Book Title: Nyayakumudchandra Part 2
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमालायाः 36. एकोनचत्वारिंशत्तमो अन्थः / खविवृतियुतलघीयस्त्रयस्य अलङ्कारभूतः ॥न्या य कुमुद चन्द्रः॥ [द्वितीयो भागः] स्व० सेठ माणिकचन्द्र हीराचन्द्र जे०पी० सम्पादकः न्यायाचार्यमहेन्द्रकुमारः स्या० वि० काशी. प्रकाशकः-- पं० नाथूरामप्रेमी मन्त्री ग्रन्थमाला बम्बई. [ मूल्यं 8 // ) रूप्यकाणि.] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला जैनदर्शन-साहित्य-पुराण-प्रागमादिप्राचीनसाहित्योहारिका प्राकृत-संस्कृत अपभ्रंशादिभाषागुम्फिता जैनग्रन्थावलिः / -operor इयश्च साधुचरित-सदाशय-दानवीर-स्व० सेठ श्री माणिकचन्द्र-हीराचन्द्र जे. पी. महाशयानां स्मरणकृते दि० जैनसमाजेन संस्थापिता / - -- श्री पं० नाथूरामः प्रेमी, बंबई / / श्री प्रो० हीरालालः M. A. LL. B. अमरावती।। कोषाध्यक्षः- श्री ठाकुरदास-भगवान्दासः जवेरी बंबई / ग्रन्थांक:-३६. प्राप्तिस्थानम्मन्त्री श्री माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थम हीराबाग पो. गिरगाँव, बंबई नं. 4 - -. . स्थापनाब्दाः / सर्वेऽधिकाराः संरक्षिताः [ वि० सं० 1972. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भट्टाकलङ्कदेवविरचितस्य खविवृतिसहितलघीयस्त्रयस्य अलङ्कारभूतः श्रीमत्प्रभाचन्द्राचार्यविरचितः न्या य कु मु द च न्द्रः [द्वितीयो भागः] (न्यायाचार्यमहेन्द्रकुमारलिखितटिप्पणादिसहितः स चायम् काशीस्थ-श्रीस्याद्वाद दि० जैन महाविद्यालयस्य न्यायाध्यापकपदप्रतिष्ठितेन .. 'प्रमेयकमलमार्तण्ड-अकलङ्कग्रन्थत्रया'दिग्रन्थानां सम्पादकेन न्यायाचार्य-न्यायदिवाकर-जैन-प्राचीनन्यायतीर्थाद्युपाधिभूषितेन पं० म हे न्द्र कु मा र शा स्त्रि णा प्रस्तावना-पाठान्तर-तुलनार्थबोधकटिप्पणी-अवतरणनिर्देश-परिशिष्टादिभिः संस्कृत्य संशोधितः, सम्पादितश्च / -~~o88880प्रकाशक : मन्त्री-श्री पं० नाथूराम प्रेमी, माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला हीराबाग, गिरगाँव, बंबई नं० 4 / मुद्रकः-बाबू रामकृष्णदास: बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी प्रेस, बनारस / वीरनिर्वाणाब्दाः 2467. प्रथमावृत्तिः 600 प्रति. विक्रमाम्दाः 1618.] [क्रिस्टाम्दाः 1641. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANIK CHANDRA DIG. JAIN GRANTHMALA. A SERIES PUBLISHING CRITICAL EDITIONS OF CANONICAL, PHILOSOPHICAL, HISTORICAL, LITERARY, NARRATIVE ETC. WORKS OF JAIN LITERATURE IN PRAKRITA, SAMSKRIT AND APABHRAMSA. FOUNDED BY THE DIG. JAIN SAMAJA IN MEMORY OF LATE, DANVIR, SETH MANIK CHANDRA HIRA CHANDRA JUSTICE OF PEACE BOMBAY NUMBER 39 HONY. SECRETARIES:-. Pandit Nathu Ram Premi, Bombay. Prof. Hiralal, M.A., LL.B. Amraoti. CASHIER: Seth Thakur Das, Bhagwan Das Javery, Bombay TO BE HAD FROM Secy. MANIK CH. DIG. JAIN SERIES HIRABAG Post Girgaon, BOMBAY, 4. Founded ] All rights reserved. [ 1915 A.D. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OF NYAYA KUMUD CHANDRA SRIMAT PRABHACHANDRACHARYA [ VOL. II) A commentary on Bhattakalankadeva's Laghiyastraya. EDITED WITH :-INTRODUCTION EXHAUSTIVE ANNOTATIONS, COMPARATIVE STUDY OF JAIN, BUDDHIST AND VEDIC-PHILOSOPHIES, AND THE VARIENT READINGS INDEXES ETC. BY PT. MAHENDRA KUMAR NYAYACHARYA NYAYA DIVAKAR, JAIN & PRACHin nyAYATirtha, EDITOR OF AKALANK GRANTH ATRAY ', ' PRAMEYA KAMAL MARTAND'ETO. JAIN-DARSANADHYAPAK SRI SYADVAD DIG. JAIN MAHAVIDYALAYA BHADAINI, KASHI. PUBLISHED BY SECY. PANDIT NATHU RAM PREMI MANIK CHANDRA DIG. JAIN SERIES. HIRABAG, GIRGAON, BOMBAY 4. PRINTED BY-RAMA KRISHNA DAS AT THE BENARES HINDU UNIVERSITY PRESS, BENARES. V. E. 1998] First Edition, 600 Copies. [1941 A. D. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भागका अनुक्रम 47 1 प्रकाशक की ओरसे-पं० नाथूरामजी प्रेमी / प्रभाचद्रका आयुर्वेदज्ञान 7-8 प्रभाचद्रकी कल्पनाशक्ति 2 आदि वचन-डॉ० मङ्गलदेवजी शास्त्री 9-11 उदार विचार 3 प्राक्कथन-पं० सुखलालजी 12-20 प्रभाचन्द्रका समय 48-58 कार्यक्षेत्र और गुरुकुल 4 सम्पादकीयम् समय विचार 5 प्रस्तावना 5-67 प्रभाचन्द्रके ग्रन्थ - 56-67 अकलङ्कका समय शाकटायनन्यासके कर्तृत्वपर विचार आ० प्रभाचन्द्र 6-67 शब्दाम्भोजभास्कर प्रभाचन्द्रकी इतर आचार्योंसे तुलना 6-46 प्रवचनसारसरोजभास्कर [ (वैदिक दर्शन)-वेद, उपनिषत्, स्मृति गद्यकथाकोश कार, पुराण, व्यास, पतञ्जलि, भर्तृहरि, 6 मूलग्रन्थका विषयानुक्रम 68-62 व्यास, ईश्वरकृष्ण, माठर, प्रशस्तपाद, व्योम 7 मूलग्रन्थ शिव, [व्योमशिवका समय श्रीधर, वात्सा.. 404-881. यन, उद्योतकर, जयन्त, [जयन्तका समय ] 8 परिशिष्ट 885-626 वाचस्पति, शबर, कुमारिल, मण्डनमिश्र, 1 लधीयस्त्रयकारिकाधका अकारानुक्रम प्रभाकर, शालिकनाथ, शङ्कराचार्य, भामह, 2 लघीयस्त्रयगत अवतरण बाण, माघ, ( अवैविक-वर्शन )-नागार्जुन, 3 लघीयस्त्रयके लाक्षणिक और विशिष्ट वसुबन्धु, दिङनाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, कर्ण दार्शनिकशब्द कगोमि,शान्तरक्षित,कमलशील, अर्चट,धर्मो- 4 जिन आचार्योंने लघीयस्त्रयके वाक्योंको तर, ज्ञानश्री, जयसिंहराशिभट्ट, कुन्दकुन्द, उद्धृत किया है उन आचार्योंकी सूची समन्तभद्र, पूज्यपाद, धनञ्जय, [धनञ्जय 5 न्यायकुमुदचन्द्रगत अवतरण , का समय] रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य, विद्या- 6 न्यायकुमुदचन्द्रनिर्दिष्ट न्याय नन्द, अनन्तकीर्ति, शाकटायन, अभयनन्दि, 7 न्यायकुमुदचन्द्रगत ऐतिहासिक और मूलाचारकार, नैमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती,प्रमे भौगोलिक शब्द . यरत्नमालाकार अनन्तवीर्य, देवसेन, श्रुत- 8 न्यायकुमुदचन्द्रनिर्दिष्ट ग्रन्थ-ग्रन्थकार कीर्ति, श्वे नमसाहित्य, क्त्वार्थभाष्य 9 न्यायकुमुदचन्द्रगत लाक्षणिकशब्द कार,सिद्धसेन धर्मदासगणिहाभद्र, सिद्धर्षि, 10 न्यायकुमुदचद्रगत विशिष्टशब्द अभयदेव, वादिदेवमूहिक लयगिरि, 11 न्यायकुमुदचन्द्र के दार्शनिकशब्द देवभद्र, मल्लिषेण, गुरित्न, यशोविजय 12 मूलटिप्पण्युपयुक्त ग्रन्थसङ्केतविवरण आदिसे प्रभाचन्द्रकी तुलना] 6 शुद्धिपत्र 626 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पणम्- . "श्रीजैनसिद्धान्तमहोदधिर्म समग्रसिद्धान्तगुरुश्चकास्ति / बंशीधरो जैनकुलावतंसी हंसीयति न्यायनये जनोऽयम् // 1 // स न्यायालङ्कारश्चश्चत्स्याद्वादवारिधिर्धीमान् / वाग्देवीनर्मज्ञो मर्मज्ञः कर्मकाण्डस्य // 2 // तस्याद्य वरिवस्यायामुपहारधिया मया / सम्पाद्य न्यायकुमुदोत्तरार्धमिदमर्प्यते // 3 // " तद यतमशिष्येण न्यायाचार्यमहेन्द्रकुमारेण Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला ] [ न्यायकुमुदचन्द्र माकनमा नरुपस्यापिसनिकर्यादापमाज साधनानियमाणानात्मकारवाया "साकञ्च कारकल्पतवाद्यमततावत्समध्यतितवाहनावरल वापिलाक नघुनहानवमज्ञानववासशसायादिवत्यामयाचा पोपला सर्वचायतडत्यनियसंगात्। तत्सनावावदकेचयमाय वहिनावावर हायातहि यतहितमपिकिंनरीयादविवाषाता कि चिडियकार केकार करमास नफलपाडतावायपत्तवात तमाहीदियनासनिताफलमत्यादयतिकारक वाहास्याठिदता (निादादिस्यचमाप्पकारिदमुपधात साधाविडियातरधपित कल्यतामविनावातीसवे _धसिंहवरुप.सनिकषप्रकारातवतिसरयाग सातसं मवायत्समवाय समावतसमवाय संबदविराघाताव तिीतचडापाडयेगसत्यागातत्समावरतणाकम्ममामाथी सक्लसमावतसमवायः सद्यतसमवायःयाकर्मसावतिःसामायो संयुक्त समावतसमवाय स्थान साराष्टेनसमवाय शवनसमाचतसमवायावसायत्तावमसमवायनसबदविवाणीसावधित्यकंचोतांद्यमानचनाबाबसानिकार डयद्यातातबबाह्येरुयादाचवःसानकदिवयत्यदासत्पद्यातायात्माहिमनसाझुडपातामश्नइंडियणेडियमाघरनति।। उरवादाउदीय सनिकादिवतयचडरादिद्यायारानावात यात्मनिवायागिनाहायारवात्ममनासासनिकादितिला उन यसमत नदिसमवाघमाना समवाय.055 आ० संज्ञक, ईडरभण्डारीय त्रुटित प्रति का 11 वाँ पत्र, द्वितीय पार्श्व. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशककी ओरसे : लगभग दो वर्षके बाद न्यायकुमुदचन्द्रका यह दूसरा भाग भी पाठकोंके सामने उपस्थित किया जा रहा है और इस तरह कोई बीस वर्षे के बाद इस महान् ग्रन्थको प्रकाशित करनेको मेरी इच्छा पूरी हो रही है। पूर्वार्धके समान इस उत्तरार्धका भी सर्वाङ्ग सुन्दर पद्धतिसे सम्पादन और संशोधन किया गया है और इसके लिए सम्पादक महाशय धन्यवाद के पात्र हैं। उनका यह परिश्रम और अध्यवसाय दूसरे विद्वानोंके लिए ग्रन्थसम्पादन कार्यमें मार्गदर्शकका काम देगा। हमें आशा करनी चाहिए कि आगे जो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हों वे इसी सावधानी और ऐसे ही परिश्रमसे हो / इन दो वर्षों में इस ग्रन्थमालाकी ओर से महापुराणका दूसरा खण्ड और जटासिंहनन्दिका वरांगचरित्र, ये दो ग्रन्थ और भी प्रकाशित हो चुके हैं। महापुराणका तीसरा खण्ड प्रेसमें है, और आशा है कि वह भी इस सालके अन्त तक समाप्त हो जायगा। ग्रन्थमालाके आर्थिक संकटकी बात मैं पहले लिख चुका हूँ, वह अभी चल ही रहा है। ग्रन्थमालाके कोषाध्यक्ष सेठ ठाकुरदास भगवानदासजी जौहरीने अपने हाथकी अन्य संस्थाओंसे कुछ रकम कर्जके तौर पर ले ली है और इस तरह फिलहाल अधूरे ग्रन्थोंको पूरा करनेकी समस्याको हल कर लिया गया है। आगे क्या होगा, यह भविष्य हो बतलायगा, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। .. यह बात ग्रन्थमालाके मन्त्रीके अधिकारको सीमाके भीतर नहीं आती कि वह ग्रन्थकर्ताके समय . आदिके विषयमें भी कुछ लिखे और उसकी ऐसी कोई जरूरत भी नहीं मालूम होतो। परन्तु सम्पादक महाशयका आग्रह है कि मुझे कुछ लिखना ही चाहिए, अत एव विवश हूँ। पहले भागकी भूमिकामें पं० कैलासचन्द्रजीने और इस भागको भूमिकामें पं० महेन्द्रकुमारजीने प्राचार्य प्रभाचन्द्रके समयादिके विषयमें खूब बिस्तारके साथ ऊहापोह किया है। यद्यपि दोनों विद्वानोंमें अनेक बातोंमें मतभेद है, फिर भी उससे इस ग्रन्थके पाठकोंके समक्ष प्राचार्य प्रभाचन्द्रके समयकी शताब्दी तो कमसे कम निर्धान्तरूपसे स्पष्ट हो जाती है, और यह बहुत बड़ी बात है। मेरी समझमें प्रभाचन्द्राचार्य, जैसा कि उनके ग्रन्थोंको प्रशस्तियों में ही लिखा है, धारानरेश भोजदेव और उनके उत्तराधिकारी जयसिंहदेवके समयके विद्वान् हैं और अब इस विषयमें जरा भी सन्देहकी गुंजाइश नहीं है। अभी तक उनके समय-निर्णयमें सबसे बड़ा बाधक भगवजिनसेनके अदिपुराणका वह चन्द्रांशुशुभ्रयशसं' श्रादि श्लोक* था, जिसने विद्वानोंको एक ऐसा दिग्भ्रम उत्पन्न कर दिया था कि वे जिनसेनके बाद प्रभाचन्द्रके होनेकी बात सोच ही नहीं सकते थे। क्योंकि उसमें 'प्रभाचन्दकवि' और कृत्वा चन्द्रोदय' पद इतने स्पष्ट थे कि उनके कारण प्रभाचन्द्राचार्य और न्यायकुमुदचन्द्रके सिवाय दूसरी ओर किसीकी दृष्टि ही नहीं जाती थी। जहाँ तक मैं जानता हूँ सबसे पहले पं० कैलासचन्द्रजीने उक्त श्लोकके माने हुए अर्थमें शङ्का उठाई और अनुमान किया कि जिनसेन स्वामीने किसी और ही प्रभाचन्द्रकी स्तुतिकी होगी और उनका बनाया हुआ कोई 'चन्द्रोदय' नामका ग्रन्थ भी होगा। उन्होंने द्वितीय जिनसेनके हरिवंशपुराणके आकृपारं यशो लोके आदि श्लोका से यह भी अनुमान * चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि स्तुवे / कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् // + आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् / गुरोः कुमारसेनस्य विचरयजितात्मकम् // Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र किया कि वे प्रभाचन्द्र कुमारसेन गुरुके शिष्य थे जब कि न्यायकुमुदचन्दकर्ताके गुरु पद्मनन्दि थे। अत एव . दोनों जुदा जुदा समयके जुदा जुदा विद्वान् हैं / इस उलझनके सुलझ जानेपर प्रभाचन्द्रके समय-निर्णयका मार्ग सुगम हो गया और अब तो . पं० महेन्द्रकुमारले उनके ग्रन्थों के अन्तरंग प्रमाण तथा बहि प्रमाणसे बिल्कुल निश्चित ही कर दिया है। प्रमेक्कमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदके अतिरिक्त उनके और कौन कौन ग्रन्थ हैं, इसका पता लगानेकी और यह सप्रमाण सिद्ध करनेकी कि वे उन्हींके हैं, दूसरे प्रभाचन्द्र नामधारियोंके नहीं हैं, अभी और जरूरत है। मेरी समझमें भाचन्द्रने टीका-टिप्पण ग्रन्थ बहुत लिखे हैं और अभी तक जिन्हें दूसरे प्रभाचन्द्रोंका समझा जाता से नीचे लिखे टीका-ग्रन्थ तो उनके ही हैं यह प्रायः निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है। भूमिकामें इनमेसे कुछकी चर्चा भी की जा चुकी है 1 तत्वार्थत्तिपद विवरण ( सर्वार्थसिद्धि-टिप्पण)। 2 प्रवचनसरोजभास्कर / 6 समाधितन्त्र-टीका / / 3 शब्दाम्भोजभास्कर। 7 अात्मानुशासन-तिलक / 4 रनकरण्ड-टीका। 8 महापुराण (पुष्पदन्त)-टिप्पण / 5 क्रियाकलाप-टीका। 9 द्रव्यसंग्रह-पंजिका। ... पिछले ग्रन्थकी सूचना अभी हाल ही मुझे रायल एशियाटिक सोसाइटो बाम्बे ब्रांचके हस्तलिखित ' ' पन्धों के कैटलॉगमें मिली / उक्त ग्रन्थकी प्रति सं० 1822 की लिखी हुई है। उसका मङ्गलाचरण यह है "नत्वा जिनार्कमपहस्तितसर्वदोषं लोकत्रयाधिपतिसंस्तुतपादपद्मम् / ज्ञानप्रभाप्रकटिताखिलवस्तुसार्थ षड्व्व्य निर्णयमहं प्रकटं प्रवक्ष्ये // " मङ्गलाचरणकी यह शैली प्रभाचन्द्रकी ही है और उनके अन्य मङ्गलाचरणों के साथ इसका शब्दसाम्य भो है। आराधनाकथाकोश (गय) भी इन्हींका बनाया हुआ है। अन्य ग्रन्थसूचियोंमें प्रभाचन्द्रके नामसे नीचे लिखे टीका ग्रन्थोंके नाम और भी मिलते हैं। मेरा अनमान है कि इनमेंसे अधिकांश इन्हीं प्रभाचन्दके होंगे१ अष्टपाहुड-पक्षिका 5 पञ्चास्तिकायटीका / 2 स्वयंभूस्तोत्र-पञ्जिका 6 मूलाचारटीका 3 देवागम-पञ्जिका 7 आराधना-टीका 4 समयसार टीका 8 पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकाटीका इन टीका-ग्रन्थोंकी छानबीन होने पर समयादिके सम्बन्धमें और भी पुष्ट प्रमाण उपलब्ध हो सकेंगे। मैं गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज़के प्रिंसिपल डॉ० मङ्गलदेवजी शास्त्री और हिन्दू विश्वविद्यालयके जैनदर्शनाध्यापक सखलालजीका आभार मानता हूँ जिन्होंने श्रादिवचन और प्राकथनके रूपमें बहमल्य विचार उपस्थित किए हैं। बम्बई -नाथूराम प्रेमी 27-3-41 मन्त्री ग्रन्थमाला। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // आदि व च न // भारतीय दर्शनशास्त्रका इतिहास अत्यन्त प्राचीन है, भिन्न भिन्न समयमें अधिकारिभेदसे अनेक दर्शनोंका उत्थान इस देशमें हुआ। दृश्य जगत्के सम्पर्कसे विभिन्न परिस्थितियोंके कारण मनुष्य के हृदयमें जो अनेक प्रकारकी जिज्ञासा उत्पन्न होती हैं उनका समाधान करना ही किसी दर्शनका मुख्य लक्ष्य होता है। जिज्ञासाभेदसे दर्शनोंका भेद स्वाभाविक है। भारतीय दर्शनोंमें जैनदर्शनका भी एक प्रधान स्थान है। इसका हमारी समझमें एक मुख्य वैशिष्ट्य यह है कि इसके आचार्योंने प्रचलित परम्परागत विचार और रूढ़ियोंसे अपनेको पृथक् करके स्वतन्त्र दृष्टिसे दार्शनिक प्रमेयोंके विश्लेषणकी चेष्टा की है। हम यहां विश्लेषण शब्दका प्रयोग जान-बूझकर कर रहे हैं। वस्तुस्थितिमें एक दार्शनिकका कार्य-जिस प्रकार एक वैयाकरण शब्दका व्याकरण अर्थात् विश्लेषण न कि निर्माण, करता है-इसी प्रकार पदार्थों के सम्बन्धसे उत्पन्न होनेवाले हमारे विचारों और उनके सम्बन्धोंके रहस्यका उद्घाटन करना होता है। ‘पदार्थोंकी सत्ता हमारे विचारोंसे निरपेक्ष, स्वतः सिद्ध है' इस सिद्धान्तको प्रायः लोग भूल जाते हैं। हम समझते हैं कि जैन दर्शनका अनेकान्तवाद, जिसको कि उसकी मूलभित्ति कहा जा सकता है, उपर्युक्त मूलसिद्धान्तको लेकर ही प्रवृत्त हुआ है। ... अनेकान्तवादका मौलिक अभिप्राय यही हो सकता है कि तत्त्वके विषयमें अाग्रह न Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 न्यायकुमुदचन्द्र होते हुए भी उसके विषयमें तत्तदवस्थाभेदके कारण दृष्टिभेद संभव है। इस सिद्धान्तकी / मौलिकतामें किसको सन्देह हो सकता है। क्या हम "श्रुतयो विभिन्नाः स्मृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य मतं न मिन्नम् / " [महाभारत] “यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः। अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् // " [ केनोपनिषत् 2 / 3 ] इत्यादि वचनोंको मूलमें अनेकान्तवादका ही प्रतिपादक नहीं कह सकते ? दर्शनशब्द ही स्वतः दृष्टिभेदके अर्थको प्रकट करता है। इस अभिप्रायसे जैनाचार्योंने अनेकान्तवादके द्वारा दार्शनिक आधार पर विभिन्न दर्शनोंमें विरोध भावनाको हटाकर परस्पर समन्वय स्थापित करनेका एक सत्प्रयत्न किया है। अनेक अवस्थाओंसे बद्ध, सदैव विभिन्न दृष्टिकोणोंसे पदार्थोंको देखनेका अभ्यासी मनुष्य, किसी पदार्थके अखण्ड सकल-स्वरूपको कैसे जान सकता है ? उस अखण्ड मूलस्वरूपको हम सच्चे अर्थमें "गुहाहितं गहरेष्ठं पुराणम्" कह सकते हैं / “पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यां वृतं दिवि” [यजुर्वेद पुरुषसूक्त ] इस वैदिकश्रुतिका मी वास्तविक तात्पर्य यही है। इसमें सन्देह नहीं कि जैनदर्शनमें प्रतिपादित अनेकान्तवादके इस मौलिक अभिप्रायको समझनेसे दार्शनिक जगत्में परस्पर विरोध तथा कलहकी भावनाओंके नाशसे परस्पर सौमनस्य और शान्तिका साम्राज्य स्थापित हो सकता है। जैनधर्मकी भारतीय संस्कृतिको बड़ी भारी देन अहिंसावाद है। जो कि वास्तवमें दार्शनिकभित्तिपर स्थापित अनेकान्तवादका ही नैतिकशास्त्रकी दृष्टि से अनुवाद कहा जा सकता है। धार्मिकदृष्टि से यदि अहिंसावादको ही जैनधर्ममें सर्वप्रथम स्थान देना आवश्यक हो तो हम अनेकान्तवादको ही उसका दार्शनिकदृष्टिसे अनुवाद कह सकते हैं। अहिंसा शब्दका अर्थ भी मानवीय सभ्यताके उत्कर्षानुत्कर्षकी दृष्टि से भिन्न भिन्न किया जा सकता है। एक साधारण मनुष्य के स्थूल विचारोंकी दृष्टिसे हिंसा किसीकी जान लेनेमें ही हो सकती है। किसीके भावोंको आघात पहुंचानेको वह हिंसा नहीं कहेगा। परन्तु एक सभ्य मनुष्य तो विरुद्ध विचारोंकी असहिष्णुताको भी हिंसा ही कहेगा / उसका सिद्धान्त तो यही होता है कि "अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता / सैव दुर्भाषिता राजन् अनायोपपद्यते // वाक्सायका वदनानिष्पतन्ति पैराहताः शोचति राज्यहानि / परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान् पण्डितो नावसृजेत् परेभ्यः // " [विदुरनीति 2 / 77,80] सभ्य जगत्का आदर्श विचार स्वातन्त्र्य है / इस आदर्शकी रक्षा अहिंसावाद ( हिंसा-असहिष्णुता ) के द्वारा ही हो सकती है। विचारोंकी सङ्कीर्णता या असहिष्णुता Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 आदिवचन ईर्षा-द्वेषकी जननी है। इस असहिष्णुताको हम किसी अन्धकारसे कम नहीं समझते / आज हमारे देशमें जो अशान्ति है उसका एक मुख्य कारण यही विचारोंकी सङ्कीर्णता है / प्राचीन संस्कृत साहित्यमें पाया जानेवाला 'पानृशंस्य' शब्द भी इसी अहिंसावादका द्योतक है। इस प्रकारके अहिंसावादकी आवश्यकता सारे संसारको है। जैनधर्मके द्वारा इसमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। उपर्युक्त दृष्टिसे जैनदर्शन भारतीय दर्शनोंमें अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। .. चिरकालसे ही हमारी यह हार्दिक इच्छा रही है कि हमारे देशमें दार्शनिक अध्ययन साम्प्रदायिक सङ्कीर्णतासे निकलकर विशुद्ध दार्शनिकदृष्टिसे किया जावे / और उसमें दार्शनिक समस्याओंको सामने रखकर तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक दृष्टिका यथासंभव अधिकाधिक उपयोग हो। इसी पद्धतिके अवलम्बनसे भारतीय दर्शनका क्रमिक विकास समझा जा सकता है, और दार्शनिक अध्ययनमें एक प्रकारकी सजीवता आ सकती है। यह प्रसन्नताकी बात है कि कुछ विद्वानोंने बहुत कुछ इसी पद्धति के अनुसार ग्रन्थोंका सम्पादन प्रारम्भ कर दिया है। प्रज्ञाचक्षु प्रसिद्ध विद्वान् पं० सुखलालजीका नाम इस सम्बन्धमें विशेषरूपसे उल्लेखनीय है। दार्शनिक विद्वान् पं० महेन्द्रकुमारजी शास्त्रीने भी इसी.पद्धतिका अवलम्बन कर जैनदर्शनके साहित्यका सम्पादन करना प्रारम्भ कर दिया है। अब तक आप न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभाग, अकलङ्कग्रन्थत्रय, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके विद्वत्तापूर्ण संस्करण प्रकाशित कर चुके हैं। न्यायकुमुदचन्द्रका यह द्वितीय भाग भी उसी प्रकार बड़े परिश्रमसे सम्पादन करके प्रकाशित किया जा रहा है। आपकी प्रस्तावनाओं और टिप्पणियोंसे पगपग पर यह स्पष्ट है कि आपने अनेकानेक अन्य ग्रन्थोंके साथ तुलना करके यथासंभव इस बातकी चेष्टा की है कि प्रकृतग्रन्थका उनके साथ जो कुछ भी सम्बन्ध हो वह स्पष्ट हो जावे। इसके लिए संस्कृत विद्वन्मण्डली सम्पादक महाशयकी अवश्य आभारी होगी। हम अपनी ओरसे उनको हृदयसे इस सफलता पर बधाई देते हैं, और आशा करते हैं कि अन्य ग्रन्थ सम्पादक महाशय उनकी पद्धतिका अवलम्बन करेंगे। सरस्वती भवन, -मङ्गलदेव शास्त्री, M.A., D.Phil, (oxon). [प्रिंसिपल, गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज, बनारस रजिस्ट्रार, गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज इग्जामिनेशन्स, यू०पी०, बनारस]] 28 / 3 / 41 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // प्राकथन। न्यायकुमुदचन्द्र के प्रथम भागमें मैं अपना प्राक्कथन लिख चुका हूँ। फिर भी इस दूसरे भागकी प्रस्तावना जब मैं सुन गया तब प्राक्कथन रूपसे कुछ भी लिखनेके संपादकीय अनुरोधको टाल न सका। इसीलिए कुछ लिखने को प्रवृत्त हुआ हूँ। न्यायकुमुदचन्द्र यह दर्शनका ग्रन्थ है सो भी संप्रदायविशेषका, अतएव सर्वोपयोगिताकी दृष्टिसे यह विचार करना उचित होगा कि दर्शनका मतलब क्या समझा जाता है और वस्तुत: उसका मतलब क्या होना चाहिए। इसी तरह यह भी विचारना समुचित होगा कि संप्रदाय क्या वस्तु है और उसके साथ दर्शन का सबन्ध कैसा रहा है तथा उस सांप्रदायिक सम्बन्धके फल स्वरूप दर्शनमें क्या गुण-दोष आए हैं इत्यादि / सब कोई सामान्यरूपसे यही समझते और मानते आए हैं कि दर्शनका मतलब है तत्त्वसाक्षात्कार / सभी दार्शनिक अपने अपने सांप्रदायिक दर्शनको साक्षात्काररूप ही मानते आए हैं। यहाँ सवाल यह है कि साक्षात्कार किसे कहना ? इसका जवाब एक ही हो सकता है कि साक्षात्कार वह है जिसमें भ्रम या संदेहको अवकाश न हो और साक्षात्कार किए गए तत्त्वमें फिर मतभेद या विरोध न हो। अगर दर्शनकी उक्त साक्षात्कारात्मक व्याख्या सबको मान्य है तो दूसरा प्रश्न यह होता है कि अनेक संप्रदायाश्रित विविध दर्शनोंमें एक ही तत्त्वके विषयमें इतने नाना मतभेद कैसे ? और उनमें असमाधेय समझा जानेवाला परस्पर विरोध कैसा ? इस शंकाका जबाब देने के लिए हमारे पास एक ही रास्ता है कि हम दर्शन शब्दका कुछ और अर्थ समझें। उसका जो साक्षात्कार अर्थ समझा जाता है और जो चिरकालसे शास्त्रोंमें भी लिखा मिलता है, वह अर्थ अगर यथार्थ है, तो मेरी रायमें वह समग्र दर्शनों द्वारा निर्विवाद और असंदिग्धरूपसे सम्मत निम्नलिखित आध्यात्मिक प्रमेयोंमें ही घट सकता है. १-पुनर्जन्म, २-उसका कारण, ३-पुनर्जन्मग्राही कोई तत्त्व, ४-साधनविशेषद्वारा पुनर्जन्मके कारणोंका उच्छेद / ये प्रमेय साक्षात्कारके विषय माने जा सकते हैं / कभी न कभी किसी तपस्वी द्रष्टा या द्रष्टाओंको उक्त तत्त्वोंका साक्षात्कार हुआ होगा ऐसा कहा जा सकता है; क्योंकि आज तक किसी आध्यात्मिक दर्शनमें इन तथा ऐसे तत्त्वोंके बारेमें न तो मतभेद प्रकट हुआ है और न उनमें किसीका विरोध ही रहा है / पर उक्त मूल आध्यात्मिक प्रमेयोंके विशेष विशेष स्वरूपके विषयमें तथा उनके ब्यौरेवार विचारमें सभी प्रधान प्रधान दर्शनोंका, और कभी कभी तो एक ही दर्शनकी अनेक शाखाओंका इतना अधिक मतभेद और विरोध शास्त्रोंमें देखा जाता है कि जिसे देखकर तटस्थ समालोचक यह कभी नहीं मान सकता कि किसी एक या सभी संप्रदायके ब्यौरेवार मन्तव्य साक्षात्कारके विषय हुए हों। अगर वे मन्तव्य साक्षात्कृत हों तो किस संप्रदायके ? किसी एक Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन 18 संप्रदायको ब्यौरेके बारेमें साक्षात्कर्ता-द्रष्टा साबित करना टेढ़ी खीर है / अतएव बहुत हुआ तो उक्त मूल प्रमेयोंमें दर्शनका साक्षात्कार अर्थ मान लेनेके बाद ब्यौरेके बारेमें दर्शनका कुछ और ही अर्थ करना पड़ेगा। - विचार करनेसे जान पड़ता है, कि दर्शनका दूसरा अर्थ 'सबलप्रतीति' ही करना ठीक है। शब्दके अर्थों के भी जुदे जुदे स्तर होते हैं / दर्शनके अर्थका यह दूसरा स्तर है। हम वाचक उमास्वातिके "तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" इस सूत्रमें तथा इसकी व्याख्याओंमें वह दूसरा स्तर स्पष्ट पाते हैं / वाचकश्रीने साफ कहा है कि प्रमेयोंकी श्रद्धा ही दर्शन है। यहाँ यह कभी न भूलना चाहिए कि श्रद्धाके माने है बलवती प्रतीति या विश्वास, न कि साक्षात्कार। श्रद्धा या विश्वास, साक्षात्कारको संप्रदायमें जीवित रखनेकी एक भूमिका-विशेष है, जिसे मैंने दर्शनका दूसरा स्तर कहा है। यों तो संप्रदाय हर एक देशके चिन्तकोंमें देखा जाता है / यूरोपके तत्त्वचिन्तनकी आद्य भूमि-ग्रीसके चिन्तकोंमें भी परस्पर विरोधी अनेक संप्रदाय रहे हैं, पर भारतीय तत्त्वचिन्तकों के संप्रदायकी कथा कुछ निराली ही है / इस देशके संप्रदाय मूलमें धर्मप्राण और धर्मजीवी रहे हैं / सभी संप्रदायोंने तत्त्वचिन्तनको आश्रय ही नहीं दिया बल्कि उसके विकास और विस्तार में भी बहुत कुछ किया है। एक तरहसे भारतीय तत्त्वचिन्तनका चमत्कारपूर्ण बौद्धिकप्रदेश जुदे जुदे संप्रदायोंके प्रयत्नका ही परिणाम है / पर हमें जो सोचना है वह तो यह है कि हर एक संप्रदाय अपने जिन मन्तव्यों पर सबल विश्वास रखता है और जिन मन्तव्योंको दूसरा विरोधी संप्रदाय कतई माननेको तैयार नहीं है वे मन्तव्य सांप्रदायिक विश्वास या सांप्रदायिक भावनाके ही विषय माने जा सकते हैं साक्षात्कारके विषय नहीं। इस तरह साक्षात्कारका सामान्य स्रोत संप्रदायोंकी भूमि पर ब्यौरेके विशेष प्रवाहोंमें विभाजित होते ही विश्वास और प्रतीतिका रूप धारण करने लगता है। जब साक्षात्कार विश्वास रूपमें परिणत हुआ तब उस विश्वासको स्थापित रखने और उसका समर्थन करनेके लिए सभी संप्रदायोंको कल्पनाओंका-दलीलोंका तथा तर्कोका सहारा लेना पड़ा। सभी सांप्रदायिक तत्त्वचिन्तक अपने अपने विश्वासकी पुष्टिके लिए कल्पनाओंका सहारा पूरे तौरसे लेते रहे फिर भी यह मानते रहे कि हम और हमारा संप्रदाय जो कुछ मानते हैं वह सब कल्पना नहीं किन्तु साक्षात्कार है। इस तरह कल्पनाओंका तथा सत्य असत्य और अर्धसत्य तर्कोका समावेश भी दर्शनके अर्थमें हो गया। एकतरफसे जहाँ सम्प्रदायने मूलदर्शन यानी साक्षात्कारकी रक्षाकी और जहाँ उसे स्पष्ट करने के लिए अनेक प्रकारके चिन्तनको चालू रखा तथा उसे व्यक्त करनेकी अनेक मनोरम कल्पनाएँकीं, वहाँ दूसरी तरफसे संप्रदापकी बाड़ पर बढ़ने तथा फूलने-फलनेवाली तत्त्वचिन्तनकी बेल इतनी पराश्रित हो गई कि उसे संप्रदायोंके सिवाय दूसरा कोई सहारा ही न रहा / फलतः पर्देबन्द पमिनियोंकी तरह तत्त्वचिन्तनकी बेल भी कोमल और संकुचितदृष्टिवाली बन गई। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र हम सांप्रदायिक चिन्तकोंका यह झुकाव रोज देखते हैं कि वे अपने चिन्तनमें तो . कितनी ही कमी या अपनी दलीलोंमें कितनाही लचरपन क्यों न हो उसे प्रायः देख नहीं पाते / और दूसरे विरोधी संप्रदायके तत्त्वचिन्तनोंमें कितना ही साद्गुण्य और वैशथ क्यों न हो उसे . स्वीकार करनेमें भी हिचकिचाते हैं। सांप्रदायिक तत्त्वचिन्तकोंका यह भी मानस देखा जाता है कि वे संप्रदायान्तरके प्रमेयोंको या विशेष चिन्तनोंको अपनाकर भी मुक्तकण्ठसे उसके प्रति कृतज्ञता दर्शानेमें हमेशा हिचकिचाते हैं। दर्शन जब साक्षात्कारकी भूमिकाको लाँधकर विश्वासकी भूमिका पर आया और उसमें कल्पनाओं तथा सत्यासत्य तकोंका भी समावेश किया जाने लगा, तब दर्शन सांप्रदायिक संकुचित दृष्टियोंमें श्रावृत होकर, मूलमें शुद्ध प्राध्यास्मिक होते हुए भी अनेक दोषोंका पुञ्ज भी बन गया। अब तो यह पृथक्करण करना ही कठिन हो गया है कि दार्शनिक चिन्तनोंमें क्या कल्पनामात्र है, क्या सत्य तर्क है, या क्या असत्य तर्क है ? हर एक संप्रदायका अनुयायी चाहे बह अपढ़ हो, या पढ़ा लिखा, विद्यार्थी एवं पंडित, यह मानकर ही अपने तत्वचिंतक ग्रन्थोंको सुनता है या पढ़ता पढ़ाता है, कि इस हमारे तत्त्वग्रन्थमें जो कुछ लिखा गया है वह अक्षरशः सत्य है, इसमें भ्रान्ति या संदेहको अवकाश ही नहीं है / तथा इसमें जो कुछ है वह दूसरे किसी संप्रदायके ग्रन्थमें नहीं है / और अगर है तो भी वह हमारे संप्रदायसे ही उसमें गया है। इस प्रकारकी प्रत्येक संप्रदायकी अपूर्णमें पूर्ण मान लेनेकी प्रवृत्ति इतनी अधिक बलवती है कि अगर इसका कुछ इलाज न हुआ तो मनुष्यजातिका उपकार करनेके लिए प्रवृत्त हुआ यह दर्शन मनुष्यताका ही घातक सिद्ध होगा। ____ मैं समझता हूँ कि उक्त दोषको दूर करनेके अनेक उपायोंमें से एक उपाय यह भी है कि जहाँ दार्शनिक प्रमेयोंका अध्ययन तात्त्विकदृष्टिसे किया जाय वहाँ साथ ही साथ वह अध्ययन ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टिसे भी किया जाय / जब हम किसी भी एक दर्शनके प्रमेयोंका अध्ययन ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टिसे करते हैं तब हमें अनेक दूसरे दर्शनोंके प्रमेयों के बारेमें भी जानकारी प्राप्त करनी पड़ती है / वह जानकरी अधूरी या विपर्यस्त नहीं / पूरी और यथासंभव यथार्थ जानकारी होते ही हमारा मानस व्यापक ज्ञानके आलोकसे भर जाता है / ज्ञानकी विशालता और स्पष्टता हमारी दृष्टिमेंसे संकुचितता तथा तजन्य भय आदि दोषोंको उसी तरह हटाती है जिस तरह प्रकाश तम को। हम असर्वज्ञ और अपूर्ण हैं, फिर भी अधिकसे अधिक सत्यके निकट पहुँचना चाहते हैं। अगर हम योगी नहीं हैं फिर भी अधिकाधिक सत्य या तत्त्वदर्शनके अधिकारी बनना चाहते हैं तो हमारे वास्ते साधारण मार्ग यही है कि हम किसी भी दर्शनको यथा संभव सर्वांगीण ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टि से भी पढ़ें। न्यायकुमुदचन्द्रके संपादक पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने मूल ग्रन्थके नीचे एक एक छोटे बड़े मुद्देपर जो बहुश्रुतत्वपूर्ण टिप्पण दिये हैं और प्रस्तावनामें जो अनेक संप्रदायोंके प्राचार्योंके ज्ञानमें एक दूसरेसे लेनदेनका ऐतिहासिक पर्यालोचन किया है, उन सबकी सार्थकता उपर्युक्त दृष्टिसे अध्ययन करने करानेमें ही है / सारे न्यायकुमुदचन्द्र के टिप्पण तथा प्रस्तावनाका Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकथन 15 माश अगर कार्यसाधक है तो सर्वप्रथम अध्यापकोंके लिए। जैन हो या जैनेतर, सच्चा जिज्ञासु इसमें से बहुत कुछ पा सकता है। अध्यापकोंकी दृष्टि एक बार साफ हुई, उनका अवलोकन प्रदेश एक बार विस्तृत हुआ, फिर वह सुवास विद्यार्थियोंमें तथा अपद अनुयायियोंमें भी अपने श्राप फैलने लगती है / इस भावी लाभकी निश्चित आशासे देखा जाय तो मुझको यह कहने में लेश भी संकोच नहीं होता कि संपादकका टिप्पण तथा प्रस्तावनाविषयक श्रम दार्शनिक अध्ययन क्षेत्रमें सांप्रदायिकताकी संकुचित मनोवृत्ति दूर करनेमें बहुत कारगर सिद्ध होगा। ___भारतवर्षको दर्शनोंकी जन्मस्थलीऔर क्रीडाभूमि माना जाता है। यहाँका अपढ़ जन भी ब्रह्मज्ञान, मोक्ष तथा अनेकान्त जैसे शब्दोंको पद पद पर प्रयुक्त करता है, फिर भी भारतका दर्शनिक पौरुषशून्य क्यों होगया है ? इसका विचार करना जरूरी है / हम देखते हैं कि दर्शनिक प्रदेशमें कुछ ऐसे दोष दाखिल हो गए हैं जिनकी ओर चिन्तकोंका ध्यान अवश्य जाना चाहिए। पहली बात दर्शनोंके पठन-सम्बन्धी उद्देश्यकी है। जिसे दूसरा कोई क्षेत्र न मिले और बुद्धिप्रधान आजीविका करनी हो तो बहुधा वह दर्शनोंकी ओर झुकता है। मानों दार्शनिक अभ्यास का उद्देश्य या तो प्रधानतया आजाविका हो गया है या वादविजय एवं बुद्धिविलास / इसका फल हम सर्वत्र एक ही देखते हैं कि या तो दार्शनिक गुलाम बन जाता है या सुखशील / इस तरह जहाँ दर्शन शाश्वत अमरताकी गाथा तथा अनिवार्य प्रतिक्षण-मृत्युकी गाथा सिखाकर अभयका संकेत करता है वहाँ उसके अभ्यासी हम निरे भीरु बन गए हैं / जहाँ दर्शन हमें सत्य-असत्यका विवेक सिखाता है वहाँ हम उलटे असत्यको समझनेमें भी अससर्थ होरहे हैं, तथा अगर उसे समझ भी लिया, तो उसका परिहार करनेके विचारसे ही काँप उठते हैं / दर्शन जहाँ दिन रात आत्मैक्य या आत्मौपम्य सिखाता है वहाँ हम भेद-प्रभेदोंको और भी विशेषरूपसे पुष्ट करनेमें ही लग जाते हैं / यह सब विपरीत परिणाम देखा जाता है / इसका कारण एक ही है, और वह है दर्शनके अध्ययनके उद्देश्यको ठीक ठीक न समझना / दर्शन पढ़नेका अधिकारी वही हो सकता है और उसेही पढ़ना चाहिए कि जो सत्य-असत्यके विवेकका सामर्थ्य प्राप्त करना चाहता हो और जो सत्यके स्वीकारकी हिम्मतकी अपेक्षा असत्यका परिहार करनेकी हिम्मत या पौरुष सर्वप्रथम और सर्वाधिक प्रमाणमें प्रकट करना चाहता हो / संक्षेपमें दर्शनके अध्ययनका एक मात्र उद्देश्य है जीवनकी बाहरी और भीतरी शुद्धि / इस उद्देश्यको सामने रखकर ही उस का पठन-पाठन जारी रहे तभी वह मानवताका पोषक बन सकता है / दूसरी बात है दार्शनिक प्रदेशमें नये संशोधनोंकी। अभी तक यही देखा जाता है कि प्रत्येक संप्रदायमें जो मान्यताएँ और जो कल्पनाएँ रूढ़ हो गई हैं उन्हें / उस संप्रदायमें सर्वज्ञप्रणीत माना जाता है / ओर आवश्यक नये विचार प्रकाशका उनमें प्रवेश ही नहीं होने पाता / पूर्वपूर्व पुरखोंके द्वारा किए गए और उत्तराधिकारमें दिए गए चिन्तनों तथा श्रारणोंका प्रवाह ही संप्रदाय है। हर एक संपदायका माननेवाला अपने मन्तव्योंके समर्थन में ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकी प्रतिष्ठाका उपयोग तो करना चाहता है, पर इस दृष्टिका उपयोग वह वहाँ तक Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 न्यायकुमुदचन्द्र ही करता है जहाँ उसे कुछ भी परिवर्तन न करना पड़े। परिवर्तन और संशोधनके नामसे या तो सम्प्रदाय घबड़ाता है या अपनेमें पहलेसे ही सब कुछ होनेकी डीग हाँकता है। इसलिए भारतका दार्शनिक पीछे पड़ गया है। जहाँ जहाँ वैज्ञानिक प्रमेयोंके द्वारा या वैज्ञानिक पद्धतिके द्वारा दाशनिक विषयोंमें संशोधन करनेकी गुंजाइश हो वहाँ सर्वत्र उसका उपयोग अगर न किया जायगा तो यह सनातन दार्शनिकविद्या केवल पुराणोंकी ही वस्तु रह जायगी। अत एव दार्शनिक क्षेत्रमें संशोधन करनेकी प्रवृत्तिकी ओर भी झुकाव होना जरूरी है। दर्शन सम्बन्धी इतनी सामान्य चर्चा कर लेनेके बाद कुछ ऐतिहासिक प्रश्नों पर भी लिखना आवश्यक है / पहला प्रश्न है अकलंकके समयका। पं० महेन्द्रकुमारजीने "अकलङ्कग्रन्थत्रय" की प्रस्तावनामें धर्मकीर्ति और उसके शिष्यों आदिके ग्रन्थोंकी तुलनाके आधार पर अकलङ्कका समय निश्चित करते समय जो विक्रमार्कीय शकसंवत् का अर्थ विक्रमीयसंवत् न लेकर श कसंवत् लेनेकी ओर संकेत किया है वह मुझको भी विशेष साधार मालूम पड़ता है / इस विषयमें पंडितजीने जो धवलाटीकागत उल्लेख तथा प्रो० हीरालालजीके कथनका उल्लेख प्रस्तावना (पृ. 5) में किया है वह उनकी अकलङ्कग्रन्थत्रयमें स्थापित विचारसरणीका ही पोषक है / इस बारेमें सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं० जयचन्द्र विद्यालङ्कारजीका विचार भी पं० महेन्द्रकुमारजीकी धारणाका ही पोषक है / मैं तो पहिलेसे ही मानता आया हूँ कि अकलंकका समय विक्रमकी आठवीं 19 स . __ वे भारतीय इतिहासको रूपरेखा (पृ० 824-29 ) में लिखते हैं कि-"महमूद गजनवीके समकालीन प्रसिद्ध विद्वान यात्री अल्बेरूनीने अपने भारत विषयक ग्रन्थमें शकराजा और दूसरे विक्रमादित्य के युद्धकी बात इस प्रकार लिखी है-"शकसंवत् अथवा शककालका आरम्भ विक्रमादित्यके संवत्से 135 वर्ष पीछे पड़ा है। प्रस्तुत शकने उन ( हिदुओं ) के देश पर सिन्ध नदी और समद्रके बीच, आर्यावर्तके उस राज्यको अपना निवास स्थान बनाने के बाद बड़े अत्याचार किए। कइयों का कहना है, वह अलमन्सूरा नगरीका शूद्र था, दूसरे कहते हैं वह हिन्दू था ही नहीं और भारतमें पश्चिम से आया था। हिन्दुओंको उससे बहत कष्ट सहने पड़े / अन्त में उन्हे पूरब से सहायता मिली जब कि विक्रमादित्यने उस पर चढ़ाईकी, उसे भगा दिया, और मुलतान तथा लोनीके कोटलेके बीच करूर प्रदेशमें उसे मार डाला। तब यह तिथि प्रसिद्ध हो गई, क्योंकि लोग उस प्रजा पीड़ककी मौतकी खबरसे बहुत खुश हुए, और उस तिथि में एक संवत् शुरू हुआ जिसे ज्योतिषी विशेषरूपसे वर्तने लगे। . . . . किन्तु विक्रमादित्य संवत् कहे जानेवाले संवत् के आरम्भ और शकके मारे जाने के बीच बड़ा अन्तर है, इससे मैं समझता हूं कि उस संवत् का नाम जिस विक्रमादित्य के नामसे पड़ा है, वही शकको मारनेवाला विक्रमादित्य नहीं है, केवल दोनोंका नाम एक है।" पृ० ( 824-25 ) "इस पर एक शंका उपस्थित होती है शालिवाहनवाली अनुश्रुतिके कारण। अल्बेरूनी स्पष्ट कहता है कि 78 ई० का संवत् राजा विक्रमादित्य ( सातवाहन ) ने शकको मारने की यादगारमें चलाया। वैसी बात ज्योतिषी भट्टोत्पल (966 ई०) और ब्रह्मगुप्त ( 628 ई०) ने भी लिखी है / वह संवत् अब भी पञ्चाङ्गोंमें शालिवाहन-शक अर्थात् शालिवाहनाब्द कहलाता है / . . ." (पृ. 836 ) / इन दो अवतरणोंसे इतनी बात निर्विवाद सिद्ध है कि विक्रमादित्य (सातवाहन) ने शकराजाको मारकर अपनी शकविजयके उपलक्ष्यमें एक संवत् चलाया था। जो सातवीं शताब्दी ( ब्रह्मगुप्त ) से ही शालिवाहनाब्द माना जाता है। धवलाटीका आदिमें जिस 'विक्रमार्कशक संवत्' का उल्लेख आता है वह यही 'शालिवाहनशक' होना चाहिए / उसका 'विक्रमार्कशक' नाम शकविजयके उपलक्ष्यमें विक्रमादित्य द्वारा चलाए गए शकसंवत् का स्पष्ट सूचन कर रहा है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन 17 शताब्दीका उत्तरार्ध और नववीं शताब्दीका पूर्वार्ध ही हो सकता है जैसा कि याकिनीसूनु हरिभद्रका है। मेरी रायमें अकलंक, हरिभद्र, तत्त्वार्थभाष्यटीकाकार सिद्धसेनगणि, ये सभी थोड़े बहुत प्रमाणमें समसामयिक अवश्य हैं। आगे जो खामी समन्तभद्रके समयके बारेमें कुछ कहना है उससे भी इसी समयकी पुष्टि होती है / आचार्य प्रभाचन्द्रके समयके विषयमें पुरानी नववीं सदीकी मान्यताका तो निरास पं० कैलाशचन्द्रजीने कर ही दिया है / अब उसके सम्बन्धमें इस समय दो मत हैं, जिनका आधार 'भोजदेवराज्ये' और 'जयसिंहदेवराज्ये' वाली प्रशस्तिओंका प्रक्षिप्तत्व या प्रभाचन्द्रकर्तृकत्वकी कल्पना है / अगर उक्त प्रशस्तियाँ प्रभाचन्द्रकर्तृक नहीं हैं तो समयकी उत्तरावधि ई० स० 1020, और अगर प्रभाचन्द्रकर्तृक मानी जाय तो उत्तरावधि ई० स० 1065 है / यही दो पक्षोंका सार है / पं० महेन्द्रकुमारजीने प्रस्तावनामें उक्त प्रशस्तिओंको प्रामाणिक सिद्ध करनेके लिए जो विचारक्रम उपस्थित किया है वह मुझको ठीक मालूम होता है। मेरी रायमें भी उक्त प्रशस्तिओंको प्रक्षिप्त सिद्ध करनेकी कोई बलवत्तर दलील नहीं है / ऐसी दशामें प्रभाचन्द्रका समय विक्रमकी 11 वीं सदीके उत्तरार्धसे बारहवीं सदीके प्रथम पाद तक स्वीकार कर लेना सब दृष्टिसे सयुक्तिक है। - मैंने 'अकलङ्क ग्रन्थत्रय'के प्राक्कथनमें ये शब्द लिखे हैं-"अधिक संभव तो यह है कि समन्तभद्र और अकलंकके बीच साक्षात् विद्याका ही सम्बन्ध रहा है, क्योंकि समन्तभद्रकी कृतिके उपर सर्वप्रथम अकलंककी ही व्याख्या है / " इत्यादि / आगेके कथनसे जब यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि समन्तभद्र पूज्यपादके बाद कभी हुए हैं। और यह तो सिद्ध ही है कि समन्तभद्रकी कृतिके ऊपर सर्वप्रथम व्याख्या अकलंककी है, तब इतना मानना होगा कि अगर समन्तभद्र और अकलंकमें साक्षात् गुरु-शिष्य भाव न भी रहा हो तब भी उनके बीच में समयका कोई विशेष अन्तर नहीं हो सकता। इस दृष्टिसे समन्तभद्रका अस्तित्व विक्रमकी सातवीं शताब्दीका अमुक भाग हो सकता है। मैंने अकलङ्कग्रन्थत्रयके ही प्राक्कथनमें विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा एवं अष्टसहस्रीके स्पष्ट *श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेः' वाला जो श्लोक आप्तपरीक्षा है उसमें 'इद्धरत्नोद्भवस्य' ऐसा सामासिक पद है। श्लोकका अर्थ या अनुवाद करते समय उस सामासिक पदको 'अम्बुनिधि' का समानाधिकरण विशेषण मानकर विचार करना चाहिए। चाहे उसमें समास 'इद्धरत्नोंका उद्भव-प्रभवस्थान' ऐसा तत्पुरुष किया जाय, चाहे 'इद्धरत्नों का उद्भव-उत्पत्ति हुआ है जिसमेंसे' ऐसा बहुव्रीहि किया जाय / उभय दशा वह अम्बनिधिका समानाधिकरण विशेषण ही है / ऐसा करनेसे 'प्रोत्थानारम्भकाले' यह पद ठीक अम्बुनिधिके साथ अपुनरुक्त रूपसे संबद्ध हो जाता है। और फलितार्थ यह निकलता है कि तत्त्वार्थशास्त्ररूप समुद्रकी प्रोत्थान-भूमिका बाँधते समय जो स्तोत्र किया गया है। इस वाक्यार्थमें ध्यान देनेकी मुख्य वस्तु यह है कि तत्त्वार्थका प्रोत्थान बांधनेवाला अर्थात् उसकी उत्पत्तिका निमित्त बतलानेवाला और स्तोत्रका रचयिता ये दोनों एक हैं। जिसने तत्त्वार्थशास्त्रकी उत्पत्तिका निमित्त बतलाया उसीने उस निमित्तको बतलानेके पहिले 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' यह स्तोत्र भी रचा / इस विचार के प्रकाशमें सर्वार्थसिद्धिकी भूमिका जो पढेगा उसे यह सन्देह ही नहीं हो सकता कि 'वह स्त्रोत्र खद पूज्यपाद का है या नहीं। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 न्यायकुमुदचन्द्र उल्लेखोंके आधार पर यह निःशंक रूपसे बतलाया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपादके आप्त- . स्तोत्रके मीमांसाकार हैं अत एव उनके उत्तरवर्ती ही हैं। मेरा यह विचार तो बहुत दिनोंके पहिले स्थिर हुआ था, पर प्रंसग आनेपर उसे संक्षेपमें अकलंकग्रन्थत्रयके प्राक्कथनमें निविष्ट किया था / पं० महेन्द्रकुमारजीने मेरे संक्षिप्त लेखका विशद और सबल भाष्य करके प्रस्तुत भागकी प्रस्तावना (पृ० 25) में यह अभ्रान्तरूपसे स्थिर किया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपादके उत्तरवर्ती हैं / अलबत्ता उन्होंने मेरी सप्तभंगीवाली दलीलको निर्णायक न मानकर विचारणीय कहा है / पर इस विषयमें पंडितजी तथा अन्य सज्जनोंसे मेरा इतना ही कहना है कि मेरी वह दलील विद्यानन्दके स्पष्ट उल्लेखके आधार पर किए गए निर्णयकी पोषक है / और उसे मैने वहाँ स्वतन्त्र प्रमाणरूपसे पेश नहीं किया है / यद्यपि मेरे मनमें तो वह दलील एक स्वतन्त्र प्रमाणरूपसे भी रही है। पर मैंने उसका उपयोग उस तरहसे वहाँ नहीं किया / जो जैन परम्परामें संस्कृत भाषाके प्रवेश, तर्कशास्त्रके अध्ययन और पूर्ववर्ती आचार्योंकी छोटीसी भी महत्वपूर्ण कृतिका उत्तरवर्ती आचार्यों के द्वारा उपयोग किया जाना इत्यादि जैन मानसको जानता है उसे तो कभी संदेह हो ही नहीं सकता कि पूज्यपाद, दिग्नागके पद्यको तो निर्दिष्ट करें पर अपने पूर्ववर्ती या समकालीन समन्तभद्रकी असाधारण कृतियोंका किसी अंशमें स्पर्श भी न करें / क्या वजह है कि उमास्वातीके भाष्यकी तरह सर्वार्थसिद्धि में भी सप्तभंगीका विशद निरूपण न हो ? जो कि समन्तभद्रकी जैनपरंपराको उस समयकी नई देन रही। अस्तु / इसके सिवाय मैं और भी कुछ बातें विचारार्थ उपस्थित करता हूँ जो मुझे स्वामी समन्तभद्रको धर्मकीर्तिके समकालीन माननेकी ओर झुकाती हैं मुद्देकी बात यह है कि अभी तक ऐसा कोई जैन आचार्य या उनका ग्रन्थ नहीं देखा गया जिसका अनुकरण ब्राह्मणों या बौद्धोंने किया हो। इसके विपरीत 1300 वर्षका तो जैन संस्कृत एवं तर्कवाङ्मयका ऐसा इतिहास है जिसमें ब्राह्मण एवं बौद्ध परम्पराकी कृतिओंका प्रतिबिम्ब ही नहीं, कभी कभी तो अक्षरशः अनुकरण है / ऐसी सामान्य व्याप्ति बाँधनेके जो कारण हैं उनकी चर्चा यहाँ अप्रस्तुत है। पर अगर यह सामान्यव्याप्तिकी धारणा भ्रान्त नहीं हैं तो धर्मकीर्ति तथा समन्तभद्रके बीच जो कुछ महत्त्वका साम्य है उस पर ऐतिहासिकोंको विचार करना ही पड़ेगा। न्यायावतारमें धर्मकीति के द्वारा प्रयुक्त एक मात्र अभ्रान्त पदके बलपर सूक्ष्मदर्शी प्रो० याकोबीने सिद्धसेन दिवाकरके समयके बारेमें सूचन किया था, उस पर विचार करनेवाले हम लोगों को समन्तभद्रकी कृतिमें पाये जाने वाले धर्मकीर्तिके साम्य पर भी विचार करना ही होगा। पहली बात तो यह है कि दिग्नागके प्रमाणसमुच्चयगत मंगल श्लोकके उपर ही उसके व्याख्यानरूपसे धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिक का प्रथम परिच्छेद रचा है। जिसमें धर्मकीर्तिमे प्रमाणरूपसे सुगतको ही स्थापित किया है। ठीक उसी तरह से समन्तभद्रने भी पूज्यपादके 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाले मंगल पद्यको लेकर उसके ऊपर आप्तमीमांसा रची है और उसके द्वारा जैन तीर्थंकरको ही आप्त-प्रमाण स्थापित किया है / असल बात यह है कि कुमारिलने श्लोकवार्तिकमें चोदना-वेद कोही अंतिम प्रमाण स्थापित किया, और 'प्रमाणभूताय जगद्धितैषिणे' Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन 19 इस मंगलपद्यके द्वारा दिग्नागप्रतिपादित बुद्धप्रामाण्यको खण्डित किया। इसके जवाब में धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिकके प्रथम परिच्छेदमें बुद्धका प्रामाण्य अन्ययोगव्यवच्छेदरूपसे अपने ढंगसे सविस्तर स्थापित किया। जान पड़ता है इसी सरणीका अनुसरण प्रबलप्रज्ञ समन्तभद्रने किया। पूज्यपादका 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाला सुप्रसन्न पद्य उन्हें मिला फिर तो उनकी प्रतिभा और जग उठी / प्रमाणवार्तिकके सुगतप्रामाण्यके स्थानमें समन्तभद्रने अपनी नई सप्तभंगी सरणीके द्वारा अन्ययोगव्यवच्छेदरूपसे ही अर्हत्-जिन को ही आप्तप्रमाण स्थापित किया। यह तो विचारसरणीका साम्य हुआ। पर शब्दका सादृश्य भी बड़े मार्के का है। धर्मकीर्तिने सुगतको'युक्तयागमाभ्यां विमृशन्' ( प्रमाणवा० 1 / 135 ) "वैफल्याद् वक्ति नानृतम्” (प्र० वा० 1 / 147) कह कर अविरुद्धभाषी कहा है। समन्तभद्रने भी "युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्" ( आप्तमी० का० 6 ) कह कर जैन तीर्थंकर को सर्वज्ञ स्थापित किया है / धर्मकीर्तिने चतुरार्यसत्यके उपदेशकरूपसे ही बुद्रुको सुगत-ययार्थरूप साबित किया है, स्वामी समन्तभद्रने चतुरार्यसत्यके स्थानमें स्याद्वादन्याय या अनेकान्तके उपदेशक रूपसे ही जैन तीर्थंकरको यथार्थरूप सिद्ध किया है। समन्तभद्रने स्याद्वादन्यायकी यथार्थता स्थापित करनेकी दृष्टि से उसके विषयरूपसे अनेक दार्शनिक मुद्दोंको लेकर चर्चा की है, सिद्धसेनने भी सन्मतिके तीसरे काण्डमें अनेकान्तके विषयरूपसे उन्हीं मुद्दों पर चर्चा की है / सिद्धसेन और समन्तभद्रकी चर्चामें मुख्य अन्तर यह है कि सिद्धसेन. प्रत्येक मुद्देकी चर्चा में जब केवल अनेकान्तदृष्टिकी स्थापना करते हैं तब स्वामी समन्तभद्र प्रत्येक मुद्दे पर सयुक्तिक सप्तभंगी प्रणालीके द्वारा अनेकान्त दृष्टिका स्थापन करते हैं। इस तरह धर्मकीर्ति, समन्तभद्र और सिद्धसेनके बीचका साम्य-वैषम्य एक खास अभ्यासकी वस्तु है। ____ खामी समन्तभद्रको धर्मकीर्ति-समकालीन या उनसे अनन्तरोत्तरकालीन होनेकी जो मेरी धारणा हुई है, उसकी पोषक एक और भी दलील विचारार्थ उपस्थित करता हूँ। समन्तभद्रके "द्रव्यपर्याययोरैक्यम्" तथा "संज्ञासंख्याविशेषाच्च" (आप्तमी० 71, 72) इन दो पद्योंके और प्रत्येक शब्दका खण्डन धर्मकीर्तिके टीकाकार अर्चटने किया है, जिसे पं० महेन्द्रकुमारजीने नववीं शताब्दीका लिखा है। अर्चटने हेतुबिन्दु टीका में प्रथम समन्तभद्रोक्त कारिकाके अंशोंको लेकर गद्यमें खण्डन किया है और फिर 'आह च' कहकर खण्डनपरक 45 कारिकाएँ दी हैं / पंडित महेन्द्रकुमारजीने अपनी सुविस्तृत प्रस्तावनामें ( पृ० 27 ) यह संभावना की है कि अर्चटोद्धृत हेतुबिन्दुटीकागत कारिकाएँ धर्मकीतिकृत होंगी। पण्डितजीका अभिप्राय यह है कि धर्मकीर्तिने ही अपने किसी ग्रन्थमें समन्तभद्रकी कारिकाओंका खण्डन पद्यमें किया होगा जिसका अवतरण धर्मकीर्तिका टीकाकार अर्चट कर रहा है। पर इस विषयमें निर्णायक प्रकाश डालनेवाला एक ग्रन्थ और प्राप्त हुआ है जो अर्चटीय हेतुबिन्दु टीकाकी अनुटीका है / इस अनुटीकाका प्रणेता है दुर्वेक मिश्र, जो 11 वीं शताब्दीके आसपासका ब्राह्मण विद्वान् है / दुर्वेकमिश्र बौद्ध शास्त्रों का, खासकर धर्मकीर्तिके ग्रन्थोंका, तथा उसके टीकाकारोंका गहरा अभ्यासी था। उसने अनेक Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 न्यायकुमुदचन्द्र बौद्ध ग्रन्थों पर व्याख्याएँ लिखी हैं / जान पड़ता है कि वह उस समय किसी विद्यासम्पन्न बौद्ध विहारमें अध्यापक रहा होगा / वह बौद्ध शास्त्रोंके बारेमें बहुत मार्मिकतासे और प्रमाणरूपसे लिखने वाला है। उसकी उक्त अनुटीका नेपालके ग्रन्थसंग्रहमेंसे कॉपी होकर भिक्षु राहुलजीके द्वारा मुझको मिली है / उसमें दुर्वेक मिश्रने स्पष्ट रूपसे उक्त 45 कारिकाओंके बारेमें लिखा है कि-ये कारिकाएँ अर्चटकी हैं / अब विचारना यह है कि समन्तभद्रकी उक्त दो कारिकाओंका शब्दशः खण्डन धर्मकीर्ति के टीकाकार अर्चटने किया है न कि धर्मकीर्तिने / अगर धर्मकीर्तिके सामने समन्तभद्रकी कोई कृति होती तो उसकी उसके द्वारा समालोचना होनेकी विशेष संभावना थी। परऐसा हुआ जान पड़ता है कि जब समन्तभद्रने प्रमाणवार्तिकमें स्थापित सुगतप्रामाण्यके विरुद्ध आप्तमीमांसामें जैनतीर्थंकरका प्रामाण्य स्थापित किया और बौद्धमतका जोरोंसे निरास किया तब इसका जबाब धर्मकीर्तिके शिष्योंने देना शुरू किया। कर्णकगोमीने भी जो धर्मकीर्तिका टीकाकार है, समन्तभद्रकी कारिका लेकर जैनमतका खण्डन किया है / ठीक इसी तरह अर्चटने भी समन्तभद्रकी उक्त दो कारिकाओंका सविस्तर खण्डन किया है / ऐसी अवस्थामें मैं अभी तो इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि कमसे कम समन्तभद्र धर्मकीर्तिके पूर्वकालीन तो हो ही नहीं सकते। ऐसी हालतमें विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा तथा अष्टसहस्रीवाली उक्तियोंकी ऐतिहासिकतामें किसी भी प्रकारके सन्देहका अवकाश ही नहीं है / __पंडितजीने प्रस्तावना (पृ० 37) में तत्त्वार्थभाष्यके उमास्वातीप्रणीत होनेके बारेमें भी अन्यदीय संदेहका उल्लेख किया है। मैं समझता हूँ कि संदेहका कोई भी आधार नहीं है / ऐतिहासिक सत्यकी गवेषणामें सांप्रदायिक संस्कारके वश होकर अगर संदेह प्रकट करना हो / तो शायद निर्णय किसी भी वस्तुका कभी भी नहीं हो सकेगा, चाहे उसके बलवत्तर कितने ही प्रमाण क्यों न हों / अस्तु / ___ अन्तमें मैं पंडितजीकी प्रस्तुत गवेषणापूर्ण और श्रमसाधित सत्कृतिका सच्चे हृदयसे अभिनन्दन करता हूँ, और साथ ही जैन समाज, खासकर दिगम्बर समाजके विद्वानों और श्रीमानोंसे भी अभिनन्दन करनेका अनुरोध करता हूँ। विद्वान् तो पंडितजीकी सभी कृतियोंका उदारंभावसे अध्ययनअध्यापन करके अभिनन्दन कर सकते हैं और श्रीमान् , पंडितजीकी साहित्यप्रवण शक्तियोंका अपने साहित्योत्कर्ष तथा भण्डारोद्धार आदि कार्योंमें विनियोग कराकर अभिनन्दन कर सकते हैं / ___मैं पंडितजीसे भी एक अपना नम्र विचार कहे देता हूँ। वह यह कि आगे अब वे दार्शनिक प्रमेयोंको, खासकर जैन प्रमेयोंको केन्द्रमें रखकर उनपर तात्त्विक दृष्टि से ऐसा विवेचन करें जो प्रत्येक या मुख्य मुख्य प्रमेयके स्वरूपका निरूपण करनेके साथ ही साथ उसके सम्बधमें सब दृष्टिओंसे प्रकाश डाल सके / -सुखलाल संघवी हिन्दू विश्वविद्यालय [प्रधान जैनदर्शनाध्यापक ओरियण्टल कालेज काशी। हिन्दू विश्वविद्यालय काशी, 25 / 3 / 41 भूतपूर्व दर्शनाध्यापक गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // स म्पा द की यम् // सितम्बर सन् 1938 में न्यायकुमुदचन्द्र का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ था। करीब 2 // वर्ष बाद उसका अवशिष्टांश दूसरे भाग के रूप में सम्पादित करके चित्त आनन्द से किसी अनिर्वचनीय उल्लाघता का अनुभव कर रहा है, सो इसलिए कि-इस भाग के सम्पादन का पूरा भार मुझे ही ढोना पड़ा है। इस भाग को प्रथम भाग से भी अधिक परिष्कृत तथा सामग्रीसमृद्ध रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय प्रथमभाग के रसिक विद्वन्मण्डल को ही दिया जाना चाहिए। उन्हीं के सदभिप्रायों में इसके प्रेरणाबीज निहित हैं / इस भाग का सम्पादन-संशोधन ब०, आ० तथा श्र० प्रति के आधार से किया गया है / इनका परिचय प्रथम भाग के सम्पादकीय स्तम्भ में दिया जा चुका है। ओरियण्टल बुक एजेन्सी पूना के अध्यक्ष श्री देसाई ने कृपा करके न्यायकुमुदचन्द्र की एक अधूरी प्रति हमारे पास भेजी थी, उसका भी यथावसर उपयोग किया है / इस भाग के टिप्पणों में प्रथम भाग में उपयुक्त ग्रन्थों के सिवाय प्रमाणवार्तिकखवृत्ति, प्रमाणवार्तिकखवृत्तिटीका, प्रमाणवार्तिकमनोरथनन्दिनीवृत्ति जैसे दुर्लभ ग्रन्थों के प्रूफ तथा हेतुबिडम्बनोपाय, हेतुबिन्दुटीका, सिद्धिविनि श्चयटीका, सत्यशासनपरीक्षा, न्यायविनिश्चयविवरण जैसे अलभ्य लिखित ग्रन्थों का भी उपयोग * किया गया है। अर्थोद्धाटन करने वाले टिप्पण भी पर्याप्त मात्रा में लिखे गये हैं / - टिप्पणों में समस्त दर्शनशास्त्रों के प्रमुख ग्रन्थों से की गयी बहुमुखी तुलना से जिज्ञासु पाठकों को न केवल ग्रन्थ के हार्द को ही समझने में सहायता मिलेगी किन्तु प्रत्येक दार्शनिक मुद्दे के क्रमविकास का सारा इतिवृत्त दृष्टिपट पर अङ्कित हो सकेगा। वीरहिम गल से निकली हुई अर्धमागधीमय स्याद्वाद-वाणी की धारा कितने उच्चावच दर्शनस्थानों से बहकर उन्हें सम बनाती है तथा कितनेक समन्तभद्र सिद्धसेन पूज्यपाद मल्लवादि अकलंक जिनभद्र हरिभद्र विद्यानन्द जैसे तीर्थो पर मिलने वाले सहायकनदीकल्प दार्शनिकवादों के स्वच्छ युक्तिसलिलसंभार से समृद्ध बनती है / आज वह इस विकसित दार्शनिक रूप में एकान्तवाद के कदाग्रह से सन्तप्त जिज्ञासुओं को शीतल, समन्वयकारक, मानसअहिंसा के प्रतिरूप, अनेकान्तवादरूप जीवन से अकथ आप्यायक सुषमा का सहज भाव से अनुभव कराती है। वीर हिमाचल की वह वाग्गंगा प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्र की पूर्ण विकसित ज्योत्स्ना में आज काशी की गंगा की तरह धीर और उदात्तभाव से बह रही है / उसके उदर में कितनी ऐतिहासिक घटनाएँ द्रव्य में पर्याय या उद्दाम जवानी में लोल बालभाव की तरह छिपी पड़ी हैं / उसमें कितने उच्चावच शिलाखण्डकल्प दार्शनिकवाद आज रेत बनकर तदात्म हो रहे हैं। इस सब क्रमविकास की धारा का यत्किश्चित् आभास इन टिप्पणों में की गयी बहुगामी तुलना से Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र हो सकेगा। इन उदात्त आचार्यों ने अपनी अहिंसारूपा अनेकान्तदृष्टि से विरोधी दर्शनों की सुयुक्तियों को भी उचित स्थान देकर उनका समन्वय किया है। दार्शनिक क्षेत्र में एकान्तमूलक चौका न लगाकर अनेकान्त का प्रकाश सर्वत्र फैलाया है और उसमें अहिंसा की जान स्याद्वाददृष्टि से सभी एकान्तों का उचित आदर किया है। और इस तरह उन्होंने दार्शनिक वादविवादों का समन्वय कर अहिंसा का मार्ग प्रशस्त किया है तथा उन वादों का उचित फैसला करने का प्रयत्न किया है। आज तक कितनेक वाद उदित हुए, अस्त हुए, तथा कितने आज भी अन्तिम श्वासें ले रहे हैं और वे किस पर अपना कितना और कैसा प्रभाव छोड़ गए हैं, यह सब कहानी इन टिप्पणों के परिशीलन से मानस पटल पर चित्रित होगी। दर्शनशास्त्र स्थूलरूप से यदि मानसिक व्यायाम का प्रदर्शन है तो इसका दूसरा रूप अनेकों वादों के उत्थान-पतनों का अजायबघर भी है। इसके परिशीलन से उन उन युगों की विद्वन्मनोवृत्ति के साथ ही साथ अनेक सामाजिक प्रवृत्तियों का पूरा पूरा प्रतिबिम्ब झलकने लगता है / दर्शन ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन तथा उसके क्रमविकास की कहानी का तटस्थभाव से अवलोकन, हमें इस नतीजे पर पहुँचाता है कि खण्डन मण्डन में सिद्धान्तों की समता और विषमता के कारण एक वादी दूसरे वादी का सहकार प्राप्त करने में, उसकी युक्तियों का अपने ढंग से अनुसरण करने में कभी नहीं हिचकता था। प्रत्युत ऐसी विनिमयपरम्परा के कारण ही आज दर्शनशास्त्र इस विकास को पा सका है। उदाहरणार्थ-नैयायिकाभिमत सृष्टिकर्तृत्व के खण्डन में जहाँ जैन और बौद्धों के साथ मीमांसक भी अपना कन्धा लगाता है वहाँ मीमांसकाभिमत वेद के अपौरुषेयत्व के खण्डन में नैयायिक, जैन और बौद्धों का साथ देता है / इसी तरह वैशेषिक आदि के खण्डन में साथ साथ चलने वाले बौद्ध और जैन भी, जहाँ क्षणिकत्व का विचार होता है, वहाँ वादी और प्रतिवादी बन जाते हैं। उस समय वैशेषिक आदि यथासंभव जैन का खण्डन करने में बौद्धों का तथा बौद्धों का खण्डन करने में जैन का साथ देते हैं / पर जहाँ चार्वाक का खण्डन करने का प्रसंग है वहाँ वैदिक दर्शनों के साथ ही साथ बौद्ध और जैन भी पूरी तरह मैदान में डट जाते हैं। सर्वज्ञत्व के विचार में जैन बौद्ध तथा वैशेषिक आदि मिलकर भीमांसक का मुकाबिला करते हैं। पर जहाँ ब्राह्मणत्वजाति का विचार आता है वहाँ केवल बौद्ध और जैन ही एक ओर रह जाते हैं। इस तरह इस दार्शनिक महाभारत में सिद्धान्तों की समता और विषमता के कारण परस्पर विरोधी वादी भी कहीं समानतन्त्रीय बनकर किसी तीसरे वादी का खण्डन करते हुये देखे जाते हैं तो कहीं एक दूसरे का खण्डन करने में ही अपना बुद्धिकौशल दिखाते हैं। अतः विभिन्न वादों की समालोचना के समय एक ग्रन्थकार का दूसरे ग्रन्थकार की युक्तियों का शब्द अर्थ और भाव की दृष्टि से अनुसरण करना सिद्धान्तों के साम्य-वैषम्य का ही फल है। दार्शनिक क्षेत्र में यह कोई अनहोनी या अनुचित बात नहीं है क्योंकि यह विचार विनिमय ही तो दर्शन शास्त्र के विकास का आधार होता है और इसी में उसकी प्राणप्रतिष्ठा है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय दर्शनशास्त्र का चरम उद्देश तो वस्तु के यथार्थ खरूप का यथावत् परिज्ञान करके शान्तिलाभ करना है। खदर्शनप्रभावना, लाभ पूजा ख्याति आदि तो वादियों के चित्त की विजिगीषा के परिणाम हैं। सच्चा दार्शनिक इस स्तरके ऊपर रहता है और वस्तुतत्त्व की समीक्षा में ताटस्थ्य रखने में ही अपनी बुद्धि का सदुपयोग मानता है / संस्करणपरिचय-इस भाग का मुद्रण भी प्रथम भाग की तरह ही कराया गया है। विशेषता यह है कि टिप्पणों में ग्रन्थों के नाम मोटे टाइप में दे दिये हैं। जिस ग्रन्थ का पाठ लिया है उस ग्रन्थ का ( - ) ऐसे डैश के साथ पाठ के बाद सर्वप्रथम निर्देश किया है / अन्य जिन ग्रन्थों के मात्र पृष्ठस्थल दिये हैं उन ग्रन्थों में वैसी ही आनुपूर्वी से पाठ का होना आवश्यक नहीं है। उन ग्रन्थों के नाम तो अर्थसादृश्य, भावसादृश्य और कहीं शब्दसादृश्य मूलक तुलना के लिए दिये हैं। जो अर्थबोधक टिप्पण आ० प्रति के हाँसिए में लिखे थे उनके आगे 'आ० टि०' ऐसा विभाजक निर्देश किया गया है। बाकी टिप्पण खयं सम्पादक द्वारा ही लिखे गये हैं। टिप्पण या मूल ग्रन्थ में जो शब्द त्रुटित थे या नहीं थे उनकी जगह सम्पादक ने जिन शब्दों को अपनी ओर से रखा है वे [ ] ऐसे ब्रेकिट में मुद्रित हैं। तथा जिन अशुद्ध शब्दों को सुधारने का प्रसङ्ग आया है वहाँ सम्पादक द्वारा कल्पित शुद्ध पाठ ( ) ऐसे ब्रेकिट में दिया गया है / भूमिका में जो विषय प्रथम भाग की प्रस्तावना में चर्चित हो चुके हैं उनकी चरचा यहाँ नहीं की है / आ० प्रभाचन्द्र के समय के विषय में ही कुछ विशिष्ट सामग्री के साथ ऊहापोह किया है / मैं अकलङ्कदेव के समय विषयक अपने विचार सिंघी सीरीज़ से प्रकाशित "अकलङ्कग्रन्थत्रय” की प्रस्तावना में लिख आया हूँ। अतः यहाँ आवश्यक होने पर भी पुनरुक्ति नहीं कर रहा हूँ। परिशिष्ट-इस भाग में निम्नलिखित 12 परिशिष्ट लगाए गए हैं। जिनसे ऐतिहासिक या तात्त्विकदृष्टिवाले जिज्ञासु, ग्रन्थ के विषयों को अपनी दृष्टि से सहज ही खोज सकेंगे। 1 लघीयस्त्रय के कारिकाध का अकाराद्यनुक्रम / 2 लघीयस्त्रय और उसकी खविवृति में आए हुए अवतरण वाक्यों की सूची / 3 लघीयस्त्रय और खविवृति के विशेष शब्दों की सूची, इसमें लाक्षणिक शब्द काले टाइप में दिए हैं। 4 लघीयस्त्रय की कारिकाएँ तथा विवृति के अंश जिन दि० श्वे० आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में उद्धृत किए हैं या उन्हें अपने ग्रन्थों में शामिल किया है उन आचार्यों के उन ग्रन्थों की सूची / 5 न्यायकुमुदचन्द्र में आए हुए ग्रन्थान्तरों के उद्धरणों की सूची / 6 न्यायकुमुदचन्द्र में उपयुक्त न्यायों की सूची / 7 न्यायकुमुदचन्द्रगत प्राचीन ऐतिहासिक पुरुषों के नाम तथा भौगोलिक शब्दों की सूची / 8 न्यायकुमुदचन्द्र में उल्लिखित ग्रन्थ और ग्रन्थकारों की सूची / ( न्यायकुमुदचन्द्र में जिन शब्दों के लक्षण या निरुक्तियाँ की गई हैं उन लाक्षणिक शब्दों की सूची / 10 न्यायकुमुदचन्द्र के कुछ विशिष्ट शब्द / 11 न्यायकुमुदचन्द्र के दार्शनिक शब्दों की सूची। 12 टिप्पणी में तथा मूलग्रन्थ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र में आए हुए अवतरणों के मूलस्थल निर्दिष्ट करने में जिन ग्रन्थों का उपयोग किया है उन ग्रन्थों के संस्करण आदि का परिचय, संकेत विवरण तथा न्यायकुमुद के जिन पृष्ठों पर उनका उपयोग किया है उन पृष्ठों की सूची / शुद्धिपत्र-प्रूफ देखने में पर्याप्त सावधानी रखने पर भी दृष्टिदोष, यन्त्रपरिचालन आदि के कारण होने वाली स्थूल अशुद्धियों का निर्देश ही इस पत्रक में किया है। आभार-आदरणीय प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल जी ने अपनी सहज विद्यारसिकता से यथावसर सत्परामर्श दिये हैं तथा सिद्धिविनिश्चयटीका, हेतुबिन्दुटीका एवं तत्त्वोपप्लवसिंह आदि लिखित ग्रन्थों के उपयोग करने की पूरी पूरी सुविधा दी है। ग्रन्थमाला के प्राण, निर्व्याज साहित्योपासक यथार्थोपनामक पं० नाथूराम जी प्रेमी ने प्रभाचन्द्र के समय में उपयुक्त होने वाली प्रशस्तियाँ, श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र नामक लेख की कच्ची नकल तथा अन्य आवश्यक सामग्री को बड़ी तत्परता एवं निरुत्सेक सहज भाव से जुटाया है। सच पूंछो तो प्रेमीजी जैसे सवृत्त मन्त्री की सदाशयता से ही इस ग्रन्थ का इस रूप में सम्पादन, मुद्रण श्रादि हो सका है। .. त्रिपिटिकाचार्य महापंडित राहुलसांकृत्यायन ने प्रमाणवार्तिक स्ववृत्ति, स्ववृत्तिटीका के दुर्लभ प्रूफ तथा प्रमाणवार्तिकालङ्कार की सर्वथा अलभ्य प्रेस कापी से यथेष्ट नोट्स लेने दिये हैं / सुहृद्वर पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के सहयोग से ही प्रथम भाग की प्रेस कापी के समय इस भाग में मुद्रित अंश का प्रथमवाचन हुआ था और ब० प्रति के पाठान्तर लिए गये थे। पं० परमानन्दजी वीर सेवा मन्दिर सरसावा ने प्राकृतपंचसंग्रह की गाथाओं के स्थल खोज कर भेजे / ओरियंटल बुक् एजेन्सी पूना के अध्यक्ष श्री देसाई ने न्यायकुमुदचन्द्र की एक त्रटित प्रति भेजी। भाण्डारकर प्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिर के अध्यक्ष ने हेतुबिडम्बनोपाय तथा जैनसिद्धान्तभवन आरा के पुस्तकाध्यक्ष श्री के० भुजबली शास्त्री ने सत्यशासनपरीक्षा ग्रन्थ के उपयोग करने का अवसर दिया तथा पत्रोत्तर दिए / श्रीमान् प्रो० हीरालाल जी, प्रो. ए० एन० उपाध्ये, पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार, पं० चैनसुखदास जी, पं० लोकनाथ जी शास्त्री, पं० वर्धमान शास्त्री, सा० र० पं० हीरालाल शास्त्री, पं० नाथूलाल जी आदि विद्वन्मण्डल ने यथासमय प्रशस्ति आदि के बाबत ज्ञातव्य प्रश्नों के उत्तर दिये / पश्चाचार्य पं० भूपनारायण जी झा ने प्रशस्ति श्लोकों की रचना करके सहायता की। श्री विजयमूर्ति जी एम० ए०, शास्त्री ने पाठान्तर लेने में तथा प्रियशिष्य गुलाबचन्द्र जी न्याय-सांख्यतीर्थ और उदयचन्द्रजी ने परिशिष्ट बनाने में पूरी पूरी मदद की है। मैं उक्त सभी महाशयों का हार्दिक आभार मानता हूँ। पौष शुक्ल पूर्णिमा मकरसंक्रान्ति वो०नि० 2467 सम्पादकन्यायाचार्य महेन्द्रकुमार स्या० वि० काशी। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // प्रस्ताव ना // इस संस्करणमें मुद्रित मूलग्रन्थ लघीयस्त्रय और उसकी व्याख्या न्यायकुमुदचन्द्रका परिचय इसी ग्रन्थके प्रथमभागकी प्रस्तावनामें दिया जा चुका है। यहाँ ग्रन्थकारोंके विषय में ही कुछ लिखना इष्ट है / प्रस्तुतग्रन्थके कर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र हैं। यह न्यायकुमुदचन्द्र अकलङ्कदेवके स्वविवृतियुक्त लघीयस्त्रय प्रकरणकी विस्तृत व्याख्या है। अतः मूलकार अकलङ्कदेव और व्याख्याकार प्रभाचन्द्रके विषयमें लिखना ही यहाँ प्रस्तुत है। न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावनामें सुहृद्वर पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने इन दोनों आचार्योंके समय आदिके विषयमें यथेष्ट ऊहापोह किया है। मैं अकलङ्कदेवके समयविषयक अपने विचार "अकलङ्कग्रन्थत्रय” की प्रस्तावनामें विस्तार के साथ लिख चुका हूँ। जिस "विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि / कालेऽकलङ्कयतिनो बौद्धैर्वादो महानभूत // " कारिकाके 'विक्रमार्कशक' शब्द पर विद्वानों का मतभेद है कि 'अकलङ्कदेव का शास्त्रार्थ विक्रमसंवत् 700 में हुआ है, या शक संवत् 700 में ?' उसके विषयमें इतना और विशेष वक्तव्य है कि-'विक्रमार्कशक' शब्दका प्रयोग अनेक प्राचीन आचार्योंने 'शकसंवत्' के अर्थमें किया है / उदाहरणार्थ धवलाटीकाकी अन्तिम प्रशस्तिकी यह गाथा ही पर्याप्त है "अठतीसम्हि सतसए विक्कमरायंकिए सु-सगणामे / वासे सुतेरसीए भाणुविलग्गे धवलपक्खे // " षट्खंडागम प्रथमभागकी प्रस्तावना (पृ० 25-45) में प्रो० हीरालालजीने बहुमुख ऊहापोहके अनन्तर यह सिद्ध किया है कि उक्त गाथा में वर्णित 'विकमरायंकिए सुसगणामे' पदसे 'शकसंवत्' ही ग्राह्य हो सकता है। इसी प्रस्तावना (पृ. 40) में प्रो० सा० ने अपने मतके समर्थनकेलिए. त्रिलोकसारके (गा० 850) टीकाकार श्रीमाधवचन्द्रत्रैविद्यका यह अवतरण दिया है-"श्रीवीरनाथनिवृतेः सकाशात् पंचोत्तरषदशतवर्षाणि (605) पंचमासयुतानि गत्वा पश्चात् 'विक्रमाङ्कशकराजो' जायते..." इससे अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि शकराजको भी 'विक्रमांकशक' लिखने की प्राचीन परम्परा रही है और इसीलिए 'शकसंवत्' का उल्लेख भी 'विक्रमाङ्कशकसंवत्' पदसे किया जाता था। मैंने "अकलङ्कग्रन्थत्रय” की प्रस्तावनामें अन्य प्रमाणोंके आधारसे विक्रमार्कशकाब्दका शक संवत् 700 अर्थ करके अकलङ्कदेवका समय ई० 720 से 780 सिद्ध किया है / अस्तु / Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र श्रा० प्रभाचन्द्र ____ 0 प्रभाचन्द्रके समयविषयक इस निबन्धको वर्गीकरणके ध्यानसे तीन स्थूल भागों में बाँट दिया है-१ प्रभाचन्द्र की इतर प्राचार्यों से तुलना, 2 समयविचार, 3 प्रभाचन्द्र के ग्रन्थ / ११.प्रभाचन्द्र की इतर आचार्यों से तुलना इस तुलनात्मक भागको प्रत्येक परम्पराके अपने क्रमविकासको लक्ष्यमें रखकर निम्नलिखित उपभागोंमें क्रमशः विभाजित कर दिया है / 1 वैदिक दर्शन-वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण, महाभारत, वैयाकरण, सांख्ययोग, वैशेषिक न्याय, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा / 2 अवैदिक दर्शन-बौद्ध, जैन-दिगम्बर, श्वेताम्बर / ( वैदिकदर्शन) वेद और प्रभाचन्द्र-प्रा० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डमें पुरातनवेद ऋग्वेदसे "पुरुष एवेदं यद्भूतं” “हिरण्यगर्भः समवर्तताने" आदि अनेक वाक्य उद्धृत किये हैं। कुछ अन्य वेदवाक्य भी न्यायकुमुदचन्द्र ( पृष्ठ 726) में उद्धृत हैं-"प्रजापतिः सोमं राजानमन्वसृजत्, ततस्त्रयो वेदा अन्वसृज्यन्त” “रुद्रं वेदक रम्" आदि। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 770) में "आदौ ब्रह्मा मुखतो ब्राह्मणं ससर्ज, बाहुभ्यां क्षत्रियमुरूभ्यां वैश्यं पद्भ्यां शूद्रम्” यह वाक्य उद्धृत है। यह ऋग्वेद के "ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्' आदि सूक्तकी छाया रूप ही है। उपनिषत् और प्रभाचन्द्र-आ० प्रभाचन्द्रने अपने दोनों न्यायग्रन्थोंमें ब्रह्माद्वैतवाद तथा अन्य प्रकरणोंमें अनेकों उपनिषदों के वाक्य प्रमाणरूपसे उद्धृत किये हैं। इनमें बृहदारण्यकोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद्, कठोपनिषत् , श्वेताश्वतरोपनिषत् , तैत्तिर्युपनिषत् , ब्रह्मबिन्दूपनिषत् , रामतापिन्युपनिषत् , जाबालोपनिषत् आदि उपनिषत् मुख्य हैं / इनके अवतरण अवतरणसूची में देखना चाहिये / स्मृतिकार और प्रभाचन्द्र-महर्षि मनुकी मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यकी याज्ञवल्क्यस्मृति प्रसिद्ध हैं। आ० प्रभाचन्द्रने कारकसाकल्यवादके पूर्वपक्ष (प्रमेयक० पृ० 8) में याज्ञवल्क्यस्मृति (2 / 22) का “लिखितं साक्षिणो भुक्तिः" वाक्य कुछ शाब्दिक परिवर्तनके साथ उद्धृत किया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 575 ) में मनुस्मृतिका "अकुर्वन् विहितं कर्म" श्लोक उद्धृत है / न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 634 ) में मनुस्मृतिके “यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः" श्लोकका "न हिंस्यात् सर्वा भूतानि" इस कूर्मपुराणके वाक्यसे विरोध दिखाया गया है / पुराण और प्रभाचन्द्र-प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें मत्स्यपुराणका "प्रतिमन्वन्तरश्चैव श्रुतिरन्या विधीयते / " यह श्लोकांश उद्धृत मिलता है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 634 ) में कूर्मपुराण (अ० 16 ) का "न हिंस्यात् सर्वा भूतानि" वाक्य प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना व्यास और प्रभाचन्द्र-महाभारत तथा गीताके प्रणेता महर्षि व्यास माने जाते हैं / प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 580) में महाभारत वनपर्व (अ० 30128) से "अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः...." श्लोक उद्धृत किया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 368 तथा 309 ) में भगवद्गीताके निम्नलिखित श्लोक 'व्यासवचन' के नामसे उद्धृत हैं-" यथैधांसि समिद्धोऽग्निः...." [गीता 4 / 37] "द्वाविमौ पुरुषौ लोके, उत्तमपुरुषस्त्वन्यः...." [ गीता 15 / 16,17 ] इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 358 ) में गीता (2 / 16) का "नाभावो विद्यते सतः" अंश प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है / पतञ्जलि और प्रभाचन्द्र-पाणिनिसूत्रके ऊपर महाभाष्य लिखनेवाले ऋषि पतञ्जलिका समय इतिसाहकारोंने ईसवी सन्से पहिले माना है / आ० प्रभाचन्द्रने जैनेन्द्रव्याकरणके साथ ही पाणिनिव्याकरण और उसके महाभाष्यका गभीर परिशीलन और अध्ययन किया था। वे शब्दाम्भोजभास्करके प्रारम्भमें स्वयं ही लिखते हैं कि "शब्दानामनुशासनानि निखिलान्याध्यायताऽहर्निशम्" आ० प्रभाचन्द्रका पातञ्जलमहाभाष्यका तलस्पर्शी अध्ययन उनके शब्दाम्भोजभास्करमें पद पद पर अनुभूत होता है / न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 275) में वैयाकरणोंके मतसे गुण शब्दका अर्थ बताते हुये पातञ्जलमहाभाष्य (5 / 1 / 119) से “यस्य हि गुणस्य भावात् शब्दे द्रव्यविनिवेशः" इत्यादि वाक्य उद्धृत किया है। शब्दोंके साधुत्वासाधुत्व-विचारमें व्याकरणकी उपयोगिताका समर्थन भी महाभाष्यकी ही शैलीमें किया है / भर्तहरि और प्रभाचन्द्र-ईसाकी 7 वीं शताब्दीमें भर्तृहरि नामके प्रसिद्ध वैयाकरण हुए हैं। इनका वाक्यपदीय ग्रन्थ प्रसिद्ध है। ये शब्दाद्वैतदर्शनके प्रतिष्ठाता माने जाते हैं। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें शब्दाद्वैतवादके पूर्वपक्षको वाक्यपदीय की अनेक कारिकाओंको उद्धृत करके ही परिपुष्ट किया है / शब्दोंके साधुत्व-असाधुत्व विचार में पूर्वपक्षका खुलासा करनेके लिए वाक्यपदीयकी सरणीका पर्याप्त सहारा लिया है / वाक्यपदीयके द्वितीयकाण्डमें आए हुए “आख्यातशब्दः” आदि दशविध या अष्टविध वाक्यलक्षणोंका सविस्तर खण्डन किया है। इसी तरह प्रभाचन्द्रकी कृति जैनेन्द्रन्यासके अनेक प्रकरणोंमें वाक्यपदीयके अनेक श्लोक उद्धृत मिलते हैं / शब्दाद्वैतवादके पूर्वपक्षमें वैखरी आदि चतुर्विधवाणीके खरूपका निरूपण करते समय प्रभाचन्द्रने जो "स्थानेषु विवृते वायौ" आदि तीन श्लोक उद्धृत किये हैं वे मुद्रित वाक्यपदीयमें नहीं हैं / टीकामें उद्धृत हैं / व्यासभाष्यकार और प्रभाचन्द्र-योगसूत्र पर व्यास-ऋषि का व्यासभाष्य प्रसिद्ध है / इनका समय ईसाकी पश्चम शताब्दी तक समझा जाता है / आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 109) में योगदर्शनके आधारसे ईश्वरवादका पूर्वपक्ष करते समय योगसूत्रोंके अनेक उद्धरण दिए हैं। इसके विवेचनमें व्यासभाष्यकी पर्याप्त सहायता ली गई है। अणिमादि अष्टविध Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र ऐश्वर्यका वर्णन योगभाष्यसे मिलता जुलता है। न्यायकुमुदचन्द्रमें योगभाष्यसे "चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्" "चिच्छक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसक्रमा” आदि वाक्य उद्धृत किये गये हैं। ईश्वरकृष्ण और प्रभाचन्द्र-ईश्वरकृष्णकी सांख्यसप्तति या सांख्यकारिका प्रसिद्ध है / इनका समय ईसाकी दूसरी शताब्दी समझा जाता है। सांख्यदर्शनके मूलसिद्धान्तोंका सांख्यकारिकामें संक्षिप्त और स्पष्ट विवेचन है। आ० प्रभाचन्द्रने सांख्यदर्शनके पूर्वपक्षमें सर्वत्र सांख्यकारिकाओंका ही विशेष उपयोग किया है / न्यायकुमुदचन्द्रमें सांख्योंके कुछ वाक्य ऐसे भी उद्धत हैं जो उपलब्ध सांख्यग्रन्थोंमें नहीं पाये जाते / यथा-" बुद्धयध्यवसितमर्थं पुरुषश्वेतयते” “आसर्गप्रलयादेका बुद्धिः” “प्रतिनियतदेशा वृत्तिरभिव्यज्येत” “प्रकृतिपरिणामः शुक्लं कृष्णञ्च कर्म" आदि / इससे ज्ञात होता है कि ईश्वरकृष्णकी कारिकाओंके सिवाय कोई अन्य प्राचीन सांख्य ग्रन्थ प्रभाचन्द्रके सामने था जिससे ये वाक्य उद्धृत किये गए हैं / माठराचार्य और प्रभाचन्द्र-सांख्यकारिकाकी पुरातन टीका माठरवृत्ति है। इसके रचयिता माठराचार्य ईसाकी चौथी शताब्दीके विद्वान् समझे जाते हैं। प्रभाचन्द्रने सांख्यदर्शनके पूर्वपक्षमें सांख्यकारिकाओंके साथ ही साथ माठरवृत्तिको भी उद्धृत किया है। जहाँ कहीं सांख्यकारिकाओं की व्याख्याका प्रसङ्ग आया है, माठरवृत्तिके ही आधारसे व्याख्या की गई है / प्रशस्तपाद और प्रभाचन्द्र-कणादसूत्र पर प्रशस्तपाद आचार्यका प्रशस्तपादभाष्य उपलब्ध है / इनका समय ईसाकी पाँचवीं शताब्दी माना जाता है। आ० प्रभाचन्द्रने प्रशस्तपादभाष्यकी “एवं धर्मैर्विना धर्मिणामेव निर्देशः कृतः” इस पंक्तिको प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ०५३१) में 'पदार्थप्रवेशकग्रन्थ' के नामसे उद्धृत किया है। न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड दोनोंकी षट्पदार्थपरीक्षाका यावत् पूर्वपक्ष प्रशस्तपादभाष्य और उसकी पुरातनटीका व्योमवतीसे ही स्पष्ट किया गया है। प्रमेयकमलमार्तड (पृ० 270) के ईश्वरवादके पूर्वपक्षमें 'प्रशस्तमतिना च' लिखकर “सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारो” इत्यादि अनुमान उद्धृत है। यह अनुमान प्रशस्तपादभाष्यमें नहीं है / तत्त्वसंग्रह की पञ्जिका (पृ० 43 ) में भी यह अनुमान प्रशस्तमतिके नामसे उद्धत है / ये प्रशस्तमति, प्रशस्तपादभाष्यकारसे भिन्न मालूम होते हैं, पर इनका कोई ग्रन्थ अद्यावधि उपलब्ध नहीं है। व्योमशिव और प्रभाचन्द्र-प्रशस्तपादभाष्यके पुरातन टीकाकार आ० व्योमशिवकी व्योमवती टीका उपलब्ध है। आ० प्रभाचन्द्रने अपने दोनों ग्रन्थोंमें, न केवल वैशेषिकमतके पूर्वपक्षमें ही व्योमवतीको अपनाया है किन्तु अनेक मतोंके खंडनमें भी इसका पर्याप्त अनुसरण किया है / यह टीका उनके विशिष्ट अध्ययनकी वस्तु थी। इस टीकाके तुलनात्मक अंशोंको न्यायकुमुदचन्द्रकी टिप्पणीमें देखना चाहिए। आ० व्योमशिवके समयके विषयमें विद्वानोंका मतभेद चला आ रहा है / डॉ० कीथ इन्हें नवमशताब्दी का कहते हैं तो डॉ० दासगुप्ता इन्हें छठवीं शताब्दीका / मैं इनके समयका कुछ विस्तार से विचार करता हूँ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना राजशेखरने प्रशस्तपादभाष्यको 'कन्दली' टीकाकी 'पंजिका' में प्रशस्तपादभाष्यकी चार टीकाओंका इस क्रमसे निर्देश किया है-सर्वप्रथम 'व्योमवती' (व्योमशिवाचार्य), तत्पश्चात् 'न्यायकन्दली' (श्रीधर), तदनन्तर 'किरणावली (उदयन) और उसके बाद 'लीलावती' (श्रीवत्साचार्य)। ऐतिह्यपर्या. लोचनासे भी राजशेखरका यह निर्देशक्रम संगत जान पड़ता है। यहाँ हम व्योमवतीके रचयिता व्योमशिवाचार्यके विषयमें कुछ विचार प्रस्तुत करते हैं। व्योमशिवाचार्य शैव थे। अपनी गुरु-परम्परा तथा व्यक्तित्वके विषयमें स्वयं उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा / पर रणिपद्रपुर रानोद, वर्तमान नारोदग्राम की एक वापी-प्रशस्ति * से इनकी गुरुपरम्परा तथा व्यक्तित्व-विषयक बहुतसी बातें मालूम होती हैं, जिनका कुछ सार इस प्रकार है ___ "कदम्बगहाधिवासी मुनीन्द्र के शंखमठिकाधिपति नामक शिष्य थे, उनके तेरम्बिपाल, तेरम्बिपालके आमर्दकतीर्थनाथ और आमर्दकतीर्थनाथके पुरन्दरगुरु नामके अतिशय प्रतिभाशाली तार्किक शिष्य हुए। पुरन्दरगुरुने कोई ग्रन्थ अवश्य लिखा है; क्योंकि उसी प्रशस्ति-शिलालेखमें अत्यन्त स्पष्टतासे यह उल्लेख है कि-"इनके वचनोंका खण्डन आज भी बड़े बड़े नैयायिक नहीं कर सकते।"+ स्याद्वादरत्नाकर आदि ग्रन्थोंमें पुरन्दरके नामसे कुछ वाक्य उद्धृत मिलते हैं, सम्भव है वे पुरन्दर ये ही हों। इन पुरन्दरगुरुको अवन्तिवर्मा उपेन्द्रपुरसे अपने देशको ले गया। अवन्तिवर्माने इन्हें अपना राज्यभार सौंप कर शैवदीक्षा धारण की और इस तरह अपना जन्म सफल किया। पुरन्दरगुरुने मत्तमयूरमें एक बड़ा मठ स्थापित किया। दूसरा मठ रणिपद्रपुरमें भी इन्हींने स्थापित किया था। पुरन्दरगुरुका कवचशिव और कवशिवका सदाशिव नामक शिष्य हुआ, जो कि रणिपद्रपुरके तापसाश्रम में तपःसाधन करता था। सदाशिवका शिष्य हृदयेश और हृदयेशका शिष्य व्योमशिव हआ, जोकि अच्छा प्रभावशाली, उत्कट प्रतिभासम्पन्न और समर्थ विद्वान था।" व्योमशिवाचार्य के प्रभावशाली होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इनके नामसे ही व्योममन्त्र प्रचलित हए थे। 'ये सदनुष्ठानपरायण, मृदु-मितभाषी, विनय-नय-संयमके अद्भुत स्थान तथा अप्रतिम प्रतापशाली थे / इन्होंने रणिपद्रपुरका तथा रणिपद्रमठका उद्धार एवं सुधार किया था और वहीं एक शिवमन्दिर तथा वापीका भी निर्माण कराया था। इसी वापीपर उक्त प्रशस्ति खुदी है। इनकी विद्वत्ताके विषयमें शिलालेखके ये श्लोक पर्याप्त हैं"सिद्धान्तेषु महेश एष नियतो न्यायेऽक्षपादो मुनिः / गम्भीरे च कणाशिनस्तु कणभुक्शास्त्रे श्रुतौ जैमिनिः / सांख्येऽनल्पमतिः स्वयं स कपिलो लोकायते सद्गुरुः / बुद्धो बुद्धमते जिनोक्तिषु जिनः को वाथ नायं कृती॥ यद्भूतं यदनागतं यदधुना किंचित्क्वचिद्वर्ध (त) ते / सम्यग्दर्शनसम्पदा तदखिलं पश्यन् प्रमेयं महत् // सर्वज्ञः स्फटमेष कोपि भगवानन्यः क्षितौ सं (शंकरः / धत्ते किन्तु न शान्तधीविषमदग्रौद्रं वपुः केवलम् // " इन श्लोकोंमे बतलाया है कि 'व्योमशिवाचार्य शवसिद्धान्तमें स्वयं शिव, न्यायमें अक्षपाद, वैशेषिक शास्त्रमें कणाद, मीमांसामे जैमिनि, सांख्यमें कपिल, चार्वाकशास्त्रमें बृहस्पति, बुद्ध मतमे बुद्ध तथा जिनमतमे स्वयं जिनके समान थे। अधिक क्या; अतीतानागतवर्तमानवर्ती यावत् प्रमेयोंकी अपनी सम्यग्दर्शनसम्पत्तिसे स्पष्ट देखने जानने वाले सर्वज्ञ थे। और ऐसा मालम होता था कि मात्र विषमनेत्र (तृतीयनेत्र) तथा रौद्रशरीर को धारण किए बिना वे पृथ्वी पर दूसरे शंकर भगवान् ही अवतरे थे। इनके गगनेश, व्योमशम्भु, व्योमेश, गगनशशिमौलि आदि भी नाम थे। शिलालेखके आधारसे समय-व्योमशिवके पूर्ववर्ती चतुर्थगुरु पुरन्दरको अवन्तिवर्मा राजा अपने नगरमे ले गया था। अवन्तिवर्माके चाँदीके सिक्कों पर "विजितावनिरवनिपतिः श्री अवन्तिवर्मा दिवं * प्राचीन लेखमाला द्वि० भाग, शिलालेख नं० 108 / + यस्याधुनापि विबुधैरितिकृत्यशंसि व्याहन्यते न वचनं नयमार्गविद्भिः // " + “अस्य व्योमपदादिमन्त्ररचनाख्याताभिधानस्य च।"-वापीप्रशस्तिः Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 न्यायकुमुदचन्द्र जयति" लिखा रहता है तथा संवत् 250 पढ़ा गया है / यह संवत् संभवतः गुप्त-संवत् है। डॉ० . फ्लीट्के मतानुसार गुप्तसंवत् ई० सन् 320 की 26 फरवरी को प्रारम्भ होता है। अत: 570 ई० में अवन्तिवर्माका अपनी मुद्राको प्रचलित करना इतिहाससिद्ध है। इस समय अवन्तिवर्मा राज्य कर रहे . होंगे। तथा 570 ई० के आसपास ही वे पुरन्दरगुरुको अपने राज्यमें लाए होंगे। ये अवन्तिवर्मा मौखरीवंशीय राजा थे। शैव होने के कारण शिवोपासक पुरन्दरगुरुको अपने यहाँ लाना भी इनका ठीक ही था। इनके समयके सम्बन्धमें दूसरा प्रमाण यह है कि-वैसवंशीय राजा हर्षवर्द्धनकी छोटी बहिन राज्यश्री अवन्तिवर्माके पुत्र ग्रहवर्माको विवाही गई थी। हर्षका जन्म ई० 590 में हुआ था। राज्यश्री उससे 1 या 2 वर्ष छोटी थी। ग्रहवर्मा हर्षसे 5-6 वर्ष बड़ा जरूर होगा। अतः उसका जन्म 584 ई० के करीब मानना चाहिए। इसका राज्यकाल ई०६०० से 606 तक रहा है। अवन्तिवर्माका यह इकलौता लड़का था। अतः मालूम होता है कि ई० 584 में अर्थात् अवन्तिवर्माकी ढलती अवस्थामे यह पैदा हया होगा। प्रस्तु, यहाँ तो इतना ही प्रयोजन हैं कि 570 ई० के आसपास ही अवन्तिवर्मा पुरन्दरको अपने यहाँ ले गए थे। यद्यपि सन्यासियोंकी शिष्य-परम्पराके लिए प्रत्येक पीढीका समय 25 वर्ष मानना आवश्यक नहीं है। क्योंकि कभी कभी 20 वर्षमें ही शिष्य-प्रशिष्यों की परम्परा चल जाती है। फिर भी यदि प्रत्येक पीढीका समय 25 वर्ष ही मान लिया जाय तो पुरन्दरसे तीन पीढी के बाद हुए व्योमशिवका समय सन् 670 के आसपास सिद्ध होता है। दार्शनिकग्रन्थोंके आधारसे समय-व्योमशिव स्वयं ही अपनी व्योमवती टीका (पृ० 392) में श्रीहर्षका एक महत्त्वपूर्ण ढंगसे उल्लेख करते हैं / यथा "अत एव मदीयं शरीरमित्यादिप्रत्ययेष्वात्मानुरागसद्भावेऽपि आत्मनोऽवच्छेदकत्वम् / श्रहर्ष देवकुलमिति ज्ञाने श्रीहर्षस्येव उभयत्रापि बाधकसद्भावात्, यत्र ह्यनुरागसद्भावेऽपि विशेषणत्वे बाधकमस्ति तत्रावच्छेदकत्वमेव कल्प्यते इति / अस्ति च श्रीहर्षस्य विद्यमानत्वम् / आत्मनि कर्तृत्वकरणत्वयोरसम्भव इति बाधकम् / " यद्यपि इस सन्दर्भका पाठ कुछ छूटा हुआ मालूम होता है फिर भी 'अस्ति च श्रीहर्षस्य विद्यमानत्वम्' यह वाक्य खास तौरसे ध्यान देने योग्य है। इससे साफ मालूम होता है कि श्रीहर्ष (606-647 A.D. राज्य) व्योमशिवके समयमें विद्यमान थे। यद्यपि यहां यह कहा जा सकता है कि व्योमशिव श्रीहर्षके बहत बाद होकर भी ऐसा उल्लेख कर सकते हैं, परन्तु जब शिलालेखसे उनका समय ई० सन् 670 के आसपास है तथा श्रीहर्षकी विद्यमानताका वे इस तरह जोर देकर उल्लेख करते हैं तब उक्त कल्पनाको स्थान ही नहीं मिलता। व्योमवतीका अन्तः रीक्षण-व्योमवती ( पृ० 306,307,680 ) में धर्मकीतिके प्रमाणवार्तिक (2-11,12 तथा 1-68,72) से कारिकाएँ उद्धृत की गई है। इसी तरह व्योमवती (प० 617) में धर्मकीत्तिके हेतबिन्दु प्रथमपरिच्छेदके "डिण्डिकरागं परित्यज्य अक्षिणी निमील्य" इस वाक्यका प्रयोग पाया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रमाणवातिककी और भी बहुतसी कारिकाएँ उद्धृत देखी जाती हैं। व्योमवती (पृ० 591,592) में कुमारिलके मीमांसा-श्लोकवातिककी अनेक कारिकाएँ उद्धृत हैं। व्योमवती (पृ० 129) में उद्योतकरका नाम लिया है, भर्तृहरिके शब्दाद्वैतदर्शनका (पृ० 20 च) खण्डन किया है और प्रभाकरके स्मृतिप्रमोषवादका भी (10 540) खंडन किया गया है। इनमें भर्तृहरि, धर्मकीत्ति, कुमारिल तथा प्रभाकर ये सब प्रायः समसामयिक और ईसाकी सातवीं शताब्दीके विद्वान् हैं / उद्योतकर छठी शताब्दीके विद्वान् हैं। अतः व्योमशिवके द्वारा इन समसामयिक एवं किंचित्पूर्ववर्ती विद्वानोंका उल्लेख तथा समालोचनका होना संगत ही है। व्योमवती (पृ० 15) में बाणकी कादम्बरीका उल्लेख है। बाण हर्षकी सभाके विद्वान् थे, अतः इसका उल्लेख भी होना ठीक ही हैं। * देखो, भारतके प्राचीन राजवंश, द्वि० भाग पृ० 375 / +देखो, भारतके प्राचीन राजवंश, द्वितीय भाग पु० 229 / Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना व्योमवती टीकाका उल्लेख करनेवाले परवर्ती ग्रन्थकारोंमें शान्तरक्षित, विद्यानन्द, जयन्त, वाचस्पति, सिद्धर्षि, श्रीधर, उदयन, प्रभाचन्द्र, वादिराज, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र तथा गुणरत्न, विशेषरूपसे उल्लेखनीय हैं। शान्तरक्षितने वैशेषिक-सम्मत षटपदार्थों की परीक्षा की है। उसमें वे प्रशस्तपादके साथ ही साथ शंकरस्वामी नामक नैयायिकका मत भी पूर्वपक्षरूपसे उपस्थित करते हैं। परंतु जब हम ध्यानसे देखते हैं तो उनके पूर्वपक्षमे प्रशस्तपादव्योमवतीके शब्द स्पष्टतया अपनी छाप मारते हुए नजर पाते हैं। (तुलनातत्त्वसंग्रह पृ० 206 तथा व्योमवती पृ० 343 / ) तत्त्वसंग्रहकी पंजिका (पृ० 206) में व्योमवती (पृ० 129) के स्वकारणसमवाय तथा सत्तासमवायरूप उत्पत्तिके लक्षणका उल्लेख है। शान्तरक्षित तथा उनके शिष्य कमलशीलका समय ई० की आठवीं शताब्दिका पूर्वार्द्ध है। (देखो, तत्त्वसंग्रहकी भूमिका पृ. xevi) विद्यानन्द प्राचार्यने अपनी आप्तपरीक्षा (पृ. 26) में व्योमवती टीका (प०१०७) से समवायके लक्षणकी समस्त पदकृत्य उद्धृत की है। 'द्रव्यत्वोपलक्षित समवाय द्रव्यका लक्षण है' व्योमवती (पृ० 149) के इस मन्तव्यकी समालोचना भी प्राप्तपरीक्षा (पृ० 6) में की गई है। विद्यानन्द ईसाकी नवमशताब्दीके पूर्वार्द्धवर्ती हैं। जयन्तकी न्यायमंजरी (10 23) में व्योमवती (पृ० 621) के अनर्थजत्वात् स्मृतिको अप्रमाण माननेके सिद्धान्तका समर्थन किया है, साथही प० 65 पर व्योमवती (पृ० 556) के फलविशेषणपक्षको स्वीकारकर कारकसामग्रीको प्रमाणमाननेके सिद्धान्तका अनुसरण किया है। जयन्तका समय हम आगे ईसाकी 9 वीं शताब्दीका पूर्वभाग सिद्ध करेंगे। . वाचस्पति मिश्र अपनी तात्पर्यटीकामे (10 108) प्रत्यक्षलक्षणसूत्रमें 'यतः' पदका अध्याहार करते हैं तथा (पृ० 102) लिंगपरामर्श ज्ञानको उपादानबुद्धि कहते हैं। व्योमवतीटीकामे (पृ० 556) 'यतः' पदका प्रयोग प्रत्यक्षलक्षणमें किया है तथा (पृ० 561) लिगपरामर्श ज्ञानको उपादानबुद्धि भी कहा है। वाचस्पति मिश्रका समय 841 A.D. है। - प्रभाचन्द्र आचार्यने मोक्षनिरूपण (प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० 307 ) आत्मस्वरूपनिरूपण (न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 349, प्रमेयकमलमा० पृ० 110) समवायलक्षण (न्यायकुमु० पृ० 295, प्रमेयकमलमा० पृ० 604) आदिमें व्योमवती (पृ० 20, 393, 107 ) का पर्याप्त सहारा लिया है। स्वसंवेदनसिद्धिमें व्योमवतीके ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादका खंडन भी किया है। .. श्रीधर तथा उदयनाचार्यने अपनी कन्दली (पृ० 4) तथा किरणावलीमें व्योमवती (पृ०२० क) के "नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते सन्तानत्वात् ... 'यथा प्रदीपसन्तानः।" इस अनुमानको 'ताकिकाः' तथा 'आचार्याः' शब्दके साथ उद्धृत किया है। कन्दली (पृ० 20) में व्योमवती (पृ० 149) के 'द्रव्यत्वोपलक्षितः समवायः द्रव्यत्वेन योगः' इस मतकी आलोचना की गई है। इसी तरह कन्दली (पृ० 18) में व्योमवती (पृ० 129) के 'अनित्यत्वं तु प्रागभावप्रध्वंसाभावोपलक्षिता वस्तुसत्ता।' इस अनित्यत्वके लक्षणका खण्डन किया है। कन्दली (पृ० 200) में व्योमवती (पृ० 593) के 'अनुमान-लक्षणमें विद्याके सामान्यलक्षणकी अनुवृत्ति करके संशयादिका व्यवच्छेद करना तथा स्मरणके व्यवच्छेदके लिये 'द्रव्यादिषु उत्पद्यते' इस पदका अनुवर्तन करना' इन दो मतोंका समालोचन किया है। कन्दलीकार श्रीधरका समय कन्दलीके अन्तमें दिए गए "यधिकदशोत्तरनवशतशकाब्दे" पदके अनुसार 913 शक अर्थात् 991 ई० है। और उदयनाचार्यका समय 984 ई० हैं। वादिराज अपने न्यायविनिश्चिय-विवरण (लिखित पृ० 111 B. तथा 111 A.) में व्योमवतीसे पूर्वपक्ष करते हैं। वादिदेवसूरि अपने स्याद्वादरत्नाकर (10 318 तथा 418) में पूर्वपक्षरूपसे व्योमवतीका उद्धरण देते हैं। . सिद्धर्षि न्यायावतारवृत्ति (109) में, हेमचन्द्र प्रमाणमीमांसा (पृ० 7) में तथा गुणरत्न अपनी षड्दर्शनसमुच्चयकी वृत्ति (पृ. 114 A.) में व्योमवतीके प्रत्यक्ष अनुमान तथा आगम रूप Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 न्यायकुमुदचन्द्र प्रमाणत्रित्वकी वैशेषिकपरम्पराका पूर्वपक्ष करते हैं। इस तरह व्योमवतीकी संक्षिप्त तुलनासे ज्ञात हो सकता है कि व्योमवतीका जैनग्रन्थोंसे विशिष्ट सम्बन्ध है। इस प्रकार हम व्योमशिवका समय शिलालेख तथा उनके ग्रन्थके उल्लेखोंके आधारसे ईस्बी सातवीं शताब्दीका उत्तर भाग अनुमान करते हैं। यदि ये आठवीं या नवमीं शताब्दीके विद्वान् होते तो अपने समसामयिक शंकराचार्य और शान्तरक्षित जैसे विद्वानोंका उल्लेख अवश्य करते / हम देखते हैं किव्योमशिव शांकरवेदान्तका उल्लेख भी नहीं करते तथा विपर्यय ज्ञानके विषयमे अलौकिकार्थख्याति, स्मृतिप्रमोष आदिका खण्डन करने पर भी शंकरके अनिर्वचनीयार्थख्यातिवादका नाम भी नहीं लेते। व्योमशिव जैसे बहुश्रत एवं सैकड़ों मतमतान्तरोंका उल्लेख करनेवाले आचार्यके द्वारा किसी भी अष्टम शताब्दी या नवम शताब्दीवर्ती आचार्यके मतका उल्लेख न किया जाना ही उनके सप्तम शताब्दीवती होनेका प्रमाण है। ____अतः डॉ० कीथका इन्हें नवमी शताब्दीका विद्वान् लिखना तथा डॉ० एस० एन० दासगुप्ताका इन्हें छठी शताब्दीका विद्वान् बतलाना ठीक नहीं जंचता। श्रीधर और प्रभाचन्द्र-प्रशस्तपाद भाष्यकी टीकाओंमें न्यायकन्दली टीकाका भी अपना अच्छा स्थान है / इसकी रचना श्रीधरने शक 213 ( ई० 291 ) में की थी। श्रीधराचार्य अपने पूर्व टीकाकार ब्योमशिवका शब्दानुसरण करते हुए भी उनसे मतभेद प्रदर्शित करनेमें नहीं चूकते / व्योमशिव बुद्ध्यादि विशेष गुणोंकी सन्ततिके अत्यन्तोच्छेदको मोक्ष कहते हैं और उसकी सिद्धिके लिए 'सन्तानत्वात्' हेतुका प्रयोग करते हैं (प्रश० व्यो० पृ० 20 क)। श्रीधर आत्यान्तिक अहितनिवृत्तिको मोक्ष मानकर भी उसकी सिद्धिके लिए प्रयुक्त होनेवाले 'सन्तानत्वात्' हेतुको पार्थिवपरमाणुकी रूपादिसन्तानसे व्यभिचारी बताते हैं (कन्दली पृ० 4) / 0 प्रभाचन्द्रने भी वैशेषिकोंकी मुक्तिका खंडन करते समय न्यायकुमुद० (पृ०८२६) और प्रमेयकमल. (पृ० 318) में 'सन्तानत्वात्' हेतुको पाकजपरमाणुओंकी रूपादिसन्तानसे व्यभिचारी बताया है / इसी तरह और भी एकाविकस्थलोंमें हम कन्दलीकी आभा प्रभाचन्द्रके ग्रन्थों पर देखते हैं। वात्सायन और प्रभाचन्द्र-न्यायसूत्रके ऊपर वात्सायनकृत न्यायभाष्य उपलब्ध है। इनका समय ईसाकी तीसरी-चौथी शताब्दी समझा जाता है / आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें इनके न्यायभाष्यका कहीं न्यायभाष्य और कहीं भाष्य शब्दसे उल्लेख किया है / वात्सायनका नाम न लेकर सर्वत्र न्यायभाष्यकार और भाष्यकार शब्दोंसे ही इनका निर्देश किया गया है। उद्योतकर और प्रभाचन्द्र-न्यायसूत्रके ऊपर न्यायवार्तिक ग्रन्थके रचयिता आ० उद्योतकर ई० 6 वीं सदी, अन्ततः सातवीं सदीके पूर्वपादके विद्वान् हैं। इन्होंने दिङ्नागके प्रमाणसमुच्चयके खंडनके लिए न्यायवार्तिक बनाया था / इनके न्यायवार्तिकका खंडन धर्मकीर्ति ( ई० 635 के बाद ) ने अपने प्रमाणवार्तिकमें किया है। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डके सृष्टिकर्तृत्व प्रकरणके पूर्वपक्षमें (पृ० 268) उद्योतकरके अनुमानोंको 'वार्तिकारेणापि' शब्दके साथ उद्धृत किया है / प्रमेयकमलमार्तण्डमें एकाधिकस्थानोंमें 'उद्योतकर' का नामोल्लेख करके न्यायवार्तिकसे पूर्वपक्ष किए गए हैं। न्यायकुमुदचन्द्रके षोडशपदार्थवादका पूर्वपक्ष भी उद्योतकरके न्यायवार्तिकसे पर्याप्त पुष्टि पाया है / "पूर्ववच्छेषवत्" आदि अनुमानसूत्रकी वार्तिकारकृत Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना विविध व्याख्याएँ भी प्रमेयकमलमार्तण्डमें खंडित हुई हैं / वार्तिककारकृत साधकतमत्वका "भावाभावयोस्तद्वत्ता” यह लक्षण प्रमेयकमलमार्तण्डमें प्रमाणरूपसे उद्धृत है / भट्ट जयन्त और प्रभाचन्द्र-भट्टजयन्त जरनैयायिकके नामसे प्रसिद्ध थे। इन्होंने न्यायसूत्रोंके आधारसे न्यायकलिका, और न्यायमञ्जरी ग्रन्थ लिखे हैं / न्यायमञ्जरी तो कतिपय न्यायसूत्रोंकी विशद व्याख्या है। अब हम भट्टजयन्तके समयका विचार करते हैं जयन्तकी न्यायमञ्जरीका प्रथम संस्करण विजयनगरं सीरीजम सन् 1895 में प्रकाशित हुआ है। इसके संपादक म०म० गंगाधर शास्त्री मानवल्ली हैं। उन्होंने भूमिकामें लिखा है कि-"जयन्तभट्टका गंगेशोपाध्यायने उपमानचिन्तामणि (10 61) में जरनैयायिक शब्दसे उल्लेख किया है, तथा जयन्त भट्टने न्यायमंजरी (पृ० 312) में वाचस्पति मिश्रकी तात्पर्य-टीकासे "जातं च सम्बद्धं चेत्येकः कालः" यह वाक्य 'आचार्ये:' करके उद्धत किया है। अतः जयन्तका समय वाचस्पति (841 A. D.) से उत्तर तथा गंगेश (1175 A. D.) से पूर्व होना चाहिये।" इन्हींका अनुसरण करके न्यायमञ्जरीके द्वितीय संस्करणके सम्पादक पं० सूर्यनारायणजी शुक्लने, तथा 'संस्कृतसाहित्यका संक्षिप्त इतिहास'के लेखकोंने भी जयन्तको वाचस्पतिका परवर्ती लिखा है। स्व० डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण भी उक्त वाक्यके आधार पर इनका समय 9 वींसे 11 वीं शताब्दी तक मानते थे। अत: जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन माननेकी परम्पराका आधार म०म० गंगाधर शास्त्री-द्वारा "जातं च सम्बद्धं चेत्येकः कालः" इस वाक्यको वाचस्पति मिश्रका लिख देना ही मालूम होता है। वाचस्पति मिश्रने अपना समय 'न्यायसूचीनिबन्ध' के अन्तमें स्वयं दिया है / यथा - "न्यायसूचीनिबन्धोऽयमकारि सुधियां मुदे / श्रीवाचस्पतिमिश्रेण वस्वंकवसुवत्सरे।" इस श्लोकमें 898 वत्सर लिखा है / म० म० विन्ध्येश्वरीप्रसादजीने 'वत्सर' शब्दसे शकसंवत् लिया है।। डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण विक्रम संवत् लेते हैं। म०म० गोपीनाथ कविराज लिखते हैं कि 'तात्पर्यटीकाकी परिशुद्धिटीका बनानेवाले आचार्य उदयनने अपनी 'लक्षणावली' शक सं० 906 (984 A. D.) में समाप्तकी है। यदि वाचस्पतिका समय शक सं० 898 माना जाता है तो इतनी जल्दी उस पर परिशुद्धि-जैसी टीका बन जाना संभव मालूम नहीं होता। ____ अतः वाचस्पति मिश्रका समय विक्रम संवत् 898 (841 A. D.) प्रायः सर्वसम्मत है / वाचस्पति मिश्रने वैशेषिक दर्शनको छोड़कर प्रायः सभी दर्शनों पर टीकाएं लिखीं हैं। सर्वप्रथम इन्होंने मंडनमिश्रके विधिविवेक पर न्यायकणिका' नामकी टीका लिखी है। क्योंकि इनके दूसरे ग्रन्थोंमें प्रायः इसका निर्देश हैं। उसके बाद मंडनमिश्रकी ब्रह्मसिद्धिकी व्याख्या 'ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा' तथा 'तत्त्वबिन्दु'; इन दोनों ग्रन्थोंका निर्देश तात्पर्य-टीकामे मिलता है, अतः उनके गद 'तात्पर्य-टीका' लिखी गई / तात्पर्य टीकाके साथही 'न्यायसूची-निबन्ध' लिखा होगा; क्योंकि न्यायसूत्रोंका निर्णय तात्पर्य-टीकामे अत्यन्त अपेक्षित है। 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' में तात्पर्य टीका उद्धृत है, अतः तात्पर्यटीकाके बाद 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' की रचना हई। योगभाष्यकी तत्त्ववैशारदी टीकामें 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' का निर्देश है, अतः निर्दिष्ट कौमुदीके बाद 'तत्त्ववैशारदी' रची गई। और इन सभी ग्रन्थोंका 'भामती' टीका निर्देश होनेसे 'भामती' टीका सबके अन्तमें लिखी गई है। * हिस्टी ऑफ दि इण्डियन लाजिक, पृ० 146 / + न्यायवात्तिक-भूमिका, पृ० 145 / + हिस्टी ऑफ दि इण्डियन लाजिक, पृ० 133 / हिस्टो एंड बिब्लोग्राफी ऑफ दि न्याय-वैशेषिक Vol. III, पृ० 101 / Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र जयन्त वाचस्पति मिश्रके समकालीन वृद्ध हैं-वाचस्पति मिश्र अपनी आद्यकृति 'न्यायकणिका' के मङ्गलाचरणमें न्यायमञ्जरीकारको बड़े महत्त्वपूर्ण शब्दोंमे गुरुरूपसे स्मरण करते हैं / यथा: 'अज्ञानतिमिरशमनी परदमनी न्यामञ्जरी रुचिराम / प्रसवित्रे प्रभवित्र विद्यातरवे नमो गुरवे // " अर्थात्-जिनने अज्ञानतिमिरका नाश करनेवाली, प्रतिवादियोंका दमन करनेवाली, रुचिर न्यायमंजरीको जन्म दिया उन समर्थ विद्यातरु गुरुको नमस्कार हो। इस श्लोकमे स्मृत 'न्यायमञ्जरी' भट्ट जयन्तकृत न्यायमञ्जरी जैसी प्रसिद्ध 'न्यायमञ्जरी' ही होनी चाहिये / अभी तक कोई दूसरी न्यायमञ्जरी तो सुनने में भी नहीं आई। जब वाचस्पति जयन्तको गुरुरूपसे स्मरण करते हैं तब जयन्त वाचस्पति के उत्तरकालीन कैसे हो सकते हैं। यद्यपि वाचस्पतिने तात्पर्य-टीकामे 'त्रिलोचनगुरून्नीत' इत्यादि पद देकर अपने गुरुरूपसे 'त्रिलोचन' का उल्लेख किया है, फिर भी जयन्तको उनके गुरु अथवा गुरुसम होने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि एक व्यक्तिके अनेक गुरु भी हो सकते हैं। अभी तक 'जातञ्च सम्बद्धं चेत्येकः कालः' इस वचनके आधार पर ही जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन माना जाता है। पर, यह वचन वाचस्पतिकी तात्पर्य-टीकाका नहीं है, किन्तु न्यायवार्तिककार श्री उद्योतकरका है (न्यायवार्तिक पृ० 236 ), जिस न्यायवार्तिक पर वाचस्पतिकी तात्पर्यटीका है। इनका समय धर्मकीतिसे पूर्व होना निर्विवाद हैं / म०म० गोपीनाथ कविराज अपनी 'हिस्टी एण्ड बिब्लोग्राफ़ी ऑफ न्याय वैशेषिक लिटरेचर' में लिखते हैं कि-"वाचस्पति और जयन्त समकालीन होने चाहिए, क्योंकि जयन्तके ग्रन्थों पर वाचस्पतिका कोई असर देखने में नहीं आता।" 'जातञ्च' इत्यादि वाक्यके विषय में भी उन्होंने सन्देह प्रकट करते हए लिखा है कि-'यह वाक्य किसी पूर्वाचार्य का होना चाहिये।" वाचस्पतिके पहले भी शंकरस्वामी आदि नैयायिक हुए हैं, जिनका उल्लेख तत्त्वसंग्रह आदि ग्रन्थोंमें पाया जाता है। म. म. गङ्गाधर शास्त्रीने जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन मानकर न्यायञ्जरी ( 10 120) में उद्धृत 'यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः' इस पद्यको टिप्पणीमें भामती' टीकाका लिख दिया है। पर वस्तुतः यह पद्य वाक्यपदीय (1-34) का है और न्यायमञ्जरी की तरह भामती टीकामे भी उद्धृत ही है, मूलका नहीं है। न्यायसूत्र के प्रत्यक्ष-लक्षणसूत्र (1-1-4) की व्याख्यामें वाचस्पति मिश्र लिखते हैं कि-'व्यवसायात्मक' पदसे सविकल्पक प्रत्यक्षका ग्रहण करना चाहिये तथा 'अव्यपदेश्य' पदसे निर्विकल्पक ज्ञानका / संशयज्ञानका निराकरण तो 'अव्यभिचारी' पदसे हो ही जाता है, इसलिये संशयज्ञानका निराकरण करना 'व्यवसायात्मक' पदका मुख्य कार्य नहीं है / यह बात मैं 'गुरून्नीत मार्ग' का अनुगमन करके कह रहा हूँ। इसी तरह कोई व्याख्याकार 'अयमश्वः' इत्यादि शब्दसंसष्ट ज्ञानको उभयजज्ञान कहकर उसकी प्रत्यक्षताका निराकरण करनेके लिये अव्यपदेश्य पदकी सार्थकता बताते है। वाचस्पति 'अयमश्व:' इस ज्ञानको उभयजज्ञान न मानकर ऐन्द्रियक कहते हैं। और वह भी अपने गुरुके द्वारा उपदिष्ट इस गाथाके आधार पर शब्दजत्वेन शाब्दञ्चेत् प्रत्यक्षं चाक्षजत्वतः / स्पष्टग्रहरूपत्वात् युक्तमन्द्रियकं हि तत् / / इसलिये वे 'अव्यपदेश्य पदका प्रयोजन निर्विकल्पका संग्रह करना ही बतलाते हैं। न्यायमञ्जरी (पृ० 78) में 'उभयजज्ञानका व्यवच्छेद करना अव्यपदेश्यपदका कार्य है' इस मतका 'आचार्याः' इस शब्दके साथ उल्लेख किया गया है। उसपर व्याख्याकारकी अनुपपत्ति दिखाकर न्यायमञ्जरीकारने उभयजज्ञानका खंडन किया है। + सरस्वती भवन सीरीज़ III पार्ट / Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 15 - म०म० गङ्गाधर शास्त्रीने इस 'आचार्याः' पदके नीचे 'तात्पर्यटीकायां वाचस्पतिमिश्राः' यह टिप्पणी की है। यहाँ यह विचारणीय है कि-यह मत वाचस्पति मिश्र का है या अन्य किसी पूर्वाचार्यका / तात्पर्य-टीका (पृ० 148) में तो स्पष्ट ही उभयजज्ञान नहीं मानकर उसे ऐन्द्रियक कहा है। इसलिये वह मत वाचस्पतिका तो नहीं है। व्योमवती* टीका (पृ० 555) में उभयजज्ञानका स्पष्ट समर्थन है. अतः यह मत व्योमशिवाचार्यका हो सकता है। व्योमवतीमें न केवल उभयजज्ञानका समर्थन ही है किन्तु उसका व्यवच्छेद भी अव्यपदेश्य पदसे किया है। हाँ, उसपर जो व्याख्याकार की अनुपपत्ति है वह कदाचित वाचस्पतिकी तरफ लग सकती है। सो भी ठीक नहीं; क्योंकि वाचस्पतिने अपने गुरुकी जिस गाथाके अनसार उभयजज्ञानको ऐन्द्रियक माना है, उससे साफ मालूम होता है कि वाचस्पतिके गुरुके सामने उभयजज्ञानको माननेवाले आचार्य (संभवतः व्योमशिवाचार्य) की परम्परा थी, जिसका खण्डन वाचस्पतिके गुरुने किया। और जिस खण्डनको वाचस्पतिने अपने गुरुकी गाथाका प्रमाण देकर तात्पर्य-टीकामें स्थान दिया है। इसी तरह तात्पर्य-टीकामें (पृ० 102) 'यदा ज्ञानं तदा हानोपावानोपेक्षाबुद्धयः फलम्' इस भाष्यका व्याख्यान करते हुए वाचस्पति मिश्रने उपादेयताज्ञानको 'उपादान' पदसे लिया है और उसका क्रम भी 'तोयालोचन, तोयविकल्प, दृष्टतज्जातीयसंस्कारोबोध, स्मरण, 'तज्जातीयञ्चेदम्' इत्याकारकपरामर्श, .. इत्यादि बताया है। __ न्यायमंजरी ( पृ० 66 ) में इसी प्रकरणमें शङ्का की है कि-'प्रथम आलोचन ज्ञानका फल उपादानादिबद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि उसमें कई क्षणोंका व्यवधान पड़ जाता हैं ? इसका उत्तर देते हुए मंजरीकारने 'आचार्याः' शब्द लिखकर 'उपादेयताज्ञानको उपादानबुद्धि कहते हैं' इस मतका उल्लेख किया है। इस 'आचार्याः' पद पर भी म०म० गङ्गाधर शास्त्रीने 'न्यायवात्तिक-तात्पर्यटीकायां वाचस्पतिमिश्राः' ऐसा टिप्पण किया है / न्यायमञ्जरीके द्वितीय संस्करणके संपादक पं० सूर्यनारायणजी न्यायाचार्यने भी उन्हींका अनुसरण करके उसे बड़े टाइपमें हेडिंग देकर छपाया है। मंजरीकारने इस मतके बाद भी एक व्याख्याताका मत दिया है जो इस परामर्शात्मक उपादेयता ज्ञानको नहीं मानता। यहाँ भी यह विचारणीय है कि-यह मत स्वयं वाचस्पतिका है या उनके पूर्ववर्ती उनके गुरुका ? यद्यपि यहाँ उन्होंने अपने गुरु का नाम नहीं लिया है, तथापि जब व्योमवती जैसी प्रशस्तपादकी प्राचीन टीका (पृ० 561) मे इसका स्पष्ट समर्थन है, तब इस मतकी परम्परा भी प्राचीन ही मानना होगी। और 'आचार्याः' पदसे वाचस्पति न लिए जाकर व्योमशिव जैसे कोई प्राचीन आचार्य लेना होंगे। मालूम होता है म०म० ङ्गाधर शास्त्रीने "जातञ्च सम्बद्धञ्चेत्येकः कालः' इस वचनको वाचस्पतिका माननेके कारण ही उक्त दो स्थलों में 'आचार्याः' पद पर 'वाचस्पतिमिश्राः' ऐसी टिप्पणी कर दी है, जिसकी परम्परा चलती रही। हाँ, म० म० गोपीनाथ कविराजने अवश्य ही उसे सन्देह कोटिमें रखा है। भद्र जयन्तकी समयावधि-जयन्त मंजरीमें धर्मकीतिके मतकी समालोचनाके साथ ही साथ उनके टीकाकार धर्मोत्तरकी आदिवाक्यकी चर्चाको स्थान देते हैं। तथा प्रज्ञाकरगुप्तके 'एकमेवेदं हर्षविषाद * 'न, इन्द्रियसहकारिणा शब्देन यज्जन्यते तस्य व्यवच्छेदार्थत्वात्, तथा ह्यकृतसमयो रूपं पश्यन्नपि चक्षुषा रूपमिति न जानीते रूपमितिशब्दोच्चारणानन्तरं प्रतिपद्यत इत्युभयजं ज्ञानम् ; ननु च शब्देन्द्रिययोरेकस्मिन् काले व्यापाराऽसम्भवादयुक्तमेतत् / तथाहि-मनसाऽधिष्ठितं न श्रोत्रं शब्दं गृह्णाति पुनः क्रियाक्रमेण चक्षुषा सम्बन्धे सति रूपग्रहणम् / न च शब्दज्ञानस्यैतावत्कालमवस्थानं सम्भवतीति कथमुभयजं ज्ञानम् ? अत्रैका श्रोत्रसम्बद्धे मनसि क्रियोत्पन्ना विभागमारभते. 'ततः स्वज्ञानसहायशब्दसहकारिणा चक्षुषा रूपज्ञानमुत्पद्यते इत्युभयजं ज्ञानम् / यदि वा. 'भवत्येवोभयजं ज्ञानम् ."-प्रश० व्यो० पृ० 555 / "द्रव्यादिजातीयस्य पूर्व सुखदुःखसाधनत्वोपलब्धः तज्ज्ञानानन्तरं यद्यत् द्रव्यादिजातीयं तत्तत्सुखसाधनमित्यविनाभावस्मरणम, तथा चेदं द्रव्यादिजातीयमिति परामर्शज्ञानम्, तस्मात् सुखसाधन मिति विनिश्चयः तत उपादेयज्ञानम् .."-प्रश० व्यो० पृ० 561 / Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र द्यनेकाकारविवर्त्त पश्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम्" ( भिक्ष राहुलजीकी वार्तिकालंकारकी प्रेसकापी पृ० 429 ) इस वचनका खंडन करते हैं, (न्यायमंजरी पृ० 74 ) / भिक्षु राहुलजीने टिबेटियन गुरुपरम्पराके अनुसार धर्मकीर्तिका समय ई० 625, प्रज्ञाकरगुप्तका 700, धर्मोत्तर और रविगुप्तका 725 ईस्वी लिखा है। जयन्तने एक जगह रविगुप्तका भी नाम लिया है। अतः जयन्तकी पूर्वावधि 760 A. D. तथा उत्तरावधि 840 A. D. होनी चाहिए / क्योंकि वाचस्पतिका न्यायसूचीनिबन्ध 841 A. D. में बनाया गया है, इसके पहिले भी वे ब्रह्मसिद्धि, तत्त्वबिन्दु और तात्पर्यटीका लिखचके हैं। संभव है कि वाचस्पतिने अपनी आद्यकृति न्यायकणिका 815 ई० के आसपास लिखी हो। इस न्यायकणिका में जयन्तकी न्यायमंजरीका उल्लेख होनेसे जयन्तकी उत्तरावधि 840 A. D. ही मानना समुचित ज्ञात होता है। यह समय जयन्तके पुत्र अभिनन्द द्वारा दी गई जयन्तकी पूर्वजावलीसे भी संगत बैठता है। अभिनन्द अपने कादम्बरी कथासारमे लिखते हैं कि "भारद्वाज कूलमें शक्ति नामका गौड़ ब्राह्मण था। उसका पुत्र मित्र, मित्रका पुत्र शक्तिस्वामी हुआ। यह शक्तिस्वामी कर्कोटवंशके राजा मुक्तापीड ललितादित्यके मंत्री थे। शक्तिस्वामीके पत्र कल्याणस्वामी, कल्याणस्वामीके पुत्र चन्द्र तथा चन्द्रके पुत्र जयन्त हुए, जो नववृत्तिकारके नामसे मशहर थे / जयन्तके अभिनन्द नामका पुत्र हुआ।" काश्मीरके कर्कोट वंशीय राजा मक्तापीड ललितादित्यका राज्य काल 733 से 768 A. D. . तक रहा है। शक्तिस्वामी के, जो अपनी प्रौढ़ अवस्थामें मन्त्री होंगे, अपने मन्त्रित्वकालके पहिले ही ई०७२० में कल्याणस्वामी उत्पन्न हो चुके होंगे। इसके अनन्तर यदि प्रत्येक पीढीका समय 20 वर्ष भी मान लिया जाय तो कल्याण स्वामीके ईस्वी सन् 740 में चन्द्र, चन्द्र के ई०७६० में जयन्त उत्पन्न हए और उन्होंने ईस्वी 800 तकमे अपनी 'न्यायमंजरी' बनाई होगी। इसलिये वाचस्पतिके समयमें जयन्त वृद्ध होंगे और वाचस्पति इन्हें आदर की दृष्टिसे देखते होंगे / यही कारण है कि उन्होंने अपनी आद्यकृतिमें न्यायमंजरीकारका स्मरण किया है। जयन्तके इस समयका समर्थक एक प्रबल प्रमाण यह है कि-हरिभद्रसूरिने अपने षड्दर्शनसमच्चय (श्लो०२०) में न्यायमंजरी ( विजयानगरं सं० पृ. 129 ) के “गम्भीरगजितारम्भनिभिन्नगिरिगह्वराः / रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः॥ स्वङ्गत्तडिल्लतासङ्गपिशङ्गोत्तुङ्गविग्रहाः / वृष्टि व्यभिचरन्तीह नैवंप्रायाः पयोमुचः // " इन दो श्लोकोंके द्वितीय पादोंको जैसाका तैसा शामिल कर लिया है। प्रसिद्ध इतिवृत्तज्ञ मुनि जिनविजयजीने 'जैन साहित्यसंशोधक' (भाग 1 अंक 1) में अनेक प्रमाणोंसे, खासकर उद्योतनसुरिकी कुवलयमाला कथाम हरिभद्रका गुरुरूपसे उल्लेख होनेके कारण हरिभद्रका समय ई० 700 से 770 तक निर्धारित किया है। कुवलयमाला कथाकी समाप्ति शक 700 (ई०७७८) में हई थी। मेरा इस विषयमें इतना संशोधन है कि उस समयकी आयुःस्थिति देखते हुए हरिभद्रकी निर्धारित आयु स्वल्प मालूम होती है। उनके समयकी उत्तरावधि ई० 810 तक माननेसे वे न्यायमंजरीको देख सकेंगे। हरिभद्र जैसे सैकड़ों प्रकरणोंके रचयिता विद्वानके लिए 100 वर्ष जीना अस्वाभाविक नहीं हो सकता। अतः ई० 710 से 810 तक समयवाले हरिभद्रसूरिके द्वारा न्यायमंजरीके श्लोकोंका अपने ग्रन्थमें शामिल किया जाना जयन्तके 760 से 840 ई० तकके समयका प्रबल साधक प्रमाण है। आ० प्रभाचन्द्रने वात्सायनभाष्य एवं न्यायवार्तिक की अपेक्षा जयन्तकी न्यायमञ्जरी एवं न्यायकलिकाका ही अधिक परिशीलन एवं समुचित उपयोग किया है / षोडशपदार्थके निरूपणमें जयन्तकी न्यायमञ्जरीके ही शब्द अपनी आभा दिखाते हैं / प्रभाचन्द्रको न्यायमंजरी स्वभ्यस्त * देखो, संस्कृतसाहित्यका इतिहास, परिशिष्ट ( ख ) पृ० 15 / Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 17 थी। वे कहीं कहीं मंजरीके ही शब्दोंको तथा चाह भाष्यकारः' लिखकर उद्धत करते हैं / भूतचैतन्यवादके पूर्वपक्षमें न्यायमञ्जरी में 'अपि च' करके उद्धृत की गई 17 कारिकाएँ न्यायकुमुदचन्द्रमें भी ज्योंकी त्यों उद्धृत की गई हैं। जयन्तके कारकसाकल्यका सर्वप्रथम खण्डन प्रभाचन्द्रने ही किया है / न्यायमञ्जरीकी निम्नलिखित तीन कारिकाएँ भी न्यायकुमुदचन्द्रमें उद्धृत की गई हैं। (न्यायकुमुद० पृ० 336) "ज्ञातं सम्यगसम्यग्वा यन्मोक्षाय भवाय वा। तत्प्रमेयमिहाभीष्टं न प्रमाणार्थमात्रकम् // " [न्यायमं० पृ० 447) (न्यायकुमुद० पृ० 461) “भूयोऽवयवसमान्ययोगो यद्यपि मन्यते / सादृश्यं तस्य तुज्ञप्तिः गृहीते प्रतियोगिनि॥" [न्यायमं० पृ०१४६) (न्यायकुमुद० पृ० 511) "नन्वस्त्येव गृहद्वारवर्तिनः संगतिग्रहः। ___ भावेनाभावसिद्धौ तु कथमेतद्भविष्यति // " [न्यायमं० पृ० 38] इस तरह न्यायकुमुदचन्द्रके आधारभूत ग्रन्थोंमें न्यायमंजरीका नाम लिखा जा सकता है। वाचस्पति और प्रभाचन्द्र-षड्दर्शनटीकाकार वाचस्पतिने अपना न्यायसूचीनिबन्ध ई० 841 में समाप्त किया था। इनने अपनी तात्पर्यटीका ( पृ० 165 ) में सांख्यों के अनुमान के मात्रामात्रिक आदि सात भेद गिनाए हैं और उनका खंडन किया है / न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 462 ) में भी सांख्योंके अनुमानके इन्हीं सात भेदोंके नाम निर्दिष्ट हैं / वाचस्पतिने शांकरभाष्यकी भामती टीकामें अविद्यासे अविद्याके उच्छेद करने के लिए “यथा पयः पयोऽन्तरं जरयति स्वयं च जीर्यति, विषं विषान्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति, यथा वा कतकरजो रजोऽन्तराविले पाथसि प्रक्षिप्तं रजोन्तराणि भिन्दत् स्वयमपि भिद्यमानमनाविलं पाथः करोति..." इत्यादि दृष्टान्त दिए हैं। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 66 ) में इन्हीं दृष्टान्तों को पूर्वपक्ष में उपस्थित किया है। न्यायकुमुदचन्द्रक विधिवादके पूर्वपक्षमें विधिविवेक के साथही साथ उसकी वाचस्पतिकृत न्यायकणिका टीकाका भी पर्याप्त सादृश्य पाया जाता है / वाचस्पतिके उक्त ई० 841 समयका साधक एक प्रमाण यह भी है कि इन्होंने तात्पर्यटीका (पृ० 217) में शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रह (श्लो० 200) से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है"नर्तकीभ्रूलताक्षेपो न ह्येकः पारमार्थिकः / अनेकाणुसमूहत्वात् एकत्वं तस्य कल्पितम् // " शान्तरक्षितका समय ई० 762 है / __ शबर ऋषि और प्रभाचन्द्र-जैमिनिसूत्र पर शाबरभाष्य लिखने वाले महर्षि शबरका समय ईसाकी तीसरी सदी तक समझा जाता है। शाबरभाष्यके ऊपर ही कुमारिल और प्रभाकर ने व्याख्याएँ लिखी हैं / आ० प्रभाचन्द्रने शब्दनित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद आदिमें कुमारिल के श्लोकवार्तिकके साथ ही साथ शाबरभाष्य की दलीलों को भी पूर्वपक्षमें रखा है / शाबरभाष्य से ही “गौरित्यत्र कः शब्दः ? गकारौकारविसर्जनीया इति भगवानुपवर्षः" यह उपवर्ष ऋषि का मत प्रमेयकमलमाण्ड ( पृ० 464 ) में उद्धृत किया गया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 276 ) में शब्दको वायवीय माननेवाले शिक्षाकार मीमांसकांका मत भी शबरभाष्यसे ही Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 न्यायकुमुदचन्द्र उद्धृत हुआ है / इसके सिवाय न्यायकुमुदचन्द्र में शाबरभाष्यके कई वाक्य प्रमाणरूपमें और पूर्वपक्ष में उद्धृत किए गए हैं। कुमारिल और प्रभाचन्द्र-भट्टकुमारिलने शाबरभाष्य पर मीमांसाश्लोकवार्तिक, तन्त्रवार्तिक और टुप्टीका नामकी व्याख्या लिखी है / कुमारिलने अपने तन्त्रवार्तिक ( पृ० 251253 ) में वाक्यपदीयके निम्नलिखित श्लोककी समालोचना की है ___“अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् / अपूर्वदेवतास्वर्गः सममाहुर्गवादिषु // " [वाक्यप० 2 / 121] इसी तरह तन्त्रवार्तिक ( प० 209-10) में वाक्यपदीय ( 117 ) के "तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणाहते" अंश उद्धृत होकर खंडित हुआ है / मीमांसाश्लोकवार्तिक ( वाक्याधिकरण श्लो० 51 ) में वाक्यपदीय ( 2 / 1-2 ) में निर्दिष्ट दशविध या अष्टविध वाक्यलक्षणोंका समालोचन किया गया है। भर्तृहरिके स्फोटवादकी आलोचना भी कुमारिलने मीमांसाश्लोकवार्तिकके स्फोटवादमें बड़ी प्रखरतासे की है। चीनी यात्री इत्सिंगने अपने यात्राविवरणमें भर्तृहरिका मृत्युसमय ई० 650 बताया है / अतः भर्तृहरिके समालोचक कुमारिलका समय ईस्वी 7 वीं शताब्दी का उत्तर भाग मानना समुचित है। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें सर्वज्ञवाद, शब्दनित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद, आगमादिप्रमाणोंका विचार, प्रामाण्यवाद आदि प्रकरणोंमें कुमारिलके श्लोकवार्तिकसे पचासों कारिकाएँ उद्धृत की हैं / शब्दनित्यत्ववाद आदि प्रकरणोंमें कुमारिलकी युक्तियोंका सिलसिलेवार सप्रमाण उत्तर दिया गया है / कुमारिलने आत्माको व्यावृत्त्यनुगमात्मक या नित्यानित्यात्मक माना है / प्रभाचन्द्रने आत्माकी नित्यानित्यात्मकताका समर्थन करते समय कुमारिलकी "तस्मादुभयहानेन व्यवृत्त्यनुगमात्मकः" आदि कारिकाएँ अपने पक्षके समर्थनमें भी उद्धृत की हैं। इसी तरह सृष्टिकर्तृत्वखंडन, ब्रह्मवादखंडन, आदिमें प्रभाचन्द्र कुमारिलके साथ साथ चलते हैं। सारांश यह है कि प्रभाचन्द्रके सामने कुमारिलका मीमांसाश्लोकवार्तिक एक विशिष्ट ग्रन्थके रूप में रहा है। इसीलिए इसकी आलोचना भी जमकर की गई है / रलोकवार्तिक की भट्ट उम्बेककृत तात्पर्यटीका अभी ही प्रकाशित हुई है / इस टीकाका आलोडन भी प्रभाचन्द्रने खूब किया है। सर्वज्ञवादमें कुछ कारिकाएँ ऐसी भी उद्धृत हैं जो कुमास्लिके मौजूदा श्लोकवार्तिकमें नहीं पाई जाती / संभव है ये कारिकाएँ कुमारिलकी बृहट्टीका या अन्य किसी ग्रन्थ की हों। मंडनमिश्र और प्रभाचन्द्र-श्रा० मंडनमिश्रके मीमांसानुक्रमणी, विधिविवेक, भावनाविवेक, नैष्कर्म्यसिद्धि, ब्रह्मसिद्धि, स्फोटसिद्धि आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं / इनका समय ईसाकी ८वीं शताब्दीका पूर्वभाग है। आचार्य विद्यानन्दने (ई. 6 वीं शताब्दी का पूर्वभाग ) अपनी अष्टसहस्रीमें मण्डनमिश्र का नाम लिया है / यतः मण्डनमिश्र अपने ग्रन्थोंमें सप्तमशतकवर्ती कुमारिलका नामोल्लेख करते हैं / अतः इनका समय ई० की सप्तमशताब्दीका अन्तिमभाग तथा 1 देखो बृहती द्वि० भागकी प्रस्तावना। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 16 8 वीं सदी का पूर्वार्ध सुनिश्चित होता है / आ० प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 146) में मंडनमिश्रकी ब्रह्मसिद्धिका "आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं" श्लोक उद्धृत किया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 572) में विधिवादके पूर्वपक्ष में मंडनमिश्रके विधिविवेकमें वर्णित अनेक विधिवादियोंका निर्देश किया गया है। उनके मतनिरूपण तथा समालोचन में विधिविवेक ही आधारभूत मालूम होता है। प्रभाकर और प्रभाचन्द्र-शाबरभाष्यकी बृहती टीकाके रचयिता प्रभाकर करीब करीब कुमारिलके समकालीन थे। भट्टकुमारिलका शिष्य परिवार भाट्टके नामसे ख्यात हुआ तथा प्रभाकर के शिष्य प्राभाकर या गुरुमतानुयायी कहलाए। प्रभाकर विपर्ययज्ञानको स्मृतिप्रमोष या विवेकाख्याति रूप मानते हैं / ये अभावको स्वतन्त्र प्रमाण नहीं मानते / वेदवाक्योंका अर्थ नियोगपरक करते हैं / प्रभाचन्द्रने अपने ग्रन्थोंमें प्रभाकरके स्मृतिप्रमोष, नियोगवाद आदि सभी सिद्धान्तों का विस्तृत खंडन किया है / शालिकनाथ और प्रभाचन्द्र-प्रभाकरके शिष्योंमें शालिकनाथका अपना विशिष्ट स्थान है। इनका समय ईसाकी 8 वीं शताब्दी है। इन्होंने बृहतीके ऊपर ऋजुविमला नाम की पञिका लिखी है / प्रभाकरगुरुके सिद्धान्तोंका विवेचन करनेके लिए इन्होंने प्रकरणपश्चिका नामका स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखा है। ये अन्धकारको स्वतन्त्र पदार्थ नहीं मानते किन्तु ज्ञानानुत्पत्तिको ही अन्धकार कहते हैं / आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 238) तथा न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 666 ) में शालिकनाथके इस मतकी विस्तृत समीक्षा की है। शङ्कराचार्य और प्रभाचन्द्र-आद्य शङ्कराचार्यके ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य, गीताभाष्य, उपनिषद्भाष्य आदि अनेकों ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इनका समय ई० 788 से 820 तक माना जाता है। शाङ्करभाष्यमें धर्मकीर्तिके 'सहोपलम्भनियमात् ' हेतुका खण्डन होनेसे यह समय समर्थित होता है। श्रा० प्रभाचन्द्रने शङ्करके अनिर्वचनीयार्थख्यातिवादकी समालोचना प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें की है / न्यायकुमुदचन्द्रके परमब्रह्मवादके पूर्वपक्षमें शाङ्करभाष्यके आधार से ही वैषम्य नैपुण्य आदि दोषोंका परिहार किया गया है / . सुरेश्वर और प्रभाचन्द्र-शङ्कराचार्यके शिष्योंमें सुरेश्वराचार्यका नाम उल्लेखनीय है। इनका नाम विश्वरूप भी था। इन्होंने तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्यवार्तिक, बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक, मानसोल्लास, पञ्चीकरणवार्तिक, काशीमृतिमोक्षविचार, नैष्कर्म्यसिद्धि आदि ग्रन्थ बनाए हैं / आ० विद्यानन्द ( ईसाकी 6 वीं शताब्दी ) ने अष्टसहस्री ( पृ० 162 ) में बृह. दारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिकसे " ब्रह्माविद्यावदिष्टञ्चेन्ननु” इत्यादि कारिकाएँ उद्धृत की हैं / अतः इनका समय भी ईसाकी 6 वीं शताब्दीका पूर्वभाग होना चाहिए। ये शङ्कराचार्य ( ई० 788 से 820) के साक्षात् शिष्य थे। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 44-45) 1 द्रष्टव्य-अच्युतपत्र वर्ष 3 अङ्क 4 में म० म० गोपीनाथ कविराज का लेख / Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 न्यायकुमुदचन्द्र तथा न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 141 ) में ब्रह्मवादके पूर्वपक्षमें इनके बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य- . वार्तिक (3 / 5 / 43-44) से "यथा विशुद्धमाकाशं" आदि दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं। भामह और प्रभाचन्द्र-भामहका काव्यालङ्कार ग्रन्थ उपलब्ध है। शान्तरक्षितने तत्त्वसंग्रह ( पृ० 261 ) में भामहके काव्यालङ्कारकी अपोहखण्डन वाली "यदि गौरित्ययं शब्दः" आदि तीन कारिकाओंकी समालोचनाकी है। ये कारिकाएँ काव्यलङ्कारके 6 वें परिच्छेद ( श्लो० 17-16) में पाई जाती हैं। तत्त्वसंग्रहकारका समय ई० 705-762 तक सुनिर्णीत है / बौद्धसम्मत प्रत्यक्षके लक्षणका खण्डन करते समय भामहने ( काव्यालङ्कार 5 / 6) दिङ्नागके मात्र 'कल्पनापोढ' पदवाले लक्षणका खण्डन किया है, धर्मकीर्तिके 'कल्पनापोढ और अभ्रान्त' उभयविशेषणवाले लक्षणका नहीं। इससे ज्ञात होता है कि भामह दिङ्नागके उत्तरवर्ती तथा धर्मकीर्तिके पूर्ववर्ती हैं / अन्ततः इनका समय ईसाकी 7 वीं शताब्दी का पूर्वभाग है / आ० प्रभाचन्द्रने अपोहवादका खण्डन करते समय भामहकी अपोहखण्डनविषयक “यदि गौरित्ययं" आदि तीनों कारिकाएँ प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 432 ) में उद्धृत .. की हैं। यह मी संभव है कि ये कारिकाएँ सीधे भामहके ग्रन्थसे उद्धृत न होकर तत्त्वसंग्रहके द्वारा उद्धृत हुई हों। बाण और प्रभाचन्द्र-प्रसिद्ध गद्यकाव्य कादम्बरीके रचयिता बाणभट्ट, सम्राट हर्षवर्धन (राज्य 606 से 648 ई०) की सभाके कविरत्न थे। इन्होंने हर्षचरितकी भी रचना की थी। बाण, कादम्बरी और हर्षचरित दोनों ही ग्रन्थोंको पूर्ण नहीं कर सके / इनकी कादम्बरीका आद्यश्लोक "रजोजुषे जन्मनि सत्त्ववृत्तये” प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 218) में उद्धृत है / आ० प्रभाचन्द्रने वेदापौरुषेयत्वप्रकरणमें (प्रमेयक० पृ० 313 ) कादम्बरीके कर्तृत्वके विषय में सन्देहात्मक उल्लेख किया है-"कादम्बर्यादीनां कर्तृविशेषे विप्रतिपत्तेः' अर्थात् कादम्बरी आदिके कर्ताके विषयमें विवाद है / इस उल्लेखसे ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रके समयमें कादम्बरी आदि ग्रन्थोंके कर्ता विवादग्रस्त थे। हम प्रभाचन्द्रका समय आगे ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दी सिद्ध करेंगे। माघ और प्रभाचन्द्र-शिशुपालबध काव्यके रचयिता माघ कविका समय ई० 660675 के लगभग है। माघकविके पितामह सुप्रभदेव राजा वर्मलातके मन्त्री थे। राजा वर्मलात का उल्लेख ई० 625 के एक शिलालेखमें विद्यमान है अतः इनके नाती माघ कविका समय ई० 675 तक मानना समुचित है / प्रभाचन्द्रने माघकाव्य (1 / 23 ) का "युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनो..." श्लोक प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 688 ) में उद्धृत किया है। इससे ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रने माघकाव्यको देखा था। 1 देखो संस्कृत साहित्यका इतिहास पृ० 143 / Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ( अवैदिकदर्शन) अश्वघोष और प्रभाचन्द्र-अश्वघोषका समय ईसाका द्वितीय शतक माना जाता है / इनके बुद्धचरित और सौन्दरनन्द दो महाकाव्य प्रसिद्ध हैं / सौन्दरनन्दमें अश्वघोषने प्रसङ्गतः बौद्धदर्शनके कुछ पदार्थों का भी सारगर्भ विवेचन किया है। आ० प्रभाचन्द्रने शून्यनिर्वाणवादका खंडन करते समय पूर्वपक्षमें ( प्रमेयक० पृ० 687 ) सौन्दरनन्दकाव्यसे निम्नलिखित दो श्लोक उद्धृत किए हैं "दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् / दिशं न काश्चिद् विदिशं न काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् // जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् / दिशं न काश्चिद्विदिशं न काश्चिक्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् // " [ सौन्दरनन्द 16 / 28,26] नागार्जुन और प्रभाचन्द्र-नागार्जुन की माध्यमिककारिका और विग्रहव्यावतिनी दो ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं / ये ईसाकी तीसरी शताब्दीके विद्वान् हैं। इन्हें शून्यवादके प्रस्थापक होनेका श्रेय प्राप्त है। माध्यमिककारिकामें इन्होंने विस्तृत परीक्षाएँ लिखकर शून्यवादको दार्शनिक * रूप दिया है। विग्रहव्यावर्तिनी भी इसी तरह शून्यवादका समर्थन करनेवाला छोटा प्रकरण है / प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 132 ) में माध्यमिकके शून्यवादका खंडन करते समय पूर्वपक्षमें प्रमाणवार्तिककी कारिकाओंके साथ ही साथ माध्यमिककारिकासे भी 'न स्वतो नापि परतः' और 'यथा मया यथा स्वप्नो...' ये दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं। वसुबन्धु और प्रभाचन्द्र-वसुबन्धुका अभिधर्मकोश ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इनका समय ई० 400 के करीब माना जाता है। अमिधर्मकोश बहुत अंशोंमें बौद्धदर्शनके सूत्रग्रन्थका कार्य करता है / प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 310) में वैभाषिक सम्मत द्वादशाङ्ग प्रतीत्यसमुत्पादका खंडन करते समय प्रतीत्यसमुत्पादका पूर्वपक्ष वसुबन्धुके अभिधर्मकोशके आधारसे ही लिखा है। उसमें यथावसर अभिधर्मकोशसे 2 / 3 कारिकाएँ भी उद्धृत की हैं / देखोन्यायकुमुदचन्द्र पृ० 365 / दिङ्नाग और प्रभाचन्द्र-श्रा० दिग्नागका स्थान बौद्धदर्शनके विशिष्ट संस्थापकोंमें है / इनके न्यायप्रवेश, और प्रमाणसमुच्चय प्रकरण मुद्रित हैं। इनका समय ई० 425 के आसपास माना जाता है। प्रमाणसमुच्चयमें प्रत्यक्षका कल्पनापोढ लक्षण किया है। इसमें अभ्रान्तपद धर्मकीर्तिने जोड़ा है। इन्हींके प्रमाणसमुच्चय पर धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिक रचा है / भिक्षु राहुलजीने दिग्नाग के आलम्बनपरीक्षा, त्रिकालपरीक्षा, और हेतुचक्रडमरु आदि ग्रन्थोंका भी उल्लेख किया है। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 80 ) में 1 वादन्याय परिशिष्ट पृ. VI. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 न्यायकुमुदचन्द्र 'स्तुतश्च अद्वैतादिप्रकरणानामादौ दिग्नागादिभिः सद्भिः' लिखकर प्रमाणसमुच्चयका 'प्रमाणभूताय' इत्यादि मंगलश्लोकांश उद्धृत किया है / इसी तरह अपोहवादके पूर्वपक्ष ( प्रमेयक० पृ० 436 ) में दिग्नागके नामसे निम्नलिखित गद्यांश भी उद्धृत किया है"दिग्नागेन विशेषणविशेष्यभावसमर्थनार्थम् 'नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानर्थानाहुः' इत्युक्तम् / " धर्मकीर्ति और प्रभाचन्द्र-बौद्धदर्शनके युगप्रधान आचार्य धर्मकीर्ति इसाकी 7 वीं शताब्दीमें नालन्दाके बौद्धविद्यापीठके आचार्य थे। इनकी लेखनीने भारतीय दर्शनशास्त्रोंमें एक युगान्तर उपस्थित कर दिया था। धर्मकीर्तिने वैदिकसंस्कृति पर दृढ़ प्रहार किए हैं। यद्यपि इनका उद्धार करनेके लिए व्योमशिव, जयन्त, वाचस्पतिमिश्र, उदयन आदि आचार्योने कुछ उठा नहीं रखा। पर बौद्धोंके खंडनमें जितनी कुशलता तथा सतर्कतासे जैनाचार्योने लक्ष्य दिया है उतना अन्यने नहीं। यही कारण है कि अकलङ्क, हरिभद्र, अनन्तवीर्य, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि आदिके जैनन्यायशास्त्रके ग्रन्थोंका बहुभाग बौद्धोंके खंडनने ही रोक रखा है। धर्मकीर्तिके विषयमें मैं विशेष ऊहापोह "अकलङ्कग्रन्थत्रय” की प्रस्तावना (पृ० 18.) में कर आया हूँ। इनके प्रमाणवार्त्तिक, हेतुबिन्दु, न्यायबिन्दु, सन्तानान्तरसिद्धि, वादन्याय, सम्बन्धपरीक्षा आदि ग्रन्थोंका प्रभाचन्द्रको गहरा अभ्यास था। इन ग्रन्थों की अनेकों कारिकाएँ, खासकर प्रमाणवार्तिक की कारिकाएँ प्रभाचन्द्रके ग्रन्थोंमें उद्धृत हैं। मालूम होता है कि सम्बन्धपरीक्षाकी अथ से इति तक 23 कारिकाएँ प्रमेयकमलमार्तण्डके सम्बन्धवादके पूर्वपक्ष में ज्यों की त्यों रखी गई हैं, और खण्डित हुई हैं / विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक में इसकी कुछ कारिकाएँ ही उद्धृत हैं। वादन्यायका "हसति हसति स्वामिनि" आदि श्लोक प्रमेयकमलमार्तण्डमें उद्धृत है / संवेदनाद्वैतके पूर्वपक्षमें धर्मकीर्तिके 'सहोपलम्भनियमात्' आदि हेतुओंका निर्देश कर बहुविध विकल्प जालोंसे खण्डन किया गया है। वादन्यायकी "असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः" कारिकाका और इसके विविध व्याख्यानोंका सयुक्तिक उत्तर प्रमेयकमलमार्तण्डमें दिया गया है। इन सब ग्रन्थोंके अवतरण और उनसे की गई तुलना न्यायकुमुदचन्द्रके टिप्पणोंमें देखनी चाहिए। प्रज्ञाकरगुप्त और प्रभाचन्द्र-धर्मकीर्तिके व्याख्याकारोंमें प्रज्ञाकरगुप्तका अपना खास स्थान है / उन्होंने प्रमाणवार्तिक पर प्रमाणवार्तिकालङ्कार नामकी विस्तृत व्याख्या लिखी है / इनका समय भी ईसाकी 7 वीं शताब्दीका अन्तिम भाग और आठवींका प्रारम्भिक भाग है / इनकी प्रमाणवार्तिकालङ्कार टीका वार्तिकालङ्ककार और अलङ्कारके नामसे भी प्रख्यात रही है / इन्हींके वार्तिकालङ्कारसे भावना विधि नियोगकी विस्तृत चरचा विद्यानन्दके ग्रन्थों द्वारा प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्रमें अवतीर्ण हुई है। इतना विशेष है कि-विद्यानन्द और प्रभाचन्द्रने प्रज्ञाकरगुप्तकृत भावना विधि आदिके खंडनका भी स्थान स्थान पर विशेष समालोचन किया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 380) में प्रज्ञाकरके भाविकारणवाद और भूतकारणवादका उल्लेख तथा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रज्ञाकरका नाम देकर किया गया है / प्रज्ञाकरगुप्तने अपने इस मतका प्रतिपादन प्रमाणवार्तिकालङ्कार में ही किया है। भिक्षु राहुलसांकृत्यायनके पास इसकी हस्तलिखित कापी है / प्रभाचन्द्रने धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिककी तरह उनके शिष्य प्रज्ञाकरके वार्तिकालङ्कारका भी आलोचन किया है। प्रभाचन्द्रने जो ब्राह्मणत्वजातिका खण्डन लिखा है, उसमें शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहके साथ ही साथ प्रज्ञाकरगुप्त के वार्तिकालङ्कारका भी प्रभाव मालूम होता है। ये बौद्धाचार्य अपनी संस्कृतिके अनुसार सदैव जातिवाद पर खड्गहस्त रहते थे / धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिकके निम्नलिखित श्लोकमें जातिवादके मदको जडताका चिह्न बताया है "वेदप्रामाण्यं कस्यचित्कर्तृवादः स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेपः / सन्तापारम्भः पापहानाय चेति ध्वस्तप्रज्ञानां पञ्च लिङ्गानि जाड्ये // " उत्तराध्ययनसूत्रमें 'कम्मुणा बह्मणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ' लिखकर कर्मणा जातिका स्पष्ट समर्थन किया गया है / दि० जैनाचार्योमें वराङ्गचरित्रके कर्ता जटासिंहनन्दिने वराङ्गचरितके 25 वें अध्यायमें ब्राह्मणत्वजातिका निरास किया है। और भी रविषेण, अमितगति आदिने जातिवादके खिलाफ थोड़ा बहुत लिखा है पर तर्कग्रन्थों में सर्वप्रथम हम प्रभाचन्द्रके ही ग्रन्थोंमें जन्मना जातिका सयुक्तिक खण्डन यथेष्ट विस्तारके साथ पाते हैं / कर्णकगोमि और प्रभाचन्द्र-प्रभाणवार्तिकके तृतीयपरिच्छेद पर धर्मकीर्तिकी खोपज्ञवृत्ति मी उपलब्ध है। इस वृत्तिपर कर्णककगोमिकी विस्तृत टीका है। इस टीकामें प्रज्ञाकर गुप्तके प्रमाणवार्तिकालङ्कारका 'अलङ्कार' शब्दसे उल्लेख है / इसमें मण्डनमिश्रकी ब्रह्मसिद्धिका 'आहुविधातृ' श्लोक उद्धृत है। अतः इनका समय ई० 8 वीं सदीका पूर्वार्ध संभव है। न्यायकुमुदचन्द्रके शब्दनित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद, स्फोटवाद आदि प्रकरणों पर कर्णकगोमिकी खवृत्तिटीका अपना पूरा असर रखती है। इसके अवतरण इन प्रकरणोंके टिप्पणोंमें देखना चाहिये / शान्तरक्षित, कमलशील और प्रभाचन्द्र-तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षित तथा तत्त्वसंग्रहपञ्जिकाके रचयिता कमलशील नालन्दाविश्वविद्यालयके आचार्य थे। शान्तरक्षितका समय ई० 705 से 762 तथा कमलशीलका समय ई० 713 से 763 है। शान्तरक्षितकी अपेक्षा कमलशीलकी प्रावाहिक प्रसादगुणमयी भाषाने प्रभाचन्द्रको अत्यधिक आकृष्ट किया है। यों तो प्रभाचन्द्रके प्रायः प्रत्येक प्रकरणपर कमलशीलकी पञ्जिका अपना उन्मुक्त प्रभाव रखती है पर इसके लिए षट्पदार्थपरीक्षा, शब्दब्रह्मपरीक्षा, ईश्वरपरीक्षा, प्रकृतिपरीक्षा, शब्दनित्यत्वपरीक्षा आदि परीक्षाएँ खासतौरसे द्रष्टव्य हैं / तत्त्वसंग्रहकी सर्वज्ञपरीक्षामें कुमारिलकी पचासों कारिकाएँ उद्धृत कर पूर्वपक्ष किया गया है। इनमेंसे अनेकों कारिकाएँ ऐसी हैं जो कुमारिलके श्लोक 1 इसके अवतरण अकलंक ग्रन्थत्रयकी प्रस्तावना प० 27 में देखना चाहिए। 2 इन आचार्योंके ग्रन्थोंके अवतरणके लिए देखो न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 778 टि० 9 / 3 देखो तत्त्वसंग्रहकी प्रस्तावना पृ० Xcvi Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 न्यायकुमुदचन्द्र वार्तिकमें नहीं पाई जातीं / कुछ ऐसी ही कारिकाएँ प्रभाचन्द्रके प्रभेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें भी उद्धृत हैं। संभव है कि ये कारिकाएँ कुमारिलके ग्रन्थसे न लेकर तत्त्वसंग्रहसे ही ली गई हों / तात्पर्य यह कि प्रभाचन्द्रके आधारभूत ग्रन्थोंमें तत्त्वसंग्रह और उसकी पञ्जिका . अग्रस्थान पानेके योग्य है। अर्चट और प्रभाचन्द्र-धर्मकीर्तिके हेतुबिन्दु पर अर्चटकृत टीका उपलब्ध है। इसका उल्लेख अनन्तवीर्यने अपनी सिद्धिविनिश्चयटीकामें अनेकों स्थलोंमें किया है। 'हेतुलक्षणसिद्धि' में तो धर्मकीर्तिके हेतुबिन्दुके साथही साथ अर्चटकृत विवरणका भी खण्डन है / अर्चटका समय भी करीब ईसाकी 6 वीं शताब्दी होना चाहिये। अर्चटने अपने हेतुबिन्दुविवरणमें सहकारित्व दो प्रकारका बताया है-१ एकार्थकारित्व, 2 परस्परातिशयाधायकत्व / आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 10) में कारकसाकल्यवादकी समीक्षा करते समय सहकारित्वके यही दो विकल्प किये हैं। धर्मोत्तर और प्रभाचन्द्र-धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दु पर आ० धर्मोत्तरने टीका रची है। मित्तु राहुलजी द्वारा लिखित टिबेटियन गुरुपरम्परीके अनुसार इनका समय ई० 725 के आसपास है। आ० प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 2) तथा न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 20) में सम्बन्ध, अभिधेय, शक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनरूप अनुबन्धत्रयकी चरचामें, जो उन्मत्तवाक्य, काकदन्तपरीक्षा, मातृविवाहोपदेश तथा सर्वज्वरहरतक्षकचूड़ारत्नालङ्कारोपदेशके उदाहरण दिए हैं वे धर्मोत्तरकी न्यायबिन्दुटीका ( पृ० 2 ) के प्रभावसे अछूते नहीं हैं / इनकी शब्दरचना करीब करीब एक जैसी है। इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 26 ) में प्रत्यक्ष शब्दकी व्याख्या करते समय अक्षाश्रितत्वको प्रत्यक्षशब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त बताया है और अक्षाश्रितत्वोपलक्षित अर्थसाक्षास्कारित्व को प्रवृत्तिनिमित्त / ये प्रकार भी न्यायबिन्दुटीका (पृ० 11) से अक्षरशः मिलते हैं। ज्ञानश्री और प्रभाचन्द्र-ज्ञानश्रीने क्षणभंगाध्याय आदि अनेक प्रकरण लिखे हैं / उदयानाचार्य ने अपने आत्मतत्त्वविवेकमें ज्ञानश्रीके क्षणभंगाध्यायका नामोल्लेखपूर्वक आनुपूर्वी से खंडन किया है। उदयनाचार्यने अपनी लक्षणावली तर्काम्बरांक (106 ) शक, ई० 184 में समाप्तकी थी। अतः ज्ञानश्रीका समय ई० 184 से पहिले तो होना ही चाहिए / भिक्षु राहुल सांकृत्यायनजीके नोट्स देखनेसे ज्ञात हुआ है कि-ज्ञानश्रीके क्षणभंगाध्याय या अपोहसिद्धिके प्रारम्भमें यह कारिका है "अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तु विधिनोच्यते / " विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीमें भी यह कारिका उद्धृत है। आ० प्रभाचन्द्रने भी अपोहवाद के पूर्वपक्षमें "अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां" कारिका उद्धृत की है। वाचस्पतिमिश्र (ई० 841) के ग्रन्थों में ज्ञानश्रीकी समालोचना नहीं हैं पर उदयनाचार्य (ई० 984) के ग्रन्थोंमें है, इसलिए भी ज्ञानश्रीका समय ईसाकी 10 वीं शताब्दीके बाद तो नहीं जा सकता / 1 देखो वादन्यायका परिशिष्ट / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जयसिंहराशिभट्ट और प्रभाचन्द्र-भट्ट श्री जयसिंहराशिका तत्त्वोपप्लवसिंह नामक ग्रन्थ गायकबाड सीरीजमें प्रकाशित हुआ है / इनका समय ईसाकी 8 वीं शताब्दी है / तत्त्वोपप्लवग्रन्थ में प्रमाण प्रमेय आदि सभी तत्त्वोंका बहुविध विकल्पजालसे खंडन किया गया है। आ० विद्यानन्दके ग्रन्थों में सर्वप्रथम तत्त्वोपप्लववादीका पूर्वपक्ष देखा जाता है / प्रभाचन्द्रने संशयज्ञानका पूर्वपक्ष तथा बाधकज्ञानका पूर्वपक्ष तत्त्वोपप्लव ग्रन्थसे ही किया है और उसका उतने ही विकल्पों द्वारा खंडन किया है / प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 648 ) में 'तत्त्वोपप्लववादि' का दृष्टान्त भी दिया गया है / न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 336) में भी तत्त्वोपप्लववादिका दृष्टान्त पाया जाता है / तात्पर्य यह कि परमतके खंडनमें कचित् तत्त्वोपप्लववादिकृत विकल्पोंका उपयोग कर लेने पर भी प्रभाचन्द्रने स्थान स्थान पर तत्त्वोपप्लववादिके विकल्पोंकी भी समीक्षा की है। कुन्दकुन्द और प्रभाचन्द्र-दिगम्बर आचार्यों में आ० कुन्दकुन्दका विशिष्ट स्थान है / इनके सारत्रय-प्रवचनसार, पश्चास्तिकायसमयसार और समयसार-के सिवाय बारसअणुवेक्खा अष्टपाहुड आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। प्रो० ए० एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी भूमिकामें इनका समय ईसाकी प्रथमशताब्दी सिद्ध किया है / कुन्दकुन्दाचार्यने बोधपाहुड ( गा० 37) में केवलीको श्राहार और निहारसे रहित बताकर कवलाहारका निषेध किया है। सूत्रप्राभृत (गा० 23-36 ) में स्त्रीको प्रव्रज्याका निषेध करके स्त्रीमुक्तिका निरास किया है / कुन्दकुन्दके इस मूलमार्गका दार्शनिकरूप हम प्रभाचन्द्रके ग्रन्थोंमें केवलिकवलाहारवाद तथा स्त्रीमुक्तिवादके रूपमें पाते हैं / यद्यपि शाकटायनने अपने केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणोंमें दिगम्बरोंकी मान्यताका विस्तृत खंडन किया है, जिससे ज्ञात होता है कि शाकटायनके सामने दिगम्बराचार्योंका उक्त सिद्धान्तद्वयका समर्थक विकसित साहित्य रहा है। पर आज हमारे सामने प्रभाचन्द्रके ग्रन्थ ही इन दोनों मान्यताओंके समर्थकरूपमें समुपस्थित हैं / आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रवचनसारकी 'जियदु य मरदु य' गाथा, भावपाहुडकी 'एगो मे सस्सदो' गाथा, तथा प्रा० सिद्धभक्तिकी 'पुंवेदं वेदन्ता' गाथा उद्धृत की है। प्राकृत दशभक्तियाँ भी कुन्दकुन्दाचार्यके नामसे प्रसिद्ध हैं / समन्तभद्र और प्रभाचन्द्र-आधस्तुतिकार स्वामी समन्तभद्राचार्यके बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दी माना जाता है। किन्हीं विद्वानोंका विचार है कि इनका समय विक्रमकी पांचवीं या छठवीं शताब्दी होना चाहिए। प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्रमें बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रसे "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः" "मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्" "तदेव च स्यान्न तदेव” इत्यादि श्लोक उद्धृत किए हैं / आ० विद्यानन्दने आप्तपरीक्षाका उपसंहार करते हुए निम्नलिखित श्लोक लिखा है कि "श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् / Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र स्तोत्रं तीर्थोपमानं पृथितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तत् विद्यानन्दैः स्वशक्तथा कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धथै // 123 // " अर्थात् तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रसे दीप्तरत्नोंके उद्भवके प्रोत्थानारम्भकाल-प्रारम्भिक समयमें, शास्त्रकारने, पापोंका नाश करनेके लिए, मोक्षके पथको बतानेवाला तीर्थस्वरूप जो स्तवन किया था और जिस स्तवन की खामीने मीमांसा की है, उसीका विद्यानन्दने अपनी खल्पशक्तिके अनुसार सत्यवाक्य और सत्यार्थकी सिद्धिके लिए विवेचन किया है / वे इस रलोकमें स्पष्ट सूचित करते हैं कि स्वामी समन्तभद्रने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' मंगलश्लोकमें वर्णित जिस प्राप्तकी मीमांसा की है उसी प्राप्तकी मैंने परीक्षा की है। वह मंगलस्तोत्र तत्त्वार्थशास्त्ररूपी समुद्रसे दीप्त रत्नोंके उद्भवके प्रारम्भिक समयमें शास्त्रकारने बनाया था। यह तत्त्वार्थशास्त्र यदि तत्त्वार्थसूत्र है तो उसका मथन करके रत्नोंके निकालनेवाले आचार्य पूज्यपाद हैं / यह 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' श्लोक स्वयं सूत्रकारका तो नहीं मालूम होता; क्योंकि भट्टाकलङ्कदेव और विद्यानन्दने अपने राजवार्तिक और श्लोकवार्तिकमें इसका व्याख्यान नहीं किया। है / यदि विद्यानन्द इसे सूत्रकारकृत ही मानते होते तो वे अवश्य ही श्लोकवार्तिकमें उसका व्याख्यान करते / इस श्लोकमें विद्यानन्दने ‘मोक्षमार्गस्य नेतारं' श्लोकको उस शास्त्रकारका बताया है, जिसने तत्त्वार्थशास्त्ररूपी समुद्रका मथन करके दीप्तरत्न निकाले थे। वे इस श्लोकको मूलसूत्रकारका नहीं मानते / परन्तु यही विद्यानन्द प्राप्तपरीक्षा ( पृ० 3) के प्रारम्भमें इसी श्लोकको सूत्रकारकृत भी लिखते हैं / यथा"किं पुनस्तत्परमेष्ठिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुरिति निगद्यते-मोक्षमार्गस्य नेतारं...." इस पंक्तिमें यही श्लोक सूत्रकारकृत कहा गया है। किन्तु विद्यानन्दकी शैलीका ध्यानसे समीक्षण करने पर यह स्पष्टरूपसे विदित हो जाता है कि वे अपने ग्रन्थों में किसी भी पूर्वाचार्यको सूत्रकार और किसी भी पूर्वग्रन्थको सूत्र लिखते हैं / तत्त्वार्थरलोकवार्तिक ( पृ० 184 ) में वे अकलङ्कदेवका सूत्रकार शब्दसे तथा राजवार्तिकका सूत्र शब्दसे उल्लेख करते हैं-"तेन. 'इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणम्' इत्येतत्सूत्रोपात्तमुक्तं भवति / ततः, प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा / द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् // 4 // सूत्रकारा इति ज्ञेयमाकलङ्कावबोधने / " इस अवतरणमें 'इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष' वाक्य राजवार्तिक पृ०३८) का है तथा 'प्रत्यक्षलक्षणं' श्लोक न्यायविनिश्चय (श्लो० 3 ) का है / अतः मात्र सूत्रकारके नामसे 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' श्लोकको उद्धृत करनेके कारण हम ‘विद्यानन्दका झुकाव इसे मूल सूत्रकारकृत माननेकी ओर है' यह नहीं समझ सकते / अन्यथा वे इसका व्याख्यान श्लोकवार्तिकमें अवश्य करते / अतः इस पंक्तिमें सूत्रकार शब्दसे भी इद्धरत्नोंके उद्भवकर्ता आचार्यका ही ग्रहण करना चाहिए। 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' श्लोक वस्तुतः सर्वार्थसिद्धिका ही मंगलश्लोक है। और यदि समन्तभद्रने इसी श्लोकके ऊपर अपनी प्राप्तमीमांसा बनाई है, जैसा कि विद्यानन्दका उल्लेख है, तो समन्तभद्र पूज्यपादके उत्तरकालीन सिद्ध होते हैं / पं० सुखलालजी का यह तर्क कि-"यदि समन्तभद्र Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 27 पूज्यपादके प्राक्कालीन होते तो वे अपने इस युगप्रधान आचार्य की आप्तमीमांसा जैसी अनूठी कृतिका उल्लेख किए बिना नहीं रहते" विचारणीय है। यद्यपि ऐसे नकारात्मक प्रमाणों से किसी आचार्यके समयका स्वतन्त्र भावसे साधन बाधन नहीं होता फिर भी विचार की एक स्पष्ट कोटि तो उपस्थित हो ही जाती है / समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाके चौथे परिच्छेदमें वर्णित "विरूपकार्यारम्भाय" आदि कारिकाओंके पूर्वपक्षों की समीक्षा करनेसे ज्ञात होता है कि समन्तभद्रके सामने संभवतः दिग्नागके ग्रन्थ भी रहे हैं / बौद्धदर्शन की इतनी स्पष्ट विचारधाराकी सम्भावना दिग्नागसे पहिले नहीं की जा सकती। हेतुबिन्दुके अर्चटकृत विवरणमें समन्तभद्र की आप्तमीमांसाकी "द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः” कारिकाके खंडन करनेवाले 30-35 श्लोक उद्धृत किए गए हैं / ये श्लोक संभवतः धर्मकीर्तिके किसी ग्रन्थके हों। अर्चटका समय वीं सदी है / कुमारिलके मीमांसाश्लोकवार्तिकमें समन्तभद्रकी “घटमौलिसुवर्णार्थी" कारिकाके प्रतिच्छायभूत निम्न श्लोक पाये जाते हैं"वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा / तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः // हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् / न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् // स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता // " [ मी० श्लो० पृ० 616 ] कुमारिलका समय ईसाकी 7 वीं सदी है / अतः समन्तभद्रकी उत्तरावधि तो सातवीं सदी सुनिश्चित है / पूर्वावधिका नियामक प्रमाण दिग्नागका समय होना चाहिए। इस तरह समन्तभद्रका समय इसाकी 5 वीं और सातवीं शताब्दीका मध्यभाग अधिक संभव है। यदि विद्यानन्दके उल्लेखमें ऐतिहासिक दृष्टि भी निविष्ट है तो इनका समय पूज्यपादके बाद होना चाहिए। अन्यथा दिग्नाग (ई० 425 ) के बाद और पूज्यपादसे कुछ पहिले / पूज्यपाद और प्रभाचन्द्र-आ० देवनन्दिका अपर नाम पूज्यपाद था / ये विक्रम की पांचवी और छठी सदीके ख्यात आचार्य थे। आ० प्रभाचन्द्रने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि पर तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण नामकी लघुवृत्ति लिखी है / इसके सिवाय इन्होंने जैनेन्द्रव्याकरण पर शब्दाम्भोजभास्कर नामका न्यास लिखा है। पूज्यपादकी संस्कृत सिद्धभक्तिसे 'सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः ' पद भी न्यायकुमुद चन्द्रमें प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें जहां कहीं भी व्याकरणके सूत्रोंके उद्धरण देनेकी आवश्यकता हुई है वहां प्रायः जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठसे ही सूत्र उद्धृत किए गए हैं। धनञ्जय और प्रभाचन्द्र-'संस्कृतसाहित्यका संक्षिप्त इतिहास' के लेखकद्वयने धनञ्जयका समय ई० 12 वें शतकका मध्य निर्धारित किया है (पृ० 173) / और अपने इस मतकी पुष्टिके लिए के० बी० पाठक महाशयका यह मत भी उद्धृत किया है कि-"धनञ्जयने द्विसन्धान महाकाव्यकी रचना ई० 1123 और 1140 के मध्यमें की है / " डॉ० पाठक और उक्त 1 देखो अनेकान्त वर्ष 1 पृ० 197 / प्रेमी जी सूचित करते हैं कि इसकी प्रति बंबईके ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवनमें मौजूद है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 न्यायकुमुदचन्द्र . इतिहास के लेखकद्वय अन्य कई जैन कवियोंके समय निर्धारणकी भांति धनञ्जयके समयमें भी बड़ी भारी भ्रान्ति कर बैठे हैं / क्योंकि विचार करनेसे धनञ्जयका समय ईसाकी 8 वीं सदीका अन्त और नवींका प्रारम्भिक भाग सिद्ध होता है १जल्हण ( ई० द्वादशशतक ) विरचित सूक्तिमुक्तावलीमें राजशेखरके नामसे धनञ्जयकी प्रशंसामें निम्न लिखित पद्य उद्धृत है"द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनञ्जयः / यया जातं फलं तस्य स तां चक्रे धनञ्जयः // " इस पद्यमें राजशेखरने धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्यका मनोमुग्धकर सरणिसे निर्देश किया है / संस्कृत साहित्यके इतिहासके लेखकद्वय लिखते हैं कि-"यह राजशेखर प्रबन्धकोशका कर्ता जैन राजशेखर है / यह राजशेखर ई० 1348 में विद्यमान था / " आश्चर्य है कि 12 वीं शताब्दीके विद्वान् जल्हणके द्वारा विरचित ग्रन्थमें उल्लिखित होने वाले राजशेखरको लेखकद्वय 14 वीं शताब्दीका जैन राजशेखर बताते हैं ! यह तो मोटी बात है कि 12 वीं शताब्दीके जल्हणने 14 वीं शताब्दीके जैन राजशेखरका उल्लेख न करके 10 वीं शताब्दीके प्रसिद्ध काव्यमीमांसाकार राजशेखरका ही उल्लेख किया है / इस उल्लेखसे धनञ्जयका समय र वीं शताब्दीके अन्तिम भागके बाद तो किसी भी तरह नहीं जाता। ई० 160 में विरचित सोमदेवके यशस्तिलकचम्पमें राजशेखरका उल्लेख होनेसे इनका समय करीब ई०११० ठहरता है। 2 वादिराजसूरि अपने पार्श्वनाथचरित (पृ० 4) में धनञ्जयकी प्रशंसा करते हुए लिखते हैं"अनेकभेदसन्धानाः खनन्तो हृदये मुहुः / बाणा धनञ्जयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रियाः कथम् // " इस श्लिष्ट श्लोकमें 'अनेकभेदसन्धानाः' पदसे धनञ्जयके 'द्विसन्धानकाव्य' का उल्लेख बड़ी कुशलतासे किया गया है / वादिराजसूरिने पार्श्वनाथचरित 147 शक (ई० 1025) में समाप्त किया था / अतः धनञ्जयका समय ई० 10 वीं शताब्दीके बाद तो किसी भी तरह नहीं जा सकता / 3 आ. वीरसेनने अपनी धवलाटीका (अमरावतीकी प्रति पृ०३८७) में धनञ्जयकी अनेकार्थनाममालाका निम्न लिखित श्लोक उद्धृत किया है "हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्यये / प्रादुर्भावे समाप्तौ च इतिशब्दं विदुर्बुधाः // " आ० वीरसेनने धवलाटीकाकी समाप्ति शक 738 (ई०८१६) में की थी। अतः धनञ्जयका समय 8 वीं शताब्दीका उत्तरभाग और नवीं शताब्दीका पूर्वभाग सुनिश्चित होता है / धनञ्जयने अपनी नाममालाके- . "प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् / धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् // " इस श्लोकमें अकलङ्कदेवका नाम लिया है / अकलङ्कदेव ईसाकी 8 वीं सदीके आचार्य हैं अतः धनञ्जयका समय 8 वीं सदीका उत्तरार्ध और नवींका पूर्वार्ध मानना सुसंगत है। आचार्य प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 402 ) में धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्यका उल्लेख किया है। न्यायकुमुदचन्द्रमें इसी स्थल पर द्विसन्धानकी जगह त्रिसन्धान नाम लिया गया है / 1 देखो धवलाटीका प्रथम भागकी प्रस्तावना पृ० 62 / Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 26 रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य और प्रभाचन्द्र-रविभद्रपादोपजीवि अनन्तवीर्याचार्यकी सिद्धिविनिश्चयटीका समुपलब्ध है / ये अकलङ्कके प्रकरणोंके तलद्रष्टा, विवेचयिता, व्याख्याता और मर्मज्ञ थे। प्रभाचन्द्रने इनकी उक्तियोंसे ही दुरवगाह अकलङ्कवाङ्मयका सुष्ठु अभ्यास और विवेचन किया था। प्रभाचन्द्र अनन्तवीर्यके प्रति अपनी कृतज्ञताका भाव न्यायकुमुदचन्द्रमें एकाधिकबार प्रदर्शित करते हैं। इनकी सिद्धिविनिश्चयटीका अकलंकवाङ्मयके टीकासाहित्यका शिरोरत्न है। उसमें सैकड़ों मतमतान्तरोंका उल्लेख करके उनका सविस्तर निरास किया गया है / इस टीकामें धर्मकीर्ति, अर्चट, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकरगुप्त, आदि प्रसिद्ध प्रसिद्ध धर्मकीर्तिसाहित्यके व्याख्याकारोंके मत उनके ग्रन्थोंके लम्बे लम्बे अवतरण देकर उद्धृत किए गए हैं। यह टीका प्रभाचन्द्र के ग्रन्थों पर अपना विचित्र प्रभाव रखती है। शान्तिसूरिने अपनी जैनतर्कवार्तिकवृत्ति ( पृ० 18 ) में 'एके अनन्तवीर्यादयः' पदसे संभवतः इन्हीं अनन्तवीर्यके मतका उल्लेख किया है। विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र-आ० विद्यानन्दका जैनतार्किकोंमें अपना विशिष्ट स्थान है। इनकी श्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनुशासनटीका आदि तार्किककृतियाँ इनके अतुल तलस्पर्शी पाण्डित्य और सर्वतोमुख अध्ययन का पदे पदे अनुभव कराती हैं। इन्होंने अपने किसी भी ग्रन्थमें अपना समय आदि नहीं दिया है। प्रा० प्रभीचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र दोनों ही प्रमुखग्रन्थों पर विद्यानन्दकी कृतियोंकी सुनिश्चित अमिट छाप है। प्रभाचन्द्रको विद्यानन्दके ग्रन्थोंका अनूठा अभ्यास था / उनकी शब्दरचना भी विद्यानन्दकी शब्दभंगीसे पूरी तरह प्रभावित है / प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड के प्रथमपरिच्छेदके अन्तमें “विद्यानन्दसमन्तभद्रगुणतो नित्यं मनोनन्दनम्" इस श्लोकांशमें श्लिष्टरूपसे विद्यानन्दका नाम लिया है। प्रमेयकमलमार्तण्डमें पत्रपरीक्षासे पत्रका लक्षण तथा अन्य एक श्लोक भी उद्धृत किया गया है / अतः विद्यानन्दके ग्रन्थ प्रभाचन्द्रके लिए उपजीव्य निर्विवादरूपसे सिद्ध हो जाते हैं / आ० विद्यानन्द अपने आप्तपरीक्षा आदि ग्रन्थोंमें 'सत्यवाक्यार्थसिद्धथै' 'सत्यवाक्याधिपाः' विशेषणसे तत्कालीन राजाका नाम भी प्रकारान्तरसे सूचित करते हैं। बाबू कामताप्रसादजी ( जैनसिद्धान्तभास्कर भाग 3 किरण 3 पृ० 87) लिखते हैं कि-"बहुत संभव है कि उन्होंने गंगबाड़ि प्रदेश में बहुवास किया हो, क्योंकि गंगवाड़ि प्रदेशके राजा राजमल्लने भी गंगवंशमें होने वाले राजाओंमें सर्वप्रथम 'सत्यवाक्य' उपाधि या अपरनाम धारण किया था। उपर्युक्त श्लोकोंमें यह संभव है कि विद्यानन्दजीने अपने समयके इस राजाके 'सत्यवाक्याधिप' नामको ध्वनित किया हो। युक्त्यनुशासनालंकारमें उपर्युक्त श्लोक प्रशस्ति रूप है और उसमें रचयिता द्वारा अपना नाम और समय सूचित होना ही चाहिए / समयके लिए तत्कालीन राजाका नाम ध्वनित करना पर्याप्त है / राजमल सत्यवाक्य विजयादित्यका लड़का था और वह सन् 816 / Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 न्यायकुमुदचन्द्र के लगभग राज्याधिकारी हुआ था। उनका समय भी विद्यानन्दके अनुकूल है। युक्त्यनुशासनालङ्कारके अन्तिम श्लोकके "प्रोक्तं युक्त यनुशासनं विजयिभिः श्रीसत्यवाक्याधिपैः” इस अंशमें सत्यवाक्याधिप और विजय दोनों शब्द हैं, जिनसे गंगराज सत्यवाक्य और उसके पिता विजयादित्यका नाम ध्वनित होता है / " इस अवतरणसे यह सुनिश्चित हो जाता है कि विद्यानन्दने अपनी कृतियाँ राजमल सत्यवाक्य (816 ई० ) के राज्यकालमें बनाई हैं / आ० विद्यानन्दने सर्वप्रथम अपना तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्थ बनाया है, तदुपरान्त अष्टसहस्री और विद्यानन्दमहोदय, इसके अनन्तर अपने आप्तपरीक्षा आदि परीक्षान्तनामवाले लघु प्रकरण तथा युक्त्यनुशासनटीका; क्योंकि अष्टसहस्रीमें तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकका, तथा प्राप्तपरीक्षा आदिमें अष्टसहस्री और विद्यानन्दमहोदयका उल्लेख पाया जाता है। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और अष्टसहस्रीमें, जो उनकी आद्य रचनाएँ हैं, 'सत्यवाक्य' नाम नहीं लिया है, पर आप्तपरीक्षा आदिमें 'सत्यवाक्य' नाम लिया है। अतः मालूम होता है कि विद्यानन्द श्लोकवार्तिक और अष्टसहस्रीको सत्यवाक्यके राज्यसिंहासनासीन होनेके पहिले ही बना चुके होंगें / विद्यानन्दके ग्रन्थोंमें मंडनमिश्रके मतका खंडन है और अष्टसहस्रीमें सुरेश्वरके सम्बन्धवार्तिकसे 3 / 4 कारिकाएँ भी उद्धृतकी गई हैं। मंडनमिश्र और सुरेश्वरका समय ईसाकी ८वीं शताब्दीका पूर्वभाग माना जाता है। अतः विद्यानन्दका समय ईसाकी 8 वीं शताब्दीका उत्तरार्ध और नवींका पूर्वार्ध मानना सयुक्तिक मालूम होता है / प्रभाचन्द्रके सामने इनकी समस्त रचनाएँ रही हैं / तत्त्वोपप्लववादका खंडन तो विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीमें ही विस्तारसे मिलता है, जिसे प्रभाचन्द्रने अपने ग्रन्थों में स्थान दिया है / इसी तरह अष्टसहस्री और श्लोकवार्तिकमें पाई जानेवाली भावना विधि नियोगके विचारकी दुरवगाह चरचा प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रसन्नरूपसे अक्तीर्ण हुई है / आ० विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( पृ० 206 ) में न्यायदर्शनके 'पूर्ववत्' आदि अनुमानसूत्रका निरास करते समय केवल भाष्यकार और वार्तिककारका ही मत पूर्वपक्ष रूपसे उपस्थित किया है। वे न्यायवार्तिकतात्पर्यटीकाकारके अभिप्रायको अपने पूर्वपक्षमें शामिल नहीं करते / वाचस्पतिमिश्रने तात्पर्यटीका ई० 841 के लगभंग बनाई थी। इससे भी विद्यानन्दके उक्त समयकी पुष्टि होती है। यदि विद्यानन्दका ग्रन्थ रचनाकाल ई०८४१ के बाद होता तो वे तात्पर्यटीका उल्लेख किये बिना न रहते / अनन्तकीर्ति और प्रभाचन्द्र-लघीयस्त्रयादि संग्रहमें अनन्तकीर्तिकृत लघुसर्वज्ञसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण मुद्रित हैं / लघीयस्त्रयादिसंग्रहकी ही प्रस्तावनामें पं० नाथूरामजी प्रेमीने इन अनन्तकीर्तिके समयकी उत्तरावधि विक्रम संवत् 1082 के पहिले निर्धारित की है, और इस समयके समर्थनमें वदिराजके पार्श्वनाथचरितका यह श्लोक उद्धृत किया है"आत्मनैवाद्वितीयेन जीवसिद्धिं निबध्नता / अनन्तकीर्तिना मुक्तिरात्रिमार्गेव लक्ष्यते // " वादिराजने पार्श्वनाथचरित की रचना विक्रम संवत् 1082 में की थी। संभव तो यह है कि इन्हीं अनन्तकीर्तिने जीवसिद्धिकी तरह लघुसर्वज्ञसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि ग्रन्थं बनाये Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 31 हों। सिद्धिविनिश्चयटीकामें अनन्तवीर्यने भी एक अनन्तकीर्तिका उल्लेख किया है। यदि पार्श्वनाथ चरितमें स्मृत अनन्तकीर्ति और सिद्धिविनिश्चयटीकामें उल्लिखित अनन्तकीर्ति एक ही व्यक्ति हैं तो मानना होगा कि इनका समय प्रभाचन्द्रके समयसे पहिले है; क्योंकि प्रभाचन्द्रने अपने ग्रन्थोंमें सिद्विविनिश्चयटीकाकार अनन्तवीर्यका सबहुमान स्मरण किया है / अस्तु / अनन्तकीर्तिके लघुसर्वज्ञसिद्धि तथा बृहत्सर्वज्ञसिद्धि ग्रन्थोंका और प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रके सर्वज्ञसिद्धि प्रकरणोंका आभ्यन्तर परीक्षण यह स्पष्ट बताता है कि इन ग्रन्थोंमें एकका दूसरेके ऊपर पूरा पूरा प्रभाव है / बृहत्सर्वज्ञसिद्धि-(पृ० 181 से 204 तक ) के अन्तिम पृष्ठ तो कुछ थोड़ेसे हेरफेरसे न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 838 से 847 ) के मुक्तिवाद प्रकरणके साथ अपूर्व सादृश्य रखते हैं / इन्हें पढ़कर कोई भी साधारण व्यक्ति कह सकता है कि इन दोनोंमेंसे किसी एकने दूसरेका पुस्तक सामने रखकर अनुसरण किया है / मेरा तो यह विश्वास है कि अनन्तकीर्तिकृत बृहत्. सर्वज्ञसिद्धिका ही न्यायकुमुदचन्द्र पर प्रभाव है। उदाहरणार्थ - "किन्तु अज्ञो जनः दुःखाननुषक्तसुखसाधनमपश्यन् आत्मस्नेहात् सांसारिकेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्तते / हिताहितविवेकज्ञस्तु तादात्विकसुखसाधनं स्यादिकं परित्यज्य आत्मस्नेहात् आत्यन्तिकसुखसाधने मुक्तिमार्गे प्रवर्तते / यथा पथ्यापथ्यविवेकमजाननातुरः तादात्विकसुखसाधनं व्याधिविवृद्धिनिमित्तं दध्यादिकमुपादत्ते, पथ्यापथ्यविवेकज्ञस्तु तत्परित्यज्य पेयादौ आरोग्यसाधने प्रवर्तते / उक्तञ्च-तदात्वसुखसंज्ञेषु भावेष्वज्ञोऽनुरज्यते / हित. मेवानुरुध्यन्ते प्रपरीक्ष्य परीक्षकाः।।"-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 842 / "किन्त्वतज्ज्ञो जनो दुःखाननुषक्तसुखसाधनमपश्यन् आत्मस्नेहात् संसारान्तःपतितेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्तते / हिताहितविवेकज्ञस्तु तादात्विकसुखसाधनं स्त्र्यादिकं परित्यज्य आत्मस्नेहादात्यन्तिकसुखसाधने मुक्तिमार्गे प्रवर्तते / यथा पथ्यापथ्यविवेकमजानन्नातुरः तादात्विकसुखसाधनं व्याधिविवृद्धिनिमित्तं दध्यादिकमुपादत्ते, पथ्यापथ्यविवेकज्ञस्तु आतुरस्तादात्विकसुखसाधनं दध्यादिकं परित्यज्य पेयादावारोग्यसाधने प्रवर्तते / तथा च कस्यचिद्विदुषः सुभाषितम्-तदात्वसुखसंज्ञेषु भावेष्वज्ञोऽनुरज्यते / हितमेवानुरुध्यन्ते प्रपरीक्ष्य परीक्षकाः ॥"-बृहत्सर्वज्ञसिद्धि पृ० 181 / / इस तरह यह समूचा ही प्रकरण इसी प्रकारके शब्दानुसरणसे ओतप्रोत है / शाकटायन और प्रभाचन्द्र-राष्ट्रकूटवंशी राजा अमोघवर्षके राज्यकाल ( ईस्वी 814877 ) में शाकटायन नामके प्रसिद्ध वैयाकरण हो गए हैं / ये योपनीय संघके आचार्य थे / यापनीयसंघका बाह्य आचार बहुत कुछ दिगम्बरोंसे मिलता जुलता था / ये नग्न रहते थे। श्वेताम्बर आगमोंको आदरकी दृष्टि से देखते थे। आ० शाकटायनने अमोघवर्षके नामसे अपने 1 देखो-पं० नाथूरामप्रेमीका 'यापनीय साहित्यकी खोज' (अनेकान्त वर्ष 3 किरण 1) तथा प्रो० ए० उपाध्यायका 'यापनीयसंघ' (जैनदर्शन वर्ष 4 अंक 7 ) लेख / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 न्यायकुमुदचन्द्र शाकटायनव्याकरण पर 'अमोघवृत्ति' नामकी टीका बनाई थी। अतः इनका समय भी लगभग . ई०८०० से 875 तक समझना चाहिए / यापनीयसंघके अनुयायी दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंकी कुछ कुछ बातोंको स्वीकार करते थे। एक तरहसे यह संघ दोनों सम्प्रदायोंके जोड़नेके लिए शृंखलाका कार्य करता था / आचार्य मलयगिरिने अपनी नन्दीसूत्रकी टीका ( पृ० 15 ) में शाकटायनको 'यापनीययतिग्रामाग्रणी' लिखा है-"शाकटायनोऽपि यापनीययतिग्रामाग्रणीः स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ”। शाकटायन आचार्यने अपनी अमोघवृत्तिमें छेदसूत्र नियुक्ति कालिकसूत्र आदि श्वे० ग्रन्थोंका बड़े आदरसे उल्लेख किया है / आचार्य शाकटायनने केवलिकवलाहार तथा स्त्रीमुक्तिके समर्थनके लिए स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति नामके दो प्रकरण बनाए हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके परस्पर बिलगावमें ये दोनों सिद्धान्त ही मुख्य माने जाते हैं / यों तो दिगम्बर ग्रन्थोंमें कुन्दकुन्दाचार्य पूज्यपाद आदिके ग्रन्थोंमें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिका सूत्ररूपसे निरसन किया गया है, परन्तु इन्हीं विषयोंके पूर्वोत्तरपक्ष स्थापित करके शास्त्रार्थका रूप आ० प्रभाचन्द्रने ही अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें दिया है। श्वेताम्बरोंके तर्कसाहित्यमें हम सर्वप्रथम हरिभद्रसूरिकी ललितविस्तरामें स्त्रीमुक्तिका संक्षिप्त समर्थन देखते हैं, परन्तु इन विषयोंको शास्त्रार्थका रूप सन्मतिटीकाकार अभयदेव, उत्तराध्ययन पाइयटीकाके रचयिता शान्तिसूरि, तथा स्याद्वादरत्नाकरकार वादि देवसूरिने ही दिया है / पीछे तो यशोविजय उपाध्याय, तथा मेघविजयगणि आदिने पर्याप्त साम्प्रदायिक रूपसे इनका विस्तार किया है / इन विवादग्रस्त विषयोंपर लिखे गए उभयपक्षीय साहित्यका ऐतिहासिक तथा तात्त्विकदृष्टिसे सूक्ष्म अध्ययन करने पर यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति विषयोंके समर्थनका प्रारम्भ श्वेताम्बर आचार्योंकी अपेक्षा यापनीयसंघ वालोंने ही पहिले तथा दिलचस्पीके साथ किया है। इन विषयोंको शास्त्रार्थका रूप देनेवाले प्रभाचन्द्र, अभयदेव, तथा शान्तिसूरि करीब करीब समकालीन तथा समदेशीय थे। परन्तु इन आचार्योंने अपने पक्षके समर्थनमें एक दूसरेका उल्लेख या एक दूसरेकी दलीलोंका साक्षात् खंडन नहीं किया। प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिका जो विस्तृत पूर्वपक्ष लिखा गया है वह किसी श्वेताम्बर आचार्यके ग्रन्थका न होकर यापनीयाग्रणी शाकटायनके केलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणोंसे ही लिया गया है / इन ग्रन्थोंके उत्तरपक्षमें शाकटायनके उक्त दोनों प्रकरणोंकी एक एक दलीलका शब्दशः पूर्वपक्ष करके सयुक्तिक निरास किया गया है। इसी तरह अभयदेवकी सन्मतितर्कटीका, और शान्तिसूरिकी उत्तराध्ययन पाइयटीका और जैनतर्कवार्तिकमें शाकटायनके इन्हीं प्रकरणोंके आधारसे ही उक्त बातोंका समर्थन किया गया है। हाँ, वादिदेवसूरिके रत्नाकरमें इन मतभेदोंमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सामने सामने आते हैं / रत्नाकरमें प्रभाचन्द्रकी दलीलें पूर्वपक्ष रूपमें पाई जाती हैं / तात्पर्य यह कि-प्रभाचन्द्रने स्त्रीमुक्तिवाद तथा केवलिकवलाहारवादमें श्वेताम्बर आचार्योकी वजाय शाकटायनके केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्ररकणोंको ही अपने 1 ये प्रकरण जैनसाहित्यसंशोधक खंड 2 अंक 3-4 में मुद्रित हुए हैं। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना खंडनका प्रधान लक्ष्य बनाया है / न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 869 ) के पूर्वपक्षमें शाकटायनके स्त्रीमुक्ति प्रकरणकी यह कारिका भी प्रमाण रूपसे उद्धृत की गई है "गार्हस्थ्येऽपि सुसत्त्वाः विख्याताः शीलवत्तया जगति / .. सीतादयः कथं तास्तपसि विशीला विसत्त्वाश्च // " [ स्त्रीमु० श्लो० 31 ] अभयनन्दि और प्रभाचन्द्र-जैनेन्द्रव्याकरणपर आ० अभयनन्दिकृत महावृत्ति उपलब्ध है। इसी महावृत्तिके आधारसे प्रभाचन्द्रने 'शब्दाम्भोजभास्कर' नामका जैनेन्द्रव्याकरणका महान्यास बनाया है / पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैनेन्द्रव्याकरण और आचार्य देवनन्दी' नामक लेखेमें जैनेन्द्रव्याकरणके प्रचलित दो सूत्र पाठोंमेंसे अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठको ही प्राचीन और पूज्यपादकृत सिद्ध किया है / इसी पुरातनसूत्रपाठ पर प्रभाचन्द्रने अपना न्यास बनाया है। प्रेमीजीने अपने उक्त गवेषणापूर्ण लेखमें महावृत्तिकार अभयनन्दिको चन्द्रप्रभचरित्रकार वीरनन्दिका गुरु बताया है और उनका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीका पूर्वभाग निर्धारित किया है। आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु भी यही अभयनन्दि थे। गोम्मटसार कर्मकाण्ड ( गा० 436 ) की निम्नलिखित गाथासे भी यही बात पुष्ट होती है "जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो / वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं // " ___ इस गाथासे तथा कर्मकाण्डकी गाथा नं० 784, 866 तथा लब्धिसार गा० 648 से यह सुनिश्चित हो जाता है कि वीरनन्दिके गुरु अभयनन्दि ही नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु थे / पा० नेमिचन्द्रने तो वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और इन्द्रनन्दिके शिष्य कनकनन्दि तकका गुरुरूपसे स्मरण किया है। इन सब उल्लेखों से ज्ञात होता है कि अभयनन्दि, उनके शिष्य वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि, तथा इन्द्रनन्दिके शिष्य कनकनन्दि सभी प्रायः नेमिचन्द्रके समकालीन वृद्ध थे। वादिराजसूरिने अपने पार्श्वचरितमें चन्द्रप्रभचरित्रकार वीरनन्दिका स्मरण किया है / पार्श्वचरित शकसंवत् 147, ई० 1025 में पूर्ण हुआ था। अतः वीरनन्दिकी उत्तरावधि ई० 1025 तो सुनिश्चित है / नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने गोम्मटसार ग्रन्थ चामुण्डरायके सम्बोधनार्थ बनाया था / चामुण्डराय गंगवंशीयमहाराज मारसिंह द्वितीय ( 175 ई० ) तथा उनके उत्तराधिकारी राजमल्ल द्वितीयके मन्त्री थे। चामुण्डरायने श्रवणवेल्गुलस्थ बाहुवलि गोम्मटेश्वरकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा ई० 681 में कराई थी, तथा अपना चामुण्डपुराण ई० 178 में समाप्त किया था। अतः आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका समय ई० 180 के आसपास सुनिश्चित किया जा सकता है। और लगभग यही समय आचार्य अभयनन्दि आदिका होना 1 इसका परिचय 'प्रभाचन्द्र के ग्रन्थ' शीर्षक स्तम्भमें देखना चाहिए। 2 जैन साहित्यसंशोधक भाग 1 अंक 2 / 3 देखो त्रिलोकसार की प्रस्तावना / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र चाहिए / इन्होंने अपनी महावृत्ति (लिखित पृ० 221) में भर्तृहरि (ई० 650) की वाक्यपदीयका उल्लेख किया है / पृ० 393 में माघ (ई० 7 वीं सदी) काव्यसे 'सटाच्छटाभिन्न' श्लोक उद्धृत किया है। तथा 3 / 2 / 55 की वृत्तिमें 'तत्त्वार्थवार्तिकमधीयते' प्रयोगसे अकलङ्कदेव (ई० 8 वीं सदी) के तत्त्वार्थराजवार्तिकका उल्लेख किया है / अतः इनका समय 1 वीं शताब्दीसे पहिले तो नहीं ही है / यदि यही अभयनन्दि जैनेन्द्र महावृत्तिके रचयिता हैं तो कहना होगा कि उन्होंने ई० 160 के लगभग अपनी महावृत्ति बनाई होगी। इसी महावृत्ति पर ई० 1060 के लगभग आ० प्रभाचन्द्रने अपना शब्दाम्भोजभास्कर न्यास बनाया है; क्योंकि इसकी रचना न्यायकुमुदचन्द्रके बाद की गई है और न्यायकुमुदचन्द्र जयसिंहदेव ( राज्य 1056 से ) के राज्य के प्रारम्भकाल में बनाया गया है। __ मूलाचारकार और प्रभाचन्द्र-मूलाचार ग्रन्थके कर्ताके विषयमें विद्वान् मतभेद रखते हैं। कोई इसे कुन्दकुन्दकृत कहते हैं तो कोई वट्टकेरिकृत / जो हो, पर इतना निश्चित है कि मूलाचारकी सभी गाथाएँ स्वयं उसके कर्त्ताने नहीं रची हैं / उसमें अनेकों ऐसी प्राचीन गाथाएँ हैं, जो कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें, भगवती आराधनामें तथा आवश्यकनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति और सन्मतितर्क आदि में भी पाई जाती हैं। संभव है कि गोम्मटसार की तरह यह भी एक संग्रह ग्रन्थ हो। ऐसे संग्रहग्रन्थोंमें प्राचीनगाथाओंके साथ कुछ संग्रहकाररचित गाथाएँ भी होती हैं / गोम्मटसारमें बहुभाग स्वरचित है जब कि मूलाचारमें स्वरचित गाथाओंका बहुभाग नहीं मालूम होता / आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 845 ) में “एगो मे सस्सदो" "संजोगमूलं जीवेन" ये दो गाथाएँ उद्धृत की हैं। ये गाथाएँ मूलाचारमें ( 2 / 48,46 ) दर्ज हैं। इनमें पहिली गाथा कुन्दकुन्दके भावपाहुड तथा नियमसारमें भी पाई जाती है / इसी तरह प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 331 ) में "आचेलकुदेसिय" आदि गाथांश दशविध स्थितिकल्पका निर्देश करने के लिए उद्धृत है। यह गाथा मूलाचार ( गाथा नं० 106) में तथा भगवती आराधनामें ( गा० 421 ) विद्यमान है। यहाँ यह बात खास ध्यान देने योग्य है कि प्रभाचन्द्रने इस गाथाको श्वेताम्बर आगममें आचेलक्यके समर्थनका प्रमाण बताने के लिए श्वेताम्बरागमके रूपमें उद्धृत किया है / यह गाथा जीतकल्पभाष्य (गा० 1972 ) में पाई जाती है / गाथाओं की इस संक्रान्त स्थितिको देखते हुए यह सहज ही कहा जा सकता है कि कुछ प्राचीन गाथाएँ परम्परासे चली आई हैं, जिन्हें दिग० श्वेता० दोनों आचार्योने अपने ग्रन्थोंमें स्थान दिया है / .. नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती और प्रभाचन्द्र-आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती वीरसेनापति श्री चामुण्डरायके समकालीन थे। चामुण्डराय गंगवंशीय महाराज मारसिंह द्वितीय ( 175 ई० ) तथा उनके उत्तराधिकारी राजमल्ल द्वितीयके मन्त्री थे। इन्हींके राज्यकालमें चामुण्डरायने गोम्मटेश्वरकी प्रतिष्ठा ( सन् 181 ) कराई थी। आ० नेमिचन्द्रने इन्हीं चामुण्डरायको सिद्धान्त परिज्ञान करानेके लिए गोम्मटसार ग्रन्थ बनाया था। यह ग्रन्थ प्राचीन सिद्धान्तग्रन्थोंका संक्षिप्त संस्करण है। न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 254 ) में 'लोयायासपएसे' Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना गाथा उद्धत है। यह गाथा जीवकांड तथा द्रव्यसंग्रह में पाई जाती है / अतः आपाततः यही निष्कर्ष निकल सकता है कि यह गाथा प्रभाचन्द्रने जीवकांड या द्रव्यसंग्रहसे उद्धृत की होगी; परन्तु अन्वेषण करने पर मालूम हुआ कि यह गाथा बहुत प्राचीन है और सर्वार्थसिद्धि (5 / 39) तथा श्लोकवार्तिक (पृ० 366 ) में भी यह उद्धृत की गई है। इसी तरह प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 300 ) में 'विग्गहगइमावण्णा' गाथा उद्धृत की गई है। यह गाथा भी जीवकांड में है / परन्तु यह गाथा भी वस्तुतः प्राचीन है और धवलाटीका तथा उमास्वातिकृत श्रावकप्रज्ञप्तिमें मौजूद है / प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य ओर प्रभाचन्द्र-रविभद्रके शिष्य अनन्तवीर्य प्राचार्य अकलंकके प्रकरणों के ख्यात टीकाकार विद्वान् थे। प्रमेयरत्नमालाके टीकाकार अनन्तवीर्य उनसे पृथक् व्यक्ति हैं; क्योंकि प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रथम अनन्तवीर्यका स्मरण किया है, और द्वितीय अनन्तवीर्य अपनी प्रमेयरत्नमालामें इन्हीं प्रभाचन्द्र का स्मरण करते हैं / वे लिखते हैं कि प्रभाचन्द्रके वचनोंको ही संक्षिप्त करके यह प्रमेयरत्नमाला बनाई जा रही है। प्रो० ए० एन० उपाध्यायने प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यके समयका अनुमान ग्यारहवीं सदी किया है, जो उपयुक्त है / क्योंकि आ० हेमचन्द्र (1088-1173 ई० ) की प्रमाणमीमांसा पर शब्द और अर्थ दोनों दृष्टि से प्रमेयरत्नमालाका पूरा पूरा प्रभाव है। तथा प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका प्रभाव प्रमेयरत्नमाला पर है। आ० हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसाने प्रायः प्रमेयरत्नमालाके द्वारा ही प्रमेयकमलमार्तण्ड को पाया है। देवसेन और प्रभाचन्द्र- देवसेन श्रीविमलसेन गणीके शिष्य थे। इन्होंने धारानगरीके पार्श्वनाथ मन्दिरमें माघ सुदी दशमी विक्रमसंवत् 660 ( ई० 133) में अपना दर्शनसार ग्रन्थ बनाया था। दर्शनसारके बाद इन्होंने भावसंग्रह ग्रन्थकी रचना की थी, क्योंकि उसमें दर्शनसारकी अनेकों गाथाएँ उद्धृत मिलती हैं। इनके अाराधनासार, तत्त्वसार, नयचक्रसंग्रह तथा आलापपद्धति ग्रन्थ भी हैं / आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 300 ) तथा न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 856 ) के कवलाहारवादमें देवसेनके भावसंग्रह (गा० 110 ) की यह गाथा उद्धृत की है "णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो। ओज मणोवि य कमसो आहारो छव्विहो णेयो // " यद्यपि देवसेनसूरिने दर्शनसार ग्रन्थके अन्तमें लिखा है कि"पुव्वायरियकयाई गाहाई संचिऊण एयत्थ / सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण // 1 प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रथम संस्करणके संपादक पं० बंशीधरजी शास्त्री सोलापुरने प्रमेयक० की प्रस्तावनामें यही निष्कर्ष निकाला भी है। 2 "प्रभेन्दुवचनोदारचन्द्रिकाप्रसरे सति / मादृशाः क्व नु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः / / तथापि तद्वचोऽपूर्वरचनारुचिरं सताम् / चेतोहरं भृतं यद्वन्नद्या नवघटे जलम् / / " 3 देखो जैनदर्शन वर्ष 4 अंक 9 / 4 नयचक्रकी प्रस्तावना पृ० 11- / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र . रइयो दंसणसारो हारो भव्वाण णवसए णवए / सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धं माहसुद्धदसमीए॥" अर्थात् पूर्वाचार्यकृत गाथाओंका संचय करके यह दर्शनसार ग्रन्थ बनाया गया है। तथापि बहुत खोज करने पर भी यह गाथा किसी प्राचीन ग्रंथमें नहीं मिल सकी है। देवसेन धारानगरीमें ही रहते थे, अतः धारानिवासी प्रभाचन्द्रके द्वारा भावसंग्रहसे भी उक्त गाथाका उद्धृत किया जाना असंभव नहीं है / चूँकि दर्शनसारके बाद भावसंग्रह बनाया गया है, अतः इसका रचनाकाल संभवतः विक्रम संवत् 617 ( ई० 640 ) के आसपास ही होगा / श्रुतकीर्ति और प्रभाचन्द्र-जैनेन्द्रके प्राचीन सूत्रपाठपर आचार्य श्रुतकीर्तिकृत पंचवस्तुप्रक्रिया उपलब्ध है'। श्रुतकीर्तिने अपनी प्रक्रियाके अन्तमें श्रीमद्वृत्तिशब्दसे अभयनन्दिकृत महावृत्ति और न्यासशब्दसे संभवतः प्रभाचन्द्रकृत न्यास, दोनोंका ही उल्लेख किया है / यदि न्यासशब्द पूज्यपादके जैनेन्द्रन्यासका निर्देशक हो तो 'टीकामाल' शब्दसे तो प्रभाचन्द्रकी टीकाका उल्लेख किया ही गया है / यथा "सूत्रस्तम्भसमुद्धृतं प्रविलसन्न्यासोरुरत्नक्षिति, श्रीमद्वृत्तिकपाटसंपुटयुतं भाष्यौघशय्यातलम् / टीकामालमिहारुरुक्षुरचितं जैनेन्द्रशब्दागमम्, ___ प्रासादं पृथुपञ्चवस्तुकमिदं सोपानमारोहतात् // " कनडी भाषाके चन्द्रप्रभचरित्रके कर्ता अग्गलकविने श्रुतकीर्तिको अपना गुरु बताया है"इति परमपुरुनाथकुलभूभृत्समुद्भूतप्रवचनसरित्सरिन्नाथश्रुतकीर्तित्रैविद्यचकवर्तिपदपद्मनिधानदीपवर्तिश्रीमदग्गलदेवविरचिते चन्द्रप्रभचरिते " / यह चरित्र शक संवत् 1011, ई० 1086 में बनकर समाप्त हुआ था। अतः श्रुतकीर्तिका समय लगभग 1000 ई० मानना युक्तिसंगत है / इन श्रुतकीर्तिने न्यासको जैनेन्द्र व्याकरण रूपी प्रासादकी रत्नभूमिकी उपमा दी है। इससे शब्दाम्भोजभास्करका रचनासमय लगभग ई० 1060 समर्थित होता है / श्वे० प्रागमसाहित्य और प्रभाचन्द्र-भ० महावीरकी अर्धमागधी दिव्यध्वनिको गणधरों ने द्वादशांगी रूपमें गूंथा था। उस समय उन अर्धमागधी भाषामय द्वादशांग अागमोंकी परम्परा श्रुत और स्मृत रूपमें रही, लिपिबद्ध नहीं थी। इन आगमोंका आखरी संकलन वीर सं० 180 (वि० 510 ) में श्वेताम्बराचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणने किया था / अंगग्रन्थोंके सिवाय कुछ अंगबाह्य या अनंगात्मक श्रुत भी है / छेदसूत्र अनंगश्रतमें शामिल है / आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 868) के स्त्रीमुक्तिवादके पूर्वपक्षमें कल्पसूत्र ( 5 / 20 ) से "नो कप्पइ णिग्गंथीए अचेलाए होत्तए" यह सूत्रवाक्य उद्धृत किया है। तत्त्वार्थभाष्यकार और प्रभाचन्द्र-तत्त्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ प्रचलित हैं / एक तो वह, जिस पर खयं वाचक उमाखातिका स्वोपज्ञभाष्य प्रसिद्ध है, और दूसरा वह जिस पर पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि है / दिगम्बर परम्परामें पूज्यपादसम्मत सूत्रपाठ और श्वेताम्बरपरम्परामें भाष्य 1 देखो प्रेमीजीका 'जनेन्द्र व्याकरण और आचार्यदेवनन्दी' लेख, जैनसा० सं० भाग 1 अंक 2 / Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 37 सम्मत सूत्रपाठ प्रचलित है। उमाखातिके स्वोपज्ञभाष्यके कर्तृत्वके विषयमें आज कल विवाद चल रहा है। मुख्तारसा० श्रादि कुछ विद्वान् भाष्यकी उमास्वातिकर्तृकताके विषयमें सन्दिग्ध हैं। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें दिगम्बरसूत्रपाठसे ही सूत्र उद्धृत किए हैं। उन्होंने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 856 ) के स्त्रीमुक्तिवादके पूर्वपक्षमें तत्त्वार्थभाष्यकी सम्बन्धकारिकाओंमेंसे "श्रूयन्ते चानन्ताः सामायिकमात्रससिद्धाः” कारिकांश उद्धृत किया है / तत्त्वार्थराजवार्तिक ( पृ० 10 ) में भी "अनन्ताः सामायिकमात्रसिद्धाः" वाक्य उद्धृत मिलता है / इसी तरह तत्त्वार्थभाष्यके अन्तमें पाई जाने वाली 32 कारिकाएँ राजवार्तिकके अन्तमें 'उक्तश्च' लिखकर उद्धृत हैं। पृ० 361 में भाष्यकी 'दग्धे बीजे' कारिका उद्धृतकी गई है / इत्यादि प्रमाणोंके आधारसे यह निःसङ्कोच कहा जा सकता है कि प्रस्तुत भाष्य अकलङ्कदेवके सामने भी था। उनने इसके कुछ मन्तब्योंकी समीक्षा भी की है / सिद्धसेन और प्रभाचन्द्र-आ० सिद्धसेनके सन्मतितर्क, न्यायावतार, द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशतिका ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं / इनके सन्मतितर्क पर अभयदेवसूरिने विस्तृत व्याख्या लिखी है / डॉ जैकोवी न्यायावतारके प्रत्यक्ष लक्षणमें अभ्रान्त पद देखकर इनको धर्मकीर्तिका समकालीन, अर्थात् ईसाकी 7 वीं शताब्दीका विद्वान् मानते हैं / पं० सुखलाल जी इन्हें विक्रमकी पांचवीं सदीका विद्वान् सिद्ध करते थे। पर अब उनका विश्वास है कि "सिद्धसेन ईसाकी छठी या सातवीं सदीमें हुए हों और उन्होंने संभवतः धर्मकीर्तिके ग्रन्थोंको देखा हो / " न्यायावतारकी रचनामें न्यायप्रवेशके साथ ही साथ न्यायबिन्दु भी अपना यत्किश्चित् स्थान रखता ही है / आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 437 ) में पक्षप्रयोगका समर्थन करते समय 'धानुष्क' का दृष्टान्त दिया है। इसकी तुलना न्यायावतारके श्लोक 14-16 से भलीभांति की जा सकती है। न केवल मूलश्लोकसे ही, किन्तु इन श्लोकोंकी सिद्धर्षिकृत व्याख्या भी न्यायकुमुदचन्द्रकी शब्दरचनासे तुलनीय है। धर्मदासगणि और प्रभाचन्द्र-श्वे० आचार्य धर्मदासगणिका उपदेशमाला ग्रन्थ प्राकृतगाथानिबद्ध है / प्रसिद्धि तो यह रही है कि ये महावीरस्वामीके दीक्षित शिष्य थे। पर यह इतिहासविरुद्ध है; क्योंकि इन्होंने अपनी उपदेशमालामें वज्रसूरि आदिके नाम लिए हैं / अस्तु / उपदेशमाला. पर सिद्धर्षिसूरिकृत प्राचीन टीका उपलब्ध है। सिद्धर्षिने उपमितिभवप्रपञ्चाकथा वि सं० 162 ज्येष्ठ शुद्ध पंचमीके दिन समाप्त की थी। अतः धर्मदासगणिकी उत्तरावधि विक्रम की र वीं शताब्दी माननेमें कोई बाधा नहीं है। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 330) में उपदेशमाला (गा० 15) की 'वरिससयदिक्खयाए अजाए अन्ज दिक्खिओ साहू' इत्यादि गाथा प्रमाणरूपसे उद्धृत की है। 1 देखो गुजराती सन्मतितर्क पृ० 40 / 2 इंग्लिश सन्मतितर्क की प्रस्तावना / 3 जैनसाहित्यनो इतिहास पृ० 186 / Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 न्यायकुमुदचन्द्र . हरिभद्र और प्रभाचन्द्र-पा० हरिभद्र श्वे० सम्प्रदायके युगप्रधान प्राचार्योमेंसे हैं। कहा जाता है कि इन्होंने 1400 के करीब ग्रन्थोंकी रचना की थी। मुनि श्री जिनविजय जीने अनेक प्रबल प्रमाणोंसे इनका समय ई० 700 से 770 तक निर्धारित किया है / मेरा इसमें इतना संशोधन है-कि इनके समयकी उत्तरावधि ई० 810 तक होनी चाहिए, क्योंकि जयन्त भट्टकी न्यायमंजरीका 'गम्भीरगर्जितारम्भ' श्लोक षड्दर्शनसमुच्चयमें शामिल हुआ है। मैं विस्तारसे लिख चुका हूँ कि जयन्तने अपनी मंजरी ई० 800 के करीब बनाई है अतः हरिभद्रके समयकी उत्तरावधि कुछ और लम्बानी चाहिए। उस युगमें 100 वर्षकी आयु तो साधारणतया अनेक आचार्यों की देखी गई है। हरिभद्रसूरिके दार्शनिक ग्रन्थोंमें 'षड्दर्शनसमुच्चय' एक विशिष्ट स्थान रखता है। इसका"प्रत्यक्षमनुमानञ्च शब्दश्वोपमया सह / अर्थापत्तिरभावश्च षट् प्रमाणानि जैमिनेः // 72 // " यह श्लोक न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 505) में उद्धृत है / यद्यपि इसी भावका एक श्लोक"प्रत्यक्षमनुमानञ्च शाब्दश्योपमया सह / अर्थापत्तिरभावश्च षडेते साध्यसाधकाः // " इस शब्दावलीके साथ कमलशीलकी तत्त्वसंग्रहपञ्जिका (पृ० 450 ) में मिलता है और उमसे संभावना की जा सकती है कि जैमिनिकी षट्प्रमाणसंख्याका निदर्शक यह श्लोक किसी जैमिनिमतानुयायी आचार्यके ग्रन्थसे लिया गया होगा। यह संभावना हृदयको लगती भी है / परन्तु जबतक इसका प्रसाधक कोई समर्थ प्रमाण नहीं मिलता तबतक उसे हरिभद्रकृत माननेमें ही लाघव है। और बहुत कुछ संभव है कि प्रभाचन्द्रने इसे षड्दर्शनसमुच्चयसे ही उद्धृत किया हो / हरिभद्रने अपने ग्रन्थोंमें पूर्वपक्षके पल्लवन और उत्तरपक्षके पोषणके लिए अन्यग्रन्थकारोंकी कारिकाएँ, पर्याप्त मात्रामें, कहीं उन आचार्योके नामके साथ और कहीं विना नाम लिए ही शामिल की हैं / अतः कारिकाओंके विषयमें यह निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है कि ये कारिकाएँ हरिभद्रकी स्वरचित हैं या अन्यरचित होकर संगृहीत हैं ? इसका एक और उदाहरण यह है कि"विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारो रूपमेव च / समुदेति यतो लोके रागादीनां गणोऽखिलः / / आत्मात्मीयस्वभावाख्यः समुदयः स सम्मतः / क्षणिकाः सर्वसंस्कारा इत्येवं वासना यका / / स मार्ग इति विज्ञेयो निरोधो मोक्ष उच्यते / पञ्चेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषयाः पञ्च मानसम् / / धर्मायतनमेतानि द्वादशायतनानि च..." ये चार श्लोक षड्दर्शनसमुच्चयके बौद्धदर्शनमें मौजूद हैं। इसी आनुपूर्वीसे ये ही श्लोक किञ्चित् शब्दभेदके साथ जिनसेनके आदिपुराण ( पर्व 5 श्लो० 42-45 ) में भी विद्यमान हैं। रचनासे तो ज्ञात होता है कि ये श्लोक किसी बौद्धाचार्यने बनाए होंगे, और उसी बौद्धग्रन्थसे षड्दर्शनसमुच्चय और आदिपुराणमें पहुँचे हों। हरिभद्र और जिनसेन प्रायः समकालीन हैं, अतः यदि ये श्लोक हरिभद्रके होकर आदिपुराणमें आए हैं तो इसे उससमयके असाम्प्रदायिक भावकी महत्वपूर्ण घटना समझनी चाहिए / हरिभद्रने तो शास्त्रवार्तासमुच्चयमें समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाके श्लोक उद्धृत कर अपनी षड्दर्शनसमुच्चायक बुद्धिके प्रेरणा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना बीजको ही मूर्तरूपमें अङ्कुरित किया है। यदि न्यायप्रवेशवृत्तिकार हरिभद्र ये ही हरिभद्र हैं तो उस वृत्ति (पृ० 13 ) में पाई जाने वाली पक्षशब्दकी 'पच्यते व्यक्तीक्रियते योऽर्थः सः पक्षः' इस व्युत्पत्तिकी अस्पष्ट छाया न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 438 ) में की गई पक्षकी व्युत्पत्ति पर आभासित होती है। सिद्धर्षि और प्रभाचन्द्र-श्रीसिद्धर्षिगणि श्वे० आचार्य दुर्गस्वामीके शिष्य थे। इन्होंने ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी, विक्रम संवत् 162 (1 मई 106 ई० ) के दिन उपमितिभवप्रपञ्चा कथाकी समाप्ति की थी / सिद्धसेन दिवाकरके न्यायावतारपर भी इनकी एक टीका उपलब्ध है / न्यायावतार ( श्लो० 16 ) में पक्षप्रयोगके समर्थनके प्रसंगमें लिखा है कि-"जिस तरह लक्ष्यनिर्देशके विना अपनी धनुर्विद्याका प्रदर्शन करने वाले धनुर्धारीके गुण-दोषोंका यथावत् निर्णय नहीं हो सकता, गुण भी दोषरूपसे तथा दोष भी गुणरूपसे प्रतिभासित हो सकते हैं, उसी तरह पक्षका प्रयोग किए विना साधनवादीके साधन सम्बन्धी गुण-दोष भी विपरीत रूपमें प्रतिभासित हो सकते हैं, प्रानिक तथा प्रतिवादी आदिको उनका यथावत् निर्णय नहीं हो सकता।" न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 437) के 'पक्षप्रयोगविचार' प्रकरणमें भी पक्षप्रयोगके समर्थनमें धनुर्धारी का दृष्टान्त दिया गया है / उसकी शब्दरचना तथा भावव्यञ्जनामें न्यायावतारके मूलश्लोकके साथ ही साथ सिद्धर्षिकृत व्याख्याका भी पर्याप्त शब्दसादृश्य पाया जाता है / अवतरणोंके लिए देखो-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 437 टि० 1 / - अभयदेव और प्रभाचन्द्र-चन्द्रगच्छ में प्रद्युम्नसूरि बड़े ख्यात आचार्य थे / अभयदेव सरि इन्हीं प्रद्युम्नसूरिके शिष्य थे / न्यायवनसिंह और तर्कपञ्चानन इनके विरुद थे / सन्मतितर्ककी गुजराती प्रस्तावना (पृ० 83) में श्रीमान् पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने इनका समय विक्रमकी दशवीं सदीका उत्तरार्ध और ग्यारहवींका पूर्वार्ध निश्चित किया है। उत्तराध्ययनकी पाइयटीकाके रचयिता शान्तिसूरिने उत्तराध्ययनटीकाकी प्रशस्तिमें एक अभयदेव को प्रमाणविद्याका गुरु लिखा है। पं० सुखलालजीने शान्तिसूरिके गुरुरूपमें इन्हीं अभयदेवसूरिकी संभावना की है। प्रभावकचरित्रके उल्लेखानुसार शान्तिसूरिका स्वर्गवास वि० सं० 1016 में हुआ था / इन्हीं शान्तिसूरिने धनपालकविकी तिलकमञ्जरी आख्यायिका का संशोधन किया था, और उस पर एक टिप्पण लिखा था / धनपाल कवि मुञ्ज तथा भोज दोनोंकी राजसभाओं में सम्मानित हुए थे। इन सब घटनाओंको मद्दे नजर रखते हुए अभयदेव सूरिका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग तक मान लेने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। अभयदेव सूरिकी प्रामाणिकप्रकाण्डताका जीवन्त रूप उनकी सन्मतिटीका में पद पद पर मिलता है / इस सुविस्तृत टीका की 'वादमहार्णव' के नामसे भी प्रसिद्धि रही है। प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्रकी अपेक्षा प्रमेयकमलमार्तण्डका अकल्पित सादृश्य इस टीका में पाया जाता है / अभयदेवसूरिने सन्मतिटीका में स्त्रीमुक्ति और केवलिकवलाहारका समर्थन किया है। इसमें दी गई दलीलोंमें तथा प्रभाचन्द्रके द्वारा किए गए उक्त वादोंके खण्डन की Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र युक्तियोंमें परस्पर कोई पूर्वोत्तरपक्षता नहीं देखी जाती। अभयदेव, शान्तिसूरि, और प्रभाचन्द्र करीब करीब समकालीन और समदेशीय थे। इसलिए यह अधिक संभव था कि स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति जैसे साम्प्रदायिक प्रकरणोंमें एक दूसरेका खंडन करते। पर हम इनके ग्रन्थोंमें परस्पर खंडन नहीं देखते / इसका कारण मेरी समझमें तो यही आता है कि उस समय दिगम्बर आचार्य यापनीयोंके साथ ही इस विषयकी चरचा करते होंगे। यही कारण है कि जब प्रभाचन्द्रने शाकटायनके स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति प्रकरणोंका ही शब्दशः खंडन किया है तब श्वेताम्बराचार्य अभयदेव और शान्तिसूरिने शाकटायनकी दलीलोंके आधारसे ही अपने ग्रन्थोंके उक्त प्रकरण पुष्ट किए हैं। वादिदेवसूरिने अवश्य ही प्रभाचन्द्रके ग्रन्थोंके उक्त प्रकरणोंको पूर्वपक्षमें प्रभाचन्द्रका नाम लेकर उपस्थित किया है / सन्मतितर्कके सम्पादक श्रीमान् पं० सुखलालजी और बेचरदासजीने सन्मतितर्क प्रथम भाग ( पृ० 13 ) की गुजराती प्रस्तावनामें लिखा है कि-"जो के प्रा टीकामां सैकड़ों दार्शनिकग्रन्थों नु दोहन जणाय छे, छतां सामान्यरीते मीमांसककुमारिलभट्टनु श्लोकवार्तिक, नालन्दाविश्वविद्यालय ना आचार्य शान्तरक्षितकृत तत्त्वसंग्रह ऊपरनी कमलशीलकृत पंजिका अने दिगम्बराचार्य प्रभाचन्द्रना प्रमेयकमलमार्तण्ड अने न्यायकुमुदचन्द्रोदय विगेरे ग्रंथों नु प्रतिबिम्ब मुख्यपणे आ टीकामां छ / " अर्थात् सन्मंतितर्कटीका पर मीमांसाश्लोकवार्तिक, तत्त्वसंग्रहपंजिका, प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थोंका प्रतिबिम्ब पड़ा है / सन्मतितर्कके विद्वद्रूप सम्पादकोंकी उक्त बातसे सहमति रखते हुए भी मैं उसमें इतना परिवर्धन और कर देना चाहता हूं कि-"प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका सन्मतितर्कसे शब्दसादृश्य मात्र साक्षात् विम्बप्रतिबिम्बभाव होनेके कारण ही नहीं हैं, किन्तु तीनों ग्रथोंके बहुभागमें जो अकल्पित सादृश्य पाया जाता है वह तृतीयराशिमूलक भी है। ये तृतीय राशिके प्रथ हैं-भट्टजयसिंहराशिका तत्त्वोपप्लवसिंह, व्योमशिवकी व्योमवती, जयन्तकी न्यायमञ्जरी, शान्तरक्षित और कमलशीलकृत तत्त्वसंग्रह और उसकी पंजिका तथा विद्यानन्दके अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमाणपरीक्षा, आप्तपरीक्षा आदि प्रकरण / इन्हीं तृतीयराशिके ग्रन्थोंका प्रतिबिम्ब सन्मतिटीका और प्रमेयकमलमार्तण्डमें आया है / " सन्मतितर्कटीका, प्रभेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट मालूम होता है कि सन्मतितर्कका प्रमेयकमलमार्तण्डके साथ ही अधिक शब्दसादृश्य है / न्यायकुमुदचन्द्रमें जहाँ भी यत्किञ्चित् सादृश्य देखा जाता है वह प्रमेयकमलमार्तण्डप्रयुक्त ही है साक्षात् नहीं। अर्थात् प्रमेयकमलमार्तण्डके जिन प्रकरणों के जिस सन्दर्भसे सन्मतितर्कका सादृश्य है उन्हीं प्रकरणोंमें न्यायकुमुदचन्द्रसे भी शब्दसादृश्य पाया जाता है / इससे यह तर्कणा की जा सकती है कि-सन्मतितर्ककी रचनाके समय न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना नहीं हो सकी थी। न्यायकुमुदचन्द्र जयसिंहदेवके राज्यमें सन् 1057 के आसपास रचा गया था जैसा कि उसकी अन्तिम प्रशस्तिसे विदित है। सन्मति 1 गुजराती सन्मतितर्क पृ० 84 / Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 41 तर्कटीका, प्रमेयकमलमारीण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रकी तुलनाके लिए देखो-प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रथम अध्यायके टिप्पण तथा न्यायकुमुदचन्द्रके टिप्पणोंमें दिए गए सन्मतिटीका के अवतरण / वादि देवसूरि और प्रभाचन्द्र-देवसूरि श्रीमुनिचन्द्रसूरिके शिष्य थे। प्रभावक चरित्रके लेखानुसार मुनिचन्द्रने शान्तिसूरिसे प्रमाणविद्याका अध्ययन किया था। ये प्राग्वाटवंशके रत्न थे / इन्होंने वि० सं० 1143 में गुर्जर देशको अपने जन्मसे पूत किया था। ये भडोच नगरमें र वर्षकी अल्पवयमें वि० सं० 1152 में दीक्षित हुए थे तथा वि० सं० 1174 में इन्होंने आचार्यपद पाया था। राजर्षि कुमारपालके राज्यकाल में वि० सं० 1226 में इनका स्वर्गवास हुआ। प्रसिद्ध है कि-वि० सं० 1181 वैशाख शुद्ध पूर्णिमाके दिन सिद्धराजकी सभामें इनका दिगम्बरवादी कुमुदचन्द्रसे वाद हुआ था और इसी वादमें विजय पानेके कारण देवसूरि वादि देवसूरि कहे जाने लगे थे। इन्होंने प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार नामक सूत्र ग्रन्थ तथा इसी सूत्रकी स्याद्वादरत्नाकर नामक विस्तृत व्याख्या लिखी है / इनका प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार माणिक्यनन्दिकृत परीक्षामुखसूत्रका अपने ढंगसे किया गया दूसरा संस्करण ही है / इन्होंने परीक्षामुखके 6 परिच्छेदोंका विषय ठीक उसी क्रमसे अपने सूत्रके श्राद्य 6 परिच्छेदोंमें यत्किञ्चित् शब्दभेद तथा अर्थभेदके साथ प्रथित किया है / परीक्षामुखसे अतिरिक्त इसमें नयपरिच्छेद और वादपरिच्छेद नामक दो परिच्छेद और जोड़े गए हैं। माणिक्यनन्दिके सूत्रोंके सिवाय अकलङ्कके स्वविवृलियुक्त लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय तथा विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकका भी पर्याप्त साहाय्य इस सूत्रग्रन्थमें लिया गया है / इस तरह भिन्न भिन्न ग्रन्थोंमें विशकलित जैनपदार्थोका शब्द एवं अर्थदृष्टिसे सुन्दर संकलन इस सूत्रग्रन्थमें हुआ है। * परीक्षामुखसूत्रपर प्रभाचन्द्रकृत प्रमेयकमलमार्तण्ड नामकी विस्तृत व्याख्या है तथा अकलङ्कदेवके लघीयस्त्रयपर इन्हीं प्रभाचन्द्रका न्यायकुमुद चन्द्र नामका बृहत्काय टीकाग्रन्थ है / प्रभाचन्द्रने इन मूल ग्रन्थों की व्याख्याके साथही साथ मूलग्रन्थसे सम्बद्ध विषयोंपर विस्तृत लेख भी लिखे हैं / इन लेखोंमें विविध विकल्पजालोंसे परपक्षका खंडन किया गया है। प्रमेमकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके तीक्ष्ण एवं श्राह्लादक प्रकाशमें जब हम स्याद्वादरत्नाकरको तुलनात्मक दृष्टिसे देखते हैं तब वादिदेवसूरिकी गुणग्राहिणी संग्रहदृष्टिकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते / इनकी संग्राहक बीजबुद्धि प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रसे अर्थ शब्द और भावोंको इतने चेतश्चमत्कारक ढंगसे चुन लेती है कि अकेले स्याद्वादरत्नाकरके पढ़ लेनेसे न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्तण्डका यावद्विषय विशद रीतिसे अवगत हो जाता है / वस्तुतः यह रत्नाकर उक्त दोनों ग्रन्थोंके शब्द-अर्थरत्नोंका सुन्दर आकर ही है। यह रत्नाकर मार्तण्डकी अपेक्षा चन्द्र (न्यायकुमुदचन्द्र ) से ही अधिक उद्वेलित हुआ है / प्रकरणोंके क्रम और पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्षके जमानेकी पद्धतिमें कहीं कहीं तो न्यायकुमुदचन्द्रका इतना अधिक शब्दसादृश्य है कि दोनों ग्रन्थोंकी पाठशुद्धिमें एक दूसरेका मूलप्रतिकी तरह उपयोग किया जा सकता है / 1 देखो जैन साहित्य नो इतिहास पृ० 248 / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र ___ प्रतिबिम्बवाद नामक प्रकरणमें वादि देवसूरिने अपने रत्नाकर (पृ० 865 ) में न्यायकुमुद चन्द्र (पृ० 455 ) में निर्दिष्ट प्रभाचन्द्रके मतके खंडन करनेका प्रयास किया है / प्रभाचन्द्रका मत है कि-प्रतिबिम्बकी उत्पत्तिमें जल आदि द्रव्य उपादान कारण हैं तथा चन्द्र आदि बिम्ब निमित्तकारण / चन्द्रादि बिम्बोंका निमित्त पाकर जल आदिके परमाणु प्रतिबिम्बाकारसे परिणत हो जाते हैं। वादि देवसूरि कहते हैं कि-मुखादिबिम्बोंसे छायापुद्गल निकलते हैं और वे जाकर दर्पण आदिमें प्रतिबिम्ब उत्पन्न करते हैं। यहाँ छायापुद्गलोंका मुखादि बिम्बोंसे निकलनेका सिद्धान्त देवसूरिने अपने पूर्वाचार्य श्रीहरिभद्रसूरिके धर्मसारप्रकरणका अनुसरण करके लिखा है / वे इस समय यह भूल जाते हैं कि हम अपनेही ग्रन्थमें नैयायिकोंके चनुसे रश्मियोंके निकलनेके सिद्धान्तका खंडन कर चुके हैं। जब हम भासुररूपवाली आंखसे भी रश्मियोंका निकलना युक्ति एवं अनुभवसे विरुद्ध बताते हैं तब मुख आदि मलिन बिम्बोंसे छाया पुद्गलोंके निकलनेका समर्थन किस तरह किया जा सकता है ? मजेदार बात तो यह है कि इस प्रकरण में भी वादि देवसूरि न्यायकुमुदचन्द्रके साथही साथ प्रमेयकमलमार्तण्डका भी शब्दशः अनुसरण करते हैं। और न्यायकुमुदचन्द्रमें निर्दिष्ट प्रभाचन्द्रके मतके खंडनकी धुनमें स्वयं ही प्रमेयकलमार्तण्डके उसी आशयके शब्दोंको सिद्धान्त मान बैठते हैं। वे रत्नाकरमें (पृ० 628) ही प्रमेयकमलमार्तण्ड का शब्दानुसरण करते हुए लिख जाते हैं कि-"स्वच्छताविशेषाद्धि जलदर्पणादयो मुखादित्यादिप्रतिबिम्बाकारविकारधारिणः सम्पद्यन्ते ।”–अर्थात् विशेष स्वच्छताके कारण जल और दर्पण आदि ही मुख और सूर्य आदि बिम्बोंके आकारवाली पर्यायों को धारण करते हैं। कवलाहारके प्रकरणमें इन्होंने प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्डमें दी गई दलीलोंका नामोल्लेख पूर्वक पूर्वपक्षमें निर्देश किया है और उनका अपनी दृष्टि से खंडन भी किया है। इस तरह वादि देवसूरिने जब रत्नाकर लिखना प्रारम्भ किया होगा तब उनकी * आंखोंके सामने प्रभाचन्द्र के ये दोनों ग्रन्थ बराबर नाचते रहे हैं। हेमचन्द्र और प्रभाचन्द्र-विक्रमकी 12 वीं शताब्दीमें श्रा० हेमचन्द्रसे जैनसाहित्यके हेमयुगका प्रारम्भ होता है / हेमचन्द्रने व्याकरण, काव्य, छन्द, योग, न्याय आदि साहित्यके सभी विभागोंपर अपनी प्रौढ़ संग्राहक लेखनी चलाकर भारतीय साहित्यके भंडारको खूब समृद्ध किया है। अपने बहुमुख पाण्डित्यके कारण ये 'कलिकाल सर्वज्ञ' के नामसे भी ख्यात हैं। इनका जन्म समय कार्तिकी पूर्णिमा विक्रमसंवत् 1145 है / वि० सं० 1154 (ई० सन् 1097) में 8 वर्षकी लघुवयमें इन्होंने दीक्षा धारण की थी। विक्रमसंवत् 1166 ( ई० सन् 1110 ) में 21 वर्षकी अवस्थामें ये सूरिपद पर प्रतिष्ठत हुए। ये महाराज जयसिंह सिद्धराज तथा राजर्षि कुमारपालकी राजसभाओंमें सबहुमान लब्धप्रतिष्ठ थे। वि० सं० 1226 ( ई० 1173 ) में 84 वर्षकी आयुमें ये दिवंगत हुए। इनकी न्यायविषयक रचनाप्रमाणमीमांसा जैनन्यायके ग्रन्थोंमें अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है। प्रमाणमीमांसाके निग्रह Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना स्थानके निरूपण और खंडनके समूचे प्रकरणमें तथा अनेकान्तमें दिए गए आठ दोषोंके परिहारके प्रसंगमें प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डका शब्दशः अनुसरण किया गया है / प्रमाणमीमांसाके अन्य स्थलोंमें प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डकी छाप साक्षात् न पड़कर प्रमेयरत्नमालाके द्वारा पड़ी है। प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यने प्रमेयकमलमार्तण्डको ही संक्षिप्त कर प्रमेयरत्नमालाकी रचना की है। अतः मध्यकदवाली प्रमाणमीमांसामें बृहत्काय प्रमेयकमलमार्तण्डका सीधा अनुसरण न होकर अपने समान परिमाणवाली प्रमेयरत्नमालाका अनुरण होना ही अधिक संगत मालूम होता है / प्रमाणमीमांसाके प्रायः प्रत्येक प्रकरण पर प्रमेयत्नमालाकी शब्दरचनाने अपनी स्पष्ट छाप लगाई है। इस तरह आ० हेमचन्द्रने कहीं साक्षात् और कहीं परम्परया प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डको अपनी प्रमाणमीमांसा बनाते समय मद्देनजर रखा है। प्रमेयरत्नमाला और प्रमाणमीमांसाके स्थलोंकी तुलनाके लिए सिंघी सीरिजसे प्रकाशित प्रमाणमीमांसाके भाषा टिप्पण देखना चाहिए। मलयगिरि और प्रभाचन्द्र-विक्रमकी 12 वीं शताब्दीका उत्तरार्ध तथा तेरहवीं शताब्दीका प्रारम्भ जैनसाहित्यका हेमयुग कहा जाता है / इस युगमें आ० हेमचन्द्रके सहविहारी, प्रख्यात टीकाकार आचार्य मलयगिरि हुए थे। मलयगिरिने आवश्यकनियुक्ति, ओघनियुक्ति, नन्दीसूत्र आदि अनेकों आगमिकग्रन्थों पर संस्कृत टीकाएँ लिखीं हैं / आवश्यकनियुक्तिकी टीका (पृ०३७१ A.) में वे अकलङ्कदेवके 'नयवाक्यमें भी स्यात्पदका प्रयोग करना चाहिए' इस मतसे असहमति जाहिर करते हैं / इसी प्रसंगमें वे पूर्वपक्षरूपसे लघीयस्त्रयस्वविवृति (का० 62 ) का 'नयोऽपि तथैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात्' यह वाक्य उद्धृत करते हैं। और इस वाक्यके साथ ही साथ प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 661) से उक्त वाक्यकी व्याख्या भी उद्धृत करते हैं / व्याख्याका उद्धरण इस प्रकारसे लिया गया है-"अत्र टीकाकारेण व्याख्या कृता नयोऽपि नयप्रतिपादकमपि वाक्यं न केवलं प्रमाणवाक्यमित्यपिशब्दार्थः, तथैव स्यात्पदप्रयोगप्रकारेणैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात् , यथा स्यादस्त्येव जीव इति, स्यात्पदप्रयोगाभावे तु मिथ्र्यकान्तगोचरतया दुर्नय एव स्यादिति ।"-इस अवतरणसे यह निश्चित हो जाता है कि मलयगिरिके सामने लघीयस्त्रयकी न्यायकुमुदचन्द्र नामकी व्याख्या थी। अकलङ्कदेवने प्रमाण, नय और दुर्नयकी निम्नलिखित परिभाषाएँ की हैं-अनन्तधर्मात्मक वस्तुको अखंडभावसे ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रमाण है। एकधर्मको मुख्य तथा अन्यधर्मोको गौण करनेवाला, उनकी अपेक्षा रखनेवाला ज्ञान नय है / एकधर्मको ही ग्रहण करके जो अन्य धर्मोंका 'निषेध करता है-उनकी अपेक्षा नहीं रखता वह दुर्नय कहलाता है / अकलंकने प्रमाणवाक्यकी तरह नयवाक्यमें भी नयान्तरसापेक्षता दिखानेके लिए 'स्यात्' पदके प्रयोगका विधान किया है / आ० मलयगिरि कहते हैं कि-जब नयवाक्यमें स्यात्पदका प्रयोग किया जाता है तब 'स्यात्' शब्दसे सूचित होनेवाले अन्य अशेषधर्मोको भी विषय करनेके कारण नयवाक्य नयरूप न होकर प्रमाणरूप ही हो जायगा / इनके मतसे जो नय एक धर्मको अवधारणपूर्वक विषय Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 न्यायकुसुंदचन्द्र करके इतरनयसे निरपेक्ष रहता है वही नय कहा जा सकता है। इसीलिए इन्होंने सभी नयोंको / मिथ्यावाद कहा है / मलयगिरिके कोषमें सुनय नामका कोई शब्दही नहीं है / जब स्यात्पदका प्रयोग किया जाता है तब वह प्रमाणकोटिमें पहुँचेगा तथा जब नयान्तरनिरपेक्ष रहेगा तब वह नयकोटिमें जाकर मिथ्यावाद हो जायगा / इन्होंने अकलंकदेवके इस तत्त्वको मद्देनजर नहीं रखा कि-नयवाक्यमें स्यात् शब्दसे सूचित होनेवाले अशेषधर्मोका मात्र सद्भाव ही जाना जाता है, सो भी इसलिए कि कोई वादी उनका ऐकान्तिक निषेध न समझ ले / प्रमाणवाक्यकी तरह नयवाक्यमें स्याच्छब्दसे सूचित होनेवाले अशेषधर्म प्रधानभावसे विषय नहीं होते। यही तो प्रमाण और नयमें भेद है कि-जहाँ प्रमाणमें अशेष ही धर्म एकरूपसे-अखण्डभावसे विषय होते हैं वहाँ नयमें एकधर्म मुख्य होकर अन्य अशेषधर्म गौण हो जाते हैं, 'स्यात्' शब्दसे मात्र उनका सद्भाव सूचित होता रहता है। दुर्नयमें एकधर्म ही विषय होकर अन्य अशेषधर्मोका तिरस्कार हो जाता है / अतः दुर्नयसे सुनयका पार्थक्य करनेके लिए सुनयवाक्यमें स्थात्पदका प्रयोग आवश्यक है / मलयगिरिके द्वारा की गई अकलंककी यह समालोचना उन्हीं तक सीमित रही। हेमचन्द्र आदि सभी प्राचार्य अकलंकके उक्त प्रमाण, नय और दुर्नयके विभागको निर्विवादरूपसे मानते आए हैं। इतना ही नहीं, उपाध्याय यशोविजयने मलयगिरिकी इस समालोचनाका सयुक्तिक उत्तर गुरुतत्त्वविनिश्चय (पृ० 17 B.) में दे ही दिया है / उपाध्यायजी लिखते हैं कि यदि नयान्तरसापेक्ष नयका प्रमाणमें अन्तर्भाव किया जायगा तो व्यवहारनय तथा शब्दनय भी प्रमाशा ही हो जायेंगे। नयवाक्यमें होनेवाला स्यात्पदका प्रयोग तो अनेक धर्मोंका मात्र द्योतन करता है, वह उन्हें विवक्षितधर्मकी तरह नयवाक्यका विषय नहीं बनाता। इसलिए नयवाक्यमें मात्र स्यात्पदका प्रयोग होनेसे वह प्रमाणकोटिमें नहीं पहुँच सकता / देवभद्र और प्रभाचन्द्र-देवभद्रसूरि मलधारिगच्छके श्रीचन्द्रसूरिके शिष्य थे। इन्होंने न्यायावतारटीका पर एक टिप्पण लिखा है। श्रीचन्द्रसूरिने वि० संवत् 1153 ( सन् 1136 ) के दिवालीके दिन 'मुनिसुव्रत चरित्र' पूर्ण किया था। अतः इनके साक्षात् शिष्य देवभद्रका समय भी करीब सन् 1150 से 1200 तक सुनिश्चित होता है। देवभद्रने अपने न्यायावतार टिप्पणमें प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्रके निम्नलिखित दो अवतरण लिए हैं १-"परिमण्डलाः परमाणवः तेषां भावः... पारिमण्डल्यं वर्तुलत्वम्, न्यायकुमुदचन्द्रे प्रभाचन्द्रेणाप्येवं व्याख्यातत्वात् / " (पृ० 25) २-"प्रभाचन्द्रस्तु न्यायकुमुदचन्द्रे विभाषा सद्धर्मप्रतिपादको ग्रन्थविशेषः तां विदन्ति अधीयते वा वैभाषिकाः इत्युवाच / " (पृ० 76) ये दोनों अवतरण न्यायकुमुदचन्द्रमें क्रमशः पृ० 438 पं० 13 तथा पृ० 310 पं० 1 में पाए जाते हैं। इसके सिवाय न्यायावतारटिप्पणमें अनेक स्थानोंपर न्यायकुमुदचन्द्रका प्रतिबिम्ब स्पष्टरूपसे झलकता है। 1 जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास पु० 253 / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना मल्लिषेण और प्रभाचन्द्र-आ० हेमचन्द्रकी अन्ययोगव्यवच्छेदिकाके ऊपर मल्लिषेण की स्याद्वादमंजरी नामकी सुन्दर टीका मुद्रित है / ये श्वेताम्वर सम्प्रदायके नागेन्द्रगच्छीय श्रीउदयप्रभसूरिके शिष्य थे / स्याद्वादमंजरीके अन्तमें दी हुई प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि इन्होंने शक संवत् 1214 ( ई० 1263 ) में दीपमालिका शनिवारके दिन जिनप्रभसूरिकी सहायतासे स्याद्वादमंजरी पूर्ण की थी। स्याद्वादमंजरीकी शब्द रचनापर न्यायकुमुदचन्द्रका एक विलक्षण प्रभाव है / मल्लिषेणने का० 14 की व्याख्यामें विधिवादकी चर्चा की है। इसमें उन्होंने विधिवादियोंके आठ मतोंका निर्देश किया है / साथही साथ अपनी ग्रन्थमर्यादाके विचारसे इन मतोंके पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्षोंके विशेष परिज्ञान के लिए न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थ देखनेका अनुरोध निम्नलिखित शब्दोंमें किया है-"एतेषां निराकरणं सपूर्वोत्तरपदं न्यायकुमुदचन्द्रादवसेयम् / " इस वाक्यसे स्पष्ट हो जाता है कि मल्लिषेण न केवल न्यायकुमुदचन्द्र के विशिष्ट अभ्यासी ही थे किन्तु वे स्याद्वादमंजरीमें अचर्चित या अल्पचर्चित विषयोंके ज्ञानके लिए न्यायकुमुदचन्द्रको प्रमाणभूत आकर ग्रन्थ मानते थे / न्यायकुमुद्रचन्द्रमें विधिवादकी विस्तृत चरचा पृ० 573 से 518 तक है। . गुणरत्न और प्रभाचन्द्र-विक्रमकी 15 वीं शताब्दीके उत्तरार्धमें तपागच्छमें श्रीदेवसुन्दरसूरि एक प्रभावक आचार्य हुए थे। इनके पट्टशिष्य गुणरत्नसूरिने हरिभद्रकृत 'षड्दर्शनसमुच्चय' पर तर्करहस्यदीपिका नामकी बृहद्वृत्ति लिखी है / गुणरत्नसूरिने अपने क्रियारत्नसमुच्चय ग्रन्थकी प्रतियोंका लेखनकाल विक्रम संवत् 1468 दिया है / अत: इनका समय भी विक्रमकी 15 वीं सदीका उत्तरार्ध सुनिश्चित है / गुणरत्नसूरिने षड्दर्शनसमुच्चय टीकाके जैनमत निरूपणमें मोक्षतत्त्वका सविस्तर विशद विवेचन किया है / इस प्रकरणमें इन्होंने खाभिमत मोक्षखरूपके समर्थनके साथही साथ वैशेषिक, सांख्य, वेदान्ती तथा बौद्धोंके द्वारा माने गए मोक्षखरूपका बड़े विस्तारसे निराकरण भी किया है / इस परखंडनके भागमें न्यायकुमुदचन्द्रका मात्र अर्थ और भावकी दृष्टि से ही नहीं, किन्तु शब्दरचना तथा युक्तियोंके कोटिक्रमकी दृष्टि से भी पर्याप्त अनुसरण किया गया है / इस प्रकरणमें न्यायकुमुदचन्द्रका इतना अधिक शब्दसादृश्य है कि इससे न्यायकुमुदचन्द्रके पाठकी शब्दशुद्धि करनेमें भी पर्याप्त सहायता मिली है। इसके सिवाय इस वृत्तिके अन्य स्थलोंपर खासकर परपक्षखंडनके भागोंपर न्यायकुमुदचन्द्रकी शुभ्रज्योत्स्ना जहाँ तहाँ छिटक रही है। यशोविजय और प्रभाचन्द्र-उपाध्याय यशोविजयजी विक्रमकी 18 वीं सदीके युग प्रवर्तक विद्वान् थे। इन्होंने विक्रम संवत् 1688 (ईस्वी 1631) में पं० नयविजयजीके पास दीक्षा ग्रहण की थी। इन्होंने काशीमें नव्यन्यायका अध्ययन कर वादमें किसी विद्वान् पर विजय पानेसे 'न्यायविशारद' पद प्राप्त किया था। श्रीविजयप्रभसूरिने वि० सं० 1.718 में इन्हें 'वाचक-उपाध्याय' का सम्मानित पद दिया था। उपाध्याय यशोविजय वि० सं० 1743 1 देखो-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 816 मे 847 तकके टिप्पण / Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 न्योयकुमुदचन्द्र ( सन् 1686 ) में अनशन पूर्वक वर्गस्थ हुए थे। दशवीं शताब्दीसे ही नव्यन्यायके विकासने भारतीय दर्शनशास्त्रमें एक अपूर्व क्रान्ति उत्पन्न कर दी थी। यद्यपि दसवीं सदीके बाद अनेकों बुद्धिशाली जैनाचार्य हुए पर कोई भी उस नव्यन्यायके शब्दजालके जटिल अध्ययनमें नहीं पड़ा। उपाध्याय यशोविजय ही एकमात्र जैनाचार्य हैं जिन्होंने नव्यन्यायका समग्र अध्ययन कर उसी नव्यपद्धतिसे जैनपदार्थोंका निरूपण किया है / इन्होंने सैकड़ों ग्रन्थ बनाए हैं। इनका अध्ययन अत्यन्त तलस्पर्शी तथा बहुमुख था। सभी पूर्ववर्ती जैनाचार्योंके ग्रन्थोंका इन्होंने विधिवत् पारायण किया था। इनकी तीक्ष्ण दृष्टिसे धर्मभूषणयतिकी छोटीसी पर सुविशद रचनावाली न्यायदीपिका भी नहीं छूटी। जैनतर्कभाषामें अनेक जगह न्यायदीपिकाके शब्द आनुपूर्वीसे ले लिए गए हैं / इनके शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका आदि बृहद्ग्रन्थोंके परपक्ष खंडनवाले अंशोंमें प्रभाचन्द्रके विविध विकल्पजाल स्पष्टरूपसे प्रतिबिम्बत हैं। इन्होंने प्रभाचन्द्रका केवल अनुसरण ही नहीं किया है किन्तु साम्प्रदायिक स्त्रीमुक्ति और कवलाहार जैसे प्रकरणोंमें प्रभाचन्द्रके मन्तव्योंकी समालोचना भी की है। . उपरिलिखित वैदिक अवैदिकदर्शनोंकी तुलनासे प्रभाचन्द्रके अगाध, तलस्पर्शी, सूक्ष्म दार्शनिक अध्ययनका यत्किश्चित् आभास हो जाता है / बिना इस प्रकारके बहुश्रुत अवलोकनके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे जैनदर्शनके प्रतिनिधि ग्रन्थोंके प्रणयनका उल्लास ही नहीं हो सकता था। जैनदर्शनके मध्ययुगीन ग्रन्थोंमें प्रभाचन्द्रके ये ग्रन्थ अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। ये पूर्वयुगीन ग्रन्थोंका प्रतिबिम्ब लेकर भी पारदर्शी दर्पणकी तरह उत्तरकालीन ग्रन्थोंके लिए आधारभूत हुए हैं, और यही इनकी अपनी विशेषता है | बिना इस आदान-प्रदानके दार्शनिक साहित्यका विकास इस रूपमें तो हो ही नहीं सकता था। प्रभाचन्द्रका आयुर्वेदज्ञान-प्रभाचन्द्र शुष्क तार्किक ही नहीं थे; किन्तु उन्हें जीवनोपयोगी आयुर्वेदका भी परिज्ञान था। प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 424 ) में वे बधिरता तथा अन्य कर्णरोगोंके लिए बलातैलका उल्लेख करते हैं। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 666 ) में छाया आदिको पौद्गलिक सिद्ध करते समय उनमें गुणोंका सद्भाव दिखानेके लिए उनने वैद्यकशास्त्रका निम्नलिखित श्लोक प्रमाणरूपसे उद्धृत किया है "आतपः कटुको रूक्षः छाया मधुरशीतला / कषायमधुरा ज्योत्स्ना सर्वव्याधिहरं (कर) तमः // " यह श्लोक राजनिघण्टु आदिमें कुछ पाठभेदके साथ पाया जाता है / इसी तरह वैशेषिकोंके गुणपदार्थका खंडन करते समय (न्यायकु० पृ० 275 ) वैद्यकतन्त्रमें प्रसिद्ध विशद, स्थिर, खर, पिच्छलत्व आदि गुणोंके नाम लिए हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 8 ) में नड़लोदक-तृणविशेषके जलसे पादरोगकी उत्पत्ति बताई है। प्रभाचन्द्रकी कल्पनाशक्ति-सामान्यतः वस्तुकी अनन्तात्मकता या अनेकधर्माधारताकी सिद्धिके लिए अकलंक आदि आचार्योंने चित्रज्ञान, सामान्यविशेष, मेचकज्ञान और नरसिंह Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 47 आदिके दृष्टान्त दिए हैं। पर प्रभाचन्द्रने एक ही वस्तुकी अनेकरूपताके समर्थन के लिए न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 366) में 'उमेश्वर' का दृष्टान्त भी दिया है। वे लिखते हैं कि जैसे एक ही शिव वामाङ्गमें उमा-पार्वतीरूप होकर भी दक्षिणाङ्गमें विरोधी शिवरूपको धारण करते हैं और अपने अर्धनारीश्वररूपको दिखाते हुए अखंड बने रहते हैं उसी तरह एक ही वस्तु विरोधी दो या अनेक आकारोंको धारण कर सकती है / इसमें कोई विरोध नहीं होना चाहिए / उदारविचार-पा० प्रभाचन्द्र सच्चे तार्किक थे। उनकी तर्कणा शक्ति और उदार विचारोंका स्पष्ट परिचय ब्राह्मणत्व जातिके खण्डनके प्रसङ्गमें मिलता है / इस प्रकरणमें उन्होंने ब्राह्मणत्व जातिके नित्यत्व और एकत्वका खण्डन करके उसे सदृशपरिणमन रूप ही सिद्ध किया है। वे जन्मना जातिका खण्डन बहुविध विकल्पोंसे करते हैं और स्पष्ट शब्दोंमें उसे गुणकर्मानुसारिणी मानते हैं / वे ब्राह्मणत्व जाति निमित्तक वर्णाश्रमव्यवस्था और तप दान आदिके व्यवहारको भी क्रियाविशेष और यज्ञोपवीत आदि चिह्नसे उपलक्षित व्यक्ति विशेषमें ही करनेकी सलाह देते हैं "ननु ब्राह्मणत्वादिसामान्यानभ्युपगमे कथं भवतां वर्णाश्रमव्यवस्था तन्निबन्धनो वा तपोदानादिव्यवहारः स्यात् ? इत्यप्यचोद्यम् ; क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिह्नोपलक्षिते व्यक्तिविशेषे तद्व्यवस्थायाः तद्वयवहारस्य चोपपत्तेः / तन्न भवत्कल्पितं नित्यादिस्वभावं ब्राह्मण्यं कुतश्चिदपि प्रमाणात् प्रसिद्धयतीति क्रियाविशेषनिबन्धन एवायं ब्राह्मणादिव्यवहारो युक्तः / " [न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 778 / प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० 486 ] "प्रश्न-यदि ब्राह्मणत्व आदि जातियाँ नहीं हैं तब जैनमतमें वर्णाश्रमव्यवस्था और ब्राह्मणत्व आदि जातियोंसे सम्बन्ध रखनेवाला तप दान आदि व्यवहार कैसे होगा ? उत्तर-जो व्यक्ति यज्ञोपवीत आदि चिह्नोंको धारण करें तथा ब्राह्मणोंके योग्य विशिष्ट क्रियाओंका आचरण करें उनमें ब्राह्मणत्व जातिसे सम्बन्ध रखने वाली वर्णाश्रमव्यवस्था और तप दान आदि व्यवहार भली भाँति किये जा सकते हैं। अतः आपके द्वारा माना गया नित्य श्रादि स्वभाववाला ब्राह्मणत्व किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता, इसलिये ब्राह्मण आदि व्यवहारों को क्रियानुसार ही मानना युक्तिसंगत है।" वे प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 487 ) में और भी स्पष्टतासे लिखते हैं कि-"ततः सदृशक्रियापरिणामादिनिबन्धनैवेयं ब्राह्मणक्षत्रियादिव्यवस्था-इसलिये यह समस्त ब्राह्मण क्षत्रिय आदि व्यवस्था सदृश क्रिया और सदृश परिणमन आदिके निमित्तसे होती ही है।" बौद्धोंके धम्मपद और श्वे० आगम उत्तराध्ययनसूत्रमें स्पष्ट शब्दोंमें ब्राह्मणत्व जातिको गुण और कर्मके अनुसार बताकर उसको जन्मना माननेके सिद्धान्तका खण्डन किया है "न जटाहिं न गोत्तेहिं न जच्चा होति ब्राह्मणो / जम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो // Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 न्यायकुमुदचन्द्र न चाहं ब्राह्मणं ब्रूमि योनिजं मत्तिसंभवं / " [ धम्मपद गा० 313 ] "कम्मुणा बंभणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ। वईसो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा // " [ उत्तरा० 25/33 ] दिगम्बर आचार्योंमें वराङ्गचरित्रके कर्ता श्री जटासिंहनन्दि कितने स्पष्ट शब्दोंमें जातिको क्रियानिमित्तक लिखते हैं "क्रियाविशेषाद् व्यवहारमात्रात् दयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् / / शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् // " [वराङ्गचरित 25 / 11] "शिष्टजन इन ब्राह्मण आदि चारों वर्णों को 'अहिंसा आदि व्रतोंका पालन, रक्षा करना, . खेती आदि करना, तथा शिल्पवृत्ति' इन चार प्रकारकी क्रियाओंसे ही मानते हैं। यह सब वर्णव्यवस्था व्यवहार मात्र है / क्रियाके सिवाय और कोई वर्णव्यवस्थाका हेतु नहीं हैं।" ऐसे ही विचार तथा उद्गार पद्मपुराणकार रविषेण, आदि पुराणकार जिनसेन, तथा धर्मपरीक्षाकार अमितगति आदि आचार्योंके पाए जाते हैं। आ० प्रभाचन्द्रने, इन्हीं वैदिक संस्कृति द्वारा अनभिभूत, परम्परागत जैनसंस्कृतिके विशुद्ध विचारोंका, अपनी प्रखर तर्कधारासे परिसिञ्चन कर पोषण किया है / यद्यपि ब्राह्मणत्वजातिके खण्डन करते समय प्रभाचन्द्रने प्रधानतया उसके नित्यत्व और ब्रह्मप्रभवत्व आदि अंशोंके खण्डनके लिए इस प्रकरणको लिखा है और इसके लिखनेमें प्रज्ञाकर गुप्तके प्रमाणवार्तिकालङ्कार तथा शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहने पर्याप्त प्रेरणा दी है परन्तु इससे प्रभाचन्द्रकी अपनी जातिविषयक स्वतन्त्र चिन्तनवृत्तिमें कोई कमी नहीं आती। उन्होंने उसके हर एक पहलू पर विचार करके ही अपने उक्त विचार स्थिर किए। 2. प्रभाचन्द्रका समय कार्यक्षेत्र और गुरुकुल-पा० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र आदिकी प्रशस्तिमें 'पद्मनन्दि सैद्धान्त' को अपना गुरु लिखा है। श्रवणबेलगोलाके शिलालेख (नं० 40) में गोल्लाचार्यके शिष्य पद्मनन्दि सैद्धान्तिकका उल्लेख है / और इसी शिलालेखमें आगे चलकर प्रथिततर्कग्रन्थकार, शब्दाम्भोरुहभास्कर प्रभाचन्द्रका शिष्यरूपसे वर्णन किया गया है / प्रभाचन्द्रके प्रथिततर्कग्रन्थकार और शब्दाम्भोरुहभास्कर ये दोनों विशेषण यह स्पष्ट बतला रहे हैं कि ये प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसे प्रथित तर्कग्रन्थोंके रचयिता थे तथा शब्दाम्भोजभास्करनामक जैनेन्द्रन्यासके कर्ता भी थे। इसी शिलालेखमें पद्मनन्दि सैद्धान्तिकको अविद्धकर्णादिक और कौमारदेवव्रती लिखा है। इन विशेषणोंसे ज्ञात होता है कि-पद्मनन्दि सैद्धान्तिकने कर्णवेध होनेके पहिले ही दीक्षा धारण की होगी और इसीलिए ये कौमारदेवव्रती कहे जाते थे। ये मूलसंघान्तर्गत नन्दिगणके प्रभेदरूप देशीगणके श्रीगोल्लाचार्यके शिष्य थे / 1 देखो-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 778 टि० 9 / 2 जनशिलालेखसंग्रह, माणिकचन्द्रग्रन्थमाला। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 46 प्रभाचन्द्रके सधर्मा श्रीकुलभूषण मुनि थे। कुलभूषण मुनि भी सिद्धान्तशास्त्रोंके पारगामी और चारित्रसागर थे। इस शिलालेखमें कुलभूषणमुनिकी शिष्यपरम्पराका वर्णन है, जो दक्षिणदेशमें हुई थी। तात्पर्य यह कि आ० प्रभाचन्द्र मूलसंघान्तर्गत नन्दिगणकी आचार्यपरम्परामें हुए थे। इनके गुरु पद्मनन्दिसैद्धान्त थे और सधर्मा थे कुलभूषणमुनि / मालूम होता है कि प्रभाचन्द्र पद्मनन्दिसे शिक्षा-दीक्षा लेकर धारानगरीमें चले आए, और यहीं उन्होंने अपने ग्रन्थोंकी रचना की। ये धाराधीशभोजके मान्य विद्वान् थे। प्रमेयकमलमार्तण्डकी "श्रीभोजदेवराज्ये धारानिवासिना" आदि अन्तिम प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि-यह ग्रन्थ धारानगरीमें भोजदेवके राज्यमें बनाया गया है। न्यायकुमुदचन्द्र, आराधनागद्यकथाकोश और महापुराणटिप्पणकी अन्तिम प्रशस्तियोंके "श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्वारानिवासिना" शब्दोंसे इन ग्रन्थोंकी रचना भोजके उत्तराधिकारी जयसिंहदेवके राज्यमें हुई ज्ञात होती है / इसलिए प्रभाचन्द्रका कार्यक्षेत्र धारानगरी ही मालूम होता है / संभव है कि इनकी शिक्षा-दीक्षा दक्षिणमें हुई हो / श्रवणवेल्गोलाके शिलालेख नं० 55 में मूलसंघके देशीगणके देवेन्द्रसैद्धान्तदेवका उल्लेख है / इनके शिष्य चतुर्मुखदेव और चतुर्मुखदेवके शिष्य गोपनन्दि थे / इसी शिलालेखमें इन गोपनन्दिके संधर्मा एक प्रभाचन्द्रका वर्णन इस प्रकार किया गया है__"अवर सधर्मरु श्रीधाराधिपभोजराजमुकुटप्रोताश्मरश्मिच्छटाच्छायाकुङ्कुमपङ्कलिप्तचरणाम्भोजातलक्ष्मीधवः / न्यायाब्जाकरमण्डने दिनमणिश्शब्दाब्जरोदोमणिः, स्थेयात्पण्डितपुण्डरीकतरणिः श्रीमान् प्रभाचन्द्रमाः // 17 // श्रीचतुर्मुखदेवानां शिष्योऽधृष्यः प्रवादिभिः / पण्डितश्रीप्रभाचन्द्रो रुद्रवादिगजाङ्कुशः // 18 // " इन श्लोकोंमें वर्णित प्रभाचन्द्र भी धाराधीश भोजराजके द्वारा पूज्य थे, न्यायरूप कमलसमूह (प्रमेयकमल ) के दिनमणि ( मार्तण्ड ) थे, शब्दरूप अब्ज ( शब्दाम्भोज ) के विकास करनेको रोदोमणि ( भास्कर ) के समान थे / पंडित रूपी कमलोंके प्रफुल्लित करने वाले सूर्य थे, रुद्रवादि गजोंको वश करनेके लिए अंकुशके समान थे तथा चतुर्मुखदेवके शिष्य थे। क्या इस शिलालेखमें वर्णित प्रभाचन्द्र और पद्मनन्दि सैद्धान्तके शिष्य, प्रथितर्कग्रन्थकार एवं शब्दाम्भोजभास्कर प्रभाचन्द्र एक ही व्यक्ति हैं ! इस प्रश्न का उत्तर 'हाँ' में दिया जा सकता है, पर इसमें एकही बात नयी है / वह है-गुरुरूपसे चतुर्मुखदेवके उल्लेख होनेकी / मैं समझता हूँ कि-यदि प्रभाचन्द्र धारामें आनेके बाद अपने ही देशीयगणके श्री चतुर्मुखदेवको आदर और गुरुकी दृष्टिसे देखते हों तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं है / पर यह सुनिश्चित है कि प्रभाचन्द्रके आद्य और परमादरणीय उपास्य गुरु पद्मनन्दि सैद्धान्त ही थे। चतुर्मुखदेव द्वितीय गुरु या गुरुसम हो सकते हैं / यदि इस शिलालेखके प्रभाचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता एक ही व्यक्ति हैं तो यह निश्चितरूपसे कहा जा सकता है कि प्रभाचन्द्र धारा- . धीश भोजके समकालीन थे। इस शिलालेखमें प्रभाचन्द्रको गोपनन्दिका सधर्मा कहा गया है / हलेबेल्पोलके एक शिलालेख (नं० 462, जैनशिलालेखसंग्रह ) में होय्सलनरेश एरेयङ्ग द्वारा गोपनन्दि पण्डितदेवको दिए गए दानका उल्लेख है। यह दान पौष शुद्ध 13, संवत् 1015 में दिया गया था। इस तरह सन् 1064 में प्रभाचन्द्रके सधर्मा गोपनन्दिकी स्थिति होनेसे प्रभाचन्द्रका समय सन् 1065 तक माननेका पूर्ण समर्थन होता है / समयविचार-आचार्य प्रभाचन्द्र के समयके विषयमें डॉ० पाठक, प्रेमीजी 8 तथा मुख्तार सा० आदिका प्रायः सर्वसम्मत मत यह रहा है कि आचार्य प्रभाचन्द्र ईसाकी 8 वीं शताब्दीके उत्तरार्ध एवं नवीं शताब्दीके पूर्वार्धवर्ती विद्वान् थे / और इसका मुख्य आधार है जिनसेनकृत आदिपुराण का यह श्लोक"चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकविं स्तुवे / कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्रादितं जगत् // " अर्थात्-'जिनका यश चन्द्रमाकी किरणोंके समान धवल है, उन प्रभाचन्द्रकविकी स्तुति करता हूँ। जिन्होंने चन्द्रोदयकी रचना करके जगत् को आह्लादित किया है / ' इस श्लोकमें चन्द्रोदयसे न्यायकुमुदचन्द्रोदय (न्यायकुमुदचन्द्र) ग्रन्थका सूचन समझ गया है / आ० जिनसेनने अपने गुरु वीरसेनकी अधूरी जयधवला टीकाको शक सं० 75 6 (ईसवी 837) की फाल्गुन शुक्ला दशमी तिथिको पूर्ण किया था। इस समय अमोघवर्षका राज्य था। जयधवलाकी समाप्तिके अनन्तर ही प्रा० जिनसेनने आदिपुराणकी रचना की थी। आदिपुराण जिनसेनकी अन्तिम कृति है। वे इसे अपने जीवनमें पूर्ण नहीं कर सके थे। उसे इनके शिष्य गुणभद्रने पूर्ण किया था। तात्पर्य यह कि जिनसेन आचार्यने ईसवी 840 के लगभग आदिपुराणकी रचना प्रारम्भ की होगी। इसमें प्रभाचन्द्र तथा उनके न्यायकुमुदचन्द्रका उल्लेख मानकर डॉ० पाठक आदिने निर्विवादरूपसे प्रभाचन्द्रका समय ईसाकी 8 वीं शताब्दीका उत्तरार्ध तथा नवीं का पूर्वार्ध निश्चित किया है। सुहृद्वर पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभाग की प्रस्तावना (पृ०१२३) में डॉ० पाठक आदिके मतका निरास करते हुए प्रभाचन्द्रका समय ई० 150 से 1020 तक श्रीमान् प्रेमीजीका विचार अब बदल गया है। वे अपने "श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र" लेख (अनेकान्त वर्ष 4 अंक 1 ) में महापुराणटिप्पणकार प्रभाचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड और गद्यकथाकोश आदिके कर्ता प्रभाचन्द्रका एक ही व्यक्ति होना सचित करते हैं। वे अपने एक पत्रमें मुझे लिखते हैं कि-"हम समझते हैं कि प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्र ही महापुराणटिप्पणके कर्ता हैं। और तत्त्वार्थवृत्तिपद (सर्वार्थसिद्धिके पदोंका प्रकटीकरण), समाधितन्त्रटीका, आत्मानुशासनतिलक, क्रियाकलापटीका, प्रवचनसारसरोजभास्कर (प्रवचनसारकी टीका) आदिके कर्ता और शायद रत्नकरण्डटीकाके कर्ता भी वही हैं।" पं० कैलाशचन्द्रजीने आदिपुराणके 'चन्द्रांशशुभ्रयशसं' श्लोकमें चन्द्रोदयकार किसी अन्य प्रभाचन्द्रकविका उल्लेख बताया है. जो ठीक है। पर उन्होंने आदिपुराणकार जिनसेनके द्वारा न्यायकुमुदचन्द्रकार प्रभाचन्द्रके स्मृत होने में बाधक जो अन्य तीन हेतु दिए हैं वे बलवत नहीं मालूम होते / यतः (1) प्रादि Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना निर्धारित किया है। इस निर्धारित समयकी शताब्दियाँ तो ठीक हैं पर दशकोंमें अन्तर है / तथा जिन आधारोंसे यह समय निश्चित किया गया है वे भी अभ्रान्त नहीं हैं। पं० जीने प्रभाचन्द्र के ग्रन्थोंमें व्योमशिवाचार्यकी व्योमवती टीकाका प्रभाव देखकर प्रभाचन्द्रकी पूर्वावधि 150 ई० और पुष्पदन्तकृत महापुराणके प्रभाचन्द्रकृत टिप्पणको वि० सं० 1080 (ई० 1023) में समाप्त मानकर उत्तरावधि 1020 ई० निश्चित की है / मैं 'व्योमशिव और प्रभाचन्द्र' की तुलना करते समय (पृ०८) व्योमशिवका समय ईसाकी सातवीं शताब्दीका उत्तरार्ध निर्धारित कर आया हूँ। इसलिए मात्र व्योमशिवके प्रभावके कारण ही प्रभाचन्द्रका समय ई० 150 के बाद नहीं जा सकता / महापुराणके टिप्पणकी वस्तुस्थिति तो यह है कि-पुष्पदन्तके महापुराण पर श्रीचन्द्र आचार्यका भी टिप्पण है और प्रभाचन्द्र आचार्यका भी। बलात्कारगणके श्रीचन्द्रका टिप्पण भोजदेवके राज्यमें बनाया गया है। इसकी प्रशस्ति निम्न लिखित हैपुराणकार इसके लिए बाध्य नहीं माने जा सकते कि यदि वे प्रभाचन्द्रका स्मरण करते हैं तो उन्हें प्रभाचन्द्रके द्वारा स्मृत अनन्तवीर्य और बिद्यानन्दका स्मरण करना ही चाहिए / विद्यानन्द और अनन्तवीर्यका समय ईसाकी नवीं शताब्दीका पूर्वार्ध है,और इसलिए वे आदिपुराणकारके समकालीन होते हैं। यदि प्रभाचन्द्र भी ईसाकी नवीं शताब्दीके विद्वान होते,तो भी वे अपने समकालीन विद्यानन्द आदि आचार्योंका स्मरण करके भी आदिपुराणकार द्वारा स्मृत हो सकते थे। (2) 'जयन्त और प्रभाचन्द्र' की तुलना करते समय मैं जयन्तका समय ई०७५० से 840 तक सिद्ध कर आया हूँ। अत: समकालीनवुद्ध जयन्त से प्रभावित होकर भी प्रभाचन्द्र आदिपुराणमें उल्लेख्य हो सकते हैं। (3) गुणभद्रके प्रात्मानुशासन से 'अन्धादयं महानन्धः' श्लोक उद्धृत किया जाना अवश्य ऐसी बात है जो प्रभाचन्द्रका आदिपुराणमे उल्लेख होनेकी बाधक हो सकती है। क्योंकि आत्मानुशासनके "जिनसेनाचार्यपादस्मरणाधीनचेतसाम् / गुणभद्रभदन्तानां कृतिरात्मानुशासनम् // " इस अन्तिमश्लोकसे ध्वनित होता है कि यह ग्रन्थ जिनसेन स्वामीकी मृत्युके बाद बनाया गया है। क्योंकि वही समय जिनसेनके पादोंके स्मरणके लिए ठीक जंचता है। अतः आत्मानुशासनका रचनाकाल सन् 850 के करीब मालम होता है। प्रात्मानुशासन पर प्रभाचन्द्रकी एक टीका उपलब्ध है। उसमें प्रथम श्लोकका उत्थान वाक्य इस प्रकार है- “बृहद्धर्मभ्रातुर्लोकसेनस्य बिषयव्यामुग्धबुद्धेः सम्बोधनव्याजेन सर्वसत्त्वोपकारकं सन्मार्गमुपदर्शयितुकामो गुणभद्रदेवः . . " अर्थात्-गणभद्र स्वामीने विषयोंकी ओर चंचल चित्तवृत्तिवाले बड़े धर्मभाई (?) लोकसेनको समझाने के बहाने आत्मानुशासन ग्रन्थ बनाया है / ये लाकसेन गुणभद्रके प्रियशिष्य थे। उत्तरपुराणकी प्रशसिमें इन्हीं लोकसेनको स्वयं गुणभद्रने 'विदितसकलशास्त्र, मनीश, कवि, अविकलवृत्त' आदि विशेषण दिए हैं। इससे इतना अनमान तो सहज ही किया जा सकता है कि प्रात्मानुशासन उत्तरपुराणके बाद तो नहीं बनाया गया क्योंकि उस समय लोकसेनमुनि विषयव्यामुग्धबुद्धि न होकर विदितसकलशास्त्र एवं अविकलवृत्त हो गए थे / अतः लोकसेनकी प्रारम्भिक अवस्थामें, उत्तरपुराणकी रचनाके पहिले ही आत्मानुशासनका रचा जाना अधिक संभव है ।पं० नाथूरामजी प्रेमीने विद्वद्रत्नमाला (पृ० 75) में यही संभावना की है। आत्मानुशासन गुणभद्रकी प्रारम्भिक कृति ही मालूम होती है / और गुणभद्रने इसे उत्तरपुराणके पहिले जिनसेन की मृत्युके बाद बनाया होगा। परन्तु आत्मानुशासनकी आन्तरिक जाँच करने से हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि इसमें अन्य कवियोंके सुभाषितोंका भी यथावसर समावेश किया गया है। उदाहरणार्थ-आत्मानुशासनका 32 वाँ पद्य 'नेता यस्य बृहस्पतिः' भर्तृहरिके नीतिशतकका ८८वां श्लोक हैं, आत्मानुशासनका 67 वाँ पद्य 'यदेतत्स्वच्छन्द' वैराग्यशतकका 50 वां श्लोक है। ऐसी स्थितिमें 'अन्धादयं महानन्धः' सुभाषित पद्य भी गुणभद्रका स्वरचित ही है यह निश्चय पूर्वक नहीं कह सकते। तथापि किसी अन्य प्रबल प्रमाणके अभावमें अभी इस विषयमें अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 न्यायकुमुदचन्द्र "श्री विक्रमादित्यसंवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्रे महापुराणविषमपदविवरणं सागरसेनसैद्धान्तान् परिज्ञाय मूलटिप्पणिकाश्चालोक्य कृतमिदं समुच्चयटिप्पणम् अज्ञपातभीतेन श्रीमद्बलात्का]गणश्रीसंघाचार्यसत्कविशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना निजदोर्द डाभिभूतरिपुराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य // 102 // इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्य(१)विरचितं समाप्तम् / " प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण जयसिंहदेवके राज्यमें लिखा गया है। इसकी प्रशस्तिके श्लोक रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी प्रस्तावनासे न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भागकी प्रस्तावना (पृ० 120 ) में उद्धृत किये गये हैं। श्लोकोंके अनन्तर--"श्री जयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृताखिलमलकलङ्केन श्रीप्रभाचन्द्रपण्डितेन महापुराणटिप्पणके शतत्र्यधिकसहस्रत्रयपरिमाणं कृतमिति / " यह पुष्पिकालेख है। इस तरह महापुराण पर दोनों आचार्योंके पृथक् पृथक् टिप्पण हैं / इसका खुलासा प्रेमीजीके लेखसे स्पष्ट हो ही जाता है। पर टिप्पणलेखकने श्रीचन्द्रकृत टिप्पणके 'श्रीविक्रमादित्य' वाले प्रशस्तिलेखके अन्तमें भ्रमवश 'इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्यविरचितं समाप्तम्' लिख दिया है। इसी लिए डॉ० पी० एल० वैद्य, प्रो० हीरालालजी तथा पं० कैलाशचन्द्रजीने भ्रमवश प्रभाचन्द्रकृत टिप्पणका रचना काल संवत् 1080 समझ लिया है। अतः इस भ्रान्त आधारसे प्रभाचन्द्रके समयकी उत्तरावधि सन् 1020 नहीं ठहराई जा सकती। अब हम प्रभाचन्द्रके समयकी निश्चित अवधिके साधक कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं १-प्रभाचन्द्रने पहिले प्रमेयकमलमार्तण्ड बनाकर ही न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना की है / मुद्रित प्रमेयकमलमार्तण्डके अन्तमें "श्री भोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिपदप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलङ्केन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतिपरीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति / " यह पुष्पिकालेख पाया जाता है / न्यायकुमुदचन्द्रकी कुछ प्रतियोंमें उक्त पुष्पिकालेख 'श्री भोजदेवराज्ये' की जगह 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' पदके साथ जैसाका तैसा उपलब्ध है / अतः इस स्पष्ट लेख से प्रभाचन्द्रका समय जयसिंहदेवके राज्यके कुछ वर्षों तक, अन्ततः सन् 1065 तक माना जा सकता है। और यदि प्रभाचन्द्रने 85 वर्षकी आयु पाई हो तो उनकी पूर्वावधि सन् 180 मानी जानी चाहिए। श्रीमान् मुख्तारसौ० तथा पं० कैलाशचन्द्रजी प्रमेयकमल० और न्यायकुमुदचन्द्रके अन्तमें पाए जाने वाले उक्त 'श्रीभोजदेवराज्ये और श्री जयसिंहदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेखोंको स्वयं प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानते / मुख्तारसा० इस प्रशस्तिवाक्यको टीकाटिप्पणकार द्वितीय प्रभाचन्द्रका मानते हैं तथा पं० कैलाशचन्द्रजी इसे पीछेके किसी व्यक्तिकी करतूत बताते हैं / पर प्रशस्तिवाक्य को प्रभाचन्द्रकृत नहीं माननेमें दोनोंके आधार जुदे जुदे हैं। मुख्तारसा० प्रभाचन्द्रको जिनसेन 1 देखो पं० नाथूरामजी प्रेमी लिखित 'श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र' शीर्षक लेख, अनेकान्त वर्ष 4 किरण 1 // 2 महापुराणकी प्रस्तावना पु.Xiv३ रत्नकरण्डप्रस्तावना पृ०५९-६० / 4 न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना पृ० 122 / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना के पहिलेका विद्वान् मानते हैं, इसलिए भोजदेवराज्ये आदिवाक्य वे स्वयं उन्हीं प्रभाचन्द्रका नहीं मानते / पं० कैलाशचन्द्रजी प्रभाचन्द्रको ईसाकी 10 वीं और 11 वीं शताब्दीका विद्वान् मानकर भी महापुराणके टिप्पणकार श्रीचन्द्र के टिप्पणके अन्तिमवाक्यको भ्रमवश प्रभाचन्द्रकृत टिप्पणका अन्तिमवाक्य समझ लेनेके कारण उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानना चाहते / मुख्तारसा० ने एक हेतु यह भी दिया है कि-प्रमेयकमलमार्तण्डकी कुछ प्रतियों में यह अन्तिमवाक्य नहीं पाया जाता। और इसके लिए भाण्डारकर इंस्टीट्यूटकी प्राचीन प्रतियोंका हवाला दिया है / मैंने भी प्रमेयकमलमार्तण्डका पुनः सम्पादन करते समय जैनसिद्धान्त भवन आराकी प्रतिके पाठान्तर लिए हैं। इसमें भी उक्त 'भोजदेवराज्ये' वाला वाक्य नहीं है / इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्रके सम्पादनमें जिन प्रा०, ब०, श्र०, और भां० प्रेतियोंका उपयोग किया है, उनमें आ० और ब० प्रतिमें 'श्री जयसिंहदेवराज्ये' वाला प्रशस्ति लेख नहीं है / हाँ, भां० और श्र० प्रतियाँ, जो ताड़पत्र पर लिखी हैं, उनमें 'श्री जयसिंहदेवराज्ये' वाला प्रशस्तिवाक्य है। इनमें भां० प्रति शालिवाहनशक 1764 की लिखी हुई है। इस तरह प्रमेयकमलमार्तण्डकी किन्हीं प्रतियोंमें उक्त प्रशस्तिवाक्य नहीं है, किन्हींमें 'श्री पद्मनन्दि' श्लोक नहीं है तथा कुछ प्रतियोंमें सभी श्लोक और प्रशस्ति वाक्य हैं / न्यायकुमुदचन्द्रकी कुछ प्रतियोंमें 'जयसिंह देवराज्ये' प्रशस्ति वाक्य नहीं है / श्रीमान् मुख्तार सा० प्रायः इसीसे उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानते / इसके विषयमें मेरा यह वक्तव्य है कि-लेखक प्रमादवश प्रायः मौजूद पाठ तो छोड़ देते . . हैं पर किसी अन्यकी प्रशस्ति अन्यग्रन्थमें लगानेका प्रयत्न कम करते हैं / लेखक आखिर नकल करनेवाले लेखक ही तो हैं, उनमें इतनी बुद्धिमानीकी भी कम संभावना है कि वे 'श्री भोज देवराज्ये' जैसी सुन्दर गद्य प्रशस्तिको स्वकपोलकल्पित करके उसमें जोड़ दें। जिन प्रतियोंमें उक्त प्रशस्ति नहीं है तो समझना चाहिए कि लेखकोंके प्रमादसे उनमें वह प्रशस्ति लिखी ही नहीं गई। 1 रत्नकरण्ड० प्रस्तावना पृ०६० / 2 देखो इनका परिचय न्यायकु० प्र० भाग के सम्पादकीयमे / 3 पं० नाथूरामजी प्रेमी अपनी नोटबुकके आधारसे सूचित करते हैं कि-"भाण्डारकर इंस्टीकी नं० 836 (सन् 1875-76) की प्रतिमें प्रशस्तिका 'श्री पद्मनन्दि' वाला श्लोक और 'भोजदेवराज्ये' वाक्य नहीं। वहीं की नं० 638 (सन् 1875-76 ) वाली प्रतिमें 'श्री पद्मनन्दि' श्लोक है पर 'भोजदेवराज्ये' वाक्य नहीं है। पहिली प्रति संवत् 1489 तथा दूसरी संवत् 1795 की लिखी हई है।" वीरवाणी विलास भवनके अध्यक्ष पं० लोकनाथ पार्श्वनाथशास्त्री अपने यहाँ की ताडपत्रकी दो पर्ण प्रतियोंको देखकर लिखते है कि-"प्रतियोंकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुद्रितपुस्तकानुसार प्रशस्ति श्लोक परे हैं और 'श्री भोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना' आदि वाक्य हैं। प्रमेयकयलमार्तण्डकी प्रतियोंमें वहुत शैथिल्य है. परन्तु करीब 600 वर्ष पहिले लिखित होगी। उन दोनों प्रतियोंमें शकसंवत् नहीं हैं"। सोलापरकी प्रतिमे * "श्री भोजदेवराज्ये" प्रशस्ति नहीं है। दिल्लीकी आधुनिक प्रतिमें भी उक्तवाक्य नहीं है। अनेक प्रतियोंमें प्रथम अध्यायके अन्तमें पाए जानेवाले “सिद्धं सर्वजनप्रबोध" श्लोककी व्याख्या नहीं है। इन्दौरकी तुकोगंजवाली प्रतिमें प्रशस्तिवाक्य है और उक्त श्लोककी व्याख्या भी है। खुरईकी प्रतिमे' 'भोजदेवराज्ये' प्रशस्ति नहीं है, पर चारों प्रशस्तिश्लोक है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 न्यायकुमुदचन्द्र जब अन्य अनेक प्रमाणोंसे प्रभाचन्द्रका समय करीब करीब भोजदेव और जयसिंहके राज्यकाल तक पहुँचता है तब इन प्रशस्तिवाक्योंको टिप्पणकारकृत या किसी पीछे होनेवाले व्यक्तिकी करतूत कहकर नहीं टाला जा सकता। मेरा यह विश्वास है कि 'श्री भोजदेवराज्ये' या 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' प्रशस्तियाँ सर्वप्रथम प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता प्रभाचन्द्रने ही बनाई हैं / और जिन जिन ग्रन्थोंमें ये प्रशस्तियाँ पाई जाती हैं वे प्रसिद्ध तकग्रन्थकार प्रभाचन्द्र के ही ग्रन्थ होने चाहिए। २-यापनीयसंघाग्रणी शाकटायनाचार्यने शाकटायन व्याकरण और अमोघवृत्तिके सिवाय केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरण लिखे हैं। शाकटायनने अमोघवृत्ति, महाराज अमोघवर्षके राज्यकाल (ई० 814 से 877 ) में रची थी। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्दमें शाकटायनके इन दोनों प्रकरणोंका खंडन आनुपूर्वीसे किया है / न्यायकुमुदचन्द्रमें स्त्रीमुक्तिपकरणसे एक कारिका भी उद्धृत की है। अतः प्रभाचन्द्रका समय ई० 100 से पहिले नहीं माना जा सकता। ३-सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारपर सिद्धर्षिगणिकी एक वृत्ति उपलब्ध है। हम 'सिद्धर्षि और प्रभाचन्द्र' की तुलना में बता आए हैं कि प्रभाचन्द्रने न्यायावतारके साथ ही साथ इस वृत्तिको मी देखा है / सिद्धर्षिने ई० 106 में अपनी उपमितिभवप्रपश्चाकथा बनाई थी। अतः न्यायावतारवृत्तिके द्रष्टा प्रभाचन्द्रका समय सन् 210 के पहिले नहीं माना जा सकता। ४-भासर्वज्ञका न्यायसार ग्रन्थ उपलब्ध है। कहा जाता है कि इसपर भासर्वज्ञकी स्वोपज्ञ न्यायभूषण नामकी वृत्ति थी। इस वृत्तिके नामसे उत्तरकालमें इनकी भी 'भूषण' रूपमें प्रसिद्धि हो गई थी। न्यायलीलावतीकारके कथनसे ज्ञात होता है कि भूषण क्रियाको संयोग रूप मानते थे। प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 282 ) में भासर्वज्ञके इस मतका खंडन किया है / प्रमेयकमलमार्तण्डके छठवें अध्यायमें जिन विशेष्यासिद्ध आदि हेत्वाभासोंका निरूपण है वे सब न्यायसारसे ही लिए गए हैं। स्व० डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण इनका समय ई० 600 के लगभग मानते हैं / अतः प्रभाचन्द्रका समय भी ई० 100 के बादही होना चाहिए। ५-आ० देवसेनने अपने दर्शनसार ग्रंथ (रचनासमय 160 वि० 133 ई० ) के बाद भावसंग्रह ग्रंथ बनाया है। इसकी रचना संभवतः सन् 140 के आसपास हुई होगी। इसकी एक 'नोकम्मकम्महारो' गाथा प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें उद्धृत है / यदि यह गाथा स्वयं देवसेनकी है तो प्रभा चन्द्रका समय सन् 140 के बाद होना चाहिए। ६-आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमल और न्यायकुमुद 0 बनानेके बाद शब्दाम्भोजभास्कर नामका जैनेन्द्रन्यास रचा था। यह न्यास जैनेन्द्रमहावृत्तिके बाद इसीके आधारसे बनाया गया है। मैं 'अभयनन्दि और प्रभाचन्द्र' की तुलना (पृ०३३) करते हुए लिख आया हूँ कि नेमिचन्द्रसिद्धान्त 1 देखो न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 282 टि० 5 / 2 न्यायसार प्रस्तावना पृ० 5 / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना चक्रवर्तीके गुरु अभयनन्दिने ही यदि महावृत्ति बनाई है तो इसका रचना काल अनुमानतः 160 ई० होना चाहिए। अतः प्रभाचन्द्रका समय ई० 160 से पहिले नहीं माना जा सकता। ___७-पुष्पदन्तकृत अपभ्रंशभाषाके महापुराण पर प्रभाचन्द्रने एक टिप्पण रचा है / इसकी प्रशस्ति रत्नकरण्डश्रावकाचार की प्रस्तावना (पृ० 61 ) में दी गई है। यह टिप्पण जयसिंहदेवके राज्यकालमें लिखा गया है। पुष्पदन्तने अपना महापुराण सन् 165 ई० में समाप्त किया था। टिप्पणकी प्रशस्तिसे तो यही मालूम होता है कि प्रसिद्ध प्रभाचन्द्र ही इस टिप्पणके कर्ता हैं / यदि यही प्रभाचन्द्र इसके रचयिता हैं, तो कहना होगा कि प्रभाचन्द्रका समय ई० 165 के बाद ही होना चाहिए / यह टिप्पण इन्होंने न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना करके लिखा होगा / यदि यह टिप्पण प्रसिद्ध तर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्रका न माना जाय तब भी इसकी प्रशस्तिके श्लोक और पुष्पिकालेख, जिनमें प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके प्रशस्तिश्लोकोंका एवं पुष्पिकालेखका पूरा पूरा अनुकरण किया गया है, प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधि जयसिंहके राज्य कालतक निश्चित करनेमें साधक तो हो ही सकते हैं। -श्रीधर और प्रभाचन्द्रकी तुलना करते समय हम बता आए हैं कि प्रभाचन्द्रके ग्रन्थों पर श्रीधरकी कन्दली भी अपनी आभा दे रही है / श्रीधरने कन्दली टीका ई० सन् 191 में समाप्त की थी। अतः प्रभा चन्द्रकी पूर्वावधि ई० 110 के करीब मानना और उनका कार्यकाल ई० 1020 के लगभग मानना संगत मालूम होता है / -श्रवणबेल्गोलाके लेख नं० 40 (64) में एक पद्मनन्दिसैद्धान्तिकका उल्लेख है और इन्हींके शिष्य कुलभूषणके सधर्मा प्रभाचन्द्रको शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथिततर्कग्रन्थकार लिखा है "अविद्धकर्णादिकपद्मनन्दिसैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके / कौमारदेवव्रतिताप्रसिद्धिर्जीयात्तु सो ज्ञाननिधिस्स धीरः // 15 // तच्छिष्यः कुलभूषणाख्ययतिपश्चारित्रवारांनिधिः, सिद्धान्ताम्बुधिपारगो नतविनेयस्तत्सधर्मो महान् / शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथिततर्कग्रन्थकारः प्रभा चन्द्राख्यो मुनिराजपण्डितवरः श्रीकुण्डकुन्दान्वयः // 16 // " इस लेखमें वर्णित प्रभाचन्द्र, शब्दान्भोरुहभास्कर और प्रथिततर्कग्रन्थकार विशेषणोंके बलसे शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्रन्यास और प्रमेयकमलमार्चण्ड न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थोंके कर्ता प्रस्तुत प्रभाचन्द्र ही हैं / धवलाटीका पु० 2 की प्रस्तावनामें ताड़पत्रीय प्रतिका इतिहास बताते हुए प्रो० हीरालालजीने इस शिलालेखमें वर्णित प्रभाचन्द्रके समय पर सयुक्तिक ऐतिहासिक प्रकाश डाला है / उसका सारांश यह है- "उक्त शिलालेखमें कुलभूषणसे आगेकी शिष्य परम्परा इस प्रकार है-कुलभूषणके सिद्धान्तवारांनिधि सद्वृत्त कुलचन्द्र नामके शिष्य 1 देखो महापुराणकी प्रस्तावना। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र हुए, कुलचन्द्रदेवके शिष्य माघनन्दि मुनि हुए, जिन्होंने कोल्लापुरमें तीर्थ स्थापन किया / इनके श्रावक शिष्य थे-सामन्तकेदार नाकरस, सामन्त निम्बदेव और सामन्त कामदेव / माघनन्दिके शिष्य हुए-गण्डविमुक्तदेव, जिनके एक छात्र सेनापति भरत थे, व दूसरे शिष्य भानुकीर्ति और देवकीर्ति, आदि / इस शिलालेख में बताया है कि महामण्डलाचार्य देवकीर्ति पंडितदेवने कोल्लापुरकी रूपनारायण वसदिके अधीन केल्लंगरेय प्रतापपुरका पुनरुद्धार कराया था, तथा जिननाथपुरमें एक दानशाला स्थापित की थी। उन्हीं अपने गुरुकी परोक्ष विनयके लिए महाप्रधान सर्वाधिकारी हिरिय भंडारी, अभिनवगङ्गदंडनायक श्री हुल्लराजने उनकी निषद्या निर्माण कराई, तथा गुरुके अन्य शिष्य लक्खनन्दि, माधव और त्रिभुवनदेवने महादान व पूजाभिषेक करके प्रतिष्ठा की / देवकीर्तिके समय पर प्रकाश डालने वाला शिलालेख नं० 36 है / इसमें देवकीर्तिकी प्रशस्तिके अतिरिक्त उनके स्वर्गवासका समय शक 1085 सुभानु संवत्सर आषाढ़ शुक्ल र बुधवार सूर्योदयकाल बतलाया गया है। और कहा गया है कि उनके शिष्य लक्खनन्दि माधवचन्द्र और त्रिभुवनमल्लने गुरु भक्तिसे उनकी निषद्याकी प्रतिष्ठा कराई। देवकीर्ति पद्मनन्दिसे पाँच पीढ़ी तथा कुलभूषण और प्रभाचन्द्रसे चार पीढ़ी बाद हुए हैं / अतः इन आचार्योंको देवकीर्तिके समयसे 100-125 वर्ष अर्थात् शक 150 (ई० 1028) के लगभग हुए मानना अनुचित न होगा / उक्त आचार्योंके कालनिर्णयमें सहायक एक और प्रमाण मिलता है-कुलचन्द्र मुनिके उत्तराधिकारी माघनन्दि कोल्लापुरीय कहे गए हैं। उनके गृहस्थ शिष्य निम्बदेव सामन्तका उल्लेख मिलता है जो शिलाहारनरेश गंडरादित्यदेवके एक सामन्त थे। शिलाहार गंडरादित्यदेवके उल्लेख शक सं० 1030 से 1058 तक के लेखों में पाए जाते हैं। इससे भी पूर्वोक्त कालनिर्णयकी पुष्टि होती है / " यह विवेचन शक सं० 1085 में लिखे गए शिलालेखोंके आधारसे किया गया है / शिलालेखकी वस्तुओंका ध्यानसे समीक्षण करने पर यह प्रश्न होता है कि जिस तरह प्रभाचन्द्र के सधर्मा कुलभूषणकी शिष्यपरम्परा दक्षिण प्रान्तमें चली उस तरह प्रभाचन्द्रकी शिष्य परम्पराका कोई उल्लेख क्यों नहीं मिलता ? मुझे तो इसका संभाव्य कारण यही मालूम होता है कि पद्मनन्दिके एक शिष्य कुलभूषण तो दक्षिणमें ही रहे और दूसरे प्रभाचन्द्र उत्तर प्रांतमें आकर धारा नगरीके आसपास रहे हैं। यही कारण है कि दक्षिण में उनकी शिष्य परम्पराका कोई उल्लेख नहीं मिलता। इस शिलालेखीय अंकगणनासे निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि प्रभाचन्द्र भोजदेव और जयसिंह दोनोंके समयमें विद्यमान थे। अतः उनकी पूर्वावधि सन् 190 के आसपास माननेमें कोई बाधक नहीं है। १०-वादिराजसूरिने अपने पार्श्व वरितमें अनेकों पूर्वाचार्योंका स्मरण किया है। पार्श्वचरित शक सं० 647 (ई० 1025 ) में बनकर समाप्त हुआ था। इन्होंने अकलंकदेवके न्यायविनिश्चय प्रकरण पर न्यायविनिश्चयविवरण या न्यायविनिश्चयतात्पर्यावद्योतनी व्याख्यानरत्नमाला नामकी विस्तृत टीका लिखी है / इस टीकामें पचासों जैन-जैनेतर आचार्योंके ग्रन्थोंसे Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रमाण उद्धृत किए गए हैं। संभव है कि वादिराजके समयमें प्रभाचन्द्रकी प्रसिद्धि न हो पाई हो, अन्यथा तर्कशास्त्रके रसिक वादिराज अपने इस यशस्वी ग्रन्थकारका नामोल्लेख किए बिना न रहते / यद्यपि ऐसे नकारात्मक प्रमाण स्वतन्त्रभावसे किसी आचार्यके समयके साधक या बाधक नहीं होते फिर भी अन्य प्रबल प्रमाणोंके प्रकाशमें इन्हें प्रसङ्गसाधन के रूपमें तो उपस्थित किया ही जा सकता है / यही अधिक संभव है कि वादिराज और प्रभाचन्द्र समकालीन और सम-व्यक्तित्वशाली रहे हैं अत: वादिराजने अन्य आचार्योंके साथ प्रभाचन्द्रका उल्लेख नहीं किया है। अब हम प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधिके नियामक कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं १-ईसाकी चौदहवीं शताब्दीके विद्वान् अभिनवधर्मभूषणने न्यायदीपिका ( पृ० 16 ) में प्रमेयकमलमार्तडका उल्लेख किया है। इन्होंने अपनी न्यायदीपिका वि० सं० 1442 ( ई० 1385 ) में बनाई थी* / ईसाकी 13 वीं शताब्दीके विद्वान् मल्लिषेणने अपनी स्याद्वादमञ्जरी ( रचना समय ई० 1213 ) में न्यायकुमुदचन्द्रका उल्लेख किया है / ईसाकी 12 वीं शताब्दीके विद्वान् आ० मलयगिरिने आवश्यकनियुक्तिटीका ( पृ० 371 A. ) में लघीयनयकी एक कारिकाका व्याख्यान करते हुए 'टीकाकारके' नामसे न्यायकुमुदचन्द्रमें की गई उक्त कारिकाकी व्याख्या उद्धृतकी है / ईसाकी 12 वीं शताब्दीके विद्वान् देवभद्रने न्यायावतारटीकाटिप्पण ( पृ० 21,76 ) में प्रभाचन्द्र और उनके न्यायकुमुदचन्द्रका नामोल्लेख किया है / अतः इन 12 वीं शताब्दी तकके विद्वानों के उल्लेखों के आधारसे यह प्रामाणिकरूपसे कहा जा सकता है कि प्रभाचन्द्र ई० 12 वीं शताब्दीके बाद के विद्वान् नहीं है / . २-रत्नकरण्डश्रावकाचार और समाधितन्त्र पर प्रभाचन्द्रकृत टीकाएँ उपलब्ध हैं / पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार कि इन दोनों टीकाओंको एक ही प्रभाचन्द्र के द्वारा रची हुई सिद्ध किया है / आपके मतसे ये प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके रचयितासे भिन्न हैं / रत्नकरण्डटीकाका उल्लेख पं० आशाधरजी द्वारा अनागारधर्मामृत टीका (अ० 8 श्लो० 63 ) में किये जाने के कारण इस टीकाका रचना काल वि० सं० 1300 से पहिलेका अनुमान किया गया है; क्योंकि अनागारधर्मामृत टीका वि० सं० 1300 में बनकर समाप्त हुई थी। अन्ततः मुख्तारसा० इस टीकाका रचनाकाल विक्रमकी 13 वीं शताब्दीका मध्यभाग मानते हैं / अस्तु, फिलहाल मुख्तारसा० के निर्णयके अनुसार इसका रचनाकाल वि० 1250 ( ई० 1193) ही मान कर प्रस्तुत विचार करते हैं / ___ रनकरण्डश्रावकाचार (पृ०६) में केवलिकवलाहारके खंडनमें न्यायकुमुदचन्द्रगत शब्दावलीका पूरा पूरा अनुसरण करके लिखा है कि-"तदलमतिप्रसङ्गेन प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे प्रपञ्चतः प्ररूपणात् / " इसी तरह समाधितन्त्र टीका (पृ० 15) में लिखा है कि-"यैः पुनर्योगसांख्यैः मुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः प्रत्याख्याताः / " इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड और * स्वामी समन्तभद्र प० 227 / + रत्नकरण्डश्रावकाचार भूमिका पु० 66 से / Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थ इन टीकाओंसे पहिले रचे गए हैं / अतः प्रभाचन्द्र ईसा की 12 वीं . शताब्दीके बाद के विद्वान् नहीं हैं / ३-वादिदेवसूरिका जन्म वि० सं० 1143 तथा स्वर्गवास वि० सं० 1222 में हुआ था। ये वि० सं० 1174 में आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए थे / संभव है इन्होंने वि० सं० 1175 ( ई० 1118 ) के लगभग अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ स्याद्वादरत्नाकरकी रचना की होगी। स्याद्वादरत्नाकरमें प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका न केवल शब्दार्थानुसरण ही किया गया है किन्तु कवलाहारसमर्थन प्रकरणमें तथा प्रतिबिम्ब चर्चा में प्रभाचन्द्र और प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्डका नामोल्लेख करके खंडन भी किया गया है / अतः प्रभाचन्द्र के समयकी उत्तरावधि अन्ततः ई० 1100 सुनिश्चित हो जाती है / ४-जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठ पर श्रुतकीर्तिने पंचवस्तुप्रक्रिया बनाई है। श्रुतकीर्ति कनड़ीचन्द्रप्रभचरित्रके कर्ता अग्गलकविके गुरु थे। अग्गलकविने शक 1011, ई० 1089 में चन्द्रप्रभचरित्र पूर्ण किया था / अतः श्रुतकीर्तिका समय भी लगभग ई० 1075 .. होना चाहिए / इन्होंने अपनी प्रक्रियामें एक न्याप्त ग्रन्थका उल्लेख किया है / संभव है कि यह प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्कर नामका ही न्यास हो। यदि ऐसा है तो प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधि ई० 1075 मानी जा सकती है। शिमोगा जिलेके शिलालेख नं० 46 से ज्ञात होता है कि पूज्यपादने भी जैनेन्द्रन्यासकी रचना की थी। यदि श्रुतकीर्तिने न्यास पदसे पूज्यपादकृत न्यासका निर्देश किया है तब 'टीकामाल' शब्दसे सूचित होनेवाली टीकाकी मालामें तो प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्करको पिरोया ही जा सकता है / इस तरह प्रभाचन्द्रके पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती उल्लेखोंके आधारसे हम प्रभाचन्द्रका समय सन् 180 से 1065 तक निश्चित कर सकते हैं। इन्हीं उल्लेखोंके प्रकाशमें जब हम प्रमेयकमलमार्तण्डके 'श्री भोजदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेख तथा न्यायकुमुदचन्द्रके 'श्री जयसिंहदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेखको देखते हैं तो वे अत्यन्त प्रामाणिक मालूम होते हैं / उन्हें किसी टीका टिप्पणकारका या किसी अन्य व्यक्तिकी करतूत कहकर नहीं टाला जा सकता। उपयुक्त विवेचनसे प्रभाचन्द्र के समयकी पूर्वावधि और उत्तरावधि करीब करीब भोजदेव और जयसिंह देवके समय तक ही आती है / अतः प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें पाए जाने वाले प्रशस्ति लेखोंकी प्रामाणिकता और प्रभाचन्द्रकर्तृतामें सन्देहको कोई स्थान नहीं रहता। इसलिए प्रभाचन्द्रका समय ई० 180 से 1065 तक माननेमें कोई बाधा नहीं है / 1 देखो-इसी प्रस्तावनाका 'श्रुतकीर्ति और प्रभाचन्द्र' अंश, पृ० 36 / ___ * प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रथमसंस्करणके सम्पादक पं० बंशीधरजी शास्त्री सोलापुरने उक्त संस्करण के उपोद्धातमें 'श्रीभोजदेवराज्ये' प्रशस्तिके अनुसार प्रभाचन्द्रका समय ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दी सूचित किया है। और आपने इसके समर्थनके लिए 'नमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी गाथाओंका प्रमेयकमलमार्तण्डमें उद्धृत होना' यह प्रमाण उपस्थित किया है। पर आपका यह प्रमाण अभ्रान्त नहीं है। प्रमेयकमलमार्तण्डमें विग्गहगइमावण्णा' और 'लोयायासपऐसे' गाथाएँ उद्धत हैं। पर ये गाथाएँ नेमिचन्द्रकृत नहीं हैं। पहिली Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 63. प्रभाचन्द्र के ग्रन्थ ___ आ० प्रभाचन्द्रके जितने ग्रन्थोंका अभी तक अन्वेषण किया गया है उनमें कुछ स्वतन्त्र प्रन्थ हैं तथा कुछ व्याख्यात्मक / उनके प्रमेयकमलमार्तण्ड (परीक्षामुखव्याख्या), न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रय व्याख्या ), तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण ( सर्वार्थसिद्धि व्याख्या ), और शाकटायनन्यास (शाकटायनव्याकरणव्याख्या ) इन चार ग्रन्थोंका परिचय इसी ग्रन्थके प्रथमभागकी प्रस्तावनामें दिया जा चुका है / यहाँ उनके शब्दाम्भोजभास्कर ( जैनेन्द्रव्याकरण महान्यास ) और प्रवचनसारसरोजभास्कर (प्रवचनसारटीका ) का परिचय दिया जाता है / गद्यकथाकोश, महापुराण टिप्पण आदि भी इन्हींके ग्रन्थ हैं / इस परिचयके पहिले हम 'शाकटायनन्यास' के कर्तृत्व पर विचार करते हैं __ भाई पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने शिलालेख तथा किंवदन्तियोंके आधारसे शाकटायनन्यासको प्रभाचन्द्रकृत लिखा है / शिमोगा जिलेके नगरताल्लुकेके शिलालेख नं० 46 (एपि० कर्ना० पु. 8 भा० 2 पृ० 266-273 ) में प्रभाचन्द्रकी प्रशंसापरक ये दो श्लोक हैं "माणिक्यनन्दिजिनराजवाणीप्राणाधिनाथः परवादिमर्दी / चित्रं प्रभाचन्द्र इह क्षमायां मार्तण्डवृद्धौ नितरां व्यदीपित // *सुखि..."न्यायकुमुदचन्द्रोदयकृते नमः / शाकटायनकृत्सूत्रन्यासकर्ने व्रतीन्दवे // " जैनसिद्धान्तभवन आरामें वर्धमानमुनिकृत दशभक्त्यादिमहाशास्त्र है / उसमें भी ये श्लोक हैं। उनमें 'मुखि...' की जगह 'सुखीशे' तथा 'व्रतीन्दवे' के स्थानमें 'प्रभेन्दवे' पाठ है / गाथा धवलाटीका ( रचनाकाल ई० 816 ) में उद्धृत है और उमास्वातिकृत श्रावकप्रज्ञप्तिमे भी पाई जाती है। दूसरी गाथा पूज्यपाद (ई० 6 वीं) कृत सर्वार्थसिद्धि में उद्धृत है / अतः इन प्राचीन गाथाओंको नेमिचन्द्रकृत नहीं माना जा सकता। अवश्य ही इन्हें नेमिचन्द्रने जीवकाण्ड और द्रव्यसंग्रहमें संग्रहीत किया है। अतः इन गाथाओंका उद्धृत होना ही प्रभाचन्द्रके समयको 11 वीं सदी नहीं साध सकता। 6 न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना पृ० 125 / * इस शिलालेखके अनुवादमें राइस सा० ने आ० पूज्यपादको ही न्यायकुमुदचन्द्रोदय और शाकटायनन्यासका कर्ता लिख दिया है। यह गलती आपसे इसलिये हुई कि इस श्लोकके बाद ही पूज्यपादकी प्रशंसा करनेवाला एक श्लोक है, उसका अन्वय आपने भूलसे "सुखि” इत्यादि श्लोकके साथ कर दिया है। वह श्लोक यह है "न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूयोन्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा / यस्तत्त्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह तां भात्यसौ पूज्यपाद स्वामी भूपालवन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्बोधवृत्तः // " थोड़ी सी सावधानीसे विचार करने पर यह स्पष्ट मालूम होता जाता है कि 'सुखि' इत्यादि श्लोकके चतुर्थ्यन्त पदोंका 'न्यास' वाले लोकसे कोई भी सम्बन्ध नहीं है / ब्र० शीतलप्रसादजीने 'मद्रास और मैसूरप्रान्तके स्मारक' में तथा प्रो० हीरालालजीने 'जनशिलालेख संग्रह' की भूमिका (पृ० 141) में भी राइस सा० का अनुसरण करके इसी गलतीको दुहराया है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 न्यायकुमुदचन्द्र यह शिलालेख 16 वीं शताब्दीका है और वर्धमानमुनिका समय भी 16 वीं शताब्दी ही है। शाकटायनन्यासके प्रथम दो अध्यायोंकी प्रतिलिपि स्याद्वादविद्यालयके सरस्वतीभवनमें मौजूद है। उसको सरसरी तौर से पलटने पर मुझे इसके प्रभाचन्द्रकृत होनेमें निम्नलिखित कारणों से सन्देह उत्पन्न हुआ है १-इस ग्रन्थमें मंगलश्लोक नहीं है जब कि प्रभाचन्द्र अपने प्रत्येक ग्रन्थमें मंगलाचरण नियमित रूपसे करते हैं। २-सन्धियोंके अन्तमें तथा ग्रन्थमें कहीं भी प्रभाचन्द्रका नामोल्लेख नहीं है जब कि प्रभाचन्द्र अपने प्रत्येक ग्रन्थमें 'इति प्रभाचन्द्रविरचिते' आदि पुष्पिकालेख या 'प्रमेन्दुर्जिनः' आदि रूप से अपना नामोल्लेख करनेमें नहीं चूकते / __३-प्रभाचन्द्र अपनी टीकाओंके प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, शब्दाम्भोजभास्कर आदि नाम रखते हैं जब कि इस ग्रन्थके इन श्लोकोंमें इसका कोई खास नाम सूचित नहीं होता "शब्दानां शासनाख्यस्य शास्त्रस्यान्वर्थनामतः / प्रसिद्धस्य महामोघवृत्तेरपि विशेषतः // सूत्राणां च विवृतिलिख्यते च यथामति / ग्रन्थस्यास्य च न्यासेति ( ? ) क्रियते नामनामतः // " * ४-शाकटायन यापनीयसंघके आचार्य थे और प्रभाचन्द्र थे कट्टर दिगम्बर / इन्होंने शाकटायनके स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिप्रकरणोंका खंडन भी किया है / अतः शाकटायनके व्याकरणपर प्रभाचन्द्रके द्वारा न्यास लिखा जाना कुछ समझमें नहीं आता। ५-इस न्यासमें शाकटायनके लिए प्रयुक्त 'संघाधिपति, महाश्रमणसंघप' आदि विशेषणों का समर्थन है। यापनीय आचार्यके इन विशेषणोंके समर्थनकी आशा प्रभाचन्द्र द्वारा नहीं की जा सकती। यथा "एवंभूतमिदं शास्त्रं चतुरध्यायरूपतः, संघाधिपतिः श्रीमानाचार्यः शाकटायनः / / महतारभते तत्र महाश्रमणसंघपः, श्रमेण शब्दतत्त्वं च विशदं च विशेषतः // महाश्रमणसंघाधिपतिरित्यनेन मनःसमाधानमाख्यायते / विषयेषु विक्षिप्तचेतसो न मन:समाधि''असमाहितचेतसश्च किं नाम शास्त्रकरणम्, आचार्य इति तु शब्दविद्याया गुरुत्वं शाकटायन इति अन्वयबुद्धिप्रकर्षः, विशुद्धान्वयो हि शिष्टैरुपलीयते / महाश्रमणसंघाधिपतेः सन्मार्गानुशासनं युक्तमेव..." $ मैसूर यूनि० में न्यासग्रन्थकी दूसरे अध्यायके चौथे पादके 124 सूत्र तक की कापी है (नं० A. 605 ) / उसमें निम्नलिखित मंगलश्लोक हैं __"प्रणम्य जयिनः प्राप्तविश्वव्याकरणश्रियः / शब्दानुशासनस्येयं वृत्तविवरणोद्यमः॥ अस्मिन् भाष्याणि भाष्यन्ते वृत्तयो वृत्तिमाश्रिताः / न्यासा न्यस्ताः कृताः टीकाः पारं पारायणान्ययः / / तत्र वृत्ता (त्या) दावयं मंगलश्लोकः श्रीवीरममतमित्यादि।" परन्तु इन श्लोकोंकी रचनाशैली प्रभाचन्द्रकृत न्यायकमदचन्द्र आदि के मंगलश्लोकोंसे अत्यन्त विलक्षण है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ६-प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें जैनेन्द्रव्याकरणसे ही सूत्रोंके उद्धरण दिए हैं जिसपर उनका शब्दाम्भोजभास्कर न्यास है / यदि शाकटायनपर भी उनका न्यास होता तो वे एकाध स्थानपर तो शाकटायनव्याकरणके सूत्र उद्धृत करते / ७-प्रभाचन्द्र अपने पूर्वग्रन्थोंका उत्तरग्रन्थोंमें प्रायः उल्लेख करते हैं। यथा न्यायकुमुदचन्द्रमें तत्पूर्वकालीन प्रमेयकमलमार्तण्डका तथा शब्दाम्भोजभास्करमें न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड दोनोंका उल्लेख पाया जाता है। यदि शाकटायनन्यास उन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके पहिले बनाया होता तो प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिमें शाकटायनव्याकरणके सूत्रों के उद्धरण होते और इस न्यासका उल्लेख भी होता / यदि यह उत्तरकालीन रचना है तो इसमें प्रमेयकमल आदिका उल्लेख होना चाहिये था जैसा कि शब्दाम्भोजभास्करमें देखा जाता है / ८-शब्दाम्भोजभास्कर में प्रभाचन्द्रकी भाषाकी जो प्रसन्नता तथा प्रावाहिकता है वह इस दुरूह न्यासमें नहीं देखी जाती। इस शैलीवैचित्र्यसे भी इसके प्रभाचन्द्रकृत होनेमें सन्देह होता है। प्रभाचन्द्रने शब्दाम्भोजभास्कर नामका न्यास बनाया था और इसलिए उनकी न्यासकारके रूपसे भी प्रसिद्धि रही है। मालूम होता कि वर्धमानमुनिने प्रभाचन्द्रकी इसी प्रसिद्धिके आधार से इन्हें शाकटायनन्यासका कर्ता लिख दिया है / मुझे तो ऐसा लगता है कि यह न्यास स्वयं शाकटायनने ही बनाया होगा। अनेक वैयाकरणोंने अपने ही व्याकरण पर न्यास लिखे हैं / शब्दाम्भोजभास्कर-श्रवणवेल्गोलके शिलालेख नं० 40 (64 ) में प्रभाचन्द्रके लिये 'शब्दाम्भोजदिवाकरः' विशेषण भी दिया गया है / इस अर्थगर्भ विशेषणसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्याकुमुदचन्द्र जैसे प्रथिततर्क ग्रन्थोंके कर्ता प्रथिततर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्रही शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्रव्याकरण महान्यासके रचयिता हैं। ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वतीभवनकी अधूरी प्रतिके आधारसे इसका टुक परिचय यहाँ दिया जाता है / यह प्रति संवत् 1980 में देहलीकी प्रतिसे लिखाई गई है। इसमें जैनेन्द्रव्याकरणके मात्र तीन अध्यायका ही न्यास है सो भी बीचमें जगह जगह त्रुटित है / 34 से 67 नं० के पत्र इस प्रतिमें नहीं हैं / प्रारम्भके 28 पत्र किसी दूसरे लेखकने लिखे हैं / पत्रसंख्या 228 है। एक पत्रमें 13 से१५ तक पंक्तियाँ और एक पंक्तिमें 36 से 43 तक अक्षर हैं / पत्र बड़ी साइजके हैं / मंगलाचरण "श्रीपूज्यपादमकलङ्कमनन्तबोधम्, शब्दार्थसंशयहरं निखिलेषु बोधम् / सच्छब्दलक्षणमशेषमतः प्रसिद्धं वक्ष्ये परिस्फुटमलं प्रणिपत्य सिद्धम् // 1 // सविस्तरं यद् गुरुभिः प्रकाशितं महामतीनामभिधानलक्षणम् / मनोहरैः स्वल्पपदैः प्रकाश्यते महद्भिरुपदिष्टि याति सर्वापिमार्गे ( ? ) .. 'तदुक्त कृतशिक्ष ( ? ) इलाध्यते तद्धि तस्य / किमुक्तमखिलज्ञैर्भाषमाणे गणेन्द्रो विविक्तमखिलार्थं श्लाघ्यतेऽतो मुनीन्द्रैः // 3 // शब्दानामनुशासनानि निखिलान्याध्यायताहर्निशम् , यो यः सारतरो विचारचतुरस्तल्लक्षणांशो गतः / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र तं स्वीकृत्य तिलोत्तमेव विदुषां चेतश्चमत्कारकः, सुव्यक्तैरसमैः प्रसन्नवचनैासः समारभ्यते // 4 // श्रीपूज्यपादस्वामि (मी) विनेयानां शब्दसाधुत्वासाधुत्वविवेकप्रतिपत्त्यर्थं शब्दलक्षणप्रणयनं कुर्वाणो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकमभिलषन्निष्टदेवतास्तुतिविषयं नमस्कुर्वन्नाह-लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य..." यह न्यास अभयनन्दिकृत जैनेन्द्रमहावृत्तिके बाद बनाया गया है / इसमें महावृत्तिके शब्द आनुपूर्वीसे ले लिए गए हैं और कहीं उनका व्याख्यान भी किया है / यथा "सिद्धिरनेकान्तात्-प्रकृत्यादिविभागेन व्यवहाररूपा श्रोत्रग्राह्यतया परमार्थतोपेता प्रकृत्यादिविभागेन च शब्दानां सिद्धिरनेकान्ताद् भवतीत्यर्थाधिकार आशास्त्रपरिसमाप्र्वेदितव्यः। अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वसामान्यसामानाधिकरण्यविशेषणविशेष्यादिकोऽनेकः अन्तः स्वभावो यस्मिन् भावे सोऽयमनेकान्तः अनेकात्मा इत्यर्थः"-महावृत्ति पृ० 2 / "द्विविधा च शब्दानां सिद्धिः व्यवहाररूपा परमार्थरूपा चेति / तत्र प्रकृतीत्य (?) . विकारागमादिविभागेन रूपा तसिद्धिः तद्भेदस्यात्र प्राधान्यात् / श्रोत्रप्राह्यौ (ह्याः) परमार्थतो ये प्रकृत्यादिविभागाः प्रमाणनयादिभिरभिगमोपायैः शब्दानां तत्त्वप्रतिपत्तिः परमार्थरूपा सिद्धिः तद्भेदस्यात्र प्राधान्यात् , सामयितेषां सिद्धिरनेकान्ताद्भवतीत्येषोऽधिकारः आशास्त्रपरिसमाप्र्वेदितव्यः। अथ कोऽयमनेकान्तो नामेत्याह-अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वानित्यत्वसामान्यसामानाधिकरण्यविशेषणविशेष्यादिकोऽनेकान्तः स्वभावो यस्यार्थस्यासावनेकान्तः अनेकान्तात्मक इत्यर्थः ।"-शब्दाम्भोजभास्कर पृ० 2 A / इस तुलनासे तथा तृतीयाध्यायके अन्तमें लिखे गए इस श्लोकसे अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि यह न्यास जैनेन्द्रमहावृत्तिके बाद बनाया गया है"नमः श्रीवर्धमानाय महते देवनन्दिने / प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मै चाभयनन्दिने // " / इस श्लोकमें अभयनन्दिको नमस्कार किया गया है। प्रत्येक पादकी समाप्तिमें "इति प्रभाचन्द्रविरचिते शब्दाम्भोजभास्कर जैनेन्द्रव्याकरणमहान्यासे द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः" इसी प्रकारके पुष्पिकालेख हैं। तृतीय अध्यायके अन्तमें निम्नलिखित पुष्पिका तथा श्लोक हैं "इति प्रभाचन्द्रविरचिते शब्दाम्भोजभास्करे जैनेन्द्रव्याकरणमहान्यासे तृतीयस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः // श्रीवर्धमानाय नमः // सन्मार्गप्रतिबोधको बुधजनैः संस्तूयमानो हठात् / अज्ञानान्धतमोपहः क्षितितले श्रीपूज्यपादो महान् // सार्वः सन्ततसत्रिसन्धिनियतः पूर्वापरानुक्रमः / शब्दाम्भोजदिवाकरोऽस्तु सहसा नः श्रेयसे यं च वै॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना . नमः श्रीवर्धमानाय महते देवनन्दिने / .. प्रभाचन्द्राय गुरुवे तस्मै चाभयनन्दिने // छ // श्री वासुपूज्याय नमः / श्री नृपतिविक्रमादित्यराज्येन संवत् 1980 मासोत्तममासे चैत्रशुक्लपक्षे एकादश्यां 11 श्री महावीरसंवत् 2446 / हस्ताक्षर छाजूराम जैन विजेश्वरी लेखक पालम ( सूबा देहली )" जैनेन्द्रव्याकरणके दो सूत्र पाठ प्रचलित हैं-एक तो वह जिस पर अभयनन्दिने महावृत्ति, तथा श्रुतकीर्तिने पञ्चवस्तु नामकी प्रक्रिया बनाई है; और दूसरा वह जिस पर सोमदेवसूरिकृत शब्दार्णवचन्द्रिका है / पं० नाथूराम प्रेमीने अनेक पुष्ट प्रमाणोंसे अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठको ही प्राचीन तथा पूज्यपादकृत मूलसूत्रपाठ सिद्ध किया है। प्रभाचन्द्रने इसी अभयनन्दिसम्मत प्राचीन सूत्रपाठ पर ही अपना यह शब्दाम्भोजभास्कर नामका महान्यास बनाया है / आ० प्रभाचन्द्रने इस ग्रन्थको प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रकी रचनाके बाद बनाया है जैसा कि उनके निम्नलिखित वाक्यसे सूचित होता है "तदात्मकत्वं चार्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानादेश्च यथा सिद्धयति तथा प्रपश्चतः प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायक्नुमुदचन्द्रे च प्ररूपितमिह द्रष्टव्यम् / " प्रभाचन्द्र अपने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 329 ) में प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रन्थ देखनेका अनुरोध इसी तरहके शब्दोंमें करते हैं-" एतच्च प्रमेयकमलमार्तण्डे सप्रपश्चं प्रपश्चितमिह द्रष्टव्यम् / " व्याकरण जैसे शुष्क शब्दविषयक इस ग्रन्थमें प्रभाचन्द्रकी प्रसन्न लेखनीसे प्रसूत दर्शनशास्त्रकी कचित् अर्थप्रधान चर्चा इस ग्रन्थके गौरवको असाधारणतया बढ़ा रही है / इसमें विधिविचार, कारकविचार, लिंगविचार जैसे अनूठे प्रकरण हैं जो इस ग्रन्थको किसी भी दर्शनग्रन्थकी कोटिमें रख सकते हैं। इसमें समन्तभद्रके युक्त्यनुशासन तथा अन्य अनेक आचार्योंके पद्योंको प्रमाण रूपसे उद्धृत किया है / पृ० 11 में 'विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो जनिता' प्रयोगका हृदयग्राही व्याख्यान किया है। इस तरह क्या भाषा, क्या विषय और क्या प्रसन्नशैली, हर एक दृष्टि से प्रभाचन्द्रका निर्मल और प्रौढ़ पाण्डित्य इस ग्रन्थमें उदात्तभावसे निहित है / प्रवचनसारसरोजभास्कर-यदि प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलको विकसित करनेके लिए मार्तण्ड बनानेके पहिले प्रवचनसारसरोजके विकासार्थ भास्करका निर्माण किया हो तो कोई .1 देखो-'जनेन्द्रव्याकरण और आचार्य देवनन्दी' लेख, जैनसाहित्य संशोधक भाग 1 अंक 2 / 2 पंडित नाथूलाल शास्त्री इन्दौर सूचित करते हैं कि तुकोगंज इन्दौरके ग्रन्थभण्डारमें भी शब्दाम्भोजभास्करके तीन ही अध्याय है। उसका मंगलाचरण तथा अन्तिम प्रशस्तिलेख बम्बईकी प्रतिके ही समान है / पं० भुजबलीजी शास्त्रीके पत्रसे ज्ञात हुआ है कि कारकलके मठमें भी इसकी प्रति है / इस प्रति में भी तीन ही अध्यायका न्यास हैं। प्रेमीजी सूचित करते हैं कि बंबईके भवन में इसकी एक प्राचीन प्रति है उसमें चतुर्थ अध्यायके तीसरे पादके 211 वे सूत्र तकका न्यास है, आगे नहीं। हो सकता है कि यह प्र चन्द्रकी अन्तिमकृति ही हो और इसलिए पूर्ण न हो सकी हो। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्र अनहोनी बात न होकर अधिक संभव और निश्चित बात मालूम होती है। ( प्रमेय ) कमलमार्गण्ड, (न्याय) कुमुदचन्द्र, (शब्द) अम्भोजभास्कर जैसे सुन्दर नामोंकी कल्पिका प्रभाचन्द्रीय बुद्धिने ही ( प्रवचनसार ) सरोजभास्करका उदय किया है / इस ग्रन्थकी संवत् 1555 की लिखी हुई जीर्णप्रति हमारे सामने है। यह प्रति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बईकी है। इसका परिचय संक्षेपमें इस प्रकार है पत्रसंख्या 53, श्लोकसंख्या 1746, साइज 1346 / एक पत्रमें 12 पंक्तियां तथा एक पंक्तिमें 42-43 अक्षर हैं / लिखावट अच्छी और शुद्धप्राय है / प्रारम्भ- . "ओं नमः सर्वज्ञाय शिष्याशयः / . वीरं प्रवचनसारं निखिलार्थं निर्मलजनानन्दम् / वक्ष्ये सुखाववोधं निर्वाणपदं प्रणम्याप्तम् // श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः सकललोकोपकारकं मोक्षमार्गमध्ययनरुचिविनेयाशयवशनोपदर्शयितुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं शास्त्रस्यादौ नमस्कुर्वन्नाह . // छ // एस सुरासुर"।" अन्त-"इति श्रीप्रभाचन्द्रदेवविरचिते प्रवचनसारसरोजभास्करे शुभोपयोगाधिकारः समाप्तः ॥छ। संवत् 1555 वर्षे माघमासे शुक्लपक्षे पून्यमायां तिथौ गुरुवासरे गिरिपुरे व्या० पुरुषोत्तम लि० ग्रन्थसंख्या षट्चत्वारिंशदधिकानि सप्तदशशतानि // 1746 // " ___ मध्यकी सन्धियोंका पुष्पिकालेख- "इति श्री प्रभाचन्द्रदेवविरचिते प्रवचनसारसरोजभास्करे.." है। इस टीका में जगह जगह उद्धृत दार्शनिक अवतरण, दार्शनिक व्याख्यापद्धति एवं सरल प्रसन्नशैली इसे न्यायकुमुदचन्द्रादिके रचयिता प्रभाचन्द्रकी कृति सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त हैं / अवतरण-(गा० 2 / 10 ) "नाशोत्पादौ समं यद्वन्नामोन्नामौ तुलान्तयोः" (गा० 2 / 28 ) "स्वोपात्तकर्मवशाद् भवाद् भवान्तरावाप्तिः संसारः” इनमें दूसरा अवतरण राजवार्तिक का तथा प्रथम किसी बौद्ध ग्रन्थका है। ये दोनों अवतरण प्रमेयकमल०. और न्यायकुमुद० में भी पाए जाते हैं / इस व्याख्याकी दार्शनिक शैलीके नमूने (गा० 2 / 13 ) “यदि हि द्रव्यं स्वयं सदात्मकं न स्यात् तदा स्वयमसदात्मकं सत्तातः पृथग्वा ? तत्राद्यः पक्षो न भवति; यदि सत् सद्रूपं द्रव्यं तदा असद्रूपं ध्रुवं निश्चयेन न तं तत् भवति / कथं केन प्रकारेण द्रव्यं खरविषाणवत् / हवदि पुणो अण्णं वा / अथ सत्तातः पुनरन्यद्वा पृथग्भूतं द्रव्यं भवति तदा अतः पृथग्भूतस्यापि सत्त्वे सत्ताकल्पना व्यर्था। सत्तासम्बधात्सत्त्वे चान्योन्याश्रय:-सिद्धे हि तत्सत्त्वे सत्तासम्बन्धसिद्धिः तस्याञ्च सम्बन्धसिद्धौ सत्यां तत्सत्त्वसिद्धिरिति / तत्सत्त्वसिद्धिमन्तरेणापि सत्तासम्बन्धे खपुष्पादेरपि तत्प्रसङ्गः। तस्मात् द्रव्यं स्वयं सत्ता स्वयमेव सदभ्युपगन्तव्यम् / " (गा०.२।१६) ... तथाहि-द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रवत्तांस्तान् गुणपर्यायान् गुणपर्यायैर्वा द्रोष्यते द्रुतं वा द्रव्यमिति। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना गम्यते उपलभ्यते द्रव्यमनेनेति गुणः / द्रव्यं वा द्रव्यान्तरात् येन विशिष्यते स गुणः / इत्येतस्मादर्थविशेषात् यद् द्रव्यस्य गुणरूपेण गुणस्य वा द्रव्यरूपेणाभवनं एसो एष हि अतद्भावः।" इन गाथाओंकी अमृतचन्द्रीय और जयसेनीय टीकाओंसे इस टीकाकी तुलना करने पर इसकी दार्शनिकप्रसूतता अपने आप झलक मारती है। इस टीकाका जयसेनीयटीका पर प्रभाव है और जयसेनीयटीकासे यह निश्चय ही पूर्वकालीन है / ___अमृतचन्द्राचार्यने प्रवचनसारकी जिन 36 गाथाओंकी व्याख्या नहीं की है प्रायः वे गाथाएँ प्रवचनसारसरोजभास्करमें यथास्थान व्याख्यात हैं। जयसेनीयटीकामें प्रभाचन्द्रका अनुसरण करते हुए इन गाथाओंकी व्याख्या की गई है / हाँ, जयसेनीयटीकामें दो तीन गाथाएँ अतिरिक्त भी हैं। इस टीकाका लक्ष्य है गाथाओंका संक्षेपसे खुलासा करना / परन्तु प्रभाचन्द्र प्रारम्भसे ही दर्शनशास्त्रके विशिष्ट अभ्यासी रहे हैं इसलिए जहाँ खास अवसर या वहाँ उन्होंने संक्षेपसे दार्शनिक मुद्दोंका भी निर्देश किया है। प्रो० ए० एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी भूमिकामें भावत्रिभंगीकार श्रुतमुनिके 'सारत्रयनिपुण प्रभाचन्द्र' के उल्लेखसे प्रवचनसारसरोजभास्करके कर्ताका समय १४वीं सदीका प्रारम्भिक भाग सूचित किया है। परन्तु यह संभावना किसी दृढ़ आधार से नहीं की गई है / __ जयसेनीय टीकापर इसका प्रभाव होनेसे ये उनसे प्राक्कालीन तो हैं ही / प्रा. जयसेन अपनी टीका में (पृ० 26) केवलिकवलाहारके खंडनका उपसंहार करते हुए लिखते हैं कि"अन्येपि पिण्डशुद्धिकथिता बहवो दोषाः ते चान्यत्र तर्कशास्त्रे ज्ञातव्या अत्र चाध्यात्मग्रन्थत्वान्नोच्यन्ते / " सम्भव है यहाँ तर्कशास्त्रसे प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिकी विवक्षा हो। अस्तु, मुझे तो यह संक्षिप्त पर विशदटीका प्रभाचन्द्राचार्यकी प्रारम्भिककृति मालूम होती है / गद्यकथाकोश-यह ग्रन्थ भी इन्हीं प्रभाचन्द्रका मालूम होता है। इसकी प्रतिमें 86 वी कथाके बाद "श्रीजयसिंहदेवराज्ये” प्रशस्ति है / इसके प्रशस्ति श्लोकोंका प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्र आदिके प्रशस्तिश्लोकोंसे पूरा पूरा सादृश्य है। इसका मंगल श्लोक यह है "प्रणम्य मोक्षप्रदमस्तदोषं प्रकृष्टपुण्यप्रभवं जिनेन्द्रम् / वक्ष्येऽत्र भव्यप्रतिबोधनार्थमाराधनासत्सुकथाप्रबन्धः // " ८९वी कथाके अनन्तर 'जयसिंहदेवराज्ये" प्रशस्ति लिखकर ग्रन्थ समाप्त कर दिया गया है। इसके अनन्तर भी कुछ कथाएँ लिखीं हैं / और अन्तमें “सुकोमलैः सर्वसुखावबोधैः” श्लोक - 1 न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना पृ० 122- "यराराध्य चतुर्विधामनुपमामाराधनां निर्मलाम् / प्राप्तं सर्वसुखास्पदं निरुपमं स्वर्गापवर्गप्रदा (?) / तेषां धर्मकथाप्रपञ्चरचनास्वाराधना संस्थिता / स्थयात् कर्मविशुद्धिहेतुरमला चन्द्रार्कतारावधि // 1 // सुकोमलैः सर्वसुखावबोधैः पदैः प्रभाचन्द्रकृतः प्रबन्धः / कल्याणकालेऽथ जिनेश्वराणां सुरेन्द्रदन्तीव विराजतेऽसौ // 2 // श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपञ्चपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलरुन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन आराधनासत्कथाप्रबन्धः कृतः / " Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 न्यायकुमुदचन्द्र तथा " इति भट्टारकप्रभाचन्द्रकृतः कथाकोशः समाप्तः" यह पुष्पिकालेख है। इस तरह इसमें / दो स्थलों पर ग्रन्थ समाप्तिकी सूचना है जो खासतौरसे विचारणीय है। हो सकता है कि प्रभाचन्द्रने प्रारम्भकी 86 कथाएँ ही बनाई हों और बादकी कथाएँ किसी दूसरे भट्टारकप्रभाचन्द्रने / अथवा लेखकने भूलसे 86 वी कथाके बाद ही ग्रन्थ समाप्तिसूचक पुष्पिकालेख लिख दिया हो। इसको खासतौरसे जाँचे बिना अभी विशेष कुछ कहना शक्य नहीं है / मेरे विचारसे प्रभाचन्द्रने तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण और प्रवचनसारसरोजभास्कर भोजदेवके राज्यसे पहिले अपनी प्रारम्भिक अवस्थामें बनाए होंगे। यही कारण है कि उनमें 'भोजदेवराज्ये' या 'जयसिंहदेवराज्ये' कोई प्रशस्ति नहीं पाई जाती और न उन ग्रन्थोंमें प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिका उल्लेख ही पाया जाता है। इस तरह हम प्रभाचन्द्रकी ग्रन्थरचनाका क्रम इस प्रकार समझते हैं-तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण, प्रवचनसारसरोजभास्कर, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, शब्दाम्भोजभास्कर, महापुराण टिप्पण और. गद्यकथाकोश / श्रीमान् प्रेमीजीने रत्नकरण्ड 1 योगसूत्रपर भोजदेवकी राजमार्तण्ड नामक टीका पाई जाती है। संभव है प्रमेयकमलमार्तण्ड . और राजमार्तण्ड नाम परस्पर प्रभावित हों। 2. पं० जुगलकिशोर जी मुख्तारने रत्नकरण्डश्रावकाचार की प्रस्तावनामें रत्नकरण्डश्रावकाचारकी टीका और समाधितन्त्रटीकाको एकही प्रभाचन्द्र द्वारा रचित सिद्ध किया है; जो ठीक है। पर आपने इन प्रभाचन्द्रको प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके रचयिता तर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्रसे भिन्न सिद्ध करने का जो प्रयत्न किया है वह वस्तुतः दृढ़ प्रमाणों पर अवलम्बित नहीं है। आपके मुख्य प्रमाण है कि-"प्रभाचन्द्रका आदिपुराणकारने स्मरण किया है इस लिए ये ईसाकी नवमशताब्दीके विद्वान् हैं, और इस टोकामें यशस्तिलकचम्पू (ई० 959) वसुनन्दिश्रावकाचार (अनुमानतः वि० की 13 वीं शताब्दीका पूर्व भाग) तथा पद्मनन्दि उपासकाचार (अनुमानतः वि० सं० 1980) के श्लोक उद्धृत पाए जाते हैं, इसलिए यह टीका प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके रचयिता प्रभाचन्द्रकी नहीं हो सकती।" इनके विषयमें मेरा यह वक्तव्य है कि-जब प्रभाचन्द्र का समय अन्य अनेक पुष्ट प्रमाणोंसे ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दी सिद्ध होता है तब यदि ये टीकाएँ भी उन्हीं प्रभाचन्द्रकी ही हों तो भी इनमें यशस्तिलकचम्पू और नीतिवाक्यामृतके वाक्योंका उद्धृत होना अस्वाभाविक एवं अनैतिहासिक नहीं है / वसुनन्दि और पद्मनन्दिका समय भी विक्रमकी 12 वीं और तेरहवीं सदी अनुमानमात्र है, कोई दृढ़ प्रमाण इसके साधक नहीं दिए गए हैं। पद्मनन्दि शुभचन्द्र के शिष्य थे यह बात पद्मनन्दिके ग्रन्थसे तो नहीं मालूम होती। वसुनन्दिकी 'पडिगहमुच्चट्ठाणं' गाथा स्वयं उन्हीं की बनाई है या अन्य किसी आचार्यकी यह भी अभी निश्चित नहीं है / पद्मनन्दिश्रावकाचारके 'प्रध्रुवाशरणे' आदि श्लोक भी रत्नकरण्डटीकामें पद्मनन्दिका नाम लेकर उद्धृत नहीं हैं और न इन श्लोकोंके पहिले 'उक्तं च, तथा चोक्तम्' आदि कोई पद ही दिया गया है जिससे इन्हें उद्धृत ही माना जाय। तात्पर्य यह कि मुख्तार सा० ने इन टीकाओंके प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकृत न होने में जो प्रमाण दिए हैं वे दृढ़ नहीं हैं। रत्नकरण्डटीका तथा समाधितन्त्रटीकामें प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका एक साथ विशिष्टशैलीसे उल्लेख होना इसकी सूचना करता है कि ये टीकाएँ भी प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकी ही होनी चाहिए / वे उल्लेख इस प्रकार हैं "तदलमतिप्रसङ्गेन प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्र प्रपञ्चतः प्ररूपणात्"-रत्नक० टी० पृ०६। “यैः पुनर्योगसांख्यर्मुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरत: प्रत्याख्याताः ।"