण 'रेवईणक्खत्ते' रेवती नक्षत्रं 'एगं राई' एकां रात्रि योगप्रारम्भरात्रिम् 'एगं च दिवस' एकं च द्वितीय दिवस यावत् 'चंदेण सद्धिं' चन्द्रेण सार्धं 'जोय जोएइ' योगं युनक्ति, 'जोयं जोएत्ता' योगं युक्त्वा 'जोयं अणुपरियहइ' योगम् अनुपरिवर्त्त - यति, 'जोयं अणुपरियहित्ता' योगमनुपरिवर्त्य 'सायं' सायं काले 'चंद' चन्द्रम् 'अस्सिणीणं अश्विन्यै 'समध्येइ' समर्पयति । 'ता' तावत् ततः 'अस्सिणी खलु णक्खत्ते' अश्विनी खलु नक्षत्रां 'पच्छं भागे' पश्चाद्भागं सायंकाले चन्द्रेण सह युज्यमानत्वात् 'समखेत्ते ' समक्षेत्रं परिपूर्ण शन्निन्दिव Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-४ सू० १ योगस्यादिनिरूपणम् २५१ स्थायित्वात् अतएव 'तीसं मुहुत्ते' त्रिंशन्मुहूर्त, ततः 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथमं 'सायं' सायं काले 'चंदेण सद्धिं जोय जोएइ' चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् रात्र्यनन्तरम् 'अवरं दिवसं' अपरं द्वितीयं दिवसं यावत् चन्द्रेण साधं तिष्ठति । उपसंहारः-एवं खलु' एवम् अनया रीत्या खल निश्चयेन 'अस्सिणीणक्खत्ते' अश्विनी नक्षत्र 'एगं राई' एकां योगप्रारम्भरूपां रात्रिम् ‘एगं च दिवसं' एकम् अग्रे समागमिष्यमाणं दिवसं यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएई' चन्द्रेण सार्घ योगं युनक्ति, 'जोयं जोइत्ता' योगं युक्त्वा 'जोयं अणुपरियट्टई' योग. मनुपरिवर्त्तयति, 'जोयं अणुपरियट्टित्ता' योगमनुपरिवत्यै 'सायं' सायंकाले 'चंदं चन्द्रं 'भरणीणं समप्पेइ' भरण्यै समर्पयति ।८। 'ता' तावत् ततः 'भरणी खलु णक्खत्ते' भरणी खलु नक्षत्रं 'णतंभागे' नक्तं भागं सायंकालव्यापि भूत्वा रात्रिमात्रस्थायित्वात् 'अवठ्ठखेत्ते' अपार्धक्षेत्रम् अर्धक्षेत्रप्रमाणोपेतम् , अतएव 'पण्णरसमुहुत्ते' पञ्चदशमुहर्ते, ततः 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथम 'सायं' सन्ध्यासमये 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएई' चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति रात्रिमात्रं तिष्ठति किन्तु 'णो लभइ अवरं दिवस' नो-नैव लभते अपरं द्वितीयं राज्यन्ते समागमिष्यमाणं दिवस, तत्तु रात्र्यन्ते एव समाप्तिमेति । उपसंहारव्याजेन तदेव स्पष्टयति ‘एवं खलु' इत्यादि 'एवं' अनेन प्रकारेण खलु 'भरणीणक्खत्ते' भरणीनक्षत्रम् ‘एगं राई' एकां तां रात्रिमेव 'चंदेणसद्धिं जोयं जोएई' चन्द्रेण सार्ध योग युनक्ति 'जोयं जोइत्ता' योगं युक्त्वा 'जोयं अणुपरियट्टई' योगम् अनुपरिवर्त्तयति 'जोयं अणुपरियहित्ता' योगमनुपरिवर्त्य 'पाओ' प्रातः प्रभातसमये 'चंदं' चन्द्रं 'कत्तियाणं' कृत्तिकायै 'समप्पेइ' समर्पयति ।९। 'ता' तावत् तथा 'कत्तियाखलु णक्खत्ते' कृत्तिका खलु नक्षत्रं 'पुव्वंभागे' पूर्वभागम् प्रातश्चन्द्रेण सह युज्यमानत्वात् 'सम खेत्ते' समक्षेत्रम् अतएव 'तीसं मुहुत्ते' त्रिंशन्मुहूर्ते प्रातःसमयादूर्ध्व संपूर्णे दिवसरात्रिस्थायित्वात् , ततः 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथमं 'पाओ' प्रातः 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएई' चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् सकलदिवसानन्तरं 'राई' रात्रिं सकलां रात्रि यावत् चन्द्रेण साधं तिष्ठति । तदेवाह-एवं' एवम् अनेन रीत्या 'खलु' निश्चयेन 'कत्ति याणक्खत्ते' कृत्तिकानक्षत्रम् ‘एगं च दिवसं' एकं च दिवसम् ‘एगं च राई' एकां च रात्रिं यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोइए' चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति 'जोयं जोइत्ता' योगं युक्त्वा 'जोयं अणुपरियट्टई' योगम् अनुपरिवर्तयति योगाद् आत्मानं पृथक्करोति 'अणुपरियट्टित्ता' अनुपरिवर्त्य 'पाओ' प्रातः 'चंदं' चन्द्रं 'रोहिणीणं' रोहिण्यै 'समप्पेई' समर्पयति ।१०। तदेवम् अभिजित आरभ्य कृत्तिकापर्यन्तं दशनक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगप्रकारः सविस्तरं प्रदर्शितः, साम्प्रतं शेषाणां रोहिणीत आरभ्य उत्तराभाद्रपदापर्यन्तमष्टादशनक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगप्रकारमतिदेशेनाह - 'रोहिणी जहा' इत्यादि 'रोहिणी जहा उत्तराभहया' रोहिणी यथा उत्तराभाद्रपदा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे मक्षत्र पूर्व कथितं तथैव विज्ञेयम् , तथाहि तावत् रोहिणी खलु नक्षत्रम् उभयभाग द्वयर्धक्षत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण सह योगं युनक्ति सकलं दिवसम् अपरां च रात्रि यावत् , ततः पश्चात् अपरं द्वितीयं दिवसं सायंकालपर्यन्तं चन्द्रेण सह योगं युनक्ति एवं खलु रोहिणीनक्षत्र द्वौ दिवसौ एकां च रात्रिं यावत् चन्द्रेण साध योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति योगम् अनुपरिवयं सायं चन्द्र मृगशिरसे समर्पयति ११। 'मिगसिरं जहा धणिहा' मृगशिरो नक्षत्रं यथा धनिष्ठानक्षत्रं पूर्व कथितं तथैव भावनीयम् , तथाहि-तावत् मृगशिरा नक्षत्रं पश्चाद्भागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूत्तं तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा तां सकलां रात्रि ततः पश्चात् अपरं दिवसं यावत् तिष्ठति, एवं खलु मृगशिरो नक्षत्रम् एकां रात्रिम् एकं च दिवसं यावत् चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनु. परिवर्त्य सायं चन्द्रम् आर्द्रायै समर्पयति, 'सायं' इति परिस्फुटनक्षत्रमण्डलालोकसमये, इत्यर्थो बोध्यः आर्द्रानक्षत्रस्य नक्तंभागत्वादिति १२। 'अहा जहा सयभिसया' आर्द्रा यथा शतभिषक् तथा ज्ञातव्या, तच्चैवम्-तावत् आर्द्रा खलु नक्षत्रं नक्तंभागम् अपार्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूत्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, एतत् आर्दानक्षत्रं नो लभते अपरम् अन्यं दिवस रात्रिमात्रभोग्यत्वात् , एवं खलु आ नक्षत्रम् एकां रात्रिं यावत् चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनुपरिव| प्रातः चन्द्रं पुनर्वसवे समर्पयति ।१३। 'पुणव्वसू जहा उत्तराभवया' पुनर्वसुः यथा उत्तराभाद्रपदा कथिता तथैव विज्ञेयः, तथाहितावत् पुनर्वसुः खलु नक्षत्रम् उभयभागं द्वयर्धक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, ततः सकलं दिवप्तम् अपरां च रात्रि ततः पश्चाद् अपरं दिवसं च यावत् एवं खलु पुनर्वसुः नक्षत्रं द्वौ दिवसौ एकां च रात्रि चन्द्रेण साधै योगं युनक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं द्वितीयदिवसस्य सायंकाले नक्षत्रमण्डलस्य परिस्फुटनकाले चन्द्रं पुष्याय समर्पयति १४। 'पुस्सो जहा धणिवा' पुष्यो यथा धनिष्ठा, पुष्यनक्षत्रं यथा धनिष्ठा नक्षत्रं पूर्व प्रतिपादितं तथैव विज्ञेयम् तदेवाह-तावत् पुष्यः खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं सायंकालव्यापित्वात् समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया-सायं चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति योगं युक्त्वा ततः पश्चात् रात्रिसमाप्त्यनन्तरम् अपरं द्वितीयं दिवसं यावत् , एवं खलु पुष्यो नक्षत्रम् एकां रात्रिम् एकं च दिवसं यावत् चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं काले चन्द्रम् अश्लेषायै समर्पयति १५। 'असलेसा जहा सयभिसया' अश्लेषा यथा शतभिषगूनक्षत्रं तथाऽवसेया, तथाहि-तावत् अश्लेषा, खलु नक्षत्रं नक्तंभागम् अपार्धक्षेत्रं त्रिशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा नो लभते अपरं द्वितीयं दिवसं नक्तं भागत्वेन रात्रिमात्रभोग्यत्वात् एवं खलु Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिप्रकाशिका टोका प्रा०१०-४ सू०१ योगस्यादिनिरूपणम् २५३ अग्लेषानक्षत्रम् एकां रात्रिमेव चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः रात्र्यनन्तरं प्रभातसमये चन्द्रं मघायै समर्पयति १६। 'मघा जहा पुव्वा फुग्गुणी' मघा यथा पूर्वाफाल्गुनी अग्रे वक्ष्यमाणा तथैव बोध्या, अत्राने 'पुव्वाफग्गुणी जहा पुल्वाभवया' इति वक्ष्यतेऽतो मघा पूर्वाभाद्रपदावद् विज्ञेयेति विवेकः । ____ तच्चैवम् – तावत् मघा खल्लु नक्षत्रं पूर्वभागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा ततः पश्चात् दिवससमाप्त्यनन्तरम् अपरां रात्रि यावत् तिष्ठति एवं खलु मघानक्षत्रम् एकं दिवसम् एका च रात्रिं यावत् चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्दं पूर्वाफाल्गुन्यै समर्पयति १७ 'पुव्वाफग्गुणी जहा पुव्वाभद्दवया' पूर्वाफाल्गुनी यथा पूर्वाभाद्रपदा कथिता तथैव विज्ञेया, तथाहि-तावत् पूर्वाफाल्गुनी खलु नक्षत्रं पूर्वभागं प्रातः कालव्यापित्वात् , समक्षेत्रम् समस्तक्षेत्रस्थायित्वात् त्रिंशन्मुहूत्त परिपूर्णाहोरात्रभोग्यत्वात् तन्नक्षत्रं तत्प्रथममतया प्रातः चन्द्रेण सह योगं युनक्ति, ततः पश्चात् दिवससमाप्त्यनन्तरम् अपरां रात्रिम् एवं खलु पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रम् एकं च दिवसम् एकां च रात्रिम् चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रम् उत्तराफाल्गुन्य समर्पयति १८। 'उत्तराफग्गुणी जहा उत्तराभवया' उत्तराफाल्गुनी यथा पूर्वम् उत्तराभाद्रपदा कथिता तथैव विज्ञेया तथाहि-तावत् उत्तराफाल्गुनी खलु नक्षत्रम् उभयभाग द्वयर्धक्षेत्रम् दिवसद्वयैकरात्रिस्थायित्वात् अतएव पञ्चचत्वारिंशन्मुइत्तं तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति ते दिवसम् अपरां च दिवसान्ते जायमाना मन्यां रात्रि ततः पश्चात् रात्र्यनन्तरम् अपरं दिवसम् एवं खलु उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं द्वौ दिवसौ एकां च रात्रि यावत् चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति, योग युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्दं हस्ताय समर्पयति १९। तथा 'इत्यो चित्ता य जहा धणिहा' हस्तचित्रा चेति नक्षत्रद्वयं पूर्व धनिष्ठानक्षत्रं कथितं तथैव विज्ञेयम् । तच्चैवम्-तावत् हस्तः खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति, तां रात्रिम् अपरंच दिवसं यावत् चन्द्रेण साधं चलति, एवं खलु हस्तनक्षत्रम् एकां च रात्रिम् एकं च दिवस यावत् चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रं चित्रायै समर्प यति ।२०। तदनन्तरं तावत् चित्रा खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं समक्षेत्रं त्रिशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, ततः पश्चात् रात्र्यनन्तरम् अपरं दिवसं यावत् योगं करोति, एवं खलु चित्रानक्षत्रम् एकां रात्रिम् एकं च दिवसं यावत् चन्द्रेण साधं योग युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त यति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रं स्वात्यै समर्ययति ।२१। 'साई जहा सयभिसया' स्वातिर्यथा शतभिषग्नक्षत्रं कथितं तथा विज्ञेया, तथाहि Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ चन्द्रप्रति तावत् स्वातिः खलु नक्षत्रं नक्तं भागम् अपार्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्त्तं तत्प्रथमतया सार्य चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति इदं स्वातिनक्षत्रं नो लभते अपरं द्वितीयं दिवसं रात्रिमाक्रयापित्वात्. एवं खलु स्वातिर्नक्षत्रम् एकां रात्रिमेव यावत् चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रं विशाखायै समर्पयति २२ । 'विसाहा जहा उत्तराभद्दवया' विशाखा यथा, उत्तराभाद्रपदा तथा वक्तव्या, तथाहि - तावत् विशाखा खलु नक्षत्रम् उभयभागं द्वयर्धक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्त तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, तदिवसम्, अपरां दिवसान्ते समागम्यमानां च रात्रिं ततः पश्चात्, रात्र्यनन्तरम् अपरं द्वितीयं दिवसम्, एवं खलु विशाखा नक्षत्रं द्वौ दिवसौ एकां च रात्रि यावत् चन्द्रेण सा योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रम् अनुराराधायै समर्पयति । २३ ‘अणुराहा जहा घणिट्ठा' अनुराधा यथा धनिष्ठा कथिता तथा वाक्या, तदित्थम् - तावत् अनुराधा खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं सायंकालव्यापित्वात् समक्षेत्रं गत्रिदिवसरूपसंपूर्णक्षेत्रस्थायित्वात् अतएव त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, तां सकलां रात्रिं ततः पश्चात् रात्र्यनन्तरम् अपरं दिवसं यावत्तिष्ठति, एवं खलु अनुराधानक्षत्रम् एकां रात्रिम् एकं च दिवसं यावत् चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रं जेष्ठायै समर्पयति । २४ ' जेट्ठा जहा सयभिसया' ज्येष्ठा यथा शतभिषक् तथा वाच्या, सा चेत्थम् - तावत् ज्येष्ठा खलु नक्षत्रं नक्तं भागम् अपार्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्त्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति किन्तु नक्कं भागत्वात् नो लभते अपरं द्वितीयं दिवसं रात्रावेवास्य समाप्तिसद्भावात् एवं खलु ज्येष्ठानक्षत्रं एकां रात्रिमेव यावत् चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रं मूलाय समर्पयति २५ | 'मूलो जहा पुव्वाभद्दवया' मूलं यथा पूवाभाद्रपदा तथा वक्तव्यम् तथाहि - तावत् मूलं स्खलु नक्षत्रं पूर्वभागसमक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूतप्रथमतया प्रातः चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, तत्सकलं दिवस ततः पश्चात् दिवसानन्तरम् अपराम् अग्रे समागम्यमानाम् अपरां रात्रिं यावत् एवं खलु मूलनक्षत्रम् एकं च दिवस एकां चरात्रि यावत् चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति यक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रं पूर्वाषाढायै समर्पयति । २६ । 'पुन्त्रासादा जहा पुव्वाभद्दवया' पूर्वाषाढा यथा पूर्वाभाद्रपदा कथिता तथा पठनीया, तच्चैवम् तावत् पूर्वाषाढा खलु नक्षत्रं पूर्वभागं समक्षेत्र त्रिंशन्मुहूर्त्त तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, तं दिवस ततः अपरां च रात्र यावत् चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रम् उत्तराषाढायै समर्पयति ७। उत्तरासाठा जहा उत्तरभद्दवया' उत्तराषाढा " Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-४ सू १ योगस्यादिनिरूपणम् २५५ यथा उत्तराभाद्रपदा तथा बोध्या, सा चैवम्-तावत् उत्तराषाढा खलु नक्षत्रम् उभयभागं दूयर्धक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति, तद्दिवसं ततः अपरां रात्रि ततः पश्चात् राज्यनन्तरम् अपरं दिवस यावत् चन्द्रेण सह तिष्ठति एवं खलु उत्तराषाढानक्षत्रं द्वौ दिवसौ एकां च रात्रि यावत् चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रम् अभिजिच्छु वणाभ्यां समर्पयति ।२८। एवमिदम् अभिजित आरभ्य उत्तराषाढापर्यन्तम् अष्टाविंशतिनक्षत्रात्मक नक्षत्रचक्रं चन्द्रेण साधू योगं युनक्तीति । इदं योगप्रकारेण पञ्चदश मुहूर्तात्मकदिवस- पञ्चदशमुहूर्तात्मकरात्रिरूपसमदिवसरात्रिं समयगतं विज्ञेयम्, नक्तं भागनक्षत्रस्य पञ्चदशमुहूर्तत्वेन, व्यर्धक्षेत्रनक्षत्रस्य च पञ्चचत्वारिंशन्मूर्त्तत्वेन प्रतिपादनात् तदेवं बाहुल्यमाश्रित्य पूर्वोक्तप्रकारेण यथोक्तकालेषु नक्षत्राणि चन्द्रेण सार्ध योगं युञ्जन्ति कानिचित् पूर्वभागानि, कानिचित् पश्चाद्भागानि कानिचित् नक्तंभागानि कानिचिच्च उभयभागानि कथितानीति ॥सूत्रम् १ ।। इति श्री चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रप्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्थं प्रामृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ १०-४ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुन्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित -कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालबति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायाम् दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्थं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०-४॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - RIRAND HI सं. मुर्तीः समक्षेत्रम साति रेकम ३० ARRIAkollalclosorl १५ /अष्टाविंशति नक्षत्राणांभागक्षेत्र-मुहूर्तज्ञानार्थं कोष्टकम् नक्षत्रम् भागाः । क्षेत्रम अभिजित | पश्चान्दागम् भ्रवणश्य ३०/९साति धनिष्ठा | पश्चान्दागम समक्षेत्रम शतभिषक नक्तंभागम अपाधक्षेत्रम १५ पूर्वी भाद्रपदा पूर्व भागम समक्षेत्रम ३० उत्तराभाद्रपदा| उभयभागम द्वयधक्षेत्रम ४५ रेवती पश्चान्दागम समक्षेत्रम ३० धिनी पश्यान्दागम् । समक्षत्रम ३० भरणी नक्तंभागम् अपाक्षेत्रम् कृत्तिका पूर्व भागम समक्षत्रम म ३० रोहिणी उभयभागम । यधक्षेत्रम। मृगशिरः पश्चादागम् ३० आटी नक्तंभागम अपाक्षेत्रम । १पू पुनर्वसुः । उभय भागम् । यधक्षेत्रम | ४५ पुष्यम् पश्वान्दागम | समक्षेत्रम। अश्लेषा नक्तंभागम् | अपाक्षेत्रम् | मघा पूर्व भागम समक्षेत्रमः ३० पूर्वा फाल्गुनी। पूर्वभागम समक्षेत्रम उत्तराफाल्गुनी। उभयभागम् व्यर्धक्षेत्रम २० हस्तः पश्चान्दागम् समक्षेत्रम ३० चित्रा पश्चान्दागम् । समक्षत्रम । स्वातिः नक्तंभागम् । अपाधक्षेत्रम | | १५ २३ विशाखा उभयभागमद्वयधक्षेत्रम | ४५ अन्नुराधा | पश्चान्दागम | समक्षेत्रम। ३० । २५ ज्येष्ठा । नक्तंभागम् । अपाक्षेत्रम | २६ मूलम् | पूर्व भागम् | समक्षेत्रम ३० ] २७ पूर्वाषाढा | पूर्वभागम् । समक्षेत्रम। ३० । २८ उत्तराषाढा । उभय भागम् | द्वयर्धक्षेत्रम ४५ ५ ३० ३० ४५. २१ २२ ३० २४ १५ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दशमस्य पाभृतस्य, पञ्चमं प्राभृतमाभृतम् ॥ व्याख्यातं दशमस्य मूलप्राभृतस्य चतुर्थ प्राभृतप्राभृतम्, तत्र चन्द्रेण सार्धमष्टाविंशतिनक्षत्राणां योगः 'वभागादिकं च प्रदर्शितम्, अथास्मिन् पञ्चमप्राभृतप्राभृते योगसम्बन्धान्नक्षत्राणां कुलत्वम्, उपकुलत्वम्, कुलोपकुलत्वं च प्रदर्शयन्निदं सूत्रमाह- 'ता कहं ते कुला' इत्यादि । मूलम्-ता कहने कुला आहिया ति वएज्ज, तत्थ खलु इमे बारस कुला, बारस उवकुला, चत्तारि कुलोवकुला पण्णत्ता । बारस कुला तं जहा सविट्ठा, (धणिहा) कुलं १, उत्तराभवयाकुलं २, अस्सिणी कुलं ३, कत्तियाकुलं ४, मगसिरकुलं ५, पुस्स कुलं ६, मघाकुलं ७, उत्तराफग्गुणीकुलं ८, चित्ताकुलं ९, विसाहाकुलं १०, मूलंकुलं ११, उत्तरासाढाकुलं १२, बारस उचकुला तं जहा-सवणो उवकुलं १, पुव्वभदबयाउवकुलं २, रेवईउवकुलं ३, भरणीउवकुलं ४, रोहिणीउवकुलं ५, पुणव्वसुउवकुलं ६, अस्सेसाउवकुलं ७, पुव्वाफग्गुणी उवकुलं ८' हत्थोउवकुलं ९, साईउवकुलं १०, जेढाउवकुलं ११, पुवासाढाउवकुलं १२, चत्तारि कुलोवकुला तं जहा --अभिइकुलोवकुलं १, सयभिसया कुलोव कुलं २, अदा कुलोवकुलं ३, अणुराहा कुलोवकुलं ४ ॥सू० १॥ दसमस्स पाहुडस्स पंचमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०-५॥ छया-तावत् कथं ते कुलानि आख्यातानि इति वदेत्, ता खलु इमानि द्वादश कुलानि १२, द्वादश उपकुलानि १२, चत्वारि कुलोपकुलानि ४ प्रज्ञप्तानि । द्वादश कुलानि तद्यथा- अविष्ठा (धनिष्ठा) कुलम् १, उत्तराभाद्रपदाकुलम् २, अश्विनीकुलम् ३, कृत्तिकाकुलम् ४, मृगशिरः कुलम् ५, पुष्यकुलम् ६, मघाकुलम्, उत्तराफाल्गुनीकुलम् ८, चित्राकुलम् ९, विशाखा कुलम् १०, मूलं कुलम् ११, उत्तराषाढाकुलम् १२, द्वादश, उपकुलानि तद्यथा श्रवणः उपकुलम् १, पूर्वाभाद्रपदा उपकुलम् २, रेवती उपकुलम् ३, भरणी उपकुलम् ४, रोहिणी-उपकुलम् ५, पुनर्वसुः उपकुलम् ६, अश्लेषा-उपकुलम् ७, पूर्वाफाल्गुनी उपकुलम् ८, हस्तः उपकुलम् ९, स्वातिः - उपकुलम् १०, ज्येष्ठाउपकुलम् ११, पूर्वाषाढा-उपकुलम् १२, चत्वारि कुलोपकुलानि, तद्यथा-अभिजित् कुलोपकुलम्, १, शतभिषक् कुलोपकुलम् २, आर्द्रा-कुलोपकुलम् ३, अनुराधा कुलोपकुलम् |सू०१॥ दशमस्य प्राभृतस्य पञ्चमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् १०-५॥ व्याख्या-ता कहं ते' इति ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'कुला' कुलानि 'आहिया' आख्यातानि-कथितानि ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु-कथयतु हे भगवन् ! भगवानाह-'तत्थ' तत्र कुलादिविषये-खलु-निश्चयेन 'इमे' इमानि वक्ष्यमाणानि 'बारस' द्वादश 'कुला' कुलानि सन्ति तथा 'बारस' द्वादश 'उवकुला' उपकुलानि सन्ति, तथा 'चत्तारि' चत्वारि 'कुलोवकुला' कुलोपकुलानि सन्ति, । तत्र 'बारस' द्वादश 'कुला' कुलानि, भवन्ति 'तं जहा' तद्यथा तानि यथा 'सविट्ठा कुलं' इत्यादि, कुलानीति किम्, तत्राह यानि नक्षत्राणि यान् मासान् समापयन्ति मास सद्दशनामानि भवन्ति तानि नक्षत्राणि कुलानीति ३३ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे कथ्यन्ते तानि द्वादश १२। उपकुलानीति किम् ? तत्राह-माससदृशनामकनक्षत्रेभ्यः पूर्वगतानि नक्षत्राणि यदि यान् मासान् समाप्ति नयन्ति तानि उपकुलानि कथ्यन्ते तान्यपि द्वादश १२। यानि पश्चानुपूर्ध्या तृतीयानि नक्षत्राणि यान् मासान् समाप्ति नयन्ति तानि कुलोपकुलानि कथ्यन्ते तानि च चत्वार्येव भवन्ति ४। तान्येव दर्शयामः-श्रविष्ठः, श्रावणो मासः प्रायः अविष्ठया घनिष्ठाअरपर्यायया समाप्तिमेतीति । श्रावणपूर्णिमायां यदि धनिष्ठा भवेत्तदा धनिष्ठानक्षत्रं कुलमुच्यते १, भाद्रपदपूर्णिमायां यदि उत्तराभाद्रपदा भवेत्तर्हि तत् कुलं कथ्यते २, एवम् आश्विनपूर्णिमायां यदि अश्विनी भवेत्तदा तन्नक्षत्रं कुलम् ३, कार्तिकर्णिमायां कृत्तिकानक्षत्रं कुलम् ४, मार्गशीर्षमासे मृगशिरो नक्षत्रं कुलम् ५, पौषपूर्णिमायां पुष्यनक्षत्रं कुलम् ६, माघपूर्णिमायां मघानक्षत्रं कुलम् ७, फाल्गुनपूर्णिमायाम् उत्तराफाल्गुनौनक्षत्रं कुलम् ८, चैत्रपूर्णिमायां चित्रा नक्षत्रं कुलम् ९, वैशाखपूर्णिमायां विशाखानक्षत्रं कुलम् १०, ज्येष्ठपूर्णिमायां मूलनक्षत्रं कुलम् ११, आषाढपूर्णिमायाम् उत्तराषाढानक्षत्रं कुलम् १२, एतानि द्वादशनक्षत्राणि कुलानि कथ्यन्ते । एतेभ्यः पूर्ववर्तीनि नक्षत्राणि यदि भवेयुस्तदो तानि उपकुलानि कथ्यन्ते, तथाहिश्रावणपूर्णिमायां श्रवणनक्षत्रं भवेत्तदा तद् उपकुलं कथ्यते १, एवं भाद्रपदपूर्णिमायां पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्रमुपकुलम् २, आश्विनपूर्णिमायां रेवतीनक्षत्रमुपकुलम् ३, कार्तिकर्णिमायां भरणीनक्षत्रमुप कुलम् ४, मार्गशीर्षर्णिमायां रोहिणीनक्षत्रमुपकुलम् ५, पौषपूर्णिमायां पुनर्वसुनक्षत्रमुपकुलम् ६, माघर्णिमायाम् अश्लेषानक्षत्रमुपकुलम् ७, फाल्गुनर्णिमायां पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रमुपकुलम् ८, चैत्रपूर्णिमायां हस्तनक्षत्रमुपकुलम् ९, वैशाखपूर्णिमायां स्वातिनक्षत्रमुपकुलम् १०। ज्येष्ठपूर्णिमायां ज्येष्ठानक्षत्रमुपकुलम् ११, आषाढपूर्णिमायां पूर्वाषाढानक्षत्रमुपकुलम् १२, इति । यधुपकुलनक्षत्रात् पूर्ववर्तिनक्षत्रम् अर्थात् पश्चानुपर्ध्या प्रायो माससदृशनामककुलनक्षत्रात् पूर्ववर्ति तृतीयं नक्षत्रं पूर्णिमायां भवेत्तदा तत् कुलोपकुलं कथ्यते, तानि चत्वार्येव, सूत्रोपदिष्टानां चतु मेव नक्षत्राणां श्रावण - भाद्रपद-पौष-ज्येष्ठरूपासु चतसृष्वेव पूर्णिमासु कादाचित्कत्वेन योगसंभवात् , तथाहि-श्रावणपूर्णिमायां यदि अभिजिन्नक्षत्रं भवेत्तदा तत् कुलोपकुलं कथ्यते १, एवं भाद्रपदपूर्णिमायां शतभिषग्नक्षत्रं कुलोपकुलम् २, पौषपूर्णिमायाम् आर्द्रा नक्षत्रं कुलोपकुलम् ३, ज्येष्ठर्णिमायां चानुराधानक्षत्र कुलोपकुलं कथ्यते ४, इति । उक्तश्च मासाण सरिसनामा, हुंति कुला उवकुला उ हिटिमगा । हुंति पुण कुलोवकुला अभीइ-सय-अद्द-अणुराहा" ॥१॥ छाया–मासानां सदृशनामानि भवन्ति कुलानि उपकुलानि तु अधस्तनानि । भवन्ति पुनः कुलोपकुलानि अभिजित् १, शतभिषक् २, आर्द्रा ३ अनुराधा ॥१॥ 'हिद्विमगा' इति अधस्तनानि अधोभागस्थितानि कुलनक्षत्रेभ्यो यानि पूर्व स्थितानि पश्चानु पूर्ध्या कुलनक्षोभ्यो द्वितीयानीत्यर्थः । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || कुलादि ज्ञानार्थं कोष्टकम् ॥ सं. नक्षत्र नाम २ ३ ४ ५ ६ の ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ अभिजित श्रवणः धणिष्ठा शतमि० पू.भा. उ० भा० रेवती अश्विनी भरणी कृत्तिका रोहिणी मृगशिरः आर्द्रा पुनर्वसुः पुष्यं अश्लेषा मघा पू० फा० उ० फा हस्तः चित्रा स्वातिः विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मूलभ पू. षा. उ० षा० फुल उपकुल कुलोप x X १ X X १ X X १ X १ X १ Xx १ X X १ X १ X १ X १ x १ x X १ X १ १ X X १ x १ X १ X १ X x १ X १ X १ x १ X १ X X १ X १ X X १ X X X x Xx x X Xx १ X X X X X Xx X X X x १ X x X X इति श्रीचन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य पञ्चमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् - १०१–५॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभृतम् । सदेवमुक्तं पश्चमं प्राभृतप्राभृतम् , तत्राष्टाविंशतिनक्षत्राणां कुलादिसंज्ञा प्रदर्शिता । अथ षष्ठं प्राभृतप्राभृतं वित्रियते, अत्र द्वादश पूर्णिमाः द्वादश अमावस्या वक्तव्याः स्युः, तत्र पूर्णिमासु कति कति नक्षत्राणि योगं युजन्तीति प्रदयते-'ता कहते पुण्णमासी' इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते पुण्णमासी आहिया ? ति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ बारस पुण्णमासीओ, बारस अमावासाओ, पण्णत्ताओ तं जहा-साविट्ठी १ पोढवई २, आसोयी३, कत्तियी ४, मग्गसिरी ५, पोसी ६, माही ७, फग्गुणी ८, चेत्ती ९, वेसाही १०, जेट्ठा मूली ११, आसाढी १२, ता साविढि णं पुण्णमासिं कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता तिणि णक्खता जोएंति, तं जहा-अभिई १, सवणो २, धणिट्ठा ३ (१) ता पोट्टवईणं पुण्णिमं कइ णक्खत्ता जोएंति, ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहासयभिसया १, पुवापोट्टवया २, उत्तरापोटुवया ३, (२) ता आसोई णं पुण्णिमं कइ णक्खत्ता जोएंति ?, ता दौण्णि णक्खत्ता जोएंति. तं जहा-रेवई अस्सिणी य (३) ता कत्तिई णं पुणिमं कइ णक्खत्ता जोएंति, ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंत्ति तं जहा-भरणी कत्तिया च(४)। ता मग्गसिरिंणं पुण्णिम कइ णक्खत्ता ज़ोएंति ? ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति तं जहा रोहिणी मग्गसिरा य (५) । ता पोसिं णं पुण्णिमं कइ णक्खत्ता जोएंति ?, ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति तं जहा-अदा १, पुणव्वर २, पुस्सो ३ (६) ता माहिं णं पुण्णिमं कइ णक्खत्ता जोएंति ?, ता दोण्णि णक्खत्ता जोएति. तं जहा-अस्सेसा मघा य (७) ता फग्गुणिं णं पुण्णिमं कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता दोन्नि नक्खत्ता जोएंति. तं जहा - पुव्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी य (८) ता चेति णं पुण्णिम कइ णक्खत्ता जोएति ? ता दोणि णक्खत्ता जोएंति तं जहा—हत्थो चित्ता य (९)। ता वेसाहिं णं पुण्णिमं कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति' तं जहा - साई विसाहा य (१०) ता जेट्ठामूलि गं पुणिमं कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति तं जहा -अणुराहा १, जेट्टा २, मूळो य ३, (११) तावत् आसाढि णं पुणिमं कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता दो णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-पुव्वासाढा उत्तरासाढा य (१२) ॥९० १॥ छाया-तावत् कथं ते पूर्णमास्य आख्याता ? इति वदेत् , तत्र खलु इमा द्वादश पूर्णिमास्यः, द्वादश अमावास्याः प्रशप्ताः तद्यथा-श्राविष्ठी १, प्रोष्ठपदी २, आश्विनी ३, कार्तिकी ४, मार्गशीर्षी ५, पौषी ६, माघी ७फाल्गुनी ८, चैत्री ९, वैशाखी १०, जेष्ठा मूली ११ आषाढी १२, । तावत् श्राविष्ठी खलु पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति, १, तावत् Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-२ सू०१ पुर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २६१ त्रीणि नक्षत्राणि युअन्ति, तद्यथा-अभिजित् १, श्रवणः २, धनिष्ठा ३ । (१) तावत् प्रोष्ठपदी खलु पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युजन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथाशतभिषक् १, पूर्वप्रोष्ठपदा २, उत्तरप्रोष्ठपदा ३। (२) तावत् आश्विनी खलु पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? ४ तावत्-द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः, तद्यथा-रेवती अश्विनी च ३ । तावत् कार्तिकी खलु पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ! तावत् द्वे नक्षत्रे युक्तः तद्यथा-भरणी कृत्तिका च ४ । तावत् मार्गशीर्षी खलु पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति । तावत् द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः तद्यथा-रोहिणी मृगशिरश्च ५) तावत् पौषीं खलु पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, तावत् त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-आर्द्रा १ पुनर्वसुः २, पुण्यम् ३ । (६) तावत् माधी खलु पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, तावत् द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः, तद्यथा-अश्लेषा मघा च ७ तावत् फाल्गुनी खलु पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, तावत्-द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः तद्यथा-पूर्वाफाल्गुनो उत्तराफाल्गुनी च८। तावत् चैत्री खल पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति तावत् वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-हस्तः चित्रा च ९ । तावत् वैशाखी खलु पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युजन्ति ? तावत् द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः, तद्यथा-स्वातिः विशाखा च १० । तावत् ज्येष्ठामूली खलु पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति । तावत् त्रोणि नक्षत्राणि युञ्चन्ति, तयथा-अनुराधा १ ज्येष्ठा २, मूलं च ३ ।११। तावत् आषाढ़ी खलु पूर्णिमां कति नक्षत्राणि युजन्ति ? तावत् हे नक्षत्रे युक्तः तद्यथा-पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा च ॥ (१२) ॥ सू०१॥ व्याख्या-गौतमः पृच्छति-'ता कहं ते पुण्णमासी' इत्यादि 'ता' तावत् 'कह'केन प्रकारेण कैः कैः नक्षत्रौर्युक्ता इत्यर्थः 'पुण्णमासी' पूर्णमास्यः उपलक्षणात् अमावास्याश्च 'आहिया' आख्याताः कथिताः ? 'ति वएज्जा' इति वदेत्-एतद्विषयं वदतु हे भगवन् ! एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'तत्थ' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र पूर्णमास्यमावास्याविषये 'स्वलु' निश्चयेन 'बारस पुण्णमासीओ' द्वादश पूर्णमास्यः, तथा 'वारस अमावासाओं' द्वादश अमावास्याश्च 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः 'तंजहा' तद्यथा ता यथा-'साविट्ठी' इत्यादि, 'साविट्ठी' श्राविष्ठी श्रविष्ठेति धनिष्ठा तदुपलक्षिता श्राविष्ठी श्रावणमासभाविनी पूर्णिमा श्राविष्ठी कथ्यते, इयं प्रथमा पूर्णिमा १। 'पोहवई' प्रोष्ठपदी प्रोष्ठपदा उत्तराभाद्रपदा तदुपलक्षिता भाद्रपदमासभाविनी पूर्णमासी प्रोष्ठपदी कथ्यते २। 'आसोई' आश्विनी अश्विनीनक्षत्रोपलक्षिता आश्विनमासभाविनी पूर्णिमा आश्विनी कथ्यते ३॥ 'कत्तिई' कार्तिकी-कृत्तिकानक्षत्रोपलक्षिता कार्तिकमासभाविनी पूर्णिमा कार्तिकी कथ्यते ४। 'मग्गसिरी' मार्गशीर्षी-मृगशिरोनक्षत्रोपलक्षिता मार्गशीर्षमासभाविनी पूर्णिमा मार्गशीर्षी कथ्यते ५। 'पोसी' पौषी पुष्यनक्षत्रोपलक्षिता पौषमासभाविनी पूर्णिमा पौषो कथ्यते ६,। 'माही' माघी मघानक्षत्रोपलक्षिता माघमासभाविनी पूर्णिमा माघी कथ्यते ७। 'फग्गुणी' फाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रोपलक्षिता फाल्गुनमासभाविनी पूर्णिमा फाल्गुनी कथ्यते ८। 'चेत्ती' चैत्री-चित्रानक्षत्रोपलक्षिता चैत्रमासभाविनी पूर्णिमा चैत्री कथ्यते ९। 'वेसाही' वैशाखी-विशाखानक्षत्रोपलक्षिता वैशाखमासभाविनी पूर्णिमा वैशाखी कथ्यते १०॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રે चन्द्रप्राप्तिस्त्र 'जेट्टामूली' मूल नक्षत्रोपलक्षिता ज्येष्ठमासभाविनी पूर्णिमा ज्योष्ठामूली कथ्यते ११। 'आसाढी' भाषाढी-उत्तराषाढानक्षत्रोपलक्षिता आषाढमासभाविनी पूर्णिमा आषाढी कथ्यते १२॥ इति द्वादश पूर्णिमानामानीति । अथ कति कति नक्षत्राणि कस्यां पूर्णिमायां योगं कुर्वन्ति ? इति प्रश्नान् उत्तराणि च प्रदर्शयति-ता साविढि णं, इत्यादि 'ता' तावत् 'साविढि णं' श्राविष्ठी प्रावणमास भाविनों पूर्णिमां 'कइ नक्खत्ता' कतिनक्षत्राणि कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि 'जोएंति' युञ्जन्ति कानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगं कृत्वा श्राविष्ठी पूर्णिमां समापयन्तीति भावः । भगवानाह'ता तिण्णि' इत्यादि 'ता' तावत् 'तिणि णक्खत्ता' त्रीणि नक्षत्राणि 'जोएंति' युञ्जन्ति योगं कुर्वन्ति त्रीणि नक्षत्राणि चन्द्रेण साधं यथायोगं संयुज्य श्राविष्ठों पूर्णिमां समापयन्ति 'तं जहा' तथथा तानीमानि --'अभिई' अभिजित् १ 'सवणो' २ श्रवणः 'धणिहा' धनिष्ठा ३। इमां पूर्णिमा वस्तुतः श्रवणो धनिष्ठा चेति द्वे एव नक्षत्रे श्राविष्टों पूर्णिमासी परिसमापयतः किन्तु अभिजिन्नक्षत्रं श्रवणेन सह संबद्धं वर्ततेऽतः पूर्णिमासमापने तस्यापि ग्रहणं कृतमिति १। एतत्कथं परिज्ञायते ? इति प्रश्ने तत्परिज्ञानं करणपरिज्ञानमन्तरेण न भवतीत्यन्यत्र प्रसिद्धममावास्यापौर्णमासीविषयकचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणं प्रदश्यते-- " नाउमिह अमावासं जइ इच्छसि कम्मि होइ रिक्खम्मि । अवहारं ठाविज्जा तत्तियरूवेहिं संगुणए ॥१॥ छावट्ठी य मुहुत्ता, बिसद्विभागा य पंच पडिपुण्णा । बासद्विभाग-सत्तसहिगो य इक्को हवइ भागो ॥२॥ एयमवहाररासिं, इच्छ अमावाससंगुणं कुज्जा । नक्खत्ताणं एत्तो, सोहणगविहिं निसामेह ॥३॥ बावीसं च मुहुत्ता, छायालीस बिसट्ठिभागा य । एयं पुणव्वसुस्स य, सोहेयव्वं हवइ वुच्छं ॥४॥ बावत्तरं संयं फग्गुणीण बाणउइ य बे विसाहासु । चत्तारि य वायाला, सोज्झा अह उत्तरासाढा ॥५॥ एयं पुणव्वसुस्स य बिसट्ठिभागसहियं तु सोहणगं । इत्तो अभीइआई, बिइयं बुच्छामि सोहणगं ॥६॥ अभिइस्स नव मुहुत्ता, बिसट्ठिभागा य हुंति चउवीसं । छावट्ठी य समत्ता, भागा सत्तटिछेकया ॥७॥ अउणसटुं पोढवया, तिसु चेव नवोत्तरं च रोहिणिया । तिसु नवनवएमु भवे, पुणव्वस फग्गुणीओ य ॥८॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१०-६ सू० १ पुर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २६३ पंचेव अउणपन्नं सयाइ, अउणुत्तराई छच्चेव । सोज्झाणि विसाहासु, मूले सत्तेव चोयाला ॥९॥ अट्ठसय अउणवीसा, सोहणगं उत्तरासाढाणं । चउवीसं खलु भागा, छावही चुणियाओ य ॥१०॥ एयाई सोहइत्ता, जं सेसं तं हवेइ नक्खत्तं ।। इत्थं य करेइ उडुवई, सूरेण समं अमावासं ॥११॥ इच्छापुन्निमगुणिओ, अवहारो सोत्थ होइ कायव्वो। तं चेव य सोहणगं, अभिइआई तु कायव्वं ॥१२॥ सुद्धम्मि य सोहणगे; जं सेसं तं हविज्ज नक्खतं । तत्थ य करेइ उडुवई, पडिपुन्नो पुण्णिमं विमलं ॥१३॥ छाया-सातुमिह अमावास्यां, यदि इच्छसि कस्मिन् भवति नक्षत्रे । अवधार्य स्थापयेत् तावत्करूपैः संगुणयेत् ॥१॥ षट् षष्टिश्च मुहूर्ताः, द्विषष्टि र्भागाश्च पञ्च प्रतिपूर्णाः । द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिकश्च एको भवति भागः ॥२।। पतमवधार्यराशिम् इच्छितामावास्यासंगुणं कुर्यात् । नक्षत्राणाम् इतः शोधनविधिं निशाम्यत ॥३॥ द्वाविंशतिश्च मुहूर्ताः षट् चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाश्च । एतत् पुनर्वसोश्च शोधयितव्यं भवति वक्ष्ये ॥४॥ द्वासप्ततं शतं फाल्गुनीनां द्विनवतिश्च द्वौ विशाखासु । चत्वारि च द्विचत्वारिंशतानि शोध्यानि अथ उत्तराषाढा ॥५॥ पतत् पुनर्वसोच, द्विषष्टिभागसहितं तु शोधनकम् । इतः अभिजिदादि द्वितीयं वक्ष्यामि शोधनकम् ॥६॥ अभिजितो नव मुहूत्ताः द्विषष्टिभागाच भवन्ति चतुर्विशतिः । षट्पष्टिश्च समस्ता भागाः सप्तषष्टिछेदकृताः ॥७॥ एकोनषष्ठं प्रोष्ठपदा त्रिषु चैव नवोत्तरं च रोहिणिका । त्रिसु नवनवेषु भवेयुः पुनर्वसुः फाल्गुन्यश्च ॥८॥ पञ्चैव एकोनपञ्चाशतानि शतानि एकोनसप्तत्युत्तराणि षडेव । शोध्यानि विशाखासु मूले सप्तैव चतुश्चत्वारिंशतानि ॥९॥ अष्टशतम् एकोनविंशतम् शोधनकम् उत्तराषाढानाम् । चतुर्विशतिः स्खलु भागाः षट्षष्टिः चूर्णिकाश्च ॥१०॥ पतानि शोधयित्वा यत् शेषं तद् भवति नक्षत्रम् । इत्थं च करोति उडुपतिः सूरेण समम् अमावास्याम् ॥११॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ . . चन्द्रप्राप्तिसूले इच्छितपूर्णिमागुणितः अवधार्यः सोऽत्र भवतिकर्तव्यः । तदेव च शोधनकम् अभिजिदादि तु कर्तव्यम् ॥१२॥ शुद्ध च शोधनके यत् शेषं तद् भवेन्नक्षत्रम् । तत्र च करोति उडुपतिः प्रतिपूर्णः पूर्णिमां विमलाम् ॥१३॥इति।। एताः गाथाः क्रमेण व्याख्यायन्ते- 'नाउमिह' इत्यादि 'इह' इह युगे 'जइ' यदि त्वम् 'आमावासं' आमावास्यां ज्ञातुमिच्छसि यत् कस्मिन् नक्षत्रे वर्तमानाऽमावास्या परिसमाप्ता भवतीति, तदा'। तत्तियरूवेहिं तावत्करूपैः, याममावास्यां ज्ञातुमिच्छसि तत्पर्यन्तं यावत्यो sमावास्या व्यतीता जातास्तावत्संख्यया 'अवहारं' अवधार्यम् अवधार्यते प्रथमतया स्थाप्यते इति अवधार्यः ध्रुवराशिः तं 'ठावित्ता' स्थापयित्वा पट्टिकादौ लिखित्वा व्यतीतामावास्यासंख्यया तम् अवधार्य राशिं 'संगुणए' संगुणयेत् ॥१॥ कोऽसौ अवधार्यराशिरिति तं प्रदर्शयति-'छावट्टी' इत्यादि 'छावही य मुहुत्ता' षट्षष्टिश्च मुहूर्ताः। एकस्य मुहूर्तस्य च 'पंचपडिपुण्णा बिसहि भागा' परिपूर्णाः शेषरहिताः पञ्च द्वाषष्टिभागा तथा 'बासहिभाग' इति द्वाषष्टिभागस्य 'सत्तसहिगो य एक्को हवइ भागो' सप्तषष्टितम एको भागो भवति अयं भावः-एकस्य द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागाः क्रियन्ते, तेषु एकः सप्तषष्टितमो भागः । (६६.- .)इति एतावत्प्रमाणः अवधार्यराशिर्भवतीति ॥२॥ एतावत्प्रमाणस्यावधार्यराशेः कथमुत्पत्तिः ? इति प्रदर्श्यते- अत्र यदि चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यकैः पर्वभिः सूर्यनक्षत्रपर्यायाः पञ्च लभ्यन्ते तदा द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लम्यते ? इति त्रैराशिको गणित प्रकारस्ततो राशित्रयं स्थाप्यते यथा १२४। ५। २। अत्रान्त्येन द्विकरूपेण राशिना मध्यमः पञ्चकरूपो राशिगुण्यते जाताः दश (१०) अयं छेद्यराशिः अतः चतुर्विशत्यधिकं शतं च छेदकराशिः अतः छेदकराशिना छेद्यराशेर्भागहरणं कर्त्तव्यमिति चतुर्विशत्यधिकेन शतेन दशकरूपस्य राशेर्मागो हियते, तत्र छेद्यस्य दशकरूपस्य राशे न्यूनत्वेन भागो न हियते तेन छेपछेदकराश्योर्द्विकेनापवर्त्तना क्रियते, तेन छेद्यस्य दशकरूपस्य पञ्च लभ्यन्ते एष पञ्चकरूपः उपरितनराशिः छेदकस्य द्विकेनापवर्तनाकरणे द्वाषष्टिलभ्यते, एष द्वाषष्टिरूपः अधस्तनो राशिः, तेन लब्धाः पश्च द्वाषष्टि भागाः इति । एतेन नक्षत्राणि कर्तव्यानीति नक्षत्रकरणार्थम् त्रिंशदधिकाष्टादशशतैः (१८३०) सप्तषष्टिभागरूपैरुपरितनछेघराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते जातानि पञ्चाशदधिकैकनवतिशतानि (५ x १८३० = ९१५०), अथ चाधस्तनश्छेदराशिषिष्टिप्रमाणः (६२) एषोऽपि सप्तषष्ट्यागुण्यते, जातानि चतुष्पञ्चशदधिकैकचस्वारिंशच्छतानि (६२ x ६७ = ४१५४ ) स्थापना चेत्थम् -१०) । अत्रत्य उपरितनो ४१५४ राशिर्मुहू नयनार्थ दिवसस्य त्रिंशन्मुहूर्तत्वेन भूयस्त्रिंशता गुण्यते जाते पञ्चशतोत्तरचतुः सप्तति Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-६ सू०१ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २६५ m ४०५४ ) शेषाः ३३६, सहस्राधिके द्वे लक्षे (२७४५००) तथा च-९१५०४३०२७४५००। अस्य राशेः चतुष्पञ्चाशदधिकचत्वारिंशच्छतै (४०५४) र्भागो हियते-लब्धा षट्षष्टिर्मुहूर्ताः तथा च२७४५०० (६६ । र ५ शेषा अंशाः षट्त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि (३३६) एष राशि षिष्टिभागानयनाथ द्वाषष्टया गुण्यते नातानि द्वात्रिंशदधिकाष्टशतोत्तराणि विंशतिसहस्राणि (२०८३२ ) अस्यापि अनन्तरोक्तेन चतुष्पञ्चाशदधिकैकचत्वारिंशच्छतरूपेण (४१५४) छेदराशिना भागहरणं क्रियते लब्धाः पञ्च द्वाषष्टिभागाः (५), शेषास्तिष्ठन्ति (६२)। ततस्तस्या द्वाषष्टया अपवर्त्तना क्रियते जात एककः ?, छेदराशेश्चतुर्विंशत्याधिकशत रूपस्य द्वाषष्ट्याऽपवर्तनायां लब्धा सप्तषष्टिः ततः आयात-षट् षष्टिर्मुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्पषष्टिभागः । ६६-५-६२ - इति तदेवं जातमवधार्यराशिप्रमाणम् । अवधार्यराशेरुत्पत्तिरेषा भवतीति । अथ शेषविधि प्रदर्शयति - 'एयमवहाररासिं' इत्यादि, 'एयं' एतम् पूर्वोक्तम् 'अवहाररासिं' अवधार्यर।शिम् 'इच्छअमावाससंगुणं कुज्जा' इच्छितामावास्यासंगुणं यामवास्यां ज्ञातुमिच्छा वर्त्तते तत्प्रमितया संख्यया गुणितं कुर्यात् व्यतिक्रान्तामावास्यासंख्यया अवधार्यराशिं गुणयेदिति भावः । गुणयित्वा गुणनराशिमेकत्र स्थापयेदित्याशयः ‘एत्तो' इत ऊर्ध्वं च नक्षत्राणि शोधनीयानि भवन्तीति ‘नक्खत्ताण' नक्षत्राणां 'सोहणविहि' शोधनविधि वक्ष्यमाणं शोधनप्रकार 'निसामेह' । निशाम्यत शृणुध्वम् ॥३॥ प्रथमं पुनर्वसुशोधनकमाह- 'बावीस इत्यादि 'बावीसं' च मूहुत्ता' द्वाविंशतिश्च मुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य 'छायालीसं बिसद्विभागा' षट् चत्वारिंशद्विषष्टिभागाः-(२२) 'एयं' एतत्-एतावत्प्रमाणं 'पुणव्वसुस्स' पुनर्वसोः पुनर्वसुनक्षत्रस्य 'सोहेयव्वं भवइ' शोधयतिव्यं भवति । 'पुच्छं' वक्ष्यामि शेषनक्षत्राणां शोधनकानि अग्रे कथयिष्यामि ॥४॥ कथमेतस्योत्पत्तिरिति चेदाह – इह यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तदा एकं पतिक्रम्यैकेन पर्वणा कतिपया लभ्यन्ते ? इति त्रिराशिकगणितप्रकारोऽयंजायते, तथा च स्थापना (१२४।५।११) अत्रान्त्येन एककराशिना पञ्चकरूपो मध्यराशिर्गुण्यते तदा जाताः पञ्चैव । तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, पञ्चकरूपराशेन्यूनत्वेन भागो न हियते तदा स्थिताः पञ्चैव शेषरूपाः, तेन लब्धाः पञ्च-चतुर्विशत्यधिकशतभागाः (५।१२४)। ततो नक्षत्रानयनार्थमेष राशिः त्रिंशदधिकैरष्टादशभिः शतैः (१८३०) सप्तषष्टिभागरूपैर्गुणयितव्यइति गुणकारराशिः त्रिंशदधिकान्यष्टादशशतानि (१८३०) छेदराशिश्चतुर्विशत्यधिकमेकं शतम् ३४ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvvvw २६६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे (१२५)। तयोर्गुणकार-छेदराश्योरपवर्तना क्रियते ततो गुणकारराशिर्जातः पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि (९१५), छेदराशिषिष्टिर्जातः । ततः पन्च च पञ्चदशोत्तरनवशत (९१५) संख्यया गुण्यते, नातानि पञ्च सप्तत्युत्तराणि पश्चचत्वारिंशतानि (१५७५), भपवर्तनया लन्धच्छेदराशिद षिष्टिरूपः, स सप्तषष्टया गुण्यते, मातानि चतुष्पम्चाशदधिकानि एकचत्वारिंशच्छतानि (४१५४), तथा पुष्य नक्षत्रस्य ये त्रयोविंशतिः सप्तषष्टि भागाः (२३।६७) ये प्राक्तनयुगचर्मपर्वाणि सूर्येण सह योगं युञ्जन्ति ते (२३) द्वाषष्टया गुण्यन्ते जातानि षइविंशत्यधिकानि चतुर्दशशतानि-(२३४६२=१४२६)। एतानि प्राकनात् पश्चसप्तत्यधिकपञ्चचत्वारिंशच्छतप्रमाणराशेः (४५७५) शोध्यन्ते तिष्ठन्ति शेषतया एकोनपञ्चाशदधिकैकत्रिंशच्छतानि (३१४९) । तत एतानि मुइ नयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि सप्तत्यधिकचतुःशतोत्तराणि चतुर्णवति सहस्राणि-(३१४९४३०९४४७०)। एषां चतुष्पञ्चाशदधिकैक चत्वारिंशच्छतरूपेण (४ ११४) भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुई ः शेषरूपेण तिष्ठन्ति द्वयशीत्यधिकानि त्रिंशच्छतानि (३०८२) तथा च भागहरणस्थापना--(भाजकाः ४१५४) भाज्याः, ९४४७० लब्धाः २२)। अस्य षाः ३०८२ शेषाङ्काः द्वयशीत्यधिकत्रिंशच्छतरूपाः (३०८२ द्वाषष्टिभागानयनार्थ द्वाषष्टया, गुण्यन्ते, जातं चतुरशीत्यधिकैकनवतिसहस्रोत्तरं लक्षमेकम् (१९१०८४)। एषां चतु पञ्चाशदधिकैकचत्वारिशच्छत (४१५४) रूपेण छेदराशिना भागो हियते, लब्धा षटू चत्वारिंशद् एकस्य मुहूर्तस्य द्वाषष्टि भागा इति समागतं पूर्वोक्तं द्वाविंशतिर्महूर्ताः षट् चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागाः- (२२-४६) इति प्रमाणं पुनर्वसुनक्षत्रस्य शोधनकम् । एषा पुनर्वसुनक्षत्रस्य शोधनकोत्पत्तिः ॥ ____ अथ 'वुच्छं' वक्ष्ये' इति प्रतिज्ञया शेषनक्षत्राणां शोधनकान्याह-'बावत्तरं सयं' इत्यादि, 'बावत्तरं संयं' इति-द्वासप्ततं शतं चेति द्वासप्तत्यधिकमेकं शतं 'फग्गुणीण' फाल्गुनीनाम् उत्तरफाल्गुनीनां शोध्यं भवति । अयमाशयःद्वासप्तत्यधिकेनैकेन शतेन पुनर्वस्वादीनि उत्तरफाल्गुनी पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्तीति । एवमग्रेऽपि भावार्थो वोध्यः । तथा- 'बाणउइय बे विसाहासु' इति, विशाखासु हस्तादारभ्य विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु शोधनकं द्विनवत्यधिकं शतद्वयम् (२९२) 'अड' अथानन्तरम् 'उत्तरासाढा' इति-अनुराधात आरभ्योत्तराषाढा पर्यन्तानि पञ्च नक्षत्राणि अधिकृत्य 'सोज्झा' शोध्यानि, कियन्तीत्याह-'चत्तारि य बायाला' चत्वारिंशतानि द्विचत्वारिंशच्च-इति द्विचत्वारिंशदधिकानि चत्वारिंशतानि (४४२) भवन्तीति ॥५॥ 'एयं पुण' इत्यादि 'एय' एतत् पूर्वप्रदर्शितं पुनः ‘सोहणगं' शोधनकं सर्वमपि 'पुणव्वसुस्स'पुनर्वसोः पुनर्वसुसम्बन्धि वर्त्तते कियदित्याह-'विसहिभागसहियं' द्वाषष्टिभागसहितं समवसेयम् । तथाहि-यो पुनर्वसु Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१०-६ सू० १ पुर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २६७ सम्बन्धिनो द्वाविंशतिर्मुहूर्त्तास्ते सर्वेऽपि उत्तरस्मिन् शोधनकेऽन्तः प्रविष्टाः प्रवर्तन्ते किन्तु न द्वाष्ट भागाः, ततो यद् यच्छोधनकं शोभयते तत्र तत्र पुनर्वसु सम्बन्धिनः षट्चत्वारिंशद् द्वाषाष्टिभागा उपरितनाः शोधनीया इति । इदं च पुनर्वसोरारभ्य उत्तराषाढा पर्यन्तं प्रथमं शोधनकमुक्तम्, 'इत्तो' इतः अत्रतोऽग्रे 'अभिइआई' अभिजिदादिम् अभिजितमादिं विधाय भदौ अभिजितं कृत्वा 'बिइयं सोहणगं' द्वितीयं शोधनकं 'बुच्छामि' वक्ष्यामि - कथयिष्यामि ॥६॥ तदेव गाथा चतुष्टयेन दर्शयति 'अभिहस्स' इत्यादि 'अभिहस्स' अभिजितः अभिजिन्नक्षत्रस् शोधनकं 'नवमुहुत्ता' नवमुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य 'चउवीसं विसट्टिभागा य' चतुर्विंशति द्वषष्टिभागाश्च, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य 'सत्तट्ठिछेयकया' सप्तषष्टिछेदकृताः 'समत्ता' समस्ताः परिपूर्णाः शेषरहितत्वात् 'छावडी भागा' षट्षष्टिर्भागाः भवन्ति । ७| तथा 'अउणद्वं' इत्यादि, 'अउ - ' एकोनषष्टम् - एकोनषष्ट्यधिकं शतं 'पोटूवया' प्रोष्ठपदेति पदानाम् उत्तरभाद्रपदानां शोधनकम्, किं तात्पर्यमित्याह - एकोनषष्ट्यधिकेन शतेन अभिजित आरभ्य उत्तरभाद्रपदापर्यंत षड्नक्षत्राणि शुद्धयन्ति । एवमग्रेऽपि योजना कर्त्तव्या । तदेवान्तिमनक्षत्रमाश्रित्य सूचयतिरोहिणिका - अश्विनीत आरभ्य रोहिणी पर्यन्तानि चत्वारि नक्षत्राणि 'तिसु चैव नवोत्तरं च ' त्रिषु'चैव नवोत्तरेषु च शतेषु नवोत्तराणि श्रीणि शतानि (३०९) नवोत्तरशतत्रयभागैः शुद्धयन्ति । तथा 'तिसु नवनवरसु' त्रिषु नवनवतेषु नवनवत्यधिकेषु त्रिषु शतेषु नवनवोत्तरशतत्रय (३९९ ) भागैः ‘पुणव्वस्’ पुनर्वसुः मृगशिरसआरभ्य पुनर्वसु पर्यन्तानि त्रीणि नक्षत्राणि शुद्धयन्ति । तथा नवमगाथापूर्वार्धकथितानि 'अउणपन्नं पंचेव सयाई' एकोनपञ्चाशदुत्तराणि पञ्चशतानि एकोनपञ्चाशदधिक पञ्चशतभागैः (५४९) 'फग्गुणीओ' फाल्गुन्यः उत्तरफाल्गुन्यः पुष्यत आरभ्य उत्तरफाल्गुनी पर्यन्तानि पञ्चनक्षत्राणि शुद्धयन्ति | ८ | तथा 'विसाहासु' विशाखासु हस्तत भारभ्य विशाखापर्यन्तेषु चतुर्षु नक्षत्रेषु 'अउणुत्तराई' एकोनसप्तत्यधिकानि 'छच्चेव सयाई' षट्शतानि (६६९) 'सोझाणि' शोध्यानि भवन्ति । 'मूले' मूलपर्यन्ते अनुराधात आरभ्य मूलनक्षत्रपर्यन्तेषु त्रिषु नक्षत्रेषु 'सत्तेव चोयाल' सप्तैव चतुश्चत्वारिंशत् चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि (७४४) शोध्यानि ॥|| ९ || ' उत्तरासादाणं' उत्तराषाढानाम् - उत्तराषाढा पर्यन्तानामिति पूर्वाषाढा उत्तराषाढा - इति द्वयोर्नक्षत्रयोः 'सोहणगं' शोधनकम् 'अट्ठसय अउणवीसा' एकोन विंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८१९ ) सन्तीति । सर्वेष्वपि च शोधकेषु उपरि अभिजिन्नक्षत्रस्य सम्बन्धिनो मुहूर्तस्य 'चउवीसं खलु भागा' चतुर्विशति द्वषष्टिभागा तथा 'छावडीचुण्णियाओ य' षट्षष्टिश्च चूर्णिकाश्च एकस्य द्वाषष्टि भागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा चूर्णिकाभागाः । २४ ६६. शोधनीयाः ॥ १० ॥ ६२ ६७ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे उपसंहारमाह-'एयाई' इत्यादि, 'एयाई' एतानि पूर्वप्रदर्शितानि शोधनकानि यथायोगं 'सोहइत्ता' शोधयित्वा एतेषु शोधितेषु सत्सु 'जं सेस' यत् शेषं भवेत् 'तं' तत् 'नक्खत्तं हवई' नक्षत्रं भवति । 'इत्थ य' अत्र च एतस्मिन् नक्षत्रे 'उडुवई' उडुपतिः चन्द्रः 'सूरेण समं' सूरेण सम, सूर्येण सह स्थित्वा 'अमावासं करेइ' अमावास्यां करोति स्वाभीप्सितामावास्यायामेतन्नक्षत्रं भवतीति भावः ॥११॥ एवममावास्याविषयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमभिहितम्, साम्प्रतं पूर्णिमाविषयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमाह-'इच्छापुण्णिमगुणिओ' इत्यादि, अत्रापि योऽमावास्या चन्द्रयोगपरिज्ञानेऽवधार्यराशिः प्रोक्तः स एव ग्राह्यः । 'इच्छापुण्णिमगुणिओ' इच्छितपूर्णिमागुणितः इति अयमवधार्यराशिः-(६६६ ) उक्तश्चैष राशिः पूर्वं द्वितीयगाथायां, तथाहि 'छावट्ठीयमुहुत्ता, बिसद्विभागा य पंच पडिपुन्ना। बासहिभागसहिगो य इक्को हवइ भागो२॥ इति, व्याख्यातेयं गाथा तत्रैवेति । 'सोत्थ' सोऽत्र 'अवहारो अ' अवधार्यराशिः पूर्णिमां ज्ञातुमिच्छति तत्संख्यया गुणितः 'कायव्वो होइ' कर्त्तव्यो भवति गुणयितव्य इत्यर्थः, गुणयित्वा च 'तं चेव य सोहणगं' तदेव च शोधनकं पूर्वप्रदर्शितं शोधनकम् 'अभिइआई अभिजिदादिकं 'कायव्,' कर्त्तव्यम्, न तु पुनर्वसुप्रभृतिकमिति भावः ।१२। 'सुद्धम्मि य सोहणगे' शुद्धे च शोधनके, कृते च शोधनके 'जं सेसं तं' यत् शेषं तत् 'नक्खत्तं' नक्षत्रं 'हविज्ज' भवेत् तस्यां पूर्णिमायाम् । 'तत्थ य' तत्र च तस्मिन् नक्षत्रे 'उडुवई' उडुपतिः चन्द्रः 'पडिपुन्नो' प्रतिपूर्णः सकलकलासम्पन्नः 'विमल पुण्णिम' विमलां निर्मला पूर्णिमा 'करेइ' करोति । इत्येष पौर्णमासी. चन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानविषयकरणगाथाद्वयाक्षरार्थः । अथात्रास्यैव भावना क्रियते-अत्र कोऽपि प्रच्छकः प्रश्नं करोति-युगस्यादौ प्रथमा पूर्णिमा श्राविष्ठी श्रावणमासभाविनी भवति सा कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रे समाप्तिमेति ? इति प्रश्ने तत्रावधार्यो राशि:-षट्षष्टिमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य परिपूर्णाः पञ्चद्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टितमो भागः -- ६६.८) इत्येतद्रूपोऽवधार्यराशिः स्थाप्यते, एष राशिः प्रच्छकेन ६६७ ६२ प्रथमायाः पौर्णामास्याविषये प्रश्नः कृत स्तत एकेन गुण्यते, एकेन गुणितः स एव भवति “एकेन गुणितं तदेव भवति" इति वचनात् . ततस्तस्मात् अभिजितो नवमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्वि शति विष्टिभागाः, एकस्य द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिसप्तषष्टिभागाः (९-२४.११) इत्येतत्परिमा ६२।६७ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 . चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-६ सू०१ पुर्णिमायां नक्षत्रोगनिरूपणम् २६९ णकं शोधनकं शोधनीयम्, तत्र षट्पष्टितो नव मुहूर्ताः शोधिताः स्थिताः शेषाः सप्तपञ्चाशत् (५७) तेभ्य एकं मुहूर्त गृहीत्वा तस्य द्वाषष्टिर्भागाः क्रियन्ते, ते च द्वाषष्टिभागा अपि द्वाषष्टिभागराशौ पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तषष्टिषष्टिभागाः, तेभ्यश्चतुर्विशतिः शोध्यते स्थिताः शेषास्त्रिचत्वारिंशत् (४३) तेभ्य एकं रूपं गृहीत्वा तस्य सप्तषष्टि गाः क्रियन्ते, कृताश्च ते सप्तषष्टिभागा अपि सप्तषष्टिभागानामेकभागमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जोता अष्टषष्टिः सप्तषष्टिभागाः (१८)तेभ्यः षट्षष्टिः शोध्यते तदा स्थितौ शेषौ द्वौ सप्तपष्टि भागौ(५६ ) ततः श्रवणस्य त्रिंशन्मुहूर्ता षट्पञ्चशतः शोध्यन्ते स्थिताः शेषाः षड्विंशति मुहर्ताः, तत आगतं धनिष्ठानक्षत्रस्य षड्विंशतिमुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य द्विचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु गतेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विसंख्यकसप्तषष्टि भागे ( २६४२) व्यतीते सति, तथा- त्रिषु मुहूर्तेषु, एकस्य मुर्तिस्य एकोनविंशतिसंख्यकेषु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चषष्टिसंख्यकसप्तष्टिभागेषु च( ११६६५)शेषेषु प्रथमा श्राविष्ठी पौर्ण मासी परिसमाप्तिमेति । यदि द्वितीया श्राविष्ठी पूर्णिमा विचार्यते तदा सा युगस्यादित ः आरभ्य त्रयोदशो भवति । अवधार्यराशिः पूर्वोक्त एव (६६-५/ . ६७ त्रयोदशभिर्गुण्यते जाता अष्ट पश्चाशदधिकानि अष्टशतानि मुहूर्ताः (८५८) एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चषष्टिषिष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सम्बन्धिनत्रयोदशसप्तपष्टिभागाः(८५८६५१३, एतस्मात् एकोनविंशत्यधिकाष्टशत-८१९ मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्ठिभागस्य सम्बन्धिनः षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागाः ६६ ( ८१९-२४६.६, एकस्य नक्षत्रपर्यायस्यशोध्यन्ते, ततः स्थिताः शेषाः-एकोनचत्वारिंशन्मुहूर्ताः एकस्य च मुहर्तस्य च. त्वारिंशद् द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तषष्टिभागाः- (३९.१४), तत एतस्मात् नव मुहूर्ताः, एकस्य च मुहर्त्तस्य चतुविंशतिषिष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागाः अभिजिन्नक्षत्रस्य शोध्यन्ते, स्थिताः शेषा त्रिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य मुहूर्तस्य पञ्चदश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाष्टिभागस्य पञ्चदश सप्तषष्टिभागाः (३०-१५१),तेभ्यस्त्रिंशन्मुहूर्ताः श्रवणस्य शोध्यन्ते, तत आगतम्-एकस्य मुहू ६२/६७ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० चन्द्रप्राप्तिसूत्र ६७ ६२६७" ६२ ६७ तस्य - श्चदशसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चदशसु सप्तषष्टिभागेषु ( ०-१ ११) गतेषु सत्सु, तथा एकोनविंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (२९. १६)शेषेषु च धनिष्ठानक्षत्रं द्वितीयां श्राविष्ठों पूर्णिमा परिसमापयति । यदा तृतीयां श्राविष्ठी पूर्णिमां ज्ञातुमिच्छेत् तदा सा युगस्यादितः पञ्चविंशतितमेति पञ्चविंशत्या पूर्वोक्तोऽवधार्यराशिर्गुण्यते, जातानि पञ्चाशदधिकानि षोडशशतानि (१६५०), एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविंशत्यधिकमेकं शतं द्वाषष्टिभागाः (१२५) एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य पञ्चविंशतिः सप्तपष्टिभागाः २५ ( १६५०१५)। अस्मात् अष्ट त्रिंशदधिकषोडशशतमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टचत्वारिंशद् द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशदधिकं शतम् ( १६३८-१८४१३२, योर्नक्षत्रपर्याययोः शोध्यन्ते, स्थिताः शेषाः द्वादशमुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पंञ्चसप्ततिदुषिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः १२७५२७॥ ततो नव मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विशति षिष्टिभागाः एकस्य च द्वाष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (९-8-)शोध्यन्ते, तिष्ठन्ति शेषाः त्रयो मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूतस्य पञ्चाशत् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टाविंशतिः सप्तषष्टिभागाः (३८०२८ एतेषु भागेषु गतेषु, तथा षड्विंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाघष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (२६११३९) शेषेषु सत्सु च श्रवणनक्षत्रं तृतीयां श्राविष्ठी पौर्णमासी समापयति । एवं रीत्या चतुर्थी श्राविष्ठी पूर्णिमा युगस्यादितः सप्तत्रिंशत्तमा (३७) धनिष्ठानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टा विशती द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु, (१३ २०१२) गतेषु तथा षोडशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (१६ ) शेषेषु सत्सु परिसमा ६।६७ ६२६७ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०- ६सू. १ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २७९ पयति । पञ्चमी श्राविष्ठी पूर्णिमां युगादित एकोनपश्चाशत्तमां प्रवणनक्षत्रं सप्तदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य मुहूर्तस्यैकस्मिन् द्वाषष्टिभागे, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु १७/१/४५ । गतेषु, तथा द्वादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षष्टिसंख्यकेषु द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (१२०२०) शेषेषु परिसमापयति । अतएव सूत्रे कथितम्-"ता साविढि ण पुण्णमासिं कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता तिण्णिणक्खत्ता जोएंति, तं जहा अभिई १ सवणो२ धणिद्वा३ ।" इति ॥१॥ __तदेवं श्राविष्ठोपूर्णिमापरिसमापकानि नक्षत्राणि प्रदर्शितानि, साम्प्रतं यानि नक्षत्राणि प्रोष्ठपदी पूर्णिमां समापयन्ति, तानि प्रदर्शयति - 'ता पोवई णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'पोहबई णं पुण्णिमं' प्रोष्ठपदी भाद्रपदमासभाविनी खलु पूर्णिमा 'कई' कति कति संख्यकानि ‘णक्खत्ता' नक्षत्राणि चन्द्रेण 'जोएंति' युञ्जन्ति इत्यादि, कतिनक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगं युक्तवा भाद्रपदभाविनी पूर्णिमां समापयन्तीति भावः । भगवानाह ----- 'ता तिण्णि' इत्यादि । 'ता' तावत् 'तिणि णक्खत्ता' णि नक्षत्राणि 'जोएंति' युञ्जन्ति प्रोष्ठपदीपूर्णिमानक्षत्रत्रययुक्ता भवतीति भावः। तान्येव दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि 'तं जहा' तद्यथा तानि नक्षत्राणि यथा-'सयभिसया' शतभिषक् १ 'पुन्वा पोद्ववया' पूर्वप्रोष्ठपदा पूर्वाभाद्रपदा २ 'उत्तरा पोहवया' उत्तरप्रोष्टपदा-उत्तराभाद्रपदा ३॥ तत्र प्रथमां प्रोष्टपदी पूर्णिमाम् उत्तरभाद्रपदानक्षत्रं सप्तदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषु सप्तषष्टिभागेषु, (१७-१३) गतेषु, तथा सप्तविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःषष्टी सप्तषष्टिभागेषु (२७११६७) शेषेषु समापयति उत्तरभाद्रपदानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिशन्मुहूर्तात्मकत्वात् १। द्वितीयां प्रोष्टपदी पूर्णिमा पूर्वभाद्रपदानक्षत्रम्-एकविंशती मुहूर्तेषु, एकस्य मुहूर्तस्य च विंशतौ द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षोडशसु सप्तषष्टिभागेषु (२१०१५) गतेषु, तथा अष्टसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एक पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु ( ८४१५१) शेषेषु परिसमाप्ति नयति २ । तृतीयां प्रोष्ठपदी पूर्णिमां शतभिषग् नक्षत्रं नवस मुहूत्र्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चपञ्चा शति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोन त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (९१६१७) ६७ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे गतेषु तथा पञ्चसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्सु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य |३८ अष्टाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु ( ५- । शेषेषु च समापयति शतभिषग्नक्षत्रस्य पञ्चदश मुहूर्त्तात्मकत्वात् ॥ ३॥ चतुर्थी प्रोष्ठपदीं पूर्णिमाम् उत्तरभाद्रपदानक्षत्रं चतुर्षु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य विंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु २० ४३ 2) गतेषु, तथा चत्वारिंशति मुहूर्त्तेषु, एकस्य न मुहूर्त्तस्य एकचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु (8 ६ ४१४२. ६२/६ एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु ( ४०. भाद्रपद नक्षत्रस्य पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् । ४ । पञ्चमीं प्रोष्ठपदीं पूर्णिमां पूर्वभाद्रपदा नक्षत्रम् अष्टसु मुहूर्तेषु. एकस्य च मुहूर्तस्य राषट्सु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पञ्चा शति सप्तषष्टिभागेषु ( ८ ६ ५६) गतेषु तथा एकविंशतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य मुहूर्त्तस्य पञ्च ६२/६७ शेषेषु सम समापयति उत्तर ist P ,५५/११ ६२६७ पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु. एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकादशसु सप्तषष्टिभागेषु ( २१शेषेषु परिसमाप्ति नयतीति २ ।' आसोइं णं' इत्यादि 'आसोई णं' आश्विनीम् आश्विनमासभाविनीं खलु 'पुण्णिम' पूर्णिमां 'कइणक्खत्ता जोति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति चन्द्रेण सह - योगं कृत्वा समापयन्ति ? भगवानाह - 'ता' तावत् ' दोण्णि णक्खत्ता' द्वे नक्षत्रे 'जोति' युङ्क्तः 'तं जहा' तथथा – ' - 'रेवई य अस्सिणी य' रेवती च अश्विनी च । काञ्चिद् आश्विन पौर्णमासीम् उत्तरभाद्रपदा नक्षत्रमपि कदाचित् परिसमापयति परं तन्नक्षत्रं प्रौष्ठपदीमपि पूर्णिमां समापयति अतो लोके तन्नाम्ना तस्या एव पूर्णिमाया अभिधानात्तत्रैव तस्य प्राधान्यम्, अतोऽत्र तन्न विवक्षितमिति न दोषः । आश्विन पूर्णिमासमाप्तिप्रकारमाह-- प्रथमामाश्विनीं पौर्णमासी मश्विनी नक्षत्रम् अष्टसु - मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूत्तस्य द्विपञ्चाशद्व षष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्षु सप्तषष्टि ५२ ४. भागेषु (८- गतेषु, तथा एकविंशतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य नवसु द्वाषष्टिभागेषु ६२|६२ एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषष्टौ मप्तषष्टिभागेषु (२१९६३) शेषेषु समापयति । द्वितीया ६२ ६७ माविनीं पौर्णमासी रेवतीनक्षत्रं द्वादशसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-६ सू०१ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २७३ २15७ ६२४६ एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तषष्टिभागेषु ( १२ गतेषु, तथा सप्तद्शसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पट्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चाशतिसप्त--- षष्टिभागेषु (१७२६०१०)शेषेषु समापयति २ । तृतीयामाश्विनी पौर्णमासीमुत्तराभाद्रपदानक्षत्रं त्रिंशतिमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षष्टौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाष्टिभागस्य त्रिंशति , सप्तषष्टिभागेषु ( ३०६०२०) गतेषु तथा चतुर्दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्यैकस्मिन् : द्वापष्टिभागे, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु(१४३३-) शेषेषु समापयति उत्तराभाद्रपदनक्षत्रं पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकमस्तीति पूर्वकथितमेवेति । ३। चतुर्थीमाश्विनी पौर्णमासी रेवतीनक्षत्रं पञ्चतिशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टाविंशतौ द्वाषष्ठिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (२५२०१४) गतेषु, तथा चतुर्ष मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वाष्टिभागेषु एकस्य च द्वाष्टिभागस्य त्रयोविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु ४२२२२शेषेषु समापयति ।४। पञ्चमीमाश्विनी पौर्णमासीमुत्तरभाद्रपदनक्षत्रं चतुश्चत्वारिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुर्त्तस्यैकादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपश्चाशति सप्तपष्टिभागेषु (४४२११७) गतेषु तथथैकस्य मुहूर्त्तस्य पश्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य दशसु सप्तषष्टिभागेषु (०१०१०) शेषेषु समाप्ति नयति उत्तरभाद्र पदनक्षत्रस्य पञ्चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् ॥५॥ गता आश्विनी पूर्णिमावक्तव्यता अथ कार्तिकी पूर्णिमा परिसमाप्तिप्रकारमाह 'कत्तिय'इत्यादि 'कत्तियं णं पुण्णमं' कार्तिकी कार्तिकमासभाविनी खलु पूर्णिमां कइ णक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति कियत्संख्यकाणिनक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगं कृत्वा कार्तिकीपूर्णिमां परिसमापयतीति गौतमस्य प्रश्नः । भगवानाह 'ता' तावत् 'दोणि णक्खत्ता' द्वे नक्षत्रं 'जोएंति' युङ्कतः 'तं जहा' तद्यथा ते इमे 'भरणी कत्तियाय' भरणी कृत्तिका च । इहापि काञ्चित् कार्तिकी पूर्णिमां कदाचित् अश्विनीनक्षत्रमपि समापयति किन्तु तस्याश्विन्यां पूर्णिमायां प्राधान्यात् , तदत्र न विवक्षितमतो ६१६७ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ६२/६७ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे ऽत्र भरण्याः कृत्तिकायाश्च योगप्रकारमाह--प्रथमां कार्तिकी पूर्णिमा कृत्तिकानक्षत्रमेकोनत्रिंशति मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तपश्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पश्चसु सप्तषष्टि भागेषु (२९११ गतेषु तथैकस्य मुहूर्तस्य चतुर्यु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य द्वाषष्टौ सप्तषष्टि भागेषु (०४.६२) शेषेषु समाप्ति नयति ।। द्वितीयां कार्तिकी पूर्णिमां कृत्तिकानक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य अष्टादशसु सप्तषष्टिभागेषु ३३०१ गतेषु तथा षड्विंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहू तस्य एकत्रिंशति द्वाषष्टि भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु ( २६३१।४९) शेषेषु समापयति ।२। तृतीयां कार्तिकी पूर्णिमामश्विनीनक्षत्रं द्वाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिषु द्वाषष्टि भागेषु एकस्य च द्विषष्टि भागस्य एकत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु तथा सप्तसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टपञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाष्टिभागस्य षट्त्रिंशति सप्तषष्टि भागेषु(७ ५८३६) शेषेषु समापयति ।३। चतुर्थी कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिषु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्च चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु [ १३३१४५.] गतेषु तथा षोडशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टापञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशतो सप्तषष्टिभागेषु ( १६५८२२ शेषेषु समापयति ।४। पञ्चर्मी कार्तिकी पूर्णिमां भरणीनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षोडशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टपञ्चाशति सप्तषष्टि भागेषु ५१६५ गतेषु, तथा नवसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य नवसु सप्तषष्टिभागेषु ९४६ शेषेषु समाप्तिं नयति, भरणीनक्षत्रस्य पञ्चदशमुहूर्तात्मकत्वात् ।५। ६६७ ६२६७ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-६सू० १ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपण २७५ उक्तः कात्तिकीपूर्णिमाया नक्षत्रयोगप्रकारः, अथ मार्गशीर्षमास पूर्णिमाया नक्षत्रयोगमाह'मग्गसिरिं गं' इत्यादि ‘मग्गसिरि णं पुण्णिम' मार्गशीर्षी मार्गशीर्षमासभाविनी खलु पूर्णिमा 'कइ णक्खत्ता जएंति' कतिनक्षत्राणि युञ्जन्ति? भगवन्नाह-'ता' तावत्'दोण्णि णक्खत्ता जएंति' द्वे नक्षत्रे युङ्क्त 'तंजहा' तद्यथा-ते इमे—'रोहिणी मग्गसिरोय' रोहिणी मृगशिरश्च । तत्रप्रथमां मार्गशीर्षी पूर्णिमां मृगशिरोनक्षत्रम्—एकविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य-सम्बन्धिनो द्वाषष्टिभागस्य षट्स् सप्तषष्टिभागेषु २१० २१ गतेषु तथा—अष्टसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूतस्य सम्बन्धिद्वाषष्टिभागस्य एकषष्टौ सप्तषष्टि भागेषु ( ८६ शेषेषु समाप्तिं नयति ।१। द्वितीयां मार्गशीर्षी पूर्णिमां रोहिणीनक्षत्रम्—एकोनचत्वारिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु ३९ ३१/१९ गतेषु तथा पञ्चसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षड्विंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु ५६० शेषेषु समापयति, रोहिणीनक्षत्रस्य पश्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् ॥२॥ तृतीयां मार्गशीर्षी पौर्णमासीमपि रोहिणीनक्षत्रम् त्रयोदशसुमुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशति-सप्तषष्टि भागेषु १३८ गतेषु तथा एकत्रिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिपञ्चाशति द्वाषष्टि ६२/६७ श६७ भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिः भागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तषष्टि भागेषु– ३१ शेषेषु परिपूरयति ।३। चतुर्थी मार्गशीर्षी पूर्णिमां मृगशिरोनक्षत्रे सप्तसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तष्टिभागेषु ७४८१४६ ६२१६७ गतेषु तथा द्वाविंशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोदशसु षष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्यैकविंशतौ सप्तषष्टि भागेषु २२१३२१ शेषेषु समापयति ।४। पञ्चमी मार्गशीर्षी पूर्णिमां रोहिणी नक्षत्रं षड्विंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्यैकविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु २ २१५९ गतेषु, तथा अष्टादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ५६१६० चन्द्रालिले मुहत्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टि भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्याष्टसु सप्तषष्टिभागेषु, १८०० शेषेषु समाप्ति नयति ।५। उक्ता मार्गशीर्षीपौर्णमासी वक्तव्यता, साम्प्रतं पौषी–पौर्णमासी-वक्तव्यतामाह'ता पोसिं णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'पोसिं णं' पुणिम' पौषी पौषमासभाविनी खलु पूर्णिमां 'कइ णक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति, कतिसंख्यकानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगं कृत्वा पौषीं पूर्णिमा परिसमापयति ? भगवानाह–'ता' तावत् 'तिण्णि णक्खत्ता जोएंति' त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति 'तं जहा' तद्यथा-तानीमानि—'अदा' आर्द्रा 'पुणव्वस्' पुनर्वसुः २, 'पुस्सो' पुष्यः ३, तत्र प्रथमां पौषी पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं द्विचत्वारिंशति मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चसु द्वाषष्टिभागेषु,. एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तसु सप्तषष्टिभागेषु-(४२ ) गतेषु; तथा-द्वयोर्मुहूर्त्तयोः, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टौ सप्तषष्टिभागेषु (२०६१ शेषेषु समाप्ति नयति पुनवसुनक्षत्रस्य पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् १, द्वितीयां पौषीं पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रम् पञ्चदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभामस्य विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (१५ ) गतेषु, तथा-एकोनत्रिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्यै कविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टि भागेषु (२९२१ ) शेषेषु समापयति २, तृतीयां पौषीं पूर्णिमामग्रेऽधिकमासस्यागमिष्यमाणत्वादधिकमासादर्वाक्तनी पौर्णमासीमा नक्षत्रं चतुर्षु मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोदशसु द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (४२२०२३) गतेषु तथा-दशसु मुद्धतेषु, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्तिशति सप्तषष्टिभागेषु (१०४०।२४) शेषेषु समाप्ति नयति, आर्द्रानक्षत्रस्य पञ्चदशमुहूर्तात्मकत्वात् ३, पुनश्चाधिकमासंभाविनीमपरां तृतीयां पौषीं पूर्णिमां पुष्यनक्षत्रं दशसु मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु साद ४०२० ६२।६७ ६२।६७ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-६सू०१ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २७७ (१०१८॥३४) गतेषु, तथा—एकोनविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टि ६२।६७ दश६७ भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (१९०२०२२) शेषेषु समापयति ३, चतुर्थी पौषीं पौर्णमासी पुनर्वसु नक्षत्रम्-अष्टाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (२८५३।४७) गतेषु, तथा-पोडशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (१६८२०) शेषेषु परिणमयति ४, पञ्चमी पौषी पोर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं द्वयोर्मुहूर्त्तयोः, एकस्य च मुहूर्तस्य षड्विंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टौ सप्तपष्टिभागेषु (२२६६६०) गतेषु, तथा—द्विचत्वारिंशतिमुहतेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चत्रिंशति द्वाषष्टि भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तसु सप्तषष्टि भागेषु (४२२१०० ) शेषेषु समाप्ति नयति ॥५॥ ___गता पौषी पौर्णमासी वक्तव्यता, अथ माघी पौर्णमासी वक्तव्यतामाह-'ता माहि णं इत्यादि, 'ता' तावत् 'माहि णं पुण्णिमं' माघीं माघमासभाविनी पूर्णिमां 'कइणक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? भगवानाह-'ता' तावत् माघीं खलु पूर्णिमां 'दोण्णि णक्खत्ता जोएंति' द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः , 'तं जहा' तद्यथा-ते इमे—'अस्सेसा महा य' अश्लेषा मधा च । अत्र--- च शब्दात् काञ्चिन्माघी पूर्णिमा पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रं, काञ्चिच्च पुष्यनक्षत्रमपि युनक्ति योगं करोतीति विज्ञेयम् । तथाहि--प्रथमां माघी पौर्णमासी मघानक्षत्रम्---अष्टादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु द्वाषष्टि भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्याष्टसु सप्तषष्टिभागेषु .१०८ (१८ ) गतेषु, तथा—एकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्यैकपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु (११५१॥५१ शेषेषु, समापयति १, द्वितीयां माघी पौर्णमासीमाश्लेषानक्षत्रम्-घट्सु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (६० ४५/२१ ..दरा६७ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ६२६७ ६२।६७ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे गतेषु, तथा—अष्टसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षोडशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (८१६९६) शेषेषु समाप्तिं नयति २, तृतीयां माघीं पूर्णिमा पूर्वाफाल्गुनीनक्षमेकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशति सप्तषष्टिभागेषु (१२२॥३५) गतेषु, तथा—अष्टाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (२८२८)शेषेषु समापयति ३, चतुर्थी माघी पौर्णमासी मघानक्षत्रं चतुर्यु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (४१८४०) गतेषु, तथा— पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूतस्य त्रिषु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनविंशतो सप्तषष्टिभागेषु (२५३ ॥१९शेषेषु समापयति ४, पञ्चमी माघी पौर्णमासी पुष्यनक्षत्रं त्रयोविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मूर्तस्यैकत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु (२३३१।६१) गतेषु, तथा—घट्स मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशति द्वापष्टिभागेषु ६२।६७ दरा ६२।६७ एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्सु सप्तषष्टिभागेषु (६२० ६ ) शेषेषु समापयति ।५। ६२६७ व्याख्याता माघी पौर्णमासी, अथ फाल्गुनी पौर्णमासीं विवृणोति—'ताफग्गुणिं ण' इत्यादि 'ता तावत् 'फग्गुणिं णं पुण्णिम' फाल्गुनी फाल्गुनमासभाविनी---खलु पूर्णिमां 'कइ णक्खत्ता जोएंति'कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? भगवानाह-'ता दुन्ति णक्खत्ता जोएंति'तावत् द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः, 'तं जहा' तद्यथा ते इमे -'पुव्वफग्गुणी उत्तरफग्गुणीय' पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी च। तत्र-प्रथमा फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनी नक्षत्रं चतुर्विशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चदशसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य नवसु सप्तषष्ठिभागेषु (२४१५। ) गतेषु, तथा-विंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशप्ति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टापञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (२०४६५८) शेषेषु परिसमापयति, उत्तरा- . ६२।६७ વાહ ૭ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६।६७ ५ ६०६७ चन्द्रप्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-६ सू०१ पूाणमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २७९ फाल्गुनी नक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् ।१। द्वितीयां फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रं सप्तविंशतो मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूत्तेस्य पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (२०५०।२२ ) गतेषु, तथा-द्वयोर्मुहूर्त्तयोः, एकस्य च मुहूर्तस्यै कादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (२११॥ ४५) शेषेषु समाप्ति नयति ।२। तृतीयां फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तत्रिंशतौ मुहूर्तेषु,एकस्य च मुहूर्तस्याष्टाविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्त्रिंशति सप्तषष्टि भागेषु(३७२८।२६) गतेषु, तथा सप्तसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकत्रिंशति सप्तषष्टि भागेषु ( ७३३.३१ ) शेषेषु समापयति ।३॥ चतुर्थी फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रम्-एकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहर्तस्यैकस्मिन् द्वाषष्ठिभागे, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु ( १११ १४१) गतेषु, तथा-त्रयस्त्रिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षष्टौ द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टादशसु सप्तपष्टिभागेषु (३३६०।१८, शेषेषु परिणमयति ।। पञ्चमी फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु १४२६६२) गतेषु, तथा - पञ्चदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चसु सप्तषष्टिभागेषु ( १५७ शेषेषु परिसमापयति ।५। ६२।६७ ___ गता फाल्गुनी पूर्णिमावक्तव्यता, साम्प्रतं चैत्रीमाह-'ता चेति णं' इत्यादि 'ता चेति णं' तावत् चैत्री चैत्रमासभाविनों खलु 'पुण्णिम' पूर्णिमां 'कइ णक्खत्ता' कति नक्षत्राणि • 'जोएंति' युञ्जन्ति चन्द्रेण सह संयुज्य चैत्री पूर्णिमां समापयति, भगवानाह–'ता' तावत् 'दोणि णक्खत्ता जोएंति' द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः, 'तं जहा' तद्यथा-ते यथा—'हत्थो चित्ताय' हस्तिः चित्रा च । तत्र--प्रथमां चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं पञ्चदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुह दराद Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे wwwnnnwwwwwwww श६७ ६२।६७ दा तस्य विंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभगस्य दशसु सप्तषष्टिभागेषु (१५॥ ६२।६७ गतेषु तथा—चतुर्दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्यैकचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (१४४९।१७) शेषेषु समापयति ।१॥ द्वितीयां चैत्री पौर्णमासी हस्तिनक्षत्रम्-अष्टादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयो विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (१८५१२२) गतेषु, तथाएकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्सु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (११६ ११४) शेषेषु समाप्ति नयति ।२। तृतीयां चैत्रीं पौर्णमासी चित्रानक्षत्रम्--अष्टाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (२८३३।२७) गतेषु तथा—एकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टाविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (१२८१४९) शेषेषु समाप्ति नयति ।३। चतुर्थी चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं द्वयोर्मुइतयोः, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्सु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (२६ १५०) गतेषु, तथा सप्तविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तषष्टिभागेषु (२७५५/१७) शेषेषु परिणमयति ।४। पञ्चमी चैत्री पौर्णमासी हस्तिनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्यैक चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु (५४११६३ गतेषु, तथा—चतुर्विशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्युसप्तषष्टि भागेषु (२४०४) शेषेषु समापयति ॥५॥ व्याख्याता चैत्री पौर्णमासी, साम्प्रतं वैशाखी पौर्णमासी व्यारव्यातुमाह-'ता वेसाहिं ' इत्यादि, 'ता' तावत् 'वेसाहिं णं पुण्णिम' वैशाखी वैशाखमासभाविनी पूर्णिमां 'कइ णवत्ता ६ि७ ६।६७ ६२।६७ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनमप्तिप्रकाशिका टीका प्रा ०-६ सू०१ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २८५ जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? भगवानाह—'ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति' तावत् द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः' ' तं जहा' तद्यथा-ते यथा--'साई विसाहा य' स्वातिः, विशाखा च । चशब्दात्---अनुराधा च, इदमनुराधानक्षत्रं च विशाखा नक्षत्रात् परं वर्तते, तस्य परस्यां ज्येष्ठामूलीपूर्णिमायामुपादानं करिष्यति नत्वेह सूत्रे साक्षादुपात्तम् अत्र तु विशाखानक्षत्रस्यैव प्राधान्यमिति । तत्र-प्रथमां वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रं षट्त्रिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य – एकादशसु सप्तपष्टिभागेषु (३६२५॥११) गतेषु तथा—अष्टसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, २०६७ एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु ( ८ १) शेषेषु समाप्ति नयति, विशाखानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् ।१। द्वितीयां वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रं नवसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षष्टौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विशतौ सप्तषष्टिभागेषु (९६०२४) गतेषु, तथा—पञ्चत्रिंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त स्यैकस्मिन् द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (३५२.४१ ६२।६७ शेषेषु परिसमापयति ५। तृतीयां वैशाखी पौर्णमासीम् अनुराधानक्षत्रं चतुर्षु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूत्र्तस्य अष्टत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टत्रिंशति सप्तपष्टिभागेछु (४३८.३८) गतेषु, तथा–पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयोविंशतौ द्वाषष्टिभा ६रा६७ १११५१ गेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनत्रिंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (२५२२।२९) शेषेषु परिणमयति ३। चतुर्थी वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रं त्रयोविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (२३ २०११ गतेषु तथा एकविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षोडशसु सप्तषष्टिभागेषु (२१४०।१७) शेषेषु परिसमाप्तिं नयति । पञ्चमी वैशाखी पौर्णमासी स्वातिनक्षत्रम् एकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुः २।६७ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ..... 1६७ ६२६७ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे षष्टौ सप्तषष्टिभागेषु (११४६६४) गतेषु, तथा–त्रिषु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चदंशसु द्वाघष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषु सप्तषष्टिभागेषु (३.११) शेषेषु परिसमापयति, स्वातिनक्षत्रस्य पञ्चदशमुहूर्तात्मकत्वात् ॥५॥ ___ तदेवमुक्तं वैशाखीपूर्णिमाप्रकरणम् , ___ अथ ज्येष्ठामूली पूर्णिमाप्रकरणं विवृणोति–ता जेट्टामूलिं णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जेवामूलिं गं' ज्येष्ठामूली व्येष्टमासभाविनी खलु 'पुष्णिम' पूर्णिमा 'कइ णक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? भगवानाह—'ता' तावत् 'तिण्णि णक्खत्ता जोएंति' त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, 'तं जहा' तद्यथा तानि यथा'अणुराहा' अनुराधा १, 'जेहा' ज्येष्ठा २, 'मूलो' मूलम् ३ तत्र—प्रथमां ज्येष्ठामूली पौर्णमासी मूलनक्षत्रं द्वादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादशसु सप्तषष्टिभागेषु (१२२०२२ गतेषु, तथा सप्तदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्च पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु ( १७३१।५५) शेषेषु परिसमापयति १॥ द्वितीयां ज्येष्ठामूली ज्येष्टमासभाविनी पौर्णमासी ज्येष्ठानक्षत्रम् -- एकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिषु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य पञ्चविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (१२ गतेषु, तथा त्रयोदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (१३.८४)शेषेषु परिसमाप्तिं नयति ज्येष्ठानक्षत्रस्य पञ्चदश मुहूर्तात्मकत्वात् ।२। तृतीयां ज्येष्ठामूलीं पौर्णमासी मूलनक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु (२५१३३९७ गतेषु, तथातृतीयां ज्येष्ठामूली पौर्णमासी पूर्वोक्तं मूलनक्षत्रं चतुर्ष मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु ( ४ ८) शेषेषु परिसमा पयति ।३। चतुर्थी ज्येष्ठामूली पौर्णमासी ज्येष्ठा नक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षोडशसु ६२६७ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टी प्रा० -६ सू१ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २८३ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु (१४१६१२) गतेषु, तथा एकस्य मुहूर्त्तस्य पञ्चचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चदशसु सप्तषष्टिभागेषु (०४११५) शेषेषु परिपूरयति ज्येष्टानक्षत्रस्य पञ्चदशमुहूर्तात्मकत्वात् ।४। पञ्चमी ज्येष्ठामूली पौर्णमासीम्—अनुराधानक्षत्रं सप्तदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु (१७३७६७) गतेषु, तथा द्वादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य दशसु द्वाषष्टिभागेषु शेषेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वयोः सप्तषष्टिभागयोः (१२३०१२) शेषयोश्च परिपूर्णा करोति ।५। तदेवं प्रतिपादिता ज्येष्ठामूली पूर्णिमा, साम्प्रतमाषाढी पूर्णिमां प्रतिपादयितुमाह–'ता आसाढिं णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'आसाढिं णं पुण्णिमं' आषाढीम्-आषाढमासभाविनी पूर्णिमां 'कइणक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह भोगं कृत्वा आषाढी पूर्णिमां परिसमापयन्तीत्यर्थः । भगवानाह—'ता दो णवत्ता जोएंति' तावत् द्वे नक्षत्रे युक्तः चन्द्रेण सह पूर्णिमायां योगं कुरुत इति भावः, 'तंजहा' तद्यथा-ते द्वे इमे-'पुव्वा साढा उत्तरासाढा य' पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा चेति । तत्र-प्रथमामाषाढ़ी पौर्णमासी उत्तराषाढानक्षत्रम् अष्टादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदशसु सप्तषष्टि भागेषु (१८३१.१३) गतेषु, तथा षड् विंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षड् विंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (२६...) शेषेषु समापयति, उत्तराषाढानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् ।१। द्वितीयामाषाढी पौर्णमासों पूर्वाषाढानक्षत्रं द्वाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षड्विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (२२ ) गतेषु-तथा-सप्तसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (७१२४२ शेषेषु च परिपूर्णतां नयति ।२। तृतीयामाषाढी पौर्णमासीम्, उत्तराषाढानक्षत्रम्, एक त्रिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टाचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रेक्षतिसूत्रे ६श६ गर चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु (३१ ) गतेषु, तथा -- त्रयोदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहर्तस्य त्रयोदशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (१३ ३२) शेषेषु समाप्ति नयति ।३। चतुर्थी खलु पौर्णमासीमपि उत्तराषाढा नक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशति सप्तषष्टि भागेषु ( ५२०५३) गतेषु, तथा—एकोनचत्वारिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दशसु सप्तषष्टिभागेषु (३९०११)शेषेषु परिणमयात ४। पञ्चमीमाषाढी पौर्णमासी पूर्वाषाढानक्षत्रम् अष्टसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट् पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् षष्टौ सप्तषष्टि भागेषु (८१६९५) गतेषु, तथा-एकविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चसु द्वाषष्टिभागेषु, गतेषु एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य एकस्मिन् सप्तषष्टिभागे (२१-१ गते च परिसमापयति ५। अधिकमाससम्बन्धिनी पुनस्तामेव पञ्चमीमाषाढी पौर्णमासीमुत्तराषाढानक्षत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकं स्वयं परिसमाप्नुवन् तामपि परिसमापयति, अधिकमासिक्याषाढी पौर्णमासी समाप्तिसमकालमेवोत्तराषाढा नक्षत्रं चन्द्रेण सह संजातं योगमाश्रित्य स्वयमपि समाप्तिमेतीति भावः । अत्र चन्द्रप्रज्ञप्त्यामस्माभिः पूर्णिमासमापकनक्षत्राणामतिक्रान्ता भागाः शेषा भागाश्चेति : द्वयमपि प्रदर्शितम्, सूर्यप्रज्ञप्तौ तु शेषा एव भागा विवक्षिता नत्वतिक्रान्ता भागा इत्यवधेयम् ॥सू० १॥ ॥ इति पौर्णमासी समापकनक्षत्रप्रकरणं समाप्तम् ॥ पूर्व यानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगं कृत्वा यां यां पौर्णमासों समापयन्ति तानि प्रदर्शितानि, साम्प्रतं गतार्थमपि विषयं मन्दमतिप्रबोधनार्थं कुलादि योजनामाह-'ता सावडिं णं' इत्यादि । मूलम् - ता सावहि णं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ उपकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? । ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ । कुलं जोएमाणे धणिहा पक्खत्ते जीएइ, उवकुलं जोएमाणे सवणणक्खत्ते जोएइ, कुलोवकुलं जोएमाणे अभिईणखत्तं जोएइ । साविढि पुणिमं कुलं वा जोएइ, उक्कुलं वा जोएइ, कुलोवकुळे Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ६ सू० २ . पूर्णिमायां कुलोपकुलादिकम् २८५ वा जोएइ। कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता, कुलोवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी पुण्णिमा जुत्ताति वत्तव्य सिया १। ता पोवड णं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उपकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ । कुलं जोएमाणे उत्तरावया णक्खत्ते जोएइ उपकुलं जोएमाणे पुवापोटवया णक्खत्ते जोएड, कुलोवकुलं जोएमाणे सभिसया णक्खत्ते जोएइ, पोहवई णं पुण्णिमं कुलं वा जोएइ, उवॉल वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता कुलोवकुलेण वा जुत्ता, पोहवई पुण्णिमा जुत्ता-ति वत्तव्यं सिया २। ता आसोई णं पुण्णिमं वि कुलं जोएइ, उबकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोण्इ, नो कुलोवकुलं जोएइ, कुलं जोएमाणे अस्सिणी णक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे रेवई णक्खत्ते जोएइ, आसोई णं पुण्णि कुलं वा जोएइ, उपकुलं वा जोएड, कुलेण वा जुत्ता उचकुलेण वा जुत्ता आसोईणं पुण्णिमा जुत्ता-ति वत्तव्वं सिया ३। एएणं अभिलावेणं जाव पोसिं पुण्णिमं, जेट्ठामूलिं, पुण्णिमं च कुलोवकुलं पि जोएइ, अवसेसासु कुलोवकुला णत्थि जाव आसाढी पुणिमा जुत्ताति वत्तव्वं सिया । सू० २ ॥ __छाया- तावत् धाविष्ठी खलु पुर्णिमां किं कुलं युनक्ति, उपकुलं युनक्ति,कुलोपकुलं युनक्ति ? तावत् कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युतक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति कुलं युञ्जत् धनिष्टानक्षत्रं युक्ति उपकुलं युञ्जत् श्रवणनक्षत्र युनक्ति कुलोपकुलं युंजत् अभिजि न्नक्षत्र युनक्ति श्राविष्ठीं पूर्णिमां कुलं वा युक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति कुलेण वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता प्राविष्ठी पूर्णिमा युक्तेति वक्तव्यं स्योत् १। तावत् प्रौष्ठपदी खलु पूर्णिमां किं कुलं युनक्ति उपकुलं युनक्ति कुलोपकुलं युनक्ति तावत् कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति कुलं युञ्जत् उत्तराप्रोष्ठपदानक्षत्र युक्ति उपकुलं युञ्जत् पूर्वाप्रोष्ठपदानक्षत्र युक्ति कुलोपकुलं युञ्जत शतभिषग् नक्षत्र युनक्ति । प्रौष्ठदी खलु पुर्णिमा कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति कुलेण वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता कुलोप. कुलेन वा युक्ता पौष्ठपदो पर्णिमा युक्ता इति वक्तव्यं स्यात् ।२ तावत् अश्विनी खलु पूर्णिमा किं कुलं युनक्ति उपकुलं युनक्ति कुलोपकुलं युनक्ति । तावत् कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युक्ति नो कुलोपकुलं युक्ति । कुलं युञ्जत् अश्विनीनक्षत्र युनक्ति उपकुलं युञ्जत् रेवतीनक्षत्र युक्ति । आश्विनी स्खलु पूर्णिमा कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनकिन कुलेण वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता आश्विनी खलु पूर्णिमा युक्ता इति वक्तव्यं स्यात् ।। एतेन अभिलापेन यावत् पौषीं पूर्णिमां ज्येष्ठामूली पणिर्मा च कुलोपकुलमपि युनक्ति अवशेषासु कुलोपकुलोनि न सन्ति यावत् आषाढी पूर्णिमा युक्ता इति वक्तन्यं स्यात् १२।०२।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे व्याख्या — गौतमः पृच्छति - 'ता सावट्ठि णं' इति, 'ता' तावत् 'साविट्ठि णं' श्राविष्ठ श्रावणमास भाविनीं खलु 'पुण्णिमं' पूर्णिमां किं 'कुलं जोएइ' कुलं युनक्ति, किं कुलसंज्ञकं नक्षत्रं चन्द्रेण सह योगं कृत्वा श्राविष्ठीं पूर्णिमां परिसमापयति । एवमग्रेऽपि सर्वत्र योजना कर्त्तव्या, किं 'उव कुलं जोएइ' उपकुलं युनक्ति, किं 'कुलोवकुलं जोएइ' कुलोपकुलं युनक्ति ? भगवानाह - 'ता' तावत् 'कुलं वा जोएइ' कुलं वा युनक्ति, अत्र 'वा' शब्दस्य समुच्चयार्थकत्वात् कुलमपि युनक्तीत्यर्थः, एवमग्रेऽपि विज्ञेयम्, 'उवकुलं वा जोएइ' उपकुलमपि युनक्ति, 'कुलोवकुलं वा जोए ' कुलोपकुलमपि युनक्ति, तत्र 'कुल जोएमाणे' कुलं युञ्जत् कुलसंज्ञकं नक्षत्रं योगं कुर्वन्नित्यर्थः 'धािणक्खत्तं ' धनिष्ठानक्षत्रं 'जोएइ' युनक्ति, धनिष्ठानक्षत्रस्यात्र कुलसंज्ञकत्वात् 'उवकुलं जोए माणे' उपकुलं युञ्जत् 'सवणणक्खत्ते जोएइ' श्रवणनक्षत्रं युनक्ति, श्रवणनक्षत्रस्यात्रोपकुलसंज्ञकत्वात्, 'कुलोवकुलं जोएमाणे' कुलोपकुलं युञ्जत् 'अणिक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं 'जोए ' युनक्ति अभिजिन्नक्षत्रस्यात्र कुलोपकुलसंज्ञकत्वात् । अभिजिन्नक्षत्रं हि तृतीयायां श्राविष्ठयां पौर्णमास्यां किञ्चिदधिकद्वादशमुहूर्तेषु शेषेषु - चन्द्रेण सह योगं युनक्ति ततः श्रवणेन सहास्य सहचरत्वात् स्वस्य च तृतीय श्राविष्ठ्याः पौर्णमास्याः पर्यन्तवर्त्तित्वात् तदपि तां परिसमापयतीति विवक्षया 'युनक्ति इत्यभिहितम् । उपसंहारमाह - 'सावट्ठि णं' इत्यादि, 'साहिं णं पुण्णमं' श्राविष्ठीं खलु पूर्णिमां 'कुलं वा जोएइ, उवकुल वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ' कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति। ततः किमित्याह – 'कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता, कुलोवकुलेण वा जुत्ता'कुलेनापि युक्ता, उपकुलेनापि युक्ता, कुलोपकुलेनापि युक्ता 'साविट्ठी पुण्णिमा' श्राविष्ठी पुर्णिमा 'जुत्ताति वत्तव्यं सिया' युक्तेति कुलादित्रिकैर्युक्ताऽस्तीति वक्तव्यं वाच्यं स्यात् | १ | 'ता' तावत् 'पोडवर णं पुण्णमं' प्रोष्ठपदी भाद्रपदीं भाद्रपद मासभाविनीं खलु पूर्णिमां 'किं कुलं जोएइ, उवकुल जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ' किं कुलं युनक्ति, उपकुलं युनक्ति, कुलोपकुलं युनक्ति ? भगवानाह—'ता' तावत् 'कुल वा जीएइ उवकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ ' कुलमपि युनक्ति, उपकुलमपि युनक्ति, कुलोपकुलमपि युनक्ति । तत्र कुलं जोएमाणे' कुलं युञ्जत्, यदा कुलसंज्ञकं नक्षत्रमंत्र पूर्णिमायां योगं करोति तदा 'उत्तरापोट्ठवयाणक्खत्ते' उत्तराप्रोष्ठपदानक्षत्रं ‘जोएइ’ युनक्ति योगं करोति, 'उवकुलं जोएमाणे' उपकुलं युञ्जत् 'पुव्वापोट्ठवया णक्खत्ते' पूर्वाप्रोष्ठपदानक्षत्रं 'जोएइ' युनक्ति, 'कुलोवकुलं जोएमाणे' कुलोपकुलं युञ्जत् 'सयभि सया णक्खत्ते जोएइ' शतभिषग् नक्षत्रं युनक्ति, अतएव 'पोवई णं पुष्णिमं' प्रोष्ठपदीं खलु पूर्णिमां 'कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ' कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति, कुलोपकुलं वा युनक्ति, भाद्रपदपूर्णिमायाम् उत्तराप्रोपदा पूर्वाप्रोष्ठपदा शतभिषग्नक्षत्राणामेव कुलादि संज्ञकत्वात् । एवमधिकृत्यैव प्रौष्ठपदी पूर्णिमा 'कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता. कुलोवक्कुलेण वा जुत्ता' कुलेनापि युक्ता, उपकुलेनापि युक्ता, कुलोपकुलेनापि युक्ता 'पोवई २८६ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा० ६ सू०२ पूर्णिमायां कुलोपकुलार्दिमम् २८७ - पुण्णिमा' प्रौष्ठपदी पूर्णिमा 'जुत्तत्ति' युक्तेति 'वत्तध्वं सिया' वक्तव्यं स्यात् शिष्येभ्यः कथनीयं स्यादिति । २। ‘आसोईं णं पुष्णिमं' आश्विनी आश्विनमासभाविनीं खलु पूर्णिमां 'किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ' किं कुलं युनक्ति, उपकुलं युनक्ति, कुलोपकुलं युनक्ति ? भगवानाह — 'कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ' कुलमपि युनक्ति, उपकुलमपि युनक्ति किन्तु 'नो कुलोवकुलं जोएइ' नो— नैव कुलोपकुलं युनक्ति, अत्र कुलोपकुलयोर्द्वयोरेव चन्द्रेण सहयोग सद्भावात् कुलत्वेन उपकुलत्त्वेन किं किं नक्षत्र वर्त्तते ? इत्याह- 'कुलं जोएमाणे' कुलं युञ्जत् अत्र यदि कुलनक्षत्रं योगं करोति तदेत्यर्थः ' अरिसणीणक्खत्ते जोएइ' अश्विनी नक्षत्रं युनक्ि योगं करोति, तथा 'उबकुलं जोएमाणे ' उपकुलं युञ्जत्, यदि उपकुलनक्षत्रं योगं करोति तदा 'रेवई णक्खत्ते' रेवती नक्षत्रं ' जोएइ' युनक्ति चन्द्रेण सह योगं करोति, अतएव कथ्यते 'आसोई णं पुण्णमं' आश्विनीं खलु पूर्णिमां 'कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ' कुलमपि युनक्ति उपकुलमपि युनक्ति, बा शब्दः सर्वत्र समुच्चयार्थकः । एषा पूर्णिमा अनेनैव कारणेन 'कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता' कुलेनापि युक्ता उपकुलेनापि युक्ता भूत्वा 'आसोईणं पुष्णिमा' आश्विनी खलु पूर्णिमा 'जुत्ताति' युक्तेति 'वत्तव्वं सिया' वक्तव्यं स्यात् कथनीयं भवेत् ३ । अथाग्रेऽतिदेशेनाह - ' एवं ' इत्यादि ' एवं ' एवम् अनया रीत्या 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण ‘अभिलावेणं' अभिलावेन सूत्ररचनारूपेण 'जाव' यावत् 'पोसिं पुण्णमं जेट्ठामूलिं पुण्णमं च ' पौष पूर्णिमां ज्येष्ठामूलीं ज्येष्ठमासभाविनीं पूर्णिमां च ' कुलोवकुलंपि जोएइ' कुलोपकुलमपि युनक्ति, पौष्यां पूर्णिमायां कुलोपकुलमार्द्रानक्षत्रम् ज्येष्ठामूल्यां पूर्णिमायां च कुलोपकुलमनुराधानक्षत्रमिति विज्ञेयम् । तत्र पौष पूर्णिमायां कुलं पुष्यनक्षत्रम्, उपकुलं पुनर्वसुनक्षत्रमस्ति, तथा ज्येष्ठामूल्यां पूर्णिमायामिति ज्येष्ठमासभाविन्यां पूर्णिमायां कुलं मूलनक्षत्रम् उपकुलं ज्येष्ठानक्षत्रं भवतीति कुलादीनि त्रीण्यपि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह यथायोगं योगं कुर्वन्तीति, 'अवसेसासु' अवशेषासु पूर्वप्रदर्शितातिरिक्तासु पूर्णिमासु 'कुलोवकुला नत्थि' कुलोपकुलानि न सन्ति, तासु कुलानि उपकुलानि चैव चन्द्रेण सह योगं कुर्वन्ति न तु कुलोपकुलानीति भावः । कियत्पर्यन्तमित्याह - 'जाव' इत्यादि, 'जाव आसाठी पुण्णमा जुत्ताति वत्तव्वं सिया' यावत्-आषाढी पूर्णिमा वक्तव्यं स्यात् इत्येतत्पर्यन्तं पूर्वप्रदर्शितसूत्रालापकप्रकारेण ज्ञातव्यम् । आलापकाश्च स्वयमूहनीयाः कस्यां पूर्णिमायां किं कुलं किमुपकुलमिति प्रदर्श्यते - श्राविष्टीत आरभ्य आश्विनी पूर्णिमापर्यन्तं तिस्रः पूर्णिमास्तु पूर्वसूत्रे एव प्रदर्शिताः पौषी - उयेष्टा मूलीति पूर्णिमाद्वयं तु पर्वं व्याख्यायां प्रदर्शितम् । शेषास्तथाहि— कार्त्तिक्यां पूर्णिमायां कृतिकानक्षत्रं कुलं भरणी नक्षत्रमुपकुलम् ४। मार्गशीर्ष पूर्णिमायां मृगशीर्षनक्षत्रं कुलं रोहिणीनक्षत्रमुपकुलम् ५। पौषी पूर्व प्रदर्शिता कुला दित्रययोगयुक्तेति पूर्व द्रष्टव्यम् ६ । माघी पूर्णिमायां मघानक्षत्रं कुलम्, अश्लेषानक्षत्रमुपकुलम् " Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ चन्द्रप्रशक्तिरले मासाः कुलम् x x x ७) फल्गुनपूर्णिमायाम् उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रं कुलं, पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रमुपकुलम् ८। चैत्री पूर्णिमायां चित्रानक्षत्रं कुलं, हस्तनक्षत्रमुपकुलम् ९। वैशाखी पूर्णिमायां विशाखानक्षत्रं कुलं, स्वातिनक्षत्रमुपकुपम् १० ज्येष्ठपूर्णिमा कुलादित्रययुक्तेति पूर्व प्रदर्शिता ११॥ आषाढी पूर्णिमायामुत्तराषाढानक्षत्रं कुलं, पूर्वाषाढा चोपकुलम् ११। इति द्वादश पूर्णिमा प्रकरणम् ॥सू०२॥ ___ कुलादिनक्षत्रज्ञानार्थ कोष्टकम् मास सं. उपकुलम् कुलोपकुलम् श्रावण पूर्णिमायाम् धनिष्ठा श्रवणः अभिजित् भाद्रपदपूर्णिमायाम् उत्तराभाद्रपदः पूर्वाभाद्रपदः शतभिषक अश्विनपूर्णिमायाम् अश्विनी रेवती कार्तिकपूर्णिमायाम् कृत्तिका भरणी मार्गशीर्षपूर्णिमायाम् मृगशिरः रोहिणी पौषपूर्णिमायाम् पुष्यम् पुनर्वसुः माघपूर्णिमायाम् मघा अश्लेषा फाल्गुनपूर्णिमायाम् उत्तरा फाल्गुनी पूर्वाफाल्गुनी चैत्रपूर्णिमायाम् चित्रा हस्तः वैशाख पूर्णिमायाम् विशाखा स्वातिः ज्येष्ठपूर्णिमायाम् मूलम् ज्येष्ठा अनुराधा १२ आषाढ़पूर्णिमायाम् उत्तराषाढा - पूर्वाषाढा x अभिजित आरभ्य ऊत्तराषाढा पर्यन्तमष्टाविंशतिनक्षत्राणां मुहूर्त्तसंकलना कोष्ठकम् । नक्षत्र नक्षत्र नामानि मुहूर्तभोग सकलित नक्षत्र नक्षत्र नामानि मुहूर्तभोग सकलित संख्या. प्रमाण मुहर्ताः संख्या प्रमाण मुहूर्ताः । १] अभिजित् । ९-२७ ९-२७ । १० कृत्तिका । ३०) २६४-,, श्रवणः ३० ३९-२७ रोहिणी ४५] ३०९-, धनिष्ठा ६९-, मृगशिरः ३३९-,, शतभिषक् १५ १३ आद्रों ३५४-,, पूर्वाभाद्रपदा पुनर्वसुः ३९९-,, उत्तराभाद्रपदा ४५ १५९-, १५ पुष्यः ४२९-,, रेवती १८९-,, अश्लेषा अश्विनी २१९-, मघा भरणी २३४-, १८| पूर्वाफाल्गुनो| ३० ५०४-, a smo s w ovo o ar x x x x ११ ८४-, ११४-, ३० sw von 0m MMY 35.5 ० १५ ४४४ " ४७४-" ३ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशशिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ६ सू०१ अमावस्या योगकारी कुलादिनक्षत्रम् २२९ उत्तरा फाल्गुणी हस्तः चित्रा स्वातिः विशाखा १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ अनुराधा ज्येष्ठा मूला पूर्वाषाढा उत्तराषाढा ४५ ३० ३० १५ ४५ ३० ३० ३० ४५ ५४९–,, ५७९–,, ६०९––,, ६२४–,, ६६९–,, ६ ९९–१, ७१४–,, ७४४ –,, ७७४ –,, ८.१९–,, इति द्वादश पूर्णिमायोगकारि कुलादि नक्षत्रप्रकरणं समाप्तम् तदेवं पूर्णिमायोगकारि कुलादि नक्षत्रवक्तव्यता प्रतिपादिता साम्प्रतममावास्या योगकारी कुलादि नक्षत्रवक्तव्यतामाह ' दुबालस अमावासाओ' इत्यादि । । मूलम् - दुवालस अमावासाओ पण्णत्ताओ तं जहा- साविट्ठीपोट्ठवइ जाव आसाढी' ता साविट्ठि णं अमावास कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता दुन्नि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा - असेस्सा महा य १ । एवं एएणं अभिलावेणं णेयव्वं-ता पोवई दो णक्खत्ता जोति तं जहा - - पुव्वाफग्गुणी उत्तराफ़ग्गुणी य २ । आसोई दो हत्थो चित्ता य ३ । कत्तिईं दो, तं जहा - साई विसाहा य ४ । मग्गसिरिं तिष्णि, तं जहा अणुराहा, जेट्ठामूलोय ५ पोसिं दो, तं जहा - पुव्वासाढा उत्तरासाढा ६ माहिं तिण्णि, तं जहा - अभीई सवणो वणिट्ठा य ७ । फग्गुणिं तिष्णि तं जहा -सयभिसया पुत्रपोवया उत्तरपोट्ठवयाय ८ । चेत्ति तिष्णि, तं जहा - उत्तरभद्दावया, रेवई, अस्सिणी य ९ । वेसाहिं दो, तं जहा - भरणी कत्तिया य १० । जेट्ठामूलिं दो, तं जहा - रोहिणी मम्गसिरं च ११ । ता आसाढिं णं अमावास कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता तिष्णि णक्खत्ता जोति, तं जहा - अद्दा, पुणच्चस, पुस्सो य १२ । ता साविट्ठि णं अमावासं किं कुलं जोएइ ? उवकुल जोएइ ? कुलोवकुलं जोएइ ? कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ नो लब्भइ कुलोवकुल । कुलं जोएमाणे महाणक्खचे जोएइ, उवकुलं वा जो एमाणे असलेसा मक्खत्ते जोएइ कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी अमावासा जुत्ता- ति वत्तव्वं सिया । एवं णेयव्वं णवरं मग्गसिराए, माहीए फग्गुणीए, ३७ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे आसाढीए य अमावासाए कुलोवकुलं भाणियव्वं' सेसासु कुलोवकुलं णत्थि ॥सू० ३॥ "चंदपन्नत्तीए दसमस्स पाहुडस्स छटुं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ १०-६॥ छाया द्वादश अमावास्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--श्राविष्ठी. प्रौष्ठपदी २, यावत् आषाढी १२। तावत् श्राविष्ठी खलु अमावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तावत् द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः तद्यथा-अप्लेषा मघा च ५ एवम् एतेन अभिलापेन ज्ञातव्यम्-तावत् प्रौष्ठपदी द्वे नक्षत्रे युक्तः तद्यथा-पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी च २। आश्विनी द्वे तद्यथा हस्तः चित्रा च ३। कार्तिकी द्वे. तद्यथा-स्वातिः विशाखा च ४ मार्गशीर्षीम् त्रीणि, तद्यथा-अनुराधा, ज्येष्ठामूलं च ५। पौषीं द्वे,तद्यथा-पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च ६। माधीम् त्रीणि, तद्यथा-अभिजित् श्रवणः धनिष्ठा च ७ फोल्गुनों त्रीणि तद्यथा-शतभिषक पूर्व प्रौष्ठपदा उत्तरप्रौष्ठपदा च, ८ चैत्रीं त्रीणि तद्यथा--उत्तराभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी च ९॥ वैशाखी द्वे तद्यथा-भरणी कृत्तिका च १०। ज्येष्ठामूली द्वे तद्यथा-रोहिणी मृगशिरश्च १९॥ तावत् आषाढों खलु अमावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-आर्द्रा, पुनर्वसुः, पुष्यश्च १२॥ तावत् श्रावष्ठी खलु अमावास्यां किं कुलं युनक्ति ? उपकुलं युनक्ति ? कुलोपकुलं युनक्ति ? कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति, नो लभते कुलोपकुलम् कुलं युञ्जत् मघानक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं वा युञ्जत् अश्लेषा नक्षत्रं युनक्ति, कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता श्राविष्ठी अमावास्या युक्ता इति वक्तव्यं स्यात् । एवं ज्ञातव्यं, नवरं मार्गशीर्ष्या, माध्यां फाल्गुन्याम् आषाढ्यां च अमावास्यायां कुलोपकुलं भणितव्यम् शेषासु कुलोपकुलं नास्ति सू० ३॥ ॥इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे दशमस्य प्राभृतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् १०-६॥ ___ व्याख्या- 'दुवालस' इति 'दुवालस अमावासा पण्णत्ता' द्वादश अमावास्याः प्रज्ञप्ताः, 'तंजहा' तद्यथा-ता यथा—'साविट्ठी' श्राविष्ठी श्राविष्ठा अपरपर्याया धनिष्ठा, तया समाप्यमानो मासः श्राविष्ठः श्रावणः, श्रावणमासभाविनी अमावस्या श्राविष्ठीति १। 'पोट्ठवई' प्रोष्ठपदी प्रोष्ठपदा उत्तरभाद्रपदा, प्रोष्ठपदानक्षत्रेण समाप्यमानो मासः प्रोष्ठपदः, भाद्रपदमासः, तत्र भाविनी अमावास्या प्रौष्ठपदी कथ्यते २। 'जाव आसाढी' यावत् आषाढी उत्तराषाढानक्षत्रेण समाप्यमानाऽऽषाढमासभाविनी अमावास्या आषाढी १२। अत्र यावत्पदेन-आश्विनी ३, कार्तिकी ४, मार्गशीर्षी ५, पौषी ६, माघी ७, फाल्गुनी ८, चैत्री ९, वैशाखी १०, ज्येष्ठामूली ११, इति पाठस्य संग्रहः । तत्र अश्विनीनक्षत्रसमाप्यमानाऽऽश्विनमासभाविनी अमावास्या आश्विनी ३, कृत्तिकानक्षत्रसमाप्यमान कार्त्तिकमासभाविनी अमावास्या कार्तिकी ४, मृगशिरोनक्षत्र समाप्यमानमार्गशीर्षमासभाविनी अमावास्या मार्गशीर्षी ५, पुष्यनक्षत्रसमाप्यमान पौषमासभाविनी अमावास्या पौषी ६, मघानक्षत्रसमाप्यमान माघमासभाविनी अमावास्या माघी ७, उत्तरा फाल्गुनीनक्षत्रसमाप्यमानफाल्गुनमासभाविनी अमावास्या फाल्गुनी ८, चित्रा नक्षत्रसमाप्यमान चैत्रमासभाविनी अमावास्या चैत्री ९, विशाखा नक्षत्रसमाप्यमान वैशाखमासभाविनी अमावास्या वैशाखी १० मूलनक्षत्र समाप्यमान ज्येष्ठमासभाविनी अमावास्या ज्येष्ठामूली ११। इति Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका०प्रा.१०प्रा. प्रा. ६ सू०१ अमावास्यायोगकारी कुलादिनक्षत्रम् २३१ द्वादशामावास्यानामानि । अथा योगकारकनक्षत्रसंख्यापूर्वकं कुलादि प्रदर्शयति—'ता साविढि णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'साविहिं गं' श्राविष्ठी श्रवणमासभाविनी खलु 'अमावासं अमावास्यां 'कइ णक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? 'ता' तावत् 'दोण्णि णक्खत्ता जोएंति' द्वे नक्षत्रे युक्तः, 'तंजहा' तद्यथा-'अस्सेसा महा य' अश्लेषा मघा च, एते द्वे नक्षत्रे श्राविष्ठीममावास्यां चन्द्रेण सह योगं कृत्वा परिसमापयत इति भावः । ____ अयमाशयः--यदिह व्यवहारनयमतेन पौर्णमास्यां यन्नक्षत्रं भवति तस्मादारभ्य पश्चानुपूर्व्या प्रायः पञ्चदश नक्षत्रममावास्यायां भवति । तथा-अमावास्यायां यन्नक्षत्रं भवति तत आरभ्य परतः पूर्वानुपूर्व्या प्रायः पञ्चदशं नक्षत्रं पूर्णिमायां भवतीति सामान्यतो नियमो वर्तते । एतन्नियमात् श्राविष्ठयां पूर्णिमायां किल श्रवणो धनिष्ठा वा प्रोक्ता ततोऽस्यां श्राविष्ठ्याममावास्यायाम्-अश्लेषा मघा वा प्रायो भवत्येव । लोके च तिथि गणितानुसारेण व्यतीतायाममावास्यायां, वर्तमानायामपि च प्रतिपदि, द्वयोर्मध्ये यस्मिन्नहोरात्रे सूर्योदये प्रथमतोऽमावास्या भवेत् स सकलोऽप्यहोरात्रः अमावास्येति व्यवहियते, तत्रामावास्यायाः सूर्योदयव्यापिनीत्वात् तत एवं व्यवहारतोऽमावास्यायां मघानक्षत्रं प्राप्यते इति न कश्चिद्दोषः । निश्चयनयमतेन तु श्राविष्ठीमिमाममावास्यां वक्ष्यमाणानि त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तथाहि—पुनर्वसुः पुष्यः, अश्लेषा चेति । कथमेवमायातीति-अमावास्यायां चन्द्रेण सह नक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमाश्रित्य तत्प्रक्रिया प्रदर्श्यते तत्र करणं तु प्रागुक्तमेव, अथ कोऽपि पृच्छति युगस्यादौ प्रथमां श्राविष्ठीममावास्यां किं नक्षत्रं चन्द्रेण सह योगं युञ्जत् सत् परिसमापयतीति । तत्र पूर्वप्रदर्शितोऽवधार्यराशिः-षट्षष्टिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टि भागः (६६ ) इयत्प्रमाणः स्थाप्यते स्थापयित्वा च प्रथमाममावास्यायाः पृष्ठत्वादेकेन गुण्यते ५१ एकेन गुणने स एव राशिरायातीति तावानेवावधार्यराशिः–(६६ ) जातः तत एतस्माद्राशेः पुनर्वसुनक्षत्रस्य शोधनकं शोध्यते, तच्च शोधनकम्-द्वाविंशतिर्मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पद चत्वारिंशद् द्वाषष्टि भागाः- (२२३६) इत्येवं प्रमाणकम् । तत्र पूर्वषट्षष्टि मुहूर्तेभ्यो द्वाविंशति मुहूर्ताः शोधिताः शेषाश्चतुश्चत्वारिंशत् ४४, ततो द्वाषष्टि भागशोधनार्थ तस्माच्चतुश्चत्वारिंशद्राशेरेकं रूपं निष्कास्य तस्य द्वाषष्टि भागाः क्रियन्ते, तत एषु द्वाषष्टिभागेषु ये पञ्च द्वा षष्टिभगाः सन्ति ते प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तषष्टिः ६७, पूर्वोराशि स्त्रिचत्वारिंशजातः ४३, ततः सप्तषष्टि भागेभ्यः पुनर्वसु शोधनकस्थितः षट् चत्वारिंशद्राशिः ४६, शोध्यते, तिष्ठन्ति शेषा एकविंशतिः २१, तत एक रूप निष्कासनानन्तरं स्थितेभ्यस्त्रिचत्वारिंशतः ४३, मुहूर्तेभ्यस्त्रिंशन्मुहूर्ताः Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mommonwwwwwwma ६७ २१ १ २३२ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे ३०, पुष्यस्य शोध्यन्ते स्थिताः शेषास्त्रयोदश मुहूर्ताः १३। तथा—अवधार्यराशे रूपरितनश्चकः सप्तषष्टि भागः । एवमवस्थित एवेति समागतास्त्रयोदशमुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतिषिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकः सप्तषष्टिभागः (१३.१६) इति । अश्लेषा नक्षत्रं चापार्धक्षेत्रमिति पञ्चदशमुहूर्तात्मकं, ततस्त्रयोदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु गतेषु, तथा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकस्मिन् सप्तषष्टिभागे (१३ २१ गते सति, तथा—एकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि मागस्य षट्पष्टौ सप्तषष्टिभागेषु (१४०६८) शेषेषु प्रथमा श्राविष्ठ्यमावास्या समाप्तिमुपगच्छतीति । वक्ष्यति चाग्रे 'ता एएसिं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं अमावासं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएइ ? सा असिलेसाहिं, असिलेसाणं एक्को मुहुत्तो, चत्तालीसं वावहि भागा मुहुत्तस्स, बावद्विभार्ग च सत्तट्टिहा छेत्ता छावट्ठी चुण्णिया भागा सेसा" इति । छाया–तावत् एतेषां पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमाममावास्यां चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ?, तावत् अश्लेषया, अश्लेषा खलु एको मुहूर्तः, चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा षट्षष्टि चूर्णिकाभागाः (१९९९) शेषाः, इति प्रथमा श्राविष्ठी अमावास्या १ अथ द्वितीया श्राविष्ठ्यमावास्या चिन्त्यते—इयं द्वितीया श्राविष्ठ्यमावास्या युगादित आरभ्य त्रयोदशीति पूर्वोक्तो ध्रुवराशि:-(६६.१ १) त्रयोदशभिर्गुण्यते ततः प्रथमं षट्षष्टिर्मुइस्त्रियोदशभिर्गुणिता जाता अष्टपञ्चाशदधिकाष्टशतसंख्यकाः (८५८) मुहर्ताः, ततः पञ्च द्वाषष्टिभागात्रयोदशभिर्गुणिता जाताः पञ्चषष्टिषिष्टिभागाः १२, तत एकः सप्तषष्टिभागत्रयोदशभिर्गु णितस्ततो जाता स्त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः १३, इति तत्स्थापना-८५८- १२)।ततः "चत्तारि य बायाला सोझा अह उत्तरासाढा” इति अत्रैव करणगाथागत पञ्चमगाथा वचनात् प्रथमशोधनकगतैद्विचत्वारिंशदधिकैश्चतुः शत संख्यकैः (४४२) मुहूर्तः, षट् चत्वारिंशता द ६२/६७ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ६ सू०१ अमावास्यायोगकारी कुलादिनक्षत्रम् २३३ द्वाषष्टि भागैश्च-१६) पुनर्वसुत आरभ्योत्तराषाढा पर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यन्ते यथा ८५८-६५-१३ शोध्य संख्या ४४२-४६-० शोधक संख्या स्थितानि शेषाणि षोडशोत्तराणि चत्वारि शतानि, एकस्य ४१६-१९-१३ शोधनफलम् च मुहूर्तस्य एकोनविंशतिषिष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागा ( ४१६ ) । तत एतस्माद् राशेः—नवत्यधिकशतत्रय (३९९) संख्यका मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिषिष्टिभागाः (१३) एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् षष्टि सप्तषष्टिभागाः १६) इति (३९९३६/६७ समुदितो राशिरुपरिष्ठराशेः शोध्यते, तथाहि-पूर्व षोडशोत्तर चतुःशत (४१६) राशेः नवनवत्यधिकत्रिशत (३९९) राशिः शोधितः, लब्धाः शेषाः सप्तदश मुहूर्ताः १७), अग्रे उपरितना द्वाषष्टिभागा एकोनविंशतिः (१९) एतेभ्यो न्यूनत्वेन चतुर्विशतिर्न शोध्यते ततः शोधनार्थ सप्तदशमुहूर्तेभ्य एक मुहूर्त निष्कास्यास्य द्वाषष्टिभागाः क्रियन्ते, एते द्वाषष्टिभागाः एकोनविंशतौ द्वाषष्टिभागराशौ क्षिप्यन्ते ततो जाता द्वाषष्टि भागाः एकाशीतिः(८१)शोधन योग्या तत एतस्माद् राशेश्चतुर्विशतिः शोध्यते, स्थिता पश्चात् सप्तपञ्चाशत्(५७), अस्मादेकं रूपं निष्कास्य सप्तषष्टिभागाः क्रियन्ते, एते सप्तषष्टि भागास्त्रयोदशसु सप्तषष्टिभागेषु क्षिप्यन्ते जाता अशीतिः(८०), एभ्यः षट् षष्टि सप्तषष्टिभागाः शोभ्यन्ते, स्थिताः पश्चात् चतुर्दश (१४) इत्यागताः पुष्यनक्षत्रस्यातिक्रान्ता भागा-षोडश मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तषष्टि भागाः (१६-) त्रिंशन्मुहूर्तात्मकस्य पुष्यनक्षत्रस्यैतावत्परिमितेषु भागेष्वतिक्रान्तेषु द्वितीया श्राविष्ठी अमावस्या परिसमाप्तिमेतीति ।२। अथ तृतीया श्रावष्ट्यमावास्या विचार्यते-तत्र सा युगस्यादित आरभ्य पञ्चविंशतितमेति ध्रुवराशिः (६६ ) पञ्चविंशत्या गुण्यते जातानि पञ्चाशदधिकानि षोडशशतानि (१६५०) मुहूर्तानां भवन्ति, तथा एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविंशत्यधिकमेकं शतं द्वाषष्टिभागाः (१२५) एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २५ । तथाहि—(१६५० १२५/२५ ) इति । तत्र द्विचत्वारिंशदधिकचतुःशतमुहूर्ताः (४४२) एकस्य च मुहूर्तस्य षट् Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे चत्वारिंशद् (४६) द्वाषष्टिभागाः-(४४२६६) एतत् पुनर्वसु प्रभृत्युत्तराषाढापर्यन्तं प्रथमं शोधनकं पूर्वोक्तात् अमावास्या संख्या गुणितध्रुवराशेः (१६५०-१२५२५ एतावत्परिमितात् शोध्यते, शोधिते च स्थितानि पश्चात् मुहूर्तेभ्यः अष्टोत्तराणि द्वादशशतानि (१२०८) मुहूर्तानाम् , ततः पंचविंशत्युत्तरैकशतसंख्यकेभ्यो द्वाषष्टिभागेभ्यः षट्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागनां शोधने स्थिताः पश्चात् एकोनाशीतिः (७९) द्वाषाष्टिभागाः पञ्चविंशतिः (२५) सप्तषष्टिभागाश्च यथा पूर्वं तथैव स्थिताः, तथाहि स्थापना (१२०८-७०२५) । तत एतस्माद् राशेः एकोनविंशत्यधिकाष्टशतमुहूर्ताः (८१९) एकस्य मुहूर्तस्य चतुर्वि 'शतिषिष्टिभागाः (६३. एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् षष्टिः (६८) सप्तषष्टिभागाः (८१९-२४.६६) एतत्परिमित एको नक्षत्रपर्यायः शोध्यते ततः स्थिता पश्चात्-नवाशीत्यधिकत्रिंशतमुहूर्ताः (३८९) एकस्य च मुहूर्तस्य चतुष्पञ्चाशद् (५४) द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य घडविंशतिः (२६) सप्तषष्टिभागाः (३८९-ततः पुनर्नवोत्तरशतत्रयमुहूर्ताः (३०९), एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागाः (२४), एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः ६६ सप्तषष्टि भागाः, (३०९-२०६६ एतत्परिमितं करणगाथा सप्तमाष्टमोक्तानाम् अभिजित आरभ्य रोहिणिका पयन्तानां नक्षत्राणां शोधनकं शोध्यते, स्थिताः पश्चात्-अशीतिर्मुहर्ताः (८०) एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनत्रिंशद (२९) द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतिः (२७) सप्तषष्टिभागाः(८०--- तत स्त्रिंशन्मुहर्ता अस्माद्राशेर्मुगशिरसः शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् पञ्चाशन्मुहूर्ताः (५०) पनरस्माद्राशेः पञ्चदशमुहूर्ता आर्द्रायाः शोध्यन्ते स्थिताः पश्चात् पञ्चत्रिंशत् (३५) मुहूर्ताः । ततः पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्तात्मकस्य पुनर्वसु नक्षत्रस्य पञ्चत्रिंशतिमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागेषु (३५२०२०) गतेषु तृतीया श्राविष्ठधमावास्या परिसमाप्तिमेति ।३। २९२७ दश६७ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ६ सू०१ अमावास्यायोगकारी कुलादिनक्षत्रम् २३५ एवं चतुर्थी श्राविष्ठीममावास्यां पञ्चदशमुहूर्तात्मकमश्लेषानक्षत्रमेकस्य मुहूर्त्तस्य सप्तसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु ( परिसमापयति ।। ___ पञ्चमी श्राविष्ठीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं पुष्यनक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्विचत्वारिंशतिद्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (३---) गतेषु परिसमापयति ।५।। अथ प्रौष्ठपदीप्रभृत्यमावास्याविषये प्राह -'एवं' इत्यादि, ‘एवं' एवम् अनया रीत्या 'एएणं' एतेन अनन्तरोक्तेन 'अभिलावेणं' अभिलापेन आलापकप्रकारेण अग्रे प्रौष्ठपदी प्रभृत्यमावास्याविषये 'णेयव्वं' नेतव्यं ज्ञातव्यम् , तथाहि-पोवई' इत्यादि, 'पोट्रवर्ड, प्रोष्ठपदी भाद्रपदमासभाविनीममावास्यां 'दो णक्खत्ता जोएंति' द्वे नक्षत्रे युक्तः योगं कृत्वा परिसमापयतः, 'तंजहा' तद्यथा ते द्वे यथा—पुब्बाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी य' पूर्वाफाल्गुनों उत्तराफाल्गुनी च । इदं तु व्यवहारतः कथ्यते, वस्तुतस्तु त्रीणि नक्षत्राणि प्रोष्ठपदीममावस्यां परिसमापयन्ति, सत्र तृतीयायाः पञ्चम्याश्च प्रोष्ठपद्यमावास्यायाः परिसमापकत्वात् । तथाहि—प्रथमां प्रोष्ठपदीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकमुत्तराफाल्गुनी नक्षत्रं चतुर्षु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षड्विंशतौ द्वाषष्टि भागेषु गतेषु, तथा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वयोः सप्तषष्टि भागयोः (४-१-गतयोः सतोः समापयति ।१॥ द्वितीयां प्रोष्ठपदीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकषष्ठी द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चदशसु सप्तषष्टि भागेषु (४७६९) व्यतिक्रान्तेषु परिसमापयति ।२। तृतीयां प्रोष्ठपदीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं मघानक्षत्रम् एकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुस्त्रिंशति द्वाषष्टि भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (११-३४२८) परिप्रितेषु समाप्ति नयति ।३। चतुर्थी प्रोष्ठपदीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रम्एकविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वादशसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तष्टि भागेषु(२१ १९४३) गतेषु परिसमापयति ।४। पञ्चमी रेष्ठ २६२ ६२६७ ६२ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे पदीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं मघानक्षत्रं चतुर्वि शतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चाशति सप्तषष्टि भागेषु ( २४६८।६६ व्यतीतेषु परिपूरयति । ५ । ४७/४५ अथाश्विनी ममावास्यां प्रदर्शयति- 'आसोई' इत्यादि, 'आसोई दो' आश्विनीम् आश्वि नमास भाविनीममावास्यां द्वे नक्षत्रे तद्यथा ' हत्थो चित्ता य' हस्तश्चित्रा चेति नक्षत्रद्वयं युनक्ति योगं कृत्वा समापयति । इदमपि व्यवहारत एव कथ्यते, निश्चयतस्तु तृतीयमुत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमेयाश्विनीममावास्यां परिसमापयतीति । तत्र प्रथमामाश्विनीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं हस्तनक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकत्रिंशति द्वाषष्ठिभागेषु, एकस्य च ३१।३ द्वाषष्टिभागस्य त्रिषु सप्तषष्ठिभागेषु ( २५- ) गतेषु १, तथा द्वितीयामाश्विनीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं चतुश्चत्वारिंशति मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्षु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षोडशसु सप्तषष्टिभागेषु (४४ - ६२।६७ ४ ६२ २३६ १६ ६७ ( ) व्यतिक्रान्तेषु २, तथा तृतीयामाश्विनोममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकं तदेवोत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तदशसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, ३९।२९ एकस्य द्वाषष्टिभागस्य एकोनत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (१७- समाप्तेषु ३, तथा ६२।६७ चतुर्थीमाश्विनीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं हस्तनक्षत्रं द्वादशसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तदशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तषष्ठिभागेषु (१२ -- १७ ६२ ४३ ) व्यतिक्रान्तेषु ४ तथा पञ्चमीमाश्विनीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं त्रिंशतिमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्विपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाष ६७ ५२/५४ ष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (३०-६२।६७ ) चातिक्रान्तेषु परिसमापयति ||५|| अभ्र कार्तिक्रीममावास्यां प्रदर्शयति - 'कत्तिई' इत्यादि, 'कत्ति ' कोर्त्तिकीं कार्त्तिकमासभाविनीममावास्यां दो 'तं जहा ' द्वे नक्षत्रे तवथा – 'साई विसाहा य' स्वातिर्विशाखा च एते द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः योगं कुरुत: । अत्रापीदं व्यवहारनयेन प्रोक्तम्, निश्चयनयेन तु तृतीयं चित्रा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ६ सू०३ अमावास्यायोगकारी कुलादिनक्षत्रम् २३७ नक्षत्रमपीमां कार्तिकीममावास्यां परिसमापयति । तत्र प्रथमां कार्तिकीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशमुहूर्त्तात्मकं विशाखा नक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट् त्रिंशति द्वाषष्टि भागेषु, ३६।४ २२।१९ ४४/३० एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुषु सप्तषष्टिभागेषु (१६. ६/६७) गतेषु १, तथा द्वितीयां कार्त्तिकीममावास्यां पञ्चदशमुहूर्त्तात्मकं स्वातिनक्षत्रं पञ्चसु मुहर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वाविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागेषु ( ५ - -) व्यतीतेषु २, तथा '६२।६१ तृतीयां कार्त्तिकीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं चित्रानक्षत्रम् - अष्टसु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुश्चत्वारिंशति द्वाषष्टि भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (८- :) ६२।६७ परिपूरितेषु ३, तथा चतुर्थी कार्त्तिकीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकं विशाखा नक्षत्रं त्रयोदशसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वाविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु ( १३२२/४४ ) समाप्तेषु ४, तथा पञ्चमीं कार्तिकीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं चित्रानक्षत्रम् एकविंशतौ मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तपञ्चाशति सप्तषष्टि भागेषु (२१ गतेषु च समापयति ||५|| ५७/५७ ६२।६७ अथ मार्गशीर्षीममावास्यां विवृणोति - ' मग्गसिरिं' इत्यादि, 'मग्गसिरि' मार्गशीष मार्गशीर्षमास भाविनीममावास्यां 'तिष्णि' त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति 'तं जहा ' तद्यथा - 'अणुराहा, जेट्ठा, मूलोय' अनुराधा, ज्येष्ठा, मूलं च । अत्र व्यवहारनयेन इमानि पूर्वो त्रीणि नक्षत्राणि मार्गशीषममावास्यां परिसमापयन्ति, किन्तु निश्चयनयमतेन तु इमानि वक्ष्यमाणानि त्रीणि नक्षत्राणि समापयन्ति, तथाहि - विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा चेति । तत्र प्रथमां मार्गशीधाममावास्यां पञ्चदशमुहूर्त्तात्मकं ज्येष्ठानक्षत्रं सप्तसु मुहूर्त्तषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकचत्वा ४१।५ रिंशति द्वाषष्टि भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य, पञ्चसु सप्तषष्टिभागेषु (७ गतेषु परिसमापयति १, द्वितीयां मार्गशीर्षी ममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मक मनुराधा नक्षत्रम् - एकादशसु मुहूर्त्तषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्दशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य ६२।६७ १४।१८ अष्टादशसु सप्तषष्टिभागषु (११ - ) परिपूर्णेषु २, तथा तृतीयां मार्गशीर्षीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकं विशाखानक्षत्रम् - एकोनत्रिंशति मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य ६२।६७ ३५ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२।६७ ४५ 19 ६राद २३८ चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे एकोनपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (२९४३६२६) पूर्णतां प्राप्तेषु ३, तथा चतुर्थी मार्गशीर्षीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकमनुराधानक्षत्रं चतुर्विशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशता द्वाषष्टिभागेषु च, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तषष्टि भागेषु (२४२४१) व्यतोतेषु ४, तथा पञ्चमी मार्गशीर्षीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकं विशाखानक्षत्रं त्रिचत्वारिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य सम्बन्धिनो द्वाषष्टिभागस्य अष्टपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु च (४३.१७) परिपूर्णेषु परिसमायति ॥५॥ अथ पौषीममावास्यामाह-पोसिं' इत्यादि, 'पोसिं' पौषी पौषमासभाविनीममावास्यां 'दो' द्वे नक्षत्रे 'तं जहा' तद्यथा-'पुव्वासाढाउत्तरासाढा य' पूर्वाषाढा उत्तराषाढा चेति । इदमपिव्यवहारत एव पोक्तं निश्चयतस्तु तृतीयं मूलनक्षत्रमपि पौषीममावास्यां परिसमापयति । तत्र प्रथमां पोषीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं पूर्वाषाढानक्षत्रम्-अष्टाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्सु सप्तषष्टिभागेषु, (२८-०६।१९ गतेषु, तथा द्वितीयां पौषीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं पूर्वाषाढानक्षत्रं द्वयोर्मुहूर्तायोर्गतयोः सतोः एकस्य च मुहूत्तस्य एकोनविंशतौ द्वाषष्ठिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनविंशतौ सप्तषष्टि भागेषु (२ १९१९ ) व्यतीतेषु २, तथा तृतीयामभिवर्धितमासभाविनीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकमुत्तराषाढानक्षत्रम्-एकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनषष्टौ द्वाषष्टिभागेषु एकस्य चद्वाषष्टि भागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (११ १२ परिपूर्णेषु ३, तथा चतुर्थी पौषीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं पूर्वाषाढानक्षत्रं पञ्चद शसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्पञ्चा शति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंश ति सप्तषष्टि भागेषु (१५ १६९० गतेषु तथा पञ्चमी पौषीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं मूलनक्षत्रम् एकोनविंशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चसु द्वाषष्टि भागेषु एकस्य च द्वा षष्टि भागस्य एकोनषष्टौ सप्तषष्टि भागेषु (१९...१० च परिपूर्णेषु समापयति ।। . अथ माघीममावास्यां प्राह-'माहिं' इत्यादि, "माहि' माधी माधमासभाविनीममावास्यां 'तिण्णि' त्रीणि नक्षत्राणि, 'तं' जहा तद्यथा-अभीई सवणो धणिहोय' अभिजित्, श्रवणः, धनिष्ठा च द६७ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ६ सु०३ अमावास्या योगकारी कुलादिनक्षत्रम् २३९ एतानि त्रीणि नक्षत्रणि युञ्जन्ति परिसमापयन्तीत्यर्थः एतानि पूर्वोक्तानि त्रीणि नक्षत्राणि व्यवहारनयमाश्रित्य प्रोक्तानि निश्चयनयेन तु एतानि वक्ष्यमाणानि त्रीणि नक्षत्राणि मघाममावास्यां परिसमापयन्ति, तानि त्रीणीमानि उत्तरापाढा अभिजित्, श्रवणश्चेति । तत्र प्रथमां माधीममावास्यां त्रिंशमुहूर्त्तात्मकं श्रवण नक्षत्रं दशसु मुहर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षड्विंशतौ द्वाषष्टि भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य २६।८ अष्टसु सप्तषष्टिभागेषु (१०- ( ) गतेषु तथा द्वितीयां माधीममावास्य ६२।६७ सप्तविंशति सप्तषष्टि भाग युक्त नवमुहूर्त्तात्मकमभिजिन्नक्षत्रं ९ २७ ६७ २६।२० स्य षड्विंशतौ द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंशतौ सप्तषष्टि भागेषु ३ --- ६२।६७ व्यतीतेषु तथा तृतीयां माघीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं श्रवणनक्षत्रं त्रयोविंशतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य पञ्चत्रिंशति सप्तषष्टि भागेषु (२३३७३५) परिपूर्णेषु ३, चतुर्थी माघीममावास्या, सप्तविंशति सप्तषष्टिभागयुक्तनवमु ६२,६७ -त्रिंश मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्त्त • हूर्त्तात्मकमभिजिन्नक्षत्रं षट्सु मुहर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशतिसप्तषष्टिभागेषु (६ २७ ४७) गतेषु ४, तथा पञ्चमीं .माघीममा ६२ ६७ वास्याम् पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकमुत्तराषाढा नक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य दशसु द्वाषष्टिंभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टौ सप्तषष्टिभागेषु च (२५१० ६०) व्यतीतेषु ६२ ६७ परिसमापयति |५| अथ फाल्गुनीममावस्याविषये - प्राह - ' फग्गुणीं ' इत्यादि, फग्गुणीं' फाल्गुनीं फाल्गुनमासभाविनीममावास्यां 'तिष्णि' त्रीणि नक्षत्राणि योगं कुर्वन्ति तानि यथा - 'सयभिसया, पुव्वपोट्टवया य, उत्तरपोट्ठवया य' शतभिशक्, पूर्वप्रोष्ठपदा उत्तरप्रोष्ठपदाचेति । एतदपि व्यवहारत एव निश्चयतस्तु अमूनि वक्ष्यमाणानि त्रीणि नक्षत्राणि फाल्गुनीममावास्यां समापयन्ति तानीमानिधनिष्ठा, शतभिषक् पूर्वाभाद्रपदाचेति । तत्र प्रथमां फाल्गुनीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं पूर्वभाद्रपदा नक्षत्रं षट्सु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य नवलु सप्तषष्टिभागेषु (६२१/९) व्यतीतेषु १, तथा द्वितीयां फल्गुनी ६२ ६७ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAAAAparnarikanokinixabar ६२६७ ६७ ६२६७ २४० चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे ममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं धनिष्ठानक्षत्रं बिंशतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुषु द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (२०- २) समाप्तेषु, २ तथा तृतीयां फाल्गुनीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं पूर्वाषाढानक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुश्चत्वारिंशतिद्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्त्रिंशतिसप्तभागेषु (१४४४२६) गतेषु ३, चतुर्थी फाल्गुनी ममावास्यां पञ्चदशमुहूर्तात्मकं शतभिषक् नक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेषु एकस्य च सप्तदशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोन पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (३ - गतेषु ४, पञ्चमी फाल्गुनीममावास्यां त्रिशन्मुहूर्तात्मकं धनिष्ठानक्षत्रं षट्सु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूतस्य द्विपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टी सप्तषष्टिभागेषु च (६५२६) समतिक्रान्तेषु परिसमापयति ।५। अथ चैत्रीममावास्यामाह-'चेति' इत्यादि, 'चेति' चैत्री चैत्रमासभाविनीममावास्यां 'तिण्णि' त्रीणि समापयन्ति, 'तं जहा' तद्यथा 'उत्तरभवया, रेवई, अस्सिणी य' उत्तराभाद्रपदा, रेवति, अश्विनी चेति । इदमपि व्यवहारतः, निश्चयतस्तु वक्ष्यमाणानीमानि त्रीणि नक्षत्राणि चैत्रीममावास्यां परिसमापयन्ति, तानि यथा पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा रेवती चेति । तत्र प्रथमा चैत्रीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकमुत्तराभाद्रपदानक्षत्रं सप्तत्रिंशतिमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य दशसु सप्तषष्टिभागेषु (३७ ३६।१०)व्यतीतेषु १, द्वितीयां चैत्रीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकमुत्तराभाद्रपदानक्षत्रम्-एकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य नवसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (११ गतेषु २, तृतीयां चैत्रीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं रेवतीनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागेषु (५४९२७) परिपूर्णेषु ३, चतुर्थी चैत्रीममावस्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुइर्तात्मकमुत्तराभाद्रपदानक्षत्रं त्रयोविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (२३२९५०) गतेषु ४, पञ्चमों चैत्रीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं पूर्वाभाद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तपञ्चा Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका०प्रा. १० प्रा. प्रा. ६ सू०३ अमावास्यायोगकारी कुलादिनक्षत्रम् २४१ शति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु (२७५७६३) गतेषु च ६२६७ समापयति ॥५॥ अथ वैशाखीममावास्यामाह– 'वइसाहिं' इत्यादि, 'वइसाहिं' वैशाखीं वैशाखमा सभाविनीममावास्यां 'दो' द्वे नक्षत्रे समापयतः, 'तं जहा ' तद्यथा - ते द्वे इमे - भरणीकत्तिया य' भरणी कृत्तिका चेत्ति । अत्राप्येते द्वे नक्षत्रे व्यवहारतः कथिते, निश्चयतस्तु त्रीणि नक्षत्राणि वक्ष्यमाणानि वैशाखोममावास्यां परिपूरयति तानीमानि - रेवती, अश्विनी, भरणी चेति । तत्र-प्रथम वैशाखीममावास्याम् त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकमश्विनीनक्षत्रम् - अष्टाविंशतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य ४११ ६२.६ एकचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य एकादशसु सप्तषष्टि भागेषु (२८ गतेषु १, द्वितीयां वैशाखीममावास्याम् - त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकमश्विनीनक्षत्रं द्वयोर्मुहूर्त्तयोर्गतयोः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयोविंशतौ सप्तषष्टि भागेषु (२ ३९ २३) व्यतीतेषु २, तृतीयां वैशाखीममावास्यां पञ्चदशमुहूर्त्तात्मकं भारणीनक्षत्रम्एकादशसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुःपञ्चाशति द्वाषष्टि भागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (११५४ २८ गतेषु ३, चतुर्थी वैशाखीममावास्यां त्रिशन्मुहूर्तात्मक ६२६७ ६२६७ मश्विनीनक्षत्रं पञ्चदशसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूत्तस्य सप्तविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु ( १५२७ ५१ ) गतेषु ४, पञ्चमीं वैशाखीममावास्यां ६२३७ त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं रेवतीनक्षत्रम् - एकोनविंशतौ मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य सम्बन्धिन एकस्य द्वाषष्टिभागस्य चतुःषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु (१९२ ६४) गतेषु च परिसमापयति ।५। ६२/६ अथ ज्येष्ठमासभाविनीममावास्यां प्रदर्शयति- ' जेट्ठामूलिं' इत्यादि ' जेट्ठामूलिं' ज्येष्ठामूलीं ज्येष्ठमासभाविनीममावास्यां 'दो' द्वे नक्षत्रे परिसमापयतः, 'तं जहा ' तद्यथा - ते द्वे इमे - ' रोहिणी - मिगसिरं च' रोहिणी मृगशिरश्चेति । एतदपि व्यवहारतः कथितं निश्चयतस्तु कृत्तिका रोहिणी चेति द्वे नक्षत्रे ज्येष्ठामूलीममावास्यां परिसमापयतः । तत्र प्रथमां ज्येष्ठामूलीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकं रोहिणी नक्षत्रम् एकोनविंशतौ एकोनविंशतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तय षट्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादशसु सप्तषष्टिभागेषु (१९ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ २४२ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे परिसमाप्तेषु, द्वितीयां ज्येष्ठामूली ममावस्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं कृत्तिकानक्षत्रं त्रयोविंशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वोषष्टि भागस्य पञ्चविंशतौ सप्तषष्टि भागेषु (२३ -- व्यतीतेषु २, तृतीयां ज्येष्ठामूलीममावास्यां पञ्चचत्वारिंश ६२६७ ६२६७ न्मुहूर्तात्मकं रोहिणीनक्षत्रं द्वात्रिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनषष्ठौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु (३२५९३९) परिपूर्णतां गतेषु ३, चतुर्थी ज्येष्ठामूलीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकं रोहिणीनक्षत्रं षट्सु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वात्रिंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (६३९५ ६२६७ परिसमाप्तेषु ४, तथा पञ्चमी ज्येष्ठामूलोममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं कृत्तिकानक्षत्रं दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चसु द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चषष्ठौ सप्तषष्टिभागेषु (१० ) समतिक्रान्तेषु समापयति ५। अथाषाढीममावास्यां सूत्रकारः स्वयं सूत्रालापकेन प्रदर्शयति 'ता आसाढि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'आसाढिं गं' आषाढी आषाढमासभाविनीम् खलु 'अमावासिं' अमावास्यां 'कइणक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? चन्द्रेण सह योगं कृत्वा आषाढीममावास्यां परिसमापयन्ति ? भगवानाह-'ता' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तिण्णि णक्खत्ता जोएंति' त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति 'तं जहा' तद्यथा- 'अदा पुणव्वम् पुस्सो' आर्द्रा, पुनर्वसुः, पुष्यः ।१२। अत्रापि इमानि पूर्वोक्तानि त्रीणि नक्षत्राणि व्यवहारमाश्रित्य प्रोक्तानि, निश्चयनयेन पुनरिमानि वक्ष्यमाणानि त्रीणि नक्षत्राणि आषाढीममावास्यां परिसमापयन्ति तानि यथा-मृगशिरः, आर्द्रा, पुनर्वसुश्चेति तत्र प्रथमामाषाढीममावास्यां पञ्चदशमुहूर्तात्मकमानक्षत्रं दशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदशसु सप्तषष्टिभागेषु (१०-११ ६२ १३) व्यक्तिकान्तेषु १, यथा-द्वितीयामाषाढीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं मृगशिरो नक्षत्रं सप्तविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशती द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षड्विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु २७-२४१२६ गतेषु २, तथा तृतीयामाषाढीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकं पुनर्वसुनक्षत्रं नवसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य द्वयोषिष्टिभागयोः. एकस्य च ६रा६७ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ६सू०३ अमावास्थायोगकारी कुलादिनक्षत्रम् २४३ द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु (९-२.१० गतेषु ३, तथा चतुर्थीमाषाढीममावास्या त्रिंशन्मुहर्तात्मकं मृगशिरो नक्षत्रं सप्तविंशतौ मुहूत्र्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तत्रिंशतिद्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशतिसप्तषष्टिभागेषु(२९-२०५२ समतिक्रान्तेषु ४, तथापञ्चमीमाषाढ़ीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकं पुनर्वसुनक्षत्रं द्वाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षोडशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टसु सप्तषष्टिभागेषु च (२२-१६...)परिपूर्णतां प्राप्तेषु सत्सु परिसमापयतीति । ५ । ॥इति द्वादशामावास्या विचारः समाप्तः॥ गतो द्वादशाऽमावास्यानां परिसमापकचन्द्रयोगकारकनक्षत्राणां विधिः साम्प्रतमेतासामेवामावास्यानां कुलादिसंज्ञकनक्षत्रयोजनां प्रदर्शयति-ता 'सावि&ि णं' इत्यादि गौतमः पृच्छति 'ता' तावत् 'साविष्टुिं णं' श्रावष्टी श्रावणमासभाविनीम् 'अमावासं' अमावास्यां 'किं कुलंजोएइ' किं कुलं कुलसंज्ञकनक्षत्रं 'जोएई' युनक्ति चन्द्रेण सह योगं कृत्वा ताममावास्यां परिसमापयतीतिभावः अथवा 'उवकुलं जोएइ' उपकुलं युनक्ति उपकुलं कुलनक्षत्रात् पूर्वस्थितं नक्षत्रं योगं करोति ? अथवा 'कुलोवकुलं' कुलोपकुलं कुलनक्षत्रात् पश्चानुपा तृतीयं नक्षत्रं 'जोएइ' युनक्ति ? इति प्रश्नः । भगवानाह-हे गौतम ! श्राविष्ठीममावास्यां 'कुलं वा जोएइ' कुलं वा युनक्ति अत्र वा शब्दः अप्यर्थे तेन कुलमपि युनक्तीत्यर्थः एवमग्रेऽपि सर्वत्र विज्ञेय म् तथा 'उवकुलं वा जोएइ' उपकुलमपि युनक्ति किन्तु 'नो लब्भइ कुलोवकुलं' न लभते नो प्राप्नोति कुलोपकुलं, कुलनक्षत्रात् पश्चानुपूर्व्या तृतीयं नक्षत्रं श्राविष्ठीममावास्यां योगकारकत्वेन न प्राप्नोतीति भावः एवं तर्हि कुलत्वेन च उपकुलत्वेन किं किं नक्षत्रं श्राविष्ठीममावास्यां युनतोति प्रश्ने ते द्वे नक्षत्रे प्रदर्शयति 'कुलं जोएमाणे' इत्यादि 'कुलं' कुलं कुलसंज्ञक नक्षत्र 'जोएमाणे' युञ्जन् योगं कुर्वन् 'महाणक्खत्ते' मघानक्षत्रं 'जोएइ युनक्ति चन्द्रेण सह योगं कृत्वा श्राविष्ठीममावास्यां परिसमापयतीति भावः अत्र · कुलनक्षत्रं मघेति तात्पर्यम् अत्र यत् मघानक्षत्रं कुलत्वेन प्रोक्तं तद् व्यवहारतः प्रोक्तम् व्यवहारतो हि व्यतीतायाममावास्यायां वर्तमानायां च प्रतिपदियोऽहोरात्रप्रारम्भेऽमावास्यया सम्बद्धः स समस्तोऽप्यहोरात्रः 'अमावास्या इति व्यवहियते तत एवं व्यवहारमाश्रित्य श्राविष्ट्याममावास्यायां मघानक्षत्रस्य संभवादत्रोक्तं यत् कुलं युञ्जन्मघानक्षत्रं युनक्तीति, किन्तु निश्चयनयेन तु कुलं युञ्जत् पुष्यनक्षत्रं श्राविष्ठीममावास्यां युनक्तीतिप्रतिपत्तव्यं कुलप्रसिद्धया प्रसिद्धस्य तस्यैव श्राविष्ट्याममावास्यायां संभवात् एतच्च प्रागेवोक्तम्, उत्तरसूत्रमपि व्यवहारमाश्रित्य यथा योगं परिभावनीयमिति 'वा' वा अथवा 'उवकुलं' उपकुलं नक्षत्रं 'जोएमाणे युजन् योगं कुर्वन् 'असिलेसा णक्खते' अश्लेषानक्षत्रं मघातः पूर्वस्थितं 'जोएइ' युनक्ति श्राबिष्ठ्याममावास्यायां चन्द्रेण सह योगं करोतीत्यर्थः कुलोपकुलं नक्षत्रं समायातीति भावः ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA २४४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ___ अथोपसंहारमाह- कुलेण वा' इत्यादि, 'कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता' कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता भवति, अत एव साविट्ठीअमावासा' श्राविष्टी अमावास्या जुत्ताति' युक्ता इति 'वत्तव्बं सिया' वक्तव्यं स्यात् द्वाभ्यां कुलेन उपकुलेण च युक्ता कथ्यते न तु कुलोपकुलेन युक्तेति भावः 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'नेयव्वं' नेतव्यं ज्ञातव्यम् एवं द्वादशानामप्यमावास्यानामालापकप्रकारः स्वयमूहनीय इति भावः यद्वैशिष्टयं तदर्शयति'नवर' इत्यादि 'नवरं' नवरं केवलं विशेषस्त्वयम्-'मग्गसिराए' मार्गशीर्ष्या मार्गशीर्षमासभाविन्याम् 'माहीए' माध्यां माघमासभाविन्याम् 'फग्गुणीय ए' फाल्गुन्यां फाल्गुनमासभाविन्याम् 'साढीए य' आषाढ्याम् आषाढमासभविन्यां चामावास्यायां 'कुलोचकुलं भाणियध्वं वुलोपकुलं नक्षत्रं भणितव्यम् आसु चतसृष्वेवामावास्यासु कुलोपकुलनक्षत्रं भवतीति भावः ‘सेसासु' शेषासु मार्गशीर्षमाधफाल्गुनाऽऽषाढमासगतामावास्यातिरिक्तासु अष्टस्वमावास्यासु 'कुलोवकुलं नत्थि' कुलोपकुलं नास्ति न भवतीति ॥सू० ३॥ द्वादशामावास्या योगकारक कुलादि नक्षत्र कोष्टकम् our m so s wovorar मा. संख्या । अमावास्या नाम कुलम् । उपकुलम् कुलोपकुलम् श्राविष्ट्याम् । मघा । अश्लेषा प्रौष्ठपद्याम् | उत्तरा फाल्गुनी | पूर्वा फाल्गुनी (भाद्रपद्याम्) चित्रा हस्तः आश्विन्याम् कार्तिक्याम् विशाखा स्वातिः मार्गशीर्ष्याम् मूलम् ज्येष्ठा अनुराधा पौष्याम् उत्तराषाढा पूर्वाषाढा माघ्याम् धनिष्ठा श्रवणः अभिजित फाल्गुन्याम् उत्तराभाद्रपदा पूर्वाभाद्रपदा शतभिषक चैत्र्याम् अश्विनी रेवती वैशाख्याम् कृतिका भरणी ज्येष्ठामूल्याम् मृगशिरः रोहणी आषाढ्याम् पुष्यः पुनर्वसुः | आर्द्रा इति श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर घासीलाल मुनिविरचितचन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०-६॥ ० ० ० Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा.प्रा. ७ सू०१ पूर्णिमानाममावास्यायांनक्षत्रसंनिपातः ३०५ दशमस्य प्राभृतस्य सप्तमं प्राभृतप्राभृतम् । गतं दशमस्य प्राभृतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभृतम् तत्र द्वादशानाममावास्यानां योगकारकनक्षत्राणां कुलादिनक्षत्राणां च बिबेचनं कृतम् अधुना सप्तमं प्राभृतम् विविच्यते, अत्र पूर्णिमानाममावास्यानां च चन्द्रयोगमाश्रित्य परस्परं नक्षत्रैः संयोगरूपः संनिपातो वक्तव्य इति तद्विषयकसूत्रमाह-,ता कहं त संनिवाए इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते संनिवाए आहिएति वएज्जा । ता जया णं साविट्ठी पुण्णिमा भवइ तया णं माही अमावासा भवइ । जया णं माही पुण्णिमा भवइ तया णं साविट्ठी अमावासा भवइ । जया णं पोट्ठवई पुण्णिमा भवइ तया णं फग्गुणी अमावासा भवइ । जया णं फग्गुणी पुण्णिमा भवइ तया णं पोट्ठवई अमावासा भवइ । जया णं आसोई पुण्णिमा भवइ तया णं चेत्ती अमावासा भवइ । जया णं चेत्ती पुण्णिमा भवइ तया णं आसोई अमावासा भवइ । जया णं कत्तिई पुण्णिमा भवइ तया णं वेसाही अमावासा भवइ जया णं वेसाही पुण्णिमाभवइ तया णं कत्तिया अमावासा भवइ । जया णं मग्गसिरी पुण्णिमा भवइ तया णं जेट्टामूली अमावासा भवइ । जयाणं जेट्ठामूली पुण्णिमा भवइ तया णं मग्गसिरी अमावासा भवइ । जया णं पोसी पुण्णिमा भवइ तया णं आसाढी आमावासा भवइ । जया णं आसाढी पुण्णिमा भवइ तया णं पोसी अमावासा भवइ ॥ सू० १॥ ॥ दसमस्स पाहुडस्स सत्तमपाहुडं समत्तं ॥१०-९॥ छाया--तावत् कथं ते संनिपातः आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् यदा खलु श्राविष्ठी पूर्णिमा भवति तदा खलु माघी अमावास्या भवति । यदा खलु माघी पूर्णिमा भवति तदा खलु श्राविष्ठी अमावास्या भवति । यदा प्रोष्ठपदी पूर्णिमा भवति तदा खलु फाल्गुनी अमावास्या भवति । यदा फाल्गुनी पूर्णिमा भवति तदा खलु प्रोष्ठपदी अमा. वास्या भवति । यदा खलु आश्विनी पूर्णिमा भवति तदा चैत्री अमावास्या भवति यदा खलु चैत्री पूर्णिमा भवति तदा खलु आश्विनी अमावास्या भवति यदा खलु कार्तिकी पूर्णिमा भवति तदा खलु वैशाखी अमावास्या भवति । यदा खलु वैशाखी पूर्णिमा भवति तदा खलु कार्तिकी अमावास्या भवति । यदा खलु मार्गशीर्षी पूर्णिमा भवति तदा खलु ज्येष्ठामूली अमावास्या भवति । यदा खलु ज्येष्ठामूली पूर्णिमा भवति तदा खलु मार्गशीर्षी अमावास्या भवति । यदा खलु पौषी पूर्णिमा भवति तदा खलु आषाढी अमावास्या भवति । यदा खलु आषाढी पूर्णिमा भवति तदा खलु पाषी अमावास्या भवति ॥सू० १॥ ॥दशमस्य प्राभृतस्य सप्तमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् १०-७॥ व्याख्या -'ता' कहते' इति, 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण हे भगवन् 'ते' त्वया 'संनिवाए' संनिपातः पूर्णिमासु अमावास्यासु च चन्द्रयोगमाश्रित्य नक्षत्राणां संनिपातः संयोगः 'आहिए' आख्यातः कथितः ? 'ति' इति-एतत्प्रकरणं मम 'वएज्जा' वदेत् Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ . चन्द्रप्राप्तिसूत्रे वदतु कथयतु हे भगवान् ! इति गौतमेन पृष्टे भगवानाह-हे गौतम ! पूर्णिमाऽमावास्यानां चन्द्रयोगमाश्रित्य नक्षत्रप्रकरणं व्यवहारनयेन कथयामि तथाहि-'ता' तावत् नक्षत्रं त्रिप्रकारकं भवति कुलनक्षत्रम् ?, उपकुलनक्षत्रम् २, कुलोपकुलनक्षत्रं चेति । तेषु 'जया णं' यदा खलु कुलादिषु धनिष्ठा-श्रवणा-ऽभिजिद्रूपेषु व्यवहारनयेन नक्षत्रेण युक्ता साविट्ठी पुण्णिमा' श्राविष्ठी पूर्णिमा श्रावणमासभाविनी पूर्णिमा भवेत् 'तया णं' तदा खलु 'माही अमावासा' माधी माघमासभाविनी अमावास्यापि व्यवहारतः धनिष्ठा-श्रवणाऽभिजिन्नक्षत्रमध्ये केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ' भवति ? 'जया णं' यदा खलु 'माही पुण्णिमा माघमासभाविनी पूर्णिमा मघाऽश्लेषा नक्षत्रयोर्मध्ये येन नक्षत्रेण युक्ता 'भवई' भवति तदा 'साविट्ठी अमावासा' श्राविष्ठी अमावास्यऽपि मघाश्लेषयोर्मध्ये केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ' भवति ।२। 'जया णं' यदा खलु 'पोटुवई' प्रोष्ठपदी भाद्रपदमासभाविनी 'पुण्णिमा' पूर्णिमा त्रिषु-उत्तराभाद्रपदपूर्वाभाद्रपदशतभिषगू रूपेषु कुलादिसंज्ञकेषु मध्ये केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता भवति 'तया गं' तदा खलु 'फग्गुणी' फग्गुनी फाल्गुनमासभाविनी 'अमावासा' अमावास्यापि एण्वैवमध्ये केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवई' भवति ३ 'जया णं' यदा खलु 'फग्गुणी' फाल्गुनी फाल्गुनमासभाविनी 'पुण्णिमा' पूर्णिमा उत्तराफाल्गुनी पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रयोः कुलादिसंज्ञयोर्मध्ये केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता भवति 'तया णं' तदा खलु 'पोवई' प्रोष्ठपदी भाद्रपदमासभाविनी 'अमावासा' अमावास्याऽपि पूर्वोक्तयोर्नक्षत्रयोर्मध्ये केनचिदेकेन नक्ष ण युक्ता ‘भवइ' भवति ४ 'जया णं' यदा खलु 'आसोई' आश्विनी-आश्विनमासभाविनी 'पुण्णिमा' पर्णिमा अश्विनी रेवतीनक्षत्रयोः कुलादिसंज्ञयोर्मध्ये येन केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता भवति 'तया णं' तदा खलु 'चेत्ती' चैत्री चैत्रमासभाविनी. 'अमावासा' अमावास्यापि पूर्वोक्तयोर्द्वयोर्मध्ये केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'अमावासा' अमावस्या भवति ५ । 'जया णं' यदा खलु 'चेत्ती' चैत्री चैत्रमासभाविनी 'पुण्णिमा' पूर्णिमा चित्रा हस्तयोः कुलादिसंज्ञयोर्द्वयोर्नक्षत्रयोर्मध्यात् केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ' भवति 'तया णं' तदा खलु 'आसोई' आश्विनी-आश्विनमासभाविनी अमावासा अमावास्याऽपि पूर्वोक्तयाईयोर्नक्षत्रयोर्मध्यात् केनाष्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ' भवति ६ 'जया गं' यदा खलु 'कत्तिकी'.कात्तिकी कार्तिकमास भाविनी 'पुण्णिमा' पूर्णिमा कृत्तिका भरणी नक्षत्रयोः कुलादिसंज्ञयोयोर्मध्यात् येन केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ' भवत 'तया णं तदा खलु 'वेसाही वैशाखी वैशाखमासभाविनी 'अमावासा, अमावास्यापि पूर्वोक्तयोईयोर्नक्षत्रयोर्मध्यात् केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ' भवति 'तया णं' तदा खलु 'कत्तिया कार्तिकी कार्तिकमासभाविनी 'अमावासा' अमावास्याऽपि पूर्वोक्तयोयोनक्षत्रयोर्मध्यात् केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ' भवति ८ 'जया णं' यदा खलु 'मग्गसिरी'मार्गशीर्षी 'पुण्णिमा'पूर्णिमा मृगशीर्ष-रोहिणीनक्षत्रयोः कुलादिसंज्ञयोर्द्वयोर्मध्यात् येन केनाप्येकेन नक्षत्रग युक्ता 'भवइ' भवति तया णं'तदा Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा.७ सू०१ पूर्णिमानाममावास्यायांनक्षत्रसंनिपातः ३०७ खलु 'जेहामूली'ज्येष्ठामूली ज्येष्टमासभाविनी 'अमावासा'अमावास्याऽपि पूर्वोक्तयोयोनक्षत्रयोमध्यात् केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ'भवति ? 'जया णं' यदा खलु 'जेवामूली'ज्येष्ठामूलींज्येष्ठमासभाविनी 'पुण्णिमा'पूर्णिमा मूलज्येष्ठा-ऽनुराधारूपेषु त्रिषु कुलादिसंज्ञकेषु नक्षत्रेषु मध्यात् येन केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता भवइ'भवति 'तया गं'तदा खलु 'मग्गसिरी'मार्गशीर्षी-मार्गशीर्षमासभाविनी 'अमावासा'अमावास्याऽपि पूर्वोक्तानां त्रयाणां नक्षत्राणां मध्यात् केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता भवइ' भवति १० 'जया णं' यदा खलु 'पोसी'पौषीपोषमासभाविनी पुण्णिमा' पूर्णिमा पुष्यपुनर्वस्वाऽऽर्द्रारूपेषु त्रिषु कुलादिसंषु नक्षत्रेषु मध्यात् येन केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता भवई' भवति तया णं'तदा खलु 'आसाढी आषाढमासभाविनी अमावासा'अमावास्याऽपि पूर्वोक्तानां त्रयाणां नक्षत्राणां मध्यात् केनचिदेकेन नक्षत्रण युक्ता भवइ'भवति ११ 'जया णं' यदा खलु 'आसाढी'आषाढी-आषाढमासभाविनी पुण्णिमा'पूर्णिमा उत्तराषाढा पूर्वाषाढारूपयोईयोर्न क्षत्रयोर्मध्यात् केना'येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ'भवति तयाणं' तदा खलु 'पोसी पौषमासभाविनी अमावासा'अमावास्याऽपि पूर्वोक्तयोईयोर्न क्षत्रयोर्मध्यात् केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवई'भवति १२ इति ॥ सू० १ ॥ ॥ पूर्णिमाऽमावास्याज्ञानार्थ कोष्ठकम् ॥ | संख्या मास पूर्णिमा | कुल नक्षत्रम् | उपकुल नक्षत्रम् | कुलोपकुल | मासामावास्या श्राविष्ठी-श्रावण नक्षत्रम् | माघी अमा. ३० मास-पूर्णिमा १५ / धनिष्ठा श्रवण अभिजित् फाल्गुनी अ. ३० प्रोष्ठपदी-भाद्रपद चैत्री अमा. ३० मास-पूर्णिमा १५/ उत्तराभाद्रपद | पूर्वा भाद्रपद वैशाखी अ.३० आश्विनी १५ | आश्विनी | रेवती शतभिषक् ज्येष्ठामूली-ज्येष्ठकार्तिकी १५ / कृत्तिका भरणी मास अमा. ३० मार्गशीर्षी १५ | मृगशिरः राहीणी आषाढी ३० पौषी १५ पुनर्वसु श्राविष्ठी-श्रावण माघी १५ मघा अश्लेषा मास अ. ३० फाल्गुनी १५ | उत्तराफल्गुनी । पूर्वाफाल्गुनी प्रोष्ठपदी-भाद्र चैत्री १५ पद० अ. ३० वैशाखी १५ चित्रा हस्तः आश्विनी अ.३० ज्येष्ठामूली-ज्येविशाखा कात्तिकी अ.३० मूलम् ष्टमास पू. १५ ज्येष्ठा मार्गशीर्ष अ.३० आषाढी १५ | उत्तराषाढा पूर्वाषाढा पौषी अ. ३.० पुष्यः xx xx स्वातिः अनुराधा x Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे अथ प्रकारान्तरेणेदं सूत्रं व्याख्यायते - ' ता जया णं' इत्यादि 'ता जया णं' तावत् यदाखल 'साविट्ठी' श्राविष्ठी श्रविष्टा - धनिष्ठानक्षत्रं तेन युक्ता पूर्णिमा भवति' तया णं' तदा खलु तत्पूर्णिमातः प्राक्तना 'अमावासा' अमावास्या 'माही' माघी मघा नक्षत्रयुक्ता भवइ' भवति यतो हि व्यवहारनयमतेन पूर्णिमानक्षत्रात् पश्चानुपूर्व्या पञ्चदशे चतुर्दशे वा नक्षत्रेमावास्या भवति श्राविष्ठानक्षत्रात् मघानक्षत्रस्य पश्चानुपूर्व्या पञ्चदशत्वात् एतच्च व्यवहारतः श्रावणमा समधिकृत्यावसेयम्१ एतदेव वैपरीत्येनाह - 'जयर णं यदा खलु 'माही' माघी मघानक्षत्रयुक्ता 'पुण्णिमा भवइ' पूर्णिमा भवति 'तया णं' तदा खलु 'अमावासा' अमावास्या तत्पूर्णिमातः प्राक्तना अमावास्या 'साविट्ठी' श्राविष्ठी धनिष्ठा नक्षत्रयुक्ता भवति मघात आरभ्य पश्चानुपूर्व्या धनिष्ठा नक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात् एतच्च व्यवहारतो माघमासमाश्रित्य विज्ञेयम् २ 'जया णं' यदा खलु 'पोइ' प्रोष्ठपदी उत्तराभाद्रपदा नक्षत्रयुक्ता 'पुणिमा' पूर्णिमा 'भवइ' भवति' तया णं तदा खलु ' अमावासा' तत्प्राकतना अमावास्या 'फग्गुणी' फाल्गुनी - उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रयुक्ता' भवइ' भवति उत्तरभाद्रपदातः पूर्वमुतरफाल्गुनी नक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात् अपान्तरालगतनक्षत्रस्य स्तोककालस्थायित्वेन प्रायो व्यवहारेण न गण्यते लोके अभिजिन्नक्षत्रं वर्जयित्वा शेषसप्तविंशतिनक्षत्राणां व्यवहारत्वात् उक्तञ्च समवायाङ्गसूत्रे - “ जंबुद्दीवे दीवे अभिई वज्जेहिं सत्तावीसाए नक्खतेहिं संववहारो वट्टइ "इति छायाजम्बूद्वीपे द्वीपे अभिजिद्वर्णैः सप्तविंशत्या नक्षत्रैः संव्यवहारो वर्त्तते इतिवचनात् उत्तरभाद्रपदा - नक्षत्रात् उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं पश्चानुपूर्व्या गणने पञ्चदशं भवतीति एतच्च भाद्रपदमासमाश्रित्य प्रोक्तमवसेयम् ३ ‘जया णं’यदा खलु 'फग्गुणी' फाल्गुनीउत्तराफाल्गुनी नक्षत्रयुक्ता यदा 'पुण्णिमा' पूर्णिमा' भवइ' भवति - भवेत् ' तया णं' तदा खलु ' अमावासा' तत्पश्चाद्गताऽमावास्या 'पोवई 'प्रोष्ठपदीउत्तरभाद्रपद नक्षत्रयुक्ता भवइ' भवति - भवेदित्यर्थः उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रात् उत्तरभाद्रपदानक्षत्रस्य चतुर्दशत्वात् इदं च फाल्गुनमासमाश्रित्य प्रतिपादितम् ४ 'जया णं' यदा खलु 'आसोई' आश्विनी अश्विनी नक्षत्रयुक्ता 'पुणिमा 'पूर्णिमा' भवइ' भवति भवेत् - ' तयाणं' तदा खलु 'अमावासा' अमावास्या पूर्णिमातः प्राग्गता अमावास्या 'चेत्ती' चैत्री - चित्रा नक्षत्रयुक्ता भवइ, भवति भवेत् अश्विनीनक्षत्रात् पश्चानुपूर्व्या गणने चित्रानक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात् एतद्व्यवहारनयेन प्रोक्तम्, निश्चयतस्तु एवं न, इदं व्यवहारत आश्विनमासमधिकृत्य प्रोक्तम्, आश्विनमास भाविन्याममावास्यायां च चित्रानक्षत्रस्य प्रायोऽसम्भवात् अतः व्यवहारनयमतेन' इति पूर्वमेव प्रदशितम् ५ 'जया णं' यदा खलु 'चेती' चैत्री चित्रानक्षत्रयुक्ता 'पुण्णिमा भवइ' पूर्णिमा भवति ' तयाणं' तदा खलु 'अमावासा' पूर्णिमातः प्राक्तना अमावास्या 'आसोई 'आश्विनी अश्विनी नक्षत्रयुक्ता 'भवइ' भवति इदं व्यवहारतश्चत्रमासमाश्रित्य प्रोक्तम् चैत्रैमास भाविन्यममावास्यायामश्विनीनक्षत्रस्य निश्चयनयेन प्रायोऽसम्भवात् ६ 'जयाणं' यदा खलु 'कत्ति ' कार्त्तिकी— कृत्तिकानक्षत्रोपेता 'पुण्णिमाभबई' पूर्णिमा भवति 'तया णं' तदा खलु 'अमावासा' ३०८ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका०प्रा. १०प्रा. प्रा.७ सू०१ पूर्णिमानाममावास्यायांनक्षत्रसंनिपातः३०९ एतत्पूर्णिमातः प्राग्वर्त्तिनी अमावास्या 'वेसाही' वैशाखी विशाखा नक्षत्रोपेता भवइ' भवति, कृत्तिका नक्षत्रात् पश्चानुपूर्व्या विशाखानक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात्। तथा 'जया णं'यदा खल 'वेसाही' वैशाखी बिशाखानक्षत्रयुक्ता 'पुण्णिमा भवई' पूर्णिमा भवति. 'तया णं तदा खलु 'अमावासा' पश्चाद्गता अमावास्या 'कत्तिइ' कार्तिकी-कृत्तिकानक्षत्रयुक्ता 'भवइ' भवति, विशाखातः कृत्तिकायाः पश्चानुपूर्व्या गणने चतुर्दशत्वात् , एतद् वैशाखमासमधिकृत्य विज्ञातव्यम् ८ । 'जया णं' यदा खलु 'मग्गसिरी' मार्गशीर्षी मृगशिरोनक्षत्रोपेता 'पुण्णिमा' भवइ' पूर्णिमा भवति 'तया णं तदा खलु 'जेहामूली' ज्येष्ठानक्षत्रयुक्ता 'अमावासा' तत्पूर्णिमातः प्राक्तनाऽमावास्या 'भवइ' भवति, इदं च ज्येष्ठमासमाश्रित्य प्रोक्तमित्यवसेयम् ९। 'जया णं' यदा खलु, 'जेठामूली' ज्येष्टामूली ज्येष्ठानक्षत्रोपेता 'पुणिमा भवई' पूर्णिमा भवति 'तयाणं तदा खलु 'अमावासा' प्राग्गताऽमावास्या 'मग्गसिरी' मार्गशीर्षी मृगशिरोनक्षत्र युक्ता 'भवइ' भवति १० । 'जया णं' यदा खलु 'पोसी' पोषी पुण्यनक्षत्रयुक्ता 'पुण्णिमा भवई' पूर्णिमा भवति 'तया णं तदा खलु तत्प्राग्भवा 'अमावासा' अमावास्या 'आसाढी' उत्तरा पाढानक्षत्रयुक्ता 'भवई' भवति, इदं पौषमासमाश्रित्य कथितम् ११। तथा'जया णं'यदा खलु 'आसाढी, आषाढ़ी उत्तराषाढा नक्षत्रयुक्ता 'पुण्णिमा भवइ, पूर्णिमा भवति, 'तया णं, तदा खलु तत्प्राक्तना 'अमावासा, अमावास्या 'पोसी, पौषी पुष्य नक्षत्रोपेता 'भवइ, भवति इदमाषाढमासमधिकृत्याभिहितमित्यवसेयम् १२॥ सू० १॥ "पूर्णिमाऽमावास्या नक्षत्रकोष्ठकम्" संख्या पूर्णिमा नक्षत्रम् तत्प्राक्तनामावास्यानक्षत्रम् श्रवणः मघा 2. . . Gons cws - मघा श्रवणः उत्तराभाद्रपदा उत्तराफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी उत्तराभाद्रपदा अश्विनी चित्रा चित्रा अश्विनी कृत्तिका विशाखा विशाखा कृत्तिका मृगशिरः ज्येष्ठामूलम् (ज्येष्ठा) मृगशिरः पुष्यः उत्तराषाढा उतराषाढा पुष्यः "इति चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां सप्तमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०-७॥ ज्येष्ठामूलम् १२ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे दशमस्य प्राभृतस्याष्टमं प्राभृनप्राभृतम् । तदेवं व्याख्यातं दशमस्य प्राभृतस्य सप्तमं प्राभृतप्राभृतम्, अथाष्टमं व्याख्यायते, तस्य चायमभिसम्बन्धः-पूर्वप्राभृते पूर्णिमाऽवास्यानां परस्परं नक्षत्रैः सह संयोगरूपः संनिपातः प्रदर्शितः अथ त प्रस्तावादत्र नक्षत्राणां संस्थानं प्रदर्श्यते-'ता कहं ते नक्खत्त संठिई' इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते नवखत्तसंठिई आहिए ? ति वएज्जा । ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई ण णक्खत्ते किं संठिए पण्णते ? गोयमा ! गोसीसाबलिसंठिए पण्णत्ते १ । सवणे णवखत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? काहारसंठिए पण्णत्ते २ धणिहा णक्खत्ते कि संठिए पप्णत्ते ? सउणिपलीणगसंठिए पण्णत्ते ३ । सयभिसया णखत्ते किं संठिए पष्णत्ते ? पुप्फोवयारसंठिए पण्णत्ते ४ । पुव्वापोट्ठवया णक्खत्ते उत्तरभवया णवखत्ते य किं संठिए पण्णत्ते ? अवड्ढबावी संठिए पण्णत्ते ५।६। रेवईणक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? णावासंठिए पण्णत्ते ७ । अस्सिणी णक्खत्ते किं संठिए पण्णते ? आसक्खंघसंठिए पण्णत्ते ८ । भरणीणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते भगसंठिए पण्णत्ते ९ । कत्तिया णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? छुरघरसंठिए पण्णत्ते १०। रोहिणीणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? सगडुद्धिसंठिए पण्णत्ते ११ । मिगसिराणक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? मिगसीसावलिसंठिए पण्णत्ते १२ । अदाणक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ! रुधिरबिंदुसंठिए पण्णत्ते १३ । पुणव्वसुणक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते १ तुला संठिए पण्णत्ते १४ । पुस्से णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? वद्धमाणसंठिए पण्णत्ते १५ । अस्सेसा णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? पडागसंठिए पण्णत्ते १६ । महाणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते पागारसंठिए पण्णत्ते १७ । पुयाफग्गुणीणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ! अद्धपलियंकसंठिए पण्णत्ते १८ । एवं उत्तराफग्गुणी वि १९ । हत्थे णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते हत्थसंठिए पण्णत्ते २० । चित्ताणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ! मुहफुल्लसंठिए पण्णत्ते २१ । साइणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ! खीलंगसंठिए पण्णत्ते २२ । विसाहा णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? दामणिसंठिए पण्णत्त २३ । अणुराहा णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? एगावलिसंठिए पण्णत्ते २४ । जेठाणक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते गयदंतसंठिए पण्णत्ते २५ । मूलेणक्खत्ते किं संठिए पण्णते ? बिच्छुय लंगूल संठिए पण्णत्ते २६ । पुन्वासाढाणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? गयविक्कमसंठिए पण्णत्ते २७ उत्तरासाढाणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? सीहमिसीइया संठिए पण्णत्ते ॥ सू०१॥ - "दसमस्स पाहुडस्स अट्टमं पाठुडपाहुडं समत्तं ॥१०॥ ८॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ८ सू०१ नक्षत्रसंस्थाननिरूपणम् ३११ छाया तावत् कथं ते नक्षत्रसंस्थितिः आख्याता ? इति वदेत् । तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां अभिजित् खलु नक्षत्रं किं संस्थितं प्राप्तम् ? । गौतम ! गोशीर्षावलिसंस्थितं प्रज्ञप्तम १। श्रमणो नक्षत्रं किं संस्थित प्रज्ञप्तम् ? काहार (कावड) संस्थितं प्रज्ञप्तम् २। धनिष्ठा नक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? शकुनि प्रलीनक (पक्षिपञ्जर) संस्थित प्रज्ञप्तम् ३। शतभिषग् नक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? पुष्पोपचारसंस्थितं प्रशप्तम् ४॥ पूर्वा प्रोष्ठपदानक्षत्रम् उत्तरा प्रोष्ठपदा नक्षत्रं च किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? अपार्धवापी संस्थित प्रज्ञप्तम ५। रेवती नक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम नौका संस्थितं प्राप्तम ७ अश्विनी नक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? अश्वस्कन्धसंस्थितं प्रज्ञप्तम् ८) भरणीनक्षत्र किं संस्थित प्रज्ञप्तम् ? भगसंस्थितं प्राप्तम् । कृत्तिका नक्षत्रं किं संस्थितं प्राप्तम् ? क्षुरगृहसंस्थितं प्रज्ञप्तम् १०। रोहिणी नत्रं किं संस्थितं प्राप्तम् ? शकटोद्धि संस्थितं प्रज्ञप्तम् १॥ मृगशिरोनक्षत्रं किं संस्थित प्रज्ञप्तम् ? मृगशीर्षावलिसंस्थितं प्रज्ञप्तम् १२॥ आर्द्रा नक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? रुधिरबिन्दुसंस्थित प्राप्तम् १३॥ पुनर्वसुनक्षत्रं कि संस्थितं प्रशप्तम् ? तुला संस्थितं प्रज्ञप्तम् १४। पुष्यो नक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? . वर्धमान संस्थितं प्रशप्तम् १५॥ अश्लेषानक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? पताका संस्थितं. प्रज्ञप्तम्१६ मघानक्षत्रं किं संस्थित प्रज्ञप्तम् १ प्राकार संस्थित प्रज्ञप्तम् १७१ पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? अर्धपल्यङ्कसंस्थितं प्रज्ञप्तम् १८। एवम्-उत्तराफाल्गुन्यपि १९। हस्तो नक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? हस्तसंस्थित प्रज्ञप्तम् २०। चित्रानक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञ तम् ? मधु (महुडो) पुष्पसंस्थितं प्रज्ञप्तम् २१। स्वाति नक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? कीलक संस्थित प्रज्ञप्तम् २२॥ विशाखा नक्षत्रं किं संस्थित प्राप्तम् ? दामनी (पशुबन्धनरज्जु) संस्थित प्रज्ञप्तम् २३ अनुराधा नक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? एकावलि (हार) संस्थितं प्रज्ञप्तम् २५। ज्येष्ठा नक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? गजदन्तसंस्थितं प्रज्ञप्तम् २५। मूलोनक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? वृश्चिकलागूल (वृश्चिकपुच्छ) संस्थितं प्रज्ञप्तम् २६ । पूर्वाषाढानक्षत्रं कि संस्थितं प्रक्षप्तम् ? गजविक्रम (गजपादन्याससंस्थितं प्रज्ञप्तम् २७ । उत्तराषाढानक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञतम् ? सिंहनिषोदिका (सिंहोपवेशन) संस्थितं प्राप्तम् २८ ॥ सू० १॥ दशमस्य प्राभृतस्याष्टमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् १० व्याख्या-'ता कहते नक्खत्तसंठिई' इत्यादि । गौतमः पृच्छति-'ता' तावत् 'कह'कथं केन प्रकारेण ते' त्वया 'णक्खत्त संठिई' नक्षत्रसंस्थितिः नक्षत्राणां संस्थितिः संस्थानम् आकार इति नक्षत्रसंस्थितिः नक्षत्राकृतिः 'आहिया' आख्याता कथिता 'त्ति इति 'वएज्जा' वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! तदेव प्रतिनक्षत्र विषये गौता प्रश्न-भगवदुत्तरप्रतिपादकानि सूत्राण्याह 'ता एएसिणं' इत्यादि । 'ता' तावत्-एएसि णं एतषां शास्त्रप्रसिद्धानामभिजिदादीनां 'अहावीसाए' अष्टाविंशतः अष्टाविंश तसंख्यकानां 'णक्खत्ताणं' नक्षत्राणां मध्ये यत् 'अभीई णं णक्खत्ते' अभिजित् खलु नक्षत्रं किं संठिए' किं संस्थितं कीटगाकारसंयुक्तं 'पण्णत्तं' प्रज्ञप्तम् हे भगवन् अभिजिन्नक्षत्रस्य कीदृश आकारो वर्तते ? इति गौतमस्य प्रश्नः । भगवानाह-हे गौतम ! अष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये यद् अभिजिन्नक्षत्रं प्रथमं वर्त्तते तत् 'गोसीसावलिसंठियं' गोशीर्षावलि Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे संस्थितं, गोः बलीवर्दस्य शीर्ष-मस्तकं गौशीर्ष तस्य आवलिः तत्पुद्गलानां दीर्घरूपा श्रेणिः, तदाकारं संस्थानं 'पण्णत्तं' प्रज्ञप्तम् १ । एवमग्रेऽपि शेषाणि सूत्राणि स्वयं व्याख्यातव्यानि सूत्राणि-छायागम्यानीति न व्याख्यायन्ते ।२८। अत्र अभिजिदाद्यष्टाविंशतिनक्षत्राणां यथासंख्य संस्थानसंग्राहिका जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिगतास्तिस्रो गाथाः प्रदर्श्यन्ते. तथाहि "गोसीसावलि १, काहार २, सउणि, ३ पुप्फोवयार ४, वावीय ५। ६ (पूर्वोत्तरारूपं प्रोष्ठपदद्वयम्) । णावा, आसक्खंधग ८. भग ९ छुरघरए १० य सगडुद्धी । ११ ॥१॥ मिग सीसावलि १२ रुहिर बिंदु १३ तुल १४ वद्धमाण १५ पडागा १६ । पागार १७ पल्लंके १८-१९ (पूवत्तॊराफाल्गुनीद्वयम्), हत्थे २० महुफुल्लए २१ चेव ॥२॥२२ खीलग २२ दामिणि २३ एगावली ३४ य गयदंत २५ विच्छ्यणंगले ३६ या गयविक्कमे २७ य तत्तो, सीहनिसीया २८ य संठाणा ॥३॥" छाया-गोशीर्षावलि ? कहार (कवड) २ शकुनिः ३ पुष्पोपचारः ४ वापी (पूर्वोत्तरारूपं प्रोष्ठपदाद्वयं) ५।६ नौका ७ अश्वस्कन्ध ८ भग ९ क्षुरगृहं १० च शकटोद्धि ११॥१॥ मृगशीर्षावलि १२ । रुधिरबिन्दु १३, तुला १४ वर्धमानक १५ पताका १६ । प्राकारा १७ पल्यङ्क (पूर्वोत्तराफाल्गुनीद्वयम्) १८।१९, हस्त २० मधुपुष्पकं २१ चैव ॥२॥ कीलक २२ दामनि २३ एकावलिः २४ च गजदन्त २५ वृश्चिकलामुलं २६ च । गज विक्रमश्च, (गजपादन्यासः)२७ ततः सिंहनिषीदिका २८ च संस्थानानि ॥३॥ इति । सू० १॥ इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां दशमस्य प्राभृतस्याष्टमं प्राभृत प्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥ दशमस्य प्राभृतस्य नवमं प्राभृतप्राभृतम् व्यख्यतमष्टमं प्राभृतप्राभृतम् तत्राष्टाविंशतिनक्षत्राणां संस्थानानि प्रदर्शितानि । अथ नवमं प्राभृतप्राभृतं व्याख्यायते, नक्षत्राणां संस्थानानि च तारासंख्याविना न भवितुमर्हन्तीत्यत्र नवमे प्राभृतप्रामृते नक्षत्राणां तारासंख्या प्रदर्श्यते-ता कहं ते तारग्गे । इत्यादि । मूलम् –ता कहते तारग्गे आहिए ? ति वएज्जा । ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीईणक्खत्ते कइ तारे पण्णते ? गोयमा ? तितारे पण्णते १। सवण णक्खत्ते कइ तारे पण्णत्ते ? तितारे पण्णत्ते २ । धणिट्ठा णक्खत्ते कइतारे पण्णत्ते ? पंचतारे पण्णत्ते ३। सयभिसया णक्खत्ते कइतारे पण्णत्ते? दुतारे पण्णत्ते ४ । पुव्वापोढवया णक्खत्ते कइतारे पण्णत्ते ? दुतारे पण्णत्ते ५ । एवं उत्तरापोढवयावि ६। रेवईणखत्ते कइतारे पण्णत्ते ? बत्तीसइतारे पण्णत्ते ७ । अस्सिणी णक्खत्ते कइतारे पण्णत्ते ? तितारे पण्णत्ते ८ । एवं सब्वे पुच्छिन्जिंति-भरणी० तितारे ९ । कत्तिया० छत्तारे १० । रोहिणी. पंचतारे ११ । मिगसिर० तितारे १२ । अद्दा० एगतारे १३ पुणव्वसु० Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामिणकाशिका टीका०प्रा. १०प्रा. प्रा. ९ सू०१ नक्षत्राणां तारासंख्यानिदर्शनम् I पंचतारे १४ । पुस्से० तितारे १५ अस्सेसा० छत्तारे १६। महासत्ततारे १७। . पुव्वकग्गुणी दुतारे १८ । एवं उत्तराफग्गुणी वि दुतारे १९ । हत्थे० पंचतारे २०। . चित्ता० एगतारे २१ । साई० एगतारे २२ । विसाहा० पंचतारे २३ । अग्युराहा० पंचतारे २४ । जेट्ठा तितारे २५ । मूले एगारसतारे २६ । पुव्वासादा० चाउतारे २७ । उत्तरा साढा णक्खत्ते कइतारे षण्णत्ते ? चउतारे पण्णत्ते ॥ सू०.१ ॥.. दसमस्स पाहुडस्स नवमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०-९॥ छाया-तावत् कथं ते तारा. आख्यातम् ? इति वदेत् । तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतेनक्षत्राणाम् अभिजिन्नक्षत्रं कतितारं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! त्रितारं प्रज्ञप्तम् १ श्रवणो नक्षत्र कतितारं प्रशप्तम् ? त्रितारं प्राप्तम् २। धनिष्ठा नक्षत्रं कतितारं प्रश तम् ? पश्चतारं प्रशप्तम् ३ । शतभिषग्नक्षत्र कतितारं प्रज्ञप्तम् ? शततारं प्रज्ञप्तम् ४ । पूर्वा प्रोष्ठपदानक्षत्रं कतितारं प्रक्षप्तम् ? द्वितारं प्रज्ञप्तम् ५ । एवम्-उत्तराप्रोष्ठपदापि ६ । रेवती नक्षत्रं कतितारं प्रज्ञप्तम् ? द्वात्रिंशत्तारं प्रज्ञप्तम् ७ । अश्विनी नक्षत्रं कतितारं प्रज्ञप्तम् ? त्रितारं प्रज्ञप्तम् ८ । एवं सर्वाणि (नक्षत्राणि) पृच्छयन्ते-भरणी० त्रितारम् ९। कृत्तिका षट् तारम् १० रोहिणो० पञ्चतारम् ११ । मृगशिरोन त्रितारम् १२। आ० एकतारम् १३ । पुनवेसु०पञ्चतारम् १४ । पुष्यो न त्रितारम् १५॥ अश्लेषा० षट्तारम् १६ । मघा०सप्ततारम् १७१ पूर्वाफाल्गुनी द्वितारम् १८। एवमुत्तराफाल्गुभ्यपि० द्वितारम् १९। हस्तो नपञ्चतारम् २० । चित्रा० एकतारम् २१॥ स्वातिन० एकतारम् २२॥ विशाखा पञ्चतारम् २३॥ अनुराधा० पञ्चतारम् २४। ज्येष्ठा० त्रितारम् २५। मूलो न० एकादशतारम् २६, पूर्वाषा ढा० चतुस्तारम् २७। उत्तराषाढानक्षत्र कतितारं प्राप्तम् ? चतुस्तारं प्रज्ञप्तम् ॥ मू०१ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य नवम. प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् १०-९॥ .. व्याख्या-गौतमः पृच्छति--ता कहं तारग्गे' इत्यादि । 'ता' तावत् 'कह' कथं--केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'तारग्गे' तारग्रं--ताराप्रमाणम्-अष्टाविंशतिनक्षत्राणां तारा संख्या 'आहिए' आख्यातं कथितम् ? 'ति, इति 'बएज्जा' वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! तदेव प्रश्नयति-'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां लोकप्रसिद्धानाम् 'अट्ठावीसाए' अष्टाविंशतेः अष्टाविंशतिसंख्यकानां खल 'णक्खत्ताणं' नक्षत्राणां मध्ये 'अभिईणक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं 'कइतारे' कतितार कियत्तारा युत्तं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्--कथितम् ! भगवानाह--'गोयमा' हे गौतम । अभिजिन्नक्षत्रं "तितारे 'पण्णत्ते, त्रितारं तारात्रययुक्तं प्रज्ञप्तम् १ । 'सवणे णक्खत्ते श्रवणः श्रवणाभिधनक्षत्रं 'कतितारे' 'पण्णत्ते, कतितारं प्रज्ञप्तम् ! तितारे पण्णत्ते ? त्रितारं प्रज्ञप्तम् २। एवमनया रीत्या सर्वाण्यपिप्रश्नसूत्राणि निर्वचनसूत्राणि च स्वयं संयोज्य भणितव्यानि । व्याख्यातु अर्थस्य छायागम्यत्वान्न विवियते । सर्वनक्षत्रताराप्रमाणप्रतिपादकं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिगतं गाथाद्वयमत्र प्रदश्यते-"तिग १ तिग २ पंचग ३ सय ४ दुग, ५ दुम ६ बत्तीसं ७ तिगं (तहतिगं ९ च) छ १० पंचग ११ विग १२ इक्कग १३,-पंचग १४ तिग १५ इक्कगं १६ चेव ॥१॥ सत्तग १७ दुग १८ दुग १९, पंचग २०, इक्कि २१ क्कग, २२ पंच २३ चउ २४ तिगं २५ चेव । इक्कारसग २६ चउक्कं २७, चउक्कगं २८ चेव तारग्गी ॥२३॥" इति। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रालिले सं० पुष्यः मघा अष्टाविंशति | नक्षत्राणां सं. | स्थान तारा नक्षत्रनामानि संस्थानानि तारासंख्या अभिजित् गोशीर्षावलि. | तिस्रः ३ श्रवणः काहार. (कावड) तिस्रः ३ धनिष्ठा शकुनि पंजर. | पञ्च ५ शतभिषक् पुष्पोपचार. शतम् १०० पूर्वाभाद्रपदा अपार्धवापी. | द्वतारे २ उत्तराभाद्र. रेवती नोका. द्वात्रिंशत ३२ अश्विनी अश्वस्कन्ध. तिस्रः ३ भरणी भग सं. तिम्रः ३ संख्याकोष्ठकम् | क्रम् नक्षत्रनामानि ! संख्यास्थानानि | तारा संख्या वर्धमान (शराव) | तिस्रः ३ . अश्लेषा पताका स. प्रकार स. सप्त ७ पूर्वाफाल्गुनी | अर्धपल्यङ्क स. | देतारे २ । उत्तराफाल्गुनी हस्तः हस्त स. | पञ्च ५ चित्रा मधु (महरा) पु. स्वातिः कीलक सं० । एका १ - ४ ४ . v कृत्तिका 2 क्षुरगृह. शकटोद्धि राहिणा विशाखा दामिनि (रज्जु) सं. अनुराधा एकावलिहार सं. | पञ्च ५ ज्येष्ठा गजदन्त सं. तिन ३ मूल० वृश्चिकपुच्छ एकादश ११ पूर्वाषाढा | गजपादन्या स.| चतसः ४ उत्तराषाढा । सिंहनिषद्या सं | चतसः ४ मृगशिरः आद्रों पुनर्वसु मृगशीर्षावलि. तिमः ३ रुधिरबिन्दु. | एका. १ । तुला सं. । पञ्च ५ १३ | १५ | Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा.१० सू०१ नक्षत्रणां तारासंख्यानिदर्शनम् ३१५ छाया–त्रिक १ त्रिक २ पञ्चक ३ शत ४ द्विक ५ डिक ६ द्वात्रिंशत् १ त्रिक ८ तथा त्रिकं ९ च षट् १० पञ्चक ११ त्रिक १२ एकक १३-पञ्चक १४ त्रिकं १५ एककं १६ चैव १॥ सप्तक १७ द्विक १८ द्विक १९ पंचक २०, एकै २१ कक २२ पंचक २३ चतुः २४ त्रिकं २५ चैव । एकादशक २६ चतुष्कं २७ चतुकं २८ चैव ताराग्रम् ॥२॥ इति । एतद्गाथाद्वयोक्तक्रमेणाष्टाविंशति नक्षत्राणां ताराप्रमाणमवसेयमिति ॥सू० १॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालपक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशाखा, चार्य" पदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालवति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायां दशमस्य प्राभृतस्य-नवमं प्रामृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०-९॥ ॥ श्रीरस्तु ।। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य दशम. प्राभृतमाभृतम् ॥ . व्याख्यातं नवमं प्राभृतप्राभृतम् । तत्र नक्षत्राणां तारासंख्या प्रदर्शिता, अथ दशमं प्राभृतप्राभूतं व्याख्यायते, अत्र स्वस्यास्तगमनेन कति नक्षत्राणि अहोरात्रपरिसमापकतया के मासं नयन्तीति कोऽहोरात्रस्य नक्षत्ररूपो नेता ? इति नक्षत्राणां नेतृत्वं तत्तदधिकृत्य पौरुषोपरिमाणं च प्रदर्श्यते-'ता कहं ते णेया' इत्यादि । - मूलम्-ता कहं ते णेया आहिए ति वएज्जा । ता वासाणं पढमं मासं कइ णक्खनाऐति सा चत्तारि णक्खत्ता ऐति, तं जहा-उत्तरासाडा, अभीई सवणे, धणिहा । उत्तरासालाचोदस अहोरते णेइ, अभिई सत्त अहोरत्ते णेइ, सवणे अट्ठ अहोरते णेइ धणिट्टा एग अहोरतं णेश तसि च णं मासंसि चउरंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिघसे दो पायाइं चत्तारि य अंगुलाई पोरिसी भवइ १ । ता वासाण दोच्च मासं कइ णक्खत्ता णेंति ? ता चत्तारि णक्खता ऐति, तं जहा-धणिहा, सयभिसया, पुचपोढवया । एवं एएणं अभिलावेणं जहेव जंबुद्दीवपन्नत्तीए तहेव एत्त्थंपि भाणियव्वं, तं जहा-धणिटा चोदसअहोरत्ते णेइ सयभिसया सत्त अहोरत्ते णेइ, पुवापोटबया अट्ट अहोरते णेइ, उत्तरापोटवया एग अहोरत्तं णेइ । तंसि च णं मासंसि अटुंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पयाइं अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवइ २।। ता वासाणं तइयं मासं कई णक्खत्ता णेति ? ता तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तं जहा-उत्तरपोट्टवया, रेवई, अस्सिणी उत्तरापोटवया चोदसअहोरत्ते णेइ, रेवई पण्णरस अहोरत्ते णेड अस्सिणी एग अहोरत्तं णेइ । तंसि च णं मासंसि दुवालसंगुलाए पोरिसीए छाया सुरिए अणुपरियट्टइ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहत्थाई तिण्णि पयाई पोरिसी भवइ ३। ता वासाणं चउत्थं मासं कइ णक्खत्ता ऐति ? ता तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तं जहा-अस्सिणी, भरणी कत्तिया । अस्सिणी चउद्दस अहोरत्ते णेइ, भरणी पण्णरस अहोरत्ते णेइ, कत्तिया एगं अहोरत्तं णेइ, तसि च णं मासंसि सोलसंगुलाए पोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ ४ ता हेमंताणं पढमं मासं कइ णक्खत्ता ऐति ? ता तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तं जहाकत्तिया, रोहिणी, संठाणा । कत्तिया चोदसअहोरत्ते णेइ, रोहिणी पण्णरस अहो Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. १० सू०१नक्षत्राणां नेतृत्वं पौरूषीपरिमाणं च ३१७ रत्ते णेइ, संठाणा एग अहोरत्तं णेइ । तंसि च णं मासंसि वीसंगुलाए पोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्त चरिमे दिवसे तिण्णि पयाइं अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवइ ।१। ___ता हेमंताणं दोच्चं मासं कइ णक्खत्ता ऐति ? चत्तारि णक्खत्ता ऐति, तं जहासंठाणा, अद्दा, पुणब्वसू पुस्सो । संठाणा चोदसअहोरते णेइ, अद्दा सत्त अहोरत्ते णेइ, पुणब्बसू अट्ट अहोरत्ते णेइ पुस्से एगं अहोरत्तं णेइ । तंसि च णं मासंसि चउवीसंगुलाए पोरिसीए छायाए मूरिए अणुपरियट्टइ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहटाणि चत्तारि पयाई पोरिसी भवइ २। ता हेमंताणं तइयं मासं कइणक्खत्ता ऐति ? ता त्तिण्णि णक्खत्ता ऐति तं जहापुस्से अस्सेसा महा । पुस्से चोदसअहोरत्ते णेइ, अस्सेसा पंचदस अहोरत्ते णेइ, महा एगे अहोरत्तं णेई । तंसि च णं मासंसि वीसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरि पट्टइ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पयाइं अहंगुलाई पोरिसी भवई ३ । ता हेमंताण चउत्थं मासं कइ णक्खत्ता ऐति ? ता तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तं जहा-महा पुन्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणो । महा चोदस अहोरत्ते णेइ, पुवाफग्गुणी पण्णरस अहोरत्ते णेइ, उत्तराफग्गुणी एग अहोरत्तं णेइ । तसि च णं मासंसि सोलसंगुलाए पोरिसीए छायाए मूरिए अणुपरियट्टइ। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिष्णि 'पयाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ ४ । ता गिम्हाणं पढमं मासं कइ णक्खत्ता ऐति ? ता तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तं जहा उत्सराफग्गुणी, हत्थो चित्ता । उत्तराफग्गुणीचोइस अहोरत्ते हत्थो पण्णरस अहोरत्ते णेइ, चिसा एगं अहोरत्तं णेइ । तंसि च णं मासंसि दुवालसंगुलाए पोरिसी छायाए सूरिए अणु'परियट्टइ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्ठाई य तिण्णि पयाई पोरिसी भवइ १ । ता गिम्हाणं बितियं मासं कइ णक्खत्ता ऐति ? ता तिण्णि णवखत्ता ऐति तं जहाचित्ता, साई, विसाहा, चित्ता चोदस अहोरत्ते णेइ, साई पण्णरस अहोरत्ते णेइ, विसाहा एग अहोरत्तं णेइ, । तंसि च णं मासंसि अटुंगुलाए पोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियदृइ तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पयाइं अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवइ २। गिम्हाणं तइयं मासं कइ णक्खत्ता ऐति ? ता चत्तारि णक्खत्ता ऐति तं जहाविसाहा अणुराहा, जेट्ठा, मूले य । विसाहा चोद्दसअहोरत्ते णेइ, अणुराहा, सत्त अहोरत्ते णेइ, जेठा अट्ट अहोरत्ते णेइ, मूलो एग अहोरत्तं णेइ । तंसि च णं मासंसि चउरंगुलाए Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे पोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियट्टइ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पयाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ ३। __ता गिम्हाणां चउत्थं मासं कइ णवत्ता ऐति ? ता तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तं जहामूलो, पुवासाढा, उत्तरासाढा। मूलो चोदसअहोरत्ते णेइ, पुव्वासाढा पण्णरस अहोरत्ते णेइ; उत्तरासाढा एग अहोरत्तं णेइ । (इयत्पर्यन्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिपाठः) जाव तंसि च णं मासंसि बट्टाए, समचउरंससंठियाए णग्गोहपरिमंडलाए सकायमणुरंगिणीए छायाए सरिए अणुपरियट्टइ तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहवाई दोपयाई पोरिसी भवइ ॥सू०१॥ ।। दसमस्स पाहुडस्स दसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०-१०॥ छाया --तावत् कथ ते नेता आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् वर्षाणां प्रथम मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-उत्तराषाढा, अभिजित्, श्रवणः, धनिष्ठा। उत्तराषाढा चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, अभिजित् सप्तअहोरात्रान् नयति, श्रवणः अष्ट अहोरात्रान् नयति, धनिष्टा एकम् अहोरात्रं नयति । तस्मिश्च खलु मासे चतुरङ्गुलया. पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्तते । तस्य खलु मासस्य चरिमे दिवसे द्वे पदे चत्वारि च अगुलानि पौरुषी भवति १ । तावत् वर्षाणां द्वितीयं मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथा-धनिष्ठा शतभिषक्, पूर्वाप्रोष्ठपदा, उत्तराप्रोष्ठपदा । एवम् एतेन अभिलापेन यथैव ज्ञप्त्यां तथैव अत्रापि भणितव्यम् , तद्यथा-धनिष्ठा चतुर्दश अहोरात्रान् नर्यात, शतभिषक् सप्त अहोरात्रान् नयति, पूर्वाप्रोष्ठपदा अष्ट अहोरात्रान् नयति, उत्तराप्रोष्ठपदा एकम् अहोरात्रं नयति । तस्मिश्च खलु मासे अष्टाङ्गुलया पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्त्तते । तस्य मासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे अष्ट अङगुलानि पौरुषी भवति २। तावत् वर्षाणां तृतीयं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-उत्तराप्रोष्ठपदा, रेवती अश्विनी। उत्तराप्रोष्ठपदा चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, रेवती पञ्चदश अहोरात्रान् नयति, अश्विनी एकम् अहोरात्रं नयति। तस्मिंश्च खलु मासे द्वादशाङ्गुलया पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्तते । तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे रेखास्थानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति ३ । तावत् वर्षाणां चतुर्थ मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि न्यन्ति, तद्यथा-अश्विनी, भरणी, कृत्तिका । अश्विनी चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, भरणी पञ्चदश अहोरात्रान् नयति, कृत्तिका एकम् अहोरात्रं नयति । तस्मिश्च खलु मासे षोडशाङ्गुलया. पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्तते । तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे त्रीणि पदनि चत्वारि अङ्गुलानि पौरुषी भवति । __ तावत् हेमन्तानां प्रथम मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-कृत्तिका, रोहिणी संस्थाना । कृत्तिका चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, रोहिणी पञ्च दश अहोरात्रान् नयति, संस्थाना एकमहोरात्र नयति । तस्मिश्च खलु मासे विशत्यगुलया Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा.प्रा. १० सू०१ नक्षत्राणां नेतृत्वं पौरूषीपरिमाणं च ३१९ पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्त्तते, तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे त्रीणि पदानि अष्ट अगुलानि पौरुषी भवति । १ । तावत् हेमन्तानां द्वितीयं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति तावत् चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-संस्थाना, आर्द्रा पुनर्वसुः पुष्यः । संस्थाना चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, आर्द्रा सप्त-अहोरात्रान् नयति, पुनर्वसुः अष्ट अहोरात्रान् नयति, पुष्यः एकमहोरात्रं नयति । तस्मिश्च खल मासे चतुर्विशत्यङ्गुलया पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्तते । तस्य खल मासस्य चरमे दिवसे रेखास्थानि चत्वारिपदानि पौरुषी भवति । २। तावत् हेमन्तानां तृतीयं मास कतिनक्षत्राणि नयन्ति ? तावत्त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा पुण्यः अश्लेषामघा । पुष्यः चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, अश्लेषा पञ्चदश अहोरात्रान् नर्यात मघा एकमहोरात्र नयति । तस्मिश्च खलु मासे विंशत्युगुलया पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावतते । तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे त्रीणि पदानि अष्टअगुलानि पौरुषी भवति।३ । तावत् हेमन्तानां चतुर्थ मास कति नक्षत्राणि नयन्ति, तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथा-मघा, पूर्वाफल्गुनी, उत्तराफाल्गुनो । मघा चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, पूर्वाफाल्गुनी पञ्चदश अहोरात्रान् नयति, उत्तरफाल्गुनी एकमहोरात्रं नयति । तस्मिंश्च खलु मासे षोडशाङ्गुलया पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्तते । तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे त्रोणि पदानि चत्वारि अगुलानि पौरुषी भवति । ४। . तावत् ग्रीष्माणां प्रथम मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ! तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथा-उत्तराफाल्गुनी हस्तः चित्रा । उत्तराफाल्गुनो चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, हस्तः पञ्चदश अहोरात्रान् नयति, चित्रा एकमहोरात्रं नयति। तस्मिश्च खलु मासे द्वादशाङ्गुलया पौरूष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्तते । तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे रेखास्थानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति । १। ____ तावत् ग्रीष्माणां द्वितीय मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-चित्रा, स्वातिः विशाखा । चित्रा चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, स्वातिः पञ्चदश अहोरात्रान् नयति, विशाखा एकमहोरात्रं नयति ।तस्मिध खलु मासे अष्टाशुलया पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्तते । तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे वे पदे अष्टअगुलानि पौरुषी भवति । २ । ग्रीष्माणां तृतीय मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-विशाखा अनुराधा ज्येष्टा मूलम् । विशाखा चतुर्दश अहोरात्रान् नति, अनुराधा सप्तअहोरात्रान् नयति, ज्येष्टा अष्ट अहोरात्रान् न पति, मूलम् एकमहोरात्रं नयति तस्मिश्च खलु मासे चतुरङ्गुलया पौरुण्या छायया सूर्यः अनुपरावर्तते । तस्य च खलु मासस्य चरमे दिवसे द्वे चत्वारि अंगुलानि पौरुषी भवति । ३ । ताबत् ग्रीष्माणां चतुर्थ मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथा-मूलं पूर्वाषाढा उत्तराषाढा मूलं चतुर्दश अहोरात्रान् नयति पूर्वाषाढा पञ्चदश अहोरात्रान् नयति, उत्तराषाढा एकं नक्षत्रं नयति । (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंगृहीतः पाठो गतः) यावत् तस्मिश्च खलु मासे 'वृत्तया समचतुरस्रसस्थितया , न्यग्रोधपरिमण्डलया स्वकायमनुरकगिण्या छायया सूर्यः अनुपरावर्तते तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे रेखास्थे द्वे पदे पौरूषी भवति । ४। सू० १ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाविस व्याख्या - गौतमः पृच्छति 'ता कहं ते णेया' इति । 'ता' तावत् 'क' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'या' नेता स्वस्यास्तमयनेनाहोरात्रपरिसमापको नक्षत्ररूपो नेता नायकः 'आहिए' आख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! तदेव प्रश्नयन्नाह - 'ता वासाणं' इत्यादि । 'ता' तावत् ' वासाणं' वर्षाणां वर्षाऋतु सम्बन्धिनां चतुणी मासानां श्रावण-भाद्रपदा - ssश्विन - कार्तिकरूपाणां मध्ये 'पढमं' प्रथमम् - आदि 'मासं' श्रावणलक्षणं 'क' कति कियत्संख्यकानि 'णवखत्ता' नक्षत्राणि 'णेंति' नयन्ति स्वस्यास्तगमनपूर्वकमहोरात्रपरिसमापकतया गमयन्ति । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह - 'ता चत्तारी' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चत्तारि णक्खत्ता' चत्वारि नक्षत्राणि 'णेंति' क्रमेण नयन्ति तान्येव दर्शयति-तं जहा, इत्यादि तंजहा—तद्यथा-तानीमानि - 'उत्तरासाढा' उत्तराषाढा १, 'अभिई' अभिजित् २ 'सवणो' श्रवणः ३, 'धणिट्ठा' धनिष्ठा ४ चेति । तत्र 'उत्तरासादा' उत्तराषाढा नक्षत्रं 'चोदस' चतुर्दश मासस्यादिमान् चतुर्दश संख्यकान् 'अहोरत्ते' अहोरात्रान् रात्रिन्दिवानि 'इ' नयति स्वस्याऽस्तगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया गमयति १ । तथा तत्पश्चात् चतुर्दशाहोरात्रानन्तरं ‘अभिई' अभिजिन्नक्षत्रं ‘सत्त अहोरते' सप्ताहोरात्रान् पञ्चदशाहोरात्रादारभ्य एकविंशतितमाहोरात्रपर्यन्तं 'इ' नयति स्वयमस्तं प्राप्याहोरात्रपरिसमापकतया गमयति २। तदनन्तरं 'सवणो ' श्रवणः श्रवण नक्षत्रं 'अअहोरत्ते' अष्टाहोरात्रान् - द्वाविंशतितमोहोरात्रादारभ्य एकोनत्रिंशत्तमाहोरात्रपर्यन्तं 'णेइ' नयति । एवं सर्वसंकलनया गता श्रावणमासस्यैकोनत्रिंशदहोरात्राः तदनन्तरं शेषम् ' एगं अहोरत्तं' एकमहोरात्रत्रिंशत्तमं 'घणिठ्ठा' धनिष्ठा नक्षत्रं 'इ' नयति स्वस्याऽस्तगमनेनैकाहोरात्रपरिसमापनपूर्वकं माससमापकतया श्रावणं मासं परिसमापयति । एवं चत्वारि नक्षत्राणि श्रावणमास परिसमापकानि सन्तीति । अथ सूर्यपरावर्त्तनमाह - 'तंसि च णं' इत्यादि, 'तंसि च णं' तस्मिन् उत्तराषाढादिनक्षत्रचतुष्टयेन परिसमाप्यमाने 'मासंसि ' मासे श्रावणे मासे 'चउरंगुलाए पोरसीए' चतुरङ्गुलया चतुरङ्गुलाधिक्या पौरुष्या पुरुष प्रमाणया ' छायाए' छायया 'सूरिए' सूर्यः 'अणुपरियट्टाइ ' ' अनुपरावर्त्तते, 'अनु' इति प्रतिदिवस परावर्त्तते पृथग् भवति । अत्रेदं बोध्यम् - श्रावणमासे प्रथमाहोरात्रादारभ्य प्रति दिवसमन्योन्यमण्डलसंक्रमणेन यथा तस्य श्रावणमासस्यान्तिमे दिवसे तथा कथञ्चनापि द्वे पदे चत्वारि अङ्गुलानि पौरुषी भवेदित्येवं क्रमेण सूर्यस्य संक्रमणं भवति, तदेव दर्शयति - ' तस्स णं' इत्यादि, 'तस्स णं मासस्स' तस्य स्वलु श्रावणस्य मासस्य 'चरमे दिवसे' चरमे दिवसे अन्तिमे दिने 'दोपयाई' ? द्वे पदे - ' चत्तारि अंगुलाणि' चत्वारि अङ्गुलानि चतुरङ्गुलाधिक द्विपदप्रमिता 'पोरिसी भवइ' पौरुषी भवति ॥ १ ॥ अथ वर्षाणां द्वितीयं मासं प्रदर्शयति- 'ता वासाणं दोच्चं' इत्यादि । 'ता' तावत्' ' वासाणं' वर्षाणां वर्षारात्रस्य वर्षाऋतो रित्यर्थः 'दोच्चं मासं द्वितीयं मासं भाद्रपदलक्षणं कइ णक्खत्ता १२० Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. १० सू०१ नक्षत्राणां नेतृत्वं पौरूषीपरिमाणं च ३२१ णेंति' कति नक्षत्राणि नयन्ति स्वस्याऽस्तगमनेन भाद्रपद मासं परिसमापयन्तीत्यर्थः । 'ता' तावत् 'चत्तारि णक्खत्ता ति' चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति । कानि तानीत्याह - 'तं जहा ' इत्यादि “तं जहा ' तद्यथा-तानीमानि - ' धनिट्ठा' धनिष्टा १, 'सयभिसया' शतभिषक् २, 'पुव्यपोह - वया' पूर्वोप्रोष्ठपदा ३, 'उत्तरपोडवया' उत्तराप्रोष्ठपदा ४ प्रोष्ठपदेति भाद्रपदा विज्ञेया । अथातिदेशमाह - ' एवं ' इत्यादि, ' एवं ' एवम् अनेन प्रकारेण 'एएण अभिलावेणं' एतेन पूर्वमनुपदप्रदर्शिताभिलापक्रमेण ' जहेव' यथैव 'जम्बूद्दीवपन्नत्तीए' जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां सप्तमवक्षस्कारे कथितं 'तहेव' तथैव 'एत्थेपि' अत्रापि चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रगतेऽस्मिन् प्रकरणेऽपि 'भाणियव्वं ' भणितव्यम् । तदेव प्रदर्शयाम:- 'तं जहा ' तद्यथा - तत्रत्यं प्रकरणं यथा - 'घणिट्ठा' इत्यादि, 'धणिट्ठा' धनिष्ठा नक्षत्रं 'चोदसअहोरत्ते' भाद्रपदमासस्य प्रथमान् चतुर्दश अहोरात्रान् स्वयमस्तङ्गतं भूत्वा : चतुर्दशाहोरात्रपरिसमापकतया 'णेइ' नयति चतुर्दशाहोरात्रान् परिसमापयतीत्यर्थः, तत्पश्चात् 'सर्याभिसया' शतभिषग्नक्षत्रं 'सत्तअहोरत्ते' सप्ताहोरात्रम् पञ्चदशाहोरात्रादारभ्य एकविंशतितमाहोरात्रपर्यन्तं 'णेइ' नयति स्वयमस्तगमनेन भाद्रपदमासस्यैकविंशतितममहोरात्रं समापयति । । तदनन्तरं 'पुव्वापोहवया' पूर्वाप्रोष्ठपदा पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्रं 'अट्ठअहोरत्ते' अष्टाहोरात्रान् द्वाविंशतितमाहोरात्रादारभ्यैकोनत्रिंशत्तमाहोरात्रपर्यन्तं 'णेइ' नयति भाद्रपदमासस्यैकोनत्रिंशदहोरात्रान् परिसमापयति ततश्च 'उत्तरापोट्ठवया' उत्तराप्रोष्ठ पदा - उत्तराभाद्रपदानक्षत्रं ' एगं अहोरतं ' एकमहोरात्रं यो मासपूत शेषएकाऽहोरात्रः स्थितः तम् उत्तराभाद्रपदा नक्षत्रं 'इ' नयति । अस्यैकस्याहोरात्रस्य समाप्तौ भाद्रपदमासः समाप्त भवतीति भावः । ' तंसि च णं' तस्मिंश्च खलु 'मासंसि, मासे भाद्रपदलक्षणे 'अहंगुलाए पोरिसीए' अष्टाङ्गुलया पौरुष्या अष्टाङ्गुलाधिकया पुरुषप्रमाणया 'छायाए ' छायया 'सूरिए ' सूर्य: 'अणुपरियई' अनुपरावर्त्तते प्रतिदिवसं निवर्त्तते, अतः 'तस्स णं मासस्स' तस्य खलु मासस्य 'चरिमे दिवसे' चरमे अन्तिमे दिवसे 'दो पयाई' द्वे पदे तथा 'अट्ठ अंगुलाई ' अष्टाङ्गुलाधिकपदद्वयप्रमिता 'पोरिसी भवइ' पौरुषी भवति २ । एवमग्रेऽपि सर्वत्र विज्ञेयम् । व्याख्या छायागम्यत्वेन सुगमत्वाद् ग्रीष्माणां तृतीयमासज्येष्ठमासपर्यन्तं न वित्रियते, वर्षाणां चतुर्थ माषाढमासंत्वग्रे वक्ष्यतीति । नवरं वर्षा ऋतोस्तृतीय आश्विनमासः ३ । चतुर्थः कार्त्तिकमासः ४ । एवं हेमन्त ऋतोः प्रथमो मार्गशीर्षमासः १, द्वितीयः पौषः २, तृतीयो माघः ३, चतुर्थश्च फाल्गुन मासः ४ इति । एवं ग्रीष्म ऋतोः प्रथम चैत्रो मासः १, द्वितीयः वैशाखः २, तृतीयो - ज्येष्ठः ३, चतुर्थश्च आषाढमासः ४, इति द्वादश मासा भवन्ति । एवमाषाढस्य चरमे दिवसे 'लेहस्थाई दो पयाई' इति रेखास्थो रेखा - पादपर्यन्तवर्त्तिनी सीमा तत्स्थे द्वे पदे पौरुषी भवति परिपूर्ण पद द्वयपरिमिता पौरुषी भवतीति भावः एवं व्याख्येयम् । इयं चतुरङ्गुला वृद्धिः प्रतिमासं श्रावणमासादारभ्य पौषमासपर्यन्तं भवति । तत्पश्चाच्च प्रतिमासं चतुरङ्गुला हानिर्वाच्या सूर्यस्योत्तरायणगतत्वात् । इयं च हानिराषाढमासपर्यन्तं भवति, अत आषाढमासस्य चरमे दिवसे द्विपदा पौरुषी भवति । तदेव प्रदर्श्यते- 'ता गिम्हाणं' इत्यादि 'ता' तावत् गिम्हाणं' ग्रीष्माणां ग्रीष्मऋतोः ११ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षतिसूत्रे 'चउत्थं मासं' चतुर्थ मासम् आषाढलक्षणं 'कइ णक्खत्ता ऐति' कति नक्षत्राणि नयन्ति स्वस्यास्तगमनेन मासपरिसमापकतया गमयन्ति ? 'ता' तावत् 'तिण्णि णक्खत्ता णे ति' श्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, 'तंजहा तद्यथा-तानीमानि-'मूलो' मूलम् १ पूव्वासाढा' पूर्वाषाढ़ा २ 'उत्तरासाढा' उत्तराषाढ़ा ३ । तत्र 'मूलो' मूलं नक्षत्र 'चोदस अहोरत्ते णेई' आद्यान् चतुर्दशअहोरात्रान् 'नयति' १। 'पुव्वासाढा' पूर्वाषाढा 'पण्णरसअहोरत्ते णेइ' 'पञ्चदशाहोरात्रान् नयति २। 'उत्तरासाढा' उत्तराषाढा 'एग अहोरत्तं' एकं त्रिंशत्तममहोरात्र ‘णेइ' नयति स्वयमस्तगमनेन त्रिंशत्तमाहोरात्रसमापनपूर्वकं तमाषाढमासं परिसमा पथतीति भावः 'तंसि च णं मासंसि' तस्मिंश्च आषाढलक्षणे खलु मासे 'वट्टाए' बृत्तया, वर्तलया वृत्तस्य प्रकाश्यवस्तुनः वृत्तया 'छायया' इत्यग्रेण सम्बन्धः, एवं 'समचउरंससंठियाए' समचतुरस्रसंस्थितया समचतुरस्रसंस्थानवतः प्रकाश्य वस्तुनः समचतुरस्राकारया छायया, तथा 'णग्गोहपरिमंडलाए' न्यग्रोधपरिमण्डलया न्यग्रोधो वट; तदाकारस्य प्रकाश्यवस्तुनस्तदाकारया, छायया, उपलक्षणमेतत् अनेन यत्संस्थानसंस्थितं प्रकाश्यं वस्तु भवति तस्य छायाऽपि तत्संस्थानवती भवतीति सर्वसंस्थानेषु विज्ञेयम् यत् आषाढमासे प्रायः सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनः दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते चतुर्भागे शेषे वा स्वप्रमाणा छाया भवति, निश्चयनयेन तु आषाढमासस्य चरमे दिवसे, तत्रापि सूर्ये सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरति सति प्रकाश्यवस्तु संस्थानसदृशा छाया भवति. अत एवोक्तम् “वट्टस्स वट्टयाए" इत्यादि । एतदेव सूत्रकारः स्पष्टयति 'सकायमणुरंगिणीए' इति । 'सकायमणुरंगिणीए' स्वकायमनुरङ्गिण्या-स्वस्य स्वकीयस्य छायानिबन्धनस्य प्रकाश्यवस्तुनः कायः--शरीरं स्वकायस्तम् अनु रज्यते-अनुकारं विदधातीत्येवं शीला अनुरङ्गिणी 'द्विषद्गृह' इत्यादिना धिनञ् प्रत्ययः तया स्वकायमनुरंङ्गिण्या 'छायाए' छायया 'सरिए' सूर्यः 'अणुपरियट्टइ' अनु-प्रतिदिवसं परावर्त्तते । अयमाशयः-आषाढस्य • प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिवसमन्यान्यमण्डलसंक्रमणे। यथा सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते चतुर्भागे शेषे वा स्वानुकारा स्वप्रमाणा च छाया भवेत् तथा कथञ्चनापि सूर्यः परावर्त्तते, इति । ततः 'तस्त णं मासस्स तस्य खलु आषाढस्य मासस्य 'चरिमे दिवसे' चरमे अन्तिमे त्रिंशत्तमे दिवसे 'लेहट्ठाई' रेखापर्यन्तभागवर्तिनी सीमा तत्रस्थिते रेखास्थिते 'दो पयाई' द्वे पदे पदद्वयप्रमिता 'पोरिसी भवइ' पौरुषी भवतीति सूत्रार्थः । अस्य सूत्रस्य विशेषव्याख्या जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां मत्कृतायां प्रकाशिकाव्याख्यायां विलोकनीयमिति । अत्र यद् आषाढमासस्य चरमदिवसे द्विपदा पौरुषी भवतीत्युक्तं तत् पौरुषी प्रमाणं व्यवहारत उक्तम् , निश्चयतः पुनः सार्धस्त्रिंशताऽहोरात्रै-(३०॥) चतुरङ्गुला वृद्धिः श्रावणमासादराभ्य पौषमासपरिसमाप्तिपर्यन्तं षट्सु मासेषु दक्षिणायनगते सूर्ये भवति, एवमेव चतुरङ्गुला हानिर्माघमासादारभ्याषाढमासपरिसमाप्ति पर्यन्तं षट्सु मासेषु उत्तरायणगते सूर्ये भवतीति ज्ञातव्यम् । निश्चयतः पौरुष्याश्चतुरङ्गला वृदिर्हानिश्च सौरमासमधिकृत्य भवति, सौरमासस्यैव सार्धत्रिंशदिवसप्रमाणत्वात्, अत्र यच्चान्द्रमासा कथितास्ते लोकव्यवहारमाश्रित्य कथिता इति विभावनीयम् । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या | मास नाम नक्षत्र नाम दि. तथा दि. | दि व दि. । साः दि. श्रावणः उत्तराषाढा १४ दि | अभिजित् ७ श्रवण ८ धनिष्ठा-1 भाद्रपदः धनिष्ठा-१४ शतभिषक्-७ । पूर्वाभाद्र ८ उत्तरा भाद्र-१ आश्विनः उत्तरा भाद्रपद-१४ रेवतो-१५ अश्विनी-१ कर्तिकः आश्विनी-१४ भरणी-१५ कृत्तिका-१ मार्गशीर्षः कृत्तिका-१४ रोहिणी-१५ मृगशिर-१ | पौषः मृगशिरः-१४ आा-८ पुर्नवसु-७ पुष्यः माघः पुष्यः-१४ भलेषा-१५ मघा-१ फाल्गुन मघा-१४ पूर्वा फाल्गुनी १५ उत्तरा फा.-१ चैत्रः उत्तराफाल्गुनी १४ हस्त:-१५ चित्रा-१ वैशाखः चित्रा-१४ स्वातिः १५ विशाखा-१ ज्येष्ठः विशाखा-१४ अनुराधा-७ ज्येष्ठा-८ मूलम्-१ । आषाढः मूलम्-१४ पूर्वाषाढा-१५ उत्तराषाढा Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे अत्र निश्चयतः पौरुषीप्रमाणप्रतिपादिका अन्यत्रोक्ता अष्टौ करणगाथाः 'पव्वे' इत्यादि प्रदर्श्यन्ते-- पव्वे पण्णरसगुणे, तिहि सहिए पोरिसीए आणयणे । छलसीइसयविभत्ते, जं लद्धं तं वियाणाहि ॥१॥ जइ होइ विसमलद्धं, दक्खिणमयणं ठविज्जनायव्वं । अह हवइ समं लद्धं, नायव्वं उत्तरं :अयणं ॥२॥ अयणगए तिहिरासी चउग्गुणे पव्वपाय भइयव्वं । जं लद्धंगुलाणि, खयवुडूढी पोरिसीए य ॥३॥ दक्षिणवुड्ढी दुपया, अंगुलया गं तु होइ नायव्वा । उत्तर अयणे हाणी, कायव्वा चउहि पाएहिं ॥४॥ सावण बहुल पडिवया, दुपया पुण पोरिसी धुवाहोइ । चत्तारि अंगुलाई, मासेणं वड्ढए तत्तो ॥५॥ इक्कत्तीसइ भागा, तिहिए पुण अंगुलस्स चत्तारि । दक्खिणअयणे वुड्ढी, जाव:उ चत्तारि उ पयाई ॥६॥ उत्तर अयणे हाणी, चउहि पायाहिं जाव दो पाया। एवं तु पोरिसीए, बुडू ढि-खया हुति नायव्वा ॥७॥ बुड्ढी बा हाणी वा, जावइया पोरिसीए दिट्ठा उ । तत्तो दिवसगएणं, जं लद्धं तुं खु अयणगयं ॥८॥ इति । छाया–पर्व पञ्चदशगुणं, तिथिसहितं पौरुष्या आनयने । षडशीतिशतविभक्तं, यल्लब्धं तद् विजानीहि ॥१॥ यदि भवति विषमं लब्धं दक्षिणमयनं स्थापयेत् ज्ञातव्यम् । अथ भवति समं लब्धं, ज्ञातव्यम् उत्तरम् अयनम् ॥२॥ अयनगतः तिथि राशि;, चतुर्गुणः पर्वपाद भक्तव्यम् । यद् लब्धम् (यानि लब्धानि) अङ्गुलानि, क्षयवृद्धिपौरुष्याश्च ॥३॥ दक्षिणे वृद्धिः द्विपदा, चतुरङ्गुलकानां तु भवति ज्ञातव्या । उत्तरे अयरे हानिः, कर्तव्या चतुर्भिः पादे ॥४॥ श्रावण बहुल प्रतिपदि, द्विपदा पुनः पौरुषी ध्रुवा भवति । चत्वारि अङ्गुलनि, मासेन वर्धते तत्तः (तस्मात्) ॥५॥ एकत्रिंशद् भागाः, तिथ्याः, पुनः अङ्गुस्य चत्वारः । दक्षिणे अयने वृद्धिः, यावत्तु चत्वारि तु पदानि ॥६॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा०१० प्रा. प्रा.१० सू०१ पौरुषी प्रमाणप्रतिपादकगाथार्थः ३२५ उत्तरे अयने हानिः, चतुर्भिः पादैः यावत् द्वौ पादौ । ऐवं तु पौरुष्याः, वृद्धि-क्षयौ भवतः ज्ञातव्यौ ॥७॥ वृद्धिः वा हानिः वा, यावत्का पौरुष्या दृष्टा तु। तत्तः दिवसगतेन यत् लब्धं तत् खु अयनगतम् ॥८॥ इति । एता गाथाः क्रमेण व्याख्यायन्ते- 'पव्वे पण्णरसगुणे' पर्वपञ्चदशगुणं-युगमध्ये यस्मिन् पर्वणि यस्यां तिथौ पौरुषीपरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तस्मात् पूर्वयुगादित आरभ्य यावन्ति पर्वाणि, पूर्णिमा रूपाणि व्यतीतानि तेषां संख्या ध्रियते, तत्पश्चात् 'तिहिसहिए' तिथि सहितः यस्या तिथेः पौरुषोपरिमाणं ज्ञातुमिच्छेत् तस्यास्तिथेः पूर्व यावत्यस्तिथयो गतास्तत्संख्यया यो राशिः पूर्वमेकत्रस्थापितः स सहितः युक्तः कर्त्तव्यः, तस्मिन् राशौ गतः तिथिसंख्या प्रक्षिप्यते इत्यर्थः । किमर्थमित्याह 'पोरिसीए आणयणे' पौरुष्या आनयने पौरुष्यानयनार्थमित्यर्थः । ततः-तिथिसहितः पूर्वोक्तो राशिः 'छलसीइसयविभत्ते षडशोतिशत विभक्तः षडशीत्यधिकेन शतेन तस्य रॉशेर्भागो हियते-अत्रायं भावः-एकस्मिन् सौरमासे सूर्यतिथयः सार्धत्रिंशद् भवन्ति तदवधौ चन्द्रतिथय एकत्रिंशद् भवन्ति, ततोऽयनस्य षण्मासत्वेन मासस्य सूर्य तिथयः सार्धत्रिंशत् षड्केन गुण्यन्ते ततो भवति षडशीत्यधिकमेकं शतं (१८६) मण्डलानामेक स्मिन्नयने तथा तदवधिगतचन्द्रतिथयश्चैकत्रिंशत् षड्केन गुण्यन्ते ततो भवति षडशीत्यधिकमेकं शतं (१८६) चन्द्र तिथीनामेकस्मिन् अयने ततः त्र्यशीत्यधिकशतपरि माणमण्डलात्मके एकस्मिन्नयने चन्द्रनिष्पादिततिथीनां षडशीत्यधिकशतप्रमाणत्वेन षडशीत्यधिकशतेन भागहरणं कथितम् भागे च हृते 'जं लद्धं' यत् लब्धं भागहारेण यत् प्राप्तं तं वियाणाहि' तत् विजानीहि हृदि सम्यगवधारयेत्यर्थः ॥ १॥ ततः 'जइ होइ विसमलद्धं' यदि भवति विषमं लन्धं यदि लब्धं, लब्धसंख्या विषमा एक-त्रिपञ्चादिरूपा भवेत् तदा तत्पर्यन्तवर्ति 'दक्षिणमयणं' दक्षिणमयनं दक्षिणायनं 'ठविज्जनायव्वं' स्थापयेत् ज्ञातव्यं, भवेदित्यर्थः । 'अह' अथ यदि 'समं लद्धं' समं लब्धसमसंख्या द्विकचतुष्क-पटकादिरूपा लब्धा भवेत् तदा तत्पर्यन्तवर्ति 'उत्तरं अयणं नायव्वं' उत्तरमयनम् उत्तरायणं ज्ञातव्यम् ॥२॥ तदेवमुक्तो दक्षिणोत्तरायणपरिज्ञानोपायः । साम्प्रतं षडशीत्यधिकशतेन भागे हृते यच्छेषमवतिष्ठते, अथवा भागसंभवेन यच्छेषं तिष्ठति तद्गतविधिं प्रदर्शयति–'अयणगए' इत्यादि । 'अयणगए तिहिरासी' अयनगतस्तिथिराशि:-पूर्व भागे हूते भागसंभवे वा अवशेषीभूतो योऽयनगत स्तिथिराशिः-पूर्वभागे हते भागसंभवे वा अवशेषीभूतो योऽयनगतस्तिथिराशि स्तिष्ठति सः 'चउग्गुणे' चतुर्गुणः कर्तव्यः चतुर्भि चतुर्गुण्यते इत्यर्थः, गुणिते सति यः गुणनफलरूपो राशिः सः 'पव्वपाय भइयव्वं' पर्वपादेन भक्तव्यः पर्वपादेन पर्वचतुर्थांशेन तस्य भागो हर्त्तव्यः, तथाहि युगमध्ये यानि सर्वसंकलनया पर्वाणि चतुर्विशत्यधिकशत(१२४)संख्यकानि कथमित्याह Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ चन्द्रप्रकतिसूत्रे एकस्मिन् युगे अधिकमासद्विकयुक्तत्वेन द्वाषष्टिमासा (६२) भवन्ति, एकस्मिन्मासे च पूर्णिमाऽमावास्यारूपं पर्वद्वयं भवति ततो द्वाषष्टि द्वाभ्यां गुण्यते- जातं चतुर्विंशत्यधिकमेकं शतम् (१२४) । ततश्चतुर्विंशत्यधिकशतसंख्यकानिः पर्वाणि पर्वपादेन पर्वचतुर्थी शेन एकत्रिंशदूपेण विभज्यन्ते तेषां भागो हियते इत्यर्थः । हूते च भागे 'जं लद्धं' यल्लब्धं या संख्या चतुष्करूपा लभ्यते तत्परिमितानि 'अंगुलाई' अङ्गुलानि च चत्वार्यङ्लानि चकारादङ्गुलांशाश्च 'पोरिसीए' पौरुष्याः 'खयवुडूढी' क्षयवृद्धी ज्ञातव्ये भागलब्धसंख्यापरिमितानि चत्वार्यशैलानि पौरुष्याः पदध्रुवराशेः क्षयत्वेन उत्तरायणे, तथा पदध्रुवराशेरुपरि वृद्धित्वेन च दक्षिणायने ज्ञातव्यानोति ॥३॥ एतदेवाग्रे चतुर्थगाथाव्याख्यायां प्रदर्शयिष्यते । अथ एवम्भूतस्य गुणकारस्य तथा भागहारस्य कथमुत्पत्तिः ? इति तदुत्पत्तिः प्रदर्श्यतेयदि षडशीत्यधिकेन तिथिशतेन चतुर्विंशत्यङ्गुलानि उत्तरायणे क्षयत्वेन दक्षिणायने च वृद्धित्वेन प्राप्यन्ते तदा एकस्यां तिथौ अङ्गुलानां किं प्रमाणः क्षयः किं प्रमाणा च वृद्धि भवेत् ? इति प्रश्ने तत्प्रकार-२ माह अत्र राशित्रयं जातम् तत्स्थापना यथा-- तिथिषु । अङ्गुलानि । दिवसे । .. १८६ । २४ । १ । का हानिदिवा | अत्र अन्त्येन एककरूपेण राशिना मध्यमश्च ।" तुर्विंशतिरूपो राशिर्गुण्यते, एकेन गुणने च एतावानेब जातश्चतुर्विंशतिसंख्यकः २४, “एकेनगुणितं तदेव भवति' इति वचनात् , ततः अस्य चतुर्विंशतिरूपस्य राशेः आयेन षडशीत्यधिकशतरूपेण राशिना भागो हियते, भाज्यराशेश्चतुर्विंशितिरूपस्योपरितनस्य स्तोकत्वे षडशीत्यधिकशतरूपभाजकराशिना भागो न हियते (२४) । ततो भागहाराभावे भाज्य-भाज्यकराश्यो षट्केनापतना क्रियते, षट्केन भागो ह्रियते इत्यर्थः ततो जात उपरितनो भाज्यराशिश्चतुष्करूपः अधस्तनो भाजक राशिश्च एकत्रिंशत् ( . )। ततो लब्धा एकैकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिशद्भागाः (१ ) क्षयःवेन वृद्भित्वेन वेति तदेवमुक्त उपरितनो राशिर्गुणकारः अधस्तनश्च भागहार इति गुणाकार भागहारयोरुत्पत्तिरिति । अत्र सूत्रे आषाढमासस्य चरमदिवसे आषाढपूर्णिमायां द्विपदा पौरुषी भवतीत्युक्तम् । तत आरभ्य दक्षिणायनत्वेन प्रतितिथौ चतुरेकत्रिंशद्भाग (२१) वृद्धिक्रमेण श्रावणपूर्णिमायां चतुरङ्गुलाधिका द्विपदा पौरुषी भवति । एवं प्रतिमास चतुरङ्गुलवृद्धिक्रमेण पौषपूर्णिमायां चतुष्पदा पौरुषी भवति । तत उत्तरायण Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टोका प्रा. १० प्रा०मा १० पौरुषीप्रमाणप्रतिपादकगाथार्थः प्रवेशेन प्रतितिथौ चतुरेकत्रिंशद्भाग ( ३२७ ४ ) हानिक्रमेण आषाढपूर्णिमायां पुनद्विपदा पौरुषी ३१ जायते, इत्यवधेयमिति ॥३॥ प्रकृतमनुसरामः-अथ कस्मिन्नयने कियत्प्रमाणापद ध्रुमवराशिमधिकृत्य वृद्धिर्हानिर्वा भवतीति प्रदर्शयितुं चतुर्थीगाथा व्याख्यायते - 'दक्खिणवुड्ढी' इत्यादि 'दक्खिणवुड्ढी' दक्षिणे वृद्धिः, दक्षिणायने सूर्ये गते पौरुषी प्रमाणे वृद्धिर्ज्ञातव्या, यथा - आषाढपूर्णिमायां द्विपदापौरुषी भवति तत्पश्चाद्दक्षिणायनं प्ररभतेऽतः पदद्वयस्योपरि अगुलानां वृद्धिर्विज्ञेया । एतदेवाह - 'दुपयाद्विपदात् पदद्वयादुपरि ‘अंगुलयाणं' अङ्गुलकानां 'वुड्ढी होइ' वृद्धि र्भवति सा 'नायव्वा' ज्ञातव्या । उत्तरे अयणे' उत्तरे अयने उत्तरायणे गते सूर्ये या पूर्वे दक्षिणायनान्तिमदिवसे पौष पूर्णिमायां चत्वारः पादाः पौरुषी जाताः तेभ्यः 'चउहिं पाए हि' चतुर्भ्यः पादेभ्य ' हाणीका यव्वा' हानि कर्त्तव्या ||४|| अथ युगमध्ये प्रथमे संवत्सरे दक्षिणायने यस्मादिवसादारभ्य वृद्धि र्भवेत्तं पञ्चमषष्ठेति गाथा द्वयेन प्ररूपयति-'सावण बहुल :' इत्यादि । सावणबहुलपडिवया' श्रावण बहुलप्रतिपदायां युगस्य प्रथमे संवत्सरे श्रावणमासे कृष्णपक्षस्य प्रतिपदायाम् आषाढपूर्णिमातो द्वितीये दिवसे 'दुपया पुण पोरसी धुवा होड' द्विपदा पुनः पौरुषी ध्रुवा - निश्चिता भवति । ' तत्तो' तत्तः तदिवसात् श्रावण कृष्णप्रतिपदात आरभ्याग्रे 'मासेणं' मासेन सूर्यमासमाश्रित्य सार्वत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन, चन्द्रमासमाश्रित्य एकत्रिंशत्तिथिभिः 'चत्तारि अंगुलाई' चत्वारि अंगुलानि पौरुषी 'बड्ढए' वर्धते प्रतिमासान्ते चतुरङ्गुलानां पौरुषो प्रमाणे वृद्धिर्भवति सूर्यस्य दक्षिणायनगतत्वात् ॥ ५ ॥ सूर्यमासचन्द्रमासेति कथमवसीयते ? इति तदेव प्रदर्श्यते - 'इक्कतीस ' इत्यादि, 'इक्कतीसइभागा' इतिकथमवसीयते इति तदेव प्रदर्श्यते - 'इक्कतीसइ' इत्यादि 'इकतीसर भागाति - हिए पुण अंगुलस्स चत्तारि' एकत्रिंशद्भागाः तिथौ पुनरङ्गुलस्य चत्वारि - 'तिहिए' एक तिथौ अङ्गुलस्य चत्वार एकत्रिंशद्भागाः- वृद्धिरूपेण भवन्ति, सा च ' दक्खिणअयणे - ४ ३१ ड्ढी' दक्षिणेऽयने वृद्धिः, एषां चतुरेकत्रिंशद्भागानां दक्षिणायने वृद्धिर्भवति । कियत्पदपर्यन्त मित्याह - 'जाव उ चत्तारि उ पयाई' यावत् तु चत्वारितु पदानि - यावत् . दक्षिणायन चरम दिने चतुष्पदामेता पौरुषी भवेत् तावत् वृद्धिर्ज्ञातव्येति भावः ॥ ६ ॥ अथ पौरुष्याः पदहानिमाह - 'उत्तरअयणे' इत्यादि, उत्तर अयणे' उत्तरे अयने उत्तरायणे 'हाणी' हानि भवेत्, कथमित्याह - ' चउहिं पायाहिं' चतुर्भ्यः पादेभ्यः उत्तरायणप्रथम दिव सादारभ्य चतुर्भ्यः पादेभ्यो हानिः प्रारभते प्रतितिथौ चतुरेकत्रिंशद्भागक्रमेण, कियत्पर्यन्तमित्याह'जाव दो पाया' यावत् द्वौ पादौ यावत् उत्तरायणचरमदिवसे द्विपदा पौरुषी भवेत् तावत् हा Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे निर्ज्ञातव्येति । उपसंहरन्नाह-'एवंतु' इत्यादि, 'एवंतु' अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण 'पोरिसीए' पौरुष्या: 'वुइढिखया' वृद्धिक्षयौ 'होति' भवतः, इति तौ वृद्धिक्षयौ 'नायव्या' ज्ञातव्यौ ॥७॥ अथायनस्याद्यतः कति दिवसा गता इति पौरुषी प्रमाणमधिकृत्य प्रदर्शयन्नाह-'वुढिवा' इत्यादि, 'वुड्ढीवा हाणी वा' वृद्धि हानिर्वा 'जावइया पोरिसीए दिट्ठा उ' यावती पौरुष्या दृष्टा तु, 'तत्तो' तत्तः तस्सकाशात्-'दिवसगएणं' दिवसगतेन दिवमानां गमनेन 'जं लद्धं' यल्लब्धं प्राप्त दिवसप्रमाणं 'तं खु' तत् खलु 'अयणगयं' अयनगतं तावत्परिमितमयनं गतमित्यवधार्यम् । अस्या गाथाया अयं भावः-ईप्सितदिने 'अद्य अयनस्य कतिदिवसा व्यतीता' इति ज्ञातुमिच्छेत् तदा तदीप्सितदिने यदि दक्षिणायनं भवेत् तदा तस्मिन् दिवसे यावन्तः पादाः अङ्गलसहिताः पौरुष्या वर्धिता भवेयुस्तान् प्रतितिथि एकत्रिंशद्भागचतुष्टयवृद्धिक्रमेण तिथीगणयेत् यावत्यस्तिथयो लभ्यन्ते यावन्तो दिवसान अयनस्य जानीयात् यत् दक्षिणायनस्य इयन्तो दिवसा गता इति । एवमेव उत्तरायणे हानिमाश्रित्य दिवसा गणनीया इति ॥८॥ तदेवमक्षरार्थमाश्रित्य करणगाथानां व्याख्यानं कृतम् साम्प्रतमुदाहरणं प्रदर्श्यते-यदि दक्षिणायने पदद्वयस्योपरि चत्वारि अङ्गुलानि यस्मिन् दिवसे पौरुष्या लभ्यन्ते तदा कोऽपि पृच्छतिअद्य दक्षिणायनस्य कति तिथयो गताः? इति प्रश्ने शृणु-अत्र त्रैराशिककर्मावतारो यथा-यदि अङ्गुलस्य चतुभिरेकत्रिंशद्भागैरेका तिथि र्लभ्यते ततश्चतुर्भिरङ्गुलैः कति तिथयो लभ्यन्ते? इति प्रश्ने राशित्रयस्थापना क्रियते- एकत्रिशद्भागा तिथिः अङ्गुलानि। अगुलान अत्रान्त्यो राशिरङ्गुलरूपः, -४- १ - ४ । " अस्यैकत्रिंशद्भागकरणार्थमेकत्रिंशता गुण्यते जातं चतुर्विशत्यधिकमेकशतम् (१२४) अनेन मध्योराशि रेककरूपो गुण्यते जातं तदेव चतुर्विशत्यधिकं शतम् १२४ । अस्य चतुष्करूपेणादि राशिना भागों हियते लब्धा एकत्रिंशत्संख्येति । एतास्तिथयो ज्ञातव्याः, तेन आगतं दक्षिणायने एकत्रिंशत्तमायां तिथौ पौरुष्यां चतुरङ्गुला वृद्धि रिति दक्षिणायनस्य अद्यकत्रिंशदिनानि गतानिति परिभावनीयमिति । एवमुत्तरायणे पदचतुष्टया दष्टाङ्गुलानि होनानि पौरुष्या यस्मिन् दिने लभ्यन्ते तदा कोऽपि पृच्छति-अद्य उत्तरायणस्य कतितिथयो गताः ? इति प्रश्ने शृणु-अत्रापि त्रैराशिकं क्रियते, यथा-यदि अङ्गुलस्य चतुर्भिरेकत्रिंशद्भागैरेका तिथिर्लभ्यते तदाऽष्टभिरङ्गुलीनैः कतितिथयो लभ्यन्ते ? इति राशित्रयस्थापना क्रियते __ एक त्रिंशद्भागाः। तिथिः। अङ्गुलानिाअत्राप्यन्त्यो राशिरेकत्रिंशद्भागकरणार्थमेकत्रिंशता पा । -४-।-१ । -८-- गुण्यते-जाते अष्टचत्वारिंशदधिके द्वे शते .- (२४८) अनेन राशिना मध्यो राशिरेकक Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टोका प्रा. १० प्रा० प्रा १० पौरूषीप्रमाणप्रतिपादकगाथार्थः ३२९ दधिके द्वे शते (२४८) इति । अस्य राशेः (२४८) आद्येन चतुष्करूपेण राशिना भागो हियते लब्धा द्वाषष्टः ६२ । आगतमुत्तरायणे द्वाषष्टितमायां तिथौ पौरुष्यामष्टावङ्गुलानि हीनानीति गतानि उत्तरायणस्य द्वाषष्टिर्दिनानीति विभावनीयमिति ॥ ८॥ इति करणगाथाः ||८|| तदेवं क्रमेण व्याख्याता अष्टापि करणगाथाः । साम्प्रतं 'युगस्यादितोऽमुकस्मिन् पर्वणि कतिपदा पौरुषी भवति ? इत्युदाहरणैः प्रदर्शयति - यथा कोऽपि पृच्छति -युगे आदित पञ्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति ? तत्र चतुरशीति प्रियते, तस्याश्चा'धस्तात् पञ्चम्यां तिथौ पृष्ट मिति पञ्च स्थाप्याः | ८४ | चतुरशीतिश्च पञ्चदशभिर्गुण्यते जातानि ५ १ ७ षष्ट्यधिकानि द्वादशशतानि (१२६०), एतेषु मध्ये अधस्तना ये पञ्चस्थतास्ते प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पञ्चषष्ट्यधिकानि द्वादशशतानि (१२६५) एषां षडशीत्यधिकेन शतेन १८६, भागो ह्रियते, लब्धा षट् ६, आगतं षड् अयनानि गतानि सप्तममयनं वर्त्तते । ततस्तद्गतं च शेषमेकोन पञ्चाशदधिकं शतं १४९ तिष्ठति । तत एष राशिचतुर्भिर्गुण्यते जातानि षण्णवत्यधिकानि पञ्चशतानि ५९६ । एषामेकत्रिंशत भागो हृते लब्धा एकोनविंशति १९, शेषास्तिष्ठन्ति सप्त ७, तत्र द्वादशाङ्गुलः पादो भवतीत्ये कोनविंशतेः १९ द्वादशकेन भागो ह्रियते तेन लब्धमेकं पदम्, शेषाः सप्त, तानि चाङ्गुलानि तेन जातमेकं पदं सप्तचाङ्गुलानि षष्ठं चायनमुत्तरायणं, तच्च गतं, सप्तमं तु दक्षिणायनं वर्त्तते, ततो ये च सप्त एक त्रिंशद्भागाः पूर्व शेषीभूता वर्त्तन्ते तेषां यवाः कार्याः, तत्र - अष्ट यवात्मकमेकमङ्गुलमिति ते सप्त अष्टभिर्गुण्यन्ते जाताः षट् पञ्चाशत् ५६ अस्यैकत्रिंशता भागे हृते लब्ध एको यवः, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चविंशतिः २५, एते एकस्य यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः, ततो जातम् एकं पदम् सप्त अङ्गुलानि, एको एकस्य च यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः पदम् - अङ्गुलानि – यवः – एकत्रिंशद्भागाः एकः राशिः पदद्वयप्रमाणे ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यते, तत आगतम् पञ्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ - त्रीणि पदानि सप्तअङ्गुलानि, एको यवः, एकस्य च यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः ( पद. अं यवः भागा १ - २५ यवः, - १ - २५ इत्येतावती पौरुषीति । ७ ३१ तथा पुनरन्यः कोऽपि पृच्छति' - सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी वति, तत्र षण्णवतिर्धियते तस्याथाधस्तात् पञ्च षण्णवतिश्च पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि ४२ 60 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिसूत्रे चखारिंशदधिकानि चतुर्दशशतानि ( १४४०), एषां मध्ये येऽधस्तनाः पञ्च ते प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि चतुर्दशशतानि ( १४४५) एषां षडशीत्यधिकशतेन (१८६) भागो हियते, लब्धानि सप्त ७ इति सप्त अयनानि शेषं तिष्ठति त्रिचत्वारिंशदधिकमेकं शतम् (१४३) एतत् चतुर्भिर्गुण्यते जातानि द्विसप्तत्यधिकानि पञ्चशतानि ( ५७२), एषामेकत्रिंशता भागो हूियते लब्धानि अष्ट | दश (१८) तानि चाङ्गुलानि, द्वादशाङ्गुलं पदमिति द्वादशभिरगुलैस्तु पदं लभ्यते, शेषं षट्, तानि चाङ्गुलानि तत आयातम् एकं पदं षड् अङ्गुलानीति । तत एकत्रिंशता भागे हृते ये उद्धृताश्चतुर्दश १४, ते यवानयनार्थमष्टभिर्गुण्यन्ते जातं तिष्ठति द्वादशोत्तरं शतम् (११२) अस्य - एकत्रिंशता भागो ह्रियते लब्धस्त्रयः ३, ते च यवाः ३, शेषा तिष्ठति एकोनविंशतिः ते च एकोनविंशति रेक त्रिंशद्भागाः । ततः एकं पदं षइ अङ्गुलानि, त्रयो यवाः, एकस्य यवस्य एकोनविंशतिश्वैकत्रिंशद्भागाः ( १९) इति प्राप्तम् । अत्र सप्तचाय१-६-३ ३१ नानि तानि अष्टमं वर्त्तते, तच्चायनमुत्तरायणं भवति, उत्तरायणे च पदचतुष्टयरूपाद् ध्रुव१९ राशेर्हानिर्भवेदिति पूर्वोक्ताङ्कश्रेणिः ( पदचतुष्टयात् हीना क्रियते तदा शेषं ३३० १-६-३३१ तिष्ठति - ३ – पदे – पञ्चाङ्गुलानि चत्वारो यवाः एकस्य च यवस्य द्वादश एकत्रिंशद्भागा ( प. अं यवा. भागाः १२ २-५–४ 1 ३१ भवतीत्युत्तरमवसेयम् एवं सर्वत्र गणना परिभावनीयेति ॥ सू० १ ॥ " इति चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकायां टीकायां दशमस्य प्राभृतस्य दशमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ १०-१० ॥ एतावतीयुगादित आरभ्य सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथो पौरुषी दशमस्य प्राभृतस्य - एकादशं प्राभृतप्राभृतम् । गतं दशमं प्राभृतप्राभृतम्, तत्र नक्षत्राणां नेतृत्वं पौरुषी प्रमाणं च प्रदर्शितम् । अथ एकादशं प्राभृतप्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र नक्षत्राण्यधिकृत्य चन्द्रमार्गाः, चन्द्रमण्डलान्तरं सूर्यमार्गश्च प्रदर्शयिष्यते इति सम्बन्धेनायातस्यास्यैकादशप्राभृतप्राभृतस्य प्रथमं चन्द्रमार्गविषयकमिदमादिसूत्रम् - 'ता कहते चंदमग्गा इत्यादि । मूलम् ता कहं ते चंदमग्गा आहिएति वएवज्जा । ता एएसि णं अट्ठावीसार णक्खताणं अस्थि णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणेगं जोयं जोति ॥ १॥ अस्थिखाणं सया चंदस्स उत्तरेण जो जोएंति ॥ २ ॥ अस्थि णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ११ सू० १ चन्द्रमार्गनिरूपणम् ३३१ दाहिणेण वि उत्तरेण वि पमपि जोयं जोएँति ॥ ३॥ अस्थि णक्खत्ता जेणं सया चंदस्स दाहिणं वि पमपि जोयं जोएँति ॥४॥ अस्थि णक्खत्ता जेणं चंदस्स या पम जोयं जोएँति ॥ ५ ॥ ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जेणं सया चंदस्स दाहिणेण जोयं जोएँति, तहेव जाव कयरे णक्खत्ता जेणं सया चंदस्स पम जोयं जोएंति ? ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं जे णं णक्खत्ता सया चंदस्स दाहिणेणं जोयं जोएँति ते णं छ, तंजहा- संठाणा १, अद्दा, २, पुस ३, असेसा ४, हत्थो ५, मूलो ६ । तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जेणं सया चंदस्स उत्तरेणं जोयं जोएँति, ते णं बारस, तंजहा - अभिई १, सवणो २, धणिट्ठा ३, संयभिसया ४, पुवांभवया ५, उत्तराभद्दया ६, रेवई ७, अस्सिणी ८, भरणी ९, पुव्वाफग्गुणी १०, उत्तराफग्गुणी ११, साई १२ । तत्थ णं जे ते णक्खा जेणं चंदस्स दहिणेण वि उत्तरेण वि पमपि जोयं जोएँति तेणं सत्त, तंजा - कत्तिया १, रोहिणी २, पुणन्वसू ३, महा ४, चित्ता 1 विसाहा ६, अणुराहा ७ । तत्थ गं जे ते णक्खता जेगं चंदस्स दाहिणेण वि पमपि जोयं जोएँति ताओ दो सादाओ तओ य सव्वबाहिरे मण्डले जोयं जोएँसुवा, जोएँतिवा, जोइस्संति वा तत्थ णं जं तं णक्खत्तं जं णं सया चंदस्स पमदं जोयं जोएइ साणं एगा जेा ॥ १ ॥ छाया -- तावत् कथं ते चन्द्रमार्गाः आख्याताः ? इति वदेत्, तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणे योगं युञ्जन्ति ॥ १ ॥ सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य उत्तरे योगं युञ्जन्ति |२| सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणेऽपि उत्तरेऽपि प्रमदमपि योगं युञ्जन्ति | ३ | सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणेऽपि प्रमर्दमपि योगं युञ्जन्ति |3| सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु चन्द्रस्य सदा प्रमदं योगं युञ्जन्ति || तावत् एतेषाम् अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणे योगं युञ्जन्ति ? तथैव यावत् कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य प्रमदं योगं युञ्जन्ति । तावत्, एतेषां खलु अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां यानि खलु नक्षत्राणि सदा चन्द्रस्य दक्षिणे योगं युञ्जन्ति तानि खलु पट् तद्यथा - संस्थाना १, आर्द्रा २, पुष्यः ३, अश्लेषा ४, हस्तः, मूरम् ६, । तत्र खलु यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य उत्तरे योगं युञ्जन्ति तानि खलु द्वादश, तद्यथा - अभिजित् १, श्रवणः २, धनिष्ठा ३, शतभिषक् ४, पूर्वाभाद्रपदा ५, उत्तराभाद्रपदा ६, रेवती ७, अश्विनी ८, भरणी ९, पूर्वाफाल्गुनी १०, उत्तम फल्गुनी ११, स्वातिः १२, तत्र खलु यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु चन्द्रस्य दक्षिणेऽपि उत्तरेऽपि, प्रमर्दमपि योगं युञ्जन्ति तानि खलु सप्त, तद्यथा - कृत्तिका १. रोहिणी २, पुनर्वसुः ३, मघा ४, चित्रा ५, विशाखा ६, अनुराधा ७, । तत्र खलु यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु चन्द्रस्य दक्षिणेऽपि प्रमर्दमपि योगं युञ्जन्ति Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे ते द्वे आषाढे, ते च सर्व बाह्ये मण्डले योगम् अयुञ्जतां वा, युङ्क्तो वा, योक्ष्यतो वा। तत्र यत्तत् नक्षत्रं यत् खलु सदा चन्द्रस्य प्रमद योगं युनक्ति सा खलु एका ज्येष्ठा। सूत्र०१॥ व्याख्या-'ता कहते इति । 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'चंदमग्गा' चन्द्रमार्गाः नक्षत्राणां दक्षिणत उत्तरतः प्रमर्दतः, अथवा सूर्यनक्षत्रविरहिततया अविरहितया चन्द्रस्य मार्गा मण्डत्वगत्या परिभ्रमणरूपा मण्डलरूपा वा मार्गाः 'अहिया' आख्याताः कथिताः ? 'तिबएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां ज्योतिः शास्त्रप्रसिद्धानां 'अट्ठावीसाए' णक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये 'अत्थि' सन्ति 'अत्थि' इति एकवचन बहुवचनवाचकमव्ययपदं, तेन सन्तीत्यर्थः ‘णक्खत्ता नक्षत्राणि कानिचित्, 'जे णं' यानि खलु 'सया' सदा निरन्तरं 'चंदस्स चन्द्रस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणे दक्षिणभागे दक्षिणस्यां दिशि स्थितानि 'जोयं जोएंति' योगं युञ्जन्ति चन्द्रेण सह योगं कुर्वन्तीत्यर्थः ? तथा 'अत्थि' सन्ति कानिचित् 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु 'सया' सदा 'चंदस्स' चंद्रस्य 'उत्तरेण' उत्तरे उत्तरस्यां दिशि स्थितानि 'जोयं जोएंति' योग युञ्जन्ति २ । तथा 'अस्थि' सन्ति कानिचित् ‘णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'सया' सदा 'चंदस्स' चंद्रस्य 'दाहिणेण वि' दक्षिणेऽपि 'उत्तरेण बि' उत्तरेऽपि 'पमईपि' प्रमर्दमपि प्रमर्दरूपमपि मध्यमार्गेण गमनरूपमपि 'जोयं जोएंति योग युञ्जन्ति ३ । तथा-'अत्थि' सन्ति कानिचित् 'णक्खत्ता नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'सया' सदा चंदस्स चंद्रस्य दाहिणेणं 'पमईपि' दक्षिणे प्रमर्दमपि प्रमर्दरूपमपि 'जोय जोएंति' योग युञ्जन्ति ॥४॥ तथा 'अस्थि णक्खत्ता' सन्ति कानिचित् नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'चंदस्स' चंद्रस्य 'सया' सदा 'पमई' प्रमर्दरूपं 'जोयं जोएंति' योगं युञ्जन्ति ॥५। एवं भगवता सामान्यतो नक्षत्राणां पञ्च योगप्रकाराः प्रदर्शिताः अथ भगवन् गौतमः कानि कानि नक्षत्राणि चन्द्रस्य दक्षिगादिक्रमेण योगं युञ्जतीति भिन्नतया स्पष्टावबोधार्थ पुनः पृच्छति-'ता' 'एएसिगं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' एतेषाम् अष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये 'कयरे 'णक्खत्ता' कतमानि किंनामानि कति नक्षत्राणि सन्ति 'जेणं' यानि खलु 'सया' सदा चंदस्स दाहिणेणं जोयं जोएंति' चन्द्रस्य दक्षिणे स्थितानि योगं युञ्जन्ति ? ॥१॥ 'तहेव' तथैव यथा पूर्वप्रकरणे नक्षत्रयोगप्रकाराः कथितास्तथैवात्रापि वक्तव्याः स्पष्टार्थत्वात्पुनर्ने विविच्यन्ते । कियत्पर्यन्तं ते वक्तव्याः तत्राह-'जाव' इत्यादि 'जाव' यावत् पञ्चमं प्रकारम् तदेवाह-'कयर' इत्यादि 'कयरे' कतमानि किनामानि कति संख्यकानि च 'णखत्ता' नक्षत्राणि सन्ति 'जे णं' यानि खलु नक्षत्राणि 'सया' सदा 'चंदस्स' चन्द्रस्य ‘पमदं' प्रर्मदरूपं 'जोय' जोएंति योगं युञ्जन्ति ।५। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. ११ चन्द्रमार्गनिरूपणम् ३३३ एवं गौतमेन पृष्टे सति भगवान् तानि भिन्नभिन्नरूपेण प्रदर्शयति 'ता एएसि णं' इत्यादि 'ता तावत् 'एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' एतेषां खलु अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'जे णं' णक्खत्ता यानि खलु नक्षत्राणि 'सया' सदा सर्वकालं 'चंदस्स दाहिणेणं' चन्द्रस्य दक्षिणे दक्षिणस्यां दिशि स्थितानि 'जोयं जोएंति' योगं युञ्जन्ति 'ते णं' तानि खलु 'छ' षट् षट् संख्यकानि सन्ति 'तं जहा' तद्यथा तानि यथा 'संठाणा' संस्थाना मृगशिरः १, 'अदा' आर्द्रा २, 'पुस्सी' पुष्यः ३ 'अस्सेसा' अश्लेषा ४, 'हत्थो' हस्तः ५, 'मूलो' मूलश्च ६, इति एतानि सर्वाण्यपि मृगशिर आदीनि नक्षत्राणि पञ्चदशस्य चन्द्रमण्डस्य बहिश्वरं चरन्ति तथाचोक्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ । संठाणा अस्सोसिलेस हत्थो तहेव मूला य । बाहिरओ वाहिरमंडलस्स छप्पि य नक्खत्ता ॥ १ ॥ छाया - संस्थाना आर्द्रा पुष्यः अश्लेषा हस्तस्तथैव मूलश्च । बाह्यतो बाह्यमण्डलस्य षडपि च नक्षत्राणि ॥ १ ॥ एतानि नक्षत्राणि सदैव दक्षिणदिग् व्यवस्थितान्येव चन्द्रेण सह योग युञ्जन्ति नान्यथेति ॥१॥ 'तत्थ' तत्र तेषु नक्षत्रयोगप्रकारेषु 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति तेषु ‘जे णं' यानि खलु नक्षत्राणि 'सया' सदा सर्वदा 'चंदस्स उत्तरेणं जोयं जोएंति' चंद्रस्य उत्तरे उत्तरदिशि स्थितानि योंग युञ्जन्ति ' ते णं' तानि खलु ' बारस' द्वादश सन्ति 'तंजहा' तद्यथा तानीमानि - अभिई अभिजित् १' 'सवणो' श्रवणः २, धनिष्ठा धनिष्ठा ३, 'सर्याभिसया' शतभिषक् ४ ' पुव्वा भद्दवया' पूर्वाभाद्रपदा ५, 'उत्तराभद्दवया उत्तराभाद्रपदा, ६, 'रेवई' रेवती, अस्सिणी, अश्विनी ८, 'भरणी' भरणी ९ पुव्वाफरगुणी' पूर्वाफल्गुनी १०, उत्तराफग्गुणी उत्तराफल्गुनी ११, साई' स्वातिः १२, इति एतानि द्वादशापि नक्षत्राणि सर्वाभ्यन्तरे चन्द्रमण्डले चारं चरन्ति । यदा चंद्रस्य एतैः सहयोगो भवति तदा स्वभावतः एव चन्द्रः शेपेष्वेव मण्डलेषु वर्त्तते तत एतानि उत्तरदिगू व्यवस्थिता - न्येव सदैव चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्तीति २ । तत्थ तत्र 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति तेषु नक्षत्राणि 'चंदस्स' चन्द्रस्य 'दाहिणेणवि' दक्षिणेऽपि 'उत्तरेणवि' प्रमर्दरूपमपि 'जोयं जोएंति' योग युञ्जन्ति 'तेणं सत्त' ते खलु तद्यथा तानि यथा 'कत्तिया' कृत्तिका १, 'रोहिणी' रोहिणी 'महा' मघा ४, 'चित्ता' चित्रा ५, 'विसाहा' विशाखा ६, 'अनुराहा' तथा 'तत्थ' तत्र अष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये ये यानि सन्ति तेषां मध्ये 'जे णं' ये द्वे खलु नक्षत्रे 'चंदस्स' चन्द्रस्य ' दाहिणेणवि' दक्षिणेऽपि तथा 'जे णं' यानि खलु उत्तरेऽपि 'पमद्दपि ' सप्त सन्ति; 'तंजहा 'पुणव्यसू' पुनर्वसु ३, अनुराधा ७ । ३ । 'नक्खत्ता' नक्षत्राणि Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ चन्द्र प्रशतिसूत्रे 'पमद्दपि ' प्रमर्दमपि 'जोयं जोएंति' योगं युङ्क्तः 'ता ओय' ने द्वे नक्षत्रे सव्ववाहिरे मंडले सर्व बाह्यमण्डलस्थिते 'जोयं जोएंसु वा' योगमयुङ्क्ताम् वा योगमकुरुतां 'जोएंति वा ' युङ्क्तो वा योगं कुरुतः 'जोएस्संति वा' योक्ष्यतो योगं करिष्यतः वा । अत्रेयं भावना एते पूर्वाषाढा उत्तराषाढ़ा चेति द्वे अपि आषाढे प्रत्येकं चतुस्तारे, उक्तंच्च पूर्वं अस्यैव नवमे प्राभृते - नक्षत्रतारा संख्याप्रकरणे - 'पुव्वासाढा चउत्तारे, उत्तरासाढा चउत्तारे' इति, तत्र द्वे द्वे तारे सर्व बाह्यस्य पञ्चदशस्य मण्डलस्याभ्यन्तरे भवतः, द्वे द्वे च बहिर्भवतः । तत्र ये द्वे द्वे तारे बहिर्भवतस्ते चन्द्रस्य पञ्चदशेऽपि मण्डले चारं चरतस्तदा ते दक्षिणदिग्व्यवस्थिते स्तः, ततस्तदपेक्षया " दाहिणेण वि" इति दक्षिणेऽपि योगं युङ्क्तः, इत्युक्तम् । तथा ये द्वे द्वे तारे अभ्यन्तरे स्तः, तयोर्मध्येन नियमतश्चन्द्रो गच्छतीति, यतोहि - यदा पूर्वाषाढोत्तराषाढाभ्यां सह चन्द्रो योगं समुपैति तदाऽभ्यन्तरतारकाणांमध्यतो गच्छतीति नियमः । तदपेक्षया “पमदपि " इति प्रमर्दमपि योगं इति कथ्यते ॥ ४ ॥ तथा-'तत्थ' तत्र - अष्टाविंशति नक्षत्रेषु 'जं तं णक्खत्तं' यत्तन्नक्षत्रं 'जं णं' यत् खलु 'सया' सदा सर्वकालं 'पमदं जोयं' प्रमर्दं योगं मध्यतो गमनरूपं योगं 'जोएइ' युनक्ति 'साणं एका जेट्ठा' सा खलु एका ज्येष्ठा तत् खलु एक ज्येष्ठानक्षत्रमिति भावः ॥ सूत्र ॥ तदेवमुक्ता मण्डलगत्या परिभ्रमण पश्चन्द्रमार्गाः, साम्प्रतं मण्डलरूपान् चन्द्रमार्गान् तदन्तराणि सूर्यमार्गाश्चाभिधातुमाह - ' ता कइ णं ते चंदमंडला' इत्यादि । मूलम् - ताकणं ते चंदमंडला आहिएति वएज्जा, ता पण्णरस चंदमंडला आहिएति वज्जा । एएसि णं पण्णरसहं चंदमण्डलाणं अस्थि चंदमंडला जे णं सया णक्ख अविरहिया, १, अस्थि चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं विरहिया २ । अस्थि चंदमंडला जेणं रविससि णक्खत्ताणं सामण्णा भवंति ३ । अस्थि चंदमंडला जे णं सयाइच्चेहिं विरहिया |४| ता एएसिगं पण्णरसहं चंद्रमंडलाणं कयरे चंदमंडला जेणं सया क्खत्तेर्हि अविरहिया जाव कयरे चंदमंडला जे णं सया आइच्चेहिं विरहिया १ ता एएसि णं पण्णरसहं चंदमंडलाणं तत्त्य जे ते चंदमंडला जेगं सया णक्खत्तेहिं अविरहिया ते णं तं जहा पढमे चंदमंडले, १' तःए चंदमंडले, छट्ठे चंदमंडले ३, सत्तमे चंदमंडले ४, अमे चंदमंडले ५, दस मे चंद मंडले ६, एगारसे चंदमंडले ७, परसमे चंदमंडले ८, । तत्थ जे ते चंदमंडला जे गं सया णक्खत्तेर्हि विरहिया ते णं सत्त, तंजहा - बीए चंदमंडले १, चउत्थे चंदमंडले २, पंचमे चंदमंडले ३. नवमे चंदमंडले ४, वारसमे चंदमंडले ५, तेरसमे चंदमंडळे ६, चउदसमे चंदमंडले ७, । तत्थ जेते चंदमंडले जे णं ससिरविणक्खत्ताणं समागा भवंति ते णं चत्तारि तं जहापढमे चंद मंडले १, बीए चंदमंडले २, इक्कारसमे चंदमंडले ३, पण्णरसमे Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. ११ चन्द्रमार्गान्तरम् ३३५ चंदमंडले ४, तत्थ जेते चंदमंडला जे णं सया आइच्चेहिं विरहिया तेणं पंच, तं जहा-छठे चंदमंडले १, सत्तमे चंदमंडले १, अट्ठमे चंदमंडले ३, नवमे चंदमंडले ४, दसमे चंदमंडले ५, ॥सूत्र २॥ "दसमस्स पाहुडस्स एगारसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०-११॥ छाया-तावत् कति खलु ते चन्द्रमण्डलानि आख्यातानि ? इति वदेत्, तावत् पञ्चदश चन्द्रमण्डलानि आख्यातानि इतिवदेत् । तावत् पतेषां खलु पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां सन्ति चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा नक्षत्रैरविरहितानि १। सन्ति चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा तक्षविरहितानि २ । सन्ति चन्द्रमण्डानि यानि खलु रवि शशि नक्षत्राणां सामान्यानि भवन्ति ३। सन्ति चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा अदित्याभ्यां विरहितानि ४। तावत् एतेषां खलु पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां कतमानि चन्द्रमण्डलानि यानि खल सदा नक्षत्रैः विरहितानि ? यावत् कतमानि चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा आदित्याभ्यां विरहितानि ? तावत् पतेषां खलु पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां तत्र यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि खलु नक्षत्रैः अविरहितानि तानि खलु अष्ट, तद्यथा-प्रथम चन्द्रमण्डलम् १ तृतीयं चन्द्रमण्ड लम् , २ षष्ठं चन्द्रमण्डलम् ३, सप्तमं चन्द्रमण्डलम् ४, अष्टमं चन्द्रमण्डलम् ५, दशमं चन्द्रमण्डलम् ६, एकादशं चन्द्रमण्डलम् ७, पञ्चदश चन्द्रमण्डलम् ८॥ १, तत्र यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा नक्षत्रैः विरहितानि तानि खलु सप्त, तद्यथा-द्वितीयं चन्द्रमण्डलम् १, चतुर्थं चन्द्रमण्डलम् २, पञ्चमं चन्द्रमण्डलम् ३, नवमं चन्द्रमण्डलम् ४, द्वादशं चन्द्रमण्डलम् ५, त्रयोदशं चन्द्रमण्डलम् ६, चतुर्दश चन्द्रमण्डलम् ७।२। तत्र यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि खलु शशि-रवि नक्षत्राणां सामान्यानि भवन्ति तानि खलु चत्वारि, तद्यथा प्रथमं चन्द्रमण्डलम् १, द्वितीयं चन्द्रमण्डलम् २, एकादशं चन्द्रमण्डलम् ३, पञ्चदशं चन्द्रमण्डलम् ४, ३॥ तत्र यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा आदित्याभ्यां विरहितानि तानि खलु पञ्च, तद्यथा-षष्ठं चन्द्रमण्डलम् १, सप्तमं चन्द्रमण्डलम् २, अष्टमं चन्द्रमण्डलम् ३, नवमं चन्द्रमण्डलम् ४, दशमं चन्द्रमण्डलम् ५ ४ासू० २॥ दशमस्य प्राभृतस्य एकादश प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०-११॥ व्याख्या-गौतमः पृच्छति 'ता कइणं ते चंदमंडला' इति 'ता' तावत् 'कइ णं' कति खल कियन्ति खलु 'ते' ते-त्वया 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'आहिया' आख्यातानि कथितानि 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! । भगवानाह 'ता' तावत् 'पण्णरस' पञ्चदश पञ्चदशसंख्यकानि 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'आहिया' आख्यातानि मया कथितानि 'ति' इति एवं प्रकारेण 'वएज्जा' वदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्य इति । तत्र पञ्च चन्द्रमण्डलानि जम्बूद्वोपे सन्ति शेषाणि च दशमण्डलानि लवणसमुद्रे सन्ति । उक्तञ्च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ___ जंबद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइयं ओगाहित्ता केवइया चंदमंडला पण्णत्ता ? गोयमा ! जंबू दीवेणं दीवे असीयं जोयणसयं ओगाहित्ता एत्थ णं चंदमंडला पण्णत्ता । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwww ३३६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे लवणेणं भंते समुद्दे केवइयं ओगाहित्ता केवइया चंदमंडला पण्णत्ता ? गोयमा ! लबणे णं समुदे तिणि तोसाइं जोयणसयाइं ओगाहित्ता एत्थ णं दस चंदमंडला पण्णत्ता एवामेव सपुब्वावरेणं जम्बूद्दीवे लवणे य पण्णरस चंदमंडला भवंतीति अक्खायं ॥ छाया—जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियत्कं (क्षेत्र) अवगाह्य कियन्ति चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे अशोतं (अशीत्यधिकं ) योजनशतम् अवगाह्य अत्र, खलु पञ्च चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञतानि । लवणे खलु भदन्त! समुद्रे कियत्कं (क्षेत्रं ) अवगाह्य कियन्ति चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञतानि ? गौतम ! लवणे खलु समुद्रे त्रीणि त्रिंशत् योजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु दश चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि । एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे लवणे च पञ्चदश चन्द्रमण्डलानि भवन्तीति आख्यातम् ॥ अस्य व्याख्या जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रस्य मत्कृतायां........ऱ्याख्यायां विलोकनीयेति । अथ भगवान् चन्द्रमण्डलानां नक्षत्रादिना सह योगं प्रदर्शयति-ता एएसि गं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि गं' एतेषां खलु 'पण्णरसण्ह' पञ्चदशानां 'चंदमंडलाणं' चन्द्रमण्डलानां मध्ये 'अस्थि ति, सन्ति एतादृशानि 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'जे णं' यानि खलु 'सया' सदा सर्वकालं ‘णक्खत्तेहिं' नक्षत्रैः 'अविरहिया' अविरहितानि युक्तानि तिष्ठन्ति ! 'अस्थि सन्ति कियन्ति एतादृशानि 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'जेणं' यानि खलु 'सया' सदा सर्वकालं 'णक्खत्तेहि' नक्षत्रैः 'विरहिया' विरहितानि नक्षत्रयोगवर्जितानि तिष्ठन्ति २। 'अत्थि' सन्ति कियन्ति 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'जेणं' यानि खलु 'रविससि नक्खत्ताणं रविशशिनक्षत्राणां रविशशिनक्षत्राण्याश्रित्य 'सामण्णा' सामान्यानि सर्वसाधारणानि तिष्ठन्ति, येषु चन्द्रमण्डलेषु रविरपि गच्छति शश्यपि गच्छति नक्षत्राण्यपि गच्छन्तित्यतः सूर्यचन्द्रनक्षत्रेति सर्वेषामपि भोग्यानीति भावः ३ । 'अत्थि' सन्ति कियन्ति एतादृशानि 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'जे णं' यानि खलु 'सया' सदा सर्वकालं 'आइच्चेहि' आदित्याभ्यां जम्बूद्वीपे सूर्यद्वयस्य सद्भावात् द्वाभ्यां सूर्याभ्यां 'विरहिया' विरहितानि सूर्याभोग्यानि तिष्ठन्ति न तेषु कदापि द्वावपि सूर्योचारं चरत इति भावः । ४ एवं भगवता सामान्येन प्रोक्ते सति गौतमः एकैकशश्चचन्द्रमण्डलविषये विशेषावबोधार्थ पुनः पृच्छति 'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' ? एतेषां खलु 'पण्णरसण्हं' पञ्चदशानां 'चंदमंडलाणं' चन्द्रमण्डलानां मध्ये 'कयरे' कतमानि कानि कियन्ति 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि सन्ति 'जे णं' यानि खलु 'सया' सदा 'णक्खत्तेहि नक्षत्रैः अविरहिया' अविरहितानि विरहरहितानि युक्तानीत्यर्थः तिष्ठन्ति ! १। 'जाव' यावत्, अत्र यावत्पदेन पूर्व भगवता प्रोक्तमालापकद्वयमत्र वाच्यम्, तथाहि-कानि चन्द्रमण्डलानि सन्ति यानि सदा नक्षत्रविरहितानि नक्षत्रभोगवर्जितानि तिष्ठिन्ति २। तथा कानि चन्द्रमण्डलानि सन्ति यानि Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच ३३७५ रविशशिनक्षत्राणां सामान्यानि सर्वसाधारणानि रविशशिनक्षत्रेति त्रयाणामपि भोग्यानि सन्ति ३ । चतुर्थमालापकं सूत्रकार एव विशदयति- 'कयरे' इत्यादि, एतेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये 'कयरे' कतमानि कानि 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'जे णं' यानि खलु 'सया' सदा 'इच्चे हिं' आदित्याभ्यां 'विरहिया' विरहितानि सूर्यद्वययोगरहितानि तिष्ठन्ति । । इति गौतमेन . पृष्ठे सति भगवान् चतुरोऽपि प्रश्नान् एकैकशः कृत्वा समाधत्ते - 'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता': तावत् 'एएसि णं' एतासां खलु 'पण्णरसण्डं' पञ्चदशानां 'चंदमंडलाणं' चन्द्रमण्डलानां, 'तत्थ' तत्र तेषां मध्ये 'जे ते चंदमंडळा' यानि तानि चन्द्रमण्डलानि 'जे णं' यानि खलु 'सया' सदा सर्व कालं 'णक्खत्तेहिं अविरहिया' नक्षत्रैः अविरहितानि नक्षत्रयोगयुक्तानीत्यर्थः सन्ति 'तेणं अट्ठ' तानि खलु अष्ठ, 'तं जहा ' तथथा - तानीमानि 'पढमे चंदमंडले' प्रथमं चन्द्रमण्डलम् १, 'तइए चंद मंडले' तृतीयं चन्द्रमण्डलम् २, 'छट्ठे चंदमंडले' षष्ठं चन्द्रमण्डलम् ३, 'सत्तो चंदमंडले' 'सप्तमं चन्द्रमण्डलम् ४, 'अट्टमे चंदमंडले' अष्टमं चन्द्रमण्डलम् ५, 'दसमे चंदमंडले' दशमं चन्द्रमण्डलम् ६, 'एगारसे चंदमंडले' एकादशं चन्द्रमण्डलम् ७, 'पण्णरसे चंदमंडले' पञ्चदशं चन्द्रमण्डलम् ८ । एषामष्टानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये कस्मिन् मण्डले कति २ नक्षत्राणि भवन्तीति प्रदर्श्यते - एषामष्टानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये प्रथमे चन्द्रमण्डले द्वादश नक्षत्राणि भवन्ति, तथाहि - अभिजित् १, श्रवणः २, धनिष्ठा ३, शतभिषक् ४, पूर्वाभाद्रपदा ५, उत्तराभाद्रपदा ६, रेवती ७, अश्विनी ८, भरणी ९, पूर्वाफाल्गुनी १० उत्तराफाल्गुनो ११, स्वातिः . १२, ॥ उक्तश्व " अभिई १, सण २, धणिट्ठा ३, सर्याभिसया ४, दो य होंति भद्दवया ६ । रेवर ७, अस्सिणी ८, भरणी ९ दो फग्गुणी ११, साइ १२ पढमंमि ॥ १ ॥ छाया— स्पष्टैवेति ।१। तृतीये चन्द्रमण्डले पुनर्वसुर्मघा चेति द्वे नक्षत्रे २, षष्ठे एकैव कृत्तिका ३, सप्तमे रोहिणी चित्रा चेति द्वे नक्षत्रे ४, अष्टमे एका विशाखा ५, दशमे अनुराधा ६, एकादशे ज्येष्ठां ७, पञ्चदशे चाष्टौ नक्षत्राणि भवन्ति तथाहि - मृगशिरः १, आर्द्रा २, पुष्यः ३, अश्लेषा ४, हस्तः ५, मूलम् ६, पूर्वाषाढा ७, उत्तराषाढा ८ चेति, ऐषु आद्यानि षड्नक्षत्राणि पश्चदशस्य मण्डलस्य, यद्यपि बहिश्चारं चरन्ति तथापि तत्प्रत्यासन्नवर्त्तित्वात्तानि तत्र गणितानीति न कश्चि दोष इति एवमेतान्यष्ट चन्द्रमण्डलानि सदैव नक्षत्रे रविरहितानि युक्तानि तिष्ठति । १ । 'तत्थ' तत्र पञ्चदशसु चन्द्रमण्डलेषु मध्ये 'जे ते चंदमंडला' यानि तानि चन्द्रमण्डलानि सन्ति तेषु 'जेणं' यानि खलु 'सया' सदा सर्वकालं 'णक्खत्तेहि विरहिया' नक्षत्रैः विरहितानि नक्षत्रयोगवर्जितानि येषु कदाप्येकमपि नक्षत्रं योगं न युनक्ति तादृशानि 'ते णं' तानि खलु 'सत्त ४३ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे सप्त सन्ति, 'तं जहा' तद्यथा तानि यथा--'बितिए चंदमंडले' द्वितीयं चन्द्रमण्डलम्' 'चउत्थे चंदमंडले' चतुर्थं चन्द्रमण्डलम् २, 'पंचमे चंदमंडले' पञ्चमं चन्द्रमण्डलम् ३, 'नवमे चंदमंडले' नवमं चन्द्रमण्डलम् ४, बारसमे चंदमंडले' द्वादशं चन्द्रमण्डलम् ५, 'तेरसमे चंदमंडले' त्रयोदशं चन्द्रमण्डलम् ६, 'चउद्दसमे चंदमंडले' चतुर्दशं चन्द्रमण्डलम् ७, ।२। 'तत्थ' तत्र पञ्चदशसु चन्द्रमण्डलेषु 'जे ते चंदमंडला' यानि तानि चन्द्रमण्डलानि सन्ति तेषु 'जे णं' यानि खलु 'ससिरवि नक्खत्ताणं' शशिरवि नक्षत्राणां कृते 'सामण्णा' सामान्यानि सर्वसाधारणानि सर्वेषां चारयोग्यानि 'भवंति' सन्ति 'ते णं' तानि खलु 'चत्तारि' चत्वारि' 'तं जहा' तद्यथा--तानीमानि–'पढमे चंदमंडले' प्रथमं चन्द्रमण्डलम् १, 'वीए चंदमंडले' द्वितीयं चन्द्रमण्डलम् २, 'इक्कारसमे चंदमंडले' एकादशं चन्द्रमण्डलम् ३, 'पण्णरसमे चंदमंडले' पञ्चदशं चन्द्रमण्डलम् ४।३। तथा— 'तत्थ' तत्र तेषु पञ्चदशसु चन्द्रमण्डलेषु 'जे ते चंदमंडला' यानितानि चन्द्रमण्डलानि सन्ति तेषु 'जे णं' यानि खलु 'सया' सदा संर्वकालं दिवसे रात्रौवा 'आइच्चे हि विरहिया' आदित्याभ्यां सूर्याभ्यां विरहितानि सूर्यमण्डलस्पर्शवर्जितानि 'तेणं' तानि खलु 'पञ्च' पञ्च, 'तं जहा' तद्यथा तानि यथा- 'छष्टे चंदमंडले' षष्ठं चन्द्रमण्डलम् १, 'सत्तमे चंदमंडले' सप्तमं चन्द्रमण्डलम् २, 'अट्टमे चंदमंडले' अष्टमं चन्द्रमण्डलम् ३, 'नवमे चंदमंडले' नवमं चन्द्रमण्डलम् ४, 'दसमे चंदमंडले' दशमं चन्द्रमण्डलम् ५, इति । ____ अत्रैवं गम्यते यत्-यानि एकतः पञ्च पर्यन्तानि पञ्च १-२-३-४-५ ) चन्द्रमण्डलानि सर्वाभ्यन्तराणि, तथा यानि च-एकादशत आरभ्य पञ्चदशपर्यन्ताणि पञ्च (११-१२ १३-१४-१५) चन्द्रमण्डलानि सर्वबाह्यानीत्येतानि दश चन्द्रमण्डलानि सूर्यस्यापि साधारणानि सूर्यस्यापि चारयोग्यानि सन्ति येषु सूर्याऽपि चारं चरति । शेषाणि षष्ठत आरभ्य दशपर्यन्तानि ६-७-८-९-१० पञ्च चन्द्रमण्डलानि चन्द्रस्यैवासाधारणानि यतस्तत्र चन्द्रएव चार चरति न तु कदाचिदपि सूर्य इति, उक्तञ्च "दसचेव मंडलाई, अन्भिंतरवाहिरा रवि ससीणं । सामण्णाणि उ नियमा, पत्तेया होति सेसाणि ॥१॥ छाया-दश चैव मण्डलानि आभ्यन्तर-बाह्यानि रविशशिनोः । सामान्यानि तु नियमात् , प्रत्येकानि भवन्ति शेषाणि ॥१॥ अर्थः स्पष्टः नवरौं प्रत्येकानि-एकमेकं प्रति-प्रत्येकम् , तानि प्रत्येकानि-चन्द्रस्य असाधारणानि, चन्द्रस्यैव भोग्यानि न तु कदाचिदपि सूर्यस्य । तेषु कदाचिदपि सूर्यो न गच्छतीति भावः । अत्र किम् चन्द्रमण्डलं कियता सूर्यमण्डलेन न स्पृश्यते ? तथा चन्द्रमण्डलस्यापान्तराले Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा०प्रा ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच ९ कि.यन्ति सूर्यमण्डलानि भवन्ति तथा षष्ठमण्डलादारभ्य दशमण्डलपर्यन्तानि पञ्च (६-७-८ ९-१०) चन्द्रमण्डलानि कथं सूर्याभ्यां न स्पृश्यन्ते ! इति तद्विभाग उपदर्यते-तत्र प्रथममेतद्विभागप्रदर्शनार्थ सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा प्ररूप्यते विकम्प इति शनैः शनैः संचरणरूपा गतिरिति । अत्र सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा, काष्ठेति विकम्पक्षेत्रस्य उत्कृष्ठं परिमाणमिति सा च दशोत्तराणि पञ्च योजनशतानि (५१०)। तथाहि-यदि सूर्यस्य एकेनाहोरात्रेण विकम्पो द्वे योजने, एकस्य च योजनस्य अष्टचत्वा रिंशदेकषष्टिभागाः (२- लभ्यन्ते तदा त्र्यशीत्यधिकशता (१८३) होरात्रैः कति योजनानि लभ्यन्ते ? इति - त्रैराशिकं गणितं क्रियते, तत्र राशित्रयं स्थाप्यते-१८३। अत्रान्त्यराशिना मध्यराशीर्गुण्यते ततो मध्यराशिगतयोजनद्वयस्य सवर्णनार्थम् एकषष्टि (भागकरणार्थम्) ढे योजने एकषष्टया गुण्येते जातं द्वाविंशत्यधिकमेकं शतम् (१२२) जाता एते एकषष्टिभागाः, एषु ये अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा स्थितास्ते-प्रक्षिप्यन्ते जातं सप्तत्यधिकमेकं शतम् (१७०) संजात एष गुण्यराशिरन्त्येन त्र्यशीत्यधिकशत (१८३) संख्यकराशिना गुण्यते जातानि दशोत्तरशताधिकानि एकत्रिंशत्सहस्राणि (३१११०) । एते एकषष्टिभागाः सन्ति, एषां योजनानयनार्थमेकषष्टया भागो हियते, लब्धानि दशोत्तराणि पञ्चशतयोजनानि (५१०) एतावती त्र्यशीत्यधिकशताहोरात्रैः सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा । एष दशोत्तर पञ्चशत योजनपरिमितः सूर्यस्य त्र्यशीत्यधिकशतमण्डलपरिभ्रमणमार्गः, नातोऽधिकमित्यतो विकम्पक्षेत्रकाष्ठेत्युच्यते । अथ चन्द्रस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा प्रदश्यते चन्द्रस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा नवाधिकपञ्चशतयोजनानि एकस्य च योजनस्य त्रिपञ्चाशदेकषष्टिभागाः (५०९५३) । ततो यदि चन्द्रमसो विकम्पः एकेनाहोरात्रेण षट् त्रिंशद्योजनानि, एकस्य च योजनस्य पञ्चविंशति रेकषष्टिभागाः एकस्य चैक षष्टि भागस्य चत्वारः सप्तभागाः ३६ -- लभ्यन्ते तदा चतुर्दशभिरहोरात्रैः कतिभागा लभ्यन्ते ? ५४ ८७ अत्रापि राशित्रयात्मकं गणितं भवति ततो राशित्रयस्थापना क्रियते सा चेत्थम्-११४ । 2019 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० अत्र सवर्णनार्थं - प्रथमं त्रिंशद् योजनशशिरेकषष्ठ्या चन्द्रप्रशतिसूत्रे षट् त्रिंशद् योजनानामे कषष्टिभागकरणार्थे षट् षण्णवत्यधिकानि एकविंशतिशतानि (२१९६) एषु पञ्चविंशतिरेकषष्टिभागाः क्षिप्यन्ते जातानि (२२२१) एष राशिः एकविंशत्यधिक द्वाविंशतिशतानि सप्तभागकरणर्थे सप्तभिर्गुण्यते जातानि पञ्चदशसहस्राणि पञ्चशतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि (१५५४७) एषु च चत्वारः सप्तभागाः प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातानि पञ्चदशसहस्त्राणि एक पञ्चाशदधिकानि पञ्चशतानि (१५५५१) जाता एष सप्तभागराशिः ततश्च योजनानयनार्थमेकषष्टि लक्षण छेदराशिमपि सप्तभिर्गुण्यते, जातानि सप्तविंशत्यधिकाि चत्वारिशतानि (४२७) एषश्छेदराशि: तत उपरि निष्पादित सप्तभाग राशि : (१५५५१) चतुर्दशरूपेणान्त्यराशिना गुण्यते, जातानि -द्वे लक्षे चतुर्दशाविक सप्तशतोत्तराणि सप्तदशसहस्राणि च (२१७७१ ४) जात एषश्छेद्यराशिः अस्य छेदकराशिना सप्तविंशत्यधिक चतुःशत (४२७) रूपेण भागो हार्यः, ततो भागसरलार्थं छेद्यछेदकरारयोः सप्तभिरपवर्त्तना क्रियते द्वयोराश्योः सप्तभिर्भागो ह्रियते इत्यर्थः । ततः पूर्वं छेदराशेः (४२७) सप्तभिरपवर्त्तना करणाज्जाता एकषष्टि ६१ । ततश्छेद्यराशे (२१७-७१४) सप्तभिरपवर्त्तना करणाज्जात एष राशिः द्वयधिकशतोत्तराणि एकत्रिंशत्सहस्राणि (३११०२) । अस्यापवर्त्तनासंपन्नेन एकषष्टिरूपेण छेदराशिना भागो हियने, लब्धानि नवोत्तराणि पञ्चशतयोजनानि, शेषा एकस्य च योजनस्य त्रिपञ्चाशदेकषष्टिभागाः (५०९1 - प्राप्त एतावती चन्द्रमसो विकम्पक्षेत्रकाष्ठा । अथवाऽपवर्त्तनाया अकरणे एषा रीति : ' ५३ ६१ मध्यराशिगत तथाहि छेद्यराशेः (२१७७१४) छेदराशिना सप्तविंशत्यधिक चतुःशत (४२७) रूपेण भागो, हृते लभ्यन्ते नवोत्तराणि पञ्चशतानि (५०९), स्थितानि शेषाणि एक सप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३७१) एनं राशिमेकषष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या गुणयित्वा पुनः सप्तविंशत्यधिकचतुःशत(४२७) रूपेण छेदराशिना भागो हरणीयः तेन लब्धाः त्रिपञ्चाशद एक षष्टिभागाः ततः समा ५३ गतं पूर्वोक्तं योजनप्रमाणं ५०९. ) चन्द्रमसो विकम्पक्षेत्रकाष्ठाया इति । '६ १ अथ द्वयोर्द्वयोः सूर्यमण्डलयो द्वयोश्च चन्द्रमण्डलयोः परस्परमन्तरं प्रदर्श्यते, तथाहि - एक स्य सूर्यमण्डलस्य द्वितीयस्य सूर्यमण्डलस्य च परस्परमन्तरं द्वे द्वे योजने भवतः । एवं एकस्य चन्द्रमण्डलस्य द्वितीयस्य चन्द्रमण्डलस्य च परस्परमन्तरं पञ्चत्रिंशद् योजनानि, एकस्य च योजनस्य त्रिंशद् एकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागाः, एतत्परिमितं भवति उक्तञ्च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ "सूरमंडलस्स णं भंते सूरमंडलस्स एस णं केवइए अवाहाए अंतरे पण्णत्ते ! गोयमा दो जोयणाई सूरमंडळस्स अबाहाए अंतरे पण्णत्ते" तथा - चंदमंडलस्स Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच ३४१ णं भंते ! चंदमंडलस्स एस णं केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ! गोयमा ! पणतीसंजोयणाइं तीसं च एगद्विभागा जोयणस्स एगंच एगसट्ठिभागं सत्तहा छिता चत्तारि य चुणिया भागा ऐसा चंदमंडलस्स अबाहाए अंतरे पण्णत्ते" छाया-सूरमण्डलस्य खलु भदन्त ! सूरमण्डलस्य एतत् खलु कियत्कम् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ! गौतम ! द्वे योजने सूरमण्डलस्य सूरमण्डलस्य अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । तथा-चन्द्रमण्डलस्य खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डलस्य एतत् खलु कियत्कं अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् गौतम ! पञ्चत्रिंशत् योजनानि, त्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य, एकं च एकषष्टिभागं सप्तधा छित्वा चत्वारश्च चूर्णिका भागा शेषाः ३५-२० - चू ) तदेतत् चन्द्रमण्डलस्य अबाधया अंतरं प्रज्ञप्तम् ॥ एतत् सूर्यमण्डलस्य चन्द्रमण्डलस्य चान्तरं प्रोक्तं तत् स्वस्वमण्डलविष्कम्भपरिमाणेन युक्ते कृते सूर्यस्य-चन्द्रस्य च विष्कम्भपरिमाणमायाति । उक्तञ्च सूरविकंपो एक्को, समंडलाहोइ मंडलंतरिया । चंदविकंपो य तहा, समंडला मंडलंतरिया ॥२॥ अस्याः काचिदक्षरगमनिका क्रियते-'सूरविकंपो' इत्यादि, मंडलंतरिया' मण्डलान्तरिका मण्डलस्य मण्डलस्य च अन्तरं 'समंडला' समण्डला मण्डलेन सहिता, अत्र मण्डलशब्देन मण्डलविष्कम्भो गृह्यते, तेन समण्डलिका मण्डलविष्कम्भसहिता, पूर्वोक्तमन्तरं सूर्यमण्डलविष्कम्भयुक्त भवति तदेव 'एक्को सरविकंपो' एक सूर्यविकम्पो भवति सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रपरिमाणं भवतीति भावः । 'तहा य' तथैव सूर्य विकम्पवदेव मण्डलान्तरं मण्डलविष्कम्भयुक्तं कुर्यात् तत् चन्द्रविकम्पक्षेत्रं भवतीति । तथाहि-एकं सूर्यमण्डलस्यान्तरं द्वे योजने, इति पूर्व प्रदर्शितम् । सूर्यमण्डलविष्कम्भश्च-अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः (१) । ततो द्वयोर्मेलने जातमेकस्य सूर्यमण्डलस्य विकम्पपरिमाणम् द्वे योजने, एकस्य च योजनस्य अष्टचत्वारिंशद् एकषष्टिभागाः-२४-) एतत् सूर्यमण्डलस्य विकम्पपरिमाणम् । एवं चन्द्रमण्डलान्तरं पञ्चत्रिंशत् योजनानि, एकस्य च योजनस्य त्रिंशद् एक षष्टिभागाः, एकस्य चैकषष्टिभागस्य च चत्वारः सप्तभागः ये चर्णिकाभागाः कथ्यन्ते (३५२० - ) एतस्मिन् चन्द्रमण्डलान्तरे चन्द्रमण्डलविष्कम्भपरिमाणेन Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे सहिते कृते एकश्चन्द्रविकम्पो भवतीति । अथ विकम्पक्षेत्रज्ञानार्थमुक्तञ्च सगमंडलेहि लद्धं सगकट्ठाओ हवंति सविकंपा । जे सगविक्खंभजुया हवंति सगमंडलंतरिया ॥१॥" संक्षेपतो व्याख्या-'जे' ये चन्द्रस्य सूर्यस्य वा विकम्पाः, कीदृशास्ते ? 'सगविक्खंभजुया' स्वकविष्कम्भयुताः ‘सगमंडलंतरिया' स्वकमण्डलान्तरिकाः, स्व स्व मण्डलविष्कभपरिमाणसहितानि स्व स्व मण्डलान्तराणि भवन्ति तानि तत्प्रमाणः 'सगकट्ठाओ' स्वककाष्ठायाः स्व स्व विकम्पयोग्यक्षेत्रपरिमाणस्य 'सगमंडलेहि' स्वकमण्डलैः स्व स्व मण्डलसंख्या भागे हृते 'लद्धं' यत् लब्धं या संख्या लभ्यते तत्प्रमाणाः 'सविकंपा' स्व स्व विकम्पाः स्व स्व विकम्पक्षेत्रपरिमाणानि 'हवंति' भवन्ति ॥१॥ तदेव दर्श्यते-सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा दशोत्तरपञ्चशतयोजनानि (५१०) एषा मेकषष्टिभागाः करणीया अत एष राशि रेकषष्टया गुण्यते जातानि दशोत्तरशताधिकानि एकत्रिंशत्सहस्राणि (३१११०) एष भाज्यराशिजर्जातः अथ भाजकराशिः क्रियते विकम्पक्षेत्रे सूर्यमण्डलानि च त्र्यशोत्यधिकमेकं शतं (१८३) । एतदप्येकषष्टया गुण्यते जातानि त्रिषष्ठयधिकशतोत्तराणि एकादश सहस्राणि (१११६३), एष भाजकगशिर्जातस्ततोऽनेन भाजकराशिना पूर्वस्य भाज्यराशेः (३१११०) भागो हियते लब्धे द्वे योजने (२), स्थितानि शेषानि चतुरशीत्य धिकानि सप्ताशीतिशतानि (८७८४) अस्य न्यूनत्त्वाद्भागो न हियतेऽत एक षष्टिभागा आनेतव्या अत एकषष्टया गुणनात् पूर्व यो भाजकराशिः त्र्यशोत्यधिकशत १८३ रूपस्तेन भागो हरणीयः हते च भागो लब्धो अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः ४८ परिपूर्णाः ततो द्वे योजने, एकस्य च योजनस्य अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा (२९-८) एतद्-एकैकस्य सूर्यस्य एकैकाहोरात्रमाश्रिन्य विकम्पक्षेत्रमापातमिति । तदेवमुक्तमे कैकसूर्यस्य एकैकाहोरात्रमाश्रित्य विकम्पक्षेत्रम् । अथ चन्द्रस्य तदेव विकम्पक्षेत्रं प्रदर्श्यते-तत्र चन्द्रस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा नवोत्तरपश्चशतयोजनानि त्रिपञ्चाशदेकषष्टिभागाः (५०९५२) एतत् पूर्व प्रदर्शितमेव । अथ एकषष्टिगागानयनार्थ पूर्व योजनानि नवोत्तर पञ्चशतानि (५०९) एकषष्टया गुण्यन्ते जातानि एकोनपञ्चाशदधिकानि एकत्रिंशत्सहस्नयोजनानि (३१०४९) तत एषु ये उपरितनाः त्रिपञ्चाशदेकषष्टिभागाः सन्ति ते प्रक्षिप्यन्ते जातानि द्वयुत्तरशताधिकानि एकत्रिंशत्सहस्रयोजनानि (३११०२), चन्द्रस्य विकम्पक्षेत्रे चतुर्दश मण्डलानि १४ सन्ति तत एकषष्टिगुणित विकम्पक्षेत्रकाष्ठाराशेर्भागहरणार्थे मण्डलान्यपि एकषष्टया गुण्यन्ते ततश्चतुर्दश एकषष्टया गुण्यन्ते जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि अष्टशतानि (९५४) अनेन पूर्वराशे (३११०२) र्भागो हियते लब्धानि षट् त्रिंशद् योजनानि (३६), तिष्ठन्ति शेषाणि अष्टपञ्चाशदधिकाणि त्रीणि शतानि (३५८) तत एकषष्टया गुणनात् पूर्व यो मण्डलसंख्यारूपो Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच ३४३ भाजकराशि श्चतुर्दशरूपः १४, तेन शेषाङ्कानां (३५८) भागो हियते लब्धा पञ्चविंशतिरेकषष्टिः भागाः (२५) पुनः शेषास्तिष्ठन्ति अष्टौ, एते सप्तभागकरणाथै सप्तभि गुण्यन्ते जाताः षट् पञ्चाशत् (५६), एषां चतुर्दशभि भांगे हृते लब्धाश्चत्वारः सप्त भागाः ४ परिपूर्णाः (३६२५/- । एतावत्प्रमाण एकैकस्य चन्द्रस्यैकैकाहोरात्रमाश्रित्य विकम्प इति । ____ तदेवं चन्द्रसूर्ययो विकम्पक्षेत्रकाष्ठा प्रदर्शिता, तथा चन्द्रमण्डलानां सूर्यमण्डलानां च परस्परमन्तरमपि चोक्तम् ।। अथ पूर्व यदुक्तम् कियन्ति चन्द्रमण्डलस्यापान्तराले सूर्यमण्डलानि ?' इति तद्विषयकप्रस्तुतप्रकरणं प्रस्तूयते-तत्र सर्वाभ्यन्तरे चन्द्रमण्डले सर्वाभ्यन्तरं सूर्यमण्डलं सर्वात्मना प्रविष्टं भवति तत्र - चन्द्रमण्डलस्य केवलमष्टावेव एक षष्टिभागाः बाहिरवशिष्टास्तिछन्ति, चन्द्रमण्डलात् सूर्यमण्डलस्य अष्टैकषष्टिभागैर्हीनत्वात, ततो द्वितीयस्माच्चन्द्रमण्डलाद् अर्वाग अपान्तराले द्वादशसूर्यमार्गा भवन्ति । कथमेतदिति गणितेन प्रदर्श्यते तथाहि-द्वयोश्चन्द्रमण्डलयोरन्तरं पञ्चत्रिंशद् योजनानि एकस्यच योजनस्य त्रिंशच्चैकषष्टिभागाः, एकस्य चैक षष्टिभागस्य सबन्धिनश्चत्वारः सप्तभागाः(३४३८०- इति पूर्व प्रदर्शितमेव तत्र पूर्व योजनानि एकषष्टिभागकरणार्थ पञ्चत्रिंशदेकषष्टया गुण्यन्ते, जातानि पञ्चत्रिंशदधिकानि एकविंशतिशतानि (२१३५), एते एकषष्टिभागा जाताः एषु त्रिंशदेकषष्टिभागा उपरितनाः प्रक्षिप्यन्ते जातानि पञ्चषष्टधधिकानि एकविंशतिशतानि (२१६५) स्थिता उपरितना एकस्यैकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागाः (-) ते तिष्टन्तु । अथ सूर्यस्य विकम्पो द्वे योजने एकस्य च योजनस्य अष्टचत्वा रिंशदेकषष्टिभागाः (२४८)तत पूर्व योजनद्वयमेकषष्टया गुण्यते जातं द्वाविंशत्यधिकमेकं शतम् (१२२), तत एखूपरितना योजनस्याष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते जातं सप्तत्यधिकमेकंशतम (१७०), अनेन पञ्चषष्टयधिकैकविंशतिशतानां (२१६५) भागो हियते लब्धा द्वादश, एते द्वितीयचन्द्रमण्डलादर्वागपान्तराले सूर्यमार्गा भवन्ति, अथ च शेषं यत् पञ्चविंशत्यधिकमेकं शतं तिष्ठति (१२५) तत एक षष्टिद्विगुणितेन द्वाविंशत्यधिकशतेन भागे हृते द्वे योजने लब्धे, एते द्वे योजने द्वादशस्य सूर्यमार्गस्योपरि वे योजने (२) शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः एकषष्टिभागाः (-) एषु ये प्रथमे चन्द्रमण्डले सर्वात्मना सूर्यमण्डले प्रविष्टे सति ये शेषाः सूर्यमण्डलादधिका अष्टावकषष्टिभागास्ते प्रक्षिप्यन्ते, नाता एकादश एकषष्टि भागाः ( ),तत आगतम्-द्वाद Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ 2. ११४ शात्सूर्यमार्गात् परतो द्वितीयस्मा च्चन्द्रमण्डलादर्वाक् द्वे योजने, एकस्य च योजनस्या एकादश एकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनश्चत्वारः सप्तभाग १/-, तत्र योजनद्वयानन्तरं सूर्यमण्डलमस्ति अतो द्वितीयाञ्चन्द्रमण्डलाद ६१७ क एकादश एकषष्टिभागान् एकस्यच एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनश्चतुरेः सप्तभागान् यावत् सूर्यमण्डलमभ्यन्तरं प्रविष्टम् । ततः परं षटूत्रिशदेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनस्त्रयः सप्तभागाः ( २६२)एतावत्परिमितं सूर्यमण्डलं चन्द्रमण्डलसंमिश्रं वर्तते । ततः सूर्यमण्डलात् ६१७ परत एकोनविंशतिमेकषष्ठिभागान् एकस्य च एकषष्टिभागस्य चतुरः सप्तभागान् १९४)यावत् चन्द्रमण्डलं बहिर्विनिर्गतं भवति । तत परं पुनस्तृतीयाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् पूर्वोक्तपरिमाणमन्तरम् तथाहि-पञ्चत्रिंशद् योजनानि एकस्य च योजनस्य त्रिंशद् एकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टि. भागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः(३५-३०/- ) एतत्परिमिते चान्तरे द्वादश सूर्यमार्गाः लक्ष्यन्ते. उपरि च द्वे योजने, एकस्य च योजनस्य त्रयएकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य. सम्ब, न्धिनश्चत्वारः सप्तभागः (२- -) सन्ति, अस्मिन् राशौ ये प्रागुक्ता द्वितीयचन्द्रमण्डलस्य, सम्बन्धिनः सूर्यमण्डलाद् बहिर्विनिर्गता एकस्य योजनस्य एकोनविंशतिरेकषष्टिभागाः, एकस्य च, एकषष्ठिभागस्य चत्वारः सप्तभागाः (१--) ते प्रक्षिप्यन्ते (३-४ जाता, इमे) त्रयोविंशतिः रेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सम्बन्धो एकः सप्तभागः(२३- ) तत इदं निष्पन्नम्। द्वितीयाच्चन्द्रमण्डलात्परतो द्वादश सूर्यमार्गाः, अन्तिमाद द्वादशात् सूर्यमार्गाच्च परतो योजन द्वयमतिक्रम्य सूर्यमण्डलं भवति, तच्च सूर्यमण्डलं तृतीयाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक्त्रयोविंशतिमेकषष्टि भागान् , एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनः एक सप्तभागः(' यावत् अभ्यन्तरं ६१७ प्रविष्टम् । ततो ये शेषाः सूर्यमण्ड स्य चतुर्विशतिरेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य षट Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमागतदन्तरंच ४ सप्तभागाः आसन् ते तृतीयचन्द्रमण्डलसम्मिश्रा स्तिष्ठन्ति । ततस्तृतीयं चन्द्रमण्डलम् एकस्य योजनस्य एकत्रिंशतमैकषष्टिभागान्, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कमेकं सप्तभागं यावत् सूर्यमण्डलाद्, बहिर्विनिर्गतम् । ततः पुनरप्यायातं यथोक्तं चन्द्रमण्डलान्तरम् (३५-३ ) एतावदन्तरे च द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते । अन्तिमस्य द्वादशस्य सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजनने एकस्य च योजनस्य त्रय एकषष्टि भागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनश् चत्वारः सप्तभागाः (२ - ६१ ७) ततोऽस्मिम् राशौ ये तृतीयमण्डलसम्बन्धिनः सूर्यमण्डलाद्वद्दिर्विनिर्गता एकस्य योज ३ एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्क एकः सप्तभागः नस्य एकत्रिंशद् एकषष्टिभागाः, ( ३१/१ -) ते प्रक्षिप्यन्ते, ततो जाता एकस्य योजनस्य चतुस्त्रिंशदे कषष्टिभागाः, एकस्य च ३४/५ ६१/७ 1 ) तत इदमायातं वस्तुतत्त्वम् - तृतीयस्माच्चन्द्रमण्डलात्परतो द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच्च सूर्यमार्गात् परतो योजनद्वयेऽतिक्रान्ते सूर्यमण्डलं वर्त्तते, तच्च सूर्यमण्डलं चतुर्थाच्चन्द्र मण्डलादर्वाक् चतुस्त्रिंशतमेकषष्टिभागान्, एकस्य च एकषषष्टि भागस्य सत्कान् पञ्चसप्तभागान् (२४/५ ) यावत् अभ्यन्तरं प्रविष्टम् ततः शेषाः स्थिताः ६१|७ सूर्य मण्डलस्य त्रयोदश एकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनौ द्वौ सप्तभागौं ( १३ ८) इति एतावच्चतुर्थचन्द्रमण्ड सम्मिश्रं जातम् ततश्चतुर्थस्य चन्द्रमण्डलस्य द्विचत्वारिं ६१७ शकषष्टिभागाः एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागा १३-५) सूर्यमण्डल - चन्द्रमण्डलान्तर परिमाणम् । एत स्मिन्नन्तरे द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते इति । अन्तिमस्य द्वादशस्य च सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजनस्य त्रय एकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनः ४) । एषु च य आद्य चतुर्थ चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलाद् बहिर्वि योजने, एकस्य च ७ एकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागाः ( विनिर्गता भवन्ति ततः भूयोऽप्यायातं यथोक्तं - ( ३५ -- पञ्च सप्तभागाः (२--- ६ ३०| ४ ४४ ३४५ 60 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे निर्गता योजनस्य द्वाचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः, ऐकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनः पञ्चसप्त क्षिप्यन्ते ततो जाता योजन द्वयोपरि षट् चत्वारिंशदेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्को द्वौ सप्तभागौ (२-१६२) इति, ततो वस्तुत एवं ज्ञातव्यम्चतुर्थाच्चन्द्रमण्डलात् परतो द्वादश सूर्यमार्गाः सन्ति, तेषु द्वादशा त्सूर्यमार्गात् परतो द्वे योजने अतिक्रम्य सूर्यमण्डलं वर्त्तते, तच्च सूर्यमण्डलं पञ्चमाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् षट् चत्वारिंशतमेकष्टिभागान् , एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कौ द्वौ सप्तभागो (१६२ यावत् अभ्यन्तरं प्रविष्टम् । शेष सूर्यमण्डलस्य एकषष्टिभागः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य पञ्च सप्तभार प्रमाण पञ्चमचन्द्रमण्डलसम्मिश्रं वर्त्तते । तस्य पञ्चमस्य चन्द्रमण्डलस्य चतुष्पञ्चाशदेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य द्वौ सप्तभागो(१४२) इति सूर्य मण्डलाहि विनिर्गतं वर्तते, तदेवं पञ्च सर्वाभ्यन्तराणि चन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलसम्मिश्राणि भवन्ति । एवं चतुषु च चन्द्रमण्डलान्तरेषु प्रत्येकं द्वादश द्वादश सूर्यमार्गा भवन्तीति सिद्धम् । तदेवं पूर्व "दस चेव मंडलाई' इति गाथायामभ्यन्तराणि बाह्यानि च पञ्च पञ्चेति दशमण्डलानि रविशशिनोः सामान्यानि सन्तीति कथितम् , तेषु यानि पञ्च सर्वाभ्यन्तराणि मण्डलानि सूर्यमण्डलसंमिश्राणि भवन्ति तानि प्रदर्शितानि, अथ तत्रैव गाथायां “पत्तेया होति सेसाणि" इत्युक्तं, तत्र शेषाणि षष्ठादारभ्य दशमपर्यन्तानि पञ्च मण्डलानि प्रत्येकानीति चन्द्रस्यैव गम्यानि न तु कदाचिदपि सूर्यस्य इति सूर्यमण्डला संस्पृष्टानि सन्तीति तान्यत्र प्रदर्श्यन्ते पञ्चमाञ्चन्द्रमण्डलात् परतो भूयः षष्ठं चन्द्रमण्डलमधिकृत्यान्तरं पञ्चत्रिंशद् योजनानि, एकस्य च योजनस्य त्रिंशदेकषष्टिभागाः एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिन श्चत्वारः सप्तभागाः (३५ -) भवन्ति । तत्र च प्रथम मेकषष्टिभागकरणार्थ पञ्चत्रिंशत् एकषष्टया गुण्यन्ते जातानि षञ्चत्रिंशदधिकानि एकविंशतिशतानि (२१३५) । एषूपरितना ये त्रिंशदेकषष्टि भागास्ते प्रक्षिप्यन्ते जातानि पञ्चषष्टयधिकानि एकविंशतिशतानि (२१६५)। ततश्चैतेषु ये पञ्चमस्य चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलादहि निर्गताश्चतुष्पञ्चाशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कौ दो सप्तभागौ (१४२ ) इति ये साम्प्रतमेव पूर्वप्रदर्शितास्ते एकषष्टिभागाः (५४) ६७ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच ३४७ प्रक्षिप्यन्ते जातानि एकोनविंशत्यधिकानि द्वाविंशतिशतानि (२२१९) । अथ सूर्यस्य विकम्पःदे योजने अष्ट चत्वारिंशच्चैकषष्ठिभागाः (२८) तत्रैक षष्ठिभागानयनार्थ द्वे योजने एकषष्टया गुण्येते जाता एकषष्टिभागा द्वाविंशत्यधिकमेकं शतम् (१२२), तत एषु ये उपरितना अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागास्ते प्रक्षिप्यन्ते जातं सप्तत्यधिकमेकं शतम् (१७०)। अनेन एकोनविंशत्यधिक द्वाविंशतिशत(२२१९) रूपस्य पूर्वराशेर्भागो हियते, लब्धास्त्रयोदश (१३) शेषास्तिष्ठन्ति नव ९, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः पट् सप्तभागाः(१३-६) तत इदमायातम्-पञ्चमाच्चन्द्रमण्डलात्परतस्त्रयोदश सूर्यमार्गाः एषु त्रयोदशस्य च सूर्यमार्गस्योपरिषष्ठाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरं योजनस्य नव एक षष्टिभागाः एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः षट् सप्तभागा (- ) भवन्ति, ततः परतः षष्ठं षट् पञ्चाशदेकषष्टिभागात्मकं चन्द्रमण्लमायाति । ततः परं सूर्यमण्डलादाकू अन्तरं षट्पञ्चाशदे कषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य एकः सप्तभागः (१६) अस्ति, तदनन्तरं सूर्यमण्डलं वर्तते, तस्माच्च परतः चतुरुत्तरमेकं शतमेकषष्टिभागाः एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धी एकः सप्तभागः (१०४१) एतत्संख्यया हीनं यथोक्तपरिमाणकं चन्द्रमण्डलान्तरं लभ्यते इति । तस्मात्सूर्य मण्डलात्परतोऽन्ये द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते ततः सर्व संमेलनेन तस्मिन्नप्यन्तरे त्रयोदश सूर्यमार्गाः सन्ति । तस्य च त्रयोदयस्यान्तिमस्य सूर्य मार्गस्योपरि सप्तमाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरम् एकविंशतिरेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य त्रयः सप्तभागाः (-) भवन्ति, ततः परमग्रे सप्तमं चन्द्रमण्डलमस्ति । तस्माच्च सप्तमाच्चन्द्रमण्डलात्परतश्चतुश्चत्वारिंशता एकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कौश्चतुर्भिःसप्तभागैः ) सूर्यमण्डलं, ततो द्विनवतिसंख्यैरेकषष्टिभागैः, एकस्य एकषष्टिभागस्य च सत्कैश्चतुर्भिः सप्तभागः (१२) न्यून यथोक्तप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं ततः परमस्तीत्यन्येऽपि द्वादशसूर्यमार्गा लभ्यन्ते । ततस्तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसंकलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्य बहिरष्टमाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक अन्तरं त्रयस्त्रिंशदेकषष्टिभागाः (२३), ततोऽष्टमं चन्द्रमण्डलं वर्त्तते । /७ ४४/४ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे तस्माच्चाष्टमाच्चन्द्रमण्डलात्परतस्त्रयस्त्रिंशता एकषष्टिभागैः(२२) सूर्यमण्डलं वर्तते, तत एकाशीतिसंख्यैरेकषष्टिभागैरूनं यथोक्तप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं पुरतो विद्यते इति ततः पुरतोऽन्येऽपि द्वादशसूर्यमर्गाः सन्ति, ततस्तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः, त्रयोदशाच्च सूर्यमार्गात् पुरतो नवमाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरं चतुश्चत्वारिंशदेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनश्च. त्वारः सप्तभागाः (१) । ततः परं नवमं चन्द्रमण्डलम् । तस्माच्च नवमाच्चन्द्रमण्डलात्परत एकविंशत्या एकषष्टिभागैः एकस्य च एकषष्टिभागस्य त्रिभिः सप्तभागैः(१ मण्डलम् , तत ) हीनं यथो ततो. एकोन सप्ततिसंख्यैरेकषष्टिभागः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य त्रिभिःसप्तभागैः दितप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरम् । तत्र चान्ये द्वादशसूर्यमार्गाः । एवमस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः । तस्य चान्तिमस्य त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरि, दशमाच्चन्द्रमण्डलादर्वा अन्तरं षट्पञ्चाशदेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य एकः सप्तभागः (' दशमं चन्द्रमण्डलम् । तस्माच्च दशमाच्चन्द्रमण्डलात्परतो नवभिरेकषष्टिभागैः, एकस्य च एक पष्टिभागस्य सत्कैः षभिः सप्तभागः (4) सूर्यमण्डलम् , ततः सप्तपञ्चाशता एकषष्टि भागैः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कैः षड्भिः सप्तभागः (1) न्यूनं पूर्वोक्तप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरम् । ततः पुनरपि द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते इति तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसंकलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः सन्ति । तत्रान्तिमस्त्रयोदशः सूर्यमार्गस्तस्य त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरिएकादशाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरं सप्तषष्टिरेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनः पञ्च सप्तभागाः (--)। इत्येवं षष्ठादारभ्य दशमपर्यन्तानि पञ्च चन्द्रमण्डलानि सूर्यात्संस्पृष्टानि प्रदर्शितानि । एतत्प्रदर्शने षट्सु च चन्द्रमण्डलान्तरेषु त्रयोदश सूर्यमार्गा भवन्तीत्यपि जातम् । अथैतदनन्तरमेकादशादिपञ्चदशान्तानि पञ्च चन्द्रमण्डलानि पुनरपि सूर्यसंस्पृष्टानि भवन्तीति प्रदर्यते ६१/७ ०६१७ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच ३४९ - एकादशे चन्द्रमण्डले चतुष्पञ्चाशदेकषष्टिभागाः एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कौ द्वौ सप्तभागौ (५४२) इत्येतावत् सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्टम्, एक एकषष्टिभागः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य पञ्चसप्तभागा (२८) एतावन्मात्रं सूर्यमण्डलसम्मिश्रम् एकादशाच्चन्द्रमण्डलाद्वहिर्विनि र्गतं सूर्यमण्डलम्, षट्चत्वारिंशदेकषष्टिभागाः, एकस्य च एक षष्टिभागस्य सत्को द्वौ सप्तभागी ( -) तत् एतावता हीनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरमस्तोति द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते । ततः परमेकोनाशीत्या एकषष्टिभागः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काभ्यां द्वाभ्यां सप्तभागाभ्यां द्वादशं चन्द्रमण्डलं लभ्यन्ते । तच्च द्वादशं चन्द्रमण्डलं द्विचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान्, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कान् पञ्चसप्तभागान् (४२ ) यावत् सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्टम् । शेषं च योजनस्य त्रयोदश एकषष्टिभागाः एकस्य च एकषष्टि भागस्य सत्कौ द्वौ सप्तभागी एतवन्मात्रं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलसम्मिश्रं वर्तते । तस्माच्च द्वादशाञ्चन्द्रमण्डलात् सूर्यमण्डलं योजनस्य चतुस्त्रिंशतमेकषष्टिभागान् , एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कान् पञ्चसप्तभागान् (३४) यावत् एतत्परिमितमित्यर्थः बहिर्विनिर्गतं भवति, तत एतावन्मात्रेण न्यूनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरं वर्त्तते, तत्र च द्वादशसूर्यमार्गा लभ्यन्ते तत्र द्वादशाच सूर्यमार्गात् परतो नवतिसंख्यकै रेकषष्टिभागः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कैः षद्भिः सप्तभागैः (१०६ ) एतावपरिमितक्षेत्रमुल्लद्धये त्यर्थः त्रयोदशं चन्द्रमण्डलं वर्त्तते । तच्च त्रयोदशं चन्द्रमण्डलम् एकत्रिंशतमेकषष्टिभागान् , एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कमेकं सप्तभागम्-एक सप्तभागसहितकत्रिंशदेकषष्टिभागपरिमितं (२१ - सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्टं विद्यते । स्थितास्तस्य शेषाश्चतुविंशतिरेकषष्टि भागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनः षट् सप्तभागाः (२६) एतावन्मानं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलसम्मिश्रं भवति । तस्माच्च त्रयोदशाच्चन्द्रमण्डलात् त्रयोविंशतिमेकषष्टि Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे भागान् , एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कमेकसप्तभागं (२३३) यावत् सूर्यमण्डलं बहिर्विनिर्गतं वर्त्तते, तत एतावता परिहीणं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरं भवति । तत्र द्वादशसूर्यमार्गा लभ्यन्ते । सर्वान्तिमाद्वा द्वादशाच्च सूर्यमार्गात् परतो द्वयुतरशतै कषष्टिभागः, एकस्य च एक पष्टिभागस्य सत्कैस्त्रिभिः सप्त भागैः (१०२३) एतावरक्षेत्रातिक्रमणानन्तरमित्यर्थः चतुर्दश चन्द्रमण्डलं लभ्यते, तच्च चतुर्दशं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलात् एकोनविंशतिमेकषष्टिभागान् , एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कान् चतुरः सप्तभागान् (--) यावत् अभ्यन्तरं प्रविष्ट विद्यते । तिष्ठन्ति शेषाः षट्त्रिंशदेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कास्त्रयः 'सप्तभागाः (३६३ ) इत्येतावत्परिमितं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलसम्मिश्रं भवति । तस्माच्चतुर्दशाच्च ६१७ न्द्रमण्डलात्-एकादश एकषष्टिभागान् , एकस्य च एकषष्टिभागस्य चतुरः सप्तभागान्(-- ६१७ यावत् एतत्परिमितमित्यर्थः सूर्यमण्डलं बहिर्विनिर्गतं वर्तते तत एतावता परिमाणेन न्यूनं यथोक्त परिमाणं चन्द्रमण्डलान्तरमायाति तत्र च द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते । पुनश्च द्वादशात्सूर्यमार्गात् परतश्चतुर्दशोत्तरशतसंख्यकैरेकषष्टिभागैः पञ्चदशं चन्द्रमण्डलं लभ्यते । तच्च पञ्चदशं चन्द्रमण्डलं सर्वान्तिमात् सूर्यमण्डलादर्वाक्-अष्टैकषष्टिभागान् (८) यावत् अभ्यन्तरं प्रविष्टं वर्तते । तिष्ठन्ति ये शेषा अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागास्ते सूर्यमण्डलसम्मिश्रा भवन्तीति । एतानि-एकादशादीनिपञ्चदशपर्यन्तानि पञ्चचन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलसम्मिश्राणि भवन्ति । एषु च चरमेषु चतुर्थचन्द्रमण्डलान्तरेषु द्वादश द्वादश सूर्यमार्गा भवन्तीति । अथोपसंहियते--चन्द्रस्य पञ्चदशमण्डलानि भवन्ति, तत्र एकादीन पञ्चमपर्यन्तानि पञ्चमण्डलानि आभ्यन्तराणि, तथा-एकादशादीनि पञ्चदशपर्यन्तानि पञ्चमण्डलानि च बाह्यानि कथ्यन्ते, एतानि दशमण्डलानि चन्द्रसूर्ययोः साधारणानीति दशचन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलसम्मिश्राणि भवन्ति, तथा षष्ठादारभ्य दशमपर्यन्तानि पञ्चमण्डलानि प्रत्येकानीति तानि केवलं चन्द्र एव स्पृशति, न कदाचिदपि सूर्यः, इति एतानि सूर्यमण्डलसंस्पृष्टानि भवन्तीत्येवं सर्व सविस्तरं प्रदर्शितम् । सूर्यमार्गाश्च चतुर्दशस्वेव चन्द्रमण्डलेषु लभ्यन्ते तत्रैवान्तरसद्भावात् न तु सर्वान्तिमे पञ्चदशे चन्द्रमण्डले तदग्रेऽन्तराभावात्, इति-अष्टसु आयेषु चतुर्यु चरमेषु च चतुर्यु अभ्य Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा०प्रा ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच ३५१ न्तरबाह्येषु चन्द्रमण्डलान्तरेषु द्वादश द्वादश सूर्यमार्गा भवन्ति । तदतिरिक्तेषु पञ्चमादिदशमपर्यन्तेषु षट्सु च चन्द्रमण्डलान्तरेषु त्रयोदश सूर्यमार्गा भवन्ति, उक्तञ्च-- चंदंतरेसु अट्ठसु, अभितरबाहिरेसु सूरस्स । बारस बारस मग्गा, छसु तेरस तेरस भवंति ॥१॥ इति छाया--- चन्द्रान्तरेषु अष्टसु, अभ्यन्तरबाह्येषु सूरस्य । द्वादश द्वादश मार्गाः षट्सु त्रयोदश त्रयोदश भवन्ति ॥१॥ "इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्ति प्रकाशिकायां टीकायां दशमस्य प्राभृतस्य एकादशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तं १०-११ । । दशमस्य प्राभृतस्य द्वादश प्राभृतप्राभृतम् । गतमेकादशं प्राभृतप्राभृतम्, तत्र चन्द्रमण्डलानि, तदन्तराणि सूर्यमार्गाश्च प्रदर्शिताः, अत्र च नक्षत्राणां देवताध्ययनानि वक्तव्यानोत्यधिकृत्य द्वादशं प्राभृतप्रामृतं प्रारभ्यते, तस्य चेदं सूत्रम् 'ता कहं ते देवयाणं अज्झयणा' इत्यादि । मलम् -- ता कहं ते देवयाणं अन्झयणा आहिया ? तिवएज्जा-ता एएसिणं अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते बंभदेवयाए पण्णत्ते १ । सवणे णक्खत्ते विण्हुदेवयाए पण्णत्ते २ । एवं जहा जंबूद्दीवपण्णत्तीए जाव उत्तरासाढा णक्खत्ते विसुदेवयाए पण्णत्ते ॥सू० १॥ छाया तावत् कथं ते देवतानां अध्ययनानि आख्यातानि ? इति वदेत् । तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां अभिजित् नक्षत्रं किं देवताकं प्रशप्तम् ? ब्रह्मदेवताकं प्रज्ञप्तम् १ । श्रवणनक्षत्रं किं देवताकं प्राप्तम् ? विष्णु देवताकं प्रज्ञप्तम् २। एवं यथा जम्बू. द्वीपप्रज्ञप्त्यां यावत् उत्तराषाढानक्षत्रं विष्वग्देवाकं प्रज्ञतम् २८ ॥सू० १॥ दशमस्य प्राभृतस्य द्वादशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१० । १२॥ व्याख्या-'ता कहं ते' इति 'ता' तावत् 'कह, कथं केन प्रकारेण हे भगवन् ! 'ते' त्वाया 'देवयाणं' देवतानां नक्षत्राधिष्ठातृणां 'अज्झयणा' अध्ययनानि-अधीयन्ते ज्ञायन्ते यै स्तानि अध्ययनानि अभिधानानि नाभानोतिभावः 'आहिया' आख्यातानि कथितानि 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयेत्, प्रतिपादयन्तु भवन्तः, इति गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह– 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'अभिई णक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं 'बंभदेवयाए' ब्रह्मदेवता ब्रह्माभिधदेवताकं 'पण्णत्तं' प्रज्ञप्तम् । अभिजि-न्नक्षत्रस्य ब्रह्माभिधो देवोऽधिष्ठाताऽस्ति, एवमग्रेऽपि सर्वत्र योज्यम् । 'सवणे णक्खत्ते' श्रवणनक्षत्रं Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे 'वण्हुदेवयाए' विष्णु देवताकं 'पण्णत्तं' प्रज्ञप्तम् श्रवणस्याधिष्ठाता विष्णुनामको देवोऽस्तीति । 'एवं' एवम् अनयैव रीत्या 'जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए' यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिसूत्रे कथितं तथैवात्रापि वाच्यम् । कियत्पर्यन्त मित्याह- 'जावे' इत्यादि, यावत् 'उत्तरासाढाण खत्ते विसुदेवयाए पण्णत्ते' उत्तराषाढनक्षत्रं विष्वग्देवताकं प्रज्ञप्तम् । अत्र 'जा' ति यावत्पदेन धनिष्ठा नक्षत्रादारभ्य पूर्वाषाढ़ानक्षत्रपर्यन्तानां मध्यमानां पञ्चविंशतिनक्षत्राणां देवतानामानि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तितोऽवगन्तव्यानि, तथाहि--"धणिट्ठा णक्खत्ते वसुदेयाए पण्णत्ते ३, सयभिसया णक्खत्ते वरुणदेवयाए पण्णत्ते ४, पुवापोट्टवया णक्खत्ते अयदेवयाए पण्णत्ते ५, उत्तरपोट्टवया णक्खत्ते अभिवइढिदेवयाए पण्णत्ते ६, रेबई णक्खत्ते पुस्स देव याए पण्णत्ते ७, अस्सिणी णक्खत्ते अस्सदेवयाए पण्यत्ते ८, भरणी णक्खत्ते जमदेवयाए पण्णत्ते ९, कत्तिया णक्खत्ते अगिदेवयाए पण्णत्ते १० रोहिणी णक्खत्ते पयावइदेवयाए पण्णत्ते ११, संठाणा णक्खत्ते सोम देवयाए पण्णत्ते १२, अदा णक्खत्ते रुद्ददेवयाए पण्णत्ते १३. पुणव्वसु णक्खत्ते अदिइ देवगए पण्णने १४, पुस्स णक्ख ते बहस्सइदेवयाए पण्णत्ते १५, अस्सेसा णवत्ते सप्पदेवयाए पण्णत्ते १६, मघा णक्खत्ते, पिइदेवयाए पण्णत्ते १७ पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते भगदेवयाए पण्णत्ते १८, उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते अज्जमदेवयाए पण्णत्ते १९, हत्थे सविइदेवयाए पण्णत्ते २०, चित्ता णक्खत्ते तहदेवयाए पण्णत्ते २१. साइ णक्खत्ते वाउ देवयाए पण्णत्ते २२, विसाहा खत्ते इंदग्गिदेवयाए पण्णत्ते २३, अणुराहा णक्खत्ते मित्तदेवयाए पण्णत्ते २४, जेट्ठा णन खत्ते इंददेवयाए पण्णत्ते २५, मूल णक्खत्ते णिरईदेवयाए पण्णत्ते २६, पुव्वासाढा णक्यत्ते आउ देवयाए पण्णत्ते २७।" छाया-धनिष्ठा नक्षत्रं वसुदेवताकं प्रज्ञप्तम् ३, शतभिषग नक्षत्रं वरुणदेवताकं प्रज्ञप्तम् ४, पूर्वाप्रोष्ठपदा नक्षत्रम् अजदेवताकं प्रज्ञप्तम् ५, उत्तराप्रोष्ठपदा नक्षत्रम् अभिवृद्धिदेवताकं प्रज्ञप्तम् ६, रेवतीनक्षत्रं षुष्यदेवताकं प्रज्ञप्तम् ७, अश्विनीनक्षत्रम् अश्व (अश्वमुख) देवताकं प्रज्ञप्तम् ८, भरणीनक्षत्रं यमदेवताकं प्रज्ञप्तम् ९, कृत्तिकानक्षत्रम् अग्नि देवताकं प्रज्ञप्तम् १०, रोहिणीनक्षत्रं प्रजापति देवताकं प्रज्ञप्तम् ११, संस्थान (मृगशिरो) नक्षत्रं सोमदेवताकं प्रज्ञप्तम् १२, आर्द्रानक्षत्रं रुद्रदेवताकं प्रज्ञप्तम् १३, पुनर्वसुनक्षत्रम् अदिति देवताकं प्रज्ञतम् १४, पुष्य नक्षत्रं बृहस्पतिदेवताकं प्रज्ञप्तम् १५, अश्लेषानक्षत्रं सर्पदेवताकं प्रज्ञप्तम् १६, मघानक्षत्रं पितृदेवताकं प्रज्ञप्तम् १७, पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रं भगदेवताकं प्रज्ञप्तम् १८, उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रम् अर्यमदेवताकं प्रज्ञप्तम् १९, हस्तनक्षत्रं सवितृदेवताकं प्रज्ञप्तम् २०, चित्रानक्षत्रं त्वष्टदेवताकं प्रज्ञप्तम् २१, स्वातिनक्षत्रं वायु देवताकं प्रज्ञप्तम् २२, विशाखा नक्षत्रम् इन्द्राग्नि देवताकं प्रज्ञप्तम् २३, अनुराधानक्षत्रं मित्रदेवताकं प्रज्ञप्तम् २४, ज्येष्ठानक्षत्रम् इन्द्रदेवताकं प्रज्ञप्तम् २५, मूल नक्षत्रं निरति देवताकं प्रज्ञप्तम् २६, पूर्वाषाढानक्षत्रम् अप् देवताकं प्रज्ञप्तम् २७ । देवतानामसङ्ग्राहिका इमास्तिस्त्रो गाथाः Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. १२ नक्षत्राणां देवतादिकम् ३५३ “बम्ह १, विण्हू २ य वसू ३, वरुणो ४, तहऽजो ५ अणंतरं होइ । अभिवड्ढि ६, पूस ७, गंधव्य ८ चेव परतो जमो होइ ॥१॥ अग्नि १० पयावइ ११, सोमे १२, रुद्दे १३ अदिई १४ बहस्सई १५ चेव । णागे १६, पिइ १७ भग १८ अज्जम १२ सविया २० तट्ठा २१ य वाऊ २२ य ॥२॥ इंदग्गी २३, मित्तोवि २४ य इंदे २५ निरई २६ य आउ २७ विस्सू २८, य । नामाणि देवयाणं हवंति रिक्खाण जहक्कमसो" ॥३॥ छाया - "ब्रह्मा १ विष्णुश्च २, वसुः ३ वरुणः ४ तथा अजः ५ अन्तरं भवति । अभिवृद्धिः ६ पूषा ७ गन्धर्वः (अश्वमुखः) ८ चैव परतः यमो ९ भवति ॥१॥ अग्निः १० प्रजापतिः ११ सोम १२ रुद्रः १३ अदिति १४, बृहस्पति १५ श्चैव । नागः (सर्पः) १६ पितृ १७ भगः १८ अर्यमा १९, सविता २०, त्वष्टा २१ च वायुश्च २२ ॥२॥ इन्द्राग्निः २३, मित्रो २४ ऽपि च इन्द्रः २५ निरतिः २६ अप् २७ विश्वश्च २८ । नामानि देवतानां भवन्ति ऋक्षाणां यथाक्रमशः ॥३॥” इति । इत्येतानि अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां देवतानामानि प्रोक्तानि ॥सू० १॥ इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्ति प्रकाशिका व्याख्यायां दशमस्य प्राभृतस्य द्वादशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१० । १२॥ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य त्रयोदशं प्राभृतप्राभृतम् ॥ गतं दशमस्य प्राभृतस्य द्वादशं प्राभृतप्राभृतम् , तत्राष्टाविंशतेर्नक्षत्राणामधिष्ठातृ देवता नामानि प्रदर्शितानि । अथ त्रयोदशं प्राभृतप्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र च मुहूर्तानां नामानि वक्तव्यानीति तद्विषयकं सूत्रमाह-'ता कहं मुहुत्ताणं नामधेज्जा' इत्यादि । मूलम्–ता कहं ते मुहुत्ताणं नामधेज्जा आहिया ? ति वएज्जा । ता एगमेगस्स ण अहोरत्तस्स तीस मुहुत्ता पण्णत्ता, तंजहा - "रुद्दे १ सेए २, मित्ते ३, वाऊ ४ ठवई ५ तहेव अभिचंदे ६ । माहिद ७ बलव ८ बंभो ९ बहुसच्चे १० चेव ईसाणे ११ ॥१॥ तद्वे १२ य भवियप्पा १३, वेसमणे १४ वारुणे य १५ आणंदे १६ । विजए १७ य वीससेणे १८, पयावई १९ चेव उवसमए २० ॥२॥ गंधव्व २१ अग्गिवेस्से २२, सयवसहे २३ आयवं २४ च अममे २५ य । अणवं २६ च भोम २७ वसहे २८, सबढे २९ रक्खसे ३० चेव ॥३॥सू.०१॥ दसमस्स पाहुडस्स तेरसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०॥१३॥ ४५ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे छाया तावत् कथं त्वया मुहूर्तानां नामधेयानि आख्यातानि १ इति वदेत् । तावत् एकैकस्य खलु अहोरात्रस्य त्रिंशत् मुहूर्ताः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-"रुद्रः १ श्रेयान् २ मित्रं ३, वायु ४ स्थपतिः ५ तथैव अभिचन्द्रः ६, माहेन्द्रः ७ बलवान् ८, ब्रह्मा ९, बहुसत्य १०, चैव इंशानः ११ ॥१॥ त्वष्टा १२ च भावितात्मा १३, वैश्रवणः १४ वारुणश्च १५ आनन्द: १६ । विजयश्च १७ विश्वसेनः १८ प्रजापतिः १९, चैव उपशमकः २० ॥२॥ गन्धर्वः २१ अग्निवेश्यः २२, शतवृषभः २३ आतपवान् २४ च अममश्च २५ । ऋणवान २६ च भौमः २७ वृषभः २८ सर्वार्थः २९ राक्षसः ३० चैव ॥३॥ सू० १॥ दशमस्य प्राभृतस्य त्रयोदश प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥१३॥ ___ दशमस्य प्राभृतस्य त्रयोदशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥१३॥ व्याख्या—'ता कहते' इति, 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'मुहुताणं' मुहूर्तानां 'नामधेज्जा' नामधेयानि नामानि 'आहिया' आख्यातानि ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् इति वदतु हे भगवन् ? एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता' तावत् 'एगमेगस्स णं अहोरत्तस्स' एकैकस्याहोरात्रस्य 'तीसं मुहुत्ता पण्णत्ता' त्रिंशत् मुहूर्ताः प्रज्ञप्ताः । के ते त्रिंशत् मुहूर्ता : इत्याह 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा- ते इमे । तानेव दर्शयति तिसृभिर्गा थाभिः- 'रुद्दे' इत्यादि, 'रुद्दे' रुद्रः, प्रथमस्य मुहूत्र्तस्य रुद्र इति नामधेयम् १ । एवमग्रेऽपि वक्तव्यम्, तेषां नाममात्राण्याह-'सेए' श्रेयान् द्वितीयस्य मुहूत्तस्य श्रेयान् इति नाम २। तृतीयस्य मुहूर्तस्य मित्र मितिनाम । शेषा व्याख्या निगदसिद्धा ॥सू० १॥ इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टोकायां दशमस्य प्राभृतस्य त्रयोदशं प्राभृत प्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥१३॥ दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्दशं प्राभृतप्राभृतम् । व्याख्यातं दशमस्य प्राभृतस्य त्रयोदशं प्राभृतप्राभृतम्, तत्र त्रिंशन्मुहूर्तानां नामानि प्रतिपादितानि । अथ चतुर्दशं प्राभृतप्राभृतं वित्रियते, अत्र पञ्चदशदिवसानां पञ्चदशरात्रीणां च नामानि प्रतिपादनीयानोति तस्येदं सूत्रम्-'ता कहते दिवसाणं' इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते दिवसाणं नामधेज्जा आहिय-त्ति वएज्जा । ता एगमेगस्स णक्खत्तस्स पण्णरस २ दिवसा पण्णत्ता, तं जहा-पडिवयादिवसे १, बितिया दिवसे २ जाव पण्णरसी दिवसे १५ । ता एएसि णं पण्णरसण्हं दिवसाणं पण्णरसनामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-"पुव्वंगे १ सिद्धमणोरमे २ य, तत्तो मणोहरो ३ चेव । जसभडे ४ य जसोधर २५ सव्वकामासमिद्धे ६ त्तिय ॥१॥ इंदमुद्धाभिसित्ते, य सोमणस ८ धणंजए ९ य बोद्धव्वे । अत्थसिद्धे १० अभिजाते ११, अच्चासणे १२, य सतंजए १३ ॥२॥ अग्गिवेस्से १४ उवसमे १५ दिवसाणं णामधेज्जाइं ॥" Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. १४ पञ्चदशदिवसरात्रीणां नामानि ३५५ ता कहते राईओ आहिय-त्ति वएज्जा ता एगमेगस्स णं णक्खत्तस्स पण्णरस राईओ पण्णत्ताओ, तं जहा पडिवया राई बितिया राई जाव पण्णरसी राई । ता एयासिणं पण्णरसण्हं राईणं पण्णरसनामधेज्जा षण्णत्ता, तं जहा उत्तमा १, य सुणक्खत्ता, एला एलावच्च ३ जसोधरा ४ । सोमणसा ५ चेव तहा, सिरिभूया ६ य बोद्धव्वा ॥१॥ बिजया, य वेजयंती ८, जयंति ९ अपराजिया १० य गच्छा ११ य समाहारा १२ चेव तहा तेया १३ य तहा य अइतेया १४ ॥२॥ देवाणंदा १५ निरई, रयणीणं, णाम धेज्जाई" ॥सू० १॥ दसमस्स पाहुडस्स चउद्दसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०॥१४॥ छाया-तावत् कथं त्वया दिवसानां नामधेयानि आख्यातानि ? इति वदेत् । तावत् एकैकस्य खलु पक्षस्य पञ्चदश पञ्चदश दिवसाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--प्रतिपदा दिवसः १, द्वितीया दिवसः २ यावत् पञ्चदशी दिवसः १९ । तावत् एतेषां खलु पञ्चदशानां दिवसानां पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा--"पूर्वाङ्गः १, सिद्धमनोरमश्च २, ततो मनोहरः ३ चैव । यशोभद्रश्च ४ यशोधरः ५सर्वकामसमृद्धः ६ इति च ॥१॥ इन्द्रमूर्धाभिषिक्तश्च, सो मनसः ८ धनञ्जयश्च ९ बोद्धव्यः अर्थसिद्धः १० अभिजातः अत्यशनश्च १२ शतञ्जयः १३ ॥२॥अग्निवेश्यः १४ उपशमः १५, दिवसानां नामधेयानि ॥" तावत् कथं त्वया राज्यः आख्याताः इति वदेत् । तावत् एकैकस्य पक्षस्य पञ्चदश पञ्चदश राव्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-प्रतिपदारात्री १, द्वितीयारात्री यावत् पञ्चदशीरात्री । तावत् एतासां खलु पञ्चदशानां रात्रीणां पञ्चदश नामधेयानि प्राप्तानि, तद्यथा"उत्तमा १ च सुनक्षत्रा २ ऐलापत्या ३ यशोधरा सौमनसा ५, चैव तथा, श्री संभूता ६ च बोद्धव्या ॥१॥ विजया ७, च वैजयन्ती ८, जयन्ति ९ अपराजिता १० च गच्छा ११ च समाहारा चैव तथा, तेजा १३ च तथा च अतितेजा १४ देवानन्दा १५ नितिः रजनीनां नामधेयानि ॥११॥ दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्दशं प्राभृतप्राभृत समाप्तम् ॥१०॥१४॥ व्याख्या .. 'ता कहते' इति । 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण केन क्रमेण 'ते, त्वया 'दिवसाणं' दिवसानां 'नामधेज्जा' नामधेयानि नामानि 'आहिया' आख्यातानि ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता एगमेगस्स णं' इत्यादि 'ता' तावत् ‘एगमेगस्स ण पक्खस्स' एकैकस्य खलु पक्षस्य 'पण्णरस २' पञ्चदश पञ्चदश 'दिवसा पण्णता' दिवसाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा-ते यथा-'पडिवयादिबसे' प्रतिपदादिवसः 'बितिया दिवसे' द्वितीया दिवसः २, 'जाव' यावत् 'पण्णरसीदिवसे' पञ्चदशीदिवसः १५।अत्र यावत्पदेन तृतीया दिवसः ३, चतुर्थी दिवसः ४ इत्यादिक्रमेण 'चतुर्दशी दिवसः इत्यन्तं संग्राह्यम् 'ता' तावत् 'एएसि णं पण्णरसण्हं दिवसाणं' एतेषां खलु पञ्चदशानां Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे दिवसानां 'पण्णरसणाम घेज्जा' पञ्चदशनामधेयानि नामानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा ' तद्यथा तानि यथा - ' - ' पु०बंगे' इत्यादि पुव्यंगे पूर्वाङ्ग प्रतिपदा दिवसस्य पूर्वाङ्ग इति नाम १। सिद्धमणोरमे य' सिद्धमनोरमश्च द्वतीयादिवसस्य सिद्धमनोरमा इति नाम 'ततो' ततः तदनन्तरं 'मणोहरो चेव ' मनोहरश्चैव तृतीयादिवसस्य मनोहर इति नाम ३ । अनेन क्रमेण चतुर्थी दिवसस्य यशोभद्रो नाम, इत्यारभ्य पञ्चदशी दिवसस्य - पूर्णिमा दिवसस्य अमावास्या दिवसस्य च उपशम इति नाम, इत्यन्तं सर्वं स्वयमूहनीयम् । अत्र पूर्णिमा अमावास्या चेति द्वयोर्ग्रहणार्थ सूत्रकृता 'पण्णरसी दिवसे' पञ्चदशी दिवसः इत्युक्तम् तयोः प्रतिपक्षं पञ्चदशत्त्वात् । शेषं स्पष्टम् । अथ रात्रीणां नामान्याह - ता कहते राईओ' इत्यादि । 'ता' तावत् ' कहं' कथं केन क्रमेण 'ते' त्वया 'राईओ' त्र्यः 'आहिया' आख्याताः 'ति वएज्जा' इति वदेत् पदतु कथयतु हे भगवन् ! एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह 'ता एगमेगस्स णं' इत्यादि । 'ता' तावत् ' एगमे गस्स णं पक्खस्स' एकैकस्य पक्षस्य 'पण्णरस' २ पञ्चदश पञ्चदश 'राईओ पण्णत्ताओ' रात्र्यः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा - ता यथा - 'पडिवया । ई' प्रतिपदा रात्री ! 'बितियाराई' द्वितीया रात्री २, 'जाव' यावत् 'पण्णरसीराइ' पञ्चदशी रात्री, अत्रापि यावत्पदेन तृतीया रात्री ३ चतुर्थी रात्री ४, इत्यादिक्रमेण 'चतुर्दशीरात्री' इत्यन्तं संग्राह्यम् । अत्र द्वितीयारात्री' इत्यादिपदैः द्वितीया - तृतीयादि तिथयो बोध्या न तु संख्येति । अथ रात्रीणां नः मान्याह - 'ता एयासि णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एयासि णं' एतासां वक्ष्यमाणानां 'पण्णरसण्ह' पञ्चदशानां 'राई' रात्रीणां 'पण्णरस नामधेज्जा पण्णत्ता' पञ्चदश नामधेयानि नामानि प्रज्ञप्तानि 'तं जहा ' तद्यथा--- उत्तमा य' उत्तमा च प्रथमा- प्रतिपत्सम्बन्धिनी रात्री रुत्तमा- उत्तमानाम्नी भवति । 'सुणक्खत्ता' सुनक्षत्रा द्वितीया सम्बन्धिनी रात्री सुनक्षत्रा कथ्यते २ । एवं क्रमेण तृतीयात आरभ्य पञ्चदशी रात्री 'देवाणंदा' देवानन्दा इत्यन्तं स्वयमूहनीयम् । अस्य व्याख्या छायागम्याsतो न वित्रियते ॥ सू० १ ॥ ॥ इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका व्याख्याया दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्दश प्राभृत प्रभृतं समाप्तम् ॥१०॥१४ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य पञ्चदशं प्राभृतप्राभृतम् । 1 गतं चतुर्दशं प्राभृतप्राभृतम् तत्र पञ्चदशानां दिवसानां पञ्चदशानां रात्रीणां च नामानि प्रदर्शितानि । अथ पञ्चदशं प्राभूतप्राभृतं प्रारभ्यते अत्र दिवसतिथि रात्रितिथीनां च नामानि विक्तुं सूत्रमाह- - 'तं कहते तिही' इत्यादि । ――― Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. १५ दिवसतिथि रात्रितिथीनां नामानि ३५७ मलम्-ता कहते तिहीओ आहिया ? ति वएज्जा । तत्थ खलु इमा दुविहाओ तिहीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-दिवसतिहीओ य राईतिहीओ य । ता कहते दिवसतिहीओ आहिया ? तिवएज्जा । ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस दिवस तिहीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-नंदा १ भदा २ जया ३ तुच्छा ४ पुण्णा ५ पक्खस्स पंचमी ५ । पुणरवि नंदा ६ भद्दा ७ जया ८ तुच्छा ९ पुण्णा १० पक्खस्स दसमी १०॥ पुणरवि नंदा ११ भद्दा १२ जया १३ तुच्छा १४ पुण्णा १५ पक्खस्स पण्णरसी । एवं एया तिगुणा तिहीओ सव्वेसि दिवसाणं । ता कहते राई तिहीओ आहिया ? तिवएज्जा । ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस पण्णरस राईतिहीओ पण्णत्ताओ तं जहा-उग्गवई १ भोगबई २ जसवई ३ सबट्ठसिद्धा ४ सुहाणामा ५, पुणरविउग्गवई ६, भोगवई ७ जसवई ८ सव्वट्ठसिद्ध ९ सुहाणामा १० पुणरवि उग्गवई ११ भोगवई १२ जसवई १३ सव्वट्ठसिद्धा १४ सुहाणामा १५ एवं एया तिगुण तिहीओ सव्वासिं राईणं ॥सू. १॥ दसमस्स पाहुडस्स पण्णरसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०॥ १५।। छाया तावत् कथं ते तिथयः आख्याताः ? इति वदेत् । तत्र खलु इमा द्विविधाः तिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दिवसतिथयश्च ? रात्रीतिथयश्च । तावत् कथं ते दिवसतिथयः आख्याताः ? इति वदेत् । तावत् एकैकस्य खलु पक्षस्य पञ्चदश दिवसतिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'नंदा १ भद्रा २ जया ३ तुच्छा ४ पूर्णा ५। पुनरपि नन्दा ६, भद्रा ७ जया ८ तुच्छा ९ पूर्णा १० पक्षस्य दशमी १० पुनरपि नन्दा ११ भद्रा १२ जया १३ तुच्छा १४ पूर्णा १५, पक्षस्य पत्रदशी १५ । एवम् एताः त्रिगुणाः तिथयः सर्वेषां दिवसानाम् । तावत कथं ते रात्री तिथय आख्याताः? इति वदेत । तावत एकैकस्य खल पक्षस्य पञ्चदश पदश रात्री तिथयः प्राप्ताः, तद्यथा-उग्रवती १ भोगवती २ यशोमती ३ सर्वार्थसिद्धा ४ शुभानाम्नी ५। पुनरपि उग्रवती ६ भोगवती ७ यशोमती ८ सर्वार्थसिद्धा शुभानाम्नी १० । पुनरपि-उग्रवती ११ भोगवती १२ यशोमति १३, सर्वार्थसिद्धा १४ शुभानाम्नि १५ एवम् एता त्रिगुणाः तिथयः सर्वासां रात्रीणाम् ॥ सू० १॥ ॥दशमस्य प्राभृतस्य पञ्चदशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥१५॥ व्याख्या--'ता कहते तिहीओ' इति । 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' तवमते 'तिहीओ तिथयः 'आहिया' आख्याताः कथिताः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हेभगवन् ! । अत्र पृञ्छ्यति यत् दिवसानां च विषये कः प्रतिविशेषः येन दिवसेभ्यः पृथक् तिथयः पृच्छ्यन्ते ? अत्राह-इह सूर्य निष्पादिता अहोरात्रा भवन्ति, तिथयश्च चन्द्रनिष्पादिताः, चन्द्रमसो वृद्धि हानिभ्यां तिथीनां निष्पाद्यमानत्वात् , उक्तञ्च Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे "तं रयय कुमुयसिरिसप्पभस्स चंदस्स राइसु रुयस्स । लोए तिहित्ति निययं, भण्णइ वुड्ढीए हाणीए ॥१॥" छाया-रजत कुमुदश्री सत्प्रभस्य चन्द्रस्य रात्रिसुरुचेः। लोके तिथि रिति नियतं, भण्यते (यस्य) वृद्धया हान्या ॥१॥ इति । चन्द्रस्य या वृद्धिर्हानिर्वा भवति सा न स्वरूपतः किन्तु राहुविमानकृता भवति, यदा राहु विमानेन चन्द्रविमानमात्रियते तदा चन्द्रस्य हानिरन्यथा वृद्धिर्भवतीति लोके कथ्यते-चन्द्रस्य हानिर्वृद्धिर्वा जातेति । राहुश्च द्विविधः पर्वराहुः ध्रुव (नित्य) राहुश्च । पर्वराहोर्विचारोऽत्रानुपयुक्तइत्यग्रे वक्ष्यते, अन्यत्र वा स्थले वर्त्तते इति तत्रतोऽवसेयः । अत्र प्रस्तुतप्रकरणं ध्रुवराहोरिति तस्य विषये विविच्यते-यो ध्रुवराहुस्तस्य विमानं कृष्णं स च चन्द्रमण्डलस्याधस्ताच्चतुरगुलान्तरेण नित्यं चारं चरति । अथ --चन्द्रमण्डलं बुद्ध्या चतुःषष्टि संख्यकै गैः परिकल्प्यते यदिदं चन्द्रमण्डलं चतुष्षष्टि भागात्मकमिति । तत एतेषां चतुः षष्टिभागानां कुलानां षोडशत्वात् षोडशभिर्भागो हियते लब्धाश्चत्त्वारश्चतुःषष्टिभागाः एते पञ्चदशसु दिवसेषु चन्द्रममण्डलस्य प्रत्येक दिवसस्य आवरणभागाः सन्ति । तेन तिथीनां पञ्चदशत्वात्पञ्च दशभिस्तिथिभिः षष्टि भागाश्चचन्द्रस्य राहुणा आवियन्ते शेषः स्थितश्चतुर्भागात्मक एको भागः स च चन्द्रमण्डलस्य सदाऽनावृताएव तिष्ठति, एष एव चन्द्रमण्डलस्य षोडशीकलेति प्रसिद्धम्, एषा षोडशीकला कदाऽपि नावियते । स च ध्रुवराहुः कृष्णपक्षस्य प्रतिपदि चन्द्रमण्डलस्याधश्चतुरङ्गुलान्तरेण चारं चरन् स्वकीयेन पञ्चदशेन भागेन यः षोडशीकला संज्ञाकश्चतुर्भागात्मकः सदाऽनावार्यः षोडशो भागस्तं मुक्वा शेषस्य षष्टि भागात्मकस्य चन्द्रमण्डलस्य तिथीनां पञ्चदशत्वात् पञ्चदश भागा भवन्ति तेषु ध्रुवराहुः स्वकोयेन पञ्चदशेन भागेन चतुर्भागात्मकमेकं पञ्चदर्श भागमावृणोति । एवं द्वितीयायां स्वकीयाभ्यां द्वाभ्यां पञ्चदशभागाभ्यां द्वौ पञ्चदशभागौ अष्ट भागात्मको चन्द्रमण्डलस्याऽऽवृणोति । तृतीयायां च स्वकीयैस्त्रिभिः पञ्चदश भागैस्त्रीन् पञ्चदशभागान् द्वादशभागात्मकान् चन्द्रमण्डलस्यावृणोति । एवमावरणवृद्धया यावद् अमावस्यायां स्वकीयैः पञ्चदशभिः पञ्चदशभागः पञ्चदशापि पञ्चदशभागान् चन्द्रमण्डलस्यावृणोति, तदा चन्द्रमण्डलस्य षष्टिरपि भागा अवृता भवन्ति प्रतिदिनावारक चतुर्भागेन पञ्चदशानां गुणने षष्टिभागानां लाभादिति । एवं शुक्लपक्षे एतावत्परिमितमेव भागं चन्द्रमण्डलस्य प्रकटी करोति ततः प्रतिपदायामेकं चतुर्भागात्मकं पञ्चदशं भागं प्रकटीकरोति । एवं द्वितीयायां द्वौ, तृतीयायां त्रीन् चतुर्भागात्मकान् पञ्चदशभागान् प्रकटी करोति । एवमावरणहान्या यावत् पञ्चदश्यां चतुर्भागात्मकान् पञ्चदशाऽपि पञ्चदशभागान् प्रकटीकरोति तदा चन्द्रमण्डलस्य षष्टिरपि भागा आनावृता भवन्ति ततः सर्वमपि चन्द्रमण्डलं सर्वात्मना परिपूर्णं लोके दृश्यते । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा०मा १५ दिवसतिथिरात्रितिथीनां नामानि ३५९ वक्ष्यति चामुमेवार्थे सूत्रकारोऽग्रेऽपि ' तत्थ णं जे से ध्रुवराहू' इत्याद्यालापकेन । ततो यावत्परिमितेन कालेन पञ्चदशो भागः षष्टि भागसत्कचतुर्भागात्मको हानिं वद्धिं वा प्राप्नोति स तावान् कालविशेषः कृष्णपक्षे शुक्लपक्षे वा तिथिरित्युच्यते । उक्तञ्च "सोलसभागा काऊण उडुबई हायएत्थ पण्णरस । तत्यिमित्ते भागे पुणोवि विड्ढ जोहे ||१|| काले जेण हायर, सोळसभागो उसा तिही होई । तह चैव य बुड्ढीए, एवं तिहिणी समुप्पत्ती ॥२॥" छाया - षोडशभागान् कृत्वा उडुपतेः हीयन्तेऽत्र पञ्चदश । तावन्मात्रान् भागान् पुनरपि परिवर्धयेत् ज्योत्स्ने (शुक्लपक्षे ) ॥१॥ कालेन येन हीयते षोडशो भागस्तु सा तिथि र्भवति । तथैव च वृद्धा, एवं तिथेः समुत्पत्तिः || २ || इति । तिथि विषये वृद्ध सम्प्रदायो यथा- - अहोरात्रस्य द्वाषष्टिभागकरणे ये एक षष्टिभागास्ताव त्प्रमाणा तिथिः। अथाहोरात्रस्त्रिंशन्मुहूर्त्त प्रमाणो भवतीति प्रतीत एव किन्तु तिथिः कियन्मुहूर्त्तप्रमाणा भवतीत्यत्रोच्यते-तिथिश्च परिपूर्णा एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वात्रिंशद् द्वा षष्टिभागाः.(२९३२) एतावत्प्रमाणा भवन्ति, उक्तञ्च– ६२ अगतीसं पुण्णा, उ मुहुत्ता सोमओ तिही होइ । भागा वि य बत्ती, बावट्ठिकारण छेएण" ॥१॥ छाया - एकोनत्रिंशत् पूर्णास्तु मुहूर्त्ताः सा मतातिथिर्भवति । भागा अपि च द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिकृतेन छेदेन ॥ १॥ इति । एतत्कथं भवतीति चेदाह - इह अहोरात्रस्य द्वाषष्टिर्भागाः क्रियन्ते, ततस्तत्सत्का ये एक षष्टि भागा स्तावत्प्रमाणा तिथिरिति कथ्यते, तत्रैकषष्टि स्त्रिशता गुण्यते जातानि त्रिंशत्यधिकानि अष्टादशशतानि (१८३० ) । एते कल द्वाषष्टिभागीकृतस्याहोरात्रस्य मुहूर्तसत्का अंशाः जाताः, ततो मुहूर्त्तानयनार्थमेषां त्रिंशदधिकाष्टादशशतानां (१८३०) द्वाषष्ठ्या भागो हियते एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ताः, तदुपरि एकस्य मुहूर्तस्य च द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः २९ ३२ एतावत्प्रमाणा तिथिर्भवति एतावतैर कालेन चन्द्रमण्डलगतः चतुर्भागात्मकः पूर्वप्रदर्शित लब्धा ६२ प्रमाणः षोडशो भागो हानिमुपगच्छति वृद्धिं वा प्राप्नोति तत एतावानेव तिथेः परिमाणकालो भव Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे तीति तदेवमेषोऽहोरात्रस्य तिथेश्च प्रतिविशेषो लब्धोऽत एव दिवसात् पृथक् तिथेः प्रश्नः कृतइति । एवं गौतमेन तिथिविषये प्रश्ने कृते सति भगवानाह - 'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ खलु' तत्र तिथिविषयविचारे खलु 'इमा' वक्ष्यमाणाः 'तिहीओ' तिथिय: 'दुविहा' द्विविधाः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः कथिताः,— तं जहा ' तद्यथा - ता इमा: ' दिवसतिहीओ राईतिहीओ य' दिवसतिथयः रात्रि तिथयश्च । दिवस तिथिरिति तिथे: पूर्वार्धभागः, रात्रितिथि रिति तिथेः पश्चार्धभागइति । पुनगैतमः पृच्छति - 'ता कहते दिवसतिहीओ' इत्यादि 'ता' तावत् 'क' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'दिवसतिहीओ' दिवसतिथयः 'आहिया' आख्याता 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह 'ता एगमेगस्स णं, तावत् ' एगमेगस्स णं' एकैकस्य खलु 'पक्खस्स' पक्षस्य 'पण्णरस' पञ्चदश पञ्चदश 'दिवस तिहीओ पण्णत्ताओ' दिवसतिथयः प्रज्ञप्ताः कथिताः । ' तं जहा ' तद्यथा-ता यथा 'गंदा' १, भद्दार जया ३ तुच्छा ४, पुण्णा ५, नन्दा १ भद्रा २ जया३ तुच्छा ४ पूर्णा५ । तत्र प्रथमा प्रतिपदा तिथिः नन्देति कथ्यते, एवं द्वितीयाभद्रा२, तृतीया जया, ३ चतुर्थी तुच्छा इयं लोके रिक्ता शब्देन प्रसिद्धा ४ पञ्चमी तिथि पूर्णा कथ्यते ५ । एषा पूर्णा 'पक्खस्स पंचमी' पक्षस्य पञ्चमी तिथि भवति५ एवं ' पुणरवि' पुनरपि अग्रेतनाः पञ्च तिथयः - नन्दा इत्यादि नन्दा ६ भद्रा ७ जया ८ तुच्छा ९ पूर्णा १० भवति एषा पूर्णा 'पक्खस्स दसमी' पक्षस्य दशमी तिथिर्भवति १० । एवमेव ' पुणरवि' पुनरपि 'नंदा' इत्यादि नन्दा ११ भद्रा १३ जया १२ तुच्छा १४ पूर्णा १५ भवति । एषा पूर्णा 'पक्खस्स पण्णरसी' पक्षस्य पञ्चदशी तिथि भवतीति १५ । ' एवं ' एवम् अनया रीत्या 'ता' ताः 'तिगुणा' त्रिगुणाः 'नन्दा, भद्रा, जया, तुच्छा, पूर्णा' एभिर्नामभिस्त्रिरावर्त्तन सम्पन्नाः पञ्चदश ‘तिहीओ' तिथयः 'सव्वेसिं दिवसाणं' परिपूर्णपक्षस्य दिवसानां भवन्तीति । पुनर्गौतमो रात्रितिथिविषये पृच्छति - 'ता कहं ते राई तिहीओ' इत्यादि । 'ता' तावत् 'क' कथं कया नाम परिपाट्या 'राई तिहीओ' रात्रितिथयः 'आहिया' आख्याताः कथिताः ? 'ति वएज्जा' इति इत्यपि वदेत् वदतु - कथयतु हे भगवन् ! एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह - 'ता एगमेगस्स णं' इत्यादि । 'ता' तावत् ' एगमेगस्स णं पक्खस्स' एकैकस्य खलु पक्षस्य 'पण्णरस २' पञ्चदश पञ्चदश 'राईतिहीओ' रात्रि तिथयः पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः कथिताः, ‘तं जहा' तद्यथा-ता यथा - ' उग्गवई' उग्रवती प्रथमा प्रतिपत्सम्बन्धिनी रात्रितिथिः उग्रवती १ 'भोगवई' भोगवती द्वितीया सम्बन्धिनी रात्रितिथिः भोगवती कथ्यते २ । 'जसवई' यशोमती तृतीया तिथि सम्बन्धिनी रात्रितिथिः यशोमतीनाम्ना कथ्यते ३, 'सव्वसिद्धा' सर्वार्थसिद्धा चतुर्थी तिथि सम्बन्धिनी रात्रि तिथिः सर्वार्थसिद्धेति प्रसिद्धा ४ । 'सुहाणाम' शुभानाम्नी पञ्चमी तिथि सम्बन्धिनी रात्रि तिथिः शुभेति नाम्ना प्रोच्यते, एषा पक्षस्य पञ्चमी रात्रितिथिरिति ५ । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. १६ अष्टाविंशतिनक्षत्राणां गोत्राणि ३६१ 'पुणरवि' पुनरपि भूयोऽपि अग्रेतनाः षष्ठीत आरभ्य दशमी पर्यन्ताः पञ्चरात्रि तिथय एभिरेव पूर्वोक्तैर्नामभिः कथ्यते तथाहि-षष्ठी रात्रि तिथिः उग्रवती ६ सप्तमी भोगवती ७, अष्टमी यशोमती ८, नवमी सर्वार्थसिद्धा ९ दशमी शुभानाम्नी १० । एषा पक्षस्य दशमी रात्रितिथिर्भवतीति १० । 'पुणरवि' पुनरपि अग्रेतनाः एकादशीत आरभ्य पञ्चदशी पर्यन्ताः रात्रि तिथयोऽपि एकादशी-उग्रवती ११, द्वादशी भोगवतो १२ त्रयोदशी यशोमती १३, चतुर्दशी सर्वार्थसिद्धा १४, पञ्चदशी च शुभानाम्नी १५ । एषा पक्षस्यान्तिमा पञ्चदशी रात्रि तिथि विज्ञेया १५ । 'एया' एताः उग्रवती प्रभृतयः पञ्च नामवत्यः 'तिगुणा' त्रिगुणाः त्रिरावर्त्तनेन संपन्नाः पञ्चदश 'तिहीओ' तिथयः सव्वासिं राईणं' सर्वासां रात्रीणां, पक्षसम्बन्धिनीनां भवन्तीति ॥सू० १॥ इति चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका व्याख्यायां दशमस्य प्राभृतस्य पञ्चदशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥१५॥ । दशमस्य प्राभृतस्य षोडशं प्राभृतप्राभृतम् । व्याख्यातं पञ्चदशं प्राभृतप्राभृतम् , तत्र दिवसतिथिनां रात्रितिथिनां च नामानि प्रदर्शितानि । अथ षोडशं प्राभृतप्राभृतं व्याख्यायते, अत्राष्टाविंशति नक्षत्राणां गोत्राणि वक्तव्यानीति तदिषयकं सूत्रमाह —ता कहं ते गोत्ता' इत्यादि । मूलम्-ता कहते गोत्ता आहिया ? त्ति वएज्जा । ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खताणं अभिई णक्खत्ते भोग्गलायणसगोत्ते ?, सवणे णक्खत्ते संखायणसगोत्ते पण्णत्ते २ । धणिट्ठाणक्खत्ते अग्गभावसगोत्ते ३ । सयभिसया णक्खत्ते कण्णलायणसगोत्ते पण्णत्ते ४ । पुव्वापोठुवया णक्खत्ते जोउकण्णियसगोत्त पण्णत्ते ५। उत्तरा पोठुवया णक्खत्ते धणंजयसगोत्ते पण्णत्ते ६। रेवईणक्खत्ते पुस्सायणसगोत्ते पण्णत्ते ७ । अस्सिणीणक्खत्ते अस्सायणसगोत्ते ८। भरणी णक्खत्ते भग्गवेस्ससगोते पण्णत्ते ९ । कत्तिया णक्खत्ते अग्गिवेस्सगोत्ते पण्णत्ते १० । रोहिणीणक्खत्ते गोयमगोत्ते पण्णत्ते ११॥ मग्गसिरणक्खत्ते भारदायसगोत्ते पण्णत्ते १२ । अदाणक्खत्ते लोहिच्चायणसगोत्ते पण्णत्ते १३ । पुणव्वसुणक्खत्ते वासिट्ठसगोत्ते पण्णत्ते १४। पुस्सणक्खत्ते उज्जायणसगोत्ते--पण्णत्ते १५। अस्सेसा णक्खत्ते मंडव्वायणसगोत्ते पण्णत्ते १६ । मघाणक्वत्ते पिंगायणसगोत्ते पण्णत्ते १७ । पुव्वाफग्गुणीणखत्त गोवल्लायणसगोत्ते पण्णत्ते १८ । उत्तराफग्गुणीणक्खत्ते कासवगोत्ते पण्णत्ते १९। हत्थणक्खत्ते कोसियगोते पण्णत्ते २० । चित्ताणखत्ते दभियायणसगोत्ते ४६ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे पण्णत्ते २१ । साइणक्खत्ते चामरच्छगोत्ते पण्णत्ते २२। विसाहाणक्खत्ते सुंगायणसगोत्ते पण्णत्ते २३। अणुराहा णक्खत्ते गोल व्वायणसगोत्ते पण्णत्ते २४। जेट्ठाणक्खत्ते तिगिच्छायणसगोत्ते पण्णत्ते २५ । मूलणक्खत्ते कच्चायणसगोत्ते पण्णत्ते २६ । पुव्वासाढाणक्खत्ते वज्झियायणसगोत्ते पण्णत्ते २७। उत्तरासाढाणक्खत्ते वग्धावच्चसगोत्ते पण्णत्ते २८॥सू०१॥ दसमस्स पाहुडस्स सोलसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ १०॥ १६ ॥ ___ छाया तावत् कथं ते गोत्राणि आख्यातानि १ इति वदेत् । तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतेनक्षत्राणाम् अभिजिन्नक्षत्र मुद्गलायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् १ । श्रवणनक्षत्र संख्यायन गोत्रं प्रज्ञप्तम् २) धनिष्ठानक्षत्रम् अग्रभावगोत्रं प्रज्ञप्तम् शतभिषग्नक्षत्रं कर्णलायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् ४, पूर्वा प्रोष्ठपदानक्षत्रं जोउकर्णिकगोत्रं प्रज्ञप्तम् ५। उत्तराप्रोष्ठपदानक्षत्र धनञ्जयगोत्रं प्रशप्तम् ६, रेवती नक्षत्रं पुष्यायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् ७, अश्विनीनक्षत्रम् अश्वायन गोत्रं प्रज्ञप्तम् ८, भरणीनक्षत्र भग्नवेश्यगोत्रं प्रज्ञप्तम् ९, कृत्तिकानक्षत्र अग्निवेश्यगोत्रं प्रज्ञप्तम् १०, रोहिणीनक्षत्रं गौतमगोत्रं प्रज्ञप्तम् ११, मृगशिरोनक्षत्रं भारद्वाजगोत्रं प्रज्ञप्तम् १२, आर्द्रानक्षत्रं लोहित्यायनगोत्रं प्रशप्तम् १३ पुनर्वसुनक्षत्रं वासिष्ठगोत्रं प्रशप्तम् १४, पुष्यनक्षत्रं ऊर्जायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् १५ अश्लेषा नक्षत्रं माण्डव्यायनगोत्रं प्रशप्तम् १६ मघानक्षत्रं पिङ्गायनगोत्रं प्रशप्तम् १७ पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रं गोवल्लायनगोत्र प्रशप्तम् १८ उत्तराफल्गुनीनक्षत्रं काश्यपगोत्रं प्रज्ञप्तम् १९ हस्तनक्षत्र कौशिकगोत्रं प्राप्तम् २० । चित्रानक्षत्रं दर्भिकायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् २१ । स्वातीनक्षत्रं चाम (भाग) रच्छगोत्रं प्रक्षप्तम् २२ । विशाखानक्षत्रं संगायनगोत्रं प्रशप्तम् २३ । अनुराधानक्षत्रं गोलव्यायनगोत्रं प्रक्षप्तम् २४॥ ज्येष्ठानक्षत्रं चिकित्सायनगोत्र प्रज्ञप्तम २५। मलनक्षत्रं कात्यायनगोत्रं प्रज्ञप्तम २६ पूर्वाषाढानक्षत्रं बज्झिकायनगोत्रं प्रशप्तम् २७ । उत्तराषाढानक्षत्रं व्याघ्रापत्यगोत्रं प्रशप्तम् २८ ॥ सू० १॥ दशमस्य प्राभृतस्य षोडशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ १०-१६ ॥ व्याख्या-'ता कहं ते गोत्त ।' इति 'ता' तावत् 'कह' कथं-नक्षत्राणां कानि 'गोत्ता' गोत्राणि 'ते' त्वया 'आहिया' आख्यातानि ? 'ति वएजा' इति वदेत् वदतु नक्षत्राणां गोत्राणि कथयतु हे भगवन् एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह—'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां लोकप्रसिद्धानां खलु 'अट्ठावीसाए णक्नत्ताणं' अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'अभिईणक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं 'मोग्गलायसगोत्ते' मुद्गलायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् १ । 'मोग्गलायणस' इत्यत्र सकार अर्घत्वात् । एवमग्रेऽपि विज्ञेयम् । अन्यत्सर्वं सुगमं छाया गम्यं चेति न वित्रियते । ननु नक्षत्राणामपि किं गोत्राणि भवन्ति ? इत्यत्राह नक्षत्राणां स्वरूपतो न गोत्रसंभवः किन्तु गोत्रस्वरूप मेतादृशं लोकप्रसिद्धिमगमत् । गोत्रं च प्रकाशकाद्यपुरुषाभिधानतस्तदपत्यं सन्तानो गोत्रमभिधीयते, यथा कश्यपस्यापत्यं सन्तानः काश्यप इति काश्यपाभिधानं गोत्रं भवति किन्तु न चैवं स्वरूपं गोत्रमत्र नक्षत्राणां संभवति, तेषामौपपातिकजन्मत्वेनापत्यत्वासंभवात् तत इत्थं गोत्रसं Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. १६ अष्टाविंशतिनक्षत्राणां गोत्राणि ३६३' भवो ज्ञातव्यः-यन्नक्षत्रं शुभाशुभैप्रेहैराक्रान्तं भवेत् तद्गोत्रोत्पन्नस्य पुरुषस्य यथाक्रमं शुभमशुभं वा भवति यथा –अभिजिन्नक्षत्रे यदि शुभग्रहो वर्तते तदा मुद्बलायनगोत्रोत्पन्नस्य पुरुषस्य शुभ फलजनकं भवतीत्येवमधिकृत्य गोत्राणां प्रश्नोपपत्तिर्जातेति । अत्र जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिप्रोक्ता गोत्रनामसंग्राहिकाश्चतस्रो गाथाः प्रदान्ते "मोग्गल्लायण १ संरवायणे २ य तह अग्गभाव ३ कण्णल्ले ४। तत्तोय जोउकण्णे ५, धणंजए ६ चेव बोद्धव्वे ॥१॥ पुस्सायण, अस्सायण ८, भग्गवेसे ९ अग्गिवेसे १० य । गोयम ११ भारदाए १२, लोहिच्चे १३ चेववासिढे १४ ॥२॥ उज्जायण १५ मंडव्वायणे १६ य पिंगायणे १७ य गोवल्ले १८ । कासव १९ कोसिय २० दब्भिय २१ चाम (भाग) रच्छा २२ । य सुंगाए २३ ॥३॥ गोलव्वायण २४ तिगिच्छायणे २५ य कच्चायणे २६ हवइ मूले। तत्तो य वज्झियायण २७ वग्धावच्चे २८ य गोत्ताई ॥४॥" छाया-मुद्गलायनं १ संख्यायनं २ च तथा अग्रभाबम् ३ कर्णलायनम् ४, ततश्चजोउकर्णि ५ धनञ्जयं ६ चैव बोद्धव्यम् ॥१॥ पुष्यायनं ७ अश्वायनं ८ भग्नवेश्यं ९ च अग्निवेश्यं १० च । गौत्तमं ११ भारद्वाजं १२ लौहित्यं १३ चैव वाशिष्ठम् १४ ॥२॥ ऊर्जायनं १५ माण्डव्यायनं १६ च पिङ्गायनं १७ च गोवल्लं १८। काश्यपं १९ कौशिकं २० दर्भिकं २१ चाम (भाग) रच्छं २२ च सुंगाकम् २३ ॥३॥ गोलव्यायनं २४ चिकित्सायनं २५ च कात्यायनं - २६ भवति मूले। ततश्च वज्झिकायनं २७ व्याघ्रापत्यं २८ च गोत्राणि ॥४॥ इति सूत्र १॥ इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका व्याख्यायां दशमस्य प्राभृतस्य षोडशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०।१६॥ दशमस्य प्राभृतस्य सप्तदशं प्राभृतप्राभृतम् । गतं दशमस्य प्राभृतस्य षोडशं प्राभृतप्रामृतम्, तत्र नक्षत्राणां गोत्राण्यभिहितानि । अथ सप्तदशं प्राभृतप्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र नक्षत्राणां भोजनानि प्रतिपादनीयानीति तद्विषयं सूत्रमाह–'ता कहते भोयणा' इत्यादि । मूलम्-ता कहते भोयणा आहिया ? तिवएज्जा। ता एएसि णं अहावीसाए णक्खत्ताणं कत्तियाहि दहिणा भोच्चा कज्जं साहिति !, रोहिणीहिं वसभमंसं भोच्चा कज्ज साहिति २, मिगसिरेणं मिगमंसं भोच्चा कज्जं साहिति ३, अदाहिं णवणीएणं भोच्चा कज्ज साहिति ४, पुणव्वसुणा घएणं भोच्चा कज्ज साहिति ५, पुस्सेणं खीरेणं Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे भोच्चा कजं साहेति ६, अस्सेसाए दीवगमंसं भोच्चा कज्ज साहेति ७, मघाहिं कसोतिं (कंसारं) भोच्चा कज्ज साहिति ८, पुव्वा फग्गुणीहि मेढग़मंसं भोच्चा कज्ज साहेति ९, उत्तराफग्गुणीहिं णक्खीमंसं भोच्चा कज्जे साहिति १०, हत्थेणवत्थाणीएण भोच्चा कज्जं साहेति ११ चित्ताहिं मुग्गसूपेणं भोच्चा कज्ज सहिति १२, साइणा फलाई भोच्चा कज्जं साहेति १.३, विसाहाहि अतसियं भोच्चा कज्ज साहेति १४, अणुराहाहिं मासकूरं भोच्चा कज्ज साहेति १५, जेट्टाहिं कोलट्ठिएणं भोच्चा कज्ज साहिति १६, मूलेणं मूलगसाएणं भोच्चा कज्ज साहेति १७, पुव्वासाढाहिं आमलगसरीरं भोच्चा कन्जं साहिति १८, उत्तरासाढाहिं बिल्लेहिं भोच्चा कज्ज साहिति १९, अभीइणा पुप्फेहिं भोच्चा कज्जं साहिति २०, सवणेणं खीरेणं भोच्चा कज्ज साहिति २१, धणिहाहिं जूसेणं भोच्चा कज्ज साहेति २२, सयभिसयाए तुवराओ भोच्चा कज्ज साहिति २३, पुव्वापोहवयाहि कारिल्ल एहिं भोच्चा कज्ज साहेति २४, उत्तरापोवयाहिं वराहमंसं भोच्चा कज्ज साहेति २५, रेवईहिं जलयरमंस भोच्चा कज्ज साहेति २६, अस्सिणीहिं तित्तिरमंस अहवा वट्टगमंस भोच्चा कज्ज साहेति २७, भरणीहिं तिलतंदुलगं भोच्चा कज्नं साहेति २८, । सू० । १॥ दसमस्स पाहुडस्स सत्तरसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०॥ छाया-तावत् कथं ते भोजनानि अख्यातानि ? इति वेदत् । तावत् एतेषां खलु जष्टाविंशते नक्षत्राणां कृतिका सुद्ध्ना भक्त्वा कार्य साधयन्ति १, रोहिणीपु वृषभमांसं भुक्त्वा कार्य साधयन्ति २, मृगशिरसि मृगमांसं भुक्त्वा कार्य साधर्यान्त ३ आर्द्रा सुनवनीतेन भुक्त्वा कार्य साधयन्ति ४ पुनर्वसौ धृतेन भुक्त्वा कार्य साधयन्ति ५ पुष्ये क्षीरेण भुक्त्वा कार्य साधयन्ति ६ अश्लेषायां द्वोपक मांसं भुक्त्वा कार्य साधयन्ति ७ मधासु कसो ति (कसारि) भुक्त्वा कार्य साधयन्ति ८ पूर्व फल्गुनीषु मण्डूकमांसं भुक्त्वा कार्य साधयन्ति९ उत्तराफाल्गुनीषु नखिमांसं भुक्त्या कार्य साधयन्ति १० हस्तेवत्थाणीपण वस्त्रानोकेन भुक्त्वा कार्य साधयन्ति ११ चित्रासु मुद्गरूपेणभुक्त्वा कार्यं साधयन्ति १२ स्वातौ फलानि भुक्त्वा कार्य सावयन्ति १३ विशाखासु अतसिकां भुक्त्या कार्य साधयन्ति १४ अनुराधा सुमाषकूरं भुक्त्वा कार्य साधयन्ति १५ ज्येष्ठासु कोलास्थिकेन भुक्त्वा कार्य साधयन्ति १६ मूले मूलकशाकेन भुक्त्वा कार्य साधयन्ति १७ पूर्वाषाढासु अमठक शरीरं भुक्त्वा कार्य साधयन्ति १८ उत्तराषाढासु बिल्वैः भुक्त्वा कार्य साधयन्ति १९ अभिजिति पुष्पैः भुक्त्वा कार्य साधयन्ति २० श्रवणेन क्षीरेण भुक्त्वा कार्य साधयन्ति २१ धनिष्ठासु यूषेण भुक्त्वा कार्य साधयन्ति २३ पूर्वा प्रोष्ठपदासुकारवेल्लकैः भुक्वा कार्य साधयन्ति २४ उत्तरा प्रोष्ठपदासु वराहमांसं भुक्त्वा कार्य साधयन्ति २५ रेवतीषु जलचरमांसं भुक्त्वा कार्य साध. यन्ति २६ अश्विनी तित्तिरिमाम् अथवा वर्तकमासं भुक्त्वा कार्य साधयन्ति २७ भरणीषु तिलतन्दुलकं भुक्त्वा कार्यं साधयन्ति २८ ॥ सू. १ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य सप्तदश प्रामृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥ १७ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा०प्रा १७ नक्षत्राणां भोजनानि ३६५ । व्याख्या-'ता कहं ते भोयणा' इति, 'ता' तावत् 'कह' केन प्रकारेण हे भगवान् ! 'ते' त्वया 'भोयणा' भोजनानि केषु केषु नक्षत्रेषु कानि कानि भोजनानि करणीयानीति 'आहिया' आख्यातानि कथितानि ? 'त्ति वएज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ! । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां स्खलु 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'कत्तियाहि' कृत्तिकासु कृत्तिका नक्षत्र दिने 'दहिणा' दध्ना सह भोजनं 'भोच्चा' भुक्त्वा गमने लोकाः 'कज्ज साहेति' कार्य साधयन्ति, कृत्तिकानक्षत्रदिने यदि पुमान् दधि भुक्त्वा कार्यार्थ गच्छति तदा तस्य तत्कार्य सिध्यतीति भावः ? एवं सर्वत्र भावना करणीया, सुगमत्वान्न व्याख्यायते । वस्तुत इदं सप्तदशं प्राभृतप्राभृतं न भगवता प्रतिपादितं किन्तु केनाऽप्यत्र प्रक्षिप्तमिति प्रतिभाति, नेयं भाषाशैली भगवतो लक्ष्यते, यतोऽत्र सूत्रे कुत्रचित् 'कत्तियाहिं रोहिणीहिं, अद्दाहिं' इत्यादि तृतीया बहुवचनं लभ्यते कुत्रचिच्च 'पुणव्वसुणा पुस्सेणं, अदाए' इत्यादि तृतीयैकवचनं लभ्यते । अन्यच्च भोज्यवस्तुविषये कुत्रचित्ततीया कुत्रचिद्वितीया च । यथा-"दहिणा भोच्चा, णवणीएण भोच्चा, खीरेण भोच्चा' इति तृतीया कुत्रचिच्च यत्र मांसविषयकथनं तत्र द्वितीया, यथा"वसभ मंस भोच्चा, मिगमंस भोच्चा, दीवगमंसं मोच्चा" इत्यादि, एवमव्यवस्थित जल्पनेन ज्ञायते नेदं भगवता प्ररूपितमिति । अन्यच्च कतिपयस्थलेषु स्थलचर जलचर-खेचर प्राणिनां मांसभक्षणं कार्यसिद्धौ कारणत्वेन प्रतिपादितं तत्तु नितान्तमसङ्गतमेव, यतः षट्कायप्रतिपालकस्य षट्कायरक्षणोपदेशतत्परस्य च भगवतो मुखान्नैष मांसभक्षणविधिर्भवितु मर्हति, शास्त्रेषु कुत्रापि नैतादृशी वाणी भगवतः समुपलभ्यतेऽतो निश्चीयते-नेदं भगवदुपदेशविपयकमिति । अस्तु अन्यदपि सयुक्तिकं कारणं श्रूयताम् शास्त्रेषु सर्वत्र नक्षत्राणां गणना-अभिजिन्नक्षत्रादारभ्यैव कृता युगस्याद्यदिवसेऽभिजित एव सद्भावात् । अत्रैव शास्त्रे पूर्व दशम प्राभृतस्य प्रथमे प्राभृतप्राभृते आदावेव सूत्रमिदम्___ता कहं ते जोगेति वत्थुस्स आवलियाणिवाए आहिएति वएज्जा, तत्स्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु ता सव्वेवि णक्खत्ता कत्तियादिया भरणी पज्जवसाणा एगे एवमाहंसु ॥१॥" इयमन्यतीथिकानां प्रथमा प्रतिपत्तिः एते कृत्तिकादीनि भरणी पर्यवसानानि नक्षत्राणि मन्यन्ते एवमन्यतोथिकानां पञ्च प्रतिपत्तयः सन्ति । तत्र द्वितीयाः-'मघादिकानि अश्लेषा पर्यवसानानि सर्वाणि नक्षत्राणि' इति २, तृतीयाः-धनिष्ठादीनि श्रवणपर्यवसानानि' इति ३ चतुर्थाः अश्विन्यादीनि रेवती पर्यवसानानि सर्वाणि नक्षत्राणि' इति कथयन्ति ।५। एता पञ्चापि प्रतिपत्तयो मिथ्या रूपा इति कथयित्वा, भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति "वयं पुण एवं वयामो-सव्वेवि णं णक्खत्ता अभिई आइया उत्तरासादापज्जक- . साणा पण्णत्ता, तंजहा-अभिई सवणो जाव उत्तरासाढा ॥” इति । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे अस्य मलयगिरि सूरिणा कृता टीका यथा- "युगस्य चादिः प्रवर्त्तते श्रावणमास बहुलपक्षे प्रतिपदितिथौ बालवकरणे अभिन्नक्षत्र चन्द्रेण सह योगमुपागच्छति (सति) तथा चोक्तम् - ज्योतिष्करण्डके ३६६ सावण बहुलपडिव बालवकरणे अभिईनक्खते । सव्वत्थ पढमसमये जुगस्स आई वियाणाहि ॥ १॥ इति 'सव्त्रत्थ' सर्वत्रेति भरतैरवते महाविदेहे च । इत्थं सर्वेषामपि कालविशेषाणामादौ चन्द्र योगमधिकृत्याभिजिन्नक्षत्रस्य वर्त्तमानत्वादभिजिदादीनि नक्षत्राणि प्रज्ञप्तानि” इति टीका । अत्र कृत्तिकातो भरणी पर्यवसानानि नक्षत्राणि प्रथमान्यतीर्थिकैः – संमतानि सन्ति, तन्म तानुसारेणेदं – प्राभृतप्राभृतं दृश्यते । नेदं भगवतो मतमित्यतः स्पष्टं ज्ञायतेऽस्मिन् सप्तदशे प्राभृतप्रभृते भगवतः प्ररूपणा न भवितुमर्हतीत्यलं विस्तरेणेति ॥ सू० १ ॥ - ॥ इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका व्याख्यायां दशमस्य प्राभृतस्य सप्तदशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥१७॥ दशमस्य प्राभृतस्याष्टादशं प्राभृतप्राभृतम् ॥ तदेवमुक्तं सप्तदशं प्राभृतप्राभृतम्, तत्र नक्षत्राणां भोजनानि प्रोक्तानि । अथाष्टादशं प्राभृतप्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र चन्द्रादित्यचारा वक्तव्या इति तद्विषयकं सूत्रमाह- 'ता कहते चारा' इत्यादि, मूलम् -ता कहं ते चारा आहिया ति वएज्जा । तत्थ खलु इमे दुविहा चारा पण्णत्ता, तं जहा - आइच्च चारा य चंदचारा य । ता कहते चंदचारा आहिया ति वएज्जा । ता पंच संवच्छरिए णं जुगे अभिई णक्खत्ते सत्तसद्विचारे चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ ?, सवणं णक्खते सत्तट्ठि चारे चंदेण सद्धि जोयं जोएइ २ एवं जाव उत्तरासादा णक्खते सत्तट्ठि चारे चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ । ता कहं ते आइच्चचारा आहियाति वएज्जा, ता पंच संवच्छरिएणं जुगे अभिईणक्खते पंच चारे सूरेण सद्धिं जोयं जोएइ एवं जाव उत्तरा साढा णवखते पंच चारे सूरेण सद्धिं जोयं जोएइ || सू० १| दसमस्य पाहुडस्स अट्ठारसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ १०१८, छाया -- तावत् कथं ते चारा आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् इमे द्विविधाः चाराः प्रशप्ताः, तद्यथा - आदित्यचाराश्च चन्द्रचाराश्च । तावत् कथं ते चन्द्रचारा आख्याताः ? इति वदेत् । तावत् पञ्च सावत्सरिके खलु युगे अभिजिन्नक्षत्रं सप्तषष्टि चारान् चन्द्रेण साध योग युनक्ति १ श्रवणः खलु नक्षत्रं सप्तषष्टि चारान् चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति २ एवं । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. १८ चन्द्रादित्यचारनिरूपणम् ३६७ यावत् उत्तराषाढ़ानक्षत्र सप्तषष्टि चारान् चन्द्रेण साधं योग युनक्ति । तावत् कथं ते आदित्य चारा आख्याताः ? इति वदेत् । तावत् पञ्च सांवत्सरिके सलु युगे अभिजिन्नक्षत्रं पञ्च चारान् सूरेण साधं योग युनक्ति ॥सू० १॥ दशमस्य प्राभृतस्याष्टादशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥१८॥ व्याख्या—'ता कहते चारा' इति 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण कया संख्यया 'ते' त्वया 'चारा आहिया' चाराः संचरणरूपाः आख्याताः ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् १। एवं गौतमेन पृष्ठे भगवानाह-'तत्थ खलु' तत्र चारविचारे खलु 'इमे वक्ष्यमाणाः 'दुविहा चारा पण्णत्ता' द्विविधाः चाराः प्रज्ञप्ताः 'तंजहा' तद्यथा--'आइच्चचारा य चंदचारा य' आदित्यचाराश्च चन्द्रचाराश्च । प्रथमं गौतमश्चन्द्रचारविषये पृच्छति-'ता' तावत् 'क' कथं केन प्रकारेण संख्यामधिकृत्य 'चंद चारा' चन्द्रचारा 'आहिया' आख्याता 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ? । भगवानाह'ता' तावत् 'पंच संवच्छरिएणं' पञ्च सांवत्सरिके चन्द्र-चन्द्रा-ऽभिवर्धित-चन्द्रा-ऽभिवर्धितरूप पञ्च संवत्सरात्मके खलु 'जुगे' युगे 'अभिईणक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्र 'सत्तसहिचारे' सप्तषष्टि चारान् यावत् सप्तषष्टिचारपर्यन्तं "चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति, एकस्मिन् युगे पञ्च संवत्सरात्मके चन्द्रोऽभिजिन्नक्षत्रेण सह संयुक्तो भूत्वा सप्तषष्टिसंख्यकान् चारान् चरतीति भावः, एकस्मिन् युगे चन्द्राभिजिन्नक्षत्रयोः सप्तषष्टिवारान् संयोगो भवतीति तात्पयम् । एतत्कथं-ज्ञायते ? अत्राह-इह योगमाश्रित्य चन्द्रस्य समस्तनक्षत्रचक्रपरिभ्रमणपरिसमाप्तिरेकेन नक्षत्रमासेन जायते, अतः प्रत्येकस्मिन् नक्षत्रमासे एकैकस्मिन्नहोरात्रे चन्द्रेण सह एकैकनक्षत्रयोगसंभवाद् युग सम्बन्धिषु सप्तषष्टिमार्गेषु सप्तषष्टिवारान् चन्द्रस्याभिजिता सह योगसमुपपत्तिर्लभ्यते ततश्चन्द्रोऽभिजिता नक्षत्रेण सह संयुक्तः सन् युगमध्ये सप्तषष्टिसंख्यकान् चारान् चरतीति सिद्धयति । एवं रीत्या सर्वनक्षत्रैः सह चन्द्रयोगो विज्ञेयः, यतः येन नक्षत्रेण सह यस्मिन् नक्षत्रमासे चन्द्रस्य योगो भवति स पुनश्चन्द्रस्य योग स्तेन नक्षत्रेण सह द्वितीये नक्षत्रमासे भविष्यति प्रत्येकमासे एकैकनक्षत्रेण सह चन्द्रयोगसद्भावात् । एवम् 'सवणेणं णक्खते' श्रवणः खलु नक्षत्रं 'सत्तर्हि चारे' सप्तषष्टिं चारान् यावत् 'चंदेण सद्धिं' चन्द्रेण साधै 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति । ‘एवं जाव' एवम्-अनेन क्रमेण यावत् यावत्पदेन धनिष्ठात आरभ्य पूर्वाषाढा नक्षत्रपर्यन्तानि पञ्चविंशतिरपि नक्षत्राणि एकस्मिन् युगे प्रत्येक मधिकृत्य सप्तषष्टिं २ चारान् चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्ति । अथाष्टाविंशतितमं नक्षत्रमाह- 'उत्तरासाढाणक्खत्ते' उत्तराषाढानक्षत्रं 'सत्तद्विचारे' सप्तषष्टिं चारान् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएई' चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्तीति २८। अथादित्यचारान् प्रदर्शयति-गौतमः पृच्छति-'ता कहते आइच्चचारा' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कह' कथं कया रीत्या कया संख्ययेत्यर्थः 'ते' त्वया । 'आइच्च चारा' आदित्य Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे चारा 'आहिया' आख्याताः कथिताः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! । एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता' तावत् 'पंचसंवच्छरिएणं जुगे' पञ्चसांवत्सरिके पूर्वोक्त पञ्च संवत्सरात्मके खलु युगे 'अभीईनक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं 'पंचचारे' पञ्चचारान् यावत् 'सूरेण सद्धिं' सूरेण साधैं 'जोयं जोएई' योगं युनक्ति । कथमित्याह-अत्र योगमाश्रित्य सूर्यस्य समस्त नक्षत्रचक्रचारपरिसमाप्तिरेकेन सूर्यसंवत्सरेण जायते, ते च सूर्यसंवत्सरा एकस्मिन् युगे पञ्चैव भवन्ति ततः प्रत्येकस्मिन् संवत्सरे एकैकस्मिन् मासे एकैकनक्षत्रयोगसद्भावात् युगसम्बन्धिषु पञ्चसु संवत्सरेषु पञ्चवारानेव सूर्यस्याभिजिता सह योगसमुपपत्तिर्लभ्यते ततोऽभिजिन्नक्षत्रेण सह संयुक्तः सूर्य एकस्मिन् युगे पञ्च चारान्चरतीति सिध्यति । एवं रीत्या सर्वनक्षत्रैः सह सूर्ययोगएकस्मिन् युगे पञ्चचारान् यावत् भवतीति विज्ञेयम् । ततः यत्मिन् संवत्सरे येन नक्षत्रेण सह सूर्यस्य योगो भवति स पुनः सूर्यस्य योगस्तेन नक्षत्रेण सह द्वितीये संवत्सरे भविष्यति प्रत्येक संवत्सरे एकैकनक्षत्रेण सह सूर्ययोग सद्भावात् ‘एवं' एवम्-अनया रीत्या 'जाव' यावत् अत्र यावत्पदेन श्रवणनक्षत्रादारभ्य पूर्वाषाढानक्षत्रपर्यन्तानि षडविंशतिर्नक्षत्राणि एकस्मिन् युगे प्रत्येक पञ्च पञ्चचारान् सूर्येण सह योगं युञ्जन्ति । अथाष्टाविंशतितमनक्षत्रमाह-'उत्तरासाढानक्खते' उत्तराषाढानक्षत्रं 'पंचचारे' पञ्चचारान् 'सुरेण सद्धि' सूर्येण सार्धं 'जोयं जोएइ' योगं युनक्तीति । २८ ॥सू० १॥ चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका व्याख्यायां दशमस्य प्राभृतस्य अष्टादशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥१८॥ ॥ दशमस्य प्राभृत्तस्यैकोनविंशतितमं प्राभृतप्राभृतम् ॥ • गतमष्टादशं प्राभृतप्राभृतम् तत्र चन्द्रचारा आदित्यचाराश्च प्रदार्शिताः । अथैकोनविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र संवत्सरस्य मासा वक्तव्या इति तद्विषयं सूत्रमाह-'ता कहते मासा' इत्यादि । मूलम् - ता कहं ते मासा आहिया ? तिवएज्जा । ता एगमेगस्स णं संवच्छरस बारस मासा पण्णत्ता । तेसिं च णं बारसण्हं मासाणं दुविहा नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा लोइया लोउत्तरिया य। तत्थ लोइया नामा सावणे, भद्दवए २, आसोए ३, जाव आसाढे १२ । लोउत्तरिया णामा-"अभिणंदे १, सुपइट्टे २ य, विजए ३ पीइवद्धणे ४। सेज्जं से ५ य सिवइ यावइ, सिसिरे ७ वि य हेमवं ८ ॥१॥ नवमे वसंतमासे ९, दसमे कुसुम संभवे १० एगारसमे णिदाहे ११, बण विरोही य बारसे ॥२॥ सू० १ दसमस्स वाहुडस्स गूणवीसइमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१० १९॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. १९ लौकिक लोकत्तरमासनामानि ३६९ छाया तावत् कथ ते मासा आख्याताः ? इति वदेत् । तापत् एकैकस्य स्खलु संवत्सरस्य द्वादशमासाः प्रज्ञप्ताः। तेषां च खलु द्वादशानां द्विविधानि नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-लोकिकानि लोकोत्तराणि च । तत्र लौकिकानि नामानि-श्रावणः १, भाद्रपदः २ आश्विनः ३, यावत् आषाढः १२ । लोकोत्तराणि नामानि-अभिनन्दः १ सुप्रतिष्ठश्चर, विजयः ३ प्रीतिवर्धनः ४ । श्रेयांसश्च ५ शिवश्चापि ६, शिशिरः ७ अपि च हैमवान् ८॥१॥ नवमो वसन्तमासः ९ दशमः कुसुमसंभवः १०। एकादशो निदाघा ११ बनविरोधी व द्वादश: १२॥२॥, सू. १॥ दशमस्य प्राभूतस्य एकोनविंशतितम प्राभृतप्राभृतं समाप्तम ॥१०॥१९॥ व्याख्या-'ता कहंते मासा' इति । 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण किंनामधेयाः 'से' वा 'मासा आहिया' मासा आख्याताः कथिता ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ? एवं गौतमेन पृष्ठे भगवानाह, ता' तावत् 'एगमेगस्स णं संवच्छरस्स' एकैकस्य खलु संवत्सरस्य 'बारसमासा पण्णत्ता' द्वादश द्वादश मासाः प्रज्ञप्ता 'तेसिं च णं वारसहंमासाणं' तेषां च खलु द्वादशानां मासानां 'दुविहा नामधेज्जा पण्णत्ता' द्विविधानि नामधेयानि प्रज्ञप्तानि लौकिकानि लोकोत्तराणि च 'तत्थ' तत्र लौकिकलोकोत्तराणां मध्ये 'लोइया नामा' लौकिकानि नामानि, तथाहि 'सावणे १, भद्दवए २, आसोए ३,' श्रावणः १, भाद्रपद २, आश्विनः ३, 'जाव आसाढे' यावत्-आषाढः १२, अत्र यावत्पदेन कार्तिकः ४, मार्गशीर्षः ५, पौषः ६, माघः ७, फाल्गुनः ८, चैत्रः ९, वैशाखः १०, ज्येष्ठः ११, एषां संग्रहः कर्त्तव्यः । द्वादश आषाढ इति सूत्रे कथितमेवेति । लोउत्तररिया० नामा लोकोत्तराणि नामानि यथा-अभिणंदे सुपइटे य' अभिनन्दः १, सुप्रतिष्ठ २ श्च, 'विजए पीइवद्धणे' विजयः ३ प्रीतिवर्धनः ४। 'सेज्जंसे य सिवे यावि' श्रेयांसश्च ५ शिवश्चापि 'च' तथा शिवनामापि च षष्ठो मासः ६ । शिशिरः ७, अपि च तथा हेमवं' हैमवान् ८॥१॥ 'नवमे वसंतमासे' नवमो वसंतमासः वसन्ताभिधो नवमो मासः ३, 'दसमे कुसुमसंभवे' दशमो मासः कुसुमसंभवः १० इति । एगारसमे णिदाहे' एकादशो मासः निदाघः ११ इति, 'वण विरोही य' वनविरोधी च 'बारसे' द्वादशः १२ ॥२॥ सू० १॥ ॥ इतिचन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका व्याख्यायां दशमस्य प्राभृतस्य एकोनविंशति तमं प्राभृत प्राभृतं समाप्तम् ॥ १० । १९ ॥ ॥ दशमस्य त्राभृतस्य विंशतितमं प्राभृतप्राभृतम् ॥ व्याख्यातमेकोनविंशतितमं प्रामृतप्राभृतम्, तत्र लौकिकलोकोत्तरमासानां नामान्यभिहितानि । अथ विंशतितमं प्राभृतप्राभृतं प्रोच्यते, तत्र संवत्सराः वक्तव्या इति तद्विषयकं सूत्रमाह'ता कहं त संवच्छरा' इत्यादि । ४७ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे मूलम् - ता कहं ते संवच्छरा आहिया ति वएज्जा । ता पंच संवच्छरा आहिया, ति वज्जा तं जहा - णक्खत्तसंवच्छरे १, जुगसंवच्छरे २, पमाणसंवच्छरे ३, लक्खणसंवच्छरे ४, सणिच्छरसंवच्छरे ।०१। ३७० छाया तावत् कथं ते संवत्सरा आख्याता इति वदेत् तद्यथा - नक्षत्र संवत्सरः १, युगसंवत्सरः २, प्रमाणसंवत्सरः ३, लक्षणसंवत्सरः ४, शनैश्वरसंवत्सरः सू० १ ॥ व्याख्या — गौतमः पृच्छति - 'ता कहं ते संवच्छरा' इति तावत् हे भगवन् 'क' कथं कतिसंख्यका 'ते' त्वया 'संवच्छ रा' संवत्सराः 'आहिया' आख्याताः ? इति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु | भगवानाह - 'ता' तावत् 'पंच संवच्छ रा' आहिया' पञ्च संवत्सरा 'अहिया' मया आख्याताः 'ति वपज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्यः । ' तं जहा ' तद्यथाते पञ्च संवत्सरा यथा - 'णक्खत्त संवच्छरे' नक्षत्र संवत्सरः तत्र यावताकालेन अष्टाविंशति नक्षत्रैः सह चन्द्रस्य योगसमाप्ति भवेत् यावत् कालेन चन्द्रोऽष्टाविंशतौ नक्षत्रेषु भोगं कृत्वा तेभ्यः पृथग् भवेत् तावत्परिमितः कालविशेषो नक्षत्रमासो भवति ते नक्षत्रमासा यावता कालेन द्वादश व्यतीता भवन्ति तावत्परिमितः कालविशेषो नक्षत्रसंवत्सरः कथ्यते, अथ च एको नक्षत्रमासो द्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसंवत्सरो भवति, उक्तञ्च -- "नक्खत्तं चंद जोगो बारस गुणिओ य नक्ख तो ॥" छाया - नक्षत्रचन्द्रयोगः द्वादशगुणितश्च नाक्षत्र : (संवत्सरः) । इति । अत्र पुनरेकेन ऊनिकृतो नक्षत्र पर्याय योग एको नक्षत्रमासः - सप्तविंशति रहोरात्राः, एकस्याहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तषष्टि भागः (२७२१) एतावत्परिमितो भवति । एष एकस्य नक्षत्रमासस्याहोरात्रपरिमाणरूपो ६७ राशिर्यदा द्वादशभिर्गुण्यते तदा यस्तगुणनफलराशि र्भवेत् तत्परिमिताहोरात्रप्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरो भवति, तच्च गुणनफलमेतावत्परिमितं भवति - सप्तत्रिंशत्यधिकानि त्रीणि अहोरात्रशतानि, एकस्याहोरात्रस्य च एकपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः (३२७५१ ) इति कथमेतदवसीयते इति तद्गणितं ६७ प्रदर्श्यते – एकनक्षत्रमासाहोरात्र (२७२१) द्वादशभिर्गुणने प्रथमं सप्तवर्शिति र्द्वादशभिर्गुण्यते ६७ जातानि चतुर्विंशत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३२४) तत उपरितनो राशिरे कविंशतिः (२१) एषो - ऽपि द्वादशभिर्गुण्यते जाते द्विपञ्चाशदधिके द्वेशते (२५२), ततोऽस्याऽहोरात्रानयनार्थं सप्तषष्टा भागो ह्रियते लब्धास्त्रयः, एते पूर्व स्थितेऽहोरत्रराशौ (३२४) प्रक्षिप्यन्ते जातानि सप्तविंशत्यधिका Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा०प्रा २० संवत्सरस्वरूपनिरूपणम् ३७१ त्रीणि शतानि शेषा एक पञ्चाशत्सप्तपष्टिभागाः (३२७-) तदेवमायातं नक्षत्रसंवत्सराहोरात्र प्रमाणम्, एतावदहोरात्रप्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरो भवतीति १ । द्वितियः 'जुगसंवच्छरे' युगसंवत्सरः, तत्र युगं पञ्च संवत्सरात्मकम् तत्पूरकः संवत्सरो युगसंवत्सरः । यदा चान्द्र-चान्द्राऽभिवर्धितचान्द्राऽभिवर्धितरूपाः पञ्च संवत्सराः परिपूर्णा व्यतीता भवेयुस्तदा एको युगसंवत्सरः परिपूर्णो भवतीति ।२। तृतीयः ‘पमाण संवच्छरे' प्रमाणसवत्संरः युगस्य प्रमाणहेतुः संवत्सरः प्रमाणसंव त्सरः । 'लक्खण संवच्छरे' लक्षणसंवत्सरः, लक्षणेन यथावस्थितेन उपेतः संवत्सरो लक्षणसंवत्सरः ४ । 'सणिच्छरसंवच्छरे' शनैश्चर संवत्सरः, शनैश्चरेण निष्पादितः संवत्सरः पञ्चमःशनैश्चरसंवत्सरः ५ ॥ सू० १॥ पूर्वं पञ्चापि संवत्सरा नामतः प्रतिपादिताः, अथैतेषां यथाक्रमं मेदान् प्रदर्शयति'ता नक्खत्तसंवच्छरे' इत्यादि । मूलम्–ता णक्खत्तसंवच्छरेणं दुवालसविहे पण्णत्ते, तं जहा सावणे १ भदवए २ जाव आसाढे १२॥ ज वा बहस्सई महग्गहे दुवालसहिं संवच्छरेहिं सव्वं णक्खत्तमंडलं समाणेइ ॥सू० २॥ छाया-"तावत् नक्षत्रसंवत्सरः खलु द्वादविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा श्रावणः १ भाद. पदः २, यावत् आषाढः १२॥ यद्वा बृहस्पति महा ग्रहः द्वादशभिः संवत्सरैः सर्व नक्षत्रमण्डलं समानयति । सू० २॥ व्याख्या- 'ता' तावत् प्रथमं नक्षत्रसंवत्सरः कथ्यते-'णक्खत्तसंवच्छरेणं' नक्षत्रसंवत्सरः खलु 'दुवालसविहे पण्णत्ते' द्वादशविधः द्वादशप्रकारकः प्रज्ञप्तः कथितः, 'तं जहा' तद्यथा-'सावणे भद्दवए' श्रावणः १, भाद्रपदः २, 'जाव आसाढे' यावत् आषाढ़ः १२॥ यावत्पदेन-आश्विनः २ कार्तिकः ४ मार्गशीर्षः ६ पौषः ६ माघः ७ फाल्गुनः ८, चैत्र: ९ वैशाखः १०, ज्येष्ठः ११, एते नव मासा गृह्यन्ते । इह-एकः समस्त नक्षत्रयोगपर्यायो द्वादशभि गुणने नक्षत्रसंवत्सरो भवति । एवं ये नक्षत्रसंवत्सरस्य पूरका द्वादश समस्तनक्षत्रयोगपर्यायाः श्रावण भाद्रपदादिनामानस्तेऽपि अवयवे समुदायोपचारान्नक्षत्रसंवत्सर इति । यथा-श्रावणादारभ्याषानपर्यन्तः कालविशेषः नक्षत्रसंवत्सरः । एवं सर्वत्र संयोजनीयम् । अथ द्वितीय प्रकारमप्याह-'जं वा' इत्यादि, 'जं वा' यद्वा-अथवा-'बहस्सई महग्गहे' बृहस्पतिर्महाग्रहः 'दुवालसहि संवत्सच्छरेहि' द्वादशभिः संवत्सरैः 'सव्वं नक्खत्तमंडलं' सर्वमष्टाविंशति नक्षत्रात्मकं नक्षत्रमण्डलं योगमधिकृत्य परिभ्रमणेन 'समाणेइ' समानयति समापयति, एषोऽपि नक्षत्र संवत्सर Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे शब्देन कथ्यते, अयमाशयः-यत् यावता कालेन बृहस्पतिनामा महाग्रहो नक्षत्रैः सह योगमाश्रित्याभिजिदादीनि अष्टाविंशतिमपि नक्षत्राणि परिसमापयति ताव परिमितो द्वादशवर्षात्मको नक्षत्रसंवत्सरो भवतीति प्रथमः संवत्सरः ।१॥ सू० २॥ ___ अथ द्वितीयं युगसंवत्सरमाह-'ता जुगसंवच्छरेणं' इत्यादि । मूलम् ता जुगसंवत्सरेणं पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-चंदे १ चंदे २ अभिवढिए ३ चंदे ४ अभिवइढिए ५। ता पढमस्स णं चंदसंवच्छरस्स चउव्वीस पव्वा पण्णत्ता १॥ दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स चउवीसं पव्वा पण्णत्ता २। तच्चस्स णं अभिवइढिय संवच्छरस्स छन्वीसं पव्वा पण्णत्ता ।३। चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स चउवीसं पव्वा पण्णत्ता ४॥ पंचमस्स णं अभिवढियवच्छरस्स छब्बीसं पव्वा पण्णत्ता ५। एवामेव सपुव्वावरेणं पंचसंवच्छरिए जुगे एगे चउवीसे पव्वसए भवतीति मक्खायं ॥सू० ३॥ छाया तावत् युगसंवत्सरः खलु पञ्चविधः, शप्तः तद्यथा-चान्द्रः १, चान्द्रः २, अभिवद्धितः३, चन्द्रः४ अभिवद्धितः५। तावत् प्रथमस्य खलु चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विति पर्वाणि प्रज्ञप्तानि । द्वितीयस्य खलु चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पाणि प्रज्ञप्तानि । तृतीयस्य खलु अभिवद्धित संवत्सरस्य षड्विंशतिः पर्वाणि प्रज्ञप्तानि ३॥ चतुर्थस्य खलु चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विशतिः पर्वाणि प्रज्ञप्तानि४॥ पञ्चमस्य खलु अभिवद्धित संवत्सरस्य षड्विंशतिः पर्वाणि प्रज्ञप्तानि ५। एवमेव सपूर्वापरेण पञ्चसांवत्सरिके युगे चतुविश पर्वशतं (१२४) भवतीत्याख्यातम् ॥सू० ३॥ व्याख्या- 'ता जुगसंवच्छरेणं' इति, 'ता' तावत् 'जुगसंवच्छरेणं' युगसंवत्सरः खलु युगपूरकः संवत्सरः स खलु 'पंचविहे पण्णत्ते' पञ्चविधः प्रज्ञाः, 'तं जहा' तद्यथा-'चंदे १ चंदे २ अभिवइढिए ३ चंदे ४ अभिवढिए ५, चान्द्रः १ चान्द्रः२ अभिवर्द्धितः ३ चान्द्रः ४ . अभिवर्द्धितः ५' एतन्नामानः पञ्च संवत्सराः कथिता इति, तथा चोक्तम् --- चंदो चंदो अभिवइढिओ य चंदोऽभिवढिओ चेव । पंच सहियं जुगमिणं दिटुं तेलुक्कदंसीहिं ॥१॥ पढमबिइया उ चंदा अभिवढियं वियाणाहि । चंदे चेब चउत्थं, पंचममभिवड्ढियं जाण ॥२॥ छाया-चान्द्रः १ चान्द्रः २ अभिवर्द्धितश्च ३, चान्द्रः ४ अभिवद्धितश्चैव ५। पञ्चसहितं युगमिदं दृष्टं त्रैलोक्यदर्शिभिः ॥१॥ प्रथमद्वितीयौ तु चान्द्रौ, तृतीयमभिवद्धितं विजानीहि । चान्द्रं चैव चतुर्थं पञ्चममभिवद्धितं जानीहि ॥२॥ इति Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० संवत्सरस्वरूपनिरूपणम् ३७ अथैते पञ्च चान्द्रादि संवत्सराः पृथक् यथाक्रमं व्याख्यायन्ते, तत्र प्रथम, चान्द्रसंवत्स-'. रस्य व्याख्या क्रियते, तथाहि - अमावास्या पौर्णमासीनां द्वादश द्वादश परिवर्ता याबताकालेन परिसमाप्ता भवन्ति तावकालविशेषश्चान्द्रः संवत्सरो निष्यद्यते, उक्तञ्च "आमावासा पुण्णिमा-परियट्ठा जावएण कालेण बारस होति य तावं, संवच्चरो हवइ चंदो ॥१॥ "अमावास्या पूर्णिमा परिवर्तायावत्केन कालेन द्वादश द्वादश भवन्ति च तावान् (कालविशेषः) संवत्सरो भवतिचान्द्रः ॥१॥ इतिच्छाया । अमावास्या पूर्णिमा परिवर्तों यावता कालेन भवति सकाल विशेषश्चान्द्रमासः एकस्मिन् चान्द्रमासेऽमावास्या पूर्णिमयोरेकैकयोरेव सद्भावात् । तस्मिंश्च चान्द्रमासे कियन्ति रात्रिन्दिवानि भवन्ति ! इत्यत्राह-एकस्य चान्द्रमासस्य-एकोनत्रिंशदहोरात्राः, एकस्याहोरात्रस्य च द्वात्रिंशद् छाषष्टिभागाः (२९-३२) भवन्ति । एकस्मित् चान्द्रसंवत्सरे द्वादश मासा भवन्तीति द्वादशभिर्गु ण्यन्ते, जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दिवानि, एकस्य रात्रिन्दिवस्य छादश: द्वाषष्टिभागाः (३५४३) एतत्परिमाणश्चान्द्रसंवत्सर आयाति । १ । एवं द्वितीयश्चान्द्रसंवत्सरोऽपि परिभावनीयः ।२। दर अथ तृतीयोऽभिवर्द्धितसंवत्सरो व्याख्यायते यस्मिन् संवत्सरेऽधिकमासो भवति सोऽभि- . वतिसंवत्सरः कथ्यते । अस्मिन् संवत्सरे त्रयोदश चान्द्रमासा भवन्ति । तथा चोक्तम्-.. "तेरस य चंदमासा, एसो अभिवडिओ ३ बोद्धव्वो" त्रयोदश च चान्द्रमासाः एषः । अभिवर्द्धितस्तु बोद्धव्यः, इतिच्छाया । अथ चैकचान्द्रमासाहोरात्रसंख्या त्रयोदशभिर्गुणनीया ., भविष्यति, सा च संख्या-एकोनत्रिंदशदहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः (२३) इतिपूर्व प्रदर्शितमेव, अस्य राशेस्त्रयोदशभिर्गुणने जातानि त्र्यशीत्यधिकानि त्रिशताहो रात्राणि, एकस्याहोरात्रस्य च चतुश्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः (३८३१) । एतावदहोरात्रपरिमाणोऽभिवतिसंवत्सरो निप्पद्यते ३ । एवं चतुर्थपच्चमयोश्चान्द्राभिवर्द्धितयोरपि संवत्सरयोरहोरा Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे त्रसंज्या परिभावनीया । सर्वसंकलनया एकस्य युगस्य-अष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि अहोरात्राणिभवन्तीति । ___ अथ कथमधिकमाससंभवः येनाऽभिवर्द्धितसंवत्सर उपजायते ? एषोऽधिकमासश्च कियता कालेन संभवतीति प्रदर्श्यते-अत्र युगं चान्द्र-चान्द्रा-ऽभिवति–चान्द्रा-ऽभिवर्द्धितेति पञ्चसंवत्सरात्मकं भवति, सूर्यसंवत्सरापेक्षया च विचार्यमाणेऽस्मिन् युगे अन्यूनातिरिक्तानि पञ्चवर्षाणि भवन्ति । अथ सूर्यमासः सार्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः (३०॥), चान्द्रमासश्च पूर्व प्रदर्शितो द्वात्रिंश द्वाषष्टिभागसहित एकोनत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः (२९ ३) ततो गणितपरिपाट्या सूर्यसंवत्सर सम्बन्धित्रिशन्मासातिक्रमे एकश्चान्द्रमासोऽधिक आयाति । स च कथं लभ्यते इति ज्ञापनायात्र वृद्धसंप्रदायोक्त करण गाथा प्रोच्यते "चंदस्स जो विसेसो, आइच्चस्स य हविज्जमासस्स तीसइ गुणिओ संतो, हवइ अहिमासगो एक्को" ॥१॥ - छाया-चन्द्रस्य यो विश्लेषः, आदित्यस्य च भवेत् मासस्य । त्रिंशद्गुणितः सन् भवति खलु अधिकमास एकः ॥