-समाधितन्त्रटी० पृ० 15 / इन दोनों अवतरणोंकी प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्करके निम्नलिखित अवतरणसे तुलना करने पर स्पष्ट मालूम हो जाता है कि शब्दाम्भोजभास्करके कर्त्ताने ही उक्त टीकाओंको बनाया है Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 67 टीका, समाधितन्त्रटीका, क्रियाकलापटीका*, आत्मानुशासनतिलक आदि ग्रन्थोंकी भी प्रभाचन्द्रकृत होनेकी संभावना की है, वह खास तौरसे विचारणीय है / यथावसर इन ग्रन्थोंके विषयमें विशेष प्रकाश डाला जायगा। अन्तमें मैं उन सब ग्रन्थकार विद्वानोंके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ जिनके ग्रन्थोंसे इस प्रस्तावनामें सहायता मिली है। फाल्गुनशुक्ल द्वादशी) आष्टाह्निकपर्व वीर नि० सं० 2467) . न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार शास्त्री. स्याद्वाद विद्यालय काशी. "तदात्मकत्वञ्चार्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानादेश्च यथा सिद्धयति तथा प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्र च प्ररूपितमिह द्रष्टव्यम् ।"-शब्दाम्भोजभास्कर।। प्रभाचन्द्रकृत गद्यकथाकोशमें पाई जानेवाली अञ्जनचोर आदिकी कथाओंसे रत्नकरण्डटीकागत कथाओंका अक्षरशः सादृश्य है / इति / / * क्रियाकलापटीकाकी एक लिखित प्रति बम्बईके सरस्वती भवनमें है। उसके मंगल और प्रशस्ति श्लोक निम्नलिखित हैंमंगल- - "जिनेन्द्रमुन्मलितकर्मबन्धं प्रणम्य सन्मार्गकृतस्वरूपम् / - अनन्तबोधादिभवं गुणौघं क्रियाकलापं प्रकटं प्रवक्ष्ये / / " प्रशस्ति-'वन्दे मोहतमोविनाशनपट स्त्रैलोक्यदीपप्रभः, संसद्वतिसमन्वितस्य निखिलस्नेहस्य संशोषकः / सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्र किरणः श्री पद्मनन्दिप्रभुः, तच्छिष्यात्प्रकटार्थतां स्तुतिपदं प्राप्तं प्रभाचन्द्रतः // 1 // यो रात्रौ दिवसे पृथि प्रयतां (?) दोषा यतीनां कुतो प्योपाताः (?) प्रलये तु. रमलस्तेषां महादर्शितः / श्रीमदगौतमनाभिभिर्गणधरैर्लोकत्रयोदद्योतकः, सव्यकृ (?) सकलोऽप्यसौ यतिपतेर्जातः प्रभाचन्द्रतः // 2 // यः (यत्) सर्वात्महितं न वर्णसहितं न स्पन्दितौष्ठद्वयम्, नो वाञ्छाकलितन्न दोषमलिनं न श्वासतुद्व (रुद्ध) क्रमम् / / शान्तामर्थविषयः (मर्षविषैः) समं परशु (पशु) गणराणितं कर्णतः, तद्वत् सर्वविदः प्रणष्टविपदः पायादपूर्व वचः // 3 // " इन प्रशस्तिश्लोकोंसे ज्ञात होता है कि जिन प्रभाचन्द्रने क्रियाकलापटीका रची है वे पद्मनन्दिसैद्धान्तिकके शिष्य थे। न्यायकुमुदचन्द्र आदिके कर्ता प्रभाचन्द्र भी पद्मनन्दि सैद्धान्तिकके ही शिष्य थे, अतः क्रियाकलापटीका और प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके कर्ता एक ही प्रभाचन्द्र है इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता। प्रशस्तिश्लोकांकी रचनाशैली भी प्रमेयकमल आदिकी प्रशस्तियोंसे मिलती जुलती है।। + आत्मानुशासनतिलककी प्रति श्री प्रेमीजीने भेजी है। उसका मंगल और प्रशस्ति इस प्रकार हैमंगल- "वीरं प्रणम्य भववारिनिधिप्रपोतमुयोतिताखिलपदार्थमनल्पपुण्यम् / निर्वाणमार्गमनवद्यगुणप्रवन्धमात्मानुशासनमहं प्रवरं प्रवक्ष्ये // " प्रशस्ति-"मोक्षोपायमनल्पपुण्यममलज्ञानोदयं निर्मलम् / भव्यार्थं परमं प्रभेन्दुकृतिना व्यक्तैः प्रसन्नैः पदैः / व्याख्यानं वरमात्मशासनमिदं व्यामोहविच्छेदतः / सूक्तार्थेषु कृतावरैरहरहश्चेतस्यलं चिन्त्यताम् // 1 // इति श्री आत्मानुशासन (न) सतिलक (क) प्रभाचन्द्राचार्यविरचित (तं) सम्पूर्णम् / " Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्रद्वितीयभागस्य विषयानुक्रमः 410 405 405 विषयः विषयः 10 कारिकाव्याख्यानम् . 404 | समारोपव्यवच्छेदकत्वात् प्रमाणं स्मृतिः 410 श्रुतस्य स्वरूपम् 404 अनुमानलक्षणप्रयोजनप्रसाधकत्वाच्च प्रमाणं स्मृतिप्रामाण्यवादः 405-411 | स्मृतिः (बौद्धादीनां पूर्वपक्षः) स्मृते: स्वरूपं ज्ञाता साध्यसाधनसम्बन्धो हि सत्तामात्रेण अनुमानाज्ञानं वा ? ङ्गम्, परिज्ञातो वा, स्मृतिकोडीकृतो वा? 410 ज्ञानमपि ज्ञानमात्रमनुभूतविषयं वा ज्ञानम ? 405 | प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यवादः 411-418 अनुभूते जायमाना स्मृतिरिति अनुभवेन ( बौद्धस्य पूर्वपक्षः ) विरुद्धधर्माध्यासात्, प्रतीयते स्मृत्या उभाभ्यां वा ? कारणाभावात्, विषयाभावाच्च न प्रमाणं यदि अनुभूतता प्रत्यक्षगम्या स्यात्तदैव स्मृति प्रत्यभिज्ञा 411 रपि तामनुभूततां ज्ञातु शक्ता 40 सोऽयमित्यत्र प्रत्यक्ष-स्मरणयोः स्पष्टास्पष्टस्मतेविषयोऽर्थमात्रं स्यात अनुभूतताविशिष्टो __ लक्षणविरुद्धधर्माध्यास एव 412 / वार्थः ? ‘स एवायम्' इत्यत्र आकारद्वयं परस्परानु. अनुभूतार्थविषयत्वे स्मृतेनं प्रमाणता अविद्य प्रवेशेन प्रतिभासते अननुप्रवेशेन वा? मानविषयत्वात् 406 प्रत्यभिज्ञानस्य हि कारणमिन्द्रियं स्यात, पूर्वाअसदर्थविषयत्वेन स्मृतौ अर्थक्रियाऽपि न नुभवजनितः संस्कारः तदुभयं वा? 412 संभवति 406 प्रत्यभिज्ञानविषयो हि पूर्वज्ञानगृहीतमेव वस्तु (उत्तरपक्षः ) संस्कारप्रभवः तदित्याकारो स्यात, तदतिरिक्तं वा ? ज्ञानविशेषः स्मृतिः 406 / अतिरिक्तपक्षे किं स्वरूपभेदकृतः अतिरेकः, कारणभेदात् स्वरूपभेदात् विषयभेदाच्च कालद्वयसम्बन्धकृतः, तत्सम्बन्धे ऐक्यप्रत्यक्षादिभ्यो भिन्ना स्मृतिः 407 प्रतिपत्तिकृतो वा ? 413 'अनुभूते स्मृतिः' इति त्रिकालानुयायिना | ऐक्यप्रतिपत्तिपक्षे एकत्वसंख्या स्थायित्वं वा प्रमात्रा प्रमीयते 407 - विवक्षितम् ? 413 स्मृतिहि गृहीतग्राहित्वादप्रमाणम्, परिच्छि- स्थायित्वमपि वस्तुनो भिन्नमभिन्नं वा? 413 त्तिविशेषाभावात, असत्यतीतार्थे प्रवर्त- भेदपक्षे किं तत् पूर्वमप्युत्पन्नम्, प्रत्यभिज्ञानमानत्वात्, अर्थादनुत्पद्यमानत्वात्, विसं समय एव वोत्पद्यते ? 413 वादकत्वात् समारोपाव्यवच्छेदकत्वात्. ( उत्तरपक्षः ) किं धर्माणां धर्मिणा सह प्रयोजनाप्रसाधकत्वाद्वा ? 408 विरोधः परस्परं वा? 414 गृहीतग्राहित्वे कस्य गृहीतार्थस्य ग्रहणम्-ज्ञानस्य, विरुद्धधर्माध्यासतः कारणभूताभ्या दर्शनस्मज्ञेयस्य, ज्ञानविशिष्टस्य ज्ञेयस्य, तद्विशि रणकारणाभ्यां प्रत्यभिज्ञानस्य भेदः साध्येत ष्टस्य वा ज्ञानस्य ? स्वभावभूताभ्यां वा ? 414 ज्ञेयस्य ज्ञानविशिष्टत्वं हि तत्र संयोगः, | परस्परानुप्रवेशो हि परस्परस्वरूपसाङ्कर्यम्, समवायः, विशेषणीभावो वा? 409 एकस्मिन्नाधारे वृत्तिर्वा ? प्रमाणान्तरप्रवृत्तिः गृहीतार्थप्राप्तिलक्षणञ्च दर्शनस्मरणयोः चित्रज्ञानवत् कथञ्चिदनुप्रवेद्वयमप्यविसंवादकत्वं स्मृतावस्त्येव 410 | शोऽभ्युपगम्यते *415 . 413 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः 476 | 424 417 दर्शनस्मरणलक्षणकारणस्य सद्भावान्न (उत्तरपक्षः) स्वरूपप्रयुक्ताऽव्यभिचार एव कारणाभावात् प्रत्यभिज्ञानाभावः 415 | हि व्याप्तिः 422 विषयाभावात, गृहीतग्राहित्वात्, बाध्यमान- - यस्य येन अव्यभिचार: तस्य तेन व्याप्तिः 423 त्वाद्वा प्रत्यभिज्ञानस्याप्रामाण्यं स्यात् ? 416 | अविनाभावशब्दो हि तथोपपत्त्यन्यथानुपपप्रत्यभिज्ञानविषयो हि प्रत्यक्षेण गृह्येत, स्मर तिरूपनियमे पर्यवसितः 423 णेन, प्रमाणान्तरेण वा ? व्याप्तिः सर्वोपसंहारेण प्रतीयते नतु एकैकप्रत्यक्षस्मरणयोः द्रव्याविषयत्वेऽपि द्रव्यविषय धर्म्युल्लेखेन कप्रत्यभिज्ञानजनकत्वमस्त्येव / धूमाभावे अग्न्यभावस्य निमित्तता प्रत्यभिज्ञानविषयस्य हि बाधकं प्रत्यक्षम् अग्निधूमयोहि अग्नित्वधूमत्वद्वारेणैव व्याअनुमानं वा स्यात् ? प्तिन्तु पैङ्गल्यादिना 425 लूनपुनर्जातनखकेशादौ एकत्वप्रत्यभिज्ञानस्य व्याप्तिज्ञानस्य कारणभूतौ प्रत्यक्षानुपलम्भौ __ बाध्यमानत्वेऽपि न सर्वत्र तस्याप्रामाण्यम् 418 | | प्रथमदर्शनकाले न स्त: अतो न प्रथमनापि सादृश्यप्रत्यभिज्ञानस्य बाध्यमान समये एव व्याप्तिग्रहणम् 426 __नत्वम् ; अनुमानानुत्पत्तिप्रसङ्गात् 418 | अन्वयव्यतिरेकवशात् व्याप्तिप्रतिभासे किं सा तर्कस्य लक्षणम् 418 | ताभ्यां जन्यते ज्ञाप्यते वा ? व्याप्तिलक्षणम् 419 | 11 कारिकाव्याख्यानम् 427 तर्कप्रामाण्यवादः 420-434 | अस्मदादिसम्बन्धिनः योगिसम्बन्धिनो वा (चार्वाकस्य पूर्वपक्षः) व्याप्तिस्वरूपस्यैवा. प्रत्यक्षान्न व्याप्तिप्रतिपतिः / संभवात् कथं तर्कस्य प्रामाण्यम् ? 420 | न स्वसंवेदनेन्द्रियमानसप्रत्यक्षैः व्याप्तिपरिव्याप्तिहि देशतः कालतो वा स्यात् ? 420 ज्ञानम् 427 कि सामान्यस्य सामान्येन अविनाभावः. किं (यौगानां पूर्वपक्षः) प्रत्यक्षेणैव अविनाभावः वा सामान्यस्य विशेषैः, उत विशेषाणां प्रतीयते 427 भूयोदर्शनावगतान्वयव्यतिरेकसहकृतेन्द्रियविशेषैः ? 420 प्रभवं वा प्रत्यक्षं व्याप्तिग्राहकम् 428 द्वितीयपक्षे देशकालानवच्छिन्ने विशेषमात्रे सामान्यस्याविनाभावः तदवच्छिन्ने वा ? 420 अनुसन्धानेन व्याप्तिरुल्लिख्यते अतो न प्रथमविशेषाणां विशेषैरविनाभावो हि दृष्टानां प्रत्यक्षेणैव तद्ग्रहणम् 429 अन्वयव्यतिरेकौ च प्रयोजकसन्देहव्यदासाथौ 429 दृष्टः स्यात्, अदृष्टानामदृष्टः, दृष्टानां वाऽदृष्टैरिति ? (उत्तरपक्षः) किमन्द्रियं मानसं वा प्रत्यक्षं 421 न सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्रहःसुकरः व्याप्तिग्रहणे प्रभवेत् ? 429 421 प्रत्यक्षमात्रम्, भूयोदर्शनसहायकम्, अन्वयव्यअविनाभावशब्दो हि व्यतिरेकमात्रवचनः 421 तिरेकसहकृतं वा प्रत्यक्षं व्याप्तिग्रहणे 'अग्न्यभावे.धूमो नोपपद्यते' इत्यत्र अग्न्यभावः प्रभवेत् / 429 पारमार्थिकः सन् विशेषणम्, अपार पुरोदृश्यमाने हि नियताग्निसम्बन्धित्वेन धूमः मार्थिक एव वा ? 421 प्रतिभासेत, अनियताखिलाग्निसम्बन्धिएकस्य कस्यचिदग्नेरभावे धमो नोपपद्यते, त्वेन वा ? सर्वस्य वा? 421 | प्रत्यक्षस्य अन्वयव्यतिरेकसहकृतत्वं हि स्वविषधूमसद्भावविरोधस्य च धूमाभाव एव यातिक्रमेण अर्थान्तरे वृत्तिः, स्वविषये उपाधिन अग्न्यभावः। 422 प्रवर्तमानस्य अतिशयाधानं वा? 430 अविनाभावे सत्यपि धूमाद् वह्निरेवानुमीयते इन्द्रियविषये विद्यमानत्वात्तत्प्रभवप्रत्यक्षेण. नतु तद्गतं पैंगल्यम् 422 व्याप्तिः प्रतीयते, स्वविषयत्वाद्वा? 430 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 न्यायकुमुदचन्द्रस्य 434 तात . किं सामान्यस्य सामान्येन व्याप्तिः, उत तदु- न हि कृत्तिकोदयात् शकटोदयानुमाने पक्षपलक्षितविशेषाणां तदुपलक्षितविशेषः ? 431 | धर्मता संभवति / 440 व्याप्तिज्ञाने हि तत्कारणकारणत्वादिन्द्रिया- नापि कृत्तिकोदयादौ कालाकाशादीनां पक्षत्वम् 44 पेक्षा न तु साक्षात् 431 | शब्दानित्यत्वे श्रावणत्वस्य, सर्वस्य क्षणिकत्वे न मानसं प्रत्यक्षं बहिरर्थे इन्द्रियनिरपेक्षं प्रवर्तते 431 साध्ये सत्त्वस्य च सपक्षसत्त्वाभावेऽपि सम्बन्धसम्बन्धोऽपि मनसः सद्भिरेव अर्थ: गमकत्वप्रतीतेः 440 नातीतानागतादिभिः / 432 | विपक्षेऽसत्त्वं तु अविनाभावात्मकमेव - 441 नापि योगिप्रत्यक्षाद् व्याप्तिग्रहः 432 सपक्षे सत्त्वाभावेऽपि अन्तर्व्याप्तिलक्षणोऽयोगी हि व्याप्तिं प्रतिपद्य स्वार्थमनमानं विद न्वयः समस्त्येव . 441 ध्यात् परार्थ वा ? 433 अन्यथानुपपत्तिलक्षणादेव हेतोः दोषत्रयपरि. योगी परार्थानुमानेन गृहीतव्याप्तिकमगृही. हारोपपत्तेः तव्याप्तिकं वा परं प्रतिपादयेत् ? अविनाभावप्रपञ्चार्थं त्रैरूप्यस्याभिधाने निश्चिकारिकाविवृत्योर्व्याख्यानम् तत्वस्य अबाधितविषयत्वादेश्च अभि धानप्रसङ्गः अनुमानस्य लक्षणम् पाश्चरूप्यनिरासः 442-442 12 कारिकाव्याख्यानम् 435 साध्याविनाभावव्यतिरेकेणापरस्य अबाधितप्रतिज्ञाप्रयोगसमर्थनम् 435-8 विषयत्वादेरसंभवात् 442 (बौद्धस्य पूर्वपक्षः) पक्षस्य प्रयोजनाभावतः बाधितविषयत्व-अविनाभावयोविरोधात् 442 प्रयोगानुपपत्तेः 435 | अबाधिविषयत्वं निश्चितमनिश्चितं वा हेतो साध्यार्थप्रतिपादनलक्षणप्रयोजनमपि न पक्ष रूपं स्यात् ? 442 प्रयोगेण सिद्धयति 436 / निश्चयनिबन्धनञ्च अनुपलम्भः संवादो वा ? 442 स हि केवल: साध्यमर्थं प्रतिपादयेत् हेतूपन्यास- अन्यदपि तद्विषयं प्रमाणान्तरम् अविनाभावासमन्वितो वा ? 436 वगमो वा अबाधितविषयत्वनिश्चय(उत्तरपक्षः) पक्षस्य साध्यसिद्धिप्रतिबन्धि निबन्धनं स्यात् ? ' त्वादप्रयोगः, प्रक्रमात्तत्सिद्धेः, प्रयोजना- प्रतिपक्षोहि अतुल्यबल: तुल्यबलो वा प्रतिषिध्येत?४४३ प्रसाधकत्वात्, हेतूपन्यासापेक्षस्य तत्प्रसा अतुल्यबलत्वञ्च तयोः पक्षधर्मत्वादिभावाभावधकत्वाद्वा ? ___ कृतमंनुमान गधाजनितं वा ? 443 हेतुगोचरस्य पक्षस्यानिर्देशे हेतोरनैकान्तिक हानादिबुद्धयोऽनुमानस्य फलम् 444 त्वादिदोषानुषङ्गः 437 अविनाभावविचारः 444-48 हेतुप्रयोगापेक्षस्यैव पक्षस्य साध्यसाधकत्वम् 437 (बौद्धस्य पूर्वपक्षः) अविनाभावो हि तादापक्षाभावे कथं सपक्षविपक्षव्यवस्था ? 438 त्म्य-तदुत्पत्तिभ्यामेव नियतः 444 प्रतिज्ञायाः प्रयोगानहत्वे शास्त्रादावपि सा तादात्म्येन स्वभावहेतोरविनाभावः तदुत्त्पत्त्या नाभिधीयेत 438 | च कार्यहेतोः, अनुपलब्धिश्च स्वभाव. रूप्यनिरासः 438-441 हेत्वन्तर्गतैव 444 (बौद्धस्य पूर्वपक्षः) हेतोस्त्ररूप्यं हि असिद्ध- कार्यहेतोरविनाभावस्य प्रत्यक्षानुपलम्भपञ्चविरुद्धानकान्तिकदोषव्यवच्छेदार्थम केन प्रतिपत्तेः 444 भ्युपगम्यते | स्वभावहेतोस्तु विपक्षे बाधकप्रमाणेन अविना(उत्तरपक्षः) न त्रैरूप्यं हेतोर्लक्षणं हेत्वाभा भावावगतिः यथा सत्त्वस्य क्षणिकत्वेन 445 सेऽपि वर्तमानत्वात् 439 | अनुपलब्धिश्च सर्वा स्वभावानुपलब्धौ अन्ततत्पुत्रत्वादी हेत्वाभासेऽपि त्रैरूप्यं समस्ति भवति अतः तादात्म्यमेव सम्बन्धः . 446 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः 454 447 456 (उत्तरपक्षः) तादात्म्ये सति भेदाभावान्न तस्य (उत्तरपक्ष:) प्रतिबिम्बासंभवो हि ग्राहकप्रमाअविनाभावनियमविमित्तत्वम् णाभावात् उत्पादककारणाभावाद्वाऽतादात्म्येन गमकत्वे च हेतूग्रहणवेलायामेव भिधीयते ? 454 साध्यस्य प्रतिपन्नत्वात् व्यर्थमनुमानम् 446 | चन्द्रादिप्रतिबिम्बं पश्यामीति प्रत्यक्षमेव विपरीतारोपव्यवच्छेदार्थमपि नानुमानस्य तद्ग्राहकम् साफल्यं यतो हि तत्स्वरूपे प्रतिपन्ने न चेयं प्रतीतिर्धान्ता बाधक-कारणदोषाअप्रतिपन्ने वा विपरीत आरोपः स्यात् ? 447 भावात् साध्यसाधनयोरव्यतिरेके च शिशपात्ववत् आश्रयबिम्बाभ्यां विलक्षणप्रतीतिग्राह्यत्वावृक्षत्वमपि हेतुः स्यात् दर्थान्तरं प्रतिबिम्बम् / 455 वह्नयुत्पन्नेष्वपि धूमधर्मेषु श्यामत्वादिषु अवि- प्रतिबिम्बोत्पत्तौ हि जलादिकमुपादानकारणं नाभावस्यानुपलब्धेः न तदुत्पत्त्यापि अवि चन्द्रादिकं तु निमित्तकारणमिति 455 नाभावनियम: 447 | द्रव्यरूपमेव प्रतिबिम्बमृत्पद्यते तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामेव अविनाभावनियमे सावयवमेव प्रतिबिम्बमस्मदादीन्द्रियग्राह्यत्वात् कथं कृत्तिकोदयशकटोदययोः चन्द्रोदय घटादिवत् समुदवृद्धयोश्च गम्यगमकभावः ? 448 जलादिकमेव प्रतिबिम्बाकारतया परिणमते प्रत्यक्षस्य निर्विकल्पकस्य अनुपलम्भस्य च अतो न पृथक् तत्स्पर्शाद्युपलम्भः 456 . अर्थान्तरोपलम्भरूपस्य न व्याप्तिग्रहणे जलादिपरमाणव एव प्रतिबिम्बारम्भका: 456 -सामर्थ्यम् 448 / न चात्र सावयवद्रव्यद्वयं किन्तु जलादीनाविवृतिव्याख्यानम् 446 मेव प्रतिबिम्बाकारपरिणाम: तादात्म्यतदुत्पत्त्यभावेऽपि चन्द्रात् जलचन्द्र- समानाकाशदेशत्वञ्च सावयवयोरपि वातातप्रतिपत्तिः भवति पयोरिवाविरुद्धम 457 13 कारिकाव्याख्यानम् 450 | सावयवयोः जलकनकादिसंयुक्तानलादेरिव परिमाणगौरवोत्कर्षनियमोपि नास्ति 457 प्रतिबिम्बवादः 451-458 रश्मिरूपस्य चक्षुषोऽप्रसिद्धेः अप्सूर्यदर्शिना(कुमारिलस्य पूर्वपक्षः) बिम्बसन्निधाने हि मित्याद्यसङ्गतम् / 457 प्रतिबिम्बं गुणरूपं द्रव्यरूपं वा समुत्पद्यत ? 451 स्वसामग्रीतः प्रतिबिम्बं सव्यदक्षिणविपर्यये. द्रव्यरूपमपि निरवयवद्रव्यरूपं सावयवद्रव्य णैवोत्पद्यते 457 रूपं वा तदुत्पद्येत ? 451 प्रतिबिम्बस्य प्रतिबिम्बत्वं हि सव्यदक्षिणप्रतिबिम्बस्य जलादिपरमाणव एव आरम्भका विपर्यासेनैव, स च गुण एव 457 ___अन्ये वा? 451 | यदि आदर्शादिना प्रतिहता रश्मयः मुखमेव नापि बिम्बरूपस्य प्रतिबिम्बारम्भकत्वम् 451 प्रकाशयन्ति तदा कुडयादिप्रतिहता अपि बिम्बसन्निधाने च आश्रयस्य आदर्शादेः परि ते मुखं प्रकाशयेयुः 458 . माणगौरवयोरुत्कर्षः स्यात् 451 यदि च प्रतिहता रश्मयः बिम्बमेव प्रकाशजले सूर्यादिदर्शिनां चक्षुरश्मिविनिर्गमनप्रक्रिया 452 यन्ति तदा हस्त्यादीनां स्वपरिमाणानयदि प्रतिबिम्बमर्थान्तरं तदा कथं बिम्बे चलति तिक्रमेणैव प्रतीतिः स्यान्न लघुतया 458 तदपि चलेत् तिष्ठति च तिष्ठेत् ? 453 | निमित्तकारणभतबिम्बक्रियानुकारितया यदि च प्रतिबिम्बमर्थान्तरं तदा विनष्टेऽपि प्रतिबिम्बे क्रिया प्रतीयते छत्रछायावत् 458 बिम्बे दृश्येत 453 | प्रदीपछत्रादेरपाये प्रकाशछाययोरपायवत् अतः जलादेः प्रतिहता रश्मयः व्यावृत्त्य बिम्ब- | बिम्बापाये प्रतिबिम्बमप्यपैति 458 मेव दर्शयन्ति न तु तत्र प्रतिबिम्बोत्पत्तिः 454 | प्रदीपविनाशेऽपि यथा न तस्य पृथगवयवा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 न्यायकुमुदचन्द्रस्य 469 470 उपलभ्यन्ते तथैव प्रतिबिम्बविनाशेऽपि | प्रागभावादिभेदवत्त्वान्नावस्तु अभावः 467 / न तत्पृथगवयंवोपलब्धिः अंभावस्थावस्तुत्वे हि अर्थानां साङ्कयं स्यात् 467 पूर्वोत्तरचरहेत्वोः समर्थनम् प्रागभावादीनां लक्षणानि 467 14 कारिकाव्याख्यानम् 460 अनुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यत्वादभावो वस्तु 467 वैशेषिकसूत्रोक्तानां कारणादिपञ्चहेतूनां (उत्तरपक्षः) अभावस्य प्रत्यक्षादिभिः परिनिरासः 460-61 च्छिद्यमानत्वान्न भावादतिरिक्तत्वम् 468 (वैशेषिकस्य पूर्वपक्षः) कारण-कार्य-संयोगि अविप्रकृष्टार्थसम्बन्ध्यभावः प्रत्यक्षेणव परिसमवायि-विरोधिभेदेन पंचधानुमानम् 460 च्छिद्यते (उत्तरपक्षः) उक्तपंचहेत्वतिरिक्तानां कृत्ति- अभावस्याप्रत्यक्षत्वं हि इन्द्रियेणासम्बद्धत्वात. ___ कादिहेतूनां प्रतीतेः न लिङ्गस्य पञ्च- ____ अरूपित्वात्. असद्रूपत्वाद्वा? 468 - संख्यानियमः 461 | रूपित्वस्य प्रत्यक्षतां प्रत्यनङ्ग वान्न अरूपिअविनाभाववशाद्धि गमकत्वं न कारणादि त्वादभावस्याप्रत्यक्षता रूपतामात्रेण ; अव्यापकत्वादतिप्रसङ्गाच्च 461 / चक्षुरादिभावाभावानुविधायित्वादभावस्य सांख्यपरिकल्पितमात्रामात्रिकादिसप्त प्रत्यक्षविषयत्वम् विधतनिरासः 462 | अभावस्याप्रत्यक्षत्व हि आलाकापक्षान स्यात् . 469 . . अदृश्यानुपलब्धेरपि गमकत्वप्रदर्शनम् 462 | इह भूतले घटो नास्तीति ज्ञानस्य भेदासिद्धेःन / 15 कारिकाव्याख्यानम् 463 चक्षुराद्यन्वयव्यतिरेकानुविधानमन्यथा सिद्धम् अभावप्रमाणविचारः 463-482 प्रतियोगिस्मरणानन्तरभावित्वादभावस्य ( मीमांसकस्य पूर्वपक्षः) अभावप्रमाणं अप्रत्यक्षत्वे सविकल्पकज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वं प्रत्यक्षादिभ्यो भिन्न भिन्नसामग्री न स्यात् 470 प्रभवत्वात्, भिन्नफलसाधकत्वाच्च 463 देशादिविप्रकृष्टार्थसम्बन्ध्यभावश्च अनुमानाअभावप्रमाणं हि नेन्द्रियादिसामग्रीतः प्रादु दिपरिच्छेद्यः र्भवति, किन्तु प्रतिषेध्यानुपलब्धि-आश्र- 'नासीदपवरके देवदत्तः' इति प्रतीतेः स्मरणयोपलब्धि-प्रतियोगिस्मरणरूपसामग्रीतः 464 | - रूपत्वात् 471 अनुपलब्धिर्हि गृहीतव्याप्तिका अगृहीतव्या- न चाश्रयग्रहणपूर्वकमेव अभावग्रहणम् 472 प्तिका वाऽभावमनुमापयेत् ? 465 आश्रयस्य ग्रहणं हि किं निषेध्याभावसहिव्याप्तिग्रहणवेलायाञ्च आभावाख्यधर्मग्रहणं तस्य केवलस्य वा? 472 किमत एव, अनुमानान्तराद्वा? 465 | प्रतियोगिनोऽपि स्मरणं किमभावाक्रान्तस्य अनुपलब्धिरपि उपलब्ध्यभावरूपा, अत तद्विपरीतस्य वा? . स्तत्प्रतिपत्तावपि अयमेव दोषः 465 | परात्मना प्रतीयमानोऽपि नञर्थः घटादेरेव इह भूतले घटो नास्तीति प्रत्ययस्य हि किं __स्वरूपम् 473 घटो विषयः स्यात्, भूतलम्, संसर्गो वा? 465 / घटविविक्तत्वं हि भूतलधर्मतया कथञ्चिद् / / घटविविक्तभूतलस्य तद्विषयत्वे तद्वैविक्त्यं किं भिन्नं पृच्छयते पदार्थान्तरतया वा? 473 भूतलस्वरूपमात्रं तद्वयतिरिक्तं वा? 465 | पदार्था हि परस्परसङ्कीर्णाः समुत्पन्नाः तद्विन हि प्रत्यक्षपरिच्छेद्योऽभावः इन्द्रियेणा परीता वा ? सनिकृष्टस्य ग्रहणात् 466 अभावानामन्योन्यं भावान्तराच्च विवेको नाप्यनुमानादभावावगतिः 466 यद्यन्याभावात्तदानवस्था 474 प्रमाणेन परिच्छिद्यमानत्वान्नाभावस्य घटस्य इतरेतराभावाद् व्यावृत्ति: इतरेतराअवस्तुत्वम् भावात्, अभावान्तराद्वा? .. . 474 472 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः 483 प्रभावस्य वस्तुत्वे हि किं सः प्रमाणान्तरेण 16 कारिकाव्याख्यानम् 483 गृह्यते प्रभावप्रमाणेन वा ? 475 सविकल्पकप्रत्यक्षेण न सर्वात्मना वस्तु प्रतीप्रमाणपञ्चकानुत्पत्तिहि किं निषेध्यविषय यते अतः अगृहीतांशग्रहणाय अनुमानस्य - ज्ञानङपतया प्रात्मनोऽपरिणाम: अन्य साफल्यम् वस्तुविज्ञानं वा ? 475 | 17 कारिकाव्याख्यानम् 485 आत्मनोऽपरिणामस्य हि अभावरूपत्वात् कथं क्षणिकत्वसिद्धये न स्वभावहेतोः सम्भावना 485 प्रामाण्यम् ? 475 18 कारिकाव्याख्या 487 अन्यस्मिन् वस्तुमात्रे विज्ञानम. घटाभावाश्रये वा विज्ञानमभावपरिच्छेदकम् ? सविकल्पबुद्धेः न स्वतः सिद्धिः नापि परतः 487 (सौगतस्य पूर्वपक्षः) न भावस्वरूपातिरिक्त: 16 कारिकाव्याख्या 486 कश्चिदर्भाव: प्रत्यक्षानुमानग्राह्यः 476 उपमानस्य न प्रमाणान्तरत्वम् 489 अभावाकारस्य ज्ञानेऽनुप्रवेशे ज्ञानस्याप्य उपमानप्रमाण विचारः 484-500 सत्त्वापत्तिः 477 (मीमांसकस्य पूर्वपक्ष) उपमानस्य लक्षणम् 489 अविनाभाविलिङ्गाभावान्नानुमानादपि अनधिगतार्थगन्तृत्वादुपमानस्य प्रामाण्यम् अभावग्रहणम् 477 न प्रत्यक्षानुमानयोरुपमानस्य अन्तर्भावः 490 ( उत्तरपक्षः ) प्रतीतिभेदात् स्वरूपभेदात् लिङ्गादनुत्पद्यमानत्वात् पक्षधर्मत्वादिग्रहणासामग्रीभेदात् अर्थक्रियाभेदाच्च भावा भावाच्च नानुमानत्वम् 491 ____ भावयोर्भेदः 477 नाप्यर्थापत्त्यादिषु उपमानस्यान्तर्भावः प्रतिनियतप्रतियोगिस्मरणान्यथानुपपत्त्या (उत्तरपक्षः) प्रत्यभिज्ञान एव उपमानस्य प्रतिनियताभावप्रतिपत्तिः प्रत्यक्षतएव अन्तर्भावः प्रतिपत्तव्या 478 पूर्व कस्यानुभवाभाव:-गवयावच्छेदस्य इह भूतले घटो नास्तीति विशिष्टप्रतीतेः कि सादृश्य वा ? निषिध्यमानो घटादिरेव निबन्धनम्, | सादृश्यं हि असिन्निहितत्वान्नानुभूयते, प्रतिबतदाश्रयो भूतलादिर्वा ? 478 धकसद्भावाद्वा? यदि भाव एवाभावः तर्हि भावकाले भावदेशे सादृश्यस्य एकैकत्र परिसमाप्तितः प्रतियोगिच अभावप्रतीतिः स्यात् 479 न्यदृष्टेप्युपलब्धिः 493 भतलमात्र घटाभावप्रतीतेनिबन्धनं विशिष्ट वा?४७२ | सादश्यव्यवहार एव हि प्रतियोगिग्रहणापेक्षो विशिष्टत्वपक्षे च किं स्वरूपकृतं वैशिष्टयं घट न तु स्वरूपम् संसर्गरहितत्वकृतं वा ? 479 स्मरणापेक्षं गवयप्रत्यक्षं सादृश्यज्ञानमुपजननापि सद्व्यवहारानुदये एव अभावव्यवहारः यति अनपेक्षं वा? यतोऽभावस्य आभिमानिकत्वम् 479 / गोपिण्डस्मरणापेक्षित्वे च किं गोपिण्डस्मृतिसद्व्यवहारानुदयस्य च नास्तीति व्यवहार मात्रापेक्षम् सादृश्यावच्छिन्नगोपिण्डस्मनिबन्धनत्वे सुषुप्तावस्थायामपि नास्तीति रणापेक्षं वा ? 494 व्यवहारः स्यात् सन्निकृष्टसादृश्यस्य हि करणत्वं किं तदनुमापन च मुदगरादिसामग्रयाः कपालोत्पाद एवो कत्वम्, तत्स्मारकत्वम्, तदुपमापकत्वं वा? 495 पयोगः; तया घटविनाशस्यापि करणात् 480 उपमानस्य अनुमाने वाऽन्तर्भावः 496 प्रमाणतः प्रतीयमानत्वादिसाधनैः अभावस्य (नैयायिकस्य पूर्वपक्षः) संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानवस्तुत्वसिद्धिः 482 मुपमानम् 496 अर्थक्रियाकारित्वात प्रागभावादिभेदवत्त्वाच्च न हीदं संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानं प्रत्यक्षाद्यन्यतम... “अभावो वस्तु 482 |... प्रमाणफलम् 497 10 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 न्यायकुमुदचन्द्रस्य / 509 * 500 वृद्धनैयायिकास्तु सारूप्यप्रतिपादकमतिदेश- बहिर्भावविशिष्ट चत्रे चैत्रविशिष्ट वा बहि वाक्यमेव उपमानं स्वीकुर्वन्ति 49 र्भावे साध्ये गृहाभावविशिष्टस्य चैत्रस्य, (उत्तरपक्षः) साक्षात् संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रति चैत्राभावविशिष्टस्य गृहस्य, गृहे चैत्रापत्त्यङ्गस्य उपमानता परम्परया वा ? 49 दर्शनस्य वा हेतुत्वम् ? सारूप्यज्ञानं हि केवलं तदङ्गं स्यात् संज्ञासंज्ञि- प्रमेयानुप्रवेशप्रसङ्गाच्च नेयमनुमानम् . 509 सम्बन्धस्मृतिसहायं वा? 497 सम्बन्धग्रहणाभावादपि नेयमनुमानम् 510 शब्दादनुत्पद्यमानत्वादस्य आगमाफलत्वम्, गृहद्वारवर्तिनो गृहेऽभावस्य बहि.सद्भावेन तत्प्रतीतायुपायस्यापरस्यापेक्षणात्, वाच्य सम्बन्धग्रहेऽपि गृहे सद्भावस्य बहिरसंवित्त्यपेक्षणाद्वा ? 498 भावेन कथं सम्बन्धग्रहः ? 511 अतिदेशवाक्यस्य आगमरूपतया उपमानत्वा (उत्तरपक्षः) दृष्टः श्रुतो वार्थः साध्येन सम्बद्धः योगात् __ सन् तं कल्पयति असम्बद्धो वा ? 512 प्रसिद्धार्थसाधर्म्यमन्यथानुपपन्नत्वेन निर्णीतं | सम्बद्धोऽपि तद्रूपतया ज्ञातः अज्ञातो वा चेत्तदानुमानेऽन्तर्भावः तत्कल्पनानिमित्तं स्यात् ? 513 वृक्षोऽयमिति ज्ञानञ्च किन्नाम प्रमाणम् ? 501 | ज्ञातोऽपि साध्यप्रतिपत्तिकाले पूर्व वाऽसौ ज्ञातः ? 513 20 कारिकाव्याख्या 502 | साध्यप्रतिपत्तिकालेऽपि प्रमाणान्तराज्ज्ञातः एतस्मात् पूर्व पश्चिममत्तरं दक्षिणं वा एत तत एव वा? नामक ग्रामधानकमिति वाक्यश्राविण: अर्थापत्तिरनुमानमेव प्रमाणान्तरावगतसाध्यतद्दर्शिनः तन्नामप्रतिपत्तिः किन्नाम सम्बन्धाद्धेतोरुपजायमानत्वात् प्रमाणम् ? 502 | पूर्वं साध्यसम्बद्धतयाऽसौ साध्यमिणि ज्ञातः 21 कारिकाव्याख्यानम् दृष्टान्तर्मिणि वा? 513 दृष्टान्तमिणि साध्यसम्बद्धतयाऽसौ भूयो. इदमल्पं महदूरमित्याद्यापेक्षिकज्ञानस्य क्व प्रमाणे अन्तर्भाव? दर्शनात् विपक्षेऽनुपलम्भात् अर्थापत्त्यन्त 504 द्वित्वादिसंख्याज्ञानस्य च प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तिः 504 राद्वा प्रतीयते ? अथोपत्तिप्रमाणनिरासः 505-520 प्रत्यक्षपूर्वार्थापत्तौ कि दाहशक्त्या विना. स्फोटा(मीमांसकस्य पूर्वपक्षः) प्रत्यक्षादिभ्यः विभिन्न देरभावोऽनुपपन्नः, प्रमाणविरोधो वा? 514 प्रमाणविरोधपक्षेऽपि कारणाभावः निश्चित: सन् स्वरूपत्वादापत्तिः प्रमाणान्तरम् 505 कार्याभावनिश्चायकः अनिश्चितो वा ? 514 प्रत्यक्षादिषट्प्रमाणेभ्यो जायमानत्वात् षट्प्रकारा अर्थापत्तिः श्रुतार्थापत्तौ हि कार्यतः कारणप्रतिपत्तिर्भ५०६ | वन्ती अनुमानमेव अतीन्द्रियशक्तिविषयत्वादपित्तयः प्रमाणान्तरम् 506 रात्रिभुक्तिमान् देवदत्तः रसायनाद्युपयोगाभावे न हि शक्तिः प्रत्यक्षपरिच्छेद्या दिवाभुक्तिरहितत्वे च सति पीनत्वात् 515 नापि शक्तिरनुमानग्राह्या जीवतश्चैत्रस्य गृहेऽभावः बहिर्भावपूर्वक: जीवनापि शब्दोपमानाभ्यां शक्ति: गृह्यते न्मनुष्यगृहाभावत्वात् इत्यनुमानस्वरूपैव वाचकशक्त्यन्यथानुपपत्त्या शब्दनित्यत्वसिद्धिः अभावार्थापत्तिः __ अर्थापत्तिपूर्विकाऽर्थापत्तिः 507 | प्रमेयानुप्रवेशदूषणे हि कि सत्तामात्र प्रमेयमिष्टं 'पीनो दिवा न भुङक्ते' इति वाक्यश्रवणात् बहिर्देशविशेषितं वा सत्त्वम् ? 516 रात्रिभोजनप्रतिपत्तिः श्रुतार्थापत्ति: 507, न हि जीवनविशिष्टगृहाभावप्रतीतिरेव 507 - जीवतो देवदत्तस्य गृहेऽभावं प्रतिपद्य बहिर्भाव बहिर्भावप्रतीतिः प्रतिपत्तिः अभावार्थापत्तिः अन्यथानुपपन्नत्वं गमकविशेषणमस्तु गम्यविपक्षधर्मतादिसामग्यभावान्नापत्तिः अनुमा शेषणं वा नैतावता अर्थापत्त्यनुमानयो- नेऽन्तर्भवति भैदाभावः 518 515 506 507 516 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः 533 mato अर्थापत्तौ अविनाभावस्य गम्यविशेषणत्वञ्च अर्थप्रतीतिविशिष्टत्वं वा ? असिद्धम् 519 | नाप्यर्थस्य धमित्वम; शब्दार्थयोः सम्बन्धाउपमानादीनां परोक्षेऽन्तर्भावान्न जनानां भावादेव 534 प्रमाणसंख्याव्याघातः नापि शब्दार्थयोः अन्वयव्यतिरेको स्तः इति तृतीयः परोक्षपरिच्छेदः सम्बन्धस्मृत्यपेक्षित्वञ्च अननुमानभूते संश यो मानादावप्यस्ति 22 कारिकाव्याख्या 523 तानी | ततः शब्दो नानुमानं विभिन्नविषय-सामग्रीप्रमाणाभासत्वेन प्रसिद्धमपि विज्ञानं कथञ्चि ____ समन्वितत्वात्, पुरुषैर्यथेष्टं नियुज्यमानस्य देव प्रमाणाभासं न सर्वथा 523 | अर्थप्रतीतिहेतुत्वात् 535 ज्ञानं हि यस्मिन्नंशे अविसंवादि तत्र प्रमाण शब्दो नानु मानम् आप्तोक्तत्वेनैव अव्यभि. मितरत्र तदाभासम् 523 / चारिज्ञानजनकत्वात् 536 विवृतिविवरणम् 524 शब्दस्य अर्थवाचकत्वम् 536-543 23 कारिकार्थः 525 / (बौद्धस्य पूर्वपक्षः ) शब्दोऽप्रमाणम् वस्त्वविकल्पज्ञानं न प्रत्यक्षाभं किन्तु प्रमाणमेव 525 | सम्बद्धत्वात् निर्विकल्पकमेव प्रत्यक्षाभं भवितुमर्हति शब्दार्थयोहि तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा सम्बन्धः विवृतिव्याख्या स्यात् ? अर्थासंस्पशिनः शब्दाः विकल्पमात्रजन्मानः 24 कारिकार्थः 528 तिरस्कृतबाह्यार्थान् प्रत्ययानुत्पादयन्ति 536 प्रतिसंहारैकान्तस्य लक्षणम् 528 प्रत्यक्षादीनां व्यवहाराविसंवादात् प्रामाण्यम् 529 नचात्र पुरुषदोषाणामपराधः 537 बाधकप्रत्ययोत्पत्तावपि शब्दो मिथ्याज्ञानं 25 कारिकार्थः 526 जनयति अतो नासौ अर्थसंस्पर्शी 537 श्रुतज्ञानमतीन्द्रियार्थे प्रमाणम् 530 | (उत्तरपक्षः) शब्दः सम्बद्धमेवार्थ प्रकाशयति 26 कारिकार्थः - प्रतिनियतप्रत्ययहेतुत्वात् 538 श्रुतस्य प्रमाणत्वसमर्थनम् 531-536 | योग्यतालक्षणश्च सम्बन्धोऽभ्युपेयते (वैशेषिकबौद्धयोः पूर्वपक्षः) शब्दोऽनुमानान्न . सङ्केतसचिवा योग्यता अर्थबोधनिमित्तम् 539. व्यतिरिच्यते अभिन्नसामग्री-विषयवत्त्वात, सङ्केतस्य लक्षणम् 539 सम्बद्धार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वात्, अन्वयव्यति- सङ्कतोऽपि सहजयोग्यतानिबन्धन एव प्रव. रेकवत्त्वात्, पक्षधर्मोपेतत्वाच्च 531 ते अतो न वाच्यवाचकव्यत्ययः 539 शब्दो विवक्षायामेव प्रमाणं न बाह्यार्थे 531 | सर्वशब्दानां सर्वशब्दार्थप्रत्यायनशक्तिरुपेयते, (उत्तरपक्षः) अभिन्न विषयत्वस्यासिद्धेः, अर्थ सङ्केताच्च प्रतिनियतार्थप्रतिपत्तिर्भवति 540 - मात्रं हि शब्दस्य विषयः अनुमानस्य तु | शब्दो हि ज्ञापकः अतः सङ्केतापेक्ष एवार्थबोधकः 541 धर्मविशिष्टो धर्मीति 532 आप्तप्रणीतस्य शब्दस्यार्थासंस्पर्शित्वं प्रसाअनयोविषयाभेदो हि सामान्यमात्रविषयतया, ध्यते, अनाप्तप्रणीतस्य, शब्दमात्रस्य वा ? 541 तद्वन्मात्रविषयतया, सम्बद्धार्थप्रति शब्देहि संवादविसंवादौ पुरुषगुणदोषनिबन्धनौ 542 पत्तिहेतुतया वा स्यात् ? 532 | शब्दस्यहि स्वरूपमर्थमात्रप्रकाशकत्वं न तु अभिन्नसामग्रीसमन्वितत्वमप्यसिद्धम् 532 यथार्थायथार्थप्रकाशकत्वम्, तस्य वक्तनात्र पक्षधर्मता, धर्मिणोऽसिद्धः 533 गुणदोषनिबन्धनत्वात् चक्षुर्वत् 542 अत्र धर्मी शब्द:, अर्थो वा स्यात् ? 533 प्रमाणं शब्द: अर्थोपलब्धिनिमित्तत्वात् स्वपरशब्दत्वाद्धेतो: कि शब्दस्य अर्थविशिष्टत्वं पक्षसाधनदूषणसमर्थत्वात् सकलतत्त्ववि, साध्यते, अर्थप्रत्यायनशक्तियुक्तत्वम्, | प्रतिपत्तिनिमित्तत्वाच्च 543 530 538 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 न्यायकुमुदचन्द्रस्य 552 555 . शब्दार्थयोनित्यसम्बन्धनिरासः 543-551 / न च शब्दार्थस्वलक्षणयोरेकत्र ज्ञाने प्रतिभासो (मीमांसकस्य पूर्वपक्षः) अनित्यो हि सम्बन्धः येन संकेतग्रहः स्यात् प्रतिपुरुष प्रतिशब्दं प्रत्यर्थ वा सर्गादौ अपोहो हि अर्धपञ्चमाकरः क्रियते? 543 | अपोहो द्विविधः पर्युदासात्मा प्रसज्यश्च, प्रतिपुरुषं हि सम्बन्धः किमेकः क्रियते अनेकोवा? 543 पर्युदासोऽपि द्विविधः-शब्दात्मा, अर्थात्मा तथा किमेकः तत्सम्बन्धकर्ता बहवो वा?" 544 चेति ___555 प्रतिशब्दमपि उच्चार्य समयः क्रियेत विकल्पाकारस्य मुख्यमन्यानोहत्वम, त्रिभिश्च __ अनुच्चार्य वा? कारणः प्रौपचारिकोपोहः प्रतिशब्दमुच्चार्य अभिनवः सम्बन्धी विधीयते वाच्यवाचकभावश्च कार्यकारणरूप एव 556 प्राक्तन एव वा? 544 (उत्तरपक्षः) अपोहः प्रत्यक्षतः सिद्धयेदन. नित्यसङ्कतप्रतीतिश्च प्रमाण त्रयसम्पाद्या 545 - मानतो वा? (उत्तरपक्षः) न हि नित्यसङ्केतःविचार्यमाणो . / अकृतकत्वव्यावृत्तिः कृतकत्वं किं स्वलक्षणाघटते 546 / त्मकम् , नित्यव्यावृत्तिरूपाऽनित्यात्मकंवा? 558 सम्बन्धस्य नित्यत्वं हि स्वभावतः सम्बन्धि- ज्ञाने स्वलक्षणस्य प्रतिबिम्बनं सामान्यस्य वा? 559 नित्यत्वाद्वा स्यात् ? 546 / शाब्दविकल्पस्य प्रतिबिम्बमात्राध्यवसायित्वे सङ्केतस्य पुरुषाश्रयत्वात् अन्यथापि तत्संभा कुतो बहिरर्थे प्रवृत्तिः ? 559 वनया वेदस्य मिथ्यात्वापत्तिः 547 | अर्थाध्यवसायश्च किं बाह्यस्यार्थस्य ग्रहणम्, नित्यसम्बन्धवशाच्चासौ शब्दः किमेकार्थ- ___करणम्, योजनम्. समारोपो वा ? 55 नियतः अनेकार्थनियतो वा? .547/ बाह्यार्थस्य विकल्पेन स्वाकारे समारोपे . एकार्थनियतश्चेत् किमेकदेशेन सर्वात्मना वा? 547 स्वीक्रियमाणेकिम्भयग्रहणे सति समारोपः एकदेशनियतत्वे स एकदेशः किमभिमतैकार्थ स्यादसति वा ? 560 नियतः अनभिमतार्थनियतो वा? 547 | उभयोर्ग्रहणञ्च विकल्पेन निर्विकल्पेन वा ? 560 अभिमतार्थेकनियमोऽपि पुरुषात स्वभावाद्वा? 547 पूर्व स्वप्रतिभासमनर्थमनुभूय पश्चादर्थमानित्यःसम्बन्धी किशब्दः स्यादर्थों वा द्वयं वा? 548 रोपयति विकल्पः, युगपदेव वा स्वप्रतिनित्यसम्बन्धः किमेन्द्रियः अतीन्द्रियः अनुमा भासञ्चानुभवति अर्थञ्च समारोपयति, नगम्यो वा स्यात् ? किं वा स्वाकारानुभव-अर्थाध्यवसाययो५४९ रेकार्थत्वम् ? अनुमानादपि सम्बन्धग्रहे किमत एवानुमानादन्यतो वा? दृश्यविकल्प्यार्थयोरेकीकरणञ्च तेनैव ज्ञानेन 549 ज्ञानान्तरेण वा? नित्यसम्बन्धस्य हि लिङ्गम्-अर्थज्ञानम्, ज्ञानान्तरञ्च किमेकमने वा? 561 अर्थः, शब्दो वा स्यात् ? 549 अपोहो हि भावे भावस्य प्रतीयते केवलो वा? 561 नित्यसम्बन्धस्वीकारेऽपि अभिव्यक्तेरनित्यत्वो भावयोः प्रतीतिः किं शब्दादेव प्रमाणान्तराद्वा ? 561 पगमेपि पूर्वोक्तदोषाः प्रसज्यन्ते 550 शब्देन च कि भावी प्रतीत्य अपोहः प्रतीयते नित्यसम्बन्धवादिनः चोदनायाः कार्येऽर्थे / अपोहं प्रतीत्य भावौ वा ? 561 प्रामाण्यानुपपत्तिः अपोहमात्रप्रतीतौ च विशेषणविशेष्यभेदः अन्यापोहवादः 551-565 अतीतादिकालभेदः स्त्रीपुंनपुंसकादिभेदः (बौद्धस्य पूर्वपक्षः) अर्थाभावेऽपि शब्दानाम एकद्विबहुवचनादिभेदश्च न स्यात् 562 पलब्धेर्न तेषामर्थवाचकत्वं किन्तु अन्या- अपोहस्य हि भेदः किमपोह्यभेदात्, वासनापोहमात्राभिधायिता भेदात्, विभिन्नसामग्रीप्रभवत्वात्, वि. शब्दस्य बहिरर्थो हि विषयः स्वलक्षणं वा भिन्नकार्यकारित्वात्, आश्रयभेदात्, स्वस्यात् सामान्यं वा ? रूपभेदाद्वा स्यात् ? Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः 572 75 पर्युदासरूपः प्रसज्यरूपो वाऽपोहः स्वरूपतो असंकेतितो वा? भिन्नः शब्दरभिधीयेत ? / सङ्कतोऽपि प्रतिपन्ने सामान्य स्यादप्रतिपन्ने वा? 572 पर्युदासपक्षे भावान्तरं किं विशेषः सामान्य शब्दान्निविशिष्टं सामान्यं प्रतीयमानं पुरुषं ____ तदुपलक्षितो विशेषः तत्समुदायो वा स्यात्? 563 प्रवर्तयति विशिष्टं वा? निषेधमात्राभिधायित्वे च नीलोत्पलादिशब्दयोः वैशिष्टयञ्च किं विशिष्टव्यक्तितादात्म्यसामानाधिकरण्यं न स्यात् 564 कृतम्, तत्रैव तत्प्रवृत्तिहेतुत्वकृतम्, सुनिश्चिताप्तप्रणेतृका हि शब्दा बाह्यार्थ अस्येदमिति प्रतीतिकृतं वा? __ प्रतिबद्धाः नतु सर्वे शब्दाः विधिवादः 573-518 अभिन्नेऽप्यर्थे सामग्रीभेदात् प्रतिभासभेदो विधिरेव वाक्यार्थःअप्रवृत्तप्रवर्तनस्वभावत्वात् 573 भवति . 565 | शब्दविध्यादिवादिनां पंचदश प्रकाराः 574 कार्यकारणभावस्य वाच्यवाचकरूपत्वे स्वल- (शब्दविधिवादिपूर्वपक्षः) अन्वयव्यतिरेक्षणमपि वाचकं स्यात् / काभ्यां शब्दस्यैव प्रवर्तकत्वम् 574 जातिमात्रवाच्यत्वनिरासः . 566-573 | शब्द एव मुख्यतया प्रवर्तकः 574 (मीमांसकस्य पूर्वपक्षः) विशेषाणामनन्त. लिङलोट्तव्यप्रत्ययान्तस्यैव शब्दस्य प्रवर्त - त्वात् न तत्र सङ्केतः शक्यक्रियः अपि तु कत्वम् 574 सामान्यमाने / (उत्तरपक्षः) प्रवर्तकार्थावबोधकत्वं विना जातिमद्विशेषवाचकत्वे हि किं शब्दो जाति शब्दस्य प्रमाणत्वानुपपत्तेः मभिधाय व्यक्तिमभिधत्ते, अनभिधाय वा? 567 | साध्यस्वभावयागादिव्यापारलक्षणविषयावबोसामान्यप्रतिपत्त्यन्यथानुपत्त्या च विशेषेषु धकत्वेनैव लिङाद्यन्तस्य प्रमाणत्वम् 575 प्रवृत्तिः सुघटा 567 / अनियमात्प्रवृत्तः न शब्दो विधिः 575 लक्षितलक्षणया च विशेषप्रतिपत्तिः संविदाश्रयणान्न शब्दो विधिः 576 (उत्तरपक्षः) सङ्केतो हि सामान्यविशेषवत्यर्थे ( भावनावादिनो भाट्टस्य पूर्वपक्षः ) शब्दक्रियते न तु सामान्यमात्रे 568 व्यापाररूपा शब्दभावनैव प्रवर्तकत्वाद अनन्ता अपि विशेषाः सदृशपरिणामप्रधानतया / विधिः 576 ऊहप्रमाणेन उपलब्धुं शक्यन्ते 568 शब्दभावनायाः पुरुषप्रवृत्तिः प्रवृत्तिमान् वा जातितद्वतोश्च युगपदेकत्र ज्ञाने प्रतिभासनमिष्यते 569 पुरुषो भाव्यो भवति यदि शब्दात् केवलं सामान्यं प्रतीयते तदा प्राशस्त्याभिधानं विना विधिशक्तिर्निमित्तत्व___ व्यक्तेः किमायातं येनासौ तां गमयति 570 मुपगतापि प्रवर्तनायां समर्था न भवति 578 सामान्यविशेषयोहि संयोगः समवायः तदु- भावना कि केन कथमिति त्र्यंशपरिपूर्णा भवति 578 त्पत्तिः तादात्म्यं वा सम्बन्ध इष्यते ? 571 शब्दभावना शब्दधर्मः 579 सामान्यविशेषयोः सम्बन्धः किं शब्दप्रयोग- प्रवृत्त्यन्यथानुपपत्त्या शब्दस्य प्रवर्तनात्मको काल एव प्रतिपन्नः पूर्वं वा ? व्यापारः निश्चीयते 579 तत्काले तत्प्रतीतिश्च कि प्रत्यक्षतः, अनुमा- यजेतेत्यत्र पुरुषप्रेरणारूपा शब्दात्मिका अथ नात्, शब्दादेव वा स्यात् ? च पुरुषव्यापाररूपा अर्थात्मिकेति द्वे - जातेश्च व्यक्तिनिष्ठतास्वरूपं किं सर्वसर्व भावने प्रतीयते 579 गतायाः स्वव्यक्तिसर्वगताया वा? 571 / अर्थभावना सर्वाख्यातप्रत्ययेषु विद्यते 580 जातिः सर्वत्र सर्वदा व्यक्तिनिष्ठेति प्रत्यक्षतः लिङादिप्रत्ययेषु द्वे भावने प्रतीयेते-पुरुषः स्व प्रतीयते अनुमानतो वा ? 571 व्यापारे यागादौ प्रवर्तते इति अर्थभावना, प्रत्यक्षतश्चेत् किं युगपत् क्रमेण वा ? 571 तमयं लिङ प्रवर्तयतीति शब्दभावना चेति 580 शब्दो हि संकेतितः सन् सामान्यमभिधत्ते / (उत्तरपक्षः ) शब्दस्य भावना शब्दभावना 578 . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 581 590 78 न्यायकुमुदचन्द्रस्य स्यात्, शब्द एव भावना वा ? ५८०-पाटिल प्रेषादिविशेषनिरपेक्षस्य प्रवर्तनासामान्यअचेतने च शब्दे प्रयोजनानुसन्धानाभावान्न स्यापि विधित्वमनुपपन्नम् ; विशेषनिरप्रेरकत्वम् पेक्षस्य सामान्यस्यासंभवात् 588 शब्दभावनायाः सद्भावे किं लिङादिश्रवणा- फलस्यापि प्रवर्तकत्वमनुपपन्नम्। अथितां नन्तरभाविनी प्रवृत्तिः प्रमाणं किं वा विना फलमात्रस्य अप्रवर्तकत्वात् 589 शब्द एव ? | नियतकर्मसाध्यतायाः फलसमवेतायाः प्रवृत्तिशब्दः स्वव्यापार विधिज्ञानसव्यपेक्षो जनयति हेतुत्वदर्शनात् फलस्य प्रवर्तकत्वे कि अनपेक्षो वा ? ___581 तत्साध्यता फलस्य स्वरूपम्, शक्तिभेदो यदि शब्दः स्वव्यापारं करोत्यभिधत्ते च; तदा वा स्यात् ? उत्पाद्य पश्चात्तमभिधत्ते, युगपद्वोत्पाद- फलं विद्यमानं सत पुरुष प्रेरयति अविद्ययति अभिधत्ते च? 581 मानं वा ? (प्रभाकरस्य नियोगवादिनः पूर्वपक्षः ) फलं सत्तामात्रेण प्रवृत्तिहेतुः साध्यताविनियोग एव प्रवृत्तिहेतुत्वाद्विधि: 582 शिष्टं वा? शुद्ध कार्य नियोगः 583 | फलाभिलाषस्य च बालकप्रवृत्त्यादिषु अव्याप्रेरणव नियोगः 583 पकत्वान्न प्रवर्तकत्वम् प्रेरणासहितं कार्य नियोगः 583 कर्मणस्तु विधिविषयतया विधिस्वभावताऽकार्यसहिता प्रेरणा नियोगः 583 नुपपन्ना कार्यस्यैव उपचारत: प्रवर्तकत्वम् 584 उत्पन्नं कर्म आत्मसिद्धयर्थं पुरुष प्रवयर्तति कार्यप्रेरणयोः सम्बन्धो नियोगः 584 अनुत्पन्नं वा? 592 कार्यप्रेरणासमदायो नियोगः | अप्राप्तक्रियासम्बन्धप्रतिपत्तिरपि न अभियन्त्रारूढो नियोगः लाषमन्तरेण प्रवर्तिका . 59 पण अपातका भोग्यरूपो नियोगः श्रेयःसाधनतायाः विधिशब्दवाक्यतयाऽप्रपुरुष एव नियोगः 584 सिद्धेः न तस्याः विधित्वम् , 593 ( उत्तरपक्षः ) नियोज्यप्रेरणानिरपेक्षस्य कस्येयं श्रेयःसाधनता-भावनायाः,धात्वर्थस्य वा? 593 कार्यस्य नियोगरूपतोपगम्यते तत्सापे- उपदेशस्य विधित्वे ठकशास्त्रोपदेशस्यापि क्षस्य वा ? 585 विधित्वं स्यात् प्रेरणादिनियोगवादानां प्रतिविधानम् वेदस्यापौरुषेयत्वात् तत्र उपदेशस्य संभावनैव कि नियङक्ते इति नियोगः, किं वा नियुक्तिः . नास्ति 594 नियुज्यतेऽनेनेति वा नियोगः स्यात् ? | कर्त्तव्यताप्रतिपत्तिरपि कि निविशिष्टा प्रवृत्तिनियोगः शब्दव्यापाररूपः, पुरुषव्यापाररूपः, हेतुः श्रेयःसाधनताविशिष्टा वा ? 595 उभयरूपः, अनुभयरूपो वा? 586 | प्रतिभास्वरूपस्य च असिद्धत्वान्न तस्याः अनुभयपक्षे विषयस्वभाव: फलस्वभावः विधिरूपता 596 निःस्वभावो वा स्यात् ? 586 / प्रतिभासमानाकारनिर्णयरूपतामात्रस्य प्रतियागादिविषयः किं नियोक्तृवाक्यकालेऽस्ति भात्वे सविकल्पकज्ञानस्य प्रतिभात्वप्रसङ्गः न वा? स्यात् नियोगः प्रवर्तकस्वभाव:अप्रवर्तकस्वभावो वा? 587 | साधनविशेषे क्रियाविशेषस्फुरणञ्च कि पूर्वाप्रेषणाध्येषणाभ्यनुज्ञालक्षणस्य पुरुषधर्म हितसंस्कारवशात्, प्रत्यक्षादिप्रमाणव्यास्यापि विधित्वमनुपपन्नम् ; अपौरुषेये वेदे पारानुसारतः, चोदनातः, श्वो मे भ्राता पुरुषधर्माणां प्रेषणादीनामसंभवात् . 588 | गन्तेत्यादिवत् मनोमात्रतो वा स्यात् ? . 596 प्रेषणाध्येषणाभ्यनुज्ञालक्षणानि 588 भक्तिहिं उत्पन्ना सती प्रवृतिनिमित्तम्, उत्प 584 584 584 | Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 विषयानुक्रमः त्तिश्चास्याः किं शब्दात्, निग्रहानुग्रह- 41-42 कारिकयोः व्यवहारनयसमर्थपुरुषविशेषाद्वा ? 597 | निरूपणम् . 638-631 विषयफल निरपेक्षाणाम् इच्छाप्रयत्नादीनामपि प्रवृत्तिहेतुत्वाभावाद्विधित्वमनु ___व्यवहारामासस्य स्वरूपकथनम् 631 पपन्नम् 598 43 कारिकायां ऋजुसूत्रनयस्वरूपम्६३५ 27 कारिकाव्याख्या 566 44 कारिकायां शब्दसमभिरूढेत्थश्रुतस्य प्रमाणत्वसमर्थनम् म्भूतनयलक्षणानि 637 28 कारिकाव्याख्या 500 45 कारिकायाम् अक्षबुद्धिस्मृत्योरप्राप्तोक्तेर्हेतुवादाच बहिरर्थविनिश्चयाभावे भिन्नार्थविषयत्वप्रदर्शनम् 640 सत्येतरव्यवस्थाऽभावः स्यात् 600 सुगतेतरयोः आप्तानाप्तव्यवस्थां क्वचित् 46 कारिकायां शब्दज्ञानस्यापि / साधनासाधनाङ्गत्वव्यवस्थां वाऽभ्युपग अविसंवादित्वात् प्रमाणत्वम् 644 च्छता सौगतेन वाचः बाह्यार्थविषयता 47 कारिकायां कालादीनां स्वरूपस्वीकरणीया 26 कारिकाव्याख्या 602 कथनम् पुंसः अभिप्रायवैचित्र्यात् शब्दानामविशेषतः 48 कारिकायाम् अनेकान्तात्मनोऽअर्थव्यभिचारे कार्यकारणभावादीनामपि र्थस्य षट्कारकात्मकत्वप्रदर्शनम् 650 व्यभिचारदर्शनादनुमानमपि प्रमाणं न स्यात् 602 46-50 कारिकयोर्व्याख्या 652-54 इति चतुर्थ आगमपरिच्छेदः पञ्चम: नयपरिच्छेदः 30 कारिकाव्याख्या 605-607 -> Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 न्यायकुमुदचन्द्रस्य आलोकाभावरूप एव हि छाया 667 / स्मृतिप्रत्यभिज्ञानादीनामनिछायाया द्रव्यान्तरत्वे हि छत्राद्यपायेऽपि आलो न्द्रियप्रत्यक्षता 682 केन सहावस्थानं स्यात् 667 आवारकद्रव्यगतकर्मारोपात् 'छाया गच्छति' | 62 कारिकायां श्रुतस्य स्याद्वादइति प्रतीयते न वस्तुतः नयात्मकयो द्वयोः उपयोगयोः देशान्तरप्राप्तिहि छायायाः देशान्तरेण संयोगः निरूपणम् 686 समवायो वा? 668 | सकलादेशविकलादेशयोः स्वरूपम् 686 (उत्तरपक्षः) आलोकतमसोः स्वरूपवलक्षण्यं 63 कारिकायां स्यात्कारप्रयोगस्य प्रतीयते तमसो रूपादिमत्त्वादभावरूपताविरोधः 686 विचारः 668 छायातमसोः कृष्णरूपं शीतश्च स्पर्शः प्रसिद्धः 669 अयोग-अन्ययोग-अत्यन्तायोगभेदेन त्रिधा एवकारः द्रव्यं तम: गुणवत्त्वात् स्यात्कारमन्तरेण इष्टानिष्टयोविधिप्रतिषेधावैद्यकशास्त्रेऽपि तमसो गुणवत्त्वं प्रसिद्धम् 660 छायातमसो: गुणानामौपचारिकत्वे ज्योत्स्ना नुपपत्तेः तपयोरपि मुख्यतो गुणसिद्धिर्न स्यात् 670 स्याद्वादाभ्युपगम एव एवकारस्य अयोगान्यसर्वथा ज्ञानानुत्पत्तिः तमःप्रतीतिहेतुः ___ योगात्यन्तायोगप्रकाराः सङ्गच्छन्ते 695' कथञ्चिद्वा? 670 64-65 कारिकयोः शब्दानां बहितमसो ज्ञानानुत्पत्तिरूपत्वे आलोकस्यापि रर्थविषयत्वप्रदर्शनम् 666 विशदज्ञानोत्पत्तिरूपतैव स्यात् . 671 शब्दनित्यत्ववादः 667.720 छायाद्यन्धकारः द्रव्यं घटाद्यावारकत्वात्, (मीमांसकस्य पूर्वपक्षः) प्रत्यभिज्ञया शब्दस्य गतिमत्त्वाच्च 671 नित्यत्वं निश्चीयते / देशान्तरप्राप्तिश्च संयोगरूपैव 671 / प्रत्यभिज्ञायाः प्रत्यक्षत्वम इन्द्रियान्वयव्यतिरेछायाया असत्त्वे हि आवारकद्रव्यगतकर्मणस्तत्र | कानुविधायित्वात् 698 आरोपविरोधः . उच्चारणं हि शब्दस्य अभिव्यञ्जकम् छाया परमार्थसती अध्यारोप्यमाणगतित्वात् 672 | 'कालो गादिसम्बद्धः कालत्वात्' इत्यनुमान५७ कारिकायाम् प्रतिनियतावरण तोऽपि शब्दस्य श्रावणत्वम् नित्यः शब्दः श्रावणत्वात् 699 विगमवशादात्मनः प्रतिनिय 'देशकालादिभिन्ना गोशब्दव्यक्तिबुद्धयः एकतार्थप्रकाशकत्वनिरूपणम् 673 गोशब्दविषया गौरित्युत्पद्यमानत्वात्' 58 कारिकायां तज्जन्मताद्रूप्यतद- इत्यनमानतोऽपि शब्दनित्यत्वसिद्धिः 700 ध्यवसायानां प्रामाण्यहेतुता- ह्यस्तनो गोशब्द: अद्याप्यनुवर्तते गौरिति ज्ञायमानत्वात् इत्यनुमानेनापि नित्यत्वम् 700 निरासः 675 अद्यतनो गोशब्दः ह्योऽपि आसीत् गौरिति 56 कारिकायां स्वहेतुजनितयोः ज्ञायमानत्वात् इत्यनुमानादपि नित्यत्वम् 700 ज्ञानज्ञेययोः परिच्छेद्यपरिच्छे- सम्बन्धबलेन अर्थमतिजनकत्वादपि नित्यत्वम् 700 दकभावप्रदर्शनम् 678 अर्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या शब्दस्य नित्यत्वम् 701 60 कारिकायां प्रमाणस्य व्यवसा सादृश्यस्य विचार्यमाणस्यानुपपत्तेः न तन्निमित्तत्वमर्थप्रतिपत्तेः 702 यात्मकत्वसमर्थनम् 679 (उत्तरपक्षः) 'स एवायं गकारः' इनि प्रत्यभि६१ कारिकायांप्रमाणभेदनिरूपणम्६८२ ज्ञानस्य भान्तता; सादृश्यनिबन्धनत्वादस्य 703 698 672 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः पत्वात् न च प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षम् अविशदरूपत्वात 704 अनेकान्तिकम् / ___716 'उत्पन्नः शब्दः विनष्ट: शब्दः' इति शब्दोत्पा- सम्बन्धबलेनार्थमतिजनकञ्च चेष्टया अनैकादविनाशग्राहकप्रत्यक्षबाधित्वात् न प्रत्य न्तिकम् 717 भिज्ञा शब्दनित्यत्वसाधिका 704 | कञ्चित्कालावस्थायित्वञ्च किमुपलम्भकालाशब्दाभावप्रतीतौ च शब्दान्तरमेव एकज्ञान वस्थायित्वमभिप्रेतम्, अतीतवर्तमानसंसगि भवति 705 कालावस्थायित्वं वा? 718 नित्यत्वे च शब्दस्य प्रागुच्चारणादनुपलम्भः | धूमवदनित्यस्यापि शब्दस्य सादृश्यतोऽर्थप्रतिकिम् इन्द्रियाभावात्, शब्दस्यासन्निहि पादकत्वोपपत्तेः 718 तत्वात्, आवृतत्वाद्वा स्यात् ? 705 | शब्देष्वपि उदात्तादिभेदतो नानात्वस्य प्रसिद्धेः व्यञ्जकव्यापारात्पूर्व शब्दस्य कुतश्चित्प्रमाणा अस्ति तेषु शब्दत्वं सामान्यं सदशपरिप्रसिद्धौ आवरणकल्पना यक्ता 707 णामात्मकम् 719 आवरणमपि दृश्यमदृश्यं नित्यमनित्यं व्यापक- सादृश्यस्य प्रमाणसिद्धत्वात् न तत्र बाधा 719 मव्यापकं एकमनेकं वा स्यात् ? 707 | अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् शब्दाः प्रतिनियुतावरणावार्याः प्रतिनियतव्य- कृतक: शब्द: कारणान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् 719 जकव्यङग्या वा न भवन्ति अभिन्न- वैदिकानामपि शब्दानाम् अपौरुषेत्वप्रसाधकदेशत्वे सति एकेन्द्रियग्राह्यत्वात् | प्रमाणाभावाद नित्यत्वमेव 720 ताल्वादीनां ध्वनीनां वा व्यञ्जकत्वे तया- वेदापौरुषेयत्ववादः ___ पारे शब्दानां नियमेनोपलब्धिर्न स्यात् 709 (मीमांसकस्य पूर्वपक्षः) अपौरुषेयो वेदः कर्तुः न सर्वगतः शब्दः सामान्य विशेषक्त्त्वे सति स्मरणयोग्यत्वे सत्यपि अस्मय माणकर्तबाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् 710 कत्वात् 721 ध्वनयश्च किं प्रत्यक्षेण प्रतीयन्ते अनुमानेन छिन्नमूलत्वाच्च वेदे कर्तृस्मरणाभावः 722 अर्थापत्त्या वा? वैदिकी रचना अपौरुषेयी दृष्टकर्तृकरचनाप्रत्यक्षेण चेत् श्रौत्रेण स्पार्शनेन वा ? 710 विलक्षणत्वात् 722 विशिष्टसंस्कृत्यन्यथानुपपत्त्या ध्वनिप्रतिपत्ती वेदाध्ययनवाच्यत्वात् कालत्वाच्च वेदस्यासंस्कृतिः शब्दसंस्काररूपा स्यात्, श्रोत्र पौरुषेयत्वम् 722 संस्काररूपा, उभयसंस्काररूपा वा ? 711 | नहि आप्तगुणसंक्रान्त्या शब्दस्य प्रामाण्यम् शब्दसंस्कारः किं शब्दस्योपलब्धिः, आत्मभूतः __ आप्तस्य शब्दोच्चारणमात्रे व्यापारात् 723 कश्चिदतिशयः, अनतिशयव्यावृत्तिः, | वेदानुपूर्व्याः स्वसामर्थ्येनैव प्रामाण्यम् 724 स्वरूपपरिपोषः, व्यक्तिसमवायः, तद्ग्रह (उत्तरपक्षः) अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं किं कर्तृणापेक्षग्रहणता, व्यञ्जकसन्निधिमात्रम्, स्मरणाभावः अकर्तकत्वं वा? 724 आवरणविगमो वा स्यात् ? 712 अभावप्रमाणमपि कर्तृस्मरणाभावं निराश्रयं श्रोत्रप्रदेश एव शब्दस्य ध्वनिभिः संस्कारः प्रसाधयेत् साश्रयं वा ? 724 क्रियते सर्वत्र वा ? 712 | प्राथयोऽपि स्वात्मा स्यात्, सर्वप्रमातारो वा ? 725 इन्द्रियसंस्कारपक्षे सर्वशब्दानां युगपच्छवणं न चाभावः कर्बभावावेदकः वेदस्य स्वयं स्यात् 713 स्वकर्तृप्रतिपादकत्वात् 726 अतः ताल्वादिव्यापारानन्तरभावित्वात् तज्ज- स्मृतिपुराणादिवच्च ऋषिनामाङ्किताः काण्वन्यत्वमेवोपपन्नं शब्दस्य 714 माध्यन्दिनादयः शाखाभेदाः कथमस्मर्यकालत्वाद्धेतोः शब्दस्थैर्यसाधने विद्युदादीना माणकर्तृका: ? 726 मपि नित्यत्वप्रसङ्गः स्यात् 716 एताः तत्कृतत्वात्तन्नामभिरङ्किताः तदृष्टगौरित्युत्पद्यमानत्वञ्च गोशब्दलिपिबुद्धधा त्वात् तत्प्रकाशितत्त्वाद्वा? ... 726 11 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 न्यायकुमुदचन्द्रस्य 735 . 738 यदि यौगादीनां कर्तविशेषे विप्रतिपत्तिः वा स्यात् ? तदा कर्तविशेषस्मरणमेव अप्रमाणं स्यान्न मन्वादीनां प्रज्ञातिशयश्च वेदार्थाभ्यासात्, तु कर्तृसामान्यस्मरणमपि 727 | अदृष्टात्, ब्रह्मणो वा स्यात् ? 736. कार्यमेव हि स्मर्यमाणकर्तृकमस्मर्यमाण अभ्यासोऽपि ज्ञातस्य वेदस्य स्यादज्ञातस्य वा? 736 कर्तृकं वा प्रतीयते, अतः कृतको वेदः ज्ञातस्य चेत्; तज्ज्ञप्तिः स्वतः, अन्यतो वा ? 736 अस्मर्यमाणकर्तकत्वात् . 727 | वेदार्थानुष्ठानाच्चेत; ज्ञातस्य अज्ञातस्य वा कर्तरस्मरणं हि वादिनः, प्रतिवादिनः, सर्वस्य - वेदार्थस्य अनुष्ठाता स्यात् ? 736 वा स्यात् ? 728 अतः पौरुषेयो वेदो नररचितरचनाकत्रभावसिद्धिश्च प्रामाणान्तरात्, अत एव वा ? 728 | वशिष्टत्वात् 737 अध्यक्षेण वेदकर्तुरनुभवाभावात् स्मरणं छिन्न- वाक्यलक्षणविचारः 733-45 मूलम् प्रमाणान्तरेणानुभवाभावाद्वा? 729 पदवाक्ययोर्लक्षणे अध्यक्षेण चेत; भवत्सम्बन्धिना. सर्वसम्ब- आकाङ्क्षा हि प्रतिपतधर्मः, सा च वाक्येधिना वा ? 729 वध्यारोप्यते - 738 पौरुषेयो वेदः रचनावत्त्वात्, पदवाक्यात्म- | आख्यातशब्दो हि पदान्तरनिरपेक्ष: सापेक्षो कत्वाच्च 729 / वा वाक्यं स्यात् ? 739 . प्रमाणान्तरविषयभाजि वैदिकानि वाक्यानि सापेक्षपक्षे क्वचिनिरपेक्षोऽसौ न वा? 739 प्राप्तोक्तानि वाक्यत्वे सति प्रमाणत्वात् 730 संघातस्य बाक्यत्वे कि वर्णानां पदानां वा वेदरचनायाः कर्तपूर्वकरचनाविलक्षणत्वं हि संघातो वाक्यत्वं प्रतिपद्यते? 740 किं दुर्भणत्वम्, दुःश्रवणत्वम्, लोक- देशकृतः कालकृतो वा पदसंघातः वाक्यं स्यात् ? 740. व्याकरणप्रसिद्धशब्दवैलक्षण्येन शब्द- कालकृतोऽपि संघात: पदेभ्यो भिन्नः विनिवेशः, अपूर्वछन्दोनिबद्धत्वम्, अती अभिन्नो वा? 740 न्द्रियार्थप्रतिपादकत्वम, महाप्रभावोपेत- अभिन्नश्चेत्; सर्वथा कथञ्चिद्वा ? 741 मन्त्रयुक्तत्वं वा? | पदसंघातवर्तिन्याः सदृशपरिणामलक्षणायाः अध्ययनवाच्यत्वं किं निविशेषणं सद् वेदस्य पदसंघातात्कथञ्चिदभिन्नाया जातेः अपौरुषेयत्वं प्रतिपादयेत् सविशेषणं वा? 731 वाक्यत्वमभ्युपगम्यत एव 741 वेदाध्ययनं हि किं तावन्मात्रेण हेतु: अपर- बद्धिश्च भाववाक्यं द्रव्यवाक्यं वा स्यात? 741 विशेषणविशिष्टत्वेन ? 731 अनसंहतेर्भाववाक्यरूपता स्वीक्रियते 742 अतीन्द्रियार्थप्रतिपादने वेदस्य प्रामाण्याभावः पदानामेव वाक्यार्थबोधविधायकत्वे कि गुणवद्वक्त्रभावात् परस्परसापेक्षाणां पदानां तद्विधायकत्वं अपरविशेषणपक्षे किं कर्बस्मरणं विशेष निरपेक्षाणां वा? णमभिप्रेतं सम्प्रदायाव्यवच्छेदो वा? 733 वाक्यार्थः पदार्थादन्यः अनन्यो वा ? 743 सम्प्रदायाव्यवच्छेदोऽपि प्रात्मगतः सर्वलोक- अथ अन्यः क्रियाकारकसंसर्गरूपः; तदा गतो वा? असौ नित्यः अनित्यो वा स्यात् ? 743 सम्प्रदायाव्यवच्छेदश्च किं स्वतन्त्रं प्रमाणम् | अनित्यश्चेत् ; किं विवक्षितपदार्थैर्जन्यते पदाप्रत्यक्षाद्यन्यतमत्, तदन्तर्भूतं वा ? 733 | र्थान्तरर्वा ? 743 कालत्वहेतोः प्रतिविधानम् 733 | विवक्षितपदार्थजन्यत्वे त एवोत्पादका ते एव वेदः व्याख्यातः अव्याख्यातो या स्वार्थ च ज्ञापकाः; तत्र च किं पूर्वं ज्ञापयन्ति, प्रतीति कुर्यात् ? पश्चादुत्पादयन्ति, किं वा पूर्वमुत्पाद व्याख्यानमपि स्वतः, पुरुषाद्वा स्यात् ? 734 यन्ति तदनु ज्ञापयन्ति ? 743 * व्याख्याता च अतीन्द्रियार्थद्रष्टा, तद्विपरीतो . असतः क्रियाकारकसंसर्गस्य कर्तव्यतया प्रति 743 734 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः पादने किं कर्तव्यता भावरूपा स्यादभाव- | अदृष्टवशात् अविनष्टा एव पूर्ववर्णसंविदः / रूपा वा उभयरूपा वा अनुभयरूपा वा? 743 | तत्संस्काराश्च अन्त्यवर्णसंस्कारं विदधति 751 पदञ्च वर्णेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्यात् ? 744 तथाभूतसंस्कारप्रभवस्मृतिसव्यपेक्षो वाऽन्त्यो भेदपक्षेऽपि किं तद् दृश्यमदश्यं वा ? 744 वर्णः पदार्थप्रतिपत्तिहेतुः 751 पदं वाक्यं वा स्वातन्त्र्येण प्रतीयते वर्णद्वारेण वा? 744 यदि वर्णा: व्यस्ताः समस्ता वा नार्थप्रतिपत्ति वर्णद्वारेणापि सावयवस्य निरवयवस्य वा प्रतीतिः विदधति तदा स्फोटस्याभिव्यक्तावपि न स्यात् ? 744 तेषां सामर्थ्यं स्यात् 752 निरवयवञ्च किं समस्तेभ्यो वर्णपदेभ्यः प्रतीयते एकनव वर्णेन वा स्फोटस्याभिव्यक्तौ द्वितीयाव्यस्तेभ्यो वा ? 744 दिवर्णोच्चारणवैयर्थ्यम् 753 सकलवर्णसंस्कारवत्या अन्त्यया वर्णबुद्धया नापि पूर्ववर्णः स्फोटस्य संस्कारे अन्त्यवर्णस्य वाक्यावधारणे सा बुद्धिः किं स्मरणम् व्यञ्जकत्वम् 753 उत अध्यक्ष वा स्यात् ? 745 | संस्कारो हि स्फोट एव तद्धर्मो वा स्यात् ? 753 पूर्ववर्णस्मरण-अन्त्यवर्णग्रहणाभ्यां समुत्पन्नस्य किञ्च असौ संस्कारः किमेकदेशेन क्रियते विकल्पज्ञानस्य वाक्यावधारणकर्तृत्वे तद्वि सर्वात्मना वा ? 753 कल्पज्ञानं प्रमाणं न वा? 745 स्फोटसंस्कारो हि स्फोटविषयसंवेदनम् आवप्रमाणञ्चेत्, कि प्रत्यक्षाद्यन्यतमत्, प्रमा रणापनयनं वा? 753 णान्तरं वा ? . 745 चिदात्मव्यतिरेकेण तत्त्वान्तरस्य अर्थप्रकाशनस्फोटवादः __745-56 सामर्थ्यासंभवात् चिदात्मैव स्फोटोऽस्तु, 754 (वैयाकरणानां पूर्वपक्षः) स्फोट एव अर्थप्रति- | वायूनामपि न स्फोटाभिव्यञ्जकत्वम् 754 पादकः न तु वर्णाः 745 स्फोटस्वरूपावेदकप्रमाणाभावान्नास्य अभिवर्णा हि समस्ता व्यस्ता वा अर्थप्रतिपादकाः स्युः? 745 व्यक्तिकल्पना युक्ता 755 पूर्ववर्णानाम् अन्त्यवर्णानुग्राहकत्वे किम् अन्त्य- यदि वर्णैः तद्बुद्धिभिर्वा व्यङ्गयो शब्दस्फोटोs वर्णजनकत्वमनुग्राहकत्वमभिप्रेतम्, अर्थ- ___ भ्युपगम्यते तदा प्रदीपादिस्फोटोऽप्यभ्युज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वं वा? 746 | पगन्तव्यः 756 संवेदनप्रभवसंस्काराश्च केवलं स्वविषयस्मृति- एवं गन्धादिस्फोटोऽपि स्वीकार्यः 756 हेतवो भवन्ति न त्वर्थान्तरे ज्ञानोत्पादकाः 747 तथा हस्त-पाद-करण-मातृकास्फोटा अपि अन्त्यवर्णस्य च अर्थप्रतिपादकत्वे पूर्ववर्णोच्चा अभ्युपेयाः स्युः 756 रणवयर्थ्यम् 747 अपभ्रंशादीनां वाचकत्वविचारः 757-67 अर्थप्रतीत्यन्यथानुपपत्या स्फोट: अर्थप्रतीति (मीमांसकवैयाकरणादीनां पूर्वपक्षः) संस्कृतहेतुः स्वीकरणीयः 747 शब्दानामेव वाचकत्वं साधुत्वान्न तु प्राकृप्रत्यक्षतः अभिन्नः स्फोट: समनुभूयते 748 तानां गाव्यादीनाम् 757 नित्यश्चासौ स्फोट: 748 अनन्यथासिद्धान्वयव्यतिरेकाभ्यां हि वाचकत्वं स्फोटो हि अन्तरालप्रत्ययैर्व्यज्यते संस्कृतशब्द एव निश्चीयते 758 (उत्तरपक्षः) पूर्णवर्णध्वंसविशिष्टादन्त्यवर्णा- गाव्यादिप्राकृतशब्देषु वाचकगोशब्दस्मृतिद्वारेण दर्थप्रतिपत्त्यपपत्तेः स्फोटकल्पना व्यर्था 750 अर्थबोधकत्वमतस्तत्र गोशब्दस्मृत्या पूर्णवर्णविज्ञानाभावविशिष्ट: तज्ज्ञानजनित अन्वयव्यतिरेको अन्यथासिद्धौ 758 संस्कारसव्यपेक्षो वाऽन्त्यो वर्णः अर्थप्रती- नहि गाव्यादिशब्देषु संकेतोऽपि शक्यक्रियः 759 त्युत्पादक: 750 | सकलशब्दानां सामान्यद्वारेण संकेतसौकर्याय पूर्ववर्णविज्ञानप्रभवसंस्कारस्य अन्त्यवर्णसहा व्याकरणस्य उपयोगिता 759 यताप्रणाली 751 | व्याकरणस्याप्रामाण्य हि लोकशास्त्रविरोधः 760 749 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 न्यायकुमुदचन्द्रस्य Y शब्दसाधुत्वस्य च प्रत्यक्षतः एव प्रतीतिः 761 | मात्रात् व्याकरणादनिष्पत्तेर्वा ? व्याकरणसंस्कारापेक्षमेव श्रोत्रं साधुत्वग्राहकं प्राकृतस्य अधर्महेतुत्वमपि सर्वदा यागादिभवति ___ कर्मकाले वा ? 767 . व्याकरणानुशिष्टत्वात् अदृश्यमानप्रयोगाणा- संस्कृतशब्दोच्चारणस्य धर्महेतुत्वे चान्येषां मपि शब्दानां साधुत्वं ज्ञायते 761 पुण्यानुष्ठानानां वैयर्थ्यम् 767 आगमार्थापत्त्यादिभिरपि साधुत्वप्रतीतिर्भवत्येव 761 / ब्राह्मणत्वजातिविचारः 767-74 (उत्तरपक्षः) लोकव्यवहारे हि गाव्यादिशब्दा- (मीमांसकादीनां पूर्वपक्षः)प्रत्यक्षेणैव हि ब्राह्म नामेव साधुत्वमतस्तेषामेव वाचकत्वम् 762 णोऽयं ब्राह्मणोऽयमिति ब्राह्मण्यं प्रतीयते 767 न हि प्राकृतशब्देभ्यः प्रथमं संस्कृतशब्दस्मरणं मातापितृब्राह्मण्यज्ञानसहायं हि प्रत्यक्षं ब्राह्मततोऽर्थबोधः इति व्यवहिता प्रतीतिर्भवति 762 | णत्वजातिग्राहकम् 768 यैश्च संस्कृतशब्दा न श्रुताः तेषां कथं संस्कृत- अथवा ब्राह्मणोऽयमित्युपपदेशसहकृतेन इन्द्रिशब्दस्मरणम् ? ___ 762 / येण ब्राह्मणत्वजातिग्राही प्रत्ययो जन्यते 768 गाव्यादिशब्दानामपभ्रष्टत्वञ्च पुरुषार्थाप्रसा- मातापित्रोः अविप्लुतत्वञ्च प्रवादाभावान्निधकत्वात्, व्याकरणस्मृत्यनुगृहीतस्य सर्व- ___श्चीयते 768 दानवच्छिन्नस्य एकत्वेन प्रतीत्यभावात्, अनुमानतोऽपि ब्राह्मणत्वजातिः प्रतीयते . . 769 . सङ्केतेन अर्थाभिधायित्वाद्वा स्यात् ? 763 | ब्राह्मणपदं व्यक्तिव्यरिक्तकनिमित्ताभिधेयसाधुत्वञ्च किं वाचकत्वम्, अनादिप्रयोगिता, सम्बद्धं पदत्वात् इत्यनुमानादपि ब्राह्मणधर्मसाधनत्वम्, विशिष्टपुरुषप्रणीतत्वम्, त्वसिद्धिः 769 विशिष्टार्थाभिधायित्वम्, बाधारहितत्वम्, वर्णविशेषयज्ञोपवीतादिव्यतिरिक्तनिमित्तनिप्रमाणान्तरानुगृहीतत्वम्, अनुपहतेन्द्रिय बन्धनं ब्राह्मण इति ज्ञानम् ग्राह्यत्वम्, अनावृतत्वम्, व्याकरणसिद्ध आगमादपि ब्राह्मणत्वजातिसिद्धिः स्वरूपत्वं वा स्यात् ? 763 | (उत्तरपक्षः) किं केवलेन्द्रियजनितेन प्रत्यअनादिप्रयोगितापि प्रवाहापेक्षया नित्यत्वा क्षेण ब्राह्मणत्वं प्रतीयते अन्यसहकृतेन्द्रिपेक्षया वोच्यते ? 764 यजनितेन वा ? प्रकृतिरेव हि प्राकृतं न तु प्रकृतेर्भवम् प्रथमपक्षे निर्विकल्पकेन सविकल्पकेन वा तेन प्रकृतिश्च कि स्वभावः, धातुगणः, संस्कृत तत्प्रतीयेत? 770 शब्दस्वरूपं वा? 764 इन्द्रियाणां सहकारि हि किं ब्राह्मणभूतपितृगुणान्तराधानं हि संस्कारः, अतः कथं संस्कृतं जन्यत्वं स्यात्, पित्रोरविप्लुतत्वोपदेशः, - प्रकृतिः स्यात् ? 764 आचारविशेषः, संस्कारविशेषः, वेदान हि अविचलितरूपतयावस्थापनमेव शब्दानां ध्ययनम् यज्ञोपवीतादिकम्. ब्रह्मसंस्कारः; अप्रतीतेः 764 प्रभवत्वं वा? 771 अविचलितरूपतयावस्थापनञ्च शब्दानां साद- पित्रोः ब्राह्मणत्वमपि ब्राह्मणभूतपितृजन्य__श्यापेक्षया, नित्यकरूपापेक्षया वा स्यात् ? 765 / त्वात् सिद्धयेत् तथाभूतपुत्रजनकत्वाद्वा? 771 धर्मसाधनत्वमपि साक्षात् परम्परया वा ? 765 | पित्रोरविप्लुतत्वञ्च विवक्षितपित्रपेक्षया, व्याकरणसिद्धस्वरूपता च प्राकृतशब्दस्याप्यस्ति 766 ___अनादिकालपितृप्रवाहापेक्षया वाऽभिप्रेतम् ? 772 संस्कृता वाक् कदा वक्तव्या कर्मकाले अध्य- प्रथमपक्षे तज्जन्मनि अविप्लुतत्वमभिप्रेतम्, ययनकाले वा? अनादिकाले वा? 772 अध्ययनकाले चेत् ; कस्य अध्ययनकाले प्राकृतस्य तज्जन्मनि चेत्, केन प्रतीयेत-पुत्रेण अन्यैर्वा ? 772 संस्कृतस्य वा? 766 / अन्यैरपि प्रत्यक्षतः, अनुमानात्, आगमाद्वा गाव्यादिशब्दानामपशब्दत्वञ्च किं स्वरूप तत्प्रतीयेत? 770 * 772 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 775 विषयानुक्रमः पित्रोरविप्लुतत्वे हि किं सांवृताकारविशेषः / तत्सापेक्षो वा ? 781 ___ अपत्येष्वविलक्षणता वा लिङ्गं स्यात् ? 773 82 आगमतोऽपि अपौरुषेयात् पौरुषेयाद्वा तत्प्र- श्रुतभेदा नयाः नतु मतिभेदाः 783 तीतिः स्यात् ? 773 स्पर्शवत्त्वात् जलादीनामपि गन्धादिमत्ता अबलानां प्रायेण कामातुराणामविप्लुतत्वम सिद्धयति 787 - शक्यनिश्चयम् 773 68 कारिकायां नैगम-नैगमाभासआचारविशेष-संस्कारयोश्च अव्याप्त्यतिव्याप्तिसद्भावान ब्राह्मणत्वनिश्चायकत्वम् 774 निरूपणम् 788 ब्रह्मणो ब्राह्मण्यमस्ति न वा ? 774 66 कारिकायां संग्रहतदाभासयोः अस्ति चेत्, किं सर्वत्र मुखप्रदेश एव वा ? 774 लक्षणम् 760 ब्राह्मण एव तन्मुखाज्जायते, तन्मुखादेव 70 कारिकायां व्यवहारतदाभासवाऽसौ जायते ?. स्वरूपम् 760 'ब्राह्मणपदम्' इत्यनुमानञ्च प्रत्यक्षबाधितम् 775 सत्ताकाशकालादिपदैरनैकान्तिकश्च पदत्वं हेतुः 775 / 71 कारिकायाम् ऋजुसूत्रतदाभासनगरादिभिरनैकान्तिकश्च पदत्वहेतुः . 776 लक्षणम् 762 नगरादिषु अनुवृत्तप्रत्ययनिबन्धनं हि द्रव्यम, 72 कारिकायां नैगमादीनां चतुर्णा- सत्ता, प्रत्यासत्तिविशेषो वा स्यात् ? 776 सत्तापि गृहादिविशेषिता नगरप्रत्ययम मर्थनयत्वस्य शब्दादित्रयाणां त्पादयेत् केवला वा ? 776 | __ शब्दनयत्वस्य च समर्थनम् 763 प्रत्यासत्तिविशेषोऽपि गृहादीनां गृहाद्यन्तरैः शब्दादीनां नयानां लक्षणानि समवायः संयोगो वा अभिप्रेतः ? 776 अनेकान्त निराकृतेः नयानां निरपेक्षत्वम अप्रतिपन्ने च ब्राह्मण्ये लिङ्गस्य अविनाभा इति षष्ठः प्रवचनपरिच्छेदः वावगमो न भवति 776 आगमतोऽपि अपौरुषेयात् पौरुषेयाद्वा तत्प्र 73-76 कारिकासु निक्षेपम्वरूपतिपत्तिः स्यात् ? 777 निरूपणम् अर्थापत्त्युपमानाभ्यामपि न ब्राह्मणत्वप्रतीतिः 777 जैनानाञ्च क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिह्नो नामादिनिक्षेपाणां लक्षणानि पलक्षिते व्यक्तिविशेषे वर्णाश्रमव्यवस्था निर्देशाद्यनुयोगानां स्वरूपम् 802 तन्निमित्तकश्च तपोदानादिव्यवहारः घटते 778 | सदाद्यनुयोगानां लक्षणानि 802 जाते: पवित्रताहेतुत्वे वेश्यापाटकादिप्रविष्टानां अर्थात्मको निक्षेपौ द्रव्यभावी, वागात्मक: . ब्राह्मणीनां कथं निन्दा स्यात् ? 779 नामरूपः, प्रत्ययात्मकश्च स्थापनारूपः क्रियाभ्रंशानिन्धतायां सिद्ध क्रियानिमित्त एकजीवानेकजीवादिनामभेदेन अनेकधा ब्राह्मणत्वम् 779 | नामनिक्षेपः विवृतिविवरणम् सद्भावासद्भावभेदेन द्विधा स्थापना 805 विवक्षामात्रसूचकत्वे हि शब्दानां कथं बहिरर्थे आगम-नोआगमादिभेदेन द्रव्यनिक्षेपस्य भेदाः 806 _प्रतीतिप्रवृत्तिप्राप्तयः स्युः ? 780 | भावनिक्षेपस्य भेदा: 807 विवक्षा च किं शब्दोच्चारणेच्छामात्रम्, आवरणस्वरूपविचारः '808-812 अनेन शब्देनाममर्थ प्रतिपादयामीत्यभि- (वेदान्तिनां पूर्वपक्षः) न चावरणस्य स्वरूपं प्रायो वा स्यात् ? 780 किञ्चित् प्रसिद्धम् ; तद्धि शरीरम्, समयानपेक्षः शब्दः तादृशमभिप्रायं गमयेत् रागादि, देशकालादिकं वा स्यात् ? 808 794 794 799 س 804 778 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याकुमुदचन्द्रस्य 816 . 81 810 .. 819 819 अविद्यैव आवरणं स्यात् न पौद्गलिकं कर्म 809 / णमेत अनपेक्ष्य वा? पौद्गलिकत्वेऽपि वा अनादिसन्तानत्वात् न यद्यपेक्ष्य; तदा किमपेक्ष्यम्-विवेकानुपलम्भः निर्जरासंभवः ___ अदृष्टं वा? 817 ( उत्तरपक्षः ) कर्ममात्रसद्भावे विवाद: अमुक्तात्मनि प्रवृत्ताधिकारत्वञ्च किं तत्र ज्ञानावरणादिकर्मविशेषे वा? 809 सम्बद्धत्वम्, शरीरसुखादिसम्पादकत्वंधा? 817 हीनस्थानादिषु विशिष्टाभिरतिदर्शनात् शरीरादिना आत्मनः कश्चिदुपकारः क्रियते कर्मसद्भावसिद्धिः नवा? 817 ज्ञानं सावरणं स्वविषयेऽस्पष्टत्वात् इत्यनुमा- | क्रियते चेत्; भिन्नः अभिन्नो वा ? 818 नात् ज्ञानावरणसिद्धिः पुरुषो न वस्तु सर्वथाऽकार्यकारणभूतत्वात् 818 अविद्याया अमूर्तत्वादावरणत्वासंभवः 810 अकर्तृत्वे चात्मनः भोक्तृत्वविरोधः, भुजिमूर्तेन मदिरादिना अमूर्तस्याप्यात्मन आवरणं __क्रियायाः कतैव हि भोक्ता 818 भवति | कर्तृत्वविकल्पस्य वस्तुशून्यत्वे भोक्तृत्वादिमिथ्याज्ञानादिः पुद्गलविशेषसम्बन्धनिबन्धनः __ धर्माणामपि वस्तुशून्यत्वं स्यात् 819 तत्स्वरूपान्यथाभावस्वभावत्वात् इत्यनु. अकर्तुर्भोक्तृत्वाभ्युपगमे च कृतनाशाकृतामानात् कर्मसिद्धिः भ्यागमप्रसङ्गः कर्मणामात्मगुणत्वे हि आत्मपारतन्त्र्यनिमित्त- बुद्धिचैतन्ययोहि भेदाभावः त्वं न स्यात् अपरिणामिन्याश्चितिशक्तेः वस्तुत्वमेव अनु. हीनस्थानपरिग्रहवत्त्वात् पारतन्त्र्यमात्मनः पपन्नम् 820 सुप्रसिद्धम् 810 | जैनास्तु मुक्तात्मानमपि परिणामिनं स्वीकुर्वन्ति 820 शरीरं हीनस्थानमात्मनो दुःखहेतुत्वात् 811 / यदा बुद्धया चितिशक्त्यै विषयः प्रदर्श्यते तदाफपौद्गलिक कर्म आत्मनः पारतन्त्र्यनिमित्तत्वात् 811 सौ प्राचीनमर्शितस्वरूपं त्यजति न वा? 820 विपक्षपरमप्रकर्षसद्भावे कर्मणामनादित्वेऽपि शुद्धत्वादनन्तत्वाद्वान चितेरपरिणामित्वसिद्धिः 821 प्रक्षयोपपत्तेः 811 किम् अज्ञानमेव तमः, उत अज्ञानञ्च तमश्चेति?८२१ प्रकृष्यमाणत्वाद्धेतोः ज्ञानादीनां परमप्रकर्ष- विवेकख्यातिश्च किं प्रकृतेर्भवति पुरुषस्य गतिः संभाव्यते 811 ___ तद्व्यतिरिक्तस्य वा कस्यचित् ? 822 आवरणहानिः प्रकृष्यमाणा आवरणहानित्वात् 812 | विवेकख्यातिश्च बुद्धिधर्मत्वात् भवन्मते पुरुषे ज्ञानावरणादि आमूलं प्रक्षीयते समग्रक्षयहेतू न संभवति, संभवे वा सा ततो भिन्ना, पेतत्वात् अभिन्ना वा? . 822 कर्मप्रक्षयहेतु च संवरनिर्जरे 812 भिन्ना चेत; नित्या अनित्या वा ? 822 अदृष्टस्य प्रकृतिविवर्तत्वनिरासः 813-23 | नित्यापि सम्बद्धा असम्बद्धा वा ? 822 (सांख्यस्य पूर्वपक्षः) नात्मगुणोऽदृष्टं प्रकृति- अनित्यापि जन्या अजन्या वा? 822 विवर्तत्वात्तस्य जन्यत्वेऽपि प्रात्मना प्रकृत्या तद्वयतिरिक्तेन पुरुषो हि साक्षित्वादिस्वरूपः 813 वा केनचिदसौ जन्येत ? कर्तृत्वं हि प्रकृतेरेव 814 | प्रात्मनापि प्रकृतिवियुक्तेन तत्सहितेन वासौ प्रकृतिसंसर्गात् अकर्ताऽपि पुरुषः कर्तेब भाति 814 जन्येत? 822 प्रकृतिस्थपि सुखादिकमज्ञानतमश्छन्नतया प्रकृतेर्जडतया 'विज्ञातविरूपाऽहम्' इति आत्मस्थं मन्यमानस्य तदुपभोक्तृता भवति 815 | ज्ञानानुत्पत्तेः . 823 (उत्तरपक्षाः) न हि प्रकृतिः प्रमाणसिद्धा यत- विज्ञातापि मोक्षावस्थायामपि भोगसम्पादनाय स्तद्विवर्त्तत्वं कर्मणां स्यात् 816 / वायुवत् प्रवर्तताम् 823 प्रकृतिहिं पुरुषस्थं निमित्तमपेक्ष्य तथा परि- | अतः मोक्षेप्यात्मा विशुद्धज्ञानादिरूपः स्वीकार्यः 823 812 813 / Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः 831 825 832 मुक्तिस्वरूपविचारः 823-47 ___म्भावित्वात् 829 (योगानां पूर्वपक्षः) नवानामात्मविशेषगुणा- आतुरस्यापि नीरुग्भावाभिलाषेणव प्रवृत्तिः 830 नामत्यन्तोच्छेदात् आत्मस्वरूपेण अवस्थानं संसारकारणं हि मिथ्यांदर्शनादित्रयात्मकमतः मोक्षः 823 | मोक्षकारणेनापि त्रितयात्मकेनैव भविसन्तानत्वाद्धेतोः विशेषगणोच्छेदसिद्धिः 824 तव्यम् 830 तत्त्वज्ञानाच्च मुक्तिः 124 / ( वेदान्तिनां पूर्वपक्षः ) परमप्रकर्षप्राप्तसुखस्व. . सञ्चितकर्मणाञ्च फलोपभोगात् प्रक्षयः 824 भावतैव आत्मनो मोक्षः न तु ज्ञानादिअभिलाषाभावेऽपि तत्त्वज्ञानिनः कर्मक्षयाथितया स्वभावता कर्मफलोपभोगे प्रवृत्तिः | आत्मा सुखस्वभावः अत्यन्त प्रियबुद्धिविषयत्वात्, शरीरादिनिवृती चात्मा सर्ववैषयिकसुखदु:ख मुख्यप्रेयोबुद्धिविषयत्वात्, निरुपचरितशून्यः समस्तधर्माधर्मरहितत्वात् प्रेयःशब्दवाच्यत्वाच्च 831 'न ह वै सशरीरस्य' इत्याद्यागमादपि मुक्ती इष्टार्थो ममक्षप्रयत्नः प्रेक्षापूर्वकारिप्रयत्नत्वात् 831 विशेषगुणशून्य आत्मा प्रतीयते 825 | तारतम्यदर्शनात् सुखस्य पराकाष्ठाप्राप्तिः 831 (उत्तरपक्षः) आत्मनः सर्वथा भिन्नानां बद्धयादि- 'आनन्दं ब्रह्मणो रूपम्' इत्यादि श्रुतेश्च विशेषगणानांसन्तानस्य उच्छेदः प्रसाध्यते, आनन्दरूपताप्रसिद्धिः अभिन्नानाम् कथञ्चिदभिन्नानांवा? 825. | अविद्यावशाच्च संसारावस्थायां. नित्यानन्दसन्तानत्वञ्च साधनं सामान्यरूपं विशेषरूपं स्यानभिव्यक्तिः 832 वा? 826 | (उत्तरपक्षः) सुखस्वभावत्वं किं सुखत्वजाति. सामान्यरूपत्वेऽपि परसासामान्यरूपम्, अपर सम्बन्धित्वं सुखाधिकरणत्वं वा ___सामान्यरूपं वा स्यात् ? विवक्षितम् ? विशेषरूपत्वेऽपि उपादानोपादेयभूतबद्धयादि- सुखञ्च नित्यमनित्यं वा ? 832 क्षणविशेषरूपम्, पूर्वापरसमानजातीयक्षण- नित्यमपि कथञ्चित् सर्वथा वा ? 832 'प्रवाहमात्ररूपं वा ? आत्मनः प्रतिबन्धकापायोपेतस्य मुक्तौ अपकार्यकारणक्षणप्रवाहलक्षणसन्तानत्वस्य नित्या रापरसुखोत्पत्तेः कारणत्वात् 832 नित्यकान्तयोरसम्भवात् विरुद्धोऽयं हेतुः 827 नित्यसुखग्राहि प्रमाणञ्च प्रत्यक्षम् अनुमानम्, सन्तानत्वाद्धेतोः इन्द्रियजानां वुद्धयादिगुणा आगमो वा स्यात् ? 832 नामुच्छेद: साध्येत अतीन्द्रियाणां वा ? 827 प्रत्यक्षञ्च ऐन्द्रियम, मानसम, स्वसंवेदनं,वा? 833 नहि निखिलगुणोच्छेदरूपे पाषाणकल्पे वैशेषि यस्मात्प्रमाणात्तत्सुखरूपप्रतीति: तत्प्रमाणं काभिमते मोक्षे प्रेक्षाकारिणां प्रवृत्तिः 828 नित्यमनित्यं वा ? 833 मुक्तौ बुद्धयादिविशेषगुणानामभावः कारणा- संसारावस्थायां हि प्रतिबद्धत्वं किं शरीरेण भावात्, निष्प्रयोजनत्वात्, विरुद्धत्वाद्वा अविद्यया वैषयिकसुखाद्यनुभवेन बाह्यस्यात् ? विषयव्यासङ्गेन वा ? 834 आद्यपक्षे कस्य कारणस्याभाव:-चक्षुरादेः, प्रति- यदि नित्यं सुखं मुक्तावभ्युपगम्यते तदा नित्यं बन्धकापायस्य वा ? 828 देहादिकमपि स्वीकर्त्तव्यम् 835 भवतां मते संसारस्वरूपं हि विशेषगुणानुच्छेद: | नित्यसुखाभ्युपगमे तत्संवेदनाभ्युपगमे च दर्शभवान्तरावाप्तिर्वा स्यात् ? 826 / ___ नस्य शक्तेश्च सामर्थ्यसिद्धत्वादनन्तचतुअत्यन्तं बद्धयादिगुणोच्छेदस्य मोक्षत्वे भवतः ष्टयरूपतव आयाता प्रदीपनिर्वाणवादिनः को विशेषः ? 829 / अत्यन्तप्रियवद्धिविषयत्वमनन्यपरतयोपादीयउपभोगाच्च कर्मणामात्यन्तिकप्रक्षयानुपपत्तेः / मानत्वञ्च दुःखाभावेन अनेकान्तिकम् 836 उपभोगसमये अपररागादीनामवश्य- प्रेयोबुद्धिविषयत्वं निरूपचरितप्रेयः शब्दवाच्य 828 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 न्यायकुमुदचन्द्रस्य 838 त्वञ्चासिद्धम; दुःखितायामप्रियबुद्धे.. तेन हि प्राक्तनस्य रागादिक्षणस्य नाशः क्रियते रपि भावात् भाविनो वाऽनुत्पादः, तदुत्पादकशक्तेर्वा अनिष्टोपरमार्थमपि प्रेक्षावत्प्रयत्नो भवति 836 क्षयः, सन्तानस्योच्छेदोऽनुत्पादो वा, निरा इष्टशब्देन च किं सुखमभिधीयते, अभिप्रेत- स्रवचित्तसन्तत्युत्पादो वा? 843 प्रयोजनमात्रं वा ? अन्त्यज्ञानञ्च सत्, तदुत्पादने शक्तञ्च तत्कतारतम्यशब्दवाच्यत्वञ्च साधनं परत्वादिना थन्न ज्ञानान्तरक्षणमुत्पादयति ? 843 अनैकान्तिकम्, दुःखपरमप्रकर्षेण व्यभि- सहकारिणा हि भावस्योत्पत्तेः प्रतिबन्धः चारि च 837 क्रियते उत्पादकत्वस्य वा? 843 आगमस्य तु अपौरुषेयस्य प्रामाण्यमेव नास्ति 837 / अन्त्यचित्तक्षणस्य अर्थक्रियाकारित्वाभावे सकलआगमश्च आनन्दरूपतासद्भाववत् सुखाभाव सन्तानस्यावस्तुत्वं स्यात् / मपि सूचयति 837 / निरास्रवचित्तसन्तत्युत्पत्तिपक्षे सा चित्तसन्ततिः अविद्यायाः आवरणरूपतानुपपत्तिः. . 838 | सन्वया निरन्वया वा? 844 (बौद्धस्य पूर्वपक्षः ) कार्यकारणभूतज्ञानप्रवाह- 'बद्धमेव आत्मानं मोचयिष्यामि' इति दृढतरै व्यतिरेकेण अन्यस्य आत्मनोऽभावात् कस्य कत्वाध्यवसाये कथं नैरात्म्यदर्शनम् ?. 845 आनन्दादिरूपता प्रसाध्यते ? 838 | हिताहिततत्त्वज्ञो हि आत्यन्तिकसुखसाधनमेव - आत्मशिनश्च मुक्तिः दूरोत्सारिता 838 उपभोगाश्रयमात्मीयञ्चाभिमन्यते न तादाआत्मदर्शनं हि रागादिनिमित्तम् त्विकसुखसाधनम् 845 मुमुक्षुणा स्वरूपं पुत्रकलत्रादिकञ्च अनित्या- न हि आत्मनि सारूप्यादिदर्शनात्स्नेहो भवति नात्मकाशुचिदुःखरूपेण श्रुतमय्या चिन्ता किन्तु उपभोगाश्रयत्वाख्यगुणदर्शनात् 845 मय्या च भावनया भावनीयम् व्रताविरोधी हि कायक्लेशः निर्जराहेतुत्वात् नैरात्म्याभ्यासान्मुक्तिः 840 तप इत्यभिधीयते इन्द्रियादिषु उपभोगाश्रयत्वेन गृहीतेषु स्वत्वधीः क्षीणमोहान्त्यसमये अयोगिचरमसमये च स्वनैरात्म्यभावनयव निर्वायते. 840 ___ ल्पेनैव परमशुक्लध्यानरूपतपसा बहुतरकर्मकायक्लेशरूपतपसः नारकादिकायसन्तापवत् प्रक्षयोऽभ्युपगम्यत एव कर्मफलरूपत्वात् तपस्त्वानुपपत्तेः 841 सुषुप्त्यादिषु ज्ञानसद्भावसिद्धिः 847-51 नापि कर्मणां शक्तिसङ्करद्वारा तपः कर्म- (वैशेषिकादीनां पूर्वपक्षः) किञ्चिदप्यपरिक्षयकारि च्छिन्दन्नेव हि सुषुप्त इत्यभिधीयते ( उत्तरपक्षः ) रागादिनिवृत्तो मुक्तिः इति तु अतस्तत्र नास्ति ज्ञानसद्भावः 847 स्वीक्रियते एव 842 842 ज्ञानसद्भावे हि जाग्रत्सुषुप्त्यवस्थयोर्भेदाकालान्तरस्थाय्येकात्मव्यतिरेकेण भावनापि न भावः स्यात् 847 सङ्गच्छते 842 निद्रयाऽभिभवो हि ज्ञानस्य नाशः तिरोभावो क्षणिकपक्षे हि बन्धमोक्षयोरैकाधिकरण्यमेव वा स्यात् ? नोपपद्यते 842 (उत्तरपक्षः) सुषुप्तावस्थायां स्वापादिसंवेइष्टानुसन्धानेन हि प्रेक्षावत्प्रवृत्तिर्भवति, दनस्य तत्सुखसंवेदनस्य च सद्भावात् 848 भवत्पक्षे च कः अनुसन्धाता स्यात-क्षणः ज्ञानानभ्युपगमेच 'सुखमहमस्वापम्' इत्युत्तरसन्तानो वा ? 842 कालं स्मरणं न स्यात् 848 आत्मनोऽनभ्युपगमे च एकत्वाध्यारोपस्या- मत्तमूच्छिताद्यवस्थायामपि 'न किञ्चिन्मप्यनुपपत्तेः 843 यानुभूतम्' इति स्मरणसद्भावादस्ति संस्काराणां निरन्वयविनश्वरत्वे हि मोक्षार्थः विज्ञानम् 848 प्रयासो व्यर्थ एव 843 / न च सुषुप्तादिषु ज्ञानस्य इदमित्थ मिति निरूप 841 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः 8 855 .849 वा? 857 णाभावादभावः; बालसुखेनानेकान्तात् 849 / ज्ञानिनामपि अस्ति सुषुप्तावस्थायां ज्ञानसद्भावेऽपि अनभिभूतज्ञा- नापि केवलिनो जिह्वारसप्राप्तेः मतिज्ञानिनवती जाग्रदवस्था अभिभूतज्ञानवती च त्वम् ; अन्यथा गणधरदेवादिदर्शनसुषुप्तावस्थेति तयोर्भेदः दिव्यतर्यरवादिश्रवणाभ्यामपि तत्स्यात् 855 ज्ञानस्य निद्रादिना अभिभवोऽपि बाह्याध्या- केवली देवच्छन्दकाभिधाने स्थाने गणधरदेव त्मिकार्थविचारबिधररूपेणावस्थानमेव 849 ___ रानीतमाहारं क्षुद्वेदनोदये गृह्णाति 855 सुषुप्ताद्यवस्थायां ज्ञानाभावं स एवात्मा सर्वज्ञाहारनिहारयोः मनुष्यतिरश्चामगोप्रतिपद्यते पार्श्वस्थो वा ? चरत्वात् 855 यदि स एव ; किं तत एव ज्ञानात्, तदभावात्, (उत्तरपक्षः) 'वेद्यादिकर्मोदयात् केवलिनि तदनुपलम्भात, जाग्रत्प्रबोधदशाभावि आहारमात्रं प्रसाध्येत कवलाहारो वा ? 855 ज्ञानान्तराद्वा? 849 षड्विधाहारमध्ये कवलाहाराभावेऽपि कर्मनोअनुपलम्भतोऽपि तत्कालभाविनः अन्यकाल कर्मादानलक्षण आहार: स्वीक्रियत एव 856 . भाविनो वा तदभावप्रतिपत्तिः? न च कवलाहारेणव आहारित्वं जीवानाम् 856 ननु द्विविधः प्राणादिः-चैतन्यप्रभवः प्राणादि- वेद्योदयः कवलाहारसाधक इति अभ्युपगप्रभवश्च, चैतन्यप्रभवो जाग्रदवस्थायां ममात्रात् स्वीक्रियते, प्रमाणतो वा? 857 प्राणादिप्रभवश्च सूषप्त्यादिषु; इत्यप्यसत् प्रमाणमपि कि प्रत्यक्षम्, अनुमानम्. आगमो प्रमाणमाप कि प्रत्यक्षम्, अनुमान सुषुप्तेतरावस्थयोः प्राणादेविशेषाप्रतीतेः 851 सुषुप्त्यादौ च प्रथमः प्राणादिः कुतो जायताम् ? 851 / प्रत्यक्षञ्चेत् ; किमन्द्रियम्, अतीन्द्रियं वा ? 857 केवलिकवलाहारविचारः 852-865 अनुमाने च किं वेद्योदय एव लिङ्गं स्यात् (शाकटायनस्य श्वेताम्बराणाञ्च पूर्वपक्षः) अवि- मनुष्यत्वं वा देहस्थितित्वं वा? 857 कलकारणत्वादस्ति केवलिनि भुक्तिः 852 | देहस्थितित्वाच्च हेतोः किमाहारमात्रपूर्वकत्वं क्षुदभावे हि प्रमाणम् आगमः अन्यद्वा ? 852 | प्रसाध्यते कवलाहारपूर्वकत्वं वा? 857 प्रमाणान्तरञ्च स्वभावानुपलम्भः अन्यद्वा ? 852 केशादिविवृद्धयभाववत् केवलिनि भुक्त्यभाअन्यतोऽपि विधीयमानात निषिध्यमानाद्वा वोऽपि अविरुद्धः 857 . केवलिनि क्षनिषेधः? 852 | न च केशादिवृद्धय भावो देवोपनीतः 857 ज्ञानादिमात्रस्य क्षधा विरोधः, तद्विशेषस्य वा? 852 | भक्त्यभ्यपगमे च अक्षिपक्ष्मनिमेष: नख केशनिषिध्यमानश्च भावः क्षुधः कार्य कारणं वृद्धयादिश्चाभ्युपगन्तव्यः व्यापको वा स्यात् ? 853 तपोमाहात्म्यात् चतुरास्यत्वादिवच्चास्य प्रतिपक्षभावनाऽनिवर्त्यत्वेन च न मोहस्व अभुक्तिपूर्वकत्वे को विद्वेषः ? 857 भावा क्षुत् आयुःकर्मैव हि प्रधानं शरीरस्थितेनिमित्तं शीतोष्णबाधातुल्यत्वाच्च न क्षुधो मोहस्व- ___भुक्त्यादिकं तु सहायमात्रम् भावता 853 | पाकालं शरीरस्थिते क्त्यभावेऽप्रतीतिः किं न च क्षुदभ्युपगमे अशेषज्ञत्वविरोधः 854. प्रत्यक्षात् अनुमानाद्वा ? भुक्त्यभावे देशोनपूर्वकोटिं विहरतः केवलिनः / 'अभुक्तिपूर्वको देहस्थितिप्रकर्षः क्वचित्परकायस्थितिः न घटते 854 | मकाष्ठामापद्यते प्रकृष्यमाणत्वात्' इत्यनुप्रदीपज्वालाजलधारासमानं शरीरं कथं मानात्तत्सिद्धिः 858 भुक्त्यभावे स्थितिमास्तिघ्नते 854 अविकलकारणत्वञ्च भुक्तेः असिद्धम् ; भक्तिर्यदि दोषः तदा निषद्या गमनञ्च केव- ____ मोहनीयाभावात् 859 लिनि न स्यात् 854 | नास्ति भगवति बुभुक्षा तत्कारणमोहाभावात 859 मांसादिदर्शनतोऽन्तरायसंभावना तु अवधि- | यदि कर्मणामुदयः अनपेक्षः कार्यकारी स्यात् Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्रस्य 860 तदा प्रमत्तादिषु त्रिवेदोदयात् मैथुना- वस्थानार्थम्, रहस्यकार्यानुष्ठानार्थं वा ? 864 दिकं स्यात् | रहस्यकार्यञ्च निन्द्यमनिन्द्यं वा ? 864 नामादीनां शुभप्रकृतीनां केवलिनि स्वकार्य- अनिन्द्यञ्च कार्य भोजनम, कर्मक्षपणं वा? 864 . कारिता अप्रतिबद्धत्वात कस्मादसौ एकान्ते भुङ क्ते-दृष्टिदोष भयात्, प्रतिबद्धसामर्थ्यमपि वेदनीयं यदि केवलिनि याचकभयात् अनुचितानुष्ठानाद्वा ? 864 क्षुधमुत्पादयेत् तदा दण्डकवाटादिरूप- कर्मणां क्षपणमपि पूर्वोपार्जितानां भुक्तिकासमुद्धातक्रिया व्यर्था 859 लोपार्जितानां वा अर्हता तत्र विधीयते ? 864 न हि बुभुक्षा मोहनीयानपेक्षस्य वेदनीयस्यैव पूर्वोपार्जितानामपि घातिनामघातिनां वा कार्यम 860 क्षयः क्रियते ? 864 / बुमक्षापि प्रतिपक्षभावनातो निवर्तते इच्छा- भक्तिकालोपार्जितानां कर्मणां क्षयो यदि त्वात् रिरंसावत् प्रतिक्रमणतो विधीयते तदा कथं निर्दोन बुभुक्षावान् केवली तद्विरोधिनिमोहस्व षता केवलिनि स्यात् ? 864 भावोपेतत्वात् 860 भोजनं कुर्वाण : केवली गणधर देवैरपि न . पिण्डषणोपदेशोऽपि चेतसः प्रतिपक्षभावना दृश्यते' इत्यत्र किं तददर्शनकारण म्मयत्वोत्पत्तेः प्रागवस्थायामेव 860 बहलतमःपटलाच्छादितत्वम्, काण्डपटादुःखरूपत्वाच्च क्षुधो न अनन्तसुखे केवलिनि द्यावृतत्वम्, विद्याविशेषेण स्वस्य तिरोसंभवः धानम्, अन्यजनातिशायी माहात्म्यविक्षुदुःख विरोधिनः बलवतोऽनन्तसुखस्य सद् शेषो वा ? 865 भावे हि नांभ्युदितकारणापि क्षुत केव- स्त्रीमुक्तिवादः 865 लिनि संभाव्या 861 (शाकटायनस्य सितपटानाञ्च पूर्वपक्ष:) सर्वज्ञत्वाच्च भगवतः क्षुदभावः 861 अविकलकारणात्वादस्ति द्रव्यस्त्रीणां 'एकादश जिने' इत्यागमोऽपि क्षुधाोकादश निर्वाणम् परीषहप्रतिषेधपरः प्रतिपत्तव्यः 'एकेन स्त्रीत्वसद्भावे च रत्नत्रयस्याभावः प्रत्यक्षतः अधिका न दश' इति व्युत्पत्तेः 862 / अनुमानात्, आगमाद्वा प्रतीयेत ? 866 वचनादीनां तीर्थकरत्वकर्मोदयापादितत्वात् 'सप्तमपथिवीगमनाभावात्' इति हेतोरपि न दोषरूपत्वासंभवाच्च 862 स्त्रीणां निर्वाणाभावः; तद्गमनाभावस्य नहि अष्टादशदोषेषु क्षुधादिवत् वचनादिरपि निर्वाणाभावेन व्याप्त्यभावात् . 866 पठ्यते 862 न हि सप्तमपथिवीगमनं निर्वाणस्य कारणं अवधिज्ञानिनां ज्ञानस्य सोपयोगतया उपयोग व्यापकं वा ? . काले एव अन्तरायसंभावना, केवल- चरमदेहः व्यभिचारि च 867 ज्ञानस्य तु सदोपयुक्तत्वात् सर्वदाऽन्त- विषमगतयोऽप्यध स्तात् उपरिष्टात्तुल्यमासहरायः स्यात् सारं गच्छन्ति तद्विष मगत्यूनताऽहेतुः 867 किमर्थञ्चासौ भुङ्क्ते-शरीरोपचयार्थम्, नापि वादादिलब्ध्यभावात् स्त्रीणां मोक्षाभावः 867 ज्ञानदर्शनवीर्यादिक्षयनिवृत्त्यर्थम्, क्षुद्वेद- स्त्रीणां वस्त्रलक्षणपरिग्रहसद्भावोऽपि न नाप्रतीकारार्थम्, आयुषोऽसाधितभुक्ति निर्वाणाभावप्रसाधकः; नहि वस्त्रादि कस्यापवर्तननिवृत्यर्थम्, रसगृद्धयुपश परिग्रहः धर्मसाधनत्वात् 868 मार्थम्, लोकानुग्रहार्थ वा ? 863 : ममत्वमेव हि परिग्रहः 868 समवशरणं विहाय केवली किमर्थ देवच्छन्दके प्रमादो हि हिंसा, नतु जन्तत्पत्तिस्थानवस्त्रगच्छति-मनोविक्षेपपरिहारेण ध्यानसि परिधारणमात्रम् द्धयर्थम् निरोधाक्षमत्वतो यथासुखम- | गणधरादयोऽपि तीर्थकरादिभिरवन्द्याः अतः पावस्थ 868 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 874 870 विषयानुक्रमः . पुरुषैरवन्द्यत्वादपि न स्त्रीणां मोक्षाभावः / संभवात् 874 प्रतिपादयितुं शक्यः 869 | स्त्रीणां शीलपालनार्थ वस्त्रमस्तु, नात्र विवादः, नापि हीनसत्त्वाः स्त्रियः 869 मोक्षे एव विवाद: 874 सत्त्वं हि तपःशीलसाधारणम्, तच्च स्त्रीषु | नहि सचेलं गृहस्थशीलं मोक्षहेतुः 874 - विद्यत एव वस्त्रग्रहणे लोभकषायपरिणतौ अप्रमत्त'अटुसयमेगसमये' इत्यागमोऽपि स्त्रीनिर्वाण त्वानुपपत्तेः प्रमाणम् लज्जापनोदार्थ वस्त्रस्वीकारे च कामपीडापयथा स्त्रीवेदेन पुंसां सिद्धिः तथा स्त्रीणामपि नयनाय कामुकादिस्वीकारोपि कर्त्तव्यः 874 स्यात् 870 / न हि वीतरागस्य लज्जापि संभवति 874 न च सिद्धयतो वेदः संभवति 870 यदि पुसामचेलः संयमः स्त्रीणाञ्च सचेल: ( उत्तरपक्षः) रत्नत्रयं हि परमप्रकर्षप्राप्त मोक्षहेतुः स्यात्तदा कारणभेदात् मुक्तेरपि सत् मुक्तिकारणं तन्मात्रं वा ? 870 भेद: स्यात् 875 नास्ति निर्वाणकारणरत्नत्रयप्रकर्षः स्त्रीषु सचेलसंयमस्य मुक्तिहेतूत्वे वस्त्रादित्यागः परमप्रकर्षत्वात् सप्तमपृथिवीकारणापु किमर्थमुपदिष्ट: ? 875 ण्यपरमप्रकर्षवत् 870 न वस्त्रं मुक्तेरङ्गं तत्त्यागस्य कर्त्तव्यतयोपदिअविनाभाववशाद्धि सप्तमपथिवीगमनाभावात् श्यमानत्वात् 875 हेतोः निर्वाणाभाव: प्रसाध्यते 870 स्त्रीणां न निर्वाणपदप्राप्तिः यतिगृहिदेववन्द्यचरमशरीरिणामपि भरतादीनां दिग्विजयया. पदानहत्वात् 875 त्रायां सप्तमपृथिवीगमनयोग्याशुभकर्मा- परापरभेदेन यतिवन्धं पदं द्विविधम 875 र्जनम् , देवार्चनसमये च सर्वार्थसिद्धि- गहि देववन्द्यमपि पदं परापरभेदात् द्विविधम् 875 गमनकारणशुभकर्मार्जनं भवति | प्रतिगृहञ्च प्रभुत्वं पुरुषाणामेव श्रूयते न . . यस्य उपरिष्टात् प्रकृष्टाशुभगतिप्रसाधने / स्त्रीणाम् 875 सामर्थ्य तस्य अधस्तात् प्रकृष्टाशुभगति- ततः स्त्रीणां न मोक्षः पुरुषेभ्यो हीनत्वात् 876 प्रसाधनेऽपि, न च स्त्रीणां प्रकृष्टाशुभ- सारणवारणपरिचोदनादीनि स्त्रीणां पुरुषाः गतिसमुपार्जनसामर्थ्यमभ्युपेयते अतः कुर्वन्ति न तु पुरुषाणां स्त्रियः उत्कृष्टशुभोपार्जनसामर्थ्यमपि नास्ति 872 | तीर्थकराकारधराश्च पुरुषा एव 876 यदा स्त्रीषु लौकिकवादादिलब्धिहेतुः संयमोपि नहि पुरुषवत् महासत्त्वाः स्त्रियः नास्ति तदा मोक्षहेतुरसौ कथं भविष्यतीति?८७२ | स्त्रीवर्गापेक्षयव सीतादीनां प्रकृष्टत्वमक्तं न तू आगमे संयमविशेषनिषेधादेव मोक्षाभाव पुरुषापेक्षयापि उक्त एव | न स्त्रीशरीरं रत्नत्रयोपेतात्माश्रितम् महता स्त्रीणामाचेलक्यसंयमनिषेध आगमे कृत एव 872 पापेन निर्वतितत्वात् प्रतिलेखनं हि संयमरक्षार्थं वस्त्रं तु किमर्थम् ? 873 / न स्त्रीशरीरं सकलकर्मक्षपणाप्रारम्भहेतुः मह'धर्मसाधनानां परिग्रहत्वे' इत्यत्र कोऽयं धर्म: ता पापेन मिथ्यात्वसहायेनोपाजितत्वात् 877 . यः वस्त्रात् स्यात्-पुण्यविशेषः, संयम- यासाञ्च . उत्कृष्टस्थितिकदेवपदप्राप्तिरपि विशेषो वा ? 873 नास्ति तासां कथं मोक्षपदप्राप्तिः ? 877 आगमविहितविधिना उपादीयमानाः पिण्डौष- 'अट्रसयमेगसमये' इत्याद्यागमो नास्माकं ध्यादयः मोक्षहेतोरुपकर्तारः / / 873 प्रमाणम् 877 बुद्धिपूर्व हि पतितं वस्त्रमादाय परिदधानस्य 'पुवेदं वेदन्ता जे पुरिसा' इत्यागमे द्रव्यपुरुमूर्छारहितत्वानुपपत्तेः 873 षाणामेव पुवेदोदयवत् इतरवेदोदयेनापि उपसर्गाद्यासक्ते वस्त्रे पतिते बुद्धिपूर्वं ग्रहणा- मुक्तिः प्ररूपिता 878 870 876 876 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2 न्यायकुमुदचन्द्रस्य 878 न द्रव्यस्त्री भावतः पुरुषो भूत्वा सिद्धयति; ग्रन्थकृत्प्रशस्तिः द्रव्यस्त्रीवेदस्य मोक्षप्रसाधनसामर्थ्याऽ इति सप्तमः निक्षेपपरिच्छेदः भावात् अतः नास्ति द्रव्यस्त्रीणां मोक्षः 878 प्रशस्तिः 77-78 कारिकयोः शास्त्राध्ययनस्य प्रयोजननिरूपणम् 878-76 सम्पादकप्रशस्तिः -- - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भट्टाकलङ्कदेवविरचितस्वविवृतियुतलघीयस्त्रयस्य अलङ्कारभूतः श्रीपद्मनन्दिप्रभुशिष्य-श्रीमत्प्रभाचन्द्राचार्यविरचितः ॥न्याय कुमुद चन्द्रः॥ (द्वितीयो विभागः) [पाठान्तर-अवतरणनिर्देश-ऐतिह्यतुलनार्थबोधकटिप्पणी-परिशिष्टाद्यशुभी राजितः] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "श्रीमद्भट्टाकलङ्कस्य पातु पुण्या सरस्वती। अनेकान्तमरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया // " -शुभचन्द्रः Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमत्प्रभाचन्द्राचार्यविरचितः // न्या य कु मु द च न्द्रः // -AKK[द्वितीयो भागः] प्रमाणप्रवेशे तृतीयः परोक्षपरिच्छेदः / प्रत्यक्षं प्रतिपाद्य लक्षणफलस्वार्थान्वितं तत्त्वतः , स्पष्टार्थप्रतिपत्तिशून्यमधुना व्याख्यायते तच्छ्रुतम् / प्रामाण्यं पुनरस्य यैस्तु कुमतध्वान्ताभिभूतेक्षणैः , नेष्टं तैर्न→ विप्रकृष्टविषयज्ञानाय दत्तं जलम् // 1 // अथेदानीं परोक्षस्वरूपप्ररूपणायाहज्ञानमाद्यं मतिः संज्ञा चिन्ता चौऽऽभिनिबोधिकम् // 10 // प्राङ् नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् / नमता विद्यानन्दिनमैतिह्याद्यैविभूष्य संस्क्रियते / न्यायकुमुदचन्द्रोत्तरभागः सम्यक महेन्द्रेण // 1 // (1) अस्पष्टम् / (2) श्रुतस्य / ( 3) निश्चयेन / ( 4 ) अतीन्द्रियज्ञानाय। (5) अनया कारिकया ‘मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्' [ तत्त्वार्थसू० 1313] इति सूत्रार्थं समन्वेति / तुलना-"मतिस्मृत्यादयः शब्दयोजनमन्तरेण न भवन्तीत्येकान्तो न यतस्तत्रसंकीर्येरन् / तदेकान्ते पुनर्न क्वचित् स्युः तन्नामस्मृतेरयोगात्, अनवस्थानादेः।" -सिद्धिवि०पू०१०० A. / अनन्तवीर्य विद्यानन्दाभयदेवाद्याचार्याभिप्रायेण शब्दयोजनात् प्राक्कालभाविनां मतिस्मृत्यादीनां मतिज्ञानेऽन्तर्भावः तदुत्तरकालभाविनां तु तेषां श्रुतेऽन्तर्भावः इति / तथा च तेषां ग्रन्थाः-"ननु मत्यादिकं सर्वमभिधानपुरस्सरमेव स्वार्थ प्रत्येति इति शब्दश्रुत एवान्तर्भावोऽस्य, तथा च तच्चिन्तने एवास्य चिन्ता भविष्यतीति पृथगिह चिन्तनमनर्थकमिति चेदत्राह-'शब्दयोजनम्' इत्यादि / मतिस्मत्यादयः शब्दयोजनमन्तरेण न भवन्ति किन्तु तद्योजने सति भवन्ति इत्येवमेकान्तो न, यत एव एकान्तात् तत्र अन्तर्भाव्येरन् इत्यर्थः / यत इति वा आक्षेपे नैव संकीर्येरन् / विपक्षे बाधकमाह-तदेकान्त इत्यादि। स चासौ एकान्तश्च तस्मिन् अङ्गीक्रियमाणे पुनः न क्वचित् बहिरन्तर्वा स्युः मतिस्मृत्यादयः। कुत एतदित्यत्राह-तन्नाम इत्यादि / यस्य नाम्नो योजनात् मतिस्मृत्यादयः तत् तन्नाम इत्युच्यते तस्य स्मृतेरयोगात् ।”-सिद्धिवि० टी० पृ० 100 A. / “संप्रति श्रुतस्वरूपप्रतिपादकमकलंकग्रन्थमनुवादपुरस्सरं 1 कुमति-आ०, ब०। 2 वाभिनि-ब०। 3-बोधकम् ब०, श्र०, -बोधनम् मु० लघी० / Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० विवृतिः-अविसंवादस्मृतेः फलस्य हेतुत्वात् प्रमाणं धारणा, स्मृतिः संज्ञायाः प्रत्यवमर्शस्य, संज्ञा चिन्तायाः तर्कस्य, चिन्ताऽभिनिबोधस्यानुमानादेः / प्राक् . शब्दयोजनात् शेषं श्रुतज्ञानमनेकप्रभेदम् / यत् प्रथमकारिकायां शेषम् अविशदं ज्ञानमित्युक्तम् , तत् किम् ? श्रुतम् अविर स्पष्टतर्कणम् , "श्रुतमविस्पष्टतर्कणम्" [ ] इत्यभिधानात् / किं कारिकाव्याख्यानम् - यत् नामयोजनाजायतेऽविशदंज्ञानं तदेव श्रुतम् , उतान्यदपि? इत्याहप्राङ् नामयोजनात्। नाम्नः अभिधानस्य योजनात् पूर्वमुपजायते यदस्पष्टं ज्ञानं तच्छुतम् नामयोजनाजनितार्थाऽस्पष्टज्ञानसाधादित्यभिप्रायः / 'चिन्ता च' इत्यत्र 10 चशब्दो भिन्नप्रक्रमः 'शब्दानुयोजनात्' इत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः / तेन न केवलं नामयोजनात् पूर्व यदस्पष्टं ज्ञानमुपजायते तदेव श्रुतं किन्तु 'शब्दानुयोजनाच्च यदुपविचारयति-अत्र प्रचक्षते केचिच्छ्रतं शब्दानुयोजनात् / तत्पूर्वनियमाद्युक्तं नान्यथेष्टविरोधतः॥ शब्दानुयोजनादेव श्रुतं हि यदि कथ्यते / तदा श्रोत्रमतिज्ञानं न स्यान्नान्यमतौ भवम् / यद्यपेक्षवंचस्तेषां . श्रुतं सांव्यवहारिकम् / स्वेष्टस्य बाधनं न स्यादिति संप्रतिपद्यते // 'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते' / इत्येकान्तं निराकर्तुं तथोक्तं तैरिहेति वा // ज्ञानमाद्यं स्मृति: संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधिकम् / प्राग्नामसंसृतं शेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् / / अत्राकलङ्कदेवाः प्राहु:-ज्ञानमाद्यं स्मृतिः..... तत्रेदं विचार्यते-मतिज्ञानादाद्यादाभिनिबोधिकपर्यन्ताच्छेषं श्रतं शब्दानयोजनादेवेत्यवधारणम, श्रतमेव शब्दानुयोजनादिति वा ? यदि श्रुतमेव शब्दानुयोजनादिति पूर्वनियमः तदा न कश्चिद्विरोधः, शब्दसंसृष्टज्ञानस्य अश्रुतज्ञानत्वव्यवच्छेदात् / अथ शब्दानुयोजनादेव श्रुतमिति नियमः; तदा श्रोत्रमतिपूर्वकमेव श्रुतं न चक्षुरादिमतिपूर्वकमिति सिद्धान्तविरोधः स्यात् / सांव्यवहारिकं शाब्दं ज्ञानं श्रुतमित्यपेक्षया तथानियमे तु नेष्टबाधाऽस्ति चक्षुरादिमतिपूर्वकस्यापि श्रुतस्य परमार्थतोऽभ्युपगमात् स्वसमयप्रतिपत्तेः / अथवा 'न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते / अनुविद्धमिवाभाति सर्व शब्दे प्रतिष्ठितम् // ' इत्येकान्तं निराकर्तुं प्राग्नामयोजनादाद्यमिष्टं न तु तन्नामसंसृष्टमिति व्याख्यानमाकलंकमनुसर्तव्यम् / (पृ० 239-40) शब्दानुयोजनात्त्वेषा श्रुतमस्त्वक्षवित्तिवत् / संभवाभावसंवित्तिरपत्तिस्तथानमा // नामासंसृष्टरूपा हि मतिरेषा प्रकीर्तिता। नातः कश्चिद्विरोधोऽस्ति स्याद्वादामतभोगिनाम // " -तत्त्वार्थश्लो०१० 243 / “अत्र च यत् शब्दसंयोजनात् प्राक् स्मृत्यादिकमविसंवादिव्यवहारनिर्वर्तनक्षम प्रवर्तते तन्मतिः, शब्दसंयोजनात् प्रादुर्भूतं तु सर्वं श्रुतमिति विभागः।" -सन्मति० टी० 10 553 / षड्द० बह० पृ० 84 B. / (1) तुलना-"धारणास्वरूपा च मतिः अविसंवादस्वरूपस्मृतिफलस्य हेतुत्वात् प्रमाणम्, स्मृतिरपि तथाभूतप्रत्यवमर्शस्वभावसंज्ञाफलजनकत्वात्, संज्ञापि तथाभूततर्कस्वभावचिन्ताफलजनकत्वात्, चिन्तापि अनुमानलक्षणाभिनिबोधफलजनकत्वात्, सोऽपि हानादिबुद्धिजनकत्वात् / " -सन्मति० टी० पृ० 553 / षड्द० बृहपृ० 84 B. / (2) तुलना-"प्राक् शब्दयोजनात् मतिज्ञानमेतत् शेषमनेकप्रभेदं शब्दयोजनादुपजायमानमविशदं ज्ञानं श्रुतमिति केचित्" -सन्मति० टी०ए०५५३॥ षड्द० बृह० प०८४ B. (3) उद्धृतमिदम्-सिद्धिवि० टी० पु. 101 B. तुलना-"मतिपूर्वं ततो ज्ञेयं श्रुतमस्पष्टतर्कणम् ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 237 / न्यायवि०वि०प०५०४ B. / ___ 1-शदज्ञान-श्र० / एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ०, श्र०। 2-तेवि-आ०, ब०, श्र० / -योजनाज्जनि-श्र० / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 10] स्मृतिप्रामाण्यवादः 405 जायते तदपि श्रुतम्' इति संगृहीतं भवति / किं तद् ! इत्याह-'संज्ञा' इत्यादि / 'चिन्ता च' इत्ययं चैशब्दः पुनर्भिन्नप्रक्रमः 'मतिः' इत्यस्यानन्तरं स्मृतिसमुच्चयार्थो द्रष्टव्यः / तेन स्मृत्याद्यविशदं ज्ञानं श्रुतमित्युक्तं भवति / इन्द्रियप्रभवं मतिज्ञानं तु देशतो वैशद्यसंभवात् सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षमित्युक्तम् / तस्य श्रुतस्य किं कारणम् ! इत्याह-ज्ञानमाद्यं कारणम् / किन्नाम ? इत्याह-'मतिः' इति / नचागमविरोधः; 5 “मतिपूर्वं श्रुतम्" [ तत्त्वार्थसू० 1 / 20 ] इत्यभिधानात् / 'पूर्वपूर्वप्रमाणत्वे फलं स्यादुत्तरोत्तरम्' [ लघी० का० 7 ] इत्यनेन अधिकां कारिकां कृत्वा व्याचष्टे'अविसंवाद' इत्यादिना / न विद्यते विसंवादो यस्याः सा चासौ स्मृतिश्च तस्याः / कथम्भूतायाः ? फलस्य फलभूतायाः हेतुत्वात् प्रमाणं धारणा संस्कारः। ननु स्मृतेः स्वरूपतो विषयतश्च विचार्यमाणाया अनुपपत्तेः कस्याऽविसंवादः 10 स्मरणस्य अप्रामा- प्रायेंत; तथाहि-स्मृतिशब्दवाच्यस्यार्थस्य स्वरूपं ज्ञाता, ज्ञानं वा ! एयवादिनां बौद्धादीनां तत्राद्यपक्षोऽनुपपन्नः; पूर्वोत्तरज्ञानव्यतिरिक्तस्य ज्ञातुः कस्यचिदप्य " पूर्वपक्षः- संभवात् / द्वितीयपक्षेऽपि ज्ञानमात्रम् , अनुभूतविषयं वा ज्ञानं तैच्छब्दवाच्यं स्यात् ? प्रथमविकल्पे प्रत्यक्षादेरपि स्मृतिरूपताप्रसङ्गात् तब्यतिरिक्तप्रत्यक्षादिप्रमाणभेदवा♚च्छेदः स्यात् / द्वितीयविकल्पेऽपि देवदत्तानुभूतेऽर्थे यज्ञद- 15 त्तप्रत्यक्षादिज्ञानस्य स्मृतित्वप्रसक्तिः। अथ येनैव यदेव पूर्वमनुभूतं वस्तु पुनः कालान्तरे तस्यैव तत्रैवोपजायमानं ज्ञानं स्मृतिरित्युच्यते; तदप्युक्तिमात्रम् ; धारावाहिप्रत्यक्षस्यापि स्मृतित्वप्रसङ्गात् , उक्तप्रक्रियायास्तत्राप्यविकलत्वात् / . .. किञ्च, 'अनुभूते जायमानम्' इत्येतत् केन प्रतीयते-अनुभवेन, स्मृत्या, उभाभ्यां वा ? न तावदनुभवेन; तत्काले स्मृतेरेवाऽसंभवात् / नचाऽसती विषयीकर्तुं 20 शक्या; अतिप्रसङ्गात् / यद् असन्न तत् विषयीकत्तुं शक्यं यथा खरविषाणम् , असती च अनुभवकाले स्मृतिरिति / नचाऽविषयीकृता 'तत्रोपजायतें' इति प्रत्येतुं शक्याऽतिप्रसक्तेरेव / यद् यत्र येन न विषयीक्रियते न तस्य 'तत्तत्रोपजायते' इति प्रतीतियुक्ता यथा सुप्तेनाऽविषयीकृते नीलसुखादिविषये जाग्रत्पुरुषप्रत्यये, अनुभवेनाऽविषयीकृता च अतीतार्थे स्मृतिरिति / तन्न अनुभवात्तथाप्रतीतिः / नापि स्मृतेः; अनुभवाऽर्थयोर- 25 (1) यौगः प्राह-आ० टि० / (2) तुलना-"ननु कोऽयं स्मृतिशब्दवाच्योऽर्थः ज्ञानमात्रम्, अनुभूतार्थविषयं वा विज्ञानम् ?"-प्रमेयक० पु० 336 / (3) स्मृतिशब्द-आ० टि०। (4) स्मृति-आ० टि० / (5) अनुभूतेऽर्थे-आ० टि० / (6) धारावाहिकप्रत्यक्षेऽपि / (7) तुलना-"ननु अनुभूते जायमानमित्येतत् केन प्रतीयताम् ? न तावदनुभवेन; तत्काले स्मतेरेवासत्त्वात् ....."-प्रमेयक० 50 336 / (8) प्रत्यक्षेण -आ० टि०। (9) तुलना-"अतीतानुभवार्थयोरविषयीकरणे तथा प्रतीत्ययोगात् / " -प्रमेयक० पृ० 336 / 1'च' नास्ति आ०, श्र012-शदज्ञानं आ०, श्र०। 3-प्रभवमति-ब०। 4-वाच्यार्थ-ब०। 5 तत्रो-ब०, श्र०। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 लघीयत्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० विषयीकरणे ‘अनुभूतेऽहमुत्पन्ना' इत्यनया प्रत्येतुमशक्यत्वात् / यदि च अनुभूतता प्रत्यक्षगम्या स्यात् तदा स्मृतिरपि जानीयात् 'अनुभूतेऽहमुत्पन्ना' इति, अनुभवानुसारित्वात्तस्याः। नचासौ प्रत्यक्षगम्या; अनुभूयमानतामात्र एव अस्य पर्यवसानात् / तन्न स्मृत्यापि तत्प्रतीतिः। नाप्युभाभ्याम् ; उभयपक्षनिक्षिप्तदूषणप्रसङ्गात् / तन्न स्मृतिः स्वरूपतो विचार्यमाणाऽवतिष्ठते / . नापि विषयतः; तस्या हि विषयः अर्थमात्रम् , अनुभूतताविशिष्टो वाऽर्थः ? न तावदर्थमात्रम् ; सकलप्रमाणानां स्मृतित्वप्रसङ्गात् / नाप्यनुभूतताविशिष्टः; देवदत्तानुभूतेऽर्थे यज्ञदत्तज्ञानस्य धारावाहिविज्ञानस्य च स्मृतित्वप्रसङ्गापादनात् / अनुभूतार्थ विषयत्वे चास्याः प्रामाण्यन्न स्यात् अविद्यमानविषयत्वात् / यदविद्यमानविषयं न तत् 10 प्रमाणम् यथा खे केशपाशज्ञानम्, अविद्यमानविषयश्च अनुभूतार्थविषयतयाऽभिप्रेतं स्मरणज्ञानमिति / तथाविधस्याप्यस्य प्रामाण्ये अतिप्रसङ्गः / - किञ्च, अर्थक्रियार्थिनामर्थक्रियासमर्थार्थप्रापकं प्रमाणं प्रसिद्धम् / न च .. स्मृतौ असदर्थविषयत्वेन एतत्संभवति, अतः कथमसौ प्रमाणमिति ? ___ अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'ज्ञाता ज्ञानं वा' इत्यादि; तदसमीचीनम् ; प्रतिविधानपरस्सा ज्ञानस्यैव स्मृतिशब्दवाच्यत्वप्रतिज्ञानात् / नचैवं सर्वस्य ज्ञानस्य स्मरणस्य प्रथक् स्मृतित्वमनुषज्यते; स्मृतित्वस्य ज्ञानमात्रप्रयुक्तत्वाभावात् / ज्ञानविशेष प्रामाण्यव्यवस्थापनम्- एव हि संस्कारविशेषप्रभवः तदित्याकारोऽनुभूतार्थविषयः स्मृतिरित्युच्यते / स च इतरज्ञानेभ्यः कारणस्वरूपविषयभेदाद् भिद्यते / तत्र कारणभेदः (1) स्मृत्या। (2) अनुभूतता -आ० टि०। (3) प्रत्यक्षस्य / (4) 'अनुभूते जायमानम्' इति प्रतीतिः / (5) स्मृतिप्रत्यक्षाभ्याम् / (6) अविद्यमानविषयस्यापि स्मरणस्य / (7) तुलना-"लोके च पूर्वमुपदर्शितमर्थं प्रापयन् संवादक उच्यते, तद्वज्ज्ञानमपि स्वयं प्रदर्शितमर्थं प्रापयत्संवादकमुच्यते / प्रदर्शिते चार्थे प्रवर्तकत्वमेव प्रापकत्वं नान्यत् / तथाहि- न ज्ञानं जनयदर्थं प्रापयति अपि त्वर्थे पुरुष प्रवर्तयत्प्रापयत्यर्थम् / प्रवर्तकत्वमपि प्रवृत्तिविषयप्रदर्शकत्वमेव, न हि पुरुष हठात् प्रवर्तयितुं शक्नोति विज्ञानम् * * * 'अर्थक्रियार्थिभिश्चार्थक्रियासमर्थार्थप्राप्तिनिमित्तं ज्ञानं मृग्यते / यच्च तैम॒ग्यते तदेव तेन शास्त्रे विचार्यते / ततोऽर्थक्रियासमर्थवस्तुप्रदर्शकं सम्यग्ज्ञानम् ।".-न्यायबिन्दुटी० पृ० 5-6 / (8) अर्थक्रियासमर्थार्थप्रापकत्वम् (9) १०४०५५०१०(१०)तुलना-"आत्मनः संयोगविशेषात् संस्काराच्च स्मृतिः ।"-वैशे० सू० 9 / 2 / 6 / "अनुभूतविषयाऽसम्प्रमोषः स्मृतिः।"-योगसू० 1 / 11 / सांख्यतत्त्वालो० 10 16 / "लिंगदर्शनेच्छानुस्मरणाद्यपेक्षादात्ममनसोः संयोगविशेषात् पट्वभ्यासादरप्रत्ययजनिताच्च संस्काराद् दृष्टश्रुतानुभूतेष्वर्थेषु शेषानुव्यवसायेच्छानुस्मरणद्वेषहेतुरतीतविषया स्मृतिरिति / " -प्रश० भा० पृ० 256 / “प्रत्यक्षबुद्धिनिरोधे तदनुसन्धानविषयः प्रत्यय: स्मृतिः।"-न्यायवा० पृ० 366, 431 // "स्मृतिरपि इच्छावत् पूर्वज्ञानसदृशं विज्ञानं पूर्वविज्ञानविषयं वा स्मृतिरित्युच्यते ।"-शाबरभा० पृ० 65 / "स्मृतिः पुनः पूर्वविज्ञानसंस्कारमात्र ज्ञानमुच्यते ।"-प्रकरण पं० पृ० 42 / तन्त्ररह० पृ० 2 / स्मृतिश्च संसारलागण मामा...:"....... ... "म्मरणं स्मतिः" -सर्वा 1-षणगणप्र-श्र०। 2ज्ञानविषय एव आ० / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 10] स्मृतिप्रामाण्यवादः 407 स्मृतेः पटुतरसंस्कारकारणकत्वात् , प्रत्यक्षादीनाञ्च चक्षुरादिहेतुकत्वात्। स्वरूपभेदःस्मृतेः तदित्युल्लेखित्वात् , प्रत्यक्षादीनाञ्च ईदमित्याद्युल्लेखित्वात् / बिषयभेदोऽपि - स्मृतेः अनुभूतार्थगोचरत्वात् , प्रत्यक्षादीनाञ्च वर्तमानाद्यर्थविषयत्वात् / - यदप्युक्तम–'अनुभूते स्मृतिरित्येतन्नानुभवेन स्मृत्योभाभ्यां वा प्रतीयते' इत्यादि; तदप्यनल्पतमोविलसितम् ; त्रिकालानुयायिना प्रमात्रा तत्प्रतीतेः कत्तुं शक्यत्वात् / / पूर्वोत्तरज्ञानव्यतिरिक्तो न कश्चित् प्रमाता; इत्यप्ययुक्तम् ; तद्वयतिरिक्तस्यास्य सन्ताननिषेधावसरे प्रपञ्चतः प्रसाधितत्वात् / नेन्वेवं प्रमातुः प्रत्यक्षेण अर्थेऽनुभूयमानतानुभवे अनुभूतताऽनुभवोऽपि स्यात् तत्सद्भावाऽविशेषात् , तथाच गृहीतग्राहित्वात् स्मृतेर्न प्रामाण्यम् ; इत्यप्यसत् ; अतीतकालनिबन्धनतया अनुभूयमानताकाले अनुभूततायाः संभवाभावात् , प्रमातृसद्भावमात्रस्य तत्प्रतिपत्तिं प्रत्यनङ्गत्वाच्च / स्मृतिसहायो हि प्रमाता 10 अर्थेऽनुभूततां प्रतिपद्यते, प्रत्यक्षसहायस्तु अनुभूयमानतामिति / एवं कारण-स्वरूप-विषयभेदेन अध्यक्षादिभ्यः स्मृतेर्भेदसंभवेऽपि अप्रामाण्ये कारणं वक्तव्यम्- तँच्च गृहीतग्राहित्वम् , परिच्छित्तिविशेषाभावः, असत्यतीतार्थे प्रवर्त्तर्थसि०१।१३। "तैरेवेन्द्रियैर्यः परिच्छिन्नो विषयो रूपादिस्तं यत् कालान्तरेण विनष्टमपि स्मरति तत् स्मृतिज्ञानम् / अतीतवस्त्वालम्बनमेककर्तकं चैतन्यपरिणतिस्वभावं मनोज्ञानमिति यावत् ।"-तत्वार्थभाष्यव्या०।१३। “संस्कारोबोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिरिति” -परीक्षाम० 3 / 3 / प्रमाणमी० 112 // 3 // "तदित्याकाराऽनुभूतार्थविषया स्मृतिः”-प्रमाणप० पृ०६९। “स्मृतिश्च वितर्कलक्षणा।"-जैनतर्कवा० वृ० पृ० 99 / “तत्र संस्कारप्रबोधसम्भूतमनुभूतार्थविषयं तदित्याकारं संवेदनं स्मरणम्।"-प्रमाणनय० 3 / 11 षड्द० बृह० पृ० 84 B. / “अनुभवमात्रजन्यं ज्ञानं स्मरणम् / " -जैनतर्कभा० पृ० 8 / . (1) तुलना-"प्रणिधाननिबन्धाभ्यासलिङ गलक्षणसादृश्यपरिग्रहाश्रयाश्रितसम्बन्धानन्तर्यवियोगककार्यविरोधातिशयप्राप्तिव्यवधानसुखदुःखेच्छाद्वेषभयार्थित्वक्रियारागधर्माधर्मनिमित्तेभ्यः / " -न्यायसू० 3 / 2 / 43 / (2) पृ० 405 पं० 19 / (3) पूर्वोत्तरज्ञानव्यतिरिक्तस्य प्रमातुः। (4) पृ० 9- / (5) तुलना-"न च प्रत्यक्षेणानुभूयमानतानुभवे . " -प्रमेयक० पृ० 336 / (6) प्रमातृसद्भाव / (7) अनुभूतताप्रतिपत्तिम् / (8) तुलना-"अमुष्याप्रामाण्यं कुतोऽयमाविष्कुर्वीत-किं गृहीतार्थग्राहित्वात, परिच्छित्तिविशेषाभावात, असत्यतीतेऽर्थे प्रवर्तमानत्वात, अर्थादनत्पद्यमानत्वात, विसंवादकत्वात्, समारोपाव्यवच्छेदकत्वात्, प्रयोजनाप्रसाधकत्वाद्वा ?"-स्या० 20 10 486 / (9) “पारतन्त्र्यात्स्वतो नैषां प्रमाणत्वावधारणा / अप्रामाण्य विकल्पस्तु द्रढिम्नव विहन्यते // पूर्वविज्ञानविषयं विज्ञानं स्मृतिरुच्यते / पूर्वज्ञानाद्विना तस्याः प्रामाण्यं नावधार्यते ॥"-तन्त्रवा० 1 // 3 // 1 // "तत्र यत्पूर्वविज्ञानं तस्य प्रामाण्यमिष्यते। तदुपस्थापनमात्रेण स्मृतेः स्याच्चरितार्थता // "-मी० श्लो० प० 396 / “प्रमिते च प्रवृत्तत्वात्स्मृतेर्नास्ति प्रमाणता।"-मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो०१०४। 'गृहीतग्रहणान्नेष्टं सांवृतं. ."-प्रमाणवा० 115 / “यद् गृहीतग्राहि न तत्प्रमाणं यथा स्मृतिः। -तत्त्वसं० पं० पृ० 388 / “न प्रमाणं स्मृतिः पूर्वप्रतिपत्तिव्यपेक्षणात् / स्मृतिहि तदित्युपजायमाना प्राची 1 इदमित्युल्ले श्र०। 2 प्रमात्रा श्र०। 8-भवेऽनुभवोऽपि आ०। 4 गृहीतार्थना-ब० / -त्यतीतेऽर्थे ब०। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० मानत्वम् , अर्थादनुत्पद्यमानत्वम् , विसंवादकत्वम् , समारोपाव्यवच्छेदकत्वम्, प्रयोजनाप्रसाधकत्वं वा स्यात् ! प्रथमपक्षे कस्य गृहीतस्यार्थस्य स्मृत्या ग्रहणम्-ज्ञानस्य, ज्ञेयस्य, ज्ञानविशिष्टस्य ज्ञेयस्य, तेंद्विशिष्टस्य वा ज्ञानस्य ? न तावज्ज्ञानस्य; तद्व्यतिरिक्तज्ञेयस्य स्मृतौ प्रतिभासनात् / अथ ज्ञेयस्य; अस्तु नामैतत् , तथापि अधिगतार्थाधिगममात्रेण 5 स्मृतेर्नाऽप्रामाण्यम् , अनुमानेनाधिगतेऽग्नौ तदुत्तरकालभाविनोऽध्यक्षस्याप्यप्रामाण्य प्रसङ्गात् , प्रत्यभिज्ञानाऽनुमानयोरपि केनचिदंशेन अधिगतार्थाधिगमसंभवेन अप्रामाण्यप्रसङ्गाच्च / अथ अधिगतार्थाधिगमेऽप्यंत्र अपूर्वस्याप्यर्थांशस्याऽधिगमसंभवात् प्रामाण्यम् ; कथमेवं स्मृतेरप्रामाण्यं तत्रापि हि वर्तमानकालावच्छेदेनाऽधिगतस्यार्थस्य अतीतकालावच्छेदेनाऽधिगतेरपूर्वार्थांशाधिगमोपपत्तेः ? प्रयोगः-स्मृतिः प्रमाणम् , प्रमाणान्तरप्रतिप्रतीतिमनुरुद्धयमाना न स्वातन्त्र्येणार्थं परिच्छिनत्तीति न प्रमाणम् / " -प्रकरणपं० पृ० 42 / तन्त्ररह० पृ० 2 / "न च स्मृतिः प्रमा, लोकाधीनावधारणो हि शब्दार्थसम्बन्धः। लोकश्च संस्कारमात्रजन्मनः स्मृतेरन्यामुपलब्धिमर्थाव्यभिचारिणी प्रमामाचष्टे ।"-न्यायवा० ता० पृ० 21 / न्याय- . . कुसु० 4 / 1 / “अत एव न प्रमाणं तस्याः पूर्वानुभवविषयत्वोपदर्शनेनार्थं निश्चिन्वत्या अर्थपरिच्छेदे पूर्वानुभवपारतन्त्र्यात् / " -प्रश० कन्द० पृ० 257 / (10) “एतदुक्तं भवति-सर्वे प्रमाणादयोऽनधिगतमथं सामान्यतः प्रकारतो वाऽधिगमयन्ति, स्मृतिः पुनर्न पूर्वानुभवमर्यादामतिकामति तद्विषया वा तदूनविषया वा नतु तदधिकविषया।"-योगसू० तत्त्ववै० 1 / 11 / (1) जैनतर्कवार्तिककारा हि अर्थाविनाभावाभावात्स्मरणस्याप्रामाण्यं स्वीकुर्वन्ति; तथाहि"एवं मन्यते वार्तिककार:-अर्थाविनाभाविन एव ज्ञानस्य प्रामाण्यमुचितं न स्मृतेः अर्थमन्तरेणापि तस्या भावात् / प्रत्यक्षादेस्तु अव्यभिचारनिमित्ताभिधानात् कस्यचिद् व्यभिचारेऽपि न दोषः, नत्वेवं स्मृतेरव्यभिचारनिमित्तमस्ति / अमूढस्मृतेस्तु पूर्वप्रत्यक्षफलत्वान्न पृथक् प्रामाण्यम् ।"-जैनतर्कवा० वृ० पृ० 99 / (2) "नार्थाद भावस्तदाऽभावात् .."-प्रमाणवा० 2 / 375 / “अनुभवादुत्पद्यमाना स्मृतिरर्थमन्तरेण भवन्ती कथं नीलाद्याकारा ?"-प्रमाणवातिकालं, मनोरथ०२१३७५। "अथार्थजत्वमेव स्मृतेः कस्मान्नेष्यते ? अर्थविनाशेप्युत्पादात् / नच यद्देशकालालिङ्गितेऽनुभवज्ञानमुत्पन्नं तदालम्बनमेव न्याय्यम् / स्मृतिकाले तस्याविद्यमानतया विषयत्वाभावात् / बाह्येन्द्रियाणां च स्मृतिजन्मनि प्रत्येक व्यभिचारादन्तःकरणस्य व्यापारो निश्चीयते। न च तस्य स्वातन्त्र्येण बहिविषये व्यापारः सम्भवतीत्यनर्थजत्वमेव न्याय्यम तस्मानिविषयत्वमेव।" -प्रश० व्यो० पृ० 621 / “न स्मृतेरप्रमाणत्वं गृहीतग्राहिताकृतम् / अपि त्वनर्थजन्यत्वं तदप्रामाण्यकारणम् // ननु कथमनर्थजा स्मृतिः ?तदारूढस्य वस्तुनस्तदानीमसत्त्वात्।" -न्यायम० पृ० 23 / (3) “कस्मात् स्मरणज्ञानमप्रमाणमिति चेत् ? रज्जुसर्यादिज्ञानवत् भ्रान्तत्वादिति ब्रूमः।"-न्यायसारटी० पृ० 68 / (4) तुलना-"गृहीतग्रहणात्तत्र न स्मृतेश्चेत्प्रमाणता / धारावाह्यक्षविज्ञानस्यैवं लभ्येत केन सा // विशिष्टस्योपयोगस्याभावे सापि चेन्मता। तदभावे स्मरणेऽप्यक्षज्ञानवन्मानतास्तु नः॥ स्मृत्या स्वार्थ परिच्छिद्य प्रवृत्तौ न च बाध्यते / येन प्रेक्षावतां तस्याः प्रवृत्ति विनिवार्यते // " -तत्त्वार्थश्लो० पृ० 189 / (5) ज्ञेयविशिष्टस्य-आ० टि०। (6) ज्ञानव्यतिरिक्त / (7) तुलना-"अनुमानेनाधिगते वह्नौ तदुत्तरकालभाविनः प्रत्यक्षस्याप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात्.."-स्या० र० पृ० 486 / प्रमेयक० पृ० 3374 (8) प्रत्यभिज्ञानानुमानयोः। (9) प्रत्यक्षादि / 1 अर्थाधन-ब०। 2-नासाध-ब०। 8-रिक्तस्य ज्ञेयस्य श्र० / 4-धिगमप्रभवेन आ०, श्र० -ण्यानुषङ्गाच्च ब०। 6 अथ अर्थाधिगमे-आ०, श्र० / 7-पूर्वाशाधि-ब०। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 10] स्मृतिप्रामाण्यवादः 406 पन्नेऽप्यर्थे केनचिदंशेनाऽपूर्वार्थपरिच्छेदकत्वात् , यद्यत्तथाविधं तत्तत्प्रमाणम् यथा अनुमानाधिगतार्थे प्रत्यक्षादि, तथा च स्मरणम् , तस्मात् प्रमाणमिति / / एतेने ज्ञानविशिष्टज्ञेयपक्षोप्यपास्तः; अंशतः प्रामाण्यस्य अत्राप्युपपत्तेः / किञ्चेदं ज्ञेयस्य ज्ञानविशिष्टत्वं नाम-तत्र संयोगः, समवायः, विशेषणीभावो वा ? तत्र आद्यपक्षद्वयमनुपपन्नम् ; ज्ञेये ज्ञानस्याऽद्रव्यतया संयोगाऽसंभवात् , आत्मनि समवेततया च / समायस्याप्यनुपपत्तेः / तदभावे विशेषणीभावोऽपि दुर्घटः; तस्य तत्पूर्वकत्वात् / न खलु दण्डपुरुषादौ संयोगादिसम्बन्धानपेक्षस्तद्भावो दृष्टः / ज्ञेयविशिष्टज्ञानपक्षस्तु न युक्तः; तेत्प्रतिभासस्य स्मृतौ स्वप्नेऽप्यसंभवात् / नहि ज्ञानं निर्विशेषणं संविशेषणं वा स्मृतौ प्रतिभासमानं केनचिदिष्टम् , बहिर्वस्तुन एव तत्र प्रतिप्राणि प्रतिभासप्रतीतेः / तन्न गृहीतग्राहित्वात् स्मृतेरप्रामाण्यम् / नापि परिच्छित्तिविशेषाभावात् ; निहितमन्त्रिताधीतादौ तस्यास्तद्विशेषसद्भावात्। नाप्यसैत्यतीतार्थे प्रवर्त्तमानत्वात् ; यतोऽतीतस्याऽर्थस्य स्वकालेऽसत्त्वम् , स्मृतिकाले वा ? न तावत् स्वकाले; तदा तस्य विद्यमानत्वात् / स्मृतिकाले तु तद्ग्राह्यस्याऽसत्त्वं नाऽप्रामाण्यं प्रत्यङ्गम् ; प्रत्यक्षस्यापि अप्रामाण्यप्रसक्तेः, तत्काले तद्ग्राह्यस्याप्यसत्त्वाऽविशेषात् / नहि प्रत्यक्षग्राह्योऽर्थः प्रत्यक्षकाले सौगतैः सत्त्वेनाऽभ्युपगम्यते / 15 "भिन्नकालं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां विदुः। हेतुत्वमेव युक्तिज्ञास्तदाकारार्पण क्षमम् // " [प्रमाणवा० 2 / 247] इत्यस्य विरोधाऽनुषङ्गात् / अतः प्रत्यक्षस्याप्यसति प्रवर्तनादप्रामाण्यं स्यात् / 10 (1) ज्ञेयपक्षनिर करणेन / (2) संयोगसमवायाद्यभावे / (3) सम्बन्ध / (4) विशेषणीभावः। (5) ज्ञेयविशिष्टज्ञानप्रतिभासस्य / (6) तुलना-"निहितमन्त्रिताधीतादौ हानोपादानहेतोः परिच्छित्तिविशेषस्य स्मरणे सद्भावात् ।"-स्या० र० पृ० 487 / (7) परिच्छित्तिविशेष। (8) तुलना-“यतोऽतीतस्यार्थस्य स्वकालेऽसत्त्वम्, स्मृतिकाले वा ?"-स्या० 2010487 / (9) अतीतकाले। (10) स्मृतिग्राह्यस्य / (11) प्रत्यक्षकाले प्रत्यक्षग्राह्यस्यापि / (12) व्याख्या-.... यक्तिज्ञा ज्ञानाकारार्पणक्षमम। =प्राग्भावित्वाद भिन्नकालं वस्त कथं ग्राह्यमिति चेत? हेतत्वमेव ज्ञाने आकारस्य स्वानुरूपस्य अर्पणक्षम ग्राह्यतां युक्तिज्ञा विदुः / न हि सन्दंशायोगोलयोरिव ज्ञानपदार्थयोः ग्राह्यग्राहकभावः / कथन्तहिं ? यदाकारमनुकरोति तत् ग्राह्यस्य ग्राहकमित्युच्यते / " -प्रमाणवा० मनोरथ० 2 / 247 / निम्नग्रन्थेषु समुद्धृतेयम्-'हेतृत्वमेव तद्युक्तं ज्ञाना "'-न्यायवा० ता० पृ० 153 / * विधिवि० टी० पृ० 1980 स्फोटसि० टी० पृ० 233 / 'हेतुत्वमेव च व्यक्तआनाका...' सर्वद० पृ० 36 / 'ज्ञानाकारार्पणक्षमम्'-अद्वयवजसं० पृ० 17 // प्रमाणमी० पृ० 20 / प्रकृतपाठः-न्यायवि० वि० पृ० 135 B. | स्या० 2010 487 प्रमेयर० 217 / 1 प्रमाणस्य आ०, श्र०। 2-वायो वा विशे-श्र०।-योगाभावात् ब०, श्र०। 4 आत्मसमवे-श्र०। 5-वायस्यानुप-ब०। 6 'सविशेषणं नास्ति ब०। 7 स्मृतिभासमा-श्र०। 8-सत्यतीतार्थप्र-आ० / 9-सत्त्वं वा ना-श्र०। 10-णक्षणम् श्र०। / Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० अर्थादनुत्पद्यमानत्वञ्च अध्यक्षेऽप्यविशिष्टम् , ज्ञानं प्रति अर्थे कारणत्वस्य निराकरिष्यमाणत्वात् / विसंवादकत्वञ्च स्मृतेरसिद्धम् ; स्वप्रतिपन्नेऽर्थे अंविसंवादकत्वात्तस्याः / यद्यत्राऽविसंवादकं तत्तत्र प्रमाणम् यथा प्रत्यक्षाद्यर्थे प्रत्यक्षादि,अविसंवादिका च स्वप्रतिपन्नेऽर्थे स्मृति5 रिति / विसंवादो हि गृहीतेऽर्थे प्राप्तिः, प्रमाणान्तरवृत्तिर्वा स्यात् / स द्विविधोऽपि स्मृतिप्रतिपन्ने स्वयंधृतद्रव्याद्यर्थेऽस्त्येव / यत्र तु विसंवादः सा स्मृत्याभासा प्रत्यक्षाद्याभासवत् / समारोपाव्यवच्छेदकत्वान्न स्मृतिः प्रमाणम् ; इत्यप्यसमीचीनम् ; तद्गृहीतेऽर्थे विपरीतारोपाननुप्रवेशत: तैव्यवच्छेदसंभवात् / यत् समारोपव्यवच्छेदकं तत् प्रमाणम् . यथा अनुमानम् , समारोपव्यवच्छेदिका च स्वप्रतिपन्नेऽर्थे स्मृतिरिति / प्रयोजनाप्रसाधकत्वात् स्मृतेरप्रामाण्यम्; इत्यप्यसुन्दरम् ; अनुमानप्रवृत्तिलक्षणस्य तत्साध्यप्रयोजनस्य सद्भावात् / तँद्धि साध्यप्रतिबद्धाद्धेतोः प्रवर्तते। साध्यं प्रबिन्धश्च सत्तामात्रेण तत्प्रवृत्तेरङ्गम् , परिज्ञात: सन् , स्मृतिकोडीकृतो वा ? प्रथमपक्षे नौलिकेरद्वीपायातस्य अप्रतिपन्नाग्निधूमसम्बन्धस्यापि धूमदर्शनादग्निप्रतिपत्तिः स्यात् / द्वितीयपक्षे तु (1) तुलना-"अर्थादनुत्पद्यमानत्वञ्च स्मरणस्यासिद्धम् ; स्वविषयभूतादादुत्पद्यमानत्वात् / " -स्या०र० पू०४८७। (2) तुलना-"प्रमाणमविसंवादात् मिथ्या तद्विपर्ययात् / गहीतग्रहणान्नो चेन्न प्रयोजनभेदतः। प्रत्यक्षस्यापि प्रामाण्यमविसंवादात् न पुनरर्थानुकारितयाऽतिप्रसंगात् / स पुनरनुभूतस्मतेर्यदि स्यात् प्रामाण्यं लक्षयति। सविकल्पेऽनधिगतार्थव्यवसायाभावादयुक्तमिति चेन्न; प्रयोजनविशेषात्, क्वचित्तादृशाकारभेदानां तथैव प्रामाण्याविरोधात्।अन्यथा कालादिभेदेन अनधिगतार्थाधिगतेरपि अन्यतः प्रमाणताऽनभ्युपगमात् / साकल्येनादितो व्याप्तिः पूर्व चेल्लिङ्गलिङ्गिनोः। अनुमेयस्मृतिः सिद्धा न प्रमाणविशेषवत् ॥"-सिद्धिवि०, टी० पृ० 146 B. प्रमाणसं पृ० 99 / “सा च प्रमाणमविसंवादकत्वात् प्रत्यक्षवत् ।"-प्रमाणप० पृ० 69 / प्रमेयक पृ० 337 / सन्मति० टी० पृ० 553 / स्या० र० पू०४८७ / प्रमेयर० पृ०३१ / प्रमाणमी० पृ० 33 न्यायदी०पू०१७। जैनतर्कभा० पृ०९। (3) "अर्थक्रियास्थितिरविसंवादनम्"-प्रमाणवा० 113 / "अविसंवादश्च अर्थादुत्पत्तेः अर्थाव्यभिचारतः ।"-प्रमाणवातिकालं०पू० 273 / “स चाविसंवादोऽर्थक्रियालक्षण एव।"-तत्त्वसं पं० पृ०७७८॥ "अविसंवादित्वञ्च अभिमतार्थक्रियासमर्थार्थप्रापणशक्तिकत्वं न तु प्रापणमेव प्रतिबन्धादिसम्भवात।"तत्त्वसं० पं०१० 392 / (4) तुलना-'तस्याश्च प्रामाण्यं युक्तम्, न हि तयाऽथ परिच्छिद्य प्रवर्तमानोऽर्थक्रियायां विसंवाद्यते ।"-सिद्धिवि०, टी० पृ० 34 A. प्रमेयक० पृ० 337 / स्या० र० पु० 487 / (5) “समारोपव्यवच्छेदः समः स्मृत्यनुमानतः / स्वार्थे प्रमाणता तेन नैकत्रापि निवार्यते ॥"तत्त्वार्थश्लो पृ० 189 / प्रमेयक० पृ० 338 / स्या० र० पृ० 487 / (6) स्मृतिसाध्य / (7) अनुमानं हि / (8) साध्याविनाभाविनः / (9) अविनाभावसम्बन्धः / तुलना-"लिङ्गलिङ्गिसम्बन्ध: सत्तामात्रेणानुमानप्रवृत्तिहेतुः, तद्दर्शनात्, तत्स्मरणाद्वा?"-प्रमेयक पृ० 338 / “साध्यप्रतिबन्धश्च हेतोः सत्तामात्रेण अनुमानप्रवृत्तेरङ्गम्, परिज्ञातो वा, स्मृतिकोटीकृतो वा ?"-स्या० र०पू० 488 / (10) अनुमानप्रवृत्तेः / (11) स्मृतिविषयीकृतः / (12) एतद्द्वीपवासिनो हि नालिकेरफलमत्त्वा तज्जलञ्च निपीय जीवनं यापयन्ति, अतस्तैः पाकार्थमुपयुक्तौ अग्निधूमौ न दृष्टचरौ। 1 गृहीतार्थे ब०।-त्तरप्रव-ब०।-नासाधक-आ०, श्र० / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्रे० का० 10] प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यवादः 411 बालावस्थायां प्रतिपन्नाग्निधूमसम्बन्धस्य पुनर्वृद्धावस्थायां विस्मृततत्सम्बन्धस्यापि धूमदर्शनादग्निप्रतिपत्तिप्रसङ्गः / तृतीयपक्षे तु कथं स्मृतेः प्रामाण्यप्रतिषेधः अनुमानप्रवृत्तेरङ्गत्वात् ? यदनुमानप्रवृत्तेरङ्गं तत्प्रमाणं यथा प्रत्यक्षम् , तथा च स्मरणम् , तस्मात् प्रमाणमिति / तदेवं स्मृतेः कारणस्वरूपविषयभेदात् प्रत्यक्षादिभ्यो भेदप्रसिद्धः, स्वविषयेऽविसंवादप्रसिद्धेश्च सूक्तम् - 'अविसंवादस्मृतेः फलस्य हेतुत्वात् प्रमाणं धारणा' इति / / तथा स्मृतिः प्रमाणम् अविसंवादसंज्ञाया हेतुत्वात् / अस्याः पर्यायमाह-प्रत्यवमर्शस्य 'स एवायम् , तेन सदृशोऽयम्' इति वा एकत्वसादृश्याभ्यां पदार्थानां सङ्कलनं प्रत्यवमर्शः। ननु प्रमाणप्ररूपणावसरे प्रत्यभिज्ञायाः प्ररूपणमयुक्तम् ; विरुद्धधर्माध्यासतः - कारणाभावौच्च अस्याः स्वरूपस्यैवाऽसंभवात् , विषयाभावतः प्रामाकारणाभावाद्विषया- ण्यानुपपत्तेश्च / तथाहि-पूर्वं ज्ञातस्य पुनः कालान्तरे ‘स एवायम्' 10 भावतश्च नास्ति प्रत्य- इत्यादिज्ञानं प्रत्यभिज्ञा / न चास्या एकत्वं युक्तम् , विरुद्धधर्माध्यासात् , भिज्ञानस्य प्रामाण्यमिति यत्र विरुद्धधर्माध्यासः न तत्रैक्यम् यथा जलानलादौ, विरुद्धधर्माभाव पक्षमा ध्यासश्च प्रत्यभिज्ञायामिति / न चायमसिद्धः; स्पष्टेतररूपाक्रान्ततया (1) अग्निधूमसम्बन्ध। (2) तुलना-"को हि स्मृतिपूर्वकमनुमानमभ्युपगम्य पुनस्तां निराकुर्यात् अनुमानस्यापि निराकरणानुषङ्गात् ।"-प्रमेयक० पृ० 338 / स्या० र० पृ० 488 / प्रमेयर० पू० 32 / प्रमाणमी० पु० 34 / स्या० मं० पृ० 208 / रत्नाकरा० 3 / 4 / (3) तुलना-"पूर्वमज्ञासिंषमर्थं तमिमं जानामीति ज्ञानयोः समानेऽर्थे प्रतिसन्धिज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् / " -न्यायभा०३।२।२। “प्रत्यभिज्ञानं हि नाम आद्यप्रत्यक्षनिरोधे द्वितीयदर्शने प्रागाहितसंस्काराभिव्यक्ती स्मृतिपूर्वं तृतीयं दर्शनम् ।"-न्यायवा० पृ० 400 / 'प्रत्यभिज्ञा नाम स्मर्यमाणानुभूयमानसामानाधिकरण्यग्राहिणी संस्कारसचिवेन्द्रियजन्या प्रतीतिरिति केचित् / अन्ये मन्यन्ते स्मर्यमाणपूर्वज्ञान विशेषितार्थग्राहित्वात् तद्विशेषणस्य चार्थस्य बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वानुपपत्तेः स्तम्भादावपि मानसी प्रत्यभिज्ञेति / " न्यायमं० पृ० 224 // एतन्मतद्वयमभिमतं मञ्जरीकारस्य, दृष्टव्यम्-न्यायमं० पृ० 461 // "प्रत्यभिज्ञा प्रति आभिमुख्येन ज्ञानम् / लोके हि स एवायं चैत्र इति प्रतिसन्धानेनाभिमुखीभूते वस्तुनि ज्ञानं प्रत्यभिज्ञेति व्यवह्रियते।"-सर्वद० पृ० 193 / "सञ्ज्ञानं संज्ञा"-सर्वार्थसि० 1113 "संज्ञाज्ञानं नाम यत्तैरेवेन्द्रियैरनुभूतमर्थं प्राक् पुनर्विलोक्य स एवायं यमहमद्राक्षं पूर्वाह्न इति संज्ञाज्ञानमेतत् ।"तत्त्वार्थभा० व्या० 1 / 13 / "दर्शनस्मरणकारणकं सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानम् / तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि ।"-परीक्षामु० 3 / 5 / प्रमाणप० पृ० 69 / प्रमाणमी० 112 / 4 / 'अनुभवस्मृतिहेतुकं तिर्यगूर्ध्वतासामान्यादिगोचरं सङ्कलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् ।"-प्रमाणनय०३।३। जैनतर्कभा० पृ० 9 / (4) बौद्धः प्राह-आ० टि०। (5) “स एवायमिति प्रत्यय उत्पद्यमानो नैकत्वे प्रमाणम् एकत्वस्याग्रहणात् दृष्टस्यैव तस्य प्रतिपत्तेः / एकत्वं हि पूर्वेण सह गृह्यमाणमेकतां विवादविषयतां स्वीकरोति / वर्त.मानतामात्रस्यैकत्वे सिद्धसाधनमेव / तच्च पूर्वं पूर्वप्रत्ययेन गृहीतत्वान्नापरम् / पूर्वप्रत्ययेन चासौ त्रुट्यदवस्थ एव पूर्वतया च गृह्यते / ततः पुनरनुसन्धीयमानं यथाभूतं गृहीतं तथाभूतमेव वाऽनुसन्धा तव्यम् / गृहीतत्वेन च ग्रहणे स्मरणमेतदिति गृहीतग्राहित्वादप्रमाणमपरस्मरणवत् / संवादस्त्वर्थ'क्रियाकरणात् / न चैकत्वसाध्यार्थक्रिया; वस्तुसामर्थ्यमात्रादुत्पत्तेः / तस्मात् ‘स एवायम्' इति 1 यज्ज्ञानमनमान-ब०। 2-षये वाऽविसं-श्र। 3-वाद्वास्याः श्र०। 4 पूर्वज्ञानस्य श्र० / -भिज्ञानं नचा-ब०। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० तत्र तत्प्रसिद्धः / तथाहि-'सः' इत्याकारः स्मरणरूपतया प्रत्यभिज्ञायामस्पष्टः, 'अयम्' इति / चाध्यक्षरूपत्वात् स्पष्टः / न चात्रै स्पष्टेतरलक्षणविरुद्धधर्माध्यासेप्यभेदो युक्तः; प्रत्यक्षानुमानयोरप्यभेदप्रसक्तेः। किञ्च, 'स एवायम्' इत्याकारद्वयं किं तत्र परस्परानुप्रवेशेन प्रतिभासते, अननु6 प्रवेशेन वा ? प्रथमपक्षे अन्यतराकारस्यैव प्रतिभासः स्यात् , द्वितीयाकारस्य ततोऽविवि क्तस्वरूपत्वात् , यद् यतोऽविविक्तस्वरूपं न तत्ततो भेदेन प्रतिभासते यथा तस्यैव स्वरूपम् , एकस्मादाकारादविविक्तस्वरूपञ्च द्वितीयाकारस्वरूपमिति / द्वितीयपक्षे तु परस्परविभिन्नप्रतिभासद्वयप्रसङ्गः, अन्योन्याननुप्रवेशेन आकारद्वयस्यावस्थानात् , ययोः अन्योन्याननुप्रवेशेन अवस्थानं तयोः परस्परविभिन्नप्रतिभासः यथा रूपरसयोः, अन्योन्याननुप्रवेशेनाऽवस्थानञ्च ‘स एवायम्' इत्याकारद्वयस्य इति / न च 'प्रतिभासद्वयमेकाधिकरणमेतत्' इत्यभिधातव्यम् ; परोक्षापरोक्षाकारयोः प्रतिभासयोरेकाधिकरणत्वानुपपत्तेः, अन्यथा सर्वसंविदामेकाधिकरणत्वप्रसक्तेः पुरुषाद्वैतसिद्धिः स्यात् / ततो विरुद्धधर्माध्यासान्नैकमिदं . ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् / अतः कथं प्रत्यभिज्ञानसंभवः ? कारणाभावाच्च; तथाहि-तत्कारणम् इन्द्रियम् , पूर्वानुभवजनित: संस्कारः, तदुभयं वा? न तावदिन्द्रियम् ; तस्य वर्तमानार्थावभासजनकत्वात्। नापि संस्कारः; तस्य स्मरणकारणत्वात् / नाप्युभयम् ; उभयदोषानुषङ्गात् / न च कारणान्तरमुपलभ्यते / तन्न प्रत्यभिज्ञानसंभवः। प्रत्ययद्वयमेतत् ।"-प्रमाणवातिकालं०१०५१॥ "स इत्यनेन पूर्वकालसम्बन्धी स्वभावो विषयीक्रियते / अयमित्यनेन च वर्तमानकालसम्बन्धी / अनयोश्च भेदो न कथञ्चिदभेदो वर्तमानकालभाविरूपैकस्वभावत्वाद्वस्तुनः / तस्माद् भेद एव प्रत्यभिज्ञाने सति भासते इति कथमनेन क्षणिकत्वानुमानबाधा ? यद्वा वस्तुनः पूर्वकालसम्बन्धित्वमिदानीमसदेव पूर्वकालाभावात् / सत्त्वे वास्य वर्तमानकालसम्बन्धित्वमेव स्यान्न पूर्वकालसम्बन्धित्वं विरोधादित्युक्तम् / तस्मात्पूर्वकालसम्बन्धित्वस्यासतो ग्राहकः स इति ज्ञानांशो भान्तः, अन्यथा वस्तुनः स्पष्टबालाद्यवस्थाग्राहक: स्यात्, न च भवति / तस्मात् भान्तात् पूर्वदृष्टरूपारोपेण ‘स एवायम्' इति ज्ञानात् कथमनुमानबाधा ? . . . 'विस्तरतस्त्वयं प्रत्यभिज्ञाभङ्गविचारो नैरात्म्यसिद्धौ कृत इति तत्रैवावधार्यः ।"-प्रमाणवा० स्व० टी० पू० 78 / "तथाहि-घट: स एवायमिति तावत्प्रत्यभिज्ञा जायते / सा कि स्मृत्यनुभवरूपं ज्ञानद्वयम्, एकमेव वा विज्ञानमंशे स्मृतिरंशे चानुभवः, उत स्मृतिरेव, आहोस्विदनुभव एव ?"-खंडनखंड० पृ० 156 / (6) “प्रत्यभिज्ञाप्रत्ययो भान्त एव निविषयत्वात् / प्रयोगश्चैवं यः प्रत्यभिज्ञाप्रत्ययः स तत्त्वतो नैकालम्बनः यथा लनपुनाततणादिष, प्रत्यभिज्ञाप्रत्ययश्चायं तदेवेदं नीलादीति प्रत्ययः इति विरुद्धव्याप्तोपलब्धिः ।"-तर्कभा० मो० पृ०२९। (1) प्रत्यभिज्ञायाम्। (2) विरुद्धधर्माध्यासप्रसिद्धेः। (3) प्रत्यभिज्ञायाम् / (4) प्रत्यभिज्ञायाम् / (5) 'सः' इत्याकारस्य 'अयम्' इत्याकारस्य वा। (6) किन्तु ज्ञानद्वयमेतत-स इत्याकारस्य स्मरणरूपत्वात् इदमंशस्य च प्रत्यक्षात्मकत्वादिति भावः / 1-सिद्धः स इत्या-आ०, श्र०। 2-तरविलक्षण-श्र०।-यथा स्थाणु पुरुषयोः ब०, श्र० / 4-णमितीन्द्रि-श्र० / 5-ज्ञानसत्त्वम् श्र०। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 10] प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यवादः अस्तु वा; तथापि न तत् प्रमाणम् , विषयाभावात् / तस्य हि विषयः-पूर्वज्ञाने प्रतिभातमेव वस्तु, तदतिरिक्तं वा ? तत्राद्यविकल्पे न तत् प्रमाणं गृहीतग्राहित्वात् धारावाहिज्ञानवत् / द्वितीयविकल्पेऽपि किंकृतस्तस्य अतिरेकः-स्वरूपभेदकृतः, कालद्वयसम्बन्धकृतः, तत्सम्बन्धे ऐक्यप्रतिपत्तिकृतो वा ? यदि स्वरूपभेदकृतः; तदा ज्ञानवत् ज्ञेयस्यापि प्रतिक्षणं स्वरूपभेदप्रसिद्धेः सौगतमतप्रसङ्गः / अथ कालद्वयसम्बन्धकृतः; तदप्ययुक्तम् ; तत्सम्बन्धस्य अर्थभेदेऽप्युपपद्यमानत्वात्। न हि लूनपुनर्जातनखकेशाद्यर्थभेदे कालद्वयसम्बन्धोऽसिद्धः / अथ कालद्वयसम्बन्धे देवदत्तस्य ऐक्यं प्रतीयते, अत: पूर्वज्ञाने प्रतिभातस्य वस्तुनः प्रत्यभिज्ञानेन आधिक्यग्रहणान्न गृहीतग्राहित्वेन अप्रामाण्यमित्यभिधीयते; तदप्यभिधानमात्रम् ; यतः किमिदमैक्यं नामएकत्वसंख्या, स्थायित्वं वा ? यदि एकत्वसंख्या; तदास्याः पूर्वमेव प्रतिपन्नत्वात् कथमा- 10 धिक्यपरिच्छेदः प्रत्यभिज्ञायाः ? अथ स्थायित्वम् ; तत् किं देवदत्तस्वरूपाद् भिन्नम् , अभिन्नं वा ? यद्यभिन्नम् ; तदा तत्स्वरूपवत् तदपि पूर्वज्ञानेनैव प्रतिपन्नम्। यद्यतोऽभिन्न तस्मिन् प्रतीयमाने तदपि प्रतीयते यथा तस्यैव स्वरूपम् , अभिन्नञ्च प्रत्यभिज्ञाविषयत्वेनाऽभिप्रेतं वस्तुनः स्थायित्वमिति / अथ भिन्नम् / तत् किं पूर्वमप्युत्पन्नम् , अथ प्रत्यभिज्ञानसमय एवोत्पद्यते ? यदि पूर्वमप्युत्पन्नम् ; तदा पूर्वज्ञानेनैव अस्य॑ परिच्छेदात् 15 कथं प्रत्यभिज्ञानेन आधिक्यपरिच्छेदः ? केनचिदंशेन आधिक्यपरिच्छेदाभ्युपगमे वा अनंवस्थातो न प्रकृततत्त्वसिद्धिः / अथ प्रत्यभिज्ञानसमय एव उत्पद्यते; तर्हि तस्य पूर्वमप्रतिपन्नत्वात् कथं प्रत्यभिज्ञाविषयत्वम् ? पूर्वप्रतिपन्नस्यार्थस्य पुनः कालान्तरे गृह्यमाणस्य प्रत्यभिज्ञाविषयत्वाभ्युपगमात् / पूर्वज्ञानाप्रतिपन्नार्थान्तरावबोधकज्ञानस्य प्रत्यभिज्ञात्वे च घटज्ञानानन्तरमाविर्भूतपटज्ञानस्यापि तत्त्वप्रसङ्गः। तत्समये स्थायित्वस्य उत्पत्तौ च 20 क्षणिकत्वानुषङ्गात् कथं तद्विशिष्टार्थानामक्षणिकत्वं स्यादिति ॥छ। (1) प्रत्यभिज्ञानं / (2) “निष्पादितक्रिये चार्थे वृत्तेः प्रस्मरणादिवत् / न प्रमाणमिदं युक्तं करणार्थविहानितः ॥-यदेव हि प्रमितिक्रियासिद्धौ प्रकृष्टमुपकरणं तदेव साधकतमं कारकं प्रमाणमुच्यते / यदि च प्रत्यभिज्ञा पूर्वप्रमाणगहीतार्थविषया स्यात् तदा निष्पन्नप्रमितिक्रियेऽर्थे प्रवृत्त्याऽसाध कतमत्वात् कथमिव प्रमाणतामश्नुवीत ? अन्यथा हि स्मृतेरपि प्रामाण्यं स्यात् ।"-तत्वसं० 50 10 159 / (3) विषयस्य / (4) अतीतवर्तमानकालद्वयसम्बन्धस्य / (5) प्रत्यक्षकाले एव / (6) देवदत्तस्वरूपवत् / (7) स्थायित्वमपि / (8) स्थायित्वस्य / (9) स अंशः वस्तुस्वरूपाद् भिन्नोऽभिन्नो वा? अभेदे वस्तूस्वरूपवत पूर्वमेव प्रतिपत्तिः। भेदे किमसौ पर्वमेवोत्पन्नः, अथ प्रत्यभिज्ञासमय एवोत्पद्यते ? इत्यादिरूपेण ग्रन्थावर्तनरूपाऽनवस्था / (10) प्रत्यभिज्ञाने आधिक्यपरिच्छेदसिद्धिः। (11) प्रत्यभिज्ञानत्वप्रसंगः / (12) प्रत्यभिज्ञानसमये। (13) तत्कालोत्पन्नस्थायित्वविशिष्टार्थानाम् / त्रिकालानुयायिस्थायित्वविशिष्टस्य व अक्षणिकत्वादिति भावः / 1-मतप्रवेशः ब०। 2-सम्बन्धिदेव-ब०। 3-ण्यमित्यभिधानमा-ब० / 4-भिप्रेतवस्तुनः आ०, श्र०। 5-मेऽनवस्था-आ०, ब०। 6-कृतत्व-आ०। 7-ज्ञानवि-ब०, श्र०। 8-तिपन्नानन्तरावबोधक -आ०। 9-ज्ञानत्वे श्र०। 10-तत्प्रसङ्गःश्र०। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० ___ अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'विरुद्धधर्माध्यासतः' इत्यादि / तत्र किं धर्माणां तत्प्रतिविधानपरस्सरं धर्मिणा सह विरोधः, परस्परं वा ? न तावत् धर्मिणा; तत्रै तेषां प्रतीप्रत्यभिज्ञानस्य प्रथक् यमानत्वात् , यद्यत्र प्रतीयते न तत्तत्र विरुद्धम् यथा चित्रज्ञाने नीलाप्रामाण्यप्रसाधनम् - द्याकाराः, प्रतीयते च प्रत्यभिज्ञाने ‘स एवायम्' इत्याकारद्वयम् , तस्मान्न 5 तत्तत्र विरुद्धमिति / यत् पुनर्यत्र विरुद्धं न तत्तत्र कदाचिदैप्युलभ्यते, यथा तुरङ्गमोत्तमाङ्गे शृङ्गम् , उपलभ्यते च प्रत्यभिज्ञाने प्रागुक्तमाकारद्वयमिति / तन्न धर्मिणा सह धर्माणां विरोधो युक्तः / परस्परविरोधे तु धर्मिणः किमायातं येनास्य विरुद्धधर्माध्यासाद् भेदः प्रार्थत ? धर्माणां हि परस्परपरिहारस्थितिलक्षणविरोधसंभवे तेषामेव अन्योन्यं भेदो युक्तः। किच, विरुद्धधर्माध्यासत: कारणभूताम्यां दर्शनस्मरणाकाराभ्यां प्रत्यभिज्ञानस्य 10 भेदः साध्येत, स्वभावभूताभ्यां वा? तत्राद्यपक्षे सिद्धसाधनम् / न खलु 'कारणस्वरूपमेव सर्वथा कार्यस्वरूपम्' इति स्याद्वादिनो मन्यन्ते / द्वितीयपक्षेऽपि कथञ्चितद्भेदः साध्येत, सर्वथा वा ! यदि कथञ्चित् / तदा सिद्धसाधनमेव, आकारतद्वतोः कथश्चिद्भेदाभ्युपगमात् / सर्वथा भेदस्त्वनुपपन्नः; तयोः तत्स्वभावत्वाभावप्रसङ्गात् / यो यत्स्वभावः न तस्य तद्वतः सर्वथा भेदः यथा चित्रज्ञानात् नीलाद्याकारस्य, स्वभावश्च प्रत्यभिज्ञानस्य 15 ‘स एवायम्' इत्याकारद्वयमिति / तद्धि प्रत्यक्ष-स्मरणसामग्रीतः समुपजायमानं क्रोडीकृताऽऽकारद्वयमेवोपजायते चित्रपट्यादिसामग्रीत: चित्राकारैकज्ञानवत्, प्रत्यक्षादिसामग्रीतो निर्विकल्पेतराकारकविकल्पवद्वा / __ यदप्युक्तम्-'आकारद्वयं किं परस्परानुप्रवेशेन प्रतिभासते' इत्यादि; तत्र कोऽयमस्य अनुप्रवेशो नाम-परस्परस्वरूपसाङ्कर्यम् , एकस्मिन्नाधारे वृत्तिा ? प्रथमविकल्पोऽ (1) पृ० 411 पं०८। (2) धर्मिणि / (3) तुलना-"तत्र यदि नाम दर्शनस्मरणलक्षणयोराकारयोविरोधः, तथापि धर्मिणः प्रत्यभिज्ञानस्य किमायातं येनास्य विरुद्धधर्माध्यासाद् भेदः प्रार्खेत ।"-स्या० र० पृ० 492 / (4) तुलना-"विरुद्धाभ्यां दर्शनस्मरणाकाराभ्यां कारणभूताभ्यां स्वभावभूताभ्यां वा प्रत्यभिज्ञानस्य भेद: साध्येत?"-स्या० 2010 493 / (5) कार्यकारणयोभैदस्यष्टत्वात्-आ० टि० / (6) प्रत्यभिज्ञानभेद:-आ० टि० / (7) दर्शनस्मरणाकारयोः स्वभावयोः / (8) प्रत्यभिज्ञान / (9) आदिपदेन विकल्पवासनाशब्दसंकेतस्मरणादिसामग्री ग्राह्या / (10) एकज्ञानस्वरूपवत्-आ० टि०। तुलना-"यदि पारोक्ष्यापारोक्ष्यधर्मभेदात् पूर्वापरावस्थापरामर्शज्ञानं भिद्येत, हन्त भोः, तदित्यपि विकल्पो भिद्येत / सोऽपि हि परोक्षश्चापरोक्षश्च, विकल्पोऽविकल्पश्च ।अर्थे परोक्षो विकल्पश्च स्वात्मनि त्वविकल्पोऽपरोक्षश्च / तस्माद्विषयभेदादविरोध इति चेत्, नन्विहापि तदेवैकं विज्ञानं तस्यैवेकस्य वस्तुनः पूर्वदेशकालसम्बन्धे परोक्षम्, अपरोक्षञ्चापरदेशकालसम्बन्ध इति को विरोधः ?"-न्यायवा० ता०प० 140 / विकल्पो हि स्वरूपे निर्विकल्पकमर्थरूपे च सविकल्पकमिति सौगतमतम् / (११)पृ०४१२ पं०४ / (१२)तुलना-"परस्परस्वरूपसार्यमेकस्मिन्नाधारे धृतिर्वा ।"-स्या० र० पू० 493 / 1-ध्यास इ-आ। 2-चिदुपल-आ०, श्र०। -स्परं विरो-ब०14 प्रार्थ्यते श्र०।। तेषामन्योन्यं ब०, श्र०। 6-ज्यभेदोश्र०।-वस्य प्र-ब०। 8-भासतेत्या-ब०। 9-स्परं स्व-बं०। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 10] प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यवादः 415 नुपपन्नः; प्रतीतिविरोधात् / नहि यथोक्तमाकारद्वयमन्योन्यसङ्कीर्णस्वरूपं स्वप्नेऽपि प्रतीयते। द्वितीयविकल्पे तु नेहि किश्चिदनिष्टम् , एकस्मिन् प्रत्यभिज्ञाख्ये ज्ञाने तदाकारद्वयस्य निर्बाधप्रतीतौ प्रतिभासमानत्वात् / यद्यथा निर्बाधायां प्रतीतौ प्रतिभासते तत्तथैवाभ्युपगन्तव्यम् यथा नीलं नीलतया, प्रतिभासते च तथाविधायां प्रतीतौ आकारद्वयान्वितत्वेनैक ज्ञानमिति / न च प्रमाणप्रसिद्ध वस्तुस्वरूपे मिथ्याविकल्पसंहतिः किञ्चित्कर्तुं समर्था / सकलशून्यतादेरपि सिद्धिप्रसङ्गात् / कथंञ्चैवंवादिनः चित्रज्ञानादेः सिद्धिः ? नीलादिप्रतिभासानां हि परस्परानुप्रवेशे सर्वेषामेकरूपताप्रसङ्गात् कुतश्चित्रता एकनीलाकारज्ञानवत् ? तेषां तदननुप्रवेशे भिन्नसन्ततिनीलादिप्रतिभासानामिव अत्यन्तभेदसिद्धेः नितरामचित्रता / एकज्ञानाधिकरणतया तेषां प्रत्यक्षतः प्रतीतेः प्रतिपादितदोषानवकाशः प्रत्यभिज्ञानेऽप्यविशिष्टः / तन्न विरुद्धधर्माध्यासतः प्रत्यभिज्ञानस्याभावो युक्तः। 10 नापि कारणाभावतः; दर्शन-स्मरणलक्षणस्य तत्कारणस्य सद्भावात् / कथं व॑िभिन्नविषययोः विमिन्नाकारयोश्चानयोः तत्कारणतेति चेत् ? तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् / यद् यदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत् तत्कारणकम् यथा बीजाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायी अङ्करः तत्कारणकः, दर्शनस्मरणान्वयव्यतिरेकानुविधायिनी च प्रत्यभिज्ञेति / न खलु बीजादेः अङ्करकारणतायां चित्रपट्यादेः चित्रज्ञानकारणतायां वा तदन्वयव्यतिरेकानुविधानादन्यन्निबन्धनमस्ति / तन्नास्य कारणाभावादप्यभावो युक्तः / किञ्च, इदं प्रत्यभिज्ञानं कार्यम् , कार्यञ्च प्रतीयमानं कारणसद्भावमवबोधयति, अतः कथमस्य कारणाभावो ज्यायान् ? तथाहि-यत् कार्य तत् कारणपूर्वकम् यथा घटादि, कार्यश्चेदं प्रत्यभिज्ञानमिति / यदप्युक्तम्-'सतोऽपि प्रत्यभिज्ञानस्य न प्रामाण्यम्' इत्यादि; तदप्यसमीक्षिता- 20 ' (1) दर्शनस्मरणरूपम् / (2) 'दर्शनस्मरणरूपमाकारद्वयं परस्परमनुप्रवेशेनऽननुप्रवेशेन वा प्रतिभासते' इत्येवं वादिनः सौगतस्य / तुलना-"कथञ्चैवं वादिनश्चित्रज्ञानसिद्धिः.."-प्रमेयक० प० 342 / स्या०र०प० 493 / (3) नीलादिप्रतिभासानाम (4) देवदत्तस्य नीलज्ञानं यज्ञदत्तस्य पतिज्ञानं इन्द्रदत्तस्य च रक्तज्ञानं यथा परस्परतोऽत्यन्तभिन्नं सत चित्रकरूपतां न प्रतिपद्यन्ते तथैव। (5) नीलादिप्रतिभासानाम् / (6) तुलना-"नापि कारणाभावतः .."-स्या० 20 पृ० 494 / 'यत्पुनरुक्तं सामग्रीभेदात् विरुद्धधर्मसंसर्गाच्च प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्य एकत्वानुपपत्तिरिति; तदयुक्तम् ; सम्प्रयोगसंस्कारयोः सम्भूयसामग्रीत्वात् / न नान्यत्र सम्प्रयोगसंस्कारयोः प्रत्येकमन्योन्यनिरपेक्षयोः कारणत्वादेकज्ञानकारणतानुपपत्तिः, यस्मात् अन्यत्र लिङ्गेन्द्रिययोरन्योन्यनिरपेक्षयोः दृष्टं सम्भयकारित्वं विशिष्टानमिति प्रति / तस्मात् प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्य एकत्वेन प्रामाण्यसंभवात् ।"चित्सु० पृ० 214 / (7) 'दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानम्' [ परीक्षामु 35 ] इत्यभिधानात् / (8) वर्तमानपर्यायविषयं हि दर्शनम् अतीतविवर्तगोचरञ्च स्मरणम् / (9) इदमाकारोल्लेखि हि दर्शनम् तदाकारोल्लेखि च स्मरणम् / (10) पृ० 413 पं० 1 / 1 न किञ्चि-ब०। 2 सलिलतया श्र०।-तत्वेनैव ज्ञान-आ०, श्र०। 4-णतत्का-आ०,१०। 5-चित्रपटादेः ब०, श्र०। 6-कार्य प्रती-श्र० / 7-स्य प्रामा-ब०। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० भिधानम् ; यतो विषयाभावात् , गृहीतग्राहित्वात् , बाध्यमानत्वाद्वाऽस्य अप्रामाण्यं . स्यात् ? न तावद्विषयाभावात् ; पूर्वोत्तरविवर्त्तवत्यैकद्रव्यस्य तद्विषयस्य सद्भावात् / प्रत्यक्षादितः प्रत्यभिज्ञानस्य स्वरूपवैलक्षण्यसंभवाच्च विषयवैलक्षण्यमवश्याभ्युपगन्तव्यम् / यस्य यतः स्वरूपवैलक्षण्यं तस्य ततो विषयवैलक्षण्यमप्यस्ति यथा प्रत्यक्षात् स्मरणस्य, अस्ति च स्वरूपवैलक्षण्यं प्रत्यभिज्ञानस्येति / सुप्रसिद्धं हि प्रत्यक्षस्मरणयोः स्पष्टेतररूपतया अतीतवर्तमानविषयपरामर्शरूपतया च स्वरूपवैलक्षण्याद्' अतीतवर्त्तमानकालावच्छेदेन विषयवैलक्षण्यम्, एवमॉपि / प्रत्यक्षस्य हि वर्तमानकालावच्छिन्नो विषयः, स्मरणस्य तु अतीतकालावच्छिन्नः, प्रत्यभिज्ञानस्य तु उभयकाला वच्छिन्नो द्रव्यविशेषो विषयः / न चाऽशेषार्थानां प्रतिक्षणं क्षणिकत्वात् द्रव्यविशे10 षस्य कस्यचिदप्यसंभवात् कस्य तद्विषयता प्रार्थ्यते इत्यभिधातव्यम् ; क्षणभङ्गप्रतिषेधेन द्रव्यसिद्धेः प्रागे प्रपञ्चतो विहितत्वात् / तन्न विषयाभावात् तदप्रामाण्यम् / नापि गृहीतग्राहित्वात; तद्विषयस्य प्रमाणान्तरेण ग्रहीतुमशक्यत्वात् / स हि प्रत्यक्षेण गृह्येत, स्मरणेन, प्रमाणान्तरेण वा ? न तावत् प्रत्यक्षेण; तस्य वर्तमानविवर्त्त मात्रगोचरचारितया अतीतवर्त्तमानविवर्त्तवर्त्तिनो द्रव्यस्य ग्रहणे सामर्थ्याऽसंभवात् / 15 नापि स्मरणेन; तस्य अतीतपर्यायविषयतया तद्ब्रहणेऽसमर्थत्वात् / नापि प्रमाणान्तरेण; उभयविवर्त्तवर्तिद्रव्यविषयस्य प्रत्यभिज्ञानतोऽन्यप्रमाणस्याऽसंभवात् / तदुभयसंस्कारजनितं कल्पनाज्ञानमस्तीति चेत् ; न; तस्यैव प्रत्यभिज्ञानत्वात् / .. (1) तुलना-"तदप्रामाण्यं हि गृहीतग्राहित्वात्, स्मरणानन्तरभावित्वात्, शब्दाकारधारित्वाद्वा, बाध्यमानत्वाद्वा स्यात् ?"-प्रमेयक पृ० 343 / (2) प्रत्यभिज्ञानस्य। (3) प्रत्मक्षे स्मरणे च प्रत्येकमिह तु युगपदिति विशेष:-आ० टि०। (4) प्रत्यभिज्ञानेऽपि / (5) पृ० 357-389 / (6) तुलना-"आकारवादप्रतिषेधे पूर्वानुभवजनितसंस्कारस्मरणसहकारीन्द्रियेण स एवायमित्यभयोल्लेखि ज्ञानं जन्यते / तस्य च अर्थान्वयव्यतिरेकानुविधानात् निविषयत्वमयुक्तम् ।"प्रश० व्यो० पृ० 397 / “अतीतकालविशिष्टो वर्तमानकालावच्छिन्नश्चार्थ एतस्यामवभासते।"न्यायमं० पृ० 459 / “प्रतीयते तावदेतस्माद्विज्ञानात् पूर्वापरकालावच्छिन्नमेकं वस्तुतत्त्वम्, तदप्यस्य विषयो न भवतीति संविद्विरुद्धम् / ग्रहणस्मरणे च नैकं विषयमालम्ब्येते तस्मादेकमेवेदं विज्ञानं प्रतीतिसांम.दुभयविषयमास्थयम् ।"-प्रश० कन्द० पृ. 80 / (7) तुलना"न हि तद्विषयभूतमेकं द्रव्यं स्मृतिप्रत्यक्षग्राह्यं येन तत्र प्रवर्तमान प्रत्यभिज्ञानं गृहीतग्राहि मन्येत, तद्गृहीतातीतवर्तमानविवर्ततादात्म्यात् द्रव्यस्य कथञ्चिदपूर्वार्थत्वेऽपि प्रत्यभिज्ञानस्य तद्विषयस्य नाप्रमाणत्वं लैंगिकादेरप्यप्रमाणत्वप्रसंगात् तस्यापि सर्वथैवापूर्वार्थत्वासिद्धेः।"-प्रमाणप० पृ० 70 / प्रमेयक पृ० 343 / स्या० र० पृ० 495 / प्रमेयर० पृ० 33 / प्रमाणमी० पृ० 35 / (8) अतीतवर्तमानपर्यायानयायिद्रव्यग्रहणे / (9) अतीतवर्तमान। (10) स्मरणप्रत्यक्ष / तुलना"प्रत्यक्षस्मरणजनितकल्पनाज्ञानमस्तीति चेत्, न; तस्यैव प्रत्यभिज्ञानत्वेनास्माभिरभ्युपगमात् / " -स्या० र० पृ० 495 / (11) उभयसंस्कारजनितविकल्पस्यैव / 1-विवरव]-आ० / 2-वश्यमभ्यु-श्र० / 3-क्षणिकत्वतो द्र-ब० / 4-विवर्त्तगोच-आ०, श्र०।-वित्तिद्रव्यस्य श्र०, -विवत्तिनो द्रव्यस्य ब० / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 10 ] प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यवादः 417 ननु यदि प्रत्यक्षस्मरणयोः द्रव्यमविषयः तर्हि कथं ताभ्यां तत्र तेज्जन्येत ? यद् यस्य विषयो न भवति ने तत्तत्र ज्ञानमुत्पादयति यथा चक्षु रसे, अविषयश्च एकत्वं प्रत्यक्षस्मरणयोरिति; तदप्यसुन्दरम् ; विकल्पोत्पादकाऽविकल्पकाध्यक्षेण अनेकान्तात् , तस्य सामान्यागोचरस्यापि सामान्ये विकल्पोत्पादकत्वप्रतीतेः / 'विकल्पवासनासहायं स्वाविषयेऽपि तत्र तत् तमुत्पादयति' इत्युत्तरम् अन्यत्रापि तुल्यम्, प्रत्यक्षस्यापि स्मरण- 6 सहायस्य एकत्वे प्रत्यभिज्ञानजनकत्वप्रतीतेः, सहकारिणामचिन्त्यशक्तित्वात् / कथमन्यथा असर्वज्ञज्ञानम् अभ्यासविशेषसहायं सर्वज्ञज्ञानं जनयेत् ? एकत्वविषयत्वञ्च प्रत्यक्षस्यापि अक्षणिकत्वसिद्धौ समर्थितम् / अन्यथा निर्विषयत्वमेव अस्य स्यात् , एकान्तेन अनित्यत्वस्य कदाचनाप्यप्रतीते: / केवलं तेनं एकत्वं प्रतिनियतवर्तमानपर्यायाधारतया अर्थे प्रतीयते, स्मरणसहायप्रत्यक्षप्रभवप्रत्यभिज्ञानेन तु स्मर्यमाणाऽनुभूयमा- 10 नपर्यायाधारतयेति विशेषः / अतः कथञ्चिदपूर्वार्थत्वसिद्धेः न गृहीतग्राहित्वमस्य यतोऽप्रामाण्यं स्यात् , अन्यथा अनुमानादेरपि अप्रामाण्यप्रसङ्गः सर्वथाऽपूर्वार्थविषयत्वाऽसंभवात् , तद्विषयस्य देशोदिविशिष्टपावकादिव्यक्तिविशेषस्य सम्बन्धनौहिज्ञानविषयात् साध्यसामान्यात् कथञ्चिदभिन्नस्य कथञ्चित् पूर्वार्थत्वप्रसिद्धेः / बाँध्यमानत्वात्तर्यप्रमाणं प्रत्यभिज्ञा; इत्यप्ययुक्तम् ; तद्बाधकस्य कस्यचिदप्य- 15 संभवात् / तस्य हि बाधकं प्रत्यक्षम् , अनुमानं वा स्यात् ? न तावत् प्रत्यक्षम् ; तस्य तद्विषये प्रवृत्त्यभावात् / यद् यद्विषये न प्रवर्त्तते न तत्तस्य बाधकम् यथा रूपज्ञानस्य (1) द्रव्ये / (2) प्रत्यभिज्ञानम् / (3) सौगतमते हि निर्विकल्पकप्रत्यक्षात् सविकल्पकमुत्पद्यते / निर्विकल्पकं च परमार्थसत्स्वलक्षणजन्यत्वात् वस्तुविषयं सविकल्पकं तु बुद्धिकल्पितसामान्यगोचरत्वादवस्तुविषयकं प्रसिद्धम् / ततो यथा निर्विकल्पकं सामान्यमजानदपि सामान्यविषयं विकल्पमुत्पादयति तथैव अतीतवर्तमानोभयविवर्तवर्तिनमेकत्वमजानत्यपि प्रत्यक्षस्मरणे तद्विषयकं प्रत्यभिज्ञानमुत्पादयतामिति भावः / तुलना-"विकल्पोत्पादकाध्यक्षेणानेकान्तात् ।"-स्या० 2010 495 / (4) सामान्ये / (5) निर्विकल्पकम् / (6) विकल्पम् / (7) प्रत्यक्षस्मरणाभ्याम् एकत्वे प्रत्यभिज्ञानसमुत्पादनस्थलेऽपि / (8) अभ्यासविशेषादयः सहकारिण:-आ०टि०। (9) पृ०३८१ / (१०)प्रत्यक्षेण / (11) अनुमानविषयस्य-आ० टि०। (12) पर्वतादिदेशस्थपावकस्य-आ० टि०। (13) तर्क-आऊटि०। तुलना- "सम्बन्धग्राहिविज्ञानविषयात् साध्यादिसामान्यात् कथञ्चिदभिन्नस्यानमेयस्य देशकालविशिष्टस्य तद्विषयत्वात् ।"-प्रमाणप० पृ० 70 / प्रमेयक० पृ०३४३ / (14) तुलना"संवादो बाधवैधर्यनिश्चयश्चेत् स विद्यते / सर्वत्र प्रत्यभिज्ञाने प्रत्यक्षादाविवाञ्जसा // प्रत्यक्षबाधक तावन्न संज्ञानस्य जातचित् / तद्भिन्नगोचरत्वेन परलोकमतेरिव ॥"-तत्त्वार्थश्लो०प०१९२। "बाधकप्रमाणान प्रमाणं प्रत्यभिज्ञानमिति चायुक्तम् ; तद्बाधकस्यासम्भवात् / न हि प्रत्यक्षं तद्बाधकं तस्य तद्विषये प्रवृत्त्यसंभवात्, साधकत्ववद् बाधकत्वविरोधात् / " -प्रमाणप० पृ०७०। अष्टसह०प० 280 / प्रमेयक० पृ० 344 / स्या० र० 10 496 / प्रमेयर० प्र० 36 / 1न तत्र आ०, श्र०। 2-कत्वं प्रती - श्र०। 3-भिज्ञाने तु आ०, श्र०। 4 इति चायुक्तम् श्र० Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० रसज्ञानम् , न प्रवर्त्तते च प्रत्यभिज्ञाविषये प्रत्यक्षमिति / नाप्यनुमानम् ; द्विषये तस्याप्यप्रवृत्तेः, प्रवृत्तौ वा संवादकत्वान्न तद्बाधकत्वम् / ननु लूनपुनर्जातनखकेशादौ बाध्यमानं तत् प्रतीतमेव अतः कथं तत् प्रमाणमिति चेत् ? यदि नाम तत्रे तत्तथा प्रतीतम् , अन्यत्र किमायातम् ! अन्यथा शुक्तिशकले रजताभासप्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वोपलम्भात् सत्यरजतेप्यस्य भ्रान्तत्वप्रसङ्गः / तन्न एकत्वप्रत्यभिज्ञानस्यापह्नवो युक्तः / ___ नापि सादृश्यप्रत्यभिज्ञानस्य; अनुमानानुत्पत्तिप्रसङ्गात्-येनैवे हि पूर्व धूमसहितोऽग्निदृष्टः तस्यैव उत्तरकालं पूर्वधूमसदृशधूमदर्शनात् अग्न्यनुमानोत्पत्तिर्युक्ता, नान्यस्य अन्यदर्शनात् / न च प्रत्यभिज्ञानमन्तरेण 'तेनेदं सदृशम्' इति प्रतिपत्तिर्घटते, पूर्व प्रत्यक्षेण उत्तरस्य तत्प्रत्यक्षेण च पूर्वस्य धूमादिवस्तुनोऽप्रतिपत्तेः / न च द्वयाऽप्रति10 पत्तौ द्विष्ठं सादृश्यं प्रतिपत्तुं शक्यमतिप्रसङ्गात् / यद् द्विष्ठं तद् द्वयप्रतिपत्तावेव प्रतीयते यथा सम्बन्धः, द्विष्ठश्च सादृश्यमिति / ततः सिद्धा एकत्वोल्लेखिनी सादृश्योल्लेखिनी च प्रत्यभिज्ञा प्रमाणम् / एतदेवाह-संज्ञा प्रमाणं चिन्तायाः ‘फलस्य हेतुत्वात्' इति सम्बन्धः। अस्याः पर्यायमाह-तर्कस्य इति / कः पुनरयं तर्को नाम इति चेत् ? व्याप्तिज्ञानम् / व्याप्तिर्हि (1) प्रत्यभिज्ञाविषये। ( 2 ) अनुमानस्यापि / ( 3 ) तुलना-"न च लूनपुनर्जातनखकेशादिवत सर्वत्र निविषया प्रत्यभिज्ञा'''''-प्रमेयक० पृ० 342 / स्या० 2010 494 / (4) स एवायं नखादिरिति एकत्वप्रत्यभिज्ञानम् / (5) लनपुनर्जातनखकेशादौ। (6) स एवायं नख- , केशादिरिति प्रत्यभिज्ञानं बाध्यमानम् / (7) तस्मिन्नेव नखे केशे वा स एवायं नखादिरिति प्रत्यभिज्ञानं कथं बाध्यमानमिति भावः। (8) एकत्र बाध्यमानत्वोपलम्भात् सर्वत्र बाध्यमानत्वस्वीकारे / (9) रजताभासप्रत्यक्षस्य / (10) अपह्नवो युक्त इति गतेन सम्बन्धः / (11) तुलना-“सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमेतेनैव विचारितम् / प्रमाणं स्वार्थसंवादादप्रमाणं ततोऽन्यथा // " -तत्वार्थश्लो० 10 193 / "कथञ्च प्रत्यभिज्ञानविलोपेऽनुमानप्रवृत्तिः येनैव हि .."-प्रमेयक० पृ०३४३ / “अनुमानानुत्पत्तिप्रसङ्गात्, येनैव हि पूर्व घूमोऽग्नेः " -स्या० र० पृ० 496 / (12) प्रतिपत्रा / (13) प्रतिपत्तः / (14) जनस्य / (15) घटादिदर्शनात् / (16) धूमस्य / (17) उत्तरकालीनधूमप्रत्यक्षेण / (18) तुलना-"न च द्वयाप्रतिपत्तौ"-स्या० र० पृ० 496 / (19) "चिन्ताज्ञानमागामिनो वस्तुन एवं निष्पत्तिर्भवति अन्यथा नेति, यथैवं ज्ञानादित्रयसमन्विते तत्रैव परमसुखावाप्तिरन्यथा नेत्येतच्चिन्ताज्ञानं मनोज्ञानमेव।" -तत्त्वार्थभा० व्या० पृ० 78 / “सम्बन्धं व्याप्तितोऽर्थानां विनिश्चत्य प्रवर्तते / येन तर्कः स संवादात् प्रमाणं तत्र गम्यते ।"-तत्त्वार्थश्लो० 10 194 / प्रमाणप०प०७०। "उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः / इदमस्मिन् सत्येव भवत्यसति तु न भवत्येवेति च।"-परीक्षाम०३।११. 12 / प्रमाणमी०१२।५ / "उपलम्भानुपलम्भसंभवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनसम्बन्धाद्यालम्बनमिदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याद्याकारं संवेदनमूहापरनामा तर्कः ।"-प्रमाणनय० 3 / 5 / जैनतर्कभा० पू० 10 / 'व्याप्तिज्ञानं तर्कः।"-न्यायदी० पृ०१९। “अन्वयव्यतिरेकाभ्यां व्यप्तिज्ञानं दर्शनस्मरणाभ्यामगृहीतप्रत्यभिज्ञाननिबन्धनं तर्क: चिन्ता।"-लघी० अभ० पृ० 29 / 'अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः ।"-न्यायसू० 121140 / “अविज्ञाततत्त्वे सामान्यतो ज्ञाते धर्मिणि 1-भिज्ञाने विषये श्र०,-भिज्ञानविषये ब० / 2 धूमोऽग्निदृष्टः ब० / 3 'यन्' नास्ति श्र०। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्रे० का 0 1 0 ] तर्कप्रामाण्यवादः साध्यसाधनयोरविनाभावः। तद्ग्राहि ज्ञानं तर्कोऽभिधीयते, तंत्र तस्यैव प्रमाण्यात् , हानान्तराणां तद्ग्रहणे सामर्थ्याऽसंभवत: तंत्र प्रामाण्यानुपपत्तेः / एकपक्षानुकूलकारणदर्शनात् तस्मिन् संभावनाप्रत्ययो भवितव्यतावभासः तदितरपक्षशैथिल्यापादने तद्ग्राहकप्रमाणमनुगृह्य तान् सुखं प्रवर्तयन् तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तकः ।"-न्यायमं० पृ० 586 / न्यायकलि० पृ० 13 / “एकधर्माम्युपगमे द्वितीयस्य नियतप्राप्तिरूपः तर्कः"-न्यायली० पृ० 54 / "व्यापकाभाववत्त्वेन निर्णीते व्याप्यस्याहार्यारोपाद्यो व्यापकस्याहार्यारोपः स तर्कः / यथा निर्वह्नित्वारोपान्निधूमत्वारोपः / यदि निर्वह्निः स्यान्निधूमः स्यादिति ।"-न्यायसूत्रवृ० 111140 / “तर्कश्चापाद्यापादकयोर्व्याप्तिमूल: ।"-महावि० पृ० 131 / “जैमिनीयास्तु ब्रुवते युक्त्या प्रयोगनिरूपणमूहः / स च त्रिविधः मन्त्रसामसंस्कारविषयः / [ शाबरभा० ९।१।१-"न्यायमं० पृ० 508 / "अदृष्टसम्बन्धात परोक्षप्रतीतिः तर्क इति लक्षणम् ।"-प्रमाणवात्तिकालं० पृ० 300 / (1) “सम्बन्धो व्याप्तिरिष्टात्र लिङ्गधर्मस्य लिङ्गिना"-मी० श्लो० अनु० श्लो०४। "नियमरूपं मीमांसकाः"-न्याय० मा० पृ०५६। प्रकरणपं० पृ०६८। “व्याप्तिरविनाभावः इति"-प्रश० व्यो० पृ० 570 / "स्वभावतः साध्येन साधनस्य व्याप्तिरविनाभावः।"-न्यायसा० पृ० 5 / "साहचर्यं तु सम्बन्ध इति नो हदयङ्गमम् / तस्मिन् सत्येव भवने न विना भवनं ततः / / अयमेवाविनाभावो नियमः सहचारिता।"-न्यायमं० पृ० 121 / न्यायकलि० पृ० 2 / "तस्माद् यो वा स वाऽस्तु सम्बन्धः, केवलं यस्यासी स्वाभाविको नियत: स एव गमको गम्यश्चेतरः सम्बन्धीति युज्यते ।"-न्यायवा 0 ता० पृ० 165 / "स्वाभाविको निरुपाधिरित्यर्थः ।"-ता०प० पृ० 691 / न्यायली० पू० 54 / “अनौपाधिकः सम्बन्धः"-प्रश. किर० पू० 217 / “अनौपाधिकः सम्बन्धो व्याप्तिः / यद्वा साध्यसामानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिसाध्यसामानाधिकरण्यं व्याप्तिः ।"-वैशे० उप० 3 / 1 / 14 / तत्त्वचि० व्या० / "उपाधिविधुरः सम्बन्धः"-सर्वद० पृ० 7 / “साधनस्य च साध्येऽर्थे नियतत्वकथनं व्याप्तिकथनम् / यथोक्तम्-'व्याप्तिापकस्य तत्र भाव एव व्याप्यस्य च तत्रैव भावः' [प्रमाणवा० स्ववृ० 3 / 1] इति ।"-न्यायबिन्दुटी० पृ० 64 / "द्विविधा चेयं व्याप्तिः व्यापकप्याव्यधर्मतया। तत्र व्याप्ये सति व्यापकस्यावश्यम्भावस्तस्य व्याप्ति:, व्याप्यस्य च व्यापक एव सति भावो नाम तस्य व्याप्तिः / आभ्यां यथाक्रममन्वयव्यतिरेकावुक्तो। व्याप्यसद्भावे व्यापकस्य सत्त्वनियमस्य अन्वयरूपत्वात् / व्यापकाभावे व्याप्याभावस्य च व्यतिरेकरूपत्वात् ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 3.1 "तस्य पक्षधर्मस्य सतो व्याप्तियों व्याप्नोति यश्च व्याप्यते व्याप्यव्यापकधर्मतया प्रतीतेः / यदा व्यापकधर्मतया विवक्ष्यते तदा व्यापकस्य गम्यस्य भाव एवेति सम्बन्धः / तत्रेति सप्तम्यर्थप्रधानमेतन्नाधारार्थप्रधानम धर्माणां धर्मान्तरत्वाभावात / तेनायमर्थः-यत्र धर्मिणि व्याप्यमस्ति तत्र सर्वत्र व्यापकस्य भाव एवेति व्यापकधर्मो व्याप्तिः / नत्वेवमवधार्यते व्यापकस्यैव तत्र भाव इति, हेत्वभावप्रसङ्गात्, अव्यापकस्यापि मूर्तत्वादेस्तत्र भावात् / नापि तत्रैवेत्यवधार्यते; प्रयत्नानन्तरीयकत्वादेरहेतुत्वापत्तेः / साधारणश्च हेतुः स्यान्नित्यत्वस्य प्रमेयेष्वेव भावात् / यदा तु व्याप्यधर्मता व्याप्तेविवक्षिता तदा यत्र धर्मिणि व्यापकोऽस्ति तत्रैव व्याप्यस्य भावो नान्यत्र / अत्रापि व्याप्यस्यैव तत्र भाव इत्यवधारणम् हेत्वभावप्रसक्तेरेव नाश्रितम् अव्याप्यस्यापि तत्र भावात् / नापि व्याप्यस्य तत्र भाव एवेत्यवधार्यते; सपक्षकदेशवृत्तेरहेतुत्वप्राप्तेः, साधारणस्य च हेतुत्वं स्यात् प्रमेयत्वस्य नित्येष्ववश्यम्भावादिति / व्यापकस्य तत्र भाव इत्यनेन चान्वय आक्षिप्तो व्याप्यस्य वा तत्रैव भाव इत्यनेन व्यतिरेक आक्षिप्तः ।"-प्रमाणवा० स्वव० टी० 331 // हेतुबि० टी० पृ० 180 / प्रमाणमी०पू० 38 // "सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः"-परीक्षाम० 316 / प्रमाणमी० 2 / 10 / (2) व्याप्तिग्रहणे तर्कस्यैव / (3) प्रत्यक्षादीनाम् / (4) व्याप्तिग्रहणे / 1 तत्प्रामा-आ०, श्र। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० ननु व्याप्तिस्वरूपस्यैवाऽसंभवात् कथं तत्र तर्कः प्रमाणम् ? तथाहि-व्याप्तिः यानिस्वरूपवा- सम्बन्धोऽर्थानाम् , सा च देशतः कालतो वा केस्यचित् केनचित्संभवान्नास्ति तर्कस्य स्यात् ? न तावद् देशतः; यतो व्योन्नि धूमः, भूमौ अग्निः, उपरि प्रामाण्यमिति चार्वा- देशे वृष्टिः, अधोदेशे नदीपूरः / नापि कॉलतः; न हि वृष्टिकाले नदीपूरः 5. कस्य पूर्वपक्षः- कृत्तिकोदयकाले रोहिण्युदयो वाऽस्ति / किञ्च, कस्य केनायमविनाभावः-किं सामान्यस्य सामान्येन, किं वा सामान्यस्य विशेषैः, उत विशेषाणां विशेषैः ? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता, नित्यत्व-विभुत्वाभ्यां सकलदेशकालसम्बन्धितया अग्नित्व-धूमत्वयोः सुप्रसिद्धत्वात् / द्वितीयपंक्षेऽपि देशकालानव च्छिन्ने विशेषमात्रे सामान्यस्याविनाभावः, तदवच्छिन्ने वा ? यद्यनर्वैच्छिन्ने; तदा सिद्ध10 साधनमेव / अथ देशकालावच्छिन्नो; तदा अनुगमाभावः / नहि महानसस्थधूमसामा (1) तुलना-"किञ्च, साध्यसाधनयोः व्याप्तिः किं यत्र यत्र साधनं तत्र तत्र साध्यमिति देशरूपा निरूप्येत, किं वा यदा यदा साधनं तदा तदा साध्यमिति कालरूपा, युगपदुभयस्वभावा वा ?"हेतुबिड० पृ० 4 B. (2) साधनस्य साध्यस्य वा। (3) साध्येन साधनेन वा। (4) तुलना-. "देशव्याप्तिमात्राङ्गीकारे समग्रजाग्रत्प्रामाणिकमान्ये धूमानुमानेऽपि सत्यताभिमानोऽभिमानशालिना कथं पृथापथमानीयते, तत्र च देशव्याप्तेः स्वप्नदशायामपि विभावनाभावात् / तथाहि-गगनमण्डलतलावलम्बी धूमः पर्वताखर्वनितम्बसम्बन्धी च धूमध्वज इति क्व देशव्याप्तिरिति ।"-हेतबिड० पृ०४B.। (5) उपरि वृष्टो मेघः अधोनदीपूरदर्शनादित्यनुमाने / (6) तुलना-"उद्गतो नभश्चन्द्रो जलचन्द्रोदयदर्शनात, आसीत्पूर्वमस्मिन् देशे वृष्टिः उत्तरत्र तथाविधवारिपूरविलोकनात् , भविष्यति वा वारिवाहवष्टिः तादगवारिवाहविभावनात्, उदेष्यति रोहिणी कृतिकोदयात. उदेष्यति श्वः सविता अद्यत-. नादित्योदयदर्शनात्, उदगुः मुहूर्तात्पूर्वं पूर्वाफाल्गुनी उत्तरफाल्गुनीनामुदयोपलब्धेः इत्यादि मानानामनेकेषां देशकालोभयेभ्यो विप्रकृष्टानां कार्यकारणपूर्वचरोत्तरचरहेतुविशेषाणां देशकालोभयैः क्वापि व्याप्त्यनुपपत्तेरहेतुत्वप्राप्तेः।"-हेतुबिड० पृ० 4 B. (7) तुलना- "इतोऽपि अविनाभावसम्बन्धग्रहणानुपपत्तिः-किं सामान्ययो: सम्बन्धावधारणम्, आहो स्वलक्षणयोः, सामान्यस्वलक्षणयोर्वा ?"तत्वोप०पू०६५,८३॥ "तथाहि-व्याप्तिर्भवन्ती किं साधनसाध्यव्यक्तयो|भोति, उताहो साधनत्वसाध्यस्वजात्योर्वा, आहोस्वित् साधनवत्साध्यवतोः, किं वा साधनत्ववत्साध्यत्ववतोः, उत.साधनवत्त्वसाध्यवत्वयोः इति पक्षपञ्चतयी..."-हेतुबिड० पृ० 4 A. | "तथाहि-कि व्यक्तयोरथवा जात्योस्तद्वतो विशेषयोः / व्याप्तिस्त्वयेष्यते किं वा साध्यसाधनवत्त्वयोः / सा न व्यक्त्योस्तदानन्त्यान्न जात्योस्तदसंभवात् / न तद्वतोरुक्तदोषान्न चतुर्थोऽनिरूपणात् ।"-चित्सु० पृ० 233 / (8) पर्वत-महानसादिदेशम् अतीतवर्तमानादिकालञ्चानपेक्ष्य अग्न्यादिविशेषमात्र। तुलना-"यद्यनवच्छिन्नैःतदा सिद्धसाध्यतैव देशकालानवच्छिन्नानां वह्नयादिविशेषाणामतिप्रतीतत्वात् ।"-स्या० र० पृ० 505 / (9) तुलना"किं चानुमानं प्रमाणमुपेत्योक्तं वस्तुतस्तु न तन्मानमित्याह-विशेष इति / विशेषेऽनुगमाभावः सामान्ये सिद्धसाध्यता। इत्यादिदोषदुष्टत्वान्न च नोऽनुमितिः प्रमा ॥-व्यक्त्योर्वा व्याप्तिः, जात्योवी, तदाक्रान्तविशेषयोवा, धूमवत्त्ववह्निमत्त्वयोवा ? नाद्यः; सर्वोपसंहारासिद्धेः / न द्वितीयः; तयोः स्वरूपभेदात् धमिभेदाच्च / न तृतीयः; उक्तदोषात् / न चतुर्थः; औपाधिकधर्मस्य स्वरूपातिरिक्तस्यानिरूपणात् ।"-बृहदा० वा० पृ० 1401 / न्यायकुमु० पृ० 69 टि०५। 1-स्वरूपासंभ-श्र०। 2 व्याप्तिसम्ब-ब०। 3 'उत विशेषाणां विशेषः' नास्ति ब० / 4 नित्यविभूत्वा-ब०। 5-पक्षे वेश-आ। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 10] तर्कप्रामाण्यवादः 421 न्यस्य पर्वतस्थेन अग्निविशेषेणाऽनुगमोऽस्ति, पर्वतस्थस्य वा महानसस्थेन / नापि विशेषाणां विशेषैर्नियमः; स हि दृष्टानां दृष्टैः, अदृष्टानामदृष्टैः, दृष्टानां वा अदृष्टैः स्यात् ? यदि दृष्टानां दृष्टैः; तदा सिद्धसाधनम् , अपूर्वव्यक्तिदर्शने च अनुमानानुपपत्तिः / अथ अदृष्टानामदृष्टैः; तत्रापि सम्बन्धग्रहणाभावादनुगमाभावाच्च कथमनुमानम् ? नापि दृष्टानामदृष्टैः; पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् / किश्च, अविनाभावः सम्बन्धः, स च सम्बन्धिग्रहणपूर्वकः, सम्बन्धिनौ च द्वौ द्वौ विशेषौ, अतः कथं सर्वोपसंहारेण व्याप्तिर्ग्रहीतुं शक्या ? किश्च, अयमविनाभावशब्द: साध्याभावे साधनाभावं वदतीति व्यतिरेकमात्रवचनः, न सम्बन्धवचनः / किश्च, 'अग्न्यभावे धूमो नोपपद्यते' इति धूमानुपपत्तेः अग्न्यभावो विशेषणम् / 10 स: पारमार्थिकः, अपारमार्थिको वा स्यात् / पारमार्थिकत्वे अविद्यमानत्वात् धूमस्य न तँदाश्रिता व्याप्तिर्ग्रहीतुं शक्या, नहि अगृह्यमाणे आश्रये तदाश्रितं ग्रहीतुं शक्यमतिप्रसङ्गात् / अपारमार्थिकत्वे तु उपाधेः तदुपहितायां धूमानुपपत्तेरपि , अपारमार्थिकत्वं स्यात् , तथा चाऽनुमानस्यापि, अपारमार्थिकत्वमेव आयातम् / अथैवमुच्यते-अग्न्यभावश्चेद् धूमसद्भावस्यानुपपत्तिः, अग्न्यभावस्य धूमाभावेन व्याप्तत्वात् ; तदप्यनुप- 18 पन्नम् ; विद्यमाना गृहीता च व्याप्तिः अनुमानाङ्गम् न प्रसज्यमाना, तस्योः सत्त्वेनाप्यनिश्चितत्वात् / संभावनाज्ञानं चैतत् , न च तद् वस्तुपरिच्छेदकम् यथा 'भूमिश्चेनाभविष्यद् अपतिष्यन् पर्वताः' इति / किच, एकस्य कस्यचिदग्नेरभावे धूमो नोपपद्यते, सर्वस्य वा ! न तावदेकस्य; अस्याभावेऽपि अग्न्यन्तरे धूमसद्भावस्योपपद्यमानत्वात् / नापि सर्वस्य; उपेहितग्रहणस्य 20 उपाधिग्रहणमन्तरेणाऽसंभवात् / धूमानुपपत्तेश्च अशेषाग्न्यभाव एवोपाधिः, न चासौ (1) प्रत्यक्षसिद्धैः प्रत्यक्षसिद्धस्य अविनाभावे सिद्धेऽपि न किञ्चित्फलम्, साध्य-साधनयोः प्रत्यक्षत्वात् , तथा च नानुमानप्रामाण्य मिति भावः / (२)अपूर्वव्यक्तौ अविनाभावग्रहणाभावात् नानमाप्रवृत्तिः / (3) अप्रत्यक्षेण सह अविनाभावग्रहणासंभवात्, संभवेऽपि अनुगमाभावः / (4) अपि तु यौ द्वौ सम्बन्धिनौ महानसीयधमाग्नी प्रत्यक्षविषयौ स्याताम् तयोरेव सम्बन्धो गृहीतः स्यात् न सकलसाध्यसाधनव्यक्तीनाम् / (5) अग्न्यभावस्यति शेष:-आ० टि०। (6) धूमाश्रिता। (7) धमलक्षणे / (8) व्याप्तिस्वरूपम् / (9) अग्न्यभावरूपविशेषणस्य / (10) अग्न्यभावविशिष्टायाः / (11) संभाव्यमाना। (12) संभाव्यमानाया: व्याप्तेः सत्त्वमपि अनिश्चितमेव / (13) 'अग्न्यभावश्चेत् स्यात् धूमसद्भावस्यानुपपत्तिः स्यात्' इत्याकारकं पूर्वोक्तं ज्ञानम् / (14) कस्यचिदेकस्य अग्नेरभावेपि 'अशेषाग्न्यभावविशिष्टो धूमाभावः' इत्याकारकविशिष्टग्रहणस्य अनुपपत्तेरितिभावः। (15) विशिष्टआ० टि०। (16) अशेषाग्न्यभावरूपविशेषण / 1-पत्तेः श्र०। 2 'अथ' नास्ति आ०। 3 स्वाश्रये श्र०। 4 उपाधिः श्र०, ब०। 5-हितत्वात -ब०।६ एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ०। 6-माधिकरवं स्यात श्र। 7-पत्तेः श्र०। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ပုခု 3 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० सर्वाग्निष्वगृहीतेषु ग्रहीतुं शक्यते, अभावग्रहणस्य प्रतियोग्याश्रयग्रहणसव्यपेक्षत्वात् / अपि च कचिदग्न्यभावाभावेऽपि धूमाभावे धूमसद्भावस्य विरोधो दृष्टः, अतो नाग्न्यभावो धूमभावविरोधस्य उपाधिः, किन्तु धूमाभाव एव / अतो न व्याप्तिविचार्यमाणा घटते, तत्कथं तद्वाहिणः तर्कस्य तत्प्रभवानुमानस्य वा प्रामाण्यम् ? अस्तु 5 वा व्याप्तिः; तथापि अविनाभावे सत्यपि न धूमाद् वह्निपैङ्गल्यमनुमीयते वह्वेरेव धूमेन अनुमीयमानत्वात् / तथा नियतत्वाविशेषेऽपि धूम एव गमको न तद्गताः श्यामत्वादय इति / अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'व्याप्तिस्वरूपस्य' इत्यादि; तदसमीचनम् ; तत्प्रतिविधानपरस्सर यतः स्वरूपप्रयुक्तस्याऽव्यभिचारस्य व्याप्तित्वप्रतिज्ञानात् कथं तस्याः 10 तर्कस्य पृथक् प्रामाण्य- स्वरूपासंभवः ? स्वरूपं हि साध्यसाधनयोः स्वधर्मकलापकलितम् व्यवस्थापनम्- अग्नित्वं धूमत्वञ्च, तैद्धि अन्यतो देशकालाकारादेावर्त्य प्रकर्षण सम्बन्धम् आत्मन्येव योजयति / मंदधीनामेव व्याप्तिं बुध्यस्व बुध्यस्व' इत्यात्मसम्बन्धित्वेनैव व्याप्ति व्यवस्थापयत् स्वप्रयुक्तामेव व्याप्तिं बोद्धारं बोधयति / यदप्युक्तम्-देशतः कालतो वाऽविनाभावो न संभवति' इति; तदप्येतेन प्रत्युक्तम् ; 15 तद्वतः तद्वता अविनाभावस्य निर्बाधबोधाधिरूढप्रतिभासत्वात् / अव्यभिचारिणा हि (1) यस्याभावः क्रियते स: प्रतियोगी यथा अशेषाग्न्यभावे कर्तव्ये अशेषाग्निः प्रतियोगी, यस्मिन् अभावः क्रियते स आश्रयः, यथा त्रिकाले त्रिलोके च अशेषाग्न्यभावे प्रस्तुते कालत्रयं त्रिलोकश्च आश्रयः / “गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् / मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया"-[मी० श्लो० अभा० श्लो० 27 ] इत्यभिधानात् / (2) तुलना-'अपि च यत्सद्भाव एव यस्य निवृत्तिः तेनैव तस्य विरोधः, तदिह धूमाभाव एव सति धूमस्य निवृत्तिर्दृश्यत इति धूमाभावेनैव अस्य विरोधो नत्वग्न्यभावेन / केवलाङ्गाराद्यवस्थायाम अग्न्यभावाभावेऽपि धूमनिवृत्तेः प्रतीयमानत्वात् ।"-स्या० र० पृ० 505 / (3) अङ्गारावस्थापन्नाग्निमन्निधूमप्रदेशे अग्न्यभावाभावेऽपिअग्निसद्भावे सत्यपि। ( 4 ) यदि हि अग्न्यभावः धूमाभावस्य उपाधि: स्यात् तदा 'उपाध्यपाये उपाधिमतोऽभावात्' इति न्यायेन अङ्गारावस्थाग्निमत्प्रदेशे अग्न्यभावस्य अभावो विद्यते अतस्तत्र धूमाभावस्यापि अभावः प्राप्नोति, न च तत्र धूमाभावस्याभाव: धूमसद्भावरूपः समस्ति / अतः नाग्न्यभावः धूमाभावस्य विशेषणम् अपि तु धूमनिवृत्तिरेव / (5) तर्कगृहीतव्याप्तिबलोद्भूत / (6) तथा तेन अविनाभावप्रकारेण सम्बद्धत्वे समानेऽपि / (7) पृ. 420 50 1 / (8) तुलना"अविनाभावस्य साध्याव्यभिचरितत्वस्य"-प्रमाणवा० मनोरथ 03 / 1 / “स्वरूपप्रयुक्तस्याव्यभिचारस्य व्याप्तित्वप्रतिज्ञानात्"-स्या० र० पृ०५०६। जैनतर्कभा० पृ० 10 / (9) धूमत्वमग्नित्वञ्च / (१०)अग्नित्वधूमत्वप्रयुक्तामेव / (11) पृ०४२० प०२। (12) सामान्यविशेषवतो धूमादेः-आ० टि। (13) सामान्यविशेषवता अग्न्यादिना -आ० टि० / तुलना-"धूमो हि यत्र यत्रेति सामन्येनैव गृह्यते। न पुनः पर्वतेऽरण्ये गृहे वेत्येवमिष्यते ।"-न्यायमं० पृ० 111 / "देशकालौ परिपत्य स्वरूपमात्रेणैव धूमादेरग्न्यादिना सहाविनाभावस्य निर्बाधबोधाधिरूढत्वात् ।"-स्या० र० पृ० 506 / 1-पि धूमसभा-श्र० / 2-पि धूमान् श्र० / बुद्ध्यस्व 2 इ-आ० / 4-चारिणां हि श्र० / Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 10 ] तर्कप्रामाण्यवादः 423 व्याप्तिः / न च देशकालयोरव्यभिचारित्वम् ; विवक्षित देशकालयोरभावेऽपि धूमादेरूपलम्भात् / _यच्चान्यदुक्तम्-'कस्य केन व्याप्तिः' इति; तत्र यस्य येन अव्यभिचारः तस्य तेन व्याप्तिः, सामान्यविशेषवतश्च धूमादेः सामान्यविशेषवताऽग्न्यादिनाऽव्यभिचारात् तस्य तेनैव व्याप्तिः, अतश्च उक्तदोषानवकाशः / गैम्यं हि व्यापकम् , गमकं व्याप्यम् / / न च केवलौ सामान्यविशेषौ गम्यगमकरूपतया अनुभूयेते, जात्यन्तररूपस्यैर्व उभयात्मनः तद्रूपतयाऽवभासनात् / यदप्यभिहितम् –'अविनाभावः सम्बन्धः, स च सम्बन्धिग्रहणपूर्वकः' इत्यादि; तदप्यनेनैव प्रत्याख्यातम् ; सामान्योपलक्षितविशेषयोाप्तः सर्वोपसंहारेणैव संभवात् / नहि तत्र आनन्त्यादिदोषोऽवकाशं लभते / __यच्चोच्यते -अविनाभावशब्दो व्यतिरेकमात्रवचनो न सम्बन्धवचनः / तदप्युक्तिमात्रम् ; यतोऽविनाभावशब्दो न व्यतिरेकमात्रे पर्यवस्यति घटाद्यभावेऽपि तत्प्रवृत्तिप्रसङ्गात् , किन्तु नियमे / स च नियमः तथोपपत्ति-अन्यथानुपपत्तिप्रकाराभ्यां व्यवस्थितः, अत: तावुभावपि अविनाभावशब्देन उच्यते, 'यत्र यत्र धूमः तत्र तत्राग्निः, यत्राग्निर्नास्ति तत्र धूमोऽपि नास्ति' इति / ननु 'यत्राग्निर्नास्ति तत्र धूमोऽपि नास्ति' 15 इत्येतत् कुतोऽवगम्यते इति चेत् ? अग्न्यभावे धूमस्य नियमेन अप्रतीयमानत्वात् तत्सद्भावनियत एवाऽसौ, अन्यथा यथा धूमाभावेऽपि क्वचिदग्निरुपलभ्यते तथा (1) तुलना-“यो यथा नियतो येन यादृशेन यथाविधः / स तथा तादृशस्यैव तादृशोऽन्यत्र बोधकः ॥"-न्याय० मा० पृ० 57 / (2) पृ० 420 पं०६। (3) तुलना-' व्याप्यस्य गमकत्वञ्च व्यापकं गम्यमिष्यते / यो यस्य देशकालाभ्यां समो न्यनोऽपि वा भवेत् // स व्याप्यो व्यापकस्तस्य समो वाऽभ्यधिकोऽपि वा / तेन व्याप्ये गृहीतेऽर्थो व्यापकस्तस्य गृह्यते ॥न ह्यन्यथा भवत्येषा व्याप्यव्यापकता तयोः।"-मी० श्लो० अनु० श्लो० 4-6 / (4) सर्वथा सामान्यविशेषाभ्यां विलक्षणजातिकस्य कथञ्चिदुभयरूपस्य इत्यर्थः। (5) गम्यगमकरूपतया। (6) पृ० 421 पं०६ / (7) धमत्वाग्नित्वविशिष्टधमाग्निव्यक्त्योः / "तुलना-"सामान्यवतोरविनाभावग्रहणाभ्युपगमात् / यद्यपि अग्निविशेषा धमविशेषाश्चानन्त्येनावस्थिताः तथापि तेष्ववस्थितमग्नित्वं धूमत्वञ्च सामान्यमुपग्राहकमस्तीति तदुपग्राहकवशात् भूयोदर्शनबलादग्निधूमयोर्देशादिव्यभिचारेऽप्यव्यभिचारग्रहणम् "-प्रश० व्यो० 50 570 / प्रश० कन्द० पृ० 210 / (8) यावान् कश्चिद्धूमः सः कालान्तरे देशान्तरे च अग्निजन्मैव अनग्निजन्मा कदापि न भवतीत्येवं प्रकारेण / तुलना-"सर्वोपसंहारवती व्याप्तिः"-तर्कभा० मो० पृ० 19 / (9) अननुगमदेशादिव्यभिचारादयः / (10) 10421 पं०८। (11) अभावसामान्ये / (12) तुलना-"अविनाभाव एव हि नियमः, साध्यं विना न भवतीति कृत्वा ।"प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 70 / (13) तुलना-"हेतोस्तथोपपत्त्या वा स्यात्प्रयोगोऽन्यथापि वा। द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति ।"-न्यायाव० श्लो० 17 / परीक्षामु० 395 | प्रमाणनय० 3 / 28 / प्रमाणमी० 2 / 114 / (14) अग्निसद्भाव / (15) धूमस्य अग्निसद्भावनियतत्वाभावे, अग्नेर्वा धुमसद्भावनियतत्वे / (16) तप्तायोगोलकादौ / एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ०। 1 जात्यन्तरस्यैव ब०। . ... Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० अग्न्यभावे धूमोऽपि क्वचिदुपलभ्येत / यस्य येन विना नानुपपत्तिर्न स तेन नियतः यथा धूमाभावेप्युपपद्यमानोऽग्निर्न धूमेन नियतः, अग्निना विनाऽनुपपत्तिश्च धूमस्य, तस्मादसौ तन्नियत इति / यदप्युक्तम्-'अग्न्यभावस्य पारमार्थिकत्वे धूमस्याविद्यमानत्वान्न तदाश्रिता व्याप्ति। प्रहीतुं शक्या' इति; तदप्यसमीचीनम् ; यतो यत्रैव देशे काले वा वास्तवोऽग्न्यभावः तत्रैव धूमस्य अविद्यमानत्वं न सर्वत्रेति कथं तैदाश्रिता व्याप्तिः प्रत्येतुमशक्या ? यदपि-'एकस्याग्नेरभावे धूमो नोपपद्यते सर्वस्य वा' इत्याद्युक्तम् ; तदप्ययुक्तम् ; येतो व्याप्तिः सर्वाक्षेपेण प्रतीयते 'यः कश्चिद् धूमः स सर्वोऽग्न्यभावेऽनुपपन्नः' इति, न पुनः एकैकधर्म्युल्लेखेन 'पर्वते गृहे अरण्ये वा धूमोऽग्न्यभावेऽनुपपन्नः' इति / तथा तत्प्रतिपत्तौ अनन्तेनापि कालेन व्याप्तिप्रतिपत्तिर्न स्यात् धर्मिणामानन्त्यात् / अनुमानवैफल्यप्रसङ्गाच्च, अग्निधूमवतामशेषाणां धर्मिणां व्याप्तिग्रहणकाल एव गृहीतत्वात् / ___ न च सर्वाग्निष्वगृहीतेषु धूमानुपपत्तेर्विशेषणभूतः तँदभावो ग्रहीतुमशक्य . इत्यभिधातव्यम् / यतः तदभावः तदन्यदेशादिस्वभावः, भावान्तरस्वभावत्वादभावस्य, तुच्छस्वभावाऽभावस्य निराकरिष्यमाणत्वात् / स चाखिलाग्निविविक्तो देशाँदिः प्रत्य15 क्षत एव प्रतीयते / व्यवहार एव हि प्रतियोगिग्रहणसव्यपेक्षः न स्वरूपप्रतिपत्तिः, कथमन्यथा घटादेरपि प्रतिपत्तिः स्यात् तत्स्वरूपस्यापि त्रैलोक्यविलक्षणतया त्रैलोक्याप्रतिपत्तावप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् ? ___ यच्च-'अग्न्यभावाभावेऽपि कचिधूमाभावे धूमसद्भावस्य विरोधो दृष्टः' इत्याद्यभिहितम् ; तदप्यभिधानमात्रम् : अग्न्यभावे सति धूमसद्भावस्य नियमेन निवर्तमानत्वात् तद्विरोधे स्वाभावस्येव अग्न्यभावस्यापि निमित्तत्वोपपत्तेः / यद् यस्मिन् सति नियमेन निवर्त्तते तत्तद्विरोधनिमित्तम् यथा उष्णस्पर्शसद्भावे शीतस्पर्शः, नियमेन निवर्तते चाग्न्यभावे धूमसद्भावः, तस्माद् धूमविरोधस्यासौ निमित्तमिति / ननु अग्न्यभावे (1) पृ० 42150 11 / (2) महाह्रदादौ। (3) धूमाश्रिता। (4) पृ०४२१ पं० 19 / (5) तुलना-"तत्र सर्वस्येति ब्रमः, यतो धमानुपपत्तिः सर्वाक्षेपेण प्रतीयते यावान् कश्चिद् धूमः स सर्वः सर्वस्याग्नेरभावेऽनुपपन्नः"-स्या० र० पृ० 506 / (6) प्रतिनियतमिव्यक्तिनिर्देशेन व्याप्तिप्रतीतौ आनन्त्यं बाधकम् तदाह तथेति / (7) अग्न्यभावः-आ० टि०। (8) अग्न्यभावः-आ० टि० / तुलना-"यतोऽग्न्यभावः तदन्यदेशादिस्वभावः भावान्तरस्वभावत्वादभावस्य ।"-स्या० 10 10507 / (9) तस्माद्विवक्षितवस्तुनो वढेरन्यदेशः पर्वतादिस्तद्ग्रहणस्वभाव इति-आ० टि०। (10) महाह्रदादिः / (11) अत्र घटाभावः अत्र अग्न्यभाव इति व्यवहारः / (12) स्वरूपप्रतिपत्तिरपि यदि प्रतियोगिग्रहणापेक्षा स्यात्तदा। (13) घटस्वरूपस्यापि / (14 पृ० 422602 / (१५)धूमविरोधे। (16) धूमाभावस्येव। (17) तुलना-"तस्मात् यत्सद्भावे यस्य नियमेन निवृत्तिः तेन तद्विरुद्धमेव, अग्न्यभावे च सति धूमस्य नियमेन निवर्तमानत्वात् धूमाभावेनेव तेनापि तस्य विरोधः / तथाहि यस्मिन् सति यनियमेन निवर्तते"-स्या०र० 10507 / (18) अग्न्यभावः-आ० टि० / ___1-धर्मोल्ले-ब०।2 ग्रहीतु शक्य -ब० / 3-क्ष एव ब० / 4 तद्विरोधिस्वभावस्येव अग्न्यसभावस्या-श्र०15-वस्यैव ब० / Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 10] तर्कप्रामाण्यवादः 425 धूमस्य नियमेन निवर्तमानत्वमसिद्धम् , गोपालघटिकादौ तेदभावेऽपि तत्सद्भावप्रतीतेः; इत्यष्यसत् ; तत्रापि तत्सद्भाव एव तद्भावसंभवात् / धूमस्य हि भाव; आत्मलाभः, स च अग्नौ सत्येव संवृत्तः, तत्कथं तंत्र अग्न्यभावे धूमसद्भावाशङ्कापि ? तर्हि पर्वतादाविव गोपालघटिकादावपि धूमोऽग्निं गमयेत् ; इत्यप्ययुक्तम् ; पर्वतादिधूमादस्य वैलक्षण्यात् / वह्निसमानसमयसत्ताको हि पर्वतादिधूमो बहलपताकायमानस्वरूपोऽनुभूयते, 5 न चायं तथा, अतो नास्य अग्न्यनुमापकत्वम् / यदप्युक्तम्-'अविनाभावे सत्यपि न धूमात् पैङ्गल्यमनुमीयते' इत्यादि; तदप्यसङ्गतम् ; यतो व्याप्त्यनुसारेण अनुमानं विधीयते, व्याप्तिश्च अग्नित्व-धूमत्वद्वारेणैवावसीयते न पैङ्गल्यादिधर्मद्वारेण, तेषामानन्त्यात् व्यभिचाराच्च / पैङ्गल्यं हि हरितालकाञ्चनादौ व्यभिचरदुपलभ्यते, भासुरत्वं सूर्य-तारका-तडिदादौ, द्रव्यत्वं नवस्वपि द्रव्येषु, 10 ऊर्ध्वगतित्वं वात्यादौ, इति अग्निगतानां धर्माणां व्यभिचारः / तथा धूमगतानामपि; तथाहि-श्यामत्वं नीलाञ्जनादौ, कटुकत्वं त्रिकटुकादौ, अक्षिविकारकारित्वं कटुतैलादौ, कण्ठग्राहित्वम् अपक्कजम्बूफलादौ, ऊर्ध्वगतित्वं वाष्पादौ साधारणं दृश्यते / अतो येन एकेनैव रूपेण त्रैलोक्योदरवर्त्तिन्यो वह्निव्यक्तयो धूमव्यक्तयः तद्धर्माश्च संगृह्यन्ते तदेव रूपं व्याप्तिं नियमेन व्यवस्थापयति, तञ्च अग्नित्वधूमत्वे मुक्त्वा नान्यद् भवितुमर्हति / 15 न खलु यथा वस्त्वन्तरसाधारणाः पैङ्गल्यादयः तथा अग्नित्व-धूमत्वे / तद्वाचके चोच्चरिते शब्दे प्रतिपत्रा त्रैलोक्यविलक्षणः स्वधर्मकलापकलितोऽग्निः धूमश्चार्थ: संगृह्यते इति सिद्धा तेद्वारेण व्याप्तिः साध्यसाधनयोः / ननु यदि अनयोः वस्तुतो व्याप्तिरस्ति तर्हि प्रथमदर्शनकाले कस्मान्नोल्लिखतीति चेत् ? ग्राहकाभावात् / यत्काले यद्बाहकं नास्ति तत्काले तन्न प्रतिभासते यथा रूपद- 20 र्शनकाले रसः, अग्निधूमयोः प्रथमदर्शनकाले नास्ति च व्याप्तिग्राहकं ज्ञानमिति / (1) इन्द्रजालघटादौ / “गोपालघुटिकादिषु"-प्रश० व्यो० पृ० 571 / स्या० र० पृ० 507 / (2) अग्न्यभावेऽपि धूमसद्भावप्रतीतेः / (3) अग्निसद्भाव एव / ( 4 ) इन्द्रजालघटादौ / (5) गोपालघटिकागतधूमस्य / तुलना-"पर्वतादिधूमादस्य वैलक्षण्यात् / वह्निसमानसमयसत्ताको हिपर्वतादिधूमो बहलः पताकायमानस्वरूपोऽनुभूयते "-स्या० र० पृ० 507 / (6) पृ० 422 पं० 5 / (7) तुलना-"यतो व्याप्त्यनुसारेणानुमानं विधीयते, व्याप्तिश्चाग्नित्वधूमत्वद्वारेणैवावसीयते"स्या० र० पृ० 507 / (8) वात्या-वातूल: 'बवण्डर आंधी' इति भाषायाम् / (9) त्रयाणां कटूनां शुण्ठीमरीचपिप्पलीनां समाहारः त्रिकटुकम् “विश्वोपकुल्या मरिचं त्रयं त्रिकटु कथ्यते। कटुत्रयं तु त्रिकटु त्र्यूषणं ब्योष उच्यते॥"-भाव प्र० 5 / 60 / (10) हरितालसुवर्णादयो वस्त्वन्तरम् / (11) अग्निधूमप्रतिपादके / (12) अग्नित्वधूमत्वद्वारेण / (13) अग्निधूमयोः / 1-भावे तत्स-श्र०, ब०। 2 धमस्य श-श्र०। 3-धमस्य वै-श्र०। 4 नीलोत्पलाञ्जनादौ ब०। 5 एकेन स्वरूपेण ब०। 6 तदेकं रू-श्र०। 7 अग्निधूमत्वे श्र०। 8 सिद्धान्तद्वारेण ब० / 9 नास्ति व्या-आ० / 10-कं तख्यिं ज्ञानमिति ब०।। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० तत्काले तद्वाहकाभावश्च तत्कारणाभावात् सिद्धः। व्याप्तिज्ञानस्य हि कारणम् प्रत्यक्षानुपलम्भौ / न च प्रथमदर्शनकाले तौ स्तः / न च ग्राहकाभावात् तँदा व्याप्तेरप्यभावः; तदा ग्राहकाभावस्य अन्यथासिद्धत्वात्, अन्यथा दूरे रूपदर्शनकाले रसस्याप्यभावः स्यादैविशेषात् / तँदा व्याप्तेरभावे च कथं पश्चात् प्रतिभासेत खपुष्पवत् ? अथ अन्वयव्यतिरेकवशात् प्रतिभासेत; ननु अन्वयव्यतिरेकाभ्यां सौ किं जन्यते, ज्ञाप्यते वा ? न तावजन्यते, 'तौ हि प्रमाणम् , न च प्रमाणं प्रमेयमुत्पादयति / अथ ज्ञाप्यते; तत्रापि किं तत्कौंले सती सा ज्ञाप्यते, प्रागपि वा ? तत्काले चेत् ; न; अन्वयव्यतिरेककाल एव व्याप्तेः सत्त्वे कारणाभावात्। अथ प्रागपि सती ज्ञाप्यते; सिद्धं तर्हि. प्रथमदर्शनकालेऽपि व्याप्तेः सत्त्वमिति कथं सा तद्वाहकतर्कश्च अपह्नयेत ? प्रतीयमा10 नस्याप्यपह्नवे रूपादेः तद्ब्राहकज्ञानस्य वाऽपह्नवः स्यात् / ततः सिद्धः तर्कः प्रमाणम् / एतदेवाह-चिन्ता प्रमाणम् अभिनिबोधस्य फलस्य हेतुत्वात् / अस्य पर्यायमाहअनुमानादेरिति / किन्नाम इदमुक्तलक्षणं प्रमाणम् ? इत्यत्राह-श्रुतज्ञानम् इति। कुत एतत् ? शेषम् अस्पष्टं यतः, 'शब्दानुयोजनात्' इत्येतन्मध्ये करणात् अनेन च सम्बध्यते / तद्योजनात् यत् पूर्वम् अर्वाग् अस्पष्टम् तद्योजनाच्च यच्छेषमस्पष्टं तत् सर्व श्रुतज्ञानमिति / 15 तच्च अनेकप्रभेदम् शब्दयोजनान्वितेतराऽस्पष्टज्ञानव्यक्तिभेदानामानन्त्यादिति / . ननु व्याप्तिप्रतीत्यर्थ तर्कलक्षणप्रमाणाभ्युपगमोऽनुपपन्नः; प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा तस्याः प्रतीतिसिद्धेः इत्याशङ्का निराकुर्वन्नाह अँविकल्पधिया लिङ्ग न किञ्चित् सम्प्रतीयते // 11 // नानुमानादसिद्धृत्वात् प्रमाणान्तरमाञ्जसम् / (1) प्रथमं धूमाग्निदर्शनकाले। (2) तर्कस्य / “तुलना-व्याप्तिज्ञानस्य हि कारणमुपलम्भानुपलम्भौ, न च प्रथमदर्शनकाले तौ स्तः ।"-स्या० र० पृ० 508 / (3) साध्यसाधनसद्भावविषयकं ज्ञानं प्रत्यक्षम, साध्याभावसाधनाभावगोचरञ्च ज्ञानमनपलम्भः। (4) प्रथमदर्शनकाले / (5) अप्रयोजकत्वात्। (6) यदि ग्राहकाभावाद् वस्तुनोऽभावः स्यात्तदा / (7) रसग्राहकस्य रासनप्रत्यक्षस्य अभावात् / (8) प्रथमदर्शनसमये। (9) भूयोदर्शनानन्तरम्। (10) उपलम्भानुपलम्भाभ्याम् / (11) व्याप्तिः / (12) अन्वयव्यतिरेकग्राहिणौ उपलम्भानुपलम्भावेव अत्र अन्वयव्यतिरेकशब्देन विवक्षितौ विषययिधर्मस्य विषयेप्युपचारात्। (13) अन्वयव्यतिरेककाले। (14) चाक्षुषादिप्रत्यक्षादेः / (15) शेषशब्देन / (16) निर्विकल्पकप्रत्यक्षेण / (17) अविनाभावः (18) व्याप्तिग्रहणात् पूर्वमलब्धात्मलाभत्वात् / (१९)तर्काख्यम् / (२०)“लिङ्गं साध्यसाधनयोरविनाभावः / किञ्चिद् ईषदपि / न सम्प्रतीयते न सामस्त्येन ज्ञायते। कया ? अविकल्पधिया निर्विकल्पकप्रत्यक्षेण सौगताभिप्रेतेन, यावान् कश्चिद्धूमः स सर्वोप्यग्निजन्मैव अनग्निजन्मा वा न भवतीत्येतावद्विकल्पविकलत्वात्तस्य अन्यथा सविकल्पकत्वापत्तेः / नाप्यनुमानात्; तस्यैवासिद्धत्वात् व्याप्तिग्रहणपूर्वकत्वादनुमानोत्थानस्य / अनुमानान्तरात्तत्राप्यविनाभावनिर्णये चानवस्थाप्रसङ्गात् / प्रथमानुमानात् द्वितीयानुमाने _1-भावे तदा श्र०। 2-भासते श्र०, ब०। 3-हकस्तर्क-श्र०, ब०। 4 अन्येन आ०। 5 सम्बध्येत श्र०। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 011] तर्कप्रामाण्यवादः 427 विवृतिः-नहिं प्रत्यक्षं 'यावान् कश्चिद्भूमः कालान्तरे देशान्तरे च पावकस्यैव कार्य नार्थान्तरस्य' इति इयतो व्यापारान् कत्तुं समर्थ सन्निहितविषयबलोत्पत्तेरविचारकत्वात् / नाप्यनुमानान्तरम् ; सर्वत्राऽविशेषात् / नहि साकल्येन लिङ्गस्य लिङ्गिना व्याप्तेरसिद्धौ क्वचित किञ्चिदनुमानं नाम / "तन्ने अप्रत्यक्षम् अनुमानव्यतिरिक्तं प्रमाणम्" [ ] इत्ययुक्तम् / लिङ्गप्रतिपत्तेः प्रमाणान्तरत्वात् / / लिङ्गं हि साध्येन साधनस्य अविनाभावोऽभिधीयते, तस्मिन् सत्येव लिङ्गस्य लिङ्गत्वोपपत्तेः। तस्य प्रतिपत्तिः किं प्रत्यक्षात् , अनुमानतो वा स्यात् ? प्रत्यक्षाच्चेत् ; किम् अस्मदादिसम्बन्धिनः, योगिसम्बन्धिनो वा ? प्रथमपक्षे किं स्वसंवेदनात्, इन्द्रियजात् , मानसाद्वा ततोऽसौ प्रतीयेत ? न तावत् स्वसंवेदनात् ; तस्य स्वरूपमात्रविषयतया * बहिरर्थवानिभिज्ञत्वात् / इन्द्रियमनःप्रभवादपि प्रत्यक्षात् सविकल्पात् , 10 निर्विकल्पाद्वा अविनाभावः प्रतीयेत ? तत्राद्यविकल्पोऽनुपपन्नः; सविकल्पकप्रत्यक्षस्य सौगतैः प्रामाण्यानभ्युपगमात्। तदभ्युपगमेऽपि न तत्तत्र समर्थम् , इत्याह-'न प्रत्यक्षम इत्यादि / प्रत्यक्षं सौगतयोगकल्पितं मानसेन्द्रियलक्षणम् तन्न 'यावान् कश्चिद् धूमः कालान्तरे देशान्तरे च पावकस्यैव कार्य नार्थान्तरस्य' इति इयतो व्यापारान् / कर्तुं समर्थम् / कुत एतत् ? सन्निहितविषयबलोत्पत्तेः। सन्निहितः अविप्रकृष्ट- 15 देशकालो यो विषयः अग्निधूमादिः साध्यसाधनव्यक्तिलक्षणः तस्य बलं सामर्थ्य तेन उत्पत्तेः। एतेन निर्विकल्पकमपि न तँत् ततः तत्रं समर्थमिति प्रतिपत्तव्यम् / अत्रैव हेत्वन्तरमाह-अविचारकत्वात् इति / न विद्यते विचारः ‘यावान् कश्चिद् धूमः स सर्वोऽग्नेरेव कार्य नार्थान्तरस्य' इति परामर्शो यस्य निर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य तस्य भावात् तत्त्वात् / चशब्दोऽत्र समुच्चयार्थो द्रष्टव्यः। कथमस्याऽविचारकत्वमिति चेत् ? 20 व्याप्तिनिर्णय इति चेत् ; सोयं परस्पराश्रयदोषः। तन्नानुमानमपि व्याप्तिग्राहकमिति तद्ग्राहकं प्रमाणान्तरं तर्काख्यम् आजसं पारमाथिकं न मिथ्याविकल्पात्मकमभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथा अनुमानप्रामाण्यायोगात् ।"-लघी० ता० पृ० 30 / / (1) तलना- यदाह नहीदमियतो व्यापारान कत्तं समर्थमिति ।"-प्रमाणवा० स्वव० टी० 141 / "न हि कस्यचित् साकल्येन व्याप्तिज्ञानं प्रत्यक्षं क्वचित् कदाचिद् भवितुमर्हति सन्निहितवि षयबलोत्पत्तेरविचारकत्वात् ।"-सिद्धिवि०, टी०पू०१५६। अष्टश०, अष्टसह० पृ० 119 / “यथाहु:... न हीदमियतो व्यापारान कत्तुं समर्थ सन्निहितविषयबलेनोत्पत्तेरविचारकत्वात् ।"-शां० भा० भामती 10766 / न्यायवा० ता०पृ०१३७ / (2) उद्धृतमिदम्-प्रमाणसं० पृ० 101 / (3) तुलना-“सन्निकृष्टविप्रकृष्टयोः साकल्यनेदन्तया नेदन्तया वा व्यवस्थापयितुकामस्य तर्कः परं शरणम ।"-सिद्धिवि०टी० पृ० 293 A. (4) अविनाभावे / (5) अविनाभावः। (6) सविकल्पकप्रत्यक्षम् अविनाभावग्रहणे / (7) प्रत्यक्षम-आ० टि०। (8) सन्निहितविषयबलोत्पत्ते:-आ०टि। (9) व्याप्तिग्रहणे-आ० टि०। 1 इति यतो ज० वि०। 2-नुमान्त-ई० वि०। 3 व्यप्तिरसि-ज० वि०। 4 प्रतीयते श्र०। / तत्त्वाच्च चशब्दो आ०, ब०। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० कस्यचित् परोक्षत्वात् , अपरस्य ज्ञानान्तरवेद्यत्वेन अनवस्थानात् , अन्यस्य क्षैणिकत्ववदकिञ्चित्करत्वात् / अत्र यौगा ब्रुवते - साध्यसाधनयोरविनाभावः प्रत्यक्षेणैव प्रतीयते। प्रथमप्रत्यप्रत्यक्षेणैव अविना- क्षेऽपि अग्निसम्बन्धित्वेनैव धूमस्य प्रतिभासनात् तद्गतो नियमोऽपि भावस्यावगतिरिति प्रतिभासत एव / न च तंत्राप्यन्यतोऽपि, अन्यत एव वेति संशयवियौगानां पूर्वपक्ष:- पर्ययौ स्तः; 'अग्नेरेव अयम्' इति तत्सम्बन्धित्वेनैव अस्योऽवसायात्। इत्थं प्रथमप्रत्यक्षेण व्याप्तौ प्रतिपन्नायाम् अन्वयव्यतिरेको भूयसोपलभ्यमानौ तस्यैव ज्ञानस्य दायमुत्पादयतः / भूयोदर्शनावगतान्वयव्यतिरेकसहकृतेन्द्रियप्रभवं वा प्रत्यक्षं व्याप्तिं प्रतिपद्यते। ननु यदि प्रथमप्रत्यक्षेणैव व्याप्तिः प्रतीयते तर्हि किमित्ययमनेन नियत 10 इत्येवंरूपा तदानीमेव व्याप्तिप्रतीतिर्नोत्पद्यते इति चेत् ? सामग्र्यभावात्। अनुसन्धानेन (1) मीमांसकस्य, ऐन्द्रियस्य मानसस्य - आ० टि०। (2) नैयायिकस्य / (3) सौगतमते, स्वलक्षणस्य-आ० टि०। (4) यथा हि क्षणिकांशे निर्विकल्पक सञ्जातमपि न तनिश्चिनोति अतः. क्षणिकांशे अकिञ्चित्करं निर्विकल्पकं तथैव नीलाद्यंशेऽपि / (5) “लिलिङ्गिसम्बन्धदर्शनमाद्यं प्रत्यक्षम्"-न्यायवा० पृ० 44 / (6) धूमेऽपि / (7) अयं धूमः किमग्नेर्जातः उत अन्यस्मादपि करणात् इति संशयः / (8) धूमोऽयम् अग्निव्यतिरिक्तादन्यस्मादेव कस्माच्चित् कारणाज्जात इति विपर्ययः / (9) अग्निसम्बन्धित्वेनैव / (10) धूमस्य / (11) "भूयोदर्शनगम्या च व्याप्तिः सामान्यधर्मयोः / ज्ञायते भेदहानेन क्वचिच्चापि विशेषयोः / / " -मी० श्लो० अनु० श्लो० 12 / “न ह्यन्यथानुपपत्तिः प्रत्यक्षसमधिगम्या / कार्याव्यभिचारसमधिगम्या हि सा। अव्यभिचारश्च असकृद्दर्शनपूर्वकः / -बृहती० पृ० 111 / बृह० पं० पृ०९६ / प्रक० पं० पृ०७०। न्याय० मा० पु० 72 / “भूयोदर्शनबलादग्निधूमयोर्देशादिव्यभिचारेऽप्यव्यभिचारग्रहणम्'-प्रश० व्यो० प०५७०। "तस्मादभिजातमणिभेदतत्त्ववत् भूयोदर्शनजनितसंस्कारसहितमिन्द्रियमेव धूमादीनां वह्नयादिभिः स्वाभाविकसम्बन्धग्राहीति युक्तमुत्पश्यामः / एवं मानान्तरविदितसम्बन्धिषु मानान्तराण्येव यथास्वं भूयोदर्शनसहायानि स्वाभाविकसम्बन्धग्रहणे प्रमाणान्युन्नेतव्यानि ।"-न्यायवा० ता० 10 167 / ता०प०१० 697 / “तदनेन अन्वयव्यतिरेकावेव भूयोदर्शनसहचारिणौ तद्ग्रहणोपाय इति दर्शितम् / भयोदर्शनं हि तज्ज्ञानजनितसंस्कारसहितमिन्द्रियमुच्यते / मणिभेदतत्त्वञ्चात्र स्फुटमुदाहरणम् / तथाहि-मणिययविषयस्तत्तद्वयवहारविषयो भवति धारयितुः तत्तत्फलसम्पादकश्चोन्नीयते ते सूक्ष्मविशेषाः परीक्षकेण भूयोभिरेव दर्शनैरुनीयन्ते तथात्रापि / प्रथमं हि काकतालीयव्युदासाय ततः सातत्योर्ध्वगमनविशेषनिश्चयाय ततश्चोपाधिनिरासाय।"-प्रश० किर० पृ० 295 / “सहभावदर्शनजसंस्कारसहकारिणा निरस्तप्रतिपक्षशंकेन चरमप्रत्यक्षेण धूमसामान्यस्य अग्निसामान्येन स्वभावमात्राधीनं सहभावं निश्चित्य इदमनेन नियतमिति नियम निश्चिनोति / यद्यपि प्रथमदर्शनेऽपि सहभावो गृहीतः तथापि न नियमग्रहणम् / न हि सहभावमात्रान्नियमः अपि तु निरुपाधिकसहभावात् / निरुपाधिकत्वञ्च तस्य भूयोदर्शनाभ्यासावज्ञेयमित्येतेन भूयःसहभावग्रहणबलभुवा सविकल्पकप्रत्यक्षेण सोऽध्यवसीयते ।"-प्रश० कन्द० पृ० 209 / “व्यभिचारज्ञानविरहसहकृतं सहचारदर्शनं व्याप्तिग्राहकम् / ज्ञानं निश्चयः, शंका च / सा च क्वाचिदुपाधिसन्देहात, क्वचिद्विशेषादर्शनसहितसाधारणधर्मदर्शनात् / तद्विरहश्च क्वचिद्विपक्षबाधकतर्कात् क्वचित स्वतः सिद्ध एव ।"-तत्त्वचि० अनु० पृ० 210 / 1-भासमानात ब012न तत्रा-श्र०॥ तत्रान्यतोप्यन्यत एवेति आ०, तत्राप्यन्यक्त एवेति ब०। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 11 ] तर्कप्रामाण्यवादः 426 हि व्याप्तिरुल्लिख्यते / अनुसन्धानञ्च सकृदेकेन सहितस्यै ग्रहणे अनु पश्चाद् अॅपरेण सहितस्यैव ग्रहणम् / एतच्च भूयोदर्शनाऽदर्शनैरेव उत्पद्यते / अन्वयव्यतिरेको च प्रयोजकसन्देहव्युदासार्थों युक्तावेव / अनेकसहचारिदर्शने हि प्रयोजके सन्देहः-'किं धूमत्वप्रयुक्तोऽयं नियमः, किं वा ताणत्वश्यामत्वादिप्रयुक्तः ?' इति / तत्र तार्णत्वादयः सम्बन्धिनो व्यभिचारिणः, श्यामत्वादयस्तु धूमापेक्षाः, इति धूमस्य अग्निसम्बन्धित्वे / धूमत्वमेव प्रयोजकम् / तस्मिन् सति न कदाचिदग्नित्वं व्यभिचरतीति भूयोदृष्टान्वयव्यतिरेकवतो विस्फारिताक्षस्य अनुपरतेन्द्रियव्यापारस्य अपरोक्षाकारतया उपजायमानत्वात् विशिष्टदण्ड्यादिप्रत्ययवत् प्रत्यक्षमेवेदं व्याप्तिज्ञानमिति / अत्र प्रतिविधीयते। यत्तावदुक्तम्-प्रत्यक्षेणैव अविनाभावः प्रतीयते' इत्यादि। तत्प्रतिविधानपुरस्सरं पर तेत्र किम् ऐन्द्रियम् , मानसं वा प्रत्यक्षं तद्हणे प्रवर्तेत ? न तावद् 10 किम् पार व्याप्तिग्रहणार्थं तर्क- ऐन्द्रियम् ; त द्धि येनार्थेन प्रतिनियतदेशकालादिना इन्द्रियं सम्बध्यते स्यैव प्रथक् प्रामाण्य- तमेव अवभासयति न तु व्याप्तिम् , तस्याः सकलदेशकालकलासमर्थनम्- परिगताक्षेपेण अवस्थितत्वात् / सौ हि गृह्यमाणा त्रैलोक्योदरवतिनाम् अतीतानागतवर्तमानाऽशेषार्थानामुपसंहारेण गृह्यते / यतो व्यापनं व्याप्तिः, सर्वासां व्याप्यव्यक्तीनां व्यापकव्यक्तीनाश्च व्याप्यरूपतया व्यापकरूपतया च क्रोडी- 16 करणम् / न च तत्रै इन्द्रियस्य सम्बन्धो ग्रहणसामार्थ्यं वा संभवति; वर्तमाने नियत एवार्थे तत्संभवात् / न च विश्वोदरवर्त्तिन्यो व्यक्तयः सर्वाः तेन सम्बद्धा वर्तमाना वा, तत्कथं प्रत्यक्षतस्तत्र व्याप्तिप्रतिपत्तिः ? किञ्च, प्रत्यक्षमात्रम् , भूयोदर्शनसहायम् , अन्वयव्यतिरेकसहकृतं वा प्रत्यक्षं व्याप्तिग्रहणे प्रभवेत् ? न तावत् प्रत्यक्षमात्रम् ; भूभवनवर्द्धितोत्थितमात्रस्य प्रथमाऽग्निधू- 20 मव्यक्तिदर्शनेऽपि व्याप्तिप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् / यदप्युक्तम्-प्रथमप्रत्यक्षेपि अग्निसम्बन्धित्वेनैव धूमस्य प्रतिभासनात् तद्गतो नियमोऽपि प्रतिभासते' इत्यादि; तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; यतः पुरोदृश्यमाने नियताग्नि (1) महानसाग्निना-आ० टि० / (2) धूमस्य / (3) चत्वराग्निना / (4) अनुसन्धानम् / (5) अन्वय-आ० टि।(६) व्यतिरेक-आ०टि०। (7) तृणनिर्मितकटादिष्वपि भावात् / (8) 10428 पं०३ / (9) तुलना-"तत्र किमन्द्रियं मानसं वा प्रत्यक्षं व्याप्तिग्रहणे प्रवर्तते।"-स्या० 2050510 / (10) तुलना-"नतावत्प्रत्यक्षम् ; सन्निहितदेशवर्तमानकालवस्तुविषयनियमात् / येन हि प्रमाणेन सर्वदेशेषु च धूमादीनामग्न्यादिसम्बन्धोऽवगम्यते, तेन तेषां सम्बन्धनियमोऽवगम्यते / न च प्रत्यक्षं तत्र समर्थम् ।"-प्रक० पं० पृ० 68 / अष्टसह० पृ० 43 / प्रमेयक० पृ० 346 / स्या० र० पृ० 510 / चित्स०प० 238 / (11) सर्वोपसंहारेण / (12) व्याप्तिः / (13) सर्वव्याप्यव्यापकव्यक्तिष / (14) सम्बन्ध-ग्रहणसामर्थ्ययोः संभवात् / (15) इन्द्रियेण / (16) विश्ववर्तिषु व्याप्यव्यापकव्यक्तिषु / (17) भूमिगृह-आ० टि० / (18) पृ० 428 पं० 3 / ( 19 ) समक्षीभूते महानसादौ / 1 विशिष्टंद-आ०। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० सम्बन्धित्वेन धूमस्तत्र प्रतिभासेत, अनियताखिलाग्निसम्बन्धित्वेन वा ? प्रथमपक्षे कथं प्रथमदर्शने व्याप्तिप्रतिपत्तिः ? प्रतिनियतव्यक्ती व्याप्तेरेवाऽसंभवात् , तस्याः सर्वाक्षेपेण पर्यवसानात् / द्वितीयपक्षे तु आस्तां प्रथमप्रत्यक्षम् , प्रत्यक्षशतैरपि न व्याप्तिः प्रत्येतुं शक्या, तेषां सम्बद्धवर्तमानार्थगोचरचारितया 'यावान् कश्चिद् धूमः स सर्वोs5 ग्नौ एव' इति सर्वाक्षेपेण अविनाभावप्रतिपत्तावसमर्थत्वात् / एतेन 'भूयोदर्शनसहायमाद्यप्रत्यक्षं व्याप्ति प्रतिपद्यते' इत्ययमपि पक्षः प्रत्युक्तः / नाप्यन्वयव्यतिरेकसहकृतं तत् तां प्रतिपत्तुं समर्थम् ; यतः तत्सहस्रकृतस्याप्यस्य यत्रैव स्वयं प्रवृत्तिः तत्रैव तत्प्रतिपत्तिर्घटते न पुनः 'यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र अग्निः, यत्र अग्निर्नास्ति तत्र धूमोऽपि नास्ति' इति सर्वाक्षेपेण, तत्रं च व्याप्तिप्रतिपत्तेर्वैयर्थ्यम् / 10 अनुमानार्थं हिं सौ इष्यते, प्रत्यक्षेण च प्रतिपन्ने साध्यसाधनव्यक्तिविशेषे किमनुमानेन ? अन्वयव्यतिरेकसहकृतत्वश्चास्य स्वविषयातिक्रमेण अर्थान्तरे प्रवृत्तिः, स्वविषये प्रवर्तमानस्य अतिशयाधानं वा ? प्रथमपक्षे प्रत्यक्षविरोधः, स्वार्थातिक्रमेण अर्थान्तरे. प्रवृत्तिलक्षणसहकारित्वस्य कचिदप्यप्रतीतेः / न खलु प्रदीपसहकृतं चक्षु रसादौ प्रवर्त्त मानं प्रतीयते / स्वविषये प्रवर्त्तमानस्यातिशयाधानञ्च अध्यक्षस्य व्याप्तिविषयत्वे 15 सिद्धे सिद्ध्येत् / तच्चे असिद्धम् , सम्बद्धवर्तमानार्थविषयत्वात्तस्य / न च तत्सहकृत स्यापीन्द्रियजाध्यक्षस्य कश्चनोत्कर्षो जायते, येन स्वविषयातिक्रमेणाप्यर्थान् गृह्णीयात् / ___एतेन 'भूयोदर्शनावगताऽन्वयव्यतिरेकसहकृतेन्द्रियप्रभवं प्रत्यक्षं व्याप्ति प्रतिपद्यते' इति प्रत्युक्तम् / किश्च, 'इन्द्रियविषये विद्यमानत्वात् तत्प्रभवप्रत्यक्षेण व्याप्तिः प्रतीयते, खविषयत्वाद्वा? न तावद् विद्यमानत्वात् ; रसादेरपि चाक्षुषत्वानुषङ्गात्, व्याप्तिवद् धूमादौ 20 तत्सत्त्वस्याप्यविशेषात् / नापि स्वविषयत्वात् / तस्याः तद्विषयत्वानुपपत्तेः / अंनियतविषया हि व्याप्तिः, [ तां ] कथं नियतविषयमिन्द्रियप्रभवं प्रत्यक्षं प्रतिपद्येत ? (१)तुलना-"यतः पुरोदृश्यमानाग्निसम्बन्धित्वेन धूमः प्रथमप्रत्यक्ष प्रतिभासेत, सकलाग्निसम्बन्धित्वेन वा ?"-स्या० 2010 510 / (2) व्याप्तेः / (3) प्रत्यक्षाणाम्। (4) सत्येव भवति अग्न्यभावे तु कदाचिदपि न भवतीत्यध्याहार्यम् / (5) पृ० 428 पं०७। (6) प्रत्यक्षम् / (7) सहसशः अन्वयव्यतिरेकसहकृतस्यापि प्रत्यक्षस्य / (8) व्याप्ति / (9) प्रत्यक्षविषयीभते धमाग्निव्यक्तिविशेषे। (10) व्याप्तिप्रतिपत्तिः / (11) तुलना-"अन्वयव्यतिरेकसहकृतत्वं हि प्रत्यक्षस्य स्वविषयातिक्रमेण अर्थान्तरे प्रवृत्तिः, स्वविषये प्रवर्त्तमानस्य अन्वयव्यतिरेकाभ्यामतिशयाधानं वा ?"-स्या०र० पृ० 511 / (12) अध्यक्षस्य व्याप्तिविषयत्वम् / (13) अन्वयव्यतिरेकसहकृतस्य / (14) पृ० 428 पं०८। (15) तुलना-"किञ्च, इन्द्रियविषये विद्यमानत्वात् तत्प्रभवप्रत्यक्षेण व्याप्तिः प्रतीयते, स्वविषयत्वाद्वा ?"-स्या० 2010 511 / (16) इन्द्रियप्रभव / (17) यथा धूमादिषु व्याप्तिरस्ति एवमाम्रादौ रसादित्वमपि-आ० टि०। (18) व्याप्तेः / (19) प्रत्यक्षविषयत्वानपपत्तेः। (20) तुलना-"अनियतविषया हि व्याप्तिरिति कथं नियतविषयेन्द्रियप्रभवप्रत्यक्षतां प्रतिपद्येत"-स्या० 20 पृ०५११॥ 1 स्वे विषये ब० / Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र का० 11 ] तर्कप्रामाण्यवादः यदप्यभिहितम्'-'अनुसन्धानेन हि व्याप्तिरुल्लिख्यते, तच्चे भूयोदर्शनादर्शनैरेव उत्पद्यते' इत्यादि; तदुपपन्नमेव; उपलम्भानुपलम्भप्रभवस्यैव ज्ञानस्य अस्माभिः व्याप्तिप्रतिपत्तौ सामर्थ्यस्य समर्थयितुमुपक्रान्तत्वात् / प्रत्यक्षरूपता तु तस्य अनुपपन्ना, विभिन्नसामग्रीविषयत्वात्। तद्धि इन्द्रियादिसामग्रीकं सम्बद्धवर्तमानार्थविषयञ्च प्रसिद्धम्, नचेदं तथा इति कथं प्रत्यक्षरूपतां प्रतिपद्येत ? ननु सामान्यस्य॑ व्याप्तिप्रतिपत्तौ प्रयोजकत्वात् , तस्य च इन्द्रियेण संम्बद्धत्वात् वर्तमानत्वाच्च कथन्न व्याप्तिज्ञानं प्रत्यक्षम् ? इत्यप्यविचारितरमणीयम्; यतः किं सामान्यस्य सामान्येन व्याप्तिः, उत तदुपलक्षितविशेषाणां तदुपलक्षितविशेषैः ? तत्र आद्यपक्षे न किञ्चिद् व्याप्तिप्रतिपत्तिप्रयोजनम् सामान्ये सिद्धसाधनतोऽनुमानवैफल्यप्रसङ्गात् / तदुपलक्षितविशेषाणां तु आनन्त्यात् कथं सम्बद्धवर्त्तमानता यतो व्याप्तिज्ञानस्य 10 प्रत्यक्षता स्यात् ? ___एतेन 'भूयोदृष्टान्वय' इत्यादि प्रत्युक्तम् ; विशिष्टदण्ड्यादिप्रत्ययस्य हि सम्बद्धवर्तमानार्थगोचरचारितया प्रत्यक्षता युक्ता, न तु व्याप्तिज्ञानस्य तद्विपर्ययात् इत्यसकृदावेदितम् / अथ अस्य अप्रत्यक्षत्वे कथम् ‘इन्द्रियापेक्षा' इत्युच्यते ? 'तत्कारणकारणत्वात्' इति ब्रूमः। व्याप्तिज्ञानस्य हि कारणं प्रत्यक्षानुपलभ्भौ तयोश्च इन्द्रियमिति / तन्न 15 इन्द्रियप्रभवं प्रत्यक्षं व्याप्तिप्रतिपत्तौ समर्थम् / - नापि मानसम् ; मैनसो बाह्येन्द्रियनिरपेक्षस्य बहिरर्थे प्रवृत्त्यभावात् / “अस्वतन्त्रं (1) पृ० 428 पं० 10 / (2) अनुसन्धानम् / (3) तर्काख्यस्य-आ० टि०। (4) जैनैः / (5) उपलभ्भानुपलम्भजस्य तर्कस्य / (6) प्रत्यक्षम् / (7) तख्यिं ज्ञानम् / (8) धूमत्वस्य अग्नित्वस्य च / (9) संयुक्तसमवायसम्बन्धसद्भावात्, चक्षुःसंयुक्ते अग्नौ धूमे च अग्नित्वस्य धूमत्वस्य च समवायात् / (10) सामान्योपलक्षित। (11) अग्निधमसामान्ययो: महानसादावेव प्रत्यक्षसिद्धत्वात् / (12) विशेषस्यैव साधनीयत्वात्-आ० टि। (13) पृ० 429 पं०६ / (14) सकलसाध्यसाधनव्यक्तिविषयतया सम्बद्धवर्तमानार्थगोचरत्वाभावात् / (15) व्याप्तिज्ञानस्य-आ० टि० / (16) "तत्र केचिदाचक्षते मानसं प्रत्यक्षं प्रतिबन्धग्राहीति / प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यामनलसहचरितमनग्नेश्च व्यावर्तमानं धूममुपलभ्य विभावसौ नियतो धुम इति मनसा प्रतिपद्यते / मनश्च सर्वविषयं केन वा नाभ्युपेयते असन्निहितमप्यर्थमवधारयितुं क्षमम् / भावाभावसाहचर्यमवधार्य मनसा नियमज्ञानसिद्धेरित्यलं निर्बन्धेन ।"-न्यायमं० 10 121, 123 / "तस्य ग्रहणं प्रत्यक्षानुपलम्भसहायान्मानसात् प्रत्यक्षात् / धूममग्निसहचरितमिन्द्रियेणोपलभ्यानग्नेश्च जलादेावर्तमानमनुपलम्भेन ज्ञात्वा मनसा निश्चिनोति धूमोऽग्निन्न व्यभिचरतीति ।"-न्यायकलि० 103 / (17) तुलना-"प्रत्यक्षं मानसं येषां सम्बन्धं लिंगलिंगिनोः / व्याप्त्या जानाति तेप्यर्थेऽतीन्द्रिये किमु कुर्वते / यत्राक्षाणि प्रवर्तन्ते मानसं तत्र वर्तते / नोऽन्यत्राक्षादिवैधुर्यप्रसंगात सर्वदेहिनाम् ॥"-तत्त्वार्थश्लो० पृ०१७९ / “न चातीतानागतानां व्यक्तीनां मनसा सङ्कलनमिति न्याय्यम् ; मनसो बहिरर्थे स्वातन्त्र्ये अन्धबधिराद्यभावप्रसङ्गात् ।"-प्रश० कन्द०१० 210 / “मनश्चेदहिविषये कारणान्तरनिरपेक्षं प्रवर्तेत तदा सर्वः सर्वदर्शी स्यादविशेषात् ।"-प्रक० पं० ए०६९ / बह० 50 10 95 / न्याय मा० 50 58 / प्रमेयक पृ० 351 / स्या० र० पृ० 511 / / 1 उत्पधेत आ०, 10 / 2 उपलम्भप्रभ-ब० / Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० बहिर्मनः” [ ] इत्यभिधानात् / व्याप्तिश्च बहिरर्थधर्मत्वाद् बहिरर्थः, यो बहिरर्थधर्मः स बहिरर्थः यथा रूपादिः, बहिरर्थधर्मश्च व्याप्तिरिति / भवत्कल्पितस्य मनसः षट्पदार्थपरीक्षायां प्रतिषेधतोऽसत्त्वाच्च कथं तद्भवं प्रत्यक्षतां प्रतीयात् / सत्त्वे वा न अणुस्वभावस्यास्ये अशेषाः सकृत् सम्बन्धसंभवः, यदणुस्वभावं न तत् सकृदशेषाथैः सम्बध्यते यथा परमाणुः, अणुस्वभावश्च भवत्कल्पितं मन इति / अथ साक्षात् मनसोऽशेषार्थैः सम्बन्धाभावेऽपि परम्परयाऽसौं भविष्यति; तथाहि-मनसा साक्षात् संयुज्यते आत्मा तेन च संयुक्ताः सर्वेऽग्न्यादयो धूमादयश्च साध्यसाधनव्यक्तिविशेषा इति; तदप्यपेशलम् ; एवं सर्वस्य सर्वज्ञताप्रसङ्गात्, साध्यसावनव्यक्तिवत् सर्वार्थानां मनसा सम्बद्धसंबं ( सम्बन्धसम्बन्धसं ) भवात् / किञ्च, असौ सम्बन्धसम्बन्धोऽपि मनसः सद्भिरेव अर्थैः स्यात् नाऽसद्भिः; तत्कथं तत्र व्याप्तिप्रतिपत्तिः ? न चात्मनो व्यापित्वं सिद्धम् , तस्य षट्पदार्थपरीक्षायां प्रपञ्चतः प्रेतिषेधात्, तत्कथं सम्बन्धसम्बन्धगन्धोऽपि स्यात् ? अतो दृष्टान्त एव साध्यसाधनयोः भवता व्याप्तिः प्रतिपत्तव्या, तथा च अनुमानानुत्थानं साध्यधर्मिणि साध्यधर्मेण हेतोव्याप्त्यनिश्चयात् / तन्न सौगतमते योगमते वा ऐन्द्रियं मानसं वा प्रत्यक्षं व्याप्ति15 प्रतिपत्तेरङ्गमिति स्थितम् / एतेन योगिप्रत्यक्षस्यापि अविनाभावप्रतिपत्त्यङ्गत्वं प्रत्याख्यातम् ; तस्याप्यविचारकतया कारणभूतप्रतिनियतसन्निहितार्थगोचरचारितया चैतावतो व्यापारान् कर्तुमसमर्थत्वाविशेषात् / अस्तु वा ततः तत्प्रतिपत्तिः; तथापि-योगी" प्रत्यक्षतो व्याप्तिं (1) तुलना-"परतन्त्र बहिर्मनः ।"-विधिवि० पृ० 114 / लौकिकन्या० तृ० पृ० 82 / उद्धृतमिदम्-स्या० र० पृ० 511 / (2) योगपरिकल्पितस्य / (3) पृ० 269 / (4) मनोभवं ज्ञानम् / (5) मनसः / (6) सम्बन्धः / (7) आत्मव्यापकत्वप्रयुक्तसंयुक्तसंयोगवशात् अशेषधूमाग्निव्यक्तीनां मनसा सम्बन्धकल्पने / (8) परम्परासम्वन्धः, मनःसंयुक्त आत्मा तेन च संयुक्ताः सर्वेऽर्था इति / (9) तुलना-"किञ्चासौ सम्बद्ध सम्बन्धोऽपि सद्भिरेवार्थैः नासद्भिरतीतानागतः तत्कथं तत्र व्याप्तिप्रतिपत्तिः ?"- स्या० 2010 512 / (10) अतीतानागतदेशकालभावैरिति-आ० टि० / (11) आत्मनो व्यापित्वस्य / (12) पृ० 261 / (13) तुलना-"अन्ये तु व्याप्तिग्रहणकाले प्रतिपतयोगिन इवाशेषविषयं परिज्ञानमस्तीति ब्रुवते / अन्यथा हि सर्वो धमोऽग्निं विना न भवतीति व्याप्तिस्मरणं न स्यात् / विवेकेन चाप्रतिभासः समानाभिव्याहारात् यथा धान्यराशिक्षिप्ताया धान्यव्यक्तेरिति ।"-प्रश० व्यो०१० 570 / “यस्तु मन्यते प्रज्ञाकरगुप्त: योगिज्ञानं व्यप्तिज्ञानमिति ।"सिद्धिवि० टी० पृ० 105 B. (14) योगिप्रत्यक्षस्यापि / (15) यावान् कश्चिद्धूमः स सर्वोप्यग्निजन्मा अनग्निजन्मा वा न भवतीत्येतावतः (१६)तुलना-"योगिप्रत्यक्षतो व्याप्तिसिद्धिरित्यपि दुर्घटम् / सर्वत्रानुमितिज्ञानाभावात् सकलयोगिनः / / परार्थानुमितौ तस्य व्यापारोऽपि न युज्यते / अयोगिनः स्वयं व्याप्तिमजानानः जनान् प्रति // योगिनोऽपि प्रति व्यर्थं स्वस्वार्थान मिताविव / समारोपविशेषस्याभावात् सर्वत्र योगिनाम् ॥"-तत्त्वार्थ इलो० पृ० 179 / प्रमेयक० पृ० 351 / 1 तत्प्रभवं ब०। 2 सम्बन्धसंभवान् ब०। 3 सम्बद्धसम्ब-आ० / 4 सम्बद्धसम्ब-आ० / 5 वैता-ब०। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्रका० 11 ] तर्कप्रामाण्यवादः प्रतिपद्य स्वार्थमनुमानं विदध्यात्, परार्थं वा ? न तावत् स्वार्थम् ; सकलसाध्यसाधनव्यक्तिविशेषाणां प्रत्यक्षतः परिस्फुटतया प्रतिपन्नत्वेन अस्य अफलत्वात् / यत् प्रत्यक्षतः परिस्फुटतया प्रतिपन्नम् न तत्र अनुमानं फलवत् यथा प्रत्यक्षस्वरूपे, प्रत्यक्षतः परिस्फुटतया प्रतिपन्नाश्च योगिनो निखिलाः साध्यसाधनव्यक्तिविशेषा इति / न च तों तत्प्रतिपन्नेष्वप्येतेषु समारोपव्यवच्छेदार्थं सफलमेवानुमानमित्यभिधातव्यम्; योगिनो 5 विधूतकल्पनाजालतया समारोपस्यैवाऽसंभवात् / अथ परार्थं योगिनोऽनुमानम् ; ननु गृहीतव्याप्तिकम् , अगृहीतव्याप्तिकं वा परं परार्थानुमानेन योगी प्रतिपादयेत् ? यदि गृहीतव्याप्तिकम् ; कुतस्तेन गृहीता व्याप्तिः ? न तावत् स्वसंवेदनेन्द्रियमनोविज्ञानैः; तेषां तैदविषयत्वप्रतिपादनात् / नापि योगिप्रत्यक्षेण; अनुमानानर्थक्यानुषङ्गात् / अगृहीतव्याप्तिकस्य च प्रतिपादनानुपपत्तिः अतिप्रसङ्गात् / तन्न कुतश्चिदपि प्रत्यक्षात् साध्य- 10 साधनयोर्व्याप्तिः प्रतिपत्तुं शक्यौं / अतः सूक्तम्-'अविकल्पधिया' इत्यादि / न विद्यते विकल्पः स्वपरव्यव सायो यस्याः सा चासौ धीश्च तया परोक्षया ज्ञानान्तरानुभवनिश्चयाकारिका-विवृत्योा त्मिकया च न किञ्चित् स्वभावविषयं कार्यादिविषयं वा लिङ्गम् ख्यानम् अविनाभावः सम्प्रतीयत इति / तर्हि अनुमानात् तत्सम्प्रतीयते 15 इत्यत्राह-न अनुमानात् 'लिङ्गात् लिङ्गिनि ज्ञानम्' इत्येवं लक्षणात् तत्सम्प्रतीयते; तथाहि-प्रथमानुमानं हेतोः अविनाभावावसाये समर्थम् , अनुमानान्तरं वा ? तत्राद्यपक्षोऽनुपपन्नः; तदनुमानस्य असिद्धत्वात् / अत एव तैत्सिद्धौ अन्योन्याश्रयःसिद्धे हि हेतोरविनाभावे ततस्तदुत्पत्तिसिद्धिः, तत्सिद्धौ च हेतोरविनाभावसिद्धिरिति / नाप्यनुमानान्तरम् / यतः तदपि प्रतिपन्नाऽविनाभावात् हेतोरुत्पद्यते, तत्प्रतिपत्तिश्च 20 तत्र प्रत्यक्षतः, अनुमानाद्वा स्यात् ? तत्राद्यपक्षे दूषणमाह-'सर्वत्र' इत्यादि / सर्वत्र प्रथमानुमानवत् द्वितीयेप्यनुमाने अविशेषात् , 'न प्रत्यक्षम्' इत्यादेर्दोषस्य अभेदात् / अनुमानतोऽपि तत एव, अन्यतो वा तत्प्रतिपत्तिः स्यात् ? यदि तत एव; अन्योन्याश्रयः / (1) अनुमानस्य / (2) परिस्फुटतया। (3) योगिप्रत्यक्षज्ञातेष्वपि साध्यसाधनव्यक्तिविशेषेषु / (4) "प्रागुक्तं योगिनां तेषां तद्भावनामयम् / विधूतकल्पनाजालं स्पष्टमेवावभासते॥"प्रमाणवा० 2 / 281 / “सत्यस्वरूपविषयत्वेन विधूतकल्पनाजालम् अविकल्पकत्वाच्च स्पष्टं विशदज्ञेयाकारमेवावभासते ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 2 / 281 / (5) तुलना-"तहि योगी परार्थानुमानेन गृहीतव्याप्तिकमगृहीतव्याप्तिकं वा परं प्रतिपादयेत् ।”-प्रमेयक० पृ० 351 / (6) परेण प्रतिपाद्येन / (7) व्याप्त्यविषयत्व। (8) सकलसाध्यसाधनयो: स्पष्टं प्रतिभातत्वात् / (9) मीमांसकमते / (10) नैयायिकमते / (11) लिङ्गम्-अविनाभावः / (12) प्रकृतानुमानस्य व्याप्तिग्रहणात्पूर्वमलब्धस्वरूपत्वात् / (13) अनुमानसिद्धौ। (14) अनुमानोत्पत्ति। (15) अविनाभावप्रतिपत्तिश्च अनुमानान्तरे। (16) समानत्वात्। (17) सिद्धायां हि व्याप्तिप्रतिपत्तौ अनुमानोत्थानम्, सति च अनुमानात्मलाभे व्याप्तिप्रतिपत्तिरिति / ____ 1-नर्थक्यप्रसङ्गात् श्र० / 2 एतदनन्तरं ब० प्रतौ 'अविकल्पधिया' इति कारिकाऽपि लिखिता समस्ति / 3 स्वरूपव्य-श्र०। 4 'कार्यादिविषयं नास्ति ब०। 5 सिद्ध हेतो-श्र० / Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० अथाऽन्यतः; तदा अनवस्था-तदुत्थापकहेतावप्यनुमानान्तरात्तत्प्रतिपत्तिप्रसङ्गात् / तन्न कुतश्चित् परस्य प्रतिबन्धसिद्धिः / मा भूत्, किं तया ? इत्यत्राह-'नहि' इत्यादि / न खलु साकल्येन लिङ्गस्य लिङ्गिना व्याप्तेरसिद्धौ क्वचिद् अनित्यत्वादौ वह्रथादौ वा साध्ये व्यवहारे परमार्थे वा किञ्चित् स्वभावलिङ्गजं कार्यादिलिङ्गजं वा अनुमानन्नाम। इदमत्र तात्पर्यम्-यथा अनुमानमन्तरेण न किञ्चित् साध्यं सिद्धयति इति तदर्थमनुमानमिष्यते तथा तल्लिङ्गलिङ्गिव्याप्तिसिद्धिमन्तरेण तदपि न सिद्धथति इति तदा सॉपि इष्यतामविशेषात् / ततः किं जातम् ? इत्याह-'तन्न' इत्यादि। यत एवं तत् तस्मात् न अप्रत्यक्षं परोक्षम् अनुमानव्यतिरिक्तं प्रमाणमस्ति किन्तु अनुमानमेव' ईत्य युक्तम् , लिङ्गप्रतिपत्तेः अविनाभावप्रतिपत्तेः तर्काख्यायाः प्रमाणान्तरत्वाद् अलिङ्गजाऽ10 विशदस्वभावतया पँमाणद्वयानन्तर्भूतत्वात् / ततः सूक्तम्-'चिन्ता प्रमाणम् अनुमानादेर्हेतुत्वात्' इति / कीदृशं तदनुमानम् ? इत्याह लिङ्गात् साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात् // 12 // लिङ्गिधीरनुमानं तत्फलं होनादिबुद्धयः। (1) अन्यानुमानोत्थापक / (2) व्याप्तिप्रतिपत्ति / (3) अनुमानमपि। (4 ) अनुमानसिद्धयर्था। (5) व्याप्तिसिद्धिरपि। तुलना-"तर्कसंवादसन्देहे निःशङ्कानुमतिः क्व ते ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 195 / ( 6 ) 'तन्नाप्रत्यक्षम्' इत्यादि बौद्धोक्तं वाक्यम् / (7) अनुमानप्रत्यक्षरूप / (8) व्याख्या-"अनुमानं प्रमाणं भवति / किम् ? लिङ्गिधीः लिङ्गिनः साध्यस्य धीनिमित्यर्थः / लिङ्गमविनाभावसम्बन्धोऽस्यास्तीति लिङ्गीति विग्रहात् / तस्योत्पत्तिकारणमाह लिङ्गात् साधनात्। साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात्, साध्येन इष्टाबाधितासिद्धरूपेण सह अविनाभावोऽन्यथान पपत्तिनियमः तस्य अभितो देशकालान्तरव्याप्त्या निबोधो निर्णयः स एकं प्रधानं लक्षणं स्वरूपं यस्य तत्तथोक्तं तस्माल्लिङ्गादुत्पद्यमाना लिङ्गिधीरनुमानमित्यर्थः / नन्वस्य तर्कफलत्वात्कथं प्रमाणत्वमित्याशंक्याहतत्फलं हानादिबुद्धयः, हानं परिहार: आदिशब्देन उपादानमपेक्षा च गृह्यते / तासां बुद्धयो विकल्पाः तस्य अनुमानस्य फलं भवन्ति, ततः फलहेतुत्वादनुमानं प्रमाणं प्रत्यक्षवदित्यभिप्रायः ।"-लघी० ता० 1031 / (9) "अनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते / तदभावे च नास्त्येव तल्लिङ्गमनुमापकम् // " -प्रश० भा० पृ० 200 / "उदाहरणसाधात् साध्यसाधनं हेतुः / तथा वैधात् / "- न्यायसू० 111 / 34-35 / "हेतुस्त्रिरूपः"-न्यायप्र० प्र०१। “पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिर्धव सः। अविनाभावनियमात् हेत्वाभासास्ततोऽपरे ॥"-हेतबि० प्र० परिप्रमाणवा० 3 / 1 / तत्त्वसं० का० 1362 / “त्रिरूपो हेतुः ।"-सांख्यका० माठ० पृ० 12 / “साधनत्वख्यापकं लिङ्गवचनं हेतुः / " -न्यायसा० 105 / "अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम् ।"-न्यायाव० श्लो० 22 / "साधनं प्रकृताभावेऽनुपपन्नम् "-प्रमाणसं० पृ० 102 / न्यायवि० का० 269 / तत्वार्थश्लो० पृ० 214 / परीक्षामु० 3.15 / “तथा चाभ्यधायि कुमारनन्दिभट्टारकः-अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिङ्गमभ्यते।" -प्रमाणप० पृ०७२ / "निश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुः ।"-प्रमाणनय० 39 / “साधनत्वाभिव्यञ्जकविभक्त्यन्तं साधनवचनं हेतुः ।"-प्रमाणमी० 211 / 12 / (10) “लिङ्गदर्शनात्संजायमानं लैङ्गिकम् ।"-प्रश० भा० पृ० 200 / “अनुमानं ज्ञातसम्बन्धस्यैकदेशदर्शनादेकदेशान्तरेऽसनिकृष्टेऽर्थे बुद्धिः ।"-शाबरभा० 1 / 1 / 5 / "प्रतिबन्धदृशः प्रतिबद्धज्ञानमनुमानम् ।"-सांख्यसू० 13100 / “अनुमानं मितेन लिंगेन अनु पश्चान्मानम् ।"-न्यायवा० पृ०२८ / "तत्र स्वार्थं त्रिरूपाल्लिङ्गाद् यदनुमेये Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 12 ] प्रतिज्ञाप्रयोगसमर्थनम् 435 विवृतिः-नहि तादात्म्यतदुत्पत्ती ज्ञातुं शक्येते विनाऽन्यथानुपपत्तिवितर्केण ताभ्यां विनैव एकलक्षणसिद्धिः। नहि वृक्षादिः छायादेः स्वभावः कार्य वा / न चात्र विसंवादोऽस्ति / लिङ्गात् हेतोः। किंविशिष्टात् ? इत्याह-'साध्य' इत्यादि / साध्येन ___इष्टाऽबाधिताऽसिद्धविशेषणविशिष्टेन अविनाभावो व्याप्तिः, / कारिकाव्याख्यानम् - तस्य अभि समन्तात् निबोधो निश्चयः एकं प्रधानं लक्षणं यस्य तस्मात् सुनिश्चिताऽन्यथानुपपत्तिनियमनिश्रायैकलक्षणात् इत्यर्थः / लिङ्गिनि साध्यधर्मविशिष्टे धर्मिणि प्रयुज्यमाने गम्यमाने वा धीः ज्ञानम् अनुमानम् / ननु 'प्रयुज्यमाने साध्यधर्मविशिष्टे धर्मिणि' इत्ययुक्तम् ; पक्षस्य प्रयोजनाभावत: प्रतिज्ञाप्रयोगमनभ्य- प्रयोगानुपपत्तेः, सर्वत्र गम्यमान एवास्मिन् साधनात् साध्यसम्प्रति- 10 पगच्छतो बौद्धस्य पत्त्युपपत्तेः। अथ तत्प्रयोगस्य साध्यार्थप्रतिपादनलक्षणप्रयोजनप्रतिविधानम्- ... संभवात् तदसंभवोऽसिद्धः; तन्न; तस्य तत्प्रतिपादनासंभवात् / स ज्ञानं तदनुमानम् ।”-न्यायबि० 2 / 3 / “सम्यगविनाभावेन परोक्षानुभवसाधनमनुमानम् / " -न्यायसा० पृ० 5 / "साध्याविना वो लिङ्गात् साध्यनिश्चायकं स्मृतम् / अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत् ॥"-न्यायाव० श्लो०५ / “साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं "-न्यायवि० का०१६७ / तत्त्वार्थश्लो० : पृ०१०७। प्रमाणप० पृ० 70 / परीक्षामु०३।१४ / प्रमाणनय० 3.8 प्रमाणमी० 122 / 7 / न्यायदी० पृ० 20 जैनतर्कभा० पृ० 12 / (11) तुलना-"तत्र लिङ्गदर्शनं प्रमाणं प्रमितिरग्निज्ञानम् / अथवा अग्निज्ञानमेव प्रमाणम्, प्रमितिरग्नौ गुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शनमिति ।"-प्रश० भा० पृ० 206 / (1) तुलना-"पक्षः प्रसिद्धो धर्मी, प्रसिद्धविशेषणेन विशिष्टतया स्वयं साध्यत्वेनेप्सितः, प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध इति वाक्यशेषः ।"-न्यायप्रवे० पृ०१। "स्वरूपेणैव स्वयमिष्टोऽनिराकृतः पक्ष इति ।"-न्यायबि. पृ० 79 / 'न्यायमुखप्रकरणे तु स्वयं साध्यत्वेनेप्सित: पक्षो विरुद्धार्थोऽनिराकृतः इति पाठात्"-प्रमाणवातिकालं परि० 4 / “साध्याभ्युपगमः पक्षः प्रत्यक्षाद्यनिराकृतः ।"-न्यायाव० श्लो०१४। 'साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धम् "-न्यायवि० श्लो० 172 / "इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम्"-परीक्षामु० 3 / 15 / "अप्रतीतमनिराकृतमभीप्सितं साध्यम्'-प्रमाणनय० 3 / 12 / 'सिसाधयिषितमबाध्यं साध्यं पक्षः।"-प्रमाणमी० 102 / 13 / (2) उपनयवाक्यसामर्थ्यात् हेतोः पक्षधर्मत्वसमर्थनाद्वा अर्थादापन्ने / (3) "तत्पक्षवचनं वक्तुरभिप्रायनिवेदने / प्रमाणं संशयोत्पत्तेस्ततः साक्षान्न साधनम् / साध्यस्यैवाभिधानेन पारम्पर्येण नाप्यलम् - 'ननु- अख्यापिते हि विषये हेतुवृत्तरसंभवात् / विषयख्यापनादेव सिद्धौ चेत्तस्य शक्तता // उक्तमत्र विनाप्यस्मात् कृतक: शब्द ईदृशाः / सर्वेऽनित्या इति प्रोक्तप्यत्तिन्नाशधीभवेत् / अनुक्तावपि पक्षस्य सिद्धरप्रतिबन्धतः / त्रिष्वन्यतमरूपस्यैवानुक्तियूनतोदिता ॥"-प्रमाणवा० 4 / 16-23 / हेतुबि० प्र० परि०। “अथवा तस्यैव साधनस्य यन्नाङ्गं प्रतिज्ञोपनयनिगमनादि तस्यासाधनाङ्गस्य साधनवाक्ये उपादानं वादिनो निग्रहस्थानं व्यर्थाभिधानात् / ननु च विषयोपदर्शनाय प्रतिज्ञावचनमसाधनाङ्गमप्युपादेयमेव ; न3; वैयर्थ्यात असत्यपि प्रतिज्ञावचने यथोक्तात साधनवाक्याद् भवत्येवेष्टार्थसिद्धिरित्यपार्थकं तस्योपादानम् ।"-वादन्याय प० 61-65 / "द्वयोरप्यनयोः प्रयोगे नावश्यं पक्षनिर्देशः / यतश्च साधनं साध्यधर्मप्रतिबद्धं तादात्म्यतदत्पत्तिभ्यां प्रतिपत्तव्यं द्वयोरपि प्रयोगयोः तस्मात् पक्षोऽवश्यमेव न निर्देश्यः। अथ यदि पक्षो न निर्देश्यः 1-पपत्तिवित-ज० वि० / 2 साध्यविशि-श्र० / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयत्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० हि केवलः साध्यमर्थं प्रतिपादयेत् , हेतूपन्याससमन्वितो वा ? यदि केवलः; हेतूपन्यासो व्यर्थः, प्रतिज्ञाप्रयोगमात्रादेव तत्प्रतिपत्तेः सातत्वात् / अथ हेतूपन्याससमन्वितः; तर्हि हेतोरेव तंत्र सामोपपत्तेः किं तत्प्रयोगेणेति ? अत्रोच्यते-पक्षस्य साध्यसिद्धिप्रतिबन्धित्वादप्रयोगः; प्रक्रमात् तत्संसिद्धेः, 53 प्रयोजनाऽप्रसाधकत्वात् , हेतूपन्यासापेक्षस्य तत्प्रसाधकत्वाद्वा ? न तावत् तत्सिद्धि प्रतिबन्धित्वात् ; वादिना सम्यक् साधनात् स्वपक्षसिद्धिलक्षणे कार्ये क्रियमाणे तद्विपक्षाप्रसाधकत्वत: तत्प्रयोगस्य तत्प्रतिबन्धकत्वानुपपत्तेः / यत् यस्मिन् कार्ये क्रियमाणे तद्विपक्षाप्रसाधकम् न तत्तस्य प्रतिबन्धकम् यथा धूमे काष्ठादिकम् , सम्यक् साधनतः स्वपक्षसिद्धिलक्षणे कार्ये क्रियमाणे तद्विपक्षाप्रसाधकश्च प्रतिज्ञाप्रयोग इति / 10 प्रक्रमात्तत्सिद्धिश्च प्रतिज्ञावत् हेत्वादावप्यविशिष्टा, तेतस्तस्याप्यप्रयोगप्रसङ्गः। नहि शब्दस्य अनित्यत्वप्रतिज्ञाने कृतकत्वादिहेतुः घटादिदृष्टान्तश्च प्रक्रमान्ने सिद्धथति / तथाविधस्याप्यस्याभिधाने पक्षण कोऽपराधः कृतः येनास्य तथाविधस्याभिधानं नेष्यते ? ___ प्रयोजनाप्रसाधकत्वश्च असिद्धम् प्रतिपाद्यप्रतिपत्तिविशेषस्य तत्प्रसाध्यप्रयोजनस्य सद्भावात् / प्रतिपाद्यो हि कश्चिन् मन्दमतिः कश्चित्तीब्रमतिः / तत्र यो मन्दमति: न 15 तस्य प्रकृतार्थप्रतिपत्तिविशेषः प्रतिज्ञाप्रयोगमन्तरेणोपपद्यते, नापि नैयायिकादेः पञ्चावयवप्रयोगे प्रतिपन्नसङ्कतस्यामन्दमतेरपि / तदप्रयोगे ते निग्रहस्थानाभिधानात् / "हीनमन्यतमेनापि न्यूनम्" [ न्यायसू० 5 / 2 / 12 ] इति वचनात् / तीव्रमतेस्तु तत्प्रयोगमन्तरेणापि हेतुप्रयोगमात्रात् प्रकृतार्थप्रतिपत्तिप्रतीतेस्तस्य वैयर्थे हेतुप्रयोगस्यापि वैयर्थ्य स्यात्, "निश्चिताऽविप्रतारकपुरुषवचनाद् 'अग्निरत्र' इत्यादिप्रतिज्ञाप्रयोगमात्ररूपादेव 20 कस्यचित् प्रकृतार्थप्रतिपत्तिदर्शनात् / कथमनिर्देश्यस्य लक्षणमुक्तम् ? न साधनवाक्यावयवत्वादस्य लक्षणमुक्तमपि तु असाध्यं केचित् साध्यं साध्यं चासाध्यं प्रतिपन्नाः, तत्साध्यासाध्यविप्रतिपत्तिनिराकरणार्थं पक्षलक्षणमुक्तम् ।"-न्यायबि० टी० पृ० 77-79 / 'असाधनाङ्गभूतत्वात् प्रतिज्ञाऽनुपयोगिनी।"-तत्त्वसं० पृ० 418 // (1) साध्यार्थप्रतिपत्तेः / (2) साध्यार्थप्रतिपत्तौ। (3) तुलना-"तस्यावचनं साध्यसिद्धिप्रतिबन्धकत्वात्,प्रयोजनाभावाद्वा ?"-प्रमेयक० पू० 373 / "कथन्न पुनरस्याः साधनाङ्गत्वं किं सर्वथैव कथास्वनुपयोगात्, अथोपयुक्तस्याप्यन्यथैव परिग्रहात् ?"-प्रश० किर० पृ० 335 / (4) प्रकरणात् / (5) पक्षप्रयोगसंसिद्धेः। (6) प्रयोजन / (7) स्वपक्षविरुद्धासाधकत्वात् / (8) साध्यसिद्धि / (2) यतः हेत्वादीनामपि प्रकरणादेव सिद्धिस्ततः / (10) प्रकरणात् सिद्धस्यापि (11) तुलना-"तत्प्रयोगे प्रतिपाद्यप्रतिपत्तिविशेषस्य प्रयोजनस्य सद्भावात्।"-प्रमेयक० पृ० 373 / स्या० र० पृ० 550 / (12) प्रतिज्ञाया अप्रयोगे। (13) नैयायिकेन। (१४)प्रतिज्ञाप्रयोग / (15) प्रतिज्ञाप्रयोगस्य (16) तूलना"अविप्रतारकतानिश्चितपुरुषवचनमात्रादपि 'अग्निरत्र' इत्यादिरूपात् क्वचित् प्रमेयोऽर्थः सिद्धयतीति हेतोरप्यसाधनताप्रसङ्गात् तद्विरहेणापि साध्यसिद्धेः।"-ज्यायाव० टी०५०४७। (17) तीव्रमतेःश्रद्धालोः। 1 सामर्थ्य प्र-श्र०। 2 संज्ञानत्वात ब०। 3 पक्षमात्रसिद्धः श्र०। 4-न्न प्रसि-ब। 5 नियामकादेः ब०। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 12 ] प्रतिज्ञाप्रयोगसमर्थनम् 437 एतेन हेतूपन्यासापेक्षस्य प्रयोजनप्रसाधकत्वात्' इत्यपि प्रत्याख्यातम् ; नियमाभावात्। क्वचिद् हेतुप्रयोगमन्तरेणापि केवलस्यैव पक्षप्रयोगस्य प्रतिपाद्यस्य प्रतिपत्तिविशेषलक्षणप्रयोजनप्रसाधकत्वप्रतीतेः / किञ्च, हेतुगोचरस्य पक्षस्यानिर्देशे हेतोरनैकान्तिकत्वादिदोषानुषङ्गः, तमन्तरेण तत्र वास्तवगुणदोषविवेकस्य कर्तुमशक्यत्वात् / यथैव हि लक्ष्यनिर्देशं विना धानु- 6 ष्कस्य इषु प्रतिक्षिपतो गुणोऽपि दोषतया दोषोऽपि गुणतया तत्प्रेक्षकजनानां व्यामोहात् प्रतिभाति, तन्निर्देशे तु तद्गुणो लक्ष्यवेधप्रावीण्यलक्षणः तद्विपरीतत्वलक्षणश्च दोषः तेषां यथावत् प्रतिभाति, एवं पक्षाऽनिर्देशे व्यामोहात् सम्यग्हेतावपि 'किमयं हेतुः साध्ये एव वर्तते तदभावे वा' इत्याशङ्काकलङ्कितत्वादनैकान्तिकः, 'विपक्ष एव वर्तिष्यते' इति विपरीताशङ्काऽनिवृत्तेः विरुद्धो वा स्यात् / पक्षनिर्देशे तु लक्ष्यनिर्देशे धानुष्कवत् 10 यथावत्तद्गुणदोषयोः प्रतिपत्त्युपपत्तेः न कश्चिद् दोषः। __ यदप्यभिहितम्- 'केवलस्यैव पक्षस्य साध्यप्रतिपादनसामर्थ्य हेतूपन्यासो व्यर्थः' इति; तदप्यभिधानमात्रम् ; एकाकिनः कारणस्य कार्यकारित्वाप्रतीतेः / न खलु बीजादेः केवलस्यैव अङ्कुरादिकार्यकरणे सामर्थ्यं दृष्टम् / नाप्येकस्य तंत्र सामर्थ्य अन्येषां वैयय॑म् / कथश्चैवं हेतोः केवलस्यैव साध्यसिद्धौ सामर्थ्य तत्समर्थनस्य उपनयादेश्च वैय- 15 य॑न्न स्यात्? पक्षस्य अर्थसिद्धौ हेत्वपेक्षणान्न तत्सिद्धिनिबन्धनत्वम् ; इत्यप्यसुन्दरम् ; भवत्कल्पिताऽविकल्पकाध्यक्षस्याप्यर्थसिद्धिनिबन्धनत्वाभावप्रसङ्गात् तत्सिद्धौ तस्य विकल्पापेक्षणात् / अथ 'तत्प्रेतिपन्नमेवार्थं विकल्पो व्यवस्थापयति' इत्युच्यते; तर्हि - (1) तुलना-"तत्प्रयोगोऽत्र कर्तव्यो हेतोर्गोचरदीपकः // अन्यथा वाद्यभिप्रेतहेतुगोचरमोहिनः / प्रत्याय्यस्य भवेद्धेतुविरुद्धारेकितो यथा // धानुष्कगुणसंप्रेक्षिजनस्य परिविध्यतः / धानुष्कस्य विना लक्ष्यनिर्देशेन गुणेतरौ // ततश्च सम्यगहेतावपि विपक्षे एवायं वर्तते इति व्यामोहाद् विरुद्धदूषणमभिदधीत, पक्षोपन्यासात्तु निर्णीतहेतुगोचरस्य नैष दोषः स्यादित्यभिप्रायः * यथा लक्ष्यनिर्देशं विना धानुष्कस्येषु प्रक्षिपतो यौ गुणदोषौ तौ तद्दशिजनस्य विपर्यस्तावपि प्रतिभात:-गुणोपि दोषतया, दोषोऽपि वा गुणतया, तथा पक्षनिर्देशं विना हेतुमुपन्यस्यतो वादिनो यौ स्वभिप्रेतसाध्यसाधनसमर्थत्वासमर्थत्वलक्षणौ गुणदोषौ तौ प्राश्निकप्रतिवाद्यादीनां विपरीतावपि प्रतिभात इति भावार्थः ।"-न्यायाव० श्लो० 14.16, टी० पृ० 48-49 / (2) लक्ष्यनिर्देशे / (3) धानुष्कस्य कौशल्यम् / (4) प्रेक्षकजनानाम् / (5) वादिनः स्वाभिप्रेतसाध्यसाधनसमर्थत्वासमर्थत्वलक्षयोः गुणदोषयोः। (6) पृ० 436 पं०११ (7) बीजस्य हेतोर्वा / (8) अङ्करोत्पादने साध्यप्रतिपादने वा / (9) क्षितिसलिलादीनाम् पक्षप्रयोगादीनां वा। (10) तुलना-"तत्र च यदूषणमुक्तम्-तर्हि हेतोरेव तत्र साम ोपपत्तेः किं पक्षवचनेनेति; तदयुक्तम् / एवं हि हेतोः समर्थनापेक्षस्य साध्यसिद्धिनिबन्धनत्वोपपत्तेः तद्वचनमपि न स्यात् / " -स्या० 2010 550 / न्यायाव० टी० पू० 47 / (11) साध्यसिद्धि / (12) सौगत / (13) अर्थसिद्धौ (14) अविकल्पकाध्यक्षस्य / (15) निर्विकल्पप्रतिपन्न / 1 इत्यत्रापि श्र०। 2 केवलस्यास्यैव ब०। 3 यथावदगण-आ० / 4-कार्यकारणे आ० / 5-निबन्धनम् ब०। / Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० पक्षप्रतिपादितमेवार्थ हेतुः प्रतिपादयति, तत्प्रतिपादितञ्च प्रमाणान्तरं समर्थयत इत्यप्युच्यतामविशेषात् / इदमेव च पक्षस्य स्वरूपम् -यद् हेत्वपेक्षस्य अर्थप्रतिपादकत्वं नाम / 'पंच्यते कोमलीक्रियते हेतुना सुकुमारप्रज्ञानां साध्यधर्मान्वितत्वेन व्यक्ततामापाद्यते ईति पक्षः' इति व्युत्पत्तेः। यदि च पक्षो नेष्यते कथं तर्हि सपक्षविपक्षव्यवस्था स्यात् तत्पूर्वकत्वात्तस्याः ? तदभावे च त्रिरूपस्य हेतोरप्यनुपपत्तेरनुमानोच्छेदः स्यात् / / किञ्च, प्रतिज्ञायाः प्रयोगानहत्वे शास्त्रादावप्यसौ न प्रयुज्येत अँविशेषात् / न चैवम्, तत्रं तत्प्रयोगदर्शनात् / नहि शास्त्रेऽनियंतकथायां वा प्रतिज्ञा नाभिधीयते 'अग्निरत्र धूमात्, वृक्षोऽयं शिंशपात्वात्' इत्याद्यभिधानानां तत्रोपलम्भात् / 'परीनुग्रह10 प्रवृत्तानां शास्त्रकाराणां प्रतिपाद्यावबोधनाधीनधियां शास्त्रादौ प्रतिज्ञाप्रयोगो युक्तिमानेव उपयोगित्वात्तस्य' इत्यभ्युपगमे वादेऽपि सोऽस्तु तत्रापि तेषां" तादृशत्वादिति / ननु लिङ्गस्य साध्याविनाभावैकलक्षणत्वमयुक्तम् , तस्य पक्षधर्मत्वादिलक्षणत्रयापक्षधर्मत्वादिरूपत्र- न्वितत्वेन एकलक्षणत्वायोगात् / तदनन्वितत्वे हेतोः असिद्धत्वादियस्य लिङ्गलक्षणत्व- दोषानुषङ्गात् / नहि पक्षधर्मत्वाभावे अस्य असिद्धत्वव्यवच्छेदः, व्युदासपुरस्सरं तस्य 15 AM सपक्षे सत्त्वाभावे च विरुद्धत्वव्युदासः, विपक्षेऽसत्त्वाभावे च अनैत्वसमर्थनम्- कान्तिकत्वनिषेधः कर्तुं शक्य इति / उक्तञ्च (1) हेतुप्रतिपादितञ्च / (2) समर्थनरूपम् / (3) तुलना-'पच्यते इति पक्षः / पच व्यक्तीकरणे / पच्यते व्यक्तीक्रियते योऽर्थः स पक्षः।"-न्यायप्र०व० पृ०१३। न्यायसारटी० पृ० 101 / (4) पक्षपूर्वकत्वात् / (5) सपक्षविपक्षव्यवस्थायाः। (6) सपक्षविपक्षव्यवस्थाया अभावे / (7) तुलना-"प्रतिज्ञानुपयोगे शास्त्रादिष्वपि नाभिधीयेत विशेषाभावात् / नहि शास्त्रे प्रतिज्ञा नाभिधीयत एव अनियतकथायां वा, 'अग्निरत्र धूमात्, वृक्षोऽयं शिशपात्वात्' इत्यादिवचनानां शास्त्रे दर्शनात्, 'विरुद्धोऽयं हेतुरसिद्धोऽयम्' इत्यादिप्रतिज्ञावचनानामनियतकथायां प्रयोगात् ।"-अष्टश०, अष्टसह०१० 83 / प्रमेयक० पृ० 373 / स्या० र०पृ० 551 / (८)प्रयोगानहत्वाविशेषात् / (9) शास्त्रादौ / (10) सुगोष्ठयाम् / (11) शास्त्रे सुगोष्ठयां वा। (12) तुलना-"परानुग्रहप्रवृत्तानां शास्त्रकाराणां प्रतिपाद्यावबोधनाधीनधियां शास्त्रादौ प्रतिज्ञाप्रयोगो युक्तिमानेव उपयोगित्वात्तस्येति चेत्, वादेऽपि सोऽस्तु, तत्रापि तेषां तादृशत्वात्, वादेऽपि विजिगीषुप्रतिपादनाय आचार्याणां प्रवृत्तेः / " -अष्टसह० पृ० 83 / प्रमेयक० पू० 373 / स्या० र० पू० 551 / (13) प्रतिज्ञाप्रयोगोऽस्तु / (14) वादेऽपि / (15) शास्त्रकाराणाम् / (16) परानुग्रहप्रवृत्तिमत्त्वात् / (17) प्रकारान्तरेण पक्षप्रयोगसमर्थनं निम्नग्रन्थेषु द्रष्टव्यम्-प्रश० व्यो० पृ० 601 / न्यायमं० पृ० 571 / न्यायवा० ता० टी० पृ० 275 / प्रश० कन्द० पृ० 235 / प्रश० किर० पृ० 335 / प्रमाणमी० पृ०५१। (18) "हेतुस्विरूपः / किं पुनस्त्रैरूप्यम् ? पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्त्वम्, विपक्षे चासत्त्वमिति / " -न्यायप्रवे० पृ० 1 / "त्रैरूप्यं पुनः लिङ्गस्यानुमेये सत्त्वमेव, अनुमेयं वक्ष्यमाणलक्षणम्, तस्मिल्लिंगस्य सत्त्वमेव निश्चितमेकं रूपम्, तत्र सत्त्ववचनेन असिद्धं चाक्षुषत्वादि निरस्तम्। एवकारेण पक्षकदेशा___ 1 इत्यप्युच्येताविशेषात् ब० 2 इदमेव पक्ष-आ, श्र०। 3 'इतिपक्षः' नास्ति ब०। 4 शास्त्रेनियआ० / / वादे सो-वादे सा-श्र० / 6 शक्यते इति ब०। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 12 ] त्रैरूप्यनिरासः "हेतोत्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः / असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपेक्षतैः // " [प्रमाणवा० 3 / 14] इति / अत्रोच्यते-न पक्षधर्मत्वादिरूपत्रयं हेतोलक्षणम् , विप॑क्षेऽप्यस्य वर्तमानत्वात् , यद् विपक्षेऽपि वर्त्तते न तत् लक्षणम् यथा सत्त्वम् अग्नेः, विपक्षेऽपि हेत्वाभासलक्षणे वर्त्तते च पक्षधर्मत्वादिरूपत्रयमिति / यदेव हि विपक्षासाधारणं स्वरूपं तदेव लक्षणतया / लोके प्रसिद्धम् , यथा भासुररूपोष्णस्पर्शवत्त्वम् अग्नेः / न चेदं पक्षधर्मत्वादिरूपत्रयं सिद्धो निरस्तो हेतुः, यथा चेतनास्तरवः स्वापात् इति / पक्षीकृतेषुतरुषु पत्रसंकोचलक्षणः स्वा पः एकदेशेन सिद्धः / न हि सर्वे वृक्षा रात्रौ पत्रसंकोचभाजः, किन्तु केचिदेव / सत्त्ववचनस्य पश्चात्कृतेन एवकारेण असाधारणो धर्मो निरस्तः / यदि हि अनुमेय एव सत्त्वमिति कुर्यात् श्रावणत्वमेव हेतुः स्यात् / निश्चितग्रहणेन सन्दिग्धासिद्धः सर्वो निरस्तः। सपक्षएव सत्त्वम्, सपक्षो वक्ष्यमाणलक्षणः, तस्मिन्नेव सत्त्वं निश्चितं द्वितीयं रूपम् / इहापि सत्त्वग्रहणेन विरुद्धो निरस्त:, स हि नास्ति सपक्षे / एवकारेण साधारमानैकान्तिकः, अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात्, स हि न सपक्ष एव वर्तते किन्तभयत्रापि। सत्त्वग्रहणात पूर्वावधारणवचनेन सपक्षव्यापिसत्ताकस्यापि प्रयत्नानन्तरीयकस्य हेतुत्वं कथितम् / पश्चादवधारणे त्वयमर्थः स्यात्-सपक्षे सत्त्वमेव यस्य स हेतुरिति प्रयत्नानन्तरीयकं न हेतु: स्यात् / निश्चितवचनेन सन्दिग्धान्वयोऽनैकान्तिको निरस्तः, यथा सर्वज्ञः कश्चिद् वक्तृत्वात्, वक्तृत्वं हि सपक्षे सर्वज्ञे सन्दिग्धम् / असपक्षे चासत्त्वमेव निश्चितम, असपक्षो वक्ष्यमाणलक्षणः, तस्मिन् असत्त्वमेव निश्चितं तृतीयं रूपम् / तत्रासत्त्वग्रहणेन विरुद्धस्य निरासः, विरुद्धो हि विपक्षेऽस्ति / एवकारेण साधारणस्य विपक्षकदेशवृत्तेनिरासः, नित्यः शब्द: कृतकत्वात् खवत् / प्रयत्नानन्तरीयकत्वे साध्ये हि अनित्यत्वं विपक्षकदेशे विद्युदादावस्ति आकाशादौ नास्ति ततो नियमेनास्य निरासः। असत्त्ववचनात् . पर्वस्मिन्नवधारणेऽयमर्थः स्यात्-विपक्षे एव यो नास्ति स हेतुः / तथा च प्रयत्नानन्तरीयकत्वं सपक्षेऽपि सर्वत्र नास्ति ततो न हेतु: स्यात्, ततः पूर्वं न कृतम् / निश्चितग्रहणेन सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकोऽनैकान्तिको निरस्तः / " -न्यायबि०, टी० पृ० 31-33 / वादन्याय पृ० 60 / तत्त्वस० पृ० 404 / (1) 'निश्चयः'-प्रमाणवा० / (2) अभावादित्यर्थ:-आ० टि०। (3) अस्य व्याख्या"यत एवं तेन कारणेन हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकेषु निश्चयो वर्णितः आचार्यदिग्नागेन प्रमाणसमुच्चयादिषु 'असिद्धस्तु द्वयोरपि साधनम्' इत्यादिना / कस्य निरासेनेत्याह-असिद्धेत्यादि / आद्यादित्वात् तृतीयार्थे तसिः विपक्षण इत्यर्थः / तत्र असिद्धविपक्षेण पक्षधर्मत्वनिश्चयो वणितः / विपरीतार्थो विरुद्धः, तस्य विपक्षेण अन्वयनिश्चयः / व्यभिचार्यनैकान्तिकः, तस्य विपक्षेण व्यतिरेकनिश्चयः। -प्रमाणवा० स्ववत्तिटी० / स्या०र० पृ० 518 / "तेन-प्रतिबन्धस्यावश्याभ्युपगन्तव्यत्वेन हेतोः त्रिष्वपि . . . ."-प्रमाणवा० मनोरथ० / उद्धृतोऽयम्-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 203 / प्रमाणप० पृ० 72 / प्रमेयक पृ० 354 / 'निश्चयस्तेन'-बृहदा० भा० वा० पृ० 1521 / स्या० र०५० 518 / (4) हेत्वाभासेऽपि / तुलना-"निश्चितं पक्षधर्मत्वं विपक्षेऽसत्त्वमेव च / सपक्ष एव जन्यत्वं तत्त्रयं हेतु ' लक्षणम् / / केचिदाहुर्न तद्युक्तं हेत्वाभासेऽपि संभवात् / असाधारणतापायाल्लक्षणत्वाविरोधतः / / असाधारणो हि स्वभावो भावलक्षणमव्यभिचारादग्नेरौष्ण्यवत्, न च त्रैरूप्यस्यासाधारणता तद्धेतौ तदाभासेऽपि तस्य समुद्भवात् ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 198 / (5) तुलना-"यदेव हि लक्ष्यासाधारणं स्वरूपं तदेव लक्षणतया लोके प्रतीतमव्यभिचारित्वात्, यथा भासुररूपोष्णस्पर्शवत्वमग्नेः ।"-स्या०र०५०५१८॥ 1 लक्षणं तथा लोके आ०, तल्लक्षणतया लोके श्र०। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० तथाविधं तत्पुत्रत्वादौ तदाभासेऽपि गतत्वात् पश्चरूपत्वादिवत् / अथ अन्यथानुपत्तिनियमवत्त्रैरूप्यं तल्लक्षणं न त्रैरूप्यमात्रम् , तथाविधश्च तत् तदाभासे नास्तीति; तदप्यसङ्गतम् ; एवं सति त्रैरूप्यकल्पनाऽनर्थक्यप्रसङ्गात् तन्नियमादेवास्य गमकत्वोपपत्तेः / न खलु केतिकोदयात् शकटोदयाद्यनुमाने पक्षधर्मता संभवति / अथ 'काला5 काशादिः भविष्यच्छकटोदयादिमान कृतिकोदयादिमत्त्वात् पूर्वोपलब्धकालादिवत्' इती त्थमंत्र पक्षधर्मताऽभिधीयते; तर्हि न कश्चिदपक्षधर्मको हेतुः स्यात् , काककाादेरपि प्रासादधावल्ये साध्ये जगतो धर्मित्वेन पक्षधर्मत्वस्य कल्पयितुं सुशकत्वात् ; तथाहिजगत् प्रासादधावल्ययोगि काककायॆयोगित्वात् / तथा महोदध्याधाराऽग्नियोगि तत् . महानसधूमयोगित्वात् पूर्वोपलब्धजगत्वदिति / लोकविरोधः अन्यत्राप्यविशिष्टः / तन्न 10 पक्षधर्मत्वं हेतोर्गमकत्वाङ्गम् / नापि सपक्षे सत्वम् ; 'अनित्यः शब्दः श्रावणत्वात् , सर्व क्षणिक सत्त्वात्' (1) विपक्षासाधारणम् / (2) तुलना-"न च सपक्षे सत्त्वं पक्षधर्मत्वं विपक्षे चासत्त्वमात्रं. साधनलक्षणम्, स श्यामः तत्पुत्रत्वात् इतरतत्पुत्रवदित्यत्र साधनाभासे तत्सद्भावसिद्धेः / सपक्षे हीतरत्र तत्पुत्रे तत्पुत्रत्वस्य साधनस्य श्यामत्वव्याप्तस्य सत्त्वं प्रसिद्धम्, विवादाध्यासिते च तत्पुत्रे पक्षीकृते तत्पुत्रत्वस्य सद्भावात् पक्षधर्मत्वम्, विपक्षे वाऽश्यामे क्वचिदन्यपुत्रे तत्पुत्रत्वस्याभावात् विपक्षेऽसत्त्वमात्रं च / न च तावता साध्यसाधनत्वं साधनस्य ।"-प्रमाणप० पृ०७० / सन्मति० टी० पृ० 590 / स्या० र० पृ० 518 / प्रमेयर० 3.15 / प्रमाणमी० पृ० 40 / न्यायदी० पृ० 26 / (3) अवि. नाभावनियमवत्त्ररूप्यम् / (4) अन्यथानुपपत्तिनियमादेव। (5) तुलना-"न हि शकटे धर्मिणि . उदेष्यत्तायां साध्यायां कृतिकाया उदयोऽस्ति तस्य कृतिकाधर्मत्वात् ततो न पक्षधर्मत्वम् ।"प्रमाणप० पृ०७१। प्रमेयक० पृ०३५४। स्या० 20 पू० 519 / प्रमेयर० 3.15 / प्रमाणमी० पृ० 40 / “नन्वेवमपि 'श्व उदेष्यति सविता अद्यतनादित्योदयात्, जाता समुद्रवृद्धिः शशाङ्कोदयदर्शनात्' इत्यादिप्रयोगेषु हेतोः पक्षधर्मत्वाभावेऽपि गमकत्वोपलब्धेनं पक्षधर्मत्वं तल्लक्षणम् / " -सन्मति० टी० पृ० 591 / (6) "तथा न चन्द्रोदयात् समुद्रवृद्धयनुमानं चन्द्रोदयात् ( पूर्व पश्चादपि) तदनुमानप्रसङ्गात् / चन्द्रोदयकाल एव तदनुमानं तदैव व्याप्तेर्गृहीतत्वादिति चेत्, यद्येवं तत्कालसम्बन्धित्वमेव साध्यसाधनयोः, तदा च स एव कालो. धर्मी तत्रैव च साध्यानुमानं चन्द्रोदयश्च तत्सम्बन्धीति कथमपक्षधर्मत्वम् ?"-प्रमाणवा० स्वव० टी०१।३। (7) कृतिकोदयादौ। (8) तुलना-"कालादिमिकल्पनायामतिप्रसङ्गः।"-प्रमाणसं० पृ० 104 / “यदि पुनराकाशं कालो वा धर्मी तस्योदेष्यच्छकटवत्त्वं साध्यं कृतिकोदयसाधनं पक्षधर्म एवेति मतम् / तदा धरित्रीमणि महोदघ्याधाराग्निमत्त्वं साध्यं महानसधूमवत्त्वं साधनं पक्षधर्मोऽस्तु तथा च महानसधूमो महोदधौ अग्नि गमयेदिति न कश्चिदपक्षधर्मो हेतुः स्यात् ।"-प्रमाणप० पृ०७१। तत्त्वार्थश्लो० पृ. 200 / सन्मति० टी० पृ० 591 / स्या० र० पृ० 519 / जैनतर्कभा० पृ० 12 / “कृतिकोदयपूरादेः कालादिपरिकल्पनात् / यदि स्यात्पक्षधर्मत्वं चाक्षुषत्वं न किंचनौ (किं घ्वनौ )"-जैनतर्कवा० वृ० पृ० 140 / न्यायाव० टी० पृ० 35 / (9) जगत् / (10) "तुलना-निःशेषं सात्मकं जीवच्छरीरं परिणामिना। पुंसा प्राणादिमत्त्वस्य त्वन्यथानुपपत्तितः // सपक्षसत्त्वशून्यस्य हेतोरस्य समर्थनात् / नूनं निश्चीयते सदभिर्नान्वयो हेतुलक्षणम् // क्षणिकत्वेन न व्याप्तं सत्त्वमेवं प्रसिद्धयति / सन्दिग्धव्यतिरेकाच्च ततोऽ 1-नर्थक्यमितिप्रस-श्र० / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 12 ] त्रैरूप्यनिरास: 441 इत्यादेः सपक्षे सत्त्वाभावेऽपि गमकत्वप्रतीतेः। विपक्षे बाधकप्रमाणबलात् अन्ताप्तिसिद्धेरस्य गमकत्वे बहिर्व्याप्तिकल्पनाऽनर्थक्यम् , अत एव सर्वत्र गमकत्वोपपत्तेः / तन्न पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं वा हेतोर्लक्षणम् / . विर्पक्षे पुनरसत्त्वमेव निश्चितं साध्याऽविनाभावनियमनिश्चयस्वरूपमेव, अतस्तदेव प्रधानं हेतोः लेक्षणमस्तु अलं लक्षणान्तरेण / न च संपक्षे सत्त्वाभावे हेतोरनन्व- 5 यत्वानुषङ्गः; अन्तर्व्याप्तिलक्षणस्य तथोपपत्तिरूपस्य अन्वयस्य सद्भावात् अन्यथानुपपत्तिरूपव्यतिरेकैवत् / नहि 'दृष्टान्तधर्मिण्येव अन्वयो व्यतिरेकश्च प्रतिपत्तव्य इति नियमो युक्तः; सर्वस्य क्षणिकत्वादिसाधने सत्त्वादेरहेतुत्वप्रसङ्गात् / नहि निरन्वयं क्षणिकत्वं क्वचिदपि प्रसिद्धम् , शब्द-विद्युत्-प्रदीपादावपि विप्रतिपत्तेः / यदप्युक्तम्- 'पक्षधर्मत्वादिरूपत्रयासंभवे हेतोरसिद्धत्वादिदोषानुषङ्गः' इत्यादि; 10 तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; अन्यथानुपपत्तिनिश्चयलक्षणत्वादेव अस्य असिद्धत्वादिदोषपरिहारसिद्धेः / स्वयमसिद्धस्य अन्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयासंभवो विरुद्धाऽनैकान्तिकवत् / तथापि अविनाभावप्रपञ्चत्वात् पक्षधर्मत्वादेः असिद्धादि (द्धत्वादि) व्यवच्छेदार्थमभिधाने निश्चितत्वस्यापि रूपान्तरस्य अज्ञातासिद्धताव्यवच्छेदार्थम् , अबाधितविषयत्वादेश्च बाधितविषयत्वादिव्यवच्छित्तये अभिधानप्रसङ्गः / तन्न सौगतपरिकल्पितं पक्षधर्मत्वादिरूपत्रयं 15 हेतोर्लक्षणं युक्तम् / सिद्धिः क्षणक्षये ॥"-तत्त्वार्थश्लो०पू० 201-202 / "सपक्षे सत्त्वरहितस्य च श्रावणत्वादेः शब्दा• नित्यत्वे साध्ये गमकत्वप्रतीतेः।" -प्रमेयक० 10 355 / स्या०र० 10519 / (1) “पक्षीकृत एव साधनस्य साध्येन व्याप्तिरन्ताप्तिः, अन्यत्र तु बहिर्व्याप्तिः। यथा अनेकान्तात्मकं वस्तु सत्त्वस्य तथैवोपपत्तेः, अग्निमानयं देशो धूमवत्त्वात्, य एवं स एवं यथा पाकस्थानम् ।”-प्रमाणनय० 336 / (2) सत्त्वस्य श्रावणत्वस्य वा। (3) अन्तर्व्याप्तेरेव / (4) तुलना"साध्याभावे विपक्षे तु योऽसत्त्वस्यैव निश्चयः / सोऽविनाभाव एवास्तु हेतो रूपात्तथाह च॥"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 203 / प्रमेयक० पृ० 356 / स्या० र० पृ० 521 // (5) विपक्षासत्त्वमेव / (6) तुलना"अन्तर्व्याप्तिलक्षणस्य तथोपपत्तिरूपस्यान्वयस्य सद्भावादन्यथानुपपत्तिरूपव्यतिरेकवत्।"-प्रमेयक०० 356 / स्या० र० पृ० 520 / (7) तथा साध्ये सत्येव उपपत्तिः साधनस्य / (8) अन्यथा साध्याभावे अनुपपत्तिः अभावः सांधनस्य / (9) शब्दादीनामपि द्रव्यार्थतया नित्यत्वाभ्युपगमात् / (10) पृ० 438 पं० 12 / (11) तुलना-"हेतोरन्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयादेव दोषत्रयपरिहारसिद्धेः, स्वयमसिद्धस्य अन्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयासंभवात् अनैकान्तिकविपरीतार्थवत् / तस्य तथोपपत्तिनियमनिश्चयरूपत्वात् / तस्य च असिद्ध व्यभिचारिणि विरुद्धे च हेतावसंभावनीयत्वात्।"-प्रमाणप० पृ० 72 // तत्त्वार्थश्लो० पृ० 203 / प्रमेयक० पृ० 354 / स्या०र० पृ० 521 / प्रमेयर० 3 / 15 / प्रमाणमी० पृ०४०। (12) हेतो:-आ० टि.. (13) असिद्धादीनाम् अविनाभावशून्यत्वे सत्यपि / तुलना-"रूपत्रयस्य सद्भावात्तत्र तद्वचनं यदि / निश्चितत्वस्वरूपस्य चतुर्थस्य वचो न किम् // त्रिषु रूपेषु चेद्रूपं निश्चितत्वं न साधने / नाज्ञातासिद्धता हेतो रूपं स्यात्तद्विपर्ययः // " -तत्त्वार्थश्लो० पृ० 203 / प्रमाणप० पृ०७२ / स्या० र० पृ० 521 // (14) अज्ञातः सन्नसिद्धः तद्भावस्तत्ता-आ० टि०। ___ 1 लक्षणमलं ब० / 2 सपक्षसत्त्वा-ब०। 3-कत्ववत् श्र०। 4-हारप्रसि-श्र०, ब०। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० नापि यौगोपकल्पितं पश्चरूपत्वम् ; पक्षधर्मत्वादिरूपत्रयस्य प्रागेव प्रत्याख्यातत्वात् , ' परिकल्पितस्य साध्याऽविनाभावव्यतिरेकेणाऽपरस्य अबाधितविषयत्वादेरप्यसंभवात् , पाश्वरूप्यस्य प्रतिवि- अतस्तदेवं प्रधानं हेतोर्लक्षणमस्तु किं पञ्चरूपकल्पनया ? नहि धानम्- 'अनुष्णोऽग्निर्द्रव्यत्वात् जलवत्' इत्यादावपि अविनाभावाभावादन्यद् 5 बाधितविषयत्वं नाम प्रतीयते; बाधितविषयत्व-अविनाभावयोः विरोधात् / साध्यसद्भाव एव हेतोः धर्मिणि सद्भावः अविनाभावः, तदभावे एव च तंत्र तत्संभवो विषयबाधेति / __ किञ्च, अबाधितविषयत्वं निश्चितम् , अनिश्चितं वा हेतोर्लक्षणं स्यात् ? न... तावदनिश्चितम् ; अतिप्रसङ्गात् , अज्ञायमानस्य ज्ञापकहेत्वनङ्गत्वाच्च / नापि निश्चितम् ; तैनिश्चयनिबन्धनाऽसंभवात् / तन्निबन्धनं हि अनुपलम्भः, संवादः, अन्यद्वा किश्चित् ? 10 तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः; सर्वात्मसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्य असिद्धाऽनैकान्तिकत्वात् / (1) "तत्र परोक्षोऽर्थो लिङ्गयते गम्यतेऽनेनेति लिङ्गम् , तच्च पञ्चलक्षणम् / कानि पुनः पञ्चलक्षणानि? पक्षधर्मत्वं सपक्षधर्मत्वं विपक्षाद्वयावृत्तिरबाधितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वञ्चेति / सिसाधयिषितधर्मविशिष्टो धर्मी पक्षः, तद्धर्मत्वं तदाश्रितत्वमित्यर्थः। साध्यधर्मयोगेन निातं धर्म्यन्तरं सपक्षः तत्रास्तित्वम्। साध्यधर्मसंस्पर्शशून्यो धर्मी विपक्षः ततो व्यावृत्तिः / अनुमेयस्यार्थस्य प्रत्यक्षेणागमेन वाऽनपहरणमबाधितविषयत्वम् / संशयबीजभूतेनार्थेन प्रत्यनुमानतया प्रयुज्यमानेनानुपहतत्वमसत्प्रतिपक्षत्वम् / एतैः पञ्चभिर्लक्षणैरुपपन्नं लिङ्गमनुमापकं भवति ।"-न्यायमं० पृ० 170 / न्यायकलि० पृ०२ / न्यायसा० पृ०६ / “पञ्चसु वा चतुर्पु वा रूपेषु हेतोरविनाभावः परिसमाप्यते तस्मादबाधितत्वासत्प्रतिपक्षितत्वरूपद्वयसंसूचनाय निगमनमिति...."-न्यायवा० ता० पृ० 302 / “अतश्चानयोः (कालात्ययापदिष्टप्रकरणसमयोः) व्यवच्छदार्थमबाधितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वं च समानतन्त्रगतमभ्यू ह्यम् चशब्दस्यानुक्तसमु-: च्चयार्थत्वात्।” -प्रश० व्यो० पृ० 565 / (2) तुलना-" साघ्याविनाभावित्वब्यतिरेकेणापरस्य अबाधितविषयत्वादेरसंभवात्"-प्रमेयक० पृ० 357 / (3) अविनाभावित्वमेव / (4) तुलना-" अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पञ्चभिः कृतम् / नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पञ्चभिः कृतम् ॥"-प्रमाणप० पू० 72 / स्या० र० पृ० 527 / (5) तुलना-"बाधाया अविनाभावस्य च विरोधादति / तथाहि-सत्यप्यविनाभावे यथोक्ते बाधासम्भवं मन्यमानैरबाधितविषयत्वं रूपान्तरमच्यते, सा चेयं तत्सम्भावना न संभवति बाधाया अविनाभावेन विरोधात् सहानवस्थानलक्षणात् / तमेव विरोधं साधयन्नाह-अविनाभावो हि इत्यादि / सत्येव हि साध्यधर्मे भावो हेतोरविनाभाव उच्यते, प्रमाणबाधा तु तस्मिन्नसति / यदि हि सत्येव तस्मिंस्तदभावविषयं प्रमाणं प्रवर्तेत तदास्य भान्तत्वादप्रमाणतैव स्यादिति कुतो बाधा ? ततः स हेतुस्तल्लक्षणः साध्याविनाभावी मिणि स्यात् अत्रच साध्यधर्म: कथन्न भवेत् यतो बाधावकाशः स्यात् / तस्मादविनाभावस्य प्रमाणबाधायाश्च सहानवस्थानम्, अविनाभावेनोपस्थापितस्य च तदभावस्य परस्परपरिहारस्थितिलक्षणतया विरोधेन एकत्र धर्मिण्यसंभवादिति ।"-हेतुबि० टी० पृ० 195 B. / वादन्यायटी० पृ० 138 / न्यायमं० पृ० 448 / प्रमेयक० पृ. 357 / प्रमाणमी० प०४१। (6) साध्याभाव एव / (7) मिणि विपक्षे। (8) हेतसम्भवः / (9) तुलना"किञ्चाबाधितविषयत्वं निश्चितमनिश्चितं वा हेतोर्लक्षणं स्यात् ?"-प्रमेयक० पृ० 358 / (10) अबाधितविषयत्वनिश्चय। (11) तुलना-"तन्निबन्धनं ह्यनुपलम्भः, संवादो वा स्यात् / " -प्रमेयक० पृ० 358 / (12) तुलना-“सर्वादृष्टिश्च सन्दिग्धा स्वादृष्टिर्व्यभिचारिणी / विन्ध्याद्रिरन्धर्वादेरदृष्टावापि सत्त्वतः ॥"-तत्त्वसं० पृ० 65 / "."स्वसर्वानुपलम्भयोः / आरेका 1-वावपिविनाभावादन्यद् आ०, -दावविनाभावाभावादन्यद् श्र० / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 12 ] पाश्चरूप्यनिरास: द्वितीयविकल्पोप्यनुपपन्नः; प्रागनुमानप्रवृत्तेः संवादस्याऽसिद्धत्वात् / तदुत्तरकालं तेत्सिद्धयभ्युपगमे त्वन्योन्याश्रयः; तथाहि-अनुमानात् प्रवृत्तौ संवादसिद्धिः; ततश्च अबाधितविषयत्वसिद्धेरनुमानप्रवृत्तिरिति / अथान्यत् किश्चित् ; तत् किं तद्विषयं प्रमाणान्तरम् , अविनाभावावगमो वा ? तत्र पँमाणान्तरात् कुतश्चिदबाधितविषयत्वावगमे हेतोरकिश्चित्करत्वं साध्यस्यापि अंत एवावगमात् / न ह्यसति साध्यसद्भावा- 5 वगमे तद्वाधाविरहो निश्चेतुं शक्यः / अथाविनाभावावगमात् तद॑वगमः; तन्न; पञ्चरूपयोगिनि हेतावविनाभावपरिसमाप्तिवादिनाम् अबाधितविषयत्वस्याऽनवगमे अविनाभावाऽवगमस्यैवाऽसंभवात् / ततोऽबाधितविषयत्वस्याऽसिद्धेः न तद्धतोर्लक्षणं युक्तम् / ___नाप्यसत्प्रतिपक्षत्वम् ; यतः प्रतिपक्षः तुल्यबलः, अतुल्यबलो वा सत्त्वेन प्रतिषिध्येत ? तुल्यबलत्वे बाध्यबाधकभावानुपपत्तिः। ययोस्तुल्यबलत्वं न तयोर्बाध्यबा- 10 धकभावः यथा राज्ञोः, तुल्यबलत्वञ्च पक्षप्रतिपक्षयोरिति / अतुल्यबलत्वं तु अनयोः किंकृतम्-पक्षधर्मत्वादिभावाभावकृतम् , अनुमानबाधाजनितं वा ? न तावत् प्रथमपक्षो युक्तः; पक्षधर्मत्वादेरुभयोरप्यविशेषात् / नहि मूर्खत्वे साध्ये तत्पुत्रत्वादेः पक्षधर्मत्वादिकं न संभवति, शास्त्रव्याख्यानलिङ्गस्यैव वा संभवति / द्वितीयपक्षोऽप्यसंभाव्यः; अनुमानबाधाया अद्याप्यसिद्धेः / नहि द्वयोः पक्षधर्मत्वाद्यविशेष एकस्य बाध्यत्वम् 15 अपरस्य च बाधकत्वं युक्तम् , अविशेषेणैव तत्प्रसङ्गात् / अन्योन्याश्रयश्च; सिद्धते ..."-न्यायवि० का०४०६ / तत्त्वार्थश्लो० 10 13 / सन्मति० टो०१०१८ / आत्मतत्त्ववि० * पृ० 94 / तर्कभा० मो० लि. पृ०२२ / न्यायली० पृ० 22 / सर्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्य सर्वज्ञत्वमन्तरेण ज्ञातुमशक्यत्वादसिद्धत्वम् , आत्मसम्बन्धिनोऽपलम्भस्तु परचेतोवृत्तिविशेषादिना व्यभिचारी। (1) अनुमानप्रवृत्त्यनन्तरम् / (2) संवादसिद्धिस्वीकारे। (3) अर्थक्रियायां सत्याम् अर्थक्रियास्थितिलक्षण: संवादः सिद्धयति / (4) तुलना-"तद्वाधाभावनिर्णीतिः सिद्धा चेत्साधनेन किम / यथैव हेतोविषयस्य बाधासद्भावनिश्चये ॥"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 205 / “तदाप्यकिञ्चित्करत्वं हेतोः; यथैव हि हेतोविषयस्य बाधासद्भावनिश्चये तत्साधनासमर्थत्वादकिञ्चत्करत्वं तथैव बाधाविरहनिश्चये कूतश्चित्तस्य सद्भावसिद्धेस्तत्साधनाय प्रवर्तमानस्य सिद्धसाधनादपि इति ।"-स्या०र०प० 526 / (5) प्रमाणान्तरादेव / (6) अबाधितविषयत्वावगमः-आ० टि०। (7) यौगानाम्-आ० टि० / "एतेषु पञ्चसु लक्षणेष्वविनाभावः समाप्यते"-न्यायकलि० पृ०२। (8) तुलना-"यतः प्रतिपक्षस्तल्यबलोऽतल्यबलो वा सन् स्यात् ।”-प्रमेयक० पृ० 359 / स्या० 2010 527 / "अत आह तुल्ये लक्षणे हि इत्यादि / शङ्कचमानप्रतिहेतुना तुल्यं लक्षणं दर्शनादर्शनमात्रनिमित्ताविनाभावरूपं यस्य तस्मिन, दृष्ट: प्रतियोगिनः प्रतिहेतोधिकस्य संभवः स येषामपि तत्तुल्यलक्षणानां प्रतियोगी न दश्यते * तेष्वपि शंकां प्रतिहेतुसम्भवविषयामुत्पादयति / किं कारणम् ? अदृष्टप्रतियोगिनो दृष्टप्रतियोगिनो विशेषाभावात्। न हि तस्येतरेण कश्चिद्विशेषोऽस्ति यतस्तत्संभवो न शंक्येत / अथ विशेषः प्रतिबन्धलक्षणोऽविनाभावनिश्चायको दृष्टप्रतिहेतोरदृष्टप्रतियोगिन इष्यते, यतः प्रतियोगिसंभवाशंकास्तमपैति तदा सति वा विशेषे स विशेषो हेतोर्लक्षणम्।"-हेतु बि० टी० पृ० 204 A. / (9) अमूर्योऽयं शास्त्रव्याख्यानादित्यस्यापि संभवात्-आ० टि०। (10) बाध्यत्वस्य बाधकत्वस्य वा। 1 विनिश्चेतुब० // 2-त्वानवगमे ब० // 3 पक्षयोरिति ब० / Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० तथाहि-अतुल्यबलत्वे अनुमानबाधा, तस्याश्च अतुल्यबलत्वमिति / ततः सूक्तम्यथोक्ताल्लिङ्गात् लिङ्गिधीः अनुमानमिति / ___ ननु चास्य निष्फलत्वात् किं तत्स्वरूपनिरूपणप्रयासेन ? फलवता हि प्रमाणेन भवितव्यम् नान्येन अतिप्रसङ्गात्, इत्याशङ्कापनोदार्थं 'तत्फलम्' इत्याद्याह / तस्य अनुमानस्य फलं हानम् आदिर्यस्य उपादानानादेः तस्य बुद्धयः। ननु न किञ्चिद् वास्तवं प्रमाणमस्ति नापि तत्फलम् अन्यत्राऽविद्यावासनाविशेषात् ; इत्यप्यविचारितरमणीयम् ; तदुभयसद्भावस्य वास्तवस्य 'पूर्वपूर्वप्रमाणत्वं फलं स्यादुत्तरोस्तरम्' [ लघी० का० 7 ] इत्यत्र प्रपञ्चतः प्ररूपितत्वात् / अत्र सौगतः प्राह-यदुक्तं 'साध्याविनाभाव' इत्यादि; तत्सूक्तम् ; अविनाभा10 अविनाभावस्य तादा- वबलेनैव सर्वत्र हेतोः गमकत्वप्रतीतेः, स त्वविनाभावः तादात्म्यतदु त्म्यतदुत्पत्तिभ्यामेव त्पत्तिनियतत्वात् कार्यस्वभावहेतावेव अवतिष्ठते / तदात्म्येन हि नियतत्वात् कार्यस्व- स्वभावहेतोः अविनाभावः परिसमाप्यते, तदुत्पत्त्या तु कार्यहेतोः / .. भावहेतावेव तत्संभा- न च अन्यल्लिङ्गमस्ति, अनुपलब्धेरपि स्वभावहेतौ अन्तर्भावात् / वनेति बौद्धस्य पूर्वपक्षः घटायभावो हि घटादिविविक्तभूतलादिस्वभावः, तँदनुपलब्धिश्च 15 तँद्विविक्तभूतलादिस्वभावोपलब्धिः / तत्प्रतिपत्तिश्च ऊहज्ञानात् ; इत्यपि श्रद्धामात्रम् ; कार्यहेतोरविनाभावस्य प्रत्यक्षा (1) अनुमानस्य / (2) काकदन्तादीनामपि निरूपणप्रसङ्गात् / (3) पृ० 208 / (4) “स च प्रतिबन्धः साध्येऽर्थे लिङ्गस्य वस्तुतस्तादात्म्यात् साध्यादर्थादुत्पत्तेश्च / अतत्स्वभावस्यातदुत्पत्तेश्च तत्राप्रतिबद्धस्वभावत्वात् / ते च तादात्म्यतदुत्पत्ती स्वभावकार्ययोरेवेति ताभ्यामेब वस्तुसिद्धिः ।"न्यायबि० पू० 40-42 / कार्यकारणाभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् / अविनाभावनियमो दर्शनान्नादर्शनात् // यत् एवं प्रतिबन्धवशाद् गमकत्वात्तस्मात् कार्यकारणभावाद्वा नियामकात् साध्यसाधनयोरव्यभिचारसाधकात् स्वभावाद्वा तादात्म्यलक्षणान्नियामकात् कार्यस्य स्वभावस्य च लिंगस्याविनाभाव: साध्यधर्म विना न भाव इत्यर्थः”-प्रमाणवा० स्ववृ० टी०११३३ / हेतुबि० टी० पृ०६ B. / “यत्तादात्म्यतदुत्पत्त्या सम्बन्धं परिनिश्चितम् / तदेव साधनं प्राहुः सिद्धये न्यायवादिनः ॥"-तत्त्वसं०१० 429 / (5) "इमे सर्वे कार्यानुपलब्ध्यादयो दशानुपलब्धिप्रयोगाः स्वभावानुपलब्धौ संग्रहमुपयान्ति"-न्यायबि० पृ० 55 / “अनुपलब्धेस्तु स्वभावेऽन्तर्भावः ।"-तत्त्वसं० पं० पृ० 431 / “स्वभावानुपलब्धिस्तु स्वभावहेतावन्तर्भावितेति तस्याः तादात्म्यलक्षण एवं प्रतिबन्धः / व्यापककारणानुपलब्धी तु तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धवशादेव व्याप्यव्यापकयोनिवृत्ति साधयतः ।"-हेतुबि० टी० 107 A.1 (6) “यस्मादेकज्ञानसंसर्गिणोः प्रत्यक्षेण एकस्य ग्रहणमेव अन्यस्याग्रहणम्, तदग्रहणमेव च तस्याभावग्रहणम्, भावे हि तस्याग्रहणायोगात् / यदाह-अन्यहेतुसाकल्ये तदव्यभिचाराच्चोपलम्भः सत्ता, तदभावोऽनुपलब्धिरसत्ता, अन्योपलब्धिश्चानुपलब्धिरिति ।”-प्रमाण वा० स्ववृ० टी० 115 / (7) घटानुपलब्धिः। (8) घटरहित / (9) अविनाभावप्रतिपत्तिश्च / (10) तुलना-त्यायकु० पृ० 12 टि० 3 / “यस्तु अग्निधूमव्यतिरिक्तदेशे प्रथमं धूमस्यानुपलम्भ एकः, तदनन्तरमग्नेरुपलम्भः ततो धूमस्येत्युपलम्भद्वयम्, पश्चादग्नेरनुपलम्भोऽनन्तरं धूमस्याप्यनुपलम्भ इति द्वावनुपलम्भाविति प्रत्यक्षानुपलम्भपञ्चकाद् व्या 1-पप्ररूपण-ब० / 2 साध्याविनाभावबलेनैव आ०। 3 तदसूक्तम् श्र०। 4 कार्यहेतोः स्वभावथ०, कार्यसद्भावहे-ब०।-त्या का-ब०। 6-लब्धः आ०। 7इत्याद्यपि ब०। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 12 ] अविनाभावविचारः 10 नुपलम्भपञ्चकेन प्रतिपत्तेः / तथाहि-अग्निधूमव्यतिरिक्तेषु उपलभ्यमानेष्वपि भूतलाद्यर्थेषु प्रथमम् अग्निधूमयोरनुपलम्भः एकः, अनन्तरम् अग्नेरुपलम्भः ततो धूमस्य इत्युपलम्भद्वयम् , पश्चादग्नेरनुपलम्भोऽनन्तरं धूमस्याप्यनुपलम्भः इति द्वावनुपलम्भौ, इति प्रत्यक्षानुपलम्भपञ्चकेन एकस्यामपि व्यक्तौ कार्यकारणभावावगमो भवति अग्नेः कार्य धूमः / यश्च यत्कार्यः स तेन नियतः। यदि तेन नियतो न स्यात् तर्हि / निरपेक्षत्वात् नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा स्यात् / यश्च नियतः स नियामकवान् , तदभावे स्वातन्त्र्यात् नित्यं सत्त्वासक्त्वयोः पुनः प्रसङ्गः स्यात् / ततश्चायमर्थः सम्पन्नः-यो यस्मादुत्पद्यमानः सकृदप्युपलब्धः स तस्मादेवं नान्यस्मात् , अहेतोस्तदुत्पत्तौ सर्वस्मात् सर्वस्योत्पत्तिः, इति प्रत्यक्षानुपलम्भपञ्चकेन स्वभावहेतुद्वयेन च कार्यहेतोः सार्वत्रिकी व्याप्तिः प्रतीयते। ___ स्वभावहेतोस्तु विपक्षे बाधकप्रमाणेन, यथा सत्त्वस्य क्षणिकत्वेन / तथाहिअर्थक्रियाकारित्वलक्षणं सत्त्वम्, अर्थक्रिया च क्रमयोगपद्याभ्यां व्याप्ता, ते चाऽक्षणिकान्निवर्त्तमाने स्वव्याप्यामर्थक्रियामादाय निवर्त्तते, सौ च सत्त्वम् / कस्मात् पुनः अक्षणिकात् क्रमयोगपद्ययोर्ध्यावृत्तिरिति चेत् ? नानारूपत्वात् / कौलतः पौर्वापर्य हि क्रमः तद्विपरीतं यौगपद्यम् , इत्थश्च ते नानारूपे, अक्षणिकत्वञ्च एकरूपता, एकरूपता- 15 नानारूपते च एकाश्रिते विरुद्धे, अत: अक्षणिकान्निवर्तमान सत्त्वं क्षणिक एव अवतिष्ठते प्रकारान्तरासंभवात् / नहि क्षणिकाऽक्षणिकव्यतिरिक्तस्तृतीयः प्रकारोऽस्ति यतस्तत्र अस्य वृत्तिराशयेत / प्तिग्रह इत्येषां सिद्धान्तः / तदुक्तम्-"धूमाधीर्वह्निविज्ञानं धूमज्ञानमधीस्तस्योः / प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यामिति पञ्चभिरन्वयः ॥"-जैमतकंभा० पृ० 11 / “प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनः कार्यकारणभावः / " -हेतुबि०पृ० 53 B. / (1) उपलम्भ इति शेषः। (2) धूमोऽग्निनियतः तत्कार्यत्वात् इति। (3) अग्निना। (4) "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात् / अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसंभवः ॥"-प्रमाणवा० 236 / (5) धूमोऽग्निनियामकः अग्निकार्यत्वेन तन्नियतत्वात् / (6) उत्पद्यते इति शेषः / (7) आसन्नोक्त-नियतत्वनियामकत्वरूपेण-आ० टि० / पूर्वोक्तं नियतत्वनियामकत्वलक्षणं हेतुद्वयम् / (6) "सन् शब्दः कृतको वा, यश्चैवं य सर्वोऽनित्यः यथा घटादिरिति। अत्र व्याप्तिसाधनं विपर्यये बाधकप्रमाणोपदर्शनम् / यदि न सर्वं सत् कृतकं वा प्रतिक्षणविनाशि स्यादक्षणिकस्य क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाऽयोगादर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणमतो निवृत्तमित्यसदेव स्यात् / सर्वसामोपाख्याविरहलक्षणं हि निरुपाख्यमिति ।"-वादन्याय पृ० 7 // तत्त्वसं० पृ० 143 / हेतुवि० टी० पृ० 143 A. I क्षणभंगसि० पृ० 20 / न्यायकु० पृ०८ टि०१। (9) क्रमयोगपद्ये / (10) अर्थक्रिया। (11) "क्रमो नाम परिपाटि: कार्यान्तरासाहित्यं कैवल्यमङकुरादेः / यौगपद्यमपि तस्यापरैर्बीजादिकायँ: साहित्यं प्रकारान्तरञ्चाङकुरादेः, तदुभयावस्थाविरहेऽप्यन्यथाभवनम् ..."-हेतुबि० टी० पृ० 143 B. / (12) ' तृतीये क्षणिकाक्षणिकबहिर्भूते प्रकारान्तरे। (13) सत्त्वस्य / 1-पलम्भाऽनन्त-आ०, श्र०12-योगपद्यव्या-ब०।-कता चैक-ब०। 4 'एकरूपता नास्ति आ०, श्र०। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० अनुपलब्धिः पुनः सर्वा स्वभावानुपलब्धौ अन्तर्भवति / स्वभावानुपलब्धिश्च स्वभावहेतुः, तस्य च तादात्म्यमेव प्रतिबन्धः / अतोऽस्या न पृथक् प्रतिबन्धचिन्ता इति। अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-‘अविनाभावस्तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यां नियतः' .. इत्यादि; तदसमीक्षिताभिधानम् ; नैहि तादात्म्यम् अविनाभावनिय। तत्प्रतिविधानपुरस्सरं तादात्म्यतदुत्पत्त्यभा मनिमित्तम् ; तस्मिन् सति भेदाभावेन सम्बन्धाभावे अविनाभावानुपवेऽपि अविनाभाव- पत्तेः, भेदाधिष्ठानत्वात् सम्बन्धस्य / न चानंशार्थवादिनः तादात्म्यसम्भावनातः कृत्ति- भेदौ मनागपि उपपद्य (घ) ते / तादात्म्यं हि तत्स्वभावता, तेन साध्येन कोदयादिहतूनां गम- साधनस्यैक्यम् , न चैक्ये भेदः संभवति, भेदे वा नैक्यम् , अतः करवा कथं तदात्मतया शिंशपा वृक्षं गमयेत् ? तादात्म्येन च गमकत्वे 10 हेतुग्रहणवेलायामेव तदव्यतिरेकितया साध्यस्य प्रतिपन्नत्वात् नानुमानस्य साफल्यम् / न ह्यगृहीतं लिङ्गं लिङ्गिविषयां धियमाधत्ते / गृहीतौ च यदि लिङ्गप्रतीतौ न लिङ्गी प्रतिभासेत् तदा कथं तयोस्तादात्म्यम् ? प्रतिभांसे तु सिद्धमनुमानस्य वफल्यम् , प्रेति- . . ज्ञार्थैकदेशता च हेतोः। विपरीतसमारोपव्यवच्छेदार्थत्वात्तस्य साफल्यश्चेत् ; ननु तत्स्व (1) पृ० 444 पं० 10 / (2) तुलना-“तथा वृक्षत्वशिशपात्वयोर्न * तादात्म्यप्रतिबन्धः साध्यसाधनभावानुपपत्तिप्रसंगात्। तथाहि-धर्मिण्युपलब्धे तत्तादात्म्यादुभयोरप्युपलम्भे कथं साध्यसाधनभावः ।"-प्रश० व्यो० पृ० 571 / "अपि च तादात्म्ये कथं गम्यगमकभावः, न हि तदेव कर्म कर्त चेति युक्तम्, तस्य भेदाश्रयत्वात् ।"-न्यायवा० ता० पृ० 163 / “न च तादात्म्ये गम्यगमकता घटते एकस्य सकृज्ज्ञातत्वाज्ञातत्वायोगात्।"-बृह० पं० पृ० 95 / “तादात्म्ये च यदनुमानं तदपि न साधीयः, सिद्धं हि लिङ्गं साध्यं लैङ्गिकम्, न सिद्धस्य साध्यस्य च तादात्म्यमुपपद्यते / " -प्रक० पं० पृ० 67 / "न च तादात्म्ये गम्यगमकभावव्यवस्था युक्ता, तस्या भेदाश्रयत्वात्। यदि शिंशपात्वे गृह्यमाणे वृक्षमगृहीतं क्व तादात्म्यम् ? गृहीतं चेत् क्वानुमानम् ?"-प्रश० कन्द० पृ० 207 / “अपि च यदि तादात्म्यं गमकत्वांगमिष्यते तदा साध्यसाधनयोर्भेदाभावेन सम्बन्धाभावादविनाभावानुपपत्तिः" -स्या० 2010 533 / (3) सौगतस्य / (4) तुलना-"तादात्म्ये तावद् गमकत्वाने हेतुसाध्ययोरव्यतिरेके गम्यगमकभाव एव दुरुपपादः / न खल्वगृहीतं लिङ्गं लिङ्गिप्रतीतिमाधातुमर्हति / तत्र लिङ्गबुद्धौ लिङ्गं (लिङ्गी ) प्रतिभासते न वा ? अप्रतिभासे तबुद्ध्या तदग्रहणात् कथं तस्य तदात्मकत्वम् / प्रतिभासे तू लिङ्गवत् प्रत्यक्ष एव सोऽर्थः इति किमनुमानेन ? "-ज्यायमं० 10 113 / “तादाम्येन च गमकत्वे हेतूप्रतिपत्तिवेलायामेव साध्यस्यापि प्रतिपन्नत्वान्नानुमानस्य साफल्यम् ।"-स्या० 2010 353 / (5) हेतूतादात्म्येन अभिन्नत्वात् / (6) गृहीतिशब्दस्य सप्तम्येकवचनम् / लिङ्गग्रहणे सत्यपि, चशब्दस्य अप्यर्थकत्वात् / (7) लिङ्गलिङ्गिनोः / (8) लिङ्गप्रतीतौ साध्यस्य प्रतिभासे। (9) साध्यसाधनयोः वृक्षत्वशिंशपात्वयोः तादात्म्ये हि प्रतिज्ञैकदेशभूतं यत् वृक्षत्वं साध्यं तत्तादात्म्यापन्नं शिशपात्वमेव च हेतुः इति साध्यस्य असिद्धत्वात् हेतोरप्यसिद्धत्वमिति भावः / (10) तुलना-“विपरीतसमारोपव्यवच्छेदादार्थमनुमानमिति चेत्न; तत्स्वरूपग्रहणे विपरीतारोपणावसराभावात् / न हि शिरःपाण्यादिविशेषदर्शने सति स्थाणुसमारोपः प्रवर्तते, तत्र तद्भेदादुपपद्येतापि, न हि शिरःपाण्यादय एव पुरुष इति, तद्ग्रहणेऽप्यपुरुषारोप: कामं भवेत्, इह वृक्षत्वशिंशपात्वयोरभेदात् शिंशपात्वग्रहणे सति का कथा वृक्षतरसमारोपस्य ।"-न्यायमं० 10 113 / स्या० र० पृ० 535 / (11) शिशपात्वसत्त्वादेर्हेतोः -आ० टि०। (12) हेतुस्वरूपे / Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 12 ] अविनाभावविचारः 447 रूपे प्रतिपन्ने, अप्रतिपन्ने वा विपरीतसमारोप: स्यात् ? तत्र प्रतिपन्ने कोऽवसरो विपरीतसमारोपस्य ? न हि शिरःपाण्यादिविशेषोपलम्भे स्थाणुसमारोपः समाविशति / तत्स्वरूपेऽप्रतिपन्ने तु का कथा विपरीतसमारोपस्य ? किञ्च, वृक्षत्वग्रहणे सति सामान्यग्रहणाद् विशेषाग्रहणात् स्यात् कदाचिदशिंशपात्वसमारोपः, नतु शिंशपात्वग्रहणे सति अवृक्षत्वसमारोपः। शिशपात्वं हि यस्य प्रत्यक्षं / वृक्षत्वं न तस्याऽप्रत्यक्षम् / . किञ्च, साध्यसाधनयोरव्यतिरेके यथा शिंशपात्वेन वृक्षत्वमनुमीयते, तथा वृक्षत्वेनापि किन्न शिंशपात्वं तादात्म्याऽविशेषात् ? अथ शिंशपात्वमेव वृक्षत्वे प्रतिबद्धं न वृक्षत्वं शिशपात्वे; न तर्हि तादात्म्याद् गमकत्वम् , अपितु अविनाभावादेव / तन्न तादात्म्ये अविनाभावस्य नियतत्वम् / नापि तदुत्पत्तौ; वैह्रथुत्पन्नेष्वपि धूमधर्मेषु श्यामत्वादिषु अविनाभावस्याऽनुपलब्धेः / न च सामान्ययोः कार्यकारणभावः किन्तु विशेषयोः, ययोश्चाऽनयोर्महानसादौ कार्यकारणभावोऽवगत: न तयोर्गम्यगमकभावः, ययोस्तु पर्वतस्थयोः गम्यगमकभावः न तयोः कार्यकारणभावोऽवगतः / न चानवगते तस्मिन् तयोरविनाभावो ग्रहीतुं शक्यः। 10 (1) शिंशपात्वलक्षणे हेतुस्वरूपे प्रपिपन्ने हि तदभेदाद् वृक्षत्वमपि प्रतीतमेवेति विपरीतस्य वृक्षत्वेतरत्वस्य आरोपः कथं स्यात् ? (2) "तुलना-अपि च वृक्षस्य ग्रहणे सति सामान्यधर्मग्रहणाद्विशेषानध्यवसायात् कदाचिदर्शिशपासमारोपः स्यान्न तु शिंशपात्वग्रहणे सति अवृक्षत्वसमारोपो युक्तः / प्रमातुः शिंशपात्वं हि यस्य प्रत्यक्षगोचरः। परोक्षं तस्य वृक्षत्वमिति नातीव लौकिकम् // " -न्यायमं० पृ०११४ / (3) तुलना-“तथोभयोस्तादात्म्याविशेषेऽपि शिंशपात्वेन वृक्षस्य प्रतिपत्तिवत् वृक्षत्वेन शिंशपात्वप्रतिपत्तिरपि स्यात् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 571 / “किञ्च साधसाधनयोरव्यतिरेकाद् यथा शिंशपात्वेन वृक्षत्वमनु मीयते तथा वृक्षत्वेनापि शिंशपात्वमनुमीयेत तादात्म्याविशेषात् / ततश्च सपक्षव्याप्त्यव्याप्तिभ्यां कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वयोर्यो भेद उक्त स हीयेत / ननु चान्यः सम्बन्धः अन्यश्च प्रतिबन्धः, द्विष्ठः सम्बन्धः, प्रतिबन्धस्तु परायत्तत्वलक्षणः / तत्र शिंशपात्वं वृक्षत्वे प्रतिबद्धं न वृक्षत्वं शिंशपात्वे, प्रयत्नानन्तरीयकत्वमपि अनित्यत्वे नियतं न त्वनित्यत्वं तत्रेति, तथा धूमस्याग्नौ प्रतिबन्धः न त्वग्नेधूमे; सत्यमेवम् ; किन्त्वेवमुच्यमाने नियम एवाङ्गीकृतो भवेन्न तादात्म्यम् / तादात्म्ये हि यथा शिशपा शिंशपां विना न दृश्यते तथा वृक्षत्वमपि शिंशपारहितं न दृश्येत, दृश्यते च खदिरादौ शिंशपारहितं वृक्षत्वम्, विद्युदादौ च प्रयत्नानन्तरीयकत्वरहितमनित्यत्वमुपलभ्यत इति कथमभेद: ? विना साधनधर्मेण साध्यधर्माऽयमस्ति हि। दृष्टस्तद्वयतिरेकेण तदात्मा चेति कैतवम् ॥"-न्यायमं० पृ० 114 / प्रक० 50 पृ० 67 / स्या० र० पृ० 535 / (4) तुलना-“कार्यहेतुरपि न संभवति, भवतां हि क्षणयोर्वा कार्यकारणभावो भवेत्, सन्तानयोर्वा ? यदि धूमः कार्यत्वादनलमनुमापयेत् कटुमलिनगगनगामित्वादिधर्मैरपि तस्य गमको भवेत् / न च कथञ्चित्तत्कार्यत्वं कथञ्चिदतत्कार्यत्वञ्च धूमस्योपपन्नम्; सर्वात्मकस्य तदन्वयव्यतिरेकानुविधायिप्रभवत्वात् ।”-न्यायमं० पृ० 116 / स्या० र० पृ० 535 / (5) कार्यकारणभूतयोः धूमाग्न्योः / (6) कार्यकारणभावे। (7) पर्वतस्थधूमाग्न्योः / 1 प्रत्यक्ष कथं वृक्षत्वं तस्याप्रत्यक्षत्वम् श्र०, ब०12-क्षत्वेन प्रति-श्र०।-पात्वेन न तहि श्र०। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० न च अगृहीतोऽसौ अनुमानाङ्गम् / तदानीं ग्रहणे तु हेतुप्रतिपत्तिसमय एक साध्यप्रतिपत्तेर्जातत्वात् किमनुमानेन ? तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्याम् अविनाभावप्रतिनियमे च कथं कृत्तिकोदय-शकटोदययोः चन्द्रोदय-समुद्रवृद्ध्योश्च गम्यगमकभावस्तत्र तादात्म्यतदुत्पत्त्योरभावात् / यदप्युक्तम्-‘अविनाभावस्य प्रत्यक्षानुपलम्भपश्चकेन प्रतिपत्तेः' इत्यादि; तदप्यसाम्प्रतम् ; प्रत्यक्षस्य अविकल्पकतया अनुपलम्भस्यापि अर्थान्तरोपलम्भस्वभावस्य तर्थांभूततया शतशोऽपि प्रवृत्तस्य व्याप्तिग्रहणे सामर्थ्यासंभवात् / नहि निर्विकल्पकम् 'इदमस्मिन् सत्येव भवति अतोऽन्यथा न भवत्येव' इत्येतावतो व्यापारान कर्त समर्थ सन्निहितविषयबलोत्पत्तेरविचारकत्वाच इत्युक्तमनन्तरमेव / नापि तंत्प्रभवो 10 विकल्पः; तस्य भवती प्रामाण्यानभ्युपगमात् / "व्यावृत्त्योलिङ्गालिङ्गित्वं प्रतिबन्धस्तु वस्तुनोः / विकल्पैर्ग्रहणं तस्य को ब्रूयात् सौगतात् परः // " [ न्यायमं० पृ० 117] .. यदपि-स्वभावहेतोर्विपक्षे बाधकप्रमाणेन व्याप्तिः प्रतीयते' इत्यायुक्तम् ; तदप्यु (1) अविनाभावः / (2) अनुमानप्रयोगकाले तु कार्यकारणयोः अविनाभावग्रहणे स्वीक्रियमाणे / (3) तुलना-“एवं सर्वत्र देशकालाविनाभूतमितरस्य लिङ्गम्, शास्त्रे कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थ कतं नावधारणार्थम्। कस्मात् ? व्यतिरेकदर्शनात् / तद्यथा अध्वर्युरोंश्रावयन् व्यवहितस्य होत्लिङ्गम, चन्द्रोदयः समुद्रवृद्धेः कुमुदविकाशस्य च, शरदि जलप्रसादोऽगस्त्योदयस्थेति / एवमादि तत्सर्वमस्येदमिति वचनात् सिद्धम् ।”-प्रश० भा० पृ० 562 / न्यायमं० पृ० 117 / “न च तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धाभ्युपगमे रूपदर्शनात् स्पर्शानुमानम्, उदयादस्तमयप्रतिपत्तिः, कृत्तिकोदयाच्च रोहिण्यनुमानं न स्यात् तादात्म्यतदुत्पत्त्यभावात् / " -प्रश० व्यो० पृ० 571 / “अपि च रसादन्यद्रूपं रससमानकालमनुमिमतेऽनुमातारः, न चानयोरस्ति कार्यकारणभावस्तादात्म्यं वा / ..."अपि चाद्यतनस्य सवितुरुदयस्य ह्यस्तनेन सवितुरुदयेन चन्द्रोदयस्य च समानकालस्य समुद्रवृद्ध्या मध्यनक्षत्रदृष्टया चाष्टमास्तमयोदयस्य न कार्यकारणभावस्तादात्म्यं वा, अथ च दृष्टो गम्यगमकभावः / " -न्यायवा० ता० पृ० 161-163 / प्रक० प० पू०६७ / प्रश० क० पृ० 209 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 199 / सन्मति० टी० 50 593 / स्या० 2010 536 / (4) कृत्तिकोदयादिहेतौ। (5) 50 444 पं० 16 / (6) अविकल्पतया-आ० टि०। (7) साध्याभावे / (8) पृ०४२७ पं०२। (9) निर्विकल्पकजन्यो विकल्पः / (10) सौगतेन / (11) तुलना-"अपि च-व्यावृत्त्योलिङ्गलि. ङ्गित्वं प्रतिबन्धश्च वस्तुनोः / विकल्पैर्ग्रहणं तस्य कथं सङ्गच्छतामिदम् // " -न्यायमं० पृ० 117 / "यो हि तादात्म्यतदुत्पत्तिस्वभावः प्रतिबन्ध इष्यते स किं वस्तुधर्मो विकल्पारोपिताकारधर्मो वा ? तत्र नायमारोपितधर्मो भवितुमर्हति, वस्तु वस्तुना जन्यते वस्तु च वस्तुस्वभावं भवेत् तस्माद्वस्तुधर्मः प्रतिबन्धः / विकल्पैश्च वस्तु न स्पृश्यते तत्प्रतिबन्धश्च निश्चीयत इति चित्रम् / इदञ्च स्वभाषितम् वस्तुनोः प्रतिबन्धस्तादात्म्यादि गम्यगमकत्वञ्च विकल्पारोपितयोरपोहयोः / तदेवमन्यत्र प्रतिबन्धः अन्यत्र तद्ग्रहणोपायः अन्यत्र प्रतीतिः अन्यत्र प्रवृत्तिप्राप्ती इति सर्व कैतवम् / / " -ज्यायमं० पृ०३४ / (12) प्रतिबन्धस्य अविनाभावरूपस्य। (13) पृ० 445 पं० 11 / 1-पत्तेति-श्र०। 2-वृद्धयोर्वा ग-ब०। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का०१२ ] अविनाभावविचारः 446 नम् क्तिमात्रम् ; यतो विपक्षे बाधकं प्रमाणं क्रमयोगपद्यानुपलम्भलक्षणमनुमानम् / अनुमानश्च सिद्धव्याप्तिकमेव स्वसाध्यसिद्धये प्रभवति नान्यथाऽतिप्रसङ्गात् / व्याप्तिश्च तत्रीप्यनुमानान्तरेण प्रतीयते, प्रथमानुमानेन वा ? अनुमानान्तरेण चेत् ; अनवस्था। प्रथमानुमानेन चेद्; अन्योन्याश्रयः / अतोऽनुमानमिच्छता भवता व्याप्तिग्राही तर्कः प्रमाणान्तरं प्रतिपत्तव्यः, प्रत्यक्षानुमानाभ्यां तद्हणानुपपत्तेः इति / ____एतदेवाह-'नहि' इत्यादि / तत् साध्यम् आत्मा यस्य तस्य भावः तादात्म्यम् , _ तस्मात् साध्याद् आत्मलाभः तदुत्पत्तिः, पुनरनयोः इतरेतरयोगविवृतिव्याख - लक्षणो द्वन्द्वः / ननु स्वन्तत्वात् तदुत्पत्तिशब्दस्य पूर्वनिपातः प्राप्नोति; तन्न; अस्य लक्षणेस्य लक्षणहेत्वोः क्रियायाः" [ जैनेन्द्रव्या० 2 / 2 / 104 ] इत्यनेन अनैकान्तिकत्वात् / ते तादात्म्यतदुत्पत्ती नहि नैव ज्ञातुं शक्यते। कथमित्याह-'विना' 10 इत्यादि / साध्याभावप्रकारेण अन्यथा या अनुपपत्तिः अघटना साधनस्य तस्याः सम्बन्धी ग्राहकत्वेन तर्कः तेन विना। तदेवं वृक्षत्वशिंशपात्वादौ तादात्म्यादेः सद्भावेऽपि अविनाभावबलेनैव शिंशपात्वादेरेव वृक्षादिकं प्रति गमकत्वम् न वृक्षवादेः शिंशपादिकं प्रति इति प्रतिपाद्य, इदानीं तदभावेऽपि तद्बलेनैव गमकत्वं प्रतिपादयन्नाह-'ताभ्याम्' इत्यादि। ताभ्यां तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यां विनैव एकलक्षणस्य अविनाभावस्य सिद्धिः निष्पत्तिः 15 निर्णीतिर्वा / एतदेव समर्थयमानः प्राह-'नहि' इत्यादि। 'हिर्यस्मात् न वृक्षादिः आदिशब्देन रसादिपरिग्रहः। छायादेः अत्रापि आदिशब्देन रूपादिस्वीकारः, स्वभावः वृक्षादिछायाद्योः देशादिविभेदात् , कार्य वा सहभावात् इत्यभिप्रायः / / न च आस्वाद्यमानात् रसात् वृक्षाच्च सामग्री अनुमीयते ततो रूपस्य छायायाश्चा__ (1) अनुमीयतेऽनेनेति अनुमानं हेतुः / (2) नित्यमर्थक्रियाशून्यं क्रमयोगपद्यानुपलम्भात् इत्यत्र। (3) व्याप्तिग्रहणानुपपत्तेः / (4) 'सु' इति संज्ञा जैनेन्द्रव्याकरणे पाणिनिव्याकरणस्य 'घि' संज्ञायाः स्थाने प्रयुज्यते। "द्वन्द्वे सुः / " 1 / 3 / 97 / द्वन्द्वे से स्वन्तं पूर्वं प्रयोक्तव्यम् ।"-जैनेन्द्रव्या। (5) 'द्वन्द्वे सुः' इति व्याकरणसूत्रस्य / (6) अत्र हि हेतुशब्दः स्वन्तस्तथापि नास्य पूर्वनिपातः / (7) तादात्म्यतदुत्पत्त्यभावेऽपि / (8) अविनाभावबलेनैव / (9) वृक्षादि छायादेर्न स्वभावः देशादिभेदात्, न च कार्य सहभावात् -आ० टि०। (10) “एकसामध्यधीनस्य रूपादेः रसतो गतिः / हेतधनिमानेन धूमेन्धनविकारवत् / / या च रसतो मधुरादिकात् रूपादेः, आदिशब्दात् गन्धस्य स्पर्शस्य च एकसामग्र्याधीनस्य रसादिना सह एकसामग्र्यायत्तस्य गतिः, सा कथमित्याह हेतुधर्मानमानेन रसकारणस्य धर्मो रसादिसहचररूपजनकत्वं तदनुमानेन रसाद् रूपादिगतिः। न हि कार्यं रस: कारणमन्तरेण, कारणञ्चास्य रससहकारिरूपजनकं पुञ्जात् पुजोत्पत्तेः / अतस्तस्मिन्ननुमितेऽनुमितमेव रूपम् धमेन्धनविकारवत् / धूमाद् हेतुधर्मानुमानेन इन्धनविकारस्य अङ्गारादेवूमसहचरस्यैव वानुमानम् ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 3 / 8 / “तेनायमर्थो रसात् सकाशात् तद्धेतो रससमानकालभाविरूपजनकत्वन्निश्चीयते, एवं हि तस्य रससमानकालभाविरूपजनकत्वं निश्चीयते। यदि समानकालभाविनो रूपस्यापि निश्चयः स्यात तेनातीतैककालानामेकैव गतिः कार्यलिङ्गजा।"-प्रमाणवा० स्ववृ०टी०३८ हेतुबि०टी०पू०५४ A.| ____ 1-लक्षणमनुमानञ्च सि-ब०। 2 च्यन्तत्वात् श्र०, स्वल्पान्तरत्वात ब०। 3-मित्याद्याह ब०। 4 वृक्षादेः ब० / / हि य-ब०। 6 देशादिभे-श्र०, ब०। 7 सामाग्यानु-ब०, सामग्यानु-श्र०। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयत्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० नुमानम् अनुमितानुमानात् ; इत्यप्यसत् ; तथा व्यवहाराभावात् / नहि आस्वाद्यमानाद् रसाद् व्यवहारी सामग्रीमनुमिनोति ; वर्तमानरूपादेरप्रतीतिप्रसङ्गात् / तथा च 'इदमाम्रफलम् एवंविधरूपम् एवंविधरसत्वात्' इत्यनुमानम् , पावकरूपदर्शनात् तत्समकालोष्णस्पर्शानुमानम् , तदैर्थिनः तत्र प्रवृत्तिश्च न प्राप्नोति / व्यवहारानुसारेण च भवेता प्रमाणचिन्ता प्रतन्यते "प्रामाण्यं व्यवहारेण" [प्रमाणवा० 2 / 5 ] इत्यभिधानात् / सामग्रीतो रूपानुमाने च कारणात् कार्यानुमानप्रसङ्गात् लिङ्गसंख्याव्याघात: स्यात्। ततः सिद्धम्अकार्यादस्वभावाच्च वृक्षादेः छायाद्यनुमानम् / तर्हि व्यभिचारोऽत्र भविष्यति इत्यत्राह'नच' इत्यादि / नच नैव वृक्षादेः छायाद्यनुमाने विसंवादो व्यभिचारोऽस्ति तत्प्राप्तिप्रतीतेः / अवार्थे दृष्टान्तान्तरमाह __ चन्द्रादेर्जलचन्द्रादिप्रतिपत्तिस्तथाऽनुमा // 13 // विवृतिः-न हि जलचन्द्रादेः चन्द्रादिः खभावः कार्य वा / चन्द्र आदिर्यस्य आदित्यादेः स तथोक्तः, तस्मात् , जलचन्द्र आदिर्यस्य कारिकावित्यो जलादित्यादेः सोऽपि तथोक्तः तस्य प्रतिपत्तिःतथा [अन्यथाऽ] नुप ___ व्याख्यानम्- त्तिप्रकारेण अनुमा अनुमानम्। जलचन्द्रादिना प्रतिपत्तिः चन्द्रादेरिति 15 वा व्याख्यातव्यम् / एतदेव व्याचष्टे 'नहि' इत्यादिना / 'नहि' नैव जलचन्द्रादेः (1) तुलना-“समानक्षणयोर्गम्यगमकभावोपलब्धेः; तथाहि-रूपक्षणात् समानकाल: स्पर्शोऽनुमीयते न पूर्वः, तत्र एकसामग्र्यधीनत्वासंभव एव / न च रूपस्पर्शयोः परस्परोत्पत्तौ कारणत्वे प्रमाणमस्ति इतरान्वयस्येतरत्रानुपलब्धेः।”-प्रश० व्यो० पृ० 571 / “लौकिकानाञ्चैतद्रसाद् रूपानुमानम् / न चैते पिशितचक्षुषः क्षणानामन्योन्यभेदमध्यवस्यन्ति / न चानध्यवस्यन्तः प्रवृत्तरूपोपादानसामर्थ्य रसहेतुमनुमातुमुत्सहन्ते ।"-न्यायवा० ता० पृ० 163 / “लोकस्येत्थमप्रतीते:, रूपमेव रसाल्लोकः प्रतिपद्यते / लौकिकी च प्रतीतिः परीक्षकरप्यनुसरणीया ।"-प्रक०५० पृ०६७। बृह० पं० पृ०९४। (2) न प्राप्नोतीत्यर्थः किन्तु इदमामफलमेवंविधसामग्रीकमिति प्राप्तिः-आ० टि०। (3) रूप-उष्णस्पर्शार्थिनः / (4) रूपादौ न प्रवृत्तिः प्राप्नोति किन्तु सामग्याम् –आ० टि० (5) सौगतेन / (6) तुलना-"तथा च रसात् कार्यात्तत्कारणं रूपमनुमातव्यं ततश्चानुमिताद्रूपात् कारणात् तत्कार्य रससमानकालं रूपमनुमातव्यं तथा च कारणात् कार्यानुमानं तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामन्यदिति नाभ्यामेव प्रतिबन्धसिद्धिः।" -ज्यायवा० ता० पृ०१६२। प्रक० पं० पृ० 67 / बृह० पं० पृ०९४ / “रसादेकसामग्यनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किञ्चित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबन्धकारणान्तरावैकल्ये।"-परीक्षाम० 3160 / सन्मति०टी०पू० 593 / प्रमाणनय० 3066 / प्रमाणमी० पृ०४३। (7) यदि सामग्री कारणं रूपादयस्तु कार्य तदा स्वभावलिङ्ग कार्यलिङ्गं कारणलिङ्गमिति त्रयप्रसक्ते:-आ० टि०। (8) "त्रीण्येव च लिङ्गानि / अनुपलब्धिः स्वभावकार्ये चेति।"-न्याय बि० पृ०३५। (9) कारणहेतुसमर्थनार्थम् / (10) "चन्द्र आदिर्यस्य आदित्यादेरसौ चन्द्रादिः तस्मात् कारणभूतात्, जले स्वच्छाम्भसि चन्द्रादेः चन्द्रादिप्रतिबिम्बस्य प्रतिपत्तिरवबोधोऽनुमा अनुमानमनुमन्तव्यमव्यभिचारात् / किंवत् ? तथा कार्यात्कारणप्रतिपत्तिवत् ।"-लघी० ता० पृ० 32 / तुलना-“चन्द्रादौ जलचन्द्रादि सोऽपि तत्र तथाविधः / छायादिपादपादौ च सोऽपि तत्र कदाचन ॥"-तत्त्वार्थश्लो. पृ० 201 / (11) जलप्रतिबिम्बितस्य चन्द्रादेः। (12) तादात्म्यतदुत्पत्त्यभावेऽपि-आ० टि० / 1 अनुमित्यनुमा-आ०, ब०। प्रतिपत्तिश्च ब०। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबिम्बं कि किन नटे प्रमाणप्र० का० 13 ] प्रतिबिम्बवादः 451 चन्द्रादिः स्वभावः कार्य वा, अथ च अत: तत्र अव्यभिचारिणी प्रतिपत्तिः प्रतीयते इति। ननु जलादौ न प्रतिबिम्ब नाम वस्त्वन्तरं संभवति, तत्संभवे बिम्बसन्निधानात् जलादौ न आदित्यादेः प्रागपि तत्रै तर्दुपलम्भप्रसङ्गात् / अथ बिम्बसन्निधान एव तदुत्पद्यते स्वदे- अतो न प्रागपि तत्प्रसङ्गः ; ननु तत्सन्निधाने गुणरूपम् , द्रव्यरूपं वा शस्थ एव आदित्यादिः तत्र प्रतिभासते इति प्रति तदुत्पद्येत ? न तावद् गुणरूपम् ; द्रव्यत्वेन प्रतिभासमानत्वात् / अथ / बिम्बाभाववादिनः कुमा- द्रव्यरूपम् ; तत्कि निरवयवद्रव्यरूपम् , सावयवद्रव्यरूपं वा ? रिलभट्टस्य पूर्वपक्षः- तत्राद्यः पक्षोऽनुपपन्नः; त अवयवप्रतिभासनात् / नापि सावयवम् ; जलादिस्पर्शात् पृथक् तेत्स्पर्टीपलम्भासम्भवात् / स्पर्शवन्तश्च परमाणवः स्पर्शवद्रव्यस्यारम्भका भवन्ति, तत्र चास्य किं जलादिपरमाणव एव आरम्भकाः, अन्ये वा ? न तावदन्ये; स्पर्शवदवयविदेशे तेषां तदारम्भ- 10 कत्वासंभवात् / अथ जलादिपरमाणव एव तदारम्भकाः; तन्न; जलमयत्वेन अस्याऽप्रतिभासनात् / जलरूपवैलक्षण्यप्रतीतेश्च, शुक्लं हि रूपं जलस्य, न च मुखादिप्रतिबिम्बे तैदैस्ति / न च बिम्बरूपमेव तदारम्भकमित्यभिधातव्यम् ; निमित्तकारणगतस्य पृथग्देशावस्थितस्य रूपस्य कार्यद्रव्यरूपानारम्भकत्वात् / द्वयोश्च सावयवयोः समानाकाशदेशत्वानुपपत्तिः / आश्रयद्रव्यस्य च आदर्शादेः परिमाणगौरवयोरुत्कर्षः स्यात् , नचैतदस्ति / 15 अतो न प्रतिबिम्ब किञ्चिद् वस्त्वन्तरं युक्तम् / ननु यदि तन्नास्ति कथं जलादौ सूर्यादिप्रतिबिम्बप्रतिभासः ? इत्यप्ययुक्तम् ; तत्र तत्प्रतिभासाऽसंभवात्, स्वदेशस्थस्यैव आदित्यादेः तत्र प्रतिभासनात् / __अत्रैके प्रतिबिम्बोदयवादिनः पर्यनुयुञ्जते-यदि स्वप्रदेशस्थ एव सविता उपलभ्यते न प्रतिबिम्बानि, कस्मात्तर्हि नोपरि एव दृश्यते ? नहि अन्यत्रस्थः अन्यत्र द्रष्टुं 20 (1) जलचन्द्रादेः। (2) चन्द्रादौ। (3) जले –आ० टि० (4) प्रतिबिम्बोपलम्भ / (5) प्रतिबिम्बम / (6) बिम्बसन्निधाने। (7) प्रतिबिम्बे -आ० टि०। (8) हस्तपादादीनाम -आ० टि०। (9) यदि सावयवं प्रतिबिम्बमान्तरभूतं जले समुत्पन्नं तदा तस्य स्पर्शादिभिः पृथग्भूतैर्भवितव्यम्, न चैतत्संभवति, जलीयस्पर्शाद्यात्मकत्वात् प्रतिबिम्बस्पर्शादीनाम् / (10) प्रतिबिम्बस्य / (11) उत्पादकाः (12) अन्येषाम् –आ० टि०। (13) शुक्लं रूपम् / (14) कार्यद्रव्यरूपारम्भकं हि समवायिकारणगतं रूपं भवति / (15) अथ निमित्तकारणं तत्रागत्य निष्पादयतीत्याह -आ० टि। निमित्तसमवायिकारणयोः / “सहकत्र द्वयासत्त्वान्न वस्तु प्रतिबिम्बकम् / तत्कथं कार्यता तस्य युक्ता चेत्पारमार्थिकी / / अवस्तुत्वे हेतुः सहकत्र द्वयासत्त्वादिति / यत्रैव प्रदेशे आदर्शरूपं दृश्यते प्रतिबिम्बकञ्च तत्रैव / न चैकत्र प्रदेशे रूपद्वयस्यास्ति सहभावः सप्रतिघत्वात्, अतः सहकत्र द्वयोः रूपयोः सत्त्वं न प्राप्नोति / तस्माद् भ्रान्तिरियम् / अतो नास्त्येव किञ्चिद्वस्तुभूतं प्रतिबिम्बक नाम।" -तत्त्वसं० 50 पृ० 418, 697 / (16) प्रतिबिम्बम् / (17) जलादौ। (18) सूर्यादिप्रतिबिम्ब / (19) जलादौ (20) जैनादयः / (21) नभोदेशस्थः / (22) जलादौ / 1 जलादेर्न ब० / 2 नावयवम् श्र० / 8 स्पर्शद्रव्य-श्र० / 4 –स्थितस्य कार्य-ब० / 5-पारम्भक-श्र०। 6 वा ब०। 7-त्यावेः प्रति-ब०, श्र०। 8 अत्र केचित् प्र- श्र०। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 लघीयत्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० पार्यते सर्वदा तथादर्शनप्रसङ्गात्। न च प्रतिबिम्बमन्तरेण कूपादिषु अधस्तात्तद्वीक्षणम् / प्राङ्मुखश्च दर्पणं पश्यन् प्रत्यङ्मुखश्च कथं स्यात् ? यदि च बहिर्निष्क्रान्तमिन्द्रियं तत्रैव बोधयेदर्थं तत एतदेवं भवेत् , शरीरे तु तद्बोधकमिति / उक्तश्च "अन्ये तु चोदयन्त्यत्र प्रतिबिम्बोदयैषिणः / स एव चेत् प्रतीयेत कस्मान्नोपरि दृश्यते ? // 5 कूपादिषु कुतोऽधस्तात् प्रतिबिम्बाद्विनेक्षणम् / प्राङ्मुखो दर्पणं पश्यन् त्याच प्रत्यङ्मुखः कथम्?॥ तत्रैव बोधयेदर्थ बहिर्यातं यदीन्द्रियम् / तत एतद्भवेदेवं शरीरे तत्तु बोधकम् // " ___ [मी० श्लो० शम्वनि० श्लो० 183-186 / ] इति"। अत्रोच्यते-जले सूर्यादिदर्शिनां द्वेधा चक्षुः सर्वदा प्रवर्त्तते, एकमूर्ध्वम् , अपरञ्च अधस्तात् / तत्र नोर्वाशप्रकाशितं सूर्यम् आत्मा प्रतिपद्यते अधिष्ठानाऽनृजु10 त्वात् , अवाग्वृत्या तु तं बुध्यते पारम्पर्पितं संन्तम् अधिष्ठान त्वात् , अवागिव च मन्यते / ऊँवृत्तितदेकत्वात् , तेन कारणेन अधस्तादेव आदित्यः सान्तरालः प्रतीयते / एवं दर्पणादौ नायनो रश्मिः प्रतिहतो व्यावृत्त्य स्वकीयमेव मुखं प्राङ्मुखरश्मे समर्पयति, ततश्च प्राग्नतया नायनरश्मिवृत्त्या मुखं बुद्ध्यमानः प्रतिपत्ता प्रत्यक् तद्रूत्तिसमर्पितं 'प्रत्यग्' इत्यवगच्छति। तदुक्तम्"प्सूर्यदर्शिनां नित्यं द्वधा चतुः प्रवर्त्तते / एकमूर्ध्वमधस्ताच तत्रोशिप्रकाशितम् // (1) जलादावेव सूर्यदर्शनं स्यात् / (2) सूर्यादि। (3) पुरुषः / (4) अर्थदेशे गत्वा / (5) स्वदेशस्थ एव आदित्यादिस्तत्र प्रतिभासत इति -आ० टि०। (6) इन्द्रियं चक्षुः / (7) व्याख्या-"जलादिषु यथैकोऽपि नानात्मा सवितेक्ष्यते-इत्यस्य हेतुव्यभिचारविषयत्वेनोक्तस्यासिद्धि मन्यमानाः प्रतिबिम्बमर्थान्तरमिच्छन्तश्चोदयन्ति। यदि स एव एवादित्यो दृश्यते न प्रतिबिम्ब तत्किमिति उपरिष्टादस्य दर्शनं न भवति? एवं हि तस्य दर्शनं भवेत् यदि देशावस्थितस्वरूपं गृह्णीयात् नान्यथा, अन्यथा हि अतिप्रसङ्गः / किञ्च, कूपादिषु च दूराधःसंविष्टस्यादिः कथं ग्रहणं भवेत् यदि तत्र प्रतिबिम्ब नोत्पन्नं स्यात् ? नहि तत्र तथार्कादिव्यविस्थितिः / अपि च प्राङमुखो दर्पणमवलोकयन् कथमिव प्रत्यङमुखो भवति ? न हि तस्य तदा पृष्ठाभिमुखं मुखमुपजातं दृश्यते / एवं मन्यते यदि बहिर्निगतमिन्द्रियमादित्यं बोधयेत्तत एतत्स्यात् उपरिस्थितमेव पश्येन्नाधस्तादिति / यावता धर्माधर्मवशीकृते शरीरे एव तदिन्द्रियं ग्राहकमिष्यते नोपरिस्थम्।"-तत्त्वसं० पं० पृ० 614 / (8) 'प्रतिबिम्बेक्षणं भवेत्'-मी० श्लो० / (9) 'स्याच्चेत्प्र' -मी० इलो०। (10) 'यदिन्द्रियं' -मी० श्लो०। (11) उद्धृता एते -तत्त्वसं० पृ०६१४ / प्रमेयक० पृ० 408 / (12) प्रतिबिम्बनिषेधिभिः -आ० टि०। (13) ऊर्ध्वाधोरश्मीनामेकत्वात् -आ० टि०। (14) व्याख्या-“एकमेव चक्षुरुत्कण्ठितलम्बमानसर्पवत् द्वेधा वर्तते अधस्तादूर्ध्वञ्च। तत्रोव॑वृत्तिप्रकाशितं देहानार्जवान्नात्मा बुद्धयत इति / कस्मातहि बुद्धयत अत आह-पारम्पर्येति / ऊर्ध्ववृत्तिरधोवृत्त्यै समर्पयति सा च आत्मन इति / कः पुनरुव॑वृत्तेरधोवृत्त्या सम्बन्धो येन समर्पयति अत आह ऊर्ध्वति / एकस्यैव हि तावंशौ तेनास्योर्ध्ववृत्तेस्तया वृत्त्या धर्मिरूपेणैक्यमिति अधोवृत्त्याऽवबुध्यमानस्तदानुगुण्यादवागिव सूर्यं मन्यत इति / ..."यत्तु प्राङमुखो दर्पणं पश्यन् कथं प्रत्यङमुखो दृश्यत इत्युक्तं तत्राहएवमिति / तत्रापि प्रत्यग्वृत्तिप्रकाशितं मुखम् अधिष्ठानानार्जवान्नात्मा प्रतिपद्यत इति, किन्तु प्रत्यग्वृत्तिः प्राग्वृत्त्यै समर्पयति तयाच समर्पितः प्राग्वृत्त्या बुध्यमानः तदानुगुण्येन प्रत्यगिति बुध्यते। नन्वत्र दर्पणस्थमेव 1 बोषयन्त्यत्र श्र०। 2 स तम् श्र०। 8-च्छतीति ब.। 4 उक्तञ्च श्र० / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 13 ] प्रतिबिम्बवादः 453 अधिष्ठानानृजुत्वाच नात्मा सूर्य प्रपद्यते / पारम्पर्पितं सन्तमवाग्वृत्त्या नु बुध्यते // ऊर्ध्ववृत्तितदेकत्वात् अवागिव च मन्यते / अधस्तादेव तेनार्कः सान्तरालः प्रतीयते // एवं प्राग्नतया वृत्त्या प्रत्यग्वृत्तिसमर्पितम् / बुध्यमानो मुखं भ्रान्तः प्रत्यगित्यवगच्छति // " [मी० श्लो शब्दनि० श्लो० 186-190 / ] इति / किञ्च, यदि प्रतिबिम्बमर्थान्तरं बिम्बादुत्पन्नं तदा कथं बिम्बे चलति नियमेन 5 तदपि चलेत् , तिष्ठति च तिष्ठेत् ? नहि दण्डे चलति तिष्ठति च ततोऽर्थान्तरभूतो घटः नियमेन चलति तिष्ठति चेति प्रतीतम् / प्रतीयते च बिम्बस्य चलाचलत्वे नियमेन प्रतिबिम्बस्य चलाचलत्वम् , अतो न तंत् ततोऽर्थान्तरम् / 6 यदि च तत्ततोऽर्थान्तर स्यात् तदा दर्पणादौ बिम्बापाये कुतो नोपलभ्यते ? विनष्टत्वाञ्चेत् ; न; निमित्तकारणापाये कार्यस्य अपायाऽप्रतीतेः / न खलु दण्डादेनिमित्तकारणस्यापाये घटादेः कार्यस्य 10 विनाशः स्वप्नेऽपि प्रतीयते / अस्तु वा तैदपाये तद्विनाशः; तथापि प्रतिबिम्बविनाशे पृथक् तदवयवोपलम्भप्रसङ्गः घटविनाशे कपालोपलम्भवत् , न चैवमस्ति / ततो न मुखं गृह्यते न जलपात्रेष्विव अधःसान्तरालं तत्कस्य हेतोः ? अत्रापि सान्तरालमेव प्रत्यग्वत्त्या प्रकाशित प्राग्वृत्त्यै समर्पितं तथैव ग्रहीतव्यम् ; उच्यते-वस्तुस्वभावस्यापर्यनुयोज्यत्वाददोषः / तैजसेषु हि दर्पणादिषु तद्गतमेव मुखं गृह्यते जले तु सान्तरालमिति किमत्रपृच्छयते इति।"-मी० इलो० न्यायर० पृ०७७६-७७। "ये हि जलपात्रे जलं सूर्यञ्च पश्यन्ति तेषामप्सूर्यदर्शिनामेकमेव चक्षुरूर्ध्वमधश्च द्विधा भागशः प्रवर्तते। तत्रो_भागप्रकाशितमादित्यमात्मा पुरुषो न गृह्णाति / कुतः ? अधिष्ठानानृजुस्थत्वात्-चक्षुरिन्द्रियाधिष्ठानस्यार्जवेन तदानवस्थितत्वात् / पारम्पर्येण तु सौरेण तेजसा वृत्तेरर्पितमादित्यमवाग्वृत्त्या कार•णभूतया बुध्यते। तथाहि-किल सौरं तेजस्तेजस्विनं वृत्तेरर्पयति वृत्तिश्चक्षुषश्चक्षुरात्मन इत्येतत् पारम्पर्यार्पणं सूर्यस्य तेजस्विन इति / आदित्यमूर्ध्ववृत्तिम् उपरिस्थञ्च तमादित्यमवागिव अधःस्थितमिव मन्यते / क: ? आत्मा / न पुनरधस्तादन्य एवादित्यः / कुतः ? तदेकत्वात् तस्यादित्यस्य अभिन्नत्वात् / चक्षुष इत्यपरे / तस्मादनन्तरोदितेनैव चक्षुषो वृत्तिवशेन सान्तरालोऽधस्तात्कृपादिष सूर्यो दृश्यते जलादिपात्रभेदाच्च / अन्यथा कथमभेदेन ग्रहणं स्यात् ? प्रथमं किल चक्षुरश्मयो मुखमादाय निर्गच्छन्ति यावदादर्शादिदेशम्, सा प्राङनता वृत्तिरुच्यते। ते च तत्रादर्शादौ प्रतिहता निवर्तमानाः स्वमुखमेव यथावस्थितमागच्छन्ति / सा च प्रत्यग्वृत्तिः / तत्र प्राङनता वृत्तिर्मुखं प्रत्यग्वृत्तेरर्पयति, प्रत्यग्वृत्तिश्चात्मनः, तत आत्मा प्रत्यग्वृत्तिसमर्पितमवगच्छन् मुखं भ्रान्त्या प्रत्यङमुखं यास्यामीति मन्यते / चक्षुवृत्तेर्वैचित्र्यमेव भान्तिबीजमिति भावः / " -तत्त्वसं० 50 पृ० 615 / (15) 'चक्षुर्द्वधा' -मी० श्लो०। (16) 'तत्रोशुिप्र'-तत्त्वसं० / (1) 'अधिष्ठानानृजुस्थत्वान्नात्मा' -मी० श्लो०, तत्त्वसं० (2) 'वृत्त्याऽवबु'-तत्त्वसं० / 'वृत्त्या तु बु' -मी० श्लो०। (3) 'ऊर्ध्ववृत्तेस्तदे' मी० श्लो०, 'ऊर्ध्ववृत्तितदे'-तत्त्वसं० / ऊर्ध्वत्तिरश्मीनामधोवृत्तिभिः रश्मिभिः सममेकत्वात् -आ० टि०। (4) 'प्राग्भतया' -मी० श्लो। (5) 'भान्त्या' -भो० श्लो०, तत्त्वसं० / 'भान्ते:'-प्रमेयक०। (6) उद्धृता इमे -तत्वसं० पृ. 614 / प्रमेयक० पृ० 408 / (7) प्रतिबिम्बमपि। (8) दण्डात् / (9) प्रतिबिम्बम् / (10) बिम्बात् / (11) प्रतिबिम्बम् / (12) निमित्तकारणस्य बिम्बस्याभावे / (13) कार्यभूतस्य प्रतिबिम्बस्यापायः / (14) प्रतिबिम्बावयव / (15) न खलु प्रतिबिम्बनाशे पश्चात्त्रुटिता अवयवाः समुपलभ्यन्ते / 1 प्राग्गतया श्र०। 2 तदा तत्कथं आ० / एतदन्तर्गत: पाठो नास्ति आ० / Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० वास्तवं जलादौ प्रतिबिम्बमभ्युपमन्तव्यम्, किन्तु तेन प्रतिहता रश्मयो व्यावृत्य मुखादिबिम्बमेव जलादौ दर्शयन्तीत्यभ्युपगन्तव्यमिति / अत्र प्रतिविधीयते। यत्तावदुक्तम्-'जलादौ न प्रतिबिम्ब नाम वस्त्वन्तरं संभवति' तनिरसनपरस्सा इत्यादि; तदसमीक्षिताभिधानम् ; यतोऽस्य असंभवः ग्राहकप्रमाणाप्रतिबिम्बस्य परमा- संभवात्, उत्पादककारणाभावाद्वा स्यात् ? तत्रांद्यः पक्षोऽनुपपन्नः; र्थतः पुद्गलात्मकत्व- निखिलप्रमाणज्येष्ठस्य प्रत्यक्षप्रमाणस्यैव तत्र तत्सद्भावावेदकस्य संभप्रसाधनम्- वात् / 'निर्मले हि जलादौ चन्द्रादिप्रतिबिम्ब पश्यामि' इति प्रतीतिः प्रतिप्राणि प्रसिद्धा / नहि ईयं 'चन्द्रं पश्यामि' इत्येवं रूपोपजायते, नापि जलम् / किं तर्हि ? चन्द्रादेः प्रतिबिम्बँमिति / न चेयं प्रतीतिर्धान्ता; सर्वत्र सर्वदा सर्वेषाम् एकादृशे10 नैव रूपेण उपजायमानत्वात् / यत् सर्वत्र सर्वदा सर्वेषामेकादृशेनैव रूपेण उपजायते नै तद् भ्रान्तम् यथा घटादिसंवेदनम् , तथाभूता चेयं प्रतिबिम्बप्रतीतिः, तस्मान्न भ्रान्ता इति / भ्रान्तसंवेदनस्य तथाविधस्वरूपेणोत्पत्त्यनुपपत्तेः। नहि भ्रान्तं शुक्तिकादौ रजतादिसंवेदनं सर्वत्र सर्वदा सर्वेषाम् एकादृशेनैव रूपेण उपजायते, दुष्टेन्द्रिययोगिनामेव पुंसां तदुत्पत्तिप्रतीतेः, अदुष्टेन्द्रिययोगिनां तेषां तदनुपपत्तेः / किश्च, यंत्र ज्ञाने समुत्पन्ने बाधकप्रत्ययः कारणदोषज्ञानं वा प्रादुर्भवति तद् भ्रान्तं भवति, यथा शुक्तिकायां रजतादिज्ञानम् / न च आदर्शादौ प्रतिबिम्बप्रतीतौ 'नैतदेवम्' इत्येवंरूपो बाधकप्रत्ययः कदाचिदप्याविर्भवति / न च बाधकाभावेऽप्यस्य भ्रान्तत्वं वाच्यम् ; अतिप्रसङ्गात्। कारणदोषाऽप्रतीतेश्च न तत्प्रतीतिर्धान्ता। प्रतिबिम्ब प्रतीतेः खलु कारणम् आत्ममनश्चक्षुरादिलक्षणम् , न च तत्र दोषाः प्रतीयन्ते / नहि 20 क्षुदादिरात्मनो दोषः निद्रादिमनसः काचकामलादिश्चक्षुषः तत्प्रतीत्युत्पत्तौ प्रतीयते; सन्तृप्तस्य निद्राद्यनुपहंतचेतसो निर्मलनेत्रस्यापि प्रतिपत्तुः प्रतिबिम्बप्रतिपत्तेः प्रतीयमानत्वात् / तदेवं सिद्धमभ्रान्तमिदं प्रत्यक्षं बिम्बात् प्रतिबिम्बस्य अर्थान्तरत्वप्रसाधकम् / तथा अनुमानमप्यस्य आँश्रय-बिम्बाभ्यामर्थान्तरत्वप्रसाधकमस्त्येव / तथाहि (1) जलदर्पणादिना / (2) पृ० 451 पं० 2 / (3) तुलना-"न हि दृष्टाज्ज्येष्ठ गरिष्ठमिष्टम्”–अष्टश, अष्टसह पृ०८०। “न हि दृष्टाद् गरिष्ठं प्रमाणमस्ति"-नयच० व० पृ० 18 / “न च प्रत्यक्षाद् गरिष्ठं प्रमाणमस्ति ।"