१॥ इति । अस्या गाथाया अर्थः प्रीते-'आइच्चस्स मासस्स' आदित्यस्य मासस्य मध्यात् 'चंदस्स, जो बिसेसो हविज्ज' मादित्यसंवत्सरसम्बन्धिनो मध्यात् चन्द्रस्य चन्द्रमासस्य विश्लेषः शोधनरूपो भवेत् स 'तीसई गुणिओ संतो' त्रिंशद्गुणितः सन् ‘एक्को अहिमासओ' एकोऽधिकमासो भवतीति गाथार्थः । एतद्गणितं यथा-सूर्यमासः सार्धत्रिंशद् दिनप्रमाणः (३०॥) चन्द्रमासश्च एकोनत्रिंशद् दिनानि, एकस्य च दिनस्य द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागाः (२९२२ ) इतिसूर्यमास दिनेभ्यः चन्द्रमासदिनानि द्वाषष्टिभागसहितानि शोध्यन्ते ततः स्थितं पश्चादेकं दिनमेकेन द्वाषष्टिभागेन न्यूनम्, एतच्च सूर्यमासात् चन्द्रमासस्य प्रतिमाससत्कं न्यूनत्वम् । तच्च दिनत्रिंशता गुण्यते जातानि त्रिंशदिनानि (३०) एकश्च द्वाषष्टिभागोऽपि त्रिंशता गुण्यते जाता एकस्य दिनस्य त्रिंशवाषष्टिभागाः (३०) एते त्रिंशद्वाषष्टिभागाः त्रिंशदिनेभ्यः शोध्यन्ते, स्थितानि शेषाणि एकोनत्रिंशदिनानि एकस्य च दिनस्य द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः (२९२। कथमित्याह-त्रिशदिनेभ्य एक रूपं निष्कास्यते,-स्थितानि शेषाणि एकोनविंशदिनानि, निष्कासितस्य एकस्य द्वाषष्टि भागकरणार्थं तद् द्वाषष्टया गुण्यते जाता द्वाषष्टिः (६२) अस्माद् राशे स्त्रिंशत् शोध्यन्ते स्थिताः शेषा द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः (३२) तत आगतो यथोक्त प्रमाणश्चान्द्रमासः (२९- इत्येवंरूपो भवति सूर्यसं Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० । संवत्सरस्वरूपनिरूपणम् ३७५ वत्सरस्य त्रिंशन्मासातिक्रमे एकोऽधिकमासः । अत्रान्याऽपि सरला रीतिः प्रदर्श्यते-सार्धत्रिंशदिनप्रमाणात्सूर्यमासात् द्वात्रिंशद् द्वापष्टि भागसहितानि एकोनविंशदिनानि, चान्द्रामासस्य शोध्यन्ते स्थितमेकं दिनमेकेन द्वाषष्टिभागेन न्यूनं, तच्च एक षष्टि षिष्टिभागाः (4) एतावत्प्रमाणं भवति, एतच्च सूर्यमासे प्रतिमासं चन्द्रमासस्य न्यूनत्वं सिद्धम् , एतच्च सूर्यस्य त्रिंशन्मासैः संघातीभूय एकश्चन्द्रमासोऽधिको निष्पद्यते तदेव दर्श्यते, एते एकषष्टि षिष्टिभागाः सूर्यस्य त्रिंशन्मासै गुण्यन्ते जातानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) द्वाषष्टिभागाः, एषां मासदिनानयनथै द्वाषष्ट्या भागो हियते लब्धानि एकोनत्रिंशदिनानि स्थिताः शेषा द्वात्रिंशद्वाषष्टि भागाः। एतावत्परिमितएकश्चन्द्रमास स्त्रिंशता सूर्यमासैरधिकोलभ्यते, अयं भावः-सूर्यस्य त्रिंशन्मासाः चन्द्रस्य एकत्रिंशन्यासः परिपूर्यन्ते एष एवाधिको मासो भवतीति । एकस्मिन् युगे षष्टिः सूर्यमासा भवन्ति ततः पुनपि सूर्यसंवत्सरस्य त्रिंश-मासातिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति । एवमेकस्मिन् युगे युगाड़े एकैकाधिकमाससंभवाद् द्वौ अधिकमासौ भवतः, तथा चोक्तम् सट्ठीए अइयाए, हवइ हु अहिमासगो जुगद्धमि । बावीसे पव्वसए हवइ य बीओ युगद्धम्मि" ॥१॥ छाया-पष्टौ अतीतायां भवति खलु अधिकमासो युगाः । द्वाविंशति पर्वशते भवति च द्वितीयो युगार्धे ॥१॥ इति । अयं भावः-षष्टौ पर्वणाम् -अमावास्या पूर्णिमा रूपाणाम् पर्वणामित्यर्थः षष्टि संख्यायां 'अईयाए' अतीतायां व्यतिक्रान्तायां सत्याम् त्रिंशतिमासेषु पर्वणां षष्टि संभवाद तदने 'जुगद्धम्मि' युगार्धे 'अहिमासो हवई' अधिकमासो भवति सूर्यस्य त्रिंशन्मासरूपे युगार्धे चन्द्रस्य एकत्रिंशन्मासा इति भावः । एवं 'बावीसे पव्वसए' द्वाविंशत्यधिके पर्वशते द्वाविंशत्यधिकैकशततमे पर्वणि व्यतीते सति 'जुगद्धंमि' युगार्धे द्वितीये युगाघे युगान्ते इत्यर्थः पुनरपि 'बीओ हवइ' द्वितीयोऽधिमासो भवति, एकस्मिन् युगेऽधिकमासद्वयसंभवादिति सूर्यस्य षष्टि मासेषु चन्द्रस्य द्वाषष्टि मासाः परिपूर्णा भवन्तीति भावः, तेन युगमध्ये तृतीये संवत्सरेऽधिकमासः, ततः पञ्चमे, इति युगेऽभिविर्धितसंवत्सरौ द्वौ भवत इति । अथैकस्मिन् युगे सर्वसंख्यया किमन्ति पर्वाणि भवन्तीति प्रदयितुकामः प्रति संवसरस्य पर्वसंख्यामाह-'ता पढमस्स णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'पढमस्स गं' प्रथमस्य खलु 'चंदसंवच्छरस्स' चान्द्रसंवत्सरस्य 'चउव्वीस पव्वा पण्णत्ता' चतुर्विशतिः पर्वाणि अमावास्या पूर्णिमारूपाणि प्रज्ञप्तानि चान्द्रसंवत्सरस्य द्वादशमासात्मकत्वात् , एकैकस्मिन् मासे च पर्वद्वयसद्भावात् ।१। 'दोच्चस्स गं' Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसत्रे द्वितीयस्य खलु 'चंदसंवच्छरस्स' चान्द्रसंवत्सरस्य 'चउरीसं पव्या पण्णत्ता' चतुर्विंशति पर्वाणि प्रज्ञप्तानि, अत्रैव पूर्वोक्तकारणसद्भावात् ।२। 'तच्चस्स णं' तृतीयस्य खलु 'अभिव इढिय संवच्छरस्स' अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य 'छब्बीसं पव्या पग्णता' षविंशतिः पर्वाणि प्रज्ञ.'तानि अस्य त्रयोदशमाससद्भावात् ३ । 'चउत्थस्स णं' चतुर्थस्य खलु 'चंदसंबच्छरस्त' चान्द्रसंवत्सरस्य 'चउव्वीसं पव्वा पण्णत्ता' चतुर्विशतिः पर्वाणि प्रज्ञप्तानि अस्यापि द्वादशमासात्मकत्वात् ।४। 'पंचमस्स णं' पञ्चनस्य खलु 'अभिवइढिय संबच्छास्स' अभिवर्द्धित. संवत्सरस्य 'छधीमं पया पण्णता' षइविंशतिः पर्वाणि प्रज्ञतानि, पूर्ववदस्यापि त्रयोदशमासात्मकत्वात् ५ । अथ युगपर्वाणां सर्वसंकलनामाह - ‘एवामेव' इत्यादि ‘एवामेव' एवमेव अनेनैव प्रकारेण 'सपुवावरेणं' सपूर्वापरेण पूर्वापरगतसर्वपर्वसंख्यासंमेलनेन ‘पंचसंबच्छरिए जुगे' पञ्च सांवत्सरिके पञ्च संवत्सरात्मके युगे एकस्मिन् युगे 'एगे चउव्वीसे पवसर भवइ' एक चतुर्विशशतं चतुर्विशत्यधिकं पर्वशतं भवति चतुर्विशत्यधिकैकशतसंख्यकानि पर्वाणि एकस्मिन् युगे भवन्तोति भावः, 'इति मक्खायं' इत्याख्यातं इति कथितं सर्वैः पूर्वतीर्थकरैर्म या चेति सूत्रार्थः ॥३॥ युग संवत्सरयन्त्रम् सं.-सं. | संवत्सरनामानि | मास संख्या | पर्व संख्या ! अहोरात्र संख्या | द्वाषष्टिभाग संख्या चान्द्रः ھ بر س ३८३ م س संकलन १२४ ३५४ अभिवद्धितः चान्द्रः ३५४ अभिवद्धितः ३८३ ६२ १२४ १८२८ द्वापष्ठि भाग समेलनेन १८३० अहोरात्राणि युगस्य अथ कस्मिन् अयने कस्मिन् वा मण्डले किं पर्वपरिसमाप्तिमुपैतीति विचारणायां वृद्धोक्ता श्चतस्रः पर्वकरणगाथा अत्र प्रदर्श्यन्ते "इच्छपव्वेहि गुणिउं अयणं रूवऽहियं तु कायव्वं । सोज्झं च हवइ एत्तो, अयणक्खेत्तं उडुवइस्स ॥१॥ जइ अयणा सुझंति, त्तइपव्वजुया उ रूवसंजुत्ता। तावइयं तं अयणं, नत्थि निरंसंमि रूवजुयं ॥२॥ कसिणंमि होइ रूव,-प्पक्खेवो दो य होंति भिन्नंमि । जाइया तावइया, एए ससिमंडला होति ॥३॥ ओयंमि उ गुणकारे, अभितरमंडले हवइ आई । ..जुग्गं मिय गुणकारे, बाहिरगे मंडले आइ ॥४॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू. ३ द्वितीयुगपत् निरूपणम् ३७७ छाया - इच्छापर्वभिर्गुणयित्वा अयनं रूपाधिकं तु कर्त्तव्यम् । शोध्यं च भवति अस्मात् अयनक्षेत्रं उडुपतेः ||१॥ यावन्ति अयनानि शुद्धयन्ति तावत्पर्वयुतानि तु रूपसंयुक्तानि । तावत्कं तद् अयनं नास्ति निरंशे रूपयुतम् ॥२॥ कृत्स्ने भवति रूप प्रक्षेपः द्वौ च भवतः भिन्ने । यावत्कानि तावत्कानि, एतानि शशिमण्डलानि भवन्ति ॥३॥ ओजसितु गुणकारे, अभ्यन्तरमण्डले भवति आदि: । युग्मे च गुणकारे अभ्यन्तरमण्डले भवति आदिः || ४ || आसां गाथानां क्रमेण संक्षेपतो व्याख्या क्रियते - 'इच्छापव्वे हिं' इच्छापर्वभिः यस्मिन् पर्वणि अयनमण्डलादि ज्ञातु मिच्छेत् तद् 'इच्छापव्वेहिं' स्वेच्छितपर्वभिः 'गुणेउं ' गुणयित्वा क्रिमिति ? ध्रुवराशिम् । अथ कोऽसौ ध्रुवराशिरिति ध्रुवराशिः प्रदर्श्यते - अत्र ध्रुवराशिप्रतिपादिका गाथा प्रोच्यते - "एगंच मंडल मंडलस्स सत्तट्ठभाग चत्तारि । नव चेव चुण्णियाओ, इगतिसकरण छेएन ॥ १ ॥ " अस्य छाया - एकं च मण्डलं मण्डलस्य सप्तषष्टि भागश्चत्वारः । नव 'चैत्र चूर्णिका भागाः, ऐकत्रिंशत्कृतेन छेदेन ॥१॥ इति । अस्या अयमर्थः - एकं मण्डलम् एकस्य च मण्डलस्य चत्वारः सप्तषष्टिभागाः, तथा ४ 의원 ६७३१ एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकत्रिंशत्कृतेन छेदेन नव चूर्णिका भागाः (१ ) इति गाथार्थः । एतत्प्रमाणो ध्रुवराशिः स्थाप्यते । अयं च पर्वगतक्षेत्राद् अयनगतक्षेत्रस्यापगमे शेषी भूतो वर्त्तते । अस्योत्पत्तिरग्रे वक्ष्यते । तत एवम्भूतं ध्रुवराशि इच्छा पर्वभिः इच्छितपर्वभिर्गुणयित्वा तत्पश्चात् 'अयणं रूवाहियं तु कायव्वं' अयनं रूपाधिकं तुकर्त्तव्यम् एकं रूपमयने प्रक्षेपणीय मित्यर्थः । एवं गुणितस्य मण्डलराशे यदि चन्द्रस्यायनक्षेत्रंपरिपूर्णमधिकं वा संभाव्यते तदा 'सोज्झं च हवइ एत्तो' एतस्माद् इच्छितपर्वसंख्या गुणितात् मण्डलराशेः 'अयणक्खेत्तं उडुवइस्स' उडुपतेः चन्द्रस्यायनक्षेत्रं शोध्यं भवति ॥ १ ॥ ' जइ ' इत्यादि । 'ज' यावन्ति यावत्संख्यकानि अयनानि 'सुज्झंति' शुद्धयन्ति 'तइपव्वजुयाइ ' तावत्संख्यकपर्वयुतानि कृत्वा भूयः 'रूवसंजुत्ता' रूपयुक्तानि एकरूपयुक्तानि च अयनानि क्रियन्ते । एवं करणे यावत्कं भवति 'तावइयं तं अयणं' तावत्कमेव तदयनं विज्ञेयम् 'नत्थि निरंसंमि रूव जुयं नास्ति निरंशे रूपयुक्तं तत्कर्त्तव्यम् । यदि पुनः परिपूर्णानि ४८ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे मण्डलानि शुद्धयन्ति राशिश्च पश्चान्निर्लेपो जायते तदा तदयनसंख्यानं निरंशं सद् रूपयुक्तं नास्ति, तत्र निरंशेऽयनराशौ रूपं न प्रक्षिप्यते इति भावः ॥२॥ 'कसिणं मि' इत्यादि 'कसिणंमि' कृत्स्ने परिपूर्णे राशौ रूपप्रक्षेपो भवति मण्डलराशौ एकं रूपं प्रक्षेपणीयं भवती तिभावः । 'भिन्नंमि' भिन्ने खण्डे भिन्नराशौ अंश सहिते राशौ सति मण्डलराशौ 'दो य होंति' द्वे रूपे प्रक्षेपणीये भवतः । प्रक्षेपेच कृते सति 'जावइया' इति यावन्ति मण्डलानि भवन्ति, यावान् मण्डल राशिर्भवतीत्यर्थः 'तावइया' तावन्ति एत नि राशिमण्डलानि इच्छिते पर्वणि भवन्ति ॥३॥ तथा 'ओयंमि उ' इत्यादि, 'ओयंमि गुणका' ओजसि विषभे गुणकारे सति, यदि इच्छितेन पर्वणा ओजो रूपेण विषमलक्षणेन गुणकारी भवेत्तदा 'अन्भितरमंडले हवइ आई' अभ्यन्तरमण्डले आदिष्टव्यः । अथ च 'जुग्गंमि य गुणाकारे' युग्मे चेति समसंख्यके गुणकारे सति, यदि इच्छितेन पर्वणा समलक्षणेन समसंख्यकपर्वणा गुणकारो भवेत्तदा 'बाहिरगे मंडले आई'-बाह्ये मण्डले आदिर्विज्ञेयः ॥४॥ इतिकरणगाथाऽक्षरार्थः ॥ अथैतेषां भावनाप्रकारः प्रदर्श्यते-अथ कोऽपि च्छेत् यत् युगादौ प्रथमं पर्व कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले समाप्तिमेति ? तत्र प्रथमं पर्व पृष्टमितिवामपार्श्व पर्वसूचक एकरूपोऽङ्कः स्थापनीयः, ततस्तयैव अनुश्रेणिदक्षिणपार्श्वे जयनसूचक एककः स्थाप्यते, तस्य चानु श्रेणि मण्डलसूचक एककः स्थापनीयः, तस्य मण्डलस्य चाधस्तात् चत्वारः सप्तषष्टि भागाः स्थायाः तेषामायधस्तात् नव एकत्रिंशद्भागाः स्थापनीयाः यथा-(. पर्व, अयनं मण्डलम् १-४ ९ - एष पर्वोऽपि ध्रुव राशि रस्ति तत एक संख्यकमयनमेन इच्छितेन पर्वणा गुण्यते जातमेकमेव, ३१ ततः 'अयणं रूवाहियं च कायव्वं' इति वचनात् एकक लक्षणेऽयनराशौ एकं रूपं प्रक्षिप्यते जातं द्विकम्, एतच्च एककलक्षणात् मण्डलराशेर्न शुद्धः ति ततः 'दोयहोति भिन्नमि' इति वचनात् भिन्ने खण्डे मण्डलराशौ वेरूपे प्रक्षिप्यते जातो म डलराशिस्निकरूपः तदेव मागतं प्रथम पर्व(२ अयनं ३ तृतीय-मण्डलस्य ( ) द्वितीयेऽयने, तृतीयस्य मण्डलस्य 'ओयंमि गुणकारे अभितरमंडले हवइ आई' ओजसि विषमे गुणकारे अभ्यन्तरमण्डले आदि भवतीति वचनात् अत्र एककरूप विषमाङ्कत्वेन अभ्यन्तरवर्तिनः अभ्यन्तरवत्तिं तृतीयमण्डलस्य चतुर्षु सप्तषष्टिभागेपु, एकस्य च सप्तपष्टि भागस्य नवसु एकत्रिंशद्भागेषु(२ अयने ३ तृतीयमण्डलस्य ।- गतेषु समाप्ति पुपैनोति । अयनंचात्र चन्द्रस्य विज्ञम् । तच्च चन्द्रायणं युगस्यादौ ३१ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू.३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३७९ प्रथममुत्तरायणं, द्वितीयं दक्षिणायनमिति द्वितीये दक्षिणे चन्द्रायणे अभ्यन्तरवर्त्तिनस्तृतीयस्य मण्डलस्येति विज्ञेयम् १ | तथा अन्यः कोऽपि पृच्छति अत्र द्वितीयं पर्व पृष्टमिति स एव प्रा देतीयं पर्व कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले समाप्तिमेति ? समस्तोsपि अ. म. ९. प्रोक्तो ध्रुवराशि : ( > १-१- ६७/३ मण्डले, अष्टौ सप्तषष्टिभागाः, अष्टादश एकत्रिंद्भागाः ८। १८) इति, 'अपणं रूवाहियं तु कायव्वं' अयनं रूपाधिकं तु कर्त्तव्यम्, द्वाभ्यां गुण्यते ततो जाते हे अयने, हे अ. ० २- २ - ६९ ३१ अ. इति वचनात् द्विकरूपेऽयने एक प्रक्षिप्यते जातं त्रिकम् ( - ) एतदयनं च मण्डलराशेस्तो ३ कत्वान्न शुद्धयति, ततः 'दो य होंति भिन्नंमि' इति वचनात् भिन्ने- खण्डेऽस्मिन् द्विकरूपे मण्डलराशौ द्वे प्रक्षिप्येते ततो जातश्चत करूपो मण्डल राशि : ( ४ ) ततः समागतं द्वितीयं पर्व तृतीयेऽयने चतुर्थस्य मण्डलस्य 'जुग्गीम य गुणकारे बाहिरगे मंडले हवइ आई' युग्मे च गुणकारे बाह्ये मण्डले भवति आदि:, इति वचनात् अत्र द्विकरूपसमराशित्वेन बाह्यमण्डला दर्वाग् वर्तिनो मण्डलस्य अष्टसु सप्तषष्टिभागेषु, एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य अष्टादशसु एक त्रिंशद्भागेषु (३–४–८ १८) गतेषु परिसमाप्तिं समुपैति २। ६७३१ (६) एवं चतुर्दशपर्वप्रश्नविषये ध्रुवराशि: ( १ - ११ ६ ) चतुर्दशभिर्गुण्यगुण जातानि अयनानि चतुर्दश (१४) पट् पञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः (५६) षड्विंशत्यधिकमेकं शतं च एकत्रिंशद्भागाः [१४-१४- १६. अत्र एकत्रिंशाद्भागाः [१२६] एकत्रिंशतोऽधिकत्वाद् एकत्रिंशता विभज्य लब्धाङ्काः सप्तषष्टिभागेषु प्रक्षेप्याः, शेषा चूर्णिका भागा ज्ञातव्याः, इति गाणि - तेन षड्विंशत्यधिकैकशतस्य एकत्रिंशता भागो हियते, लब्धाश्चत्वारः सप्तषष्टिभागा शेषौ द्वौ चूर्णिका भागौ तिष्ठतः, चत्वारो लब्धाङ्काः उपरितने षट्पञ्चाशद्रूपे सप्तषष्टिभागराशौ प्रक्षिध्यन्ते जाताः षष्टिः सप्तषष्टि भागाः, तत आगत एष राशि:- [१४- १४ - ६ २] इति । ६७३१ ततः चतुर्दशभ्यश्च मण्डलेभ्यस्त्रयोदशभिर्मण्डलैस्त्रयोदश भिश्च सप्तषष्टिभागैरयनं शुद्धं तेन पूर्वाण्ययनानि चतुर्दशसंख्यकानि युतानि क्रियन्त, ततः 'अयणं ख्वाहियं तु कायव्वं' अयनं रूपाधिकं Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ-म. ४ ९ ३८० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे तु कर्त्तव्यम्, इति वचनात् भूयोऽपि तत्रैकं रूपं प्रक्षिप्यते, जातानि षोडश अयनानि, सप्तषष्टि भागाश्च चतुष्पञ्चाशत् [५४] मण्डलराशौ उद्धरितास्तिष्ठन्ति, ते षष्टिरूपे सप्तषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते जाताश्चतुर्दशोत्तरशतसंख्यकाः [११४] अस्य सप्तषष्ट्या भागो हियते लब्धमेकं मण्डलम् पश्चात् सप्तचत्वारिंशत् [४७] सप्तषष्टि भागास्तिष्ठन्ति, ततः ‘दो य होति भिन्नमि' द्वे च भवतो भिन्ने [प्रक्षेपणीये] इति वाचनातू मण्डलराशौ द्वे प्रक्षिप्येते जातानि त्रीणि मण्डलानि, चतुर्दशभिश्चात्र गुणितं कृतम् चतुर्दशराशिश्च यद्यपि युग्मरूपस्तथाऽप्यत्र मण्डलराशेरेकमयनमधिकं प्रवेष्टमितेत्रीणि मण्डलानि अभ्यन्तमण्डलादारभ्य द्रष्टव्यानि, तत आयातम् – षोडशेऽयने अभ्यन्तरमण्डलादारभ्य तृतीये मण्डले सप्त चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागेषु व्यतीतेयु, एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य द्वयोरेक त्रिंशद्भागयोर्व्यतीतयोः सतोतुर्दर्श पर्व समाप्तिमुपयातीति ।१४। अथ द्वाषष्टितमपर्वेविषये प्राह-अत्र कोऽपि पृच्छति द्वाषष्टितमं पर्व कस्मिन्नयने कस्मिंश्च मण्डले समाप्तं भवतीति । अत्रापि स पूर्वोक्तो ध्रुवराशि:-( १-१ ६७३११ -- ) द्वाषष्टि पर्वविषये पृष्टमिति ध्रुवराशिषिष्टया गुण्यते जातानि द्वाषष्टिरयनानि, द्वाषष्टिरेव मण्डलानि एकेन गुणिते तदेव भवतीति वचनात्, चतुणां सप्तपष्टिभागानां द्वाषष्टया गुणने जाता अष्टचत्वारिंशदधिक द्विशतसंख्यकाः (२४८) सप्तषष्टिभागाः, नवानामेकत्रिंशद्भागानां द्वाषष्टिया गुणने जाता अष्टपञ्चाशदधिक पञ्चशत संख्यका एकत्रिंशद्भागाः (६२-६२.२४८/१९८)। प्रथममष्टपञ्चाशदधिकानां पञ्चशतानामेकत्रिंशद्भा गानां सप्तषष्टि भागानयनार्थमेकत्रिंशता भागो ह्रियते लब्धाः परिपूर्णा अष्टादश सप्तपष्टिभागाः, एते उपरितने अष्टचत्वारिंशदधिकशतद्वयरूपे (२४८) सप्तषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते जाते षट् षष्टयधिके द्वे शते (२६६) सप्तपष्टिभागानाम् (६२-६२-२६६ ) । उपरि च यानि द्वाषष्टि मण्डलानि सन्ति तेभ्योऽयनस्य मण्डलसत्कत्रयोदशसप्तपष्टिभागयुक्तत्रयोदशमण्डलात्मकत्वेन द्विपञ्चाशता मण्डलैः एकस्य च मण्डलस्य द्विपञ्चशता सतषष्टि भागै(५२-१२) श्चत्वारि अयनानि लब्धानि, तान्ययनराशौ प्रक्षिप्य ते जातानि षट्षष्टिरयनानि (६६) पश्चात्तिष्ठन्ति नवमण्डलानि, एकस्य मण्डलस्य च पञ्चदश सप्तषष्टिभागाः (९-११) । एते पञ्चदश सप्तषष्टिभागाः सप्तषष्टिभागराशौ । (२६६) प्रक्षिप्यन्ते जाते एकाशीत्यधिके द्वे शते (२८१) अस्य राशेः सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धानि चत्वारि मण्डलानि, शेषास्तिष्टन्ति त्रयोदश सप्तषष्टिभागा मण्डलस्य, एते च मण्डलराशौ प्रक्षिप्य ५ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा०प्रा.२० सू.३ . द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३८१ म्ते, जातानि त्रयोदश मण्डलानि, त्रयोदशमण्डलैः त्रयोदशभिश्च सप्तषष्टिभागः (१३-१२) परिपूर्णमेकमयनं लब्धमिति तदयनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि सप्तषष्टिः (६७) अयनानि, 'नत्थि निरंसंमि रूव जुयं' इति वचनादयनराशौ रूपं न प्रक्षिप्यते, केवलं ‘कसिणंमि होइ रूवपक्खेवो' इति वचनान्मण्डले एकं रूपं न्यस्यते, द्वाषष्टया च गुणकारः कृत इति द्वाषष्टि राशि युग्मोऽस्ति, यान्यपि च चत्वार्ययनानि तान्यपि युग्मरूपाणि, रूपं चात्राधिकमेकं न प्रक्षिप्तमिति पञ्चममयनं तत्स्थाने द्रष्टव्यमित्यत्र बाह्यमण्डलमादिर्विज्ञेयम्, तत आयातम्-सप्तषष्टावयनेषु परिपूर्णेषु व्यतीतेषु बाह्यमण्डले प्रथमरूपे परिसमाप्ते सति द्वाषष्टितमं पर्व परिपूर्णतां प्राप्तमिति ।६२। अनेन रीत्या यथेच्छितानि सर्वाणि संयोज्य कर्तव्यानि परिभावनीयानि वा अथ जिज्ञासुजनानुग्रहाय पर्वायनप्रस्तारोऽत्र लेशतः प्रदर्श्यते - प्रथमं पर्व द्वितीयेऽयने तृतीये मण्डले, तृतीयस्य मण्डलस्य चतुषु सप्तषष्टिभागेषु, एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य नवसु एकत्रिंशद्भागेषुय.-म.-मं. -) गतेषु समाप्तमिति ध्रुवराशि कृत्वा पर्वायनमण्डलेषु प्रत्येकमेकैकं (१-२-३-६७/३१ रूपं प्रक्षेपणीयम्, भागेषु च तावत्संख्याका भागा प्रक्षेप्तव्याः, जात एतावान् राशि:-द्वे पर्वे त्रीणि अयनानि, चत्वोरि मण्डलानि, अष्ट सप्तपण्टिभागाः, अष्टादश एकत्रिंशद्भागाःप.-अ. म. ८ |१८) इति । मण्डले चायनक्षेत्रे परिपूर्ण त्रयोदश मण्डलानि, एकस्य च मण्ड(२-३-४-६७३१ त । मण्डल चायनक्षेत्रे परिपूर्ण त्रयोदश मण्डलानि, एकस्य च लस्य त्रयोदशसप्तषष्टिभागा (१३- १२), एतावत्प्रमाणमयनक्षेत्रं शोधयित्वाऽयनराशौ प्रक्षेपणीयम् , अनया रीत्याऽग्रे वक्ष्यमाणप्रस्तारः सम्यक्तया विचारयितव्यः । स प्रस्तारश्चायम्प्रथमं पर्व द्वितीयेऽयने, तृतीये मण्डले, तृतीयस्य मण्डलस्य चतुर्षु सप्तषष्टि भागेपु, एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य नवसु एकत्रिंशद्भागेषु,... सप्तपाष्टमागत्य न - गतेषु समाप्तम् १ द्वितीयं पर्व-तृतीयेऽ (२-३-६७३१ यने चतुर्थे मण्डले, चतुर्थस्य मण्डलस्य च अष्टसु सप्तपष्टिभागेषु, एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य अष्टादशसु एकत्रिंशद्भागेषु ३-४ -१८ गतेषु समाप्तम् २ । तृतीयं पर्व-चतुर्थेऽयने, पञ्चमे मण्डले, पञ्चमस्य मण्डलस्य च द्वादशसु सप्तषष्टि भागेषु, एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य सप्तविंशतौ एकत्रिंशद्भागेषु गतेषु समाप्तम् ३ । चतुर्थे पर्व पञ्चमेऽयने, षष्ठे मण्डले ४--५-६७३१ षष्ठस्य मण्डलस्य च सप्तदशसु सप्तषष्टि भागेषु, एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य पञ्चसु एकत्रिंशद्भागेषु ५-६ १७ गतेषु समाप्तम् ४) पञ्चमं पर्व-षष्ठेऽयने, सप्तमे मण्डले, सप्तमस्य ६७/३१ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફૂ૮૨ २१ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे मण्डलस्य एकविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु, एकस्य च सप्त५ ष्टभागस्य चतुर्दशसु एकत्रिंशद्भागेषु ६-७-२१ १४ गतेषु समाप्तं भवति ५, ६७ ३१ एवमग्रेऽपि गतपर्वणः-अयन-मण्डल-सप्तपष्टि भागै कत्रिंशद्भागेषु-एककम् १, एककम् १, चत्वारः ४, नव ९, च (१-१-४-९) इत्येवं रूपो ध्रुवराशिोऽग्रे प्रत्येकस्मिन् संमेलनेन आगामि पर्वणः अयनादि सर्वं समायाति । तत्र एकत्रिंशद्भागा यदि-एकत्रिंशतोऽधिका भवेयुस्तदा तत्संख्याया एकत्रिंशता भागं हृत्वा लब्धाङ्क एककरूपः पूर्वस्थिते सप्तषष्टि भागराशौ प्रक्षेप्तव्य, ये शेषास्ते एकत्रिंशद्भागा अवसेयाः । एवं यदि सप्तषष्टि भागाः सप्तषष्टितोऽधेका भवेयुस्तदा सप्तषष्टया भागं हृत्वा लब्धाङ्क एककरूपः पूर्वस्थिते मण्डलराशौ प्रक्षेप्तव्यः, ये शेषा ते सप्तषष्टि भागा अवसेयाः एवं यदि मण्डलानि त्रयोदशतोऽधिकानि भवेयुस्तदा अयनस्य त्रयोदः सप्तषष्टिभागयुक्ता त्रयोदशमण्डलात्मकत्वेन मण्डलानां सप्तपष्टिभागानां च प्रत्येकं त्रयोदशेन भागं इत्वा मण्डल भागलब्धाङ्क एककरूपोऽयनराशौ प्रक्षेप्तव्यः, ततः सप्तपष्टिभागानां त्रयोदशेन भागे हुते ये लब्धाङ्कास्ते मण्डलराशौ प्रक्षेतव्याः तयो ईयोः शेषाङ्कलभ्यो मण्डलराशिः सप्तष्टि भागराशिश्चावसेयः । इत्येवमग्रे सर्वत्र योजना कार्या । अत्र पञ्च पर्वाणि तु व्याख्यायामपि प्रदर्शितान्येव । पर्व योजनायाः सुखावबोधार्थ पञ्च दशपर्वात्मकं कोष्ठकं स्थाप्यते, तत्र विलोकनीयम् अग्रे च स्वयमूहनीयमिति । तच्चेदं कोष्ठकम्-- ____ "पर्व समाप्तौ अयनादिकोष्ठकम् ।" पर्व संख्या अयनानि मण्डलानि सप्तषष्टि भागाः एकत्रिंशद्भागा ९-प्रक्षेप्यो राशिः . . c A Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १० प्रा. प्रा. २० सू० ३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३८३ अथ किं पर्वं कस्मिन् च द्रनक्षत्रयोगे समाप्ति मेतीति विचारणायां वृद्ध सम्प्रदायोक्तास्तिस्रः करणगाथाः प्रदश्यन्ते "चउवीससयं काऊण पमाणं सत्तद्विमेव फलं । ... इच्छापव्वेहिं गुणं, काऊणं पज्जया लद्धा ॥१॥ अट्ठारसहि सएहिं तीसेहिं सेसगम्मि गुणियम्मि । तेरस बिउत्तरेहि, सएहिं अभिइम्मि सुद्धम्मि ॥२॥ .. सत्तद्विबिसट्ठीणं, सव्वागणं तओ उ जं सेसं । तं रिक्खं नायव्वं, जत्थ समत्थं हवइ पव्वं ॥३॥ छायाः-चतुर्विं शशतं कृत्वा प्रमाणं सप्तषष्टिमेव फलम् । इच्छापर्वभिर्गुणं कृत्वा पर्यायाः लब्धाः ॥१॥ अष्टादशभिः शतैः त्रिंशता (अधिकैः) शेषके गुणिते । त्रयोदशभिः द्वयुत्तरैः शतैः अभिजिति शुद्धे ॥२॥ सप्तषष्टि द्वाषष्टयों: सर्वाग्रेण ततस्तु यत् शेषम् । तद् ऋक्षं ज्ञातव्यं, यत्र समाप्तं भवति पर्व ॥३॥इति । आसां भावमधिकृत्य संक्षेपतो व्याख्या क्रियते-त्रैराशिकविधौ ‘चउवीससयं पमाणं काऊण' चतुर्विशत्यधिकं शतं प्रमाणराशिं कृत्वा 'सत्तट्टिमेव फलं' सप्तषष्टि रूपं फलराशि कृत्वा 'इच्छापव्वेहि इच्छितपर्वभिः स्वेप्सितपर्वभिः यानि पर्वाणि ज्ञातुमिच्छेत् तैः 'गुणं काऊणं" गुणं गुणकारं कृत्वा विधाय आधेन चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण राशिना भागे हृतेऽङ्का लभ्यन्ते ते 'पज्जया लद्धा' पर्यायाः लब्धा ति ज्ञातव्यम् , ॥१॥ 'सेसगम्मि गुणियम्मि' यः पुनः शेषो राशिरवतिष्ठते तस्मिन् 'अट्ठारसहिं सएहिं तोसेहिं त्रिंशदधिकै रष्टादशभिः शतै गुणिते सति ततः 'तेरस बिउत्तरेहिं सएहि' द्युत्तरत्रयोदशभिः शतैः 'अभिइम्मि सुद्धम्मि' अभिजिति शुद्धे, अयं भावः-अभिजित् शोधनीयः अभिजिन्नक्षत्रस्य भोग्यानामेकविंशतिसप्तषष्टिभागानां द्वाषष्ट्या गुणने एतावत एव (१३०२) शोधनकस्य लभ्यमानत्वात् , ततस्तस्मिन् शोधने ॥२॥ 'सत्तट्टि बिसट्ठिणं' सप्तषष्टि द्विषष्टीनां सप्तषष्टि संख्यका या द्विषष्ट्यस्तासां 'सव्वग्गेणं' सर्वाग्रेण 'तओ उ जं सेसं' ततस्तु यत् शेषम् , अयं भावः-सप्तषष्ट्या द्विषष्टौ गुणित यां यो राशिर्भवति तेन राशिना भागे हृते यद् लब्धं यो राशिर्लभ्यते तद्राशि प्रमाणानि नक्षत्राणि शुद्धानि, इति विज्ञेयम् , यत्पुनर्भागहरणात् शेषमवतिष्ठते 'तं रिक्खं नायव्यं तद् ऋक्षं-नक्षत्रं ज्ञातव्यं 'जत्थ समत्तं हवइ पव्वं' यत्र विवक्षितं पर्व समाप्तं भवति, तत् पर्वं समाप्ति नक्षत्रं ज्ञातव्यमिति भावः ॥३॥ एषा करणगाथानां भावतो व्याख्या ॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे अथ करणगाथानां भावमाश्रित्य गणितेन भावना क्रियते सा चेत्थम्--अत्र त्रैराशिकं यथा-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन (१२४) सप्तषष्टिः (६७) पर्याया लभ्यन्ते तदा एकेन (१) पर्वणा किं लभ्यते ? राशित्रयस्थापना । १२४६७।१। अत्रायं नियमः-अन्त्येन राशिना मध्यराशिं गुणयित्वा स आद्यराशिना विभाज्यः । एतन्नियमानुसारेण अन्त्येन एककरूपेण राशिना मध्यराशिः सप्तषष्टिरूपो गुण्यते, 'एकेन गुणितं तदेव भवति' इति न्यायात् जाता सप्तषष्टिरेव (६७) अस्य आयेन चतुर्विंशत्यधिकशतरूपेण (१२४) राशिना भागो हरणीयः, स च स्तोकत्वाद्भागो न हियते, ततो नक्षत्रानयनार्थम्-'अट्ठारसहिं सएहिं तीसेहिं गुणियम्मि' इति द्वितोयगाथोक्तवचनात् त्रिंशदधिकरष्टादशभिः शतैः (१८३०) सप्तषष्टिभागरूपैः सप्तषष्टे गुणकारः कर्तव्यो भवेत् , ततोऽङ्कानामाधिक्येन भूयमानत्वादर्धे नाऽपर्तनां कृत्वा गुणयितव्या सप्तषष्टिः, ततोऽस्य गुणकारराशेः (१८३०) चतुर्विंशत्यधिकशत (१२४) रूपस्य छेद राशेश्वार्द्धनापवर्तना कर्तव्या जातो गुणकारराशिः पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि (९१५) छेदराशिश्च द्वाषष्टि संख्यो (६२) जातः, अथ सप्तषष्टिः पञ्चदशोत्तरनवशर्ते गुण्यते जातानि-एकषष्टिः सहस्राणि, त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि (६१३०५) एतस्मादभिजिन्नक्षत्रस्य द्वयुत्तराणि त्रयोदश शताणि (१३०२) शुद्धानि, स्थितानि शेषाणि त्र्युत्तराणि षष्टिसहस्राणि (६०००३), अपवर्तनालब्धो द्वाषष्टिरूपः (६२) छेदराशिः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि एकचत्वारिंशच्छतानि (४१५४) तैर्भागो हियते लब्धाश्चतुर्दश (१४), तेन श्रवणादीनि पुष्य पर्यन्तानि चतुर्दशनक्षत्राणि शुद्धानि, यानि शेषाणि सप्तचत्वारिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८४७) स्थितानि तानि मुहूर्तानयनाथै त्रिंशता गुणने जातानि-दशोत्तरचतुःशताधिकानि पञ्चपञ्चा. शत्सहस्राणि (५५४१०), एषां पुनश्चतुष्पञ्चाशदधिकैकचत्वारिंशच्छतैः (४१ ५४) भागो हियते लब्धास्त्रयोदश (१३) मुहूर्ताः, भागे हृते यानि अष्टोत्तराणि चतुर्दशशतानि (१४०८) शेषाणि तिष्ठन्ति । तानि द्वाषष्टि भागानयनाथ द्वाषष्टया गुणयितव्यानि भवन्ति, ततोऽधिकाङ्कानां स्वल्पाङ्ककरणार्थ गुणकारच्छेदराश्यो षिष्टयाऽपवर्तना क्रियते अपवर्तना अपर्कषः द्वाष्टया भागं हृत्वा लब्धाङ्करूपः स्वल्पाको राशिः क्रियते इति भावः, एवं कृते गुणकारराशे षष्टे षष्ट्या भागे हृते एककरूपो लब्धः, एवं चतुष्पञ्चाशदधिकैकचत्वा रिंशच्छतरूपस्य (४१५४) राशे षष्टयाऽपवर्तिते भागे हृते इत्यर्थः छेदराशि सप्तषष्टिरूपो लब्धस्तेन गुणकार राशिरेककः (१) छेदराशिः सप्तषष्टिरूपो लब्धस्तेन गुणकार राशिरेककः (१) छेदराशिः सप्तषष्टि (६७) जातः तत एककेन गुणकारराशिना गुणितः उपरितनः अष्टोत्तरचतुर्दशशत (१४०८) रूपो राशि र्जातस्तावानेव (१४०८) अस्यापवर्तित सप्तषष्टया भागो ह्रियते, हृते च भागे लब्धा एकविंशतिः (२१) शेषस्तिष्ठत्येकः, स च एकस्य द्वाषष्ठिभागस्य एकः सप्तषष्टि भागोऽस्ति, तत आगतं यत् प्रथमं पर्व अश्लेषायास्त्रयोदश मुहूर्तान् , एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशति Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६७ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू. ३. द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३८५ द्वाषष्टिभागान्, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकसप्तषष्टिमार्ग--(१३-२१२- ) भुक्त्वा समाप्तिमुपगतमिति । एवम्-अश्लेषानक्षत्रस्य एतावत्परिमित मुहूर्त्तादि प्रमाणे चन्द्रेण सह योगे समाप्ते सति प्रथमं पर्व समाप्तिमेतीति ज्ञातव्यम् १।। अथ यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन (१२४) सप्तषष्टिः पर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किवल्लभ्यते, एतदपि त्रैराशिकं गणितं जायते, तथाहि राशित्रयस्थापना- । १२४ । ६७ । २। अत्रापि अन्त्येन राशिना मध्यमो राशिर्गुण्यते, जातं चतुस्त्रिंशदधिकं शतमेकम् (१३४), वस्व आयेन चतुर्विंशत्यधिकशतरूपेण राशिना भागो हियते, लब्ध एको नक्षत्रपर्यायः, शेषा स्थिताः दश, तत एते नक्षत्रानयनार्थ त्रिंशदधिकैरष्टादशशतैः (१८३०) सप्तषष्टिभागै र्गुणयिसम्बा भवन्तीत्यत्रापि गुणाकारच्छेदराश्योरर्धेनापवर्तना कर्त्तव्या, तेन जातो गुणकारराशिः पञ्चादशोत्तराणि नवशतानि (९१५) छेदराशिश्च द्वाषष्टि (६२) भवति । तत्र दशरूपो राशिः पञ्चादशोत्तरैर्नवभिः शतैः (९१५) गुण्यते, जातानि पञ्चाशदधिकानि एक नवतिशतानि (९१५०)। एभ्यो दयुत्तराणि त्रयोदशशतानि (१३०२) अभिजिन्नक्षत्रस्य शोध्यानि, शोधिते च स्थितानि शेषाणि अष्टचत्वारिंशदधिकानि अष्टसप्ततिशतानि (७८४८)। तत्र द्वाषष्टिरूपश्चेदराशिः सप्तषष्टया गुण्यते, जातानि चतुष्पश्चाशदधिकानि एकचत्वरिंशच्छतानि (४१५४) एतैर्भागो हियते, लब्धमेकं नक्षत्रं. श्रवणरूपम्, शेषाणि यानि चतुर्नवत्यधिकानि षट् त्रिंशच्छतानि (३६९४) तिष्ठन्ति तानि मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातम्-एक लक्षं, दशसहस्राणि, अष्टौ शतानि विंशत्युत्तराणि (११०८२०,) एषां छेदराशिना भागो हियते, हृते च भागे लब्धाः षड्विंशतिर्मुहूर्ताः २६ , शेषाणि यानि षोडशोत्तराणि अष्टाविंशतिशतानि (२८१६) तिष्ठन्ति तानि द्वाषष्टिभागानयनार्थ द्वाषष्टय गुणनीयानीति गुणकारछेदराश्यो षिष्टयाऽपवर्तना कर्त्तव्या, तेन जातो गुणकारराशिरेककरूपः (१) छेदराशिश्च सप्तषष्टिः । तत्रैकेन गुणित उपरितनो राशिः षोडशोत्तराष्टाविंशतिशतरूपो जातस्तावानेव (२८१६), अस्य सप्तषष्ट्या भागे हते लब्धा द्वाचत्वारिंशत् (४२) द्वाषष्टिभागाः, शेषौ स्थितौ द्वौ तौ च एकस्य द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ, तत आगतम् द्वितीय पर्व धनिष्ठानक्षत्रस्य षड्विंशतिं मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्तस्य द्वि चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागान् , एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ (२६-0-) भुक्त्वा समाप्तिमुपयातीति । एवं धनिष्ठानक्षत्रस्य एतावत्परिमितमुहर्तादि प्रमाणे चन्द्रेण सह योगे समाप्ते सति द्वितीय पर्व परिसमाप्तिमुपगच्छतीति विज्ञातव्यम् । २। ___ एवं शेषेष्वपि युगार्धम् द्विषष्टिपर्यन्तेषु पर्वसु सर्वाणि पर्वसमाप्ति नक्षत्राणि भावनीयानि । तत्समाहिकाश्चेमा पञ्च गाथा: Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ wwwm mintiimimmmmmmmm चन्दमानिस "सप्प १ धणिवा २ अज्जमइ ३ अभिवुइढि ४ चित्त ५ आस ६ दग्गी ८ । रोहिणिए ८ जिट्ठा ९ मिगसिर १०, विस्सा ११ ऽदिति १२ सवण १३ पिउदेवा १४॥१॥ अज १५ अज्जम १६ अभिवुड्डी १७ चिचा १८ आसो १९ तहा विसाहाओ २०। रोहिणि २१ मूलो २२ अदा २३ वीसं २४ पुस्सो २५ धनिट्ठा २६ य ॥२॥ . . .. __भग २७ अज २८ अज्जम २९ पूसो ३०, साइ ३१ अग्गी ३२ य मित्तदेवा ३३ य । रोहिणि ३४ पुव्वा सादा ३५. पुणवस, ३६ वीसदेवा ३७ य ॥३॥ अहि ३८ बस ३९ भगा ४० ऽभिवुड्डी ४१ हत्थ ४२ ऽस्स ४३ विसाह ४४ कत्तिया ४५ जेट्टा ४६ । सोमा ४७ ऽऽउ ४८ रवी सवणो ५० पिउ ५१ वरुण ५२ भगा ५३ भिवुड्डी ५४ य ॥४॥ चित्ता ५५ ऽऽस ५६ विसाह ५७ ऽगी, ५८ मूलो ५९ अदा ६० य विस्स ६१ पुरसो य । एए जुगपुबंद्ध, विसट्ठिपव्वेसु नक्खत्ता ॥५॥ छायाः-सर्पः १ धनिष्ठा २ अर्यमा ३ अभिवृद्धिः ४ चित्रा ५ अश्वः ६ इन्द्राग्निः ७। रोहिणी ८ ज्येष्ठा ९ मृगशिरः १०, विश्वा ११ ऽदिति १२ श्रवण १३ पितृदेवाः १४ ॥१॥ अजः १५ अर्यमा १६ अभिवृद्धिः १७, चित्रा १८ अश्वः १९ तथा विशाखा २० । रोहिणी २१ मूलम् २२ आर्द्रा २३, विष्वक् २४ पुष्यः २५ धनिष्ठा २६ च ॥२॥ भगः २७ अजः २८ अर्यमा २९ पुष्यः ३०, स्वातिः ३१ अग्निः ३२ च मित्रदेवश्च ३३ रोहिणी ३४ पूर्वाषाढा ३५, पुनर्वसु ३६ विष्वग्देवाः ३७ च ॥३॥ अहिः ३८ वसुः ३९ भगा ४० ऽभिवृद्धि ४१ हस्ता ४२ ऽश्व ४३ विशाखा ४५ कृत्तिक ४५ ज्येष्ठाः ४६ । सोमः ४७ आयुः ४८ रविः ४९ श्रवणः ५०, पिता ५१ वरुणः ५२ भगः ५३ अभिवृद्धिश्च ५४ ॥४॥ चित्रा ५५ अश्वः ५६ विशाखा ५७ अग्निः ५८ मूलं ५९ आर्द्रा ६० च विष्वक् ६१ पुष्यश्च ६२। एते युग पूर्वार्द्ध, द्विषष्टि पर्वसु नक्षत्राणि ॥५॥ इति आसां व्याख्या-प्रथमस्य पर्वणः समाप्तिकाले सर्पः-सर्प देवतोपलक्षितं नक्षत्रम्अश्लेषा १ । एवं द्वितीयस्य धनिष्ठा २ । तृतीयस्वार्यमा अर्यमादेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः ३ । चतुर्थस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदा ४ । पञ्चमस्य चित्रा ५ । षष्ठस्याश्वः अश्वदेवतोपलक्षिता- अश्विनी ६ । सप्तमस्य इन्द्राग्निः इन्द्राग्निदेवतोपलक्षिता- विशाखा ७) अष्टमस्य रोहिणी ८ नवमस्य ज्येष्ठा ९। दशमस्य मृगशिरः १० । एकादशस्य विश्वा विश्वदेवतोपलक्षिता- उत्तराषाढा ११ । द्वादशस्यादितिः-अदिति देवतोपलक्षितः पुनर्वसुः १२ त्रयोदशस्य Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू. ३. द्वितययुगसंवत्सरस्वनिरूपणम् ३८७ श्रवणः १३ । चतुर्दशस्य पितृदेवा:- पितृदेवतोपलक्षिता मघा १४ । पञ्चदशस्याजःअजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभाद्रपदाः १५ षोडशस्यार्यमा अर्यमदेवतोपलक्षिना उत्तरफाल्गुन्यः १६, सप्तदशस्य अभिवृद्धिः - अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदा १७ । अष्टादशस्य चित्रा १८ । एकोनविंशतितमस्याश्वः अश्वदेवतोपलक्षिता-अश्विनी १९ | विंशतितमस्य विशाखा २० एकविंशतितमस्य रोहिणी २१ द्वाविंशतितमस्य मूलः २२ । त्रयोविंशतितमस्यार्द्रा २३ । चतुर्विंशतितमस्य विष्वकू - विष्वग् देवतोपलक्षिता उत्तराषाढा २४ । पञ्चविंशतितमस्य पुष्यः २५ । षड्विंशतितम भगः धनिष्ठा २६ । सप्तविंशतितमस्य भगः- भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वाफाल्गुन्यः २७ . अष्टा विंशतितमस्याजः - अज देवतोपलक्षिताः पूर्वभाद्रपदाः २८ एकोनत्रिंशत्तमस्यार्यमा अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः २९ त्रिंशत्तमस्य पुष्यः पुष्यदेवतोपलक्षिता रेवती ३० । एकत्रिंशत्तमस्य स्वातिः ३१ । द्वात्रिंशत्तमस्याग्निः - अग्निदेवतोपलक्षिताः कृत्तिकाः ३२ । त्रयस्त्रिंशत्तमस्य मित्रदेवामित्रनाम देवतोपलक्षिता - अनुराधा ३३ । चतुस्त्रिंशत्तमस्य रोहिणी ३४ । पञ्चत्रिंशत्तमस्य पूर्वाषाढा ३५ । षट्त्रिंशत्तमस्य पुनर्वसुः ३६ सप्तत्रिंशत्तमस्य विष्वग्देवाः - विष्वग्देवतोपलक्षिता उत्तराषाढा : ३७ । अष्टत्रिंशत्तमस्याहि :- अहि देवतोपलक्षिता अश्लेषा ३८ । एकोनचत्वारिंशत्तमस्य वसुः- वसुदेवतोपलक्षिता घनिष्ठा ३९ । चत्वारिंशत्तमस्य भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वाफाल्गुन्यः ४० । एकचत्वारिंशत्तमस्याभिवृद्धिः - अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदाः ४१ । द्वाचत्वारिंशत्तमस्य हस्तः ४२ । त्रिचत्वारिंशत्तमस्याश्वः - अश्वदेवतो - पलक्षिता - अश्विनी ४३ | चतुश्चत्वारिंशत्तमस्य विशाखा ४४ । पञ्चचत्वारिंशत्तमस्य कृत्तिका ४५ ॥ षट्चत्वारिंशत्तमस्य ज्येष्ठा ४६ । सप्तचत्वारिंशत्तमस्य सोमः- सोमदेवतोपलक्षितं मृगशिरा ४७ । अष्टचत्वारिंशत्तमस्यायुः - आयुर्देवतोपलक्षिताः पूर्वाषाढा : ४८ । एकोनपञ्चाशत्तमस्य रविः - रविनामक देवतोपलक्षिता पुनर्वसुः ४९ । पञ्चाशत्तमस्य श्रवणः ५० । एक पञ्चाशत्तस्य पिता- पितृ देवतोपलक्षिता मघा ५१ द्विपञ्चाशत्तमस्य वरुणः- वरुणदेवतोपलक्षितं शतभिषँक् ५२ त्रिपञ्चाशत्तमस्य भगः - भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः ५३ । चतुष्पञ्चाशत्तमस्या भिवृद्धिः - अभिवृद्धि देवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदा : ५४ । पञ्च पञ्चाशत्तमस्य चित्रा ५५ । षट्पञ्चाशत्तमस्याश्वः-अश्व देवतोपलक्षिता - अश्विनी ५६ । सप्तपञ्चाशत्तमस्य विशाखा ५७ । अष्ट पञ्चाशत्तमस्याग्निः - अग्निदेवतोपलक्षिताः कृत्तिकाः ५८ । एकोनषष्टितमस्य मूलम् ५९ । षष्टितमस्य आर्द्रा ६० एकषष्टितमस्य विष्वक्- विश्वग्देवतोपलक्षिता उत्तराषाढा ः ६१ । द्वाषष्टितमस्य पुष्यः ६२ । उपसंहरन्नाह - 'एए' इत्यादि, 'एए' एतानि पूर्वोक्तानि 'नक्खत्ता' नक्षत्राणि द्विषष्टि संख्यकानि जुगपुव्वद्धे' युगपूर्वार्द्ध युगस्याद्धे पूर्वभागे 'बिसहि पब्वे ' द्विषष्टि पर्वसु क्रमेण ज्ञातव्यानि ||५|| इति गाथापञ्चकार्थः ॥ एवमेव प्रागुक्तकरणवशा दुत्तरार्धेऽपि द्वाषष्टि संख्यकेषु पर्वसु एतान्येवानेनैव क्रमेण नक्षत्राणि वेदितव्यानि । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिस्त्र अथ सूर्य मण्डलान्याश्रित्य पर्व समाप्तिर्विचार्यते, यथा-कस्मिन् सूर्यमण्डले किं पर्वसमा प्तिमेतीति, अनापि करणगाथामाह__"सूरस्स वि नायव्वो, सगेण अयरेण मंडलविभागो। 'अयणम्मि उ जे दिवसा, रूवहिए मंडले हबइ ॥१॥ छाया--सूरस्यापि ज्ञातव्यः, स्वकेन अयनेन मण्डलविभागः । अयने तु ये दिवसाः रूपाधिके मण्डले भवति ॥१॥ इति अस्य व्याख्या-'मूरस्सवि' सूर्यस्यापि 'मंडलविभामे' पर्वविषयो मण्डलविभागः 'नायव्यो' ज्ञातव्यः, कथम् ! 'सगेण अयणेण' स्वकेन अयनेन, सूर्यसम्बन्धिनाऽयनेन ज्ञातव्य इति । अयं भावः-सूर्यस्य स्वकीयमयनमपेक्ष्य तस्मिन् तस्मिन् मण्डले तस्य तस्य पर्वणः समाप्तिरवधायति । तत्र 'अयणम्मि' अयने तु शोधिते सति 'जे दिवसा' ये दिवसाः शेषा उद्धरिताः अयनशोधनानन्तरं येऽवशिष्टा दिवसा स्तिष्ठन्ति तत्संख्यके 'रूवाहिए मंडले' रूपाधिके-एककरूपसहिते मण्डले 'हवइ' भवति तदीप्सितं पूर्व समाप्तं भवतीति विज्ञातव्यम् ॥ एष करणगाथासंक्षेपार्थः ॥१॥ बिस्तरार्थस्तु भावनया वेदितव्यः, सा चेत्थम्-इह यत्-अमुकं पर्व कस्मिन् मण्डले समाप्तं भवतीति ज्ञातुमिच्छेत् तदा ईप्सितपर्वसंख्या स्थाप्यते सा च पञ्चदशभिर्गुणयेत् गुणिता सा संख्या एकरूपाधिका कर्त्तव्या, ततः तदाशितः संभवतोऽवमरात्रा पात्यन्ते, ततो यदि सा संख्या त्र्यशीत्यधिकशतेन भागहरणीया भवेत् तर्हि तस्यास्त्र्यशीत्यधिकशतेन भागो हियते, हृते च भागे यानि लब्धानि तान्ययनानि ज्ञातव्यानि, भागावशिष्टा या दिवस संख्याऽवतिष्ठते तस्या अन्तिमे मण्डले यद् विवक्षित तत् पर्व समाप्तं भवतीत्यवधारणीयम् । तत्र यदि उत्तरायणं वर्तते तदा सर्वबाह्य मण्डलमादित्येन कर्तव्यम्, उत्तरायणे सर्वबाह्यं मण्डलमादिर्भवतीति भावः, यदि दक्षिणायनं वर्तते तदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमादित्वेन विज्ञेयम्, दक्षिणायने सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमादिर्भवतीति भावः । इति पर्वसमाप्त्यानयनप्रकारः प्रदर्शितः, अथ तदेव सोदाहरणं परिभाव्यते तथाहि यथा कोऽपि पृच्छेत्-युगे प्रथमं पर्व सूर्यस्य कस्मिन् मण्डले समाप्तं भवतीति । अत्र प्रथम पर्वविषयकः प्रश्न-इति-एककः (१) स्थाप्यते, स पञ्चदशभिर्गुण्यते जाताः पञ्चदश (१५) अत्रैकोऽप्यवमरात्रो न संभवतीति न किमपि पात्यते, स्थिताः पञ्चदशैव (१५) ते च पञ्चदशरूपाधिकाः क्रियन्ते जाताः षोडश १६ युगादौ च प्रथमं पर्व दक्षिणायने भवतीत्यत आगतम्-युगे प्रथम मण्डलं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादि कृत्वा षोडशे मण्डले समाप्तं जातमिति ॥१॥ ___ अथ कोऽपि पृच्छेत्-चतुर्थं पर्व कस्मिन् मण्डले परिसमाप्तिमेतीति । तत्र चतुर्थपर्वविषयकः प्रश्नः कृत इति चतुष्काऽङ्कः स्थाप्यते (४) सच पञ्चदशभिर्गुण्यते जाता षष्टिः, ६० अत्रैकोऽव. मरात्रः संभवतीत्येकोऽस्माद्राशेः पात्यते जाता एकोनषष्टि ५९ सा पुनरेकरूपयुक्ता क्रियते Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू. ३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३८९ जाता भूयोऽपि षष्टिरेवेति समागतं यत् - चतुर्थ पर्व सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादि कृत्वा षष्टितमे मण्डले समाप्तिमुपगच्छतीति ॥४। " एवं पञ्चविंशतितमपर्वविषये प्रश्ने पञ्चविंशतिधिर्यते सा पञ्चदशभिर्गुण्यते जातान पञ्चसप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि ( ३७५) । अत्र षड् अवमरात्रा जायन्ते इति पूर्वोक्तराशेः (३७५) षट्शोध्यन्ते, तिष्ठन्ति शेषाणि एकोनसप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३६९) एषां त्र्यशीत्यधिकशतेन (१८३) भागो हियते लब्धौ द्वौ (२) पश्चात्तिष्ठन्ति त्रीणि तानि रूपयुक्तानि क्रियन्ते जातानि चत्वारि, यौ च द्वौ लब्धाङ्कौ, तेन द्वे अयने दक्षिणायनोत्तरायणरूपे शुद्धे, तत आयातं - तृतीये दक्षिणायनरूपेऽयने सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादि कृत्वा चतुर्थे मण्डले पञ्चविंशतितमं पर्व समाप्तं भवतीति |२५| अथ चतुर्विंशत्यधिकशततमपर्वविषयः प्रश्नो भवेत्तदा चतुर्विशत्यधिकशसंख्यको राशिः (१२४) स्थाप्यते, एषोऽपि पूर्ववत् पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि - षष्ट्यधिकानि अष्टादशशतानि (१८६०) चतुर्विंशत्यधिक पर्वशते च अवमरात्रास्त्रिराज्जाताः (३०) इति त्रिंशत्पात्यते, जातानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०), एतेषु रूपयुक्तेषु कृतेषु जातानि - एकत्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३९) एषां त्र्यशीत्यधिकशतेन (१९८३) भागो ह्रियते लब्धानि दशायनानि, शेषोऽवतिष्ठते एकः (१) दशमं चायनं युगपर्यन्तभागे उत्तरायणम्, ततः संप्राप्तम् - उत्तरायणपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चतुर्विंशत्यधिकशततमं (१-२४) पर्वसमाप्ति प्राप्तमिति (१२४) । गतं पर्व समापकसूर्यमण्डलप्रकरणम्, साम्प्रतं पर्वसमापक सूर्यनक्षत्रप्रकरणं प्रस्तूयते, तत्र, पूर्वं तत्प्रदर्शिकास्तिस्रः करेणगाथा: प्रदश्यते— "चउबीससयं काऊण पमाण पज्ज य पंच फलं । इच्छापव्वेहिं गुणं काऊणं पज्जया लद्धा ॥ १॥ अट्ठारस य सहिं, सेसगंमि गुणियम्मि । सत्तावीससएसुं, अट्ठावी सेसु पूसम्मि । ang बिसणं सव्वग्गेण तओ उ जं. सेसं । रिक्खं सूरस्स उ, जत्थ समत्तं हवइ पव्वं ॥ ३॥ 'एतासां तिसृणां करणगाथानां क्रमशो व्याख्या क्रियते चउवीससयं काऊण पमाणं' चतुर्विंशतिशतं चतुर्विंशतिशतप्रमितं प्रमाणं प्रमाणराशिं कृत्वा 'पज्जए य पंच' पञ्च पर्यायान् ‘फलं’फलं कुर्यात् । ततः ‘इच्छापव्वेहिं गुणं काऊण' इच्छापर्वभिः ईप्सितपर्वराशिना गुणं गुणका रं कृत्वा तत आद्येन राशिना चतुर्विंशत्यधिकशतरूपेण भागे हृते ये लब्धास्ते 'पज्जाया लड़ा' पर्याया लब्धा इति विज्ञेयम् । ते च शुद्धा ज्ञातव्याः || १ || Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे ____'अट्ठारसयसएहिं तीसेहिं' अष्टादशकशतस्त्रिंशदधिकैः (१८३०) 'सेसगंमि गुणियम्मि' शेषके भागे हते यत् शेषमवतिष्ठते तस्मिन् गुणिते सति 'सत्तावीस सएसुं अट्ठावीसेसु' अष्टाविंशत्यधिकेषु सप्तविंशतिशतेषु (२७२८) शुद्धेषु 'पूसंमि' पुष्यः शुद्धचति, तस्मिंश्च पुष्ये शुद्धे ॥२॥ 'सत्तह बिसहीणं सव्वग्गेण' सप्तषष्टि संख्यकद्वाषष्टीनां सर्वाग्रेण यद् भवति, अयं भावः-सप्तषष्ट्या द्वाषष्टिगुण्यते गुणितायां च तस्यां यद् भवति चतुष्पञ्चाशदधिकानि एकचत्वारिंशच्छतानि (१४५४) तेन भागे हूते यो राशिलब्धः तावन्ति नक्षत्राणि शुद्धानि ज्ञातव्यानि यत्पुनः 'तो उ' ततोऽपि भागहरणादपि 'जं सेस' यत् शेषं तिष्ठति 'तं रिक्खं उ' तत् ऋक्ष नक्ष तु 'सूरस्स' सूरस्य सूर्यस्य सम्बन्धि ज्ञातव्यम्, किमित्याह-'जत्थ समत्तं हवइ पव्वं' यत्र समाप्त भवति पर्व, तदेव सूर्यनक्षत्रं पर्व समापकं भवतीति-भावः । इति करण गाथात्रयार्थः ॥३।। आसां भावना चेन्थम् यदि चतुर्विशत्यथिकशतसंख्यकैः पर्वभिः पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तदा एकेन पर्वणा कति लभ्यन्ते ? त्रैराशिकं गणितं कर्तव्यं भवेत् राशित्रयस्थापना-। १२४।५।१। अत्र त्रैराशिक गणितेऽन्त्येन राशिना मध्यमराशिगुणयित्वा आयेन राशिना भागो हरणीय इति नियमात् अन्त्यराशिना एककरूपेण मध्यमे राशौ पञ्चरूपे गुणिते जातस्तावानेव पञ्चक रूपों राशिः (५) अस्य आधेन राशिना चतुर्विशत्यधिक शत [१२४] रूपेण भागहरणं प्राप्यते, तच्च स्तोकत्वान्न संभवति, ततो नक्षत्रानयनार्थम् - त्रिंशदधिकाष्टादशशतै [१८३०] सप्तषष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति तदर्थ गुणकार-छेदराश्योरर्द्धनापवर्त्तना कर्तव्या, एवं कृते जातो गुणकारराशिः पञ्चदशोत्तरनवशतसंख्यकः [९१५] छेदराशिः द्वाषष्टिः [६२] ततो ये त्रैराशिके मध्यस्थिताः पञ्च ते पञ्चदशोत्तरैनव शतै गुण्यन्ते जातानि पञ्च सप्तत्यधिकानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि [४५७५] । इतश्च पुष्यस्य चतुश्चत्वारिंशद् [४४] भागाः द्वाषष्ट्या [६२] गुण्यन्ते जातानि अष्टाविंशत्यधिकानि सप्तविंशतिशतानि [२७२८] एतानि पूर्वराशेः [४५७५] शोध्यन्ते, निष्कास्यन्ते, स्थितानि पश्चात् सप्तचत्वारिंशदधिकानि अष्टादशशतानि [१८४७] । तत्र छेदराशिषिष्टिरूपः सप्तषष्टया गुण्यते, जातानि चतुप्पञ्चाशदधिकानि एक चत्वारिंशच्छतानि [४१५४] एभिः पूर्वोक्तराशेर्भागो हियते किन्तु छेद्यराशिः स्तोकः, अतस्तस्य स्तोकत्वाद् भागो न हियते ततो दिवसा आनेतव्याः, तत्र च छेदराशिस्तु द्वाषष्टिरूपः, किन्तु परिपूर्ण नक्षत्रानयनार्थमेव हि द्वाषष्टिः सप्तष्टया गुणिता, परिपूर्ण च नक्षत्र मिदानीं नायाति ततो मूल एव द्वाषष्टि रूपश्छेदराशिः, केवलं पञ्चभिः सप्तष्टि भागैरहोरात्रो भवतीत्यतो दिवसानयनार्थ द्वाषष्टिः पञ्चभिर्गुणनीयः, द्वाषष्टेः पञ्च भिर्गुणने जातानि दशोत्तसणि त्रीणि शतानि [३१०] एतैः पूर्वोक्तस्य सप्तचत्वारिंशदधिकाष्टादशशतराशेः [१८४,] भागो हरणीयः हृते च भागे लब्धाः पञ्च दिवसाः[५] शेषं तिष्ठति सप्तनवत्यधिके द्वे शते [२९७] इति । एष राशि मुहूर्तान यनार्थ त्रिंशता गुण्यते तत्र गुणाकार छेदराश्योः शून्येनापवर्त्तना कर्त्तव्या, तत्र Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रामिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू. ३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३९१ गुणाकारराशि स्त्रिंशत् [३०] सजातनिकरूपः [३] छेदराशिर्दशोत्तरशतत्रयरूपः [३१०] स जात एकत्रिंशत् (३१) तत्र त्रिकरूपेण गुणकारराशिना उपरितनः सप्तनवत्यधिकशतद्वयरूपो [२९७] राशिर्गुण्यते जातानि-एकनवत्यधिकानि अष्टौ शतानि [८९१] एषामेकत्रिंशद्रूपेण (३१) छेदराशिना भागो हियते, लब्धा अष्टाविंशति मूहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशति रेकत्रिंशद्भागाः (२८-२३) तत आगतम्-प्रथमं पर्व अश्लेषानक्षत्रस्य पञ्च दिवसानां, एकस्य च दिव सस्याष्टाविंशति मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशत्येकत्रिंशद्भागानां [दि. मु. भा. - ५-२८--२३] भोगं कृत्वा समाप्तं भवतीति । अथवा---पूर्वोक्तगणितगतत्रैराशिकमध्यस्थितपश्चकराशौ (५) पञ्चदशोत्तरनवशत (९१५) राशिना गुणिते समागतो यः पञ्चसप्तत्यधिक पञ्च चत्वारिंशच्छत (४५७५) रूपो राशिः तस्मात्-दाषष्टि गुणित चतुश्चत्वारिंशत्पुष्यभाग (४४) समागताष्टाविंशत्यधिक सप्तविंशति (२७२८) राशिरूपे पुष्ये शुद्धे स्थितानि पश्चात् सप्तचत्वारिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८४७) तानि सूर्यमूह नयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि-पञ्च पञ्चाशत् सहस्राणि चत्वारिशतानि दशोरत्ताणि (५५४१०) एषां प्रागुक्तेन सप्तषष्टि गुणितद्वाषष्टि समागत-चतुष्पञ्चाशददिकैक चत्वारिंशच्छत (४१५४) रूपेण छेदराशिना भागो हियते, लब्धास्त्रयोदश (१३) मुहर्ताः तिष्ठन्ति शोषाणि अष्टोत्तर चतुर्दशशतानि (१४०८) तत एतानि द्वाषष्टि भागानयनार्थ द्वाषष्टया गुणयितव्यानि भवन्तीति गुणकारछेदराश्यो षिष्टयाऽपवर्त्तना कर्तव्या तत्र गुणकारराशिषिष्टिस्ततस्तस्या द्वाषष्टया अपवर्तना करणे लब्ध एककरूपः (१) छेदराशेश्चतुष्पञ्चाशदधिकैकचत्वारिंशच्छत (४१५४) रूपस्य द्वाषष्टयाऽपवर्तना करणे जाता सप्तषष्टिः (६७) तत्र द्वाषष्टयाऽपतितैकक रूपेण गुणकारराशिना गुणितः अष्टोत्तरचतुर्दशशत (१४०८) रूपो राशिर्जातस्तावानेव (१४०८) । ततोऽपवर्तितेन सप्तषष्टि (६७) रूपेण छेदराशिना छेद्यते--भागो हियते इत्यथैः, हृते च भागे लब्धा एकविंशतिः २१ द्वाषष्टि भागा एकस्व मुहूत्तैस्य यश्वशेष एकः, स एकस्य द्वापष्टि भागस्य एकः सप्तषष्टिभागः (१३-- २ )। तत एवं समागतम् युगस्यादौ प्रथमम् अमावास्यारूपं पर्वसूर्योऽश्लेषानक्षत्रस्य त्रयोदश मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्तस्य एक विशतिषिष्टि भागान् एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य एक सप्तषष्टि भागम् (१३-१)भुक्त्वा समापयतीति । ६२/६७ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ चन्द्रप्राप्ति ___ अथ च यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तर्हि द्वाभ्यां पर्वाभ्यां कति सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते १। अत्रापि राशित्रयस्थापना-। १२४।५।२। पूर्वोक्तरीत्याऽत्रापि अन्त्येन राशिना द्विकरूपेण मध्यराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते, जाता दश (१०) एषां चतुर्विशत्यधिकैकशतरूपेण आय राशिना भागहरणं प्राप्यते किन्तु भाजक राशे र्भाग्यराशिः स्तोकोऽतो भागो न हियते ततो नक्षत्रानयनार्थं त्रिंशदधिकाष्टादशशत (१८३०) संख्यया गुणयितव्यमिति गुणकारच्छेदराश्योरर्धेनाऽपवर्त्तना क्रियते, जातोऽयं गुणकारराशिः पञ्चदशोत्तरनवशतसंख्यक (९१५) छेदराशिश्चतुर्विशत्यधिकशत (१२४) रूपः, सोऽर्धेनापवर्त्तिते जातो द्वाषष्टिः (६२) तत्र पञ्चदशोत्तरनवशतैः (९१५) दश (१०) गुण्यन्ते जातानि पञ्चाशदधिकानि एक नवतिशतानि (९१५०), एभ्यः पूर्वपदर्शितानि अष्टाविंशत्यधिकानि सप्तविंशतिशतानि (२०२८) पुष्यसम्बन्धीनि शोध्यन्ते, शोधिते च स्थितानि पश्चात्-द्वाविंशत्यधिकानि चतुष्पष्टिशतानि (६४२२) छेदराशिषिष्टिरूपः, स सप्तषष्टया गुण्यते जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि एक चत्वारिंशच्छतानि (४१५४) एतैर्भागो हियते, लब्धमेकं नक्षत्रम् अश्लेषारूपम् , तच्चाश्लेषानक्षत्रमर्षक्षेत्रं पञ्चदश मुहूर्तात्मकत्वात् , अत एतद्गताः पञ्चदश मुहूर्ता अधिका ज्ञातव्याः, पूर्व भागे हते यानि शेषाणि तिष्ठन्ति-अष्टषष्टयधिकानि द्वाविंशति शतानि (२२६८) तानि मुहूर्तानयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि-अष्टषष्टिः सहस्राणि चत्वारिंशदधिकानि (६८०४०) तेषां चतुष्पञ्चाशदधिकैकचत्वारिंशच्छत (४१५४) रूपेण छेदराशिना भागो हियते, लब्धाः षोडश मुहूर्ताः, तिष्ठन्ति शेषाणि षट्सप्तत्यधिकानि पञ्चदशशतानि (१५७६) एतानि द्वाषष्टि भागानयनार्थ द्वाषष्ट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्योषष्टयाऽपवर्त्तना क्रियते, तेन जातो गुणकारराशिरेकरूपः (१) छेदराशिः सप्तषष्टिः (६७) तत्रोपरितनो राशिः राशिः (१५७६) एकेन गुणितो जातस्तावानेव (१५७६) अस्य सप्तषष्टया भागे हृते लब्धास्त्रयोविंशति षिष्टि भागाः (२३) शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चत्रिंशत् , ते च पञ्चत्रिंशत् सप्तषष्टि भागाः (३५) तत्र ये षोडश मुहूर्त्ता लब्धास्ते, तथा ये चोद्धरिताः पाश्चात्याः पञ्चदशमुहूर्तास्ते एकत्र मील्यन्ते जात एकत्रिंशत् (३१) तत्र त्रिंशता मधा शुद्धा, पश्चादुद्धरत्येकः सूर्यमुहूर्तः १, तत आगतं श्रावणमासभावि पौर्णमासीरूपं पूर्वफाल्गुनी नक्षत्रस्यैकं मुहर्तम् एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिं द्वाषष्टि भागान, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशतं सप्तषष्टि भागान् (१-) भुक्वा सूर्यो द्वितीय पर्व समापयतीति । तथा चोक्तं शेषमुहूर्तविषये "ता पुव्वाहि फग्गुणीहिं पुव्वाणं फग्गुणीणं अट्ठावीस च मुहुत्ता अत्तीसं च वासद्विभागा मुहुत्तस्स बासद्विभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता बत्तीस चुणिया भागा सेसा" छाया तावत् पूर्वाभिः फाल्गुनीभिः पूर्वाणां फाल्गुनीनां अष्टाविंशति Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू. ३ द्वितीययुगसंवत्सर निरूपणम् ३९३ मुहूर्त्ताः, अष्टत्रिंशच्च द्वाषष्टिभागाः मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा द्वात्रिंशत् चूर्णिकाः भागाः शेषाः । २८ - ३८ - ३२ पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रस्य समक्षेत्रत्वेन त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् भुक्तशेषयोर्द्वयोः संमेलने जायन्ते पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रस्य परिपूर्णास्त्रिंशन्मुहूर्त्ताः (३०) इति । - तथा यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तदा त्रिभिः कति सूर्य नक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ? अत्रापि राशित्रयस्थापना । १२४।५।३। अत्राप्यन्त्येन राशिना त्रिकरूपेण मध्यः पञ्चकरूपो राशिर्गुण्यते जाताः पञ्चदश (१५) तेषामाद्येन चतुर्विंशत्यधिकशत (१२४) रूपेण राशिना भागहरणं प्राप्यते, भाज्यराशे स्तोकत्वाद् भागो न ह्वियते ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैः (१८३०) सप्तषष्टिभागै गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरर्द्धेनापवर्त्तना क्रियते, जातो गुणकारराशिः पञ्चदशोत्तराणि नव शतानि ( ९१५) छेदराशिषष्टिः (६२) । तत्र पञ्चदशोत्तरनवशतैः पञ्चदश गुण्यन्ते, जातानि पञ्चविंशत्यधिकसप्तशतोत्तराणि त्रयोदश सहस्राणि (१३७२५), एभ्यः अष्टाविंशत्यधिकानि सप्तविंशतिशतानि (२७ २८) पुष्यनक्षत्रसम्बन्धीनि शोध्यन्ते स्थितानि पश्चात् सप्तनवत्यधिक नवशतोत्तराणि दश सहस्राणि (१०९९७), छेदराशि य द्वाषष्टिरूपः स सप्तषष्ट्या गुण्यते जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि एकचत्वारिंशच्छतानि (४१५४), एतैर्भागो हियते, लब्धे द्वे नक्षत्रे, ते चाश्लेषा मधारूपे, तत्राश्लेषा नक्षत्रमपार्द्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्त्तात्मकमित्येतद्गताः पञ्चदशसूर्यमुहूर्त्ता उद्धरिता ज्ञातव्याः, इतश्च पूर्वं भागे हृते यानि स्थितानि शेषाणि नवाशीत्यदिकानि षड्विंशतिशतानि (२६८९), तानि मुहूर्त्ता - नयनार्थे त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि अशीति सहस्राणि सप्तत्यधिकानि षड्शतानि (८०६७०), एषां छेदराशिना चतुष्पञ्चाशदधिकैक चत्वारिंशच्छत रूपेण (४१५४) भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः (१९), शेषाणि तिष्ठन्ति चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्तदशशतानि (१७४४), एतानि द्वाषष्टि भागानयनार्थं द्वाषष्ट्या गुणनीयानीति गुणकार -च्छेदराश्यो द्वषिष्ट्याऽपवर्त्तना क्रियते, जातो गुणकार राशिरेकरूपः (१), छेदराशि: सप्तषष्टिरूपः (६७) तत्रो परितनो यो राशिचतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तदश शतरूपः ( १७४४), स एकेन गुणितस्तावानेव १७४४) अस्य सप्तषष्टया भागो हियते, लब्धा षडूविंशतिर्द्वा षष्टिभागाः स्थितौ शेषौ द्वौ तौ च एकस्य द्वाषष्टि भागस्य द्वौ सप्तषष्टि भागौ- (६) तत्र पूर्वं ये खम्धा एकोनविंशतिमुहूर्त्ताः (१९) ये चान्छेषा नक्षत्रसत्काः ६२ पञ्चदश सूर्यमुहूर्त्ता उद्धरिताः, एतद्द्वयमपि एकत्र मील्यते जाताश्चतुस्त्रिंशन्मुहूर्त्ताः (३४) अत्र त्रिंशता पूर्व फाल्गुनी शुद्धा, शेषाः स्थिता श्चत्वारो मुहूर्त्ता ( ४ ) तत आगतम् - उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रसम्बन्धिनां चतुर्णां मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षड्विंशतिर्द्वा षष्टिभागानाम् एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य द्वयोः सप्तषष्टि भागयो : (४ - २६२) भोगं कृत्वा सूर्यः भाद्रपदमासगतामावास्या ६२.६७ ५० Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ चन्द्रप्रक्षतिसूत्रे रूपं तृतीयं पर्व समापयतीति ॥ अनेनैव रीत्या शेषपर्वसमापकान्यपि सूर्यनक्षत्राण्यानेतव्यानीति । तथा चोक्तं शेषभागविषये-"........ता उत्तराहिं चेव फग्गुणीहिं, उत्तराणं फग्गुणीणं चत्तालीसं मुहुत्ता पणतीस च बासट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बासहिभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता पण्णही चुणिया भागा सेआ" छाया-तावत् उत्तराभिः चैव फाल्गुनीभिः, उत्तराणां फाल्गुनीनां चत्वारिंशन्मुहूर्ता, पञ्चत्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुइतस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्वा पञ्चषष्टिः चूर्णिका भागाः शेषाः (४०-३५-६१)उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वयर्धक्षेत्रत्वेन पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् भुक्त शेषयोयोः संमेलने जायन्ते उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रस्य परिपूर्णा पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ता (४५) इति । अथवा कस्मिन् पर्वणि किं सूर्यनक्षत्रं भवतीति परिज्ञानार्थमत्रेमाः सप्त करणगाथाः प्रदर्श्यन्ते'तेत्तीसं' इत्यादि, तथाहि "तेत्तीसं च मुहुत्ता, बिसद्विभागा य दो मुहुत्तस्स । चुत्ती चुण्णियभागा, पव्वीकया रिक्ख धुवरासी ॥१॥ इच्छा पव्व गुणाओ, धुवरासीओ य सोहणं कुणसु । पूसाइणं कमसो, जह दिट्ठमणतनाणीहिं ॥२॥ उगवीसं च मुहुत्ता, तेयालीसं बिसट्टि भागा य । तेत्तीसं चुण्णियाओ, पूसस्स य सोहणं एवं ॥३॥ उगुयालसयं उत्तर-फग्गु उगुणह दो विसाहासु । चत्तारि नवोत्तर उत्तराण साढाण सोज्झाणि ॥४॥ (प्र. ५०००) सव्वत्थ पुस्ससेसं, सोज्झं अभिइस्स च उरइगवीसा । बावट्ठी छब्भागा, बत्तीसं चुणिया भागा ॥५॥ उगुणत्तर पंच सया, उत्तर भवय सत्त उगुवीसा । रोहिणि अट्ठनवोत्तर, पुणव्वसंतम्मि सोज्झाणि ॥६॥ अट्ठसया उगुवीसा, बिसठिभागा य होंति चउवीसं । छावट्ठी सत्तट्टि भागा पुस्सरस्स सोहणगं ॥७॥" छाया- त्रयस्त्रिंशच्च मुहूर्ताः, द्वाषष्टि भागौ च द्वौ मुहूर्तस्य । चतुस्त्रिंशत् चूर्णिका भागा पर्वीकृत ऋक्षध्रुव राशिः ॥१॥ इच्छापर्वगुणात् ध्रुवराशितश्च शोधनं कुरुत । पुण्यादीनं क्रमशः यथा दृष्टमनन्तज्ञानीभिः ॥२॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२.६७ चन्द्रशप्ति रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू. ३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३९५ एकोनविंशतिश्च मुहूर्ताः त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टि भागाश्च । त्रय स्त्रिंशत्-चूर्णिकाः, पुष्यस्य शोधन मेतत् ॥३॥ एकोन चत्वारिंशं शतम् उत्तरफाल्गुनीनाम् एकोनषष्टे द्वे (शते) विशाखासु । चत्वारि नवोत्तराणि (शतानि) उत्तराषाढानां शोध्यानि ॥४॥ सर्वत्र पुष्पशेषं, शोध्यं अभिजितः चत्वारि एकोनविंशानि । द्वाषष्टिः षड् भागाः, द्वात्रिंशत् चूणिका भागाः ॥५॥ एकोनसप्ततानि पञ्च शतानि उत्तरभाद्रपदानां सप्त एकोन विशिनि । रोहिणी अष्ट नवोत्तराणि पुनर्वस्वन्ते शोध्यानि ॥६॥ अष्ट शतानि एकोन विंशानि, द्वाषष्टि भागाश्च भवन्ति चतुर्विशतिः । षट् षष्टिः सप्तषष्टि भागाः पुष्यस्य शोधनकम् ॥७॥ एतेषां क्रमेण संपतो व्याख्या-'तेत्तीसं च मुहुत्ता बिसट्ठिभागा य दो मुहुत्तस्स' त्रय स्त्रिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वौ द्वाषष्टि भागौ तथा 'चुत्तीचुण्णिया भागा' एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य चतुस्त्रिंशत् चूर्णिका भागाः ॥ ३३ २३ एष सर्वेष्वपि पर्वसु 'पव्वीकया' पर्वीकृतः एकेन पर्वणा निष्पादितः 'रिक्खधुवरासी' ऋक्षध्रुवराशिः-सूर्यनक्षत्रविषयोऽयं ध्रुवराशिः ॥१॥ एष ध्रुवराशिः कथमुपपद्यते ? इत्येतदाह-एष त्रैराशिकात समुपपद्यते, तथाहि-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्चसूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तदा एकेन पर्वणा कति पर्याया लभ्यन्ते ? इति त्रैराशिकं यथा -१२४।५।१। अत्रापि त्रैराशिकगणितरीत्या-अन्त्येन मध्यं गुणयित्वा आयेन भागहरणं भवतीति न्यायात् अन्त्येन एक रूपेण राशिना मध्यः पञ्चरूपो राशि र्गुण्यते जातस्तावानेव पञ्चरूपो राशिः (५) तत आयेन चतुर्विशत्यधिक शत रूपेण(१२४)भागो हियते किन्तु मध्यराशेः स्तोकत्वाद् भागो न लभ्यते ततो लब्धा एकस्य सूर्यनक्षत्रपर्यायस्य पञ्च चतुर्विशत्यधिकशतभागाः (१), एतान् नक्षत्रानयनार्थं त्रिंशदधिकाष्टादशशतैः (१८३०) सप्तषष्टि भागै गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरर्धेनापवर्त्तना क्रियते जातो गुणकारराशिः पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि (९१५) छेदराशि षिष्टिः (६२) ततः पञ्चदशोत्तर नवशत (९१५) रूपेण गुणकार राशिना पञ्च गुण्यन्ते, जातानि पञ्च सप्तत्युत्तराणि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि (४५७५) एतानि मुहर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं लक्षं, सप्तत्रिंशत्सहस्राणि, पञ्चाशदधिके द्वे शते च (१३७२५०), छेदराशि ा षष्टिरूपः सप्तषष्टया गुण्यते जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि एक चत्वारिंशच्छतानि (४१५४) एभिरूपरितनराशेः (१३७२५०) भागो हियते, लन्धास्त्रयस्त्रिशन्मुहूर्ताः (३२)शेषम्-अष्ट षष्टयधिकमेकं शतं (१६८) तिष्ठति, एष राशि षष्टि भागानमनाथ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे द्वाषष्टया गुणयितव्य इति गुणकारच्छेदराश्यो वा षष्टाचाऽपवर्तना क्रियते, जाता द्वा षष्टयाऽपवतितो द्वाषष्टिरूपो गुणकारराशिरेकरूपः (१), छेदराशि: चतुष्पञ्चाशदधिकैक चत्वारिंशच्छतरूपो द्वा षष्ट्याऽपवर्तितो जातः सप्तषष्ठिरूपः (६७), ततोऽष्टषष्टयधिकैकशतरूपो राशिरेकेन गुणितो जा तस्तावानेत (१६८), अस्य सप्तषष्ट या भागे हते लब्धौ द्वौ द्वाषष्टिभागौ, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत् सप्तषष्टि भागाः (३३-1 ) इति । एवमेतत् प्रथम गाथोक्त ध्रुवराशि प्रमाणं समुपपन्नमिति द्वितीयगाथाभावना ॥२॥ __ अथ तृतीया गाथा व्याख्यायते-'इच्छापबगुणाओ' इत्यादि । 'इच्छापव्वगुणाओ' इच्छापर्वगुणात्-इच्छा यस्य पर्वणो ज्ञतुमिच्छा, तद्विषयं यत् पर्वेति पर्वसंख्यानं, तद् इच्छापर्व, तेन गुणः-गुणकारो यस्य ध्रुवराशे स इच्छापर्वगुणः, तस्मात् इच्छापर्वगुणात् इच्छितपर्वगुणितात्, एतादृशात् 'धुवर सीओय' ध्रुवराशितश्च ध्रुवराशिसकाशाच्च 'सोहणं कुणसु' शोधनं कुरुत, केषामित्याह 'पूसाइणं कमसो' पुष्यादीनां नक्षत्राणां क्रमशः-क्रमेण शोधनं कुर्यादित्यर्थः । कथमेतद् ज्ञातम् ! 'जह दिट्ठमणंतनाणीहि' यथा दिष्टम् यथोपदिष्टमनन्तज्ञानिभिस्तथा कुर्यादिति भावः ॥२॥ अथ तृतीय गाथया तदेव शोधनकं दर्शयति-'उगवीसं' इत्यादि, 'उगवीसं च मुहत्ता' एकोनविंशतिश्च मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य 'तेयालीसं बिसद्विभागा य' त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टि भागाश्च तथा एकस्य द्वाषष्टि भागस्य 'तेत्तीस चुण्णियाओ' त्रयस्त्रिंशच्चूर्णिका भागाः (१९-४३३३ ) 'पूसस्स सोहणं एयं' पुष्यस्य शोधनमेतत्-अनुपदोक्तमेतत् पुष्यनक्षत्रस्य शोधनकमस्ति ॥३॥ अथ तृतीयगाथाया भावना-एतावत्कं पुष्यशोधनकं कथमुपपद्यते ? इत्यत्राह-इह पाश्चात्य युगपरिसमाप्तौ पुष्यनक्षत्रस्य त्रयोविंशतिः सप्तषष्टिभागा गताः, शेषाश्चतुश्चत्वारिंशद्भागा [४४] अवतिष्ठन्ते, तत् एते मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि विंशत्यधिकानि त्रयोदशशतानि ( १३२०), एषां सप्तषष्टया भागो हरणीयः, लब्धा एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः ( १९ ), शेषाः सप्तचत्वारिंशत् (४७) तिष्ठन्ति, ते द्वःषष्टि भागनायनार्थ द्वाषष्टया गुण्यन्ते, जातानि-चतुर्दशोत्तराणि एकोनत्रिंशच्छतानि (२९१४) तत एतषां सप्तषष्टया भागो हियते, लब्धास्त्रिचत्वारिंशत् (४३) द्वाषष्टि भागाः ये शेषास्ते एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य त्रयस्त्रिंशत् (३३) सप्तषष्टि भागा इति तृतीय गाथा ॥ ___ अथ चतुर्थी गाथां व्याख्यायते ---'उगुयाल सयं' इत्यादि 'उगुयालसयं' एकोनचत्वारिंशं शतम्-एकोन चत्वारिंशदधिकं शतं मुहूर्तानां एकोनचत्वारिंशदधिकं मुहूर्तशतं (१३९) Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा.२० सू. ३. द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३९७ 'उत्तर फग्गु' उत्तराफाल्गुनीनामिति-उत्तरा फाल्गुनी पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यम् । 'उगुण? दो' एकोनषष्टि द्वे इति, एकोनपष्टयधिके द्वे शते(२५९) विसाहासु' विशाखासु हस्तत आरभ्य विशाखापर्यन्तेषु शोध्ये । 'चत्तारि नवोत्तर' चत्वारि नवोत्तराणि शतानि नवोत्तराणि चत्वारि मुहूर्तशतानि (४०९) 'उत्तराणसाढाण' उत्तराषाढ़ानाम्-अनुराधात आरभ्य उत्तराषाढ़ा पर्यन्तानां नक्षत्राणां सोज्झाणि' शोध्यानि (४०९) इति चतुर्थगाथा व्याख्या ॥४॥ अथ पञ्चमी गाथा व्याख्यायते-'सव्वत्थ' इत्यादि, 'सव्वत्थ' सर्वत्र एतेषु सर्वेष्वपि शोधनेषु 'पुस्ससेसं' पुष्यशेषं यत्पुण्यस्य मुहूर्तेभ्यः शेषं एकस्य मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशत् द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टि भागाः । इत तत् प्रत्येक 'सोझं' शोध्यं शोधनीयम्, तथा 'अभिइस्स' अभिजितः अभिजिन्नक्षत्रस्य 'चउर उगवीसा' चत्वारि एकोनविंशानि-एकोनविंशत्यधिकानि चत्वारि मुहूर्तशतानि तथा 'बावढि छन्भागा' द्वाषष्टिः षड्भागाः-एकस्स्य च मुहूर्तस्य षड्वाषष्टि भागाः, 'बत्तीसं चुण्णिया भागा' तथा द्वात्रिंशच्चूर्णिका भागाः - एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य द्वात्रिंशत्सप्तषष्टि भागाः (४१९-५२-१ ) ६२६७ इति शोध्यमू, एतावता पुण्यादीनि अभिजित्पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्तीति भावार्थः ॥५॥ ___ अथ षष्ठी गाथा व्याख्यायते -'उगुणत्तर०' इत्यादि, 'उगुणत्तर पंचसया' एकोन सप्तानि एकोन सप्तत्यधिकानि पञ्चशतानि मुहूर्तानामू (५६९) 'उत्तरभदवय' उत्तरभाद्रपदानाम्श्रवणत आरभ्य उत्तरभाद्रपदा पर्यन्तानां शोध्यानि । तथा 'सत्तउगुवीसा' सप्तएकोनविंशत्यधिकानि सप्तशतानि (७१९) रोहिणी' रोहिणीरेवतीत आरभ्य रोहिणी पर्यन्तानां शोध्यानि 'अट्ठनवोत्तर' अष्टनवोत्तराणि नवोत्तराष्टशतानि (८०९) 'पुणव्यसंतम्मि' पुनर्वस्वन्ते पुनर्वसुपर्यन्ते मृगशिरस आरभ्य रोहिणी पर्यन्तानां नक्षत्राणां 'सोज्झाणि' शोध्यानि शोधनीयानि भवन्तीति ॥६॥ अथ सप्तमी गाथा व्याख्यायते-'अट्ठसया' इत्यादि, 'अट्ठसया उगुवीसा' अष्टशतानि एकोनविंशानि-एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ मुहूर्तशतानि (८१९), 'बिसद्विभागा य होति चउवीसा' द्विषष्टि भागाश्च भवन्ति चतुर्वि शतिः-एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषष्टिभागाः, तथा 'छावहि सत्तट्टि भागा' पद षष्टिसप्तषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य षट् षष्टिः-सप्तषष्टि भागाः (८१९-२४६६ ) इति 'पुस्सस्स सोहणगं' पुष्यस्य शोधनकमस्ति, एतावता सम्पूर्ण एक सूर्यनक्षत्रपर्यायः शुद्धयतीति तात्पर्यार्थः ।।७।। इति करणगाथा व्याख्या समाप्ता ॥१-७॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे आसां भावना चेत्थम्-अथ कोऽपि पृच्छति प्रथमं पर्व कस्मिन् सूर्यनक्षत्रे समाप्तं भवति : अत्र ध्रुवराशि:- त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्त्ताः एकस्य मुहूर्त्तस्य द्वौ द्वाषष्टिभागौ, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य चतुस्त्रिंशत् सप्तषष्टि भागौ (३३ ६ ३ २३४)। एष ध्रुवशशिः स्थाप्यते । एषो ध्रुवराशिः प्रथमपर्वविषयक प्रश्नत्वाद् ६२ एकेन गुण्यते, जातस्तावानेव । ३३ ।२।३४ । एतस्मात् पुष्यशोधनकम् - एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः, एकस्य मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः (१९ ४३ ३३) ६२ ६७ इत्येवं प्रमाणं शोध्यते शोधिते स्थिताः शेषास्त्रयोदशमुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य एक विंशति द्वषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टि भागः (१३ २१ १ ) । तत ६२६७ आगतम्-अश्लेषानक्षत्रस्यैतावद्भागान् भुक्त्वा सूर्यः प्रथमं पर्व श्रावणमासगतामावास्या रूपं परिसमापयतीति ॥१॥ द्वितीयपर्वविचारणायामपि स पूर्वोक्त एव ध्रुवराशि:- ३३।२।३४ । अत्र द्वितीयपर्वविषयक प्रश्नत्वादेष ध्रुवराशिर्द्वाभ्यां गुण्यते जाताः षट्षष्टिर्मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्व षष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभागः ६६।५।१। एतस्मात् पुष्यशोधनकं यथोक्तप्रमाणं - १२।४३।३३ । शोध्यते, स्थिताः पश्चात् षट् चत्वारिंशन्मुहूर्त्ताः, त्रयोविंशतिर्द्वाषष्टि भागाः, पञ्चत्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः ४६ | २३ | ३५ । एतस्मात् पञ्चदश मुहूर्त्ता अश्लेषा नक्षत्रस्य शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् एकत्रिंशन्मुहूर्त्ता (३१) एभ्यः त्रिंशन्मुहूर्त्ता मघा नक्षत्रस्य शोध्यन्ते, स्थितः पञ्चादेको मुहूर्त्तः (१) तत आगतम् द्वितीयं पर्व सूर्यः पूर्वफाल्गुनी नक्षत्रस्य एकं मुहूर्त्तम् एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयोविंशति द्वाषष्टिभागान्, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य पञ्चत्रिंशतं सप्तषष्टि भागान्— (१२३३५) भुक्त्वा परिसमापतीति । २ । ६२ ६७ तृतीय पर्व पृच्छायामपि स एव ध्रुवराशिः ३३ । २ । ३४ त्रिभिर्गुण्यते, जाता नव नवतिर्मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तद्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्च त्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः (९९७ ३५) । एतस्माद्राशेः पुण्यशोधनकं (१९।४३।३३ ) शोध्यते, स्थिताः पश्चात्-एको ६२६७ नाशीतिर्मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य षड्विंशति द्वषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य द्वौ सप्त षष्टि भागौ (७९२६ २ ) । ततः पञ्चदश मुहूर्त्ता अश्लेषायाः शोव्याः, स्थिताः पश्चात् चतुषष्टि ६२ ६७ ३९८ र्मुहूर्त्ताः (६४) । अस्माद्राशेः त्रिंशन्मुहूर्त्ता मघायाः शोध्याः स्थिताः पश्चात् चतुस्त्रिंशन्मुहूर्त्ताः (३४), अस्मात् त्रिंशन्मुहूर्त्ताः पूर्वफगुन्या शोध्याः पश्चाच्चत्वारो मुहूर्त्ताः ( ४ ) तत आगतम् - तृतीयं Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू. ३. द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३९९ पर्व भाद्र पदमासामावास्या लक्षणं सूर्य उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रस्य चतुरो मुहूर्तान् , एकस्य च मुहूर्तस्य षड् विंशतिं द्वाषष्टिभागान् , एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य दो सप्तषष्टिभागौ भुक्त्वा समाप्तिनयतीति ।३। इत्येतानि त्रीणि पर्वाणि गणितेन प्रदर्शितानि अनयैव रीत्या शेपेषु पर्वस्वपि सर्व समापकानि सूर्यभोगनक्षत्राणि स्वयभूहनीयानीति । अत्र युग पूर्वार्धभावि द्वाषष्टि पर्व गत सूर्यनक्षत्रसूचिका इमाश्चतस्रो गाथाः प्रदर्श्यन्ते "सप्प-भग-अज्जमदुगं, हत्थो चित्ता विसाह मित्तो य । जेट्ठाइयं च छक्कं अजाभिवुड्ढी दु पूसासा ॥१॥ छक्कं च कत्तियाई, पिइ-भग अज्जमदुगं च चित्ता य । वाउ विसाहा अणुराह जेट आउंच वीसु दुगं ॥२॥ सवणधणिट्ठा अनदेव अभिवुडूढी दुअस्स जम बहुला ॥ रोहिणि सोम दिइ दुर्ग, पुस्सों पिइ भगज्जमा हत्थो ॥३॥ चित्ता य जिवज्जा, अभिई अंताणि अट्ठ रिक्खाणि । एए जुग पुव्वद्धे, विसट्ठिपव्वेसु रिक्स्वाणि ॥४॥ छाया-सर्प १ भग २ अर्यमद्विकं ४ हस्त ५ चित्रा ६ विशाखा, मित्रं च । ज्येष्ठादिकं च षट्कं १४, अज १५ अभिवृद्धि द्विकं १७ पुष्याश्चौ १९ ॥१॥ पट्टकं च कृत्तिका दि २५ पितृ २६ भग २७ अर्यमद्विकं २९ च चित्रा ३० च । वायुः ३१ विशखा ३२ अनुराधा ३३ ज्येष्ठा ३४ आयुः ३५ विश्वद्विकम् ३, ॥२॥ श्रवणः ३८, धनिष्ठा ३९ अजदेवः ४० अभिवृद्धि द्विकं ४२ अश्व ४३ यमबहुलौ ४५ रोहिणी ४६ सोमः ४ , अदितिद्विकं ४९ पुष्यः ५० पितृ ५१ भग ५२ अर्यमा ५३ हस्त ५४ चित्रा ५५ च ज्येष्ठावर्जानि अभिजिदन्तानि अष्ट ऋक्षाणि ६२ । ॥३॥ एतानि युगपूर्वार्धे द्विषष्टि पर्वसु ऋक्षाणि ॥४॥ इति ॥ ___ एतासां व्याख्या-प्रथमस्य पर्वणः समाप्तौ सूर्यनक्षत्र सर्पः सर्पदेवतोपलक्षिताऽश्लेषा १, द्वितीयस्य भगः-भगदेवतोपलक्षितः पूर्वफाल्गुन्यः २, ततः अर्यमद्विकमिति तृतीयस्यार्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः ३, चतुर्थस्यापि उत्तरफाल्गुन्यः ४, पञ्चमस्य हस्तः ५ षष्ठस्य चित्रा ६, सप्तमस्य विशाखा ७, अष्टमस्य मित्रदेवतोपलक्षिताऽनुराधा ८, ततो ज्येष्ठादिकं षट्कं ज्येष्ठादीनि षड् नक्षत्राणि क्रमेण वक्तव्यानि, तथाहि-नवमस्य ज्येष्ठा ९, दशमस्य मूलम् १०, एकादशस्य पूर्वाषाढा ११, द्वादशस्योत्तराषाढा १२, त्रयोदशस्य श्रवणः १३, चतुर्दशस्य धनिष्ठा १४, पञ्चदशस्याजः अजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभाद्रपदाः १५, 'अभिवुइढिदुगं' अभिवृद्धिद्विकमिति षोड़शस्याभिवृद्धिः अभि Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे वृद्धि देवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदाः १६, सप्तदशस्यापि उत्तर भाद्रपदा १७, अष्टादशस्य पुण्यः-पुण्य देवतोपलक्षिता रेवती १८, एकोनविंशतितमस्याश्वः-अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी १९, 'छक्कं च कत्तिायाई' षट्कं च कृत्तिकादिकमिति कृतिकात आरभ्य पुष्यपर्यन्तानि नक्षत्राणि क्रमेण षण्णां पर्वणाम्, तथाहि ____विंशतितमस्य कृत्तिका २०, एकविंशतितमस्य रोहिणी २१, द्वाविंशतितमस्य मृगशिरः २२, त्रयोविंशतितमस्य आर्द्रा २३, चतुर्विंशतितमस्य पुनर्वसुः २४, पञ्चविंशतितमस्य पुष्यः २५, षड्विंशतितमस्य पितृदेवतोपलक्षिता मघा २६, सप्तविंशतितमस्य भग:-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः २७, 'अज्जमदुर्ग' अर्यमद्विकमिति अष्टाविंशतितमस्य २८, एकोनत्रिंशत्तमस्य २९, च द्वयोरपि 'अज्जम' इति अर्यमा-अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तराफाल्गुन्यः २८-२९ त्रिंशत्तमस्य चित्रा ३०, एकत्रिंशत्तमस्य वायुः-वायुदेवतोपलक्षिता स्वातिः ३०, द्वात्रिंशत्तमस्य विशाखा ३२, त्रयस्त्रिंशत्तमस्यानुराधा ३३, चतुस्त्रिंशत्तमस्य ज्येष्ठा ३४ पञ्चत्रिं शत्तमस्य पुनरायुः-आयुर्दैवतोपलक्षिताः पूर्वाषाढाः ३५, 'वीसुदुगं' इति विष्वगद्विकं विष्वग द्वयोर्नक्षत्रयोः तथाहि षट्त्रिंशत्तमस्य विश्वग्देवतोपलक्षिता उत्तराषाढाः ३६, सप्तत्रिंशत्तमस्यापि उत्तराषाढाः ३७, अष्टत्रिंशत्तमस्य श्रवणः ३८, एकोनचत्वारिंशत्तमस्य धनिष्ठा ३९, चत्वारिंशत्तमस्याज:-अजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभाद्रपदाः ४०, एकचत्वारिंशत्त नस्याभिवृद्धिः'अभिवुइढिदुगं' अभिवृद्धियोरिति अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदाः ४१, द्विचत्वारिंशत्तमस्याप्युत्तरभाद्रपदा, ४२, त्रिचत्वरिंशत्तमस्याश्वः अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी ४३, चतुश्चत्वारिंशत्तमस्य यमः-यमदेवतोपलक्षिता भरणी ४४, पञ्चचत्वारिंशत्तमस्य बहुला-बहुलदेवतोपलक्षिताः कृत्तिका ४५, षट् चत्वारिंशत्तमस्य रोहिणी ४६, सप्तचत्वारिंशत्तमस्य सोमः-सोमदेवतोपलक्षितं मृगशिरः ४७, 'अदिइदुगं' अदिति द्विकम्, इति-अष्टचत्वारिंशत्तमस्य एकोन पञ्चाशत्तमस्य चादितिः-अदिति देवतोपलक्षितं पुनर्वसुनक्षत्रम् ४८-४९, पञ्चाशत्तमस्य पुष्यः ५०, एकपञ्चाशत्तमस्य पिता-पितृदेवतोपलक्षिताः मघा ५१, द्विपञ्चशत्तमस्य भगः-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः ५२, त्रिपञ्चाशत्तशस्यार्यम-अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः ५३, चतुष्पञ्चाशत्तमस्य हस्तः ५४, अतोऽग्रे 'चित्ता य जिवज्जा अभिई अंताणि अट्ठरिक्खाणि' चित्रा चेति चित्रादीनि अभिजित्पर्यन्तानि ज्येष्ठारहितानि अष्टनक्षत्राणि क्रमेण वक्तव्यानि, तथाहि -पञ्चपञ्चाशत्तमस्य चित्रा ५५, षट् पञ्चाशत्तमस्य स्वातिः ५६, सप्तपञ्चाशत्तमस्य विशाखा ५७, अष्टपञ्चाशत्तमस्यानुराधा ५८ एकोनषष्टितमस्य मूलम् ५९, षष्टितमस्य पूर्वाषाढाः ६०, एकषष्टितमस्योत्तराः षाढाः ६१, द्वाषष्टितमस्याभिजित् ६२, इति । एतानि द्वाषष्टिनक्षत्रानि यथायोगं भुक्त्वा सूर्यः युगस्य पूवार्धे द्वाषष्टिसंख्यकानि Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा०प्रा.२० सू.३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ४०१ पर्वाणि समापयतीति । एवमेव करणवशात् युगस्योत्तरार्धेऽपि द्वाषष्टि पर्वसु सूर्यनक्षत्राणि स्वयमूहनीयानीति । ____ युगस्य चरमदिवसे किं पर्व कियत्सु मुहूर्तेषु गतेषु समाप्तिमेतीत्येतद्विषयारितनः गाथा अत्र प्रदर्श्यन्ते "चउहिं हियम्मि पव्वे, एक्को सेसम्मि होइ कलिओगो । बेसु य दावरजुम्मो, तिसु तेया चउसु कडजुम्मो ॥१॥ कलिओगे तेणउई, पक्खेवो दावरम्मि बावट्ठी । तेओए एक्कतीसा, कड जुम्मे नस्थि पक्खेवो ॥२॥ सेसद्धे तीस गुणे, बावट्ठो भइयंमि जं लद्धं । जाणे तइसु मुहुत्तेसु, अहोरत्तस्स तं पव्वं ॥३॥ छाया-चतुर्भिहेते (भक्ते) पर्वणि, एकस्मिन् शेषे भवति कल्योजः । द्वयोश्च द्वापरयुग्मः, त्रिषु त्रेतौजः चतुर्षु कृतयुग्मः ॥१॥ कल्योजे त्रिनवतिः प्रक्षेपो द्वापरे द्वाषष्टिः । त्रेतौजे एकत्रिंशत्, कृतयुग्मे नास्ति प्रक्षेपः ॥२॥ शेषार्धे त्रिंशद्गुणिते द्वाषष्टि भाजिते यल्लब्धम् । जानीयात् तावत्केषु मुहूर्ते अहोरात्रस्य तत् पर्व ॥३॥ इति एतासां व्याख्या-'चउहि' इत्यादि, 'पव्वे' पर्वणि पर्वराशौ 'चउहिं हियमि' चतुर्भि र्भागे हृते सति ‘एक्के सेसंमि' एकस्मिन् शेषे सति ययेकः शेषोऽवतिष्ठते तदा सः 'होइ कलिओगो' भवति कल्योजः कल्योजो भवति, 'बेसु य दावरजुम्मो' द्वयोश्च शेषयोपिरयुग्मः, 'तिसु तेया' त्रिषु शेषेषु त्रेतौजः, 'चउसु कडजुम्मो' चतुर्यु शेषेषु च कृतयुग्मो भवतीति ॥१॥ अर्थतेषु प्रक्षेपराशिमाह-'कलिओगे' इत्यादि 'कलि ओगे' कल्योजे कल्योजराशौ 'तेणउई त्रिनवतिः 'पक्खेवो' प्रक्षेपः प्रक्षेपणीयो राशिः, 'दावरम्मि बावट्ठी' द्वापरे द्वापरराशौ द्वाषष्टिः द्वाषष्टिराशिः प्रक्षेपणीयो भवति, 'तेऊएएक्कतीसा' त्रेतौजे एकत्रिंशत् , 'कडजुम्मे नत्थि पक्खेवो' कृतयुग्मे न कोऽपि प्रक्षेपः प्रक्षेपणीयो राशिनं भवतीति ॥२।। एवं प्रक्षेपे कृते तेषां प्रक्षिप्तप्रक्षेपाणां पर्वराशीनां चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन (१२४) भागो हियते, भागे हृते यच्छेषं तस्य किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिमाह'सेसद्धे' इत्यादि, 'सेसद्धे' शेषार्ध शेषस्य भागावशिष्टस्याधं क्रियते, तस्मिन् 'तीसगुणे' त्रिंशद्गुणिते त्रिंशता गुणनं क्रियते, ततस्तस्य 'बावट्ठीभाइए' द्वाषष्टि भाजिते द्वाषष्टया भागेहृते सति 'जं लद्धं' यलब्धं यो राशिर्लब्धः, 'तइसु मुहुत्तेसु' तावत्केषु मुहूर्वेषु भागलब्धराशि Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसू परिमितेषु मुहूर्तेषु, कस्य ? 'अहोरत्तस्स' अहोरात्रस्य तावत्परिमितेषु मुहूर्तेषु 'तं पव्वं तत्पर्व समाप्तं भवति 'जाणे' जानीयात् । भागे हृते यो राशिः शेषोऽवतिष्ठते तं राशि मुहूर्तस्य भागरूपं जानीयात् यत्-एकस्य मुहूर्तस्य एतावन्तो भागा इति । तद्विवक्षितं पर्व चरमेऽहोरात्रे सूर्योदयादनन्तरं तावत्सु मुहूर्तेषु तावत्सुच मुहूर्तभागेषु व्यतीतेषु परिसमाप्तिं प्राप्तमिति ज्ञातव्यमिति ॥३॥ _गता करणगाथा व्याख्या, अथ तद्भावना प्रदर्यते-अत्र कोऽपि पृच्छेत्-प्रथमं पर्वचरमेऽहोरात्रे कति मुहूर्तातिक्रमेण परिसमाप्तिं गतम् ? इति प्रश्ने प्रथमं पर्व पृच्छात्वेन एकः स्थाप्यते, अयमेकरूपो राशिः कल्योजः 'कलिओगे तेणउई' इति वचनादत्र त्रिनवतिः प्रक्षेपणीया, प्रक्षेपणे जाता चतुर्नवतिः (९४) अस्य चतुर्विशत्यधिकेन शतेन (१२४) भागो वियते एकस्मिन् युगे पूर्वाद्धे उत्तरार्धं च पर्वणां चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यकत्वात् । अत्र भाजकाद् भाज्यस्य स्तोकत्वाद् भागो न लभ्यते ततो यथासंभवं करणलक्षणं कर्त्तव्यम् तत्र चतुर्नवतेरधं क्रियते जाताः सप्तचत्वरिंशत् (४७), एते त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि चतुदशशतानि दशोत्तराणि (१४१०) एषां द्वाषष्टया भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः (२२) शेषातिष्ठन्ति षट्चत्वारिंशत् (४६), ततश्छेद्य-छेदकराश्योरर्धेनापवर्तना क्रियते तत्र छेधराशेः षट्चत्वरिंशद्रूपस्यार्धं त्रयोविंशतिः (२३) छेदकराशेषिष्टिरूपस्यार्धमेकत्रिंशत् (३१)तेन लब्धास्त्रयोविंशतिरेकत्रिंशद्रागा (३) तत आगतम्-प्रथमं पर्व चरमेऽहोराने द्वाविंशति मुहूर्तान, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिमेकत्रिंशद्भागान् (२२-२३) अतिक्रम्य समाति मतमिति ।१॥ ___अथ द्वितीयपर्वप्रश्ने प्राह-द्वितीयपर्वप्रश्नत्वेन द्विको ध्रियते, स च द्वापरयुग्मराशिरिति 'दावरम्मि बावट्ठी' इति वचनादत्र द्वाषष्टिः प्रक्षिप्यते जाता चतुष्षष्टिः (६४) इयं चतुविंशत्यधिकशतेन भागं न लभते स्तोकत्वात् ततोऽस्या अर्ध क्रियते जाता द्वात्रिंशत् (३२) सा त्रिंशता गुण्यते जातानि षष्टयधिकानि नवशतानि (९६०) तेषां द्वाषष्टया भागो हियते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः (१५), पश्चात्तिष्ठाते त्रिंशत् , ततश्छेद्यच्छेदकराश्योरघेनापवर्तना करणे लब्धाः पञ्चदश एकत्रिंशदभागाः (१५), तत आगतम् द्वितीय पर्व चरमेऽहोरात्रे पञ्चदशमुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चदशैकत्रिंशद्भागानाम् ११५-१५) अतिक्रमणे समाप्तं भवतीति ।२। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा.प्रा.२०.३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ४०६ अथ तृतीयं पर्व प्राह-अत्र तृतीय पर्व पृच्छात्त्वेन त्रिको राशिः स्थाप्यते, स च त्रेतौजराशि रिति 'तेओए एकतीसा' इति वचनात् अत्र एकं त्रिंशत् प्रक्षिप्यते, जाताश्चतुस्त्रिंशत् (३४), एते चतुर्विशत्यधिकशतेन भागं न लभन्ते, तत स्तस्यार्धं क्रियते जाताः सप्तदश (१७) एते त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि दशोत्तराणि पञ्च शतानि(५१०), एषां द्वाषष्टया भागो हियते, लब्धा अष्टौ (८) शेषाः स्थिताश्चतुर्दश (१४), ततश्छेद्यच्छेदकराश्योरपवर्त्तनायां कृतायां लब्धाः सप्तएकत्रिंशद्भागाः (-) तत आयातम्-तृतीयं पर्व चरभेऽहोरात्रेऽष्टौ मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्तस्य सप्त एकत्रिंशद्भागान् (८७) अतिक्रभ्य समाप्तिमेतीति ।।३।। ___ अथ चतुर्थपर्वविषये प्रोच्यते-चतुर्थपर्वपृच्छयां चतुष्को राशिः स्थाप्यते (४)। अयं च कृतयुग्मराशि रिति 'कडजुम्मे नत्थि पक्खेवो' इति वचनादत्र न किमपि प्रक्षिप्यते । एते चत्वार श्चतुर्विशत्यधिकशतेन भागं न लभन्ते ततोऽस्या क्रियते जातौ द्वौ, एतौ त्रिंशता गुण्येते जाता षष्टिः (६०), एतस्या द्वाषष्टया भागो न प्राप्यते स्वल्पत्वात् , ततश्छेद्यच्छेदक राश्योरर्धेनापवर्तना करणेन जाता स्त्रिंशदेकत्रिंशद्भागाः । तत आगतम्-चतुर्थ पर्व चरमेऽहोरात्रे मुहूर्तस्य त्रिंशदेव त्रिंशद्भागानतिक्रम्य समाप्तिमेतीति ।४।। अनयैव रीत्या शेषेष्वपि पञ्चमपर्वत आरभ्य त्रयोविंशत्यधिशतपर्यन्तेषु पर्वसु भावना कर्तव्येति । अथ चतुर्विशत्यधिकशततमपर्वविषये प्राह एकस्य युगस्य पञ्चवर्षात्मकस्याभिवद्धित मासद्वयसंभवात् पूर्वार्द्ध द्वाषष्टिः, उत्तरार्धेऽपि द्वाषष्टिरिति मिलित्वा सर्वाणि चतुर्विशत्याधिकशत (१२४) संख्यकानि पर्वाणि भवन्ति, तत्रान्तिम चतुर्विशत्यधिक शतरूपो राशिरत्र स्थाप्यते (१२४), अस्य च चतुर्भिर्भागे हते न किमपि शेषमवतिष्ठते इत्ययं कृतयुग्मोराशिस्ततः 'कडजुम्मे नत्थि पक्खेवो' इत्यत्र न किमपि प्रक्षिप्यते, ततश्चतुर्विशत्यधिकशतेन भागे हते जातो राशि निलेपः, न किमप्यवशिष्यते तत आगतम्-सम्पूर्ण जरमम होरात्रं भुक्त्वा चतुर्विशत्यधिकशततमं पर्व समाप्तं भवतीति ।।सू० ३॥ ॥ इति युगसंवत्सरप्रकरणं समाप्तम् । तदेवमुक्तो युगसंवत्सरः, सम्प्रति प्रमाणसंवत्सरमाह--'ता पमाणसंवच्छरे' इत्यादि । मूलम्-ता पमाणसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-नक्खत्ते १ चंदे २, उऊ ३ आइच्चे ४ अभिवढिए ५॥ सू० ४॥ छाया-तावत् प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नाक्षत्रः १, चान्द्रः २, आर्तवः ३ आदित्यः ४ अभिवद्धितः ५॥ सू० ४ ॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे व्याख्या--'ता' इति, 'ता' तावत् 'पमाणसंवच्छरे' प्रमाणसंवत्सरः प्रमाणनामकः संवत्सरः 'पंचविहे पण्णत्ते' पञ्चविधः प्रज्ञप्तः कथितः, 'तं जहा' तद्यथा-- ते यथा-'नक्खत्ते' नक्षत्रः--नक्षत्रसंवत्सरः १ 'चंदे' चान्द्रः चन्द्रसंवत्सरः २, 'उऊ' ऋतु:-ऋतु संवत्सरः ३, 'आइच्चे' आदित्यः-आदित्य संवत्सरः ४. 'अभिवडदिए' अभिवर्द्धितः-अभिवर्द्धितसंवत्सरश्च ५, इदं प्रमाणसंवत्सरस्य पञ्चविधत्वमुक्तम् , तत्र नक्षत्रसंवत्सरस्य, चन्द्रसंवत्सरस्य, अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य च सविस्तरं स्वरूपं पूर्वमुपदर्शितमेव, अत्र ऋवादित्यसंवत्सरयोः स्वरूपं विविच्यतेतत्र संवत्सर इति किम् ! तदर्शयति द्वे घटिके एको मुहूर्तः ते त्रिंशद् एकोऽहोरात्रः, परिपूर्णाः पञ्चदशाहोरात्राः-एकः पक्षः, द्वौ पक्षौ एको मासः, ते द्वादशमासाः परिपूर्णा भवेयुस्तदा एकः संवत्सरो भवति । तत्र यस्मिन् संवत्सरे परिपूर्णानि षष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६०) अहोरात्राणां भवन्ति स ऋतु संवत्सरः कथ्यते । ऋतवो हि वसन्तादयो लोकप्रसिद्धाः, तत्प्रधानः संवस्सरः ऋतुसंवत्सरः । अस्य संवत्सरस्यापरमपि नामद्वयं विद्यते, तथाहि-कर्म संवत्सरः सवनसंवत्सरश्च, तत्र कर्मेतिलौकिको व्यवहारः, तत्प्रधानः संवत्सरः कर्मसंवत्सरः यतोलोके प्रायः सर्वोऽपिव्यवहारोऽनेनैव संवत्सरेण जायते, तथा चैतत्सम्बन्धिनं मासमधिकृत्यान्यत्र प्रोक्तम्--- "कम्मो निरंसयाए, मासो बवहारकारगो लोए । सेसा उ संसयाए, ववहारे दुक्करो घेत्तुं ॥१॥" छाया-कर्म :-कर्ममासो निरंशतया मासो व्यवहार कारको लोके । शेषास्तु सांशतया व्यवहारे दुष्कराग्रहीतुम् ॥१॥ इति ॥ अयं कर्ममासो निरंशो भवति, निरंशः अंशरहितः परिपूर्ण त्रिंशदहोरात्रप्रमाणः, शेषा मासाः सांशाः अंशसहिता भवन्ति, अंशास्तु त्रिंशदहोरात्राणामुपरि घटिकादि रूपाः कथ्यन्ते, अतोऽन्ये मासा सांशतया व्यवहारे ग्रहीतुं दुष्करा भवन्ति, अत ऋतुसंवत्सरगतो मासः कर्म मासः कथ्यत इति भावार्थः । अस्यापरंनाम सवनसंवत्सरः, तत्र सवनमिति कर्मसु प्रेरण, प्रू प्रेरणे इति धातोः सवनं सिध्यति, सवनसंवत्सरः प्रेरणाप्रधानः संवत्सर इति, अनेन व्यवहारे प्रेरणा जायते, तत्प्रधानः संवत्सरः सवनसंवत्सरः कथ्यते, उक्तञ्च "बेनालिया मुहुत्तो, सट्ठी उण नालिया अहोरत्तो । पन्नरस अहोरत्ता, पक्खो तीसं दिणा मासो ॥१॥ संवच्छरो उ बारस, मासा पक्खा यत्ते चउव्वीसं । तिन्नेव सया सहा, हवंति राइंदियाणं तु ॥२॥ एसो सकमो भणिओ, नियमा संवच्छरस्स कम्मस्स । कम्मोत्ति सावणो-त्तिय, उउ इत्ति तस्स नामाणि ॥३॥" Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिक टीका प्रा० १० प्रा. प्रा. २० सू० ४ प्रमाणसंवत्सरनिरूपणम् ४०५ छाया--द्वे नाडिके (घटिके) मुहूर्तः, षष्टिः पुन नाडिकाः अहोरात्रः । पञ्चदश अहोरात्राः पक्षः त्रिंशदिनानि मासः ॥१॥ संवत्सरस्तु द्वादश मासाः, पक्षाश्च ते चतुर्विशतिः । त्रीण्येवशतानि षष्टयधिकानि भवन्ति रात्रिन्दिवानां तु ॥२॥ एषस्तु क्रमो भणितः, नियमात् संवत्सरस्य कर्मणः । कर्म इति सावन इति च ऋतुरिति च तस्य नामानि ॥३॥ इति । अथ च यावता कालेन प्रावृडादयः षडपि ऋतवः परिपूर्णाः प्रवृत्ता भवन्ति तावत्परिमितः कालविशेष आदित्य संवत्सरो भवति ऋतुपरिवर्तनस्यादित्याधीनत्वात् उक्तञ्च "छप्पि-उ ऊ परियट्टा एसो संवच्छरो उ आइच्चो" षडपि ऋतुपरिवर्ताः एष संवत्सरस्तु आदित्यः, इतिच्छाया । लोके यद्यपि षष्टयहोरात्रप्रमाणः प्रावृडादिक ऋतुः प्रसिद्धाऽस्ति तथापि वस्तुतः स एकषष्टयहोरात्रप्रमाणा वेदितव्यः, तथैवोत्तर कालमव्यभिचारदर्शनात् , अतएव चास्मिन् आदित्यसंवत्सरे षट् षष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६६) रात्रिन्दिवानां भवन्ति । आदित्यमासः सार्ध त्रिंशदहोरात्र परिमितो, भवति, तत एतत्परिमितैर्वादशभिश्च मासैरादित्यसंवत्सरो भवति, उक्तंचान्यत्रापि पञ्चस्वपि संवत्सरेषु रात्रिन्दिवानां यथोक्तं परिमाणम् -- "तिन्नि अहोरत्तसया, छावट्टा भक्खरो हवइ वासो। तिन्ना सया पुण सट्ठा कम्मो संवच्छरो होइ ॥१॥ तिन्नि अहोरत्तसया, चउ पन्ना नियमसो हवइ चंदो । भागो य बारसेव य वावटि कएण छेएण ॥२॥ तिन्नि अहोरत्तसया, सत्तावीसा य होति नक्खत्ता । एक्कावन्नं भागा, सत्तट्टिकरण छेएण ॥३॥ तिन्नि अहोरत्तसया, तेसीईचेव होइ अभिवड्ढी । चोयालीसंभागा, वावट्टिकरण छेएण ॥४॥ छाया--त्रीणि अहोरात्रशतानि षट् षष्टयधिकानि (३६६) भास्करे भवति वर्षः । त्रीणि शतानि पुनः षष्टयधिकानि (३६०) अहोरात्राणां) कर्मसंवत्सरो भवति ॥१॥ त्रीणि अहोरात्रशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि (३५४) (अहोरात्राणां) नियमतो भवति चान्द्रः (संवत्सरः)। भागश्च द्वादशैव च द्वाषष्टिकृतेन छेदेन(३५४१२) ॥२॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ चन्द्रप्रतिसूत्र त्रीणि अहोरात्रशतानि सप्तविंशत्यधिकानि च भवन्ति नाक्षत्रः । एक पञ्चाशद् भागा सप्तषष्टिकृतेन छेदेन (३२७५१) ॥३॥ त्रीणि अहोरात्रशतानि त्र्यशीत्यधिकानि (अहोरात्राणां) चैव भवति अभिवर्द्धितः । (संवत्सरः) चतुश्चत्वारिंशद् भागा द्वाषष्टिकृतेन छेदेन (३ इति । ३२७ ४४/६२/ पञ्च संबत्सराहोरात्र कोष्ठकम् संख्या । संवत्संरनामानि अहोरात्र संख्या | भागाः आदित्यसंवत्सरः ३६६ कर्मसंवत्सरः ३६० चन्द्रसंवत्सरः ३५४ १२/६२ नक्षत्रसंवत्सरः ५१/६७ अभिवर्धितसंवत्सरः ३८३ प्रत्येक संवत्रस्याहोरात्रपरिमाणमग्रे वक्ष्यति, प्रस्तावादिहाप्युक्तम् । अथ संवत्सराहोरात्र प्रमाणान्मासाहोरात्रसंख्या कति भवतीति प्रदर्श्यते-तथाहि सूर्यसंवत्सरः षद षष्टयधिक शतत्रयाहोरात्रपरिमितो (३६६) भवति, द्वादशभिश्च मासैरेकः संवत्सरो भवति, तत्र षट्पष्टयधिकानां त्रयाणां शतानां द्वादशभिर्भागो न हियते ततोऽर्धं क्रियते ततोलब्धमेकस्य दिवसस्यार्ध मित्येतावत्परिमाणः सार्धत्रिंशदहोरात्ररूपः सूर्यमासः (३०॥) १ । द्वितीयस्य कर्मसंवत्सरस्य षष्टयधिकानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दिवानां (३६०) भवन्ति, तेषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धास्त्रिंशदहोरात्राः (३०) इत्येतत्परिमाणं कर्ममासस्य भवति २ । तृतीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य परिमाणं चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दिवानाम् , एकस्याहोरात्रस्य च द्वादश द्वाषष्टि भागाः, तत्र चतुष्पञ्चाशदधिकानां त्रयाणां शतानां द्वादशभिर्भागो हियते, हृते च भागे लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्राः, तिष्ठन्ति शेषा षडहोरात्राः, एते च द्वाषष्टि भागकरणार्थ द्वाषष्टया गुण्यन्ते, जातानि द्विसप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३७२), एतेषु ये उपरितना द्वादश द्वाषष्टि भागाः स्थितास्ते प्रक्षिप्यन्ते, जातानि चतुरशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३८४) एषां द्वादशभिर्भागे हते लब्धा द्वात्रिशद् द्वाषष्टि भागाः (२९२) एतावत्परिमाणश्चन्द्रमासः ३ । चतुर्थस्य नक्षत्रसंत्सरस्य परिमाणं सप्तविंशत्यधिकानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दिवानाम्, तथा एकस्य च Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा० प्रा.२० सू. ४ प्रमाणसंवत्सरनिरूपणम् ४०७ ६७ रात्रिन्दिवस्य एकपञ्चाशत् सप्तषष्टि भागा (३२७५९) तत्र सप्तविंशत्यधिकानां त्रयाणां शतानां द्वादशभिर्भागे हते लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः तिष्ठन्ति शेषास्त्रयः, एते च सप्तषष्टि भागानयनार्थ सप्तषष्टया गुण्यन्ते, जाते एकोत्तरे द्वे शते (२०१) एषु च ये उपरितना एकपञ्चाशत् सप्तषष्टि भागास्ते प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्विपञ्चाशदधिके द्वे शते (२५२) एषां द्वादशभिर्भागे हूते लब्धा एक विंशतिः सप्तषष्टि भागा (२७२१) एतावत्परिमितो नक्षत्रमासो भवति । अथ पञ्चमस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य परिमाणं त्र्यशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दिवानाम्, एकस्य च रात्रिन्दिवस्य चतुश्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः (३८३ ११) एतावत्परिमाणोऽभिर्द्धितसंवत्सरः । तत्र त्र्यशीत्यधिकानां त्रयाणां शतानां' द्वादशभिर्भागो हरणीयः हृते च भागे लब्धा एकत्रिंशद् अहोरात्राः, तिष्ठिन्ति शेषा एकादशाहोरात्राः, ते च चतुर्विशत्युत्तरशतभागकरणार्थ चतुर्विशत्युत्तरशतेन (१२४) गुण्यन्ते जातानि चतुष्चष्टयधिकानि त्रयोदशशतानि (१३६४), ततो ये चोपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागास्तेऽपि चतुर्विशत्युत्तरशतभागकरणाथै द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जाताऽष्टाशीतिः इयमनन्तरराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि द्विपञ्चाशदधिकानि चतुर्दश शतानि (१४५२), एषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धमेकविंशत्युत्तरंशतम् (१२१) इति एकविंशत्युत्तरशतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागाः (३१- १२१) एतावत्परिमितोऽभिवर्द्धितमासो भवति । आदित्यादि मासाहोरात्र कोष्ठकम् मास नाम मासाहोरात्रसंख्या ( ) आदित्यमासस्य सार्ध त्रिंशदिनानि (३०॥) कर्ममासस्य परिपूर्णा स्त्रिंशदहोरात्राः (३०) एकोनत्रिंशदहोरात्राः (२९-३२ चन्द्रमास्य द्वात्रिंशदद्वाषष्टि भागाः ६२ सप्तविंशतिरहोरात्राः (२७-२१ नक्षत्रमासस्य एकविंशतिःसप्तषष्टिभागाः ६७ एकत्रिंशदहोरात्राः एकविंश (३१-१२१ अभिवर्धितमासाहोरात्रप्रमाणम् त्युत्तरशतं चतुर्विशत्युत्तर १२४ शतभागाः Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे पूर्वोक्त पञ्चसंवत्सरगतमासाहोरात्रपरिमाणप्रतिपादिका वृद्धसम्प्रदायोक्तास्तिस्रो गाथा अत्र प्रदर्श्यन्ते, तथाहि "अइच्चो खलु मासो, तीसं अद्ध च साबणो तीसं । चंदो एगुणतीसं बिसद्विभागा य बत्तीसं ॥१॥ नक्खत्तो खलु मासो, सत्तावीसं भवे अहोरत्ता। अंसा य एक्कवीसा, सत्तट्टिकरण छेएण ॥२॥ अभिवइढिओ य मासो, एक्कतीसं भवे अहोरत्ता । भागसय मेक्कवीसं, चउवीससएण छेएण ॥३॥ छाया-आदित्यः खलु मासः, त्रिंशद् अर्ध च (अहोरात्राः) सावनस्त्रिंशत् । चान्द्र एकोनत्रिंशत् द्वाषष्टिभागाश्च द्वात्रिंशत् ॥१॥ नाक्षत्रः खलु मासः, सप्तविंशतिर्भवेद् अहोरात्राः । अंशाश्च एकविंशतिः सप्तषष्टिकृतेन छेदेन ॥२॥ अभिवर्धितश्च मासः, एकत्रिंशद् भवेद् अहोरात्राः । भागशतमेकविंशतिः चतुर्विंशतिशतेन छेदेन ॥३॥ इति । एतैरेव पञ्चभिः संवत्सरैरेकं प्रागुक्तस्वरूपं युगं भवति, अथैतत् पश्चसंवत्सरात्मकं युगं मासानधिकृत्य प्रमीयते, तत्र युगप्रागुक्तस्वरूपं यदि सूर्यमासैविभज्यते तदा षष्टि सूर्यमासात्मकं युगं भवति, तथाहि-सूर्यमासे सार्धास्त्रिंशद् अहोरात्रा भवन्ति, ते चैकस्मिन् युगे त्रिंशदधिकाष्टादशशतसंख्यकाः (१८३०) भवन्ति । कथमेतद् ज्ञायते ? इति चेदुच्यतेअन्न युगे त्रयश्च संवत्सराः, द्वौचाभिवतिसंवत्सरौ, एवं पञ्च संवत्सरा भवन्ति । एकैक स्मिंश्च चन्द्रसंवत्सरे चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रोणि शतानि (३५४) अहोरात्राणां भवन्ति, तदुपरि एकस्य चाहोरात्रस्य द्वादश द्वाषष्टिभागाः (३५४--) भवन्ति, तत एष राशिः अकस्मिन् युगे चन्द्रसंवत्सराणां त्रिकत्वात् त्रिभिर्गुण्यते, जातानि द्वाषष्टयाधिकानि दशशतानि अहोरात्राणाम्, एकस्य चाहोरात्रस्य षट्त्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः (१०६२२९), तथा - अभिवर्द्धित संवत्सरौ चात्र द्वौ, एकैकस्मिन् अभिवर्द्धितसंवत्सरे चाहोरात्राणां त्र्यशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि, चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टि भागा एकस्याहोरात्रस्य (३८३-) ततोऽभिवर्धितसंवत्सरावत्र द्वाविति एष ६२ राशि द्वाभ्यां गुण्यते जातानि सप्तषष्ट्यधिकानि सप्तशतान्यहोत्राणाम्, एकस्य चाहोरात्रस्य षड़ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwm दर चन्द्राप्ति प्रकाशिका टोका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू. ४ प्रमाणसंवत्सरनिरूपणम् ४०९ विंशति द्वपिष्टि भागाः (७६७२६), तदेवं चन्द्रसंवत्सत्रयस्याऽहोरात्राणाम्-(१०६२२६) अभिवर्द्धितसंवत्सरद्वयस्य च अहोरात्राणां (७६७२६) च संमीलने सर्वाहोरात्राणां त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) भवन्ति, सूर्यमासश्च पूर्वोक्तरीत्या सार्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः (३०॥) इति तेन भागे हते लभ्यते च स्पष्टमेव षष्टि (६०)। एवं युगमध्ये सूर्यमासा षष्टि रिति सिद्धम् । ___अथ युगं सावनमासैविभज्यते, तथाहि सावन (कर्म) संवत्सरस्य तु एकस्मिन् युगे एकषष्टिर्मासाः ६१ भवन्ति । कथमित्याह-एकस्मिन् युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सराः, द्वौ चाभिवर्धितसंवत्सरौ इति द्वयाहोरात्रमीलने त्रिंशदधिकान्यष्टादशाहोरात्रशतानि (१८३०) भवन्तीति पूर्वमुक्तमेव ततः सावनमासस्य त्रिंशदिनमानत्वान् पूर्वोक्तो (१८३०) राशि स्त्रिंशता भज्यते इते च भागे लब्धा एकषष्टि रिति सावनसंवत्सरस्यैकस्मिन् युगे एकषष्टिर्मासा भवन्तीति सिद्धम् २ । अथ युगं चन्द्रमासैविभज्यते-तत्र युगे चन्द्रमासा द्विषष्टि भवन्ति, कथमवसीयते ? इति चेदाह- चन्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशदहोरात्राः, एकस्याहोरात्रस्य च द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः २९३२) ततः प्रथममेकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वाषष्टिभागकरणार्थ द्वाषष्टया गुण्यन्ते जातानि अष्टानवत्यधिकानि सप्तदशशतानि (१७९८), ततो ये उपरितना द्वात्रिंशद् द्वाषष्टि भागास्तेऽत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०)। ततो येऽपि च पूर्वप्रदर्शिता युग गताश्चन्द्रसंवत्सराभिवर्द्धितसंवत्सराहोरात्रा अष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि (१८३०), तेऽपि द्वाषष्टया गुण्यन्ते, जातास्ते–एको लक्षः, त्रयोदशसहस्त्राणि, चत्वारिशतानि षष्टयाधिकानि (११३४६०) । एतेषां त्रिंशद्धिकाष्टादशतैः (१८३०) चन्द्रमाससम्बन्धिद्वाषष्टि भागरूपैर्भागो हियते लब्धा द्वाषष्टिश्चन्द्रमासा (६२) इत्येकस्मिन् युगे चन्द्रसंवत्सरस्य द्वाषष्टिमासा भवन्तीति सिद्धम् ३॥ अथ तदेव युगं नक्षत्रमासैः परिगण्यते-तत्रैकस्मिन् युगे नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिर्भवन्ति । कथमिति प्रदाते--नक्षत्रमासपरिमाणं सप्तविंशतिरहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः, (२७२१) । तत्र प्रथमं सप्तविंशतिरहोरात्राः सप्तषष्टिभागकरणार्थ सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते जातानि नवोत्तराण्यष्टादशशतानि (१८०९) ततो ये उपरितना एकविंशतिः सप्तषष्टि भागास्तेऽत्र प्रक्षिप्यन्ते, प्रक्षिप्ते च जातानि त्रिंशदधिकाष्टादशशतानि (१८३०) युगस्यापि ये त्रिंशदधिकानि अष्टादशाहोरात्रशतानि (१८३०) तान्यपि सप्तषष्टया गुण्यन्ते जातो राशि:--- Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे एको लक्षः, द्वाविंशतिः सहस्राणि, दशोत्तराणि षट् शतानि च (१२२६१०)। एतेषां त्रिंशदधिकैरष्टादशशतनक्षत्रमाससम्बन्धि सप्तषष्टिभागरूपै भागो हरणीयः, हते च भागे लब्धाः सप्तषष्टिमासाः (६७) एवमेकस्मिन् युगे नक्षत्रसंवत्सरस्य सप्तषष्टिर्मासा भवन्तीति सिद्धम् ४ । तथा यदि अभिवर्द्धितसंवत्सरमासैर्युगं विभज्यते-तत्रैकस्मिन् युगेऽभिवर्द्धितमासाः सप्तपञ्चाशत् (५०) सप्ताहोरात्राः, एकादशमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशति षिष्टिभागाः ( मा. अहो. मु. भागाः ) इत्येतदभिवर्धितमासप्रमाणं भवति । कथमेतदवसीयते ? इत्याह५७- ७-११-२२ ) अभिवर्द्धितमासस्य परिमाणम् एकत्रिंशदहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्राः, ६२ एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशत्युत्तरशतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागाः (३१-१२. ) तत्र एकत्रिंशदहो रात्राश्चतुविंशत्युत्तरशतभागकरणार्थ चतुर्वि शत्युत्तरशतेन गुण्यन्ते, जातानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि अष्टत्रिंशच्छतानि (३८४४) तत उपरितनमेकविंशत्युत्तरं शतमत्र प्रक्षिप्यते, जातानि-पञ्चषष्ट्यधिकानि एकोनचत्वारिंशच्छतानि(३९६५ )। ये च पूर्वोक्तास्त्रिंशदधिकाष्टादशशतसंख्यका युगस्याहोरात्राः (१८३०) ते चतुर्विशत्युत्तरेण शतेन गुण्यन्ते, जातो राशिः-डे लक्षे षविंशतिः सहस्राणि, नवशतानि, विंशत्यधिकानि च (२२६९२०) इत्येतत्परिमितः । तत एषामेकोन चत्वारिंशच्छतैः पञ्चषष्टयधिकैरभिवर्द्धितमाससम्बन्धि चतुर्विशत्यधिकशतभागरूपै भगो हियते लब्धाः सप्तपञ्चाशन्मासाः तिष्ठन्ति शेषाणि पञ्चदशोतराणि नवशतानि ( ९१५ ) तेषामहोरात्रानयनाथ चतुर्विंशत्यधिकशतेन भागो हियते, लब्धाः सप्ताहोरात्राः, तिष्ठन्ति शेषाः सप्तचत्वारिंशत् चतुर्विशत्युत्तरशतभागाः। तत्र चतुर्भिर्भागः, एकस्य च भागस्य चतुर्भिस्त्रिंशद्भागः ( ४--) एको मुहूर्तो भवते, तथाहि-एकस्मिन्नहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ता भवन्ति, एकस्मिन्नहोरात्रे च चतुर्वि शत्युत्तरमेकं शतं (१२४) भागानां कल्प्यते, ततस्तस्य चतुर्विशत्युत्तरशतस्य त्रिंशता भागो हियते, लब्धाश्चत्वारो भागाः, शेषा एकस्य च भागस्य-सम्बन्धिनश्चत्वारस्त्रिंशद् भागाः (४-- ) एतद् एकस्य मुहूर्तस्य परिमाणं जातम् । ततः पञ्चचत्वारिंशद्भागः, एकस्य भागस्य सत्कैश्चतुदशभिस्त्रिशद्भागः ( ४५-११ )एकादशमुहूर्त्ता लब्धाः कथमित्याह-पूर्व सप्तरात्रिन्दिवलाभान न्तरं स्थिताः सप्तचत्वारिंशत् चतुर्विं शत्युत्तरशत भागाः । (७एतेभ्य एकादशमुहूर्ताः Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ चन्द्रातिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा०प्रा.२० सू. प्रमाणसंवत्सरनिरूपणम् ४११ (४५-१४ ) पूर्वोक्तरूपा गताः, शेषस्तिष्ठत्येको भागः, एकस्य भागस्य च सत्काः षोडशत्रिंशद्भागाः-( १-१६ )। अस्य त्रयोविंशतिषिष्टिभागाः ( २३ ) कथं भवन्तीत्याह-अस्यैकस्य भागस्य, षोडशानां त्रिंशद्भागानां च सर्वे षट् चत्वारिंशत् त्रिंशद्भागा जाताः, एते च किल एकस्य मुहर्तस्य चतुर्विशत्युत्तरशतभागसम्बन्धिनः सन्ति, ततः षट्चत्वारिंशतः ( ४६ ), चतुर्वि शत्युत्तरशतस्य ( १२४ ) च द्विकेनापवर्तना क्रियते, लब्धा एकस्य मुहूर्तस्य त्रयोविंशति षिष्टिभागाः (२२)। तदेव मेकस्मिन् युगेऽभिवर्द्धि तसंवत्सरमासाः-सप्तपञ्चाशन्मासाः सप्ताहोरात्राः, एकादश मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिषिष्टिभागाः ( मा० अहो० मु० भागा) एता (५७-७- ११ २३) एताव परिमिता भवन्तीतिसिद्धम् । उक्तं चान्यत्रापि ---- "तत्थ पडिमिज्जमाणे, पंचहि माणेहिं पुव्वगणिएहिं । मासेहि विभज्जंता, जइ मासा होति तेवोच्छ ॥१॥ अत्र 'तत्थ' इति तत्र ‘पचहिं माणेहि' इति पञ्चभिर्मानैः-मान संवत्सरैः प्रमाण संवत्सरैरादित्यचन्द्रादिभिरित्यर्थः, 'पुव्वगणिएहिं' पूर्वगणितैः-प्राक् प्रतिसंख्यातस्वरूपै 'पडिमिज्जमाणे' प्रतिमीयमाने-प्रतिगण्यमाने 'मासेहि' मासैः-सूर्यादिमासैः । शेषं सुगममिति ॥१॥ उक्तञ्च-युगसम्बन्धि पञ्चसंवत्सरमासविषये--- "आइच्चेण उ सट्ठी, मासा उउणो उ होंति एगट्ठी । चंदेण उ बा-वट्ठी, सत्तट्ठी होति नक्खत्ते ॥ १॥ सत्तावणं मासा सत्तय राइंदियाई अभिवड्ढे । इक्कारस य मुहुत्ता बिसट्ठि भागा य तेबीसं ॥ २ ॥ छाया-आदित्येन तु ( विभज्यमानाः ) षष्टिर्मासाः ६० ( युगे ) ऋतोस्तु ( मासाः ) भवन्ति एकषष्टिः । ६१। चन्द्रेण तु (विभज्यमाना मासाः) द्वाषष्टिः ६२ सप्तषष्टिर्भवन्ति नक्षत्रे ॥१॥ सप्तपञ्चाशद् मासाः ५७ सप्त च रात्रिन्दिवानि, अभिवर्द्धिते । एकादश च मूहूर्ताः ११ द्विषष्टिभागाश्च त्रयोविंशतिः (२२ ॥२॥ इति सू० ४॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ चन्द्रप्रशतिसूत्रे साम्प्रतं-लक्षणसंवत्सरमाह- 'ता लक्खण संवच्छ रे' इत्यादि । मूलम् - ता लक्खण संवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा - नक्खत्ते, १ चंदे उऊ ३, इच्चे ४, अभिवइढिए ५, ता लक्खणसंवच्छरे पंचविहा लक्खणा पण्णत्ता, - तं जहा“समगं णक्खत्ता जोयं जोएंति समगं उऊपरिणमति । नच्चण्हेंनाइसीए, बहुउदए होइ णक्खते ॥१॥ ससि समग पुण्णमार्सि, जोईति विसमचारि णक्खत्ता । कडुओ बहुउदओ य, तमाहु संवच्छरं चंदं ॥२॥ विसमं पवालिणो परिणमंति अणु ऊसुदिति पुप्फफलं । वासं न सम्म वासइ, तमाहु संवच्छरं कम्मं ॥३॥ पुढवि दगाणं च रसं, पुप्फ फलाणंच देइ आइच्चे । अप्पेण वि वासेणं, सम्मं निष्फज्जए सस्सं ॥४॥ आइच्च तेयतविया, खण लवदिवसाउऊ परिणमंति । घूरेइ निण्णथलए, तमाहु अभिवढियं जाण ॥ ५ ॥ ता सणिच्छर संवच्छरणं अट्ठावीसइ विहे पण्णत्ते, तं जहा - अभिई १ सवणे २ जाव उत्तरासाठा २८ । जंवा सणिच्छरे महग्गहे तीसाए संवच्छरेहिं सव्वं, णक्खत्तमंडलं समाणे । ॥सूत्र ||५|| दसमस्स पाहुडस्स वीसइमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ १०-२० ॥ छाया - तावत् लक्षणसंवत्सरः परत्रविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - नाक्षत्रः १. चान्द्रः २, आर्त्तवः ३, आदित्यः ४, अभिवर्द्धितः ५ । तावत् लक्षण संवत्सरे पञ्चविधानि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा " समकं नक्षत्राणि योगं युञ्जन्ति, समकम् ऋतवः परिणमन्ति । नात्युष्णः नातिशीतः, बहूदको भवति नाक्षत्रः ॥ १ ॥ शशिसमकपूर्णमासीं योगं युञ्जन्ति विषमचारिनक्षत्राणि । कटुको बहूदकश्च तमाहु संवत्सरं चान्द्रम् ॥ २ ॥ विषमं प्रवालिनः परिणमन्ति अनृतुषु ददति पुष्पफलम् । वर्ष न सम्यक् वर्षति, तमाहुः संवत्सरं कामम् ॥ ३ ॥ पृथिव्युदकानां च रस, पुष्पफलानां च ददाति आदित्यः । अल्पेनाऽपि वर्षेण, सम्यग् निष्पद्यते सस्यम् ॥ 8 ॥ आदित्य तेजस्तप्ताः, क्षणलवदिवसाऋतवः परिणमन्ति । पूरयति निम्नस्थलकान्, तमाहु अभिवर्द्धितं जानीहि ॥ ५ ॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा० प्रा०२० सू. ५ लक्षणसंवत्सरनिरूपणम् ४१३ __ तावत् शनैश्चर संवत्सरः खलु अष्टाविंशतिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अभिजित् १ श्रवणः २ यावत् उत्तराषाढा । यद्वाशनैश्चरो महाग्रहः त्रिशद्भिः संवत्सरैः सर्वं नक्षत्रमण्डल समानयति । सू० ५॥ ॥दशमस्य प्राभृतस्य विशतितमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१८-२०॥ व्याख्या-'ता लक्खणसंवच्छरे' इति, 'ता' तावत् 'लक्खणसंवच्छरे' लक्षणसंवत्सरः पूर्वोक्तरूपः 'पंचविहे' पञ्चविधः पञ्चप्रकारकः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः कथितः, 'तं जहा' तद्यथा-ते यथा 'णक्खत्ते' नाक्षत्रः नक्षत्रसंवत्सरः १, 'चंदे' चान्द्रः चन्द्रसंवत्सरः २, 'उऊ' आर्त्तवः ऋतुसंवत्सरः ३, 'आइच्चे' आदित्यः आदित्यसंवत्सरः ४, 'अभिवढिए' अभिवर्द्वितः अभिवतिसंवत्सरः पञ्चमः ५ । ते नक्षत्रादि संवत्सराः यथोक्तरात्रिन्दिवप्रमाणरूपलक्षणोपेता केवलं न भवति किन्तु तेभ्यः पृथग्भूता अन्यलक्षणोपेता अपि भवन्तीत्याह-'ता लक्खणसंवच्छरे' इत्यादि 'ता' तावत् 'लक्खणसंवच्छरे' लक्षणसंवत्सरे नाक्षत्रादि पञ्च संवत्सरात्मके 'पंचविहा लक्खणा' पञ्चविधानि, लक्षणानि प्रत्येकस्मिन् पृथक् पृथक् प्रकारकाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि कथितानि 'तं जहा' तद् यथा-तानि यथा-तत्र प्रथमं नाक्षत्रसंवत्सरलक्षणानि प्रदर्शन्ते–'समगं' इत्यादि, यस्मिन् संवत्सरे 'समगं' समकम्-एककालमेव ऋतुभिः सहैव 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि उत्तराषाढा प्रभृतीनि 'जोयं जोएंति' योगं युञ्जन्ति चन्द्रेण सह योगं कुर्वन्ति, तां पौर्णमसी परिसमापयन्तीत्यर्थः १ । तथा 'समगं' समकम् एककालमेव 'उऊ' ऋतवः षडपि समकालमेव 'परिणमंति' परिणमन्ति परिणामं प्राप्नुवन्ति तस्मिन् संवत्सरे, तया तया परिसमाप्यमानया पौर्णमास्या सहैव निदाधाद्या ऋतवोऽपि परिसमाप्तिमुपयान्तीति भावः, अयमाशयः यस्मिन् संवत्सरे माससदृशनामकैनक्षत्रैस्तस्य तस्य ऋतोः पर्यन्तवर्ती मासः परिसमाप्यते, तां तां पौर्णमासी परिसमापयत्सु मासेषु तया तया पौर्णमास्या सह निदाधाद्या ऋतवोऽपि परिसमाप्ति मुपयान्ति, तथाहि-यथा उत्तराषाढा नक्षत्रमाषाढी पौर्णमासी परिसमापयति तथा तया आषाढपौर्णमास्या सह निदाध ऋतुरपि परिसमाप्ति प्राप्नोति, अतोऽ सौ नक्षत्रसंवत्सरः नक्षत्रानुरोधेन तस्य तथा तथा परिणमनसद्भावात् २ । तथा 'नच्चुण्हे' नात्युष्णाः न विद्यते अतिशयेन-उष्णरूपः परितापो यस्मिन् स नात्युष्णाः उष्णताधिक्याभावात् ३। तथा नाइसीए' नातिशीतः शैत्याधिक्याभावात् । तथा 'बहृदओ' बहूदकः बहु पुष्कलम् उदकवर्षणं यस्मिन् स बहूदकः वर्षणाधिक्यात् ५ । एतादृश पञ्च लक्षणयुक्तः 'नक्खत्ते' नाक्षत्र: नक्षत्रसंवत्सरः ‘होइ' भवतीति ॥१॥ अथ चान्द्रसंवत्सरलक्षणान्याह-'ससिसमग' इत्यादि, यस्मिन् संवत्सरे विसम चारिणक्खत्ता' विषमचारीणि मासविसदृशनामानीत्यर्थः 'ससिसमग' शशिना समकं शशिना सह 'पुण्णमासिं' तां तां पौर्णमासी 'जोइंति' युञ्जन्ति परिसमापयन्ति तथा यः Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ चन्द्रप्राप्तिसूत्र 'कडुओ' कटुकः शीतातपरोगादिदोषबहुल्येन परिणामदारुणः 'य' च तथा 'बहउदओ' बहूदकः वृष्टि बहुको भवति 'तं संवच्छरं तं संवत्सरं 'चंदं' चन्द्रं 'आहु' आहुः कथयन्ति । अत्र चन्द्रानुरोधात् मासानां परिसमाप्तिर्भवति, न तु माससदृशनामनक्षत्रानुरोधादिति ॥२॥ अथ कर्मसंवत्सरलक्षणान्याह-'विसमं पवालिणो' इत्यादि, यस्मिन् संवत्सरे 'पबालिणो' प्रवालिनः वनस्पतयः ‘विसम' विषमं विषमकालं कालवैपरीत्येन 'परिणमंति' परिणमन्ति प्रवालाङ्कुरादित्या परिणाम प्राप्नुवन्ति तथा ते एव वृक्षादि वनस्पतयः 'अणु ऊहा' अनृतुषु स्व स्व ऋतु विपरीतकालेऽपि 'पुप्फफलं' पुष्पफलं पुष्पाणि फलानि च 'दिति' ददति प्रयच्छन्ति स्व स्व ऋत्वभावेऽपि वृक्षाः फलन्तीत्यर्थः तथा 'वासं' वर्षं वृष्टिं 'न सम्मवासइ' न सम्यग् वर्षति यथाकालं वृष्टिरपि न भवति 'तं संवच्छरं' तं तादृशं संवत्सरं 'कम्म' काम कर्मसंवत्सरं 'आहु' आहुः कथयन्ति ॥३॥ साम्प्रतं सूर्यसंवत्सरलक्षणान्याह-'पुढविदगाणं' इत्यादि । यस्मिन संवत्सरे 'पुढविदगाणं' पृथिव्युदकानां पृथिव्या उदकानां च, 'च तथा 'पुप्फफलाणं' पुष्पफलानां' पुष्पानां फलानां च 'ईसं' रसम् 'आइच्चे' आदित्यः सूर्यः ददाति पृथिवीं परिमित सरसतापप्रभावान्मधुरादि रसबहुला, उदकं माधुर्यस्वास्थादि गुणयुक्तं पुष्पाणि चम्पकादीनि सुगन्धबहुलानि, फलानि आम्रादीनि अतिशयरसयुक्तानि चादित्यः करोतीति भावः । तथा तत्प्रभावात् 'अप्पेण वि वासेण' अल्पेनापि वर्षेण स्वल्प वृष्टयाऽपि तथाविधसरसजलप्रभावात् 'सस्सं' सस्यं धान्यं 'सम्म' सम्यक् परिपूर्णतया 'निप्फज्जए' निष्पद्यते निष्पन्नं भवति, एतादृशं संवत्सरं आदित्यसंवत्सरं कथयन्ति । ४॥ अभिवतिसंवत्सरलक्षणान्याह-'आइच्चतेयतविया' इत्यादि । यस्मिन्संवत्सरे ‘खणलवदिवसा' क्षणलवदिवसाः तत्र क्षणः कतिपयावलिकारूपः लवः सप्तस्तोकरूपः, तथाहि-असंख्याता. वालीकानामेक आनप्रानः, सप्तानप्राणानामेकः स्तोकः सप्तस्तोकानामेको लवः, तादृशसमय लवरूपो लवः तथा दिवसः अहोरात्रस्त्रिंशन्मुहूर्तात्मकः एते सर्वेऽपि तथा 'उऊ' ऋतवोऽपि षडपि ऋतवः 'आइच्चतेयतविया' आदित्यतेजस्तप्ताः सूर्यातपेन संतप्ताः ‘परिणमंति परिणमन्ते प्रसरिता भवन्ति 'णिण्णथलए' निम्नस्थलान् ‘पूरेइ' पूरयति पांशुना जलेन वा, त संवत्सरं 'अभिवढियं' अभिवर्द्धितं 'जाण' जानीहि ॥५॥ इत्येवं लक्षणसंवत्सरो वर्णितः, साम्प्रतं शनैश्चरसंवत्सरमाह-'ता सणिच्छरेणं इत्यादि 'ता' तावत् 'सणिच्छरसंवच्छरेणं' शनैश्चरसंवत्सरः खलु 'अट्ठावीसइविहे' अष्टाविंशति विधः अष्टाविंशति प्रकारकः ‘पण्णत्त' प्रज्ञप्तः कथितः 'तं जहा' तद्यथा 'अभिई' अभिजित 'सवणे' श्रवणः 'जाव यावत् 'उत्तरासाढा' उत्तराषाढा, अत्र यावत्पदेन धनिष्टात आरभ्य पूर्वाषाढा पर्यन्तानि पञ्चविंशतिनक्षत्रनामानि संग्राह्याणि शनैश्चरमहाग्रहस्याष्टाविंशति नक्षत्रपरिभ्रमणकालमाश्रित्य शनैश्चरसंवत्सरोऽष्टाविंशतिविधः प्रोच्यते, तथाहि-अभिजिदिति Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० ५. लक्षण संवत्सरनिरूपणम् ४१५ यावत्परिमितं कालं शनैश्वरोऽभिजिन्नक्षत्रेण सह योगं करोति तावत्परिमितः कालः अभिजिच्छनैश्वरसंवत्सरः एवं यावत् कालं श्रवणेन सह शनैश्वरो योगं करोति तावत्परिमितः कालः श्रवणशनैश्चरसंवत्सरः कथ्यते । यस्मिन् यस्मिन् संवत्सरे येन येन नक्षत्रेण सह शनैश्चरो योगं युनक्ति स स संवत्सरस्तत्तन्नक्षत्रनाम्ना शनैश्वरसंवत्सरः कथ्यते इति भावः । तथा 'जं वा' यद्वा अथवा सणिच्छरे महग्गहे' शनैश्वरो महाग्रहः 'तीसाए संवच्छरेहि' त्रिंशता त्रिंशत्संख्यकैः संवत्सरैः 'सव्वं नक्खत्तमंडल' सर्वं नक्षत्रमण्डलम् अष्टाविंशतिनक्षत्रात्मकं 'समाणेइ' समानयाति स्व त्या समापयति स कालः त्रिंशद्वर्षात्मकः शनैश्चरसंवत्सरः इत्यपि बोध्यमिति । ॥ सू० ५ || इति श्री चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्ति प्रकाशिकायां टीकायां दशमस्य प्राभृतस्य विंशतितमम् प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् श्रीरस्तु । ।। दशमस्य प्राभृतस्यैकविंशतितमं प्राभृतप्राभृतम् ॥ गतं दशमस्य प्राभृतस्य विंशतितमं प्राभृतप्राभृतम्, तत्र पञ्च संवत्सराः प्ररूपिताः । अथैकविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं निरूप्यते, अत्र पूर्वप्रतिज्ञातं यत् ' जोइसियदाराई' ज्योतिषिक हाराणीति नक्षत्रचक्रस्य द्वाराणि वक्तव्यानि सन्तीति तद्विषयकं सूत्रमाह-- ' ता कहते जोड़सस्स दारा' इत्यादि । मूलम् - ताकते जोइसस्स दारा आहिया ति वएज्जा' तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु ता कत्तियाइया सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता एगे एवमाहंसु || १ || एगे पुण एव माहंसु ता महाझ्या सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता एगे एव माहंसु || २ || एगे पुण्ण एव माहंसु-ता धणिट्ठाइया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, एगे एव माहंसु || ३ || एगे पुणएवमाहंसु-अस्सिणियाइया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु || ४ || एगे पुणएवमाहंसु - ता भरणियाइया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता एगे एवमाहंस ||५|| तत्थ णं जे ते एवमासु ता कत्तियाइया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता ते एवमाहंसु तं जहा - कत्तिया, १ रोहिणी २, ठाणा ३, अद्दा ४, पुणव्वसु ५, पुस्सो ६, असिलेसा ७ ता महाइया सत्तणक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तं जहा - महा १, पुत्राफग्गुणी २, उत्तराफग्गुणी ३, हन्थो ४, चित्ता ५ । साई ६, विसाहा ७ | ता अणुराहाइया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तं जहा अणुराहा १, जेट्ठा २, मूलो ३, पूव्वासाढा ४, उत्तरासाढा ५, अभिई ६, ७ ता धणिट्ठाइया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा - धणिट्ठा १ सयभसया २, पुवापोट्ठवया ३, उत्तरापोवया ४, रेवई ५, अस्सिणी ६, भरणी ७। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ चन्द्रप्र ॥१॥ तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - ता महाझ्या सत्तणक्खत्ता पुन्नदारिया पण्णत्ता ते एवमासु, तं जहा - महा १, पुव्वा फग्गुणी २, उत्तराफग्गुणी ३, हत्थो ४, चित्ता ५, साई ६, विसाहा ७ । ता अणुराहाइया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तं जहा - अणुराहा १, जेट्ठा २, मूले ३, पुव्वासाठा ४, उत्तरासाढा ५, अभिई ६, सवणे ७। ता धणिट्ठाइया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा - घणिडा १, सयभिसया २, पुव्बापोह - वा ३, उत्तरापोवा ४ रेवई ५, अस्सिणी ६, भरणी ७। ता कत्तियाइया सत्तणक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा - कत्तिया १, रोहिणी २, संठाणा ३, अद्दा ४ पुणव्वम् ५, पुस्सो ६, अस्सेसा ७ ॥ २॥ तत्थ णं जे ते एवम सु-ता धणिट्ठाइया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु तं जहा - धणिट्ठा १, सयभिसया २, पुव्वाभद्दवया ३, उत्तराभद्दवया ४, रेवई ५, अस्सिणी ६, भरणी ७ | ता कत्तियाइया सत्त णक्खत्ता दाहि - दारिया पण्णत्ता, तं जहा - कत्तिया १, रोहिणी २, संठाणा ३, अद्दा ४, पुणव्व ५, पुस्सो ६, असेसा ७ ता महाझ्या सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तं जहा - महा १, पुव्वा फग्गुण २, उत्तराफग्गुणी ३, हत्थो ४, चित्ता ५, साई ६, विसाहा ७ । ता अणुराहाइया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा - अणुराहा १, जेट्ठा २, मूलो ३, पूव्वासाढा ४, उत्तरासाठा ५, अभिई ६, सवणो ७ ||३|| तत्थ णं जे ते एवमाहंसु-ता अस्सिणियाइया सत्तणक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता ते एव माहंसु, तं जहा - अस्सिणी १, भरणी २, कत्तिया ३, रोहिणी ४, संठाणा ५, अद्दा ६, पुणव्वसू ७। ता पुस्साइया सत्तणक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता तं जहा - पुस्सो १, अस्सेसा २, महा ३, पुव्वाफ - गुणी ४, उत्तराफग्गुणी ५ हत्थो ६, चित्ता |७| ता साइयाइया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तं जहा - साई १, विसाहा २, अणुराहा ३, जेा ४. मूलो ५, पुव्वासाठा ६, उत्तरासाठा ७। ता अभिइआइया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा- -अभिई १, सवणो २, धणिहा ३ सय भिसया ४ पुव्वभद्दवया ५, उत्तर भइवया ६, रेवई ७ ॥४॥ तत्थ णं जे ते एव माहंमु-ता भरणियाइया सत्त णक्खत्ता पुव्वदा रिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु तं जहा - भरणी १, कत्तिया २, रोहिणी ३, संठाणा ४, अद्दा ५, पुणव्वसू ६, पुस्सो ७। ता अस्सेसाइया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तं जहा - अस्सा १, महा २, पुव्वाफग्गुणी ३, उत्तराफग्गुणी ४, हत्थो ५, चित्ता ६, साई ७ ता विसाहा या सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तं जहा -विसाहा १, अणुराहा २, जेट्ठा ३, मूलो ४, पुव्वासाठा ५, उत्तरासादा ६, अभिई ७ तासणाइया सत्तणक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा - सवणो १, घणिट्ठा २, सर्याभिसया ३, पुब्बापोवा ४, उत्तरपोडवया ५, रेवई ६, अस्सिणी ७| ||५|| एते एवमाहंसु । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिक टीका पा० १० प्रा. प्रा. २१ सू०१ नक्षत्रचक्रद्वारनिरूपणम् ४१७ वयं पुण एवं बयामो-ता अभिइयाइया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, तं जहा-अभिइ १, सवणो २, धणिट्ठा ३, सभिसया ४, पुव्यापोटुवया ५, उत्तरापोटुवया ६, रेवई ७॥ ता अस्सिणियाइया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तं जहा-अस्सिणी १, भरणी २. कत्तिया ३. रोहिणी ४, संठाणा ५, अद्दा ६, पुणव्वसू ७। ता पुस्साइया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तं जहा-पुस्सो १, अम्सेसा २, महा ३, पुव्वाफग्गुणी ४, उत्तराफरगुणी ५, हत्थो ६, चित्ता ७। ता साइयाइया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा-साई १, विसाहा २, अणुराहा ३, जेठा ४, मूलो ५, पुव्वासाढा ६, उत्तरासाढा ७ ॥सूत्र॥१॥ दसमस्स पाहुडस्म एकवीसइमं पाहुडपाहुडं समत्तं । १०-२१॥ छाया-तात् कथं ते जोतिषस्य द्वाराणि आख्यातानि १ इति वदेत् , तत्र खलु इमाः पञ्च प्रतिपत्तय प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्रैके एवमाहुः-तावत् कृत्तिकादिकानि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि यज्ञप्तानि, एके पवमाहुः ।१। एके पुनरेवमाहुः-तावत् मघादिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वारागि प्रज्ञप्तानि, एके एवमाहुः । २। एके पुनरेवमाहुः-तावत् धनिष्ठा दिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, एके एव माहुः । ३ । एके पुनरेवमाहुः-तावत् अश्विन्यादिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, पके एवमाहुः ।४। एके पुनरेवमाहुःतावत् भरण्यादिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, एके एवमाहुः ।५। तत्र खलु ये ते पवमाहः-तावत् कृत्तिकादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि ते एवमाहुः तद्यथा-कृत्तिका १. रोहिणी २, संस्थाना (मृगशिरः) ३, आर्द्रा ४, पुनर्वसुः ५, पुष्यः ६, अश्लेषा ७, तावत् मघादिकानि सप्तनक्षत्राणि दक्षिणद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-मघा १, पूर्वाफाल्गुनो २, उत्तराफाल्गुनी :, हस्तः ४, चित्रा ५, स्वातिः ६, विशाखा ७ । तावत् अनुराधादिकानि सप्तनक्षत्राणि पश्चिमद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा--अनुराधा १, ज्येठा २, मूलः ३, पूर्वाषाढा ४, उत्तराषाढा ५, अभिजित् ६, श्रवणः ७ । तावत् धनिष्ठादिकानि सप्तनक्षत्राणि उत्तर द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा धनिष्ठा १, शतभिषक् २, पूर्वाप्रोष्ठपदा ३, उत्तराप्रोष्ठपदा ४, रेवती :, अश्विन ६ भरणी ७ ॥ १ ॥ तत्र खलु ये ते एवमाहुः-तावत्-मधादिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि ते एवमाहुः, तद्यथा-मघा १, पूर्वाफाल्गुनो २, उत्तराफाल्गुनी ३ हस्तः ४ चित्रा ५ स्वातिः ६ विशाखा ७। तावत् अनुराधादिकानि सप्तनक्षत्राणि दक्षिणद्वाराणि प्रबप्तानि, तद्यथा-अनुराधा १, ज्येष्ठा २, मूलः ३, पूर्वाषाढा ४, उत्तराषाढा ५, अभिजित् ६, श्रवणः ७, । तावत् धनिष्ठादिकानि सप्तनक्षत्राणि पश्चिमद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-धनिष्ठा १, शतभिषक् २, पूर्वा प्रोष्ठपदा ३, उत्तराप्रोष्ठपदा ४, रेवतो ५, अश्विनी ६. भरणो ७ । तावत् कृत्तिकादिकानि सप्तनक्षत्राणि उत्तरद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा कृत्तिका १, रोहिणी २, संस्थाना मृगशिरः) आद्रा ४, पुनर्वसुः ५, पुष्यः ६, अश्लेषा ७, ।। २ ॥ तत्र खलु ये ते एवमाहुः । तावत् धनिष्ठादिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि ते एवमाहुः तद्यथा-धनिष्ठा १, शतभिषक् २, पूर्वाभाद्रपदा ३, Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे उत्तराभाद्रपदा ४, रेवती ५, अश्विनी ६, भरणी ७ तावत् कृत्तिकादिकानी सप्तनक्षत्राणि दक्षिणद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - कृत्तिका १, रोहिणी २, संस्थाना (मृगशिरः) ३, आर्द्रा ४, पुनर्वसुः ५, पुण्यः ६, अश्लेषा | तावत् मघा दिकानि सप्तनक्षत्रोणि पश्चिमद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - मघा १, पूर्वाफाल्गुनी २, उत्तराफाल्गुनी ३, हस्तः ४, चित्रा ५ स्वातिः ६, विशाखा । तावत् अनुराधादिकानी सप्तनक्षत्राणि उत्तरद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथाअनुराधा, १, ज्येष्ठा २, मूलः ३ पूर्वाषाढा ४, उत्तराषाढा ५, अभिजित् ६, श्रवणः ७, ॥३॥ तत्र खलु ये ते एवमाहुः -- तावत् अश्विन्यादिकानी सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, ते एवमाहुः तद्यथा - अश्विनी १ भरणी २, कृत्तिका ३, रोहिणी ४, संस्थाना (मृगशिरः) ५, आर्द्रा ६, पुनर्वसुः ७, तावत् पुष्यादिकानि सप्तनक्षत्राणि दक्षिणद्वाराणि प्रज्ञप्तानि; तद्यथा - पुष्यः १, अश्लेषा २, मघा, ३, पूर्वाफाल्गुनी ४, उत्तराफाल्गुनी ५, हस्तः ६, चित्रा ७। तावत् स्वातिकादिकानि सप्तनक्षत्राणि पश्चिमद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - स्वातिः १, विशाखा २, अनुराधा ३, ज्येष्ठा ४, पूर्वाषाढा ६ उत्तराषाढा | तावत् अभिजिदादिकानि सप्तनक्षत्राणि उत्तरद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - अभिजित् १, श्रवणः २, धनिष्ठा ३, शतभिषक् ४, पूर्वाभाद्रपदा ५ उत्तराभाद्रपदा, रेवती ॥४॥ तत्र खलु ये ते एवमाहुः तावत् भरण्यादिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि ते एवमाहु तद्यथा - भरणी १, कृत्तिका २, रोहिणी ३, संस्थाना (मृगशिरः) ४, आर्द्रा ५, पुनर्वसुः ६, पुष्यः ७| तावत् अश्लेषादिकानि नक्षत्राणि दक्षिणद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - अश्लेषा १, मघा २, पूर्वाफाल्गुनी ३ उत्तराफाल्गुनी ४, हस्तः ५, चित्रा ६ स्वातिः । तावत् विशाखादिकानी सप्तनक्षत्राणि पश्चिमद्वाराणि प्रज्ञप्तनि, तद्यथा - विशाखा १, अनुराधा २, ज्येष्ठा ३, मूलः ६, पूर्वापाढा ५, उत्तराषाढा ६. अभिजित् । तावत् श्रवणादिकानी सप्तनक्षत्राणि उत्तरद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - श्रवणः १, धनिष्ठा २, शतभिषक ३, पूर्वाप्रोष्ठपदा ४. उत्तराम्रोष्ठपदा ५, रेवती ६, अश्विनी ॥५॥ एते एवमाहुः । वयं पुनरेवं वदामः - तावत् अभिजिदादिकानि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा अभिजित् १, श्रवणः २, धनिष्ठा ३, शत भिषेक ४, पूर्वा प्रोष्ठपदा ५, उत्तराप्रोष्ठपदा ६, रेवती ७ तावत् अश्विन्यादिका ने सप्तनक्षत्राणि दक्षिणद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा अश्विनी १, भरणी २, कृत्तिका ३, रोहिणी ४, संस्थाना (मृगशिरः ) ५, आर्द्रा ६, पुनर्वसुः । तावत् पुष्यादि सप्तनक्षत्राणि पश्चिम द्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - पुष्यः १ अश्लेषाः २, मघा ३, पूर्वाफाल्गुनी ४, उत्तराफाल्गुनी, हस्तः ६, चित्रा ७ तावत् स्वातिकादिकानि सप्तनक्षत्राणि उत्तरद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - स्वातिः १, विशाखा २, अनुरावा ३, ज्येष्ठा ४, पूर्वाषाढा ७॥ सूत्र- १॥ " इति चन्द्रशतिसूत्रे चन्द्रज्ञप्ति प्रकाशिका टीकायां दशमस्य प्राभृतस्य एकविंशतितमम् प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ||१०- २९ ॥ व्याख्या- 'ता कहंते जोइसदारा' इति, 'ता तावत् 'क' कथं केन क्रमेण 'ते' त्वया ‘जोइसदारा' ज्यौतिषद्वाराणि नक्षत्रद्वाराणि 'आहिया' आख्यातानि कथितानि 'ति वज्ज' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् । इति गौतमेन पृष्ठे भगवानाह - ' तत्थ' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र ज्यौतिषद्वारविषये खलु 'इमाओ' इमा वक्ष्यमाणाः 'पंच' पञ्चसंख्यकाः 'पडित्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतरूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञताः कथिताः । ता एव दर्शयति 'तत्थेगे' इत्यादि, 'तत्थ' ४१८ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा. १० प्रा. प्रा. २१ सू.१ नक्षत्रचक्रद्वारनिरूपणम् ४१९ तत्र पञ्चसु प्रतिपत्तिवादिषु मध्ये ‘एगे' एके केचन ‘एवमाहंसु' एवमाहुः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति । किमाहुरित्याह- 'ता कत्तियाइया' इत्यादि 'ता' तावत् 'कत्तियाइया' कृत्तिकादीनि ‘सत्तनक्खत्ता' सप्तनक्षत्राणि 'पुव्वदारिया' पूर्वद्वाराणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि । इह येषु नक्षत्रषु पूर्वस्यां दिशि गमनं कुर्वतः प्रायः शुभं भवति तानि पूर्वद्वाराणि नक्षत्राणि कथ्यन्ते । अथवा नक्षत्रचक्रस्य पूर्वभागचारीणि कृत्तिकादीनि सप्तनक्षत्राणि सन्तीति पूर्वद्वाराणि कथ्यन्ते इति । इदं प्रथमप्रतिपत्तिवादिमतम् १ । शेषाश्चत्तस्रः प्रतिपत्तयः सुगमा इति न व्याख्यायते । अयमाशयः-द्वितीयप्रतिपत्तिवादिमते मघादीनि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि ।१। तृतीयप्रत्तिपत्तिवादिमते-धनिष्ठादीनि सप्तनक्षाणि पूर्वद्वाराणि ।३। चतुर्थप्रतिपत्तिवादिमते-अश्विन्यादीनि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि ।४। पञ्चमप्रतिपत्तिवादिमते भरण्यादीनि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि सन्तीति ।५। एवं पञ्चप्रतिपत्तिवादिनां पञ्चमतानि संक्षेपतः प्रोक्तानि, अर्थतेषां प्रत्येकं शेष दक्षिण-पश्चिमोत्तरद्वारविषये भावनां प्रदर्शयति- 'तत्स्थ णं जे ते' इत्यादि 'तत्स्थ णं' तत्र पञ्चसु प्रतिपत्तिवादिषु खलु 'जे ते' ये ते प्रथमाः प्रतिपत्तिवादिनः ‘एवं' एवम् पूर्वोक्त प्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति यत् 'ता' तावत् कृत्तिकादीनि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि ते 'एवं' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण सप्तनक्षत्राणि 'आहंसु' आहुः, तान्येव सप्तनक्षत्राणि नामनिर्देशपूर्वकं दर्शयति 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-तानि सप्त यथा-कृत्तिका १, रोहिणी २, मृगशिरः ३, आर्द्रा ४ पुनर्वसुः ५, पुष्यः ६, अश्लेषा ७ । अष्टाविंशतिनक्षत्राणां पूर्व-दक्षिण-पश्चिमोत्तररूपदिक्चतुष्टये प्रत्येकस्मिन् दि शे सप्त सप्तनक्षत्राणि तत्तदिग् द्वारा ण क्रमेण भवन्ति, तथाहि-कृत्तिकात आरभ्याश्लेषा पर्यन्तानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि ७ । तदनेतनानि मघात आरभ्य विशाखा पर्यन्तानि सप्तनक्षत्राणि दक्षिण द्वाराणि १४ । तदनेतनानि-अनुराधात आरभ्य श्रवणपर्यन्तानि सप्तनक्षत्राणि पश्चिमद्वाराणि २१ । तदनेतनानि धनिष्ठात आरभ्य भरणी पर्यन्तानि सप्तनक्षत्राणि उत्तरद्वाराणि सन्ति २८ । एष प्रथम प्रतिपत्तिवादिमतेऽष्टाविंशतिनक्षत्राणां क्रमः।१। एवं द्वितीय प्रतिपत्तौ मघात आरभ्य अश्लेषापर्यन्तान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि पर्वादि दिकू चतुष्टये सप्त सप्त विभजनेनावसेयानि। एतद् द्वितीयप्रतिपत्तेः स्पष्टीकरणम् ।२ तृतीयप्रतिपत्तौ धनिष्ठात आरभ्य श्रवणपर्यन्ताष्टाविंशतिनक्षत्राणि प्रत्येकस्मिन् दिशि सप्त सप्त क्रमेण विज्ञेयानि ।३। चतुर्थप्रतिपत्तौ अश्विनीत आरभ्य रेवती पर्यन्ताष्टा विंशतिनक्षत्राणि पूर्वादि प्रत्येकदिशि सप्त सप्त क्रमेण स्थापनीयानि ।४। पञ्चमप्रतिपत्तौ भरणीत आरभ्याश्विनी पर्यन्ताष्टाविंशति नक्षत्राणि पूर्वादि दिक चतुष्टये सप्तसप्त क्रमेण ज्ञातव्यानि ।५। तदेवं पञ्चप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणं प्रोक्तम् । अक्षरगमनिका स्वयमूहनीयेति । अथ भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति 'वयं पुण' इत्यादि, 'वयं पुण' वयं पुनरिति वयं तु 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः 'ता' तावत् 'अभीइयाइया' अभिजिदादीनि 'सत्तणवत्ता' सप्तनक्षत्राणि 'पुव्वदारिया पण्णत्ता' पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि । शेषं सुगमम् । अयमाशयः-- अत्राभिजित आरभ्य Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रतिसूत्रे उत्तराषाढापर्यन्तानि अष्टाविंशति नक्षत्राणि सप्तसप्तक्रमेण पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरद्वाराणि ज्ञात व्यानीति सूत्र ॥ १॥ ४२० ॥ इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य एकविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ।। १०-२१ श्री रस्तु दशमस्य प्राभृतस्य द्वाविंशतितमं प्राभृतप्राभृतम् । तदेवमुक्तमेकविंशतितमं प्राभृतप्राभृतम् । तत्र ज्यौतिषद्वाराणि प्ररूपितानि । साम्प्रतं द्वाविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं प्रस्तूयते, अत्रायमर्थाधिकारः यत् पूर्वं द्वारगाथायां 'नक्खत्तविच एत्तिय' नक्षत्रविविचय इति च इति प्रोक्तं तदनुसारेणास्मिन् प्राभृतप्राभृते नक्षत्राणां विचय इति स्वरूप निर्णयः प्रदर्शयिष्यते इति तद्विषयकं सूत्रमाह - 'ता कहं ते नक्ख विचए' इत्यादि । मूलम् - ता कहं ते नक्खत्तविचए आहिएति वएज्जा, ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ता जंबुद्दीवेणं दीवेणं दो चंदा पभासेंसु वा, पभासेति वा, पभासिस्संति वा । दो सूरिया तविंसु वा तवेंति वा तविस्संति वा । छप्पण्णे नक्खत्ता जोयं जोसुवा जोईति वा जोइस्संतिवा, तं जहा दो अभिई, दो सवा दो घणिट्ठा, दो सयभि सया, दो पुव्वापोट्ठवया दो उत्तरापोडवया, दो रेवई, दो अस्सिणी दो भरणी, दो कत्तिया, दो रोहिणी, दो संठाणा, दो अद्दा, दो पुणव्वसू, दो पुस्सा, दो असिलेसा, दो पुव्वा फग्गुणी, दो उत्तराफग्गुणी, दो हत्था दो चित्ता, दो साई दो विसाहा, दो अणुराहा, दो जेट्ठा दो मूला, दो पुव्वासाढा दो उत्तारासाठा । ता एएसिं णं छप्पण्णाए नक्खताणं अस्थि णक्खत्ता जेणं णव मुहुत्तं सत्तावीसं च सत्तद्विभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जो जोति । अस्थिक्खत्ता जेणं पणयालीसं मुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति ॥ ता एसिणं छप्पण्णा णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जे णं णवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तद्विभागे मुहुत्तस्स चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, कयरे णक्खत्ता जेणं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ?, कयरे णक्खत्ता जेण तीस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ? कयरे णक्खता जेणं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ? ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ता णं तत्थ जेते णक्खत्ता जेणं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तद्विभागे मुहुत्तस्स जोयं जो एंति दो अभि । तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं बारस तं जहा- दो सयभिसया, दो भरणी, दो अदा, दो अस्सेसा दो साई दो जेट्ठा । तथ जेणं तसं मुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं तीसं, तं जहा दो सवा दो धणा, दो पुवाभवया, दो रेवई, दो अस्सिणी, दो कत्तिया दो संठाणा, दो पुस्सा, Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २२ सू. १. नक्षत्र स्वरूपनिरूपणम् ४२१ दो महा, दो पुव्वाफग्गुणी, दो हत्था, दो चित्ता, दो अणुराहा दो मूला दो पुव्वासाढा । तत्थ जेते णक्खत्ता जेणं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं बारस, तं जहा- दो उत्तरापोट्ठवया, दो रोहिणी, दो पुणव्वसू दो उत्तराफग्गुणी दो विसाहा, दो उत्तरासादा । ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ता णं अस्थि णक्खत्ता जेणं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति । अस्थि णक्खत्ता जे गं छ अहोरत्ते एक्कबोस च मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति । अस्थि णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरते दुवालस मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति । अस्थि नक्खत्ता जे णं वीसं अहोर ते तिन्नि य मुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जाएंति ता एएसि णं छप्पणाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जे णं तं चैव उच्च/tव्वं । ता एएसिगं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं दो अभिई । तत्थ जेते क्खना जेण छ अहोरत्ते एक्कवीसं च मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जायं जोएंति तेणं वारस तं जहा- दो सयभिसया, दो भरणी, दो अदा, दो अस्सेसा, दो साई, दो जेट्ठा । तन्थ जे ते क्खत्ता जेणं तेरस अहोहत्ते बारस य मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएति तेणं ती, तं जहा - दोसवणा, जाव दो पुव्वासाढा । तत्थ जे ते णक्खत्ता जेण वीसं अहोर तिणिय मुहु सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति तेणं बारस, तं जहा - दो उत्तरापोवया जाव उत्तरासाठा | सूत्र - १॥ छाया -- तावत् कथं ते नक्षत्रविचयः आख्यातः इति वदेत् तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, तावत् जम्बूद्रीपे खलु द्रीपे द्वौ चन्द्रौ प्राभासतां वा प्रभाते वा प्रभासिष्येते १ । द्वौ सूर्यो अतापयतां वा तापयतो वा, तापयिष्यतो वा । पञ्चाशत् नक्षत्राणि योगमयुञ्जन् वा युञ्जन्तिवा, योक्ष्यन्ति वा तद्यथा- द्वौ अभिजितौ ३, श्रवण ४ द्वौ धनिष्ठे ६, द्वे शतभिषजौ ८, द्वे पूर्वाप्रोष्ठपदे १०, द्वे उत्तराप्रोष्ठपदे १२. द्वे tarat १४ द्वे अश्विन्यौ १६, द्वे भरण्यौ १८, द्वे कृत्तिके २० द्वे रोहिण्यौ २२, द्वे संस्थाने ( मृगशिरसी) २४; द्वे आर्द्र २६, द्वौ पुनर्वसू २८, द्वौ पुण्यौ ३० द्वे अश्लेषे ३२, द्वे मधे ३४, द्वे पूर्वाफाल्गुन २६, द्वे उत्तराफाल्गुन्यौ ३८ द्वौ हस्तौं ४० द्वे चित्रे ४२, द्वे स्वातो ४४, द्वे विशाखे ४६, द्वौ अनुराधे ४८, द्वे ज्येष्ठे ५०, द्वौ मूलौ ५२, द्वे पूर्वाषाढे ५४ द्वे उत्तराषाढे ५६ | तावत् एतेषां खलु षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु नव मुहूर्त्तान् सप्तविशति च सप्तषष्ठिभागान् मुहूर्त्तस्य चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चदश मुहूर्त्तान् चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु त्रिंशन्मुहूर्त्तान् चन्द्रेण सार्धंयोगं युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चत्वारिंशन्मुहूर्त्तान् चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति । ताबत् पतेषां खलु षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां कृतराणि नक्षत्राणि यानि खलु नव मुहूर्त्तान् सप्तविंशतिं च सप्तषष्टिभागान् मुहूत्र्त्तस्य चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति ?, कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चदश मुहूर्त्तान् चन्द्रेण सार्धं - Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे योगं युञ्जन्ति ?, कतराणि नक्षत्राणि खलु त्रिशन्मुहूर्तान् चन्द्रेण सार्ध योगं युगन्ति ?, कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तान् चन्द्रण साध योगं युन्ति ?, तावत् एतेषां खलु पट्पञ्चशतो नक्षत्राणां, तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु नव मुहर्तान् सप्तविंशति च सप्तषष्टिभागान् मुहूर्त्तस्य चन्द्रेण सार्ध योगं युञ्जन्ति तो खलु द्वौ अभिजितौ । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चदश मुहर्तान् चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति तानि खलु द्वादश, तद्यथा-द्वो शतभिषजौ ५, द्वे भरण्यौ ४, द्वे आद्रे ६, द्वे अश्लेषे ८, द्वे स्वाती १०, द्वे ज्येष्ठे १२ । तत्र यानि खलु त्रिशन्मुहूर्तान् चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति तानि खलु त्रिशत्, तद्यथा-द्वौ श्रवणौ २, द्वे धनिष्ठे ४, द्वे पूर्वाभाद्रपदे ६, द्वे रेवत्यौ ८, द्वे अश्विन्यौ १०, द्वे कृत्तिके १२ द्वे संस्थाने (मृर्गाशरसो) १४, द्वौ पुष्यौ १६, द्वे मधे १९, द्वे पूर्वाफाल्गुन्यौ २०, द्वौ हस्तौ २२, द्वे चित्रे २४, द्व अनुराधे २६, द्वौ मूलौ २७, द्वे पूर्वाषाढे ३० । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चचत्वारिं शन्मुहूर्तान् चन्द्रेण साधं योगं युञ्जन्ति तानि खलु द्वादश, तद्यथा-द्वे उत्तराप्रोष्ठपदे २ द्वे रोहिण्यौ ४, द्वौ पुनर्वसू ६, । उत्तराफाल्गुन्यौ ८, द्वे विशाखे १०, द्वे उत्तरापात १२, तावत् एतेषों खलु षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु चतुगेऽहो रात्रान् पट् च मुहूर्त्तान् सूर्येण साधं योग युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु षइ अ होरात्रान् एकविंशतिं च मुहतान् सूर्येण सार्ध योग युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु त्रयोदशाहोरात्रान् द्वादश च मुहूर्तान् सूर्येण साधं योगं युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु विंशतिमहोरात्रान् त्रीन् मुहूर्तान् सूर्येण सार्ध योग युञ्जन्ति । एतेषां खलु षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां काराणि नक्षत्राणि यानि खलु तदेव उच्चारयितव्यम् । तावत् एतेषां खलु पद पञ्चाशतो नक्षत्राणां तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु चतुरोऽहोरात्रान् षट् च मुहूर्तान् सूर्येण साधं योगं युजन्ति तानि खलु द्वो अभिजितौ । तत्र नानि नक्षत्राणि यानि खलु पड् अहोरात्रान् एकविशतिं च मुहूर्तान् सूर्येण साधं योग युञ्चन्ति तानि खलु द्वादश, तद्यथा-द्वौ शतभिषजौ २, द्वे भरण्यौ ४ द्वे आद्रे ६, द्वे अश्लेथे ८, द्वे म्बातो १०, द्वे ज्येष्ठे १२, । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु त्रयोदशाहारा वान् द्वादश च महत्तान् सूर्येण साधं योगं युजन्ति, तानि खलु त्रिंशत्, तद्यथा द्वे श्रवणे २, यावत् ३ पूर्वाषाढे ३०, । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु वितिमहोरात्रान् श्रीन च महत्तान् सूर्यण साध योगं युजान्त तानि खलु द्वादश, तद्यथा-द्व उत्तराप्रोष्ठयदे २, यावत् वे उत्तराषाढे १२, ॥ सूत्र-१॥ व्याख्या .. 'ता कहं ते नक्खत्तविचए' इति ता तावत् कह' कशं 'ते' त्वया 'नक्खत्तविचए' नक्षत्रविचयः नक्षत्राणां विचयः तदर्थनिणयनम् स्वरूपनिर्णय इत्यर्थः नक्षत्रविचयः, उक्तं चान्यत्र — "आप्तवचनं प्रवचनं ज्ञात्वा विचयस्तदर्थनिर्णयनम् ।" इति तथाहिनक्षत्राणां सरूपनिर्णयः त्वया केन प्रकारेण 'आहिए' आख्यातः ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् इति एतद्विषयं हे भगवान् वदतु कथयतु । इति गौतमेन पृष्टे भगवानाह---‘ता अयं गं इत्यादि, 'ता' तावत् 'अयं णं' अयं खलु प्रसिद्धः 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपःमध्यजम्बू -द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः सर्वक्षुल्लक इत्यादि विशेषणविशिष्टः लक्षयोजनपरिमित आय - Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा० प्रा. २२ सू. १ नक्षत्रस्वरूपनिरूपणम् ४२३ कम्भेण तथा त्रयोलक्षाः, षोडशसहस्त्राणि सप्तविंशत्यधिकं शतद्वयंच योजनम् त्रयः क्रोशाः, अष्टाविंशत्यधिकशतधनूंषि, सार्धत्रयोदशाङ्गुलानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि, एतावत्परिमितः परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना 'पण्णत्तं' प्रज्ञप्तः कथितः । 'ता' तावत् तादृशे 'जंबुद्दीवेणं दीवे' जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे 'दो चंदा' द्वौचन्द्रौ 'पभासिंसु' प्रभासतां वा भूतकाले, 'पभासेंतिवा' प्रभासेते वा वर्त्तमानकाले, 'पभासिस्संति वा' प्रभासिष्येते वाऽनागतकाले, अतीत वर्त्तमानानागतरूपे कालत्रयेऽपि प्रभासमानौ वर्त्तते इति भावः । एवं 'दो सूरिया' द्वौ सूर्यै 'तविंसु वा ' अतपताम् 'तवेंतिवा' तपतः तविस्संतिवा' तपिष्यतः, द्वौ सूर्यावपि जम्बूद्वीपे कालत्रयेऽपि तपन्तौ वर्त्तते इति भावः । तथा षट्पञ्चाशत् नक्षत्राणि अष्टाविंशते नक्षत्राणां प्रत्येकं द्विर्द्विर्भावेन षट् पच्चाशत्संख्यकानि नक्षत्राणि 'जोयं' योगं चन्द्रसूर्यैः सह युतिं 'जोइस्संतिवा', योक्ष्यन्ति वा, एतानि नक्षत्राण्यपि कालत्रये चन्द्रसूर्यैः सह योगं युञ्जन्ति इति भावः । तान्येव दर्शयति'तं जहा ' इत्यादि, तं जहा ' तद्यथा तानि यथा - - 'दो अभिई' द्वौ अभिजितौ, इत्यत आरभ्य द्वे उत्तराषाढे, इति पर्यन्तानि द्विर्द्विर्भावेन षट् पञ्चाशन्नक्षत्राणि मूलसूत्रादेव विज्ञेयानीति । अथ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगपरिमाणं प्रतिपादयन्नाह — 'ता एएसिणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां 'अस्थि - क्खत्ता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु 'णव मुहुत्ते' नवमुहूर्त्तान्, 'सत्तावीसं च सत्तद्विभागे मुहुत्तस्स' एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशतिं सप्तषष्ठिभागान् यावत् 'चंदेण सद्धिं जोगं जोएंति' चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जति । 'अत्थ नक्त्वत्ता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु ‘पण्णरसमुहुत्ते' पञ्चदशमुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेश सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति । 'अत्थि नक्खत्ता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु 'तीस मुहुत्ते ' त्रिंशन्मुहूर्त्तान् यावत् चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति । ' णक्खत्ता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि 'जेग' यानि खलु 'पणयालीसं मुहुत्त' पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तान् यावत् 'चंदे सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति पूर्वं भगवता सामान्येन नक्षत्र योगः प्रोक्तः, साम्प्रतं एतानेव चतुरो विषयान् गौतमः पृथक् पृथक्त्वेन पृच्छति - 'ता एएसि णं' इत्यादि, व्याख्या स्पष्टा । अथ भगवान् तानेव विषयान् पृथक् पृथग् रूपेण नामनिर्देशपूर्वकं स्पष्टयति- 'ता एएसि णं' इत्यादि, व्याख्या सुगमा अथ षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि यानि नक्षत्राणि सूर्येण सहयोगं युञ्जन्ति तेषां संख्या नामानि च पृथक् पृथक् प्रदर्शयति- 'ता एएसिणं' इत्यादि, व्याख्या पाठ सिद्धा । एषां विशेषव्याख्या पूर्वमस्यैव दशमस्य प्राभृतस्य द्वितीये प्राभृतप्राभृते कृतेति तत्र विलोकनीया । सूत्र ॥ १॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे संख्या मुहूर्ताः चन्द्रेण सूर्येण साधं च नक्षत्रयोगकोष्टकम् नक्षत्रनामानि चन्द्रेण सह मुहूर्ता सूर्येण सहाहोरात्राः अभिजित् ९-२७७६७ श्रवण धनिष्ठा शतभिषकू पूर्वाभाद्रपदा उत्तराभाद्रपदा रेवती अश्विनी भरणी कृत्तिका रोहिणी मुगशिरः आर्द्रा पुनर्वसुः पुण्यः अश्लेषा मघा पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी हस्त चित्रा स्वाति विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मूलः पूर्वाषाढा उत्तराषाढा पूर्व कालमाश्रित्य चन्द्रेण सूर्येण च सह षट्पश्चाशन्नक्षत्राणां योगपरिमाणं प्रतिपादितम्, साम्प्रतं क्षेत्रमाश्रित्य तच्चिन्तयन् प्रथमं सीमाविष्कम्भं प्रतिपादयति-'ता कहते सीमाविक्खंभे' इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते सीमाविक्खंभे आहिएत्ति वएज्जा । ता एएसि णं छप्पण्णए णक्खत्ताणं अत्थि णक्खता जेसि णं छ सयातीसा सत्तठिभागतीसइ भागाणं सीमा विक्खंभो अत्त्यिं णवखत्ता जेसि णं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तट्ठिभागतीसइभागाणं सीमाविक्खंभो Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टोका प्रा. १० प्रा. प्रा. २२ सू.२ सीमाविष्कम्भनिरूपणम् ४२५ अस्थि णक्खत्ता जेसिणं दो सहस्सा दमुत्तरा सत्तद्विभागतीसइ भागाणं सीमा विक्खभो। अस्थि णक्खत्ता जेसि णं तिसहस्स पंचदसुत्तरं सत्तद्विभागतीसइभागाणं सीमाविक्खभो । ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खना णं कयरे णक्खत्ता जेसि णं छसयातीसा तं चेव उच्चारेयव्वं जाव ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ता णं कयरे णक्खत्ता जेसि णं तिसह स पंचदसुत्तरं सत्तट्ठिभागतीसइभागाणं सीमाविक्ख भो ? । ता एएसिणं छप्पण्णाए णखत्ताणं तत्त्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं छ सया तीसा सत्तद्विभागतीसइभागाणं सीमाविक्खभो ते णं दो अभिई । तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं सहस्सं पंचुत्तरं सत्तट्ठिभागती सइभागाणं सीमा विक्ख भो ते पं. बारस, तं जहा-दो सयभिसया २, जाव दो जेट्ठा १२ । तत्थ जे ते णखत्ता जेसि गं दो सहस्सा दमुत्तरा सत्तद्विभागतीसइभागाणं सीमा विश्ख भो तेणं तीसं, तं जहा-7-सवणा २ जाव दो पुव्यासाढा ३० । तत्थ जे ते णवखत्ता जेसिणं तिसहस्सं पंचदमुत्तरं सत्तद्विभाग तीस भागाणं सीमा-विक्खंभोते णं वारस, तं जहा-दो उत्तरापोवथा २ जाव दो उतरासाढा । सूत्र ॥२॥ छाया-तावत् कथं ते समाविष्कम्भ आख्यातः? इति वदेत् तावत् एतेषां खलु पट् चाशतो नक्षत्राणां (मध्ये) सन्ति नक्षत्राणि येषां खलु षट् शतानि त्रिंशानि (त्रिशदधिकानि) सप्तषष्टिभागत्रिशद्भागानां विष्कम्भः। सन्ति नक्षत्राणि येषां खलु द्वे सहस्र दशोत्तरे सप्तषष्टि भागत्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः। सन्ति नक्षत्राणि येषां खलु त्रिसहस्रं पञ्चदशोत्तरं सप्तषष्टिभागात्रिंशद्भगानां सीमाविष्कम्भः । तावत् एतेषां खलु षष्टि पञ्चाशतो नक्षत्राणां कतराणि नक्षत्राणि येषां खलु षट्शतानि त्रिंशानि तदेवउच्चारयितव्यं यावत् एतेषां खलु षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां कतराणि नक्षत्राणि येषां खलु त्रिसहस्रपञ्चदशोत्तरं सप्तषष्टित्रिशद्भागानां सीमाविष्कम्भः तावत् एतेषां खलु षट्पञ्चाशतो नक्षत्रणां तत्र यानि तानि नक्षत्राणि येषां खलु षट्शतानि त्रिंशानि सप्तपष्टिभागत्रिशद्भागानां सीमाविष्कम्मः, तो खलु द्वौ अभिः जितौं । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि येषां खलु सहस्रं पञ्चोत्तरं सप्तषष्टि भाग त्रिंशद्भागार्मा सीमाविष्कम्भः तानि खलु द्वादश तद्यथा-द्वौ शतभिषजौ २ यावत् छौ ज्येष्ठे । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि येषां खलु द्वसहस्र दशोत्तरे सप्तपोष्ट भाग त्रिशद्भगानां सीमाविष्कम्भः, तानि खल त्रिशत, तद्यथा-द्वौ श्रवणौ २ यावत द्वे पूर्वाषाढे ३०॥ तत्र यानि तानि नक्षत्राणि येषां खलु त्रीणि सहस्राणि पञ्चदशोत्तराणि सप्तषष्टि भागत्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः, तानि खलु द्वादश, तद्यथा-वे उत्तराप्रोष्ठपदे यावत् द्वे उत्तराषाढे ॥सू० २॥ व्याख्या- 'ता कहं ते सीमाविक्खभे' इति, 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण कियत्या विभागसंख्यया हे भगवान् ! 'ते' त्वया 'सीमा विक्खंभे' सीमाविष्कम्भः सीमा विस्तार 'आहिए' आख्यातः ? 'तिबएज्जा' इति वदेत्, एतद्विषये कथयतु । एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह ५४ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे 'ता एएसिणं' इत्यादि । इहाष्टाविंशत्या नक्षत्रै स्वगत्या स्व स्व कालपरिमाणेन क्रमशो यावत्परिमितं क्षेत्रं बुद्ध या व्याप्यमानं सम्भाव्यते तावत्परिमितमेकमर्द्धमण्डलमुपकल्प्यते, एतावत्प्रमाणमेव द्वितीयमर्द्धमण्डलमित्येवं प्रमाण बुद्धिपरिकल्पितमेकं परिपूर्णमण्डलं कल्प्यते, तस्य मण्डलस्य मंडलं सयसहस्सेण अट्ठाणउएहिं सरहिं छित्ता इच्चेसनक्खत्ते खेत्तपरिभागेनक्खत्तविचए पाहुडे आहिएत्तिबेमि" छाया-मण्डलशतसहस्रेण अष्टानवतिभिः शतै छित्त्वा इत्येष नाक्षत्रः क्षेत्रपरिभागः नक्षत्रविचये प्रामृते आख्यात इति ब्रवीमि-इति । इति वाक्ष्यमाणवचनात् अष्टानवतिशत सहस्रविभागैविभज्यते । किमेवंविधसंख्यकभागानां कल्पने प्रमाणम् ? इति चेदाह-इह नक्षत्राणि त्रिविधानि भवन्ति तथाहि-समक्षेत्राणि, अर्धक्षेत्राणि, द्वयर्धक्षेत्राणि च, तत्र समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्तानि, अर्थक्षेत्राणि पञ्चदशमुहूर्तानि, द्वयर्धक्षेत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानीति । अयं भावः यावत्प्रमाणं क्षेत्रं यैनक्षत्रैरेकेनाहोरात्रेण गभ्यते तावत्क्षेत्रप्रमाणं योगं यानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह युञ्जन्ति तानि नक्षत्राणि समक्षेत्राणि कथ्यन्ते, तानि च पञ्चदश, तथाहि-श्रवणः १, धनिष्ठा २, पूर्वाभाद्रपदा ३, रेवत। ४, अश्विनी ५, कृत्तिका ६, मृगशिरः ७, पुष्यः ८, मघा ९, पूर्वाफाल्गुनी १०, हस्तः ११, चित्रा १२, अनुराधा १३, मूलः १४, पूर्वाषाढ़ा १५, इति । तथा यानि नक्षत्राणि अहोरात्रप्रमितस्यत्रिंशन्मुहूर्तात्मकस्यार्द्ध पञ्चदशमुहूर्तात्मकं क्षेत्रं चन्द्रेण सह योग युञ्जन्ति तानि अर्द्धक्षेत्राणि प्रोच्यन्ते, तानि च षट्-तथाहि-शतभिषक् १, भरणी २, आर्द्रा ३, अश्लेषा ४, स्वातिः ५, ज्येष्ठा ६, चेति । तथा द्वितीयमध यस्य तद् द्वयर्धसार्धमेकमित्यर्थः, तद् द्वयर्धमधिकं क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं पश्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकं चन्द्रयोगयोग्यं येषां तानि द्वयर्थक्षेत्राणि, एतान्यपि षट् तथाहि-उत्तराभाद्रपदा १, उत्तराफाल्गुनी २, उत्तराषाढ़ा ३, रोहिणी ४, पुनर्वसुः ५, विशाखा ६ चेति । अथ सीमापरिमाणं चिन्त्यते, तत्राहोरात्रः सप्तषष्टि भागी क्रियते, पूर्णाहोरात्रं च चन्द्रयोगयोग्यं येषां नक्षत्राणां भवति तानि नक्षत्राणि समक्षेत्राणि, तेषां समक्षेत्राणां क्षेत्रं प्रत्येकं सप्तषष्टि भागाः परिकल्प्यन्ते इति समक्षेत्रस्य नक्षत्रस्य सप्तषष्टिभागाः (६७), अधेक्षेत्रस्य सार्धास्त्रयस्त्रिंशद्भागाः (३३॥) द्वयर्धक्षेत्रस्यैकं शतमर्द्ध च (१००॥) अभिजिन्नक्षत्रस्य एकविंशतिसप्तषष्टिभागः ( २१ ) भव न्ति, अभिजितः सप्तविंशतिसप्तषष्टिभागयुक्तनवमुहूर्त्तान् यावत् चन्द्रयोगयोग्यत्वात् , एते च सप्तषष्टिभागाः त्रिंशन्मुहूर्तात्मकपूर्णाहोरात्रस्य परिकल्तिाः सन्तीति रीत्याऽभिजित एकविंशतिः सप्तषष्ट्रिभागा लभ्यन्ते इति विवेकः । समक्षेत्राणि नक्षत्राणि च पञ्चदशेति सप्तषष्टिभागाः पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जातं पञ्चोत्तरमेकं सहस्रम् (१०५)। अर्धक्षेत्राणि षडिति सार्धास्त्रयस्त्रिंशत् (३३॥) भागा षड्भिर्गुण्यन्ते, जाते एकोत्तरे द्वे शते (२०१)। द्वयर्धक्षेत्राणि षट् ततः सार्धशतमेकं (१००॥) Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा० प्रा. २२ सू. २ सीमाविष्कम्भनिरूपणम् ४२७ च षडूभिर्गुण्यते, जातानि त्र्युत्तराणि षट् शतानि (६०३) । अभिजिन्नक्षत्रस्यैकविंशतिः सप्तषष्टिभागा इति सर्वसंकलनया जातानि त्रिंशदुत्तराणि अष्टादशशतानि (१८३० । एतावद्भागपरि - मितमेकमर्द्धग्मण्डलं भवति, एवं द्वितीयमर्द्धमण्डलमपि एतावद्भागपरिमितमेवेति द्वयोस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतयोर्मेलने जातानि षष्ट्यधिकानि षट्त्रिंशच्छतानि (३६६०) एकैकस्मिन् अहोरात्रे किल त्रिंशन्मुहर्त्ता भवन्तीति प्रत्येकमेतेषु पष्टयधिकषट्त्रिंशच्छत संख्यकेषु भागेषु (३६६०) त्रिंशद्भागकल्पनायां त्रिंशता गुण्यन्ते जातमष्टानवतिशताधिकमेकं शतसहस्रम् (१०९८०० ) । तत इत्थं मण्डलस्य भागान् परिकल्प्यैव भगवान् प्रतिवचनं ददाति - 'ता एएसिणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये 'अस्थि णक्खता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्रानि 'जेसि णं' एषां खलु 'छ सया तीसा' षट्शतानि त्रिंशानि, त्रिंशदधिकाि षट्शतानि (६३०) 'सत्तट्ठिभागतीस इभागाणं' सप्तषष्टिभाग त्रिंशद्भागानां 'सीमाविक्खमो' सीमाविष्कम्भः सीमाविस्तारोऽस्तीति । 'अत्थि णक्खत्ता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि येषां खलु 'सहस्सं पंचुत्तरं ' सहस्रं पञ्चोत्तरं पञ्चाधिकमेकं सह. (१००५) 'सत्तद्विभागतीस - भागाणं' सप्तषष्टिभागत्रिंशद्भागानां 'सीमाविक्खंभो' सोमाविष्कम्भः । ' अत्थिणक्खत्ता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि 'जेसि णं' येषां खलु 'दो सहस्सा दसुत्तरा' द्वे सहस्रे दशोत्तरे दशाधिकं सहस्रद्वयं (२०१०) सत्तद्विभागती सइ भागाणं' सप्तषष्टिभागत्रिंशद्भागानां 'सीमाविक्खंभो ' सीमाविष्कम्भः । ' अस्थि णक्खत्ता सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि 'जेसि णं' येषां खलु 'तिसहस्सं पंचदसुत्तरं ' त्रिसहस्रं पञ्चदशोत्तरं पञ्चदशाधिकं सहस्रत्रयं ( १०१५ ) ( सत्तद्विभागतीसइभागाणं' सप्तषष्टि भागत्रिंशद्भागानां 'सीमाविक्खंभो' सीमाविष्कम्भः एवं भगवता प्रोते केषां नक्षत्राणां कियत्परिमितः सीमाविष्कम्भः १ इति गौतमः पृच्छति - 'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये 'करे णक्खत्ता' कतराणि नक्षत्राणि कानि नक्षत्राणि एतादृशानि 'जेसि णं' येषां खलु नक्षत्राणां 'छ सयातीसा' षट्शतानि त्रिंशानि त्रिंशदधिकानि षट्शतानि सप्तषष्टिभागत्रिंशद्भागानां सीमा विष्कम्भः प्रोक्तः ? ‘तं चेव उच्चारेयव्वं' तदेव उच्चारयितव्यं पूर्वोक्तमेव सर्व प्रश्नरूपेण सूत्र - मत्रवाच्यम् कियत्पर्यन्त मित्याह - 'जाव' इत्यादि. यावत् 'ता एएसि णं' तावत् एतेषां खलु 'छप्पण्णाए णवखत्ताणं' षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये 'कयरे णक्खत्ता' कतराणि नक्षत्राणि कानि नक्षत्राणि एतादृशानि सन्ति 'जेसि णं' येषां खलु नक्षत्राणां 'तिसहस्सं पंचदमुत्तरं ' त्रिसह पञ्चदशोत्तरं (३०१५) 'सत्तट्टिभागती सहभागाणं' सप्तषष्टिभागत्रिंशद्भागानां 'सीमावक्खंभो' सीमाविष्कम्भः प्रोक्तः ! एवं गौतमेन पृष्टे भगवान् तत्प्रश्नान् समाधत्ते 'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' षट्पञ्चा Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे शतो नक्षत्राणां मध्ये 'तत्थ' तत्र 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति 'जेसि णं' येषां खलु 'छसया तीसा' षट्शतानि त्रिंशानि त्रिंशदधिकानि षट् शतानि 'सत्तद्विभागती सहभागाणं' सप्तषष्टिभागत्रिंशद्भागानां 'सीमाविक्खंभो' सीमाविष्कम्भः प्रोक्तः तेषां मध्ये ते णं दो' तौ द्वौ अभिजितौ ते द्वे अभिजिन्नक्षत्रे स्तः। तत् कथमित्याह इह एकैकस्याभिजितो नक्षत्रस्य सप्तषष्टि खण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सम्बन्धिन एकविंशतिर्भागाश्चन्द्रयागयोग्यः सन्ति एकैकस्मिश्चभागे त्रिंशद्भागपरिकल्पनादेकविंशतिस्त्रिशता गुण्यते, जातानि षट् हातानि त्रिंशदधिकानि (६३० । तथा- 'तत्थ' तत्र अष्टाविंशतिनक्षत्रेषु मध्ये 'जे ते णक्खत्ता' यानि लानि नक्षत्राणि सन्ति 'जेसि णं' येषां खलु 'सहस्सं पंचुत्तरं' सहस्रं पञ्चोत्तरं पञ्चाधिकमेक सहस्रं (१००५) 'सत्तढिभागतीसइभागाणं' सप्तपष्टिभागत्रिंशद्भागानां 'सीमाविक्खभो' सीमाविष्कम्भोऽस्ति 'ते णं' तानि खलु 'वासर' द्वादश 'तं जहा' तद्यथा--तानि यथ – 'दो सयभिसया' द्वौ शतभिषजौ 'जाव' यावत् 'दो जेट्ठा' द्वे ज्येष्ठे। अत्र यावत्पदेन 'दो भरणीओ, दो अदाओ, दो अस्सेसाओ, दो साईओ' द्वे भरण्यौ, द्वे आर्दै द्वे अले थे, द्वे स्वाती, इत्येषां संग्रहः । एतेषां ह्रदशानामपि नक्षत्राणामर्द्धक्षेत्रत्वात् प्रत्येकं सप्तषष्टि विण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सम्बन्धिनः सार्धास्त्रयस्त्रिंशद्भागाः (३३॥) चन्द्रयोगयोग्याः, त्रिंशता गुण्यन्ते जातं पञ्चोत्तरं सहस्रम् (१००५) तथा 'तत्थ' तत्र तेषु अष्टाविंशति नक्षत्रेषु 'जे ते प्रक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति 'जेसि णं' येषां खलु ‘दो सहस्सा दसुत्तरा' द्वे सहा दशोत्तरे दशाधिकसहस्रद्वयम् (२०१०) 'सत्तट्ठिभागतीसइभागाणं' सप्तषष्टि भाग त्रिंशद्भाभागानां 'सीमाविक्खंभो' सीमाविष्कम्भो भवति 'तेणं तीसं' तानि खलु त्रिंशत् , 'तं जहा' तद्यथा 'दो सवणा' द्वौ श्रवणौ, 'जाव' यावत् 'दो पुव्वासाढा' द्वे पूर्वाषाढे, यावत्पद संग्राह्याणि नक्षत्राणि-दो धनिटा' 'दो पुव्वाभदवया दो रेवई, दो अस्सिणी, दो कत्तिया, दो मिगसिरा' दो पुस्सा, दो मघा, दो पुव्वाफग्गुणीओ, दो हत्था, दो चित्ता, दो अणुराहा, दो मूला' इति, त्रिंशन्नक्षत्राणि यथा-द्वौ श्रवणौ २, द्वे धानेष्ठे ४, द्वे पूर्वाभाद्रपदे ६, द्वे रेवत्यौ, 'द्वे अश्चिन्यौ १०, द्वे कृत्तिके १२, द्वे मृगशिरसी १४, द्वौ पुष्यौ १६, द्वे मधे १८, पूर्वा फाल्गुन्यौ २०, द्वौ हस्तो २२, द्वे चित्रे २ ४ द्वे अनुराधे २६, द्वे मूले २८ द्वे पूर्वाषाढे ३८ इति एतानि त्रिंशन्नक्षत्राणि समक्षेत्राणि, तत एषां सप्तषष्टि खण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सम्ब न्धिनः परिपूर्णाः सप्तषष्टिभागाः (६७) प्रत्येकं चन्द्रयो योग्याः, तेन सप्तषष्टिस्त्रिंशता गुण्यते, जाते यथोक्ते दशोत्तरे द्वे सहस्र (२०१०)। तथा-'तत्थ तत्राष्टाविंशतिनक्षत्रेयु 'जे ते णक्यत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति 'जेसि गं' येषां खलु प्रत्येकं तिण्णिसहस्सा पण्णर सुत्तरा' त्रीणि सहस्राणि पंचदशोत्तराणि-पञ्चदशाधिकं सहस्रत्रयम् (३०१५) 'सत्तट्ठिभागती सइभागाणं' सतषष्टिभागत्रिंशद्भागानां 'सीमाविक्खंभो' सीमाविष्कम्भो भवति 'ते णं' तानि Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. ५० प्रा. प्रा. २२ सू. ३ सीमाविष्कम्भनिरूपणम् । खलु नक्षत्राणि 'बारस' द्वादश सान्त, 'तं जहा' तद्यथा-'दो उत्तरापोहवया २, द्वे उत्तराप्रोष्ठपदे २, 'जाव' यावत् 'दो उत्तरासाढा' द्वे उत्तराषाढे १२, अत्र यावत्पदसंग्राह्याणीमानि नक्षत्राणि-दो रोहिणी, दो पुनव्वसू, दो उत्तरफग्गुणी, दो विसाहा' । रोहिण्यौ ४, दो पुनर्वसू ६ द्वे उत्तराफाल्गुन्यौ, द्वे विशाखे १०, इति, द्वे उत्तराषाढे १२, इति प्रोक्त मेवेति द्वादश । एतानि नक्षत्राण द्वयर्धक्षेत्राणि, ततः सप्तषष्टि खण्डीकृत्तस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य द्वय त्वेन तत्सम्बन्धिनश्चन्द्रयोगयोग्याभागाः शतमेकमद्धे च (१००) प्रत्येकं भवन्ति, एतेषां (१००) त्रिंशता गुणने जातानि पञ्चदशाधिकानि त्रीणि सहस्राणि (३०१५) इति ॥सूत्र २॥ _अथाष्टाविंशतिनक्षत्राणां प्रातः सायमिति क्रमेण चन्द्रेण सह योगकरणं प्रदर्श्यते - 'एएसिणं' इत्यादि । मलम एएसिणं छप्पणाए णक्खत्ताणं किं सया पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ ?? एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ता णं किं सया सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ ? । एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं किं सया दुहओ पविसिय २ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ ?। ता एएसि गं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं न किंपि तं जं सया पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोपड. नो सया सायं चंदेण सद्धिं जायं जोएइ, नो सया दुहओ पविसिय २ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, णण्णत्थ दोहिं अभीइहिं । ता एएणं दो अभीई। पायंचियश्चोत्तालीसं २ अमावासं जोएंति, नो चेव णं गुण्ण मासिणिं ।। सू० ३॥ छाया- एतेषां खलु षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां कि सदा प्रातः चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति ? । एतेषां खलु षट् ञ्चाशतो नक्षत्राणां कि सदा सायं चन्द्रेण सर्द्ध योगं यनक्ति ? । एतेषां खलु षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां किं सदा द्विधातः प्रविश्य २ चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति ? । ताबत् एतेषां खलु षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां न किमपि तत् यत् सदा प्रातः चन्द्रेण सार्द्ध युनक्ति, नो सदा सायं चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, नो सदा द्विधातः प्रविश्य २ चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, नान्यत्र द्वाभ्याम भिजिद्भधाम् । तावत् पता खलु द्वौ अभिजितौ प्रातरेव २ चतुश्चत्वारिशां २ अमावास्यां युक्तः नैव खलु पूर्णमासीम् । सूत्र ॥३॥ ___ व्याख्या :-गौतमः पृच्छति 'एएसिणं' एतेषां खलु द्विद्वित्वेन स्थितानां 'छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये 'किं' किंनामकं नक्षत्रं यत् 'सया' सदा निरन्तरं 'पाओ' प्रातः प्रभातसमये 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति ? । तथा 'एएसि णं' एतेषां खलु 'छप्पण्णाए णक्खत्तागं' पट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये 'कि' कि नामकं नक्षत्रं यत् 'सया' सदा 'सायं' सायं सन्ध्याकाले 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति ? तथा 'एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' एतेषां खलु षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये 'कि' किं नामकं नक्षत्रं यत् 'सया' सदा 'दुहओ' द्विधातः प्रातः सायं Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे च 'पविसिय २' प्रविश्य २ चन्द्रमण्डले समाविश्य २ 'चंदेण सद्धि जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति ? । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् श्रूयताम्-'एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' एतेषां खलु षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये 'न किंपि तं' न किमपि तन्नक्षत्रं 'ज' यत् नक्षत्रं 'सया' सदा निरन्तरं प्रतिदिनमित्यर्थः ‘पाओ' प्रातः प्रभातसमये सूर्योदयवेलायां 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति, तथा 'नो' न किमपि तन्नक्षत्र यत् 'सया' सदा 'सायं' सायं सन्ध्याकाले सूर्यास्तसमये 'चंटेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति । तथा 'नो न किमपि तन्नक्षत्रं यत् 'सया' सदा 'दुहओ' द्विघातः प्रातः सायं वा 'पविसिय २' प्रविश्य २ चन्द्रमण्डले समाविश्य २ 'चंदेण सद्धि जोयं जोएइ' चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति । किं सर्वथा न किमपि नक्षत्र सदा प्रातरादिसमये चन्द्रेण सह योगं युनक्ति ? नैवम्, तत आह-'नन्नत्थ' नान्यत्र 'दोहिं अभिई हिं' द्वाभ्यामभिजिद्भयाम् , द्वौ अभिजितौ मुक्त्वाऽन्यत् किमपि नक्षत्र सदा प्रातरादि समये चन्द्रेण सह योगं न युनक्तीति भावः । तत्रापि 'ता' तावत् 'एतेणं' एते खलु 'दो अभिई' द्वौ अभिजितौ अपि युगेयुगे 'पायचिय २' प्रातरेव प्रातरेव चोत्तालीसं २' चतुश्चत्वारिंशां २ चतुश्चत्वारिंशतमां चतुश्चत्वारिंशत्तमा 'अमावासं' अमावास्यामेव चन्द्रेण सह योगं 'जोएंति' युक्तं: कुरुतः, चतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्यामेव परिसमापयत इति भावः, किन्तु 'नो चेव णं' नैव खलु 'पुण्णमासिणिं' पौर्णमासीम्, परिसमापयत इति । ___अथ कथमेतद् ज्ञायते यत् प्रति युगमभिजिन्नक्षत्र सदैव प्रातः काले चतुश्चत्वारिंशत्तमांचतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्यां चन्द्रेण सह योगं युङ्क्त्वा परिसमापयतीति ? तत्राह-पूर्वाचार्योपदर्शितकरणवशात् ज्ञायते, तदेवाह-प्रथमं तिथ्यानयनार्थ करणगाथेयम् - "तिहिरासिमेव बवद्विभाइया सेसमेगसद्विगुणणं च । बावट्ठीए विभत्तं, सेसा अंसा तिहि समत्ती ॥१॥ छाया-तिथि राशिरेव द्वाषष्टिभाजितः शेषमेकषष्टि गुणनं च । ___द्वाषष्टया विभक्तं, शेषा अंशा तिथि समाप्तिः ॥१॥ इति अस्याः संक्षेपार्थः – 'तिहिरासिमेव' तिथिराशि रेवेति युगमध्ये ये चन्द्रमासा अतिक्रान्तास्ते तिथिराश्यानयनाथै त्रिंशता गुण्यन्ते, गुणिते यस्तिथिराशिर्जातः स एवेत्यर्थः 'बावद्विभाइया' द्वाषष्टिभाजितः, तस्य तिथि राशेषिष्टया भागो हियते, हृते च भागे 'सेस' यदवशिष्टं तस्य 'एगसट्ठिगुणणं' एकषष्टिगुणनम् एकषष्टया गुणकारः क्रियते गुणकारं कृत्वा 'बावटीएविभत्तं' द्वाषष्टया विभक्तं द्वाषष्ट्या भागो हरणीयः, हृते च भागे ये 'सेसा अंसा' शेषा अंशाः, ये अंशा उद्धरन्ति तत्परिमिता सा विवक्षिते दिने 'तिहिसमत्ती' तिथिसमाप्तिः विवक्षिततिथिसमाप्तिरवसेयेति करणगाथार्थः ॥१॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिक टीका प्रा० १० प्रा. प्रा. २२ सू०३ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगकरणम् ४३१ ततश्चतुश्चत्वारिंशत्तमामावास्यायाश्चिन्तायां त्रिचत्वारिंशत् (४३) चन्द्रमासाः, एकं च चन्द्रमासस्य पर्वलभ्यते, ततस्त्रिचत्वारिंशत् त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नवत्यधिकानि द्वादशशतानि (१२९०), तत उपरितनमेकं पर्व, चन्द्रमासस्य पर्वद्वयं भवतीत्यैकपर्वगताः पञ्चदश प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पञ्चाधिकानि त्रयोदशशतानि (१३०५), एषां द्वाषष्टया भागे हृते लब्धा एकविंशतिः (२१), सा त्यज्यते, शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः ते एकषष्टया गुण्यन्ते जातं त्र्यशीत्यधिकमेकं शतम् (१८३), तस्य द्वाषष्टया भागो हियते लब्धौ द्वौ, तौ त्यक्तौ, शेषास्तिष्ठत्येकोनषष्टिः (५९), तदेव मागता-एकोनषष्टिा षष्टिभाग प्रमिता तस्मिन् दिनेऽमावास्येति । अमावास्यासु पौर्णमासीषु च नक्षत्रानयनाथे प्रागुक्तमेव करणं गृह्यते । तत्र ध्रुवराशि:-षट्षष्टिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभागः (६६ तत्र चतुश्चत्वारिंशता गुण्यते, जातानि चतुरुत्तराणि एकोनत्रिंशच्छतानि (२९०४) मुहूर्ता २२० नाम् , एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वापष्टि भागानां विंशत्यधिके द्वे शते (२२.०) एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य चतुश्चत्वारिंशत् सप्तष्टिभागाः (9) तदेवं सर्वाङ्कितः - मु... - २२०१४ ) तत्र पुनर्वसु प्रभृतिकमुत्तराषाढापर्यन्तं मुहूर्तानां द्विचत्वारिंशदधिकानि चत्वारिशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्चत्वारिंशद्वाषष्टिभागाः (४४२-४६) इत्येवं प्रमाणं शोध्यते, जातानि मुहूर्तानां द्वाषष्टयाधिकानि चतुर्विशतिशतानि (२४६२), एकस्य च मुहूर्तस्य चतुः सप्तत्यधिकमेकं शतं द्वाष्टिभागानाम् (७१)। ततोऽभिजिदादि सकलनक्षत्रमण्डलशोधनकम् एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिषिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिः भागाः (८१९-२४६६) इस्येवं प्रमाणं यावत्संभवं शोधनीयम् । तत्र त्रि २९०४६ रा६७ ६२ गुणमपि शुद्धिमासादयतीति त्रिगुणं कृत्वा शोध्यते, स्थिता पश्चात् षड्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूतस्य सप्तत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागा:(६-२०१७)। तत आगतं यत् चतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्यामभिजिन्नक्षत्रं षट्सु मुहूर्तेषु, सप्तमस्य च मुहूर्नस्य सप्तत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्त चत्वारिंशति सप्ता षष्टि भागेषु गतेषु सत्सु परिसमापयतीति ॥ सूत्र ३॥ ६२।६७ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे 'तत्थ साम्प्रतममावास्या - पौर्णमासी प्रसङ्गमाश्रित्य पौर्णमास्यमावास्यावक्तव्यतामाह खलु इमाओ' इत्यादि । मूलम् - तत्थ खलु इमाओ बावट्ठि पुण्णमा सणीओ, बावहिं अमावासाओ पण्णत्ताओं । ता एएसि णं पंचहं संवच्छराणं पढमं पुण्णमाशिणि चंद्रे कंसि देसंसि जोयं जोएइ ? | ताजंसि णं देसंसि चंदे चरिमं बावहिं ण्णमासिणि जोए ताओ णं पुण्णमासिणिट्ठाणाओ मंडलं चउवीसेणं एएणं छेत्ता दुत्ती में भागे उवारणावत्ता एत्य णं चंदे पढमं पुण्णमासिणि जोएइ । ता एएसिणं पंच सवच्छरणं दोच्चं पुण्णमासिणि चंदे सि देसंसि जोयं जोएइ ? ता जंसि णं देसंति चंदे पढमं पुण्णमासिगिं जोड़ ताओ णं पुण्णमासिणिट्ठाणाओ मंडल चउब्बीसेणं सए में छेत्ता, दुत्तीस भागे उवाणावित्ता, एत्थ णं से चंदे दोच्चं पुण्णमसिणि जोएइ । ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छरणं तच्च पुणमासिणिचंदे कंसि देसंसि जोयं जोएइ ? । ता जंसि णं देसंसि चंदे दोच्वं पुण्ण मासिणिं जोएइ ताओ णं पुण्णमासिणिडाणाओ मंडलं चउच्ची सेणं समृणं छेत्ता, दुत्तीसं भागे वारणावत्ता, एत्थ णं से चंदे तच्च पुण्णनासिणि जोएह ! ता एएसि णं पंच संवच्छरणं दुवालसमं पुण्णमासिणिं चंदे कंसि देसि जोएइ ? ता जंसि देसंसि चंदे तच्चं पुण्णमासिणि जोएइ ताओ पुण्णमा सिणिडाणाओ मंडलं चउव्दी सेणं सरणं छेत्ता दोणि अट्ठासी भागसए उवाइणावित्ता एत्थणं से चंदे दुवालसमं पुण्णमासिणि जोए । एवं खलु एएणं उवाएणं ताओ ताओ पुण्णमासिणिद्वाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं समं छेत्ता तीस २ भागे उवाइणावत्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं पुण्गमासिणिं चंदे जोएइ । ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छराणं,चरमं बावट्ठि पुण्णमासिणि चंद कंसि देसि जोएइ ?, ता बुद्दीवस दीवस पाईण पडीणाययाए उदीर्णदाहिणायचाए जीवाए मंडलं चउव्वीसेणं सरणं छेत्ता दाहिणिल्लंस उन्भागमंडलसि सत्तावीसं चउन्भागे उवाइणावित्ता अट्ठावीस भागं वा छेत्ता अट्ठारसभागे उवाइणावित्ता तिहिं भागेहिं दोहि य कलाहिं पञ्चथिमिल्लं चउब्भागमंडलं असंपत्ते एत्थ णं चंदे चरिमं वाट्ठि पुण्णमासिगिं जोएइ || सूत्र ४ || छाया — तत्र खलु इमा द्वार्षाष्ट: पौर्णमास्यः, द्वाषष्टिरमावास्यः प्रज्ञप्ताः । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमां पौर्णमासीं चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत्यस्मिन् खलु देशे चन्द्रः चरमां द्वाषष्ठि पोर्णमासीं युनक्ति तस्मात् खलु पोर्णमासी स्थानात् मण्डल चतुर्विशेन शतेन छित्वा द्वात्रिंशतं भागान् 'उवाइणित्ता' उपादाय अत्र खलु स चन्द्रः प्रथमां पौर्णमासीं युनक्ति तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणं द्वितीयां पौर्णमासीं चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्रः प्रथमां पौर्णमासीं युनक्ति तस्मात् खलु पौर्णमासी स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा द्वात्रिंशतं भागान् उपादाय, अत्र खलु स चन्द्रः द्वितीयां पौर्णमासों युनक्ति । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २२ सू. ४ पौर्णमास्यऽमावास्यानिरूपणम् ४३३ तृतीय पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् देशे चन्द्रः द्वितीयां पौर्णमासीं युनत्ति तस्मात् खलु पौर्णमासी स्थानात् मण्डलं चतुर्विंशेन शतेन छित्त्वा द्वात्रिंशतं भागान् उपादाय, अत्र खलु तृतीयां पौर्णमासीं चन्द्रः युनक्ति । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वादशां पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्रः तृतीयां पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् पौर्णमासी स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा द्वे अष्टाशीते भागशते उपादाय, अत्र खलु स चन्द्रः द्वादशां पौर्णमासीं युनक्ति । एवं खलु एतेन उपायेन तस्मात् तस्मात् पौर्णमासी स्थानात् मण्डलं चतुविंशेन शतेन छित्त्वा द्वात्रिंशत २ भागान् उपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे तां तां पौर्णमासीं चन्द्रः युनक्ति । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चरमां द्वाषष्टि पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् जम्बूद्वीपस्य खलु छोपस्य प्राची प्रतीच्यायतया उदोची- दक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा दाक्षिणात्ये चतुर्भागमण्डले सप्तविशतिचतुर्भागान् उपादाय अष्टाविंशतिभागं विंशतिघा छित्त्वा अष्टादश भागान् उपादाय त्रिभि भांग द्वभ्यिां च कलाभ्यां पाश्चात्यं चतुर्भागमण्डलम् असम्प्राप्तः, अत्र खलु चन्द्रः चरमां द्वाषष्टि पौर्णमासीं युनक्ति ॥ सूत्र ॥४॥ व्याख्या - भगवानाह - ' तत्थ खलु' तत्र युगे खलु 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणस्वरूपाः 'वा' द्वाषष्टि 'पुण्णमासिणीओ' पौर्णमास्यः तथा 'बावट्ठि' द्वाषष्टिरेव 'अमावासाओ' अमावास्याः 'पण्णनाओ' प्रज्ञप्ताः । भगवता एवं प्रोक्ते गौतमः प्रश्नयति 'ता एएसि णं पंच' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां चन्द्रादीनां खलु 'पंच'हं संवच्छरणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'पढमं' प्रथमां 'पुण्णमासिणि' पौर्णमासों 'चंदे' चन्द्र: 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशे 'जोए ' युनक्ति परिसमापयतीति प्रश्नः । उत्तरमाह 'ता' तावत् 'जंसि णं देसंसि' यस्मिन् खलु देशे 'चंदे ' चन्द्रः चरिमं चरमामन्तिमां पाश्चात्ययुगपर्यन्तवर्तिनी 'बासट्ठि' द्वाषष्टिं द्वाषष्टितमां 'पुण्णमा - सिणों पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति 'ताओ णं' तस्मात् खलु 'पुण्णमा सिणिट्ठाणाओ, पौर्णमासी स्थानात् चरम द्वाषष्टितमपौर्णमासीं परिसमाप्तिस्थानात् परतः 'मंडल' 'चउब्बीसेणं सरणं' चतुर्विशेन शतेन चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन (१२४) 'छित्ता' छित्वा विभज्य 'बत्तीसं भागे' द्वात्रिंशतं भागान् द्वात्रिंशत्संख्यकान् भागान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय गृहीत्वा द्वात्रिंशद्वागग्रहणानन्तरं 'एत्थ णं' अत्र खलु द्वात्रिंशद्भागरूपे देशे ' से चंदे' स चन्द्रः 'पढमं पुण्णमा सिणिं' प्रथमां पौर्णमासीं 'जोएड' युनक्ति तां पौर्णमासीं परिसमापयतीति । पुनः प्रश्नयति - 'ना' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खल पूर्वोक्तानां 'पंचण्हं संवच्छरणं' पञ्चानां संवत्सराणंमध्ये 'दोच्चं 'पुण्णमासिणि' द्वितीयां पौर्णमासीं 'चंदे' चन्द्र: 'कंसि देसंसि ' कस्मिन् देशे 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? उत्तरमाह-- जैसि णं देसंसि यस्मिन् खलु देशे 'चंदे' चन्द्रः 'पढमं पुण्णामसिणिं' प्रथमां पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति 'ताओ णं' तस्मात् खलु पुण्णमा सिणिट्ठाणाओ' पौर्णमासीस्थानात् प्रथम पौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतः 'मंडल' ५०. Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे मण्डलं 'चउव्वीसेणं सएणं' चतुर्विशेन शतेन चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा तद्गतान् 'दुत्तीसं भागे' द्वात्रिंशतं भागान् द्वत्रिंशत्संख्यकान् भागान् ‘उवाइणावित्ता' उपादाय 'एत्थ' अत्र द्वात्रिंशद्भागरूपे देशे ‘से चंदे' स चन्द्रः 'दोच्चं पुण्णमासिणि' द्वितीयां पुणमासी 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ! पुनः पृच्छति-'ता' तावत् 'एएसिं णं' एतेषां खलु पूर्वोदितानां 'पंचण्ह संवच्छराणं' पश्चनां संवत्सराणां तच्च पुण्णामासिणि' तृतीयां पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्रः 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशे 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? । उत्तरयति-ता तावत् 'जंसिणं देसंमि' यस्मिन् खलु देशे 'चंदे' चन्द्रः 'दोच्चं पुण्णमासिणिं' द्वितीयां पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति 'ताओ णं' तस्मात् खलु 'पुण्णमासिणिट्ठाणाओ' पौर्णमासीस्थानात् 'मंडलं' मण्डलं 'चउव्वीसेणं सएणं' चतुर्विशेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा 'बत्तीसं भागे' द्वात्रिंशतं भागान द्वात्रिंशसंख्यकान् भागान् 'उवाइणावित्ता' उपादय, 'एत्थ णं' अत्र द्वात्रिंशद्भागरूपे देशे 'तच्चं पुण्णमासिणि' तृतीयां पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । एवमेव चतुर्थी पौर्णमासीन आरभ्य एकादशतम पौर्णमासीपर्यन्तं सूत्राणि स्वयमूहनीयानि । अथ तृतीयामेव पौर्णमासी लक्षी कृत्य द्वादशी पौर्णमासीविषयं सूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एएणं' एतेन प्रकारेण खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'दुवालसमं पुण्णमासिणि' द्वादशी पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्रः 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशे 'जोएइ' युनक्ति ? । उत्तरमाह- त' तावत् 'जंसि गं देसंसि' यस्मिन् खलु देशे 'चंदे' चन्द्रः 'तच्चं पुण्णमासिणिं' तृतीयां गौणमासी 'जोएइ' युनक्ति 'ताओ णं' तस्मात् खलु 'पुण्णमासिणिट्ठाणाओ' पौर्णमासीस्थानात तृतीय पौर्णमासी परिसमाप्तिस्थानात् 'मंडलं' मण्डलं 'चउव्वीसेणं सएण' चतुर्विशत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य 'दोणि अट्ठासीए भागसम्' द्वे अष्टाशीते भागशते अष्टाशील्यधिके द्वे भागशते (२८८), अत्र तृतीयस्याः परतः किल द्वादशी पौर्णमासी नवमी भवति, ततो द्वात्रिंशतो भागानां नवभिर्गुणने अष्टाशीत्याधिके द्वे शते भगानां (२८८) भवत इत्यैतावत्प्रमाणान् भागान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय-गृहीत्वा 'एत्थ णं' अत्र खलु अष्टाशीत्यधिकशतद्वयभागररूपे देशे 'से चंदे' स चन्द्रः 'दुवालसमं पुण्णमासिणि' द्वदशी पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । अथा ग्रेऽतिदेशेनाह-'एवं खलु' इत्यादि ‘एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण खलु-निश्चितम् 'एएणं' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन 'उवाएणं' उपायेन विधिना 'ताओ ताओ' यां यां पोर्णमासी यत्र यत्र देशे परिसमापयति तस्यास्तस्याः पौर्णमास्यास्ततोऽनन्तरां पौर्णमासी तस्मात्तस्मात् 'पुण्णमासिणिट्ठाणाओ' पौर्णमासीस्थानात् पाश्चात्य पौर्णमासी परिसर्माप्तिस्थानात् 'मंडलं' मण्डलं 'चउव्वीसेणं सएणं' चतुर्विशेन चतुर्विशत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा परतस्तद्गतान् 'दुत्तीसं २ भागे' द्वात्रिंशतं भागान् ‘उवाइणावित्ता' उपादाय 'तंसि तंसि देसंसि' तस्मिन् तस्मित् देशे 'तं तं पुण्णमासिणिं' तां तां पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्रः 'जोएइ' युनक्ति-परिसमा Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २२ सू. ४. पौर्णमास्यऽमावास्यानिरूपणम् ४३५ पयति । सचैवं परिसमापयन् तावद् वेदितव्यः यावद् भूयोऽपि चरमां द्वाषष्टिं पौर्णमाखीं यस्मिन् देशे पाश्चात्ये युगे चरमां द्वाषष्टिं पौर्णमासीं परिसमापितवान् तस्मिन् देशे परिसमापयति कथ मेतदिति चेदत्र गणितक्रमं प्रदर्शयति- पाश्चात्ययुग चरमद्वाषष्टितमपौर्णमासी परिसमाप्तिस्था. नात् परतो मण्डलस्य चतुर्विंशत्यधित शतविभक्तस्य सम्बन्धिनां द्वात्रिंशतो भागाना मतिक्रमे तस्यास्तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिर्भवति । युगे सर्वसंख्यया पौर्णमास्यो द्वाषष्टिर्भवन्ति, ततो द्वात्रिंशद्भागाद्वापष्ट्या गुण्यन्ते जातानि चतुरशीत्यधिकानि एकोनविंशतिशतानि (१९८४) । एषां चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन ( १२४ ) भागो हियते, लब्धाः षोडश सकलमण्डलपरावर्त्ताः (१६) समस्तस्यापिच राशेर्निर्लेपी भवनादागताया यस्मिन् देशे पाश्चात्ययुगसम्बन्धि चरमद्वाषष्टितम पौर्णमासी परिसमाप्तिर्भवति सा । अथ चरमद्वाषष्टितम परिसमाप्तिदेशविषयकं सूत्रमाह-‘ता एएसिणं' इत्यादि । 'ता' तावत् युगे 'एएसि णं' एतेषां खलु 'पंचहं संवच्छरणं पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चरमं ' चरमां युगपर्यन्तवर्त्तिनीं ' बावहिं पुण्णमासिणि' द्वाषष्टि पौर्णमासीं 'चंदे' चन्द्रः 'कंसि देसंसि ' कस्मिन् देशे 'जोएइ' युनक्ति-परिसमापयति ? इति गौतमेन पृष्टे भगवानाह - 'ता जंबुद्दीवस्स णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य खलु द्वीपस्योपरि 'पाईणपडीणाययाए' प्राचीप्रतीच्यायतया, अत्र प्राची ग्रहणेन उत्तरपूर्वा गृह्यते प्रतीची ग्रहणेन दक्षिणापरा गृह्यते तेनायमर्थः - पूर्वोत्तरदक्षिणापरायतया, इति एवम 'उदीणदाहिणाययाए' उदीची दक्षिणायतया, उदीची शब्देनापरोत्तरायतया, दक्षिण शब्देन पूर्व दक्षिणयतया च अयं भावः - एका जीवा उत्तरतो निस्सृत्य पूर्वायां प्रविष्टा १, द्वितीया दक्षिणतो निस्सृत्य प्रतीच्यां प्रविष्टा २, तृतीया प्रतीचीतो निस्सृत्योत्तरस्यां प्रविष्टा ३, चतुर्थी पूर्वातो निस्सृत्य दक्षिणस्यां प्रविष्टा ४ इत्येवंरूपया जीवाए' जीवया प्रत्यञ्चा सदृशत्वात्प्रत्यञ्चया दवरिकयेत्यर्थः 'मंडल' मण्डलं' 'चउव्वीसेणं सरणं चतुर्वित्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्वा विभज्य भूयश्चतुर्भिर्विभज्यते, ततः ' दाहिणिल्लंस' दक्षिणात्ये 'चउब्भागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे 'सत्तावीसं चउन्भागे' सप्तविंशतिं चतुर्भागान् ' उवाइणा वित्ता' उपादाय 'अट्ठावीस भागं' अष्टाविंशतितमं भागं 'वीसहा छेत्ता' विंशतिधा छित्त्वा तग्दतान् 'अहारसभागे' अष्टादशभागान् 'उवाइणा वित्ता' उपादाय शेषैः ‘तिहिं भागेहिं त्रिभिर्भागैः, चतुर्थस्य भागस्य च दोहियकलाहिं' द्वाभ्यां च कलाभ्यां 'पच्चत्थिमिल्लं' पाश्चात्यं 'चउब्भागमंडल' चतुर्भागमण्डलम् 'असंपत्ते' असम्प्राप्तः, 'एत्थ णं' अत्र खलु अस्मिन प्रदेशे ‘चंदे' चन्द्र: 'चरिमं' चरमां सर्वान्तिमां 'बावडिं' द्वाषष्टिं द्वाषष्टितम 'पुण्णमा सिणि' पौर्णमासीं 'जोएइ युनक्ति - परिसमापयतीति ॥ सूत्र ॥४॥ पूर्वं चन्द्रस्य पौर्णमासी परिसमाप्तिदेशः प्रोक्तः, साम्प्रतं सूर्यस्य पौर्णमासी परिसमाप्तिदेशं प्रतिपादयन् तद्विषयकं सूत्रमाह-- ' ता एएसिणं' इत्यादि । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ चन्द्रप्रचप्तिसूत्रे मूलम–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं पुण्णसासिणि सूरे कसि देसंसिजोएइ ? । ता जंसिणं देसंसि सूरिए चरिमं बावढेि पुण्णमासिणि जोइए ताओ पुण्णमासिणि हाणाओ मंडलं चउव्वी सेणं सएणं छेत्ता च उणवइंभागे उवाइणावित्ता एत्स्थ णं से सरिए पढम पुण्णमासिणिं जोएइ । ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं पुण्णमासिणि सूरिए कंसि देसंसि जोएइ ? । ता जंसि णं देसंसि मूरिए पढमं पुण्णमसिणिं जोएइ ताओ पुण्णमासिणिहाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता चउणवइभागे उवाइवित्ता एत्थ णं से सरिए दोच्चं पुण्णमासिणिं जोएइ । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं पुण्णमासिणिं सूरिए कंसि देसंसि जोएइ ? ता जंसिणं देसंसि सूरिए दोच्चं पुण्णम सिणि जोएइ ताओ पुण्णमासिणिट्ठाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता चउणवइभागे उपाइणा वित्ता, एत्थ णं से सूरिए तच्चं पुण्णमासिणि जोएइ । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसं पुण्णमासिणिं मूरिए कंसि देसंसि जोएइ ? ना जंसि णं देसंसि सूरिए तच्चं पुण्णमसिणि जोएइ ताओ पुण्णमासिणिढाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता अट्ठात्ताले भागसए उवाइणावित्ता, एत्थ णं से सूरिए दुवालसमं पुण्णमासिणि जोएइ । एवं खलु एएण उवाएणं ताओ ताओ पुण्णमासिणिट्ठाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता च उणवई चउणवई भागे उवाइणावित्ता तंसि तंसि णं देसंसि तं तं पुण्णमासिणि सूरिए जोए । ता एएसि णं पचण्हं संवच्छराणं चरिमं बावडिं पुण्णमासिणि सूरिए कंसि देसंसि जोएइ ? । ताजंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पाईणपडीणाययाए उदीण दाहिणाययाए जीवाए मंडलं च उव्वीसेणं सएण छेत्ता पुरथिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि सत्तावीसं भागे उवाइणावित्ता अट्ठावीसइभागं वीसहा छेत्ता अट्ठारसं भागं उवाइणावित्त तिहिं भागेहिं दोहि य कलाहिं दाहिजिल्लं चउब्भागमंडलं असंपत्ते, एत्थ ण सूरिए छावट्टि पुण्णमासिणिं जोएइ । ।सूत्र॥५।। छाया--तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमां पौर्णसी सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे सूर्यः चरमांद्वाषष्टिं पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् पौर्ण मासीस्थानात् मण्डलं चतुर्वि शेन शतेन छित्ता चतुर्नवर्ति भागान् उपादाय, अत्र मलु स सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी युनक्ति । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयां पौर्णमासी सूर्य : कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् लु देशे सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् पौर्णमासो स्थानात् मण्डलं चतुर्वि शेन शतेन छित्त्वा चतुर्नवति भागान उपादाय, अत्र खलु स सूर्यः द्वितोयां पौर्णमासों युनक्ति । तावत् खलु पञ्चानां संवत्सराणां तृतीयां पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे सूर्यः द्वितीयां पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् पौर्णमासी स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा चतुर्नवति भागान् उपादाय अत्र खलु स सूर्यः तृतीयां पौणमासी युनक्ति । तावत एतेषां खलु पञ्चा नां संवत्सराणां द्वादशी पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खत्छु देशे Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २२ सू. ५. सूर्यस्य पौर्णमासीपरिसमप्तिदेशः ४३७ तृतीयां पौर्णमासी सूर्यः युनक्ति तस्मात् पौर्णमासीत्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा अष्ट षट्चत्वारिंशानि भागशतानि उपादाय, अत्र खलु स सूर्यः द्वादशी पौर्णमासी युनक्ति । एवं खलु एतेन उपायेन तस्मात् तस्मात् पौर्णमासोस्थानात् मण्डल चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा चतुर्नवति चतुर्नवति भागान् उपादाय तस्मिन् तस्मिन् खलु देशे तो तां पौर्णमासी सूर्यः युनक्ति । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चरमां द्वाषष्टिं पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् जम्बूद्वीपस्य खलु द्वीपस्य प्राची प्रतीच्यायतया, उदीची दक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा पौरस्त्ये वतुर्भागमण्डले सप्तविंशति भागान् उपादाय अष्टाविंशतिं भाग विशतिधा छित्त्वा अष्टादशं भागं उपादाय त्रिभिर्भागैः द्वाभ्यां च कलाभ्यां दाक्षिणात्यं चतुर्भागमण्डलम् असम्प्राप्तः, अत्र खलु सूर्यः चरमां द्वाषष्टिं पौर्णमासी युनक्ति । सूत्र ॥५॥ व्याख्या—'ता एएसिण' इति तत्र युगे 'एएसि णं' एतेषां पूर्वोक्तानां 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां चन्द्रादिसंवत्सराणां मध्ये 'पढमं पुण्णमासिणि' प्रथमां पौर्णमासीं 'सरिए' सूर्यः ‘कसि देससि' कस्मिन् देशे स्थितः सन् 'जोएई' युनक्ति परिसमापयति ! एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह'ता जंसि णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जंसि णं देसंसि' यस्मिन् खलु देशे स्थितः सन् 'मूरिए' सूर्यः 'चरिमं' चरमां पाश्चात्ययुगपर्यन्तवर्तिनीं 'बावडिं' द्वाषष्टिं द्वाषष्टितमा 'पुण्णमासिणि' पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति 'ताओ' तस्मात् 'पुण्णमासिटाणाओ' पौर्णमासीस्थानात् चरमद्वाषष्टितम पौर्णमासीपरिसमाप्तिकारणभूतात् स्थानात् परतः ‘मंडलं'मण्डलं 'चउव्वीसेणं सएणं' चतुर्विशेन शतेन चतुर्वि शत्यधिकेन शतेन (१२४) 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य तग्दतान् 'चउनवई भागे चतुर्नवति भागान् ‘उवाइणावित्ता' उपादाय 'एत्थ ण' अत्र खलु ‘से सूरिए' स सूर्यः 'पढम' प्रथमां 'पुण्णमासिणि' पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । किमत्र कारणमितिचेदाह-इह परिपूर्णेषु त्रिंशदहोरात्रेषु परिसमाप्तेषु सत्सु स एव सूर्यस्तस्मिन्नेव देशे वर्तमानः प्राप्यते, नतु कतिपयभागन्यनेषु । पौर्णमासी च चन्द्रमासपर्यन्त पारसमाप्तिमुपयति, चन्द्रमासस्य च परिमाण मेकोनत्रिंशदहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः(२९-२२ ततस्त्रिंशत्तमेऽहोरात्रे द्वात्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु गतेषु सत्सु सूर्यश्चरमद्वाषष्टितमात् पौर्णमासी परिसमाप्तिकरणभूतात् स्थानात् चतुर्नवतौ चतुर्विशत्यधिकशतभागेषु समतिक्रान्तेषु सत्सु प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयन् प्राप्यते । यतोहि त्रिंशता भागैस्तमेव देशमसंप्राप्तः सन्नवाप्यते इति, त्रिंशतो द्वाषष्टि भागानामहोरात्र सम्बनिनामद्यापि स्थितत्वादिति । पुनगौ तमो द्वितीयपौर्णमासीविषये पृच्छति-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिग' एतेषां खलु 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'दोच्च' द्वितीयां 'पुण्णमासिणि' पौर्णमासी 'मूरिए' सूर्यः 'कंसि देसि' कस्मिन् देशे स्थितः सन् 'जोएई' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह--'ता' तावत् जिसि ण देसंसि' यस्मिन् ६६ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे खलु देशे स्थितः सन् 'सूरिए सूर्यः ‘पढम' प्रथमां युगादौ प्रथमप्राप्तां 'पुण्णमासिणिं' पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति 'ताओ' तस्मात् 'पुण्णमासिणिट्ठाणाओ' पौर्णमासी स्थानात् युगादिप्रथम पौर्णमासी परिसमप्तिनिबन्धस्थानात् परतःमण्डलं 'चउन्नीसेणंसएणं' चतुर्विशत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य तग्दतान् 'चउणवइभागे' चतुर्नवति भागान् ‘उवाइणावित्ता' उपादाय, 'एत्थ णं' अत्र खलु अस्मिन् देशे स्थितः सन् ‘से मूरिए' न सूर्यः 'दोच्च पुण्णमासिणि द्वितीयां पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । अथ तृतीयपौर्णमासीविषये पृच्छति—'ता' तावत् 'एएसिणं पंचण्हं संबच्छराणं' एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये ‘तच्चं पुण्णमासिणि' तृतीयां पौर्णमासीं 'सूरिए' सूर्यः 'कंसि देसंसि जोएड' कस्मिन् देशे स्थितः सन् युक्ति तृतीयपोणेमासी समापयति ? । भगवानाह–'ता' तावत् 'जसि णं देससी' यस्मिन् खलु देशे स्थितः सन् 'सूरिए' सूर्यः 'दोच्चं पुण्णमासिणि' द्वितीयां पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति 'ताओ पुण्णमासिणिट्ठाणाओ' तस्मात् पौर्णमासी स्थानात् परतःमण्डलं 'चउव्वीसेणं सएणं' चतुर्विशत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य तग्दतान् ‘चउणवइभागे' चतुर्नवति भागान् ‘उवाइणावित्ता' उपादाय, 'एत्थ णं, अत्र खलु देशे ‘से सूरिए' स सूर्यः 'तच्च पुण्णमा सिणी' तृतीयां पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति । एवमेव चतुर्थी पौर्णमासीत आरभ्य एकादशी पौणमासी पर्यन्तं स्वयमूहनीयम् । अथ तृतीयामधीकृत्य द्वादशी पौर्णमासी पृच्छति--ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु ‘पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'दुवालसं पुण्णमासिणि' द्वादशी पौर्णमासीं 'सूरिए' सूर्यः ‘कसि देसंसि' कस्मिन् देशे स्थितः सन् 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ?। भगवानाह-'ता' तावत् 'जंसि णं देसंसि' यस्मिन् खलु देशे स्थितः सन 'मूरिए' सूर्यः ‘तच्चं पुण्णमासिणि' तृतीयां पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति 'ताओ पुण्णमासिणिट्ठाणाओ' तस्मात् पौर्णमासीस्थानात् परतः ‘मंडलं' मण्डलं 'चउवव्वीसेणंसएणं' चतु विशत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छिन्वा विभज्य 'अट्ठछत्ताले भागसए' अष्ट षट्चत्वारिंशानि भागशतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि अष्टशतानि भागानां, तृतीयस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशी पौर्णमासीनवमी भवति, ततश्चतुर्नवतिर्नवभिर्गुण्यते, जायन्ते अष्टौ शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि (८.४६) एतावतो भागान् ‘उवाइणावित्ता' उपादाय, 'एत्थ णं' अत्रास्मिन् खलु देशे ‘से सूरिए' स सूर्यः 'दुवालसमं' पुण्णमासिर्षि' द्वादशी पौणमासी 'जोएइ' युनक्ति अथाऽतिदेशमाह-'एवं खलु' इत्यादि । ‘एवं' एवम् अनेनैव प्रकारेण खलु ‘एसणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'उवाएणं' उपायेन विधिना 'ताओ ताओ' तस्मात् तस्मात् विवक्षितात् 'पुण्णमासिणिहाणाओ' पौर्णमासी स्थानात् पाश्चात्यपाश्चात्यपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् 'मंडलं' मण्डलं 'चउव्वीसेणं' सएणं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा परतस्तद्गतान् 'चउणवइं चउणवइं भागे' चतुर्नवतिं चतुर्नवति भागान् ‘उवाइणावित्ता' उपादाय 'तंसि तंसि णं देसंसि' तस्मिन तस्मिन् Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २२ सू.५ सूर्यस्य पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेशः ४३९ खलु देशे स्थितः सन् 'तं तं पुण्णमासिणिं' तां तां विवक्षितां पौर्णमासी 'मूरिए' सूर्यः 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । एवं तावद ज्ञातव्यं यावत् भूयोऽपि चरमां द्वाषष्टितमां पौर्णमासी सूर्यः परिसमापयतीति । एतच्च गणितक्रमवशाद् ज्ञायते, तथाहि-पाश्चात्ययुगचरमद्वाषष्टितम पौर्णमासी परिसमाप्तिसम्बन्धिस्थानात् परतो मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतविभक्तस्य सम्बन्धिनां चतुर्नवतिचतुर्नवति भागेषु समतिक्रान्तेषु तस्यास्तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिर्भवतीति ततश्चतुर्नवति षष्टया गुण्यते जातानि अष्टाविंशत्यधिकानि अष्टपञ्चाशच्छतानि-(५८२८) एषां चतुविंशत्यधिकेन शतेन भागे हृते लब्धाःसप्तचत्वारिंशत् सकलमण्डलपरावर्ताः (४७) किन्तु न च तैः प्रयोजनम् केवलं राशेनिर्लेपी भवनादागतम्-यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यः पाश्चात्ययुगसम्बन्धि चरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमापकस्तस्मिन्नेव देशे विवक्षितस्यापि युगस्य चरमां द्वाषष्टितमां पौर्णमासी परिसमापयतीति । अथ चरमद्वाषष्टितम पोर्णमासी परिसमाप्तिसम्बन्धि देशं पृच्छति-'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि गं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणाँ मध्ये 'चरिमं' चरमां युगपर्यन्तवर्तिनीं 'बावडिं' द्वाषष्ठितमां 'पुण्णमासिणि' पौर्णमासी 'सूरिए' सूर्यः 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशे स्थितः सन् 'जोइए' युनक्ति परिसमापयति । एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह 'ता जंबुद्दीवस्स णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य खलु द्वीपस्य 'पाइणपडीणाययाए' प्राची प्रतीच्यायतया, अत्रापि प्राचीग्रहणेन उत्तरपूर्वादिक् प्रतीचो ग्रहणेन च दक्षिणापरा गृह्यते, ततः-उत्तर पूर्वायतया दक्षिणापरायतया चेति । एवं 'उदीणदाहिणाययाए' उदीचीदक्षिणायतया, तत उदीचीग्रहणेन-अवरोत्तरा दक्षिणग्रहणेन पूर्वदक्षिणा गृह्यते, ततोऽयमर्थः-- अपरोत्तरायतया, पूर्वदक्षिणायतया च 'जीवाए' जीवया प्रत्यञ्चया दवरिकयेत्यर्थः 'मंडलं' मण्डलं 'चउव्वीसेणं सएणं' चतुर्विशत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य पुनश्चतुभिर्भक्त्वा 'पुरथिमिल्लं' पौरस्त्ये पूर्व दिग्वर्तिनि 'चउब्भागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे तद्गतान् ‘सत्तावीसं भागे' सप्तविंशति भागान् ‘अट्ठावीसइभार्ग' अष्टाविंशतितमं भागं 'वीसहा छित्ता' विंशतिधा छित्त्वा तद्गतान् 'अट्ठारसभागे' अष्टादशभागान् ‘उवाइणावित्ता' उपादाय 'तिहिं भागेहि' शेष स्त्रिभिर्भागः, चतुर्थस्य च भागस्य ‘दोहियकलोहिं' द्वाभ्यां च कलाभ्यां विंशतितमाभ्यां-दाहिणिल्लं' दाक्षिणात्यं दक्षिणदिग्वर्त्तिनं च 'चउब्भागमंडलं' चतुर्भागमण्डलं 'असंपत्ते' असम्प्राप्तः सन् 'एत्थणं' अत्र खलु देशे 'सूरिए' सूर्यः 'चरिमं' चरमां युगान्तिमा 'बावर्द्धि' द्वाषष्टितमां 'पुण्णमासिणि' पौर्णमासी 'जोएई' युनक्ति परिसमापयतीति ।। सू० ५॥ अथ चन्द्रसूर्ययोरेवाऽमावास्यापरिसमाप्तिदेशं प्रतिपादयन् प्रथमं चन्द्रविषय सूत्रमाह--- 'ता एएसि णं' इत्यादि । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे मूलम्-ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं अमावासं चंदे कंसि देससि जोएइ ? । ता जंसि णं देसंसि चंदे चरिमं बावडिं अमावासं जोएइ तओ अमावासट्ठाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता बत्तीसे भागे उवाइणावित्ता एत्थ ण चंदे पढमं अमावासं जोएइ । एवं जेणेव अभिलावेणं चंदस्स पुण्णमासिणीओ भणियाओ तेणेव अभिलावेण अमावासाओ भाणियव्याओ तंजहा-बिइया तइया दुवालसमी, एवं खल एएणं उवाएणं ताओ ताओ अमावासाठाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता दुत्तीसं भागे उवाइणावित्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं अमावासं चंदे जोएइ । ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरमं बावहिँ अमावासं चंदे चरिमं बावडिं पुण्णमासिणि जोएइ ताओ पुरणमासि णिट्ठाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता सोलसभागे उक्कोवइत्ता एत्थ णं से चंदे चरिमं बावहि अमावासं जोएइ ॥ सूत्र ६॥ छाया- तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमाम् अमावास्यां चन्द्रः कस्मिस् देशे युनक्ति ? । तावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्रः चरमां द्वाष्टिम् अमावास्यां युनक्ति तस्मात् अमावास्यास्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा द्वात्रिंशतं भागान् उपादाय अत्र खलु स चन्द्रः प्रथमाम् अमावास्यां युनक्ति । एवं येनैव अभिलापेन चन्द्रस्य पौर्णमास्यो भणितास्तेनैव अभिलापेन आमावास्याः भणितव्याः तद्यथा-द्वितीया, तृतीया, द्वादशी । एवं खलु एतेन उपायेन तस्मात् तस्मान् अमावास्या स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा द्वात्रिंशतं द्वात्रिंशतं भागान् उपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे ता ताम् अमावास्यां चन्द्रः युनक्ति । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सरानां चरमां द्वाषष्टिम् अमावास्यां चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्रः चरमां द्वाषष्टि पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् पौर्णमासी स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा षोडश भागान् अवष्यष्क्य अत्र खलु स चन्द्रः चरमां द्वाषष्टिम् अमावास्यां युनक्ति ॥ सूत्र ६ ॥ व्याख्या ---'ता एएसिणं' इति, 'ता' तत्र युगे ‘एएसिणं' एतेषा मनन्तरोदितानां ‘पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'पढम अमावासं' प्रथमाममावास्यां 'चंदे' चन्द्रः 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशेस्थितः सन् 'जोएई' युनक्ति ? । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह 'ता' तावत् 'जसिणं देसंसि' यास्मिन् खलु देशे स्थितः 'चंदे' चन्द्रः 'चरिम' चरमा 'बावर्टि' द्वाषष्टितमां 'अमावासं' अमावास्यां 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति 'ताओ अमावासाठाणाओ' तस्मात् अमावास्यास्थानात् अमावास्यापरिसमाप्तिस्थानात् परतः 'मंडलं' 'चउव्वीसेणं सएणं' चतुर्विशेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा तद्गतान् 'बत्तीसं भागे' द्वात्रिंशतं भागान् 'उबाइणावित्ता' उपादाय 'एत्थ णं' अत्र खलु देशे 'से चंदे' स चन्द्रः 'पढम अमावासं' प्रथमाममावास्यां 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । अथाग्रेऽतिदेशेनाह-‘एवं' इत्यिादि ‘एव' एवम्-अनेनानुपदमुक्तेन प्रकारेण 'जेणेव' येनैव यादृशेनैव 'अभिलावेणं' अभिलापेन अभिलापक्रमेण 'चंदस्स पुण्णमासिणीओ भणियाओ' चन्द्रस्य पौर्णमास्यो भणिताः 'तेणेव अभिलावण' तेनैव Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www वन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१०प्रा.प्रा.२२सू ६. चन्द्रस्याऽमावस्यापरिसमप्तिदेशनिरूपणम् ७४१ तादृशेनैव अभिलापेन 'अमावासाओ भाणियवाओ' अमावास्या भणितव्याः । प्रथमा तु सूत्र एव कथिता, द्वितीयाद्या आह-'तं जहा' तद्यथा ता यथा-'विझ्या, सइया, दुवालसमी' द्वितीया, तृतीया, द्वादशी तदालापप्रकारश्चेत्थम् - "एएसिणं पंचण्डं दोच्च अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ता जसिणं देसंसि चंदे पढमं अमावासं जोएइ ताओ णं अमावासद्वाणाओ मंडलं चउव्वीसेमं सएणं छेत्ता दुत्तीसं भागे उवाइणावित्ता एत्थ मं से चंदे दोच्चं अमावासं जोपइ । ता एसएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोइए । ता जसिणं देसंसि चंदे दोच्च अमावासं जोइए ताओ अमावासहाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएपंछित्ता दुत्तीसं भागे उवाइणावित्ता एत्थ णं से चंदे तच्चं अमावासं जोएइ । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चंदे कंसि देसंसि जोएइ । ता जंसिणं देसंसि चंदे तच्चं अमावासं जोएइ तओणं अमावासद्वाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सरण छित्ता दोन्नि अट्ठासीइए भागसए उवाइणावित्ता एत्थणं चंदे दुवालसमं अमावासं जोएइ। इति । __छाया- तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयाममावास्यां चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खल्लु देशे चन्द्रः प्रथमाममावस्यां युनक्ति तस्मात् खल्लु अमावस्या स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्वा द्वात्रिंशतं भागान् उपादाय, अत्र खलु स चन्द्रः द्वितीयाममावास्यां युनक्ति तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां तृतीयाममावास्यां चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ! ! तावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्र द्वितीयाममावास्यां युनक्ति तस्मात् अमावस्या स्थानात् मण्डलं चतुर्वि शेन शतेन छित्वा द्वात्रिंशतं भागान् उपादाय, अत्र खलु स चन्द्रः तृतीयाममावास्यां युनक्ति तावत एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वादशीममावास्यां चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ! तावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्रः तृतीयाममावास्यां युनक्ति तस्मात् खलु अमावास्या स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्वा द्वे अष्टशीते भागशते उपादाय अत्र खलु चन्द्रः द्वादशीममावास्यां युनक्ति" इति । व्याख्या सुगमा, नवरम् तृतीयस्या अमावास्याः परतो द्वादशी किलामावास्या नवमी भवतीति द्वात्रिंशत् नवभिर्गुण्यते जायेते द्वेशते अष्टाशीत्यधिके (२८८) तत एवोक्तम् 'दोन्नि अट्ठासीए भागसए' द्वे अष्टाशीत्यधिके भागशते इति,शेषं स्पष्टम् ! अथ शेषामावास्य विषयेऽतिदेशमाह-'एवं खलु' इत्यादि, ‘एवं' एवम्-अनेनैव प्रकारेण स्वल 'पएम' एतेन पूर्वोक्तेन 'उवाएणं' उपायेन विधिना 'ताओ ताओ अमावासद्वाणाओ' तस्मात् तस्मात् अमावास्यास्थानात् 'मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता' मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा 'दुचीसं दुत्तीसं भामे Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे द्वात्रिंशतं द्वात्रिंशतं भागान् 'उवइणावित्ता' उपादाय 'तंसि तंसि देसंसि' तस्मिन् तस्मिन् विवक्षिते देशे 'तं तं अमावास' तां ताममावास्यां 'चंदे जोएइ' चन्द्रो युनक्ति - परिसमापयतीति । अथ चरमाममावास्या सूत्रामाह 'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां चन्द्रादि संवत्सरत्वेन प्रसिद्धानां 'पंचण्हं संवच्छरणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चरमं ' चरमां युगपर्यन्त वर्त्तिनीं ' बावडिं' द्वाषष्टिं द्वाषष्टितमां 'अमावास' अमावास्यां 'चंदे' चन्द्रः 'कंसि देसंसि ' कस्मिन् देशे 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह - 'ता जंसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जंसि णं, देसंसि' यस्मिन् खलु देशे स्थितः सन् 'चंदे' चन्द्रः 'चरिमं बावहिं पुण्णमासिणि' चरमां द्वाषष्टिं पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति 'ताओ पुण्णमासिणिद्वाणाओ' तस्मात् पौर्णमासी स्थानात् पौर्णमासी परिसमाप्तिस्थानात् 'मंडल' मण्डलं 'चउव्वीसेणं सरणं' चतुर्विशेन शतेन 'छित्त्वा विभज्य पूर्व 'सोलसभागे' षोडशभागान् 'उक्कोवइत्ता' अवष्वष्वय पश्चात्कृत्वा परिपूर्ण द्वात्रिंशद्भागानां मध्यात् पूर्वार्धभागं षोडशभागात्मकमतिक्रम्येत्यर्थः अत्रानं भावः- चरम द्वाषष्टितमाममावास्याः चरमद्वाषष्टितम पौर्णमास्याः पक्षेण पश्चात्पक्षेण च विवक्षितप्रदेशात् चन्द्रः मासेन द्वात्रिंशता भागैः परतो वर्त्तमानः लभ्यतेऽतः षोडशभिश्चतुर्विंशत्यधिकशतभागैः परतश्चन्द्रः प्ररूप्यते, तत एव षोडशभागान् पूर्व मवष्वष्क्येत्युक्तम्, 'एत्थ णं' अत्र खलु प्रदेशे स्थितः सन् 'चंदे' चन्द्र: 'चरिमं' चरमां 'बावट्ठि' द्वाषष्टितमां 'अमावास' अमावास्यां 'जोए इ' युनक्ति परिसमापयतीति ॥ ६ ॥ ४४२ पूर्वं चन्द्रस्यामावास्या परिसमाप्तिदेशः, प्ररूपितः, अथाग्रे सूर्यस्यापरिसमाप्तिदेशं प्रतिपादयन्नाह - 'ता एएसिणं' इत्यादि, मूलम् - ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छरणं पढमं अमावासं सूरिए कंसि देसंसि जोएइ १ । ता जंसि णं देसंसि सूरिए चरिमं बावट्ठि अमावासं जोएइ ताओ अमावासाठाणाओ मंडलं चउव्वी सेणं सरणं छित्ता चउणवई भागे उवाइणावित्ता एत्थ णं से सूरिए पढमं अमावासं जोएइ । एवं जेणेव अभिलावेणं सूरियस्स पुण्णमासिणीओ भणिया तेणेव अभिलावेणं अमावासाओवि भाणियव्वाओ, तं जहा विश्या तइया, दुवालसमी । एवं खलु एएणं उवाएणं ताओ २ अमावासाठाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सरणं छित्ता arras २ भागे उवाइणावित्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं अमावासं सूरिए जोए । ता एएसिणं पंच संवच्छरणं चरिमं बावट्ठि अमावासं सूरिए कंसि देसंसि जोएड ? ताजंसि णं देसंसि सूरिए चरिमं बावट्ठि पुण्णमासिपि जोएइ ताओ पुण्णमासिणिट्ठागाओ मंडल चउव्वीसेणं सरणं छित्ता सत्तालीसं भागे उक्कोवइत्ता एत्थ णं से सुरिए चरि बाट्ठि अमावासं जोएइ || सूत्र ७ || Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१०प्रा प्रा.२२सू.७ सूर्यस्याऽमावास्यापरिसमाप्तिदेशनिरूपणम् ४४३ छाया तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमाममावस्यां सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ? । तावत् यस्मिन् खलु देशे सूर्यः चरमां द्वाषष्टि अमावस्यां युनक्ति तस्मात् अमावस्यास्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा चतुर्नवतिभागान् उपादाय, अत्र खलु स सूर्यः प्रथमाममावास्यां युनक्ति । एवं येनैवाभिलापेन सूर्यस्य पौर्णमास्यो भणिताः तेनैवाभिलापेन अमावस्या अपि भणितब्याः, तद्यथा-द्वितीया तृतीया द्वादशी । एवं खलु एतेनोपायेन तस्मात् तस्मात् अमावास्यास्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा चतुर्नवति२ भागान् उपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे तां ताममावास्यां सूर्यः युनक्ति । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चरमां द्वाषष्टिममावास्यां सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे सूर्यः चरमां द्वाषष्टिं पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् पौर्णमासीस्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा सप्तचत्वारिंशतं भागान् अवष्वक्य, अत्र खलु स सूर्यः चरमां द्वाषष्टिममावास्यां युनक्ति । सूत्र ॥ ७॥ व्याख्या-'ता एएसि णं' इति 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'पढमं अमावासं प्रथमाममावास्यां 'सूरिए' सूर्यः 'कंसि देसंसि जोएइ' कस्मिन् देशे युनक्ति : । भगवानाह-'ता'तावत् 'जसि णं देसंसि' यस्मिन् खलु देशे 'मरिए' सूर्यः 'चरिमं चरमां पाश्चात्य युगपर्यन्तवर्तिनीं 'बावट्टि' द्वाषष्टिं द्वाषष्टितमा 'अमावासं अमावास्यां 'जोएई' युनक्ति 'ताओ' तस्मात् 'अमावासट्ठाणाओ' अमावास्यास्थानात् 'मंडलं' मण्डलं 'चउव्वीसेणं सएणं' चतुर्विशेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा 'चउणवई भागे' चतुर्नवति भागान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय ‘एत्थ णं' अत्र खलु ‘से सूरिए' स सूर्यः ‘पढम अमावासं' प्रथमाममावास्यां 'जोएइ' युनक्ति । अथाग्रेऽतिदेशमाह-एवं' इत्यादि ‘एवं' एतम्-अनेनैव प्रकारेण 'जेणेव अभिलावेण' येनैव यत्प्रकारकेणाभिलापेन पूर्वं 'सरियस्स' सूर्यस्य 'पुण्णमासिणीओ भणियाओ' पौर्णमास्यो भणिताः कथिताः 'तेणेव अभिलावणं' तेनैव तादृशेनैवाभिलापेन सूर्ययोगयुक्ताः 'अमावासाओवि' अमावास्या अपि 'भाणियचाओ' भणितव्या वाच्याः, 'तं जहा' तद्यथा 'विइया, तइया दुवालसमी' द्वितीया, तृतीया द्वादशी। तदालापकाश्चत्थम् एएसि ण पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं अमावास सुरिए कंसि देसंसि जोएइ ? ताजंसिणं देसंसि सूरिए पढमं अमावासं जोइए. ताओ अमावासटाणाओ मंडल चउव्वीसेणं सएणं छित्ता चउणवई भागे उवाइणावित्ता एत्थ णं से सूरिए दोच्च अमावासं जोएइ । ता एएसि ण पंचण्हं संवच्छराणं तच्च अमावासं सूरिए कसि देसंसि जोएइ ? ता जसिणं देसंसि दोच्चं अमावासं जोएइ ताओ अमावासट्ठाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता चउणवइं भागे उवाइणावित्ता एत्थ णं से मूरिए तच्चं अमावासं जोएइ । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं अमावासं सूरिए कंसि देसंसि जोएइ । ता जंसि णं देसंसि Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे थरिए तच्च अमावास जोएइ ताओ अमावासट्ठाणाओ मंडल चउव्वीसेण सएणं छित्ता अट्टचत्ताले भागसए उवाइणावित्ता एत्थ णं से सरिए दुवालसमं अमावासं जोएइ" छाया- एतेषां खलु पंचानां संवत्सराणां द्वितीयाममावास्यां सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे सूर्यः प्रथमाममावास्यां युनक्ति तस्मात् अमावस्यास्थानातू मंडलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा चतुर्नवति भागान् उपादाय अत्र खलु स सूर्यः द्वितीयाममावास्यां युनक्ति ? तावत् एतेषां स्खलु पञ्चानां संवत्सराणां तृतीयाममावस्यां सूर्यः कस्मिन् खलु देशे युनक्ति तावत् यस्मिन् स्खलु देशे द्वितीयाममावास्यां युनक्ति तस्मात् अमावास्यास्थानात् मण्डलं चतुर्वि शतेन शतेन छित्त्वा चतुर्नवति भागान् उपादाय अत्र खलु स सूर्यः तृतीयाममावस्यां युनक्ति । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वादशीममावास्यां सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे सूर्यः तृतीयाममावास्यां युनक्ति तस्मात् अमावास्यास्थानात् मण्डल' चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा अष्ट षट्चत्वारिंशद्भागशतानि उपादाय अत्र खलु स सूर्यः द्वादशीममावास्यां युनक्ति, इति । व्याख्या-पूर्ववदेव नवरम्-द्वादशीअमावास्या खलु तृतीयस्या अमावास्यायाः परतो नवमी भवतीति चतुर्नवतिभागा नवभिर्गुण्यन्ते जातानि-षट् चत्वारिंशदधिकानि अष्टशतानि (८४६) भागानामित्यतः प्रोक्तम्-'अट्ठचत्ताले भागसए' इति । शेषं सुगमम् । अथ शेषा अमावास्या अतिशेनाह-‘एवं खलु' इत्यादि, ‘एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण खल-निश्चितं 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'उवाएण' उपायेन विधिना 'ताओ ताओ अमावासाट्ठाणाओ' तस्मात् तस्मात् पूर्व पूर्व गतात् अमावास्यास्थानात् अमावास्यापरिसमाप्तिनिवन्धनात् देशात् 'मंडलं' मण्डल 'चउव्वीसेणं सएणं चतुर्वि शेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा 'चउणवइं २ भागे' चतुर्नवितिं चतुर्नवति भागान् ‘उवाइणावित्ता' उपादाय 'तंसि तसि देसंसि' तस्मिन् तस्मिन् देशे त तं अमावासं' तां ताममावास्यां 'सूरिए' सूर्यः 'जोएइ' युनक्ति अथ चरमां द्वाषष्टितमाममावास्यामाह 'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं' एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चरिमं' चरमां युगपर्यन्तबर्तिनों 'बावढि अमावासं' द्वाषष्टिं द्वापष्टितमाममावास्यां 'सरिए सूर्यः कसि देससि जोएइ' कस्मिन् देशे युनक्ति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'जंसि णं देसंसि' यस्मिन् खलु देशे 'सूरिए' सूर्यः 'चरिमं बावडिं' चरमां द्वाषष्टिं 'पुण्णमासिणि भोएइ' पौर्णमासी युनक्ति 'ताओ पुण्णमासिणिहाणाओ, तस्मात् पौर्णमासीस्थानात् 'मंडलं' मण्डलं "चउच्चीसेणं सएणं' चतुर्विशेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा-विभज्यार्वाक् ‘सत्तालीसं भामे' सप्तचत्वारिंशतं भागान् 'उक्कोवइत्ता' अबष्वक्य पश्चादादाय ‘एत्थ णं' अत्र खलु 'से थरिए' स सूर्यः 'चरिमं' चरमा 'वावडिं' द्वाषष्टिं द्वाषष्टितमा ‘अमावासं' अमावास्यां 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ॥ सूत्रम् ॥७॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिक टीक प्रा०१०प्रा.प्रा.२२ सू०७चन्द्रसूर्योवाकेननक्षत्रेणपौर्णमासीसमापयतीतिर अथ कां पौर्णमासी चन्द्रः सूर्यो वा केन नक्षत्रेण युक्तः सन् परिसमापयतीति प्रतिपादयन्नाह'ता एएसिणं' इत्यादि । मूलम् -'ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं पुण्णमासिणि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता धणिहाहिं, धणिहाणं तिण्णि मुहुत्ता एगणवीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं च सत्तट्टिहा छित्ता पण्णट्ठी चुण्णियाभागा सेसा, तं समयं च णं सरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता पुव्वाफग्गुणीणं अट्ठावीस मुहुत्ता अद्वतीसं बावट्ठीभागा मुहुत्तस्स, बावडिभाग च सत्तट्टिहा छित्ता दुत्तीसं चुणिया भागा सेसा । ता एएसि णं पंचहं संवच्छरामं दोच्चं पुण्णमासिणि चंदे कणं णक्खत्तेण जोएइ ? ता उत्तरापोट्टवयाहिं, उत्सरापोवयाणं सत्तावीसं मुहुत्ता, चोइस य बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं च सत्तटिहा छित्ता चउसट्ठी चुणिया भागा सेसा तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराफग्गुणीहिं, उत्तराफग्गुणीणं सत्त मुहुत्ता तेत्तीसं च बावट्ठीभागा मुहत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छित्ता एक्कतीसं चुणिया भागा सेसा । ता एएसिण पंचण्हं संबच्छराणं तच्चं पुण्णमासिणि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ?, ता अस्सीणीहिं, अस्सीणीणं एक्कवीस मुहुत्ता णव य बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छित्ता तेवट्ठी चुणियाभागा सेसा, तं समयं च णं सरिए केण णक्खत्तेणं जोएइ ?, ता चित्ताए, चित्ताए एक्को मुहुत्तो, अट्ठावीसं च बावट्टी भागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं च सत्तढिहा छित्ता तीसं चुण्णियाभागा सेसा । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराण दुवालसमं पुण्णमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ?, ता उत्तरासाढाहिं, उत्तरासाढाणं छव्वीस मुहुत्ता छब्बीस च बावट्ठीभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तहिहा छित्ता चउप्पण्णं चुण्णिया भागा सेसा तं समयं च ण सूरिए के णं णक्खत्तेणं जोएइ ?, ता पुणव्वसुस्स सोलसमुहुत्ता, अट्ठय बावद्विभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं च सत्तटिहा छित्ता वीसं चुणिया भागा सेसा । ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरमं बावटि पुण्णमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उत्तरासाढाहिं उत्तरासाढाणं चरमसमए, तं समयं च णं सरिए केण णक्खत्तण जोएइ ?, ता पुस्सेणं, पुस्सस्स एगूणवीसं मुहुत्ता, तेतालीसं च बावही भागा मुहुत्तस्स बावठिभरगं च सत्तठिहा छित्ता तेत्तीसं चुण्णियाभागा सेसा । सूत्र ॥८॥ छाया तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमां पौर्णमासी चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति १ तावत् धनिष्ठाभिः, धनिष्ठानां च त्रयो मुहूर्ताः, एकोनविंशतिश्च द्वा. षष्टिभागा मूहर्तस्य, द्वाषष्टिभाग च सप्तषष्टिधा छित्त्वा पञ्चषष्टि प्रचूर्णिका भागाः शेषाः। तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् पूर्वाफल्गुनीभ्यां पूर्वाफाल्गुन्योः अष्टाविंशति मुहूर्ताः , अष्टत्रिंशच्च द्वाषष्टि र्भागा मुहूर्तस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र छित्त्वा द्वात्रिंशत् चर्णिकाभागाः शेषाः । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयां पौणमासी चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति', तावत् उत्तराप्रोष्ठपदाभ्याम् उत्तराप्रोष्ठपदयोः सप्तविशति मुहूर्ताः, चतुर्दश च द्वाष्टिभागाः मुहर्तस्य, द्वाष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा द्वाषष्टि प्रचूणिका भागाः शेषाः, तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति तावत् उत्तराफालगुनीभ्यो, उत्तराफाल्गुन्योः सप्तमुहूर्ताः त्रयस्त्रिशच्च द्वाषष्टि भागा मुहूर्तस्य, द्वाषष्टिभारां च सप्तषष्टिधा छित्त्वा एकत्रिशर्णिका भागाशेषाः । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां तृतीयां पौर्णमासी चन्द्रः केन नक्षत्रेण युक्ति ? तावत् अश्विनीभिः, अश्विनीनां च एकविंशतिर्मुहूर्ताः, नव च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभार्ग च सप्तष्टिधा छित्त्वा त्रिषष्टिप्रचूर्णिका भागाः शेषाः, तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् चित्रायाः चित्रायाश्च एको मुहूर्तः, अष्टाविंशतिश्च द्वाष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा त्रिंशत् चूर्णिका भागाः शेषाः तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वादशी पौर्णमासी चन्द्रःकेन नक्षत्रेण युक्ति ? तावत् उत्तरा षाढाभ्यां, उत्तराषाढयो षड् विंशति मुहूर्ताः षड्विंशतिश्च द्वाष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा चतुष्पञ्चाशत् चूर्णिकाभागाः शेषाः तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ?, तावत् पुनर्वसुना, पुनर्वसोः षोडश मुहूर्ताः अष्ट च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा विंशतिश्चूर्णिका भागाः शेषाः तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चरमां द्वषष्टिः पौर्णमासी चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? उत्तराषाढयो चरमसमये, तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् पष्येण, पष्यस्य एकोनविंशति मुहर्ता त्रिचत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिकाभागाः शेषाः ॥८॥ व्याख्या—'ता एएसिणं' इति, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु पूर्वोक्तानां 'पंचण्हं' पञ्चानां 'संवच्छराणं' चन्द्रादिसंवत्सराणां मध्ये 'पढमं पुण्णमासिणिं' प्रथमां पौर्णमासी युगस्यादि भाविनी पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्रः उपलक्षणात्सूर्यो वा 'केण णक्खत्तण' केन किंनामकेन नक्षत्रेणसह योगमुपागतः सन् 'जोएइ' युनक्ति-परिसमापयति ? भगवानाह-'ता धणिवाहि' इत्यादि, 'ता' इति तत्र युगे 'धणिवाहि' धनिष्ठाभिः तेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमं पौर्णमासीं चन्द्रः धनिष्ठाभिः परिसमापयति । धनिष्ठा नक्षत्रस्य पञ्चतारकत्वाद्वहुवचनम् तदेव विशदयति'धनिट्ठाणं' धनिष्ठानां धनिष्ठा नक्षत्रस्येत्यर्थः "तिण्णि मुहुत्ता' त्रयो मुहूर्ताः ‘एगृणवीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स' एकोनविंशतिश्च द्वाषष्टि भागा मुहूर्तस्य, तथा 'बावद्विभागं च' एक द्वाषष्टि भागं च 'सत्तट्टिहा' सप्तषष्टिधा सप्तषष्टिभागैः 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य, एकस्य द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टि विभागान् कृत्वेत्यर्थः तेभ्यः ‘पण्णट्ठी' पञ्चषष्टिः 'चुण्णियाभागा' चूर्णिका भागाः (३ (। ५) शेषा, भवेयुस्तदा चन्द्रः प्रथमां पौर्णमासी समापयतीतिभावः । कथमेत ६२ ६७ दित्याह-पौर्णमासी विषयक चन्द्रनक्षत्रयोगस्य परिज्ञानार्थं कारणं प्रागुक्तमेव, तत्र षट्षष्टि-मुहूर्ताः, Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतिप्रकाशिकाटीकाप्रा. १० प्रा० प्रा. २२सू. ७चन्द्र सूर्योवाकेननक्षत्रेणपौर्णमासीं परिसमापयति४४७ एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागाः, एकः सप्तषष्टि भागः (६६ - 4 । १ ) एष ध्रुवराशि ५ ६२६७ र्धियते, धृत्वा च प्रथमायां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगं ज्ञातुमिच्छतीति एकेन गुण्यते, एके गुणो राशिः स एव स्थित तावानेव जातः, एतस्माद् राशेरभिजिन्नक्षत्रस्य नव मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य ६६ 1 ) २४ चर्तुर्विंशति र्द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य षट्षष्टि सप्तषष्टिभागाः (९ - ६२ ६७ इत्येतत्परिमितं शोधनकं शोध्यते, तत्र प्रथमं षट्षष्टि मुहूर्त्तेभ्यो (६६) नव मुहूर्त्ताः शोध्यन्ते स्थिताः शेषाः सप्तपञ्चाशत् (५७) एभ्य एक मुहूर्त्तं गृहीत्वा तस्य द्वाषष्टिभागाः क्रियन्ते, ते च द्वाषष्टि भागा अपि पञ्चकरूपे द्वाषष्टि भागराशौ प्रक्षिष्यन्ते, जाताः सप्तषष्टि द्वाषष्टि भागाः (६७) तेभ्यश्चतुर्विंशतिः शोध्यते, स्थिताः पश्चात् त्रिचत्वारिंशत् (४३) तस्माद् एकं रूपं गृही ६२ त्वा तस्य सप्तषष्टि भगा क्रियन्ते, ते च सप्तषष्टिभागा अपि एकक रूपे सप्तषष्टिभागे प्रक्षिप्यन्ते अष्टषष्टिः सप्तषष्टिभागाः (६५) तेभ्यः षट्षष्टिः शोध्यते, स्थितौ शेषौ द्वौ सप्तषष्टि ६७ जाता भागौ ( ५६ । ४३ + ६२ २ - ), ततस्त्रिंशता मुहूर्त्त : श्रवणः शोध्यते, स्थिताः पश्चात् षडविंशति ६७ २। ६२ ६७ धनिष्ठा नक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् त्रिंशन्मुहूर्त्ते भ्यः पूर्वोक्तो राशिः शोध्यते तत आगतम् धनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोन विंशतिसंख्यकेषु सप्तषष्टिभागेषु ( ३-- । ६५) शेषेषु प्रथमा पौर्णमासी परिसमाप्तिमेति । १ । ६२ ६७ १९ साम्प्रतं सूर्यनक्षत्रयोगमाह - 'त' समयं चणं' इत्यादि 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये खलु, अत्र सप्तम्यर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात् यस्मिन् समये धनिष्ठानक्षत्रं यथोक्तशेषं चन्द्रेण युक्तं परिसमापयति तस्मिन्क्षणे 'सूरिए' सूर्य: 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तः सन् तां प्रथमां पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह - 'ता 'पुव्वाफग्गुणीहिं' 'ता' तदा 'पुव्वा फग्गुणीहिं' पूर्वाफाल्गुनीभ्याम् पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वितारकत्वाद्विवचनम्, प्राकृ च द्विवचनाभावाद् बहुचनम्, तयोश्च 'पुव्वाफग्गुणीणं' पूर्वाफाल्गुन्यो स्तदानीं 'अट्ठावीसं मुहुत्ता' अष्टाविंशतिर्मुहूर्त्ताः, 'अद्वतीसं च बावट्टिभागा मुहुत्तस्स' अष्टात्रिंशच्च द्वाषष्टि भागा मुहूर्त्तस्य, तथा 'वाद्विभागं च ' एकंच द्वाषष्टिभागं 'सत्तट्ठिा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्वा, एकस्य द्वाषष्टि र्मुहूर्त्ताः शेषा अंकास्तएवेति (२६–४३। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिचे ५ भागस्य सप्तषष्टिभागान् विधाय तेभ्यः 'दुत्तीसं चुण्णियाभागा द्वात्रिंशत् चूर्णिकाभागः २८- ३८ ३२ 'सेसा' शेषास्तिष्ठन्ति तदा सूर्यः प्रथमां पौर्णमासीं समापयतीतिभावः । ६२ ६७ तदेव दर्शयति--अत्रापि स एव पूर्वोक्तो ध्रुवराशि:- षट्षष्टिमुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागाः, एकस्य सप्तषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टि भाग : ( ६६ - इत्येवं रूपो धिते धृत्वा चास्याः पौर्णमास्याः प्रथमत्वादद् एकेन गुण्यते, जातं तदेव (६६–५–१) ततस्तस्मात् पुष्यशोधनकम् एकोनविंशतिमुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्व च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः, (१९– ४३ ३३) इत्येवं प्रमाणं शोध्यते अथास्य पुष्य ६२ ६७ ६२ ६७ ६३ ६७ ४४८ शोधनकस्य कथमुत्पत्तिः ? अत्रोच्यते अत्र पूर्वं युगपरिमाप्तिसमये पुष्पस्य त्रयोविंशतिः सप्तषष्टिभागाः (२३) परिपूर्णाः परिसमाप्तिं गताः शेषाश्चतुश्चत्वारिंशद्भागाः (४४) अवतिष्ठन्ति, ततः शेषीभूताश्चतुश्चत्वारिंशत् सप्तषष्ठिभागाः (४४) मुहूर्त्तानयनार्थं त्रिंशता गुण्यते, जातानि विंशत्यधिकानि त्रयोदशशतानि (१३२०) अस्य राशेसप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनविंशति मुहूर्त्ताः (१९), तिष्ठन्ति शेषाः सप्तचत्वारिंशत् (४७) एते च द्वाषष्टिभागानयनार्थं द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि चतुर्दशाधिकानि एकोनत्रिंशच्छतानि (२९१४) । एषां सप्तषष्टचा भागो ह्रियते लब्धास्त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः (२), स्थिताः शेषास्त्रयस्त्रिंशत् (३३), ते च सप्तषष्टिभागाः, तदेवमागतं पुष्प ६२ शोधनकम्–एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः (१९-(१९३६३ (३३) इति एष राशिर्ध्रुवराशेः (६६।५।१ शोध्यते । तत्र षट्षष्टे मुहूर्तेभ्य एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात्सप्तचत्वारिंशत् (४७) एभ्य एको मुहूर्ती गृह्यते तदा स्थिताः पश्चात् षट्चत्वारिंशत (४६) गृहीतस्यैकस्य मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टि भागाः कर्त्तव्याः, ते च पञ्चकरूपे द्वाषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तषष्टिद्वषष्टिभागाः, तेभ्यस्त्रिचत्वारिंशत् शोध्यन्ते स्थिताः पश्चाच्चतुर्विंशतिः (२४), एभ्य एक रूपमुपादीयते जाता त्रयोविंशतिः, गृहीतस्य एकस्य सप्तषष्टिभागाः क्रियन्ते, ते च एककरूपे सप्तषष्टिभागे प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टषष्टिः सप्तषष्टिभागाः (६) एभ्यस्त्रयस्त्रिंशत् शुद्धाः, स्थिताः पञ्च Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६७ " चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्रा०प्रा.२२सू.८ च.सू. वा केन न. पौर्णमासी समापयति ४४९ त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः, (४६.२३/३५) तत एभ्यः षट्चत्वारिंशन्मुहूर्तेभ्यः (४६) पञ्चदशमुहूर्ता अश्लेषायाः, त्रिंशन्महूर्ताश्च मघाया इति मिलित्वा पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ताः (४५) शोध्यन्ते, स्थितः पश्चादेको मुहूर्तः (१) शेषा अङ्कास्त एव, तथाहि-एको मुहूर्तः परिपूर्णः एकस्य मुहूर्तस्य च त्रयोविंशतिषिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत् सप्तषष्टि भागाः (१२), इति पूर्वफाल्गुनी नक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् एष पूर्वोक्तो राशिस्त्रिंशन्मुहूर्तभ्यः शोध्यते । तत आगतम् पूर्वाफाल्गुनोनक्षत्रस्याष्टाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टात्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (२८-३८-३२) शेषेषु सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयति । एते च सूर्यमुहूर्ताःसन्ति, एवम्भूतैश्च सूर्यमुहूर्तस्त्रिंशत्संख्यकैः संमिलितैस्त्रयोदशरात्रिन्दिवानि, तदुपरि एकस्य च रात्रिन्दिवस्य द्वादश व्यावहारिका मुहूर्ता भवन्ति, तत एतदनुसारेण गतैकदिवसभागगणना भवति, शेषस्थितदिवसगणना च पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रस्य स्वयं कर्तव्या एवमग्रे उत्तरसूत्रेष्वपि सूर्यनक्षत्रयोगे भावना कर्त्तव्येति । द्वितीयायाः पौर्णमास्याश्चन्द्रयोगं पृच्छति-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता तावत् 'एएसिणं एतेषां पूर्वोक्तानां 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'दोच्चं पुण्णमासिणिं' द्वितीयां पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेण' केन नक्षत्रेण सह युक्तः सन् 'जोएइ' युनक्ति ? । एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता' तावत् 'उत्तरापोद्ववयाहिं' उत्तराप्रोष्ठपदाभ्याम् , अत्रापि उत्तराप्रोष्ठपदानक्षत्रस्य द्वितारकत्वाद् द्विवचनम् , तयोश्च 'उत्तरापोढवयाणं' उत्तराप्रोष्ठपदयोः उत्तराभाद्रपदा नक्षत्रस्य ‘सत्तावीसं मुहुत्ता' सप्तविंशतिर्मुहूर्ताः 'चोइस य बावद्विभागा मुहुत्तस्स' चतुर्दशच द्वाषष्टिभागा एकस्य मुहूर्तस्य, तथा 'बावद्विभागं च सत्तढिहा छित्ता' द्वाषष्टितमं भागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा एकस्य द्वाषष्टिभागस्य च सप्तषष्टिभागान् कृत्वा तत्सम्बन्धिनः 'चउसट्टी चुण्णियाभागा' चतुष्पष्ठिश्चूर्णिका भागाः शेषास्तिष्ठन्ति तदा द्वितीयां पौर्णमासी चन्द्रः परिसमापयति । कथमित्यत्राह-स एब ध्रुवराशिः-६६।५।१। द्वितीय पौर्णमासीपृच्छायां द्वाभ्यां गुण्यते, जातं द्वात्रिंशदुत्तरं शतं (१३२) मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य दश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ (१३२१०। २ ) । ततः पूर्वक्रमेणाभिजिन्नक्षत्रस्य नवमुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सम्बन्धिनः षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागाः (९-२४.६६) शोध्यन्ते, स्थिता शेषा द्वाविंशत्यधिकशतसंख्यकाः (१२२) मुहूर्ताः, ५७ ६।६७ ६२०६७ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ६२१६७ १४.६ ६२६७ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशद् द्वाषष्ठिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टि भागाः (१२२-४-२) । ततोऽस्माद्राशेः त्रिंशन्मुहूर्ताः श्रवणस्य (३०), त्रिंशन्मुहूर्ता धनिष्ठायाः (३०), पञ्चदशमुहूर्ताः शतभिषजः (१५) त्रिंशन्मुहूर्ताः (३०) पूर्वभाद्रपदायाश्चेति सर्वे पञ्चोत्तरशत (१०५) मुहूर्ता अनन्तरोदित द्वाविंशत्यधिकशत (१२२) भुहूर्तेभ्यः शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चातू सप्तदश मुहूर्ताः (१७) शेषा अङ्कास्त एवेति स्थिताः (१७-४०। ३), तत ६२।६७ उत्तराभाद्रपदानक्षत्रस्य पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् उत्तराभाद्रपदनक्षत्रस्य सप्तविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुर्तस्य चतुर्दशसु, द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुप्पष्टौ सप्तपष्टिभागेषु (२७-२०६०) शेषेषु द्वितीयां पौर्णमासी चन्द्रः परिसमापयति । __ अथास्यामेव पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगमाह-तं समयं च णं' इत्यादि. 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु यस्मिन् समये चन्द्रो द्वितीयां पौर्णमासी समापयति तस्मिन् समये 'सुरिए' सूर्यः 'के णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह युक्तः सन् द्वितीयां पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति समापयति ? एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह–'ता उत्तराफग्गुणीहिं' इत्यादि 'ता' तावत् 'उत्तराफग्गुणीहिं' उत्तराफाल्गुनीभ्यां सह सूर्यो योगं युनक्ति, तत्र द्वितीय पौर्णमासी परिसमापयति समये 'उत्तराफग्गुणीण' उत्तरफाल्गुन्योः उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रस्य, अत्राप्यस्य द्वितारकत्वाद्विवचनम्, 'सत्त मुहुत्ता' सप्तमुहूर्ताः, तेतीसं च बावटिभागमुहुत्तस्स' त्रयस्त्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, तथा 'बासट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता' द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य तेषु 'एक्कतीसं चुण्णिया भागा' 'एकत्रिंशश्चूर्णिका भागाः शेषा यदा तिष्ठन्ति उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रस्य तदा सूर्य स्तामेव द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयतीति भावः । कथमेतदित्याह-अत्रापि स एव पूर्वोक्तो ध्रुवराशिम्रियते यथाङ्कतः (६६।५।१। धृत्वा चात्र द्वितीय पौर्णमासीविषयकः प्रश्न इति ध्रुवराशिर्वाभ्यां गुण्यते जाता द्वात्रिंशदधिकशतमुहूर्ताः, एकस्य च मुइतस्य दशद्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ(१३२---- ६२६७ तत एतस्माद् राशेः पुण्यशोधनकम् एकोनविंशति मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वात्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः (१९- ३३) इत्येतावत्परिमाणं पूर्वरीत्या शोध्यते, स्थितं पश्चात् शतमेकं द्वादशोत्तरं (११२) ४३३३ ६२/६७ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्रा.प्रा.२२ सू.८ च सू. वा केन न. पौर्णमासी समापयति ४५१ मुहूर्तानाम्, एकख्य च मुहर्तस्याष्टाविंशति पिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्त्रिंशत् सप्तष्टिभागाः (११२-२००३६)एतस्मादाशेः पञ्चदश मुहर्ता अश्लेषायाः त्रिंशन्मुहूर्ता मधायाः, त्रिंशन्मुहूर्ताश्च पूर्वाफाल्गुन्यः शोध्याः, इति सर्वे पञ्चसप्ततिर्मुहूर्ताः शोध्यन्ते ततः स्थिताः पश्चात् सप्तत्रिंशन्मुहूर्ताः, शेषा भागास्त एव, यथा (३७-२८३६) तत उत्तर फल्गुनी नक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् उत्तरफल्गुनीनक्षत्रं सूर्येण युक्तं सत् स्वस्य सप्तसु मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशाते द्वाषष्टगागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (७-२२)शेषेषु द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयतीति ।२। अथ-तृतीयपौर्णमासी विषयं चन्द्रनक्षत्रयोगसूत्रमाह-'ता एएसि णं' इत्यादि। गौतमः पृच्छति-'ता' तावत् ‘एएसि गं' एतेषां खलु ‘पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'तच्च पुण्णमासिणिं' तृतीयां पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण 'जोएई' युनक्ति ? भगवानाह- 'ता अस्सिणीहि' इत्यादि 'ता' तावत् । 'अस्मिणिहिं' अश्विनीभिः अश्विनीनक्षत्रस्य त्रितारकत्वाद्वहुवचनम्, तृतीयपौर्णमासीपरिसमाप्तिसमये 'अस्सिनीणं' अश्विनीना मिति अश्विनीनक्षत्रस्य 'एकवीसं मुहत्ता' एकविंशतिर्मुहूर्ताः, 'नवय बावद्विभागा मुहत्तस्म नव च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, 'बावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता' द्वाषष्टिभाग च सप्तषष्टिधा छित्वा विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'तेवढीचुणिया भागा त्रिषष्टि श्चूर्णिकाः भागाः ( २१-९६२) यदा 'सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्रः तृतीयां पौर्णमासी परिसमापय (२१-६२६७ तीति भावः । तथाहि-अत्रापि स एव (६६।५।१।) ध्रुवराशिः अत्र तृतीय पौर्णमासी प्रष्ठुरिष्टेति ध्रुवराशिस्त्रिभिर्गुण्यते, जातमष्टानवत्यधिकमेकं शतं मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चदशा द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः (१९८-५२) ततः 'उगणार ६२६७ पोद्वया' इति करणगाथा वचनात् पूर्वोक्तराशेः एकोनषष्टयधिक रातमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिश्च द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वावष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागा ( १५९-२४/६५) अभिजित आरभ्योत्तरभाद्रपदा पर्यन्तानां षण्णां नक्षत्राणां शोध्याः शोधिते च ६२/६७ पश्चादवतिष्ठन्ते-अष्टत्रिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य द्विपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे ५२४ द्वाषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तषष्टि भागाः (३८---) । अस्माद्राशेस्त्रिंशन्मुहूर्त्ता रेवतीनक्षत्रस्य ६२६७ शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् अष्टौ मुहूर्ताः, शेषं तदेव, तथा चाङ्कतः-(८१२१-७तत आगतमू अश्विनीनक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात्तस्य-एकविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य नवसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु (२१+९+६३) शेषेषु चन्द्रस्तृतीयां पौर्णमासी समापयतीति । साम्प्रतमस्यामेव तृतीयस्यां पौर्णमास्यां सूर्य नक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि गौतमः पृच्छति-'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु यस्मिन् समये चन्द्रस्तृतीयां पौर्णमासीमश्विनीनक्षत्रस्य कतिपयभागशेषे समापयति तस्मिन् समये इत्यर्थः 'सूरिए' सूर्यः 'केणंणक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह युक्तः सन् तृतीयां पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति समापयति ? । गौतमेन एवं पृष्टे भगवानाह-'ता चित्ताए' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चित्ताए' चित्रया, चित्रानक्षत्रस्य एकतारकत्वादेकवचनम् चित्रानक्षत्रेण युक्तः सन् सूर्यस्तृतीयां पौर्णमासी समापयतीति भावः । तदेव स्पष्टयति-'चित्ताए इत्यादि, 'चित्ताए' चित्रायाः चित्रानक्षत्रस्य 'एक्को मुहुत्तो' एको मुहूर्तः 'अट्ठावीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स' अष्टाविंशतिश्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, तथा 'बाबट्ठिभागंच' द्वाषष्टिभागं च 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य तत्सत्काः 'तीसंचुणिया भागा' त्रिंशच्चूर्णिका भागाः (१२०३०) 'सेसा' शेषा अवशिष्टा यदा भवेयुस्तदा ६२०६७ सूर्यस्तृतोयां पौर्णमासी परिसमापयतीति । कथमित्याह-स एव ध्रुवराशिः ६६।५।११. अत्र तृतीय पौर्णमासी चिन्त्यतेऽत एष ध्रुराशिस्त्रिभिर्गुण्यते, जाता अष्टनवत्यधिकशतमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चदश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः (१९८---)। S : २ तत एतस्माद्राशेः पुष्यशोधनकम्-एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य मुहूर्तस्य च त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः (१९-४३०३३), एतत्परिमितं पूर्वप्रकारेण शोध्यते स्थितं पश्चान्मुहूर्तानामष्टसप्तत्यधिकं शतम् , एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः (१७८-३३३७) । तत ६२१६७ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीकाप्रा. १०प्रा प्रा. २२सू. ८ च.सू. वा केन न. पौर्णमासीं परिसमापयति ४५३ एतस्माद्राशेः अश्लेषादि हस्त पर्यन्तानां पञ्चानां नक्षत्राणां पञ्चाशदधिकशत मुहूर्त्ताः (१५० ) शोध्यन्ते, पञ्चाशदधिकशत मुहूर्त्तेर श्लेषादिपञ्चनक्षत्राणि शुद्धयन्तीति भावः, शोधिते च शेषास्तिष्ठन्ति अष्टाविंशतिर्मुहूर्त्ताः, शेषं तथैव यथा (२८ - २३ २७) ततश्चित्रानक्षस्य त्रिंशन्मुहू ६२ ६७ र्त्तात्मकत्त्वातस्यैकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टाविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (१।२८।३० ) शेषेषु सूर्यस्तृतीयां पौर्णमासीं परिसमापयतीति । अथ द्वादशी पौर्णमासी विषयं चन्द्रनक्षत्रयोगसूत्रमाह - 'ता एएसिणं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति - 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खउ 'पंच'हं संवच्छरणं' पञ्चानां संवत्सराणं मध्ये 'दुवास पुगनःसिणि' द्वादशीं पौर्णमासीं 'चंदे' चन्द्रः 'केणं नक्खत्तेण' केन नक्षत्रेण 'जोएइ' युनक्ति-परिसमापयति ? भगवानाह - 'ता उत्तरासादाहिं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'उत्तरासादाहिं' उत्तराषाढाभिः, उत्तराषाढानक्षत्रस्य चतुस्तारकत्वाद् बहुवचनम्, उत्तराषाढा नक्षत्रेण सह योगं युञ्जन् चन्द्रो द्वादशीं पौर्णमासीं समापयतीति भावः । तदेव स्पष्टयति- 'उत्तरासाढाणं' उत्तराषाढानाम-उत्तराषाढानक्षत्रस्य 'छव्वीसं मुहुत्ता' षड्विंशतिर्मुहूर्त्ताः, 'छव्वीसं च बाब - भागा मुहुत्तस्स' षडविंशतिश्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, 'बावद्विभागं च ' द्वाषष्टिभागं च 'सत्तट्ठिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा - विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'चउप्पण्ण चुण्णिया भागा' चतुष्पञ्चा २६/५४. शच्चूर्णिका भागाः (२६---) 'सेसा' शेषा यदा भवेयुस्तदा चन्द्रो द्वादशीं पौर्णमासीं ६२ ६७ परिसमापयतीति भावः । कथमवसीयते इत्याह- स एव ध्रुवराशि: ६६ |५|१| द्वादशी पौर्णमास्या विचार्यमाणत्वादेव ध्रुवराशि र्द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि द्विनवत्यधिकानि सप्तशतानि मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षष्टिर्द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य च द्वादश सप्तषष्टिभागाः (usp-1923) ततः 'मूले सत्तेव बायाला' मूले सप्तैव द्विचत्वारिंशाः द्विचत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि मूलपर्यन्तनक्षत्रमुहूर्त्तानाम् इति करणगाथावचनात् सप्तभिर्द्विचत्वारिंशदधिकमुहूर्तशतैः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् षष्ट्या सप्तषष्टिभागैः (७४२ – २४६६) अभिजित आरभ्य मूत्रपर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यानि, ६० ७९२ ६२/ " ६२६७ ततो द्वात्रिंशता मुहूर्तैः पूर्वाषाढा शोध्यते, तिष्ठन्ति शेषम् अष्टादश मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः (१८ --- ३५ |१३ ६२ ६७ 1 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे तत उत्तराषाढानक्षत्रस्य पञ्च चत्वारिंशन्महूर्तात्मकत्वा दुत्तराषाढानक्षत्रस्य षविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (२६- ) शेषेषु चन्द्रो द्वादशी पौर्णमासी परिसमापयतीति । साम्प्रतमस्यामेव द्वादश्यां पोर्णमास्यां सूर्य नक्षत्रयोगमाह'तं समयं च णं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति-'तं समयं च णं' तस्मिन् समये चन्द्रयोगसमये च खलु 'सूरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह योगं कुर्वन् द्वादशी पोर्णमासी 'जोएई' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह - ता पुणव्वसुणा' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुणब्बसुणा' पुनर्वसुना सह योगं युजन् सूर्यो द्वादशी पोर्ण मासी परिसमापयति. तदेव स्पष्टयति पुणवमुस्त' इत्यादि, 'पुगव्यमुस्त'पुनर्वसोः पुनर्वसुनक्षत्रस्य ‘सोलसमुहुत्ता' षोडशमुहूर्ताः, 'अट्ठ य बावद्विभागा मुहुत्तस्स' अष्ट च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, 'बावद्विभागं च सत्तढिहा छित्ता' द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा बिभज्य 'वीसं चुण्णियाभागा सप्तषष्टिभाग सम्बन्धिनो विंशतिश्चूर्णिकाभागाः (१६-२) यदा ‘सेसा' शेषा-शेषी भूतास्तिष्ठन्ति तदा सूर्यो द्वादशी पौर्णमासी परिसमापयतीति भावः तथाहि स एव ६६।५।१। ध्रुवराशिर्वादश पौर्णमासी चिन्तायां द्वादशभिर्गुण्यते जातानि द्विनवत्यधिकानि सप्तशतानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य षष्टिषिष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादशसप्तपष्टिभागाः (७९२-६° । - । तत ८/२० ६२ ६७ एतस्माद् राशेः पुष्यशोधनकम्-एकोनविंशति मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तष्टिभागाः (१९०२ । २२ एतावत्परिमितं पूर्वोक्तप्रकारेण शोध्यते, स्थितानि पश्चात् त्रिसप्तत्यधिकानि सप्तशतानि, मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य षोडश द्वाषष्टिभागाः, एकस्यच द्वाषष्टिभागस्य षटू चत्वारिंशत् सप्तषष्टि भागाः (७७३- । १६ । तत एतस्माद् राशेः-चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतमुहूर्तः, एकस्य च ६२ ६७ मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पष्टया सप्तषष्टिभागै (७४४- २४- ६१) अश्लेषात आरभ्य आर्द्रापर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यानि, पश्चादवतिष्ठन्ते अष्टाविंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूत्तस्य त्रिपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभाग Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीकाप्रा. १०प्रा प्रा २२.८ च. सू. वा केन न. पौर्णमासीं परिसमापयति ४५५ ६२ ६७ स्य सप्तचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः ( २८- ५३ | ४७ 2) ततः पुनर्वसु नक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात्पुनर्वसु नक्षत्र षोडशसु मुहूर्तेषु, एक च मुहूर्तस्याष्टसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु ( १६८ ।२० ) शेषेषु सूर्यो द्वादशीं ६२।६७ पौर्णमासी परिसमापयतीति । अथ युगस्य पर्यन्तवर्त्तिन्यां चरमायां द्वाषष्टितमायां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगमाह--'ता 'एएसि णं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणं मध्ये 'चरमं' 'चरमां' युगपर्यन्तवर्त्तिनीं ' बावडिं' द्वाषष्टि--द्वाषष्टितमां 'पुण्णमा सिणि' पौर्णमासीं 'चंदे' चन्द्रः 'केण णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेणायुक्तः सन् 'जोए ' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह - 'उत्तरासादाहिं' उत्तराषाढाभ्याम् अत्राप्यस्य द्वितारकत्वाद् द्विवचनम् उत्तराषाढा नक्षत्रेण सह योगं युञ्जन् चन्द्रः चरमां द्वाषष्टितमां पौर्णमासों समापयतीति भावः । तदेव स्पष्टयति 'उत्तरासाढाणं' उत्तराषाढयोः उत्तराषाढानक्षत्रस्य 'चरमसमए' चरम समये सर्वान्तिमवेलायां चन्द्रश्चरमां द्वाषष्टितमां द्वाषष्टितमां पौर्णमासीं परिसमापयतीति तदेव दर्शयति - स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ । चरमद्वाषष्टितमपौर्णमास्या श्चिन्त्यमानत्वात् द्वाषष्ट्या गुण्यते, जाता द्विनवत्यधिक चत्वारिंशच्छतमुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य दशोत्तरत्रिशतसंख्यका द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः (४०९२ - ३१० । ६२) ६२ ६७ तत एतस्माद् 'असयउगुणवीसा, सोहणगं उत्तराणसाढाणं । चउवीसं खल भागा छाडी चुणियाओ य ॥१॥ अष्टशतानेि एकोनविंशानि । एकोनविंशत्यधिकाष्टशतानि (८१९) शोधनकम् उत्तराणामाषाढानाम् चतुर्विंशतिः खलु भागाः, षट्षष्टि चूर्णिका ॥ इतिच्छाया | तत्र एकोनविंशत्यधिकाष्टशतमुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशति द्वाषिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (१९–२४ । । इत्येवं प्रमाणमेकं सकल नक्षत्र - ६६ ६२ ६७ पर्यायशोधनकं पञ्चभि र्गुणयित्वा शोध्यते, पूर्वोक्तप्रकारेण शोध्यमानं च तत् परिपूर्णं शुद्धिमु“पैतीति न किञ्चिदवशिष्यते तत आगतम् - उत्तराषाढा नक्षत्रं परिपूर्णं चन्द्रेण सह योगं युञ्जन् चरमसमये चरमां द्वाषष्टितमां पौर्णमासीं परिसमापयतीति । साम्प्रतमस्यामेव चरमायां द्वाषष्टितमायां पौर्णमास्यां सूर्य नक्षत्रयोगमाह - 'तं समयं च णं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति यस्मिन् समये चन्द्रश्वरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीं परिसमापयति तं समयं Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे च णं' तस्मिन् समये च खलु 'सूरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणे' केन नक्षत्रेण सह युक्तः सन् चरमद्वाषष्टितमा पौणमासों परिसमापयति ? भगवानाह- 'ता पुस्सेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुस्सेणं' पुष्येण पुष्यनक्षत्रेण सह योगं युजन् सूर्यश्चरमां द्वाषष्टितमां पौर्णमासी परिसमाषयती ति भावः । तदेव स्पष्टयति-'पुस्सस्स' पुष्यस्य पुष्यनक्षत्रस्य ‘एगूणवीसं मुहुत्ता' एकोन विंशतिर्मुहूर्ताः, 'तेतालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स' त्रिचत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, 'बावद्विभागं च' द्वाषष्टिभागं च 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य ' तेत्तीसचुणिया भागा' त्रयस्त्रिंशच्चूर्णिका भागाः (१९-४ । ३३) । ‘सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्ठे युस्तदा सूर्यश्चरमां द्वाषष्टितमां पौर्णमासी परिसमापयतीति भावः । कथमेतदवसीयते ? इत्यत्राहस एव ध्रुवराशिः ६६ । ५। १ । द्वाषष्टि पौर्णमासी चिन्तायां द्वाषष्टया गुण्यते जातानि द्विनवत्यधिकानि चत्वारिंशच्छतानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य दशोत्तराणि त्रीणि शतानि द्वषष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः (४०९२-२१ । ६२)। अत्र पुष्यस्य ६२ ६७ त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वा दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु १० । १८ । ३४ । अतिक्रान्तेषु पाश्चात्ययुगं परिसमाप्तिमेति, तदनन्तरमन्यद् युगं प्रवर्तते । पुष्यस्यापि च तावन्मात्रादतिक्रान्तात् परतो यावद् भूयोऽपि तावन्मात्रस्य पुष्यस्यातिक्रमो भवेत्तावप्रमाण एकः परिपूर्णो नक्षत्रपर्यायो जायते, तस्य च प्रमाणम्-एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति षिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पट्षष्टिः सप्तपष्टिभागाः (८१९ २४ । ६६) । एतच्च पञ्चभिर्गुणयित्वा प्रागुक्तात् ध्रुवराशेः (६६ । ५ । १ । ) द्वाषष्टिगुणितात् (४०९२ । ३१० । ६२) शोध्यते, तच्च परिपूर्ण शुद्धयति, पश्चाच्च शशि निर्लेपो जायते, ततः पुष्यस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात्तस्य सूर्येण युक्तस्य दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु अतिक्रान्तेषु (१०-८ । २४), तथा एकोनविंशतौ च मुहूर्तेषु ६२ ६७ एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टि ६२ ६७ ८30 भागेषु ( १९४३ . ३३ ) शेषेषु चरमां द्वाषष्टितमां पौर्णमासी परिसमातिं प्राप्तवानिति । सूत्र ॥८॥ ६२ ६७ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्रा०प्रा.२२सू.९ सू.च. योरमावास्यापरिसमाप्तिनिरूपणम् ४५७ तदेवमुक्त; पौर्णमासींविषय श्चन्द्रनक्षत्रयोगः सूर्यनक्षत्रयोगश्च । साम्प्रत ममाऽवास्याविषयं चन्द्रनक्षत्रयोगं सूर्यनक्षत्रयोगं च प्रतिपादयन् प्रथमं प्रथमाममावास्याविषयं सूत्रमाह-'एएसि "णं' इत्यादि । मूलम्-ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं अमावासं चंदे केणं णक्खत्तण जोइए ? ता अस्सेसाहिं अस्सेसाणं एको मुहुत्तो चत्तालीसं च बाकट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं 'च सत्तट्टिहा छावट्ठी चुण्णियाभागा सेसा । तं समयं च णं सरिए केणं णक्खत्तेणं जोइए ? ता अस्सेसाहि चेव, अस्सेसाणं एक्को मुहुत्तो, चत्तालीसं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स, बाव ट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता छावट्ठी चुण्णियाभागा सेसा । ता एएसि ण पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं अमावास चंदे केण णक्खत्तण जोइए ? ता उत्तराफग्गुणीहि, उत्तराफग्गुणीणं चत्तालीस मुहुत्ता, पणतीसं बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता पण्णट्ठी चुण्णियाभागा सेसा । तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराफग्गुणीहिं, चेव उत्तराफग्गुणीणं जहेव चंदस्स । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं अमावास चंदे केण णक्खत्तण जोएइ ? ता हत्थेहिं, हत्थाणं चत्तारि मुहुत्ता तीसं च बावढिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता बावट्ठी चुणिया भागा सेसा । तं समयं च णं सरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता हत्थेहि चेव हत्थाणं जहा चंदस्स । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराण दुवालसमं अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? अदाए, अदाए चत्तारिमुहुत्ता, दसय बावद्विभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्टिद्दा छित्ता चउपण्णं चुण्णिया भागा सेसा । तं समयं च ण सरिए केणं णक्खत्तण जीएइ ? ता अदाए चेव, अदाए जहा चंदस्स । ता एएसिण पंचण्हं संवच्छराणं चरमं बावढि अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता पुणव्वसुर्हि, पुण्णव्वसूणं बावीस मुहुत्ता छायालीसं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स सेसा । तं समयं च णं सरिए केंण णक्खत्तेणं जोएइ ? ता पुणव्वसुहिं चेव पुण्णव्वसूर्ण जहा चंदस्स मू० ९॥ छाया-तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमाममावास्यां चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् अश्लेलाभिः, अश्लेषाणामेको मुहूर्तः चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा षट्पष्टि *चूर्णिका भागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् अश्लेषाभिरेव, अश्लेषाणां च एको महतः, चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा षट्पष्टिश्चूर्णिका भागाः शेषाः। तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयाममावा. स्यां चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति । तावत् उत्तराफाल्गुनीभ्याम्, उत्तराफाल्गुन्यो श्चतुश्चत्वा. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे रिंशन्मुहूर्ताः, पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा पञ्चषष्टिप्रचूर्णिका भागाः शेषाः तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नत्रत्रेण युनक्ति ? तावत् उत्तराफल्गुनीभ्यामेब, उत्तराफाल्गुन्योः यथैव चन्द्रस्य । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये तृतीयाममावास्यां चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति १, तावत हस्तः, हस्तानां चत्वारो मुहूर्ताः, त्रिंशच द्वाषष्टि भागा मुहू तस्य द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा द्वाषष्टिश्चूर्णिका भागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् हस्तैरेव, हस्तानां यथा चन्द्रस्य । तावत् :एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वादशीममावास्यां चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? आर्द्रया, आर्द्रायाश्चत्वारो मुहूर्ताः, दश च द्वाषष्टिभागा मुहर्त्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा चतुष्पञ्चाशत्चर्णिका भागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् यैव आाया यथा चन्द्रस्य तावत् एतेषां खल पञ्चानां संवत्सराणां चरमां द्वाषष्टिममावास्यां चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति १ तावत् पुनर्वसुभिः पुनर्वसूनां द्वाविंशति मुहूर्ताः, षट्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ?, तावत् पुनर्वसुभिरेव, पुनर्वसूनां खलु यथा चन्द्रस्य । सूत्र ॥९॥ व्याख्या--'ता एएसि णं' इति, गौतमः पृच्छति-'ता' तावत् एएसि णं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संवच्छराण' पञ्चानां संवत्सराणां-मध्ये 'पढम' प्रथमा युगस्यादिसमयवर्तिनीम् 'अमावासं' अमावास्यां 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्सत्तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तः 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह-'ता अस्सेसाहि' तावत् अश्लेषाभिः सह युक्तश्चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयतीति भावः ! 'अस्सेसाहिं' इति-अश्लेषानक्षत्रस्य षट्तारकत्वात्तदपेक्षया बहुवचनम् ! प्रथमाममावास्या परिसमाप्तिसमये 'अस्सेसाणं' अश्लेषानाम्-अश्लेषानक्षत्रस्य 'एक्कोमुहुत्तो' एको मुहूर्तः 'चत्तालीसं' च बावद्विभागा मुहुत्तस्स' चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, 'बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छित्ता' द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्वा विभज्य 'छावष्टि' षट्षष्टिः 'चुणिया भागा' चूर्णिकाभागाः (१-१९६६) 'सेसा' शेषा अवशिष्टा भवेयुस्तदा चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयतीतिभावः । तत्कथमित्याह सएव ध्रुवराशिः ६६ । ५। १ अत्र प्रथमामावास्या चिन्त्येतेऽतो सौ एकेन गुण्यते, एकेन गुणितं तदेव ६६ । ५ । १ भवतीति, ततएतस्मात्-'बावीसं च मुहुत्ता, छायालीसं बिस द्विभागा य एयं पुणव्वसुस्स य, सोहेयव्वं हवइ पुण्णं' ॥ १ ॥ छाया-'द्वाविंशति मुहूर्ता, षट्चत्वारिंशद् द्विषष्टिभागाश्च । एतत् पुनर्वसोश्च शोधयित्वा भवति पूर्णम्” इति वचनाद् द्वाविंशति मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वाषष्टि भागाः ( २२-४६ ) इत्येतत्प्रमाणं पुनर्वसोः शोधनकं शोध्यते, तत्र षट् Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीकाप्रा. १०प्रा. प्रा. २२सू. ९ सू.च. योरमावास्यापरिसमाप्तिनिरूपणम् ४५९ षष्टे मुहूर्त्तेभ्यो द्वाविंशति र्मुहूर्त्ताः शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चाच्चतुश्चत्वारिंशत् (४४) तेभ्य एकं मुहूर्त्तं गृहीत्वा तस्य द्वाषष्टिभागाः क्रियन्ते, ते च द्वाषष्टिभागराशौ पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जाताः सप्तषष्टिः (६७) एतेभ्य षट्चत्वारिंशत् शोध्यन्ते, तिष्ठन्ति शेषा एकविंशतिः, तृतीयो राशिः स एव एककरूपः (४३- २१ - १), अत्र त्रिचत्वारिंशन्मुहूर्त्तेभ्यस्त्रशन्मुहूर्त्ताः पुष्यस्य शोध्याः, स्थिता पश्चात् त्रयोदशमुहूर्ताः, अश्लेषा नक्षत्र चार्धक्षेत्रत्वात् पञ्चदशमुहूर्तात्मकम्, तत आगतम्अश्लेषानक्षत्रस्य एकस्मिन् मुहूर्त्ते, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तत्सम्बन्धिषु षट्षष्टिभागेषु शेषेषु चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयतीति । अथामावास्यया सह सूर्यनक्षत्रयोगमाह - 'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु यदा चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयति तदेत्यर्थः, 'सूरिए ' सूर्य: 'के णं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तः सन् 'जोएइ' युनक्ति - परिसमापयति ? भगवानाह - - ' ता अस्से साहिं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अस्से साहिं चेव' अश्लेषाभिरेव अश्लेषानक्षत्रणैव सह योगं कुर्वन् सूर्य : प्रथमाममावास्यां परिसमापयति । तदेव स्पष्टयति 'अस्सेसणं' अश्लेषानाम्-अश्लेषानक्षत्रस्य 'एक्को मुहूत्तो' एको मुहूर्त्तः ' चत्तालीसं च वावट्टिभागा मुहुत्तस्स' चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य' 'वावट्टिभागं' द्वाषष्टिभागं 'सत्तट्ठिहा छित्ता' _४०६६ सप्तषष्टिधा छित्वा-विभज्य 'छावट्ठी चुण्णियाभागा' षट्षष्टि चूर्णिकाभागाः (१ > --- ६२/६७ 'सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा सूर्याऽपि प्रथमाममावास्यां परिसमापयति । गौतमः पृच्छति - - ' ता एससिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् एएसिणं' एतेषां 'पंचाई संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'दोच्चं अमावासं' द्वितीयाममावास्यां 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं जोएइ' केन नक्षत्रेण सह योगं कुर्वन् युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह - 'ता उत्तराफग्गुणीहिं' इत्यादि 'ता ' तावत् उत्तराफाग्गुणीहिं' उत्तराफाल्गुनीभ्याम् सूत्रे प्राकृतत्वाद् द्विवचनस्थाने बहुवचनम् उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रेण युक्तः सन् चन्द्रः द्वितीयाममावास्यां परिसमापयति । तदेव स्पष्टयति-उत्तराफग्गुणीणं' उत्तरा फल्गुन्योः 'चत्तालीसं मुहूत्ता' चत्वारिंशन्मुहूर्त्ताः, ' पणती बावट्टिभागा मुहुत्तस्स' पश्चत्रिंशद्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, 'बावद्विभागं च ' द्वाषष्टिभागं च 'सत्तडिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छिन्त्वा 'पण्णट्टीचुणिया भागा' पञ्चषष्टिश्चूर्णिकाभागाः (80-) _३५६५ ‘सेसा' शेषाः अवशिष्टा भवेयुस्तदा चन्द्रो द्वितीयामावास्यां परिसमापयतीति ६२ ६७ भावः तथाहि — स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ । द्वितयाममावास्याश्चिन्त्यमानत्वाद् द्वाभ्यां गुण्यते, जातं द्विगुणम् – द्वात्रिंशदधिकं मुहूर्त्तशतम् एकस्य च मुहूर्त्तस्य दश द्वाषष्टिभागाः, Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० चन्द्रप्रज्ञप्तिसूचे। एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा विभक्तस्य द्वौ चूर्णिकाभागौ ( १३२-१०२अस्मात् प्रथमं पुनर्वसु शोधनकं शोध्यते, तथाहि द्वत्रिंशदधिका मुहूर्त्तशतात् द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः शोध्यन्ते, स्थितं पश्चाद्दशोत्तरं शतधिकम्, अस्मात् एक रूपं गृहीत्वा तस्य द्वाषष्टिभागाः क्रियन्ते, ते च द्वाषष्टिभागाः दशकरूपे द्वाषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाता द्विसप्ततिषिष्टिभागाः, तेभ्यः षट्चत्वरिंशत् शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् षड्विंशतिः, नवोत्तरात् मुहूर्तशतात् त्रिंशन्मुहूर्ताः पुष्यस्य शोध्यन्ते, स्थिता पश्चादेकोनाशीतिः, अस्मादपि राशेः पञ्चदशमुहूर्त्ता अश्लेषायाः शोध्यन्ते, स्थिता पश्चाच्चतुष्षष्टिः, ततोऽपि. त्रिंशन्मुहर्ताः मधाया शोध्यन्ते स्थिताश्चतुर्विंशत् पुनरपि . ततस्त्रिंशन्मुहर्ताः पूर्वाफाल्गुन्याः, शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चाच्चत्वारो मुहूर्ताः । ४ । २६ । २ तत उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं द्वयबर्धक्षेत्रमिति पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकम्, तत इदमागतम्-- उत्तराफल्गुनीनक्षत्र चन्द्रयोगयुक्तं स्वस्य चत्वारिंशतिमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशतिषिष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य सप्तषष्टिधा विभक्तस्य पञ्चषष्टौ चर्णिकाभागेषु ( ४०-२५/६५ शेषेषु द्वितीयाममावास्यां परिसमापयतीति । ६२६७ साम्प्रतमस्यामेव द्वितीयस्याममावास्याया सूर्यनक्षत्रयोगमाह-गौतमः पृच्छति-'तं समय च ण' इत्यादि, 'त समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु द्वितीयाममावास्यायां चन्द्रयोगसमये 'सरिए' सूर्यरतां द्वितीयाममावास्यां 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सार्ध भूत्वा 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? । भगवानाह-'उत्तराफग्गुणीहिं चेव' उत्तराफाल्गुनीभ्यामेव सह योगं कुर्वन् सूर्यो द्वितीयाममावास्यां परिसमापयतीति-उत्तराफरगुणीणं उत्तराफल्गुन्योः 'जहेव चदम्स' यथैब चन्द्रस्य यथा द्वितीयाममावास्यायामुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रेण सह चन्द्रयोगविषये मुहूर्तादिकं प्रतिपादितं तथैवात्रापि द्वितीयाममावास्यायां सूर्ययोगविषयेऽपि वक्तव्यम् यथा उत्तराफाल्गुनोनक्षत्रस्य चत्वारिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चषष्टि चर्णिकाभागा (४०।३५।६५) यदा शेषा भवेयुस्तदा द्वितीयाममावास्यां सूर्योऽपि परिसमापयति । अत्रामावास्याप्रकरणे चन्द्रयोगसदृशमेव सूर्ययोगविषयेऽपि सर्वं वक्तव्यम् करणस्य समानत्वात्, एवमग्रेऽपि ज्ञातव्यमिति ।२। अथ तृतीयाममावास्याविषयकं सूत्रमाह—'ता एएसिणं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति- 'ता' तावत् ‘एएसिणं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'तच्चं अमावासं' तृतीयाममावास्यां 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तः सन् 'जोएई' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह-'ता हत्थेहिं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'हत्थेहिं हस्तैः पञ्चतारकात्मकेन Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्रा.प्रा २२सू. ९ सू च.योरमावास्यापरिमाप्तिनिरूपणम् ४६१ हस्तनक्षत्रेण सह युक्तश्चन्द्रस्तृतीयाममावास्यां परिसमापयति । तदेव स्पष्टयति--'हत्थस्स' इत्यादि 'हत्थस्स' हस्तनक्षत्रस्य 'चत्तारि मुहुत्ता' चत्वारो मुहर्ताः 'तीसं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स' त्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, तथा 'बावट्ठिभाग च' द्वाषष्टिभागं च 'सत्तढिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा सप्तषष्टिभागैः छित्त्वा विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'बावट्ठीचुण्णियाभागा' द्वाषष्टिश्चर्णिकाभागाः (४-२०)यदा 'सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्र स्तृतीयाममावास्यां परिसमा पयति । तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१। तृतीयाममावास्याऽ चिन्त्यतेऽतस्त्रिभिर्गुण्यते तदा जातम्--अष्टानवत्यधिकं मुहूर्तशतम् , एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चदशद्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः (१९८।१५।३), एतस्माच्च राशेः द्विसप्तत्यधिकेन मुहूर्त्तशतेन, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैः (१७२ -४६) अश्लेषात आरभ्य उत्तराफाल्गुनी पर्यन्तानि चत्वारि नक्षत्राणि शोध्यन्ते, शोधिते च पश्चादवतिष्ठन्ते पञ्चविंशतिर्मुहूत्ताः, एकस्य मुहूर्तस्य एकत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः (२५।३१।३) तत आगतम् हस्तनक्षत्र चन्द्रेण सह योग युञ्जन् सत् स्वस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् चतुएं मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहर्तस्य त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु (४।३०।६४) तृतीयाममावास्यां परिसमापयतीति ।। ___अथ सूर्येण सह नक्षत्र योगमाह--'तं समयं च णं' इत्यादि 'तं.समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु चन्द्रस्य तृतीयाममावास्या परिसमाप्तिवेलायां 'सूरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तो भूत्वा तृतीयाममावास्यां 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह-- 'ता हत्थेणं चेव' तावत् हस्तेनैव, सूर्योऽपि चन्द्रवत् हस्तनक्षत्रेणैव युक्तो भूत्वा तृतीयाममावास्यां परिसमा पयति । तदेवाह--'हत्थस्स' हस्तस्य हस्तनक्षत्रस्य इत्यादि सर्व 'जहा चंदस्स' यथा चन्द्रस्य कथितं तथैवात्राप्यवसेयमिति यत उभयोरपि चन्द्रसूर्ययोः करणस्यात्र समानार्थत्वमिति । अथ द्वादश्या अमावास्याया विषये चन्द्रसूर्यनक्षत्र योगसूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘एएसिणं' एतेषां खलु पंचण्हं संघच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'दुवालसं' द्वादशीम् 'अमाघासं' अमावास्यां 'चंदे' चन्द्रः 'केण णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तः सन् 'जोएई' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह-'अदा' आर्द्रया आर्द्रानक्षत्रेण सह युक्तो भूत्वा चन्द्रो द्वादशीममवास्यां परिसमापयति । तदेव स्पष्टयति--'अदाए' आर्द्रायाः 'चत्तारि मुहुत्ता' · चत्वारो मुहूर्ता, 'दसय बावद्विभागा मुहुत्तस्स' दश च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य 'बावट्ठिभागं च' द्वाप्टिभाग च 'सत्तटिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'चउप्पण्णं चुण्णियाभागा' चतुष्पञ्चा शच्चूर्णिकाभागाः (४- - यदा 'सेसा' शेषा अवशिष्टा भवेयुस्तदा चन्द्रो द्वादशीममावा २०६७ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ .. ६०१२. चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे स्यां परिसमापयतीति भावः तथाहि-अत्रापि स एव ध्रुवराशि:--६६।५।१। द्वादश्यमावास्यायाश्चिन त्यमानत्वाद् द्वादशभिर्गुण्यते जातानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागा ( ७९२-१८-)एतस्माद् राशेः द्विचत्वारिंशदधिकानि चत्वारि मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः (४४२-४६) अश्लषात आरभ्य उत्तराषाढ़ापर्यन्तानां त्रयोदशानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् पञ्चाशदधिकानि त्रीणि मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टि भागाः (३५०।५४१-२) पुनरेतस्माद् राशेः नवोतराणित्रीणि मुहर्तशतानि, एकस्य मुहूर्तस्य चतुर्विशति ६२६७ 1६२६७ पिष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तष्टिभागाः (३०९।२४६६ ) अभिजित आरभ्य रोहिणी पर्यन्तानामेकादशानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् चत्वारिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशद् द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रशोदश सप्तषष्टि भागाः (४०५१/१३) एतस्मात्-मृगशीर्षस्य त्रिंशन्मुहर्ताः शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चाद् दश मुहूर्ताः ६ शेषास्त एवेति (१०५११३ ) तत आ नक्षत्रस्य पञ्चदशमुहूर्तात्मकत्त्वात्तस्य चन्द्रेण सह युक्तस्य चतुर्दा मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूत्र्तस्य दशसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशति सप्तषष्टि भागेषु (४१.०५४) शेषेषु द्वदशी अमावास्या परिसमाप्तिमुपयातीति । अथ सूर्यनक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, तं समयं च णं' तस्मिन् समये च द्वादशामावास्या चन्द्रयोगसमये खलु 'सूरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तणं' केन नक्षत्रण युक्तः सन् दादशोममावास्याँ 'जोएई' युनक्ति परिसमापयति ? भवगवानाह'ता अदाए चेव' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अदाए चेव' आर्द्रायैव सूर्योऽपि आर्द्रानक्षत्रेणैव युक्तो भूत्वा चन्द्रवत् द्वादशीममावास्यां परिसमापयति । तदेवाह-'अदाए' आर्द्रायाः, इत्यादि सर्व मुहूर्त्तादि प्रमाणं 'जहा' यथा येन प्रकारेण 'चंदस्स' चन्द्रस्य चन्द्रसूत्रे कथितं तथैवात्रापि विज्ञेय मिति ।। अथ चरमद्वाषष्टितमाममावास्याविषयं सूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति 'ता' तावत् 'एएसिगं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संवच्छाराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चरिम' चरमां युगपर्यन्तवर्तिनीं 'बावढि अमावासं' द्वाषष्टिं द्वाषष्टितमाममावास्यां 'चंदे' चन्द्रः 'केण णक्ख Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्रा.प्रा.२२ सू.९ सू.च.योरमावास्यापरिसमाप्तिनिरूपणम् ४६३ तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तो भूत्वा 'जोएई' युनक्ति परिसमापयति ! भगवानाह-'ता पुणव्वमुहि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुणवमुहि' पुनर्वसुभिः पञ्चतारकत्वाद्बहुवचनम् पुनर्वसु नक्षत्रेण सह योगं कुर्वन् चन्द्रश्चरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति । तदेव स्पष्टयति-'पुणव्वसूणं' इत्यादि, 'पुणव्वसूर्ण' पुनर्वसूनां पुनर्वसुनक्षत्रस्य' बावीसं मुहुत्ता' द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः 'छायालीसं च बावविभागा मुहुत्तस्स' षट्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य (२२-१६, ‘सेसा' शेषा अवशिष्टाभवेयुस्तदा चन्द्रः पुनर्वसुनक्षत्रस्य पूर्वोक्त शेषभागयुक्तः सन् चरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति । तथा च स एव ध्रुवराशिः ६६ ।५।१। द्वाषष्टितमाऽमावास्याचिन्तायां द्वाषष्टया गुण्यते, जातानि द्विनवत्यधिकानि चत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि, एकस्य मुहूर्तस्य दशोत्तराणि त्रीणि शतानि द्वाषष्टि भागानाम् एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टि भागाः (१०९२३१० ६७ १२) । तत एतस्मात् चतुर्भिः शतैर्द्विचत्वारिंशदधिकै मुहूर्तानाम् एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्चत्वारिंशताद्वाषष्टि भागः (४४२-४६) प्रथमं शोधनकं शोध्यते, स्थितानि पञ्चाशदधिकानि षट्त्रिंशन्मुइतशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुष्षष्टयधिके द्वे शते द्वाषष्टि भागानाम्, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः (३६५० २६४ ६२। ) ततोऽभिजित आरभ्योत्तराषाढापर्यन्त २५ । ६२ ६७ सकलनक्षत्रपर्यायविषयं शोधनकम् एकोनविंशत्यधिकानि अष्ट मुहर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति षिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (८१९ । २४ । ६६ । ), इत्येवं प्रमाणं चतुर्भिर्गुणयित्वा शोध्यते, स्थितानि पश्चात् चतुः सप्तत्यघिकानि त्रीणि शतानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुष्षष्टयधिकमेकशतं द्वाषष्टिभागानाम्, एकस्य च द्वाष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (३७४ । १६४ । ६६) ततो भूयोऽपि नवोत्तरै स्त्रिभिर्मुहूर्तशतैः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पष्टया सप्तषष्टिभागैः, (३०९। २५६६) अभिजित आरभ्य रोहिणी पर्यन्तान्येकादश नक्ष २०६७ त्राणि शोध्यानि, स्थिताः पश्चात् सप्तषष्टि मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य षोडश द्वाषष्टि भागाः, (६७।१६), तत स्त्रिंशन्मुहर्ता मृगशिरसः, पञ्चदश च आर्द्राया इति पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ताः Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६४ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चाद् द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य षोडश द्वाषष्टि भागा (२२। १६) । तत आगतम्-पुनर्वसुनक्षत्रं पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकं, ततस्तस्मात् द्वाविंशति मुहूर्तेषुतत्सम्बन्धिषु षोडशसु द्वाषष्टिभागेषु (२२ । १६), व्यतिक्रान्तेषु, तथा द्वाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य मुहूर्तस्य च षट्चत्वारिंशति द्वाषष्टि भागेषु (२२। ४६ । शेषेषु पुनवेसुनक्षत्रं चन्द्रेण युक्तं सत् चरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयतीति । एतदेव सूर्यविषयं सूत्रमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति 'तं समयं च णं' तस्मिन् चन्द्रस्य द्वाषष्टितमाऽमावास्यापरिसमाप्तिसमये च खलु 'मूरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं केन नक्षत्रेण सह युक्तो भूत्वा 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह-'ता पुण्णव्वसुहि चेव' तावत् पुनर्वसु नक्षत्रेणैव युक्तो भूत्वा सूर्यो द्वापष्टितमा चरमाममावास्यां परिसमापयतीति भावः । कथमित्याह-'पुणव्यसूर्ण' पुनर्वसूनां पुनर्वसनक्षत्रस्य खलु, इत्यादि मुहूर्तादिकं सर्व 'जहा चंदस्स' यथा चन्द्रस्य शेषत्वेन प्रोक्तं तथैव वाच्च मिति । सूत्रम् ॥९॥ तदेवं चन्द्रसूर्य योरमावास्था परिसमाप्तिविषयकं प्रकरणं प्रोक्तम्, साम्प्रतं गन्नक्षत्रं तादृशनामकं, तदेव वा, तास्मिन्नेव देशेऽन्यस्मिन् वा देशे यावत्परिमितकालमाश्रित्य पुन धन्द्रेणसह योगं युनक्ति तावन्त कालं निर्दिशन्नाह-'ता जे णं अज्जनक्खत्तेणं' इत्यादि । मूलम् --ता जे णं अज्ज णक्खत्तेग चंदे जोयं जोएइ, जंसि देसंसि से णं माणि अट्ठ एगूणवीसाइं मुहुत्तसयाई, चउवीसं च बापठिभागे मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छित्ता छावटिं च चुण्णिया भागे उवाइणावित्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं सरिसएणं चेव णक्खत्तेग जोयं जोएइ अण्णंसि देसंसि । ता जेणं अज्ज णक्खत्तण चंदे जोयं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाई सोलसअठतीसाइं मुहुत्तसयाई अउणापग्णं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स, वावट्टिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता पण्णट्टि चुण्णियाभागे उवाइणावित्ता पुणरवि से णं चंदे ते णं चेव णक्खत्तेणं जोएइ अण्णंसि देसंसि । ता जे णं अज्जणक्खत्तेणं चदे जोयं जोएइ जसि देससि से णं इमाइं चउप्पण्णमुहुत्तसहस्साई णव य मुहुत्त सयाइं उवाइणावित्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं तारिसएणं चेव णक्खत्तेण जोय नोएइ तंसि देसंसि । ता जेणं अज्ज णक्खत्तेण चंदे जोयं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाई एग मुहुत्तसयसहस्स अट्टाणउइंच मुहुत्तसयाई उवाइणावित्ता पुणरवि से चंदे ते णं चेव णक्खत्तंण जोयं जोएइ तंसि देसंसि । ता जेणं अज्ज णक्खत्तेण सूरिए जोयं जोएइ जंसि देसंसि से ण इमाइं तिणि छाबडाई राइंदियसयाई उवाइणावित्ता पुणरात्रि से सूरिए अण्णेणं तारिसएणं चेव णक्खत्तेण जोयं जोएइ तसि देससि । ता जे णं अज्ज नक्खत्तेणं सूरिए जोयं जोएइ जंसि देसंसि से ण इमाई सत्त दुव्वीसाइं राई Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्रा प्रा २२सू. १०. नक्षत्रेण सह योगकालनिरूपणम् ४६५ दिपसयाइं उवाइणावित्ता पुणरवि से सूरिए तेणं चेव णखत्तणं जोय जोएइ तसि देसंसि । ता जेणं अज्ज णक्खत्तेण सूरिए जोयं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाई अट्टारसतीसाइं राइंदियसयाई उवाइणावित्ता पुणरवि सूरिए अण्णेणं तारिसएणं चेव णव खत्तण जोयं जोएइ तसि देसंसि । ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं सूरिए जोयं जोएइ जंस देसंसि से णं इमाई छत्तीसं सट्टाइ राइंदियसयाई उवाइणावित्ता पुणरवि से सूहिए तेणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ तंसि देसंसि मू० ॥१०॥ छाया · तावत् येन अद्य नक्षत्रेण चन्द्रः योग युनक्ति यस्मिन् देशे स खलु इमानि अष्ट एकोनविंशानि मुहूर्त शतानि, चतुर्विशतिं च द्वाषष्टिभागान् मुहूर्त स्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा षट्पष्टिं चूणिकाभागान् उपादाप पुनरपि स चन्द्रः अन्येन सदृश केणैव नक्षत्रेण योगं युनक्ति अन्य मन् देशे । तावत् येन अद्यनक्षत्रेण चन्द्रः योगं युनक्ति यस्मिन् देशे स खलु इमानि षोडश अष्टत्रिशानि मुहूर्त शतानि एकोनपञ्चा शा द्वापष्टिभागान् मुहूर्त स्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा पञ्चपष्टिं चूर्णिका भान् उपादाय पुनरपि स खलु चन्द्रः तेनैव नक्षत्रेण योग युनक्ति अन्यस्मिन् देशे । तावत् येन अद्यनक्षत्रेण चन्द्र : युनक्ति यस्मिन् देशे स खलु इमानि चतुष्पञ्चाशन्मुहूर्त सहन्त्राणि नव च मुहर्तशतानि उपादाय पुनरपि स चन्द्रः अन्येन तादृशेनैव नक्षत्रेण योगं युनक्ति तस्मिन् देशे । तावत् येन अद्यनक्षत्रेण चन्द्रः योगं युनक्ति तस्मिन् देशे सबल इमानि एक मुहूर्तशतसहनम् अष्टानवति च मुहूर्त शतानि उपादाय पुनरपि स चन्द्र: तेनैव नक्षत्रेण योगं युनक्ति तस्मिन् देशे तावत् येन अथ नक्षत्रेण सूर्य योगं युन क्त यस्मिन्देशे स खलु इमानि त्रीणि षट्पष्ठानि रात्रिन्दिवशतानि उपादाय पुनरपि स सूर्यः अन्येन तादृशेनैव नक्षत्रेण योग युनक्ति तस्मिन् देशे । तावत् येन अद्य नक्षत्रेण सूर्यः योगं युनक्ति तस्मिन्देशे स खलु इमानि सप्तद्वाविंशानि रात्रि न्दिवशतानि उपादाय पुनरपि स सूर्यः तेनैव नक्षत्रेण योग युक्ति तस्मिन् देशे येन अद्य नक्षत्रेण सूर्यः योग युक्ति यग्मिन् देशे स खलु इमानि अष्टादश त्रिशानि रात्रिन्दिवशतानि उपादय पुनरपि सूर्यः अन्ये नैव नक्षत्रेण योगं युनक्ति तस्मिन् देशे । तावत् येन अद्य नक्षत्रेण सूर्यः योग युक्ति य स्मन् देशे स खलु इमानि षट्त्रिंशत् षष्टानि रात्रिन्दिवशतानि उपादाय पुनरपि स सूर्यः तेनैव नक्षत्रेण यांग युक्ति तस्मिन् देशे ॥सू० १०॥ व्याख्या-'ता जे णं' इति, 'ता' तावत् 'जे णं अज्ज णक्खत्तेणं' येन नक्षत्रेण अद्य विवक्षिते दिने 'चंदे' चन्द्रः 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति करोति 'जंसि देसंसि' यस्मिन् देशे ‘से णं' स खलु चन्द्रः 'इमाई' इम नि वक्ष्यमाणसंख्यकानि कियत्संख्यकानीत्याह-अट्ठएगणवीसाई महत्तसयाई' एकोनविंशत्यधि कानि अष्टौ मुहूर्तशतानि 'मुहुत्तस्स' एकस्य च मुहूर्त्तस्य 'चवीसे वावद्विभागे' चतुर्विशतिं दृ षष्टिभागन् 'वाद्विभागं च' एकं द्वापष्टिभागं च 'सत्तट्टिहा छिता' सप्तषष्टिधा सप्तपष्टिविभागैः त्त्विा-विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'छावहि च चुण्णियाभागे' षट्पष्टिं च चूणिकाभागान् सप्तपष्टिभागान् ‘उवाइणा वित्ता' उपादाय-गृहीत्वा अतिक्रम्येत्यर्थः Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ चन्द्रप्रशतिसूत्रे ' पुणरवि से चंदे' पुनरपि स चन्द्र: 'अण्णेणं सरिसष्णं चेव णक्खत्तेणं' अन्येन अपरेण सदृश केनैव सदृशनामकेन नक्षत्रेण 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति - करोति, कुत्रेत्याह 'अण्णंसि देसंसि ' अन्यस्मिन् देशे, न तु तत्रैवेति । अत्रेयं भावना - इह चन्द्र-सूर्य-नक्षत्राणां मध्ये नक्षत्राणि सर्व शीघ्रगतीनि तेभ्यः सूर्या मन्दगतयः, तेभ्योऽपि चन्द्रामन्दगत्यः, एतच्चाग्रे सूत्रकारः स्वयमेव वक्षति षट् पञ्चाशन्नक्षत्राणि प्रतिनियतापान्तरालदेशस्थितानि चमावालमण्डलतया व्यवस्थितानि सदाकालमेकरूपतया परिभ्रमन्ति तत्राष्टाविंशतिनक्षत्रेषु किल युगस्यादौ चन्द्रोऽभिजिन्नक्षत्रेण सह योगं नोति स च चन्द्रोऽभिजिन्नक्षत्रयोगमुपागतः सन् शनैः शनै पश्चादवष्वष्कते अपसरति तस्य नक्षत्रेभ्योऽतीवमन्दगतित्वात्, ततो नवानां मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशति द्वापष्टि भागानाम् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिसप्तषष्टिभागान म (९-६६७) अतिक्रमे पुरतः श्रवणेन 'सह योगमुपगच्छति ततस्ततोऽपि शनैः शनैः पश्चादववष्कमान स्त्रिंशता मुहूर्तेः श्रवणेन सह योग समाप्य पुरतो धनिष्ठया सह योगं करोति । एवं क्षत्राणां स्वं स्वं मुहूर्त्तस्थितिकालमा चक्ष्य सर्वैरपि नक्षत्रैः सह योगकारणं वक्तव्यं यावत्- उत्तराष ढानक्षत्रेण सह योगं करोति । एतावता च कालेनाष्टौ शतानि एकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशति द्वार्षा प्रभागाः, एकस्य च द्वाषटिभागषट्षष्टिः सर्वाष्टिमा ः (८१९-२३६) भवन्ति, तथाहि- तत्राष्टाविंशतिनक्षत्रेषु उत्तरा भाद्रपदा १, रोहिणि २, पुनर्वसुः ३, उत्तराफाल्गुनी ४, विशाखा ५, उत्तराषाढा ६ चेति षड् नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकानीत्येते षट् पञ्चचत्वारिंशता गुण्यन्ते जाते सप्तत्यधिके द्वे शते (२७०) मुहूर्त्तानाम्, तथा शतभिषकू १, भरणो २, आर्द्रा ३, अश्लेषा ४, स्वातिः ५, ज्येष्ठा ६ चेति षड् नक्षत्राणि पञ्चदशमुहूर्त्तात्मकानीति षट्, पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते जाता नवतिमुहूर्त्तानाम् (९०) तथा श्रवणः १, धनिष्ठा २, पूर्व भाद्रपदा ३, रेवती 8, अश्विनी ५, कृत्तिका ६, मृगशिरः पुष्यः ८, मघा ९, पूर्वाफाल्गुनी १०, हस्तः ११, चित्रा ४२, अनुराधा १३, मूलम् १४, पूर्वाषाढा १५, चेति पञ्चदशनक्षत्राणि त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकानीति पञ्चदश, त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि पञ्चाशदधिकानि चत्वारि शतानि ( ४५० ) मुहूर्त्तानाम् । तथा शेषमेकमभिजिन्नक्षत्रं, तच्च चतुर्विशति द्वाषष्टिभाग - षट् षष्टि सप्तषष्टिभाग युक्त नव मुहूर्त्तात्मकम् (९२४६६), तत एकस्यैत प्रमितेन गुणने जातं तदेव (९।२४।६६) ६२६७ एवं सर्वेषामष्टाविंशतिनक्षत्रमुहूर्त्तानामेकत्रमीलने यथोक्ता (८१९-२४ ६६) मुहूर्त्तसंख्या । एष ६२/६७ T Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्राया.२२सू.१० नक्षत्रेण सह योगकालनिरूपणम् ४६७ एतावत्परिमितो नक्षत्रमासः । तत एतः योगपरिसमाप्त्यनन्तरं यद् अभिजिन्नक्षत्रमत्तिक्रान्तं तदपरेण द्वितीयेनाभिजि नक्षत्रेण सह नवमुहूर्तादिकालं चन्द्रो भोगमुपागच्छति ततः परमपरेण द्विती येनाष्टाविंशतिनक्षत्रसम्बन्धिना श्रवणनक्षत्रेण सह चन्द्रो योगमश्नुते, एवं पूर्ववदेव तावद् वाच्यं यावदुत्तरापादानक्षत्रम् । तदनन्तरं भूयः प्रथमनेवाभिजिन्नक्षत्रेण सह योगमुपागच्छति । ततः प्रागुक्तक्रमण श्रवगादिभिः एवं सकल कालमपि विज्ञेयम् ततो विवक्षिते दिने यस्मित् देशे येन नक्षत्रेण सह चन्द्रो योगमगच्छत् , स यथोक्त-मुहूर्त संख्यातिक्रमे पुनस्तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन् देशे यो ।मश्नुते किन्तु न तेनैव नापि च त मन् देशे इति पुनरप्याह-'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अन्ज' अद्यविवक्षिते दिने 'जेणं णखत्तेणं' येन नक्षत्रेण सह 'चंदे' चन्द्रः 'जोयं जोएइ' योग युनक्ति-करोति 'जंसि देसंसि यस्मिन् देशे ‘से णं' स खलु चन्द्रः 'इमाई' इमानि वक्ष्यमाणानि, तान्येवाह सोलसअनिसाई मुहूत्तसयाई पोडश अष्टत्रिंशानि अष्टत्रिंशदधिकानि षोडश मुहूर्तशतानि 'अउणापण्णं च वावहिभागे मुहुत्तस्स' एकोनपञ्चाशतं च द्वाषष्टिभागान् मुहूर्तस्य, तथा 'बावटि मागं च' एकं द्वाषष्टिभागं च 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वाविज्य तत्सम्बन्धिनः 'पण्णढि चुणिया भागे' पञ्चषष्टिं चूर्णिकाभागान् (१६३८- ६२६७ ४९६५ 'उवाइणावित्ता' उपादाय गृहोत्वा अतिक्रम्येत्यर्थः 'पुनरवि' पुनरपि 'से णं चंदे स खलु चन्ः: 'ते णं चेव जक्खत्तेणं' तेनैव नक्षत्रेण 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति, कुत्रेत्याह-'अण्णंसिदेसंसि' अन्यस्मिन् देशे, किन्तु न स्मिन्नेव देशे । कुतः ? इत्याह इह पुनस्तस्मिन्नेव तेनैव नक्षत्रेण सह योगो युग सकालातिक्रमे यथार्थः केवल वेदसा ज्योतिश्चक्रगते रुपलब्धः। जम्बूद्वीपे च पट्। ञ्चाशदेव नक्षत्राणि, ततो विवक्षि निक्षत्रयोगे सति तत आरभ्य षट्पञ्चाशन्नक्षत्रातिक्रमे तेन नक्षत्रेण सह योगमश्नुते । षट्पञ्चाइ न्नक्षत्रातिक्रमश्च प्रागुक्ताष्टाविंशतिनक्षत्रमुहूर्तसंख्याद्विगुणसंख्यया भवति, अष्टाविंशति नक्ष मुहूर्त्तसंख्या च एकोनविंशत्यधिकानि अष्टमुहूर्तशतानि, एक स्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिषिष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट् षष्टिः सप्तषष्टिभागाः ( ८१९-३४.६६ ) इति प्राक्प्रद शेतमेव, तद्विगुणा यथोक्ता संख्या भवति, तत उक्तम् 'सोलस अट्टतीसाई मुहुत्तसयाई' इ. यादि । तदेवं तादृशेन तेन वा नक्षत्र: सह अन्यस्मिन् यावता कालेण पुनरपि योगः समुपजायते तावान् कालविशेषः प्रतिपादेत , साम्प्रतं तस्मिन्नेव देशे तादृशे तेन वा नक्षत्रोण सह पुनरपि यावता कालेन योगो भवति तावन्न कालविशेष प्रतिपादयन्नाह-'ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं' Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे इत्यादि, 'ता' तावत् 'जज्ज' अद्य विवक्षिते दिने 'जेणं णक्खत्तेणं' येन नक्षत्रोण 'चंदे' चन्द्रः 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति 'जंसि देसंसि' यस्मिन् देशे 'से णं' स खलु चन्द्रः 'इमाई' मानि वक्ष्यमाणसंख्यकानि, तान्येवाह -'चउप्पण्णमुहुत्तसहस्साई' चतुष्पञ्चाशन्मुहूर्तसहस्राणि णव यमुहुत्तसयाई' नव च मुहूर्तशतानि (५४९००) 'उवाइणावित्ता' उपादाय अतिक्रम्य 'पुरवि' पुनरपि भूयोऽपि 'से चंदे स चन्द्र 'अण्णणं तारिसएणं चेव णक्खत्तेण' अन्येन तादृशेनैव नक्षत्रोण 'जोयं जोएई' योगं युनक्ति करोति, कुत्रोत्याह-'तसि देसंसि तस्मिन्नैव देशे, इति । अत्र वना चेत्थम्-विवक्षिते युगे विवक्षितानामष्टाविंशति नक्षत्राणां मध्ये येन नक्षत्रेण सह यस्मिन् देशे यदा चन्द्रस्य योगो जातस्ततो भूयस्तस्मिन्नेव देशे तदैव तेनैव नक्षत्रेण सह योगो विवक्षितयुगाद रभ्यतृतीये युगे भवति, न तु द्वितीये, कुतः ? इत्याह-इह युगादित आरभ्य प्रथमे नक्षत्रमासे एकानि अष्टाविंशतिनक्षत्राणि समतिक्रान्तानि, द्वितीयेन नक्षत्रमासेन तेभ्योऽपराणि द्वितीयानि, ततो भूयस्तृतीयेन नक्षत्रमासेन तान्येव प्रथमान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि, चतुर्थेन भूयस्तान्येव द्वितीयानि अष्टाविंशति नक्षत्राणि समतिक्रान्तानीति । एवं सकलकालम् । युगे च नक्षत्रमासाः सप्तष ष्टः । सा च सप्तषष्टिसंख्या विषमेति विवक्षितयुगपरिसमाप्तिकालेऽन्यस्य युगस्य प्रारम्भे यानि विवक्षितयुगस्यादौ भुक्तानि नक्षत्राणि सन्ति तेभ्योऽपरान्येव द्वितीयानि नक्षत्राणि भोगमुपयान्ति, किन्तु न तान्येव युगद्वये च चतुस्त्रिंशदधिकमेकं शतं (१३४) मासानां भवति । सा च चतुस्त्रिंशदधिकशतसंख्या नक्षत्रमासानां समेति द्वितीय युगपरिसमाप्तिकाले षट्पञ्चाशदपि नक्षत्राणि समाप्तिमुपगच्छन्ति, ततो विवक्षितयुगादारभ्य तृतीये युगे तेनैव नक्षत्रोण तस्मिन्नेव देशे तदा चन्दस्ययोगो भवति । युगे चाहोरात्राणामष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि (१८३०) एकै कस्मिंश्चाहारात्रो मुहर्तास्त्रिशद् भवन्तीत्यतस्त्रिशदधिकानामष्टादशशतानां (१८३०) त्रिंशता गुणने भवति यथोक्तासंख्या चतुष्पञ्चाशद् मुहूर्तसहस्राणि नवशताधिकानि (५४९००), इति । यथोक्ता हूर्तसंख्यातिक्रमे च तादृशेनैव अन्येन नक्षत्रेण सह चन्द्रस्य योगस्तस्मिन्नेव देशे भवति, किन्तु न तेन नक्षत्रेण नान्यस्मिन् वा देशे, इति । पुनरप्याह-'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अज्ज' अद्य 'जे णं णक्खत्तेणं येन नक्षत्रेण 'चंदे' चन्द्रः 'जोयं जोएइ योगं युनक्ति 'जंसि देसि' यस्मिन् देशे 'से गं' स खलु चन्द्रः 'इमाइ इमानि वक्ष्यमाणसंख्यकानि, तान्येव 'प्रदर्यन्ते'एगं मुहूत्तसयसहस्सं' एक मुहूर्तशतसहस्रम् अट्ठाणउइ च मुहत्तसयाई अष्टनवति च हत्तशतानि, अर्थात् एकं लक्ष्य, नवसहस्त्राणि अष्ट शतानि मुहूर्तानामू (१०९८००) 'उवाइणाबित्ता' उपादाय-अतिक्रम्य, 'पुनरवि' पुनरपि 'से चंदे स चन्द्रः 'ते णं णक्खत्तेणं' तेन नक्षत्रोण 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति 'तंसि देसंसि' तस्मिन् देशे । भावनापूर्ववदेव, विशेषस्त्वेतावानेव-अत्र युगद्वयकालः-षष्टयधिक षट्त्रिंशच्छत (३६६९) प्रमिताऽहोरात्राणामस्ति, तत एष राशि कैक Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०मा प्रा.२२सू.१० सू.च. नक्षत्रेण सह योगकालनिरूपणम् ४६९ रिमन्नहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ता भवन्तीति त्रिंशता गुण्यते, गुणिते च जायन्ते यथोक्तम्-एकं लक्षम् नवसहस्राणि, अष्ट च शतानि (१०९८००) मुहूर्तानामिति । एवं तादृशेन तेन वा नक्षत्रोण सह तस्मिन् देशे, अन्यस्मिन् वा देशे चन्द्रस्य योगकालयमाणमभिहितम्, साम्प्रतं सूर्यविषये तदेवाह-'ता जे णं इत्यादि । 'ता जे णं' इति 'ता' तावत् 'अज्ज' अद्य विवक्षिते दिवसे 'जे णं णक्खत्तेणं' येन नक्षत्रोण सह 'सूरिए' सूर्यः 'जोयं जोएई' योगं युक्ति 'जसि देसंसि' यस्मिन् देशे, 'से णं' स ख-स एव सूर्यः 'इमाई' इमानि वक्ष्यमाणसंख्यकानि रात्रिन्दिवानि तान्येवाह-'तिण्णि छावट्ठाई रादियसयाई त्रीणि षट्पष्टयधिकानि रात्रिदिवशतानि (३६६) षट्पष्टयधिक त्रिशत संख्यका होरात्राणि 'उवाइणावित्ता' उपादाय-अतिक्रम्य 'पुणरवि से सूरिए' पुनरपि स सूर्यः 'आणेण तारिसएणं चेब णक्खत्तंण' अन्येन तादृशेनैव तत्सदृशेणैव नक्षत्रण सह 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति किन्तु न तेनैव पूर्वमुक्तेन नक्षत्रोण सह योगं युनक्ति, कुत्र देशे ? इत्याह'तसि देसंसि' तस्मिन्नेव देशे, नान्यस्मिन् देशे इति भावः । कथमिति चेदाह इह चन्द्र एकेन नक्षमासेनाष्टविंशति नक्षत्राणि भुङ्क्ते, सूर्यस्तु षटूषष्टयधिकैस्त्रिभिरहोरात्रशतैरष्टाविंशति नक्षत्राणि भुङ्क्तेऽतः षट्पष्टयधिकत्रिशताहोरात्रप्रमित एकः सूर्यसंवत्सरो भवति, एवं षट्पष्टयधिकैस्त्रिभिरहोरात्रशतैरन्यान्यपि द्वितीयान्यष्टाविंशतिं नक्षत्राणि सूर्यः परिभुङ्क्ते । तत्पश्चाद् भूयोऽपि ताशव प्रथमान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि तावद्भिरेवाहोरात्रैः क्रमेण सूर्यो योगं युनक्ति, एवं षट्षष्टयधिक स्त्रिभिशतैरहोरात्रैरतिक्रान्तैः सूर्यस्य तस्मिन्नेव देशे तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह योंगो भवति किन्तु न तेनैव नक्षत्रेणेति । 'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अज्ज' अद्य विवक्षितदिने 'जे गं नक्खत्तेण' येन नक्षत्रेण सह 'सूरिए' सूर्यः 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति 'तंसि देसंसि' तस्मिन् देशे ‘से णं स खलु सूर्यः 'इमाई' इमानि वक्ष्यमाणानि, तान्येवाह-'सत्तदुत्तीसाइंराईदियसयाई' द्वात्रिंशद धिकानि सप्तरात्रिन्दिवशतानि (७३२) 'उवाइणावित्ता' उपादायअतिव्राम्य 'पुणरवि' पुनरपि भूयोऽपि ‘से सूरिए' स सूर्यः ‘ते णं चेव णक्खत्तण' तेनैव नक्षत्रेण सह “नोयं जोएइ' योगं युनक्ति 'तंसि देसंसि तस्मिन् देशे । भावना प्राक्कृता, तदनुसारेणात्रापि कर्त्तव्येति । 'ता जेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'अज्ज' अद्य विवक्षितदिने 'जे ण णक्खत्तेणं' येन नःसत्रोण सह 'सूरिए' सूर्यः 'जोयं जोएई' योगं युक्ति कुत्रेत्याह-जंसि देसंसि' यस्मिन् देशे से णं' स खलु सूर्यः ‘इमाई' इमानि-वक्ष्यमाणानि, कतिसंख्यानीत्याह-'अट्ठारसतीसाईराइंदियसयाई' त्रिंशदधिकानि अष्टादशरात्रिन्दिवशतानि त्रिंशदधिकाष्टादशशत (१८३०) संख्यकाहोगत्रान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय व्यतिक्रम्य पुणरवि पुनरपि भूयोऽपि 'से सूरिए' स सूर्य : 'अण्णेणं तारिसेणं चेव णक्खत्तणं' अन्येन--अपरेण तादृशेनैव नक्षत्रण 'जोयं जोएइ' Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रनिसूत्रे योगं युनक्ति न तु तेनैव, कुत्रेत्याह - 'तंसि देसंसि' तस्मिन्नेव देशे यत्र देशे सूर्येण पूर्व गो यो जितस्तत्र योगं युक्तीत्यर्थः । कथमिति चे दुच्यते इह युगे त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि रात्रन्दिवानां भवन्ति, तत्र सूर्यो विविक्षितदिनादारभ्य तृतीयसंवत्सरे तस्मिन्नेवदेशे तस्मिन्नेव दिवसे तेनैव नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति । युगे च सूर्यवर्षाणि पञ्च भवन्ति, ततस्तृतीये पञ्चमे वा सूर्य संवत्सरे सूर्यस्य तेनैव नक्षत्रेण तस्मिन्नेव काले योगा भवति नतु युगातिक्रमे पष्ठे वर्षे अत एवोक्तम् 'सूरे अण्णं चैव गक्खते जोयं जोएइ' इति । 'ता जेणं इत्यादि, 'ता' त् 'अज्ज' अद्य विवक्षितदिने 'जेणं णक्खतेगं येन नक्षत्रेण सह 'सूरिए' सूर्यः 'जोयं जांएइ ' योगं युनक्ति 'जंसि देसंसि' यस्मिन् देशे 'से णं' स खलु सूर्यः इमानि वक्ष्यमाणानि, तान्येवाह'छत्तीसं सहाई राईदियसयाई' पत्रिंशत् पष्टयधिकानि रात्रिन्दिवशतानि पष्टयधिक टूशच्छतानि (३६६०) रात्रिन्दिवानां भवन्तीति तानि 'उवाइणावित्ता' उपादाय - अतिक्रम्य 'पुणरवि' पुनरपि भूयोऽपि 'से सूरिए' स सूर्यः 'तेणं चेव णक्खत्तेणं' तेनैव नक्षत्रेण सह 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति, कुत्रेत्याह- 'सि देसंसि तस्मिन्नेव देशे योगः समुत्पद्यत इति भावः । अयमाशयः-युगद्वये षष्ट्यधिकानि पत्रिंशच्छतानि रात्रिन्दिवानां भवन्ति, युगद्वयेदश सूर्यवर्षाणि भवन्ति तत एव युगद्वयातिक्रमे एकादशे वर्षे सूर्यस्य तेनैव नक्षत्रेण सह तस्मिन्नेव - देशे योगः समागच्छतीति ॥सूत्र १० ॥ T ४७० अe जम्बूद्वीपे द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यो, एकैकस्य चन्द्रस्य ग्रहादिपरिवारो भिन्न एव भवतीति श्रुत्वा कश्विदेवमपि मन्यते यत् मण्डलेषु चन्द्रादीनां गतिभिन्नकालिकी भिन्नकालिकश्च तेषां नक्षत्रा दिभिः सह योगः भवितुमर्हेत् ? इति ततस्तदाशङ्कापनोदार्थमिदमाह - 'ता जयागं इसे चंदे' इत्यादि -- मूलम् - ता जगाणं इमे चंदे गमावण्णए भवइ तया णं इयरेवि चंदे गइ सभा are भवइ । जया णं इयरेति चंदे गसपावण्णए भवइ तया इसे बिगड़ नमः वण्णए भवइ । ता जया में इसे सूरिए गमावण्णर भवइ तथा णं इयरेवि सूरि गइ समावण्णए भवइ । जया में उपरे सूरिए गइ समावण्गए भवइ तथा णं इवि सूरिए गड़ समावण्णए भवइ । एवं महावि, णक्खत्तावि । ता जया णं इमे बड़े जुत्ते जोएणं भवइ तया णं इयरेवि चंदे जुत्ते जोएणं भवः । जया णं इयरे चंदे जुत्ते जोएणं भवइ तयाणं इमेवि चंदे जुत्ते जो भवः । एवं सूरेवि, गहावि णक्खत्तावि । सयाविणं चंदा जुत्ता जोएहिं सयाविणं सूरिया जुत्ता जांएहिं नयादि णं गहा जुत्ता जांएहि, साचिणं णक्खत्ता जुत्ता जोएर्हि, दुहओ विणं सूरा जुत्ता जो रहिं दुहओणं गहा जुत्ता जं एहिं Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्रा.प्रा.२२ सू.१ नक्षत्रक्षेत्र परिभाग निरूपणम् ४७१ दुहओ वि णं णक्खत्ता जुत्ता जोएहि । मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउयाए सरहिं छित्ता इच्चेस णक्खत्त खेत्तपरिभागे णक्खत्तविजए पाहुडेत्ति आहिए तिबेमि ॥सूत्रम्॥११॥ "दसमस्स पाहुडस्स बावीसइमं पाहुडपाहुउं समत्तं" १०-२२ दसमं पाहुडं समत्तं ॥१०॥ छाया–तावत् यदा खलु अयं चन्द्रः गतिरामा पन्नको भवति तदा खलु इतरोऽपि चन्द्रः गतिःसमापन्नको भवति । यदा खलु इतरोऽपि चन्द्रः गतिसमापन्नको भवति तदा खालु अयमपि चन्द्रः गतिसमापन्न को भर्या: । तावत् यथा खलु अयं सूर्यः गति समापन्न को भवति तदा खल इतरोऽपि सूयः गतिसमापन्नको भवति । यदा खलुइतरः सूर्यः गतिसमापन्नको भवति तदा खलु अपमपि सूर्यः गरिसमा पन्नको भवति । एवं ग्रहा अपि, नक्षत्राण्यपि । तावत् यदा खलु अयं चन्द्रः युक्तः योगेन भवति तदा खलु इतरोऽपि चन्द्रः युःकः योगेन भवति । यदा खलु इतरः चन्द्रः युक्तः योगेन भवति तदा खलु अयमपि चन्द्रः युक्तः योगेन भवति । एवं योऽपि ग्रहा अपि नक्षत्राण्यपि । सदाऽपि खलु चन्द्रौ युक्तौ योगैः सदापि खलु सूयौँ युक्तौं योगः, सदापि खलु ग्रहाः युक्ता योगैः सदापि खालु नक्षत्राणि युक्तानि योगैः, उभयतोऽपि खलु चन्द्रौ युक्तौ योगैः, उभयतोऽपि खलु सूौं युक्तौ योगैः उभगतोपि खलु ग्रहाः युक्तःोगैः, उभयतोपि खलु नक्षत्राणि युक्तानि योगः, । मण्डलं शतसहस्रेण अष्टानवत्यशतः छित्त्वा इत्येष नक्षत्रक्षेत्रपरिभागः नक्षत्र विवये प्रभृमिति आख्यातः, इीि ब्रवीमि ॥ सूत्रम् ११॥ "दशमस्य प्रामृतस्य द्वाविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् दशमं प्रामृतं समाप्तम् । १०॥ व्याख्या-'ता जया णं' इति 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु इमे' अयं यस्मिन् काले यः प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो भरतक्षेत्रप्रकाशको विवक्षितः 'चंदे' चन्द्रः विवक्षिते मण्डले 'गइसमावण्णए भवइ' गतिसमापन्नतः गतिमान् भवति 'तया णं' तदा खलु तस्मिन् काले 'इयरे वि चंदे' इतरोऽपि य ऐरवतक्षेत्रं प्रकाशयति स विवक्षितचन्द्रः ‘गइसमावण्णए' गति समापन्न को गति युतः 'भबई' भवति । 'जया णं' यदा खलु 'इयरे वि चंदे' इतरोऽपि ऐरवतक्षेत्र प्रकाशकश्चन्द्रः तस्मिन्नेव विवक्षिते मण्डले 'गइसमावण्णए भवइ' गति समापन्नकः गतियुक्तो भवति 'तया णं' तदा 'खलु 'इमे वि चंदे' अयमपि भरतक्षेत्रप्रकाशकश्चन्द्रोऽपि 'गइसमावण्णए भाइ' गतिसमापन्नको भवति भरतक्षेत्रप्रकाशकश्चन्द्रः ऐवतक्षेत्रप्रकाशकश्चन्द्रश्चेत्युभावपि चन्द्रौ स्वस्वविवक्षितभण्डले समकालमेव गतियुक्तौ भवत इति भावः । __अथ सूर्यविषये तदेवाह-'ता जया णं इसे सूरिए' इत्यादि 'ता' ताबत् 'जया णं' यदा यस्मिन् काले खलु 'इमे' अयं भरतक्षेत्रप्रकाशकः 'सूरिए' सूर्यः 'गइसमावण्णए भवई' गति समापन्नकः गतिमान् भवति 'तया णं तदा तस्मिन्नेव काले खलु 'इयरेवि सुरिए' इतरोऽपि Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे ऐरवतक्षेत्रप्रकाशकोऽपि सूर्यः 'गइसमावण्णए भवइ' गतिसमापन्नको गतियुक्तो भवति । 'जया णं' यदा खलु ‘इयरे सरिए इतरः ऐरावतक्षेत्रप्रकाशकारी सूर्यः 'गइसमावण्णए भवई' गतिसमापन्नको गतियुक्तो भबति 'तया णं' तदा तस्मिन् काले खलु विवक्षिते मण्डले 'इमे वि सूरिए' अयमपि भरतक्षेत्रप्रकाशकोऽपि सूर्य: 'गइसमावण्णए भवई' गतिसमापन्नकः गतिमान् भवति । भरतक्षेत्रसूर्यः ऐरवतक्षेत्रसूर्यश्चेत्युभावपि सूर्यो स्वस्व क्षेत्रे स्व स्व विवक्षितमण्डले समकालगव चारं चरत इति भावः । एवं गहावि, एबम्-अनेनैव रीत्या ग्रहा अपि भरतक्षेत्रचारिणः ऐरवतक्षेत्र चारिणश्चे त्युभयेपि ग्रहाः परस्परं समकालमेव स्व स्व क्षेत्रे विवक्षितमण्डले चारं चरन्ति, इतिभावः । तथा एवमेव 'नक्खत्तावि' नक्षत्राण्यपि भरतक्षेत्रचारीणि ऐरवतक्षेत्रचारीणि चेत्युभयान्यपि नक्षत्राणि परस्परं स्व स्व विवक्षितमण्डले गतियुक्तानि भवन्ति, इति भावः । अथैतेषामेव योगविषये प्राह-'ता जया णं इमे चंदे जुत्ते जोगेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जया णं' यदा यस्मिन्न काले खलु 'इमे चंदे' अयं भरतक्षेत्र चारी चन्द्रः जुत्ते' जोगेणं' येन योगेन युको भवति 'तया णं' तदा तस्मिन् काले खलु ‘इयरे वि चंदे' इतरोऽपि ऐरवतक्षेत्रस्थोऽपि चन्द्रः 'जुत्ते जोगेणं भवइ' तेनैव योगेन युक्तो भवति । 'जया णं' यदा यस्मिन् काले खलु ‘इगरे चंदे' इतरः ऐरवतक्षेत्रस्थश्चन्द्रः 'जुत्ते जोगेणं भवई' येन योगेन युक्तो भवति 'तया गां' तदा तस्मिन् काले खलु 'इमे वि चंदे' अयमपि भरतक्षेत्रस्थश्चन्द्रः 'जुत्ते जोगेणं भवइ' तेनैव योगेन युक्तो भवति । भरतक्षेत्रस्थश्चन्द्रः ऐरवतक्षेत्र स्थश्चन्द्रश्चेत्युभावपि चन्द्रौ समकालमेव रवस्वक्षेत्रे स्व स्व मण्डले समयेसु युक्तौ भवत इति भावः । ‘एवं' एवम्-अनेनैव रीत्या 'सूरे वि सूर्योऽपि 'गहावि' ग्रहा अपि ‘णक्खत्तावि' नक्षत्राण्यपि सूर्यग्रहनक्षत्राण्यपि भरतैरवतक्षेत्रचारीणि परस्परं स्वक्षेत्रे स्व स्व मण्डले समकालं समानयोगयुक्तान्येव भवन्तीति तात्पर्यम् । अथोपसंहरन सदाकालविषये प्राह–'सया वि णं' इत्यादि, 'सया वि णं' सदापि सर्वकालेऽपि खलु 'चंदा' चन्द्रौ भरतैरवतक्षेत्रवर्तिनौ द्वावपि चन्द्रौ 'जुत्ता जोएहिं युक्तौ योगेः समनार चारिणौ भवतः । एवं 'सया वि णं' सदापि खलु 'सूरिया' सूर्यो 'जुत्ता जोगेहिं' योगै युक्ती समरूपावेव भवतः । 'सयावि गं' सदापि खलु 'गहा' ग्रहाः जुता जोगेहि योगैर्युक्ता समरूपा एव भवन्ति । 'सयावि णं' सदापि खलु ‘णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जुत्ताजोगेहिं योयुतानि समरूपाण्येव भवन्ति । अथ दिशमाश्रित्य प्राह-'दुहओ वि णं' इत्यादि, 'दुहओ वि गं' उभयतोऽपि दक्षिणोत्तरयोः पूर्वपश्चिमयोर्वा खलु 'चंदा' चन्द्रौ 'जुत्ता जोगेहिं योगैर्युक्तौ स्मरूपेणैव भवतः । एवम् ‘दुहओ वि णं' उभयतोऽपि दक्षिणोत्तरयो पूर्वपश्चिमयोर्वा 'सूरिया' सा 'जुत्ता जोगेहिं' य गैर्युक्तौ समरूपेणेव भवतः । 'दुहओ विण' उभयतोऽपि खलु 'गहा' ग्रहाः 'जुत्ताजोगेहिं' योगयुक्ताः समरूपेणैव भवन्ति दुहओ वि णं' उभयतोऽपि खलु ‘णक्खत्ता' नक्ष Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१०प्रा.प्रा.२२ सू.११ नक्षत्रक्षेत्रपरिभागनिरूपणम् ४७३ त्राण 'जुत्ता जोगेहिं योगैर्युक्तानि समरूपेणैव भवन्ति । अथ प्राभृतोपसंहारमाह-मंडलं' इत्यादि 'णक्ख त्तविचए' अस्मिन् नक्षत्रविचये नक्षत्रविचयनाम्नि दशमस्य प्राभृतस्य 'पाहुडेत्ति' द्वाविंशतितमे प्राभृतप्राभृते :'इच्चेस' इत्येषः पूर्व प्रतिपादितः ‘णक्खत्तखेत्तपरिभागे' नक्षत्रक्षेत्र पन्भिागः उपलक्षणात् चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रक्षेत्रपरिभागः 'आहिए' आख्यातः कथितः कथमित्याह'मंडलं' मण्डलं चन्द्रादिमण्डलं स्वेन स्वेन क्षेत्रद्वयसंमिलितैः षट् पञ्चाशता नक्षत्रै विन्मानं क्षेत्रं व्याप्यमानं संभाव्यते तावन्मात्रं क्षेत्रं बुद्धिपरिकल्पितं 'सयसहस्सेणं अट्टाणउयाए सएहिं शत सहस्रेण-लक्षण-अष्टानवत्याच शतैः अष्टानवतिशताधिकेन लक्षेण एकेन लक्षण नव सहस्रैः अष्टशतैः नव सहस्राधिकाष्टाशतोत्तरेणैकेन लक्षणेत्यर्थः (१०९८००) 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य व्याख्यातः, एष नक्षत्रक्षेत्रपरिभागः नक्षत्रबियचनामकं प्राभृतप्राभृतमस्तीति ख्यातमिति भावः । 'तिबेमि' इति ब्रवीमि, इति-एतदनन्तरोक्तं सर्वं ब्रवीमि यथा भगबन्मुखाच्छ्रतं तथैव कथयामीति सुधर्मस्वामिवचनमेतत् । अथवा शिष्याणां विश्वासदाढोत्पादनाथं कथयति-एतद् भवगद्वचनं ततः सर्वं सत्यमेति ब्रतीमि ततो भवद्भिः सर्व सत्यमिति प्रत्येतव्यमेवेति ॥ सूत्रम् ११॥ दशमस्य प्राभृतस्य द्वाविंशतितमं प्राभृत प्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥२२॥ इति श्री विश्वविख्यात--जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादि-मानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलाल व्रतिविरचितायां 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' सूत्रस्य चन्द्रज्ञप्ति प्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायाम् दशमं प्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अथैकादशं प्राभृतम् ” गतं दशमं प्राभृतम्, तत्र चन्द्रसूर्यैः सह नक्षत्राणां योगः प्रोक्तः अधुनैकादशं प्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र--पूर्व यत् 'कहं संवच्छराणामाई' कथं संवत्सराणामादि, इति प्रतिज्ञातं तदत्र वर्णयिष्यते इति सम्बन्धेनायातस्यास्यैकादशस्य प्राभृतस्येदमादिसूत्रम्-'ता कहं ते संवच्छराणामाई' इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते संवच्छराणामाई आहिएति वएज्जा। तत्थ खल इमे पंच संवच्छरा पण्णत्ता,तं जहा-चंदे १, चंदे २, अभिवढिए ३, चंदे ४, अभिवढिए ५। ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स चंदस्स संवच्छरस्स के आई आहिएति वएज्जा । ता जेणं पंचमस्स अभिवड्ढीयसंवच्छरस्स पज्जवसाणं से णं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स आई अणंतरपुरक्खडे समए, ता से णं किं पज्जवसिए आहिए ति वएज्जा ? ता जे णं दोच्चस्स संवच्छरस्स आई से णं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए । तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेण जोयं जोएइ ? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं छव्वीसं मुहुत्ता, छव्वीसं च वावद्विभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता चउप्पण्णं चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरिए केणं णक वत्तेणं जोयं जोएइ ? । ता पुणव्वसुणा. पुणव्वसुस्स सोलसमुहुत्ता, अट्ठ य बोवद्विभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता वीसं चुण्णिया भागा सेसा। ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स के आई आहिएति वएज्जा ? ता जे णं पहमस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स आई अणंतरपुरक्खडे जमए, ता से णं किं पज्जवसिए आहिए ? ति वएज्जा । ता जे णं तच्चस्स अभिव इढिय संवच्छरस्स आई से णं दोच्चस्स चंद संवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे सनए तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेण जोयं जोइए ?, ता पुव्वाहि आसाढाहिं, पुव्वाणं मासाढाणं सत्तमुहुत्ता, तेवणं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बाट्ठिभागं च सनटिहा छित्ता इगतालीं संचुणियाभागा सेसा, तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ ?, ता पुणव्वसुणा, पुणव्यसुस्स णं बायालीसं मुहुत्ता, पणतीसं च वावढि भागामुहुत्तस्स, बावहिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता सत्तचुण्णियाभागा सेसा । ता एएसिणं चण्हं संवच्छराणं तच्चस्स अभिवइढियसंवच्छरस्स के आई आहिए ति वएज्जा, ता जेणं दोच्चस्स चंद संवच्छरस्स पज्जवसाणे सेणं तच्चस्स अभिवड्ढियसंवच्छरस्स आई अणंतर पुरक्खडे समए, ता सेणं किं पज्जवसिए आहिएति वएज्जा ?, ता जेणं चउत्थस्स चंद संवच्छरस्स आई सेणं तच्चस्स अभिवड्ढीय संवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए, तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोयं जोइए ?, ता उत्तराहिं आसाढाहि उत्त Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.११ सू. १ संवत्सराणामादिस्वरूपनिरूपणम् ४५ गाणं आसाढाणं तेरस मुहुत्ता, तेरस य बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावट्टिभागं च सत्तढिहा छित्ता पत्तावीसं चुणिया भागा सेसा तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ?, ता पुणवसुणा, पुणव्वमुस्स दो मुहुत्ता, छप्पण्णं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं च सत्तटिहा छित्ता सट्ठी चुणिया भागा सेसा । ता एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं चउत्थस्स चंद संवच्छरस्स के आई आहिएति वएज्जा, ता जेणं तच्चस्स अभिवढिय संवच्छरस्स पज्जघसाणे सेणं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स आई अणंतरपुरक्खडे समए, ता सेणं किं पज्जसिए आहिएति वएज्जा ? ता जे णं चरिमस्स अभिवढियसंवच्छरस्स आई से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए, तं समयं च ण चंदे केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ ?, ता उत्तराहिं आसाढाहि, उत्तराणं आसाढाणं उणयालीसं मुहुत्ता, चालीसं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं चं सत्तट्टिहा छित्ता चउद्दस चुण्णियाभागा सेसा । तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ ? ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स अउणतीसं मुहुत्ता, एक्कवीसं बावद्विभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं च सन्चट्ठिहा छित्ता सीयालीसं चुण्णियाभागा सेसा । ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवढियसंवच्छरस्स के आई आहिएति वएज्जा, ता जे णं चउत्थस्स चंद संवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं पंचमस्स अभिवढियसंवच्छरस्स आई अणंतरपुरक्खडे समए, ता से णं किं पज्जवसिए आहिएति वएज्जा, ता जे णं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स आई सेणं पंचमस्स अभिवढिय संवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए, तं समय च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ ? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए, तं समयं च णं सरिए केणं णक्खत्तेणं जोय जोएइ ?, ता पुस्सेणं पुस्सस्स णं एगूणवीस मुहुत्ता तेयालीसं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तढिहा छित्ता तेत्तीसं चुणिया भागा सेसा ॥ सूत्रम् १ ॥ ॥ एक्कारसमं पाहुडं समत्त ॥११॥ छाया–तावत् कथं ते संवत्सराणामादिः आख्यातः ? इति वदेत्, तत्र खलु इमे पञ्चसंवत्सराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- चान्द्रः १, चान्द्रः २, अभिवद्धितः ३, चान्द्रः४, अभिपद्धितः ५ । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमस्य चान्द्रसंवत्सरस्य क आदि आख्यानः ? इति वदेत्, तावत् यत् खलु पञ्चमस्य अभिवद्धित संवत्सरस्य पर्यवसानं तत् बलु प्रथमस्प चान्द्रसंवत्सरस्य आदिः अनन्तरपुरस्कृतः समयः, तावत् स खलु किं पर्यवसितः आख्यात इति वदेत् यः खलु द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य आदिः सबलु 'प्रथमस्य चान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानं अनन्तरपुरस्कृतसमयः तस्मिन् समये च खलु वन्द्रः केन नक्षत्रेण योग युनक्ति १, तावत् उत्तराभिराषाढाभिः उत्तराणामाषाढानां पहवंशतिमुहूर्ताः षड्विंशतिश्च द्वाष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा पातु Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे susara चूर्णिका भागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति तावत् पुनर्वसुना, पुनर्वसोः षोडश मुहूर्त्ताः अष्ठ च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, द्वाष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा विंशतिश्चणिकाभागाः शेषाः । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य क आदिः आख्यातः १ इति वदेत्, तावत् यत् खलु प्रथमस्य चान्द्र संवत्सरस्य पर्यवसानं तत् खलु द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य आदि अन म्तरपुरस्कृतसमयः, तावत् स खलु किं पर्यवसितः आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् यः खलु तृतीयस्य अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य आदिः स खलु द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य पर्यव - सानम् अनन्तरपश्चात्कृतः समयः । तस्मिन् समये च खलु चन्द्रः केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति ? तावन् पूर्वाभिराषाढाभिः पूर्वाणामाषाढानां सप्तमुहूर्त्ताः, त्रिपञ्चाशच्च द्वाषष्टि भागा मुहूर्त्तस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा एकचत्वारिंशत् चूर्णिका भागाः शेषाः, तस्मिन् समये च खलु सूर्य केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति । तावत् पुनर्वसुना, पुनर्वसोः खलु द्विचत्वारिंशद् मुहूर्त्ताः, पञ्चत्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा सप्त चूर्णिकाभागाः शेषाः । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणं तृतीयस्य अभिवद्वितसंवत्सरस्य क आदिः आख्यातः ? इति वदेत्, तावत् यत् खलु द्वितीयस्य चान्द्र संवत्सस्य पर्यवसानम् तत् खलु तृतोयस्य अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य आदिः अनन्तरपुरस्कृतः समयः, तावत् स खलु किं पर्यवसितः आख्यातः इति वदेत् तावत् । यः खलु चतुर्थस्य चान्द्र संवत्सरस्य आदिः स खलु तृतीयस्य अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य पर्यवसानम् अनन्तरपश्चाकृतः समयः । तस्मिन् समये च खलु चन्द्रः केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति ? तावत् उत्तराभिराषाढाभिः । उत्तराणामापादानाम् त्रयोदशमुहूर्त्ताः त्रयोदश च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा सप्तविंशतिश्चूर्णिका भागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति ? तावत् पुनर्वसुना, पुनर्वसोः द्वौ मुहत्तौ षट्पचा शद् द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, द्वापष्टभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा षष्टिश्चणिकाभागाः शेषः । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चतुर्थस्य च चान्द्रसंवत्सरस्य क आदिराख्यातः ? इति वदेत् तावत् यत् खलु तृतोयस्य अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य पर्यवसानं तत् खलु चतुर्धस्य चान्द्रसंवत्सरस्य आदिः अनन्तरपुरस्कृतः समयः । तावत् स खलु किं पर्यवसितः आख्यातः ? इति वदेत् तावत् यः खलु चरमस्य अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य अदिः स खलु चतुर्थस्य चान्द्र संवत्सरस्य पर्यवसानम् अनन्तरपश्चात्कृतः समयः । तस्मिन् समये च खलु चन्द्रः केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति ? तावत् उत्तराभिराषाढाभिः उत्तराषाढानाम् एकोनचत्वारिंशद् मुहूर्त्ताः, चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, द्वाषष्टिभागं च नतपष्टिधा छित्त्वा चतुर्दशचूर्णिका भागाः शेषा । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण योग युनक्ति ?, तावत् पुनर्वसुना पुनर्वसोः एकोनत्रिंशद् मुहूर्त्ताः एकविंशतिद्वषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा सप्तचत्वारिंशच्चूर्णिका भागाः शेषाः । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां पञ्चमस्य अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य क आदिराख्यातः ? इति वदेत् तावत् यत् खलु चतुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानं तत् खलु पञ्चमस्य अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य आदिः अनन्तरपुरस्कृतः समयः तावत् स खलु किं पर्यवसितः आख्यातः इति वदेत्, तावत् यः खलु प्रथमस्य चान्द्र संवत्सरस्यादिः स खलुः पञ्चमस्य अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य पर्यवसानम् अनन्तर पश्चात्कृतः समयः । तस्मिन् Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा . ११ सू० १ सवत्सराणामादिस्वरूपनिरूपणम् ४७७ समये च खलु चन्द्रः केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति तावत् उत्तराभिराषाढाभिः उत्तराणामाषाढानां चरमसमये, तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति, तावत् पुष्येण, पुष्यस्थ खलु एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः, त्रिचत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागाः मुहूर्त्तस्थ, द्वाषष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा त्रयस्त्रिशच्चूर्णिकाभागा शेषाः ॥सू. ११ ॥ एकादशं प्राभृतं समाप्तम् ॥ ११ ॥ व्याख्या--' 'ता कहते' इति 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण हे भगवन् ' 'ते' त्वया 'संवच्छराणामाई' संवत्सराणामादिः 'आहिए' आख्यात: : 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु भगवानाह - 'तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ खलु तत्र संवत्सराणामादि विषये खलु–निश्चयेन ‘इमे' इमेऽग्रे वक्ष्यमाणाः पंच सवच्छरा' पञ्च संवत्सराः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः कथिताः 'तं जहा ' तद्यथा ते इमे यथा - ' – 'चदे' चान्द्रः चान्द्रः संवत्सरः प्रथमः ? 'चंदे' चान्द्रः पुनरपि चान्द्रसंवत्सरो द्वितीयः २, 'अभिवढिए' अभिवर्द्धितः अभिवर्द्धितः संवत्सरस्तृतीयाः ३, 'चंदे' चान्द्रः पुनश्च चान्द्रः संवत्सश्चतुर्थः ४, 'अभिवढिए' अभिवर्द्धितः अभिवर्द्धितसंवत्सरः पञ्चमः ५, एते पञ्चसंवत्सराः कथिताः । एतेषां स्वरूपं पूर्व प्रदर्शित मेवेति । अथ संवत्सराणामादिं पृच्छति - 'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां पूर्वोक्तानां खलु 'पंच'हं संवच्छरणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'पढमस्स' प्रथमस्य 'चंद संवच्छरस्स' चान्द्रसंवत्सरस्य चान्द्राभिधसंवत्सरस्य 'के आई' कः आदि : 'आहिए' आख्यातः १, 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ! भगवानाह - 'ता जेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जे णं' यत् खलु पाश्चात्ययुगवर्त्तिनः पञ्चमस्याभिवद्धितसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम् अन्तिम समयः ‘से णं' स खलु समयः 'पढमस्स चंद संवच्छरस्स' प्रथमस्य चान्द्रसंवत्सरस्य 'आई' आदिरस्ति, स कीदृशः समयः : इत्याह- 'अणंतर पुरक्खडे समए' अनन्तरपुरस्कृतः समयः पाश्चात्ययुगवर्तिपञ्चमाभिवर्द्धितः संवत्सरादन्तररहित आगामी यः समयः स इति । अयं प्रथमसंवत्सरस्यादिः कथितः, साम्प्रतं पर्यवसानसमयविषये प्रश्नोत्तरमाह - ' ता से णं' इत्यादि, 'ता से णं' तावत् स खलु प्रथमश्चान्द्रसंवत्सरः किं पर्यवसितः किं पर्यवसानवान् 'आहिए' आख्यातः ? ‘तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु । उत्तरमाह - ' ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जे णं' यः खलः 'दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स' द्वितीयस्म चान्द्र संवत्सरस्य 'आई' आदि : 'से णं' स खलु 'पढमस्स चंदसंवच्छरस्स' प्रथमस्य चान्द्र संवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यव - सानम् अन्तिमसमयः, कीदृशः 'अणंतरपच्छाकडे समए' अनन्तरपश्चात्कृतः, अनन्तर अन्तररहितः यः पश्चात्कृतः अतीतः समयः स इति । अथ तत्समये चन्द्रयोगं पृच्छति 'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् संवत्सरपर्यवसानभूते समये खलु चंदे चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ' केन नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति योगं करोति ? इति प्रश्नः । इह Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे द्वादशाभिः पौर्णमासीभिश्चान्द्रः संवत्सरो भवति, ततो यदेव प्राक् दशमप्राभृतस्य हाविशतितमे द्वादश्यां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगपरिमाण सूर्यनक्षत्रयोगपरिमाणं च प्रोक्तं तदेव अन्यूनातिरिक्तं परिपूर्णमत्रापि ज्ञातव्यम्, गणिभावनाऽपि सैवकर्त्तव्या, तदेवाह सूत्रकारः ‘ता उत्तराहि' इत्यादि. 'ता' तावत् 'उत्तराहिं आसाढाहि' उत्तराभिराषाढाभिः उत्तराषाढानक्षत्रस्य चतुतारकत्वाद् बहुवचनम् उत्तराषाढानक्षत्रेण सह चन्द्रो योग युन क्ति, तत्रापि कति मुहूर्तान् यावत् चन्द्रोयोग युक्ति ? इत्यत्राह- 'उत्तराण' इत्यादि, 'उत्तराणं आसाढाणं' उत्तराणामाषाढानां उत्तराषाढा नक्षत्रस्य 'छव्वीस मुहुत्ता' षइविंशतिर्मुहूर्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य च 'छव्वीस बावट्टिभागा' षड्विशतिद्वषष्टिभागाः, 'बाट्ठिभागं च तं द्वाषष्टिभागं च 'सत्तट्ठिहा छित्ता' सप्तष्टिधा विभव्य तेभ्यः 'चउ पणं' चतुप्पञ्चाशत 'चुणियाभागा' चूर्णिका भागाः (२६-२६५४ 'सेसा' शेषाः अवशिष्टा भवेयुः तावत्पर्यन्तं चन्द्र उत्तराषाढानक्षत्रेण सह योग युनक्तीति भावः । एवं शेषसंवत्सरगतानामादि पर्यवसानसूत्राणां प्राभृतपरिसमाप्तिपर्यन्तं गणितभावना कर्त्तव्या, तथाहि-सा एव ध्रुवराशिः ६६।५।१।) एकस्य चान्द्रसंवत्सरस्य द्वादशपौर्णमास्यो भवन्तीति द्वादशभिर्गुण्यते जातानि सप्तशतानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य परिपापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादशसप्तषष्टिभागाः (७९२-६०१२) तत एतस्मात् "मूले सत्तेव चोयाला" इत्यादि करणगाथावचनात् चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विशति षिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तर ष्टिभागाः (७४४-२४६६) अभिजित आरभ्य मूलपर्यन्तनक्षत्राणां शोध्याः, तत स्त्रिंशन्मुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदशसप्तषष्टिभागाः ( १८-३५१३) तत आगतं प्रथमचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानसमये उत्तराषाढानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारि शन्मुहूर्तात्मकत्वात् तिष्ठन्ति शेषाः षड्विंशतिर्मुहर्ताः षड्विंशतिषिष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभ गस्थ चतुष्पञ्चाशत्सप्तपष्टिश्चर्णिका भागाः (२६ २६/५-१) अथ सूर्यस्य नक्षत्रयोगमाह-'तं समय चणं' इत्यादि, 'तं समयं च णं तस्मिन् समये च खलु 'मूरिए' सूर्यः केणं णक्खत्तेणं जायं नोएइ' केन नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति ? उत्तरमाह-'ता पुणव्बसुणा' इत्यदि, 'ता' तावत् पुणस्वमुणा' पुनर्वसुना पुनर्वसुनक्षत्रेण सह सूर्यो योगं युनक्तीति भावः । पुनर्वसोः कतिमुहर्तादिषु ०६७ श६७ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६७ ६श६ चन्द्रप्तिप्रकाशिकाटोकाप्रा.११सू०१० संवत्सराणामादिस्वरूपनिरूपणम् ४७१ शेषेषु सूर्यो योगं युनक्तीत्याह-'पुणव्वसुस्स' इत्यादि, पुणव्वसुस्स' पुनर्वसोनक्षत्रस्य 'सोलसमुहुत्ता' षोडशमुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य 'अट्ठय बावद्विभागा मुहुत्तस्स' अष्ट च द्वापष्टि भागा मुहूर्तस्य 'बावद्विभागं च' द्वाषष्टिभागं च ‘सत्तढिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्वा तेषु 'वीस चुणियाभागा' विंशतिश्चूर्णिका भागाः (१६-८२) 'सेसा' शेषाः अवशिष्टा भवेयुस्तपर्यन्तं सूर्यः पुनर्वसुनक्षत्रेण सह योग युनक्ति । अत्रापि स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ । द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि द्विनक्त्यधिकानि सप्तशतानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षष्टिषिष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टि भागाः (७९२ ६०२), एतस्मात् पुष्य शोधनकम्-एकोनविंशतिमुहूर्ताः, त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, त्रयस्त्रिंशच्च सप्तषष्टिभागाः (१९ १२/२२), इत्येतत्प्रमाणं पूर्वोक्तरीत्या शोध्यन्ते, स्थितानि शेषाणि त्रिसप्तत्यधिकानि सप्तशतानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य षोडश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य षट्चत्वारिंशत् सप्तषष्टि भागाः (७७३१६४६) तत एतस्मादाशेश्चत्वारिंशदधिकसप्तशत मुहूर्ताः, एकस्य मुहूर्तस्य च चतुर्विशतिषिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः ( ७४४ २४/६६) अश्लेषात आरभ्य आर्द्रापर्यन्तानां नक्षत्राणां शुद्धाः, ततस्तिष्ठन्ति शेषाः ६२/६७ अष्टाविंशतिं मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य सप्तचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः (२८५३४७) पुनर्वसुनक्षत्रगताः । तत आगतं पुन वसुनक्षत्रस्य पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् तस्य षोडशसु मुहर्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्ट द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (१६ -८/२०) शेषेषु सूर्यः पुनर्वसु नक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति । अथ द्वितीय चान्द्रसंवत्सरस्यादि पर्यवसानविषये प्राह'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां वक्ष्यमाणानां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणं मध्ये 'दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स' द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य 'आई' आदिः 'के आहिए' कः आख्यातः कुत्र कथितः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् । भगवानाह-'ता जे णं' इत्यदि, 'ता' तावत् 'जे णं' यत् खल्ल 'पढमस्स चंदसंबच्छरस्स' ६२६७ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे प्रथमस्य चान्द्रसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम् - अन्तभागः 'से णं' तत् खलु 'दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स' द्वितीयस्य चान्द्र संवत्सरस्य 'आई' आदिराख्यातः कीदृश: ? 'अणंतर पुरक्खडेसमए' अन्तरपुरस्कृतसमयः पूर्वसंवत्सराद् अन्तररहितः अनागत संवत्सरात्पूर्वभागस्थितः समय इति । अथ पर्यवसान समय माह - 'तासेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सेणं' स खलु समयः “किं पज्जवसिए' किं पर्यवसितः किं पर्यवसानवान् 'आहिए' आख्यातः कथितः ? 'ति वज्जा' इति वदेत् वदतु भगवन् | उत्तरमाह - 'ता जेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जेणं' यः खलु 'तच्चस्स' तृतीयस्य 'अभिवढिय संवच्छरस्स' अभिवद्धितसंवत्सरस्य 'आई' आदि समयः 'सेणं' स खलु 'दोच्चस्स संवच्छरस्स' द्वितीयस्य चान्द्राभिधानस्य संवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं भवति, तद्गतसमयः कीदृश: ? इत्याह 'अणंतरपच्चाकडे अनन्तर पश्चाकृतः द्वितीय चान्द्रवसंवत्सरादन्तररहितः पश्चात्कृतः पश्चाद्भागः अतीतभागरूपः 'समए' समय इति । 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं जंयं जोए ' केन नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति ? उत्तरमाह - ' ता पुव्वाहिं आसाढाहिं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुव्वाहिं आसाढाहिं' पूर्वाभिरापाढाभिः पूर्वाषाढा नक्षत्रेणेत्यर्थः । तत्रापि कतिषु मुहूर्तेषु शेषेषु चन्द्रः पूर्वाषाढा नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति ? तदाह' पुव्वाणं आसाढाणं' पूर्वाणामाषाढानां पूर्वाषाढानक्षत्रस्य चतुस्तारकत्वाद् बहुवचनम्, तत पूर्वाषाढा नक्षत्रस्य 'सत्तमुहुत्ता' सप्त मुहूर्त्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्त्तस्य ' तेवणं च बावट्टिभागा' त्रिपञ्चाशच्च द्वापष्टि भागाः, तथा 'बावट्टिभागं च' एकं द्वाषष्टिभागं च 'सत्तट्ठिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य तद्गताः 'इगतालीस ' एकचत्वारिंशत् 'चुण्णिया भागा' चूर्णिका भागाः सप्तषष्टिभागा इत्यर्थः (७-५३/४१) इत्येतावत्प्रमाणा मुहूर्त्ता पूर्वाषाढा नक्षत्रस्य यदा 'सेसा' शेणः ६२/६७ ४८० अवशिष्ठास्तिष्ठेयुस्तावत्परिमितं समयं यावत् चन्द्रः पूर्वाषाढानक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति भावः अथास्य गणितप्रकारः प्रदर्श्यते द्वितीय चान्द्रसंवत्सरपरिसमाप्तिश्चतुर्विंशत्या पौर्णमासीभिर्भवतीति पूर्वोक्तः स एव ( ६६ । ५ । १) ध्रुवराशिचतुविंशत्या गुण्यते, जातानि - चतुरशीत्यधिकानि पञ्चदशशतानि मुहूर्त्तानां तद्गता विंशत्युत्तरशतसंख्यका द्वाषष्टि भागाः एकस्य १२०२४) च द्वाषष्टि भागस्य सम्बन्धिनश्चतुर्विंशतिः सप्तषष्टिभागाः ( १५८४एतस्मात् राशेः एकोनविंशत्यधिकाष्टशत मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिर्द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वषष्टिभागस्य षट्षष्टिभागाः (८१९–२४/६६ ) एकस्य परिपूर्णनक्षत्रपर्यायस्य शोध्य६२/६७ न्ते ततः पश्चात् स्थितानि मुहूर्त्तानां सप्तशतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि तद्गताः पचनवति ६२ ६७ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा. ११ सू०१ संवत्सराणामादिस्वरूपनिरूपणम् ४८१ द्वष्टिभागाः, एकस्य द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागः, (७६५ ९५/२५) ६२|६७ चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तश तमुहूर्त्ताः, ततः 'मूले सत्तेव चोयाला' इत्यादि - करणवचनात् एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशति द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिअभिजिदादि मूलपर्यन्तानां नक्षत्राणां शुद्धाः, ततः स्थिताः ६२६७ भागाः (७४४२४ ६६) शे द्वाविंशतिर्मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टौ द्वाषष्टिभागाः, द्वापष्टिभागस्य षड्विंशतिः सप्तषष्टिभागाः - (२२/- २६) गताः । तत एकस्य च आगतम् - द्वितीय ६२ ६७ सप्त मुहूर्त्ताः, ६३), शेषास्तिष्ठन्ति, इत्येतत्प्रमाणेषु मुहूर्त्तादिषु शेषेषु सत्सु चन्द्रः चन्दसंवत्सरस्य पर्यवसानसमये पूर्वाषाढा नक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् तस्य एक्स्य च मुहूर्त्तस्य त्रिपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य द्वाषष्टिभागस्य च एकचत्वारिंशत सप्तषष्टि भागाः |६२६७ पूर्वाषाढा नक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति । अथ सूर्येण सह नक्षत्रयोगमाह - 'तं समयं च णं सूरिए' इत्याति, 'तं समयं च णं' तस्मिन् चन्द्रस्य पूर्वाषाढा नक्षत्रयोगरूपे समये च खलु 'सूरिए ' सूर्यः 'के णं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति ? उत्तरमाह - ' ता पुणव्वभ्रुणा' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुणव्वसुणा' पुनर्वसुना सह सूर्यः योगं युनक्ति । तत्र मुहूर्तादिकमाह -‘पुणव्वसुस्स णं' पुनर्वसोः पुनर्वसुनक्षत्रस्य खलु 'बायालीसं मुहुत्ता' द्विचत्वारिंशन्मुहूर्त्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्त्तस्य 'पणतीसं च बावद्विभागा' पञ्चत्रिंशच्च द्वाषष्टि भागाः, 'बावद्विभागं च तद्गतमेकं द्वाषष्टिभागं च 'सत्तट्ठिा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्वा विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'सत चुणिया भागा' सप्त चूर्णिकाभागाः सप्तषष्टि भागाः (४२) 'सेसा' शेषाः अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तत्समये सूर्यः पुनर्वसुनझत्रेण सह योगं युनक्तीति भावः । अस्य गणितप्रकार: प्रदर्शते - अत्रापि स एव ध्रुवराशि: ( ६६ | ५ | १ | ) चतुर्विंशत्या गुण्यते, जातानि चतुरशीत्यधिकानि पञ्चदशशतानि मुहूर्त्तानाम्, तद्गताः विंशत्युत्तरशतसंख्यका द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विंशतिः सप्तषष्टि भागाः (१५८४ । १२० ।२४।, तत एतस्माद् राशे एकोनविंशत्यधिकाष्टशतमुहूर्त्ताः एकस्य मुहूर्त्तस्य च चतु वशति द्वषष्टि भागाः, एकस्य च ष्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागाः (८१९/ २४६६), एतावत्प्रमाणः परिपूर्णो नक्षत्र |६२′६७ ६१ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे पर्यायः शोध्यते, तिष्ठन्ति पश्चात् पञ्चषष्टयधिकानि सप्तशतानि मुहूर्तानाम्, एक मुहूर्तसम्बन्धिनश्च पञ्चनवतिषष्टिभागाः, एकस्य द्वाषष्टिभगस्य च पञ्चविंशति सप्तषष्टिभागाः, ( ७६५/ ५)। तत एतेभ्य एकोनविंशति मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् ६२०६७ द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः (१९+४३।३३) पुष्यस्य शुद्धाः स्थितानि पश्चात् षट्चत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि मुहूर्तानाम् एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनषष्टिः सप्तषष्टि भागाश्च (७४६५१५९) । ततः पुनरपि एतस्माद् राशेः चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुटि शति षिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टि सप्तषष्टिभागाः (७४४/२४६२) अश्लेषाद्य प ६२६७ र्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थितौ पश्चात् द्वौ मुहूत्तौं, एकस्य च मूहूर्तस्य षड्विंशति षिष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टिः सप्तषष्टि भागाः (२।२६।६०), एतावत्परिमितेषु मुहूर्ता दिषु पुनर्वसुनक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकस्य गतेषु सत्सु, तथा द्विचत्वारिंशन्मुहुर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तसु सप्तषष्टिनागेषु (४२।३५।७) शेषेषु सत्सु द्वितीयचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानसमये सूर्यः पुनर्वसुनक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति । अथ तृतीयाभिवर्द्धितसंवत्सरविषये प्राह-ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिण' एतेषां पूर्वोक्तानां 'पचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां चन्द्रादि संवत्सराणां मध्ये 'तच्चस्स अभिवढियसंवच्छरस्स' तृतीयस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य 'के आई आहिए' क आदिराख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु । भगवानाह-'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जे णं' यत् खलु 'दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स' द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं 'से गं' तत् खलु तच्चस्स अभिवइढिय संवच्छरस्स' तृतीयस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य 'आई' आदिर्भवति, कीदृशः ? इत्याह- 'अगंतर पुरक्खडे समए' अनन्तरपुरस्कृतः समयः, अनन्तरः द्वितीयचान्द्रसंवत्सराद् अन्तरर हेतः पुरस्कृतः तृतीयाभिवर्द्धितसंवत्सरस्य पूर्वगतः समय इति । अथ पर्यवसानविषये आह-'ता से णं किं पज्जवसिए' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘से णं' स पूर्वोक्त स्तृतयोऽभिवतिसंवत्सरः 'किं पज्जवसिए' किं पर्यवसितः कीदृक् पर्यवसानवान् 'आहिए' आख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् । भगवानाह-'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जे #' यः खलु 'चउत्थस्स' चतुर्थस्य 'चंदसंवच्छरस्स' चान्द्रसंवत्सरस्य 'आई' आदिः आदिसमयः ‘से गं' स खलु समयः 'तच्चस्स Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.११ सू.१ . संवत्सराणामादिस्वपनिरूपणम् ४८३ अभिवढिय संवच्छरस्स' तृतीयस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य ‘पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तः, स कीदृशः समयः इत्याह-'अणंतरपच्छा कडे समए' अनन्तरपश्चात्कृतः-अन्तररहितो पश्चाद् भागरूपः समयः अथ चन्द्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् तृतीयाभिवद्धिसंवत्सरस्य पर्यवसानरूपे समये च खलु 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति ! । भगवानाह-'ता उत्तराहिं' इत्यादि 'ता' तावत् 'उत्तराहि आसाढ़ाहि' उत्तराभिराषाढाभिः, उत्तराषाढानक्षत्रेण सह चन्द्रो योगं युनक्ति । तत्रापि मुहूर्त्तादिकमाह-'उत्तराणं' इत्यादि, 'उत्तराणं आसाढाणं' उत्तराणामाषाढानाम् उत्तराषाढानक्षत्रस्य 'तेरस मुहुत्ता ।' त्रयोदश मुहूर्ताः 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्त्तस्य 'तेरस य बावद्विभागा' त्रयोदश च द्वाषष्टिभागाः, 'बावद्विभागं च' द्वाषष्टि भागं च 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य 'सत्तावीसं चुणिया भागा' सप्तविंशतिश्चूर्णिका भागा (१३।१३।२७।) 'सेसा' शेषा अवशिष्टाः तिष्ठेयुस्तदा चन्द्र उत्तराषाढानक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति भावः । अस्य गणितप्रकारः प्रदर्श्यतेतृतीयाभिवर्द्धितसंवत्सरस्य परिसमाप्तिः सप्तत्रिंशता पौर्णमासी भिर्भवतीति स एव ध्रुवराशिः-- (६६।५।१।) सप्तत्रिंशता गुणनीयः, ततो जातानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि चतुर्विशतिमुहूर्तशतानि, एकस्य मुहूर्तस्य पञ्चाशीत्यधिकशतसंख्यका द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः (२४४२।१८५।३७) । तत एतस्माद्राशेः एकोन विंशत्यधिकानि अष्टौ मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति षिष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागाः (८१९।२४।६६) इति सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं द्वाभ्यां गुणयित्वा शोध्यते, तो द्वाभ्यां गुणितो जातो राशि:-अष्टत्रिंशदधिकानि षोडश शतानि मुहूर्तानाम् एकस्य मुहूर्तस्य एकोन पञ्चाशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चषष्टिः सप्तषष्टिनागाः (१६३८ । ४९ । ६५)। एष राशिः पूर्वप्रदर्शितराशेः ( २४४२।१८५३७।) गोध्यते, शोधिते च स्थितः पश्चाद् राशि:- चतुरधिकानि अष्टौ मुहर्तशतानि, तत् सम्बन्धिनः ८ञ्चत्रिंशदधिकमेकं शतं द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशतत्सप्त ष्टिभागाः (८०४।१३५।३९) एतावद्रूपः । तत एतस्माद्राशेः चतुः सप्तत्यधिकसप्तशतमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति-षिष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागाः (७७४।२४।६६) अभिजित आरभ्य पूर्वाषाढा पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चाद्-एकत्रिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहर्तस्याष्टचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः (३१।४८।४०) तत आगतम्-तृतीयाभिवर्द्धितसंवत्सर पर्यवसानसमये उत्तराषाढानक्षत्रस्य पञ्च चत्वारिशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात्तस्य त्रयोदश मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोदश द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः (१३॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ चन्द्रप्रशमसुत्रे १३।२७) इति । अथ सूर्येण सह नक्षत्रयोगमाह - 'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् चन्द्रस्य पूर्वोक्तनक्षत्रयोगरूपे समये च खलु 'सूरिए, सूर्य: 'केणं णक्खत्तणं' केन नक्षत्रेण सह 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति ?" - भगवानाह - 'ता पुणव्वसुगा' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुणव्वसुणा' पुनर्वसुना पुनर्वसुनक्षत्रेण सह योगं युनक्ति । अथ पुनर्वसोर्मुहूर्त्तादिकं प्रदर्शयति 'पुणव्वसुस्स' इत्यादि, 'पुणव्वसुस्स' पुनर्वसु नक्षत्रस्य 'दो मुहूत्ता' द्वौ मुहूर्त्तो, 'छप्पण्णं च बावट्ठिभागा मुहूत्तस्स' षट् पञ्चाशच्च द्वाष्टि भागाः मुहूर्त्तस्य, तथा ' बावद्विभागं च ' द्वाषष्टिभागं च 'सत्तद्विहा छित्ता' सप्ता छित्त्वा - विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'सही' षष्टिः 'चुणिया भागा' चूर्णिका भागाः सप्तष्टि भागाः (२।५६।६०।) 'सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्टन्ति तस्मिन् समये सूर्यः पुनर्वसु नक्षत्रेण सह योगं युक्तीति । कथमिति, गणितं प्रदर्श्यते - अत्रापि स एव ध्रुवराशि: ( ६६।५ १) पूर्ववदेव सप्तत्रिंशता गुण्यते, जातानि पूर्ववदेव द्वाचत्वारिंशदधिकचतुर्विंशतिशत मुहूर्ताः, पञ्चाशीत्यधिकशत द्वाषष्टिभागाः, सप्तत्रिंशच्च सप्त षष्टिभागाः (२४४२ । १८५ । ३७) । तत एतेभ्यः पूर्वोक्त चन्द्रनक्षत्रयोगवत् सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं (८१९।२४।६६) द्विगुणं (१६६८। ४९।६५) कृत्वा शोध्यते, स्थितानि पश्चात् चन्द्रनक्षत्रयोगसदृशान्येव चतुरुत्तराणि अष्टौ मुहूर्त्त शतानि, तत्सम्बन्धिनः पञ्चत्रिंशदधिकं शतं द्वाषष्टि भागाः, एकोनचत्वारिंशच्च सप्तषष्टिभागाः (८०४।१३५।३९)। तत एतेभ्यः पुनरपि एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः, त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागः, त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टि भागाश्च (१९ |४३|३३|) पुष्यनक्षत्रस्य शुद्धाः स्थितानि पश्चात् पञ्चार्श त्य धिकसप्तशतमुहूर्त्ताः, एकस्य मुहूर्त्तस्य च द्विनवति द्वषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य प सप्तषष्टि भागाः (७८५। ९२ । ६) । ततो भूयोऽप्येतेभ्यः चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्त मुहूर्त्तशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिर्द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्टः सप्तषष्टि भागाः (७४४।२४।६६) अश्लेषादीनां आर्द्रापर्यन्तानां नक्षत्राणां शुद्धाः, स्थिताः पश्चात् - द्वाचत्वारिंशन्मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चद्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्त सप्तषष्टिभागाः (४२/५/७ | ) गताः तत अगतम् तृतीयाभिवर्द्धितसंवत्सरपर्यवसानसमये सूर्य: पुनर्वसु नक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकस्वात्तस्य द्वौ मुहूर्त्तो, एकस्य च मुहूर्त्तव्य षट् पञ्चाशद द्वाषष्टि भागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टिश्चूर्णिकाभागाः ( २/५६ १६० ), एतावत्परिमितेषु मुहूर्त्तादिषु शेषेषु सत्सु सूर्य: पुनर्वसु नक्षत्रेण सह योगं करोतीति । अथ चतुर्थचान्द्रसंवत्सरविषये प्राह — 'ता एएसिणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां पूर्वोक्तानां चन्द्रादीनां 'पंच संवच्छरणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चउत्थस्स' चतुथेस्य 'चंदसंवच्छरस्स' चन्द्रसंवत्सरस्य 'के आई आहिए' क आदिराख्यातः : 'तिवार - Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञाप्तप्रकाशिकाटोका प्रा.११ सू०१ संवत्सराणामादिस्वरूपनिरूपणम् ४८५ ज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! भगवानाह– 'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जे णं' यत्खलु तच्चस्स अभिवइढियसंवच्छरस्स' तृतीयस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं 'से णं' तत्खलु 'चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स' चतुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य 'आई' आदिः कीदृक् समयः ? इत्याह- 'अणंतरपुरक्खडे समए' अनन्तरपुरस्कृतः पुरोभागरूपः समयः अनन्तरः अन्तररहितः पुरस्कृतः पुरोभागरूपः समयः । पर्यवसानसमयं पृच्छति- 'ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'से णं' स खलु चतुर्थश्चान्द्रसंवत्सरः 'किं पज्जवसिए' किं पर्यवसितः । कीदृक् पर्यवसानवान् 'आहिए' आख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु है भगवान् ! भगवानाह-- 'ता जेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जे णं' यः खलु 'चरिमस्स' घरमस्य पञ्चमस्य 'अभिवइढियसंवच्छरस्स' अभिवर्द्रितसंवत्सरस्य 'आई' आदिः 'सेणं' स वलु 'चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स' चतुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं भवति, न कोदृक् समयः ? इत्याह- 'अणंतरपच्छाकडे समए' अनन्तर श्चात्कृतः अनन्तरः अन्तररहितः एश्चात्कृतः चतुर्थसंवत्सरस्यान्तभागरूपः समयः । अथ चन्द्रस्य नक्षत्रयोगमाह-- 'तं समयपणं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानभूते समये च खलु 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह 'जोयं' जोएइ' योगं युनक्ति ? भगवागह-'ता उत्तराहि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'उत्तराहिं आसाढाहिं' उत्तराभिराषाढाभिः उत्तराषादानक्षत्रेण सह योगं युनक्ति । अथास्य मुहूर्तादिकमाह-'उत्तराणं' इत्यादि, 'उत्तराणं आसाढाणं' उत्तराणामाषाढानां नक्षत्रस्य 'उणयालीस मुहुत्ता' एकोनचत्वारिंशन्मुहूर्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'चत्तालीसं च बावद्विभागा' चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागाः, तद्गतं 'बावद्विभागं च' द्वाषष्टिभागं च 'सत्तढिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'चउद्दस' चतुदेश 'चुण्णियाभागा' चूर्णिका भागाः सप्तषष्टि भागाः(३९।४०।१४) 'सेसा' शेषा अवशिप्टास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्रः उत्तराषाढानक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति । कथमिति गणितं प्रदर्यते- चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानमेकोनपञ्चाशत्तमपौर्णमासी : भिर्भवतीति स एव ध्रुवराशिः (६६।५।१) एकोनपञ्चाशता गुण्यते, जातानि चतुस्त्रिंशदधिकानि द्वात्रिंशन्मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चचत्वारिंशदधिके द्वे शते द्वाषष्टि भागानाम्, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनपञ्चाशत् सप्तषष्टिभ गाः (३२३४।२४५।४९।) तत एतस्मात् प्रागुक्तं सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं (८१९।२४।६६) त्रिभिर्गुणितम् (२४५७।७२।१९८) पूर्वस्मादराशेः (३२३४।२४५।४९) शोधिते पश्चात् स्थितानि सप्तसप्तत्यधिकानि सप्तशतानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्यधिकमेकं शतं द्वाषष्टि भागानाम् , एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः (७७७।१७०५२) एतस्माद् राशेः चतुः सप्तत्यधिकसप्तशतमुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति षिष्टिभागाः, एकस्य Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (७७४।२४।६६) भूयोऽप्यभिजिदादि ढिापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते स्थिताः पश्चात् पञ्च मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकविश तषिष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत् सप्तषष्टि भागाः (५।२१।५३) गत : । तत आगतम्--चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये उत्ताराषाढानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकभागस्य एकोन विंशतिः सप्तषष्टिभागाः (७५८।१२७।१९) ततश्चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति षिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य षट्षष्टिः सप्तष्टिभागाः (७४४।२४।६६) अश्लेषादीनामा मा॑पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् पञ्चदश मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विशतिः सप्तषष्टिभागाः (१५।४०।२०) पुनर्वसुनक्षत्रस्य गताः, तत आगतम् पुनवसोनक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात्तस्य चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये एकोन त्रिंशन्मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टि भागेषु (२९।२१।४७) शेषेषु सूर्यः पुनर्वसुनक्षत्रेण सह योगं करोतीति सिद्धम् । अथ पञ्चमाभिवर्द्धितसंवत्सरविषये प्रा:- 'ताएएसिणं' इत्यादि 'ता' तावत् ‘एएसिणं' एतेषां चन्द्रादीनां 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'पंचमस्स अभिवढियसंवच्छरस्स' पञ्चमस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य 'के आई' क आदिः 'आहिए' आख्यातः कथितः ? तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! भग्वानाह'ता जे णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जे णं' यत्खलु 'चउत्थस्स चंदसंवच्छस्स' चतुर्थस्य चान्द्र संवत्सरस्य ‘पज्जवसाणे' पर्यवसानं 'से णं' तत्खलु 'पंचमस्स अभिवढियसंवच्छरस्स' पञ्चमस्याभिवतिसंवत्सरस्य 'आई' आदिरस्ति स कीकू समयः ? इत्याह-'अणंतरपुरक्खडे' अनन्तरपुरस्कृतः अनन्तरः अन्तररहितः पुरस्कृतः पुरोवर्ती भावी 'समए' समयः । अथ पर्यवसान माह--'ता से णं' इत्यादि 'ता' तावत् ‘से णं' स खल पञ्चमाभिर्द्धितसंवत्सरः 'किं पज्जवसिए' किं पर्यवसितः किं पर्यवसानवान् 'आहिए' आख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् । भगवानाह- ‘ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जेणं' यः खलु-'पढमस्स' प्रथमस्य पुरोवर्ति युगस्य यः प्रथमस्तस्य 'चंदसंवच्छरस्स' चान्द्रसंवत्सरस्य 'आई' आदिः ‘से ण' स खल 'पंचमस्स' पञ्चमस्य वर्तमानयुगसम्बन्धिनः 'अभिवइढियसंवच्छरस्स' अभिवद्धितसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तिमः समयः, कीदृशः ? इत्याह—'अणंतर पच्छाकडे समए' अनन्तरपश्चात्कृतः समयः अनन्तरः अन्तररहितः पश्चात्कृतः अतीतः समयः । चन्द्रेण सह नक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इस्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये पञ्चमाभिवदितसंवत्सरपर्यवसानसमये च खलु 'चदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ' केन नक्षत्रे सह योगं युनक्ति : उत्तरमाह-'ता उत्तराहिं' इत्यादि, 'ता' तावत् "उत्तराहिं आसाढाहिं उत्तराभिराषाढाभिः उत्तराषाढ़ानक्षत्रेण सह योगं युनक्ति । तस्य मुहूर्त्तादिकमाह-'उत्तराणं' इत्यादि Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. ११ सू. १ संवत्सराणामादिस्वरूपनिरूपणम् ४८७ 'उत्तराणं आसाढाणं' उत्तराणामाषाढानां उत्तराषाढा नक्षत्रस्य ' चरमसमए' चरमसमये अन्तिम भागे चन्द्र उत्तराषाढा नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति । अस्य गणितप्रकारः - प्रदर्श्यते पञ्चमाभिवर्द्धित संवत्सरपर्यवसानं द्वाषष्टितमपौर्णमासीभिर्भवतीति स एव ध्रुवराशि: ( ६६ | ५ | १) द्वाषष्ट्या गुण्यते, जातानि द्विनवत्यधिकानि चत्वारिंशन्मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य दशोत्तराणि षष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः (४०९२ । ३१०/६२।