-हेतुबि०टी० पृ० 87 A. / (4) जलादौ / (5) प्रतिबिम्ब / (6) प्रतीतिः / (7) पश्यामीत्येवं रूपोपजायते इति शेषः / (८)एकादृश-आ० टि० / (9) पुरुषाणाम् / (१०)तुलना-"तस्मात् यस्य च दुष्टं कारणम्, यत्र च मिथ्येति प्रत्ययः स एवासमीचीनः प्रत्ययः नान्य इति ।"-शाबरभा०१। 1 / 5 / (11) प्रतिबिम्बज्ञानस्य। (12) आत्ममनश्चक्षुरादिषु / (13) प्रतिबिम्बप्रतीति। (14) प्रतिबिम्बस्य / (15) जलादि / 1 यतो यस्यासंभ-श्र० / 2-द्यपक्षो-श्र०। 3 इति प्रतिप्रा-ब०। 4 न तेन तद् ब०। 5 -विधरूपेणो-ब० ।-विधरूपेणो-ब०। 6-दृशेनैकरूपेण श्र.। 7 न हि चक्षुरादि-श्र०, ब० / 8-हतमनसो ब० // 9 प्रतिबन्धप्रति-ब० / . Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 13 ] प्रतिबिम्बवादः 455 यद् यतो विलक्षणप्रतीतिग्राह्यं तत् ततो भिन्नम् यथा मुद्रातः प्रतिमुद्रा, जल-चन्द्रादिबिम्बाभ्यां विलक्षणप्रतीतिग्राह्यञ्च चन्द्रादिप्रतिबिम्बमिति / न चैतदसिद्धम् ; बिम्बाकारानुकारितया हि बिम्बं प्रति आभिमुख्येन यद् वर्त्तते तत् प्रतिबिम्बम् , यथा मुद्राकारानुकारिणी प्रतिमुद्रा। तत्प्रतीतौ च कथं ततो विलक्षणप्रतीतिग्राह्यत्वमस्य असिद्धम् / न चैतद् बिम्बस्यैव ग्रहणमित्यभिधातव्यम् ; जलादौ दृक्पातानन्तरमेव चन्द्रादिबिम्बमपश्यतः तत्प्रतीतिदर्शनात् / न चात्र विलक्षणा प्रतीतिः प्रतीयमानापि अँस्य ततो भेदं न प्रसाधयतीति वाच्यम् ; सर्वत्र भेदवातॊच्छेदप्रसङ्गात्, सर्वत्र अस्याः प्रतीतिभेदैनिबन्धनत्वात् / अतः बिम्बात् प्रतिबिम्बमन्यदभ्युपगन्तव्यम्। कथमन्यथा यद्वस्तु कदाचिदपि न प्रतीतं तस्मिन्नपरिदृश्यमाने व्यवहितेऽपि तद्विम्बावारकाभावे तत्प्रतिबिम्बप्रतीतिः स्यात् ? तद्विम्बे दर्शनस्य स्मरणस्य प्रत्यभिज्ञानस्य वा सर्वथाऽसंभवात् / तन्न 10 ग्राहकप्रमाणासंभवात् प्रतिबिम्बासंभवः / नाप्युत्पादककारणाभावात् ; तदुत्पादककारणस्य उपादानरूपस्य निमित्तभूतस्य चात्र संभवात्। प्रतिबिम्बोत्पत्तौ हि जलादिकमुपादानकारणम् , चन्द्रादिकं तु निमित्त (1) प्रतिबिम्बं जलाद्याश्रयात् चन्द्रादिबिम्बाच्च भिन्नं तद्विलक्षणप्रतीतिग्राह्यत्वात् / तुलना"तथा यद्यतो विलक्षणप्रतीतिग्राह्यं तत्ततो भिन्नं यथा मुद्रातः प्रतिमुद्रा ...."-स्या० र० पृ०८६३ / (२)बिम्बाकारानुकारितया प्रतीतौ च / (3) चन्द्रादिबिम्बादाश्रयभूतदपर्णादेश्च / (4) प्रतिबिम्बस्य / (5) जलादौ चन्द्रादिप्रतिबिम्बदर्शनं / (6) पुरुषस्य / (7) प्रतिबिम्ब / (8) प्रतिबिम्बस्य / (9) आश्रयाद् बिम्बाच्च / (10) भेदवार्तायाः / (11) प्रतीतिभेदो निबन्धनमस्या इति। (12) वस्तुनि बिम्बाख्ये / (13) बिम्बस्य आवरणं यदि स्यात् तदा प्रतिबिम्बस्योत्पत्तिरेव न स्यात् अत आह तद्विम्बावारकाभावे / (14) प्रत्यक्षमूलकत्वात् स्मरणप्रत्यभिज्ञानयोः, अव्यवहितत्वनिबन्धनत्वाच्च प्रत्यक्षस्य / (15) स्याद्वादरत्नाकरे। (पृ० 865) अस्य सोद्धरणं खण्डनमित्थम्-“यदपि प्रभाचन्द्रः प्राह-प्रतिबिम्बोत्पत्तौ हि जलादिकमुपादानकारणं चन्द्रादिकं च निमित्तकारणं गगनतलावलम्बिनं चन्द्र निमित्तीकृत्य जलादेस्तथा परिणामात् इति; तदस्यात्यन्तार्जवविजृम्भितम् ; यथा हि तेजोऽभावमपेक्ष्य ते पत्रादेश्छायापुद्गलाः पृथिव्यादावाश्रये छायाद्रव्यरूपतया परिणमन्ते तथात्रापि यदि वदनादिबिम्बस्य छायापुद्गला दर्पणादिप्रसन्नद्रव्यसामग्रीमपेक्ष्य प्रतिबिम्बरूपतया परिणमन्ते तदा किन्नाम क्षणं स्यात् अस्यापि छायाविशेषस्वभावत्वात् / तथा चागमः-सामा उदिया छायाऽभासुरगया निसिम्मि कालाभा। सा च्चेह भासुरगया सदेहवन्ना मुणेयव्वा ॥आदरिसस्संतो देहावयवा हवेति संकता। तेसि तत्थुवलद्धी पगासजोगा न इयरेसिं // प्रकरणचतुर्दशशतीकारोपि धर्मसारप्रकरणे प्राह-न ह्यङ्गनावदनछायानुसंक्रमातिरेकेणादर्शके तत्प्रतिबिम्बसंभवः इत्यादि।" -स्या०र० पृ० 865 / तच्च चिन्त्यम्-आ० वादिदेवसूरिमतेन हि मुखादिबिम्बस्य छायापुद्गलाः मुखाद्विनिर्गच्छन्तः दर्पणादौ स्वच्छतादिसमाग्रीवशात् प्रतिबिम्बमारभन्ते 'अस्मन्मते त स्वच्छ एवादर्शादौ बिम्बसन्निधाने तदगतछायापूदगलसंक्रमात प्रतिबिम्बमत्पद्यते' (स्या० 2050 864 ) इति स्वयमभिधानात् / तत्रेदं विचारणीयं यत्-मुखादिभ्यः छायापुद्गलविनिर्गमनं किन्निबन्धनम् ? यदि तेषां स्वभावोयं यत्ते सदैव विनिर्यान्ति तदा चक्षुषो रश्मिविनिर्गमनं नैयायिकादिभिः उक्तं कथं प्रतिक्षिप्यते। यदि हि अभास्वरान्मखात् घटावा छायापुद्गलविनिःसृतिः युक्तिपथप्रस्थायिन्यभिमन्यते तदा भास्वररूपशालिचक्षुषो रश्मिविनिर्याणं तु न्यायानुभवसङ्गतं सुतरामेव स्यात् / अत 1-तिरदर्शनात् ब० / 2 तस्मिन्नुपरि-श्र० / 3 व्यवहितोऽपि आ० / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० कारणम्, गगनतलावलम्बिनं चन्द्र निमित्तीकृत्य जलादेस्तथापरिणामात् / - यदप्युक्तम्-'तत्सन्निधाने गुणरूपम् द्रव्यरूपं वा तदुत्पद्येत' इत्यादि; तदप्ययुक्तम् ; द्रव्यरूपस्यैवास्य तत्सन्निधाने तेत्रोत्पादाभ्युपगमात् / / यदपि-निरवयवद्रव्यरूपं सावयवद्रव्यरूपं वा तत् स्यात्' इत्याद्युक्तम् ; तदप्युक्तिमात्रम् ; अस्मदादीन्द्रियग्राह्यद्रव्यस्य निरवयवत्वाऽसिद्धेः / / यत्पुनरुक्तम्-'नापि सावयवं जलादिस्पर्शात् पृथक् तत्पर्शोपलम्भाऽसंभवात्' इति; तदप्यसाम्प्रतम् ; यतो जलादिस्पर्शात् पृथक् तत्स्पर्शोपलम्भस्तदा स्यात् यदा जलादेः तत्प्रतिबिम्बमर्थान्तरभूतं द्रव्यं स्यात् , यदा तु जलादिकमेव तथा परिणमते तदास्य ततोऽर्थान्तरत्वासंभवात् कथं पृथक् तत्स्पर्शोपलम्भस्याशङ्काऽपि स्यात् ? 10 एतेन ‘जलादिपरमाणव एवास्य आरम्भका अन्ये वा' इत्यादि प्रत्युक्तम् ; जल परमाणूनामेव उक्तप्रकारेण तदारम्भकत्वप्रतिज्ञानात् / प्रतिबिम्बे जलरूपाद् विलक्षणरूपप्रतीतेः कथं ते" तदारम्भकाः ? इत्यप्यनुपपन्नम् ; पुद्गलानां विचित्ररूपादिपरिणामसामग्रीसन्निधाने विचित्ररूपादिपरिणत्युपपत्तेः / दृश्यते हि मुखादिबिम्बेऽपि तत्सन्निधाने विचित्रा रूपपरिणतिः, कोपाद् रक्ततया लज्जातः कृष्णतया हर्षात् सुकान्तिमत्तया मुखादेः 15 परिणामप्रतीतेः / अतो मुखचन्द्रादिबिम्बसन्निधाने जलादेर्विचित्रो रूपादिपरिणामो न विरोधमध्यास्ते / ___एतेन इदमपि प्रतिव्यूढम्-'द्वयोः सावयवयोः समानाकाशदेशत्वानुपपत्तिः, आश्रयद्रव्यस्य चादर्शदेः परिमाणगौरवयोरुत्कर्षः स्यात्' इति; द्वयोः सावयवद्रव्ययोः अंत्राऽसंभवात् , एकस्यैव जलादिद्रव्यस्य स्वसामग्रीविशेषवशात् तथापरिणामात् / नच समानाकाशदेशत्वं सावयवयोः विरुद्धम् ; जलभस्मनोः वातातपयोर्वा सावयवयोरपि श्चक्षुषो रश्मिविनिर्गमनं प्रतिक्षिपद्भिः मुखादिबिम्बात् छायापुद्गलविनिःसृतिः स्वीक्रियमाणा स्वबधाय कृत्योत्थापनमेव प्रतिभाति / स्था० रत्नाकरस्य 698 पृष्ठे तु एभिरेव प्रमेयकमलमार्तण्डमनुसरभिः स्पष्टमुक्तम् यत्-"स्वच्छताविशेषाद्धि जलदर्पणादयो मुखादित्यादिप्रतिबिम्बाकारविकारधारिणःसम्पद्यन्ते” इति, अत्रैव च चक्षुषो रश्मिनिर्गमनस्य प्रतिषेधात् ज्ञायते यत्तत्प्रकरणे तु वादिदेवसूरयः प्रभाचन्द्रमर्थतः शब्दतश्च अनुसरन्ति, अत्र तु तत्खण्डनाभिलाषेण पूर्वापरविरोधमपि न पश्यन्तीति चित्रमेतत् / (1) प्रतिबिम्बाकारतया। (2) पृ० 451 पं० 4 / (3) प्रतिबिम्बस्य। (4) बिम्ब / (5) जलादौ। (6) पृ०४५१५०६। (7) हस्तपादाद्यवयवैः सावयवमेव तत्प्रतिबिम्बमभ्युपगम्यते / (8) पृ० 451 पं० 7 / (9) प्रतिबिम्बरूपेण / (10) जलादेः / (11) प्रतिबिम्ब। (12) पृ०४५१५०९। (13) बिम्बसन्निधानेन जलादीनां प्रतिबिम्बाकारतया परिणमनप्रकारेण / (14) श्यामरूपं प्रतिबिम्बे जलादौ शुक्लं रूपम् / (15) जलादयः। (16) विचित्रकोपायुद्रेचकसामग्रीसनिधाने / (17) पृ०४५१५०१४। (18) प्रतिबिम्बोत्पत्तिस्थले। (19) प्रतिबिम्बाकारतया। (20) तुलना-“तदपि समानदेशप्रसारिसमीरातपाभ्यां व्यभिचारि"-स्या० 20 पृ०८६१ / 1 इत्यनुप-श्र०। 2 बिचित्ररूप-१०। 3 परिमाणात् आ०। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 प्रमाणप्र० का० 13 ] प्रतिबिम्बवादः 457 तत्प्रतीतेः / परिमाणगौरवोत्कर्षनियमोपि सावयवयोर्नास्ति; जलकनकादिसंयुक्ताऽनलादौ तंदप्रतीतेः। यच्चान्यदुक्त-'अप्सूर्यदर्शिनां नित्यं द्वेधा चक्षुः प्रवर्तते' इत्यादि; तदप्यविचारितरमणीयम्; रश्मिरूपस्य चक्षुषः कुतश्चिदपि प्रमाणादप्रसिद्धेः / ततस्तदंप्रसिद्धिः चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वसिद्धौ प्रपञ्चतः प्ररूपिता / ____ ननु प्रतिबिम्बोदयवादिनां मते बिम्बानुकारिणा प्रतिबिम्बेन भवितव्यम् तत्कथं सव्यदक्षिणविपर्ययेण प्रतिबिम्बस्य प्रतीतिः; इत्यप्यचोद्यम् ; स्वसामग्रीतः तस्य सव्यदक्षिणस्वभावतयैव उत्पत्तेः / बिम्बाभिमुखेन हि प्रतिबिम्बेन भवितव्यम्, आभिमुख्यश्च सव्यदक्षिणविपर्यासव्यतिरेकेण अस्य नोपपद्यते इति तथैव अस्योत्पत्तिरुपपन्ना, अन्यथा प्रतिबिम्बम्' इति व्यपदेशोऽस्य अनुपपन्नः स्यात् / किञ्च, यन्मते प्रतिबिम्बमर्थान्तरं तस्य सव्यदक्षिणविपर्यासो गुण एव, यत एव (1) तुलना-“करम्बितकनकपारदाभ्यामनैकान्तिकत्वात्.." -स्या० र० पृ० 861 / (2) उष्णजले हि जलाग्न्योः द्वयोः सावयवयोः समानदेशता जाता न च परिमाणगौरवयोरुत्कर्षः, तथा तप्तसुवर्ण सुवर्णाग्न्योः सावयवयोः सम्बन्धेऽपि न तयोरुत्कर्षः सन्दृश्यते इति भावः / (3) परिमाणगौरवयोरप्रतीते:आ० टि०। (4) पृ० 452 पं० 15 / (5) तुलना-"स्वप्रदेशस्थतया सवितुर्ग्रहणासिद्धेः चाक्षुषं तेजः प्रतिस्रोतः प्रवर्तितमिति चातीवासंगतं प्रमाणाभावात् ।"-प्रमेयक पृ० 425 / चाक्षुष तेजः प्रतिस्रोतः प्रवर्तितमिति चातीवासङ्गतम् ; प्रमाणाभावात् / न हि चक्षुस्तैजांसि जलेनाभिसम्बन्ध्य पुनः सवितारं प्रति प्रवृत्तानि प्रत्यक्षादिप्रमाणतः प्रतीयन्ते / यथा च नायनरश्मीनां विषयं प्रति प्रवृत्तिनास्ति तथा चक्षुषोप्राप्यकारित्वप्रघट्टके प्रतिपादितमित्यलमतिप्रसङ्गेन ।"-स्या० र० पृ० 698 / (6) * पृ०७५-८२ / (7) सव्यदक्षिणविपर्ययेणैव / (8) तुलना-“तदपि प्रतिबिम्बशब्दनिरुक्त्यैव कृतोत्तरम्, परं मिथ्याभिनिवेशान्न चेतयते भवान् / प्रत्यर्थिबिम्बं प्रतिबिम्बमुच्यते / प्रत्यथिता चास्य सकलतदीयालकतिलकभ्रूभङ्गभ्रकूटयादिविशेषस्वीकरणेनाभिमुखतया पुरःस्थायित्वम् / तच्च सव्यदक्षिणपार्श्वविपर्यासव्यतिरेकेणास्य नोपपद्यते इति तथैवोत्पत्तिस्पपन्ना, अन्यथा तु प्रतिबिम्बमिति व्यपदेश एवास्यानुपपन्न: स्यात्।"-स्या०र० प्र०८६२। (9) तुलना-"किञ्च, यन्मते प्रतिबिम्बमर्थान्तरं तस्य सव्यदक्षिणपार्श्वयोविपर्यासो गुण एव / यत एव बिम्बविपरीतधर्मयोगोऽत एवातोऽस्यान्यत्वमिति ।"-स्या० 2050 682 / "आदर्शतलादिष प्रसन्नद्रव्येष मखादिच्छाया तद्वर्णादिपरिणतोपलभ्यते इतरत्र प्रतिबिम्बमात्रमेव / अत्राह-विपरीतग्रहणं कुतः प्राङमुखस्य प्रत्यङमुखा छाया दृश्यते इति? प्रसन्नद्रव्यपरिणामविशेषाद भवति / अत्र चोद्यते नादर्शतलादिच्छायासद्भावः / किं तर्हि ? नयननिर्गतेन रश्मिना घनद्रव्यात् प्रतिहतनिवृत्तेन स्वमुखस्यैव ग्रहणमिति; तदयुक्तम् ; विपर्यासग्रहणाभावप्रसङ्गात् कुड्यादिषु अतिप्रसङ्गात् ग्रहणशक्त्यभावाच्च / विपर्यासग्रहणाभावप्रसङ्गस्तावत् यदि प्रतिनिवृत्तेन नयनरश्मिना स्वशरीरस्यैव ग्रहणं प्राङमुखस्य प्राङमुखमेव ग्रहणं स्यात् विपर्यासहेत्वभावात् / कुड्यादिषु वाऽतिप्रसङ्गः स्यात्, नयनरश्मेः प्रतिघातस्य तत्रापि सद्भावात्।" -राजवा० पृ० 233 / न्यायवि० वि० पृ० 567 B. / "कथं पुनर्पणतलादिषु प्रतिबिम्बं मुखादीनां सम्मुखमेव छायाकारेण परिणमते न पराङमुखम् ? कथं वा कठिनमादर्शमण्डलं प्रतिभिद्य मुखतो विनिर्गताः पुद्गलाः प्रतिबिम्बमाजिहत इति ? यत्तावदुच्यते सम्मुखमेव प्रतिबिम्बमुदेति नान्यतो मुखमिति; तत्र परिणामः स तादृशः पुद्गलानाम्, नहि तद्विषयः पर्यनुयोगः कर्तुं शक्यः”-तत्त्वार्थभा० व्या० पृ० 364 / (10) मम-आ० टि० / जैनस्य / ___1 परिणाम-ब०। तदप्रतिपत्तेः ब०। 3-वसिद्धिश्च चक्षु-ब०14 -विपर्ययो गुण ब०। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० बिम्बधर्मविपरीतधर्मयोगोऽत एव अस्य अतोऽन्यत्वम् / यदि चे प्रतिबिम्बमन्यन्न स्यात्, आदर्शादिना प्रतिहतैर्नायनरश्मिभिर्व्यावृत्य देशविपर्यासेन मुखादेरेव आदर्शादौ प्रकाशनात् ; तदा कुडयादिनाऽपि प्रतिहतास्ते व्यावृत्य किमिति कुडचादौ मुखन्न प्रका शयन्ति विशेषाभावात् ? नचा स्वच्छता उपयोगिनी; रश्मिप्रतीघातमात्रस्यैव तत्रो5 पयोगात्, तच्चे उभयंत्राप्यविशिष्टंम् , प्रत्युत कुडथादिनी घनद्रव्येण अतिशयवान प्रतीघातो विधीयते, अतः तत्र अतिशयवता तत्प्रतिभासेन भाव्यम् / कारणातिशयाद्धि कार्यातिशयो दृष्टः, यथा पित्तातिशयात् शङ्खादिषु पीतत्वावभासातिशयः / अस्मन्मते तु निर्मले स्वच्छ एव आदर्शादौ बिम्बसन्निधाने प्रतिबिम्बमुत्पद्यते न पुनः कुड्यादौ तद्विपरीते, अतस्तत्र तत्प्रतिभासाभावः / / 10 किञ्च, आदर्शादिना प्रतिहता रश्मयः व्यावृत्य यदि बिम्बमेव प्रकाशयन्ति; तदी महतो हैस्त्यादेः स्वपरिमाणानतिक्रमेणैव प्रतीतिप्रसङ्गात् लघुत्वप्रतीतिर्न स्यात् / नचैवम् / अतः प्रतिबिम्बमेव तत्र तांभूतमुत्पन्नं प्रतिभासते इत्यभ्युपगन्तव्यम् / स्वपरिमाणानुसारितया हि दर्पणादिना प्रतिबिम्बमारभ्यते, अतो महतो. लघुत्वप्रतिपत्ति रविरुद्धा / यदि च कृपाणादौ काँचादौ चाश्रये प्रतिहारते व्यावृत्त्य बिम्बमेव प्रका18 शयन्ति; तदा आयत-श्याममुखप्रतीतिर्न स्यात् / अस्मन्मते तु आश्रयस्य आयतत्वात् श्यामत्वाच्च तदारब्धस्य प्रतिबिम्बस्यापि आयतत्वं श्यामत्वञ्चोपपन्नम् / जलादेस्तु अतिस्वच्छत्वात् बिम्बाकारानुकारेणैव तत्र प्रतिबिम्बोत्पत्तिः / यदप्युक्तम्-'यदि प्रतिबिम्बमर्थान्तरमुत्पन्नम्' इत्यादि; तदप्यचर्चिताभिधानम् ; अर्थान्तरस्यास्योत्पत्तावपि नियमेन निमित्तकारणक्रियानुकारितया सक्रियायां नियमेन 20 क्रियावत्त्वोपपत्तेः प्रदीपप्रकाशवत्, छत्रछायावद्वा। यथैव हि प्रदीपे छत्रे च चलति प्रकाशश्छाया च नियमेन चलति स्थिरे तु स्थिरा भवति, एवं बिम्बे चलति नियमेन (1) प्रतिबिम्बस्य / (2) बिम्बात्। (3) तुलना-“यदि चादर्शादिप्रतिहता रश्मयः मुखं प्रकाशयन्ति तदा शिलातलादिप्रतिहता अपि ते तत्प्रकाशयेयुः विशेषाभावात्"-स्या० 2010 864 / (4) व्यावृत्त्य बिम्बप्रकाशने / (5) प्रतिघातमात्रम्। (6) दर्पणादौ कुडयादौ च / (7) बिम्बप्रतिभासेन / (8) जैनमते। (9) अस्वच्छेऽपारदर्शिनि। (10) कुड्यादौ / (11) बिम्ब / (12) तुलना-"तदा महतो हस्त्यादेः स्वपरिमाणानतिक्रमेणैव प्रतीतिप्रसङ्गाल्लघुत्वप्रतीतिर्न स्यात्।" -स्या० 20 पृ०८६४। (13) दर्पणादौ। (14) लघ्वाकारोपेतम् / (15) तूलना-"अपि च यदि काचकृपाणादौ प्रतिहतास्ते व्यावृत्त्य बिम्बमेव प्रकाशयन्ति तदा तत्रायतश्याममुखप्रतीतिर्न स्यात्।"-स्या०र० पृ०८६४। (16) श्यामकाचादौ। (17) रश्मयः / (18) कृपाणस्य काचादेश्च। (19) पृ० 453 पं० 5 / (20) तुलना-अर्थान्तरस्योत्पत्तावापि नियमेन परिणामकारणक्रियानुकारितया तस्मिश्चलति चलनस्य तिष्ठति स्थानस्य च तत्रोपपत्तेः ।"-स्या० 20 10 862 / (21) मुखादिबिम्ब। (22) मुखादौ क्रियायां सत्याम्। - 1-दर्शनादौ ब०।-टं पटकुडया-ब०।-ना द्रव्येण ब०।4 हस्तादेः आ०। 5 लघुप्रति-श्र०। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 14 ] पूर्वचरादिहेतुसमर्थनम् प्रतिबिम्ब चलति तिष्ठति तु तिष्ठति / न खलु घटे नियमेन निमित्तकारणक्रियानुविधानं न दृष्टम् इत्येतावता सर्वत्र तनिषेद्धमुचितम् , प्रदीपप्रकाशादावपि तनिषेधप्रसङ्गात् / घटे च तद्वद् भासुररूपादिकमपि नोपलब्धम् अतः प्रदीपप्रकाशादावपि तन्निषिद्ध्यतामविशेषात् / प्रतीतिविरोधः अन्यत्राप्यविशिष्टः / यच्चान्यदुंक्तम्-'निमित्तकारणापाये कार्यस्यापायाप्रतीतेः' इत्यादि; तदप्यनल्प- 5 तमोविलसितम् ; प्रदीपछत्रादेनिमित्तकारणस्याऽपाये प्रकाशछाययोरपायप्रतीतेः / एतेन 'प्रतिबिम्बविनाशे पृथक् तदवयवोपलम्भप्रसङ्गः' इत्यादि प्रत्युक्तम् ; प्रदीपादेविनाशेऽपि तदप्रतीतेः / न खलु प्रदीपविद्युदादिद्रव्याणां विनाशेऽपि पृथक तदवयवाः क्वचित् कदाचित् कस्यचित् प्रतीतिपथप्रस्थायिनो भवन्तीति / साम्प्रतम् 'अतीतैकैकालानां गतिः नाऽनागतानां व्यभिचारात्'' प्रमाणवा० 10 स्ववृ० 1 / 12] इत्येतन्निराकुर्वन्नपरमपि कार्यादिभ्योऽर्थान्तरं हेतुमुपदर्शयति भविष्यत् प्रतिपद्येत शैकटं कृत्तिकोदयात्। .. श्व आदित्य उदेतेति ग्रहणं वा भविष्यति // 14 // (1) दण्डादि-आ० टि०। (2) प्रतिबिम्बेऽपि। (3) निमित्तकारणक्रियानुविधानम् / (4) निमित्तकारणक्रियानुविधान / (5) निमित्तकारणभूतदण्डादिवच्छुक्लरूपादिकमपि / (6) निमित्तकारणभूतप्रदीपवत् भासुररूपादिकं तत्प्रकाशे निषिद्धयताम् / (7) पृ० 453 पं० 10 / (8) तुलना-"न खल मृदाद्यपाये कलशादावपायो नोपलब्धः इति ।"-स्या० र०पू० 863 / (9) 20453 पं०११। (10) तुलना-"सौदामिनीप्रदीपादिद्रव्याणां विनाशेऽपि पथक तदवयवानामन पलम्भात् ।"-स्या० र० पृ०८६३ / (11) अवयवोपलम्भ-आ०टि०। (12) 'अतीतानामेककालानाम्' -प्रमाणवा० स्ववृ० / व्याख्या-“तत्रापि रसादे रूपाद्यनुमाने अतीतानामेककालानाञ्च गतिः रसोपादानसमानकालभाविनोऽतीताः लिङ्गभूतरससहभाविनः एककालाः तेषाङ्गतिः नानागतानाम् वर्तमानेन लिङ्गेनानुमानं व्यभिचारात्, अनागतं हि कारणान्तरप्रतिबद्धं तत्र प्रतिबन्धवैकल्यसंभवान्न भवेदपि / यच्चाद्योदयात् श्वः सूर्योदयाद्यनुमानन्न तदनुमानं नियामकलिङ्गाभावात्, अद्य गर्दभदर्शनात् श्वः सूर्योदयानुमानवत् ।”-प्रमाणवा० स्ववृत्तिटी० 1112 / उद्धृतमिदम्-सिद्धिवि० टी० पृ० 311A. / प्रमेयक० पृ० 381 / स्या० र० पृ० 590 / (13) रोहिणीनक्षत्रम् / (14) "शकटं रोहिणी धर्मी मुहुर्तान्ते भविष्यदुदेष्यदिति साध्यधर्मः, कुतः ? कृत्तिकोदयादिति साधनम् / न खलु कृत्तिकोदयः शकटोदयस्य कार्य स्वभावो वा; केवलमविनाभावबलाद् गमयत्येव स्वोत्तरमिति प्रतिपद्येत अनुमन्य त सर्वोऽपि जनः इति / तथा श्वः प्रातः आदित्यः सूर्यः उदेता उदेष्यति अद्यादित्योदयादिति प्रतिपद्येत / तथा श्वो ग्रहणं राहुस्पर्शो भवष्यति एवंविधफलकाङ्कादिति वा प्रतिपद्येत सर्वत्राऽव्यभिचारात..."-लघी० सा०पू०३३। तुलना-“कृत्तिकोदयमालक्ष्य रोहिण्यासत्तिक्लूप्तिवत् ।"-मी० श्लो० पृ० 351 / प्रश० व्यो० पू० 571 / प्रमाणप० पृ०७१। परीक्षामु० 3171 / सन्मति०टी०प०५९१ / प्रमाणनय० 3380 / प्रमाणमी० पृ० 41 / जैनतर्कभा० पृ० 16 / “प्रतिबन्धपरिसंख्यायाम् उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयादिति किं प्रमाणम् ?"-सिद्धिवि० पृ० 317 B. / 1-क्रियानुमानं ब०, -क्रियाविधानं आ० / 2-प्रदीपादावपि ब०। 3-विशिषः आ० / -बिम्बप्रकाशे ब०।। तत्प्रतीतेः श्र०। 6 प्रतीतै-आ० / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० विवृतिः-तदेतद् भविष्यद्विषयमविसंवादकं ज्ञानं प्रतिबन्धसंख्या प्रमाणसंख्याश्च प्रतिरुणद्धि / भविष्यद् भावि, प्रतिपद्येत जनः / किम् ? शकटम् / कुतः ? कृत्तिकोदयात् / तथा श्वः प्रातः आदित्य उदेता इति कारिकार्थः पाया प्रतिपद्येत अद्य आदित्योदयात् इति गम्यते। 'ग्रहणंवा भविष्यति' इति प्रतिपद्येत, कुतश्चित् फलकाङ्कादेः। ___करिकायाः तात्पर्यार्थमुपदर्शयन्नाह-'तद्' इत्यादि / तस्माद् ऐकलक्षणान्विता खेतोः एतद् भविष्यद्विषयं भाविशकटोदयादिगोचरम् अविसंवादक विवृतिव्याख्यानम् - ज्ञानं सिद्धम् / तत् किं करोति ? इत्याह-प्रतिबन्धसंख्यां प्रतिरुणद्धि 10 तादात्म्यतदुत्पत्त्योरत्राँऽसंभवात् / अर्थं कृत्तिकोदयादेः शकटोदयादिकार्यत्वादयमदोषः; तन्न; अतीतकृत्तिकोदयादेः शकटोदयात् प्रतीत्यभावप्रसङ्गात् / अन्योन्यकार्यत्वे अन्योन्याश्रयप्रसतिः / अन्यच्च तत् किं करोति ? इत्याह-प्रमाणसंख्याश्च प्रतिरुणद्धि परंपरिकल्पितस्य प्रतिबन्धस्य पक्षधर्मत्वादेश्वाऽभावेऽपि कृत्तिकोदयाद्यनुमानस्य भावात् / तन्न कार्यस्वभावानुपलब्धिलिङ्गप्रभवं त्रिविधमेव अनुमानम् इत्यनुमानप्रमाणसङ्ख्या15 नियमः सौगतानां व्यवतिष्ठते प्रागुक्तलिङ्गप्रभवानुमानानां ततोऽर्थान्तरत्वप्रसिद्धेः / एतेन नैयायिकोपकल्पितः पञ्चवैवानुमानमित्यनुमानसङ्ख्यानियमः प्रत्याख्यातः; पूर्वोक्तानुमानानां पञ्चस्वनुमानेषु अनन्तर्भावात् / ननु “अस्येदं कारणं कार्य संयोगि समवायि विरोधि चेति लैङ्गिकम्', [वैशे०सू० 9 / 2 / 2] कारणादयः पञ्च हेतव इति सूत्रोपात्ता एव पञ्च हेतवो लैङ्गिकाङ्गम् अविनाभावस्य अत्रैव 20 एव गमकाः इति वैशे- परिसमाप्तेः, तत्कथं नैयायिकानामनुमानसंख्यानियमो न व्यवषिकस्य पूर्वपक्षः- "तिष्ठेत ? अत्र कारणात् कार्यानुमानम् ; यथा ज्वलदिन्धनदर्शनात् (1) फलके पट्टके खंडद्याद्यगणनायाः (खटिकादिलिखिताङ्कगणनायाः) -आ० टि०। (2) अविनाभावैक / (3) कृत्तिकोदय-शकटोदययोः / तुलना-"न पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ।"-परीक्षामु० 3161 / प्रमाणनय० 3 / 67 / (4) भाविकारणवादी प्रज्ञाकरगुप्तः प्राह / प्रज्ञाकरगुप्तस्य भाविकारणतासूचक मतमित्थम्-'भावेन च भावो भाविनाऽपि लक्ष्यत एव मृत्युप्रयुक्तमरिष्टमिति लोके व्यवहारः। यदि मृत्युन भविष्यन्न भवदेवम्भूतमरिष्टमिति... तस्मादनागतस्यापि कारणत्वमव्यभिचारादिति युक्तमेतत् ।"-प्रमाणवातिकालं० पृ० 177 / (5) भवत्येवमपि प्रयोगः-जातः कृत्तिकोदयः शकटोदयात्-आ० टि०। (6) कृत्तिकोदयानुमाने सिद्धे सति ततः शकटोदयानुमानम्, तस्माच्च कृत्तिकोदयानुमानमिति। (7) सौगत / (8) तादात्म्यादिसम्बन्धस्य / (9) हेतो रूपत्रयस्य / (10) कृत्तिकोदयादिहेतुजन्यानुमानानाम् / (11) तादात्म्यतदुत्पत्तिसम्बन्धनिबन्धनानुमानात् / (12) "कार्य कारणपूर्वकत्वेनोपलम्भादुपलभ्यमानं सद् -पयेत् आ० / 2-श्रयत्वप्रस-ब०। 3 प्रतिबिम्बस्य ब०। 4 पञ्चतैवा-श्र० / ' 6-तिष्ठेत् आ०। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 14] वैशेषिकाभिमतहेतुसंख्यानिरासः भविष्यति भस्म इति। कार्यात् कारणानुमानम् ; यथा नदीपूरोपलम्भात् वृष्टेः / संयोगिदर्शनात् संयोगिनोऽनुमानम् ; यथा धूमदर्शनाद् वह्नः / समवायिदर्शनात् समवायिनोऽनुमानम् ; यथा शब्दाद् आकाशस्य / एकार्थसमवायिदर्शनात् एकार्थसमवायिनोऽनुमानम् ; यथा रूपाद् रसस्य / विरोधिदर्शनाद् विरोध्यन्तरानुमानम् ; यथा विस्फूर्जितनकुलर्दशनात् सन्निहितसर्पज्ञानमिति / अत्र प्रतिविधीयते। यत्तावदुक्तम्-'सूत्रोपात्ता एव पञ्च हेतवो लैङ्गिकाङ्गम्' इत्यादि; ..तदसमीक्षिताभिधानम् ; तदतिरिक्तानां कृत्तिकोदयादिहेतूनां तदङ्गत्वतत्प्रतिविधान पुरस्सर कृत्तिकोदयादीनां पूर्व- प्रतिपादनात् / अविनाभाववशाद्धि हेतोरनुमानाङ्गत्वं न कारणादिचरादिहेतूनामपि पृथक् रूपतामात्रेण अस्याऽव्यापकत्वादतिप्रसङ्गाच्च। अविनाभावस्य तु सकलरूपेण गमकत्वप्रदर्श- हेतुकलापव्यापित्वात् तदाभासेभ्यो व्यावृत्तत्वाच्च तद्वशादेव हेतोर्गम- 10 ___ कत्वं प्रतिपत्तव्यम् / नहि तद्व्यतिरेकेण कचिदपि हेतोर्गमकत्वं प्रतीयते; सर्वत्र गमकत्वस्य अविनाभावे सत्येव उपपत्तेः / कार्यकारणभावस्य च षट्पदार्थपरीक्षायां प्रपञ्चतः प्रतिषिद्धत्वात् परमते कार्यकारणलिङ्गयोरसिद्धिः / संयोगसमवाययोरपि तत्रैव निषेधात् संयोगिसमवायिलिङ्गयोरपि असिद्धिः / विरोधिनोप्यविनाभावादेव विरोध्यन्तरानुमापकत्वम् , नान्यथा अतिप्रसङ्गात् / नम् 15 गमकम्, यथाहि-विशिष्टनदीपूरोपलम्भादुपरिष्टाद् वृष्टो देवः इति / तथा च बहलस्वरूपफेनफेनिलपर्णकाष्ठादिवहनविशिष्टस्य नदीपूरस्य वृष्टिकार्यत्वेन पूर्वमुपलम्भात् पुनस्तदुपलम्भे सति युक्तमनुमानम्अयं नदीपूरो वृष्टिकार्यो विशिष्टनदीपूरत्वात् पूर्वोपलब्धनदीपूरवदिति / पूरस्तु उभयतटव्यापकोदकसंयोगः। स पारम्पर्येण वृष्टिकार्य इति / कारणमिति कार्यजनकत्वेन पूर्वमुपलब्धरुपलभ्यमानं तल्लिगं यथा च विशिष्टमेघोन्नतिवर्षकर्मणः / ......तथा धूमोऽग्नेः संयोगी ..समवायी च उष्णस्पर्शो वारिस्थं तेजो गमयतीति। विरोधीच यथाहिर्विस्फूर्जनविशिष्टो नकुलादेलिङ्गमिति ।"-प्रश० व्यो० पृ० 572 / प्रश० किर० पृ० 302 / (1) पृ० 460 पं० 19 / (2) तुलना-“समुद्रवृद्ध्यादौ यथोदितसम्बन्धाभावेऽप्यनुमानदर्शनात् / संयोगसमवायैकार्थसमवायास्तु नानुमानोत्पत्तौ कारणम् / नहि कमण्डलुना छात्रानुमानम्, नापि रूपादेः पृथिव्याद्यनुमानम्, नापि रूपाद्रसानुमानमिति / यच्च विरुद्धस्यानुमानस्योदाहरणं भूतं वर्षणकर्म अभूतस्य वाय्वभूसंयोगस्यानुमापकं तथाऽभूतं वर्षणकर्म भूतस्य वाय्वभूसंयोगस्यानुमापकमिति; तदनुपपन्नम् ; भावाभावयोमुत्र गम्यगमकता, न च तयोविरोधोऽस्ति तस्मात् कार्यकारणभावादय एव सम्बन्धाः यस्य येन नियता अव्यभिचारिणः स हेतुरिति...'' -प्रक० पं० पृ० 68 / न्यायवा० ता० 10 164 / स्या० र० 10532 / लघी० ता०प० 34 / (3) कारणादिरूपतामात्रस्य कृत्तिकोदयादिहेतुषु अव्याप्तिः, धूमादिसाध्यं प्रति व्यभिचारित्वाद्धत्वाभासभूतेषु अग्न्यादिषु सद्भावाच्चातिप्रसंगः / (4) अविनाभावं विना / (5) पृ० 220 / (6) वैशेषिकमते / (7) षट्पदार्थपरीक्षायाम् पृ० 297 / __ 1 'एकार्थसमवापिदर्शनात्' नास्ति ब० / 2 तदव्यतिरि-ब० / Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० यदपि सांख्यैरभिहितम्-मात्रामात्रिक-कार्य-विरोधि-सहचारि-स्वस्वामि-वध्य . घाताद्यैः सप्तधाऽनुमितिः / तत्र मात्रामात्रिकानुमानम् ; यथा चक्षुषो सांख्यपरिकल्पितेभ्यो विज्ञानानुमानम् / कार्यात् कारणानुमानम् ; यथा विद्युदर्शनात् कारणमात्रामात्रिकादिसप्तहेतुभ्योऽपि कृत्तिको- विज्ञानम्। प्रकृतिविरोधिर्दशनात् तद्विरोध्यन्तरानुमानम् ; यथा न / दयादि पूर्वचरदिहे- वर्षिष्यति बलाहकः प्रत्यनीकपवनयोगित्वात् / सहचराऽनुमानम् ; यथा तूना पृथक्तया गम- चक्रवाकयोरन्यतरदर्शनात् द्वितीयज्ञानम् / स्वदर्शनात् स्वामिनोऽनुकत्वासाचन मानम् ; यथा छत्रविशेषदर्शनात् राज्ञोऽनुमानम् / वध्यघातानुमानम् ; यथा सहर्षनकुलदर्शनात् 'घातितोऽनेन सर्पः' इति ज्ञानम् / आदिग्रहणात् संयोग्यनु मानम् ; यथा समुदायवर्तिनि परिव्राजके 'कः परिव्राजकः' इति संशये त्रिदण्डदर्शनात् 10 'परिव्राजकोऽयम्' इति ज्ञानमिति / तदप्येतेनैव प्रत्याख्यातम् ; कृत्तिकोदयादिहेतूनां नैयायिकोपकल्पितहेतुभ्य इव अंतोप्यर्थान्तरभावाऽविशेषात् / / अथेदानीम् 'दृश्यानुपलब्धिरेव गमिका, नान्या संशयहेतुत्वात्' इति नियमं .. निराकुर्वन्नाह अदृश्यपरचित्तादेरभावं लौकिका विदुः। . तदाकारविकारादेरन्यथाऽनुपपत्तितः // 15 // विवृतिः-अदृश्यानुपलब्धेः संशयैकान्ते न केवलं परचित्ताभावो न सिद्धयति अपि तु स्वचित्तभावश्च, तदनंशतत्त्वस्य अदृश्यात्मकत्वात् / तथा च कुतः (1) आदिशब्दात् संयोग्यनुमानं सप्तमम्-आ० टि०। (2) विद्युतः कादाचित्कत्वेन कार्यत्वात् केनापि कारणेन भवितव्यमिति-आ० टि०। (3) तुलना-"एतेन सप्तविधः सम्बन्धः इति प्रत्यु. क्तम्"-न्यायवा० पृ० 57 / “एतेनैव-मात्रानिमित्तसंयोगिविरोधिसहचारिभिः / स्वस्वामिवध्यघाताद्यैः सांख्यानां सप्तधानुमा ।"-ज्यायवा० ता० पृ० 165 / नयचक्रवृ० पृ० 424 A. / लघी० ता०प० 34 / (4) सांख्यकल्पितहेतोरपि। (5) "प्रतिषेधसिद्धिरपि यथोक्ताया एवानुपलब्धेः, सति वस्तुनि तस्या असंभवात्, अन्यथा चानुपलब्धिलक्षणप्राप्तेषु देशकालस्वभावविप्रकृष्टेषु आत्मप्रत्यक्षनिवृत्तेरभावनिश्चयाभावात् / (पृ० 42) विप्रकृष्टविषयानुपलब्धि: प्रत्यक्षानुमाननिवृत्तिलक्षणा संशयहेतुः प्रमाणनिवृत्तावपि अर्थाभावासिद्धेरिति ।"-न्यायबि० पृ० 59 / वादन्याय पृ० 18 / “अनपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलब्धेः संशयहेतुतयाऽगमकत्वादिति भावः ।"-बावन्यायटी० पृ० 19 / हेतुबि० टी० पृ० 162 A. / (6) “विदुर्जानन्ति, के ? लौकिकाः / अपिशब्दोऽत्र द्रष्टव्यः, तेन लौकिका गोपालादयोऽपि किं पुनः परीक्षकाः इत्यर्थः / कम् ? अभावम् असत्ताम्, कस्य ? अदृश्यपरचित्तादे: परेषामातुराणां चित्तं चैतन्यमादिर्यस्यासौ परचित्तादिः, अदृश्यश्चासौ परिचित्तादिश्च स तथोक्तस्तस्य। आदिशब्देन भूतग्रहव्याधिप्रभृतिर्गह्यते यस्य सूक्ष्मस्वभावः / कुतः ? तदित्यादि, तस्य परचित्तादेः कार्यभूतोऽविनाभावी आकार उष्णस्पर्शादिलक्षण: तस्य विकारोऽन्यथाभाव: आदिर्यस्य वचनविशेषारोग्यादेः तस्यानुपपत्तितः असंभवात्।"-लघी० ता० पृ० 34 / (7) “अदृश्यानुपलभ्भादभावासिद्धिरित्ययुक्तम् ; परचैतन्यनिवृत्तावारेकापत्तेः संस्कर्तृणां पातकित्वप्रसङ्गात्, बहुलमप्रत्यक्षस्यापि रोगादेविनिवृत्तिनिर्णयात् ।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० 52 / लघी० ता० पृ० 35 / 1 प्रतिकृतिवि-श्र० / -प्यर्थान्तरविशेषाभावात् श्र०। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 15 ] अभावप्रमाणविचारः परमार्थसतः क्षणभङ्गसिद्धिः ? तद्विपरीतस्य अभेदलक्षणस्यैव स्यात् / . अदृश्यश्वासौ परचित्तादिश्च, आदिशब्देन भूताहव्याधिपरिग्रहः, तस्याऽभावं लौकिका विदुः / कुत इत्यत्राह-'तदाकार' कारिकार्थः इत्यादि / तेन अदृश्यपरचित्तादिना सहभावी शरीरगत उष्णस्पर्शादिलक्षण आकारः तदाकारः तस्य विकारः अन्यथाभाव आदिर्यस्य वचनवि- 5 शेषस्य तस्य अन्यथानुपपत्तितः। ननु सर्वत्र अभावपरिच्छेदे अभावप्रमाणस्यैव व्यापारः, परचित्ताभावश्च अभावः .. तस्माद् अभावस्यैव परिच्छेद्यः। तच्च अभावप्रमाणम् प्रत्यक्षादिअभावपरिच्छेदे अभावप्रमाणीव व्यापार भ्यो भिन्नम् , तद्भिन्नसामग्रीप्रभवत्वात् भिन्नविषयत्वात् भिन्नफलन भावरूपाणां प्रत्यक्षा- साधकत्वाच्च, यद् यतो भिन्नसामग्रीप्रभवत्वादिविशेषणविशिष्टं 10 दीनामिति अभावस्य तत् ततो भिन्नम् यथा प्रत्यक्षादनुमानादि, तथाभूतश्चेदम् , तस्माप्रथक् प्रामाण्यवादिना त् प्रत्यक्षादिभ्यो भिन्नमिति / न चास्य तद्भिन्नसामग्रीप्रभवत्वममीमांसकस्य पूर्वपक्षः 1 सिद्धम् ; तथाहि-इन्द्रियार्थसन्निकर्षरूपायाः प्रत्यक्षादिसामग्रीतः तावदभावप्रमाणं नोत्पत्तमर्हति, अभावेन सह इन्द्रियाणां सन्निकर्षाभावात् / न हि तत्र तेषां संयोगलक्षणः सन्निकर्षः संभवति; अभावस्य अद्रव्यत्वात् / नापि समवायलक्षणः; 15 द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेषेभ्योऽन्यत्वात् / तयोरभावे च तत्प्रभेदः संयुक्तसमवायादिः दूरादपास्तः / संयुक्तविशेषणभावोप्यसंभाव्यः; घटाभावस्य भूप्रदेशविशेषणत्वाभावात् / विशेषणं हि संयुक्तं समवेतं वा भवति यथा दण्डो गुणादिश्च, न चाभावः कचित् संयुक्तः समवेतो वा इत्युक्तम् / उक्तश्च "मैं तावदिन्द्रियेणैषा नास्तीत्युत्पाद्यते मतिः। भावांशेनैव सम्बन्धो योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि // " [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० 18] (1) "अभावोऽपि प्रमाणाभावः नास्तीत्यर्थस्यासन्निकृष्टस्य"-शाबरभा० 1 / 1 / 5 / (2) "अभावशब्दवाच्यत्वात् प्रत्यक्षादेश्च भिद्यते। प्रमाणामभावो हि प्रमेयाणामभाववत् ॥"-मी० श्लो० अभाव० श्लो० 54 / (3) द्रव्यद्रव्ययोश्च संयोगात् / (4) द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषाणामेव च समवायित्वम् / (5) संयोगसमवाययोः / (6) चक्षुःसंयुक्तं भूतलं तद्विशेषणश्चाभाव इति / "मा भूत् संयोगतः, संयुक्तविशेषणत्वाद् गह्यतामिति चेत् ; न; असति सम्बन्धे विशेषणत्वायोगात् / अस्त्येव सम्बन्ध इति चेत्; कोऽसौ ? न तावत्संयोगः; अद्रव्यत्वात् / न समवायः; तदनभ्युपगमात् / अभ्युपगमे वा संयुक्तसमवायादेव ग्रहणात् तद्विशेषणत्वमवक्तव्यं स्यात् / तन्न तावद् भवतामस्ति सन्निकर्षः अस्माकं तु अस्ति संयुक्तसमवायः / तथापि तु नैन्द्रियकत्वमित्यत्रैव वक्ष्यामः ।"-मी० श्लो० न्यायर० पृ०४७९ (7) “न तावदिन्द्रियरेषा नास्तीत्युत्पद्यते मतिः” –मी० श्लो०। (8) 'संयोगों'-मी० श्लो० / सन्मति० टी० ए० 580 / प्रमाणमी० पृ० 9 / (9) उद्धृतोऽयम् 1-सिद्धिपरी-ज० वि० / 2 'भिन्नविषयत्वात् नास्ति ब०। 3 प्रत्यक्षस्तत्साम-ब० / 4-विशेषणीभावो श्र० / 6-भाव्यो यथा घटा-ब०। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० यदि नेन्द्रियादिसामग्रीतस्तदुत्पद्यते, कुतस्तर्हि तदुत्पद्येत इति चेत् ? उपलब्धिलक्षणप्राप्तप्रतिषेध्यार्थानुपलब्धि-भूतलाद्याश्रयोपलब्धि-प्रतिषेध्यघटादिस्मरणलक्षणसामग्रीविशेषात् / "गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्त्मवौं च प्रैतियोगिनम् / मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षयौं / " [मी० श्लो० अभाव० श्लो० 27 ] "प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते / खत्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि // " [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० 11] इति तल्लक्षणसामग्रीतस्तदुत्पत्तिश्च तदन्यतमस्याप्यपाये तदनुपपत्तेः सुप्रसिद्धा / यदि हि उपलब्धिलक्षणप्राप्तार्थानुपलब्धिर्न स्यात् तदा भूतलाद्याश्रयोपलब्धावपि अभाव10 प्रतीतिर्न स्यात् / यदि च भूतलाद्याश्रयप्रतीतिर्न स्यात् तदा भूतलाद्यवच्छेदेन घटाद्यभाव प्रतीतिर्न स्यात् / नहि अज्ञातस्य विशेषणत्वं युक्तमतिप्रसङ्गात् / न च सामान्येन घटाद्यभावप्रतीतिरुपजायते, किन्तु भूतले / तथा, यदि प्रतियोगिस्मरणं न स्यात् तर्हि . . 'नास्ति' इत्येवंरूपा प्रतीतिः स्यात् नतु 'घटो नास्ति' इति / अतः सिद्धं प्रत्यक्षसामग्रीतो भिन्नसामग्रीप्रभवत्वमभावप्रमाणस्य / तथा अनुमानसामग्रीतोऽपि; तस्य हि सामग्री लिङ्गादिलक्षणा, न च अभावेनासिद्धिवि० टी० पृ० 179 B. / प्रमेक० पृ० 189 / सन्मति० टी० पृ० 580 / जनतर्कवा० पृ० 78 / न्यायाव० टी० पृ० 22 / स्या० र० पृ० 280 / प्रमाणमी० 509 / / (1) भूतलाद्याश्रयलक्षणम् / (2) यस्याभावः क्रियते स प्रतियोगी यथा घटाभावे घट: / (3) उद्धृतोऽयम्-प्रश० व्यो० पृ० 592 / न्यायमं० पृ० 50 / बृहदा० वा० पृ० 885 / सिद्धिवि० टी० पृ० 179 B. I प्रमेयक० पृ० 189 / सन्मति० टी० पृ० 23, 276 / न्यायाव० टी० पृ० 22 / न्यायवि० वि० पृ० 488 A. / स्या० र० पृ० 280 / प्रमेयर० पृ० 69 / रत्नाकराव० 2 / 1 / विश्वतत्वप्र० पृ० 13 / प्रमाणमी० पृ०९ / जैनतर्कवा० वृ० पु०९२ / प्रभाकरवि० पू०५८। प्रमेयरत्नको० पृ०५८। (4) 'सात्मनः परिणाम:'-मी० श्लो० / “तामेव द्विधा विभजते सेति / योऽयमात्मनो घटादिविषयः प्रत्यक्षादिज्ञानस्वरूप: परिणामः तदभावमात्रमेवानुत्पत्तिरभावः इति बोध्यते। तच्च घटाद्यभावविषयं नास्ति, बुद्धिजनकतया इन्द्रियादिवत् प्रमाणं नास्ति इति।"-मी० श्लो० न्यायर० पृ० 475 / “सा प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः निषेध्याभिमतघटादिपदार्थज्ञानरूपेणापरिणतं साम्यावस्थमात्मद्रव्यमुच्यते, घटादिविविक्तभूतलज्ञानं वा"-तत्वसं० पं० 10 471 / आत्मनः स्वरूपस्यापरिणामः इति प्रसज्य इति प्रतिषेधः -आ० टि०। (5) पर्युदास:-आ० टि०। भूतलादिवस्तुन्याश्रयभूते / उद्धृतोऽयम्-प्रश० व्यो पृ० 592 / 'इष्यते' -तत्त्वसं० का० 1649 / प्रमेयक० पृ० 189 / सन्मति० टी० पृ० 580 / स्या० 20 पृ० 278 / षड्द० बृह० पृ० 120 A. / रत्नाकराव० 2 / 1 / बृहत्सर्व० 10 152 / (6) आभावोत्पत्तिश्च / (7) प्रतिषेध्यानुपलब्धि-आश्रयोपलब्धि-प्रतियोगिस्मरणेष्वन्यतमस्य। (8) इह भूतले घटाभाव इति प्रतिनियतदेशतया। (9) भूतलस्य (10) “न चाप्यत्रानुमानत्वं लिंगाभावात् प्रतीयते / भावांशो ननु लिगं स्यात्तदानीं नाजिघृक्षणात् ।।"-मी० श्लो० पृ० 484 / 1-लब्धिप्रतिषेधध्यभूतला-श्र०।-स्वा तत्प्रति-आ०, ब०। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 15 अभावप्रमाणविचारः ऽविनाभूतं किञ्चिल्लिङ्गमस्ति / अनुपलब्धिरस्तीति चेत् ; नन्वसौ गृहीतव्याप्तिका, अगृहीतव्याप्तिका वा अभावमनुमापयेत् ? न तावदगृहीतव्याप्तिका; अतिप्रसङ्गात्। नापि गृहीतव्याप्तिका; यतो व्याप्तिग्रहणं धूमाग्निवद् उभयधर्मग्रहणपूर्वकम् / व्याप्तिग्रहणवेलायाश्च कुतः अभावाख्यधर्मग्रहणम्-अत एव अनुमानात् , तदन्तराद्वा ? यदि अत एव; अन्योन्याश्रयः; तथाहि-अतोऽनुमानादभावसिद्धौ अनुपलब्धेरभावेन अविनाभावित्वसिद्धिः, / तत्सिद्धौ चौऽतोऽनुमानादभावसिद्धिरिति / अनुमानान्तरात् तत्सिद्धौ चाऽनवस्था / किञ्च, अनुपलब्ध्याख्यं लिङ्गमपि उपलब्ध्यभावस्वभावम् , अतः तत्स्वरूपप्रतिपत्तावपि उक्तदोषानुषङ्गः। अनुपलब्धेरग्रहणे च अभावाऽनुपलब्ध्योः अविनाभावप्रतिपत्तिरतिदुर्घटा / अतो नाभावप्रमाणस्य अनुमानसामग्रीप्रभवता / नापि अर्थापत्त्युपमानागमसामग्रीसमुत्थता; प्राक् प्रतिपादिताया अभावप्रमाण- 10 सामग्याः अर्थापत्त्यादिसामग्रीतोऽन्यथानुपपद्यमानार्थ-उपमानोपमेयगतसादृश्यग्रहणशब्दादिलक्षणायाः सर्वथा भिन्नत्वात् / तन्न अभावप्रमाणस्य अध्यक्षादिभ्यो भिन्नसामग्रीप्रभवत्वमसिद्धम् / ... नापि भिन्नविषयत्वम् ; तथाहि-'इह भूतले घटो नास्ति' इति प्रत्ययः न तावद् भावविषयः, तद्वैलक्षण्येन प्रतिप्राणि संवेद्यमानत्वात् / भावविषयत्वे चास्य घटो विषयः, 15 भूतलम् , तत्संसर्गो वा ? प्रथमपक्षे सति घटे घटसत्ताप्रत्ययवत् अभावप्रत्ययोऽपि स्याद् आलम्बनस्य विद्यमानत्वात् / द्वितीपपक्षे तु सघटेऽपि भूतले अभावप्रत्ययप्रसङ्गः विषयभूतस्य भूतलस्य विद्यमानत्वात् / नापि तत्संसर्गः; घटसंयुक्तेऽपि भूतले 'घटो नास्ति' इति प्रत्ययप्रसङ्गात् / अथ घटविविक्तं भूतलम् अँस्य विषयः; ननु तद्वैविक्त्यं किं भूतलस्वरूपमात्रम् , तद्व्यतिरिक्तं वा ? यदि भूतलस्वरूपमात्रम् + तर्हि 20 विद्यमानेऽपि घटे तेत्प्रत्ययप्रसङ्गः / अथ 'तद्वयतिरिक्तम् ; तर्हि नाममात्रं भिद्यते नार्थः, विविक्तताशब्देन अभावस्यैव अभिधानात् / अतः सिद्धो भावादर्थान्तरम् अभावप्रमाणस्यैव परिच्छेद्योऽभावः, प्रत्यक्षादीनां भावविषयतया अभावगोचरचारित्वाभावात् / (1) "प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिर्न तु लिगं भविष्यति। .. न चानवगतं लिङ्गं गृह्यते चेदसावपि / अभावत्वादभावेन गृह्येतान्येन हेतुना // स चान्येन ग्रहीतव्यो गृहीते हि लिङ्गता। तद्गृहीतिर्हि लिनेन स्यादन्येनेत्यनन्तता // लिङ्गाभावे तथैव स्यादनवस्थेयमित्यतः / क्वाप्यस्य स्यात्प्रमाणत्व लिङ्गत्वेन विना ध्रुवम् // " -मी० श्लो० पृ० 486-88 / शास्त्रदी० पृ. 335 / (2) साध्यसाधनरूपोभयधर्म-आ० टि० / (3) असिद्धम् आ० टि० / (4) भावप्रत्ययविलक्षणतया। (5) विषयभूतस्य घटस्य / (6) “न भूतलम् ; सत्यपि घटे प्रसङ्गात्" -शास्त्रदी० पृ० 325 / (7) घटो नास्तीतिप्रत्ययस्य। (8) “कोऽयं घटविवेकः ? यदि भूतलरूपमेव; घटवत्यपि प्रसङ्गः / घटसंयोगाभावश्चेत्; अङ्गीकृतस्तर्हि अभावः ।"-शास्त्रदी० पृ० 327 / (9) नास्तीतिप्रत्यय / 1-हि अनुमा-आ012 वास्तो आ० / वाऽन-आ०। 4-ख्यलि-आ०, थ० विषयभतलस्य ब०। विषयभूतस्य भूतस्य श्र० / एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ०। 6 विविक्तशब्देन आ० / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० __ यदि चाभावः प्रत्यक्षपरिच्छेद्यः स्यात् , कथमिन्द्रियेणाऽसन्निकृष्टः परिच्छिद्येत ? यदा हि केनचिद् अपवरकः स्वरूपेण गृहीतः जिज्ञासाऽभावाद् 'देवदत्तोऽत्र नास्ति' इति न निश्चितम् , पश्चाद् दूरदेशमसौ गतः, यदा केनचित्पृष्टः 'किं तत्र देवदत्त आसीन वा' इति ? प्रतिवेचनश्चासौ तदैवे तद्देशमनुस्मृत्य देवदत्ताभावं प्रतिपद्य प्रयच्छति 5 'नासीत्' इति / नहि तैत्र इन्द्रियसन्निकर्षोऽस्ति इति कथं तत्र प्रत्यक्षसंभवः ? ततो न प्रत्यक्षपरिच्छेद्योऽभावः / / नाप्यनुमानादिपरिच्छेद्यः; तदविनाभाविनो लिङ्गादेरसंभवात् / अनुपलब्ध्यादेश्व तल्लिङ्गादेरनन्तरमेव कृतोत्तरत्वात् / अतः पारिशेष्याद् अभावप्रमाणगोचर एव अभाव इति नासिद्धं भिन्नविषयत्वम् / उक्तञ्च "प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते / वस्तुसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता // " [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० 1] नापि भिन्नफलसाधकत्वम् ; अभावावगतिलक्षणफलस्य अभावप्रमाणप्रसादौदेव प्रसिद्धेः / अतः प्रत्यक्षादिभ्यो विलक्षणस्य प्रतिषेध्याधारग्रहणादिसामग्रीप्रभवस्य नबर्थविषयस्य नबर्थसंवित्तिफलस्य अभावप्रमाणस्य प्रमाणान्तरत्वमभ्युपगन्तव्यम् / (1) "स्वरूपमात्रं दृष्ट्वाऽपि पश्चात्किञ्चित्स्मरन्नपि / तत्रान्यनास्तितां पृष्टस्तदैव प्रतिपद्यते // यदा हि कश्चित् प्रातःकाले कञ्चिद्देशमध्यासीनस्तत्र व्याघादिकमदृष्ट्वा तदस्मरणाच्च तदभावमप्यगृहीत्वा देशमात्रं दृष्ट्वा देशान्तरगतो मध्यन्दिने पृच्छयते 'कश्चित्तस्मिन्देशे प्रातःकाले व्याघा गजः सिंहः पार्थिवो वा समागतः ?' इति / स तदा तं देशमवगतत्वात्स्मरन्नपि तत्र देशेऽन्येषां : व्याघादीनामभावं प्रागगृहीतं तदैव गणाति / न च मध्यन्दिने समये प्रातःकालिकस्याभावस्यानिन्द्रियसनिकृष्टस्य संभवति प्रत्यक्षेण ग्रहणम्, तस्येन्द्रियसन्निकृष्टवर्तमानविषयत्वात् ।"-मी० श्लो० न्यायर० पृ० 483 / शास्त्रदी० पृ० 339 / (2) उत्तरम्। (3) देवदत्ताभावे। (4) "नाप्यनुमेयः; अज्ञातेन तेन कस्यचिल्लिङ्गस्य सम्बन्धग्रहणासंभवात् / " -शास्त्रदी० पृ० 340 / (5) "मेयो यद्वदभावो हि मानमप्येवमिष्यताम् / भावात्मके यथा मेये नाभावस्य प्रमाणता। तथाऽभावप्रमेयेऽपि न भावस्य प्रमाणता // अभावो वा प्रमाणेन स्वानुरूपेण मीयते / प्रमेयत्वाद्यथा भावस्तस्माद् भावात्मकात् पृथक् // " -मी० श्लो० अभाव० श्लो० 45, 46, 55 / (6) व्याख्या-“ओंचक: ( उम्बेकः ) त्वेवं व्याख्यातवान् यत्र घटाख्ये वस्तुनि प्रत्यक्षादि सद्भावग्राहकं नोपजायते तस्य नास्तिता भूप्रदेशाधिकरणाभावप्रमाणस्य प्रमेया"-स्या० र० पू०२७९। “तत्र सदसद्रूपेणोभयात्मके वस्तुनि व्यवस्थिते यस्मिन् वस्तुरूपे वस्त्वंशेऽसद्रपाख्ये प्रमाणपञ्चकमर्थापत्तिपर्यन्तं न जायते। किमर्थम् ? वस्तुनः सत्तांशावबोधार्थम्। तत्र अभावांशे प्रमेये अभावस्य प्रमाणता।" -तत्त्वसं० पं० पृ० 470 / उद्धृतोऽयम्-प्रश० व्यो० पृ० 592 / हेतुबि० टी० पृ० 190 A. / तत्त्वसं० का० 1648 / षड्द० इलो० 76 / प्रमेयक पृ० 189 / सन्मति० टी० पृ० 580 / नन्दि० मलय० पृ०२५ / स्या० 2010 279 / 'वस्त्वसत्तावबोधार्थ'-षड्द० श्लो० 50, बृह०पू० 120 A, I प्रमेयर०पू०१३९ / विश्वतत्वप्र. पृ०१३ / चित्सु०पू० 268 / बृहत्सव०पू० 165 / नन्वि० मलय० 10 25 / (7) असिद्धमित्यत्रापि योज्यम्-आ० टि० / (8) प्रतिषेध्यो घट: तस्याधारो भूतलादिः (9) प्रतियोगिस्मरणम् प्रतियोग्यनुपलब्धिश्च ग्राह्या / 1-हितद्दे -श्र०12 -देव सिद्धःथः। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 15 ] , अभावप्रमाणविचारः 467 न च अवस्तुविषयत्वादस्य अप्रामाण्यम् ; अभावस्य प्रमाणेन परिच्छिद्यमानतया अवस्तुत्वानुपपत्तेः / यत् प्रमाणेन परिच्छिद्यते न तदवस्तु यथा भावः, प्रमाणेन परिच्छिद्यते च अभाव इति / अवस्तुत्वे चास्य भेदो दुर्घटः, यदवस्तु न तस्य भेदः यथा खपुष्पादेः, अस्ति च प्रागभावादिभेदोऽभावस्य इति / तदवस्तुत्वे च अर्थानां साङ्कय स्यात्, दध्यादेः क्षीराद्यवस्थायां प्रागभावादेरवस्तुतयाऽसाकर्याऽहेतुत्वात् , तथा च / प्रतिनियतव्यवहारवालॊच्छेदः स्यादिति / तदुक्तम् - "र्ने च स्याद्वयवहारोऽयं कोरणादिविभागतः / प्रागभावादिभेदेन नाभावो यदि भिद्यते // यद्वाऽनुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यो यतस्त्वयम् / तस्माद् गवादिवद्वस्तु प्रमेयत्वाच गृह्यताम् / ने चावस्तुन एते स्युः भेदाः तेनौस्य वस्तुता ।कार्यादीनामभावः को भावो यः कारणादितः(ना)।। वस्त्वसङ्करसिद्धिश्च तत्प्रामाण्यं समाश्रिता / 'क्षीरे दध्यादि यन्नास्ति प्रागभावः स उच्यते // 10 नास्तिता पयसो दभि प्रध्वंसाभावलक्षणम् / गवि योऽश्वाद्यभावस्तु सोऽन्योन्याभाव उच्यते॥ (1) अभावस्य / (2) अभावस्य। (3) परस्परात्मत्वम् / (4) व्याख्या-“यत् खलु दधिरूपं प्रागभूत्वा भवति तदुपादेयं कार्यम्, यच्च प्रागवस्थितं क्षीररूपं पश्चान्न भवति तदुपादानकारणम्, सोऽयं कार्यकारणविभागः। तथा गौरश्वो न भवति, अश्वो न भवति गौः, विषाणशून्यः शश इत्यादि व्यवहारोऽसत्यभावस्य प्रागभावादिरूपभेदे नोपपद्यत इति ।"-मी० श्लोक - * न्यायर० पृ० 474 / (5) कार्यस्य प्रागभावः कारणम्-आ० टि०। (6) व्याख्या-"अस्ति ह्यभावस्य प्रागभावादिरूपेण व्यावृत्तिरभावरूपेण चानुवृत्तिरिति / तत्रैव हेत्वन्तरमाह प्रमेयेति"-मी० श्लो. न्यायर० पृ० 475 / “अभावो वस्तु इति पक्षः, अनुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यत्वात् प्रमेयत्वाच्चेति हेतद्वयं गवादिवदिति दृष्टान्तः ।"-तत्त्वसं० पं० पृ० 473 / (7) अभाव इति-आ० टि० / (8) प्रागभावादि-आ० टि० / (9) व्याख्या-“न ह्यवस्तुनो भेदो युक्त: वस्त्वधिष्ठानत्वात्तस्य तस्मादभावो वस्तु / कीदृशं पुनरस्य वस्तुत्वमित्याह-कार्यादीनामिति / क्षीरादेः कारणस्य यो भावः स एव दध्यादेः कार्यस्याभावः, कार्यस्य दध्यादेर्यो भावः स एव क्षीरादेः कारणस्याभाव इत्येतदभाववस्तुत्वम् ।"-तत्त्वसं० पं० पृ०४७३। (10) भेदवत्त्वेन / (11) को योऽभावः कारणादिनः' -मी० श्लो। 'स यो भावः कारणादिना'-तत्त्वसं० / 'को भावो यः कारणादि न' -सन्मति० टी०। 'को भावो यः कारणादिनः-स्या०र०। 'को भावो यः कारणादिना' -बड़व०बह / (12) व्याख्या-"प्रत्यक्षादिभिः सद्रूपेण प्रमीयमाणमपि घटादिकमसद्रूपेण अभावस्य प्रमेयम्, असंकरोऽसद्रूपमभाव इति यावत् ।"-मी० श्लो० न्यायर० पृ० 473 / (13) 'तत्प्रामाण्यसमाश्रया' -मी० श्लो० / (14) व्याख्या-"क्षीरमृदादौ कारणे दधिघटादिलक्षणं कार्य नास्तीत्येवं यत्प्रतीयते लोके स प्रागभाव उच्यते / यदि तु प्रागभावो न भवेत् क्षीरादौ दध्यादि कार्य भवेदेव / एवं दध्नि क्षीराख्यस्य यन्नास्तित्वमयं प्रध्वंसाभावः, अन्यथा दध्नि क्षीरं भवेदेव। गवादौ अश्वादेरभावोऽन्योन्याभाव उच्यते / यस्मात्तस्य गवादेः पररूपमश्वादिस्वभावो नास्ति तस्मात्तयोरन्योन्याभाव उच्यते / अन्यथा गवादी भवेदश्वादि यद्यन्योन्याभावो न भवेत् / शशशिरसोऽवयवा निम्ना (अनुन्नताः) वृद्धिकाठिन्याभ्यां रहिता विषाणादिरूपेण अत्यन्तमसन्तः अत्यन्ताभाव उच्यते। यदि त्वत्यन्ताभावो न भवेत् शशे शृङ्गं भवेदेव ।"-तस्वसं० पं० पृ० 472 / उद्धृतोऽयम्-न्यायमं० पृ० 65 / हेतुबि० टी०पू० 81 B.I. .. 1-वस्तुतत्तयासांकर्यहेतुत्वात् ब० / 2 उक्तञ्च श्र० / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० शिरसोऽवयवा निम्ना वृद्धिकाठिन्यवर्जिताः / शशशृङ्गादिरूपेण सोऽत्यन्ताभाव उच्यते // क्षीरे दधि भवेदेवं दनि क्षीरं घट पटः / शशे शङ्ख पृथिव्यादौ चैतन्यं मूर्तिरामनि // अप्सु गन्धो रसश्चाग्नौ वायौ रूपेण तौ सह / व्योग्नि संस्पर्श (शि)ता ते च न चेदैस्य प्रमाणता।" मी० श्लो० अभाव० श्लो० 7, 9, 8, 2-6 / ] इति / अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्त –'अभावप्रमाणं प्रत्यक्षादिभ्यो भिन्नम्' इत्यादि पनि विधान पारस- तदसमीक्षिताभिधानम् ; तद्विषयस्य प्रत्यक्षादिभिः परिच्छिद्यमानतया रम अभावस्य प्रत्य- तेस्य ततो भेदानुपपत्तेः / द्विविधो हि अभावः-विकृष्टार्थसम्बन्धी, क्षाद्यन्यतमग्राह्यत्व- अविप्रकृष्टार्थसम्बन्धी चेति / तत्र यो देशाद्यविप्रकृष्टार्थसम्बन्ध्यभावः समर्थनम्- सप्रत्यक्षत एव परिच्छिद्यते, इन्द्रियव्यापारादनन्तरम् 'अघटं भूतलम्' 10 इत्यादिप्रत्ययप्रतीते: / अप्रत्यक्षत्वञ्च अभावस्य इन्द्रियेणाऽसम्बद्धत्वात्, अरूपित्वात् , असद्रूपत्वाद्वा ? न तावदसम्बद्धत्वात् ; रूपस्याप्यप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात्, अप्राप्यकारिणा हि (1) उन्नता अथ च वृद्धिमन्तः कटिना अवयवा विषाणत्वेन व्यपदिश्यन्ते, यदा च शशशिरसोऽवयवाः निम्नाः अनुन्नता अथ च वृद्धिकाठिन्यविरहिताः तदा त एव शृङ्गाभावरूपेण व्यपदेशार्हाः / (2) रसगन्धौ। (3) संस्पर्शिणो भावः संस्पर्शिता स्पर्श इत्यर्थः / 'संस्पर्शकास्ते च'-तत्त्वसं०, स्या० र० / 'सस्पर्शता ते च' -सन्मति० टी०। (4) रूपरसगन्धा:-आ० टि० / (5) अभावस्य / (6) एतेऽष्टावपि श्लोकाः निम्नग्रन्थेषु उद्धृताः-तत्त्वसं०, तत्त्वसं० 50 पृ० 471-473 / प्रमेयक० पृ० 190 / सन्मति० टी० पृ० 580-81 षड्द० बृह० पृ० 120 B. / 'न च स्याद्व्य' इति श्लोक विना सप्त श्लोकाः-स्या० र० पृ० 281-83 / (7) पृ० 463 पं०८। "अभावोऽप्यनुमानमेव, यथोत्पन्नं कार्य कारणसद्भावे लिङ्गम्, एवमनुत्पन्नं कार्य कारणासद्भावे लिङ्गम् ।'-प्रश० भा० पृ० 577 / (8) तुलना-"प्रत्यक्षादिनैवाभावस्य प्रतीतेः, तथा चाक्षव्यापारादिह भूतले घटो नास्तीति ज्ञानमपरोक्षमुत्पद्यमानं दृष्टम्"-प्रश० व्यो० 50 592 / प्रश० कन्द० पृ० 226 / “शब्दे ऐतिह्यानर्थान्तरभावाद् अनुमानेऽर्थापत्तिसंभवाभावानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः ।"-न्यायसू० 2 / 2 / 2 / "अभावोऽप्यनुमानमेव"-न्यायवा० पृ० 276 / “सत्यमभावः प्रमेयमभ्युपगम्यते प्रत्यक्षाद्यवसीयमानस्वरूपत्वान्न प्रमाणान्तरमात्मपरिच्छित्तये मृगयते / अदूरमेदिनीदेशवर्तिनस्तस्य चक्षुषा / परिच्छेदः परोक्षस्य क्वचिन्मानान्तरैरपि ॥"-न्यायमं० 1051 / “अन्यस्य घटादिविविक्तस्य भूतलस्योपलब्ध्या घटानुपलब्धिरिति प्रत्यक्षसिद्धानुपलब्धिः / एतदुक्तम्भवति-घटग्राहकत्वस्य भूतलग्राहकत्वस्य चैकज्ञानसंसर्गित्वात् यदा भूतलग्राहकमेव तज्ज्ञानं भवति तदा घटग्राहकत्वाभावं निश्चाययतीति प्रतीतिप्रत्यक्षसिद्धव घटानुपलब्धिः ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 106 / “यदि वस्तु प्रमाभावः मेयाभावस्तथैव च / प्रत्यक्षेऽन्तर्गतोऽभावः तथा सति कथन ते॥"-तत्त्वसं०१० 475 / "भावांशवदितरस्यापि प्रत्यक्ष एव.." -सिद्धिवि० टी० पृ० 179 A. / “एवञ्चाभावप्रमाणवैयर्थम् असदंशस्यापि प्रत्यक्षादिसमधिगम्यत्वसिद्धेः।" -तत्वार्थश्लो० पृ. 182 / “अभावप्रमाणं तु प्रत्यक्षादावेवान्तर्भवति" -स्या०र० पृ. 310 / न्यायाव० टी० टि० पृ० 21 / (9) अभावस्य-आ० टि० / (10) प्रत्यक्षादे:-आ० टि। (11) "न चाभावस्यासत्त्वं प्रत्यक्षादिप्रमाणैर्व्यवसीयमानत्वात्; तथाहि-इह भूतले घटो नास्तीति ज्ञानमिन्द्रियभावव्यतिरेकानुविधानादिन्द्रियजम् / " -प्रश० व्यो० पृ० 400 / ___1-तामेव न ब०।-दस्त्यप्र-ब०। 3 विप्रकृष्टोऽर्थसम्बन्धी चेति ब०। 4-सम्बन्धाभावः आ०। 6-सम्बन्धत्वात् आ० / Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 15 ] अभावप्रमाणविचारः 466 चक्षुषा यथा रूपस्य असम्बद्धस्य ग्रहणं तथा अभावस्यापि। ननु चासम्बद्धस्याप्यभावस्य चक्षुषा प्रहणे देशान्तरवर्त्तिनोऽपि ग्रहणप्रसङ्गः अविशेषात्; इत्यपि रूपेण कृतोत्तरम्। नहि तस्य असम्बद्धस्य ग्रहणेऽपि सकलदेशकालवर्सिनो ग्रहणं दृष्टम् / अथ रूपे चक्षुषः संयुक्तसमवायसम्बन्धसद्भावादसम्बद्धत्वमसिद्धम् ; तन्न; चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वस्य प्रागेव प्रतिपादनात् / तत्सम्बन्धात् तस्य तेन ग्रहणे च रसादेरपि ग्रहणप्रसक्तिः तैदविशेषात् / / अयोग्यत्वातंदग्रहणे देशान्तरादिस्थस्य अभावस्याप्यते एवाग्रहणमस्तु अविशेषात् / . किच, आश्रयग्रहणसापेक्षम् अभावग्रहणम् , आश्रयश्च सन्निहित एव गृह्यते, तत्कथं देशान्तरादिस्थस्य अभावस्य ग्रहणसम्भावनाऽपि ? तन्नेन्द्रियेणासम्बद्धत्वादस्य अप्रत्यक्षता युक्तां / नाप्यरूपित्वात् ; तस्य प्रत्यक्षता प्रत्यनङ्गत्वात् , नहि रूपित्व प्रत्यक्षता प्रत्यङ्गम् , 10 परमाणूनां रूपित्वेऽपि अप्रत्यक्षत्वात् / गुण-कर्म-सामान्येन अनेकान्ताच; न खलु रूपादिगुणस्य गमनादिकर्मणः गोत्वादिसामान्यस्य च रूपित्वमस्ति, अथ च प्रत्यक्षत्वं तत्र विद्यते। असद्रूपत्वमपि न प्रत्यक्षतां प्रतिहन्ति; असद्रूपस्य हि सद्रूपतया प्रत्यक्षत्वमनुपपमं न पुनरसदूपतया, स्वस्वभावेन अर्थानां प्रत्यक्षत्वाऽविरोधात् / नहि घटस्य 15 पटात्मना प्रत्यक्षत्वविरोधे स्वात्मनापि तद्विरोधो युक्तः; सर्वत्र प्रत्यक्षव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् / ततस्तैमिच्छता भाववद् अभावस्यापि स्वस्वभावेन प्रत्यक्षत्वमभ्युपगन्तव्यम् / ननु तथापि अभावस्य कथं प्रत्यक्षता विरोधादिति चेत् ? भावस्य कथम् ? प्रत्यक्षग्राह्यत्वाञ्चेत्; इतरत्र समानम् / तथाहि-उन्मीलिते चक्षुषि भूतलं घटाभावश्च प्रतिभासते, न निमीलिते / अतः समाने तद्भावभावित्वे कथं भूतलज्ञानमेव प्रत्यक्षं न घेटाभाव- 20 झानमिति नियमविभागो युक्तः ? प्रयोगः-यच्चक्षुर्भावाऽभावानुविधायि तत् प्रत्यक्षम् यथा भूतलादिज्ञानम् , तदनुविधायि च घटाद्यभावज्ञानमिति / अप्रत्यक्षत्वे चास्य आलोकापेक्षापि अतिदुर्घटा, आलोको हि चक्षुष एव उपकारकत्वेन प्रसिद्धः / तद्रुपकृतचक्षुःप्रभवत्वानभ्युपगमे च घटाद्यभावज्ञानस्य, अन्धस्यापि तदुत्पत्तिः स्यात् / (1) अभावस्य / (2) असम्बद्धत्वस्य समानत्वात् / (3) पृ० 77 / (4) संयुक्तसमवायसम्बन्धात् / (5) रूपस्य-आ० टि० / (6) इन्द्रियेण-आ० टि० / (7) संयुक्तसमवायाविशेषात् 'चक्षुःसंयुक्तमामादिकं तत्र च रसस्य समवायात् / (8) रसस्याग्रहणे / (9) अयोग्यत्वादेव / (10) तुलना-“नचासम्बद्धत्वाविशेषाद्देशान्तरादिषु सर्वाभावग्रहणमाशङ्कनीयम्; आश्रयग्रहणसापेक्षत्वादभावप्रतीतेः, आश्रयस्य च सन्निहितस्यैव प्रत्यक्षत्वात् ।"-न्यायमं० पृ० 52 / (11) आश्रयो भूतलादिः / (12) अभावस्य / (13) रूपित्वस्य / (14) प्रत्यक्षत्वविरोधः / (15) प्रत्यक्षव्यवहारम् / (16) प्रत्यक्षश्चेत् कथमभावः, अभावश्चेत् कथं प्रत्यक्ष इति विरोधः / (17) अभावेऽपि / (18) चक्षुः-आ० टि०। (19) घटाद्यभावज्ञानस्य / (20) आलोकसहकृत / 1 तस्य तत्र प-श्र०। 2 रूपत्वं श्र०। 3 घटभाव-ब० / 4 प्रतिसिद्धः व०। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० ___ ननु घटाद्यभावज्ञाने लोचनान्वयव्यतिरेकानुविधानम् अन्यथासिद्धम् रूपज्ञानानन्तरभाविस्पर्शसंवेदनवत्, यथैव हि दूरदेशस्थितज्वलज्ज्वलनज्वालारूपोपलम्भानन्तरभाविनि तद्गतोष्णस्पर्शसंवेदने लोचनान्वयव्यतिरेकानुविधानम् अन्यथासिद्धं तथा भूत लोपलम्मानन्तरभाविनि घटाद्यभावज्ञानेऽपि; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; 'इह भूतले घटो नास्ति' / इति ज्ञानस्य भेदाऽसिद्धेः / सिद्धे हि ज्ञानभेदे तदन्वयव्यतिरेकानुविधानस्य अन्यथासिद्धत्वं वक्तुं युक्तम् रूपस्पर्शज्ञानवत् / न चात्रै तद्भेदोऽस्ति, 'इह कुण्डे दधि' इत्यादिज्ञानवत् 'इह भूतले घटो नास्ति' इत्यादिज्ञानस्यापि एकस्य उभयांशावलम्बिनः अनुपरतनयनव्यापारे प्रतिपत्तरि प्रतीतेः / अस्तु वा तद्भेदः, तथापि इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानु विधायित्वेन उभयस्योपलम्भाऽविशेषे कथमेकस्य प्रत्यक्षत्वमन्य॑स्याऽप्रत्यक्षत्वं वक्तुं युक्तं 10 स्वेच्छाकारित्वप्रसङ्गात् ? प्रतियोगिस्मरणानन्तरभावित्वात् घटाद्यभावप्रतीतेरप्रत्यक्षत्वे संविकल्पकप्रत्यक्षाय दत्तो जलाञ्जलिः / तद्धि निर्विकल्पकप्रत्यक्षानन्तरं शब्दार्थसम्बन्धस्मरणे सति 'घटोयम्' इत्याद्याकारमुपजायते / तथाविधस्याप्यस्य इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधा यितया प्रत्यक्षत्वे घटाद्यभावप्रत्ययस्यापि तदैस्तु अविशेषात् / न चैवं रूपोपलम्भा15 नन्तरभाविस्पर्शसंवेदनेऽपि चाक्षुषत्वप्रसङ्गः इत्यभिधातव्यम्; स्पर्शग्रहणयोग्यताशून्यत्वाच्चक्षुषः स्पर्शनस्यैव तद्रहणयोग्यतासद्भावात् , अन्यथा उपहँतत्वगिन्द्रियस्यापि (1) अनुमया -आ० टि० / “अवश्यक्लप्तनियतपूर्ववृत्तिन एव कार्यसंभवे तदभिन्नमन्यथासिद्धम्"-मुक्ता० का० 19-20 / तुलना-"न च दूरव्यवस्थितहुतवहरूपदर्शनपूर्वकस्पर्शानुमानवदिदमन्यथासिद्धं तद्भावभावित्वम्; तत्र हि बहुशः स्पर्शदर्शनकौशलशून्यत्वमवधारितं चक्षुषः, स्पर्शपरिच्छेदि च कारणान्तरं त्वगिन्द्रियमवगतम् / अविनाभाविता च पुरा तथाविधयो रूपस्पर्शयोरुपलब्धेत्यनुमेय एवासौ स्पर्श इति युक्तं तत्रान्ययासिद्धत्वं चक्षुापारस्य, प्रकृते तु नेदृशः प्रकारः समस्ति ।"-न्यायमं० पृ० 51 / “यत्तु भूप्रदेशग्रहणजन्मन्येव अक्षाणामुपयोगित्वादक्षापेक्षित्वमन्यथासिद्धमभावज्ञानस्येत्युक्तम् / तदनुपपन्नम् ; न खल ज्ञानद्वयं क्रमेणोत्पद्यमानमिदमनुभूयते प्रथममिन्द्रियजं भूप्रदेशज्ञानं ततः प्रतियोगिस्मरणे सति मानसमिन्द्रियानपेक्षं नास्तिताज्ञानं च / एकस्यैव कुम्भादिविविक्तभूप्रदेशग्राहिणो ज्ञानस्याभावग्राहित्वेनाप्यनुभूयमानत्वात, तस्य चेन्द्रियजत्वेन त्वयापि प्रतिपन्नत्वान्नान्यथासिद्धमक्षापेक्षित्वमभावज्ञानस्य।" -स्या० र० पृ० 310 / (2) इन्द्रिय। (3) इह भूतले घटो नास्तीत्यत्र। तुलना"तथा चेह घटो नास्तीति ज्ञानमेकमेवेदमिह कुण्डे दधीति ज्ञानवद् उभयालम्बनमनुपरतनयनव्यापारस्य भवति, तत्र भूप्रदेशमात्र एव नयन ज्ञानिमतरत्र प्रमाणान्तरजमिति कुतस्त्योऽयं विभागः।"-न्यायमं० पृ० 51 / (4) भूतलघटाभावौ उभयम् / (5) ज्ञानभेदः। (6) भूतलघटाभावौ उभयम् / (7) भूतलस्य। (8) घटाभावस्य / (9) घटस्मरण। (10) वैशेषिकाद्यभिमताय-आ० टि०। (11) सविकल्पकम्-आ० टि०। (12) स्मरणानन्तरभाविनोऽपि सविकल्पकस्य / (13) प्रत्यक्षत्वम् / (14) इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधानस्य समानत्वात् / (15) स्पर्शग्रहण / (16) चक्षुषा स्पर्शग्रहणे सति-आ० टि०। (17) बधिरत्वरोगवत्त्वगिन्द्रियस्यापि-आ० टि०। पक्षाघातादिना शून्यस्पर्शनेन्द्रियस्य पुंसः / 1-वियत्वातिरेका-ब०। 2 तदा श्र०। 3 ज्ञानस्यास्य भे-श्र० / 4 ज्ञानस्य भे-श्र० / 5 प्रतिपत्ति प्र-आ०, श्र०। 6-प्रत्यक्षस्यापि श्र०। .. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 15 ] - अभावप्रमाणविचारः / 471 स्पर्शसंवित्तिः स्यात् / तस्मादानुमानिकमेव इदं विज्ञानं 'येद् रूपवत् तत् स्पर्शवत्, यदि वा, यदेवंविधरूपवत् तदेवंविधस्पर्शवत्' इति सामान्यतो विशेषतश्च : प्रतिपन्नाऽविनाभावहेतुसामर्थेन उत्पत्तेः, यदित्थमुत्पद्यते तदनुमानमेव यथा 'यद् धूमवत् तदग्निमत्, यद्वा यदेवंविधधूमवत् तदेवंविधाग्निमत्' इत्याद्यवगताविनाभावहेतुप्रभवं विज्ञानम्, प्रतिपन्नाविनाभावहेतुसामर्थ्येनोत्पद्यते च रूपोपलम्भानन्तरभाविस्पर्शविज्ञानमिति / ततः स्थितमेतत्-देशाद्यविप्रकृष्टार्थसम्बन्ध्यभावः प्रत्यक्षत एव परिच्छिद्यत इति / यस्तु देशादिविप्रकृष्टार्थसम्बन्ध्यभावः सोऽनुमानादेः; तत्र देशविप्रकृष्टस्य कमलाकरकमलादेः सम्बन्धी विकासाद्यभावः दिनकरोदयाद्यभावादवसीयते / कालविप्रकृष्टस्य च शर्कंटादेः मुहूर्तान्ते उदयाभावः अश्विन्युदयात् प्रतीयते / स्वभावविप्र- 10 कृष्टस्य च चैतन्यस्य शवशरीरे सत्त्वाभावः व्यापारव्याहाराकारविशेषाभावादनुमीयते / न खलु एवंविधाभावः एवंविधलिङ्गादन्यतः कुतश्चित् प्रतिपत्तुं शक्यः / एतेन यदुक्त–'यद्यभावः प्रत्यक्षपरिच्छेद्यः स्यात् कथमपवरकादौ इन्द्रियेणाऽसन्निकृष्टो देवदत्ताद्यभावः परिच्छिद्येत' इत्यादि; तदपि प्रतिव्यूढम् ; 'नासीदपवरके देवदत्तः' इत्यादिप्रतीतेः स्मृतित्वात् 'आसीत् तत्र घटः' इत्यादिप्रतीतिवत् / अपवरक- 16 प्राहिणा हि प्रत्यक्षेण तत्राऽसन्निहितार्थानामभावा युगपत्प्रतिपन्नाः तंत्र सन्निहितार्थसद्भाववत् / तदुत्तरकालश्च संस्कारप्रबोधवशात् तद्भावाभावविषया प्रतीति: उदयमासा• दयन्ती स्मृतित्वन्न जहातीति / ने चैतद् वक्तव्यम्-'सकृदनुभूतेषु सकलपदार्थाभावेषु (1) रूपदर्शनान्तरभावि स्पर्शज्ञानम् अनुमानात्मकम् सामान्यतो विशेषतश्च प्रतिपन्नाविनाभावहेतुसामर्थ्येनोत्पद्यमानत्वात्। (2) इयं सामान्येन व्याप्तिः / (3) एषा विशेषतो व्याप्तिः / (4) सामान्यतो विशेषतश्च / (5) तुलना-"कश्चित्पुनरसनिकृष्टदेशवृत्तिरनुमेयोऽपि भवत्यभावः यथा सन्तमसे सलिलधाराविसरसिक्तसस्यमूलमभिवर्षति देवे घनपवनसंयोगाभावोऽनुमीयते, यथा वाऽर्थापत्ताबुदाहृतं गृहभावेन चैत्रस्य बहिरभावकल्पनमिति / आगमादप्यभावस्य क्वचिद् भवति निश्चयः / चौरादिनास्तिताज्ञानमध्वगानामिवाप्ततः ॥"-न्यायम०पू०५४। (6) रोहिण्यादिनक्षत्रस्य / (7) 10 466 पं०१। (8) तुलना-“अस्य स्मरणत्वात् / यद्यपि पूर्वं हस्ती नास्तीत्यादि सविकल्पकं ज्ञानं नोत्पन्नं तथापि हस्त्याद्यभावविशिष्टे देवकुले निर्विकल्पकं ज्ञानमुत्पन्नम् / अन्यथा हि यदाहं देवकुलमद्राक्षं न तदा तं समीपतिनं हस्तिनमिति प्रश्नानन्तरं स्मरणं न स्यात् / तत्तु दृष्टम् / यस्य वस्तुनः पूर्व नाभाव: परिच्छिन्नस्तत्र परप्रश्नानन्तरं संशेते 'न निरीक्षितं मया किं तत्र देवदत्तोस्त्युत हस्ती' इति / न चेदानीमभावं निश्चिनोति। अतः पूर्वमेव हस्त्याद्यभावस्य प्रतीतेर्युक्तमेतत् स्मरणं 'न मया तत्र हस्ती दृष्टः' इत्यादि ।"-प्रश० व्यो० पृ० 593 / न्याममं० पृ० 53 / प्रश० कन्द० पृ० 227 / (9) देवदत्तादीनाम् / (10) अपवरके। (11) येषामर्थानां सद्भावः तेषां सद्भावतया येषाञ्च देवदत्तादीनामभावस्तेषामभावरूपेण। (12) तुलना-“ननु मेचकबुद्धया सकलाभावग्रहणे सहसैव सकलाभावस्मृतिरुप 1 महान्ते श्र० / 2-स्य चै-श्र० / 3 परिच्छिद्यते श्र०, परिच्छेद्यते आ० / 4-हिणा प्रआ०, श्र० / 6-नामभावो युगपत्प्रतिपत्तेः तत्र ब० / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० सहसैव स्मृतिः स्यात्' इति; अनुभूतत्वमात्रस्य स्मृत्यकारणत्वात् , अनुभूतेष्वपि हिं भावाभावस्वभावेषु निखिलार्थेषु यस्य यस्य संस्कारोबोधनिमित्ता प्रश्नादिसामग्री सम्पद्यते तस्य तस्य रूपस्य स्मृतिः प्रादुर्भवति 'इदं तत्रासीत् , इदं नासीत्' इति / यदपि-'अभावप्रमाणोत्पत्तौ भूतलाद्याश्रयग्रहणेरूपा सामग्री' इत्याद्युक्तम् / तद। प्यसारम् ; आश्रयग्रहणस्य प्रत्यक्षेऽप्यविशिष्टत्वात् / न खलु 'भूतले घटोऽस्ति' इति प्रत्यक्षं भूतलग्रहणाहते घटते / न चाश्रयग्रहणपूर्वकमेव अभावग्रहणमिति नियमोऽस्ति; अन्धकारे प्रदीपाभावप्रतिपत्तेराश्रयाऽग्रहणेप्युत्पत्तेः / न चान्धकार एव आश्रयः इत्यभिधातव्यम् ; प्रकाशाभावमात्रतया भवता तैस्य इष्टेः, स एव च प्रदीपाभाव इति नाश्रयस्य तेव्यतिरिक्तस्य कस्यचित्तत्र ग्रहणम् / तथा 'गन्धो नास्ति' इत्यपि प्रतीतिः 10 आश्रयग्रहणनिरपेक्षवोत्पद्यते, निमीलिताक्षस्यापि हि घाणेन्द्रियव्यापारादनन्तरं गन्धाभावप्रतीतिः उत्पद्यते। न च तत्र घ्राणेन्द्रियेण आश्रयस्य द्रव्यस्य ग्रहणं सम्भवति; दर्शन-स्पर्शनाभ्यामेव द्रव्यस्य ग्रहणसम्भवात् / तथा 'नास्ति शब्दः' इति श्रोत्रव्यापारादेव आश्रयग्रहणनिरपेक्षाद्भवति अभावप्रतीतिः / न हि श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दस्य आश्रयो ग्रहीतुं शक्यः; तस्य अत्यन्तपरोक्षस्य अनुमानेनैवावसायात् / तन्नाश्रयग्रहणमभावप्रमाण15 सामग्र्यामनुप्रविशति / अनुप्रविशतु वा; तथापि आश्रयस्य ग्रहणं किं "निषेध्याभावसहितस्य, केवलस्य वा ? "प्रतियोगिनोऽपि स्मरणम्-किम् अभावाक्रान्तस्य, तद्विपरीतस्य वा ? तत्र अभावविशेषितयोः आश्रयप्रतियोगिनोः ग्रहणस्मरणपथप्राप्तयोः तत्कारणत्वाभ्युपगमे 'अभावज्ञानादेव अभावज्ञानम्' इत्युक्तं स्यात् / न च स्वात्माश्रयस्य कस्यचित् सिद्धियुक्ता अतिप्रसङ्गात् / चक्रकप्रङ्गश्च-अभावप्रमाणोत्पत्तौ हि प्रतियोग्यभावप्रतिपत्तिः, तत्प्रतिपत्तौ च तद्विशेषितयोः आश्रयप्रतियोगिनोः प्रतिपत्तिः, तस्याश्च सत्याम् अभावजायेत; मैवम् ; यत्रैव प्रश्नादि स्मरणकारणमस्य भवति तदेव स्मरति न सर्वम् अविद्यमानस्मरणनिमित्तम्। अन्यत्र तु युगपदुपलब्धेष्वपि वर्णषु युगपदन्त्यवानुभवसमनन्तरं स्मरणम् / अन्यत्र तु यगपदपलब्धेऽपि क्रमेण स्मरणं भविष्यतीति न मेचकबुद्धावयं दोषः ।"-न्यायमं०पू०५३। (1) 10 464 पं० 2 (2) वैशेषिकेण (3) अन्धकारस्य / “द्रव्यगुणकर्मनिष्पत्तिवैधादभावस्तमः ।"-वशे० सू० 5 / 2 / 19 / (4) प्रकाशाभाव एव / (5) प्रदीपाभावभिन्नस्य / (6) प्रदीपाभावप्रतिपत्तौ। (7) आकाशम् / (8) तुलना-"तत्र निषेध्याधारो वस्त्वन्तरं प्रतियोगिसंसृष्टं वा प्रतीयते, असंसृष्टं वा ?.."प्रतियोगिनोऽपि स्मरणं वस्त्वन्तरसंसृष्टस्य असंसृष्टस्य वा ?"-प्रमेयक० 10203 / सन्मति० टी०प० 24 / जैनतर्कवा० वृ०१०९३ / स्या०र०पू०३११। (9) भूतलस्य (10) घटाभावसहितस्य / (11) घटस्य / (12) भूतलघटयोः (13) अभावप्रतीतिहेतुत्वे / (14) स्वस्य स्वापेक्षया प्रतीतौ स्वात्माश्रयत्वम् / (15) अग्नेरेव अग्निसिद्धिप्रसङ्गात् / तथा च सर्वं सर्वस्य सिद्धयेत् (16) अभावविशिष्टयोः / 1-ग्रहणत्वारूपा श्र० / 2-प्युपपत्तेः श्र०। 3-पि घा-आ०, श्र०। 4-क्तं भवतिन श्र० / 5-तौ तद्वि-आ०, ब० / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 15 ] अभावप्रमाणविचारः 473 प्रमाणोत्पत्तिरिति / अभावनिरपेक्षतया च आश्रये प्रतियोगिनि च गृह्यमाणे यद्यभावप्रतीतिः स्यात् तदा सघटेऽपि भूतले 'घटो नास्ति' इति प्रतीतिः स्याद् विशेषाभावात् / ततो यथोक्तंसामय्या विचार्यमाणाया अनुपपत्तेः चक्षुरादिसामग्रीत एव अभावप्रमाणस्य उत्पत्तिः स्वपरात्मना सदसद्रूपघटाद्यर्थविषयता चाभ्युपगन्तव्या / ननु परात्मना घटादेरसत्त्वं प्रतीयमानं न स्वात्मतया प्रतिपन्नं स्यात् , यच्च स्वात्मतया न प्रतीयते कथं तत्तस्य / रूपम् अतिप्रसङ्गात् ? इत्यप्यसुन्दरम् ; यतः परात्मनाऽपि प्रतीयमानमसत्त्वं घटादेरेव प्रतीयते नतु परस्य, 'घटो हि पटो न भवति' इत्येवं नअर्थः प्रतीयते, नतु 'पटः पटो न भवति' इत्येवम्। अतः परात्मना प्रतीयमानोऽपि नयर्थः घटादेरेव प्रतीयते इति तस्यैव तद्रूपेण असत्त्वमिति व्यपदिश्यते / __ यच्चान्यदुक्तम्-'घटविविक्तत्वं किं भूतलस्वरूपमात्रम् , तद्वयतिरिक्तं वा' इत्यादि; 10 तदप्ययुक्तम् ; यतः तद्विविक्तत्वं तद्धर्मतया ततः कथंश्चिद् व्यतिरिक्तं पृच्छयते, पदार्थान्तरतया वा ? तत्र तद्धर्मतयैव तत् कथञ्चिद्भिन्नमुपपन्नं न पुनः पदार्थान्तरतया / स्वहेतुतो हि भावाः परस्पराँऽसङ्कीर्णस्वभावविशिष्टाः समुत्पन्नाः, तद्विपरीता वा ? प्रथमविकल्पे सिद्धमेषां स्वकारणकलापादेव अन्याऽसंसृष्टस्वभावत्वम्, अतो वैयर्थ्यमर्थान्तरभूताभावपरिकल्पनायाः। यत् स्वरूपतो विविक्तस्वभावं न तत्र अर्थान्तर- 15 भूताऽभावपरिकल्पना फलवती यी प्रागभावादौ, स्वरूपतो विविक्तस्वभावाश्च भावाः स्वहेतुतः समुत्पन्ना इति / द्वितीयविकल्पस्त्वनुपपन्नः; स्वरूपतोऽविविक्तानामर्थानां . व्यतिरिक्ताभावेन वैविक्तवस्य कर्तुमशक्यत्वात् / यत् स्वभावतोऽविविक्तस्वरूपम् न तत्र अर्थान्तरभूताभावेन विवेकः कर्तुं शक्यः यथा एकव्यक्तौ, स्वभावतोऽविविक्तस्वरूपाश्च परमते पदार्था इति / 20 (1) घटस्यैव / (2) पटरूपेण (3) पृ०४६५ पं०२०। (4) घटधर्मतया। (5) घटात् / (6) द्विविधा हि विविक्तता-धर्मर्मिरूपेण कथञ्चिद्विविक्तता यथा ज्ञानात्मनोः, पदार्थान्तररूपेण सर्वथा यथा घटपटयोः / (7) तुलना-"सर्वे हि भावाः स्वस्वरूपस्थितयो नात्मानं परेण मिश्रयन्ति तस्यापरत्वप्रसङ्गात्...” -प्रमाणवा० स्वव० 1242 / “नाप्येषां परस्पराभिन्नानामभावेन भेदः शक्यते कर्तुम, तस्य भिन्नाभिन्नभेदकरणेऽकिञ्चित्करत्वात। न चाभिन्नानामन्योन्याभावः संभवति। नापि परस्परभिन्नानामभावेन भेदः क्रियते, स्वहेतुभ्य एव भिन्नानामुत्पत्तेः / नापि भेदव्यवहारः क्रियते, यतो भावानामात्मात्मीयरूपेणोत्पत्तिरेव स्वतो भेदः, स च प्रत्यक्षप्रतिभासनादेव भेदव्यवहारहेतुः।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी०१६ / “यतः स्वकारणकलापात् स्वस्वभावव्यवस्थितयो भावाः समुत्पन्नाः नात्मानं परेण 'मिश्रयन्ति तस्याऽपरत्वप्रसङ्गात्..."-प्रमेयक पृ० 208 / सन्मति० टी० पृ० 588 / स्या० र० पृ० 581 / (8) अन्योन्यममिलितस्वरूपाः भिन्ना इत्यर्थः / (9) भिन्नस्वभावत्वम् / (10) प्रागभावे नास्ति प्रध्वंसादिरित्यत्र। (11) भिन्नतायाः / 1 इति स्या-ब०। 2-मानं स्वा-श्र० / न तु पटो न ब०। 4-त्त्वमित्येवं व्य-ब०। 5-तभावाश्च श्र० / 6 विविक्तस्य ब० / 7-तो विवि-ब० / 10 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० किश्च, अभावं विना भावानां विवेकाऽसंभवे कथमभावानामन्योन्यं भावान्तराच्च विवेकः स्यात् ? तत्रापि तद्धतोरभावान्तरस्याऽभ्युपगमे अनवस्थाप्रसङ्गः / अथ अभावान्तरमन्तरेणापि अस्य विलक्षणस्वभावत्वादेव अन्यतो विवेकः; तर्हि वैयर्थ्यम् अर्थान्तराभावपरिकल्पनायाः, घटादेरपि विलक्षणस्वभावतयैव अन्यतो व्यावृत्तिप्रसिद्धेः / / तथाहि-घटादेः अन्यतो व्यावृत्तिः विलक्षणस्वभावनिबन्धनैव, अन्यतो व्यावृत्तित्वात् , या अन्यतो व्यावृत्तिः सा विलक्षणस्वभावनिबन्धनैव यथा अभावस्य, अन्यतो व्यावृत्तिश्च घंटादेरिति / __किञ्च, आश्रयभेदेन इतरेतराभावः तावन्न भिद्यते सर्वत्रैव अस्य एकत्वेनाऽभ्युपगमात् / ततश्च घटस्य इतरेतराभावाद् व्यावृत्तिर्नाऽविनिबन्धना। तत्र हि इतरेत10 राभावः, अभावान्तरं वा निबन्धनं स्यात् ? इतरेतराभावश्चेत् ; किं स एव, अन्यो वा ? न तावत् स एव; अंतो घटादेावर्त्तमानत्वात् / यत् यतो व्यावर्त्तते न तस्मादेव तस्य व्यावृत्तिः यथा पटाद् व्यावर्त्तमानस्य घटस्य न पटौदेव व्यावृत्तिः, व्यावतते च इतरेतराभावाद् घट इति / इतरेतराभावान्तराभ्युपगमे च अस्य एकत्वक्षतिः अनवस्था च स्यात् / अथ अभावान्तरमस्य ततो व्यावृत्तेर्निबन्धनम् ; तन्न; 15 इतरेतरव्यावृत्ते: अभावान्तरनिबन्धनत्वानुपपत्तेः, उपपत्तौ वा अभावचतुष्टयकल्पनाs नर्थक्यम्, एकस्मादेव अभावात् 'इदमतः प्राङ् नासीत् , इतरद् इतरत्र नास्ति' इत्यादिप्रतीतेरुपपत्तेः / अथ घटस्य इतरेतराभावाद् व्यावृत्तिरेव नेष्यते तत्कथमयं दोषः ? (1) तुलना-"किञ्च भावाभावयोर्भेदो नाभावनिबन्धनोऽनवस्थाप्रसङ्गात् / अथ स्वरूपेण भेदः; तथा भावानामपि स स्यादिति किमभावेन कल्पितेन ।"-प्रमाणवा० स्वव० टी० 1 / 6 / “यदि चेतरेतराभाववशात् घट: पटादिभ्यो व्यावर्तेत तहि इतरेतराभावोऽपि भावादभावान्तराच्च प्रागभावादेः कि स्वतो व्यावर्तेत, अन्यतो वा ?"-प्रमेयक० पृ० 208 / स्या०र० पृ०५८१ / (2) भेदाभावे। (3) प्रागभावः प्रध्वंसाद् भिन्नः / (4) प्रागभावः घटादेभिन्न इति। (5) अभावेष्वपि / (6) भेदहेतोः इतरेतराभावस्य / (7) अभावस्य / (8) भावाद् घटादेः अभावान्तराच्च प्रागभावादेः / (1) भिन्नाभाव / (10) पटादेः / (11) घटो भतलं न भवति भूतलञ्च घटो न भवतीति इतरेतराभावादेव ( विलक्षणस्वभावादेव ) घटस्य भूतलाद् व्यावृत्तिर्न पुनरभावादिति भावः-आ० टि० / (12) तस्माद्विलक्षणस्वभावनिबन्धनैव नाभावनिबन्धनैव-आ० टि०। (13) इतरेतराभावस्य / (14) द्वितीयाभाव। (15) अभावनिबन्धनत्वे-आ० टि०। (16) अस्मात् प्रथमादितरेतराभावात् / (17) घट-इतरेतराभावयोः व्यावृत्तिर्न तदितरेतराभावनिबन्धना तस्मादेव तस्य व्यावर्तमानत्वात् (18) किन्तु त्रिभुवनादेव-आ० टि०। (19) इतरेतराभावस्य। “गव्यश्वाभावोऽश्वे च गोरभाव इतरेतराभावः, स च सर्वत्रको नित्य एव पिण्डविनाशेऽपि सामान्यवत् पिण्डान्तरे प्रत्यभिज्ञानात् / यथा सामान्यमदृष्टवशादुपजायमानेनैव पिण्डेन सह सम्बद्धयते नित्यत्वञ्च स्वभावसिद्धम्, तथेतरेतराभावोऽपि ।"-प्रश० कन्द० पृ० 230 / (20) द्वितीयेतरेतराभावस्य व्यावृत्त्यर्थम् तृतीय इतरेतराभावः कल्पनीयः तद्वयावृत्त्यर्थञ्च चतुर्थ इति। (21) इतरेतराभावाद् भिन्नः कश्चित् प्रागभावादिरूपः अभावः अभावान्तरम्। (22) घटस्य / (23) इतरेतरत:-आ० टि०। (24) प्रागभावः / 1 व्यावृत्तमान-आ। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 15 ] अभावप्रमाणविचारः तर्हि इतरेतराभावोऽपि घेट: स्यात् / यस्य यतो व्यावृत्तिर्नास्ति न तस्य ततो भेदः यथा घटस्वरूपाद् घटस्य, नास्ति च इतरेतराभावाद् व्यावृत्तिर्घटस्य इति / यदपि-अभावस्य वस्तुत्वमभिहितम् ; तदैपि वस्तुधर्मस्यैवोपपन्नं न पुनः सर्वथा तुच्छस्वभावस्य, तथाविधस्यास्य वस्तुत्वानुपपत्तेः / येत् सर्वथा तुच्छस्वभावं न तद्वस्तु यथा गगनेन्दीवरम् , सर्वथा तुच्छस्वभावश्च परैरभ्युपगतोऽभाव इति / अस्तु वा अस्य / वस्तुत्वम् ; तथापि तत् केन गृह्यताम्-किमभावाख्येन प्रमाणेन, प्रमाणान्तरेण वा ? प्रथमपक्षे किं तद्वस्तुत्वं भावः, अभावो वा ? यदि भावः ; कथमभावग्राह्यः तस्य तद्विषयत्वाऽनभ्युपगमात् ? तुच्छस्वभावाभावस्य भावस्वरूपवस्तुत्वाश्रयत्वविरोधाच्च / येत् तुच्छस्वभावं न तद् भावस्वभाववस्तुत्वाश्रयः यथा शशविषाणम् , तुच्छस्वभावश्च परैः परिकल्पितोऽभाव इति / अथ अभावः ; तन्न; वस्तुत्वस्य अभावरूपत्वे नीलादावपि 10 तस्य अभावरूपत्वप्रसङ्गाद् भाववात्तॊच्छेदः स्यात् / अथ प्रमाणान्तरेण गृह्यते तत् ; तन्नः प्रमाणान्तरीणामभावग्राहकत्वानभ्युपगमे तेंद्ग तवस्तुत्वग्राहकत्वाभ्युपगमविरोधात् / तन्न अभावप्रमाणस्य सामग्रीवद् विषयोऽपि विचार्यमाणो व्यवतिष्ठते / नापि फलम् ; अभावावगतिलक्षणफलस्य प्रत्यक्षादितोऽपि सद्भावप्रतिपादनात् / किञ्च, सिद्धे स्वरूपे कारणविषयफलव्यवस्था वक्तुं युक्ता / न च अस्य तत्सिद्धम् / 15 ननु सदुपलम्भकप्रमाणपश्चकानुत्पत्तिलक्षणम् अभावप्रमाणस्वरूपं प्रतिप्राणि प्रसिद्धत्वात् कथमपह्नोतुं शक्यम् ? इत्यप्यनुपपन्नम् ; यतः केयं तदनुत्पत्तिः-किं निषेध्यविषयज्ञानरूपतया आत्मनोऽपरिणामः, ॐन्यवस्तुविज्ञानं वा ? तत्र अंपरिणामस्य अभावस्वभावत्वात् कथं तथाविधज्ञानजनने सामर्थ्यं स्यात् ? कथं वा प्रामाण्यम् ? प्रमेयपरिच्छेदकस्य हि प्रामाण्यं प्रसिद्धम् , यच्च स्वरूपेण न किञ्चित् तत्कथं कस्यचित्परिच्छे- 20 दकमतिप्रसङ्गात् ? यत् स्वरूपेणाऽकिश्चिद्रूपम् न तत् कस्यचित्परिच्छेदकं यथा . (1) इतरेतराभावः घटात्मकः तस्मादव्यावर्तमानत्वात् / (2) पृ० 467 पं०१। (3) वस्तुत्वम् / (4) अभावस्य / (5) अभावो न वस्तु सर्वथा तुच्छस्वरूपत्वात्। (6) वस्तुत्वम् / (7) भावस्वरूपस्य वस्तुत्वस्य / (8) अभावविषयत्व। (9) अभावो न वस्तुत्वाश्रयः तुच्छस्वभावत्वात् / (10) वस्तुत्वस्य / (11) वस्तुत्वम् / (12) अभावगत / (13) अभावस्य / (14) प्रमाणपञ्चकानुत्पत्तिः / (15) निषेध्यो घटादिः। (16) भूतलाद्याश्रयात्मकमन्यवस्तु / (17) तुलना-"नीरूपस्य हि विज्ञानरूपहानौ प्रमाणता। न युज्यते प्रमेयस्य सा हि संवित्तिलक्षणा / यत्प्रमेयाधिगतिरूपं न भवति न तत्प्रमाणं यथा घटादि , प्रमेयाधिगतिशून्यश्चाभाव इति व्यापकानु.. पलब्धिः ।"-तत्त्वसं० पं० पृ० 478 / “यतः प्रमाणपञ्चकाभावो निरुपाख्यत्वात् कथं प्रमेयाभावं परिच्छिन्द्यात् परिच्छित्तेनिधर्मत्वात्।"-प्रमेयक० पृ० 205 / सन्मति० टी० पृ० 578 / स्या० 20 पृ० 310 / (18) 'अत्र घटो नास्ति' इत्याकारकज्ञानोत्पादने / (19) खरविषाणादेरपि परिच्छेदक'त्वप्रसक्तिः / (20) आत्मनोऽपरिणामरूपोऽभावः न प्रमेयपरिच्छेदकः स्वरूपेणाऽकिञ्चिद्रूपत्वात् / 1 पटः ब०। 2-श्च परि-ब०। 3 अभावस्वरू-श्र० / 4-ते तन्न श्र०।। सिद्धस्वरूपे ब० / 6 युक्तम् ब०। 7-विषयज्ञानतया ब०। 8 अभावस्य भावत्वात् आ०। 9-विधस्य ज्ञान-श्र० / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० वन्ध्यास्तनन्वयः, स्वरूपेणाकिञ्चिद्रूपश्च परपरिकल्पितमभावप्रमाणमिति / परिच्छेदकत्वं हि ज्ञानधर्मः, सोऽश्वविषाणप्रख्यस्य अध्यक्षाद्यभावस्यातिदुर्घटः / ततश्च 'प्रमाणाभावः प्रमाणञ्च' इति प्रतिज्ञा-पदयोः विरोधः, यथा 'इदश्च, नास्ति च' इति / * अन्यवस्तुविज्ञानपक्षेऽपि किमन्यस्मिन् वस्तुमात्रे, घटाभावाश्रये वा ज्ञानमभाव5 परिच्छेदकं स्यात् ? तत्राद्यपक्षे यत्र कुत्रचिद् यस्य कस्यचिद् अभावस्य ज्ञानं स्यात् / अथ घटाभावाश्रयस्य; नन्वेतत् घटाभावे सिद्धे सिद्धयेत्, न चासौ भवत्पक्षे सिद्धः / प्रतियोगितापि एतेन प्रत्याख्याता; सिद्धे हि घटाभावे 'अयमस्य आश्रयः, अयश्च प्रतियोगी' इति सिद्धयेत्। ततोऽभावप्रमाणस्य यथाभ्युपगतस्वरूपसामग्रीविषयफलाना- . मव्यवस्थिते: वस्तुधर्म एवाभावः प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धश्च भाववदभ्युपगन्तव्य इति / अत्र सुगतमतावलम्बिनः प्राहुँः - नै भावस्वरूपव्यतिरिक्तः कश्चिदभावः नभावलम्पयनि- प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा प्रतीयते / प्रत्यक्षस्य हि स विषयो भवति यो रिक्तः कश्चिदभावः जनकत्वे सति आकारसमर्पकः, अभावस्य च जनकत्वमाकारसमर्पप्रत्यक्षानुमानग्राह्यः, कत्वश्चातिदुर्घटम् / यद् अभावरूपं न तत् कस्यचिज्जनकं स्वाकार इति बौद्धस्य पूर्वपक्षः- समर्पकञ्च यथा खपुष्पम्, अभावरूपश्चाभावो भवद्भिरिष्ट इति / 15 स्वाकारमर्पयतो ज्ञानजनकत्वे चास्यं भावरूपतैव स्यात् / यत् स्वाकारमर्पयत् ज्ञानं (1) प्रत्यक्षाद्यनुत्पत्तिरूपतया अभावप्रमाणं प्रमाणाभावात्मकम्, अथ च अभावपरिच्छेदकत्वेन परिच्छेदकत्वधर्माधारभूतं प्रमाणात्मकञ्चेति विरोधः। (2) प्रमाणाभावरूपस्वीकरणं प्रतिज्ञा, परिच्छेदकत्वेन प्रमाणरूपतोवर्णनं पदम् / (3) भूतलादौ वा। (4) "एवम्मन्यते-अभावो नाम नास्त्येव केवलं मूढस्य भावविषयमेव प्रत्यक्षमन्याभावं व्यवहारयति ।"-प्रमाणवा स्ववृ० टी० 116 / "एकज्ञानसंसर्गिवस्त्वन्तरं तदुपलब्धिश्चानुपलब्धिर्विवक्षिता उपलब्धेरन्यत्वादभक्ष्याऽस्पर्शनीयवत्, स एवाभावः, तदतिरिक्तस्य विग्रहवतोऽभावस्याभावात् ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 2 / 3 / “तस्मादुपल ब्धिविज्ञानादन्या वस्त्वन्तरविषया उपलब्धिःज्ञानात्मिकाऽनुपलब्धिः / कथं पुनरुपलब्धिरेवानुपलब्धिरुच्यते इत्याह विवक्षितेत्यादि / यथा भक्ष्याभक्ष्यप्रकरणे विवक्षिताद् भक्ष्यादन्यत्वादभक्ष्यो ग्राम्यकुक्कुटो भक्ष्योऽपि सन् तदन्यस्योच्यते, यथा च स्पर्शनीयाऽस्पर्शनीयाधिकारे विवक्षितात् स्पर्शनीयादन्यत्वादस्पर्शनीयश्चाण्डालादिस्तदन्यस्य स्पर्शनीयोऽपि सन्नुच्यते तद्वदुपलब्धिरेवानुपलब्धिमन्तव्या.तस्मात् प्रतिषेध्याद् घटादेः स्वविषयविज्ञानजननयोग्याद् योऽन्य उपलम्भजननयोग्य एव न तद्विपरीतः स्वभावो घटविविक्तप्रदेशरूपः स एव चात्र अनुपलब्धिशब्देनोच्यते ।"-हेतुबि० टी० पृ० 163 A.I "तस्यान्यस्य प्रदेशस्य केवलस्य यत् तत् कैवल्यम् एकाकित्वमसहायता तदेवापरस्य प्रतियोगिनो घटादेवैकल्यमभाव इति / तस्मादन्यभाव एव भावांश एव त्वदभिमतस्तदभावः प्रतियोग्यभावांशो न ततः पृथग्भूतं धर्मान्तरमित्युच्यते सुगतसुतैः ।"-हेतुबि० टी० पृ०१७९ B. / "न ह्यभावः कश्चिद्विग्रहवान् यः साक्षात्कर्तव्यः अपि तु व्यवहर्त्तव्यः।"-क्षणभङ्गसि० पृ० 65 / (5) अभावः कस्यचिज्जनकः स्वाकारसमर्पकश्च न भवति अभावरूपत्वात् / (6) अभावस्य / 1 स्वरूपेणास्वरूपेणा-श्र० / 2 'यस्य कस्यचित्' नास्ति आ० / 3 अभावज्ञानं श्र० / 4-बेघ-आ० / 6-सिद्धभावव-आ० / 6 न तावत्स्व-ब०। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 15 ] अभावस्वरूपविचारः 477 जनयति तद् भावस्वभावमेव यथा घटादि, स्वाकारमर्पयन् ज्ञानं जनयति च अभाव इति / यत् खलु कुतश्चिदुत्पन्नं केनचिद्रूपेण प्रतिभासमानं काश्चिदर्थक्रियां करोति तद् भावस्वरूपमुच्यते / किञ्च, अभावाकारस्य ज्ञानेऽनुप्रवेशे तस्यापि असत्त्वप्रसङ्गात् कुतः किं प्रतीयताम् ? न च 'इह भूतले घटो नास्ति' इत्येवं प्रत्यक्षं तत्सद्भावे प्रमाणमित्यभिधा- 5 तव्यम् ; शैब्दसंसर्गेणोपजायमानस्यास्य विकल्परूपतया प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः / विकल्पानाश्च अर्थे प्रामाण्यानुपपत्तिः अर्थाऽसंस्पर्शित्वात्तेषाम् / तन्न प्रत्यक्षतोऽभावसिद्धिः / नाप्यनुमानतः; तद्धि साध्यप्रतिबद्धलिङ्गबलादुदयमासादयति / प्रतिबन्धश्च साध्यसाधनयोः प्रत्यक्षतः, अनुमानतो वा प्रतीयते ? न तावत् प्रत्यक्षतः; अभावस्य उक्तप्रकारेण प्रत्यक्षाऽगोचरत्वे ततोऽस्य केनचित् लिङ्गेन सह प्रतिबन्धप्रतिपत्तेरनुपपत्तेः। 10 अनुमानतः तत्प्रतीतौ अनवस्था, तत्रापि अनुमानान्तरात् तत्प्रतीतिप्रसङ्गात् / तन्न कुतश्चित् प्रतिबन्धसिद्धिः / नचासिद्धप्रतिबन्धं लिङ्गं साध्यसाधनाय प्रभवति अतिप्रसङ्गादिति / अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'न भावस्वरूपव्यतिरिक्तोऽभावः' इत्यादि; पनि तदसमीक्षिताभिधानम् ; भावस्वरूपाऽतिरिक्तस्याऽभावस्य प्रतीतिभेदात् 15 अभावस्य भावान्तर- स्वरूपभेदात् सामग्रीभेदात् अर्थक्रियाभेदाच्च भेदसिद्धिः / यस्य रूपस्य वस्तुसतः यतः प्रतीत्यादिभेदः तस्य ततो भेदः यथा घटात् पटस्य, प्रतीत्यादिसमर्थनम्- भेदश्च भावादभावस्य इति / न चायमसिद्धः; तथाहि-भाँवाsभावयोस्तावत् प्रतीतिभेदः सुप्रसिद्ध एव 'इदमत्रास्ति, इदं नास्ति' इति / नहि प्रतीयमानापीत्थं भेदेन अभावप्रतीतिरपह्नोतुं युक्ता; भावप्रतीतेरप्यपह्नवप्रसङ्गात् / 20 ननु निर्विकल्पकसामर्थेन 'इदमिहास्ति, नास्ति' इति विकल्पद्वयमुत्पद्यते, न च तशादर्थव्यवस्था, विकल्पानामर्थे प्रामाण्याऽभावात् ; इत्यपि श्रद्धामात्रम् ; सविकल्पकसिद्धौ निर्विकल्पकस्य प्रामाण्यप्रतिषेधतः सविकल्पकस्यैव अन्तर्बहिर्वा वस्तुव्यव (1) अभावो भावस्वरूप एव स्वाकारार्पकत्वे सति ज्ञानजनकत्वात् / (2) ज्ञानस्यापि / (3) "एकोपलम्भानुभवादिदं नोपलभे इति / बुद्धरुपलभे वेति कल्पिकायाः समुद्भवः ॥"-प्रमाणवा० 41270 / (4) प्रत्यक्षस्य –आकटि०। (5) विकल्पानाम-आ० टि०(६) अनमानं हि / (7) अविनाभावः / (8) प्रत्यक्षात्-आ० टि० / (9) अभावस्य -आ० टि० / (10) द्वितीयानुमानेऽपि / (11) अविनाभावप्रतीति / (12) पृ० 476 पं० 10 / (13) अभावो भावस्वरूपातिरिक्तः प्रतीतिस्वरूपसामग्रयर्थक्रियाभेदात् / (14) तुलना-“इदं तावत्सकलप्राणिसाक्षिकं संवेदनद्वयमुपजायमानं दृष्टम् इह घटोऽस्ति इह नास्तीति ।"-न्यायमं० पृ० 58 / (15) विकल्पवशात्-आ० टि० / (16) अन्तश्चेतनात्मकस्य बहिश्चाचेतनस्वरूपस्य वस्तुनः / 1-स्याज्ञाने ब०। 2-संसर्गिणोप-ब०। 3-तीयेत् आ०। 4-प्रतिबन्धलिङ्गब० / 5 प्रामाण्यावित्यपि श्र०।। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० स्थापकत्वेन प्रामाण्योपपत्तेः प्रतिपादितत्वात् / तत्सामर्थेनोत्पन्नाऽभावविकल्पाद् अंभावाऽसिद्धौ भावसिद्धिरपि अंतोऽतिदुर्लभा / अथ प्रत्यक्षादेव भावसिद्धिः; अभावसिद्धौ तत् किं काकैर्भक्षितम् ? प्रथमं हि इन्द्रियादिसामग्रीतः समुत्पन्न प्रत्यक्षम् अनेकभावाभावोपाधिखचितमुपाधिमन्तं प्रतिपद्यते, ततः शब्दार्थयोः प्रतिपन्नप्रतिबन्धः प्रतिपत्ता अर्थदर्शनोत्तरकालं यस्य यस्य विवक्षा भवति तत्तद्वाचक शब्दं स्मृत्वा 'इदमिहास्ति, इदं नास्ति' इति विकल्पव्यापारं दर्शयति / यदि च तेऽभावविशेषाः प्रत्यक्षतो न प्रतिपन्नाः तदा पँतियोगिस्मरणमपि अनुपपन्नमेव स्यात् / नहि अप्रतिपन्ने घटाभावे घटस्य प्रतियोगितया स्मृतियुक्ता अतिप्रसङ्गात् / अतः प्रतिनियतप्रतियोगिस्मरणाऽन्यथानुपपत्त्या प्रतिनियताभावप्रतिपत्तिः प्रत्यक्ष प्रतिपत्तव्या इति / न च 'इह भूतले घटो नास्ति' इति विशिष्टायाः प्रतीते: विशेषणमन्तरेणोपपत्तियुक्ता। या विशिष्टा प्रतीतिः नासौ विशेषणमन्तरेण उपपद्यते यथा दण्डीत्यादिप्रतीतिः, विशिष्टा च 'इह भूतले घटो नास्ति' इत्यादिप्रतीतिरिति / अथ भाव अभावप्रतीतेर्निबन्धनम् अतः स एवास्या विशेषणं भविष्यति, एवञ्च भवतो न किञ्चिदिष्टं सिद्धयेत् ; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; यतः किं निषिध्यमानो घटादिर्भावः अस्या निबन्धनमभ्युपगम्यते, तैदाश्रयो भूतलादिर्वा ? प्रक्षमपक्षोऽयुक्त:; भावाऽभावप्रतीत्योर्निर्बाधतया प्रतीयमानयो लक्षण्यस्य विषयवैलक्षण्यव्यतिरेकेण अनुपपत्तेः / यन्निर्बाधतया प्रतीयमानयोः प्रतीत्यो(लक्षण्यं तद् विषयवलक्षण्यपूर्वकम् यथा रूपादिप्रतीतिवैलक्षण्यम् , वैलक्षण्यश्च निर्बाधतया प्रतीयमानयोः भावाऽभावप्रतीत्योरिति / न च तत्प्रतीत्योर्निर्बाधता वैलक्ष ण्येन प्रतीयमानत्वञ्चाऽसिद्धम् ; तद्बाधकस्य कस्यचिदप्यभाभावात् , परस्पराऽसङ्कीर्णस्व20 भावतयाऽनुभूयमानत्वाच्च / नहि कश्चिदबालिशो भावमेव अभावतया प्रतिपद्यते, अन्या हि भावप्रतीतिः अन्या चाभावप्रतीतिरिति / यदि च भाव एव अभावः स्यात् ; तर्हि तत्सत्ताक्षणे तद्देशे चाऽभावप्रतीतिः स्यात् / न चैवम् , नहि स्वदेशकालनियतां भावसत्तामेव (1) पृ० 47 / (2) निर्विकल्पक -आ० टि० / तुलना-"तत्र विकल्पमात्रसंवेदनमनालम्बनमात्मांशालम्बनं वेत्यादि यदभिलप्यते तन्नास्तिताज्ञान इव अस्तित्वज्ञानेऽपि समानमतो द्वयोरपि प्रामाण्यं भवतु द्वयोरपि वा मा भूत्।"-न्यायमं० पृ०५८ / (3) भावविकल्पात् / (4) निर्विक. ल्पकप्रत्यक्षम्-आ० टि०। (5) अनेके भावा अभावाश्च उपाधयः विशेषणानि तैः खचितं शबलितं चित्रितम् उपाधिमन्तं विशेष्यभूतमर्थम् / (6) गृहीतसङ्केतः / (7) यस्याऽभावः सः प्रतियोगी / (8) इह भूतले घटो नास्तीति प्रतीतिः विशेषणग्रहणपूर्विका विशिष्टप्रतीतित्वात्। (9) भाव एव / (10) अभावप्रतीते:-आ० टि० / (11) इह भूतले नास्ति घट इत्यभावप्रतीतेः / (12) घटाभावाश्रयो / (13) भावाभावप्रतीत्योर्वैलक्षण्यं विषयवैलक्षण्यपूर्वकम् निर्बाधप्रतीतिवैलक्षण्यात् / तुलना-"नहि विषयवलक्षण्यमन्तरेण विलक्षणाया बुद्धरस्त्युदयः, नापि व्यवहारभेदस्य संभवः ।"-प्रश० कन्द० पृ० 229 / (14) अन्योन्यं भिन्नस्वभावतया। (15) भावसत्ताक्षणे (16) भावदेशे / - 1-नाच्चाभाव-श्र०। 2-अभावसि-ब०। 3 अनेकमभावा-ब०। 4 प्रदर्श-श्र० / / घटा- . दिभावः ब०। 6-चिदभा-ब०। 7-शोऽभावमेव भावतया आ०, श्र०। 8 यदि भाव ब०। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणपं० का० 15 ] अभावस्वरूपविचार: 476 अभावतया कश्चित् प्रतिपत्तुमर्हति / अथ निषिध्यमानघटाद्याश्रयतयाऽभिप्रेतः भूतलादिभावः तदभावप्रतीतेर्निबन्धनम् / तत्रापि किं भूतलमात्र घटाभावप्रतीतेर्निबन्धनम् , विशिष्टं वा ? प्रथमविकल्पे सघटेऽपि भूतले घटाभावव्यवहारः स्यात् तदविशेषात् / द्वितीयपक्षेऽपि किङ्कतमस्यै वैशिष्टयम्-स्वरूपकृतम्, घटसंसर्गरहितत्वकृतं वा ? न तावत् स्वरूपकृतम्; सघटेऽपि / भूतले अभावप्रतीतिप्रसङ्गात् स्वरूपसत्त्वस्य तत्राप्यविशिष्टत्वात् / घटसंसर्गरहितत्वनिबन्धनत्वे तु नाम्नि विवादः घटाभावस्य घटसंसर्गरहितत्वशब्देन अभिधानात् / / नचैतद्वक्तव्यम्-अभिमानमात्रमेवायं 'नास्ति' इति व्यवहारः, सद्व्यवहारानुदय एव तत्संभवादिति; यतः प्रतीयमानस्य बाधारहितस्यास्याभिर्मानिकत्वे 'अस्ति' इत्यादिव्यवहारस्याप्याभिमानिकत्वप्रसङ्गः। यदि च सद्व्यवहारानुदय एव नास्तीतिव्यवहारस्य 10 (1) तुलना-" त इदं प्रष्टव्याः नास्तीति संविदः किमालम्बनम् ? यदि न किञ्चित्; दत्तः स्वहस्तो निरालम्बनं विज्ञानमिच्छतां महायानिकानाम् / अथ भूतलमालम्बनम् ; कण्टकादिमत्यपि भूतले कण्टको नास्तीति संवित्ति; तत्पूर्वकश्च निःशंक गमनागमनलक्षणो व्यापारो दुनिवारः / केवलभूतलविषयं नास्तीति संवेदनम्, कण्टकसद्भावे च कैवल्यं निवृत्तमिति प्रतिपत्तिप्रवृत्योरभाव इति चेत; ननु कि कैवल्यं भूतलस्य स्वरूपमेव, किमुत धर्मान्तरम् ? तत्स्वरूपं तावत् कण्टकादिसंवेदनेऽप्यपरावृत्तमिति स एव प्रतिपत्तिप्रवृत्त्योरविरामो दोषः / धर्मान्तरपक्षे च तत्त्वान्तरसिद्धिः ।"-प्रश० कन्द० पृ० 229 / प्रश० किर० पृ० 329 / (2) भूतलमात्रस्य तत्रापि सद्भावात् / (3) भूतलस्य / (4) सघटेऽपि भूतले। (5) प्राभाकरैः / "अप्रमीयमाणत्वमेव हि नास्तित्वं नाऽपरम्न चाप्रमीयमाणतैव प्रमेयम; यस्मात्तदर्थासंसष्टानुभवयुक्ततवात्मनः तस्यार्थस्याप्रमीयमाणता, सा चावस्था आत्मनः स्वसंविदितव / अतः प्रमेयं नावशिष्यते।"-बह० पं० 10 119-20 / "तस्माद् भावग्राहकप्रमाणाननुवृत्तिरेवाऽभावावगमं प्रसूते (पृ० 119) अभावस्य तु स्वरूपावगतिर्नास्ति इति न प्रमाणाभावादन्यः प्रमेयाभावः, प्रमाणाभावोऽपि च स्वरूपान्तरानवगमादेव न भावान्तरप्रमितेभिद्यते, भावान्तरप्रमितिश्च स्वयंप्रकाशरूपा न प्रमेयतामनुभवतीति प्रमेयमभावाख्यस्य प्रमाणस्य नोपपद्यते / प्रमेयासद्भावाच्च न प्रमाणान्तरमवकल्पत इति स्थितम् / ( पृ० 124) नास्तित्वञ्च प्रमाणानामनत्पत्त्यैव गम्यते / नास्तित्वप्रतिपत्तिहि तां विना नास्ति कुत्रचित् // योग्यप्रमाणानुत्पत्तेः कारणत्वपरिग्रहात् / अतिप्रसङ्गदोषोऽपि नावकाशमुपाश्नुते ॥"-प्रकरणपं० पृ० 129 / नयवि० पृ० 162 / तन्त्ररह० 10 17 / प्रभाकरवि०५०५७। (6) काल्पनिकत्वे। (7) तुलना-"ज्ञानाभावे ज्ञानभमः व्यवहाराभावे व्यवहारभूमः आलोकादर्शने अन्धकारभमवत्; न; सुषुप्त्याद्यवस्थासु प्रसङ्गात् / अप्रमिते च भूमाऽयोगात् सुषुप्त्यादिवत् ।-अथापि वैयात्यादुच्यते न च तत्त्वतो नास्तीति बुद्धिव्यवहारौ स्तः, किन्तु चैत्रदर्शनाभावे चैत्रो नास्तीति ज्ञानं भमः चैत्रोचितव्यवहाराभावे च तदभावे व्यवहारभूमः / अत्रैव निदर्शनमाह-आलोकादर्शनेऽन्धकारभमवत् तदेतन्निराकरोति-न; सुषुप्त्याद्यवस्थासु प्रसङ्गात् / यदि हि ज्ञानव्यवहारयोरभावे तद्विभमः सुषुप्त्याद्यवस्थास्वपि तथाप्रसङ्गः। नहि तदा ज्ञानं नापि व्यवहारः, समस्तविज्ञानोपसंहृतिलक्षणत्वात्सुषप्त्याद्यवस्थायाः। हेत्वन्तरमाह-अप्रमिते च भ्रान्त्ययोगात् सुषुप्त्यादिवत् / प्रमितस्य हि भावस्य प्रमित एव भावे समारोपभान्तिन पुनरसतो ज्ञानाकारस्य नाप्यग्रह इत्युपपादितं विभमविवेके, अत्रापि सूचयिष्यति / न च ज्ञानव्यवहाराभावी 1-घटाद्याश्रयः तथाऽभि-आ० / 2 किहतमस्य ब०। 3-हृतम् ब० / 4-हृतम् ब्र० / Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० अङ्गम् ; तदा सुषुप्तावस्थायामपि नास्तीतिव्यवहारः स्यात् सब्यवहारानुदयस्य तत्राप्यविशेषात्। ततो निर्बाधयोर्भावाऽभावप्रतीत्यो_लक्षण्यसिद्धेः सिद्धो भावाऽभावयोर्वास्तवो भेदः। स्वरूपभेदाच्च; अभावस्य हि भावप्रतिषेधकत्वं स्वरूपं नेतरस्य / स्वरूपभेदेऽपि अनयोरेभेदे भेदवातॊच्छेदप्रसङ्गः, परस्परतो भेदस्य सर्वत्र घटपटादौ स्वरूपभेदा5 दन्यतोऽप्रसिद्धः। सामग्रीभेदाच्च अनयोर्भेदः, सुप्रसिद्धश्च तद्भेदैः / तथाहि-घटादिभावमुत्पादयितुकामः तदुत्पादनानुकूलामेव मृत्पिण्डादिसामग्रीमुपादत्ते, विनाशयितुकामस्तु ते द्विलक्षणां, मुद्रादिसामग्रीमिति / ननु मुंगरादिसामग्री परस्पराऽसंसृष्टकपालोत्पाद एव व्याप्रियते नाऽभावे, न च तदुत्पादवत् तदभावोप्यंत एव भविष्यतीत्यभिधातव्यम् ; यतः सर्वोऽपि कार्यभेदः कारणभेदेन व्याप्तः / न च अभाव-कपाललक्षणकार्यभेदे कारणभेदोऽस्ति, मुद्गरलक्षणस्यैकस्यैव कारणस्य प्रतीतेः / न च तस्यैकस्यैव अन्योन्यविरुद्धकार्यद्वयजनकत्वं . युक्तं विरोधात् ; इत्यप्यसमीचीनम् ; प्रतीतिविरोधानुषङ्गात् / तथाहि-मुद्रादिव्यापारानन्तरं लौकिकेतरयोः 'अनेन विनाशितो घटः' इति प्रतीतिः, न पुनः 'कपालानि उपलब्धपूर्वी / तदुपलम्भे वा कृतमत्र भूमोपन्यासेन / तस्मादप्रमिते भान्त्यनुपपत्तेरयुक्तमेतदित्यर्थः / " -विधिवि०, न्यायकणि० पृ० 73-74 / (1) तुलना-"स्वरूपभेदस्योपपत्तेः; यथाहि कारणादुत्पद्यमानाः रूपादयः परस्परं स्वरूपभेदाद् भिद्यन्ते तथाऽभावोऽपि भावादिति। अस्ति च द्रव्यादिषडलक्षणाऽलक्षितत्वं भावपरतन्त्रण गृह्यमाणत्वमभावस्य रूपमिति ।"-प्रश० व्यो० पृ० 400 / (2) भावस्य / (3) भावाभावयोः / (4) सामग्रीभेदः / (5) उत्पादसामग्रीभिन्नाम् / (6) "तस्मात् स्वरसतो निवर्तते काष्ठादिः, अग्न्यादिभ्यस्तु अङ्गारादिजन्म इत्येव भद्रकम् ।"-हेतुबि० टी०पू०८३ A. | "तदयमत्र समुदायार्थ:मुद्गरव्यापारानन्तरं द्वयं प्रतीयते, घटनिवृत्तिः कपालञ्च। तथैते विनाशरूपतया प्रतीयते। तत्र घटनिवृत्तेर्नीरूपत्वेनाकार्यत्वादिति वक्ष्यति / तत्कार्यत्वेन तु तत्प्रतीतिमन्तिरेव, कार्यत्वे वास्या न घटनिवृत्तिरूपत्वं स्यात घटसम्बन्धित्वेन कृतकत्वात, विनाशरूपतया च न प्रतीतिः स्यात् घटस्य सत्त्वात् / निर्हेतुके तु विनाशे स्वरसतो निवर्तमान एव घटो मुद्गरादिसहकारी कपालजनकत्वेन सदृशक्षणानारम्भकत्वात् मुद्गरव्यापारानन्तरं घटनिवृत्तेः कपालस्य च सद्भावात् तयोविनाशरूपतया विनाशस्य च सहेतुकत्वेन मन्दमतीनामवसायो युज्यत एव / " प्रयोगस्तु ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षास्ते तद्भावनियताः तद्यथाऽसम्भवत्प्रतिबन्धा कारणसामग्री कार्योत्पादने, अन्यानपेक्षश्च कृतको भावो विनाश इति स्वभावहेतुः ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी०१।१९६-९७ प्रमाणवा० मनोरथ०३।२६९-७०। तत्त्वसं० पृ० 132 / (7) घटविनाशोऽपि / (8) मुद्गरादिव्यापारादेव / (9) मुद्गरादिव्यापारस्य / (10) घटविनाश-कपालोत्पादलक्षण। (11) तुलना-"तस्मात्कार्यकारणयोरुत्पादविनाशौ न सहेतुकाहेतुको सहभावाद्रसादिवत् / मुद्गरादिव्यापारानन्तरं कार्योत्पादवत कारणविनाशस्यापि प्रतीतेः विनष्टो घट: उत्पन्नानि कपालानि इति व्यवहारद्वयसद्भावात् ।"-अष्टश०, अष्टसह०पू० 200 / / ___1-दयस्य च त-च०। 2 तत्रानिर्बा-श्र। 3-भेदाद्वाऽभा-ब०। 4 एतयोर-ब० / 6-भेवाद्वाऽन-ब० / 6-श्च तथा तभेदः ब० / 7 प्रतीतेः ब० / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 15] . अभावस्वरूपविचारः 481 उत्पादितानि' इति / नापि घटविनाशकस्य 'कपालान्युत्पादयामि' इत्यनुसन्धानं स्वप्नेऽप्यनुभूयते / न खलु विषादिना शत्रुवधे वह्नथादिना च पटदाहे प्रेवृत्तस्य शत्रुपटविनाशाहते 'अन्यत् किश्चित्तत्र उत्पादयामि' इति हन्तुः पटविनाशकस्य वा अनुसन्धानमस्ति / नापि पार्श्वस्थानाम् 'अन्यत् किञ्चिदनेनोत्पादितम्' इति प्रतीतिः, किन्तु 'तद्विनाश एव अनेन कृतः' इत्यखिलजनानां प्रतीतिः / तद्विनाशे एव चासौ परितुष्यति। / नहि अवयवनिष्पत्त्या तस्य किञ्चित् प्रयोजनम् / ननु भावानां स्वभावतो विनाशस्वभावनियततया विनाशस्य अहेतुकत्वान्न मुद्गरादेः तद्धेतुत्वम् ; इत्यप्यपेशलम् ; तेषां तत्स्वभावनियतत्वस्य अक्षणिकत्वसिद्धौ निराकृतत्वात् / / यदप्युक्तम्- 'कार्यभेदः कारणभेदेन व्याप्तः' इत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम् ; एककारणस्य एककार्योत्पादकत्वेन अविनाभावाऽभावात्, प्रदीपादेरेकस्यापि अँनेककार्योत्पादकत्व- 10 प्रतीतेः। अतः सिद्धः सहेतुको विनाशः। तथा च घंटाभावोत्पादकसामग्रीतो भावोत्पादकसामच्या भेदसिद्धेः सिद्धो भावाऽभावयोर्भेदः / . अर्थक्रियाभेदाच्च; सुप्रसिद्धो हि भावाऽभावयोः प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणोऽर्थक्रियाभेदः, जलाद्यर्थिनः तत्सद्भावस्य प्रवृत्तिहेतुत्वात् , तदभावस्य च निवृत्तिहेतुत्वात् / प्रमोदाद्यर्थक्रियाकारित्वाच्च अनयोर्भेदः; तथा हि शत्रुविनाशः कृतः श्रुतो वा परं प्रमोदमाधत्ते, तत्स- 15 द्भावस्तु विषादम् / न ह्यत्र भावाभावाभ्यामन्यस्य प्रमोद-विषादहेतुत्वं प्रतीयते / यदप्युक्तम्-'अभावोऽपि यदि कुतश्चिवुत्पद्येत काञ्चिदर्थक्रियां कुर्यात् तदा भाव एव स स्यात्' इत्यादि; तदप्यसाम्प्रतम् ; यतो भविप्रतीतिविषयत्वं भावत्वम् , न पुनः अर्थक्रियाकारित्वादि / अभावो हि स्वकारणकलापाद् भावविलक्षणतयोत्पन्न: अर्थक्रियाञ्च कुर्वाण: पदार्थतया प्रतीयते न पुनर्भावतया। . यच्चान्यदुक्तम्-'यदि अभावः स्वाकारं ज्ञाने समर्पयेत् तदा ज्ञानस्याप्यभावरूपता स्यात्' इत्यादि; तदप्यसुन्दरम् ; अर्थाकारतया ज्ञानस्य अर्थप्रकाशकत्वप्रतिक्षेपात् / निराकारमेव हि ज्ञानं 'योग्यतया योग्यदेशस्थं योग्यश्चार्थ प्रकाशयति इत्युक्तं प्रत्यक्षप्ररूपणप्रस्तावे। (1) पुरुषस्य / (2) प्रेक्षकजनानाम् / (3) विषदायिना, पटविनाशकेन वा पुरुषेण / (4) विनाशस्वभावनियतत्वस्य / (5) पृ० 386 / (6) पृ० 480 50 10 / (7) वर्तिकामुखदाह-तैलशोष-कज्जलोत्पादन-अन्धकारविनाशादि / (8) मुद्गराद्यभिघातादिरूपायाः। (9) घटोत्पादकमृत्पिण्डादिरूपायाः / (10) तुलना-"सुखदुःखसमुत्पत्तिरभावे शत्रुमित्रयोः / कण्टकाभावमालक्ष्य पदं पथि निधीयते / / ....."पश्यन्नभावं को नाम निह्नवीत सचेतनः।"-न्यायमं० पृ० 59 / (11) पृ० 477 पं०२। (12) तुलना-"सत्प्रत्ययगम्यो हि भाव इष्यते असत्प्रत्ययगम्यस्त्वभाव इति ।"-न्यायमं० पृ०५९ (13) पृ० 477 पं०४। (14) स्वावरणक्षयोपशमलक्षणया। (15) पृ० 171 / / 1 प्रवृत्तः श-आ० / 2-स्य चानुस-श्र० / 3 घटादिभावो-ब०। 4 कृतः परं ब० / 5-दुत्पद्यते आ० / 6 भाव एव स्यात् श्र०, ब० / 7-या प्रदेशस्थं ब०। 11 . 20 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० न चाऽवस्तुत्वादभावस्य किं प्रसाधनप्रयासेनेत्यभिधातव्यम् ; प्रमाणतः प्रेतीयमानत्वादिसाधनात् तस्य वस्तुत्वप्रसिद्धेः / तथाहि-अभावो वस्तु, प्रमाणतः प्रतीमानत्वात् , यत् प्रमाणतः प्रतीयमानं तद् वस्तु यथा भावः, प्रमाणतः प्रतीयमानश्चाऽभाव इति / तथा, यत् कारणादुत्पद्यते तद्वस्तु यथा घटादि, कारणादुत्पद्यते चाऽभाव इति / तथा, / यदर्थक्रियाकारि तद्वस्तु तथा प्रदीपः, अर्थक्रियाकारी चाऽभाव इति / तथा, यद् अवा न्तरभेदेन भिद्यते तद्वस्तु यथा रूपरसादि, प्रोगभावाद्यवान्तरभेदेन भिद्यते चाऽभाव इति / ततः सिद्धो भाववद् अभावो वास्तवो वस्तुधर्मः प्रमेय इति / प्रमाणं तु तत्परिच्छेदकम् अभावाख्यं प्रत्यक्षादिभ्यो भिन्नं वास्तवं न प्रसिद्धम् , प्रत्यक्षादितोऽपि तत्परि च्छेदसिद्धेः / यत् प्रमाणान्तरादपि परिच्छिद्यते न तत्र प्रमाणनियमः यथा वह्नयादौ, 10 प्रमाणान्तरादपि परिच्छिद्यते चाऽभाव इति / यत् पुनः यत्प्रकारप्रमाणान्तरान्न परिच्छिद्यते तत्र तत्प्रकारप्रमाणनियमो यथा रूंपरसादाविति / .. तत: सूक्तम्-'अदृश्यस्यापि परचित्तविशेषस्य अभावः तदाकारविकारादेरन्यथानुपपत्तितः' इति / सर्वत्र हि गमकत्वं अन्यथानुपपत्तिप्रसा दादेव, सा च अदृश्यानुपलब्धावप्यस्ति इति कथं नास्या गमकत्वम् ? 15 'अदृश्य' इत्यादिना व्यतिरेकमुखेन कारिकां व्याचष्टे-अदृश्यानुपलब्धेः __ सकाशात् संशयैकान्ते अङ्गीक्रियमाणे न केवलं परिचित्ताभावो न विवृतिव्याख्यानम्tara सिद्ध्यति सौगतस्य अपि तु स्वचित्तभावश्च न सिद्ध्यति / कुत एतद् ? इत्यत्राह-'तंद्' इत्यादि / तस्य स्वचित्तस्य यद् अनशं तत्त्वं संजातीयविजातीय व्यावृत्तं मध्यक्षणस्वरूपं तस्य अदृश्यात्मकत्वात् / ततः किं जातम् ? इत्यत्राह 'तथा च' 20 इत्यादि। तथा च तेनं च स्वचित्तभावाऽसिद्धिप्रकारेण कुतः न कुतश्चित् परमार्थसतो मानाद् भावस्य क्षणभङ्गसिद्धिः धर्मिहेतुदृष्टान्तादेरसिद्धेः / न खलु बहिरन्तर्वा अनंशतत्त्वस्य अदृश्यात्मतर्यांऽसिद्धौ धादेः सिद्धिर्युक्ता, तदसिद्धौ च कुतः क्षणभङ्गादेः (1) अभावस्य / (2) “स च द्विविधः प्रागभावः प्रध्वंसाभावश्चेति / चतुर्विध इत्यन्ये इतरेतराभावः, अत्यन्ताभावश्च तौ च द्वौ। षट्प्रकार इत्यन्ये --अपेक्षाभावः सामर्थ्याभावश्च ते च चत्वार इति / " -न्यायमं० पृ०६३। 'अभावस्तु द्विधा संसर्गान्योन्याभावभेदतः / प्रागभावस्तथा ध्वंसोऽप्यत्यन्ताभाव एव च // एवं त्रैविध्यमापन्न: संसर्गाभाव इष्यते ।"-मुक्ता० का० 12-13 / (3) अभावपरिच्छेदकं पृथगभावाख्यं प्रमाणं नास्ति प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तरादपि तस्य परिच्छिद्यमानत्वात् / (4) रसो यथा रूपग्राहिचाक्षुषप्रत्यक्षान्न परिच्छिद्यते अतः तद्ग्रहणाय रासनप्रत्यक्षस्य नियमो भवति, नचैवमभावे प्रत्यक्षादिभिः परिच्छिद्यमाने प्रमाणान्तरत्वनियमः / (5) स्वचित्तसद्भाव / (6) अदृश्यात्मकत्वादसिद्धौ सत्याम् / 1 प्रमीयमान-ब०12 प्रदीपादि अर्थ-ब० ॥3-नियमोऽपि यथा ब० / 4 तत्तत्प्रका-आ०। 5 तत्प्रमाणनि-आ०16-लब्धावस्तीति आ० / 7 तदित्यादि' नास्ति आ०, ब० 18 सजातीयव्या-ब० / 9 तेन स्वचि-आ० / 10-सतो भावस्य अनुमानात् क्ष-श्र० / Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र का० 16 ] पराभिमत-अनुपलब्धिहेतुनिरासः 483 सिद्धिः स्यात् ? कस्य तर्हि क्षणभङ्गसिद्धिः स्यात् ? इत्याह-'तद्' इत्यादि / तस्माद् अनंशतत्त्वाद् विपरीतं साशं तत्त्वं तस्य / कथम्भूतस्य ? अभेदलक्षणस्य युगपत् क्रमेण वा अनेकस्वभावात्मकस्य स्याद् भवेत् क्षणभङ्गसिद्धिः नान्यस्य इति एवकारार्थः / . ननु चाभेदलक्षणतत्त्वस्य सविकल्पकप्रत्यक्षेण सर्वात्मना प्रतिपन्नत्वात् किं तत्र क्षणभङ्गाद्यनुमानेन ? इत्याशङ्कापनोदार्थमाह वीक्ष्याणुपारिमाण्डल्यक्षणभङ्गाद्यवीक्षणम् / स्वसंविद्विषयाकारविवेकानुपलम्भवत् // 16 // विवृतिः-स्थलस्यैकस्य दृश्यात्मन एव पूर्वापरकोट्योरनुपलम्भात अभावसिद्धेरनित्यत्वं बुद्धेरिव वेद्यवेदकाकारभेदस्य परमार्थसत्त्वम्, न पुनः परिमण्डलादेः विज्ञानानंशतत्त्ववत् / नापि क्षणिकपरिमण्डलादेः अविभागज्ञानतत्त्वस्य वा 10 जातुचित् स्वयमुपलब्धिः तथैवाप्रतिभासनात् / तत्कथञ्चित् तत्स्वभावप्रतिभासे अनेकान्तसिद्धिः। वीक्ष्यम् , उपलब्धिलक्षणप्राप्तं स्थूलमेकं ग्राह्यम्, तस्य ये अणवः अतिसूक्ष्मा ___भागाः तेषां पारिमाण्डल्यंवर्तुलत्वं यच्च क्षणभङ्गादि आदिशब्देन कारिकार्थः - कार्यकारणसामादिपरिग्रहः तस्याऽवीक्षणम् अग्रहणम् / अत्र दृष्टा- 15 न्तमाह 'ख' इत्यादि। स्वसंविदो बौकल्पितनिरंशबुद्धेर्यः विषयाकारस्य स्थूलाद्याकारस्य विवेकः निवृत्तिः तस्य अनुपलम्भवत्। नहि तस्यौं प्रतिभासमानायां (1) अनेकपर्यायेषु अनुगताकारतया व्यापिनः अभेदलक्षणस्य द्रव्यस्येति यावत्, अथवा अनेकावयवेषु कथञ्चित्तादात्म्यतया व्यापिन: अभेदलक्षणस्य स्कन्धस्येति / (2) “वीक्ष्यमुपलब्धिलक्षणप्राप्तं स्थूलं तस्याणवः सूक्ष्मा भागा अवयवास्तेषां पारिमाण्डल्यं वर्तुलत्वम् अन्योन्यविवेकः क्षणे क्षणे भङ्गः क्षणभङ्गः समयं प्रति नाश इत्यर्थः। स आदिर्यस्य कार्यकारणसामर्थ्यादेरसौ तथोक्तः, वीक्ष्याणुपारिमाण्डल्यं च क्षणभंगादिश्च तत्तथोक्तम्, तस्याऽवीक्षणं प्रत्यक्षेणानुपलम्भोऽशक्तिः। न खलु सांव्यवहारिकप्रत्यक्षेण क्षणभङ्गादिर्वीक्ष्यते तेन स्थिरस्थूलसाधारणाकारस्यैव वीक्षणात्, योगिप्रत्यक्षस्यैव तद्वीक्षणसामर्थ्यादित्यर्थः, सत्त्वात्प्रमेयत्वादर्थक्रियाकारित्वादित्यादिहेतूनां कथञ्चिदनेकानित्यादिधर्मव्याप्यत्वात्तदविनाभावप्रसिद्धः। प्रकृतार्थे दृष्टान्तमाह-स्वसंविदित्यादि। स्वसंवित् स्वसंवेदनं तस्या विषयाकारो घटाद्याकारस्तस्माद्विवेको व्यावृत्तिस्तस्यानुपलम्भः प्रत्यक्षेणाग्रहणं तद्वत् / यथा ज्ञानस्य स्वरूपप्रतिभासने बहिराकारनिवृत्तिविद्यमानेनापि न प्रतिभासते सौगतानां तस्य तादृक् सामर्थ्याभावात् तथा बहिरन्तश्चाणुपारिमाण्डल्यादि प्रत्यक्षेण न प्रतिभासते तथाशक्त्यभावात् / ततोऽनुमानमनेकान्तमते सफलमित्यर्थः ।"-लघी० ता० पृ० 36 / (3) घटपटादि / (4) “नित्यं परमाणुमनःसु तत्तु पारिमाण्डल्यम् ,परिमाण्डल्यमिति तस्य नाम, तथाहि-परिमण्डलानि परमाणुमनांसि तेषां भाव: पारिमाण्डल्यं तत्परिमाणमेव।"-प्रश० भा०, व्यो० पु. 473 / “पारिमाण्डल्यमिति सर्वापकृष्टं परिमाणम् ।"-प्रश० कन्द०१०१३३ / “पारिमाण्डल्यं परमाणुपरिमाणम्"-सप्तप०टी० पृ० 49 / मुक्ता० का० 15 / (5) स्वर्गप्रापणादौ -आ०टि० / (6) संविदि-आ० टि०। 1-स्यादृश्या-ज० वि०। 2-करणसा-ब० / 3-द्धपरिक-श्र० / Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 484 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० विषयाकारविवेकः प्रतिभासते स्थूलाद्याकारभ्रान्तेरभावप्रसङ्गात् / यत्र यदा वास्तवो यदाकारः प्रतीयते न तत्र तदा तद्विपरीताकारस्य प्रतीतिरस्ति यथा नीले प्रतीयमाने न पीतस्य, प्रतीयते च विषयाकारविवेकः सौगतकल्पितायां संविदि इति / कारिकार्थं विवृण्वन्नाह-'स्थूलस्य' इत्यादि / स्थूलस्य महतः एकस्य क्रमाऽ ____ क्रमानेकविवर्त्तव्यापिनः प्रतिपादितप्रकारेण दृश्यात्मन एव उपलभ्यविवृतिव्याख्यानम् स्वभावस्यैव अनित्यत्वं सिद्ध्यति 'नान्यस्य' इति सम्बन्धः। कुत एतत् ? अनुपलम्भात् हेतोः तस्यैव पूर्वापराकारकोव्योः अभावसिद्धेः। तथा च यदुक्तं परेण-"यद् यत्र उपलब्धिलक्षणप्राप्त सन्नोपलभ्यते तत् तत्र नास्ति यथा क्वचित्. प्रदेशविशेषे घटः, नोपलभ्यते च उपलब्धिलक्षणप्राप्तो मध्यक्षण: पूर्वापरकोट्योः" [ ] 10 इति; तदयुक्तम् ; यतः कथञ्चित्तत्र तदभावसाधने सिद्धसाधनम् / सर्वथा तत्साधने पक्षस्य प्रत्यक्षबाधनं हेतोश्चाऽसिद्धिः, तथा तत्र तैर्दैनुपलम्भाऽसिद्धेरिति / ननु चास्तु स्थूलादिस्वभावस्यार्थस्य अनित्यत्वं न तु परमार्थसत्वम् मरीचिकाजलादिवदसत्त्वात् , इत्याशङ्क्याह-'बुद्धेः' इत्यादि। यथोक्तस्यैवार्थस्य परमार्थसत्त्वं बुद्धेवेद्यवेदकाकारप्रभेदस्य इव / प्रयोगः-यद् अनेकस्वभावं तदेव परमार्थसत् यथा वेद्यवेदकाद्यनेकस्वभावा संवित्, अनेकस्वभावञ्च अन्तर्बहिर्वा जैनाभ्युपगतं वस्तु इति / तथापि मरीचिकातोयनिदर्शनेन अस्याऽसत्त्वे बुद्धेरप्यतोऽसत्त्वप्रसङ्गः विशेषाभावात् / ननु नाऽनेकस्वभावस्यार्थस्य अनित्यत्वं परमार्थसत्त्वं वा अपि तु परमाण्वादेः; इत्यत्राह-'नपुनः' इत्यादि / न पुनः नैव परिमण्डलसम्बन्धात् परिमण्डलः परमाणुः आदिर्यस्य यौगकल्पिताऽवयव्यादेः स तथोक्तः तस्याऽनित्यत्वं परमार्थसत्त्वश्च / निदर्शनमाह (1) ग्राह्याकाररहितत्वम् / (2) यदि हि संविदि ग्राह्याद्याकाराः प्रतिभासेरन्, तदैव तस्यां प्रतिभासमानस्य स्थूलाद्याकारस्य भ्रान्तत्वं शक्येत कल्पयितुम्, यदा च संवित्तिः ग्राह्याद्याकारशून्यैवास्ति तदा कथं तत्र भ्रान्तत्वेनापि स्थूलाद्याकारः प्रतिभासेत ? (3) संविदि न भ्रान्ततयापि स्थूलाद्याकारप्रतिभासः, वास्तवस्य ग्राह्याद्याकाररहितत्वस्य तत्र प्रतिभासमानत्वात् / (4) स्कन्धस्य / (5) निरंशपरमाणुरूपस्वलक्षणस्य / (6) सौगतेन। (7) पूर्वापरक्षणयो:-आ० टि। (8) मध्यक्षणाभाव-आ० टि० / (9) सर्वथा। (10) पूर्वापरक्षणयोः / (11) मध्यक्षण। (12) बौद्धमते-आ० टि०। (13) स्थूलादिस्वभाव एवार्थः परमार्थसन् अनेकस्वभावत्वात्। (14) "यथोक्तम् आर्यरत्नावल्याम-मरीचितोयमित्येतदिति मत्त्वा गतोऽत्र सन् / यदि नास्तीति तत्तोयं गृह्णीयान् मूढ एव सः / / मारीचिप्रतिमं लोकमेवमस्तीति गृह्णतः / नास्तीति चापि मोहोऽयं सति मोहे न मुच्यते / / अज्ञानकल्पितं पूर्व पश्चात्तत्त्वार्थनिर्णये / यदा न लभते भावमेवाभावस्तदा कुह // इति / तदेवं निःस्वभावानां सर्वभावानां कुतो यथोक्तप्रकारसिद्धिः / तस्माल्लौकिकं विपर्यासमभ्युपेत्य सांवृतानां पदार्थानां मरीचिकाजलकल्पानामिदं प्रत्ययतामात्राभ्युपगमेनैव प्रसिद्धिर्नान्येन।"-माध्यमिकवृ० 10188 / (15) स्थूलाद्यनेकस्वभावस्य वस्तुनः / (16) मरीचिकातोयदृष्टान्तात् / (17) परिमण्डल: वर्तुलाकारः / 1-ति विव-ब० / 2 पूर्वापरकोटयोर-श्र०, ब० / तदुपलम्भासिद्धिरिति ब० / 4 नानकब०। 5-व्यादिः ब०। 6 -त्वं निद-ब। . Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 17 ] पराभिमत-स्वभावादिहेतुनिरासः 455 'विज्ञान' इत्यादि / विज्ञानस्य यद् अनशं तत्त्वं स्वरूपं तस्य इव तद्वदिति / ननु बहिरन्तश्च अनंशस्यैव तत्त्वस्य उपलम्भः अतस्तस्यैव परमार्थसत्त्वम्, अनुपलम्भाच्च पूर्वापरकोट्योरसत्त्वं सिद्धयति इति यौग-सौगताः; तत्राह-'नापि' इत्यादि / नापि नैव क्षणिकाः परिमण्डलाः परमाणवः आदयो यस्य अवयव्यादेः स तथोक्तः तस्य अविभागविज्ञानतत्त्वस्य वा जातुचित् कदाचिदपि स्वयम् आत्मना उपलब्धिः / / कुत एतदित्यत्राह-'तथैव' इत्यादि / तथैव परपरिकल्पितप्रकारेणैव अप्रतिभासनात् / अथ बहिरन्तस्तत्त्वस्य क्षणिकाऽनंशादिस्वभावतया अप्रतिभासनेऽपि सच्चेतनादिरूपतया प्रतिभासनादयम्दोषः, अत्राह- 'तत्कथञ्चिद्' इत्यादि / तस्य बहिरन्तस्तत्त्वस्य कथश्चित् न सर्वात्मना तत्स्वभावप्रतिभासे सच्चेतनादिस्वरूपप्रतिभासने अङ्गीक्रियमाणे अनेकान्तसिद्धिः एकस्य दृश्येतरस्वभावसिद्धेः / 10 एवं परस्य अनुपलब्धिं निराकृत्य अधुना स्वभावादिहेतुं निराकुर्वन्नाह अनंशं बहिरन्तश्चाप्रत्यक्षं तदभासनात् / कस्तत्वभावो हेतुः स्यात् किं तत्कार्य यतोऽनुमा // 17 // विवृतिः-साक्षात् स्वभावमप्रदर्शयतो निरंशतत्त्वस्यानुमितौ खभावहेतोरसंभवः स्वभावविप्रकर्षात् / तत एव कार्यहेतोः, कार्यकारणयोः सर्वत्रानुपलब्धेः। 15 न चात्र प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनः प्रभवः कार्यव्यतिरेकोपलक्षिता वा कारणशक्तिः। तदङ्गीकरणं प्रमाणान्तरमन्तरेणानुपपन्नम् / स्वयमुपलब्धस्य प्रागूप्रश्चानुपलब्धेः कृतकत्वादनित्यत्वं सिद्धयेत् नान्यथा / योगसौगतकल्पितं यद् अनंशं तत्त्वम् , क ? बहिरन्तश्च / तत्किम् ? . अप्रत्यक्षं प्रत्यक्षग्राह्यं न भवति / कुत एतद् ? इत्यत्राह-तदप्र- 20 कारिकार्थः तिभासनात् तस्य अनशतत्त्वस्य अप्रतीतेः। ततः किं जातम् ? इत्यत्राह-'कस्तद्' इत्यादि / कः, न कश्चित् तस्य अनंशस्य खभावो हेतुः (1) यौगानां मते अन्त: अनंशस्य निरवयवस्य व्यापिनः आत्मन उपलम्भः, बहिश्च निरंशावयविनः / सौगतमते च स्वलक्षणस्य पूर्वापरक्षणयोरनुपलम्भात् अभावः, मध्यमक्षण एव च स्थायिता / (2) “यत् सौगतैः परिकल्पितं बहिरचेतनम् अन्तश्चेतनम्, निरंशम्, अंशा द्रव्यक्षेत्रकालभावविभागाः तेभ्यो निष्क्रान्तं निरंशं तदप्रत्यक्षं प्रत्यक्षाविषयः / कुतः ? तदभासनात् तस्य निरंशतत्त्वस्याभासनादननुभवात् / न खलु द्रव्यादिविभागरहितं चिदचिद्वा तत्त्वं प्रत्यक्षबुद्धौ प्रतिभासते, तत्र नित्यानित्याद्यनेकांशव्यापित्वेन वस्तुनः प्रतीतेः / ततस्तस्य निरंशस्य प्रत्यक्षतोऽसिद्धस्य स्वभावो धर्मः को हेतुलिङ्गं स्यात्, न कोऽपि इत्यर्थः / प्रमाणतोऽसिद्धस्याहेतुत्वात् / तस्य कार्यञ्च किन्नु हेतुः स्यात् , सर्वथा निरंशस्यापरिणामिन: कार्यकरणायोगात् यतोऽनुमा भवेदित्याक्षेपवचनं न कुतोऽपीत्यर्थः / तन्न सौगतमतेऽनुमानं प्रामाण्यमास्कन्दत्यनुपपत्तेः ।"-लघी० ता० पृ० 37 / (3) “प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनः कार्यकारणभावः।"-हेतुबि० टी०प०७३ / "भावे भाविनि तद्भावः भाव एव च भाविता। प्रसिद्ध हेतुफलते प्रत्यक्षानुपलम्भतः // " (सम्बन्धप०)-प्रमेयक० पृ० 510 / स्या० र० पृ० 818 / 1-भावादिसिद्धेः ब० / 2 किमप्रत्यक्षपामु ब० / Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० स्यात् / किं न किञ्चित् तस्य अनंशस्य कार्य हेतुः / कार्यग्रहणमुपलक्षणम् , तेन . साध्याद् भिन्नानां संयोगिसमवाय्यादीनां निरास: सिद्धो भवति, अतो न परमते किञ्चित् लिङ्गं घटते यतोऽनुमा स्यात् / / कारिकां विवृण्वन्नाह-'साक्षात्' इत्यादि / साक्षात् स्वभावं स्वरूपम् अप्रद___ _ शयतो भावस्य यत् निरंशं तत्त्वं स्वरूपं तस्य अनुमितौ क्रियमा - णायां स्वभावहेतोरसंभवः / कुत इत्याह-'स्वभाव' इत्यादि / खभावस्य स्वरूपस्य विप्रकर्षाद् अदृश्यत्वात् / तत एव तद्विप्रकर्षादेव कार्यहेतोरप्रतिपत्तिः / कुत एतत् ? इत्याह-'कार्य' इत्यादि / कार्यकारणयोः सर्वत्र बहिरन्तर्वा अनुपलब्धेः अदर्शनात् / किश्च, सिद्धे कार्यकारणभावे कार्यहेतोः प्रतिपत्तिर्युक्ता, न चात्र सोऽस्ति इत्याह-'नच' इत्यादि / नच नैव अत्र योग-सौगतकल्पिते एकान्ते प्रत्यक्षानुपलम्भौ साधनं यस्य स तथोक्तः। कः ? प्रभवः, कार्यकारणभावः भवति' 'प्रमवति अस्मात्' इति च व्युत्पत्तेः / यथा च तत्कल्पितैकान्ते प्रभवो न घटते तथा . . विषयपरिच्छदे प्रपश्चितम् / ननु न सर्वत्र प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनः प्रभवः, किन्तु कचित् इन्द्रियशक्तिवत् कार्यव्यतिरेकसाधनोऽपि, सोऽत्र स्यात् ; इत्याशक्य आह–'कार्य' 15 इत्यादि / कार्यस्य व्यतिरेकः विवक्षितकारणव्यतिरिक्तकारणसाकल्येऽपि अनुत्पादः तेन उपलक्षिता वा। पक्षान्तरसूचको वाशब्दः। कारणशक्तिः 'न चात्र' इति सम्बन्धः। निरंशयोः कार्यकारणयोः मूलतोऽप्यदर्शने कारणव्यतिरेकतः कार्यव्यतिरेकाऽसिद्धिः इत्यभिप्रायः / नच प्रमाणान्तरमन्तरेण कारणशक्त्यङ्गीकरणं युक्तम् इत्याह-'तदङ्गीकरणम्' इत्यादि / तस्याः कारणशक्तेः अङ्गीकरणम् कार्यव्यतिरेकत: सद्भावस्वीकरणं प्रमाणान्तरमन्तरेण ऊहाख्यप्रमाणं विना अनुपपन्नम् / प्रसिद्धे हि कार्यकारणभावे कार्यव्यतिरेकतः कारणशक्तिपरिकल्पना स्यात् / नच प्रत्यक्षानुमानयोः कार्यकारणभावादिसम्बन्धप्रतिपत्तौ सामर्थ्यमित्युक्तम्-'अविकल्पधिया लिङ्गं न किञ्चित् सम्प्रतीयते' [लघी० का० 11] इत्यत्र। कुतः पुनस्तदङ्गीकरणं तदन्तरेणाऽनुपपन्नम् ? इत्याह-'स्वयम्' इत्यादि / स्वयम् आत्मना उपलब्धस्य मध्यदशायां दृष्टस्य प्रागू25 वंश्च या तस्यैव अनुपलब्धिः स्वयमेव अदर्शनं तस्या यत् सिद्धं कृतकत्वं कार्यत्वं तस्माद् अनित्यत्वं शब्दादेः सिद्धयेत् नान्यथा न प्रकारान्तरेण / नच प्रत्यक्षमनुमानं (1) अनुमानम् / (2) प्रभवति यत्कार्यमिति कार्यव्युत्पत्तिः, प्रभवति कार्य यस्मात् कारणात् इति कारणव्युत्पत्तिः-आ० टि०। (3) पृ० 220, पृ० 384 / (4) कारणशक्तिरस्ति कार्योत्पत्त्यन्यथानुपपत्तेः / (5) कारणशक्तिस्वीकारः। (6) ऊहप्रमाणमन्तरेण / 1 कार्यहेतुः श्र०। 2-नुमानं स्यात् आ०, श्र०। 3 स्वरूपं दर्शय-ब०। 4 एतद्वेत्याह-ब०, एतदित्यत्राह श्र०। 5 प्रभवति अस्मात् इति व्यु-ब०,श्र०। 6 प्रपञ्चितः ब०। 7-क्षितो वा ब०। 8-ञ्च तया ब० / Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 18] परमते विकल्पस्यापि न सिद्धिः 487 वा तथा प्रत्येतुं समर्थमित्यूहस्यैव अत्र व्यापार इति मन्यते / कृतकत्वानित्यत्वग्रहणमुपलक्षणं सकलहेतुसाध्यानाम् / ननु सर्वोऽयं कार्यकारणभावोऽनुमानानुमेयभावोवा कल्पनाशिल्पिकल्पितो न पारमार्थिकः तत्कथं प्रमाणान्तरप्रसक्तिः? इत्यप्यनुपपन्नम् ; यतो विकल्पबुद्धौ सिद्धायां तत्कल्पि तोऽखिलोऽयं व्यवहारः स्यात्। न च तैत्सिद्धिः स्वत: परतो वा घटते इत्यावेदयति- 5 धीविकल्पाविकल्पात्मा बहिरन्तश्च किं पुनः। निश्चयात्मा स्वतः सिद्धयेत् परतोऽप्यनवस्थितेः॥१८॥ विवृतिः-सर्वविज्ञानानां स्वसंवेदनं प्रत्यक्षमविकल्पं यदि, निश्चयस्यापि कस्यचित् स्वत एव अनिश्चयात्, निश्चयान्तरपरिकल्पनायामनवस्थानात् कुतस्तत्संव्यवहारसिद्धिः 1 ततः स्वार्थेऽपि कथञ्चिदभिलापसंसर्गयोग्यायोग्य- 10 विनि सैकज्ञानं प्रतिपत्तव्यं स्वरूपवत् / धीः बुद्धिः, कथम्भूता ? निश्चयात्मा विकल्पबुद्धिः इत्यर्थः / पुनरपि कथ म्भूता ? इत्याह-'विकल्प' इत्यादि / विकल्पो व्यवसाय:, अविकल्पो निर्विकल्पकः, तौ आत्मानौ यस्याः सा तथोक्ता। क? बहिरन्तश्च; बहिर्विकल्पात्मा अन्तश्च अविकल्पात्मा इति / सा किम् ? इत्यत्राह- 15 (1) "तथा चानुमानानुमेयव्यवहारोऽयं सर्वो हि बुद्धिपरिकल्पितो बुद्धयारूढेन धर्ममिभेदेनेत्युक्तम् ।-आचार्यदिग्नागेनाप्येतदुक्तमित्याह तथा चेत्यादि / सर्व एवेति यत्रापि साध्यसाधनयोरग्निधूमयोर्वास्तवो भेदः तत्रापि स्वलक्षणेन व्यवहारायोगात् / अनुमीयतेऽनेनेत्यनुमानं लिङ्गम् अनुमेयः साध्यधर्मी साध्यधर्मश्च तेषां व्यवहारो नानात्वप्रतिरूपः, बुद्धचारूढेन धर्ममिणोदस्तेन बुद्धिप्रतिभासगतेन भिन्नेन रूपेण भेदव्यवहार इति यावत ।"-प्रमाणवा० स्वव०टी०१४। (2) विकल्पसिद्धिः / (3) "किं पुनः सिद्धयेत् ? न सिद्धयेदित्यर्थः / का ? धीः बुद्धिः / किं विशिष्टा? निश्चयात्मा अनुमानबुद्धिरित्यर्थः / पुनरपि कथम्भूता ? विकल्पाविकल्पात्मा, विकल्पो व्यवसायः अविकल्पोऽव्यवसायः तावात्मानौ यस्याः सा तथोक्ता / क्व ? बहिरन्तश्च, अत्र यथासंख्यमभिसम्बन्धः कर्तव्यः, बहिर्घटादिविषये विकल्पात्मा, अन्तः स्वरूपे निर्विकल्पात्मा चेति / कतो न सिद्धयेत? स्वतः स्वसंवेदनात्, तस्य निविकल्पकत्वेन विकल्पाविषयत्वात / सर्वचित्तचत्तानामात्मसंवेदनं स्वसंवेदनमिति वचनात् / न केवलं स्वतः, अपि तु परतोऽपि / किं पुनः सिद्धयति ? परस्माद्विकल्पान्तरादपि न सिद्धयतीत्यर्थः / कुतः ? अनवस्थितेः / तदपि विकल्पान्तरतः स्वतो न सिद्धयति अगोचरत्वात तत्रापि तत्सिद्ध्यर्थं विकल्पान्तरं कल्पनीयमिति क्वचिदप्यनुपरमात् / ततोऽनुमानस्यासिद्धेः कथं बौद्धकल्पितः प्रमाणसंख्यानियमो घटत इति भावः ।"-लघी० ता०प०३८ / (4) "सर्वचित्तचतानामात्मसंवेदनम / चित्तमर्थमात्रग्राहि, चैत्ता विशेषावस्थाग्राहिणः सुखादयः / सर्वे च ते चित्तचैत्ताश्च सर्वचित्तचत्ताः / सुखादय एव स्फुटानुभवत्वात् स्वसंविदिताः नान्या चित्तावस्थेत्येतदाश ड्रानिवत्त्यर्थं सर्वग्रहणं कृतम् / नास्ति सा काचिच्चित्तावस्था यस्यामात्मनः संवेदनं न प्रत्यक्षं स्यात् / येन हि रूपेणात्मा वेद्यते तद्रपमात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम् ।"-न्यायबि० टी० पृ० 19 / (5) तुलना-"स्वत एव विकल्पसंविदां निर्णये स्वलक्षणविषयोऽपि विकल्पः स्यात्, परतश्चेदनवस्थानादप्रतिपत्तिः।"-अष्टश०, अष्टसह० 10 170 / 1-विकल्पकं ई० वि० / 2 निर्विकल्पः ब०, श्र० / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० किं पुनः सिद्धयेत् ? नैव सिद्धयेत्। कुतः ? स्वतः स्वसंवेदनात् निर्विकल्पकात् / यत् निर्विकल्पकेन गृह्यते न तत्सिद्धथति यथा क्षणक्षयस्वर्गप्रापणसामर्थ्यादि, निर्विकल्पेन गह्यते च विकल्पस्वरूपमिति / तर्हि विकल्पान्तरात् तत् सेत्स्यति; इत्यत्राह-'परतः' इत्यादि / न केवलं स्वतः अपि तु परतः विकल्पान्तरादपि किं पुनः सिद्धयेत् इति 'नो सिद्धयेत्' इति सम्बन्धः / कुत एतत् ? इत्याह-अनवस्थितेः अनवस्थानात् विकल्पान्तरस्यापि तदन्तरात् सिद्धिप्रसङ्गात् / कारिकां विवृण्वन्नाह-'सर्व' इत्यादि / सर्वविज्ञानानां विकल्पेतरज्ञानानां - स्वसंवेदनम् आत्मग्रहणं प्रत्यक्षम् अविकल्पकं निर्विकल्पकं यदि वितव्याच्या विवृतिव्याख्यानम्- 1 चेत् इष्यते / अत्र दूषणम् 'निश्चय' इत्यादि / निश्चयस्यापि न 10 केवलम् अनिश्चयस्य कस्यचिद् अनुमानानुमेयव्यवहारहेतोः स्वत एव स्वसंवेदैनादेव 'अनिश्चयात्' निश्चयाभावात् / अंथ अन्यतो निश्चयः स्यादत्राह-'निश्चय' इत्यादि / प्रकृतान्निश्चयाद् अन्यो निश्चयः तदन्तरम् तस्य कल्पनायाम् अनवस्थानात् / कुतः, न कुतश्चित्, तस्मात् संव्यवहारस्य कार्यकारणभावादिलक्षणस्य सिद्धिः / तस्यैव असिद्धेः इत्यभिप्रायः। अस्तु तर्हि धीः निश्चयात्मा बहिरिव अन्तरपि 15 इत्यत्राह-'ततः' इत्यादि / ततः तस्माद् उक्तदोषात् खार्थेऽपि स्वस्य बुद्धेः अर्थो प्राचं बहिःस्वलक्षणं तत्रापि न केवलं सामान्ये कथञ्चित् न सर्वात्मना, 'अभिलप्यते अनेने' 'अभिलप्यते' इति च अभिलापौ शब्दजात्यादी तयोः संसर्गः 'अस्येदं वाचकम् , अस्येदं वाच्यम्' इति योजनं तस्य योग्ययोग्यौ नि सौ तयोरेकं साधारणं ज्ञानं प्रतिपत्तव्यम् सौगतैः। अत्र दृष्टान्तमाह-'खरूपवत्' इति / स्वरूपं इव तद्वदिति / एवं परं प्रति तर्कादिकं प्रमाणान्तरं प्रतिपाय इदानीमुपमानस्य प्रमाणान्तरत्वनियमं विधुरयन्नाह उपमानं प्रसिद्धार्थसाधात् साध्यसाधनम् / तद्वैधात् प्रमाणं किं स्यात्संज्ञिप्रतिपादनम् ? // 19 // (1) विकल्पस्वरूपमसिद्धं निर्विकल्पेन गृह्यमाणत्वात् / (2) नीलादौ क्षणक्षयः, अहिंसाक्षणे च स्वर्गप्रापणसामर्थ्यम्। (3) इति अभिलापः शब्दः / (4) इति अभिलाप: अभिलप्यमानो.जात्यादिः / (5) “अत्र यदित्येतदध्याह्रियते / प्रसिद्धप्रमाणेन निश्चितोऽर्थो गोरूपस्तेन साधात् सादृश्यात् उपजायमानं साध्यस्य ज्ञेयस्य तत्सादृश्यविशिष्टस्य गवयलक्षणस्य साधनं गोसदृशो गवय इति ज्ञानं यापमानं प्रमाणान्तरमभ्युपगम्यते तदा तद्वैधात् प्रसिद्धार्थवैसादृश्यादुपजायमानं साध्यसाधनं गोविलक्षणो महिष इति ज्ञानं किं प्रमाणं स्यात् ? तस्य किन्नामेत्याक्षेपः / नहि तदुपमानमेव तल्लक्षणाभावात् / नापि प्रत्यक्षादि; भिन्नविषयत्वाद् भिन्नसामग्रीप्रभवत्वाच्च / तथा संज्ञिनो वाच्यस्य प्रतिपादनं च 1 कुतः स्वसं-आ०, श्र० 12-तः संवेद-ब०। 3-कल्परूपमिति श्र०। 4 अपि विक-आ० / 5 'नो सिद्धयेदिति' नास्ति आ०, श्र०। 6-स्पंनि-ब०। यदीष्यते ब० / 8-वेदनानिश्च-आ०, श्र० / 9 'अर्थ'नास्ति आ० / 10 अनवस्थाभावात् ब० / 11 अन्तरेऽपि ब०। 12 ब्राभि-ब० / 13 'स्वरूपवविति' नास्ति आ०, ब० / Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप० का० 16] उपमानप्रमाणनिरास: 486 विधुतिः-प्रसिद्धार्थसाधर्म्यम् अन्यथानुपपन्नत्वेन निर्णीतश्चेत् लिङ्गमेव ततः प्रतिपत्तिः अन्यथा न युज्यते / प्रत्यक्षेऽर्थे संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तेः प्रमाणान्तरत्वे 'वृक्षोऽयम्' इति ज्ञानं वृक्षदर्शिनः प्रमाणान्तरम्, 'गवयोऽयम्' इति यथा गवयदशिनः प्रसिद्धार्थसाधात् सांध्यसिद्धरभावात् / 'गौरिव गवयः' इति श्रुत्वा गवयदशिनः तन्नामप्रतिपत्तिवत् प्रत्यक्षेषु इतरेषु तिर्यक्षु तस्यैव पुनरगवयनिश्चयः / किन्नाम प्रमाणम् ? हानोपादानोपेक्षाप्रतिपत्तिफलं नाप्रमाणं भवितुमर्हति / प्रसिद्धोऽर्थो गौः तेन साधर्म्य सादृश्यं यद् गवयस्य तस्मात् साध्यस्य .. सादृश्यविशिष्टस्य विशेषस्य तेन वा विशिष्टस्य सादृश्यस्य साधनं कारिकार्थः सिद्धिः उपमानं प्रमाणम् / 'यदि'शब्दोऽत्र द्रष्टव्यः / अत्र दूषणमाह-'तद्' इत्यादि / तेन प्रसिद्धार्थेन वैधयं वैसदृश्यं यन्महिष्यादेः तस्मात् 10 साध्यसाधनं गोविलक्षणा एते महिष्यादयः' इति प्रतीतिः, तत् किंप्रमाणम् किमभिधानं तत्प्रमाणम् ? तस्य किञ्चिन्नाम कर्त्तव्यं यत् प्रत्यक्षादिषु न संभवति / तथा च सप्तमप्रमाणप्रसङ्गात् 'षडेव प्रमाणानि' इति संख्याव्याघातः / ननु उपमानप्रमाणानभ्युपगमे कुतो गवयदर्शनाद् असन्निकृष्टे अर्थे बुद्धेरुत्पत्तिः ? उपमानं पृथक प्रमा- येन हि प्रतिपत्रा गौरुपलब्धा न गवयः, न च अतिदेशवाक्यं श्रुतं 'गौरिव 15 यामिति मीमांसकस्य गवयः' इति, तस्य अरण्ये पर्यटतो गवयदर्शनानन्तरम् 'अनेन सदृशो पूर्वपक्षः- गौः' इत्येवमाकारं परोक्षे गवि यत् सादृश्यज्ञानमुत्पद्यते तदुपमानम् / विवक्षितसंज्ञाविषयत्वेन संकलनं यथा वृक्षोऽयमिति / तदपि किन्नाम प्रमाणं स्यादित्याक्षिप्यते / न खल संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमप्रमाणम् आगमप्रामाण्यविलोपापत्तेः; उपमानाप्रामाण्यापत्तश्च ।"-लघी० ता० पृ० 39 / “प्रसिद्धार्थसाधात्साध्यसाधनमुपमानम् ।"-न्यायसू० 11116 (6) तुलना-“गवयस्योपलम्भे च तुरङ्गादौ प्रवर्तते / तद्वैसादृश्यविज्ञानं यत्तदन्या प्रमा न किम् ॥"-तत्वसं० 10 450 / "साधर्म्यमिव वैधयं मानमेवं प्रसज्यते ।"-न्यायकुसु० 3 / 9 / " सादृश्यञ्चेत् प्रमेयं स्यात् वैलक्षण्यन्न किं तथा।"-जैनतर्कवा०प० 76 / उद्धृतोऽयम-स्या०र०१० 498 // रत्नाकराव० 3 / 4 / प्रमेयर० 3 / 5 / प्रमाणमी० पृ० 35 / (1) "एकत्र श्रुतस्यान्यत्र सम्बन्धः अतिदेशः”–व्युत्पत्तिवा० ग०। "इतरधर्मस्य इतरस्मिन् प्रयोगायादेशः"-वाचस्पत्यम् / “ताद्वदिदं कर्त्तव्यमित्यतिदेशः ।"-शास्त्रदी० पृ० 277 / (2) "उपमानमपि सादृश्यमसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिमुत्पादयति, यथा गवयदर्शनं गोस्मरणस्य ।"-शाबरभा० ज्ञान सादृश्यविषयकमुपमानम्, दृष्टगोः पुरुषस्य गवयं तत्सदृशं पश्यतो यद् गोविषयकं गवयसदृशज्ञानं तदुपमानम् ।"-प्रक० पं० पृ० 110 / “सादृश्याद् दृश्यमानाद्यत्प्रतियोगिनि जायते / सादृश्यविषयं ज्ञानमुपमानं तदुच्यते ॥"-बृह० पं० पृ० 109 / “पूर्वदृष्टे स्मर्यमाणार्थे दृश्यमानार्थसादृश्यज्ञानमुपमानम् , यासावस्माभिर्नगरे दृष्टा गौः साऽनेन सदृशीति ।"-शास्त्रदी० पृ० 258 / नयवि० पृ० 146 / तन्त्ररह० पृ० 13 / 1 युज्येत ज० वि०। 2 इतरेषु तस्यैव ई० वि० / 3-त्ति प्रमा-ई० वि०। 4 प्रसिद्धार्थो श्र० / 6-णं किञ्चि-ब०। 6 प्रतिपत्ता आ०, ब017न वातिदे-ब० / 12 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० अत्र च विप्रेकृष्टसादृश्यप्रतीतौ सन्निकृष्टं सादृश्यं करणम् / उक्तञ्च "दृश्यमानाद् यदन्यत्र विज्ञानमुपजायते / ____सादृश्योपाधितस्तज्जैरुपमानमिति स्मृतम् // " [ ] अस्य च अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वात् प्रामाण्यम्। यद्यपि गौरने प्रागेव उपलब्धः, 6 सादृश्यञ्चेदानी प्रत्यक्षत एव गवये दृश्यते, तथापि 'गवयसदृशो गौः' इति प्रागप्रतिपत्तेः अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वम् / तर्हि इदानीमेव गोः स्मृत्या सादृश्यस्य च अध्यक्षतोऽधिगमात् अधिकप्रमेयाभावाच्च अधिगतार्थाधिगन्तृत्वमस्य; इत्यप्ययुक्तम् ; तद्विशिष्टत्वस्य तंत्रे ताभ्योमनधिगतेः। यद्यपि प्रत्यक्षेण सादृश्यं प्रतिपन्नं गौश्च स्मृत्या, तथापि सादृश्यविशिष्टस्य गोपिण्डस्य स्मृत्या प्रत्यक्षेण उभाभ्यां वाऽप्रतीतेः तद्विषयत्वेन उपमा10 नस्य अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वात् प्रामाण्यम् / नहि अनुमानेऽपि अंतोऽन्यत् प्रामाण्य निबन्धनम्। प्रत्यक्षेऽपि हि प्रदेशीदौ धर्मिणि स्मृत्या चानौ प्रतिपन्नेऽपि अग्निविशिष्टप्रदेशादिविषयत्वेन अनुमानस्य प्रामाण्यं तद्वदुपमानस्यापि / तदुक्तम्"तस्माद्येत्स्मयते तत्स्यात् सादृश्येन विशेषितम् / प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् // प्रत्यक्षणावबुद्धेऽपि सादृश्ये गवि च स्मृते / "विशिष्टस्यान्यतोऽसिद्धरुपमानप्रमाणता // 15 प्रत्यक्षेऽपि यथा देशे स्मर्यमाणे च पावके / विशिष्टविषयत्वेन नानुमानाऽप्रमाणता // " . [ मी० श्लो० उपमान० श्लो० 37-39 ] इति / ननु अस्तु उपमानंप्रमाणम् , नतु प्रत्यक्षादिभ्यो भिन्नं तदन्यतमस्वभावत्वात्तस्य; इत्यप्यनुपपन्नम् / तदन्यतमस्वभावत्वस्य तंत्राऽसंभवात् / तथाहि-न तावत् प्रत्यक्षरूपं तत् ; परोक्षे गवि इन्द्रियार्थसम्प्रयोगाभावेऽपि उत्पद्यमानत्वात् / नापि स्मरणमेवेदमि (1) विप्रकृष्टो गौः। (2) सन्निकृष्टं गवयनिष्ठं सादृश्यम् / (3) साधकतमं करणम्आ० टि०। (4) गवयात्। (5) गवि। (6) उद्धृतोऽयम्-आप्तप० पृ०५३। प्रमेयक० पृ०१८५ / 'तत्त्वज्ञः'-सन्मति०टी० 10575 / (7) उपमानस्य / (8) पुरुषेण। (9) स्मृतिवत्-आ० टि०। (10) उपमानस्य / (11) सादृश्य -आ० टि० / (12) गवि / (13) स्मरणप्रत्यक्षाभ्याम् / (14) विशिष्टविषयत्वेन / (15) विशिष्टविषयत्वात् / (16) पर्वतादौ-आ०टि०। (17) गौः / 'तस्माद् दृश्यते'-न्यायाव० टी० पृ० 19 / (18) इति सादृश्यावधारणम् -आ० टि०। (19) तयोः गोगवययोरन्वितम्। 'तदाश्रितं'-तत्त्वसं०। व्याख्या-"यस्मादेव प्रत्यक्षे गवये न किञ्चिदुपमानस्य प्रमेयमस्ति तस्मात्समयमाणैव गौर्गवयसादृश्यविशिष्टा तद्विशिष्टं वा सादृश्यमुपमानस्य प्रमेयमिति.। ननु गवये सादृश्यं प्रत्यक्षं गृहीतं गौः स्मर्यते किमन्यदुपमेयमत आह-प्रत्यक्षेणेति / तत्रैव दृष्टान्तमाह प्रत्यक्षे इति।"-मी० श्लो० न्यायर० पृ० 445 / (20) 'विशिष्टस्यान्यतः सिद्धे'-प्रमेयक० पृ० 345 / (21) उद्धृता इमे-तत्त्वसं० पृ० 445 / प्रमेयक० पृ० 345 / सन्मति० टी० पृ० 576 / आद्यौ द्वौ-स्या० 20 पृ० 497 / जैनतर्कभा० पृ०१०। (22) प्रत्यक्षाद्यन्यतम / (23) उपमाने। (24) "तदिदमुपमानं न प्रत्यक्षम् ; तिरोहिते गवि चक्षुःसन्निकर्षातिवतिनि जायमानत्वात् / न च स्मृतिः; गोदर्शनसमयेप्रतीतगवस्य तत्सादृश्यानुभवाभावात् ।"-प्रक० 50 पृ० 111 / 1-स्य ताभ्या-ब० / 2-मानप्रमा-ब०। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 16) उपमानप्रमाणनिरासः त्यभिधातव्यम् ; प्रत्यक्षप्रतिपन्ने एव अर्थे स्मरणस्य आविर्भावात् / न च गोप्रत्यक्षकाले तत्प्रत्यक्षेण गवयाप्रतिपत्तौ तैत्सादृश्यं प्रत्येतुं शक्यम् / "भूयोऽवयवसामान्ययोगो यद्यपि मन्यते / सादृश्यं तस्य नु (तु) ज्ञप्तिः गृहीते प्रतियोगिनि // " न्यायमं० पृ० 146 ] इत्यभिधानात् / नाप्यनुमानरूपताऽस्य; लिङ्गादनुत्पत्तेः। अत्र हि लिङ्गम्-सादृश्यं परिकल्प्येत, / परिदृश्यमानो गवयो. वा? यदि सादृश्यम् ; तत्किं गोगतम् , गवयगतं वा लिङ्गं स्यात् ? न तावद् गोगतम् ; गवयदर्शनात् प्राक् तस्य असिद्धत्वात् / नचाऽसिद्धस्य लिङ्गत्वम् ; अतिप्रसङ्गात् / प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वप्रसङ्गाच्च, गोगतत्वेन हि सादृश्यं प्रमेयम् तदेव च लिङ्गमिति / गवयगतं तत्तर्हि लिङ्गमस्तु उक्तदोषद्वयासंभवादिति चेत् ; न; अत्रापि व्यंधिकरणासिद्धत्वप्रसक्तेः / न च व्यधिकरणासिद्धस्य गमकत्वं कांककाादिवत् / 19 ___ एतेन गवयस्यापि लिङ्गता प्रत्याख्याता; व्यधिकरणत्वाविशेषात् / उक्तश्च"न चैतस्यानुमानत्वं पक्षधर्माद्यसंभवात् / प्राक् प्रमेयस्य सादृश्य धर्मत्वेन नै गृह्यते // (1) तुलना-"न च स्मरणमेवेदं प्रमेयाधिक्यसम्भवात् / मवयेन हि सादृश्यं न पूर्वमवधारितम् ॥"-न्यायमं० पृ० 146 / (2) गोप्रत्यक्षेण / (3) गवयसादृश्यम् / (4) गवयसादृश्यस्य प्रतियोगी गवयः / (5) "ननु च ज्ञातसम्बन्धिता तुल्या, सा चात्र लक्षणम्, तत्र वान्यत्र वेति क्वेदमु बाढमुपयुज्यते, एकदेशदर्शनादिति हि तत्र लक्षणम्, ज्ञातसम्बन्धस्यति विशेषणम् / अतो न गवयस्थं सादृश्यं सदृशावगतेरेकदेशः। किञ्च असकृद् दृष्टसम्बन्धो ह्यनुमानस्य हेतुः असजातीयव्यावृत्तिसच्यपेक्षश्च, द्वयमत्र नास्तीति प्रमाणान्तरम् ।”-बृह० पृ० 108 / प्रक० पं० पृ० 111 / शास्त्रदी० पृ० 287 / (6) गोसादृश्यस्य। (7) साध्यम् / (8) सादृश्यम् / (9) साध्यं हि गविगतं सादृश्यं लिङ्गञ्च गवयगतं सादृश्यमिति व्यधिकरणासिद्धः -आ० टि० / (10), 'धवल: प्रासाद: काकस्य कात्'ि इतिवत् / (11) गवयो हि वनवर्ती सादृश्यञ्च गवि साध्यमिति व्यधिकरणासिद्धता। (12) व्याख्या-"ये तु शाक्याः प्रमाणद्वयवादिनः सांख्या वा प्रमाणत्रयवादिनोऽस्यानुमानान्तर्भावं मन्यन्ते तान् प्रत्याह न चेति / असम्भवमेव दर्शयति-प्रागिति। प्रमेयो गौः तद्गतं तावत्सादृश्यं न लिङ्ग तस्य प्रागुपमानात्तद्धर्मत्वेनाऽग्रहणादिति / गवयगतमपि सादृश्यं गवि प्रमेये न पक्षधर्म इत्याह गवये इति। गोगतस्य च प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वादपि न लिङ्गता. तदेव हि गोगतं प्रमेयमित्याह-प्रतिज्ञेति / सादृश्यविशिष्टो गवयोऽपि पक्षधर्मत्वाभावादेव न लिङ्गमित्याह गवये इति / ननु तत्सम्बन्धितामात्रमेव तद्धर्मत्वं न संयोगसमवायावेव, अस्ति गवयस्य गोसम्बन्धः तस्यासौ सदृशः, तत्र कथमपक्षधर्मत्वमत आह-सादृश्यमिति / भवतु कथञ्चित्पक्षधर्मता, न त्वन्वयोऽस्ति / नहि गवयगतं गोसादृश्यं गोगतेन गवयसादृश्यनान्वितं दृष्टम्, इदानीमेव गवयसादृश्यं गृह्यते। ननु युगपद् गवयं गाञ्च पश्यतोऽन्यद्वाऽर्थद्वयं परस्परसदृशं येन यत्सदृशं तदपि तेन सदशमिति शक्यमेवान्वयग्रहणं कर्त्तम् अत उक्तं सर्वेणेति / सत्यं दृष्टं न तु सर्वेण गवयं दृष्ट्वा तत्सादृश्यं गृह्णतैवमन्वयो गृहीतो भवतीति / अस्ति चादृष्टसदृशद्वयस्याप्येकमेव गां दृष्ट्वैव वने द्वितीयं गवयं पश्यतस्तदैव सादृश्यविशिष्टे प्रत्यय इत्याह-एकस्मिन्निति।" -मी० श्लो० न्यायर० पृ० 447 / (13) गवयदर्शनात् प्राक्-आ० टिः / 1 तस्य तज्ज्ञप्तिःश्र०, ब० // 2 प्रत्ययोगिनि ब० / परिकल्पत आ० / 4-प्रसंगाद् गोग-ब० / 5नच तस्यानु-श्र० 16 न दृश्यते ब० / पयुज्यते? Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे 3. परीक्षपरि० गवये गृह्यमाणश्च न गवार्थानुमापकम् / प्रतिज्ञार्थैकदेशत्वाद् गोगतस्य न लिङ्गता // गवयश्चाप्यसम्बन्धान गोलिङ्गत्वमृच्छति / सादृश्यं न च सर्वेण पूर्व दृष्टं तदैन्वयि // एकस्मिन्नपि दृष्टेऽथे द्वितीयं पश्यतो वने / सादृश्येन सेहवास्मिस्तंदैवोत्पद्यते मतिः // " [ मी० श्लो० उपमान० श्लो० 43-46] इति / नाप्येतत् शाब्दम् ; अश्रुताऽतिदेशवाक्यस्य प्रतिपत्तः तत्संभवात् / नाप्यर्थापतिः; अन्यथानुपपद्यमानदृष्ट-श्रुतार्थानपेक्षणात्। नाप्यभावः; प्रमाणप्रमेयनिवृत्त्यनपेक्षणादिति / अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम् –'अनेन सदृशो गौः' इत्यादि; तदसमीक्षि ..ताभिधानम् ; तथाविधायाः प्रतीतेरेवाऽसंभवात् / तथाहि-अश्रुतातितन्निरसन पुरस्सरम् उपमानस्य सादृश्य- देशवाक्यो नागरकः कानने पर्यटन अदृष्टपूर्वं गोसदृशं पशुं पश्यन् 10 प्रत्यभिज्ञान एवान्त- एवं बुद्धयते ब्रवीति च-गवा सदृश एव कश्चित् पशुः' इति, नतु भीवप्रदर्शनम्- 'अनेन सदृशो गौः' इत्येवंविधज्ञानमभिधानं वा कस्यचित्तदानीमस्तीति / अस्तु वा, तथापि अस्य प्रत्यभिज्ञारूपत्वान्न प्रमाणान्तरत्वम् / ननु अनुभूतेऽर्थे प्रत्यभिज्ञा प्रवर्तते दर्शनस्मरणनिबन्धनत्वात्तस्याः, न च पुरोवर्तिगवयोवच्छिन्न सादृश्योपाधितया पूर्वं गोपिण्डोऽनुभूतः, गवयाग्रहणे तदवच्छिन्नसादृश्यविशेषितस्य 15 गोपिण्डस्य ग्रहीतुमशक्तेरिति; तदयुक्तम् ; यतः कस्य अनुभवाभावः-गँवयावच्छेदस्य, (1) 'गवामनुमापकम्'-मी० श्लो०। (2) व्यधिकरणत्वात्, सम्बन्धे हि गमको गम्यं गमयति -आ० टि०। (3) न च तदन्वयि गवयगतं सादृश्यं पूर्व दृष्टं किन्तु गवयदर्शनकाल एव सर्वस्यापि प्रमातुरुदीयते, अनेनानधिगतार्थाधिगन्तृत्वं प्रामाण्यबीजमुपमानस्य ज्ञापितम् -आ० टि०। (4) 'सहकस्मिन्'-सन्मति० टी० ए०५७७। (5) उद्धृता इमे-प्रमेयक० 10187 / सन्मति० टी० 50 577 तुलना-"त्ररूप्यानुपपत्तेश्च न च तस्यानुमानता / पक्षधर्मादि नैवात्र कथञ्चिदवकल्पते // (प्राग्गोगतं हि सादृश्यं न ) धर्मत्वेन गृह्यते / गवये गृह्यमाणञ्च न गवामनुमापकम् // प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वाद् गोगतस्य न लिङ्गता। गवयश्चाप्यसम्बन्धान्न गोलिङ्गत्वमृच्छति ॥"-तत्त्वसं० का०१५३९-४१। (6) "श्रुतातिदेशवाक्यत्वन्न चातीवोपयुज्यते। येऽपि ह्यश्रुततद्वाक्यास्तेषामपि भवत्ययम् ॥"-मी० श्लो० उपमान श्लो० 10 / (7) तुलना-"अन्यथानुपपद्यमानदृष्टश्रुतार्थानपेक्षत्वान्नापत्तिः। प्रमाणप्रमेयनिवृत्त्यनपेक्षणानाभावः।"-तत्त्वसं० 50 50 450 / (8) पृ०४८९ पं०१६ / (9) तुलना-"एवंविधप्रतीत्यभावात्। प्रसिद्धेन हि सादृश्यमप्रसिद्धस्य गम्यते / गवा गवयपिण्डस्य न तु युक्तो विपर्ययः / तथाहि -अश्रुतातिदेशको नागरकः कानने परिभूमन्नदृष्टपूर्व गोसदृशं प्राणिनमुपलभमान एवं बुद्धयते बूवीति च, अहो नु गवा सदृश एष कश्चन प्राणीति / नत्वनेन सदृशो गौरिति ज्ञानमभिधानं वा तदानीं कस्यचिदस्तीति अतः प्रमितेरेवाभावात् किं प्रमाणचिन्तया।"-न्यायमं० पृ० 146 / (10) तुलना-"एकत्वसादृश्यप्रतीत्योः सङ्कलनज्ञानरूपतया प्रत्यभिज्ञानतानतिक्रमात् ।"-प्रमेयक० पु० 345 / न्यायाव० टी० पृ० 19 / स्या० 20 पृ०४९७ / प्रमाणमी० पृ० 35 / जैनतर्कभा० पृ०१०। (11) प्रत्यभित्ज्ञायाः। (12) गवयनिष्ठसादृश्यविशेषणविशिष्टतया। (13) इदं सादृश्यं गवयनिष्ठमित्याकारस्य / 1 सहकस्मि-ब० / 2 शब्दम् ब०। 3-त्तिरन्यथापत्तेः अन्यथानुप-आ० / 4 प्रमाणं प्रमेयब०, श्र० / / नागरिक: ब० / 6 पश्यन्मेवं ब० ॥7-नत्वात् न च ब०, आ० / Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 16] उपमानप्रमाणनिरासः सादृश्यस्य वा ? प्रथमपक्षे 'स एवायम्' इत्यादि प्रतीतेरपि प्रत्यभिज्ञानता न स्यात् उत्तरपर्यायावच्छेदस्य पूर्वमननुभवात् / अथात्रे अवच्छेदकस्य उत्तरपर्यायस्य पूर्वमननुभवेऽपि अवच्छेद्यस्य अन्वितद्रव्यस्य अनुभवात् प्रत्यभिज्ञानता; तदन्यत्रापि समानम्अवच्छेदकस्य गवयस्य तदानधिगमेऽपि सादृश्यस्य अवच्छेद्यस्य अधिगमात् / कथमप्रतीतस्य गवयस्य सादृश्यविशेषणतेति चेत् ? कदा तदप्रतीतिः-गोदर्शनसमये, उत्तर- 5 कालं वा ? प्रथमविकल्पे उत्तरपर्यायस्यापि द्रव्यविशेषणत्वाभावप्रसङ्गः, पूर्वपर्यायप्रतीतिसमये तस्याप्यप्रतीतेः / अथ उत्तरप्रत्यक्षेण प्रतीतस्य तस्य तद्विशेषणता; तदेतदन्यत्रीप्यविशिष्टम् / तन्न गवयावच्छेदस्य अनुभवाभावः / नापि सादृश्यस्य तद्धि असन्निहितत्वान्नानुभूयते, प्रतिबन्धकसद्भावाद्वा ? न तावदसन्निहितत्वात् ; सन्निहितपदार्थवृत्तित्वेन असन्निहितत्वाऽसिद्धेः / नापि प्रतिब- 10 न्धकसद्भावात् तस्यानुपलम्भः ; गोपिण्डोपलम्भवत् सादृश्योपलम्भेऽपि प्रतिबन्धकस्य कस्यचिदप्यनुपलम्भात् / ननु उभयवृत्तित्वात् सादृश्यस्य कथमेकपिण्डोपलम्भसमये प्रतियोगिग्रहणमन्तरेणोपलम्भः स्यात् ? इत्यप्यसुन्दरम् ; एकैकत्र अस्य समाप्ततया प्रति योगिग्रहणमन्तरेणापि उपलम्भोपपत्तेः / कथमन्यथेदं शोभेत. . "सामान्यवञ्च सादृश्यमेकैकत्र समाप्यते / प्रतियोगिन्यदृष्टेऽपि तत्तस्मादुपलभ्यते // " 15 [मी० श्लो० उपमान० श्लो० 35 ] इति / 'इदमनेन सदृशम्' इति सादृश्यव्यवहार एव हि प्रतियोगिग्रहणापेक्षो न पुनः तत्स्व ' (1) उत्तरपर्यायनिष्ठमिदमेकत्वमित्याकारस्य / (2) एकत्वप्रत्यभिज्ञाने / मीमांसकाभिमतोपमानस्य प्रशस्तपादभाष्यादिषु आगमस्मरणयोरप्यन्तर्भावः प्रादर्शि; तथाहि-"आप्तेनाप्रसिद्धस्य गवयस्य गवा गवयप्रतिपादनादुपमानमाप्तवचनमेव ।"-प्रश० भा०पू० 576 / “किञ्च स्मृतिस्वभावत्वाद्वान प्रमाणमुपमानं स्मृत्यन्तरवत् "एवं तु युज्यते तत्र गोरूपावयवैः सह / गवयावयवाः केचित्तुल्यप्रत्ययहेतवः // तत्रास्य गवये दृष्टे स्मृतिः समुपजायते ।"-तत्त्वसं० पृ० 448 / “भवतु वैषा बुद्धिरनेन सदृशो गौः तथापि स्मृतित्वान्न प्रमाणफलम्।"-न्यायमं०१०१४६। "तस्साद गवयग्रहणे सति असन्निहितगोपिण्डावलम्बिनी सादृश्यप्रतीतिः सदृशदर्शनाभिव्यक्तसंस्कारजन्या स्मृतिरेव न प्रमाणान्तरम् ।"-प्रश. कन्द० पृ० 221 / “सादृश्यज्ञानस्य चोत्पत्तावयं क्रमः-पूर्वं तावत् गोगवययोविषाणित्वादिसादृश्यं गवि प्रत्यक्षतः प्रतिपद्यते, पश्चाद् गवयदर्शनानन्तरं 'यदेतद् विषाणित्वादिसादृश्यं पिण्डेऽस्मिन्नुपलभ्यते मया तद् गव्यप्युपलब्धम्' इति स्मरति तदनन्तरं विषाणित्वादिसादृश्यप्रतिसन्धानं जायते 'अनेन पिण्डेन सदृशो गौः' इति / एवञ्च स्मार्तमेतद् ज्ञानं कथं प्रमाणान्तरं भवेत् ?" -सन्मति० टी० पृ०५८२ / (3) सादृश्यप्रत्यभिज्ञानेपि। (4) स एवायमिति एकत्वप्रत्यभिज्ञानस्थले। (5) उत्तरपर्यायस्यापि / (6) उत्तरपर्यायस्य-आ० टि०। (7) अन्वितद्रव्यस्थानीयमत्र गोगवयगतं सादृश्यं विवक्षितम् , अत्रापि गवयप्रत्यक्षेण प्रतीतस्य सादृश्यस्य गोविशेषणत्वोपपत्तेरिति तात्पर्यम्-आ० टि०(८) सादृश्यस्य / (9) 'तस्मात्तदुपपद्यते'-मी० श्लो। 'तस्मात्तदुपलभ्यते'-न्यायमं० पृ० 147 / उद्धृतोऽयम्न्यायमं० पृ० 147 / प्रमेयक० पृ० 346 / प्रश० कन्द० पृ० 221 / तुलना-“सामान्यवद्धि सादृश्यं प्रत्येकं च समाप्यते / प्रतियोगिन्यदृष्टेऽपि यस्मात्तदुपलभ्यते ॥"-तत्त्वसं० पृ०४४५। 1 गवय एवायम् ब०। 2 प्रतीतस्य तद्वि-श्र०। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० 465 रूपप्रतिपत्तिः / प्रतिपत्ता हि गवयमुपलभ्य पूर्वानुभूतं गोपिण्डसंस्थानविशेषम् अवहितचेतसा परिभाव्य तयोः सादृश्यव्यवहारं प्रवर्त्तयति सङ्कलयति चैवम्-'मया पूवमेव गौः अनेन प्राणिना तुिल्यसंस्थानः प्रतिपन्नः, ततस्तांतुल्यसंस्थानतां स्मृत्वा सादृश्यं व्यवहरामि' इति / ततो यः सङ्कलनात्मकः प्रत्ययः स प्रत्यभिज्ञानमेव यथा 'स एवायम्' इति प्रत्ययः, सङ्कलनात्मकश्च 'अनेन सदृशो गौः' इति प्रत्यय इति / सङ्कलनं हि पूर्वोत्तरसमयसमधिगतयोः वस्तुरूपयोः एकधर्मयोगितया सदृशादिधर्मयोगितया वा प्रत्यवमर्शनम् / तदात्मकत्वश्च अत्रास्ति, गोगवययोः सदृशधर्मान्वितत्वेन प्रत्यवमर्शसम्भवात् / ___ ननु चास्य प्रत्यभिज्ञानत्वे स्मृतिप्रत्यक्षप्रभवत्वप्रसङ्गः तत्सामग्रीत एवास्य आवि10 र्भावात् , न चात्र सास्ति, गवयप्रत्यक्षादिसामग्रीमात्रात्तदुत्पत्तेः / न च विलक्षणसामग्री प्रभवं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानं युक्तमतिप्रसङ्गात् ; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; अत्रापि तत्सामग्र्या विद्यमानत्वात् / तथाहि-स्मरणापेक्षं गवयप्रत्यक्षम् एवंविधं ज्ञानमुपजनयति, अनपेक्षं वा ? तत्र अनपेक्षस्य जनकत्वे अप्रसिद्धगोपिण्डस्यापि एतत् स्यात् / अथ स्मरणापेक्षं जनकत्वम् ; तत्रापि किं स्मरणमात्रापेक्षम् , गोपिण्डस्मरणापेक्षं वा. तत्तजनयेत् ? 