, तत एतस्मादाशेः 'अट्ठसय उगुणवीसा सोहणगं उत्तराणसाढाणं । चउवीसं खल भागा, छावट्टी णियाओ ||१||" इति वचनात् एकोनविंशत्यधिकानि अष्टमुहूर्त्तशतानि एकस्य मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशति द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिश् चूर्णिका भागाः ( ८१९ । २४।६६ ) इत्येतत्परिमितं सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणमत्र पञ्चभिर्गुण्यते, जातानि पञ्चनवत्यधिकानि चत्वारिंशच्छतानि विंशत्युत्तरं शतं द्वाषष्टिभागाः, त्रिंशदुत्तराणि त्रीणि शतानि सप्तषष्टिभागाः ( ४९५ । १२० । : ३०) एष राशिः शोध्यते, द्वयोः राश्योर्मुहूर्त्तादिकं कृत्वा पूर्वोक्तप्रकारेण शोधने जायते परिपूर्णो राशिः न किञ्चित्तत्पश्चादवतिष्ठते तत आयाति - उत्तराषाढा नक्षत्रचन्द्र योगस्य चरमसमये द्वाषष्टितमपौर्णमासी परिसमाप्तिकाले पञ्चमाभिवर्द्धितसंवत्सरेस्य पर्यवसानं भवतीति । अथ सूर्य नक्षत्रयोगमाह - 'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् उत्तराषाढा नक्षत्र चरम स्मयचन्द्रयोगरूपे समये च खल्ल 'सुरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति ? भगवानाह - ' ता पुस्सेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् पुस्सेणं' पुष्येण सह य गं युनक्ति । अस्य मुहूर्त्तादिकमाह - ' पुस्सस्स णं इत्यादि, 'पुस्सस्स णं' पुष्यस्य पुष्य नक्षत्रस्य खलु 'एगूणवीसं मुहुत्ता' एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्त्तस्य च ' तेयालीसं च ट्टिभागा' त्रिचत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागाः, 'बावद्विभागं च सत्तट्ठिहा छित्ता' द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा 'तेत्तीस चुण्णिया भागा' त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिकाभागाः सप्तषष्टिभागाः (१९।४३ ३३) 'सेसा' शेषाः अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा सूर्यः पुष्यनक्षत्रेण सह योगं युक्तीति । एतदेव गणितेन प्रदर्श्यते-अत्रापि स एव ध्रुवराशि : ( ६६ | ५|१) द्वाषष्ट्या गुण्यते, जातानि द्विनवत्यधिकनि चत्वारिंशन्मुहूर्त्तशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य दशोत्तराणि त्रीणि शतानि द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः (४०९२ । ३१०।६२) । अत्र च पाश्चात्ययुगस्य परिसमाप्तिः पुष्यस्य दशसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (१०।१८। ३४) अतिक्रान्तेषु भवति, तदनन्तरमन्यद् वर्तमान युगं प्रवर्त्तते, तत एतदपि युगं भूयोऽपि पुष्यस्य तावन्मात्रेष्वेव मुहूर्त्तादिष्वतिक्रान्तेषु परिसमाप्तिमेनि तत एतावत्प्रमाण एकः परिपूर्णो नक्षत्रपर्यायो भवति स च - एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ मुहूर्त्त - शतानि एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशति द्वषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्त Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे षष्टिभागाः (८१९।२४।६६) एतोवत्परिमित एकः सकलनक्षत्रपर्यायो भवतीति पूर्वमपि च प्रद र्शितः। तत एष सकलनक्षत्रपर्यायः पञ्चभिर्गुणयित्वा प्रागुतात् द्वाषष्टि गुणिताद् ध्रुवराशेः शोध्यते तथाहि-पञ्चभिर्गुणितः सकलनक्षत्रपर्यायो जायते-पञ्चनवत्यधिकानि चत्वारिंशन्मुहर्त्तशतानि, एकस्य मुहूर्तस्य दशोत्तरमेकं शतं द्वाषष्टिभागानाम् एकस्य द्वाषष्टिभागस्य त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि सप्तषष्टिभागाः (४०९।११०।३३०)। एष राशिः पूर्वप्रदर्शितात् द्वाषष्टिगुणिताद् ध्रुवराशेः (४०९२।३१०६२) पूर्वोक्तेन शोधनकप्रकरेण शोध्यते च परिपूर्ण शुद्धयति, न किञ्चित्पश्चादवतिष्ठते स राशिनिलेपो जायते, तत अगतम्-पुष्यस्य दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य मुहूर्तस्य चाष्टा दशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (१९।४३॥३३) पुण्यस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वा देतावत्सु शेषेषु द्वाषष्टितम पौर्णमासी परिसमाप्तिसमये वर्तमान युग परिसमाप्ति समये च सूर्यः पुष्यनक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति “ता कहं ते संवच्छराण आई आहिए" तावत् कथं ते संवत्सराणामादिराख्यातः, इति ॥सूत्रम् १॥ इति श्रीजैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर घासीलाल व्रति विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायां-एकादशं प्राभृतं समाप्तम् ॥११॥ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.१ नक्षत्रादिसंवत्सरसंख्यादिकम् ४८९ . । अथ द्वादशं प्राभृतम् । गतमेकादशं प्राभृतम्, तत्र संवत्सराणामादिः पर्यवसानं च प्रदर्शितम् । अथ द्वादशं प्रामृतं प्रारभ्यते, तत्र 'कइ संवच्छराआहिया' । कतिसंवत्सरा इति, संवत्सराः कति भवन्तीति नक्षत्रादि संवत्सरांणां संख्या, तेषां रात्रिन्दिवाः, मुहूर्ताग्राणि च प्रदर्शयिष्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्य द्वादशस्य प्राभृतस्येदमादिसूत्रम्-'ता कइ णं संवच्छरा आहिया' इत्यादि । मूलम् - ता कइणं संवच्छरा आहिया ? तिवएज्जा, तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरा एण्णत्ता, तं जहा-णक्खत्ते १ चंदे २, उ ऊ ३, आइच्चे ४, अभिवढिए ५। ता एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं पढमस्स णक्खत्तसंवच्छरस्स णक्खत्ते मासे तीसइ तीसइ मुहुत्तेणं अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवइए राई दियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता सत्तावीसं राइंदियाइं एकवीसं च सत्तद्विभागा राइंदियस्स राइंदियग्गेणं आहिए तिवएज्जा । ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता अट्ठ सयाई एगूणवीसाइं मुहुत्ताणं, सत्तावीसं च सत्तट्टि भागा मुहुत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा। ता एस णं अद्धा दुवालसक्खुत्तकडा णखत्ते संवच्छरे ता से णं केवइए राइंदियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता तिणि सत्तावीसाई राई दियसयाई अक्कावन्नं च सत्तट्ठिभागा राइंदियस्स राइंदियग्गेणं आहिए तिपएज्जा । ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता णव मुहुत्तसहस्सा, अट्टय बत्तीसाई मुहुत्तसयाई, छप्पन्नं च सत्तट्ठिभागा मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा ? ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स चंदे मासे तीसइ ती. सइ मुहत्ते णं अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवइए राइंदियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता एगणतीसं राइंदियाइं, बत्तीसं बावद्विभागा राइंदियस्स राइंदिग्गेणं आहिए तिवएज्ज, ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता अट्ठपंचासीयाई मुहुत्तसयाई तीसं च बाट्ठिभागा मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहिए ति वएज्जा, ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा चंदे संवच्छरे, ता सेणं केवइए राइं दियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता तिण्णिचउप्पन्नाई राईदियसयाई दुवालस य बावट्ठिभागा राइंदियस्स राई दियग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता दस मुहुत्तसहस्साई छच्च पणवीसाई मुहत्तसयाइं पण्णासं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहिए ति वएज्जा । ता एससिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चस्स उउ संवच्छरस्स उऊमासे तीसइ तीसइ मुहुत्तेण अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवइए राइदियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता तीसं राइंदियाणं राइंदियग्गेणं आहिए ति वएज्जा, ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता णव मुहुत्त ६२ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे सयाई मुहुत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता एस अद्धा दुवालस खुत्तकडा उऊ संवच्छ रे, ता से णं केवइए राइं दियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता तिण्णि सट्टाई राइंदियसयाई गइंदियग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा दस मुहु तसहस्साई अट्ठय सयाई मुहुत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा ।३। ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराण चउत्थस्स आइच्चे मासे तीसइ तीसइ मुहुत्तणे अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवइए राईदियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता तीसं राइंदियाई अबढ भागं च राइंदियस्स राइंदिग्गेणं आहिए तिवएवज्जा, ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता णव पण्ण रसाई मुहुत्तसयाई मुहुत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता एसणं अद्धा दुवालसखुत्तकडा आइच्चे संवच्छरे, ता से णं केवइए राइंदियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता तिन्नि छावट्ठाई रा दियसयाइं राइंदियग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता दस मुहुत्तसहस्साइं णव य असीयाइं मुहुत्तसयाई मुहुत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा ।४। ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवढियसंवच्छरस्स अभिवड्डिए मासे तीसइ तीसइ मुहुत्तणे अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवइए राइंदियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता एक्कतीसं राइंदियाई, एगूणतीसं च मुहुत्ता, सत्तरस बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स राइंदिग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा ताणं णव एगूण सहाई मुहुत्तसयाई, सत्तरस बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता एसणं अद्धा दुवालसखुत्तकडा अभिवढिए संवच्छरे, ता से णं केवइए राइंदियग्गेणं आलिए ? तिवएज्जा ता तिण्णि तेसीयाई राइंदियसयाई, एकतीसं च मुहुत्ता अट्ठारस बावद्विभागा मुहुत्तस्स राइंदियग्गेण आहिए तिवएज्जा, ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? निवएज्जा ? ता एकारस मुहुत्तसहस्साइं पंच य एक्कारसाइं मुहुत्तसयाई, अट्ठारस य बावद्विभागामुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा ॥ सूत्रम् १॥ - छाया- तावत् कति खलु संवत्सरा आख्याताः ? इति वदेत् तत्र खलु इमे पञ्च संवत्सराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा नाक्षत्रः १ चान्द्रः २, आत वः ३, आदित्यः ४ अभिवद्धितः ५। तावत् एतेषां स्लु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमस्य नाक्षत्रसंवत्सरस्य नाक्षत्रोमासः त्रिंशत्रिशन्मुहूर्त्तकेन अहोरात्रेण गण्यमानः कियत्कः रात्रिन्दिवाण आख्यातः ? इति । तावत् सप्तविंशतिः रात्रिन्दिवानि, एकविंशतिश्च सप्तष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यात इति वदेत् । तावत् स खलु कियत्कः मुहूर्ताग्रेण आख्यातः ? इति वदेत् तावत् अष्ट शतानि एकोनविंशानि मुहूर्तानाम् सप्तविंशतिश्च सप्तषष्टि भागा मुत्तस्य मुहूत्तांग्रेण आख्यात इति वदेत् । तावत् एषा खलु अद्धा द्वादशकृत्वः कृता नाक्षत्रः संवत्सरः, तावत् स खलु कियत्कः रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यातः ? इति वदेत्, तवात् त्रीणि सप्त ने रात्रिन्टिवशतानि एक पञ्चाशच्च सप्तपधिभागा रात्रिन्दिवस्य रात्रिन्दिवाण आख्यात इति वदेत्, तावत् स खलु कियत्कः मुहूर्ताग्रेण आख्यातः ? इति वदेत् तावत् Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. १ नक्षत्रादिसंवत्सरसंख्यादिकम् ४९१ नमुहर्तसहस्राणि अष्ट च द्वात्रिंशानि मुहूत्तशतानि, षट्पञ्चाशच्च सप्तषष्टिभागा मुहूर्तस्प मुहूर्ताओण आख्यात इति वदेत् १ । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्विती. यस्य चन्द्रसंवत्सरस्य चान्द्रो मासः त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्तकेन अहोरात्रेण गण्यमानः कियत्कः रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यातः ? इति वदेत्, तावत् एकोनत्रिंशद् रात्रिन्दिवानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य रात्रिन्दिवाण आख्यातः इति वदेत् तावत् स खलु कियत्कः मुहग्रिण आख्यातः ? इति वदेत् अष्टौ पञ्चाशीतानि मुहूर्त शतानि, त्रिंशच्च द्वाष्टिभागा मुहत्तस्य मुहूर्ताग्रेण आख्यात इति वदेत् तावत् एषा खलु अद्धा द्वादश कृत्वः कृता चान्द्रः संवत्सरः, तावत् स खलु कियत्कः रात्रिन्दिवाण आख्यातः इति वदेत् , तावत् त्राणि चतुष्पञ्चाशानि रात्रिन्दिवशतानि, द्वादश च द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यात इति वदेत्, तावत् स खलु कियत्कः मुहर्ताग्रेण आख्यातः १ इति वदेत् तावत् दशमुहूर्त्तसहस्राणि, षट् च पञ्चविंशानि मुहर्तशतानि, पञ्चाशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य मुहूत्तांग्रेण आख्यात इति वदेत् ।। तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां तृतीयस्य आर्त्तवसंवत्सरस्य आर्तवो मासः त्रिंशत् विशन्मुहर्त्तकेन अहोरात्रेण गण्यमानः कियत्कः रात्रिन्दिवाण आख्यातः ? इति वदेत् , तावत् त्रिशद् रात्रिन्दिवानां रात्रिन्दिवाण आख्यात इति वदेत् , तावत् स रूलु कियत्कः मुहर्ताग्रेण आख्यात ? इति वदेत , तावत् नव मुहूर्तशतानि मुहर्ताग्रेण आख्यातः इति वदेत् , तावत् एषा खलु अद्धा द्वदशकृत्वः कृत्वः कृता आर्त्तवः स्वत्सरः, तावत् स खलु कियत्कः रात्रिद्विाग्रेण आख्यातः ? इति वदेत् , तावत् त्रीणि षष्टयधिकानि रात्रिन्दिवशतानि रात्रिन्दिवाण आख्यात इति वदेत् , तावत् स खलु कियत्कः मुहत ग्रेण आख्यातः ? इति वदेत् तावत् दशमुहूर्तसहस्राणि, अष्ट च श्तानि मुहूर्ताओण आख्यातः इति वदेत् । ३। तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चतुर्थस्य आदित्य संवत्सरस्य आदित्यो मालः त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्त्तकेन अहोरात्रेण गण्यमानः कियाकः रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यातः? इति वदेत्, तावत् त्रिशद्ररात्रिन्दिवानि अपार्द्धभागश्च रात्रिन्दिवस्य रात्रिन्दिवाण आख्यातः इति वदेत् , तावत् स खलु कियत्कः मुहूर्तांग्रेण आख्यातः ? इति वदेत्, तावत् नव पञ्चदशानि मुहूर्त्तशतानि मुहूर्ताग्रेण आख्यात इति वदेत् , तावत् एषा खलु अद्धा द्वादशकृत्वः कृता आदित्यः संवत्सरः तावत् स खलु कियत्कः रात्रिन्दिवाण आख्यातः ? इति वदेत् , तावत् त्रीणि षट्पष्टानि रात्रिन्दिवइतानि रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यात इति वदेत तावत् स खलु कियत्कः मुहूर्ताग्रेण आख्यात इति वदेत् ।४। तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां पञ्चमस्य अभिवद्धित सवत्सरस्य अभिवद्धितो मासः त्रिंशत् त्रिशन्महतकेन अहोरात्रेण गण्यमानः कियत्कः रात्रिद्विाग्रेण आख्यातः ? इति वदेत् , तावत् एकत्रिंशद् रात्रिन्दिवानि, एकोनत्रिशच्च महुर्ताः, सप्तदश द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य रात्रिन्दिवाण आख्यातः इति वदेत् , तावत् स सलु कियत्कः मुहूर्ताओण आख्यातः ? इति वदेत् , तावत् नव एकोन षष्टानि मुहूर्तशतानि सप्तदशद्वापष्टिभागा मुहर्तस्य मुहूर्ताग्रेण आख्यात इति वदेत् , तावत् एषा खलु अद्धा तुदशकृत्वः कृता अभिवद्धित संवत्सरः । तावत् स खलु कियत्का रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यातः? इति वदेत् , तावत् त्रीणि व्यशीतानि रात्रिन्दिवशतानि, एकविंशतिश्च मुहूर्ताः, अष्टादश द्वाषष्टिभागा, मुहूर्तस्य रात्रिन्दिवाओण आख्यात इति वदेत् , तावत् स खलु कियत्कः Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिसूत्रे मुहूर्त्ताग्रेण आख्यातः ? इति वदेत् तावत् एकादश मुहूर्त्तसहस्राणि पञ्चपकादशानि मुह शतानि, अष्टादश च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्ताग्रेण आख्यात इति वदेत् ॥ १ ॥ ४९२ > यतु व्याख्या – गौतमः पृच्छति - 'ता कइ णं संवच्छरा' इति, 'ता' तावत् 'कइ णं' क ते कियत्संख्यकाः खलु 'संवच्छरा' संवत्सराः, 'आहिया' आख्याताः 'ति व एज्जा' इति वदेत् वक्तु कथहे भगवन् ? गौतमेन एवं पृष्टे भगवानाह - 'तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ खलु' तत्र संवत्नरविषये खलु ‘इमे' इमे-वक्ष्यमाणाः 'पंच संवच्छरा पण्णत्ता' पञ्च संवत्सराः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- 'णक्खत्ते नाक्षत्र: नक्षत्रचारसम्बन्धी 'संवच्छ रे' संवत्सरः प्रथमः १, 'चंदे' चान्द्रः चन्द्रचारसम्बन्धी 'संवच्छ रे' संवत्सरो द्वितीयः २, ‘उऊ’ आत्तवः ऋतु सम्बन्धी ऋतुजन्यः 'संवच्छरे' संवत्सरस्तृतीयः ३ 'आइच्चे' आदित्यः-आदित्यचारजन्यः 'संवच्छ रे' संवत्सरश्चतुर्थः ४, 'अभिवइढिए' अभिवतः यत्र संवत्सरेऽधिको मासः स तादृशः अभिवर्द्धितः 'संवच्छ रे' संवत्सरः पञ्चमः एते पञ्च संवत्सरा आख्याता इति । तत्र पञ्चानामपि संवत्सराणां मास मुहूर्त्तादिकमाह - ' ता एएसिणं' : त्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां नाक्षत्रादीनां 'पंच' पश्चानां 'संवच्छरणं' संवत्सराणां मध्ये 'पढमस्स' प्रथमस्य 'णक्खत्त संवच्छरस्स' नाक्षत्र संवत्सरस्य संबंधो यो 'णक्खत्ते मासे' नाक्षत्री मासः 'तीसइ तीसइ मुहुत्तेणं' त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्त्तकेन त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकेन 'अहोरत्तेणं' अहोरात्रेण रात्रिन्दिवेन अहोरात्रस्य सर्वदा त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् 'गणिज्जमाणे' गण्यमानः नक्षत्रमासः 'has' कियत्कः कियत्संख्यकाहोरात्रकः कियदहोरात्रवान् एकस्मिन् नक्षत्रमासे कियन्तोऽहोरात्रा इत्यर्थः 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन अहोरात्रप्रमाणेन 'आहिए' आख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति एतत्परिमाणं वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ? । एवं गौतमेन पृष्टे तत्प्रमाणं भगवानाह - 'ता सत्तावीसं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सत्तावीस राईदियाई' सप्तविंशतिः रात्रि-दवानि 'राईदियस्स' एकस्य रात्रिन्दिवस्य 'एकवीसं च सत्तद्विभागा' ऐकविंशतिश्च सप्तर्षाणिभागाः (२७- २१) 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण अहोरात्रपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितो ६७ नक्षत्रमासः, 'तिवएज्जा' इति एवं वदतु कथयतु हे गौतम ! स्वशिष्येभ्यः इति । अथ नक्षत्रमासस्य रात्रिन्दिवपरिमाणे गणितं प्रदर्श्यते युगे हि नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिरिति पूर्वं प्रदर्शितभेव । युगे चाहोरात्राः – त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) तत एषां युगगत नक्षत्रमासरांख्यया सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशति सप्तषष्टि भागाः (२७ २१) सूत्रोक्ता आगता इति । अथ नक्षत्रमासस्य मुहूर्तपरिमाणं पृच्छति— ६७ 'ता सेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'से णं' स खलु नक्षत्रमासः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्त्ताग्रेण मुहूर्तपरिमाणेन, एकस्य नक्षत्र मासस्य क्रियन्तो Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ चन्द्राप्ति काशिकाटीका प्रा.१२ सू. १ नक्षत्रादिसंवत्सरसंख्यादिकम् ४९३ मुहूर्ता इत्यर्थः 'आहिए' आख्यातः कथितः ‘ति वएज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ! । भगवानाह-'ता अट्ठसयाई' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अट्ठसयाई' अष्टशतानि 'एगूणवीसाई' एकोन विंशानि एकोनविंशत्यधिकानि 'मुहुत्ताणं' मुहूर्तानाम्, एकोन विंशत्यधिकाष्टशतमुहूर्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य च मुहूर्त्तस्य ‘सत्तावीसं च सहिभागा' सप्तविंशतिश्च सप्तषष्टिभागाः (८१९२७) 'मुहुत्तग्गेणं' मूहूर्ताग्रेण मुहूर्तपरिमाणेन नक्षत्रमा सः 'आहिए' आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु स्वशिष्येभ्य इति । तथाहि-नक्षत्रमासपरिमाणं सप्तविंशतिरहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तषष्टि भागाः (२७२१) इति पूर्व प्रदर्शितम् तत एते सप्तविंशतिरहोरात्राः सवर्णनार्थ सप्तषष्टया गुण्यन्ते, जातानि नवाधिकानि अष्टादशशतानि (१८०९), एषु चोपरितना एकविंशति सप्तषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) सप्तपष्टिभागाः, एते मुहूर्तानयनाथै त्रिंशता गुण्यन्ते जाताः चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि नवशतानि (५४९००) मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागाः, तत एतेषां सध्तषष्टया भागे हृतेलब्धानि-एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्ठि १) सूत्रोक्ता लभ्यन्ते इति । 'ता' तावत् ‘एस णं' एषा खलु 'अद्धा' अद्धा भागाः काल एव 'दुवालसखुत्तकडा' द्वादश कृत्वः कृता अत्र संवत्सरमासानां द्वादशात्मकत्वाद् द्वादशवारं कृता सती अद्धा 'णक्खत्ते संवच्छरे' एको नाक्षत्रः संवत्सरो भवति । अस्य रात्रिन्दिवानि पृच्छति-'ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘से णं' स खलु नक्षत्रसंवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन अस्य नक्षत्रसंवत्सरस्य कियन्तिरात्रिन्दिवानि भवन्तीत्यर्थः 'आहिए' आख्यातः 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु । भगवानाहता 'तिणि सत्तावीसाइ राइंदियसयाई' त्रीणि सप्तविंशानि सप्तविंशत्यधिकानि रात्रिन्दिवश तानि, 'एक्कावन्नं च सत्तट्ठिभागा' एक पञ्चाशञ्च सप्तपष्टि भागाः (३२७८) 'राईदियस्स' एकस्य रात्रिन्दिवस्य, 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण 'आहिए' आख्यातः 'तिवएज्जा' इति वदेत् । अत्र नक्षत्रमासरात्रिन्दिवपरिमाणं द्वादशभिर्गुणितं यथोक्तम् (३२७-१) नक्षत्रमासस्य रात्रिन्दिवानां परिमाणं भवतीति । अथास्य मुहूर्तसंख्यां पृच्छति-'ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् से णं' सः नक्षत्रसंवत्सरः खलु 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण मुहूर्तपरिमा Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे णेन 'आहिए' आख्यातः नक्षत्रसंवत्सरस्य कियन्तो मुहूर्ता भवन्तीतिभावः 'तिवएज्जा' इति वदेत्, उत्तरमाह-'ता' तावत् 'णव मुहुत्तसहस्सा' नवमुहूर्तसहस्राणि 'अट्ठ य बत्तीसाइं मुहुनसयाई' अष्ट च द्वात्रिंशानि द्वात्रिंशदधिकानि मुहूर्तशतानि, 'छप्पन्नं च सत्तद्विभागा' पट्पच्चाशच्च सप्तषष्टि भागाः ‘मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य (१.८३२।५-६) 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताप्रेण मुहूत्त रिमाणेन 'आहिए' आख्यातः 'तिवएज्जा' इति वदेत् । अत्र नक्षत्रमासमुहूर्तपरिमाणं द्वादशभिर्गुणितं यथो क्तम् (९८३२।५८)नक्षत्रमासस्य मुहूर्तपरिमाणं भवतीति । १ । अथ द्वितीयचान्द्रसंवत् परविषये प्रश्ननिर्वचनसूत्राण्याह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां नक्षत्रादीनां 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स' द्वितीयस्य चान्द्र संवत्सरस्य 'चंदे मासे' चान्द्रः चन्द्रसम्बन्धोमासः 'तीसइ तीसइमुहुत्तेणं' त्रिंशत् त्रिंान्मुहूर्तकेन 'अहोरत्तेणं' एकैकाहोरात्रेण 'गणिज्जमाणे' गण्यमानः 'केवइए' कियत्कः किय परिमितः 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएना' इति वदेन् । उत्तरमाह --ता एगूगतीसं इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगणतीसं राईदियाई' 'कोनत्रिं शद् रात्रिन्दिवानि 'बत्तीसं च बावट्ठिभागा' द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागाः 'राइंदियस्स' एकस्य रात्रिन्दिवस्य (२९।१२) 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इति वदेत् । तथाहि-युगे द्वाषष्टिश्चन्द्रमासा भवन्तीति युगस बन्धिनां त्रिंशदधिकाष्टादशशतानां द्वाषष्टया भागो हरणोयः, हृते च भागे लब्धा यथोक्ता एकोनत्रिंशदहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः (२९।२) इति । अथास्य मुहूत्तसंख्यां च्छत'ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'से णं' खलु द्वितीयचन्द्रमासः 'केवइए, कियत्क कियत्परिमितः 'मुहत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण मुहूर्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः ? 'ति वएज्जा' इतिवदेत् । उत्तरमाह- 'ता अट्ठपंचासीयाई' इत्यादि 'ता' तावत् 'अट्ठ पंचासीयाई' मुहुत्तसयाई' अष्ट, पंञ्चाशीतानि पञ्चाशीत्यधिकानि मुहूर्तशतानि 'तीसं च बावद्विभागा' त्रिंशच्च द्वाषष्ठिभागाः ‘मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य (८८५३०) 'मुहुत्तग्गेण' मुहूर्ताग्रेण मुहूर्त परिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इतिवदेत् । तथाहि चन्द्रमासपरिमाणम्एकोनत्रिंशदहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः (२९३२), तत्र सवर्णनार्थमे Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र क्षप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा. १२ सु. १. ६२ नक्षत्रादिसंवत्सर संख्यादिकम् ४९५ कोनत्रिंशदहोरात्रान् द्वाषष्ट्या गुणयित्वा उपरितना द्वात्रिंशद्वाषष्टिभागास्तेषु प्रक्षेपणीयाः, जातानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) तत एतानि - त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि - चतु' पञ्चाशत् सहस्राणि तदुपरि नव च शतानि मुहूर्त्तगत द्वाषष्टिभागाः ( ५४९००) तत एते द्वाषष्ट्या भागे हृते लब्धानि यथोक्तानि अष्टौ शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहर्त्तस्य त्रिशद द्वाषष्टि भागाः (८८५ ३०) इत्येतत्परिमिता द्वितीयचन्द्रमासस्य मुहूर्तसंख्या भवतीति सिद्धम् । अथास्य चान्द्र संवत्सरस्य कालमानमाह - ' ता एस णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एसणं' एषा खलु 'अद्धा' अद्धा चान्द्रमासकालरूपा 'दुवालस खुत्तकडा' द्वादशकृत्वः द्वादशवारैः कृता 'चंदे संवच्छ रे' एकश्चान्द्रः संवत्सरो । अस्य रात्रिन्दिवानि पृच्छति 'ता से णं' तावत् स खलु चान्द्रः संवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कि यत्प रेमितः 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवा ग्रेण 'आहिए' आख्यातः कथितः ! 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु । भगवानाह - 'ता तिन्नि' इत्यादि 'ता' तावत् 'तिन्नि उपपन्ना राईदियसयाई' त्रीणि चतुष्पञ्चाशानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि रात्रिन्दिवशतानि 'राईदियस्स' एकस्य रात्रिन्दिवस्य 'दुवालसय' द्वादश च ' बवडिभागा' द्वाषष्टिभागाः (३०४ १२) 'राइदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' अख्यातः कथितः ६२ 'ति एज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्य । चन्द्रमासस्य रात्रिन्दिवपरिमाणं द्वादशभिर्गुणितं यथोकं चन्द्रसंवत्सररात्रिन्दिवपरिमाणं भवतीति भावः । अथास्य मुहूर्त्त संख्यां पृच्छति - ता से इत्यदि, 'ता' तावत् ' से णं' स खलु चन्द्रसंवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहृत्तग्गेणं' मुहूर्त्ताग्रेण मुहूर्त्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः ? 'तिवएज्जा' इतिवदेत् वदत् । भगवानाह - 'ता दस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'दसमुहुत्तसहस्साई' दशमुहूर्त्तस्राणि 'पणवीसं च मुहुत्तसयं' पञ्चविंशत्यधिकं मुहूर्त्तशतम् ' मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'पण्णासं च वावट्ठिभागा' पञ्चाशच्च द्वाषष्टिभागाः ( १०१२५५९) 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्त्ता ६२ ग्रेण मुहूर्त्त परिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इतिवदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्यः । अत्र चन्द्रमासमुहूर्त्तपरिमाणं द्वादशभिर्गुणितं यथोक्तं चान्द्र संवत्सरमुहूर्त्तपरिमाणं भवतीति २ । अथ तृतीयस्य ऋतु संवत्सरस्य विषये प्रश्ननिर्वचनसूत्राण्याह 'ता एएसिणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एएस' एतेषां नक्षत्रादीनां खलु 'पचन्हं संवच्छरणं' पच्चानां संवत्सराणां मध्ये ‘तच्चस्स' तृतीयस्य 'उउसंवच्छरस्स' ऋतुसंवत्सरस्य 'उऊमासे' आर्त्तवः ऋतु सम्बन्धी मासः 'तीस तीस मुडुत्तेणं' त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्तकेन 'राईदिएणं' रात्रिन्दिवेन Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे 'गणिमाणे' गण्यमानः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'राईदियग्गेणं' रात्रिदिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन. 'आहिए' अख्यातः 'ता तीस' इत्यादि ' ता तावत् 'ती' त्रिंशत् 'राई दियाणं' रात्रिन्दिवानां 'राईदियग्गेणं रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः त्रिंशद्वात्रिन्दिवप्रमाणो ऋतुमासो भवतीति कथितः । 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्न इति । तथाहि ऋतु मासा युगे एकषष्टि र्भवन्ति ततो युगगतानां त्रिंशदधिकाष्टादशतानाम् अहोरात्राणाम् ( १८३० ) एकषष्ट्या भागो हियते, लब्धास्त्रिंशदहोरात्रा यथोक्ता इति । अथ ऋतुमासस्य मुहूर्त्तसंख्यां पृच्छति 'ता से णं' इत्याति, 'ता' तावत् 'से णं' स खलु ऋतुमासः ‘केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्त्ताग्रेण मुहूर्त्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवान् - ' ता णव' इत्यादि 'ता' तावत् 'णव मुहुत्तसयाई' नवमुहूर्त्तशतानि 'मुहुत्तग्गेण' मुहूर्त्ताग्रेण 'आहिए' आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्याय । तथाहि - त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं रात्रिद्भिवम्, त्रिंशद्वात्रिन्दिवात्मकच ऋतुमास इति त्रिंशत् त्रिंशता गुण्यते जातानि यथोक्तानि नव मुहूर्त्तशतानीति । 'ता' तावत् 'एस णं' एषा खलु 'अद्धा' अद्धा त्रिंशद्वात्रिन्दिवात्मकः नवरात मुहूर्त्तात्मकश्च काल: 'दुवालस खुत्तकडा' द्वादशकृत्वः कृता द्वादशभिर्गुणिता 'उ उसवच्छरे' आर्त्तवः ऋतु सम्बन्धी संवत्सरो भवतीति । अथास्य ऋतु संवत्सरस्य रात्रिन्दिवपरिमाणं पृच्छति - 'ता से णं' इत्यादि. 'ता' तंवत् 'से णं' स खछु ऋतुसंवत्सरः 'केवइए' कियत्कः 'राईदियग्गेणं' रात्रिद्विवाग्रेण रात्रिन्दिपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः ऋतुसंवत्सरस्य कति रात्रिन्दिवानि कथितानि : 'ति एज्जा' इति वदेत् वदतु । भगवानाह - 'ता तिष्णि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तिणि सहाई राईदियसयाई' त्रीणि षष्टानि षष्ट्यधिकानि रत्रिन्दिवशतानि ( ३६० ) 'राईदियग्गेणं' रत्रि दवाग्रेण 'आहिए' आख्यातः 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि - एकस्मिन् ऋतुमासे त्रिंशद् रात्रिन्दिवानि ते च मासा एकस्मिन् ऋतुसंवत्सरे द्वादशेति त्रिंशतो द्वादशभिर्गुणने भवन्ति यथोक्तानि षष्ट्यधिकानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दिवानीति । अथास्य मुहूर्त्तसंख्यां पृच्छनि- 'ता सेणं' इत्यादिना, 'ता' तावत् 'से णं' स खलु ऋतुसंवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहुत्तग्गेणं' आख्यातः कथितः एकस्य ऋतुसंवत्सरस्य कति मुहूर्त्ता भवन्ति ? 'ति वएज्जा' इति बंदेत् वदतु-हे भगवान् ! भगवानाह 'ता दस' इत्यादि 'ता' तावत् 'दसमुहुत्तसहस्साई' दशमुहूर्त्त सहस्त्राणि 'अट्ठय सयाई' अष्ट च शतानि (१०८००) 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्त्ताग्रेण 'आहिए' आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि - एकस्य ऋतुमासस्य नवमुनेशतानि - भवन्तीति तानि द्वादशभिर्मासै गुणने भवति यथोक्ता संख्येति ३ । अथ चतुर्थादित्यसंवत्सरविषये प्रश्ननिर्वचनसूत्राण्याह- 'ता एए सि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां नाक्षत्रादीनां खलु 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चड़त्थस्स' चतुर्थस्य 'आइच्च संवच्छ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. १ नक्षत्रादिसंवत्सरसंख्यादिकम् ४९७ रस्स' आदित्य संवत्सरस्य 'आइच्चे मासे' आदित्यः आदित्यसम्बन्धी मासः 'तीसइ तीसइ भुहुत्तेणं' त्रिंशत् त्रिंशन्मुइतकेन 'अहोरत्तेणं' अहोरात्रेण 'गणिज्जमाणे' गण्यमानः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्ज' इति वदेत् वदतु हे भगवान्-'ता तीसं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तीसं' त्रिंशद् 'राइंदियाई' रात्रिन्दिवानि 'राइंदियस्स' एकस्य रात्रिन्दिवस्य 'अवड्ढभागो य' अपार्धभागश्च, अपगतः अर्द्धः अपार्द्धः, सचासौ भागश्च अपार्द्धभागः अर्द्धभागः पञ्चदश- मुहूर्तात्मकः सार्द्धत्रिंश हात्रिन्दिवात्मकः आदित्यो मासो भवतीति सार्द्धत्रिंशद्रात्रिद्विवानि 'राइंदियग्गेणं' गत्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः ‘ति वएज्जा' इति वदतु । नथाहि-सूर्यमासा युगे षष्टिः. ततो युगसम्बन्धिनां त्रिंशदधिकाष्टादश शतसंख्यानामहोत्राणां षष्टयभागे हते लभ्यन्ते सार्दास्त्रिंशदहोरात्रा इति । अथास्य मुहूर्तान् पृच्छतिता से गं' इत्यादि 'ता' तावत् 'से गं' सः आदित्यो मासः खलु 'केवइए' कियत्कः केयत्परिमितः 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण मुहूर्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! भगवानाह-'ता णव' इत्यादि 'ता' तावत् 'णव पण्णरसाइं मुहुत्तसयाई' नव पञ्चदशानि पञ्चदशाधिकानि नव मुहूर्तशतानि (९१५) 'मुहुत्ताग्गेणं' मुहूर्तपरिमाणेन . 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशेष्येभ्यः । तथाहि-सूर्यमासे परिमाणं साईत्रिंशदहोरात्रकम्, तच्चाहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्म कत्वात् त्रिंशता गुण्यते, जायन्ते पञ्चदशाधिकानि नव मुहूर्तशतानीति । अथादित्यसंवत्सरस्य सर्वाद्धां प्रदर्शयति-ता एस णं' इत्यादि. 'ता' तावत् 'एस णं' एषा सर्वरात्रिन्दिवरूपा सर्वमुहूर्तरूपा च 'अद्धा' अद्धा-कालः 'दुवालसखुत्तकडा' द्वादशकृत्वः द्वादशवारैर्गुणिता 'आइच्चे संवच्छरे' एक आदित्यः संवत्सरो जायते। अथास्य रात्रिन्दिवानि पृच्छति–'ता से गं' इत्यादि. 'ता' तावत् 'से गं' स खलु आदित्यः संवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवान् ! । भगवानाह-'ता तिन्नि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तिन्नि छावट्ठाई राइंदियसयाई' त्रीणि षट्पष्टानि षट्पष्टयधिकानि रात्रिन्दिवशतानि ( ३६६) 'राइंदिय ग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत स्वशिष्येभ्यः । तथाहि-आदित्यो मासः सार्द्धत्रिंशदानिन्दिवात्मकः- ते च मासा एकस्मिन् संवत्सरे द्वादशेति सात्रिंशद्वादशभिर्गुण्यन्ते जाता यथोक्ता संख्या एकस्यादित्यसंवत्सरस्य रात्रिन्दिवानामिति । अथास्य मुहूर्त्तसंख्या पृच्छति 'ता से णं' इत्यादि. 'ता' तावत् ‘से पं' Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे स खलु आदित्यः संवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण मुहूर्त परिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः एकस्यादित्यसंवत्सरस्य कति मुहूर्ता भवन्ति ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवान् ? भगवानाह 'ता दस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'दसमुहुत्तसहस्साई' दशमुहूर्तसहस्राणि 'नवअसीयाइं मुहुत्तसयाई' नव अशीतानि अशीत्यधिकानि नव मुहूर्तशतानि (१०९८०) 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण मुहूर्तपरिमाणेन 'आहिए' अख्यातः कथित: 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयतु स्वशिष्येभ्यः । तथाहि- एकस्यादित्यमासस्य पञ्चदशाधिकानि नवमुहूर्तशतानि (९१५) भवन्ति एकस्यादित्यसंवत्सर स्य द्वादश मासा भवन्तीति पञ्चदशाधिकनवशतमुहूर्ता द्वादशभिर्गुण्यन्ते जाता यथोक्ता मुहूर्त्तसंख्येति ।४। अथ पञ्चमाभिवतिसंवत्सरविषये प्राह-'ता एएसिणं इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएमिणं' एतेषां खलु नाक्षत्रादीनां 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये पंचमस्स अभिवढियसंवच्छरस्स' पञ्चमस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य 'अभिवढिए मासे' अभिवड़ितो मासः 'तीसइतीसइ मुहुत्तेणं' त्रिंशत्रिंशन्मुहूर्त्तकेन 'गणिज्जमाणे' गण्यमानः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथित: 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् । भगवानाह-'ता एक्कतीसं राइंदियाई' एकत्रिंशदात्रिन्दिवानि, 'एगूणतीसं च मुहुत्ता' एकोनत्रिंशच्च मुहूर्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'सत्तरसबावट्ठिभागा' सप्तदश द्वाषष्टि भागाः (एम.१७) 'राइंदिग्गेणं' रात्रेन्दिवाग्रेण ३१२९६२ रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहिअभिवर्द्धितसंवत्सरश्च त्रयोदशभिश्चान्द्रमासैभवति, चान्द्रमासपरिमाणम् एकोनत्रिंशद् रात्रिद्विवानि एकस्य च रात्रिद्भिवस्य द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागा (२९) एष राशिरभिवतिसंवत्सरस्य त्रयोदशमासात्मकत्वात् त्रयोदश भिर्गुण्यते, ततो यथासंभवं द्वाषष्टिभागै रात्रिन्दिवेषु जातेषु जातमिदम त्र्यशीत्यधिकानि त्रीण्यहोरात्रशतानि, एकस्याहोरात्रस्य च चतुश्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागः (३८३। 82) अभिवर्द्धितसंवत्सरपरिमाणम्। तत एतस्य राशे दशभिर्भागो हियते, तत्र प्रथमं त्र्यशोत्य धिकत्रिंशताहोरात्राणां द्वादशभिर्भागो हियते लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः (३१), शेषा स्तिष्ठन्तिएकादश, ते च मुहूर्तानयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि (३३०) येऽपिचोपरितनाश्चत्वारिंशद् द्वाषष्टि भागा रात्रिन्दिवस्य, तेऽपि मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि विंशत्यधिकानि त्रयोदश शतानि (१३२०) एषां द्वाषष्टया भागो हियते, लब्धा एकविंशति Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा. १२ सू. १. नक्षत्रादिसंवत्सरसंख्यादिकम् ४९९ मुहूर्त्ताः, शेषास्तिष्ठन्त्येकादश, तत्रैकविंशति मुहूर्त्ताः पूर्वोक्ते त्रिंशदधिकत्रिशतरूपे ( ३३०) मुहूतराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातास्ते एक पश्चाशदधिकत्रिशतमुहूर्त्ता: ( ३५१), एषां द्वादशभिर्भागे हूते लब्धा एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ताः (२९), शेषा स्तिष्ठन्ति त्रयः, ते च द्वाषष्टिभागानयनार्थे द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातं षडशीत्यधिकमेकं शतम् (१८६) अस्मिन् राशौ ये प्रागुक्ताः शेषीभूता मुहूर्त्तस्याष्टादशद्वाषष्टि भागास्ते प्रक्षिप्यन्ते जाते चतुरुत्तरे द्वे शते (२०४) अस्य राशे र्द्वादशभिर्भागो हियते लब्धा एकस्य सुत्तस्य सप्तदश द्वाषष्टि भागाः (१७) तत आगतं यथोक्तमभिवर्द्धितमासस्य रात्रिन्दिवपरिमाणम् रा. मु. ( ३१/२०/-) इति । अथास्य मुहूर्त्तान् पृच्छति' ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् " से णं' स १/६२ रूलु अभिवद्धितमासः ‘केवइए' कियत्कः कियत्परिमित: 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्त्ताग्रेण मुहूर्त्त परिमान 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् । भगवानाह 'ताणव' इत्यादि 'ता' तावत् 'णव एगूणसहाई मुहुत्तसयाई' नव एकोनषष्टानि एकोनषष्टधिकानि मुहूर्त्तशतानि 'सत्तरसावद्विभागा' सप्तदशद्वाषष्टिभागाः 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्त्तस्य (९५९ १९६२) 'मुत्तगणं' मुहूतप्रिण मुहूर्तपरिमाणेन ‘आहिए’ आख्यातः ‘तित्रएज्जा’ ७ इति वेदत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि–अभिवर्द्धितमासस्य त्रिदिवपरिमाणम् ३१|२९|६२ एकस्य रात्रिन्दिवस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् त्रिशता गुण्यते, तत्र पूर्वमेकत्रिंशद् रात्रिन्दिवानि त्रिंशता गुण्यते जातानि त्रिंशदधिकानि नवशतानि (९३०) मुहूर्त्तानाम्, अत्रोपरितना ये एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्तास्ते प्रक्षिप्यन्ते जाता एकोनषष्ट्यधिकनवशतमुहूर्त्ताः (९५९), ये उपरितनाः सप्तदश सप्तषष्टिभागाः ( १७ ) ते तथैव स्थिता इति समागताऽभिवर्द्धितमासस्य यथोक्ता ६७ ( ९५९ ६७ १९६७) मुहूर्त्तसंख्येति । अथाभिवर्द्धितसंवत्सरस्य कालमानमाह-‘ता एस णं' इत्यादि, 'ता तावत् 'एस णं' एषा खलु रात्रिन्दिवरूपा मुहूर्त्तरूपा च 'अद्धा' अद्धा काल: 'दुवालसखुत्तकडा' द्वादशकृत्वः कृता द्वादशवारैर्गुणिता 'अभिवढिए संवच्छ रे' एकः अभिवर्द्धितः अभिवर्द्धिताभिधः संवत्सरो भवतीति । अथास्य रात्रिन्दिवानि पृच्छति - ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सेणं' स खलु अभिवर्द्धितसंवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्ज्ग' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! भगवानाह— 'ता सिणि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तिण्णि तेसीयाई राई Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे दियसयाई त्रीणि त्र्यशीतानि त्र्यशीत्यधिकानित्रीणि रत्रिन्दिवशतानि, 'एक्कवीसं च मुहुत्ता' एक विंशतिश्च मुहूर्ताः, 'अद्वारसबावद्विभागा' अष्टादशद्वाषष्टिभागाः 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य ( रा. : ) 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः । ३८३।२१६२ 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि-अभिवर्द्धितमासस्य परिमाणं (३१।२९।७) संवत्सरस्य द्वादशसौरमासात्मकत्वाद् द्वादशभिर्गुण्यते, तत्र प्रथममेकत्रिंशदहोरात्र द्वादशभिर्गुण्यन्ते जातानि द्विसप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३७२) अहोरात्राणाम्, तत एकोनत्रिंशन्मुहूर्ता द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जातानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि त्रीणि शतानि (३४८) मुहूत्त नाम्, तत एकस्याहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वा दहोरात्रानयनार्थमेषां त्रिंशता भागो हियते, लब्धा एकादश अहोरात्राः एते पूर्वोक्तायाम् (३७२) अहोरात्रसंख्यायां प्रक्षिप्यन्ते जातं त्र्यशीत्यधिकं शतत्रयमहोरात्राणाम् (३८३), पूर्व त्रिंशता भागे हृते शेषाः स्थिता अष्टादश मुहूर्ताः, अथ च मे सप्तदश द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, तेऽपि द्वादशभिर्गुण्यते, जाते चतुरुत्तरे द्वे शते (२०४), एतस्य राशे षिष्टया भागो हरणीयः, हृते च भागे लन्धास्त्रयो मुहूर्ताः, ते प्राक्तनेषु शेषत्वेन स्थितेषु अष्टादशसु प्रक्षिप्यन्ते, तेन जाता एकविंशतिर्मुहूर्ताः (२१), द्वाषष्टया भागे हृते ये शेषा अष्टादश ते (१८) एकस्य मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागाः सन्ति, तत आगता यथोक्ता (३८३।२१।१८) सभिवद्धितसंवत्सरस्य रात्रिन्दिवानां संख्येति । अथास्य मुहूर्तान् पृच्छति 'ता से णं' इत्यादि 'ना' तावत् 'सेणं' स खलु अभिर्द्धितसंवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण मुहूर्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः । 'तिवएज्जा इति वदेत् वदतु हे भगवन् : । भगवानाह-'ता एक्कारस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एक्कारस मुहुत्तसहस्साई' एकादश मुहूर्त सहस्राणि, 'पंच य एक्कारसाइं मुहुत्तसयाई' पञ्च च एकादशानि एकादशाधिकानि पञ्च मुहर्तशतानि, 'अट्ठारसबावद्विभागा' अष्टादश द्वाषष्टि भागाः 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य(११५१११८) 'मुंहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण 'आहिए' आख्यातः कथितः ‘तिवएज्जा' इति वदेत् स्वामध्येभ्यः । तथाहि-अभिवतिसंवत्सरस्याहोरात्रादिपरिमाणम् (३८३।२१।१८) एकस्याहोरात्रस्य त्रिंश ६२ न्मुहूर्तात्मकत्वात् त्र्यशीत्यधिकं शतत्रयं त्रिंशता गुण्यते गुणयित्वा चोपरितना एकविंशति मुहूर्ता स्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो जायते यथोक्ता (११५१११६) मुहूर्त्तसंख्येति ॥ सूत्रम् १ ॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. २ पञ्चसंवताराणां संमेलने रात्रिंदिवपरिमाणम् ५०१ तदेव मुक्तं नाक्षत्रादिपञ्चसंवत्सरसत्कानां रात्रिन्दिवानां मुहूर्तानां च परिमाणम् , स म्प्रतम्-गते पञ्च संवत्सरा एकत्र संमिलिता यावत्प्रमाणा रात्रिन्दिवपरिमाणेन भवन्ति तावतो निर्दिशन्नाह–'ता केवइयं ते नोजुगे' इत्यादि । मूलम्ता केवई ते नोजुगे राइंदियग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता सत्तरस एकाण उयाइं राइंदियसयाई एगूणवीसं च मुहुत्ता, सत्तावणं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता पणपण्णं चुणिया भागा राईदियग्गेणं आहिया ति वएज्जा ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता तेपणं मुहुत्तसहस्साई, सत्त य एगणपन्नाई मुहुत्तसयाइं सत्तावणं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सत्तट्टिहा छित्ता पणपण्णं चुणियाभागा मुहुत्तग्गेणं आहिया ति वएज्जा । ता केवइए णं ते जुगप्पत्ते राईदियग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा।ता अट्टतीसं राइंदियाई दस य मुहुत्ता चत्तारि य बावट्ठिभागा मुहत्तस्स; वावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता दुवालसचुणिया भागा राइंदियग्गेणं आहिया ति वएज्जा । ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता एक्कारस पण्णासाई मुहत्तसयाई चत्तारिय बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सटिहा छित्ता दुवालसचु ग्णयाभागा मुहुत्तग्गेणं आहिया ति वएज्जा । ता केवइए जुगे राइंदियग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता चउपण्णं मुहुत्तसहस्साई णव य मुहुत्तसयाई मुहुत्तग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता चउत्तीस सयसहस्सयाई अतीस च बाट्ठिभागमुहुत्तसयाइं बावद्विभागमुहत्तग्गेणं आहिए ति वएज्जा ॥ सूत्रम् २॥ छाया- तावत् कियत्कं ते नोयुगं रात्रिन्दिवाओण आख्यातम् ? इति वदेत्, तावत् सप्तदश एकनवतानि रात्रिन्दिवशतानि, एकोनविंशतिश्च मुहूर्ताः सप्तपञ्चाशद द्वापष्टिभागाः, मुहूर्त्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तष्टिधा छित्त्वा पञ्चपञ्चाशच्चूर्णिका भागा रात्रि न्दिवाण आख्यातम्, इति वदेत् । तावत् तत् खलु कियत्कं मुहूर्ताग्रेण आख्यातम् ? इति वदेत्, तावत् त्रिपञ्चाशद् मुहूर्तसहस्राणि सप्तच एकोनपञ्चाशानि मुहूर्तशतानि सप्तपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वादष्टिभागं च सप्तचष्टिधा छित्त्वा पञ्च पञ्चाश. च्चर्णिका भागा मुहूर्ताग्रेण आख्यातम् इति वदेत् । तावत् कियत्कं खलु तद् युगप्राप्त त्रिन्दिवान अख्यातम् ? इति वदेत् तावत् अष्टात्रिंशद् रात्रिन्दिवानि दश च मुहूर्ताः चम्पारश्च द्वाप्टिभागा महतस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तषधिधा छित्वा द्वादश चर्णिका भागा रात्रिन्दिवाण आख्यातम् इति वदेत् । तावत् तत् खलु कियत्कं मुहू ग्रेण आख्यातम् ? इति वदेत् तावत् एकादश पञ्चाशतानि मुहूर्तशतानि, चत्वारश्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा द्वादश चूर्णिका भागा मुहूर्ताओण अख्यातम् इति वदेत् । तात् कियत्कं युगं रात्रिन्दिवाण आख्यातम् ? इति वदेत् । तावत् अष्टादश त्रिशानि राविन्दिवशतानि रात्रिदिवाण आख्यातम् इति वदेत् । तावत् तत् खलु कियत्कं मुहूर्ताओण आण्यातम् ? इति वदेत्, तावत् चतुस्त्रिंशत् शतशहस्राणि अष्टत्रिंशच्च द्वाषष्टिभाग मुहूत्तशतानि द्वाषष्टिभागमुहूर्ताग्रेण अख्यातमिति वदेत् ॥ सूत्र २॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे व्याख्या—'ता केवइ ते नो जुगे' इति 'ता' तावत् 'केवइए' कियत्कं कियत्प्रमाण 'ते' त्वया 'नोजुगे' नोयुगमिति,-नो शब्दोऽत्र देशतो निषेधवाचक इति किञ्चिन्यूनं युगमित्यर्थः 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण अहोरात्रप्रमाणेन 'आहियं' आख्यातम् ? नो युगस्य कियन्ति रात्रिन्दिवानि भवन्ति ? इति भावः । 'ति बएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ? भगवानाह-'ता सत्तरस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सत्तरस एकाणउयाई राइंदियसयाई' सप्तदश एकनवतानि एकनवत्यधिकानि-रात्रिन्दिवशतानि 'एगूणवीसं च मुहुत्ता' एकोन विंशतिश्च मुहूर्ताः 'मुहुत्तस्स' एकस्य च मुहूर्तस्य 'सत्तावणं बावद्विभागा' सपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः तथा 'बावट्ठिभागं च सत्तहिहा छित्ता' द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य तन्मध्यात् 'पणपणं' पञ्च पञ्चाशत् 'चुणिया भागा' चूर्णिका भागा राात्रान्द. | मु.५७५५) 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण अहोरात्रप्रमाणेन 'आहियं' आख्यातम् १७९१ ।१९६२६७ 'ति वएज्जा' इति वदेत् । नो युगं हि नाक्षत्रादि पञ्चसंवत्सरानधिकृत्य नाक्षत्रादि पञ्च संवत्सर गतरात्रिन्दिवपरिमाणानामेकत्रमीलने यथोक्ता नोयुगस्य रात्रिन्दिवसंख्या जायते, तथाहि नाक्षत्रादिपञ्चसंवत्सराणां परिमाणम् तत्र-नाक्षत्रसंवत्सरस्य परिमाणम्-सप्तविंशत्यधिकानि त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि, एकस्य च रात्रिन्दिवस्य एकपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः ( ३२७।-- (१) चान्द्रसंवत्सरस्य चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि, द्वादश च द्वाषष्टिभागा एकस्य रात्रिन्दिवस्य ( ३५४।१२) (२) ऋतुसंवत्सरस्य-षष्टयधिकानि त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि (३६०) ।३। सूर्यसंवत्सरस्य-षट्पष्टयधिकानि त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि (३६६) ।४। पचमस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य-त्र्यशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दिवानाम् एकविंशतिश्च मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टादश द्वाषष्टिभागाः (रात्रि. मु. १८), तत्र सर्वेषां रात्रिन्दिवानामेकत्र संमीलने ३८३।२१।६२" जातानि नवत्यधिकानि सप्तदशशतानि ( १७९०) । ये च एकस्य रात्रिन्दिवस्य एकपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागास्ते मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रिंश दधिकानि पञ्चदशशतानि ( १५३० ) तेषां सप्तषष्टया भागे हृते लब्धा द्वाविंशति मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्पञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः (२२ १६) । लब्धाः, ये द्वाविंशति त्रि म Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.२ पञ्चसंवत्सराणां संमेलने रात्रिदिवपरिमाणम् ५०३ मुहूर्तास्तेऽभिवतिसंवत्सरसम्बन्धिषु एकविंशतौ मुहूर्तेषु प्रक्षिप्यन्ते, प्रक्षिप्तेषु च एकविंशतिमुहूर्तेषु जातास्त्रिचत्वारिंशन्मुहूर्ताः (४३) अत्र त्रिंशता मुहूत्तरेकोऽहोरात्रो लब्धः स पूर्वोक्तेष्वहोरात्रेषु प्रक्षिप्यते जातानि एकनवत्यधिकानि सप्तदश शतानि (१७९१), शेषाः ये स्थितास्त्रयोदश मुहूर्ताः (१३) येऽपि चाहोरात्रस्य द्वदश द्वाषष्टि भागाः (-) तेऽपि मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि षष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६०), एषां द्वाषष्टया भागे हुते लब्धाः पञ्च मुहूर्तास्ते प्रागुक्तेषु त्रयोदशसु मुहूर्तेषु प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टादश मुहूर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति मुहूत्तस्य पञ्चाशद् द्वाषष्टि भागाः (५०), ततो येऽपि च मुहूर्तस्य षट् पञ्चाशत् सप्त षष्ठि भागाः (-) ते त्रैराशिकगणितेन द्वाषष्टिभागाः क्रियन्ते, तथाहि यदि सप्तषष्टया सप्तपष्टिभागै षिष्टि दृषिष्टि भागा लभ्यन्ते तदा षट् पञ्चाशता सप्तषष्टिभागै षिष्टिभागाः कियन्तो लभ्यन्ते, अत्र राशित्रयस्थापना क्रियते, ६७।६२।५६। अत्रान्तिमराशिना मध्यराशिगुण्यते, जातानि चतुर्विंशच्छतानि द्वासप्तत्यधिकानि (३४७२) एषामादिराशिना सप्तषष्टिरूपेण भागो हियते, लब्धा एक पञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः (५१) तें च पूर्वोक्तेषु शेषी भूतेषु पञ्चाशति द्वाषष्टि भागेषु प्रक्षिप्यन्ते, जातमेकोत्तरं शतम् (१०१), ततस्तन्मध्येsभिवर्द्धितसंवत्सरसम्बन्धिन उपरितना अष्टादश द्वाषष्टि भागाः प्रक्षिप्यन्ते जातं शतमेक मेकोनविंशत्यधिकम् (११९) द्वाषष्टि भागानाम्, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्च पञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः (-) पूर्वोक्तेषु एकोनविंशत्यधिकशत (११९) संख्यकेषु द्वाषष्टिभागेषु द्वाषष्टया द्वाष्ष्टिभागैरेको मुहूर्तों लभ्यते स च प्रागुक्तेष्वष्टादशसु मुहर्तेषु प्रक्षिप्यते, जातास्ते एकोनविंशति मुहूर्ताः (१९) शेषास्तिष्टन्ति सप्त पञ्चाशद् द्वाषष्टि भागाः (५७) तत आगतं यथोकं नो युगस्य रात्रिन्दिवपरिमाणम् । रात्रि द्विवामु. ५७५५ । ' १७९१ /१९/६२६७ अथ नोयुगस्य मुहूर्तान् पृच्छति-'ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘से ' तत् खलु नो युगं 'केवइए' कियत्कं कियत्परिमितं 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताप्रेण 'आहियं' आख्यातम् ? 'ति वएज्जा, इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! भगवानाह-'ता तेवण्णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तेवण्णं मुहृत्तसहस्साई त्रिपञ्चाशद् मुहर्त्तसहस्त्राणि 'सत्त य अउणापन्नाई मुहुत्तसयाई' सप्त च एकोन प चाशानि एकोन पञ्चाशदधिकानि मुहर्तशतानि, 'सत्तावणं बावद्विभागा' सप्तपञ्चाशद् द्वाषष्टि Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे भागाः 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य, तथा 'बावद्विभार्ग च सत्तढिहा छित्ता' द्वाषष्टि भागं च सप्तष्टिधा छित्त्वा विभज्य ‘पणपण्णं चुणिया भागा' पञ्चपञ्चाशत् चूर्णिका भागाः सप्त ष्टिभागाः (५३७४९५७-१) 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण 'आहियं आख्यातम् ‘ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्य इति। तथाहि अत्र पूर्वोक्तं रात्रिन्दिवपरिमाणं (१७९१) एकस्य रात्रिन्दिवस्य त्रिशन्मुहूर्तात्मकत्वात् त्रिंशता गुणयित्वा तस्मिन् तदुपरिस्थाः शेषमुहूर्ता एकोनविंशतिः (१९) प्रक्षिप्यन्ते, शेषाः द्वाषष्टि भागाः (१) सप्तषष्टिभागाश्च (५५) ते एव स्थापनीयास्तत आगच्छति यथोक्तं युगस्य मुहूर्तपरिमाणम् (५३७४९ १७५७) इति । अथ परिपूर्णयुगविषये पृच्छति-'ता केवइएणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'केवइएणं' कियत्कं खलु 'ते' ते तव मते 'जुगप्पत्ते' युगप्राप्तं परिपूर्ण युगं 'राइंदियग्गेणं' रा वन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातं कथितम् ? कियद्रात्रिन्दिवप्रक्षेपणेन तदेव नो युगं परिपूर्ण, युगं भवतीति भावः ‘ति वएज्जा' इति वदेत् , इति कथयतु हे भगवन् ! भगवानाह -- 'ताअद्वतीसं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अद्वतीसं राइंदियाइं अष्टत्रिंशद् रात्रिन्दिवानि 'दस य मुहुत्ता' दश च मुहूर्ताः 'मुहत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य चत्तारि य पावट्ठिभागा' चत्वारश्च द्वापष्टिभागाः तथा 'बावद्विभागं च' एकं द्वाषष्टिभागं च 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'दुवालसचुण्णिया भागा' द्वादशचूर्णिका भागाः सप्तष ष्टभागाः ( रात्रिमु०-१२) 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण एतावद् रात्रिन्दिवानां संमेलनेन 'आहिए' - ३८१०६२/६७ अख्यातम् पूर्वोक्ते नो युगपरिमाणे एतावद्रात्रिन्दिवादिप्रक्षेपणेन परिपूर्ण त्रिंशदधिकाष्टादाशतरात्रिन्दिवात्मकं (१८३०) युगं भवतीति भावः 'ति वएज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्व शिष्येभ्य इति । अथ नो युगे कियत्परिमित मुहूर्त्तप्रक्षेपणेन परिपूर्ण युगं मुहूर्तपरिमाणेन भवति ? इति पृच्छति-ता से णं' इत्यादि 'ता' तावत् ‘से णं' तत् खलु परिपूर्ण युगं 'केवइए' कियत्कं कियत्परिमितं 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण 'आहिए' आख्यातम् ! परिपूर्णयुगस्य कियन्तो मुहूर्ता भवन्ति ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! भगवानाह-'ता एक्कारस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एक्कारसपण्णासाइं मुहुत्तसयाई' एकादश पञ्चाशानि पञ्चाशदधिकानि एकादश मुहूर्तशतानि (११५०) 'चत्तारिय बावट्ठिभागा' चत्वारश्च द्वाष्टिभागाः (3) मुहुत्तस्स' एकस्य Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.२ पञ्चसंवत्सराणांसंमेलनेरात्रिंदिवपरिमाणम् ५०५ मुहूर्त-य, तथा 'बावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता' एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्वाविभज्य तत्सत्काः ‘दुवालस चुण्णिया भागा' द्वादश चूर्णिका भागाः सप्तषष्टिभागाः (११५० ।- ४१२) 'मुहत्तग्गेणं' मुहूत्र्ताप्रेण प्रक्षेप्य मुहूर्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातं - कथितम् नो युगमुहूर्त्तादिषु एतावन्मुहूर्त्तादि प्रक्षेपणेन परिपूर्ण युग मुहूर्तपरिमाणेन भवति । तथा हे-नोयुगप्रक्षेप्याणामष्टात्रिंशतो रात्रिन्दिवानां रात्रिन्दिवस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् त्रिंशता गुणने शेषम्हादिप्रक्षेपे च यथोक्तं (११५० ४-) नोयुगम् प्रक्षेप्य मुहूर्त्तादिपरिमाणं भवति । एतेषां (११५०+४।१२) नोयुगमुहूर्तादिपरिमाणे (५३७४९ १९३) प्रक्षेपणेन परिपूर्ण युग-य मुहूर्तस्य परिमाणं नवशताधिकानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि (५४९००) मुहूर्तानां भवति । एष मेकस्य रात्रिन्दिवस्य त्रिशन्मुहूर्तात्मकत्वात् त्रिंशता भागहरणे यथोक्तं परिपूर्णयुगरात्रिन्दिवपरिमाणं (१८३०) जायते, इति । तदेव सूत्रकारः प्रदर्शयति- 'ता केवइयं' इत्यादि, 'ता' तात् 'केवइयं' कियत्कं कियत्परिमितं 'जुगे' युगं परिपूर्ण युगं 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिव परिमाणेन 'आहिए' आख्यातम् ‘ति वएज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भरधन् ? । भगवानाह-'ता अट्ठारस' इत्यादि 'ता' तावत् 'अट्ठारसतीसाई राइंदियसयाई' मायादश त्रिंशानि त्रिंशदधिकानि अष्टादश रात्रिन्दिवशतानि (१८३०) 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण परिपूर्ण युगं 'आहिए' आख्यात कथितम् 'ति वएज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्व शिष्येभ्य इति । अथ परिपूर्णयुगस्य मुहूर्तपरिमाणविषयकं प्रश्ननिर्वचनसूत्रमाह-'ता से णं केवइए' इ यादि, 'ता' तावत् ‘से थे' तत्खलु परिपूर्ण युगं 'केवइए' कियत्कं कियत्परिमितं 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण 'आहियं' आख्यातं 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन ! भगवानाह- 'ता चउप्पणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चउप्पण्णं मुहुत्तसहस्साई' चतुष्पञ्चाशन्मुहूर्त्तसहस्राणि 'गवयमुहुत्तसयाई' नव च मुहूर्तशतानि (५४९००) 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण 'आहिए' आख्यातम् "ति वएज्जा इति वदेत् स्वशिष्येभ्य इति । ६४ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ युगनाम नोयुगे परिपूर्ण युगे एतत्कोष्ठकम् रात्रिन्दिवमुहूर्त्तादि परिमाणम् रात्रिन्दिवानि मुहूर्त्ताः भागा ५७५५ १७९१ १९ ६२६७ नो युगे प्रक्षेप्याः रात्रिन्दिवादिभागाः रात्रिः मु १२ ३८ १०७२/६७ सम्पूर्णानि रात्रिन्दिवानि १८३० मुहूर्त परिमाणम् ५३७४९ ६२ ६७ युगमुहूर्तेषु प्रक्षेप्य मुहूर्त्तादि ४ १२ ११५० ૬૨૦૬૭ सम्पूर्णा मुहूर्त्ताः ५४९०० चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे साम्प्रतं परिपूर्णयुगविषयकमेव मुहूर्त्तगत द्वाषष्टिभागपरिमाणपरिज्ञानविषयकं सूत्रमाह'ता से णं केवइए' इत्यादि, 'ता' तावत् 'से णं' तत्खलु परिपूर्णं युगं 'केवइए' कियत्कं 'बावट्टिभागमुहुत्तग्गेणं' द्वाषष्टिभागमुहूर्त्ताग्रेण मुहूर्त्तगतद्वाषष्टिभागपरिमाणेन 'आहिए आख्या - तम् ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ! भगवानाह - 'ता चउत्तीस' इत्यादि 'ता' तावत् ' चउतीस सयसहस्साई' चतुस्त्रिंशच्छतसहस्राणि चतुस्त्रिंशल्लक्षाणि 'अडतीस च बावट्टिभागमुहुत्तसयाई' अष्टत्रिंशच्च द्वाषष्टिभागमुहूर्त्तशतानि त्रीणि सहस्राणि अष्टशतानि चेत्यर्थः (३४३८००) 'बावद्विभागमुहुत्तग्गेणं' द्वाषष्टिभागमुहूर्त्ताग्रेण 'आहिए' आख्यातम् 'ति वज्जा' इति वदतु स्वशिष्येभ्यः । अयं भावः - नवशताधिक चतुष्पञ्चाशन्मुहूर्त्तस्हस्राणाम् (५४९००) द्वाषष्ट्या गुणने भवति यथोक्ता परिपूर्णयुगस्य द्वाषष्टिभागसंख्येति ॥सूत्रम् २॥ पूर्वं नोयुगस्य परिपूर्ण युगस्य च रात्रिन्दिवादिपरिमाणं प्रदर्शितम्, साम्प्रतमादित्यचन्द्रादिसंवत्सराः कदा समादिकाः समपर्यवसानाश्च भवन्ति इति प्रदर्शयन्नाइ – 'ता कयाणं एए' इत्यादि । मूलम् ता कया णं एए आइच्चचंद संवच्छरा समादिया समपज्जवसिया आहिया ? ति वज्जा । ता सट्ठी एए आइचमासा बावट्ठी एए चंदमासा, एस णं अद्धा छत्तकडा दुवालसमइया तीसं एए आइच्चसंवच्छरा, एक्कतीसं एए चंदसंवच्छरा समादिया समपज्जवसिया आहिया तिवज्जा । ता कयाणं एए आइच्च उउचंदाक्खत्ता स्वच्छ समादिया समपज्जवसिया आहिया । ति वएज्जा, ता सट्टी एए आइचचमासा, उमासा, बावट्ठि एए चंदमासा सत्तट्ठी एए नक्खत्तमासा एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा दुवालसभइया सट्ठि एए आइच्या संवच्छरा, एगट्ठी एए उउच्छरा, बाaat एए चंदा संवच्छरा, सत्तट्टी एए नक्खता संवच्छरा, तया णं, एए आइच्च उउचंद नक्खत्तंसवच्छरा समादिया समपज्जवसिया आहिया ति वएजा । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू०२ संवत्सराणाम् समादिसमपर्यवसानम् ५०७ ता कयाणं एए अभिवढियआइच्च-उउ-चंद-णक्खत्तसंवच्छरा समादिया समपज्जवसिया अहिया ? ति वएज्जा । ता सत्तावण्णं मासा सत्तय अहोरत्ता, एक्कारस ग मुहुत्ता, तेवीसं बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स (५७।७।११।२३ एए अभिवढियमासा सट्ठी एए आदिच्चमासा, एगट्ठी एए उउमासा, बावट्ठी एए चंदमासा, सत्तट्ठी एए नक्खत्तमासा, एस णं अद्धा छप्पण्णतयखुत्तकडा दुवालसभइया सत्तसया चोयाला, एएणं अभिवड्ढिय संवच्छरा, सत्तसया असीया, एएणं आइच्च संवच्छरा, सत्तसया ते णउया एएण' उउसंवच्छरा, अट्ठसया छलुत्तरा, एएणं चंदसंवच्छरा, एगसत्तरी अट्ठसया, एएणं नक्खत्तसंबच्छरा, तयाणं एए अभिवढिय-आइच्च-उउ-चंदनक्खत्तसंवच्छरा समादिया समपज्जवसिया आहिया ति वएज्जा । ता णयट्ठयाए णं चंदे संवच्छरे तिण्णिचउप्पणाइंदियसयाई दुवालस य बावट्ठिभागा राइंदियस्स आहिया ति वएज्जा ता अहातच्चे चंदे संवच्छरे तिण्णि चउप्पणाई दियसयाइं पंच य मुहुत्ता, पण्णासंच बावद्विभागा मुहुत्तस्स आहिया तिवएज्जा ॥ सू० ३ ॥ छाया-तावत् कदा खलु एते आदित्यचन्द्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आख्याताः ? इति वदेत् । तावत् षष्टिः एते आदित्यमासाः, द्वाषष्टिः एते चन्द्रमासाः, एषा वलु अद्धा षट्कृत्वः कृता द्वादशभक्ताः त्रिंशद् एते आदित्यसंवच्छराः एकत्रिंशद् एते चन्द्रसंवच्छरा, तदा खलु एते आदित्यचन्द्रसंवच्छरा समादिकाः समपर्यवसिता आख्याता इति वदेत् । तावत् कदा खलु पते आदित्य ऋतु चन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपरावसिता आख्याताः ? इति वदेत् । तावत् षष्टिः पते आदित्यमासाः, एकषष्टिः एते ऋतुमासाः, द्वाषष्टिः एते चन्द्रमासाः, सप्तषष्टिः एते नक्षत्रमासाः, एषा खलु अद्धा द्वादशकृत्वः कृता द्वादशभक्ताः पष्टिः आदित्याः संवत्सराः, एकषष्टिः एते ऋतु संवत्सराः, द्वाषष्टिः एते चान्द्राः संवत्सराः सप्तषष्टिः पते नाक्षत्राः संवत्सराः, तदा खलु एते आदित्य ऋतु चन्द्र नक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता इति वदेत् । तावत् कदा खलु एते अभिवद्धिता ---ऽऽदित्य-ऋतु-चन्द्र नक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आख्याताः ? इति वदेत् तावत् सप्तपञ्चाशद् मासाः, सप्त च अहोरात्राः, एकादश च मुहूर्ताः, त्रयोविंशति र्षाि भागा मुद्दत स्य. एते अभिवद्धितमासाः पतिः, पते आदित्यमासा, एकष्टिः, पते ऋतुम माः, द्वाषष्टिः एते चन्द्रमासाः, सप्तषष्टिः एते नक्षत्रमासाः एषा खलु अद्धा षट् पञ्चा शञ्छ र कृत्वः कृता द्वादशभक्ता सप्तशतानि चतुश्चत्वारिंशानि, पते खलु अभिवद्धितसंव. त्सराः, सप्तशतानि त्रिनवतानि, पते खलु ऋतु संवत्सराः, अष्ट शतानि षडुत्तराणि, एते खलु न्द्रसंवत्सराः एकसप्ततानि अष्टशतानि, पने खलु नक्षत्रसंवत्सराः तदा खल पते अभिवद्धिता-ऽऽदित्य-ऋतु-चन्द्र-नक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आख्याता इति पदेत् । तावत् नयार्थतया खलु चान्द्रः संवत्सरः त्रीणि चतुष्पञ्चाशानि रात्रिन्दिव Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे शतानि, द्वादश द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य आख्याता इति वदेत् । तावत् याथातथ्येन चान्द्रः संवत्सरः त्रीणि चतुष्पञ्चाशानि रात्रिन्दिवशतानि, पञ्चच मुहूर्ताः, पनाशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य आख्याता इति वदेत् ॥ सूत्रम् ३॥ व्याख्या--'ता कया णं एए' इति 'ता' तावत् 'कया णं' कदा कस्मिन् काले खलु 'आइच्चचंदसंवच्छरा' आदित्यचन्दसंवत्सरा 'समादिया' समादिकाः समप्रारम्भाः 'समपज्जवसिया' समपर्यवसिताः समानपर्यवसानवन्तः आहिया' आख्याताः कषिताः ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ? भगवनाह --'ता सट्ठी' इत्यादि 'ता' तावत् 'सही' षष्टिः, 'एए' एते पूर्वोक्ताः षष्टि संख्यका एक युगान्तर्वर्तिनः ‘आइच्च पासा' आदित्यमासाः भवन्ति, तथा 'बावट्ठी' द्वाषष्टिः, 'एए' एते पूर्वोक्ताः द्वाषष्टिसंख्यक एक युगान्तर्वर्तिनः 'चंदमासा' चन्द्रमासा भवन्ति । ततः 'एस णं' एषा खलु प्रत्येकं अद्धा' अद्धा-कालः 'छखुत्तकडा' षटूकृत्वः कृता षड्वारं कृता अत्र षण्णां युगानां विवक्षा, इह पड्सु युगेषु समानपर्यसानसद्भावात् , अतः षड्भिर्गुणिता ततः 'दुवालसभइया' द्वादः भक्ता द्वादशभागहृता द्वादशभिर्भागे हृते 'तीसं एए' त्रिंशदेते (३०) 'आइच्च संवच्छरा' आदित्य संवत्सरा भवन्ति 'एक्कतीसं एए' एकत्रिंशच्च (३१) एते 'चंद संवच्छरा' चन्द्र संवत्सरा भवन्ति । सूर्यस्य त्रिंशत्संवत्सरपरिपूर्णकाले चन्द्रस्य एकत्रिंशत् संवत्सराः परिपूर्णा वन्तीत्यतआह-'तया गं' इत्यादि 'ता' तावत् 'तया णं' तदा तस्मिन् एतावतिकालेऽतिक्रान्त खलु 'एए' एते 'आइच्चचंदसंवच्छरा' आदित्यचन्द्रसंवत्सराः 'समादिया' समादिकाः समं समानः आदिः प्रारम्भो येषां ते समादिकाः समानादिमन्तः तथा 'समपज्जव सया' समपर्यवसिताः समपर्यवसानवन्तो भवन्ति । अयं भावः-एते आदित्यचन्द्रसंवत्सरा विवशतस्य युगस्यादौ समप्रारम्भ प्रारब्धा सन्तस्तत आरभ्य षष्ठयुगपर्यवसाने समपर्यवसानवन्तो भवन्ति । तथाहि-एकस्मिन् युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सराः, द्वौ चाभिवद्धितसंवत्सरौ, तौ च प्रत्येकं त्रयोदश मासात्मकौ, ततः प्रथमयुगे पञ्च चन्द्रसंवत्सराः, द्वौ च चन्द्रमासौ, द्वतीये युगे दशचन्द्रसंवत्सराः, चत्वारश्च चन्द्रमासाः, एवं प्रतियुगं मास द्विकवृद्धया षष्ठे युगे द्वादशमासात्मक एकः संवत्सरो वर्धते तेन षष्ठयुगपर्यन्ते परिपूर्णा एकत्रिंशच्चन्द्रसंवत्सरा लभ्यन्ते । तथाहि-एकस्मिन् युगे आदित्यमासाः षष्टिः प्रोक्ताः तेषां षड्भिर्गुणने जातानि षष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (६०) मासानाम् । एषां द्वादशमासैरेकः संवत्सरो भवतीति, द्वादशभिर्भागे हृते त्रिंशत् संवत्सरा लम्यन्ते । तत एकस्यादित्यसंवत्सरस्य घटूषष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६६) दिनानि भवन्तीत्यत एषां त्रिंशता गुणने जायन्ते दशसहस्राणि अशीत्यधिकानि नवशतानि (१०९८०) दिनानामिति । तथा चन्द्रमासा द्वाषष्टिः (६२), एते षड्भिर्गुण्यन्ते जाता द्वासप्तत्यधिक शतत्रयमासाः (३७२, एषां संवत्सरानयनार्थ द्वादशभिर्भागो हियते लब्धा एकत्रिंशत् (३१) संवत्सराः । कस्य Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. ३ संवत्सराणाम् समादिसमपर्यवसानम् ५०९ चन्द्रसंवत्सरस्य दिनानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रिशतानि एकस्य दिनस्य द्वादश द्वाषष्टिभागा ( ३५४।१२ ) एषामेकत्रिंशता गुणने जायन्ते दशसहस्राणि अशीत्यधिकानि नवशतानि दिना न म् (१०९८०) एवं जाता आदित्यचन्द्रसंवत्सरयोदिवसानां समानता । इयत्सु दिवसेषु व्यतिक्रान्तेषु द्विप्रकाराणां संवत्सराणां पर्यवसानं भवतीति ते समपर्यवसिता भवन्तीति । अथादिर ऋतु चन्द्र नक्षत्रेति संवत्सरचतुष्टयविषये पृच्छति-'ता कयाणं एए आइच्च' इत्यादि 'ता' तावत् 'कयाणं' कदा खलु 'एए' एते वक्ष्यमाणा: 'आइच्च-उउ-चंद-णक्खत्तसंवच्छरा' आदित्य ऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः चत्वारोऽपि 'समादिया' समादिकाः समानादिमन्तः 'समपज्जवसिया' समपर्यवसिताः समानपर्यवसानवन्तः 'आहिया' आख्याताः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ? । भगवानाह-'ता सहि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सट्ठी' षष्टिः (६०) 'एए' एते एकयुगान्तर्वर्तिनः ‘आइच्चमासा' आदित्यमासाः । 'एगढि' एकषष्टिः (६१) 'एए' एते एकयुगान्तर्वर्तिनः 'उउमासा' ऋतुमासाः । 'बावट्ठी' द्वाषष्टिः (६२) एते । कयुगान्तर्वर्तिनः 'चंदमासा' चन्द्रमासाः ‘सत्तट्टि' सप्तषष्टिः (६७) ६०-षष्टिरादित्यगमाः । ६१-एकषष्टि ऋतुमासाः। ६२-द्वाषष्टिश्चन्द्रमासाः । ६७-सप्तषष्टिनक्षत्रमासाः। 'एए' एते । कयुगान्तत्तिनः 'नक्खत्तमासा' नक्षत्रमासाः ‘एसणं' एषा प्रत्येकं खलु अद्धाकालरूपा 'दुवालमखुत्तकडा' द्वादशकृत्वः कृता अत्र द्वादशभिर्युगैः समानपर्यवसानसद्भावात् द्वादशभिर्गुणिते। यर्थः, ततश्च 'दुवालसभइया द्वादशभक्ता द्वादशभागता 'सट्ठी' षष्टिः षष्टिसंख्यकाः 'एए' एते द्वादशयुगसम्बन्धिनः 'आइच्च संवच्छरा' आदित्यसंवत्सराः । एवं 'एगहि' एकषष्टिः एए' एते 'उउसंवच्छरा' ऋतुसंवत्सराः । एवं 'बावट्ठी' द्वापष्टिः ‘एए' एते 'चंदसंवच्छरा' चन्द्रसंवच्छराः । 'सत्तट्ठी' सप्तषष्टिः 'एए' एते 'नक्खत्तसंवच्छरा' नक्षत्रसंवत्सराः एषा संवत्सरसंख्या प्रत्येकं द्वादशयुगातिक्रमे भवतीत्यर्थः । अयं भावः-एते चत्वारोऽपि संवत्सराः ववक्षित युगस्यादौ समादिकाः समारब्धप्रारम्भाः सन्तस्तत आरभ्य द्वादशयुगपर्यन्ते समपर्यवासाना भवन्ति, द्वादशयुगेभ्योऽर्वाक् एषां चतुर्णा संवत्सराणां मध्यादन्यतमस्य कतिपयमासानामधिक तयाऽवश्यम्भावेन सर्वेषां युगपत् समपर्यवसानत्वासंभवात् । अथैषां प्रत्येकं दिनसमानता गणितेन प्रदर्श्यते -पूर्व चतुणी संवत्सराणामेक युगान्तर्वर्तिमाससंख्याप्रदर्शिता एषा प्रत्येकमाससंख्या द्वादशभिर्गुणिता पुनश्च द्वादशभिर्विभक्ता क्रियते ततः संवत्सरा आयान्ति, तत्र द्वादशसु युगेषु पष्टिगदित्य संवत्सराः (६०), एकषष्टि ऋतुसंवत्सराः (६१), द्वाषष्टिश्चन्द्रसंवत्सराः (६२) सप्तषष्टिश्चनक्षत्रसंवत्सराः (६७) लभ्यन्ते । तत्रैकस्मिन् युगे आदित्यमासाः षष्टिः (६०), एषां द्वादशभिर्गुणने विंशत्यधिकानि सप्तशतानि (७२०), एषां द्वादशभिर्भागे हत्ते द्वादशसु युगेषु पाष्टरादित्यसंवत्सराः (६०) लब्धाः । तत एकस्यादित्यसंवत्सरस्य षषष्टयधिकानि त्रीणि Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे शतानि (३६६) दिनानां भवन्ति, एते द्वादशयुगसम्बन्धिनः षष्टिरादित्यसंवत्सरा इति षष्ट्या गुण्यन्ते, गुणिते च लभ्यन्ते-एकविंशतिः सहस्राणि, नवशतानि, षष्टाधिकानि (२१९६०) आदित्यसंवत्सरदिनानीति । एवं द्वादशसु युगेषु ऋतु संवत्सरा एकषष्टिः, एकस्य ऋतुसंवत्सरस्य पष्टयधिकान त्रीणि शतानि (३६०) दिनानि भवन्ति, एषामेक षष्टया - (६१) गुणने कृते लभ्यन्ते तान्येव (२१९६०) ऋतुसंवत्सरदिनानीति एवं द्वादशर युगेषु चन्द्र संवत्सराः द्वापष्टिः (६२), एकात्य चन्द्र संवत्सरस्य चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि दिनानि, एकस्य दिनस्य च द्वादश द्वापष्टि भागाः ( ३५४।१ ), एषां द्वाषष्टया गुणने ५१ लभ्यन्ते पूर्वोक्त तुल्यानि (२१९६०) चन्द्रसंवत्तरदिनानीति । एवं द्वादशसु युगेषु सप्तषष्टि (६७) नक्षत्रसंवत्सराः, एकस्य नक्षत्रसंवत्सरस्य सप्तविंशत्यधिकानि त्रीणि शतानि दिनानाम् एकम्य च दिनस्य एकपञ्चाशत् सप्तपष्टि भागाः (३२७/- ), एषां सप्तषष्ट्या गुण ने जायन्ते तान्येव (२१९६०) नक्षत्रसंवत्सरदिनानीति । इयत्सु समानेषु दिवसेषु व्या रकान्तेषु चतुर्णामपि संवत्सराणां समानत्वेन पर्यवसानं भवतीति । अथाभिवद्धितादि पञ्चसंवत्सरविषये गौतमः पृच्छति-'ता कयाणं' इत्यादि ‘ता तावत 'कया णं' कदा खलु 'एए' एते पञ्च वक्ष्यमाणाः 'अभिवढिय आइच्च-चंद-गक्खत्तसंवच्छरा' अभिवर्द्धितादित्य-ऋतु----चन्द्र-नक्षत्रसंवत्सराः 'समादिया' समादिकाः समानादिमन्तः 'समपज्जनसिया' समपर्यवसिताः समानपर्यवसानवन्तः 'आहिया' आख्याताः क थताः ? 'तिवएज्जा ' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! । एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह -'ता'सत्तावणं' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘सत्तावण्णं मासा' सप्तपञ्चाशत् मासाः ‘सत्त य अहोरत्ता' सप्तचाहोरात्राः, 'एक्कारम य मुहुत्ता' एकादश च मुहूर्ताः 'तेवीसं बावद्विभागा मुहुत्तरस' एकस्यमुहूर्तस्य त्रयोविंशति पिष्ठिभागाः ( ५७।७।११ । २१ ) 'एए' एते अनुपदं प्रदर्शिताः 'अभिवढियमासा' अभिवर्द्धितमासा एक युगान्तर्वर्तिनः सन्ति । 'सट्ठी' पष्टिः षष्टि संख्यका (६०) 'एए' एते 'आइच्चमासा' आदित्यमासाः । 'एगहि' एकषष्टिः (६१) 'एए' एते 'उउमासा' ऋतुमासाः । 'बावट्ठी' द्वाषष्टिः (६२) 'एए' एते 'चंदमासा' चन्द्रगासाः । 'सत्तट्ठी' सप्तषष्टिः (६७) 'एए' एते ‘णक्खत्तमासा' नक्षत्रमासाः एते एक युगान्तर्वर्तिनोऽभिवद्धितादित्य ऋतुचन्द्रनक्षत्रमासाः प्रत्येकं प्रोक्ताः, साम्प्रतमेषां प्रत्येकं समादिसमपर्यवसान संवत्सरानयनविधिं प्रदर्शयति-'एस णं' इत्यादि, 'एस णं एषा पूर्वप्रदर्शिता 'अद्धा' अद्धा प्रत्येकस्य एक युगान्तर्वेर्तिमासरूपः कालः प्रत्ये कस्ट मासा Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.३ संवत्सराणां समादिसमपर्यवसामम् ५११ इत्य थेः 'छपण्णसयखुत्तकडा' षट्पञ्चाशच्छतकृत्त्वः कृता षट्पञ्चाशच्छतगुणिता 'दुवालसभइया' द्वादशभिर्हतभागा, षट्पञ्चाशदधिकशतेन गुणितानामभिवद्धितादिमासानां द्वादशभिर्भागे हते या या संख्या लभ्यते सा सा संख्या अभिवद्धितादिसंवत्सराणां प्रत्येकस्य संख्या भवति । तामेव संख्यां प्रदर्शयति-'सत्तसया चोयाला' सप्तशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि संवत्सराणाम्, 'एएणं' एते (७४४) खल्ल 'अभिवढियसंवच्छरा' अभिवर्द्धितसंवत्सरा भवन्ती त । आदित्य सवत्सरानाह-'सत्तसया असीया' सप्तशतानि अशीत्यधिकानि (७८०) 'एएणं' एते खलु 'आइच्चसंवच्छरा' आदित्य संवत्सरा भवन्ति । ऋतुसंवत्सरानाह--'सत्तसया तेणउया' सप्तशतानि त्रिनवत्यधिकानि (७९३), 'एए णं' एते खलु 'उउसंवच्छरा' ऋतुसंवत्सरा भवन्ति । चन्द्रसंवत्सरानाड्-'अट्ठसया छलुत्तरा' अष्टशतानि षडुत्तराणि (८०६) 'एएणं' एते म्खलु 'चंदसवच्छरा' चन्द्रसंवत्सरा भवन्ति । नक्षत्रसंवत्सरानाह-'एगसत्तरीअट्ठसया' एकसप्तत्यधिकानि अष्टशतानि (८७२) 'एए णं' एते खलु 'नक्खत्तसंवच्छरा' नक्षत्रसंवत्सरा भवन्ति । एते पञ्चापि संवत्सराः स्वस्व प्रमाणमाश्रित्य यदा परिपूर्णा भवेयुः, 'तया णं' तदा खलु एए' एते 'अभिवढिय-आइच्च-उउचंद-णक्खत्तसंवच्छरा' अभिवर्द्धितादित्य ऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः 'समादिया-समपज्जवसाणा' समादिकाः समपर्यवसाग: एक कालिकादिपर्यवसानवन्तः 'आहिया आख्याताः एते कालसाम्यमाश्रित्य षट्पञ्चाशदधिकशत (१५६) संख्यकेषु युगेषु परिपूर्णेषु सत्सु परिपूर्णा भवन्तोति विवेकः । 'तिवएज्ना' इति वदेत् स्वशिष्येभ्य इति एषां पञ्चानां सवत्सराणां मध्यात् एकैकयुगसम्बन्धिनो मासान् सूत्रोक्तविधिना पट्पञ्चाशदधिकशतेन गुणयित्वा द्वादशभिर्भागे हूते पटूपञ्चाशदधिकशतसंख्यकयुगसम्बन्धिनः प्रत्येकस्य संवत्सरा समायान्ति । षट्पञ्चाशदधिकशतसंख्यक युगैरव पूर्वोक्ताभिवर्द्धितादिसंवत्सराणां समादि समपर्यवसानसद्भावादिति । अथैषां संवत्सर संख्या गणितेन प्रदर्श्यते तद्विधिर्यथा एकयुगवर्तिनोऽभिवर्द्धितमासाः सूत्रोक्ताः सप्तपञ्चाशत्-अहोरात्राः, एकादश मुहूर्ताः, त्रयोविंशतिश्च द्वाषष्टि भागाः (५७-७-१ २)। एते षट्पञ्चाशदधिकशतेन (१५६) गुण नोया भवन्ति, तत्र-प्रथमं सप्तपश्चाशत् षट्पञ्चाशदधिकेन शतेन गुन्यन्ते, जायन्ते-अष्टसहस्राणिअष्ट शतानि द्विनवत्यधिकानि-८८९२ एते मासा जाताः । ततः सप्तअहोरात्राः षट्पञ्चाशदधिक शतेन गुण्यन्ते, जातानि द्विनवत्यधिकानि दश शतानि--१०९२, एतेऽहोरात्रा जाताः । तत एकादश मुहूर्ताः षट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते जातानि-पोडशाधिकानि सप्तदश-शतानि–१७१६ एते मुहूर्ता जाताः । ततः त्रयोविंशतिः द्वाषष्टिभागाः षट्पश्चाशदधिक शतेन गुण्यन्ते, जातानि Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे मासा पञ्चत्रिंशच्छानि अष्टाशीत्यधिकानि-३५८८, एते. द्वाषष्टिभागाः जाताः-यथा--- ८८९२ अहोरात्राः मुहूर्ताःद्वाषष्टिभागाः| प्रथमं द्वाषष्टि भागानां (३५८८) मुहूर्तानयनाथ द्वाषष्ट्या की १०९२ १७१६।३५८८ । भागो हियते, लब्धाः सप्तपञ्चाशत् (५७), एते मुहूर्तराशौ (१७१६) प्रक्षिप्यन्ते जाला मुहूर्ताः सप्तदशशतानि त्रिसप्तत्यधिकानि (१७७३) मुहूर्ताः भवन्ति, शेषा ये चतुष्पञ्चाशत् (५१) तेऽधुना स्थाप्या । एषां मुहूर्तानां (१७७३) अहो रात्रानयनाथ त्रिंशता (३०) भागो हि ते लब्धाः एकोनषष्टिः (५९) अहोरात्राः, एतेऽहोरात्रसंख्यायां (१०९२) प्रक्षिप्यन्ते जातानि-एकादश शतानि एक पञ्चाशदधिकानि (११५१) अहोरात्राः, शेषीभूता ये त्रयास्ते एकत्रस्थायाः । एषां मासानयनार्थम् अभिवर्द्धितमासा द्वात्रिंशदिवसात्मको भवति ततो द्वात्रिंशता भागो हिपते, लब्धाः पञ्चत्रिंशत् (३५ । एषां स्थापना-(भा. द..)। वस्तुतोऽभिवर्द्धितमासस्य दिवसा: ३५३१ एकत्रिंशत् सार्द्धा षष्टिश्च द्वाषष्टिभागाः ( भवन्ति । अथवा-कत्रिंशदिनानि-कविंशत्य दर धिकशत भागाश्चतुर्विशत्यधिकशत भागानाम् (३१ ) एषाऽपि संख्या भवति- अभिवर्द्धित मासस्य दिवसानाम् । पूर्व महोरात्राणां द्वात्रिंशता भागो हतः अतः प्रतिमासं सादेको भागो निष्कास्यते, ततः पञ्चत्रिंशन्मासानां प्रत्येकं सार्दू कस्मिन् भागे निष्काशिते निष्कागिता भागा लभ्यन्ते-सार्द्धा द्विपञ्चाशद्भागाः (५२॥) एकत्य दिनस्य । ततो मुहूर्तानां त्रिंशता भागे हते ये शेषा स्त्रयः स्थापिता स्तेषां द्वाषष्टिभागकरणार्थं ते द्वाषष्टया गुण्यन्ते, जातं षडशीत्यधिकं शतम् (१८६) । ततश्चतुष्पञ्चाशद् (५४) द्वाषष्टि भागा ये पूर्वे शेषाः स्थितास्तेऽत्र षडशीत्यधिके शते प्रक्षिप्यन्ते जाते चत्वारिंशदधिके द्वे शते (२४०) एते एकस्य मुहूर्तस्य द्वापष्टि भागाः सन्ति तत एपां त्रिंशता भागो हियते, लब्धा अष्टौ (८) एते दिवसस्य द्वाषष्टि भागाः सन्ति । तत एते (८) उपरि ये पञ्चत्रिंशन्मासेभ्यः प्रत्येकं साढ़ेकभागे निष्कासिते ये लब्धा निष्कासिता भागाः सार्धाद्विपञ्चाशत् (५२॥) एषु तेऽष्टौ भागाः प्रक्षिप्यन्ते जाता साषष्टि (६०॥) एकस्य दिनस्य । ततो ये एकत्रिंशदिवसाः (३१) शेषी भूता' आसन् तैः सह संयोज्यन्ते ततो जाता एकस्याभिवद्धितमासस्य दिवसाः (३१ ६०") इय दिवसात्मक एकोऽभिवद्धितमासः (१) एष एको मासः उपर्युक्तेषु पञ्चत्रिंशन्मासेषु प्रक्षिप्यते जाताः षट्त्रिंशन्मासाः (३६) एते एकस्य युगस्य Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. ३ संवत्सराणां समादि समपर्यवसानम् ५१३ सप्तपञ्चाशद् मासाः षट्पञ्चाशदधिकशतेन गुणिताः ये अष्ट सहस्राणि अष्टशतानि द्विनवत्यधिकानि (८८९२) मासानां जातास्तेषु प्रक्षिप्यन्ते जायन्ते अष्टसहस्त्राणि नव शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि ( ८९२८ ) द्वादशभिर्भागे हृते जायन्ते, सूत्रोक्ताः 'सत्तसमा चोयाला' चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि (७४४) अभिवर्द्धितसंवत्सरा षट्पञ्चाशद धिकशतसंख्यकेषु (१५६ ) युगेषु इति । ४३ (40 | 223) 1 अथवाऽन्यत्र - एक युगवर्त्तिनोऽभिवर्द्धितमासाः सप्तपञ्चाशत् एकस्य च मासस्य त्रयस्त्रयोदर भागाः - (५७ । एतावत्प्रमाणं लभ्यते, तथाहि - " सत्तावण्णं मासा मासस्स य तिन्नि तेरसभागा" इति । तत एतदनुसारेणापि गणितं प्रदर्श्यते, तथाहि - सप्तपञ्चाशन्मासाः, त्रयस्त्रयोदशभागाः (५७ । एते षट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते तत्र पूर्व सप्तपञ्चाशत् षट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते, जातानि - अष्ट सहस्राणि अष्टशतानि द्विनवत्यधिकानि ( ८८९ २ ) ततस्त्रयस्त्रयोदशभागाः षट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि अष्टषष्टयधिक्ानि (४६८), एषां मासानयनार्थं त्रयोदशभिर्भागो हियते, लभ्यन्ते षट्त्रिंशन्मासाः ( ३६ ), एते पूर्वोक्तमासराशौ ( ८८९२) प्रक्षिप्यन्ते जातानि - अष्टसहस्राणि नवशतानि अष्टाविंशत्यधिकानि (८९२८) । एषा द्वादशभिर्भागो ह्रियते लभ्यन्ते यथोक्ताश्चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तसंख्यकाः (७४४) संवत्सराः षट्पञ्चाशदधिकशत (१५६) युगानाम् । अथादित्यसंवत्सराः प्रदर्श्यन्ते - एकस्य युगस्यादित्यमासाः षष्टिः (६०) एते षट्पञ्चा शदधिकशतेन गुण्यन्ते - जातानि नव सहस्राणि त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि ( ९३६०) एक द्वादशभिर्भागे हृते लभ्यन्ते - सूत्रोक्ताः 'सत्तसया असीया' अशीत्यधिकानि सप्तशतानि (७८०) षट्पञ्चाशच्छतयुगेषु आदित्य संवत्सरा इति । ऋतुसंवत्सराः प्रदर्श्यन्ते - एकयुगान्तर्वर्त्तिन ऋतुमास्ाः एकषष्टिः (६१) एते षट्पञ्चाशदधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि नवसहस्राणि पञ्चशतानि षोडशाधिकानि (९५१६) । एषां द्वादशभिर्भागे हृते लभ्यन्ते सूत्रोक्ताः, 'सत्तसया तेणउया' सप्तः।तानि त्रिनवत्यधिकानि (७९३) ऋतुसंवत्सरा इति । चन्द्रसंवत्सराना ह - एकयुगान्तर्वर्तिनश्चन्द्रमासाः द्वाषष्टिः (६२), एते षट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते, जातानि - नवसहस्राणि षट्शतानि द्वास्प्तत्यधिकानि (९६७२), एषां द्वादशभिर्भागे हृते लभ्यन्ते सूत्रोक्ताः 'अट्ठसया छलुत्तरा' अष्टशत नि षडुत्तराणि (८०६) चन्द्रसंवत्सरा इति । नक्षत्र संवत्सरानाह - एकस्मिन् युगे नक्षत्रमासाः सप्तर्षाष्टः (६७), एते षट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते, जातानि दशसहस्राणि चत्वारि शतानि ६५ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे द्विपञ्चाशदधिकानि (१०४५२), एवां द्वादशभिर्भागे ते लभ्यन्ते सूत्रोक्ताः 'एगसत्तरी अट्ठसया' एकसप्तत्यधिकानि अष्टशतानि (८७१) नक्षत्रसंवत्स | इति । ऐतेऽभिवद्भितादयः संवत्सराः षट्पञ्चाशदधिकशतेषु युगेषु समादिकाः समपर्यवसा । भवन्तीति । अथैतेषामभिवर्द्धितादे संवसंसणां दिनानि समानत्वेन प्रदर्श्यन्ते-- _एकस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य त्र्यशीत्यधिकानि रोणि शतानि दिनानाम्, एकरय च दिनत्य एकविंशतिर्मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टादश द्वा टिभागाः (३८३।२१।१८ ) । एष राशिः चतुश्चत्वारिंशदधिक सातशतैः (७४४) गुग ज.तानि अभिवदितसंवत्सराणां दिनानि लक्षे, पञ्चाशीतिः सहस्राणि, चत्वारि शतानि अशं याधकानि (२८५५८०) (१) एवमादित्य संघरसरा: अंशीत्यधिक सप्तशतसंख्यका (७८०) तत्रैकस्यादित्यसंवत्सर व षट् पष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६६) दिनानां भवन्ति, एपाः शीत्यधिकसप्तशतगने जायन्ते यथोक्तानि १९८५४८०) दिनानि । एवं त्रिनवत्यधिकानि सप्त गतानि ऋतुसंवत्सराणां (७९३) भवन्ति । एकस्य च ऋतुसंवत्सरस्य षष्टयधिकत्रिशतसंख्यकारि (३६०) दिनानि भवन्ति, एषां त्रिनवत्यधिकसप्तशतै र्गुणने जायन्ते यर्थोक्तानि (२८५ ८०) दिनानि (३, एवं चन्द्रसंवत्सराः षड्ड तराष्टशतसंख्यका (८०६) भवन्ति एकस्य केन्द्रसंवत्सरस्य चतुपञ्चाशदधिकानि त्रीणिशतानि दिनानाम्, एकस्य च दिनस्य द्वादश द्वाषष्टि : गाः (३५४।१-२ ) एका पडुत्तराष्टशत .. ... (८०६) संख्यया गुणने जायन्ते यथोक्ता (२८५४ .) संख्या दिनानामिति (४) एवं नक्षत्रसंवत्सरी: एक सप्तत्यविकाष्टशत संख्यकाः (८७१) एकस्य च नक्षत्रसंवत्सरस्य सप्तावेंशत्यधिकशतत्रयसंख्यका दिवसाः, एकपञ्चाशच्च सप्ताह भागाः (३२७।१ ) एषामे कस तत्यधिकाष्टशत-(८७१) र्गुणने कृते लभ्यन्ते नक्षः संवत्सरदिनानि यथोक्तानि (२८५४८०) इति (५) ।' एका पञ्चानामपि संवत्सराणामियत्परि मतेषु (२८५४८०) समानेषु दिवसेषु व्यतिक्रान्तेषु समादिः समपर्यवसानं च भवतीति । ३५ अथ पूर्वोक्तमेव चन्द्रसंवत्सरपरिमाणं गणि भेदमाश्रित्य प्रकारद्वयेन प्रदर्शयति'ता' नयट्टयाएणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'नयट्ठयाए' नयाथतया अन्यनयापेक्षया, परतोर्थिकसंमतनयचिन्तयेत्यर्थः 'चंदसंवच्छरे' चान्द्रः संवत्सरः · ताण चउपणाई राइंदियसयाई' त्रीणि चतुष्पञ्चाशानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रीण रात्रिन्दिवः तानि, 'राइंदियस्स' एकस्य रात्रिन्दिवस्य Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका प्रा. १२ सू ४. ऋतुवक्तव्यता प्रतिपादनम् ५३५' 'दुवासलस य बासट्टिभागा' द्वादश व द्वाषष्टिभागाः (३५४ १२) एतत्परिमितः ‘आहिए’ ना ख्यातः ‘तिवएज्जा' इति वदेत् स्व िष्येभ्यः । अथ भगवान् भाषामाश्रित्य यथार्थतां प्रदर्शयति", 'ता अहातच्चे णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अहातच्चेणं' याथातथ्येन यथार्थतया आगम: भाषया 'चंदे संवच्छ रे' चान्द्रः संवत्सर : 'तिष्णि उप्पण्णाई राईदियसयाई' त्रीणि चतुष्पञ्चा": शानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रीणि रात्रि दिवशतानि, 'पंच य मुहुत्ता' पञ्च च मुहूर्त्ताः 'पण्णासं च ५) एता दि. मु. ५ ३५४ ५ ६२ बासट्ठिभागा मुहुत्तस्स' पञ्चाशच्च षष्टिभागा एकस्य मुहूर्त्तस्य ( वत्परिमितश्चन्द्रसंवत्सरः 'आहिए' अख्यातः आगमभापया कथितः 'तिवएज्जा' इति - एवं वदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्यः इति । यद्यपि चन्द्रसंवत्सरस्य द्वयमपि परिमाणं समानमेव तथापि भाषाभेदोऽत्र प्रदर्शितः । प्रमं परिमाणमन्यतीर्थिक भाषया वर्त्तते इदं परिमाणं तु आगमभाषया विज्ञेयमिति । तथाहि-- होरात्रपरिमाणं चतुष्पञ्चाशदधिकशतत्रयरूपं (३५४) तु तावदेकरूपमेव, ये तूपारतना द्वाद द्वापष्टि भागास्ते एकस्याहोरात्रस्य कथिता । तेषां मुहूती अहोरात्रस्य क्रियन्ते तदा मुहूर्त्ता नयनार्थं द्वादश त्रिंशता गुण्यन्ते जायन्ते षष्ट्यधिकानि त्रीणि शतानि (३६०), एषां मुहूर्त्तकरणार्थं द्वाषष्ट्या भागों हियते, लब्धाः पञ्च मुहूर्त्ता ( ५ ) शेषास्तिष्ठन्ति मुहूर्त्तस्य पञ्चाशद् (०) द्वाषष्टिभागाः ( ३५४|५ - ) । एवमुभयोः समा|६२ त्वमेव सिद्धयतीति । सू० ३ ॥ पूर्वमुक्ता सप्रपञ्चं संवत्सरवक्तव्यता साथ ऋतुनक्तन्यतामाह- -' तत्थ खलु इमें छं उ ऊ इत्यादि । मूलम् - तथ खलु इमे छ सरए ३, हेमंते ४, वसंते ५, गिम् तिचउप्पण्णेण २, आदाणेण गणिज्ज दिग्गेणं आहिए ति वएज्जा । तत्थ सत्तमे पव्वे २, एक्कारसमे पव्वे ३, परमे पन्ने ४, एगूणवीसइमे पव्वे स मे पव्वे ६, तत्थ खलु इमे छ अता पव्वे २, बारस पव्वे ३, सोलसमे वे वाहा-“ छच्चेव य अरता, आइच्चा जाणाहि " ॥ १ ॥ सूत्रम् ॥ ४ ॥ कः पण्णत्ता, 'तं जहा - पाउसे १, वरिसारते २, । ता सव्वे विणं एए चंदउऊटुवे २ मासा णा साइरेगाई एगूणसट्टी २, राईदियाई राई मे छ ओमरत्ता पण्णत्ता, तं जहा - तईए पब्वे १ तेवी ५, पण्णत्ता तं जहा -- चउत्थे पव्वे १, अमे वीसइमे पव्वे ५, चडवीस मे पव्वे ६, हवंति जाणाहि । छच्चेव ओमरत्ता, हवंति Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे छाया-तत्र खलु एते षड् ऋतवः प्राशताः, तद्यथा-प्रावृट् १, वर्षारात्रः २, शरत् ३, हेमन्तः ४, वसन्तः ५, ग्रीष्मः ६, । तावत् सर्वेऽपि खलु एते चन्द्र ऋतवः द्वौ द्वौ मासौ त्रिचतुष्पञ्चाशता २ आदानेन गण्यमानौ सातिरेकाणि एकोनषष्टिः २ रात्रिन्दिवानि रात्रिन्दिवाण आख्यातौ इति वदेत् । तत्र खलु इमे षड अवमरात्राः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-तृतीये पर्वणि १, सप्तमे पर्वणि २, एकादशे पर्वणि ३, पञ्चदशे पर्वणि ४, एकोनविंशतितमे पर्वणि ५, त्रयो विशतितमे पर्वणि ६, तत्र खलु इमे षइ अतिराः प्रताः , तद्यथा-चतर्थं पर्वणि १, अधमे पर्वणि द्वादशे पर्वणि ३, षोडशे पर्वणि ४, विंशतितमे पर्वणि ५, चतुर्विशतितमे पर्वणि ६ । गाथाः-"षडेव च अतिरात्राः आदित्यादि भवन्ति जानीहि । षडेव अवमरात्राः चन्द्राद् भवन्ति जानीहि , ॥१॥ सूत्र ॥४॥ व्याख्या—'तत्थ खलु' इति, 'तत्थ तत्रेति अस्मिन् मनुष्यलोके प्रति सूर्या-पनं प्रतिचन्द्रायनं चाश्रित्य खल 'इमे' इमे वक्ष्यमाणाः 'छ उऊ पण्णत्ता' षड् ऋतवः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तयथा-ते यथा- 'पाउसे' प्रावृट् १, 'वरिसारत्ते' वर्षारात्रः २, 'सरए' शरत् ३, हेमंते' हेमन्तः ४, 'वसंते' वसन्तः ५, 'गिम्हे' ग्रीष्म ऋतुरिति ६, । लोके तु अन्यथाभिधाना ऋतवः प्रसिद्धाः, तथाहि--प्रावृट् १, शरद् २, हेमन्त ३, शिशिरः ४, वसन्तः ५, ग्रीष्मश्चे ते ६, । लोकोत्तरे जिनमते तु यथोक्ताभिधाना एव ऋतवः उक्तञ्च-- 'पाउसवासारत्ते, सरओ हेमंत वसंत गिम्हो य । एए खलु छप्पि उऊ जिणवरदिट्ठायए सिट्ठा ॥१॥" छाया-प्रावृट् वर्षारात्रः शरद् हेमन्तः वसन्तः ग्रीष्मश्च । एते खलु षडपि ऋतवः, जिनवरदृष्टा मया शिष्टाः कथिताः ॥१॥ इति । ऋतवो हि द्विधा-सूर्यर्त्तवश्चन्द्रर्त्तवश्च । तत्र प्रथमं सूर्यर्तुवक्तव्यता प्रस्तूयते-तत्र एकैकस्य सूर्यत्तोंः परिमाणं सूर्यमासस्य सार्द्धत्रिंशदहोरात्रात्मकत्वात् द्वौ सूर्यमासौ एक षष्ठ्यहोरात्रात्मको उक्तत्र "बे आइच्च मासा, एगट्ठी ते भवंतहोरत्ता । एयं उ उ परिमाणं, अवगयमाणा जिणा विति" ॥१॥ छाया-द्वौ आदित्यो मासो, एक षष्टिस्ते भवन्त्यहोरात्राः । एतद् ऋतु परिमाणं, अवगतमाना जिना वदन्ति ॥१॥ इति इहेप्सितसूर्यार्त्तवानयने वृद्धोक्ता करण गाथाः प्रदर्श्यन्ते "सूर उउस्साणयणे, पव्वं पण्णरससंगुणं नियमा । तहिं संखित्तं संत, बावट्ठी भाग परिहीणं ॥१॥ दुगुणेगट्ठीइजुयं, बावीससएण भाइए नियमा Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. ४ ऋतुवक्तव्यता प्रतिपादनम ५१७ जं लद्धं तस्स पुणो, छहि हिय सेस उऊ होइ ॥२॥ सेसाणं अंसाणं, बहिउ भागेहि तेसिं जं लद्धं । ते दिवसा नायव्वा, होति पवत्तस्स अयणस्स ॥३॥" छाया- सूर्यौरानयने पर्व पश्चदश संगुणं नियमात् । तत्र संक्षिप्तं सत् द्वाषष्टि भागपरिहीनम् ॥१॥ द्विगुणम् एकषष्टियुतं, द्वाविंशशतेन भाजिते नियमात् । यल्लब्धं तस्य पुनः षड्भि ते शेष ऋतुर्भवति ॥२।। शेषाणा मंशानां द्वाभ्यां तु भागाभ्यां तेषां यल्लब्धम् । ते दिवसा ज्ञातव्याः, भवन्ति प्रवृत्तस्यायनस्य ।।३।। इति । आसां व्याख्या क्रियते .. -'बरउउस्सा.' इत्यादि, 'सूरउउस्साणयणे' सूर्यत्तॊः सूर्यसम्बन्धिन ऋतोरानयने 'पर' सर्व-पर्व संख्यानं 'नियमा' नियमात् 'पण्णरसं गुणं' पञ्चदशसंगुणं पञ्चदशभिर्गुणितं कर्त्तव्यम् पर्वाणां पञ्चदशतिथ्यात्मकत्वात् । अत्रेयं भावना--यद्यपि ऋतव आ वाढादि प्रभवास्तथापि युगं श्रावण-कृष्णपक्ष प्रतिपदात आरभ्य प्रवर्त्तते ततो युगादितः प्रवृत्तानि यानि पर्वाणि भवन्ति तेषां संख्याऽत्र गृह्यते, सा संख्याऽत्र पञ्चदशभिर्गुण्यते इति । तां संख्यां गुणयित्वा च पर्वाणामुपरि विवक्षितं दिनमभिव्याप्य या तिथयस्ताः 'तहिं संखित्तं तत्रपञ्चदशभिर्गुणिते राशौ संक्षिप्यन्ते इत्यर्थः तदेवाह-संखित्तं संत' संक्षिप्तं सत् 'बावटिभागपरिहीणं' द्वापष्टिभागपरिहीनं कर्त्तव्यम् । अयं भावः-प्रत्यहोरात्रमेकैकेन द्वाष्टिभागेन पन्हिीयमाणे ये निष्पन्ना अवमरात्रा न्यूनदिवस रात्रिरूपास्तेऽप्युपचाराद् द्वाषष्टिभागाः कथ्यन्ते, तैः परिहीनं पर्वसंख्यानं कर्तव्यमिति ॥१॥ 'दुगुणे' इत्यादि, 'दुगुणेगट्ठीए जुयं' द्विगुणमेकषष्ट्यायुतं पूर्वोक्तं द्वाषष्टिभागपरिहीनं संख्यानं द्विगुणितं कृत्वा एकषष्टया युक्तं क्रियते तत 'बावीससएण भाइए' द्वाविंशशतेन द्वाविंशत्यधिकेन शतेन भाजिते सति 'नियमा' नियमात् — जं लद्ध' यल्लब्धं 'तस्स पुणो छहि हिय' तस्य पुनः षड्भिर्हते पभिर्भागे हृते 'सेस' यच्छेषं सः अनन्तरातीतः 'उऊहोइ' ऋतुर्भवति ॥२॥ 'सेसाणं' इत्यादि 'सेसाणं अंसाणं' येऽपिचांशाः शेषा उद्घारितास्तेषां 'वेहिउभागेहिं' द्वाभ्यां भागो हृते 'तेसिं जं लद्ध' तेषा तत्सम्बन्धिनां यल्लब्धं, 'ते दिवसा नायव्वा होति' त दिवसा ज्ञातव्या भवन्ति, कस्येत्याह'पवत्तस्स अयणस्स' प्रवृत्तस्य प्रवर्त्तमानस्य अयनस्य ऋतोर्ज्ञातव्या इति ॥३॥ एष करणगाथा त्रयस्याक्षरार्थः ।। सम्प्रत्यासां भावना क्रियते-तस्मिन् युगे प्रथमे दीपो. त्सवे केनापि पृष्टम्-अद्यतोऽनन्तरं गतकाले कः सूर्यतुरतीतः ? को वा साम्प्रतं वर्तते ? इति प्रश्न यत् क्रियते तदाह-तत्र युगादितः सप्त पर्वाणि व्यतीतानीति सप्त स्थाप्यन्ते, तानि 'पण्णरसगुणं' Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे इतिवचनात् पञ्चदशभिर्मुण्यन्ते, जातं पञ्चोत्तरं शतम् (१०५). एतावतिकाले च 'तइए पव्वे सत्त पन्चे' इत्यादि वक्ष्यमाणसूत्रवचनात् द्वाववमरात्रौ उपचाराद् द्वाषष्टिभागौ द्वौ अभूतामिति 'बावट्ठीमागा परिहीणं' इति वचनात् द्वौ तस्माद्राशेः पात्येते स्थितं पश्चात् त्र्युत्तरं शतम् (१०३) तत् 'दुगुणं' इति द्वाभ्यां गुण्यते जाते षड्डत्तरे द्वे शते (२०६) ततः 'एगट्ठीइजयं' एकपट्या युत मिति तत्रैकषष्टिः प्रक्षिप्यते जाते द्वे शते सप्त-षष्ट्यधिके (२६७) तत एपा 'बावीससएण भाइए' इति वचनात् द्वाविंशत्यधिकेन शतेन भागो हियते लब्धौ धौ ‘छहिं हियसेस' इति वचनात् ऋतुनां षडात्मकत्वाद् यदि षभिरधिका संख्याभवेत्तदा षड्भिविभज्यते, इमो द्वौ तु षड्भर्भागं न सहेते इति न तयोः षड्भिर्भागहारः प्रसज्यते ततो द्वावेमी ऋतू स्थितौ पूर्व भागे हृते ये शेषास्त्रयोविंशतिरंशा उद्धृतास्तेषां 'सेसाणं अंसाणं बेहिउभागेहि' इति वचनात् द्वाभ्यां भागे हृते तेषाम् कृते जाता सार्द्धा एकादश (११॥) 'तेसिं जलद्धं ते दिवसा नायव्वा' इत्यादि वचनात् ते प्रवर्त्तमानस्य ऋतो दिवसा ज्ञातव्या इति सूर्यतुश्चाषाढादिकस्तत आगतम्- द्वौ ऋतू अतिक्रान्तौ, तृतीयश्च ऋतुः सम्प्रति वर्त्तते, तस्य च प्रवर्त्तमानस्य ऋतो एकादश दिवसाः परिपूर्णा व्यतिक्रान्ताः, तदुपरि यदर्थं तेन द्वादशो दिवसो वर्त्तते इति ॥१॥ - अथ युगे प्रथमाया मक्षयतृतीयायां केनापि पृष्टम्-अद्य प्रभृति के ऋतवः पूर्वमतिक्रान्ताः ? को वा सम्प्रति वर्त्तते ? इति प्रश्ने प्रत्याह-तत्र प्रथमाया अक्षयतृतीयायाः प्राक् युगस्यादित आरभ्य एकोनविंगतिः पर्वाणि व्यतिक्रान्तानि तत एकोनविंशति स्थापयित्वा सा पूर्वोक्तरीत्या पञ्चदशभि गुण्यते, जाते पञ्चाशीत्यधिके द्वे शते (२८५) अक्षयतृतीयायां किल पृष्टमिति पर्वणा मुपरि उपचाराद् डाष्टिभागसंज्ञत्वेन कथिता स्तिस्रस्तिथयः प्रक्षिप्यन्ते जाते अष्टाशीत्यधिके द्वे शते (२८८), एतावति काले एकोनावंशतिपर्वरूपे 'तइए ५०वे' इत्यारभ्य 'एगूणवीसइमे पव्वे' इत्यादि, वक्ष्यमाणसूत्रवचनात् अवमरात्राः पञ्च भवन्तीत्यतः 'बावट्ठी भागपरिहीणं" इति वचनात् तस्माद् राशेः पञ्च पात्यन्ते जाते व्यर्श त्यधिके द्वे शते (२८३) ते 'दुगुण" इति वचनात् द्वाभ्यां गुण्येते, जातानि षट् षष्टयधिकानि पञ्च शतानि (५६६), तानि 'एगट्ठीए जुयं' इति वचनात् एकषष्टि सहितानि क्रियन्ते जातानि सप्तविंशत्यधिकानि षट्शतानि (६२७) तेषां 'बावीससएण भाइए' इति वचनात् द्वाविंशत्यधिकेन शतेन (१२२) भागो हियते लब्धाः पञ्च, ते च ऋतूनां षडात्मकत्वात् 'छहिहिय' इति वचनात् षभिर्भागहरणं प्राप्यते, तच्चते, न सहन्ते इति न तेषां षड्भिर्भागहारस्ततः पञ्चैव स्थिता इति पञ्च 'उऊ होइ' इति ऋतवो व्यतिक्रान्ता इति सिद्धम् । 'सेसाणं अंसाणं बेहि उ भागेहि' इति वचनात् तेषां शेषाणां सप्तदशानामंशानां द्वाभ्यां भागे हूते तेषाम कृते इत्यर्थः Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. ४ ऋतुवक्तव्यताप्रतिपादनम् ५१९ 'तसिं जं लद्धं' इति तेभ्यो ये लधाः सार्द्धा अष्टौ (८॥), तत आगतम्-पञ्चऋतवोऽतिक्रान्ताः पारस्य च ऋतोः प्रवर्त्तमानस्याष्टौ दिवसा गताः, तदुपरि अर्द्धत्वेन नवमो दिवसो वर्त्तते इति ।२। अथ युगे द्वितीये दीपोत्सवे केनापि पृष्टम्-कियन्त ऋतवोऽतिक्रान्ताः ? को वा संप्रतिवर्तते ? तत्राह-एतावतिकाले एकत्रिंशत् पण्यितिक्रान्तानि, तानि ध्रियन्ते पञ्चदशभिर्गुण्यते, ज तानि पञ्चषष्टयधिकानि चत्वारि शतानि (४६५) । अवमरात्राश्चैतावतिकालेऽष्टौ व्यतिक्रान्तास्तोऽष्टौ तेभ्यः पात्यन्ते, स्थितानि शेषाणि समपञ्चाशदधिकानि चत्वारि शतानि (४५७), तानि द्विगुणितानि जातानि चतुर्दशोत्तराणि नवशतानि (९१४) । एषु एकपष्टिभागप्रक्षेपे जातानि पञ्चसत्यधिकानि नव शतानि (९७९) । एषां द्वाविंशत्यधिकेन शतेन भागे हते लब्धाः सप्त ऋनवः, उपरिष्टादंशा एकविंशत्यधिकशतसंख्यका (१२१) उद्धरन्ति, एषां द्वाभ्यां भागे हृते अर्दै कृते इत्यर्थः लब्धा सार्धाषष्टिः (६०॥), सप्तानां च ऋतूनां षभिर्भागो हिटते, लब्ध एकः, अवशिष्टउपरिष्टादेकस्तिष्ठति, तत आगतम् एकः संवत्सरो व्यतिक्रान्तः संवत्सरे ऋतूनां षडात्मकत्वात्, एकस्य च संवत्सरस्योपरि एक इति प्रथमऋतुः प्रावृड नाम व्यतीतः, द्वितीयस्य च ऋतोः षष्टिर्दिनानि व्यतिक्रान्तानि, तदुपरि अर्द्धमिति एकषष्टितमं दिनं वर्तते इति ।३। । एवमन्यत्रापि भावना भावनायेति । अर्थतेषां ऋतूनां मध्ये क ऋतुः कस्यां तिथौ समाप्तिमेतीति ? परस्य प्रश्नावकाशमा शङ्कय तत्परिज्ञानाय वृद्धः करणगाथा प्रतिपादिता, सा चेयम् --- 'इच्छा उ ऊ बिगुणिओ' रूवूणो दिशुणिओ उ पव्वाणि । तस्सद्ध होइ तिही, जत्थ समत्ता उऊ तीसं ॥१॥" इच्छर्तुः द्विगुणितः रूपोनो-द्वि गुणितस्तु पर्वाणि । तस्याई भवति तिथिः यत्र समाप्ता ऋतव-स्त्रिंशत् ॥१॥ इतिच्छाया । अस्या व्याख्या-'इच्छाः उऊ' इच्छर्तुः यस्मिन् ऋतो ज्ञातुमिच्छा वर्तते स ऋतुः 'बिगुणिओ' द्विगुणितः क्रियते छाभ्यां गुण्यते द्विगुणितः सन् 'रूबूणो' रूपोन: एक ऊनः क्रियते तत पुनरपि सः 'बिगुणिओउ' द्विगुणित स्तु द्वाभ्यां गुण्यते, गुणयित्वा च प्रतिराश्यते, गुणितश्च सन् यावत्पारमितो भवति तावन्ति 'पन्चाणि' पर्वाणि विज्ञेयानि । 'तस्स' तस्य द्विगुणीकृतस्य प्रतिराशितस्य यत् 'अर्द्ध' अर्द्ध यावत्परिमितं भवति तावत्परिमिता: 'तिही' तिथयो ज्ञातव्याः 'जत्थ' यत्र यासु तेथिषु 'तीसं' प्रिंशत् युगमाविन स्त्रिंशदापे 'उऊ समत्ता' ऋतवः समाप्ताः सम तिं प्राप्नुयुः ।।१॥ इति कास्म गाथा अक्षरार्थः । साम्प्रतं भावना क्रियते-अथ कोऽपि युगस्य प्रथममृतुं ज्ञातुमिच्छेत् यथा युगे कस्यां Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० चन्द्रप्राप्तिसत्र तिथौ प्रथमः प्रावृड् लक्षण ऋतुः समाप्तिमेति ? इति, तत्र तस्य इच्छर्तु रेक इति एकः स्थाप्यते, स 'विगुणिओ' द्विगुणितः क्रियते जाते द्वे रूपे; ते द्वे 'रूवृणो' इति रूपोने एकेन रूपेण ऊने क्रियते जात एककः स एव च पुनरपि 'विगुणिओ' द्विगुणितः क्रियते द्वाभ्यां गुण्यते जाते द्वे रूपे, ते द्वे प्रतिराश्यते तत्प्रति रूपे द्वे पुनः क्रियते. द्वे द्वे रूपे द्विवारं स्थाप्यते इत्यर्थः (२-२) तयोरेकं द्विकं 'पव्याणि' पर्वसंख्यानं भवति (२) 'तस्सद्धं' तयो एकस्य द्विकस्याई क्रियते जात मेकं रूपम् । तत्संख्यका 'तिही होइ' तिथिर्भवति । तत आगतम्-युगादौ द्वे पर्वणी अतिक्रम्य प्रथमायां तिथौ प्रतिपदि प्रथम ऋतुः प्रावृड् नामा समाप्तिमगमदिते । तथा द्वितीये ऋतौ ज्ञातु मिच्छेत् तदा द्वौ स्थाप्यते, तयो भ्यां गुणने जायन्ते चत्वारः, ते रूपोनाः क्रियन्ते जातास्त्रयः, ते पुनरपि द्वाभ्यां गुण्यन्ते जातः षट् ते प्रतिराश्यन्ते-षट्कं षट्कम् इति स्थानद्वये स्थाप्यते तयो द्वितीयस्य प्रतिराशितस्य षट्कस्याद्धे क्रियते जातास्त्रयः, तत आगतम्-युगादितः षट् पर्वाण्यतिक्रम्य तृतीया तिथिरिति तृतीयायां तीथौ द्वितीय ऋतु समाप्तिमगमत् ॥ एवं यदि तृतीये ऋतौ ज्ञातु मिच्छेत्तदा त्रयः स्थाप्यन्ते, ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताः षट् ६, ते रूपोनाः क्रियन्ते जाता दश ते प्रतिराश्यन्ते द्विधा स्थाप्यन्ते दश दशे ते । तत्रैकस्य द्वितीयस्य दशकस्यार्द्ध पञ्च भवन्ति, तत आगतम्-युगादितो दशसु पर्वसु व्यतिक्रान्तेषु पञ्चम्यां तिथौ तृतीय ऋतुः समाप्तिमगच्छत् । तथा यदि षष्टे ऋतौ ज्ञातु मिच्छा भवेत्तदा षड ध्रियन्ते, ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता द्वादश, ते रूपोनकरणा ज्जाता एकादश, ते द्वाभ्यां गुणने जाता द्वाविंशतिः सा प्रतिराश्यते स्थानद्वये स्थाप्यते तत्रैकस्याः प्रतिराशीताया अर्द्ध कियते जाता एकादश तत आगतम्-युगादित आरभ्य द्वाविंशति पर्वातिक्रमे एकादश्यां तिथौ षष्ठ ऋतु समाप्तं प्राप । तथा नवमे ऋतौ ज्ञातु मिच्छेत्तदा नव ध्रियन्ते, ते द्वाभ्यां गुणयित्वा रूपोनाः क्रियन्ते जाताः सप्तदश, ते भूयोऽपि द्वाभ्यों गुणने जाताश्चतुस्त्रिंशत् ते प्रतिराश्यन्ते, प्रतिराश्य चैकस्याई क्रियते जाता सप्तदश तत आगतम्- युगादितोऽद्यप्रभृति चतुस्त्रिंशत् पर्वाण्यतिगतानि सप्तदश्यां तिथौ इति द्वितीये संवत्सरे पौषमासे शुक्लपक्षे द्वितीयां तिथौ नवम ऋतुः परिसमाप्ति मियाय । त्रिंशत्तमे ऋतौ जिज्ञासा भवेत्तदा त्रिंशत् स्थाप्यन्ते, ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताः षष्टिः, सा रूपोना क्रियते जाता एकोनषष्टिः (५९) तस्या भूयोऽपि द्वाभ्यां गुणने कृते जायतेऽष्टादशोत्तरं शतम् (११८), तत् प्रतिराश्यते (११८-११८), प्रतिराश्य चैकस्य प्रतिराशितस्याई क्रियते जातैकोनषष्टिः, तत आगतम्-युगादितोऽष्टादशोत्तरं पर्वशतमतिक्रम्य एकोन षष्टितमायां तिथौ त्रिंशत्तमऋतुर्व्यतिक्रान्तोऽभवत् । अयमाशयः-पञ्चमे संवत्सरे प्रथमे अषाढ मासे शुक्लपक्षे चतुर्दश्यां तिथौ त्रिंशत्तम ऋतुः समाप्तिं गतः, व्यवहारतः प्रथमाषाढपर्यन्ते इत्यर्थः एतस्यैवार्थस्य सुखप्रतिपत्त्यर्थमियं वृद्धोक्ता गाथा प्रदर्श्यते -- Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.४ __ ऋतु वक्तव्यताप्रतिपादनम् ५२१. एककंतरियामासा, तिहीय जासु स उऊ समप्पंति । आषाढाईमासा. भद्दवयाई तिही नेया ॥१॥ छाया -- एकान्तरिताः मासाः तिथयश्च यासु ते ऋतवः समाप्नुवन्ति । आपढादयो मासाः, भाद्रपदादिकास्तिथयो ज्ञेयाः ॥१॥” इति अस्या व्याख्या-इह सूर्यर्तुचिन्तायां मासा आषाढादयो विज्ञेयाः, आषाढमासादारभ्य ऋतूनां प्रथमतः वर्तमानत्वात् । तिथयः सर्वा अपि भाद्रपदाद्याः भाद्रपदादिषु मासेषु प्रथमादीनामृतूनां परिसमाप्तमात् । तत्र येषु मासेषु यासु च तिथिषु ऋतवः प्रावृडादयः सूर्यसम्बन्धिनः परिसमाप्नुवन्ति ते आषाढादयो मासाः, ताश्च तिथयो भाद्रपदाद्याः भाद्रपदादिमासानुगताः सर्वा अप्येकान्तरिता ज्ञातव्याः, तथाहि-प्रथम ऋतुर्भाद्रपदमासे समाप्तिमेति, तत एकं मासमश्वयुग् लक्षणमवान्सरलि मुक्त्वा कर्ति के मासे द्वितीय ऋतुः परिसमाप्तिमेति । एवं तृतीयः पौषमासे, चतुर्थः फाल्गुने मासे, पञ्चगो वैशाखे मासे, षष्ट आषाढे मासे । एवं शेषा अपि ऋतव एष्वेव षट्सु मासेषु एकान्तरितेषु व्यवहारतः परिसमाप्तिमाप्नुवन्ति, न शेषेषु मासेषु । तथा तिथिमधिकृत्य प्रथमऋतुः प्रति पदिसमाप्तिमेति, द्वितीयस्तृतीयायाम्, तृतीयः पञ्चम्याम्, चतुर्थः सप्तम्याम् पञ्चमी नवम्याम्, पठ एकादश्यामू , सप्तमस्त्रयोदश्याम् अष्टमः पञ्चदश्यामू एते सर्वेऽपि ऋतवो बहुलपक्षे । ततो क्वम ऋतुः शुक्लाक्षे द्वितीयायाम् , दशमश्चतुर्थ्याम् , एकादशः षष्ठ्याम्, द्वादश्योऽष्टम्याम् त्रयोदशो दशम्याम् चतुर्दशा द्वादश्याम् पञ्चदशश्चतुर्दश्याम् । एते सप्तऋतवः शुक्लपक्षे । एते कृष्णा क्लपक्षभाविनः पञ्चदशापि ऋतवो युगस्याट्टै भवन्ति । तत उक्तक्रमेणैव शेषा अपि पञ्चदश ऋतवो द्वितीये युगाई भवन्ति, तथाहि-षोडशऋतुर्बहुलपक्षे प्रतिपदि, सप्तदशस्तृतीयायाम , अष्टादश पञ्चम्याम् एकोनविंशतितमः सप्तम्यास् विंशतितमो नवम्याम् एकविंशतितम एकादश्याम् द्वाविंशतितमस्त्रयोदश्याम् , त्रयोविंशतितमः पञ्चदश्याम् । एते षोडशादयस्त्रयोविंशति पर्यन्ता अष्टौ बहुलपक्षे ततश्चतुर्विश तेतमः शुक्लपक्षे द्वितीयायाम् , पञ्चविंशतितमश्चतुर्थ्याम् षड् विंशतितमः षष्ठ्याम् सप्तविंशतमो द्वादश्याम् , त्रिंशत्तमश्चतुर्दश्याम् । तदेवमेते सर्वेऽपि ऋतवो युगे मासेष्वेकान्तरितेषु एवं तिथिष्वपि चैकान्तासु समाप्ता भवन्ति । एतेषां च ऋतूनां चन्द्रनक्षत्रयोगपरिज्ञानाथ सूर्यनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थं च वृद्धैः करणगाथात्रयं प्रोक्तं तत् प्रदर्श्यते "तिन्नि सया पंचहिगा, अंसा छेओ सयं च चोत्तीसंएग इबिउत्तरगुणो धुवरासी होइ नायव्वो ॥१॥ सत्तट्ठी अद्धखित्ते दुगतिगगुणिया समे बियढखेत्ते । अट्ठसोई पुस्से, सोम अभिइम्मि बायाला ॥२॥ एयाणि सोहइत्ता, जं सेसं तं तु होइ नक्खतं । रवि सोमाणं नियमा तीसाबि उउ समत्तीसु ॥३॥ ६६ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे आसां छाया-त्रीणि शतानि पञ्चाधिकानि अंशाः, छेदः शतं च चतुर्विंशम् । एकादि द्वयुत्तरगुणो ध्रुवराशिर्भवति ज्ञातव्यः ॥१॥ सप्तपष्टिरर्द्धक्षेत्रे, द्विकत्रिक गुणिता समे द्वयर्धक्षेत्रे। अष्टाशीतिः पुष्ये शोध्या अभिजित् द्विचत्वारिंशत् ॥२॥ एतानि शोधयित्वा यत्शेषं तत्तु भवति नक्षत्रम् । रविसोमयोर्नियमात् त्रिंशत्यपि ऋतुसमाप्तिषु ॥३॥ आसां व्याख्या-'तिन्नि सया पंचहिगा अंसा' त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि (३०५) 'अंसा' अंशाः विभागाः एते किं रूपच्छेदकृताः ! इति चेदाह-'छेओ सयंच चोत्तीसं' छेदः शतं च चतुस्त्रिंशम् । छेदोऽत्र चतुस्त्रिंशदधिकशतरूपः, तेन छिन्नं यदहोरात्रं तत्सम्बन्धीनि पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि (३०५) अंशानामिति । अयमत्र ध्रुवराशिः स्थाप्यः एष ध्रवराशिः ‘एगाइ बिउत्तरगुणो धुवरासीहोइ नायव्यो' एकादिद्वयुत्तर गुणः-ईप्सितेन ऋतुना एकादिना त्रिंशत्पर्यन्तेन युत्तरेण एकस्मादारभ्य तत ऊर्ध्वं द्वयुत्तरवृद्धेन गुणः गुणितः क्रियते गुण्यते इत्यर्थः । एष ध्रुवराशिख़तव्यो भवति ॥१॥ तत एतस्मात् द्वयुत्तरवृद्धेन गुणितात् शोधनकानि शोधयित यानीति शोधनक प्रतिपादिकां द्वितीयां गाथामाह-'सत्तट्ठी' इत्यादि 'सत्तट्ठी अद्धखेत्ते' यन्नक्षामर्द्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्तात्मकं तत्र सप्तषष्टिः शोधनकं भवतीति सप्तषष्ठ्या शोध्यते, 'दुगतिगगुणिया समेबियड्ढखेत्ते' द्विकत्रिकगुणिता समें द्वयर्थक्षेत्रे, तत्र यन्नक्षत्रं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं तद्विगुणितयासप्तषष्टया चतुस्त्रिशेन शतेनेत्यर्थः शोध्यते यत्पुनर्नक्षत्रं द्वयर्धक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्म्कं तत् त्रिगुणितया सप्तषष्टया एकोत्तरशतद्वयेनेत्यर्थः शोध्यते । इह सूर्यस्य पुष्यादीनि नक्षत्राणि शोध्यानि, चन्द्रस्याभिजिदादीनि, तत्रैषां शोधनकान्याह-'अट्ठासीई पुस्से' अष्टाशीतिः पुष्ये सूर्यनक्षत्रयोगचिन्तायां पुष्ये पुष्य नक्षत्रविषयाष्टाशीतिः 'सोमा' शोध्या । तथा 'अभिइम्मिबायाला' अभिजिति द्वाचत्वारिंशत्-चन्द्रनक्षत्रयोगचिन्तायाम् अभिजिन्नक्षत्रे द्वाच वारिंशत् शोध्याः ॥२॥ ततः किमिति तृतीयगाथया प्रदश्यते-'एयाणि' इत्यादि, 'एयाणि' एतानि शोधनकानि अर्द्धसमद्वयक्षेत्रविषयाणि 'सोहइत्ता' शोधयित्वा उक्तप्रकारेण शोधिते सति 'जं सेसं' यन्नक्षत्रं शेषं संख्यामधिकृत्य भवति न सर्वात्मना शुद्धिमश्नुते 'तं तु होइ नक्खत्तं' तन्नक्षत्रं 'रविसोमाणं नियमा' रविसोमयोः सूर्यस्य चन्द्रस्य च नियमात् भवति कुत्रेत्याह'तीसइ उउसमत्तीसु' त्रिंशत्यपि ऋतु समाप्तिषु युगस्य त्रिंशतोऽपि ऋतूनां समाप्तौ ॥३॥ इते करणगाथात्रयाक्षरार्थः । सम्प्रत्यासां भावना क्रियते-अथात्र कोऽपि पृच्छति-प्रथमऋतु कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रे समाप्तिमियति ? इति जिज्ञासायां पूर्वप्रदर्शितो ध्रुवराशिः पञ्चोत्तरत्रिातात्मको घ्रियते, स एकेन गुण्यते 'एकेन गुणितं तदेव भवति' इति तावानेव ध्रुवराशिः (३०५ जातः । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रतिप्रकाटीका प्रा. १२ सु. ४ ऋतु वक्तव्यताप्रतिपादनम् ५२३ तत्र 'सोझा अभिइम्मि बायाला' इति वचनात् अभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शोध्यते, शोधिते च स्थिते पश्चात् त्रिषट्यधिके द्वेशते (२६३) ततश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन (१३४) श्रवणः शोध्यते, स्थितं शेषमेकोन त्रिंशदधिकं शतम् (१२९) एभ्यश्च धनिष्ठा न शुद्धयति ततः 'छेओ सयं च चोत्तीसं' इति वचनात् चतुस्त्रिंशदधिकशत (१३४) भागना मेकोनत्रिंशं शतं धनिष्ठासत्कमवगाह्य चन्द्रः प्रथमं सूर्यर्त्तं परिसमापयति, चतुस्त्रिंशदधिकशतभागेषु धनिष्ठा नक्षत्रस्य एकोनत्रिंशदधिकशतभागातिक्रमणानन्तरं चन्द्रः प्रथमसूर्यर्तुपरिसमापको भवतीति भावः । यदि द्विती सूर्यजिज्ञासा भवेत्तदा स एव पब्चोत्तर शतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिस्त्रिभिर्गुण्यते भयं भावः'एगा बिउत्तरगुणो इति वचनात् एकआरभ्य तत उर्ध्वं द्वयुत्तरवृद्धया, इति प्रथमसूर्यर्तु प्रकररणे एकेन ध्रुवराशिःर्गुणितः अत्र द्वितीयसूर्यर्तु जिज्ञासायामुत्तरोत्तर द्विकवृद्धया ध्रुवराशिस्त्रिभिर्गुण्यते इति । त्रिभिर्गुणितो ध्रुवराशिजायते पञ्चदशोत्तरनवशतसंख्यकः ( ९१५ ) तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशच्छुद्धया स्थितानि शेषाणि - अष्टौ शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि (८७३) ततश्चतुस्त्रिशेन शतेन श्रवणे शोधिते स्थितानि शेषाणि एकोनचत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि (७३९), अत्र धनिष्ठा शुद्धयते इति तस्माद् राशेर्धनिष्ठानक्षत्रस्य चतुस्त्रिंशधिकशतसंख्यका भागाः शोध्यन्ते स्थितानि-शेषाणि पश्चोत्तराणि षट् शतानि (६०५ ) एतस्माद्राशेरपि सप्तषष्टिः शत भिषजः शोध्यते, स्थितानि अष्टात्रिंशदधिकानि पश्च शतानि (५३८), एभ्योऽपि चतुस्त्रिंशदधिकं शतं (१३४) पूर्वभाद्रपदायाः शोध्यते, स्थितानि चतुरधिकानि चत्वारिशतानि (४०४), एभ्योऽपि एकोत्तरशतद्वयेन (२०१ ) उत्तरभाद्रपदा शोध्यते, स्थिते शेषे त्र्युत्तरे द्वे शते (२०३), एतस्माद्राशेश्चतुस्त्रिशदधिकं शतं (१३४) रेवत्याः शोध्यते, स्थिता पश्चादेकोनसप्ततिः (६९) । तत आगतम् — अश्विनीनक्षत्रस्ये कोनसप्तति भागान् चतुस्त्रिंशदधिकशत भागानामवगाह्य चन्द्रो द्वितीयं सूर्यर्त्तु परिसमापयतीति एवं शेषेष्वपि ऋतुषु भावना कार्येति । अथान्तिमत्रिंशतमसूर्यर्त्त जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः (३०५ ) एकोनपष्ट्या गुण्यते, जातानि सप्तदश सहस्राणि पञ्चनवत्यधिकानि नवशतानि ( १७९९५), तत्र षष्ट्यधिकैः षट् त्रिंशच्छतैः (३६६०) एको नक्षत्रपर्यायः शुद्धयति, ततः षष्ट्यधिकानि षट्त्रिंशच्छतानि चतुर्भिर्गुणयित्वा तत शोध्यन्ते, एष नक्षत्रपर्यायश्चतुर्भिगुणने जायन्ते - चतुर्दश सहस्राणि चत्वारिंशदधिकानि षट् शतानि (१४६४०) तत एकोनषष्ट्या गुणिताया ध्रुवराशि संख्यायाः ( १७९९५) चतुर्भिगुणितोनक्षत्र पर्यायः (१४४६०४) शोध्यते स्थितानि पश्चात् पञ्च पञ्चाशदधिकानि त्रयस्त्रिंशच्छतानि (३३५५) । एभ्यः पञ्चविंशत्यधिकैर्द्वात्रिंशच्छतैः (३२२५) अभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यन्ते, स्थितं पश्चात् त्रिंशदधिकमेकं शतम् (१३०) तेन च पूर्वाषाढा न शुद्धयति, तत आगतम् - त्रिंशदधिकं शतं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानां पूर्वाषाढासत्कमवगाह्य चन्द्रस्त्रिंशत्तमं सूर्यर्त्तं परिसमापयतीति । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे साम्प्रतं सूर्यनक्षत्रयोग भावना क्रियते स एव ध्रुवराशिः पञ्चोतरशतत्रयग्रमा: ( ३ ० ५) . प्रथम सूर्य जिज्ञासाया मेकेन गुण्यते जातस्तावानेव ततः 'अट्ठासीई पुरसो' इति पचनात् तस्मात् अष्टाशीतिः (पुष्यभागाः) शोध्यन्ते, स्थिते शेषे सप्तदशोत्तरे द्वे शते १२१७) ततः सप्तपष्टिः (६७ अश्लेषायाः शोध्यते स्थितं शेषं सार्द्धशतम् (१५०) ततः चतुस्त्रिंशदधिकं शतं (१३४) मधायाः शोध्यते, स्थिताः पश्चात् षोडश (१६), तत आगतम्- पूर्वफाल्गुनोनक्षत्रस्य चतु स्त्रंशदधिकशतसत्कान् षोडश भागानवगाह्य सूर्यः प्रथमं स्वकीयमृतुं परिसमापयति । एवं द्वितीय सूर्यत्त जिज्ञासायामपि स एव पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिः द्वयुत्तरवृद्धयाऽत्र विभिर्गुण्य, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि (९१५) ततोऽष्टाशीतौ पुष्यस्य शोधितायां स्थितानि पश्चात् सप्तविंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८२७), एभ्यः सप्तषष्टिरश्लेषायाः शोध्यते. स्थितानि शेषाणि षष्टयधिकानि सप्तशतानि (७६०) एभ्यश्चतुस्त्रिंशदधिकं शतं मघायाः शोध्यने, स्थितानि शेषाणि षड् विंशत्यधिकानि षट् शतानि, (६२६), एभ्यश्चतुस्त्रिंशदधिकं शतं पूर्वफाल्गुन्याः गोध्यते, स्थितानि शेषाणि द्विनवत्यधिकानि चत्वारि शतानि (४९२), एभ्योऽपि एकोत्तरं शतद्वय (२०१) मुत्तरफाल्गुन्याः शोध्यते स्थिते शेषे एकनवत्यधिके द्वे शते (२९१) पुनरप्येभ्य. अतुस्त्रिशदधिकं शतं (१३४) हस्तस्य शोध्यते, स्थितं सप्तपञ्चाशदधिकं शतम् (१५७), एभ्योऽi चतुस्त्रिंशदधिकं शतं (१३४) चित्रायाः शोध्यते, स्थिताः शेषास्त्रयोविंशतिर्भागाः (२३) तत मागतम् चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानां स्वातेस्त्रयोविंशति सप्तषष्टि भागानवगाह्य सूर्यो द्वितीयं स्वकं यमृतुंपरिसमापयतीति एवं शेषेष्वपि तृतीय सूर्यत्तु मारभ्य एकोनत्रिंशत्तम सूर्यप्रयन्तेषु भावना कर्तव्या। अथान्तिमत्रिंशत्तम सूर्यर्तुजिज्ञासायामाह- अत्रापि स एव पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो वराशिद्वर्युत्तर वृद्धिक्रमेण त्रिंशत्तमे सूर्यत्तौ एकोनषष्टया गुण्यते, जातानि सप्तदशसहस्राणि नाशतानि तदुपरि पञ्चनवतिश्च (१७९९५)। एभ्यश्चतुर्दशसहस्राणि, षट् शतानि चत्वारिंशदधिकानि १४६४०) एतावत्परिमितै शोधनकैश्चत्वारः परिपूर्णा युगस्य संवत्सर चतुष्कसम्बन्धि चतुर्विशति सूर्यतु सत्का नक्षत्रपर्यायाः शोध्यन्ते स्थितानि पश्चात् पञ्च पञ्चाशदधिकानि त्रयस्त्रिंश छतानि (३३५५), अथ युगस्य पञ्चसंवत्सरसत्कानि पञ्चविंशतितमसूर्यत्तुत आरभ्य शित्तम सूर्य सपर्यन्तकानि शोधनकान्याह ततस्तेभ्यः पूर्वोक्तेभ्यः (३३५५) अष्टाशीतिः पुष्यस्य शोध्यते, स्थितानि पश्चात् सप्तषष्टयधिकानि द्वात्रिंशच्छतानि (३२६७) एभ्योऽष्टपञ्चाशदधिकानि द्वात्रिंशच्छतानि (३२५८) अश्लेषातो मृगशीर्षपर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः शेषा नव (९) एभिरार्द्रा न शुयति, तत आगतम् नवचतुस्त्रिंशदधिकशतभागान् आ सत्कानवगाह्य सूर्यस्त्रिंशत्तमं स्वकीय मृतुं परिसमापयतीति । इति सूर्यर्तवः समाप्ताः । साम्प्रतं चन्द्रघुन् प्रतिपादयति-तत्र चन्द्रर्तन चत्वारिशतानि द्वयुत्तराणि (४०२) भवन्ति, तथाहि- एकस्मिन्नक्षत्रपर्याये चन्द्रस्य घड् ऋतवो भवन्ति, चन्द्रस्य नक्षत्रपर्यायाश्च एकस्मिन् युगे सप्रषष्टि संख्यका भवन्तीतिमातषष्टिः पइभिर्गुण्यते. Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१२ सू.४ ऋतु वक्तव्यताप्रतिपादनम् ५२५ जायन्ते चत्वारि शतानि द्वयुत्तराणीति (४०२) एतावन्तो युगे चन्द्रस्य ऋतवो भवन्ति, उक्तञ्च "चत्तारि उउ सयाइं वि उत्तराई जुगम्मि चंदस्स" इति । एकैकस्य चन्द्रोंः परिमाणं परिपूर्णाश्रत्वारोऽहोरात्रा, पञ्चमस्याहोरात्रस्य सप्तत्रिंशत् मप्तषष्टि भागाः, उक्तञ्च चंदस्सु उ परिमाणं, चत्तारि य केवला अहोरत्ता । सत्त तीसं अंसा सत्त टिकरण छेएण" ॥१॥ चन्द्रस्य ऋतु परिमाणं चत्वारश्च केबला अहोरात्राः । सप्तत्रिंशद् अंशाः, सप्तषष्टि कृतेन छेदेन ॥१॥ इतिच्छाया । कथमेतदित्याह-इहैकस्मिन् नक्षत्रपर्याये षड् ऋतव इति प्रागेवोक्तम् चन्द्रविषयक नक्षत्रपर्यायस्य परिमाणं सप्तविंशतिरहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तषष्टि भागाः, तत्राहोरात्राणां षड्लिर्भागो हियते लब्धाश्चात्वारोऽहोरात्राः शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः, ते सप्तषष्टि भागकरणार्थं सप्तषष्टया गुण्यन्ते जाते एकोत्तरे हे शते (२०१) तत उपरितना एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते जाते द्वाविंशत्यधिके द्वे शते (२२२), तेषां षड्भिर्भागे हृते लब्धाः सप्तत्रिंशत् सप्तषष्टिभागा इति (४-३९ ) । तेषां चन्द्रनियनार्थमत्र वृद्धोक्ते व गाथे ३९ तथाहि-- "चंद उउ आणयणे, पव्वं पण्णरससंगुणं नियमा । तिहि संखितं संतं, बावट्ठी भागपरिहीणम् ॥१॥ चोत्तीससैयाभिहयं, पंचुत्तरतिसयसंजुयं विभए । छहिं उ दमुत्तरेहिय, सएहिं लद्धा उऊ होइ ॥२॥" छाया--चन्द्रनियने पर्व पञ्चदशसंगुणं नियमात् । तिथि संक्षिप्तं सत्, द्वाषष्टिभागपरिहीनम् ॥१॥ चतुस्त्रिशच्छताभिहतं, पञ्चोत्तरत्रिशतसंयुतं विभजेद् । षड्भिस्तु दशोत्तरैश्च शतैः लब्धा ऋतवो भवन्ति ॥२॥ अनयोख्यिा 'चंद उउ आणयणे' इति विवक्षितस्य चन्द्रौरानयने कर्तव्ये 'पव्वं' युगादितो यत् पर्व पर्वसंख्यानमतिसंक्रान्तं तत् 'पण्णरससंगुणं नियमा' पञ्चदशभिर्गुणितं नियमात् कर्तव्यम्, तत स्तत् 'तिहिसखित्तं संतं' तिथिसंक्षिप्तं सदिति यास्तिथयः पर्वाणामुपरि विवक्षिता दिनात् प्रागतिक्रान्तास्तास्तत्र संक्षिप्यन्ते पात्यन्ते इति भावः, ततस्तत 'बावद्विभागपरिहीणं' द्वाषष्टिभागपरिहीनं कुर्यात् द्वाषष्टिभागः, द्वाषष्टिभागनिष्पन्ना अवमरात्रा उपचाराद् द्वाषष्टिभाग शब्देन कथ्यन्ते, ततस्तेषष्टिभाग संज्ञकैरवमरात्रैः परिहीनं कर्त्तव्यम् तत एवम्भूतं तत् 'चोत्ती Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे ससयाभिहयं' चतुस्त्रिंशदधिकशतेनाभिहतं-गुणितं तत् 'पंचुत्तरतिसयसंजुयं' पञ्चोत्तर शत संयुतं कृत्वा 'विभए' विभजेत् तस्य भागं हरेत् , कैर्भागं हरेदित्याह-'छहिं उ दसुत्तरेहिय सरहिं' दशोत्तरैः षभिःशतै (६१०) इति । हूते च भागे 'लद्धा' ये लब्धा अङ्कास्ते 'उउहोइ' ऋतवो भवन्ति ऋतवो ज्ञातव्या इत्यर्थः ॥२॥ एष करणगाथा द्वयार्थः । साम्प्रतमनयो र्भावना भाव्यते-अथ कोऽपि पृञ्छेत्-यत् युगादितः प्रथमे पर्वणि पञ्चम्यां कश्चन्द्र वर्तते ? इति । तत्राह-तत्रैकमपि पर्वपरिपूर्णमिह नाघाप्यभूदिति युगादितो दिवसा रूपोनाः स्थाप्यन्ते, ते च चत्वारः, ततस्ते चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि षट्त्रिंशदधिकानि पञ्चशतानि (५३६), ततो भूयः पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि-प्रक्षिप्यन्ते, जातानि एकच वारिंशदधिकानि अष्टौ शतानि (८ ४१ । तेषां 'विभए छहिं उ दमुत्तरेहिरा सएहि' इति वचनात् दशोतरै षडूभिः शतैः (६१०) भागो ह्रियते, लब्धः प्रथम ऋतुः अंशा उद्धरन्ति एकत्रिंशदधिके द्वे शते (२३१), तेषां चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन (१३४) भागो हियते, लब्ध एकः, उद्धताः शेषा अंशाः सप्तनवतिः (९७) । चतुस्त्रिशदधिकेन शतेन भागे हृते येऽङ्का लभ्यन्ते ते दिवसा ज्ञातव्याः , अत्र तु लब्ध एक-इति एको दिवसः । ततः शेषी भूताः सप्तनवतिरंशास्तेषां द्विकेनापवर्तना क्रियते, अपवर्तिते च चत्वारिंशत् लब्धाः सार्द्धा अष्ट चत्वारिंशत् (a) सप्तषष्टिभागाः । तत आग तम्-युगादितः पच्चम्यां प्रथमः ऋतुः प्रावृड्लक्षणोऽतिक्रान्तः, द्वितीयस्य ऋतोरेको दिवसो गतः ... ऋ. दि. भा. द्वितीयस्य च दिवसस्य सार्द्धा अष्टचत्वारिशत् सप्तषष्टि भागाः ( १।१।४८॥ ) इति ६७ अथ कोऽपि पृच्छेत्-युगादितो द्वितीये पर्वणि एकादश्यां कश्चन्द्रर्तुः ? इति । तत्रैक पर्व अतिक्रान्तमित्येको ध्रियते तस्मिन् पञ्चदशभिर्गुणिते जाताः पञ्चदश । एकादश्यां पृष्टमिति तस्याः पाश्चात्या दश ये दिवसास्ते प्रक्षिप्यन्ते जाताः पञ्चविंशतिर्दिवसाः, ते चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि पञ्चाशदधिकानि त्रयस्त्रिशन्छतानि (३३५०) तेषु पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि प्रक्षि यन्ते, जातानि पञ्च पञ्चाशदधिकानि षट्त्रिंशच्छतानि (३६५५), तेषां दशोत्तरैः षभिः शतैः (६१०) भागे हूते लब्धाः पञ्च (५), शेषातिष्ठन्त्यंशाः पञ्चोत्तर षट्शतसंख्यकाः (६५), तेषां चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन भागो हियते लब्धाश्चत्वारो. दिवसाः (४), उद्धृता शेषा अंशा एकोन सप्तति (६९), तस्य द्विकेनापवर्तनायां कृतायां लब्धाः साश्चितुस्त्रिंशत् (३४।।) सप्तषष्टि भागाः । तत आगतम्-पञ्च ऋतवोऽतिक्रान्ताः, षष्टस्य च ऋतोश्चत्वारो दिवसाः, पञ्चमस्य दिव Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १२ सू.४ ऋतु वक्तव्यताप्रतिपादनम् ५२७ भा. ऋ. दि.. ०६७ सस्य सार्द्धाश्चतुस्त्रिंशत् सप्तषष्टि भागा ( ५18 | २४|| ) एव मन्यस्मिन्नपि दिवसे चन्द्रर्चुरखसेयः । साम्प्रतं चन्द्रर्त्तु परिसमाप्ति दिवसानयनार्थं यद् वृद्धैः करणमुक्तं तदभिधीयते— "पुव्वंवि ध्रुवरासी, गुणिए भइए सगेण छेएणं । जं लद्धं सो दिवसो, सोमस्स उउसमत्तीए ॥१॥ छाया -- पूर्व मिव ध्रुवराशौ गुणिते भक्ते स्वकेन छेदेन । यल्लब्धं स दिवसः सोमस्य ऋतुसमाप्तौ ॥ १ ॥ इति । अस्य व्याख्या–इह यः पूर्वे सूर्यर्त्तुप्रतिपादने ध्रुवराशिः पञ्चोत्तर शतत्रयरूपोऽभिहितश्चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानाम्, तस्मिन् पूर्व मिव गुणिते, तत्किमित्याह - ईप्सितेन एकादिना द्वयुत्तर चतुःशततम (४०२ ) पर्यन्तेन द्वयुत्तरवृद्धेन, एकस्मादारभ्य तत ऊर्ध्वं द्वयुत्तरवृद्धया प्रवर्द्धमानेन गुणिते 'भइए सगेण छेएणं' इति वचनात् स्वकीयेन छेदेन चतुस्त्रिंशदधिकशतरूपेण भक्ते सति यल्लब्धं स सोमस्य चन्द्रस्य ऋतोः समाप्तौ ज्ञातव्यः ॥ १ ॥ इति करणगाथाक्षरार्थः । यथा केनापि पृच्छयते यत् चन्द्रस्य प्रथमः ऋतुः कस्यां तिथौ समाप्तिमेति ? इति तत्र पूर्वोक्तो ध्रुवराशि: (३०५) ध्रियते, अत्र प्रथमतः प्रश्नत्वादेकेन गुण्यते जातस्ता-वानेव (३०५) ध्रुवराशिः, तस्य स्वकीयेन चतुस्त्रिंशदधिकशतप्रमाणेन छेदेन भागे हृते लब्धौ द्वौ शेषा स्तिष्ठन्ति सप्तत्रिंशत् ( ३७ ) एषां द्विकेनापवर्त्तनायां जाताः सार्द्धा अष्टादश (१८ ॥ ) सप्तषष्टिभागाः । तत आगतम् - युगादितो द्वौ दिवसौ, तृतीयस्य च दिवसस्य सार्द्धान् अष्टादश सप्तषष्टिभागानतिक्रम्य प्रथमश्चन्द्रर्त्तः परिसमाप्तिमेति द्वितीयचन्द्र जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः (३०५) द्वयुत्तरवृद्धिक्रमेण त्रिभिर्गुण्यते, जायन्ते पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि ( ९१५), एषां चतुस्त्रिंशदधिकशतेन भागे हृते लब्धाः षट् । उद्धरति शेषमेकादशोत्तारं शतम् (१११), तस्य द्विकेनापवर्त्तनायां लब्धाः सार्द्धाः पञ्च पञ्चाशत् ( ५५ | | ) सप्तषष्टिभागाः । तत आगतम् - युगादितः षदिवसा अतिक्रान्ताः, सप्तमस्य दिवसस्य च सार्द्धेषु पञ्चपञ्चाशत्संख्यकेषु सप्तषष्टि भागेषु गतेषु द्वितीयश्चन्द्रतुः समाप्नोतीति । अथान्तिम द्वयुत्तर चतुः शततमर्तुः जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः पञ्चोत्तरेशतत्रयप्रमाणः (३०५ ) द्व्युत्तर द्व्युत्तर वृद्धि - क्रमेण द्वयुत्तरचतुः शततमे ऋतौ त्र्युत्तराष्टशतप्रमाणः (८०३) एव राशिर्भवतीति त्र्युत्तरैरष्टभिः शतै (८०३) गुण्यते । तथाहि यस्य एकस्मादूर्ध्वं द्वयुत्तरवृद्धया राशिश्चिन्त्यते "तस्य द्विगुणो रूपोनो भवति, यथा-द्विकस्य त्रीणि, त्रिकस्य पश्च, चतुष्कस्य सप्त, पञ्चकस्य नव, एवं क्रमेऽणात्रापि द्वयुत्तरचतुःशतप्रमाणस्य राशे द्वर्युत्तर द्वयुत्तर वृद्धया राशिश्चिन्त्यते तदा त्र्युत्तराणि अष्टौ शतानि (८०३) भवन्तीति, एवं भूतेन च राशिना (८०३) ध्रुवराशेः Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmm..चन्द्रशामिले ५२८: (३०५) गुणने कृते जायन्ते द्वे लक्षे, चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि, पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि (२४४९१५) । एषां चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन (१३४) भागो हियते, लब्धानि सप्तविंशत्यधिकान्यष्टादशशतानि (१८२७) । शेषास्तिष्ठन्त्यंशाः सप्तनवतिः (९७) अस्या द्विकेनापवर्तनायां जाताः सार्धा अष्टचत्वारिंशत् (४८॥) सप्तषष्टिभागाः(१।। तत आगतम्-युगादितः सप्तविंशत्यधिकेषु अष्टादशसु शतेषु (१८२७) दिवसानामतिकान्तेषु, ततः परस्य अष्टाविंशत्यधिकाष्टादशशततमस्य (१८२८) दिवसस्य सार्दुष्वष्टचत्वारिंशत्संख्यकेषु (४८॥) सप्तषष्टिभागेषु गतेषु सत्सु द्वयत्तरचतुःशततमस्य (४०२) चन्द्रोंः परिसमाप्तिर्भवतीति एतेषु च चन्द्रर्तुषु चन्द्रः नक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ वृद्धैः करणगाथा प्रोक्ता, तथाहि.... "सो चेव धुवो रासि, गुणरासोवि य हवंति ते चेव । । नक्खत्त सोहणाणि य, परिजाणिसु पुव्वभणियाणि ॥१॥ ... छाया -- स एव ध्रुवो राशिः गुणराशयोऽपि च भवति ते एव । - नक्षत्रशोधनानि, परिजानीहि पूर्वभणितानि ॥१॥ इति ! । अस्या व्याख्या-चन्द्रानां चन्द्रनक्षत्रयोगार्थ 'सो चेव धुवो रासी' इति स एव पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिख़तव्यः । तथा 'गुणरासीवि हवंति ते चेव' गुणराशयोऽपि गुणकार राशयोऽपि एकादिका द्वयुत्तरवृद्धास्ते एव भवन्ति ये पूर्वप्रदर्शिताः, 'नक्खत्त सोहणाणि' नक्षत्रशोधनकान्यपि 'पुव्वभणियाणि' पूर्वभणितानि 'अभिहम्मि बायाला' इत्यादिवचनाद् वाचवारिंशत्प्रभृतीनि 'परिजाणसु' परिजानीहि । एवं कृते विवक्षिते चन्द्रग नियतो नक्षत्रयोगः समा गच्छतीप्ति करणगाथाक्षरार्थः । अथात्रकोऽपि पृच्छेत् यत् प्रथमे चन्द्रग कश्चन्द्रनक्षत्रयोगः । इति, तत्र स एव ध्रुवराशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणः (३०५). स्थाप्यते, स एव प्रथमचन्द्रोंः पृष्टत्वाद् एकेन गुण्यते जातस्तावानेव (३०५) ततः 'अभिइम्मि बायाला' इति वचनात् भभिजितो द्वांचत्वारिंशत् शोध्यते, शेषे तिष्ठतः त्रिषष्ठ्यधिके द्वे शते (२६३) ततश्चतुर्विंशदधिकेन शतेन (१३४) श्रवणः शुद्धः, स्थितं पश्चादेकोनत्रिंशदधिकं शतम् (१२९), तस्य द्विकेनापवर्तना क्रियते जाताः सार्धाश्चतुः षष्टिः (६४॥) सप्तषष्टिभागाः । तत आगतम्-अमिजितः श्रवणस्य च परिभोगानन्तरं धनिष्ठायाः सार्द्धचतुष्पष्टिसंख्यकान् सप्तषष्टिभागानवगाह्य चन्द्रः स्वकीयमृतुं परिसमा. पयनीति । द्वितीयचन्द्रर्तु जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः (३०५) द्वयुत्तरवृद्धिक्रमेण त्रिभिर्गुण्यते जायन्ते पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि (९१५), तत्राभिजितो द्विचत्वारिंशत् शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् त्रिसमत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८७३), ततश्चतु स्त्रिंशदधिकं शतं (१३४) श्रवणस्य शोध्यते स्थितानि पश्चात् एकोनचत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि (७३९) एतस्मात् चतुस्त्रिशदधिकं शतं (१३४) धनिष्ठायाः शोभ्यते, जातानि पञ्चोत्तराणि षट् शतानि (६०५) एतस्मादपि सप्तषष्टि शतभिषजः Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका प्रा. १२ सु. ४ ऋतुवक्तव्यताप्रतिपादनम् ५२९ शोध्यते स्थितानि पश्चात् अष्टत्रिंशदधिकानि पञ्चशतानि (५३८), एतेभ्योऽपि चतुस्त्रिंशदधिकं शतं (१३४) पूर्वभाद्रपदाया शोध्यते, स्थितानि पश्चात् चतुरधिकानि चत्वारि शतानि (४०४) एतेभ्योऽपि एकोत्तरं शतद्वयं (०१) उत्तराभाद्रपदायाः शोध्यते, स्थितंत्र्युत्तरं शतद्वयम् (२०३) अस्मादपि चतुस्त्रिंशदधिकं शतं (१३४) रेवत्याः शोध्यते, स्थिता पश्चादेकोनसप्ततिः (६९) तत आगतम्—अश्विनीनक्षत्रस्यैकोनसप्ततिभागान् (६९) चतुस्त्रिंशदधिकशत भागा सत्कान् अवगाह्य चन्द्रो द्वितीयं स्वकीयमृतु परिसमापयतीति । अथान्तिमद्वयुत्तरचतुःशततम (४०२) चन्द्रर्त्तविषयप्रश्नेऽपि स एव पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिः स्थाप्यते, ततः प्रत्येकचन्द्रतैौ द्वयत्तरद्वयुत्तर वृद्धिक्रमेण त्र्युत्तराणि अष्टौशतानि (८०३) समायान्ति तत त्र्युत्तरैरष्टभिः शतैः (८०३) द्वयुत्तरचतुःशततमे चन्द्रत ध्रुवरा शिर्गुण्यते, जातानि द्वे लक्षे, चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि, नवशतानि पञ्चदशोत्तराणि (२४४९१५), अत्र एकनक्षत्र पर्यायपरिमाणं - षष्ट्यधिकानि षट्त्रिंशच्छतानि (३६६०), एतावत्प्रमाणं भवति, तदेव प्रदर्श्यते-षट्सु अर्द्धक्षेत्रेषु प्रत्येकं सप्तषष्टिरंशाः (६७), षट्सु द क्षेत्रेषु प्रत्येक मेकोत्तरं शतद्वयम् २०१) अंशानाम्, शेषेषु पञ्चदशसु समक्षेत्रेषु नक्षत्रेषु प्रत्येक चतुस्त्रिंशदधिकं शतम् (१३४) इति । तत्र षड् अर्द्धक्षेत्राणि नक्षत्राणीति तेषां प्रत्येकं सप्तषष्ट्यांशात्मकत्वात् षट् सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते जातानि द्वयुत्तराणि चत्वारिशतानि (४०२) एते षण्णां समक्षेत्राणामंशाः । तथा षट् द्वयर्द्धक्षेत्राणि नक्षत्राणीति तेषां प्रत्येकमेकोत्तरद्विशतांशात्मकत्वात् षड् एकोत्तरशतद्वयेन (२०१) गुण्यन्ते, जातानि षडुत्तराणि द्वादश शतानि (१२०६ ) एते षण क्षेत्र नक्षत्राण | मंशाः । तथा शेषाणि पञ्चदश नक्षत्राणि समक्षेत्राणीति तेषां प्रत्येकं चतुस्त्रिंशदधिकशतांशात्मकत्वात् पञ्चदश चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन (१३४) गुण्यन्ते जातानि दशोत्तराणि विंशतिशतानि (२०१०), एते पञ्चदशानां समक्षेत्रनक्षत्राणामंशा इति । एते त्रयोऽपि राशय एकत्र मील्यन्ते, जातानि अष्टादशाधिकानि षट् त्रिंशच्छतानि (३६१८), एषु शेषस्याष्टाविंशतितमस्याभिजिन्नक्षत्रस्य द्विचत्वारिंशत् (४२) प्रक्षिप्यन्ते, जातानि - षष्ट्यधिकानि षट्त्रिंशच्छतानि (३६६०) इति अंशानां कोष्ठकम् षण्णामर्धक्षेत्राणामंशाः - ४०२ षण्णां चर्धक्षेत्राणामंशाः - १२०६ पञ्चदशानां समक्षेत्राणामंशाः - २०१० अभिजिन्नक्षत्रस्यांशाः - ४२ सर्व योगः - ३६६० ६७ एतावता - एकेन नक्षत्रपर्यायपरिमाणेन पूर्व राशेः (२४४९१५) भागो हियते, लब्धा षट्षष्टिः (६६) नक्षत्रपर्यायाः, पश्चादवतिष्ठन्ते - पञ्च पञ्चा शदधिकानि त्रयस्त्रिंशच्छतानि ( ३३५५) । एभ्योऽभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शोध्यते, स्थितानि शेषाणि त्रयोदशाधिकानि त्रयत्रिंशच्छतानि (३३१३), एभ्यो द्वय Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० चन्द्रप्रक्षति शीत्यधिकानि त्रिंशच्छतानि (३०८२) श्रवणत आरभ्यानुराधापर्यन्तानां त्रयोविंशतिनक्षत्राणां शोधनकानि शोध्यते स्थिते-एकत्रिंशदधिके द्वे शते (२३१) एभ्यः सप्तषष्टि (६७) ज्येष्ठायाः शोध्यते, स्थित चतुष्षष्टयधिकं शतम् (१६४), अस्मात् चतुस्त्रिंशदधिकं शंत (१३४) मूलनक्षत्रस्य शोध्यते, स्थिताः पश्चात् त्रिंशत् (३०), तत आगतम–पूर्वाषाढानक्षत्रस्य त्रिंशतं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानामध्यादवगाह्य चन्द्रो द्वयुत्तरचतुःशततमं (४०२) स्वकीयमृतुं परिसमापयतीति । तदेवं सूर्य परिमाणं चन्द्र परिमाणं च प्रोक्तम्, साम्प्रतं सूत्रमनुसरामः, तत्र लोक रूढ्या यावत्कमेकैकस्य चन्द्रोंः परिमाणं भवति तावत्कं परिमाणं प्रदर्शयति—'ता सव्वेविणं' इत्यादि । 'ता सव्वे विणं' इति 'ता' तावत् 'सव्वे वि णं' सर्वेऽपि षट्संख्याकाः प्रावृडादाय ऋतुवः 'एए' एते पूर्वोक्ताः 'चंदउऊ' चन्द्रर्त्तवः 'दुवेरमासा' द्वौ द्वौ मासौ प्रत्येकं द्वि द्वि मासप्रमाणाः सन्ति । तत्र 'ति चउप्पण्णेणर' इति त्रीणि शतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि रात्रिन्दिवानाम्, तथा एकस्य रात्रिन्दिवस्य द्वादश च द्वाषष्टि भागाः ( ३५४-- ), इति चन्द्रसंवसररात्रिन्दिवप्रमाणम्, इत्येवं रूपेण 'आदाणेणं' आदानेन इत्येवंरूपसंवत्सरप्रमाणग्रहणेन 'गणिज्जमाणा' गण्यमानौ मासौ 'साइरेगाइं एगृणसट्ठी२ राइंदियाई एकोनषष्टिरेकोनषष्टिः रात्रिन्दिवानि सातिरेकाणि किश्चिदाधिकचयुक्तानि 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण रात्रिन्दिव परिमाणेन 'आहिया' आख्यातो, चन्द्र सत्कं मासद्वयं किञ्चिदधिकैकोनषष्टिरात्रिन्दिवपरि परिमितं भवति 'तिबएज्जा' इति वदेसू कथयेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि-द्वि द्वि मासप्रमाणाः षड्ऋतव इति चतुष्पञ्चाशदधिकानां त्रयाणां रात्रिन्दिवशतानां ( ३५४ ) षड्भिर्भागे हते लब्धा एकोनषष्टिरहोरात्राः, द्वादशानां द्वाषष्टिभागानां षड्भिर्भागे हूते लब्धौ द्वौ द्वाषष्टिभागौ इतितयोः सातिरेकत्वमिति । एवं च सति कर्ममासापेक्षया एकैकस्मिन् ऋतौ लौकिकमेकैकं चन्द्रर्तुम्अधिकृत्य ब्यवहारत एकैकोऽवमरा त्रो भवति, एवं सकले कर्मसंवत्सरे षड्अवमरात्रा भवन्ति, तदेव सूत्रकारः प्रदर्शयति-तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र तस्मिन् कर्मसंवत्सरे चन्द्रसंवत्सरमाश्रित्य व्यवहारतः 'खलु' निश्चयेन 'इमे' वक्ष्यमाणाः ‘छ ओमरत्ता पण्णत्ता' षड्अवमरात्राः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा--'तइए पव्वे' तृतीये पर्वणि प्रथमः १ । 'सप्तमे पव्वे' सप्तमे पर्वाण द्वितीयः २ । 'एक्कारसमे पव्वे' एकादशे पर्वणि तृतीयः ३ । 'पण्णरसमे पव्वे पञ्चदशे पर्वणि चतुर्थः ४ । 'एगूणवीसइमे पव्वे' एकोनविंशतितमे पर्वणि पञ्चमः ५ । 'तेवीसमे पव्वे' त्रयोविंशतितमे पर्वणि षष्ठः ६ । एते षट् अवमरात्राः प्रज्ञप्ताः चन्द्रसंवत्सरे इति । इयमत्र भावना-इह कालस्य सूर्यादि क्रियोपलक्षितस्यानादिप्रवाहपतित प्रति नियत स्वभावस्य Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.४ ऋतुवक्तव्यताप्रतिपादनम् ५३१ न स्वरूपतः काऽपि हानिः, नापि च कश्चित् स्वरूपे उपचयः यत्त्विदं चन्द्रर्तुमाश्रित्यावमरात्रप्रतिपादनं, सूर्यर्तुमाश्रित्यातिरात्रप्रतिपादनं तत् सूर्यचन्द्रयोः परस्परं मासचिन्ता पेक्षयाऽवगन्तन्यम् । तथाहि-कर्ममा समपेक्ष्य चन्द्रमासश्चिन्त्यते तदाऽवमरात्रसम्भवः, अयं परस्परमासचिन्तायां भेदः, तथा चोक्तम् - "कालस्स नेवहाणी, नविवुड्ढीवा अवटियो कालो । जायइ वड्ढोवड्ढी, मासाणं-एकमेकाओ ॥१॥ छाया--कालस्य नैवहानिः, नाभि वृद्धि ( किन्तु) अवस्थितः कालः । जायेते ( यत् ) वृद्धयपवृद्धी ( ते ) मासयोरे कैकस्मात् ॥ १ ॥ इति ॥ सूर्यचन्द्रमासयोरेकैका पेक्षयेत्यर्थः । तत्रावमरात्रभावना करणार्थ वृद्धोक्ते इमे द्वेगाथे प्रदश्यते "चंद उ उ मासाणां, अंसा जे दिस्सए विसेसम्मि । ते ओमरत्त भागा, भवंति मासस्स नायव्वा ॥१॥ बावटि भाग मेगं, दिवसे संजाए ओमरत्तस्स । बावट्ठीए दिवसेहि, ओमरत्तं ताओ हवइ ॥२॥ छाया-चन्द्रर्तुमासयोः अंशा ये दृश्यन्ते विश्लेषे । ते अवमरात्रभागाः भवन्ति मासस्य ज्ञातव्याः । द्वाषष्टि भाग एकः दिवसे संजायते अवमरात्रस्य । द्वाषष्टया दिवसः, अवमरात्रस्ततो-भवति ॥२॥ इति अनयोरर्थः - कर्ममासः परिपूर्णत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः, चन्द्रमासः - एकोनत्रिंशदहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः (२९३) एतावत्परिमितो भवती ति 'चंदउउमासाणं चन्द्रर्तुमासयोः चन्द्रमासपरिमाणस्य ऋतुमासपरिमाणस्येति कर्ममासपरिमाणस्य कर्ममासपरिमाणस्य च, अनयोर्द्वयोः 'विसेसम्मि' विश्लेषे कृते सति 'जे अंसा' ये अंशा उद्धृताः 'दिस्सए' दृश्यन्ते त्रिंशत्द्वाषष्टिभागरूपाः 'ते ओमरत्तभागा' ते अवमरात्रस्य भागाः 'मासस्स' एकस्य मासस्य भवन्तीति 'नायव्बा' ज्ञातव्याः, सोऽवमरात्रश्च मासद्वयस्य पर्यन्ते परिपूर्णो भवति ततस्तस्य सम्बन्धिनस्ते भागा मासस्यावसाने द्रष्टव्या इति भावः । तदेव गणितेन प्रदर्श्यते यदि त्रिंशति दिवसेषु त्रिंशद् द्वाषष्टिभागा अवमरात्रस्य लभ्यन्ते तदा एकस्मिन् दिवसे कति भागा लभ्यते ? इति राशित्रयं स्थाप्यते-३०।३०।१। अत्र गणितक्रममधिकृत्यान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमो राशि स्त्रिंशल्लक्षणो गुण्यते, जातस्तावानेव (३०), अस्य राशे रादिराशिना त्रिंशद्रूपेण भागो हियते, लब्ध एकः परिपूर्णोऽङ्कः, न किञ्चिदवशिष्टम् , तत आगतम्-प्रति Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र दिवसमेकैको द्वाषष्टि भागो लभ्यते तत आह 'बावद्विभागमेगं दिवसं' इति द्वाषष्टि भाग एकैको दिवसे दिवसे 'संजाइ' संजायते कस्येत्याह-'ओमरत्तस्स' अवमरात्रस्य जायते । गाथायामेक शब्दो दिवसशब्दश्चागृहीतवोप्सोऽपि व्याख्यानसामर्थ्याद वीप्सां प्रापयति, 'बावट्ठिभागमेगं' इत्यत्र नपुंसकनिर्देशश्च प्राकृतत्वात् । तदेवं यदा एकैकस्मिन् दिवसे एकैको द्वाषष्ठिभागोऽवमरात्रसम्बन्धी लभ्यते तदा द्वाषष्ट्या दिवसैरेकः परिपूर्णोऽवमरात्रो भवति । कथमित्याह-दिवसे दिवसे.. ऽवमरात्रसत्कैकैकद्वाषष्टिभागवृद्धया संजायमानः द्वाषष्ठिततमो भागो द्वाषष्टितमदिवसे प्रारम्भत एव त्रिषष्ठितमा तिथिः प्रवर्तते, इति, एवं च सति य एकषष्टितमोऽहोरात्रो भवति तस्मिन्नहोरात्रे एकषष्टितमा द्वाषष्टितमा च तिथिनिधनमुपगतेति लोके द्वाषष्टितमा तिथिः पतितेति व्यवह्रियते, उक्तश्च - “एक्कंसि अहोरत्ते, दो वि तिही जत्थ निहणमेज्जासु । सोऽत्थ तिही परिहायई" एकस्मिन्नहोरात्रे द्वे अपि तिथी अत्र निधनमियास्ताम साऽत्र तिथिः परिहीयते, इतिच्छाया, एवं वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य श्रावणादेस्तृतीये पर्वणि सति प्रथमोऽवमरात्रो भवतीति । एवं तस्यैव वर्षाकालस्य सम्बन्धिनि सप्तमे पर्वणि सति द्वितीयोऽवमरात्रो भवति २। तथा शीतकालस्य तृतीये पर्वणि मूलत एकादशे पर्वणि तृतयोऽवमरात्रो भवति ३। तस्यैव शीतकालस्य सप्तमे पर्वणि, मूलतः पञ्चदशे पर्वणि चतुर्थोऽवमरात्रः ।। तदनन्तरं ग्रीष्मकालस्य तृतीये पर्वणि, मूलत एकोनविंशतितमे पर्वणि पञ्चमोऽवमरात्रः ५। तस्यैव ग्रीष्मकालस्य सप्तमे पर्वणि मूलतस्त्रयोविंशतितमे पर्वणि षष्ठोऽवमरात्रः ६। उक्तञ्च"तइयम्मि ओमरतं, कायव्वं सत्तमम्मि पव्वम्मि । वास-हिम-गिम्ह-काले, चाउम्मासे विधीयते ॥१॥ तृतीये अवमरात्रं कर्तव्यं सप्तमे पर्वणि । । (एवं क्रमेण) वर्षा हिम-ग्रीष्मकाले चातुर्मासे विधीयन्ते ॥१॥ इतिछाया । इहाषाढाद्याऋतवो लोके प्रसिद्धि प्राप्ताः, ततो लौकिकव्यवहारापेक्षया आषाढादारभ्य प्रति दिवसमेकैक द्वाषष्टिभागहान्या वर्षाकालादि गतेषु तृतीयादिषु षट्सु पर्वसु यथोक्ताः षड् अवमरात्राः प्रतिपाद्यन्ते, वस्तुतः पुनः श्रावण बहुलपक्षप्रतिपल्लक्षणात् युगादित आरेभ्य चतुश्चतुः पर्वातिक्रमेऽवमरात्रा वेदितव्याः । अथ युगादितः कति पर्वातिक्रमे कस्यामवमरात्रीभूतायां तिथौ तया सह का तिथिः परिसमाप्स्यति ! इति चिन्तायां वृद्वोक्ताः प्रश्ननिर्वचनगर्भितास्तिस्रो गाथाः प्रदर्श्यन्ते Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.४. ऋतुवक्तव्यता प्रतिपादनम् १५३ "पाडिवय ओमरत्ते, कइया बिइया समप्पिहीइतिही । विइया एवा तइया, तइया-एवा चउत्थीउ ॥१॥ सेसासु चेवकाहिड, तिहिसु ववहार गणियदिवासु । सुहुमेण परिल्लतिही, संजायइकम्मि पव्वम्मि ॥२॥ रूवहिगा उ ओया बिगुणा पन्या हवंति कायव्वा । एमेव हवइ जुम्मे, एक्कतीसा जुया पव्वा ॥३॥ छाया–प्रतिपदि अवमरात्रे कदा द्वितीया समापयति तिथिः । द्वितीयायां वा तृतीया, तृतीयायां वा चतुर्थी तु ॥१॥ शेषासु चैव करिष्यति तिथिषु व्यवहारेगणितदृष्टासु । सूक्ष्मेण पर तिथिः, संजायते कस्मिन् पर्वणि ॥२॥ रूपाधिकास्तु औजस्यः, द्विगुणानि पर्वाणि भवन्ति कर्त्तव्यानि । एव मेव भवति युग्मायाम् एकत्रिंशद्युता पर्वाणि ॥३॥ इति ! व्याख्या चैषाम्-'पाडिवयओमरत्ते' प्रातिपदि प्रतिपत् सम्बन्धिनि अवमरात्रे इति अवमरात्रीभतायां प्रतिपदायां सत्यां 'कइया' कदा कस्मिन् पर्वणि पक्षे 'बिइया समप्पिही तिही' द्वितीया तिथिः समाप्स्यति ? प्रतिपद्दया सह द्वितीया तिथिरेकस्मिन्नहोरात्रे कदा समाप्तिमेष्यति ? इति प्रश्नः । एवम्-'बिइया एवा तइया' द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां वा तृतीया तिथिः कदाकस्मिन् पर्वणि ! 'तइयाए चउत्थीउ, तृतीयायामवरात्रीभूतायां चतुर्थी तिथिः कस्मिन् पर्वणि समास्यति ? ॥१॥ एवम्-'सेसासु चेव कहिइ तिही ववहारगणियदिट्ठासु' व्यवहारगणितदृष्टासु लोकप्रसिद्धगणितेन परिभवितासु शेषासु चतुर्थ्यादितिथिषु अवमरात्री भूतासु पञ्चम्यादितिथयः कस्मिन् कम्मिन् पर्वणि समप्तिमेष्यतीति प्रश्नं शिष्यः 'काहिइ' इति करिष्यति, तथाहि-चतुर्यो पञ्चमी, पञ्चम्यां षष्टी, षष्ठयां सप्तमी, सप्तम्यामष्टमी, अष्टम्यां नवमी, नवम्यां दशमी, दशम्यामेकादशो, एकादश्यां द्वादशी द्वादश्यां त्रयोदशी, त्रयोदश्यां चतुर्दशी चतुर्दश्यां-पञ्चदशी पञ्चदश्यामवमरात्रीभूतायां प्रतिपदा तिथिः कस्मिन् पर्वणि समाप्स्यतोति शिष्यः प्रश्नं करिष्यतीतिभावः । यथा-'मुहुमेण' सूक्ष्मेण लक्षणेन प्रतिदिवसमेकैकद्वाषष्टिभागरूपेण भागेन परिहीयमानायां तिथौ 'परिल्लतिही' पूर्वस्या अवमरात्री भूतायास्तिथे व्यवहिततया परा परातिथिः 'संजायइ. कम्मि पव्वम्मि' कस्मिन् पर्वणि समाप्ता संजायते ? इति प्रश्नस्वरूपम् ॥२॥ अत्राचार्य आह-'रूवाहिगाउ' इत्यादि, 'रूवाहिगाउ' रूपाधिकास्तु-इह यास्तिथयः पृष्टास्ता द्विविधा भवन्ति-ओजों रूपाः, युग्मरूपाश्च,-तत्र ओज इति विषम, युग्मामात समम् । तत्र यास्तिथयः 'ओया' औजस्यः ओजोरूपा विषमा इत्यर्थः Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ताः प्रथमं रूपाधिकाः क्रियन्ते, ओजोरूपासु तिथिषु एकं रूपं प्रक्षिप्यते इति भावः, ता रूपाधिका ओजोरूपास्तिथयः 'बिगुणा कायव्वा' द्विगुणाः कर्तव्याः एवं करणे तस्यास्तस्यास्तिथेः 'पव्वा हवंति' पर्वाणि युग्मपर्वाणि भवन्ति, तावत्परिमितानि पर्वाणि समागतानीति परिभावनीयमित्युत्तरम् । 'एमेवहवइ जुम्मे' एवमेव अनेनैव प्रकारेण एकरूपक्षेपणरूपेण युग्मरूपासु तिथिष्वपि विज्ञेयम्, तथाहि-युग्मरूपासु तिथिषु एकं रूपं प्रक्षिप्य तास्तिथयो द्विगुणी क्रियन्ते, विशेषस्त्वयम्-द्विगुणीकृता एतास्तिथयः 'एक्कतीसाजुया' एकत्रिंशद्युत्ताः कर्त्तव्याः, आसु एकत्रिंशत् प्रक्षिप्यन्ते, तदनन्तरं या संख्या समायाति तत्परिमितानि 'पव्वा' पर्वाणि-भवन्तीत्युत्तरं युग्ममितिथिविषयकमिति ॥३॥ इति गाथात्रयस्य व्याख्या । अथात्र भावना क्रियते-अत्रायं प्रश्नःयत् कस्मिन् पर्वणि-अवमरात्रीभूतायां प्रतिपदायां द्वितीया समाप्नोतीति, अत्र किल प्रतिपदुद्दिष्टा, सा च प्रथमातिथिरित्येकः स्थाप्यते, अस्या ओजोरूपत्वादेको रूपाधिकः क्रियते 'रूवाहिया उ ओया" इति वचनात्, रूपाधिके कृते जाते द्वे, ते अपि 'बिगुणा कायव्वा' इति वचनात् द्विगुणी क्रियते, जाताश्चत्वारः 'पन्वा हवंति' इति वचनात् आगतानि चत्वारि पर्वाणि ततोऽयमर्थः-युगादितश्चतुर्थे पर्वणि प्रतिपदायामवरात्रीभूतायां द्वितीया तिथिः समाप्तिमेतीति । युक्ति युक्तमेतत्, तथाहि-प्रतिपदायामुद्दिष्टायां चत्वारि पर्वाणि समागतानि, पर्व च पञ्चदशतिथ्यात्मकं भवति ततः पञ्चदशानां चतुर्भिगुणने जायते षष्टिः ।( ६० ) प्रतिपदायां द्वितीया समाप्नोतीति द्वे रूपे तत्राधिके प्रक्षेप्तव्ये ततो जाता द्वाषष्टिः, सा च द्वाष-- ष्टया भज्यमाना निरंश्पभागा भवति न किमपि शेषमवतिष्ठते, लब्धाश्चैककः, इत्यागतः प्रथमोऽवमरात्र इत्यविसंवादिकरणमिति । अथ कोऽपि पृच्छेत् कस्मिन् पर्वणि द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां तृतीया समाप्तिमेति ? इति तदा द्वितीयाया उद्दिष्टत्वेन द्विकः स्थाप्यते, ततश्च'एमेव हवइ जुम्मे' इति वचनात् अस्य द्विकस्य रूपाधिककरणे जातानि त्रीणि रूपाणि, तानि द्विगुणी क्रियते जाताः षट्, द्वितीयातिथिश्च समेति 'एक्कतीसजुया पव्वा' इति वचनात् ते षदएकत्रिंशद् युताः क्रियन्ते जाताः सप्तत्रिंशत् ( ३७), तत् आगतानि सप्तत्रिंशत् पर्वाणि तलो युमादितः सप्तत्रिंशत्तमे पर्वणि गते द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां तृतीयातिथिः समाप्तिमेतीति, इदमपि करणमविसंवादि, तथाहि-पर्वकिल पञ्चदश सप्तत्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्च पश्चाशदधिकानि पञ्चशतानि (५५५) द्वितीयाऽवमरात्रिरिति द्वितीया नष्टा तृतीया जातेति त्रीणि रूपाणि तत्र प्रक्षिप्यन्ते जातानि अष्टपञ्चाशदधिकानि पञ्चशतानि, (५५८ ) पूर्ववदेषोऽपि राशिषिष्टया भज्यमानो निरंशतां प्राप्नोति, लब्धाश्च नव ? ततआगतो नवमोऽमरात्र इति युग्मतिथिविषयकमपि करणं समीचीनमिति । एवमग्रेऽपि सर्वास्वपि तिथिषु करणभावना, करणसमीचीनता अवमरात्रि संख्या च स्वयमूहनीयेति । अत्रागेतनानां पर्वणां निर्देशमात्रं क्रियते, तथाहि-तृतीयायां Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिप्रकाटोका प्रा.१२ सू. ४ ऋतुवक्तव्यता प्रतिपादनम् ५३६ चतुर्थी समाप्नोति अष्टमे पर्वणि गते, चतुर्यो पञ्चमी एकचत्वारिंशत्तमे पर्वणि गते समाप्नोतिपञ्चम्यां षष्टी द्वादशे पर्वणि गते, षष्ठयां सप्तमी पश्चचत्वारिंशत्तमे पर्वणि गते, एवं सप्तम्यामष्टमी षोडशे, अष्टम्यां नवमी एकोनपश्चाशत्तमे, नवम्यां दशमी विंशतितमे, दशम्यामेकादशी त्रिपञ्चाशत्तमे, एकादश्यां द्वादशी चतुर्विशतितमे, द्वादश्यां त्रयोदशी सप्तपञ्चाशत्तमे, त्रयोदश्या चतुर्दशी अष्टाविंशतितमे, चतुर्दश्यां पञ्चदशी एकषष्टितमे, पञ्चदश्यां प्रतिपदा द्वात्रिंशत्तमे पर्वणि गते समाप्नोतीति । एवमेतायुगस्य पूर्वार्द्ध विज्ञेयाः एवं युगस्य उत्तरार्द्धऽपि स्वयमूहनीयाः । . तदेवमवमरात्राः प्रोक्ताः साम्प्रतमतिरात्रान् प्रदर्शयति 'तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ खलु' नत्र एकैकस्मिन् संवत्सरे खलु 'इमे' इमे-वक्ष्यमाणाः 'छ अइरत्ता पण्णत्ता' षड् अतिरात्राः तिथि वृद्धिरूपाः कथिताः 'तं जहा' तद्यथा-ते यथा-'चउत्थे पव्वे' इत्यादि, 'चउत्थे पव्वे' चतुर्थे पर्वणि गते एकः प्रथमोऽहोरात्रोऽधिको भवति । इह कर्ममासापेक्षया सूर्यमासा चिन्तायामेकैकसूर्यत्तुपरिसमाप्तौ एकैकोहोरात्रो लभ्यते तथाहि-त्रिंशदहोरात्रैरेकः कर्ममासो भवति, साई त्रिंशदहोरात्रैश्चैकः सूर्यमासो भवति, ऋतुश्च मास द्वयात्मकस्तत एकस्य सूर्यत्तॊः परिसमाप्तौ कर्मः मासद्वयापेक्षया एकोऽधिकोऽहोरात्रो लभ्यते । सूर्यत्तश्च आषाढादिकः, तत आषाढादारभ्य चतुर्षे पर्वणि गते एकोऽधिको ऽहोरात्रो भवतीत्यतः प्रोक्तम्-'चउत्थे पवे' इति द्वितोयादिकोऽतिरात्रः कियति कियति पर्वणि गते भवतीत्युच्यते-'अट्टमे पन्चे' इत्यादि, 'अट्टमे पव्वे' अष्टमे पर्वणि गने द्वितीयः, 'बारसमे पव्वे' द्वादशे पर्वणि गते तृतीयः, 'सोलसमे पव्वे' षोडशे पर्वणि गते चतुर्थः, 'वीसइमे पव्वे' विंशतितमे पर्वणि गते पञ्चमः, 'चउवीसइमे पव्वे' चतुर्विशतितमे पर्नकि गते षष्टोऽतिरात्रो भवतीति षड् अतिरात्रा भवन्तीति । एतदेव सूत्रकारो गाथया प्रदर्शयति'छच्चेव य इत्यादि 'छच्चेवय अइरत्ता आइच्चाउ हवंति' एते षड् अतिरात्रा आदित्यात् भवन्ति, आदित्यमधिकृत्य प्रति कर्ममासद येऽतिरात्रो भवति, एकस्मिन् कर्ममासे च पर्वद्वयं भवतीति प्रतिचतुर्थे पर्वणि अतिरात्रो लभ्यते ततः प्रतिवर्ष षड् अतिरात्रा भवन्तीति 'माणाहि' जानी हि । तथा एवम् 'छच्चेव ओमरत्ता' षडेव अवमरात्राः 'चंदा उ हवंति' चन्द्राद् भवन्ति चन्द्रमासानधिकृत्य कर्ममासचिन्तायां प्रति संवत्सरं षड् अवमरात्रा भवन्ति, तथाहि-कर्ममास त्रिंशदहोरात्रात्मकः, चन्द्रमासस्तु द्वात्रिंशद् द्वाषष्टि भागा युक्त एकोनविंशदिनात्मकः (२९ स्थुलतया सार्दुकोनत्रिंशदहोरात्रात्मक इति प्रतिमासमोऽहोरात्रः कर्ममासाच्चन्द्रमास न्यून आयाति ततो मासद्वये चतुः पर्वात्मके एकोऽहोरात्रोऽवमरात्रतया भवति, तेन प्रत्येकस्मिन् वर्षे षद अवमरात्रा भवन्तीत्यत उक्तम्-'छ. ओमरत्ता पण्णचा' इति 'माणाहि' जानीहि, इति गाथार्थः ॥१॥ सू० ॥४॥ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे पूर्वमवमरात्रा अतिरात्राश्च प्रदर्शिताः साम्प्रतमावृत्तीः प्रदर्शयति 'तत्थ खलु इमाओ' इत्यादि । मूलम्-तत्थ खलु इमाओ पंचवासिकीओ, पंचहेमंताओ आउट्टीओ पण्णत्ताओ। सा एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढम वासिक्कि आउहि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? । ता अभिइणा, अभिइस्स पढमसमएणं । तं समयं च ण सरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता पूसेणं, पूसस्स णं एगूणवीसं मुहुत्ता, तेत्तालीसं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स, बावहिभागं च सत्तढिहा छित्ता तेत्तीसं चुणियाभागा सेसा ? । ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं वासिककिं आउहि चंदे केणं णक्खत्तेण जोएइ ? ता संठाणाहिं, संठाणाणं एक्कारसमुहुत्ता उणयालीसं च बावट्ठिनागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता तेवण्णं चुण्णिया भागा सेसा । तं समयं च णां सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता पूसेणं, पूसस्स णं तं चेव जं पढमाए २ । ता एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं तच्चं वासिक्कि आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता विसाहार्हि, विसाहाणं तेरसमुहुत्ता, चउप्पण्णं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता चत्तालीसं चुण्णिया भागा सेसा । तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेण जोएइ ? ता पूसेणं पूसस्स तं चेव ३ । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थि वासिक्कि आउटिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता रेवई हिं, रेवईणं पणवीसं मुहुत्ता, बत्तीसं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं च सत्तटिहा छित्ता छब्बीसं चुणियाभागा सेसा । तं समयं च णं सुरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता पूसेणं, पूसस्स तं चेव ४ । ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमं वासिक्कि आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता पुवाफग्गुणीहिं, पुव्वाफग्गुणीणं बारस मुहुत्ता, सत्तालोसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तहिहा छित्ता तेरस चुणिया भागा सेसा तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ?, ता पूसेणं पूसस्स तं चेव ॥ सूत्रम् ५॥ छाया-तत्र खलु इमाः पञ्च वार्षिक्यः, पञ्च हैमन्त्यः आवृत्तयः प्राज्ञप्ताः। तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमां वार्षिकों आवृत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् अभिजिदा, अभिजितः प्रथमसमयेन। तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति १ तावत् पुष्येण, पुष्यस्य खलु एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः, त्रिचत्वारिंशच्च द्वाषष्टि भागा मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा त्रयस्त्रिशत् चूर्णिका भागा शेषाः । १। तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयां वार्षिकी आवृत्तिं चन्द्रः केन नक्षप्रेण युक्ति १ तावत् संस्थानाभिः, संस्थानानां च एकादश मुहूर्ताः एकोनचत्वारिंशञ्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाषष्टिभाग च सप्तषष्टिधा छित्त्वा त्रिपञ्चाशत् चर्णिका भागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति १ तावत् पुष्येण पुष्यस्य खलु Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bar काशिका टोका प्रा. १२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५० तदेव प्रात् मागवायाम् २ । एतेषां खलु पश्चानां संवत्सराला तृतीयां वर्षिकी आहुति चन्दः केन नक्षत्रेण यनक्ति ? तावत् विशाखाभिः विशाखानां त्रयोदशमहर्ताः सपाशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभाग च सप्तषष्टिधा छित्वा चत्वारिंशत् चर्णिकाभागाः शेषाः तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् पुष्येण, पुष्यस्य. तदेव ३ । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चतुर्थी वार्षिकी आवृत्ति चन्द्र: कैन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् रेवतीभिः, रेवतीनां पञ्चविंशति मुहूर्ताः, द्वात्रिंशच ग्राष्टि भागाः मुहर्सस्य द्वाषष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्वा षड्विंशति प्रचूर्णिकाभागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति १ तावत् पुष्येण, पुष्यस्य तदेव ४ । ताब्दरतेषां खल पचानां संवत्सराणां पञ्चमों वार्षिकीम् आवृत्ति चन्द्रः केन मण युनक्ति ? तावत् पूर्वाफाल्गुनीभिः पूर्वाफाल्गुनीनां द्वादश मूहूर्ताः, सप्तचत्वारिंशच्च छात्पष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्वा त्रयोदशवर्णिका भागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? ता पुष्येण पुष्यस्य तदेव ॥सू० ५। व्याख्या—'तत्थ खलु' इति 'तत्थ' तत्र युगे खलु ‘इमाओ' इमा वक्ष्यमाणलक्षणाः 'पंचेति' पश्चसंख्यकाः 'वासिक्कीओ' वार्षिक्यः वर्षाकालभाविन्यः, तथा 'पंचेति पञ्चसंख्यकाः 'हेमंताओ' हैमन्त्यः शीतकालभाविन्यः एवं सर्वसंकलनया दश 'आउट्ठीओ' आवृत्तयः पुनः पुनर्दक्षिणोत्तरगमनरूपाः दक्षिणादुत्तरे, उत्तराद्दक्षिणे गमनरूपाः सूर्यस्य 'पण्णत्ताओ' प्रशताः कथिता इति । अत्रेयं भावना-ताश्चावृत्तयः सूर्यस्य चन्द्रस्येति द्विविधाः भवन्ति । तत्रैकस्मिन् युगे सूर्यस्यावृत्तयो दश भवन्ति एकस्मिन् वर्षे दक्षिणोत्तरायणभेदेन द्विद्वित्वस्य भावात् । चन्द्रस्य चैकस्मिन् युगे चतुस्त्रिंशदधिकशतसंख्यका (१३४) आवृत्तयो भवन्ति । उक्तं च-' सूरस्स य अयणसमा, आउट्ठीओ जुगम्मि दस होति । चंदस्स य आउट्टी, सयं च चोत्तीसयं चेव ॥१॥ छाया---सूर्यस्य च अयनसमा आवृत्तयो युगे दश भवन्ति । चन्द्रस्य च आवृत्तयः शतं च चतुस्त्रिंशम् ॥१॥ इति । अथ सूर्यस्यावृत्तयो युगे दश, चन्द्रस्य च चतुस्त्रिंशदधिकं शतमिति कथं ज्ञायते ? इति गणितेन प्रदर्श्यते आवृत्तयो नाम पुनः पुनर्दक्षिणोत्तरगमनरूपा इति तु पूर्व प्रदर्शितमेव । यस्य यावन्ति अयनानि भवन्ति तस्य तावत्य आवृत्तयो भवन्ति । प्रथमं सूर्यस्य दशआवृत्तयो भवन्तीति तास्त्रैराशिकगणितेन प्रदर्श्यन्ते सूर्यमासस्य सार्वत्रिंशदहोरात्रात्मकत्वेन एकस्य संवत्सरस्य षट्पष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६६) अहोरात्राणां लभ्यन्ते, तेन एकस्मिन् युगे पञ्चसंवत्सरात्मके त्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि (१८३०) अहोरात्राणां भवन्ति, एकस्मिन्नयने षण्मासात्मके त्र्यशीत्यधिकं शतम् (१८३) अहोरात्राणां लभ्यते । ततस्त्रैसशिकगणितं, ६८ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियते, तथाहि-यदि त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यकैदिक्सैरेकमयनं भवति तदा त्रिंशदधिकाष्टादशशत संख्यकैदिवसः कति अयनानि लभ्यन्ते ! इति राशिंत्रयस्थापना-१८३।१।१८३० । अत्रान्स्पेन राशिना मध्यराशेरेककस्य गुणनं क्रियते जातानि तान्येव त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०)। एषामायेन राशिना त्र्यशीत्यधिकशतप्रमाणेन भागो हियते हृते च भागे लभ्यन्ते परिपूर्णा दश, तत मागतम्-युगस्य मध्ये सूर्यस्य दशअयनानीत्यावृत्तयोऽपि दशेति ।। ___ अथ चन्द्रस्यावृत्तयः प्रदर्श्यन्ते-चन्द्रस्यायनं त्रयोदशभिर्दिवसैः, एकस्य च दिवसस्य चतुश्वत्वारिंशत्सप्तष्टिभागः (१३।१४) भवति ततो यदि चतुश्चत्वारिंशत्सप्तषष्टि भागयुतैस्त्रयोदशभिर्दिवसैरेकं चन्द्रस्यायनं भवति तदा त्रिंशदधिकैरष्टादशशतैः (१८३०) दिवसैः कति चन्द्रायनानि लभ्यन्ते ! राशित्रयस्थापना-१३।१।१८३०। तत्र सवर्णनाकरणार्थमाद्यन्तरूपं राशिद्वयमपि ४४ सप्तषष्ट्या गुण्यते, तत्र प्रथमं त्रशोदशदिनानि सप्तषष्टया गुण्यन्ते जातानि एकसप्तत्यधिकानि भष्टाशतानि (८७१), एषु ये उपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशत् (४४) सप्तषष्टिभागास्ते प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पञ्चदशाधिकानि नवशतानि (९१५)। ततो यानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) तान्यपि सवर्णनार्थ सप्तषष्टया गुण्यन्ते, जातानि एक लक्षम् , द्वाविंशतिसहस्राणि षट्शतानि दशोत्तराणि (१२२६१०) एष राशिमध्यमकेन राशिना एककरूपेण गुण्यते, एकेन गुणने च जातस्तावानेव राशिः (१२२६१०) अस्य आधेन राशिना पञ्चदशाधिकनवशतरूपेण (९१५) भागो हियते लब्धं चतुस्त्रिंशदधिकमेकं शतम् (१३४), तत आगतम्-एकस्मिन् युगे चतुस्त्रिंशदधिकशतसंख्यकानि (१३४) चन्द्रायणानि भवन्ति, तत एतावत्यश्चन्द्रस्य भावृत्तयो जायन्ते इति प्रतिपादिताः सूर्यचन्द्रयोरावृत्तयः । साम्प्रतं 'का सूर्यस्यावृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति' जिज्ञासायां वृद्धोक्तकरणगाथाद्रयमत्र प्रदर्यते "आउट्ठीहिं एगूणियाहिं गुणियं सयं तु तेसीयं । जेणा गुणं तं तिगुणं, रूवहियं पक्खिवे तत्थ ॥१॥ पण्णरसभाइयम्मि उ, जं लद्धं तं तइसु होइ पव्वेसु । जे अंसा ते दिवसा, आउट्टी तत्थ बोद्धव्वा ॥२॥ छाया-- आवृत्तिभिरेकोनिकाभिः, गुणितं शतं तु त्र्यशीतम् । येन गुणितं तत् त्रिगुणं रूपाधिकं प्रक्षिपेत् तत्र ॥१॥ पञ्चदशभाजिते तु यदलब्धं तत् तावत्सु भवति पर्वसु । ये अंशाः ते दिवसाः, आवृत्तिस्तत्र बोद्धव्या ॥२॥ इति । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतिप्रकाशिका टीका प्रा. १२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५३९ अनयोर्व्याख्या- 'आउट्टीहि एगूणियाहिं' आवृत्तिभिरेको निकाभिरिति - यामावृत्तिविशिष्टतिथियुक्ताज्ञातुमिच्छेत् तस्याः संख्या एकेन हीना क्रियते, ततस्तत्संख्यया 'गुणियं सयं तु तेसीयं' त्र्यशीत्यकं शतं गुणितं कुर्यात् गुणयेदित्यर्थः, ततः पश्चात् 'जेण गुणं' यया संख्यया त्र्यशीत्यधिकं शतं गुणितं 'तं तिगुणं' तदङ्कस्थानं त्रिगुणं त्रिगुणितं कृत्वा तत् ' तत्थ' तस्मिन् पूर्वराश 'पक्खिवे' प्रक्षिपेत् ॥ १ ॥ ततो यः प्रक्षिप्तोराशिस्तस्मिन् 'पण्णरस भाइयम्मि उ पञ्चदशभिर्माजिते सति 'जं लहूं' यल्लब्धं 'तइसु पव्वेसु' तावत्सु तावत्संख्यकेषु पर्वसु अतिक्रान्तेषु सत्सु 'होइ' भवति विवक्षिता आवृत्तिरिति । अथ च 'जे अंसा' ये अंशाः भागे हृते उद्धरिताः 'ते दिवसा' ते दिवसा विज्ञेयाः । ' तत्थ' तत्र तेषु दिवसेषु तन्मध्ये चरमदिवसे इत्यर्थः 'आउट्टी' आवृत्तिः 'बोद्धव्वा' बोद्धव्या ज्ञातव्या, इति करणगाथा द्वयस्यार्थः । आवृत्तिश्च युगे श्रावणमा माघमासे च भवति ततः प्रथमा आवृत्तिः श्रावणे मासे, द्वितीया च माघमासे भवति तृतीया पुनः श्रावणमासे चतुर्थी माघमासे, भूयोऽपि पञ्चमी श्रावणमासे षष्ठी माघमासे, इति कृत्वा पञ्चवर्षात्मके युगे सूर्यस्य दश आवृत्तयो भवन्तीति । अत्र कोऽपि पृच्छेत् यत् प्रथमा किल सूर्यस्यावृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति, तदा प्रथमवृत्तेः प्रनत्वादत्र एकोऽङ्कः स्थाप्यते, सच 'एगूणियाहिं' इति वचनात् रूपोनः क्रियते तदा पश्चात् न किमपि रूपं लभ्यते ततः पश्चास्य युगभाविनो या दशमी आवृत्तिस्तत्संख्यादशकरूपा गृह्यते, तेन दशकेन च 'गुणियं सयं तु तेसीय ' इतिवचनात् त्र्यशीत्यधिकं शतं (१८३) गुण्यते, जातानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) ततः ' जेण गुणं तं तिगुणं' इति वचनात् दशकेन गुणितमिति ते दशत्रिगुणी क्रियन्ते जातास्त्रिंशत् (३०) ते 'रूवहियं' इति वचनात् रूपाधिकं कुर्यात् जाता एकत्रिंशत् (३१) ततः 'पक्खि वे तत्थ' इति वचनात् ते पूर्वराशौ प्रक्षिष्यन्ते, जातानि एक षष्ट्यधिकानि अष्टादशशतानि (१८६ १) ततः 'पण्णरसभाइयम्मि' इति वचनात् पञ्चदशभिरेष राशिविभज्यते, हृते च भागे लब्धं चतुर्विंशत्यधिकं शतम् (१२४) तिष्ठति शेषमेकं रूपम्, तत आगतम् - चतुर्विंशत्यधिकपर्व शतात्मके पाश्चात्ये युगे व्यतिक्रान्तेऽभिनवे • युगे प्रवर्त्तमाने प्रथमा आवृत्तिः प्रथमायां तिथौ प्रतिपदि भवतीति । एषा प्रथमा आवृत्तिः श्रावणमासभाविनी समायाता १ । अथ च द्वितीया माघमासभाविनी आवृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति प्रश्नेऽत्र द्विकं ध्रियते, तद्रूपनं कृतमिति जातमेककम् तेन त्र्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते जातं तदेव त्र्यशीत्यधिकं शतम् (१८३) । अत्र एकेन गुणितमिति एककं त्रिगुणं क्रियते जातं त्रिकम् तद्रूपाधिकं करणीयमिति जातं चतुष्कम् (४), तत् पूर्वराशौ त्र्यशीत्यधिकशतरूपे प्रक्षिप्यते, जातं सप्ताशीत्यधिकं शतम् (१८७) तस्य पञ्चदशभिर्भागे हृते लब्धा द्वादश ( १२ ) तिष्ठन्ति शेषाः सप्त (७) तत आगतम् - युगे द्वादशसु पर्वसु गतेषु माघमासे बहुलपक्षे सप्तभ्यां तिथौ द्वितीया माघमास भाविनीनां च मध्ये प्रथमा आवृत्तिर्भवतीति २ । एवं तृतीया आवृत्तिः श्रावणमास भाविनी कस्यां Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तियोः भवतीति प्रश्ने त्रिकं ध्रियते, तस्मिन् रूपोने कृते जातं द्विकम् , तेन त्र्यशीत्यधिकं शतं गुणगो जानाति फट्यध्याधेकानि त्रीणि शतानि (३६६) अत्र द्विकेन त्र्यशीत्यधिक शतं गुस्मितमिति द्वितं त्रिभिर्गुणनीयं जाताः षट्, ते रूपाधिकाः क्रियन्ते जाताः सप्त ते पूर्वराशी प्रक्षिम्यन्ते जातानिः निसप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३७३), एषां पञ्चदशभिर्मागे हृते लब्धा चतुर्विंशतिः (२४), शेषास्तिष्ठन्ति प्रयोदश । तत आगतम्-युगे तृतीया आवृत्तिः श्रावणमास भाक्निीनां मध्ये तु., द्वितीया चतुर्विशति पर्वात्मके प्रथमे संवत्सरे व्यतिक्रान्ते श्रावणमासे बहुलपक्षे त्रयोदश्यां तिथौ भवतीति ३।एव मग्रेऽपि अन्यासु आवृत्तिषु करणवशाद् विवक्षितास्तिथम आनेतन्याः । तमश्चम :----युगे चतुर्थी माघमासभाविनीनां मध्ये तु द्वितीया माघमासे शुरूपके चतुय तिथौ भवति । पञ्चमी श्रावणमासभाविनीनां मध्ये तु तृतीया श्रावणमासे शुक्र पक्षे दशम्यां तिथौ ५। षष्ठीमाघमासभाविनीनां मध्ये तु तृतीया माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपदि । सप्तमो श्रावणमासभाविनीनां मध्ये तु चतुर्थीश्रावणमासे बहुलसप्तम्यां तिथौ ७, अष्टमी माघमासभाविनीनां मध्ये तु चतुर्थी माघमासे बहुलपक्षे त्रयोदश्यां तिथौ ८, नक्मी श्रावणमास भाविनीनां मध्ये तु पञ्चमी श्रावणमासे शुक्लपक्षे चतुर्थ्यां तिथौ ९, दशमीचावृत्तिः श्रावणमास भाविनीनां मध्ये तु पञ्चमी माघमासे शुक्लपक्षे दशम्यां तिथौ भवतीति १०। एताश्चतुर्थीत आरभ्य दशमी पर्यन्ता आवृत्तयः संग्रहरूपे प्रदर्शिताः । अथैतेषां पञ्चानां श्रावणमास:भाविमीना, पञ्चानां तु माघमासभाविनीनामावृत्तीनां तिथयश्चतसृभिर्गाथामिः: प्रदर्श्यन्तेi. “पढमा बहुलपडिवए १, विइया बहुलस्स तेरसी दिवसे २, . . . - सुद्धस्सा य दसमीए ३, बहुलस्स य सत्तमीए ४ उ ॥१॥ सुद्धस्स चउत्थीए' पवत्तए पंचमी उ आउट्टी ५। एया आउट्टीओ सव्वाओ सावणे मासे ॥२॥ . बहुलस्स सत्तमीए १, पढमा सुद्धस्स तो चउत्थीए २, ... बहुलस्स य पाडिवए३, बहुलस्स य तेरसीदिवसे ४ ॥३॥ ..... मुदस्स य दसमीए, पवत्तए पंचमी उ.आउट्टी ५। ...... .. एया आउट्टीओ, सव्वाओ माहमासम्मि ॥४॥ ... छायाः- प्रथमा बहुलप्रतिपदि, द्वितीया बहुलस्य त्रयोदशी दिवसे २। शुद्धस्य दशम्यां ३, बहुलस्य च सप्तम्यां तु ४ ॥१॥ शुद्धस्य चतुर्थ्या ५, प्रवर्तते पञ्चमी तु आवृत्तिः । एता आवृत्तयः सर्वा श्रावणे मासे ॥२॥ बहुलस्य सप्तम्यां प्रथमा १, शुद्धस्य ततश्चतुर्थ्याम् २। ....... बहुलस्य च प्रतिपदि ३, बहुलस्य च त्रयोदशी दिवसे ॥३॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प शिकाटीका प्रा.१२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५५ शुद्धस्य च दशम्यां, प्रवर्त्तते पञ्चमी तु आवृत्तिः ५ । एता आवृत्तयः, सर्वा माधमासे ॥४॥ पूर्व सूर्यस्य दश आवृत्तयः प्रदर्शिताः, अथैतासु दशसु सूर्यावृत्तिषु प्रथमायां वार्षिक्यामा वृत्तौ चन्द्रनक्षत्रयोगं प्रदर्शयन् सूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसोणं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'पढम वासिक्किं प्रथमां वार्षिकी वर्षाकाल सम्बन्धिनी श्रावणमासभाविनीमित्यर्थः 'आउर्टि' आवृत्ति सूर्यावृत्ति 'चंदे' चन्द्रः 'केण णवखत्तण' २ केन नक्षत्रेण सह स्थितः सन् 'जोएइ' युनक्ति प्रथमायां वार्षिक्यामावृत्तिं प्रवत्तेयतीत्यर्थः ! इति गौतमेन पृष्टे भगवानाह---'ता' तावत् 'अभिइणा' अभिजिता अभिजिन्नक्षत्रेण सह स्थितः सन् युनक्तीति भावः । तत्कि परिपूर्णे अभिजिति न्यूने वा योगं युनक्तीति विशिनष्टि'अभिइस्स, इत्यादि 'अभिइस्स, अभिजिन्नक्षत्रस्य 'पढमसमएणं' प्रथमसमये 'ण' इति वाक्यालङ्कारे । एतत् कथमवसीयते ? इति चन्द्रनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ वृद्धोक्ताः सप्त करणगाथाः प्रदर्श्यन्ते "पंचसया पडिपुण्णा, तिसातरा नियमसो मुहुत्ताणं । छत्तोस बिसटिभागा, छरचेव य चुणिया भागा ॥१॥ आउट्ठीहिं एगूणियाहिं गुणिो हविज्ज धुवरासी । एयं मुहुत्तगणिय, एत्तो वोच्छामि सोहणणं ॥२॥ अभिइस्स नव मुहुत्ता, बिसद्विभागा य होंति चउवीसं ।' छावट्ठीय समग्गा भागा सत्तष्टि छेयकया ॥३॥ उगुणटुं पोट्टवया, तिसु चेव नवुत्तरेसु रोहिणिया । तिसु नवनउइएसु, भवे पुणवत्तरा फग्गू ॥४॥ पंचेव अउणपन्ना, समाइंउगुणत्तराई छारचेवः .. सोज्झाहि विसाहामुं, मूले सत्तेव चोयाला ॥५॥ अट्ठसयमुगुणवीसा,सोहणगं उत्तरा असाढाणं । चउवीसं खलु भागा, छावट्ठी चुण्णीया भागाः ॥६॥ एयाई सोहइत्ता, जं सेसं तं हवेज नक्खत्तं । चंदेण समाउत्त, आउट्ठीए उ बोद्धव्वं ॥७॥"इति । छाया - पंचशतानि परिपूर्णानि त्रिसप्ततानि नियमशो मुहर्तानाम् । षट्त्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, षडेव च र्णिका भागमः ॥१॥.... Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवृत्तिभिरेकोनिकाभिः, गुणितो भवेत् ध्रुबराशि: । एवंमुहूर्त्तगणितं, इतो वक्ष्यामि शोधनकम् ||२॥ अभिजितो नव मुहूर्त्ता, द्विषष्टिभागाश्च भवन्ति चतुर्विंशतिः । षट्षष्टिश्च समग्राः भागाः सप्तषष्टि छेदकृताः ॥३॥ एकोनषष्ट प्रोष्ठपदा, त्रिषु चैवनत्तरेषु रोहिणिका । त्रिषु नवनवतिकेषु भवेत् पुनर्वसु उत्तरा फल्गुः ||४|| पञ्चैव एकोनपञ्चाशानि समानि एकोनसप्ततानि षडेव । शोधय विशाखासु, मूले सप्तैव चतुश्चत्वारिंशानि ॥ ५ ॥ अष्टशतमेकोनविंशं, शोधनकमुत्तराषाढ़ानाम् । चतुर्विंशतिः खलु भागाः, षट्षष्ठि चूर्णिका भागाः ||६|| एतानि शोधियत्वा यत् शेषं तद् भवेत् नक्षत्रम् । चन्द्रेण समायुक्तं, आवृत्तौ तु बोद्धव्यम् ||७|| इति । चन्द्रमि अथासां व्याख्या-'पंचसया' इत्यादि । पंचसया पडि पुण्णा तिसरा मुहुत्ताणं, त्रिसप्तत्युत्त राणि पञ्चशतानि मुहूर्त्तानाम् एकस्य मुहूर्त्तस्य च 'छत्तीस विसट्टिभागाः ' षट्त्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य 'छच्चेवय चुण्णिया भागा' षट् च चूर्णिका भागाः सप्तषष्टिभागाः (५७३।२६। ६_ ) एष विवक्षितकरणे ध्रुवराशिर्धियते । अस्य ध्रुवराशेः कथमुत्पत्तिः ? इति प्रथमं ध्रुव६२।६७ ७ राशेरुत्पत्तिः प्रदर्श्यते - यदि दशभिः सूर्यायनैः सप्तषष्टिश्चन्द्रनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तदा एकेन सूर्यामनेन कति चन्द्रनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ? अत्र राशित्रयं स्थाप्यते, तथाहि - १०१६७|१| अत्रान्त्येन राशिना एककेन मध्यो राशिः सप्तषष्टिरूपो गुण्यते जातः तावानेन सप्तषष्टिः (६७), अस्य दशभिर्भागे ढते लब्धा षट् पर्यायाः (६) शेषाः स्थिताः सप्तेति ते सप्त दशभागा : ( ६ । 2 ) तद्गतमुहूर्त्तपरिमाणमस्यामधिकृत गाथायां प्रोक्तं यत् त्रिसप्तत्यधिकानि पञ्चशतानि षत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः षट् च सप्त षष्टिभागाः ( ५७३ ६ ) । एतावन्तो मुहूर्त्ताः कथं ज्ञायन्ते ? इति तज्ज्ञानार्थं त्रैराशिकगणितं प्रदर्श्यते— ६२ ६७ यदि दशभिर्भागैः सप्तविंशतिर्दिनानि एकस्य च दिनस्य एकविंशतिः सप्तषष्टिभागा लभ्यन्ते तदा सप्तभिर्भागैः कति लभ्यन्ते ! राशिश्रय स्थापना - (१०/२७|२१|७| ) अत्रान्त्येन राशिना ६७ मध्यराशि गुणयित्वा गुणितफलभूतस्य राशेर्दशभिर्भागो हरणीयः, एषत्रैराशिकराशिगणितविधिः, तेन Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जतिप्रकाशिकाटीकाप्रा. १२ सू.५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् - पूर्व सप्तविंशतिर्गुण्यतेऽन्त्यराशिना सप्तकेन, जातं नवाशीत्यधिकमेकं शतम् (१८९) तस्यान राशिना दशकलक्षणेन भागो हियते लब्धा अष्टादश दिवसाः एकस्य दिवसस्य त्रिंशन्मुइत्ता भवन्तीति मुहूर्तानयनार्थ अष्टादशत्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चत्वारिंशदधिकानि पञ्चशतानि (५४०) दशभिर्भागे हते स्थिताः शेषा ये नव तेऽपि मुहर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जाते सप्तत्यधिके द्वे शते (२७०), ततो दशभिर्भागे हूते लब्धाः परिपूर्णाः सप्तविंशतिर्मुहूर्ताः (२७), एते पूर्वमागते चत्वारिंशदधिकपञ्चशतसंख्यके (५४०) मुहर्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते प्रक्षिप्ते च जातानि सप्तषष्टयधिकानि पञ्चशतानि (५६७)। एते मुहूर्ताः स्थाप्याः । ततो येऽपि च एकविंशतिः सप्तषष्टिभागा मध्यराशिगतास्तेऽपि मुहूर्तभागानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रिंशदधिकानि षट्शतानि (६३०) एतानि अन्त्यराशिना सप्तकेन गुण्यन्ते, जातानि दशोत्तराणि चतुश्चत्वारिंशच्छतानि (४४१०), एषामाद्यराशिना दशकेन भागो हरणीयः, हृते च भागे लब्धानि-एकचत्वारिंशदधिकानि चत्वारि शतानि (४४१), एते जाताः सप्तषष्टिभागा इति मुहूर्तानयनाथ सप्तषष्टया भागो हियते. लब्धाः षड्मुहूर्ताः ते वस्थापित मुहर्तराशौ सप्तषष्टयधिक पञ्चशतरूपे (५६७) प्रक्षिप्यन्ते, जातानि सर्वसंख्यया त्रिसप्तत्यधिक पञ्चशतसंख्यका (५७३) मुहूर्ताः । तत एकचत्वारिंशदधिकचतुःशतानां सप्तषष्टया भागे हते ये उद्धरिता एकोनचत्वारिंशत् (३९) तेऽपि द्वाषष्टया गुण्यन्ते जातानि अष्टादशाधिकानि चतुर्विंशतिःशतानि (२४१८) एषामपि सप्तषघ्या भागो हियते लब्धाः षट्त्रिंशत् (३६) द्वाषष्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति षट्, तेज एकस्य द्वापष्ठि भागस्य सम्बन्धिनः सप्तषष्टिभागाः चूर्णिका भागा इत्यर्थः, एतेऽपि श्लक्ष्णरूपत्वेन चूर्णिकाभागा इति कथ्यन्ते । तत आगतम् , त्रि सप्तत्यधिकानि पञ्चशतानि मुहर्तानाम् , एकस्य च मुहूत्य षट् त्रिंशद्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् सप्तषष्टिभागाः (५७३/३६ 4 )। एष ध्रुवराशिनिष्पन्नः ॥१॥ एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति ष्टिषिभागाः, एकस्य द्वाषष्टिभागस्य समप्राः परिपूर्णाः षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (९-२४६६), एतत्परिमितमभिजिन्नक्षत्रस्य शोधनकं भवति । ६२/६७ एतस्य कथमुत्पत्तिः ! इति चेदुच्यते-इहाभिजिन्नक्षत्रस्य अहोरात्रसम्बन्धिनः एक विंशति सप्तषष्टिभागान् यावत् चन्द्रेण सह योगो भवति, एकस्मिन्नहोरात्रे च त्रिंशन्मुहर्ता भवन्तीति मुर्तभागानयनार्थमेंकविंशति स्त्रिंशता गुण्यते, जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि (६३०) एषां सप्तषष्टया भागो हियते लब्धा नवमुहर्ता (९) शेषाः स्थिताः सप्तविंशतिः, ते द्वाषष्टिभागकरणार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते जातानि चतुःसप्तत्यधिकानि षोडशशतानि (१६७४), एष Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ - सप्तषष्टया भागी ढियते, लब्धा श्चतुर्विंशतिषिष्टिभागाः (२१) शेषास्तिष्ठन्ति षट्षष्टिः ते च एकस्य द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागाः (६६) तत आगतं यथोक्तमभिजिन्नक्षत्रस्य शोधनक "प्रमाणम् (९-२४६६) इति तृतीयगाथार्थः ॥३॥ . ६/६७ साम्प्रतं शेषनक्षत्राणां शोधनकानि प्रदर्श्यन्ते-'उगुणटुं' इत्यादि गाथात्रयेण । 'उगुणटुं' मोनमष्ठम् एकोनषष्टयधिकं शतं (१५९) पोढवया' प्रोष्ठपदा उत्तरभाद्रपदा एकोन षष्टय क्किं शतं मुहूर्तानामभिजित आरभ्य उत्तरभाद्रपदा पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकमिति भावः । समाहि-मनमुहर्ता अभिजिन्नक्षत्रस्य ? त्रिंशन्मुहूर्ताः श्रवणस्य ३०, त्रिंशद् धनिष्ठायाः ३०, अवदाश शतभिषजः १५, त्रिंशत् पूर्वभाद्रपदायाः ३०, पञ्चचत्वारिंशद् उत्तरभाद्रपदायाः ४५, सर्वसंकलनया जातम्- एकोनषष्ट्यधिकं शतं (१५९) मुहूर्तानामभिजितः आरभ्योत्तरभाद्रपदा नक्षत्रपर्यन्तं शोधनकमिति । तथा तिमु चेव नवोत्तरेसु रोहिणिया' त्रिषु चैव नवोसारेषु शतेषु रोहिणिका रोहिणी पर्यन्तमित्यर्थः शुद्धयति, अयं भावः-त्रिभिः शतैर्नवोत्तरैः (३०९) देशावित आरभ्य रोहिणी पर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यन्ते-तथाहि-रेवत्यास्त्रिंशत् ३०, अश्विन्यास्त्रिमात्३०,भरण्याः पञ्चदश१५,कृत्तिकायास्त्रिंशत् ३०,रोहिण्याः पञ्चचत्वारिंशत् ४५। सर्वसंकलनया खातं पञ्चाशदधिकं शतम् (१५०), एषु पूर्वोक्तस्य एकोनषष्टयधिकशतस्य (१५९ संमेलने भवन्ति ग्मयोलराणि त्रीणि शतानि (३०९) अभिजित आरभ्य रोहिणी पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधक्कानीति । ततः 'तिसु नवनउइसु भवे पुणव्यसू' त्रिषु नवनवत्यधिकेषु शतेषु (३९९) पुनर्वसुः पुनर्वसु पर्यन्त मित्यर्थः । अत्रायं भावः-रोहिण्या अनन्तरं प्राप्तस्य मृगशिरस-स्त्रिंशत् ३०, आर्द्रायाः पञ्चदश १५, पुनर्वसोः पञ्चचत्वारिंशत् ४५, जाता सर्वसंकलनया नवतिः (९०) एषा संख्या पूर्वोक्तसंख्यायां नवोत्तर त्रिशतरूपायां संमेल्यते, जायन्ते नव नवत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३९९), एतानि अभिजित आरभ्य पुनर्वसु पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकानि । मातानि । ततः 'उत्तराफग्गू-पंचेच अउणपन्ना' उत्तराफाल्गुनी पञ्चैव एकोनपञ्चाशानि शतानि, एकोन पञ्चाशदधिकानि पञ्चशतानि (५४९) पुण्यत आरभ्य उत्तराफाल्गुनी पर्यन्तानां 'नक्षत्राणां शोधनकानि, अयं भावः-पुष्यस्य त्रिंशत् ३०, अश्लेषायाः पञ्चदश १५, मघायात्रिंशत् .