15 यदि स्मरणमात्रापेक्षम् ; तदा अश्वादिस्मरणेऽपि तत् तजनयेत् / अथ गोपिण्डस्मरणा पेक्षम् ; तत्रापि किं गोपिण्डस्मृतिमात्रापेक्षम्, सादृश्यावच्छिन्नगोपिण्डस्मरणापेक्षं वा ? प्रथमपक्षे महिष्यादिस्मरणेऽपि तस्य तज्जनकत्वप्रसङ्गः, सादृश्याप्रतिपत्तेः उभयत्राप्यविशेषात् / गवयसादृश्यावच्छिन्नगोपिण्डस्मरणांपेक्षित्वे तु सिद्धः पूर्वमेव सादृश्यानुनुभवः, तदसिद्धौ संस्कारविशेषाभावतः तत्स्मरणस्यैवाऽनुपपत्तेः / पूर्व तदननुभवे च (1) अनेन सदृशो गोरिति प्रत्ययः प्रत्यभिज्ञानात्मकः सङ्कलनात्मकत्वात् / (2) स एवायमिति प्रत्यभिज्ञाने-आ० टि०। (3) तुलना-'तत्र किं स्मरणापेक्षमिन्द्रियमेवं ज्ञानं जनयति अनपेक्षं वेति ? अनपेक्षस्य ज्ञानजनकत्वे अप्रसिद्धगोपिण्डस्य स्मरणेऽप्येतत् स्यात् / अथ पिण्डमात्रस्मरणे; अश्वादिपिण्डस्मरणे स्यात् / अथ गवयसादृश्यावच्छिन्नस्मरणापेक्षं जनकम् ; तत्रापि यदि स्मरणमात्रमपेक्षेत, गजादिस्मरणेऽपि स्यात्। अथ गोपिण्डस्मरणापेक्षम् ; तत्रापि कि गोपिण्डमात्रस्मरणमपेक्षते, गवयसादृश्यावच्छिन्नं गोपिण्डस्मरणं वेति ? गोपिण्डमात्रस्मरणे अश्वादिपिण्डस्मरणेऽपि स्यात् / गवयादिसादृश्यावच्छिन्नगोपिण्डस्मरणापेक्षित्वे पूर्वमेवानुभवो वाच्यः, तदन्तरेण संस्कारानुत्पत्तैः स्मरणस्यैवाभावात् / अतः सविकल्पज्ञानाभावेऽपि गवयसादृश्यावच्छिन्ने गोपिण्डे पूर्वमनुभवोऽभ्युपगन्तव्यः / येन हि संस्कारोत्पत्तौ स्मरणान्मदीयया गवा सदृशोऽयं गवय इति ज्ञानं स्यात् / पूर्वं च गवयसादृश्यावच्छिन्नगोपिण्डेऽनुभवप्रसिद्धौ गवयोपलम्भात् 'मदीया गौरनेन सदृशी' इति कथमेतत् स्मरणं न स्यात् ? तथा पृष्टो ब्रवीति एतत्सदृशी मयोपलब्धा न तु प्रमाणान्तरं निर्दिशति ।"-प्रश० व्यो० पृ० 588 / (4) अनेन सदृशो गौरिति-आ० टि०। (5) गवयप्रत्यक्षम् / (6) गवयप्रत्यक्षस्य / (7) यथा हि महिष्यादिस्मरणे न गोसादृश्यं प्रतीयते तथा गोपिण्डस्य स्मरणमात्रेऽपि न सादृश्यस्य प्रतिपत्तिः / (8) सादृश्यस्मरणस्यैव। 1 संकल्पयति ब०। एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ० / 2 एकधर्मयोगितया वा प्र-ब० / 3-विधज्ञान-ब०,-विधविज्ञान-श्र०। 4-णापेक्षत्वे ब०।। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 16] उपमानप्रमाणनिरासः 465 मोपिण्डसंस्थानविशेषविषयं निपुणनिरूपणमनर्थकमेव स्यात् / पिण्डमात्रस्मरणेऽपि सन्निकृष्टसादृश्यदर्शनबलेन विप्रकृष्टसादृश्यप्रतीतेरुत्पादप्रसङ्गात् / न च पिण्डमात्रामनुस्मरतः संस्थानविशेषमनिरूपयतः सादृश्यप्रतीतिरुत्पद्यते / अतो मन्यामहे-गवयसाहश्यावच्छिन्नगोपिण्डानुभवभावितेयं स्मृतिरिति। तथाविधस्मृतिसहायश्च गवयप्रत्यक्षम् 'अनेन सदृशो गौः' इति ज्ञानमुत्पादयतीति सिद्धमस्य स्मृतिप्रत्यक्षप्रभवत्वम् / अतः / नोपमानं प्रत्यभिज्ञानाद् भिद्यते, अभिन्नसामग्रीप्रभवत्वात् , यदभिन्नसामग्रीप्रभवं तदभिन्नम् यथा अविनाभावलक्षणलक्षितहेतुतः समुपजायमानं कार्यस्वभावाद्यनुमानम् , स्मृतिप्रत्यक्षलक्षणाऽभिन्नसामग्रीप्रभवश्च प्रत्यभिज्ञानोपमानलक्षणं ज्ञानद्वयमिति / यदप्युक्तम्-विप्रकृष्टसादृश्यप्रतीतौ सन्निकृष्टं सादृश्यं करणम्' इत्यादि; तत्र किमिदं सन्निकृष्टसादृश्यस्य करणत्वम्-तदनुमापकत्वम् , तत्स्मारकत्वम् , तदुपमापकत्वं 10 वा ? प्रथमपक्षे पूर्वापरविरोधः-पूर्वं तस्य तदनुमापकत्वप्रतिषेधात् इह चाभ्युपगमात् / द्वितीयपक्षे तु सन्निकृष्टसादृश्यस्य विप्रकृष्टसादृश्यस्मृतिहेतुत्वात् उपमानहेतुत्वानुपपत्तिः, स्मृतेः उपमानत्वाऽसंभवात् / तत्स्मृतिसहायं तु तेत् तद्धर्तुः स्यात् न केवलम् , तथा च 'दृश्यमानाद् यदन्यत्र'' इत्यादि दुर्घटम् / एतेन तृतीयपक्षोऽपि प्रत्याख्यातः; केवलँस्य तत्सादृश्यस्य तदुपमापकत्वासंभवात् / न च सादृश्यस्य ज्ञानजनकत्वं 15 संभवति; अर्थे ज्ञानजनकत्वस्य अग्रे निराकरिष्यमाणत्वात् / अतः सदृशवस्तुविषयाभ्यां दर्शनस्मरणाभ्यां गो-गवययोः सादृश्यपरामर्शि प्रत्यभिज्ञानाऽपरपर्यायमुपमानं जन्यते . . इत्यभ्युपगन्तव्यम् / तस्मात् उपमानस्य प्रत्यभिज्ञास्वभावत्वान्न प्रमाणान्तरत्वं युक्तम् / ___अनुमानस्वभावत्वाद्वा / कथमस्यानुमानत्वमिति चेत् ? उच्यते स्मर्यमाणो गोपिण्डो विवक्षितगवयावच्छिन्नसारूप्यमान् , तेन अवच्छिद्यमानत्वात् , यद् यदेवम् तत्तत्तथा 20 .(1) प्रतीतिः / (2) पृ० 490 पं० 1 / (3) गवयगतसादृश्यस्य। (4) विप्रकृष्टस्मृति-आ० टि०। (5) सन्निकृष्टसादृश्यम्-आ० टि०। (6) उपमान-आ० टि०। (7) विप्रकृष्टसादृश्यस्मृतिनिरपेक्षस्य / (8) न प्रमाणान्तरत्वं युक्तमिति सम्बन्धः / तुलना-"तेषां तदगोचरत्वेऽपि भवत्येवानुमैव हि / त्रिरूपलिङ्गजन्यत्वमस्य चैवं प्रतीयते // यो गवा सदृशोऽसौ हि गवयश्रुतिगोचरः / संकेतग्रहणावस्थो बुद्धिस्थो गवयो यथा // गोसदृशत्वं हेतुः, गवयश्रुतिगोचरत्वं साध्यधर्मः, संकेतग्रहणकाले विकल्पबुद्धिप्रतिभासी बुद्धिस्थो गवयो दृष्टान्तः दृश्यमानो गवयो धर्मी ॥"-तत्त्वसं० पं० 10 453-54 / “तथाप्यनुमानजन्यत्वान्न प्रमाणान्तरमाविशति / स्मर्यमाणो गौः धर्मी एतत्सदृश इति साध्यो धर्मः एतदवयवसामान्ययोगित्वात् सन्निहितद्वितीयगवयपिण्डवत् / तदसन्निधाने सामान्येन * व्याप्तिदर्शयितव्या। यत्र यदवयवसामान्ययोगित्वं तत्र तत्सादृश्यं यथा यमयोरिति ।"-न्यायमं० पृ० 148 / "यदा च प्रत्यक्षेण प्रतियन्नपि गवारवादी भूयोऽवयवसामान्ययोगं तद्वियोगं वा व्यामूढः सदृशासदृशव्यवहारं न प्रवर्त्तयति तदा विषयदर्शनेन विषयिणो व्यवहारस्य साधनात् त्रैरूप्यसद्भावादनुमानप्रमाणता समस्त्येव / तथाहि-गवाश्वादौ विषाणाद्यवयवसामान्ययोगः तद्वियोगो वा प्रागुपलब्ध इदानीं स्मर्यमाण इति नासिद्धता हेतोः.."-सन्मति० टी० पृ० 583 / 1-भवप्रभावि-श्र०, ब०। 2-कृष्टसा-श्र०। 3-स्य स्मृति-ब० / 4-नत्वाद्वा ब० / Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० यथा सन्निहितो गवयपिण्डः, तथा चायम् , तस्मात्तथेति। यदि वा, अविलक्षणविषाणाद्यवयवयोगित्वादिति हेतुः, साध्य-दृष्टान्तौ तौ एव / ननु माभूत् मीमांसकाभ्युपगतमुपमानं प्रत्यभिज्ञानादेः प्रमाणान्तरम् , नैयायिकै रभ्युपगतं तु भविष्यति / 'ते हि "प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपसंज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानफलस्य उपमानस्य HTML मानम्" [ न्यायसू० 11116] इत्युपमानलक्षणं वर्णयन्ति / तत्र पथक प्रामाण्यं वर्ण- प्रेसिद्धश्च तत्साधर्म्यञ्च, प्रसिद्धेन वा गवा साधर्म्य गवयस्य, प्रसिद्धं यतो नैयायिकस्य वा साधर्म्य यस्य स प्रसिद्धसाधो गवयः तस्मात्, तमाश्रित्य पूर्वपक्षः- साध्यस्य संज्ञासंज्ञिसम्बन्धस्य साधनं बोधनम् उपमानम् / श्रुतातिदेशवाक्यस्य हि प्रमातुः अप्रसिद्ध पिण्डे प्रसिद्धपिण्डसारूप्यज्ञानं यद् इन्द्रियजं संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिफलं तदुपमानं प्रतिपत्तव्यम् / तद्धि इन्द्रियजनितमपि धूमज्ञानमिव तेदगोचरप्रमेयप्रमितिप्रसाधनात् प्रमाणान्तरम् / श्रुतातिदेशवाक्यो हि नागरकः कानने परिभ्रमन गोसदृशप्राणिदर्शनानन्तरम् आटविकवचः 'यादृशो गौस्तादृशो . (1) "प्रज्ञातेन सामान्यात् प्रज्ञापनीयस्य प्रज्ञापनमुपमानमिति / यथा गौरेवं गवय इति / कि पनरत्र उपमानेन क्रियते ? यदा खल्वयं गवा समानधर्म प्रतिपद्यते तदा प्रत्यक्षतस्तमर्थ प्रतिपद्यते इति समाख्यासम्बन्धप्रतिपत्तिरुपमानार्थ इत्याह / यथा गौरेवं गवय इत्युपमाने प्रयुक्ते गवा समानधर्ममर्थम इन्द्रियार्थसन्निकर्षादुपलभमानोऽस्य गवयशब्दः संज्ञेति संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध प्रतिपद्यत इति / यथा मुद्गस्तथा मुद्गपर्णी यथा माषस्तथा माषपर्णी इत्युपमाने प्रयुक्ते उपमानात् संज्ञासंज्ञिसम्बन्धं प्रपिपद्यमानस्तामौषधीं भैषज्यायाहरति ।"-न्यायभा० 1 / 16 / (2) "प्रसिद्धसाधादिति-प्रसिद्ध साधर्म्य यस्य, : प्रसिद्धन वा साधर्म्य यस्य सोऽयं प्रसिद्धसाधो गवयस्तस्मात् साध्यसाधनमिति समाख्यासम्बन्धप्रतिपत्तिरुपमानार्थः / किमुक्तम्भवति ? आगमाहितसंस्कारस्मृत्यपेक्षं सारूप्यज्ञानमुपमानम् / यदा ह्यनेन श्रुतं भवति यथा गौरेवं गवय इति, प्रसिद्धे गोगवयसाधर्म्य पुनर्गवा साधर्म्यं पश्यतोऽस्य भवति अयं गवय इति समाख्यासम्बन्धप्रतिपत्तिः ।''-न्यायवा० पृ० 57 / “प्रसिद्धसाधर्म्यात् इत्यत्र प्रसिद्धिरुभयी श्रुतिमयी प्रत्यक्षमयी च / श्रुतिमयी यथा गौरेवं गवय इति / प्रत्यक्षमयी च यथा गोसादृश्यविशिष्टोऽयमीदृशः पिण्ड इति / तत्र प्रत्यक्षमयी प्रसिद्धिरागमाहितस्मृत्यपेक्षा समाख्यासम्बन्धप्रतिपत्तिहेतुः / ... तस्मादागमप्रत्यक्षाभ्यामन्यदेवेदमागमस्मृतिसहितं सादृश्यज्ञानमुपमानाख्यं प्रमाणमास्थेयम् ।"-न्यायवा० ता० पृ० 198 / (3) "अद्यतनास्तु व्याचक्षते-श्रुतातिदेशवाक्यस्य. प्रमातुरसिद्ध पिण्डे प्रसिद्धपिण्डसारूप्यज्ञानमिन्द्रियजं संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिफलमुपमानम् / तद्धीन्द्रियजनितमपि धूमज्ञानमिव तदगोचरप्रमेयप्रमितिसाधनात् प्रमाणान्तरम् / श्रुतातिदेशवाक्यो हि नागरकः कानने परिभ्रमन् गोसदृशं प्राणिनमवगच्छति, ततो वनेचरपुरुषकथितं यथा गौस्तथा गवय इति वचनमनुस्मरति, स्मृत्वा च प्रतिपद्यते अयं गवयशब्दवाच्य इति / तदेतत्संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानं तज्जन्यमित्युपमानफलमित्युच्यते।" -न्यायमं० पृ० 142 / न्यायकलि० 103 / “सम्बन्धस्य परिच्छेदः संज्ञायाः संज्ञिना सह / प्रत्यक्षादेरसाध्यत्वादुपमानफलं विदुः ॥"-न्यायकुसु० ३।१०।-"ग्रामीणस्य प्रथमतः पश्यतो गवयादिकम् / सादृश्यधीर्गवादीनां या स्यात्सा करणं मतम् // वाक्यार्थस्यातिदेशस्य स्मृतियापार उच्यते। गवयादिपदानां तु शक्तिधीरुपमाफलम् // " मुक्ता०का० 79-80 / तर्कसं० उपमानपरि०। (4) सारूप्यज्ञानम् / (5) इन्द्रियागोचर। 1 तथाहि ब० / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 16] उपमानप्रमाणनिरासः 467 गवयः' इति स्मृत्वा प्रतिपद्यते 'अयं स गवयशब्दवाच्यः' इति / तदेतत् संज्ञासंशिसम्बन्धज्ञानं प्रत्यक्षाद्यजन्यत्वात् उपमानफलम् / नहि प्रत्यक्षस्य तत्फलम् ; वनस्थगवयाकारमात्रपरिच्छेदफलत्वात्तस्य / नाप्यनुमानस्य; पक्षधर्म-अन्वय-व्यतिरेकादिसामग्रीमन्तरेणापि संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तेरुत्पादप्रतीतेः / नाप्यागमस्य तत्फलम् ; न खलु नागरकः प्रतिपत्ता आरण्यकवाक्यादेव अरण्यस्थप्राणिनं गवयशब्दवाच्यतया 5 प्रतिपद्यते, किन्तु सारूप्यं प्रसिद्धेन गवा तस्य पश्यन् / नहि गवयादर्शने 'अयं स गवयशब्दवाच्यः' इति संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतीतिर्युक्ता अतिप्रसङ्गात् / तदर्शने तु तदेव 'श्रुतातिदेशाक्यस्य हि' इत्यायुक्तप्रकारेण तत्प्रतीतिफलमुपमानमुच्यते इति / / वृद्धनैयायिकास्तु प्रसिद्धेतरयोः सारूप्यप्रतिपादकमतिदेशवाक्यमेव उपमानं वर्णयन्ति / गवयार्थी हि नागरकः अनवगतगवयस्वरूपः तदभिज्ञमारण्यकं पृच्छति 10 'कीदृशो गवयः' इति ? स तं प्रत्याह-'यादृशो गौः तादृशो गवयः' इति / तदेतद्वाक्यम् अप्रसिद्धस्य गवयस्य प्रसिद्धेन गवा सारूप्यमभिदधत् तद्द्वारकम् अप्रसिद्धस्य पशोः गवयसंज्ञाभिधेयत्वं ज्ञापयति इत्युपमानमुच्यते इति // छ / अत्रोच्यते / यत्तावदभिनवनैयायिकैरभिहितम्-'श्रुतातिदेशवाक्यस्य' इत्यादि; पनि विद्याप तत्र किं साक्षात् संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्त्यङ्गस्य उपमानता उच्येत, 15 उपमानस्य सादृश्य- . परम्परया वा ? प्रथमपक्षे न मीमांसकोपवर्णितोपमानादस्य कश्चिप्रत्यभिज्ञान एवाऽन्त- द्विशेषः, अतस्तत्पक्षोक्तदूषणगणप्रसङ्गोऽत्राप्यनिवारितप्रसरः प्रतिभर्भावसमर्थनम् पत्तव्यः / न खलु भवत्कल्पितम् अप्रसिद्धपिण्डे प्रसिद्धपिण्डसारूप्यज्ञानमिन्द्रियप्रभवं साक्षात् तत्प्रतिपत्तेरङ्गं भवितुमर्हति / तद्धि केवलं तदङ्गं भवेत् , संज्ञासंज्ञिसम्बन्धस्मृतिसहायं वा ? यदि केवलम् ; तदा अश्रुतातिदेशवाक्यस्यापि दृष्टगो: 20 (1) "प्रत्यक्षं तावदेवैतद्विषये न कृतश्रमम् / वनस्थगवयाकारपरिच्छेदफलं हि तत् // अनुमानं पुनर्नात्र शङ्कामप्यधिरोहति / क्व लिङ्गलिङ्गिसम्बन्ध: क्व संज्ञासंज्ञितामतिः / / आगमादपि तत्सिद्धिर्न बनेचरभाषितात् / तत्कालं संज्ञिनो नास्ति गवयस्य हि दर्शनम् ॥"-न्यायमं० 10 142 / 'सेयं न तावद्वाक्यमात्रफलम् ; अनुपलब्धपिण्डस्यापि प्रसङ्गात् / नापि प्रत्यक्षफलम् ; अश्रुतवाक्यस्यापि प्रसङ्गात् / नापि समाहारफलम् ; वाक्यप्रत्यक्षयोर्भिन्नकालत्वात् / वाक्यतदर्थयोः स्मृतिद्वारोपनीतावपि गवयपिण्डसम्बन्धेनापीन्द्रियेण तद्गतसादृश्यानुपलम्भे समयपरिच्छेदासिद्धेः...."-ज्यायकुस० 3 / 10 / (2) गवयस्य। (3) “अत्र वृद्धनैयायिकास्तावदेवमुपमानस्वरूपमाचक्षते-संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतीतिफलं प्रसिद्धतरयोः सारूप्यप्रतिपादकमतिदेशवाक्यमेवोपमानम्। गवयार्थो हि नागरकोऽनवगतगवयस्वरूपः तदभिज्ञमारण्यकं पृच्छति कीदृग्गवय इति, स तमाह यादृशो गौस्तादृशो गवय इति। तदेतद्वाक्यमप्रसिद्धस्य प्रसिद्धन गवा सादृश्यमभिदधत् तद्द्वारकमप्रसिद्धस्य गवयसंज्ञाभिधेयर्व ज्ञापयतीत्युपमानमुच्यते।"• न्यायम० पृ० 141 / (4) पृ० 496 पं० 8 / (5) संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध।। 1-तेरुत्पत्तेः ब० / 2-स्थं प्राणिनं ब० / 3-वाक्यो हि आ०, ब०। 4 असिद्धस्य, आ०। b अत्र प्रतिविधीयते ब०, श्र० / 6 असिद्ध-ब०। 7 संज्ञासम्बन्ध-आ० / 13 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 468 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० नागरकस्य अटव्यां गवयं पश्यतः प्रसिद्धपिण्डसारूप्यज्ञानं तत्सम्बन्धप्रतिपत्तिं विदध्यात् / अथ तैद्वाक्यश्रवणसहायस्यैवास्य तत्प्रतिपत्तिजनने सामर्थ्य न केवलस्य, तेनायमदोषः; तर्हि श्रुतविस्मृतातिदेशवाक्यस्यापि प्रतिपत्तुः तत् तत्प्रतिपत्तिं विदध्यात् / अथ तत्स्मृतिसहायं सत् तत् तत्प्रतिपत्तेरङ्गम् ; तर्हि प्रत्यभिज्ञानप्रसादादेव साक्षात् 5 तत्प्रतिपत्तिरङ्गीकृता स्यात् , तस्यैव गोगवययोः सादृश्यपरामर्शद्वारेण संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध प्रतिपत्तिहेतुत्वोपपत्तेः। तत्स्मृतिसहायेन हि गवयप्रत्यक्षेण उपलब्धोपलभ्यमानयोः गोगवययोः सारूप्यपरामर्शिप्रत्यभिज्ञाख्यं ज्ञानं जन्यते अन्यतस्तत्परामर्शायोगात् / नहि गवयप्रत्यक्षं गोस्मरणमुभयं वा तत्पराम्रष्टुं समर्थमित्युक्तं मीमांसकोपकल्पितोपमानविचारावसरे / तेनं च तत्परामर्श कुर्वता संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिर्विधीयते इति / एतेन ‘परम्परया तत्प्रतिपत्त्यङ्गस्य उपमानता' इत्यपि प्रत्युक्तम् ; साक्षात् तत्सम्बन्धप्रतिपत्त्यङ्गप्रत्यभिज्ञानजनकत्वेन प्रसिद्धसारूप्यज्ञानादेरपि उपचारेण उपमानताभ्युपगमे सिद्धसाध्यताप्रसङ्गात्। चक्षुरादिना अतिप्रसङ्गाच्च; तस्यापि परम्परया तज्जनकत्व... संभवात् / ततः 'तद्धि इन्द्रियजनितमपि' इत्यादि प्रत्याख्यातम् ; प्रत्यभिज्ञानस्यैव इन्द्रि यागोचरसंज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिप्रसाधनात् प्रमाणान्तरत्वोपपत्तेः / 15 . यदप्युक्तम्-'नाप्यागमस्य तत्फलम्' इत्यादि; तत्र सिद्धसाधनमेव, तत्सम्बन्ध ज्ञानस्य-प्रत्यभिज्ञानफलत्वात् / किञ्च, शब्दादनुत्पद्यमानत्वाद्वास्य आगमाऽफलत्वम् , तत्प्रतीतावुपायस्य अपरस्योपदेशात् , वाच्यसंवित्त्यपेक्षणाद्वा ? तत्राद्यपक्षे किं सामान्यतोऽतिदेशवाक्यात् संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानानुत्पत्तिः, विशेषतो वा ? यदि सामान्यतः; तदा 'अयमसौ गवयः यस्य मया पूर्व संज्ञा श्रुता' इत्येवमाकारा प्रतिपत्तिरतिदुर्घटा स्यात् , - (1) प्रसिद्धपिण्डसारूप्यज्ञानस्य। (2) अतिदेशवाक्य / (3) प्रसिद्धपिण्डसारूप्यज्ञानम् / (4) गवयप्रत्यक्षात्-आ० टि०। (5) पृ० 494 पं० 12 / (6) प्रत्यभिज्ञानेन / (7) साक्षात्सम्बन्धबोधकारणं यत् प्रत्यभिज्ञानं तस्य जनकत्वेन, कारणे कार्योपचारादित्यर्थः / (8) 104965010 // (9) 50 497 पं०४। (10) तुलना-"यादृशो गौस्तादृशो गवय इति श्रुतातिदेशवाक्यस्य बने गवयमपलभमानस्यायं गवय इति प्रतीतिरुपमानफलमुच्यते / तत्र तावद् गोसदृशो गवय इति प्रथमावगतिः पुरुषवाक्यमात्रप्रभवा नोपमानं भवति / यदपि वनगतस्य गवये तद्गते च गोसादृश्य ज्ञानं तदपि प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षम् / या त्वेतस्य गवयशब्दवाच्यतावगति: सापि गवयशब्दप्रयोगादानुमानिकी / यस्य शब्दस्य यत्र प्रयोगः तस्य तद्वाच्यतया सम्बन्धनियमोऽवगतः / वने च सञ्जिनमुपलभ्यतस्यैव सा मया सञ्ज्ञाऽवगतेति तज्ज्ञानं स्मरणमेवेति नोपमानस्यावकाशः।"-प्रक०६० पृ०११२। प्रश०क० पृ० 22122 / “तथा गोसदृशो गवय इति सङ्केतकाले गोसदृश-गवयाभिधानयोः वाच्यवाचकसम्बन्ध प्रतिपद्य पुनर्गवयदर्शनात्तत्प्रतिपत्तिः प्रत्यभिज्ञेति किन्नेष्यते ?"-प्रमेयक० पृ० 347 / स्या० र०प० 498 / (11) “न निराकाङक्षताबुद्धिस्तदानीमुपजायते / तदुत्पादनपर्यन्तःशब्दव्यापार इष्यते // न चासौ निर्वहत्यत्र वाच्यसंवित्त्यपेक्षणात् / शब्देन तदनिर्वाहान्न स्वकार्यं कृतं भवेत् ॥"-ज्यायम०पू०१४४ / ' 1 तद्वाक्यात् श्रव-ब० / 2-पत्तुस्तत्प्रति-श्र०। 3-यं सत्तत्प्रति-ब० / 4-जनकमपि ब० / 6-त्तिरितिदुर्घ-ब०। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 16] उपमानप्रमाणनिरासः अतिदेशवाक्योच्चारणवैयर्थ्यश्च / यत् यत्पतिपत्त्यर्थिनः तद्विषयां प्रतिपत्तिं मनागपि नोत्पादयति न तत्तं प्रति प्रेक्षावद्भिः प्रयुज्यते यथा जलपतिपत्त्यर्थिनोऽनलवाक्यम्, नोत्पादयति च गवयप्रतिपत्त्यर्थिनः तत्प्रतिपत्ति मनागपि अतिदेशवाक्यमिति / अथ विशेषतः; तदा आगमप्रमाणाय दत्तो जलाञ्जलिः, तस्य प्रत्यक्षवत् देशकालाकारविशेषतः कचिदपि विषये विज्ञानजनकत्वासंभवात्, सामान्यत एवागमात् सर्वत्र 5 संवित्तिसंभवात् / अथ तत्प्रतीत्युपायस्य अपरस्योपदेशान्नास्य आगमफलत्वम् , यत्र हि शब्दप्रत्ययादेव अर्थतथात्वम् उपायान्तरनिरपेक्षमवधार्यते स आगमः, यत्र तु पुरुषः अर्थप्रतीतौ उपायान्तरमपरमुपदिशति तत्र तत एवोपायात् प्रसिद्धसाधादिलक्षणात् संज्ञासंज्ञिसम्बन्धाद्यवधारणम् , उपायमात्रावगम एव तु शब्दव्यापार इति; तदसाम्प्रतम् ; 10 शब्दव्यापारप्रभवस्याप्यस्य एतावता विशेषेण यद्यागमात् प्रमाणान्तरत्वमिष्यते, तदा प्रमाणानामानन्त्यप्रसङ्गात् नैयायिकस्य चत्वारि प्रमाणानि' इति संख्याव्याघातः स्यात् / तथाहि-'यः सिंहासनाधिरूढः स राजा, पयोऽम्बुभेदी हंसः, षट्पादैः मधुपः, (1) गवयप्रतिपत्त्यर्थिनोऽतिदेशवाक्योच्चारणं व्यर्थम् तत्प्रतिपत्त्यजनकत्वात् / (2) “ननु शब्दस्वभावत्वादस्याप्तोपदेशः शब्दः इत्यनेन गतार्थत्वान्नेदं प्रमाणान्तरं भवेत् ....."उच्यते-यत्र / शब्दप्रत्ययादेव तत्प्रणेतृपुरुषप्रत्ययादेव वा अर्थतथात्वमुपायान्तरानपेक्षमवगम्यते स आगम एव ततस्तदर्थप्रतीतेः। यत्र तु पुरुषः प्रतीत्युपायमपरमुपदिशति तत्र तत एवोपायात्तदर्थावधारणम् / उपायमात्रावगमे तु शब्दव्यापारः, यथा परार्थानुमाने अग्निमानयं पर्वतो धूमवत्त्वान्महानसवदिति / अत्र हि न पुरुषोपदेशविश्वासादेव शैलस्य कृशानुमत्तां प्रतिपत्ता निमित्तान्तरनिरपेक्षः प्रतिपद्यते अपि तु तदवबोधकधूमाख्यलिङ्गसामर्थ्यादेव / तदिह यद्याटविको नागरकाय गवयार्थिने तदवगमोपायं प्रसिद्धसाधयं नाभ्यधास्यत्तर्हि तदुपदेश आगम एव अन्तरभविष्यत् / तदुपदेशात्तु तत एव तदर्थावगम इति सत्यपि शब्दस्वभावत्वे प्रमाणान्तरमेवेदम् ।"-न्यायमं० 10 142 / (3) उपायान्तरनिर्देशमावादेव / (4) "प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि ।"-न्यायसू० 1 / 1 / 3 / (5) तुलना-"अनन्तोपायजन्याश्च समाख्यायोगसंविदः / साधर्म्यमनपेक्ष्यापि जायन्ते नरपादिषु // सितातपत्रपिहितबध्नपादो नराधिपः / तेषां मध्य इति प्रोक्त उपदेशविशेषतः // कालान्तरेण तदृष्टौ तन्नामास्येति या मतिः। सा तदाऽन्या प्रमा प्राप्ता साधाद्यनपेक्षणात् ॥"-तत्त्वसं० पृ० 455 / “ननु चाप्तोपदेशात् प्रतिपाद्यस्य तत्संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिरागमफलमेव ततोप्रमाणान्तरमिति चेत; तर्हि आप्तोपदिष्टोपमानवाक्यादपि तत्प्रतिपत्तिरागमज्ञानमेवेति नोपमानं श्रुतात्प्रमाणान्तरम्। सिंहासनस्थो राजा, मञ्चके महादेवी, सुवर्णपीठे सचिवः, एतस्मात्पूर्वत एतस्मादुत्तरत एतस्माद्दक्षिणत एतन्नामाणवयं (नामकमिदं) ग्रामवानक ( ग्रामधानक ) मित्यादिवाक्याहितसंस्कारस्य पुनस्तथैव दर्शनात् सोऽयं राजेत्यादि संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्ति:, षडाननो गुहश्चतुर्मुखो ब्रह्मा तुङ्गनासो भागवतः क्षीराम्भोविवेचनतुण्डो हंसः सप्तच्छद इत्यादिवाक्याहितसंस्कारस्य तथाप्रतिपत्तिर्वा यद्यागमज्ञानं तदा तद्वदेवोपमानमवसेयं विशेषाभावात् ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 243 / “पयोम्बुभेदी हंसः स्यात् षट्पादभू मरः स्मृतः। सप्तपर्णैस्तु तत्त्वजैविज्ञेयो विषमच्छदः // पञ्चवर्णं भवेद्रत्नं मेचकाख्यं पृथुस्तनी। युवतिश्चैकशृङ्गोपि गण्डकः परिकीर्तितः // शरभोऽप्यष्टभिः पादः सिंहश्चारुसटान्वितः / इत्येवमादिशब्दश्रवणात्तथाविधानेव मराला 1 जलप्रत्यधि-ब०। 2 यत्र पुरु-ब०। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० सप्तपर्णैर्विषमच्छदः' इत्येवमादिवाक्यैर्जनितसंस्कारस्य यथोक्तविशेषणविशिष्टं राजादिकं पश्यतः 'अयमसौ राजा' इत्येवमादिर्या संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिरुत्पद्यते सा भवन्मते प्रमाणचतुष्टयानन्तर्भूतत्वात् प्रमाणान्तरं स्यात् / न ह्यसौ उपमानम् ; प्रसिद्धसाधानपेक्षणात् / नाप्यागमः; तत्प्रतीतौ सिंहासनाधिरूढत्वादेरुपायान्तरस्योपदेशात् / तथाप्यस्य आगमेऽन्तर्भावे उपमानस्यापि तत्रान्तर्भावोऽस्तु अविशेषात् / ___ एतेन 'वाच्यसवित्त्यपेक्षणात्' इत्यपि प्रतिव्यूढम् ; उक्तप्रतीतेस्तदपेक्षणेऽपि ऑगमे अन्तर्भावाऽभ्युपगमात् / ननु उपायान्तरादर्थप्रतीतावपि उपमानस्य आगमेऽन्तर्भावाभ्युपगमे 'अग्निमानयं पर्वतो धूमवत्त्वात् महानसवत्' इत्यादेः परार्थानुमानस्य कुतस्तत्रान्तर्भावो न स्यादिति चेत् ? 'अनुमानकारणकार्यत्वात्' इति ब्रूमः / तथाहि-प्रतिपादकस्वार्थानुमानकार्यत्वात् प्रतिपाद्यस्वार्थानुमानकारणत्वाच वचनरूपस्यापि परार्थानुमानस्य अनुमानता ने विरुध्यते / नचैतद् भवत्कल्पितोपमाने संभवति / न खलु उपदिष्टप्रसिद्धसाधर्म्यलक्षणोपायादर्थप्रतीतिं विहाय अन्यदुपमानं किश्चिद् भवतः .. प्रसिद्धमस्ति यत्कारणकार्यतया अस्य उपदेशप्रभवस्याप्युपमानता स्यादिति / एतेन वृद्धनैयायिकैर्यदुक्तंमुपमानलक्षणम्-'प्रसिद्धतरयोः सारूप्यप्रतिपादकम15 तिदेशवाक्यमेव उपमानम्' इति; तदपि प्रत्याख्यातम् ; अतिदेशवाक्यात्मनोऽस्य आगम स्वभावतया उपमानत्वायोगात् / किश्चिद्विशेषमादाय अस्य अनागमस्वभावत्वाभ्युपगमे प्राक्प्रतिपादिताशेषदोषानुषङ्गः स्यात् / ततो गोगवययोः सारूप्यपरामर्शात्मकं ज्ञानमेव प्रत्यभिज्ञाख्यं मुख्यतः उपमानं युक्तं नान्यदिति प्रेक्षादक्षैः प्रतिपत्तव्यम्, अत्र उक्तदोषाणां लेशतोप्यवकाशासंभवात् // छ / कारिकायामनुक्तमपि दूषणं 'प्रसिद्ध' इत्यादिना दर्शयन्नाह-प्रसिद्धार्थसाधर्म्यम् विवृतिव्याख्यानम्- अन्यथानुपपन्नत्वेन साध्याभावप्रकारेण निर्णीतं चेत् यदि तर्हि दीनवलोक्य तथा सत्यापयति यदा तदा तत्सङ्कलनमपि प्रत्यभिज्ञानमुक्तं दर्शनस्मरणकारणत्वाविशेषात् / परेषां तु तत्प्रमाणान्तरमेवोपपद्यत उपमानादौ तस्यान्तर्भावाभावात्।"-प्रमेयर पृ०८४ / स्या०र० पृ०४९८ प्रमाणमी० ए०३४ / जनतर्कभा०पृ०१०। (1) नैयायिकमते / (2) तुलना-"वाक्यादेव सङ्केतस्य प्रतीतत्वात् / तथाहि-सादृश्यवाक्य. स्यायमर्थो यो गोसदृशः स गवय इत्येवं व्यवहर्त्तव्यः। स च वाक्यादुपलब्धसङ्केतः सादृश्यावच्छिन्नं पिण्डमुपलभमानः परं व्यवहरति अयं गवय इति।"-प्रश० व्यो० पृ० 589 / "उपमानं तावत् यथा गौस्तथा गवय इति वाक्यम् , तज्जनिता धीरागम एव ।"-सांख्यतत्त्वको० पृ० 39 / वैशे० उप० पृ० 337 / (3) अतिदेशवाक्यावगतप्रसिद्धपिण्डसारूप्यज्ञानात्। (4) आगमे-आ० टि०। (5) “तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात्"-परीक्षामु० 3.56 / (6) संज्ञासंज्ञिसम्बन्धस्य-आ० टि०। (7) अतोऽस्यागमेऽन्तर्भावो युक्त इति तात्पर्यम्-आ० टि० / (8) पृ० 497 509 / ___1-विशेषविशि-श्र०। 2-माविकायाः सं-ब०,-मादित्यासं-श्र०। 8-सौ तु उप-श्र० / 4-सौ हि सिंहा-श्र०। 6-तः प्रमाणं युक्तं ब०। 6-वादिति ब। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 16] उपमानप्रमाणनिरासः लिङ्गमेव तल्लक्षणत्वात् लिङ्गस्य / अथ तथात्वेन तदनिर्णीतं तत्र दूषणमाह-'ततः' इत्यादि / ततः प्रसिद्धार्थसाधर्म्यात् प्रतिपत्तिः साध्यसंवित्तिः अन्यथा अन्यथानुपपन्नत्वनिर्णयाभावप्रकारेण न युज्यते / 'प्रत्यक्ष' इत्यादिना प्रथमं कारिकार्द्ध क्याचष्टे-प्रत्यक्षे दर्शनेन विषयीकृते अर्थे गवयलक्षणे 'गवयः' इति संज्ञा तस्या गवयलक्षणोऽर्थः संज्ञी तयोर्वाच्यवाचकभावलक्षणः सम्बन्धः तस्य प्रतिपत्तेः / 'गवयोऽयम्' इति संवित्तेः प्रमाणान्तरत्वे अङ्गीक्रियमाणे दूषणमाह-'वृक्ष' इत्यादि / अयं दृश्यमानो भावः वृक्षः इति यत् ज्ञानं तत् 'प्रमाणान्तरं स्यात्' इत्यध्याहारः / कस्य तज्ज्ञानम् ? इत्याह-वृक्षदर्शिनः। अत्र निदर्शनमाह-'गवय' इत्यादि / 'अयं गवयः' इति ज्ञानं यथा गवयदर्शिनः उपमानाख्यं प्रमाणान्तरं तथा प्रकृतमपि तदन्तरं स्यात् / उपमानं कस्मात् तन्न भवतीति चेत् ? अत्राह-'प्रसिद्ध' इत्यादि / 10 प्रसिद्धार्थसाधाद् या साध्यसिद्धिः तस्या अभावात् तत्प्रमाणान्तरम् / कथं तज्ज्ञानमुत्पद्यत इति चेत् ? उच्यते वृक्षानभिज्ञो यदा कश्चित् कश्चित् पृच्छति 'कीदृशो वृक्षः' इति ? स तं प्रत्याह-शाखादिमान वृक्षः' इति / तद्वाक्याचाहितसंस्कारः प्रष्टा पुनः शाखादिमन्तं पदार्थं पश्यन् 'अयं वृक्षः' इति प्रतिपद्यते / अनेन च तद्वैधात् तत्प्रतिपत्तिवैलक्षण्यात् इत्ययमर्थो व्याख्यातः। . 16 तथाऽपरमपि प्रमाणान्तरं परस्य आपादयितुं 'गौरिव' इत्याद्याह / अस्यायमर्थःयदा कश्चिदाटविकः नगरस्थेन 'कीदृशो गवयः' इति पृष्टः इदमाह-गौरिव गवयः' इति / तदा तस्य नागरकस्य 'गौरिव गवयः' इत्येवं वाक्यं श्रुत्वा पर्यटतो गंवयदर्शिनः तन्नामप्रतिपत्तिवत् / तच्छब्देन दृष्टो गवयः परामृश्यते, तस्य 'गवयः' इति नाम तस्य प्रतिपत्ति: सेर्वं तद्वदिति / प्रत्यक्षेषु दर्शनविषयीकृतेषु इतरेषु प्रसिद्धार्थ- 20 विसदृशेषु तिर्यक्षु महिष्यादिषु तस्यैव 'गौरिव गवयः' इति वाक्यं श्रुतवतः पुनः पश्चाद् 'अगवयोऽयम्' इति निश्चयः किन्नाम किमभिधानं प्रमाणं स्यात् ? सामान्येन (1) तुलना-“योऽप्ययं गवयशब्दो गोसदृशस्य वाचकः' इति प्रत्ययः सोऽप्यनुमानमेव / यो हि शब्दो यत्र वृद्धः प्रयुज्यते सोऽसति वृत्त्यन्तरे तस्य वाचकः यथा गोशब्दो गोत्वस्य, प्रयुज्यते चैवं गवयशब्दों गोसदृशे इति तस्यैव वाचक इति तज्ज्ञानमनुमानमेव।"-सांस्यतत्त्वको० पृ० 40 / न्यायली० पृ० 56 / वैशे० उप०पृ० 337 / (2) अन्यथानुपपत्तिलक्षणत्वात्। (3) तुलना-"वृक्षोऽयमित्यादि"परीक्षाम० 3 / 10 / प्रमेयक० पृ० 347 / (4) प्रमाणान्तरम-आ० टि०। (५)न पनरुपमानरूपमआकटि०। (६)महिष्यादिषु वैधात् प्रमाणान्तरत्वापत्ति:-आ० टि०। (7) ग्रहणवाक्यम्-आ० टि०। (8) यथा तन्नामप्रतिपत्तिर्भवतः प्रमाणान्तरं तथा गवये दृष्टेऽर्थप्रतिपत्तिः प्रमाणान्तरं प्राप्नोति इति भावः-आ० टि० / 1 अथातथा-आ०। 2 तत्प्रसिद्धा-ब०। 3 प्रत्यक्षत इत्या-श्र०। 4 वृक्षोऽयमित्या-श्र०। 5 गवयोऽयमित्या-श्र०, ब०। 6 वृक्षाज्ञो आ०, वृक्षायज्ञो ब०। 7 तेन च आ०। 8 ध्याख्यायते ब०। 9 गवय इति दर्शिनः श्रः। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० निश्चयवचनम् अंशाब्दस्य मीमांसकसम्बन्धिनः शाब्दस्य च नैयायिकसम्बन्धिनो निश्चयस्य सङ्ग्रहार्थम्, तेन मीमांसकं प्रति यद् व्याख्यानं तदपि सङ्ग्रहीतम् , इतरथा 'अगवयनामनिश्चयः' इति ब्रूयात् / अथ अगवयज्ञानं प्रमाण न भवतीत्युच्यते; अनोत्तरमाह-'हानोपादान' इत्यादि / हानोपादांनोपेक्षाप्रतिपत्तिः फलं यस्य अगव5 यज्ञानस्य तन्न अप्रमाणं भवितुमर्हति किन्तु प्रमाणमेव तदिति प्रमाणेयत्ताव्याघातः / तथाऽपरमपि परस्याऽनिष्टं प्रमाण दर्शयन्नाह प्रत्यक्षार्थान्तरापेक्षा सम्बन्धप्रतिपद्यतः। तत्प्रमाणं न चेत्सर्वमुपमानं कुतस्तथा ? // 20 // विवृतिः-आगमाहितसंस्कारस्य तदर्थदर्शिनः तन्नामप्रतिपत्तिः साकल्येन 10 प्रमाणमप्रमाणं वा न पुनरुपमानमेव / यथा एतस्मात् पूर्व पश्चिममुत्तरं दक्षिणं वा ग्रामधानकमेतन्नामकमित्याहितसंस्कारस्य पुनस्तद्दर्शिनः तन्नामप्रतिपत्तिः / कश्चायं निश्चयः संज्ञासंज्ञिसम्प्रतिपत्तिसाधनमेव समतेऽर्थे प्रमाणान्तरं न पुनः संख्यादिप्रतिपत्तिसाधनमिति ? प्रत्यक्षश्च तदर्थान्तरञ्च तस्य अपेक्षा यस्यां सा तथोक्ता / कासौ ? इत्याह सम्बन्धप्रतिपत् वाच्यवाचकयोः यः सम्बन्धः तस्य प्रतिपत्तिः यतः यस्मात् 'जायते' इत्यध्याहारः, तत्प्रमाणम् / तदनभ्युपगमे दूषणमाह-'न चेत्' इत्यादि / न चेत् प्रमाणं सर्व मीमांसक-नैयायिककल्पितम् उपमानम् कुतः? न कुतश्चित् प्रमाणमिति सम्बन्धः तथा तेन तदप्रामाण्यप्रकारेण। (1) मीमांसका हि सादृश्यज्ञानमुपमानंकथयन्ति अतस्तेषामुपमानं न शब्दात्मकम् / (2) नैयायिकास्तु संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमानं वर्णयन्ति अतस्तेषामभिप्रायेण तच्छाब्दबोधात्मकं भवति / (3) सूत्रकार:-आ० टि० / अकलङ्कदेवः / (४)"यतो यस्माज्ज्ञानाद् भवति / का? सम्बन्धप्रतिपत् सम्बन्धस्य वाच्यवाचकभावस्य प्रतिपत् ज्ञप्तिः / किं विशिष्टा? प्रत्यक्षार्थान्तरापेक्षा, प्रकृतात् शब्दलक्षणादर्थादन्योऽर्थोऽर्थान्तरं प्रत्यक्षं च तदर्थान्तरञ्च प्रत्यक्षार्थान्तरं वृक्षादि तत्तथोक्तम् , तस्यापेक्षा यस्यां सा प्रत्यक्षार्थान्तरापेक्षा / तज्ज्ञानं चेद यदि न प्रमाणं स्यात्तदा तहिं सर्व नैयायिकमीमांसकादिकल्पितमुपमानं कुतः प्रमाणं स्यादविशेषात् / न हि सादृश्यसम्बन्धज्ञानं प्रमाणं न पुनर्वाच्यवाचकसम्बन्धज्ञानमिति विशेषोऽस्ति। ततः संज्ञासंज्ञिसङ्कलनमपि प्रमाणान्तरमेव भविष्यतीति कुतः प्रमाणसंख्यानियमः?"लघी० ता० पृ०४०। (5) तुलना-"तथा अस्मात्पूर्वमिदं पश्चाद्दीर्घ ह्रस्वमिदं महत् / इत्येवमादिविज्ञाने प्रमाऽनिष्टा प्रसज्यते॥"-तत्त्वसं०५० पृ० 450 / तत्त्वार्थश्लो० पू०२४२। (6) उपमानम्-आ० टि। 1 असादृश्यामीमां-ब०। 2 सादृश्यं च ब०। 3 इतरथा गव-आ०, ब०। 4-दानोपेक्षाः फलं आ०, ब०। 5-धानकं ये तन्ना-ई०वि०। 6 संज्ञामम्प्र-ज० वि०। 7 यस्याः सा श्र०। 8-स्माज्जायते श्र० / 9-ल्पितं कुतः ब०, आ० / Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण० का० 21 ] उपमानप्रमाणनिरासः 503 कारिकां विवृण्वन्नाह-'आगम' इत्यादि / यो यस्य अविसंवादकः पुरुषः स तस्य ___ आप्तः तस्य वचनम् आगमः तेन आहितः संस्कारो यस्य तदर्थदर्शिन विवृतिव्याख्यानम्- - - आगमार्थदर्शिनः तन्नामप्रतिपत्तिः आगमार्थाभिधानप्रतिपत्तिः साकल्येन अनवयवेन या काचित् तदर्थदर्शिनः तन्नामप्रतिपत्तिः सा प्रमाणमप्रमाणं वा ? 'स्यात्' इत्यध्याहारः / यदि प्रमाणम् ; प्रमाणसंख्याव्याघातः / अथ अप्रमाणम् ; 5 तर्हि उपमानमप्यप्रमाणं स्यादविशेषात्, अतः स एव तत्संख्याव्याघातः / ननु तस्य तत्प्रतिपत्तिरुपमानमेव तचं प्रमाणमिष्टमेव इत्युक्तदोषानवकाश इत्याशङ्क्याह-'न पुनः' इत्यादि / न पुनः नैव उपमानमेव तत्प्रतिपत्तिरित्यनुवर्तते / किन्तु ततोऽन्यापि विद्यते इत्यभिप्रायः / अत्रोदाहरणमाह-'यथा' इत्यादि / 'यथा' इत्युदाहरणप्रदर्शने, एतस्मानगरादेः पूर्व पश्चिममुत्तरं दक्षिणं वा ग्रामधानकं ग्रामविशेषस्येयं संज्ञा एतन्ना- 10 मकं एतदनिर्दिष्टं नाम यस्य तत्तथोक्तम् इत्येवमाहितसंस्कारस्य पुंसः पुनस्तद्दर्शिनो यत् तत् 'एतस्मात्' इत्यनेन 'ग्रामधानकम्' इत्यनेन चोक्तम् तत्पश्यतीत्येवंशीलस्य तमामप्रतिपत्तिः ग्रामधानकनामप्रतिपत्तिः। चशब्दोऽत्र द्रष्टव्यः। एतस्मात्' इत्यनेन अपेक्षं प्रत्यक्षार्थान्तरमुक्तम् 'पूर्वम्' इत्यादिना तु तदपेक्षं ग्रामधानकम्। अंत ऐवाऽस्य विशेषः / भवतु इयं प्रमाणं को दोषः इति चेत् ? अत्राह-'कश्च' इत्यादि / कश्च? 15 न कश्चिद् अयम् परेणोच्यमानो निश्चयोऽवश्यंभावः। कोऽसौ ? इत्याह-संज्ञासंज्ञिसम्प्रतिपत्तिसाधनमेव समक्षेऽथै प्रमाणान्तरं न पुनः संख्यादिप्रतिपत्तिसाधनमिति किन्तु तदपि स्यादिति भावः / एतदेव दर्शयन्नाह इदमल्पं महद्दरमासन्नं प्रांशु नेति वा / व्यपेक्षातः समक्षेऽर्थे विकल्पः साधनान्तरम् // 21 // 20 (1) तुलना-"रजस्तमोभ्यां निर्मुक्तास्तपोज्ञानबलेन ये। येषां त्रिकालममलं ज्ञानमव्याहतं सदा // आप्ताः शिष्टा विबुद्धास्ते तेषां वाक्यमसंशयम् / सत्यं वक्ष्यन्ति ते, कस्मादसत्यं नीरजस्तमाः॥" -चरक० सू०११६१८-१९। “आप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापयिषया प्रयुक्त उपदेष्टा।"-न्यायभा० 1 / 17 / सांख्यका० माठर० का०५ / युक्तिदी० ए० 46 / “आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं....."-रत्नक० श्लो० 5 / 'यो यत्राविसंवादकः स तत्राप्तः ततोऽपरोनाप्तः।"-अष्टश० अष्टसह पृ० 236 / (2) आगमार्थदर्शिनः / (3) तन्नामप्रतिपत्तिः। (4) उपमानम्। (5) नगरादि:-आ० टि०१(६) प्रसिद्धसाधाद्यभावात-आ० टि०। (7) नामप्रतिपत्तिः-आ० टि०। (8) द्वित्वादिसंख्याया अपि अपेक्षाबुद्धिजन्यत्वात् प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तिरिति भावः -आ० टि०। (9) “साधनान्तरं प्रमाणान्तरं स्यात् / किम् ? विकल्पो निश्चयः / तस्योल्लेखमाहइदमस्मादल्पम्, इदमस्मान्महत्, इदमस्मादासन्नम्, इदमस्मात्प्रांशु दीर्घञ्च, इदमस्मान्न प्रांशु इति / वाशब्द: परस्परसमुच्चये / कस्मिन् ? समक्षे प्रत्यक्षे पदार्थे / कुतः ? व्यपेक्षातः, विरुद्धस्य प्रतिपक्षस्यापेक्षा कथञ्चिदजहदवत्तिः तत इति / एवम अल्पमहत्त्वादिसङ्कलनमपि परप्रमाणसंख्यानियम विघट 1-तरं वा प्रा-श्र०। 2-नाचतव-ब०, श्र०13 एव योऽस्य आ०14-संज्ञिप्रतिपत्ति-श्र०। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० विवृतिः-दृष्टेष्वर्थेषु परस्परव्यपेक्षालक्षणम् अल्पमहत्त्वादिज्ञानमधरोत्तरादिज्ञानं द्वित्वादिसंख्याज्ञानमन्यच्च प्रमाणमविसंवाकत्वादुपमानवत् / अर्थापत्तिः 'अनुमानात् +प्रमाणान्तरं न वा' इति किन्नश्चिन्तया सर्वस्य पैरोक्षेऽन्तर्भावात्।। तत्समञ्जसं प्रत्यक्षं परोक्षश्चेति द्वे एव प्रमाणे अन्यथा तत्संख्यानवस्थानात् / विकल्पशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, इदमल्पमिति विकल्पः, इदं महदिति विकल्पः, इदं दूरमिति विकल्पः, इदमासन्नमिति कारिकार्थः विकल्पः, इदं प्रांशु इति विकल्पः, तथा अल्पं नेति विकल्पः महन्नेति, दूरं नेति, आसन्नं नेति, प्रांशु नेति / वाशब्दः पक्षान्तरसूचकः / कुतोऽसौ विकल्पो जायते ? इत्याह-'व्यपेक्षातः' इति / आमलकापेक्षया बिल्वं 10 महत् देवदत्तसमीपकूपापेक्षया पर्वतादिकं दूरम् , एवमन्यत्रापि योज्यम् / इदमल्पमित्यादिग्रहणमुपलक्षणम् , तेन अधरोत्तरादिविकल्पस्य द्वित्वादिविकल्पस्य च ग्रहणम्। कासौ जायते ? इत्याह-समक्षेऽर्थे। स किम् ? इत्याह-साधनान्तरं प्रमाणान्तरम्। . कारिकां विवृण्वन्नाह-'दृष्टेषु' इत्यादि। दृष्टेषु प्रत्यक्षेषु अर्थेषु परस्परम् अन्योन्य ___ व्यपेक्षालक्षणं यस्य तत्तथोक्तम् / किं तत् ? अल्पमहत्त्वादिज्ञानम् , विवृतिव्याख्यानम् आदिशब्देन दूरादि गृह्यते / तथा अधरोत्तरादिज्ञानम् अत्रापि आदिशब्देन मध्यादिज्ञानपरिग्रहः / द्वित्वादिसंख्याज्ञानम् , इहापि आदिशब्देन त्रित्वादिसंख्याज्ञानपरिग्रहः / अन्यच्च पूर्वापरादिज्ञानम् / तत्किम् ? इत्याह-प्रमाणम् / यतीत्यर्थः ।"-लघी० ता०पू० 40 / तुलना-“एकविषाणी खङ्गः सप्तपर्णो विषमच्छदः इत्याहितसंस्काराणां पुनस्तत्प्रत्यक्षदर्शिनामभिज्ञानं किन्नाम प्रमाणं स्यात् ? तथा स्त्र्यादिलक्षणश्रवणात् तथाशिनः समभिज्ञानं संख्यादिप्रतिपत्तिश्च पूर्वापरनिरीक्षणात् पश्यताञ्च नामयोजना उपमानवत् सर्व प्रमाणान्तरम् ।"-सिद्धि वि०,टी० पृ०१५०B. परीक्षामु० 35-10 // प्रमाणनय०३१५-६। प्रमाणमी०१।२।४। उद्घतोऽयं श्लोक:-'समक्षार्थे'-स्या० 2010 498 / प्रमेयर० 315 / प्रमाणमी०पू०३५ / (1) तुलना-"तेषां द्वयादिसंख्याज्ञानं प्रमाणान्तरम्, गणितज्ञसंख्यावाक्याहितसंस्कारस्य प्रतिपाद्यस्य पुनर्रयादिषु संख्याविशिष्टद्रव्यदर्शनादेतानि द्वयादीनि तानीति संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिद्वर्यादिसंख्याज्ञानप्रमाणफलमिति प्रतिपत्तव्यम् / तथोत्तराधर्यज्ञानं सोपानादिषु स्थविष्ठज्ञानं पर्वादिषु महत्त्वज्ञानं स्ववंशादिषु, संस्थानज्ञानं व्यस्रादिषु, वक्रर्वादिज्ञानञ्च क्वचित्प्रमाणान्तरमायातम् / " -तत्त्वार्थश्लो० पृ० 242 / (2) तुलना-"अनुमानोपमानागमापत्तिसंभवाभावान्यपि प्रमाणानीति केचिन्मन्यन्ते तत्कथमेतदिति ? अत्रोच्यते-सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्तर्भूतानि इन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमितत्वात् ।"-तत्त्वार्थाधि० भा० 1 / 12 / “उपमानार्थापत्त्यादीनामत्रवान्तर्भावात्"-सर्वार्थसि०११११ / "अर्थापत्त्यादेरनुमानव्यतिरेकेऽपि परोक्षेन्तर्भावात् ।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० 281 / (३)तुलना"तरुपङ क्त्यादिसन्दृष्टौ एकपादपदर्शनात्। द्वितीयशाखिविज्ञानादाद्योसाविति निश्चयः॥ प्रमाणान्तरमासक्तं सादृश्याद्यनपेक्षणात् ।"-तत्त्वसं० पृ० 450 / 1 परस्परं व्य-ई० वि०। 2 अल्पबहुत्वादि-ई० वि०। / एतन्दतर्गतः पाठो नास्ति ई० वि० / 3 जात ब०। 4 दृष्टेत्यादि ब०। / इत्यत्राह ब०, श्र० / Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 21 ] अर्थापत्तिप्रमाणनिरासः 505 कुतः ? अविसंवादकत्वात् / किमिव ? इत्याह-उपमानवदिति / एवं नैयायिकमीमांसकयोः प्रमाणान्तरसम्प्लवं तदभिमतप्रमाणसंख्यानियमनाशकं निरूप्य इदानीं मीमांसकाभिताऽर्थापत्तिं विचिन्तयन्नाह-'अर्थापत्तिः' इत्यादि / याऽसौ. "प्रेमाणषटविज्ञातो यत्रार्थोऽनन्यथाभवन् / अदृष्ट कल्पयेदन्यं सार्थापत्तिरुदाहृतौ // " [मी० श्लो० अर्था० श्लो० 1] / इत्येतल्लक्षणलक्षिता मीमांसकैः परिकल्पितार्थापत्तिः सा 'अनुमानात् प्रमाणान्तरं नेवा' इति किन्नश्चिन्तया ? अयमभिप्रायः-अर्थापत्त्युत्थापकार्थस्य सांध्याभावे नियमेनाऽनुपपद्यमानस्य अविनाभावस्वभावलिङ्गलक्षणलक्षितत्वात् लिङ्गत्वमेवोपपपन्नम् / तत्प्रभवश्च ज्ञानमनुमानमेवेति / अत: "प्रत्यक्षमनुमानञ्च शाब्दश्चोपमया सह / . अर्थापत्तिरभावश्च षट्प्रमाणानि जैमिनेः // " [षड्दसमु०श्लो०७२ (?)] इति कुमारिलस्य वदतः प्रमाणसख्याव्याघातः, प्रभाकरस्य च अभाव प्रत्यक्षविशेष वदतः 'पञ्चे प्रमाणानि' इति / ननु चार्थापत्तेः स्वरूपादिभेदात् प्रत्यक्षादिभ्यो भेदप्रसिद्धेः कथं प्रमाणसंख्याव्याअर्थापत्तिः अनुमा - घातः ? तथा च प्रयोगः-अर्थापत्तिः प्रत्यक्षादिभ्यः प्रमाणान्तरम्, 15 नादतिरिक्तं प्रमाणमि- विभिन्नस्वरूपत्वात्, यद्यतो विभिन्नस्वरूपं तत्ततः प्रमाणान्तरं यथा ति वदतो मीमांसक- प्रत्यक्षादनुमानम् , प्रत्यक्षादिभ्यो विभिन्नस्वरूपा चार्थापत्तिरिति। नच स्य पूर्वपक्षः- विभिन्नस्वरूपत्वमसिद्धम् ; तथाहि-तस्याः स्वरूपम् दृष्टः श्रुतो वाऽ (1) एकत्र प्रमेये बहूनां प्रमाणानां प्रवृत्तिः सम्प्लवः / (2) व्याख्या-'यत्र देशकालादौ प्रत्यक्षानुमानोपमानशाब्दार्थापत्त्यभावलक्षणैः षड्भि: प्रमाणैः परिच्छिन्नोऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यते यद्येवम्भूतोऽर्थों न भवेदित्येवं या परोक्षार्थविषया कल्पना साऽपित्तिः प्रमाणमुदाहृता शबरस्वामिना ।"-तत्त्वसं० पं० पृ० 456 / (3) उद्धृतोऽयम्-'नान्यथा भवेत्'-मी० श्लो०। प्रश० व्यो० पृ० 590 / तत्त्वार्थइलो० पृ० 216 / सन्मति० टी० पृ० 578 / 'कल्पयत्यन्यं'-तत्त्वसं० पृ० 456 / सन्मति० टी० पृ० 578 / प्रकृतपाठः-प्रमेयक० पृ० 187 / स्या० र० पृ० 276 / रत्नाकराव० 2 / 1 / (4) पीनत्वस्य-आ० टि०। (5) रात्रिभोजनाभावे-आ० टि०। (6) लिङ्गप्रभवञ्च। (7) तुलना"प्रत्यक्षमनुमानञ्च शाब्दञ्चोपमया सह / अर्थापत्तिरभावश्च षडेते साध्यसाधकाः।"-तत्त्व सं०५० पृ० 450 / (8) अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावात् पञ्चसंख्यापत्तेः-आ० टि०। (9) "तत्र पञ्चविधं मानं प्रत्यक्षमनुमा तथा / शास्त्रं तथोपमानाथपित्तीति गुरोर्मतम् ।।”-प्रक० पं० पृ० 127 / (10) प्रमाणसंख्याव्याघात इति सम्बन्धः, तस्य चत्वारि [ एव स्युः]-आ० टि० / (11) "अर्थापत्तिरपि दृष्टः श्रुतो वार्थोऽन्यथा नोपपद्यते इत्यर्थकल्पना, यथा जीवति देवदत्ते गृहाभावदर्शनेन बहिर्भावस्यादृष्टस्य कल्पना।"-शाबरभा० 11115 / "विना कल्पनयाऽर्थेन दृष्टेनानुपपन्नताम् / नयना दृष्टमर्थं सार्थापत्तिस्तु कल्पना // दृष्टेनार्थेन दृष्टस्यार्यस्यार्थान्तरकल्पनायामसत्यामनुपपत्तिमापादयता साऽर्थान्त 1 इत्यत्राह ब०, श्र०।2-नियमविना-श्र०। 3-सकपरिकल्पि-ब०। 4 न चेदिति ब०.न वेति श्र०। / प्रत्यक्षादिविशेषं ब०, श्र०। 14 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० र्थोऽन्यथा नोपपद्यते इत्यदृष्टार्थकल्पना / तत्र दृष्टः प्रत्यक्षादिभिः पञ्चभिः प्रमाणैरुपलब्धः, श्रुतः लौकिकाद् वैदिकाद्वा वाक्यादवगतः तस्मादनुपपद्यमानाद् या अर्थान्तरकल्पना सा अर्थापत्तिः। सा च षट्प्रकारा भवति प्रत्यक्षादिनिमित्तभेदात्। तत्र प्रत्य क्षप्रतिपन्नदाहाख्यकार्यान्यथानुपपत्त्या वह्वेदाहशक्तिकल्पना प्रत्यक्षपूर्विका अर्थापत्तिः / 5 देशान्तरप्राप्तेर्लिङ्गादनुमिताऽऽदित्यगत्यन्यथानुपपत्त्या आदित्ये गमनशक्तिकल्पना अनु मानपूर्विका / तथा उपमानज्ञानावगतगवयसारूप्यविशिष्टगोपिण्डान्यथानुपपत्त्या तस्यै तज्ज्ञोनग्राह्यशक्तिकल्पना उपमानपूर्विका / ता एता अर्थापत्तयः प्रमाणान्तरम् अतीन्द्रियशक्तिविषयत्वात् / न खलु शक्तयः प्रत्यक्षपरिच्छेद्याः अतीन्द्रियत्वात् / नाप्यनुमानपरिच्छेद्याः; प्रत्यक्षाविषये अनुमान10 स्याऽप्रवृत्तेः तत्पूर्वकत्वात्तस्यं / प्रत्यक्षेण हि प्रतिपन्ने प्रतिबन्धे अनुमान प्रवर्तते / न च शक्रतीन्द्रियत्वेन अध्यक्षागोचरत्वे तत: केनचिल्लिङ्गेन सह अस्याः प्रतिबन्धप्रतिपत्तिर्युक्ता / नाप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां तत्प्रतिपत्तिः; प्रत्यक्षाविषये तत्प्रवृत्तेरेवाऽसंभवात् / / नाप्यनुमानात् प्रतिबन्धप्रतिपत्तिः; तद्धि इदमेव, अन्यद्वा तत्प्रतिपत्तौ प्रवर्तेत ? न तावदिदमेव; चक्रकप्रसङ्गात्-सति हि प्रतिबन्धग्रहणे अनुमानप्रवृत्तिः, तद्ब्रहणश्च शक्तिप्रतिरकल्पना साऽर्थापत्तिः।"-प्रक० पं० पृ० 113 / “प्रमितस्यार्थस्य अर्थान्तरेण विनाऽनुपपत्तिमालोच्य तदुपपत्तये याऽर्थान्तरकल्पना सार्थापत्तिः ।"-शास्त्रदी०१० 290 / नयवि० पृ० 152 / तन्त्ररह० पृ०१३। प्रभाकरवि० पृ०५३। (1) "दृष्टः पञ्चभिरप्यस्माद् भेदेनोक्ता श्रुतोद्भवा / प्रमाणग्राहिणीत्वेन यस्मात्पूर्वबिलक्षणा॥"-मी० श्लो० अर्था०श्लो०२। “दृष्टशब्देन यद्यप्युपलब्धमा त्रमुच्यते तथापि श्रुतशब्दसन्निधानात् गोबलीवर्दन्यायेन शब्दप्रमितव्यतिरिक्तमुच्यते।"-बृह०पं० 10117 / मी० श्लो० न्यायर० पृ० 450 / (2) स्फोट-आ० टि०। (3) सादृश्य। (4) सारूप्यविशिष्टगोपिण्डस्य-आ० टि०। (5) उपमानज्ञान / (6) "शक्तयोऽपि च भावानां कार्यार्थापत्तिकल्पिताः। प्रसिद्धाः पारमार्थिक्यः प्रतिकार्य व्यवस्थिताः ।"-मी० श्लो० शन्य० श्लो० 254 / “तेनार्थापत्तिपूर्वत्वमत्र यत्र च कारणे / कार्यादर्शनतः शक्तेरस्तित्वं सम्प्रतीयते। कार्यस्य ननु लिङ्गत्वं न सम्बन्धानपेक्षणात् / दृष्ट्वा सम्बन्धितां चैषा शक्तिर्गम्येत नान्यथा / तद्दर्शने तदानीं च प्रत्यक्षादेरसंभवात् / अर्थापत्तेः प्रमाणत्वं त्रैलक्षण्याद्विना भवेत् / शक्तिकल्पनाप्यर्थापत्तिरेवेत्याह यत्रेति / चोदयति कार्यस्येति / कारणवत्तया शक्तिः कल्प्यते, कार्याच्च कारणबुद्धिरनुमानमिति / निराकरोति नेति / कारणमाह सम्बन्धेति / बीजे सत्यङकुरोत्पत्तिदर्शनाद् बीजकारणत्वमवगम्यते,सत्यपि तस्मिन् मूषिकाघाते अकुरानुत्पत्तेरकारणत्वं तदिदं कारणाकारणत्वव्याघातपरिजिहीर्षया शक्तिकल्पनम् , सम्बन्धज्ञानानपेक्षत्वान्नानुमानम् इतश्च नानुमानमित्याह-दृष्ट्वेति सार्द्धन / सम्बन्धिग्रहणपूर्वकं हि सम्बन्धग्रहणम् , न च शक्तेः प्रत्यक्षग्रहणं सम्भवति अतोऽवश्यं सम्बन्धग्रहणवेलायां शक्तिग्रहणमभ्युपगन्तव्यम् / अर्थापत्तिर्हि त्रैलक्षण्यवजिता शक्नोति तां ग्रहीतुमिति ।"-मी० श्लो० अर्था०, न्यायर० पृ० 462-63 / शास्त्रदी०पृ० 306 / (7) प्रत्यक्षपूर्वकत्वात्। (8) अनुमानस्य। (9) अविनाभावे-आ० टि०। (10) प्रत्यक्षात्-आ० टि। (11) अविनाभाव / (12) अन्वयव्यतिरेक / 1 तज्ज्ञानप्राहकशक्ति-श्र०। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0.21 ] अापत्तिप्रमाणनिरासः 507 10 पत्तौ, तत्प्रतिपत्तिश्चानुमानप्रवृत्तौ, तत्प्रतिपत्ति (तत्प्रवृत्ति)श्च प्रतिबन्धग्रहणे इति। अथान्यतोऽनुमानात्तत्प्रतिबन्धप्रतिपत्तिः; ननु तदपि प्रतिबन्धप्रतिपत्तौ सत्यां प्रवर्त्तते, तत्र च प्रतिबन्धप्रतिपत्तिः प्रथमानुमानात्, तदन्तराद्वा स्यात् ? प्रथमपक्षेऽन्योन्याश्रयःसिद्धे हि द्वितीयानुमाने ततः प्रसिद्धप्रतिबन्धाल्लिङ्गात् प्रथमानुमानसिद्धिः, तत्सिद्धौ च अतः प्रसिद्धप्रतिबन्धाल्लिङ्गाद् द्वितीयानुमानसिद्धिरिति / द्वितीयपक्षे त्वनवस्था-अनु- 5 मानान्तरेऽपि प्रतिबन्धप्रतिपत्तेः अनुमानान्तरादेव प्रसिद्धेः / नहि तत् प्रतिबन्धप्रतित्ति विना स्वसाध्यसिद्धये प्रभवति / शब्दोपमानयोस्तु शक्तिप्रतिपत्तौ संभावनैव नास्ति; शब्दसादृश्याभ्यां विनैव तत्पैतिपत्तिप्रतीतेः / अतः अर्थापत्तेरेव शक्तिविषयत्वं युक्तम् / ___तथा शब्दसाधनार्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या शब्दस्य वाचकशक्तिमवगम्य तदन्यथानुपपत्त्या तस्य नित्यत्वकल्पना अर्थापत्तिपूर्विकाऽर्थापत्तिः।। __'पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इति वाक्यश्रवणात् रात्रौ भोजनकल्पना श्रुतार्थापत्तिः / नहीदं श्रूयमाणं वाक्यमेव तत्प्रतिपत्तिनिबन्धनम् ; पीनादिपदानां स्वार्थप्रतिपादनपरतया रात्रिभोजनलक्षणार्थप्रतिपादनसामर्थ्यानुपपत्तेः / अथ पदसमुदायात् तत्प्रतिपत्तिः, तन्न; अस्य अन्यार्थप्रतिपादनपरत्वात् / श्रूयमाणेन हि पदसमुदायेन देवदत्तस्य पीनस्य रसायनाद्यभावे दिवाभोजननिषेध एव प्रतिपाद्यते न तु रात्रि- 15 (1) प्रथमानुमानात् / (2) अनुमानान्तरम् / (3) शक्तिप्रतिपत्तेः। (4) वाचकशक्त्यन्यथानुपपत्त्या ।(५)शब्दस्य / (6) "वचनस्य श्रुतस्यैव सोऽप्यर्थः कश्चिदाश्रितः। तदर्थोपप्लतस्यान्यरिष्टोवाक्यान्तरस्य तु / न तावछ्रयमाणस्य वचसोऽर्थोऽयमिष्यते। न ह्यनेकार्थता युक्ता वाक्ये वाचकता तथा। पदार्थान्वयरूपेण वाक्यार्थो हि प्रतीयते / न रात्र्यादिपदार्थश्च दिवावाक्येन गम्यते। न दिवादिपदार्थानां संसर्गो रात्रिभोजनम् / न भेदो येन तद्वाक्यं तस्य स्यात् प्रतिपादकम् / अन्यार्थव्यापृतत्वाच्च न द्वितीयार्थकल्पना। तस्माद्वाक्यान्तरेणायं बुद्धिस्थेन प्रतीयते / प्रमाणं तस्य वक्तव्यं प्रत्यक्षादिषु यद्भवेत् / न ह्यनुच्चारिते वाक्ये प्रत्यक्षं तावदिष्यते / नानुमानं न चेदं हि दृष्टं तेन सह क्वचित् / यदि त्वनुपलब्धेऽपि सम्बन्ध लिङ्गतेष्यते / तदुच्चारणमात्रेण सर्ववाक्यमितिर्भवेत् / श्रुतस्यैव शब्दस्य तत्प्रतिपादकत्वं केचित्कल्पयन्ति, अन्ये तु शब्दान्तरमेव तत्प्रतिपादकमिति; तत्रानन्तरपक्षं निराकरोति न तावदिति। कारणमाह- हीति / किञ्च यदि वाक्यं वाचकं स्यात् स्यादप्यनेकार्थता न तु वाक्यं वाचकमित्याह बाचकतेति / कथं तर्हि वाक्यार्थप्रतीतिरत अह-पदार्थेति / किमिति रात्रिभोजनं दिवावाक्यस्यार्थो न भक्त्यत आह-न रात्रीति। न हि रात्र्यादिपदार्था दिवावाक्यपदैरभिधीयन्ते. ते कथमन्वितरूपतया तद्वाक्यार्थीभवेयुरिति / यद्यपदार्थोऽपि रात्रिभोजनं दिवादिपदानां संसर्गो भेदो वा स्यात्ततोऽपि तस्यैव वाक्यस्यार्थः स्यात् न तु तदस्तीत्याह न दिवेति / यद्यपि चानेकार्थता, तथापि एकस्मिन् प्रयोगे व्यापतस्य नार्थान्तरं संभवतीत्याह-अन्यार्थेति / तस्माद्वाक्यान्तरस्यैव कल्पितस्यायमर्थो न तु श्रुतस्येत्याह तस्मादिति / तस्य तु वाक्यस्य किं प्रमाणमिति विचारणीयमित्याह-तस्येति / यच्च तदर्थान्तरं तदा यद्यपि वाक्यार्थत्वादागमिकं न निष्प्रमाणकं तथापि तदेव वाक्यं किं प्रमाणकमिति चिन्त्यमिति / तत्रापत्तिरेव प्रमाणमिति वक्तु पूर्वेषां तावदसम्भवं दर्शयितुमाह न हीति ।"-मी० श्लो० अर्था०, न्यायर० पृ० 464-65 / (7) दिवा न भुक्ते इति निषेधार्थप्रतिपादनपरत्वात् / 1 'अतः' नास्ति आ०। 2-र्थप्रतीत्यन्य-श्र०,ब०। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० भोजनविधिः, विधिप्रतिषेधयोः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणविरोधतो मिथः संसर्गा- . भावात् / न चानन्वितस्य पदार्थसमुदायस्य वाक्यार्थता दृष्टेष्टा वा; प्रतीतिविरोधात् / नापि तथाविधे पदसमुदाये अभिधात्री तात्पर्यशक्तिर्वाऽस्तीति / अतः अर्थापत्तित : एव रात्रिभोजनलक्षणोऽर्थः प्रतीयते इति प्रमाणान्तरं श्रुतापत्तिः सिद्धा / तदुक्तम्तत्र प्रत्यक्षतो ज्ञाताहाहाद् दहनशैक्तिता / वहेरनुमितात् सूर्ये यानात्तच्छक्तियोगिता // गवयोपमिताया गोस्तज्ज्ञानग्राह्यशक्तिता। अभिधानप्रसिद्ध्यर्थमर्थापत्त्याऽवबोधितात् // शब्दे वाचकसामर्थ्यात् तन्नित्यत्वप्रमेयता / अभिधा नान्यथा सिद्धरिति वाचकशैक्तिता // अर्थापत्त्यावगम्यैव तदन्यत्व (दनन्य) गतेः पुनः। अर्थापत्त्यन्तरेणैव शब्दनित्यत्वनिश्चयः // दर्शनस्य परार्थत्वादित्यस्मिन्नेभिधास्यते / " [ मी० श्लो. अर्था० श्लो० 3-7 ] 10 “पीनो दिवा न भुङ्क्ते चेत्येवमादिवचः श्रुतौ / रात्रिभोजनविज्ञानं श्रुतार्थापत्तिरुच्यते // " [मी० श्लो० अर्था० श्लो० 51] इति / * अभावार्थापत्तेस्तु लक्षणम्"प्रमाणाभावनिर्णीतचैत्राभावविशेषितात् / गेहाचैत्रबहिर्भावसिद्धिर्या त्विह 'दर्शिता // तामभावोत्थितामन्यामर्थापत्तिमुदाहरेत् / ' [ मी० श्लो० अर्था० श्लो० 8-9 ] इति / (1) मा भूत्संसर्ग: को दोष इत्याह-आ० टि०। (2) संसर्गरहितस्य / (3) अन्यार्थप्रतिपादनतत्परे / (4) साक्षात् शक्तिः / (5) लक्षणा / (6) गमनशक्ति-आ० टि। 'ज्ञानाद्दाहाहहनशक्तता। वह्वेरनुमिता सूर्ये यानात्तच्छक्तियोग्यता ॥"-मी० श्लो० / स्या० र०प०२७८ / उद्धृतोऽयम्-तत्त्वसं० पृ० 457 / प्रमेयक० पृ० 188 / सन्मति० टी० 10579 / (7) 'गवयोपमिता या गौस्तज्ज्ञानग्राह्यता मता'-मी० श्लो। 'ग्राह्यशक्तता'-स्या० 2040 278 / उद्धृतोऽ यम्-प्रमेयक पृ० 188 / सन्मति० टी० पृ० 579 / तुलना-"गवयोपमिता . या गौस्तज्ज्ञानग्राह्यशक्तता। उपमाबलसंभूतसामर्थ्येन प्रतीयते ॥"-तत्त्वसं० पृ० 459 / (8) 'शब्दे बोधकसामर्थ्यातन्नित्यत्वप्रकल्पनम्'-मी० श्लो०। (9) तस्य शब्दस्य नित्यत्वेन प्रमेयत्वं परिच्छेद्यत्वम्-आ० टि। उद्धृतोऽयम्-प्रमेयक० पृ० 188 / सन्मति० टी० पृ० 579 / स्या० 20 पृ० 278 / (10) "अभिधा नान्यथा सिद्धयेदिति वाचकशक्तताम् / अर्थापपत्त्यावगम्यैवं तदनन्यगतेः पुनः ॥"-मी० श्लो। .... अर्थापत्त्यावगम्यव...'-तत्वसं० 10 459 / 'वाचकशक्तता। अर्थापत्त्यावगम्यव' -स्या० र० पृ० 278 / प्रकृतपाठ:-प्रमेयक० पृ० 188 / 'अभिधानमभिधा अर्थप्रतिपादनमिति यावत / सा शब्दस्य अन्यथा-वाचकशक्त्या विना न सिद्धयेदित्येवं बोधकशक्तताम्, अवगम्य बुदध्वा, तदनन्यगतेः तस्या बोधकशक्तेरन्या गतिनास्ति शब्दनित्यत्वमन्तरेणेति / पुनरर्थापत्त्यन्तरेणव शब्दस्य नित्यत्वनिश्चयः ।"-तत्त्वसं० पृ० 459 / (11) एकया अर्थापत्त्या वाचकशक्तिमवगम्य अन्यया शब्दस्य नित्यत्वं निश्चिनुयात् प्रमाता-आ० टि०। (12) मीमांसासूत्रे / (13) 'शब्दार्थापत्तिरुच्यते' -स्था० र०पृ० 278 / उद्धृतोऽयम्-तत्त्वसं० पृ० 457 / प्रमेयक० पृ० 188 / सन्मति० टी०१० 579 / (14) 'वणिता'-तत्त्वसं० पृ० 460 / उद्धृतोऽयम्-प्रमेयक० पृ० 189 / सन्मति० टी० प० 579 / स्या० र० पृ० 278 / व्याख्या-"प्रत्यक्षादेः प्रमाणस्याभावेन निवृत्त्या निर्णीतो निश्चितो यश्चत्राभावः तेन विशेषिताद् गेहात् इह गृहे चैत्रो नास्तीत्यतः चैत्रस्य जीवने सति या बहिर्भावसिद्धिः 1 तथाविधपद-श्र०। 2-शक्तता ब०। 3-त्याविबोधि-आ०, ब० / 4-शक्तता ब०, श्र०। 6-श्रुतेः ब०। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र का 0 21 ] अर्थापत्तिप्रमाणनिरास: 506 जीवतो हि चैत्रस्य गृहेऽभावमवगम्य तदन्यथानुपपत्त्या बहिर्भावकल्पना अभावपूर्विका अर्थापत्तिः। अथ दृष्टेन अदृष्टसिद्धेः अनुमानमेवेयमित्युच्यते; तन्न; तत्सामध्यभावात् / पक्षधर्मतादिसामग्र्या हि यद्विज्ञानं जन्यते तदनुमानं प्रसिद्धम्, सां चेह नास्ति / तथाहि-बहिर्भावविशिष्टे चैत्रे चैत्रविशिष्टे वा बहिर्भावे अनुमेये कस्य हेतुत्वम्-किं गृहाभावविशिष्टस्य चैत्रस्य, चैत्राभावविशिष्टस्य वा गृहस्य, गृहे चैत्रा- , भावस्य वा, गृहे चैत्रादर्शनस्य वा ? तत्र नैतेषां मध्ये अन्यतमोऽपि हेतुर्घटते; पक्षधर्मत्वाभावात् / न ते चैत्रधर्माः तर्द्वहिर्भावधर्मा वा / किञ्च, प्रमेयानुप्रवेशप्रसङ्गात् नेयमनुमानम् ; तथाहि-आगमावगतजीवनस्य बहिश्चैत्रो विद्यते इत्येवं निश्चयरूपा, इह भाष्ये वर्णिता शबरस्वामिना, तदन्यासामर्थापत्तीनामुपलक्षणार्थमुदाहतेति यावत् / यथा जीवति देवदत्ते गृहेऽदर्शनेन बहिर्भावस्य अदष्टस्य कल्पनेति।"तत्त्वसं० पं० पृ० 460 / .. (1) पक्षधर्मतादिसामग्री। (2) "पक्षधर्माद्यनङ्गत्वाद् भिन्नवाप्यनुमानतः / बहिर्देशविशिष्टेऽर्थे देशे वा तद्विशेषिते। प्रमेये यो गृहाभावः पक्षधर्मस्त्वसौ कथम् // तदभावविशिष्टं तु गृहं धर्मो न कस्यचित् / गृहाभावविशिष्टस्तु तदासौ न प्रतीयते / / गम्यते तु गृहं तत्र न च चैत्रः प्रतीयते / न चात्रादर्शनं हेतुर्यथाऽभावेऽभिधास्यते // तेन वेश्मन्यदृष्टत्वादिति हेतुर्न कल्प्यते / अदर्शनादभावे च प्रमेयस्यावधारिते। बहिर्भावमतिनीसौ तेनादर्शनहेतुका / चैत्राभावस्य हेतुत्वं गेहेऽभावश्च संस्थितः / / . पक्षधर्मत्वं तावन्निराकरोति बहिरिति / गृहगतो ह्यभावो न देवदत्तस्य बहिर्देशस्य वा धर्मः, अभावविशिष्टं तु गृहं न कस्यचिद्धर्म इत्याह गहाभावेति / असौ देवदत्तो बहिर्देशो वेति / कथमित्याह गम्यते इति / चैत्रग्रहणमुपलक्षणम्, गृहमेव गम्यते न चैत्रो बहिर्देशो वा / न चानवगतस्य धर्मावगतिः संभवतीति / यदि तु चैत्रादर्शनं हेतुरित्युच्यते अत आह न चेति / यथा ह्यभावेऽनुमेये लिङ्गत्वमभावस्य न संभवति तथाऽत्रापि पक्षधर्मत्वाभावादेव / ..... इतश्च नादर्शनस्य हेतुत्वमित्याह-अवर्शनादिति / अदर्शनादभावेऽवगते पश्चादुपजायमाना बहिर्भावमति दर्शननिमित्ता भवितुमर्हतीति नाभावस्य लिङ्गत्वं न च तस्य पक्षधर्मता इत्याह चैत्राभावस्येति ।"-मी० श्लो०, न्यायर० पृ० 454-55 / तुलनान्यायमं० पृ० 37 / (3) प्रथमहेतुद्वयापेक्षया-आ० टि०। (4) द्वितीयहेतुद्वयापेक्षया-आ० टि० (5) प्रमेयस्य साध्यस्य हेतुग्रहणकाल एव अनुप्रवेशः ज्ञानम् / “जीवतश्च गृहाभावः पक्षधर्मोऽत्र कल्यते / तत्संवित्तिर्बहिर्भावं न चाबुद्ध्वोपजायते // अग्निमत्तानपेक्षा तु धूमवत्ता प्रतीयते। न तद्ग्रहणवेलायामग्न्यधीनं हि किंचन / / गेहाभावस्तु यः शुद्धो विद्यमानत्ववजितः / स मृतेष्वपि दृष्टत्वादहिर्वत्तेन साधकः // विद्यमानत्वसंसष्टगृहाभावधियाऽनया। गेहादुत्कलितश्चैत्रो विद्यते बहिरेव हि॥ गेहाभावत्वमात्रं तु यत्स्वतन्त्रं प्रतीयते / न तावता बहिर्भावश्चैत्रस्यैवावधार्यते // सिद्धे सद्भावविज्ञाने गेहाभावधियाऽत्र तु / गेहादुत्कलिता सत्ता बहिरेवावतिष्ठते // तेनास्य निरपेक्षस्य व्यभिचारोमृतादिना। यस्य त्वव्यभिचारित्वं न ततोऽन्यत्प्रतीयते / तस्मात् प्रत्यक्षतो गेहे चैत्राभावे ह्यभावतः / ज्ञाते यत्सत्वविज्ञानं तदेवेदं बहिः स्थितम् // पक्षधर्मात्मलाभाय बहिर्भावः प्रवेशितः। तद्विशिष्टोऽनुमेयः स्यात् पक्षधर्मान्वयादिभिः // पक्षधर्मादिविज्ञानं बहिः संबोधतो यदि / तैश्च तद्बोधतोऽवश्यमन्योन्याश्रयता भवेत्। अन्यथानुपपत्तौ तु प्रमेयानुप्रवेशिता / ताप्येणैव विज्ञानान्न दोषः प्रतिभाति नः // येन बहिर्भावेन विशिष्टश्चैत्रोऽनुमातव्यः, स पक्षीकृतजीवच्चैत्रधर्मतया गहाभावस्यात्मलाभाय तत्प्रतीतिवेलायामेवानुप्रवेशित इति / तदेवं सत्यपि यद्यनुमानत्वमिष्येत तत्स्फुटमितरेतराश्रयमित्याह-पक्षधर्मादीति / 1 जोवतोऽस्य हि श्र०। 2 चैत्रस्य विशिष्टे बहिर्भावे श्र०। 8 गृहे चैत्राभावस्य वा' नास्ति आ०। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे . [3. परोक्षपरि० चैत्रस्य गृहाभावेन बहिर्भावः कल्प्यते, अन्यथा मृतेन अनेकान्तः स्यात् / अभावश्च / गृहीतः, सन् बहिर्भावमवगमयति नागृहीतो धूमवत् / अभावग्रहणश्च सदुपलम्भकप्रमाणपश्चकाभावपूर्वकम् / इह च सदुपलम्भकमस्त्येव जीवनग्राह्यागमाख्यं प्रमाणम् , सति तस्मिन् कथमभावग्रहणं प्रवर्तेत इति ? प्रवर्त्तमानमेव एतत्सदुपलम्भकं प्रमाण 5 पृथग्विषयमवस्थापयति / जीवनं हि अस्तित्वम् , आगमात् सामान्यतो यत्तस्य॑ प्रतिपन्नं तद् गृहेऽभावं परिच्छिन्दता प्रमाणेन स्वविषयादन्यत्र सङ्कोच्यते 'बहिरस्य भावः गृहे त्वभावः' इति / तेन जीवतो गृहेऽभावलक्षणसावनप्रतिपत्तेः बहिर्भावलक्षणसाध्यप्रतिपत्तिपूर्वकत्वसिद्धेः सिद्धः प्रमेयानुप्रवेशः, अतः नेयमनुमानम् / नहि वयाद्यनुमाने धूमादिलिङ्गग्रहणसमये अँनुमेयप्रतिपत्तिः प्रतीता, धूमादिग्रहणोत्तरकालं तत्प्रतिपत्तिप्रतीतेः / ननु अर्थापत्तावपि प्रमेयानुप्रवेशो दोषः समान एव; सत्यमेव तत् ; तथापि प्रमाणद्वयंसमर्पितैकवस्तुविषयभावाभावसमर्थनार्थ प्रवर्त्तमाना अर्थापत्ति: परामृशत्येव प्रमेयद्वयम्, अन्यथा तत्सङ्घटनायोगात् / अतश्च येयम् आगमाद- . नियतदेशतया क्वचिदस्तीति संवित्तिरभूत् सैवेयं गृहाभावे गृहीते 'बहिरस्ति' इति संवित् संवृत्ता / तदतो वैलक्षण्यात् नानुमानमर्थापत्तिः / 15 सम्बन्धग्रहणाभावाञ्च / भौवाभावौ हि न युगपद् वह्नि-धूमवद् एकत्रेन्द्रियप्रभ नन्वर्थापत्तावपि तुल्योऽयं दोषः, तत्रापि हि गृहाभावमात्रं मरणेनाप्युपपन्नं न बहिर्भावं कल्पयति, विद्यमानत्वसंसृष्टस्तु कल्पयेत्, स त्वनवगते बहिर्भावे न शक्यतेऽवगन्तुम्, नचानवगतः कल्पको भवति, तदवगमे च प्रमेयाभावः स्यादत आह-अन्यथेति / अन्यथानुपपत्तिरूपे प्रमाणान्तरे योऽयं विद्यमानत्वसंसृष्टगेहाभावबुद्धावेव प्रमेयस्य बहिर्भावस्यानुप्रवेशः स न दोषः / कस्मात् ? ताप्येणैव ज्ञानात् / ईदग्रपमेव हि एतत्प्रमाणं यदर्थञ्च यस्यासत्यर्थान्तरे मिथः प्रतिघातेनासम्भवमालोच्य अर्थान्तरकल्पनया प्रतिघातं परिहृत्य सम्भवतीत्यत एव विलक्षणसामग्रीत्वेन प्रमाणान्तरत्वम् अनुपपत्तिरिति चावगतस्यार्थान्तरेण प्रतिघातश्चोच्यत इति।"-मी० श्लो०, न्यायर० 10 455-77 / शास्त्रदी० पृ० 297 / तुलना-न्यायमं० पृ० 37 / (1) केवलेन गृहाभावेन यदि बहिर्भावः कल्प्येत / (2) जीवित्वग्राह्यागमाख्यं प्रमाणम् / (3) न हि निर्विषयं प्रमाणं भवति, एवं च भावो गृहीतो नाभावस्तत्कथं स हेतुः, भाववदद्यापि साध्यत्वात्-आ० टि०। (4) चैत्रस्य / (5) अभावप्रमाणेन / (6) गृहलक्षणात् / (7) बहिः / (8) वह्नि। (9) जीवति चैत्र इति आगमाख्यं प्रमाणम्, गृहे च नास्तीत्यभावप्रमाणम्, तत्समर्थनार्थ बहिरस्तीत्यर्थापत्तिः प्रवर्तते अन्यथा प्रमाणद्वयस्य प्रवृत्तिर्न स्यात्-आ० टि० / आगमप्रमाणेन हि चैत्रस्य भावो विषयीकृतः अभावप्रमाणेन च तस्याभाव इति, अतः चैत्रविषयकसद्भावाभावयोः अविरो धस्थापनार्थम् अर्थापत्तिः प्रवर्तते, सा च चैत्रो गृहे नास्ति बहिरस्ति इति प्रमेयद्वयं परामृशति (10) अर्थापत्ति विना। (11) भावाभावयोः-आ० टि०। भावाभावयोः संघटनस्य अविरोधस्य अयोगात अभावापत्तः / (12) नेयमनुमानमिति गतेन सम्बन्धः / (13) 'गृहाभावबहिर्भावौ न च दृष्टौ नियोगतः। साहित्ये तु प्रमाणञ्च तयोरन्यन्न विद्यते ॥"-मी० श्लो० अर्था० श्लो० 31 / तुलना-न्यायमं० पृ० 37 / 1 सच आ०, ब०। 2 जीवग्राह्याग-आ०, ब० / 3 वर्तमा-श्र०। 4 बहिर्भावलक्ष्यसाध्य-ब। 5 एवासत्यमेतत् ब०। 6 योऽयम् श्र०। 7-ग्रहणाभावाभावाच्च श्र० / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 21 ] अांपत्तिप्रमाणनिरासः 511 वप्रत्यये प्रतिबद्धतया बोद्धं शक्यौ, गृहाभावस्य हि व्याप्यत्वे बहिःसद्भावो व्यापकः, स च प्रत्यक्षेण अर्वाग्दर्शिभिः साक्षात्कर्तुमशक्यः अनन्तदेशवृत्तित्वात् / नर्नु कश्चिद् द्वारि स्थितः कस्यचिद् देवदत्तादेः भावाभावौ गह्नाति–'यदा एतस्य गृहेऽभावः तदा अन्यत्र सद्भावः' इत्येवं व्याप्तिग्रहणोत्तरकालं चैत्रादेनिश्चितजीवनस्य गृहेऽभावाद् बहिःसद्भावो निश्चीयते; सत्यम् ; तथाप्यनुमानादस्या वैलक्षण्यम्-तंत्र हि सामान्येन / अनियतदेशेन व्यापकेन सम्बन्धग्रहे सति उत्तरकालं पक्षधर्मतानिश्चयसमये व्यापकस्य नियतदेशतया प्रतिपत्तिः, अंत्र तु वैपरीत्यम् / नहि गृहेऽभावात् नियतदेशतया चैत्रः प्रतीयते / यादृश एव हि व्याप्तिकाले तादृश एव प्रयोगकालेऽप्यनियतदेशोऽसौ प्रतीयते / किञ्च, गृहद्वारवर्त्तिनो गृहेऽभावस्य बहिःसद्भावेन सम्बन्धग्रहे गृहे चैत्रसद्भावेन बहिस्तदभावसाधने कथं सम्बन्धग्रहः स्यात् ? तदुक्तम् ... "नन्वस्त्येव गृहद्वारवर्तिनः सङ्गतिग्रहः।। भावेनाभावसिद्धौ तु कथमष भविष्यति // " [न्यायमं० पृ० 38] न खलु गृहे चैत्रस्य सद्भावाऽन्यथानुपपत्त्या देशान्तरेषु तन्नास्तित्वावसाये गृहे तत्सद्भावस्य देशान्तरे तन्नास्तित्वेन अध्यक्षतः सम्बन्धग्रहो घटते, देशान्तराणामानन्त्यात्। कैथमेव धूमस्य अनग्निव्यतिरेकनिश्चयः इति चेत् ? किं तेन गृहीतेन प्रयोजनम् ? 15 धूमज्वलनयोः अन्वयग्रहणसंभवे व्यतिरेकग्रहणे तात्पर्याऽसंभवात् / नहि भूयोदर्शनसुलभनियमज्ञानसम्पाद्यमानसाध्याधिगमनिवृत्तचेतसाम् अनग्निव्यतिरेकनिश्चयेन किश्चित् प्रयोजनं साध्याधिगमस्य सम्पन्नत्वात् ? इह पुनः अन्वयाधिगमसमय एव गम्यधर्मस्य - (1) गृहद्वारि स्थितो यस्तु बहिर्भाव प्रकल्पयेत् / यदैकस्मिन्नयं देशे न तदाऽन्यत्र विद्यते॥ तदाप्यविद्यमानत्वं न सर्वत्र प्रतीयते। न चैकदेशे नास्तित्वाद् व्याप्तिर्हेतोभविष्यति ।"-मी० श्लो० अर्था० श्लो०.३४-३५ / (2) अनुमाने हि / (3) प्रयोगकाले / (4) अग्नेः / (५)पर्वतादिस्थतयाआ० टि० / (6) अर्थापत्तौ। (7) अपि तु बहिः यत्र कुत्राप्यस्ति इत्यनियतरूपेण / (8) 'गृहद्वारे वर्तिनः'-न्यायमं० / (9) 'भावेन भावसिद्धौ-न्यायमं० / (10) सम्बन्धः / (11) व्याप्यभूतस्य / (12) व्यापकभूतेन / (13) “ननु चाग्न्याद्यभावेऽपि धूमादिव्यतिरेकिणाम / तद्देशागमनात् स्पष्टो व्यतिरेको न सिद्धयति / यस्य वस्त्वन्तराभावः प्रमेयस्तस्य दुष्यति / मम त्वदृष्टमात्रेण गमकाः सहचारिणः / यः खलु वस्त्वन्तरेषु विपक्षेषु लिङ्गस्याभावावधारणमनुमानाय प्रार्थयते तस्यैव दोषः, वयं तु द्वित्रिचतुरेषु अवगताग्निसाहचर्याद् धूमाद्विपक्षादर्शनमात्रेण सहचारिणमग्निमनुमिमाना न सर्वविपक्षेषु धूमाभावावधारणं प्रार्थयामहे / नापि सर्वधूमवतामग्न्यन्वयमिति।"-मी० श्लो०, न्यायर०पू० 460 / (14) अनग्निप्रदेशानामानन्त्यात्-आ० टि० / (15) प्रतिपतृणाम् / (16) अर्थापत्तौ। (17) बहिः सदभावस्य-आ० टि०। 1 यदि तस्य ब० / 2 गृहे भावाभावात् श्र० / 3-द्वारप्रवत्ति-ब० / 4-ग्रहो गृहे चैत्र ब० / 5 'गहें नास्ति आ०, श्र०। 6 उक्तञ्च ब०। 7 नन्वस्त्वेव आ० / 8-द्वारित्तिनः ब० / 9 कथमेव 10 / 10-निश्चयमज्ञान-श्र० / 11-निवृत्तचे-ब० / 12 अन्वयावगम-ब०, श्र। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे . [3. परोक्षपरि० दुरधिगमत्वमुक्तम् अनन्तदेशवृत्तित्वात् / अथ अनुपलब्ध्या तैन्निश्चयः; तन्न; गृहव्यतिरिक्तसकलदेशवर्तिनः तदभावस्य नियतदेशया अनुपलब्ध्या निश्चेतुमशक्यत्वात्। तेषु तेषु देशान्तरेषु गत्वा अनुपलब्ध्या तदभावः; इत्यप्यसुन्दरम् ; यतः “गत्वा गत्वापि तान् देशान नास्य जानासि नास्तिताम् / कौशाम्ब्यास्त्वयि निष्कान्ते तत्प्रवेशोभिशया // " [ न्यायमं० पृ० 38 ] तस्मादभूमिरियमसर्वज्ञानाम् / अतो नियतदेशोपलभ्यमानपरिमितपरिमाणपुरुषशरीराऽन्यथानुपपत्त्यैव तदितरसकलदेशनास्तित्वाऽवधारणं तस्य इत्यर्थापत्त्यैव तंत्र तदभावनिश्चयः इति ॥छ। अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'दृष्टः श्रुतो वा' इत्यादि; तत्र दृष्टः श्रुतो वाऽ10 अर्थापत्तेः अनमान- र्थः स्वसाध्येन सम्बद्धः, असम्बद्धो वा तं कल्पयति? यदि असम्बद्धः; प्रमाणे अन्तर्भाव- कथं तत्कल्पनाकारणम् ? नहि यत्किञ्चिद् दृष्ट्वा यः कश्चिदर्थः कल्पसमर्थनम्- यितुं शक्यः अतिप्रसङ्गात् / अथ सम्बद्धः; तर्हि अतो जायमाना . (1) यत्र नोपलभ्यते तत्र नास्ति चैत्र:-आ० टि० / (2) व्यतिरेकमुखेन सम्बन्धनिश्चयः / "नन्वेवमितरत्रापि सम्बन्धोऽनुपलब्धितः / चैत्राभावस्य भावेन दृष्टत्वादुपपद्यते // साहित्ये मितदेशत्वात्प्रसिद्धे चाग्निधूमयोः / व्यतिरेकस्य चादृष्टेर्गमकत्वं प्रकल्प्यते // इह साहित्यमेवेदमेकस्य सहभाविनः / अनन्तदेशवतित्वान्न तावदुपपद्यते ॥"-मी० श्लो० अर्था० श्लो०१-४३ / (3) 'नन्वत्रा विद्यमानत्वं गम्यतेऽनुपलब्धितः / सा चाप्रयत्नसाध्यत्वादेकस्थस्यैव सिद्धयति / / नैतयाऽनुपलब्ध्याऽत्र वस्त्वभाव: प्रतीयते। तद्देशाऽगमनात सा हि दरस्थेष्वस्ति सत्स्वपि / / गत्वा गत्वा तु तान् देशान् : यद्यर्थो नोपलभ्यते / ततोऽन्यकारणाभावादसन्नित्यवगम्यते ॥"-मी० इलो० अर्था० श्लो० 36-38 / (4) 'जानामि'-न्यायमं०। (5) 'शादिशङ्या'-न्यायमं०। (6) अनुपलब्धिः / (7) चैत्रस्य / (8) बहिः। (9) चैत्राभावनिश्चयः / (10) पृ० 505 10 18 / (11) रात्रिभोजनादिनाआ० टि० / तुलना-"एषा विचार्यमाणा तु भिद्यते नानुमानतः // प्रतिबन्धाद्विना वस्तु न वस्त्वन्तरबोधकम् / यत्किञ्चिदर्थमालोक्य न च कश्चित्प्रतीयते॥ प्रतिबन्धोऽपि नाज्ञातः प्रयाति मतिहेतुताम् / न सद्योजातबालादेरुद्भवन्ति तथा धियः॥ न विशेषात्मना यत्र सामान्यज्ञानसम्भवः / तत्राप्यस्त्येव सामान्यरूपेण तदुपग्रहः॥"-न्यायमं० 1041 / “अर्थापत्तेरप्यनुमान एवान्तर्भावोऽविनाभावबलेनार्थप्रतिपत्तिसाधनत्वात् / अन्यथा नोपपद्यते इत्युक्ते सत्येवोपपद्यत इति लभ्यते / अयमेवाविनाभाव इति।" -न्यायसा० पृ० 22 / “अर्थापत्त्युत्थापकोऽर्थोऽन्यथानुपपद्यमानत्वेनानवगतः, अवगतो वाऽदृष्टार्थपरिकल्पनानिमित्तं स्यात् ?"-प्रमेयक० पृ० 193 / स्या० र० 283 / (12) दृष्टात् श्रुतादर्थात्आ० टि०। तुलना-'दर्शनार्थादर्थादर्थापत्तिविरोध्येव श्रवणादनुमितानुमानम्।”-प्रश० भा०, कन्द० पु० 223 / प्रश० व्यो० पृ०५९० / “शब्द ऐतिह्यानर्थान्तरभावाद् अनुमानेऽर्थापत्तिसंभवानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः ।"-ज्यायस० 2 / 2 / 2 / ". ' प्रत्यक्षेणाप्रत्यक्षस्य सम्बद्धस्य प्रतिपत्तिरनमानं तथा चार्थापत्तिसंभवाभावाः / वाक्यार्थसम्प्रत्ययेनानभिहितस्यार्थस्य प्रत्यनीकभावाद् ग्रहणमापत्तिरनुमानमेव ।"-न्यायभा० 2 / 2 / 2 / "कथमर्थापत्तिरनुमानेन संगृह्यते ? द्वयोरेकतरप्रतिषेधस्य द्वितीयाभ्यनुज्ञाविषयत्वात् / यत्र यत्र द्वयोर्वस्तुनोरेकतरद्वस्तु प्रतिषिध्यते तत्र तत्र द्वितीयाभ्यनुज्ञा दृष्टा, यथा दिवा न भुङ क्ते इत्यभिधानात् रात्रौ भुङ क्ते इति गम्यते ।"-न्यायवा० 10276 / न्यायली० पृ० 57 / 1 नियतदेशतया ब०, श्र०। 2 तेषु देशान्त-आ०, श्र० / 3-तमानो पु-श्र० / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 21 ] अर्थापत्तिप्रमाणनिरासः 513 प्रतीतिः अनुमानमेव, तथाहि-दृष्टात् श्रुताद्वाऽर्थाद् अर्थान्तरे प्रतीतिः अनुमानमेव, अविनाभावबलेन उपजायमानत्वात्, यद् यद् अविनाभावबलेनोपजायते तत्तदनुमानेव यथा धूमादग्निविज्ञानम्, अविनाभावबलेनोपजायते चार्थापत्त्यभिमता प्रतीतिरिति / . किञ्च, असौ तत्सम्बद्धोऽपि तद्रूपतया ज्ञातः, अज्ञातो वा तत्कल्पनानिमित्तं स्यात् ? न तावदज्ञातः; बालादेरपि अतोऽदृष्टार्थकल्पनाप्रसङ्गात् / अथ ज्ञातः; तत्रापि / किं साध्यप्रतिपत्तिकाले तत्सम्बद्धतया असौ ज्ञातः, पूर्व वा ? प्रथमपक्षे किं प्रमाणान्तरात् तत्सम्बद्धतया तदाऽसौ ज्ञातः, तत एव वा ? तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः, तत्प्रतिपत्तिकाले तत्सम्बन्धग्राहिणः प्रमाणान्तरस्यासंभवात् , संभवे वा साध्यस्यापि अतें एव सिद्धेः किमर्थापत्त्या ? अस्तु वासौ, तथापि अनुमानान्न भिद्यते; तथाहि-अर्थापत्तिः अनुमानमेव, 10 प्रमाणान्तरावगतसाध्यसम्बन्धाद् हेतोरुपजायमानत्वात्, यद्यत्प्रमाणान्तरावगतसाध्यसम्बन्धाद् हेतोरुपजायते तत्तदनुमानमेव यथा धूमाद् वह्निविज्ञानम् , प्रमाणान्तरावगतसाध्यसम्बन्धाद्धेतोः उपजायते चार्थापत्त्यभिमतं ज्ञानमिति / अथ तत एव साध्यसम्बद्धतया असौ ज्ञातः; तदा अन्योन्याश्रयः-सिद्धायां हि अर्थापत्तौं तर्दुत्थापकार्थस्य तत्सम्बद्धतया ज्ञप्तिसिद्धिः, तत्सिद्धौ च अर्थापत्तिसिद्धिरिति / अथ पूर्व तत्सम्बद्धतयाऽ- 15 सौ ज्ञातः किं साध्यधर्मिण्येव, दृष्टान्तधर्मिणि वा ? प्रथमविकल्पे अर्थापत्तेर्वैयर्थ्यम् तत्साध्यस्य प्रांगेव प्रसिद्धत्वात्। दृष्टान्तधर्मिण्यप्यनभ्युपगमान्नासौ तत्सम्बद्धतया ज्ञातव्यः। / किञ्च, तेत्रासौं साध्यसम्बद्धतया भूयोदर्शनात्, विप॑ क्षेऽनुपलम्भात् , अर्थापत्त्य "न चार्थापत्तिरनुमानतो भिद्यते, लोके तदसङ्कीर्णोदाहरणाभावात्, प्रकारान्तराभावाच्च ।"-न्यायकुसु० 3 / 19 / “सिद्धः साध्याविनाभावो ह्यापत्तेः प्रभावकः / संभवादेश्च यो हेतुः सोऽपि लिङ्गान्न भिद्यते // दृष्टान्तनिरपेक्षत्वं लिङ्गस्यापि निवेदितम् / तन्न मानान्तरं लिङ्गादर्थापत्त्यादिवेदनम् ॥"-तत्त्वार्थइलो० पृ० 217 / प्रमेयक पृ० 193 / सन्मति० टी० पृ० 585 / जैनतर्कवा० पृ० 77 / स्या० र० पृ० 283 / रत्नाकराव० 2 / 1 / (1) दृष्ट: श्रुतो वाऽर्थः-आ० टि०। (2) सम्बद्धरूपतया-आ० टि०। (3) तुलना"अस्यान्यथानुपपद्यमानत्वागमः अर्थापत्तेरेव प्रमाणान्तराद्वा ?"-प्रमेयक० पृ० 193 / स्या०र० पृ० 284 / (4) साध्यप्रतिपत्तिकाले (5) सम्बन्धग्राहिणः प्रमाणान्तरादेव। (6) पीनत्वगृहाभावादे:आ० दि० / (7) मीमांसका हि अर्थापत्तौ सम्बन्धावगमं दृष्टान्ते न स्वीकुर्वन्ति अर्थापत्त्यनुमानयोर्भदाभावप्रसङ्गात् / "अविनाभाविता चात्र तदैव परिकल्प्यते / न प्रागवधृतेत्येवं सत्यप्येषा न कारणम्" ( मी० श्लो०, अर्था० श्लो० 30 ) इत्यभिधानात् / (8) दृष्टान्तधर्मिणि चेद् दृष्ट: श्रुतो वार्थः पूर्व प्रतिपन्नः तदा साध्यधर्मिणि किमायातम्-आ० टि०। (9) दृष्टान्तधर्मिणि / तुलना-“अथ प्रमाणान्तरात्तदवगमः; तत्किं भूयोदर्शनं विपक्षेऽनुपलम्भो वा ?"-प्रमेयक० पृ० 194 / स्या० र० पृ० 284 / (10) विपक्षा हि अनग्निदेशाद्या अनन्ता एव-आ० टि०। 1-तरप्रतीति-श्र० / 2-द्वह्निविज्ञानम् ब०। 3 वा कल्पना-आ० / 4 -सम्बद्धाद् ब० / 5-सम्बद्धाद्धे-आ० / 6 प्रागेव सिद्ध-श्र० / 7-सौ सम्बद्ध-ब०,-सौ साध्यस्य सम्बद्ध-श्र० / Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० न्तराद्वा प्रतीयेत ? न तावद् भूयोदर्शनात्; शक्तेरतीन्द्रियतया भूयोदर्शनाऽसंभवात् / नापि विपक्षेऽनुपलम्भात् ; तस्यापि उपलब्धियोग्येष्वेवार्थेषु सम्बन्धप्रतिपत्तिहेतुत्वात् / नापि अर्थापत्त्यन्तरात्; अनवस्थाप्रसङ्गात् / कथं तर्हि साध्यसाधनयोः सम्बन्धप्रति पत्तिर्भवतोऽपीति चेत् ? ऊँहाख्यप्रमाणान्तरात् / अस्माकं तदभ्युपगमे को दोषः 5 इति चेत् ? प्रमाणसंख्याव्याघातः, तथा “प्रत्यक्षेण हि प्रतिपन्ने प्रतिबन्धे अनुमान प्रवर्त्तते' [ ] इत्यादिग्रन्थविरोधश्च , सर्वत्र ऊहाख्यप्रमाणादेव सम्बन्धप्रतिपत्तिप्रसिद्धेः / न खलु तस्य कश्चिदगोचरोऽस्ति येन शक्तेरतीन्द्रियतया केनचिल्लङ्गेन सह सम्बधाऽप्रतिपत्तेः अनुमानतोऽप्रतिपत्ति: स्यात् / यदपि-प्रत्यक्षप्रतिपन्नदाहाख्यकार्यान्यथानुपपत्त्या' इत्यादि प्रत्यक्षपूर्विकार्था10 पत्तेर्लक्षणमुक्तम् ; तत्र अनुपपत्तिस्वरूपं वक्तव्यम्-किं साध्येन विना स्फोटादेरभावः अनुपपत्तिः, प्रमाणविरोधो वा ? प्रथमपक्षे तेन विना नोपपद्यते इति व्यतिरेकभणितिः, व्यतिरेकश्च प्रतीयमानः तस्मिन् सति उपपद्यते' इत्यन्वयमाक्षिपति, अन्वयव्यतिरेको , च लिङ्गस्यैव गमकस्य धर्माविति कथमर्थापत्तिरनुमानादतिरिच्येत ? प्रमाणविरोधोऽपि बाध्यबाधकभावान्नान्यः। तथा च शुक्तिकायां रजततदभावग्राहिणोर्विज्ञानयोः बाध्यबाध15 कभावे सति रजतान्यथानुपपत्त्या अर्थान्तरकल्पनानुषङ्गः स्यात् , तल्लक्षणाया अनुपपत्तेरत्राप्यविशेषात् / किञ्च, प्रमाणयोः परस्परप्रतिबन्धकत्वे सति अर्थापत्तिः प्रवर्त्तते, ते च वक्तव्ये / ननु किमत्र वक्तव्यं सुप्रसिद्धत्वात् ? तथाहि-'स्फोटस्वरूपं तावद् अध्यक्षं परिच्छिनत्ति', 'न च तस्य दृष्टं कारणं संभवति, कारणान्तरश्च नोपलभ्यते, कारणाभावे च कार्याभा20 वो दृष्टः, अतः कारणाभावाख्यलिङ्गप्रभवानुमानात् तस्याभावः प्राप्तः' इत्येवं प्रमाणद्वय विघटनायां तत्सङ्घटनात्मिका तयोर्विषयभेदं दर्शयन्ती अर्थापत्तिः प्रवर्त्तते / स्फोटज्ञानं हि स्फोटविषयम्, कारणाभावानुमानश्च परिदृश्यमानकारणनिबन्धनकार्याभावविषयमिति; तदप्यसमीचीनम् ; यत: कारणाभावोऽत्र कार्याभावनिश्चये लिङ्गम् , स च निश्चितः, अनिश्चितो वा तल्लिङ्गं स्यात् ? न तावदनिश्चितः; वाष्पादेरपि धूमादि (1) तुलना-"भूयोदर्शनगम्या च व्याप्तिः"-मी० श्लो० अनु० श्लो० 12 / (2) पृ० 506 पं० 4 / (3) दहनशक्त्या। (4) तुलना-"तेन विना नोपपद्यते इति च व्यतिरेकभणितिरियम्, व्यतिरेकश्च प्रतीतः तस्मिन् सत्युपपद्यते इत्यन्वयमाक्षिपति, अन्वयव्यतिरेको च गमकस्य लिङ्गस्य धर्म इति च कथमर्थापत्तिर्नानुमानम् ।"-न्यायमं० पृ० 41 / (5) प्रमाणविरोधलक्षणायाः / (6) वह्निरूपम्-आ० टि० / (7) शक्तिरूपम्-आ० टि० (8) स्फोटस्य-आ० टि० / (9) स्फोट प्रत्यक्षेण तावत्स्फोटसद्भाव आवेदितः, शक्तिरूपकारणाभावानुमानेन तु स्फोटाभावोऽनुमित इतिस्फोटविषये प्रत्यक्षानुमाने विघटेते, अतस्तयोर्विषयभेदं प्रदर्शयन्ती अर्थापत्तिः संघटनकारिणी भवति / . 1 सम्बन्ध प्रति हेतु-आ। 2 ऊहात् अस्मा-ब०। 3-कल्पनानुषङ्गात् ब०, श्र०। 4 प्रवर्तते च वक्त-ब०। 6 दृष्टकारणं श्र० / 6-निश्चयलिङ्गम् श्र०।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणंप्र० का० 21] अर्थापत्तिप्रमाणनिरास: 515 तया सन्दिग्धस्य लिङ्गताप्रसङ्गात् / अथ निश्चितः; कुतस्तन्निश्चयः ? कारणानुपलब्धेश्चेत्; सा किं दृश्यानुपलब्धिः, अदृश्यानुपलब्धिर्वा ? यद्यदृश्यानुपलब्धिः; कथमतोऽभावसिद्धिः, परमाणुपिशाचादिना अनेकान्तात् ? अथ दृश्यानुपलब्धिः; तर्हि अतः कारणाभावसिद्धेः कथमर्थापत्तेः कारणसद्भावावेदिकायाः प्रामाण्यं स्यात् ? चक्रकप्रसङ्गाच्च न कारणाभावस्य लिङ्गता; तथाहि-कार्यकारणयोः सम्बन्धग्रहणे 5 सति कारणाभावाख्यमनुमानं प्रवर्तते, सम्बन्धग्रहणश्च कारणग्रहणे सति, कारणग्रहणञ्च अर्थापत्तितः, अर्थापत्तिश्च कारणाभावानुमाने सति, तच्च सम्बन्धग्रहणे सति इति / न च अर्थापत्तित एव स्फोटादौ कारणसद्भावसिद्धिः; अनुमानतोऽपि तत्सिद्धेः / तथाहिस्फोटादि कारणपूर्वकम् , कार्यत्वात् , यत् कार्य तत् कारणपूर्वकम् यथा धूमादि, कार्यश्चेदं स्फोटादि, तस्मात् कारणपूर्वकमिति / ____ एतेन अनुमानोपमानपूर्वकाऽर्थापत्तिद्वयमपि प्रत्याख्यातम ; तस्यापि शक्तिविषयत्वेन प्रत्यक्षपूर्वकार्थापत्तिपक्षनिक्षिप्ताऽशेषदोषानुषङ्गात् / यापि शब्दनित्यत्वसिद्धौ अर्थापत्तिपूर्विकार्थापत्तिरुक्ता; साध्ययुक्ता ; शब्दस्यानित्यत्वेऽपि वाचकत्वस्योपपत्तेः, तदनित्यत्वञ्च अग्रे प्रसाधयिष्यामः / __यापि पीनो देवदतो दिवा न भुङ्क्ते' इत्यादि श्रुतार्थापत्तिरुक्ता; साप्यनुमानमेव, 15 कार्यतः कारणप्रतिपत्तः / असति हि रसायनाद्युपयोगे पीनत्वं स्वात्मनि अन्यत्र च भोजनकार्यत्वेन अवगतम् , तच्च देवदत्ताख्ये धर्मिणि आप्तवाक्यात् कॉलविशेषे भोजननिषेधेन निश्रीयमानं प्रतिषिध्यमानकालव्यतिरिक्तकाले प्रतिषिद्धे स्वोपंपादकस्य कारणस्य सत्तामवगमयति / नहि कारणं विना कार्यस्योदयो घटते, अहेतुकत्वेन सदा सत्त्वस्य - (1) पृ० 506 पं० 5,6 / (2) तुलना-"उपमानस्य तु स्मरणादभेदे तत्पूर्विकाऽर्थापत्तिरनुमानमेव, व्याप्तेः पूर्व ग्रहणात् / तथा च सादृश्यावच्छिन्नो गोपिण्डो वाहादिसमर्थः गोपिण्डत्वात पूर्वोपलब्धैवंविधगोपिण्डवत् ।”-प्रश० व्यो० पृ० 590 / (3) पृ० 507 पं०९। (4) पृ० 507 पं०११। (5) तुलना-"श्रुतार्थापत्तिरपि वराकी नानुमानाद् भिद्यते, वचनैकदेशकल्पनाया अनुपपनत्वादर्थस्य च कार्यलिङ्गस्य सत्त्वात् / यथा क्षितिधरकन्धराधिकरणं धूममवलोक्य तत्कारणमनलमनुमिनोति भवान् एवमागमात्पीनत्वाख्यं कार्यमवधार्य तत्कारणमपि भोजनमनुमिनोतु कोऽत्र विशेषः"न्यायमं० पृ०४५। "क्षपाभोजनसम्बन्धी पुमानिष्ट: प्रतीयते। दिवाभोजनवैकल्यपीनत्वेन तदन्यवत् / / भोजने सति पीनत्वमन्वयव्यतिरेकतः / निश्चितं तेन सम्बद्धाद्वस्तुनो वस्तुतो गतिः ॥"-तत्त्वसं० पृ० 465 / सन्मति० टी० पृ० 587 / स्या० र० पृ० 306 / “पीनो दिवा न भुङ्क्ते इति वाक्यश्रवणाद्रात्रिभोजनकल्पनाऽनमितानमानम, लिङ्गभतेन वाक्येन अनमितात पीनत्वात तत्कारणस्य रात्रिभोजनस्य अनुमानात् ।"-प्रश० कन्द पृ० 223 / 'देवदत्तो रात्रौ भङक्ते दिवाऽभोजित्वे सति पीनत्वादिति / " -वैशे० उप० 9 / 2 / 5 / (6) स्थूले पुरुषान्तरे। (7) दिवा / (8) पीनत्वोपपादकस्य-आ०टि० / (9) भोजनस्य / (10) तुलना-"नित्यं सत्त्वमसत्त्वं हि हेतोरन्यानपेक्षणात् / अपेक्षातरंच भावानां कादाचित्कत्वसंभवः ॥"-प्रमाणवा० 3 / 34 / 1 बाचकस्योपपत्तेः आ०12 योऽपि ब०। 3 प्रतिषेध्यमान-आ०। 4 स्वोत्पादकस्य ब०,श्र०। 5 कारणसत्तामव-ब०। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० असत्त्वस्य वा प्रसङ्गात् / प्रयोगः-रात्रिभुक्तिमान् देवदत्तः, रसायनाद्युपयागाभावे दिवाभुक्तिरहितत्वे च सति पीनत्वात्, यो यो रसायनाथुपयोगाभावे दिवाभुक्तिरहितत्वे च सतिं पीनः स स रात्रिभुक्तिमान् यथा नक्तश्चरः, रसायनाद्युपयोगाभावे दिवाभुक्ति रहितत्वे च सति पीनश्च देवदत्तः, तस्माद् रात्रिभुक्तिमानिति / ततो 'नहीदं वाक्य5 मेव तत्प्रतिपत्तिनिबन्धनम्' इत्यांद्ययुक्तमुक्तम्; यथोक्तविशेषणविशिष्टस्य पीनत्वलक्षणलिङ्गस्यैवातो वाक्यात् प्रतिपत्तेः, तंत्रतिपन्नाच्च लिङ्गात् रात्रिभोजनप्रतिपत्तिसिद्धिरिति / __ याप्यभावपूर्विकाऽर्थापत्ति: साप्यनुमानमेव, जीवतश्चैत्रस्य गृहाभावेन लिङ्गेन बहिर्भावावगमात् / तथाहि-जीवतश्चैत्रस्य गृहेऽभावः बहिर्भावेन तद्वान् , जीवन्मनुष्य गृहाभावत्वात्, पूर्वोपलब्धैवंविधगृहाभाववत् , यथा धूमोऽग्निमान धूमत्वात् पूर्वोपलब्ध10 धूमवत्। ततश्च गृहादीनां लिङ्गत्वनिराकरणं शब्दाडम्बरमात्रम् अस्मन्मतांशाऽस्पर्शित्वात्। यत्पुनः प्रमेयानुप्रवेशो दूषणमुक्तम् ; तदपि न युक्तम् ; यतः किं प्रमेयमत्राऽभिप्रेतम्- किं सत्तामात्रम्, बहिर्देशविशेषितं वा सत्त्वम् ? तत्र सत्तामात्रं तावद् आगमादेवाऽवगतमिति नै प्रमाणान्तरप्रमेयतामवलम्बते / बहिर्देशविशेषितं तु सत्त्वं भवति प्रमेयम्, न च तस्य तदानीमनुप्रवेशः / गृहे चैत्राभावग्राहकं हि प्रमाणं तत्रैव तत्सद्भा15 वावेदकं प्रमाणमपाकरोति न पुनः बहिस्तत्सदसत्त्वचिन्तां करोति / "मृतस्य जीवतो दूरे तिष्ठतः प्राङ्गणेऽपि वा / गृहाभावपरिच्छेदे न विशेषोस्ति कश्चन // ' [ न्यायमं० पृ० 43 ] (१)पृ० 507 पं० 12 / (2) रसायनाद्युपयोगाभावेत्यादि-आ० टि० / (3) वाक्यप्रतिपन्नात् / (4) तुलना-'साप्यनुमानमेव, व्याप्तेः पूर्वमेव ग्रहणात् / तथाहि-देवदत्तो बहिर्देशसम्बन्धी जीवनसम्बन्धित्वे सति गृहेऽनुपलभ्यमानत्वात् विष्णुमित्रवत् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 591 / "तदापि गेहायुक्तत्वं दृष्ट्याऽदृष्टेविनिश्चितम् / अतस्तत्र बहिर्भावो लिङ्गादेवावसीयते / / साना यो ह्यसंसृष्टो नियतं बहिरस्त्यसौ। गेहाङ्गणस्थितो दृष्ट: पुमान् द्वारिस्थितैरिव // विपक्षोऽपि भवत्यत्र सदनान्तर्गतो नरः / अर्थापत्तिरियं तस्मादनुमानान्न भिद्यते ॥"-तत्त्वसं० पृ० 470 / प्रमेयक० पृ० 203 / सन्मति० टी०ए० 586 / स्या० र० पृ० 308 / "चैत्रस्य गहाभावो धर्मी बहिर्भावेन तद्वानिति साध्यो धर्मः जीवन्मनुष्यगृहाभावत्वात् पूर्वोपलब्धैवंविधगृहाभाववत् ।"-न्यायमं० पृ० 43 / "तदप्यनुमानमेव, यदा खलु सन्नेकत्र नास्ति तदाऽन्यत्रास्ति, यदा वाऽव्यापक एकत्रास्ति तदाऽन्यत्र नास्ति, सोऽयं स्वशरीर एव व्याप्तिग्रहः सुकरः। तथा च सतो गेहाभावदर्शनेन लिनेन बहिर्भावदर्शनमनुमानम्।"-न्यायवा० ता० पृ० 438 / सांख्यतत्वको० पृ० 44 / प्रश० कन्द० पू० 223 / न्यायकुसु० 3319 / प्रश० किरणा० पृ० 324 / वैशे० उप० 9 / 2 / 5 / (5) पृ०५०९५० 8 / (6) तुलना-"किं प्रमेयमभिमतमत्र भवतां कि सत्तामात्रमुत बहिर्देशविशेषितं सत्त्वम् ।"-न्यायमं० पृ० 43 / स्या० र० पृ० 309 / (7) गृह एव / (8) 'वृत्तस्य'-न्यायमं० / “मृतस्य जीवतो वा दरे प्राङ्गणेऽपि वा / तिष्ठतश्चैत्रस्य गुहाभावपरिच्छेदे विशेषाभावात् ।"-स्या० र० पृ० 309 / 1-स्य प्रस-श्र०। 2-क्यात्तत्प्रति-ब०। 3-प्रतिपत्तिरिति आ०। 4 नत्प्रमा-आ० / 5-णान्तरं प्रमे-ब०। 6-परिच्छेदनवि-श्र०। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 21] अर्थापत्तिप्रमाणनिरासः 517 जीवनविशिष्टस्त्वसौ' गृह्यमाणो लिङ्गतामेव प्रतिपद्यते व्यभिचाराभावात् / न च विशेषणग्रहणमेव प्रमेयग्रहणम् ; यतो जीवनमन्यद् अन्यच्च बहिर्भावाख्यं प्रमेयमिति / अथ मतम्-जीवनविशिष्टगृहाभावप्रतीतिरेव बहिर्भावप्रतीतिरिति; तदप्यविचारितरमणीयम्; यतो जीवनविशिष्टगृहाभावप्रतीतेर्बहिर्भावप्रतीतिर्भवति, न तु तत्प्रतीतिरेव बहिर्भावप्रतीतिः। न हि देहनाधिकरणधूमप्रतीतिरेव दहनप्रतीतिर्दृष्टा / अथ 5 धूमादन्यो दहनः तेनात्र तत्प्रतीतिभेदो युक्तः; तदेतदन्यत्रापि समानम्-गृहाभाव-जीवनाभ्यां तद्वहिर्भावस्यापि अन्यत्वात्, तत्कथमत्रापि तत्प्रतीत्योरभेदः स्यात् ? यथा च पर्वत-वह्नयोः सिद्धत्वात् मत्त्वर्थमात्र तत्र अपूर्वमनुमेयमेवमिष्टम्, एवमिहापि बहिर्देशमात्रम् अपूर्वमनुमेयमस्तु / यदि तु तदधिकं प्रमेयमिह नेष्यते, तदा गृहाभावजीवनयोः स्वप्रमाणाभ्यामवधारणाद् आनर्थक्यमेव अर्थापत्तेः / तस्मात् प्रमेयाँन्तरसद्भावात् 10 तस्य चाऽननुप्रवेशान्न कश्चिदोषः। अर्थापत्तावपि च तुल्य एवायं दोषः, तत्रापि अर्थादर्थान्तरकल्पनाभ्युपगमात् / तस्य तस्मात् प्रतीतिरिति यत्र व्यवहारः तत्रावश्यं तत्प्रतीतौ तदनुप्रवेशदोषोऽनुषज्यते, स्वभावहेताविव तबुद्धिसिद्ध्या तैत्सिद्धेः प्रमाणान्तरवैफल्यात् / ___ ननु चाभावो निश्चितो लिङ्गं भविष्यति, सदसत्त्वग्राहिणोश्च प्रमाणयोः विरोधे 15 कथं तन्निश्चयः ? अतो यावदागमस्य बहिर्भावविषयता न प्रतीयते तावन्न गृह एवाऽभावनिश्चय इति, तस्य निश्चये प्रमेयानुप्रवेशदोषानुषङ्गः, अर्थापत्तिस्तु प्रमाणद्वयविरोधे सत्येव (1) गृहाभावः-आ० टि० / (२)तुलना-"जीवनविशिष्टगृहाभावप्रतीतेः बहिर्भावः प्रतीतः न तत्प्रतीतिरेव बहिर्भावप्रतीतिः / न हि दहनाधिकरणधूमप्रतीतिरेव दहनप्रतीतिः, किन्तु धूमादन्य एव दहनः, इहापि गृहाभावजीवनाभ्यामन्य एव बहिर्भावः, पर्वतहुतवहयोस्सिद्धत्वान्मत्त्वर्थमात्रं तत्रापूर्वमनुमेयम्, एवमिहापि बहिर्देशयोगमात्रमपूर्वमनुमेयम् ।"-न्यायमं० पृ० 43 / स्या० र०पृ० 309 / (३)जीवतो गृहाभावबहिर्भावयोः-आ० टि० / (4) 'पर्वतो वह्निमान्' इति रूपम् / (5) भावस्य जीवनेनैव सिद्धत्वात्-आ० टि०। (6) गृहाभावग्राहकं हि अभावप्रमाणम्, जीवनग्राहकञ्च आगमप्रमाणमिति / (7) बहिःसद्भाव / (8) तुलना-"अर्थापत्तावपि च तुल्य एवायं दोषः,तत्राप्यर्थादर्थान्तरकल्पनाभ्यपगमात / दष्टः श्रतो वार्थोऽन्यथा नोपपद्यते इत्यर्थकल्पनेत्येव ग्रन्थोपनिबन्धात / तस्य तस्मात्प्रतीरिति तत्र व्यवहारस्तत्रावाच्य (?) तत्प्रतीतौ तदनुप्रवेशो दोष एव / स्वभावहेताविव तद्धिसिद्धया तत्सिद्धेः प्रमाणान्तरवैफल्यादिति।"-न्यायमं० पृ०४४ / स्या० र०पू०३०९। (9) तस्य साध्यस्य तस्मात् साधनात् प्रतीरिति व्यवहारश्च अनुमान इवार्थापत्तावप्यस्ति-आ० टि। (10) यथा स्वभावहेतौ शिंशपाबुद्धयैव वृक्षबुद्धौ जातायां प्रमाणान्तरेण न कार्यम्, तथात्रापि गृहाभावेनैव लिङ्गेन बहिर्भावस्यावगतत्वान्नार्थापत्त्या कार्यम्-आ०टि०। (11) अपि तु सर्वत्रवाभाव:आ० टि०। (12) य एव जीवनतो गृहाभावनिश्चयः स एव बहिर्भावनिश्चयः इति, अतो गृहाभाबाख्यो हेतुः प्रमेयं बहिर्भावाख्यमनप्रविष्ट इति भाव:-आ० टि०। 1-शिष्टश्चासौ ब०। 2 विशेषग्रह-श्र०। 3 दहनादिकारण-श्र०। 4 तेन तत्प्र-श्र० / 6 प्रतिपत्तिरिति श्र०। 6-सिद्धिः भा०, ब०। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० प्रवर्त्तते इति कथं तदनुप्रवेशः ? तदसमीक्षिताभिधानम् ; सदसत्त्वज्ञानयोः असमानविषयतया विरोधाऽसिद्धेः। आगमेन हि देशविशेषानवच्छिन्नस्य चैत्रस्य सत्ता प्रतिपाद्यते न गृहे बहिर्वा, प्रत्यक्षेण तु गृहावच्छिन्नस्य चैत्रस्याभाव इति। समानविषयत्वे तु तैयोरनन्यथासिद्धाऽध्यक्षबाध्यत्वेन आँगमजज्ञानस्य मिथ्याज्ञानस्येव नाऽर्थान्तरकल्पनाकारणत्वम्। अथ मत-अनुमाने गमकविशेषणम् अन्यथानुपपन्नत्वं 'वहिं विना धूमो नोपपद्यते' इति, अर्थापत्तौ तु विपर्ययः गमकं विना गम्यो नोपपद्यते / गम्यो हि बहिर्भावः, स जीवतो गृहाभावं विना नोपपद्यते, गृहान्निर्गतो जीवन बहिरस्तीत्येवं गम्यगमकयोरनुपपद्यमानत्वे विपर्ययात् प्रमाणान्तरमनुमानादर्थापत्तिरिति; तदप्यसङ्गतम् ; 'साध्या विनाभाविनो लिङ्गात् लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानम्' इत्यनुमानलक्षणम् / तैच्चार्थापत्तौ 10 अस्त्येव / न हि तदुत्थापकार्थस्य साध्येन अविनाभावोऽसिद्धः; ततः तत्सिद्ध्यभावप्रसङ्गात् / स चाविनाभावः अन्यथानुपपन्नत्वापरपर्यायः उभयनिष्ठत्वात् गमकविशेषणं वास्तु गम्यविशेषणं वा नैतावता अर्थापत्त्यनुमानयोः भेदः, अन्यथा 'सूर्यस्य गमनशक्तिरस्ति गतिमत्त्वाऽन्यथानुपपत्तेः' इति पक्षधर्मत्वसहिताया अर्थापत्तेः 'वढेर्दाह (1) तुलना-"तथाहि-सत्त्वमात्रं वा विरुध्यते चैत्रस्य गेहाभावेन गेहसत्त्वं वैकत्रास्य / न तावद्यत्र क्वचन सत्त्वस्यास्ति विरोध: गेहेऽसत्तया समानविषयत्वाभावात् - 'गृहाभावावच्छिन्नाभावेन गृहसत्त्वं विरुद्धत्वात्प्रतिषिध्यते न तु सत्त्वमात्रम् तत्र तस्यौदासीन्यात्, तस्माद् गृहाभावेन सिद्धेन सतो बहिर्भावोऽनुमीयत इति युक्तम् / एतेन विरुद्धयोः प्रमाणयोरविरोधापादनं विषयव्यवस्थया अर्थापत्तिविषयः परास्तः; अवच्छिन्नाऽनवच्छिन्नयोरविरोधात् ।"-न्यायवा० ता०प०४३९। सांख्यतत्वकौ० 10 44 / “अनियम्यस्य नायुक्तिः नानियन्तोपपादकः / न मानयोविरोधोऽस्ति प्रसिद्ध वाप्यसौ समः ॥"म्यायकुसु० 3 / 19 / (2) नियतदेशविषयत्वेनैव सिद्धमध्यक्षम्-आ० टि० / (3) अबलमागमजं ज्ञानमनियतदेशविषयत्वात्-आ० टि०। (4) प्रभाकरस्य / “यदि यद्येन विना नोपपद्यते तदेवाव. गमकं स्यात्, इह तु यनोपपद्यते तदेवावगम्यते। किं चात्र नोपपद्यते ? जीवतो गृहाभावदर्शनात अन्यत्राभावो नोपपद्यते / तत: किम् ? नात्राभावस्य गम्यता। कस्य तर्हि ? भावस्य / न चासौ गृहाभावदर्शनेनोपपद्यते / बाढं नोपपद्यते / न हि गृहाभावदर्शनेन विना बहिः भाव उपपद्यते।"-शाबरभा० बह० 11115 / "विना कल्पनयाऽर्थेन दृष्टेनानुपपन्नताम् / नयता दृष्टमर्थ या सार्थापत्तिस्तु कल्पना / अभावेन गृहे भावो बहिष्कल्पनया विना। नयताऽनुपपन्नत्वं कल्प्यमाना बहिर्यथा। गम्यस्यानुपपन्नत्वमिह कल्पनया विना। मानान्तरविरोधेन सन्देहापत्तिलक्षणम् // देशेन हि विना भावो न कदाचन दृश्यते / विना भावेन सिद्धोऽपि ते सन्देहमाछेति // तत्सन्देहव्युदासाय कल्पना या प्रवर्तते / सन्देहापादाकादर्थादर्थापत्तिरसौ स्मृता / गमकस्यानुमाने तु विपक्षासत्त्वलक्षणम् / गम्यतेऽनुपपन्नत्वं विना गम्येन वस्तुना // तत्सामग्रीविभेदेन भिन्ने एते परस्परम् / अर्थापत्त्यनुमानाख्ये प्रमाणे इति निश्चितम् ॥"-प्रक० 50 10 128 / तुलना-न्यायमं० पु० 44 / (5) तुलना-"एतदपि ग्रन्थवैषम्योपपादनमात्रम् न तु नूतनविशेषतोत्प्रेक्षणम् ; गम्ये तावदगृहीते सति तद्गतमनुपपद्यमानत्वं कथमवधार्येत, गृहीते तु गम्ये किं तद्गतानुपपद्यमानत्वग्रहणेन साध्यस्य सिद्धत्वात्..."-न्यायमं० पृ० 44 / (6) अर्थापत्त्युत्थापकार्थात् / (7) साध्य / 1 तयोरन्यथा-ब० / 2-मानविपर्ययात् श्र० / 3 तत्त्वार्थापत्तौ ब० / 4 पक्षधर्मसंहि-आ० / Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 21 ] अर्थापत्तिप्रमाणनिरास: 516 शक्तिरस्ति स्फोटान्यथानुपपत्तेः' इति तद्रहितार्थापत्तिः प्रमाणान्तरं स्यात्, तथा च प्रमाणसंख्याव्याघातः। नियमवतोऽर्थाद् अर्थान्तरप्रतिपत्तरविशेषात्तयोरभेदे स्वसाध्याविनाभाविनोऽर्थाद् अर्थान्तरप्रतिपत्तरेत्राप्यविशेषात् कथमनुमानादर्थापत्तेर्भेदः स्यात् ? असिद्धश्चात्र अविनाभावस्य गम्यविशेषणत्वम् ; गृहे चैत्राभावे एव बहिस्तत्सद्भावगमके तस्य विशेषणत्वसम्भवात् / नहि तस्य तद्विशेषणत्वे कश्चिद्दोषः सम्भवति येन गम्य- 5 विशेषणता कल्प्येत। न च सर्वस्यामर्थापत्तौ गम्यविशेषणता अविनाभावस्य सम्भवति; प्रत्यक्षादिप्रभवाऽर्थापत्तौ गमकस्यैव स्फोटादे: अविनाभावविशेषणत्वसंभवात्। न खलु तत्र गम्यायाः शक्तेः स्फोटं विनाऽनुपपत्तिः सम्भवति; तमंन्तरेणापि अस्याः सद्भावाभ्युपगमात् / ___ यच्चान्यदुक्तम्-‘पक्षधर्मतानिश्चयसमये साध्यस्य नियतदेशतया अाऽप्रतीते: अनुमानाद्वैलक्षण्यम्' इत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम् ; गृहाभावाख्यधर्म्यवच्छेदेन बहिर्भावस्य 10 प्रतीतेः, धर्मी एव हि देशशब्देन उच्यते, तदवच्छेदश्च अत्रास्त्येवेति न ततस्तद्वैलक्षण्यम् / यदपि 'सम्बन्धग्रहणाभावाच्च' इत्याद्युक्तम् ; तदपि न; यतः 'सर्वत्र सम्बन्धग्रहणस्य ऊहाख्यप्रमाणप्रसादादेव प्रसिद्धेः' इत्युक्तम् / अतश्च 'देशान्तराणामानन्त्यान्न न तत्र नास्तित्वेन सम्बन्धग्रहः' इत्याद्ययुक्तम्, अनियतसाध्यसाधनव्यक्तिसम्बन्धग्रहणस्वभावत्वात्तस्यै / कथमन्यथा धूमस्य अनग्निव्यतिरेकनिश्चयः तत्रापि अस्य दोषस्याऽ- 15 विशेषात् ? न च भूयोदर्शनावगम्यमानाऽन्वयमात्रेण गमकोऽसौ युक्तः; अनिश्चितव्यतिरेकस्य साध्यनिश्चयाऽहेतुत्वात् / न च सत्तामात्रेणासौ तद्धेतुः; अन्वयवद् व्यतिरेकस्यापि निश्चितस्यैव अनुमानाङ्गतोपपत्तेः / किश्च, असर्वगतद्रव्यस्य चैत्रादेः नियतदेशवृत्तेः तदन्यदेशे प्रतिनियते प्रत्यक्षतः, (1) शक्तिर्वह्नौ स्फोटश्च करतलादौ इति न स्फोटस्य पक्षधर्मता-आ० टि। (2) पक्षधर्मत्वसहिततद्रहितयोरापत्त्योश्चेदभेदः; तदाऽनुमानार्थापत्त्योरपि तथास्तु-आ० टि०। षडेव प्रमाणानीति प्रमाणसंख्याव्याघातः सप्तमस्य प्रसिद्धेः। (3) पक्षधर्मत्वसहित-तद्रहितार्थापत्त्योः / (4) अर्थापत्तावपि / (5) गमकस्य विशेषणमविनाभाव:-आ० टि०। (6) अविनाभावस्य / (7) गमकविशेषणत्वे। (8) स्फोटादिकं विनापि / (9) शक्तेः / (10) पृ०५११५०६। (11) अर्थापत्तो। (12) 105105015 / (13) तर्कनिरूपणप्रसङ्गे, प०४२६ / (14) ऊहस्य / (15) तुलना"अनग्निव्यतिरेकनिश्चये च धूमस्य भवतां का गतिः / या तत्र वार्ता सैवेहापि नो भविष्यति / न च भूयोदर्शनावगम्यमानान्वयमात्रैकशरणतया 'यस्य वस्त्वन्तराभावो गम्यस्तस्यैव दुष्यति / मम त्वदृष्टिमात्रेण गमकाः सहचारिणः॥ (मी० श्लो० अर्था० श्लो०४०) इति कथयितुमुचितम् ; अनिश्चितव्यतिरेकस्य साध्यनिश्चयाभावादिति "पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकोऽपि नागृहीतोऽनुमानाङ्गम् ।"-न्यायमं पृ० 45 / ' (16) धूमो हेतुः / (17) तुलना-"असर्वगतस्य द्रव्यस्य नियतदेशवृत्तेरक्लेशेन तदितरदेशनास्तित्वावधारणम् ।"-न्यायमं० पृ० 45 / न्यायवा० ता० पृ० 438 / सांख्यतत्त्वकौ० पृ० 43 / “दृष्टमेतत्अव्यापक द्रव्यमेकत्रास्ति तदन्यत्र नास्तीति यथा प्राचीप्रतीच्योरेकत्रोपलभ्यमानः सविताऽन्यत्र न भवतीतीदं दर्शनबलेनैवमवधार्यते ।"-प्रश० कन्द० पृ० 223 / (18) परिमितदेशवृत्तित्वादिति हेतोः / 1 पूर्वस्यामाप-ब० / 2 प्रतीतिः आ० / 3 धर्मे वहिर्देश-ब० / 4 तदप्ययुक्तम् यतः श्र०, ब० / 5 सम्बन्धग्रहणमित्या-ब०। 6-सौ अनि-श्र० / 7 तदन्यदेशे प्रतिनियते च अन-ब०।। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [3. परोक्षपरि० अप्रतिनियते चानुमानतोऽभावसिद्धेः कथमुक्तदोषानुषङ्गः ? तच्चानुमानम्-देशान्तराणि चैत्रशून्यानि चैत्राधिष्ठितदेशव्यतिरिक्तत्वात् तत्समीपदेशवत् / न च 'देशान्तराणि चैत्रयुक्तानि तत्समीपदेशव्यतिरिक्तत्वात् चैत्राधिष्ठितदेशवत्' इति प्रत्यनुमानोपहतमेतदित्यभिधातव्यम् ; तत्पक्षस्य प्रत्यक्षादिबाधितत्वात् / तदेवमर्थापत्तेः अनुमानादर्थान्तर5 त्वाऽसिद्धः सिद्धः परेषां प्रमाणसंख्याव्याघातः। - ननु भवतामप्येवं प्रमाणसंख्यानियमविरोधस्तुल्यः 'उपमानादेः प्रदिपादितप्रमाणप्रपञ्चस्य प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यामर्थान्तरत्वाऽविशेषात्' इत्यारेकापनोदार्थमाह-'सर्वस्य' इत्यादि / सर्वस्य अनन्तरोक्तस्य उपमानादिप्रमाणप्रपञ्चस्य परोक्षेऽन्तर्भावात् नाऽस्माकं कश्चिहोषः। कस्मात् तस्य तत्रान्तर्भाव इति चेत् ? तल्लक्षणलक्षितत्वात् / यस्य यल्लक्षण10 लक्षितत्वं तस्य तत्रान्तर्भावः यथा रूपसुखादिसंवेदनस्य प्रत्यक्षे, परोक्षलक्षणलक्षितत्वश्च उपमानादेरिति / यथैव हि रूपादिसंवेदनस्य सुखादिसंवेदनस्य च विषयभेदात् सामग्रीभेदाच्च अन्योन्यं वैलक्षण्येऽपि वैशद्यस्वरूपप्रत्यक्षलक्षणलक्षितत्वात् प्रत्यक्षत्वम् , तथा उपमानादेरपि अवैशद्यस्वभावपरोक्षलक्षणलक्षितत्वात् परोक्षत्वमिति / नन्वेवमपि परोक्षस्य स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्काऽनुमानागमभेदैः परिगणितत्वात् 15 कथमुपमानादेस्तत्रान्तर्भावः, तदन्तर्भावे वा परिगणनविरोधः ? इत्यसमीचीनम् ; उप मानादेः प्रत्यभिज्ञानादिरूपतया तत्परिगणनाऽविरोधकत्वात् / दर्शनस्मरणकारणकं हि सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानमुच्यते, इदमप्युपमानादिज्ञानं दर्शनस्मरणकारणकं सादृश्यादि - (1) तुलना-"देशान्तराणि चत्रशून्यानि चैत्राधिष्ठितव्यतिरिक्तत्वात् तत्समीपदेशवदिति।"न्यायमं० पृ० 38 / (2) “ननु देशान्तरं शून्यं चैत्रेणैवं प्रतीयते / तद्देशव्यतिरिक्तत्वात् समीपस्थितदेशवत् / विरुद्धाव्यभिचारित्वं तद्वदेव हि गम्यते / समीपदेशभिन्नत्वाच्चत्राधिष्ठितदेशवत् / एतदुक्तं भवति-न तावद्देशान्तराणि चैत्रशन्यानि तत्संयुक्तदेशव्यतिरिक्तदेशत्वादिति हेतुः संभवति, सन्दिग्धत्वात्, देशान्तराण्यपि तत्संयुक्तानि न वेत्येतावदेव विचार्यते। कथं तेषां तत्संयुक्तदेशाद् व्यतिरेकसिद्धिः / यदि परमेवमुच्यते-यमेवाधुना चैत्रोऽधिष्ठितोऽपवरकदेशं तद्व्यतिरिक्तत्वादिति; एवं विधश्चाप्रयोजको हेतुः, इतरथा हि शक्यते-चैत्रयुक्तं देशान्तरं तत्समीपव्यतिरिक्तदेशत्वात् तदधिष्ठितदेशवदिति ।"-मी० श्लो० अर्था०, न्यायर० 10 461-62 / (3) "प्रतिपक्षप्रयोगस्तु प्रत्यक्षादिविरुद्धत्वाद्धेत्वाभास एव ।"-न्यायमं० 10 45 / (4) मीमांसकानाम् / (5) जैनानामपि / (6) उपमानादयः परोक्षेऽन्तर्भवन्ति परोक्षलक्षणलक्षितत्वात् / तुलना-“यदेकलक्षणलक्षितं तद्वयक्तिभेदेऽप्येकमेव यथा वैशबैकलक्षणलक्षितं चक्षुरादिप्रत्यक्षम्, अवैशबैकलक्षणलक्षितञ्च शब्दादीति ।"-प्रमेयक० पृ० 192 / सन्मति० टी०प०५९५ / स्या० 2050 283 / (7) रूपादिसुखादिलक्षण / (8) चक्षुरादि-मानसादिरूप। (9) लघीयस्त्रयस्य 'ज्ञानमाद्यं स्मृति' (का० 10) इति कारिकायाम् , परीक्षामु० 3 / 2 / प्रमाणनय० 3 / 2 / प्रमाणमी० 1 / 2 / 2 / इत्यादिषु च / (10) तुलना-प्रमेयक० पृ० 193 / स्या० र० पृ० 283 / ___1 अतिनियते आ० / 2-तरतासिद्धः श्र० / 3 प्रमाणपञ्चकस्य ब० / 4 अन्योन्यवैल-आ०, ब० / संकल्पनं श्र० / Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 22 ] प्रमाणाभासविचारः सङ्कलनस्वभावश्च, अतः कथं प्रत्यभिज्ञानात् व्यतिरिच्येत ? यद् दर्शनस्मरणकारणकं सादृश्यादिसङ्कलनस्वभावञ्च तत् प्रत्यभिज्ञानमेव यथा प्रसिद्धप्रत्यभिज्ञानम् , तत्कारणकं सादृश्यादिसङ्कलनस्वभावश्चोपमानमिति / . 'तद्' इत्यादिना प्रकृतोपसंहारमाह-यस्माद् उपमानादेः परोक्षेऽन्तर्भावः तत तस्मात् समञ्जसम् उपपन्नम् 'प्रत्यक्ष परोक्षश्च इति एवं द्वे एव प्रमाणे' इति / कुत / एतत् ? इत्यत्राह-'अन्यथा' इत्यादि / अन्यथा अन्येन प्रकारेण तेषां प्रमाणानां सङ्ख्याया अनवस्थानादिति ॥छ॥ मिथ्यायुक्तिपलालकूटनिचयं प्रज्वाल्य निःशेषतः, सम्यग्युक्तिमहांशुभिः पुनरियं व्याख्या परोक्षे कृता। येनासौ निखिलप्रमाणकमलप्राज्यप्रबोधप्रदः, भास्वानेष जयत्यचिन्त्यमहिमा शास्ताऽकलङ्को जिनः ॥छ। इति श्रीप्रभाचन्द्रविरचिते न्यायकुमुदचन्द्रे लघीयत्रयालङ्कारे तृतीयः परिच्छेदः ॥छ। प्रमाणप्रवेशे चतुर्थ आगमपरिच्छेदः / प्रत्यक्षतररूपमानमखिलं व्याख्याय साभासताम् , तस्यै ख्यापयितुं कथञ्चिदधुना प्रारभ्यते प्रक्रमः / मिथ्र्यकान्तमहान्धकूपपतनव्यामुग्धबुद्धेः स्फुटम् , कः सन्मार्गनिरूपणेऽत्र कुशलः स्याद्वादभानोः परः // 1 // अथ प्रमाणाभासत्वेन प्रसिद्धं विज्ञानं कथञ्चिदेव तदाभासं न सर्वथेति प्रदर्शयन्नाहप्रत्यक्षाभं कथश्चित् स्यात् प्रमाणं तैमिरादिकम् / येद्यथैवाऽविसंवादि प्रमाणं तत्तथा मतम् // 22 // 20 (1) उपमानं प्रत्यभिज्ञानात्मकमेव दर्शनस्मरणकारणकत्वे सति सादृश्यादिसङ्कलनस्वभावत्वात् / (2) स एवायं जिनदत्त इत्येकत्वप्रत्यभिज्ञानम् / (3) मानस्य (4) “स्याद् भवेत् / किम् ? प्रत्यक्षाभं प्रत्यक्षप्रमाणाभासमित्यर्थः / अक्षमिन्द्रियानिन्द्रियं प्रति नियतं प्रत्यक्ष ज्ञानमात्रम् तदिवाभातीति व्युत्पत्तेः / किं विशिष्टम् ? तमिरादिकं तिमिरादागतं तैमिरं तदादिर्यस्य आशुभ्रमणादेः तथोक्तम् / तत् किं स्यात् ? प्रमाणं भवति। कथम् ? कथञ्चित् भावप्रमेयापेक्षया द्रव्यापेक्षया वा, न सर्वथा प्रमाणाभासमेव, बहिराकारविषय एव ज्ञानस्य विसंवादात् स्वरूपापेक्षया तस्याविसंवादात् / अत्राविनाभावं दर्शयति यदित्यादि / यज्ज्ञानं यथैव यावद्विषयावबोधनप्रकारेण अविसंवादि, विसंवादो गहीतार्थव्यभिचारः तद्रहितमविसंवादि. तज्ज्ञानं तथा तावद्विषयावबोधन 1-कारण संकलन-आ०, श्र०। 2 तत्कारणं सादृ-ब० / -महामुनिः पु-ब०। 4-नेष जयत्परोक्षमहि-ब० / / श्रीमत्प्रभा-ब० / 6 परिच्छेदः समाप्तः / / ब० / 7-त्वेन सिद्धविज्ञा-ब० / Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० विवृतिः-तिमिरांडुपलवज्ञानं चन्द्रादावविसंवादकं प्रमाणं यथा तत्सङ्ख्यादौ विसंवादकत्वादप्रमाणम् , प्रमाणेतरव्यवस्थायाः तल्लक्षणत्वात् / नहि ज्ञानं यदप्य. नुकरोति तत्र प्रमाणमेव समारोपव्यवच्छेदाकारणात् / कथमन्यथा दृष्टे प्रमाणान्तरवृत्तिः ? कृतस्य करणायोगात् , तदेकान्तहानेः कथञ्चित्करणानिष्टेः / तदस्य विसंवादोऽपि अवस्तुनिर्भासात्, चन्द्रादिवस्तुनिर्भासानामविसंवादकत्वात् / प्रकारेण प्रमाणं मतमिष्टं परीक्षकैरिति / तथाहि-सर्व संशयादिकं प्रमाणाभासं स्वरूपापेक्षया द्रव्यापेक्षया वा प्रमाणं भवति तत्राविसंवादित्वात्, यद्यत्राविसंवादि तत्तत्र प्रमाणं यथा रसे रसज्ञानम्, अविसंवादि च संशयादिकं स्वरूपे द्रव्यरूपादौ वा, ततस्तत्र कथञ्चित्प्रमाणमिति / विसंवाद एव खल्वप्रामाण्यनिबन्धनम् अविसंवादश्च प्रामाण्यनिबन्धनमिति न्यायस्य सकलवादिसम्मतत्वात् सर्वथा .प्रमाणाभासस्य न्यायशून्यत्वात् / 'बहिः प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभञ्च ते' (आप्तमी० श्लो. 83) इति वचनात् / न हि ज्ञानं स्वरूपे विसंवादि तस्याहम्प्रत्ययसिद्धत्वात् / प्रसिद्ध च विषये प्रवर्तमानं कथमप्रमाणं स्यादिति ।"-लघी० ता० 10 42 / अस्यां कारिकायां यदिग्नानादिना तमिरादिकं प्रत्यक्षाभासमुक्तम्, तस्य कथञ्चिदेव प्रत्यक्षाभासतां दर्शयति / दिग्नागादेः प्रत्यक्षाभस्वरूपप्रदर्शका ग्रन्थास्त्वित्थम्-"भ्रान्तिस्संवृतिसज्ज्ञानमनुमानानुमानिकम् / स्मरणञ्चाभिलापश्चेत्यक्षाभासं सतैमिरम् / / अथ मरीचिकादिषु जलादिकल्पनात् भ्रमज्ञानं प्रत्यक्षाभासम् / संवृतिसत्यं हि स्वस्मिन् अर्थान्तरमारोप्य तत्स्वरूपकल्पनात् प्रत्यक्षाभासम् / अनुमानं तत्फलञ्च पूर्वानुभवकल्पनान्न प्रत्यक्षम्।"-प्रमाणममु०, वृ० 1 / “त्रिविधं कल्पनाज्ञानमाश्रयोपप्लवोद्भवम् / अविकल्पकमेकञ्च प्रत्यक्षाभं चतुर्विधम् // त्रिविधं कल्पनाज्ञानं प्रत्यक्षाभम्-मरीचिकायां जलाध्यवसायि भ्रान्तिज्ञानम् / संवृतौ विसंवादिव्यवसायसांवृतज्ञानम्, पूर्वदृष्टैकत्वकल्पनाप्रवृत्तं लिङ्गानुमेयादिज्ञानम् / अविकल्पकञ्चै प्रत्यक्षाभासम. कीदशम? आश्रयस्य इन्द्रियस्य उपप्लवस्तिमिराद्यपघातः तस्माद्भवो यस्य तत्तथा। एवञ्च चतुर्विधं प्रत्यक्षाभासम् / नन्वविकल्पकं प्रत्यक्षम् , ततस्त्रयमपीदं सविकल्पकत्वादेकः प्रत्यक्षाभासः / तत्किम् ? भ्रान्तिज्ञानं मृगतृष्णिकायां जलावसायि / संवृतिभतो द्रव्यादेर्शानम् / अनुमानं लिङ्गज्ञानम्, आनुमानिकं लिङ्गिज्ञानम् / स्मार्तम् स्मृतिः / आभिलापिकञ्चेति विकल्पप्रभेद आचार्यदिग्नागेनोक्तः ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 2 / 288 / तुलना-"पीतशंखादिषु विज्ञानं तु न प्रमाणमेव तथार्थक्रियाव्याप्तेरभावात्, संस्थानमात्रार्थक्रियाप्रसिद्धावन्यदेव ज्ञानं प्रमाणममुमानम्, ततोऽनुमानं संस्थाने संशयः परत्रेति प्रत्ययद्वयमेतत् प्रमाणमप्रमाणञ्च ।"-प्रमाणवातिकालं. प्रथमपरि०। (5) तुलना-"यथा यत्र विशदं तथा तत्र प्रत्यक्षम् / यथा यत्राविसंवादः तथा तत्रं प्रमाणता / (पृ० 65 B.) तथा च सर्व स्वभावे परभावे वा कथञ्चिदेव प्रमाणं न सर्वथा।"सिद्धिवि०, टी० ए० 86 A. | "यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता।"-तरवार्थश्लो०प०१७०। सिद्धिवि० टी०१० 69 B. / "यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणतेत्यकलङ्कदेवैरप्युक्तत्वात् / " -अष्टसह०प० 163 / "यद्यथैवासंवादि प्रमाणं तत्तथा मतम् / विसंवाद्यप्रमाणञ्च तदध्यक्षपरोक्षयोः॥"-सन्मति० टी०पू० 595 / (1) तुलना-"येनाकारेण तत्त्वपरिच्छेदः तदपेक्षया प्रामाण्यमिति / तेन प्रत्यक्षतदाभासयोरपि प्रायशः सङ्कीर्णप्रामाण्यतरस्थितिरुन्नेतव्या / प्रसिद्धानुपहतदृष्टेरपि चन्द्रार्कादिषु देशप्रत्यासत्याद्यभूताकारावभासनात् / तथोपहताक्षादेरपि संख्यादिविसंवादेऽपि चन्द्रादिस्वभावतत्त्वोपलम्भात् / तत्प्रकर्षापेक्षया व्यपदेशव्यवस्था गन्धद्रव्यादिवत् ।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० 277 / “अनुपप्लुतदष्टीनां चन्द्रादिपरिवेदनम् / तत्संख्यादिष संवादि न प्रत्यासन्नतादिषु ॥"-तत्त्वार्थश्लो० 10 170 / उद्धृतेयं समग्रा विवृति:-सन्मति० टी० पू० 595 / Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणपं० का प्रमाणाभासविचारः प्रत्यक्षाभम् इत्युपलक्षणम् , तेन परोक्षाभमपि यदेकान्तेन वादिनां लोकानां कारिकार्थः __ वा प्रसिद्धं तत्कथञ्चित् स्याद् भवेत् प्रमाणम् नैकान्तेन तदा ___भासम् इत्यभिप्रायः / किं तद् ? इत्यत्राह-तमिरादिकमिति / तिमिरादागतं तैमिरम् आदिर्यस्य आँशुभ्रमणादिज्ञानस्य तत्तथोक्तम् / कुत एतद् ? इत्याह'यद्यथा' इत्यादि / यतो यद्विज्ञानं येनैव प्रकारेण अविसंवादि तैद् विज्ञानं तेनैव 5 प्रकारेण प्रमाणमभिप्रेतम् / तथा च "कल्पनापोढमभ्रान्तम' न्यायबि० 1 // 4] इत्यत्र, "इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमव्यभिचारि" [न्यायसू० 114] इत्यत्र, " संत्सम्प्रयोगे " [ जैमिनिसू० 1 / 14] इत्यादौ च यदभ्रान्तादिग्रहणं भ्रान्तनिवृत्त्यर्थं तद्यदि सर्वथा अप्रत्यक्षत्वात् तेनापसार्यते तदा प्रमाणविरोधः। अथ कथञ्चित् ; तदा एकान्तहानिरित्युक्तं भवति। कारिकां व्याचष्टे 'तिमिर' इत्यादिना / तिमिरादीनां कार्यभूतं यद् उपप्ल- 10 .. वज्ञानं द्विचन्द्रादिविषयं तत् चन्द्रादौ आदिशब्देन धावल्यवर्तुलत्वाविवृतिव्याख्यानम् - दिपरिग्रहः तत्र प्रमाणम् / कुत एतत् ? अविसंवादकं यतः तत्रांशे / अत्र दृष्टान्तमाह-यथा इत्यादि / यथा तत् तिमिराद्युपप्लवज्ञानं संख्यादौ द्वित्वस्थिरत्वादौ विसंवादकत्वादप्रमाणम् / यदि नाम तत्तथाविधं किमेतावता प्रमाणेतररूपं भविष्यति इत्याशक्य आह-'प्रमाण' इत्यादि। प्रमाणञ्च इतरच अप्रमाणं तयोः 15 व्यवस्थायाः तल्लक्षणत्वात् संवादविसंवादलक्षणत्वात् / ननु कथं तदेव प्रमाणमितरच्च युक्तं विरोधादिति चेत् ? अत्राह-'नहि' इत्यादि / हिर्यस्मात् न ज्ञानं भवत्कल्पितं निर्विकल्पकवेदनं यदपि इत्यपिशब्दोऽभ्युपगमे, परमार्थतः अर्थाकारताया ज्ञानेऽसंभवात् , तदसंभवश्च प्रपञ्चतः प्रागेवं तत्प्रतिषेधात् सिद्धः। अभ्यु (1) “तिमिरमक्ष्णोविप्लवः, इन्द्रियगतमिदं विभ्रमकारणम् / आशुभ्रमणमलातादेः, मन्दं हि भ्रम्यमाणेऽलातादौ न चक्रभ्रान्तिरुत्पद्यते, तदर्थमाशुग्रहणेन विशेष्यते भ्रमणम्, एतच्च विषयगतं विभ्रमकारणम्। संक्षोभो वातपित्तश्लेष्मणाम्, वातादिषु हि क्षोभं गतेषु ज्वलितस्तम्भादिभ्रान्तिरुत्पद्यते, एतच्चाध्यात्मगतं विभ्रमकारणम् / सर्वैरेव च विभ्रमकारणः इन्द्रियविषयबाह्याध्यात्मिकाश्रयगतैरिन्द्रियमेव विकर्तव्यम् / अविकृत इन्द्रिय इन्द्रियभ्रान्त्ययोगात् / आदिग्रहणेन काचकामलादय इन्द्रियस्था गृह्यन्ते / आशुनयनानयनादयो विषयस्थाः / आशुनयनानयने हि कार्यमाणेऽलातादावग्निवर्णदण्डाभासा भ्रान्तिर्भवति / हस्तियानादयो बाह्याश्रयस्थाः गाढमर्मप्रहारादय आध्यात्मिकाश्रयस्था विभ्रमहेतवो गृह्यन्ते ।"-न्यायवि० टी० पृ 16-17 / (2) 'प्रत्यक्षम्' इति शेषः / (3) "इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ।"-न्यायसू० 1114 / (4) "सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्यन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षमनिमित्तं विद्यमानोपलम्भनत्वात् ।"-जैमिनिसू० 1 / 04 / (5) आदिपदेन अव्यभिचारिसत्सम्प्रयोगजयोः परिग्रहः / (6) भ्रान्तम्-आ० टि० / (7) अभ्रान्तादिग्रहणेन / (6) अप्रत्यक्षत्वात्तेनापसार्यते इति सम्बन्धः / (9) संवादविसंवादलक्षणत्वात्-आ० टि०। (10) पु० 167 / 1 यदेकान्तवादिनां श्र०। 2 यदि ज्ञानं आ० / 3-तज्ञानं आ० / 4 एकांशतः हानिः श्र० / न तम्जाज्ञानं ब०। 6-कसंवेदनम् श्र०। 7 सिद्धः अतोऽभ्युप-ब०, श्र०। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 लघीयत्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० पगम्याप्युच्यते-यथोक्तं ज्ञानं यदपि वस्त्वनुकरोति यदाकारं भवति तत्र वस्तुनि प्रमाणमेव, 'नहि' इत्यभिसम्बन्धः, किन्तु अप्रमाणमपि इत्येवकारार्थः / कुत एतद् ? ईत्याह-'समारोप' इत्यादि / क्षणिकेऽक्षणिकज्ञानं समारोपः तस्य व्यवच्छेदो निरासः तस्य आकाङ्क्षणात् / तदनभ्युपगमे दूषणमाह-'कथम्' इत्यादि / कथमन्यथा तदाकाङ्क्षणाभावप्रकारेण दृष्टे दर्शनविषयीकृते क्षणभङ्गादौ प्रमाणान्तरस्य अनुमानस्य वृत्तिः ? न कथमपि इत्यर्थः / नहि समारोपव्यच्छेदात् अन्यत्तस्यै फलम् / अथ न समारोपनिषेधार्था तत्रास्य प्रवृत्तिः / किं तर्हि ? ग्रहणार्था, इत्यत्राह-'कृत' इत्यादि / कृतस्य अनुभवेन अनुभूतस्य क्षणभङ्गादेः अनुमानेन करणस्य ग्रहणस्य अयोगात् , . अन्यथा अनवस्था स्यात् , तद्गृहीतेप्यस्मिन् अनुमानान्तरेण ग्रहणप्रसङ्गात् / अथ अर्थदर्शनेन नीलादिकमेव गृहीतं न क्षणभङ्गादिकं तेनायमदोषः, अत्राह'तद्' इत्यादि / तदेकान्तः कृतैकान्तः “एकस्यार्थस्वभावस्ये" [प्रमाणवा० 3 / 42 ] इत्यादिवचनात् / यत्कृतं तत्कृतमेव तस्य हानेः हानिप्रसङ्गात् कथं प्रमाणान्तरवृत्तिः ? तद्धानिः कुतः ? इत्यत्राह-'कथञ्चिद्' इत्यादि / कथञ्चित् नीलादिरूपेण ने क्षण भङ्गादिरूपेण यत् करणं वस्तुनो ग्रहणं तस्याऽनिष्टेः, अन्यथा गृहीतेतररूपता एकस्य 15 स्यात् / उपसंहारव्याजेन दूषणान्तरमाह-'तद्' इत्यादि / यत्त एवं तत् तस्मात् अस्य अर्थाकारदर्शनस्य विसंवादोऽपि विप्रलम्भोपि न केवलं कथञ्चित् प्रामाण्यमेव / कुत एतत् ? इत्यत्राह-अवस्तुनिर्भासात् / अवस्तुनो भवन्मते बहिरन्तर्वाऽसत एव स्थूलाकारस्य निर्भासाद् अनुकरणाद् दर्शनं प्रमाणं न स्यादिति भावः / व्यवहारेण प्रामाण्येऽपि न सौगतस्य इष्टतत्त्वसिद्धिः। अथ निरन्वयविनश्वरादिवस्तुस्वरूपानन्20 करणेऽपि नीलादिसच्चेतनादिवस्तुस्वरूपानुकरणात् तत्प्रामाण्यम् , इत्याह-'चन्द्रादि' इत्यादि / चन्द्रादि च तद् वस्तु च तस्य निर्भासानाम् उपप्लवज्ञानसम्बन्धिप्रतिभासानां प्रामाण्यं स्यात् 'प्रमाणम्' इत्येतदनुवर्तमानं लब्धभावप्रत्ययमिह सम्बद्ध्यते / कुत एतद् ? इत्यत्राह-अविसंवादकत्वात् / न खलु चन्द्रादिविप्लवज्ञानं धावल्यवर्तु लत्वादौ विसंवदति इति / एवं तावत् यत् परेण प्रत्यक्षाभं तैमिरिकादीन्द्रियज्ञानमुक्तं ॐ तदपि कथञ्चित् प्रत्यक्षमिति व्यवस्थापितम् / (१)क्षणिकादेरग्रहणादप्रमाणं निर्विकल्पकम् , यदि हि क्षणभंगादि निर्विकल्पकप्रत्यक्षेणैव गृहीतं स्यात्तदा तत्साधनार्थमनुमानं किमर्थं प्रयुज्यत इति हृदयम्-आ० टि०। (2) अनुमानस्य / (3) निर्विकल्पकप्रत्यक्षेण। (4) यद्धि वस्तु तत्सर्वात्मना कृतं गृहीतं निर्विकल्पेन इत्येकान्तः कृतकान्तः / (5) "एकस्यार्थस्वभावस्य प्रत्यक्षस्य सतः स्वयम् / कोऽन्यो भागो न दृष्ट: स्यात् यः प्रमाणैः परीक्ष्यते॥" -प्रमाणवा० / उद्धृतश्चायम्-न्यायमं० पृ० 93 / अभि० आलोक० पृ० 152 / सिद्धिवि० टी०ए० 71 A. / तत्त्वार्थश्लो०१० 405 / प्रमेयक० पृ०२३६। सन्मति० टी०पृ० 507 / न्यायवि०वि०प० 496 B. / स्या० 2010 534 / शास्त्रवा० यशो० पृ० 158 B. (6) अग्रहणेऽपि-आ० टि / 1 तथोक्तं श्र०। 2 इत्यत्राह श्र०, ब० / 3 करणस्यायोगात् ब०। 4 क्षणकान्तः ब०। न च क्षण-श्र०। 6 'विप्रलम्भोऽपि' नास्ति ब०। 7 मिरादीन्द्रि-श्र०, ब०। . Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र का 0 23 ] प्रमाणाभासविचारः साम्प्रतं कल्पनापदेन यत् परेण विकल्पज्ञानं तदाभासमुक्तं तदपि प्रत्यक्षं साधयन्नाह स्वसंवेद्यं विकल्पानां विशदार्थावभासनम् / संहृताशेषचिन्तायां सविकल्पावभासनात् // 23 // विवृतिः-सर्वतः संहत्य चिन्तां स्तिमितान्तरात्मना स्थितोऽपि चक्षुषा रूपं संस्थानात्मकं स्थूलात्मकमेकं सूक्ष्मानेकखभावं पश्यति न पुनः असाधारणैकान्तं / खलक्षणम् , प्रतिसंहारव्युत्थितचित्तस्य तथैवास्मरणात् / तस्मादविशदमेव अविकल्पकं प्रत्यक्षाभम् / न च विशदेतरविकल्पयोः विषयभेदैकान्तः प्रत्यासन्नेतरार्थप्रत्यक्षाणाम् एकार्थविषयतोपपत्तेः। स्वसंवेद्यं स्वसंवेदनाध्यक्षग्राह्यम्। केषाम् ? इत्याह-विकल्पानाम्। किं तद् ? कारिकार्थः- इत्याह-विशदार्थावभासनम् / कुत् एतत् ? इत्याह-'संहृत' 10 इत्यादि / संहृता अशेषाश्चिन्ता यस्यामवस्थायां तस्यामपि सविकल्पकस्यैव ज्ञानस्य अवभासनात् / ततो यदुक्तं परेण-“ नै विकल्पानुविद्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासती।" [प्रमाणवा० 2 / 283] इत्यादि, “प्रत्यक्ष कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति / " [प्रमाणवा० 2 / 123] इत्यादि च; तन्निरस्तम् ; प्रत्यक्षबाधितत्वात् / - (१)द्रष्टव्यम्-पृ० ५२१४ि०४।(२)"भवति। किम् ? स्वसंवेद्यम् स्वेन तत्त्वज्ञानात्मना संवेद्यं 'ग्राह्यम् स्वसंवेद्यं ज्ञानस्वरूपमित्यर्थः। वेद्यवेदकाकारद्वयाविरोधात् ज्ञानस्य अन्यथा अवस्तुत्वापत्तेः। कि विशिष्टम् ?विशदार्थावभासनम् अर्थस्य परमार्थसतोऽवभासनमवबोधनमर्थावभासनम् विशदं स्पष्टं तच्च तदर्थावभासनं च तत्तथोक्तम् / केषाम् ? विकल्पानाम्, घटोऽयं गौरयं शुक्लोऽयं गायकोऽयमित्यादिनिश्चयज्ञानानाम् / कुतः ? सविकल्पावभासनात्, विकल्पो जात्याद्याकारावबोधः सह विकल्पेनेति सविकल्पकं तस्यावभासनादनु भवात् / कदा? संहृताशेषचिन्तायाम् , संहृता नष्टा अशेषाः स्मृत्यादयश्चिन्ता विकल्पा यस्यामवस्थायां सा तथोक्ता तस्याम्। चक्षुरादिबुद्धौ जात्याद्याकारविशेषस्य अवबोधनस्य अप्रतिहतत्वात्, ततो विकल्पज्ञानस्य प्रत्यक्षाभासत्वमयुक्तमित्यर्थः ।"-लघी० ता०पू० 43 / (3) धर्मकीर्तिनोक्तं यत्-शान्तचेतस्कतया चक्षुषा यद्रूपदर्शनं भवति तनिर्विकल्पकम् / तस्मिश्च रूपस्वलक्षणं क्षणिक-परमाण्वात्मकं प्रतिभासते / तथाहि-"संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना / स्थितोऽपि चक्षुषा रूपमीक्षते साऽक्षजा मतिः ॥"-(प्रमाणवा० 2 / 124) ग्रन्थकृता तत्प्रतिविहितम्यत्तदवस्थायामपि सविकल्पकमेव ज्ञानं स्थिरस्थूलाद्यर्थग्राह्यनुभूयते / तुलना-“संहृत्य सर्वतश्चित्तं स्तिमितेनान्तरात्मना। स्थितोऽपि चक्षुषा रूपं स्वञ्च स्पष्ट व्यवस्यति ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 186 / (4) तुलना-"न हि जातुचिदसहायमाकारं पश्यामो यथा व्यावर्ण्यते तथैवानिर्णयात्, नानावयवरूपाद्यात्मनो घटादेः बहिः सम्प्रतिपत्तेः न परमाणुसंचयरूपस्य ।"-सिद्धिवि०, टी० पृ० 36 B. I (5) "न विकल्पानुबद्धस्यास्ति स्फुटार्थावभासिता। न विकल्पेनानुबद्धस्य संस्तुतस्य ज्ञानस्य स्फटाविभासिताऽस्ति ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 2 / 283 / उद्धृतोऽयम्-तत्त्वोप० पृ० 34 / सिद्धिवि० टी० पृ० 28 B., 95 A. / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 120 / सन्मति० टी० पृ० 502 / न्यायवि० वि० 1077 A. / 'न विकल्पानुबन्धस्य'-शास्त्रवा० यशो० पृ०१५७ B. I'निर्विकल्पानुबद्धस्य स्पष्टार्थः प्रतिभासते'-न्यायबि० टी० टि० पृ० 35 / (6) "प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति / 1 प्रतिसंहारं व्यु-ई०वि०। 2 अविकल्पान-श्र०। 3 'च'नास्ति ब०। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. प्रागमपरि० ___ इदमपरं व्याख्यानम्-वसंवेद्यं स्वसंवेदनग्राह्यं यद्रूपम् / केषाम् ? विकल्पानाम् अनुमानादिमानसज्ञानानाम्। तत्किम् ? विशदार्थावभासनम् निर्वि: कल्पकमभ्रान्तम् इत्यर्थः / कदा ? संहृताशेषचिन्तायाम् / केन रूपेण ? 'स्वसंवेद्येन' इति विभक्तिपरिणामेन सम्बन्धः / किं कृत्वा ? सविकल्पावभास5 नात् तदवभासनमाश्रित्य इत्यर्थः / ततस्ते विकल्पाः कथञ्चित् प्रत्यक्षामा इति भावः / ___ कारिकां विवृण्वन्नाह-'सर्वतः' इत्यादि / सर्वतः सजातीयाद् विजातीयाच्च ___ संहृत्य त्यक्त्वा / काम् ? चिन्ताम् परामर्शबुद्धिम् / स्थितोऽपि विवृतिव्याख्यानम् - प्रतिपत्ता। केन रूपेण ? इत्याह-'स्तिमितेन' इत्यादि / स्तिमितः स्थिरीभूतः अपरिस्पन्दः अन्तरात्मा मनः तेन / स किं करोतीत्याह-' चक्षुषा' 10 इत्यादि / चक्षुर्ग्रहणमुपलक्षणं श्रोत्रादेः, तेन रूपं पश्यति, रूपग्रहणमपि रसादीनामुपल क्षणम् / कथम्भूतम् ? संस्थानात्मकं वर्तुलत्वादिधर्मस्वभावम् / पुनरपि कथम्भूतम् ? स्थूलात्मकं स्थूलस्वभावमेकम् / पुनरपि किंविशिष्टम् ? सूक्ष्मानेकस्वभावम्, सूक्ष्मोऽनेकः स्वभावो यस्य तत्तथोक्तम् / ननु संस्थानादिकं गुणत्वाद् द्रव्यस्य न रूपस्य, अस्य गुणत्वेन निर्गुणत्वात् ; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; अनेकान्ते द्रव्यगुणयोरभेदार्पणया 15 रूपस्यापि द्रव्यधर्माऽविरोधात् / ननु चक्षुषा रूपं दृश्यमानम् अन्योन्यविलक्षणानेका नंशपरमाणुस्वभावस्वलक्षणरूपमेव दृश्यते नतु स्थूलादिस्वरूपम् , इत्यत्राह-'न पुनः' इत्यादि / पुनरिति भावनायाम् , न स्खलक्षणं पश्यति, कथम्भूतम् ? असाधारणम् , असाधारणः सजातीयविजातीयव्यावृत्तः एकोऽसहायः अन्तो धर्मो यस्य तत्तथोक्तम् / कुत एतत् ? इत्याह-'प्रतिसंहार' इत्यादि / संहारः अशेषविकल्पाभावः, प्रतिसंहारः 20 पुनर्विकल्पप्रवृत्तिः, तमाश्रित्य व्युत्थितं प्रतिबुद्ध चित्तं यस्य स तथोक्तः तस्य, तथैव असाधारणैकान्तप्रकारेण असरणात् स्मरणाभावात् खलक्षणस्य, अतो न तस्य कदाचिद् दर्शनम् स्थूलादिस्वभावस्यैव तु स्मरणात् सदा दर्शनमिति / 'तस्मात्' इत्यादिना उपसंहारमाह-यस्मानिर्विकल्पकं ज्ञानं परस्य प्रत्यक्षत्वेनाऽभिप्रेतं न कदाचिद् विशदस्वरूपतया प्रतिभाति तस्माद् अविशदमेव अविकल्पकं प्रत्यक्षाभम् / ननु विशदेतरज्ञानानां विभिन्नप्रतिभासतया विभिन्नविषयत्वान्न स्थूलादिप्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकल्पो नामसंश्रयः // यत्तत्प्रत्यक्षमिति प्रसिद्धं तत्कल्पनाया अपोढं द्रष्टव्यं कल्पनार्थरहितमित्यर्थः / तच्चतदीदृशं प्रत्यक्षेणैव स्वसंवेदनेनैव सिद्धचति / कल्पनारहितस्यार्थस्य रूपस्य संवेदनस्यापरोक्षत्वात् / यदि तु कल्पनास्वभावत्वमस्य स्यात्तथैव प्रकाशेत विकल्पस्यापरोक्षत्वात् / तथाहि -प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां प्राणिनां विकल्पो नामसंश्रयः शब्दसंसर्गवान् / स यदि स्यादुपलभ्य एव भवेत् / " -प्रमाणवा० मनोरथ० 20123 / उद्धृतोऽयम्-अनेकान्तजय० पृ० 207 / न्यायवा० ता० पृ० 154 / सिद्धिवि० टी० 10 17 A., 31 A. / प्रमेयक० पृ० 32 / सन्मति० टी पु० 503 / न्यायवि०वि०प०४५ A., 83 B.,495 A. / स्या० 201082 / शास्त्रवा० यशो०५० 157 B. ___ 1 तेन किं श्र०। 2-स्वभावलक्षणरूपमेव श्र०। 3 'असाधारणम्' नास्ति आ०, ब० / 4-व्यावृत्त य एको-ब० / -वस्यवानुस्म-ब०। 6-मिति यस्मा-ब०। 7 अविकल्पं प्र-श्र० / Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 24 ] प्रमाणाभासविचारः 527. स्वभाव रूपं पश्यति' इत्यादि युक्तम् , ययोविभिन्नप्रतिभासत्वं तयोविभिन्नविषयत्वं यथा रूपरसज्ञानयोः, विभिन्नप्रतिभासत्वञ्च प्रत्यक्षतरज्ञानयोरिति / तथा च, विशदस्वभावस्य अध्यक्षस्य स्खलक्षणविषयत्वं सिद्धम् , अविशदस्वभावस्य तु विकल्पस्य स्थूलादिविषयत्वम् इत्याशक्याह-'नच' इत्यादि / नच नैवे विशदेतरविकल्पयोः अवग्रहादिस्मरणाद्योः विषयभेदैकान्तः, 'परमार्थवस्तुनि विशदविकल्पः प्रवर्त्तते, कल्पिते अवि- 5 शदविकल्प:' इति, किन्तु विशदविकल्पविषय एव अविशद विकल्पस्य विषयः / यच्च 'विभिन्नप्रतिभासत्वात्' इत्युक्तम् ; तदप्यनैकान्तिकमित्युपदर्शयन्नाह-'प्रत्यासन्न' इत्यादि। प्रत्यासन्नश्च इतरश्च अप्रत्यासन्नः अर्थो येषां तानि च तानि प्रत्यक्षाणि तेषां विशदेतररूपप्रतिभासभेदसंभवेऽपि एकार्थविषयतोपपत्तेः / नहि दूरासन्नपुरुषाणां पादपादिप्रत्यक्षेषु प्रतिभासभेदोऽसिद्धः। नापि विषयाभेदैः; पादपादेरेकस्यैव तद्विषयत्वात् / 10 यदप्युच्यते-'प्रत्यक्षे न सन्ति कल्पना उपलब्धिलक्षणप्राप्तानामनुपलब्धः, यद्यत्र उपलब्धिलक्षणप्राप्तं सन्नोपलभ्यते तत्तत्र नास्ति यथा क्वचित् प्रदेशविशेषे घटः, नोपलभ्यन्ते च प्रत्यक्ष तथाविधाः सत्यः कल्पना इति / न च उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वं तासामसिद्धम् ; 'नैहि इमाः कल्पना अप्रतिसंविदिता एव उदयन्ते व्ययन्ते च यतः सत्योऽप्यनुपलक्षिताः स्युः' इति; तद्रूषयन्नाह 15 प्रतिसंविदितोत्पत्तिव्ययाः सत्योऽपि कल्पनाः। ' प्रत्यक्षेषु न लक्ष्येरन् तत्वलक्षणभेदवत् // 24 // (1) प्रत्यक्षतरज्ञाने विभिन्न विषये विभिन्नप्रतिभासत्वात् / (2) [अ] सिद्धः इत्यत्रापि योज्यम्आ० टि०। (3) "यदाह-न चेमाः कल्पना अप्रतिसंविदिता एवोदयन्ते व्ययन्ते चेति / नापि तत्प्रतिपत्तो लिङ्गानुसरणेन तदाकारसमारोपसंशयः शक्यते कल्पयितुम्..."-प्रमाणवा० स्वव० टी० 150 / (4) "न लक्ष्यरन् विविच्येरन् / काः? कल्पना विकल्पाः / केषु ? प्रत्यक्षेषु स्वसंवेदनादिषु / कि विशिष्टा अपि ? सत्योऽपि विद्यमाना अपि / पुनः कथम्भूताः ? प्रतिसंविदितोत्पत्तिव्ययाः, उत्पत्तिः स्वरूपलाभ: व्ययोऽभावप्रत्ययः, प्रतिसंविदितौ प्रतिप्राणि समुपलब्धौ उत्पत्तिव्ययौ यासां तास्तथोक्ताः / न खल सत्त्वं विना उत्पादव्ययवत्वमनुभूयते, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् / ननु सतां विकल्पानां प्रत्यक्षबद्धाव. नपलक्षणे किं कारणमिति चेत् ; प्रतिपत्तुरशक्तिरप्रणिधानञ्चेति ब्रूमः / अत्र निदर्शनमाह-तदित्यादि। तेषां विकल्पानां स्वलक्षणं स्वरूपं तस्य भेदः सजातीयविजातीयव्यावृत्तिः स इव तद्वत् / अयमर्थ:-यथा प्रतीतोत्पादव्यया सत्यपि स्वलक्षणव्यावृत्तिः कल्पनासु न लक्ष्यते अनुमानत एव तत्सिद्धेः तथा प्रत्यक्षेषु कल्पना अपि न लक्ष्यन्त इति / तहि कथमलक्षितानां तासां तत्रास्तित्वसिद्धिरिति चेत् ? न; पुनस्तद्विषयस्मरणान्यथानुपपत्त्या तत्सिद्धेः / संहृतसकलविकल्पावस्था हि अश्वं विकल्पयतो गोदर्शनावस्था, तत्रापि गोदर्शनं निश्चयात्मकमेव पुनस्तद्विषयस्मरणान्यथानुपपत्तेः ।"-लघी० ता० पृ० 44 / तुलना"न हि संवित्तेः बहबहुविधप्रभृत्याकृतयः स्वयमसंविदिता एवोदयन्ते अत्ययन्ते वा यत: सत्योऽप्यनुपलक्षिताः स्युः कल्पनावत् ।"-सिद्धिवि०, टी० पृ० 98 A. / 1 नवं ब० / 2-विकल्पकस्य आ० / 3 'प्रत्यासन्नेत्यादि' नास्ति आ०, श्र०। 4 प्रत्यक्षेण सन्ति श्र०, ब० / / सतोऽप्यनु-आ० / Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '528 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० विवृतिः सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भात् तद्विशेषादर्शिनोऽनवधारणम् असमीक्षिताभिधानम् ; सर्वथा तत्सादृश्याऽनिष्टेः / प्रतिसंहारैकान्तः संभवति न वेति चिन्त्यमेतत् / कथञ्च प्रत्यक्षबुद्धयः सर्वाथाऽविकल्पाः पुनर्विकल्पेरन् ? प्रति प्राणि संविदिती उत्पत्तिव्ययौ यासां ताः तथोक्ताः ताः तथाविधाः . सत्योऽपि विद्यमाना अपि न केवलमसत्यः, प्रत्यक्षेषु, बहुवचनं कारिकार्थः .. चतुर्विधस्यापि प्रत्यक्षस्य सङ्ग्रहार्थम् / कल्पना न लक्ष्येरन् / न च सतः प्रतिसंविदिताविर्भावविनाशवतोऽनुपलक्षणं विरुद्धम् , इत्यस्यार्थस्य समर्थनार्थं तत्प्रसिद्धमेव निदर्शनं प्रदर्शयन्नाह-'तत्वलक्षणभेदवत्' इति / तासां कल्प नानां स्वलक्षणं स्वस्वरूपं तस्य भेदः संजातीयाद्विजातीयाञ्च व्यावृत्तिः स इव तद्वदिति / 10 ऐतदुक्तं भवति-यथा प्रतिसंविदितोत्पत्तिव्ययः सन्नपि कल्पनासु तद्भदो न लक्ष्यते, अन्यथा क्षणक्षयानुमानमनर्थकं स्यात्, तथा प्रत्यक्षेषु कल्पनाः सत्योऽपि न लक्ष्यन्त इति। तद्भेदानुपलक्षणे परकीयां युक्ति सदूषणां 'सदृश' इत्यादिना प्रदर्य कारिकार्थ 'प्रतिसंहारकान्त' इत्यादिना दर्शयति-सदृशस्य समानस्य अपरविवृतिव्याख्यानम्- - स्यापरस्य उत्पत्तिः तैया विप्रलम्भः अलातचक्रवत् चक्षुषो भ्रमः 15 तस्मात्तद्विशेषादर्शिनः तं प्रकृतं सजातीयव्यावृत्तिलक्षणविशेषम् अलातचक्रवन्न पश्यतीत्येवंशीलस्य सौगतस्य अनवधारणं यद् भेदानुपलक्षणम् ; तदसमीक्षिताभिधानम् ; कुत एतत् ? इत्यत्राह-'सर्वथा' इत्यादि / सर्वथा भेदाभेदोभयानुभयप्रकारेण तासां कल्पनानां सादृश्यस्य अनिष्टेः ततः तद्भेदोपलक्षणमेव स्यात् इत्यभिप्रायः। नचैतदस्ति, अतो यथा तद्भेदः सन्नपि नोपलक्ष्यते तथा प्रत्यक्षेषु सत्योऽपि कल्पना 20 इति / ततः प्रतिसंहारैकान्तः प्रत्यक्षेषु सकलकल्पनाविरहैकान्तः 'संभवति न वा' इति चिन्त्यमेतत् पर्यालोच्यमेतत् 'न संभवति' इत्यर्थः / तत्स्खलक्षणभेदवत् तासां तत्रानुपलक्षितानां संभवात् / ननु यद्यपि तासां तद्भेदो न लक्ष्यते तथापि अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासो विद्यमानो लक्ष्येत, न च उपलक्ष्यते / अतः अस्याऽनुपलक्षणात् अभावसिद्धेः सिद्धः प्रतिसंहारैकान्तः; इत्यत्राह-'कथञ्च' इत्यादि / कथञ्च न कथश्चिदपि (1) “स्वहेतोरेव तथोत्पत्तेः क्षणस्थितिधर्मतां तत्स्वभावं पश्यन्नपि मन्दबुद्धिः सत्तोपलम्भेन सर्वदा तथाभावस्य शङ्कया सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलब्धो वा न व्यवस्यति।"-प्रमाणवा० स्वव० 1134 / "तां पुनरनित्यतां पश्यन्नपि मन्दबुद्धिः नाध्यवस्यति सत्तोपलम्भेन सर्वदा तद्भावशङ्काविप्रलब्धः सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलब्धो वा।"-प्रमाणवातिकालं. लि. 10 237 / (2) इन्द्रियमन: स्वसंवेदनयोगिलक्षणस्य / (3) क्षणभङ्गित्वम्, स्वरूपभेदश्च / (4) उबाड(?)-आ० टि० / (5) भेदम् / (6) कल्पनानाम् / (7) कल्पनाया: लक्षणमिदम् ; तथाहि-"अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासप्रतीति: कल्पना"-न्यायबि० पृ० 14 / (8) अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासस्य / ___1 सजातीयाच्च व्या-आ० / 2 तदुक्तं ब० / तथा आ० / 4 तद् श्र०। / 'सर्वथेत्यादि' नास्ति श्र० / 6 सादृश्यानिष्टः ब०। 7 ततस्तदभेदोप-आ०। 8 'पर्यालोच्यमेतत्' नास्ति आ० / 9 ततः ब० / 10-सिद्धःप्रति-श्र० / 11 कथञ्चेदित्यादि ब० / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 25-26] प्रमाणाभासविचारः 526. प्रत्यक्षबुद्धयः, बहुवचनम् अशेषाध्यक्षबुद्धिसङ्ग्रहार्थम् , सर्वथा स्वरूपवद् बहिरपि अविकल्पाः, पुनरिति वितर्के विकल्पेरन् बहिर्विकल्पात्मिका भवेयुः अनेकान्तप्रसङ्गादिति मन्यते / अथवा तबुद्धयः सर्वथाऽविकल्पाः सत्यः कथश्च न पुनः पश्चाद् विकल्पेरन् विकल्पान कुर्युः / न हि अविकल्पादनुभवाद् अर्थादिव विकल्पः संभवतीत्युक्तं सविकल्पसिद्धिप्रघट्टके / ततः स्थितमर्थमुपदर्शयन्नाह अक्षधीस्मृतिसंज्ञाभिः चिन्तयाभिनिबोधिकैः। व्यवहाराविसंवादः तदाभासस्ततोऽन्यथा // 25 // विवृतिः-प्रत्यक्षस्मृतिप्रत्यभिज्ञानोहानुमानादिभिः अविसंवादसिद्धेः अर्थेषु तत्प्रामाण्यम् , अन्यथा तदाभासव्यस्था / तथैव श्रुतज्ञान-तदाभासव्यवस्था / अक्षाणां चक्षुरादीनां कार्यभूता धीर्बुद्धिः अवग्रहाद्यात्मिका मतिः सा च 10 स्मृतिश्च संज्ञा च ताभिः, चिन्तया तर्केण, आभिनिबोकारिक धिकैः अनुमानैः व्यक्तयपेक्षं बहुवचनम् तैः समस्तैयस्तैश्च व्यवहाराविसंवादः, अतस्तेषां प्रामाण्यम्, अन्यथा एकान्तवादिपरिकल्पितप्रकारेण तदाभासः प्रमाणाभासः / नहि एकान्तवादिपरिकल्पितस्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्काऽप्रामाण्यप्रकारेण अविकल्पाक्षज्ञान-कार्यादिपरिगणितलिङ्गप्रभवानुमानप्रकारेण च प्रवृत्त्यादि- 15 व्यवहाराविसंवादो लोके प्रसिद्धः / _____ कारिकां विवृण्वन्नाह-'प्रत्यक्ष' इत्यादि / प्रत्यक्षस्मृतिप्रत्यभिज्ञानोहानुविवृतिव्याख्यानम् मानादिभिः अविसंवादसिद्धेः कारणाद् अर्थेषु घटादिषु तेषां प्रत्य के क्षादीनां प्रामाण्यम् , अन्यथा एकान्तवादिकल्पितप्रकारेण तदाभासव्यवस्था प्रामाण्याभासव्यवस्था / एतदेव शाब्दे श्रुतेऽतिदिशन्नाह-'तथैव' इत्यादि / 20 स्मरणादिना अन्यस्य श्रुतस्य उक्तत्वात् शाब्दं श्रुतं श्रुतज्ञानशब्देनेह गृह्यते, तथैव व्यवहारसंवाद-विसंवादप्रकारेणैव श्रुतज्ञानं तदाभासश्च तयोर्व्यवस्था। ननु श्रुतज्ञानं प्रमाणमेव न भवति तत्कथं तद्व्यवस्था इत्याशक्याह प्रमाणं श्रुतमर्थेषु सिद्धं द्वीपान्तरादिषु / अनाश्वासं न कुर्वीरन् कचित्तव्यभिचारतः // 26 // .. 25 (1) यथाहि अभिलाप-अभिलप्यमानजातिगुणक्रियादिरहितात् क्षणिकार्थात् न शब्दसंसर्गी विकल्पो जायते तथैव निर्विकल्पानभवादपि शब्दशन्यात् न शब्दात्मको विकल्पः समुत्पद्येत / (२)पृ० 51 / (3) "प्रमाणमित्यनुवर्तते / तेनाभिसम्बन्धाद् अक्षध्यादीनां प्रथमान्तत्वम् अर्थवशाद्विभक्तिविपरिणामः' इति न्यायात् तत एवं व्याख्यायते-अक्षधीस्मृतिसंज्ञाभिः चिन्तयाऽऽभिनिबोधकैश्च व्यवहारे हानोपादानरूपे अविसंवादादव्यभिचारः सकलव्यवहारिणां प्रतीतिसिद्धः ततस्तानि प्रमाणानि भवन्तीत्यर्थः।" -लघी० ता०प०४५। (४)परोक्षस्य-आ० टि०। (५)परोक्षम्-आ० टि० / (6) "व्यवहाराविसंवाद 1 कथञ्च पुन: आ०। 2 विकल्पेनव विक-श्र०। 3-निबोधकः ब०। 4 अभिनिबोधिकः ब०, श्र०। 5 यथैव आ० / 6-संवादप्रकारे-श्र०। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. आगमपरि० विकृतिः-श्रुतज्ञानं वक्त्रभिप्रायादर्थान्तरेऽपि प्रमाणम् , कथमन्यथा द्वीपदेशनदीपर्वतादिकम् अदृष्टस्वभावकार्य दिग्विभागेन देशान्तरस्थं प्रतिपत्तुमर्हति निरारेकमविसंवादञ्च ? श्रुतं धर्मि, प्रमाणमिति साध्यो धर्मः 'अविसंवादसिद्धेः' इत्येतदनुवर्तमान साधनं तेन ‘अविसंवादकं श्रुतं प्रमाणं न सर्वम्' इत्युक्तं भवति / ___तदित्थम्भूतं श्रुतं क प्रमाणमित्याह-अर्थेषु, न पुनः अभिप्रायमात्रे | किंविशिष्टेषु तेषु ? इत्याह-द्वीपान्तरादिषु सिद्धं शास्रान्तरे लोके वा प्रसिद्धम् / ननु अर्थाभावेऽपि शब्दानां प्रवृत्तिप्रतीतेः कथं तत्तत्र प्रमाणमित्याह-'अनाश्वासम्' इत्यादि / अनाश्वासम् आश्वासाभावं न कुर्वीरन् क्वचिद् 'अङ्गुल्यो हस्तियूथशत10 मास्ते' इत्यादौ तस्य श्रुतस्य व्यभिचारतो व्यभिचारमाश्रित्य, इन्द्रियज्ञानेपि अंत एव तद्भावापत्तेरित्यभिप्रायः / / ननु श्रुतस्य अनुमानाद् व्यतिरेकाऽसिद्धितः तत्प्रामाण्यप्रसाधनादेव प्रमाणप्रसिद्धेः . श्रतज्ञानमनुमानाद- 'प्रमाणं श्रुतमर्थेषु' इत्याद्ययुक्तम्; तथाहि-शब्दोऽनुमानान्न व्यतिरिक्तं प्रमाणमनभ्यु तिरिच्यते तदभिन्नविषयत्वात् तदभिन्नसामग्रीसमन्वितत्वाच्च, यद् 15 गच्छतोर्वैशेषिकबी- यत् तथाविधं तत्तदनुमानान्न व्यतिरिच्यते यथा कुतश्चिदनुमानाद् द्धयोः पूर्वपक्षः अनुमानान्तरम् , तथाविधश्चायं शब्द इति / न चास्य तदभिन्न इत्यनुवर्तते। आप्तवचनादिनिबन्धनं मतिपूर्वमर्थज्ञानं श्रुतं तच्च प्रमाणं सिद्धमेव / केन सिद्धमिति चेत् ? व्यवहाराविसंवादादित्युच्यते प्रत्यक्षादिवत् / केषु ? अर्थेषु प्रमेयेषु / कीदृक्षु ? द्वीपान्तरादिष, प्रकृतो जम्बद्वीपः तस्मादन्ये धातकीखण्डादयो द्वीपान्तराणि तान्यादिर्येषां कालस्वभावव्यवहितानां ते तथोक्ताः तेषु देशकालाकारविप्रकृष्टेष्वित्यर्थः। न हि श्रुतादर्थ परिच्छिद्य प्रवर्तमानो रसायनादिक्रियायां विसंवाद्यते ग्रहणादौ वा मलयादिप्राप्तौ वा। ततोऽनाश्वासमविश्वासं न कुर्वीरन् परीक्षकाः / कुतः? क्वचित्तद्वयभिचारतः / क्वचिन्नदीतीरे मोदकादिप्रतिपादने तस्य श्रुतस्य व्यभिचारो विसंवादः तस्मात् / नहि क्वचिद्विसंवादादप्रामाण्य ज्ञानस्य सर्वत्राप्रामाण्यं शङ्कनीयं प्रत्यक्षादिष्वपि तथात्वप्रसङ्गात् सकलव्यवहारविलोपापत्तेः ।"-लघी० ता० पृ० 46 / (1) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकादौ, नैयायिक-मीमांसकादिग्रन्थे वा / (2) श्रुतमर्थे / (3) तुलना"एतत्सख्यपशोः कोऽन्यः सलज्जो वक्तुमीहते / अदृष्टपूर्वमस्तीति तृणाग्रे करिणां शतम् ।"-प्रमाणवा० 11167 / प्रश० व्यो० पृ० 581 / “अङ्गल्यग्रे हस्तियूथशतमास्त इति च"-परीक्षामु०६।५३ / (4) क्वचिद् द्विचन्द्रादिज्ञाने चाक्षुषप्रत्यक्षस्य व्यभिचारोपलम्भात् एकचन्द्रविज्ञानेऽपि अविश्वासप्रसङ्गात् / (5) अनाश्वासापत्तेः। (6) “शब्दादीनामप्यनुमानेऽन्तर्भाव: समानविधित्वात् / यथा प्रसिद्धसमयस्य असन्दिग्धलिङ्गदर्शनप्रसिद्धयनुस्मरणाभ्यामतीन्द्रियेऽर्थे भवत्यनुमानमेवं शब्दादिभ्योऽपीति / श्रुतिस्मृतिलक्षणोप्याम्नायो वक्तृप्रामाण्यापेक्षः...."-प्रश० भा० 50 576 / “अन्तर्भावव्यवहारे च समानवि धित्वात् समानलक्षणयोगित्वादिति हेतूपन्यासः..." -प्रश० व्यो० पृ० 577 / “प्रसिद्धः समयोऽविना 1 'च' नास्ति ई० वि०, ज० वि०। 2-भूतं क्व आ० / 3 शास्त्रे लोके श्रः। 4 इत्याधारस्य श्रुतस्य श्र०। 5 तस्य व्यभि-ब०। 6-काप्रसि-श्र०, ब० / Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ مې प्रमाणप्र० का० 26 ] श्रुतस्य प्रमाणत्वसमर्थनम् विषयत्वमसिद्धम् शब्दानुमानयोरविशेषतः सामान्यगोचरचारित्वात् / सम्बद्धार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वाञ्च; न हि शब्दः असम्बद्धमर्थं प्रतिपादयति अतिप्रसङ्गात्, सम्बद्धश्च तं प्रतिपादयन्नसौ तैल्लिङ्गतां नातिवर्तेत / नापि तदभिन्नसामग्रीसमन्वितत्वमसिद्धम् ; धूमादिवत् शब्दस्य अर्थप्रतीतौ सम्बन्धस्मृत्यपेक्षत्वात् / अन्वयव्यतिरेकवत्त्वाच्च; यो हि शब्दो यत्रार्थे लोके दृश्यते स तस्य वाचकः यंत्र तु न दृश्यते न तस्य वाचकः। / पक्षधर्मत्वोपेतत्वाच्च; तथाहि-विवक्षितः शब्दः अर्थवान् शब्दत्वात् पूर्वोपलब्धशब्दवत्, यथा अयं धूमोऽग्निमान् धूमत्वात् पूर्वोपलब्धधूमवत् / यथा च प्रत्यक्षतो धूमं दृष्ट्वा वह्निः प्रतीयते तथा शब्दं श्रुत्वा तदर्थोऽपि | दृष्टान्तनिरपेक्षत्वञ्च अभ्यस्तविषये द्वयोरप्यनयोरविशिष्टम् / किञ्च शब्दो विवक्षायामेव प्रमाणं न बाह्ये व्यभिचारात् / न हि 'अङ्गुल्यमे 10 हस्तियूथशतमास्ते' इत्यादि शब्दानां बाह्येऽर्थे प्रामाण्यमुपपद्यते प्रतीतिविरोधात् / तस्याश्च एतस्य लिङ्गतैवेति ॥छ॥ भावो यस्य पुरुषस्य तस्य लिङ्गदर्शनप्रसिद्धयनुस्मरणाभ्यां लिङ्गदर्शनं यत्र धूमस्तत्राग्निरित्येवम्भूताया प्रसिद्धरनुस्मरणञ्च ताभ्यां यथाऽतीन्द्रियेऽर्थे भवत्यनुमानं तथा शब्दादिभ्योऽपीति / तावद्धि शब्दो नार्थं प्रतिपादयति यावदयमस्याव्यभिचारीत्येवं नावगम्यते, ज्ञाते त्वव्यभिचारे प्रतिपादयन् धूम इव लिङ्गं स्यात्..."-प्रश० कन्द० पृ० 214 / “अत्र हेतुमाह-समानविधित्वात् / समानप्रवृत्तिकारणत्वात् विजातीयलक्षणानाक्रान्तत्वादिति यावत् / अप्रतिबन्धकत्वे अप्रामाण्यमेव, साक्षात्प्रतिबन्धकत्वे प्रत्यक्षान्तर्भावः, परम्पराप्रतिबन्धकत्वे चानुमान एवान्तर्भावः ..."-प्रश० किर० पृ० 309 / / (1) तुलना-"परोक्षविषयत्वं हि तुल्यं तावद् द्वयोरपि / सामान्यविषयत्वं च सम्बन्धापेक्षणाद् द्वयोः॥"-न्यायमं० पृ० 152 / (2) "यद्यप्येते पदार्था मिथः संसर्गवन्तो वाक्यत्वादिति व्यधिकरणम्, पदार्थत्वादिति चानकान्तिकम्, पदैः स्मारितार्थसंसर्गवन्ति तत्स्मारकत्वादित्यादौ साध्याभावः, तथापि आकाङ्क्षादिमद्भिः पदैः स्मारितत्वात् गामभ्याजेति पदार्थवदिति स्यात्।"-प्रश० किर० पृ० 309 / बैशे० उप० पृ० 331 / “पदानि स्मारितार्थविज्ञप्तिपूर्वकाणि योग्यतासत्तिमत्त्वे सति संसृष्टार्थपरत्वात् गामभ्याजेति परत्वात् गामभ्याजेति पदकदम्बवदित्यनुमानादेव साध्यसिद्धेः।"-न्यायली. पृ०५५ / (3) तुलना-"अन्वयव्यतिरेकौ च भवतोऽत्रापि लिङ्गवत् / यो यत्र दृश्यते सब्दः स तस्यार्थस्य वाचकः ॥"-न्यायमं० पृ० 152 / (4) लिङ्गशब्दयोः। (5) “वचोभ्यो निखिलेभ्योऽपि विवक्षषाऽनुमीयते / प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां तहेतुः सा हि निश्चिता // 1515 // विवक्षायाञ्च गम्यायां विस्पष्टैव त्रिरूपता / पुंसि धर्मिणि सा साध्या कार्येण वचसा यतः // 1521 // पादपार्थविवक्षावान् पुरुषोऽयं प्रतीयते / वृक्षशब्दप्रयोक्तृत्वात् पूर्वावस्थास्वहं यथा ॥१५२२॥"-तत्त्वसं० पृ० 441-43 / "प्रथमं गोशब्दादुच्चरिताद्वक्तुः ककुदादिमदर्थविवक्षा गम्यते स्वसन्ताने गोशब्दोच्चारणस्य तदर्थविवक्षा. पूर्वकत्वोपलम्भात्, तदर्थविवक्षया चार्थानुमानम् / अयञ्चात्र प्रयोग:-पुरुषो धर्मी ककुदादिमदर्थविवक्षावान् गोशब्दोच्चारणकर्तृत्वात् अहमिवेति ।"-प्रश० कन्द० पृ० 215 / (6) विवक्षायाम् / "विवक्षाकाशाधिगमे लिङ्गत्वात् / यथाहि आकाशाधिगमे सर्वः शब्दोऽनुमानम्, विवक्षाकार्यस्तु विवक्षाधिगमेऽपि इति ।"-प्रश० व्यो० पृ० 578 / 1-हेतत्वान्नहि ब० / 2 तत्र लिङ्गतां आ०, श्र.1 8-व्यतिरेकत्वाच्च आ०, ब० / 4 यत्र तन्न श्र०। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. अागमपरि० अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'शब्दोऽनुमानान्न व्यतिरिच्यते' इत्यादि; . तत्प्रतिविधानपरस्सरं तदसमीचीनम् ; अभिन्नविषयत्वस्य अनयोरसिद्धेः / अर्थमा श्रुतज्ञानस्य अनमाना- शब्दस्य विषयः, अनुमानस्य तु साध्यधर्मविशिष्टो धर्मी इति / किञ्च, दिभ्योऽतिरेकेण प्रामा- अनयोर्विषयाभेदः सामान्यमात्रगोचरचारितया, तद्वन्मात्रविषयतया, ण्यसमर्थनम्- सम्बद्धार्थप्रतिपत्तिहेतुतया वा स्यात् ? प्रथमपक्षे किमिदं सामान्य नाम-सकलव्यक्त्यनुस्यूतं नित्यैकत्वादिधर्मोपेतम्, अन्यव्यावृत्तिरूपं वा ? पक्षद्वयमप्येतदनुपपन्नम्; उभयरूपस्यापि सामान्यस्य सामान्यपरीक्षावसरे प्रतिक्षिप्तत्वात् , अन्यापोहमात्रविषयत्वस्य अनयोः प्रतिषेत्स्यमानत्वाच्च। नित्यादिस्वभावसामान्यविषयत्वे चानयोः मीमांसकमतानुप्रवेशः सौगतस्य स्यात् , स चानुपपन्नः, तद्विषयत्वस्याप्यो 10 निराकरिष्यमाणत्वात्। अथ तद्वन्मात्रविषयतया तयोर्विषयाभेदोऽभिप्रेतः; नन्वेवं प्रत्यक्ष स्यापि अनुमानत्वप्रसङ्गः तथा तदभेदस्यात्राप्यविशेषात्, सकलप्रमाणानां सामान्यविशेषात्मकार्थविषयत्वप्रतिपादनात् / एतेन सम्बद्धार्थप्रतिपत्तिहेतुतयाप्यनुमानत्वं शब्दस्य प्रत्याख्यातम् ; प्रत्यक्षस्यापि सम्बद्धार्थप्रतिपत्तिहेतुतया अनुमानत्वानुषङ्गात् / तदपि हि स्वविषये सम्बद्धं सत् 15 तत्प्रतिपत्तिहेतुः नान्यथाऽतिप्रसङ्गात् / अथ तत्र सम्बद्धस्यास्य प्रतिपत्तिहेतुत्वाविशेषेऽपि सामग्रीभेदाद् अनुमानाद्भेदः; कथमेवं शब्दस्यापि अतो भेदो न स्यात् तदैविशेषात् ? तन्न अभिन्नविषयत्वात् शब्दस्यानुमानत्वं युक्तम् / नापि अभिन्नसामग्रीसमन्वितत्वात् ; शब्दे तदसंभवात् / पक्षधर्मत्वादिरूपत्रयरूपा हि अनुमाने सामग्री, सा च शब्दे न संभवति / तथाहि-न तावत् शब्दस्य (1) पृ०५३० पं०१३ / तुलना-"विषयोऽन्यादशस्तावद् दृश्यते लिङ्गशब्दयोः / सामान्य विषयत्वञ्च पदस्य स्थापयिष्यति / धर्मी धर्मविशिष्टश्च लिङ्गीत्येतच्च साधितम् / न तावदनमानं हि यावत्तद्विषयं न तत् ॥"-मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो० 55-56 / “अर्थमात्रं हि शब्दस्य गोचरोऽनुमानस्य तु साध्यधर्मविशिष्टो धर्मीति / -स्या०र०प० 620 / “विषयस्तावद्विसदृश एव पदलिङ्गयोः / तद्वन्मानं पदस्यार्थ इति स्थापयिष्यते / अनुमानं तु वाक्यार्थविषयम् अत्राग्निरग्निमान् पर्वत इति प्रतिपत्तेः ।"-न्यायमं० 50 153 / (3) अनुमानशब्दयोः। तुलना-"अपि चानयोर्गोचराभेद: सामान्यमात्रविषयतया तद्वन्मात्रगोचरतया वा भवेत् ?"-स्या० र० पृ० 620 / (4) पृ० 285, पृ० 289 / (5) शब्दानुमानयोः / (6) मीमांसकमतानुप्रवेशः (7) नित्यादिस्वभावसामान्यविषयत्वस्यापि / (8) सामान्यवदर्थविषयतया / (9) सामान्यवदर्थविषयत्वेन विषयाभेदस्य। (10) स्वविषये / (11) प्रत्यक्षस्य / (१२)अनुमानात् / (13) सामग्रीभेदस्य समानत्वात् / (14) तुलना-"तस्मादननुमानत्वं शब्दे प्रत्यक्षवद् भवेत् / त्रैरूप्यरहितत्वेन तादृग्विषयवर्जनात् ॥"-मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो० 98 / स्या० र० पू०६२० / (15) तुलना-“अथ शब्दोऽर्थवत्त्वेन पक्ष: कस्मान्न कल्प्यते / प्रतिज्ञार्थेकदेशो हि हेतुस्तत्र प्रसज्यते। पक्षे धूमविशेषे च सामान्यं हेतुरिष्यते। शब्दत्वं गमकन्नात्र गोशब्दत्वं निषेत्स्यते / व्यक्तिरेव विशेष्याऽतो हेतुश्चका प्रसज्यते ॥"-मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो०६२-६४ / 'ननक्तं - 1 शब्दानुमा-ब०। 2-रूपस्यापि सामान्यपरी-ब। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26 ] श्रुतस्य प्रमाणत्वसमर्थनम् पक्षधर्मत्वं संभवति ; धर्मिण एवात्र कस्यचिदसंभवात् / अत्र हि धर्मी शब्दः, अर्थो वा स्यात् ? न तावत् शब्दः; तस्यैव धर्मित्वे तस्यैव च हेतुत्वे हेतोः प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वप्रसङ्गात् / अथ शब्दत्वं हेतुरिति न प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वम् ; न ; शब्दत्वस्य सामान्यस्वभावस्य भवन्मते परमार्थसतोऽसंभवात् / कल्पितस्य तु सत्त्वेऽपि न गमकत्वम् "अर्थो ह्यर्थ गमयति'' [ ] इति च भवद्भिरेव अभ्युपगमात् / ____एतेन 'शब्दोऽर्थवान्' इत्याद्यनुमानं प्रत्याख्यातम् / अस्तु वा शब्दत्वं हेतुः; तेथापि अतः शब्दस्य धर्मिणः किम् अर्थविशिष्टत्वं साध्यते, अर्थप्रत्यायनशक्तियुक्तत्वम् , अर्थप्रतीतिविशिष्टत्वं वा ? तत्र आद्यपक्षोऽनुपपन्नः; अचानलयोरिव शब्दार्थयोः धर्मिधर्मभावाऽसंभवात् , आश्रितो हि धर्मो भवति, न चार्थः शब्दाश्रितो विभिन्नदेशत्वात् / यद् यतो विभिन्नदेशं न तत्तत्राश्रितं यथा सह्ये विन्ध्यः, शब्दाद् विभिन्न- 10 देशश्चार्थ इति / यत्र च आश्रयाश्रयिभावो नास्ति न तत्र धर्मधर्मिभावः यथा चित्रकूटकश्मीरयोः, आश्रयाश्रयिभावाभावश्च शब्दार्थयोरिति / न चार्थविशिष्टं शब्दं कश्चिदबालिशो मन्यते, शब्दात् पृथगेवार्थस्य आबालं सुप्रसिद्धत्वात् / अथ अर्थप्रत्यायनशक्तियुक्तत्वमस्य साध्यते; तदप्यसत्; तदर्थतया शब्दप्रयोगाऽ. संभवात् / न हि तच्छक्तिसिद्धये शब्दः प्रयुज्यते श्रूयते वा, किन्तु अर्थसिद्धये। 