२०, पूर्वाफाल्गुन्यास्त्रिंशत् ३०, उत्तराफाल्गुन्याः पञ्च चत्वारिंशत् ४५ । जातं सर्वसंकलनया 'पञ्चाशदधिकं शतम् (१५०), एतत् पुण्यत आरभ्योत्तराफाल्गुनीपर्यन्तानां नक्षत्राणां 'शोधनकम् । एषा संख्या पूर्वसंख्यायां नवनवत्यधिकत्रिशतरूपायां (३९९) संमेल्यते, जायन्तै एकोन पञ्चाशदधिकानि पञ्चशतानि मुहूर्तानामभिजित आरम्य उत्तराफाल्गुनी पर्यन्तानां नक्षत्राणां Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५४५ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १२ सू. ५ ३०, शोधनकानि (५४९) । ततः 'समाई उगुणुत्तराईं छच्चेवय सोज्झाहि विसाहासु' समानि समग्राणि एकोनसप्तत्याधिकानि षट्शतानि विशाखासु विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु शोधय, हस्तनक्षत्रादारभ्य विशाखा पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकसंमेलनेन - एकोनसप्तत्यधिकानि षट्शतानि (६६९) शोधनकानि भवन्ति । तथाहि - हस्तस्य त्रिंशत् ३०, चित्रायास्त्रिंशत् ३०, स्वातेः पञ्चदश १५ विशाखाया पञ्चचत्वारिंशत् ४५, सर्वसंकलनया जातं विंशत्यधिकं शतम् (१२० ) एतत् पूर्वोक्तसंख्यायामे कोनपञ्चाशदधिकपञ्चशतरूपायां (५४९) प्रक्षिप्यते तत आयान्ति शोधनकानि यथोक्तानि–एकोनसप्तत्यधिकानि षट्शतानि (६६९) ततः 'मूळे सत्तेव वोयाला' मूले मूलनक्षत्रे मूल नक्षत्रपर्यन्तमित्यर्थः चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि ( ७४४) । अयं भावः - विशाखाया अनन्तरमनुराधेतिः, अनुराधाया स्त्रिंशत् ३०, ज्येष्ठायाः पञ्चदश १५, मूलस्य त्रिंशत् जाता पञ्चसप्ततिः ७५, अस्याः पूर्वराशौ एकोनसप्तत्यधिकषट्शतरूपे (६६९ ) संमेलनेन भवन्ति यथोक्तानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि ( ७४४ ) अभिजित आरभ्य मूलनक्षत्रपर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकानीति । 'सोहण गं उत्तरा आस ढाणं' उत्तराषाढानाम् उत्तराषाढापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकम्, तथाहि - 'अट्ठसय मुगुणवोसा' अष्टौशतानि एकोनविंशत्यधिकानि ( ८१९ ) इति । अयं भावः मूलनक्षत्रादनन्तरं पूर्वाषाढेति पूर्वाषाढा नक्षत्रस्य त्रिंशत् ३० उत्तराषाढानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशत् ४५ इति जाता पञ्चसप्ततिः ७५, एष राशिः ७५ अभिजित आरभ्य मूलपर्यन्तशोधनकेषु चतुश्चत्वारिंशदधिक सप्तशतरूपेषु (७४४) संमेल्यते, जायन्ते यथोक्तानि - एकोनविंशत्यधिकानि अष्टशतानि (८१९) एतानि शोधनकानि अभिजित आरभ्य उत्तराषाढा पर्यन्तानां नक्षत्राणामिति । तत एतेषां सर्वेषामपि शोधनकानामुपरि अभिजिन्नक्षत्रस्य नवमुहूर्त्तोपरि ये भागास्तान् दर्शयति 'चउवीसं' इत्यादि, चउवीसं खलु भागाछावट्ठी चुणिया भागा' चतुर्विंशतिः खलु भागाः । द्वाषष्टिभागाः, षट्षष्टिश्चूर्णिका भागाः सप्तषष्टिभागाः ( २४|६६ ), एते अभिजित्सम्बन्धिनो भागाः पूर्वोक्तसर्व संख्योपरि विज्ञेया इति । तत आगतम् अभिजित आरभ्य उत्तराषाढापर्यन्तस्य अष्टाविंशति नक्षत्रगर्भितस्य परिपूर्णनक्षत्रपर्यायस्य एकोनविंशत्यधिकानि अष्टशतानि मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिर्द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागाः ( ८१९२४ ६६ ) एतावत्परिमिताः सर्वे मुहूर्त्ता भवन्ति, एते शोधनकानीत्युच्यते । इति षष्ठगाथार्थः ॥ ६ ॥ ततः किम् ? इत्याह- 'एयाई' इत्यादि, 'एयाई' एतानि पूर्वप्रदर्शितानि ६२ ६७ ६९ - Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे शोधनकानि यथासंभवं 'सोहइत्ता' शोधयित्वा तदनन्तरं 'जं सेसं' यत् शेषमुद्धरति 'तं नक्खत्तं हवेज्ज आउट्टीए समाउत्तं' तन्नक्षत्रं भवेत् विवक्षितायामावृत्तौ तु चन्द्रेण समायुक्तं भवति तदा विवक्षितावृत्तौ तेन नक्षत्रेण सह चन्द्रो योगं युनक्तीति 'वोद्धव्वं' बोद्धव्यं ज्ञातव्यं गणितज्ञैरिति गाथासप्तकार्थः ॥ ७ ॥ अथ भावना क्रियते-कोऽपि पृच्छेत्-प्रथमायामावृत्तौ प्रथमतः प्रवर्त्तमानायां चन्द्रः केननक्षत्रेण सह योगं युनक्ति ? इति जिज्ञासायामत्र प्रथमावृत्तिविषयकः प्रश्न इति एकको ध्रियते, स रूपोनः क्रियते, एकस्मिन् रूपे एकोने कृते न किमपि रूपं पश्चादवतिष्ठते, ततः पाश्चात्य युगभाविनीनामावृत्तीनां मध्ये या चरमा दशमो आवृत्तिस्तत्संख्या दशकरूपाऽत्र ध्रियते, एतेन दशकेन प्राचीनः समग्रोऽपि ध्रुवराशिः 'पंचसया पडि पुण्णा' इत्यादि प्रथमगाथोक्तः–त्रिसप्तत्यधिकानि पञ्चशतानि (५७३) मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशत् (३६) द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् (६) सप्तषष्टिभागाः चर्णिका भागाः (५७३२६ ) एतावपरिमितो गुण्यते, तत्र पूर्व मुहूर्तराशिर्दशकेन गुण्यते, जातानि त्रिंशदधिकानि सप्तपञ्चाशच्छतानि (५७३०), तत्पश्चात् ये षट्त्रिंशद् द्वाषष्टि भागास्तेऽपि दशकेन गुण्यते, जातानि षष्टयधिकानि त्रीणी शतानि (३६०), एषां मुहूर्त्तकरणाथै द्वाषष्टया भागो हियते, लब्धा पञ्च मुहूर्ताः (५) एते पूर्वस्थिते मुहूर्तराशौ (५७३०) प्रक्षिप्यन्ते, जातः पूर्वराशिः पञ्चत्रिंशदधिकसप्तपञ्चाशच्छतसंख्यकः (५७३५), भागे हृते तिष्ठन्ति पञ्चाशद् द्वाषष्टि भागाः (५०) तदन्तरं ये षट् चूर्णिका भागाः आसन् तेऽपि दशकेन गुणिता जाता षष्टिः, एते चूर्णिका भागाः सन्ति, अङ्कतः ( ५७३५ १०६) इति । एतस्माद्राशेः शोधनकानि शोध्यन्ते, तत्राभिजित आरभ्योत्तराषाढा पर्यन्तानामष्टाविंशतेनक्षत्राणां शोधनकम्— एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८१९), एतानि किल यथोक्तराशौ सप्तकृत्वः शुद्धिं प्राप्नुवन्तीति सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि-त्रयस्त्रिंशदधिकानि सप्त पञ्चाशच्छतानि (५७३३), तानि पञ्चत्रिंशदधिकेभ्यः सप्तपञ्चाशच्छतेभ्यः शोध्यन्ते. स्थितौ पश्चात् द्वौ मुहूतौ , तौ द्वाषष्टि भागानयनार्थ द्वाषष्टया गुण्येते, जातं चतुर्विशत्यधिकमेकं शतम् (१२४) एते द्वाषष्टिभागाः सन्ति, एते प्राक्तने पञ्चाशतिं द्वाषष्टि भागराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातं चतुः सप्तत्यधिकं शतम् (१७४) द्वाषष्टि भागानाम् । तथा ततो येऽभिजित्सम्बन्धिनश्चतुविशतिषिष्टिभागाः शोध्याः सन्ति तेऽपि 'सप्तकृत्वः शुद्धिमाप्नुवन्ति इति न्यायात् सप्तभिर्गुण्यन्ते जातमष्टषष्टयधिकं शतम् (१६८) एतत् चतुः सप्तत्यधिकात् शतात् (१७४) शोध्यते, स्थिताः षट्र द्वाषष्ठि भागाः, ते चूर्णिका भागानयनाथ सप्तषष्टया गुण्यन्ते जातानि द्वयधि Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५४७ कानि चत्वारिशतानि (४०२), ततो ये प्राक्तनाः षष्टिः सप्तषष्टि भागास्तेऽत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि द्वः षष्टयधिकानि चत्वारिशतानि (४६२) ततो येऽभिजितः सम्बन्धिनः षट् षष्टिफ्रिका भागा शोध्याः सन्ति तेऽपि पूर्वोक्तन्यायेन सप्तभिर्गुणयित्वा शोध्या भवन्तीति सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि द्वाषष्टयधिकानि चत्वारिशतानि (४६२) एतानि अनन्तरोदितराशेषिष्टयधिक चतुःशत (४६२) रूपात् शोध्यन्ते, द्वयोः राश्योः समानत्वान्न किञ्चिदवशिष्यते, स्थितं पश्चात् शून्यम्, तत आगतम् ---उत्तराषाढानक्षत्रे परिपूर्णे चन्द्रेण भुक्ते सति तदनन्तरं युगेऽभिजितो नक्षत्रस्य प्रथम समये प्रथमा आवृत्तिः प्रवर्तते, अत एवोक्तं सूत्रकारेण 'अभिइस्स · ढमसमएणं' इति । ____ अथ चन्द्रनक्षत्रयोगसमये सूर्यनक्षत्रयोगं प्रदर्शयति-'तं समयं च णं' इत्यादि । 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये चन्द्रयोगसमये च खलु 'मारिए' सूर्यः 'केणं नक्खत्तेणं जोएइ' केन नक्षत्रेण युनक्ति योगं करोति ? केन नक्षत्रेन सह योगयुक्तो भूत्वा युगस्य प्रथमामावृत्तिं प्रवर्तयतीति प्रश्नः । भगवानाह-'ता पूसेणं' तावत् पुष्येण पुष्य नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् सूर्यः प्रथमामावृत्तिं प्रवर्तयतीति सामान्येन प्रोक्तम्, अथ विशेष माह'पूसस्स' इत्यादि, 'पूसस्स' पुण्यस्य पुष्यनक्षत्रस्य 'एगृणवीसं मुहुत्ता' एकोनविंशति मुहूर्ताः 'तेत्तालीसं च बावट्ठीभागा' त्रिचत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य, तथा 'बावद्विभागं च सट्टिहा छित्ता' द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्वा-- विभज्य तत्सम्बन्धिन: 'तेत्तीसं चुणिया भागा' त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिकाभागाः सप्तपष्टिभागा इत्यर्थः ( १९-४३/३३) एतावन्तो भागाः पुष्यष्य 'सेसा' इति शेषा अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा, तथा पुष्यस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात्--दशमुहूर्ताः अष्टदश द्वाषष्टिभागाः, चतुस्विंशच्च सप्तषष्टिभागाः ( १०-१८३४ ) अतिक्रान्ता भवेयुस्तदा सूर्यो युगे प्रथमा मावृत्ति प्रवर्त्तयतीति भावः । ६२१६७ एतन्मुहूर्तादिकं कथं ज्ञायते ! इति तद् गणितेन प्रदर्श्यते- अत्रापि त्रैराशिकं कर्त्तव्यम्, तथाहि-यदि दशभिः सूर्यायनैः सूर्यकृता पञ्च नक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तदा एकेनायनेन कति सूर्यकृतनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना-१०।५।२। अत्रान्त्येन राशिना एककरूपेण मध्यराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते जातास्त एवेति पञ्चैव, तेषामाद्यराशिना दशकरूपेण भागो ह्वियते लब्धमई नक्षत्रपर्यायस्य । तत्र परिपूर्णो नक्षत्रपर्यायस्त्रिंशदधिकाष्टादश शत (१८३०) सप्तषष्टिभागम्पो भवतीति तदर्धं पञ्चदशाधिक नवशत रूपः (९१५) पूर्वोक्तानां (१८३०) सप्तषष्टिभागानामर्द्धः सप्तषष्टिभागरूपो नक्षत्रपर्यायो भवति । तत्कथमिति प्रथम त्रिंशदधिकाष्टादशशतरूपः परिपूर्णः सप्तषष्टिभागरूपो नक्षत्रपर्यायः प्रदश्यते-षड् नक्षत्राणि ६२६७ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिस्त्रे , शतभिषक् प्रभृतीनि अर्द्धक्षेत्राणि ततस्तेषां मध्ये एकैकस्य नक्षत्रस्य सार्द्धात्रयस्त्रिंशत् त्रयस्त्रिंशत् (३३||) सप्तषष्टिभागा भवन्ति सप्तषष्टेरर्धकरणात्, ततस्ते सार्द्धास्त्रयस्त्रिंशत् ( ३३॥ ) भागाः षड्भर्गुण्यन्ते जाते एकोत्तरे द्वे शते (२०१) । षड् नक्षत्राणि उत्तरभाद्रपदादीनि द्व क्षेत्राणि, तानमानि - उत्तरभाद्रपदा १, रोहिणी २, पुनर्वसुः, ३, उत्तरफाल्गुनी ४, विशाखा ५, उत्तराषाढा ६, एतानि षड्नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वाद् द्वयर्धक्षेत्राणीति । ततस्तेषां मध्ये प्रत्येकस्य च सप्तषष्टिभागस्यार्द्धम् (२००|) सप्तषष्टे वर्धेन ( १ ॥ ) गुणनात् एतत् षड्भिर्गुण्यते, जातानि त्र्युत्तराणि षट् शतानि (६०३) । शेषाणि एतद्व्यतिरिक्तानि पञ्चदश नक्षत्राणि श्रवणादीनि त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् समक्षेत्राणि तेषां प्रत्येकस्य सप्तषष्टिभागा एव, ततः सप्तषष्टिः पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातं पञ्चोत्तरं सहस्रम् (१००५) ततोऽभिजित एकविंशतिः (२१) सप्तषष्टिभागाः, एतेषां सर्वेषाम् - (२०१=६०३=१००५=२१) मीलने भवन्ति सप्तषष्टि भागानाम् — त्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि (१८३० ) । एष परिपूर्णः सप्तषष्टि भागात्मको नक्षत्रपर्यायः एतस्यार्धे कृते भवन्ति यथोक्तानि पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि ( ९१५) । एभ्योऽभिजितः सम्बन्धिनी एकविंशतिः शोध्यते, तिष्ठन्ति शेषाणि - अष्टौ शतानि चतुर्नवत्यधिकानि (८९४) । एषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धास्त्रयोदश (१३), शेषास्तिष्ठन्ति त्रयोविंशतिर्भागाः (२३) त्रयोदशभिश्च पुनर्वसु पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ये च त्रयोविंशति र्भागाः शेषीभूतास्तिष्ठन्ति ते मुहूर्त्तकरणार्थे त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नवत्यधिकानि षट् शतानि ( ६९०), तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः दश मूहूर्त्ताः (१०), शेषातिष्टन्ति विंशतिः, सा द्वाषष्टि भागकरणार्थं द्वाष्टया गुण्यते जातानि चत्वारिंशदधिकानि द्वादशशतानि (१२४०), एषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा अष्टादश द्वाषष्टि भागाः, शेषास्तिष्ठन्ति चतुस्त्रिंशत् ते च एकस्य द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः, तत आगतम् - पुष्यस्य दशसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य अष्टादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु ( १० १८ ६२/६७ > गतेषु, तथा पुष्यस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् - एकोनविंशतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वा - रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु ( १९४३ ३३ ) सूत्रोक्तेषु शेषेषु प्रथमा श्रावणमास भाविनी सूर्यावृत्तिः प्रवर्त्तते इति । ६२ ६७ ५४८ अथ द्वितीयां श्रावणमासभाविनोमावृत्ति प्रदर्शयति- 'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां प्रमिद्धानां 'पंच' पञ्चानां 'संवच्छरणं' चान्द्रादिसंवत्सराणां मध्ये 'दोच्च' द्वितीयां 'वासिक्कि' वार्षिकीं वर्षाकालभाविनीम् 'आउट्टि' आवृत्ति सूर्यावृत्ति Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21EU भागाः (१८६२६७ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटोकाप्रा. १२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५४९ 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खतेणं' केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति प्रवर्तयतीत्यर्थः । भगवानाह- संठाणाहि' संस्थानाभिः, संस्थानशब्देनात्र मृगशिरानक्षत्रं गृह्यते प्रवचने तथा प्रसिद्धत्वात् , बहुवचनं च त्रितारकत्वात् , ततो मृगशिरसा मृगशिरो नक्षत्रेण सह योगमुपागतश्चन्द्रो द्वितीयामा वृत्तिं प्रवर्तयति । मृगशिरसः कियपरिमितेषु मुहूर्तादिषु शेषेषु गतेषु वेति प्रश्ने प्राह — 'संठाणाणं' इत्यादि, संस्थानानां मृगशिरो नक्षत्रस्य 'एक्कारस मुहुत्ता' एकादशमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य 'ऊणतालीसं च बावद्विभागा' एकोनचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकं 'बावद्विभागं च' द्वाषष्टिभागं च, 'सत्तढिहा छेत्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य एकस्य द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागान् कृत्वा तद्गताः 'तेवण्णं चुण्णिया भागा' त्रिपञ्चाशत् चूर्णिका भागा इति । सप्तषष्टिभागाः (११ ) यदा 'सेसा' शेषा अवशिष्टा मृगशिरो नक्षत्रस्य भवेयुस्तदा, तथा अस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् अष्टादश मुहर्ताः एकस्य मुहूर्तस्य द्वाविंशतिश्च द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तषष्टि भागाः ( १८२२१४ ) अतिक्रान्ता भवेयुस्तदा चन्द्रो द्वितीयां वार्षिकीमावृत्तिं प्रवर्तयतीति । तत्कथमवसीयते ? गणितबलात् , इति गणितं प्रदर्श्यते-- इह या द्वितीया श्रावणमासभाविनो आवृत्तिरस्ति सा पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया तृतीया भवति ततस्तत्स्थाने त्रिकं स्थाप्यते, तद्रूपोनं क्रियते, जातं द्विकं, तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः षत्रिंशत्संख्यकद्वाषष्टिभाग-षट् संख्यकसप्तष्टिभागयुक्तः त्रिसप्तत्यधिक पञ्चशतरूपः गुण्यते, जातानि-एकादश शतानि षट् चत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तानाम् , एकस्य मुहूर्तस्य च द्वासप्ततिषिष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागा ( ११४६७२१२ ) तत एतेभ्य एकोनविंशत्यधिकाष्टशतसंख्यका मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति षिष्टि भागाः एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः, ( १९२४६६ ) परिपूर्णनक्षत्रपर्यायस्य शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात्-सप्तविंशत्यधिकानि त्रीणि शतानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः ( ३२७१७१३ ) तत एतेभ्यः ‘तिसुचेव नवुत्तरेसु (५७३ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे रोहिणिया' इति चतुर्थकरणगाथावचनात् नवोत्तराणि त्रीणि मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति षष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः ( ३०९२४६६ ) अभिजित आरभ्य रोहिणी पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः श६७ पश्चात् अष्टादश मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशति षिष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्दशसप्तषष्टिभागाः (१८१४ ) । एतावता मृगशिरो न शुद्धयति, तत एतावन्तो मुहूर्तादिका मृगशिरो नक्षत्रस्यातिक्रान्तास्ततो मृगशिरो नक्षत्रस्य त्रिशन्मुहर्त्तात्मकत्वात् तस्य एकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशति सप्तषष्टि भागेषु ( ११२५२ ) सूत्रोक्तेषु शेषेषु द्वितीयां श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं चन्द्रः प्रवर्त्तयतीति २। साम्प्रतं चन्द्रनक्षत्रयोगसमयभाविनं सूर्यनक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि; 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये चन्द्रनक्षत्रयोगकाले च खलु 'मूरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तणं' केन नक्षत्रेण सहगतः सन् द्वितीयां श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं 'जोएइ' युनक्ति प्रवर्तयतीत्यर्थः । भगवानाह–'ता पूसेणं' इत्यादि ‘ता पूसेणं' तावत् पुष्येण पुष्यनक्षत्रेण सहगतो भूत्वा द्वितीया श्राविणीमावृत्ति प्रवर्त्तयति । तत्र-विशेषमाह-'पूसस्स णं' इत्यादि, 'पूसस्स णं' पुष्यस्य स्खलु 'तं चेव जं पढमाए' तदेव यत् प्रथमायाम् , अत्र तदेव वक्तव्यं यत्प्रथमायां श्रावणमासभाविन्यामावृत्तौ प्रोक्तम् तथाहि-पुष्यस्य एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य चमुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिका भागाः (१९४२२२ ) शेषा अवतिष्ठेयुस्तदा सूर्यो द्वितीयां श्राविणीमावृत्ति प्रवर्तयतीति भावः । दह सूर्यस्य दशभिरयनैः पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते, द्वाभ्यामयनाभ्यां चैको नक्षत्रपर्यायो लभ्यते, तत्र सूर्य उत्तरायणं कुर्वन् सर्वदैव अभिजिन्नक्षत्रेण सहगतो भूत्वा योगमुपागच्छति दक्षिणायनं कुर्वश्च पुष्येण सहगतः सन् युनक्ति उक्तञ्च--- अब्भितंराहि नितो, आइच्चो पुस्सजोगमुवगयस्स । सव्वा आउट्टीओ, करेइ सो सावणे मासे ॥१॥ छाया-आभ्यन्तराभ्यः (आवृत्तिभ्यः) नयन् बाह्या आवृत्तीः प्राप्नुवन् आदित्यः पुण्ययोगमुपगतः । ६२६७ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. ५ सूर्यन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५५१ सर्वा आवृत्तीः करोति तस्य (युगस्य) श्रावणे मासे ॥१॥ इति अत एव सूत्रकारेण 'पुस्सेणं' इत्याद्युक्तम् २ । अथ तृतीयां श्रावणमासभाविनीमावृत्ति प्रदर्शयति-'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संबच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'तच्चं' तृतीयां 'वासिक्कि' वार्षिकी वर्षाकालभाविनी श्रावणमासभाविनी मित्यर्थः 'आउहि आवृत्ति 'चंदे' चन्द्रः 'केणं नक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् 'जोएइ' युनक्ति प्रवर्तयति ? भगवानाह-'ता विसाहाहि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'विसाहाहि विशाखाभिः पञ्चतारकत्वाद् बहुवचनम् , विशाखा नक्षत्रेण सह योगं कृत्वा चन्द्रस्तृतीयां श्राविणीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति । विशाखानक्षत्रस्य मुहूर्तादिकमाह-'विसाहाणं' इत्यादि, 'विसाहाणं' विशाखानां विशाखानक्षत्रस्य 'तेरसमुहुत्ता' त्रयोदश मुहूर्ताः, 'चउप्पण्णं च बावद्विभागा' चतुष्पञ्चाशञ्च द्वाषष्टिभागा 'मुहुत्तस्स एकस्य मुहूर्तस्य, तथा 'बावटिभागं च' द्वाषष्टिभागं च मुहूर्तस्य 'सट्टिहा छित्ता सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य एकस्य द्वाषष्टिभागस्य, सप्तषष्टिभागान् कृत्वा तेभ्यः 'चत्तालीसं चुण्णिया भागा' चत्वारिंशत् चूर्णिका: अतिश्लक्ष्णत्वेन र्णिका इव चूर्णिका भागाः सप्तषष्टि भागाः (१३५४) यदि 'सेसा' शेषा अवशिष्टा भवेयुस्तदा, तथा अस्य पञ्चचत्वारिंशन्मु हूर्तात्मकत्वात् एक त्रिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तद्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः (३१-७-२७) यदा अतिक्रान्ता भवेयुस्तत्समये चन्द्रस्तुतीयामावृत्तिं प्रवर्तयतीति । तदेव प्रदर्श्यते इयं तृतीया आवृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया पञ्चमी भवति ततस्तत्स्थाने पञ्चकं ध्रियते तद् रूपोनं क्रियते जातं चतुष्कम् , तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः (५७३ २६-) गुण्यते, जातानि द्विनवत्यधिकानि द्वाविंशतिः शतानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य चतुश्चत्वारिंशदधिकं शतं द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विंशति सप्तपष्टिभागाः (२२९२/१४४२४) तत एतेभ्यः अष्टात्रिंशदधिकानि षोडश मुहूर्तशतानि एकस्य च मुहूर्त्तस्य अष्टचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशदधिक शतं सप्तपष्टिभागाः (१६३८४८ १३२) परिपूर्णनक्षत्रपर्यायद्वयस्य शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् चतुष्पञ्चाशदधिकानि षड् मुर्तिशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्नवतिद्वाषष्टिभागाः, Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षड्विंशति सप्तषष्टिभागाः (६५४ / ९४ / २६), तत एभ्य एकोन |६२/६७ ५५२ पञ्चाशदधिकानि पञ्चमुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य विंशतिर्द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागाः (५४९ (५४९ ) अभिजित आरम्य उत्तरफाल्गुनी पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थितं पश्चात् पञ्चोत्तरं मुहूर्त्तशतं, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोन सप्तति र्द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः (१०५ ७ ५६९/२७ '६२ ६७ अत्र स्थितेभ्य एकोनषष्टि द्वाषष्टिभागेभ्यो द्वाषष्ट्या द्वाषष्टिभागैरेको मुहूर्त्तो लभ्यते, स च पूर्वस्थिते पञ्चोत्तरशतरूपे मुहूर्त्तराशौ प्रक्षिप्यते, जातः स मुहूर्त्तराशिः षडुत्तरं शतम्, स्थिता पश्चात् सप्तद्वाषष्टिभागाः, तेन जात एष राशिः षडुत्तरं मुहर्त्तशतम् एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तद्वाष्ट भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः १०६ ८६३३६३० । तत एतेभ्यो मुहूत्र्त्तेभ्यः पञ्चसप्ततिर्मुहूर्त्ताः (७५) हस्तादि स्वातिपर्यन्तानां त्रयाणां नक्षत्राणां शोध्याः, स्थिताः शेषा एकत्रिंशन्मुहूर्त्ताः, सप्त द्वाषष्टिभागाः सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः (३१ _७(२७), एतेषु मुहूर्त्तादिषु विशाखा नक्षत्रस्यातिक्रान्तेषु ततो विशाखा नक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिं ६२६७ शन्मुहूर्त्तात्मकत्वात्तस्य त्रयोदशसु मुहूर्त्तेषु चतुष्पञ्चाशतिद्वाषष्टिभागेषु चत्वारिंशति सप्तषष्टि भागेषु (१३।५४।४०) शेषेषु चन्द्रस्तृतोयां श्राविणीमावृत्तिं प्रवर्त्तयतीति ३। साम्प्रतं तत्समयगतं सूर्यनक्षत्रयोगं प्रदर्शयति 'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये चन्द्रनक्षत्रयोगकाले च खलु 'मुरिए' सूर्यः 'केणं नक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह गतः सन् ‘जोएइ' युनक्ति तृतीयां श्राविणीमावृत्ति प्रवर्त्तयति ? भगवानाह 'ता पूसेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'पूसेणं' पुष्येण सहगतः सन् तृतीयां श्रावणीमावृत्ति प्रवर्त्तयति तस्य मुहूर्त्तादिकमाह–‘पूसस्स' पुष्यस्य 'तं चेव' तदेव प्रथमावृत्तिप्रदर्शितवदेव मुहूर्त्तादिकं विज्ञेयम्, तथाहि - पुष्यस्य एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः, त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टि भागाः (१९४३|३३) शेषास्तिष्ठेयुस्तदा सूर्यः पुष्येण सहगतो भूत्वा तृतीयां श्राविणीमावृत्तिं प्रवर्त्तय ६२/६१ तीति भावः । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५५३ अथ चतुर्थीमावृत्ति प्रदर्शयति- -'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चउत्थि' चतुर्थी 'वासिक्कि' वार्षिकी वर्षाकालभाविनीं श्रावणमासभाविनीमित्यर्थः 'आउटि' आवृत्तिं 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण योगमुपागतः सन् 'जोएई' युनक्ति प्रवर्त्तयति ? भगवानाह'रेवई हिं' रेवतीभिः अस्या द्वात्रिंशत्तारकात्मकत्वाद् बहुवचनम् , रेवतीनक्षत्रेण सह युक्तश्चन्द्रश्चतुर्थी श्रावणीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति । अस्या मुहूर्तादिकमाह- 'रेवईणं' इत्यादि, 'रेबईणं' रेवतीनां रेवतीनक्षत्रस्य 'पणवीसं मुहुत्ता' पञ्चविंशतिर्मुहर्ताः 'बत्तीसं च बावट्ठिभागा' द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य, तथा 'बावहिभागं च' एकं द्वाषष्टिभागं च 'सत्तढिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्वा एकस्य द्वाषष्टि भागस्य सप्तषष्टि भागान् कृत्वा तन्मध्यात् 'छब्बीसं चुणिया भागा' षड् विंशतिश्चूर्णिका भागाः सप्तषष्टि भागाः ( २५३२२६ ) यदि शेषास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्रश्चतुर्थी श्राविणीमावृत्तिं प्रवर्तयतीति । तत्कथं भवेदित्याह-प्राक् प्रदर्शित क्रमापेक्षया श्रावणमासभाविनी चतुर्थी आवृत्तिः सप्तमी भवति ततः सप्तकोऽको ध्रियते, तस्मिन् रूपोने कृते जातः षट्कः, तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः (५७३-३६।६) गुण्यते जातानि अष्टात्रिंशदधिकानि चतुस्त्रिंशच्छतानि (३४३८) मुहूर्तानाम् एकस्य च मुहूर्तस्य षोडशोत्तरे द्वे शते (२१६ द्वाषष्टिभागानाम् , एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य षद् त्रिंशत् (३६) सप्तषष्टिभागाः ( ३४३८२१६२६ ) तत एतेभ्यः षट् सप्तत्यधिकद्वात्रिंशच्छतमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य ( २४२०६२७ षण्णवति षिष्टि भागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्षष्टयधिकद्विशतसंख्यकाः सप्तषष्टि भागाः ( ३२७६।१६२६४ ) चतुर्णा नक्षत्रपर्यायाणां शोध्यन्ते, स्थितं पश्चाद् द्वाषष्टयधिक मुहूर्तस्य शतम् , एकस्य च मुहूर्तस्य षोडशाधिकं द्वाषष्टिभागशतम् , एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः ( १६२११६३० ), तत एतेभ्यः एकोनषष्टयधिक मुहूर्तशतम् एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टिः सप्तषष्टि भागाः (१५९२११६६ ) अभिजिदादीनामुत्तरभाद्रपदा पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् त्रयोमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकनवति षिष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टि Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ भागस्य एकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः (३ द्वाषष्टिभागैरेको मुहूर्त्तो लब्धः स च पूर्वस्थिते त्रिकरूपे मुहूर्त्तराशौ क्षिप्यते, जातास्ते चत्वारो मुहूर्त्ताः, शेषाः स्थिताः एकोनत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, ततो जायन्ते चत्वारो मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकचत्वारिंशत् सप्तषष्टि २९ ४१ भागाः ( ४ एते च युद्धादिकाः रेवती नक्षत्रस्यातिकान्तास्तत आगतम्—रेवती - |६२/६ नक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् तस्य पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु द्वात्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु षड्विंशतौ (२५६३) सूत्रकेषु शेषेषु सत्सु चन्द्रखतुर्थी श्राविणीमावृत्तिं प्रवर्त्तय सप्तषष्टिभागेषु ), चन्द्रश तत्र एकनवति द्वाषष्टिभागेभ्यो द्वाषष्ट्या तीति सिद्धम् ४ । सम्प्रति तत्समयगतं सूर्यनक्षत्रयोगं प्रदर्शयति- 'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं चणं' तस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगरूपे समये च खलु 'सूरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह गतः सन् चतुर्थी श्रावणीमावृत्ति 'जोए ' 'युनक्ति प्रवर्त्तयति ? भगवानाह - 'ता पूसेणं' तावत् पुष्येण सहगतो भूत्वा प्रवर्त्तयति । अत्र विशेषमाह – 'पूसस्स' पुष्यस्य पुष्यनक्षत्रस्य 'तं चेव' इति तदेव प्रथमावृत्ति प्रकरणोक्तवदेव विज्ञेयम् - पुष्यस्य एकोनविंशति मुहूर्त्ताः, त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टि भागाः, त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिका भागाः ( १९ " यदि शेषा भवेयुस्तदा सूर्यश्वतुर्थी श्राविणीमावृत्ति प्रवर्त्तयतीति भावः || ४ || अधुना पञ्चमीमावृत्ति प्रदर्शयति - ' ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'पंचण्डं संवच्छरणं' पश्चानां संवत्सराणां मध्ये 'पंचमं' पश्चमीं 'वासिक्कि' वार्षिकीं वर्षाकालभाविनीम् ‘आउट्टि' आवृत्ति 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् ‘जोएइ' युनक्ति - प्रवर्त्तयतीति प्रश्नः । भगवानाह - 'ता पुव्वाहिं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुब्वाहिं फग्गुणीहिं' पूर्वाभ्यां फाल्गुनीभ्याम् द्वितारकत्वाद् द्विवचनं कृतं, प्राकृते द्विवचनाभावात् सूत्रे बहुवचनम्, पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रेण योगं कुर्वन् चन्द्रः पञ्चमीं वार्षिकीमावृत्तिं प्रवर्त्तयतीति भावः अथास्य मुहूर्त्तादिकं प्रदर्शयति- 'पुव्वाफग्गुणीणं' पूर्वाफाल्गुन्योः पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रस्येत्यर्थः 'बारसमुहुत्ता' द्वादशमुहूर्त्ताः, 'सत्तालीसं च बावट्ठिभागा' सप्तचत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागाः, 'मुहुतस्स' एकस्य मुहूर्त्तस्य, तथा 'बावद्विभागं सत्तद्विहा छित्ता' द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य एकं द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा कृत्वा तत्सम्बन्धिनः 'तेरसचुण्णिया भागा' त्रयोदश चूर्णिका Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५५५ ६२०६७ भागाः (१२-४७१३) यदा 'सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्रः पञ्चमी वार्षिकी मावृत्ति श्रावणमासभाविनी प्रवर्त्तयतीति । तथाहि पञ्चमी श्रावणी आवृत्तिः प्राक् प्रदर्शितक्रमापेक्षया नवमी भवति ततोऽत्र नवकोऽङ्को ध्रियते, तस्मिन् रूपोने कृते जाता अष्ट, एभिरष्टभिश्चप्रागुक्तो ध्रुवराशिः-५७३२६ = ) गुण्यते, जाताश्चतुरशीत्यधिकानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि (४५८४) मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टाशीत्यधिके द्वे द्वाषष्टि भागशते (२८८), एकस्य च डाष्टिभागस्य अष्टचत्वारिंशद (४८) सप्तषष्टिभागाः (४५८७२६८४८) । तत एभ्यश्चत्वारिंशन्मुहूर्तशतानि पञ्चनवत्यधिकानि, एकस्य च मुहूर्तस्य विंशत्यधिकं शतं द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि सप्तषष्टिभागाः ४०९५/१२०३३०) पञ्चनक्षत्रपर्यायाणां शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् चत्वारि मुहूर्तशतानि एकोननवत्यधिकानि, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिषष्टयधिकं शतं द्वाष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत् सप्तषष्टि भागाः (४८९ १६२५३) पुनरेतेभ्यो नवत्यधिकानि त्रीणि मुहूर्त्तशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विशति ६७ द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः ( जित आरभ्य पुनर्वसु पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् नवतिमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्ट त्रिंशदधिकं शतं द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशद् सप्तषष्टिभागाः (९० १३८५-१)। ततोऽष्टत्रिंशदधिकशतद्वाषष्टि भागेभ्यश्चतुर्विशत्यधिक शत द्वाष्टि भागै द्वै मुहूतौ लब्धौ, तौ च पश्चात्स्थिते नवति रूपे मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्येते, जाता द्विनवति मुहर्ताः (९२), स्थिताः शेषा ये चतुर्दश, ते चतुर्दश द्वाषष्टिभागाः, तत आगताः-द्विनवतिर्मुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दश द्वाषष्टि भागा, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य चतुष्पञ्चाशत् सप्तषष्टि भागाः (९२ १४) । तत एतद्गत मुहूर्तराशेः पञ्चसप्ततिः (७५) मुहूर्ताः पुष्यादिमधा पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् सप्तदश मुहूर्ताः (१७), शेषा द्वाषष्टि भागाः सप्त ६७ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे ६२६७ षष्टिभागाश्च ते एव १४/५४), एतावता राशिना पूर्व फाल्गुनी न शुद्धयति, ततो ज्ञातव्यम् पूर्व ६२/६७ फाल्गुनी नक्षत्रस्य सप्तदशमुहूर्ताः, चतुर्दश द्वाषष्टिभागाः, चतुष्पञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः (१७१४५४) अतिक्रान्ताः, ततोऽस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् पूर्वफाल्गुनी नक्षत्रस्य द्वादशसु मुहूतेषु सप्तचत्वारिंशति द्वाषष्टि भागेषु त्रयोदशसु सप्तषष्टिभागेषु (१२,४७,१३) सूत्रोक्तेषु शेषेषु सत्सु चन्द्रः पञ्चमीश्राविणीमावृत्तिं प्रवर्त्तयतीति सिद्धम् ॥५॥ अथ सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नोत्तरमाह-'तं समयं च णं इत्यादि, 'तं समयं च णं तस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगरूपे समये च खलु 'सूरिए' सूर्य 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तः सन् पञ्चमी श्राविणीमावृत्ति प्रवर्त्तयति ? भगवानाह -'ता पूसेण' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पूसेण' पुष्येण सहगतः सूर्यः पञ्चमीमावृत्ति प्रवर्त्तयति । 'पूसस्स' पुण्यस्य 'तं चेव' तदेव प्रथमश्रावण्यावृत्ति प्रकरणोक्त मुहूर्तादिपरिमाणवदेव विज्ञेयम् , तथाहि-पुष्यस्य एकोनविंशति मुहूर्तेषु त्रिचत्वारिंशद्वाषष्टिभागेषु त्रयस्त्रिंशच्चर्णिका भागेषु (१९।४३।३३) शेषेषु सूर्यः पञ्चमी श्रावणमासमाविनीमावृत्तिं प्रवर्तयतीति भावः ।सूत्रम् ॥५॥ तदेवं प्रोक्ताश्चन्द्रनक्षत्रयोगविषयाः सूर्यनक्षत्रयोगविषयाश्च वार्षिक्यः पञ्च आवृत्तयः, साम्प्रतं हैमन्तीरावृत्तीः प्रतिपादयन्नाह-'ता एएसिणं इत्यादि । मूलम्-ता एएसि णं पंचण्हं संबच्छराणं पढमं हेमंतिं आउट्टि चंदे केणं णक्खतेणं जोएइ ? ता हत्थेणं, हत्थस्स णं पंचमुहुत्ता, पण्णासं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं च सत्तट्टिहा छित्ता सट्ठीचुणिया भागा सेसा । तं समयं च णं सुरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराहि आसाढाहि, उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं हेमंतिं आउटिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ?, ता सयभिसयाणं दुन्नि मुहुत्ता, अट्ठावीसं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं च सत्तद्विहा छित्ता छत्तालीसं चुणिया भागा सेसा। तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराहिं आसाढाहि, उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए २। ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं हेमंति आउहि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता पूसेणं, पूसस्स एगूणवीसं मुहुत्ता तेतालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तरस, बावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता तेत्तीसं चुपिणयाभागा सेसा तं समयं च णं रिए केणं णवखत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरम समए ३। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा. १२ सू. ६ सूर्यचन्द्रयोः हेमन्तीमावृत्तिस्वरूपम् ५५७ ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थि हेमंति आउटिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता मूलेणं, मूलस्स छ मुहुत्ता, अट्ठावन्नं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स, बावष्टिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता वीसं चुणिया भागा सेसा । तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तणं जोएइ ? ता उत्तराहिं असाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए ४ । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमं हेमंत आउटिं चंदे केणं णवखत्तणं जोएइ ? कत्तियाहिं, कत्तियाणं अट्ठारसमुहुत्ता, सहिहा छित्ता छ चुणिया भागा सेसा । तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराहिं आसाढाहिं उत्तराणं आसाढ़ाणं चरमसमए ॥ सूत्रम् ॥ ६ ॥ छाया-तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमां हैमन्तीम् आवृत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् हस्तेन, हस्तस्य खलु पञ्चमुहूर्ताः पञ्चाशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, द्वाषष्टि भागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा षष्टिः चूर्णिका भागाः शेषाः तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् उत्तराभिराषाढाभिः, उत्त राणामाषाढानां-चरमसमये १। तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयां है मन्तोम् आवृत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् शतभिषग्भिः, शतभिषजां द्वौ मुहूता अष्टाविंशतिश्च द्वाष्ट भागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा षट् चत्वारिंशत् चूर्णिका भागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् उत्तराभिराषाढाभिः, उत्तराणोमाषाढानां चरमसमये २ । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां तृतीयां हैमन्तीम् आवृत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् पुष्येण, पुष्यस्य एकोनविंशतिमुहर्ताः त्रिचत्वारिंशच्च द्वाषष्टि भागा मुहूर्तस्य, द्वाष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा त्रयस्त्रिंशत् चूणिका भागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् उत्तराभिराषाढाभिः, उत्तराणामाषाढानां चरमसमये ३ । तावत् एतेषां खल पञ्चाना संधत्सराणां चतुर्थी हैमन्तीमावृत्ति चन्द्रः युनक्ति ? तावत् मूलेन, मूलस्य षड्मुहूर्ता, अष्ट पञ्चाशच्च । द्वाषष्टि भागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा विंशतिश्चूर्णिका भागाः शेषाः । तस्मिन् समये सूर्यः केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति ? तावत् उत्तराभिराषाढाभिः, उत्तराणामाषाढानां चरमसमये ४। तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां पञ्चमी हैमन्तीम् आवृत्तिं चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् कृत्तिकाभिः, कृत्तिकाणाम् अष्टादशमुहूर्ताः, षट्त्रिंशच्च द्वा. षष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभागं च मुहूर्तस्य सप्तष्टिधा छित्त्वा षट् चर्णिका भागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् उत्तराभिराषाढाभिः, उत्तराणामाषाढानां चरमसमये । सूत्रम् ॥ ६ ॥ व्याख्या-'ता एएसि णं इति, 'ता तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां चन्द्रादीनां मध्ये 'पढम' प्रथमां 'हेमंति' हैमन्ती शीतकालभाविनी माघमासभाविनीमित्यर्थः 'आउहि' आवृति 'चंदे' चन्द्रः 'केण णक्खत्तणं जोएइ' केन नक्षत्रेण सह योग Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे मुपागतः सन् युनक्ति प्रवर्त्तयति ! भगवानाह-'ता तावत् 'हत्थेणं हस्तेन हस्तनक्षत्रेण सहगतः सन् प्रथमां हैमन्तीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति । अस्य मुहूर्तादीनाह-'हत्थस्सणं' इत्यादि, 'हत्थस्सणं'हस्तस्य खलु 'पंचमुहुत्ता' पञ्चमुहूर्ताः, 'पण्णासं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य च पञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, 'बावट्ठिभागं च' द्वाषष्टिभागं च 'सत्तट्ठिहा छित्ता'सप्तषष्टिधा छित्त्वा तद्गताः 'सट्ठी' षष्टिः 'चुणिया भागा' चर्णिका भागाः (५५०६°) सेसा' शेषा अवशिष्टाः तिष्ठेयुस्तदा ६२६७ चन्द्रः प्रथमां हैमन्तीमावृत्तिं प्रवर्तयतीति भावः । तत्कथमिति प्रदर्शयति हैमन्ती प्रथमा आवृत्तिः प्रागुक्तक्रमापेक्षया द्वितीयाऽस्ति ततस्तत्स्थाने द्विकोऽङ्कोध्रियते, स रूपोनो जात एककः, तेन प्रागुक्तो ध्रुवराशिः (५७३।३६।६) गुण्यते जातस्तावानेव (५७३३६६), तत एतस्मात् एकोनपञ्चाशदधिकानि पञ्चशतानि मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति षिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (५४९२१६६ ) अभिजिदादीनामुत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, शोधिते च स्थिताः पश्चात् चतुर्विशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकादश द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागाः (२४२१ तत आगतम्-हस्तनक्षत्रस्य एतावत्परिमितेषु मुहूर्त्तादिषु व्यतिक्रान्तेषु तदन्तरं तस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्त्वात् पञ्चसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टौ सप्तपष्टिभागेषु (५/१०६०) शेषेषु चन्द्रः प्रथमां हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्त्तयतीति सिद्धम् १ । सम्प्रति सूर्यनक्षत्रविषयं सूत्रमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु चन्द्रनक्षत्रयोगसमये 'मूरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं जोएइ' केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् प्रथमां हैमन्तीमावृत्ति युक्ति-प्रवर्त्तयति ? भगवानाह—'ता उत्तराहिं आसाढाहिं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'उत्तराहिं आसाढाहिं' उत्तराभिराषाढाभिः उत्तराषाढानक्षत्रेण युक्तः सन् प्रथमां हैमन्तीमावृत्तिं प्रवर्तयति । अथ विशेषमाह-'उत्तराणं आसाढाणं' उत्तराणामाषाढानाम् उत्तराषाढानक्षत्रस्य 'चरमसमए' चरमसमये, उत्तराषाढानक्षत्रं परिपूर्णमुपभुज्य अभिजिन्नक्षत्रस्य प्रथमसमये सूर्यः प्रथमां हैमन्तीमावृत्तिं प्रवर्त्तयतीति भावः । तत्कथमित्युपदर्यते-अत्र त्रैराशिकं क्रियते-यदि दशभिरयनैः पञ्चसूर्यकृतानि नक्षत्राणि लभ्यन्ते तदा एकेन अयनेन कति सूर्यकृतनक्षत्राणि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना-१०।५।१। ततः ६२/६७ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १२ सू. ६ सूर्यचन्द्रयोः हैमन्तीमावृत्तिस्वरूपम् ५५९ अन्त्येन राशिना एककलक्षणेन गुणिता मध्यराशिः पञ्च तेन जाताः पञ्चैव, तेषां दशभिर्भागेडूते लभ्यते अर्द्ध पर्यायस्य, त्रिंशदधिकाष्टादशशत (१८३०) परिमितपरिपूर्णपर्यायस्यार्द्ध भवति पञ्चदशोत्तरं शतनवकम् (९१५), तत्र ये विंशतिः सप्तषष्टिभागाः पाश्चात्येऽयने पुण्यस्य गताः, शेषा ये स्थिताश्चतुश्चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागास्ते साम्प्रतमस्माद् राशेः शोध्यन्ते, स्थितानि शेषाणि एकसप्तत्यधिकानि अष्टौशतानि (८७१) तेषां सप्तषष्टया भागो हियते लब्धास्त्रयोदश, पश्चान्न किमपि तिष्ठति । एभित्रयोदशभिश्चाश्लेषादीनि उत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यन्ते तत आगतम्-अभिजिन्नक्षत्रस्य प्रथमसमये हैमन्ती प्रथमा अवृत्तिः प्रवर्तते । उत्तराषाढानक्षत्रस्य परिपूर्ण उपभोगो जातस्तत उक्तम्-'उत्तराषाढानक्षत्रस्य चरमसमये' इति । एवं सर्वा अपि हेमन्तकालसम्बन्धिनो माघमासभाविन्यः सर्वाः अपि आवृत्तयः सूर्यनक्षत्रमाश्रित्य उत्तराषाढानक्षत्रे परिणे भुक्ते सति अभिजिन्नक्षत्रस्य प्रथमसमये प्रवृत्ता भवन्तीति ज्ञातव्यम् । उक्तञ्च "बाहिरओ पविसंतो, आइच्चो अभिइजोगमुवगम्म । सव्वा आउट्टीओ, करेइ सो माघमासम्मि" ॥१॥ छाया--बाह्यतः-बाह्यमण्डलात्-अन्तः प्रविशन् आदित्यः अभिजिद् योगमुपगम्य । सर्वा आवृत्तीः करोति स माघमासे ॥ इति अथ द्वितीय हैमन्त्यावृत्तिविषयकं सूत्रमाह-'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां प्रसिद्धानां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'दोच्चं हेमंति' द्वितीयां हैमन्तीम्-हेमन्तर्तुव्यापिनी माघमासभाविनीम् 'आउट्टि' आवृत्ति 'चंदे' चन्द्रः 'केणं नक्खत्तणं' केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् 'जोएइ' युनक्ति प्रवर्तयति ? । भगवानाह—'ता सयभिसयाहिं' इत्यादि 'ता' तावत् 'सयभिसयाहिं' शतभिषग्भिः शतभिषगूनक्षत्रेण युक्तः सन् द्वितीयां हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्त्तयति किं प्रमाणे मुहूर्तादिभिः शेषैः प्रवर्तयति ! इति प्रदर्शयति-'सयभिसयाणं' इत्यादि, 'सयभिसयाणं' शतभिषजां शतभिग्नक्षत्रस्य 'दुन्निमुहुत्ता' द्वौ मुहूत्र्ती, अट्ठावोसं च बावट्ठि भागामुहुत्तस्स' एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टाविंशति षिष्टिभागाः 'बावट्ठिभागं च' द्वाषष्टिभागं च 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य तद्गताः 'छत्तालीसं' षट्चत्वारिंशत् 'चुणिया भागा' चूणिका भागाः सप्तषष्टिभागाः 'सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्रः द्वितीयां हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्तयतीति । तदेव गणितेन स्पष्टयति-प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया द्वितीया माघमास भाविनी आवृत्तिश्चतुर्थी भवतीति चतुष्कोऽङ्कोध्रियते, रूपोने कृते जातस्त्रिकः, अनेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः (५७३।३६।६) गुण्यते, जातानि सप्तदश शतानि एकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानाम् , Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ चन्द्रप्रज्ञप्तिसू एकस्य च मुहूर्तस्याष्टोत्तरं शतद्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टादश सप्तषष्टिभागाः (१७१९१०८।१८) । तत एभ्यः अष्टात्रिंशदधिकानि षोडशशतानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशदधिकं शतं सप्तषष्टिभागानाम् योनक्षत्रपर्याययोः शोध्यन्ते स्थिताः पश्चात्-एकाशीतिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंशतिः सप्तपष्टिभागाः (८११८२ । अस्मादराशेर्भूयोऽपि नव मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टि सप्तषष्टिभागाः, ( ९६८) अभिजिन्नक्षत्रस्य शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् द्वासप्ततिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः (७२३२१) । पुनरेतस्मात् त्रिंशन्मुहूर्ता श्रवणस्य पुनस्त्रिंशद् धनिष्ठायाः शोध्याः, अवतिष्ठन्ते पश्चात् द्वादश मुहूर्ताः एते द्वादश मुहूर्त्ता शतभिजो व्यतिक्रान्ताः ततः शतभिषग्नक्षत्रं चार्द्धनक्षत्रम् पञ्चदशमुहूर्तात्मकत्वात् , तत आगतम्-शतभिषग्नक्षत्रस्य द्वयोर्मुहूर्तयोः शेषयोः सतोः, तथा एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टाविंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु (२२८६) शेषेषु १/६७ ६२/६७ चन्द्रो द्वितीयां हैमन्तीमावृतिं प्रवर्त्तयतोति सिद्धम् । अथ सूर्यनक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु 'सूरिए' सूर्यः 'केणं नक्खत्तेणं जोएइ' केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतो द्वितीयां हैमन्तीमावृत्तिं प्रवत्र्तयतोति प्रश्नः । भगवानाह'उत्तराहि आसाढाहिं' इत्याधुत्तरम्, तथाहि-उत्तराषाढानक्षत्रेण, तस्योत्तराषाढानक्षत्रस्य चरम समये अभिजितः प्रथम समये, इति पूर्वं प्रदर्शितमेव, सूर्यस्य सर्वत्राभिजितः प्रथम समय एव हैमन्त्यावृत्तीनां प्रवर्तकत्त्वात् ।। ___ अथ तृतीय हैमन्त्यावृत्तिविषयं सूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि गं' एतेषां खलु "पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'तच्चं हेमंति' तृतीयां हैमन्ती माघमासभाविनीम् 'आउटिं' आवृत्तिं 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णखत्तेणं जोएइ' केन नक्षत्रेण सह युक्तो भूत्वा युनक्ति ? प्रवर्त्तयति ? भगवानाह-'ता पूसेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिप्रकाटोका प्रा.१२ सू. ७ छत्रातिच्छत्रयोगे चन्द्रयोगनिरूपणम् ५६९ - पूर्व नक्षत्रयोगमाश्रित्य सूर्यचन्द्रयोरावृत्तयः प्रोक्ताः, साम्प्रतं योगानां दश नामानि प्ररूप्य तन्मध्यात् छत्रातिछत्रं योगं कस्मिन् देशे चन्द्रो युनक्तीति प्रदर्शयति 'तत्थ खलु' इत्यादि । मूलम्-तत्थ खलु इमे दसविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा-सभाणुजाए १, वेणुयाणुजाए २, मंचे ३, मंचाइमंचे ४, छत्त ५, छत्ताइच्छत्ते ६, जुयणद्धे, ७, घणसंमद्दे ८, पीणिए ९, मंडूयप्पुए णामं दसमे १० । एएसिणं भंते पंचण्हं संवच्छराणं छत्ताइछत्तं जोगं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ?, ता जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईण पडिणीयाययाए उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता, दाहिणपुरथिमिल्लंसि चउब्भागमंडलं सत्तावीसं भागे उवाइणावित्ता अट्ठावीसइमं भागं वीप्तहा छित्ता अट्ठारसभागे उवाइणा वित्ता तीहिं भागेहिं दोहिं कलाहिं दाहिणपुरथिमिल्लं चउभागमंडलं अपसंपत्ते, एत्थ गं से चंदे छत्ताइछत्तं जोयं जोएइ, तं जहा उप्पिचंदो मज्ज्ञे णक्खत्तं हेट्ठा आइच्चो । तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता चित्ताए चित्ताए चरम समये ॥२०७॥ ____ चंदयन्नत्तीए बारसमं पाहुडं समत्तं ॥ १२ ॥ . छाया-तत्र खलु अयं दशविधा योगःप्रशप्तः, तद्यथा-वृषभानुयोगः १,वेणुकानुयोगा २, मञ्चः ३, मञ्चातिमञ्चः ४, छत्रं ५, छत्रातिछत्रम् ६, युगनद्धः७, घनसंमर्दः ८, प्रीणि तः ९, माण्डूकप्लुतः, नाम दशमः १० । एतेषां खलु भदन्त । पञ्चानां संवत्सराणां छत्रातिच्छत्रं योग चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीनतिच्यायतया उदीचि दक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा दक्षिणपौरस्त्ये चतुर्भागमण्डले सप्तविंशति भागान् उपादाय अष्टाविंशतितमं भागविंशतिधा छित्त्वा अष्टादशभागान् उपादाय त्रिभिर्भागैः द्वाभ्यां कलाभ्यां दक्षिणपौरस्त्यं चतुर्भागमण्डलं असंप्राप्तः, अत्र खलु स चन्द्रः छत्रातिछत्रं योग युनक्ति, तद्यथा-उपरि चन्द्रः, मध्ये नक्षत्रं, अधः आदित्यः । तस्मिन् -समये च खलु चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् चित्रया, चित्रायाश्चरमसमये । सू० ॥ ७॥ ॥ चन्द्रप्रज्ञप्त्यां द्वादशं प्रोभृतं समाप्तम् ॥ १२॥ व्याख्या—'तत्थ खलु' इति 'तत्थ' तत्र युगे खलु 'इमे' अयं वक्ष्यमाणः 'दसविहे जोए पण्णत्ते' दशविधो योगः प्रज्ञप्तः 'तं जहा' तद्यथा, तानेव दर्शयति-'वसभाणुजाए' इत्यादि, 'वसभाणुजाए' वृषभानुजातः, अत्र अणुजातशब्दः सदृशार्थकः, तेन वृषभानुजातः वृषभसदृशः, यस्मिन् योगे चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि वृषभाकारेण तिष्ठन्ति स वृषभानुजातो योगः कथ्यते ? एवं सर्वत्रापि विज्ञेयम् । 'वेणुयाणुजाए' वेणुकानुजातः वेणु वंशस्तत्सदृशस्तदाकारो यो योगः स वेणुकानुजातः कथ्यते २ । 'मंचे' मञ्चः लोकप्रसिद्धः यो भूमिभागादुपरि निर्माप्यते सः, मञ्चसदृशो योगो मञ्च इति कथ्यते २, । 'मंचाइमंचे' मञ्चातिमञ्चः-मञ्चात् लोकप्रसिद्धात् एकस्मात् मञ्चात् द्वित्रादि भूमिकात्वेनातिशायी मञ्चो मञ्चातिमञ्चः, तत्सदृशो योगोऽपि मञ्चातिमञ्चयोगः कथ्यते । ४ । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'छत्ते' छत्रं लोकप्रसिद्धं, तदाकारो योगोऽपि छत्रशब्देन कथ्यते ५ । 'छनाइछत्ते' छत्रातिछत्रम्-छत्रात् एकस्माच्छत्रात् सामान्यरूपात् उपरि अन्यान्य छत्रभावतोऽतिशायिछत्रं छत्रातिच्छत्रं, तदाकारो योगोऽपि छत्रातिछत्रयोगः कथ्यते ६ । 'जुयमद्धे' युगनदः, यो युगमिव नद्धः बद्धः, यथा वृषभस्कन्धयोरारोपितं युगं वर्त्तते तत्सदृशो योगोऽपि युगनद्ध योमा कथ्यते ७ । 'घणसंमद्दे' घनसंमर्दः घनत्वेन संमर्दः परस्परं संमिलितः, यस्मिन् योगे चन्द्रः सूर्यों वा ग्रहस्य नक्षत्रस्य वा मध्ये गच्छति स घनसंमर्दयोगः कथ्यते ८ । 'पीणिए' प्रीणितः पुष्टः उपचयं नीतः यः प्रथमं चन्द्रसूर्ययोरेकतरस्य ग्रहेण नक्षत्रेण एकतरेण उपस्थितः, तदनन्तरं द्वितीयेन चन्द्रेण सूर्येण ग्रहेण नक्षत्रेण वा सहोपचयं नीतः स प्रीणितयोगः कथ्यते ९ । 'मंहूयप्पुए' माण्डूकप्लुतो नाम दशमः, यो मण्डूकप्लुत्या मण्डूक कूर्दनाकारेण यो जातो योगः स मण्डूकप्लुतयोगः कथ्यते, अयं च केवलं ग्रहेणैव सह जायते, अन्यस्व माइकलुतिगमनासंभवात् । उक्तंचात्रविषये-"चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि . प्रतिनियतगतानि, ग्रहास्त्वनियतगतयः” इति १० । युगे च छत्रातिच्छत्रयोगवर्जा नवापि योगाः प्रायो बहुशो बहुषु च देशेषु भवन्ति, किन्त्वेष छत्रातिच्छत्रयोगः कदाचित् कस्मिंश्चिदेव देशे भवति ततस्तद्विषयं सूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां प्रसिद्धानां खलु 'भंते' हे भदन्त ! 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये-'छत्ताइछत्तं जोग' छत्रातिच्छत्रं योगं 'चंदे' चन्द्रः 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशे 'जोएइ' युनक्ति-छत्रातिच्छत्रयोगेन सह चन्द्रः कस्मिन् देशे स्थितः सन् योगं करोति ? भगवानाह-'ता' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जंबुद्दीवस्स दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वोपस्योपरि 'पाईण पडीणाययाए' प्राची प्रतीच्यायतया पूर्व पश्चिमविस्तृतया, 'उदीण दाहिणाययाए' उदीचीदक्षिणायतया उत्तरदक्षिणविस्तृतया च, चशब्दोऽत्रानुक्तोऽपि द्रष्टव्यः 'जीवाए' जीवया, जीवा प्रत्यञ्चा तत्सदृशत्वाज्जीवया दवरिकया 'मंडलं' मण्डलं 'चउव्वीसेणं सएणं' चतुर्विशेन चतुर्विशत्यधिकेन शतेन (१२४) 'छित्ता' छित्वा विभज्य मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतभागान् कृत्वा, इयमत्र भावना-एकया दवरिकया बुद्धया कल्पितया पूर्वापरायतया एकया च दक्षिणोत्तरायतया मण्डलं समकार्य विभज्यते, विभक्तं च सत् चतुर्भागतया जातम् , तद्यथा-एको भाग उत्तरपूर्वस्याम् , एको भागो दक्षिणपूर्वस्याम् एको भागो दक्षिणापरस्याम् एको भागः पश्चिमोत्तरस्यामिति चतुर्विशत्यधिकशतराशेश्चतुर्भिर्भक्ते एको भाग एकत्रिंशद्भागप्रमाणो जायते, तत एकत्रिंशत्प्रमाणान् चतुरो भागान् कृत्वा 'दाहिणपुरथिमिल्लसि' दक्षिणपौरस्त्ये-दक्षिणपूर्वे दक्षिणपूर्वसम्बन्धिनि 'चउभाग मंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलस्यैकस्मिन् एकत्रिंशद्भागरूपे एकत्रिंशद्भागेभ्य इत्यर्थः, 'सत्तावीसं भागे' सप्तशिंति भागान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय गृहीत्वा आक्रम्येत्यर्थः तदप्रेतनं 'अट्ठावीसइमं भागं' अष्टाविंशतितमं भागं 'वीसहा छित्ता' विंशतिधा छित्त्वा अष्टाविंशति Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १२ सू. ६ सूर्यचन्द्रयोः हेमन्तोमावृत्तिस्वरूपम् ५६३. 'पूसेणं' पुष्येण पुष्यनक्षत्रेण सह योगयुपागतः सन् तृतीयां हैमन्तीं आवृत्ति प्रवर्त्तयति । अस्य मुहूर्त्तादीनाह – 'पूसस्स' इत्यादि, 'पूसस्स' पुष्यस्य पुष्यनक्षत्रस्य, 'ए गूणवीसं मुहुत्ता' एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः 'तेतालीसं च बाबद्विभागा मुहुत्तस्स' त्रिचत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा एकस्य मुहूर्त्तस्य, 'वार्वाद्विभागं च ' द्वाषष्टिभागं च 'सत्तट्ठिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा विभज्य तद्गताः ' तेत्तीसं चुण्णिया भागा' त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिकाभागाः सप्तषष्टिभागाः ( १९–४३ ३३ ) ‘सेसा’ शेषा अवशिष्टास्तिष्ठन्ति तदा चन्द्रस्तृतीयां हैमन्तीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति । ६२/६७ तत्कथमिति प्रदर्श्यते - एषा तृतीयाssवृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया षष्ठीभवति ततस्तस्याः स्थाने षट्कोऽङ्कोधियते, स रूपोनः क्रियते जातः पञ्चकः, अनेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः (५७३।३६।६ ) गुण्यते जातानि पञ्चषष्ट्यधिकानि अष्टाविंशति मुहूर्त्तशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य अशोत्यधिकं शतं द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः (२८६५ | १८०|३० ) तत ६२ |६७ एभ्यः सप्त पञ्चाशदधिकानि चतुर्विंशति मुहूर्त्तशतानि, एकस्य मुहूर्त्तस्य च द्विसप्ततिर्द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टानवत्यधिकं शतं सप्तषष्टि भागाः (२४५७ ६७ त्रयाणां नक्षत्रपर्यायाणां शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् अष्टोत्तराणि चत्वारि मुहूर्त्तशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चोत्तरं शतं द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः | १० ( ४०८ ) तत एभ्यः नवनवत्यधिकानि त्रीणि मुहूर्त्तशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य ६२ |६७ ७ चतुर्विंशति द्वषष्टिभागा, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (३९९ | > अभिजित आरभ्य पुनर्वसु पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् नवमुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य अशीति द्वषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः ) अत्र द्वाषष्ट्या द्वाषष्टिभागैरेको मुहूर्त्तो लब्धः, तस्य मुहूर्त्तराशौ नवकरूपे प्रक्षेपणात् जाता दश मुहूर्त्ताः स्थिताः पश्चाद् अष्टादशद्वाषष्टि भागाः (१०।१८। ३४ । ) एते पुष्यस्य मुहूर्त्ताः व्यतिक्रान्ताः, तत आगतम् – पुष्यस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात्तस्य एकोनविंशतौ मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टि भागेषु (१९।४३।३३) सूत्रोक्तेषु शेषेषु सत्सु चन्द्रस्तृतीयां हैमन्तीमावृत्तिं प्रवर्त्तयतीति सिद्धम् । ( ६२ ६७ ” ७१ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसत्रे सूर्यनक्षत्रयोगमाह---'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये चन्द्रनक्षत्रयोगसमये च खलु 'सरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तण जोएई' केन नक्षत्रेण सहगतो भूत्वा तृतीयां हैमन्तीमावृत्तिं युनक्ति प्रवर्तयति ! भगवानाह--'उत्तराहिं आसाढाहि' उत्तराभिरापाडाभिः उतराषाढानक्षत्रस्य चरमसमये अभिजितः प्रथमसमये तृतीयां हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्त्तयति ३। अथ चतुर्थ्यावृत्ति विषये पृच्छति--'ता एएसिणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां - संवत्सराणां मध्ये 'चउत्थिं हेमंतिं आउटिं' चतुर्थी हैमन्तीमावृत्ति 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णखत्तेणं जोएइ' केन नक्षत्रेण सहयोग प्राप्तः सन् युनक्ति प्रवर्त्तयति ? भगवानाह--'ता मूलेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'मूलेणं' मूलेन मूलनक्षत्रेण सहगतः प्रवर्तयति । अस्य मुहूर्तादीन् प्रदर्शयति--'मूलस्स' इत्यादि 'मूलस्स' मूलस्य 'छ मुहुत्ता' षड्मुहूर्ता 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'अट्ठावन्नं च बावद्विभागा' अष्टपञ्चाशच्च द्वाषष्टिभागाः तेषु 'बावट्ठिभागं च' एकं द्वाषष्टिभागं च 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य तद्गताः 'वीसं चुण्णिया भागा' विंशतिश्णिकाभागाः(६५८२) सेसा' ५० शेषा अवशिष्टास्तिष्टेयुस्तदा चन्द्रश्चतुर्थी हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्तयतीति । तदेव गणितेन स्पष्टयति-- इयं चतुर्थी हैमन्ती आवृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया अष्टमीति तस्याः स्थानेऽष्टकोऽङ्को ध्रियते स रूपोनः क्रियते जातः सप्तकः, अनेन स प्राक्तनो ध्रुवराशिः (५७३।३६।६) गुण्यते, जातानि एकादशोत्तराणि चत्वारिंशच्छतानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य द्विपञ्चाशदधिके द्वेशते द्वाषष्टिभागानाम् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः (४०११।२५२/३२ ) । तत एतेभ्यः षट्सप्तत्यधिकानि द्वात्रिंशच्छतानि, मुहूर्तानाम् , एकस्य च ६२६७ मुहर्तस्य षण्णवतिषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टषष्टयधिके द्वे शते सप्तषष्टिभागानाम् (३२७६।९६।२६७), एते मुहूर्तादिकाश्चतुर्णा नक्षत्रपर्यायाणां शोध्यन्ते स्थितानि पश्चात् पञ्चत्रिंशदधिकानि सप्तमुहर्तशतानि, एकस्य च मुहर्तस्य द्विपञ्चाशदधिकं शतं द्वाषष्टिभागानाम् , एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः (७३५ ११५५ )। तत ६२ एभ्यः पुनः–एकोन सप्तत्यधिकानि षट्मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति षिष्टि भागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् षष्टिः सप्तषष्टिभागाः भिजि Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१२ सू. ६ सूर्यचन्द्रयोः हेमन्तीमावृत्तिस्वरूपम् ५६५ दादि विशाखापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् षट्षष्टिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहर्तस्य सप्तविंशत्यधिकशतसंख्यका द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः (६६।१२७/४७), एतद्गत सप्तविंशत्यधिकशत द्वाषष्टिभागेभ्यः (१२७) चतुर्विशत्यधिकशतद्वाषष्टिभागैः (१२४) द्वौ मुद्दों लब्धौ तौ पूर्वस्थितमुहूर्तराशौ प्रक्षिप्येते जाता अष्टषष्टिमुहूर्ताः शेषास्तिष्ठन्ति त्रयो द्वाषष्टिभागाः, ततो जातोऽयं राशिः अष्टषष्टि मुहर्ताः त्रयो द्वाषष्टिभागाः, सप्तचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः (६८।३।४७)। इत्येवं रूपः । ततोस्माद् राशेः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ताः (४५) अनुराधाज्येष्ठानक्षत्रयोः शोध्यन्ते, शोधितेषु तेषु स्थिताः पश्चात् त्रयोविंशतिमुहूर्तादिकाः (२३।३।४७)। मूलनक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तेभ्यो व्यतिक्रान्ताः, तत आगतम्-मूलनक्षत्रस्य षट्सु मुहूर्तेषु अष्टपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु (६।५८।२०) चन्द्रश्चतुर्थी हैमन्तीमावृत्तिं प्रवर्तयतीति सूत्रोक्तं सिद्धम् ॥ सूर्यनक्षत्रयोगमाह- 'तं समयं च णं' इत्यादि स्पष्टमेव उत्तराषाढा नक्षत्रस्य चरम समये, अभिजिन्नक्षत्रस्य प्रथमसमये चतुर्थी हैमन्तीमावृत्ति सूर्यः प्रवर्त्तयतीति भावः ४।। अथ पञ्चमीं हैमन्तीमावृत्तिमाह-- 'ता एएसिणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां प्रसिद्धानां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां चन्द्रादिसंवत्सराणां मध्ये 'पंचमि हेमंत पञ्चमी हैमन्तों माघमास भाविनीं 'आउर्टि' आवृत्तिं 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् 'जोएई' युनक्ति प्रवर्त्तयति ? भगवानाह--'कत्तियाहिं' कृत्तिकाभिः कृत्तिकानक्षत्रेण । कृत्तिकानां कतिषु मुहूर्तादिषु शेषेषु युनक्ति ? इत्यत्राह- 'कत्तियाणं' इत्यादि 'कत्तियाण' कृत्तिकानां कृत्तिकानक्षत्रस्य 'अट्ठारस मुहुत्ता' अष्टादश मुहूर्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'छत्तीसं च वावट्टिभागा' षट्त्रिंशच्च द्वाषष्टिभागाः, 'बावट्टिभागं च' एकं द्वाषष्टि भागं च 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य सप्तषष्टि भागीकृत्य तद्गताः 'छ चुण्णियाभागा' षट् चूर्णिकाभागाः सप्तषष्टिभागाः ( १८४२६६ ) 'सेसा' शेषाः त्रिंशन्मुहूर्तेभ्यः अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्रो हैमन्तीं माघमासभाविनीमावृत्तिं प्रवर्तयतीति भावः । तदेव प्रदर्शयति-पञ्चमी हैमन्त्यावृत्तिश्च प्रागुक्तक्रमापेक्षया दशमोत्यत्र दशकोऽङ्को ध्रियते, स रूपोनः क्रियते जातो नवकः, तेन प्राक्तनो ध्रवराशिः (५७३।३६।६) गुण्यते जातानि सप्त पञ्चाशदधिकानि एकपञ्चाशन्मुहूर्तशतानि एकस्य च मुर्तस्य चतुर्विशत्यधिकानि त्रीणि द्वाषष्टिभागशतानि एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः (५१५७/३२४-१) तत एभ्यः चतुर्दशाधिकानि एकोन पञ्चा ६२६७ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२/६७ । अण्णा ६२६७ । ६२६७ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे शन्मुहूर्त्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुश्चत्वारिंशदधिकशतसंख्यका द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षण्णवत्यधिकानि त्रीणि सप्तषष्टिभागशतानि (४९१४ नक्षत्रपर्यायाणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् त्रिचत्वारिंशदधिक द्विशतसंख्यका मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुःसप्तत्यधिकशतसंख्यका द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टिः सप्तषष्टिभागाः ( २४३ १७४६ ) तत एतेभ्यः एकोनषष्ट्यधिकं मुहूर्त्तशतम् एकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विशति षिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (१५९२४६६ ) अभिजित आरभ्योत्तरभाद्रपदापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते स्थिताः पश्चात् चतुरशीतिर्मुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनपञ्चाशदधिकशतसंख्यका द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य एकषष्टिः सप्तषष्टिभागाः ( ८४१४९६१ ) तत एतद्गतद्वाषष्टिभागेभ्यः (१४९) चतुर्विशत्यधिकेन शतेन द्वौ मुहूत्तौ लब्धौ, तौ च पूर्वस्थितमुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यते जाता षडशीतिर्मुहूर्ताः स्थिताः पश्चात् पञ्चविंशति षष्टिभागा, तथाहि षडशीतिमुहूर्ताः षञ्चविंशतिषिष्टिभागाः, एकषष्टिः सप्तषष्टिभागाः (८६२१६१ ) तत एभ्यः रेवल्यास्त्रिंशन्मुहूर्ताः (३०) अश्विन्यास्त्रिंशन्मुहर्ताः (३०) भरण्याः पञ्चदशमुहर्ता (१५), एवं पञ्च सप्ततिर्मुहर्ता (७५) रेवत्यश्विनी भरणोनां शोथ्यन्ते स्थिताः पश्चादेकादश मुहर्ताः शेषास्ते एव तथाहि--एकादशमुहूर्ताः, पञ्चविंशति षिष्टिभागाः, एकषष्टिः सप्तषष्टिभागाः (११।२५६१) एते मुहर्तादिकाः कृत्तिका नक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहर्तेभ्योऽतिक्रान्ताः तत आगतम्-कृत्तिका ६२६७ नक्षत्रस्याष्टादशसु मुर्तेषु, षट्त्रिंशति षष्टि भागेषु षट्सु सप्तषष्ठि भागेषु (१८/२६ ६ ) ६२६७ . शेषेषु चन्द्रः पञ्चमी हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्त्तयतीति सूत्रोक्तं सिद्धम् ५ । सूर्यनक्षत्रयोगमाह-- 'तं समयं च णं' इत्यादि पूर्व प्रदर्शितमेव, तथाहि-चन्द्रनक्षत्रयोगसमये सूर्य उत्तराषाढानक्षत्रस्य चरमसमये अभिजितः प्रथमसमये पञ्चमी हैमन्तीमावृत्तिं प्रवर्त्तयतीति भावः । तदेवमुक्ताश्चन्द्रसूर्यनक्षत्रयोगमधिकृत्य सूर्यस्य दशाप्यावृत्तयः, साम्प्रतं सूर्यावृतिप्रसङ्गाच्चन्द्रस्याप्यावृत्तयो वक्तव्याः, ताः कति ? इति पूर्व करणगाथायामुक्तम्-"चंदस्स य आउट्टी सयं Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशशिप्रकाशिकाटीका प्रा. १२ सू. ६. सूयचन्द्रयोः हेममन्तीमावृत्ति स्वरूपम् ५६७ च चोत्तीसयं चेव" चन्द्रस्य चावृत्तयः शतं च चतुस्त्रिंशकं चैवेतिच्छाया, चन्द्रस्यावृत्तय एकस्मिन् युगे चतुस्त्रिंशदधिकशत (१३४) संख्यका भवन्ति । तत्र यस्मिन्नेव नक्षत्रे वर्त्तमानः सूर्यो दक्षिणा उत्तरा वा आवृत्तिः करोति तस्मिन्नेव नक्षत्रे वर्त्तमानश्चन्द्रोऽपि दक्षिणा उत्तराश्वावृत्तीः करोति, ततो या उत्तराभिमुखा आवृत्तयो युगे चन्द्रस्य दृष्टास्ताः सर्वा अपि नियतमभिजिता नक्षत्रेण सह योगे द्रष्टव्याः, याश्च दक्षिणाभिमुखा आवृत्तयस्ताः सर्वाः पुष्यक्षत्रेण सहयोगे द्रष्टव्याः । उक्तञ्च- "चंदस्स वि नायव्वा, आउट्ठीओ जुगम्मि जा दिट्ठा । अभिरणं पुस्सेण य, नियमं नक्खत्त सेसे णं" ॥१॥ छाया:- चन्द्रस्यापि ज्ञातव्याः, आवृत्तयो युगे या दृष्टाः । अभिजिता पुष्येण च नियमं नक्षत्रशेषेण ॥ १ ॥ इति । त्र 'नक्खत्त सेसेणं' इति नक्षत्रार्द्धमासेनेति शेषं सुगमत्वान्न व्याख्यायते । तत्र यदुक्तं पूर्वं चन्द्रस्य उत्तराभिमुखाः सर्वा अप्यावृत्तयोऽभिजिन्नक्षत्रयोगे भवन्तीतिपूर्वं उत्तराभिमुखा आवृत्तयोऽत्र भाव्यन्ते - यदि चन्द्रस्य चतुस्त्रिंशदधिकेनायनशतेन सप्तषष्टिर्नक्षत्र पर्याया लभ्यन्ते तदा प्रथमेऽयने किं लभ्यते ? राशित्रयस्थापना - ( १३४।६७ / १ ) अत्रापि पूर्वोक्तैव रीतिः, यथा अन्त्येन राशिना मध्यराशिं गुणयित्वा आद्येन राशिना भागो हियते, एषा त्रैराशिक गणितरीतिः, ततोऽन्त्यराशिना एकेन गुणितो मध्यराशिः सप्तषष्टि रूपस्तावानेव जातः सप्तषष्ठिः (६७) अस्याः सप्तषष्ठे राधेन चतुस्त्रिंशदधिकशतरूपेण राशिना भागो हियते, लब्धं पर्यायस्य एकमर्द्धम् । तस्मिंश्च पर्यायार्थे पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि ( ९१५) सप्तषष्टि भागानाम् परिपूर्ण नक्षत्रपर्यायस्य त्रिंशदधिकाष्टादशशत (१८३०) सप्तषष्ठि भागात्मकत्वात्, तत्र पुष्यनक्षत्रस्य त्रयोविंशतौ (२३) सप्तषष्टिभागेषु भुक्तेषु सत्सु चन्द्रो दक्षिणायनं कृतवान् ततः शेषाश्चतु श्चत्वारिशत् सप्तषष्टि भागा: (४४) स्थितास्ते अनन्तरोदितराशेः पञ्चदशोत्तरे नव शत (९१५) रूपान् शोध्यन्ते स्थितानि शेषाणि एकसप्तत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८७१) एषां सप्तषष्ट्या भागो हरणीयः । इह कानिचिन्नक्षत्राणि अर्द्ध क्षेत्राणि (पञ्चदश मुहूर्त्तात्मकानि ) तान अर्ध क्षेत्रात्म कत्वेन सप्तषष्टे रर्द्धेकृते सार्द्धत्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागप्रमाणानि (३३॥ ), कानिचित् समक्षेत्राणि ( परिपूर्ण त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकानि ), तानि परिपूर्णक्षेत्रात्मकत्वेन : परिपूर्ण सप्तषष्टिभागप्रमाणानि (६७) कानिचिच्च दयर्धक्षेत्राणि ( पश्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकानि ) तानि परिपूर्णमेकं (६७) द्वितीयं चार्द्ध (३३||) मिति सार्दै कक्षेत्रात्मकत्वेन अर्द्धभागाधिकशतसंख्यक सप्तषष्टिभागप्रमाणानि (१०० ।। ) । गात्रं (८७१ ) त्वधिकृत्य सप्तषष्ट्या शुद्धयन्तीति सप्तषष्टचाऽत्र भागहरणं कर्त्तव्यम्, सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धास्त्रयोदश, शेषं नैव किञ्चिदवतिष्ठते तत उपरितनो राशि Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रतिस्त्र निर्लेपतः शुद्धः । तैश्च त्रयोदश भिरश्लेषात आरभ्य उत्तराषाढा पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि तत आगतम् चन्द्र उत्तराषाढानक्षत्रं परिणमुपभुज्य अभिजिन्नक्षत्रस्य प्रथमसमये उत्तरायणं करोति । एवं सर्वाण्यपि चन्द्रस्योत्तरायणानि वेदितव्यानि । उक्तञ्च 'षण्णरसे उ मुहुत्ते, जोइत्ता उत्तरा आसाढाओ। एक्कं च अहोरत्तं, पविसइ अब्भंतरे चंदो ॥१॥ छायाः-पञ्चदश तु मुहूर्त्तान् युक्त्वा उत्तराषाढातः । एकं चाहोरात्रं प्रविशति अभ्यन्तरे चन्द्रः ॥ इति । एकाहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्ताः, तदुपरि पञ्चदशेति जातः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ताः, उत्तराषाढा नक्षत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मक मिति परिपूर्ण युक्तं भवतीति भावः ।। साम्प्रतं चन्द्रस्य दक्षिणा आवृत्तयः प्रदर्श्यन्ते, तथाहि यदि चतुस्त्रिंशदधिकेनायनशतेन (१३४) सप्तषष्टिश्चन्द्रस्य पर्याया लभ्यन्ते तत एकेनायनेन किं लभ्यते ? इति त्रैराशिकं क्रियते । राशित्रयस्थापना यथा-१३४।६७।१। अथापि पूर्वोक्तक्रमेण अन्त्येन एककेन मध्यो राशिः सप्तषष्टिरूपो गुण्यते जातस्तावानेव सप्तषष्टिरूपः । तस्यायेन राशिना भागहरणं कर्त्तव्यम् इते च भागे लब्धं पूर्ववदेवार्द्ध मेकपर्यायस्य, तच्चाई पञ्चदशोत्तर नवशतसप्तषष्टिभागरूपं भवति (९१५) अस्मात् अभिजित्सम्बन्धिन एकविंशतिः सप्तषष्टि भागाः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् चतुर्नवत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८९४) एषां सप्तषष्टया भागे हते लब्धास्त्रयोदश, अवशिष्टाः स्थिताः पश्चात् त्रयोविंशतिः (२३) सप्तपष्टिभागा एकस्याहोरात्रस्य, ततो मुहूर्त भागकरणार्थ त्रयोविंशतिः त्रिंशता गुण्यते, गुणिते, च जायन्ते नवत्यधिकानि षट् शतानि (६९०) एषां सप्तषष्टया भागो हियते लब्धा दश मुहूर्ताः, विंशतिश्च सप्तषष्टि भागाः शेषत्वेन स्थिताः (१०२) तत आगतम्-पुनर्वसु नक्षत्रं परिपूर्णमुपभुज्य चन्द्रः पुष्यस्य दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहर्त्तस्य विंशतौ सप्तषष्टि भागेषु (१०२०) भुक्तेषु तदनन्तरं सर्वाभ्यन्तरमण्डला द्वहिनिष्क्रामति । एवमेव सर्वाण्यपि दक्षिणायनानि विचारणीयानि । उक्तञ्च "दसय मुहुत्ते सगले मुहुत्तभागे य वोसई चेव । पुस्स विसयमभिगओ, वहिया अभिनिक्खमइ चंदो ॥१॥ छाया-दश च मुहूर्तान् सकलान् (परिपूर्णान् ) मुहूर्तभागांश्च विंशतिं चैव । पुष्यविषयान् अभिगतः (प्राप्तः) सन् बहिरेभिनिष्क्रमति चन्द्रः ॥ १॥ अर्थस्तु स्पष्ट एव । सू० ६ ॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.२ सू.७ छत्रातिच्छत्रयोगे चन्द्रयोगनिरूपणम् ५६९ तमस्य भागस्य विंशतिभागान् कृत्वा तन्मध्यात् 'अटारसभागे' अष्टादशभागान् ‘उवाइणावित्ता' उपादाय आक्रम्य 'तिहिं भगेहिं एकत्रिंशद्भागस्य सप्तविंशतिभागाक्रमणानन्तरं शेषीभूतैत्रिभिरेकत्रिंशद्भागसम्बन्धिभिर्भागैः, 'दोहिं कलाहिं' द्वाभ्यां च कलाभ्याम्, एकस्य एकत्रिंशत्सम्बन्धिनो भागस्य सम्बन्धिभ्यां अष्टाविंशतितमभागस्य विंशतिधा विभक्तस्याष्टादशभागग्रहणा नन्तरं शेषीभूताभ्यां कलारूपाभ्यां भागाभ्यां 'दाहिणपुरथिमिल्लं' दक्षिणपौरस्त्यं दक्षिण पश्चिमस्थितं 'चउब्भागमंडलं' चतुर्भागमण्डलं चतुर्विशतिशतस्य चतुर्थभागरूपं मण्डलम् 'असंपत्ते असंप्राप्तः दक्षिणपश्चिमस्थितं मण्डलचतुर्भागमसंप्राप्यैव, 'एत्थ णं' अत्र अस्मिन् देशे खलु 'चंदे' चन्द्रः 'छत्ताइछत्तं जोयं' छत्रातिच्छत्रं योगं 'जोएई' युनक्ति छत्रातिच्छत्रयोगं करोति । एनमेव प्रदर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा 'उप्पिं चंदो' उपरि चन्द्रः 'मज्झे णक्खत्ते' मध्ये नक्षत्रम् 'हेटा आइच्चे' अध आदित्यः । इत्येवं छत्रातिच्छत्राकारको योगस्तदा भवति । इह मध्ये नक्षत्रमित्युक्तत्वेन नक्षत्रस्य विशेष प्रतिपत्त्यर्थं प्रश्न निर्वचनसूत्रमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् छत्रातिच्छत्रयोगसमये च खलु 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन किं नामकेन मध्यस्थितेन नक्षत्रेण 'जोएइ' युनक्ति योगं करोति ? भगवानाह- 'चित्ताए' चित्रया चित्रानक्षत्रेण, चित्राया एकतारकत्वादेकवचनम् तत्रापि विशेषमाह'चित्ताए चरमसमए' चित्रायाः चित्रानक्षत्रस्य चरमसमये अन्तिमसमये चित्रानक्षत्रस्योपभोगान्तिम काले चन्द्रश्चित्रानक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति भावः । सू० ॥७॥ इति जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल व्रति विरचितायां चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकायां व्याख्यायां द्वादशं प्रामृतं समाप्तम् ॥ १२ ॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ त्रयोदशं प्राभृतम् ॥ तदेवमुक्तं द्वादशं प्रामृतम् । तत्र पञ्चसंवत्सराणाम् तेषां मासदिनमुहूर्तानाम् , युगगतचन्द्रर्तुंसूर्यानाम् , सूर्यनक्षत्रयोगसंमेलनस्य, वृषभानुजातादि दशविधयोगानाम् , तद्गतछत्रातिच्छत्रयोगस्य च विवरणं कृतम् , साम्प्रतं त्रयोदशे प्राभृते 'कहं चंदमसो वुड्ढी' इति पूर्वप्रतिज्ञातं चन्द्रमसो वृद्धयपवृद्धिप्रकरणं प्रस्तूयते 'ता कहते चंदमसो वड्ढो वड्ढी' इत्यादि । . मूलम् --ता कहं ते चंदमसो वड्ढोबड्ढी आहिए ति वएज्जा, ता अट्ठपंचासीयाई मुहुत्तसयाई, तीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स जाव आहिएति वएज्जा ता दोसिणापक्खओ अंधकारपक्खमयमाणे चंदे चत्तारि बायालाई मुहुत्तसयाई छत्तालीसं च बावद्विभागे मुहुत्तस्स जाव, जाई चंदे रज्जइ तं जहा-पढमाए पढमं भागं, बिइयाए बिइयं भागंजाव पण्णरसीए पण्णरसमं भागं, चरिमसमए चंदे रत्ते भवइ अवसेसे समए चंदे रत्तेयविरत्तेय भवइ, इयण अमावासा, एत्थ णं पढमे पव्वे अमावासे । ता अंधयारपक्खा ओणं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि बायालाइं मुहुत्तसयाई छत्तालीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स जाव, जाइं चंदे विरज्जइ, तं जहा-पढमाए पढमं भागं, बिइयाए बिइयं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भाग, चरिमे समए चंदे विरत्ते भवइ, अवसेसे समए चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ इयण्णं पुण्णमासिणी, एत्थ णं दोच्चे पव्वे पुण्णमासिणी ॥ सूत्र ॥ १॥ छाया- तावत् कथं ते चन्द्रमसो वृदयपवृद्धी आख्याते ? इति वदेत् तावत् अष्ट पञ्चाशीतानि मुहूर्तशतानि, त्रिशच्च द्वापष्ठिभागान् मुहूर्तस्य यावत् आख्याते इति वदेत् । तावत् ज्योत्स्ना पक्षात् अन्धकारपक्षमयन् चन्द्रः चत्वारि द्विचत्वारिंशतानि षट् चत्वारिशतं च द्वाषष्टिभागान् मुहूर्तस्य यावत् यानि चन्द्रो रज्यते, तद्यथा-प्रथमायां प्रथम भागम्, द्वितीयायां द्वितीयं भागम्, यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदश भागम्, चरमसमये चन्द्रः रक्तो भवति अवसेसे समये चन्द्रः रक्तश्च विरक्तश्च भवति, इयं खलु अमावास्या, अत्र खलु प्रथमं पर्व अमावास्या। ततः अन्धकारपक्षात् खलु ज्योत्स्ना पक्षमयन् चन्द्रः चत्वारि द्विचत्वारिंशानि मुहूर्तशतानि, षट् चत्वारिंशतं च द्वाषष्टिभागान् महत्तस्य यावत्, यानि चन्द्रः विरज्यते, तद्यथा-प्रथमायां प्रथम भागं द्वितीयायां द्वितीयं भागम्, यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदश भागम्, चरमे समये चन्द्रः विरक्तो भवति अवशेषे समये चन्द्रः रक्तश्च विरक्तश्च भवति,इये खलु पूर्णमासी, अत्र खलु द्वितोयं पर्व पूर्णमासी ॥ सू०॥१॥ व्याख्या--'ता कहं ते' इति 'ता' तावत् 'ते' त्वया हे भगवन् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'चंदमसो' चन्द्रमसः चन्द्रस्य 'वडूढोवडूढी' वृद्धयपवृद्धी वृद्धिश्च हानिश्च 'आहिए' आख्याते कथिते ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु । चन्द्रस्य कियत्कालं यावत् Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१३ सू. १ चन्द्रमसोवृद्धयपवृद्धि निरूपणम् ५७९ वृद्धिः कियत्कालं यावत् अपवृद्धिस्त्वया कथिते ! इति प्रतिपादयतु, इति भावः । एवं गौतमेन पृष्टे भगवनाह—'ता अट्ठ' इत्यादि 'ता' तावत् 'अट्ठपंचासीयाई मुहुत्तसयाई' अष्ट पञ्चाशीतानि, मुहूर्तशतानि पञ्चाशीत्यधिकानि अष्टौ मुहर्तशतानि, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्स 'तीसं च बावट्ठिभागे जाव' त्रिंशच्च द्वाषष्टिभागान् यावत् मुइतस्य त्रिंशद् द्वाषष्टिभागपर्यन्तं ( ८८५/२° ) वृद्धचपवृद्धी 'आहिए' आख्याते 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि- एकस्य चन्द्रमासस्य मध्ये एकस्मिन् पक्षे शुक्लपक्षे वृद्धिः, एकस्मिश्चपक्षे कृष्णपक्षे अपवृद्धिर्भवति । चन्द्रमासस्य परिमाणम् एकोनत्रिंशदहोरात्राः एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः ( २९३२ ) अहोरात्राणां त्रिंशन्मुहूर्त्तकरणार्थ एकोनत्रिंशत् त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि-सप्तत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८७०) मुहूर्तानाम् येऽपि चोपरितना द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागास्तेऽपि मुहूर्तसत्कभागकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि षष्टयधिकानि नवशतानि (९६०) द्वाषष्टिभागानाम् , एषां मुहर्त्तानयनाथ द्वाषष्टया भागो हियते, लब्धा पञ्चदशमुहूर्ताः (१५), ते मुहूर्तराशौ सप्तत्यधिकाष्टशतरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पञ्चाशीत्यधिक नि अष्टौ शतानि (८८५) शेषा येऽवतिष्ठन्ते त्रिंशत् , ते च त्रिंशत् एकस्य मुहूर्तस्य द्वाष्टिभागाः ( ८८५/३० ) एतदेव सूत्रकारः प्रतिविशेषावबोधार्थ पृथक् पृथक्त्वेन स्पष्टयति'ता जोसिणापक्खाओ' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जोसिणापक्खाओ' ज्योत्स्नापक्षात्-ज्योत्स्ना चन्द्रिका, तत्प्रधानः पक्षः ज्योत्स्ना पक्षः शुक्लपक्ष इत्यर्थः तस्मात् 'अंधकारपक्खमयमाणे' अन्धकारपक्षम्-अन्धकारप्रधानः पक्षः अन्धकारपक्षः कृष्णपक्ष इत्यर्थः, तम् अयन्. प्राप्नुवन् अन्धकारपक्षे गञ्छन् 'चंदे' चन्द्रः 'चत्तारि बायालाई मुहुत्तसयाई चत्वारि द्विचत्वारिशानि द्विचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तशतानि (४४२) 'छत्तालीसं च बावडिभागे जाव' षट् चत्वारि शतं च द्वाषष्टिभागान् एकस्य मुहूर्तस्य यावत् एतावत्कालपर्यन्तम् अपवृद्धि प्रामोतीति भावः । 'जाई' यानि-यथोक्तसंख्यकानि द्वाषष्टिभागसहितमुहूर्तशतानि ( ८८५/ :) यावत् 'चंदे' चन्द्रः 'रज्जइ' रज्यते राहुविमानप्रभया रक्तो भवति । कथमित्याह—'तं जहार इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'पढमाए' प्रथमायां कृष्णपक्ष प्रतिपल्लक्षणायां तिथौ तत्परिसमाप्तिसमये 'पढम भागं' प्रथमं भागं परिपूर्ण पञ्चदशं भागं यावद् राज्यते 'बिइयाए' द्वितीयायां तिथौ परिसमाप्तिं प्राप्नुवत्यां सत्यां 'बिइयं भागं' द्वितीयं पञ्चदशं भागं यावत् रज्यते । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ चन्द्रप्रशतिसूत्रे 'जाव' यावत् - यावत्पदेन तृतीयायां तृतीयं पञ्चदशं भागम् ३, चतुर्थ्यां चतुर्थ पञ्चदशं भागम् ४, पञ्चम्यां पञ्च पञ्चदशं भागम् ५, षष्टयां षष्ठं पञ्चदशं भागम् ६, सप्तम्यां सप्तमें पञ्चदशं भागम् ७, अष्टम्यामष्टमं पञ्चदश भागम् ८, नवम्यां नवमं पञ्चदशं भागम् ९, दशम्यां दशमें पञ्चदशं भागम् १०, एकादश्यामेकादशं पञ्चदशं भागम् ११, द्वादश्यां द्वादशं पञ्चदशं भागम् १२, त्रयोदश्यां त्रयोदशं पञ्चदशं भागम् १३, चतुर्दश्यां चतुर्दशं पञ्चदशं भागम् १४, अग्रे सूत्रकार एवाह - 'पण्णरसीए' इत्यादि, 'पण्णरसीए' पञ्चदश्याम् - अमावास्यायां समाप्नुवत्या मित्यर्थः ' पण्णरसं भागं पञ्चदशं परिपूर्णं पञ्चदशं भागं यावत् चन्द्रो रज्यते । तस्याश्च पञ्चदश्या अमावास्या रूपायास्तिथेः 'चरिमसमए' चरमसमये 'चंदे' चन्द्रः 'रत्ते भवइ' राहुविमानप्रभया सर्वात्मना परिपूर्णभावेन रक्तो भवति, किञ्चिन्मात्रोऽपि भागश्चन्द्रस्य न दृश्यते चन्द्रस्तिरोहितो भवतीति तात्पर्यार्थः । षोडशो भागो यो द्वाषष्टिभागद्वयात्मकः सदाऽनावृत्तस्तिष्ठति स स्तोकत्वेना दृश्यत्वान्न गण्यते । 'अवसे से समए' अवशेषे पञ्चदश्या स्तिथेश्वरमसमयातिरिक्ते समये अन्धकारपक्षस्य प्रथमसमयादारभ्य शेषेषु पञ्चदशीतिथेश्चरमसमयात्पूर्वं पूर्वं ये समयास्तेषु सर्वेषु समयेषु 'चंदे' चन्द्रः 'रत्ते य विरतेय भवइ' रक्तश्च विरक्तश्च भवति कियदंशानां राहुणा आवृतत्वात् कियदंशानां चानावृतत्वात् । अन्धकार पक्षवक्तव्यताया उपसंहार - 'इयण्णं' इत्यादि, 'इयण्णं' इयं खलु इयम् अन्धकारपक्षे या पञ्चदशी तिथिः खलु 'अमावासा' अमावास्या कथ्यते । 'एत्थ णं' अत्र युगे खलु 'पढमे पव्वे अमावासा' प्रथमं पर्व अमावस्या, इयममावास्या, युगस्य प्रथम पर्वसमस्ति मुख्यत्वेन अमावास्या पौर्णमास्योरेव पर्वशब्देनाभिधीयमानत्वात् । अथ कथं द्विचत्वारिंशदधिकानि चत्वारि मुहूर्त्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वाषष्टि भागाः ? अत्रोच्यते - इह शुक्लपक्षः कृष्णपश्च चन्द्रमासस्यार्द्धमर्द्धम्, चन्द्रमास्य द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभाग युक्तैकोन त्रिंशद्वात्रिन्दिवात्मकत्वातस्य चन्द्रमासार्द्धस्य पक्षरूपस्य प्रमाणं - चतुर्दशरात्रिन्दिवानि, एकस्य च रात्रिन्दिवस्य सप्तचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः ( ( १४ ) इत्येवं रूपं भवति, एकं रात्रिन्दिवं त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकमिति |६२ ४७ चतुर्दशत्रिंशता गुण्यते, जातानि विंशत्यधिकानि चत्वारि मुहूर्त्तशतानि (४२०) येऽपि चोपरितनाः सप्तचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः (४७) तेऽपि मुहूर्त भागकरणार्थं त्रिशता गुण्यन्ते, जातान दशोत्तराणि चतुर्दशशतानि (१४१०) एषां द्वाषष्ट्या भागो ह्रियते लब्धा द्वाविंशति मुहूर्त्ताः, ते मुहूर्त्तराशौ विंशत्यधिक चतुःशतरूपे (४२०) प्रक्षिप्यन्ते, जातानि द्विचत्वारिंशदधिकानि चत्वारि मुहूर्त्तशतानि (४४२), शेषास्तिष्ठन्ति मुहूर्त्तस्य षट्चत्वारिंशद् (४६) द्वाषष्टिभागाः । तदेवमागतं सूत्रोक्तं प्रमाणम् (४४२ ४६ २ ) इति । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ चन्द्रश्चप्तिप्रकाशिका टीका प्रा १३ सू.१. चन्द्रमसो वृद्धयपवृद्धि निरूपणम् ५७३ तदेवं चन्द्रस्यापवृद्धिः प्रदर्शिता, साम्प्रतं तस्य वृद्धिमभिधित्सुराह-'ता अंधकारपक्खाओणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'अंधकारपक्खाओणं' अन्धकारपक्षात् कृष्णपक्षात् खलु 'जोसिणा पक्खं' ज्योत्स्नापक्षं शुक्लपक्षम् 'अयमाणे' अयन् गच्छन् 'चंदे' चन्द्रः 'चत्तारि बालाई मुहुत्तसयाई' चत्वारि द्विचत्वारिंशानि द्विचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तशतानि 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'छयालीस वावट्ठिभागे जाव' षट्चत्वारिंशतं द्वाषष्टिभागान् यावत् ( ४४२४६ ) वृद्धिमुपगच्छतीति भावः । 'जाई, यानि यथोक्तसंख्यकानि द्वाषष्टिभागसहितमुहूर्तशतानि यावत् 'चंदे' चन्द्रः 'विरज्जई' विरज्यते विरक्तो भवति राहुविमानप्रभया शनैः शनैरनावृतो भवति । तत्प्रकारमाह-' तं जहा' इत्यादि 'तं जहा' तद्यथा-'पढमाए पढमं भागं प्रथमाया शुक्लपक्ष प्रतिपल्लक्षणायां तिथौ प्रथम पञ्चदशं भागं यावत् चन्द्रो विरक्तो भवति १ । 'बिइयाए बिइयं भार्ग' द्वितीयायां तिथौ द्वितीयं पञ्चदशं भागं यावत् विरक्तो भवति २। 'जाव' यावत् यावत्पदेनात्रापि अन्धकारपक्षगतरक्त प्रकरणवद् विरक्त प्रकारणोऽपि तृतीयातिथित आरभ्य चतुर्दश्यां तिथौ चतुर्दशं पञ्चदशं भागं यावत् , इत्येतत्पर्यन्तं सर्व वाच्यम् । पच्चदशी विषय सूत्रकार एवाह-'पण्णरसीए' इत्यादि 'पण्णरसीए' पञ्चदश्यां तिथौ पूर्णिमायां तिथौ 'पण्णरसमं' पञ्चदशं–पञ्चदशं भागं यावत् चन्द्रो विरक्तो भवतीति । 'चरिमे समए' चरमे समये पञ्षदश्याश्चरमसमये 'चंदे' चन्द्रः 'विरत्ते भवई' विरक्तो भवति सर्वात्मना राहु प्रभयाऽनावृत्तो भवति, अत्र चन्द्रस्य सर्वे भागा दृश्यन्ते यश्च षोडशो भागाः स तु सर्वदाऽनावृत एवावतिष्टतेऽतो नास्य चर्चा कृता । 'अवसेसे समए' अवशेषे पञ्चदश्याश्चरमसमयातिरिक्ते समये शुक्लपक्षप्रथमसमयादारभ्य पञ्चदश्याश्चरमसमयात् पूर्वं पूर्व ये समयास्तेषु सर्वेषु 'चंदे' चन्द्रः 'रत्ते य विरत्ते य भवइ' रक्तश्च विरक्तश्च भवति कियदंशानां राहुणाऽऽवृतत्वात्, कियदंशानां चानावृत त्वात् । मुहूर्त संख्याभावना च कृष्णपक्षप्रकरणप्रदर्शितवदेवात्रापि कर्त्तव्या । अथ शुक्लपक्ष वक्तव्यताया उपसंहारमाह-'इयण्णं' इत्यादि, 'इयण्णं' इयम् अनन्तरोक्ता पञ्चदशी खलु तिथिः 'पुण्ण मासिणी' पौर्णमासी कथ्यते । 'एत्थ णं' अत्र युगे खलु 'दोच्चे पव्वे' द्वितीयं पर्व 'पुण्णमासिणी' पौर्णमासी भवति, अमावास्यापौर्णमास्योरेव पर्वत्वेन प्रसिद्धत्वात् । सू० । १॥ पूर्वं चन्द्रस्य वृद्धयपवृद्धी अधिकृत्य अमावास्या पौर्णमासी च प्रदर्शिता, साम्प्रतम्-एताहश्योऽमावास्याः पौर्णमास्यश्च एकस्मिन् युगे कियन्त्यः किंयन्त्यो भवन्ति ? इति तासां सर्व संख्यामाह—'तत्थ खलु इमाओ' इत्यादि । Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे मूलमू-- तत्थ खलु इमाओ बावट्ठी पुण्णमासिणीओ बावट्ठी अमावासाओ पण्णत्ताओ । बावट्ठी एए कसिणा रागा बावट्ठी एए कसिणा विरागा । एए चउव्वीसे पन्चसए एए चउव्वीसे कसिणरागविरागसए । जावइयाणं पंचण्हं संवच्छराणं समया एगेणं चउवीसेणं समयसएण ऊणगा एवइया परित्ता असंखेज्जा देस राग विरागसया भवंतीति मक्खायं । ता अमावासाओ णं पुण्णमासिणी चत्तारिवायालाई मुहुत्तसयाइं छत्तालीसं बावद्विभागे मुहुत्तस्स आहिए तिवएज्जा । ता पुण्णमासिणी ओणं अमावासा चत्तारि बयालाई मुहुत्तसयाइं छत्तालीसं बावटि भागे मुहुत्तस्स आहिए तिवएज्जा । ता पुण्णमासिणीओणं पुण्णमासिणी अट्ठ पंचासीयाई मुहुत्तसयाई आहिएतिवएज्जा, एस णं एवइए चंदे मासे, एसणं एवइए सगले जुगे ॥सू० २।। छाया-तत्र खलु इमा द्वाषष्टिः पौर्णमास्यः, द्वापष्टिरमावास्याः प्रज्ञप्ताः । द्वाष ष्टिरेते कृत्स्ना रागाः, द्वाष्टिरेते कृत्स्ना विरागाः । पते चर्तुविश पर्वशतम् । पते चतुविश कृत्स्नं रागविरागशतम् । यावत्काः पञ्चानां संवत्सराणां समयाः एकेन चतुर्विशेन समयशतेन ऊनकाः, एतावत्काः परीता असंर येया देशराग विरागसमया भवन्तीति आख्यातम् । तावत् अमावास्यातः खलु पौर्णमासी चत्वारि द्विचत्वारिंशानि मुहूर्त शतानि, षट्चत्वारिंशतं द्वाषष्टिभागान् मुहूर्तस्य आख्यातम् इति वदेत् । तावत् पौर्णमासीतः खलु अमावास्या चत्वारि द्विचत्वारिंशानि मुहूत्तशतानि, षट्चत्वारिंशतं द्वाषष्टिभागान् मूहूर्तस्य आख्याता इति वदेत् । तावत् अमावास्यातः खलु अमावास्या अष्ट पञ्चाशीतानि मुहूर्तशतानि, त्रिशतं च द्वाष्टिभागान् मुहूर्तस्य आख्यातम् इति वदेत् । तावत् पौर्णमातीतः खलु पौर्णमासी अष्ट पञ्चाशीतानि मुहूर्तशतानि, त्रिंशत च द्वाष्टिभागान् मुहूर्तस्य आख्याता इति वदेत् । एष खलु एतावत्कः चान्द्रः मासः । एष खलु एतावत्कं शकल युगम् । सू०-२॥ व्याख्या-'तत्थ खलु' इति, 'तत्थ खलु' तत्रैकस्मिन पञ्च संवत्सरात्मके युगे खलु 'इमाओ' इमाः पूर्वोक्ता एवं स्वरूपा 'बाबट्ठी पुण्णमासिणीओ' द्वाषष्टिः पौर्णमास्यः तथा 'बावट्ठी अमावासाओ' द्वाषाष्टिरमावास्याः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः । तथा युगे चन्द्रमसः 'एए' ऐते पूर्वोक्तस्वरूपाः 'बावट्ठी' द्वाषष्टिः 'कसिणा रागा' कृत्स्ना परिपूर्णाः रागाः, अमावस्यानां युगे द्वापष्टिसंख्यकत्वात् तासु पौर्णमासीष्वेव च चन्द्रस्य परिपूर्णरागसंभवात् । 'एए' ऐते 'बाबट्ठी द्वाषष्टिः 'कसिणा' कृत्स्ना परिपूर्णा 'विरागा' विरागा: संपूर्णत्वेन रागाभावाः, युगे पौर्णमासीनां द्वाषष्टिसंख्यकत्वात् तास्वेव आमावास्यासु च चन्द्रस्य परिपूर्णविरागसंभवात् । 'एए' एतानि 'चउव्वीसे पव्वसए' चतुर्विशं चतुर्विशत्यधिकं पर्वशतं (१२४) भवति । अमावास्या पौर्णमासीनामेव पर्व संज्ञा वर्त्तत्ते, ताश्च पृथक् २ द्वाषष्टि-द्वाषष्टि संख्यका भवन्तीति तेषां संमीलने चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यासद्भावात् । एवमेव 'एए चउव्वीसे कसिणराग Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १३ सू. २ एकस्मिन्युगे कियन्त्योऽमावास्या पौर्णमास्यश्च ५७५ विरागसए' एतत् चतुर्विंशत्यधिकं कृत्स्न रागविरागशतम् युगमध्ये कृत्स्नरागविरागयो षिष्टि द्वाषष्टि संख्यकत्वात् तयोः सम्मेलने भवति चतुर्विशत्यधिकं कृत्स्नरागविरागशतमिति । 'जावइयाणं' यावत्का-यावत्परिमिताः पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां 'समया' समया भवन्ति ते 'एगेणं चउव्वीसेणं सएणं' एकेन चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन 'ऊणगा' ऊनकाः न्यूनाः चतुर्विशत्यधिकेन शतेन ऊनी कृते यावन्तः समया भवन्ति 'एवइया' एतावत्का: इयन्तः ‘परित्ता' परीताः परिमिताः असंखेज्जा' असंख्येयाः 'देसरागविरागसमया' देशरागविरागसमया भवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि समयेषु चन्द्रस्य देशतो रागविरागसद्भावात् । अत्र यत् 'चतुर्विशत्यधिकेन शतेन ऊना समया' इति कथितं तत् 'चतुर्विशत्यधिकशतं समयानां मध्ये द्वाषष्टि समयेषु पौर्णमासी सत्केषु कृत्स्नो विरागो भवतीत्यतस्त दर्ज नमधिकृत्य ऊनाः, प्रोक्तम् । 'तिमक्खायं' इति आख्यातं-भगवतेति । साम्प्रतम् अमावास्यातोऽनन्तरं पौर्णमासी, पौर्णमासीतोऽनन्तरं चामावास्या कियत्सु मुहर्तेषु गतेषु सत्सु समायाति ? इत्यादि निरूपयन्नाह-'ता अमावासाओणं' इत्यादि सर्व मूलसूत्रगम्यम्, तथाहि-'अमावास्यातोऽनन्तरं पौर्णमासो षद चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागयुक्तद्विचत्वारिशदधिकचतुः मुहर्तान् (४४२। व्यतिक्रम्यायाति, एतावत एव मुहर्त्तान् व्यतिक्रम्य पौर्णमासतोऽमावास्याऽऽयातीति भावः । अथामावास्यातोऽमावास्या, पौर्णमासीतः पौर्णमासी क्रियन्मुहूर्तानन्तरऽमायातीति प्रदर्शयति-'ता अमावासाओणं' इत्यादि, एतदपि सुगमम् । अयं भावः-अमावास्यातोऽनन्तरं चन्द्रमासस्यार्द्धन पौर्णमासी समागच्छति, पौर्णमासीतोऽनन्तरमद्देन चन्द्रमासेन अमावास्या समागच्छति । अमावास्यातोऽमावास्या, पौर्णमासीतश्च पौर्णमासीत्येवयं परिपूर्णेन चन्द्रमासेन भवतीति अमावास्यातोऽमावास्या, पौर्णमासीचेत्येतद् द्वयमपि त्रिंशद्वाषष्टिभागयुक्त पञ्चाशीत्युत्तराष्टशतमुहूर्त्तानन्तरम् (८८५ ) परस्पर मेका मावास्यातो द्वितीयाऽमास्या, एक पौर्णमासीतो द्वितीया पौर्णमासी समायातीति । एतत्कथमित्याह-चन्द्रमासस्य एकोनविंशदिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टि भागाः (२९।३२।) भवन्ति । एकस्याहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहर्ता इति पूर्वोक्तराशे स्त्रिंशता गुणने समायति एकपूर्णिमातो द्वितीयपूर्णिमापर्यन्तकालस्य यथोक्ता' मुहूर्त्तसंख्या (८८५।२०) इति । उपसंहारमाह—'एसणं' इत्यादि ६२ दर 'एसणं' एषः खलु पञ्चाशीत्यधिकानि अष्टौ मुहूर्तशतानि, एकस्य मुहूर्तस्य त्रिंशच्च द्वाषष्टिः भागाः, इत्येतावान् ‘एवइए' एतावत्कः एतावन्मुहूर्तप्रमाणकः 'चंदे मासे' चाद्रो मासो Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे भवति । ‘एस णं' एतत् प्रसिद्धं 'एवइए' एतावत्प्रमाणकं खलु 'सगले जुगे' शकलं खण्डरूपं युग चन्द्रमासप्रमितं युगशकलमेतदित्यर्थः । अयं भावःचन्द्रमासप्रमितमिति द्वाषष्टिचन्द्रमासात्मकम्, अतएव चतुर्विंशत्यधिकशतपर्वात्मकं खण्डरूपं युगं भवतीति ॥ सू० २॥ साम्प्रतं चन्द्रो यावत्सु मण्डलेषु चन्द्रार्धमासेन चारं चरति तन्निरूपयन्नाह -- 'ता चदेणं' इत्यादि । मूलम्–ता चंदेणं अद्धमासेणं चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? चोदस चउब्भागमंडलाई चरइ एगंच चउव्वीसं सयभागं मंडलस्स । ता आइच्चेणं अद्धमासेणं चंदे कइ मंडलाई चरइ ? ता सोलस मंडलाई चरइ, सोलस मंडलचारीतया अवराई खलु दुने अट्ठगाई चंदे केणइ असामण्णगाइं सयमेव पविसिता २ चारं चरइ । कयराइं खलु दुवे अढगाइं जाइं चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविसित्ता २ चारं चरइ ? इमाई खलु ते दुवे अट्ठगाई जाई चंदे केणइ असामण्णगाइ सयमेव पविसित्ता २ चारं चरइ, तं जहा निक्खममाणे चेव अमावासं तेणं पविसमाणे चेव पुण्णमासि तेणं, एयाइं खलु दुवे अट्ठगाई जाई चंदे केणइ असामण्णगाइं सयमेव पविसित्ता २ चारं चरइ । ता पढमायणगए चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे सत्त अद्ध मंडलाइं जाई चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ । कयराइं खलु ताई सत्त अद्धमंडलाइं जाई चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ । ? इमाई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, तंजहा-बितिए अद्धमंडले चउत्थे अद्ध मंडले २ छठे अद्धमंडले ३ अट्ठमे अद्धमंडले, ४ दसमे अद्धमंडले, ५ बारसमे अद्ध मंडले, ६ चउद्दसमे अद्धमंडले७ । एमाई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाइं जाइं चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ । ता पढमायणगए चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे छ अद्धमंडलाइं, तेरस य सत्तट्ठिभागाइं अद्धमंलस्स जाइं चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ । कयराइं खलु ताई छ अद्धमंडलाई, तेरस य सत्तद्विभागाइं अद्धमंडलस्स जाइं चंदे उत्तराए भागाए पविसमरणे चारं चरइ ? इमाई खलु ताई छ अद्धमलाइं, तेरसय सत्तट्टिभागाईअद्धमंडलस्स जाई चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ तं जहा-तइए अद्धमंडले, १ पंचमे अद्धमंडले, २ सत्तमे अद्धमंडले, ३ नवमे अद्धमंडले, ४ एक्कारसमे अद्धमंडले, ५ तेरसमे अद्धमंडले, ६ पन्नरसमंडलस्स तेरस सत्तद्विभागाइं, एयाई खलु ताई छ अद्धमण्डलाइं, तेरसय सत्तट्टि भागाइं, अद्धमंडलस्स, जाई चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ। एयावया च पढमे चंदायणे समत्ते भवइ । ता णक्खत्ते Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१३ सू. ३ मण्डलेषु चन्द्रार्द्धमासचारनिरूपणम् ५७७ अद्धमासे नो चंदे अद्धमासे, ता चंदे अद्धमासे णो णक्खत्ते अद्धमासे । ता नक्सताओ अद्धमासाओ से चंदे चंदेणं अद्धमासेणं किमधियं चरइ ? ता एगं अद्धमंडलं चत्तारिय सत्तद्विभागाई अद्धमंडलस्स, सत्तट्ठिभागं एकतीसाए छेत्ता णवभागाइं । ता दोच्चायणगए चंदे पुरथिमिल्लाए भागाए णिक्खममाणे सत्त चउप्पण्णाईजाई चंदे परस्स चिण्णं पडिचरइ सत्त तेरसगाई जाइं चंदे अप्पणा चिण्णं चरइ ता दोच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए निक्खममाणे छ चउप्पण्णाई जाई चंदे परस्स चिण्णं पडिचरइ-छ तेरसगाई चंदे अप्पणो चिण्णं पडिचरइ, अवरगाइं खलु दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ असामन्नगाई सयमेव पविसित्ता २ चारं चरइ । कयराइं खलु ताई दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविसित्ता २ चारं चरइ ? इमाइं खलु ताई दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविसित्ता २ चारं चरइ तं जहा-सव्वब्भंतरे चेव मंडले, सव्वबाहिरे चेव मंडले । सव्व एयाई खलु ताई दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ जाव चारं चरइ । एयावया दोच्चे चंदायणे समत्ते भवइ । ता णक्खत्ते मासे नो चंदे मासे, चंदे मासे नो णक्खत्ते मासे । ता णक्खत्ताओ मासाओ चंदे चंदेणं मासेणं किमधियं चरइ ? ता दोअद्धमंडलाइं चरइ, अट्ठ य सत्तद्विभागाई अद्धमंडलस्स, सत्तट्ठिभागं च एक्कतीसहा छेत्ता अट्ठारसभागाई। ता तच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए पविसमाणे बाहिराणंतरस्स पच्चस्थिमिल्लस्स अद्धमंडलस्स इगतालीसं सत्तद्विभागाइं जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिणं पडियरइ, तेरससत्तट्टि भागाइं जाइं चंदे परस्स चिण्णं पडिचरइ, तेरस सत्तद्विभागाइं जाइं चंदे अप्पणो परस्स चिण्णं पडिचरइ । एयावया च बाहिराणंतरे पच्चस्थिमिल्ले अद्धमंडले समत्ते भवइ । ता तच्चायणगए चंदे पुरत्थिमाए भागाए पविसमाणे बाहिरतच्चस्स पुरत्थिमिल्लस्स अद्धमंडलस्स इगतालीसं सत्तट्टि भागाइं जाइं चंदे अप्पणो परस्स चिण्णं पडिचरइ, तेरस सत्तट्ठिभागाइं जाई चंदे परस्स चिण्णं पडिचरइ, तेरस सत्तट्टि भागाई जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडिचरइ, एतावताव बाहिरतच्चे पुरथिमिल्ले अद्धमंडले समत्ते भवइ । ता तच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए पविसमाणे बाहिर चउत्थस्स पच्चथिमिल्लस्स अद्धमंडलस्स अट्ठसत्तट्ठिभागाइं सत्तद्विभागं च एक्कतीसहा छित्ता अट्ठारसभागाइं जाइं चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडिचरइ । एतावता व बाहिरचउत्थ पच्चस्थिमिल्ले अद्धमंडले समत्ते भवइ । एवं खलु चंदेणं मासेणं चंदे तेरस चउप्पण्णगाई दुवे तेरसगाई जाई चंदे परस्स चिण्णं पडिचरइ, तेरस तेरसगाई जाई चंदे अप्पणो चिण्णं पडिचरइ, दुवे इगतालीसगाई अट्ट सद्विभागाई, सत्तट्ठिभागं च एक्कतीसधा छित्ता अट्ठारसभागाइं जाइं चंदे अप्पणो परस्स य चिणं पडिचरइ, अवराई Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NVIvom चन्द्रप्रातिसूत्र खलु दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ असामन्नगाई सयमेव पविसित्ता २ चारं चरइ । इच्चेसा चंदमसो अभिगमणणिक्खमण-वुड्ढि-निवुड्ढ अणवहि य संठाणा संठिईविव्वणगिढिपत्ते रूवी 'चंदे देवे, चंदे देवे' आहिएति वएज्जा । सूत्र ॥३॥ छाया-तावत् चान्द्रेण अर्द्धमासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तावत् चतुदश सचतुर्भागमण्डलानि चरति, एकं च चतुर्विशं शतभाग मण्डस्य । तावत् आदित्येन बर्बमासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तावत् षोडश मण्डलानि चरति षोडशमण्डलबारी तदा अपरे खलु द्वे अष्टके ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य प्रविश्य चारं चरति । कतरे खलु द्वे अष्टके ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य चार चरति ? इमे खलु ते द्वे अष्टके ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २ गति. तद्यथा निष्क्रामन् चैव अमावास्यान्तेन, प्रविशन् चैव पौर्णमास्यान्तेन. पते खलद्वे अष्टके ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २ चारं चरति । तावत् प्रथमायनगतश्चन्द्रो दक्षिणस्माद् भागात् प्रविति, सप्त अर्द्ध मण्डलानि, यानि चन्द्रः दक्षिणस्माद भागात् प्रबिशन् चारं चरति । कतराणि खलु तानि सप्तअर्द्धमण्डलानि यानि चन्द्रः दक्षिणस्माद् भागात् प्रविशन् चारं चरति ? इमानि खलु तानि सप्त अर्द्ध मण्डकानि यानि चन्द्रः दक्षिणस्माद् भागात् प्रविशन् चारं चरति, तद्यथा--द्वितीयमर्द्धमण्डलम् १, चतुर्थमर्द्धमण्डलम् २, षष्टमर्द्धमण्डलम् ३, अष्टममर्द्धमण्डलम् ४, दशममर्द्धण्डलम् ५, द्वादशमीमण्डलम् ६, चतुर्दशमीमण्डलम् ७, एतानि खलु तानि सप्त अर्द्धमण्डलानि यानि चन्द्रः दक्षिणेन भागेन प्रविशन् चारं चरति । तावत् प्रथमायनगतः चन्द्र उत्तरेण भागेन प्रविशन् षड् अर्द्धमण्डलानि त्रयोदश सप्तर्षाष्टभागान् अर्द्धमण्डलस्य यानि चन्द्र उत्तरेण भागेन प्रविशन् चारं चरति । कतराणि खलु तानि षड् अर्द्धमण्डलानि त्रयोदशच सप्तष्टिभागा अर्द्धमण्डलस्य, यानि चन्द्र उत्तरस्माद् भागात् प्रविशन् चारं चरति ? इमानि खलु तानि षड् अर्द्धमण्डलानि त्रयोदश च सप्तपष्टिभागा अर्द्धमण्डलस्य यानि चन्द्र उत्तरस्माद भागात् प्रविशन् चारं चरति, तद्यथा-तृतीयमधमण्डलम् २ पञ्चममर्धमण्डलम् २, सप्तममधमण्डलम् ३, नवममर्धमण्डलम् , एकाद मधमण्ड टस् ५, त्रयोदशमर्धमण्डलम् ६, पञ्चदशमण्डलस्य त्रयोदशसप्तषष्टिभागाः । पतनि खलु तानि षड अर्धमण्डलानि त्रयोदश च सप्तषष्टि भागाः अर्धमण्डलस्य यानि चन्द्र उत्तर स्माद भागात् प्रविशन् चारं चरति । एतावताच प्रथमं चान्द्रायणं समाप्त भवति । तावत् नाक्षत्रोऽर्धमासः नो चन्द्रोऽधमासः, तावत् चन्द्रोऽधमासः नो जाक्षत्रोऽधेमासः। तावत् नाक्षत्रात् अर्धमासात् स चन्द्रः चान्द्रेण अर्धमासेन किमधिकं चरति, तावत् एकमद्धमण्डलं चरति, चतुरश्च सप्तषष्टिभागान् अधमण्डलस्य सप्तषष्टिभाग एकत्रिशता छित्वा नवभागान् । तावत द्वितीयायनगतः चन्द्रः पौरस्त्यात् भागात् निष्क्रामन् सप्तचतुष्पञ्चाशत्कानि यानि चन्द्रःपरस्य चीनि प्रतिचरति सप्तत्रयोदशकात यानि चन्द्र आत्मना चीर्णागि तावत् द्वितीयायनगतश्चन्द्रः पाश्चात्यात् भागात् निष्क्रामन् षट् चतुष्पञ्चाशत्कानि यानि चन्द्रः परस्य चीर्णानि प्रतचरति, षट् त्रयोदशकानि चन्द्र आत्मनो चोर्णानि प्रतिवरति, अपरे खलते द्वे त्रयोदशके ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २ चारं चरति ? Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा.१३ स. ३ मण्डलेषु चन्द्रार्द्धमासचार निरूपणम् ५७९ कतरे खलु ते द्वे त्रयोदश के ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य चारं चरति ? इमे ते द्वे यश ये चन्द्रः केनार असामान्य के स्वयमेव प्रविश्य २ चारं चरति, तद्यथा - सर्वाभ्यन्तरं चैव मण्डलं, सर्वबाह्यं चैव मण्डलम् । पते खलु ते द्वे त्रयोदशके ये चन्द्रः केनापि यावत् चारं चरति । एतावता द्वितीयं चन्द्रायणं समाप्तं भवति तावत् नाक्षत्रो मासो नो चान्द्रो मासः, चान्द्रो मासो नो नाक्षत्रो मासः । तावत् नाक्षत्रात् मासात् चन्द्रः चान्द्रेण मासेन किमधिकं भवति तावत द्वे अर्धमण्डले चरति अष्ट च सप्तषष्टि भागान् अर्द्ध मण्डलस्य, सप्तषष्टिभागं च पकत्रिंशद्धा छित्वा अष्टादश भागान् । तावत् तृतीयायनगतः चन्द्र पाश्चात्येन भागेन प्रविशन् बाह्यानन्तरस्य पाश्चात्यस्य अर्द्ध मण्डलस्य पक चत्वारिंशतं सप्तषष्टिभागान् यान् चन्द्र आत्मनः परस्य चीर्णान् प्रतिचरति, त्रयोदश सप्तषष्टिभागान् यान् चन्द्र परस्य चिर्णान् प्रतिचरति, त्रयोदश सप्तषष्टि भागान् यान् चन्द्रः आत्मनः परस्य चीर्णान् प्रतिचरति । एतावता वाह्यान्तरं पाश्चात्यम् अर्द्ध मण्डलं समाप्तं भवति । तावत् तृतीयायनगतः चन्द्रः पौरस्त्येन भागेन प्रविशन् बाह्य तृतीयस्य पौरस्त्यस्य अर्धमण्डलस्य एकचत्वारिंशतं सप्तषष्टिभागान् यानि चन्द्रः आत्मनः परस्य चीर्णान् प्रतिचरति, त्रयोदश द्वाषष्टिभागान् यान् चन्द्रः परस्य चीर्णान् प्रतिचरति, त्रयोदशसप्तषष्ठिभागान् यान् चन्द्रः आत्मन परस्य च चीर्णान् प्रतिचरति । एतावता बाह्यतृतीयं पौरस्त्यम् अर्द्धमण्डलं समाप्त भवति । तावत् तृतीयायनगतः चन्द्रः पाश्चात्येन भागेन प्रविशन् बाह्यचतुर्थस्य पाश्चात्यस्य अर्द्धमण्डलस्य अष्ट सप्तषष्टिभागान्, सप्तषष्टो भागच एकत्रिंशद्धा छित्वा अष्टादश भागान् यान् चन्द्रः आत्मनः परस्यच चीर्णान् प्रतिचरति । एतावता बाह्यचतुर्थपाश्चात्यम् अर्द्धमण्डलं समाप्त भवति । एवं खलु चान्द्रेण मासेन चन्द्रः त्रयोदश चतुष्पञ्चाशत्कानि द्वे त्रयोदशके यान् चन्द्रः परस्य चीर्णान् प्रतिचरति त्रयोदश त्रयोदशकान् यान् चन्द्रः आत्मनः चीर्णान् प्रतिचरति द्वे एकचत्वारिंशत्के अष्टसप्तषष्टिभागान्, सप्तषष्टिभागं च एकत्रिंशद्धा छित्त्वा अष्टादशभागान् यान् चन्द्रः आत्मनः परस्य च चीर्णान् प्रतिचरति, अपरे खलु द्वे त्रयोदशके ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २ चारं चरति । इत्येषा चन्द्रमसः अभिनिष्क्रमण वृद्धि निवृद्धयनवस्थितसंस्थाना संस्थितिः विकुर्वणक ऋद्धि प्राप्तः रूपी चन्द्रो देवः, चन्द्रो देवः आख्यातः इति वदेत् | सु०३|| ॥ त्रयोदश प्राभृतं समाप्तम् ||१३|| व्याख्या—'ता चंदेणं अद्धमासेणं' इति, 'ता' तावत् 'चंदेणं अद्धमासेणं' चान्द्रेण अर्द्धमासेन चन्द्रसम्बन्धिमासार्द्धेन 'चंदे' चन्द्रः 'कई मंडलाई' कतिमण्डलानि 'चरइ' चरति ? | एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह - - 'ता चोदस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चोदस सचउब्भाग मंडलाई' चतुर्दश सचतुर्भागमण्डलानि पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्भागसहितानि चतुर्दशमण्डलानि 'चरइ' चरति 'मंडलस्स' एकस्य च मण्डलस्य ' चउव्विस सयभागं' चतुर्विंशत्यधिकं शतभागम् एकं मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकशत भागपरिमितं ( १२४ ) भवतीतिभावः, अयमाशयः - परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्भागं चतुर्विंशत्यधिक Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिसूत्रे शतसत्त्वैकत्रिंशद्भागप्रमाणं (३१) भवति एक च चतुर्विंशत्यधिकं शतभागं मण्डलस्य प्रमाणं भवति चतुर्भागात्किञ्चिदधिकचरणात् सर्व संख्यया द्वात्रिंशतं पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुविंशत्यधिकशतभागान् चरतीति सिद्धयति । कथमेतदिति त्रैराशिकबलात्, तथाहि-- एकस्मिन् युगे चन्द्रः अष्ट षष्ट्यधिकानि सप्तदश मण्डलशतानि (१७६८) चरति । युगे च--- परिपूर्णाश्चन्द्रमासा द्वाषष्टिः (६२) ते द्विगुणिताः चन्द्रार्धमासा पूर्वरूपाश्चतुर्विंशत्यधिकशतसंख्यका (१२४) भवन्ति ततो यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन - अष्टषष्ट्यधिकानि सप्तदश मण्डलशतानि लभ्यन्ते तदा एकेन पर्वणा किं लभ्यते ? राशित्रयस्थापना - १२४ । १७६ । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनात् जातस्तावानेव (१७६८) अत्राद्येन राशिना (१२४) भागो ि लब्धाश्चतुर्दश, शेषास्तिष्ठन्ति द्वात्रिंशत् चतुर्विंशत्यधिकशतभागाः ( १४ / २२) तत्र छे छेदक १२४ ५८० राश्योः द्वात्रिंशतश्चतुर्विंशत्यधिकशतस्य चेति द्वयोद्विकेनापवर्त्तना क्रियते तत इदमायाति - चतुर्दश मण्डलानि, पञ्चदशस्य मण्डलस्य षोडश द्वाषष्टिभागाः । १४ । १६ । उक्तंचान्यत्रापि — ६२ " चोदस मंडलाई, बिसट्टिभागाय सोलस हविज्जा । मासद्वेण उडुवई एत्तियमित्तं चरइ खित्तं ॥१॥ चतुर्दश च मण्डलानि द्विषष्टि भागाश्च षोडश भवेयुः । मासार्जेन उडुपतिः, एतावन्मात्रं चरति क्षेत्रम् । इतिच्छाया । इत्येवं चान्द्रेण अर्द्धमासेन चन्द्रस्य चारः प्रदर्शितः, सम्प्रति आदित्येन अर्द्धमासेन चन्द्रस्य चार प्रदर्शयति- “ता आइच्चेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् आइचचेणं अद्धमासेणं' आदित्येन आदित्यसम्बन्धिना अर्द्धमासेन 'चंदे' चान्द्रः 'कई मंडलाई चरइ' कति, मण्डलानि चरति ? भगवानाह - ' ता सोलस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सोलस मंडलाई चरइ' षोडश मण्लानि चरति परिपूर्णानि पञ्चदश मण्डलानि चरित्वा षोडशे मण्डले चरतीतिभावः 'सोलसमंडलचारी' षोडशमण्डलचारो षोडशमण्डलचरणशीलश्च, अत्र षोडश मण्डलचारी - पञ्चदश मण्डलानि पूर्णानि चरित्वा षोडशे मण्डले समागतस्ततः षोडशं मण्डलं चरन् इत्यर्थः न तु परिपूर्ण षोडश मण्डल चारीति । अयं भावः - एकस्मिन् युगे सूर्यमण्डलानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) भवन्ति, सूर्यार्द्धामासाश्च विंशत्यधिकशतसंख्यकाः (१२०) भवन्ति युगस्य षष्टि सूर्यमासात्मकत्वात् ततस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतराशेः (१८३०) विंशत्यधिकशतेन (१२०) भागो ह्रियते लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि परिपूर्णानि, तदुपरि त्रिंशच्च विंशत्यधिकशत Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १३ सू. ३ मण्डलेषु चन्द्रार्द्धमासचारनिरूपणम् ५८१ भागाः (१५- ) तत आगतम्-चन्द्रः पञ्चदश मण्डानि परिपूर्णानि चरित्वा षोडश मण्डले १२. त्रिंशतं त्रिंशत्यधिकशतभागान् आक्रम्य चारं चरति तत उक्तम्-षोडशमण्डलचारीति षोडशे मण्डले चारं चरन् चन्द्रः 'तया' तदा षोडशमण्डलचारसमये 'अवराई खल' अपरे अन्ये खलु 'दुवे अढगाई द्वे अष्टके युगगतचन्द्रार्धमास चतुर्विंशत्याधिकशत सत्कभागाष्टकप्रमाणे 'जाइंचंदे ये द्वे चन्द्रः 'केणाइ असामण्णगाई' केनापि सूर्येण चन्द्रेण वा असामान्यके अनाचीर्णपूर्वं तत्र 'सयमेव' स्वयमेव 'पविसित्ता' प्रविश्य 'चारं चरइ' चारं चरति । तदेव पृच्छति 'कयराई' इत्यादि, 'कयराई' कतरे के खलु 'दुवे अट्टगाई' द्वे अष्टके 'जाई चंदे' ये चन्द्रः 'केणाइ असामण्णगाइ केनापि असामान्यके अनाचीर्णपूर्वे तत्र चन्द्रः 'सयमेव' स्वयमेव 'पवि सित्ता' प्रविश्य २ 'चारं चरइ' चारं चरति ? तदेव भगवान् दर्शयति-'इमाइं खलु' इत्यादि 'इमाई' इमे वक्ष्यमाणे 'ते दुवे अट्ठगाई' ते द्वे अष्टके जाइं चंदे ये चन्द्रः 'केणइअसामण्णगाई केनापि असामान्यके अनाचीर्णे तत्र 'पविसित्ता' प्रविश्य २, 'चारं चरई' चारं चरति, 'तं जहा' तद्यथा-'निक्खममाणे चेव' निष्क्रामन्नेव सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद्वहिनिस्सरन्नेव 'अमावासंतेण' अमावास्यान्ते, 'पविसमाणे चेव पुण्णमासिं तेणं' प्रविशन् सर्वबाह्यमण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलं गच्छन् पौर्णमास्यन्ते, अयं भावः सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद्वहिनिस्सरन् अमावास्याश्चरमभागे एकमष्टकं केनाप्यनाचीण चन्द्रः प्रविश्य चारं चरति ? सर्वबाह्यमण्डलात्सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रविशन्नेव पूर्णिमायाश्चरमभागे द्वितीयमष्टकं प्रविश्य चन्द्रश्चारं चरतीति । उपसंहरति-'इमाई' इत्यादि 'इमाई' इमे अनुपदं प्रदर्शिते खलु 'दुवे अट्ठगे' द्वे अष्टकेस्त 'जाइं चंदे ये द्वे अष्टके चन्द्रः 'केणइ असामण्णगाई' केनापि असामान्यके 'सयमेव' स्वयमेव 'पविसित्ता' प्रविश्य २, 'चारं चरइ' चारं चरतीति । अत्रायं विवेकः अत्र वस्तुतो द्वौ चन्द्रौ एकेन चान्द्रेणार्द्ध मासेन चतुर्दश मण्डलानि, पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशतं चतुर्विशत्यधिकशतभागान् स्व स्वगत्या भ्रमणेन पूयतः किन्तु लोकरूढ्या व्यक्तिभेदमनादृत्य केवलं जातिमेवाश्रित्य चन्द्रश्चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मडलस्य द्वात्रिंशतं चतुर्विशत्यधिकशतभागान् चरतीत्युक्तम् । साम्प्रतमेकश्चन्द्र एकस्मिन्नयने कति अर्द्धमण्डलानि दक्षिणभागे कति चोत्तरभागे भ्रमणेन प्रयतीति भगवान् प्रतिपादयितुमाह-'ता पढमायणगए चंदे' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पढमायणगए चंदे' प्रथमायनगतः प्रथमायनस्थितः चन्द्रः 'दाहिणाए भागाए' दक्षिणस्माद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डले प्रवेशं कुर्वन्निति 'सत्तअद्धमंडलाई' सप्त अर्द्धमण्डलानि भवन्ति 'जाई' यानि मण्डलानि 'चंदे' चन्द्रः 'दाहिणाए भागाए' दक्षिणस्माद् भागात् अभ्यन्तरं मण्डलं 'पविसमाणे' प्रविशन् आक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति । अत्र पुनः पृच्छति 'कयराई' इत्यादि 'केयराई Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रातिसूत्रे कतराणि कानि खलु 'ताई' तानि पूर्वोक्तानि 'सत्तअद्धमंडलाई' सप्त अर्द्धमण्डलानि 'जाई' यानि 'चंदे' चन्द्रः 'दाहिणाए भागाए पविसमाणे' दक्षिणस्माद् भागात् प्रविशन् 'चारं चरइ' चारंचरति ? भगवानाह - 'इमाइं खलु' इत्यादि, ‘इमाई' इमानि अग्रे वक्ष्यमाणानि खलु 'ताई' तानि ‘सत्त अद्धमंडलाई' सप्त अर्द्धमण्डलानि सन्ति 'जाई' यानि 'चंदे' चन्द्रः 'दाहिणाए भागाए' दक्षिणस्मात् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'चारं चरइ' चारं चरति, 'तं जहा' तद्यथा'बितिएअद्धमंउले' द्वितोयमर्द्धमण्डलम् १, 'चउत्थे अद्धमंडले' चतुर्थमर्द्धमण्डलम् २, 'छठे अद्धमंडले' षष्ठमर्द्धमण्डलम् ३, 'अट्ठमे अद्धमंडले' अष्टममर्द्धमण्डलम् ४, 'दसमे अद्धमंडले' दशममर्द्धमण्डलम् ५, 'बारसमे अद्धमंडले' द्वादशमर्द्धमण्डलम् ६, 'चउद्दसमे अद्धमंडले' चतुर्दशमर्द्धमण्डलम् ७ । उपसंहरति-'एयाई' इत्यादि, 'एयाई' एतानि पूर्वोक्तानि खलु 'ताई' तानि सत्तअद्धमंडलाई' सप्तअर्द्धमण्डलानि जाइं चंदे' यानि चन्द्रः 'दाहिणाए भागाए' दक्षिमस्माद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन 'चारं चरइ' चारं चरति । तदेवं दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशे सप्त अर्द्धमण्डलानि प्रोक्तानि, साम्प्रतम् उत्तर भागादभ्यन्तरप्रवेशे यावन्ति अद्वैमण्डलानि भवन्ति तावन्ति प्रदर्शयति-'ता पढमायणगए' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पढमाणगए चंदे' प्रथमायनगतश्चन्द्रः 'उत्तराए भागाए' उत्तरस्माद भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'छ अद्धमलाई' षड् अर्द्ध मण्डलानि 'तेरस य सत्तट्ठिभागाई' त्रयोदश च सप्तषष्टिभागान् 'अद्धमंडलस्स' एकस्याईमण्डलस्येति 'जाई चंदे' यानि चन्द्रः 'उत्तराए भागाए' उत्तरस्माद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् चन्दः 'चारं चरइ' चारं चरति । तान्येव पृच्छति-'कयराई' इत्यादि, 'कयराई खलु' कतराणि कानि खलु 'ताई' तानि 'अद्धमंडलाई' षडू अर्द्र मण्डलानि 'तेरस य सत्तट्टि भागाइं त्रयोदश च सप्तषष्टिभागाः 'अद्धमंडलस्स' एकस्यार्द्धमण्डलस्य, 'जाई' यानि 'चंदे' चन्द्रः 'उत्तराए भागाए' उत्तरस्माद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'चारं चरइ' चारं चरति ? तन्येव प्रदर्शयति-'इमाई' इत्यादि 'इमाई खलु' इमानि वक्ष्यमाणानि खलु 'ताई' तानि यानि पूर्व कथितानि 'छ अद्धमंडलाई' षड् अर्द्धमण्डलानि 'अद्धमंडलस्स' एकस्यार्द्धमण्डलस्य च 'तेरस य सत्तठिमागाई' त्रयोदश च सप्तषष्टि भागाः 'जाइं चंदे' यानि चन्द्रः 'उत्तराए भागाए' उत्तरस्माद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'चारं चरइ' चारं चरति 'तं जहा' तद्यथा-'तइए अद्धमंडले' तृतीयमर्द्धमंडलम् १, 'पंचमे अद्धमंडले' पञ्चममर्द्ध मण्डलम् २, 'ससमे अद्धमंडले' सप्तममर्द्धमण्लम् ३, 'नवमे अद्धमंडले' नवममर्द्धमण्डलम् ४, 'एक्कारसमे अद्धमंडले' एकादशमर्द्धमण्डलम् ५, 'तेरसमे अद्धमंडले' त्रयोदशमर्द्धमण्डलम् ६, 'पारस मंडलस्स' पञ्चदशमण्डलस्य 'तेरस सत्तट्ठिभागाई' त्रयोदशसप्तषष्टिभागाश्च, ४, उपसंहरति-‘एवाई' इत्यादि ‘एवाई एतानि HTHLETENTRE Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालियाशिकाटीकाप्रा. १३. सू. ३ मण्डलेषु चन्द्रार्धमासचारनिरूपम् ५४३ पूर्वेक्तानि खलु 'ताई' तानि 'छ अद्धमंडलाई' षड्अर्द्धमण्डलानि 'अद्धमंडलस्स' एकस्य चार्द्ध मण्डलस्य 'तेरसत्तद्विभागाई' प्रयोदश्श सप्तषष्टिभागाः, 'जाई चंदे' यानि चन्द्रः 'उत्तराए भागाए' उत्तरस्माद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'चारं चरइ' चारं चरति । दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशे, एवमुत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशे च यानि अर्द्धमण्डलानि प्रदर्शितानि तद्विषयाभावना चेत्थम्-- सर्वबाह्ये पञ्चदशे मण्डले परिभ्रमणेन प्रणमधिकृत्य परिपूर्णे पाश्चात्य युगपरिसमाप्ति र्भवति ततोऽपरयुगप्रथमायनप्रवृत्तौ प्रथमेऽहोरात्रे एकश्चन्द्रो दक्षिणभागादभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितोयमण्डलमाक्रम्य चारं चरति, स च पाश्चात्य युगपरिसमाप्तिदिवसे उत्तरस्यां दिशि चारं चरितवान् सोऽत्र वेदितव्यः । ततः एतस्मात् द्वितीयात् मण्डलात् शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि सर्व बाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं तृतीयमर्द्धमण्डलमाक्रम्य चारं चरति । तृतीयेऽहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि चतुर्थमर्द्धमण्डलम् , चतुर्थेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि पञ्चममर्द्धमण्डलम् , पञ्चमेऽहो रात्रे दक्षिणायां दिशि षष्ठमर्द्धमण्डलम् षष्टेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि सप्तममर्द्धमण्डलम्, सप्तमेऽहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि अष्टममर्द्धमण्डलम् , अष्टमेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि नवममर्द्रमण्डलम्, नवमेऽहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि एकादशममण्डलम् , एकादशेऽहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि द्वादशमर्द्धमण्डलम् , द्वादशेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि त्रयोदशमर्द्धमण्डलम् त्रयोदशेऽहोलात्रे दक्षिणस्यादिशि चतुर्दशमर्द्धमण्डलम् , चतुर्दशेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि पञ्चदशस्यार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागानाक्रम्य चारं चरति । ततः किमित्याह सूत्रकारः-'एयावया' इत्यादि, 'एयावयाच' एतावता च कालेन 'पढमे चंद!यणे समत्ते भवइ' प्रथमं चन्द्रायणं समाप्तं भवति । चन्द्रायणं हि नक्षत्रार्द्धमासप्रमाणं भवति, ततश्च नाक्षत्रेण अर्द्ध मासेन चन्द्रचारे त्रयोदशमण्डलानि, चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः (१३-२) भवन्ति । तत्कथं ८७ लभ्यते ! त्रैराशिकगणितेन लयते तथाहि- एकस्मिन् युगे चन्द्रमण्डलानि अष्ट षष्टयधिकानि सप्तदशशतानि (१७६८) भवन्ति, चन्दायणानि च चतुस्त्रिंशदधिकशतसंख्यकानि (१३४) भवन्ति ततो यदि चतुस्त्रिंशदधिकेन अयनशनेन (१३४) सप्तदशशतानि अष्ट षष्टयधिकानि(१३६८) मण्डलानि लभ्यन्ते तत एकेन अयनेन किं लभ्यते ? राशित्रयस्थापना-१३४।१७६८। १। ततोऽन्स्येन राशिना मध्यराशौ गुणिते सति जातस्तावानेव (१७६८) ततस्तस्यायेन राशिना (१३४) भागो हियते, लब्धास्त्रयोदश (१३) शेषास्तिष्ठन्ति षड्विंशतिः (२६)ततश्छेधछेदक Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ राश्योदिकेनापवर्तनायां लब्धास्त्रयोदश सप्तषष्टिः (१३।१३) । उक्तञ्च "तेरसय मंडलाणिय, तेरस सत्तट्टि चेव भागाय । अगणेण चरइ सोमो; नक्खत्तेणऽद्धमासेणं ॥१॥ छाया-त्रयोदश च मण्डलानि च, त्रयोदश सप्तषष्टिश्चैव भागाश्च । अयनेन (एकेन) चरति सोमः, नक्षत्रेणार्द्धमासेन ॥ इति । एतच्च सामान्येन प्रोक्तं, विशेषविचारणायां तु एकस्य चन्द्रस्य युगगते प्रथमेऽयने पूर्वोक्तेन प्रकारेण दक्षिणभागादभ्यन्तरं प्रवेशे द्वितीयादीनि एकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्तअर्द्धमण्डलानि प्राप्यन्ते, एवम्-उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशे च तृतीयादीनि एकान्तरितानि त्रयोदशपर्यन्तानि षड्मण्डलानि परिपूर्णानि अर्द्धमण्डलानि, सप्तमस्य तु पञ्चदश मण्डलगतस्य अर्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः (१३।१-२) भवन्तीति सर्व पूर्व सविस्तरं प्रदर्शित मेवेति । यथा प्रथमे चन्द्रायणे एकस्य चन्द्रस्य यावन्ति दक्षिणभागाद उत्तरभागाच्च अभ्यन्तर प्रवेशेऽर्द्धमण्डलानि साक्षात् प्रदर्शितानि तदनुसारेणैव द्वितीयस्यापि चन्द्रस्य तस्मिन्नेव प्रथमे चन्द्रायणेऽर्द्धमण्डलानि भवन्ति तथाहि-सपाश्चात्य युगपरिसमाप्तिचरमदिवसे दक्षिणदिग्भागे सर्ववाह्यमण्डले चारं चरित्वा अभिनवस्य युगस्य प्रथमेऽयने प्रथमेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि द्वितोयमर्द्धमण्डलं प्रविश्य चारं चरति, द्वितीयेऽहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि सर्वबाह्यात् मण्डलात् तृतीयमर्द्ध मण्डलं प्रविश्य चारं चरति, तृतीयेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि चतुर्थमर्द्धमण्डलं प्रविश्य चारं चरति, इत्यादि प्रागुक्तानुसारेणैव सकलमपि वक्तव्यम् । पूर्ववदस्यापि द्वितीयस्य चन्द्रस्य प्रथमेऽयने उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशे द्वितीयादीनि एकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्त अर्द्धमण्डलानि भवन्ति, एवं दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशे च तृतीयादीनि एकान्तरितानि त्रयोदश पर्यन्तानि षड्अर्द्धमण्डलानि, तदुपरि पञ्चदशस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागा भवन्ति, तत आगतम्-त्रयोदशमण्डलानि परिपूर्णानि, चतुर्दशस्येति पञ्चदशस्य मण्डलस्य त्रयोदश सप्त पष्टिभागाः ( १३/१३ ) इति । एवं च सति च चन्द्रार्द्धमास-नाक्षत्रार्द्धमासयोर्न समानत्वमिति सूत्रकारः प्रदर्शयति'ता णक्खत्ते' इत्यादि, 'ता' तावत् 'नक्खत्ते अद्धमासे' यः नाक्षत्रोऽर्द्रमासः 'नो चंदे अद्धमासे' नो चान्द्रोऽर्द्धमासो भवति । अत्र कश्चित् शङ्कते-नाक्षत्रोऽर्धमासश्चान्द्रोऽर्धमासो न भवति, इति मन्ये किन्तु यश्चान्द्रोऽर्धमासः सतु कदाचितू नाक्षत्रोऽप्यर्धमासो भवितुमर्हति Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिका टीका प्रा. १३ सू. ३ .... मण्डलेषु चन्द्रार्द्धमासचारनिरूपणम् ५५० यथा “परमाणुप्रदेशः" इति कथने परमाणुरप्रदेश एव, यस्तु अप्रदेशः स परमाणुरपि भवति अपरमाणुरपि भवति क्षेत्रप्रदेशादिः इत्याशङ्कायामाह सूत्रकारः 'ता चंदे' इत्यादि, 'ता चंदें अदमासे नो नक्खत्ते अद्धमासे' यथा नाक्षत्रोऽर्द्धमासश्चान्द्रोऽमासो न भवति तथैव चान्दोन ऽर्द्धमासोऽपि नाक्षत्रोऽर्द्धमासो न भवति, यतो नाक्षत्रार्द्धमासरूपे एकस्मिन्नयने सामान्यतश्चन्द्रस्य त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः ( १३।१३) भवन्ति, चान्द्रऽर्द्धमासे च चतुदर्श मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिक शतभागसत्का द्वात्रिंद्भागाः (१४। ३२ ) भवन्ति ततो नाक्षत्रार्द्धमास-चान्द्रार्द्धमासयोः परस्परं न साम्यमिति । १२४ पुनीतमः पृच्छति 'ता' तावत् 'नक्खत्ताओ अद्धमासाओ' नाक्षत्राद् अर्द्धमासात् ‘से चंदे' स चन्द्रः 'चंदेणं अद्धमासेणं' चान्द्रेण अर्द्धमासेन 'किमधियं चरइ' किमधिकं कियत्परिमितमधिकं चरति ? भगवानाह--'ता एगं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगं अद्धमंडलं' एकमर्द्धमण्डलं 'चरई' चरति, 'अद्धमंडलस्स' द्वितोयस्य चार्द्धमण्डलस्य ‘चत्तारि य सत्तष्ठिभागाई' चतुरः सप्तषष्टिभागान् पुनश्च 'सत्तट्टिमागं' एकं सप्तषष्टिभागं 'एगतीसाए छित्ता' एकत्रिंशता छित्त्वा एकस्य सप्तषष्टिभागस्य एकत्रिंशतं भागान् कृत्वा तन्मध्यात् 'नवभागाई' नवभागान् नब एकत्रिंशद्भागान् (१ ) । एतावत्परिमितं चन्द्रः नाक्षत्रार्द्धमासात् ६७३१ चान्द्रेण अर्द्धमासेन अधिकं चरतीति भावः । कथमेदिति प्रदर्य अत्रापि त्रैराशिकं कर्त्तव्यम् तथाहि--यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन अष्टषष्टयधिकानि सप्तदश मण्डलशतानि लभ्यन्ते तर्हि एकेन पवणा किं लभ्यते ? राशित्रयस्थापना-(१२४।१७६८।११) अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणानात् जातस्तावानेन ( १७६९) तत आधेन राशिना (१२४ ) भागो हरणीयः, ततः छेउछेदकराश्योश्चतुष्केन अपवत्तेना क्रियते, कथम् ? अत्र छेद्यराशिः अष्टषष्टयधिकानि सप्तदशशतानि (१७६८) अस्य चतुष्केन अपवर्त्तनेति चतुर्भिर्भागो हियते लब्धानि द्विचत्वारिंशदधिकानि चत्वारिशतानि (४४२) ततश्छेदकराशेश्चतुर्विशत्यधिकशतरूपस्य (१२४) चतुष्केन अपवर्तनेति चतुर्भिभागो हियते लब्धानि एकत्रिंशत् (३१) । ततोऽपवर्त्तितस्य छेघराशे चित्वारिंशदधिक चतुः शतरूपस्य (४४२) अपवर्तितेन छेदकराशिना एकत्रिंशद्रूपेण (३१) भागो हियते लब्धाश्चतुर्दश (१४) मण्डलानि, शेषास्तिष्ठन्ति अष्ट, ते चाष्ट एक त्रिंशद्रामाः ( १४! ८ )। तत एतस्माद् राशेर्नाक्षत्रार्द्धमासगम्यं क्षेत्रम्-त्रयोदश मण्डलानि, एकस्य च Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागा ( १३/१३ ) इत्येवं प्रमाणं शोध्यते, तत्र चतुर्दशेभ्यस्त्रयोदश मण्डलानि शुद्धानि स्थितं शेषमेकम् (१), ततः अष्टभ्य एकत्रिंशद्भागेभ्यस्त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः शोध्याः तथाहि-सप्तषष्टिरष्टमिर्गुण्यते, जातानि षट्त्रिंशदधिकानि पञ्चशतानि (५३६), त्रयोदश च एकत्रिंशता गुण्यन्ते जातानि व्युत्तराणि चत्वारिशतानि (४०३) एतानि अष्ट सप्तषष्टि गुणन प्राप्तेभ्यः षट्त्रिंशदधिकपञ्चशतेभ्यः (५३६) शोध्यन्ते, स्थितं शेषं त्रयस्त्रिंशदधिकं शतम् (१३३), तत एतत् सप्तषष्टि भागानयनाथै सप्तषष्टया गुण्यते, जातानिएकादशाधिकानि नवाशीति शतानि (८९११) एष छेद्यराशिः, मौलश्छेदक राशिरेकत्रिंशत् स सप्तषष्टया गुण्यते जाते सप्त सप्तत्यधिके द्वे सहस्र (२०७७) एष छेदकराशिः, ततश्छेद्यच्छेकराश्योः सप्तषष्टयाऽपवर्तना क्रियते सप्तषष्टया कृतायामपवत्तनायामागतश्छेद्यराशिस्त्रयास्त्रिशदधिकमेकं शतम् (१३३), छेदकराशिश्चागत एकत्रिंशत् (३१) ततोऽनेन छेदकराशिना छेधराशेः ( १३३ ) भागो हियते लब्धाश्चत्वारः सप्तषष्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति-नवेति एक त्रिंशच्छेदकृता नव एकत्रिंशदभागाश्चूर्णिकाभागा (१/-) तत आगतम् -- एकमर्द्धमण्डलम्, ६७३१ द्वितीयस्य चार्द्धमण्डलस्य चत्वारः सप्तषष्टिभागाः, एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य नव एक त्रिंशद्भागाः। एतावत्परिमितं क्षेत्रं नाक्षत्रार्द्धमासात् चन्द्रश्चान्द्रेणार्द्धमासेन अधिकं चरतीति सिद्धम् । उक्तञ्च “एगं च मंडलं मंडलस्स सत्तद्विभागा चत्तारि । नव चेव चुण्णियाओ, इगतीसकरण छेएण ॥१॥" छाया--एकं च मण्डलं (अर्द्ध मण्डलम् ) मण्डलस्य (एकस्य चान्द्रमण्डस्य) सप्तषष्टिभागाश्चत्वारः। ... नव चैव चूर्णिकाः (भागाः) एकत्रिंशत् कृतेन छेदेन ॥इति । अत्र गणितप्रकरणे 'मण्डलं मण्डलं' इति कथितं तत्र सर्वत्र मण्डलशब्देन अर्द्ध मण्डलमिति वाच्यम् अत्रार्द्धमण्डलानामेव प्रकृतत्वादिति । तदेवमेकस्य चन्द्रायणस्य वक्तव्यता प्रोक्ता, साम्प्रतं द्वितीयचन्द्रायणवक्तव्यता प्रस्तूयते, तत्र यश्चन्द्रः प्रथम चन्द्रायणे दक्षिणभागादभ्यन्तरं प्रविशन् सप्ताधमण्डलानि, उत्तरभागादभ्यन्तरं प्रविशन् षड् अर्द्धमण्डलानि, सप्तमस्य चादितः पञ्चदशरूपस्यार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टि भागान् चरितवान् तमधिकृत्य द्वितीयायनभावना करिष्यते, तत्रायनस्य मण्डलक्षेत्रपरिमाणं त्रयोदश अर्द्धमण्डलानि, चतुर्दशस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागा इति । तत्र Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्नतिप्रकाशिकाटोकाप्रा. १३. सू. ३ मण्डलेषु चन्द्रार्धमासचारनिरूपम् ५८७ प्राकनमयनमुत्तरस्यां दिशि सर्वाभ्यन्तरे मण्डले त्रयोदश सप्तषष्टिभागपर्यन्ते परिसमाप्तं भवति, तदनन्तरं द्वितीयायनप्रवेशे चतुः पञ्चाशता सप्तषष्टिभागैः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं परिसमाप्य ततो द्वितीये मण्डले चारं चरति । तत्र त्रयोदशभागपर्यन्ते एकमर्द्धमण्डलं द्वितयस्यायनस्य परिसमाप्तं भवति । द्वितीयमर्द्धमण्डलमुरस्यां सर्वाभ्यन्तरात्तृतीयेऽर्द्धमण्डले त्रयोदशभागपर्यन्ते, तृतीयमर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि चतुर्थेऽर्द्धमण्डले, चतुर्थमर्द्धमण्डलमुत्तस्यां दिशि पञ्चमेऽर्द्धमण्डले, पञ्चममर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि षष्ठेऽर्द्धमण्डले, षष्ठमर्द्धमण्डलमुत्तरस्यां दिशि सप्तमेऽर्द्धमण्डले, सप्तममर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि अष्टमेऽर्द्धमण्डले, अष्टममर्द्धमण्डलमुत्तस्यां दिशि नवमेऽर्द्धमण्डले, नवममर्द्धमण्डलं दिक्षिणस्यां दिशि दशमेऽर्द्धमण्डले, दशममर्द्धमण्डलमुत्तस्यां दिशि एकादशेऽर्द्धमण्डले, एकादशमर्द्धमण्डलं, दक्षिणस्यां दिशि द्वादशेऽर्द्धमण्डले, द्वादशममर्द्धमण्डलमुत्तरस्यां दिशि त्रयोदशेऽर्द्धमण्डले, त्रयोदशमर्द्धमण्डल दक्षिणस्यां दिशि चतुर्दशेऽर्द्धमण्डले, चतुर्दशमईमण्डलं तच्च पञ्चदशस्यार्द्धमण्डलस्य त्रयोदशभागवर्यन्ते परिसमाप्तम् । तदनन्तरं त्रयोदश सप्तषष्टिभागान् अन्यान् पञ्चदशमण्डलसत्कान् चरति । एतावता द्वितीयमयनं परिसमाप्तं भवति । चतुर्दशे च मण्डले संक्रान्तः सन् चन्द्रः प्रथमक्षणादूचं सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखं चारं चरति, ततः परमार्थतः कतिपयभागातिक्रमे पञ्चदशे एव सर्वबाह्यमण्डले चन्द्रो वेदितव्यः । तदेकस्मिन्नयने पूर्वभागेन द्वितीयादीनि एकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्तअर्द्धमण्डानि चीर्णानि, पश्चिमभागे च तृतीयादीनि एकान्तरितानि त्रयोदश पर्यन्तानि षड् अर्द्धमण्डलानि, तत्र पूर्वभागे पश्चिमभागे वा यत् प्रतिमण्डलं स्वयं चीर्णमचीर्णं वा मण्डलं चरति तत्प्रदर्शयति-'ता दोच्चायणगए' इत्यादि 'ता' तावत् 'दोच्चायणगए चंदे' द्वितीयायनगतश्चन्द्रः 'पुरस्थिमाए भागाए' पौरस्त्याद् भागात् 'निक्खममाणे' निष्क्रामन् 'सत्तचउप्पण्णाई' सप्तचतुष्पञ्चाशत्कानि सप्तषष्टि भागसत्कानि त्रयोदश भागाश्च प्रथमायने चीर्णत्वात् 'जाई' यानि 'चंदे चन्द्रः 'परस्स चिन्नं' परस्य भत्र तृतीयार्थे षष्टीति परेण चिर्णानि मूले आर्षत्वादेकवचनम् 'पडिचरइ' प्रतिचरति 'सत्ततेरस गाई' सप्तत्रयोदशकानि सप्तषष्टिभाग सत्कानि 'जाई चंदे' यानि चन्द्रः 'अप्पणा चिण' आत्मना चीर्णानि 'चरइ' चरति । अत्रेयं भावना-मेरोः पूर्वस्यां दिशि यो भागः स पूर्व भागः, यश्चापरस्यां दिशि भागः स पश्चिमभागः कथ्यते। तत्र पूर्वभागे सप्तस्वपि द्वितीयादिषु एकान्तरितेषु चतुर्दशपर्यन्तेषु सप्तषष्टिभागप्रविभक्तेषु अर्द्धमण्डलेषु प्रत्येकं चतुष्पञ्चाशतं चतुष्पञ्चाशतं सप्तषष्टिभागान् चन्द्रः परेण सूर्यादिना चीर्णानि प्रतिचरति, तत्रैव द्वितीययुगे गतश्चन्द्रः सप्त च त्रयोदशत्रयोदश सप्तषष्टिभागान् स्वयं चीर्णान् चरतीति । 'ता दोच्चायणगए' इत्यादि, 'ता' इति, ततः 'दोच्चायणगए चंदे' द्वितीयायनगतश्चन्द्रः 'पच्चत्यिमाए भागाए' पाश्चात्याद् भागात् 'निक्खममाणे' निष्क्रामन् पश्चिमभागान्निक्रमण Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८. चन्द्रप्राप्तिसूत्रे समये 'छ चउप्पण्णाई' षट् चतुष्पञ्चाशत्कानि जाइं चंदे' यानि चन्द्रः 'परस्स चिणं' परेण सूर्यादिना चीर्णानि 'पडिचरई' प्रतिचरति, 'छतेरसगाई' षटू त्रयोदशकानि 'चंदे' चन्द्रः 'अप्पणो चिण्णं' आत्मना चीर्णानि 'पडिचरइ' प्रतिचरति । अत्रेयं भावना-पश्चिमे भागे षट्स्वपि तृतीयादिषु एकान्तरितेषु त्रयोदशपर्यन्तेषु अर्द्धमण्डलेषु सप्तषष्टिभागप्रविभक्तेषु प्रत्येक चतुष्पञ्चाशत्कं सप्तषष्टिभागसत्कं सप्तषष्टिभागानित्यर्थः चरति, षट् च त्रयोदश सप्तषष्टि भागान् स्वयं चीर्णान् चरतीति । पुनश्च एकान्तरितत्वेन पञ्चदशस्य मण्डलस्य 'अवरगाई' अपरके तदतिरिक्ते अन्ये 'दुवे तेरसगाई' द्वे त्रयोदशके 'जाइ चंदे' ये चन्द्रः 'केणइ' केनापि सूर्यादिना 'असामण्णगाई" असामान्यके अनाचीर्णपूर्वे 'सयमेव' स्वयमेव 'पविसित्ता'२ प्रविश्य २ 'चारं चरई' चारं चरति । अत्र पृच्छति-'कयराइ खलु इत्यादि, 'कयराइ' कतरे के खलु 'ताई दुवे तेरसगाई' ते द्वे त्रयोदशके 'जाई चंदे' ये चन्द्रः 'केणइ असामण्णगाई' केनापिं असामान्यके अनाचीर्णपूर्वे 'सयमेव पविसियत्ता २ चारं चरइ' स्वयमेव प्रविष्य २, चारं चरति । अत्रोत्तरमाह-'इमाई' खलु' इत्यादि 'इमाइं खल्लु' इमानि वक्ष्यमाणानि खलु 'ताई दुवे तेरसगाई' ते द्वे त्रयोदशके 'जाई चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविसित्ता २ चारं चरई' ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २ चारं चरति । ते एव दर्शयति—'तं जहा' इत्यादि 'तं जहा' तद्यथा ते यथा-'सब्बभंतरे घेव मंडले १ सव्ववाहिरे चेव मंडले, सर्वाभ्यन्तरे चैव मण्डले सर्वबाह्ये चैव मण्डले २ उपसंहारमाह--'एयाणि' इत्यादि, 'एयाणि' एते. अनुपदं प्रदर्शिते खलु 'ताणि दुवे - तेरसगाई' ते द्वे त्रयोदशके 'जाइं चंदे' ये चन्द्रः 'केणइ जाव चारं चरई' केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २, चारं चरति । अत्र यत् द्वे त्रयोदशके कथिते तत्रैवं विज्ञेयम्तत्र यदेके त्रयोदशकं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले तत् पाश्चात्यायनगतं पञ्चदशार्द्धमण्डलसत्कं वेदितव्यम् , तस्यैव संभवास्पदत्वात् द्वितीयं त्रयोदशकं सर्वबाह्ये मण्डले चरिष्यमाणं पर्यन्तवर्तिप्रतिपत्तव्यमिति । ____ एषा एकं चन्द्रमधिकृत्य द्वितीयायनवक्तव्यता प्रोक्ता, ततो द्वितीयं चन्द्रमधिकृत्य द्वितीयायनवक्तव्यता एतदनुसारेणैव भावनीया । अत्रायं विशेषः तत्र प्रथमचन्द्रमाश्रित्य द्वितीयायने चन्द्रस्य प्रथम पूर्वभागान्निष्क्रमणं प्रोक्तम् अत्र द्वितीयचन्द्रमाश्रित्य द्वितीयायने प्रथमपश्चिमभागात् ततः पूर्वभागात् एवं वैपरीत्येन चन्द्रस्य निष्क्रमणं वाच्यम् तत्र पूर्व भागे षट् चतुष्पञ्चाशत्कानि परिचीर्णानि, षट् त्रयोदशकानि च स्वयं चीर्णानि चरतीति वक्तव्यम् । शेषं सर्वं पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति । अथ द्वितीयायनपरिसमाप्तिमाह--'एयावया' इत्यादि, 'एयावया' एतावता एतावत्कालेन चन्द्र द्वयचरणरूपेण समयेन 'दोच्चे चंदायणे' Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका प्रा.१३ सू. ३ मण्डलेषु चन्द्रार्द्धमासचार निरूपणम् ५४९ द्वितीयं चन्द्रायणं 'समत्ते भवइ' समाप्तं भवतीति । २ । यद्येवं द्वितीयमप्यवनमेतावत्प्रमाणं भवति ततो नाक्षत्रमासस्य चान्द्रमासस्य च किं साम्यमस्ति ? नेत्याह- 'ता शक्य ते' इत्यादि 'ता' तावत् 'नक्खत्ते मासे' नाक्षत्रो मासः 'नो चंदे मासे' नो चान्द्रो मासो भवति एवं 'चंदे मासे' चान्द्रो मासः 'णो णक्खत्ते मासे' नो नाक्षत्रो मासः चान्द्रो मासो नाक्षत्रो मासो न भवतीत्यर्थः । एवं श्रुत्वा गौतमः पृच्छति - 'ता णक्खताओ' इत्यादि 'ता' तावत् 'णक्खत्ताओ' नाक्षत्रात् मासात् 'चंदे' चंद्रः 'चदेणं मासेणं' चान्द्रेब मासेन 'किमधियं चरइ' किम् कियत्प्रमाणम् अधिकं चरति ? । एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह --- 'ता दो अद्धमंड़लाई' इत्यादि, 'ता' तावत् ' दो अद्धमंड़लाई चरई' द्वे अर्द्धमण्डले चरति, 'अट्टयस तद्विभागाई' अष्ट च सप्तषष्टिभागान् 'अद्धमंडलस्स' तृतीयस्यार्द्ध मण्डलस्य, तथा 'सत्तद्विभागं' च एकं च सप्तषष्टिभागं 'एक्कतो सधा छित्ता' एकत्रिंशद्धा छित्त्वा एकस्य सप्तषष्टिभागस्य एकत्रिंशद् भागान् कृत्वा तन्मध्यात् 'अद्वारसभागाई' अष्टादश भागान् चरति-(२ ८|१८ ) एतावत्परिमितं द्वितीये चन्द्रायणे चन्द्रश्चान्द्रेण मासेनाधिकं चरती ६७३१ भावः एतच प्रथमचन्द्रायणगताधिक्यात् द्विगुणं कृत्वा परिभावनीयम् । अथ यावता कालेन चान्द्रो मासः परिपूर्णो भवति तावन्मात्र तृतीयायनवक्तव्यतामाह'ता तच्चायणगए चंदे' इत्यादि, अत्र पूर्वसम्बन्धः परिभावनीयः - इह द्वितीयायनपर्यन्ते चतुर्दशेऽर्द्धमण्डले षड्विंशति संख्यक सप्तर्षाष्ट भागमात्रमाक्रान्तम् तच्च परमार्थतः पचदशमर्द्धमण्डलं वेदितव्यम्, तदभिमुखं बहुगतत्वात्, तदनन्तरं नीलवत्पर्वतप्रदेशे साक्षात् पञ्च दशमर्द्धमण्डलं प्रविष्टो भवति, तत्र प्रविष्टश्च प्रथमक्षणादूर्ध्वं सर्व बाह्यमण्डलानन्तरावक्लन (समीपस्थ) द्वितीयमण्डलाभिमुखं चरति, ततस्तस्मिन्नेव सर्व बाह्यमण्डलान्तरे अर्वाक्तने द्वितीयमण्डले चारं चरतश्चन्द्रस्यात्र विवक्षा वर्त्तते, ततोऽस्याधिकृत सूत्रत्रयस्य सम्बन्धो जानते'ता' तावत् 'तच्चायणगए चंदे' तृतीयायनगतश्चन्द्रः 'पच्चत्थिमाए भागाए, पाश्चात्याद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'बाहिराणंतरस्स' बाह्यानन्तरस्यार्वाग् भागवर्त्तिनः 'पम्पत्थिमिल्लस्स अद्धमंडलस्स' पाश्चात्यस्यार्द्ध मण्डलस्य 'इगतालीस सत्तद्विभागाई' एकचत्वारिंशत सप्तषष्टिभागान्, सप्तषष्टिसंख्यक भागानां मध्यात् षड् विंशति संख्यक सप्तषष्टिभागानां द्वितीयायनपर्यन्ते चतुर्दशेऽर्द्धमण्डले समाक्रान्तपूर्वत्वात् शेषान् एकचत्वारिंशतं सप्तषष्टिभागानितिभावः, 'जाई चंदे' यान् चन्द्रः 'अप्पणी परस्स य चिण्णं पडिचरइ' आत्मना परेण वा सूर्यादिना चीर्णात् स्वपरभुक्तभागान् प्रतिचरति, 'तेरस सत्तट्ठि भागाई' त्रयोदश सप्तषष्टि भागास्ते ‘जाइं चंदे, यान् चन्द्रः - 'परस्स चिण्णं पडिचरइ, परेण सूर्यादिना चीर्णान् प्रति Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरति 'तेरस सत्तट्टि भागाई' अन्ये त्रयोदश सप्तषष्टिभागास्ते 'जाई' यान् 'चंदे' चन्द्रः 'अप्पणो परस्स य चिणं' आत्मना परेण च चीर्णान् 'पडिचरइ' प्रतिचरति । 'एयावया' एतावता परिभ्रमणेन 'बाहिराणंतरे' बाह्यानन्तरमक्तिनं 'पच्चस्थिमिल्ले अद्धमंडले' पाश्चात्यमर्द्धमण्डलं 'समत्ते भवई' समाप्तं भवति । अथ पौरस्त्याचभागमाश्रित्याह- 'ता तच्चायणगए चंदे' तावत् तृतीयायनगतश्चन्द्रः 'पुरथिमिल्लाए भागाए' पौरस्त्याद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'बाहिर तच्चस्स' बाह्यतृतीयस्य सर्वबाह्यादाक्तनस्य 'पुरस्थि मिल्लस्स अद्धमंडलस्स' पौरस्त्यस्यार्द्धमण्डलस्य 'इगतालीसं सत्तद्विभागाई' एकचत्वारिंशतं सप्तषष्टिभागान् 'जाई चंदो' यान् चन्द्रः 'अप्पणो परस्स य चिण्णं' आत्मना परेण च चीर्णान् 'पडिचरइ' प्रतिचरति ततः परं परचीर्ण त्रयोदशभाग-स्वपर चीर्णत्रयोदश भागे ति षड् विंशति भागान् पुनश्चरतीति प्रदश्यते-'तेरस सत्तट्टि भागाई' अन्ये ते त्रयोदश सप्तषष्टि भागाः सन्ति 'जाइं चंदे' यान् चन्द्रः 'परस्स चिण्णं पडिचरइ' परेण चीर्णान् प्रतिचरति, पुनरन्ये च ते–'तेरस सत्तहि भागाई' त्रयोदश सप्तषष्टिभागा सन्ति 'जाई चंदे' यान् चन्द्रः 'अप्पणो परस्सय चिण्णं पडिचरई' आत्मना परेण च चोर्णान् प्रतिचरति 'एयावया' एतावता 'बाहिरतच्चे' बाह्य तृतीयं सर्व बाह्यान्मण्डलादाक्तनं तृतीयं 'पुरथिमिल्ले अदमंडले' पौरस्त्यमर्द्धमण्डलं 'समत्ते भवइ' समाप्तं भवति । सप्तषष्टे भगानां परिपूर्णजातत्वात् । मथ पाश्चात्यभागमाश्रित्य चन्द्रचारमाह-'ता तच्चायणगए' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तच्चायभगए चंदे' तस्मिन्नेव तृतीयायने गतश्चन्द्रः 'पच्चत्थिमाए भागाए' पाश्चात्याद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'बाहिर चउत्थस्स' सर्व बाह्यान्मण्डलादर्वाक्तनस्य ‘पच्चथिमिल्लस्स अद्धमंडलस्स' पाश्चात्यस्यार्द्धमण्डलस्य 'अद्धसत्तट्ठिभागाई' अर्द्ध सप्तषष्टिभागान् तथा 'सत्तद्विमागंच' एकं च सप्तषष्टिभागं 'एक्कतीसधा छित्ता' एकत्रिंशद्धा छित्वा एकस्य सप्तषष्टिभागस्य एकत्रिंशतं भागान् कृत्वा तन्मध्यात् ते 'अट्ठारसभागाइं अष्टादशभागाः 'जाई चंदे' - यान् चन्द्रः 'अप्पणो परस्स य चिण्णं' अत्मना परेण च चीर्णान् 'पडिचरइ' प्रतिचरति । "यावया' एतावता परिभ्रमणेन 'बाहिरचउत्थे' बाह्यचतुर्थ सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वाक्तनंचतुर्थ 'पच्चथिमिल्ले अद्धमंडले' पाश्चात्यमर्द्धमण्डलं 'समत्ते भवई' समाप्तं भवति । एवं च तत्परिसमाप्तौ चान्द्रो मासः परिपूर्णो जात इति । साम्प्रतं पूर्वोक्तमेव सर्वं प्रदर्शयन् चन्द्रमासमतमुपसंहारमाह-एवं खलु' इत्यादि एवं खलु' एवमुक्तेन प्रकारेण खलु निश्चितं 'चंदेणं मासेणं' चान्द्रेण मासेन चंदे' चन्द्रः 'तेरस चउप्पण्णगाई' त्रयोदश-त्रयोदश संख्यकानि, चतुष्पञ्चाशत्कानि चतुष्पञ्चाशद्राशिरूपाणि 'दुवे तेरसगाई' द्वे त्रयोदशके के ते इत्यमाह'जाइं चंदे' ये चन्द्रः 'परस्स चिण्णं' परेण चीर्णे 'पडिचरइ' प्रतिचरति, वर्तमानकालनिर्देशः Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिप्रकाशिकाटीका प्रा.१३ सू. ३ मण्डलेषु चन्द्रार्द्धमासचारनिरूपणम् ५९१. सकलकालयुगस्य प्रथमे चान्द्रे मासे एवमेव चारसद्भावात् अत्रेयं भावना तत्र त्रयोदशापि चलुपञ्चाशत्कानि द्वितीयेऽयने, तत्रापि सप्त चतुष्पञ्चाशत्कानि पूर्वभागे षट् च पाश्चात्ये भागे, एवं त्रयोदश भवन्ति, ये च द्वे त्रयोदशके ते द्वितीयायनस्योपरि चान्द्रमासावधेरर्वाक् द्रष्टव्यम्, तत्र द्वयोस्त्रयोदशकयोर्मध्ये एकं त्रयोदशकं सर्वबाह्यादाक्तने द्वितीये पाश्चात्येऽर्द्धमण्डले, द्वितीय त्रयोदशकं च पौरस्त्ये तृतीयेऽर्द्धमण्डले विज्ञेयमिति । पुनश्च-'तेरस २ गाई' इत्यादि, 'तेरस तेरसगाई' त्रयोदश त्रयोदशकानि 'जाई चंदे' यानि चन्द्रः 'अप्पणो चिण्णं पडिचरइ' आत्मना चीर्णानि प्रतिचरति । एतानि च सर्वाण्यपि द्वितीयेऽयने वेदितव्यानि, तत्रापि सप्त त्रयोदशकानि पूर्वभागे, षट् च पश्चिमभागे इति विज्ञेयम् । तथा 'दुवे इगतालीसगाई' द्वे एक चत्वारिंशत्के 'अट्ट सत्तट्टि भागाई' अष्टौ सप्तषष्टिभागाः, 'सत्तट्ठिभागं च' एकं च सप्तषष्टि भागं 'एक्कतीसधा छित्ता' एकत्रिंशद्धा छित्वा एकस्य सप्तषष्टिभागस्य एकत्रिंशदभागान् कृत्वा तन्मध्यात् 'अट्ठारस भागाई' अष्टादशभागान् ‘जाई' यान् तान् 'चंदे' चन्द्रः 'अपामो परस्स य चिण्णं' आत्मना परेण च चीर्णान्-'पडिचरइ' प्रतिचरति । 'अवराई खलु अपरे अन्ये खलु 'दुवे तेरसगाई' द्वे त्रयोदशके 'जाई चंदे' ये द्वे ते चन्द्रः 'केणइ असामण्य गाई' केनापि असामान्यके अनाचीर्णपूर्वे 'सयमेव' स्वयमेव 'पविसित्तार' प्रविश्य प्रविश्य 'चारं चरइ' चारं चरति । तत्र-एकम् एकचत्वारिंशत्कम् , एक च त्रयोदशक द्वितीयायनोपरि सर्वबाह्यात् मण्डलात् अक्तिने द्वितीये पाश्चात्येऽर्द्धमण्डले, तथा-द्वितीयम् एकचत्वारिशत्कम्, द्वितीयंच त्रयोदशक सर्व बाह्यान्मण्डलादर्वाक्तने तृतीये पौरस्त्ये विज्ञेयम् । शेषाः ये अष्टषष्टि भागाः तत्सम्बन्धिनः अष्टादश एकत्रिंशद्भागा श्चूर्णिकाभागाः, एकस्य सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशद्भागान् कृत्वा तन्मध्याद् ये अष्टादश भागास्ते चूर्णिका भागाः कथ्यन्ते, ते पाश्चात्ये सर्वबाह्यादवाक्तिने चतुर्थेऽर्द्धमण्डले विज्ञेयाः । अथोपसंहरति-'इच्चेसा' इत्यादि, 'इच्चेसा' इत्येषा पूर्वोक्तस्वरूपा 'चंदमसो' चन्द्रमसः चन्द्रस्य संस्थिति रित्यग्रेण सम्बन्धः । कीदृशी सा! इत्याह 'अभिगमणणिवखमणवुढि-णिवुढिअणवट्टियसंठाणा' अभिगमन-निष्क्रमणवृद्धि-निर्वृद्ध्यनवस्थितसंस्थाना, तत्र-अभिगमनम्-सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रवेशनम्, निष्क्रमणम्-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डला द्वहिर्गमनम्, वृद्धिः-कलावृद्धिः चन्द्रस्य प्राकटयोपचयः, निर्वृद्धिःकलाहानिः चन्द्रस्य प्राकटयापचयः एभिः प्रकारैः अनवस्थितम्-अवस्थितिरहितं समयमनेकधा दृश्यमानत्वात् एतादृशं संस्थानम् तत्र-अभिगमनं निष्क्रमणं चाधिकृत्यावस्थानं वृद्धी निधी अधिकृत्य च संस्थानम् आकारो यस्याः सा तथाभूता 'संठिई' संस्थितिरस्ति । बभ 'जिउझणगिड्ढिपत्ते' विकुर्वणक ऋद्धिप्राप्तः रूपी अतिशयरूपवान् 'चंदे देचे चंदे दे चन्द्रो देवः पूर्वोक्त विशेषणविशिष्ट श्चन्द्रों देवों वर्तते, नतु परिदृश्यमान विमानमात्रश्चन्द्रः किन्तु Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताइस विमानचारी चन्द्राभिधों देवोऽस्तीति 'आहिए' आख्यातो मया 'तिवएज्जा' इति वदेत् कश्येत् स्व हिण्येभ्यः । । सू० ।।३।। ... इति श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासी | लाल वृतिविरचितायां चद्रन्प्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाख्यायां व्यख्यायां त्रयोदशं प्राभृतं समाप्तम् ।।१३ ।। ___श्री रस्तु । ॥ चतुर्दशं प्राभृतम् ॥ ....!); गतं त्रयोदशं प्राभृतम्, तत्र चन्द्रस्य वृद्धिरपवृद्धिश्च प्रतिवादिता, साम्प्रतं तत्प्रसङ्गात् 'काय ते दोसिणा बहू' कदा ते ज्योत्स्नाबहुः, इति पूर्वमादौ संग्रहगाथायां प्रोक्तं तदनुसारेण इहा। चतुर्दशे - 'प्राभृते ज्योत्स्नाया बहुत्वं प्रतिपादयिष्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्य चतुर्दशस्य प्रामृतस्येदं सूत्रम्-'ता कया ते दोसिणा बहू' इत्यादि । । मूलम्-ता कया ते दोसिणाबहू आहिए ? ति वएज्जा, ता दोसिणा पक्खेण दोसिणा बह.आहिए ति वएज्जा । ता कहं ते दोसिणा पक्खे दोसिणा बहू आहिए ति वएज्जा ता बंधयारपक्खाओ णं दोसिणपक्खे दोसिणा बहू आहिए ति वएज्जा ता कहं ते अंधयार पक्खाओ ण दोसिणा पक्खे दोसिणा बहू आहिए ति वएज्जा ? ता अंधयारपक्खाओ णं दोसियापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि बायालाई मुहुत्तसयाई, छत्तालीसं च बावद्विभागे मुहचस्स जाइ चंदे विरज्जइ, तं जहा-पढमाए पढमं भाग, बितिआए वितियं भागं जारमणरसीए पण्णरसं भागं, एवं खलु अंधयारपक्खाओ दोसिणा पक्खे दोसिणा बहू आहिए-तिवएज्जा । ता केवइया णं दोसिणा पक्खे दोसिणा बहू आहिए । ति ता परित्ता असंखेज्जा भागा । ता कया ते अंधयारे बहू आहिए ? ति वएज्जा ता अंधयारपक्खे गं अंधयारे बहू आहिए ति वएज्जा । ता कहं ते अंधयारपक्खे अंधयारे बहू आहिए । ति वएज्जा; ता दोसिणा पक्खाओ अंधयारपक्खे अंधयार बह आहिए ति वएज्जा । ता कहं ते दोसिणा पक्खाओ अंधयार पक्खे अंधयारे बहु आहिए ति वएज्जा, ता दोसिणा पक्खाओ णं अंधयारपक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि बायालाई मुहुत्तसाई छायालीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स, जाई चंदे रज्जइ, तं जहा-पढमाए पदमभाग, वितियाए बितियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भागं । एवं खलु दोसिणा परसाओ अंपयारपक्खे अंधयारे बहू आहिएति वएज्जा। ता केवइएणं अंधयारपर अंधयारे बहू आहिए? तिवएज्जा परित्ता असंखेज्जा भागा ॥ सू०१॥ चोइसमं पाहुडं समत्तम् ॥१४॥ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टोका प्रा. १४ सू. १४ ज्योत्स्नाधिक्य निरूपणम् ५९३ छाया -- तावत् कदा ते ज्योत्स्ना वहू राख्याता ? इति वदेत् तावत् ज्योत्स्नापक्षे खलु ज्योत्स्ना बहू राख्याता ? इति वदेत् तावत् कथं ते ज्योत्स्ना पक्षे ज्योत्ना बहु आख्याता ? इति वदेत् तावत् अन्धकारपक्षात् खलु ज्योत्स्ना पक्षे ज्योत्स्ना बहुराख्याता इति वदेत् । तावत् कथं ते अन्धकारपश्चात् ज्योत्स्ना पक्षे ज्योत्स्नाना बहुराख्याता ? इति वदेत् तावत् अन्धकारपक्षात् खलु ज्योत्स्नापक्षम् अयन् चन्द्रः चत्वारि द्विचत्वारिंशानि मुहूर्तशतानि षट्चत्वारिंशतं च द्वाषष्टि भोगान् मुहूर्त्तस्य यान् चन्द्रः विरज्यते तद्यथा - प्रथमायां प्रथमं भागम् १, द्वितीयायां द्वितीयं भागम्, यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदशभागम् । एवं खलु अन्धकारपक्षात् ज्योत्स्नापक्षे ज्योत्स्ना बहुराख्याता, इतिवदेत् । तावत् कियत्का खलु ज्योत्स्ना पक्षे ज्योत्स्ना बहुराख्याता, १ इति वदेत्, तावत् परीता असंख्येया भागाः तावत् कदा ते अन्धकारः बहुराख्यातः इति वदेत्, तावत् अन्धकारपक्षे खलु अन्धकारो बहुराख्यात इतिवदेत् । तावत् कथं ते अन्धकारपक्षे अन्धकारो बहुः आख्यातः ? इतिवदेत् तावत् ज्योत्नापक्षात् अधकारणपक्षे अंधकारो वहु राख्यात इतिवदेत् । तावत् कथं ते ज्योत्स्नापक्षात् अन्धकारपक्षे अन्धकारो बहुराख्यात इतिवदेत् तावत् ज्योत्स्ना पक्षात् खलु अन्धकारपक्षमयन् चन्द्रः चत्वारि द्विचत्वारिशानि मुहूर्त्त - शतानि षट् चत्वारिंशतं च द्वाषष्ठि भागान् मुहूर्त्तस्य यान् चन्द्रो रज्यते तद्यथा- प्रथमायां प्रथमं भम् द्वितीयायां द्वितोयं भागम्, यावत् पञ्च दश्यां पञ्चदशं भागम् । एवं खलु ज्योत्स्ना पक्षात् अन्धकार पक्षे अन्धकारो बहुराख्यातः इति वदेत् । तावत् कियत्कः खलु अन्धकारपक्षे अन्धकारो बहु राख्यातः ? इति वदेत परीता असंख्येया भागाः स्० ॥१४॥ ॥ चतुर्दश प्राभृतं समाप्तम् ॥ व्याख्या -- 'ता कया ते' इति 'ता' तावत् 'कया' कदा कस्मिन् काले हे भगवन् 'ते' त्वया तवम वा 'दोसिणा' ज्योत्स्ना 'बहू' बहुः प्रभृता 'आहिया' आख्याता : 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु भगवानाह - 'ता दोसिणा पक्खे' इत्यादि ता दोसिणा पक्खेणं' ज्योत्स्ना पक्ष शुक्लपक्षे स्वल 'दोसिणा ' ज्योत्स्ना चन्द्रिका 'बहू' बहुः प्रभृता 'आहिया' आख्यता 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्यः । पुनः पृच्छति - 'ता कहंते' इत्यादिना 'ता' तावत् 'कहूं' कथं कस्मात् 'ते' तवमते 'दोसिणा पक्खे' ज्योत्स्ना पक्षे शुक्लपक्षे 'दोसिणा ' ज्योत्स्ना चन्द्रिका 'बहू' बहुः 'आहिया' आख्याता ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु । भगवानाह-'ता' तावत् 'अंधयार पक्खाओ णं' अन्धकारपक्षात् कृष्णपक्षमधिकृत्य खलु कृष्ण पक्षापेक्षयेत्यर्थः ' दोसिणा' ज्योत्स्ना 'बहू' बहुः 'आहिया' आख्याता 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयेत् । पुनः पृच्छति - 'ता कहंते इत्यादि' 'ता' तावत् 'कहं' कथं कस्मात्कारणांत् 'ते' तवमते 'अंधयारपक्खाओ' अन्धकारपक्षात् अन्धकारपक्षापेक्षया 'दोसिणापक्खे' ज्योत्स्नापक्षे शुक्लपक्षे 'दोसिणा बहू आहिया' ज्योत्स्ना बहुराख्याता ? 'तिवएज्जा' इति वदतु । भगवान् तदेव दर्शयति 'ता अंधयारपक्खाओ' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अंधयार ७५ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्खाओ णं' अन्धकारपक्षात् खलु दोसिणा पक्खं' ज्योत्स्नापक्षम् 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुक्न् 'चंदे' चन्द्रः 'चत्तारि बायालाई मुहुत्तसयाई, चत्वारि द्वाचत्वारिंशानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तशतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि चतुर्मुहूर्तशतानि, “मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य च 'छत्तालीसं च बावट्ठिभागे' षट्चत्वारिंशतं द्वाषष्टि भागान् यावत् ज्योत्स्ना निरन्तरं प्रवर्द्धते कानित्याह-'जाई' यान् भागान् यावत् 'चन्दे' चन्द्रः 'विरज्जई' विरज्यते विरक्तो भवति राहु विमानेनानावृतो भवति षट्चत्वारिंशद् द्वाषष्ठिभागसहितद्विचत्वारिंशदधिकचतुःशतभाग(४४२-४२) पर्यन्तं ज्योत्स्ना वर्द्धते इति भावः । एतावत्कालपर्यन्तं चन्द्रः शनैः शनैः ६२ राहु विमानेनानावृतस्वरूपो भवन्नास्ते । मुहूर्त्तसंख्यागणितभावना पूर्व प्रदर्शितैव तद्वत कर्तव्या । चन्द्रो राहुविमानेन कथमनावृतो भवतीत्याह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'पढमाए पढमं भागं' प्रथमायां प्रथमतिथौ प्रतिपदीत्यर्थः प्रथमं पञ्चदशं द्वाषष्टिभाग सम्बन्धि भागचतुष्टयप्रमाणं भागं यावदनावृतो भवति ? 'बिइयाए बिइयं भागं' द्वितीयायां तिथौ द्वितीयं भाग पूर्वोक्तलझणं यावत् अनावृतो भवति, एवं 'जाव' यावत्-यावत्पदेन तृतीयायां तृतीयं भागम् ३, चतुर्थ्यां चतुर्थ भाग, पञ्चम्यां पञ्चमं भागम् षष्ठयां षष्ठं भागम् ६. सप्तम्यां सप्तमं भागम् ७, अष्टम्यामष्ठमं भागम् ८, नवम्यां नवमं भागम् ९, दशम्यां दशमं भागम् १०, एकादश्यामेकादशं भागम् ११, द्वादश्यां द्वादश भागम् १२, त्रयोदइयां त्रयोदशं भागम् १३, चतुर्दश्यां चतुर्दशं भागम् १४, इत्येतत् संग्राह्यम्, अग्रे सूत्रकार एवाह -'पण्णरसीए पण्णरसं भाग' पञ्चदश्यां पूर्णिमायामित्यर्थः पञ्चदशं भागं यावद अनावृतो भवति, तदा सर्वात्मना चन्द्रो राहु विमानेनानावृतो भवतीति भावः । . अथोपसंहरति एवं खल' इत्यादि ‘एवं' एवम् पूर्वौक्तरीत्या खलु 'अंधयारपक्खाओ' अन्धकारपक्षात् 'दोसिणा पक्खे' ज्योत्स्ना पक्षे शुक्लपक्षे 'दोसिणा बहू आहिया' ज्योत्स्ना बहुराख्याता 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयेत् । अथात्र भावना क्रियते-इह शुक्लपक्षे यथा प्रतिपत्प्रथमक्षणादारभ्य प्रति मुहूर्त याव-मात्रं शनैः २ चन्द्रः प्रकटो भवति तथैव अन्धकार पक्षे प्रतिपत्प्रथमक्षणादारम्य प्रतिमुहूते तावन्मात्रं शनैः शनैश्चन्द्र आवृतो जायते, तत एवं सति यावत्येवान्धकार पक्षे ज्योत्स्ना भवति तावत्येव शुक्लपक्षेऽपि ज्योत्स्ना प्राप्यते, किन्तु शुक्लपक्षे या पूर्णिमायां ज्योत्स्ना भवति सा अन्धकारपक्षादधिका भवतीत्यतः अन्धकार पक्षात् शुक्लपक्षे ज्योत्स्ना बहुः कथितेति । अथ तत्प्रमाण विषये पृच्छति-'ता केवइया' इत्यादि 'ता' तावत् 'केवइया' कियत्का कियत्परिमिता 'ण' खलु 'दोसिणापक्खे' ज्योत्स्ना पक्षे 'बाहू' बहुः प्रमृता शुक्लपक्षे 'दोसिणा' ज्योत्स्ना चन्द्रिका Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१४ सू. ३ ज्योत्स्नाधिक्यनिरूपणम् ५५५ 'आहिया' आख्याता ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् बदतु कथयतु हे भगवन् ! भगबानाह-'ता परित्ता' इत्यादि, 'ता' तावत् 'परित्ता' परीताश्च 'असंखेज्जा भागा' असंख्येया भागाः निर्विभागा इति । अथान्धकारविषये पृच्छति-'ता कया ते' इत्यादि 'ता' तावत् 'कया' कदा कस्मिन् काले 'ते' तवमते 'अंधयारे बहू आहिए' अन्धकारो बहुराख्यातः ? ति वएज्जा' इति वदतु कथयतु । भगवानाह-'ता अंधयार पक्खे णं' इत्यादि, 'ता' तावत् , 'अंधयारपक्खेणं' अन्धकारपक्षे खलु 'अंधयारे' अन्धकारः 'बहू आहिए' बहुराख्यातः 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्यः । पुनः पृच्छति-'ता कहते' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कथं' कस्मात् 'ते' तवमते 'अंधयारपक्खे' अन्धकारपक्षे 'अंधयारे' अन्धकारः 'बहू आहिए' बहुराख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयतु । भगवानाह-'ता दोसिणा पक्खाओ' इत्यादि 'ता' तावत् 'दोसिणा पक्खाओ' ज्योत्स्नापक्षात् शुक्लपक्षापेक्षयेत्यर्थः 'अंधयारपक्खे' अन्धकारपक्षे–'अंधयारे' अन्धकारः 'बहू आहिए' बहु आख्यातः 'तिवएज्जा' इति वदेत् । पुनर्गों तमः पृच्छति'ता कहं ते' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' तवमते 'दोसिणा पक्खाओ' ज्योत्स्नापक्षात् शुक्लपक्षात् 'अंधयारपक्खे' अन्धकारपक्षे 'अंधयारे बहुआहिए' अन्धकारो बहुराख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु । भगवानाह-'ता' तावत् 'दोसिणा पक्खाओणं' ज्योत्स्नापक्षात् खलु शुक्लपक्षं मुक्त्वेत्यर्थः 'अंधयारपक्खं अयमाणे' अन्धकारपक्षमयन् प्राप्नुवन् अन्धकारपक्षे प्रविशन्नित्यर्थः 'चंदे' चन्द्रः ‘चत्तारियबालाई मुहत्तसयाई' चत्वारि द्विचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्त शतानि, 'छायालिसंच बायद्विभागे' षट्चत्वारिंशतंच द्वाषष्टि भागान् ‘मुहुत्तस्स' एकस्य मुइतस्य (४४२/४६) कानित्याह-'जाई' यान् यावत् 'चंदे'चन्द्रः 'रज्जई' रज्यते रक्तो भवति राहु विमानेनाऽऽवृतो भवति, 'तं जहा' तद्यथा-'पढमाए' प्रथमायां कृष्णप्रतिपल्लक्षणायां 'पढमं भागं' प्रथम भागम् , 'बितियाए' द्वितीयायां बितियं द्वितीयंभागम्, 'जाव' यावत् तृतयोयां तृतीयं भागम् , एवं क्रमेण चतुर्दश्यां चतुर्दशं भागं 'पण्णरसीए पञ्चदश्याममावास्यायां 'पण्णरसमं भागं' यावत् चन्द्रो राहुविमानेन आवृतो भवति सर्वात्मना अदृश्यों भवतीति भावः । उपसंहारमाह-‘एवं खलु' इत्यादि, ‘एवं' एवम् अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण खलु 'दोसिणा पक्खाओ' ज्योत्स्नापक्षापेक्षया 'अंधयारपक्खे' अन्धकारपक्षे कृष्णपक्षे 'अंधयारे' अन्धकारः 'बहू आहिए' बहुः-अधिक आख्यातः । अयं भावः अन्धकारपक्षेऽमावास्यायां योऽन्धकारः स ज्योत्स्नापक्षादधिको भगवतीत्यतः ज्योत्स्ना पक्षादन्धकारपक्षेऽन्धकार प्रमूत आख्यातः 'तिवएज्जा' इति वदेत्-कथयेत् स्वशिष्येभ्यः पुनगौ तमस्तदाधिक्य विषये पृच्छति-'ता केवइएणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'केवइएणं' कियत्कः कियत्परिमितः खलु 'अंध Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ चन्द्रप्रतिषे 'यारपक्खे' अन्धकारपक्षे 'अंधयारे ' अन्धकारः 'बहुआहिए' बहुराख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवान् ! भगवानाह - 'परित्ता' इत्यादि, 'परित्ता' परिताः परिमिता 'असंखेजा भागा' असंख्येया भागाः सोऽन्धकारः परिमितः संख्येयभागपरिमितोऽधिको भवतीति भावः ॥सू० १ ॥ इति श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल व्रतिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रप्रप्तिप्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायां चतुर्दशं प्राभृतं समाप्तम् ॥१४॥ ॥ अथ पञ्चदशं प्राभृतम् ॥ व्याख्यातं चतुर्दशं प्राभृतम् साम्प्रतं पञ्चदशं प्रभृतं व्याख्यायते, अस्य पूर्व प्राभृतेनायं सम्बन्धः चतुर्दशे प्राभृते ज्योत्स्नाऽन्धकारयोः परस्परमाधिक्यं प्रतिपादितम्, तत्प्रसङ्गादत्रायमधिकारः - पूर्वमादौ विषयसंगृहप्रकरणे 'केय सिग्धगई वृत्ते' कः शीघ्रगतिरुक्तः, इति प्रोक्तमित्यत्र चन्द्रसूर्य ग्रहगणनक्षत्र तारारूपाणां मध्ये कः कस्मात् शीघ्रगतिरिति प्रतिपादयिषुः प्रथमं सूत्रमाह - 'ता कहते सिग्धगई' इत्यादि । मूलम् – 'ता कहं ते सिग्घगई वत्थू आहियं ! तिवज्जा, ता एएसिणं चंदिम सूरिय गह गण णक्खत्त तारारूवाणं चंदेहिंतो सूरिया सिग्धगई, सूरिएहिंतो गहा सिग्धगई गर्हितो णक्खत्ता सिग्घगई, णक्खत्तेहिंतो तारा सिग्घगई । सव्वष्पगई चंदा, सव्वसिग्घ ईतारा । ता एग मेणं मुहुत्तेणं चंदे केवइयाई भागसयाइ गच्छइ ! ता जं जं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ तस्स तस्स मंडलपरिक्खेवस्स सत्तरस अट्ठसट्ठि भागसयाई गच्छइ, मंडलं सयसहस्सेणं अद्वाणउइ सएहिं छेत्ता । ता एगमेगेणं मुहुत्तेणंare केवइयाई भागसयाई गच्छइ । ता जं णं मंडळं उवसंकमित्ता चारं चरइ तस्स तस्स मंडल परिक्खे बस्स अट्टारसती साइं भागासयाई गच्छइ मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाइस एहिं छेत्ता । ता एगमेगेगं मुहुतेणं णक्खत्ते केवइयाई मंडलसयाई गच्छइ । ताजं जं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ तस्स : तस्स मंडलपरिक्खेवस्स अट्ठारस पणतीसाई भागसयाई गच्छर, मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउइ सएहिं छेत्ता ॥ सू० १ { छाया - तावत् कथं ते शोघ्रगतिवस्तु आख्यातम् ? इति वदेत् । तावत् एतेषां खलु चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां चन्द्रेभ्यः सूर्या शीघ्रगतयः, सूर्येभ्यो ग्रहा शीघ्रगतयः, ग्रहेभ्यो नक्षत्राणि शीघ्रगतोनि, नक्षत्रेभ्यस्ताराः शीघ्रगतयः, सर्वाल्पगतयश्चन्द्राः, सर्व शीघ्रगतयस्ताराः तावत् एकैकेन मुहूर्त्तेन चन्द्रः कियन्ति भागशतानि गच्छति १ ! Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १५ सू. १ ज्योतिष्काणां शीघ्रगतिनिरूपणम ५९० तावत् यद् यद् मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तस्य तस्य मण्डलपरिक्षेपस्य सप्तदश अष्ट षष्ठानि भागशतानि गच्छति, मण्डल शतसहस्रेण अष्टानवति शतैपिछत्त्वा । तावत् पकैकेन मुहर्तन सूर्यः कियन्ति भागशतानि गच्छति ? तावत् यद् यद् मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तस्य तस्य मण्डलपरिक्षेपस्य अष्टादश त्रिशानि भागशतानि गच्छति मण्डलं शतसहस्रेण अष्टानवति शतैश्छित्त्वा । तावत् एकैकेन मुहूर्त्तन नक्षत्रं कियन्ति भागशतानि गच्छति ? तावत् यद् यद् मण्डलमुपसंक्रभ्य चारं चरति तस्य तस्य मण्डलपरि क्षेपस्य अष्टादश पञ्च निशानि भागशतानि गच्छति मण्डलं शतसहस्रेण अष्टानवतिशतैपिछवा। सूत्र १। व्याख्या- 'ता कहते' इति, 'ता' तावत् 'कहं कथं केन प्रकारेण हे भगवन् 'ते' क्या 'बत्थु' चन्द्रसूर्यादिवस्तु 'सिग्धगइ आहियं' शीघ्रगति आख्यातम् ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु । भगवानाह- 'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां वक्ष्यमाणानां खलु 'चंद सूरियगहगणनक्खत्तताराख्वाणं' चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां पञ्चानां ज्योतिष्काणां मध्ये 'चंदेहितो सूरिया सिग्धगई' चन्द्रेभ्यः चन्द्रापेक्षया सूर्याः शीघ्रगतयः सन्ति, 'सुरिएहितो गहा सिग्धगई' सूर्येभ्यो ग्रहाः शीघ्रगतयः सन्ति, 'गहे हिंतो णक्खत्ता सिग्घगई' आहेभ्यो नक्षत्राणि शीघ्रगतानि सन्ति, 'नक्खत्तेहितो तारा सिग्धगई' नक्षत्रेभ्यस्ताराःशीघ्रगतयः सन्ति । एतेषां पञ्चानां ज्योतिष्काणां मध्ये केषां सर्वाल्पा गतिः केषां च सर्व शीघ्रा गतिः ? इत्याह-'सव्वप्पगई' इत्यादि, 'सव्वप्पगई चंदा' सर्वाल्पगतयश्चन्द्राः सन्ति, 'सव्वसिग्धगई तारा' सर्वशाघ्रगतयस्तारा इति । एतमेवार्थ स्पष्टीकरणार्थं पृच्छति-'ता एगमेगेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगमेगणं मुहुत्ते' एकेकेन मुहत्तैन 'चंदे' चन्द्रः 'केवइयाई भाग सयाई' कियन्ति भागशतानि मण्डलस्य 'गच्छइ' गच्छति : भगवानाह-'ता जं जं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जं जं मंडलं' यद् यद् मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तस्स तस्स तस्य तस्य 'मंडलपरिक्खेवस्स' मण्डलसम्बान्धनः परिक्षेपस्य परिधेः 'सत्तरस अट्ठसट्टि भागसयाई' सप्तदश अष्टषष्टान अष्टषष्टयधिकानि भागशतानि अष्टषष्टयधिकाान सप्तदश शतानि (१७६८) भागानां 'गच्छइ' गच्छात, 'मंडलं' मण्डलं मण्डलपरिक्षेपं च 'सयसहस्से' शतसहस्रण एकेन लक्षण 'अट्ठाणउइसएहि' अष्टनतिशतैः अष्टनतिशताधिकेन लक्षण (१०९८००) 'छेत्ता' छित्त्वा विभज्येति । यास्मन् मण्डले चन्द्रश्चारं चरांत तस्य मण्डलस्य भष्टानवातशताधिकंकलक्ष-(१०९८००) भागान् कृत्वा तन्मध्यात् अष्टषष्टयधिक सप्तदशशतभागान् (१७६८) अभिव्याप्य चन्द्रश्चारं चरतात भावः । अत्रेयं भावना- इह प्रथमं चन्द्रस्य मण्डलकालो निरूपणीयः तत्पश्चात् तदनुसारेण मुहूर्तगतिपरिमाणं पारभावनीयम् तत्र पूर्व चन्द्रस्य मण्डलकालः परिभाव्यते-एकस्मिन् युगे चन्द्रः Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिको कासि मण्डलानि चरति ! इति प्रदर्श्यते-एकस्मिन्युगे त्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि (१८३०) अहोरात्राणां भवन्ति एषां मुहर्तकरणार्थ मेते एकस्वाहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् त्रिंशसा गुण्यन्ते जातानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि नवशतानि च (५४९००), एष राशिः अष्टपष्टयधिक सप्तदशशतैः (१७६८) सकलयुगवर्त्यर्द्धमण्डलै र्गुण्यते जाता:-नव कोटयः, सप्तति लक्षाणि, त्रिपष्टिसहस्राणि, द्वे शते च (९७०६ ३२००) एतावन्तो भागाः, एषाम् अष्टनवति शताधिकेन लक्षण (१०९८००) पूर्वप्रदर्शितेन मण्डलपरिक्षेपच्छेदकराशिना भागो हियते, लब्धानि चतुरशोत्यधिकानि अष्टौ शतानि चद्रमण्डलानि भवन्ति एतानि मण्डलानि द्वौ चन्द्रौ संमील्य एकस्मिन् युगे चारं चरतः । एषामर्द्धमण्डलानि द्विगुणानि जायन्ते अष्टषष्टयधिकानि सप्तदशशतानि (१७ ६८) ततो मण्डलकालानयनार्थ त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि अष्टषष्टयधिकैः सप्तदशभिः सबै सकल युगवर्तिभिरर्द्धमण्डलैरष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि अहोरात्राणां लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना(१७६८।१८३०१२) त्रैराशिकगणितरीत्याऽन्त्येन राशिना द्विकरूपेण मध्यो राशिस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतरूपो गुण्यते, जातानि षष्टयधिकानि षदत्रिंशत्सहस्त्राणि (३६६०) एषामाद्येन राशिना अष्टपष्टयधिकसप्तदशशतरूपेण भागो हियते, लब्धौ द्वौ अहोरात्रो, शेषं तिष्ठति चतुर्विंशत्यधिक सतम् (१२४) । एष शेषभागः एकस्याहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् त्रिंशता गुण्यते, जातानि विंशत्यधिकानि सप्तत्रिंशच्छतानि (३७२०), एषामष्टषष्टयधिकसप्तदशशतरूपेण भाजकराशिना (१७६८) भागो ह्रियते, लब्धो द्वौ मुहूत्तौं, शेषं तिष्ठति चतुरशीत्यधिकं शतम् (१८४), ततः शेषीभूतस्य छेदगशेः (१७४), छेदकराशेश्च (१७६८) अष्टकेनापवर्तना क्रियते, जातश्छेद्यो राशिस्त्रयोविंशतिः (२३) छेदकराशिश्च एकविंशत्यधिके द्वे शते (२२१) तत आगतम् द्वौ अहोरात्रौ एकस्य चाहोरात्रस्य द्वौ मुहूर्तों, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशति रेकविंशत्यधिकद्विशतभागाः (२।२२३ । एतावता कालेन चन्द्रो द्वे अर्द्धमण्डले परिपूर्ण इतिएक परिपूर्ण मण्डलं चरतीति । इत्येवं मण्डलकालपरिज्ञानं कृतम् , साम्प्रतमेतदनुसारेण मुहर्तगतिपरिमाणं विचार्यते तत्र मण्डलकाले यौ द्वौ अहोरात्रौ तौ मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्येते, जाताः षष्टि मुहूर्ताः (६०) तत एषु यो उपरितनी द्वा मूहूतौ तौ प्रक्षिप्येते जाता द्वाषष्टिः (६२) मुहूर्ताः । एते सवर्णनार्थमेकविंशत्यधिकाभ्यां द्वाभ्यां शताभ्यां (२२१) गुण्यन्ते, जातानि द्वयुत्तरसप्तशताधिकानि त्रयोदश सहस्राणि (१३७०२), एषु चोपरितनास्त्रयोविंशतिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पञ्चविंशत्युत्तरसप्तशताधिकानि त्रयोदश सहस्राणि (१३ ७२५) । तत् एकमण्डलकालगतमुहूर्तसत्कैकविंशतिशतद्वयभागानां परिमाणम् । ततस्त्रैराशिकगणितावसरः प्राप्तः तथाहि-यदि पञ्चविंशत्युत्तर सप्त शताधिकैत्रयोदशभिः सहस्त्रैः-एक Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिप्रकाशिकाटीका प्रा. १५. सू. १ ज्योतिष्काणां शीघ्रगतिनिरूपणम् ५९९ विंशत्यधिकशतद्वयभागानां मण्डलभागाः भष्टनकलि शताधिकैकलक्षप्रमिता लभ्यन्ते तदा एकेन मुहर्तेन ते कति लभ्यन्ते ? राशि त्रयस्थापना- ११३७२५।१०९८००।१॥ इह आधो राशि मुहूर्तगतकविंशत्यधिकशतद्वयभागरूपः (२२१) ततः सवर्णनार्थमन्त्यो राशि रेककरूप एकविंशत्यधिकशतद्वयेन (२२१) गुण्यते जातास्तावानेव एकविंशत्यधिके द्वेशते (२२१) ताभ्यां मध्यो राशिर्गुण्यते, जाते हे कोट्यौ, द्विचत्वारिंशल्लक्षाः, पञ्चषष्टिः सहस्राणि, अष्टौ शतानि (२४२६५८००) तेषामान राशिना पञ्चविंशत्युत्तर सप्तशताधिक त्रयोदश,सहलरूपेण (१३७२५) भागो हियते, लब्धानि सप्तदशशतानि अष्टषष्टयधिकानि (१७६८), एतावतो भागान् यत्र तत्र वा मण्डले चन्द्र एकेन मुहूर्तेन गच्छति । एतत् मन्डलकालानुसारेण मुहर्तगति परिमाणं जातमिति । अथ सूर्यग तिसूत्रमाह-'ता एगमेगेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन प्रतिमुहूर्तेन 'सरिए' सूर्यः 'केवइयाई' कियन्ति 'भागसयाई' भागशतानि 'गच्छइ' गच्छति ? भगवानाइ-'ता' जं जं' इत्यादि 'ता' तावत् सूर्यः जं जं मंडलं' यद् यद् मण्डलं 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तस्स तस्स' तस्य तस्य 'मंडलपरिक्खेवस्स' तत्तन्मण्डलसम्बन्धिनः परिक्षेपस्य परिधेः 'अट्ठारसतीसाई भागसयाई' त्रिंशदधिकानि अष्टादश भागशतानि (१८३०) 'गच्छइ' गच्छति, तानि च 'मंडलं' एक मण्डलं 'सयसहस्सेणं अट्ठाणउइसएहि' शतसहस्रेण लक्षण अष्टानवतिशतैः (१०९८००) अष्टानवति शताधिकेन एकेन लक्षणेत्यर्थः । 'छेत्ता' छित्वा विभज्य तत्सम्बन्धीनि विज्ञेयानि मण्डलस्य अष्टानवति शताधिकैकलक्षभागान् कृत्वा तन्मध्यात् त्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि (१८३०) भागानां सूर्यो गच्छतीति भावः । तदेव गणितेन प्रदश्यते, तथाहिअत्रापि त्रैराशिकं कर्त्तव्यम् सूर्यश्चन्द्राभ्यां द्वे अर्द्धमण्डले इति एकं परिपूर्णमण्डलं गच्छति, ततो द्वयोर्दिनयोः षष्टि मुहूर्ता भवन्तीति यदि षष्टि महत्तैः अष्टानवति शताधिकैकलक्षमण्डल भागा लभ्यन्ते तदा एकेन मुहूर्तेन कति भागा लभ्यन्ते ? राशित्रय स्थापना-६०।१०८००।११ अत्रान्त्येन राशिना मध्य राशि गुण्यते जातस्तावानेव (१०९८००)। ततस्तस्यायेन राशिना षष्टि लक्षणेन भागो हियते, लब्धानि त्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि (१८३०) एतावतो भागान् मण्डलस्य सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति । ___ अथ नक्षत्रगति सूत्रमाह-'ता एगमेगेणं इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगमेगेणं मुहुचेणं' एकैकेन मुहूर्तेन ‘णक्खत्ते' नक्षत्र 'केवइयाइं भागसयाइं गच्छइ' कियन्ति भागशतानि गच्छति ! भगवानाह -'ता जं जं इत्यादि, 'ता तावत् 'जं जं मंडलं' यद् यद मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य नक्षत्रं 'चारं चरइ' चारं चरति 'तस्स तस्स मंडलपरिक्खेवल्स' Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रातिर तत्तन्मण्डलसम्बन्धिनः परिक्षेपस्य परिधेः 'अट्ठारसपणतीसाइं 'भागसयाई' पञ्चत्रिंशदधिकानि मष्टादश भागशतानि (१८३५) 'गच्छइ' गच्छति, कथम् ? 'मंडलं' एकं मण्डलं 'सयसहस्सेणं अट्ठाणउइसएहिं' शतसहस्रेण अष्टानवतिशतैः 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य तन्मध्यात् पूर्वोतानि भागशतानि नक्षत्रं गच्छति, । अत्रापि प्रश्वमं मण्डल कालो निरूपणोयो भवेत् येन तदनुसारेणैव मुर्तगतिगरिमाणभावना ., क्रियते । तत्र मण्डलकालप्रमाणविचारणायां त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि पञ्चत्रिशदधिकाष्टादशशतैः सकल युगमाविभिरर्द्धमण्डलैः त्रिंशदधिकानि अष्टादश रात्रिन्दिवशतानि सकल युगसम्बन्धीनि लभ्यते, तदा द्वाभ्यामर्द्ध मण्डलाभ्यामिति एकैकेन परिपूर्णेन मण्डलेन कति रात्रिन्दिवानि लभ्यते ! तदा राशित्रयस्थापना ।१८३५।१८३०।२। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणने जायन्ते षष्टयधिकानि षट्त्रिंशच्छतानि (३६६०), तत आयेन राशिना (१८३५) भागो हियते, लब्ध मेकं रात्रिन्दिवम् (१) । तिष्ठन्ति शेषाणि पञ्चविंशत्यधिकानि अष्टादशशतानि (१८२५), ततो मुहर्तकरणार्थ मेतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्चाशदुत्तर सप्तशताधिकानि चतुष्पञ्चाशत्सहवाणि (५४७४०), तेषां पुनस्तेनैव राशिना पञ्चत्रिंदशधिकाष्टादशशतरूपेण भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः (२९), ततः शेषच्छेद्यराशेः छेदकराशेश्च पञ्चकेनापवर्तना क्रियते जात उपरितनो राशिः सप्तोत्तराणि त्रीणि शतानि (३०७), छेदक राशिरधस्तनः सप्तषष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६७) तत आगंतम् एकं रात्रिन्दिवम्, एकस्य च रात्रिन्दिवस्य एको त्रिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूत्र्तस्य सप्तोत्तराणि त्रीणि शतानि सप्तषटयधिकत्रिंशत् भागानाम् (१।२९।२००)। एतत् मण्डलकालप्रमाणं जातम् । अथैतदनुसारेणैव मुहूर्त गति परिमाणं परिभाव्यते-मण्डलकालपरिमाणस्य यो राशिरायातस्तत्र एकस्य दिनस्य त्रिंशन्मुहर्ताः करणीयाः, तेषु ये उपरितना एकोनत्रिंशन्मुहूर्तास्ते प्रक्षिप्यन्ते जाता एकोनषष्टिर्मुहर्ताः (५९) ततस्ते सवर्णनार्थमधः स्थितैः सप्तषष्टयधिकै त्रिभिः शतैः र्गुण्यते, जातानि एकविंशति सहस्राणि त्रिपञ्चाशदधिकानि षट्शतानि (२१६५३), एषु चोपरितनानि सप्तोत्तराणि त्रीणि शतानि (३०७) प्रक्षिप्यन्ते, जातानि-एकविंशतिसहस्राणि षष्ट्यधिकानि नवशतानि (२१९६०) । ततस्त्रैराशिकं क्रियते यदि मुर्तगत सप्तषष्टयधिक त्रिशत भागा नामेकविंशति सहनैः षष्टयधिकैवभिः शतैरेकमष्टानवति शताधिकं शतसहस्रं मण्डलभागानां लभ्यते तदा एकेन मुहूर्तेन कति भागा लभ्यते ? राशित्रयस्थापना (२१९६०।१०९८०.। अत्रायो राशिर्मुहूर्तगतसप्तषष्टयधिकत्रिशतभागैर्गुणनेन निष्पन्नस्ततोऽन्त्यस्य राशिरपिएभिर्गुणनं प्राप्यते ततः सप्तषष्टयधिकै स्त्रिभिः शतैः (३६७), अन्त्यो राशि रेककरूपो गुण्यते जातानि तान्येव सप्तषष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६७), अथ एभिः सप्तषष्टयधिकै त्रिभिः शतैः Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका. प्रा. १५ सू. १ ज्योतिष्काणां शीघ्रगतिनिरूपणम् ६०१ मध्यो राशिः (१०९८००) गुण्यते जाताश्चतस्रः कोट्यः, द्वे लक्षे, षण्णवतिः सहस्राणि, षट्शतानि (४०२९६६००), एषामाघेन राशिना षष्टयुत्तर नवशताधिकैकविंशति सहस्ररूपेण (२१९६०) भागो हियते, लब्धानि यथोक्तानि अष्टादश शतानि पञ्च त्रिंशदधिकानि (१८३५) एतावतो भागान्नक्षत्रं प्रतिमुहत्तं गच्छतीति सिद्धम् । तदेवमागतम्-चन्द्रो यत्र तत्र वा मंडले एकैकेन मुहूर्तन मण्डलपरिक्षेपस्य अष्टषष्टयधिकानि सप्तदशशतानि (१७६८) भागानां गच्छति, सूर्य स्त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) भागानां गच्छति, नक्षत्रं च पञ्चत्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३५) भागानां गच्छति ततएव सूत्रे प्रोक्तम्-चन्द्रेभ्यः सूर्याः शीघ्रगतयः, सूर्येभ्यो नक्षत्राणि शीघ्रगतीनि । ग्रहास्तु वक्रत्वातिचारत्वमार्गित्वकारणैरनियत गति प्रस्थानस्ततो न तेषामुक्तप्रकारेण गतिप्रमाणप्ररूपणा कृता । ग्रहा यदि मार्गिणो भूत्वा गच्छन्ति तदा साधारणगत्या सूर्येभ्यः शीघ्रगतय एव भवन्ति सूत्रवाक्यप्रामाण्यात् । नक्षत्रेभ्यस्ताराः शीघ्रगतय इत्यपि सूत्रप्रामाण्याद् बोध्यम् । उक्तञ्च चन्द्रसूर्यनक्षत्रगतिविषये "चंदेहिं सिग्धयरा, रा रेहिं होंति नक्खत्ता । अणियय गइय पत्थाणा हवंतिा सेसा गहा सव्वे ॥१॥ अट्ठारस, पणतीसे भागसए गच्छइ मुहुत्तेण । नक्खत्तं चंदो पुण, सत्तरस सए उ अडसटे ॥२॥ अट्ठारस भागसए, तीसे गच्छइ रवी मुहुत्तेणं । नक्खत्त सीम छेदो, सो चेव इहंपि नायव्वो ॥३॥ छाया-चन्द्रेभ्यः शीघ्रतरा सूर्याः सूर्येभ्यो भवन्ति नक्षत्राणि । अनियतगतिप्रस्थानाः भवन्ति शेषा ग्रहाः सर्वे ॥१॥ अष्टादश पञ्चत्रिंशानि भागशतानि गच्छति मुहूर्तेन । नक्षत्रं चन्द्रः पुनः सप्तदशशतानि तु अष्टषष्टानि ॥२॥ अष्टादशभागशतानि त्रिंशानि गच्छति रविर्मुहूर्तेन । नक्षत्रसीमाछेदः सएव इहापि ज्ञातव्यः ॥३॥ इति । अत्र पूर्व नक्षत्रप्ररूपणा कृताऽतो नक्षत्रगतिपरिणामे यः सीमा छेदः अष्टानवति शताधिक शतसहस्ररूपः कथितः स एव इहापि चन्द्र सूर्यगति परिमाणेऽपि ज्ञातव्यः, पूर्वोक्तच्छेदराशिना चन्द्र सूर्यगति भागा अपि प्रविभक्ता इति भावार्थः । सू० ॥१॥ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे , मण्डलकाल परिमाण-मुहर्तगतिपरिमाणकोष्टकम् । १०९८०० नामानि एषां भागानां मध्यात् चन्द्रादयः कति भागान् । गच्छन्ति एकस्मिनू युगे चन्द्रादयः, एक स्मिन् | एकस्मिन् परिपूर्णे मंडले कति मण्डलानि परि । । युगेअर्द्ध अर्थात् अर्द्ध मण्डल पूरयन्ति परिपूर्णानि मण्डलानि द्वये चन्द्रादीनां कति कुर्वति, कति भवन्ति ___ समया भवन्ति, - चन्द्रः १७६८ ८८४ १७६८ | दिनानि मुहुर्ताः मु. भा. सूर्यः । १८३० ९१५ १८३० । । नक्षत्रम् | १८३५ - तदेवं पूर्व चन्द्रादोनां गति रुक्ता, साम्प्रतमुक्तस्वरूपमेव चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभागविषयं विशेषं निर्धाग्यति–ता जयाणं चंदे' इत्यादि । मूलम्-जयाणं चंदं गइ समावण्णं सूरे गइ समावण्णे भवइ से णं गइ मायाए केवइयं विसेसेइ ? बावट्ठिभागे विसेसेइ। ता जयाणं चंदं गइ समावण्णं णक्खत्ते गइ समावण्णे भवइ से णं गइमायाए केवइयं बिसेसेइ ? ता सत्तहिँ भागे विसेसेइ । ता जया णं सूरं गइ समावण्णं णक्खते गइसमावण्णे भवइ से णं गइमायाए केवइयं विसेसेइ । ता पंचभागे विसेसेइ । ता जयाणं चंदं गइसमावण्णं अभीईणक्खत्ते गइसमावण्णे पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ पुरत्थिमाए भागाए समासाइत्ता णव मुहुत्ते सत्तावोसं च सत्तट्टिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जोएइ जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरिट्टित्ता विप्पजहड, विगय जोई यावि भवइ । ता जयाणं चंदं गइसमावणं सवणे णक्खत्ते गइसमावण्णे पुरस्थिमाए भागाए समासाएइ, पुर० समासाइत्ता तीसं मुहत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जोइत्ता अणुपरियट्टइ अणुपरियट्टित्ता विप्पजहइ विगयजोई भवइ । एवं एएणं अभिलावेणं णेयव्वं पण्णरसमुहुत्ताई, तीसं मुहुत्ताइं, पणयाली समुहुत्ताई [जस्स जाइं मुहत्ताई तस्स ताई] भाणियव्याइं जाव उत्तरासाढा । ता जयाणं चंदं गइ समावणं गहे इसमावण्णे पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ, पुर० समासाइत्ता चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोइत्ताःजोयंअणुपरियट्टइ, अणुपरियट्टित्ता विप्पजहइ, विगयजोई यावि भवड । ता जयाणं सूरियं गइसमावण्णं अभीईणक्खत्ते गइसमावण्णे पुरथिमाए भागाए समासाएइ, समासाइत्ता चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरिएणं सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जोइता जोयं अणुपरियट्टइ, अणुपरियट्टित्ता विप्पजहई विगय जोई यावि भवइ । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटोका प्रा. १५. सू. २ चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभागनिरूपणम् ६०३ एवं अहोरत्ता छ एक्कवीसं मुहुत्ता य, तेरस अहोरत्ता बारस मुहुत्ताय वीसं अहोरता तिणि मुहुत्ताय सव्वे [जस्सजे तस्स ते] भणियव्वा जाव जयाणं सूरियं गइसमावण्णं उत्तरा साढाणक्खत्त गइसमावणे पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ समासाईत्ता वीसं अहोर तिष्णिय मुदुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएइ जोइता जोयं अणुपरियट्टा, अणुपरियट्टित्ता fatures विगयजोई यावि भवइ । ता जयाणं सूरियं गइसमावण्णं गहे गइसमावणे पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ, समासाइत्ता सूरिएण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइता जो अणुपरिट्ट, अणुपरियट्टित्ता विप्पजहइ विगयजोई यावि भवइ || सूत्र ||२|| छाया - तावत् यदा खलु चन्द्र गतिसमापन्नं सूर्यः गतिसमापन्नो भवति स खलु गतिमात्रया कियत्कं विशेषयति ? द्वाषष्टि भागान् विशेषयति । तावत् यदा खलु चन्द्र गतिसमापन्नं नक्षत्रं गतिसमापन्नं भवति तत् खलु गतिमात्रया कियत्कं विशेषयत ? तावत् सप्तषष्टिभागान् विशेषयति । तावत् यदा खलु सूर्य गतिसमापन्नं नक्षत्र गति - समापन्नं भवति स खलु गतिमात्रया कियत्कं विशेषयति ? तावत् पञ्च भागान् विशेषर्यात | तावत् यदा खलु चन्द्रं गतिसमापन्नं अभिजिन्नक्षत्रं गतिसमापन्नं पौरस्त्याद् भागात् समासादयत पौरस्त्याद् भागात् समासाद्य नवमुहूर्त्तान् सप्तविंशतिं च सप्तर्षाष्टभागान् मुहूर्त्तस्य चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगं परिवत्र्तयति, योग परिवर्त्य चित्रजहाति विगतयोगी चापि भवति । तावत् यदा खलु चन्द्रं गतिसमापन्नं श्रवणो नक्षत्रं गतिसमापन्न पौरस्त्पाद भागात् समासादयति पौर० समासाद्य त्रिशतं मुहूर्त्तान् चन्द्रेण सार्द्धं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा अनुपरिवर्त्तयति, अनुपरिवर्त्य विप्रजहाति विगतयोगी चापि भर्वात । एवम् एतेनाभिलापेन ज्ञातव्यं पञ्चदश मुहूर्त्तान् त्रिशतं मुहूर्त्तान् पञ्चचत्वरितान् [यस्य ये मुहर्त्ता तस्यते] भणितव्याः यावत् उत्तराषाढाः तावत् यदा खलु चन्द्रं गतिसमापन ग्रहः गतिसमापन्नः पौरस्त्याद् भागात् समासादयति, पौर० समासाद्य चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति, युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति अनुपरिवर्त्य विप्रजहाति, विगत योगी चापि भवति । तावत् यदा खलु सूर्य गतिसमापन्नम् अभिजिन्नक्षत्रं गतिसमापन्नं पौरस्त्याद् भागात् समासादयति, समासाद्य चतुरः अहोरात्रान् षट् च मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्द्धं योग युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, अनुपरिवर्त्य विप्रजहाति विगतयोगी चापि भवति । एवम् अहोरात्रान् षट् एकविंशति मुहूर्त्ताश्चि, त्रयोदश अहोरात्रान् द्वादश मुहूर्त्ताश्च विशतिम् अहोरात्रान् त्रीन् मुहूर्त्ताश्च सर्वे [यस्य ये तस्य ते] भणितव्याः यावत् यदा खलु सूर्यं गतिसमापन्नम् उत्तराषाढानक्षत्रं गतिसमापन्नं पौरस्त्याद् भागात् समासादर्यात, समासाद्य विंशतिमहोरात्रान् त्रीश्च मुहूर्तान् सूर्येण सार्द्धं योगं युनक्ति, युक्त्वा योगमनु परिवर्त्तयति, अनुपरिवर्त्य विप्रजहाति विगतयोगी चापि भवति । तावत् यदा खलु सूर्यं गतिसमापन्नं ग्रहः गति समापन्नः पौरस्त्याद् भागात् समासादयति, समासाद्य सूर्येण सार्द्धं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगमनुपरिवत्र्त्तयति, अनुपरिवर्त्य विप्रजहाति विगतयोगो चापि भवति । सूत्र ॥२॥ व्याख्या- 'ता जया णं' इति ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'चंद गइसमाबण' चन्द्रं गतिसमापन्नं गतिप्राप्तमपेक्ष्य 'सूरिए' सूर्यः ' गइसमावण्णे भवइ' गतिसमापन्न व Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६०४ चन्द्रप्रक्षप्तिस्त्रे विवक्षितगतिप्राप्तो भवति-प्रतिमुहूर्त चन्द्रगतिमपेक्ष्य यदा सूर्यगतिश्चिन्त्यते इति भावः तथा 'से णं' स खलु सूर्य 'गइमायाए' गतिमात्रया एक मुहूर्तगतिपरिमाणेन 'केवइय' कियत्कं कियतो भागान् 'विसेसेई' विशेषयति ? अयं भावः-एकेन मुहूर्तेन चन्द्राक्रान्तेभ्यो भागेभ्यः कियतोऽधिकान् भागान् सूर्य आक्रामतीति प्रश्नः । भगवानाह- बावट्ठिभागे विसेसेइ द्वाषष्टिभागान् विशेषयति, कथमित्याह-चन्द्र एकेन मुहूर्तेन अष्टषष्टयधिकानि सप्तदश भागशतानि (१७६८) गच्छति, सूर्यश्च त्रिंशदधिकानि अष्टदशशतानि (१८३०) गच्छति ततो भवति चन्द्रात् सूर्यस्य द्वाषष्टिभागप्रमितो गतिविषयो विशेष इति । ___अथ चन्द्रमपेक्ष्य नक्षत्रगतिविषयं सूत्रमाह 'ता जया गं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'चंदं गइसमावण्णं' चन्द्रं गति समापन्नमपेक्ष्य 'नक्खत्ते' नक्षत्रं 'गइसमावण्णे भवइ' गतिसमापन्नं भवति प्रतिमुहूत्तै चन्द्रगतिमपेक्ष्य यदा नक्षत्रगतिर्विचार्यते तदा 'सेणं' तत् खलु नक्षत्रं 'गइमायाए' गतिमात्रया गतिप्रमाणेन 'केवइयं विसेसेइ' कियत्कं कियतो भागान् विशेषयति चन्द्रगतिपरिमाणान् नक्षत्रगतिः कियती विशेषाधिका भवतीतिभावः मगवानाह-'ता' तावत् 'सत्तर्टि भागे विसेसेइ' सप्तषष्टिभागान् विशेषयति-चन्द्राक्रन्तगतिभागपरिमाणात् नक्षत्रगतिभागपरिमाणं सप्तषष्टिभागप्रमितमधिकं भवतोति भावः । तथाहि-नक्षत्रं यद् एकेन मुहूर्तेन पञ्च त्रिंशदधिकानि अष्टादशभागशतानि (१८३५) गच्छति, चन्द्ररतु अष्टषष्टयधिकानि सप्तदशभागशतान्येव (१७६८) गच्छतीति, ततः संपचते चन्द्रनक्षत्रयोः सप्तषष्टिभागकृतो विशेष इति । अथ सूर्यमपेक्ष्य नक्षत्रगतिपरिमाणं चिन्त्यते-'ता जया णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरियं गइसमावणं' सूर्य गतिसमापन्नमपेक्ष्य 'णक्खत्ते गइ समाण्णे मवई' नक्षत्रं गतिसमापन्नं भवति ‘से णं' ततः खलु नक्षत्रं 'गइमायाए' गतिमात्रया गति परिमाणेन 'केवइयं' कियत्कं कियतो भागान् 'विसेसेइ' विशेषयति सूर्यगतिभागानपेक्ष्य नक्षत्रगतिभागाः कियन्तोऽधिका भवन्तीति भावः ? भगवानाह-'ता' पंचभागे विसेसेइ तावत् पञ्चभागान् विशेषयति सूर्याक्रान्तगतिभागेभ्यो नक्षत्राकान्तगतिभागाः पञ्च अधिका भवन्तीति भावः । कथमित्याह सूर्य एकेन मुहूर्तेन त्रिंशदधिकानि अष्टादशभागशतानि (१८३०) गच्छति, नक्षत्रं च पञ्चत्रिंशदधिकानि अष्टादशभागशतानि (१८३५) गच्छतीति भवति तयोः परस्परं पञ्चभागात्मको विशेष इति । __ अथ चन्द्रेण सहाभिजिन्नक्षत्रस्य योगमाह-'ता जया णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'चंदं गइसमावणं' चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्य 'अभिई णक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं 'गइसमावण्णे' गतिसमापन्नं भवति तदा 'पुरथिमाए भागाए' पौरस्त्याद् भागात्, प्रथमतोऽभिजिन्नक्षत्रं चन्द्रं 'समासाएइ' समासादयति, 'समासाइत्ता' समासा च णव Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा १५ सू.२ चन्द्रसूर्यनक्षात्रणां परस्परं मण्डलभाग निरूपणम् ६०५ मुहुत्ते' नवमुहूर्तान् ‘मुहत्तस्स' एकस्य च मुहूर्तस्य 'सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे' सप्तविंशतिं च सप्तषष्टिभागान् यावत् 'चंदेण सद्धिं' चन्द्रेण साई 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति-करोति । अस्य भावना प्रागेव कृता । एतावत्कालं 'जोयं जोयत्ता' योगं युक्त्वा योगं कृत्वा पर्यन्तसमये 'जोयं अणुपरियट्टई' योगमनुपरिवर्तयति ततो निवर्त्य श्रवण नक्षत्रस्य योगं समर्पयतीति भावः । 'जोयं अणुपरियट्टित्ता' योगमनुपरिवर्त्य 'विप्पजहाई' विप्रजहाति स्वेन सह योगं परित्यजति, एतावदेव न किन्तु 'विगयजोई यावि भवइ' विगतयोगि चापि भवति तदा अभिजिन्नक्षत्रं चन्द्रयोगरहितं भवतीतिभावः 'ता जयाणं' इत्यादिना श्रवणेन सह चन्द्रस्य योगमाह-'ता' तावत् 'जयाणं' यदा खलु 'चंदं गइ समावणं' चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्य 'सवणे णक्खत्ते' श्रवणनक्षत्रं 'गइ समावण्णे' गतिसमापन्नं गतिप्राप्तं सत् प्रथमतः 'पुरस्थिमाए भागाए' पौरस्त्याद् पूर्वभागेन चन्द्रं 'समासाएइ' समासादयति प्राप्नोति 'समासाएत्ता' चन्द्रं समासाद्य तत्र चन्द्रेण सह तीसं मुहुत्ते' त्रिंशतं मुहूर्तान् श्रवणस्य समक्षेत्रत्वेन त्रिंशन्मुहर्तात्मिकत्वात् त्रिंशन्मुहूर्तपर्यन्तं'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्दै योगं युनक्ति-करोति 'जोयं जोइत्ता' त्रिंशन्मुहूर्तान् यावत् योगं कृत्वा 'जोयं अणुपरियट्टई' योगमनुपरिवर्त्तयति श्रवणनक्षत्रं चन्द्रात्परावर्तते 'जोयं अणु परियट्टित्ता' योगमनुपरिवर्त्य श्रवणनक्षत्रं चन्द्रेण सह योगं विमुच्य 'विप्पजहाइ' विप्रजहति चन्द्रं त्यजति, एतावदेव न तदा श्रवणनक्षत्रं 'विगयजोई यावि भवइ' विगतयोगि-चन्द्रयोगरहितं चापि भवति धनिष्ठानक्षत्रस्य चन्द्रयोगं समर्पयतीतिभावः । अथाग्रेडतिदेशमाह ‘एवं' इत्यादि, ‘एवं' एवम् पूर्वप्रदर्शितविधिवत् 'एएणं अभिलावेणं' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन अभिलापेन सूत्रालापकेन ‘णेयव्वं' ज्ञातव्यम् । नक्षत्राणि मुहूर्तानाश्रित्य त्रिप्रकारकाणि सन्तीति यानि नक्षत्राणि यावन्मुहूर्तात्मकानि तेषां तावन्मुहूर्तात्मको योगो वाच्यः, तथाहि-'पण्णरस मुहुत्ताई' पञ्चदशमुहूर्तात्मकानि शतभिषग-भरण्याद्री-ऽश्लेषा स्वाति-ज्येष्ठाख्यानि षड् नक्षत्राणि, एषां पञ्चदशमुहूत्तत्मिको योगश्चन्द्रेण सह वाच्यः । 'तीसइ मुहुत्ताई' यानि च त्रिंशन्मुहूर्तात्मकानि-श्रवण-धनिष्ठा- पूर्वभाद्रपदा-रेवत्याश्विनि कृत्तिका-मृगशीर्ष-पुष्य मघा-पूर्वफाल्गुनी-हस्त-चित्रा-ऽनुराधा-मूल-पूर्वाषाढाख्यानि पञ्चदश नक्षत्राणि, तेषां त्रिंशन्मुहूर्तात्मको योगश्चन्द्रेण सह वाच्यः । तथा 'पणयालीसमुहुत्ताई' पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकानि-उत्तराभाद्रपदा-रोहिणि-पुनर्वसू-त्तराफाल्गुनी -विशाखो-त्तराषाढाख्यानि षड् नक्षत्राणि एषां पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मको योगश्चन्द्रण सह वाच्यः । तत्राभिजिच्छ्वणयोर्योगमुहूर्ताः पूर्व सूत्रे एव प्रदर्शिताः । एवं सर्वाण्यपि नक्षत्राणि क्रभेण 'भाणियब्वाई' Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे भणितव्यानि, आलापकप्रकारस्तु सुगमत्वात् स्वयमूहनीय इति । कियत्पर्यन्तमित्याह 'जाव उतरासाढा' यावत् उत्तराषाढानक्षत्रं तावद् भणितव्यानीति । अथ ग्रहमधिकृत्य योगविचारः क्रियते- 'ता' 'जया णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'चंदं गइसमावणं' चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्य ' गहे ' ग्रहः ' गइ समावण्णे' गतिसमापन्नो भवति तदा स ग्रहः ' पुरत्थिमाए भागाए' पौरस्त्याद् भागात् पूर्वभागेन प्रथमतश्चन्द्रं 'समासाए ' समासादयति 'समासाइत्ता' समासाद्य च 'चं देणं सद्धि' चन्द्रेण सार्द्धं जोयं जोएइ' यथा सम्भवं योगं युनक्ति 'जोय जोइत्ता' योगं युक्त्वा 'जोयं अणुपरियट्ट ' योगमनुपरिवर्त्तयति चन्द्रयोगात् परावर्त्तते 'अणुपरियहित्ता' अनुपरिवर्त्य 'विप्पजहाइ' विप्रजहाति स्वेन सह योगं परित्यजति, किंबहुना विगय जोई यावि भवइ' विगतयोगी योगरहितश्चापि भवति २ । अथ सूर्यमधिकृत्य नक्षत्रयोगो विचार्यते – ' ता जयाणं सूरियं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जयाणं' यदा खलु 'सूरियं' सूर्य ' गइसमावणं' गतिसमापन्नमपेक्ष्य 'अभीईणक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं 'गइसमावण्णे' गतिसमापन्नं भवति तदा तदाभिजिन्नक्षत्रं प्रथमतः 'पुरत्थिमाए - भागाए' पौरस्त्याद् भागात् पूर्वभागतः सूर्यं 'समासारइ' समासादयति प्राप्नोति 'समासाइत्ता' समासाद्य ‘चत्तारि अहोरते' चतुरः परिपूर्णान् अहोरात्रान् पञ्चमस्य चाहोरात्रस्य 'छच्चमुहुत्ते ' षट् मुहूर्त्तान् यावत् 'सूरिएण सद्धि' सूर्येण सार्द्ध 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति एतावत्प्रमाणकालपर्यन्तं सूर्येण सार्द्धमभिजिन्नक्षत्रं चारं चरतीतिभावः 'जोयं जोइत्ता' योगं युक्त्वा षण्मुहूर्त्ताधिकचतुरहोरात्रपर्यन्तं सूर्येण सार्द्धं स्थित्वाऽन्तिमसमये 'जोयं अणुपरियदृइ' योगमनुपरिवर्त्तयति सूर्ययोगात् परावर्तते 'जोयं अणुपरियट्टित्ता' योगमनुपरिवर्त्य श्रवण नक्षत्रस्य योगं समर्प्य 'विप्पजहाइ' विप्रजहाति स्वेन सह योगं परित्यजति, एतावदेव न 'विगयजोईयावि भवइ' विगतयोगि योगरहितं चापि भवति । ' एवं ' एवम् अनेन प्रकारेण यस्य यावन्तोऽहोरात्रादिकास्तावन्तोऽत्र वाच्याः तथाहि - ' अहोरत्ता छ एक्कवीस मुहुत्ताय' अहोरात्राः षट् एक विंशतिश्च मुहूर्त्ता चन्द्रयोगमपेक्ष्य पञ्चदशमुहूर्त्तात्मकानां शतभिषगू- भरण्यार्द्राऽश्लेषा-स्वातिज्येष्ठाख्यानां षण्णां नक्षत्राणां वाच्याः 'तेरस अहोरत्ता बारसमुहुत्ताय' त्रयोदशाहोरात्रा द्वादशमुहूर्त्ताश्च त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकानां श्रवण घनिष्ठा- पूर्वभाद्रपदा - रेवत्यश्विनी - कृत्तिका - मृगशीर्ष- पुष्यमघा - पूर्व फाल्गुनी- हस्त चित्रा - ऽनुराधा-मूल- पूर्वाषाढाख्यानां पञ्चदशानां नक्षत्राणां वाच्याः । 'वीस अहोरता तिष्णिमुहुत्ताय' विंशतिरहोरात्राः त्रयो मुहूर्त्ताश्च पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकानाम् - उत्तराभाद्रपदा-रोहिणी-पुनर्वसु- तराफाल्गुनी विशाखोत्तराषाढाख्यानां षण्णां नक्षत्राणां वाच्याः । अभिजितस्तु अहोरात्रादिकाः पूर्वंसूत्रे एव कथिताः । एवं 'सव्वे भाणियव्वा' सर्वाणि नक्षत्राणि सूर्ययोगमाश्रित्य क्रमेण भणितव्यानि 'जाव' यावत् यावत्पदेन उत्तराषाढापर्यन्तानि । तत्रोत्तरा ६०६ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१५ सू.२ चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभाग निरूपणम् ६०७ षाढानक्षत्राभिलापं सूत्रकारः साक्षात् प्रदर्शयति 'ता जयाणं सरियं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरियं' सूर्यं 'गइ समावण्ण' गतिसमापन्नमपेक्ष्य 'उत्तरासाढाणक्खत्ते उत्तराषाढानक्षत्रं 'गइसमावण्णे' गतिसमापन्नं भवति तदा 'पुरत्थिमाए भागाए' पौरस्त्याद् भागात् उत्तराषाढानक्षत्रं चन्द्रं 'समासाएइ' समासादयति, 'समासाइत्ता' समासाद्य 'वीसं अहोरत्ते' विंशतिमहोरात्रान् एकविंशतितमस्य चाहोरात्रस्य 'तिण्णियमुहत्ते' त्रीन् मुहूर्तान् यावत् 'मूरिएण सद्धिं जोयं जोएइ' सूर्येण सार्द्ध योगं युनक्ति, 'जोयं जोइत्ता' योगं युक्त्वा 'जोयं अणुपरियट्टई' योगमनुपरिवर्त्तयति 'जोयं अणुपरियट्टित्ता' योगमनुपरिवर्त्य 'विप्पजहाई' विप्रजहाति सूर्यं परित्यजति, किंबहुना 'विगयजोई यावि भवई' विगतयोगि चापि भवति योगरहितं भवति । ____ अथ सूर्येण सह ग्रहयोगविचारः क्रियते—'ता जया णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जया ण' यदा खलु 'सूरियं गइसमावण्णं' सूर्य गति समापन्नमपेक्ष्य 'गहे गईसमावण्णे' ग्रहो गति समापन्नो भवति तदा' पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ' पौरस्त्याद् भागात् सूर्यं समासादयति, समासाद्य योगं युक्त्वाऽनुपरिवर्त्य च विप्रजहाति सूर्यं त्यजति विगतयोगी चापि भवतीति स्पष्टम् । सू० ॥ २ ॥ ___पूर्वं चन्द्रसूर्याभ्यां सह नक्षत्रग्रहयोगोऽभिहितः साम्प्रतं चन्द्रादयो नाक्षत्रमासेन कति कति मण्डलानि चरन्तीति प्रतिपादयितुमाह– 'ता णक्खत्तेण मासेणं इत्यादि । मूलम्— 'ता णक्खत्तेणं मासेण चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? ता तेरस मण्डलाई चरइ, तेरस य सत्तट्ठिभागे मंडलस्स । ता णक्खत्तण मासेणं सूरिए कइ मंडलाई चरइ ? ता तेरस मंडलाइं चरइ, चोयालीसं च सत्तद्विभागे मंडलस्स । ता णक्खत्तेणं मासेणं णक्खत्ते कईमंडलाइं चरइ ? ता तेरस मंडलाइं चरइ, अद्ध छीयालीसं च सत्तद्विभागे मंडलस्स । ता चंदेणं मासेणं चंदे कइ मंडलाई चरइ ! ता चोद्दस चउब्भागाइं मंडलाई चरइ एगं च चउव्वीससयभागं मंडलस्स । ता चंदेणं सरिए कइ मंडलाई चरइ ? ता पण्णरसचउब्भागूणाई मंडलाइं चरइ, एगं चउव्वीस सयभागं मंडलस्स । ता चंदेणं मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ ! ता पण्णरस चउब्भागूणाई मंडलाइं चरइ छच्च चउव्वीससयभागे मंडलस्स । ता उउणा मासेणं चंदेकइमंडलाइं चरइ ! ता चोद्दस मंडलाई चरइ, तीसं च एगट्टि भागे मंडलस्स । ता उउणा मासेणं सूरिए कइमंडलाई चरइ ! ता पण्णरस मंडलाइं चरइ । ता उउणा मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ ! ता पण्णरसमंडलाई चरइ, पंचय बावीससयभागे मंडलस्स । ता आइच्चेणं मासेणं चंदे का मंडलाई चरइ । ता चोद्दस मंडलाई चरइ, एक्कारस पण्णरस य भागे मंडलस्स । Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ चन्द्रप्रनप्तित्रे ता आइच्चेणं मासेणं सूरिए कइ मंडलाई चरइ । ता पण्णरस चउभागाहियाई मंडलाइं चरइ । ता आइच्चेणं मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ । ता पण्णरस चउभागाहियाई मंडलाइं पंच य वीससयभागे मंडलस्स चरइ । ता अभिवढिएणं मासेणं सुरिए कइ मंडलाई चरइ । ता सोलस मंडलाई चरइ, तिहिं भागेहिं ऊणगाई दोहिं अडयालेहि सएहि मंडलं छिता । ता अभिवढिएणं मासेगं णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ । ता सोलस मंडलाई चरइ सीतालोसेहि भागेहिं अहियाइं चोदसहि अट्ठासीएहिं मंडलं छेत्ता । सू० ॥३॥ छाया-तावत् नाक्षत्रेण मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तावत् त्रयोदश मण्डलानि चरति त्रयोदश सप्तषष्टिभागान् मण्डलस्य । तावत् नाक्षत्रेण मासेन सूर्यः कति मण्डलानि चरति ? तावत् त्रयोदश मण्डलानि चरति, चतुश्चत्वारिंशतं च सप्तष्टिभागान् मण्डलस्य । तावत् नाक्षत्रेण मासेन नक्षत्र कति मण्डलानि चरति ? तावत् त्रयोदश मण्डलानि चरति, अर्द्ध षट् चत्वारिंशतं च सप्तषष्टिभागान् मण्डलस्य । तावत् चान्द्रेण मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? चतुर्दश चतुर्भागानि मण्डलानि चरति एक व चतुर्विशशतभागं मण्डलस्य । तावत् चान्द्रेण मासेण सूर्यः कति मण्डलानि चरति? तावत् पञ्चदश चतुर्भागोनानि चरति, एकंच चतुर्वि शशतभागं मण्डलस्य । तावत् चान्द्वण मासेन नक्षत्रं कति मण्डलानि चरति १ तावत् पञ्चदश चतुर्भागोनानि मण्डलानि चरति षट् च चतुर्विशशतभागान् मण्डलस्य । तावत् ऋतुना मासेन चन्द्रः कति मण्ड लानि चरेति १ तावत् चतुर्दश मण्डलानि चरति, त्रिशतं च एकषष्टि भागान् मण्डलस्य तावत ऋतना मासेन सूर्यः कति मण्डलानि चरति ? तावत पञ्चदश मण्डलानि चरति । तावत् ऋतुना मासेन नक्षत्र कति मण्डलानि चरति ? तावत् पञ्चदश मण्डलानि चरति पञ्च च द्वाविंशति भागान् मण्डलस्य । तावत् आदित्येन मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तावत् चतुर्दश मण्डलानि चरति, एकादश च पञ्चदशभागान् मण्डलस्य । तावत् आदित्येन मासेन सूर्यः कति मण्डलानि चरति ? तावत् पञ्चदश चतुर्भागाधिकानि मण्डलानि चरति । तावत् आदित्येन मासेन नक्षत्रं कति मण्डलानि चरति ? तावत् पञ्चदश चतुर्भागाधिकानि मण्डलानि पञ्च च विंशशतभागान् मण्डलस्य चरति । तावत् अभिवद्धितेन मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति १ तावत् पदश मण्डलानि त्र्यशीति षडशोतिशतभागान् मण्डलस्य चरति । तावत् अभिवद्धितेन मासेन सूर्यः कति मण्डलानि चरति ? तावत् षोडश मण्डलानि चरति त्रिभिर्भागैरूनकानि द्वाभ्याम् अष्ट चत्वारिंशाभ्यां शताभ्यां मण्डलं छित्त्वा । तावत् अभिवद्धितेन मासेन नक्षत्र कति मण्डलानि चरति ? तावत् षोडश मण्डलानि चरति, सप्तचत्वारिंशता भागैरधिकानि चतुर्दशभिः अष्टाशीतैः शतैर्मण्डलं छित्त्वा ॥ सूत्र ॥३॥ व्याख्या-'ता णक्खत्तेणं' इति 'ता' तावत् ‘णक्खत्तेण मासेणं नक्षत्रेण नक्षत्रसम्बन्धिना मासेन 'चंदे' चन्द्रः 'कई मंडलाई चरई' कति मण्डलानि चरति कति मण्डलेषु चारं चरति ? भगवानाह- 'ता तेरस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तेरसमंडलाई' त्रयोदश मण्ड Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका. प्रा.१५ सू. ३ चन्द्रादीनां नाक्षत्रमास चरणनिरूपणम् ६०९ लानि तथा 'मंडलस्स' चतुर्दशस्य मण्डलस्य 'तेरस य सत्तविभागे' त्रयोदश च सप्तषष्टि , भागान् ( १३/१३) 'चरइ' चरति एतत् कथमवसीयते ? तत्राह एकस्मिन् युगे सप्तषष्टि -93 नक्षत्रमासा भवन्ति, चन्द्रस्य च चतुरशीत्यधिकानि अष्टशतानि (८८४) मण्डलानि भवन्तिततो यावतां मासानां मण्डलानि ज्ञातुमिच्छेत् तावद्भिर्मासैश्चतुरशीत्यधिकानि अष्टशतानि गुणयित्वा सप्तषष्टया भागो हियते, भागहरणेन यल्लभ्यते तत् मण्डलपरिमाणमायाति । अऋतु , प्रथममासस्य मण्डलानि ज्ञातुमिच्छा ततएककमाश्रित्य त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि सप्तषः । ष्टया नक्षत्र मासैश्चतुरशोत्यधिकानि अष्टौ शतानि मण्डलानि लभ्यन्ते, तदा एकेन नक्षत्रमासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते, राशित्रय स्थापना ।६७।८८४।१। ततोऽन्त्येन राशिना एककरूपेण मध्यराशि ण्यते जातस्तावानेव (८८४) अस्य सप्तषष्टया भागो हरणीयः, हृते च भागे लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि, शेषास्त्रयोदश स्थिताः, ते च सप्तषष्टिभागाः, तत आगतम्त्रयोदशमण्डलानि, चतुर्दशस्य मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टि भागाः (१३ १२) अथ गौतमः सूर्यविषये प्रश्नं करोति- 'ता णक्खत्तण' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘णक्खत्तेण मासेणं' एकेन : नाक्षत्रेण मासेन 'मूरिए' सूर्यः 'कइ मंडलाई चरइ' कति मण्डलानि चरति ? एवं गौतमेन पृष्टे-- भगवानाह- 'ता तेरस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तेरस मंडलाइं' त्रयोदश मण्डलानि 'मंडलस्स' . चतुर्दशस्य मण्डलस्य 'चोयालीसं च सत्तट्ठिभागे' चतुश्चत्वारिंशतं च सप्तषष्टिभागान् । ( १३/१४ ) 'चरइ' चरति । एतदपि गणितेन लभ्यते, तथाहि-एकस्मिन् युगे नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिरिति पूर्वमुक्तमेव । एकस्मिन् युगे सूर्यस्य पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि मण्डलानि भवन्ति, सूर्य एतावत्सु मण्डलेषु युगे चारं चरति, अत्रापि त्रैराशिकं क्रियते तथाहि-यदिसप्तषष्टया नाक्षत्र मासैः पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि मण्डलानि लभ्यन्ते तदा एकेन नाक्षत्रमासेन कति ? मण्डलानि लभ्यन्ते ? ततस्त्रैराशिकं स्थाप्यते-६७।९१५।१। अत्रापि पूर्वोक्त एव विधिः क्रियते ... अन्त्येन राशिना मध्यो शशिर्गुणितो जातस्तावनेव (९१५) ततः सप्तषष्टया भागो हियते, लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि शेषाश्चतुश्चत्वारिंशतस्थिताः, ते च सप्तषष्टिभागा इत्यागतम्-त्रयोदश मण्डलानि, चतुर्दशस्य मण्डलस्य च चतुश्चत्वारिंशतसप्तषष्टि भागाः (१३/११) इति । अथ नक्षत्रमासे नक्षत्रस्य मण्डलानि पृच्छति-'ता णक्खत्तेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'णक्खत्तण मासेणं' एकेन नाक्षत्रेण मासेन 'णक्खने' नक्षत्रं 'कइ मंडलाइं चरई' कति १५ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञाप्तस्त्रे मण्डलानि चरति ? भगवानाह-'ता तेरस' इत्यादि 'ता' तावत् 'तेरस मंडलाई त्रयोदश मण्डलानि 'अद्ध छीयालीसं च सत्तढिभागे मंडलस्स' चतुर्दशस्य अर्द्धन सहितान् षट्चत्वारिंशतं सप्तेष्टिभागान् (१३४६॥, 'चरइ' चरति । कथमिति प्रदर्श्यते- नक्षत्रमासा युग सम्बन्धि नः सप्तषष्टिरेव, नक्षत्रमण्डलानि चैकस्मिन् युगे अर्द्धन सहितानि सप्तदशोत्तराणि नव शतामि (९१७॥) भवन्ति ततस्त्रैराशिकं क्रियते यदि सप्तषष्टया नाक्षात्रमासैः सार्धानि सप्तदशोत्तराणि नशतानि (९१७॥) नक्षत्रमण्डलानां लभ्यन्ते तदा एकेन नाक्षत्रमासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ! राशि त्रयस्थापना ((६७।९१७॥-१) अत्राप्यन्त्येन राशिना मध्ये राशौ गुणिते जातस्तावानेव (९१७॥) ततः सप्तषष्टया भागहरणं क्रियते, लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि शेषाः स्थिता सार्धाः षट् चत्वारिंशत् , ते च सप्तषष्टिभागास्तत आगतम्- त्रयोदश मण्डलानिचतुर्दशस्य मण्डलस्य सार्द्धा षट् चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः (१३-०३) इति । अथ चन्द्रमास मधिकृत्य चन्द्रादोनां मण्डलानि प्रदर्श्यते-'ता चंदेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चंदेणं मासेगं' चान्द्रेण मासेन 'चंदे' चन्द्रः 'कइ मंडलाइं चरइ' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह-'ता चोदस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चोइस' चउभागाइं मंडलाई' चतुर्दश चतुर्भागानि चतुर्थभागेन एकत्रिंशदूपेण सहितानि मण्डलानि, 'मंडलस्स' एकस्य मण्डलस्य'एवं च चउवोससयभागं' एकं चतुर्विशतभागम् , अयं भावः-परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्भाग-चतुर्विशत्यधिकशत सत्कमेक त्रिंशद्भागप्रमाणम् , एकं च चतुर्विंशत्यधिकशतस्य भागं द्वात्रिंशतं पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् 'चरई' चरति, कथमित्याह-एकस्मिन् युगे द्वाषष्टिश्चन्द्रमासा भवन्ति, एकस्मिन् मासे पर्वद्वयमिति चतुविंशत्यधिकं शतं (१२४) पर्वणामेकस्मिन् युगे भवति । चन्द्रमण्डलानि च चतुरशीत्यधिकानि मष्ठौ शतानि (८८४) भवन्ति पर्वद्वयविषया चात्र पृच्छा ततस्त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन चतुरशीत्यधिकानि अष्टौ शतानि मण्डलानि लभ्यन्ते तत पर्वद्वयेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ! राशित्रयस्थापना-१२४८८४।२। अत्रान्त्येन द्विकलक्षणेन राशिना मध्यो राशिः (८८४) गुण्यते, जातानि अष्टषष्टयधिकानि सप्तदशशतानि (१७६८), एषामाघराशिना चतुर्विशत्यधिकशत-(१२४) रूपेण भागो हियते, लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि, शेषा द्वात्रिंशदिति पञ्चदशस्य मण्डलस्य द्वात्रिंशत् चतुर्विशत्यधिक शतभागा (१४२४) इति । . अथ. चन्द्रमासेन सूर्यचारमाह 'ता चंदेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चंदेणं मासेणं' एकेन चान्द्रेण मासेण 'सूरिए' सूर्यः 'कइ मंडलाइं चरई' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१५ सू.३ चन्द्रादीनांनाक्षत्रमास चरणनिरूपणम् ६११ 'ता' तावत् पण्णरस चउभागृणाई मंडलाइं' चतुर्भागोनानि पञ्चदश मण्डलानि चरति ।. अयं भावः-एकस्य मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतभागरूपस्य चतुर्थो भाग एकत्रिंशद्रूपस्तेन, उनानि पञ्चदश मण्डलानि, परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य मण्डलस्य च त्रयोभागश्चत तुर्विशत्यधिकशतसत्काः त्रिनवतिरूपाः (१७.९३ ) एतत्प्रमितान् , पुनश्च, 'एगं च चउवीससयभागं' एकं च चतुर्विशतिशतभागं चतुर्दशतमध्याद 'एग भाम' एक भाग चेति चतुर्नवति भागसहितानि चतुर्दशमण्डलानि (१४.९४. ) 'चरह' चरति तथाहिएकस्मिन् युगे चर्तु विंशत्यधिकं पर्वशतं भवति सूर्यमण्डलानि च पश्चदशाधिकानि नवशतानि (९१५) भवन्ति पर्वद्वयविषया च पृच्छा ततस्त्रैराशिकं क्रियते यदि चर्तुविंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्चदशोत्तरनवशतमण्डलानि लभ्यन्ते तदा द्वाभ्यां पर्वभ्यां कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना १२४ । ९१५ । २ । अत्रापि पूर्वोक्त एव विधिः क्रियते-अन्त्येन राशिना मध्यराशिं गुणयित्वा आद्यराशिना भागहरणं कर्त्तव्यम्, तेन लभ्यन्ते चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्नवतिश्चतुर्विशत्यधिकशतभागाः (१४. १२) अथ चन्द्रमासेन नक्षत्रचारः प्रदर्श्यते-'ता चंदेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चंदेणार मासेणं' चान्द्रेण मासेन 'णक्खत्ते' नक्षत्रं 'कइमंडलाइं चरइ' कतिमण्डलानि चरति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'पण्णरस चउब्भागूणाई मंडलाई' पञ्चदश चतुर्भागोनानि मण्डलानि मण्डलस्य चतुर्थभागेन एकत्रिंशद्भागरूपेण न्यूनानि पञ्चदश मण्डलानि, अयं भावःपरिपूर्णानि चतुर्दशमण्डानि तथा पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतभागसत्कभागत्रयं त्रिनवति भागरूपंच (१४-९३. तथा 'छच्च चउवीससयभागे' षट् चतुर्विशतिशत. सत्कभागान् चतुर्विशतिशतभागेषु षट् भागान् ‘मंडलस्स' एकस्य मण्डलस्य (१४-९९ १२४ 'चरइ' चरति । तहाहि-एकस्मिन् युगे चन्द्रमासा द्वाषष्टि रिति चतुर्विशत्यधिकशतं पर्वणां:भवति, नक्षत्रमण्डलानि च एकस्मिन् युगे सार्द्ध सप्तदशाधिकानि नवशतसंख्यकानि (९१७ ॥ )भवन्ति तेषाममण्डलानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि (१८३५)भवन्ति पर्वद्वयविषया पृच्छेति त्रैराशिकं क्रियते-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्चत्रिंशदधिकानि Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ६१२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे अष्टादश शतानि अर्द्धमण्डलानां लभ्यन्ते तदा द्वाभ्यां पर्वभ्यां कति मण्डलानि लभ्यन्ते ! राशित्रयस्थापना १२४ । १९३५ । २ । ततोऽन्त्येन राशिना द्विकरूपेण मध्यराशेर्गुणने जायन्ते सप्तत्यधिकानि षट् त्रिंशच्छतानि (३६७०)एषामाध राशिना चतुर्विंशत्यधिकशतरूपेण भागे हृते लब्धा एकोनत्रिंशत् (२९) शेषास्तिष्ठन्ति चतुस्सप्तति भागाः (७४)। इदं चा गतमर्द्धमण्डलानां परिमाणम्, द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यामेकं परिपूर्ण मण्डलं जायते ततोऽनयोलब्ध शेषरूपयोः राश्यो र्द्धाभ्यां भागो हरणीयः अथवाऽनयोरट्टै क्रियते द्वयमपि समान फलं भवति, तथाहि एकोनत्रिंशतो द्वाभ्यां भागे हृते लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि शेषमेकमित्यस्य चतुर्विशत्यधिक भागकरणाथै चतुर्विशत्यधिकशतेन एककं गुण्यते जातं चतुर्विशत्यधिकं शतम् (१२४) तच्च पूर्व शेषी भूतचतुः सप्ततौ प्रक्षिप्यन्ते जातम् अष्टनवत्यधिकं शतम् (१९८) अस्य द्वाभ्यां भागो हियते लब्धा नव नवतिः (९९) तत आगतम् परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य नव नवति श्चतुर्विशत्यधिकशतभागाः - अथ ऋतुमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलनिरूपणा क्रियते 'उउणा मासेणं' इत्यादि 'उउणा मासेणं' ऋतुसम्बन्धिना मासेन कर्ममासेनेत्यर्थः 'चंदे' चन्द्रः 'कइमंडलाइं चरई' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह-'ता चोइस' इत्यादि 'ता' तावत् चोदसमंडलाई' चतु-: देश मण्डलानि परिपूर्णानि 'मंडलस्स' पञ्चदशस्य च मण्डलस्य 'तीसं च एगट्ठिभागे' त्रिंशतं चाएकषष्टि भागान् ( १४३०) 'चरइ' चरति । कथमित्याह-एकस्मिन् युगे एक षष्टिः ऋतुमासा इति कर्ममासा भवन्ति , चन्द्रश्चैकस्मिन् युगे चतुरशीत्यधिकाष्टशतमण्डानि चरतीति त्रैरा शिकं क्रियते, तथाहि-यदि एक षष्टया कर्ममासैश्चतुरशीत्यधिकानि अष्टमण्डलशतानि लभ्यन्ते तदा एकेन कर्ममासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ! राशित्रयस्थापना-६१।८८४।१। तत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिर्गुणितो जातस्तावानेव (८८४) तत आयेन राशिना एकषष्टिरूपेण भागो हियते, लब्धानि परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलाणि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य त्रिंशदेकषष्टिभागाः (१४%) इति । अथ ऋतुमासेन सूर्यचारमाह—'ता उउणा' इत्यादि, 'ता' तावत् उउणा मासेणं' ऋतुना ऋतुसम्बन्धिना मासेन 'सरिए' सूर्यः 'कइ मंडलाई चरई' कति मण्डानि चरति ! भगवानाह-'ता' तावत् 'पण्णरस मंडलाई चरइ' पञ्चदश मण्डलानि चरति तथाहि-एकषष्टिः ऋतुमासाः पञ्चदशाधिकानि नव मण्डलशतानि सूर्यस्य भवन्ति ततो यदि एकषष्टया Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१५ सू.३ चन्द्रादीनां नाक्षत्रमास चरणनिरूपणम् । ऋतुमासैः पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि सूर्यमण्डलानि लभ्यन्ते तदा एकेन ऋतुमासेत- कति सूर्यमण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना ६११९१५।१ अत्रापि अन्त्येन राशिना मध्यम राशिं पञ्चदशाधिकनवशतरूपं गुणयित्वा आधराशिना एकषष्टिरूपेण भागो हियते, लभ्यन्ते परिपूर्णानि पञ्चदश मण्डलानि । अथ ऋतुमासेन नक्षत्रचारमाह-'ता उउणा' इत्यादि 'ता' तावत् उउणा मासेण ऋचना ऋतुसम्बन्धिना मासेन 'नरखत नक्षनं 'कइमंडलाइं चरइ' कतिमण्डलानि चरति ! भगवानाह-'ता' तावत् ‘पण्णरस मंडलाई' पञ्चदश मण्डलानि तथा 'मंडलस्स' षोडशः मण्डलस्य 'पंचय बावीस सयभागे' पञ्चचद्वाविंशति शतभागान् (१५ ) 'चरई' गार ( १२२ । घर चरति । कथमित्याह-एकस्मिन् युगे एकषष्टिः ऋतुमासा (६१) नक्षत्रमण्डलानि सार्द्धसप्तदशाधिकानि नव मण्डलशतानि (९१७॥) ततस्त्रैराशिकं क्रियते तथाहि-यदि एकषष्टिमासैः साई सप्तदशाधिकानि नव शतानि नक्षत्रमण्डलानां लभ्यन्ते तदा एकेन ऋतुमासेत: कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना (६१।९१७।१) अत्रापि अन्त्यराशिना मध्यराशिः गुणयित्वा आधराशिना भागे हृते लभ्यन्ते पञ्चदश (१५) मण्डलानि शेषं साढ़े द्वे (२) भस्य सार्द्धद्विकस्य द्वाविंशत्यधिकशतभागकरणार्थं सार्द्ध द्विकं द्वाविंशत्यधिकशतेन गुण्यते, जातानि पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि (३०५) तत एकषष्टया भागो हियते लब्धाः पञ्च द्वाविंशत्यधिकशत भागाः ( १५:२३) इति । सम्प्रतं सूर्यमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलानि प्रदर्शयति-ता आइच्चेणं' इत्यादि, 'ता', तावत् 'आइच्चेणं मासेणं' आदित्येन मासेन 'चंदे' चन्द्रः 'कइमंडलाइं चरइ' कतिमण्ड लानि चरति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'चोइस मंडलाई' चतुर्दश मण्डलानि, तदुपरि च 'मंडलस्स' पञ्चदशस्य मण्डलस्य ‘एक्कारस पंचदसभागे' एकादश पञ्चदशभागान् (१४ ) 'चरई' चरति । कथमित्याह-एकस्मिन् युगे आदित्य मासाः षष्टिः (६०), चन्द्रमण्डलानि चतुरशीत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८८४), ततस्त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि षष्टया आदित्य मासैः चतुरशीत्यधिकानि अष्टौ मण्डलशतानि चन्द्रस्य लभ्यन्ते तदा एकेन आदित्यमासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना-६०८८४।१। अत्रान्त्येन राशिना मध्यो राशि र्गुणिती जातस्तावानेव (८८४), अस्याद्यराशिना भागो हियते लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि, तिष्ठन्ति, शेषाचतुश्चत्वारिंशत् (४४) ततोऽस्य छेधराशेश्चतुश्चत्वारिंशद्रूपस्य छेदकराशेः षष्टिरूपस्य च Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्र चतुकेनापवर्तना क्रियते चतुष्केन भागहरणेनापहारः क्रियते इत्यर्थः, ततश्चतु श्चत्वारिशतश्छेद्यराशेरपवर्तनायां लभ्यन्ते एकादश ११, षष्टिरूपस्य छेदकराशेरपवर्तनायां लभ्यन्तें पञ्चदशेति समागतम् -चतुर्दश मण्डलानि परिपूर्णानि पञ्चदशस्य मण्डलस्य चैकादश पञ्चदशः । अथादित्यमासेन सूर्यचारमाह-'ता आइच्चेण इत्यादि, 'ता' तावत् 'आइच्चेण मासण' आदित्येन मासेन 'सूरिए' सूर्यः 'कइ मंडलाई चरइ' कतिमण्डलानि चरति ! भगवामाह-'ता पण्णरस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पण्णरस मंडलाई' पञ्चदश मण्डलानि 'चउ भागाहियाई' चतुर्भागाधिकानि चतुर्थ भागेन षोडशस्य च मण्डलस्य षष्टिभागा विभक्तस्य पश्चदशभागात्मकेन अधिकानि । (१५ -.) 'चरइ' चरति । तथाहि-यदि युगसम्बन्धिभिः षष्टि सूर्यमासैः पश्चदशाधिकानि । मव मण्डलशतानि सूर्यस्य लभ्यन्ते ? तदा । एकेन मालेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते । राशित्रयस्थापना -६०।९१५।१ ।::: राशिना मध्यराशिं गुणयित्वा षष्टया भागो हियते लब्धानि परिपूर्णानि पञ्चदश मण्डलानि, षोडशस्य मण्डलस्य च पञ्चदश षष्टिभागाः (१५/-) सपाद पञ्चदश मण्डलानि चरतीति भावः । अथादित्यमासेन नक्षत्रचारमाह-'ता आइच्चेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'आइच्चेणं मासेणं' आदित्येन मासेन ‘णक्खसे' नक्षत्रं 'कइ मंडलाई चरइ' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'पण्णरस चउब्भागाहियाइं मंडलाई' पञ्चदश चतुर्मागाधिकानि मण्डलानि षोडश मण्डलसम्बन्धि चतुर्थ भागेनाधिकानि मण्डलानि सपाद पञ्चदश मण्डलानीत्यर्थः पुनश्च 'पंचय वीससयभागे मंडलस्स' पञ्च च विंशशतभागान् मण्डलस्य एकस्य मण्डलस्य पञ्च च विंशत्यधिक शत भागाम् (१ ति । किमुक्त 34 भवति-पञ्चदशपरिपूर्णानि मण्डलानि १५, षोडशस्य च मण्डलस्य चतुर्थों भाम: विशत्यधिकशतभागसत्कस्त्रिंशत्प्रमितः, पञ्च चान्ये सूत्रोक्ता विंशत्यधिक शत भागाः इति मिलित्वा जायन्ते पश्चत्रिशद्विशत्यधिकशतभागाः (१५-१.) इति । कथमित्याह एकस्मिन् युगे आदित्यमासाः षष्टिः (६०), नक्षत्र मण्डलानि च सार्द्ध सप्तदशाधिकानि नवशतानि (९१७॥) इति त्रैराशिकं क्रियते-यदि षष्टया सूर्यमासैः सार्द्धसप्तदशाधिकानि Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चदमाप्तप्रकाशिकाटीका प्रा.१५.स.३ चन्द्रादीनांनाक्षत्रमास चरणनिरूपणम् ६५ नवमण्डलशतानि नक्षत्रस्य लभ्यन्ते तदा एकेन सूर्यमासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ! राशित्रयस्थापना-६०।९१७॥ । १) अत्रान्येन राशिना, मध्यराशिगुणितो जातस्तावानेव.. (९१७॥) अस्य आद्यराशिना षष्टिरूपेण भागो हियते लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि शेषास्तिष्ठन्ति सार्कीः सप्तदश (१७॥) एते विंशत्यधिकशतभागकरणार्थ विंशत्यधिकेन गुण्यन्ते जातानि एकविंशतिः शतानि (२१००), एषां षष्टया भागो हियते लब्धाः पञ्चत्रिंशद् विंशत्यधिक शतभागाः, तत आगतम् पञ्चदश मण्डलानि परिपूर्णानि, षोडशस्य च मण्डलस्य पञ्चत्रिंशद विंशत्यधिक शतभागाः (१५/१६,इति । .... अथामिवर्द्धितमासमधिकृस्य चन्दादिमण्डलानि प्ररूपयति-ता अभिवदिएण इत्यादि । 'ता' ताबत् 'अभिवड्डीएणे मासेणं' अभिवर्धितेन मासेन 'चंदे' चन्द्रः 'कर मंडलाई चरइ' कति मण्डलानि चरेति ! भगवानाह-'ता' तावत् 'पण्णरस मंडलाई पञ्चदश मण्डलानि 'मंडलस्प' षोडशस्य मण्डलस्य च 'तेसीइं छलसोइसयमागे' व शीतिं षडशीतिशतभागान् (१ द' चरति । कथमेतदवसीयते ! इत्यत्राह-एक-. १८ १३ स्मिन् युगेऽभिवर्द्धितमासाः सप्तपञ्चाशत् त्रयश्च त्रयोदश भागाः (५७३.) भवन्ति, ततो ऽस्य राशेः त्रयोदशभागाः कर्तव्याः, ततस्त्रयोदश भागकरणार्थ सप्तपञ्चाशत् त्रयो दमिर्गुण्यन्ते (५७४१३)जातानि एकचत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि (७४१) एषु । उपरितनास्त्रयस्त्रयोदशभागास्ते क्षिप्यन्ते (७४१+३) जातानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि शत-: शतानि (७४४) अभिवतिमात सत्क त्रयोदश भागानाम् । ततो यावन्मासानां मण्डलानि ज्ञातु मिच्छेत् तावन्तो मासा अपि प्रयोदशभिर्गुण्यन्ते ततोऽत्रैकमासगतमण्डल जिज्ञासा-' वर्तते तत एकोऽकत्रयो दशभिर्गुण्यन्ते जातात्रयोदशैव, ततस्त्रैराशिकं क्रियते तथाहि- " ___ यदि-चतुश्चत्वारिंशदधिक सप्तशतैरमिवर्द्धितमाससत्कैस्त्रयोदशभागैः (७४४) चतुरशी-... त्यधिकानि अष्टशतानि (८८४) चन्द्रमण्डलानां लभ्यन्ते तदा एकाभिवर्द्धितमाससत्कैस्त्रयोदयभागैः कति मण्डलानि लभ्यन्ते, राशित्रयस्थापना-। ७४४ । ८८४ । १३ । अत्रान्त्येन राशिना त्रयोदशरूपेण मध्यो राशिः चतुरशीत्यधिकाष्टशतरूपो गुण्यते जायन्ते-एकादश सहस्राणि चत्वारिशतानि विनवत्यधिकानि (११४९२) ततोऽस्य राशेः आधराशिना चतु- . श्चत्वारिंशदधिकसप्तशतरूपेण भागो हियते, लभ्यन्ते पञ्चदश मण्डलानि तिष्ठन्ति पश्चाद द्वात्रिंशदधिकानि त्रीणिशतानि (३३२), एष राशिः . षडशीत्यधिकशतभागकरणा. Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञाप्तसत्र षडशोत्यधिकन शतेन (१८६) गुण्यते जातानि-एक षष्टिः सहस्राणि सप्तशतानि द्विपज्चशिदधिकानि' (६१७५२), अस्य राशेरपि चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतराशिना (७४४), भागी हियतें लब्धास्यशीति गाः (८३) तत आगतम्-पञ्चदश मण्डलानि परिपूर्णानि षोडशस्य च मण्डलस्य त्र्यशीतिः षडशीतिशतभागाः (१५/८३) एकेनाभिवर्द्धितमासेनं चन्द्रमण्डलानां लभ्यन्ते, इति । अयाभिवतिमासेन सूर्यमण्डलावेचारमाह-'ता अभिवइढिएणं' इत्यादि, 'ता' तावन, अभिवइदिएणं मासे गं' एकेन अभिवर्द्धितेन मासेन 'सरिए' सूर्यः 'कइमंडलाई चर' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह -सोलसमंडलाई' षोडशमण्डलानि 'तिहिं भागेहिं ऊणगाई' त्रिभिर्भागमण्डलसत्कै ऊनकानि न्यूनानि, कथमित्याह-'दोहिं अडयाछेहि पाहि मंडलं किता' दाभ्यां शताभ्याम् अत्यारिंशधिकाभ्यां (२४८) मण्डल छित्वा एकस्य मण्डलस्य अष्टचत्वारिंशदधिके द्वेशते भागानां कृत्वा तन्मध्यात् त्रिभिर्भागै न्यूनौनि षोडशमण्डलानि । किमुक्तं भवति-परिपूर्णानि पञ्चदशमण्डलानि, षोडशस्यच मण्डलस्य भष्टचत्वारिंशदधिक द्विशतभागसत्कभागत्रयन्यूनान्-इति पञ्चचत्वारिंशदधिकद्विशतभागान् (१५/१४१) 'चरइ' चरति । कथमित्याह-एकस्मिन् युगे पूर्वप्रदर्शितरीत्याऽभिवर्द्धितमासस्य चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि (७४४) त्रयोदशभागाः भवन्ति, सूर्यश्चैकस्मिन् युगे पञ्चदशाधिकानि नव मण्डलशतानि (९१५) चरति, अत्रैकस्य मासस्य पृच्छा तत एकं त्रयोदशभिर्गुणयित्वा त्रयोदश भागाः क्रियन्ते ततस्त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि-चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतभागैः पञ्चदशाधिकानि, बशतानि :सूर्यमण्डलानां लभ्यन्ते तदा एकाभिवर्द्धितमामसत्कत्रयोदशभागैः कृति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना (७४४।। ९१५ । १३) अत्रान्त्येन राशिना त्रयोदशलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चदशाधिक नवशतरूपो गुण्यत जातानि एकादश सहस्राणि अष्टौ शतानि पञ्चनवत्यधिकानि (११८९५) अस्यायेन राशिनी चतुश्चत्वारिंशदधिक सप्तशर्तरूपेण (७४४) भागो हियते, लब्धानि पञ्चदशमण्डलानि शेषाणि तिष्ठन्ति पञ्चत्रिंशदधिकानि सप्तशतानि (७३५) एतानि अष्टचत्वारिशदधिक द्विशतभागकरणार्थ अष्ट चत्वारिंशदधिकाभ्यां द्वाभ्यां शताभ्यां गुण्यन्ते जातानिएक लक्ष, द्वयशोतिः सहस्राणि, द्वेशते अशीयधिके (१८२२८०) अस्य राशेरपि चतुश्चत्वारिंशदधिकैः सप्तभिश्शतैः (७४४) भागो हियते, लब्धे, पञ्चचत्वारिंशदधिके द्वेशते (२४५), तत आगतम् परिपूर्णानि पञ्चदशमण्डलस्य पञ्च चत्वारिंशदधिकद्विशतसंख्यका २४८ ... Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका प्रा. १५. सू. ३ चन्द्रादीनां नाक्षत्रमास चरणनिरूपणम् ६१७ अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशतभागाः (१५ इति । 1 अथाभिवर्धितमासेन नक्षत्रमण्डलात्याह- 'ता अभिवढियएणं' इत्यादि ' ता तावत् 'अभिवढियणं मासेणं' अभिवर्द्धितेन मासेन 'णक्खत्ते' नक्षत्रं 'कइ मंडलाई चरइ' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह - 'तो' तोयत् 'सोलस मंडलाई' षोडश मण्डलानि 'सीयाली सेहिं भागेहिं अहियाई' सप्त चत्वारिंशता भागैरधिकानि 'चोदसहिं अझ free सहिं' अष्टाशीत्यधिकैश्चतुर्दशभिः शतैः (१४८८) 'मंडलं छित्ता' मण्डलं छित्त्वा । परिपूर्णानि षोडश मण्डलानि सप्तदशस्य च अष्टाशीत्यधिक चतुर्दशशत भागां 'कृत्वा तन्मध्यात् सप्तचत्वारिंशतो भागान् ( १६ २४५ २४८ * ४७ १४८८) 'चरइ' चरति । तथा एकस्मिन् युगे अभिवर्द्धितमासस्य चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्त शतानि ( ७४४ ) त्रयोदश भागा भवन्ति । नक्षत्र मण्डलानि सार्द्ध सप्तदशाधिकानि नवशतानि (९१७ ॥ ) भवन्ति, ततोऽयमपि राशिस्त्रयोदशभिर्गुण्यते जातानि - एकादश सहस्राणि नवशतानि सार्द्ध सप्तविंशत्यधिकानि (११९२७।।) । ततस्त्रैराशिकं क्रियते यदि चतुश्चत्वारिंशदधिकैः सप्तभिः शतैः अभिवद्धितमाससत्कत्रयोदशभागैः सार्द्ध सप्तविंशत्यधिकनवरातोत्तराणि एकादश सहस्राणि (११९२७) नक्षत्रमण्डलानां त्रयोदश भागा लभ्यन्ते तदा एकेन अभिवर्द्धितमासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना-(७४४ । ११९२७॥ - १) अत्रान्त्येन राशिना एकक लक्षणेन मध्योराशिण्यते जातस्तावानेव (११९२७|| ) ततोऽस्य राशेः आद्येन राशिना चतुश्चत्वारिंशदधिक सप्तशतरूपेण भागो हियते लब्धानि षोडश मण्डलानि (१६) शेषातिष्ठति सार्द्धा त्रयोविंशतिः (२३ |), अस्या अष्टाशीत्यधिक चतुर्दशशतभाग करणार्थम् अष्टाशीत्यधिक चतुर्दशशतै ( १४८८) र्गुण्यंते, जातानि चतुस्त्रिंशत् सहस्राणि नवशतानि अष्टषष्ट्यधिकानि (३४९६८), अस्य राशेरपि चतुश्चत्वारिंशदधिक सप्तशतैः ( ७४४ ), भागो हियते, हृते च भागे लभ्यन्ते सप्तचत्वारिंशत् (४७) तत् आगतम्-नक्षत्र - परिपूर्णानि षोडश मण्डलानि सप्तदशस्य मण्डलस्य च सप्तचत्वारिंशतम् अष्टाशीत्यधिकचतुर्दशशतभागान् (१६/४७ एकेनाभिवर्द्धितमासेन १४८८ चरति चन्द्रसूर्य नक्षत्रमण्डला नयनविधिरयम् अत्र एकस्य मासस्य त्रयोदश भागा गृहीताः, एषु यावतां भागानां मण्डलजिज्ञासा भवेत् तावद्भिर्भागैश्चन्द्र-सूर्य-नक्षत्रमण्डलानि गुणयित्वा चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतै: ( ७४.४) भागो हरणीयः भागे हृते यावन्ति लभ्यन्ते सानि मण्डलानि ज्ञातव्यानि । एवं कराणेन अभिवर्धितमासस्य प्रथमे एकस्मिन् भागे चन्द्रः ७८ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे १८६ एकं . मण्डलम् पञ्चविंशतं च षडशीत्यधिकशतभागान्-(१३५) चरति । एवं सूर्यः-एक मण्डलम् सप्तपञ्चाशतं च भष्टचत्वारिंशदधिकद्विशतभागान् (१९५७) चरति । तथा नक्षत्रम् एकं मण्डलम् सप्त चत्वारिंशदधिकत्रिंशत्संख्यकान् भष्टाशीयधिक चतुर्दश शतभागान् (१९४७) चरति । यदि यस्य कस्यचित् परिपूर्णस्य एकस्य मासस्य मण्डलानि ज्ञातुमिच्छेत् तदा तत्सम्बन्धिनमत्रोक्तराशिं त्रयोदशभिर्गुणयेत् तदा सभागानि भविष्यन्ति चन्द्रादीनां तत्तन्मासगतमण्डलानीति । अत्राभिवर्द्धितमाससत्कचन्द्रमण्डलानामुदाहरणं प्रदर्यते, तथाहि-चन्द्रस्याभिवर्द्धितमाससत्कैकभागभुक्तमेकं मण्डलं पञ्चत्रिंशच्च षडशीत्यधिकशतभागोः (१२५.) त्रयोदशभिर्गुण्यन्ते, तत्र प्रथममेकं मण्डलं त्रयोदश भिर्गुण्यते, जातात्रयोदश (१३) तत उपरितनाः पञ्चत्रिंशत् त्रयोदशभि गुण्यते, जातानि पञ्च पञ्चाशदधिकानि चत्वारिंशतानि (४५५) ततोऽस्य मण्डलानयनाथ षडशीत्यधिकशतेन भागो हियते लब्धे द्वे, ते च मण्डलसंख्यायां क्षिप्येते, जातानि पञ्चदश मण्डलानि, शेषास्थ्य शीतिः षडशीत्यधिकशतभागाः, ततआगतो यथोक्तो राशिः (१.८३) । एवं सूर्यमण्डल नक्षत्रमण्डलविषयेऽपि विज्ञेयमिति ॥सू० ॥ ३ ॥ साम्प्रतमहोरात्राद्याश्रित्य चन्द्रादीनां प्रत्येकं मण्डलचारमाह-'ता एगमेगेणं अहो रत्तेणं चंदे' इत्यादि । । मूलम् - ता एगमेगेणं अहोरत्तणं चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? ता एगं अद्धमंडलं चरइ, एक्कतीसाए भागेर्हि ऊणं नवहिं पण्णरसेहि सएहि अद्धमंडलम् छेत्ता । ता एगमेगेणं अहोरत्तेण मरिए कइ मंडलाइं चरइ ? ता एगं अद्धमंडलं चरइ । ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं रिए कइ मंडलाइं चरइ ? ता एगं अद्धमंडलं चरइ । ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ ? ता एगं अद्ध मंडलं चरइ दोहिं भागेहि अहियं सत्तहिं बत्तीसेहिं सरहिं अद्धमंडलं छेत्ता । ता एगमेगं मंडलं चंदे काहिं अहोरत्तेहिं चरइ १ ता दोहि अहोरत्तेहि चरइ एकतीसाए भागेहिं अहिएहिं चउहि बायालेहिं सएहिं राइंदियं छेत्ता । ता एगमेगं मंडलं मूरिए कइहिं अहोरत्तेहि चरइ ? वा दोहिं अहोरत्तेहिं चरइ । ता एगमेगं मंडलं णक्खत्ते कइहिं अहोरत्तेहिं चरइ ? ता Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा १५ सू.४ अहोरात्रायाश्रित्य चन्द्रादीनां मण्डलचारम् ६१९ दोहि अहोरत्तेहिं चरइ दोहिं भागेहिं ऊणेहिं तिहिं सत्तसझेहिं सरहिं राइंदियं छेत्ता। ता जुगेण चंदे कइ मंडलाइं चरइ । ता अट्ट चुलसीयाइं मंडलसयाइं चरइ। ता जुगेणं सुरिए कइ मंडलाई चरइ ? ता णव पण्णरस मंडलसयाइं चरइ । ता जुगेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ ? ता अट्ठारस पणतीसाइं दुभागमंडलसयाई चरइ । इच्चेसा मुहुत्त गई रिक्खाइ मासराइंदिय जुग मंडल पविभत्ती सिग्ध गइ वत्थु आहिएत्तिबेमि ॥ सू. ० ४॥ ___ पण्णरस्समं पाहुडं समत्तं ॥१५॥ छाया-तावत् एकैकेन अहोरात्रेण चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तावत् एकम् अर्द्धमण्डलं चरति एकत्रिंशता भागैः ऊनम् नवभिः पञ्चदशैः शतैः अर्द्धमण्डलं छित्त्वा । तावत् एकैकेन अहोरात्रेण सूर्यः कति मण्डलानि चरति ? तावत् एकम् अर्द्ध मण्डलं चरति । तावत् एकैकेन अहोरात्रेण नक्षत्र कति मण्डलानि चरति ? तावत् एकं मण्डलं चरति द्वाभ्यां भागाभ्यामधिकम् सप्तभिः द्वात्रिशैः शतैः अर्द्धमण्डलं छित्त्वा । तावत् एकैकं मण्डलं चन्द्रः कतिभिरहोरात्रैः चरति ? तावत् द्वाभ्याम् अहोरात्राभ्यां चरति एकत्रिशता भागैरधिकाभ्यां चतुर्भिः द्विचत्वारिंशः शतैः रात्रिन्दिवं छित्त्वा । तावत् एकैकं मण्डलं सूर्यः कतिभिरहोरात्रैः चरति ? तावत् द्वाभ्याम् अहोरात्राभ्यां चरति । तावत् एकैकं मण्डलं नक्षत्रं कतिभिरहोरात्रैः चरति ? तावत् द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरति, द्वाभ्यां भागाभ्यामूनाभ्याम् त्रिभिः सप्तषष्टिःशतैः रात्रिन्दिवं छित्त्वा । तावत् युगेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तावत् अष्ट चतुरशीतानि मण्डलशतानि चरति । तावत् युगेन सूर्यः कति मण्डलानि चरति ! तावत् नव पञ्चदशानि मण्डलशतानि चरति । तावत् युगेन नक्षत्रं कति मण्डलानि चरति ? तावत् अष्टादश पञ्चत्रिशा नि द्विभाग मण्डलशतानि चरति । इत्योमुहूर्त गतिः ऋक्षादिमास रात्रिन्दिव युग मण्डल प्रविभक्ति शोघ्रर्गातवस्तु आख्यातम् इतिब्रवीमि ।। सूत्र ॥ । पञ्चदशं प्राभृतं समाप्तम् ॥१५॥ व्याख्या --- 'ता एगमेगेणं' इति 'ता' तावत् 'एगमेगेणं अहोरत्तेणं' एकैकेन अहोरात्रेण 'चंदे' चन्द्रः 'कइमंडलाइं चरइ' कतिमण्डलानि चरति ? भगवानाह 'ता' तावत् ‘एगंअद्धमंडल' एकमर्द्धमण्डलं, तच्च 'एकतीसाए भागेहिं ऊणं' एकत्रिंशता भागैरूनं होनम् कथम्-'णवहिं पण्णरसेहिं सएहि पञ्च दशाधिकैवभिः शतैः (९१५) 'अद्धमंडलं छित्ता' अर्द्धमण्डलं छित्त्वा-एकस्यार्द्धमण्डलस्य पञ्चदशाधिकनवशतभागान् कृत्वा तन्मध्यात् एकत्रिंशद्भागैन्युनमद्धमण्डलम् 'चरई' चरति । तदेव दर्यते-एकस्मिन् युगे त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) अहोरात्राणां भवन्ति चन्द्र मण्डलानि परिपूर्णानि चतुरशोत्यधिकानिअष्टशतानि (८८४) भवन्ति तेषामर्द्ध मण्डलानि अष्ट षष्टयधिकानि सप्तदशशतानि (१७६८) जायन्ते तत स्त्रैराशिकं क्रियते-यदि त्रिंशदधिकाष्टादश शतरात्रिन्दिवैः अष्टषष्टयधिकानि सप्तदश शतानि चन्द्रस्यार्द्धमण्डलानां लभ्यन्ते तदा एकेन रात्रिन्दिवेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे.. राशित्रयस्थापना-(१८३०।१७६८।१। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिर्गुणितस्तावानेह (१७६८ अस्याधराशिना त्रिंशदधिकाष्टादशशतरूपेण भागो हरणीयः, ततो भाजकराशे र्भाच्य राशिन्यून इति भागं न लभते ततो भाज्यभाजकराश्यो बिकेनापवर्त्तना करणे लभ्यन्ते चतुरशोत्यधिकानि अष्टशतानि (८८४) पञ्चोत्तर नवशत भाग सत्कानि (८८४) तत आगतम्-चन्द्र एकेना ९१५ होरात्रेण एकस्यार्द्धमण्डलस्य पञ्चदशोत्तरनवशतभागेभ्य श्चतुरशीत्यधिकाष्टशतभागान् चरतीति । __ अथ सूर्य विषयकं सूत्रमाह-'ता एगमेगेणं' इत्यादि 'ता' तावत् एगमेगेणं अहोरत्तेणं एकैकेनाहोरात्रेण 'मूरिए' सूर्यः ‘कइ मंडलाई चरइ' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह 'ता' तावत्-'एगं अद्धमंडलं चरइ' एक मर्द्रमण्डलं चरति । नक्षत्रसूत्रमाह 'ताएगमेगेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एगमेगेणं अहोरत्तेण' एकैके , नाहोरात्रेण ‘णक्खत्ते' नक्षत्र 'कइ मंडलाई चरई' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह 'ता' । तावत् 'एग मंडलं' एक मण्डलम् 'दोहि भागेहिं अहियं' द्वाभ्यां भागाभ्यामधिकम् ‘सत्तहिं. बत्तीसेहिं सरहिं' सप्तभिः द्वात्रिंशैः द्वात्रिंशदधिकैः शतैः (७३२) 'अद्ध मंडलं' छेत्ता, अर्द्धमण्डलं छित्त्वा एकस्यार्द्धमण्डलस्य द्वात्रिंशदधिकानि सप्त शतानि भागानां कृत्वा तन्म मध्याद् द्वौ भागौ 'चरइ' चरति । तथाहि-एकस्मिन् युगे त्रिंशदधिकानि अष्टादशाहोरात्र शतानि ( १८३० ) भवन्ति नक्षत्रमण्डलानि सार्द्ध सप्तदशाधिकानि नवशतानि ( ९१७॥)" भवन्ति एषामर्द्धमण्डलानि द्विगुणानि पञ्चत्रिंशद्धिकानि अष्टादश शतानि (१८३५) जायन्ते तत स्त्रैराशिकं क्रियते यदि त्रिंशदधिकाष्टादशशतै रहोरात्रैः पञ्चत्रिंशदधिकाष्टादशशतानि नक्षत्रमण्डलानि लभ्यन्ते तदा एकेनाहोरात्रेण कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना१८३०।१८३५।१ अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशि गुणितो जात स्तावानेव पञ्चत्रिंशदधिकाष्टादश शतरूपः (१८३५) अस्य आद्येन राशिना त्रिंशदधिकाष्टादशशत रूपेण (१८३०) भागो हियते लब्ध मेकमर्द्ध मण्डलम् शेषा स्तिष्ठन्ति पञ्च, ततः छेद्यराशेः (५) छेदकराशेश्च (१८३०) अर्द्ध तृतीयः २॥ अपवर्तना क्रियते जाते द्वे द्वा त्रिंशदधिकसप्तशत भागे (२) ७३२ __साम्प्रतम्-एकै परिपूर्ण मण्डलं चन्द्रादयः प्रत्येकं कतिभिरहोरात्रैश्चरन्ति ! इत्येतन्नि रूपयति,-तत्र प्रथमं चन्द्रचारमाह-'ता एगोगं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगमेगं मंडलं' एकैकं परिपूर्ण मण्डलं 'चंदे' चन्द्रः 'कइहिं अहोरत्तेहिं चरइ' कतिभिरहोरात्रैश्चरति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'दोहि अहोरत्तेहिं' द्वाभ्याम होरात्राभ्याम् 'एक्कतीसाए भागेहि अहिएहि' एकत्रिंशता भागैरधिकाभ्याम् , 'चउहिं बायालेहिं सएहि' चतुर्भिद्वि चत्वारिंशैः द्विचत्वारिंशदधिकैः शतैः रात्रि न्दिवं 'छेत्ता' छित्त्वा । एकस्याहोरात्रस्य द्विचत्वारिशदधिकचतुः शतभागान् Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.१५ सू.४ अहोरात्राद्याश्रित्य चन्द्रादीनां मण्डलचारम् ६२१, कृत्वा तन्मध्यात् एकत्रिंशतं भागान् ‘चरइ' चरति । त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि चतुरशीत्यधिकाष्टाशतैश्चन्द्रमण्डलैः (८८४) त्रिंशदधिकाष्टादशशताहोरात्राणि (१८३०) लभ्यन्ते तदा एकेन मण्डलेन कति अहोरात्राणि लभ्यन्ते ? गशित्रयस्थापना-८८४।१८३०।१। अत्रापि अन्त्येन राशिना मध्य राशिं गुणयित्वा: आयेन राशिना भागो हरणीयः, हृतेच भागे लब्धौ द्वावहो । रात्रौ (२), शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषष्टिः (६२) तत छेडछेदकराश्योः (a ) द्विकेनापवर्तना छेद्याछे क्रियते, लभ्यन्ते एकत्रिंशद् भागाः द्विचत्वारिंशदधिकचतुः शतभागसम्बन्धिनः (३१)। तत आगतम्-चन्द्र एकैकं मण्डलं द्विचत्वारिंशद्धिकचतुःशतभागसत्कैकत्रिंशद्भागसहिताभ्यां द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरतीति । • अथ मण्डलविषयां सूर्यचाराहोरात्रसंख्यामाह- 'ता एगमेगं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगमेगं मंडलं' एकैकं मण्डलं 'मूरिए' सूर्यः 'कइहि अहोरत्तेईि चरई' कतिभिरहोरात्रैश्चरति ! भगवानाह-'दोहि अहोरत्तेहिं' द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां 'चरइ' चरति । यतो हि एकस्य युगस्य : अहोरात्राणि त्रिंशदधिकाष्टादशशतानि (१८३०) सूर्य मण्डलानि च पञ्चदशोत्तर नव शतानि (९१५) इति युगाहोरात्रेभ्यः सूर्य मण्डला नामर्द्धत्वात् द्वाभ्यामहोरात्राभ्यामेकं मण्डलं चरतीति । अथ नक्षत्रस्य मण्डलविषयामहोरात्रसंख्यामाह- 'ता एगमेगं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एगमेगं मंडलं' एकैकं मण्डलं 'णक्खत्ते' नक्षत्रं 'कइहिं अहोरत्तेहिं चरइ' कतिभिरहोरात्रैश्चरति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'दोहिं अहोरत्तेहिं द्वाभ्यामहोरात्राभ्याम् ? 'दोहिं भागेहिं ऊणेहिं' द्वाभ्यां भागाभ्यां ऊनाभ्याम् , 'तिहि सत्त सडेहि सएहिं राइंदियं छेत्ता' सप्तषष्टयधिकैस्त्रिभिः शतैः (३६७) रात्रिन्दिवं छित्त्वा, एकस्य रात्रिन्दिवस्य सप्तषष्टयधिकशतत्रयभागान् कृत्वा तन्मध्याद् द्वाभ्यां भागाभ्यां हीनाभ्यां द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां (१९७५) 'चरइ' चरति । तथाहि-एकस्मिन् युगे नक्षत्रमण्डलानि सार्द्धसप्तदशाधिकानि नव शतानि (९१७॥) एषामर्द्धमण्डलकरणार्थ तानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते जातानि पञ्चत्रिंशदधिकानि-अष्टादश शतानि (१८३५), ततो युगाहोरात्राण्यपि द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जातानि षष्टयधिकानि षट् त्रिंशच्छतानि (३६६०) ततस्त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि पञ्चत्रिंशदधिकाष्ठा . दश शतैर्नक्षत्रमण्डलैः षष्टयधिक षट् त्रिंशच्छतानि रात्रिन्दिवानी लभ्यन्ते तदा एकेन मण्डलेन कति रात्रिन्दिवानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना-१८३५।३६६०।१। अत्रान्येन राशिना मध्यराशिगुणितो जातस्तावानेव (३६६०), अस्य आयेन राशिना (१८३५) भागो हियते, लब्धमेकं रात्रिन्दिवम् , शेषाणि स्थितानि पञ्चविंशत्यधिकानि अष्टादशशतानि (१८२५) ततोऽयं ३६५ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञाप्तस्त्रे राशिः सप्त षष्टयधिकत्रिशत भागकरणार्थ सप्तषष्टयधिकैत्रिभिः शतैः (३६७) गुण्यते जातानिषड् लक्षाणि, एकोनसप्ततिः सहस्राणि, सप्तशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि (६६९७७५), ततश्छेदकराशिना पञ्चत्रिंशदधिकाष्टादशशतरूपेण (१८३५) भागो हियते, लभ्यन्ते पञ्च षष्टयधिकानि त्रोणि शतानि (३६५) अथवा छेद्यछेदकराश्योः पञ्चभिरपवर्त्तना क्रियते, तत्र छेद्यराशेः (१८२५) पञ्चभिरपवर्तना करणे लब्धानि पञ्चषष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६५), छेदकराशेः (१८३५) पञ्चभिरपवर्तनाकरणे लब्धानि सप्तषष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६७), तत आगतम् एकेन परिपूर्णेन रात्रिन्दिवेन द्वितीयस्य रात्रिन्दिवस्य च सप्तषष्टयधिकत्रिंशतभागविभक्तस्य मध्यात् द्वाभ्यां-भागाभ्यामूनाभ्याम् इति पञ्चषष्टयधिकत्रिशतभाग (१२६१) नक्षत्र मेकं मण्डलं चरतीति । साम्प्रतं चन्द्रादीनां युगविषयकं मण्डलचारमाह-तत्र प्रथमं चन्द्रस्य मण्डल चार माह-'ता जुगेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जुगेणं' एकेन युगेन एकं युगमधिकृत्य एकस्मिन् युगे इत्यर्थः 'चंदे' चन्द्रः 'कइ मण्डलाइं चरइ' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'अट्ठचुलसीयाई मंडलसयाई' अष्ट चतुरशीतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलशतानि चतुरशीत्यधिकानि अष्टशतानि (८८४) मण्डलानां 'चरइ' चरति । तथाहिचन्द्रः अष्टानवतिशताधिकेन एकेन शतसहस्त्रेण (१०९८००) प्रविभक्तस्य मण्डलस्य अष्टषष्टयधिकसप्तदशशतसंख्यकान् (१७६८) भागान् एकेन मुहूर्तेन गच्छति त्रिंशदधिकाष्टादशशत (१८३०) दिवसात्मके युगे च दिवसस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वेन मुहूर्ताः सर्व संख्यया नवशताधिकानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि (५४९००) भवन्ति, ततः अष्टषष्टयधिकानि सप्तदश शतानि (१७६८) नवशताधिकैश्चतुः पञ्चाशत्सहस्रैः (५४९००) गुण्यन्ते जायन्ते-नव कोटयः, सप्ततिर्लक्षाः, त्रिषष्टिः सहस्राणि, द्वेशते (९७०६६२००), ततोऽस्य राशेः अष्टानवति शताधिकेन एकेन शतसहस्रेण (१०९८००) मण्डलानयनाथै भागो हियते, लब्धानि चतुरशीत्यधिकानि अष्ट मण्डलशतानि (८८४) इति । . अथ सूर्यस्य मण्डलचारमाह-'ता जुगेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जुगेणं' एकेन युगेन 'सूरिए' सूर्यः 'कइ मंडलाइं चरइ' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह-'ता' तावत् णव पण्णरसमंडलसयाई' नव पञ्चदशाधिकानि मण्डलशतानि (९१५) चरइ' चरति । तथाहि-यदि द्वाभ्यामहोरात्राभ्यामेकं सूर्यमण्डलं लभ्यते तदा सकल युग भाविभिस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतैरहोरात्रैः कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना-२।१।१८३०। अत्रान्त्येन राशिना मध्योराशिगुणितो जातस्तावानेव (१८३०), अत्याधेन राशिना द्विकरूपेण भागे हृते लभ्यन्ते पञ्चदशाधिकानि नवशतानि (९१५) । Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका. प्रा. १५ सु. ४ अहोरात्राद्याश्रित्य चन्द्रादीनां मण्डलचारम् ६२३ साम्प्रतं नक्षत्रस्य मण्डलचारमाह - ' ता जुगेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जुगेण ' एकेन युगेन 'णक्खत्ते' नक्षत्रं 'कइमंडालाई चरइ' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह 'ता' तावत् 'अट्ठारस पणतीसाई दुभाग मंडलसयाई' अष्टादशपञ्चत्रिंशदधिकानि द्विभागमण्डलशतानि-द्वितीयभागमण्डलशतानि - एकस्य मण्डलस्य द्वौ भागौ अर्द्धार्द्धरूपो कर्त्तव्यौ द्वयोर्मध्यात् एकमर्द्धभागं त्यक्त्वा द्वितीयोर्द्धभागोऽत्र गृह्यते ततो द्विभागमण्डलशतानीतिअर्द्धमण्डलशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि अर्द्धमण्डलानां (१८३५) 'चरइ' चरति । तथोहि-नक्षत्र मष्टावतिशताधिकेन एकेन शतसहस्रेण (१०९८०० ) प्रवि भक्तस्य मण्डलस्य सम्बन्धिनः पञ्चत्रिंशदधिकाष्टादशशत संख्यकान् एकेन मूहूर्त्तेन गच्छति, युगे च मुहूर्त्ताः सर्व संख्यया नवशताधिकानि चतुष्पञ्चाशत् सहस्त्राणि (५४९००) भवन्ति, तत एतैर्नवशताधिकैश्चतुष्पञ्चाशत्सहस्त्रैः (५४९००) पञ्चत्रिंशदधिकाष्टादशशतानि (१८३५) गुण्यन्ते, जायन्ते दश कोटयः सप्तलक्षाः एकचत्वारिंशत्सहस्राणि पञ्चशतानि (१००७४१५०० ) इह चार्द्ध मण्डलानि ज्ञातुमिष्टानि ततः अष्टा नवतिशताधिकस्य एकस्य शतसहस्रस्य (१०९८००) अर्जे कृते यानि नबशताधिकानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि (५४९००) भवन्ति तैर्भागो ह्रियते, हृते च भागे लभ्यन्ते - पञ्चत्रिंशदधिकानि-अष्टादशशतानि (१८३५) यथोक्तानि अर्द्ध मण्डलानीति । (१८३५) भागान् साम्प्रतं सकल प्राभृतमुपसंहरन्नाह - 'इच्चेसा मुहुत्तगई' इत्यादि 'इच्चेसा' इत्येषाइति- एवमुक्तेन प्रकारेण एषा - अनन्तरोदिता ' मुहुत्तगई' मुहूर्त्तगतिः प्रतिमुहूर्ते चन्द्र सूर्य नक्षत्राणां गतिपरिमाणं, तथा 'रिक्खाइमासराईदिय जुगमंडलपविभत्ता' ऋक्षादिमास रात्रिन्दिवयुगमण्डलप्रविभक्ता, तत्र ऋक्षादिमासानू - नक्षत्र-चन्द्र सूर्यामिवर्द्धितमासान्, तथा रात्रिन्दिवानि, तथा युगं चाधिकृत्य मण्डलानां प्रविभक्तिः पृथक् पृथकत्वेन मण्डलसंख्या प्ररूपणा रूपः प्रविभागः, तथा 'सिग्घगईवत्थू' शीघ्र गतिरूपं वस्तु च इत्येतत् पञ्चदशे प्राभृते 'आहियं' आख्यातम् ' तिबेमि' इति ब्रवीमि यथा भगवन्मुखात् श्रुतं तथा ब्रवी मि कथयामि, इति सुधर्मस्वामिवचनम् । इदं च भगवद्वचनमतः पूर्वोक्तं सर्वं सम्यक्तया श्रद्धेयमिति भावः ॥ सू० ४॥ . इति श्री जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्रीघासीलालब्रतिविरचितायांश्री चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकायां व्याख्यायां पञ्च दशं प्राभृतं समाप्तम् ॥ | श्री रस्तु | १५ ॥ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.२४ चन्द्र प्रशतिसूत्रे । षोडशं प्राभृतम् !' व्याख्यातं पञ्चदशं प्राभृतम्, तत्र चन्द्रादीनां गति परिमाणं नक्षत्रादिमासान् रात्रिदिवं युगं चाधिकृत्य मण्डलसंख्या शीघ्रगतिरूपं च वस्तु रूपितम्, अथ षोडशं प्राभृतं व्याख्यायते, अत्रायमर्थाधिकारः - पूर्वं द्वारगाथायां 'किं ते दोसिणलक्खणं किं ते ज्योत्स्ना लक्षणम्-इति कथितं तदेवात्र प्रतिपादयिष्यते ततस्तत्स्वरूपमेवेदं सूत्रमाह- 'ता कहं ते दोसणा लक्खणं' इत्यादि । : मूलम-ता कहं ते दोसिणलक्खर्ण आहिये ? तिवएज्जा, ता चंद लेस्साइ य दोसिणाइय, दोसाणाइय चंद लेस्साइय के अड्डे किं लक्खणे ? ता eg गलक्ख । ता सूरियलेस्साइय आयवेइ य आयवेश्य सूरियलेस्साइये के अट्ठे किं लक्खणे ? ता एगट्ठे एगलक्खणे । ता अंधयारेश्य छायाइय, छायाइय अंधार के अट्ठे कि लक्खणे ? ता एगट्ठे एगलक्खणे ॥ सू १ ॥ ॥ सोलसमं पाहुडं समतं ।। १६ ।। ? छाया तावत् कथं ते ज्योत्स्ना लक्षणम् आख्यातम् ? इति वदेत् । तावत् चन्द्रलेश्या इति च ज्योत्स्ना इति च, ज्योत्स्ना इति च चन्द्रलेश्या इति च कोऽर्थः किं लक्षणः ? तावत् एकार्थः एकलक्षणः । तावत् सूर्यलेश्या इति च 'आतप इति च, आतप इति व सूर्यलेश्या इति च कोऽर्थः किं लक्षणः ? तावत् पकार्थः एकलक्षणः । तावत् अन्धकार इति छाया इति च छाया इति च अन्धकार इति कोऽर्थः किं लक्षणः ? एकार्थः एकलक्षणः ॥ सू० १ ॥ ॥ षोडशं प्राभृतं समासम् ॥१६॥ व्याख्या- 'ता कहं ते इति, 'ता' तावत् 'क' कथं केन प्रकारेण हे मम्बन् 'ते' त्वया 'दोसिणलक्खणं' ज्योत्स्सा लक्षणं ज्योत्स्नायाः चन्द्रप्रकाशंरूपाया: लक्षणं 'आहियं' आख्यातम् ज्योत्स्ना क़िलक्षणा भवता प्रतिपादितेति भावः 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु । एवं सामान्यतः प्रश्नं कृत्वा विशेषतः पृच्छति - 'ता चंदलेल्या इ य इत्यादि, 'सा' तावत् 'चंदलेस्सा इ य' चन्द्रलेश्या इति च एवं 'दोसिणा ह य ज्योत्स्ना इति च, अनमो ईयों: पदयोः तथा 'दोसिणा ई य चंदलेस्सा इ य । ज्योत्स्ना इति च चन्द्रलेश्या इति च अनयोर्द्वयोश्च पदयोः, अत्राक्षराणामानुपूर्वी भेदो लोके दृष्टः, यथा 'आगमो देवः इति, एवं पदानामपि चानुपूर्वी भेददर्शनादर्थभेदो दृश्यते, यथा शिष्यस्य गुरुः, गुरोः शिष्य इति एवमत्रापि कदाचिदानुपूर्वी भेदतोऽर्थभेदो भवेत् ? इत्याशङ्कामाश्रित्य 'चन्द्रलेश्या इति त्स्ना' इत्युक्त्वा ज्योत्स्ना इति चन्द्रलेश्या ? इति प्रश्नः "कृत इति । चन्द्रलेश्या ज्योत्स्ना चेति द्वो पदौ आनुपूर्व्या अनानुपूर्व्या वा यदि व्यवस्थितौ भवेतां तदाऽनयो 'के अट्ठे' Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १६. सू. १ चन्द्रस्य ज्योत्स्नालक्षणादिनिरूपणम् ६२५ कोऽर्थः किं परस्परं भिन्नोऽर्थः उताभिन्नः ?, स चार्थः 'किलक्खणे' किं लक्षणः किं स्व पोऽस्ति ? लक्ष्यते - तदन्यव्यवच्छेदेन ज्ञायते येन तत्-लक्षणम् असाधारणं स्वरूपं किं लक्षणं यस्य स किं लक्षणः कीदृगलक्षणवान् किं स्वरूपोऽयमर्थः ? इनि प्रश्नः । भगवानाह - 'ता एगट्ठे एगलक्खणे' तावत् एकार्थः एकलक्षणः चन्द्रलेश्या इति बदद्वयमपि एकार्थकम् एकलक्षणम् अस्ति अनयोर्द्वयोः पदयोः आनुपूर्व्याऽनानुपूर्व्या वा यथा कथञ्चिदपि व्यवस्थितयोरेक एव अभिन्न एव अर्थो भवेत् न तु भिन्नः, चन्द्रलेश्या इति कथयतु, अथवा ज्योत्स्ना इति वा कथयतु नात्र कोऽपि भेद इति भावः । अथ सूर्य ... विषयं प्रश्नमाह - 'ता सूरियलेस्सा इ य' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सूरियलेस्सा इ य आयवे.. इय, आयवे. इ य सूरियस्लेसा ई य' सूर्यलेश्या इति च आतप इति च आतप इति च सूर्यलेश्या इति च, अनयोरपि चन्द्रलेश्या ज्योत्स्ना पदयोरिव एकोऽर्थः एक क्ष चेत्युत्तरम् । एवं छायाऽन्धकाररूपयोः पदयोरपि एकार्थत्वमेकलक्षणत्वमपि भावनीयमिति स्पष्टार्थत्वान्नं व्याख्यायते इति ॥ सू० ॥ १ ॥ इति श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल व्रतिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकायां व्याख्यायां षोडशं प्राभृतं समाप्तम् ॥१६॥ 3 । अथ सप्तदशं प्राभृतम् । व्याख्यातं . षोडशं प्राभृतम् तत्र चन्द्रलेश्याज्योत्स्नायाश्च सूर्यस्य आतपस्य च अन्धकारस्य छायायाश्च परस्परमभेदः प्रतिपादितः । अथ सप्तदशं प्राभृतं व्याख्यायते, अस्य चायमर्थाधिकारः पूर्वं द्वारगाथासु 'चवणोववाए' इति च्यवनोपपातौ वक्तव्यौ इति कथितं तद्विषयकं पञ्चविंशतिप्रतिपत्याद्यात्मकं सूत्रमाह- 'ता कहं ते चवणोववाया' इत्यादि । मूलम् -- ता कहं ते चवणोववाया आहिया । ति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ । तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु ता अणुसमयमेव चदिम सूरिया अण्णे चयंति अण्णे उववज्जंति एगे एवमाहंसु १ एगे पुण एवमाहंस ता अणुमुत्तमेव चंदिम सूरिया अण्णे चयंति अण्णे उववज्जति एगे एवमामु २ | एवं जहेव ट्ठा तहेव जाव ता एगे पुण एवमाहंसु - ता अणुओसप्पिणी उस्सपिणीमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति अण्णे उववज्जति एगे एवं मासु २५ । वयं पुण एवं वयामो- ता चंदिमसूरियाणं देवा महिइढिया महाजुइया महाबला महानसा महा ७९ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ mimimi बन्द्रप्राप्तिसूत्रे सोक्खा महाजुभावा वरवत्थधरा वरमल्लधरा वर गंधधरा वराभरणधरा अवोच्छित्ति नयट्टयाए काले अण्णे चयंति अण्णे उववति । सू. १ सत्तरसमं पाहुडं समत्तं ॥१७॥ छाया तावत् कथं ते च्यवनोपपातौ आख्यातौ ! इति वदेत् तत्र खलु इमाः पञ्चविंशतिः । प्रतिषत्रायः प्रशताः, तद्यथा तत्र एके पवमाहुः तावत् अनुसमयमेवचन्द्र सूर्वा अन्ये च्यवन्ते अन्ये उपपद्यन्ते, एके पवमाहुः । एके पुनरेवमाहुः तावत् अनुमुहूर्तमेव चन्द्रसूर्या अन्ये च्यवन्ते अन्ये उपपद्यन्ते, एके एवमाहुः। एवं यथैव अधस्तात् तथैव यावत् तावत् एके पुनरेवमाहुः अन्ववसर्पिणीमेव चन्द्रसूर्या अन्ये च्यवन्ते अन्ये उपपद्यन्ते एके एवमाहुः २५। षर्य पुनरेवं वदामः तावत् चन्द्र सूर्याः खलु देवा महद्धिका महाद्युतिका, महाबला महयशसः महासौख्या महानुभावा वरवस्त्रधरा वरमाल्यधरा वरगन्धधरा वरामरमधरा अव्युच्छित्तिनयार्थतया काले अन्ये उपपद्यन्ते ॥ सूत्र ॥१॥ सप्तदरी प्राभृतं समाप्तम् ॥१७॥ व्याख्या-'ता कहं ते चवणोववाया' इति 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण हे भगवान् 'ते' त्वया चन्द्रसूर्याणां 'चवणोववाया' च्यवनोपपातौ 'आहिया' आख्यातौ 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु । भगवानाह-'तत्थ खलु' तत्र चन्द्रसूर्यच्यवनोपपात विषये खलु 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'पणवीसं' पञ्चविंशति 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परतीर्थिकमतरूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः तं जहा' तद्यथा ता यथा-'तत्थ' तत्र पञ्चविंशतिप्रतिपत्तिवादिषु 'एगे' एके प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः 'एवमासु' एवमाहुः वक्ष्यमाणप्रकारेण कथयन्ति । तदेव दर्शयति-'ता अणुसमयमेव' इत्यादि 'ता' तावत् 'अणुसमयमेव' अनुसमयमेव प्रतिसमय-समये-समये 'चंदिमसरिया' चन्द्रसूर्याः बहुवचनमत्र चन्द्र सूर्याणां जम्बूद्वीपे द्वि द्वि भावेन चतुः संख्यकत्वात् 'अण्णे' अन्ये पूर्वोपपन्नाः 'चयंति' च्यवन्ते स्वस्व विमानात् च्युता भवन्ति पूर्वोत्पन्नानां च्यवनं भवतीत्यर्थः तदनन्तरं 'अण्णे' भन्ये अपूर्वा 'उपवज्जति' उपपचन्ते उत्पन्ना भवन्ति अन्येषामपूर्वाणां तत्रोपपातो भवतीत्यर्थः उपसंहारमाह-'एगे' इत्यादि, 'एगे' एके पूर्वोकाः प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः ‘एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति । एषा प्रथमा प्रतिपत्तिः ।११ द्वितीयामाह-'एगे पुण इत्यादि, 'एगे पुण' एके केचन द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः पुनः ‘एवमासु' एवमाहुः वक्ष्य. माणप्रकारेण कथयन्ति-'ता' तावत् 'अणुमुहुत्तमेव' अनुमुहूर्तमेव प्रतिमुहूर्त मुहूर्ते मुहूर्तेनस्वनुसमयम् 'चंदिममूरिया' चन्द्रसूर्याः 'अण्णे चयंति :अण्णे उववज्जति' अन्ये पूर्वो त्पन्नाः च्यवन्ते अन्येऽपूर्वा उपपद्यन्ते, उपसंहरति-'एगे एवमाहंसु एके पूर्वोक्ताः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति द्वितीया प्रतिपत्तिः ।२। अथ तृतीयप्रतिपत्तित आरभ्य चतुर्विशतिप्रतिपत्तिपर्यन्तं षष्ठ प्राभृतातिदेशेनाह-'एवं जहेंव' इत्यादि, ‘एवं' एवम् Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशशिप्रकाशिका टीका० प्रा.१७ सू. १ चन्द्रसूर्याणां च्यवनोपपात निरूपणम् ६२७ अनयैव रीत्या उक्तालापक रूपया ' जहेव हेट्ठा' यथैव अधस्तात् षष्टे प्राभृते ओजः संस्थिति प्रकरणे चिन्त्यमाणे पञ्चविंशति प्रतिपत्तयः अनुसमयमित्यारभ्य, अनुसागरोपमशतसहस्त्रम्' इति पर्यन्तं चतुर्विंशति प्रतिपत्तयस्तत्र प्रोक्ताः 'तहेव' तथैव तेनैव रूपेण अत्र च्यवनो पपातविषयेऽपि वक्तव्या । कियत्पर्यन्तमित्याह - 'जाव' यावत् पश्चविंशतितमा प्रतिपत्तिरायाति सावत् वक्तव्याः । पञ्चविंशतितमा प्रतिपत्ति सूत्रकारः स्वयमेवाह - 'ता' एगे पुण' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगे पुण' एके पश्चविंशतितम प्रतिपत्तिवादिनः पुनः ' एवं ' एवम् वक्ष्यमाण प्रकारेण 'आहंस' आहुः कथयन्ति - 'ता' तावत् 'अणुओसप्पिणी उस्सप्पिणीमेव' अन्ववसर्पिण्युत्सर्पिणीं 'चंदिमसूरिया चन्द्रसूर्याः 'अण्णे' चयंति अन्ये च्यवन्ते 'अण्णे उववर्ज्जति' अन्ये उत्पद्यन्ते उपसंहारमाह - 'एगे' एवम् पूर्वोक्ता अन्तिमपञ्चविंशतितमप्रतिपत्तिवादिनः ' एवं ' एवम् सर्वप्रदर्शितप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्तीति पञ्चविंशतितमा प्रतिपत्तिः ॥ २५ ॥ अत्र प्रथमा द्वितीया पञ्चविंशतितमा च प्रतिपत्तिः सूत्रे एव प्रदर्शिता मध्यमा तृतीया प्रतिपत्तित आरभ्य चतुविंशति प्रतिपत्तिपर्यन्तं द्वाविंशतिः २२ प्रतिपत्तयो यावच्छन्द गाह्या षष्ठ प्राभृतस्थितौजः संस्थिति प्रकरणगताश्च संक्षेपेण प्रदर्श्यन्ते, तथाहि - तृतीया प्रति पत्तिवादिनः 'अणुराईदियमेव' इति ३ । चतुर्थाः 'अणुपक्खमेव इति ४ । पञ्चमाः 'अणुमा - समेव' ५। ' षष्ठा 'अणुउउमेव' इति' सप्तमा 'अणुअयणमेव' इति ७ । अष्टमाः 'अणुसंवच्छरमेव' इति ८ । नवमा: 'अणुजुगमेव' इति ९ । दशमा: 'अणुवास सयमेव' इति १० । एकादशाः 'अणुवाससहस्समेव ' इति ११ । द्वादशा: 'अणुवाससयसहस्समेवः इति १२ । त्रयोदशाः ‘अणुपुव्वमेव' इति १३ । चतुर्दशा : 'अणुपुव्वयमेव ' इति १४ । पञ्चदशाः 'अणुपुव्वसहस्तमेव ' इति १५ । षोडशाः 'अणुपुव्वसय सहस्समेव ' इति १६ । सप्तदशाः 'अणुपलिओममेव ' इति १७ । अष्टादशा: 'अणुपलि ओवमसयमेव' इति १८ एकोनविंशाः 'अणुपलिओवमसहस्समेव' इति १९ । विंशतितमाः 'अणुपलि ओवमसयसहस्समेव ' इति २०| एकविंशतितमाः ‘अणुसागरोवममेव ' इति २१ । द्वाविंशतितमाः 'अणुसागरोवमसयमेव' इति २२ । त्रयोविंशतितमाः 'अणुसागरोवमसहस्तमेव' इति २३ । चतुर्विंशति तमाः 'अणु साग रोवम सय सहस्तमेवय' इति २४ एतास्तृतोयप्रतिपत्तित आरभ्य चतुर्विंशतितम प्रतिपत्तिपर्यन्ता द्वाविंशति प्रतिपतयो यावच्छन्द प्राह्या अत्रावसेयाः । आसां सर्वासामालापकप्रकारः स्वयमूहनीयइति । इत्येवं प्रोक्ता अन्यतीर्थिकमतरूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः सर्वा अपि मिथ्या रूपा एव ततो भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति- 'वयं पुण' इत्यादि, 'वयं पुण' वयं पुनः वयं तु 'एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदाम कथयामः 'ता' तावत् ' चंदिमसूरिया णं देवा' चन्द्रः सूर्या खलु देवाः महिइढिया महर्द्धिका विमानपरिवारादि संपन्नाः, 'महाजुइया' Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८. . . चन्द्रप्राप्ति महाद्युतिकाः शरीराभरणादि कान्तिमन्तः, 'महाबला' महाबलाः बलं शरीरसामर्थं तद्वन्तः, 'महाजसा' महायशसः जगद्विस्तृतश्लाघा सम्पन्नाः, अत एव 'महासोक्खा' महासौख्याः भवनपतिव्यन्तरसुखेभ्यो विपुवसौख्यशालिनः . 'महानुभावा' महानुभावाः-महान् अनुभाव प्रभावो क्रियकरणादि विषयकोऽचिन्त्य शक्ति विशेषो येषां ते तथा वैक्रियकरणादिविशिष्ट शक्ति सम्पन्नाः, 'वरवत्थधरा' वरवस्त्रधराः दिव्यवस्त्रधारिणः 'वरमल्लधरा' वरमाल्यधरा:-दिव्य पुष्पमाला धारिणः, 'वरगंधधरा' वर गन्धधराः-घाण . सुखद दिव्यगन्धधारिणः, 'वराभरणधरा' वराभरणधरा-श्रेष्ठदिव्य कटक कुण्डल केयूराद्याभूषणधारिणः, एतादृशास्ते चन्द्रसूर्याः 'अव्वोछित्तिनयट्टयाए' अव्युच्छित्तिनयार्थतया द्रव्यार्थिकनयमतेन 'काले' काले वक्ष्यमाण स्व वायुः क्षये 'अण्णे' अन्ये पूर्वोत्पन्नाः पूर्व ये तत्रावस्थितास्ते 'चयंति' च्यवन्ते स्वस्व विमानाच्च्युता भवन्ति, तथा 'अण्णे' अन्ये तदितरे तथा जगत्स्वाभाव्यात् जघन्येन एक समयम् उत्कृष्टेन षण्मासावधि विरहकालसद्भावः इति षष्मासादारतो नियमात् 'उववज्जति' उपपद्यन्ते, इत्यस्माकं केवलालोकेन दृष्टिगोचरीकृतं मतमिति । सू० १॥ ॥ इति श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल र व्रति विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्ति प्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायां सप्तदशं प्राभृतं समाप्तम् ॥१७॥ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा. १८ सू.१ भूमितः सूर्यचन्द्रयोरूच्चत्वनिरूपणम् १२१ ॥ अथाष्टादशं प्राभृतम् ॥ गतं सप्तदशं प्राभृतम्, तत्र चन्द्रसूर्याणां च्यवनोपपातौ प्रदर्शितौ । अथाष्टादश ग्रामस व्याख्यायते, अत्रायमर्थाधिकारः-पूर्वद्वारगाथाया 'उच्चत्त' इति, भूमितऊर्ध्वमुच्चत्व प्रमाण वक्तव्यमिति तद्विषयकं सूत्रमाह-'ता कहते उच्चत्ते' इत्यादि । . __ मूलम् -- ता कहं ते उच्चत्ते आहिए ? तिवएज्जा तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिक तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थ एगे एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं सूरिए उड्ढे उच्चत्तेणं, दिवइदं चंदे एगे एवमाइंसु १। एगे पुण एवमाहंसु ता दो जोयण सहस्साइं सूरिए, उड्डू उच्चत्तेणं, अड्ढाइज्जाइं चंदे, एगे एवमासु २। एवं एएणं अभिलावेणं णेयव्वं तिन्नि जोयणसहस्साई सूरिए अट्ठाई चंदे '३, चत्तारि जोयण सहस्साई मूरिए, अद्धपंचमाइं चंदे ४, पंच जोयणसहस्साई सूरिए, अद्धछट्ठाई चंदे ५, छ जोयणसहस्साई सूरिए अद्धसत्तमाई चंदे ६, सत्तजोयण सहस्साई सूरिए अट्टमाइं चंदे ७, अट्ठजोयण सहस्साई मूरिए अद्धनवमाई चंदे ८, नव जोयणसहस्साई सूरिए, अद्धदसमाई चंदे ९ दस जोयण सहस्साई सरिए अद्धएकारस, चंदे १०। एक्कारस जोयण सहस्साइं सरिए अद्ध बारस० चंदे ११ । बारस० सरिए अद्ध तेरस० चंदे १२ । तेरस० सूरिए अद्ध चोदस० चंदे १३ । चोदस० सूरे अद्र पण्णरस० चंदे १४ । पण्णरस० सूरे अद्ध सोलस० चंदे १५। सोलस० सरिए अद्ध. सत्तरस० चंदे १६ । सत्तरस० सूरिए अद्ध अट्ठारस० चंदे १७ । अट्ठारस० रिए अद्ध एगृणवीसं० चंदे १९ । वीसं सरिए अद्ध एक्कवीसं० चंदे २० । एक्कावीस सरिए अद्ध बावोसं चंदे २१ । बावीसं० सरिए अद्धतेवीसं० चंदे २२ । तेवीसें सूरिए अद्ध चउवीसं० चंदे २३ । चउवीसं० सूरिए अद्धपणवीसं० चंदे, एगे एवं माहंसु २४ । एगे एव माहंसु पणवोसं जोयणसहस्साई सूरिए उइहं उच्चत्तेणं, अब छव्वीसं० चदे, एगे एवमाहंसु २५ । वयं पुण एवं वयामो ता इमीसे रयणप्पभाएं पुढवीए बहु समरमणिज्जाभो भूमिभागाओ सत्तणउयाई उड्ढं अबाहाए हेडिल्ले तारा रूबे चारं चरइ, अट्ठयोजणसयाई उड्ड अबाहाए सूरियविमाणे चारं चरहू, अट्ठअसीयाई जोएणसयाई उड्ढे अबाहाए उवरिल्ले तारा रूवे चारं चरइ, । हेट्ठिल्लाओ तारा रूवाओ दस जोयणाई उड्ड अबाहाए सूरियविमाणे चारं चरइ, नउई जोयणाई उड्ढे अबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ, दसोत्तरं जोयणसयं उड्ढं अबाहए उरिल्ले तारा रूबे चारं चरइ । ता सूरियविमाणाओ असीइं जोयणाई उइदं अबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ । जोयणसयं उडुड़े अवाहाए उवरिल्ले तारा रूबे चारं चरइ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ता चंदविमाणाओ णं वीसं जोयणाई उड्ढे अबाहाए उवरिल्ले तारा रूबे चारं चरइ, एवामेव सपुव्वावरेणं दसुत्तर जोयणसय बाहल्ले तिरियमसंखेज्जे जोइसविसए जोइसं चारं चरइ आहिए तिवएज्जा । सू०॥१॥ छाया-तावत् कथं ते उच्चत्वं आख्यातम् ? इति वदेत्, तत्र खलु इमाः पञ्च विंशतिः प्रतिपत्तयः प्रक्षप्ताः, तद्यथा-तत्र. एके एवमाहुः तावत् एकं योजनसहस्रं सूर्य ऊर्ध्वमुम्चत्वेन, द्वथद्धं चन्द्रः, एके एवमाहुः १। एके पुनरेवमाहुः-तावत् द्वे योजन सहने सूर्य ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, अर्द्ध तृतीयानि० चन्द्रः, एके एवमाहुः २। एवम् एतेन अभिलापेन ज्ञातव्यम् त्रीणि योजन सहस्राणि सूर्यः, सार्द्धचतुर्थानि चन्द्रः । चत्वारि योजनसहस्राणि सूर्यः; अद्धपञ्चमानि चन्द्रः ४ । पञ्च योजनसहस्राणि सूर्यः अर्द्ध षष्ठानि चन्द्रः ५। षट् योजन सहस्राणि सूर्यः अद्धषष्ठानि चन्द्रः ५। षट् योजन सहमाणि सूर्यः अर्द्ध सप्तमानि चन्द्रः ६। सप्त योजन सहस्राणि सूर्यः, अष्टिमानि चन्द्रः ७। अष्ट योजनसहस्राणि सूर्यः, अर्द्ध नवमानि चन्द्रः ८। नव योजनसहस्राणि सूर्यः, अर्द्ध दशमानि चन्द्रः ९ । दश योजन सहस्राणि सूर्यः, अर्द्ध कादशानि चन्द्रः १० । एका दश योजन सहस्राणि सूर्यः, अर्द्ध द्वादशानि चन्द्रः ११। द्वादशः सूर्यः, अर्द्ध त्रयोदश चन्द्रः १२ । प्रयोदश० सूर्यः, अर्द्ध चतुर्दश० चन्द्रः १३। चतुर्दश सूर्यः अर्द्ध पञ्चदश० चन्द्रः १४ । पञ्चदश० सूर्यः, अर्द्धषोडश० चन्द्रः १५। षोडश० सूर्यः, अर्द्ध सप्तदश० चन्द्रः १६ । सप्तदश० सूर्यः अष्टिादश० चन्द्रः १७ । अष्टादश सूर्यः, अर्द्धकोनविंश० चन्द्रः १८। एकोनविति. खूर्यः, अर्द्धविश० १९ । विंशति० सूर्यः अद्वैकविंश चन्द्रः २० । एकविशति० सूर्यः, अर्द्ध द्वाविश० चन्द्रः २१। द्वाविंशति० सूर्यः, अर्द्ध त्रयोविंश० चन्द्रः २२ । त्रयोविंशति० सूर्यः अद्ध चतुर्वि श० चन्द्रः २३ । चतुर्विशति सूर्यः, अर्द्धपञ्चविश. चन्द्रः एगे एवमाहुः २४ । एके पुनरेवमाहुः-पञ्चविंशतियोजन सहस्राणि सूर्य उर्ध्व मुख्यत्वेन, अर्द्धट्दिर्शात. चन्द्रः एके एवमाहुः २५। वयं पुनरेवं वदामः तावत् मस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहु समरमणीयाद् भूमिभागात् सप्तनवतानि योजन शतानि ऊर्ध्वम् अबाधया अधस्तनं तारा रूपं चारं चरति, अष्ट योजन शतानि ऊर्ध्वमबाधया सूर्य विमान चारं चरति, अष्ट अशोतानि योजन शतानि ऊर्ध्वमवाधया चन्द्र विमानं चारं बरति, नव योजन शतानि ऊर्ध्वमबाधया उपरितन तारारूपं चारं चरति, अधस्तनात् तारारूपात् दश योजनानि ऊर्ध्वमबाधया सूर्यविमानं चारं चरति, नवति योजनानि ऊर्यमबाधया चन्द्रविमानं चारं चरति, दशोत्तरं योजनशतं ऊर्ध्वमबाधया उपरितनं तारा रूपं वारं चरति, । तावत् सूर्य विमानात् अशोति योजनानि ऊर्ध्वमबाधया चन्द्रविमानं बार चरति, योजनशतम् ऊर्ध्वमबाधया उपरितनं, तारारूपं चारं चरति । तावत् चन्द्रविमानात् खलु विशति योजनानि ऊर्ध्वमबाधया उपरितनं तारारूपं चारं चरति । एवमेव सपूर्वापरेण दशोत्तरयोजनशतबाहल्ये तिर्यगअसंख्येये ज्योतिर्विषये ज्योतिष चार चरति, आख्यातमिति वदेत् । सू० ॥१॥ व्याख्या-'ता कहते' इति 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण हे भगवन् ! ते त्वया 'उच्चत्ते' उच्चत्वं भूमितऊर्ध्वं चन्द्रादोना मुच्चत्वं 'आहियं' आख्यातम् ? 'तिवएज्जा' इति Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका० प्रा० १८ सु. १ भूमितः सूर्यचन्द्रयोरुच्चत्व निरूपणम् १३१ वदेत् वदतु कथयतु । एवं गोतमेन पृष्टे भगवान् एतद्विषये परतीर्थिकानां प्रतिपत्तयो यावत्यः सन्ति ताः प्रदर्शयति- 'तत्थ' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र स्खलु चन्द्रादीनामुच्चत्वविषये 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'पणवीसं' पश्चविंशतिः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परतीर्थिकमत रूपाः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः कथिता 'तं जहा' तद्यथा - ता यथा - ' तत्थ' इत्यादि 'तत्थ' तत्र पश्च विंशति प्रतिपत्तिवादिषु मध्ये 'एगे' एके प्रथमा: प्रतिपत्तिवादिनः ' एवं ' एवम् वक्ष्य माणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति 'तो' तावत् 'एग जोयणसहस्स' एकं योजन सहस्रम् ‘स्वरिए' सूर्य ‘उहृदं उच्चत्तेण' 'ऊर्ध्वम्-भूमिते उपरि उच्चत्वेन उच्चत्वमाश्रित्य चारं चरतीति योगः, तथा 'दिवट' द्वयं साधैकं योजनसहस्रम् 'चंदे' चन्द्रश्चारं चरति, उपसंहारेमाह-‘एगे' एके प्रथमाः ' एवं ' एवं पूर्वोक्त प्रकारेण आहंसु' आहुः कथयन्तीति प्रथमा प्रतिपत्तिः १ । ‘एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः 'एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाण प्रकारेण भाहुः कथयन्ति 'दो जोयणसहस्साई सूरिंग' द्वे योजनसह ने 'उड्ट' भूमेरूर्ध्व 'उच्च तेणं' उच्चत्वमाश्रित्य 'सूरिए' सूर्यश्वारं चरति, 'अड्ढाइज्जाई' अतृतीयानि साद्वे द्वे योजन सहस्रे इत्यर्थः 'चंदे' चन्द्रश्चारं चरति । 'एगे' ऐके द्वितीया: 'एत्रमाहंसु' एवं पूर्वोक प्रकारेण आहुः कथयन्तीति द्वितीया प्रतिपत्तिः २ । ' एवं ' पूर्वोक्तरूपेण 'एए णं' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन 'अभिलावेणं' अभिलापेन आलापकप्रकारेण 'णेयव्वं' ज्ञातव्यम् इतोऽग्रेऽपि सर्वासु प्रतिपत्तिषु एतत्सदृशा एव आलापकाः कर्त्तव्याः केवल मुच्चत्वपरिमाणं पृथक् सूत्रोक्तानु सारेण विज्ञातव्यम् । तदेव दर्शयति- 'तिन्नि' इत्यादि " तिन्नि जोयण सहस्साई रिए त्रीणि योजनसहस्राणि सूर्यः, 'अट्ठाई चंदे' अर्द्ध चतुर्थानि अर्द्धेन चतुर्थेन सहितानि सार्द्धानि त्रीणीत्यर्थः योजन सहस्राणि चन्द्रः | ३ | ' चत्तारि जोयणसहस्साई सूरिए' चत्वारि योजन सहस्राणि सूर्यः 'अद्धपञ्चमाई चंदे' अर्द्ध पञ्चमानि पञ्चममं यत्र तानि सार्द्धानि चत्वारि योजनसहस्राणि चन्द्रः ४ | 'पंचजोयणसहस्साई सूरिए' पञ्च योजन सहस्राणि सूर्यः; 'अद्धछट्ठाई चंदे' अर्द्ध षष्ठानि अर्द्ध षष्ठं यत्र तानि सार्द्धानि प योजन सहस्राणि चन्द्रः ५। 'छ जोयणसहस्साई सूरिए' षड् योजनसहस्राणि सूर्यः, 'अद्धसत्तमाई चंदे' अर्द्ध सप्तमानि अर्द्ध सप्तमं यत्र तानि सार्द्धानि षड् योजन सहस्राणि चन्द्रः ६ । 'सत्तजोयणसहस्साई मूरिए' सप्त योजनसहस्राणि सूर्य:, 'अट्टमाई' अर्द्धष्ठमानि, अर्द्ध अष्टमं यत्र तानि सार्द्धाणि 'चंदे' चन्द्रः ७ । 'अट्टजोयणसहस्साई सूरिए' अष्ट योजनसहस्राणि सूर्यः, 'अद्धनवमाई' अर्द्धनवमानि अर्द्ध नवमं यत्र तानि सार्द्धाणि अष्ट योजन सहस्राणि 'चंदे' चन्द्रः ८ । 'नवजोयणसहस्साई सूरिए' नवयोजनसहस्राणि सूर्य: 'अद्धदसमाई' अर्द्धदशमानि अर्द्ध दशमं यत्र सानि नवयोजसहस्राणि 'चंदे' चन्द्रः ९ । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षतिखये 'दसजोयणसहस्साई मूरिए' दश योजनसहस्राणि सूर्यः, 'अद्वएक्कारसे०' अर्दैकादश० इति, अर्द्धमेकादशं यत्र तानि सार्दानि दश योजन सहस्राणि 'चंदे' चन्द्रः १० । 'एक्कारस जोयण सहस्साई सूरिए' एकादश योजनसहस्राणिं सूर्यः, 'अद्धवारस०' अर्द्ध द्वादशइति अर्द्ध द्वादशं यत्र तानि सार्द्धानि एकादश योजनसहस्राणि 'चंदे' चन्द्रः, ११ । एवम् 'बारस सरिए' द्वादश-द्वादश योजन सहस्राणि सूर्यः, अत्र योजन सहस्राणीति पदं योजनीयम् एवमग्रेऽपि सर्वत्र योग्यम् 'अद्ध तेरसे' अर्द्ध त्रयोदशानि अर्द्ध त्रयोदशं यत्र तानि सार्दानि द्वादश योजन सहस्राणि 'चंदे' चन्द्रः १२ । 'तेरस सूरिए' त्रयोदश योजन सहस्राणि सूर्यः, 'अद्ध चोदसे० अर्द्ध चतुर्दशइति अर्द्ध चतुर्दशं यत्र तानि सार्द्धानि त्रयोदशयोजन सहस्राणि 'चंदे' चन्द्रः . १३ । 'चोदस० सूरिय' चतुर्दश योजन सहस्राणि सूर्यः, 'अद्ध पण्णरस०' अर्द्ध पञ्चदश०इति अर्द्ध पञ्चदशं यत्र तानि सार्द्धानि चतुर्दश योजन सहस्त्राणि चंदे' चन्द्रः १४ । 'पण्णरस० सूरे' पञ्चदश योजन सहस्राणि सूर्यः 'अद्धसोलस० चंदे' अर्द्ध षोडश० इति अर्द्ध षोडशं यत्र तानि सार्दानि पञ्चदश योजन सहस्राणि चन्द्रः १५। 'सोलस० सूरिए' षोडश योजन सहस्राणि सूर्यः, - 'अद्धसत्तरसचंदे' अर्द्धसप्तदशइति अर्दै सप्तदशं यत्र तानि सार्द्धानि षोडशयोजनसहस्राणिचन्द्रः १६। 'सत्तरस० सरिए'-सप्तदश योजनसहनाणि सूर्यः, 'अद्धअट्ठारस० चंदे' अष्टिादश० इति अर्द्धमष्टादशं यत्र तानि सार्दानि सप्तदश योजनसहस्राणि चन्द्रः १७। 'अट्ठारस० मूरिए' अट्टादश योजनसहस्राणि सूर्यः, 'अदएगणवीस चंदे' अर्दै कोनविंशइति अर्द्धम् एको. नविशं यत्र तानि सार्दानि अष्टादश योजनसहस्राणि चन्द्रः १८। एगृणवीसं० सूरिए' एकोनविंशति योजनसहस्राणि सूर्यः, 'अद्धवीसं० चंदे' अर्द्धविंशानि इति अर्द्ध विशं यत्र तानि सार्द्धानि एकोनविंशति योजनसहस्राणि चन्द्रः १९। 'वीसं. सरिए' विंशति योजनसहस्राणि सूर्यः, 'अद्धएक कवीसं० चंदे' अदै कविंशानि अर्दम् एकविंशं यत्र तानि सार्दानि विंशति योजनसहस्राणि चन्द्रः २०। 'एक्कवीसं० मूरिए' एकविंशति योजन सहस्राणिसूर्यः 'अद्धबाबीसं चंदे' अर्द्ध द्वाविंशानि अर्द्ध द्वाविंशं यत्र तानि सार्दानि एकविंशतियो जनसहस्राणि चन्द्रः २१॥ 'बावीसं० सूरिए' द्वाविंशति योजनसहस्राणि सूर्यः, 'अद्धतेवीसं० चंदे' अर्द्धत्रयोविंशानि, अर्द्ध त्रयोविंशं यत्र तानि सार्द्धानि द्वाविंशति-योजनसहस्राणि चन्द्रः २२। 'तेवीसं० सूरिए' त्रयोविशति योजनसहस्राणि सूर्यः 'अद्धचउवीस चंदे' अर्द्ध चतुर्विशानि अर्द्ध चतुर्वि शं यत्र तानि सानि त्रयोविंशति योजनसहस्राणि चन्द्रः २३। 'चउवीसं० सूरिए' चतुर्विशतिं योजनसहसामिा सूर्यः, 'अद्धपणवीसं चंदे' अर्द्धपञ्चविंशानि अर्द्ध पञ्चविंशं यत्र तानि सार्दानि चतुर्विशति योजमसहस्राणि चन्द्रः, उपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु' एके चतुर्विंशतितमप्रतिपत्तिवादिनः, Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा० १८ सू. १ भूमितः सूर्यचन्द्रयोरुच्चत्व निरूपणम् ६३३ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः ।२४। अथ पञ्चविंशतितमा प्रतिपत्तिं सूत्रकार एव साक्षादाह-'एगे पुण' इत्यादि-एके पञ्चविंशतितमप्रतिपत्तिवादिन पुनः 'एवमाइंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः-कथयन्ति–'पणबीसं जोयणसहस्साई' पञ्चविंशति योजनसहस्राणि 'सरिए सूर्यः 'उड्ढं' ऊर्ध्वं भूमिभागात् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन उच्चत्वमाश्रित्य चारं चरति, 'अद्धछन्वीसं चंदे अर्द्धषड्विंशानि अर्द्ध षड्विंशं यत्र तानि सार्द्धानि पञ्चविंशति योजनसहस्राणि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन चन्द्रश्चारं चरति । उपसंहारमाह-'एगे' एके पञ्चविंशतितमप्रतिपत्तिवादिनः ‘एवं' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंसु' आहु कथयन्ति २५। तदेवमुक्ताः पञ्चविंशतिः परतीथिंकप्रतिपत्तयः । साम्प्रतं भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनः वयं तु 'एवं' एवं वक्ष्यमाण प्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः । तदेवाह-'ता इमीसे' इत्यादि, 'ता' तावत् 'इमीसे' अस्याः प्रसिद्धायाः 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात्-समतलरूपात् भूमिभागात् 'सत्तणउयाइं जोयणसयाई' सप्तनवतानि योजनशतानि नवत्यधिकानि सप्तशतानि (७९.) योजनानाम् 'उडूढ' उर्ध्व भूमि भागात् 'अबाहाए अबाधया अन्तरेण व्यवधानेन ‘हेढिल्ले तारारूवे' अधस्तनं तारा रूपं ज्योतिश्चक्रं 'चारं चरई' चारं चरति मण्डलगत्या परिभ्रमणं करोति । पूर्वोक्त भूमिभागोत् नवत्यधिकसप्तशत (९७०) योजनानि ऊर्ध्वं गत्वाऽत्रत एव ज्योतिश्चक्रं प्रारभते इति बोध्यम् । तथा-'अट्ठजोयणसए' अष्टौयोजनशतानि (८००) भूमिभागात् ऊर्ध्वमुत्प्लुत्य अधस्तनतारारूप ज्योतिश्चक्राद् दशयोजनानि गत्वेत्यर्थः 'अबाहाए' अबाधया व्यवधानेन 'सरियविमाणे चारं चरइ' सूर्यविमानं चारं चरति । तथा अस्या एव रत्नप्रभापृथिव्या बहुसमरमणीयभूमिभागात् 'अट्ट असीयाइं जोयसयाई' अष्ट अशीतानि योजनशतानि अशीत्यधिकानि अष्टौ योजनशतानि (८८०) 'उड्ढं' ऊर्ध्वं सूर्यविमानात् अशीतियोजनानि गत्वेत्यर्थः 'अबाहाए' अबाधया अन्तरेण 'चंदविमाणे चारं चरइ' चन्द्रविमानं चारं चरति । तथा 'णवजोयणसयाई' नव योजनशतानि परिपूर्णानि नवशतयोजनानि 'उड्ढे' ऊर्ध्वमुत्प्लुत्य चन्द्रविमानात् विंशतियोजनानि गत्वेत्यर्थः 'अबाहाए' अबाधया 'उवरिल्ले तारारूवे' उपरितनं तारारूपं ज्योतिश्चक्रं चारं चरति । तत्र-चन्द्रविमानादूर्ध्वं चत्वारि योजनानि गत्वाऽत्र नक्षत्र विमानानि सन्ति ४, अत्रतोऽग्रे चत्वारि योजनानि गत्वाऽत्र बुधग्रहो वर्त्तते, ८ तत्रत ऊर्ध्वं त्रीणि योजनानि गत्वाऽत्र शुक्रग्रहो वर्त्तते ११, तत्रतस्त्रीणि योजनानि ऊवं गत्वाऽत्र बृहस्पतिग्रहो वर्त्तते १४, तत्रतस्त्रीणि योजनानि ऊर्ध्व गत्वाऽत्र मङ्गल ग्रहो वर्तते १७, तत्रतस्त्रीणि योजनानि गत्वाऽत्र शनैश्चर ग्रहोवर्तते २०, इत्येवं चन्द्रविमानाद् विंशति योजनपरिमिते क्षेत्रे बाहल्येन उपरितनं तारारूपं Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे ज्योतिश्चक्रं चारं चरति, इत्येवं भूमिभागान्नवशतयोजनपर्यन्तक्षेत्रे परिपूर्ण ज्योतिश्चक्रं परिभ्रमति । ततः सर्वं ज्योतिश्चक्रं दशोत्तर शतयोजनप्रमाणकं बाहल्येन जातम् नवत्यधिकसप्तशत योजनत आरभ्य नवशतयोजनपर्यन्तं दशोत्तरशतयोजनभावात् । एतच्चाने सूत्रे एव प्रदर्शयिष्यते । पुनश्च-'हेटिल्लाओ तारारुवाओ' अधस्तनात् तारारूपात् ज्योतिश्चक्रात् 'उड्ढे' उर्व 'अबाहाए' अबाधया अन्तरेण 'दस जोयणाई' दशयोजनान्येव उपरिगत्वा अत्रान्तरे 'मरियविमाणं चारं चरइ' सूर्यविमानं चारं चरति । तस्मादेवाधनस्तनात् तारारूपात् ज्योतिश्चक्रात् 'उड्ढे अबाहाए' ऊर्ध्वमबाधया ‘णउई जोयणाई' नवति योजनान्येव गत्वा 'चंदविमाणे चारं चरइ' चन्द्रविमानं चारं चरति । एतस्मादेवाधस्तनात्तारारूपात् 'दसोत्तरं जोयणसयं' दशोत्तरं योजनशतं (११०) 'उड्द' ऊर्ध्वम् 'अबाहाए' अबाधया अन्तरं कृत्वा 'उवरिल्ले तारा रूवे' उपरितनं तारा रूपं ज्योतिश्चक्रं 'चारं चरइ' चारं चरति । _____ अथ सूर्यविमानात् प्राह-'ता' तावत् 'रियविमाणाओ' सूर्यविमानात् 'असीइ जोयणाई' अशीति योजनानि (८०) 'उड्ढ अबाहाए ऊर्ध्वमबाधया 'चंदविमाणे चारं चरइ' चन्द्रविमानं चारं चरति । 'जोयणसयं' तस्मादेव सूर्यविमानात् योजनशतम् एकशतसंख्यकयोजनानि गत्वा 'उड्ढ अबाहाए' ऊर्ध्वमबाधया 'उवरिल्ले तारारूवे' उपरितनं तारा रूपंज्योतिश्चक्रं 'चारं चरइ' चारं चरति । अथ चन्द्रविमानात् प्राह-ता चंदविमाणाओ' इत्यादि, 'ता' तावत् चंदविमाणाओ णं' चन्द्रविमानात् खलु 'वीस जोयणाई' विंशतिं योजनानि 'उड्ढ अबाहाए' ऊर्ध्वमबाधया 'उवरिल्ले तारारूवे' उपरितनं सर्वोपरितनं तारारूपं ज्योतिश्चक्रं 'चारं चरइ' चारं चरति । अथोपसंहरति-'एवामेव' इत्यादि, ‘एवामेब' एवमेव उक्तेनैव प्रकारेण 'सपुत्वावरेणं' सपूर्वापरेण पूर्वेण अपरेण च सह पूर्वापरमीलनेनेत्यर्थः 'दसुत्तरजोयणसयबाहल्ले' दशोत्तर योजनशत बाहल्ये दशाधिक शत संख्यकयोजनपरिमिते बाहल्ये विस्तारे, तथाहि-सर्वाधस्तनात्तारारूपात् ज्योतिश्चक्रात् ऊर्ध्वं दशभिर्योजनैरूवं गत्वा सूर्यविमानम् , ततोऽग्रे अशीतियोजनैरूवं गत्वा चन्द्रविमानम् , ततोऽग्रे विंशत्या योजनैरूर्व गत्वा सर्वोपरितनं तारा रूपं ज्योतिश्चक्रम्-(१०८०=२०+११०) इति सर्वसंमेलनेन ज्योतिश्चक्रचार विषयस्य भवति दशोत्तरं शतं योजनानां बाहल्यम् , तस्मिन् दशोत्तरयोजनशतबाहल्ये, कीदृशे तस्मिन् ? इत्याह-'तिरियमसंखेज्जे तिर्यगसंख्येये तिर्यक्त्वमाश्रित्य असंख्येय कोटी कोटो योजनपरिमिते 'जोइसविसए' ज्योतिर्विषये ज्योतिश्चक्रविषयभूते क्षेत्रे 'जोइसं' ज्यौतिषं मनुष्यक्षेत्रविषयं ज्योतिश्चक्रं 'चारं चरइ' चोरं चरति मनुष्य क्षेत्राबहि ज्योतिषिकाणां पुनः स्थिरत्वम् । 'आहियं' आख्यातम् , 'तिवएज्जा' इति वदेत् प्रतिपादयेत् स्वशिष्येभ्य इति ॥सू० १॥ अथ तारारूपविमानाधिष्टातृणां चन्द्रसूर्यापेक्षया द्युतिविभवादिकमधिकृत्याणुत्व तुल्यत्वमाह-'ता अस्थिणं.' इत्यादि । Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१८. सु.२ ताराविमानाधिष्ठातृणां अणुत्वतुल्यत्वम् ६३५ __ मूलम्—ता अत्थिणं चंदिमसूरिया णं देवाणं हिढं पि तारा रूवा अणुंपि तुल्लावि? समंपि तारारूवा अणुपि तुल्लावि ? उप्पिंपि ताराख्वा अणुंपि तुल्लावि? ता अस्थि । ता कहं ते चंदिमसूरियाणं देवाणं हिटुंपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि समपि ताराख्वा अणुंपि तुल्लावि, उप्पिपि ताराख्वा अणुंपि तुल्लावि ? ता जहा जहाणं तेसिणं देवाणं ताव णियम बंभचेराई उस्सियाई भनि तहा तहाणं तेसिं देवाणं एवं भवइ, तं जहा-अणुत्ते वा तुल्लत्ते वा । ता एवं खलु चंदिम सूरियाणं देवाणं हि टुंपि तारारूवा अणुपि तुल्लावि तहेव जाव उपिपि तारा रूवा अणुंपि तुल्लावि । सू० २। ___ छाया तावत् सन्ति खलु चन्द्रसूर्याणां देवानाम् अधस्तना अपि तारारूपाः अणवो ऽपि तुल्या अपि ? समा अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि १ उपरितना अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि । तावत् सन्ति । तावत् कथं ते चन्द्रसूर्याणां देवानामधस्तना अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि । समा अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि । उपरितना अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि ? तावत् यथा यथा खलु तेषां देवानां तपो नियमब्रह्मचर्याणि उच्छ्रितानि भवन्ति तथा तथा खलु तेषां देवानां एवं भवति, तद्यथा-अणुत्व वा तुल्यत्वं वा । तावत् एवं खलु चन्द्रसूर्याणां देवानाम् अधस्तना अपि तारोरूपाः, अणवोऽपि तुल्या अपि तथैव यावत् उपरितना अपि तारा रूपा अणवोऽपि तुल्या अपि । सू०-२॥ व्याख्या-'ता अत्थिणं' इति, तावत् 'अस्थि णं' सन्ति खलु हे भगवन् 'चंदिमसूरियाणं देवाणं' चन्द्रसूर्याणां देवानां 'हिटुंपि' अधस्तना अपि क्षेत्रापेक्षया चन्द्रसूर्याणां देवानामधश्चारिणोऽपि 'तारारूवा' तारारूपाः तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवाः 'अणुंपि' अणवोऽपि द्युतिविभवलेश्याद्यपेक्षया लघवोऽपि हीना अपि भवन्ति किम् ? तथा 'तुल्लावि' तुल्या अपि केचित् समानातिविभवादियुक्ता अपि भवन्ति किम् ? तथा 'समंपि' समा अपि क्षेत्रापेक्षया चन्द्रसूविमानानां समश्रेण्या व्यवस्थिता अपि 'तारारूवा' तारारूपाः तारा रूप विमानवासिनो देवाः 'अणुपि तुल्लावि' अणवोऽपि तुल्या अपि भवन्ति किम् ? । तथा 'उपिपि' उपरितना अपि चन्द्र सूर्य विमानानामुपरि व्यवस्थिता देवा अपि 'अणुवितुल्लावि' अणवोऽपि तुल्या अपि भवन्ति किम् । भगवानाह 'ता अस्थि' तावत् भवन्ति अणवोऽपि तुल्या अपि, इत्यादि हे गौतम ! यथा त्वया पृष्टं तत्तथैवास्ति । पुन गौतमः पृच्छति-'ता कहते' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कह' कथं कस्नात्कारणात् 'ते' तवमते 'चंदिमसूरियाणं देवाणं' चन्द्रसूर्याणां देवानां 'हिटुंपि' अधस्तना अपि 'ताराख्वा' तारारूपाः ताराविमानस्थिता देवाः 'अणु वि, अणवोऽपि 'तुल्लंपि' तुल्या अपि सन्ति । सथा 'समंपि' समश्रेणि व्यवस्थिता अपि 'ताराख्वा' तारारूपाः 'अणुपि' अणवोऽपि 'तुल्लावि' तुल्या अपि सन्ति । एवं 'उपिपि' उपरितना अपि 'तारारूवा' तारारूपाः 'अणुपि' Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे अणवोऽपि 'तुल्लावि' तुल्या अपि सन्ति । हे भगवान् ! किं कारणमत्र यत् चन्द्रसूर्याणामधस्तनव्यवस्थिताः, समश्रेणि व्यवस्थिताः उपरिव्यस्थितास्त्रिविधा अपि तारारूपबिमानाधिष्ठातारो देवाः अणवोऽपि इत्यादिना लघवोऽपि तुल्या अपि समान द्यत्यादिमन्तः ? इति कथयतु इति गौतमेन प्रश्ने कृते भगवान् गौतमाय अणुत्वतुल्यत्वविषयकं कारणं प्रदर्शयति-'ता जह-जह' इत्यादि 'ता' तावत् हे गौतम ! 'जहा-जहाणं' यथा यथा खलु 'देवाणं' तेषां देवानां तवणियमबंभचेराई तपोनियमब्रह्मचर्याभिप्राग्भवे तपः षष्ठाष्टमादिकं बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं द्वादशविधं वा नियमः-अभिग्रहादिरूपः, ब्रह्मचर्यम् अब्रह्मत्यागः, देशतः सर्वतोवा 'उस्सियाई' उच्छ्रितानि उत्कटानि उपलक्षणात् अनुत्कटानि वा येषां यादृशानि चारितानि आचरितानि पालितानि त्रिकरणत्रियोगादि प्रकारमाश्रित्य भवन्ति 'तहा तहाणं' तथा तथा तत्तत्प्रकारेण तपोनियमादिपालनानुसारेण खलु हे गौतम ! 'तेसिं देवाणं' तेषां देवानाम् ‘एवं भवई' एवम् अनेन प्रकारेण अल्पत्यादिकं तुल्यद्यत्यादिकं च 'भवइ' भवति । तदेवाह-'तं जहा' तद्यथा-'अणुत्तेवा तुल्लत्तेवा' अणुत्वं-वा तुल्यत्वं वेति, अयं भावः-यैः पूर्वभवे तपोनियमब्रह्मचर्याणि पालितानि त्ववश्यमेव तेन कारणेन देवत्वं प्राप्तं किन्तु तानि तैश्चन्द्रसूर्यापेक्षया मन्दानि पालितानि ततस्तै तारारूप विमानाधिष्ठातारो देवो भूत्वा चन्द्रसूर्यदेवानां यतिविभवाद्यपेक्षया होना जाताः । यैस्तु भावन्तरे तपो नियमब्रह्मचर्याणि चन्द्रसूर्याणां प्रायः सदृशान्युत्कटानि पालितानि ततस्ते तारारूप विमानाधिष्ठातारो भूत्वा चन्द्रसूर्याणां द्युतिविभवादिना तुल्या जाताः । उचितमेवैतत् दृश्यन्ते हि मनुष्यलोकेऽपि केचित्पूर्वभवसश्चित पुण्यप्राग्भारा जना राजत्वं नापि प्राप्तास्तथापि राज्ञा सह तुल्य द्युतिविभवा भवन्तीति । 'ता' तस्मात् कारणात् ‘एवं णं' एवं खलु 'चंदिमसूरियाणं देवाणं' चन्द्रसूर्याणां देवानां 'हिट्ठपि तारारूवा अणुपि तुल्लावि' अधस्तना अपि तारारूपाः अणवोऽपि तुल्या अपि 'तहेव' तथैव पूर्वोक्त वदेवात्र वाच्यम् , कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव' इत्यादि, 'जाव' यावत् 'उपिपि तारारूवा अणुपि तुल्लावि' उपरितना अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि । यावत्पदेन 'समंपि तारारूवा अणुपि तुल्लावि' समश्रेणि व्यवस्थिता अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि सन्ति, इति, संग्राह्यम् ॥सू०२॥ अथ चन्द्रस्य परिवार, मन्दरपर्वतात् लोकान्ताच्च कियदन्तरेण ज्योतिश्चक्रं चारं चरतीति च प्रदर्शयति-'ता एगमेगस्स गं' इत्यादि । मूलम् --ता एगमेगस्स णं चंदस्स देवस्स केवड्या गहा परिवारो पण्णत्तो ? केवइया णक्खत्ता परिवारो पण्णत्तो ? केवइया तारा परिवारो पण्णत्तो, ? एगमेगस्स णं चंदस्स Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१८सू.३मन्दरलोकान्तपर्वतात्चन्द्रस्यपरिवारज्योतिश्चकचारम्६३७ देवस्स अट्ठासीई गहा परिवारो पण्णत्तो, अट्ठावीसं णक्खत्ता परिवारो पण्णत्तो, माहा “छावट्ठि सहस्साइं, णवचेव सयाई, पंचुत्तराई पंचसयराई एगससी परिवारो, तारा गण कोडि कोडीणं ।१। परिवारो पण्णत्तो ॥३॥ छाया--तावत् एकैकस्य खलु चन्द्रस्य देवस्य कियन्तो ग्रहाः परिवारः प्रज्ञप्तः ? कियन्ति नक्षत्राणि परिवारः प्रज्ञप्तः १. कियन्त्यस्ताराः परिवारः प्रज्ञप्तः ? । तावत् एकैकस्य खलु चन्द्रस्य देवस्य अष्टाशीतिम्रहाः परिवारः प्रज्ञप्तः, अष्टाविंशतिनक्षत्राणि परिवारः प्रज्ञप्तः, गाथा-षट् षष्टिः सहस्राणि, नव चैव शतानि पञ्चोत्तराणि (६६९०५) । एकशशि परिवारः, तारा गण कोटिकोटिनाम् ॥१॥ परिवारः प्रज्ञप्तः ॥सू० ३॥ व्याख्या-'ता एगमेगस्स णं' इत्यादि चन्द्रपरिवारप्रतिपादकं सूत्रं सुगम मिति न व्याख्यायते, नवरं चन्द्रस्य तारापरिवारपरिमाणं-पञ्चोत्तरनवशताधिकषट्षष्टि सहस्रकोटोकोटी संख्यक मिति ॥सू०३॥ अथ मन्दरपर्वतात् ज्योतिश्चक्रस्यान्तरमाह-ता 'मंदरस्स णं' इत्यादि, मूलम् –ता मंदरस्स णं पव्वयस्स केवइयं अबाहाए जोइसे चारं चरइ ? ता एकारस एक्कवीसाइं जोयणसयाइं अबाहाए जोइसे चारं चरइ । ता लोयंताओ णं केवइयं अबाहाए जोइसे पण्णत्ते ? ता एक्कारस एकादपई जोयणसयाद्-अबाहाए जोइसे पण्णत्ते ॥ सू०४॥ छाया--तावत् मन्दरस्य खलु पर्वतस्य कियत्या अबाधया ज्यौतिषं चारं चरति? तावत् एकादश. एकविंशानि योजनशतानि अबाधया ज्योतिषं चारं चरति । तावत लोकान्तात् खलु कियत्या अबाधया ज्यौतिषं प्रज्ञप्तम् १ तावत् एकादश एकादशानि योजनशतानि अबाधया ज्यौतिषं प्राप्तम् ॥स्० ॥४॥ व्याख्या - ‘ता मंदरस्स णं' इत्यादि मन्दरपर्वतविषयकज्यौतिश्चक्रान्तरसूत्रमपि सुगममेव, नवर ज्योतिश्चक्रं मेरोः सर्वनः सर्वदिक्षु एकविंशत्यधिकानि एकादश योजनशतानि मुक्त्वा तदनन्तर चक्रवालतया ज्योतिश्चक्रं चारं चरति । अथ लोकान्तात्तदेव प्रदर्श्यते 'ता लोयंताओ' इत्यादि 'ता' तावत् 'लोयंताओ' लोकान्तात् अर्वाक् लोकान्तात्पूर्व मित्यर्थः इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह 'ता एक्कारस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एक्कारस एक्काराइं जोयणसयाई' एकादश एकादशानि योजनशतानि एकादशाधिकानि एकादश योजनशतानि (११११) योजनानां 'अबाहाए' अबाधया-लोकान्तात्पूर्वमन्तरेण-लोकान्तभागात् लोकाभिमुख एकादशाधिकैकादशशतयोजनानि आगत्यात्रान्तरे 'जोइसे' ज्योतिष ज्योतिश्चक्रं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्त भगवतेति । सू०॥४॥ अथाने जीवाभिगमस्यातिदेशमाह-एवं जहा जोवाभिगमे' इत्यादि । . . Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिस्त्र .. मूलम्-एवं जहेव जीवाभिगमे तहेव णेयव्वं-सव्वभितरिल्लं चारं, संठाणं, फ्माणं, वहंति, सीहगई, इड्ढी तारंतरं, अग्गमहिसीओ, ठिई, अप्पा बहुयं जाव दाराओ संखेज्ज गुणा ॥सू०॥५॥ छाया--यथैव जीवाभिगमे तथैव शातव्यम्-सर्वाभ्यन्तरकश्चारः, संस्थानम्, प्रमाणम्, वहंति, शीघ्रगतिः, ऋद्धिः, तारान्तरम्, अग्रमहिष्यः, स्थितिः, अल्पबहुत्वम् यावत् ताराः संख्येयगुणाः ॥ सू०-५॥ ... व्याख्या-'जहेव जीवाभिगमे' इति, 'जहेव' यथैव येन प्रकारेण 'जीवाभिगमे जीवाभिगमसूत्रे कथितं 'तहेव' तथैव तेनैव प्रकारेण तत्रोक्तानुसारेण 'णेयव्वं' ज्ञातव्यम् अवगन्तव्यं पठितव्यमित्यर्थः । किं किं 'ज्ञातव्यमित्याह-सव्वभितरए' इत्यादि, 'सव्वभितरए चारं' सर्वाभ्यन्तरकश्चारः-नक्षत्राणां सर्वाभ्यन्तरचारप्रभृतिका वक्तव्यता वाच्या। तथा 'संठाणे' संस्थानम् चन्द्रादि विमानानां संस्थानम्-आकृाते रूपं वक्तव्यम् । तदनन्तरं प्रमाणं चन्द्रादि विमानानामेव आयामादि प्रमाणं प्रतिपादयितव्यम् । तदनन्तरं 'वहंति' इति यावन्तः सिंहाद्या कृतयो देवा यं विमानं वहन्ति तद्विषया वक्तव्यता वाच्या । ततः 'सीहगई' शोघ्रगतिरिति कः कस्मात् शीघ्रगतिरिति वाच्यम् । तत्पश्चात् 'इड्ढी' ऋद्धिश्चन्द्रादीनां देवानां वक्तव्या । तदनन्तरं 'तारंतरं' तारान्तरम् ताराणां जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तरं कियत्कियत्परिमितमिति प्रतिवाच्यम् । तत्पश्चात् 'अग्गम हिसीओ' अग्रमहिष्यः चन्द्रादीना मग्रमहिष्यो वक्तव्याः । ततः 'ठिई' स्थितिस्तेषामेव चन्द्रादीनां वाच्या । तदनन्तरम् 'अप्पाबहुयं' अल्पबहुत्वं वक्तव्यम् तत् कियत्पर्यन्त मित्याह-'जाव' इत्यादि, 'जाव' यावत् "तारा संखेज्जगुणा" पूर्वोक्त परिमाणात् ताराः संख्येय गुणा; इति पर्यन्तं सर्वमत्र वक्तव्यं यावत् अष्टादशतमप्राभृतपरिसमाप्तिमिति भावः ॥सू०५॥ तदेवं पूर्व जीवाभिगमस्यातिदेशः प्रोक्तः, साम्प्रतं तदतिदेशप्रदर्शितानि सूत्राणि साक्षात् प्रदर्शयन् प्रथमे सर्वाभ्यन्तरादि चारसूत्रमाह-'ताजंबुद्दीवेणं' इत्यादि, मूलम् –ता जंबुद्दीवेणं दीवे भंते कयरे णक्खत्ता सव्वभंतरिल्लं चारं चरंति ? कयरे णक्खत्ता सव्वबाहिरिल्लं चारं चरति ? कयरे णस्वत्ता सव्वुवरिल्लं चारं चरंति ? कयरे णक्खत्ता हिडिल्लं चारं चरति ? ता अभीई णक्खत्ते सव्वभितरिल्लं चारं चरइ, मूले णक्खत्ते सव्व बाहिरिल्लं चारं चरइ साई णक्खत्ते सव्वुबरिल्लं चारं चरइ भरणी णक्खत्ते सव्य हेडिल्लं चारं चरइ । सू० ॥६॥ __ छाया--तावत् जम्बू द्रोपे खलु द्वीपे भदन्त ! कतमत् नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरकं चारं चरति ? कतमत् नक्षत्रं सर्वबाह्यकं चार चरति ? कतमत् नक्षत्रं सर्वोपरितनं चार घरति ? कतमत् नक्षत्रं सर्वाधस्तनं चारं चरति १ । अभिजिन्नक्षत्रं सर्वाभ्यत्तरं चार वरति, मूलं नक्षत्र सर्वबाह्यकं चार चरति. स्वातिनक्षत्रं सर्वोपरितनं चार चरति, भरणोनक्षत्र सर्वाधिस्तनं चार चरति ॥ सू० ६॥ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा. १८ सू.६ सर्वाभ्यन्तरादिचारसूत्रनिरूपणम् ६३९ व्यख्या-'ता जंबुद्दीवेणं दोवे' इत्यादि । प्रश्नसूत्रे जम्बूद्वीपे द्वीपे अष्टाविंशति नक्षत्राणां मध्यात् सर्वाभ्यन्तर सर्वबाह्य सर्वोपरि सर्वाधश्चारीणि कानि कानि नक्षत्राणि सन्ती ति पृच्छा सूत्रं सुगमम् भगवानाह—'ता' तावत् 'अभिईणक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरकं चार चरति, एवं मूलनक्षत्रं सर्वबाह्यं चार चरति, स्वातिनक्षत्रं सर्वोपरितनं चार चरति भरणी नक्षत्र सर्वाधस्तनं चारं चरती त्युत्तरम् । सू०॥६॥ मूलम् –ता चंदविमाणेणं भंते ? किं संठिए पण्णत्ते ? ता अद्ध कविट्ठसंठाणसंठिए सव्व फालियामए अब्भुग्गय मूसिय पहासिए विविहमणिरयणभत्तिचित्ते वाउद्ध्य विजयवेजयंती पडागछत्ताइछत्तकालेए, तुगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे जालं तररयणपंजरमिलियव्व मणिकणगभियागे वियसियपत्तपुंडरीय तिलगरयणद्धचंद चित्ते अंतो बहिं सण्हे तवणिज्ज वालुया पत्थडे सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे । एवं सूरियविमाणे, गहविमाणे, णक्खत्तविमाणे, तारा विमाणे ॥सू० ७॥ छाया तावत् चन्द्रविमानं खलु भदन्त ? किं संस्थित प्रज्ञप्तम् १ तावत् अर्द्ध कपित्थक संस्थान संस्थितं सर्व स्फटिकमयं अभ्युद्गतोच्छितप्रहसितं विविधमणिरत्न भक्ति चित्रं वातोद्धत विजय वैजयन्ती पताका छत्रातिच्छत्रकलितं तुझं गगनतलमनुलिखच्छि खरं जालान्तररत्नपजरमिलितवन्मणिकनकस्तू पिकाकं विकसित पत्र पुण्डरीक तिलक रत्नार्द्धचन्द्रचित्रं अन्तो बहिश्लक्ष्णं तपनीयवालुकाप्रस्तटं सुखस्पर्श सश्रीकरूपं प्रासादीय दर्शनीय अभिरूप प्रतिरूपम् । एवं सूर्यविमानम् गृहविमानम्, नक्षत्रविमानम्, तारा विमानम् । सु० ॥७॥ व्याख्या—'ता चंद बिमाणेणं' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह–'अद्ध कविते' इत्यादि 'अद्ध कविसंठाणसंठिए अकपित्थसंस्थानसंस्थितम् -उत्तानीकृतममात्रं यत् कपित्थं कपित्थाभिधं फलं तस्येव यत् संस्थानं । उत्तानीकृताईकपित्थसदृशं संस्थानं तेन संस्थितं तत्सदृशसंस्थानसंस्थितं चन्द्रविमानं भवति ? अत्राह-यदि चन्द्रविमान मुत्तानीकृतार्द्धमात्रकपित्थफलसंस्थानकमस्ति तदा उदयास्तकाले, अथवा तिर्यक् परिभ्रमच्च तत् कथमर्द्ध कपित्थफलाकारं नोपलभ्यते, तत्त शिरस उपरिवर्त्तमानं वर्तलाकारमुपलभ्यते, अर्द्धकपित्थस्य उपरि दूरमवस्थापितस्य पर भागदर्शनतो वर्तुलाकारतया दृश्यमानत्वात् अत्रोच्यते-इहार्द्धकपित्थफलाकारं चन्द्रविमानं सामस्त्येन ज्ञातव्यम् किन्तु चन्द्रविमानस्य यत् पीठं तद् अर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितं वर्तते तस्य च पीठस्योपरि चन्द्र देवस्य प्रासादः, स च प्रासादस्तथा कथञ्चनापि व्यवस्थितो यथा पीठेन सह भयान वर्तुलाकारो भवति, सच दूरभावादेकान्ततः समगोलाकारत्वेनात्रतो जनानां प्रतिभासते ऽतो न कश्चिद्दोषः उक्तञ्च । Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे 'अद्ध कविठ्ठागारा उदयत्थमाणम्मि कहं न दीसंति ? ससिसूराण विमाणा, तिरियक्खेत्ता ट्ठियाणंच ॥१॥ उत्ताणद्धकविट्ठागारे पीढं तदुवरि च पासाओ । वट्टालेखेण तओ समवट्ट दूर भावाओ ॥२॥, छाया-अर्द्धकपित्थाकाराणि उदयास्तमने कथं न दृश्यन्ते ? शशिसूराणां विमानानि, तिर्यक् क्षेत्रस्थितानां च ॥१॥ उत्ताना कपित्थाकारं पीठं तदुपरि च प्रासादः वृत्तालेखेन ततः समवृत्तं दूर भावात् ॥२॥ इति तत् चन्द्रविमानं च किं प्रकारकमिति तद् विशिनष्टि-'सव्व फालियामए' इत्यादि, 'सव्व फालियामए' सर्वस्फटिकमयं सर्वात्मना स्फटिकाभिधमणिस्वरूपम् । 'विजयवेजयंती पडागा छत्ताइ छत्तकलिए' वातोद्भूतविजयवैजयन्ती पताका छत्रातिच्छत्रकलितम् तत्र वातोद्भूता वायुना कम्पिता विजयवैजयन्ती पताका विजयसूचिका वैजयन्त्यभि धाना या पताका, अथवा विजया इति वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिकाः कथ्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्यः पताकाः ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः पताका उच्यन्ते, तथा छत्रातिछात्राणि-उपर्युपरिस्थितछत्राणि, ततः विजयवैजयन्तीभिः, पताकाभिः, छत्रातिच्छत्रैश्च कलितं युक्तं तत्तथा, 'तुगे' तुङ्गम् उच्चम्, अत एव 'गगणतलमणुलिहंतसिहरे' गगन तलमनु लि वच्छि'वरम्-गगनतलम् अनुलिखत् अभिलङ्घयत् शिखरम् उपरिभागः यस्य तत्तादृशम् 'जालंतररयण' जालान्तररत्नम्-जालकानि भवनभित्तिषु छिद्रसमूहरूपाणि लोके प्रसिद्धानि, तदन्तरेषु तेषां मध्य मध्य भागेषु रत्नानि विशिष्टशोभार्थ सन्ति यत्र तत् सूत्रे प्रथमैकवचनलोप आर्षत्वात् तथा 'पंजरमिलियव्व' पञ्जरमिलितमिव पञ्जरा दुन्मीलितमिव चिरकालाद् बाहिष्कृतमिव नूतनत्वात्, यथाहि किमपि वस्तु संपुटक निवेशि तं धूल्यादिना असंसृष्टत्वेन नूतनवदेव तिष्ठति, तद् वस्तु यदि संपुटकाबहि निष्का स्यते तदा नूतनमिव प्रतिभासते, तथैव तद्विमानं नूतनम् अत्यन्ताविनष्टच्छविकत्वात् तथैव शोभते इति भावः, 'मणिकणगथूभियागे, वियसियसयपत्त पुंडरीयतिलयरयणद्धचंदचित्ते' मणिकनकस्तूपिकाकं विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकरत्नाद्रचन्द्रचित्र मिति तत्र 'मणि कनकस्तूपिकाकं' इति पृथक् पदम् मणिजटितकनकमयशिखरम्, विकसितानि प्रम्लितानि यानि शतपत्राणि, पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि, तिलाश्च भित्यादिषु पुण्ड्राणि, रत्नमयाश्चार्द्धचन्द्रा द्वारादिषु तैश्चित्रमिति । 'अंतोबहिं सण्हे' अन्तर्बहिः श्लक्षणम्चिक्कणम् 'तवणिज्ज वालुया पत्थडे' तपनीयवालुका प्रस्तटम्-तपनीयं-सुवर्ण तन्मयी या वालुका-सिकता, तस्याः प्रस्तटः प्रतरः तल भागो यस्य तत्तथा, 'सुहफासे सुख Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शशिप्रकाशिकाटीका० प्रा० १८ . ८ विमानपरिमाणनिरूपणम् ६४१ स्पर्श स्पर्शे सुखोत्पादकम् 'सस्सिरीयरूवे' सश्रीकरूपम् - सश्रीकाणि शोभायुक्तानि रूपाणि नर युग्मादीनि यत्र तत् तथा 'पासाईए प्रासादिकं मनः प्रसन्नता जनकम्, अत एव 'दंसणिज्जे' दर्शनीयं द्रष्टुं योग्यम् तद्दर्शने तृप्त्यसंभवात्, 'अभिरू वे' अभिरूपम्-सुन्दरम् 'पडिरूवे' प्रतिरूपम् - प्रतिविशिष्टम् - असाधारणं रूपं यस्य तत्तथा । एतादृशं चन्द्रविमानं वर्त्तते इति । एवं सूरियविमाणं पि' एवम् एतादृशमेव चन्द्रविमानसदृशमेव सूर्यविमानमपि विज्ञेयम् । एवमेव 'गहविमाणे' णक्खत्तविमाणे ताराविमाणे' ग्रह विमानमपि नक्षत्रविमानम तारा विमानमपि ज्ञातव्यमिति । सू० ७ ॥ अथ विमानपरिमाणमाह- मूलम् - - चंद विमाणेण भंते केवइयं आयामविक्खंभेणं ? केवइयं परिक्खेवेणं केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? ता छप्पण्णं एगद्विभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिरयेणं, अट्ठावीस एगट्ठि भागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते । ता सूरिय विमाण केवई आयामविक्खंभेणं पुच्छा ? ता अडयालीस एगद्विभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिरणं, चउव्वीस एगद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते । ता गहविमाणेणं केवइयं पुच्छा ता अद्ध जोयणं आयामविक्खंभेणं तंत गुणं सविसेसं परिरणं, कोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते । ता णक्खत्तविमाणे णं केवइयं पुच्छा ? ता को आयाम विक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं, अद्धकोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते । तारा विमाणं केवइयं पुच्छा । ता अद्धको आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेस परिरणं पंच धणुसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ते || सू० ८ || छाया - तावत् चन्द्रविमानं खलु भदन्त ! कियत्कं व्यायामविष्कम्भेण ? कियत्कं परिक्षेपेण, ? कियत्कं बाहल्येन प्रज्ञप्तम् ? तावत् षट्पञ्चाशतमे कषष्टिभागान् योजनस्य आयामविष्कम्भेण तत् त्रिगुणं सविशेषं परिरयेण अष्टाविंशति मेकषष्टिभागान् योजनस्य बाहल्येन प्रशप्तम् । तावत् सूर्यविमानं खलु कियत्कमायामविष्कम्भेण, पृच्छा तावत् अष्टवारिंशतमेक षष्टिभागान् योजनस्य आयामविष्कम्भेण तत् त्रिगुण सविशेष परिरयेण मतुर्विंशतिमे कषष्टिभागान् योजनस्य बाहल्येन प्रज्ञप्तम् । तावत् ग्रहविमानं खलु कियत्कं पृच्छा, तावत् अर्द्ध योजनमायमविष्कम्भेण तत् त्रिगुणं सविशेषं परिरयेण क्रोश बाहल्येन प्रशप्तम् । तावत् नक्षत्र विमानं खलु कियत्कं पृच्छा, तारत् अर्द्धक्रोश बाहल्येन प्रशप्तम् । तावत् ताराविमानं खलु कियत्कं पृच्छा, तावत् अर्द्धक्रोशम् आयामविष्कम्भेण तत् - त्रिगुणं सविशेषं परिरयेण, पञ्च धनुः शतानि बादल्येन प्रज्ञप्तम् ॥सू०८॥ व्याख्या -- अत्र चन्द्रादिविमानानां परिमाणविषये गौतमस्य विमानं कियत्परिमितम् - आयामविष्कम्भेण, परिचिना, बाहुल्येनेति प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवा 请 प्रश्नः -- तत् चन्द्र ८१ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे नाह -'ता' तावत् 'छप्पण्णं एगट्ठिभागे जोयणस्स' इति एकस्य योजनस्य षट् पञ्चाशद् एकषष्टिभागपरिमितमायामविष्कम्भाभ्यां चन्द्रविमानम् । 'तं तिगुणं सविसेसं परिरयेणं' परिधिना चन्द्रविमानमायामविष्कम्भपरिमाणात् त्रिगुणं किञ्चिदधिकं विज्ञेयम् । 'अट्ठावीसं एगद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं' बाहल्येन स्थूलत्वेन चन्द्रविमानम् एकस्य योजनस्य अष्टाविंशत्येकषष्टिभागपरिमितं प्रज्ञप्तम् सूर्यविमानपृच्छासूत्रं वाच्यम् भगवानाह-'अडयालीसं एगसटिमागे जोयणस्स' योजनस्य अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागमायामविष्कम्भाभ्याम् परिधि परिमाणां पूर्ववदेवायामविष्कम्भपरिमाणात् किञ्चिदधिकं त्रिगुणम् । सूर्यविमानस्य बाहल्यम् 'चउव्वीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स' एकस्य योजनस्य चतुर्विशत्येकषष्टिभागपरिमितं प्रज्ञप्तम् । ग्रहविमानं पृच्छा 'ता अद्धजोयणं आयामविक्ख भेणं, ग्रह विमानं अईयोजनपरिमितमायामविष्कम्भेण 'तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं' आयामविष्कम्भपरिमाणात् किञ्चिद्विशेषाधिकं त्रिगुणं 'परिरएणं' परिधिना, 'कोसं बाहल्लेणं' एक क्रोशं बाहल्येन प्रज्ञप्तम् नक्षत्रविमानं पृच्छा-'ता कोमं आयामविक्खंभेणं' नक्षत्रविमानम् आयामविष्कम्भाभ्यां क्रोशपरिमितम् पूर्ववदेवायामविष्कम्भपरिमाणात् सवेशेषं त्रिगुणा परिधिर्विज्ञेया । बाहल्येनाईक्रोशं प्रज्ञतम् । ताराविमानं पृच्छा-'ता अद्ध कोसं आयामविनख भेणं' तारा विमानमर्द्धकोशमायामविष्क-माभ्याम् । परिधिना पूर्ववदेव सविशेषं त्रिगुणम् । बाहल्येन 'पंचधणुसयाई' पञ्चधनुः-शत परिमित ताराविमानं प्रज्ञप्तम् ॥सू०८॥ अथ चन्द्रादिविमानवाहकदेवानां संख्यां रूपाणि च प्रदर्शयति 'ता चंदविमाणेणं' इत्यादि मूलम् - ता चंदविमाणे णं भंते कइ देवसाहस्सीओ परिवहंति,! सोलस देव साहस्सीओ परिवहंति, तं जहा-पुरस्थिमेणं सीहरुखधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परि वहंति दाहिणेणं गयरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति, पच्चत्थिमेणं वस भरुवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परीवहंति, उत्तरेणं तुरगरुवधारीणं चत्तारि देव साहस्सीओ परिवहंति एवं सूरियविमाणं पि । ता गह विमाणेणं भंते कइ देवसाहस्सीओ परिवहंति ? ता अट्ठदेवसाहस्सीओ परिवहंति, तं जहा-पुरत्थिमेणं सिंहस्वधारीणं देवा णं दो देवसाहस्सीओ परिवहंति, एवं जाव उत्तरेणं तुरगरुवधारीणं देवोणं दो देव साहस्सीओ परिवहंति ? ता नक्खत्तविमाणेणं भंते कइ देवसाहस्सीओ परिवहंति ? ता चत्तारि देव साहस्सीओ परिवहंति, तं जहा-पुरथिमेणं सीहरूवधारीणं देवाणं एक्का देवसाहस्सी परिवहइ एवं जाव उत्तरेणं तुरगरूवधारीणं देवाणं एक्का देवसाहस्सी परिवहइ । ता ताराविमाणेणं भंते कइ देवमाहस्सोओ परिवहति । ता दो देव साहस्सोओ परिवहति तं जहा पुरथिमेणं सीहरूपधारोणं पंच देवसया परिवहंति, एवं जाव उत्तरेणं तुरगरूबधारीणं देवाणं पंच देवसया परिवहति ॥९०९॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चवक्षप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१८ सू.९ चन्द्रविमानवाहक देवानां संख्या ६४३ छाया तावत् चन्द्रविमानं खलु भदन्त ! कति देवसाहस्यः परिवहन्ति ? षोडश देवसाहस्यः परिवहन्ति, तद्यथा पौरस्त्ये खलु सिंहरूपधारिणां चतस्रो देवसाहस्यः परिवहन्ति, दक्षिणे खलु गजरूपधारिणां चतस्रो देवसाहत्यः परिवहन्ति, पाश्चात्ये खलु वृषभरूपधारिणां चतस्रो देवसाहस्व्यः परिवहन्ति, उत्तरे खलु तुरग रूपधारिणां चतस्रो देवसाहस्त्र्यः परिवहन्ति । एवं सूर्यविमानमपि । तावत् ग्रह विमानं खलु भदन्त ? कति देवसाहस्यः परिवहन्ति ? तावत् अष्ट देवसाहस्यः परिवहन्ति, तं जहा-पौरस्त्ये खलु सिंहरूपधारिणां द्वे देवसाहस्थ्यौ परिवहतः, एवं यावत् उत्तरे खल तुरगरूपधारिणां द्वे देवसाहत्यौ परिवहतः। तावत नक्षत्रविमानं खल भदन्त ! कति देवसाहत्यः परिवहन्ति ? तावत् चतस्रो देवसाहत्यः परिवहन्ति, तद्यथा-पौरस्त्ये खलु सिंहरूपधारिणाम् एका देवसाहव्यः परिवहति, एवं जाव उत्तरे खलु तुरगरूपधारिणां एका देवसाहस्री परिवहति । तावत् ताराविमान खलु भदन्त ! कति देवसाहस्त्र्यः परिवहन्ति ? तावत् वे देवसाहस्यौ परिवहतः तद्यथा-पौरस्त्ये खलु सिंहरूपधारिणां देवानां पञ्च शतानि परिवहन्ति, एवं यावत् उत्तरे खलु तुरग रूपधारिणां देवानां पञ्च शतानि परिवहन्ति ॥ सू० ९॥ ____व्याख्या--'चंदविमाणे णं भंते' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह 'सोलसदेवसाहस्सीओ परिवहंति' चन्द्रविमानं षोडशसहस्रदेवा परिवहन्ति चतुर्दिक्षु तदेवाह 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'पुरस्थिमेणं सीहरूपधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति' पूर्वभागे चतुः सहस्रदेवाः सिंहरूपधारिणः परिवहन्ति । एवं दक्षिणे गजरूप धारिणश्चतुःसहस्रदेवाः, पश्चिमे वृषभरूपधारिणश्चतुःसहस्रदेवाः, उत्तरे तुरगरूधारिणः श्चतुःसहस्रदेवाः, एवं षोडश सहस्रदेवाश्चन्द्रविमानं परिवहन्तीति । ‘एवं सूरियविमाणंपि' चन्द्रविमानवदेव सूर्यक्मिानमपि तेनैव रूपेण तादृश रूपधारिण एव षोडशहस्र देवाश्चतुदिक्षु परिवहन्ति । ग्रहविमानं पृच्छा-'ता अद्विसाहस्सीओ परिवहति' ग्रहविमानमष्ट सहस्त्रदेवाः, प्रत्येकं दिशि द्विद्विसहस्त्रसंख्यकाः पूर्वोक्तसदृशरूपधारिणः परिवहन्ति । नक्षत्र विमानं पृच्छा-'ता चत्तारि देबसाहस्सीओ' नक्षत्रविमानं प्रत्येकं दिशि एकैकसहस्त्रत्वेन चतुः सहस्त्रदेवाः पर्वोक्तरूपधारिणः पूर्वप्रदर्शितरीत्यैव परिवहन्ति । ताराविमानं पृच्छा-'ता दो देवसाहस्सीओ' ताराविमानं प्रत्येकं दिशि पञ्चशतपञ्चशतत्वेन द्विसहस्रदेवाः पूर्ववदेव परिवहन्ति । चन्द्रादि विमानवाहकदेवानां संख्या प्रतिपादिके इमे द्वे गाथे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे प्रोक्ते “सोलसदेव सहस्सा वहंति चंदेसु चेव रेसु । अट्टेव सहस्साई, एक्केक्कंमि गहविमाणे ॥१॥ चत्तारि सहस्साइं, नक्खत्तमि य हवंति एक्केक्के । दो चेव सहस्साइं, तारास्वेक्कमेक्कमि ॥२॥ इति Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशसिस छाया-षोडश सहस्राणि वहन्ति चन्द्रयोश्चैव सूर्ययोः । अष्टैव सहस्राणि एकैकस्मिन् ग्रहविमाने ॥१॥ चत्वारि सहस्राणि, नक्षत्रे च वहन्ति एकैकस्मिन् । द्वे चैव सहस्र, तारारूपे एकैकस्मिन् ॥२॥ इति । सू० ॥९॥ अथ चन्द्रादीनां शीघ्रगति मन्दगति विषयं सूत्रमाह 'एए सिण' इत्यादि मूलम्- एएसि णं चंदिमयरियगहगणणखत्ततारारूवाणं भंते कयरे कयरेहितो सिग्धगई वा मंद गईवा ? ता चंदेहितो सूरा सिग्घगई सूरेहितो गहा सिग्धगई गहेहितो णक्खत्ता सिग्धगई । णक्खत्तेहितो तारा सिग्धगई ! सव्वप्पगई चंदा, सबसिग्धगई तारा ॥१०॥ छाया-एतेषां खलु भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां कतमे कतमेभ्यः शीघ्रगतयो वा मन्दगतयो वा १ तावत् चन्द्राभ्यां सूर्यो शीघ्रगती, सूर्याभ्यां ग्रहा शीघ्रगतयः, ग्रहेभ्यो नक्षत्राणि शीघ्र गतीनि, नक्षत्रेभ्यः तारारूपाणि शिघ्रगतीनि । साल्पगती चन्द्रौ, सर्व शीघ्र गतयस्तारा ॥सू०१०॥ व्याख्या-'एएसिणं' इति एतेषां चन्द्रादीनां मध्ये के केभ्यः शीव्रगतयो मन्दगतयश्च सन्तीति प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह-'ता चंदेहितो' इत्यादि, चन्द्राभ्यां सूर्यो, शीघ्रगती, सूर्याभ्यां प्रहाः शीघ्रगतयः, ग्रहेभ्यो नक्षत्राणि शीघ्रगतीनि, नक्षत्रभ्यस्ताराः शीघ्रगतयः । एषु सर्वेभ्यो. ऽल्पगतिमन्तश्चन्द्राः, सर्वेभ्यः शीध्रगतिमत्यस्ताराः । एतत् सूत्रं पूर्वमप्युक्तं परं विमान वहनप्रसङ्गात् पुनर यत्रोक्तमित्यदोषः ॥सू०१०॥ अथ चन्द्रादीनाम् ऋद्धिसूत्रमाह-'ता एरसिणं' इत्यादि । मूलम्-ता एएसि णं चंदिमसरियगहगणणक्खत्ततारारूवाण भते ! कयरे कयरेहितो ! अपिढिया वा महिइढियावा । ताराहिंता णक्खत्ता महिड्ढिया णक्खत्ते- . हिंतो गहा महिड्ढिया, गहे हिंतो सूरिया महिड्डिया, सुरिएहिंतो चंदा महिइढिया । सव्वप्पिड्ढिया तारा, सचमहिदृढिया चंदा ॥सू०११॥ छाया-तावत् एतेषां खलु चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां भदन्त ! कतमे कतमेभ्यः अल्पद्धिका वा महद्धिका वा १ ताराभ्यो नक्षत्राणि महाद्धिकानि, नक्षत्रेभ्यो ग्रहा महद्धिकाः, ग्रहेभ्यः सूर्या महर्द्धिका सूर्येभ्यः चन्द्रा महद्धिकाः सर्वाल्पद्धिकास्तारा:, सर्वमहद्धिकौ चन्द्रौ ॥सू० ११॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.१८. स.१२ ताराणां परस्परमन्तरनिरूपणम् ६४९" व्याख्या—'ता एएसि ' इति एतेषां चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रताराणां मध्ये के ऽल्पर्द्धयः के महर्द्धय इति 'प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह 'ता ताराहिंतो' इत्यादि, ताराभ्यः ताराविमानस्थितदेवेभ्यः तारादेवानामपेक्षया नक्षत्राणि नक्षत्रविमानस्थिता देवा महर्द्धिकाः । नक्षत्रेभ्यो ग्रहा महर्द्धिकाः । ग्रहेभ्यः सूर्या महद्धिकाः सूर्येभ्यश्चन्द्रा महर्द्धिकाः । सर्वेभ्योऽल्पर्द्धिकास्ताराः । सर्वेभ्यो महर्द्धिकाश्चन्द्रा इति ॥सू० ११॥ अथ ताराणां परस्परमन्तरविषयं सूत्रमाह 'ता जबुद्दीवेणं' इत्यादि मूलम्–ता जंबुद्दीवेणं दीवे भंते तारा रूवस्स य एस ण केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? दुविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा-वाघाइमे य । निवाघाइमेय तत्थ णं जे से बाघाइमे से णं जहण्णेणं दोण्णि छावट्ठाइं जोयणसयाइं उक्कोसेणं बारस जोयण सहस्साइं दोण्णि बायालाई जोयणसयाइं तारारुवस्स य तारारूवस्स य अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । तत्थ णं जे से णिव्याघाइमे से जहण्णेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेणं अद्ध जोयणं तारा रूवस्स य तारारूवस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ॥सू०१२॥ छाया-तावत् जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे भदन्त ! तारारूपस्य च एतत् खलु कियत्कम् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? द्विविधमन्तरं प्रक्षप्तं, तद्यथा-व्याघातिमं च नियाघातिमं च । तत्र स्खलु यत्तद् व्याघातिमं तत् जघन्येन द्वे षट् षष्ठे (षट्पष्टयधिके) योजनशते, उत्कर्षेण द्वादश योजन सहस्राणि द्वे द्विचत्वारिंशे (द्विचत्वारिंशदधिके) योजनशते तारा रूपस्य तारा रूषस्य च अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । तत्र खल यत्तद निर्व्याघातिम" तत् जघन्येन पञ्चधनुः शतानि उत्कर्षेण अर्द्धयोजनं तारारूपस्य तारारूपस्य च अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ॥सू० १२॥ व्याख्या-'ता जम्बूद्दीवेणं' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्, अत्र मध्यजम्बूद्वीपे ताराणामन्तरं । कियत्कं अबधया प्रज्ञप्तम् भगवानाह-'दुविहे अंतरे पण्णत्ते' अन्तरं द्विविधं प्रज्ञप्तम् व्याघातिमं निर्व्याघातिमं चेति । तत्र यद् व्याघातिममन्तरं तत् जघन्येन 'दोन्नि छावहाइं जोयणसयाई' षट्पष्टयधिके द्वे योजनशते षट्पष्टयधिकद्विशतयोजनपरिमितमन्तरमबाधया अव्यवहितेन प्रोक्तम्। उत्कर्षेण च 'बारस जोयणसहस्साई दोण्णि बायालाई जोयणसयाई' द्वादश योजनसहस्राणि द्वे योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके (१२२४२) ५तत्परिमितमन्तरमुत्कृष्टेन एकस्मात्तारारूपाद् द्वितीयस्य : तारारूपस्य अबाधया व्यवधानेनान्तरं प्रोक्तम् । 'तत्थ णं' इत्यादि, तत्र खलु यद् निर्व्याघातिममन्तरं । तत् 'जहण्णेणं पंचधणुसयाई' जघन्येन पञ्चशतधनूंषि पञ्चशतधनुःपरिमितम् । 'उक्कोसेणं अद्धजोयणं' उत्कर्षेण अर्द्धयोजनपरिमितमन्तरं तारारूपस्य तारारूपस्य च एक द्वितीययोः । परस्परमन्तरमबाधया प्रज्ञप्तम् ॥ अत्रेयं भावना-व्याघातिमनिर्व्याघातिमयोरयमर्थः व्याहननं । Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे व्याघातः–पर्वतादिस्खलनं तेन निर्वृत्तं व्यावातिममुच्यते । व्याघातरहितं यत् स्वभाविकं तदन्तरं निर्व्याधातिमं प्रोच्यते । अत्र जघन्येन यत् षट् षट्यधिके द्वे योजनशते अन्तरं प्रोक्तं तत् निषधकूटादिकमपेक्ष्य वेदितव्यम् । तथाहि - निषधपर्वतः स्वभावतोऽपि चत्वारि योजन शतानि उच्चत्वेन वर्त्तते तस्य चोपरि पञ्चशतयोजनोच्चानि कूटानि सन्ति, तानि च मूले पञ्च योजनशतानि आयामविष्कम्भाभ्याम् मध्ये पश्च सप्तत्यधिकानि त्रीणि योजनशतानि, उपरि च सार्द्धे द्वे योजनशते, तेषां चोपरितनभागसमश्रेणिप्रदेशे तथाविध जगत्स्वा भाव्याद् अष्टावष्टौ योजनान्युभयतोऽबाधया कृत्वा तत्र ताराविमानानि परिभ्रमन्ति, ततो जघन्येन व्याधातिममन्तरं ( २५० =८=८ + २६६ ) षट्षष्ट्यधिके द्वे योजनशते भवतः । उत्कर्षेण द्विचत्वारिंशदधिकद्विशतोत्तराणि द्वादशयोजन सहस्राणि (१२२४२) यद् व्याघातिममन्तरं प्रोक्तं तद् मेरुमपेक्ष्य ज्ञातव्यम्, तथाहि - मेरौ दश योजन सहस्राणि (१००००), मेरोश्चोभयतोऽबाधया एकादशैकादश योजनशतानि एक विंशत्येकविंशत्यधिकानि (२२४२), इत्येवं सर्व संकलनया जायन्ते द्वादश योजनसहस्राणि द्वे च शते द्विचत्वारिंशदधिके (१२२४२) इत्येव - मुत्कृष्टतो व्याधातिममन्तर मायातीति । निर्व्याघातिममन्तरं तु सूत्रे स्पष्टं प्रोक्तमेवेति ।। सू० १२ ॥ अथ चन्द्रसूर्याणामग्रमहिषीविषयं सूत्रमाह- 'ता चंदस्सणं' इत्यादि, ६४६ मूलम् - ता चंदरस णं भंते जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कइअग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? ता. चत्तारि अग्ग महिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - चंदप्पभा १, दोसिणाभा २, अच्चि माली ३, पकरा ४ | तत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि चत्तारि देवी साहस्सीओ परिवारो पण्णत्तो । पभू णं ताओ एगमेग देवी अण्णाई चत्तारि २ देवी सहस्साई परिवारं विउब्वितए । एवामेव सपुव्यावरेणं सोलस देवी सहस्साई, सेत्तं तुडिए । ता पभूणं चंदे जोइ सिंदे जोइसराया चंदवर्डिसंए विमाणे सभाए मुहम्माए तुडिएणं सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरितए ? णो इणट्टे संमट्टे । ता कहं तेणो पभू चंदे जोइसिंदे जोइ सराया चंदवर्डिस विमाणे सभाए सुहम्माए तुडिएणं सद्धिं दिव्वाई भोग भोगाईं भुंजमाणं विहरित्तए ? ता चंदस्स णं जोइ सिंदस्स जोइसरण्णो चंदवडिंसर विमाणे सभाए सुम्मा मानव सुचेइय खंभेसु वयरामएस गोल बट्टसमुग्गएसु बहबजिण सकहा संणिकित्ता चिति, ताओ णं चंदस्स जोइसिंदस्स जोइसरण्णो, अण्णेसिं च बहूणं जोइसियाणं देवाय देवीण य अच्चणिज्जाओ बंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सक्कार णिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ, एवं खलु णो पभू चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडिस विमाणे सभाए सुम्माए तुडिएण सद्धिं दिव्वाइं भोग भोगाई माणे विहरित्तए । पभ्रूणं चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडिसए विमाणे सभाए Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा. १८ सू.१३ चन्द्रसूर्याणामग्रमहिष्य कथनम् ६४७ मुहम्माए चंदसि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सोहि, चउहि अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहि, सत्तहि अणीयाहिं सत्तहिं अणिगहिवइहि सोल सहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि, अण्णेहि य बहूहि जोइसिहिं देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिबुडे महयाहयणगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए केवलं परियारणिढिए, णोचेव णं मेहु णवत्तियाए । ता सूरस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। ता चत्तारि अग्ग महिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-सूरप्पभा १, आतवा २, अच्चिमाला ३, पभंकरा ४, सेसं जहा चंदस्स, णवरं सूरवडिसए विमाणे जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियाए ॥सू०१३॥ छाया तावत् चन्द्रस्य खलु भदन्त ? ज्योतिषेन्द्रस्य जोतिषराजस्य कति अग्र महिष्यः प्राप्ताः १ तावत् चतस्रः अग्रमहिष्यः प्राप्ताः । तयथा-चन्द्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा अचिर्मालिः ३ प्रभंकरा ४ तत्र खलु एकैकस्या देव्याः चतस्रश्चतस्रो देवी साहस्त्यः परिवारः प्रक्षप्तः । प्रभवः खलु ताः एकैका देवी अन्यानि चत्वारि चत्वारि देवी सहस्राणि परिवार विकुर्वि तुम् । ! एवमेव सपूर्वापरेण षोडश देवी सहस्राणि, तदेतत् त्रुटिकम् । तावत् प्रभुः खलु भदन्त । चन्द्र जौतिपेन्द्रः ज्यौतिषराजः:-चन्द्रावतंसके विमाणे सभायां सुधर्मायां त्रुटिकेन साद्धदिव्यान् भोगभोगान् भुजानो विहर्तुम् ? नायमर्थः समर्थः । तावत् कथं भदन्त ! स नो प्रभुः जोतिषेन्द्रो ज्यौतिषराजः चन्द्रावतसके विमाने सभायां सुधर्मायां त्रुटिकेन साद्ध दिव्यान् भोगभोगान् भुजानो विहतम् १ तावत् चन्द्रस्य खलु ज्यौतिपेन्द्रस्य जोतिषराजस्य चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां माणवकेषु चैत्यस्तम्भेषु वज्रमयेषु गोलवृत्तसमुद्केषु बहूनि जिनसक्थीनि (जिनास्थिनि) संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, तानि खल चन्द्रस्य जोतिषेन्द्रस्य ज्यौतिषराजस्य, अन्येषां च बहनां ज्योतिषिकाणां देवानां-च देवीनां च अर्चनीयानि वन्दनोयानि सत्करणीयानि सम्माननीयानि कल्याणानि माङ्गल्यानि दैवतानि चैत्यानि पर्युपासनीयानि, एवं खलु नो प्रभुश्चन्द्रः ज्यौतिषेन्द्रः ज्यौतिपराजः चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां त्रुटिकेन सार्द्ध दिव्यान् भोगभोगान् भुजानो विहत्तुम् ।। प्रभुः खलु चन्द्रः ज्योतिषेन्द्रः ज्योतिषराजः चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां चान्द्रे सिंहासने चतसृभि सामानिकसाहस्रीभिः चतसृभिः अग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः, तिसृभिः पर्षद्भि, सप्तभि अनिकैः, सप्तभिः, अनीकाधिपतिभिः. षोडशिकाभि आत्मरक्षक देवसाहस्रोभिः, अन्यैश्च बहुभिः ज्योतिषिकैः देवैः देवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृतः महताऽहत नाट्यगीतबादित्र तन्त्रो तलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिन्यान् भोगभोगान् भुजानो विहर्तुम् केवलं परीचारणऋद्धया, नो चैव मैथुनवृत्त्या । तावत् सूर्यस्य खलु भदन्त ! ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्यौतिषराजस्य कति अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः १ तावत् चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूर्यप्रभा १, आतपा २, अचिर्मालिः ३, प्रभङ्करा ४, शेष यथा चन्द्रस्य. नवरं सूर्यावतंसके विमाने यावत् नो चैव खलु मैथुन वृत्त्या सण३॥ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे ___ व्याख्याः -'ता चंदस्सणं' इत्यादि, । प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह-चन्द्रस्य खलु ज्योति पेन्द्रस्य ज्यौतिषराजस्य चतस्रोऽप्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः । ता इमाः-चन्द्रप्रभा १ ज्योत्स्नाभा २, अर्चिमाली, प्रभंकरा ४ इति । सुगमं सर्वमेतत्सूत्रं तथापि भाव रूपेण व्याख्यायते-'तत्थ णं एगमेगाए' इत्यादि, तत्र खलु तासु चतसृषु अग्रमहिषु एकैकस्या अग्रमहिण्याश्चत्वारिचत्वारि देवी सहस्राणि परिवारइति परिवारत्वेन प्रज्ञप्तः । 'पभूणं ताओ' इस्यादि प्रभवः समर्था खलु ताः सर्वा परिवार भूताः षोडश सहस्र देव्यः प्रत्येकम् एकैका देवी अपि अन्याः चतस्रश्चतम्रों देवीः विकुर्बितुम् समर्थाऽस्ति । एवं परिवारभूतानां देवीनां सर्वासां पूर्वापरसंमेलनेन स्वाभाविकानि षोडश देवी सहस्राणि भवन्तीति । षोडश देवो सहस्रात्मकः समूहः त्रुटिक मिति कथ्यते । त्रुटिकमित्यन्तः पूरम् । ततः त्रुटिकेन सह चन्द्रावतंसके विमाने सुधर्मसभायां चन्द्रस्य दिव्यभोगभोगानां भोगसामर्थ्य गौतमस्य प्रश्नः । भगवतो निषेधात्मकमुत्तरम्-'नायमढे समढे' इति नायमर्थः समर्थः चन्द्रदेवस्य त्रुटिकेन सार्द्ध दिव्यभोगानां भोगे सामर्थ्य नास्तीति भावः । कथं न सामर्थ्यम् ? इति गौतमस्य प्रश्नः । भगवानाह-'ता चंदस्स णं, इत्यादि, चन्द्रस्य चन्द्रावतंसके विमाने सुधमायां सभायां माणवकनाम्नि चैन्यस्तम्भे स्थितेषु बज्रमयसिक्ककेषु वज्रमया गोलाकाराः समुद्गकाः सन्ति तेषु जिनसक्थीनि तिष्ठन्ति, तानि च ज्यौतिषिकाणं देवानां च अर्चनवन्दन संस्कार सम्मानयोग्यानि तथा कल्याणं मङ्गल्यं दैवतं चैत्यमिति कृत्वा पर्युपासनियानि इति ते देवा . मन्यन्ते अतस्तत्र चन्द्रदेवस्त्रुटिकेन सार्द्ध दिव्यभोगमोगान् भोक्तुं न समर्थः । किन्तु स ज्यौतिषेन्द्रो ज्यौषिराजश्चन्द्र देवः चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां चान्द्रे सिंहासने चतुर्भि सामानिक देवसहस्रः चतसृभिः सपरिवाराभिरग्रमहिषोभिः, तिसृभिः पर्षद्भिः, सप्तभिरनीकैः सन्य, सप्तभिरनीकाधिपतिभिः षोडशभिरात्मरक्षकदेवसाहौ, अन्यैश्च बहुभिः ज्योतिषिकै र्देवैः देवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृतो भूत्वा महताहतनाटयगीतवादित्रतन्त्रोतलताल त्रुटित घन मृदङ्ग ..पटुप्रवादितरवेण, तत्र महता रवेण इत्यग्रेण सम्बन्धः अथवा महत्त्वेन आहतानि अव्याहतानि नाटयगीतवादित्राणि, तथा तन्त्री-वीणा, तलताला: हस्तताला त्रुटितानि तूर्याणि, तथाधनि साधात् घनाकारो मृदङ्गः, स च पटुपुरुषेण प्रवादितः, एतेषां पदानां द्वन्द्वः, तेषां यो स्वः शब्दस्तेन तच्छब्दपूर्वक मित्यर्थः दिव्यान् भोगयोग्यान् भोगान् शब्दश्रवणमात्रान् भुञ्जन् अनुभवन् विहर्तुं प्रभुः समर्थो भवति तत्तु 'परियारणि इढीए, परिचारण ऋद्धयैव मो चेव णं मेहुणवत्तियाए' न तु मैथुनवृत्तितया मैथुनवृत्त्या मैंथुनबुद्धया भोक्तुं न समर्थ इति । अथ सूर्याप्रमहिषी विषय प्रश्नः। भगवानाह-सूर्यस्यापि चतस्रोऽग्रमहिष्यः, तद्यथा सूरापमा' इत्यादि सूर्यप्रभा १ आतपा २ अचिर्माली ३ प्रभंकरा ४ इति । सेसं जहा बंदास 'शेषं सर्व यथा चन्द्रस्य तथाऽवसेयम् नवरं विशेषः केवल मेतावानेव अत्र 'सूर्यावतंसके Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटोका. प्रा.१८ सू. १४ ज्योतिष्कदेवदेवीनां स्थितिनिरूपणम् ६४९ विमाने' इति पठनीयम् । शेषं जाव' यावत् ? नो चेव णं मेहुणवत्तियाए' इति पर्यन्तिं सर्व चन्द्रदेववर्णनवदेव वाच्यमिति ॥ सू०१३।। ज्यौतिष्क देवदेवीनां स्थितिविषयं सूत्रमाह 'ता जोइसियाणं' इत्यादि । मूलम्–ता जोइसियाणं भंते देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता । जहण्णेणं अअट्ट भाग पलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवम, वाससयसहस्समब्भहियं । ता जोइ सिणीणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ! ता जहण्णेणं अट्ठ भागपलिओवम, उक्कोसेणं अद्ध पलिओवमं, पण्णासाए वाससहस्से हिं अभहियं । ता चंदविमाणे णं भंते देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता । जहण्णेणं चउब्भागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं वास सयसहस्समभहियं । ता चंदविमाणेणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ! जहण्णे णं चउब्भागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं , पण्णासाए वाससहस्सेहि अब्भहियं । ता सूर विमाणेणं भंते देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता । जहण्णेणं चउब्भाग पलिओवम, उक्कोसेणं पलिभोवमं वाससहस्समन्भहियं । ता सूरविमाणेणं भंते ! देवोणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता । जहण्णेणं चउभागपलिओवमं, उक्को सेणं अद्धपलिओवमं पंचहि वाससरहिं अमहियं । ता गहविमाणेणं भंते ! देवाणं केवइं कालं ठिई पण्णत्ता । जहण्णेण चउब्भागपलिओवमं उक्कोसेण पलिओवमं । ता गहविमाणेणं भंते ! देवीणं कवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ! जहण्णेण चउब्भागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्ध पलिओवमं । ता णक्खत्तविमाणेणं भते देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? जहण्णेणं चउन्भागपलिओवम, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं । ता णक्खसविमाणेणं भंते ! देवीणं कवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमं उकोसेणं चउम्भाग पलिओवमं ता ताराविमाणे ण भंते' ! देवाणं पुच्छा, जहण्णे णं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं चउब्भागपलिओवमं । ता ताराविमाणेणं भंते ! देवीण पुच्छा, जहण्णेण अट्ठभाग पलिओवमं उक्कोसेण साइरेग अट्ठभागपलिओवमं ॥सू०१४॥ __ छाया-तावत् ज्योतिषिकाणां भदन्त ! देवानां कियत्कं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? जघन्येन अष्ट भागपल्योपमम्, उत्कर्षेण पल्योपमम् वर्षशतसहस्राभ्यधिकम् । तावत् ज्योतिषिकीणां भदन्त ! देवोनां कियत्कं काल स्थितिः प्रशप्ता ! जघन्येन अष्ट भाग पस्यो पमम् उत्कर्षेण अर्द्ध पल्योपमम् पञ्चाशता वर्ष सहनैरभ्यधिकम् । तावत् चन्द्रविमाने खलु भदन्त ! देवानां कियत्कं कालं स्थितिः प्राप्ता जघन्येत चतुर्भाग पल्योपमम् उत्कर्षण पस्योपमम् घर्षशतसहस्राभ्यधिकम् तावत् चन्द्रविमाने खल भदन्त ! देवीनां कियत्कं कालं स्थितिः प्रशप्ता ? जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम् उत्कर्षेण अर्द्धपल्योपमं पञ्चाशता ८२ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे वर्षसहस्रैरभ्यधिकम् । तावत् सूर्यविमाने खलु भदन्त ! देवानां कियत्कं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम्, उत्कर्षेण पल्योपमं वर्षसहस्राभ्यधिकम् तावत् सूर्यविमाने खलु भदन्त ! देवोनां कियत्कं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? जघन्येन चतुर्भाग पल्योपमम्, उत्कर्षेण अर्द्धपल्योपमं पञ्चभिर्वर्षशतैरभ्यधिकम् तावत् गृहविमाने खलु भदन्त ! देवानां कियत्कं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम् उत्कर्षेण पल्योपमम् तावत् गृहविमाने खलु भदन्त ! देवीनां कियत्कं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम्, उत्कर्षेण अर्द्धपल्योपमम् । तावत् नक्षत्र विमाने खल भदन्त ! देवानां कियकं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम् उत्कर्षेण पल्योपमम् तावत् नक्षत्रविमाने खलु भवन्त ! देवीनां कियत्कं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? जघन्येन अष्ट भागपल्योपमम् उत्कर्षेण चतुर्भागपल्योपमम् तावत् ताराविमाने खलु भदन्त ! देवानां पृच्छा जघन्येन अष्ट भागपल्योपमम् उत्कर्षेण चतुर्भागपल्योपमम् । तावत् तारा विमाने खलु भदन्त । देवीनां कियत्कं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? तावत् जघन्येन अष्ट भागपल्योपमम्, उत्कर्षेण सातिरेकाष्टभागपल्योपमम् ॥४॥ व्याख्या—अत्र ज्यौतिष्कदेवदेवीनां स्थितिकथनं वर्तते, तद्विषयकोऽत्र प्रश्नः-'ता जोइसियाणं' इत्यादि, सामान्य ज्यौतिष्कविषये पृच्छति भगवानाह-'जहण्णेणं, इत्यादि, ज्यौतिष्काणां स्थितिः जघन्येन अष्टभागपल्योपमा, पल्योपमस्याष्टमभागपरिमिता उत्कर्षेण शतसहस्रवर्षाधिकपल्योपमप्रमाणा लक्ष वर्षाधिकमेकं पल्योपमं स्थितिः । ज्यौतिष्कदेवीनां स्थितिः जधन्येन पूर्वोक्तैव अष्टभागपल्योपमा पल्योपमस्याष्टमभामपरिमिता, उत्कर्षेण पञ्चाशद्वर्षसहस्रैरधिकाऽर्द्धपल्योपमा। चन्द्रविमानस्थितदेवानां स्थितिर्जघन्येन चतुर्भागपल्योपमा पल्योपमस्य चतुर्थभागपरिमिता, उत्कर्षेण शतसहस्रवरधिका पल्योपमप्रमाणा लक्षवर्षाधिकं पल्योपमं स्थितिः । चन्द्र विमानगतदेवीनां च स्थिति जघन्येन चतुर्भागपल्योपमा, ऊत्कर्षण पञ्चाशद्वर्षसहस्रैरधिकाऽपल्योपमा । 'ता सूरविमाणेणं' इत्यादि, सूर्यविमानगत देवानां स्थितिर्जघन्येन चतुर्भागपल्योपमा, उत्कर्षेण सहस्रवर्षाधिक पल्योपमप्रमाणा । तद्गत देवीनां स्थिति धन्येन चतुर्भागपल्योपमा, उत्कर्षेण पञ्चशत वर्षेरधिकाऽर्द्धपल्योपमप्रमाणा । 'ता गहविमाणेण' इत्यादि, ग्रहविमानगतदेवानां स्थितिर्जघन्येन चतुर्भागपल्योपमा, उत्कर्षण पल्योपमपरिमिता । ग्रह विमानगतदेवोनां स्थितिर्जघन्येन चतुर्भाग पल्योपमा, उत्कर्षेणार्द्ध पल्योपमप्रमाणा। 'ता णक्खनविमाणेणं'. इत्यादि, नक्षत्रविमानगतदेवानां स्थितिर्जघन्येन चर्तुभागपल्योपमा उत्कर्षेण अर्द्ध पल्योपमप्रमाणा, देवीनां अष्टभागपच्योपमा, पल्योपमस्याष्टमो भागः, उत्कर्षेण चतुर्भागपल्योपमप्रमाणा पल्योपमस्य चतुर्थभागः । 'ता तारा विमाणेणं' इत्यादि, तारा विमानगतदेवानां स्थितिर्जघन्येन अष्टभागपल्योपमा, उत्कर्षेण चतुर्भागपल्योपमप्रमाणा ।. तद्गतदेवीनां स्थितिर्जघन्येन अष्टभागपल्योपमा, उत्कर्षेण सातिरेकेति किञ्चिदधिकाष्टभागपल्योपमप्रमाणेति ।। सूत्र १४ ॥ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा. १८ सू.१५ चन्द्रादीनामल्पबहुत्वनिरूपणम् ६५१ अथ चन्द्रादीनामल्पबहुत्वविषयं सूत्रमाह-'ता प्रएसिणं' इत्यादि । मूलम्-ता एएसि णं चंदिमसरियगहगणणक्खततारारूवाणं भते ! कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्लावा विसेसाहिया वा । ता चंदा य सूराय एसणं दो वि तुल्ला सव्वत्थोवा, णक्खत्ता सखिज्ज गुणा, गहा संखिज्ज गुणा तारा सखिज्ज गुणा, ॥सू० १५॥ ____ अट्ठरसमं पाहुडं समत्तं ॥१८॥ छाया तावत् एतेषां खलु चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां कतमे कतमेभ्यः अल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा ? तावत् चन्द्राश्च साश्च पते खलु द्वयेऽपि तुल्याः सर्वस्तोकाः, नक्षत्राणि संख्येय गुणानि, ग्रहाः संख्येयगुणाः, ताराः संख्येय गुणा ॥ स्० ॥१५॥ अष्टादशं प्राभृतं समाप्तम् ॥१८॥ व्याख्या-चन्द्रादीनामल्पबहुत्वविषयः प्रश्नः । भगवानाह-'चंदाय सूराय' इत्यादि, चन्द्राश्च सूर्याश्च, एते उभयेऽपि परस्परं तुल्याः सर्वस्तोकाः, सर्वस्तोकत्वेन तुल्याः । नक्षत्राणि संख्येयगुणानि चन्द्र सूर्येभ्योऽधिकानि, ग्रहाः नक्षत्रेभ्यः संख्येयगुणा अधिकाः, ताराः संख्येयगुणा आहेभ्योऽधिका इति ॥१५॥ ॥ इति श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालबतिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्ति प्रकाशिकाख्यायां व्याख्याया मष्टादशं प्राभृतं समाप्तम् ॥ १८ ॥ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ एकोनविंशतितमं प्राभृतम् ।। व्याख्यातमष्टादशं प्राभृतम् , तत्र चन्द्रसूर्यादीनामुच्चत्वप्रतिपादनपूर्वकं तेषां परस्परमणुत्वतुल्यत्व-विमानसंस्थानतत्प्रमाण-विमानवाहक देव-शीघ्रगतिमन्दगति-तदृद्धि-तारान्तराममहिषी-स्थिति-तदल्प बहुत्वानि प्ररूपितानि । अथैकोनविंशतितमं प्राभृतं व्याख्यायते, अत्रायमर्थाधिकारः-पूर्व द्वारगाथायामुक्तम्-"सूरिया कइ आहिए" सूर्याः कति आख्याता इत्यत्र जम्बूद्वीपधातकी खण्डादौ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यां प्रतिपादयन्निदमादिमं सूत्रमाह-'ता कइणं चंदिमसूरिया' इत्यादि । _मूलम् - ता कइणं चंदिमसूरिया सव्वलोयं ओभासंति उज्जोवेंति तवेंति पभासेंति आहिएति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ दुवालसपडिवत्तीओ पण्णत्ताओतत्थेगे एवमाहंसु-ता एगे चंदे एगे सूरे सव्व लोयंसि ओभासेइ १ उज्जोवेइ २ तवेइ ३, पभासेइ ४, एगे एवमाहंसु १ । एगे पुण एवमाहंसु-ता तिण्णि चंदा तिण्णि सरा सव्वलोयंसि ओभासेंति ४, एगे एवमाइंसु २ । एगे पुण एवमाहंसु-ता आउढेि चंदा आउटिं सूरा सव्वलोयंसि ओभासेंति ४, एगे एव माहंसु ३ । एवं एएणं अभिलावेणं जहा तइए पाहुडे दीव समुदाणं दुवालस पडिवत्तीओ ताओ चेव इहंपि चंदिमसूरियाणं णेयव्वा जाव बावत्तरं चंदसहस्सं बावत्तरं सूरसहस्सं सव्वलोयं ओभासेंति ४, सत्तचंदा सत्त सूरा ४। दसचंदा दससूरा ५। बारसचंदा वारससूरा ६। बायालीसं चंदा बायालीसं सूरा ७१ बावत्तरिं चंदा बावत्तरिं सूरा । बायालोस चंदसयं बायालीस सूरसय ९। बावत्तरं चंदसय बावत्तरं सूरसय १० बायालीस चंदसहस्सं बायालीसं सूरसहस्सं ११॥ एगे पुण एवमासु बावत्तरं चंदसहस्सं बावत्तरं सूरसहस्स सम्वलोयसि ओभासेंति उज्जोवेति तवेंति पभासेंति, एगे एवमाहंसु १२) .. वयं पुण एवं वयामो-ता अयण्णं जंबुद्दीवें दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते ता जंबुद्दीवे दीवे दो चंदा पभासेंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा, जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ, दो सूरिया तर्विसु वा तति वा तविस्संतिवा । छप्पण्णं णक्खत्ता जोयं जोईसु वा जोएंति वा जोइस्सतिवा। छावसरिं गहसयं चारं चरिंसु वा चरेइ चरिस्सइवा । पगं सयसहस्सं, तेत्तीस सहस्सा, णव सया पण्णासा तारागण कोडीकोडीणं सोभं सोभेति वा सोभिस्सति वा। गाहाओ-“दो चंदा दो सूर। णक्खत्ता खलु हवति छप्पण्णा । बावत्तरं गहसय जंबुद्दीवे वियारीण, ॥१॥ एगं च सयसहस्सं, तेत्तीसं खल भवे सहस्साइं । णव य सया पण्णासा, तारागणा कोडिकोडीण ॥२॥ ता जंबुद्दीवेणं दीवे लवणे नामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठइ । ता लवणेणं भंते समुद्दे किं समचक्वालसंठाणसंठिए विसमचक्कवालसंठाणसंठिए ? ता लवणेणं समुद्दे समचक्कवालसंठाणसंठिए नो विसमचक्क Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६५३ वालसंठाणसंठिए । ता लवणे णं समुद्दे केवइए चक्कवालविक्खंभेण ? केवइए परिक्खेवेणं आहिए ? ति वएज्जा ? ता दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, पण्णरस जोयणसयसहस्साई एक्कासीई च सहस्साई सयं च उणयालं किंचि विसेसूर्ण परिक्खवेणं आहिएति वएज्जा । ता लवणेणं समुद्दे केवइया चंदा पभासिसुवा ३ एवं पुच्छा जाव केवइयाओ तारागण कोडि कोडीओ सोभं सोभिंसुवा ३ ? ता लवणेणं समुद्दे चत्तारि चंदा पभासिसुवा ३ जहा जावाभिगमे जाव ताराओ चत्तारि सूरिया तर्विसुबा ३ बारस णक्खत्तसयं जोयं जोइंसुवा ३, तिण्णिबा वण्णा महागहसया चारं चरिसुवा ३ दो सयसहस्सा सत्तद्धिं च सहस्सा णव य सया तारा गण कोडि कोडोणं सोभं सोभिसु वा गाहाओ--पण्णरस सय सहस्सा एक्कासोयं सय चऊतालं । किंचि विसेसेणूणा लवणोदविणोपरि खेवो ॥१॥ चत्तारि चेव चंदा, चत्तारि य सूरिया लवणतोये । बारस णक्खत्तसय, गहाण तिण्णेव बा बण्णा ॥२॥ दो चेव सयसहस्सा, सत्तट्ठिं खलु भवे सहस्त्राई। णव य सया लावण जले, तारागणकोडि कोडोणं ॥३॥" ता लवणसमुदं धायईसंडे णाम दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सवओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ । ता धायई संडेणं दीवे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? ता समचक्कवालसंठिए णो विसमचक्कवालसंठिए । ता धाई संडे दीवे केवइए चक्कवालविक्खंभेणं, एवं विक्खंभो परिक्खेवो जोइसं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ_केवइए परिक्खेणं आहिए तिवपज्जा ? ता चत्तारि जोयण सयसहस्साई चक्क वाल विखंमेणं इगतालीसं जोयण सयसहस्साई दस य सहस्साई णव य एगढे जोयण सप किंचि विसेसूणे परिक्खेवेण आहिए तिवएज्जा । धायई संडेणं दीवे केवइया चंदा पभासिंसु वा 3 पुच्छा तहेव, धायई संडेण दोवे बारस चंदा पभासिसु वा ३ बारस सूरिया तवेंसु वा ३, तिणि छत्तीसा णक्खत सया जोयं जोइंसु वा ३ एग छप्पण्ण महग्गहसहस्सं चारं चरिंसु वा ३, अट्ठसय सहस्सा तिण्णि सहस्साई सत्त य सयाई तारागण कोडि कोडीणं सोभं सोभिंसु वा ३ गाहाओ--"धायइसंडपरिरओ ईताल दसुत्तरा सय सहस्सा । णव य सया एगट्ठा, किंचि विसेसेण परिहीणा ॥१॥ चउवीसं ससिरविणो, णक्खत्त सया य तिण्णि छत्तीसा पगं च गहसहस्सं, छप्पणं धायई संडे ॥२॥ अदृठेव सयसहस्सा, तिण्णि सहस्साई सत्तय सयाई । धायइसंडे दीवे तारागण कोडि कोडोणं ॥३॥ ता धायइसंडं णं दीवं कालोएणं णामं समुद्दे बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठइ । ता कालोए णं समुद्दे किं समचक्कवाल संठिए विसमचक्कवाल संठिए ? समचक्कवालसंठिए णो विसमचक्कवालसंठिए । एवं विक्खंभो परिक्खेवो जोइसं च जहा जीवाभिगमे तहा भाणियव्वं जाव ताराओ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे ___ता कालोएणं समुद्दे केवइए चक्कवालविक्खंभेणं ? केबइए परिक्खेवेणं आहिएतिवएज्जा ? ता कालोएणं समुद्दे अट्ठ जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खभेणं पण्णत्ते, एक्काणउई जोयणसयसहस्लाई, सत्तरं च सहस्साई, छच्च पंचुत्तरे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं आहिए-ति वएज्जा । ता कालोपणं समुद्दे केवइया चंदा पभासिंसु वा ३ पुच्छा, ता कालोएणं समुद्दे बायालीसं चंदा पभासिंसु वा ३ वायालीसं सरिया तविंसु ३, एक्कारस छावत्तरा णक्खत्तसया जोयं जाहस वा ३, तिन्नि सहस्सा छच्च छण्णउया महग्गहसया चारं चरिंसु वा ३ अट्ठावीसं च सयसहस्साई बारस सहस्साई नव य सयाइं पण्णासा तारागण कीडो कोडीओ सोभं सोभिं ! वा सोभति वा सोभिस्सति वा, गाहाओ-"एक्काणउईसत्तराई सहस्साई परिरओ तस्स । अहियाई छच्च पंचुत्तराईकालोदहिवरस्स ॥१॥ बायालोसं चंदा, बायालोसं च दिणयरा दित्ता । कालोद. हिम्मि एए, चरंति संबद्धलेसागा ॥२॥ णक्खत्तसहस्सं एगमेव छावत्तरं च सयमण्णं । छच्चसया छण्ण उया, महग्गहा ति पण य सहस्सा ॥३॥ अट्ठावीस कालोदाहम्मि बारस य सहस्साई । णव य सया पण्णासा तारागण कोडि कोडीणं ॥४॥" तां कालो यं णं समुदं पुक्खरबरे णामं दिवे बढे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ । ता पुक्खरवरेणं दीवे किं समचक्कवाल संठिए विसमचकवा लसंठिए ? ता समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए। एवं विक्खंभो परिक्खेवो जोइसं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ ॥ __ता पुक्खरवरेणं दीवे केवइए समचक्कवालविक्खभेण ? केवइए परिक्खेवेणं ? ता सोलस जोयण सयसहस्साई चक्कवालविक्खमेणं, एगा जोयण कोडी बाण उई च सयसहस्साई अउणावन्नं च सहस्साई अट्ठचउ णउयाई जोयणसयाई परिक्खेवेणं आहिएतिवएज्जा । ता पुक्खरवरेणं दीवे केवइया चंदा पभासिंसु वा ३, पुच्छा तहेव । ता चोयालं चंदसय पभासेंसु वा ३, चोयाल सूरियाण सयं तर्विसु वा ३ चत्तारि सहस्साई बत्तीसं च णक्खत्ता जोयं जोइसु वा ३, बारस सहस्साई छच्च बोवत्तरा महग्गहसया चारं चरिंसु वा ३, छण्णउई सयसहस्साई चोयालीसं सहस्साई चत्तारि य सयाई तारागण कोडि कोडोओ सोभ सोभिसु वा ३. । गाहाओ-"कोडीबाणई खलु अउणाणउई भवे सहस्साइ । अट्ठसया चउणउया य परिरओ पोक्खरवरस्स ॥१॥ चोत्तालं चंदसयं, चोत्ताल चेव सूरियाण सयं । पोक्खरवर दीवम्मि च चरति एए पभासता ॥२॥ चत्तारि सहस्साई, छत्तीसं चेव हुँति णक्खत्ता । छच्छसया बावत्तर, महग्गहा बारह सहस्सा ॥३॥ छण्णउइ.सयसहस्सा, चोत्तालीस खलु भव सहस्साइ । चत्तारि य सया खलु, तारागण कोडि कोडीण ॥४॥ ता पुक्खरवरस्स णं दीवस्स बहुमज्झदेसभाए माणुसुत्तरे णामं पव्वए वलयागारसंठाणसंठिए, जेणं पुक्खरवरदीवं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ, तं जहा—अभितरपुक्खरद्धं च, बाहिरपुक्खरद्धंच । ता अभितरपुक्खरद्धणं किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? ता समचक्कवाल संठिए णो विसमचक्कवालसंठिए । एवं विक्खंभो, परिक्खेवो जोइस जाव ताराओ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१९. सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्र तारारूपाणांसंख्यादिकम् ६५५ ता अम्भितरपुक्खरद्धणं केबइए चकवालविवखंभेणं ? केवइए परिक्खेवेणं आदिए तिवएज्जा । ता अट्ठ जोयण सयसहस्साई चक्कबालविक्खमेण, "एक्का जोयण कोडो, बायालीसं च सयसहस्साई । तीसं च सहस्साई दो अउणापण्णे जोयणसए ॥१॥ परिक्खेवेणं आहिए तिवएज्जा । ता अभितरपुक्खरद्धेण केवइया चा पभासिंसु वा ३, केवइया सूरा तर्विसु वा ३ पुच्छा, बावतरं चंदा पभासिंसु वा ३, बावत्तरि सूरिया तविंसु वा ३, दोण्णि सोला नक्खत्त सहस्सा जोयं जोई उ वा ३, छा महग्गह सहस्सा तिन्नि य छत्तीसा चार चरि'सुवा ३ अडयालीस सय सहस्सा बावीसं च सहस्सा दोण्णिय सया तारागण कोडि कोडोओ सोभं सोभिंसु वा 3) ___ता मणुस्सखेत्तेणं केवइए आयामविक्खंभेणं ? एवं विखंभो, परिरओ जोइस, ताराओ जाव एगससीपरिवारो तारागण कोडि कोडीणं ॥गा०४०॥ केवइए परिक्खेवेणं आहिए तिवएज्जा ? ता पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खमेण एका जोयण कोडो, बायालोसं च सयसहस्साई । दोणिय अउण्णा पण्णे, जोयणसए, परिक्खेवेणं आहिपति वएज्जा । ता मणुस्सखेत्तेण केवइया चंदा पभा सिसु वा ३ पुच्छा तहेव, ता बत्तीसं चंदसयं पभसिंसु वा ३ बत्तोसं सूरियाण सयं तवइंसु वा ३. तिण्णि सहस्सा छच्च छण्णउया णक्खत्तसया जोयं जाई युवा ३ पक्कारससहस्सा छच्च सोलस महग्गहसया चारं चरिंसुवा ३. अट्ठासोई सयसहस्साई चत्तालीस च सहस्सा सत्त य सया तारागण कोडि कोडीओ सोभं सोभिंसु वा ३ गाहाओ-अट्टेव सय सहस्ता अभितर पुक्खरवरस्स विक्खभो । पणयाल सयसहस्सा, माणुसखेत्तस्स विक्खभो ॥१॥ कोडीबायालोसं सहस्स दुसया य अउण पण्णासा। माणुसखेत्त परिरओ, एमेव य पुक्खर द्धस्स ॥२॥ बावतरं च चंदा, बावत्तरिमेय दिणयरा दित्ता । पुक्खर दीवड्ढे, चरंति एए पभासेता ॥३॥ तिण्णिसया छत्तोसा, छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु । णवत्ताणं तु भवे सोलाई दुवे सहस्साई ॥४॥ अडयाल सयसहस्सा, बावीसं खलु भवे सहस्साई । य सय पुक्खरद्धे, तारागण कोडि कोडोणं ५ बत्तीसं चंदसयं, बत्तीसं चेव सूरियाण सया सयलं माणुसलोयं चरति पते पभासेता ६ एक्कारस य सहस्सा छप्पियसोला महग्गहाणं तु । छच्च सया छण्णउया. णक्खत्ता तिणि य सहस्सा ७ अट्टसीइवत्ताई सयसहस्साई मणुयलोयमि । सत्तय सया अणूणा तारागण कोडि कोडोणं ८ एसो तारापिंडो, सव्व समासेण मणुयलोयमि । बहिया पण ताराओ, जिणेहि भणिया असंखेज्जा ९ एवइयं तारगं, जं भणियं माणुसंमि लोयम्भि । चारं कलंवुया पुप्फठियं जोइस चरइ १० रवि ससि गहणक्खत्ता, एवइया आहिया मणुयलोए जेसिं णामा गोत्तं न पागया पण्णवेर्हिति ११ छावढिपिडगाई, चंदाइच्चाण मणुयलोयम्मि । दो चंदा दो सूरा हुंति एक्केकर पिडए ॥१२॥ छावद्धि पिडगाई, णक्खत्ताणं तु मणुयलोयंमि । छप्पण्णं णक्खत्ता, हुति एक्केक्कए पिडए ॥१३॥ छावहि पिडगाई, महागहाणं तु मणुयलोयंमि । छावत्तरं गहसय'. होई पाकेक्कए पिडए ॥१४॥ वत्तारिय पंतोओ, चंदाइच्चाण मणुयलोय मि । छावर्छि व होइ एक्किया पंती ॥१५॥ छप्पण्णं पंतीओ णक्खत्ताण मणुयलोयंमि छावठिं छावठिं हवंति एक्किक्किया पंती ॥१६॥ छावत्तरंगहाणं, पंतिसय हवइ मणुयलोयम्मि । छावट्टि छावट्टिहवइ य एक्किक्किया पंती ॥१७॥ ते मेरुमणुचरंता, पयाहिणा वत्तमंडला सब्वे । अणवठि य जोपहि, चंदा सूरा Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे गहगणाय ॥१॥ णक्खत्त तारगाणं, अवष्ठिया मंडला मुणेयव्वा । तेऽविय पयाहिण वत्तमेव मेरु अणु चरति ॥१९॥ रयणियरदिणयराण, उड्दच अहेय संकमो नत्थि । मंडलसंकमणं पुण, सभितर बाहिरंतिरिप ॥२०॥ रयणियरदिणयराण णक्खत्ताणं मह ग्गहाण च, चारविसेसेण भवे, सुहदुक्ख विही मणुस्साणं ॥२१॥ तेसिं पविसंताणं तावक्खेत्त त वडढए णिययं । तेणेव कमेण पूणो, परिहायइ निक्खम ताण ॥२२॥ तेसिं कलंबुया पुप्फसंठिया हुंति तावक्खेत्त पहा अंतो य संकुडा बाहिं वित्थडा चंदसुराणं ॥२३॥ केणं वडूढइ चंदो, परिहाणो केण होइ चंदस्स । कालो वा जोण्हो वा, केणणुभावेण चंदस्त ! ॥२४॥ किण्हं राहुविमाणं निच्च च देण होइ अविरहिय, च उरंगुलमसंपत्त, हिच्चा चदस्स तं चरइ ॥२५॥ बावठिं बावठिं दिवसे दिवसे उ सुक्कपक्खस्स । जं परिवडूढइ चंदो खवेइ तं चेव कालेण ॥२६॥ पण्णरसहभागेण य, चंदं पण्णरसमेव तं बरइ पण्णर सभागेणय पुणो वि तं चेव वक्कमइ ॥२७॥ एवं वड्ढइ चंदो परिहाणी एव होइ चंदस्स कालो जुण्हो वा, एवणुभावेण चंदस्स ॥२८॥ अंते मणुस्स खेत्ते हवंति चारोवगा उ उववण्णा । पंचविहा जोइसिया, चंदा सूरा गहगणाय ॥२९॥ तेण परं जे सेसा, चंदाइच्च गह तारणक्खत्ता'। नत्थि गईणवि चारो, अवट्टिया ते मुणेयव्वा ॥३०॥ एवं जंबुद्दीवे, दुगुणा लवणे चउग्गुणा होंति लवणा य ति गुणिया, ससिसूरा धायई संडे ॥३१॥ दो चंदा इह दीवे, वत्तारि य सायरे लवण तोए । धायइसंडे दीवे बारस चंदा य सूरा य ॥३२। धायइसंडप्पभिइसु, उर्दिट्टा तिगुणिया भवे चंदा । आइल्ल चंदा सहिया, अणंतराणंतरे खेत्ते ॥३३॥ रिक्खग्गह तारग्गं, दीवसमुहे जइच्छसिणा उ। तस्ल सीहिं तग्गुणियं, रिक्तगह तारग्गं त ॥३४॥ बहिया उमाणुसनगरस चंद सूराण वद्रिया जोण्हा। चंदा अभिई जुत्ता, सरा पुण हुँति पुस्सेहिं ॥३५॥ चंदाओ सूरस्स य, सूरा चंदस्स अंतरं होइ । पण्णास सहस्साई तु जोयणाणं अणूणाई ॥३६॥ सूरस्स य सूरस्स य ससिणो य अंतरं होइ । बाहिं तु माणुसनगस्स जोयणाणं सयसहस्सं ॥३७॥ सूरंतरिया चंदा, चंदंतरिया य दिणयरा दित्ता । चितरलेसागा, सुहलेसा मंदलेसा य ॥३८।। अट्टासीईच गहा, अट्ठावीसं च हुंति नक्खत्ता । एगसलो परिवारो, एतो ताराण वोच्छामि ॥३९॥ छावटि सहस्साई णवचेव सयाइं पंच सतराई । एगससी परिवारो तारागण कोडि कोडीण ॥३०॥ सू०१॥ (जम्बूद्वीपा दारभ्य पुष्कराई द्वीप पर्यन्त ज्यौतिश्चक्रप्रतिपादकं प्रथमसूत्र मूलम् ॥) छाया-तावत् कति खलु चन्द्र सूर्याः सर्वलोके अवभासयन्ति उद्योतयन्ति, तापयन्ति, प्रभासयन्ति ? आख्यातमिती वदेत् । तत्र खलु इमा द्वादश प्रतिपत्तयः प्रसप्ता, तत्रैके एवमाहुः तावत् एकश्चन्द्रः एक सूर्यः सर्वलोकम् अवभासते १ उद्योतयति २, तापयति ३. प्रभासयति ४, एके एवमाहुः ॥१॥ एके पुनरेव माहुः-तावत् त्रयश्चन्द्राः त्रयः सूर्याः सर्वलोके अवभासन्ते ४, एके एवमाहुः ॥२॥ एके पुनरेव माहुः-तावत् अर्द्धचतुर्थाश्चन्द्राः अर्द्धचतुर्थाः सूर्याः सर्वलोकं अवमा पन्ते ४, एके एवमाहुः ।। एवम् एतेन अभिलापेन यथा तृतीये प्राभृते द्वीपसमुद्राणां द्वादश प्रतिप्रत्तयस्ता एव इहापि चन्द्रसूर्याणां ज्ञातव्याः यावत् द्वासप्ततं चन्द्रसहस्र द्वासप्ततं सूर्यसहस्र सर्वलोकम् अवभासन्ते ४ सप्त चन्द्राः सप्त सूर्याः ।। दश चन्द्राः दश सूर्याः ५ द्वादश चन्द्रा द्वादश सूर्याः ।६। द्विचत्वारिंश चन्द्राः द्विवत्वारिंशत् सूर्याः ॥७॥ द्वासप्ततिश्चन्द्राः द्वासप्तति सूर्या ॥८॥ द्वि चत्वारिंशत्क Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सु. १ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६५७ चन्द्रशतं द्वित्वारिंशत्कं सूर्यशतम् ॥९॥ द्वासप्ततं चन्द्रशत्कं द्वासप्तकं सूर्यशतम् १० द्विचत्वारिंशं चन्द्रसहस्रं द्विचत्वारिंशं सूर्यसहस्रम् ।११। एके पुनरेव माहुः द्वा सप्ततं चन्द्र सहस्त्र द्वा सप्ततं सूर्यसहस्रं सर्वलोकम् अवभासयन्ति उद्योतयन्ति तापयन्ति प्रभासयन्ति, पके एवमाहुः वयं पुनरेवं वदामः - तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । तावत् जम्बू द्वीपे द्वीपे द्वौ चन्द्रौ प्रभासयतां वा, प्रभासयतो वा प्रभासयिष्यतो वा यथा जोवाभिगमे यावत् ताराः द्वौ सूर्यै अतापयतां वा, तापयतोवा तायिष्यतोवा । षट् पञ्चाशत् नक्षत्राणि योगम् अयुञ्जन् वा. युञ्जन्ति वा योक्षन्तिवा षटू सप्ततिं गृहशत चारमचरत् वा चरतिवा, चरिष्यति वा पकं शतसहस्र, त्रयस्त्रिंशत् सहस्राणि, नवशतानि पञ्चाशानि तारागण कोटी कोटीनां शोभामशोभन्तवा, शोभन्ते वा, शोभिष्यन्ते वा । गाथे- द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यो नक्षत्राणि खलु भवन्ति षटू पञ्चाशत् द्वा सप्ततिकं गृहशत, जम्बूद्वीपे विचारिणाम् ॥१॥ एकं च शतसहस्रं, त्रयस्त्रिंशत् स्खलु भवन्ति सहस्राणि । नव च शतानि पञ्चाशानि, तारागण कोटी कोटीनाम् २|| तावत् जम्बूद्वीपं खलु द्वीपं लवणो नाम समुद्रः वृत्तः वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । तावत् लवणः खलु भदन्त ! समुद्रः किं समचकवालसंस्थानसंस्थितः विषमचक्रवालसंस्थानसंस्थितः ? तावत् लवणः खलु समुद्रः समचक्रवालसंस्थानसंस्थितः नो विषमचक्रवालसंस्थान संस्थितः तावत् लवणः खलु समुद्रः कियत्कः चक्रवालविष्कम्भेण ? कियत्कः परिक्षेपेण, आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् योजनशतसहस्रे चक्रवालविष्कम्भेण पञ्चदश योजनशत सहस्राणि एकाशीतिं च सहस्राणि शतं च एकोनचत्वारिंशं किञ्चिद्विशेषोनं परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । तावत् लवणे खलु समुद्रे कियत्काश्चन्द्राः प्रभासयन् वा ३ एवं पृच्छा यावत् कियत्यः तारागण कोटी कोटयः शोभा मशोभन्तवा उ तावत् लवणे खलु समुद्रे चत्वार चन्द्राः प्रभासयन्ति वा३ यथा जीवाभिगमे यावत् ताराः चत्वारः सूर्याः आतापयन् वा३'द्वादशकं नक्षत्रशतं योगम् अयुक्तवा३ त्रीणि द्वा पञ्चाशानि महाग्रह शतानि चारम् अचरन् वा द्वे शतसहस्रे सप्तषष्टिश्च सहस्राणि नवच शतानि तारागण कोटी कोटीनां शोभाम् अशोभन्तवा ३ गाथाः - पञ्चदश शत सहस्राणि, एकाशीतिः शतानि च एकोनचत्वारिंशानि किञ्चिद्विशेषोनानि लवणोदधेः परिक्षेपः ॥२॥ चत्वार श्चैव चन्द्राः, चत्वारश्च सूर्या लवणतोये । द्वादशकं नक्षत्रशतं ग्रहाण त्रीन्येव द्वा पञ्चाशानि ॥२॥ द्वे चैव शतसहस्रे, सप्तषष्टिः खलु भवन्ति सहस्राणि । नव च शतानि लवणजले, तारागणकोटीकोटीनाम् ॥३॥ तावत् लवणसमुद्रं धातकीपण्डो नाम द्वीपो बृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । तावत् धातकीषण्डः खलु द्वीपः किं सम चक्रवालसंस्थितः विषमचक्रवालसंस्थितः ? तावत् समचक्रवालसंस्थितः नो विषमचक्रवाल ८३ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे संस्थितः । तावत् धातकीषण्डः खल द्वीपः कियत्कः चक्रवालविष्कम्मेण ? एवं विष्कमः परिक्षेपः ज्योतिषं यथा जोवाभिगमे यावत् तारा: कियत्कः परिक्षेपेण आख्यातः १ इति वदेत् । तावत् चत्वारि योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेण एकचत्वारिंशत योजनशतसहस्राणि, दश च सहस्राणि, नव च एक षष्टानि योजन शतानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । धातकी षण्डे खलु द्वीपे कियत्का श्चन्द्राः प्रभासयन् वा ३ पृच्छा तथैव धातकीषण्डे खल द्वीपे द्वादश चन्द्राः प्रभासयन् वा ३, द्वादश सूर्याः अतापयन् वा ३, त्रीणि षट्र त्रिशानि नक्षत्रशतानि योगमयुञ्जन् वा ३ एककं षट् पञ्चाशं महाग्रहसहस्त्रं चारमचरन् वा ३, अष्ट शतसहस्राणि, त्रीणि सहस्राणि, सप्तच शतानि तारागणकोटीकोटीनां शोभामशोभन्त वा ३ । गाथा:-"घातकीषण्डपरिरयः एक चत्वारिंशद् दशोत्तराणि शतसहस्राणि । नव च शतानि एक षष्टानि किजिवद्विशेषेण परिहीनानि ॥१॥ चतुर्विशति शशिरवयः, नक्षत्र शतानि च त्रीणि षट् त्रिंशानि । एकं च शतसहस्र, षट्र पञ्चाशत् धातकी षण्डे ॥२॥ अष्टैव शतसहस्राणि, त्रीणि सहस्राणि, सप्त च शतानि धातकी षण्डे द्वोपे, तारा गण कोटि कोटीनाम् ॥३॥ तावत् धातकीषण्ड खलु द्वीपं कालोदः खलु समुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसं सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठति । तावत कालोदः खल समद्रः किं समचक्रवालसंस्थितः विषमचक्रवालसंस्थितः ? समचक्रवालसंस्थितः नो विषमचक्रवाल संस्थितः एवं विष्कम्भः परिक्षेपः ज्यौतिषं च यथा यथा जीवाभिगमे तथा भणितव्यं यावत्ताराः । (तावत् कालोदः खलु समुद्रः कियत्कः चक्रवालविष्कम्भेण ? कियत्कः परिक्षेपेण आख्यात ? इति वदेत् तावत् कालोदः खलु समुद्रः अष्ट योजनशतसहस्राणि चक्रवाल विष्कम्मेण प्रज्ञप्तः, एकनवति योजनशतसहस्राणि, सप्ततिश्च सहस्राणि षट् पञ्चोत्तराणि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । तावत् कालोदे खलु समुद्रे कियन्तः वन्द्राः प्राभासयन् वा इति पृच्छा, तावत् कालोदे खलु समुद्र द्विचत्वारिंशत् चन्द्राः प्राभासयन् ३ द्विचत्वारिंशत् सूयाः अतापयन् वा ३ एकादश षट् सप्ततानि नक्षत्रशतानि योगमयुञ्जन् ३, त्रीणि सहस्राणि षट् षण्णव तानि चारमचरन् वा ३, अष्टाविंशतिश्च शतसहस्राणि, द्वादश सहस्राणि, नववशतानि पञ्चाशत् तारागण कोटीकोट्यः शोभामशोभन् वा शोभन्ते वा शोभिष्यन्ति वा । गाथा:"एकानवतिः सप्ततानि सहस्राणि परिरयस्तस्य। अधिकानि षट् पञ्चोत्तराणि कालोदधि वरस्य ॥१॥ द्विचत्वारिंशच्चन्द्रा, द्विचत्वारिंशच दिनकरा दीप्ताः । कालोदधौ एते, चरन्ति संबद्धलेश्याकाः ॥२॥ नक्षत्रसहस्रमेकमेव षट् सप्ततं च शतमन्यत् । षट् च शतानि षण्णवतानि महाग्रहाः त्रीणि च सहस्राणि ॥३॥ अष्टाविंशतिः कालोदधौ द्वादश च सहस्राणि नव च शतानि पञ्चाशतानि तारागण कोटि कोटीनाम् ॥४॥ तावत् कालोदं खलु समुद्र पुष्करवरो नाम द्वोपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठति । तावत् पुष्करवरः खलु द्वीपः किं समचक्रवालसंस्थितः ? विषमचक्रवालसंस्थितः ? तावत् समचक्रवालसंस्थितः नो विषम चक्रवालसंस्थितः । एवं विष्कम्भः, परिक्षेपः, ज्यौतिषं यथा जीवाभिगमे यावत्ताराः। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटोका० प्रा.१९. सू. १ चन्द्रसूर्यग्रहनाणनक्षतारारूपाणां संख्यादिकम् ६५९ तावत् पुष्करवरः खलु द्वीपः कियान् समचक्रवालविष्कम्भेण ? कियान् परिक्षपेण? हावत् षोडश योजनशतसहस्राणि चक्रबालविष्कम्भेण, एका योजन कोटी द्वानवतिश्च शतसहस्राणि, पकोनपञ्चाशश्च सहस्राणि. अष्ट चतुर्नवतानि योजनशतानि परिक्षेपेण आण्यात इति वदेत् । तावत् पुष्करवरे खलु दीपे क्रियन्तश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, पृच्छा तथैव, तावत् चतुश्चत्वारिंशं चन्द्रशतं प्राभासयन् वा ३, चतुश्चत्वारिंश सूर्यशतमतापयत वा ३, चत्वारि सहस्राणि द्वात्रिंशच्च नक्षत्रानि योगमयुजन् वा ३, द्वादश सहः स्राणि षट् च द्वासप्ततानि महाग्रहशतानि चारमचरन् वा, ३, षण्णवतिः शतसहस्राणि चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि चत्वारि च शतानि तारागण कोटिकोट्यः शोभामशोभन्त वा ३, । गाथाः- "कोटीद्वानवतिः खलु एकोनपञ्चाशत् भवन्ति सहस्राणि, अष्ट शतानि चतुर्नवतानि च परिरयः पुष्करवरस्य ॥१॥ चतुश्चत्वारिंशं चन्द्रशतं चतुश्चत्वारिंशं च सूर्याणां शतम् । पुष्करवरद्वीपे व चरन्ति एते प्रभासयन्तः ॥२॥ चत्वारि सहस्राणि षट् त्रिंशच्चैव भवन्ति नक्षत्राणि । पट् च शतानि द्वा सप्ततानि, महाग्रहा द्वादशसहस्राणि ॥३॥ षण्णवतिः शतसहस्राणि चतुश्चत्वारिंशद् भवन्ति सहस्राणि । चत्वारि च शतानि खलु तारागण कोटिकोटीनाम् ॥४॥ _____ तावत् पुष्करवरस्य खलु द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे मानुषोत्तरो नाम पर्वतः वलयाकारसंस्थानसंस्थितः, यः खलु पुष्करवरद्वीपं द्विधा विभजन २ तिष्ठति, तद्यथाअभ्यन्तरपुष्कराद्धं च बाह्यपुष्कराद्ध च । तावत् आभ्यन्तरपुष्कराद्ध खलु किं समचक्रवालसंस्थितं विषमचक्रवालसंस्थितम् ? तावत् समचक्रवालसंस्थितं नो विषमचक्रवाल संस्थितम् । एवं विष्कम्भः, परिक्षेपः ज्यौतिषं यावत् ताराः। (तावत् आभ्यन्तरपुष्कराद्धं खलु कियत् चक्रवालविष्कम्भेण ? कियत् परिक्षेपेण आख्यातम् ? इतिवदेत् । तावत् अष्ट योजनशतसहस्राणि चक्रवाविष्कम्भेण, एका योजन कोटी, द्विचत्वारिंशच्च शतसहस्राणि त्रिशच्च सहस्राणि द्वे एकोनपञ्चाशे योजनशते ॥१॥ परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । तावत् आभ्यन्तर पुष्कराद्धे खलु कियन्तश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, कियन्तः सूर्या अतापयन् वा ३, ? पृच्छा, द्वासप्ततिश्चन्द्राः प्रभासयन् वा ३, द्वासप्ततिः सूर्या अतापयन् वा ३, द्वे षोडशे नक्षत्रसहस्रे योगमयुजाता वा ३, षडू महाग्रह सहस्राणि, त्रीणि च षट्त्रिंशानि चारमचरन् वा, ३, अष्ट चत्वारिंशत् शतसहस्राणि, द्वात्रिंशच्च सहस्राणि, द्वे च शते तारागणकोटिकोट्यः शोभामशोभन्त वा ३,) तावत् मनुष्यक्षेत्रं खलु कियत् आयामविष्कम्भेण? एवं विष्कम्भः परिरयः, ज्यौतिषं, तारा:-जाव एकशशिपरिवारः तारागण कोटि कोटीनाम् ।।गा०४०॥ (कियत् परिक्षेपेण आख्यातम् ? इति वदेत् , पञ्च चत्वारिंशत् योजनशतसहस्राणि आयामविष्कम्भेण. एका योजन कोटी द्विचत्वारिंशच्च शत सहस्राणि, द्वे च एकोन पञ्चाशे योजन शते ॥१॥ परिक्षेपेण आख्यातम् इति वदेत् । तावत् मनुष्यक्षेत्रे खलु कियन्तश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, पृच्छा तथैव, तावत् द्वात्रिंशत्कं चन्द्रशतं, प्राभासयन् वा ३, द्वात्रिं. शत्कं सूर्याणां शतमतापयत् वा ३, त्रीणि सहस्राणि, षट् षण्णवतानि नक्षत्रशतानि योगमयुञ्जन् वा ३, एकादश सहस्त्राणि षट् च षोडशानि महाग्रहशतानि चारमचरन् वा ३, अष्टाशीतिः शत सहस्राणि, चत्वारिंशच्च सहस्राणि, सप्त च शतानि तारागण कोटिकोट्यः Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे शोभाम शोभन्त वा ३,। गाथा:-"अष्टैव शतसहस्राणि, आभ्यन्तर पुष्करवरस्य विष्कम्भः। पञ्चाशत् शत सहस्राणि, मानुषक्षेत्रस्य विष्कम्भः॥१॥ कोटिः द्विचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वेशते च एकोन पञ्चाशे। मानुषक्षेत्रपरिरयः, एवमेव च पुष्करार्द्धस्य ॥२॥ द्वासप्ततिश्च चन्द्राः, द्वासप्ततिरेव दिनकरा दीप्ताः । पुष्करवरद्वीपाढे चरन्ति एते प्रभासयन्तः ॥३॥ त्रीणि शतानि षट् त्रिंशत् षट् सहस्राणि महाग्रहाणां तु नक्षत्राणां तु भवन्ति षोडशे द्वे सहस्र ।४॥ अष्ट चत्वारिंशत् शतसहस्राणि, द्वाविंशतिः खलु भवन्ति सहस्राणि, द्वे च शप्ते पुष्करार्द्ध, तारागण कोटि कोटोनाम् ॥॥ द्वात्रिंशत्कं चन्द्रशतं, द्वात्रिंशत्कं चैव सूर्याणां शतम् । सकलं मानुषलोकं, चरन्ति एते प्रभासयन्तः ॥६॥ एकादश च सहस्राणि, पडपि च षोडशानि महाग्रहाणां तु । षट् शतानि षण्णवतानि, नक्षत्राणि त्रीणि च सहस्राणि ॥७॥ अष्टाशोतिः चत्वारि शानि शतसहस्राणि मनुजलोके । सप्त च शतानि अन्यूनानि, तारागण कोटि कोटीनाम् ॥८॥ एष तारा पिण्डः सर्वसमासेन मनुजलोके । बहिः पुनः स्ताराः, जिनर्भणिता असंख्येयाः ॥९॥ इयत्कं तारागं, यद् णितं मानुषे लोके । चारं कलम्बुकपुष्प संस्थितं ज्यौतिषं चरति ॥१०॥ रवि शशि ग्रहनक्षत्राणि, इयन्ति आख्यातानि मनुजलोके । येषां नाम गोत्रं न प्राकृताः प्रज्ञपयिष्यन्ति ॥११।। पटू षष्टिः पिटकानि, चन्द्रादित्यानां मनुजलोके । द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूयौ च, भवत एकैकस्मिन् पिटके । १२॥ षट् षष्टिः पिटकानि, नक्षत्राणां तु मनुजलोके । षट् पञ्चाशद् नक्षत्राणि, भवन्ति एकैकस्मिन् पिटके ॥१३॥ षट् षष्टिः पिटकानि, महाग्रहाणां तु मनुजलोके । षट् सप्ततं ग्रहशत, भवति एकै. कस्मिन् पिटके ॥१४॥ चतस्रश्च पङ्क्तयः चन्द्रादित्यानां मनुजलोके । षट् षष्टिः षट्रष्टिश्च भवन्ति एकैकस्यां पंक्तौ ।।१५।। षट् पञ्चाशत पंक्तयः, नक्षत्राणां तु मनजलोके । षट पतिः षट् षष्टिः भवन्ति एकैकस्यां पङ्क्तौ ॥१६॥ षटू सप्ततं ग्रहाणां पक्तिशतं भवति मनुजलोके । षट् षष्टिः षट् षष्टिः भवन्ति एकैकस्यां पंक्तौ ॥१७॥ ते मेरु मनुचरन्तः प्रदक्षिणावर्त मण्डलाः सर्वे । अनवस्थितयोगैः, चन्द्राः सूर्याः ग्रहगणाश्च ॥१८॥ नक्षत्र तारकाणाम्, अवस्थितानि मण्डलानि ज्ञातव्यानि । ते अपि च प्रदक्षिणावर्त्तमेव मेरुमनुचरन्ति ॥१९॥ रजनीकरदिनकराणां, ऊर्ध्वमधश्च संक्रमो नास्ति । भण्डलसंक्रमण पुनः, साभ्यन्तर बाह्य तिर्यक् ॥२०॥ रजनीकरदिनकराणां, नक्षत्राणां महाग्रहाणां च । चारविशेषेण भवेत सुख दुःख विधिर्मनुष्याणाम् ॥२१॥ तेषां प्रविशतां तापक्षेत्रं तु वद्धते नियतम् । तेनैव क्रमेण पुनः परिहीयते निष्क्रमताम् ॥२२॥ तेषां कलम्वुक (कदम्बक) पुष्पसंस्थिता भवन्ति तापक्षेत्र पथाः । अन्तश्च संकुचिता बहिविस्तृता चन्द्रसूर्याणाम् ॥२३॥ केन वद्धते चन्द्रः, परिहानिः केन भवति चन्द्रस्य । कालो वा ज्योत्स्ना वा, केनानुभावेन चन्द्रस्य ॥२४॥ कृष्णं राहु विमानं, नित्यं चन्द्रेण भवति अविरहितम् । चतुरगुलमसंप्राप्त हित्वा चन्द्रस्य तत् चरति ॥२५॥ द्वापष्टिं द्वाषष्टि दिवसे दिवसे तु शुक्लपक्षस्य । यत् परिवर्वते चन्द्रः क्षपयति तेनैव कालेन ॥२६॥ पञ्चदश भागेन च चन्द्रं पञ्चदशमेव तत् वृणुते। पञ्चदश भागेन च पुनरपि तदेव अपकाम्यति ॥२७॥ एवं वर्द्धते चन्द्रः, परिहानिरेव भवति चन्द्रस्य । कालो वा ज्योत्स्ना वा, एवमनुभावेन चन्दस्य ॥२८॥ अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे भवन्ति चारोयगास्तु उपपन्ना । पञ्चविधा ज्योतिष्काः, चन्द्राः सूर्या ग्रहगणाश्च ॥२९। तेन परं यानि शेषाणि चन्द्रादित्य ग्रहतारानक्षत्राणि । नास्ति गतिर्नापि चारः, अवस्थितानि Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्रप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.१९.सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्र तारारूपाणां संख्यादिकम् ६६१ तानि ज्ञातव्यानि ॥३०॥ एवं जम्बूद्वीपे, द्विगुणा लवणे चतुर्गुणा भवन्ति । लवणाच्च त्रिगुणिताः शशि सूर्या धातकी षण्डे ।३१॥ द्वौ चन्द्रौ इह द्वीपे, चत्वारश्च सागरे लवणतोये । धातकीषण्डे द्वीपे द्वादश चन्द्राश्च सूर्याश्च ॥३२॥ धातकी षण्ड प्रभृतिषु, उद्दिष्टास्त्रि गुणिता भवन्ति चन्द्राः । आधचन्द्रसहिता, अनन्तरानन्तरे क्षेत्रे ॥३३॥ ऋक्ष्य ग्रहताराग्रं, द्वीपसमुद्रे यदीच्छसि ज्ञातुम् । तच्छशिभिस्तद् गुणितं ऋक्षग्रहतारकाग्रं तु ॥३४॥ बहिस्तु मानुषनगस्य चन्द्रसूर्याणामस्थिता ज्योत्स्ना । चन्द्रा अभिजिद् युक्ताः सूर्याः पुनर्भवन्ति पुष्यैः ॥३५॥ चन्द्रात् सूर्यस्य च सूर्यात् चन्द्रस्य अन्तरं भवति । पञ्चाशत्सहस्राणि तु योजनानामन्यूनानि ॥३६॥ सूर्यस्य च सूर्यस्य च शशिनः शशिनश्च अन्तरं भवति । बहिस्तु मानुषनगस्य, योजनानां शतसहस्रम् ॥३७॥ सूर्यान्तरिताश्चन्द्राः, चन्द्रान्तरिताश्च दिनकरा दीप्ताः। चित्रान्तरलेश्याकाः, शुभलेश्या मन्दलेश्याश्च ॥३८॥ अष्टाशीतिश्चग्रहाः अष्टाविंशतिश्च भवन्ति नक्षत्राणि । एक शशि परिवारः इतस्ताराणां वक्ष्यामि ॥३९॥ षट्षष्टिः सहस्राणि, नव चैव शतानि पञ्च सप्ततानि एक शशि परिवारः, तारा गणकीटि कोटोनाम्॥४०॥सू० १॥ __व्याख्या--'ता कइ णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'कइणं' कति खलु 'चंदिमसूरिया' चन्द्रसूर्याः 'सबलोयं' सर्वलोकम् 'ओभासेंति उज्जोति' तवेति पभासें ति' अव भासयन्ति, उद्योतयन्ति, तापयन्ति-प्रकाशयन्ति, प्रभासयन्ति, एतद्विषये भवता किम् 'आहियं' आख्यातम् ! कथितम् ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् । एवं गौतमेन पृष्टे भगवान् एतद्विषये या द्वादश प्रतिपत्तयः भवन्ति ताः प्रदर्शयति-'तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र चन्द्र सूर्य संख्याविषये खलु ‘इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणस्वरूपाः 'बारस पडिवत्तीओ' द्वादश प्रतिपत्तयः परतीर्थिकमतरूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः । ता एवाह-'तत्थेगे' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र द्वादश प्रतिपत्तिवादिनां मध्ये 'एगे' एके केचन परमतवादिनः ‘एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसु' आहु कथयन्ति, किमाहुरित्याह- 'ता एगे' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘एगे चंदे एगे सुरे सव्वलोयं' एकश्चन्द्रः एकः सूर्यः सर्वलोकम् 'ओभासेइ' इत्यादि, अवभासयति, उद्द्योतयति तापयति प्रभासयति, उपसंहारमाह-‘एगे' एके प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवम्-पूर्वोक्त प्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्ति ।१। द्वितीयप्रत्तिमाह-'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः 'एवमाहंसु' एवमाहुः 'ता' तावत् 'तिण्णि चंदा तिण्णि सुरा सव्वलोयं ओभासंति ३' त्रयश्चन्द्राः त्रयः सूर्याः सर्वलोकम् अवभासयन्ति उदद्योतयन्ति तापयन्ति प्रभासयन्ति 'एगे' एवमाहंसु एके एवमाहुः ॥२॥ तृतीयां प्रतिपत्तिमाह- 'एगे पुण एमाहंसु' एके तृतीया एवमाहुः-'ता' तावत् 'आउटिं चंदा आउट्टि सूरा' अर्द्ध चतुर्थाःसार्दास्त्रयश्चन्द्राः अर्द्ध चतुर्था सा स्त्रयः सूर्याः 'ओभासंति ४' अवभासयन्ति ४, ‘एगे एवमाहंसु' एके एवमाहुः ।३। अथाग्रेऽतिदेशमाह Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'एवं एएणं' इत्यादि, 'एवं' एवम् एवमेव अनेनैव प्रकारेण एएणं' एतेन पूर्वोक्त प्रतिपत्तित्रयोक्त सदृशेन 'अभिलावेणं' अभिलापेत आलापकेन 'जहा तइए पाहुडे' यथा तृतीये प्रामृते 'दीवसमुद्दाणं दुवालसपडिवत्तीओ' द्वीपसमुद्राणां द्वादश प्रतिपत्तयः प्रोक्ताः 'ताओ चेव इहंपि' ता एव इहापि एकोनविंशतितमे प्राभृते 'चंदिमसूराणं' चन्द्रसूर्याणाम् ‘णेयव्वा' ज्ञातव्याः कियत्पर्यन्त. मित्याह-'जाव' इत्यादि, 'जाव' यावत् 'बावत्तरं चंदसहस्सं बावत्तरं सूरसहस्सं' द्वासप्ततिः चन्द्रसहस्त्राणि द्वासप्ततिः सूर्यसहस्राणि 'ओभार्सेति ३' अवभासयन्ति : । तथाहि तत्पाठः _ 'सत्तचंदा' इत्यादि, चतुर्थाः चतुर्थप्रतिपत्तिवादिनः-सप्तचन्द्रा सप्तसूर्या इति कथयन्ति ॥४॥ एवं पञ्चमप्रतिपत्तिवादिनः दश चन्द्राः दश सूर्या इति ॥५॥ षष्ठ प्रतिपत्तिवादिनः द्वादश चन्द्राः द्वादश सूर्याः ।६। सप्तमप्रतिपत्तिवादिनः द्विचत्वारिंशच्चन्द्राः द्विचत्वारिंशत् सूर्याः ||७|| अष्टम प्रतिपत्तिवादिनः द्वासप्ततिश्चन्द्राः द्वासप्ततिः सूर्याः ॥८॥ नवमीं प्रतिपत्तिमाह द्विचत्वारिंशं द्विचत्वारिंशदधिकं चन्द्रशतं द्विचत्वारिंशं द्विचत्वारिशदधिकं सूर्य शतम् ।९। दशमी माह द्विसप्ततिं द्विसप्तत्यधिकं चन्द्रशतं द्विसप्ततिं द्विसप्तत्यधिकं सूर्यशतम् ।१०। एकादशीमाह द्विचत्वारिंशं चन्द्रसहस्रं द्विचत्वारिंशं सूर्यसहस्रमिति कथयन्ति ।११। द्वादशी प्रतिपत्ति माह- 'एगे पुण' इत्यादि, 'एगे पुण' एके द्वादश प्रतिपत्तिवादिनः पुनः ‘एवमाहेसु' एवमाहुः-'ता' तावत् 'बावत्तरं चंदसहस्सं बावत्तरं सूरसहस्सं' द्वासप्ततं-द्वासप्तत्यधिकं चन्द्रसहस्र द्वासप्ततं सूर्यसहस्रम् 'सव्वलोयं' सर्वलोकम् 'ओभार्सेति' ४। अवभासयन्ति, उद्योतयन्ति तापयन्ति प्रभासयन्ति, उपसंहारमाह-'एगे' एके द्वादश प्रतिपत्तिवादिनः ‘एवं' एवम्पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंसु" आहुः कथयन्ति ।१२। एता द्वादश्योऽपि प्रतिपत्तयः सर्वथा मिथ्या० अतो भगवान् एताभ्यः सर्वाभ्यः पृथग्भूतं स्वमतं प्रदर्शयति-वयं पुण' इत्यादि 'वयं पुण' वयं तु एवं एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः। तदेव प्रदर्शते-'ता अयण्णं' इत्यादिना 'ता' तावत् 'अयण्णं' अयं खलु शास्त्रप्रसिद्धः' जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः 'जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते' यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, यावत् पदेन जम्बूद्वीपवर्णनं सर्वमत्र वाच्यम्, अस्य व्याख्यानमपि तत्रोक्तवदेव कर्तव्यम् । भगवानाह-'ता' तावत् जंबूद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दो चंदा पभासेंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा' द्वौ चन्द्रौ प्राभासयतां वा प्रभासयतो वा प्रभासयिष्यतो वा, अथ जीवाभिगमस्यातिदेशमाह 'जहा' इत्यादि, 'जहा जीवाभिगमे' यथा जीवाभिगमे जम्बूद्वीपगत चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रताराणां संख्या प्रोक्ता तथैव इहापि वाच्या, कियत्पर्यन्त मित्याह-'जाव' इत्यादि 'जाव ताराओ' यावत् ताराः सूर्य संख्यात आरभ्य यावत् ताराणां संख्या प्रोक्ता तावत्पर्यन्तमिति भावः । तथाहि तत्पाठः 'दो सूरिया' इत्यादि, दो सूरिया तविंसुवा ३' जम्बूद्वीपे द्वौ सूर्यौ अतापयताम् तापयतोवा तापयिष्यतो वा 'छप्पण्णं णक्खत्ता जोयं जोइंसु वा' षट् पञ्चाशत् Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१९ सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूणाणां संख्यादिकम् ६६३ जम्बूद्वीपे-एकैकस्य चन्द्रस्य अष्टाविंशतिरष्टाविंशति नक्षत्राणि परिवार इति मिलित्वा नक्षत्राणि चन्द्र सूर्याभ्यां सह योगमयुञ्जन् वा, युञ्जन्ति वा योक्ष्यन्ति वा । 'छावत्तरि गइसयं' षट् सप्ततं ग्रहशतं षट् सप्तत्यधिकमेकं शतं ग्रहाणाम्, एकैकस्य चन्द्र स्याष्टाशीतिरष्टाशीतिम्रहाः परिवार इति चन्द्रस्य परिवारमिलने षट् सप्तत्यधिकशतसंख्यका ग्रहाः 'चारं चरिंसु वा ३' चारेमचरन् वा चरन्ति वा चरिष्यन्तिवा । 'एग सयसहस्सं' इत्यादि तारा संख्या, तथाहि-एक लक्षम् त्रयस्त्रिंशच्च सहस्राणि, नव शतानि पश्चादशधिकानि (१३३९५०) 'तारा गण कोडीकोडीओ' तारागण कोटीकोट्यः 'सोभं सोभिंसु वा३' शोभाम् अशोभन्तवेति अकुर्वन् वा कुर्वन्ति वा करिष्यन्ति वा । अत्र जम्बूद्वीपे एकैकस्य चन्द्रस्य कोटी कोटीनाम् षट् षष्टि सहस्राणि, पञ्च सप्तत्यधिकानि नव शतानि (६६९७५) तारा परिवार इति द्वयोश्चन्द्रयोस्तारा परिवारः-एकं लक्षं त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि पश्चाशदधिकानि कोटी कोटीनाम् (१३३९५०), एतत्परिमितो जायते । अत्र पूर्वोक्त जम्बूद्वीपगत चन्द्रादिसंख्या प्रतिपादिके द्वे संग्रहगाथे प्रदर्येते-'दो चंदा दो सरा' इत्यादि, अनयोरर्थः पूर्व मागत इति न पुनर्व्याख्यायते ॥२॥ इति । नवरं-'जंबुद्दीवे वियारीणं' इति 'वियारीणं' इत्यत्र 'णं वाक्यालङ्कारे 'वियारी' विचारि, अत्र लिङ्ग विपरिणामेन नपुंसलिङ्गं वाच्यम् , तेन द्वासप्ततिकं ग्रहशतं विचारि चन्द्रसूर्यैः सह विचरणशीलं वर्तते इति व्याख्येयम् । इति जीवाभिगमोक्त पाठव्याख्या । इमं जम्बूद्वीपं को नाम समुद्रः परिवेष्टय स्थितः इति सूत्रकार आह-'ता जंबु दीवं गं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जंबुद्दीवं णं दी' जम्बूद्वीपं द्वीपं 'लवणे नामं समुद्दे लवणो नाम समुद्रः 'वढे वलयागारसंठाणसंठिए' वृत्तः गोलाकारः वृत्तस्तु मध्य पूर्णोऽपि स्यात् यथा पूर्णिमायां चन्द्रमण्डलम् अतोऽत्र प्रश्नः स्यात्-किशो वृत्तः ? इत्याहवलयाकारसंस्थानसंस्थितः वलये यथा अन्तः शुषिरः वहिर्गोलाकारः, तत्सदृशाकारकं यत्संस्थानं, तेन संस्थितः वलयाकारसंस्थानयुक्तः सः 'सव्वओ समंता' सर्वतः समन्तात् सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च 'संपरिक्खित्ताणं' संपरिक्षिप्य सम्यक्तया परिवेष्टय खलु 'चिटई' तिष्ठति-वर्त्तते इति एवं भगवता प्रतिपादिते श्रीगौतमो पुन लवणसमुद्रविषये पृच्छति-'ता लवणेणं' समुद्दे' इत्यादि 'ता' तावत् 'भंते' हे भदन्त ! 'लवणे णं समुद्दे' लवणः खलु समुद्रः 'किं समचक्कवालसंठाणसंठिए' किं समचक्रवालसंस्थानसंस्थितः समत्वेन चक्रवालसंस्थानयुक्तः, अथवा किम् 'विसमचकवालसंठाणसंठिए' विषमचक्रवालसंस्थानसंस्थितः विषमत्वेन न्यूनाधिकत्वेन चक्रवालसंस्थानयुक्तो वर्त्तते ? एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता लवणसमुद्दे' इत्यादि, 'ता' तावत् 'लवणसमुद्दे' लवण समुद्रः 'समचक्कवालसंठाणसंठिए' समचक्रवालसंस्थानसंस्थितः किन्तु 'नो विसमचक्कवालसंठाणसंठिए' नो विषमचक्रवालसंस्थानसं Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे स्थितः । पुनर्गौ तमः पृच्छति–'ता लवणसमुद्दे' इत्यादि स लवणसमुद्रश्चक्रवालविष्कम्भेण परिक्षेपेण च कियत्परिमितोऽस्ति ? इति प्रश्नः । भगवानाह- 'ता दो जोयणसयसहस्साई' इत्यादि, 'ता' तावत् 'दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं' स लवणसमुद्रः चक्रवाल विष्कम्भपरिमाणेन लक्ष द्वययोजनपरिमितो वर्तते, परिक्षेपेण च 'पण्णरस' इत्यादि, पञ्चदश योजनलक्षाणि एकाऽशीतिश्च सहस्राणि एकोनचत्वारिंशदधिकं शतं च (१५८११३९) किञ्चिद्विशेषोनं किञ्चिन्यूनम्, एतावत्परिमितो वर्तते । तथाहि-लवणसमुद्रस्य चक्रवालविष्कम्भः एकतोऽपरतश्चेति द्विधातो द्वि द्वियोजन लक्षपरिमित इति जातानि चत्वारि लक्षाणि, पुनश्च तस्य सर्वमध्ये जम्बूद्वीपो वर्त्तते, स लक्षयोजनपरिमित इति सर्वसंमेलने जातानि पञ्च लक्षाणि (५०००००), एतेषां वर्गे कृते जायन्ते पञ्च विंशतिस्तदुपरि च दश शून्यानि (२५००००००००००), अस्य राशे र्दशभिर्गुणने जातानि पञ्चविंशते-रूपरि-एकादश शून्यानि (२५०००००००००००), एतस्य राशेर्वर्गमूलानयने लभ्यन्ते-पञ्चदश लक्षाणि, एकाशीतिः सहस्राणि, अष्टात्रिंशदधिकमेकं शतं च (१५८११३८) शेषमुद्धरति-पड विंशतिर्लक्षाणि, चतुर्विशतिः सहस्राणि, षट् पञ्चाशदधिकानि नव शतानि (२६२४९५६) छेदराशिरेकत्रिशल्लक्षाणि, द्वाषष्टिः सहस्राणि, षट् सप्तत्यधिके द्वे शते (३१६२२७६), एतदपेक्षया योजनमेकमूनं लभ्यते तत उक्तम्'सयं च उणयालं किंचि विसेसूणं' इति चन्द्रादीनां विषये गौतमः पृच्छति-ता लवणेण' इत्यादि, लवणसमुद्रे कति चन्द्राः प्राभासयन् ३, कति सूर्या अतापयन् ३, कति नक्षत्राणि योगमयुञ्जन् ३, कति ग्रहाश्चारमचरन् ३, कति ताराः शोभाम् अशोभन्त ३, इति प्रश्नः । भगवानाह-'ता लवणे णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'लवणेणं समुद्दे' लवणे खलु समुद्रे 'चत्तारि चंदा' चत्वारश्चन्द्राःप्राभासयन् वा ३, एवं चत्वारः सूर्या अतापयन् वा ३, द्वादशकं नक्षत्रशतं योगमयुङ् वा ३, त्रीणि शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि ग्रहाश्चारमचरन् वा ३, द्वे लक्षे, सप्तषष्टिः सहस्राणि, नव शतानि तारागण कोटी कोट्यः शोभामशोभन्त वा ३, । तथाहि-नक्षत्राणि अष्टाविंशति रेकैकस्य चन्द्रस्य परिवारत्वेन सन्ति, लवणे चत्वारश्चन्द्रा इति अष्टाविंशति श्चतुर्भिर्गुण्यते जातानि द्वादशोत्तर शत संख्यकानि (११२) नक्षत्राणि । ग्रहा अष्टाशीतिरिति चतुर्भिगुणने द्विपञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि (३५२) ग्रहाणां भवन्ति । तारा गण कोटी कोटीनां षट् षष्टिः सहस्राणि, नव शतानि पञ्च सप्तत्यधिकानि (६६९७५) चतुर्भिर्गुणने जायते यथोक्तं ताराप्रमाणम् । अत्र लवणसमुद्रस्य :विक्षेपस्य चन्द्रदीनां च प्रमाणप्रतिपादिकास्तिस्रो गाथाः सुगमा इति न व्याख्यायन्ते, इति जीवभिगमोक्त पाठव्याख्या ।। । अथ लवणसमुद्र को द्वीपः परिवेष्टय तिष्ठतोत्याह –'ता लवणसमुद्द' इत्यादि 'ता' तावत् 'लवणसमुई' लवणसमुद्रं धातकीषण्डो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् परिक्षिप्य परिवेष्टय तिष्ठति अस्य संस्थानविषये गौतमः पृच्छति-'ता धायईसंडेणं दीवे' Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६६५ इत्यादि, सुगमम् । भगवानाह सम चक्रवालसंस्थानसंस्थितः न तु विषमचक्रवालसंस्थानसंस्थितः अथ विष्कम्भपरिधिविषये गौतमस्य प्रश्नः-'ता धायईसंडेणं दीवे' इत्यादि 'ता' तावत् 'धायईसडेणं दीवे' धातकी षण्डः खलु द्वीपः 'केवइए चक्कवालविक्खंभेणं' कियान् चक्रवालविष्कम्भेण 'एव विक्खंभो परिक्खेवो जोइस' एवम्-अनेन प्रकारेण धाातकोषण्डस्य विष्कम्भःपरिक्षेपःज्यौतिषं ज्योतिश्चक्रम् इतिसर्व 'जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ' यथा जीवाभिगमे तथा तारा पर्यन्तं वाच्यम् । तथाहि तत्पाठः 'केवइए परिक्खेवेणं'-इत्यादि, सुगमम् । भगवानाह-'ता चत्तारि' इत्यादि धातकी पण्डस्य चक्रवालविष्कम्भश्चतुर्लक्षयोजनपरिमितः परिधिमाह-'इगतालीसं' इत्यादि एकचत्वारिंशद योजनलक्षाणि दश च सहस्राणि एक षष्टयधिकानि नव योजनशतानि (४११०९६१) किञ्चिद्विशेषोनानि, एतावत्परिमितः परिक्षेपो धातकी षण्डस्येति । परिधिभावना यथा जम्बूद्वीपविष्कम्भो लक्षयोजनपरिमितः, लवणसमुद्रस्य उभय पार्श्वतो वे द्वे योजनलक्षे इति तानि चत्वारि लक्षाणि धातको षण्डस्योभयतश्चत्वारि चत्वारि लक्षाणि मिलितानि भवन्ति-अष्टौ, तत एकं, चत्वारि, अष्टौ चेति मिलित्वा सर्वसंख्यया जातानि त्रयोदश लक्षाणि (१३०००००) ततोऽस्य राशेर्वर्गे कृते जातो राशिः एककः षट्को नवकः, तदुपरि च दश शून्यानि (१६९००. ००००००००) पुनरपि दशभिरेश राशि र्गुण्यते जातानि पूर्वोक्ताङ्कानामुपरि एकादश शून्या नि (१६९०००००००००००) एतेषां वर्गमूलानयने लब्धानि एकचत्वारिंशल्लक्षाणि, दश सहस्राणि नवशतानि एकषष्टयधिकानि (४११०९६१) यथोक्तानि योजनानामिति । अथ धातकीषण्डगत चन्द्रादिविषये गौतमस्य प्रश्नः-'ताधायईसंडेणं दीवे' इत्यादि सुगमम् भगवानाह 'धायईसंडेणं दीवे' धातकोषण्डे खलु द्वीपे 'बारस चंदा' द्वादशचन्द्राः प्राभासयन् वा ३ । द्वादशैव सूर्या अतपयन् वा ३ । अत्र नक्षत्राणि षत्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि (३३६) योगमयुजन् वा ३ । महाग्रहाः षट् पञ्चाशदधिकैकसहस्रसंख्यका (१०५६) श्चारमचरन् वा । ताराश्च-अष्टौ लक्षाणि, त्रीणि सहस्राणि सप्तच शतानि (८३०७००) कोटी कोटीनां शोभाम् अशोभन्त-अकुर्वन् वा ३. तत्कथमिति प्रदर्श्यते अत्र चन्द्रा द्वादशेति नक्षत्रसंख्या अष्टाविंशति दशभि र्गुण्यते जायन्ते षट्त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि यथोक्तानि । एवमेकस्य चन्द्रस्य यो यो ग्रहपरिवारस्तारापरिवार श्चास्ति तस्य द्वादश भिर्गुणने यथोक्ता संख्या समागच्छतीति स्वयमवगन्तव्यम् अत्र परिधेः चन्द्रादीनां च प्रमाणप्रतिपादिका स्तिस्रो गाथाः सन्ति, ताश्च सुगमाः । इति जीवाभिगमपाठव्याख्या । ___ अयं धातकी षण्डः केन समुद्रेण परिवेष्ठितः ? इत्याह-'ता धायईसंडेणं' इत्यादि धातकीषण्डं द्वीपं कालोदः समुद्रः परिक्षिप्य परिवेष्टय तिष्ठति । अस्य संस्थानविषये गौतमस्य ८४ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे पृच्छा । भगवानाह--'ता धायईसंडेणं' इत्यादि तावद् धातकी षण्डो द्वीपः समचक्रवालसंस्थानसंस्थितः, नो विषमचक्रवालसंस्थानसंस्थितः । ' एवं विक्खभो परिक्खेवो' जोइसंच' अनेन प्रकारेण कालोदसमुद्रस्य विष्कम्भः, परिक्षेपः, ज्यौतिषंच 'जहा जीवाभिगमे ता भाणियव्वं' यथा जीवाभिगमे प्रोक्तं तथा भणितव्यम् । कियत्पर्यन्तमित्याह 'जाव' इत्यादि, 'जाव ताराओ' यावत् ताराः, तारा प्रमाणपर्यन्तं पठितव्यम् तथाहि तत्पाठः 'ता कालोएणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'कालोएणं समुद्दे' कोलोदः खलु समुद्रः कियान् चक्रवालविष्कम्भेण कियान् परिक्षेपेण आख्यातः ? इति प्रश्नः । भगवानाह - ' ता कालोएणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'कालोएणं समुद्दे' कालोदः खलु समुद्रः अष्टलक्षयोजनपरिमितश्चक्रवालविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः । अस्य परिक्षेपः - एकनवतिर्लक्षाणि, सप्ततिः सहस्राणि, पञ्चोत्तराणि षट् शतानि च (९१७०६०५) योजनानाम्, एतावत्परिमितः किञ्चिद्विशेषाधिकः प्रोक्तः । अथ चन्द्रादिविषये प्रश्नः - ' ता कालोएणं समुद्दे केवइया चंदा' इत्यादि पृच्छा । भगवानाह - 'ता कालोएणं' इत्यादि, ' ता तावत् 'कालोएणं समुद्दे' कालोदे स्खलु समुद्रे 'बायालीस चंदा' द्वाचत्वारिंशत् चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, द्वाचत्वारिंशत् सूर्या अतापयन् वा ३, द्वासप्तत्यधिकानि एकादश नक्षत्रशतानि (१९७२) योगमयुञ्जन् वा ३, त्रीणि सहस्राणि षण्णवत्यधिकानि षट् शतानि ( ३६९६ ) महाग्रहाणां चारमचरन् वा ३, अष्टाविंशतिशत सहस्राणि लक्षाणि, द्वादश सहस्राणि पञ्चाशद धिकानि नवशतानि (२८१२९५०) कोटी कोट्यस्ताराः शोभामशोभन्त वा ३ । शोभन्ते वा शोभिष्यन्ते वा ॥ परिक्षेपस्य गणितभावना यथा कालोदसमुद्रस्य एकतोऽपरतश्चेति द्वयोः प्रत्येकमष्टावष्टौ योजन लक्षाणीति जायन्ते षोडश लक्षाणि, धातकीषण्डस्य उभयतश्चत्वारि लक्षाणि मिलित्वाऽष्टौ लक्षाणि, एवं लवणसमुद्रस्य उभयतो द्वि द्विलक्षसद्भावाच्चत्वारि लक्षाणि, तथा जम्बूद्वीपस्य एकं लक्षम् (१६=८=४=१1 ) इति मिलित्वा सर्वसंख्यया एकोनत्रिंशल्लक्षाणि (२९०००००) जातानि, एतेषां वर्गे कृते जायन्ते अष्टकः, चतुष्कः, एककः, तदुपरि दशशून्यानि (८४१००० ०००००००) ततो दशभिर्गुणने पूर्वोक्ताङ्कोपरि जायन्ते एकादश शून्यानि (८४१०००००० ०००००) एषां वर्गमूलानयने लब्धं यथोक्तम् – (९१७०६०५) शेषं-त्रिको नवकस्त्रिकस्त्रको नवकः सप्तकः पञ्चकः (३९३३९७५) इति यदवतिष्ठते तदपेक्षया विशेषाधिकत्वमुक्तम् । नक्षत्रादीनां भावना तु नक्षत्रग्रहताराणां स्व स्व संख्यायाश्चन्द्रसूर्याणां द्वाचत्वारिंशत्त्वेन द्वाचत्वारिंशता गुण स्वस्व संख्या समागमिष्यतीति स्वयं परिभावनीयम् । अत्र पूर्वोक्तसंख्याप्रतिपादिकाश्चतस्त्रो गाथाः सन्ति, ताः सुगमाः । इति जीवाभिगमपाठव्याख्या । कालोदः समुद्रः केन वेष्टित ? इत्यत्राह - 'ता कालोयं णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कालोयं णं समुद्द' कालोदं खलु समुद्रम् ' पुक्खरवरे गामं दीवे' पुष्करवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलया Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०१९ सू १ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६६७ कारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् परिक्षिप्य परिवेष्टय तिष्ठति । अथ पुष्करवरस्य संस्थानविषये पृच्छा-'ता पुक्खरवरेणं दोवे' इत्यादि, सुगमम् । भगवानाह-'ता समचक्कबालसंठाण साठए' इत्यादि, स पुष्करवरद्वीपः समचक्रवालसंस्थानसंस्थितः, न तु विषमचक्रवालसंस्थान संस्थितः इत्युत्तरम् । 'एवं विक्खभो परिक्खेवो जोइसं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ' इति पुष्करवरद्वीपस्य विष्कम्भादिकं तारापर्यन्तं सर्वं जीवाभिगमोक्तवदेव विज्ञेय मितिभावः । तथाहि तत्पाठः 'ता पुक्खरवरेणं' इत्यादि, संस्थानविषयकः प्रश्नः सुगमः । भगवानाह-'ता सोलस' इत्यादि, अस्य समचक्रबालविष्कम्भः षोडश लक्षयोजनपरिमितो वर्तते, 'एगा जोयणकोडी' इत्यादि, असौ एका योजनकोटी, द्विनवतिर्लक्षाणि, एकोनपश्चाशत् सहस्राणि, चतुर्नवत्यधिकानि अष्ट योजनशतानि च-(१९२४९८९४) परिक्षेपेण आख्यातः । 'ति वएज्जा' इति वदेतू स्वशिष्येभ्यः । अथ चन्द्रादीनां विषये गौतमः पृच्छति 'ता पुक्खरवरेणं दीवे' 'ता' तावत् पुष्करवरे खलु द्वीपे कियन्तश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, 'पुच्छा तहेव' पृच्छा तथैव पूर्ववदेव । भगवानाह- 'ता चोयाल चंदसयं' चतुश्चत्वारिंशं चन्द्रशतं चतुश्चत्वारिंशदधिकशतसंख्यकाः (१४४) चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, एतावन्त एव (१४४) सूर्या अतापयन् वा ३, । 'चत्तारि सहस्साई चत्वारि सहस्राणि 'बत्तीसं च' द्वात्रिंशच्च द्वात्रिंशदधिकानि चत्वारि सहस्राणि(४०३२) नक्षत्राणि योगमयुजन् वा । 'बारस' इत्यादि, द्वादशसहस्राणि द्वात्रिंशदधिकानि षड् महानहशतानि (१२६३२) चारमचरन् वा ३, । 'छण्णउई' इत्यादि, षण्णवतिर्लक्षाणि, चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि चत्वारि च शतानि (९६४४४००) तारागणकोटीकोट्यः शोभामशोभन्त वा ३। पुष्करवरद्वीपस्य परिधेर्गणितभावना त्वियम्-पुष्करवरद्वीपस्य पूर्वापरतः षोडश षोडश लक्षाणीति जातानि द्वात्रिंशत् लक्षाणि (३२) कालोदधेः पूर्वापरतोऽष्टावष्टौ इति षोडशलक्षाणि १६, धातकी षण्डस्य पूर्वापरतश्चत्वारि चत्वारि लक्षाणीति जायन्तेऽष्टौ लक्षाणि ८, लवणसमुद्रस्य पूर्वापरतो द्वे द्वे लक्षे इति चत्वारि लक्षाणि ४, जम्बूद्वीपस्य चैकं लक्षम्-(३२-१६=८=४=१+६१) एवं सर्वसंकलनया जातानि-एक षष्टिर्लक्षाणि (६१०००००) एतस्य राशेवर्गे कृते जातानि त्रिकः, सप्तकः, द्विकः, एककः, तदुपरि च दश शून्यानि (३७२१००००००००००), अस्य राशेदशभिर्गुणने जातानि पूर्वोक्ताङ्कोपरि एकादश शून्यानि (३७२१०००००००००००) एतेषां वर्गमूलानयने लभ्यते यथोक्तं परिधिपरिमाणम् (१९२४९८९४) इति । नक्षत्रादिपरिमाणं च एकस्य चन्द्रस्य यावान् नक्षत्रपरिवारः यावान् ग्रहपरिवारः यावांश्च तारापरिवारः स स्व स्व परिवारोऽत्रत्यचन्द्रसूर्यसंख्यया चतुश्चत्वारिंशदधिकशत (१४४) रूपया गुण्यते ततः समायाति नक्षत्रादीनां स्व स्व परिवारसंख्येति स्वयं करणीयमिति । अत्र परिधि चन्द्रसूर्यादि परिमाणप्रतिपादिकाश्चतस्रो गाथाः, सन्ति, तासां व्याख्या पूर्व सूत्रोक्तानुसारेण स्वयमूहनीयेति (जीवाभिगमपाठ व्याख्या) Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे अथ पुष्करवरस्य विभागद्वयं प्रदर्शयति 'ता पुक्खरवरस्स णं' इत्यादि । 'ता, तावत् 'पुक्खरवरस्स णं दीवस्स' पुष्करवरस्य पूर्वप्रदर्शितस्वरूपस्य खलु द्वीपस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे बहुमध्यः अत्यन्त मध्यो यो देशः क्षेत्रं तस्य भामे तत्स्थाने 'माणुसोत्तरे णामं पव्वए' मानुषोत्तरो नाम पर्वतः, किं संस्थानकः ? इत्यत्राह--'वलयागारसंठाण संठिए' वलयवदन्तः शुषिरो बहिगोलाकारः, एतादृशं संस्थानम् आकृतिर्यस्य स तादृशो वर्त्तते, ततः किम् ? 'जे गं' इत्यादि यः खलु मानुषोत्तरपर्वतः 'पुक्खरवरं दीवं' पुष्करवरं द्वीपम् 'दुहा विभयमाणे २ चिट्ठई' द्विधा विभजमानः विभजमान स्तिष्ठति स्थितोऽस्ति, 'तं जहा' तद्यथा'अभितरपुक्खरद्धं च बाहिरपुक्खरद्धं च' आभ्यन्तरपुष्करा, च बाह्य पुष्कराई च मानुषोत्तरपर्वतमाश्रित्य पुष्करवरद्वीपस्य द्वौ विभागौ आभ्यन्तरबाह्यरूपौ जातौ मानुषोत्तरपर्वता दर्वाक् यत् पुष्कराई तद् आभ्यन्तरपुष्करार्द्धम्, यन्मानुषोत्तरपर्वतात्परतस्तद् बाह्य पुष्करार्द्धम् , इति भावः । तत्र आभ्यन्तरपुष्करार्द्धस्य संस्थानादिविषये श्रीगौतमः पृच्छति'ता अभितरपुक्खरण' इत्यादि, हे भगवान् ? आभ्यन्तरपुष्कराईद्वीपः किं समचक्रवालसंस्थानसंस्थितः विषमचक्रवालसंस्थानसंस्थितो वर्तते ? श्रीभगवानाह-'ता समचक्कवालसंठाणसंठिए' इत्यादि, तावत् स. समचक्रवालसंस्थानसंस्थितोऽस्ति न तु विषमचक्रवालसंस्थानसंस्थितः । सम्प्रति विष्कम्भपरिधिविषये गौतमस्य प्रश्नः-'ता अभितरपुक्खरद्धेणं' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् भगवानाह-'ता अट्ट जोयणसयसहस्साई' इत्यादि, तावत् आभ्यन्तरपुष्कराद्धेमष्ट लक्ष योजनपरिमितं. चक्रवालविष्कम्भेण तथा 'एगा जोयणकोडी' इत्यादि, एका योजनकोटी, द्वि चत्वारिंशच्च लक्षाणि, त्रिंशच्च सहस्राणि, एकोनपञ्चाशदधिके द्वे योजनशते (१४२,३०,२४०), एतावत्परिमितं परिक्षेपेण परिधिना वर्तते । अथ तद्गतचन्द्रादि विषये पृच्छा सुगमा । भगबानाह-'ता बावत्तरि चंदा' इत्यादि, आभ्यन्तरपुष्कराद्धे द्वा सप्ततिश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, द्वा सप्ततिरेव सूर्या अतापयन् वा ३, षोडशाधिक द्वि सहस्रसंख्यकानि (२०१६) नक्षत्राणि योगमयुञ्जन् वा ३, महाग्रहा षट् सहस्राणि षदत्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि च (६३३६) चारमचरन् वा, तथा-ताराश्च कोटी कोटीनामष्ट चत्वारिंशल्लक्षाणि, द्वाविंशतिः सहस्राणि, द्वे शते च (४८२२२००) एतावत्यः शोभामशोभन्त वा ३, अथ मनुष्यक्षेत्रस्य विष्कम्भादि विषये पृच्छति-- 'ता मणुस्सखेत्तेणं' इत्यादि 'ता' तावत् मनुष्यक्षेत्रं खलु अस्य समयक्षेत्रमित्यपि नाम, अत्राहोरात्रादि समयसद्भावात् , 'केवई आयामविक्खंभेणं' कियत्परिमितमायामविष्कम्भेण अत्र जीवाभिगमस्यातिदेशमाह-'एच' इत्यादि, एवं जीवाभिगमोक्त वदेवात्र-'विक्खंभो परिरओ, जोइसं ताराओ' विष्कम्भः विष्कम्भपरिमाणं, परिरयः परिधिपरिमाणं, ज्यौतियं ज्यौतिश्चक्रं चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगण रूपं, ताराश्चेति सर्वमत्र पठनीयम्, कियत्पर्यन्तं तारापाठः ? इत्याह Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रक्षप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६६९ -'जाव' इत्यादि, यावत् 'एग ससी परिवारो तारा गण कोडी कोडीणं' एक शशिपरिवारः तारागण कोटी कोटीनाम् , इत्येतत्पर्यन्तं चत्वारिंशत्तम गाथावधिकं पठनीयमिति । अस्य-आयामविष्कम्भप्रश्नः सूत्रे एव आगतः, परिक्षेप प्रश्नादारभ्य जीवाभिगमोक्तः पाठः प्रदर्श्यते-'केवईए परिक्खेवेणं' इत्यादि, 'केवइए परिक्खेवेणं आहिए' कियत्कं परिक्षेपेण आख्यातम् ! 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह 'ता पणयालीसं' इत्यादि, इदं मनुष्यक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनपरिमित मायामविष्कम्भेण (४५०००००) आख्यातम् , तथा परिधिमाह-'एगा जोयण कोडी' इत्यादि, एका योजन कोटी, द्वि चत्वारिंशल्लक्षाणि ऐकोन पञ्चाशदधिके योजनशते-(१४२००२४९) एतावत्परिमितं मनुष्यक्षेत्रं परिक्षेपेण आख्यातमिति । अस्यायामविष्कम्भपरिमाणं पञ्च चत्वारिंशल्लक्षाणि यथा एकं लक्षं जम्बूद्वीपे ? ततो लवण समुद्रे पूर्वापरतो द्वे द्वे लक्षे इति चत्वारि लक्षाणि, धातकी षण्डे एकतोऽपरतश्च चत्वारि चत्वारि लक्षाणीति अष्टौ लक्षाणि, कालोंदसमुद्रे एकतोऽपरतश्च अष्टौ अष्टौ लक्षाणीति षोडश लक्षाणि, आभ्यन्तर पुष्करा दे॒ऽपि एकतोऽपरतश्च अष्टौ अष्टौ लक्षाणीति षोडश लक्षाणि (१.४-८१६-१६४५) इति सर्वसंख्या संमेलनेन जायन्ते पञ्चचत्वारिंशल्लक्षाणि (४५०००००) । परिधिगणितभावना तु-'विक्खभवग्गह गुण;' इत्यादि करणवशात् स्वयं कर्त्तव्या । अथ चन्द्रादिविषये गौतमः पृच्छति–ता मणुस्सखेत्तण' इत्यादि 'ता' तावत् ‘मणुस्स खेत्तेणं' मनुष्यक्षेत्रे खलु 'केवइया चंदा पभासिसुवा ३ 'कियन्तश्चन्द्राः प्रभासयन् वा ३, 'पृच्छा तहेव' पृच्छा तथैव तथाहि कियन्तः सूर्या अतापयन् वा ३ कियन्ति नक्षत्राणि योगमयुजन् वा ३ कियन्तो महाग्रहाश्चारमचरन् वा, कियत्यस्तारा शोभामशोभन्तवा ३ ? इति प्रश्न; भगवानाह 'ता बत्तीसं चंदसयं' इत्यादि, तावत् द्वात्रिंशदधिकशत संख्यकाश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ द्वा त्रिशंदधिकशतसंख्यका एव सूर्या अतापयन् वा ३, । नक्षत्राणि-'तिण्णि सहस्सा' इति षण्णवत्यधिक षट्शतोत्तरसहस्रत्रय (३६९६) संख्यकानि योगमयुजन् वा ३ । महाग्रहाः-'एक्कारस सहस्सा' इति-षोडशोत्तर षट्शताधिकैकादशसहस्र (११६१६) संख्यका श्चारमचरन् वा ३, तारापरिमाणमाह-'अट्ठासीई' इत्यादि, अष्टाशीतिः लक्षाणि चत्वारिंशच्च सहस्राणि सप्त च शतानि (८८४०७००) तारागण कोटोकोट्यः शोभामशोभन्त वा ३,। नक्षत्रादीनां संख्या भावना-नक्षत्रगृहताराणां स्वस्व परिवारसंख्याया अत्रत्य चन्द्रसंख्यया द्वात्रिंशदधिकशत (१३२ ) रूपया गुणने नक्षत्रादीनां संख्या समायातीति स्वयं करणीयम् । अत्र आभ्यन्तरपुष्करार्द्धमनुष्यक्षेत्रयोरेतयोयोरपि आयामविष्कम्भ-परिधिप्रमाण-चन्द्रादिसंख्या प्रतिपादिकाः 'अटेव सयसहस्सा' इति गाथात आरभ्य 'सत्त य सया अण्णा तारागण कोडिकोडीणं' इति पर्यन्तमष्टौ गाथाः सन्ति, आसामर्थः Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० ' चन्द्रप्राप्तिसूत्रे सूत्रोक्तवदेवेति । अथ सकलमनुष्यलोकस्थित तारागणस्यैवोपसंहारमाह-एसो' इत्यादि, एषःअनन्तरमनुपदगाथोक्तसंख्यकः 'तारापिंडो' तारापिण्डः ताराणां सर्वाग्ररूपः 'सव्व समासेण' सर्वसंख्यया 'मणुयलोयंमि' मनुजलोके वर्तते । बिहिया पुण' बहिः पुनर्मनुष्यलोकाहिस्तात् मनुष्यलोकाहि गे मानुषोत्तर पर्वतादनन्तरक्षेत्रे इत्यर्थः 'ताराओ' ताराः :असंखेज्जाओ' असंख्येयाः 'जिणेहिं' जिनैः अतीतवर्तमानकालतीर्थक रैः ‘भणिया' भणिताः कथिताः द्वोप समुद्राणामसंख्यातत्वात् प्रतिद्वीपसमुद्रं यथा-योगं संख्येयानामसंख्येयानां च ताराणां सद्भावात् ॥९॥ साम्प्रतं मनुष्यलोकगतज्यौतिश्चक्रस्य संस्थानमाह-'एवइयं' इत्यादि, ‘एवइयं एतावत्कं यदन्तरभणितमेतावत्संख्यकम् 'तारग्गं' ताराग्रं तारा परिमाणं 'माणुसम्मि लोयम्मि' मनुष्ये लोके 'जोइसं' जोतिष ज्योतिश्चक्रं चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगणतारारूपात्मकं ज्योतिष्कदेव विमानरूपं तत् 'कलंबुया पुप्फसंठियं' कदम्बपुष्पसंस्थितं कदम्बपुष्पवत् अधः सङ्कुचितमुपरि विस्तृतम्-उत्तानोकृतार्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितमित्यर्थः 'चारं चरई' चारं चरति परिभ्रमति तथाविधलोकस्वभावात् । गाथायां ताराग्रहणं चोपलक्षणं तेन चन्द्रसूर्यादयाऽपि यथोक्त संख्यका मनुष्यलोके तथाविधलोकस्वाभाव्याच्चारं चरन्तीति द्रष्टव्यम् ॥१० साम्प्रत मेतद्गतमेवोपसंहारमाह-रवि ससि' इत्यादि, 'रविससिगहणक्खत्ता' रविशशिग्रहनक्षत्राणि उपलक्षणात्तारकाणि च 'एवइया' एतावत्कानि 'मणुयलोए' मनुजलोके 'आहिया' आख्यातानि कथितानि सर्वज्ञैः । 'जेसि' येषां चन्द्रसूर्यादीनां मनुष्यलोकचारिणां यथोक्त संख्यकानां चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगणतारारूपाणां प्रत्येकम् 'नामगोय' नाम गोत्राणि, इहान्वर्थयुक्तं नामसिद्धान्त परिभाषया नामगोत्रमित्युच्यते, ततोऽयमर्थः नामगोत्राणि अन्वर्थ युक्तानि नामानि, अथवा नामानि च गोत्राणि चेति नामगोत्राणि 'पागया' प्राकृताः सामान्यानतिशयिनः पुरुषाः कदाचिदपि 'न पण्णवेहिति' न प्रज्ञापयिष्यन्ति भविष्यति काले, किन्तु यदा तदापि प्रज्ञापयिध्यन्ति चेत् सर्वज्ञा एव प्रज्ञापयिष्यन्ति नेतरे, तस्मात्कारणात् इदं चन्द्रसूर्यादिसंख्यापरिमाणं प्राकृत पुरुषाऽगम्यं सर्वज्ञोपदिष्टं वर्तते, इति सम्यक् श्रद्धेयमेवेति ॥११॥ साम्प्रतं चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहाणां पिटकानि पङ्क्तिश्च प्रदर्शयति यद्तसंख्या ज्ञानेन मनुष्यलोकगतचन्द्रादीनां संख्याज्ञानं भवतिषट्षष्टिः पिटकानि 'चंदाइच्चाणमणुयलोयम्मि' मनुष्यलोके चन्द्रादित्यानां सन्ति, अत्र द्विचन्द्रद्विसूर्यात्मकं पिटकं भवति, इत्थम्भूतानि च चन्द्रादित्यानां सर्वसंख्यया मनुष्यलोके षट्षष्टिः पिटकानि वर्तन्ते, अतः षट् षष्टे भ्यां गुणने लभ्यते द्वात्रिंशदधिकमेकं शतम् (१३२) प्रत्येकं चन्द्रसूर्याणां संख्यानामस्मिन् मनुष्यक्षेत्रे । तदेव स्पष्टयति - 'दो चंदा दो सूरा' इति एकैकस्मिन् पिटके द्वौ चन्द्रौ द्वो सूर्यो भवतः ततः किमित्याह-द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यो इत्येतावत्प्रमाणकमेकैकं पिटकं चन्द्रादित्यानामिति, एवं प्रमाणकं च पिटकं जम्बूद्वीपे एकम्, अत्र द्वयोरेव चन्द्रसोईयोरेव च सूर्ययोः सद्भावात् । १। द्वे पिटके लवणसमुद्रे तत्र चतुर्णा चन्द्रसूर्याणां सद्भावात् ।२। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सूर चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६७१ एवं धातको षण्डे षट् पिटकानि, तत्र द्वादश द्वादश चन्द्रसूर्याणां सद्भावात् ।६।। एकविंशतिः पिटकानि कालोंदे समुद्रे, तत्र द्विचत्वारिंशद् द्विचत्वारिंशच्चन्द्रसूर्याणां सद्भावात् ।२१। षटू त्रिंशत् पिटकानि आभ्यन्तरपुष्कराड़े, तत्र द्वासप्ततेः द्वासाततेः चन्द्रसूर्याणां सद्भावात् ।३६। एवम् –(१=२=६=२१=३६८६६) सर्वसंकलनया चन्द्रादित्यानां षट्षष्टिः पिटकानीति मनुष्यक्षेत्रे द्वात्रिंशदधिकं शतमेकम् (१३२) प्रत्येकं चन्द्रसूर्याणां संख्या समायाति एकैकस्य द्विपिटकस्य द्वि चन्द्रसूर्यात्मकत्वादिति ॥१२॥ साम्प्रतं नक्षत्राणां पिटकान्याह-'छावटि पिडगाई णक्खत्ताणं' इत्यादि, नक्षत्राणामपि षट्षष्टिरेव पिटकानि सर्वसंख्यया मनुष्यलोके सन्ति, किन्तु अत्र नक्षत्रसम्बन्धीनि ‘एक्केक्कए पिडए' एकैकस्मिन् पिटके 'छप्पण्णं नक्खत्ता हुंति' षटू पञ्चाशत् षटू पञ्चाशन्नक्षत्राणि भवन्ति । किमुक्तं भवति !-षट् पञ्चाशत्संख्यात्मकमेकैकं नक्षत्रपिटकमिति षट्षष्टि भावना चेत्थम् जम्बूद्वीपे एकम् ।१। लवणसमुद्रे द्वे ।२। धातकीषण्डे षट् ।६। कालोदे एकविंशतिः ।२१। आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध षटूत्रिंशत् ॥३६। (१=२=६=२१=३६+६६) एवं पूर्ववदेवात्रापि षट्षष्टिः पिटकानि भवन्ति, अतएव सर्वस्मिन् मनुष्यक्षेत्रे त्रीणि सहस्राणि षण्णवत्यधिक षटूशतोत्तराणि (३६९६) नक्षत्राणां भवन्ति षट्पष्टेः षटू पञ्चाशता गुणनादेतावत्प्रमाणलाभात् ॥१३॥ अथ महाग्रहाणां पिटकानि प्रदर्शयति-'छावटि पिडगाइं महागहाणं' इत्यादि, महाग्रहाणामपि मनुष्यक्षेत्रे षट्षष्टिरेव पिटकानि सन्ति, अत्रैकस्मिन् पिटके 'छावत्तरं गहसयं' षटूसप्तत्यधिकमेकं शतं महाग्रहाणां वर्तते । पिटकानां षट्षष्टि संख्या भावना पूर्ववदेव कर्तव्या । अत्र ग्रहा अष्टाशीतिर्भवन्ति ततो द्वयोश्चन्द्रयो षटू सप्तत्यधिकं शतं ग्रहाणां परिवारो जायते ततः षट् षष्टिः षटू सप्तत्यधिकशतेन गुण्यते जायन्ते सर्वस्मिन् मनुष्यक्षेत्रे एकादश सहस्राणि षट् शतानि षोडशाधिकानि (११६१६) महाग्रहाणामिति ॥१४॥ साम्प्रतं चन्द्रादित्यानां पङ्क्तिः प्रदर्शयति-'चत्तारि य पंतीओ' इत्यादि, इह मनुष्य क्षेत्रे चन्द्रादित्यानां ‘चत्तारि य पंतीओ' चतस्रः पङ्क्तयो भवन्ति यथा-द्वे पङ्क्ती चन्द्राणां, द्वे च सूर्याणाम् एकैका च पङ्क्तिः 'छावर्हि छावहि' इति षट्षष्टि सूर्यादिसंख्यात्मका भवति, कथमिति तद्भावना चेत्थम्-एकः किल सूर्यो जम्बू द्वीपे मेरौ दक्षिणभागे चारं चरन् वर्त्तते, एक उत्तर भागे, एवमेकश्चन्द्रो मेरोः पूर्वभागे, तत्र यो मेरोदक्षिणभागे सूर्यश्चारं चरन् वर्तते तत्समश्रेणिस्थितौ द्वौ सूर्यो दक्षिणभागे लवणसमुद्रे २, षड् धातको षण्डे ६, एकविंशतिः कालोदे २१, षत्रिंशद् आभ्यन्तरपुष्कराः वर्तते । अस्यापि समश्रेणिव्यवस्थितौ द्वौ सू? उत्तरभागे लवणसमुद्रे २, धातकीखण्डे षड् ६, कालोदे एकविंशतिः २१, आभ्यन्तरपुष्कराः षट्त्रिंशत्, ३६, इत्यस्यामपि द्वितीयायां पङ्क्तौ सर्वसंख्यया षट्षष्टिः सूर्या जाताः ।२। तथा यो मेरोः पूर्वभागे चन्द्रश्चारं चरन् वर्तते तत् समश्रेणिव्यवस्थितौ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ चन्द्रशतिसूत्रे द्वौ चन्द्रौ पूर्वभागे लवणसमुद्रे २, षड् चन्द्राः धातकोखण्डे, एकविंशतिः चन्द्राः कालोदे, षटूत्रिंशादाभ्यन्तरपुष्करार्द्धे, इत्यस्यां प्रथमायां चन्द्रपङ्क्तौ सर्व संख्यया द्वा षष्टिश्चन्द्राः | १ | एवं यो मेरोरपरभागे चन्द्रस्तत्सम्बन्धिन्या मपि द्वितीयायां चन्द्रपङ्क्तौ षट् षष्टिश्चन्द्राः पूर्वोक्तरीत्यैव ज्ञातत्र्याः २ | | | १५ | साम्प्रतं नक्षत्राणां पकी राह - 'छप्पन्नं पंतीओ' इत्यादि, इह मनुष्यलोके नक्षत्राणां षट्पञ्चाशत् पङ्क्तयः सन्ति । ताश्व - 'छाबि २, हति एक्क्का' षटू षष्ठि षट्षष्टि नक्षत्रप्रमाणा एकैका पङ्क्ति र्भवति, तथा च तद्भावना-अस्मिन् किल जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽर्द्धभागे एकस्य चन्द्रस्य परिवारभूतानि अभिजिदादीनि अष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि क्रमेण व्यवस्थितानि चारं चरन्ति, एवमुत्तरतोऽर्द्धभागे द्वितीयस्य चन्द्रस्य परिवारभूतानि अन्यानि अष्टाविंशति नक्षत्राणि अभिजिदादीन्येव क्रमेण व्यवस्थितानि योगं युञ्जन्ति । तत्र दक्षिणतोऽर्द्धभागे यद् अभिजिन्नक्षत्रं वर्त्तते तत्सम श्रेणि व्यवस्थिते द्वे अभिजिन्नक्षत्रे लवणसमुद्रे २ पड् धातकी खण्डे, ६ एकविंशतिः कालोदे २१, षटू त्रिंशादाभ्यन्तरपुष्करार्द्धे ३६ इति सर्वसंख्यया षटू षष्टिरभिजिन्नक्षत्राणि पङ्क्त्या व्यवस्थितानि योगं युञ्जन्ति । एवं श्रवणादीन्यपि दक्षिणतोऽर्द्धभागे पङ्क्तया व्यवस्थितानि षटू षष्टि संख्यकानि स्वयं भावनीयानि । उत्तरतोऽप्यर्द्धभागे यदभिजिन्नक्षत्र वर्त्तते तत्समश्रेणिव्यवस्थिते उत्तरभागे एव द्वे अभिजिन्नक्षत्रे लवणसमुद्रे षड् धातकीखण्डे६, एक विंशतिः कालोदे२१, षटूत्रिंशत् आभ्यन्तरपुष्करार्द्धे ३६१ एवं षट्षष्टिसंख्यकानि अभिजिन्नक्षत्राणि ज्ञातव्यानि । एवं श्रवणादि पङ्क्तयोऽपि प्रत्येकं षट्षष्टि संख्यका अवसेया इति सर्वसंख्यया षट् पञ्चाशत् पङ्क्तयो नक्षत्राणां भवन्ति, एकैका च पङ्क्तिः षट्षष्टि संख्येति ॥१६॥ साम्प्रतं ग्रहाणां पङ्क्तीराह - 'छावत्तरं गहाणं' इत्यादि, इह मनुष्यलोके ग्रहाणामङ्गारकादीनां सर्व संख्यया षट् सप्तत्यधिकशतसंख्यकाः १६७ पङ्क्तयो भवन्ति । are 'एकिक्किया पंती' एकैका पङ्क्तिः 'छावट्ठि २' षट् षष्टि-षट् षष्टि संख्याका भवति । भावना चेत्थम्-इह जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽर्द्धभागे एकस्य चन्द्रस्य परिवारभूता अङ्गारकादयोऽष्टाशीतिर्ग्रहाः सन्ति १ । उत्तरतोऽर्द्धभागे द्वितीयस्य चन्द्रस्य परिवारभूता अङ्गारकादयोऽष्टाशीतिरेव तत्र दक्षिणतोऽर्द्धभागे योऽङ्गारको ग्रहश्चारं चरन् वर्त्तते तत्सम श्रेणिव्यवस्थितो दक्षिणभागे एव द्वावङ्गारकौ लवणसमुद्रे २, षड् धातकी खण्डे६, एकविंशतिरङ्गारकाः कालोदे २१, षट् त्रिंशदाभ्यन्तरपुष्करार्द्धे ३६ इति षट्षष्टिः एवं शेषा अपि सप्ताशीतिर्ग्रहाः T: पङ्क्त्या व्यवस्थिताः प्रत्येकं षट्षष्टि रङ्गारका वसेया । एवमुत्तरतोऽप्यर्द्ध अङ्गारकादीनामष्टाशीतेर्ब्रहाणां पङ्कयः प्रत्येकं षट्षष्टिसंख्याकाः परिभावनीया इति जायते सर्व संख्यया ग्रहाणां षट्सप्तत्यधिकं पङ्क्ति शतम् (१७६) एकैका च पङ्क्ति षट् षष्टि संख्याति ॥१७॥ एते चन्द्रादयः ग्रहाः कुत्र चारं चरन्तीत्याह - 'ते मेरु भागे , Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् १७३ मणुचरंता' इत्यादि, 'ते' इति ते मनुष्यलोकवर्तिनः 'चंदा सूरागह गणाय' सर्वे चन्द्राः, सर्वे सूर्याः सर्वे ग्रहगणाश्च "अणवट्ठियजोगेहिं' अनवस्थितयोगैः यथायोगमन्यान्यैर्नक्षत्रेण सह योगै र्युक्ताः सन्तः ‘पयाहिणावत्तमंडला' प्रदक्षिणावर्त्तमण्डला प्र-प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादिग्रहाणां दक्षिणे मेरुर्भवति यस्मिन् आवर्तने मण्डलपरिभ्रमणरूपे सप्रदक्षिणाः, प्रदक्षिण आवत्तों येषां मण्डलानां तानि प्रदक्षिणावर्तानि एतादृशानि मण्डलानि येषां ते प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलाः 'मेरुमणुचरंता' मेरुमनुलक्षीकृत्यचरन्तीति भावः । अनेनैतदुक्तं भवति सूर्यादयः समस्ता अपि मनुष्यलोकचारिणः प्रदक्षिणावर्तमण्डलगत्या परिभ्रमन्तीति न । इह चन्द्रादित्यग्रहाणां मण्डलानि अनवस्थितानि, नत्ववस्थितानि एकरूपेण न तिष्ठन्ति यथा योगमन्यस्मिन्नन्यस्मिन् मण्डले तेषां सञ्चरण शीलत्वात् अतएवोक्तम् 'अणवट्ठिय जोगेहिं चंदा सूरा गहगणाय" इति ॥१८॥ नक्षत्राणां ताराणां तु मण्डलानि अवस्थितान्येव सन्ति तदेव प्रदर्शयति-'णक्खत्ततारगाणं' इत्यादि । 'णक्खत्ततारगाणं' नक्षत्राणां तारकाणां च 'मंडला' मण्डलानि 'अवटिया' अवस्थितानि एकत्रैवस्थितानि 'मुणेयव्वा' ज्ञातव्यानि । अयं भावः नक्षत्राणां तारकाणां चैकैकं प्रत्येक मण्डलम् 'आकालमिति सकलकालाविधि' प्रतिनियतमेव भवति । अत्र अवस्थितमण्डलत्वकथने एवं न ज्ञातव्यं यदेतेषां गतिरेव न भवति, किन्तु गतिस्तु भवत्येवेत्यतः सूत्रकार आह'ते विय' इत्यादि 'ते विय' तान्यपि नक्षत्राणि तारकाणि च ‘पयाहिणाबत्तमेव मेहंअणुचरंति' चन्द्रसूर्यग्रहवदेव प्रदक्षिणावर्त्तमेव प्रदक्षिणावर्तगत्यैव मेरुमनुचरन्ति मेरुमनुलक्षीकृत्यैव परिभ्रमन्ति ॥१९॥ अथ चन्द्रादित्यानां संक्रमणं किमूर्ध्वमस्तिर्यग् वा भवतीत्या शङ्कायामाह-'रयणियरदिणयराणं' इत्यादि, 'रयणियरदिणयराणं' रजनीकरदिनकराणां चन्द्रादित्यानाम् 'उड्ढे च अहे य संकमो नत्थि' संक्रमो नोवं नाप्यधः संभवति 'तिरिए' तिर्यग् भवति । तेषाम् 'मंडलसंकमणं पुण' मण्डलसंक्रमणं पुनः 'सभितरबाहिर' साभ्यन्तरबाह्यम् अभ्यन्तरेण बाह्येन च सहितं साभ्यन्तरबाह्यम् सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्वबाह्यमण्डलम्, सर्वबाह्यान्मण्डलात्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं यावत् तिर्यक्त्वेन यातायातरूपं संक्रमणं भवति । अयं भावः-सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्परतस्तावन्मण्डलेषु संक्रमणं स्यात् यावत्सर्वबाह्यमण्डलं परिपूर्ण चरितं भवेत् सर्वबाह्यमण्डलपर्यन्तं चारं चरतीत्यर्थः एवं सर्व बाह्यमण्डलादर्वाक् तावन्मण्डलेषु संक्रमणं स्यात् यावत् सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं परिपूर्ण चरितं भवेत् । चन्द्रादित्यानां सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्सर्बबाह्यमण्डलम्, सर्वबाह्यमण्डलात्सर्वाभ्यन्तर मण्डलमितीतस्तत एव संक्रमणं तिर्यक्त्वेन भवति तथाविधजगत्स्वाभाव्यादिति ॥२०॥ साम्प्रतं चन्द्रादित्यादीनां चारप्रभावेण मनुष्याणां सुखं दुःखं च भवतीत्याह-रयणियरदि Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे णयराणं' इत्यादि, रियणियरदिणयराणं' रजनीकरदिनकराणां चन्द्रादित्यानाम्, तथा 'नक्खत्ताणं महग्गहाणं च' नक्षत्राणां महाग्रहाणं च 'चारविसेसेण' चारविशेषेण गतिमाश्रित्येत्यर्थः 'मणुस्साणं सुहदुक्खविहीभवे' मनुष्याणां सुखदुःखविधिरिह मनुष्यलोके भवेत् । तथाहि मनुष्याणां कर्माणि द्विविधानि भवन्ति यथा-शुभवेद्यानि अशुभवेद्यानि च । कर्मणां विपाकहेतवस्तु सामान्यतः पञ्च भवन्ति यथा द्रव्यं, क्षेत्रं, कालो, भावो, भवश्चेति, उक्तञ्च-. "उदयक्खय खओवसमोवसमा ज य कम्मुणो भणिया । दव्वं च खेत्तं कालं भवं भावं च संपप्प ॥१॥ उदयक्षयक्षयोपशमोपशमाः यच्च कर्मणो भणिताः । द्रव्यं च क्षेत्रं कालं भवं च भावं च सम्प्राप्य ॥१॥ इतिच्छाया । शुभकर्मणां-प्रायः शुभवेद्यानां कर्मणां शुभद्रव्यक्षेत्रकालभावभवरूपा सामग्री विपाक हेतुर्भवति, अशुभकर्मणाम् अशुभवेद्यानां कर्मणामशुभद्रव्यक्षेत्रकालभावभवरूपा सामग्री विपाकहेतुर्भवति ततो यदा येषां कृते चन्द्रादित्यादीनां चारो जन्म नक्षत्रादि विरोधी भवेत्तदो तेषांप्रायो यान्यशुभवेद्यानि कर्माणि भवन्ति तानि तां तथाविधां विपाकसामग्री संप्राप्य उदयं प्राप्नुयुः, उदयप्राप्तानि कर्माणि शरीररोगोत्पादनेन धनहानिकरणतो वा, इष्टवियोगानिष्टसंयोगजननेन वा कलहसंपादनतोऽन्यप्रकारतो वा दुखमुत्पादयन्ति । यदा च एषां चन्द्रादित्यादीनां चारो जन्मनक्षत्राद्यनुकूलः स्यात्तदा तेषां प्रायो यानि शुभवेद्यानि कर्माणि उदयप्राप्तानि भवन्ति तानि तथाविधां विपाकसामग्री संप्राप्य शरीर नोरोगता संपादनतो धनादि वृद्धिकरणतो वा वैरोपशमनतः इष्ट संयोगानिष्टविप्रयोगसंपादनतो वा, प्रारब्धाभीष्टप्रयोजनसिद्धिकरणतोऽन्यप्रकारतो वा सुखं संपादयन्ति अतएव विवेकिनो जना अल्पमपि प्रयोजनं शुभतिथिनक्षत्रादि विलोक्यैव समारभन्ते न तु यथा कथञ्चन, अत एव प्रव्राजनादि कार्यमधिकृत्य परमविवेकिभिः शुभक्षेत्रे शुभां दिशमभिमुखी कृत्य शुभे तिथिनक्षत्रमुहूर्तादौ प्रव्राजनव्रतारोपणादि कार्य कर्त्तव्यं नान्यथा, उक्तञ्च तद्विषयकग्रन्थे 'एसा जिणाण माणा खित्ताईयाय कम्मुणे भणिया । उदयाइ कारणं जं, तम्हा सव्वत्थ जइयव्वं ॥१॥" एषा जिनाना माज्ञा क्षेत्रादिकाश्च कर्मणो भणि ताः । उदयादि कारणं यत् , तस्मात् सर्वत्र यतितव्यम् ॥१॥ इतिछाया अस्याः संक्षेपतो व्याख्या-'एसा' इत्यादि, क्षेत्रादयोऽपि कर्मण उदयादौ कारणी भूताः 'भणिया' भणिताः कथिता जिनेश्वरैः, तस्मात् 'सव्वत्थ' सर्वत्र प्रव्राजनव्रतारोपणादौ शुभ तिथिनक्षत्रमुहूर्तावालोकने 'जइयव्वं' यतितव्यं यत्नो विधेयः 'एसा जिणाणमाणा' एषा Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " चन्द्रशस्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा० १९ सू१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६७५ जिनानाम् - अतीतानागतवर्त्तमानकालभाविनां सर्वेषां जिनानामाज्ञाऽस्तीति भावनीयमिति । यद्येवं न कुर्यात् तदा अशुभद्रव्य क्षेत्रादि सामग्री प्राप्य कदाचिद शुभवेद्यानि कर्माणि विपाकमवलम्ब्य उदयमासादयेयुः, तंदुदये च सती गृहीतव्रतेषु तद्भङ्गादि दोष प्रसङ्गः स्यात् । शुभ तिथिनक्षत्रमुहूर्त्तादिबलेन च शुभद्रव्यक्षेत्रादि सामग्रीलाभो भवेत् तेन तथाविधसामग्र्यां तु प्रायोऽशुभ कर्मविपाकस्य न संभव इति प्रव्रज्यादि ग्राहकस्य निविघ्नं सामायिकपरिपालनादि भवेत्तस्माद् अवश्यं छद्मस्थेन सर्वत्र शुभक्षेत्रादौ शुभतिथिनक्षत्र मुहूर्त्तादि ग्रहणाय यतितव्य मिति गाथा भावार्थ: अत्र केचिदाशङ्कन्ते—यद्येवं तर्हि यदर्हन्तो भगवन्तः शुभतिथिनक्षत्रमुहूर्त्तादिकमनपेक्ष्यैव व्रतानि गृह्णन्ति कथं तेषां व्रतादिपालनं भवति ? तथा न च तेषां समीपे प्रव्रज्यार्थं समुपस्थितेषु ते भगवन्तो जगत्स्वामिनः शुभतिथिनक्षत्रमुहूर्त्तादि निरीक्षणं कृतवन्तः प्रत्युत कथितवन्तः 'जहासुरं देवापिया मा पडिबंधं करेह' यथासुखं देवानुप्रिय मा प्रतिबन्धं कुरु इति श्रूयते ? अत्राहते तु भगवन्तोऽर्हन्तोऽतिशयिनो भवेयुस्ततस्ते स्वातिशयबलादेव सविघ्नं निर्विघ्नं वा समधिगच्छन्ति, न ते स्व प्रव्रज्यार्थं समुपस्थितानां प्रवज्यादाने च शुभ तिथिनक्षत्रमुहूर्त्तादिक मपेक्षते तेषां तथाविधातिशयसामर्थ्यवत्त्वात् इति न तन्मार्गानुसरणं छद्मस्थानां न्याय्यम् । ये चैवं शङ्कन्ते ते परममुनिपर्युपासितवचनविडम्बका अपरिमथितजिनशासना गुरुपरम्परागतनिरवद्यविशदकालोचितसमाचारी परिपन्थिनः स्वच्छन्दमतिपरिकल्पित सामाचारीका विज्ञेयाः, तेषां यत्कथनम्'प्रवाजनादि धार्मिक शुभकार्येषु न शुभतिथिनक्षत्रमुहूर्त्तादि किमपि निरीक्षणीयम् ' यदा विरज्येत तदा प्रव्रज्येत' यदा वैराग्य समुत्यद्यते तदैव प्रव्रज्यां गृह्णीयात् इर्ति, तदसत्, मिध्यात्वविजृम्भितं च तथाविधजिनाज्ञासद्भावात् 'आणाधम्मो' इति जिनशासनस्य मौलिक नियमसद्भावाच्चेति ॥२१॥ साम्प्रतं सूर्यचन्द्राणां तापक्षेत्रमाह - ' तेसिं पविसंताणं' इत्यादि, 'तेसि' तेषां सूर्यचन्द्राणां 'पविसंताणं' प्रविशतां सर्वबाह्यमण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमन्डले प्रवेशं कुर्वतां तदभिमुखं गच्छतामित्यर्थः 'तावक्खेत्तं तु' तापक्षेत्रं सूर्यस्य, प्रकाशक्षेत्रं च चन्द्रस्य 'निययं' नियत मायामतः प्रतिदिनं 'वड्ढए' वर्द्धते । ' तेणेव कमेण' तेनैव वर्द्धनक्रमेण 'निक्खमंताणं' निष्क्रमतां सर्वाभ्यन्तर मण्डलात् सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखं गच्छतां पुनः 'परिहाय३' प्रतिहीयते प्रतिदिनं परि क्षीयते तापक्षेत्रं प्रकाशक्षेत्रं चाल्पमल्पं भवतीत्यर्थः । तथाहि - सर्व बाह्ये मण्डले चारं चरतां सूर्याचन्द्रमसां प्रत्येकं जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दशधा विभक्तस्य द्वौ द्वौ भागौ तापक्षेत्रं भवति, सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रति गच्छतः प्रतिमण्डलं षष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छत प्रविभक्तस्य द्वौ द्वौ भागौ तापक्षेत्रस्य वर्द्धते, चन्द्रस्य तु मण्डलेषु प्रत्येकं पौर्णमासी संभवे । क्रमेण प्रतिमण्डलं षड्विंशतिः षड्विंशति र्भागाः परिपूर्णाः सप्तविंशतितमस्य च एकः सप्त भाग इति वर्द्धते, एवं च क्रमेण प्रतिमण्डलमभिवृद्धौ यदा सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चार चरतस्तदा प्रत्येकं जम्बू द्वीपचक्रवालस्य त्रयः परिपूर्णा दश भागास्तापक्षेत्रं भवति, ततः पुनरपि सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद्बहि. Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे निष्क्रमणे सूर्यस्य प्रतिमण्डलं षष्टयधिक षट्त्रिंशच्छतप्रविभक्तस्य जम्बूद्वोपचक्रवालस्य द्वौ द्वौ भागौ परिहीयेते । चन्द्रस्य तु मण्डलेषु प्रत्येकं पौर्णमासी संभवे क्रमेण प्रतिमण्डलं षड् विंशतिः षड्विंशतिर्भागाः परिपूर्णाः सप्तविंशतितमस्य च भागस्य एकः सप्तभागः परिहीयन्ते इति ॥२२॥ साम्प्रतं तेषां तापक्षेत्रस्य संस्थानमाह-'तेसिं' इत्यादि, 'तेर्सि चंदवराणं' तेषां चन्द्रसूर्यादीनाम् 'तावक्खेत्तपहा' तापक्षेत्रपथाः तापक्षेत्रमार्गाः 'कलंबुया पुष्फसंठिया हुंति' कदम्बकपुष्पसंस्थिताः नालिका पुष्पाकाराः 'हुंति' भवन्ति' तदेव विशिनष्टि 'अंतो य संकुडा' अन्तश्च संकुचिता: 'अन्तः' इति मेरुदिशि, 'बहिं वित्थडा' बहिविस्तृताः । अस्य भावना चतुर्थे प्राभृते प्रागेव कृतेति तत्र विलोकनीयम् ॥२३॥ साम्प्रतं गौतमश्चन्द्रस्य वृद्धयपवृद्धिविषये पृच्छति-'केणं वड्ढइ चंदो' इत्यादि 'केणं' केन कारणेन हे भगवन् 'घड्ढइ चंदो' चन्द्रो वर्धते ? इत्यादि प्रश्नसूत्रगाथा स्पष्टा, तथाहि-केन कारणेन चन्द्रः शुक्लपक्षे वर्द्धते कृष्णपक्षे च तस्य हानिर्भवति ? केन प्रभावेण चन्द्रस्य एकः पक्षः काल:-कृष्णः, तथा एकः पक्षश्च 'जोण्हो' ज्योत्स्नः शुक्लः ? इति प्रश्नः ॥२४॥ भगवान स्योत्तरमाह-'किण्हं राहु विमाणं' इत्यादि इह राहुर्द्विविधः प्रोक्तः-पर्वराहुर्नित्यराहुश्च, तत्र पर्वराहुः सः यः कदाचित्पूर्णिमायां समागत्य चन्द्रविमानं निजविमानेनाऽन्तरितं करोति, अन्तरिते कृते च लोके ग्रहणमिति प्रसिद्धिः किन्तु चन्द्रो न गृह्यते । यस्तु नित्यराहुः, तस्य विमानं कृष्णं भवति तदेवाह-'कण्हं राहुविमाणं' कृष्णं राहुविमानमिति, तच्च तथाविधजगत्स्वाभाव्यात् 'निच्चं चंदेण होइ अविरहियं' नित्यं सर्वकालं चन्द्रेण सह अविरहितं विरहरहितं चरति, तच्चाविरहितं किंचन्द्रेण संयुज्य चरति ? तत्राह-नहि, तद् राहु विमानं 'चंदस्स चउरंगुलमसंपत्तं चतुर्भिरगुलैरसंप्राप्तं सत् चन्द्रविमानादाधश्चतुरङ्गुलक्षेत्रं दूरतश्चरति परिभ्रमति ॥२५॥ 'बावडिं' इत्यादि, 'बावहिं बावर्टि' द्वाषष्टिं द्वाषष्टिम् । अयं भावः-इह चन्द्रमण्डलं द्वाषष्टि भागात्मकं भवति, पक्षस्य दिवसाः पञ्चदशेति द्वाषष्टेः पञ्चदशभिर्भागो हियते लब्धाश्चत्वारः, शेषौ भागौ नित्यं राहुणाऽनावृतावेव तिष्ठतस्तत हौ भागौ उपरितनौ यौ पञ्चदशभिर्भागे हृते शेषी भूतौ तौ न गण्येते, तान् पञ्चदशभिर्भागहरणाल्लब्धान् चतुरश्चतुरो भागान् चन्द्रमण्डलस्य पञ्चदश भागरूपान् शुक्लप्रतिपदात आरभ्य दिवसे दिवसे राहुः प्रतिविमुञ्चति तस्मात् कारणात् 'परिवडूढइ चंदो' परिवद्धते चन्द्रः । एवं क्रमेण पञ्चदशे दिवसे पूर्णिमायां सर्वभागानामनावृतत्वाच्चन्द्रः परिपूर्णप्रकाशवान् भवति । ततः कृष्णपक्षे प्रति पदात् आरभ्य चन्द्रमण्डलस्य पूर्वक्रमेणैन चतुरश्चतुरो भागान् प्रतिदिनं राहुरावृणोति, एवं क्रमेण 'तं चेव कालेणं' तेनैव पञ्चदशदिवसात्मकेन कालेन 'चंदो खवेइ' चन्द्रः क्षीयते ततः पञ्चदशे दिवसेऽमावास्यायां अनावृतभागद्वयस्याल्पत्वात् सकलमपि चन्द्रमण्डलं कृष्णं भवत्यतो Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०१९ सू १ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्या दिकम् ६७७ न दृश्यते । सूत्रे 'बावडिं बावहिं' इति प्रोक्तं तेन 'द्वाषष्टि भागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान इत्यर्थो बोध्यः । शास्त्रभाषया सर्वत्र 'बावटुिंबावडिं' इति लभ्यते, उक्तञ्च समवायाङ्गेऽपि "मुक्कपक्खस्स दिवसे दिवसे चंदो बावट्टि भागे परिवड्ढई" इति, व्याख्यानं तु सर्वत्र पूर्ववदेव, एतस्यैव सङ्गतत्वात्, अत्रैतादृशस्यैव भगवद्भावस्य गर्मितत्वाच्चेति ॥२६॥ तदेव सूत्रकारो व्याचष्टे - 'पण्णरसभागेण' इत्यादि, कृष्णपक्षे राहुः ‘पण्णरसभागेण य' पञ्चदशभागेन राहुविमानस्य षष्टिभागात्मकत्वेन स्वस्य विमानस्य पञ्चदशेन भागेन चतुभार्गात्मकेन 'चंदं पण्णरस मेव' चान्द्र पञ्चदशं भागमेव चन्द्रसम्बन्धिनं पञ्चदशमेव भागं चतुर्भागात्मकम् 'वरइ' वृणुतेआच्छादयति । एवं शुल्कपक्षे च 'पुणोवि' पुनरपि 'पण्णरसभागेण य' स्वकीयविमानस्य पञ्चदशेन भागेन वा 'पुणोवि' पुनरपि 'तं चेव' तमेव वर्द्धनक्रममाश्रिन्य प्रतिदिवसं पञ्चदशं भाग चतुर्भागरूपं आत्मीयेन पञ्चदशेन भागेन चतुर्भागरूपेण 'वक्कमइ' अपक्रामति-पृथग्भवति मुञ्चतीत्यर्थः । अयं भावः --कृष्णपक्षे प्रतिपदात आरभ्यात्मीयेन पञ्चदशेन भागेन चतुर्भागरूपेण प्रति दिवसमेकैकं पञ्चदशं भागं चतुर्भागरूपमुपरितनभागादारभ्याच्छादयति । एवं शुल्कपक्षे प्रतिपदात आरभ्य तेनैव क्रमेण प्रतिदिवसं चन्द्रमण्डलस्य चतुर्भागरूपं पंचदशं भागं प्रकटीकरोति तेन जगति चन्द्रमण्डलस्य वृद्धि होनिश्च प्रतिभासते किन्तु स्वरूपतः पुनश्चन्द्रमण्डलस्य न वृद्धिर्न हानिः, तत्तु यथावस्थितमेव भवति ॥२७।। अथास्यों संहारमाह 'एवं वड्ढइ चंदो' इत्यादि, ‘एवम् अनेन प्रकारेण नित्यराहुविमानेन प्रतिदिवसमनावृतरूपेण प्रकारेण 'बडूढइ चंदो' शुल्कपक्षे चन्द्रो वद्धते वर्द्धमानः प्रतिभासते । एवमेव राहुविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणा ऽऽवरणकरणतः कृष्णपक्षे 'परिहाणी होइ चदस्स' चन्द्रस्य परिहानिर्भवतीति भासते । 'एवणुभावेण' एवम् एतेनानुभावेन कारणेन 'चंदस्स' चन्द्रस्य पक्षः 'कालो वा जुण्होवा' कालोवा ज्योत्स्नोवा भवति एकः पक्ष कालः-कृष्णो भवति एकश्च ज्योत्स्नः ज्योत्स्नावान् शुल्क इत्यर्थः भवति ॥२८॥ अत्र मनुष्यक्षेत्रे चन्द्रादयश्चारिणः सन्ति, न तु स्थिरा इत्याह 'अंतो मणुस्स खेत्ते' इत्यादि, 'अंतो मणुस्स खेत्ते' मनुष्य क्षेत्रस्य मध्ये 'पंचविहा जोइसिया' पञ्चविधा ज्योतिष्काः के ते इत्याह 'चंदा सूरा गहगणाय' चन्द्राः सूर्या ग्रहगणाः च शब्दात् नक्षत्राणि तारकाश्च 'हवंति' भवन्ति । एते सर्वे चतुर्विधा अपि ज्योतिष्काः अत्र 'चारोवगा' चारोपकाः चारं चरन्तः 'उववन्ना' उपपन्नाः लब्धाः चारचारिणो लभ्यन्ते इति भावः ॥२९॥ मनुष्य क्षेत्रा द्वहिर्योतिष्का अवस्थिता सन्तीत्याह-'तेण परे' इत्यादि, 'तेण परं' तेन परं ततः मनुष्य क्षेत्रात् परम्-अग्रे 'जे सेसा' यानि शेषाणि-बाह्य पुष्कार‘दीनि क्षेत्राणि सन्ति तत्र 'चंदाइच्च' गहगणतारणक्खत्ता' चन्द्रादित्यग्रहगणतारकनक्षत्राणि, इत्येते सर्वे पञ्चविधा ज्योतिष्का ये सन्ति तेषाम् 'नत्थि गई' नास्ति गतिः स्वस्मात्स्थानाच्चलनम्, तथा 'न वि चारो' नापि तेषां चारः मण्डलगत्या परिभ्रमणम् । तर्हि किमित्याह-'अवढिया ते' अवस्थितास्ते 'मुणेयवा' Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ज्ञातव्याः ॥३०॥ साम्प्रतं तेषां प्रतिद्वीपसम्बन्धिर्नी संख्यां प्रदर्शयति-'एवं जंबुद्दीवे' इत्यादि एवं-सति 'जंबुद्दीवे दुगुणा' जम्बूद्वीपे द्विगुणौ एकश्चन्द्र एकः सूर्यः प्रतिखण्डमाश्रित्य द्विगु णौ भवतः द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्या इत्यर्थः । 'लवणे चउग्गुणा इंति' लवणे लवणसमुद्रे चन्द्रस्यों चतुर्गुणौ भवतः चत्वारश्चन्द्राः चत्वार एव सूर्या लवणसमुद्रे सन्तीति । 'लावणगा य तिगुणिया' लावणकाः लवणसमुद्रगता श्चन्द्राः सूर्याश्च चतु श्चतुः संख्यकाः सन्ति ते त्रिगुणिताः यावन्तो भवन्ति तावन्तः द्वादश द्वादशेत्यर्थः 'धायई संडे' धातकीषण्डे भवन्ति ॥३१॥ तानेव पृथक् प्रदर्शयति-'दो चंदा' इत्यादि सुगमम्, एतदर्थ एकत्रिंशत्तमगाथायामनुपदं पूर्वमेव गतः ॥३२॥ साम्प्रतं धातकीषण्डातन गत चन्द्रसूर्याणां संख्याकरणविधिमाह-'धायइसंडप्प. भिइसु' इत्यादि 'धायइसंडप्पभिइसु' धातकीषण्डप्रभृतिषु धातकीषण्डप्रभृतिः आदिर्येषां ते धातकीषण्डप्रभृतयः, तेषु धातकीषण्डप्रभृतिषु-धातकीषण्डात् परात् परस्थितेषु द्वीपेषु समुद्रेषु च 'उद्दिट्ठा' उद्दिष्टाः कथिताः द्वादशादयः, यथा धातकीपण्डे द्वादश चन्द्रा उपलक्षणात्सूर्याश्च, एवमप्रेऽपि चन्द्रशन्देन चन्द्राः सूर्याश्चेति उभयेऽपि ग्राह्याः ते 'तिगुणिया' त्रिगुणिताः त्रिभिर्गुणिताः सन्तः 'आइल्लचंदसहिया' आदिमाः पूर्वगत तत्तद्वीपसमुद्रगता जम्बूद्वीपादारभ्य ये चन्द्राः सूर्याश्च भवन्ति तैः सहिताः सन्तो यावन्त श्चन्द्राः सूर्याश्च भवन्ति तावत् प्रमाणाश्चन्द्राः सूर्याश्च 'अणंतराणंतरे खेत्ते' अनन्तरानन्तरे तत्तद्वीपसमुद्रा दग्रेऽग्रे ये समुद्रा कालोदादयो द्वीपाश्च सन्ति तत्तत्क्षेत्रे भवन्तोति गाथाया अक्षरगमनिका भावना चेत्थम् यथा धातकीषण्डे उद्दिष्टा श्चन्द्रा द्वादश ते त्रिभिर्गुणिता जाताः षट्त्रिंशत्, ततः 'आइल्ल चंदसहिया' आदिमचन्द्रः सहिताः कार्या इति आदिमाश्चन्द्राः षट् यथा द्वौ चन्द्रौ जम्बूद्वीपे, चत्वारो लवणसमुद्रे इति षट् एतैरादि मैः षभिश्चन्द्रैः सहिताः, जायन्ते द्वाचत्वारिंशत् इति कालोदे समुद्रे द्वाचत्वारिंशचन्द्रा , एतावन्त एव सूर्याश्च भवन्ति एवं कालोदे समुद्रे उद्दिष्टाश्चन्द्रा द्विचत्वारिंशत् ते त्रिभिर्गुणिताः जायन्ते षड्विंशत्यधिकं शतं चन्द्राणाम्, अत्रादिमचन्द्रा अष्टादश तथाहि-द्वौ जम्बूद्वीपे, चत्वारो वलवणसमुद्रे, द्वादश धातकीषण्डे, इति जाता अष्टादश, एतै रादिमचन्द्रैः सहितं पइविंशं शतं जातं चतुश्चत्वारिंशं शतम् (१४४), एतावन्तः पुष्करवर द्वीपे चन्द्रास्तत्साहचर्या त्सूर्जाश्च भवन्ति । एवमग्रे द्वोपसमुहेषु अनेनैव विधिना चन्द्र संख्या सूर्यसंख्या च वेदितव्या ॥३३॥ साम्प्रतं प्रतिद्वीप प्रतिसमुद्रस्थितानां, नक्षत्र ग्रह ताराणां परिमाणपरिज्ञानविधिं प्रदर्शयति-'रिक्खग्गहतारग्गं' इत्यादि 'रिक्खग्गहतारग्गं' ऋक्षग्रहताराणाम् अग्रं परिमाणम् अग्रशब्दोऽत्र परिमाणवाचकः, 'दीवसमुद्दे' द्वीपसमुद्रे द्वीपे समुद्रे च स्थितानाम् 'जइच्छसी णाउं' यदि ज्ञातुमिच्छति तदा 'तस्स सिहि' तत्तद्वीपसमुद्र सम्बन्धिभिः शशिभिः चन्द्रैः एवं सूर्यैश्च 'तगुणियरिक्खग्गहतारगग्गं' तद्गुणितं तत्एकस्य चन्द्रस्य परिवारभूतं नक्षत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं च यत् पूर्व प्रदर्शितं Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६७९ तद् गुणितं तत्तद्वोपसमुद्रस्थित चन्द्रपरिमाणेन गुणनं कर्त्तव्यम्, गुणनेन यावन्ति नक्षत्राणि यावन्तो ग्रहाः यावत्यश्च तारा लभ्यन्ते तावत्प्रमाणा नक्षत्रादयस्तत्र तत्र द्वोपे समुद्रे वा विज्ञातव्याः । तथाहि-यथा लवणसमुद्रे नक्षत्रादि परिमाणं ज्ञातुमिष्टं, लवणसमुद्रे च चत्वार श्चन्द्राः, तत एकस्य चन्द्रस्य परिवारभूतानि यान्यष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि तानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातं द्वादशोत्तरं शतम् (११२) एतावन्ति लवणसमुद्रे नक्षत्राणि भवन्ति । एवं ग्रहा अष्टाशीतिरेकस्य शशिनः परिवारभूतास्ततस्ते चतुर्भि र्गुणिता जायन्ते द्वि पञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि (३५२), एतावन्तो लवणसमुद्रे ग्रहा भवन्ति । एवमेव एकस्य शशिनः परिवारभूतास्ताराः कोटी कोटीनां षट्षष्टिः सहस्राणि नवशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि (६६९७५) सन्ति, तानि चतुर्भिर्गुणिते-जातानि-कोटी कोटीनां वे लक्षे, सप्तषष्टि सहस्राणि, नव शतानि (२, ६७, ९००, ०००००००, ०००००००) एतावत्यो लवणसमुद्रे तारागणा कोटी कोट्यः, एवं रूपा च नक्षत्रादीनां संख्या प्राक् प्रोक्तैव । अनयैव रीत्या सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रेषु नक्षत्रादि संख्यापरिभावनीयेति ॥३४॥ साम्प्रतं मनुष्यक्षेत्रबहिर्गतानां चन्द्रादीनां वक्तव्यतामाह'बहिया ३' इत्यादि, 'माणुसनगस्स बहिया ३' मानुषनगस्य मानुषोत्तरपर्वतस्य बहिस्तु 'चंदसराणं जोण्हा' चन्द्रसूर्याणां ज्योत्स्ना तेजः 'अवट्ठिया' अवस्थिता सदाकाले समाना भवति न तु न्यूनाधिकत्वं तस्याः । अयं भावः-सूर्यास्तत्र सदैवाऽनत्युष्णतेजसस्तिष्ठन्ति मनुध्यलोके सूर्या यथा ग्रीष्मकालेऽत्युष्णतेजसो भवन्ति न तथा तत्र जातुचिदपि अत्युष्णतेज सो भवन्ति । चन्द्रा अपि सदैवानतिशोतलेश्याकाः यथा मनुष्यक्षेत्रे शिशिरकाले चन्द्रा अतिशीतप्रकाशा भवन्ति न तथा तत्र कदाचिदपि अतिशीतप्रकाशा भवन्ति किन्तु सर्वदा समान स्थितिका एव तिष्ठन्ति अत्र नक्षत्रयोगमाह-'चंदा अभोईजुत्ता' इत्यादि, तत्र मनुष्यक्षेत्रा द्वहिः-सर्वेऽपि चन्द्रा' सर्वदैव 'अभीईजुत्ता' अभिजियुक्ताः अभिजिन्नक्षत्रेण योगं युञ्जाना एव तिष्ठन्ति । 'सूरा पुण हुति पुस्सेहि' सूर्याः पुन भवन्ति पुष्यैः, तत्र सूर्याश्च सर्वे सर्वदैव पुष्यनक्षत्रैरेव युक्तास्तिष्ठन्ति, न तु तत्र तेषां कदाचनापि मण्डलगत्या भ्रमणं भवति, ते सदाऽवस्थिता एव तिष्ठन्तोति ॥३५॥ साम्प्रतं चन्द्रसूर्ययोः परस्परमन्तरमाह - 'चंदाओ' इत्यादि 'चंदाओ सूरस्स य' चन्द्रात् सूर्यस्य, एवं सूर्याच्चन्द्रस्य चान्तरम् ‘पण्णास सहस्साइं तु जोयणाणं अणूणाई' पञ्चाशत्सहस्राणि (५००००) योजनानि अन्यूनानि परिपूर्णानि योजनानां परिपूर्ण पञ्चाशत्सहस्रयोजनपरिमितं चन्द्रसूर्ययोः परस्परमन्तरम् 'होइ' भवतीति ॥३६॥ अथ सूर्य सूर्ययो श्चन्द्रचन्द्रयो श्चान्तरमाह-'सूरस्स य सूरस्स य' इत्यादि 'बहिं तु माणुसनगस्स' मानु षोत्तरपर्वतस्य बहिः 'सूरस्स य सूरस्स य ससिणो ससिणो य' सूर्यस्य सूर्यस्य परस्परं चन्द्रस्य चन्द्रस्य च परस्परमन्तरम् 'जोयणाणं सयसहस्सं' योजनानां शतसहस्रं-लक्षयोजनपरिमित मन्तरं भवतीत्यर्थः । तथाहि-तत्र चन्द्रान्तरिताः सूर्याः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राः व्यवस्थिताः, द्वयोश्चन्द्र Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० चन्द्रशप्तिसूत्र योर्मध्ये एकः सूों वर्त्तते, द्वयोः सूर्ययोर्मध्ये एक श्चन्द्रो वर्त्तते ततश्चन्द्रसूर्ययोः परस्परमन्तरं पञ्चाशद् योजनसहस्राणि ततश्चन्द्रस्य चन्द्रस्य सूर्यस्य सूर्यस्य परस्परं लक्षयोजनपरिमित मन्तरं भवति, एकस्मात् सूर्यात् द्वितीयः सूर्यो लक्षयोजनव्यवधानेन व्यवस्थितः, एवमेकस्मा चन्द्राद् द्वितीयश्चन्द्रोऽपि लक्षयोजनव्यवघानेन व्यवस्थित इति ॥३७॥ तदेवाह-सूत्रकार 'सूरतरिया चंदा' इत्यादि स्पष्टम् पूर्वं व्याख्यातत्त्वात्, नवरौं कथम्भूतास्ते चन्द्रसूर्याः १ तत्राह 'चित्तंतरलेसागा' चित्रान्तरलेश्याकाः चन्द्रसूर्याः परस्परमन्तरिताः सन्तः चित्रलेश्याकाः भिन्नभिन्नलेश्यावन्तः चन्द्राणां शीतरश्मिकत्वात् सूर्याणां चोष्णरश्मिकत्वात् । लेश्याविशेष प्रदर्शयन्नाह- 'मुहलेस्सा मंदलेस्साय' सुखलेश्यामन्दलेश्याश्च, तत्र चन्द्राः सुखलेश्याः सुखदलेश्यावन्तः न हि मनुष्यक्षेत्रस्थितचन्द्रवत् शीतकालेऽत्यन्तशीतरश्मयः सन्ति, एवं सूर्याः मन्दलेश्याः, न हि मनुप्यक्षेत्रस्थितसूर्यवत् ग्रीष्मकाले एकान्तोष्णरश्मयः किन्तु साधारण तेजसः सन्ति ॥३८॥ इह पूर्वमुक्तम्-यत्र द्वीपे समुद्रवा ग्रहादिपरिमाणं ज्ञातुमिच्छेत् तदा एकशशिपरिवारभूतं ग्रहादि परिमाणं तत्तद्वीपसमुद्रगतसंख्यया गुणयितव्यमिति, तत एकशशिपरिवारभूतानां ग्रहादीनां संख्यामाह-'अट्टासीईगहा' इत्यादि गाथाद्वयं पाठसिद्ध तथापि स्पष्टीक्रियते-- एकस्य शशिनः परिवारभूता ग्रहा अष्टाशीति (८८), नक्षत्राणि अष्टा विंशतिः (२८) ताराश्च कोटी कोटीनां षट् षष्टिः सहस्राणि, नवशानि पञ्चसप्तप्रत्यधिकानि (६६९७५) एतावान्'एगससीपरिवारो तारागण कोडिकोड़ीणं' एकशशिपरिवारः पूर्व प्रदर्शित-संख्यकः तारागणकोटीकोटोनां प्रोक्तः ॥३९॥४०॥ इत्येतत्पर्यन्तं जीवाभिगमातिदेशेन प्रोक्तस्य यावच्छब्दग्राह्यस्य पाठस्य व्याख्या सू०॥१॥ ___ इहान्यान्यपि सूत्राणि प्रविरलपुस्तकेषु दृश्यन्ते, न सर्वेषु पुस्तकेषु तत स्तान्यपि उपयोगित्वाद् विनेयजनानुग्रहाय प्रदश्यन्ते 'अंतो मणुस्सखेत्ते' इत्यादि । मूलम्-ता मणुस्सखेत्ते जे चंदिमसरिय गहगण णक्खत्तताराख्वा ते णं देवा किं उड्ढोववन्नगा कप्पोववन्नगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा, चारहिइया गइसमावण्णगा । ता ते णं देवा णो उड्ढोववण्णगा, नो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, नो चारहिइया, गइरइया गइसमावण्णगा, उड्ढमुहकलंबुयपुप्पसंठाणसंठिएहिं जोयण साहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहिं साहस्सियाहिं बाहिराहिय वेउव्वियाहिं परिसाहिं महयाहय गट्टगीयवाइयतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइ य रवेणं महया उक्किटिसीहनाद बोलकलकलरवेणं अच्छं पव्वयरायं पयाहिणावत्तमंडलचारं मेरुं अणुपरियटुंति । ता तेसि णं देवाणं जाहे इंदे चयइ से कहमियाणिं पकरें ति ? ता चत्तारि पंच सामाणिय देवा तं ठाणं उपसंपज्जित्ताणं विहरंति जाव अण्णे इत्थ इंदे उववण्णे भवइ । ता Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सू २ मनुष्यक्षेत्रस्थित चन्द्रादिदेवानां उत्पत्तिक्षेत्रम् ६८१ इंदट्ठाणे णं केवइएणं कालेणं विरहिए पण्णत्ते ? ता जहण्णेण इक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासे ॥ ता बहियाण मणु-सखेत्ते जे चंदिमसूरियगहगणणक्खत्ततारारूवा ते णं देवा कि उड्ढोववण्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारहिइया गइरइया गइसमावण्णगा । ता ते णं देवा णो उड्ढोववण्णगा नो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, णो चारोववण्णगा चारहिइया नो गइरइया, नो गइसमावण्णगा पक्किगसंठाणसंठिएहिं जोयणसयसाहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहि, सयसाहस्सिएहिं बाहिरियाहिं वेउव्वियाहिं परिसाहिं महयाहयनगीय वाइ। जाव रवेणं दिव्वाई भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरंति मुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदायलेस्स चित्तंतरलेस्सा अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेस्साहिं कूडाइव ठाणाट्ठिया ते पएसे सव्वों समंता ओभासें ति उज्जोवे ति तवेंति पभासे ति । ता तेसिणं देवाणं जाहे इंदे च यइसे कहमियाणि पकरें ति । ता चत्तारि पंच सामाणियदेवा तं ठाणं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति जाव अण्णे इत्थ इंदे उववण्णे भवइ । ता इंदट्ठाणे णं केवइएणं कालेणं विरहिए पण्णत्ते ता जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासे ॥ सू० २ ॥ छाया—अतर्मनुष्यक्षेत्रे ये चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाः ते खलु देवाः किम्ऊोपपन्नकाः ? कल्पोपपन्नकाः ? विमानोपपन्नकाः ? चारोपपन्नकाः ? चारस्थितिका ? गतिरतिकाः १ गतिसमापन्नकाः ? तावत् ते खलु देवा नो ऊोपपन्नकाः, नो कल्पो. पपन्नकाः, विमानोपपन्नकाः, चारोपपन्नकाः नो चारस्थितिकाः, गतिरतिकाः, गतिसमापन्नकाः ऊर्ध्वमुखकदम्बकपुष्पसंस्थानसंस्थितैः योजनसाहनिकैः तापक्षेत्रः, साहस्रिकाभिर्वाह्याभिश्च वैकुर्विकाभिः पर्षद्भिः महताहतनाटयगोतवादित्रतन्त्रोतलताल त्रुटितघनमृदा पटुप्रवादितरवेण महता उत्कृष्टि सिंहनाद-बोलकलकलरवेण अच्छे पर्वतराजं प्रदक्षिणावर्त मण्डलचारं मेरु मणुपर्यटन्ति । तावत् तेषां खलु देवानां यदा इन्द्रप्रच्यवते अथ कथमिदानी प्रकुर्वन्ति ? तावत् चत्वारः पञ्च सामानिकदेवाः तत् स्थानमुपसंपद्य खलु विहरंति यावत् अन्योऽत्र इन्द्र उपपन्नो भवति । तावत् इन्द्रस्थानं खलु कियता कालेन विरहितं प्रक्षप्तम् १ तावत् जधन्येन एकं समयम् उत्कर्षेण षण्मासान् ॥ तावत् बहिः खलु मनुष्य क्षेत्रे ये चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रता।रूपाः ते खलु देवाः किम्-उर्वोपपन्नकाः ? कल्पोपपन्नकाः, विमानोपपन्नकाः ? चारस्थितिको ? गतिरतिकाः १ गतिसमापन्नगाः १ तावत् ते खलु देवाः नो ऊोपपन्नकाः नो कल्पोपपन्नकाः, विमानोपपन्नकाः, नो चारोपपन्नकाः चारस्थितिकाः, नो गतिरतिकाः, नो गतिसमापन्नकाः, पक्वेष्टिका संस्थानसंस्थितैः योजनशतसाहस्रिकैः तापक्षेत्रैः शतसाहस्रिकाभिर्बाह्यवैकुर्विकाभि पर्षद्भिः महताहतनाट्यगीतवादित्र यावद् रवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुजाना विहरन्ति, सुखलेश्याः, मन्दले श्याः, मन्दातपलेश्याः, चित्रान्तरलेश्याः अन्योन्य समवगाढाभिर्लेश्याभिः कूटा इव Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे स्थानस्थिताः तान् प्रदेशान् सर्वतः समन्ताद् अवभासयन्ति, उद्द्योतयन्ति, तापयन्ति, प्रभासयन्ति । तावत् तेषां खलु देवानां यदा इन्द्रः यवते अथ कथमिदानी प्रकुर्वन्ति? तावत् चत्वारः पञ्च सामानिकदेवा तत् स्थानमुपस पद्य खलु विहरन्ति यावद् अन्योऽत्र इन्द्र उपपन्नो भवति । तावत् इन्द्रस्थान खलु कियता कालेन विरहितं प्रशप्तम् ? तावद् जघन्येन एक समयम् उत्कृष्टेन षण्मासान् (सू०२)। ___ व्याख्या-'अंतो मणुस्स खेते' इति, मनुष्यक्षेत्रमध्ये ये चन्द्रादयो देवास्ते किम् 'उडूढोववन्नगा' इत्यादि, ऊोपपन्नकाः उर्व सौधर्मादि द्वादशकल्पेभ्य उपरि उपपन्नाः ? किं कल्पोपपन्नकाः सौधर्मादिकल्पेषु उपपन्नाः ! किं विज्ञानोपपन्नाः सामान्यविमानेषु उपपन्नाः ? किं चारोपपन्नकाः, चारो मण्डलगत्या परिभ्रमणं, तनुपपन्नाः तमाश्रिताः ? किं चारस्थितिकाः-चारस्य स्थितिरभावो येषां ते तथा चारवर्जिताः ? गा रतिकाः गतौ रतिरासक्तिर्येषां ते तथा गतिप्रियाः अत्र गतौ रतिमात्रमुक्तम्, साम्प्रतं साक्षाद् गति षयं प्रश्नं करोति, 'किं गइ समावन्नगा' किं गतिसमापन्नकाः गतियुक्ताः ? भगवानाह-'ता ते णं देवा' इत्यादि, तावत् ते चन्द्रसूर्यादयो देवा नो ऊोपपन्नकाः नापि कल्पोपपन्नकाः किन्तु विमानोपपन्नकाः विमानेष्वेव ज्योतिष्कविमानेष्वेव तेषामुत्पत्तिसद्भावात्, तथा चारोपपन्नकाः परिभ्रमणशीलाः किन्तु नो चारस्थितिका चाररहिता नेत्यर्थः, गतिरतिकाः स्वभावतोऽपि गति प्रयास्ते देवाः, एतावदेव न किन्तु गतिसमापन्नकाः गतियुक्ता अपि सन्ति मनुष्यक्षेत्रान् वर्तिनश्चन्द्र सूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपा देवा इति । साम्प्रतमेषां तापक्षेत्रादिवक्तव्यतामाह-'उहाह' इत्यादि, ऊर्ध्वमुखीकृतकदम्बकपुष्पवत् संस्थानम् अन्तः संकुचितबहिर्विस्तृतत्वात्तादृयः संस्थानं तेन संस्थितैः तदाकारैः योजनसाहस्रिकैः अनेकसहस्रयोजनप्रमाणैस्तापक्षेत्रः, साहनिकाभिः अनेक सहस्रसंख्याभिर्बाह्याभिः, अत्र बहुवचनं व्यक्तय पेक्षया, वैकुर्विकाभिः विकुवि नानारूपधारिणीभिः पर्षद्धिः 'महयाहय.' इत्यादि तत्र महताहतानि महता रवेणेत्यग्रेण सम्न्धः , अहतानि अक्षतानि असवलि• तानि यानि नाट्यानि गीतानि वादित्राणि च, याश्च तन्त्र्यो-वीणाः ये च तलतालाः हस्ततालाः, यानि च त्रुटितानि-शेषाणि तूर्याणि, ये च घनाः-धनाकाराः “वनिसाधर्म्यात् पटुना-निपुणपुरुषेण प्रवादिता मृदङ्गाः, तेषां महता रवेण, तथा 'महया उक्किट्ठिसीहनादकलकलरवेणं' उत्कृष्टितः स्वभाबतो गतिरतिकैबाह्यिपरिषदन्तर्गत देवेगेन गच्छत्सु विमानेषु त्कर्षवशात् ये मुच्यन्ते सिंहनादाः सिंहवद्गर्जनरूपाः शब्दाः, यश्च क्रियमाणो बोलः, बोलो नाम यत् मुखे हस्तं दत्त्वा महताशब्देन प्रक्रियते सः, यश्च कलकलो व्याकुलः शब्दसमूहः, तद्रवेण, एतादृश शब्दपूर्वक मित्यर्थः 'अच्छ' अतीव स्वच्छम् अतिनिर्मलजाम्बूनदरत्नबहुलत्वात् पर्वतराजं पर्वतेन्द्रं 'पयाहिणावत्तमंडलचारं' प्रदक्षिणावर्तमण्डलगत्या प्र-प्रकर्षेण दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां मेरुदक्षिण एवं भवति यस्मिन्नावर्ते मण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिणः, एतादृशः, प्रदक्षिण आवत्तॊ येषां Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका० प्रा० १९ सू. २ मनुष्यक्षेत्रस्थितचन्द्रादिदेवानां उत्पत्तिक्षेत्रम् ६८३ मण्डलानां तानि तथा प्रदक्षिण वर्त्तानि मण्डलानि तेषां गत्या चारः परिभ्रमणं यत्र स तथा, तं तादृशं मेरुम् 'अणुपरियदृति' मेरुमनुलक्षीकृत्य पर्यटन्ति परिभ्रमन्ति । साम्प्रतं तत्रत्येन्द्रस्य - च्यवते किं कुर्वन्तोति पृच्छति - 'ता तेसिणंदेबाणं' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगमम् - तेषां देवानां यदा इन्द्रश्च्यवते तदा ते तदानीं किं प्रकुर्वन्तीतिभावः । भगवानाह - ' ता चत्तारि' इत्यादि, तेषामिन्द्रो यदा च्यवते तदा चत्वारः पञ्च वा सामानिकदेवा मिलित्वा तदिन्द्रस्थानमुपसंपद्यअधिकृत्य विहरन्ति तत्स्थानं परिपालयन्तीत्यर्थः कियदवधि ? इत्याह- 'जाव अण्णे' इत्यादि, यावदन्यइन्द्रः अत्र इन्द्रस्थाने इन्द्रत्वेन उपपन्नो भवति तावदिति । अथ - इन्द्रस्थानस्य विरहकाल पृच्छति - 'ता इंदट्ठाणेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् तदिन्द्रस्थानं कियता कालेन कियत्कालपर्यन्तम् 'विरहियं' विरहितम् - इन्द्ररहितं प्रज्ञप्तम् इति प्रश्नः भगवानाह - 'ता जहणेण एक्कं समयं ' इत्यादि, तदिन्द्रस्थानं जघन्येन एकं समयं यावत् उत्कर्षेण षण्मासान् यावत् इन्द्रस्थानमिन्द्रेण रहितं तिष्ठति ततो नाधि कालम्, षण्मासान्ते तु तत्रेन्द्रस्यावश्यमुपपातसद्भावादिति । इति मनुष्यक्षेत्र वक्तव्यता । अथ मनुष्यक्षेत्राद्बहिर्वत्तिनां चन्द्रादीनां वक्तव्यतामाह - 'ता बहियाणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'बहियाणं माणूस्सखेत्तस्स' मनुष्यक्षेत्रस्य बहिः, इत्यादि प्रश्नसूत्रं मनुष्यक्षेत्र वदेव । उत्तरमपि तद्वदेव, नवरमत्र गतिविषये १, तापक्षेत्रसंस्थानप्रमाणविषये २, बाह्यपर्षत्संख्याविषये ३, दिव्यभोगविषये च ४, नानात्वं वर्त्तते, तथाहि - मनुष्यक्षेत्र वर्त्तिनश्चन्द्रादयः चारोपपन्नकाः न तु चारस्थितिकाः गतिरतिकाः गतिसमापन्नकाः प्रोक्ताः, अत्रत्या मनुष्यक्षेत्र वहिर्वर्त्तिनश्चन्द्रादयस्तु नो चारोपपन्नकाः किन्तु चारेस्थितिकाः - चाररहिताः, नो गतिरतिकाः नो गतिसमापन्नकाः नो गतियुक्ता वर्त्तन्ते इत्येवं गतिविषयकं नानात्वम् मनुष्यक्षेत्रवर्त्तिनां तापक्षेत्रमूर्ध्वकृत कदम्बक पुष्पसंस्थानसंस्थितं योजनसाहस्त्रिकं तापक्षेत्र मुक्तम्, अत्र मनुष्यक्षेत्राद्वहिः पक्वेष्टका संस्थानसंस्थितं योजनशतसाहस्रिकं तापक्षेत्रम्, यथा पक्त इष्टका आयामतो दीर्घा विस्तरतस्तु स्तोका चतुरस्रा च तथा तेषामपि मनुष्यक्षेत्राद्वहिर्व्यवस्थितानां चन्द्रसूर्याणामातपक्षेत्राण्यपि आयामतोऽनेक योजनशतसहस्रप्रमाणानि, विस्तरत एक योजनशतसहस्राणि चतुरस्राणि चेति तापक्षेत्रसंस्थानप्रमाणविषयकं नानात्वम् । अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे चन्द्रसूर्यादयः अनेकसहस्रसंख्याभिर्वैकुर्विक बाह्यपर्षद्भिः सार्द्धं नाट्यगीतवादित्रादिरवेण उत्कृष्टसिंह - नादबोलकलकलरवेण प्रदक्षिणावत्तमण्डलचारं मेरुमनुलक्षीकृत्य पर्यटन्ति, अत्र मनुष्यक्षेत्र बहिर्वर्त्तिनश्चन्द्रादयस्तु अनेकशतसहस्रप्रमिताभिर्वै कुविक बाह्य पर्षद्भिः सार्द्ध नाट्यगीतवादित्रादिरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहरन्तीति पर्षद् विषयकं दिव्यभोगभोगविषयनानात्वम् ॥ कथम्भूतास्ते मनुष्यक्षेत्रबहिवर्त्तिनश्चन्द्रसूर्या: ? इत्याह- 'मुहलेस्सा' सुखलेश्याः एतद्विशेषणं Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे चन्द्राणां तेन तत्रत्याश्चन्द्राः नातिशीतप्रकाशाः किन्तु सुखोत्पादकहेतुपरमलेश्या युक्ताः सन्ति । मंदलेश्याः-एतद्विशेषणं सूर्याणाम् तेन तत्रत्याः सूर्याः नात्युष्णतेजसः, एतदेव व्याचष्टे'मंदातवलेस्सा' मन्दातपलेश्याः, मन्दा अनत्युष्ण स्वभावा आतपरूपा लेश्या रश्मिसमूहो येषां ते तथा । पुनः कीदृशाश्चन्द्रादित्याः ? इत्याह-'चित्तंतरलेस्सा' चित्रान्तरलेश्याः चित्र विचित्रम् अन्तरम्-अन्तरालं परस्परव्यवधानरूपं लेश्या च येषां ते, तथा, ते इत्थम्भूताश्चन्द्रादित्याः 'अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेस्साहिं' अन्योन्यसमवगाढाभिः परस्परसंमिलिताभिः लेश्याभिः प्रभाभिः, तथाहि-चन्द्राणां सूर्याणां च प्रत्येकं लेश्या योजनशतसहस्रप्रमाणविस्ताराः, सूचि पङ्क्तया व्यवस्थितानां च तेषां चन्द्रसूर्याणां परस्परमन्तरं पञ्चाशत् पञ्चाशद् योजनसहस्राणि, ततश्चन्द्रप्रभासंमिश्राः सूर्यप्रभाः, सूर्यप्रभासंमिश्राश्च चन्द्रप्रभा इति, इत्थं परस्पर समवगाढाभिर्लेश्याभिः 'कूडाइव ठाणट्ठिया' कूटानोव पर्वतोपरिव्यव स्थतशिखराणीव स्थानस्थिताः स्थाने स्वस्थाने एव सदाकालं स्थिताः सन्तः 'ते पए।' तान् स्वस्व प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् 'सव्वओ समंता' सर्वतः समन्तात् दिक्षु-विदिक्षु 'ओभासंति' अवभासयन्तिप्रकाशयन्ति, 'उज्जोवेंति' उद्योतयन्ति दीप्ति युक्तानि कुर्वन्ति, 'ताति' तापयन्ति सुखदतापयुकानि कुर्वन्ति 'पभासेंति' प्रभासयन्ति भासमानानि कुर्वन्ति । अन्यत्सर्वं मनुष्यक्षेत्र कथितवदेव व्याख्येयम् , तथाहि-इन्द्रच्यवने चतुः पञ्च सामानिकदेवद्वारा इन्द्र स्थानपरिरक्षणम्-तत्र-इन्द्रविरहकालो जघन्येन एकं समयं यावत् , उत्कृष्टेन षण्मासान् यावद् भवतीति भावः ॥सू० २॥ गता पुष्करवरद्वीपवक्तव्यता, साम्प्रतं तदने स्थितानां द्वीपसमुद्राणां वक्तव्यतां प्रति पादयन् प्रथमं पुष्करवरद्वीपं पुष्करोदः समुद्रः संपरिवेष्टय तिष्ठतीति तद्वक्तव्यतामाह-'ता पुक्खरवरं णं दीवं' इत्यादि । . मूलम्-ता पुक्खरवरं णं दीवं पुक्खरोदे णामं समुद्दे बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव चिट्टइ, एवं विक्खंभो, परिक्खेवो जोइस च भाणियध्वं जहा जीवाभिगमे जाव सयंभूरमणे ॥९० ३॥ ____ छाया तावत् पुष्कारवर स्खलु द्वीपं पुष्कारोदो नाम समुद्रः वृत्तः बलयाकार संस्थानसंस्थितः यावत् तिष्ठति, एवं विष्कम्भः, परिक्षेपः, ज्योतिष्कंच भणितव्यं यथा जीवाभिगमे यावत् स्वयम्भूरमणः । सू० ३॥ ... व्याख्याता पुक्खरवरं णं दीवं' इति 'ता' तावत् 'पुक्खरवरं णं दीवं' पुष्कर वरं खलु द्वीपम् 'पुक्खरोदे णामं समुद्दे' पुष्करोदो नाम समुद्रः, कीदृशः ? इत्याह-'वट्टे' इत्यादि, 'वट्टे' वृत्तः गोलाकारः, गोलाकारस्तु घनरूपेणापि स्यादत आह-'वलयागारसंठाण संठिए' वलयाकारम् अन्तः शुषिरत्वात्, तद्रूपं संस्थान माकारः, तेन संस्थितः वलयाकृति Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ . ३ पुष्करयरद्वीपसबन्धीवक्तव्यता ६८५ युक्त इत्यर्थः 'जात्र' यावत् अत्र यावत् पदेन 'सयो समंता संपरिक्खित्ता णं' इति संग्राह्यम् स पुष्करोदः समुद्रः पुष्करवरं द्वीपं सर्वतः समन्तात् दिक्षु विदिक्षु च संपरिक्षिप्य परिवेष्टय तिष्ठतीति । अथाग्रेऽतिदेशमाह-'एवं' इत्यादि, एवम् अनेन प्रकारेण तस्य पुष्करोदसमु-, द्रस्य 'विक्खंभो' विष्कम्भः, दैर्ध्यविस्ताररूपः 'परिक्खेवो' परिक्षेपः परिधिः, 'जोइसं' ज्योतिष्कं ज्योतिश्चक्रं चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगणत रारूपं च 'भाणियव्यं' भाणतव्यं वक्तव्यम् । कथमित्याह-'जहा जीवाभिगमे' यथा ये प्रकारेण जीवाभिगमसूत्रे कथितं तथैवात्रापि वाच्यम् । कियत्पर्यन्त मित्याह-'जाव सयंभूरमणे' यावत्स्वयम्भूरमणसमुद्रः पुष्करोदसमुद्रादारभ्य मध्यगतद्वीपसमुद्रान् संगृह्य स्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्तं वक्तव्यता सर्वाऽत्र पठनीयेति ॥सू०३॥ सम्प्रतं जीवाभिगमसूत्रातिदेशेन प्रोक्तः पाठः प्रदर्श्यते-'ता पुक्खरोदे णं समुद्दे' इत्यादि । मूलम् - ता पुक्खरोदेणं समुद्दे किं समचक्कवालसंठिए जाव णो विसमचक्कवाल संठिए । ता पुक्खरोदे णं समुद्दे केवइए चक्कवालविक्खंभेणं ? केवइए परिक्खेवेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता संखेज्जाई जायणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, संखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहिए तिव ज्जा। ता पुक्खरोदे णं समुद्दे केवइया चंदा पभासिंसु ३ पुच्छा तहेव । ता पुक्खरो णं समुद्दे संखेज्जा चंदा पभासिंसु ३ जाव संखेज्जाओ तारागणकोडाकोडीओ सभं सोभिंसुवा ३। एएणं अभिलावेणं वरुणवरे दीवे वरुणोदे समुद्दे ४, खीरवरे दीवे खीरोदे समुद्दे ५, घयवरे दीवे घयोदे समुद्दे ६, खोयवरे दीवे खोयोदे समुद्दे ७, गंदिस्सरवरे दीवे गंदिस्सरवरे समुद्दे ८, अरुणे दीवे अरुणोदे समुद्दे ९, अरुणवरे दीवे अरुणवरे समुद्दे १० अरुणवरोभासे दीवे अरुणवरोभासे समुद्दे ११, कुंडलदोवे कुंडलोदे समुद्दे १२, कुंडलवरे दीवे कुंडलवरोदे समुद्दे १३, कुंडलवरोभासे दोवे कुंडलवरोभासे समुद्दे १४।, सव्वेसि विक्खंभपरिक्खेवो जोइसाई पुक्खरोदसागरसरिसाई ॥सू ॥४॥ . ____ छाया तावत् पुष्करवरोदः खलु समुद्रः किं समचक्रवालसंस्थितः यावत् नो विषमचक्रवालसंस्थितः । तावत् पुष्करोः खलु समुद्रः कियान चक्रवालविष्कम्मेण ! कियान् परिक्षेपेण आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् ॥२० ये यानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण, संख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । तावत् पुष्क रोदे खलु समुद्र कियन्त श्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ पृच्छा तथैव । तावत् पुष्करोदे खलु समुद्रे संख्येयाश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ यावत् संख्येयास्तारागणकोटोकोटयः शोभामशोभन्त वा ३॥ एतेनाभिलापेन-वरुणवरो द्वीपः, वरुणोदः समुद्रः ४, क्षीरवरो द्वीप: क्षीरोदः समुद्रः ५, घृतवरो द्वीपः घृतोदः समुद्रः ६, क्षोदवरो द्वोपः खोदोदः समुद्रः ७, नन्दीश्वरवरो द्वीपः नन्दीश्वरवरः समुद्रः ८, अरुणो द्वीपः अरुणोदः समुद्रः ९, अरुणवरों Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे द्वीपः अरुणवरः समुद्रः १०, अरुणवरावभासो द्वीपः अरुणवरावभासः समुद्रः ११, कुण्डलो द्वीपः, कुण्डलोदः समुद्रः १२ कुण्डलवरो द्वीपः, कुण्डलवरोदः समुद्रः १३, कुण्डलवरावभासो द्वीपः कुण्डलवरावभासः समुद्रः १४, सर्वेषां विष्कम्भः परिक्षेपः ज्योतिष्काणि पुष्करोदसागरसदृशानि ॥सू०॥४॥ व्याख्या—'ता पुक्खरोदे णं समुद्दे' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुक्खरोदे णं समुद्दे' पुष्करोदः खलु समुद्गः यः पुष्करवर द्वीपं सर्वतः समन्तात् परिवेष्टय स्थितः स समुद्रः 'किं समचक्कवालसंठिए' किं समचक्रवालसंस्थितः ? 'जाव' यावत् यावत्पदेन किं विषमचक्रवालसंस्थितः ? इति प्रश्नः, पुष्करवरोदः समुद्रोऽपि पूर्वोक्तान्यसमुद्रवत् समचक्रवालसंस्थितः किन्तु 'नो विसमचकवालसंहिए' विषमचक्रवालसंस्थितो न । तस्य चक्रवालविष्कम्भपरिक्षेप विष यकप्रश्नसूत्रं सुगमम् । उत्तरमाह- 'ता संखेज्जाइं जोयणसहस्साई' संख्येय सहस्रयोजनपरिमितस्तस्यायामविष्कम्भः, संख्येयसहस्रयोजनपरिमितएकपरिधिरित्युत्तरम् । एवं ज्योतिष्कदेवानां चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगणतारा अपि संख्येया एव व्याख्येयाः । प्रश्नसूत्राणि उत्तरसूत्राणि च 'संख्येया' इति पदमधिकृत्य व्याख्येयानि, यथा-'ता पुक्खरोदे णं समुद्दे केबइया चंदा पभासिंह वा, ३, इति प्रश्नसूत्रमुक्त्वा 'ता पुक्खरोदेणं समुद्दे संखेज्जा चंदा पभासिंसु वा, ३, एवमुत्तरसूत्रं वाच्यम् । एवमेव सूर्यनक्षत्रग्रहगणताराणामपि प्रश्नसूत्राणि उत्तरसूत्राणि च स्वयमहनीयानि । अथातनं चतुर्थ वरुणबरद्वीपमारभ्य चतुर्दश कुण्डलवरावभाससमुद्रपर्यन्तानां द्वीपानां समुद्राणाम् आयामविष्कम्भः परिधिज्योतिष्कं च सर्वमपि संख्यात योजनसहस्रत्वेनैव व्याख्येयम् । सर्वेऽपि द्वीपा समुद्राश्च समचक्रवालसंस्थिता एव न तु विषमचक्रवालसंस्थिताः, इत्येवमधिकारमाश्रित्य चतुर्दशानां द्वीपानां चतुर्दशानां समुद्राणां चातिदेशेन नामान्याह-'एएणं अभिलावेणं' इत्यादि, 'एएणं अभिलावेणं' एतेन पुष्करवरद्वीपपुष्करोदसमुद्रसदृशेनैव अभिलापेन 'वरुणवरे दीवे वरुणोदे समुद्दे' वरुणवरो द्वीपः वरुणोदः समुद्रः इत्येवं चतुर्थद्वीपसमुद्रादारभ्य चतुर्दश द्वीपसमुद्रपर्यन्तं सर्व सुगम' तत्सूत्रपाठादेवावगन्तव्यम् । तदेवाह सूत्रकारः-'सव्वेसिं' इत्यादि, 'सन्वेसिं विक्खभपरिक्खेवो जोइसाई पुक्खरोदसागरसरिसाई' सर्वेषामेषां चतुर्थाद्वीपसमुद्राच्चतुदर्श द्वीपसमुद्रपर्यन्तानां विष्कम्भपरिक्षेपः, ज्योतिष्काणि सर्वाणि पुष्करोदसमुद्रसदृशानि व्याख्येयानि । तथाहि-संख्येयसहस्रयोजनो विष्कम्भः संख्येयसहस्रयोजनः परिक्षेपः, संख्येया एव प्रत्येकं चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगणतारा वाच्या इति । साम्प्रतं द्वीपसमुद्रगतदेवानां समुद्रगतजलानां च भावना क्रियते पुष्करोदे च समुद्रे जलमतिस्वच्छं पथ्यं जात्यं तथ्यपरिणामं स्फटिकवर्णनिभं प्रकृत्या उदकरसम् । तत्र श्रीधरः श्रीप्रभश्चेति नामानौ द्वौ देवो आधिपत्यं परिपालयतः, तत्र श्रीधरः पुष्करोदसमुद्रस्य पूर्वार्धाधिपतिः, श्रीप्रभश्चापराधिपतिरिति । अस्य पुष्करोदसमुद्रस्यायामो Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका०प्रा.१९सु.४ पुष्करवद्वीपसंबन्धीवक्तव्यता ६८७ विष्कम्भः ज्योतिश्चक्रं चेत्येषां व्याख्या सुगमा अथातिदेशमाह-एएणं अभिलावेणं' इत्यादि, 'एएणं' एतेन पुष्करोदसमुद्रप्रोक्तेन अभिलापेन आलापकप्रकारेण 'अरुणवरे दीवे' इत्यादि. अरुणवरो द्वीपो वक्तव्यः, तदनन्तरं वरुणोदः समुद्रः ततः क्षीरवरो द्वीपः क्षीरोदः समुद्रः, इत्यादि, चतुर्दश द्वीपसमुद्रपर्यन्तं वाच्यम् । तत्र वरुणवरे द्वीपे च वरुणवरुणप्रभौ द्वौ देवौ तत्स्वामिनौ, तयोराद्यो वरुणदेवः पूर्वार्धाधिपतिः, द्वितीयो वरुणप्रभश्चापरा - धिपतिः । एवमग्रेऽपि सर्वत्र भावनीयम् । वरुणोदे समुद्रे परम सुजातमृद्वोकानिष्पन्नरसादपोष्टतराऽऽस्वादयुक्तं जलं विद्यते । तत्र वारुणि-वारुणिप्रभो देवौ ४ । क्षीरवरे द्वीपे पण्डरसुप्रदन्ती द्वौ देवौ, क्षीरोदे समुद्रे जात्य पुण्डेक्षुचारिणीनां गवां यत् क्षीरं, तदन्याभ्यो गोभ्यो दीयते, तासामपि क्षीरमन्याभ्यः, तासामप्यन्याभ्यः, एवं चतुर्थस्थानपर्यवसितस्य क्षीरस्य प्रयत्नतो मन्दाग्निना क्वथितस्य जात्येन खन्डेन मत्स्यण्डिकया सम्मिश्रस्य यादृशो रसो भवति तस्माद पीष्टतरस्वादं तत्कालविकसितश्वेतकर्णिकारपुष्पवर्णाभं च जलं वर्तते । विमल-विमलप्रभौ च तत्र देवौ ५ । घृतवरे द्वीपे कनक-कनकप्रभौ देवौ, घृतोदे समुद्रे सद्योविस्यन्दित गो घृतास्वादं तत्कालविकसितश्वेतकर्णिकारपुष्पवर्णाभं च जलं वर्तते । कान्तसुकान्त नामानौ तत्र देवौ ६ । क्षोदवरे द्वीपे क्षोदः-इक्षुः, सुप्रभमहाप्रभौ देवी, क्षोदोदे जात्यवर पुण्ड्राणामिक्षूणामपनीतमूलोपरि त्रिभागानां विशिष्टगन्धद्रव्यपरिवासितानां यो रसः श्लक्ष्ण वस्त्रपरिपूतो यादृशास्वादयुक्तो भवेत्तस्मादपीष्टतरास्वादबहुलं जलं वर्तते । पूर्ण-पूर्णप्रभौ च तत्र देवौ ।७। नन्दीश्वरे द्वीपे कैलास-हस्तिवाहनौ देवी, नन्दीश्वरे समुद्रे इक्षुरसास्वादं जलं, सुमनः सौमनसौ देवौ ८, एते अष्टावपि जम्बूद्वीपादारभ्य नन्दोश्वरद्वीपनन्दीश्वरसमुद्र पर्यन्ता द्वीपाः, समुद्राश्च एकप्रत्यवतारा एकैकरूपा यन्नामको द्वीपः तन्नामक एव समुद्रः, एवं रूपेण एकैकरूपा इत्यर्थः अत ऊ_तु ये षड् द्वीपा ये पद समुद्राश्च ते त्रिप्रत्यवताराः त्रयस्त्रयः सदृशनामानः, तथाहि-अरुणः, अरुणवरः अरुणावभासः, कुण्डलः कुण्डलवरः, कुण्डलावभासः, एते षड्द्वीपाः, एतन्नामान एव षट् समुद्रा इति । एवं जातानि द्वीपसमुद्राणां चतुर्दश युग्मानीति १४ । तत्र षट्सु द्वीपसमुद्रयुग्मेषु अरुणे द्वीपे अशोकवीतशोको देवौ, अरुणोदे समुद्रे सुभद्र-मनोभद्रौ देवो ? अरुणवरे द्वीपे अरुणवरभद्रा-ऽरुणवरमहाभद्रौ अरुणवरे समुद्रे-अरुण वरभद्रा-ऽरुणवरमहाभद्रौ १०, अरुणवरावभासे द्वीपे अरुणवरावभासभद्रा-ऽरुणवरावभासमहाभद्रौ, अरुणवरावभासे समुद्रे-अरुणवरावभासवरा-ऽरुणवरावभासमहावरौ११, कुण्डले द्वीपे कुण्डल-कुण्डलभद्रौ देवी, कुण्डलसमुद्रे चक्षुः शुभ-चक्षुः कान्तौ १२, कुण्डलवरे द्वीपे कुण्डलवरभद्र-कुण्डलवरमहाभद्रौ, कुण्डलवरे समुद्रे कुण्डलवर-कुण्डलमहावरौ १३, कुण्डलवरावभासे द्वीपे कुण्डलवरावभासभद्र-कुण्डलवरावभासमहाभद्री, कुण्डलवरावभासे समुद्रे कुण्डलवरावभासवर-कुण्डलवरावभासमहावरौ द्वौ देवौ स्तः, तत्र एकः पूर्वार्धाधिपतिरपरोऽपराधिपतिरस्तीति Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे १४ एवं चतुर्दश द्वीपाश्चतुर्दशैव समुद्राश्च तथा तेषामधिपतयो देवाश्च प्रतिपादिताः सूत्रोपात्ता एते सर्वे संख्यातसहस्रयोजनप्रमाणविष्कम्भपरिक्षेपसंख्येय ज्योतिष्कवन्तश्च सन्तीति ॥४॥ पूर्व पुष्करोदसमुद्रादारभ्य कुण्डलवरावभाससमुद्रपर्यन्ताश्चतुर्दश द्वीपाश्चतुर्दश समुद्राः संख्यातसहस्रयोजनप्रमाणविष्कम्भपरिक्षेपवन्तः संख्याताश्चन्द्राद यश्च प्रोक्ताः, साम्प्रतं ये असंख्यातयोजनसहस्रप्रमाणविष्कम्भपरिक्षेपवन्तः असंख्यातचन्द्रादिमन्तो द्वीपाः समुद्राश्च सन्ति तान् सूत्रकारः साक्षादेव प्रदर्शयति, तत्र प्रथमं यः कुण्डलवरावभासः समुद्रो वर्णितस्तं को द्वीपो परिवेष्टय तिष्ठति ? इत्यादि स्वयम्भूरमणद्वीपसमुद्रपर्यन्तानां द्वीपसमुद्राणां वक्तव्यता माह-'ता कुंडलवरोभासण्णं समुई' इत्यादि मूलम्-ता कुण्डलवरोभासणं समुदं रुयए दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ । ता रुयएणं दीवे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ?। ता समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए । ता रुयएणं दीवे केवइए विक्खंभेणं ? केवइए परिक्खेवेणं आहिए ? ति वएज्जा । ता असंक्खेज्जाई जोयणसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, असंक्खेज्जाइं जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं आहिए ति वएज्जा । ता रुयएणं दीवे केवइया चंदा पभासिसुवा पुच्छा ता रुयगेणं दीवे असंखेज्जा चंदा पभासिंसु वा ३, जाव असंखेज्जो तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभिंसुवा ३॥ एवं रुयगोदे समुद्दे, रुयगवरे दीवे रुयगवरोदे समुद्दे रुयगवरोभासे दीवे रुयगवरोभासे समुद्दे । एवं तिपडोयारा णेयव्वा जाव सूरे दीवे सरोदे समुद्दे, सूरवरे दोवे सूरवरोदे समुद्दे सूरवरोभासे दोवे सूरवरोभासोदे समुद्दे । सव्वेसि विक्खंभपरिक्खेवनोइसाइं रुयगदीव सरिसाई । ता सूरवरोभासोदण्णं समुई देवे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सबओ दोवे समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ जाव णो विसमचक्कवालसंठिए । ता देवेणं केवइए चक्कवालविक्खंभेणं ? केवइए परिक्खेवेणं आहिए । तिवएज्जा । ता असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई चक्कवालविनखभेणं, असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहिए ति वएज्जा । ता देवेणं दीवे केवइया चंदा पभासिसुवा ३, । पुच्छा तहेव । ता देवेणं दीवे असंखेज्जा चंदा पभासिसुवा ३, जाव असखेज्जाओ तारागण कोडिकोडीओ सोभं सोभिंसुवा । एवं देवोदे समुद्द, णागे दीवे णागोदे समुद्दे जक्खे दीवे जक्खोदे समुद्दे, भूते दीवे भूतोदे समुद्दे सयंभूरमणे दीवे सयंभूरमणे समुद्दे सव्वे देव दीवसरिसा ॥सू० ५॥ ॥ एगूणवीसइमं पाडुडं समत्तं ॥१९॥ छाया तावत् कुण्डलवरावभासं खलु समुद्र रुचको द्वोपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । तावत् रुचकः खलु द्वीपः Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wafaaiशिका टीका० प्रा० १९ सु. ४ चन्द्रादिमन्तरद्वीपसमुद्रनिरूपणम् ६८९ किं समचक्रवालसंस्थितः नो विषमचक्रवालसंस्थितः ? । तावत् समचक्रवालसंस्थितः नो विषमचक्रवालसंस्थितः । तावत् रुचकः खलु द्वीपः कियान् विष्कम्मेण ? कियान्परिक्षेपेण आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् असंख्येयानि योजनसहस्राणि चक्रवाल विष्कम्भेण, असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । तावत् रुचके खलु द्वीपे कियन्तश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ पृच्छा । तावत् रुचके खलु द्वीपे असं श्येया चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ यावत् असंख्येया स्तारागण कोटीकोटयः शोभामशोभन्त षा ३ । एवं रुचकोदः समुद्रः रुचकवरो द्वीपः रुचकवरोदः समुद्रः रुचकवरावभासो द्वीपो रुचकवरावभासः समुद्रः । एवं त्रिप्रत्यवतारा ज्ञातव्याः, यावत् सूर्यो द्वीपः सूर्योदः समुद्रः सूर्यवरो द्वीपः सूर्यवरोदः समुद्रः सूर्यवरावभासो द्वीपः सूर्यवरावभासोदः समुद्रः ! सर्वेषां विष्कम्भपरिक्षेप- ज्योतिष्काणि रुचकद्वीपसद्रशानि । तावत् सूर्यवरावभासों खलु समुद्रं देवो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरि क्षिप्य खलु तिष्ठति यावत् नो विषमचक्रवालसंस्थितः । तावत् देवः खलु द्वीपः कियान् चक्रवालविष्कम्भेण ? कियान् परिक्षेपेण आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् असंयेयानि योजन सहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेण असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपे ण आख्यात इति वदेत् । तावत् देवे खलु द्वीपे कियन्तश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ पृच्छा तथैव । तावत् देवे खलु द्वीपे असंख्येयाञ्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, यावत् असंख्येयास्तारागणकोटो कोटयः शोभामशोभन्त वा ३ । एवं देवोदः, समुद्रः, नागो द्वीपो नागोदः समुद्रः, यक्षो द्वीपः यक्षोदः समुद्रः, भूतो द्वीपः भूतोदः समुद्रः, स्वयम्भूरमणो द्वीपः स्वयम्भूरमणः समुद्रः, सर्वे देवद्वीपसदृशाः ॥सू०॥४॥ एकोनविंशतितमं प्राभृतं समाप्तम् ॥१९॥ व्याख्या -- 'कुंडळवरोभासण्णं समुदं' इति 'कु' डलवरोभासणं समुद्द" कुण्डलवरावभासं खलु समुद्रं रुचको द्वीपो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य - परिवेष्ट्य खलु तिष्ठति, इत्यादि सुगमम् तथा हि- रुचको द्वीपः समचक्रवालसंस्थितः किन्तु विषमचक्रवालसंस्थितो न । अस्य विष्कम्भः परिक्षेपश्च असंख्येययोजनसहस्रप्रमाणः । अत्र चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगणतारा असंख्येया वर्त्तन्ते । ' एवं रुचगोदे समुद्दे' इत्यादि एवम् - अनेनैव प्रकारेण रुचकः समुद्रः, रुचकवरो द्वीपः, रुचक्रवरोदः समुद्रः रुचकवरावभासो द्वीपः रुचकवरावभासः समुद्रः ' एवं ' इत्यादि, एवमनेन प्रकारेणैव तिपडोयारा' त्रिप्रत्यवताराः, त्रयः प्रत्यवताराः सदृशनामरूपा येषु येषां वा ते त्रिप्रत्यवतारा ज्ञातव्याः कियत्पर्यन्तमित्याह'जाव' इत्यादि 'जाव' यावत् 'सूरे दीवे' इत्यादि, सूर्य सूर्यवरसूर्यावभासा द्वीपाः, एतन्नामा एव समुद्राश्च प्रत्येकद्वीपस्याग्रे ज्ञातव्याः एते सर्वे त्रिप्रत्यवतारा वर्त्तन्ते । 'सव्वेसिं' इत्यादि, सर्वेषामेतेषां रुचकसमुद्रप्रभृतीना सूर्यवरावभाससमुद्रपर्यन्तानां विष्कम्भः, परिक्षेपः ज्योतिष्काणि च 'रुयगदोवसरिसाई' रुचकद्वीपसदृशानि तथाच - असंख्येययोजनसहस्रप्रमाणो विष्कम्भः परिक्षेपश्च ८७ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaaaaaaaaaaa चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे प्रत्येकमसंख्येयानि चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्राणि असंख्येयास्तारागणकोटोकोट्य इति । अत ऊर्ध्व देवादयः पञ्च पञ्चद्वीपाः समुद्राश्च एक प्रत्यवताराः इति उक्तञ्च जीवाभिगमसूत्रे "देवे नागे जक्खे, भूयेय सयंभूरमणे य, एक्केक्के चेव भाणियव्वे तिपडोयारं नत्थि" इति । ते एव प्रदर्श्यन्ते- 'सूरवरोभासोदण्णं' इत्यादि अत्र पूर्वोक्तमन्तिमं सूर्यवरावभासोदं समुद्रम् 'देवे णाम दौवे' देवो नाम द्वीपः वृत्तो वलयाकारसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठिति । अयं देवो द्वीपः समचक्रवालसंस्थितः किन्तु नो विषमचक्रवाल संस्थितः अस्य विष्कम्भः परिक्षेपश्च असंख्येययोजनसहस्रप्रमाणः चन्द्रादयश्चासंख्येया व्याख्येयाः 'एवं देवोदे' इत्यादि, देवोदः समुद्रः १ नागो द्वीपो नागोदः समुद्रः २, यक्षो द्वीपो यक्षोदः समुद्रः ३, भूतो द्वीरो भूतोदः समुद्रः ४, स्वयम्भूरमणो द्वीपः स्वयम्भूरमणः समुद्रः । 'सव्वे' इति सर्वे एते देवोदः समुद्रः, नागादयो द्वीपाः, नागोदादयः समुद्राश्चेति सर्वे: 'देवदीवसरिसा' देवद्वीपसदृशाः, अतो देवद्वीपवदेव व्याख्येयाः। देवादि द्वीपसमुद्रगतं देवानां भावना चेत्थम् देवे द्वीपे देवभद्र-देवमहाभद्रौ पूर्वापरार्द्ध भागस्वामिनौ स्तः, एवं देवे समुद्रे-देववर-देवमहावरो, नागद्वीपे नागभद्र-नागमहाभद्रौ, नागे समुद्रे नागवर-नागमहावरौ, यक्षे द्वीपे यक्षभद्र-यक्षमहाभद्रौ, यक्षे समुद्रे यक्षवर-यक्षमहावरो, भूते द्वीपे भूतभद्र भूत महाभद्रौ भूते समुद्रे भूतवर-भूतमहावरौ-स्वयम्भूरमणे समुद्रे स्वयम्भूवरस्वयम्भूमहावरौ देवौ स्वामित्वेन तिष्ठत इति । इह नन्दीश्वरादयः सर्वे समुद्राः भूतसमुद्रपर्यवसाना इक्षुरसोद (क्षोदोद) समुद्रसदृशोदकाः प्रतिपत्तव्याः । स्वरम्भूरमणसमुद्रस्य •तु उदकं पुष्करोदसमुद्रोदकसदृशं ज्ञातव्यम् । तथा जम्बूद्वीप इति नामानोऽसंख्येया द्वीपाः लवण इति नामानोऽसंख्येयाः समुद्राः, एवं तावद् वाच्यं यावत् सूर्यवरावभासइति नाम्ना असंख्येया समुद्राः । ये तु पञ्चदेवादयो द्वीपाः, पञ्च देवोदादयः समुद्रास्ते एकैका एवावसे या न तु त्रिप्रत्यवताराः, उक्तञ्च जीवाभिगमे"केवइया णं भंते ! जंबूद्दीवा दीवा पन्नत्ता !। गोयमा ! असंखेज्जा पन्नत्ता । केवइयाणं भंते ! देवदीवा पन्नत्ता ! गोयमा ! एगे देवदीवे पण्णत्ते । दसवि एगागारा" इति छायाकियन्तः खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपाः द्वीपा प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! असंख्येयाः प्रज्ञप्ताः । कियन्तः खलु भदन्त ! देवद्वीपाः प्रज्ञप्ताः ! गौतम ! एको देव द्वीपः प्रज्ञप्तः । दशापि एकाकाराः ।।इति । 'दशापि' इति दश-देव-नाग-यक्ष-भूत-स्वयम्भूरमणे तिनामानः पञ्च द्वीपाः, एतन्नामान एव पञ्चसमुद्रा इति दश एते दश एकाकाराः एकप्रत्यवताराः सन्तीति ॥ सू० ४ ।। इति श्री जैनाचार्यजैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालवति विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायामेकोनविंशतितमं प्राभृतं . समाप्तम् ॥ १९ ॥ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा०२० सू. १ चन्द्रसूर्याणामनुभावनिरूपणम् ६९१ । अथ विंशतितमं प्राभृतम् । तदेव मुक्तमेकोनविंशतितमं प्राभृतम्, तत्र जम्बूद्वीपादारभ्य स्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यम्तानां द्वीपसमुद्राणां संस्थानविष्कम्भ-परिधिज्योतिश्चक्राणां वक्तव्यता प्रोक्ता । अथ विंशतितम प्राभृतं व्याख्यायते, अत्रायमर्थाधिकारः-पूर्वमधिकारसंग्रहगाथायामुक्तम्-'अणुभावे केरिसेवुत्ते' अनुभावः कीदृश उक्त इति, अनेन सम्बन्धेनास्मिन् प्राभृते चन्द्रसूर्याणामनुभावः प्रदर्शयिष्यते इति तद्विषयं प्रथमं सूत्रमाह-'ता कहं ते अणुभावे' इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते अणुभावे आहिए ? ति वएज्जा । तत्थ खलु इमाओ दो. पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा तत्थेगे एवमाहंमु-ता चंदिमसरियाणं णो जीवा, अजोवा, णो घणा, झुसिरा, णो बादरबोंदिधरा, कलेवरा, नत्थि णं तेर्सि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिए इ वा, पुरिसक्कारपरक्कमे इ वा, ते णोविज्जु लवंति, णो असणि लवंति, णो थणियं लवंति,, अहेय णं बायरे वाउकाए संमुच्छइ, अहेय गं बायरे बाउकाए समुच्छित्ता विजंपि, लवंति असणिपि लवंति, थणियंपि लवंति, एगे एव माह सु-ता चंदिमसरियाणं जीवा, णो अजीवा, घणा, नो झुसिरा, बायरबोंदिधरा, नो कलेवरा, अस्थि णं तेर्सि उठाणे इ वा, कम्मे इ वा, बले इ वा, वीरिए इवा, पुरिसक्कारपरक्कमे इ वा, ते विज्जुपि लवंति, असणिपि लवंति, थणियपि लवंति, एगे एवमाहं सु ॥२॥ वयं पुण एवं क्यामो-ता चंदिमसूरियाणं देवा महिडूढिया महाजुइया महाबला महाजसा महासोक्खा महाणुभावा वरवत्थधरा वरमल्लधरा वराभरणधारी अब्खुच्छित्तिणयट्टयाए अण्णे चयंति अण्णे उववज्जंति ।सू० १। छाया तावत् कथं ते अनुभावः आख्यातः ? इति वदेत् तत्र खलु इमे वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते, तद्यथा-तत्रैके एवमाहुः-तावत् चन्द्रसूर्याः खलु नो जीवाः, अजीवा नो घना, शुषिराः नो बादरबोंदिधराः, कलेवराः, नास्ति खलु तेषाम् उत्थानमितिवा, कर्मेतिवा, बलमिति वा, वीर्यमिति वा पुरुषकारपराक्रम इतिवा, ते नो विद्युतं प्रवर्तयन्ति, नो अशनिं प्रवर्सयन्ति, नो स्तनितं प्रवर्त्तयन्ति, अधश्च खलु बादरो वायुकायः संमूर्च्छति, अधश्च खलु बादरो वायुकायः समूछर्य विद्युतमपि प्रवर्तयन्ति, अशनिमपि प्रवर्त्तयन्ति, स्तनितमपि प्रवर्त्तयन्ति, एके एवमाहुः ॥१॥ एके पुनरेवमाहुः तावत् चन्द्रसूर्याः खलु जीवाः, नो अजीवा, घनाः, नो शुषिराः, बादरबोदिधराः नो कलेवराः, अस्ति खलु तेषाम् उत्थानमितिवा, कर्मेतिवा, बलमितिवा, वीर्यमितिवा पुरुषकारपराक्रम इतिवा, ते विद्युतमपि प्रवर्त्तयन्ति, अशनिमपि प्रवर्त्तयन्ति स्तनितमपि प्रवत्तयन्ति, एके एवमाहुः ॥२॥ वयं पुनरेवं वदामः तावत् चन्द्रसूर्याः खलु देवाः महद्धिकाः महाद्युतिकाः महाबला-महायशस: महा सौख्याः, महानुभावाः वरवस्त्रधराः वरमाल्यधराः, वराभरणधारिणः अव्युच्छित्तिनयार्थतया अन्ये च्यवन्ते अन्ये उपपद्यन्ते ॥सू०॥१॥ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिसूत्रे व्याख्या—'ता कहते' इति 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'अणुभावे' अनुभावः चन्द्रसूर्याणां स्वरूपविशेषः 'आहिए' आख्यातः कथितः ? ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! इति गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ णं' तत्र चन्द्रसूर्यानुभावविषये खलु 'इमाओ' इमे-वक्ष्यमाणे 'दो पडिवत्तीओ' द्वे प्रति पत्ती :पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ते, 'तं जहा' तद्यथा ते द्वे यथा- 'तत्थ' तत्र द्वयोर्मध्ये 'एगे' एके प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' अनेन वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति । किं कथयन्ति ? इत्याह-'ता चंदिमसूरियाणं' इत्यादि, 'ता' तावत् चंदिमसूरियाणं' चन्द्र सूर्याः चन्द्रमसः सूर्याश्च खलु 'णो जीवा' नो जीवाः जोवरूपा न, किन्तु 'अजीवा' अजीवाः जीववर्जिताः सन्ति, तथा 'णो घणा' नो घनाः निविडप्रदेशोपचया न, किन्तु 'झुसिरा' शुषिराः वलयवद् अन्तः प्रदेशरहिताः सन्ति, तथा 'णो बादरबोदिधरा' नो बादरबोन्दिधराः, स्थूलशरीरधारकाः प्रधानसजीवसुव्यक्तावयवशरीरोपेता न, किन्तु 'कलेवरा' कलेवराः प्राण रहित केवलशरीररूपाः, तथा 'नस्थि णं तेसिं' नास्ति खलु तेषां चन्द्रसूर्याणाम् 'उहाणे इवा' उत्थानमिति वा, उत्थानम्-ऊर्वीभवनरूपम् 'इति' उपदर्शने 'वा' समुच्चये 'वि' विकल्पे वा, 'कम्मे इ वा' कर्मेति वा कमें-उत्क्षेपणावक्षेपणरूपं कर्मापि तेषां नास्ति तथा 'बलेइवा' बलमिति वा बलं शरीरसमुद्भवप्राणरूपं तदपि तेषां नास्ति तथा 'बीरिए इवा' वीर्य मितिवा, वीर्यम्-आन्तरोत्साहरूपं, तदपि तेषां न । तथा 'पुरिसक्कारपरक्कमे इवा' पुरुषकारपराक्रममिति वा, तत्र पुरुषकारः पुरुषत्वसमुद्भूतगौरवरूपः , पराक्रमः साधितस्वाभिमतप्रयोजनरूपः स एव, एतौ द्वावपि तेषां नस्तः, अत एव ते न काञ्चन क्रियामपि कुर्वन्तीति प्रदर्शयति 'ते णो' इत्यादि, ते चन्द्रसूर्याः ‘णो विज्जु लवंति' नो विद्युत प्रवर्तयन्ति कुर्वन्ति, 'वृतुवर्तने' इत्यस्य प्राकृते लवादेशसंभवात् प्रवर्तयन्तीति रूपम् । 'नो असणि लवंति' नो अशनि प्रवर्तयन्ति, अशनिमिति विशिष्ट प्रकारा अतिविकटगर्जन सहिता विद्युदेव, ‘नो थणियं लवंति' नो स्तनितं गर्जनं प्रवर्तयन्ति । तर्हि किमित्याह'अहेय' इत्यादि, 'अहेय' अधश्च तेषां चन्द्रसूर्याणां 'बायरे बाउकाए' बादरः स्थूलो वायुकायः 'संमुच्छइ' संमूर्छते तथाविध भावाद् एवं समुद्भवति, 'अहेय णं बायरे बाउकाए' अधश्च खलु स बादरो वायुकायः 'समुच्छित्ता' संमूर्य संमूछितो भूत्वा 'विज्जु पि लवंति' इत्यादि, विद्युतमशनि स्तनितं च प्रवर्तयन्तीति उपसंहारमाह-'एगे पुण' इत्यादि, ‘एगे' एके पूर्वोक्ताः प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवम् अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण 'आह'सु' आहुः कथयन्तीति प्रश्नमा प्रतिपत्तिः ।१। अथ द्वितीयामाह-'एगे पुण'इत्यादि, 'एगे' एके द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आई मुं' आहुः कथयन्ति । किमित्याह-'ता चंदि Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.२०.सू.१ चन्द्रसूर्याणामनुभावनिरूपणम् ६९६० मसरियाणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चंदिमसरियाणं' चन्द्रसूर्याः खलु न पूर्वोक्तस्वरूपाः किन्तु ते , 'जीवा' जीवाजीवरूपाः सन्ति किन्तु 'णो अजीबा' अजीव रूपा न । एवं ते घनाः सन्ति किन्तु शुषिरा न, बादरबोन्दिधराः सन्ति न तु कलेवर मात्रा, अस्ति तेषाम् उत्थानं कर्म, वलं, वीर्य, पुरुषकारः पराक्रमश्च, तेन ते विद्युतम् , अशनिम्, स्तनितं चापि प्रवत्तेयन्ति । उपसंहारमाह-'एगे' इत्यादि 'एगे' एके इमे द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण कथयन्तीति द्वितीया प्रतिपत्तिः ।२। एते द्वे अपि प्रतिपत्तीमिथ्यात्वरूपे, अतो भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि 'वयं पुण' वयं तु 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः तदेवाह-'ता चंदिमसूरियाणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'चंदिमसूरियाणं' चन्द्रसूर्याः खलु 'देवा' देवा देवरूपाः. सन्ति न तु सामान्यतो जीवमात्राः, ते पुनर्देवाः कीदृशाः ? इत्याह-'महिड्ढिया' इत्यादि, 'महिडूढिया' महर्द्धिका विमानादिऋद्धिमन्तः 'महज्जुइया' महाद्युतिकाः शरीराभरणधुतिमन्तः 'महाबला' महाबलाः शरीरबलसंपन्नाः 'महाजसा' महायशसः-महाख्यातिमन्तः 'महासोक्खा' ? महासौख्याः देव्यादि परिवारवत्त्वात् महासुखसंपन्नाः, 'महाणुभावा' विशिष्टवैक्रियकरणाद्यचिन्त्यशक्तिमत्त्वान्महाप्रभावशालिनः 'वरवत्थधरा वरवस्त्रधराः विशिष्ट वर्णोपेत सुकुमालवस्त्रधारिणः 'वरमल्लधरा' वरमाल्यधराः श्रेष्ठमालाधारिणः 'वराभरणधरा' वराभरणधराः श्रेष्ठकटकके-.. यूरादिभूषणधारिणः 'अव्वुच्छित्तिनयट्टयाए' अब्युच्छित्तिनयार्थतया द्रव्यार्थिकनयमतेन 'अण्णे चयंति' अन्ये पूर्वोत्पन्नाः स्वायुर्भवस्थितिक्षये च्यवन्ते, ततस्तत्र 'अण्णे' अन्ये तादृश देवायुबन्ध-. कास्तत्र जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तकालेन उत्कृष्टतः षण्मासकालव्यवधानेन 'उववज्जति' उत्पद्यन्ते ॥२०१॥ पूर्व चन्द्रसूर्याणामनुभावः प्रोक्तः, साम्प्रतं चन्द्रसूर्यप्रसङ्गाद राहु वक्तव्यतामाह-'ता कहं ते राहुकम्मे' इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते राहुकम्मे. आहिए ? तिवएज्जा, तत्थ खलु इमाओ दो. पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा-तत्थेगे एवमाहंमु-अस्थिणं से राहुदेवे जेणं चंदं वा सूरं . वा गिण्हइ, एगे एवमाहंसु ।१। एगे पुण एवमाइंसु-नत्थि णं से राहुदेवे जे ण चंदं वा सूरं वा गिण्हइ ।२। तत्थ जे ते एवमाइंसु ता अस्थिणं से राहुदेवे जे णं चंदं वा सूरं. वा गिण्हइ ते एवमाहं-ता राहणं देवे चंद वा बरं वा गेण्हमाणे बुद्धतेणं गिण्हिता. बुद्धं तेणं मुयइ २, मुद्धतेणं गिण्हित्ता बुद्धंतेणं मुयइ ३, मुद्धं तेणं गिण्हित्ता मुद्धतेणं मुयइ ४, वामभुयंतेणं गिण्हिता वामभुयंतेणं मुयइ ५, वामभुयंतेणं गिण्हिता. दाहिणभुयंतेणं मुयइ ६, दाहिणभुयंतेणं. गिण्हित्ता' वामभुयंतेणं मुयइ ७, दाहिणभुयंतेणं गिण्हिता दाहिणभुयंतेणं मुयइ ८, ।१॥ तत्थ जे ते एवमाइंसु-: Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे ६९४ तानत्थि णं से राहु देवे जेणं चंद वा वरं वा गेण्हइ ते एवमाहंसु - तत्थ णं इमे पण्णरस कसिणपोग्गला पण्णत्ता तं जहा - सिंघाडए १' जडिलए २, खरए ३, खतए ४, अंजणे ५, खंजणे ६, सीयले ७, हिमसीयले ८, केलासे ९, अरुणाभे १०, पजणे ११, णभसूरए १२, कविलिए १३, पिंगलिए १४, राहू १५ । ता जया णं एते पण्णरस कसिणा पोग्गला सया चंदस्स वा सूरस्स वा लेसाणुबद्ध चारिणो भवंति तया णं माणुसलोयंसि माणुसा एवं वदंति एवं खलु राहू चंद वा सूरं वा गेह एवं खलु राहू चंदं वा वरं वा गेण्हइ । ता जयाणं एए पण्णरस कसिणा पोग्गला णो सया चंदस्स वा सूरस्स वा लेसाणुबद्धचारिणो भवंति तया मणुसलोगम्मि मस्सा एवं वयंति - एवं खलु राहू चंदं वा सूरं वा नो गेण्हइ, एते एवमाहं |२| वयं पुण एवं वयामो ता राहूणं देवे महिढिए जाव महाणुभावे वरवत्थधरे वरमल्लधरे वराभरणधारी | राहूस्स णं देवस्स णवनामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा - सिंघाडए १, जडिलए २, खरए ३, खत्तए ४' दद्दरे ५, मगरे ६, मच्छे ७, कच्छ ८ कण्हसप्पे ९ । ता राहुस्स णं देवस्स विमाना पंचवण्णा पण्णत्ता तं जहा - किण्हा १, नीला २, लोहिया ३, हालिदा ४, सुक्किल्ला ५। अस्थि काल राहुविमाणे खंजणवण्णाभे पण्णत्ते १, अस्थि नीलए राहुविमाणे अलाउय वण्णाभे, पण्णत्ते २, अस्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिद्वावण्णाभे पण्णत्ते ३, अस्थि हालिए राहुविमाणे हलिद्दा वण्णाभे पण्णत्ते ४, अस्थि सुकिल्लए राहुविमाणे भासरासि वण्णाभे पण्णत्ते ५। ता जयाणं राहु देवे - आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं पुरत्थिमेणं आवरित्ता पच्चत्थिमेणं वीईवयइ, तया णं पुरत्थिमेणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेइ पच्चत्थिमेणं राहू १ । जया णं राहुदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा परियारेमाणेवा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं दाहिणेणं आबरित्ता उत्तरेणं वीईवयइ तया णं दाहिणेणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेइ उत्तरेणं राहू २, एतेणं अभिलावेणं पञ्च्चत्थिमेणं आवरित्ता पुरत्थिमेणं वीईवयइ, उत्तरेणं आवरित्ता दाहिणेणं वीbars । जया णं राहूदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा परियारे माणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं दाहिणपुरस्थिमेणं आवरित्ता उत्तरपच्चत्थिमेणं atters तया णं दाहिणपुर स्थिमेणं चंदे वा रे वा उवदंसेइ, उत्तरपच्चत्थिमेणं राहू । जया णं राहूदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा परियारेमाणे वा दस्स वा सुरस वा लेस्सं दाहिणपच्चत्थिमेणं आवरित्ता उत्तरपुरत्थिमेणं वीईवयइ तया णं दाहिणपच्चत्थिमेणं चंदे वा खरे वा उवदंसेइ उत्तरपुरित्थिमेणं राहू । Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा. २० सू० २ राहुवक्तव्यता ६९५ एएणं अभिलावेणं उत्तरपच्चत्थिमेणं आवरेत्ता दाहिणपुरस्थिमेणं वीईवयइ उत्तर पुरत्थिमेणं आवरेत्ता दाहिणपच्चत्थिमेणं वीईवयइ । ता जया णं राहूदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वेमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सरस्स वा लेस्सं आवरेत्ता वीईवयइ तया णं मणुस्सलोए मणुस्सा वयंति राहुणा चंदे सरेवा गाहिए। ता जया णं राहु देवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वेमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सरस्स वा लेस्सं आवरित्ता पासेणं वीईवयइ तया णं मणुस्सलोयम्मि मणुस्सा वयंति-चंदेण वा सूरेण वा राहुस्स कुच्छी भिण्णा । ता जयाणं राहूदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वेमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं आवरेत्ता पच्चोसकइ तया णं मणुस्सलोए मणुस्सा एवं वयंति-राहुणा चंदेवा सूरे वा वंते राहुणा० २ । ता जया णं राहुदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वेमाणे वा परियारे माणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं आवरेत्ता मज्झं-मज्झेणं वीईवयइ तया णं मणुस्सलोयसि मणुस्सा वयंति-राहुणा चंदे वा सूरे वा विइयरिए, राहुणा २ । ता जया णं राहूं देवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वेमाणे वा परियारेमाणेवा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं आवरित्ता अहे सपक्खि सपडिदिसि चिट्टइ तया णं मणुस्सलोयंसि मणुस्सा वयंति-राहुणा चंदे वा सूरे वा पत्थे राहणा०२ । कइविहे गं राह पण्णते ? दुविहे पण्णत्ते तं जहा-धुवराहू य पव्वराहू य, तत्थ णं जे से धुवराहू से णं बहुलपक्खस्स पडिवए पण्णरसइभागेणं भागं चंदस्स लेस्सं आवरेमाणे आवरेमाणे चिट्टइ, तं जहा-पढमाए पढमं भागं जाव पण्णरसमं भागं चरमे समए चंदे रत्ते भवई, अवसेसे समए चंदे रत्तेय विरत्तेय भवइ । तमेव मुक्तपक्खे उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे चिटइ, तं जहा-पढमाए पढमं भाग जाव चंदे विरत्ते य भवइ, अवसेसे समए चंदे रत्ते य विरते य भवइ । तत्थ णं जे ते पव्वराहू से जहण्णेणं छण्डं मासाणं, उक्कोसेणं बायालीसाए मासाणं चंदस्स, अडयालीसाए संवच्छराणं सूरस्स सू० २॥ छाया तावत् कथं ते राहुकर्म आख्यातम् । इति वदेत्, तत्र खलु इसे द्वे प्रत्तोपत्ती प्रक्षप्ते, तद्यथा-तत्र एके एवमाहुः-अस्ति खलु स राहुर्देवः यः खलु चन्द्र वा सूर्य वागृण्हाति पके पवमाहुः (१) एके पुनरेव माहुः-नास्ति खलु गहुर्देवः यः खलु चन्द्र सूर्य वा गृहाति ॥२॥ तत्र ये ते एवमाहुः तावत् अस्ति खलु स राहुर्देवः यः खलु चन्द्रं वा सूर्यवा गृहाति ते एवमाहुः-तावत् राहुः खलु देवः चन्द्रं वा सूर्य वा गृख्न बुध्नान्तेन गृहीत्वा बुज्नान्तेन मुञ्चति-१, बुध्नान्तेन गृहीत्वा मूर्धान्तेन मुञ्चति २, मूर्धान्तेन गृहीत्वा बुध्नान्तेन मुञ्चति ३, मूर्धान्तेन गृहीत्वा मूर्द्धान्तेन मुञ्चति. ४, वामभुजान्तेन गृहीत्वा वामभुजाम्तेक मुञ्चति ५, वामभुजान्तेन गृहीत्वा दक्षिणभुजान्तेन मुञ्चति ६, दक्षिणभुजान्तेन गृहीला Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे वामभुजान्तेन मुञ्चति, ७, दक्षिणभुजान्तेन गृहीत्वा दक्षिणभुनान्तेन मुञ्चति ८, १॥ तत्र ये ते एवमाहुः --तावत् नास्ति खलु स राहुर्देवः यः खलु चन्द्रं वा सूर्यं वा गृह्णाति ते एवमाहुः-तत्र खलु इमे पञ्चदश कृष्णाः पुद्गलाः प्रज्ञताः, तद्यथा-शृङ्गाटकः १, जटिलकः २, खरकः ३, क्षतकः, ४, अञ्जनः ५, खञ्जनः, ६, शीतलः ७, हिमशीतलः, ८, कैलाशः ९, अरुणाभः १०, प्रभञ्जनः ११, नभः सूरकः १२, कापिलिकः १३, पिङ्गलका १४, राहुः १५, तावत् यदा खलु पते पञ्चदश कृष्णाः पुद्गलाः सदा चन्द्रस्य वा सर्यस्य वा लेश्यानुबद्धचारिणो भवन्ति तदा खलु मानुषलोके मनुष्या एवं वदन्ति एवं खलु राहुश्चन्द्रं वा सूर्य वा गृहाति एवं खलु. २। तावत् यदा स्खलु एते पञ्चदश कृष्णाः पुद्गला नो सदा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्यानुबद्धचारिणो भवन्ति तदा मनुषलोके मनुष्या एवं वदन्ति–एवं खलु राहुश्चन्द्रं वा सूर्य वा नो गृह्णाति एते एवमाहुः ॥२॥ . वयं पुनरेवं वदामः-तावत् राहुः खलु देवो महर्द्धिको यावत् महानुभावः वरवस्त्रधरः वरमाल्यधरो पराभरणधारी । राहोः खलु देवस्य नव नामधेयानि प्रशप्तानि, तद्यथाशृङ्गाटकः १, जटिलकः २, खरकः ३. क्षतकः ४, दर्दुरः ५, मकरः ६, मत्स्यः , कच्छपः ८, कृष्णसपेः ९ । तावत् राहोः खलु देवस्य विमानानि पञ्चवर्णानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाकृष्णानि १, नीलानि २, लोहितानि ३, हारिद्राणि ४, शुक्लानि ५। अस्ति कालकं राहुविमानं खञ्जनवर्णाभं प्रक्षप्तम् १, अस्ति नोलकं राहुविमानम् अलाबुकवर्णाभं प्रज्ञप्तम् २, अस्ति लोहितं राहुविमानं मजिष्ठावर्णाभं प्राप्तम् ३, अस्ति हारिद्रं राहुविमान हरिद्रावर्णाभ प्राप्तम् ४, अस्ति शुक्लं राहुविमानं भस्मराशिवर्णाभं प्राप्तम् ५; तावत् यदा खलु राहुर्देवः आगच्छन् वा गच्छन् वा विकुर्वन् वा परिचारयन् वा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य का लेश्यां पौरस्त्येन आवृत्य पाश्चात्येन व्यतिव्रजति तदा खलु पौरस्त्येन चन्द्रो वा सूर्यो का उपदर्शयति पाश्चात्येन राहुः १। यदा स्खलु राहुर्देव आगच्छन् वा गच्छन् वा विकुर्वन् का परिचारयन् वा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्यां दक्षिणात्येन आवृत्य उत्तरेण व्यति. ब्रजति तदा खलु दक्षिणात्येन चन्द्रोवा सूर्योवा (आत्मानं) उपदर्शयति, उत्तरेण राहुः २। पतेन अभिलापेन पाश्चात्येन आवृत्य पौरस्त्येन व्यतिव्रजति उत्तरेण आवृत्य दाक्षिणात्येन व्यतिव्रजति यदा खलु राहुर्देव आगच्छन् वा गच्छत् का विकुर्वन् वा परिचारयन् वा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्यां दक्षिणपौरस्त्येन आवृत्य उत्तरपाश्चात्येन व्यतिवजति तदा खलु दक्षिणपौरस्त्येन चन्द्रो वा सूर्योवा उपदर्शयति, उत्तरपाश्चात्येन राहुः । यदा खलु राहुर्दैव आगच्छन् वा गच्छन् वा विकुर्वन् वा परिचारयन् वा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्यां दक्षिणपाश्चात्येन आवृत्य उत्तरपौरस्त्येन व्यतिव्रजति तदा खलु दक्षिण पाश्चात्येन चन्द्रो वा सूर्यो वा उपदर्शयति उत्तरपौरस्त्येन राहुः । एतेन अभिलापेन उत्तर पाश्चात्येन आवृत्य दक्षिणपौरस्त्येन व्यतित्रजति, उत्तरपौरस्त्येन आवृत्य दक्षिणपाश्चात्येन । बत् यदा स्खल राहुर्देव आगच्छन् वा ४, चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्याम भावृत्य व्यतिव्रजति तदा खलु मनुष्यलोके मनुष्या बदन्ति राहुणा चन्द्रो वा सूर्यो वा गृहीतः। राहुणा०२ तावत् यदा खलु राहुर्दैव आगच्छन् वा०४ चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्याम् आवृत्य पार्वेण व्यतिवजात तदा खलु मनुष्यलोके मनुष्या वदन्ति-चन्द्रेण वा सूर्येण वा Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा०२० सू २ राहुवक्तव्यता ६९७ राहोः कुक्षिः भिन्ना २। तावत् यदा खलु राहुर्देव आगच्छन् वा. ४ चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्याम् आवृत्य प्रत्यषष्वष्कते तदा खलु मनुष्यलोके मनुष्या पर्व वदन्ति-राहुणा चन्द्रो वा सूर्योवा वान्तः, राहुणा० २। तावत् यदा खलु राहुर्देव आगच्छन वा ४ चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्याम् आवृत्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजति तदा खलु मनुष्यलोकेमनुष्या वदन्ति-राहुणा चन्द्रो वा सूर्यो वा व्यतिचरितः राहुणा० । तावत् यदा खलु राहुदेव आगच्छन् वा ४ चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्याम् आवृत्य अधः सपक्षं सपतिदिशं तिष्ठति तदा खलु मनुष्यलोके मनुष्या वदन्ति-राहुणा चन्द्रो वा सूर्यो वा प्रस्तः, राहुणा० २। कतिविधः स्वलु राहुः प्रज्ञप्तः ? द्विविधो राहुः प्रक्षप्तः, तद्यथा-ध्रुवराहुश्च पर्वराहुश्च । तत्र खलु यः स खलु बहुलपक्षस्य प्रतिपदि पञ्चदशभागेन भागं चन्द्रस्य लेश्याम् आवृण्वन् २ तिष्ठति, तद्यथा-प्रथमायां प्रथम मागम् , यावत् पञ्चदश भागम्। चरमे समये चन्द्रो रक्तो भवति, अवशेषे। समाये चन्द्रो रक्तश्च विरकश्च भवति, तमेव शुक्लपक्षे उपदर्शयन् २ तिष्ठति, तद्यथा-प्रथमायां प्रथम मागं यावत् चन्द्रो विरकश्च भवति अवशेष समये चन्द्रो रक्तो विरक्तश्च भवति । तत्र खलु यः स पर्वराहुः स जघन्येन षण्णां मासानाम् (उपरि) उत्कर्षेण द्विचत्वारिंशतो मासानां चन्द्रस्य, अष्टचत्वारिशतः संवत्सराणां सूर्यस्य ॥ सू० ॥ २ ॥ व्याख्या--'ता कहं ते' इति, 'ता' तावत् 'कई काय-केन प्रकारेण "ते तबमते त्वया वा 'राहुकम्मे' राहुकर्म राहुक्रिया 'आहिए' माख्यातं-कथितम् १: "ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! भगवामाह-"तत्थ खलु' इत्यादि, 'तस्थ' तत्र राहुकर्म विषये खलु 'इमाओ' इमे वक्ष्यमाणे 'दो' द्वे "पडिवत्तीओं प्रतिपत्ती पण्णताओ' प्रज्ञप्ते कथिते, 'तं जहा' तद्यथा-'तत्थ' तत्र द्वयोर्मध्ये 'एगे' एके प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवं वक्ष्यामाणप्रकारेण आहंसु' आहुः-कथयन्ति । किं कथयन्ति ? 'इत्याह-अस्थि ण इत्यादि, 'अस्थि णं' अस्ति खलु 'से राहुदेवे' स राहुर्देवः 'जे णं' यः खलु 'चंदं कासूरं वा' चन्द्रं वा सूर्यं वा 'गिण्हति' गृह्णाति ग्रसति । उपसंहारमाहे-'एगे' 'एके प्रथमा एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहेसु' आहुः कथयन्ति ।१। द्वित्तीयां प्रतिपत्तीमाह-एगे गुण इत्यादि, 'एगे पुण' एके केचन द्वितीयाः-प्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेग 'आहंमु' आहुः कथयन्ति । किं कथयन्तीत्याह-'मथिण' इत्यादि, 'नत्थि ' नास्ति खलु 'से' स एतादृशः 'राहुदेवे' राहुर्देवः 'जे णं' यः खलु 'चंदं वा सूरं वा' चन्द्रं वा सूर्य वा 'गिण्हइ' गृह्णाति ।२। तदेवं द्वे प्रतिपत्ती प्रदर्य भगवान् तयो भर्भावना प्रदर्शवति-'तत्थ-' जे ते' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र एतयो द्वयोः" प्रतिपत्तिवादिनोर्मध्येः 'जे ते एव मासु' ते प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः एवम् 'अत्थि णं से राहूदेवे" इत्यादिरूपेण माहुः कथयन्ति तथाहि-'ता अस्थि णं' इत्यादि, 'ता' सावत् 'अस्थि णं' अस्ति 'खल्लु राहुर्देवश्चन्द्रं वा सूर्य ८८ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ चन्द्रप्रशतिसूत्रे वा गृह्णातीति कथयन्ति ते ' एवं ' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारमाश्रित्य 'आहंसु' कथयन्ति, तमेव प्रकार माह- 'ता राहूण' इत्यादि, 'ता' तावत् 'राहूणं देवे' राहुः खलु देवः चन्द्रं वा सूर्यं वा गृह्णन् कदाचित् 'बुद्धतेणं' बुघ्नान्तेन अधोभागेन गृहीत्वा 'बुद्धतेण मुयइ' बुघ्नान्तेनैव मुञ्चति, बुध्नान्तेनेति अधो भागेन |१| कदाचित् 'बुद्धतेणं गिण्हित्ता मुद्धतेणं मुयइ' बुधनान्तेन- अधो भागेन गृहीत्वा मूर्द्धान्तेन उपरि भागेन मुञ्चति स कदाचित् मूर्द्धान्तेन गृहीत्वा बुध्नान्तेन मुति | ३ | कदाचित् 'मुद्धतेणं गिण्हित्ता मुद्धतेणं मुयइ' मूर्द्धान्तेन उपरि भागेन गृहीत्वा उपरि भागेनैव मुञ्चति ४। कदाचित् - 'वामभुयं तेणं' इत्यादि, वामभुजान्तेन वामपार्श्वेन गृहीत्वा वामभुजान्तेनैव मुञ्चति ५। कदाचित् - 'वामभुयंतेणं गिन्हित्ता दाहि सुयंतेणं मुयइ' वामभुजान्तेन गृहीत्वा दक्षिणभुजान्तेन दक्षिणपार्श्वेन मुञ्चति । ६ । एवं कदाचित् दक्षिणभुजान्तेन गृहीत्व । वामभुजान्तेन मुञ्चति ७। कदाचित् - दक्षिणभुजान्तेन गृहीत्वा दक्षिणभुजान्तेनैव मुञ्चति । इयं प्रथमप्रतिपत्तिभावना समाप्ता | १| अथ द्वितीयप्रतिपत्तिभावना प्रदश्यते- 'तत्थ जे ते' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र प्रतिपत्तिद्वयमध्ये 'जे ते' ये ते द्वितीयप्रति पत्तिवादिनः 'नत्थि णं' इत्यादि प्रतिपादकाः एवमाहुः तथाहि - 'ता नत्थि णं' इत्यादि, तावद नास्ति खलु स राहुर्देवो यः खलु चन्द्रं वा सूर्यं वा गृह्णातीति 'ते एवमाहंसु' ते एवं वक्ष्यमाणप्रकारमाश्रित्य आहुः कथयन्ति तदेवाह - ' तत्थ णं' इत्यादि, 'तत्थ णं' तत्र राहुकर्मविषये खल्लु एवमस्ति, यथा-' इमे पण्णरस कसिणा पोग्गला' इमे - वक्ष्यमाणाः पञ्च दश कृष्णा पुद्गलाः कृष्णवर्णाः पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा ते यथा - ' - 'सिंघाडए' इत्यादि, शृङ्गाटकः १, जटिलकः २, खरकः ३, क्षतकः ४, अञ्जनः ५, स्वञ्जनः ६, शीतलः ७, हिमशीतलः ८, कैलाशः ९, अरुणाभ : १०, प्रभञ्जनः ११, नभः सूरकः १२, कापिलकः १३, पिङ्गलकः १४, राहुः १५ ततः किम् ? इत्यादि - 'ता जया णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'एए' एते अनन्तरोदिताः 'पण्णरस कसिणा पोग्गला' पञ्चदश कृष्णा: कृष्णवर्णाः पुद्गलाः 'सया' सदा सातत्येन चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा 'लेसाणुबद्धचारिणो' लेश्यानुबद्धचारिणः चन्द्रसूर्यबिम्बगतप्रभासम्बन्धेनानुचारिणः पश्चाद गामिनो भवन्ति : ' तथा ' तदा खलु 'माणुसलोयंसि' मनुष्यलोके मनुष्या एवं वदन्ति एवं खलु राहुश्चन्द्रं वा सूर्ये वा गृह्णाति चन्द्रं वा सूर्ये वा गृसतीति । 'ता जया णं' इत्यादि, यदा खलुः एते पञ्चदश कृष्णाः पुद्गला नो सदा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्यानुबद्धचारिणो भवन्ति तदा मनुष्यलोके मनुष्या एवं वदन्ति एवं खलु राहुश्चन्द्रं वा सूर्य वा नो गृह्णाति । एवद्विषये भगवानुपसंहारमाह- 'एए' एवमाहंसु एते प्रथमद्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः एवं पूर्वोक्त प्रकारेण आहुः कथयन्तीति ।२। इदं लोकिकं वाक्यं प्रतिपत्तव्यं, किन्तु न वस्तुतो राहुश्चन्द्रं वा सूर्य वा गृह्णातीति द्वितीयप्रतिपतिवादिभावना दर्शिता । २ । एते द्वे अपि प्रति Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा०२० सू. २ रोहुवतव्यता ६९९ पत्ती मिथ्यारूपे, तन्निराकरणाथै भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं तु एवं वयामो' एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः-कथयामः । तदेव श्रीवीतराग भगवन्स्वमतं प्रदर्श्यते 'ता राहू णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'राहू णं' राहुः खलु न प्रथमप्रतिपत्तिवादिप्रदर्शित स्वरूपो देवः, न च द्वितीयप्रतिपत्तिवादिप्रदर्शितं कृष्णपुद्गलमात्रम् किन्तु 'देवे' स देवोऽस्ति वक्ष्यमाणस्वरूपः, तत्स्वरूपमाह-'महिइढिए' इत्यादि, 'महिइढिए' महर्द्धिकः 'जाव महाणुभावे' इति महाद्युतिकः महायशाः महाबलः, महासौख्यः महानुभावश्व, अर्थः पूर्वमेव गतः पुनश्चः-'वरवत्थधरे' इत्यादि, वरवस्त्रधरः, वरमाल्यधरः, वराभरणधारी, अर्थः पूर्ववदेव राहुरेतादृशो देवो वर्तते । अस्य नामान्याह--'राहुस्सणं' इत्यादि, 'राहुस्स णं देवस्स' राहोः खलु देवस्य राहुदेवस्य 'णव णामधेज्जा' नव नामधेयामि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा 'सिंघाडए' इत्यादि, शृङ्गाटकः १, जटिलकः २, खरकः ३, क्षतकः ४, दर्दुरः ५, मकरः ६, मत्स्यः ७, कच्छपः ८, कृष्णसर्पः ९, इति । अस्य विमानानां बर्णमाह-'ता राहुरसणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'राहुस्स णं देवस्स' राहु देवस्य खल्लु विमानानि पञ्च भवन्ति, तानि पृथक् पृथग् वर्णयुक्तानि सन्ति, तदेवाह-'विमाणा पंचवण्ण' पञ्च विमानानि पञ्च वर्णानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-'किण्हा' इत्यादि, कृष्णानि १, नीलानि २, लोहितानि ३, हारिद्राणि ४, शुक्लानि ५। विमानानां कालादिवर्णा किं प्रकारका' भवन्तीति प्रदर्शयति 'अत्थिं कालाए' इत्यादि, कालकं राहुविमानम् 'खंजणवण्णाभे' खञ्जनवर्णाभम्, खञ्जनं-दीपमल्लिकामलः, शकटाक्षमलश्च, तत्सदृशं कालवणं विमानम् १, नीलं राहुविमानम् 'अलाउयवण्णाभं अलाबु -आर्द्र तुम्बं तत्सदृशवर्णयुक्तम् २, 'लोहितं' राहुविमानं 'मंजिट्ठावण्णाभ मंजिष्ठावर्णाभं मंजिष्ठा-औषधिविशेषः तद्वद्रक्तवर्णयुक्तम् ३, हारिद्र पीतवणे राहुविमान "हरिदावण्णा हरिद्रावर्णाभं हरिद्रावर्णवत् पोतवर्णम् ४, शुक्लं राहुविमानं 'भासरासिवण्णामे मस्मराशिवर्णाभं रक्षा पुञ्जवत् श्वेतवर्णयुक्तम् ५। चन्द्रसूर्ययोः राहुकृतावरण तन्मोचनविषयक-दिग्विभागान् प्रदर्शति-'ता जया णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु राहुदेवे" राहुदेवः 'आगच्छमाणेवा' कुतश्चित्स्थानादागच्छन् वा 'गच्छमाणे वा कापि स्थाने गच्छन् वा, 'विकुम्वेमाणेवा' स्वेच्छया तां तां विकुर्वणां कुर्वन् वा 'परियारेमाणे वा' । परिचारण बुद्धया इतस्ततो गच्छन् वा चन्द्रस्य वा' सूर्यस्य वा 'लेस' लेश्यां विमानगतधवलिमारूपाम 'पुरथिमेणं आवरित्ता' पौरस्त्येन पूर्वदिग्भागेन अग्रभागेनेत्यर्थः आवृत्य 'पच्चथिमेणं' पाश्चात्येन पश्चिमदिग्भागेन पश्चाद्भागेनेत्यर्थः 'वीईवयई' व्यतिव्रजति-व्यतिक्रामति 'तया णं तदा तस्मिन् समये खलु 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वभागेन चन्द्रो वा सूर्यों का स्वात्मा-' नम् 'उवदंसेइ' उपदर्शयति चन्द्रः सूर्योवा प्रकटो भवतीति भावः 'पच्चत्थिमेणं राह पाश्चात्येन. पश्चिमभागेन राहु रुपलब्धो भवति, अयं भावः-तस्मिन् समये-मोक्षकाले चन्द्रः Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "...! चन्द्रप्राप्तिस्त्रे सूर्यो वा पूर्वदिग्भागे प्रकटीभूत, उपलभ्यते पश्चिमभागे अधस्ताच्च राहुरुपलभ्यते, इति १ । एवं 'जया णं', यदा, खलु राहुर्देव आगच्छन्वा ४ चन्द्रसूर्ययोर्लेश्यां दक्षिणभागेन आवृत्य .. उत्तरभागेन व्यतिव्रजति तदा दक्षिणभागे चन्द्रसूर्यो आत्मानमुपदर्शयतः उत्तरभागे च राहूरिति २। 'एएणं अभिलावेणं' एतेन पूर्वोक्तेन, अभिलापेन राहुदेवः पाश्चात्येन चन्द्रसूर्यलेश्यामाहृत्य पूर्वभागेन व्यतिव्रजति ३, उत्तरभागेन आवर्त्य च दक्षिणभागेन व्यतिव्रजति २ इत्यपि सूत्रद्वयं भावनीयम् ४ । अथ विदिशा विषयकं राहुचारमाह-'जया णं' इत्यादि. 'जया णं' यदा खल राहुर्देवः आगच्छन् वा ४ चन्द्रसूर्यलेश्याम् 'दाहिणपुरथिमेणं' दक्षिपौरस्त्येन-आग्नेयकोणेन चन्द्रसूर्यलेश्यामावृत्य 'उत्तरपच्चत्थिमेणं वीईवयइ' उत्तरपाश्चात्येन वायव्यकोणेन व्यति व्रजति तदा खलु 'दाहिमपुरस्थिमेणं' दक्षिणपौरस्त्येन आग्नेयकोणेन चन्द्रः सूर्योवाऽत्मानमुपदर्शयति 'उत्तरषच्चत्थिमेणं राहू' उत्तरपाश्चात्येन वायव्यकोणेन राहुरूपलभ्यते ।१। यदा खल्ल राहुर्देवः 'आगच्छमाणे वा ४' आगच्छन् वा ४ चन्द्र सूर्यलेश्याम् 'दाहिणपच्चस्थि मेणं' दक्षिणपाश्चात्येन नैऋतकोणेन आवृत्य 'उत्तरपुरस्थिमेणं वीईवयइ' उत्तरपौरस्त्येन ईशानकोणेन व्यतिव्रजति तदा खलु 'दाहिणपच्चत्थिमेणं' दक्षिणपाश्चात्येन चन्द्रः सूर्यो वा उपदृश्यते 'उत्तरपुरथिमेणं राहू' उत्तरपौरस्त्येन ईशानकोणेन राहुद्देश्यते ।२। 'एएणं अभिलांवेणं' एतेन अभिलापेन यदा राहुः 'उत्तरपच्चत्थिमेणं' उत्तरपाश्चात्येन वायव्यकोणेन चन्द्रसूर्यलेश्यामावृत्य 'दाहिणपुरस्थिमेणं वीईवयइ' दक्षिणपोरस्त्येन आग्नेयकोणेन चन्द्रः सूर्योवा दृश्यते दक्षिणपौरस्त्येन आग्नेयकोणेन च राहुः ।३। एवं 'उत्तरपुरस्थिमेणं' उत्तर पोरस्त्येन ईशानकोणेन,' चन्द्रसूर्यलेश्यामावृत्य 'दाहिणपच्चस्थिमेणं वीईवयइ' दक्षिणपाश्चात्येन नैऋतकोणेन व्यतिव्रजति तदा उत्तरपौरस्त्येन चन्द्रः सूर्योत्रा दृश्यते दक्षिणपाश्चात्येन च रहुरिति । एवं स्थिती, मनुषलोके मनुष्याः किं वदन्ति ! इति प्रदर्श्यते-'ता जया णं' इत्यादि, 'ता'. तावत् यदा खलु राहुर्देवः आगच्छमाणे वा ४' आगच्छन्वा ४ चन्द्रस्य सूर्यस्य वा . लेश्यामावृत्या. त्यतिब्रजति, राहुः स्थितो, भवतीत्यर्थः तदा मनुष्यलोके मनुष्या वदन्ति 'राहुणा चंदे,सरे वा गहिए' राहुणा चन्द्रः सूर्योवा गृहीत इति । 'जया णं' इत्यादि, यदा खलु राहुर्देवः । मागच्छन्वा ४ चन्द्रस्य सूर्यस्य का लेश्यामावृत्य 'पासेमं वीईवयइ' पार्श्वेन पार्श्वभागेण व्यतिव्रजति - तदा मनुष्या बदन्ति- चंदेणवा सरेपा वा चन्द्रेणवा सूर्येशवा 'राहुस्स कुच्छोभिण्णा' राहोः कुविभिनेति राहोः कुक्षि भिल्ला, चन्द्र सूर्योवा, निर्गत इति । 'ता जया णं' इत्यादि, यद। राहु देव मागच्छन् वा०४ चन्द्रस्य वा लेश्यामावृत्य, 'परजोसकइ' प्रत्यवष्वकते-पश्चादपसर्पति तदा मनुष्या, एवं वदन्ति 'राहुणा चंदे बासरेवावंते' राहुणा चन्द्रोवा सूर्योत्रा वान्तः राहुणा ग्रस्तश्चन्द्रः। सूर्यो वा पुनर्निष्कासित इति । 'ता जयाणं' इत्यादि, यदा राहुर्देव आगच्छन् वा०४ चन्द्रस्य सूर्यस्य वा.लेश्यामावृत्य 'मझ मज्झेणं वीईवयइ' मध्यमध्येन बहुमध्य देशभागेन व्यतित्र जति तदा Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चान्दतियाक्षिका टोकाप्रा.२० सू.२ राहुवक्तव्यता र मनुष्याः कथयन्ति-राहुणा चंदे वा सूरे का विइयरिए' राहुणा चन्द्रः सूर्यो वा व्यतिचरितःभर मध्यभागेन विभिन्नः विधाकृत इति । 'ता जया णं' इत्यादि, यदा राहुर्देव आगच्छन् वा०४ अन्न स्य वा सूर्यस्य वा लेश्यामावृत्य 'अहे सपविखः सपडि दिसं चिट्ठइ' 'सपक्खि' इति समक्ष पर सह सर्वेषु तथा 'सपडिदिसिं' सप्रतिदिमिति प्रतिदिग्भिः सह सप्रतिदिक् सर्वासु विदिक्षुः सिष्यति लेश्यामावृत्याधस्तिष्ठति तदा मनुष्या, बदन्ति-राहुणा चंदे वा सूरेवा पत्थे' राहुणा चन्द्रो या सूर्यो वा प्रस्तः सर्वात्मना गृहोतः सर्वग्रासं प्रप्तति इति । अत्रास्य वाक्यस्य द्विधा कथनं तत्।। बहूनां मनुष्याणां कथनापेक्षयाऽवगन्तव्यम् । अत्राह-चन्द्रविमानं पञ्चैक षष्टिभाग-(-) न्युज योजनप्रमाणं, राहुविमानं च ग्रहविमानत्वेन अईयोजनप्रमाणं शास्त्रे प्रोक्तं तर्हि कथं चन्द्रविमा नस्य राहुविमानेन सर्वात्मनाऽऽवरणसंभवः ? अत्रोच्यते-राहुविमानस्य महान् बहलस्तमिस्ररश्मिसमूहो वर्त्तते तेन लघियसाऽपि राहुविमानेन महता बहन तमिस्ररश्मिजालेन प्रसरता प्राप्तन सकलमपि चन्द्रमण्डलमावृतं भवति इति न कश्चिद्दोषः ।। साम्प्रतं कतिविधराहुरिति जिज्ञासीयो" गौतमः प्रश्नयति-ता कइविहेण” इत्यादि, 'ता' तावत् 'कइविहेणं' कतिविधः खलु 'राहू पणत्त राहुः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-"दुविहे पण्णत्ते' द्विविधः द्विप्रकारको राहुः प्रज्ञप्तः 'तं जहा' तद्यथा'धुवराहू य पव्वराहू य' ध्रुवराहुश्च पर्वराहुश्च । तत्र यः सदैव चन्द्रविमानस्य चतुरङ्गुलम" संप्राप्तः सन्नधस्तात् संचरति स ध्रुवराहुः, यस्तु पर्वणि पौर्णमास्यां चन्द्रस्योपरागं करोति स पर्व राहुः कथ्यते । 'तत्थ णं' तत्र द्वयोमध्ये, खलु 'जे से धुवराहू' यः स ध्रुवराहुः 'से णं' स खलु 'बहुलपक्खस्स' बहुलपक्षस्य 'पाडिवए' प्रतिपदिः 'पण्णरसइभागेणं' पञ्चदशेन भागेम चाय मण्डलस्य द्वाषष्टिभागात्मकत्वाच्चतुर्भागरूपेण भागं' भागं प्रथमं भागं चतुर्भागरूपं पञ्चदशं भागं प्रतितिधि क्द्रस्य लेश्याम्। 'आवरेमाणे २' आवृण्वन् आवृण्वन् 'चिट्ठई' तिष्ठति 'तं जहा' तद्यथा- 'पढमाए पढमं भागं' प्राथमायां तिथौ प्रतिपद्रूषायां प्रथम पञ्चदशं भाग चतुर्भागरूप मावृणुते, एवम् 'जाव पण्णरसक भार्ग' यावत् पश्चदशं भागम् अत्र धावत्पदेन द्वितीयायो द्वितीयं २, तृतीयायां तृतीयं ३, चतु- चतुर्थे (8, पञ्चम्यां पञ्चमं ५, षष्टयां षष्ठं ६, सप्तम सप्तमम् ७ अष्टम्यामष्टमं ८ नवम्यां नवमं ।९, दशम्यां दशमम् १०, एकादश्यामेकादशं ११; द्वादश्यां द्वादशं १२, त्रयोदश्यां त्रयोदशं १,३, चतुर्दश्यां चतुर्दशम् १४. इत्येवं ग्राह्यम, ततः पञ्चदश्याम्-अमावास्या रूपायां पञ्चदशं भाग चन्द्रमण्डलस्य राहुरावृणुते, ततः 'चरमेन्समायो पञ्चदश्याश्चरमे समये पञ्चदश्या अन्तिमे भागे 'चंदे. रत्ते भवई' चन्द्रो रक्तः सहुकिमानेन उपरक्तः सर्वात्मनाऽऽच्छादितो भवति । 'अक्सेसे समए' अवशेषे कृष्णप्रतिपदात आरभ्य। पञ्चदशीमा समयात्पूर्वपूर्वकाले 'चंदे रत्ते य विरत्ते य भवई' चन्द्रो रक्तश्च विरक्तश्च राहुविमानेम 'मस Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे माच्छादितो देशेन चानाच्छादितो भवति । 'सुक्ल पक्खे' शुक्लपक्षे तमेव क्रममाश्रित्य प्रथमायां शुक्लप्रतिपलक्षाणां तिथौ 'उवदंसे माणे २' उपदर्शयन् उपदर्शयन् चन्द्रलेश्यां विमुञ्चन् विमुञ्चन् तिष्ठति-वर्त्तते । 'तं जहा ' पद्यथा - ' पढमाए पढमं भागं' प्रथमायां शुक्लप्रतिपत्तिथौ प्रथमं पञ्चदशंभागं चतुर्भागरूपं विमुञ्चति एवं क्रमेण 'जाव' यावत् द्वितीयात आरभ्य पञ्चदश्यां तिथौ पूर्णिमायां पञ्चदशं पञ्चदशभागं राहुर्विमुञ्चति ततः पूर्णिमायाश्चरमे समये 'चंदे विरत्ते भवइ' चन्द्रो विरक्त राहुश्याया सर्वात्मना विरक्तः अनाच्छादितो भवति सर्वात्मना प्रकटितो भवतीत्यर्थः राहुविमानेन सर्वथाऽनाच्छादितत्वात् । अत्राह कश्चित् - शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे च कतिपयान् दिवसान् यावत् राहुबिमानं वृत्तमुपलभ्यते यथा ग्रहणकाले पर्वराहुः, कतिपयश्च दिवसान् यावत् न वृतमुपलभ्यते तत्र किं कारणम् ? इति अत्रोच्यते इह येषु दिवसेषु शशी तमसाऽतिशयेनाभिभूयते तेषु दिवसेषु तद् विमानं वृत्तमाभाति, चन्द्रप्रभाया बाहुल्येन प्रसराभावात् राहुविमानस्य च यथावस्थिततयोपलम्भात् । येषु दिवसेषु पुनश्चन्द्र आधिक्येन प्रकटो भवति तेषु दिवसेषु चन्द्रप्रभा राहुविमानेन नाभिभूयते किन्तु चन्द्रप्रभाया बाहुल्येन चन्द्रप्रभयैव राहुविमानप्रभाऽभिभूयते ततस्तदा न राहुविमानं वृत्ततयोपलभ्यते । पर्वराहुविमानं च ध्रुवराहुविमानादतीव तमो बहुलं भवति ततस्तस्य स्तोकस्यापि चन्द्रप्रभयाऽभिभवो न भवतीति तस्य स्तोकरूपस्यापि वृत्तत्वेनोपलब्धिर्भवति । तथा चाह ७०२ "वच्छेओ कइवय दिवसे ध्रुवराहुणो विमाणस्स । परं न दीस जह गहणे पव्वराहुस्स ॥ १॥" छाया - वृत्तच्छेदः कतिपयदिवसे ध्रुवराहो विमानस्य । दृश्यते, परं न दृश्यते यथा ग्रहणे पर्वराहोः १ ॥ १ ॥ इति शिष्यपृच्छा आचार्य उत्तरमाह - “अच्चत्थं नहि तमसाऽभिभूयते जं ससी विमुंचतो । तेणं वट्टच्छेओ गहणे उत्तमो तमो बहुलो ॥२॥ छाया — अत्यर्थं नहि तमसाऽभिभूयते यत् शशी विमुच्यमानः । तेन वृत्तच्छेदः, ग्रहणे तु तमाः (राहुः) तमो बहुलः ||२|| इति । साम्प्रतं पर्वराहुः कियता कियता कालेन चन्द्रस्य सूर्यस्य वा उपरागं करोति ? इति प्रदर्शयति - तत्थ णं जे से पव्वराहू' इत्यादि, 'तत्थ णं' तत्र चन्द्रसूर्ययोरुपरागविषये 'जे से पव्व राहू' बः स पर्वराहु भवति 'से णं' स खलु पर्वराहुः 'जहण्णेणं छण्हं मासाणं' जघन्येन षण्णां मासा - नामुपरि चन्द्रस्य सूर्यस्य चोपरागं करोति न ततः पूर्वम् । 'उक्को सेणं' उत्कर्षेण 'बायालीसाए मासाणं' द्विचत्वारिंशतो मासानामुपरि 'चंदस्स' चन्द्रस्योपरागं करोति तथा 'अडयालीसाए Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिप्रकाशि काटीका प्रा०२० सू.३ चन्द्रस्यशशी सूर्यस्य 'आदित्य' नामकरणम् ७०३ संवच्छराणं' अष्टाचत्वारिंशतः संवत्सराणामुपरि 'सूरस्स' सूर्यस्योपरागं करोतीति भावः ॥ सू२ ॥ . . . साम्प्रतं चन्द्रस्य लोके 'ससी' इति सूर्यस्य सूर्य आदित्य इति च कथं नाम जातं, का तस्योऽन्वर्थ ता ? इति स प्रश्नं प्रदर्शयति सूत्रकारः- 'ता कहते चंदे ससी' इत्यादि । - मूलम्--ता कहं ते चंदे ससी चंदे ससी आहिए ? ति वएज्जा, ता चंदस्स गं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो मियंके विमाणे कंता देवा, कंताओ देवीओ, कंताई आसण सयणखभभंडमत्तोवगरणाई अप्पणावि णं चंदे देवे जोइसिंदे जोइसराया सोम्मे कंते सुभगे पियदंसणे सुरूवे ता एवं खलु चंदे ससी चंदे ससी आहिएति वएज्जा ॥ ता कहं ते सूरे आइच्चे आहिए ? तिवएज्जा, ता सूराईया समयाइवा आवलियाइवा आणा पाणूइ वा थोवेइवा जाव उस्सप्पिणी ओसप्पिणी इवा, एवं खलु सूरे आइच्चे २ आहिए तिवएज्जा ॥सू० ३॥ छाया-तावत् कथं ते-त्वया चन्द्रः शशी चन्द्रः शशी आख्यातः ? इति वदेत्, तावत् चन्द्रस्य खलु ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य मृगाङ्क विमानं, कान्ता देवाः, कान्ता देव्यः कान्तानि-आसनशयनस्तम्भभाण्डामत्रोपकरणानि आत्मनाऽपि खलु चन्द्रो ज्योतिषेन्द्रः ज्योतिषराजः सौम्यः कान्तः सुभगः प्रियदर्शनः सुरूपः तावत् एवं बालु चन्द्रः शशीचन्द्रः शशीआख्यातः इति वदेत् । तावत् कथं ते (त्वया) सूर्य आदित्यः सूर्य आदित्यः आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् सूर्यादिकाः समया इति वा आवलिका इति वा आनप्राणा इति बा स्तोक इति वा यावत् उत्सर्पिण्यवसर्पिणीति वा, एवं खलु सूर्य आदित्यः सूर्य आदित्य आख्यातः इति वदेत् ॥सू० ॥ ३॥ , व्याख्या—'ता कहते चंदे' इति 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'चंदे ससी' चन्द्रः शशी इति-'आहिए' आख्यात इति गौतमस्वामिन पृच्छा, हे भगवन् ! 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु । श्रीभगवानाह-'ता चंदस्स णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चंदस्स णं' चन्द्रस्य खलु ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्येतिषराजस्य 'मियंके विमाणे' मृगाके मृगचिन्हे चन्द्रविमाने 'कंता देवा' कान्ताः कमनीयरूपा देवाः तथा 'कंताओ देवीओ' कान्ताः कमनीया देव्यश्च सन्ति । तथा 'कंताई' कान्तानि आसनशयनस्तम्भभाण्डामत्रोपकरणानि चन्द्रविमाने आसनानि शयनानि स्तम्भाः भाण्डाद्युपकरणानि च सर्वाणि सुन्दराकाराणि सन्ति, एतावदेव न किन्तु 'अप्पणावि गं' आत्मनाऽपि स्वयमपि खलु चन्द्रो देवो ज्योतिषेन्द्रो ज्यौतिषराजः 'सोम्मे सौम्यः सौम्याकारः अरौद्राकारत्वात्, कान्तः कन्तिमान् , सुभगः सौभाग्यशाली जनवल्लभत्वात, 'पियदंसणे प्रियदर्शनः जनमनआह्लादकत्वात् 'मुरूवे' सूरूपः अङ्गप्रत्यङ्गावयवानां शुभसंनिवेशकत्वात् 'ता' तावत् एवम् अनेन कारणेन खलु चन्द्रः शशी चन्द्रः शशीति 'आहिए' आख्यातः तिवएज्जा' इति-एवं वदेत् कथयतु स्व शिष्येभ्यः । अयं भावः यत् सर्वात्मना सुन्दरत्वमा मन्वर्थमधिकृत्य चन्द्रः शशोति व्यपदिश्यते । कया व्युत्पत्त्याऽस्यान्वर्थता ! उच्यते-इह 'शा Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pas Time क्रान्तौ । इति धातुरदन्तश्चौरादिको वर्त्तते, चुरादयोहि धातवोऽपरिमिताः सन्ति, न तु तेषामियत्ता, वलं. याथा लक्ष्यमनुसर्त्तव्याः अत एव चुरादिगणस्यापरिमिततया परमार्थतो यथा लक्ष्यमनुसरण मवगम्य द्वित्रानेव चुरादि धातून् पठितवान्, न भूयसः, ततोणिअन्तस्य - 'शशनं शश:' इति प्रत्यये कृते शश इति सिद्धम् शशोऽस्यास्तीति शशी स्वविमानवास्तव्य देवदेवी शयनासविधिः संह कमनीयकान्तिकलितः, अनेनान्दर्थेन चन्द्रः शशीति व्यपदिश्यते । यद्वा 'ससी' इत्यस्य 'सश्रीः' इति संस्कृतं भवति, ततः सह् श्रिया वर्त्तते इति सश्रीः । श्रिया शोभया सह तितेनान्वर्थेन 'ससी' इति कथ्यते । साम्प्रतं सूर्यविषयकं सूत्रमाह- 'ता कहं ते' इत्यादि प्रश्न स्वगतम् । भगवानाह –'ता सुराईया' इत्यादि 'ता' तावत् हे गौतम | 'बुराइया समया तिका' = लोके - 'समयाइवा' समया इति सर्वे समया अहोरात्रादिकालस्य निर्बिभामा सूर्यादिकाः सूर्य आदिर्येषां ते सूर्यादिकाः सूर्यकारणा : सूर्यमाश्रित्यैव समयाः प्रवर्त्तन्ते यथा - सूर्योदयमवधिं काहोरात्रारम्भकसमयो गण्यते नान्यथेति । एवम् ' आवलियाइवा' आवलिका इति वा, मालिका असंख्येय समय समुदायात्मिकाऽऽवलिका भवति । 'आणापाणूति वा' आनप्राण तमसंख्याssवलिका समुदाय एक आनप्राणो भवति । द्विपञ्चाशदधिक त्रिचत्वारिंशच्छत संख्यक वलिकात्मकः ( ४३५२) एक आनप्राण इति वृद्धाः । उक्तञ्चTET फो "गो आणा पाणू तेयालीसं सय उ बावन्ना । आवलियपमाणेणं, अनंतनाणीहि निविट्ठो" ॥१॥ एक आनप्राणः त्रिचत्वारिंशच्छतानि तु द्विपञ्चाशानि । THE आवलिका प्रमाणेन, अनन्तज्ञानिभिर्निदिष्टः ॥ १ ॥ तिच्छाया । थोवेइवा' स्तोक इति वा सप्तानप्राणप्रमाण एकः स्तोको भवति, 'जाव' इति यावत् यास्पदेन उत्सर्पिण्या अर्वाक् स्तोकादूर्ध्वं मुहूर्त्ताहोरात्र पक्षमा संवर्षयुगादयो दृष्टव्याः उत्सविसर्पिणी पर्यन्तम् तदेवाह - 'उस्सप्पिणिओसप्पिणी इवा' उत्सर्पिण्यव सर्पिणीति वा । ' एवं खलु । इत्यादि, एवम् अनेन प्रकारेण खलु निश्चयेन सूर्य आदित्यः, सूर्य आदित्यः आदौ भव आदिय: बहुलवचनात् त्यप्रत्ययः सर्वेषां समयादिनामादिकारणत्वात् सूर्य आदित्यः कथ्यते, अतएव सूर्य आदित्य आख्यातः । 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्य इति ।। सू० ३ ॥ 'साम्प्रतं चन्द्र प्रस्तावाच्चन्द्राग्रमहिषीणां सूर्याग्रमहिषीणां च संख्यादि वर्णनं, ताभिः सह कामभोगसुखवर्णनं चाह - ' ला चंदस्स णं' इत्यादि लम्--ता चंदसणं जोइसिंदस्स जो इसरज्जो कइ अम्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? तादेश नं - जोह सिंक्स्स जोइसरण्णो वत्तारि अग्गमहिसीओ पण्ण जाओ, तं जहा चंद. ११ दोसिमामा २, अच्चिमाली ३, पभंकरा ४, जहा हेट्ठा तं चैव जाव णो वेव free । एवं रस्स वि णेयवं । ता चंदिमसूरियाणं जोइर्सिदा जोइसरायाणो Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा०२० सू. ४ चन्द्रसूर्ययोरग्रमहिषोणां संख्यादिवर्णनम् ७०५ केरिसए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? ता से जहा नामए केई पुरिसे पढम जोव्वणुट्ठाणबलसमत्थे पढमजोव्वणुट्टाणवलसमत्थाए भारियाए सद्धिं अचिरवत्त विवाहे अत्थत्थी अत्थगवेसणयाए सोळसवासविप्पसिए, से णं तओ लट्टे कयकज्जे अणह समग्गे पुणरवि णियगधरं हव्वमागए हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पा वेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे मणुण्णं थाली पागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भुत्ते समाणे तेसिं तारिसगंसी वासघरंसि अंतो सचित्तकम्मे बाहिरओ दृमियधढमढे विचित्त उल्लोय चिल्लियतले बहुसमसुविभत्त भूमिभाए मणिकिरणपणासियंधयारे कालागुरुपवरकुदुरक्क तुरुक्क धूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवट्टिभूए, तंसि तारिसगंसि सणिज्जंसि दुहओ उण्णए मज्झे णयगंभिरे सालिंगणवहिए पण्णत्तगंडविब्बोयणसुरम्मे गंगापुलिणवालुया उद्दालसालिसए सुविरइयरयत्ताणे ओयवियखोमियखोमदुगूलपट्टपडिच्छायणे रत्तंसुयसंवुडे सुरम्मे आईणगरूयबूरणवणीय तूलफासे सुगंधवरकुसुमचुण्णसयणोवयारकलिए ताए तारिसाए भारियाए सद्धिं सिंगारागारचारुवेसाए संगयगयहप्तियभणियचिट्टियसंलावविलासणि उणजुत्तोवयारकुसलाए अणुरत्ता विरत्ताए मणोणुकूलाए एगंतरइपसत्थे अण्णत्थ कत्थइ मणं अकुव्वमाणे इहे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणे विहरिज्जा, ता से णं पुरिसे विउसमणकालसमयंसि केरिसयं साया सोक्खं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ ? उरालं समणाउसो !। ता तस्स णं पुरिसस्स कामभोगेहिंतो एत्तो अणंतगुणविसिहतराए चेव बाणमंतराणं देवाणं कामभोगा । वाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहिंतो अणंतगुणविसिट्टतराए चेव असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं कामभोगा । अमरिंदवज्जियाणं देवाणं काम भोगेहिंतो एत्तो अणंतगुणविसिट्ठतराए चेव असुरकुमाराणं इंदभूयाणं देवाणं कामभोगा । असुरकुमाराणं इंदभूयाणं कामभोगेहिंतो अणंतगुणविसिट्टतराए चेव गहगणणक्खत्ततारारूवाणं कामभोगा । गहगणणक्खत्तताराख्वाणं कामभोगेहितो अणंतगुणविसिट्टतराए चेव चंदिमसरियाणं देवाणं कामभोगा । ता एरिसएणं चंदिमसूरिया जोइसिंदा जोइसरायाणो कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरति ॥सू० ४॥ छाया ताबत् चन्द्रस्य खलु ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य कति अग्रमहिष्यः प्राप्ताः ? तावत् चन्द्रस्य खलु ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य चतस्रः अप्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-चन्द्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा २, अचिर्मालिः ३, प्रभङ्करा ४ । यथाऽधस्ताद तदेव यावत् नो चैव खलु मैथुनवृत्त्या । एवं सूर्यस्यापि सातव्यम् । तावत् चन्द्रसूर्याः खलु ज्योतिषेन्द्रा ज्यौतिषराजाः कीदृशान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ?, तावत् Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे स यथानामकः कोऽपि पुरुषः प्रथमयौवनोत्थानबलसमर्थः प्रथमयौवनोत्थानबलपमर्थया भार्यया सार्द्धम् अचिरवृत्तविवाहः अर्थार्थी अर्थगवेषणतायै षोडशवर्षविप्रोपितः, स खलु ततः लब्धार्थः कृतकार्यः अनघ समग्रः पुनरपि निजकगृहं यमागतः स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः शुद्धप्रवेश्या ने मगल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितः अल्पमहा(भरणालङ्कृतशरीरः मनोज्ञः स्थालीपाकशुद्धम् अष्टादशव्यञ्जनाकुलं भोजनं भुक्तः सन् तस्मिन् तादृशे वासगृहे अन्तः चित्रकर्मणि बाह्यतो दुमितवृष्टमृष्टे विधित्रोल्लोचचिल्लिततले बहुसमसुविभक्तभूमिभागे मणिकिरणप्रणाशितान्धकारेकालागुरु प्रवरकुन्दुरुष्क तुरुष्क धूपमघमघायमानगन्धोद्धताभिरामे सुगन्धवरगन्धिते गन्धर्तीभूते, तस्मिन् तादृशे शयनीये उभयत उन्नते मध्ये नतगम्भीरे सालिङ्गनवर्ति के प्रज्ञाप्त गण्ड विब्बोयणसुरम्ये गङ्गापुलिनवालुकोद्दालसदृशके सुविरबितरजस्त्राणे ओर्यावर क्षौमि. कक्षौमदुकूलपट्टप्रतिच्छादने रक्तांशुकसंवृते सुरम्ये आजिनकाबूग्नवनोतनूलस्पर्श सुगन्धवरकुसुमचर्णशयनोपचारकलिते तया ताश्या भार्यया साद्ध ङ्गारागारचारुवेषया संगतहसितभणितस्थितसंलापविलासनिपुगयुक्तोपचारकुशलया अनुरक्ता विरकया मनोऽनुकूलया एकान्तरतिप्रसक्तः अन्यत्र कुत्रापि मनोऽकुर्वन् इष्टान् शब्दस्पर्श रसरूपगन्धान पञ्चविधान् मानुष्कान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन् विहरेत् , तदा न खलु पुरुषः व्युपशमनकालसमये कीदृशं शातासौख्यं प्रत्यनुभवन् विहरति ? उदारं श्रमणायुष्मन् ! तावत् तस्य खलु पुरुषस्य कामभोगेभ्यः एभ्यः अनन्तगुणविशिष्टतरा पव वानव्यन्तराणां देवानां कामभोगाः । वानव्यन्तराणां देवानां कामभोगेभ्यः अनन्तर विशिष्टतरा एव असुरेन्द्रजितानां भवनवासिनां देवानां कामभोगाः । असुरेन्द्रजितानां देवानां कामभोगेभ्यः एभ्यः अनन्तगुणविशिष्टतरा एव असुरकुमाराणामिन्दभूतानां देवानां कामभोगाः। असुरकुमाराणामिन्द्रभूतानां देवानां कामभोगेभ्यः एभ्यः अनन्त गुणविशिष्टतरा एव ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां कामभोगाः ग्रहगणनक्षत्रतागरूपाणां कामभोगेभ्यः अनन्तगुणविशिष्टतरा एव चन्द्रसूर्याणां देवानां कामभोगाः । तावत् ईदृशान् खलु चन्द्रसूर्या ज्योतिषेन्द्राः ज्योतिष राजाः काममोगान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ॥सू० ४ व्याख्या—'ता चंदस्स णं' इति, 'ता' तावद् 'चंदस्स णं' चन्द्रस्य खलु यौतिषेन्द्रस्य ज्यौतिषराजस्य 'कइ' कति कियत्यः 'अग्गमहिसीओ' अग्रमहिष्यः पट्टराश्यः ज्ञप्ताः ? भगवानाह-'ता चंदस्स णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चंदस्स णं, चन्द्रस्य खलु ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्यौतिषराजस्य 'चत्तारि अग्गमहिसीओ' चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ता इमाः'चंदप्पभा' इत्यादि, चन्द्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा २, अचिर्मालिः ३, प्रभङ्करा ४ इति 'जहा हेहा तं चेव' यथा अधस्तात् इतः पूर्वमष्टादशे प्राभृते पञ्चमे सूत्रे प्रतिपादितं तदेवतद्वदेवात्रापि सर्व वाच्यम् । कियत्पर्यन्त मित्याह-'जावणोचेव णं मेहुणवत्तियाए' यान्त् यावत्पदेन अग्रमहिषीपरिवारादिवर्णनं गीतनृत्यादिकं च वाच्यम् नैव स्खलु मैथुनवृत्त्येति । एवं सुरस्स वि णेयव्वं' एवम्-अनेनैव प्रकारेण सूर्यस्यापि सर्वा पठनीया विमानादि ऋद्धिः, भेदस्तावदेतावानेव यत् सूर्यस्य चतस्रोऽग्रमहिष्य इमा बाच्याः, तथाहि-सूर्यप्रभा १, आतपा २, Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका०प्रा.२० सु.४ चन्द्रस्ययोरग्रमहिषीणां संख्यादि वर्णनम् ७०७ अचिर्मालि ३, प्रभङ्करा ४ इति । विमानं च सूर्यस्य सूर्यावतंसकमवसेयम् । अन्यत् सर्व निरवशेष चन्द्रवदेव पठनीयं, नान्यः कोऽपि भेदः । कथितस्यापि पुनरत्रकथनं चन्द्रसूर्यप्रसङ्गवशादिति न कश्चिद्दोष इति । साम्प्रतं चन्द्रसूर्याणां कामभोगानां शातासुखं कीदृशमिति प्रतिपादयति-'ता चंदिमसूरियाणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'चंदिमसूरियाणं' चन्द्रसूर्याः खलु ज्यौतिषेन्द्रा ज्यौतिषराजाःकीदृशान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति-तिष्ठन्ति ? । एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता से जहानामए' इत्यादि, 'ता' तावत् सः यथा नामकः अनिदिष्टनामा 'केई पुरिसे' कोऽपि पुरुषः कीदृशः ? इत्याह 'पढम' इत्यादि 'पढमजोव्वणुदाणबलसमत्त्थे' प्रथमयौवनोत्थानबलसमर्थः प्रथमयौवनोत्थाने प्रथमयौवनोद्गमे यद्वलं शरीरसामर्थ्य तेन समर्थः प्रथमेत्यादि तादृश्याः एव भार्यया साईमित्यप्रेणान्वयः 'अचि वत्तवीवाहे' अचिरवृत्तविवाहः तत्कालकृतपाणिग्रहः सन् 'अत्थत्थी' अर्थार्थी धनार्थी अतएव 'अत्थगवेसणयाए' अर्थगवेषणतायै धनोपार्जनार्थम् ‘सोलसवासविप्पवसिए' पोडश वर्षविप्रोषितः षोडशवर्षानि यावत् कृतदेशान्तरप्रवासः ‘से णं' स खलु पुरुषः 'तो' ततः देशान्तरात् 'लद्ध' लब्धार्थः प्रातः प्रभूतार्थः, अतएव 'कयकज्जे' कृतकार्यः कृतं संपादितं कार्यः धानोपार्जनरूपं येन स तथाभूतः, 'अणहसमग्गे' अनध समग्रः अनधम -- अक्षतं न पुनरन्तराले केनापि चोरादिना लुण्टितं समग्रं-द्रव्यभाण्डोपकरणादि यस्य स तथा, एतादृशः सन् पुनरपि 'णियगघरं हव्वमागए' निजकगृहं स्वगृहं हव्यं-शीघ्रं मार्गे कुत्रापि निवासमकुर्वन् आगतः-समागतः । सच 'हाए' स्नातः कृतस्नानः 'कयबलिकम्मे' कृत बलिकर्मा कृतं बलिकर्म पशुपक्षिभ्योऽन्नप्रदानादि रूपं येन स तथा भूतः, कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः-कृतं कौतुकं मषीतिलकादिकं मङ्गलं मङ्गलकारकं दध्यक्षतादिधारणं प्रायश्चितं दुःस्वप्नादि फलनिवारणार्थं देवगुरुनमस्काररूपं येन स तथाभूतः 'सुद्धप्पावेसाई' शुद्धानि पावत्राणि स्वच्छानि वा प्रावेश्यानि सभादि प्रवेशयोग्यानि यद्वा 'सुद्धप्पा' इति पृथक् पदं तस्यायमर्थः शुद्धात्मा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तत्वेन शुद्धान्तःकरणः 'वेसाई' वेष्यानिवेषयोग्यानि 'मंगल्लाई' माङ्गल्यानि मङ्गलसूचकानि न तु शोकसूचक कालवर्णादि युक्तानि एतादृशानि 'वत्थाई' वस्त्राणि 'पवरपरिहिए' प्रवरतया यथास्थानं परिहितानि येन स प्रवरपरिहितः, पुनश्च 'अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरे' अल्पानि भारापेक्षयाऽल्पभारयुक्तानि महाणि महामूल्यानि यानि आभरणानि, तैरलङ्कृतं शरीरं यस्य स तथाभूतः सन् 'मण्णुण्णं' मनोज्ञं मलमोदनादि थालीपागसुद्धं' स्थालीपाकशुद्धं स्थाली-पिठरी तस्यां पाको यस्य अन्यत्रहि पक्कमोदनादि न सु पक्कं भवति तत इदं स्थालीपाकेति विशेषणम्, अत एव शुद्धम् अपक्का दिदोषवर्जितं भक्तदोषवर्जितं वा 'अट्ठारसबंजणाउलं' अष्टादशव्यञ्जना कुलम् अष्टादशभिर्लोकप्रसिदैर्व्यजनैः शालनकतक्रावलेहनिकादिभिराकुलं युक्तम्, एतादृशं Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे 'भोयणं' भोजनम् 'भुत्ते समाणे' भुक्तः सन् 'तंसि तारिसगंसि' तस्मिन् तादृशके वक्ष्यमाणविशेषणविशिष्टे 'वासघरंसि' वासगृहे शयनगृहे, अस्य विशेषणान्याह 'अंतो सचिकम्मे' अन्तः सचित्रकर्मणि अन्तः अभ्यन्तरे चित्र कर्मणि - सिंहशरभमृगादि चित्राणि, तैः सहिते 'बाहिरओ दूमियघट्टमट्ठे' बाह्यतो बहिर्भागे दूमिते सुधापधिवलिते घृष्टे चिक्कण पाषाणादिना घर्षिते ततो मृष्टे चिक्कणी कृते, 'विचित्तउल्लोयचिल्लियतले' विचित्रेण नानाविधचित्रयुक्तेन उल्लोचेन चन्द्रोदयेन 'चंद्रोवा' इति प्रसिद्धेन 'चिल्लितं' इति दीप्यमानं तलं वासगृहमध्यभागे उपरितनं तलं यस्य तत्तथा तस्मिन् तथा 'बहुसम सुविभत्तभूमिभाए' बहुसमसुविभक्तभूमिभागे तत्र बहुसमः अत्यन्तसमः निम्नोन्नत वर्जितत्वात्, सुविभक्तः सुविच्छित्तिकः रेखादि न्यासप्रकारयुक्तो भूमिभागो भूमितलभागो यत्र तस्मिन् तथा 'मणिकिरणपणा सिधयारे' मणिकिरणप्रणाशितान्धकारे मणिकिरणैः प्रणाशितः ७०८ दूरीकृतः अन्धकारो यत्र तस्मिन् चाकचिक्यमानमणिकिरणप्रकाशयुक्ते 'कालागुरुकुंदुरुक्कतुरुक्क धूवमधमधेंतगंधुद्धयाभिरामे' कालागुरु प्रभृतिगन्धद्रव्यसम्पादितस्य धूपस्य - मानश्य मघमघायमानः अतिशयेन प्रसर्यमाणः यो गन्धः तेन उद्भूतम् सर्वतो व्याप्तम् अत एव अभिरामं तत्रस्थितजनमनोह्लादकं तस्मिन् एतावदेव न 'सुगंध वरगंधिए' सुगंधवरगन्धिते पुष्पनिर्यासादे: 'अत्तर' इति प्रसिद्धस्य श्रेष्ठसुगन्धेन गन्धिते - सुगन्धिते 'गंधव - ट्टिभूए' गन्धवर्तीभूते गन्धद्रव्य गुटिका सदृशे, एताको वासगृहे । अथ तद्गतशयनीयं वर्ण्यते 'सि' इत्यादि, तत्र पुनः 'तंसि तारिसगंसि' तस्मिन् तादृशे 'सयणिज्जंसि' शयनीये, किं विशिष्टे ? इत्याह- 'दुहओ' इत्यादि, 'दुहओ उन्नए' उभयतः उभयोः पार्श्वयो रुन्नते 'मझे णयगंभीरे' मध्ये मध्यभागे नते नम्म्रीभूते अतएव गम्भीरे 'सालिंगणवट्टिए' आलिंगनवर्त्त्या शरीरप्रमाणोपधानेन सहिते 'पण्णत्तगंड बिव्वोयणे सुरम्ने प्रज्ञाप्तगण्डबिब्वोयणसुरम्ये प्रज्ञया विशिष्ट कर्मविषयबुद्धया आप्ते- प्राप्ते - अतीव सुष्ठु परिकर्मिते इत्यर्थः 'विब्बोयणे' उभयतो गण्डोपधानके ताभ्यां सुरम्ये 'गंगा पुलिणवालुया उद्दालसालिसए' गङ्गापुलिनवालुका - गङ्गातटगताया वालुका तस्या उद्दालः - अवदलनं पादादिन्यासेऽधोगमनं तेन सदृशे 'सुविरइयरयत्ताणे' सुविरचितरजस्त्राणे सुविरचितं सुष्टुतया निवेशितं रजस्त्राणं रजो निवारक वस्त्रं यत्र तस्मिन् 'ओयवियखोमिय खोम दुगुल्ल पट्ट पडि च्छायणे' ओयविय सौमदुकुलपट्टप्रतिच्छादने, तत्र ओयवियं-सुपरिकर्मितं क्षौमिकं क्षौमवस्त्रं क्षौमिति 'रेशम' इति प्रसिद्धं तद्वस्त्रं दुकूलं कार्पासिकमतसीमयं वा वस्त्रं तस्य पट्ट्ः - युगल रूपः पट्टशाटकः स प्रतिच्छादनम् - आच्छादनं यस्य तत्तथा तस्मिन् 'रत्तंसुयसंवुडे' रक्तांशुकसंवृते रक्तांशुकेन रक्तवस्त्रनिर्मितमशकगृहाभिधानेन 'मच्छरधानी' इति प्रसिद्धेन संवृते सम्या समन्ततः परिवेष्टिते 'आईणगरूयबूरण वणीय तूलफासे' आजिनकरू तबूरनवनीत तूलस्पर्शे, तत्र Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशि काटीका प्रा०२० सु.४ चन्द्रसूर्ययोरग्रमहिषीणां संख्योदि वर्णनम् ७०९ आजिनकं चिक्कणचर्ममयो वस्त्रविशेषः स्वभावतोऽतिकोमलत्वात् , रूतं-कार्पसपक्ष्म, बूरः सुकुमालवनस्पतिविशेषः, नवनीतम् 'मक्खन' इति प्रसिद्धं, तूलः अर्कतूलः एषां स्पर्श इव स्पर्शो यस्य स तथाभूते, 'सुगंधवर कुसुमचुण्णसयणोवयारकलिए' सुगन्धवर कुसुमचूर्ण शयनोप चारकलिते, तत्र सुगन्धानि सुष्ठुगन्धयुक्तानि यानि वरकुसुमानि पाटल चम्पकादि श्रेष्ठपुष्पाणि, तथा ये च सुगन्धाश्चूर्णाः कोष्ठपुटादि सुगन्धद्रव्य सम्पादिताः, तथा एतदतिरिक्तास्तथा विधाः शयनोपचाराः तैः कलिते युक्ते, एतादृशे शयनीये 'ताए तारिसाए भारियाए' तया तादृश्या वक्तुमशक्यरूपतया पुण्यशालिनां योग्यया भार्यया 'सद्धिं' सार्द्धम्, किं विशिष्टया ! इत्याह--'सिंगारागारचारुवेसाए' शृङ्गारागारचारूवेषया शृङ्गारस्य अगारं गृहं शृङ्गाररसपोषकत्वात् तथाभूतः चारुः सुन्दरो वेषः वस्त्रधारणविन्यासरूपो यस्याः सा तथा तया यद्वा 'श्रृङ्गाराकारचारुवेषया' इति च्छाया, ततोऽयमर्थः-शृङ्गारः शृङ्गाररसपोषकः आकारःसन्निवेशविशेषः यस्य स शृङ्गाराकारः इत्थम्भूतश्चारुः शोभनो वेषो यस्या सा तथाभूता तया, 'संगयहसियभणियचिट्टियसंलाव विलासणिउणजुत्तोवयारकुसलाए' संगतहसितभणित चेष्टित संलापविलासनिपुणयुक्तोपचारकुशलया, तत्र संगतं हंसगतिवद् गमनं सविलासं चङ्कमण हसितं सप्रमोदं कपोलसूचितं मन्दं मन्दं हसनं, भणितं-कामोद्दीपकं विचित्रं वचनम् , चेष्टितं सकाममङ्गप्रत्यङ्गावयवप्रदर्शनपुरस्सरं प्रियस्य पुरतोऽवस्थानरूपं चेष्टाकरणम् , संलापः-प्रियेण सह सप्रमोदं सकामं परस्परं कामकथाकरणम् , एतेषां विलासेन शुभलीलया यो निपुणः सूक्ष्मबुद्धिगम्योऽत्यन्त कामविषयपरमनैपुण्योपेतः, युक्तः-देशकालोचितः उपचारः तदाकार व्यवस्थारूपः तेन तत्र वा कुशला तया 'अणुरत्ताविरत्ताए' अनुरक्ता विरक्तया-अनुरक्तया कदाचिदप्यविरक्तया, अतएव 'मणोणुकूलाए' मनोऽनुक्लया पत्युर्मनसोऽनुकूलवर्तिन्या एतादृश्या भार्यया सार्द्धमिति पूर्वेण सम्बन्धः स पुरुषः कीदृशः ? इत्याह-'एगंतरइपसत्ते' एकान्तरतिप्रसक्तः अतिशयेन तयासह रमणासक्तः गृहकार्यादौ अन्यस्त्रियां वा मनो न कुर्वन् अन्यत्र 'अण्णत्थकत्थइ मणं अकुव्वमाणे' अन्यत्र कुत्रापि मनोऽकुर्वन् अन्यत्र मनः करणे हि न यथावस्थिताभिष्टभार्यासमुत्पन्नं कामसुखमनुभूयते, एतादृशः सन् 'इट्टे'-इष्टान्-मनोवाञ्छितान् 'सद्दफरिसरसरूवगंधे' शब्दस्पर्शरसरूपगन्धरूपान् 'पंचविहे' पञ्चविधान् 'माणुस्सए' मानुष्कान् मनुष्यभवसम्बन्धिनः 'कामभोगे' कामभोगान् ‘पच्चणुब्भवमाणे' प्रत्यनुभवन् प्रति-आभिमुख्येन तदनुभवं कुर्वन् 'विहरेज्जा' विहरेत् अवतिष्ठेत् । एवं कथयित्वा भगवान् तत्समयगतकामभोगसुखविषये गौतमं पृच्छति- 'ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् तावच्छब्दः क्रमार्थः, तेन-आस्तां तावदन्यदतनंवक्तव्यं किन्तु तावदिदं कथ्यताम्-से णं पुरिसे' स खलु पुरुषः 'विउसमणकालसमयंसि' ब्युपशमनकालसमये, व्युपशमनं कामभोगावसानं तस्य काल समये-तथाविधकालेनोपलक्षिते समयेऽवसरे 'केरिसयं सायासोक्खं' कीदृशं तत्कामभोग Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे जन्यं शातरूपम् आह्लादरूपं सौख्यं 'पच्चणुब्भवमाणे विहरइ' प्रत्यनुभवन् विहरति तिष्ठति ? एवं भगवता पृष्टो गौतमः प्राह-'ओरालं समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ? उदारम्-अत्यद्भुतं शातसौख्यं प्रत्यनुभवन् स विहरति । भगवान् एतद् दृष्टान्तेन व्यन्तरादीनां कामभोग सुखोपमाप्रदर्शनपूर्वकं चन्द्रसूर्यदेवानां कामभोगसुखानि प्रदर्शयति-'ता तस्स णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एत्तो' एतेभ्यः 'तस्स णं पुरिसस्स' तस्यानन्तरोदितस्य खलु पुरुषप्य सम्बन्धिन्यः 'कामभोगेहिंतो' कामभोगेभ्यः 'अणंतगुणविसिट्टतराए चेव' अनन्तगुणविशिष्टतरा एव अनन्तगुणतयाऽत्यन्त विशिष्टा एव 'वाणमंतराणं देवाणं कामभोगा' तानव्यन्तराणां देव नां कामभोगाः । एवं वानव्यन्तरदेवानां कामभोगेभ्यः असुरेन्द्रवर्जितानां भवनवासिदेवानां कमभोगा अनन्तगुणविशिष्टतराः । असुरेन्द्रवर्जितभवनवासिदेवानां कामभोगेभ्योऽसुरकुमा रा. णामिन्द्रभूतानां देवानां कामभोगा अनन्तगुणविशिष्टतराः । इन्द्रभूतानामसुर कुमाराणां देब नां कामभोगेभ्यः ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां कामभोगाः अनन्त गुणविशिष्टतरा भवन्ति । 'गहगणणक्खत्ततारारूवाणं' ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां कामभोगेभ्यः 'अणंत गुणविसिट्टतराए चेव' अनन्तगुणविशिष्टा: 'चंदिमसूरियाणं देवाणं कामभोगा' चन्द्रसूर्याणां देवानां कामभोगाः भवन्ति । उपसंहारमाह-'ता एरिसएणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एरिसएणं' एतादृशान् खलु 'कामभोगे' कामभोगान् 'चंदिमसूरिया' चन्द्रसूर्याः 'जोइसिंदा जोइसरायाणो' ज्यौतिषेन्द्राः ज्यौतिषराजाः 'पच्चणुब्भवमाणा' प्रत्यनुभवन्तः 'विहरंति' तिष्ठन्तीति सूत्राथैः । सू०४ ।। साम्प्रतं पूर्वं यदष्टाशोतिम्रहा उक्तास्तान् नामग्राह मुपदर्शयन्नाह—'तत्थ खलु इमे' इत्यादि । मूलम् तत्थ खल इमे अट्ठासीई महग्गहा पण्णना तं जहा इंगालए १, वियालए २, लोहियंके ३, सणिच्छरे ४, आहुणिए ५, पाहुणिए ६, कणो ७, कर्णए ८, कणकणए ९, कणवियाणए १०, कणगसंताणे ११, सोमे १२, सहिए १३, अस्सासणे १४, कज्जोवए १५, कब्बरए १६, अयकरए १७, दुंदुभए १८, संखे १९, संखणाभे २०, संखबण्णाभे २१, कंसे २२, कंसणाभे २३, कंसवण्णाभे २४, णीले २५, णीलोभासे २६, रुप्पी २७, रुप्पोभासे २८, भासे २९, भासरासी ३०, तिले ३१, तिलपुप्फवण्णे ३२, दगे ३३, दगबण्णे ३४, काले ३५, बंधे ३६, इंदग्गी ३७, धूमकेऊ ३८, हरी ३९, पिंगलए ४०, बुहे ४१, सुक्के ४२, बहप्फई ४३, राहू ४४, अगत्थी ४५,, माणवए ४६, कामफासे ४७, धुरए ४८, पमुहे ४९, वियडे ५०, विसंधिकप्पे ५१, पयल्ले ५२, जडियालए ५३, अरुणे ५४, अग्गि-लए ५५, काले ५६, महाकाले ५७, सोत्थिए ५८, सोवत्थिए ५९, बद्धमाणगे ६०, पलंबे ६१, णिच्चालोए ६२, णिच्चुज्जोए ६३, सयंपभे ६४, ओभासे ६.५,, सेयंकरे ६६, खेमंकरे ६१, Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा०२० सू. . अष्टाशीतिग्रहनामानि ७११ आशंकरे ६८, पभंकरे ६९, अरए ७२,, विरए ७१, असोगे, वोय सोगेय ७२, विमले ७३, वियते ७४, विभत्थे ७५, विसा ले ७६, साले ७७, सुब्बए ७८, अणियट्ठी ७९ एगजली ८०. विजडी ८१, करे ८१, करिए ८३, राए ८., अग्गले ८५. पुप्फे ८६, मावे ८७. केऊ ८८ ॥ सू ५॥ छाया--तत्र खलु इमे अष्टाशीतिः महाग्रहाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा “ अङ्गारकः १, विकाल : २, लोहिताङ्कः ३, शनैश्चरः ४, आधुनिकः ५, प्राधुनिकः ६, कर्णः ७, कणकः ८ कणकणकः ९, कणवितानकः १०, कणसन्तानकः ११, सोमः १२, सहितः १३, आश्वासनः १४, कार्योपाः १५ कर्बरकः १६, अजकरकः १७, दुन्दुभकः १८, शङ्खः १९, शङ्खनाभः २०, शववर्णाभः २१, कंसः २२, कंसनाभः २३, कंसवर्णाभः २४, नीलः २५, नीलावभासः २६, रूप्पी :७, रूप्यवभासः २८, भस्म २९, भस्मराशिः ३०, तिलः ३१, तिलपुष्पवर्णकः ३२, दकः ३३, दकवर्णः ३४, हालः ३५ वन्यः ३६, इन्द्राग्निः ३७, धूमकेतुः ३८, हरिः ३९, पिङ्गलकः ४०, वुधः ४१, शुक्रः ४२, बृहस्पतिः ४३, राहु ४४, अगस्तिः ४५, माणवकः, ४६ कामस्पक्षः ४७, धुरकः ४८, प्रमुखः ४९, विकटः ५०, विसंधिकल्पः ५१, प्रकल्पः ५२, जटालकः ५३, अरुणः ५४, अग्निः ५५, काल: ५६, महाकालः ५७, स्वस्तिकः ५८ सौवस्तिकः ५९, वर्षमानकः ६०, प्रलम्बः ६१, नित्यालोकः ६२, नित्योद्योतः ६३, स्वयंप्रभः ६४, अवभासः ६५, श्रेयस्करः ६६, क्षेमङ्करः ६७, आभङ्करः ६८, प्रभङ्करः ६९, अरजाः ७०, विरजा ७१, अशोकः ७२. वोतशोकः ७३, विमलः विवर्तः ७४, विवस्त्रः ७५, विशालः ७६, शालः ७१, सुव्रतः ७८, अनिवृत्तिः ७९, एकजटी ८०, द्विजटी ८१, करः ८२, करिकः ८३, राजः ८१, अर्गलः ८५, पुष्पः ८६, भावः ८७, केतुः ८८, ॥ सूत्र ॥५॥ व्याख्या --- 'तत्थ खलु' इति, 'तत्थ' तत्र चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपेषु मध्ये 'इमे' इमे ये पूर्वमष्टाशीतिम्रहाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा ते इमे 'इंगालए' इत्यादि सुगमम्अष्टाशी िनर्ग्रहाणां नामानि सूत्रतोऽवगन्तव्यानि । एतेषां नाम्नां संग्राहिका नवगाथा सुखप्रतिपत्त्यर्थ मत्र प्रदर्यन्ते "इंकाल-वियालो य, लोहियंके सणिच्छरे चेव । आहुणिए पाहुणिए कणग-सनामावि पंचेव ॥१॥ सोमे सहिए अस्सासणे य कज्जोवए य कब्बरए । अयकर दुंदुभए वि य, संख-सनामावि तिन्नेव ॥२॥ तिन्नेव कंसनामा, नीले रुप्पी य हुति चत्तारि । भास तिल पुप्फवण्णे दगवण्णे कायबंधेय ॥३॥ इंदग्गियुप्फकेऊ, हरि पिंगलए बुधे य सुक्के य । बहस्सइ राहु अगत्थी, माणवगे कामफासे य ॥४॥ धुरए पमुहे वियडे, विसंधिकप्पे तहा पइल्ले य । Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे जडियालए य अरुणे अग्गिलकाले महाकाले ॥५॥ सोत्थिय सोवत्थियए, वद्धमाणग तहा पलंबे य । णिच्चालोए णिच्चुज्जोए, सयंपभे चेव ओभासे ॥६॥ सेयंकर खेमंकर, आभंकरपभंकरे य बोद्धव्वे । अरए विरए य तहा, असोगतह वीयसोगे य ॥७॥ विमले वितत विवत्थे, विसाल तह साल सुब्बए चेव । अणियट्टी एगजडी य होय वियडीय बोद्धव्वे ॥८॥ करकरिए रायग्गल, बोद्धव्वे पुप्फभावे केऊय । अट्ठासीइ गहा खलु, नायव्वा आणुपुव्वीए ॥९॥ एतेऽङ्गारकादयोऽष्टाशीतिम्रहाः सर्वेऽपि प्रत्येकं चतुर्णा सामानिकसहस्राणां चतसृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां, तिसृणां पर्षदां, सप्तानामनीकानां, सप्तानामनीकाधिपतीनां षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणाम् अन्येषां च स्वविमानवास्तव्यानां देवानां देवीनां चाधिपत्यमनुभवन्तीति । सू० ।५। अथ सकलशास्त्रोपसंहारमाह-'इय एस' इत्यादि, मूलम्--इय एस पागडत्था, अभव्वजणहियय दुल्लहाइ णमो । उक्कित्तिया भगवया जोइसरायस्स पण्णत्ती ॥१॥ एस गहिया वि संता, थद्धेगार वियमाणि पडिणीए । अबहुस्सुए ण देया, तव्विवरीए भवे देया ॥२॥ सद्धाधिइउट्ठाणुच्छाह कम्मबलवीरिय पुरिसकारेहिं । जो सिक्खिओ वि संतो, अभायणे परि कहेज्जाहि ॥३॥ सो पवयणकुलगणसंघबाहिरो णाणविणय परिहीणो । अरहंतथेरगणहरमेरं किर होइ वोलीणो ॥४॥ तम्हा धिइउठाणुच्छाह कम्मबलवीरियसिक्खियं नाणं । धारेयव्वं णियमा, णय अविणएसु दायव्वं ॥५॥ वीरवरस्स भगवओ, जरमरणकिलेसदोसरहियस्स । वंदामि विणयपणओ सोक्खुप्पाए सया पाए ॥६॥ सू०६ वीसइमं पाहुडं समत्तं ॥२०॥ चंदपन्नत्ती समत्ता छाया-इति एषा प्रकटार्था, अभव्यजन हृदयदुर्लभा इयम् । उत्कीर्तिता भगवता, ज्यौतिषराजस्य प्रशप्तिः ॥१॥ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा०२० सू ५ अष्टाशोतिग्रहनामानि ७१३ एषा गृहीऽतापिसती, स्तब्धाय गारवित मानि-प्रत्यनीकाय । अबहुश्रुताय न देया, तद्विपरीताय भवेद्देया ॥२॥ श्रद्धा धृत्युत्थानोत्साहकर्म बल वीर्यपुरुषकारैः । यः शिक्षितोऽपि सन् अभाजने परिकथयेत् ॥३॥ स प्रवचनकुलगणसंघबाह्यो ज्ञानविनयपरिहोनः । अर्हत्स्थवीरगणधरमर्यादा किल भवति व्यतिक्रान्तः ॥४॥ तस्मात् धृत्युत्थानोत्साह कर्मबलवीर्य शिक्षितं ज्ञानम् । धर्त्तव्यं नियमात् न च अधिनयेषु दातव्यम् ॥५॥ वीरवरस्य भगवतो जरामरणक्लेशदोषरहितस्य । वन्दे विनयप्रणतः, सौख्योत्पादौ सदा पादौ ॥६॥ सू० ६ ॥ विंशतितमं प्राभृतं समाप्तम् ॥२० चन्द्रप्रज्ञप्तिः समाप्ता। व्याख्या-'इयएस' इति-एवम् उन प्रकारेण 'एस' एषा अनन्तरोदितस्वरूपा 'पागडत्था' प्रकटार्था-जिनवचनतत्त्ववेदिनां स्पष्टार्था 'इणमो' इयं 'चेत्थं प्रकटार्थापि सती 'अभव्वजणहिययदुल्लहा' अभव्यजनहृदयदुर्लभा, अभव्यजनानां कृते हृदयेन-पारमार्थिकाभिप्रायेण दुर्लभा भावार्थमाश्रित्य ज्ञातुमशक्या, अभव्यत्वादेव तेषां जिनवचनस्य सम्यक्तया परिणतेरभावात् । 'उक्कित्तिया' उत्कीर्तिता कथिता, केनेत्याह-'भगवया' भगवता ज्ञानेश्वर्यादिसंपन्नेन श्रीवर्द्धमानस्वामिना 'जोइसरायस्स पण्णत्ती' ज्यौतिषराजस्य चन्द्रस्य प्रज्ञप्तिः ॥१॥ 'एस' इत्यादि, 'एस' एषा ,गहियावि गृहीताऽपि ग्रहणविषयीकृताऽपि थद्धे' स्तब्धाय स्वभावत एव मानप्रकृत्या विनयरहिताय 'थडे' इत्यत्र "व्यत्ययोऽप्यासाम्" इति वचनात् चतुर्थ्यर्थे सप्तमी, एवमग्रेऽपि बोध्यम् । 'गारविय-माणि पडिणीए' गारवितमाणि प्रत्यनीकाय गारवितश्च मानी च प्रत्यनीकश्चेति समाहारे गारवितमानिकप्रत्यनोकम्, तस्मै तत्र गौरवम् ऋद्धिरसशातरूपं गौरवत्रयं, तत् संजातमस्येति गारवितस्तस्मैं, ऋद्धयादि मदोपेतो हि अचिन्त्य चिन्तामणिकल्पमपोदं चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र माचार्यादिकं च तद्वेत्तारमवज्ञया पश्यति, अवज्ञाच दुरन्तनरकादिप्रपातहेतुरतस्तस्मै दाननिषेधस्तदुपकारायैव जायते । तथा मानिने जात्यादि मदोपता: प्रत्यनीकाय-दूरभव्यत्वेन अभव्यत्वेन वा सिद्धान्तवचनानादरकारिणे । पूर्वोक्का भावनाऽत्रापि मानिप्रत्यनीकविषयेऽपि भावनोया । तथा 'अबहुस्सुए' अबहुश्रुताय अवगादास्तोकशास्त्राय, सहि जिनवचनेषु असम्यग्भावितत्वात् शब्दार्थपर्यालोचनायामसमर्थत्वाच्च यथार्थतया कथ्यमानमपि न सम्यक्तया रुचि विषयी करोति अतएव पूर्वोक्तेभ्यः 'ण देया' न देया न शिक्षयितव्या । तर्हि कस्मै देया ? इत्याह-'तविवरीए' तद्विपरीताय पूर्वोक्तदोषवर्जिताय 'भवे देया' देया भवेत् दातव्या भवेत् । अत्र भवेदिति क्रियापदस्य सामर्थ्य Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिक्ने लब्धावप्युपादानं दातव्यताया अवधारणार्थ तेन तद्विपरीतायावश्यं दातव्यैव, सर्वथा न दातव्येति नावधारणीयम् अन्यथा सर्वथा तदानाभावे शास्त्रव्यवच्छेदेन तीर्थव्यवच्छेदः प्रसज्यते ॥२॥ एतदेव व्यक्ती कुर्वन्नाह-'सद्धे' त्यादि गाथाद्वयम्-'सदाधिइउट्ठाणुच्छाहकम्मबालवीरियपुरिसकारेहिं' श्रद्धाधृत्युत्थानोत्साहकर्मबलवीर्यपुरुषकारैः तत्र श्रद्धा श्रवणं प्रतिरुचिः, धृतिः अत्र कथ्यमानं जिनवचनं सत्यमेव "तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहि पवेइयं' इति बुद्धया मनसो दाढयम्, उत्थानं श्रवणार्थ गुरुं प्रत्यभिमुखगमनम्, उत्साहः श्रवणविषये मनस औत्सुक्यं यदि मे पुण्यप्रकर्षात् सामग्री संपद्यते शृणोमि च ततः शोभनं भवतोति परिणामः संजायते, कर्मचन्दनबहुमानादिरूपम् बलम्-शारीरकस्तद्वचनादि विषयः प्राणः वोर्यम् अनुप्रेक्षायां सूक्ष्माति सूक्ष्मार्थोद्भावनशक्तिः, पुरुषकारः साधिताभिमतप्रयोजनं वीर्यमेव, एतैःकारणैः यः स्वयं 'सिक्खिओ वि संतो'शिक्षितोऽपि गृहीतचन्द्रप्रज्ञप्तिः सूत्रार्थतदुभयोऽपि सन् यो यदि दाक्षिण्यादिना 'अभायणे' अभाजने अयोग्ये स्वान्तेवासिनि शिष्ये इति निजान्तेवासिने शिष्याय 'परिकहेज्जाहि' परिकथयेत् सूत्रतोऽर्थत उभयतो वा प्रतिपातयेत् तदा सो सः 'पवयणकुलगणसंघबाहिरो' प्रवचनकुलगणसङ्घबाह्यः तत्र प्रवचनं-भगवादाज्ञा, कुलम्-एकगुरुसमुदायः गणः एकसामाचारि समुदायः साधुसाध्वीश्राविकारूपश्चतुर्विधः, एभ्य सर्वेभ्य स बाह्यः बहिर्भूतो विज्ञेयः । तथा न ‘णाणविणयपरिहीणो' ज्ञानविनयपरिहीनः पुनश्च सः 'अरहंतथेरगणहरमेरं' अर्हत्स्थवीरगणधरमर्यादां किल निश्चयेन 'वोलिणो' व्यतिक्रान्तः 'होइ' भवति, अत्र किलेति पदमाप्तवादसूचकम्, तेन इत्थमाप्तवचनं व्यवस्थितं यथा स किल-निश्चयेन भगवदर्हदादिव्यवस्थामतिक्रान्त इत्यर्थः, तदतिक्रमे च दीर्घ संसारिता भवतीति तृतीयचतुर्थगाथार्थः ।३।४। ततः किमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, 'तम्हा' तस्मात् कारणात् 'धिइउत्थाणुच्छाह कम्मबलवीरियसिक्खियं णाणं' धृत्युत्थानोत्साहकर्मबलवीर्यैः स्वयं मुमुक्षुणा सता यत् शिक्षित ज्ञान-चन्द्रप्रज्ञाप्त्यादि समुत्थं तत् 'नियमा' नियमादात्मन्येव 'धारेयव्वं' धारयितव्यं स्वयमेव तस्य ज्ञानस्य हृदये धारणा कर्तव्या किन्तु कदाचिदपि 'अविणएसु' अविनयेषु विनयहीनेषु शिष्यादिषु ण य दायव्वं' न च दातव्यं नैव देयम्, अविनयेभ्यो दाने आत्मपरयोर्दीर्घसंसारिता प्रसक्तेः । इयंच चन्द्रप्रज्ञप्तिरर्थतो भगवता श्री वर्द्धमानस्वामिना मिथिलायां नगर्या' साक्षादुक्ता, भगवाँश्चास्य वर्तमानस्य तीर्थस्याधिपतिः तदर्थप्रणेतृत्वात् वर्तमानतीर्थाधिपतित्वाच्च शास्त्रसमाप्तो मङ्गलार्थ तन्नमस्कारमाह-'वीरवरस्स' इत्यादि, 'वीरवरस्स' वीरवरस्य, वोरयतिस्मेति वोरः, वारेषु वरः-प्रधानो वोरवरः वर्धमानस्वामी, तस्य भगवतः-अनुपमैश्वर्यादि युक्तस्य, वरग्रहण लब्धमेव वीरत्वं स्पष्टयति-कीदृशस्य वोरवरस्य ? इत्याह-'जरमरण' इत्या Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटोका. प्रा. २० सू० ५ अष्टाशीतिग्रहनामानि ७१५ दि, 'जरमरणकिलेसदोसरहियस्स' जरामरणक्लेशदोषरहितस्य, तत्र जरा-वयोहानिरूपा, मरणं-प्राणत्यागरूपं. क्लेशाः-शरीरमानसोद्भवाः बाधारूपाः, दोषाः-रागादयः, तैः रहितस्य जरादि विप्रमुक्तस्य “पाए' पादौ-चरणौ, कथम्भूतौ ? 'सोक्खुप्पाए' सौख्योत्पादकौ तौ 'विणयपणओ' विनय प्रणतः-विनयेन नम्रीभूतो न तु स्तब्धी भूतः एतादृशः सन्नहम् 'सया' सदा निरन्तरम् 'वंदामि' वन्दे नमस्करोमि ॥६॥ सू०६॥ ॥इति विंशतितमं प्राभृतं समाप्तम् ॥ चन्द्र प्रज्ञप्ति सूत्रे जिनवरकथितं भावमाश्रित्य सम्यग् , चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशा सरलमतिमतां हेतवे निर्मितेयम् । घासीलालेन बुवा निजतनुमतिना यत्र तत्र प्रदेशे, जातं चेन्मानवीयं स्खलन मिह च यत् क्षम्यतां तद्धितज्ञैः ॥१॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ प्रसिद्धवाचक पञ्चदश भाषाकलितललित कलापाऽऽलापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमनमर्दक-श्रीशाहू छपति कोल्हापुरराजप्रदत्त-"जैन शास्त्राचार्य" पदभूषित-कोल्हा पुरराजगुरु-बालब्रह्मचारी-जैनाचार्य-जैनधर्म दिवाकरपूज्य श्री घासीलालबति-विरचिता चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिता टीका समाप्ता ॥ ॥ शुभं भूयात् ॥ श्री रस्तु ॥ Page #737 --------------------------------------------------------------------------  Page #738 -------------------------------------------------------------------------- _