15 ____ अथ अर्थप्रतीतिविशिष्टत्वं साध्यते ; तदप्ययुक्तम् ; सिद्धाऽसिद्धविकल्पानुपपत्तेः। असिद्धया हि अर्थप्रतीत्या तद्वत्त्वं शब्दस्यायुक्तम् , अतिप्रसङ्गात् / सिद्धायां त्वस्यों * किमन्यदनुमीयताम् ? स्वसंविदितस्वभावायामस्यां विसंवादाभावात् इत्यस्यानुमानस्य वैफल्यम् / न च धूमाद्यनुमानेऽप्ययं दोषस्तुल्य इत्यभिधातव्यम् ; तत्र कार्यकारणभावायथानुमाने धर्मविशिष्टो धर्मी साध्य एवमिहार्थविशिष्ट: शब्दः साध्यो भवतु; मैवम्; शब्दस्य हेतुत्वात् / न च हेतुरेव पक्षो भवितुमर्हति ।"-न्यायमं पृ० 153 / स्या० र० पृ० 620 / (1) सौगतमते / (2) अन्यापोहरूपस्य / (3) तुलना-'अर्थो ह्यथं गमयतीति भवद्भिरेव स्वीकरणात्।"-स्या० 20 पृ० 620 / (4) सौगतैरेव। (5) तुलना-"शब्दस्य धर्मिणः किमर्थविशिष्टत्वं वा साध्यते, प्रत्यायनशक्तिविशिष्टत्वं वा, अर्थप्रतीतिविशिष्टत्वं वा?"-न्यायमं० पृ० 153 / स्था०र०पू०६२०। (6) तुलना-“शैलज्वलनयोरिव शब्दार्थयोः धर्मधमिभावाभावात् ।"-न्यायमं० पृ०१५३ / “पर्वतपावकयोरिव शब्दार्थयोः धर्मधर्मभावासम्भवात् ।"-स्या० 20 10621 / (7) शब्दार्थयोः धर्मधर्मभावो नास्ति आश्रयाश्रयिभावाभावात् / (8) अर्थप्रत्यायनशक्तिप्रतीत्यर्थम् / तुलना-"न शक्तिसिद्धये शब्दः कथ्यते श्रूयतेऽपि वा। अर्थगत्यर्थमेवामुं शृण्वन्ति च वदन्ति च।" -न्यायमं० पृ० 154 / स्या० र० पृ०६२१ / (9) तुलना-"सिद्धयसिद्धिविकल्पानुपपत्तेः / असिद्धयाऽपि तद्वत्त्वं शब्दस्यार्थधिया कथम् / सिद्धायां तत्प्रतीतौ वा किमन्यदनुमीयते ।"-न्यायमं० पृ० 154 / "नन्वर्थप्रतीतिः शब्दोत्थाऽन्योत्था वा भवेत् ।"-स्या० र० पृ० 621 / (१०)अर्थप्रतीतौ ।(११)तुलना"न हि तत्र अग्निधुमेन जन्यते अपि तु गम्यते। इयं त्वर्थप्रतीतिर्जन्यते शब्देनेत्यस्यामेव सिद्धासिद्धत्वविकल्पावसरः ।"-न्यायमं० पू० 154 / 1 इति भव-श्र०,०। 2 अचलानिल-आ० / 3 शब्दार्थयोधर्मभा-ब०। 4नवार्थः ब०। 6बोष इय-आ० / Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. अागमपरि० भावात्। न खलु धूमेन अग्निर्जन्यते किन्तु गम्यते, शब्देन तु अर्थप्रतीतिर्जन्यते अतः अस्यामेव सिद्धासिद्धविकल्पावतारः / तन्न शब्दस्य धर्मित्वं घटते / नाप्यर्थस्य; तेन सह शब्दस्य भवद्भिः सम्बन्धानभ्युपगमात् / न हि शब्दार्थयोस्तादात्म्यलक्षणस्तदुत्पत्तिरूपो वा सम्बन्धः सौगतैरभ्युपगम्यते / “न ह्यर्थे शब्दाः 5 सन्ति तदात्मानो वा" [ ] इत्यादिवचनविरोधानुषङ्गात् / न च अर्थेनाऽसम्बद्धोपि शब्दः तस्य धर्मः अतिप्रसङ्गात् / अथ अर्थप्रतीतिहेतुत्वात् तद्धर्मोऽसौ; न; इतरेतराश्रयानुषङ्गात्-पक्षधर्मत्वसिद्धौ हि शब्दस्य अर्थप्रतीतिहेतुत्वसिद्धिः, तसिद्धौ च पक्षधर्मत्वसिद्धिरिति / तत्प्रतीतिहेतुत्वेन चास्यं तद्धर्मत्वे चक्षुरादेरपि पक्षधमतासिद्धेः तत्प्रभवापि प्रतीतिः आनुमानिक्येव स्यात् / तन्न पक्षधर्मत्वं शब्दे संभवति / 10 नाप्यन्वयव्यतिरेको ; देशे काले च शब्दार्थयोरनुगमाभावात् / नहि यत्र देशे (1) अर्थेन स्वलक्षणात्मकेन / (2) बौद्धैः / (3) “उक्तञ्च-न ह्यर्थे शब्दाः तदात्मानो वा येन तस्मिन् प्रतिभासमाने तेऽपि प्रतिभासेरन्नित्यादि ।"-ज्यायप्र० 00 35 / “यथाहि वह्नौ / धूमो जन्यजनकसम्बन्धसम्बद्ध उत्तरभावेन भवति एवं नार्थे जन्यजनकसम्बन्धसम्बद्धाः शब्दा उत्तरभावेन सन्ति। एतेन तदुत्पत्तिसम्बन्धः समर्थ ( शब्दार्थ ) यो स्ति इत्याचष्टे / स एवार्थ आत्मा येषां शब्दानां ते तदात्मानः, अनेन तादात्म्यसम्बन्धोऽपि नास्तीत्याह तस्मिन्निति / अर्थे प्रतिभासमाने प्रत्यक्षेण परिच्छिद्यमाने प्रतिभासेरन् प्रदीप्येरन् शब्दा इति / अयमभिप्राय:-द्विविधो हि सम्बन्धः सौगतानां तादात्म्यलक्षणस्दुत्पत्तिलक्षणश्च / तत्र तादात्म्यलक्षणो वृक्षत्वशिशपात्वयोरिव तदुत्पत्तिलक्षणस्त्वग्निधमयोरिव / शब्दार्थयोढिविधोऽपि सम्बन्धोऽपि न घटते। तथाहि-न तावत्तादात्म्य- . लक्षणः / तादात्म्ये हि शब्दार्थयोः शब्दो वा स्यादर्थो वा न द्वयम् / तथा शब्दार्थयोस्तादात्म्ये क्षुरिकामोदकादिशब्दोच्चारणे मुखपाटनपूरणादिप्रसङ्गः, न च दृश्यते / तदुत्पत्तिलक्षणोऽपि न घटते / यतः केयं तदुत्पत्तिर्नाम? किं शब्दादर्थोत्पत्तिरर्थाद्वा शब्दोत्पत्तिः ? यदि शब्दादर्थोत्पत्तिः स्यात्तदा विश्वमदरिद्रं स्यात हिरण्यादिशब्दोच्चारणादेव तदुत्पत्तेः / नाप्यर्थाच्छब्दोत्पत्तिः; ताल्वादिकारणकलापात्तदुत्पत्तिदर्शनात् ।"-न्यायप्र० 30 पं०१० 76 / "उक्तञ्च धर्मकीर्तिना-न ह्यर्थे शब्दा सन्ति तदात्मानो वा येन तस्मिन् प्रतिभासेरन्।"-अनेकान्तजय० पृ० 119 / उद्धृतमिदम्-अष्टसह० पु०११८ / सिद्धिवि० टी० पृ० 75 B. / स्या० र० पृ० 621 / षड्द० बृहपृ०१६ / "न ह्यर्थे शब्दाः सन्ति तदात्मानो वा तथा सत्यव्युत्पन्नस्यापि व्युत्पन्नवद् व्यवहारः स्यादित्युक्तम् ।"-न्यायवा० ता. पृ० 133 / (4) अर्थधर्मोऽसौ शब्दः / (5) तुलना-“गमकत्वाच्च धर्मत्वं धर्मत्वाद् गमको यदि। स्यादन्योन्याश्रयत्वं हि तस्मान्नैषापि कल्पना॥"-मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो०७७। "प्रतीतिजनकत्वेन तद्धर्मतायामुच्यमानायां पूर्ववदितरेतराश्रत्वम् / पक्षधर्मादिबलेन प्रतीतिः, प्रतीतौ च सत्यां पक्षधर्मादिरूपलाभ इति ।"-न्यायमं० 10 154 / स्था० र० पृ०६२१ / (6) शब्दस्य / (7) चक्षुरादिजन्या। (8) तुलना-"अन्वयो न च शब्दस्य प्रमेयेण निरूप्यते // व्यापारेण हि सर्वेषामन्बेतृत्वं प्रतीयते। यत्र धूमोऽस्ति तत्राग्निरस्तित्वेनान्वयः स्फुटः। न त्वेवं यत्र शब्दोऽस्ति तत्रार्थोऽस्तीति निश्चयः / न तावत्तत्र देशेऽसौ तत्काले वाऽवगम्यते ।"-मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो० 85-86 / “अन्वयव्यतिरेकावपि तस्य दुरुपपादौ, देशे काले च शब्दार्थयोरनुगमाभावात् / नहि यत्र देशे शब्दः तत्रार्थः / यथोक्तं श्रोत्रियः-मुखे हि शब्दमुपलभामहे भूमावर्थमिति ।"-न्यायमं० 10 155 / स्या० 20 10 612 / 1 सिद्धविक-आ०। 2-त्वाद्धर्मोऽसौ आ० / Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26 ] श्रुतस्य प्रमाणत्वसमर्थनम् शब्दः तत्रार्थः “मुखे हि शब्द उपलभ्यते भूमावर्थः" [ शाबरभा० 1 / 1 / 5 ] इति भवद्भिरेवाभ्युपगमात् / नापि व्यवहारिणां तदन्वयाध्यवसायोऽस्ति ; न खलु यत्र यत्र पिण्डखर्जूरादिशब्दं शृण्वन्ति तत्र पिण्डखजूराद्यस्तित्वं व्यवहारिणः प्रतिपद्यन्ते। यत्र हि धूमः तत्रावश्यं वह्निरस्तित्वेन प्रसिद्धोऽन्वेता भवति धूमस्य, नत्वेवं देशकृतः शब्दस्य अर्थेनाऽन्धयोऽस्ति / नापि कालकृतः; न हि यत्र काले शब्दः तत्र तदर्थोऽवश्यं संभवति, 5 रावणशङ्खचक्रवर्त्यादिशब्दा हि वर्तमानाः तदर्थस्तु भूतो भविष्यंश्चेति कुतोऽर्थानां शब्दान्वेतृत्वम् 1 अन्वयाभावे च व्यतिरेकस्याप्यभावः तत्पूर्वकत्वात्तस्यै / / ___यदप्युक्तम्-'यो हि शब्दो यत्रार्थे दृष्टः' इत्यादि; तदप्ययुक्तम् ; एवंविधाऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां तद्वाचकत्वस्य अस्माभिरभीष्टत्वात् / न चैवंविधान्वयव्यतिरेकत्वमात्रेण अस्यानुमानत्वं वाच्यम् ; प्रत्यक्षस्यापि तत्प्रसङ्गात् तन्मात्रस्य तत्राप्यविशेषात्। यत्र हि 10 घटसद्भावोऽस्ति तत्र तत् प्रत्यक्षं भवति, यत्र तु स नास्ति तत्र तन्न भवतीति / ___ यदपि-'सम्बन्धस्मृत्यपेक्षत्वात्' इत्युक्तम् ; तदप्यनुपपन्नम् ; अननुमानेऽपि संशयोपमानादौ अस्य सद्भावेनाऽनैकान्तिकत्वात् , अननुमानत्वश्च उपमानादेः प्रागे प्रसाधितम् / यच्चान्यदुक्तम्-'शब्दो विवक्षायामेव प्रमाणम्' इत्यादि; तदप्यनल्पतमोविल- 15 सितम् ; तत्र तत्प्रामाण्यस्य 'वर्णाः पदानि वाक्यानि प्राहुरर्थानवाञ्छितान्' [ लघी० का० 64 ] इत्यत्र प्रपञ्चतः प्रतिषेत्स्यमानत्वात् / ___ ततः शैब्दो नानुमानं तद्विभिन्नविषयत्वात् तद्विभिन्नसामग्रीसम्बन्धित्वाञ्च प्रत्यक्षवत् / इतोऽप्यननुमानमसौ पुरुषैर्यथेष्टं नियुज्यमानस्य अर्थप्रतीतिहेतुत्वात् , यत्पुनरनुमानं न तत्तथा यथा कृतकत्वादि, तथा च शब्दः, तस्मान्नानुमानमिति / न च 20 साधनाऽव्यतिरेकोऽयं दृष्टान्तः इत्यभिधातव्यम् ; तथा तैर्नियुज्यमानस्यास्य साध्यप्रतीत्यजनकत्वात् / न हि कृतकत्वं नित्यत्वसाध्येच्छया धूमत्वादिकं वा जलादिसाध्येच्छया नियुज्यमानं तत्प्रतीतिहेतुः, अन्यथा न कश्चिद् विरुद्धो हेतुः स्यात् / तथा, (1) बौद्धादिभिः / (2) व्यतिरेकस्य / (3) पृ० 531 5.0 5 / (४)जैनैः / (5) शब्दस्य / (6) प्रत्यक्षेऽपि / तुलना-'अन्वयव्यतिरेकोपपत्तिः प्रत्यक्षेऽपि, यथा यत्र घटस्तत्र घटज्ञानम्, यत्र नास्ति तत्र तदभाव इति ।"-न्यायवा० पृ० 261 / (7) पृ० 531 50 4 / (8) तुलना-"यत्तावत्स्मूत्यपेक्षत्वादनुमानं शब्द इति ; तन्न ; अनेकान्तात् / अनु (अननु) मानेऽपि स्मृत्यपेक्षित्वमस्ति, यथा संशये यथा तर्के यथोपमान इति ।"-न्यायवा०प० 260 / (9) सम्बन्धस्मृत्यपेक्षत्वस्य / (10) पृ० 495 / (11) पृ० 532 50 10 / (12) विवक्षायाम् / (13) तुलना-“एवंविधविषयभेदात् सामग्रीभेदाच्च प्रत्यक्षवदनुमानादन्यः शब्दः इति सिद्धम् ।"-न्यायमं० पृ० 155 / (14) तुलना-'सामयिकत्वाच्छब्दार्थसम्प्रत्ययस्य / जातिविशेषे चानियमात् / ऋष्यार्यम्लेच्छानां यथाकामं शब्दप्रयोगोऽर्थप्रत्यायनाय प्रवर्तते..."-न्यायभा० 2 / 1155-56 / “यथेष्टविनियोगैन प्रतीतिर्यापि शब्दतः / न धूमादेरिति..."-मी० श्लो० शब्दपरि० श्लो० 19 / (15) कृतकत्वादेर्हेतोः / ___1 यत्र पिण्ड-ब०। 2-ति नापिवे-ब०। 3-भावे व्यति-ब०। 4 शब्दो दृष्टार्थे शब्द इत्यादि श्र०। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. प्रागमपरि० शब्दो नानुमानम् आप्तोक्तत्वेनैवाऽव्यभिचारिज्ञानजनकत्वात् , यत् पुनरनुमानं न तत्तथा तजनकम् यथा कृतकत्वादि, तथा तजनकश्च शब्द इति / कृतकत्वादिसाधनस्य हि साध्येऽव्यभिचारिज्ञानजनने अविनाभाव एव निमित्तं नाप्तोक्तत्वमनाप्तोक्तत्वं वा शब्दस्य तु आप्तोक्तत्वमेवेति / . सत्यम् , अननुमानस्वभाव एवायं शब्दः अप्रमाणत्वात्, प्रमाणत्वे हि तस्य अनु मानेऽन्तर्भावप्रयासः फलवान् / न चास्यैतदस्ति; वस्तुनि सम्बन्धाऽ. 'शब्दः विकल्पवासनामावजन्यत्वादाः- संभवात् / सम्बन्धो हि शब्दार्थयोर्भवन् तादात्म्यलक्षणः, तदुत्पत्तिसंस्पर्शी, अत एव च स्वभावो वा भवेत् ? न तावत् तादात्म्यलक्षणः; विभिन्नदेशतया न तत्प्रामाण्यम्' इति तयोः प्रतीयमानत्वात्, मुखे हि शब्दः प्रतीयते भूमावर्थ इति / बौद्धस्य पूर्वपक्षः- तत्तादात्म्ये च क्षुरमोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य पाटनपूरणप्रसङ्गः / नापि तदुत्पत्तिस्वभावः; 'अमुल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते' इत्यादि शब्दानाम् अर्थाभावेऽप्युत्पत्तिप्रतीतेः, स्थानकरणप्रयत्नप्रभवत्वाच्च / अतोऽर्थाऽसंस्पर्शिनः शब्दा न बाह्यार्थे. . प्रतीति जनयितुमलं तत्कथं प्रामाण्यभाजो भवेयुः ? ते हि विकल्पमात्राधीनजन्मानः स्वमहिम्ना तिरस्कृतबाह्यार्थान् प्रत्ययानुत्पादयन्ति यथा 'अमुल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते' इति। (1) तुलना-"आप्तोपदेशसामर्थ्याच्छब्दादर्थ सम्प्रत्ययः / 2 / 1152 / स्वर्ग अप्सरस उत्तरा: कुरवः सप्त द्वीपाः समुद्रो लोकसन्निवेश इत्येवमादेरप्रत्यक्षस्यार्थस्य न शब्दमात्रात् प्रत्ययः। किंतहि ? आप्तरयमुक्त शब्द इत्यतः सम्प्रत्ययः, विपर्ययेण सम्प्रत्ययाभावात् नत्वेवमनुमानमिति ।"-न्यायभा०, न्यायवा०.२।१।५२। (2) “नान्तरीयकताभावाच्छब्दानां वस्तुभिस्सह / नार्थसिद्धिस्ततस्ते हि वववभिप्रायसूचकाः // अधुना नैव बाह्येऽर्थेऽस्य प्रामाण्यमित्याह-अपि चेत्यादि / वस्तुभिः स्वलक्षणः सह शब्दनान्तरीयकताया अविनाभावस्याभावात् तेभ्यः शब्देभ्यो नार्थसिद्धिर्न बाह्यवस्तुनिश्चयः, यस्मात्ते वक्त्रभिप्रायसूचकाः ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 31212 / “वचसां प्रतिबन्धो वा को बाह्येष्वपि वस्तूष / प्रतिपादयतां तानि येनैषां स्यात्प्रमाणता // भिन्नाक्षग्रहणादिभ्यो नैकात्म्यं न तदभवः / व्यभिचारान्न चान्यस्य युज्यते व्यभिचारिता // न हि वाच्यः वस्तुभिः सह कश्चित्तादात्म्यलक्षणस्तदुत्पत्तिलक्षणो वा प्रतिबन्धो वचसामस्ति येन तानि वस्तूनि प्रतिपादयतामेषां वचसां प्रामाण्यं स्यात् / तत्र तावन्न तादात्म्यलक्षणप्रतिबन्धोऽस्ति भिन्नाक्षग्रहणादिभ्यो हेतुभ्यः। तत्र भिन्नाक्षग्रहणं भिन्नेन्द्रियेण ग्रहणम् / तथाहि-श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दो गृह्यते अर्थस्तु चक्षुरादिना। आदिशब्देन कालदेशप्रतिभासकारणभेदो गृह्यते..."-तत्त्वसं० पृ० 440 / न्यायप्र०वृ०५० पृ०७६ / तुलना-" मुखे हि शब्दमुपलभामहे भूमावर्थमिति ।"-शाबरभा० 1 / 115 / (3) तुलना-"पूरणप्रदाहपाटनानुपलब्धेश्च सम्बन्धाभावः।" -न्यायसू० 2 / 1253 / “स्याच्चेदर्थेन सम्बन्धः क्षुरमोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य पाटनपूरणे स्याताम् / " -शाबरभा० 11115 / शास्त्रवा० श्लो० 645 / अनेकान्तजय० पृ० 42 A. / न्यायकु० पृ० 144 टि०३ / (4) "विकल्पवासनोद्भूताः समारोपितगोचराः। जायन्ते बुद्धयस्तत्र केवलं नार्थगोचराः। अनादिः समानजातीयो यो विकल्पस्तेन आहिता या वासनाशक्तिस्तत उद्भूता उत्पन्ना यथागम समारोपिता य आकाशाद्याकाराः तद्गोचराःत त्प्रतिभासिन्य एव केवलं गताः तत्र बाह्यत्वेन कल्पितेषु आकाशादिषु जायन्ते / नतु ता बुद्धयोऽर्थगोचरा नाकाशादिस्वलक्षणविषयाः।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी०१२२८८ / 1 तथा तज्जनकश्च श्र०। नाप्तोक्तत्वं वा श्र०। 3-युथमास्ते ब०। . Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 प्रमाणप्र० का० 26] श्रुतस्य प्रमाणत्वसमर्थनम् / 537 पुरुषदोषाणामेष महिमा न शब्दानाम् ; इत्यप्ययुक्तम् ; दोषवतोऽपि मूकादेः पुरुषस्य अनुच्चारितशब्दस्य ईदृशाऽसत्यप्रत्ययोत्पादनसामर्थ्याऽसंभवात् , असत्यपि च पुरुषहृदयकालुष्ये आप्तप्रयुक्तानि अगुल्यादिवाक्यानि तानुत्पादयन्त्येव / अतः शब्दानामेवैष स्वभावो न वक्तृदोषाणाम् / नन्वाप्ता नेटॅशि वाक्यानि प्रयुञ्जन्ते, प्रयुञ्जाना वा नाप्ताः स्युः; इत्यप्यसत् ; एवमपि हि वक्तृदोषाणाम् अयथार्थज्ञानोदयकारणत्वासिद्धिः, / व्यतिरेकासिद्धेः। यदि हि वक्तृदोषाभावे अमून्यपि वाक्यानि प्रयुज्येरन न चायथार्थान् प्रत्ययान कुर्युः, तदा अन्वयव्यतिरेकाभ्यां वक्तृदोषजत्वं शाब्दज्ञानस्य स्यात् / आप्तैस्तु तेषामप्रयोगे 'किं शब्दाभावाद् अयथार्थज्ञानानुत्पत्तिः, आहोस्विदोषाभावात्' इति सन्दिग्धो व्यतिरेकः, शब्दे तु निश्चितः-सत्स्वपि दोषेषु शब्दानुच्चारणे मिथ्याज्ञानानुत्पत्तेः / न चाप्तत्वम् ईदृग्वाक्यप्रयोक्तृत्वेन विरुध्यते; तथाविधशब्दोच्चारणे सत्यपि 10 आशयदोषाभावतोऽनाप्तत्वायोगात् / तथाहि-आप्तोऽपि कस्मैचिदुपदिशति न त्वयाऽननुभूतार्थवाक्यं प्रयोक्तव्यं यथा 'अमुल्यो हस्तियूथशतमास्ते' इति / अतः शब्दस्यैवैष महिमा न वक्तृदोषाणाम् / / किञ्च, बाधकप्रत्ययोत्पत्तावपि शब्दो मिथ्याज्ञानं जनयत्येव नेन्द्रियवदुदास्ते, अतोऽर्थाऽसंस्पर्शिनः शब्दा विकल्पमात्राधीनजन्मानः सिद्धाः। तदुक्तम् "विकल्पयोनयः शब्दा विकल्पाः शब्दयोनयः। . तेषामन्योन्यसम्बन्धो नार्थान् शब्दाः स्पृशन्त्यमी // " [ ] इति / ' (1) तुलना-"इहापि पुरुषदोषाणामेष महिमा न शब्दानामिति चेत्, मैवम् ; दोषवतोऽपि पुरुषस्य मूकादेरनुच्चारितशब्दस्यदृशविप्लवोत्पादनपाटवाभावात् / असत्यपि च पुरुषहृदयकालुष्ये यथा प्रयुज्यमानानि अङगुल्यग्रादिवाक्यानि विप्लवमावहन्त्येवेति शब्दानामेवैष स्वभावो न वक्तृदोषाणाम् / " -न्यायमं० पृ०.१५७ / स्था० र० पृ० 700 / (2) बाह्यार्थशून्यान् मिथ्याप्रत्ययान् / (३)तुलना"न चाप्ता नेदृशानि वाक्यानि प्रयुञ्जते प्रयुञ्जाना वा नाप्ताः स्युरिति चेत् एतदप्यसुन्दरम् ; एवमपि हि वक्तृदोषाणामयथार्थज्ञानोदयकारणत्वासिद्धिः, व्यतिरेकासिद्धेः.."-स्या० र० पू०७०१। (4) अङ्गल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते इत्यादीनि / (5) तुलना-"उक्तञ्चैतदुम्बेकेन यदाप्तोऽपि कस्मैश्चिदुपदिशति न त्वयाऽननुभूतार्थविषयं वाक्यं प्रयोक्तव्यं यथाऽङ्गल्यग्रे हस्तियूथशतमास्त इति तत्रार्थव्यभिचारः स्फुट इति ।"-चित्सु० पृ० 265 / (6) तुलना-"अपि च न चक्षुरादि बाधकज्ञानोदये सति न विरमति, विपरीतवेदनजन्मनः शुक्तिकारजतादिबुद्धिषु विभ्रमस्यापायदर्शनात् / शब्दस्तु शतकृत्वोऽपि बाध्यमानो यथैवोच्चरितः करशाखादिशिखरे करेणुशतमास्त इति तदैव तथाभूतं भूयोऽपि विकल्पमयथार्थमुत्पादयत्येवेति विकल्पाधीनजन्मत्वाच्छब्दानामेवेदं रूपं यदर्थासंस्पर्शित्वं नामेति ।"-न्यायम० पृ० 158 / (7) 'तेषामन्योन्यसम्बन्धे'-न्यायमं० पृ० 158 / 'तेषामत्यन्तसम्बन्धो'-नयचक्रव० लि. पृ० 167 A. / 'तेषामन्योन्यसम्बन्धात्'-सिद्धिवि० टी० पृ० 365 B, 484 B. / 'कार्यकारणता तेषां .नार्थं शब्दाः स्पृशन्त्यपि'-न्यायावता० टी० पृ० 44 / रत्नाकराव. पृ० 9 / स्या० मं० पृ० 175 / प्रकृतपाठः-स्या०र०प०७०११ पूर्वार्द्धम-अनेकान्तजय०५०३७॥अनेकान्तवाद० 1047 / सिद्धिवि० टी० पृ० 260 B. / शास्त्रवा० यशो० पृ० 402 A. / 1 इत्ययु-आ। 2 प्रतारकादेः आ०, श्र०13 नेदृशवा-श्र०। 4 चक्षुदोष-ब०। 6 चासत्त्वम् श्र०। 18 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 लघीयत्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. प्रागमपरि० अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'वस्तुनि सम्बन्धासंभवात्' इत्यादि; तदसमी क्षिताभिधानम् ; तत्रं शब्दस्य तदभावाऽसंभवात् / तथाहि-शब्दः तत्प्रतिविधानपुरस्सरं - अर्थेन सम्बद्ध एव तं प्रकाशयति प्रतिनियततत्प्रत्ययहेतुत्वात् चक्षुर्वत् / शब्दस्य परमार्थसदर्थवाचकत्वस्य शाब्दप्रत्ययो वा सम्बद्धाभ्यां शब्दार्थाभ्यां जन्यते प्रतिनियतप्रत्ययत्वात् 6 प्रथक् प्रामाण्यस्य दण्डीत्यादिप्रत्ययवत् / ननु शब्दार्थयोस्तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणसम्बच समर्थनम् न्धस्याऽपास्तत्वात् कथं सम्बद्वत्वम् ? इत्यप्यनुपपन्नम् / तेदभावेऽप्यनयोः योग्यतालक्षणसम्बन्धसंभवात् / तदभावे सोऽपि कथम् ? इत्यप्यवाच्यम् ; चक्षुरूपयोस्तदभावेऽपि तद्दर्शनात् / न खलु चक्षुषो घटादिरूपेण सह तादात्म्यं तदुत्प त्तिः संयोगो वा सौगतैरभ्युपगम्यते प्रतीतिविरोधानुषङ्गात् , अप्राप्यकारित्वक्षतिप्रसङ्गाञ्च / 10 नाप्यस्य तदभावे रूपप्रकाशनयोग्यतास्वभावसम्बन्धस्याप्यसंभवः; श्रोत्रादिवत् तस्यापि तदैप्रकाशकत्वप्रसङ्गात् / ननु योग्यतातः शब्दस्य अर्थवाचकत्वे अर्थस्यापि शब्दवाचकत्वं किन्न स्यात् ? इत्यप्यसाम्प्रतम् / प्रतिनियतशक्तित्वाद् भावानाम् / योग्यता हि शब्दार्थयोः प्रतिपाद्य प्रतिपादकशक्तिः, ज्ञानज्ञेययोञप्यज्ञापकशक्तिवत् / नच ज्ञानज्ञेययोः कार्यकारणभा15 वात् तत्प्रतिनियमो न योग्यतात इत्यभिधातव्यम् ; तत्कार्यकारणभावस्य 'अन्वयव्य तिरेकाभ्यामर्थश्चेत् कारणं विदः' [लघी० का० 54] इत्यत्र विस्तरतो निराकरिष्यमाणत्वात् / कथञ्चैवं चक्षुरूपयोः घटप्रदीपयोश्च प्रकाश्यप्रकाशकभावप्रतिनियमः स्यात् ? योग्यतातोऽन्यस्य कार्यकारणभावादिप्रतिबन्धस्य तत्र तत्प्रतिनियमहेतोरसंभवात्। ननु योग्यतावशात् शब्दो यद्यर्थं प्रतिपादयति तदा भूभवनवर्द्धितोत्थितस्यापि (1) पृ० 536 पं० 6 / (2) वस्तुनि / (3) सम्बन्धाभाव / (4) अर्थ / (5) तादात्म्यतदुत्पत्तिसम्बन्धाभावे-आ० टि०। तुलना-“सामयिकत्वाच्छब्दार्थसम्प्रत्ययस्य।"-न्यायसू० 2 / 1155 / "स च वाच्यवाचकावलम्बनं सङ्केतज्ञानमेव ।"-प्रश० व्यो० 50 585 / "तादृशो .वाचकः शब्दः संकेतो यत्र वर्तते।"-न्यायवि० का० 432 / “अन्ये त्वभिदधत्येवं वाच्यवाचकलक्षणः / अस्ति शब्दार्थयोर्योगस्तत्प्रतीत्यादितस्ततः ॥"-शास्त्रवा० श्लो० 652 / “सहजयोग्यतासङ्केतवशाद्धि शब्दादयो वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः ।"-परीक्षामु० 3.100 / “स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्द इति ।"-प्रमाणनय०४।११ / (6) शब्दार्थयोः / (7) योग्यतालक्षणोऽपि / (8) तादात्म्यतदुत्पत्त्यभावेऽपि / तुलना-“नयनरूपयोः क्वचित्तदभावेऽपि तदुपलभ्भात् ।"-स्या० र० पृ० 702 / (9) चक्षुरूपयोः संयोगाभ्युपगमे। (१०)चक्षुषः-आ० मि०। (11) तादात्म्यतदुत्पत्त्यभावे-आ० टि०। (12) चक्षुष:-आ० टि०। (13) रूपस्य-आ० टि०। (१४)तुलना-"सहजा स्वाभाविकी योग्यता शब्दार्थयोः प्रतिपाद्यप्रतिपादकशक्तिः ज्ञानज्ञेययोर्जाप्यज्ञापकशक्तिवत् ।"-प्रमेयक० पृ० 428 / स्या०र० पृ०७०२ / (15) ज्ञाप्यज्ञापकप्रतिनियमः / (16) ज्ञानार्थयोः कार्यकारणभावस्य / (17) चक्षुरूपयोः घटप्रदीपयोश्च / तुलना-"इतरथा ज्ञानमेव प्रकाशकं ज्ञेयमेव च प्रकाश्यं नपुनर्ज्ञानमिति नियमस्याघटनात् ।"-स्या० र० प० 702 / (18) प्रकाश्यप्रकाशकप्रतिनियम / 1 इत्यनु-आ। चक्षुषा ब०, ०13-ङ्गात् ना-ब०। 4-स्य तत्प्रति-ब०। / यथार्थ ब० / Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 26] शब्दस्य अर्थवाचकत्वम् प्रतिपादयेत् विशेषाभावात् ; इत्यप्यपेशलम् ; सङ्केतसचिवयोग्यतावशात्तस्य तत्प्रतिपादकत्वाभ्युपगमात्, भूभवनवर्द्धितोत्थितं प्रति चास्य तथाविधत्वाभावान्न तत्प्रतिपादकत्वप्रसङ्गः / सङ्केतो हि 'इदमस्य वाच्यम् इदं वाचकम्' इत्येवंविधो वाच्यवाचकयोर्विनियोगः, स यस्यास्ति तस्यैव शब्दः स्वार्थं प्रतिपादयति नान्यस्य, अन्यथा धूमादिसाधनमप्यस्य॑ अग्न्यादिसाध्यं गमयेदविशेषात्, अविनाभावो हि साधनस्य साध्यगम- 5 कत्वे अङ्गम् , स च सर्वदा सर्व प्रत्यस्यास्ति / येनैव साध्यसाधनयोरविनाभावो गृहीतः तं प्रत्येव साधनं साध्यस्य गमकमित्यभ्युपगमे येनैव शब्दार्थयोः सङ्केतो गृहीतः तं प्रत्येव शब्दोऽर्थस्य वाचकः इत्यभ्युपगम्यतामविशेषात् / ___ ननु सङ्केतः पुरुषेच्छाकृतः, नच तदिच्छया वस्तुव्यवस्था युक्ता अतिप्रसङ्गात् , अँतोऽर्थोपि वाचकः शब्दस्तु वाच्यः किन्न स्यात् तदिच्छाया निरङ्कुशत्वात् ? इत्यप्य- 10 सुन्दरम् ; तत्सङ्केतस्य सहजयोग्यतानिबन्धनत्वाद् धूमाग्निवत् / यथैव हि धूमाग्न्यो:सर्गिक एवांविनाभावः सम्बन्धः, तंद्वयुत्पत्तये तु भूयोदर्शनादिनिमित्तमाश्रीयते, तथा शब्दार्थयोः स्वभाविक एव प्रतिपाद्यप्रतिपादकशक्त्यात्मा सम्बन्धः, तद्वयुत्पत्तये तु सङ्केतः समाश्रीयते / सांसिद्धिकार्थशक्तिव्यतिक्रमे च चक्षुरूपादीनामपि प्रकाश्यप्रकाशकशक्ते य॑तिक्रमः स्यात् / तथा च चक्षुःप्रदीपादीनां प्रकाश्यत्वं घटादीनां तु प्रकाशकत्वं 15 स्यात् / प्रतीतिविरोधोऽन्यत्रापि न काकैर्भक्षितः / ननु शब्दस्य स्वाभाविकी शक्तिः किमेकार्थप्रत्यायने, अनेकार्थप्रत्यायने वा ? यद्येकार्थप्रत्यायने, तदा सङ्केतशतैरपि ततोऽर्थान्तरे प्रतीतिर्न स्यात् धूमादनग्निप्रतीतिवत् / (1) शब्दस्य / (2) अर्थवाचकत्वस्वीकारात् / (3) तुलना-“कः पुनरयं समयः ? अस्य शब्दस्येदमर्थजातमभिधेयमित्यभिधानाभिधेयनियमनियोगः, तस्मिन्नुपयुक्ते शब्दार्थसंप्रत्ययो भवति / " -न्यायभा०२।१।५५। "अभिधानाभिधेयनियमनियोगः समय उच्यते ।"-न्यायमं० पृ० 241 / "अस्यार्थस्यायं वाचक इत्यर्थकथनं समयः"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 2230 / “इदं पदममुमर्थं बोधयत इति अस्मात्पदादयमर्थो बोद्धव्य इति वेच्छा ।"-तत्त्वचि. शब्दपरि०। स्या० र०५० 702 / (4) पुरुषस्य / (5) भूभवनसंवद्धितोत्थितस्य / (6) पुरुषेण / (7) अतिप्रसङ्गमेव स्पष्टयति / (8) तुलना-“स हि पुरुषकृतः सङ्केतः न च पुरुषेच्छया वस्तुनियमोऽवकल्प्यते, तदिच्छाया अव्याहतप्रसरत्वात् / अर्थोऽपि किमिति वाचको न भवति। न चैवमस्ति, न हि दहनमनिच्छन्नपि पुरुषो धूमान्न तत्प्रत्येति जलं वा तत इच्छन्नपि प्रतिपद्यते / तत्र यथा धूमाग्न्योः नैसर्गिक एवाविनाभावो नाम सम्बन्धः ज्ञप्तये तु भूयोदर्शनादि निमित्तमाश्रीयते एवं शब्दार्थयोः सांसिद्धिक एव शक्त्यात्मा सम्बन्धः तद्व्युत्पत्तये तु वृद्धव्यवहारप्रसिद्धिसमाश्रयणम् ।”-न्यायमं० पृ० 241 / “सङ्केतस्य सहजयोग्यतानिबन्धनत्वात् / यथैव हि धूमपावकयोः स्वाभाविक एवाविनाभावः...."-स्या० र० पृ०७०३ / (9) अविनाभावग्रहणाय। (10) आदिपदेन तर्को ग्राह्यः / (11) शब्दार्थयोरपि वाच्यवाचकचोदने / (12) तुलना-गिरामेकार्थनियमे न स्यादर्थान्तरे गतिः। अनेकार्थाभिसम्बन्धे विरुद्धव्यक्तिसंभवः // " -प्रमाणवा० 3228 / 1 प्रतिपादयतु ब०। 2-विधावाच्यवाच-आ० / 3 साध्यसाधनं साध्यस्य ब०। 4-स्पत्तये स-आ०, ब० // 5-क्रमे चष-श्र०। 6-प्रदीपानां आ०। 7 तथा ब०। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयत्रयालङ्कारे न्यायेकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० अथ अनेकार्थप्रत्यायने; तदा युगपत् ततोऽनेकार्थप्रतीतिप्रसङ्गात् प्रतिनियतेऽर्थे प्रवृत्तिर्न स्यात् / इत्यप्यचर्चिताभिधानम् ;, सर्वशब्दानां सर्वार्थेषु प्रत्यायनशक्तिसंभवात् / कथमन्यथा अनवगतसम्बन्धे शब्द प्रयुक्ते सन्देहः स्यात्-'कमर्थं प्रतिपादयितुमनेन शब्दः प्रयुक्तः' इति / नचैवं सकृत्सर्वार्थप्रतिपत्तिप्रसक्तेः प्रतिनियतेऽर्थे ततः प्रवृत्तिर्न स्यादित्य6 भिधातव्यम् ; प्रतिनियतसङ्केतवशात्तषौ प्रतिनियतार्थप्रतिपादकत्वोपपत्तेः / एकस्यापि हि शब्दस्य देशादिभेदेन प्रतिनियतः सङ्केतोऽनुभूयते, यथा मॉलवकादौ कर्कटिकाशब्दस्य फलविशेषे, गुर्जरादौ तु योन्यामिति / दृश्यते च सर्वत्र रूपप्रकाशने योग्यस्यापि चक्षुषः प्रत्यासन्नतिमिरवशादसन्निहिते, दूरतिमिरवशाच्च सन्निहिते रूपे, विशिष्टाञ्ज नादिवशात् अन्धकारान्तरितेऽपि ज्ञानजनकत्वम् , काचकामलादिवशाच्च विवक्षित10 रूपाभावेऽपीति / तयो यथा अनेकरूपप्रकाशनयोग्यस्यापि चक्षुषो दूरतिमिरादिप्रति नियतसहकारिवशात् प्रतिनियतदूररूपादिज्ञानजनकत्वं तथा अनेकार्थप्रत्यायनयोग्यस्यापि शब्दस्य प्रतिनियतसङ्केतवशात् प्रतिनियतार्थप्रतिपादकत्वमविरुद्धम् / / अथ मतम्-चक्षुरादिवत् शब्दस्य अर्थे योग्यतालक्षणसम्बन्धसंभवे तद्वदेव अंतः सङ्केतानपेक्षा अर्थप्रतीतिः स्यात् ; तदप्यसङ्गतम् ; तस्य ज्ञापकतया तत्सापेक्षस्यैव अर्थ (1) तुलना-"सर्वाकारपरिच्छेद्यशक्तेऽर्थे वाचकेऽपि वा। सर्वाकारार्थविज्ञानसमर्थे नियमः कृतः ॥"-मी० श्लो० पृ० 202 / “सर्वशब्दानां सर्वार्थप्रत्यायनशक्तियुक्तत्वात क्वचिद्देशे केनचिदर्थेन व्यवहारः / अत एव चानधिगतसम्बन्धे श्रुते सति सन्देहो भवति कमर्थं प्रत्याययितुमनेन शब्दः प्रयुक्तः स्यादिति ।"-न्यायमं० पृ० 242 / “समयापेक्षणं चेह तत्क्षयोपशमं विना। तत्कर्तृत्वेन सफलं योगिनां तु न विद्यते // सर्ववाचकभावत्वाच्छब्दानां चित्रशक्तितः / वाच्यस्य च तथाऽन्यत्र नागोऽस्य समयेऽपि हि ॥"-शास्त्रबा० श्लो०६६३-६४ / "तथा च सर्वे शब्दाः प्रायः सर्वार्थवाचकशक्तिमन्तः सर्वे चार्थाः सर्वशब्दवाच्यशक्तियुक्ताः इति विचित्रक्षयोपशमादिसहकारियोगतः तथा तथा प्रवर्तन्ते इति न काचिद्वाधा"-अनेकान्तजय० पृ०३६ A. / “सर्वस्य शब्दस्य सर्वार्थप्रतिपादनशक्तिवैचित्र्यसिद्धेः / पदार्थस्य च सर्वस्य सर्वशब्दवाच्यत्वशक्तिनानात्वात् ।"-अष्टसह. पृ० 143 / 'शब्दस्यानेकार्थप्रतिपादने नैसर्गिकशक्तिसद्भावेऽपि प्रतिनियतसङ्केतसामर्थ्यात् प्रतिनियतार्थप्रतिपादकत्वोपपत्तेः। "-स्या० 20 पू०७०३ / (2) शब्दात् / (3) शब्दानाम् / (4) तुलना-'तथाहि-यवशब्द आर्दीर्घशूके पदार्थे प्रयुज्यते, ते हि यवशब्दात् दीर्घशूकं पदार्थ प्रतिपद्यन्ते म्लेच्छास्तु प्रियङ्गप्रतिपद्यन्ते / एवं त्रिवृत्शब्दमृषयः स्तोत्रीयानवके प्रयुञ्जते, आर्यास्तु लताविशेषे ।"-न्यायवा० ता० पृ० 420 / 'एकस्यापि हि शब्दस्य देशादिभेदेन प्रतिनियतः सङ्केतोऽनुभूयते, यथा गुर्जरादौ चोरशब्दस्य तस्करे द्राबिडादौ पुनरोदन इति / दृश्यते च सर्वत्र रूपप्रकाशने योग्यस्यापि चक्षुषः प्रत्यासन्नतिमिरवशादसन्निहिते दूरतिमिरसामर्थ्याच्च सन्निहिते रूपे विशिष्टाञ्जनादिवशादन्धकारान्तरितेऽपि ज्ञानजनकत्वम्, काचकामलादिदूषणबलाच्च विवक्षितरूपाभावेऽपीति।"-स्या०र० पृ०७०३। (5) "एवं कर्कटीशब्दादयोऽपि तत्तद्देशापेक्षया योन्यादिवाचका ज्ञेयाः।"-स्या०म० पृ० 178 / (6) पीतरूपाभावेऽपि शंखे पीतज्ञानजनकत्वम् / (7) चक्षुर्वदेव / (8) शब्दात्। (9) शब्दस्य / तुलना-"वाच्यवाचकलक्षणो हि शब्दार्थयोः प्रतिबन्धः, तथाहि वाच्यस्वभावा अर्थाः वाचकस्वभावाश्च शब्दा इति तज्ज्ञप्तिवादः / यदैवं 1 कथमर्थ श्र०। 2 मालवादी ब०, श्र०। 3-शमयोग्य-श्र०। 4 अर्थस्य प्रती-श्र० / Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्रे० का 26 ] शब्दस्य अर्थवाचकत्वम् 541 प्रतीत्यङ्गतोपपत्तेः। यज्ज्ञापकं तत् ज्ञाप्ये प्रतिपन्नप्रतिबन्धमेव प्रतीतिमुत्पादयति यथा धूमादि, ज्ञापकश्च शब्द इति / चक्षुरादीनां तु कारकत्वात् युक्तं स्वार्थसम्बन्धग्रहणानपेक्षाणां तदुत्पादकत्वम् / स्वयं हि प्रतीयमानम् अप्रतीतार्थप्रतीतिहेतुापकमुच्यते / तद्रूपता च शब्दादेरेवास्ति न चक्षुरादेः, अतः स एव प्रतिपन्नप्रतिबन्धं स्वार्थं गमयति / शक्तिस्तु स्वाभाविकी यथा रूपप्रकाशने चक्षुरादेः तथा अर्थप्रकाशने शब्दस्य / / यदप्युक्तम्-'अतोऽर्थासंस्पर्शिनः शब्दाः' इत्यादि; तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; यतः किमाप्तप्रणीतस्य शब्दस्य अर्थासंस्पर्शित्वं प्रसाध्यते, अनाप्तप्रणीतस्य, शब्दमात्रस्य वा ? तत्राद्यपक्षे प्रत्यक्षबाधा, आप्तप्रणीतात् 'नधास्तीरे फलानि सन्ति' इति वाक्यादतिरस्कृतबाह्यार्थप्रत्ययप्रतीते: ततः प्रवृत्तस्य तदर्थप्राप्तेः / अथाऽनाप्तप्रणीतस्य; तर्हि तस्यैव अर्थाऽसंस्पर्शित्वं युक्तं नान्यस्य, अन्यथा काचादिदोषदुष्टचक्षुःप्रभवप्रत्यक्षस्य अर्थासंस्प- 10 र्शित्वोपलम्भात् गुणवञ्चक्षुःप्रभवप्रत्यक्षस्यापि तेत्स्यात् / एतेन तृतीयविकल्पोऽपि प्रत्याख्यातः; आप्तानाप्तप्रणीतशब्दव्यतिरिक्तस्य शब्दमात्रस्याऽसंभवात् / नन्वाप्तप्रणीताद् अङ्गुल्यादिवाक्याद् विपर्ययज्ञानोत्पत्तिप्रतीतेः शब्दस्यैष महिमा न वक्तृदोषाणाम् ; इत्यप्यचर्चिताभिधानम् ; ओप्तैरेवंविधवाक्याऽप्रयोगात्। ___ यत्तु-'आप्तोऽपि कस्मैचिदुपदिशति' इत्याद्युक्तम् ; तंत्र निषेधपरत्वेनास्य यथार्थ- 15 कथन्न सङ्केतमन्तरेणैव ततस्तदवगतिः ? उच्यते-तथाविधक्षयोपशमाभावात् / न हि रूपप्रकाशनस्वभावोऽपि दीपोऽसति चक्षुषि तत्प्रकाशयति, चक्षुःकल्पश्च क्षयोपशमः, स च.सङ्कततपश्चरणभावनादिजन्यस्तथोपलब्धः ।"-अनेकान्तजय० पृ०३६ A. | "शब्दस्य ज्ञापकत्वात् / ज्ञापकस्य धूमादेरेतद्रूपं यत्सम्बन्धग्रहणापेक्षं स्वज्ञाप्यज्ञापकत्वम् / तद्योग्यतादयस्तु प्रत्यक्षसामग्र्यन्तर्गतत्वान्न व्युत्पत्त्यपेक्षा भवन्ति / शक्तिस्तु नैसर्गिकी यथा रूपप्रकाशिनी दीपादेस्तथा शब्दस्यार्थप्रतिपादने ।"-न्यायम०प्र० 241 / (10) सङ्केतग्रहणसहितस्य / (1) ज्ञापकरूपता। (2) शब्दादिः / (3) पृ० 536 पं० 12 / (4) तुलना-"यतः किमाप्तनिगदितशब्दस्यार्थासंस्पर्शित्व"."-स्या० र० पृ०७०३ / (5) तुलना-"भवेदेतदेवं यदि न कदाचिदपि यथार्थ शब्दः प्रत्ययमुपजनयेत् / अर्थसंस्पर्शित्वमेवास्य स्वभाव इत्यवगम्यते / भवति तु गुणवत्पुरुषभाषितान्नधास्तीरे फलानि सन्तीति वाक्यादतिरस्कृतबाह्याओं यथार्थप्रत्ययः तत: प्रवृत्तस्य तदर्थप्राप्तेः ।"-न्यायमं० 10 158 / (6) आप्तोक्तशब्दात् / (7) शक्ले शंखे पीताकारावभासिनः / (8) शुक्ले शंखे शुक्लत्वावभासकस्यापि / (9) अर्थासंस्पर्शित्वमतश्च मिथ्यात्वं स्यादिति भावः / (10) अङ्गल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते इत्यादिवाक्यात् / (11). यत् तिरस्कृतबाह्यार्थप्रत्ययोत्पादकत्वम् / (12) तुलना-"गुणवतामेवंविधवाक्योच्चारणचापलाभावात् ।"-न्यायमं० 10 158 / "आप्तैरेवंविधवाक्यस्याप्रयुक्तेः "-स्या० र० पृ० 704 / (13) पृ० 537 पं० 11 / (14) तुलना-“यत्तु आप्तोऽपि कंचिदनुशास्ति मा भवानभूतार्थं वाक्यं वादीः अङ्गलिकोटौ करिघटाशतमास्ते' इति; तत्र इतिकरणावच्छिन्नस्य दृष्टान्ततया शब्दपरत्वेनोपादानात् प्रतिषेधकवाक्यतया यथार्थत्वमेव / अर्थपरत्वे तु निषेधैकवाक्यतैव न स्यादिति / तस्मादाप्तवाक्यानामयथार्थत्वाभावान्न स्वतोऽर्थासंस्पर्शिनः शब्दाः पुरुषदोषानुषङ्गकृत एवायं विप्लवः ।-न्यायमं० पृ० 158 / स्या०र० पृ० 704 / (15) अङ्गल्यादिवाक्यप्रयोगनिषेधकस्य आप्तोपदेशस्य। 1 अतस्तदेव श्र०, ब० / 2-र्थप्रतीतेः प्रवृत्तस्य आ० / 8-प्रयुक्ताद् ब०, श्र० / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. अागमपरि० तैव, वाक्यैकदेशस्यापि उदाहरणविवक्षायाम् इतिकरणावच्छिन्नस्य शब्दपरत्वेनोपादानात् प्रतिषेधैकवाक्यतया यथार्थतैव / अर्थपरत्वे तु निषेधेनैकवाक्यतैव न स्यात् / तस्माद् आप्तप्रणीतशब्दानामयथार्थत्वाभावान्न स्वतोऽर्थासंस्पर्शिनःशब्दाः, किन्तु पुरुषदोषवशात्। नन्वाप्तैरेवंविधवाक्याप्रयोगेऽपि सन्दिग्धो व्यतिरेकः किं शब्दाभावादयथार्थ5 ज्ञानानुत्पत्तिः, वक्तृदोषाभावाद्वा'; इत्यप्यविचरितरमणीयम् ; अनुच्चारितशब्दस्यापि दोषवतः पुरुषस्य हस्तसंज्ञादिना प्रतारकत्वप्रतीतेः / न च हस्तसंज्ञादिना शब्दानुमान ततो वितथप्रत्यय इत्यभिधातव्यम् / तथाप्रतीत्यभावात् / नद्यादिवाक्यादुत्पन्ने च क्वचिद्विज्ञाने तरङ्गिणीतीरमनुसरन् अनासादितफलः पुरुषः पुरुषमेवाधिक्षिपति 'दुरात्मनाऽनेन विप्रलब्धोऽस्मि' इति, न शब्दम् / ननु पुरुषस्य गुणवतो दोषवतो वा शब्दोच्चारणमात्र एव व्यापारः, अर्थप्रतिपत्तिस्तु शब्दनिबन्धनैवेति तद्विपर्यये शब्दस्यैव व्यापारो न वक्तृदोषाणाम् ; इत्यप्ययुक्तम् यतो गुणवद्वक्तृप्रणीतात् 'तरङ्गिणीतीरे फलानि सन्ति' इति वाक्यात् सत्यप्रत्ययोदयेऽप्येवं शब्दस्यैव व्यापारः स्यात् तद्वक्तुः तदुच्चारणमात्रे चरितार्थत्वात् / अतः कथमेकान्ततः शब्दस्याऽर्थासंस्पर्शित्वमेव स्वरूपं स्यात् ? किञ्च, विपर्ययज्ञानोत्पत्तेयार्वद्भिः सह तद्भावभावित्वमवगम्यते तावतां तत्र 15 व्यापारः, साँ चात्र शब्दोच्चारणे सत्यपि अनाप्तयोगितां विना न दृष्टेति शब्दवत्तदाशयस्यापि तत्रं व्यापारः। 'किञ्च, चक्षुरादिवदर्थप्रकाशकत्वमानं शब्दस्य स्वरूपं न पुनः यथार्थप्रकाशक (1) अङ्गल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते इति वाक्यस्य एकदेशः 'अङ्गल्यग्रे' इत्यादिरूपः। (2) तुलना"अनुच्चरितशब्दोऽपि पुरुषो विप्रलम्भकः / हस्तसंज्ञाद्युपायेन जनयत्येव विप्लवम् // " -न्यायमं० 10 158 / स्था० र० पृ०७०४। (3) तुलना-"इत्थमप्रतीतेः / उत्पन्ने च क्वचिन्नद्यादिवाक्याद्विज्ञाने तरङ्गिणीतीरमनुसरन्ननासादितफल: प्रवृत्तबाधकप्रत्ययः पुरुषमेवाधिक्षिपति 'धिग् हा तेन दुरात्मना लब्धोऽस्मि' इति न शब्दम्, प्राप्तफलश्च पुंसामेव श्लाघते साधु साधना तेनोपदिष्टमित्यतः पुरुषदोषान्वयानुविधानात्तदभावकृत एव आप्तेषु तूष्णीमासीनेषु विभ्रमानुत्पाद इति न सन्दिग्धो व्यतिरेकः / पुरुषदोषकृत एव शब्दाद्विप्लवो न स्वरूपनिबन्धनः।"-न्यायमं० पृ० 158 / स्या० र० पृ० 704 / (4) अर्थप्रतीतिविपर्यये / (5) तुलना-'हन्त तर्हि वक्तरि गुणवति सति सरितस्तीरे फलानि सन्तीति सम्यक्प्रत्ययेऽपि शब्दस्यैव व्यापारात् पुरुषस्य उच्चारणमात्रे चरितार्थत्वान्नैकान्ततः शब्दस्यार्थासंस्पर्शित्वमेव स्वभावः ।"-न्यायमं० पृ० 159 / (6) कार्यकारणभावः / (7) विपर्ययज्ञानोत्पत्तिः / (8) अनाप्ताभिप्रायस्य / (9) विपर्ययज्ञानोत्पत्तौ व्यापारः / तुलना-स्या० 2010 407 / (10) तुलना-"युक्तञ्चदेव यत् दीपवत् प्रकाशत्वमात्रमेव शब्दस्य स्वरूपं न यथार्थत्वमयथार्थत्वं वा, विपरीतेऽप्यर्थे दीपस्य प्रकाशत्वानतिवृत्तेः / अयं तु विशेष:-प्रदीपे व्युत्पत्तिनिरपेक्षमेव प्रकाशकत्वं शन्दे तु व्युत्पत्त्यपेक्षमिति / प्रकाशात्मनस्तु शब्दस्य वक्तृगुणदोषाधीने यथार्थेतरत्वे / अत एव अङ्गलिशिखराधिकरणकरेणुशतवचसि बाधितेऽपि पुनः पुनरुच्चर्यमाणे भवति विभ्रमः प्रकाशकत्वतद्रूपानपायात्, न त्वेष शब्दस्य दोषः / पदार्थानां तु संसर्गमसमीक्ष्य प्रजल्पतः / वक्तुरेव प्रमादोऽयं न शब्दोऽत्रापराध्यति ।"-न्यायमं० पृ० 159 / स्या० र० पृ० 704 / 1-मेव रूपं श्र०। 2 किञ्चक्षुरा-ब०। 3 शब्दस्वरूपं श्र०। 4 यथार्थाप्रकाश-आ० / Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 26 ] शब्दस्य अर्थवाचकत्वम् त्वमयथार्थप्रकाशकत्वं वा, तस्य गुणदोषनिबन्धनत्वात् / सति हि नैर्मल्यादिगुणे चक्षुर्यथावद्वस्तु प्रकाशयति काचादिदोषे तु सति अयथावत्, एवं शब्दोऽपि वक्तगुणदोषापेक्षः सत्येतररूपं वस्तु प्रकाशयति / अत एव अङ्गुलिशिखराधिकरणकरेणुशतवैचसि वाध्यमानेऽपि पुनः पुनरुच्चार्यमाणे भवति भ्रान्तिः प्रकाशकत्वस्य तत्स्वरूपस्य बाधकशतोपनिपातेऽप्यनपायात् / यच्चान्यदुक्तम्-'नेन्द्रियवदुदास्ते' इति ; तदप्युक्तिमात्रम् ; बाधकप्रत्ययप्रवृत्तावपीन्द्रियस्य चन्द्रद्वयविषयमिथ्याज्ञानजनकत्वप्रतीतेः / न च तत्प्रवृत्तौ तत् तद्विषयं विज्ञानं नोत्पादयतीत्यभिधातव्यम् ; प्रतीतिविरोधात् / यदप्युक्तम्-'विकल्पयोनयः शब्दाः' इत्यादि; तत् सविकल्पकसिद्धौ कृतोत्तरत्वादुपेक्षते / ततः प्रमाणं शब्दः अर्थोपलब्धिनिमित्तत्वात् प्रत्यक्षादिवत्, स्वपरपक्ष- 10 साधनदूषणसमर्थत्वाच्च सम्यग्ज्ञानवत्, तथा सकलतत्त्वविप्रतिपत्तिनिवृत्तिनिमित्तत्वात् योगिज्ञानवत् / न खलु देशकालस्वभावविप्रकृष्टाऽखिलार्थानां शब्दादन्यतो विप्रतिपत्तिनिवृत्तिः संभवति तदुपायान्तराऽसंभवात् / लिङ्गं तदुपायान्तरं संभवतीति चेत्; न; तत्प्रेतिबद्धलिङ्गस्य कस्यचिदप्यप्रतिपत्तेः / ततो योग्यतालक्षणसम्बन्धात् शब्दस्यैव तत्रै प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यमिति // छ / ___नन्वस्तु शब्दस्यार्थे सम्बन्धः, स तु अनित्यः, नित्यो वा स्यात् ? तत्राद्यपक्षोऽ. 'शब्दार्थयोर्नित्यसम्ब- नुपपन्नः ; अनित्यस्य सम्बन्धस्य कर्तुमशक्यत्वात् / समयो हि क्रियन्धसभवान्नानि माणः प्रतिपुरुषम्, प्रतिशब्दम् , प्रत्यर्थं सर्गादौ सकृदेव क्रियते कृतः सङ्केतः' इति - मीमांसकस्य पूर्वपक्षः- प्रकारान्तरासंभवात् / उक्तश्च “समयः प्रतिमर्त्य वा प्रत्युच्चारणमेव वा / / क्रियते जगगदादौ वा सकृदेकेन केनचित् / / " [ मी० श्लो० सम्बन्धा० श्लो० 13 ] प्रथमपक्षे पुरुषेण प्रतिपुरुष सम्बन्धः क्रियमाणः किमेकः क्रियते, अनेको वा ? 16 20 (1) यथार्थायथार्थप्रकाशकत्वस्य / (2) अङ्गुल्यग्रे हस्तिशतमास्ते इतिवचने। (3) शब्दस्वरूपस् / (4) पृ० 537 पं० 14 / (5) बाधकप्रत्ययप्रवृत्तौ। (6) इन्द्रियम्-आ० टि०। (7) चन्द्रविषयम्-आ० टि०। (8) पृ० 537 पं० 16 / (9) पृ० 47 / (10) मेरुपर्वतरामरावणादिपरमाण्वादीनाम् / (11) विप्रकृष्टार्थप्रतिपत्तिसाधनम् / (12) देशकालस्वभावविप्रकृष्टार्थ-आ० टि०। (13) विप्रकृष्टार्थे / (14) एतावताऽत्र भंग्या क्रम उक्त:-आ० टि०। (15) व्याख्या"इयमस्य संज्ञेति समयः, स प्रत्यर्थं प्रतिपुरुषं वा क्रियेत, प्रतिपुरुषमेव प्रत्युच्चारणं प्रतिप्रयोगं वा / अथवा जगदादौ जगतः सृष्टिकाले केनचित् ईश्वरादिना धात्रा सकृत् एकयैव हेलया क्रियतेति त्रयो विकल्पाः ।"-तत्त्वस० पं० पृ० 622 / उद्धृतोयम्-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 11230 / तत्त्वसं० पृ० 622 / जैनतर्कवा० पृ० 31 / Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544 . लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. प्रागमपरि० यद्येकः; कथं कृतकः ? पूर्वमप्यस्य सद्भावतोऽकृतकत्वप्रसिद्धेः / नहि सतो वस्तुनः पुरुषाज्जन्म युक्तम् , अभिव्यक्तेरेातस्तस्योपपत्तेः / अथानेकः; कथमेकार्थसङ्गतिः ? यथा गोशब्दस्य सास्नादिमानर्थः केसरादिमानश्वशब्दस्येति / किञ्च, प्रेतिपुरुष सम्बन्धकरणे किमेकस्तत्कर्ता, बहवो वा? यद्येकः; तदासौ देशान्तरव्यवस्थितानां कथं समयं विदध्यात् ? तत्र तत्र गत्वाऽसौ करोति चेत् ; तर्हि पुरुषायुषेणापि तत्करणानुपपत्तिः तेषामनन्तत्वात्। अथैकः सन्निहितेषु बहुषु समयं करोति, ते च कृतसमयाअन्येषां तें करिष्यन्ति, तेऽप्यन्येषाम् , इत्येवं सर्वत्र व्यवहारः उपपत्स्यते; तन्न; तेषां प्रयोजनाभावतः सर्वत्र गमनानुपपत्तेः, अतो यत्रैव ते न गच्छन्ति तत्र व्यवहारो न प्राप्नोति। अथ बहवः समयस्य कर्तारः; तर्हि सकलदेशकालेषु एकरूपता समयस्य न प्राप्नोति, 10 तस्यां निमित्ताभावात् / न च ते सर्वे संभूय पर्यालोच्य वा एकमेव समयं कुर्वन्ती त्यभिधातव्यम् ; परस्परानपेक्षाणां स्वातन्त्र्येण समयं कुर्वतां तथा तत्करणानुपपत्तेः / प्रतिशब्दमपि उच्चार्य समयः क्रियेत, अनुच्चार्य वा ? न तावदनुच्चार्य; . अस्य निराश्रयत्वप्रसङ्गात् / न च निराश्रयः सम्बन्धो युक्तः अतिप्रसङ्गात् / नापि उच्चार्य; पुरुषायुषेणापि तथा सम्बन्धस्य कर्तुमशक्यत्वात् / 15 किश्च, 'तिशब्दमुच्चार्य अभिनवः सम्बन्धी विधीयते, प्राक्तन एव वा ? अभिनवस्य विधाने कथमस्य अर्थप्रत्यायनसामर्थ्यावगतिः ? तैदनवगतौ च सम्बन्धकरणानुपपत्तिः / प्राक्तनस्य तु पूर्वमपि सत्त्वात् करणानुपपत्तिः / एकस्य हि वस्तुनो : ज्ञप्तिरेव असकृदावर्त्तते न तूत्पत्तिः / नापि प्रत्यर्थं सम्बन्धः कर्तुं शक्यः; अर्थानामानन्त्याद् विदूरत्वाच्च / सर्गादा (1) "प्रत्येकं वाऽपि सम्बन्धो भिद्येतकोऽथवा भवेत् / एकत्वे कृतको न स्यात् भिन्नश्चेद्देदधीर्भवेत् // एकत्वे तावत्कृततैव न स्यात्, न हि एकस्य बहुभिः क्रिया संभवतीत्याह एकत्व इति।" -मी० श्लो० न्याय० र० सम्बन्धा० श्लो० 14 / “एकत्वपक्षे जातिवद्देशकालभेदानुयायित्वात्कृतको न स्यात्, नित्य एव स्यादिति यावत् ।"-तत्त्वसं० पं० पृ० 622 / (2) गगनकपरंमाण्वादीनामेकत्वस्य नित्यत्वाविनाभूतत्वात्, एकत्वं ह्येकरूपत्वम्, तच्च क्रियमाणत्वे विनश्यति-आ०टि०। (3) सम्बन्धस्य / (4) पुरुषव्यापारात् / (5) “यथाऽस्मिन्देशे सास्नादिमति गोशब्द: एवं सर्वेषु दुर्गमेष्वपि / बहवः सम्बन्धारः कथं संगंस्यन्ते ? एको न शक्नुयात् / अतो नास्ति सम्बन्धस्य कर्ता ।"-शाबरभा०१।१५। (6) सङ्केतकरणानुपपत्तिः / (7) देशान्तराणाम् / (8) समयम् / (9) अन्यपुरुषाणाम् / (10) सङ्कतस्य एकरूपतायाम् / “बहुभिः कृतसम्बन्धे न चैको गमको भवेत् ।"-मी०लो० पृ. 644 / 11) "समुच्चयोऽपि नैतेषां व्यवहारेऽवगम्यते ।"-मी० श्लो० सम्बन्धा० श्लो०१७। (12) पुरुषाणाम् / (13) मिलित्वा सङ्केतकरणे प्रयोजनाभावात् / (14) सङ्केतस्य। (१५)प्रतिशब्दमुच्चार्य उच्चार्य / (16) तुलना-"प्रत्युच्चारणं प्राक्तन एव क्रियते, नूतनो वा ? नवस्य तावत्क्रियमाणस्य कथमर्थप्रत्यायनसामर्थ्यमवगम्यते तदवगतौ वा किं तत्करणेन? पूर्वकृतस्य तदकृतत्वादेव पुनः करणमनुपपन्नम् / एकस्य वस्तुनो ज्ञप्तिरसकृदावर्तते नोत्पत्तिः ।"-न्यायमं० पृ० 242 / “प्रत्युच्चारणनिर्वृत्तिन युक्ता व्यवहारतः।"-तत्त्वसं० का० 2274 / (17) नूतनसङ्केतस्य। (18) अभिनवस डूतस्य अर्थप्रत्यायनशक्तिपरिज्ञानाभावे। (19) सङ्केतस्य / (20) पुनः पुनः। (21) विप्रकृष्टदेशवर्तित्वात / 1 कृतःश्र०12 केशरा-आ013 करोतीति ते च आ014-च्चार्य निरा-श्र० 5 कारणानुप-आ०। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26 ] शब्दार्थयोः नित्यसम्बन्धनिरास: वपि सकृत्सम्बन्धकरणमयुक्तम् / तत्राखिलवाच्यवाकानां संकृत्संभवाभावात् / शब्दार्थव्यवहारैविकलस्य कालस्य चाऽसंभवात् / अतो नित्य एव शब्दार्थयोः सम्बन्धोऽभ्युपगन्तव्यः / . तत्प्रतीतिश्च प्रमाणत्रयसम्पाद्या; तथाहि-यदैकोऽन्यस्मै प्रतिपन्नसङ्केताय प्रतिपादयति 'देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डेन' इति, तदा पार्श्वस्थोऽन्योऽव्युत्पन्नसङ्केतः / शब्दार्थों प्रत्यक्षतः प्रतिपद्यते, श्रोतुश्च तद्विषयक्षेपणादिचेष्टोपलम्भादनुमानतो गवादिविषयां प्रतिपत्तिं प्रतिपद्यते, तत्प्रतिपत्त्यन्यथानुत्पत्त्या च शब्दस्यैव तंत्र वाचिकां शक्ति परिकल्पयतीति / उक्तश्च- . "शब्दवृद्धाभिधेयानि प्रत्यक्षेणात्र पश्यति / श्रोतुश्च प्रतिपन्नत्वमनुमानेन चेटया // 10. अन्यथानुपपत्या तु वेत्ति शक्ति द्वयाश्रिताम् / " [मी०श्लो॰सम्बन्धा० 140-41] इति / (1) "न हि सम्बन्धव्यतिरिक्तः कश्चित्कालोऽस्ति, यस्मिन्न कश्चिदपि शब्द: केनचिदर्थन सम्बद्ध आसीत् ।"-शाबरभा०.११११५। “सर्गादौ हि क्रिया नास्ति तादृक्कालो हि नेष्यते।"-मी० श्लो० सम्बन्धा० श्लो०४२ / शास्त्रदी० पृ०४१८। तत्त्वसं० पृ० 627 / न्यायमं० पृ० 242 / (2) "औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः"-जैमिनिसू० 11115 / "औत्पत्तिक इति नित्यं ब्रमः / उत्पत्तिहि भाव उच्यते लक्षणया। अवियुक्तः शब्दार्थयोर्भावः सम्बन्धः।"-शाबरभा०शश५ / “अपौरुषेयः शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः"-शाबरभा० 11115 / पृ० 41 / “अपौरुषेये सम्बन्धे शब्द: प्रामाण्यमृच्छति ।"-प्रक० 50 पृ० 161 / “नित्याः शब्दार्थसम्बन्धाः"-वाक्यप०१२३ / (3) प्रत्यक्षानुमानार्थापत्तिरूपं प्रमाण• त्रयम् / (4) शब्दं श्रावणप्रत्यक्षेण अर्थञ्च चाक्षुषाध्यक्षेण प्रतिपद्यते / (5) गवादिविषय / (6) देवदत्तस्य श्रोतुः देवदत्त गामभ्याजेति वाक्यात् गोक्षेपणविषयिणी प्रतीतिर्जाता तद्वाक्यश्रवणानन्तरमेव गोक्षेपणचेष्टाऽन्यथानुपपत्तेः। (7) देवदत्त गामभ्याजेति वाक्ये गवादिविषयकक्षेपणार्थवाचिका शक्तिरस्ति ततस्तत्प्रतीत्यन्यथानुपपत्तेः। (8) गोविषयकक्षेपणार्थे। (9) 'शब्दवृद्धाभिधेयांश्च'-मी० श्लो०, प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 11228 / न्यायमं पृ० 245 / 'प्रत्यक्षेणैव'-स्या० र० पृ० 677 / (10) "अन्यथानुपपत्त्या च बुद्धयेच्छक्ति द्वयाश्रिताम् / अर्थापत्त्याऽवबुद्धयन्ते सम्बन्धं त्रिप्रमाणकम् ॥"-मी० श्लो पृ० 680 / प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 11228 / 'वेत्ति शक्ति द्वयात्मिकाम्'-न्यायमं० पृ० 245 / व्याख्या-"शब्दवृद्धाभिधेयानि 'सम्बन्धप्रतिपत्तेरयं न्यायः कुमारिलेन वर्णितः-यस्मात् प्रथमं तावत् प्रत्यक्षेण शब्दं वृद्धं च शब्दस्याख्यातारम् अभिधेयञ्च वाच्यं वस्तु पश्यति, ततः पश्चादनुमानेन चेष्टालक्षणेन लिङ्गेन श्रोतुः प्रतिपन्नत्वं पश्यति अवधारयतीत्यर्थः / करणं कारकं कृत्वा चेष्टाया अनुमानत्वमुक्तम् / ततश्च पश्चादर्थापत्त्या द्वयाश्रितां शब्दार्थाश्रितां शक्ति वेत्ति / अर्थापत्त्या तु साक्षादवबुद्धयन्त इत्यतोऽपित्त्यावबुद्धचन्त इत्युक्तम् ।"-तत्त्वसं० 50 10709 / “वृद्धानां स्वार्थे संव्यवहरमाणाना'मुपशृण्वन्तो बालाः प्रत्यक्षमर्थं प्रतिपद्यमाना दृश्यन्ते ।"-शाबरभा० 12115 / पृ० 56 / “किञ्चास्त्युपायो बालानाम्, नावश्यं सम्बन्धकथनवाक्येनैव वृद्धभ्यो बालाः सम्बन्ध प्रतिपद्यन्ते किन्तु यदा वृद्धाः प्रसिद्धसम्बन्धाः स्वकार्यार्थेन व्यवहरन्ति तदा तेषामुपशृण्वन्तो बालाः सम्बन्ध प्रतिपद्यन्ते / यदा हि केचित् 'गामानय' इत्युक्तः कश्चित् सास्नादिमन्तमानयति तदा समीपस्थो बालोऽवगच्छति-यस्मादय 1 सकृत्संभवाभावाभावात् आ०, सकृत्संभवात् ब० / 2-विकल्पस्य च का-आ०। 3 तद्विषयपक्षेणा-श्र०। प्रतिपत्त्युत्पद्यते ब०। 5 नु आग, ब०। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. भागमपरि० अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'अनित्यो नित्यो वा' इत्यादि ; तदसमीक्षिता भिधानम् ; तत्सम्बन्धस्य नित्यरूपतया विचार्यमाणस्यानुपपत्तितो तन्निरसरनपुरस्सरम् परुषकतानि नित्यत्वानुपपत्तेः / यद् यद्रूपतया विचार्यमाणं नोपपद्यते न तत् तवशादेव शब्दानाम् तद्रूपतयाऽभ्युपगन्तव्यम् यथा जगदद्वैतरूपतया, नित्यरूपतया विचाअर्थप्रतिपादकत्वस- र्यमाणो नोपपद्यते च शब्दार्थयोः सम्बन्ध इति / न चास्य तद्रूप॑तया मर्थनम् - विचार्यमाणस्यानुपपद्यमानत्वमसिद्धम् ; तथाहि-तत्सम्बन्धस्य नित्यत्वं स्वभावतः, सम्बन्धिनित्यत्वाद्वा स्यात् ? यदि स्वभावतः ; तर्हि सर्वदा सर्वस्य अर्थमसौ प्रकाशयतु स्वरूपतस्तस्य प्रकाशकत्वात् / नहि प्रदीपः स्वरूपतो रूपप्रकाशकः सन् कश्चित्प्रति तत् प्रकाशयति कश्चिन्नेति नियमो दृष्टः / अथ सङ्केतव्यक्तोऽसौ तत्प्रकाशकः 10 तेनायमदोषः ; कथमेवमस्य नित्यैकरूपता, व्यक्ताव्यक्तरूपतया भेदप्रसङ्गात् ? नित्यैक मेतस्माद्वाक्यादयमर्थः प्रत्यायित इत्येवं सम्मुग्धरूपेणावगतं प्रत्यायकत्वं पश्चाद्वहुषु प्रयोगेषु अन्वयव्यतिरेकाभ्यां वाक्यभागानां पदानां पदभागानाञ्च प्रकृतिप्रत्ययानां वाक्यार्थभागेषु पदार्थेषु विविच्यते तस्मान्न / पौरुषेयः सम्बन्धः.."-शास्त्रदी० पृ० 463 / 'तु बुद्धेः शक्ति'-स्या० र० पृ० 677 / (1) पृ० 542 पं० 16 / (2) शब्दार्थसम्बन्धस्य / तुलना-"शब्दवदर्थवच्च तृतीयस्य तस्यप्रत्यक्षादिना प्रमाणेनाप्रतीयमानत्वात् ।"-न्यायमं० पृ० 243 / (3) न शब्दार्थसम्बन्धो नित्यः नित्यरूपतया विचार्यमाणस्यानुपपद्यमानत्वात् / (4) नित्यरूपतया। (5) सम्बन्धिनोः शब्दार्थयोः नित्यत्वाद्वा / तुलना-“असौ नित्यः सन् स्वभावतोऽर्थ प्रकाशयेत्, सङ्केताभिव्यक्तेर्वा"-स्या० र० पृ० 701 / (6) तुलना-" सम्बन्धापौरुषेयत्वे स्यात्प्रतीतिरसंविदः / सम्बन्धापौरुषेयत्वेपीष्यमाणे स्यादर्थानां प्रतीतिरसंविदोऽविद्यमानसङ्केतप्रतीतेः पुंस: / न चेच्छब्दार्थयोः साङ्केतिको वाच्यवाचकता सम्बन्धः किन्तु स्वाभाविकः, तदाऽगृहीतसङ्कतोऽपि श्रुताच्छब्दादर्थं प्रतिपद्यतेति ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 3 / 227 / “यद्यर्थप्रतिपादने शब्दस्य स्वभावेन शक्तिः स्यात; एवन्तहि सन्देहलक्षणमस्याप्रामाण्यं स्यात् इष्टेऽनिष्टे चार्थे प्रकाशनशक्तिसंभवात् / यदि चास्य स्वभावतः एव सा शक्तिः किं सङ्केतेन ?" -प्रमाणवा० स्व० टी०१२२२९ / 'अर्थद्योतनशक्तेश्च सर्वदैव व्यवस्थितेः / तद्धेतुरर्थबोधोऽपि सर्वेषां सर्वदा भवेत् ॥"-तत्त्वसं० 10 710 / “सांसिद्धिके हि तथात्वे भ्रमित्वादिप्रयुक्तादन्यतो वा यतः कुतश्चिदभिनवादपि दीपादिव शब्दादर्थप्रतिपत्तिः स्यात् ।"-न्यायमं० पू० 243 / (7) शब्दार्थसम्बन्धस्य। (8) रूपम् / (9) सम्बन्धः। (10) शब्दार्थप्रकाशकः / तुलना-"सङ्कतात्तदभिव्यक्तावसदान्यकल्पना। न वै सम्बन्धो विद्यमानोऽप्यनभिव्यक्तोऽर्थप्रतीतिहेतुः / सङ्केतः खल्वेनमभिव्यक्तिमे (ति) तर्हि सिद्धोपस्थायी किमकारणं पोष्यते ?"-प्रमाणवा० स्ववृ० 1229 / “यथा दीपस्यार्थप्रकाशने शक्तस्येन्द्रियापेक्षा तथा शब्दस्यन्द्रियापेक्षा तथा शब्दस्यापि सङ्केतापेक्षेति चेत् ; न; प्रदीपेन्द्रिययोः प्रत्येकमभावेऽप्यर्थप्रकाशकत्वाभावात् तत्रान्योन्यापेक्षत्वं युक्तं नैवं शब्दशक्तिसङ्केतयोः, सङ्केतमात्रेणैवार्थप्रतीतेरुत्पत्तेः तस्मान्न स्वभावतः शब्दोऽर्थप्रतिपादनसमर्थ इत्युत्पत्तिलक्षणमप्रामाण्यम् ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 2229 / प्रमाणवा० मनोरथ० 3 / 227 / "तस्मिन् सङ्केतसापेक्षा शक्तिश्चेत्परिकल्प्यते। ननुपकार्यपेक्ष्येत नोपकार्या च साऽचला॥"-तत्त्वसं० 10710 / “अथ सङ्केताभिव्यक्तेः; कथमस्य नित्यकरूपत्वमुपपन्नं व्यक्ताव्यक्तरूपतया भेदप्रसक्तेः।"-स्या० र० पृ० 709 / (11) शब्दार्थसम्बन्धस्य / 1 स्वभावात ब०। संभवस्वभावतः श्र०। 2 प्रकाशयेत श्र०।-पस्तत्स्वरूपतोतत्प्रकाशक: ब०। 4 प्रकाशकं क-ब० / Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26] शब्दार्थयोः नित्यसम्बन्धनिरासः रूपं हि वस्तु यदि व्यक्तं तदा सर्वदा व्यक्तमेव अभिन्नस्वभावत्वात्तस्य / किञ्च, सङ्केतः पुरुषाश्रयः, स च अतीन्द्रियार्थज्ञानविकलतया अन्यथापि वेदे सङ्केतं कुर्यात् अतो मिथ्यात्वलक्षणमस्याऽप्रामाण्यं स्यात् / . किश्च, नित्यसम्बन्धवशात् शब्दः एकार्थनियतः, अनेकार्थनियतो वा स्यात् ? एकार्थनियतश्चेत् ; किमेकदेशेन, सर्वात्मना वा ? सर्वात्मनैकार्थनियमे अर्थान्तरे वेदात् / प्रतिपत्तिर्न स्यात् , ततश्चास्याज्ञानलक्षणमप्रामाण्यम् / चौरशब्दो वा नित्यसम्बन्धात् तस्करे रूढः कथं दाक्षिण्यैः ओदने प्रयुक्तः तमभिदध्यात् / अथैकदेशेनासौ तन्नियतः स किमेकदेशः अभिमतैकार्थनियतः, अनभिमतैकार्थनियतो वा ? अनभिमतैकार्थनियमे मिथ्यात्वलक्षणं वेदस्याऽप्रामाण्यं स्यात् / अथाऽभिमतैकार्थनियतः ; किं पुरुषात् , स्वभावाद्वा ? प्रथमपक्षे अस्यापौरुषेयत्वसमर्थनप्रयासो व्यर्थः / पुरुषो हि रागाद्यन्ध- 10 (1) नित्यैकरूपस्य सम्बन्धस्य / (2) तुलना-''अर्थज्ञापनहेतुहि सङ्केतः पुरुषाश्रयः / गिरामपौरुषेयत्वेऽप्यतो मिथ्यात्वसंभवः // किं ह्यस्यापौरुषेयतया ? यतो हि समयादर्थप्रतिपत्तिः, स पौरुषेयः वितथोऽपि स्यात्, शीलं साधनं स्वर्गवचनम्, अन्यथा समयेन विपर्यासयेत् तेनायथार्थमपि प्रकाशनसंभवात्।”-प्रमाणवा० स्ववृ० 10228 / “सङ्केतमन्तरेणापौरुषेयादपि वाक्यादर्थप्रतीतेरभावात् / अर्थज्ञापनहेतुरिह सङ्केतः स्वीकर्तव्यः, स च पुरुषकृतत्वात्पुरुषाश्रयः / अतः सङ्केतस्य पुरुषाश्रयत्वात् गिरामपौरुषेयत्वेऽपि मिथ्यात्वस्य सम्भवः। सङ्कतवशेन वाचोऽर्थ ब्रुवते / स च दोषाश्रयेण पुरुषेण क्रियत इति तासां न विसंवादशानिरास: पौरुषेयवाक्यवदिति व्यर्थमपौरुषेयत्वकल्पनम् ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 32226 / “अर्थद्योतनहेतोश्च सङ्केतस्य नराश्रयात् / शक्तावितरजन्यायामपि मिथ्यात्वसंभवः ॥"तत्वसं० पृ०७१०। प्रमेयक० पृ० 430 / (3) पुरुषः / (4) वेदस्य / (5) तुलना-"किञ्च वाचां किमेकेनार्थेन सह वाच्यवाचकसम्बधः, अथानेकै: ? गिरामेकार्थनियमे न स्यादर्थान्तरे गतिः / अनेका भिसम्बन्धे विरुद्धव्यक्तिसंभवः // गिरामेकस्मिन्नर्थे वाचकतया नियमे सति संकेतवशादन्यत्रार्थन स्याद् गतिः, दृश्यते च विवक्षातोऽनेकार्थाभिधानम् / अनेकैरथैर्वाचकत्वाभिसम्बन्धे विरुद्धस्यार्थस्य व्यक्ते प्रतीतेः संभवः स्यात् / अग्निष्टोमः स्वर्गस्य साधनमिति विपर्ययोप्यवसीयेत / ततश्चाप्रवृत्तिरेव स्यात् स्वर्गार्थिनः ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 3228 / “सा शक्तिरेकार्थनियता वा भवेन्नानार्थनियता वा।"तत्त्वसंप पृ० 710 / प्रमेयक पृ० 430 / “यदि पुनः शब्दस्य वस्तुनि स्वत एव योग्यत्वं को दोषो येन सङ्केतस्तत्रापेक्ष्यते? इति चेदुच्यते-तत्सर्वविषयं नियतविषयं वा? पूर्वविकल्पे ततो युगपत्सर्वार्थप्रतीतिप्रसङ्गात् तथा च न ततो नियतविषयप्रवृत्त्यादिरिति व्यवहारविलोपः। तत आह-न सर्वयोग्यता साध्वी सङ्कतान्नियमो यदि। द्वितीयविकल्पे दोषमाह -सम्बन्धनियमेऽन्यत्र सङ्कतेऽपि न वर्तताम् ॥"न्यायवि० का० 431 / (6) वेदस्य / (7) 'चोरशब्दो (यथा) लोके भक्ष्यार्थं प्रतिपादयेत् / केषाञ्चिच्चोरमेवाहुः तन्त्रप्येवं पदास्तथा ॥"-ज्ञानसि० पृ० 75 / "यथा चौरशब्दस्तस्करवचन ओदने दाक्षिणात्यैः प्रयुज्यते ।"-न्यायमं० पृ० 242 / प्रश० कन्व० पृ० 215 / (8) एकदेशार्थनियतः / तुलना-“य एवार्थो वस्तुस्थित्या स्वर्गसाधनः किन्तत्रैव समयकारेणग्निहोत्रादिशब्दोऽभिव्यक्तः किम्वान्यस्मिन्नेव स्वर्गसाधनविरुद्ध बद्धिमान्द्यादिति सन्देह एव।"-प्रमाणवा० स्वव० टी० 230 (10) वेदस्य / तुलना-"स इति शब्दः सर्वस्मिन् वाचकत्वेनानियतः नियम क्वचिदर्थे पुरुषात् पुरुषसङ्केतात् प्रतिपद्यते / स च पुरुषो विरुद्धप्यर्थे सङ्केतं कुर्यात्। तथा च न केवलं विरुद्धव्यक्तिसंभवः / यापीयमपौरुषेयता वेदस्येष्टा तस्या व्यर्था स्यात् परिकल्पना।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 11230 / “अथानेका 1 ततश्चाज्ञानल-आ०। 2 उदने आ० / Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 लघीयत्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० स्वात् प्रतिक्षिप्यते तस्माच्चेद् वेदैकदेशोऽर्थनियमं प्रतिपद्येत किमपौरुषेयत्वेन ? . स्वभावादभिमतैकार्थनियमे तु भावनाद्यर्थभेदानुपपत्तिः। अनेकार्थनियतत्वे तु वेदस्य सकलार्थसाधारणत्वात् कथमिष्टव्यक्तावेव समयकार: समयं कुर्यात् ? "तेनाऽग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामे इति श्रुतौ / खादेत् श्वमांसमित्येष नार्थ इत्यत्र का प्रमौ // " [ प्रमाणवा० 3 / 318 ] तन्न स्वरूपतः सम्बन्धो नित्यः / / नापि सम्बन्धिनित्यत्वात् ; यतः कोऽत्र नित्यः सम्बन्धी-शब्दः, अर्थः, द्वयं वा ? न तावच्छब्दः ; तस्याग्रेऽनित्यत्वप्रसाधनात् / नाप्यर्थः ; घटादेस्तदर्थस्य अनित्यतया प्रत्यक्षादितः प्रतीतेः। अथ सामान्यं तदर्थः, तच्च नित्यम् , अतस्तदाश्रितः सम्बन्धोऽपि नित्य इत्युच्यते; तदसत्; सामान्यस्य तदर्थत्वानुपपत्तेः, तद्वानेव शब्दार्थः इत्यग्रे समर्थयिष्यमाणत्वात् , परैपरिकल्पितसामान्यस्य निषिद्धैत्वाच्च / उभयपक्षोऽपि उभयपक्षनिक्षिप्तदोषानुषङ्गादयुक्तः / र्थाभिधाय्यपि शब्द: पुरुषेण सङ्केतादभिमतार्थाभिधायित्वेन नियम्यते तदा-अपौरुषेयतायाञ्च व्यर्था स्यात्परिकल्पना / वाच्यश्च हेतुभिन्नानां सम्बन्धस्य व्यवस्थितेः ।।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 31229 / / (1) तुलना-"असंस्कार्यतया पंभिः सर्वथा स्यान्निरर्थता। संस्कारोपगमे मुख्यं गजस्नानमिदं भवेत् ॥"-प्रमाणवा० 3 / 230 / प्रमेयक० 10 430 / (2) तुलना-"प्रकृत्यैव स्वभावेनैव वैदिकाः शब्दा नियता अभिमतेऽर्थे ततो न पुरुषसंस्कारकृतो दोष इति चेत् ; एवं सत्यर्थप्रकाशने नोपदेशमपेक्षेरन्, अपेक्षन्ते च, स्वतस्तेभ्योऽर्थप्रतीतेरभावात् / यदि च ते स्वभावत एव प्रतिनियताः स्युः तदा यत्र क्वचिदर्थे एकदाः समिताः पुनः कथञ्चित् ततोऽन्यथा सङ्केतेनार्थान्तरं न प्रकाशयेयुः, प्रकाशयन्ति च ततो न प्रकृत्यैकार्थनियताः इति / स्वभावतश्चैकार्थनियमे योऽयं वैदिकेषु वाक्येषु व्याख्यातृणां व्याख्याविकल्पश्च अपरापरव्याख्याभेदश्च न स्यात् एकार्थप्रतिनियमात, भवति च, तस्मात् पौरुषेयवाक्यवन्नैकार्थनियता वैदिकाः शब्दा इति ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 11230 / (3) भावनाविधिनियोगरूपेण भाट्टवेदान्तिप्राभाकाराणां वेदार्थविषये व्याख्याभेदो न स्यादिति भावः / (4) तुलना-"सर्वत्र योग्यस्यैकार्थद्योतने नियमः कुतः।"-प्रमाणवा० 31326 / “नानार्थद्योतने शक्तिर्भवत्येकस्य हिं ध्वनेः / नाग्निहोत्रादयस्त्वर्थाः सर्वे सर्वोपयोगिनः / तदिष्टविपरीतार्थद्योतनस्यापि संभवात् / नित्यशब्दार्थसम्बन्धकल्पना वो निरथिका ॥"-तत्त्वसं० पृ०७११ / (5) “अग्निहोत्रं जुहुयात्"-मैत्र्यु०६।३६ / (6) व्याख्या "तेनेति अपरिज्ञातार्थत्वेन अग्निहोत्रं जहयात् स्वर्गकाम इति श्रुतौ वेदवाक्ये खादेच्छवमासमित्येष नार्थः किन्त्वन्योऽभिमतोऽर्थ इत्यत्र का प्रमा? नैव किञ्चित्प्रमाणम् ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 1320 / "अग्निं हन्तीति अग्निहः श्वा तस्योत्रं मासं जुहुयात् खादेत् / अथवा अगति गच्छतीत्यग्निः श्वा हूयतेऽद्यते यत्तत् होत्रं मांसम् अग्नेर्होत्रमित्यग्निहोत्रं श्वमांसं तज्जुहुयात् खादेत् स्वर्गकामः पुमान् द्विजः / " -प्रमेयरत्नमा० टि० पृ० 134 / उद्धृतोऽयम्-शास्त्रवा० श्लो०६०५ / न्यायमं० पृ० 405 / नन्दिमलय० पृ० 19 / (7) तुलना-'सम्बन्धिनामनित्यत्वान्न सम्बन्धेऽस्ति नित्यता।"-प्रमाणवा० 31231 / (8) शब्दस्य (9) सम्बन्धविषयभूतस्य अर्थस्य। (10) शब्दार्थ:-आ० टि०। (11) सामान्याश्रितः। (12) सामान्यवानेव / (13) मीमांसकनैयायिकादि / (14) पृ० 285 / 1 नित्यसम्बन्धी आ० / 2-स्वात् उभ-ब०। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 प्रमाणप्रे० का 0 26] शब्दार्थयोः नित्यसम्बन्धनिरासः 546 अस्तु वा कुतश्चिन्नित्यः सम्बन्धः; तथाप्यसौ किमैन्द्रियः, अतीन्द्रियः, अनुमानगम्यो वा स्यात् ? नांवदैन्द्रियः; नित्यस्वभावस्य कचिदपीन्द्रियेऽप्रतिभासमानत्वात् / अर्थांतीन्द्रियः; कथमर्थप्रतिपत्त्यङ्गम् अज्ञातस्य ज्ञापकत्वविरोधात् ? 'नाज्ञातं ज्ञापकं नामे" [ ] इत्यभिधानात् / सन्निधिमात्रेण ज्ञापकत्वेऽतिप्रसङ्गात् / नाप्यनुमानगम्यः; सन्बन्धस्याप्रत्यक्षत्वे तत्पूर्वकत्वेनात्राँऽनुमानस्याऽप्रवृत्तेः। / न ह्यगृहीतप्रतिबन्धं किश्चिल्लिङ्गमनुमानमाविर्भावयत्यतिप्रसङ्गात् / अथास्यांप्रत्यक्षत्वेऽपि अनुमानात् प्रतिबन्वग्रहो भविष्यति; ननु किमत एवाऽनुमानात्, तदन्तराद्वा तद्हः स्यात् ? यद्यत एव; अन्योन्याश्रयः-सिद्धे हि अनुमाने तगृहसिद्धिः, तत्सिद्धेश्चानुमानसिद्धिरिति / अनुमानान्तरात्तैत्सिद्धौ अनवस्था, तत्रापि तद्गृहस्य अनुमानान्तरात् प्रसिद्धेः / न चात्र किश्चिल्लिङ्गमस्ति / - नित्यसम्बन्धस्य हि लिङ्गम्-अर्थज्ञानम् , अर्थः, शब्दो वा ? न तावदर्थज्ञानम् ; सम्बन्धासिद्धौ तत्कार्यत्वेनास्याऽनिश्चयात् / नाप्यर्थः; तस्य तेने सम्बन्धासिद्धेः, नहि सम्बन्धार्थयोस्तादात्म्यं संभवति घटाद्यर्थवत् सम्बन्धस्यानित्यत्वप्रसङ्गात् / नापि तदुत्पत्तिः संयोगादिर्वा; अनभ्युपगमात् / नापि शब्दो लिङ्गम् ; अर्थपक्षोपक्षिप्तदोषानु (1) तुलना-"किञ्चासौ सम्बन्धः ऐन्द्रियः अतीन्द्रियः अनुमानगम्यो वा स्यात् ।"-प्रमेयक० पृ० 430 / (2) तुलना-'न च नित्यः सम्बन्धः शब्दार्थयोः प्रमाणेनावसीयते; प्रत्यक्षेण तस्याननुभवात्, तदभावे नानुमानेनापि, तस्य तत्पूर्वकत्वाभ्युपगमात् ।”-सन्मति० टी० पृ० 436 / (3) शब्दार्थसम्बन्धस्य। (४)तुलना-"नातीन्द्रियः सम्बन्धः; ततोऽतीन्द्रियात सम्बन्धात् अर्थस्याप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् / किं कारणम् ? अप्रसिद्धस्य स्वेन रूपेण अनिश्चितस्य अज्ञापकत्वात् / न हि येन सह यस्य सम्बन्धो न गृह्यते तद्द्वारेण तस्य प्रतीतिर्यक्ता / अथाज्ञात एव सम्बन्धोऽर्थं ज्ञापयतीन्द्रियवदित्याह-सन्निधिमात्रेणेत्यादि / सम्बन्धस्य सन्निधिमात्रेण सत्तामात्रेणार्थज्ञापनेऽभ्युपगम्यमाने शब्दार्थसम्बन्धं प्रत्यव्युत्पन्नानामपि अर्थस्यायं वाचक इति प्रतिपत्तिः स्यात् ।"-प्रमाणवा० स्वव०१२२३८ / तत्त्वसं० पृ० 712 / प्रमेयक० पृ० 430 / (5) उद्धृतमिदम्-प्रमेयक० पृ० 124, 206 / (6) प्रत्यक्षपूर्वकत्वेन / (7) शब्दार्थसम्बन्धे / (8) प्रतिबन्धोऽविनाभावसम्बन्धः। (9) शब्दार्थसम्बन्धस्य। (10) अनुमानान्तरात् / (11) अविनाभावग्रहः / (12) अविनाभावग्रहणे। (13) अनुमानान्तरेऽपि / (14) शब्दार्थसम्बन्धाधिगमे / तुलना-"नानुमानात् प्रतिपत्तिः सम्बन्धस्य / कुतः ? लिङ्गाभावात् / नहि सम्बन्धसाधनं किञ्चिल्लिगमस्ति / अर्थप्रतीतिरपि न लिङ्गं दृष्टान्तासिद्धः। न हि क्वचिद् दृष्टान्ते सम्बन्धकार्या अर्थप्रतीतिः प्रतिपन्ना। किङ्कारणम् ? तत्रापि दृष्टान्तत्वेनोपनीते सम्बन्धस्यातीन्द्रियत्वेन कारणेन साधनापेक्षणात् / न चास्ति साधनं तत्रापि दृष्टान्तासिद्धेः।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 10238 (१५)“तस्य हि लिङ्गं ज्ञानमर्थः शब्दो वा?"-प्रमेयक० पृ० 430 / (16) प्रतिपन्ने हि सम्बन्धे तस्य कार्यमर्थज्ञानं निश्चीयते, स चाद्यापि न सिद्ध:-आ० टि०। (17) तुलना-"शब्दार्थो लिङ्गमिति चेदाहनहीत्यादि। न हि तत्र सम्बन्धविशेषे शब्दरूपमर्थो वा लिङ्गम् / किङ्कारणम् ? तयोः शब्दार्थयोः सर्वत्र योग्यत्वात् / सर्वस्य शब्दस्य सर्वस्मिन्नर्थे वाचकत्वेन योग्यत्वात् सर्वस्य चार्थस्य सर्वस्मिन् शब्दे वाच्यत्वेन योग्यत्वात् / अर्थविशेषप्रतीतेश्च कारणं सम्बन्धविशेषः, तस्य च अर्थविशेषप्रतीतिसमाश्रयस्य सम्बन्धस्य अनियताभ्यां शब्दार्थाभ्यामप्रत्यायनात् ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी०११२३८। (18) सम्बन्धस्य / (19) अर्थेन / Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. आगमपरि० षङ्गात् / ततो नित्यसम्बन्धस्य कुतश्चिदप्रसिद्धेः अनित्य एवाऽसौ अभ्युपगन्तव्यः / यदपि तदनित्यत्वे 'प्रतिपुरुषम्' इत्यादि दूषणमुक्तम् ; तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; अनादित्वात् शाब्दव्यवहारस्य / नहि सर्वथा सतो जगतो निर्मूलनाशलक्षणो महाप्रलयः असतश्चात्मलाभलक्षणा सृष्टिः अस्माकं भवतां वा प्रसिद्धा येन अपूर्व5 सृष्टिप्रादुर्भावाश्रयणेन 'समयः प्रतिमर्त्य वा' इत्याद्युक्तं शोभेत / नित्यत्वेऽपि च तत्सम्ब न्धस्य अभिव्यक्तिरनित्याऽभ्युपगन्तव्या, अतस्तत्रापीदं दूषणं तुल्यम् / कथञ्चैववादिनोऽग्निधूमयोरपि सम्बन्धः सिद्ध्येत् तत्राप्युक्तविकल्पानां समानत्वात् / अथाग्निधूमत्वसामान्ययोर्नित्यस्वरूपयोः सम्बन्धित्वेन तत्सम्बन्धनित्यत्वसंभवात् नोक्तविकल्पानां तत्रावकाशः; तदप्यपेशलम् ; केवलँसामान्ययोः सम्बन्धित्वस्य व्याप्तिविचारप्रघट्टके 10 प्रतिषिद्धत्वात् / नित्यत्वञ्च सामान्यस्य प्रागेवे प्रतिषिद्धम् / अतो यथा सादृश्यप्रधान तया सादृश्योपलक्षितानां साध्यसाधनव्यक्तिविशेषाणामनन्तानामपि व्याप्तिज्ञानेन क्रोडीकरणं तथा वाच्यवाचकव्यक्तिविशेषाणामपि / अतः “सम्बन्धस्त्रिप्रमाणकः" [ मी० श्लो० पृ० 680 ] यत्त्वयोच्यते, तत्र 'शब्दवृद्धाभिधेयानि प्रत्यक्षणात्र पश्यति' इति युक्तम् / 'श्रोतुश्च प्रतिपन्नत्वमनुमानेन चेष्टया' इत्यप्युपपन्नम, 'अन्यथानुपपत्त्या तु वेत्ति 15 शक्तिं द्वयाश्रिताम्' इत्येतत्त्वनुपपन्नम् ; नित्यशैक्तौ सम्बन्धाख्यायामन्यथानुपपत्तेरभावात्। वह्निधूमादिशक्तिवत् शब्दार्थाश्रितायाः शक्तेरनित्यत्वेऽपि श्रोतुरर्थप्रतिपत्त्युपपत्तेः / / एतेनेदमपि निरस्तम्"नित्याः शब्दार्थसम्बन्धाः तत्राम्नाता महर्षिभिः / सुत्राणां सौनुतन्त्राणां भाष्याणाश्च प्रणेतृभिः // " [वाक्यप० 1 / 23 ] इति; (१)पृ० 543 पं० 13 / (२)जैनानाम् / (3) मीमांसकानाम्-आ० टि० / "तस्मादद्यवदेवात्र सर्गप्रलयकल्पना। समस्तक्षयजन्मभ्यां न सिद्धयत्यप्रमाणिका।"-मी० श्लो० सम्बन्धा० श्लो०११३ / (4) अभिव्यक्तावपि। (5) शब्दार्थयोः नित्यसम्बन्धवादिनः। (6) अग्निधूमसम्बन्ध / (7) नाग्नित्वधूमत्वयोरविनाभावो गृह्यते किन्तु अग्नित्वविशिष्टाग्निना सह धूमत्वविशिष्टधूमस्याविनाभावः गृह्यते इति भावः / (8) पु० 423 / (9) पृ० 285 / (10) साध्यसाधनव्यक्तीनामानन्त्येऽपि सादृश्याद् व्याप्तिज्ञानेन क्रोडीकृतिः एवं वाच्यवाचकव्यक्तीनामपि सादृश्यवशात्तेन क्रोडीकरणम्. अस्ति ह्यत्रापि सादृश्यम्, घटशब्दवाच्योऽयं पृथुबुध्नोदराद्याकारत्वात् पूर्वोपलब्धघटान्तरवत् / -आ० टि० / (11) तुलना-"अतएव च सम्बन्धस्त्रिप्रमाणक इति यत्त्वयोच्यते तदस्माभिर्न मृष्यते / शब्दवृद्धाभिधेयांश्च प्रत्यक्षेणात्र पश्यतीति सत्यं श्रोतुश्च प्रतिपन्नत्वमनुमानेन चेष्टयेत्येतदपि सत्यम् / अन्यथानुपपत्त्या तु वेत्ति शक्ति द्वयाश्रितामित्येतत्तु न सत्यम् ; अन्यथाप्युपपत्तेरित्युक्तत्वात्।"-ज्यायमं० पृ० 245 / (12) मीमांसकेन कुमारिलभट्टेन / (13) ज्ञाप्यज्ञापकशक्ति-आ० टि०। (14) यथाहि वह्निधूमयोः ज्ञाप्यज्ञापकशक्तिरनित्याऽपि अनुमेयार्थप्रतिपत्तिप्रयोजिका तथैव शब्दार्थयोः वाच्यवाचकशक्तिरपि / (15) सवृत्तिकाणा (ना) म्-आ० टि० / 'अनुतन्त्रं वात्तिकम्"-वाक्यप० पु० टी० / (16) "सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे / सिद्धे शब्देऽर्थे सम्बन्धे चेति ।"-पा० महाभा० 50 55 / "नित्यः 1 भवतो वा श्र० 12-बादिनो धूमाग्न्योरपि श्र०। 3-विदं यथा श्र०। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26 ] अन्यापोहवादः 551 सम्बन्धस्यानित्यत्वसमर्थनात्, शब्दस्य तदर्थस्य चौग्रे अनित्यतया समर्थयिष्यमाणत्वाच्च, सर्वथा नित्यस्य वस्तुनः क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्वाभावप्रतिपाद'नाच्च / कथश्चैववादिनः कार्येर्थे चोदनायाः प्रामाण्यं स्यात् कार्यस्याऽनित्यत्वात् ? ततः सिद्धं कथञ्चिदनित्ययोग्यतालक्षणसम्बन्धवशात् श्रुतस्यार्थप्रतिपादकत्वम् / अतः सूक्तम्-'संवादकं श्रुतं प्रमाणम्' इति ॥छ / ननु श्रुतस्याविसंवादित्वमसिद्धम्, अर्थाभावेऽपि शब्दानामुपलम्भात् / य एव 'शब्दस्यान्यापोहमा- हि शब्दाः सत्यर्थे दृष्टाः ते तेदभावेऽपि दृश्यन्ते, अतः शब्दानां त्राभिधायकत्वम् इति विधिद्वरेणाऽर्थाभिधायकत्वानुपपत्तेः अन्यापोहमात्राभिधायकत्वमेवोबौद्धस्य पूर्वपक्ष:- . पपन्नम् / उक्तञ्च-"अपोह: शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तु विधिनोध्यते" शब्दः नित्योऽर्थः नित्यः सम्बन्ध इत्येषा शास्त्रव्यवस्था। तत्राम्नाता महर्षिभिः सूत्रादीनां प्रणेतृभिः / व्याकरण एव-ये सूत्रादीनां प्रणेतारस्ते व्यपदिश्यन्ते / तत्र सूत्राणामारम्भादेव शब्दानां नित्यत्वमभिमतम् / न ह्यनित्यत्वे शब्दादीनां शास्त्रारम्भे किञ्चिदपि प्रयोजनमस्ति / व्यवहारमात्रं ह्येतदनर्थकं न महान्तः शिष्टाः समनुगन्तुमर्हन्तीति तस्माद् व्यवस्थितसाधुत्वेषु शब्देषु स्मृतिशास्त्रं प्रवृत्तमिति ।"वाक्यप० हरि० 1123 / उद्धृतोऽयम्-सिद्धिवि० टी० पृ० 505 / प्रमेयक० पृ० 429 / (1) पृ० 372 / (2) नित्यससम्बन्धवादिनः-आ०टि० / (3) आम्नायस्य क्रियार्थत्वात् . . .''जैमिनिस० 102 / 1 / “चोदनेति क्रियायाः प्रवर्तकं वचनमाहुः ।"-शाबरभा० 1102 / (4) अग्निष्टोमादियज्ञरूपकर्मणः / (5) “अतीताजातयोऽपि न च स्यादनृतार्थता / वाचः कस्याश्चिदित्येषा बौद्धार्थविषया मता।"-प्रमाणवा०३।२०७। (6) "विकल्पप्रतिबिम्बेषु तनिष्ठेषु निबध्यते। ततोऽन्यापोहनिष्ठत्वादुक्ताऽन्यापोहकृच्छ्रुतिः // विकल्पानां प्रतिबिम्बेष्वाकारेषु तनिष्ठेषु तव्यावृत्तिवस्तुत्वेन व्यवस्थाविषयतया तद्व्यवहारव्यवस्थितिषु सङ्केतकाले निबद्धयते ततो विकल्पप्रतिबिम्बानां बाह्यव्यावृत्तात्मत्वेन व्यवहारविषयत्वात् अन्यापोहनिष्ठत्वात् कारणात् उक्ता श्रुतिरन्यापोहकृत् / अन्यव्यावत्ताकारविकल्पजननात् अन्यव्यावृत्तेषु प्रवर्तनाच्च शब्दोऽन्यापोहकृदुक्तः / ननु शाब्दे ज्ञाने ग्राह्यं बाह्यतयव प्रतीयते न ज्ञानाकारतया इत्याह-व्यतिरेकीव यज्ज्ञाने भात्यर्थप्रतिबिम्बकम् / शब्दात्तदपि नार्थात्मा भान्तिः सा वासनोद्भवा ।।"यथा तैमिरिकदृष्टेषु केशेषु बाह्यभ्रमः एवं विकल्पाकारेऽपि बाह्यव्यवहारोऽविद्यावशादित्यर्थः ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 2 / 164-65 / “तत्र यत्तदारोपितं विकल्पधिया अर्थेष्वभिन्न रूपं तदन्यव्यावृत्तपदार्थानुभवबलायातत्वात् स्वयञ्च अन्यव्यावृत्ततया प्रख्यानाद् भान्तश्चान्यव्यावृत्तार्थेन सहक्येनाध्यवसितत्वात् अन्यापोढपदार्थाधिगतिफलस्वाच्चान्यापोढ इत्युच्यते / तेनापोहः शब्दार्थ इति प्रसिद्धम् ।"-तत्त्वसं० पं० पृ० 274 / “अपोहो बाह्यतया आरोपित आकारोपोह्यतेऽनेनेति कृत्वा यद्वा अपोह्यतेऽस्मिन्नत्यपोहः स्वलक्षणम् तस्मान्न विकल्पानां स्वरूपेण बाह्यो ग्राह्योपि तु स्वाकारेण सहकीकृत एव बाह्यो विषयः, स चासत्योपोह्यतेऽन्यदनेनेति अपोह उच्यते ।"-प्रमाणवा० स्व० टी०१४८। "ननु कोऽयमोपोहो नाम ? यथाव्यवसायं बाह्य एव घटादिरर्थोऽपोह इत्यभिधीयते अपोह्यतेऽस्मादन्यद्विजातीयमिति कृत्वा। यथाप्रतिभासं बुद्धयाकारोऽपोहः अपोह्यते पृथक्क्रियतेऽस्मिन् बुद्धघाकारे विजातीयमिति कृत्वा / यथातत्त्वं निवृत्तिमात्रं प्रसह्यरूपोऽपोहः अपोहनममोहः इति कृत्वा।"-तर्कभा० मो०प० 26 / (7) उद्धृतोऽयम्-अष्टसह० पृ० 140 / स्यामं० पृ० 180 / तुलना-"कथं स एव व्यवच्छेदः शब्दलिङ्गाभ्यां विधिना प्रतिपाद्यते न वस्तुरूपमिति गम्यते ?" 1वानेब Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. आगमपरि० [ क्षणभङ्गाध्यायः (?) ] इति / प्रयोगः-यात्र प्रतिभाति तत्तस्य विषयः यथा अक्षजे संवेदने परिस्फुटप्रतिभासमानवपुरर्थात्मा नीलादिस्तद्विषयः, शब्द लिङ्गप्रभवे च प्रत्यये बहिरर्थतत्त्वरहितं स्वरूपमात्रमेव प्रतिभाति अतस्तदेव तस्य विषय इति / न च तत्प्रभवप्रत्यये बहिराऽसंस्पर्शिस्वरूपमात्रावभासित्वमसिद्धम् ; शब्दलिङ्गयोर्बहिरर्थ। विषयत्वायोगतस्तत्सिद्धेः / तथाहि-शब्दस्य बहिरर्थो विषयो भवन् स्वलक्षणस्वभावो भवेत् , सामान्यस्वरूपो वा ? तत्राद्यपक्षोऽनुपपन्नः; तत्रै सङ्केताभावतः शब्दानां प्रवृत्त्यनुपपत्तेः / सङ्केतो हि सङ्केतव्यवहारकालानुयायिस्वरूपेऽर्थे विधीयते, न च स्वलक्षणस्य तथाविधं स्वरूपं संभवति देशकालाकारसङ्कुचितत्वेन अननुयायिस्वरूपत्वात् / ये: सङ्केतव्यवहारकालाननुयायी न तत्र व्यवहारिभिः शब्दः सङ्केत्यते यथा उत्पन्नमात्र10 प्रध्वंसिनि कचिदर्थे, नान्वेति च विवक्षितदेशादिभ्यः शाबलेयादिर्देशान्तरादाविति / किञ्च, 'अस्येदमभिधानम्' इति यस्मिन् ज्ञाने सम्बन्धः प्रतिभाति न तत्र ज्ञाने प्रतिनियतेन्द्रियविषययोः शब्दार्थस्वलक्षणयोः प्रतिभासः / न च तत्राप्रतिभासनयोः. . प्रमाणवा० स्ववृ० 1144 / “अन्यापोहविषया आचार्येण प्रोक्ताः 'अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां प्रतिपाद्यते' इति ब्रुवता।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 33133 / (1) शब्दलिङ्गप्रभवप्रत्यययोः बहिरर्थरहितं स्वरूपमात्रमेव विषयः तत्र स्वरूपमात्रस्यैव प्रतिभातत्वात / "उच्यते विषयोऽमीषां धीध्वनीनां न कश्चन / अन्तर्मात्रानिविष्टं तु बीजमेषां निबन्धनम / तथाहि-अस्माभिरिष्यत एवैषामन्तर्जल्पवासनाप्रबोधो निमित्तम्, न तु विषयभूतं भान्तत्वेन पूर्वस्य शब्दप्रत्ययस्य निविषयत्वात् / अन्तर्मात्रानिविष्टमिति विज्ञानसन्निविष्टं वासनेति यावत् / एतदेवागमेन संस्पदयन्नाह यस्य यस्येत्यादि-यस्य यस्य हि शब्दस्य यो यो विषय उच्यते / स स संविद्यते नैव वस्तनां सा हि धर्मता ।।"-तत्त्वसं०, पं० पृ. 275 / (2) “यतः स्वलक्षणं जातिस्तद्योगते जातिमांस्तथा / बद्धयाकारो न शब्दार्थे घटामञ्चति तत्त्वतः ।"-तत्त्वम० ए० 276 / (3) "शब्दाः सङ्केतितं प्राहुर्व्यवहाराय स स्मृतः / तदा स्वलक्षणं नास्ति सङ्केतस्तेन तत्र न ॥"-प्रमाणवा० 391 / "तदा व्यवहारकाले तत्स्वलक्षणं नास्ति यत्र सङ्केतः कृतः। एकस्यापि स्वलक्षणस्य क्षणिकत्वात् कालान्तरे तेनैव रूपेणानुगमो नास्ति, अक्षणिकत्वे वा सङ्केतज्ञानाभावादेव तद्विषयत्वस्य कालान्तरेऽनुगमो नास्ति किमत देशकालभिन्नेषु स्वलक्षणेषु, तेन कारणेन तत्र स्वलक्षणेषु संकतो न क्रियते ।"-प्रमाणवा० स्वव० टी०। "तत्र स्वलक्षणं तावन्न शब्दैः प्रतिपाद्यते। सङ्केतव्यवहाराप्तकालव्याप्तिवियोगतः // एतदुक्तं भवतिसमयो हि व्यवहारार्थं क्रियते न व्यसनितया, तेन यस्यैव सङ्केतव्यवहाराप्तकालव्यापकत्वमस्ति तत्रैव समयो व्यहर्तणां युक्तो नान्यत्र / न च स्वलक्षणस्य सङ्केतव्यवहाराप्तकालव्यापकत्वमस्ति / तस्मान्न तत्र समयः इति / व्यक्त्यात्मानोनयन्त्येते न परस्पररूपतः। देशकालक्रियाशक्तिप्रतिभासादिभेदतः // तस्मात्सङ्केतदृष्टोऽर्थो व्यवहारे न दृश्यते / नचागृहीतसङ्केतो बोद्धयेतान्य इव ध्वनेः ॥"-तत्त्वसं०, पं० पृ० 207 / (4) एकपरमाण्वाकारतया एकक्षणस्यायितया निरंशतया च न देशकालाकारान्तरव्याप्तिः स्वलक्षणस्येति भावः / “तस्य देशकालभेदेष्वनास्कन्दनात्, तस्येति सङ्केतकालदृष्टस्य व्यवहारावस्थानादिष देशकालभेदेषु अनास्कन्दनात् अननुगमात् / न हि एकत्र दृष्टो भेदोऽन्यत्र संभवति।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 1294 / (5) स्वलक्षणे नास्ति सङ्केतः सङ्केतव्यवहारकालाननुयायित्वात् / (6) यो हि विवक्षितदेशे सोऽन्यः यश्च देशान्तरं याति सोऽन्यः क्षणिकत्वात्-आ० टि०। (7) श्रोत्रचक्षषी। 1-रहितस्वरूप-आ० / तत्राद्यः पक्षो-ब० // 3-विधस्वरूपं ब०। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26 ] अन्यापोहवादः स्तयोस्तेने सम्बन्धकरणं युक्तमतिप्रसङ्गात् / यो अस्येदमिति सम्बन्धकारिणि ज्ञाने न प्रतिभासेते न तयोस्तेन ज्ञानेन सम्बन्धकरणं यथा गोशब्दतदर्थयोः सम्बन्धज्ञानेऽप्रतिभासमानयोः अश्वशब्दतदर्थयोः न तेर्ने ज्ञानेन सम्बन्धकरणम्, न प्रतिभासेते च . स्वेन्द्रियज्ञानप्रतिभासिनौ शब्दार्थस्वभावौ अस्येदमिति सम्बन्धकारिणि ज्ञाने इति / न चार्थेनाऽकृतसम्बन्धः शब्दस्तं प्रत्याययितुमीशः अतिप्रसङ्गादेव / यो येन सहाऽकृत- / सम्बन्धो न स तमर्थं प्रत्याययति यथा अश्वेन सहाकृतसम्बन्धो गोशब्दः, अकृतसम्बन्धश्च स्वलक्षणेन सर्वः शब्द इति / स्वलक्षणविषयत्वे च शाब्दप्रत्ययस्य इन्द्रियप्रभवप्रत्ययवत् स्पष्टप्रतिभासप्रसङ्गः, न चैवम् , प्रतीतिविरोधात् / तदुक्तम् "अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यमन्यच्छब्दस्य गोचरः। शब्दात्प्रत्येति भिन्नाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते // " [ ] 10 "अन्यथैवाग्निसम्बन्धाद् दाहं दग्धोऽभिमन्यते / अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः सम्प्रतीयते // " [ वाक्यप० 2 / 425 ] इति / (1) शब्दार्थस्वलक्षणयो:-आ० टि० / (2) ज्ञानेन-आ० टि०। (3) शब्दार्थो-आ० टि० / सम्बन्धग्राहिज्ञानेन न शब्दार्थस्वलक्षणयोः सम्बन्धग्रहणम् सम्बन्धग्राहिज्ञानेप्रतिभासमानत्वात् / (4) गोशब्दार्थसम्बन्धग्राहिणा। (5) चक्षर्ज्ञानेऽर्थस्वलक्षणं श्रोत्रज्ञाने शब्दः प्रतिभाति-आ० टि०। (6) "एतदुक्तं भवति-यद्यगहीतसङ्केतमर्थ शब्दः प्रतिपादयेत्तदा गोशब्दोऽप्यश्वं प्रतिपादयेत्, सङ्कतकरणानर्थक्यञ्च स्यात्, तस्मादतिप्रसङ्गापत्तिः बाधकम् ।"-तत्त्वसं० 50 पृ० 277 / (7) शब्दः न स्वलक्षणं प्रतिपादयति तस्मिन्नकृतसङ्केतत्वात् / “प्रयोग:-ये यत्र भावतः कृतसमया न भवन्ति न ते परमार्थतस्तमभिदधति यथा सास्नादिमति पिण्डेऽश्वशब्दोऽकृतसमयः, न भवन्ति च भावतः कृतसमयाः सर्वस्मिन्वस्तनि सर्वे ध्वनय इति व्यापकानुपलब्धेः कृतसमयत्वेनाभिधायकत्वस्य व्याप्तत्वात।"-तत्वसं० पं० 10276 / (8) व्याख्या-'अन्यदेव रूपादिस्वलक्षणमिन्द्रियग्राह्यम्, तस्मादन्यः शब्दस्य गोचरो विषय इति गृह्यताम् / शब्दात्प्रत्येति भिन्नाक्षः प्रध्वस्तनयनः, न तु प्रत्यक्षं यथा भवति तथेक्षते / समानविषयत्वे वाऽनन्धस्येवान्धस्यापि शब्दादपरोक्षैव प्रतिपत्तिः स्यात् / तथात्वे इन्द्रियाग्निसम्बन्धादिवद दाहशब्दादपि दाहार्थप्रतिपत्तिः स्यादित्याह-अन्यथैव...."-प्रश० व्यो०प०५८४ / “अन्यदेवेन्द्रियग्राह्य स्वलक्षणम्, अन्यच्छब्दस्य गोचरः सामान्यलक्षणम्, कुतः ? शब्दात्प्रत्येति भिन्नाक्ष: अन्धोऽपि घटादि, न तु प्रत्यक्षमीक्षते चक्षुष्मानिव / एतदेव भावयति-अन्यथा स्पष्टानुभवेन दाहसम्बन्धात् इन्द्रियार्थयोगेन दाहं स्वगतं दग्धोऽभिमन्यते, एवं पुमान्न जानाति, अन्यथा स्वस्पष्टाननुभवतः दाहशब्देन तेन दाहार्थः संप्रतीयते श्रोत्रा।"-शास्त्रवा० टी० श्लो० 666-67 / (9) स्फाटितनेत्र:-आ० टि०। (10) उद्धृतोऽयम्-'अन्यः शब्दस्य'-प्रश० व्यो० पृ० 384 / न्यायमं०१० 31 / शास्त्रवा० श्लो. , 666 / अनेकान्तजय० पृ०४५। प्रमेयक० पृ० 446 / सन्मति० टी० ए० 260 / धर्मसं०७० पृ० 149 / स्या० 2010 710 / (11) व्याख्या-"दाहाद्यर्थः प्रतीयते-यदि शब्देन यथावद्वाह्योऽर्थः प्रत्याय्यत तदा शब्दसन्निधापितोऽसौ तामार्थक्रियां कथन्न कुर्यात्, यतश्चाग्निसम्बन्धादग्धो दाहमन्यथाऽनुभवति दाहशब्देन च दाहमन्यथाऽवगच्छतीति शब्दार्थयोर्नास्ति कश्चिद्वास्तवः समन्वय इति बोद्धव्यम् ।”-वाक्यप० पु० टी० / उद्धृतोऽयम्-प्रश० व्यो० पृ० 584 / न्यायमं० पृ० 31 / शास्त्रवा० श्लो० 667 / अनेकान्तजय० पृ० 45 / नयचक्रवृ० लि. पृ० 44 B. / 'संप्रकाश्यते'-तत्त्वसं० 1 स्वेन्द्रियविज्ञान-श्र०। 2 उक्तञ्च ब०। 3-क्षते ॥इति / ब०। 20 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० नचैकस्य वस्तुनो रूपद्वयमस्ति येन अस्पष्टं वस्तुगतमेव रूपं शाब्दप्रत्यये प्रतिभासेत; एकस्य द्वित्वविरोधात् / प्रयोगः-यत्कृते प्रत्यये यन्न प्रतिभासते न तत्तस्य विषयः यथा रूपप्रभवप्रत्यये रसः, न प्रतिभासते च शब्दप्रत्यये स्वलक्षणमिति / वस्तुविषयत्वे च शब्दानां मतभेदेन अर्थभेदाभिधायित्वानुपपत्तिः / उक्तश्च “परमार्थंकतानत्वे शब्दानामनिबन्धना / __ न स्यात् प्रवृत्तिरर्थेषु समयान्तरभेदिषु // " [प्रमाणवा० 3 / 206] इति / तन्न स्वलक्षणस्वभावः शब्दस्य विषयो घटते / / ____नापि सामान्यरूपः; वास्तवस्य सामान्यस्यैवाऽसंभवात्, तदसंभवश्च अश्वविषाणवदनर्थक्रियाकारित्वात् सुप्रसिद्धः / न खलु नित्यैकस्वभावस्य॑ क्रमयोगपद्याभ्यापं० पृ० 280 / प्रमेयक० पृ० 447 / सन्मति० टी० पृ० 177, 260 / स्या० र० पृ० 710 / तुलना-"(उष्णादिप्रतिपत्तिर्या) नामादिध्वनिभाविनी। विस्पष्टा (भासते नैषा) तदर्थेन्द्रियबुद्धिवत् / / यथा युष्णाद्यर्थविषयेन्द्रियबुद्धिः स्फुटप्रतिभासा वेद्यते न तथोष्णादिशब्दभाविनी। न [पहतनयनरसनघाणादयो मातुलिङ्गादिशब्दश्रवणात्तद्रूपरसाद्यनुभाविनो भवन्ति यथाऽनुफ्हतनयनादय इन्द्रियधियाऽनुभवन्तः ।"-तत्त्वसं०, पं० पृ० 280 / (1) "न चैकस्य वस्तुनो रूपद्वयमस्ति स्पष्टास्पष्टम् / येनास्पष्टं वस्तुगतमेव रूपं शब्दरभिधीयते इति स्यात्, एकस्य द्वित्वविरोधात् ।"-तत्त्वसं० पं० पृ० 281 / “न हि स्पष्टास्पष्टे द्वे रूपे परस्परविरुद्ध एकस्य वस्तुनः स्तः यत एकेनेन्द्रियबुद्धौ प्रतिभासेत अन्येन विकल्पे / तथा सति वस्तुन एव भेदप्राप्तेः।"-अपोहसि० पृ०७। (2) स्वलक्षणं न शब्दप्रत्ययविषयः शब्दप्रत्यये प्रतिभासमानत्वात् / “न स तस्य च शब्दस्य युक्तो योगो न तत्कृते / प्रत्यये सति भात्यर्थो रूपबोधे यथा रसः / / प्रयोग:-यो हि तत्कृते प्रत्यये न प्रतिभासते न स तस्यार्थः यथा रूपजनिते प्रत्यये रसः, न प्रतिभासते च शब्दे प्रत्यये स्वलक्षणमिति व्यापकानपलब्धिः"-तत्त्वसं० पं०५० 280 / (3) व्याख्या-"परमार्थः स्वलक्षणम् तस्मिन् एकस्थानः (एकस्तानः) प्रवृत्तिर्येषां तद्भावस्तत्त्वं तस्मिन् सति शब्दानामनिबन्धना परमार्थनिबन्धनरहिता प्रवृत्तिर्न स्यात् दर्शनान्तरभिन्नेष्वर्थेषु सिद्धान्तभेदभिन्नेषु ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 11209 / “परमार्थंकतानत्वे परमार्थंकपरत्वे शब्दानामर्थेषु दर्शनान्तरभेदिषु प्रतिदर्शनं भिन्नाभ्युपगमेन नित्यत्वानित्यत्वत्रिगुणीमयत्वादिकल्पितभेदेषु अनिबन्धना परमार्थनिबन्धनरहिता प्रवृत्तिर्न स्यात् / न हि परस्परविरुद्धा बहवो धर्मा एकत्र सन्ति ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 3 / 206 / (4) 'दर्शनान्तरभेदिषु'-प्रमाणवा० / शास्त्रवा० श्लो० 647 / अनेकान्तजय० पृ० 35 A. / प्रकृतपाठ:-अष्टसह० पृ० 168 / सिद्धिवि० टी० पृ० 268 A. / 'तस्मात्प्रवृत्तिरर्थेषु समयान्तरभेदिषु'-स्या० र० पृ०७१०। (5) “अपि प्रवर्तेत पुमान् विज्ञायार्थक्रियाक्षमान् / तत्साधनायेत्यर्थेषु संयोज्यन्तेऽभिधायकाः / तत्रानर्थक्रियायोग्या जातिः / न खलु लोकोऽसंकेतयन् शब्दानप्रयुञ्जानो वा दुःखितः स्यात्। व्यसनापन्नः अथ किमिति चेत् ; सर्व एवाधेय आरम्भः फलार्थः / निष्फलारम्भस्य उपेक्षणीयत्वात् / तदयं क्वचिच्छब्दं नियुञ्जानः किञ्चित्फलमेवेहितुं युक्तः। तच्चेत् सर्वम् इष्टानिष्टाप्तित्यागलक्षणम् / तेनायमिष्टानिष्टसाधनासाधनं कृत्वा तत्र प्रवृत्ति निवृत्ति वा कुर्या कारयेयं वेति नियोग आद्रियेत शब्दान् वा नियुञ्जीत अन्यथोपेक्षणीयत्वात्। तत्र जातिरनर्थक्रियायोग्या। नहि जातिहिदोहादौ क्वचिदपि प्रत्युपस्थिता। न वा तादृशप्रकरणाभावे लोकव्यवहारेषु शब्दप्रयोगः।"-प्रमाणवा० स्ववृ० 1195 / (6) सामान्यस्य / 1 रूपप्रत्यये श्व०। 2 सामान्यस्वरूपः श्र०, ब० / Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26] अन्यापोहवादः 555 मर्थक्रियाकारित्वं संभवतीत्युक्तं सामान्यनिषेधावसरे'। तन्नार्थगोचराः शब्दाः किन्तु अन्यापोहगोचराः / ___ स चौर्धपञ्चमाकारः; तथाहि-न जातिव्यक्तथोस्तैद्गोचरत्वं पूर्वोक्तदोषात् / नापि ज्ञानतदाकारयोः; तयोरपि स्वेन रूपेण स्वलक्षणत्वात्, तस्य च सङ्केताविषयतया शब्दगोचरतानुपपत्तेः, किन्तु स एव ज्ञानाकारो दृश्यविकल्पावेकीकृत्य बहीरूपतया- 6 ऽध्यस्तोऽर्धपश्चमाकारः अन्यापोहः / बाह्यत्वं हि तस्य अर्धाकारः / अपोहश्च निषेधः / स च द्विविधः-पर्युदासः, प्रसज्यश्च। पर्युदासोऽपि द्विविधःबुद्ध्यात्मा, अर्थात्मा च / तत्र बुद्ध्यात्मा, बुद्धिप्रतिभासोऽनुगतैकरूपत्वेन अर्थेष्वध्यवसितः / अर्थात्मा अर्थस्वभावो विजातीयव्यावृत्तमर्थस्वलक्षणम् / तत्रै बुद्ध्यात्मनो (1) पृ० 285 / (2) जातिव्यक्तिज्ञानतदाकारा एते सत्याः, अर्धपञ्चमाकारः अर्धत्वं त दृश्यस्य सत्यत्वात् विकल्पस्यासत्यत्वात्-आ० टि०। (3) शब्दविषयत्वम् / (4) ज्ञानरूपेण / (5) ज्ञानस्वलक्षणस्य / (6) "व्याख्यातार एवं विवेचयन्ति न हि व्यवहारः / ते तु स्वालम्बनमेव अर्थक्रियायोग्यं मन्यमानाः दृश्यविकल्प्याविकीकृत्य प्रवर्तन्ते / ते हि यथावस्थितं वस्तु व्यवस्थापयन्तः एवं विवेचयन्ति / अन्यो विकल्पबुद्धिप्रतिभासः अन्यत्स्वलक्षणमिति, न व्यवहार एवं विवेचयन्ति / ते तु व्यवहारः स्वालम्बनमेवेति विकल्पप्रतिभासमेवार्थक्रियायोग्यं बाह्यस्वलक्षणरूपं मन्यमानाः / एतदेव स्पष्टयति-दृश्योऽर्थः स्वलक्षणम् विकल्प्योऽर्थः सामान्यप्रतिभासः तावेकीकृत्य स्वलक्षणमेवेदं विकल्पबु या विषयीक्रियते शब्देन चोद्यते इत्येवमधिमुच्यार्थक्रियाकारिण्यर्थे प्रवर्तन्ते, तदभिप्रायवशाद् व्यवहर्तृणामभिप्रायवशादेवमुच्यते विवेकिषु भावेषु विकल्पबुद्धिर्भवतीति / दृश्यविकल्प्यावेकीकृत्य प्रवृत्तेरिति वदता न स्वाकारे बाह्यारोप इत्युक्तं भवति अन्यथा स्वाकार एव प्रवृत्तिप्रसंगात् मरीचिकायां जलारोपादिव / नापि ब्राह्ये स्वाकारारोपः; आरोप्यमाणफलाथित्वेनैव प्रवृत्तिप्रसंगात् जलार्थिन इव जलभ्रान्तौ / ' अर्थानुभवे सति तत्संस्कारप्रबोधेन तदाकार उत्पद्यमानो विकल्प: स्वाकारं बाह्याभिन्नमध्यवस्यति न त्वभिन्नं करोति / तेन विकल्पविषयस्य दृश्यात्मतयाध्यवसायाद् दृश्यविकल्प्ययोरेकीकरणमुच्यते।"-प्रमाणवा० स्ववृ०, टी० 1172 / (7) “तथाहि द्विविधोऽपोहः पर्युदासनिषेधतः / द्विविधः पर्युदासोऽपि बुद्धयात्माऽर्थात्मभेदतः / तत्र बुद्धयात्मा बुद्धिप्रतिभासः, अर्थेष्वनुगतैकरूपत्वेना'ध्यवसितः / अर्थात्मा अर्थस्वभावः विजातीव्यावत्तमर्थस्वलक्षणमित्यर्थ ।"-तत्त्वसं०, पं० पृ० 316 / तुलना-"त्रिविधो हि वोपोहः-एकस्तावद् व्यावृत्तं स्वलक्षणमेव अन्योऽपोह्यतेऽस्मिन्निति कृत्वा, यदधिकत्याह-स्वभावपरभावाभ्यां यस्माद् व्यावृत्तिभागिनः इति... व्यवच्छेदमात्रं द्वितीयः अन्यापोहनमन्यापोह इति कृत्वा;"विकल्पबुद्धिप्रतिभासस्तु तृतीयः अपोह्यतेऽनेनेति कृत्वा, अयञ्च शब्दस्य निबन्धनतयाऽभ्युपगम्यते ।"-अनेकान्तजय० पृ० 37A. / (8) "तत्र बुद्ध्यात्मनः स्वरूपं दर्शयन्नाह-एकेत्यादि / एकप्रत्यवमर्शस्य य उक्ता हेतवः पुरा। अभयादिसमा अर्थाः प्रकृत्यैवान्यभेदिनः // तानुपाश्रित्य यज्ज्ञाने भात्यर्थप्रतिबिम्बकम। कल्पकेऽर्थात्मताऽभावेप्यर्था इत्येव निश्चितम् / / ... यथा हरीतक्यादयो बहवोऽन्तरेणापि सामान्यमेकं ज्वरादिशमनलक्षणं कार्यं कुर्वन्ति तथा शाबलेयादयोऽप्यर्थाः सत्यपि भेदे प्रकृत्या एकाकारप्रत्यवमर्शस्य हेतवो भविष्यन्तीत्यन्तरेणापि वस्तभतं सामान्यमिति / अभयादिसमा इति-हरीतक्यादितुल्याः एकार्थकारितया साम्यम् / तानुपाश्रित्य इति-तानभयादिसमाननाश्रित्य हेतूकृत्य तदनुभवबलेन यदुत्पन्नं विकल्पकं ज्ञानं तत्र यदाकारतयाऽर्थप्रतिबिम्बकमर्था 1 चार्थपञ्च-ब०, चार्थसंच-श्र०।-भासानु-ब० / 3-श्वव्यवस्थितः श्र० / 4 अथात्मा ब०। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० विशेषलक्षणम्-स्वभावतः परस्परविलक्षणानर्थानेकार्थकारितया समानहेतुत्वेनाश्रित्य यदेकप्रत्यवमर्शरूपमर्थप्रतिबिम्बस्वभावं ज्ञानमुत्पन्नं तस्य 'अपोह' इति संज्ञा / वस्तुभागच्छायो विकल्पेनोल्लिख्यमानो बाह्यत्वेनाऽभिमन्यमानो विकल्पाकारः स्वाकारविपरीताकारोन्मूलकोऽपोहः 'अपोह्यते अनेन' इति, विकल्पान्तरवाकाराद् भेदेन स्वयं प्रतिभासमानत्वात् / 'अपोह्यते अन्यस्मात्' इत्यन्यापोहः, अयं हि मुख्यतयैव अन्योपोहशब्दाभिधेयः / त्रिभिस्तु कारणैः औपचारिकः-कारणे कार्यधर्मारोपात्, कार्ये कारणधर्मोपचाराद्वा, विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणेन सहैकत्वाध्यवसायाद्वा ? कार्य हि यथोक्लान्यापोहस्य अन्यव्यावृत्तवस्तुप्राप्तिः, अतस्तत्कारणतया कार्यधर्मोऽन्यव्यावृत्तिः तत्री ध्यारोप्यते / कार्ये कारणधर्मो वा; कारणं हि एकप्रत्यवमर्शात्मनोऽन्याँपोहस्य अन्यासं10 सृष्टं स्वलक्षणं तदनुभवेन तस्य जनितत्वात् , अस्ति च कारणभूते स्वलक्षणे अन्यव्या वृत्तिः अतस्तस्याः कार्यभूते प्रत्युवमर्श उपचारः। विजातीयव्यावृत्तं यत्स्वलक्षणं तेन सह प्रत्यवमर्शप्रतिभासिनो रूपस्य एकत्वेनाध्यवसितत्वाद्वा अन्यापोहतेति प्ररूपितः पर्युदासरूपोऽपोहः / ___ प्रसज्यरूपेस्तु 'गौरयम् अगौर्न भवति' इति व्यवच्छेदमात्रपर्यवसित इति / 15 प्ररूपितप्रकारस्य अन्यापोहस्यैव वाचकः शब्दोऽभ्युपगन्तव्यः / वाच्यवाचकभावश्च भासो भाति तादात्म्येन तत्रान्यापोह इत्येषा संज्ञा उक्तेति सम्बन्धः। कल्पक इति-विकल्पके सविकल्प इति यावत् / एतच्च ज्ञान इत्यनेन समानाधिकरणम। अर्थात्मताभावेऽपि इति / बाह्यार्थात्मताया अभावेऽपि / निश्चितमिति अध्यवसितम्।"-तत्त्वसं०,पं० पृ० 317 / ' (1) अश्वादिविकल्पादन्यो गवादिविकल्पः- आ.टि०। (2) "अथ कथं तस्यापोह इत्येष व्यपदेश इत्याह-प्रतिभासान्तरादित्यादि। प्रतिभासान्तराद् भेदादन्यव्यावृत्तवस्तुनः। प्राप्तिहेतुतयाऽश्लिष्टवस्तुद्वारागतेरपि // विजातीयपरावृत्तं तत्फलं यत्स्वलक्षणम् / तस्मिन्नध्यवसायाद्वा तादात्म्येनास्य विप्लुतैः / तत्रान्यापोह इत्येषा संज्ञोक्ता सनिबन्धना। चतुर्भिनिमित्तैरपोह इति तस्याख्या। विकल्पान्तरारोपितप्रतिभासान्तराद् भेदेन स्वयं प्रतिभासनात् मुख्यतः,अपोह्यत इत्यरोहः, अन्यस्मादपोहोऽन्यापोह इति व्युत्पत्तेः। उपचारात्तु त्रिभिः / १-कारणे कार्यधर्मारोपाद्वा, यदाह अन्यव्यावृत्तवस्तुनः प्राप्तिहेतुतयेति। २-कार्ये वा कारणधर्मोपचारात्, तद्दर्शयति-अश्लिष्टवस्तुद्वारा गतेरपीति / अश्लिष्टम् अन्यासम्बद्धम् अन्यतो व्यावृत्तमिति यावत्, तदेव वस्तु द्वारमुपायः, तदनुभवबलेन तथाविधविकल्पोत्पत्तेः / ३-विजातीयापोहपदार्थेन सहक्येन भान्तः प्रतिपतृभिरध्यवसितत्वाच्चेति चतुर्थं कारणम् / तद्दर्शयति-विजातीयेत्यादि / अस्येति / विकल्पबुद्ध्यारूढस्य अर्थप्रतिबिम्बस्य सनिबन्धनेति / सह निबन्धनेन प्रतिभासान्तराद् भेदादिनोक्तेन चतुर्विधेन वर्तत इति सनिबन्धना।"-तत्वसं०, पं० पृ० 317 / (3) अन्यापोहः कारणम् अन्यव्यावृत्तवस्तुप्राप्ति: कार्यम्-आ० टि०। (4) अपोहे कारणे-आ० टि० / (5) एतत्कार्यम् / (6) एतत्कारणम्-आ० टि०। (7) अन्यापोहस्य-आ० टि०। (8) अन्यापोहस्वरूपे-आ० टि०। (9) "प्रसज्यप्रतिषेधश्च गौरगौन भवत्ययम् / अतिविस्पष्ट एवायमन्यापोहोऽवगम्यते ॥"-तत्त्वसं० पृ० 318 / (10) “तदेवं त्रिविधमपोहं प्रतिपाद्य प्रकृते शब्दार्थत्वे योजयन्नाह-तत्रायमित्यादि / तत्रायं प्रथमः शब्दरपोहः प्रतिपद्यते / बाह्यार्थाध्यवसायिन्या बुद्धेः शब्दात्समुद्भवात् / / प्रथम इति यथोक्तार्थप्रतिबिम्बात्मा। तत्र कारणमाह-बाह्यार्थाध्य -1-नाम्यवस्थितत्वाद्वा आ० / Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26] अन्यापोहवादः कार्यकारणभावान्नान्यः; बुद्धिसम्बन्धिनो हि प्रतिबिम्बस्य शब्दजन्यत्वात तेद्वाच्यत्वं तज्जनकत्वाच्च शब्दस्य वाचकत्वमिति // छ / अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्त - 'अपोहः शब्दलिङ्गाभ्याम्' इत्यादि; तदसमी चीनम् ; यतः प्रमाणतः कुतश्चित्तत्सिद्धौ तस्य तद्विषयत्वं युक्तम् , अपोहवादानरसनपरस्सरं शब्दस्य न चासौ कुतश्चित् प्रमाणात्प्रसिद्धः; तथाहि-अपोर्हः प्रत्यक्षतः सिद्ध्येत् , / परमार्थसत्सामान्य- अनुमानाद्वा ? न तावत्प्रत्यक्षतः; स्वलक्षणविषयत्वात्तस्य / नाप्यनुविशेषात्मकार्थवाच- मानतः; तदविनाभाविलिङ्गाभावात् / नहि असन्निवृत्त्या अगोनिकत्वसमर्थनम् - वृत्त्या चौविनाभूतं किञ्चिल्लिङ्गमस्ति / तादात्म्यतदुत्पत्तिप्रतिबन्धवसायिन्या इत्यादि / यदेव हि शाब्दे ज्ञाने प्रतिभासते स एव शब्दार्थो यक्तः / न चात्र प्रसज्यप्रतिषेधाध्यवसायोऽस्ति, न चापीन्द्रियज्ञानवत् स्वलक्षणप्रतिभासः / कि तहि ? बाह्यार्थाध्यवसायिनी केवलं शाब्दी बुद्धिरुपजायते / तेन तदेवार्थप्रतिबिम्बकं शाब्दे ज्ञाने साक्षात्तदात्मतया प्रतिभासनाच्छदार्थो युक्तो नान्य इति, भावः / एवं तावत्प्रतिबिम्बलक्षणोऽपोहः साक्षाच्छन्दैरुपजन्यमानत्वान्मुख्यः शब्दार्थ इति दर्शितम् / शेषयोरप्यपोहयोः गौणं शब्दार्थत्वमुपवर्ण्यमानमविरुद्धमेवेति दर्शयन्नाह-साक्षादाकार एतस्मिन्नेवञ्च प्रतिपादिते / प्रसज्यप्रतिषेधोऽपि सामर्थ्येन प्रतीयते / / न तदात्मा परात्मेति सम्बन्धे सति वस्तुभिः // व्यावृत्तवस्त्वधिगमोऽप्यर्थादेव भवत्यतः॥ तेनायमपि शब्दस्य स्वार्थे इत्युपचर्य्यते / न तू साक्षादयं शान्दो द्विविधोपोह उच्यते / एवञ्चेति / जन्यत्वेन / कस्मात्पुनः सामर्थ्येन प्रसज्यप्रतिषेधः प्रतीयत इति दर्शयन्नाह-न तदात्मेति / तस्य गवादिप्रतिबिम्बस्यात्मा यः परस्य अश्वादिप्रतिबिम्बस्यात्मा स्वभावो न भवतीति कृत्वा / एवं प्रसज्यलक्षणापोहस्य नान्तरीयकतया प्रतीतेौणं शब्दार्थत्वं प्रतिपाद्य स्वलक्षणस्यापि प्रतिपादयन्नाह-सम्बन्धे सतीत्यादि / तत्र सम्बन्धः शब्दस्य वस्तुनि पारम्पर्येण कार्यकारणभावलक्षणः प्रतिबन्धः। प्रथमं यथावस्थितवस्त्वनुभवः ततो विवक्षा ततः ताल्वादिपरिस्पन्दः ततः शब्द इत्येवं परम्परया शब्दस्य वस्तुभिः बारिग्न्यादिभिः सम्बन्धः स्यात्तदा तस्मिन् सम्बन्धे सति विजातीयव्यावृत्तस्यापि वस्तुनोऽर्थापत्तितोऽधिगमो भवति / अतो द्विविधोऽपि प्रसज्यप्रतिषेधः अन्यव्यावृत्तवस्त्वात्मा चापोहः शब्दार्थ इत्युपचर्यते / अयमिति स्वलक्षणात्मा, अपिशब्दात् प्रसज्यात्मा च ।"-तत्त्वसं०, 50 पृ० 318-19 / (1) ननु सौगतैस्तादात्म्यतदुत्पत्तिरूप एव सम्बन्ध इष्यते तत्किमत्र वाच्यवाचकभावोपीप्यते इत्याह-आ० टि०“यश्चापि शब्दस्यार्थेन स वाच्यवाचकभावलक्षणः सम्बन्धः प्रसिद्ध: नासौ कार्यकारणभावादन्योऽवतिष्ठते, अपि तु कार्यकारणभावात्मक एवेति दर्शयति-तद्पप्रतिबिम्बस्येत्यादि / तद्रूपप्रतिबिम्बस्य धियः शब्दाच्च जन्मनि / वाच्यवाचकभावोऽयं जातो हेतुफलात्मकः / / " शब्दः प्रतिबिम्बस्य जनकत्वाद्वाचक उच्यते, तच्च प्रतिबिम्बं शब्देन जन्यमानत्वाद्वाच्यम्।"-तत्त्वसं० पं० पृ०३१८१९। (2) तेन शब्देन तत्प्रतिबिम्बस्य वाच्यत्वम्-आ० टि०। (3) पृ० 551509 / (4) अपोहस्य / (5) शब्दलिङ्गगोचरत्वम् / (6) तुलना- "इन्द्रिय प्यगोपोहः प्रथमं व्यवसीयते / नान्यत्र शब्दवृत्तिश्च किं दृष्ट्वा स प्रयुज्यताम् // 78 // पूर्वोक्तेन प्रबन्धेन नानुमाप्यत्र विद्यते / सम्बन्धानुभवोऽप्यस्य तेन नैवोपपद्यते // 71 // नागृहीतश्च गमकः शब्दापोहः कथञ्चन / प्रत्यक्षं न च तच्छक्तं न च स्तो लिङ्गवाचकौ // 106 // यतः स्याद् ग्रहणं तस्य, लिङ्गादीनाञ्च कल्पने। न व्यवस्थेति वाच्यैवं बिना प्रत्यक्षमूलतः ॥१०७॥"-मी० श्लो० अपोह० 78-79,106-7 / प्रमेयक० पृ० 435 / प्रमेयर० 3 / 101 / (7) अपोहाविनाभावि। 1 बाविनाभूतं ब०। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. भागमपरि० प्रकारेण हि भवन्मते अविनाभावो व्यवस्थितः। नचान्यव्यावृत्तेः केनचित्सह तादात्म्यतदुत्पत्ती घटेते। तथाहि-अकृतकत्वव्यावृत्तिः कृतकत्वम् , तत् स्वलक्षणात्मकम् , नित्यव्यावृत्तिरूपाऽनित्यत्वात्मकं वा स्यात् ? न तावत्स्वलक्षणात्मकम् ; अवस्तुरूपत्वात् , यंद वस्तुरूपं न तत् स्वलक्षणात्मकं यथा खरविषाणम् , अवस्तुरूपश्च अकृतकत्वव्यावृत्ति5 रूपतया कृतकत्वमिति / नापि नित्यव्यावृत्तिरूपाऽनित्यत्वात्मकम् ; उभयो नीरूपतया तादात्म्यसम्बन्धाभावात्। यया नीरूपत्वं न तयास्तादात्म्यसम्बन्धः यथा खपुष्पवन्ध्यासुतयोः, नीरूपत्वञ्च अन्यव्यावृत्तिस्वभावयोः कृतकत्वानित्यत्वयोरिति / तन्नानयोस्तादात्म्यं घटते / नापि तदुत्पत्तिः; नीरूपत्वादेव / तथाहि-यन्नीरूपं तन्न कस्यचिजन्य जनकं वा यथा खरविषाणम् ,नीरूपश्च साध्यसाधनत्वेनाऽभिप्रेतं प्रकृतमन्यापोहद्वयमिति / 10 ननु चार्थाभावेऽपि अर्थाकारं यत् प्रतिबिम्बमुत्पन्नं तदेवान्यापोहः, स च स्वसंवेदनप्रत्यक्षत एव सिद्ध्यति, इत्यनर्थकं तत्रानुमानम् ; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; ज्ञानेsकारधारित्वस्य तन्निराकारत्वसिद्धौ प्रतिषिद्धत्वात् / अस्तु वा तत् ; तथापि-अत्र कस्य प्रतिबिम्बनम्-स्वलक्षणस्य, सामान्यस्य वा ? न तावत्स्वलक्षणस्य; तस्य व्यावृत्ताकारत्वात् / अनुगतैकरूपश्च प्रतिबिम्बम् अन्यापो15 होऽभिप्रेतः, अतः स्वलक्षणेनापि तथाविधेनैव भवितव्यम् / तथाहि-यस्ये हि यदाकारं प्रतिबिम्बं तत् स्वयमपि तदाकारमेव यथा मुखचन्द्रादि, अनुगतैकाकारश्च स्वलक्षणस्य ज्ञाने प्रतिबिम्बमिति / अथ सामान्यस्य ज्ञाने प्रतिबिम्बनमिष्यते; तदप्यसत्; तस्याऽसतः प्रतिबिम्बनानुपपत्तेः / यदसन्न तत् कचित् प्रतिबिम्बति यथा खपुष्पम् , असञ्च भवन्मते सामान्यमिति / तत्रै तत्प॑तिबिम्बाभ्युपगमे वा प्रतिबिम्बोदयात्प्रागन्योन्यविविक्ततद्रूपद्वयोपलम्भप्रसङ्गः। यत्र यत् प्रतिबिम्बति तवयं प्रतिबिम्बोदयात्प्रागन्योन्यविविक्तमुपलभ्यते यथा मुखादर्शादि, प्रतिबिम्बैति च ज्ञाने सामान्याकार इति / अथ वाहदोहाघेकार्थक्रियाकारितया स्वलक्षणमेवानुवृत्ताकारं सत् सामान्यम् , अतो नोक्तदोषावकाशः; तदयुक्तम् ; एकार्थक्रियामकुर्वतस्तत्कारित्वाभावतः प्रतिबिम्बो (1) सौगतसिद्धान्ते / (2) अकृतकत्वव्यावृत्तिरूपं कृतकत्वं न स्वलक्षणात्मकम् अवस्तुरूपत्वात् / (3) अकृतकत्वव्यावृत्तिरूपकृतकत्व-नित्यत्वव्यावृत्तिरूपाऽनित्यत्वयोश्च / (4) अन्यव्यावृत्तिरूपयोः कृतकत्वानित्यत्वयोः तादात्म्यं न भवति नीरूपत्वात् / (5) कृतकत्वमनित्यत्वञ्च-आ० टि०। (6) पृ०१६७। (7) प्रतिबिम्बम् / (8) अनुगतैकरूपेण / (9) स्वलक्षणमनुगतेकाकारम् अनुगतैकाकाररूपेण प्रतिबिम्बितत्वात्। (10) सामान्यस्य अन्यापोहात्मकत्वेन अर्थक्रियाकारित्वाभावेन चासतः। (11) न समान्य ज्ञाने प्रतिबिम्बति असत्त्वात् / (12) बौद्धमते / (13) ज्ञाने / (14) सामान्य / (15) प्रतिबिम्बाधारस्य ज्ञानस्य प्रतिबिम्ब्यस्य च सामान्यस्य विविक्तं स्वरूपद्वयं प्रतिभासेत इति भावः। (16) ज्ञानं सामान्यञ्च विभिन्नतया उपलभ्येताम् तत्र प्रतिबिम्ब्यमानत्वात् / (17) प्रतिबिम्बाभावलक्षणो दोषः / (18) सामान्यस्य / 1-कं तयोःश्र०। नन चाकारं आ०। 3 इत्यसमी-2०14 'तस्य' नास्ति आ। 6-तव्यं यस्य यस्य हि आ०, श्र०। 6-विविक्तस्तद्रूप-ब०। 7-बिम्बते भ्र०। 8-बिम्बते च श्र०। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 26 ] अन्यापोहवादः 556 दयाभावानुषङ्गात् / अर्थक्रियायाश्च कादाचित्कत्वात् तदुदयोऽपि कदाचिदेव स्यात् / किञ्च, एकार्थक्रियाकारित्वं स्वलक्षणे यद्येकमभ्युपगम्यते तदा बाह्यावभासितयोपलभ्यमानप्रतिभासबलात् तदेव प्रतिभास्यमस्तु किं प्रतिबिम्बाग्रहग्रहेण ? ... किञ्च, यदि स्वप्रतिबिम्बमात्राध्यवसायित्वं शाब्दविकल्पस्य स्यात् तर्हि अंतः कुतो बहिरर्थे प्रवृत्तिः स्यात् ? स्वप्रतिभासेऽनर्थे अर्थाध्यवसायाचेत् ; ननु कोऽयमर्थाध्य- 5 वसायो नाम-बाह्यस्यार्थस्य ग्रहणम् , करणम् , योजनम् , समारोपो वा ? प्रथमपक्षे पैरमतसिद्धिः; शाक्यैः शाब्दप्रत्ययानां बहिरर्थग्रहणानभ्युपगमात् / द्वितीयपक्षोप्यनुपपन्नः; नहि बाह्यार्थकरणे ज्ञानानां सामर्थ्यम्, स्वसामग्रीतस्तेामाविर्भावात्, अन्यथा अप्रतिहता सर्वस्य सर्वार्थसिद्धिः स्यात् / __ अथ स्वांकारं विकल्पो बाह्येनार्थेन योजयति; तदसत्; तथाप्रतीतेरसंभवात् / नह्येवं 10 कस्यचित् प्रतीति: योऽयमाकारो मदीयः स बाह्यार्थविशिष्टः' इति, बाह्यार्थेन सह स्वाकारस्य सम्बन्धाभावतो विशेषणविशेष्यभावानुपपत्तेः। न च परम्परया तदुत्पत्तिसम्बन्धोऽस्यास्तीत्यभिधातव्यम् ; व्योवृत्ताकारार्थस्य अनुवृत्ताकारप्रतिबिम्बनहेतुत्वप्रतिषेधात् / अथ बाह्यमर्थं विकल्पः स्वाकारे समारोपयति; तदप्यसाम्प्रतम् ; समारोपो हि उभयग्रहणे सति स्यात् , असति वा ? न तावदसति; उभयग्रहणपुरस्सरत्वात्तस्य / य: 15 समारोपः स उभयग्रहणपुरस्सरः यथा गोर्वाहीके समारोपः, समारोपश्च विकल्पाकारे बाह्यार्थस्येति / न चेदं निदर्शनं साध्यविकलम् ; येनैव हि गौरनुभूतः वाहीकश्च, स (1) “तथापि विकल्पाद्वाह्याभिमुखप्रवृत्तिस्तदर्थिनां न स्यात् ।"-न्यायवा० पृ० 485 / "इत्थमपि ततो वस्तुनि प्रवृत्त्यनुपपत्तेः ।"-अनेकान्तजय० 40 35 B. / “अन्यापोहे प्रतीते च कथमर्थे प्रवर्तनम् / शब्दात्सिद्धयेज्जनस्यास्य सर्वथाऽतिप्रसङ्गतः॥"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 101 / प्रमेयक० पृ० 431 / रत्नाकराव० 4 / 11 / (2) तुलना-"न; तदेकीकरणासिद्धेः, दृश्यविकल्प्ययोरत्यन्तभिनत्वात्, साधायोगात्, एकस्योभयानुभवितुरभावात् तदा द्वयदर्शनादर्शनविकल्पानुपपत्तेः ।"-अनेकान्तजय० पृ० 35 B. / “स्वाकारमबाह्यं बाह्यमध्यवस्यन् विकल्पः स्वाकारबाह्यविषय इति चेत्; यथाह-स्वप्रतिभासेऽनर्थेऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तिरिति / अथ कोऽयमध्यवसाय:-किं ग्रहणमाहोस्वित् करणम् उत योजना अथ समारोपः ? तत्र स्वप्रतिभासमनर्थमर्थं कथं गृह्णीयात् कुर्याद्वा विकल्पः / न हि पीतं नीलं शक्यं ग्रहीतु वा शिल्पिशतेनापि / नप्यगृहीतेन स्वलक्षणेन स्वाकारं योजयितुमर्हति विकल्पः / न च स्वलक्षणं विकल्पगोचर इति चोपपादितम् ।"-न्यायवा० ता० पृ० 485 / ( जैनमत / (4) अर्थानाम्-आ० टि० / (5) ज्ञानमात्रेणैव यद्यर्थस्य समुत्पत्तिः स्यात्तदा असङ्ख्यरूप्यकपरिज्ञानादेव असंख्यरूप्यकोत्पत्तौ विश्वमदरिद्रं स्यात् / (6) विकल्पाकारस्य-आ० टि०। (7) स्वाकार-बाह्यार्थयोः। (8) स्वलक्षणरूपो बाह्योर्थः ततो निर्विकल्पकमिति ( ततो निर्विकल्पक तस्माच्च सविकल्पकमिति ) पारम्पर्येण विकल्पार्थयोस्तदुत्पत्तिसम्बन्ध:-आ.टि०। (9) न हि व्यावृत्ताकारादनुवृत्ताकारं जायते-आ० टि० / (10) एकस्य अन्यत्र समारोपस्य / (11) विकल्पाकारे बाह्यार्थसमारोपः उभयग्रहणपूर्वकः समारोपत्वात् / 1 धारणम् ब०। 2 स्वाकारविक-श्र०।-रभावात् ब०,श्र०। 'समारोपः' नास्ति श्र। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 लघीयत्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० तद्धर्मान बहुभारोद्वहनादीन वाहीके निश्चित्य गोत्वमारोपयति 'गौर्वाहीकः' इति / अथोभयग्रहणे सति आरोप: स्यात् ; नर्नु उभयोर्ग्रहणं विकल्पेन, निर्विकल्पेन वा स्यात् ? न तावनिर्विकल्पेन; अस्य स्वलक्षणगोचरतया अन्यापोहस्वरूपविकल्पाकारे प्रवृत्त्यनुपपत्तेः / नापि विकल्पेन; अस्य बाह्यार्थपैरोमर्शपराङ्मुखत्वात् , अतः कथमसौ स्वाकारे बाह्यं तत्रं वा स्वाकारमारोपयेत् ? ___ अस्तु वाऽस्योभयग्रहणम् ; तथापि-पूर्व स्वप्रतिभासमनर्थमनुभूय पश्चादर्थमारोपयति, युगपदेव वा स्वप्रतिभासञ्चानुभवति अर्थश्च समारोपयति, किं वा यावदेवोक्तं भवति-स्वाकारमनुभवतीति तावदेवोक्तं भवति अर्थमध्यवस्यतीति ? न तावत्स्वरूपानुभवः पूर्व पश्चादर्थसमारोपः; क्षणद्वयावस्थानविकलत्वाज्ज्ञानानाम् , 10 अन्यथा क्षणभंङ्गभङ्गप्रसङ्गः। अथ युगपदेव स्वप्रतिभासमनुभवति अर्थश्च समारो पयति; तर्हि ग्राह्यग्राहकाकारात्मके विकल्पस्वरूपे संवेद्यमाने स्वानुभवसमानकाल एवार्थः समारोप्यमाणो विकल्पस्वरूपाद् बेहिरेवाऽवतिष्ठते तत्कथमात्मानमनर्थम् अर्थ- .. मारोपयेदसौ ? अथ स्वाकारानुभव एव अर्थसमारोपः; तदप्यसुन्दरम् ; अनुभवितव्य विकल्पयितव्ययोर्भेदात् / शब्दसंसृष्टं हि स्वरूपं विकल्पयितव्यम् , अशब्दसंसृष्टं तु 15 स्वसंवेदनेनानुभवितव्यम् , तत्कथमनयोरेकत्वम् ? एतेन 'दृश्यविकल्प्यावेकीकृत्य बहीरूपतयाऽध्यस्तः' इत्यादि प्रत्युक्तम् ; तदेकी (1) “जर्तिका नाम वाहीकास्तेषां वृत्तं सुनिन्दितम् ।"-महाभार० कर्णपर्व अ० 200 / 'जाट' इति भाषायाम् / “यथा गोशब्दस्य जाड्यादिगुणनिमित्तोऽर्थो वाहीकः।"-महाभा०प्र० 1111 15 / (2) तुलना-"कः खलु विकल्पमेव दृश्यमित्यध्यवस्यति / विकल्प एवेति चेत् ; न; तत्र सामा न्यावभासात् अन्यथा विकल्पत्वायोगात् / अन्य इति चेत् ; न; आत्मवादापत्तेः तत्तथाध्यवसायनिमित्ताभावाच्च।"-अनेकान्तजय० पृ० 35 B. / "नैकत्वाध्यवसायोऽपि दृश्यं स्पृशति जातुचित् / विकल्पस्यान्यथा सिद्धयेत् दृश्यस्पर्शित्वमञ्जसा।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 109 / "तदेकत्वं हि दर्शनमध्यवस्यति तत्पृष्ठजो व्यवसायो ज्ञानान्तरं वा।"-प्रमाणप०१० 53 / प्रमेयक० पृ० 31 / सन्मति० टी० पृ० 500 / स्या०र० पृ०८२ / (3) निर्विकल्पस्य / (4) अवस्तुविषयत्वात्-आ० टि०। (5) विकल्पः / (6) बाह्येऽर्थे / (7) तुलना-'न च स्वाकारमनर्थमर्थ आरोपयति / न तावदगृहीतः स्वाकारः शक्य आरोपयितुमिति तद्ग्रहमेषितव्यम् / तत्कि गृहीत्वा आरोपयति, अथ यदैव गृह्णाति तदैवारोपयति। न तावत्पूर्वः पक्षः, न हि विकल्पज्ञानं क्षणिक क्रमवन्तौ ग्रहणसमारोपौ कर्तुमर्हति / उत्तरस्मिंस्तु पक्षे विकल्पस्वसंवेदनप्रत्यक्षाद्विकल्पाकारादहङ्कारास्पदाद् अनहङ्कारास्पदं समारोप्यमाणो विकल्पो नास्वगोचरोन शक्योऽभिन्नः प्रतिपत्तुम् / नापि बाह्यस्वलक्षणकत्वेन शक्यः प्रतिपत्तुं विकल्पज्ञानेन स्वलक्षणस्य बाह्यस्याप्रतिभासनात् ।"-न्यायवा० ता० पृ० 485 / (8) स्वाकारानुभवनमेव अर्थाध्यवसायः इति भावः। (9) यदि यदैव विकल्पाकारः स्वप्रतिभासमनर्थमनुभवति तदैवार्थे समारोपयति; तदा विकल्पस्य स्वानुभवव्यापृतत्वादर्थोऽवकाशमलभमानः तत्स्वरूपाद् बहिरेवास्ते विकल्पे न सङक्रामति, तत्कथमात्मनि अनर्थभूते अर्थ विकल्पाकार आरोपयतीति तात्पर्यम् ।-आ० टि०। (10) आत्मनि अनर्थे इत्यर्थः / (11) पृ० 555505 / 1-परामर्शप्राङमुखत्वात् श्र०। 2 पूर्व प्रतिभासमानार्थमन-श्र०। -भासं वानुभ-ब० / 4-भंगभंगताप्रसंग: ब०। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26 ] अन्यापोहवादः 561 करणश्च किं तेनैव ज्ञानेन, ज्ञानान्तरेण वा ? न तावत्तेनैव स्वाकारं दृश्यश्च पृथक् प्रतिपद्यैक्यं प्रतीयते ; तथा प्रतीत्यभावात् , क्षणिकत्वाच्च / नापि ज्ञानान्तरेण ; तद्धि एकम् , अनेकं वा ? यद्यनेकम् ; कथमैक्यं प्रतिपद्येत ? स्वसंवेदनेन हि ज्ञानस्वरूपं प्रतीयते दर्शनेन तु दृश्यम् / एकं तु यदि द्वयं प्रत्येति; कथमैक्यम् ? अथैक्यं प्रत्येति; कथं द्वयं विरोधात् ? किञ्च, अयमपोहो भावे भावस्य प्रतीयते, केवलो वा ? प्रथमपक्षे भावयोः / प्रतीतिः किं शब्दादेव, प्रमाणान्तराद्वा ? न तावत् शब्दादेव ; अस्य अपोहादन्यत्र प्रवृत्त्यनभ्युपगमात् / अभ्युपगमे वा किं भावौ प्रतीत्य अतोऽपोहः प्रतीयते, अपोहं वा प्रतीत्य भावाविति ? तत्राद्यविकल्पे नान्यापोहः शब्दार्थः, मुख्यतो भावयोरेव तदर्थत्वात् , प्रतीत्युत्तरकालं सामर्थ्यादेव वा अन्यव्यावृत्तेः प्रतीतेः / नीलश्च प्रतीत्य अनीलव्यावृत्तिप्रतीत्यभ्युपगमे स्खलन्ती तत्प्रतीतिः स्यात् / अतो नीलस्य अनीलव्यावृत्त्यात्मकस्यैव 10 प्रत्यक्षादिव शब्दात्प्रतीतिरभ्युपगन्तव्या। द्वितीयविकल्पे तु प्रतीतिविरोधः, न खलु केवलोऽपोहः प्रथमं शब्दात् प्रतीयते पश्चाद् भावाविति कस्यचित्स्वप्नेऽपि प्रतीतिरस्तीति / एतेन प्रमाणान्तरादपि तत्प्रतीतिः प्रत्याख्याता; ततोऽपि भावयोः प्रतीतौ उक्तदोषानुषङ्गाविशेषात् / अस्तु वा कुतश्चिदस्य प्रतीतिः; तथापि-भावाभ्यां भिन्नस्यापोहस्य प्रतीतौ कथमस्य भावसम्बन्धिता स्यात् , भावाभावयोस्तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणसम्बन्धासम्भवात् ? 15 _ 'केवलोऽपोहः प्रतीयते' इत्ययमपि पक्षोऽनेनैव प्रतिव्यूढः; यदि च केवलोऽपोहः शब्दाल्लिङ्गाद्वा प्रतीयेत ; तर्हि सर्वशैब्दानां पर्यायता स्याद् अपोहमात्रस्याऽविशिष्टस्याशेषशब्दैः प्रतिपादनात् / एवञ्च विशेषणविशेष्यभेदः अतीतादिकालभेदः स्त्रीपुंनपुंसक (1) तुलना-"नेतद् दृश्यविकल्प्याथैकीकरणेन भेदतः / एकप्रमात्रभावाच्च तयोस्तत्त्वाप्रसिद्धितः।"-शास्त्रवा० 11110 / “अतीते तदात्मकतया अभावसमारोपानुपपत्तेः ।"-प्रश० कन्द० पृ० 320 / (2) तुलना-"यश्चायमन्यापोहः अगौर्न भवतीति गोशब्दस्यार्थः स कि भावोऽथ अभाव इति ?"-न्यायवा० पृ० 329 / इति प्रसज्य:-आ० टि०। (3) शब्दस्य अपोहादतिरिक्ते भावे प्रवृत्तौ / (4) शब्दार्थत्वात्-आ० टि०। (5) भावस्य प्रतिनियतमसाधारणं स्वरूपं हि अन्यव्यावृत्त्यात्मकं भवत्येव / (6) सापेक्षत्वात्-आ० टि०। (7) अनीलव्यावृत्तिप्रतीतिः। (8) व्यवहारिणः पुरुषस्य / (1) भावयोः प्रतीतिः। (10) अपोहस्य। (11) अपोहस्य / (12) तुलना-"भिन्नसामान्यवचना विशेषवचनाश्च ये। सर्वे भवेयुः पर्याया यद्यपोहस्य वाच्यता॥"-मी० श्लो० अपोह० श्लो० 42 / न्यायमं० पृ०३०४। "अपि च ये विभिन्नसामान्यशब्दा गवादयो ये च विशेषशब्दाः शाबलेयादयस्ते भवदभिप्रायेण पर्यायाःप्राप्नुवन्ति अर्थभेदाभावात् वृक्षपादपादिशब्दवत् ।"-प्रमेयक० पू०४३३ / प्रमेयर०३।१०१। (13) तुलना-"अपोहमात्रवाच्यत्वं यदि चाभ्युपगम्यते। नीलोत्पलादिशब्देषु शबला'र्थाभिधायिषु / / विशेषणविशेष्यत्वसामानाधिकरण्ययोः। न सिद्धिर्न ह्यनीलत्वव्युदासेऽनुत्पलच्युति: // " -मी० श्लो० अपोह० इलो० 115-16 / प्रमेयक० 10 436 / (14) तुलना-"लिङ्गसंख्यादिसम्बन्धो न वाऽपोहस्य विद्यते / व्यक्तेरव्यपदेश्यत्वात्तद्द्वारेणापि नास्त्यसौ ॥"-मी०श्लो॰अपोह०श्लो० 135 / 1 प्रमित्यभा-ब० ॥2'क्षणिकत्वाच्च' नास्ति ब० / मुख्यतया भा-श्र० / 4 अन्यव्यावृत्तिप्रती -आ०।। प्रतीतिरिति ब०, प्रतीतिरस्ति श्र०। 6-तिः कि प्रत्या-ब०।-नुषङ्गाविरोधात् ब० / 8 एवं विशे-ब०, श्र०॥ 21 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. प्रागमपरि० लिङ्गभेदः एकद्विबहुवचनादिभेदश्च दुर्लभः / लिङ्गलिङ्गिभेदश्च दूरोत्सारित एव स्यात् ; . यदेव हि लिङ्गशब्दवाच्यमपोहमानं तदेव लिङ्गिशब्दस्यापि / / ___ अथापोहस्य भेदाभ्युपगमान्नायं दोषः; तदयुक्तम् ; तस्य भेदाऽसिद्धेः / तस्य हि भेद: अपोह्यभेदाद्, वासनाभेदात् , विभिन्नसामग्रीप्रभवत्वात् , विभिन्नकार्यकारित्वात् , 5 आश्रयभेदात् , स्वरूपभेदाद्वा स्यात् ? न तावदपोह्यभेदात् ; सर्व-प्रमेयादिशब्दानाम पोह्यभेदाभावतः पर्यायताप्रसङ्गात् / न हि असर्वं सर्वगशेर्व्यतिरिक्तम् , अप्रमेयं वा किञ्चिदस्ति यदपोहेन सर्वादिकं सिद्ध्येत् / कथं वा सत्व-कृतकत्वादिहेतोः सिद्धिः ? न हि असदकृतकं वा जगति किश्चिदस्ति यदपोहेन सत्त्वादिसाधनं सिद्ध्येत् / अपो ह्यभेदादपोहभेदे चान्योन्याश्रयः-सिद्धे ह्यपोह्यभेदे अपोहभेदसिद्धिः, तत्सिद्धौ चापोह्यभेद10 सिद्धिरिति / तन्नापोह्यभेदादपोहस्य भेदः / नापि वासनाभेदात् ; तद्भेदस्याप्यनुपपत्तेः / अनुभवभेदनिबन्धनो हि वासनाभेदः, अपोहस्य चैकरूपत्वे अनुभवभेदो दुर्घटः। नापि विभिन्नसामग्रीप्रभवत्वादपोहभेदः; अस्य कल्पितरूपतया सामग्रीविशेषतः प्रादुर्भावस्यैवाऽनुपपत्तेः / यत् कल्पितरूपं तन्न कुतश्चित्प्रादुर्भवति यथा तुरङ्गमोत्तमाङ्गे शृङ्गम् , कल्पितरूपश्च भवन्मते अपोह इति / ततस्तदुत्पत्तौ वा कल्पितरूपत्वव्याघातः / यत् 15 कुतश्चिदुत्पद्यते तन्न कल्पितरूपं यथा स्वलक्षणम् , उत्पद्यते च सामग्रीविशेषतोऽपोह इति / (1) तुलना-"ननु भेदादपोहानां प्रसङ्गोऽयं न युज्यते / सामान्यापोहक्लृप्त्या चेद्वस्तुमात्रे समं तव // भिद्यन्ते मम वस्तुत्वात्सामान्यानि परस्परम् / असङ्कीर्णस्वभावानि न चैकत्वं वितन्वते / संसृष्टैकत्वनानात्वविकल्परहितात्मनाम् / अवस्तुत्वादपोहानां तव स्याद् भिन्नता कथम् ॥"-मी० श्लो० . अपोह० श्लो० 43-45 / (2) अपोहस्य / (3) तुलना-"अन्यापोहश्च शब्दार्थ इत्ययुक्तम् ; अव्यापकत्वात् / यत्र द्वैराश्यं भवति तत्रेतरप्रतिषेधादितरः प्रतीयते यथा गौरिति पदे गौः प्रतीयमानः अगौः प्रतिषिध्यमानः / न पुनः सर्वपद एतदस्ति, न ह्यसर्वं नाम किञ्चिदस्ति यत्सर्वपदेन निव]त / " -न्यायवा० पृ० 329 / “ननु चापोह्यभेदेन भेदोऽपोहस्य सेत्स्यति / न विशेष: स्वतस्तस्य परतश्चौपचारिकः // 47 // प्रमेयज्ञेयशब्दादेरपोह्यं कुत एव तु ।"-मी० श्लो० अपोह० श्लो० 47, 144 / प्रमेयक० पृ०४३४ / प्रमेयर० 3 / 101 / (4) तुलना-"यद्यप्यन्येषु शब्देषु वस्तुनः स्यादपोह्यता। सच्छब्दस्य त्वभावाख्यान्नाऽपोह्यं भिन्नमिष्यते ॥"-मी० श्लो० अपोह० श्लो० 98 / (5) तुलना"अपोह्यभेदक्लुप्तिश्च नाभावाऽभेदतो भवेत् / तद्भदोऽपोहभेदाच्चेत् प्राप्तमन्योन्यसंषयम् / / गोसामान्यस्य भिन्नत्वादगौरित्येष भिद्यते। अगौरित्यस्य च भेदेन गोसामान्यं च भिद्यते ॥"-मी० श्लो० अपोह० श्लो० 65-66 / न्यायमं० पृ० 304 / (6) तुलना-'नचापि वासनाभेदाद् भेदः सद्रूपतापि वा / अपोहानां प्रकल्प्येत न ह्य वस्तुनि वासना // स्मृति मुक्त्वा नचास्त्यस्याः शक्तियोगः क्रियान्तरे। तस्मान्नान्यादृशे साऽर्थे करोत्यन्यादृशीं मतिम् // भवद्भिः शब्दभेदोऽपि तन्निमित्तो न लभ्यते।"-मी० श्लो० अपोह० श्लो० 100-2 / प्रमेयक० पृ० 439 / (7) वासनाभेदस्य / (8) अभावरूपतया तुच्छैकस्वभावत्वे / (9) अपोहस्य / (10) अपोहो न कुतश्चित्प्रादुर्भवति कल्पितरूपत्वात् / (11) सौगतमते / (12) कारणसामग्रीतः अपोहोत्पत्तौ / (13) अपोहो न कल्पितः कारणादुत्पद्यमानत्वात् / __1'विभिन्नसामग्रीप्रभवत्वात्' नास्ति श्र०। 2-भेदे वान्यो-ब०, श्र०। 3 तद्भवस्याप्यनु भव -आ० / 4-स्वावपोहभेदस्य कल्पि-ब० / 6 प्रादुर्भावानुप-श्र०।। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 प्रमाणप्र० का० 28] अन्यापोहवादः एतेन विभिन्नकार्यकारित्वात्तद्भेदः प्रत्याख्यातः; अपरमार्थसतो विभिन्नकार्यकारित्वानुपपत्तेः खपुष्पवत् / तत्कारित्वे वाऽपरमार्थसत्त्वाऽसंभवात् स्वलक्षणवत् / कुतश्च कार्यकारणयोर्भेदः सिद्धो यतः तद्भेदादपोहस्य भेदः सिद्ध्येत्-अपोहभेदात्, स्वरूपतो वा ? अपोहभेदाच्चेद्; अन्योन्याश्रयः-सिद्धे हि कारणभेदे कार्यभेदे च तत्प्रभवतया तत्कॉरितया च अपोहभेदसिद्धिः, तत्सिद्धौ च कार्यकारणयोर्भेदसिद्धि- 5 रिति / स्वरूपतस्तद्भेदसिद्धौ चै अपोहकल्पनाऽनर्थक्यम् / / अथाश्रयभेदादपोहभेदः, तन्न; अवस्तुरूपस्यास्य क्वचिदाश्रितत्वानुपपत्तेः / यदवस्तुरूपं न तत् क्वचिदाश्रितम् यथा गगननलिनम्, अवस्तुरूपश्चापोह इति / आश्रितत्वे वा किमसौ प्रतिव्यक्ति भिन्नः, अभिन्नो वा स्यात् ? यदि भिन्नः; तदा द्रव्यगुणकर्मणां मध्ये अन्यतमरूपतैवास्याभ्युपगता स्यात् , प्रतिव्यक्तयन्यस्य आश्रि- 10 तत्वानुपपत्तेः / अथाभिन्नः; तदा सामान्यरूपतैव नामान्तरेणोक्ता स्यात् इत्युभयथाप्यन्यापोहरूपतानुपपत्तिः / __अथ स्वरूपभेदादपोहस्य भेदः, तन्न; अपरमार्थसत्त्वेऽस्य स्वरूपभेदानुपपत्तेः / यदपरमार्थसन्न तस्य स्वरूपभेदः यथा खपुष्पखरविषाणादेः, अपरमार्थसंश्चापोह . इति / स्वरूपभेदे वाऽस्य स्वलक्षणवत् परमार्थसत्त्वप्रसङ्गः।। ____किश्च, पर्युदासरूपः, प्रसज्यरूपो वाऽपोह: स्वरूपतो भिन्नः शब्दैरभिधीयेत ? यदि पयुदासरूपः; तदास्य भावान्तररूपताभ्युपगन्तव्या। भावान्तरञ्च 'विशेषः,सामान्यम् , तदुपलक्षितो वा विशेषः, तत्समुदायो वा स्यात्' इति पक्षचतुष्टयेऽपि विधिरेव शब्दार्थः स्यात् नाऽपोहः / अथ प्रसज्यरूपः; तदा निषेधमात्रमेव शब्दैरभिहितं स्यात्, तच्चायुक्तं . (1) अपोहभेदः / (2) अर्थक्रियाकारित्वे। (3) कार्यभेदात् / (4) भिन्नकारणप्रभवतया / (5) भिन्नकार्यकारितया / (6) कार्यकारणयोः भेदसिद्धौ। (7) तुलना-"तेनैवाधारभेदेनाप्यस्य भेदो न युज्यते। न हि सम्बन्धिभेदेन भेदो वस्तुन्यपीष्यते। किमुतावस्त्वसंसृष्टमन्यतश्चानिवर्तितम् / अनवाप्तविशेषांशं यत्किमप्यनिरूपितम् ।"-मी० श्लो० अपोह० श्लो० 48-49 / (8) अपोहो न क्वचिदाश्रितः अवस्तुरूपत्वात् / (9) अपोहः / (10) अपोहरूपस्य सामान्यस्य आश्रयभूतानि द्रव्यगुणकर्माण्येव भवितुमर्हन्ति, सामान्यस्य द्रव्यादित्रयवृत्तित्वात् / (11) अपोहस्य / (12) अपोहस्य / (13) नापोहस्य स्वरूपभेद: अपरमार्थसत्त्वात्। (14) अपोहस्य / तुलना-'यद्वा भिद्यमानत्वाद्वस्त्वसाधारणांशवत् / अवस्तुत्वे त्वनानात्वात्" मी० श्लो० अपोह० श्लो० 46 / न्यायमं पृ० 304 / (15) "किञ्चापोहाख्यं सामान्यं वाच्यत्वेनाभिधीयमानं पर्युदासलक्षणञ्चाभिधीयेत, प्रसज्यलक्षणं वा ?"-प्रमेयक० 10432 / प्रमेयर० 3 / 101 / (16) यथा घट: पटात स्वरूपतो भिन्नः सन भावान्तर:-आ.टि। तुलना-"अगोनिवृत्तिः सामान्यं वाच्यं यः परिकल्पितम / गोत्वं वस्त्वेव तैरुक्तमगोपोहगिरा स्फुटम् ॥"-मी० श्लो० अपोह. इलो०१। प्रमेयक० 10432 / (17) तुलना-"नन्वन्यापोहकृच्छब्दो युष्मत्पक्षेऽनुवर्णितः / निषेधमात्रं नैवेह प्रतिभासेऽवगम्यते / / किन्तु गौर्गवयो हस्ती वृक्ष इत्यादिशब्दतः / विधिरूपावसायेन मतिः शाब्दी प्रवर्तते // " (पूर्वपक्षे) -तत्त्वसं० का० 910-11 / प्रमेयक० पृ० 432 / 1 चापर-ब० / 2 तत्कार्यतया ब० / 3 वा श्र० / 4 चास्य ब०। 5-भिधीयते ब०, श्र०। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. आगमपरि० तथाप्रतीत्यभावात् / परप्रतिपादनार्थो हि शब्दप्रयोगः, परश्च नीलार्थी न अनीलनिषेधमात्रं जिज्ञासते, अजिज्ञासितश्च प्रतिपादयतः प्रतिपादकस्याऽप्रेक्षापूर्वकारित्वप्रसङ्गः / निषेधमात्राभिधायित्वे च नीलोत्पलशब्दयोः सामानाधिकरण्यन्न प्राप्नोति; नीलशब्दो ह्यनीलव्यवच्छेदमात्रे चरितार्थः, उत्पलशब्दोऽपि अनुत्पलव्यवच्छेदमात्रे / / न चैतौ व्यवच्छेदौ एकस्मिन् धर्मिणि सम्बद्धौ; भावाभांवयोस्तादात्म्यादिसम्बन्धा संभवात् / नपि तौ शब्दौ एकधर्मिविषयौ; घटपटशब्दयोरिवाऽनयोः एकँधर्मिविषयत्वानभ्युपगमात् / किञ्च, नबेव पर्युदासवृत्तिः प्रसज्यवृत्तिर्वा भवति, गौरिति च नायं नञ् , अतः कथमगोपर्युदासेन गोशब्दवृत्तिः ? गौरयमिति विधिरूपेणैवास्य प्रवर्त्तमानत्वात् / ततः सामान्यविशेषवानर्थः शब्दस्य विषयोऽभ्युपगन्तव्यः अलं प्रतीत्यपलापेन / तस्य च सङ्केतव्यवहारकालानुयायित्वप्रसिद्धेः नेत्थम्भूते स्वलक्षणे सङ्केतकरणवैफल्यम्। भवत्कल्पितस्य तु स्वलक्षणस्य सुगतमतपरीक्षायां प्रपञ्चत: प्रतिक्षिप्तत्वात् तत्र तत्करणं विफल: . मेव / अतो यः 'सङ्केतव्यवहारकालाननुयायी' इत्यादि" सिद्धसाधनत्वादुपेक्षणीयम् / सम्बन्धश्च वाच्यवाचकयोः ऊहाख्यप्रमाणेन प्रतीयते, सर्वत्र सम्बन्धप्रतीते16 स्तदधीनत्वात् / अतः 'अस्येदमभिधानमिति सम्बन्धकारिणि ज्ञाने प्रतिनियतेन्द्रियवि षययोः शब्दार्थयोर्न प्रतिभासः' इत्याद्यप्ययुक्तमुक्तम् ; सामान्यविशेषात्मनोरेव शब्दार्थयोः प्रतिनियतेन्द्रियविषयतोपपत्तेः, अतः कथं तयोः तत्कारिणि ज्ञाने प्रतिभासाभावः ? ननु चातीतानागतार्थशब्दानां 'नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्ति' इत्यादिशब्दानाञ्च अर्थाभावेऽपि प्रवृत्तिप्रतीतेः कथमर्थे प्रतिबन्धसिद्धिस्तेषाम् ? इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; (1) "भिन्ननिमित्तयोः शब्दयोरेकस्मिन्नधिकरणे वृत्तिः सामानाधिकरण्यम्"-प्रमाणवा०स्वव० टी० 1164 / तुलना-“यस्य चान्यापोहः शब्दार्थस्तेनानीलानुत्पलव्युदासौ कथं समानाधिकरणाविति वक्तव्यम् / यस्य पुनर्विधीयमानः शब्दार्थस्तस्य जातिगुणविशिष्टं नीलोत्पलशब्दाभ्यां द्रव्यमभिधीयते, जातिगुणौ द्रव्ये वर्तेते न पुनरनीलानुत्पलव्युदासौ, तस्मात् समानाधिकरणार्थो नास्तीति ।"-न्यायवा० प० 331 / न्यायमं० 10 305 / “सामानाधिकरण्यञ्च न भिन्नत्वादपोहयोः / अर्थतश्चैतदिष्येत कीदृश्याधेयता तयोः // न चासाधारणं वस्तु गम्यतेऽन्यच्च नास्ति ते। अगम्यमानमेकार्थ्य शब्दयोः क्वोपयुज्यते ॥"-मी० श्लो० अपोह० श्लो० 118-19 / अनेकान्तजय० पृ० 40 / प्रमेयक० 10 436 / (2) धर्मी भावात्मकः, अभावात्मकौ च अनीलानुत्पलव्यवच्छेदौ। (3) नीलमुत्पलमिति शन्दौ। (4) सामानाधिकरण्यं हि भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तयोः शब्दयोः एकत्रार्थे वृत्ति:-आ०टि०। (5) सामान्यविशेषात्मनोऽर्थस्य / (6) सामान्यविशेषात्मके / (7) सौगतकल्पितस्य / (8) पृ० 379 / (9) क्षणिकस्वलक्षणे। (10) सङ्केतकरणम्। (11) पृ०५५२ पं०९। (12) ऊहाख्यप्रमाणायत्तत्वात् / (13) पृ० 553 पं० 4 / (14) सङ्केतकारिणि / (15) शब्दानाम् / 1 जिज्ञासति ब० / 2-विषयो घट-आ०। 3-शब्दप्रवृत्तिः ब०, श्र०। 4-वास्य वर्त-आ० / संकेतवैफ-श्र०। 6 प्रतिबन्धस्तेषा-श्र० / Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26] अन्यापोहवादः यतो न वयं सर्वशब्दानामर्थनान्तरीयकत्वं प्रतिपन्नाः। किंतर्हि ? सुनिश्चिताप्तप्रणेतृकाणामेव / न च केषाञ्चिच्छब्दानामर्थव्यभिचारित्वदर्शनात् सर्वेषां तद्वयभिचारित्वं युक्तम् ; मरीचिकादौ जलाद्यवभासिनोऽध्यक्षस्य अप्रामाण्योपलम्मात् सत्यजलाद्यवभासिनोप्यस्याऽप्रामाण्यप्रसङ्गात् / मरीचिकादौ जलाद्यवभासिन एवास्याऽप्रामाण्यं बाधकसद्भावान्नेतरस्य इत्यन्यत्रापि समानम् / तन्न प्रत्यक्षशब्दयोः परमार्थविषयत्वे / कश्चिद्विशेषः / अतो निराकृतमेतत्-'अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यम्' इत्यादि / नहि प्रतिभासभेदो विषयभेदं प्रसाधयति, अभिन्नेऽप्यर्थे स्वसामग्रीविशेषात्तद्भेदस्योपपद्यमानत्वात् दूरासन्नार्थोपनिबद्धदृष्टिप्रेक्षकजनवत्। यथैव हि दूरासन्नदेशादिसामग्रीविशेषवशात् पादपादेरभिन्नस्यापि विभिन्नप्रतिभासविषयत्वं तथा शाब्द-प्रत्यक्षप्रत्यययोरभिन्नविषयत्वेऽपि 10 शब्देन्द्रियादिसामग्रीभेदाद् अस्पष्टेतरप्रतिभासभेदो न विरोधमध्यास्ते / अतः अन्धस्य चक्षुष्मतश्च अभिन्नेऽपि विषये सामग्रीभेदात् प्रतिभासभेदोपपत्तेः अयुक्तमुक्तम्'शब्दात्प्रत्येति भिन्नाक्षो नतु प्रत्यक्षमीक्षते / ' इति / यच्चान्यदुक्तम्-'वाच्यवाचकभावश्च कार्यकारणभावान्नान्यः' इत्यादि; तदप्यचारु; यतः सति बुद्धिसम्बन्धिनि प्रतिबिम्बे अस्य शब्दजन्यत्वात् तद्वाच्यत्वं स्यात् 15 शब्दस्य च तजनकत्वाद् वाचकत्वम् , न च तदस्ति, प्रागेवास्य प्रपञ्चतः प्रतिषेधात् / यदि च कार्यकारणभाव एव वाच्यवाचकभावः स्यात; तदा श्रोत्रज्ञाने प्रतिभासमानोऽपि शब्दः (1) जैनाः / तुलना-'न हि वयं सर्वशब्दानां प्रामाण्यं प्रतिपद्येमहि किं तर्हि सुनिश्चिताप्तप्रणेतृकाणामेव / तन्न प्रामाण्यं प्रति प्रत्यक्षशब्दयोविशेषमुपलभामहे ।"-न्यायावता० टी० पृ० 6 / (2) अर्थाविनाभावित्वम् / (3) अनाप्तप्रणेतृकाणाम् / (4) जलज्ञानस्य / (5) तुलना"न च ग्राहकप्रत्यक्षस्मृतिप्रतिभासभेदात् विषयस्वभावाभेदाभावः, सकृदेकार्थोपनिबद्धदर्शनप्रत्यासन्नेतरपुरुषज्ञानविषयवत् / यथा हि सकृदेकस्मिन्नर्थे पादपादौ उपनिबद्धदर्शनयोः प्रत्यासन्नविप्रकृष्टपुरुषयोर्ज्ञानाभ्यां विषयीकृते स्पष्टास्पष्टप्रतिभासभेदान्न स्वभावभेद: पादपस्य तस्यैकत्वाव्यतिक्रमात्, तथैव ग्राहकयोः प्रत्यक्षस्मृतिप्रतिभासयोः भेदेऽपि स्पष्टमन्दतया न तद्विषयस्य भेदः स्वलक्षणस्यैकस्वभावत्वाभ्युपगमात् ।"-अष्टश०, अष्टसह पृ० 124 / “करणभेदेन प्रतिपत्त्योर्भेदात् / अन्धस्य हि शब्दाद्रूपविषयं विज्ञानमुत्पद्यते न तु चाक्षुषमिति / यस्य चापरोक्षं चाक्षुषं विज्ञानमस्ति असावनन्धः।" -प्रश० व्यो० पृ०५८६। "स्पष्टास्पष्टाकारतयाऽर्थप्रतिभासभेदश्च सामग्रीभेदान्न विरुद्धयते दूरासन्नार्थोपनिवद्धेन्द्रियप्रतिभासवत् ।"-प्रमेयक० पृ० 446 / सन्मति० टी० पृ० 259 / स्या०र० पृ० 715 / (6) प्रतिभासभेदस्य / (7) पृ० 5535010 / (8) पृ०५५६६०१५। (9) बुद्धिगतप्रतिबिम्बस्य / (10) इयता कार्य वाच्यं कारणं वाचकमिति सिद्धम्-आ० टि० / (11) बुद्धौ प्रतिबिम्बम् / (12) शब्दःनिर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य कारणम्, 'नाकारणं विषयः' इत्यभ्युपगमात् / तुलना-"यतो यदि कार्यकारणभाव एव वाच्यवाचकभावः स्यात्; तदा श्रोत्रज्ञाने प्रतिभासमानः शब्द: स्वप्रतिभासस्य भवत्येव कारणमिति तस्याप्यसौ वाचकः स्यात् / यथा च विकल्पस्य शब्द: कारणम् एवं परम्परया स्वलक्षणमपि अतस्तदपि वाचकं स्यात्.."-रत्नाकराव० 4 / 11 / 1-ज्ञानप्रतिभा-श्र०, ब०। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे (4. श्रागमपरि० स्वप्रतिभासस्य भवत्येव कारणम् अतस्तस्यौप्यसौ वाचकैः स्यात् / यथा च विकल्पस्य शब्दः कारणम् एवं पौरम्पर्येण स्वलक्षणमपि, अतस्तदपि वाचकं स्यात् / अत: प्रतिनियतवाच्यवाचकभावव्यवस्थाविलोप: स्यात् / ततो यद्यत्र यथा निर्बाधबोधे प्रतिभासते तत्तत्र तथैवाऽभ्युपगन्तव्यम् यथा अन्तःसुखमालादनाकारतया, प्रतिभासते 6 च अबाधे शाब्दे प्रत्यये सामान्यविशेषात्मकतया बहिर्घटादिकं वस्त्विति ॥छ॥ ननु सामान्यविशेषात्मकतया शाब्दप्रत्यये बहिर्घटादिवस्तुनः प्रतिभासमानत्वशब्दस्य सामान्य- मसिद्धम् , शब्दानां सामान्यमात्रगोचरचारितया तत्प्रेभवप्रत्ययस्य मात्रवाचकत्वमिति तत्मात्रविषयताया एवोपपत्तेः। सामान्यमात्रमेव हि शब्दानां मीमांसकस्य पूर्वपक्षः- गोचरः; तस्य क्वचित् प्रतिपन्नस्य एकरूपतया सैर्वत्र सङ्केतविषय (1) स्वप्रतिभासस्य-आ० टि०। (2) कारणं यतो भवन्मतेन वाचकम् / (3) शब्दस्वलक्षणाच्छब्दग्राहिनिर्विकल्पकं तस्माच्च सविकल्पकम, अथवा स्वलक्षणानिर्विकल्पकं तस्माच्च सविकल्पकमिति / (4) स्वलक्षणमपि कारणत्वाद्वाचकं स्यात् / (5) स्वलक्षणस्यावाचकत्वे प्रसक्ते / (6) शाब्दे बोधे सामान्यविशेषात्मकतयैव अर्थः प्रतिभाति तत्र तथैव निधिबोधप्रतीतिविषयत्वात् / (7) तुलना-"अनेकमेकञ्च पदस्य वाच्यम्"-बृहत्स्व० श्लो० 44 / “अनेकमेकात्मकमेव वाच्यं द्वयात्मकं वाचकमप्यवश्यम् ।"-अन्ययो० श्लो० 14 / (8) "आकृतिस्तु क्रियार्थत्वात्"-जैमिनिसू० १।३।३३।-"तु शब्दः पक्षान्तरं व्यावर्त्तयति / आकृतिः शब्दार्थः"-शाबरभा०. 1 // 3 // 33 / आकृतिशब्देन जातिरेवाभिप्रेता मीमांसकैः, तथाहि-"जातिमेवाकृति प्राहुः व्यक्तिराक्रियते यया / सामान्यं तच्च पिण्डानामेकबुद्धिनिबन्धनम् // 3 // तनिमित्तञ्च यत्किञ्चित्सामान्यं शब्दगोचरम् // 4 // सामान्यमाकृतिर्जातिः शक्तिर्वा सोऽभिधीयताम् // 18 // यद्येकमेव वस्त्वनेकाकारं तत्तहि तादृगेव शब्दोऽभिदधत् सामान्यमात्राभिधायी न स्यादत आह-न चेति / न च तत्तादृशं कश्चिच्छब्दः शक्नोति भाषितुम् // 63 / / सामान्यांशानपोद्धृत्य पदं सर्व प्रवर्तते।"-मी० श्लो० आकृति० श्लो० 3-4, 18, 63 / “पूर्व सामान्यविज्ञानात् चित्रबुद्धेरनुभवात् / गामानयेति वाक्याच्च यथारुचि परिग्रहात् // गोशब्दोच्चारणे हि पूर्वमेवागृहीतासु व्यक्तिषु सामान्यं प्रतीयते, तदाकारज्ञानोत्पत्तेः पश्चाद् व्यक्तयः प्रतीयन्ते, अतश्चाकृतिप्रत्ययस्य निमित्तान्तराभावाद् व्यक्तिप्रत्यये च पूर्वप्रतीतसामान्यनिमित्तत्वात् आकृतिः शब्दार्थ इति विज्ञायते / यदि च व्यक्तयोऽभिधेया भवेयुस्ततस्तासां चित्रखण्डमुण्डादिविशेषस्वरूपग्रहणाद्विचित्रा शब्दोच्चारणे बुद्धिः स्यात् / एकाकारा तु उत्पद्यते / तेनाप्याकृतिः शब्दार्थ इति निश्चीयते / गामानयेति चोदिते अर्थप्रकरणाभावे यां काञ्चित् सामान्ययुक्तां व्यक्तिमानयति न सी न विशिष्टाम् / यदि च व्यक्तेरभिधेयत्वं ततः सर्वासां युगपदभिहितत्वादशेषानयनं स्यात् / या वाऽभिधेया सैवैका आनीयेत, यतस्त्वविशेषण जातिमात्रयुक्ता आनीयते तेनापि सामान्यस्य पदार्थत्वं विज्ञायते ।"-तन्त्रवा० 1 / 3 / 33 / "आनन्त्यव्य भिचाराभ्यां शक्त्यनेकत्वदोषतः / सन्देहाच्चरमज्ञानाच्चित्रबुद्धेरभावतः // अन्वयव्यतिरेकाभ्यामेकरूपप्रतीतितः / आकृतेः प्रथमज्ञानात्तस्या एवाभिधेयता // व्यक्त्याकृत्योरभेदाच्च व्यवहारोपयोगिता / लिङ्गसंख्यादिसम्बन्धः सामानाधिकरण्यघीः // सर्व समञ्जसं ह्येतद्वस्त्वनेकान्तवादिनः / " -शास्त्रदी० 1 // 3 // 35 // "सम्बन्धिभेदात्सत्तैव भिद्यमाना गवादिषु / जातिरित्युच्यते तस्यां सर्वे शब्दा व्यवस्थिताः ॥"वाक्यप० 3 / 33 / (9) शब्दप्रभव-आ० टि०। (10) सामान्यस्य-आ० टि०। (11) व्यक्तिविशेषे / (12) यावदनन्तास्वपि व्यक्तिषु / 1 शब्दप्रत्यये श्र०, ब०। 2-विषयतया ब०। 3 तस्य प्रति-आ० / 4-यतोपपद्यते ब० / Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 26 ] जातिमात्रवाच्यत्वनिरास: 567 तोपपत्तेः, न पुनर्विशेषाः तेषांमानन्त्यतः कार्येनोपलब्धुमशक्यतया तैद्विषयतानुपपत्तेः / अथ यावतामुपलम्भः तावत्स्वेव सङ्केतक्रियोपगम्यते; तर्हि विशेषान्तरेषु सङ्केताऽसंभवात् शाब्दव्यवहारानुपपत्तिः / न चाऽयोगिनः प्रतिपत्तः प्रत्येकमशेषविशेषोपलम्भः संकृत् क्रमेण वा संभवति ; अयोगित्वविरोधानुषङ्गात् / योगिनस्तु विवादापन्नत्वात् तदुंपलम्भो दूरोत्सारित एव / न चानुपलब्धेषु तेथें 'इदमस्य / वाचकम् , इदश्च वाच्यम्' इत्यभिधानाभिधेयप्रतिपत्तिनियमलक्षणः सङ्केतः संभवति, तदसंभवे च शब्दश्रवणादर्थप्रतिपत्त्यनुपपत्तेः सिद्धः शाब्दव्यवहारोच्छेदः / ततस्तव्यवहारमिच्छता सामान्यमाने सङ्केतोऽभ्युपगन्तव्यः अतस्तदेव शब्दार्थः सिद्धः / / किञ्च, जातिमद्विशेषशब्दार्थवादिनां किं जातिमभिधाय शब्दो व्यक्तिमभिवत्ते, अनभिधाय वा ? न तावदभिधाय; जातिलक्षणविशेषणविशेषप्रतिपत्तावेव उपक्षीण- 10 शक्तिकत्वेनास्य विशेष्याप्रतिपादकत्वप्रसङ्गात् / उक्तञ्च "विशेष्यं नाभिधी गच्छेत् क्षीणशक्तिविशेषणे / " [ ] इति / नाप्यनभिधाय; विशेषमात्रप्रतिपादकत्वेन जातिमद्वाचकत्वाभावानुषङ्गात् / न च सामान्यमात्रस्य अभिधानैरभिधाने विशेषाणामनभिधानात् प्रयोजनार्थिनः शब्दात्प्रवृत्तिर्न प्राप्नोति, प्रतिपन्नस्यापि ततः तन्मात्रस्य प्रयोजनाप्रसाधकत्वादित्यभिधातव्यम् ; 15 तत्प्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या विशेषाणामपि प्रतिपत्तिसंभवात् / प्रथमतो हि शब्दात्सा (1) शब्दविषयाः इति सम्बन्धः / (2) “न ह्यनन्तासु व्यक्तिषु संज्ञित्वं शक्यतेऽवगन्तुम् ।"शास्त्रदी० 1 / 3 / 35 / (3) सङ्केत-आ० टि० / (4) अशेषव्यक्त्युपलम्भे हि सर्वज्ञत्वमेव स्यादिति भावः / (5) मीमांसको हि सर्वज्ञं न मनुते-आ० टि०। (6) तस्य व्यक्तीनामुपलम्भः। (7) विशेषेषु-आ० टि०। (8) अभिधानाभिधेयप्रतिपत्तिनियमलक्षणसङ्केताभावे-आ० टि० / (9) शाब्दव्यवहार-आ० टि० / (10) सामान्यमेव-आ० टि० / (11) उद्धृतोऽयम्-प्रश० व्यो० पृ० 191 / काव्यप्र० पृ० 44 / मुक्ताव० दिन० पृ० 373 / काव्यानु० 5025 / “अभिधा पदशक्तिः , विशेष्यं न गच्छेत् न प्राप्नोति। कुत इत्याशङ्कायामाह-क्षीणेति / क्षीणशक्तिविशेषण इत्यनन्तरं सदिति पुरणीयम् / तथा च यतो विशेषणं प्राप्य पदशक्तिः क्षीणशक्तिः क्षीणसामर्थ्या भवत्यतो विशेष्यं नाभिधा गच्छेत् न प्राप्नुयादिति पर्यवसितार्थः ।"-रामरु० .0 373 / (12) "स मख्योऽर्थस्तत्र मुख्यो व्यापारोऽस्याभिधोच्यते ।"-काव्यप्र० पृ० 39 / (13) शब्दात्-आ० टि० / (14) सामान्यमात्रस्य-आ० टि० / (15) सामान्यप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या। "न ह्यनभिधाय गोत्वमुपलक्षणं गोव्यक्तावेव प्रयोगव्यवस्था लभ्यते / तच्चेदभिहितं सिद्धमाकृतिशब्दार्थत्वमिति ।"-तन्त्रवा० 113 // 33 // "न ह्यनभिधाय जाति तज्जातीयत्वेन रूपेण व्यक्तिरभिधातु शक्यते। ततश्च विशिष्टाभिधानमेव वाचोयुक्त्यन्तरेणापन्नं न शुद्धाभिधानम् / विशिष्टाभिधाने च पूर्वतरं विशेषणमभिधातव्यम् / तदभिधान च तत एव अत्यन्ताविनाभूतव्यक्तिप्रतिपत्तिसिद्धेः न तत्र अभिधानशक्तिकल्पनावसरः ।"-शास्त्रदी० 1 // 3 // 35 // 1 सह क्रमेण ब० / 2-च्यमभिधा-श्र० / 3 शब्दार्थः प्रसिद्धः श्र। 4-लक्षणप्रतिप-ब० / -लक्षणविशेषणप्र-श्र० / 6-रभिधानं वि-ब। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. आगमपरि० मान्यमानं प्रतीयते, पश्चात्तदन्यथानुपपत्त्या पिण्डविशेषो लक्षणयौ प्रतीयते निराधारस्य सामान्यस्य अश्वविषाणवदसंभवात् / उक्तश्च "स्वाभिधेयाविनाभूतप्रतीतिर्लक्षणोच्यते / " [तन्त्रवा० 1 / 4 / 23] इति / / तैल्लक्षितगोपिण्डादिविशेषप्रतीत्यन्यथानुपपत्त्या तु वाहदोहादिप्रयोजनविशेष5 प्रतीति: लक्षितलक्षणेति ॥छ। अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-सामान्यमात्रमेव हि शब्दानां गोचर इत्यादि; तनिसपर तदसमीक्षिताभिधानम् ; सङ्केतानुसारेण शब्दस्य वाचकत्वोपपत्तेः / शब्दस्य वस्तुभूतसा- सङ्केतश्चास्य तद्वत्येव प्रतिपन्नो न पुनः सामान्यमात्रे, प्रवृत्त्याद्यगोमान्यविशेषात्मकार्थ- चरतया वाहदोहाद्यर्थक्रियाकारित्वविकलतया च केवलेऽस्मिन् शाब्दवाचकत्वसमर्थनम्- व्यवहारासंभवतः सङ्केतप्रतिपत्तेर्निष्फलत्वात् / ‘एवंविधाद्धि शब्दादेवंविधोऽर्थः त्वया प्रतिपत्तव्यः, एवञ्जातीय के चार्थे शब्दोऽप्येवञ्जातीयकः प्रयोक्तव्यः' इति सदृशपरिणामापन्नयोरेव वाच्यवाचकयोः सङ्केतयित्रा सङ्केतं प्रतिपाद्यो ग्राहितः / .. यदपि 'विशेषाणामभिधेयत्वे आनन्त्यतः कास्न्येनोपलब्धुमशक्यतया' इत्याद्युक्तम् ; तदप्यसाम्प्रतम् ; साध्यसाधनव्यक्तिवत् सदृशपरिणामापन्नानां वाच्यवाचक15 व्यक्तीनामानन्त्येऽपि उहज्ञानेन कात्य॑तः प्रतिपत्तुं शक्यत्वात् / एतच्च शब्दार्थयो (1) 'आह च-तेन तल्लक्षितव्यक्तेः क्रियासम्बन्धचोदना। जातिव्यक्त्योरभेदो वा वाक्यार्थेष विवक्षितः ।"-शास्त्रदी० 123335 / “लक्षणायाः स्वरूपम्-"मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात् / अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणाऽऽरोपिता क्रिया॥"-काव्यप्र० पृ० 40 / सा० द० 119 / "वाच्यस्यार्थस्य वाक्यार्थे सम्बन्धानुपपत्तितः / तत्सम्बन्धवशप्राप्तस्यान्वयाल्लक्षणोच्यते ॥"-प्रक० वाक्यार्थ०पू०१३। (2) "अभिधेयाविनाभूते प्रवृत्तिर्लक्षणेष्यते"-तन्त्रवा० 124 / 23 / उद्धृतोऽयम्'अभिधेयाविना'-काव्यप्र० पृ० 50 / 'प्रवृत्तिर्लक्षणोच्यते'-तौता० पृ० 204 / पदार्थदी० पृ० 31 / (3) सामान्यलक्षित / (4) “यत्र तु शक्यार्थस्य परम्परासम्बन्धरूपा लक्षणा सा लक्षितलक्षणेत्युच्यते / यथा द्विरेफादिपदे रेफद्वयसम्बन्धो भ्रमरपदे ज्ञायते, भ्रमरपदस्य च सम्बन्धो भ्रमरे ज्ञायते तत्र लक्षितलक्षणा ।"-मुक्ता० पृ० 389 / (5) पृ०५६६ पं०७ / (6) सामान्यवति विशेषेआ० टि०। (7) “जातिमात्रे हि सङ्केताद् व्यक्तेर्भानं सुदुष्करम् ।"-शब्दशः का० 19 / (8) तुलना-"तत्र जातिरनर्थक्रियायोग्या। नहि जातिहिदोहादौं क्वचिदपि प्रत्युपस्थिता। न वा तादृशप्रकरणाभावे लोकव्यवहारेषु शब्दप्रयोगः / न जातिहदोहादिकं कर्तुं समर्था / ततश्च वाहदोहाद्यथिनो जातिचोदना निष्फलेति न तदर्थः शब्दप्रयोगः। यापि स्वप्रतिपत्तिलक्षणार्थक्रिया जातेरुपवर्ण्यते; न तदर्थम्पुरुषः प्रवर्तते शब्दप्रयोगादेव तस्याः सिद्धत्वात् / जातिमात्रप्रतिपत्त्यर्थ शब्दप्रयोगो भविष्यतीति चेदत आह-नवेत्यादि / तादृशमिति वाहदोहादिप्रकरणं निष्फलस्य शब्दप्रयोगस्योपेक्षणीयत्वादित्युक्तत्वात् / जातौ च वाच्यायां सत्यां गामानयेत्यत्र वाक्ये न वाक्यार्थप्रतीतिः स्यात् गोत्वस्य क्रियात्वेऽन्वयाभावात् ।"-प्रमाणवा० स्ववृ०, टी० 1295 / "न खलु सर्वात्मना सामान्यं वाच्यं तत्प्रतिपत्तेः अर्थक्रियां प्रत्यनुपयोगात् / न हि गोत्वं वाहदोहादावुपयुज्यते ।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० 139 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 102 / (9) पृ०५६७ पं०१। 1 लक्षणाया श्र० / 2 तदुक्तम् ब०, श्र० / 3 प्रतिपन्ने न ब० / Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 26] जातिमात्रवाच्यत्वनिरासः 566 नित्यसम्बन्धनिषेधे' अपोहप्रतिषेधे च प्रपञ्चितमित्युपरम्यते / तथा च 'न चायोगिनः प्रतिपत्तुः प्रत्येकमशेषविशेषोपलम्भः सकृत् क्रमेण वा संभवति' इत्यादि प्रत्युक्तम् ; अयोगिनोपि अशेषविशेषाणार्मुक्तविधिनोपलम्भसंभवप्रतिपादनात् / ... यदप्युक्तम्-'किं जातिमभिधाय शब्दो व्यक्तिमभिधत्ते' इत्यादि; तदप्यसाम्प्रतम् ; जातितद्वतोयुगपदेव एकत्र ज्ञाने प्रतिभाससम्भवात् / नचैकज्ञानविषयत्वे विशेषणविशे- 5 ध्यभावप्रतिनियमो न स्याद्, विपर्ययो वा स्यात्-विशेषणस्यापि विशेष्यरूपतानुषङ्गादित्यभिधातव्यम् ; दण्डपुरुषयोर्युगपदेकत्रापि ज्ञाने प्रतिभासमानयोः विशेषणविशेष्यभावप्रतिनियमप्रतीतेः / तत्प्रतिभासाविशेषेऽपि हि येन विशिष्टं यत् प्रतीयते तद्विशेषणम् इतरद् विशेष्यम् / न खलु दण्डादेः पुरुषे विशिष्टंप्रतीतिजननादन्यद् विशेषणत्वं संभवति / यथा च चाक्षुषे ज्ञाने दण्डपुरुषयोः विशेषणविशेष्यभावापन्नयोयुगपत्प्रति- 10 भासमानत्वात् तत्प्रतिनियमाविरोधः तथा दण्डीतिशब्देऽपि / नैह्यत्र दण्डमात्रं पुरुषमात्रं वा प्रतिभासते, विशेषणविशेष्यभावापन्नस्य युगपदुभयस्य प्रतिपादनात् / अतो दण्डिशब्दात् दण्डविशिष्टः पुरुषो यथा प्रतिभासते तथा गोशब्दात् गोत्वविशिष्टः पिण्डः इति प्रतिपत्तव्यम् / अथ गोशब्दश्रवणात् शाबलेयादिविशेषाऽप्रतीतेन विशेषः शब्दार्थः; तन्न; तद्विशेषाप्रतीतावपि सामान्ययुक्तः ककुदादिमान विशेषो गोशब्दात् प्रतीयत एव 15 शावलेयादिविशेषास्तु तयुक्ताः शाबलेयादिशब्देभ्यः प्रतीयन्ते / नचैतावता सामान्यमेव शब्दार्थो युक्तः; प्रधानोसर्जनभावेन उभयोः प्रतिभासनात् / 'गामानय' इत्यादि (1). पृ० 550 50 11 / (2) पृ० 564 पं० / 14 (3) पृ० 567 पं० 3 / (4) उक्तविधिना उक्तप्रमाणेन (ऊहाख्येन) -आ० टि०। (5) पृ०५६७ पं० 9 / (6) तुलना-"प्रत्यक्षे तावद् द्वयोरपि विशेषणविशेष्ययोरिन्द्रियविषयत्वं सामान्ये हि संयुक्तसमवायादिन्द्रियं प्रवर्तमानं विशेषणवद्विशेष्यमपि विषयीकरोति / न हि सामान्यं प्रत्यक्षं विशेषोऽनुमेय इति व्यवहारः / एवं गुणत्वग्राहिणीन्द्रिये गुणिनोऽनुमेयत्वं स्यात्, नचैवमस्ति / तस्माद् विशेषपर्यन्तं प्रत्यक्ष तथा पदमपि तत्तुल्यविषयं न तु सामान्यमात्र निष्ठमिति युक्तम् .."यथा विध्यन्तपर्यन्तो वाक्यव्यापार इष्यते। तथैव व्यक्तिपर्यन्तः पदव्यापार इष्यताम् ।"-न्यायमं० 10 324-25 / (7) दण्ड एव विशेषणं पुरुष एव च विशेष्यमिति / (8) एकत्र ज्ञाने प्रतिभासमानेऽपि / (9) दण्डयुक्तोऽयमिति / (10) शाब्दे ज्ञाने। (11) तुलना"अथ गोशब्दश्रवणाच्छाबलेयादिविशेषाप्रतिपत्तेर्न विशेषः शब्दार्थः; सत्यम् ; किं तर्हि ? सामान्ययुक्तोऽर्थः प्रतीयते न शाबलेयादिविशेषः, स च शाबलेयादिशब्देभ्यः एव प्रतीयत इति, न चैतावता सामान्यमेव शब्दार्थः, प्रधानोपसर्जनभावेनोभयोः प्रतिभासनात् / तथा गामानयेत्यादिप्रयोगेषु सामान्यवतोऽर्थस्य आनयनादिकृत्या सम्बन्धात् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 192 / (12) शाबलेयादिरूपस्य विशेषस्य अप्रति'भासनेऽपि। (13) गोत्वविशिष्टाः / (14) तुलना-'व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः / तुशब्दो विशेषणार्थः किं विशिष्यते / प्रधानाङ्गभावस्यानियमेन पदार्थत्वमिति / यदा हि भेदविवक्षा विशेषावगतिश्च तदा व्यक्तिः प्रधानम् अङ्गं तु जात्याकृती, यदा तु भदोऽविवक्षितः सामान्यगतिश्च तदा जातिः प्रधानम् अङ्गं तु व्यक्त्याकृती / तदेतद् बहुलं प्रयोगेषु / आकृतेस्तु प्रधानभाव उत्प्रेक्षितव्यः।"-न्यायभा० 22 67 / न्यायवा० पृ० 329 / न्यायमं० पृ० 325 / 1-मित्युच्यते ब० / 2 युगपत्तदुभयस्य ब०, श्र०। 3 अशाबले-श्र०। 22 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 570 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० प्रयागेषु सामान्यवतोऽर्थस्य आनयनादिक्रियाभिसम्बन्धप्रतीतेश्च तद्वानेव शब्दार्थः / यच्चान्यदुक्त –'विशेष्यं नाभिधा गच्छेत्' इत्यादि; तदप्यपेशलम् ; 'विशेषणं प्राक् प्रतिपाद्य पुनर्विशेष्यं शब्दः प्रतिपादयति' इति विरभ्य व्यापारानभ्युपगमात् , युगपदेवास्ये विशेषणविशेष्यप्रतिपादनव्यापारप्रदर्शनात् / क्षीणशक्तित्वश्चास्याऽनुपपन्नम् ; शक्तेः कार्यानुमेयत्वात् , विशेषणविशेष्यप्रतिपत्तिलक्षणं हि कार्यमुपलभ्यमानं तत्रास्र्यं शक्तिमनुमापयति। भिन्नज्ञानालम्बनयोश्च विशेषणविशेष्यत्वे इदं चोद्यं स्यात्, न त्वेकज्ञानालम्बनयोः। भवतोऽपि चैतच्चोद्यं समानम्-उपलब्धस्य हि शब्दस्य अर्थप्रतिपादकत्वं स्यात् , अतः स्वात्मप्रतिपत्तावेवास्य क्षीणशक्तित्वात् सामान्यलक्षणाऽर्थप्रतिपादकमपि न स्यादिति लाभमिच्छतो मूलोच्छेदः स्यात् / अथ सामान्यप्रतिपत्तेदृष्टत्वान्न तत्रौस्य शक्तेः प्रक्षयः; तर्हि विशेषणविशेष्यप्रतिपत्तरप्यतो दृष्टत्वात् कथं तत्राप्यस्यै तत्क्षय: स्यात् / / यदप्यभिहितम्-'तत्प्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या' इत्यादि; तदप्यभिधानमात्रम् ; येतो . यदि शब्दात्सामान्यमेव प्रतीयते तर्हि व्यक्तेः किमायातं येन तत्तां लक्षयति ? अथ (1) तुलना-“अन्येषु तु प्रयोगेषु गां देहीत्येवमादिषु। तद्वतोऽर्थक्रियायोगात्तस्यवाहुः पदार्थताम् ॥"-न्यायमं० पृ० 323 / (2) सामान्यविशेषवान्-आ० टि०। (3) पृ०५६७५०१२। (4) तुलना-"प्रथमं जातिमात्रमवबोद्धयापर्यवसानादनन्तरं विशेषमवबोधन्ति. किं वाऽन्तर्भावितविशेषामेव जातिम् ? नाद्यः; पदबुद्धयोः विरम्य व्यापाराभावात्।"-चित्सु० पृ०२६३ / “शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभावः इति वादिभिरेव ।"-सा० द० परि०५। (5) शब्दस्य / (6) शब्दस्य / तुलना-"ननूक्तं क्षीणशक्तिविशेषणेति विशेष्यं नाभिदध्यात् इति; तावच्छक्तेः कार्यविषयत्वात् / कार्यञ्च विशेषणप्रतिपत्तिवत् विशेष्यप्रतिपत्तिलक्षणमुपलभ्यमानं शक्तेर्व्यवस्थापकम् / अथ कार्यस्यैवाभावं यात्; स चैवं ब्रुवाणः स्वसंवेदनमपि बाधते, विशेष्यप्रतिपत्तेः संवेदनात् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 192 / (7) विशेषणविशेष्योभयप्रतिपत्तौ / (8) शब्दस्य / (9) मीमांसकस्यापि / तुलना"समानञ्चैतद् उपलभ्यमानस्य शब्दस्य अर्थप्रतिपादकत्वाभ्युपगमात्, स्वात्मप्रतिपत्तौ च क्षीणत्वात् सामान्यप्रतिपादकत्वं न स्यात् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 192 / (10) शब्दस्य / (11). सामान्यप्रतिपत्तौ शब्दस्य / (12) शब्दात् / (13) शब्दस्य / (14) शक्तिप्रक्षयः / (15) पृ०५६७ पं०१६ / (16) तुलना-"व्यक्तेरशक्यचोदनत्वात् लक्षितलक्षणया जातिरुच्यते इति चेत् ; अशब्दचोदिते सम्बन्धे सत्यपि कथं प्रवर्तेत ? न हि कश्चित् दण्डं छिन्धीत्युक्ते दण्डिनं छिनत्ति / लक्षितलक्षणेत्यादि परः / सत्यं न सामान्यमर्थक्रियाकारि किन्तु व्यक्तिरेव, केवलं व्यक्तेरशक्यचोदनत्वात् कारणात् सामान्ये नियुक्तः शब्दः सामान्य लक्षयति / तेन सामान्येन शब्दलक्षितेन सम्बन्धाद् व्यक्तिरपि लक्ष्यत इति; न हि गोशब्दादुच्चरिताद् गोत्वं प्रतीयते अपि तु गौरेवावसीयते / न नामैवं तथाप्युच्यते / अशब्दचोदितेत्यादि / यदि नाम जातितद्वतोस्सम्बन्धः तथापि अशब्दचोदिते व्यक्तिविशेषे कथं प्रवर्तते ? नैव / दण्डदण्डिनोस्सत्यपि सम्बन्धे न हि कश्चित्प्रेक्षापूर्वकारी दण्डं छिन्धि इत्युक्ते दण्डिनं छिनत्ति अशब्दचोदितत्वात् / तथा जातो चोदितायां व्यक्तौ प्रवृत्तिर्न युक्तेत्यर्थः ।"-प्रमाणवा० स्ववृ०, टी०२९५ / "लक्षितलक्षणया वृत्तिरतादात्म्ये न भवेत् सम्बन्धान्तरासिद्धेः कार्मुकादिवत् ।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० 139 / तत्वार्थश्लो० पृ० 102 / "किञ्च यदि नाम शब्दाज्जातिः प्रतिपन्ना व्यक्तेः किमायातं येनासौ तां गमयति ।"-प्रमेयक० 10412 / (17) सामान्यं तां व्यक्तिम् / 1 गच्छेदि तदप्य-आ०1शब्दसामा-ब०। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 571 प्रमाण० का० 26] जातिमात्रवाच्यत्वनिरास: व्यक्तथा सह तस्यै सम्बन्धसद्भावात् ततस्तत्प्रतीयमानं तां लक्षयति; कः पुनस्तस्यास्तेन सम्बन्धो नाम-संयोगः, समवायः, तदुत्पत्तिः, तादात्म्यं वा ? न तावत्संयोगः, अंद्रव्यत्वात् / नापि समवायः; अपसिद्धान्तप्रसङ्गात् / तदुत्पत्तिरपि अर्तं एवानुपपन्ना / तादात्म्याभ्युपगमे तु सामान्यविशेषयोः तादात्म्यापन्नयोः एकस्मादेव गवादिशब्दात् विशेषणविशेष्यरूपतया प्रतीयमानयोः कथमेकस्यैव शब्दार्थत्वं वक्तुं युक्तम् , अप्रामा- 5 णिकत्वप्रसङ्गात् ? किञ्च, अँनयोस्तल्लक्षणः सम्बन्धः शब्दप्रयोगकाल एव प्रतिपन्नः, पूर्व वा ? न तावत्तत्काल एव; व्यक्तेः शब्दोच्चारणकालेऽप्रतीते:, प्रतीतौ वा किं लक्षणया ? तत्काले तत्प्रतीतिश्च किं प्रत्यक्षतः, अनुमानात् , शब्दादेव वा स्यात् ? न तावत्प्रत्यक्षतः; देशकालस्वभावविप्रकृष्टायाः व्यक्तेः इन्द्रियसम्बन्धाभावतस्तत्प्रभवप्रत्यक्षेण प्रत्येतुमशक्यत्वात् / 10 नाप्यनुमानतः; तत्प्रतिबद्धलिङ्गाऽदर्शनात् / शब्दादेव तत्प्रतीतौ तु सिद्ध व्यक्तेरपि / शब्दार्थत्वम् / अथ पूर्व जातिव्यक्त्योस्तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धः प्रतिपन्नः; यदि नाम तदा तयोरसौ दृष्टो नैतावता सर्वत्र सर्वदा तयोस्ते भाव्यम्, अन्यथा पटस्य शुक्लरूपेण कैचित् कदाचित्तादात्म्यदर्शनात् सर्वत्र सर्वदा तथाभावः स्यात् / अथ जातेरिदमेव स्वरूपं यद् व्यक्तिनिष्ठता; ननु किं सर्वसर्वगतायास्तस्यास्तद्रूपं 15 स्यात् , व्यक्तिसर्वगताया वा ? तत्राद्यपक्षोऽनुपपन्नः; व्यक्त्यन्तराले तदभावप्रसङ्गात् तंत्र तपस्यासंभवात् / व्यक्तिसर्वगतायास्तु तस्याः तेंद्रूपोपगमे व्यक्तिवज्जातेरप्यनेकत्वप्रसिद्धेः उभयोरविशेषतः शब्दार्थत्वं स्यात्, न वा कस्यचित् / अस्तु वा अविचारितस्वरूपायास्तस्यास्तन्निष्टस्वभावता; तथाप्यसौ 'सर्वत्र सर्वदा व्यक्तिनिष्ठा' इति प्रत्यक्षतः प्रतीयेत, अनुमानतो वा ? प्रत्यक्षतश्चेत् ; किं युगपत् , क्रमेण वा ? तत्राद्यपक्षोऽनुपपन्नः; 20 (1) सामान्यस्य / (2) शब्दात् / (3) व्यक्तेः / (4) द्रव्ययोरेव संयोगात्, संयोगस्य गुणत्वेन द्रव्याश्रितत्वात् / (5) न हि मीमांसकाः समवायं स्वीकुर्वन्ति। (6) अपसिद्धान्तप्रसङ्गादेव, नहि शब्दार्थयोः परस्परमत्पाद्योत्पादकभावः। (7) सामान्यव्यक्त्योः / तुलना-"सम्बन्धस्तयोस्तदा प्रतीयते पूर्व वा ?"-प्रमेयक० पृ० 412 / (8) शब्दोच्चारणसमये / (9) तादात्म्यलक्षणसम्बन्धप्रतीतिः। (10) इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न / (11) सामान्यव्यक्त्योस्तादात्म्यस्य प्रतीतौ / (12) न हि व्यक्त्यनधिगतावपि तन्निष्ठः सम्बन्धो ग्रहीतं शक्य इति / (13) पूर्वम् / (14) सम्बन्धेन / (15) शुक्लतादात्म्यम् / (16) जातेः यद् व्यक्तिनिष्ठताख्यं स्वरूपमुक्तं तस्य अभावप्रसंगात् / (17) व्यक्त्यन्तराले / (18) व्यक्तिनिष्ठताख्यस्य स्वरूपस्य असंभाव्यमानत्वात् / व्यक्त्यभावे हि न व्यक्तिनिष्ठताख्यं स्वरूपं सिद्धयति, अतश्च स्वरूपाभावात् स्वरूपवतः सामान्यस्याप्यभावः / (19) जातेः / (20) व्यक्तिनिष्ठताख्यस्वरूपस्वीकारे / (21) जातेः / (22) व्यक्तिनिष्ठ / (23) जाति:-आ० टि। तुलना-"किञ्च, सर्वदा जातिय॑क्तिनिष्ठेति प्रत्यक्षेण प्रतीयते अनुमानेन वा?"-प्रमेयक०पू० 412 / 1-विषयोस्ता-आ० / 2 तादात्म्यापनविशेषयोः श्र०। 3-तावता सर्वदा श्र०। 4 क्वचिकतावा-आ। 5 सर्वदा भावः ब016 तद्भावप्र-आ०, श्र०। 7-स्य संभवात् श्र०। 8-संभवत् आ०। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० निखिलव्यक्तीनां युगपदप्रतिपत्तौ जातेस्तन्निष्ठतया युगपत्प्रतिपत्त्यनुपपत्तेः। द्वितीयपक्षे तु निरवधेर्व्यक्तिपरम्पराया युगसहस्रेणापि क्रमेण प्रतिपत्त्यभावतः तस्यास्तन्निष्ठतावसायसंभवोऽतीव दुर्घटः। तन्न प्रत्यक्षतः तस्यास्तन्निष्ठताधिगमो युक्तः / नाप्यनुमानतः; प्रत्यक्षपूर्वकत्वेनास्य भवताऽभ्युपगमतस्तदावे तस्यापि तत्राऽप्रवृत्तेः, तस्यास्तन्निष्ठतयाऽविनाभाविलिङ्गासम्भवाच्च / ततः शब्दस्य सामान्यवाचकत्वे व्यक्तिवाचकत्वानुपपत्तिरेव / किञ्च, सामान्ये सङ्केतितः शब्दः तदभिधत्ते, असङ्केतितो वा ? न तावदसङ्केतितः; अतिप्रसङ्गात् / अथ सङ्केतितः; किं प्रतिपन्ने सामान्ये तत्सङ्केतः स्यात् , अप्रतिपन्ने वा ? यद्यप्रतिपन्ने; अतिप्रसङ्गः / अथ प्रतिपन्ने; कुतस्तत्प्रतिपत्तिः ? न तावत् प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् ; नित्यादिस्वभावसामान्यग्राहकत्वेन अनयोः सामान्यपरी10 भावसरे प्रतिक्षिप्तत्वात् / शब्दैकप्रामाणसमधिगम्यत्वे तु अनवस्थेतरेतराश्रयदोषानुषङ्गः। तथाहि-यदि य एव शब्दः सामान्ये सङ्केत्यते तत एव तत्प्रतिपत्तिः, तदा इतरेतराश्रयःप्रतिपन्ने हि सामान्ये तत्रास्य सङ्केतसिद्धिः, तत्सिद्धौ च ततः सामान्यप्रतिपत्तिरिति / शब्दान्तरात्तु तत्सिद्धौ अनवस्था, तस्यापि हि शब्दान्तरस्य प्रतिपन्ने सामान्ये सङ्केतो भविष्यति, तत्प्रतिपत्तिश्च अन्यस्माच्छब्दान्तरादिति / यदि च शब्दात्सामान्यमेव 16 प्रतीयते; तदा शाब्दमप्रमाणमेव स्याद् गृहीतग्राहित्वात् , शब्दार्थयोः सम्बन्धग्राहिणैव हि प्रमाणेन सामान्यं गृहीतमिति / किञ्च, शब्दान्निर्विशिष्ट सामान्यं प्रतीयमानं पुरुषं प्रवर्त्तयति, विशिष्टं वा ? न तावन्निर्विशिष्टम् ; अतिप्रसङ्गात् / अथ विशिष्टम् ; किकृतमस्य वैशिष्ट्यम्-विशिष्टव्यक्तितादात्म्यकृतम्, तत्रैव तत्प्रवृत्तिहेतुत्वकृतम् , अस्येदमिति प्रतीतिकृतं वा ? तत्राद्यपक्षोऽनुपपन्नः; तस्य स्वकीयसकलव्यक्तिभिः सह तादात्म्यसद्भावतो विशिष्टव्यक्तावेव तादात्म्यानुपपत्तेः। अथ स्वकीयाखिलविशिष्टव्यक्तितादात्म्यकृतमेव अस्य वैशिष्ट्यमुच्यते; नन्वेवं सर्वत्र तद्व्यक्तौ पुरुषस्य प्रवृत्तिप्रसङ्गात् प्रतिनियतद्वयक्तौ प्रवृत्त्यभावः स्यात् / न च गोशब्दाद् गोत्वमात्रप्रतीतौ क्वापि व्यक्ती प्रवृत्तिरुपपद्यते; तस्याः सर्वथाऽप्रतिपन्नत्वात् / यस्मिन् प्रतीयमाने यत् सर्वथा न प्रतीयते न तत्प्रतीतितस्तत्र प्रवृत्तिः यथा जलप्रतीतितोऽनले, गोशब्दाद् गोत्वमात्रप्रतीतौ न प्रतीयन्ते च खण्डादयो व्यक्तिविशेषा इति / (1) अनन्तायाः। (2) जातेः। (3) मीमांसकादिना। (4) प्रत्यक्षाभावे। (5) अनुमानस्यापि / (6) जातेय॑क्तिनिष्ठत्वबोधने / (7) जातेः / (8) प्रत्यक्षानुमानयोः / (9) पृ० 285 / (10) शब्दस्य। (11) सामान्यसिद्धौ। (12) भूयोदर्शनादिना। (13) यदेव हि शब्दार्थसम्बन्धग्रहणकाले सामान्यं गहीतं तदेव शब्दोच्चारणकालेऽपि-आ० टि०। (14) सामान्यस्य। (15) विशिष्टव्यक्तावेव। (16) सामान्यस्य / (17) व्यक्ते:-आ० टि०। (18) गोत्वसामान्यमात्रस्यैव प्रतिपन्नत्वात्-आ० टि०। (19) शब्दाद् गोत्वप्रतीतावपि न शावलेयादिषु प्रवृत्तिः तत्प्रतीतावपि तेषां सर्वथाऽप्रतिपन्नत्वात् / 1-वात् ततः ब०। 2-रात्तसिद्धौ आ०। 25 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26] विधिवादः 573 अथ गोशब्दाद् गोत्वं प्रतीयमानं गोव्यक्तिसम्बद्धमेव प्रतीयते; कथमेवं सामान्यमेव शब्दार्थः स्यात् ? विशेषणविशेष्यभावापन्नयोः सामान्यविशेषयोः ततः प्रतीतेः / ननु गोशब्दात्साक्षाद् गोत्वमेव प्रतीयते, व्यक्तिस्तु तदन्यथानुपपत्त्यैव प्रतीयते इति; तदप्यसुन्दरम् ; एवं जातेरेव शब्दार्थत्वमायातं व्यक्तेस्तु प्रमाणान्तरगम्यता, तथा च शब्दस्य लक्षणया विशेषप्रतिपादकत्वं दुर्घटम् / अथ शब्दस्यैव अयमान्तरो व्यापारः / यत् सामान्य प्रतिपाद्य तत्प्रतिपत्तिसहकारी व्यक्तिमपि गमयति लक्षणयेति; तैदसाम्प्रतम् ; यतो यत्रैव सम्बन्धस्मरणसहकारी शब्दः प्रवर्त्तते स एव तस्यार्थो न पुनस्तदर्थाविनाभावित्वेन यद्यत्प्रमाणान्तरतः प्रतीयते तत्तत्सर्वं शब्दोदरे प्रक्षेप्तव्यम् , अन्यथा प्रत्यक्षसिद्धधूमान्यथानुपपत्त्या सिद्धो वह्निः प्रत्यक्षसिद्ध एव स्यात् / तन्न विशिष्टव्यक्तितादात्म्यकृतमस्य वैशिष्ट्यं घटते। 10 नापि तत्रैव तत्प्रवृत्तिहेतुत्वकृतम् ; अन्योन्याश्रयानुषङ्गात् / तथाहि- सामान्यस्य विशिष्टत्वसिद्धौ सत्यां विशिष्टविशेषेष्वेव प्रवृत्तिहेतुत्वसिद्धिः, तस्याश्च सत्यां सामान्यस्य विशिष्टत्वसिद्धिरिति / तृतीयपंक्षे तु चक्रकमासज्यते-सिद्धे हि सामान्यस्य वैशिष्ट्ये विशिष्टविशेषेषु प्रतीतिहेतुत्वसिद्धिः, तस्यां सत्याम् 'अस्येदम्' इति प्रतीतिसिद्धिः, तस्याश्च सत्यां तस्य वैशिष्ट्य- 15 सिद्धिरिति / ततः प्रमाणतो वस्तुव्यवस्थामिच्छता यद् यथा यतः प्रतिभासते तत् तस्य सदृशेतररूपतया विषयोऽभ्युपगन्तव्यम् यथा चक्षुरादिप्रत्ययस्य नीलादिरूपतया प्रतिभासमान रूपादि, गवादिशब्दात् प्रतिभासते च गवादिकं वस्तु, तस्मात्तदेव तच्छब्दानां विषयः, न पुनः सामान्यमात्रमिति ॥छ।। एतेन विधिरेव वाक्यार्थः इति विधिवादिमतमप्यपास्तम् / ते हि ब्रुवते-विधि- 20 . रेव वाक्यार्थः अप्रवृत्तप्रवर्तनस्वभावत्वात्तस्य / तदुक्तम्- विधेर्लविधिवादे विविधपूर्व पक्षिणमेतावदप्रवृत्तप्रवर्तनम् / " [ ] इति / तल्लक्षणे च विधौ पक्षाः वादिनां विप्रतिपत्तिः; तथाहि-वाक्यरूपः शब्द एव प्रवर्तकत्वाद् (1) शब्दात् / (2) अर्थापत्ति-आ० टि०। (3) शब्देन हि सामान्यं गृहीतं विशेषस्त्वर्थापत्त्या, कि लक्षणया ?-आ०टि०। (4) सामान्यप्रतिपत्ति / (5) सङ्केतस्मरण / (6) अर्थापत्तेरनुमानाद्वा / (7) सामान्यस्य / (8) 'अस्येदमिति प्रतीतिकृतं वा' इति तृतीये विकल्पे / (9) विधेः / (10) "अनुष्ठेये हि विषय विधिः पुंसां प्रवर्तकः।"-मी० श्लो० वाक्या० श्लो० 274 / "तत्राज्ञातार्थज्ञापको वेदभागो विधिः।"-अर्थसं०५०२९ / 'प्रवर्तकचिकीर्षाया हेतुधीविषयो विधिः।" -शब्दशका०१०१। "यो हि विध्यर्थेन लिङा लोटा कृत्यर्वाऽपूर्वोपदेशः कियते स विधिः।"-यक्तिदी०प०२०। (11) "नन चाहः विधेर्लक्षणमेतावदप्रवृत्तप्रवर्तनम्। अतिप्रसङ्गदोषेण नाज्ञातज्ञापन विधिः।।"-न्यायमं० पृ० 340 / 1 प्रतीयत एव व्य-श्र० 12-सहकारि व्य-ब०,श्र०। 3 तदप्यसा-श्र०, ब014 प्रतिक्षेप्तव्यम् ब०, श्र०। / तत्रैव प्रवृ-ब०, श्र० / 6-हेतुत्वसिद्धिरिति तृतीय-ब० / तस्याञ्च सत्यां तत्रैव तस्य प्रवृत्तिहेतुत्वसिद्धिरिति आ० / 8-मतमपास्तम् ब०। 9 विधिलक्ष-ब०। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 574 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. आगमपरि० विधिरित्येके / तद्व्यापारो भावनाऽपरपर्यायो विधिरित्यन्ये / नियोगरित्यपरे / प्रैषादयः इत्येके / तिरस्कृततदुपाधिप्रवर्त्तनामात्रम् इत्यन्ये। प्रवर्तकत्वात् फलमेव इत्यपरे / फलाभिलाष एव इत्येके / कर्मैव इत्यन्ये / आत्मनोऽप्राप्तकियासम्बन्धावगम इत्यपरे / श्रेयःसाधनत्वाख्यधर्मः इत्येके / उपदेशः इत्यन्ये / कर्तव्यताप्रतिपत्तिरेव इत्यपरे / 5 प्रतिभैव ईत्येके / भक्तिरेव इत्यन्ये / इच्छैव इत्यपरे। प्रयत्न एव इत्येके इति / तत्र शब्दविधिवादिनो ब्रुवते-अन्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रवर्तकत्वमवधार्यते, तौ च अनन्यथासिद्धौ शब्दस्यैव प्रवर्तकत्वमवगमयतः, अतः स एव विधिः / अर्थस्य विधित्वे "क्रियायाः प्रवर्तकं वचनम्" [ शाबरभा० 1 / 1 / 2] इति विरुध्यते / प्रवर्तकार्थ प्रतिपादनद्वारेण वचनस्य प्रवर्तकत्वे च औपचारिकं प्रवर्तकत्वमस्यं स्यात् , मुख्यश्च वस्तु10 वृत्त्या तत्रं तद्व्यवस्थितम् इत्यर्थनिरपेक्षमेवास्य तत्प्रतिपत्तव्यम् / व्यापारातिशयप्रवर्त्त कत्वपंक्षेऽपि न शब्दस्य मुख्यप्रवर्तकत्वक्षतिः, व्यापारातिशयसमाश्रयणेनैव सर्वस्य साध्यवस्तुसम्पादकत्वात् / न खलु काष्ठादीनां ज्वालाद्यवान्तरव्यपारावलम्बनेऽपि पाके मुख्य कारकत्वाभिधानं विरुध्यते / प्रवर्तकत्वञ्च यद्यपि सामान्येन शब्दस्योच्यते तथापि 'लिङलोट्तव्यप्रत्ययान्तस्यैव तद् युक्तं शब्दान्तराणां प्रवृत्तिहेतुत्वाऽदृष्टेः। 15 अत्रान्ये" शब्दस्य विधित्वमसहमानाः 'प्रमाणत्वात् , अनियमात्प्रवृत्तेः, संविदाश्रयणात्' इत्यादियुक्तिविरोधं दर्शयन्ति / तथाहि-प्रमाणत्वं तावत् प्रवर्तकाऽर्थाऽवबोध (1) भाट्टाः / (2) प्राभाकराः / (3) परित्यक्तपुरुषादिविशेष-आ० टि०। (4) शब्दस्य / (5) शब्दे / (6) प्रवर्तकत्वम् / (7) शब्दस्य / (8) प्रवर्तकत्वम्। (9) पंचमी -आ० टि० / पञ्चमो लकार इत्यर्थः / (10) लोट् सप्तमी-आ० टि० / सप्तमो लकार इत्यर्थः / (11) मण्डनमिश्रादयः। (12) “प्रमाणत्वादनियमात्प्रवृत्तेः संविदाश्रयात् / समभिव्याहृतेः शब्दो न विधि: कार्यकल्पनात् ॥"-विधिवि० पृ०५ / "तत्र शब्द: स्वरूपेण वायुवच्चेत्प्रवर्तकः / प्रमाणत्वं विहन्येत नियमाच्च प्रवर्तयेत् ॥"-न्यायसु० पृ० 26 / (13) “प्रमाणं हि शब्दः प्रतिज्ञायते, बोधकञ्च प्रमाणम्, तत्र प्रवृत्तिहेतु कञ्चनार्थीतिशयमवगमयन् शब्दश्चोदनात्वेन प्रमाणतामश्नुते, स्वयमेव तु प्रवृत्तः कारकस्तां प्रमाणतामपजह्यात् / न हि कारको हेतु: प्रमाणमपि तु ज्ञापकः।-प्रमाणं हि शब्दः प्रतिज्ञायते चोदनालक्षणोऽर्थों धर्म इति / बोधकञ्च प्रमाणम् अबाधितानधिगतासन्दिग्धार्थप्रमाजनकम् / ' स्वयमेव तु प्रवृत्तेरप्रमायाः कारक: तां प्रमाणतामप्रजह्यात्। नन्वप्रमाया अपि प्रवृत्तेः कारकः कस्मान्न प्रमाणमत आह-नहि कारको हेतुः प्रमाणम्। माभूद् बीजादीनामङकुरादिकारकाणां प्रामाण्यम् / किं तर्हि प्रमाणमित्याह-अपि तु ज्ञापकः, इन्द्रियादौ तथा भावात्।"-विधिवि०,टी० पृ०५।"अत एव शब्दोपि न स्वरूपमात्रेण प्रवर्तकः वाय्वादितुल्यत्वप्रसङ्गात् / यदि पवन इव पिशाच इव कुनृप इव शब्दः प्रवर्तको भवेत् अनवगतशब्दार्थसम्बन्धोऽपि श्रवणपरवशः प्रवर्तेत, न चैवमस्ति / तस्मादर्थप्रतीतिमुपजनयतः शब्दस्य प्रवर्तकत्वम् / न च नाम लिङादिरेव शब्द: प्रवर्तकाभिधानद्वारेण प्रवर्तको भवितुमर्हति / शब्दस्य च ज्ञापकत्वाच्चक्षुरादिकारकवलक्षण्ये सत्यपि प्रतीतिजन्मनि कारणत्वमपरिहार्यम् / कारणं च कारकम्, कारकञ्च न निर्व्यापारं स्वकार्यनिर्वृतिक्षममिति व्यापारस्तस्यावश्यम्भावी ..."-क्यायमं० पृ० 342 / 1 प्रेषणादयः श्र०। 2 इत्यपरे ब०। / इत्येके तत्र श्र०. ब०। 4-वधारयति तौ श्र० / 5 क्रिययोः प्र-ब०। 6-पक्षोपि ब०। 7 साध्वस्तु-आ०। 8 लिट्लोट् तव्य-आ०, ब०। : Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26 ] विधिवादः 575 कत्वं विना स्वतः प्रवृत्तिकारकत्वे अस्य दुर्घटं वाय्वादिवत्, कारकहेतोः प्रमाणत्वानुपपत्तेः, बोधकस्यैव तत्संभवात् / अथोच्यते-वाय्वादिजनितभूतप्रवृत्तिविलक्षणैवेयम् इच्छादिसमानरूपा चिद्रूपात्मप्रवृत्तिः विषयावबोधापेक्षिणी 'लिङादिभिः क्रियते; तन्न; प्रवृत्तिकारकत्वांशे परकारकाणामिव प्रामाण्यानुपपत्तेः। बोधकत्वमात्रेणापि प्रामाण्ये वर्तमानाद्यपदेशकालप्रवर्तकलडाँदियुक्तेष्वपि वाक्येषु तत्प्रसङ्गात् “तेन प्रवर्तकं वाक्यं / शास्त्रेऽस्मिंश्चोदनोच्यते / " [मी० श्लो० चोदनासू० श्लो० 3 / ] इत्यस्य विरोधः। तस्मात् साध्यस्वभावयागादिव्यापारलक्षणविषयावबोधकत्वेनैव लिङाद्यन्तस्य शब्दस्य प्रमाणत्वोपपत्तेः न शब्दस्य स्वरूपेणैव विधित्वम् / तथा, अँनियमात्प्रवृत्तेः; शब्दस्य हि विषयावबोधनिरपेक्षस्य स्वरूपेणैव विधित्वे चेतनात्मकस्यापि पुरुषस्य अभिप्रायतिरस्कारेण मन्त्रादिजन्यविक्षोभस्येव विवशस्य बला- 10 कारेण शब्दात्प्रवृत्तिरुद्भवन्ती न वाय्वादिजनितप्रवृत्तिवैलक्ष यमश्नुवीत / तथा चास्यों हैठादेव भवन्त्यां पुरुषस्वातन्त्र्याश्रितविहिताऽकरणापराधनिबन्धनप्रायश्चित्तप्रतिपोदनस्य निर्विषयत्वप्रसक्तेः अयुक्तमुक्तम् "अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दितञ्च समाचरन् / प्रसजश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः // " [मनुस्मृ० 11 / 44] इति / 15 (1) प्रवृत्तिकारकांशेऽप्रामाण्यम् , बोधकारकांशे प्रामाण्यमिति-आ० टि०। (2) किन्तु विशिष्टबोधकत्वेनैव प्रामाण्यम्-आ० टि०। "विषयावबोधनान्न दोष इति चेन्न; तन्मात्रस्यान्यत्रापि तुल्यत्वात चोदनालक्षणोऽर्थो धर्म इत्यभ्युपगमानर्थक्यात् / निराकरोति, नेति / कुतः ? तन्मात्रस्य अन्यत्रापि वर्तमानापदेशेऽपि चैत्रः पचतीत्यादो तुल्यत्वात् / न हि तत्र भावना नावगम्यते। अस्तु तुल्यता, का नो हानिरित्यत आह-चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः इत्यभ्युपगमानर्थक्यात् / प्रवर्तकत्वं चोदनात्वं प्रवृत्तिहेतु कञ्चनार्थातिशयमवगमयन् अनेन रूपेण प्रामाण्यमश्नुते न भावनामात्रवचनत्वेन तस्य अन्यत्रापि तुल्यत्वात् / तस्माद्येन रूपेण प्रामाण्यं न तेन चोदना, येन चोदना न तेन प्रामाण्यं तस्य प्रवृत्ति प्रति कारकत्वात् ।"-विधिवि०, टी० पृ०६। (3) वर्तमान-आ० टि०। (4) चैत्रः पचतीत्यादिषु / (5) प्रामाण्यप्राप्तेः। (6) अग्निहोत्रं जुहुयादित्यादेः / (7) "शब्दस्वातन्त्र्ये च नियोगतोऽवश्यं प्रवृत्तिः स्यात् , तथा च अकुर्वन् विहितं कर्मेति निविषयं स्यात् / न हि तदानीं बलवदनिलसलिलोघनुद्यमानस्येवेच्छापि तन्त्रं प्रवृत्ति प्रति पुरुषस्य।"-विधिवि० पृ०६। (8) शब्दवशादनिच्छापूर्विकायां प्रवृत्तौ। (9) पुरुषस्वातन्त्र्ये सत्येव विहितस्य सन्ध्यादेः अकरणात् प्रायश्चित्तं भवेत्, यदा तु पुरुषस्य प्रवृत्तौ स्वतन्त्र्यमेव नास्ति तदा कथं तदकरणेन प्रायश्चित्तभाक्त्वम् / (10) व्याख्या"प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेष . . . 'नित्यं यद्विहितं सन्ध्योपासनादि नैमित्तिकञ्च शवस्पर्शादी स्नानादि तदकुर्वन्, तथा प्रतिषिद्धं हिंसाद्यनुतिष्ठन् अविहितनिषिद्धेष्वत्यन्तासक्ति कुर्वन्नरो मनुष्यजातिमात्र प्रायश्चित्तमर्हति ।"-मनुस्मृ० मन्वर्थ० 11144 / 1 लिडादि-आ०, ब०। 2 परकारणा-आ०, श्र०। 3-कलिडादि-ब०। 4 लिडाद्यन्त-आ०, ब०। 5-विक्षोभस्यैव ब०, श्र०.। 6 हठादिव श्र०। 7 भवत्यां ब०, श्र०। 8-बन्धनं प्रा-ब०। 9-नस्यानि-श्र०। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 576 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. अागमपरि० तथा, 'संविदाश्रयणान्न शब्दः प्रवृत्तेः कारकः / नहि बीजादीनां संवेदनसापेक्षाणां स्वकार्यकर्तृत्वं दृष्टम् , ज्ञापकस्यैव धूमादेस्तदपेक्षाप्रतीतेः / किश्च, अश्रुतफलेषु विश्वजिंदादिषु वाक्येषु फलस्य स्वर्गादेः अधिकारिणश्च स्वर्गकामादेः अध्याहारः, अग्निष्टोमादिषु च स्वर्गकामादौ अन्यपदार्थोपसर्जनीभूतस्वर्गादि। पदार्थानां फलत्वाध्यवसाय एवमाद्यर्थाभिसम्बन्धो व्यर्थः, वाय्वादिवत् फलादिसम्बन्धानपेक्षस्यैव शब्दस्य प्रवृत्तिहेतुत्वप्रसङ्गात् / तन्न शब्दो विधिः ॥छ।। शब्दव्यापारविधिवादिनस्तु ब्रुवते-लिडादि( लिङादि )शब्दश्रवणानन्तरं वृद्धव्यवहारे प्रवृत्त्याख्यकार्यदर्शनात् तत्कारणत्वेन कल्पितस्य शब्दव्यापारस्य मन्त्रपवनादिवैलक्षण्येन प्रवृत्तिहेतोः संभवान्न पूर्वोक्तदोषानुषङ्गः / तदुक्तम् "अभिधाभावनामाहुरन्यामेव लिङादयः / " [तन्त्रवा० 2 / 1 / 1] (1) "ज्ञापकश्च स्वरूपकर्मसन्बन्धविषयज्ञानमपेक्षते लिङादिस्वरूपञ्च प्रवृत्तेः कारकमित्यनुपयुक्तस्वरूपतत्कर्मसम्बन्धविषयसंविदोऽपि पुंसः प्रवृत्तिप्रसङ्गः ।"-विधिवि० पृ० 7 / (2) स्वसंवेदनापेक्षा / (3) विश्वजिदादियज्ञेषु स्वर्गादिफलं न श्रुतौ कण्ठोक्तमतः तत्र सामान्यरूपेण स्वर्गरूपस्य फलस्य अध्याहारः क्रियते। तथा चोक्तं जैमिनिन्यायमालायाम्-(४।३५) "नवास्ति विश्वजिद्यागे फलमस्त्युत नाश्रुतेः / भाव्यापेक्षाद्विधेः कल्प्यं फलं पुंसः प्रवृत्तये।" द्रष्टव्यम्-शाबरभा०, शास्त्रदी० 4 / 3 / 10-17 // "अपि चाश्रुतफलेषु फलाध्याहारः क्वचित्ऋतूपकारकल्पना, श्रुतानामपि स्वर्गादीनां फलत्वाध्यवसाय इति सर्व एव महिमा विधेः / स शब्दस्य तद्भावेऽनुपपन्न:-अपि चाश्रुतफलेषु पिण्डपितृयज्ञादिष स्वर्गादिफलाध्याहारः क्वचित् ऋतूपकारकल्पना समिदादौ, श्रुतानामपि पुरुषविशेषणतया स्वर्गादीनां / फलत्वाध्यवसाय इति सर्व एष महिमा विधेः / स शब्दस्य तद्भावे विधिभावेऽनुपपन्नः ।"-विधिवि०, टी०पृ० 14 / (4) अब हि श्रुतिवाक्यविषयः अधिकारी चोक्तो न त् फलम्, तच्च स्वर्गकामाख्याधिकारिलक्षणे पदार्थे स्वर्गकामोऽस्येति समासे पूर्वपदतया उपसर्जनीभूतः स्वर्गः फलतयाऽध्यवसीयते-आ० टि०। (5) "प्रवर्तकस्येति चेन्न; तस्यापि पवनादिवर्तिन इवोपपत्तेः फलरूपं कारकं विना। तस्मान्न विधिः शब्दस्तद्वयापारो वा / शंकते-प्रवर्तकस्येति चेत्, लिङादयः खलु पुंसां प्रवर्तकाः, न चैते निष्फले प्रवर्तयितुं पुरुषमीशते इति तदन्यथानुपपत्त्या फलकल्पनेत्यर्थः / निराकरोति, न। तस्यापि प्रवर्तकत्वस्य पवनादिवर्तिन इवोपपत्तेः। नहि यो यः प्रवर्तयति स सर्वः फलमपेक्षते, पवनादीनां प्रवर्तयतामपि तदनपेक्षत्वदर्शनादित्यर्थः।"-विधिवि०, टी० पृ० 14 / (6) भट्टकुमारिलादयः / "भावनैव च वाक्यार्थः सर्वत्राख्यातवत्तया। अनेकगुणजात्यादिकारकार्थानुरञ्जिता // एकयैव तु बुद्धयासौ गृह्यते चित्ररूपया।"-मी० श्लो० पृ० 939 / “तत्रार्थात्मिकायां भावनायां लिङादिशब्दानां यः पुरुष प्रति प्रयोजकव्यापारः सा द्वितीया शब्दधर्मोऽभिधात्मिका भावना विधिरित्युच्यते / " -तन्त्रवा० 2 / 11 / (7) यथा कश्चिन्मत्रेण अभिचारिकादिना पारवश्यं नीतोऽनिच्छयापि प्रवर्तते -आ० टि० / (8) व्याख्या-"कर्तृ व्युत्पत्त्या करणव्युत्पत्त्या वा अभिधाशब्दस्य शब्दपरत्वमङ्गीकृत्य अभिधायाः शब्दस्य आत्मनो भावनां व्यापार प्रवर्तनासामान्यव्यक्तिभूतं लिङादयः प्रवर्तनासामान्यमभिदधाना निविशेषसामान्यायोगात प्रैषादौ च लोकदृष्टस्य विशेषस्य पुरुषधर्मत्वेन अपौरुषेयवेदेऽसम्भवात् प्रवर्तनासामान्यस्य च प्रैषादिप्रवर्तकव्यापारवर्तित्वदर्शनात लिङादेरेव च वेदे प्रवर्तक 1बीजानां आ० / 2-जिदादिषु फलस्य आ०, ब०। 3 मंत्रपवचनादि-आ०, मंत्रपठनादिब०। 4-वानपूर्वो-आ०। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26 ] भावनांवादः 577 अभिधायाः शब्दस्य लिङादेर्यासौ भावना पुरुषप्रवृत्त्युत्पत्ति प्रति स्वकीयप्रयोजकव्यापारः तस्य अभिधायका लिङादयः / भाव्यनिष्ठश्च भावकव्यापारो भावना। शब्दत्वावधारणात् लक्षणया गमयन्तीत्यर्थः ।"-न्यायसु० 10559 / जैमिनिन्या० पृ० 75 / तन्त्ररह० पृ० 47 / मानमेयो० पृ० 272 / वैयाकरणभ० द०पू०१५६ / मुक्ता० दिन० पृ० 515 / "अभिधीयत इति अभिधा प्रवर्तना कर्तव्यता वा. सैव च पुरुषप्रवृत्ति भावयतीति भावना तामाहुरिति / अथवा अभिधायाः शब्दस्य भावना अभिधाभावना सैव प्रवर्तना परसमवेतापि शब्देन पुरुष प्रवर्तयता तत्सिद्धये अभिधीयमाना शब्दव्यापारत्वेनोच्यते तामाहरिति / अथवा इष्टसाधनताभिधानममिधा सैव विधानं विधिरिति व्युत्पत्त्या विधिरित्युच्यते / सैव च भतिकर्तृत्वं प्रतिपद्यमानायाः पुरुषप्रवृत्तेः प्रयोजकस्य शब्दस्य व्यापारो भावना तामाहुः।"-ज्यायरत्नमा० पृ०५३। मीमांसान्याय० पृ०१८१ / उद्धृतोयम्-'शब्दात्मभावनामाहुः'-अष्टसह० 10 19 / तत्त्वार्थश्लो०५० 262 / विधिवि. प०१५। न्यायमं० पृ० 343 / बृहदा० भा० वा० टी० पृ० 590 / 'अभिधां भावना'-न्यायकु० प्र० 5 / 13 / मीमांसार्थप्र० पृ० 8 / मीमांसान्याय० पृ० 181 / शास्त्रदो० 2 / 11 / न्यायरत्नमा० पृ० 47 / मीमांसाबाल०१० 75 / (1) "तेन भूतिषु कर्तृत्वं प्रतिपन्नस्य वस्तुनः / प्रयोजकक्रियामाहुः भावनां भावनाविदः ॥"तन्त्रवा० 2 / 1 / 1 // "इह हि लिङादियुक्तेषु वाक्येषु द्वे भावने गम्यते / शब्दात्मिका च अर्थात्मिका च / तत्र लिङादीनां प्रयोजककर्तत्वं पुरुषः प्रयोज्यः, तेन किमित्यपेक्षायां पुरुषप्रवर्तनमिति सम्बध्यते / अथ तु योग्यतयैव लिङादिविषया क्रियोच्यते प्रवर्तयेदिति ततः किमित्यपेक्षिते पुरुषमित्येव सम्बध्यते / 'अथ केनेत्यपेक्षिते पूर्वसम्बन्धानुभवापेक्षेण विधिज्ञानेनेति सम्बध्यते। कथमिति प्राशस्त्यज्ञानानुगहीतेनेति / कुत एतत् ? बुद्धिपूर्वकारिणो हि पुरुषा यावत् प्रशस्तोऽयमिति नावबुध्यन्ते तावन्न प्रवर्तन्ते, तत्र विधिविभक्तिरवसीदति तां प्राशस्त्यज्ञानमुत्तभ्नाति / तच्च पुरुषार्थात्मके फलांशे सर्वस्य स्वयमेवानष्ठानं भवतीति प्रसिद्धत्वान्न वेदादुत्पद्यमानमपेक्ष्यते। साधनेतिकर्तव्यतयोस्तु अप्रवृत्तपरुषनियोगाच्छास्त्रमेव प्राशस्त्यप्रतिपादनायाकाङ्क्ष्यते ।"-तन्त्रवा० 112 / 1 / न्यायसु० पृ० 32- / "भाव्यभावनसमर्थो हि व्यापारो भावना ।"-भावनावि०पू०६। “भाव्योत्पादानुकूलस्य व्यापारस्य भावनात्वप्रसिद्धेः।"-ज्यायसु० पृ० 31 / 'भावना नाम भवितुर्भवनानुकूलो भावयितुर्व्यापारविशेषः ।"अर्थसं० पृ० 11 // "भवितुर्भवनानुकूलो भावकव्यापारविशेषः।"-मीमासान्याय० पृ०२। "तत्र प्रवृत्त्यनुकूलो व्यापारोऽभिधा, फलानुकूलो व्यापारो भावनेति विवेकः ।"-मीमांसार्थप्र० पृ०८। "भाव्यनिष्ठो भावकव्यापारो भावना। भाव्यं हि स्वर्गादिफलं साध्यमानत्वात् तन्निष्ठस्तदुत्पादकश्च पुरुषव्यापारो यस्स भावना ण्यन्तेन भवतिनोच्यते। प्रकृत्यर्थस्य भवतेः कर्ता यः स्वर्गादिः स एव ण्यन्तस्य कर्मतां प्रतिपद्यते / कर्ता त्वस्य प्रयोजकः पुरुषः, णेश्चार्थः णिज्वाच्यः प्रयोजकव्यापारः, पुरुषो हि भवन्तं स्वर्गादिमर्थ स्वव्यापारेण भावयति सम्पादयति, स तत्संपादको व्यापारो भावनेत्युच्यते।"-न्यायमं० 10335 / "भावनात्वं नाम भवितुः प्रयोजकव्यापारवत्त्वम् / तत्रार्थभावनायां भवितुर्जायमानस्य स्वर्गादेः प्रयोजकव्यापारत्वात् लक्षणसंगतिः, शब्दभावनायामपि पुरुषप्रवृत्तिरूपस्य भवितुः प्रयोजकव्यापारत्वाल्लक्षणसङ्गतिः"-मी० परि० पृ० 20 / (2) "तस्मादस्ति पुरुषप्रवृत्तिकर्मिका विधिज्ञानकरणिका अर्थवादोत्पादितविषयप्राशस्त्यज्ञानेतिकर्तव्यतोपेता लिङादिव्यापारः प्रेरणात्मिका शब्दभावना अभिधानलक्षणोऽपि च देवदत्तादेरिव व्यापारः शब्दभावना ।"-भावनावि० टी० पृ० 94 / 'तत्र पुरुषप्रवृत्त्यनुकूलो भावयितुर्व्यापारविशेषः शाब्दी भावना / सा च लिङ्शवणेऽयं मां प्रवर्तयति, मत्प्रवृत्त्यनुकूलव्यापारवानिति नियमेन प्रतीतेः / यद्यस्माच्छब्दान्नियमतः प्रतीयते तत्तस्य वाच्यम् यथा 1 भावनि-ब०। 23 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 578 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. भागमपरि० भावनायाश्च भाव्या पुरुषप्रवृत्तिः, प्रवृत्तिमान् वा पुरुषः / प्राशस्त्याभिधानश्च विना विधिशक्तिर्निमित्तत्वमुपगतापि प्रवर्तनायां न समर्था भवति / न हि 'इमां गां क्रीणीष्व' इति शतकृत्वोप्युक्तः कश्चित् केतु प्रवर्त्तते यावत् 'घटोनी सम्पन्नक्षीरा' इत्यादि प्राशस्त्यज्ञानं न प्रवर्तते / अतः अर्थवादोपजनितप्राशस्त्यज्ञानसचिवा शब्दभावना प्रवर्तनाङ्गम् / सा च यशपरिपूर्णा भवति-'किम् , केन, कथम्' इति / किं भावयेत् ? स्वर्गम् / केन ? देशपौर्णमासाभ्याम् / कथम् इति ? इतिकर्तव्यतां दर्शयनि प्रयाजादिव्यापाररूपाम् / सेत्थं त्र्यंशपरिपूर्णा शब्दभावना फैलभावनायां पुरुषं गामानयेत्यस्मिन् वाक्ये गोशब्दस्य गोत्वम्, स च व्यापारविशेषो लौकिकवाक्ये पुरुषनिष्ठोऽभिप्रायविशेषः, वैदिकवाक्ये तु पुरुषाभावाल्लिङादिनिष्ठ एव / अत एव शाब्दी भावनेति व्यवह्रियते ।"-अर्थसं० पृ० 11-13 / मीमांसान्याय० पृ० 3, 178 / मीमांसार्थप्र० पृ०८।। (1) एतावता अर्थवादवाक्यानां माभत्तामाण्यमिति-आ० टि०। (2) "प्रवृत्तिहेतुं धर्मञ्च प्रवदन्ति प्रवर्तनाम्"-विधिवि० पृ० 243 / “प्रवृत्तिहेतुभतः प्रवर्तयितुर्धर्मः प्रवर्तना।"-मीमांसाबाल० 10 75 / मीमांसान्याय० पृ० 180 / (3) तुलना-"लौकिकानि वाक्यानि भवन्तो विंदाङकुर्वन्तु / ' तद्यथायं गौः केतव्या देवदत्तीया / एषा हि बहुक्षीरा स्त्र्यपत्या अनष्टप्रजा चेति ।"-शाबरभा० 02 / 20 / (4) “सा च भावनांशत्रयमपेक्षते साध्यं साधनमितिकर्तव्यताञ्च, किं भावयेत् केन भावयेत् कथं भावयेदिति / तत्र साध्याकाङक्षायां वक्ष्यमाणांशत्रयोपेता आर्थीभावना साध्यत्वेनान्वेति एकप्रत्ययगम्यत्वेन समानाभिधानश्रुतेः / संख्यादीनामेकप्रत्ययगम्यत्वेऽपि अयोग्यत्वान्न साध्यत्वेनान्वयः / साधनाकाङक्षायां लिङादिज्ञानं करणत्वेनान्वेति, तस्य च करणत्वं न भावनोत्पादकत्वेन तत्पूर्वमपि तस्या: शब्दे सत्त्वात्, किन्तु भावनाज्ञापकत्वेन शब्दभावनाभाव्यनिर्वर्तकत्वेन वा। इतिकर्तव्यताकाङक्षायाम् अर्थवादज्ञाप्यप्राशस्त्यमितिकर्तव्यतात्वेन अन्वेति / "-अर्थसं० पृ० 16-18 / मीमांसाम्याय० 103 / 'करणांशो विधिज्ञानं किमंशः 'स्प्रवर्तनम् / इतिकर्तव्यता चात्र,ह्यर्थवादप्रशंसनम।" -बृहदा० भा० वा० 50 590 / “प्रवृत्तिफलिकायाञ्च अभिधायामपि साध्यसाधनेतिकर्तव्यतारूपमंशत्रयमपेक्षितम्, अन्यथा तस्य स्वरूपत: फलतश्चाज्ञानादप्रवृत्तिप्रसङ्गात् / तत्र लिङादिविधिज्ञानं करणत्वेनान्वेति याग इव अर्थभावनायाम् / प्रवृत्तिरेव च साध्यत्वेन स्वर्ग इव अर्थभावनायाम् / अर्थवादादिजन्यं प्राशस्त्यज्ञानमितिकर्तव्यतात्वेन प्रयाजाद्यङ्गजातमिव अर्थभावनायाम् / तदुक्तम्-लिङाभिधा सैव च शब्दभावना भाव्यं च तस्याः पुरुषप्रवृत्तिः। सम्बन्धबोध: करणं तदीयं प्ररोचना चाङ्गतयोपयुज्यते ।"-मीमांसार्थ० पृ०९ / “प्ररोच्यतेऽनयेति प्ररोचना प्राशस्त्यज्ञानं तच्चाङ्गं फलोपकारिप्रयाजादिवत्"-मीमांसाबाल०१०८१ / मीमांसापरि०५०१८। “तत्र किं भावयेत् केन भावयेत्कथं भावयेदित्याकाङक्षायां स्वर्ग भावयेत् यागेन भावयेत् अग्न्यन्वाधानप्रयाजावघातादिभिरुपकारं सम्पाद्य भावयेदित्येवं भाव्यकरणेतिकर्तव्यतासमर्थनेन आकाङक्षापूरणात् प्रकरणाम्नातः सकल: शब्दसन्दर्भः भावनाबाचिन आख्यातस्यैव प्रपञ्चः / भाव्याद्यंशत्रयवती सेयमर्थभावनेत्युच्यते / सा सर्वापि शब्दभावना या भाव्या विधायको लिङादि: करणम अर्थवादसम्पादितः स्तुतिरितिकर्तव्यता। सेयं शब्दभावना लिङादिभिरेव गम्यते / अर्थभावना सर्वेराख्यातप्रत्ययैर्गम्यत इत्युक्तम् "-जैमिनिन्या० पृ० 76 / (5) अमावस्यायां क्रियमाणो यज्ञविशेषो दर्शः, पौर्णमास्याञ्च विधीयमानं यज्ञानुष्ठानं पौर्णमास इति / (6) यज्ञे कर्तव्यताविशेष:-आ० टि। 'आरादुपकारकरूपा प्रयाजादिः"-न्यायरत्नमा० 10 120 / (7) आर्थीभावनायाम / 1-प्रवृत्तिमान्वा ब०। 2-मान् पुरु-श्र०।-स्वमुपाग-आ०। 4-घटेध्विस-ब०,-घटाविस -श्र०। / प्रशस्तज्ञानं श्र०। 6 ततः श्र०17कयमिति कथमिति यमुपपन्नकर्तव्यतां श्र०। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 26] भावनावादः 576 प्रवर्त्तयति / यद्यपि चेच्छास्मृत्यादयः पुरुषप्रवृत्तिहेतवः तथापि न तेषां मुख्यः प्रवर्त्तनाव्यपदेशः, शब्दभावनायास्तु साध्यावगतिकारित्वेन मूलभूतत्वात् मुख्यः / 'शब्दभावना' इति शब्दशब्देन शब्दधर्मतया व्यपदेशात् , यथा प्रामादिदाने राज्ञो दातृत्वव्यपदेशो मुख्यः लाकुटिकादीनां तु राजादेशानुसारेण प्रवृत्तानामौपचारिकः एवमत्रापि / तदुक्तम् “साध्यत्वे हेतुव्यापारः कथ्यते शब्दभावना / शब्दधर्मतयाख्यातः कार्यसंसूचितस्थितिः // " [ ] तथा च शब्दभावनासद्भावे किं प्रमाणमिति पर्यनुयोगोऽनुपपन्नः; यथैव हि अर्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या शब्दस्य अभिधात्मको व्यापारः परिकल्प (कल्प्य) ते तथा प्रवृत्यन्यथानुपपत्त्या लिङादेः प्रवर्त्तनात्मकोऽपीति / तत्र 'यजेत स्वर्गकामः' इत्यत्र द्वे भावने प्रतीयेते शब्दात्मिका पुरुषप्रेरणारूपा अर्थात्मिका च पुरुषव्यापाररूपा इति। तत्र लँकार- 10 सामान्यस्यार्थः अर्थभावना / उक्तश्च___ ईयं त्वन्यैव सर्वार्था सर्वाख्यातेषु विद्यते / " [ तन्त्रवा० 2 / 1 / 1 ] इति / पुरुषव्यापारस्य हि सर्वत्रार्थे विद्यमानत्वात् सर्वार्था अर्थभावना, 'यजते, . (1) लाकुटिकप्रायाः-आ० टि० / द्वारपालसदृशा इत्यर्थः / (2) इच्छास्मृत्यादीनाम् / . (3) प्रवर्तनाव्यपदेशः / (4) लकुट-दण्डधारिणाम् द्वारपालादीनाम् / (5) पुरुषरूपेण कार्येण तस्यास्तित्वं सूच्यते-आऊटि०। (6) आख्यातविभक्तिः-आ.टि०। (7) "प्रयोजनेच्छाजनितक्रियाविषयव्यापार आर्थीभावना। सा चाख्यातत्वांशेनोच्यते आख्यातसामान्यस्य व्यापारवाचित्वात् / साप्यंशत्रयमपेक्षते साध्यं साधनमितिकर्तव्यताञ्च किं भावयेत्केन भावयेत्कथं भावयेदिति / तत्र साध्याकाइक्षायां स्वर्गादिफलं साध्यत्वेनान्वेति, इतिकर्तव्यताकाङ क्षायां प्रयाजाद्यङ्गजातमितिकर्तव्यतात्वेनान्वेति / " अर्थसं० पृ० 19-23 / “प्रवृत्तिश्चार्थभावनैव"-मीमांसार्थ० प०९। “स्वर्गेच्छाजनितो यागविषयो यः प्रयत्नः स भावना / स एव चाख्यातांशेनोच्यते। यजत इत्याख्यातश्रवणे यागे यतेत इति प्रतीतेर्जायमानत्वात् - 'अतश्च प्रयत्न एवार्थी भावना। यथाहुः-(न्यायसु० पृ० 579) प्रयत्नव्यतिरिक्ता भावना तु न शक्यते / वक्तुमाख्यातवाच्येह प्रस्तुतेत्युपरम्यते ॥"-मीमांसान्या० पू० 185-87 / (8) आर्थीभावना / "अर्थात्मभावना त्वन्या सर्वाख्यातेषु गम्यते ॥"-तन्त्रवा० 2 / 1 / 1 / बृहवा० भा० वा० टी०१० 590 / शास्त्रदी० 2 / 11 / न्यायकु० प्र० 5 / 13 / जैमिनिन्या० पृ० 75 / मीमांसाबाल० पृ०७५ / 'सर्वाख्यातस्य गोचरा'-मीमांसार्थ० 108 / प्रकृत पाठः-अष्टसह० पू० 19 / तत्त्वार्थश्लो०१० 262 / "अर्थात्मा भावना त्वन्या सर्वत्राख्यातगोचरः ।"-तन्त्ररह० 10 47 / मानमेयो० 0 272 / 'सा चाख्यातस्य'-वैयाकरणभ० द० 10 156 / मुक्ता० दिन .. पृ०५१५ / व्याख्या-"विधेयायाः भावनायाः पुरुषार्थरूपभाव्यनिष्ठत्वसूचनाय इच्छायोनित्वं सूचयितुम् इच्छार्थाद अर्थयतेः णिजन्तादर्थयत इति कर्त विवक्षायामेरजित्यचप्रत्ययोत्पादनेन अर्थिनः पुरुषस्य अर्थशब्देन अभिधानाद् भावनायाश्च पुरुषधर्मत्वात् धर्मर्धामणोश्चात्यन्तं भेदाभावात् तादात्म्य विवक्षित्वा अर्थात्मा चासौ भावना चेति विग्रहः कार्यः / अन्यामिति अर्थभावनापेक्षित्वं शब्दभावनायाः सूचितम"-न्यायसु० पृ० 560 / (9) अतीतादौ-आ० टि०। “यदा हि सर्वाख्यातानुवर्तिनी करोतिधातुवाच्या पुरुषव्यापाररूपा भावनाऽवगता भवति, तदा तद्विशेषाः सामान्याख्यातव्यतिरिक्तशब्दविशेषवाच्या विधिप्रतिषेधभूतभविष्यद्वर्तमानादयः प्रतीयन्ते। तथा च सर्वत्र सामान्यतः करो 1-धाने श्र०12 साध्यत्वहेतुव्यापा-श्र०। 3-हेतुापार: आ०14 अभिधानात्मको ब०,श्र०। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 580 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० अयजत, अयष्ट' इत्यादि सर्वाख्यातेषु च विद्यते / न हि तत्र पुरुषप्रेरणारूपा शब्दभावनाऽनुभूयते सिद्धस्य आत्मव्यापारस्य अर्थभावनापरपर्यायस्य अनुभवात् / लिङादिविषये तु 'यजेत' इत्यादौ द्वयमनुभूयते-स्वार्थं लिप्समानो हि पुरुषः स्वव्यापारे यागविधानलक्षणे प्रवर्तते इति अर्थभावना, तमयं लिङ् प्रवर्त्तयतीति शब्दभावना चेति ॥छ।। तदेतद्भावनावादिनो मतमयुक्तम् ; यतः शब्दस्य भावना, शब्द एव वा भावना शब्दभावना स्यात् ? प्रथमपक्षे शब्दस्य भावना प्रेरकत्वम् , तच्च प्रेषणाध्येषणरूपम् , तस्य चेतनात्मकपुरुषधर्मत्वात् कथं शब्देऽनुपचरितस्य संभवः ? तद्धर्माध्यासितपुरुषप्रयुक्ताद् वाक्यादेव हि शब्दे तत्संभाव्यते न मुख्यतः।। किश्च, 'प्रेर्यप्रेरकयोन निष्फला प्रवृत्तिः / किञ्चिद्धि स्वात्मनि परत्र वा अर्था10 नर्थप्राप्तिपरिहारादिप्रयोजनमभिसन्धाय कश्चित् प्रेरकः प्रेर्यश्च प्रसिद्धः। न चाचेतने शब्दे तदभिसन्धानं संभवति तत्कथं तस्य प्रेरकत्वम् ? बलवत्प्रभञ्जनादेरिवास्य अनभिप्रायस्यापि प्रेरकत्वे शब्दविधिपक्षनिक्षिप्ताऽशेषदोषोनिपातः स्यात् / त्यर्थोऽवगम्यते। किं करोति ? पचति / किमकार्षीदपाक्षीत् / किं करिष्यति पक्ष्यति / किं कुर्यात् पचेत् / किन्न कुर्यान्न पचेदिति ।"-तन्त्रवा० 2 / 1 / 1 / (1) आख्याते / (2) "सिद्ध कर्तृ क्रियावाचिन्याख्यातप्रत्यये सति / सामानाधिकरण्येन करोत्यर्थोऽवगम्यते // तस्माल्लब्धात्मककर्तृव्यापारवचनानि करोत्यर्थवन्त्याख्यातानि ।"-तन्त्रवा० 22 / 1 / (3) “नैतत्सारम्; न प्रयोगानिरूप्यत्वात् वैयर्थ्यात् पूर्वदोषतः / अप्रवृत्तेः फलायोगाद् रूपोक्तेापतिः श्रतेः ॥"-विधिवि० पृ० 16 / "असत्त्वादप्रवृत्तेश्च नाभिधापि गरीयसी / बाधकस्य समानत्वात् परिशेषोऽपि दुर्लभः ॥"-न्यायकु० 5 / 13 / (4) "संज्ञापुरस्सरा व्यापारणा प्रेषणम्, निकृष्टविषयो नियोग इत्यर्थः। यत्पुनरभ्यहितं व्यापारयति तदध्येषणम्, अभ्यहितविषयं प्रबोधनमित्यर्थः।" -वाक्यप० प्र० त० का०पू० 257 / "प्रवर्त्यपुरुषापेक्षया ज्यायसा वक्त्रा प्रतिपाद्यमानं कार्य प्रेष इति व्यपदिश्यते / समेन आमन्त्रणम् / हीनेनाध्यषणमिति ।"-प्रक०६०१० 180 / (5) 'न हि प्रेषणाभ्यनुज्ञालक्षणा शब्दस्य व्यापारो निरूप्यते तस्य पुरुषधर्मत्वात् / न हि प्रेषणाध्येषणाभ्यनुज्ञालक्षण: शब्दस्य प्रयोगो व्यापारो निरूप्यते / ननु शब्दोच्चारणानन्तरं तदवगमात्तैनोक्तमिति कथं प्रेषणादिलक्षण: शब्दप्रयोगो न निरूप्यत इत्याह-तस्य पुरुषधर्मत्वात् / सत्यं शब्दविज्ञानानन्तरमुपलभ्यते। न त्वसौ शब्दस्य; अभिप्रायभेदत्वात् / प्रेषणादेः अचेतनत्वेन शब्देऽसम्भवात् ।"-विधिवि०, टी० पृ० 16 / (6) शब्दस्य अचेतनत्वात् पुरुषाभिप्रायरूपाः प्रेषणादयः उपचरिता एव सम्भाव्यन्ते न तु मुख्या इति / (7) प्रेषणाध्यषणादिधर्मात्मकपुरुष / (8) प्रेषणाध्येषणरूपम् / (9) "न प्रवर्तेत पुरुषः, प्रवर्तयतोऽपि शब्दस्याननुरोध्यत्वात् / न हि सर्वस्मिन् प्रवर्तयितरि प्रवृत्तिः प्रेक्षावताम् अपि त्वनुविधेये / न चार्थानर्थप्राप्तिपरिहाराद्यनुविधानकारणं स्वाम्यादाविव शब्दे समस्ति / फलात्प्रवृत्तौ तद्वयर्थ्यम्।”-विधिवि० पृ० 18 / (10) अर्थानर्थप्राप्तिपरिहारादिप्रयोजनानुसन्धानम् / (11) शब्दस्य / (12) "स्यान्मतं पवनादिरिव लङादिः प्रेरयति पुरुषम् ; तदसत्; अभिधानवैयर्थ्यात्, अप्रतीतव्यापारस्यापि वाय्वादेरिव स्वभावतः प्रेरकत्वात्, पूर्वोक्तदोषापाताच्च / न हि प्रवृत्ति प्रति कारकत्वे शब्दस्य सदपि तद्व्यापाराभिधानमङ्गम्, अनभिहितव्यापारस्यापि तस्य कारकत्वात्, कारकस्यानपेक्षितज्ञानत्वात् ।"-विषिवि. - 1018 / (13) शब्दस्य। (14) प्रायश्चित्तवैयर्थ्यम्-आ०टि। 1 हि शब्दे न तत्सं-आ०,हि तच्छन्वे संभाव्यते ब०। 2न चाचेतनशब्वे आ० / Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 581 प्रमाणप्र० का० 26] भावनावादः किञ्च, अस्याः सद्भावे प्रमाणम् लिङादिश्रवणानन्तरभाविनी प्रवृत्तिः, लिङादिशब्द एव वा ? न तावत्प्रवृत्तिः; तेस्यास्तन्निबन्धनत्वेन कचिदन्यत्राऽदृष्टत्वात् / यन्निबन्धना हि प्रवृत्तिर्लोके दृष्टा तदेव तां दृष्ट्वाऽनुमातुं युक्तम् , न पुनः अप्रतिपन्नपूर्वः शब्दव्यापारविशेषः अप्रामाणिकत्वप्रसङ्गात् / नापि लिडादिशब्द एव तत्र प्रमाणम् ; अगृहीतसम्बन्धस्य शब्दस्य अवाचकत्वात् / तदग्रहश्च तद्व्यापारविशेषलक्षणस्य / सम्बन्धिनोऽनवधारणात् सिद्धः / नहि अनवधारिते सम्बन्धिनि सम्वन्धबोधः संभवति; अतिप्रसङ्गात् / किश्न, शब्दः स्वव्यापार विधिज्ञानसव्यपेक्षो जनयति, अनपेक्षो वा ? न तावदनपेक्षः; विधिज्ञानस्य पुरुषप्रेरणायां करणत्वाभ्युपगमात् / अथ शब्दो विधिज्ञानं जनयित्वा तत्करणानुगृहीतस्तत्प्रेरणारूपं स्वव्यापारमारभते; तदिदमलौकिकम् ; न हि 10 कस्यचिद्वस्तुनः स्वज्ञानम् उत्पादहेतुः लोके प्रतीतम् / यदि च शब्दः स्वव्यापारं करोति अभिधत्ते च; तदा उत्पाद्य पश्चात्तमभिधत्ते, युगपद्वा उत्पादयति अभिधत्ते च ? तत्र प्रथमपक्षोऽनुपपन्नः; न खलु शब्द: स्वव्यापारमुत्पाद्य पश्चात्तमभिदधातीति श्राद्धिकादन्यः प्रतिपद्यते / द्वितीयपक्षोऽप्यप्रातीतिकः; नहि 'सकृदुच्चरितः शब्दः स्वव्यापारस्य कर्ता वक्ता च भवति' इति प्रामाणिकः प्रतिपद्यते। सिद्धे हि वस्तुनि प्रतिबन्धावगमपूर्विका 15 वचनस्य प्रवृत्तिः प्रतीयते / ननु लिङादिशब्दश्रवणानन्तरं प्रवृत्त्याख्यकार्यस्य प्रवर्त्तितोऽहमिति प्रतिपत्तितः प्रतीतेः कथं तत्र तत्कर्तृत्वाप्रतिपत्तिरिति चेत् ? तदयुक्तम् ; यतो द्विविधा प्रवृत्तिः प्रती (1) शब्दभावनायाः। (2) प्रवृत्तेः। “लिङादिशब्दानन्तरभाविनी प्रवृत्तिरेव प्रमाणमिति चेन्न; तन्निबन्धनत्वेन प्रवृत्तेरन्यत्रादृष्टत्वात् / त (य) निबन्धना हि प्रवृत्तिर्दृष्टा तदेव तां दृष्ट्वा शक्यमनुमातुम्, न पुनरप्रतिपन्नपूर्वकरणभावं शब्दव्यापारविशेषः ।"-वाक्यार्थमा० पृ० 27 / (3) शब्दभावना-आ० टि०। (4) शब्दभावनाख्यः-आ० टि०। (5) “लिङादिशब्द एव प्रमाणमिति साहसम् ; अगृहीतसम्बन्धस्य शब्दस्यावाचकत्वात् / अनवधारिते हि सम्बन्धिनि सम्बन्धबोधवैधुर्यात्।" -प्रक० 50 10 172 / (6) सम्बन्धाग्रहणम् / (7) पुरुषप्रवृत्तिरूपम् / (8) "स्यान्मतं शब्दो विधिज्ञानं जनयित्वा तत्करणानुगृहीतः प्रेरणारूपं स्वव्यापारमारभत इति न करणत्वाभावः क्रियानिपत्तावेव करणत्वात् ; तदिदमलौकिकम् ; न हि कस्यचिद्वस्तुनः स्वज्ञानमुत्पादहेतुः प्रतीतम् ।"-प्रक० 1050 173 / (9) विधिज्ञानरूपकरण / (10) पुरुषप्रेरणा / (11) तुलना-"यश्चासौ व्यापार: क्रियते चाभिधीयते च; स किं पूर्वमभिधीयते ततः क्रियते, पूर्व वा क्रियते पश्चादभिधीयते, युगपदेव वा अस्य करणाभिधाने इति / न तावत्पूर्वमभिधीयते ; अनुत्पन्नस्य अभिधानानुपपत्तेः, न ह्यजाते पुत्रे नामधेयकरणम्, अर्थासंस्पर्शी च शब्द: स्यात् / तत एव न युगपदुभयम् ; अनुत्पन्नत्वानपायात् प्रयत्नगौरवप्रसङ्गाच्च / नापि कृत्वा अभिधानम् ; विरम्य व्यापारासंवेदनात्।"-न्यायमं० पृ०३४५ / (12) वाच्यवाचकसम्बन्ध / (13) शब्दे / (14) प्रवृत्ति-आ० टि० / 1 अस्य सद्भा-ब०12-नुमानं यु-ब० // 3 पुनः प्रतिप-थ०। 4-शब्दस्तत्र ब०, -शब्दास्तत्र श्र० / / शब्दो व्यापा-श्र०। 6 कारणत्वा-ब०।। तत्कारणान-ब०। 8-रणरूपं०। 9 मशब: ब०। 10-स्वाप्रतीतिरि-श्र०। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 582 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० यते-एका परवशस्य, अन्या तु प्रेक्षापूर्वकारिणः / तत्राद्यपक्षे हठाद् यागादिकर्मणि बौद्धादेरपि प्रवृत्तिः शब्देन क्रियतां पुरुषस्वातन्त्र्याभावात् / न खलु बलवज्जलप्रभञ्जनप्रेरितस्य स्वातन्त्र्याभावे हठात्प्रवृत्तिर्न दृष्टा 'अनिच्छन्नप्यहं प्रभञ्जनादिना प्रेरित: प्रवर्ते' इति प्रतीतेः / द्वितीयपक्षे तु 'येनाहं शब्देन प्रवर्तितः स किं प्रवर्त्तनायोग्यो न वा' इति यावन्न प्रेक्षापूर्वकारी विमृशति तावन्न प्रवृत्तिं विदधाति। नहि 'शब्देनाहं प्रवर्त्तितः' इति 'अवश्यं प्रवः' इत्यसौ शब्दमात्रे समाश्वसिति तत्कारित्वविरोधानुषङ्गात् / अतोऽपौरुषेयात् काकवासितप्रख्यात शब्दात् कथं कस्यचित् प्रवृत्तिः स्यात् ? पौरुषेयस्यैव शब्दस्य प्रवर्तनायोग्यत्वोपपत्तेः / तत्प्रणेतुः कुतश्चिदाप्ततामवसाय प्रेक्षापूर्वकारिणः सद्वैद्याद्युपदे शादिव निःशङ्कं प्रवृत्तिसंभवात् / तस्मादपौरुषेयत्वे शब्दस्य पुरुषप्रवृत्तेरनङ्गत्वान्न 10 'शब्दस्य भावना-प्रवर्तकत्वं शब्दभावना' इति पक्षो घटते / अथ शब्द एव भावना; तदप्यसाम्प्रतम् ; शब्दस्वरूपमात्रस्य भावनास्वभावत्वे घटादिशब्देष्वपि भावनाप्रसङ्गात् तन्मात्रस्य अत्राप्यविशिष्टत्वात् / तथा च “लिङ्लोट्तव्यप्रत्ययप्रत्याय्यो विधिः / " [ ] इति वचो विरुध्यते / तदेवं शब्दभावनास्वरूपस्य विचार्यमाणस्याऽव्यवस्थितेः कथं तया अर्थभावना भाव्येत ? यतो 'भाव्यनिष्ठो भावकव्यापारो भावना' इति सुव्यवस्थितं स्यात् / द्वैविध्योपवर्णनश्वास्याः खपुष्पसौरभव्यावर्णनान्न विशिष्यते / तन्न भावनारूपोऽपि विधिर्घटते // छ / ____ अपरे पुनः नियोग एव प्रवृत्तिहेतुत्वाद् विधिः इत्याचक्षते / तत्र चानेकधा (1) प्रेक्षापूर्वकारी। (2) अन्यथा-शब्दमात्रे समाश्वासे प्रेक्षापूर्वकारित्वविरोधात् / (3) “अथ मतम्-अभिधव भावना विधिलिङाद्यर्थ इति; अत्रोच्यते-प्रवृत्तेः सर्वतोऽर्थे वा प्रसङ्गात् कार्यतो गतेः / अस्थानानियते]तोरभावाच्चाभिधव न / / विधिरित्यनुषज्यते / अभिधा चेद्विधिः सर्वशब्दानां यथास्वमभिधेयेषु तद्भाव इति घटादिशब्देभ्योऽपि प्रवृत्तिप्रसङ्गः अस्याविशेषात् ।"-विधिवि० पृ० 21 / (4) शब्दस्वरूपमात्रस्य। (5) "लिङलोट्तव्यपञ्चमलकाराणां विधिर्वाच्यः ।"-न्यायसु० पृ० 560 / “लिङकृत्लोट्तव्यप्रत्ययमात्रगता शब्दभावना"-जैमिनिन्या० पृ० 75 / (6) शब्दभावनया / (7) तुलना-"यत्तावदुक्तं शब्दव्यापारः शब्दभावनेति; तत्र शब्दात्तद्व्यापारोऽनर्थान्तरभूतोऽर्थान्तरभूतो वा ?-अष्टसह० पृ० 31 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 262 / “या तु शब्दभावनैव लिङाद्यर्थ इति कौमारिलकुसूतिः सा तु प्रतीतिविसंवादादिप्रतिहता। न हि विधिवाक्यश्राविपुरुषो लिङादिस्वव्यापारमभिधत्ते अतो मया प्रवर्तितव्यमिति मन्यते..."-न्यायपरि० पृ० 398 / तन्त्ररह० पृ० 48 / "तस्माल्लिङादिजन्यबोधविषयाऽभिधायां इष्टसाधनत्वादिज्ञाननिरपेक्षायाः प्रवर्तकत्वं नियुक्तिकमेव।", -वैयाकरणभू० द.पृ० 157 / (8) प्रभाकरमतानुयायिनः / (9) तुलना-"कोऽयं नियोगो नाम ? निशब्दो निःशेषार्थः योगार्थो यक्तिः निरवशेषो योगः नियोगः। निरवशेषत्वम् अयोगस्य मनागप्यभावात्, अवश्यकर्तव्यता हि नियोगः / नियोगप्रामाणिका हि नियोगप्रतिपत्तिमात्रतः प्रवर्तन्ते / " -प्रमाणवातिकालं. पृ० 14 / "नियुक्तोऽहमनेन वाक्यनेति निरवशेषो योगः नियोगः, तत्र मनागप्ययोगाशंकायाः संभवाभावात् ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 261 / अष्टसह पृ० 5 / "यदपि दर्शनम्प्रमाणान्तरागोचरः शब्दमात्रालम्बनो नियुक्तोऽस्मीति प्रत्यात्मवेदनीयः सुखादिवत् अपरामृष्टकालत्रयो . 1 ततः पौर-ब०। 2-रूपापि श्रे०, -रूपोविधि-ब०। 15 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26 ] नियोगवादः 583 विप्रतिपत्तिः केचित् लिङादिप्रत्ययार्थो नियोगः इत्यातिष्ठन्ते / __ "प्रत्ययार्थों नियोगश्च यतः शुद्धः प्रतीयते / कार्यरूपश्च तेनात्र शुद्धं कार्यमैसौ मतः // " [प्रमाणवातिकालं० पृ० 29 / ] इत्यभिधानात् / अन्ये तु प्रेरकत्वमेव नियोगः इति ब्रुवते / "प्रेरणैव नियोगोऽत्र शुद्धा सर्वत्र गम्यते / नाप्रेरितो यतः कश्चिनियुक्तं स्वं प्रपद्यते // " [प्रमाणवातिकालं० पृ 29 / ] प्रेरणासहितं कार्य नियोगः इति चापरे मन्यन्ते / "मैंमेदं कार्यमित्येवं ज्ञातं पूर्व यदा भवेत् / स्वसिद्धौ प्रेरकं तत्स्यादन्यथा तन्न सिद्धयति / " [प्रमाणयातिकालं० पृ० 30 / ] कार्यसहिता प्रेरणा नियोग इति चान्ये / "प्रेर्यते पुरुषो नैव कार्येणेह विना क्वचित् / ततश्च प्रेरणा प्रोक्ता नियोगः कार्यसङ्गता॥” [प्रमाणवातिकालं० पृ० 30] लिङादीनामर्थो विधिरिति ।"-विधिवि०पू०४८।। (1) तुलना-"केषाञ्चिल्लिङादिप्रत्ययार्थः शुद्धोऽन्यनिरपेक्षः कार्यरूपो नियोगः ।"-अष्टसह० पृ०६। तत्त्वार्थश्लो० पू० 261 / (2) "शब्दान्तराणि स्वार्थेषु व्युत्पद्यन्ते यथैव हि / आवापोद्वापभेदेन तथा कार्य लिङादयः / / लिङादियुक्तवाक्यश्रवणे तदभावभाविन्या प्रवृत्त्या विशिष्टकार्यावगतिमनुमाय वाक्यस्य तावद्धतुतामध्यवस्यति / तत्रापि कोऽर्थभागः केन शब्दांशेनाभिहित इति विवेचने लिङाद्यावापेन कार्यावगतिदर्शनात् तदुद्धारे चादर्शनात त एव कार्यावतिं कुर्वन्तीति शब्दान्तरवत् लिङादीनां कार्यवाचकत्वव्यत्पत्तिसिद्धिः / 'कार्यमेव हि सर्वत्र प्रवृत्तावेककारणम् / प्रवृत्त्यव्यभिचारित्वाल्लिङाद्यर्थोऽभिधीयते / / (पृ.१७९ ) कार्यस्यैव प्रधानत्वाद वाक्यार्थत्वं च युज्यते / वाक्यं तदेव हि प्राह नियोज्यविषयान्वितम् ॥"-प्रक० पं० 10 188 / “अतः कृत्स्नो वेदः कार्यपरत एव प्रमाणम् / इदमेव कार्य मानान्तरागोचरत्वादपूर्वमिति, स्वात्मनि पुरुषं नियुञ्जानो नियोग इति गीयते।"-तन्त्ररह० पृ० 66 / “लिङादेरवगम्यमान: कार्यरूपः प्रेरणात्मा च वाक्यार्थी नियोगः ।"-न्यायमं० पृ० 355 / (3) नियोग:-आ० टि० / तुलना-"प्रत्ययार्थी नियोगश्च यतः शुद्ध: प्रतीयते। कार्यरूपश्च तेनात्र शुद्ध कार्यमसौ मतः // विशेषणं तु यत्तस्य किञ्चिदन्यत्प्रतीयते / प्रत्ययार्थो न तद्युक्तं धात्वर्थः स्वर्गकामवत् // प्रेरकत्वं तु यत्तस्य विशेषणमिहेष्यते तस्याप्रत्ययवाच्यत्वात् शुद्ध कार्य नियोगता / " -अष्टसह०प०६। तत्त्वार्थश्लो० पृ० 261 / प्रमाणवार्तिकालं. पृ० 29 / (4) "परेषां शुद्धा प्रेरणा नियोग इत्याशयः ।"-अष्टसह०पू०६। तत्त्वार्थश्लो० पृ० 261 / 'तत्र शुद्धा प्रेरणा नियोग इति पक्षे प्रेरणाया नियोज्यतारूपत्वात् यागनिरूपितनियोज्यतावान स्वर्गकाम इत्येवमाद्यो बोधः / ततो नियोज्येन नियोजकाक्षेपात् यागविषयकं स्वर्गकामीयं नियोजकमित्यौपादानिकोऽपूर्वविषयो द्वितीय इत्यादि बोध्यम् ।"-अष्टसह० यशो० पृ० 49 A. / (5) 'स्वं प्रवुद्धयते'-अष्टसह०, तत्त्वार्थश्लो० / (6) प्रयोक्तु:-आ० टि०। (7) "आस्तां तावत्क्रिया लोके गमनागमनादिका। अन्तः स्तनपानादिस्तृप्तिकार्यपि या क्रिया // सा यावन्मम कार्येयमिति नैवावधार्यते। तावत् कदापि मे तत्र प्रवृत्तिरभवन्न हि॥" -प्रक० पं०१० 177 / (8) 'ज्ञानं पूर्व स्वसिद्धये..'-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 261 / (9) तुलनाप्रमाणवातिकालं० पृ० 30 / अष्टसह पृ० 6 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 261 / 1 सर्व श्र० ।-ति इति कार्य-श्र०। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. प्रागमपरि० कार्यस्यैव उपचारतः प्रवर्तकत्वं नियोगः इत्यपरे / "प्रेरणाविषयः कार्य नै च तत्प्रेरकं स्वतः / ___ व्यापारस्तु प्रमाणस्य प्रमेय उपचर्यते // " [प्रमाणवातिकालं० पृ० 30 ] कार्यप्रेरणयोः सम्बन्धो नियोगः इत्यन्ये / "प्रेरणा हि विना कार्य प्रेरिका नैव कस्यचित् / कोर्य वा प्रेरणायोगः नियोगैस्तेन सम्मतः॥" [प्रमाणवातिकालं० पृ०३०] तत्समुदायो नियोगः इत्येके। "परस्पराविनाभूतं द्वयमेतत् प्रतीयते / नियोगः समुदायोऽस्मात् कार्यप्रेरणणयोयोर्मतः॥' [प्रमाणवातिकालं पृ० 30] 10 तदुभयस्वभावविनिमुक्तः परमात्मस्वभावो नियोग इति केचित् / "सिद्धमेकं यतो ब्रौं गतमाम्नायतः सदा / सिद्धत्वेन न तत्कार्य प्रेरकं कुत एव तत् // ' [प्रमाणवातिकालं० पृ० 30] - यन्त्रारूढो नियोग इत्यपरे / "कामी यत्रैव यः कश्चिनियोगे सति तत्र सः। विषयारूढमात्मानं मन्यमानः प्रवर्त्तते // " [प्रमाणवातिकालं० पृ० 30 ] भोग्यरूपो नियोगः इत्यपरे। "ममेदं भोग्यमित्येवं भोग्यरूपं प्रतीयते / ममत्वेन च विज्ञानं भोक्तर्येव व्यवस्थितम् // स्वामित्वेनाभिमानो हि भोक्तुर्यत्र भवेदयम् / भोग्यं तदेव विज्ञेयं तदेव स्वं निरुच्यते // साध्यरूपतया येन ममेदमिति गम्यते / तत्प्रसाध्येन रूपेण भोग्यं स्वं व्यपदिश्यते // सिद्धरूपं हि यद् भोग्यं न नियोगः स तावता / साध्यत्वेनेह भोग्यस्य प्रेरकत्वान्नियोगती // " [प्रमाणवातिकालं० पृ० 30 / ] पुरुष एव नियोग इति चापरे। "ममेदं कार्यमित्येवं मन्यते पुरुषः सदा / पुंसः कार्यविशिष्टत्वं नियोगोऽस्य च वाच्यता // "[ प्रमाणवातिकालं० पृ० 30 / ] इति / (1) प्रवर्तकत्वम् आ० टि०। (2) 'कार्यप्रेरणयोः योगः'-तत्त्वार्थश्लो० / (3) विनियो ज्यत्वम्-आ० टि०। (4) ज्ञानम्-आ० टि० / (5) ज्ञातम्-आ० टि०। (6) "यन्त्रारूढो दृष्टान्ततया यत्र स यन्त्रारूढो विषयारूढत्वाभिमानो नियोग इत्यर्थः / यजेत् स्वर्गकाम इत्यतो यागारूढत्वाभिमानवान् स्वर्गकाम इति बोधः ।"-अष्टसह यशो० पृ० 46 B. / (7) स्वस्वामिभावो ज्ञाषितः -आ० टि। 'स्वं निरूप्यते'-प्रमाणवातिकालं० / (8) 'नियोगः स्यादबाधितः'-तत्त्वार्थश्लो० / "कार्यस्य सिद्धौ जातायां तद्युक्तः पुरुषः सदा / भवेत्साधित इत्येवं पुमान् वाक्यार्थ उक्यते ॥"-प्रमाणवातिकालं० पू० 30 / अष्टसह० पू०६। तत्त्वार्थश्लो० पृ० 262 / 1 न तावत्प्रे-ब०, नतत्प्रे-श्र० / 2-विनिर्मुक्तपरमा-आ० / 3 इत्यन्ये श्र०, ब० / 4 तदेवं स्वं आ० / / निरुध्यते आ० ब०। 6-ता इति पुरुष श्र०। 7 नियोग्यस्य श्र० / Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26 ] नियोगवादः 585 तदप्यविचारितरमणीयम् ; यतो नियोज्यप्रेरणानिरपेक्षस्य कार्यस्य नियोगरूपंतोपगम्यते, तत्सापेक्षस्य वा ? तत्राद्यविकल्पोऽनुपपन्नः; तन्निरपेक्षस्य कार्यमात्रस्य अप्रवृत्तिहेतुतया नियोगत्वानुपपत्तेः / तत्सापेक्षस्य तु नियोगत्वे कथं कार्यस्यैव नियोगरूपता ? त्रितयस्यापि प्रवृत्तिहेतुतया तंद्रूपताप्रसङ्गात् / 'प्रेरणा नियोगः' इत्यप्यनेनापास्तम् ; नियोज्यादिनिरपेक्षायाः प्रेरणायाः प्रलापमात्रतया नियोगरूपतानुपपत्तेः / / प्रेरणासहितं कार्य नियोगः; इत्यप्ययुक्तम् ; नियोज्याभावे नियोगस्यैवानुपपत्तेः / कार्यसहिता प्रेरणा नियोगः इत्यप्यनेन निरस्तम् / कार्यस्यैवोपचारतः प्रवर्तकत्वं नियोगः; इत्यप्यसारम् ; नियोज्यादिनिरपेक्षस्यास्य प्रवर्तकत्वोपचारायोगात् / कार्यप्रेरणयोः सम्बन्धोऽपि सम्बन्धिभ्योऽर्थान्तरभूतः सन् , अनर्थान्तरभूतो वा नियोगरूपतां प्रतिपद्यते ? न तावदर्थान्तरभूतः; तथाभूतस्य सम्बन्धस्यैवाऽसंभवतो नियोगरूपतानुपपत्तेः। 10 सम्बन्ध्यात्मनोऽपि सम्बन्धस्य प्रेर्यमाणपुरुषनिरपेक्षस्य नियोगरूपतानुपपत्तिरेव / समुदायनियोगवादोऽप्यनेनैव प्रतिव्यूढः / कार्यप्रेरणाविनिर्मुक्तस्तु नियोगो ब्रह्माद्वैतमवलम्बते, तच्च प्रागेवं कृतोत्तरम् / यत्पुनः 'स्वर्गकामः पुरुषोऽग्निहोत्रादिवाक्यनियोगे सति यागलक्षणं विषयमारूढमात्मानं मन्यमानः प्रवर्त्तते' इति यन्त्रारूढनियोगाभिधानम् ; तदप्यचारु ; अपौरुषेयवाक्ये नियोक्तृत्वस्य निराकृतत्वान्निराकरिष्यमाणत्वाच्च / 15 (1) नियोज्यं प्रेरणाञ्चानपेक्षमाणस्य-आ० टि० / तुलना-"प्रेरणारहितं कार्य नियोज्येन निवजितम् / नियोगो नैव कस्यापि नियोग इति कीर्त्यते॥ वृत्तिनियोगशब्दस्य शुद्धे कार्ये यदा मता। .' 'संज्ञामात्रान्नियोगत्वं भवत्केन निवार्यते // युक्तस्तु पुरुषः कार्ये यत्र नैव प्रतीयते // नियोगः स कथ नाम सिद्धातीतादिबोधवत् // नियोजकस्य धर्मोऽयं नियोगो लोकसम्मतः / तदेव कार्यमिति चेत; सिद्धत्वान्नास्य साध्यता॥ साध्यत्वेन नियोगोऽयमिति चेद्वयपदिश्यते। विषये तस्य तत्त्वेनोपचारात् प्रकीर्तनम / असिद्धस्य च तस्यास्तु कथं प्रेरकरूपता // साध्यत्वेनावबोधोऽस्य प्रेरकत्वं यदीष्यते / अप्रसिद्धस्य साध्यत्वं बोधः सिद्धात्मकस्य च // परस्परविरुद्धत्वमेकस्य कथमिष्यते / साध्यरूपतया तस्य प्रतीतिः प्रेरिका यदि / नियोगत्वं प्रतीतेः स्यान्न नियोगस्य तत्त्वतः ॥"-प्रमाणवातिकालं० पृ० 3233 / "प्रेरणानियोज्यवजितस्य नियोगस्यासंभवात् / तस्मिन्नियोगकरणे स्वकम्बलस्य कूर्दालिकेति नामान्तरकरणमात्रं स्यात् ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 265 / अष्टसह० पृ० 9 / (2) नियोज्यप्रेरणाकार्यरूपस्य-आ० टि०। (3) नियोगरूपता-आ० टि०। (4) "नियोज्यफलरहितायाः प्रेरणायाः प्रलापमात्रत्वात् ।"-तत्वार्थश्लो० पु० 265 / अष्टसह०१०१०। (5) "नियोज्यविरहे नियोगविरोधात् ।"-अष्टसह० पृ०१०। तत्त्वार्थश्लो० पृ० 266 / (6) अत्रापि नियोज्याभावात्-आ० दि० / (7) "नियोज्यादिनिरपेक्षस्य कार्यस्य प्रवर्तकत्वोपचारायोगात, कदाचित् क्वचित् परमार्थतस्तस्य तथानुपलम्भात् ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 266 / अष्टसह० पृ० 10 / (8) "ततो भिन्नस्य सम्बन्धस्य सम्बन्धिनिरपेक्षस्य नियोगत्वाघटनात् / सम्बन्ध्यात्मन सम्बन्धस्य नियोगत्वमित्यपि दुरन्वयम् ; प्रेर्यमाणपुरुषनिरपेक्षयोः सम्बन्ध्यात्मनोरपि कार्यप्ररणयोनियोगत्वानुपपत्तेः ।"-अष्टसह० पृ० 10 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 266 / (9) सम्बन्धिभ्यां भिन्नस्य। (10) पृ० 150 / (11) तुलना-"यन्त्रारूढतया भोग्यभोक्त्रोः सम्बन्ध उच्यते / न सम्बन्धोऽस्ति भोग्यात्मा रूढश्च न नरस्तदा // प्रतीतिकाले 1-नः निरपे-ब० / 2 नियोज्यनिर-आ० / 24 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. आगमपरि० भोग्यरूपस्तु नियोगः फलस्वभावविधिनिरासेनैव निरस्तः / पुरुषस्वभावत्वे तु नियोगस्य शाश्वतिकत्वप्रसङ्गः तस्य शाश्वतिकत्वात् / किञ्च, किमयं नियुङ्क्ते इति नियोगः, किं वा नियुक्तिः, नियुज्यतेऽनेन इति वा ? तत्र प्रथमपक्षोऽनुपपन्नः; नियुक्तिक्रियायां कर्तृत्वस्य प्रेक्षावद्धर्मतया कार्यादिस्वभावे 6 नियोगे संभवाभावात् / नहि 'अमुष्मै प्रयोजनाय अमुमहं नियोक्ष्ये' इति यस्य नास्ति परामर्शः तस्य नियोक्तृतोपपन्ना, स्वाम्यादौ तत्परार्शवत्येव अस्याः प्रतीतेः / सेलिलसमीरणन्यायेन नियोक्तृत्वे च प्रागुक्तदोषानुषङ्गः / नहि नियोक्तृमात्रसद्भावतः कश्चित् प्रवर्त्तते, यावत् तदनुविधेयतामात्मनो न प्रतिपद्येत / 'नियुक्तिर्नियोगः नियु ज्यतेऽनेनेति वा' इत्यप्यनुपपन्नम् ; भावकरणयोः कर्तृकर्मापेक्षत्वात् , तयोश्चासंभवे भाव10 करणयोरप्यसंभवात् / न ह्यत्र कश्चिन्नियोक्ता विद्यते / शब्दस्य च नियोक्तृत्वं प्रागेव प्रतिषिद्धम् / किश्च, अयं नियोगः शब्दव्यापाररूपः, पुरुषव्यापाररूपः, उभयरूपः, अनुभयरूपो वा ? प्रथमपक्षे शब्दभावनापक्षनिक्षिप्तदोषानुषङ्गः, शब्दव्यापारस्य शब्दभाव नारूपत्वात् / द्वितीयपक्षे तु अर्थभावनापक्षोक्तदूषणप्रसङ्गः पुरुषव्यापारस्य अर्थ15 भावनास्वभावत्वात् / उभयपक्षेऽपि उभयपक्षोपक्षिप्तदोषानुषङ्गः / अनुभयपक्षेप्यसौ विषयस्वभावः, फलस्वभावः, नि:स्वभावो वा स्यात् ? यदि विषयस्वभावः; तदाऽसौ यागादिविषयः “अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकामः'[ ] इत्यादिनियोक्तृवाक्यकाले अस्ति, न वा ? यदि नास्ति; तदा तत्स्वभावो नियोगोऽपि नास्तीति कथमसौ खपुष्पवद् वाक्यार्थः स्यात् ? बुद्ध्यारूढस्य भौविनस्तस्य वाक्यार्थत्वे सर्वस्य साध्यत्वेनास्वरूपता। तदेव तस्य रूपञ्चेत् साध्यत्वस्य हानितः ॥"-प्रमाणवातिकालं. पृ० 34 / “तदपि न परमात्मवादप्रतिकूलम्; पुरुषाभिमानमात्रस्य नियोगत्ववचनात्तस्य च अविद्योदयनिबन्धनत्वात्।"-अष्टसह०प०१०। तत्त्वार्थश्लो०पू०२६६ / / (1) नियोक्तृतायाः / (2) यथाहि समीरणः अभिप्रायशून्योऽपि सलिलं समीरयति तथैव अभिप्रायरहितस्यापि नियोक्तृता स्यादित्युक्ते प्राह / (3) प्रायश्चित्तवैयर्थ्यादि-आ० टि०। (4) तुलना-"अपि च नियोक्तृव्यापारो नियोगो न नियोक्तुविनाऽवकल्पते / न चास्य संभवः; अपौरुषेयत्वाभ्युपगमात् ।"-विधिवि०पू०६०। (5) तुलना-"सर्वत्र च वाक्यार्थे अष्ट प्रकारो भेद:-प्रमाणं किं नियोगः स्यात् प्रमेयमथवा पुनः / उभयेन विहीनो वा द्वयरूपोऽथवा पुनः / / शब्दव्यापाररूपो वा व्यापारः पुरुषस्य वा। द्वयव्यापाररूपो वा द्वयाव्यापार एव वा।"-प्रमाणवातिकालं० 1031 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 262 / अष्टसह० पृ०१०। (6) तुलना-"नियुज्यमानविषयनियोक्तृणां यदीष्यते। धर्मो नियोगः सर्वत्र न शब्दार्थोऽवतिष्ठते // नियोज्यधर्मभावे हि तस्यानुष्ठेयता कुतः। सिद्धोऽपि यद्यनुष्ठेयो नानुष्ठाविरतिर्भवेत् ॥"-प्रमाणवातिकालं० पृ० 16 / 'सोऽपि विषयस्वभावो वा स्यात्, फलस्वभावो वा, निःस्वभावो वा ?"-अष्टसह० पृ०८। तत्वार्थश्लो० पृ० 262 / (7) तुलना-"विषयधर्मतायामपि विषयस्यापरिनिष्पत्तेः स्वरूपाभावात् कथं शब्दादसौ प्रत्येतुं शक्यः ?"-प्रमाणव.तिकालं. पृ० 17 / अष्टसह पृ० 8 / (8) विषयस्वभावः। (9) भविष्यतो यागादेविषयस्य / _ 1 नियोक्तृतानुपपन्ना श्र०। 2-पद्येत् आ० / 3-तिचेत्य-श्र०, -ति इत्य-आ० / - 4-दूषणगण प्र-ब015 उभयदोषानुषंगः ब०, श्र० / Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26] नियोगवादः 587 सौगतमतानुसरणप्रसङ्गः। अथ तत्काले सोऽस्ति; एवमपि न नियोगो वाक्यार्थः, तस्य यागादिनिष्पादनार्थत्वात् / न चानयोस्तादात्म्ये स्वात्मैव स्वात्मनो निष्पादको युक्तो विरोधात्, निष्पन्नस्य यागादेः पुरुषादिवन्निष्पादनविरोधाच्च / अंथ तस्य किश्चिदनिष्पन्नं रूपमस्ति तन्निष्पादनार्थी नियोगः; तर्हि तत्स्वभावो नियोगोप्यनिष्पन्न इति कथं वाक्यार्थः ? कल्पनारूढस्य वाक्यार्थत्वे स एव सौगतमतानुप्रवेशः। फलस्वभावो / नियोगः; इत्यप्ययुक्तम् ; नहि स्वर्गादिफलं नियोगो घटते फलान्तरपरिकल्पनप्रसङ्गात्, निष्फलस्य नियोगस्यानुपपत्तेः / फलान्तरस्य च फलस्वभावनियोगवादिनां नियोगत्वापत्तौ तदन्यफलकल्पने अनवस्थाप्रसङ्गः। फलस्य च वाक्यकालेऽसन्निहितत्वात् तत्स्वभावो नियोगोऽप्यसन्निहित एवेति कथं वाक्यार्थः ? बुद्ध्यारूढस्य वाक्यार्थत्वे परमतप्रवेशप्रसङ्गः / 'निःस्वभावो नियोगः' इत्यप्यनेन प्रत्युक्तम् ; निःस्वभावस्यास्य अन्यापोह- 10 त्वानतिक्रमात् / ___किञ्च, अयं नियोगः प्रवर्तकस्वभावः, अप्रवर्तकस्वभावो वा ? प्रथमपंक्षे प्रभाकरवत् ताथागतादीनामपि प्रवर्तकः स्यात् तस्य संवथा प्रवर्तकस्वभावत्वात् / तेषां' विपर्यासादप्रवर्तकः इति चेत् ; न; भवतामपि विपर्यासात् प्रवर्तकः' इत्यपि वक्तुं सुशक. त्वात् / अथाप्रवर्तकस्वभावोऽसौ; तर्हि सिद्धस्तस्य प्रवृत्तिहेतुत्वाभावः, स च वाक्यार्थ- 15 त्वाभावं साधयति / न च अग्निष्टोमादिवाक्ये विषयादिपदार्थवाचकपदव्यतिरेकेण विषयफलयोः मध्यवर्तिनः तटस्थस्य वा नियोगस्य वाचकं किञ्चित्पदमस्ति, यतः सोपि विषयादिवत् पदार्थतां प्रतिपद्येत / न चापदार्थो वाक्यार्थो भवितुमर्हति; अन्यो (1) वाक्यप्रयोगकाले। तुलना-"अथ तद्वाक्यकाले विद्यमानोऽसौ; तर्हि न नियोगो वाक्यस्यार्थः, तस्य यागादिनिष्पादनार्थत्वात्, निष्पन्नस्य च यागादेः पुननिष्पादनायोगात् ।"-अष्टसह० पृ० 8 / (2) नियोगस्य। (3) विषयनियोगयोः-आ० टि०। (4) यागादेः / (5) तुलना-"द्वितीयपक्षेऽपि नासौ नियोगः, फलस्य भाव (भावि) त्वेन नियोगत्वाघटनात्, तदा असन्निधानाच्च / तस्य वाक्यार्थत्वे निरालम्बनशब्दवादाश्रयणात् कुतः प्रभाकरमतसिद्धिः ?"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 262 / अष्टसह. पृ०८ / (6) सुगतमत। (7) "स हि प्रवर्तकस्वभावो वा स्यादतत्स्वभावो वा ?"-तत्त्वार्थश्लो. पृ० 264 / अष्टसह पृ० 8 / (8) तुलना-"नियुक्तेन निवृत्तिश्चेत् (?) सर्वस्यातः प्रसज्यते / तत्स्वभावतया काशमनाकाशं न कस्यचित् // स्वभावोऽपि विपर्यासादन्यथा यदि गम्यते। विपर्यासाविपर्यासव्यवस्थां कः करिष्यति ॥"-प्रमाणवातिकालं०१०१५। (9) नियोगस्य। (10) सौगतादीनाम् / तुलना-"तेषां विपर्यासादप्रवर्तक इति चेत; परेषामपि विपर्यासात् प्रवर्तकोऽस्तु / शक्यं हि वक्तुम्-प्राभाकरा विपर्यस्तत्वात् शब्दनियोगात् प्रवर्तन्ते नेतरे, तेषामविपर्यस्तत्वादिति / सौगतादयो विपर्यस्ताः तन्मतस्य प्रमाणबाधितत्वात् न पुनः प्राभाकराः इत्यपि पक्षपातमात्रम्; तन्मतस्यापि प्रमाणबाधितत्वाविशेषात्।"-अष्टसह०पू०९ / तत्त्वार्थश्लो० 10264 / (11) प्राभाकराणामपि / (12) तुलना-"पदार्थ एव वाक्यार्थो न च सोऽनन्यगोचरः। तत्र पदार्थस्यैव पदार्थान्तरोपकल्पितविशेषस्य वाक्यार्थत्वादपदार्थत्वे तदनुपपत्तिः ।"-विधिवि० पृ० 49 / 1-तानुसारेण प्र-आ०, ब० / 2 अथ कि-श्र० / 3 इत्यप्यतेन ब०,०। 4 तथागता-श्र०। 5-स्वभावात् आ० / 6 इति वक्तुं आ०, श्र०। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 588 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. प्रागमपरि० न्यसापेक्षपदान्तरनिरपेक्षपदार्थसमुदायलक्षणत्वाद् वाक्यार्थस्य / तन्न नियोगोऽपि वाक्यार्थो घटते ॥छ॥ ___येऽपि प्रेषणांध्येषणाभ्यनुज्ञालक्षणः प्रयोक्तृधर्मः प्रवृत्तिहेतुत्वेन प्रसिद्धो विधि: इत्योमनन्ति; तेप्यतत्त्वज्ञाः; पुरुषसम्बन्धशून्येषु वेदवाक्येषु पुरुषधर्मतया प्रसिद्धानां 6 प्रेषणादीनाम् अत्यन्तासंभवतो विधित्वकल्पनानुपपत्तेः। तत्रै तेषों कल्पने वा पौरुषेयत्वानु षङ्गाद् अपौरुषेयत्वकल्पनानुपपत्तिरिति एकं सन्धित्सोरन्यत्प्रच्यवते / असत्कारपूर्विका हि व्यापारणा प्रेषणा उच्यते, सत्कारपूर्विका तु अध्येषणा, परेष्टस्य अप्रतिकूलवृत्तिरभ्यनुज्ञेति सर्वे एते प्रेषणादयः पुरुषगताशयविशेषस्वभावत्वाद् अपौरुषेयेषु वेदवाक्येषु न मनागपि सङ्गच्छन्ते इति // छ / अन्ये तु प्रैषादीनां प्रत्येकं व्यभिचारात् अनेकशक्तिकल्पनादोषाच्च सर्वत्राऽव्यभिचारिणः प्रवर्त्तनामात्रस्यैकस्य विधित्वमिति प्रतिपन्नाः; तेप्यसमीक्षिततत्त्वाः; निर्विशे (1) " तत्र विधिः प्रेरणम् भृत्यादेनिकृष्टस्य प्रवर्तनम् / निमन्त्रणं नियोगकरणम्, आवश्यके प्रेरणेत्यर्थः / आमन्त्रणं कामचारानुज्ञा। अधीष्ट: सत्कारपूर्वको व्यापारः।"-वैयाकरणभ० पृ० 142 / (2) नैयायिकाअपि। "विधिविधायकः। यद् वाक्यं विधायकं चोदकं स विधिः, विधिस्तु नियोगोऽनुज्ञा' वा। यथा अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः इत्यादि ।"-न्यायभा० 2 / 1163 / "यद्वाक्यं विधत्ते इदं कुर्यादिति स नियोगः / अनुज्ञातुः यत्कर्तारमनुजानाति तदनुज्ञावाक्यम् ।"-न्यायवा० पृ० 269 / “विधिर्वक्तुरभिप्रायः प्रवृत्त्यादौ लिङादिभिः / अभिधेयोऽनुमेया तु कर्तुरिष्टाभ्युपायता // प्रवृत्त्यादी इत्यादिपदानिवृत्तिः, विषयसप्तमीयम्, तेन प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयः आप्ताभिप्रायो लिङर्थ इत्यर्थः। प्रवर्तकमिष्टसाधनताज्ञानमेव लिङर्थस्त्वाप्ताभिप्रायो लाघवादिति भावः ।"-न्यायकुसु०, प्रका० 5 / 15 / (3) "अपौरुषेये प्रषादिधर्मो नावकल्पते / लोके हि प्रतीतः प्रेषणाध्येषणाभ्यनुज्ञालक्षणोऽभिप्रायातिशयः / प्रयोक्तधर्मो लिङर्थः, तस्यापौरुषेयेष वेदवाक्येष्वसंभवः / प्रतीते: संभव इति चेत; न; पौरुषेयत्वापत्तेः।"-विधिवि० पृ० 23 / “आज्ञादिस्तु न वेदार्थः पुंधर्मत्वेन युज्यते ।"-न्यायसु० पृ० 37 / (4) वेदे / (5) पुरुषाभिप्रायरूपाणां प्रैषादीनाम् / (6) द्रष्टव्यम्-पृ०५८० टि०४। (7) मीमांसकवैयाकरणादयः। "एतच्चतुष्टयानुगतप्रवर्तनात्वेन वाच्यता लाघवात् / उक्तञ्च-अस्ति प्रवर्तनारूपमनुस्यूतं चतुलपि / तत्रैव लिङ विधातव्यः किं भेदस्य विवक्षया / / न्यायव्युत्पादनार्थं वा प्रपञ्चार्थमथापि वा। विध्यादीनामुपादानं चतुर्णामादितः कृतमिति / प्रवर्तनात्वञ्च प्रवृत्तिजनकज्ञानविषयतावच्छेदकत्वम् / तच्चेष्टसाधनत्वस्यास्ति इति तदेव विध्यर्थः ।"-वैयाकरणभू० पृ० 145 / "तत्र च प्रैषादीनां विशेषाणां व्यभिचारित्वेन अवाच्यत्वात् सर्वानुयायिनः प्रवर्तनासामान्यस्य वाच्यत्वेऽवगते..."-न्यायसु० पृ० 30 / 'तत्र चावापोद्वापाम्यां प्रवर्तनायां विधिशक्तिमवधारयति / प्रवृत्त्यनुकुलो व्यापारः प्रवर्तना स च व्यापारः षादिरूपो विविध इति प्रत्येक व्यभिचारित्वाद्विधिशब्दवाच्यत्वानुपपत्ते प्रवर्तनासामा. न्यमेव विधिशब्दवाच्यमिति कल्पयति ।"-मीमांसान्याय०पू० 180 / (8) 'न च प्रवर्तनामात्रमविशेषमकर्तृकम् / यदपि मतम्-अनेकसामर्थ्यपरिकल्पनादोषाद् व्यभिचाराच्च प्रैषादीनामवाच्यत्वादव्यभिचारात्प्रवर्तनामात्रं लोके लिङाद्यर्थः तस्य वेदेप्युपपत्तिरिति; इदमप्यचतुरस्रम्; निर्विशेषसामान्यायोगात्, अकर्तृकत्वे व्यापारानुपपत्तेश्च / न तावत् प्रैषादयो विशेषाः सम्भविनः / नाप्यन्यो विशेषः कश्चिदुपदर्श्यते / तदुपदर्शने वा सामान्यस्याभिधानमस्मिन्नवसरे व्यर्थम् / तदेतदपास्तसकलभेदं प्रवर्तनासामान्यं ब्राह्मण्यमिव समुज्झितकठादिभेदं स्यात् / प्रवर्तना च प्रवर्तयितुर्व्यापारः, स तमन्तरेण नातिविराजते, पुरुषस्याभावात् शब्दस्य च प्रवर्तकत्वनिषेधात् प्रवर्त्तयितुरभावः ।"-विधिवि० पृ.० 25-26 / 1-लक्षणप्रयो-आ० / 2-प्रेषणादीनां श्र० / Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26 ] विधिवादः 586 षस्य सामान्यस्यैवाऽसंभवात् / यथैव हि खण्डादिविशेषशून्यं गोत्वादिं न संभवति, एवं परित्यक्तप्रैषादिविशेषं प्रवर्त्तनामात्रमपि / वेदस्य चाऽपौरुषेयत्वाभ्युपगमे पुरुषगताशयविशेषस्वभावानां प्रैषादिविशेषाणामसंभवात् का प्रवर्त्तनामात्रस्य संभावनापि ? ___यच्चोक्तम्-'प्रैषादीनां व्यभिचारात्' इत्यादि; तदर्युक्तम् ; यथासंभवं यथास्वरूपश्च प्रवर्तकत्वाभ्युपगमात् / यदा हि प्रेषणातः प्रवर्त्तते तदा तस्याः प्रवर्तकत्वम्, यदा / तु अध्येषणातस्तदा तस्या इति / नहि 'कदाचिदीर्घाः शुक्लादिस्वरूपास्तन्तवः पटस्य जनकाः कदाचित्तु ह्रस्वा रक्तादिस्वभावा वा' इत्येतावता तन्तुव्यतिरिक्तस्यान्यस्यैव कस्यचित्पटोत्पत्तिं प्रति उपादानकारणत्वं युक्तं प्रतीतिविरोधात् // छ / ___ अन्ये त्वाहुः-फलं प्रवर्तकम् , तद्व्यापारः प्रवर्त्तना। सर्वोऽपि हि प्रेक्षापूर्वकारी फलोद्देशेन प्रवर्त्तते, अतः फलस्य प्रवर्तकत्वम् / प्रीत्यात्मकता तस्य प्रवृत्तौ व्यापारः 10 स एव च प्रवर्त्तना विधिरिति; तदप्यसङ्गतम् ; फलस्य प्रवृत्तिहेतुत्वानुपपत्तेः / नहि अवगतमपि फलम् अर्थितां विना प्रवृत्तिहेतुः। सर्वस्य सर्वत्र प्रवृत्तिप्रसङ्गात् / अर्थिता च न फलस्य व्यापारः, किन्तु प्रेतिपत्तुरिच्छारूपतया तर्द्धमत्वात् / अर्थ फलस्य प्रीत्यात्मकत्वमन्तरेण इच्छाया एवानुत्पत्तेः तर्दुत्पादनद्वारेण फलधर्मस्य प्रीत्यास्मकत्वस्य प्रवृत्तिहेतुत्वम् ; नन्वेवमपि प्रीत्यात्मकत्वस्य फले एवाऽवस्थानात् तत्रैव 16 आत्मनः प्रवृत्तिः स्यात् न कर्मणि / अतोऽर्थान्तरत्वात्तस्यै / नान्यदभिलषितम् अन्यत्र . (1) पृ० 588 पं० 10 / (2) प्रेषणायाः विधित्वे अध्यषणायां विधित्वं न स्यात् अध्येषणाया विधित्वे च प्रेषणायां विधित्वाभावः इति परस्परं व्यभिचारः / प्रेषणादिषु प्रत्येकं शक्तिकल्पने गौरवमिति भावः। (3) जयन्तभद्रप्रभूतयः / “फलस्यैवेष्यमाणस्य पश्यन् प्रेरकता मतः।"तस्मात्पुंसः प्रवृत्तौ प्रभवति न विधिर्नापि शब्दो लिङादिः / व्यापारोप्येतदीयो न हि पटरभिधा भावनानामधेया॥ न श्रेयःसाधनत्वं विधिविषयगतं नापि रागादिरेवं / तेनाख्यत्काम्यमानं फलममलमतिः प्रेरकः सत्रकारः / / ... क्वचित्साक्षात्पदोपात्तं कचित्प्रकरणागतम् / क्वचिदालोचनालभ्यं फलं सर्वत्र गम्यते ॥"तस्मात्फलस्य साध्यत्वात् सर्वत्र तदवर्जनात् / क्रियादीनाञ्च तादात् तस्य वाक्यार्थतेष्यते ॥"प्राधान्ययोगादथवा फलस्य वाक्यार्थता तत्र सतां हि यत्नः। प्रयोजनं सूत्रकृता तदेव प्रवर्तकत्वेन किलोपदिष्टम् ॥"-न्यायमं० पृ०३६२-६५। (4) “यदि मन्येत फलं प्रवर्तकं तद्वयापारः प्रवर्त्तना, फलार्थिनः पुरुषस्य तत्साधने प्रवृत्तेः अन्यथाऽभावात् / न कश्चिद्वयापारविशेषः प्रवर्तना अपि तु प्रवृत्तिसमर्थ व्यापारमात्रं च प्रयोजकव्यापारः.भिक्षा वासयति कारीषोऽग्निरध्यापयतीति दर्शनात् ; तदसत्; अथिता व्यापृतिः पुंसो नियमः किन्निबन्धनः / फलसाधनता कर्मनिश्चेया साध्यता कदा ॥"-विधिवि० पृ० 26 / (5) आत्मन:आ० टि०। (6) पुरुषधर्मत्वात् / “फलार्थिता चेत् प्रवृत्तिहेतुः; सेच्छा तद्योगो वा इच्छासमवायो वा 'कृत्तद्धितसमासेषु सम्बन्धाभिधानं त्वतल्भ्याम्' इति वचनात् पुरुषधर्म इति न फलं व्यापृतिः / " -विधिवि० पू० 27 / (7) "अथ तदिच्छोपहारमुखेन फलस्य प्रवृत्तिहेतुर्धर्मः प्रीत्यात्मता फलव्यापारः प्रवर्तना: सापि तत्रैव न कर्मणि / फलव्यापाराच्च प्रवर्त्तमानः सर्वत्र प्रवर्तेत नियमनिमित्ताभावात।" -विधिवि० पृ० 27 / (8) इच्छोत्पादनमुखेन / (9) सूरि:-आ० टि० / (10) फले एव / (11) फलात्-आ० टि० / (12) कर्मणः-आ० टि० (13) फलम् / (14) कर्मणि यागादौ / 1 सामान्यस्यासंभ-श्र०।2-युक्तं यथास्व-ब०। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. प्रागमपरि० प्रवृत्तिः अतिप्रसङ्गात् / अथाऽभिप्रेतफलसाधनत्वात् कर्मण्येव प्रवृत्तेर्नातिप्रसङ्गः, न खलु प्रेक्षापूर्वकारिणः उपायं परित्यज्य अनुपायेऽसाधने वा साध्ये प्रवर्त्तन्ते; कथमेवं फलस्य प्रवर्तकता तत्साधनस्यैव तत्प्रसङ्गात् / ____नैनु नियतकर्मसाध्यतायाः फलसमवेतायाः प्रवृत्तिहेतुत्वात् फलस्य प्रवर्तकत्वम् , 5 नियते च उपायभूते कर्मणि प्रवृत्तिरविरुद्धा; ननु केयं तत्साध्यता-फलस्य स्वरूपम् , शक्तिभेदो वा ? यदि स्वरूपम् ; तदा तस्य॑ सर्वत्राविशेषात् नियतकर्मणीव अर्थान्तरेऽपि प्रवृत्तिः स्यात् / नहि तृप्तिः भुज्यपेक्षयैव तृप्तिर्भवति नाग्न्यपेक्षया इति, तृप्त्यर्थिना अग्नावपि प्रवर्त्तितव्यम् / शक्तिभेदोऽपि फलस्य स्वसत्त्वकाले, अभावकाले वा स्यात् ? तंत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः; यतः प्रतिनियतादेव कर्मणः प्रतिनियतस्य फलस्योत्पत्त्यर्थं तच्छक्ति10 भेदः परिकल्प्यते। न चोत्पन्नस्य सम्बन्धिनी शक्तिः उत्पादनियमे समुपयुज्यते। न खलु उत्पन्नं शक्तिवशादुत्पद्यते विरोधात् / द्वितीयविकल्पोप्यसुन्दरः; नहि फलमविद्यमानं खपुष्पप्रख्यं साध्यताख्यशक्तिभेदाश्रयो भवितुमर्हति / तैर्दाश्रयत्वे वा तस्याऽसत्त्वविरोध:; असतः सकलशक्तिविरहलक्षणत्वात् / किञ्च, इदं फलं विद्यमानं संत् पुरुषं प्रेरयति, अविद्यमानं वा ? यदि विद्य (1) "तत्साधनत्वात् कर्मण्येव प्रवर्तते न सर्वत्र; तत एव तहि तत्साधनत्वं प्रवृत्तिहेतुः कर्मणि न फलरूपम् तच्च कर्मसमवायीति कर्म प्रवर्तकं स्यात् / चोदयति-तत्साधनत्वात् कर्मण्येव प्रवर्तते सर्वत्र सर्वेषां फलसाधनत्वाभावात् / परिहरति-तत एव तत्साधनत्वे सति प्रवृत्तिभावादेव / भवतु तर्हि तत्साधनत्वं प्रवृत्तिहेतुः कर्मणि, न फलरूपम् / भवतु को दोषः? इत्यत आह-ततश्च कर्मसम- वायि न फलसमवायीति कर्मैव प्रवर्तकं स्यात् ।"-विधिवि०, टी० पृ० 27-28 / (2) फलसाधनभूतस्य यागस्यैव प्रवर्तकत्वं स्यात्, यागस्य तत्साधनत्वे निश्चिते सत्येव प्रवृत्तिदर्शनात् / (3) “एवं तहि तत्साध्यता प्रवृत्तिहेतुः, सा च फलसमवायिनीति न दोषः ; तथाहि समभिलषितस्य तृप्त्यादेः कर्मविशेषेण साध्यत्वात्तत्रैव प्रवृत्तिः; का पुनरियं साध्यता ? यदि रूपं फलस्य; सर्वत्र प्रवृत्तिप्रसङ्गः / एतदुक्तं भवति-फलसमवायिन्यपि साध्यता साधनाधीननिरूपणतया साधनमपि गोचरयति न पुनरसाधनमपि तेनैव तस्माद्विशेषात् साधन एव प्रवर्त्तयति न तु सर्वत्रेति / तदेतद् दूषयति-का पुनरियं साध्यता ? यदि रूपं फलस्य; ततस्तस्य साधनाधीननिरूपणत्वाभावान्न साधने प्रवर्त्तयेत् प्रवर्तयेद्वा सर्वत्रैव अन्यत्वाविशेषात् ।"-विधिवि०, टी० पृ० 28 / (4) ज्योतिष्टोमादियागजन्यता हि स्वर्गादिफलसमवायिनी अतः वस्तुतः यागसाध्यतायाः प्रवृतिहेतुत्वे फलस्यैव प्रवर्तकत्वं फलितमिति भावः / (5) नियतकर्मसाध्यता। (6) फलभूतस्वर्गस्वरूपस्य। (7) ज्योतिष्टोमादिवत् (8) गोवधादौआ० टि० / (9) शक्तिविशेषः / (10) “कदा पुनरयं शक्तिभेद: साध्यताभिधान: ? फलस्य भावसमये न तावत्; वैयदिप्रवृत्तिहेतुत्वाच्च / न खलूत्पन्नस्योत्पादः यद्योगिनी शक्तिरर्थवती। नापि सिद्धे फले तत्साधने कश्चित्प्रवर्तते ।"-विधिवि० पृ० 29 / (11) उत्पन्नस्य उत्पत्तिविरोधात्, अनुत्पन्नस्यैव हि समुत्पादो दृश्यते। (12) "अभावकालेप्यसत् कथं शक्तिमत् खपुष्पवत्"विधिवि० पृ० 29 / (13) साध्यतारूपशक्तिविशेषाधारत्वे / (14) फलस्य / (15) शक्त्याधारत्वे सत्त्वमेव स्यादिति भावः / 1-साध्यतया प्रवृत्ति-श्र० / 2 तच्छक्ति-श्र० / 3 नहि भु-श्र० / 4 स्वसत्ताकाले श्र०, ब० / 6 साध्यताशक्ति-श्र०, ब०। 6 तदाश्रयसत्त्वे वा ब०। 7 तत् थ०। . Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26] विधिवादः 561 मानम् ; किमर्थं प्रेरयति ? फलार्थी हि पुरुषः प्रवर्त्तते, तच्चेद् विद्यते; अलं प्रवृत्त्या / नहि लोके यस्य यदस्ति स तदर्थं पुनः प्रवर्त्तते इति प्रतीतम् प्रवृत्त्यनुपरमप्रसङ्गात् / सतोऽपि फलस्य आत्मसम्बन्धितां कर्तुं प्रवर्त्तते; इत्यप्ययुक्तम् ; यतः फलं सुखम् , दुखाभावश्च, तदुभयमप्युपजायमानम् आत्मसम्बद्धमेवोपजायते / अथ स्वर्गकामः पुरुषः स्वर्गादेः फलस्य विद्यमानस्यैव आत्मसम्बद्धतां कर्तुं प्रवर्त्तते; नन्वेवं पुत्रका- 5 मादौ का वार्ता ? नहि पुत्रादिफलस्य तदा विद्यमानता संभवति प्रतीतिविरोधात् / , किञ्च, इदं फलं सत्तामात्रेण प्रवृत्तिहेतुः, साध्यताविशिष्टं वा ? प्रथमपक्षे सिद्धेपि फले पुरुषप्रवृत्तिहेतुत्वं स्यात् , सत्तामात्रस्य तत्राप्यविशेषात् / न च सिद्धस्य सिद्धये प्रेक्षावतां प्रवृत्तियुक्ता तदनुपरमप्रसङ्गात् / अथ साध्यतावच्छिन्नं फलं प्रवृत्तिहेतुर्न केवलम् ; तदप्यनुपपन्नम् ; अनर्थिनोऽप्यतः प्रवृत्तिप्रसङ्गात् / फलं हि साध्य- 10 तया विशिष्टं प्रतीयमानं यदि प्रतिपत्तारं प्रवर्त्तयति तदा अनर्थिनमपि प्रवर्त्तयेत्तँदविशेषात् / तन्न विद्यमानस्यास्य प्रेरकत्वं युक्तम् / नाप्यविद्यमानस्य; अँस्याऽसतः कारकत्वानुपपत्तेः, 'असच्च प्रेरकञ्च' इति विप्रतिषेधात् // छ / - येऽपि 'फलाभिलाष एव "प्रेर्यगतः प्रेरकत्वाद् विधिः, अनर्थिनः प्रवृत्त्यप्रतीते:, स हि शब्दमन्तरेणापि कचिदभिलषिते वस्तुनि अर्थिनं पुरुषं प्रवर्त्तयति इत्याचक्षते; 15 तेऽप्यसमीक्षितवाचः; अभिलाषस्य अव्यापकतया प्रवृत्त्यङ्गतानुपपत्तेः। तदव्यापकता च बालकप्रवृत्तौ तदसंभवात्सुप्रसिद्धा। तथाहि-कश्चिदाचार्यप्रेरितो बालकः कार्य किमपि कुर्वन् केनचित् प्रयोजनं पृष्टः सन्नुत्तरमाह-'न वेद्मि करणे अस्य किमपि प्रयोजनम् , केवलमाचार्यप्रेरितः करोमि' इति / ततः फलाभिलाषमन्तरेणापि पुरुषप्रवृत्तिप्रतीते: अव्यापकः सर्वप्रवर्त्तनानां फलाभिलाषः // छ / अन्ये तु 'कर्मैव अभिप्रेतार्थप्रसाधकत्वाद् विधिः' इति प्रतिपन्नाः; तन्मतमप्यसङ्गतम् ; कर्मणो विधिविषयतया विधिस्वभावत्वानुपपत्तेः / 'विधेविषयो हि कर्म 20 (1) फलं स्वर्गादि / (2) निष्पन्नेऽपि फले प्रवृत्तौ प्रवृत्त्यनुपरमः स्यात् / (3) पुत्रकामनया क्रियमाणे पुत्रेष्टियज्ञे न हि पुत्रः स्वर्गादिवत् विद्यमानोऽस्ति / (4) प्रवत्त्यविरामप्रसङ्गात् / (5) अथितारहितम्-आ० टि०। (6) साध्यतावच्छिन्नात् फलात् / (7) अविद्यमानफलस्य / (8) असत्त्वात् / (9) प्रेरकत्वे सत्त्वमेव स्यादिति भावः / (10) पुरुषनिष्ठः। (11) “अस्तु तहि कर्म प्रवर्तकम, अभिमतसाधनता तस्य प्रवर्तना, प्रवृत्तिहेतुरूपत्वात्, न; विषयत्वात्। तदेतद दषयति 'न' तस्य विषयत्वात्, प्रवृत्तिकर्तुः प्रयोजकः प्रवर्तकः / सिद्धश्च स भवति / तदिह सिद्धं चेत् कर्म प्रवृत्तेः प्राक् प्रवृत्तेः भावनाया विषयो न भाव्यम् / न जातु गगनमस्या भाव्यं भवितुमर्हति / विषयश्चेत् कर्म; असिद्धत्वात् कथं प्रवर्तकमित्यर्थः ।"-विधिवि०, टी० पृ० 35 / (12) न हि घटस्य ज्ञानविषयत्वे ज्ञानस्वभावता युक्ता-आ० टि०। 1 अथिनो-आ० / 2 अर्थिनमपि आ०। -येदविशे-श्र०, ब०।-मानस्य प्रेर-आ० / / विधिविष-श्र०, विधिविष-ब०। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 562 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. प्रागमपरि० लोके प्रसिद्धं न तत्स्वभावम् , अतोऽन्येनात्र प्रवर्तकेन हि भवितव्यम् / नहि स्वस्यैव स्वात्मसिद्ध्यर्थं प्रवर्तकत्वं युक्तं विरोधात् / किञ्च, उत्पन्नं कर्म आत्मसिद्ध्यर्थं पुरुषं प्रवर्त्तयति, अनुत्पन्नं वा ? तत्र उत्पनस्य स्वरूपसिद्धेर्जातत्वात् पुरुषप्रेरणा व्यर्था / अनुत्पन्नस्य तु प्रेरकत्वानुपपत्तिः / 5 सदेव हि किश्चित् कस्यचित्प्रेरकं नासत् खरविषाणादिकम् , तथाविधस्य कारकत्वा योगात् / असता चानेन सह अपौरुषेयवचसः सम्बन्धासंभवात् कथं तद् वेदवाक्यैः प्रतिपाद्येत यतः पुरुषप्रवृत्तिहेतुत्वात् तद् वाक्यार्थः स्यात् / अथ सामान्योकारेण सत् कर्म विशेर्पाकारसम्पादनाय पुरुषं प्रेरयति; तन्न; येनांशेन तत् सन्न तेनाशेन पुरुषसाध्यम् , येन चांशेन साध्यं न तेन तदभिधेयं सम्बन्धासंभवात् / नहि सम्बन्धाऽभिधेयाभिधानानां नित्यत्वाभ्युपगमे अनित्ये कर्मविशेषे नित्यस्य सम्बन्धस्य संभावनापि संभवति / लक्षणया तत्प्रतिपत्तिः; इत्यप्ययुक्तम् ; तस्यास्तद्वत् शब्दार्थनिरूपणावसरे निरस्तत्वात् // छ / ___ अथ आत्मनोऽप्राप्तक्रियासम्बन्धप्रतिपत्तिः प्रवर्तकत्वाद् विधिः; 'तैवेदं कर्म' इत्युक्ते हि क्रियासम्बन्धमात्मन्यवगम्य प्रवर्त्तमानाः प्रतीयन्ते लौकिका इति ; तदप्य18 युक्तम् ; नहि क्रियासम्बन्धप्रतिपत्तिमात्रेण प्रवृत्तिोंके प्रतीयते, अपि तु तदनुरोधितैया, अन्यथा सर्वस्यैव 'तवेदं कर्म' इति कर्मसम्बन्धप्रतिपत्तिमात्रेण प्रवृत्तिः प्रसज्येत, (1) विधिस्वभावम् / (2) कर्मणि यागादौ। (3) असतः प्रवृत्तिक्रियायाः कर्तृत्वरूपस्य प्रवर्तकत्वस्य असम्भवात्। (4) कर्मणा। (5) याग इति-आ० टि०। (6) कारीषादि:-आ० टि। (7) सामान्येन-आ० टि० / (8) विशेषरूपेण-आ० टि०। (9) वेदवाक्येनाभिधेयम् / (10) सङ्कत-अर्थ-शब्दानाम् / (11) "ननु विधेलिङादिवाक्यताभ्युपगमात् तदुच्चारणात् प्रागसिद्धत्वे सति अगृहीतसम्बन्धत्वेन वाच्यत्वायोगाल्लिङाधुच्चारणात् प्रागेव सिद्धेः तत्परत्वं न युक्तमित्याशंक्य शब्दश्रवणानन्तरभाविप्रवृत्तिहेतुप्रेषणाध्येषणादिव्यापारानुवृत्तप्रवर्तनासामान्याभिधानेन तद्विशेषापेक्षायामपोरुषेये वेदे पुरुषधर्मस्य प्रेषणादेरसम्भवात् तद्वयतिरिक्तविध्याख्यस्य विशेषस्य परिशेष्याल्लक्षणया गम्यमानस्य सम्बन्धग्रहणानपेक्षत्वेन प्राक् सिद्धचनपेक्षणादविरुद्धा शब्दव्यापरतेति "-न्यायसु०पू०५५९, तथा पृ० 30 / मीमासान्याय० पृ० 180 / (12) विधि / (13) लक्षणायाः। (14) सम्बन्धवत् / (15) 10 570 / (16) "यदपि समर्थनम्-अप्राप्तसम्बन्धया क्रियया आत्मनः सम्बन्धस्य प्रतीत्या प्रवृत्तिः यथाऽद्य तवेदं कर्मेति लोके / अतश्च अज्ञातज्ञापनमप्रवृत्तप्रवर्त्तनमुभयविधप्राप्तिप्रतिषेधेन अप्राप्तक्रियाकर्तृसम्बन्धो विधिरिति विधिविदामुद्गाराः ।"-विधिवि० पृ०४०। (17) "नैतत्सारम् ; यस्मात्-न प्रवृत्तिोगधियो लोकेऽभिप्रायवेदनात् / मृषा भवेत्तथा कामं किं मुधैष प्रयस्यति // प्रतिपद्यतां नामायमात्मनः क्रियायोगं शब्दात्, तं च तथाभावे तथेति निश्चिनोतु विपर्यये नैतदेवमिति / प्रवर्तते तू कस्मात ? लोके त्वद्य तवेदं कर्मेति वचनादधिगतवक्त्रभिप्रायो यो यदभिप्रायानुरोधी स प्रवर्तितुमर्हति अन्यथा सर्वस्य प्रवृत्तेः ।"-विधिवि० पृ० 41-42 / (18) वाक्यप्रयोक्तृपुरुषस्य अभिप्रायानुरोधात् प्रवृत्तिर्भवति अत: अभिप्रायानुरोध एव विध्यर्थः स्यादिति भावः / __-तकेन भवि-श्र०, ब० / 2 सह पौरु-श्र० / 3 तदेवं कर्म श्र० / 4 तदविरोधितया ब० / तदेवं कर्म श्र०। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 26] विधिवादः 563 अतस्तदनुरोधितापि प्रवर्तकत्वाद् विधिः प्रसज्येत / सापि वा न प्राप्नोति, स्वामिवाक्यवद् वेदवाक्ये तस्याः सत्त्वाऽसंभवात् / 'इदं कुरु' इति वाक्याद्धि स्वामिनोऽभिप्रायं विदित्वा तदिच्छानतिक्रमेण तदनुरोधितया प्रवर्त्तते / न चैतद् वेदवाक्ये संभवति वक्तुरसत्त्वात् // छ / येऽपि स्वर्गादिफलसाधनत्वेन धात्वर्थ प्रतीत्य पुरुषार्थसाधनत्वादस्मिन् / प्रवर्तामहे इति श्रेयःसाधनत्वाख्यधर्मावगमः प्रवृत्तिहेतुत्वाद् विधिः' इत्याचक्षते; तेऽप्यशब्दार्थविदः, श्रेयःसाधनातायाः विधित्वेन लोकेऽप्रसिद्धेः, प्रैषादीनामेव तत्र तत्त्वेन प्रसिद्धेः। लिङादिशब्दवाच्यो हि विधिः। न च श्रेयःसाधनता तच्छब्दवाच्यतया लोके प्रसिद्धा, येनास्या विधित्वं स्यात् , लोकानुसारेण च पदार्थव्यवस्था / “य एव लौकिकाः शब्दाः त एव वैदिकाः" [ शाबरभा० 1 // 3 // 30 ] इत्यादिवचनात् / 10 किञ्च, कस्येयं श्रेयःसाधनता-भावनायाः, धात्वर्थस्य वा ? न तावद् भावनायाः; तस्याः प्रागुक्तप्रकारेण असिद्धस्वरूपत्वात् / नापि धात्वर्थस्य; यागादेः पशुवधप्रधानस्य श्रेयःसाधनत्वानुपपत्तेः। न खलु हिंसा श्रेयःसाधनम् ; ब्राह्मणवधादेरपि तत्प्रसङ्गात् / 'विहितानुष्ठानत्वात्तत्साधनत्वे 'सधनं ब्राह्मणं हन्यात्' इत्यादेरपि (1) प्रयोक्तृपुरुषाभावात् अभिप्रायानुरोधितायाः अभावात् / (2) मण्डनमिश्रादयः। मण्डनमिश्रा हि 'इदं मच्छेयःसाधनम्' इत्यवगमस्यैव प्रवृत्तिहेतुतां स्वीकुर्वन्ति; तथा चोक्तं तै:-"पुंसां नेष्टाभ्युपायत्वात क्रियास्वन्यः प्रवर्तकः / प्रवत्तिहेतुं धर्मञ्च प्रवदन्ति प्रवर्तनाम् // प्रवत्तिसमर्थो हि कश्चिद् भावातिशयो व्यापाराभिधानः प्रवर्तना। सा च क्रियाणामपेक्षितोपायतैव। न हि तथात्वमप्रतिपद्य तत्र प्रवर्तते कश्चित् / याप्याज्ञादिम्यः प्रवृत्तिः साऽपि कथंचिदपेक्षितनिबन्धनत्वमुपाश्रित्यैव अन्यथाऽभावात् ।"-विधिवि० पृ० 243 / “तथा चोक्तम् -तया धात्वर्थकार्यत्वे पदं श्रुत्योपदर्शिते / भावनाया विधिश्रुत्या पुषार्थांशसाध्यतेति // श्रेयःसाधनता ह्येषा नित्यं वेदात् प्रतीयते (मी० श्लो० पृ०४९।) इति च / तस्मादिष्टसाधनतैव विधिः लिङाद्यभिधेयेति तयुक्तायाः भावनायाः फलमेव भाव्यं धात्वर्थस्तु करणमिति (पृ०४६) तेनाभिधाव्यापारप्रवर्तनाभिधानवत् प्रवर्तनारूपेण इष्टसाधनतां शब्दोऽभिधत्ते न स्वरूपेणेति न प्रतीतिविरोधः / इदमेव भगवतो मण्डनमिश्रस्यापि 'पुंसां नेष्टाभ्युपायत्वत् क्रियास्वन्यः प्रवर्तकः / प्रवृत्तिहेतु धर्मञ्च प्रवदन्ति प्रवर्तनाम्। एवङ्कारञ्च प्रवर्तनाप्रत्यय इत्यादि वदतोऽभिमतम् / तदेवं शब्दकर्तृकं प्रवर्तनारूपेष्टसाधनत्वाभिधानमेव शब्दभावनेति गीयते ।"-न्यायरत्नमा० पृ० 47, 53-54 / 'इष्टसाधनत्वमेव विधितत्त्वम्” तन्त्ररह० पृ० 45 / "तथा च प्रवर्तनत्वानुरोधात् विधेरपि इष्टसाधनत्कादिकमेवार्थः"-मुक्ता० पृ० 516 / (3) ज्योतिष्टोमादियागे। (4) लोके। (5) विधित्वेन। (6) श्रेयःसाधनतापरनाम्न्याः इष्टसाधनतायाः / (7) उद्धृतमिदम्-तौताति० पृ०१३४ / (8) तुलना-"किञ्च, भावनागतं श्रेयःसाधनत्वं प्रवर्तकमिष्यते तैः. तच्च न पथगभिधात यक्तम / भावनायाः त्र्यंशत्वेन तत्स्वरूपावगमसमये एतदंशयोः स्वर्गयागयोः साध्यसाधनभावावगतिसिद्धेः ।"न्यायमं० पृ० 361 / (9) श्रेयःसाधनत्वप्रसङ्गात् / (10) यज्ञो हि वेदे विहितोऽतः सः श्रेयःसाधनमित्युक्ते सत्याह / तुलना-"विधिपूर्वकस्य पश्वादिवधस्य विहितानुष्ठानत्वेन हिंसाहेतुत्वाभावात असिद्धो हेतुरिति चेत् ; तहि विधिपूर्वकस्य सधनवधस्य खारपटिकानां विहितानुष्ठानत्वेन हिंसाहेतुत्वं मा भूदिति सधनवधात् स्वर्गो भवतीति वचनं प्रमाणमस्तु"."-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 12 / ____ 1 विहितानुष्ठानस्य तत्सा-ब० / 25 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. प्रागमपरि० 'विहितानुष्ठानत्वात् श्रेयःसाधनत्वानुषङ्गः। अप्रामाण्यश्च ठकशास्त्रवद् वेदेऽप्यविशिष्टम्। अन्ये तु 'उपदेशो विधिः' इत्यामनन्ति / उपदेशशब्देन चे विषयो लिङादिः अभिधा चोच्यते / तत्र उपदिश्यते प्रत्याय्यते इत्युपदेशो विषयो यागादिः, उपदिश्यतेऽ नेन इत्युपदेशो लिङादिः, उपदेशनमुपदेशः अभिधा उच्चारणमुच्यते; तदप्यसङ्गतम् ; 5 ठकोपदेशस्यापि विधित्वप्रसङ्गात् / भवत्परिकल्पितप्रक्रियायाः “अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकामः" [ ] इत्यादिवत् ‘सधनं ब्राह्मणं हन्याभूतिकामः' इत्यादावपि तुल्यत्वात् / किञ्च, परानुग्रहप्रवृत्तस्य आप्तस्य वचनम् उपदेशः प्रसिद्धः / न च वेदे तथाविधः कश्चित् पुरुषोऽस्ति अपौरुषेयत्वाभावप्रसङ्गात् , तत्कथमस्यं उपदेशतापि ? 10 न खलु उपदेष्ट्रव्यतिरेकेण उपदेशः कदाचित्प्रतिपन्नः / गुरुवैद्याद्युपदेष्ट्रसद्भावे (1) चौरशास्त्रविहितत्वात् / (2) "उपदेश इति विशिष्टस्य शब्दस्योच्चारणम्"-शाबरभा० 1 / 1 / 5 / "ननु चोदनायाः प्रामाण्यं प्रतिज्ञातं कथमुपदेशस्य साध्यते ? अत आह-"चोदना चोपदेशश्च विधिश्चैकार्थवाचिनः ।"-मी० श्लो० स० 5 श्लो० 11 / "उपदेशो नियोज्यार्थकर्माप्रस्थितचोदना। प्रथितो गुरुवैद्यादौ नित्येऽपि न न कल्प्यते / / यद्यप्याज्ञाऽभ्यर्थना वेदेऽनुपपन्ना, उपदेशस्तु युज्यते। सोऽपि तद्वदेव प्रेरणात्मकश्चतुर्थो लोके प्रज्ञायते / तथाहि-आज्ञाऽभ्यर्थने हि नियोक्त्रर्थमनाहितनियोज्यफलं कर्म गोचरयतः / नियोज्यार्थं तूपदेशः / अनुज्ञा तु यद्यप्येवं क्वचित् तथापि प्रवृत्तपुरुषविषयत्वान्नोपदेशः / नियोज्यार्थकर्मगोचरमप्रवृत्तप्रवर्तनमुपदेशमाचक्षते धीराः / न हि गामभ्याज माणवकमध्यापय कुरुयथाभिमतमित्युपदेशप्रतीतिः / नापि भक्ष्यं चेत् (चर) ज्वरितः पथ्यमश्नीयादिति प्रतीतिः, भूयसा चैष पौरुषेयेषु कामार्थशास्त्रादिष्वाज्ञादिभिरनारूषितो लोके प्रज्ञायते, गोपालादिवचःसु च मार्गाख्यानपरेषु अनेन पथा गच्छेति / प्रदर्शनार्थञ्चेदम्, अतोऽर्थशब्दाभिधोच्चारणादिज्ञानञ्च कर्मकर्तृकरणभावसाधनेन उपदेशशब्देन उच्यते / प्रेषणादिवत् तैरपि हि यथाविवक्षितमर्थादयो निर्दिश्यन्ते"सिद्धान्तमुपक्रमते-उच्यते-उपदेशो नियो"उपदेशस्तु युज्यते तस्य अपौरुषयेऽपि संभवात् / न ह्यसौ नियोजकार्थकर्मेति वक्ष्यति, येन चेतनकर्तृक: स्यात, न चासौ न लौकिकः अप्रेरणात्मको वा येनाविधिः स्यादित्याहसोऽपि तद्वदेव आज्ञावदेव प्रेरणात्मकश्चतुर्थों लोके प्रज्ञायते / .." एतदुक्तं भवति-आज्ञाभ्यर्थनोपदेशाः कर्मणि प्रवृत्तिजननेन तद्गोचरयन्तो भवन्ति प्रेरणात्मतया समानाः / तेषामाज्ञाभ्यर्थनाभ्यां गोचरीक्रियमाणं कर्म अनादृतनियोज्यप्रयोजनमाज्ञापयितुरभ्यर्थयमानस्य वा प्रयोजनायावकल्प्यते। उपदेशगोचरस्तु कर्म अनादृतोपदेशकप्रयोजनमुपदेष्टव्यार्थमेवेत्ययम् आज्ञाऽभ्यर्थनाभ्यामुपदेशस्य भेदः, प्रेरणात्मकत्वं चेति नियोज्याथं कर्म यस्योपदेशस्य न त नियोक्त्रथं स तथोक्त इत्यक्षरयोजना। ..."अप्रस्थितस्य अप्रवृत्तस्य पुंसः प्रस्थापना चोदना" ननुपदेशो विधिः, स चार्थभेदाभिधायकः, शब्दः इति क्वचित्क्वचिद्च्चारणमाह शब्दस्योच्चारणमिति / क्वचिदर्थं विध्युद्देशेनैकवाक्यत्वादिति / वचिद्वचनम् चोदनेति क्रियायाः प्रवर्तक वचनमिति / क्वचित् ज्ञानं शास्त्रं शब्दविज्ञानादसन्निकृष्टेऽर्थे विज्ञानमिति, वार्तिककारश्च अभिधा भावनामाहुरित्यभिधामिति / अत आह-प्रदर्शनार्थ चेदं विशिष्ट: शब्दो विधिरिति / अतोऽर्थशब्दाभिधोच्चारणादिज्ञानं च कर्मकर्तकरणभावसाधनेनोपदेशशब्देन यथायथमुच्यते"-विधिवि०, टी०पृ० 238-241 / (3) कर्मकरणभावसाधनेषु क्रमशः। (4) ठकशास्त्रीयवाक्येष्वपि (5) परानुग्रहप्रवृत्तः। (6) अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम इत्यादि विधिवाक्यस्य / 1च प्रविषयो ब०12-उच्चारमुच्यते श्र०। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का०२६] विधिवादः 565 सत्येव 'भक्षं चर, ध्यानाध्ययने कुरु, ज्वरित औषधं पिबेत् , पथ्यमश्नीयात्' इत्याद्युप॑देशस्य प्रतीतेः / न च शब्द एव उपदेष्टा इत्यभिधातव्यम् ; अव्युत्पन्नस्याप्यतोऽर्थप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् / अथ शब्दार्थसम्बन्धव्युत्पत्तिसव्यपेक्ष एवासौ तत्त्वमुपदिशति; ननु कुतस्तव्युत्पत्तिः ? विशिष्टपुरुषाच्चेत् ; स एव उपदेष्टाऽस्तु किमनया परम्परया ? प्रतिषेत्स्यते च अपौरुषेयत्वमस्य अग्रे इत्यलमतिप्रसङ्गेन // छ॥ येपि विषयस्य यासौ कर्त्तव्यताप्रतीतिः सैव प्रवर्तकत्वाद्विधिः इति प्रतिजानते; नहि 'इदं मे कर्त्तव्यम्' इत्यप्रतिपद्यमानः कश्चित्प्रवर्त्तते इति; तेऽप्यसमीक्षितवचसः; यतः किं कर्त्तव्यताप्रतिपत्तिः निर्विशिष्टा प्रवृत्तिहेतुः, श्रेयःसाधनताविशिष्टा वा ? तत्राद्यैपक्षोऽयुक्तः; सर्वस्य सर्वत्र कर्त्तव्यताप्रतिपत्तिमात्रेण प्रवृत्तिप्रसङ्गात् , तथा च ब्राह्मणादिवधकर्त्तव्यताप्रतिपत्तिमात्रेण भवतस्तद्वधादावपि प्रवृत्तिः स्यात् / अथ श्रेयः- 10 साधनताविशिष्टा सा प्रवृत्तिहेतुः; तर्हि श्रेयःसाधनतैव प्रवृत्तिहेतुत्वाद् विधिः स्यान्न कर्त्तव्यता . तस्यास्तामन्तरेणाऽप्रवर्तकत्वात् / नचैतदप्युपपन्नम् ; श्रेयःसाधनतीयां विधित्वस्य प्रागेव प्रत्याख्यातत्वात् // छ / __ अपरेषां मतं प्रतिभैव प्रवर्तकत्वाद् विधिः / नहि प्रतिभाव्यतिरेकेण लिङा (1) "ननूक्तमुपदेश इति विशिष्टस्य शब्दस्योच्चारणम् ; यद्येवमव्युत्पन्नस्यापि प्रवृत्तिप्रसङ्गः। उच्यते-विशिष्ट: पुरुषार्थस्य शुद्धस्योपायमाह यः / पुरुषार्थो यदा येन यो नरेणाभिकाङक्ष्यते // पुरुषार्थस्योपायमनवगतमवगमयन्नुत्कर्षाद्विशिष्ट: शब्द उक्तः, अन्यथा सर्व एव शब्दः शब्दान्तराद् भिन्न इत्यविशेषणमेव स्यात् / अतो नाऽविदितार्थस्य प्रवृत्तिः ।"-विधिवि० पृ० 240 / (2) पुरुषार्थोपायताम् / (3) वेदस्य / (4) तुलना-"ननु कर्त्तव्यमिति प्रतिपत्तेः प्रवृत्तिः / अत्र केचिदाम्नायं प्रति श्राद्धमानिनः प्राहुः-ननु कर्तव्यमिति प्रतिपत्तेः प्रवृत्तिः / इदमाकूतम्-कार्यदर्शनोन्नेयप्रवृत्तयः खल्वमी लिङादयः / कार्यञ्च प्रवृत्तिलक्षणं वृद्धानां लिङादिश्रवणसमनन्तरमुपलभ्यते / तच्च बुद्धिपूर्वकं स्वतन्त्रप्रवृत्तित्वात् अस्मत्प्रवृत्तिवत् / अनुमिता च बुद्धिः अस्मत्प्रवृत्तिहेतुबुद्धिगोचरचारिणी प्रवृत्तिहेतुबुद्वित्वात् अस्मत्प्रवृत्तिहेतुबुद्धिवत् / तस्याश्च विषयं स्वयमेव चक्षुरुन्मील्य पिण्डिकरोगं (डिण्डिकरागं) परित्यज्य पर्यालोचयन्तः शब्दव्यापारपुरुषाशयतत्समीहिततत्साधनताव्युदासेन कर्तव्यतामेव प्रतिपद्यामहे / तथाहि-स्तनपानादावपि न जातु समीहितोपाय इत्येव प्रवृत्ताः स्मः, किन्तु कर्त्तव्यमेतदिति लिङादिश्रवणानन्तरा प्रवृत्तिः कर्तव्यताभिधानमेव लिङादीनामापादयति / तथा च विदितसङ्गतितया लिङादयो वेदेऽपि तामेवाभिदधते।"-विधिवि० टी० पृ० 244 / (5) तुलना-"नन्वपेक्षितोपायतामन्तरेण कर्तव्यमिति शतशोऽप्यभिधीयमानं न प्रवृत्तये कल्प्यत इत्यत आह-कथं हि तथा प्रतिपद्यमानो न प्रवर्तत ? शब्दस्तावत्कर्तव्यतायां विदितसङ्गतिः तामवगमयति / तथा नैमित्तिकनिषेधाधिकारयोरसौ प्रतीयमाना न शक्या नेति वक्तुम् ।"-विधिवि० टी० पृ० 245 / (6) ब्राह्मणवधादिनिषिद्धे कर्मणि। (7) कर्त्तव्यताप्रतिपत्तिः। (8) कर्तव्यताप्रतीतेः / (9) श्रेयःसाधनताम् / (10) श्रेयःसाधनताविशिष्टकर्तव्यताप्रतीतेविधित्वम् / (11) वैयाकरणानाम् / “अभ्यासात्प्रतिभाहेतुः शब्दः सर्वोपरैः स्मृतः। बालानां च तिरश्चां च यथार्थप्रतिपादने // 119 // विच्छेदग्रहणेऽर्थानां प्रतिभाऽन्यैव जायते / वाक्यार्थ इति तामाहः पदार्थैरुपपादिताम् // 145 // इदं तदिति साऽन्येषामनाख्येया कथञ्चन / 1-त ओषधं आ०। 2-पदेशप्रतीतेः आ०। 3-द्यः प-श्र०, ब०। 4-क्तः सर्वत्र आ० / 5-ताया विधि-ब०, श्र०। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० दिव्यापारोऽपि बलवत्सलिलसमीरणन्यायेन पुरुषं प्रवर्त्तयति सर्वस्य प्रवृत्तिप्रसङ्गात् / नापि विषयप्रतिपत्तिमात्रम् ; अत एव / अतो या काचित् प्रवृत्तिः सा सर्वा प्रतिभासमानाकारनिर्णयरूपप्रतिभापूर्विकैव / नैहि प्रतिभातेऽप्यर्थे यावत् सुखसाधनमिदमिति प्रतिभा नोत्पद्यते तावत् कश्चित् प्रवर्त्तते / अतः साधनविशेषे पुरस्कृते क्रिया। विशेषपरिस्फुरणं प्रतिभा / उक्तञ्च-" विशिष्टसाधनाव्यवच्छिन्नक्रियाप्रतीत्यनुकूला प्रज्ञा प्रतिभाँ” [ विधिवि० पृ० 246 ] इति; तदप्यसारम् ; यतः सिद्धे प्रतिभास्वरूपे विधिरूपता स्यात् / न च भवत्प्रतिपादितं प्रतिभायाः स्वरूपं युक्तम् / इन्द्रियादिबाह्यसामग्रीनिरपेक्षं हि मनोमात्रसामग्रीप्रभवम् अर्थतथाभावप्रकाशं ज्ञानं प्रतिभेति प्रसिद्धम्-'श्वो मे भ्राता आगन्ता' इत्यादिवत्, न पुनः प्रतिभासमानाकारनिर्णय10 रूपतामात्रम् , निर्विकल्पकाध्यक्षोत्तरकालभाविनः सविकल्पकप्रत्यक्षस्यापि तद्रूपतया प्रतिभात्वानुषङ्गात् , तथा च सविकल्पकप्रत्यक्षवार्लोच्छेदः स्यात् / यदपि साधनविशेषे क्रियविशेषपरिस्फुरणम् ; ततिक पूर्वाहितसंस्कारवशात् , 'प्रत्यक्षादिप्रमाणव्यापारानुसारतः, चोदनातः, श्वो मे भ्रातेत्यादिवत् मनोमात्रतो वा स्यात् ? तत्राऽन्त्यविकल्पोऽयुक्तः; अश्रुतचोदनावाक्यस्य यागादिसाधने क्रियाविशेप्रत्यात्मवृत्तिसिद्धा सा कापि न निरूप्यते // 146 / / उपश्लेषमिवार्थानां सा करोत्यविचारिता / सार्वरूप्यमिवापन्ना विषयत्वेन वर्तते // 147 // साक्षाच्छब्देन जनितां भावनानुगमेन वा। इतिकर्तव्यतायां तां न कश्चिदतिवर्तते // 148 // प्रमाणत्वेन तां लोकः सर्वः समनुपश्यति / समारम्भाः प्रतीयन्ते तिर. ३चामपि तद्वशात् ।।१४९॥"-वाक्यप० 2 / 119, 145-49 / (1) सर्वस्य श्रोतुः प्रवृत्तिप्रसङ्गादेव। (2) प्रतिभासमानाकारो यो निर्णयः तद्रूपा प्रतिभा -आ० टि०। (3) तुलना-"न हीदमित्थमनेन कर्त्तव्यमित्यनुपजातप्रतिभाभेदः प्रवर्तते प्रत्यक्षाद्यवगतेऽप्यर्थे / तत्र हि प्रमाणकार्यसमाप्तिः / प्रतिभानेत्रो हि लोक इतिकर्तव्यतासु समीहते।"-विधिवि० 10247-48 / (4) यागादौ-आ० टि०। (5) साधनविशेषमदृिश्य कर्त्तमध्यवसिते-आ० टि। (6) व्याख्या-"न हि ते प्रतिभाविदः ये संवेदनमनिश्चयात्मकं प्रतिभामाचख्युः / संशयो हि सः / वयं त साध्यसाधनेतिकर्तव्यतावच्छिन्नायाः क्रियायाः प्रतिपत्तावनुकूलां तत्प्रतिपत्या कार्येऽनुष्ठानलक्षणे कर्तव्ये सहकारिणीं कर्तव्यमिति प्रज्ञा प्रतिभामध्यगीष्महि ।"-विधिवि० टी० पृ० 247 / "नियतसाधनावच्छिन्नक्रियाप्रतिपत्त्यनुकुला प्रज्ञा प्रतिभा"-तत्त्वसं० पं०१० 286 / (7) तुलना"आम्नायविधातृणामृषीणामतीतानागतवर्तमानेष्वतीन्द्रियेष्वर्थेषु धर्मादिनिबद्धेषु ग्रन्थोपनिबद्धेषु च आत्ममनसोः संयोगाद् धर्मविशेषाच्च यत् प्रातिभं यथार्थनिवेदनं ज्ञानमुत्पद्यते तदार्षमित्याचक्षते / तत्तु प्रस्तारेण देवर्षीणाम् / कदाचिदेव लौकिकानां यथा कन्यका ब्रवीति श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति हृदयं मे कथयतीति ।"-प्रश० भा० पृ० 258 / "प्रमाणं प्रतिभं श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति दृश्यते ।"-न्यायमं० पृ० 106 / "प्रतिभा ऊहः तद्भवं प्रातिभम्"-योग० तत्त्ववै० 3 / 33 / "प्रातिभं स्वप्रतिभोत्थमनौपदेशिक ज्ञानम्।"-योगवा० 3 / 33 / "तत्र दृष्टकारणं विनैव अकस्माद् व्यवहितविप्रकृष्टातीतानागतसूक्ष्माद्यर्थस्फरणे सामर्थ्य प्रतिभा।"-योगसं० 1055 / "इन्द्रियलिङ्गाद्यभावे यदर्थप्रतिभानं सा प्रतिभा"-प्रश. कन्व० पृ०२५८ "प्रज्ञा नवनवोल्लेखशालिनी प्रतिभाऽस्य धीः।"-अलं० चि००२। (8) आलोचनाज्ञान-आ० टि०। (९)निर्णयरूपतया। (१०)अग्निहोत्रं जहयात् इत्यादि प्रवर्तकं हि वाक्यं चोदना। 1 क्रियाविशेषो न पुरुषं प्रवर्तयति सर्वस्य प्रवत्तिप्रसंगात परिस्फरणं ब० सिद्धःप्र-श्र। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का० 26 ] विधिवादः 567 षस्य स्वप्नेऽप्यस्फुरणात् / प्राक्तनविकल्पत्रये तु प्रतिभात्वं विरुद्ध्येत, अन्यथा संस्कारादिभ्यः समुत्पन्नानां स्मैत्यादीनामपि प्रतिभात्वानुषङ्गात् तैदेवैकं प्रमाणं स्यात् ॥छ।। "केचिर्दै भक्तिरेव प्रवर्तकत्वाद् विधिः इत्याचक्षते / म खलु श्रद्धापरपर्यायां भक्तिं विना परमात्मश्रवणानुमननध्यानादौ यागादौ वा प्रवृत्तिः संभवति / तदुक्तम् "अनवच्छिन्नपूर्णत्वस्पर्शी नो भक्तितो विना / '' [ ] ___ भक्त्यंशानुप्रेवेशेनैव च शास्त्रस्यापि राजशासनाद्भेदः / तद्धि अन्तर्भक्तिशून्यं राजभयादीनामेव अन्तःपरिस्फुरणात् / उक्तञ्च "तया शून्यं भवेत् पुंसां शास्त्रं शासनमात्रकृत् / भक्तयंशेन च तद्भिन्नं लोके राजानुशासनात् // ' [ ] इति / तदप्यसम्यक् ; यस्मादुत्पन्ना सती भक्तिः प्रवृत्तिनिमित्तं स्यात् , उत्पत्तिश्चास्याः 10 शब्दात् , निग्रहानुग्रहसमर्थपुरुषविशेषाद्वा ? न तावच्छब्दादेव; “द्रष्टव्योरेयमात्मा" [वृहदा० 4 / 5 / 6 ] इत्यादिशब्दश्राविणोऽशेषस्यापि प्रतिपत्तुः आत्मादौ भक्तयुत्पत्तिप्रसङ्गात् तदर्शनादौ प्रवृत्तिः स्यात् / तच्छब्दश्रवणाविशेषेऽपि अशेषस्य तदनुत्पत्तौ नौसौ तन्मात्रहेतुका / यद विशेषेऽपि यन्नोत्पद्यते न तत् तन्मात्रहेतुकम् यथा अविशिष्टेऽपि बीजे अनुत्पद्यमानोऽङ्करः, नोत्पद्यते च अविशिष्टेऽपि शब्दे तच्छब्दश्राविणोऽशेषस्य आत्मादौ 15 भक्तिरिति / अथ निग्रहानुग्रहसमर्थात् पुरुषाविशेषादभिमतं फलं वाञ्छतां सोत्पद्यते; युक्तमेतत् ; तस्या एव भक्तिशब्दवाच्यत्वप्रसिद्धः / अपौरुषेयत्वं तु वेदस्याऽयुक्तम् , तस्येत्थं : पौरुषेयत्वप्रसिद्धेः / ॐनवच्छिन्नपूर्णत्वधर्मोपेतस्य चात्मनः ब्रह्माद्वैतप्रघट्टके प्रत्याख्यातत्वात्कथं कस्यचित्तत्र तथाविधपुरुषादन्यतो वा खरविषाणांदिव भक्तिः स्यात् // छ / (1) आदिपदेन प्रत्यक्षव्यापार-शब्दौ ग्राह्यौ। (2) यथा [ क्रमं ] स्मृत्यनुमानशब्दानाम् -आ० टि०। (3) प्रतिभाख्यम् / (4) “एवं च सति लिङादेः कोऽयमर्थः परिगृहीत इति चेत् ; यज् देवपूजायामिति देवताराधनभूतयागादेः प्रकृत्यर्थस्य कर्तृव्यापारसाध्यतां व्युत्पत्तिसिद्धां लिङादयोऽभिदधतीति न किञ्चिदनुपपन्नम्।"-वेदार्थ०१० 225 / (5) "भक्तिस्तु निरतिशयानन्दप्रियानन्य प्रयोजनसकलेतरवतृष्ण्यवज्ज्ञानविशेष एव ।"-सर्वद० 10344 / वेदार्थ० पृ० 152 / (6) राज्यशासनम् / (7) श्रद्धया। (8) शास्त्रम् / (9) "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनि खल्वरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इदं सर्व विदितम् ।"-बृहदा० 2 / 4 / 5, 4 / 5 / 6 / (10) आत्मदर्शनश्रवणभनननिदिध्यासनेषु / (11) भक्तिः / (12) शब्दश्रवणमात्रनिबन्धना। (13) भक्तिः न शब्दश्रवणमात्रहेतुका शब्दश्रवणेऽपि अनुत्पद्यमानत्वात् / (14) समर्थेश्वराराधनायाः / (15) यदि / वेदः ईश्वराराधनरूपां भक्तिं विदधीत तदा धर्मेऽपि ईश्वरस्यैव प्रामाण्यं स्यात् तथा च वेदस्य अपौरुषेयत्वव्याघातः, ईश्वरस्य निग्रहानुग्रहकरणवत् वेदकर्तृत्वमपि स्यादिति भावः / (16) निरुपाधिपूर्वत्वविशिष्टस्य ब्रह्मणः। (17) पृ० 150- / (18) ब्रह्मणि / (19) ईश्वरात् / (20) वेदवाक्यादेर्वा / _1-प्यप्रस्फुरणात् ब० / 2 केचित्तु भ-ब० / 3 भक्ति सैव न त-ब० / 4 प्रवृत्तेनिमि-श्र०।। तत्तच्छब्द-श्र० 6-मतफलं श्रग तस्यै एव ब०। 8-त्वप्रतिसिद्धेः आ०19-णादिवभक्तिः श्रा Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम 568 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. अागमपरि० ___ इच्छाप्रयत्नप्रभृतयोऽपि विधिप्रकाराः प्रागुक्तप्रकारेणैव प्रत्याख्येयाः; विषयफैलादिनिरपेक्षाणां तेषामपि पुरुषप्रवृत्तिहेतुत्वाभावतो विधिरूपतानुपपत्तेः। तत्सापेक्षाणां तु प्रवृत्तिहेतुत्वे कथं तेषामेव विधित्वं स्यात् विषयादीनामपि तत्प्रसङ्गात् ? ततः पर परिकल्पितस्वरूपस्य विधेर्विचार्यमाणस्यानुपपत्तेः न तस्यापि शब्दार्थता घटते / अतः 5 तेद्वानेव शब्दार्थोऽभ्युपगन्तव्यः / इति सूक्तम्-'प्रमाणं श्रुतमर्थेषु' इत्यादि / 'श्रुतज्ञानम्' इत्यादिना कारिकां व्याचष्टे-श्रुतज्ञानं शब्दज्ञानं वक्त्रभिप्रायादलिन थान्तरेऽपि बहिरर्थेऽपि न केवलं तदभिप्राय एव प्रमाणम् / तद ___ नभ्युपगमे दूषणमाह-'कथम्' इत्यादि। कथम् ? न कथञ्चिद् अन्यथा बहिरर्थे तत्प्रामाण्याभावप्रकारेण प्रतिपत्तुमर्हति सौगतोऽन्यो वा / किमित्याह10 द्वीपदेशनदीपर्वतादिकम् / कथम्भूतम् ? अदृष्टस्वभावकार्यम् , अप्रत्यक्षाऽननुमेयस्वरूप मित्यर्थः / पुनरपि कथम्भूतम् ? देशान्तरस्थम् / केन प्रकारेण ? दिग्विभागेन / यथा दक्षिणदिग्विभागे सिंहलद्वीप उत्तरदिग्विभागे हिमवानिति / तमित्थम्भूतमर्थ दिग्विभागेन कथन्न प्रतिपत्तुमर्हति ? इत्याह-निरारेकमविसंवादश्च यथा भवति तथेति / ननु चार्थाभावेऽपि श्रुतेः प्रायः प्रवृत्तिदर्शनान्न कचिदप्यसौ प्रमाणमित्याशङ्कयाह15 प्रायः श्रुतेर्विसंवादात् प्रतिबन्धमपश्यताम् / सर्वत्र चेदनाश्वासः सोऽक्षलिङ्गधियां समः // 27 // विवृतिः-नहीन्द्रियज्ञानम् अंभ्रान्तमव्यभिचारीति वा विशेषणमन्तरेण प्रमाणमतिप्रसङ्गात् / तथाविशेषणे श्रुतज्ञाने कोऽपरितोषः 1 यथा कृत्तिकादेः शकटादिज्ञानं (1) “अतः सिद्धं न तार्किकरीत्या इष्टसाधनत्वे लिङाद्यर्थत्वमपि तु पूर्वोक्तरीत्या प्रवर्तकेच्छाया एव ।"-भाट्टरह० पृ०८। (2) तुलना-"अपरे पुनर्लिङादिशब्दश्रवणे सति समुपजायमानमात्मस्पन्दविशेषमुद्योगं नाम वाक्यार्थमाचक्षते; तत्स्वरूपं तु न वयं जानीम; कोऽयमात्मस्पन्दो नाम बुद्धि स्यात् प्रयत्नो वा इच्छाद्वेषयोरन्यतरो वा।"-न्यायमं० 10365 / (3) विषयः अग्निष्टोमादियागः / (4) फलं स्वर्गादि। (5) इच्छाप्रयत्नादीनामपि। (6) विषयफलादिसापेक्षाणाम् / (7) इच्छाप्रयत्नादीनामेव / (8) विधित्वप्रसङ्गात्, तच्च पूर्वं निराकृतमिति / (9) सामान्यविशेषात्माऽर्थ एव / (10) श्रुति: आगमज्ञानम्। (11) "चेद् यदि भवेत् / कः ? अनाश्वासः अविश्वासः / क्व ? सर्वत्र अविसंवादिश्रुतिप्रामाण्ये। केषाम् ? प्रतिबन्धमपश्यतां शब्दार्थयोः सहजयोग्यतालक्षणं सम्बन्धमनीक्षमाणानां सौगतानाम् / कस्मात् ? विसंवादात् / कस्याः ? श्रुतेः आगमस्य / कथम् ? प्रायः क्वचित्कदाचिदित्यर्थः / तदा सोऽनाश्वासः समः समानः / कासाम् ? अक्षलिङ्गधियाम्, अक्षमिन्द्रियं लिङ्गं हेतुः ताभ्यां जनिता धियो ज्ञानानि तासामपि प्रसक्तमित्यर्थः क्वचित्कदाचिद्विसंवाददर्शनात् / " -लघी० ता० पृ० 47 / (12) इन्द्रियज्ञानस्य लक्षणे 'अभ्रान्तम्' इति विशेषणं सौगतैः प्रयुज्यते"कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्।" [न्यायबि०१४] इत्यभिधानात् / (13) प्रत्यक्षलक्षणे 'अव्यभिचारि' इति विशेषणं नैयायिकापेक्षया ज्ञेयम् / "इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मक ज्ञानं प्रत्यक्षम् / " [न्यायसू० 13114] इत्युक्तत्वात् / (14) अभ्रान्तादिविशेषणविशिष्टे / 1-तयो विधिप्रभृतयो वि-आ० / 2 तुतत्प्र-ब०, श्र०। 8-ज्ञानं वक्त्र-श्र०। 4 दिग्भा-श्र०। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 27 ] श्रुतस्य प्रमाणत्वसमर्थनम् 566 यानम स्वभावप्रतिबन्धमन्तरेण तथैव अदृष्टप्रतिबन्धार्थाभिधानं ज्ञानमविसंवादकम् / ने हि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम / क्वचिद्व्यभिचारात् साकल्येनानाश्वासे वैकभिप्रायेऽपि वाचः कथमनाश्वासो न स्यात् तत्रापि व्यभिचारसंभवात् / तथानिच्छतः श्रुतिकल्पनादुष्टादेः उच्चारणात् / प्रायो बाहुल्येन श्रुतेः शब्दस्य तज्ज्ञानस्य वा विसंवादात् सर्वत्र सत्य- 5 ____ श्रुतावपि चेद् यदि अनाश्वासः / केषाम् ? अपश्यतां कारिकाव्याख - सौगतानाम् / किम् ? इत्याह-प्रतिबन्धम् , सम्बन्धं सन्तमपि योग्यतारूपमविनाभावम् , [सः] सर्वत्रानाश्वासः अक्षलिङ्गधियां समः तासामपि प्रायो विसंवाददर्शनादित्यभिप्रायः / व्यतिरेकमुखेन कारिका व्याचष्टे 'नहि' इत्यादिना / नहि नैव इन्द्रियज्ञानं 10 प्रमाणम् / केन विनेत्याह-अभ्रान्तमव्यभिचारीति वा विशेषणविवृतिव्याख्यानम् - मन्तरेण, तद्विशेषणे सत्येव तत्प्रमाणमिति / कुत एतदित्याह-अतिप्रसङ्गात, द्विचन्द्रादिज्ञानस्यापि प्रामाण्यप्रसङ्गात् / नहि निर्विशेषणस्य ज्ञानमात्रस्य प्रामाण्याभ्युपमे द्विचन्द्रादिज्ञानस्य प्रामाण्यव्यवच्छेदः कर्तुं शक्यः / अथ तैद्विशेषणे सत्येव तत्प्रमाणं तेनायमदोषः; अत्राह-'तथा' इत्यादि / तथा अभ्रान्ताऽव्यभिचारि- 15 प्रकारेण विशेषणे ईन्द्रियज्ञानस्य अङ्गीक्रियमाणे श्रुतज्ञाने कोऽपरितोषः 1 तस्यापि तद्विशेषणविशिष्टस्यैव प्रामाण्यमस्तु / ननु इन्द्रियज्ञानस्य अर्थकार्यत्वात् युक्तम् अभ्रान्तत्वमव्यभिचारित्वं वा न पुनः श्रुतज्ञानस्य विपर्ययात्; इत्यत्राह-'यथा' इत्यादि / यथा येन योग्यताप्रकारेण कृत्तिकादेः सकाशात् यत् शकटादिज्ञानं तत् स्वभावप्रतिबन्धमन्तरेण, स्वभावप्रतिबन्धशब्देन तादात्म्यप्रतिबन्धस्तदुत्पत्तिसम्ब- 20 न्धश्च गृह्यते 'स्वो भावः कारणम्' इति व्युत्पत्तेः, तमन्तरेण अविसंवादकं तथैव तेनैव प्रकारेण अदृष्टप्रतिबन्धार्थाभिधानज्ञानम् अदृष्टः तादात्म्यादिप्रतिबन्धो यस्मिन् अर्था (1) तुलना-"स्वभावेऽध्यक्षतः सिद्धे परैः पर्यनुयुज्यते / तत्रोत्तरमिदं वाच्यं न दृष्टेऽनुपपन्नता।" -प्रमाणवातिकालं० 50 68 / “न हि दृष्टेऽनुपपन्नता।"-धवला० टी० पृ० 320 / (2) तुलना"विवक्षाप्रभवं वाक्यं स्वार्थे न प्रतिबध्यते / यतः कथं तत्सूचितेन लिङ्गेन तत्त्वव्यवस्थितिः। वक्त्रभिप्रायमात्रं वाक्यं सूचयन्तीत्यविशेषेणाक्षिपन् न पारम्पर्येणापि तत्त्वं प्रतिपद्येत / न च वक्त्रभिप्रायमेकान्तेन सूचयन्ति श्रुतिदुष्टादेरन्यत एव प्रसिद्धः ।"-सिद्धिवि० पृ० 264 / (3) अभ्रान्तादिविशेषणसहितत्वे / (4) इन्द्रियज्ञानादिकम् / (5) अभ्रान्तादिविशेषणयुक्तस्यैव / (6) अर्थमन्तरेणापि अतीतानागतादौ शब्दप्रयोगदर्शनात् / (7) तुलना-"स्वभावप्रतिबन्धे हि सत्यर्थोऽर्थं गमयेत् / तदप्रतिबद्धस्य तदव्यभिचारनियमाभावात्।"-न्यायबि०१०४०। 1-र्थभि-ज० वि०। 2-धानमवि-ई० वि०। श्रुतकल्प-ई०वि०।-स्य ज्ञानस्य श्र० / 5 प्रतिसंबंधं आ० / 6-श्वासः तासामपि श्र०। 7-रीतिविशे-आ० / 8 इन्द्रियस्य श्र० / -शात् शक-आ० / 10-तिप्रतिबन्ध-ब०।11-वादकत्वं त-श्र। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 600 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० भिधानज्ञाने तत्तथोक्तम् , तदित्थम्भूतं ज्ञानमविसंवादकम् / कुत एतदित्याह-'नहि' इत्यादि / हिर्यस्मात् न दृष्टे ग्रहोपरागादौ श्रुताविसंवादकत्वे अनुपपनं नाम / इन्द्रियज्ञानाविसंवादकत्वेऽपि अनुपपन्नत्वप्रसङ्गात् / बहिरर्थे अस्य प्रायो व्यभिचारदर्शनात् सर्वत्रानाश्वासे च वक्त्रभिप्रायेऽपि प्रामाण्यन्न स्यादिति दर्शयन्नाह-'क्वचिद्' इत्यादि / क्वचित् नियते विषये व्यभिचारात् साकल्येनाऽनाश्वासे श्रुतेरङ्गीक्रियमाणे वक्त्रभिप्रायेऽपि न केवलं बहिरर्थे वाचः कथमनाश्वासः साकल्येन न स्यात् ? अपि तुस्यादेव। कुत एतदित्याह-'तत्रापि' इत्यादि / तत्रापि वक्त्रभिप्रायेऽपि व्यभिचारसंभवात् / एतदेव दर्शयन्नौह-'तथा' इत्यादि / येन हि ‘या भवतः प्रिया' इत्यादि प्रकारेण 'परं प्रहृत्य विश्रान्तः पुरुषो वीर्यवान्' इत्यादिप्रकारेण च श्रुतिदुष्टं कल्पनादुष्ट10 श्वोक्तं तथा तेन प्रकारेण अनिच्छतः तथाभिप्रायरहितस्यापि श्रृंतिकल्पनादुष्टादेः आदिशब्देन गोत्रस्खलनादिपरिग्रहः उच्चारणात् भाषणात् / किञ्च आप्तोक्तहेतुवादाच बहिराविनिश्चये।। सेत्येतरव्यवस्था का साधनेतरता कुतः // 28 // विवृतिः-नहि पुरुषार्थाभिसन्धयः सर्वेऽर्थान् व्यभिचरन्ति, अन्यथा वागर्थव्य15 भिचारैकान्तसंभवात् / वाचोऽभिप्रायविसंवादे कुतस्तदनुमानम् ? सुगतेतरयोः आप्ते तरव्यवस्था कुतश्चित् साधनासाधनाङ्गव्यवस्था वा स्वयमुपजीवन् “वक्तुरभिप्रेतं तु वाचः सूचयन्ति अविशेषेण नार्थतत्त्वमपि" [ ] इति कथमविक्लवः ? (1) श्रुतस्य / तुलना-"अपि चान्यविवक्षायामन्यशब्ददर्शनात् विवक्षायामपि क्वचिद्वयभिचारात सर्वत्रानाश्वासात् कथं विवक्षाविशेषसूचका अपि ते स्युः।"-सन्मति० टी० पृ० 266 / (2) अन्यविवक्षायामन्यशब्दोच्चारणमपि प्रतीयते यथा देवदत्तविवक्षायां यज्ञदत्तोच्चारणं गोत्रस्खलनेऽनुभूयते। (3) श्रुतिदुष्टं श्रुतिकटु / 'श्रुतिकटु परुषवर्णरूपम् दुष्टम् ।"-काव्यप्र० पू०२६७ / 'या भवतः प्रिया' इत्यत्र शृङ्गाररसवर्णनावसरे निषिद्धस्य रेफस्य प्रयोगादेव श्रुतिकटुत्वं ज्ञेयम् / 'प्रिया' इत्यत्र 'रेफसंयोगः स्पष्ट एव। (4) कल्पनादुष्टञ्च विरुद्धकल्पनायुक्तत्वात् अनुचितकल्पनाशालित्वाद्वा बोध्यम् / 'परं प्रहृत्य' इत्यत्र हि यदा वीर्यवान् पुरुषः परं प्रहृत्य प्रहारानन्तरं विश्रान्तः विशेषण श्रान्तः क्लान्तः तदा तस्य वीर्यवत्त्वेन वर्णनमनुचितमेव / यदि हि प्रहारानन्तरं क्लान्तः कथं वीर्यवान् ? क्लान्तत्ववीर्यवत्त्वयोविरोधात् / (5) "अयमर्थ:-आप्तोक्तेर्बहिराविनिश्चये सुगतेतरवचनयोः सत्येतरव्यवस्था का अर्थाविषयत्वाविशेषात् / हेतुवादाच्च बहिराविनिश्चये साधनेतरता कुतः बहिरर्थशून्यत्वाविशेषादिति ।"-लघी० ता० पृ०४८। सत्येतरव्यवस्था हि बाह्यार्थप्राप्त्यप्राप्तिनिबन्धनैव, तथा चोक्तम्-आप्तमीमांसायाम् (का० 87) "बुद्धिशब्दप्रमाणत्वं बाह्यार्थे सति नासति / सत्यानतव्यवस्थैवं युज्यतेऽर्थाप्त्यनाप्तिषु / " तुलना-"वाक्यानामविशेषेण वववभिप्रेतवाचिनाम् / सत्यानतव्यवस्था न तत्त्वमिथ्यात्वदर्शनात् // मिथ्यादर्शनज्ञानात् मिथ्यार्थत्वं गिरां मतम् ।"-सिद्धिवि० 10 502 / (6) तुलना-"नान्तरीयकताभावाच्छब्दानां वस्तुभिः सह नार्थसिद्धिस्ततस्ते हि वक्त्रभिप्रायसूचकाः / / 3212 // वक्तव्यापारविषयो योऽर्थो बुद्धौ प्रकाशते / प्रामाण्यं तत्र शब्दस्य नार्थतत्त्व 1-तं तज्ज्ञान-ब०, श्र०। 2-प्राये प्रामा-आ०, श्र०।-नाह येन हि आ० / 4 स्वभावतः ब०। 6-ण श्रु-ब०। 6 श्रुतविकल्पना-आ०, श्र०। 7-दिग्रहपरिग्रहः श्र०। 8 सर्वर्थान् ज० वि० / Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्र० का 0 28 ] श्रुतस्य प्रमाणत्वसमर्थनम् 601 यो यस्याऽवञ्चकः स तस्य आप्तः तदुक्तेः तद्वचनात् हेतुवादाच लिङ्गादिकारिकाव्याख्यानम् __वचनाच्च बहिराविनिश्चये अङ्गीक्रियमाणे सत्यं सुगतवचनम् * इतरदसत्यं कपिलादिवचनम् तयोः व्यवस्था का ? न काचित् , सर्वमसत्यमेव स्यात् / अतः सुगतवचनादपि न कचित्प्रवृत्तिः स्यात् / तथा साधनेतरता कुतः ? पक्षादिवचनानि साधनम् , इतरत् तद्रूषणवचनं तयोर्भावस्तत्ता सापि कुतः ? 5 नैव स्यात् / तथा च यत् सत्तत् सर्वं क्षणिकम्' इत्यादेरसाधनाङ्गतया निग्रहस्थानता स्यादित्यभिप्रायः। व्यतिरेकद्वारेण कारिकार्थमाह-'नहि' इत्यादिना / न खलु पुरुषाभिसन्धयः __ पुरुषाभिप्रायाः सर्वे अर्थान् व्यभिचरन्ति / कुत एतदित्याह-'अन्यथा' विवृतिव्याख्यानम् - इत्यादि / अन्यथा तेषां तद्वयभिचारप्रकारेण वागर्थव्यभिचारैका- 10 न्तसम्भवात् , वाचामर्थस्य बाह्यस्य अन्यस्य वा यो व्यभिचारैकान्तः तस्य संभवात् / वाचोऽभिप्रायविसंवादे सति कुतः न कुतश्चित् तस्य अभिप्रायस्य अनुमानम् / अथेदानी परस्योन्मत्तचेष्टितं 'सुगत' इत्यादिना दर्शयन्नाह-सुगतस्य हि आतत्वव्यवस्था निबन्धनम् // 24 // यद्यथा वाचकत्वेन वक्तृभिविनियम्यते / अनपेक्षितबाह्यार्थ तत्तथा वाचकं मतम ॥१६७॥"-प्रमाणवा० / “साक्षाच्छब्दान बाह्यार्थप्रतिबन्धविवेकतः / गमयन्तीति च प्रोक्तं विवक्षासूच. कास्त्वमी॥"-तत्त्वसं० पृ०७०२। “यथोक्तम्-वक्तुरभिप्रायं सूचयेयुः शब्दाः।"-तर्कभा० मो० 104 / (1) "आप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापयिषया प्रयुक्त उपदेष्टा। साक्षात्करणमर्थस्य आप्तिः तया प्रवर्तते इत्याप्तः।"-न्यायभा० ११७"आप्तिः साक्षादर्थप्राप्तिः यथार्थोपलम्भः तया वर्तत इत्याप्तः साक्षात्कृतधर्मा यथार्थप्राप्त्या श्रुतार्थग्राही / आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाद्विदुः / क्षीणदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयाद्धत्वसंभवात् / स्वकर्मण्यभियुक्तो यो रागद्वेषविजितः / पूजितस्तद्विधैनित्यमाप्तो ज्ञेयः स तादृशः।"-सांख्यका० माठर० पृ० 13 / 'यो यत्राविसंवादकः स तत्राप्तः परोऽनाप्तः तत्त्वप्रतिपादनमविसंवादः तदर्थज्ञानात्।"-अष्टश०, अष्टसह पृ० 236 / (2) "तत्र पक्षादिवचनानि साधनम्"-न्यायप्र० पृ० 1 / (3) “साधनदोषोद्भावनानि दूषणानि"-न्यायप्र० पू० 8 / (4) "तद्वत् प्रमाणं भगवान् यथाभिहितस्य सत्यचतुष्टयस्याविसंवादनात्तस्यैव परैरज्ञातस्य प्रकाशनाच्च।"-प्रमाणवा०, मनोरथ 129 / “तायित्वाच्च भगवतः सुगतस्य प्रामाण्यं तथाहि-"तायः स्वदृष्टमार्गोंक्तिः वैफल्याक्ति नानतम् / दयालुत्वात् परार्थञ्च सर्वारम्भाभियोगतः / तस्मात्प्रमाणं तायो वा चतुःसत्यप्रकाशनम् ।।-दुःखहेतुनिवर्तकत्वेन स्वयं दृष्टस्य मार्गस्योक्तिर्देशना तायः करणे कार्योपचारात् / तया हि सत्त्वान् तायते तद्योगात्तायित्वम् / स च वैफल्याक्ति नानृतम् / आत्मसुखाद्यभिलाषादिना कश्चिदसत्यं वदति अज्ञानाद्वा / प्रहीणात्मदर्शनस्य साक्षात्कृततत्त्वस्य तदुभयं नास्ति / विशेषतः सत्याभिधानहेतुरेव कृपास्तीत्याह-दयालुत्वाच्च परार्थञ्च सर्वस्य मार्गाभ्यासादेरारम्भेऽभियोगतः परार्थमेवोद्दिश्य भगवानभिसम्बुद्धः कथन्तस्य मिथ्याभिधानेन सत्त्ववञ्चनाशङ्काऽपि / तस्मात्तायित्वात् प्रमाणं भगवान् / यथादृष्टार्थप्रवक्तृत्वं हि संवादित्वमेवेति प्रथमप्रमाणलक्षणयोगात् प्रामाण्यमनेनोक्तम् / द्वितीयलक्षणयोगमप्याह-तायो वा चतुःसत्यप्रकाशनम् / परैरज्ञातस्य सत्यचतुष्टयस्य प्रकाशनं वा तायः तद्योगात् तायी प्रमाणं भगवानुक्तः ।"-प्रमाणवा०, मनोरथ०१२१४७-४८ / “तत: सुगतमेवाहुः सर्वज्ञं मतिशालिनः। प्रधानपुरुषार्थशं तं चैवाहुभिषग्वरम् ॥"-तत्त्वसं० पृ० 878 / 26 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [ 4. भागमपरि० कुतश्चिद् अनुपदेशाऽलिङ्गाविसंवादिचतुरार्यसत्योपदेशात् कपिलादेस्तु अनाप्तत्वव्यवस्था विसंवादिप्रधानादितत्त्वोपदेशात् स्वयम् आत्मना उपजीवन् , साधनासाधनाङ्गव्यवस्थां वा, त्रिरूपहेतुवचनस्य हि स्वसाध्यसिद्ध्यङ्गव्यवस्था पक्षादिवचनस्य तु तदसिद्ध्यङ्गव्यवस्था तां वा उपजीवन् “वक्तुरभिप्रेतं तु वाचः सूचयन्ति अविशेषण नार्थतत्त्वमपि"[ ] इति एवं ब्रुवामो धर्मकीर्त्यादिः कथमविक्लवः स्वस्थः ? अत्राह सौगतः-वक्त्रभिप्रायेऽपि यदि वचनस्य प्रामाण्यन्नास्ति, मा भूत् ; किन्नष्टं प्रमाणद्वयवादिनः ? व्यवहारिजनानुरोधादेव तंत्र तस्य प्रामाण्याभ्युपगमादित्याशङ्क्याह "पुंसश्चित्राभिसन्धेश्चेद् वागर्थव्यभिचारिणी।। कार्य दृष्टं विजातीयाच्छक्यं कारणभेदि किम् ? // 29 // विवृतिः-श्रुतेर्बहुलं बहिराविसंवादेऽपि तदर्थप्रतिबन्धासिद्धेः वक्त्रभिप्रायानुविधायिन्याः सर्वत्र तदर्थानाश्वासः इति चेदुक्तमत्र-'तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यां विनापि परोक्षार्थप्रतिपत्तेरविसंवादः' इति / अपि च वृक्षोऽयं शिंशपात्वात् अग्निरत्र धूमादिति वा कथमाश्वासः? क्वचिल्लताचूतादेरुपलब्धेः शिंशपायाः स्वयमवृक्षत्वेऽ प्यविरोधात् , काष्ठजन्मनो मण्यादिसामग्रीप्रभवस्य अशनिजन्मनः तदर्थान्तर15 जन्मनश्च साकल्येन अग्निस्वभावाविरोधे पुनः अग्निजन्मैव धूमः नार्थान्तरजन्मा इति कुतोऽयं नियमः ? यतः कार्यहेतोरव्यभिचारात् 'धूमादग्निरत्र' इत्याश्वासः / कस्यचिदन्यथानुपपत्त्या परोक्षार्थप्रतिपत्तौ श्रुतज्ञानस्य स्वयमदृष्टतादात्म्यतदुत्पत्तेः (1) "चत्वार्यायसत्यानि, तद्यथा दुःखं समुदयो निरोधो मार्गश्चेति ।"-धर्मसं० पृ० 5 / "सत्यान्युक्तानि चत्वारि दुःखं समुदयस्तथा / निरोधो मार्ग एतेषां यथाभिसमय क्रमः ॥"-अभिधमको०६२। (2) "अथवा साध्यते येन परेषामप्रतीतोऽर्थ इति साधनं त्रिरूपहेतुवचनसमुदायः, तस्याङ्गं पक्षधर्मादिवचनं. 'अथवा तस्यैव साधनस्य यन्नाङ्गं प्रतिज्ञोपनयनिगमनादि . ."-वादन्याय० पृ०६१। (3) वक्त्रभिप्राये। (4) शब्दस्य / (5) तुलना-"विचित्राभिसन्धितया व्यापारव्याहारादिसांकर्येण क्वचिदप्यतिशयानिर्णये कैमर्थक्याद्विशेषेष्टि: ज्ञानवतोऽपि विसंवादात् क्व पुनराश्वासं लभेमहि ।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० 71 / "चेद्यदि, वागाप्तवचनम्, अर्थव्यभिचारिणी बाह्यार्थाविसंवादिनी स्यात् / कस्मात् ? चित्राभिसन्धेः चित्रः सत्यासत्यादिरूपो नानाभिसन्धिरभिप्रायो विवक्षा तस्मात् / कस्य ? पुंसो वक्तुः 'सरागा अपि वीतरागवच्चेष्टन्ते' इति वचनात् / तर्हि विजातीयादपि कारणात् कार्यं दृष्टमविरुद्धं स्यात् / ततस्तत् कारणभेदि कारणं प्रतिनियतं स्वात्मलाभनिबन्धनं भिनत्ति विजातीयाद्विशिनष्टीत्येवं शीलं किं शक्यं स्यात् ? न स्यादेवेत्यर्थः / तस्य यतः कुतश्चिदुत्पत्तेरविरोधात् / न खल्वनियतकारणजन्यं कार्य कारणभेदं गमयत्यशक्तेः ।"-लघी० ता०पू०४९ / (6) तुलना-"न चैवं वादिनः किञ्चिदनुमानं नाम, निरभिसन्धीनामपि बहुलं कार्यस्वभावानियमोपलम्भात् / सति काष्ठादिसामग्रीविशेषे क्वचिदुपलब्धस्य तदभावे प्रायशोऽनुपलब्धस्य मण्यादिकारणकलापेऽपि संभवात् / यज्जातीयो यतः संप्रेक्षितस्तज्जातीयात्तादृगिति दुर्लभनियमतायां धूमधूमकेत्वादीनामपि व्याप्यव्यापकभावः कथमिव निर्णीयेत वृक्षः शिशपात्वादिति लताचूतादेरपि क्वचिदेव दर्शनात प्रेक्षावतां किमिव निःशंक चेतः स्यात्""-अष्टश०, अष्टसह० पृ०७२। सन्मति० टी० पृ० 266 / 1 अनुपदेशात् लिंगावि-ब० / 2 च ब० / 3-वस्थां वा श्र० / 4 कार्यदृष्टं ई० वि० / Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण का० 28 ] श्रुतस्य प्रमाणत्वसमर्थनम् क्वचिदविसंवादस्य अन्यथानुपपत्तेः सिद्धं प्रामाण्यमिति / पुंसो यः चित्रोऽभिसन्धिः “सरागा अपि वीतरागवचेष्टन्ते"[ ] इत्यभिधानात्, तस्मात् वाक् चेद् यदि अर्थव्यभिचारिणी कारिकाव्याख्यानम् कार्य दृष्टं विजातीयाद अभिमतकारणजातिपरिहारेण जात्यन्तरादपि / ततः किं जातमित्यत्राह-'शक्यम्' इत्यादि / शक्यं शक्तं कारण- 5 भेदि कारणविशेषं गमयितुं किम् ? नैव शक्तमित्यर्थः / कार्यग्रहणमुपलक्षणं स्वभावस्य, अतोऽनुमानस्याप्यभावः इत्यभिप्रायः / / कारिकां विवृण्वन्नाह-'श्रुतेः' इत्यादि / श्रुतेः शब्दस्य बहुलं प्राचुर्येण बहिरावि _____ संवादेऽपि न केवलं तदभावे, तदर्थेनं बहिरर्थेन प्रतिबन्धस्य तादात्म्यविवृतिविवरणम् - तदुत्पत्तिलक्षणस्य असिद्धेः कारणात्'। कथंभूतायाः श्रुतेः इत्याह- 10 वक्त्रभिप्रायानुविधायिन्याः। कै किमित्याह-सर्वत्र तदर्थानाश्वासः बहिरर्थानाश्वास इति एवं चेत् अत्राह-'उक्तम्' इत्यादि / अत्र पूर्वपक्षे उक्तमुत्तरम् / किं तदित्याह-तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यां विनापि परोक्षार्थप्रतिपत्तेः कारणात् अविसंवादः श्रुतेः इति एतत् / 'अपि च' इत्यादिना परपक्षेपि तहृषणं योजयति / अपि च किञ्च 'अयं दृश्यमानो भावः वृक्षः शिंशपात्वात', 'अत्र पर्वते अग्निः धूमात्' इति वा 15 यदनुमानं तत्र कथं नैव आश्वासः ? कुत एतदित्याह-'कचिद्' इत्यादि / कचिद् देशविशेषे लताचूतादेः, आदिशब्देन लताबदर्यादिपरिग्रहः तस्या उपलब्धेः कार (1) तुलना-“चैतसेभ्यः सम्यक्मिथ्याप्रवृत्तयस्ते चातीन्द्रियस्वप्रभवकायवाग्व्यवहारानुमेयाः स्युः व्यवहाराश्च प्रायशो बुद्धिपूर्वमन्यथापि कर्तुं शक्यते पुरुषेच्छावृत्तित्वात्तेषां च चित्राभिसन्धित्वात् / तदयं लिङ्गसंकरात् कथमनिश्चिन्वन् प्रतिपद्येत ? दुर्बोधत्वात् दुःप्राप्यत्वादन्यगुणदोषनिश्चायकानां प्रमाणानाम् चैतसेभ्य इत्यादिना व्याचष्टे / चेतसि भवा: चैतसा गुणदोषाः। चैतसेभ्यः गुणेभ्यः कृपावैराग्यबोधादिहेतभ्यः सम्यकप्रवृत्तयः यथार्थप्रवृत्तयः, चैतसेभ्यो दोषेभ्यः रागादिभ्यो मिथ्याप्रवृत्तयो विपरीतप्रवृत्तयो भवन्ति / ते चेति परेषां चैतसा गुणदोषाः चेतोधर्मत्वेनातीन्द्रियाः ततो न प्रत्यक्षगम्याः / किन्तु स्वस्माद् गुणदोषरूपात् प्रभव उत्पादो यस्य कायवाक्कर्मणः तेन कार्यलिङ्गेनानुमेयाः। तच्च नास्ति / यस्माद् व्यवहाराश्च कायवाक्कर्मलक्षणाः प्रायशो बाहुल्येन बुद्धिपूर्वमिति कृत्वा प्रतिसंख्याने अन्यथापि कर्तुं शक्यन्ते / तथाहि सरागा अपि वीतरागवत् आत्मानं दर्शयन्ति वीतरागाश्च सरागवत् / किं कारणम् ? पुरुषेच्छावृत्तित्वात् व्यवहाराणां तेषां चेति पुंसां चित्राभिसन्धित्वात् चित्राभिप्रायत्वात ततो यथेष्टं व्यवहाराः प्रवतन्ते इति नास्ति गुणदोषप्रभवाणां व्यवहाराणां विवेकनिश्चयः / तदिति तस्मादयमनुमाता पुमान् लिङ्गसंकरात् लिङ्गव्यभिचारादनिश्चिन्वन् क्षीणदोषं कथमागमस्य कर्तार प्रतिपद्येत नैवेति निगमनीयम् ।"-प्रमाणवा० स्ववृ०, टी० 11222 / “यथा रक्तो वीति तथा विरक्तोऽपि / एवं न वचनमात्रात्, नापि विशेषात् प्रतिपत्तिः अभिप्रायस्य दुर्बोधत्वात् व्यवहारसंकरेण सर्वेषां व्यभिचारात् / विरक्तो हि रक्तवच्चेष्टते रक्तोऽपि विरक्तवदित्यभिप्रायो दुर्बोधः."-प्रमाणवा० स्वव०. टी०१।१४ / "क्षीणावरणः समधिगतलक्षणोऽपि सन विचित्राभिसन्धिरन्यथा देशयेदिति विप्रलम्भशंकी"-प्रमाणसं०पू०११६ / अष्टसह० पृ०७१। तत्त्वार्थश्लो० 109 / सूत्रकृ. तांगटी०पू०३८४ / लघी० ता० पृ०४९। (2) पृ०४३५ / 1-भावे तेन बहि-आ०,ब०। 2-न प्रति-श्र० / 3 क्वचित्किमि-श्र०। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [4. श्रागमपरि० णात् / तथा च शिंशपायाः स्वयम् आत्मना अवृक्षत्वेऽप्यविरोधात कथमाश्वासः ? काष्ठजन्मनः पावकस्य मण्यादिसामग्रीप्रभवस्य तथाऽशनिजन्मनः तस्मादशनिभावात् काष्ठाद्यर्थः तदन्तरं तजन्मनश्च साकल्येन अनवयवेन अग्निस्वभावाविरोधे पुनः अङ्गीक्रियमाणे 'अग्निजन्मैव धूमो नार्थान्तरजन्मा' इति कुतोऽयं नियमः यतो 5 नियमात् कार्यहेतोरव्यभिचारात् 'धूमादग्निरत्र' इत्यादौ आश्वासः स्यात् / अथ "सुविवेचितं कार्य कारण न्न व्यभिचरति" [ ] इत्युच्यते / अत्राह-'कस्यचिद्' इत्यादि / कस्यचित् स्वभावकार्यविशेषस्य या अन्यथा साध्याभावप्रकारेण अनुपपत्तिः तया परोक्षार्थप्रतिपत्तौ अङ्गीक्रियमाणायां श्रुतस्य स्वयम् आत्मना अदृष्टता दात्म्यतदुत्पतेः “भाँदी वोक्तपुस्कं पुंवत्' [ जैनेन्द्रव्या० 5 / 1 / 53 ] इत्यतो नपुंसकत्वा10 भावः। कचिद् द्वीपादौ यः तस्य॑ अविसंवादः तस्य अन्यथानुपपत्तेः सिद्धं प्रामाण्यमिति // छ / प्रमाणं साभासं विषयफलसंख्यादित इहे, __ प्रसन्नैर्गम्भीरैः कतिपयपदैर्येर्ने गदितम् / स जीयाद् दुस्तर्कः प्रतिमिररविः न्यायजलधिः, 15 जगज्जन्तुस्वान्तप्रवरकुमुदेन्दुर्जिनपतिः // छ / / इत्थं समस्तमतवादिकरीन्द्रदर्पमुन्मूलयन्नमलमानदृढप्रहारैः / स्याद्वादकेसरसटाशततीव्रमूर्तिः पञ्चाननो भुवि जयत्यकलङ्कदेवः // छ / इति प्रभाचन्द्रविरचिते न्यायकुमुदचन्द्रे लघीयस्त्रयालङ्कारे चतुर्थः परिच्छेदः समाप्तः / एवमन्तर्भूतप्रत्यक्षादिपरिच्छेदचतुष्टयः प्रमाणप्रवेशः परिच्छेदः समाप्तः / / छ / ग्रन्थप्रमाणं 1130 // छ / -- (1) आदिपदेन तृण-अरणिनिर्मथनादयो ग्राह्याः / (2) तुलना-"यत्नतः परीक्षितं कार्य कारणं नातिवर्तते इति चेत् स्तुतम् प्रस्तुतम्"-अष्टश०, अष्टसह पृ० 72 / प्रमेयरत्नमा० 3 / 101 / लघी० ता० पृ० 49 / “अथ सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरतीति न्यायाद् ।"-सन्मति० टी० पृ० 266 / (3) अदृष्टे तादात्म्यतदुत्पत्ती यस्य तत् अदृष्टतादात्म्यतदुत्पत्ति तस्य अगहीतस्वभावकार्यादिरूपस्य श्रुतज्ञानस्य इत्यर्थः। अत्र अदृष्टतादात्म्यतदुत्पत्तिशब्द: श्रुतस्य विशेषणत्वात् नपुंसकलिङ्गोऽपि भादौ इत्यादि सुत्रानुसारेण भादौ अजादौ सुपि उक्तपुंस्कमिगन्तं नप (नपुंसक) वा पुंवद् भवति इति पुल्लिङ्गे प्रयुक्तः, नपुंसकलिङ्गे तु नुमागमे सति 'अदृष्टतादात्म्यतदुत्पत्तिनः' इति प्रयोगः स्यात् इति भावः / (4) श्रुतस्य। (5) अस्मिन् ग्रन्थे / (6) प्रभाचन्द्रेण ग्रन्थकृता / (7) न्यायकुमुदचन्द्रः तत्कर्ता प्रभाचन्द्रश्च अनेन विशेषणेन सूचितः। (8) जिनः पतिर्यस्य / ___ 1 अध्यक्षत्वे-आ०। 2 भाको वोक्त-ब०, भादौ चोक्त-श्र० / 8 चतुर्थपरि-आ० / 4-यप्रमा -श्र०। 5-शः प्रथमः परिच्छेदः ब०। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये नय प्रवेशे पञ्चमः नयपरिच्छेदः। त्रैलोक्योदरवर्त्तिवस्तुविषयज्ञानप्रभावोदयः, दुष्प्रापोऽप्यकलङ्कदेवसरणिः प्राप्तोऽत्र पुण्योदयात् / ___ स्वभ्यस्तश्च विवेचितश्च शतशः सोऽनन्तवीर्योक्तितः, भूयान्मे नयनीतिदत्तमनसः तद्बोधसिद्धिप्रदः // छ / अथ प्रमाणं परीक्ष्येदानी नयपरीक्षार्थमुपक्रमते- भेदाभेदात्मके ज्ञेये भेदाभेदाभिसन्धयः। "ये "तेऽपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते नयदुर्नयाः॥३०॥ विवृतिः-द्रव्यपर्यायात्मकमुत्पाद॑व्ययध्रौव्ययुक्तं सत् प्रमेयं वस्तु तत्त्वम् , तत्रैव (1) अकलङ्कदेवसरणिः / (2) प्रभाचन्द्रस्य / (3) उद्धृतेयम्-"तथा चाहाकलङ्कः-भेदाभेदा""यतोऽपेक्षानपे..."-आव० नि० मलय० पृ० 370 B. / गुरुतत्त्ववि० पृ० 16 B. / “लक्ष्यन्ते निश्चीयन्ते / के ? नयदुर्नयाः। नयाश्च दुर्नयाश्च नयाभासाश्च नयदुर्नयाः / काभ्याम् ? अपेक्षानपेक्षाभ्याम्, अपेक्षा प्रतिपक्षधर्माकाङक्षा अनपेक्षा ततोऽन्या सर्वथैकान्तः ताभ्याम् / किंविशिष्टाः ? ते ये भेदाभेदाभिसन्धयः भेदो विशेष: पर्यायः व्यतिरेकश्च, अभेदः सामान्यमेकत्वं सादृश्यञ्च, भेदाश्चाभेदश्च भेदाभेदौ तयोः भेदाभेदयोरभिसन्धयोऽभिप्रायाः श्रुतज्ञानिनो विकल्पा इत्यर्थः / कस्मिन् ? ज्ञेये प्रमेये जीवादौ / किविशिष्ट ? भेदाभेदात्मके, भेदाभेदावात्मानौ स्वभावौ यस्य तत्तथोक्तम् तस्मिन् ।"-लघी० ता० 50 50 / (4) "निरपेक्षत्वं प्रत्यनीकधर्मस्य निराकृतिः सापेक्षत्वमुपेक्षा।" -अष्टश०, अष्टसह०पू० 290 / (5) "तम्हा सव्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा / अण्णोणणिस्सिआ उण हवंति सम्मत्तसब्भावा।"-सन्मति० श२१ / “निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तू तेऽर्थकृत ।"-आप्तमी० 108 / "नयाः सापेक्षा दुर्नया निरपेक्षा लोकतोऽपि सिद्धाः"-सिद्धिवि०, टी० 10537 B. | "तथा चोक्तम्-अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः / नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः ॥"-अष्टश० अष्टसह० 10 290 / “धर्मान्तरादानोपेक्षाहानिलक्षणत्वात् प्रमाणनयद्र्णयानां प्रकारान्तरासंभवाच्च, प्रमाणात्तदतत्स्वभावप्रतिपत्तेः तत्प्रतिपत्तेः तदन्यनिराकृतेश्च ।"-अष्टM०, अष्टसह०पू०२९० / "सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधार्थो मीयेत दुर्नीतिनयप्रमाणैः।"-अन्ययोगव्य. इलो०२८ / (6) तुलना-पात. महाभा० ॥११योगभा० 3 / 13 / न्यायकु०१० 401 टि०६। (7) तुलना-"उप्पन्ने वा विगए वा धुवे वा"-स्थानांग० स्था० 10 // "सहव्वं वा"-व्या०प्र० श०८) 309, सत्पदद्वार / “दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्ययधुवत्तसंजुत्तं / गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥"-पञ्चा० गा० 10 / “अपरिचत्तसहावेनुप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं / गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्वं ति वुच्चंति ॥"-प्रवचन० 2 / 3 / “सद्रव्यलक्षणम्, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्"-तस्वार्थसू० 1 प्राप्ताऽत्र आ०, श्र०। 2 एते मु० लघी०। 3 तेपक्षानपक्षा-श्र० / Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 606 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० कथञ्चित् प्रमाणतदाभासयोर्भेदात् / नयो ज्ञातुरभिप्रायः। से द्रव्यार्थिका पर्याया५। 29, 30 / “दव्वं पज्जयविउयं दध्वविउत्ता यं पज्जवा णत्थि / उप्पायट्टिइभंगा हंदि दवियलक्खणं एवं ॥"-सन्मति० गा०१।१२। “नोत्पादस्थितिभङ्गानामभावे स्यान्मतित्रयम् ।"-मी० इलो० पृ० 619 / 'उत्पादस्थितिभङ्गानां स्वभावादनुबन्धिता / तद्धेतूनामसामर्थ्यादतस्तत्त्वं त्रयास्मकम् ॥"-सिद्धिवि० पृ० 167 / (1) तुलना-"नयाः प्रापका: कारकाः साधका निर्वतका निर्भासका उपलम्भका व्यञ्जका इत्यनर्थान्तरम् / जीवादीन् पदार्थान नयन्ति प्राप्नुवन्ति कारयन्ति साधयन्ति निवर्तयन्ति निर्भासयन्ति उपलम्भयन्ति व्यंजयन्तीति नयाः ।"-तत्त्वार्थाधि० भा० 1 / 35 / 'स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजको नयः ॥"-आप्तमी० का० 106 / "वस्तुन्यनेकान्तात्मनि अविरोधेन हेत्वर्पणात साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवणप्रयोगो नयः ।"-सर्वार्थसि० 1 / 33 / “ज्ञातृणामभिसन्धयः खलु नयास्ते द्रव्यपर्यायतः / . . . 'नयो ज्ञातुर्मतं मतः।"-सिद्धिवि० टी० पृ०५१७ A, 518 A. / "प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपका नयाः।"-राजवा० 1233 // “एगेण वत्थुणोऽणेगधम्मुणो जमवधारणेणेव। नयणं धम्मेण तओ होई नओ सत्तहा सों य ॥"-विशेषा० गा० 2676 / "णयदि त्ति णओ भणिओ बहुहि गुणपज्जएहि जं दव्वं / परिणामखेत्तकालन्तरेसु अविणट्रसब्भावं ॥"-धवला टी० 10 11 / "प्रमाणपरिगृहीतार्थंकदेशवस्त्वध्यवसायो नयः"-धवला टी० पृ० 83 / "सारसंग्रहेप्युक्तं पूज्यपादैः-अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नयः / प्रभाचन्द्रभट्टारकरप्यभाणि-प्रमाण यपाश्रयपरिणामविकल्पवशीकृतार्थविशेषप्ररूपणप्रवणः प्रणिधिर्यः स नय इति ।"-धवला टी. वेदनाखं० / “नयन्ते अर्थान् प्रापयन्ति गमयन्तीति नयाः, वस्तुनोऽनेकात्मकस्य अन्यतमैकात्मकान्तपरिग्रहात्मका नया इति ।"-नयचक्रवृ० 50 526 A. / “यथोक्तम्-द्रव्यस्यानेकात्मनोऽन्यतमैकात्मावधारणम् एकदेशनयनान्नयाः।"-नयचक्रवृ० 106 B. | "नयन्तीति नयाः अनेकधर्मात्मकं वस्तु एकधर्मेण नित्यमेवेदमनित्यमेवेति वा निरूपयन्ति ।"-तत्वार्थहरि० 116 / तत्त्वार्थसिद्ध० 106 "स्वार्थंकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः / " (पृ० 118) नीयते गम्यते येन श्रुतार्थांशो नयो हि सः।" -तत्त्वार्थश्लो० पृ०२६८। नयविव० श्लो० 4 / “अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः।" -प्रमेयक० 10 676 / 'जं णाणीण वियप्यं सुयभेयं वत्थुयंससंगहणं / तं इह णयं पउत्तं णाणी पुण तेहि णाणेहिं ।"-नयचक्र गा०२। "श्रुतविकल्पो वा ज्ञातुरभिप्रायो वा नयः। नानास्वभावेम्यो व्यावृत्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयति, प्राप्नोतीति वा नयः।"-आलापप० / 'तद्वारायातः पुनरनेकधर्मनिष्ठाथसमर्थनप्रवणः परामर्शः शेषधर्मस्वीकारतिरस्कारपरिहारद्वारेण वर्तमानो नयः।"-न्यायावता०टी० पृ० 82 / “वस्तुनोऽनन्तधर्मस्य प्रमाणं (ण) व्यञ्जितात्मनः / एकदेशस्य नेता यः स नयोऽनेकधा स्मृतः ॥"-तत्वार्थसार पृ० 106 / “नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशः तदितरांशौदासीन्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः।"-प्रमाणनय०७१। स्या० म०पू०३१० / “प्रमाणपरिच्छिन्नस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः एकदेशग्राहिणः तदितरांशाप्रतिक्षेपिणः अध्यवसायविशेषा नयाः।" -जैनतर्कभा० पृ० 21 / “प्रकृतवस्त्वंशग्राही तदितारांशाप्रतिक्षेपी अध्यवसायविशेषो नयः / " -नयरहस्य 1079 / नयप्रदीप पृ०९७ B. / मलयगिर्याचार्यमतेन सर्वेऽपि नया: मिथ्या एव; तथाहि-"अनेकधर्मात्मकं वस्त्ववधारणपूर्वकमेकेन नित्यत्वाद्यन्यतमेन धर्मेण प्रतिपाद्यस्य बुद्धि नीयते प्राप्यते येनाभिप्रायविशेषेण स ज्ञातुरभिप्रायविशेषो नयः।"इह हि यो नयो नयान्तरसापेक्षतया स्यात्पदलाञ्छितं वस्तु प्रतिपद्यते स परमार्थतः परिपूर्ण वस्तु गृह्णाति इति प्रमाण एवान्तर्भवति, यस्तु नयवादान्तरनिरपेक्षतया स्वाभिप्रेतेनैव धर्मेण अवधारणपूर्वकं वस्तु परिच्छेत्तुमभिप्रेति स नयः वस्त्वेकदेशपरिग्राहकत्वात्।"-आव० नि० मलय०५० 369 A. / (2) "तच्च सच्चतुर्विधम्-तद्यथा द्रव्यास्तिकं मातृकापदास्तिकम् उत्पन्नास्तिकम् पर्यायास्तिकमिति ।"-तत्त्वार्थाधि० भा० 5 / 31 / "इत्थं द्रव्या : Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का 0 30 ] नयस्य लक्षणम् 607 र्थिकश्च, द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवदिति वा द्रव्यम्, तदेव अर्थोऽस्ति यस्य सः ट्रॅव्यार्थिकः सोऽभेदाश्रयः। भेदो विशेषः, अभेदः सामान्यम् , तौ आत्मानौ यस्य तस्मिन् तदात्मके ___ कथञ्चित्तत्स्वभावे वस्तुनि, न नैयायिकादिपरिकल्पिते, तस्य प्रागेवाकारिकाव्याख्यानम् - पास्तत्वात् / कथम्भूते तस्मिन्नित्याह-ज्ञेये प्रमाणपरिच्छेद्ये / एतच्च / विशेषणमपि साधनं प्रत्येयम् / ततः 'सर्वं वस्तु भेदाभेदात्मकं ज्ञेयत्वात्' इति गम्यते, यथा 'सदनित्यम्' इत्युक्ते सत्त्वादिति / नचायमनैकान्तिको हेतुविरुद्धो वा; सर्वथा भेदे अभेदे वा प्रमाणपरिच्छेद्यत्वस्य विषयपरिच्छेदे प्रतिक्षिप्तत्वात् / तत्र भेदाभेदाभिसन्धयः सामान्यविशेषविषयाः पुरुषाभिप्रायाः ये ते लक्ष्यन्ते निश्चीयन्ते नयाः दुर्नेयाश्च / काभ्यामित्याह-अपेक्षाऽनपेक्षाभ्याम् , अपेक्षया नयाः 10 इतरया दुर्नया इति। स्तिकं मातकापदास्तिक कापदास्तिकं च द्रव्यनयः। उत्पन्नास्तिकं पर्यायास्तिकं च पर्यायनयः ।"-तत्वार्थहरि० 5 / 31 / तत्त्वार्थसिद्ध० 5 / 31 / “दव्वठूिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पासिं ।"-सन्मति 23 / "नयो द्विविधः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च ।"-सर्वार्थसि० 116 / 'द्वौ मूलभेदौ द्रव्यास्तिक: पर्यायास्तिक इति। अथवा द्रव्याथिकः पर्यायाथिकः।"-राजवा० 133 / "तत्र मूलनयौ द्रव्यपर्यायार्थगौचरौ। मिथ्यात्वं निरपेक्षत्वे सम्यक्त्वं तद्विपर्यये ॥"-सिद्धिवि० टी० पृ०५२१ A. | "दव्व४ियस्स दब्वं वत्थु पज्जवनयस्स पज्जाओ।"-विशेषा० गा० 4331 / 'तेषां वा शेषशासनाराणां-द्रव्यार्थपर्यायार्थनयो द्वौ समासतो मूलभेदौ तत्प्रभेदा संग्रहादयः।"-नयचक्रव० पृ०५२६ A. / धवला टी० 1083 / प्रमाणनय० 7 / 5 / (1) "पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः ।"-सर्वार्थसि० 106 / “परि भेदमेति गच्छतीति पर्यायः। पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायाथिकः।"-धवलाटी० पृ०८४। (2) तुलना-“अथवा यस्य गुणान्तरेप्वपि प्रादुर्भवत्सु तत्त्वं न विहन्यते तद् द्रव्यम् / किं पुनस्तत्त्वम् ? तद्भावस्तत्त्वम् तद्यथा आमलकादीनां फलानां रक्तादय: पीतादयश्च गुणा: प्रादुर्भवन्ति आमलकं बदरमित्येव भवति / अन्वर्थ खल्वपि निर्वचनं गणसन्द्रावो द्रव्यमिति ।"-पात० महाभा० 5 / 1 / 119 / "दवियदि गच्छदि ताईताईसब्भावपज्जयाई जं / दवियं तं भण्णंते अणण्णभदं तु सत्तादो॥"-पञ्चास्तिक गा०९। "यथास्वं पर्यायैश्यन्ते द्रवन्ति वा तानि द्रव्याणि।"-सर्वार्थसि० 5 / 2 / 'अद्रवद् द्रवति द्रोष्यत्येकानेक स्वपर्ययम् ।"-न्यायवि०का० 114 / “दविए यए दोरवयवो विगारो गुणाण संदावो। दव्वं भव्वं भावस्स भूअभावं च जं जोग्गं ॥"-विशेषा० गा०२८ / “द्रवति द्रोष्यति दुद्रवैति (अदुद्रवत् ) द्रुः द्रोविकारोऽवयवो वा द्रव्यम ।"-जयचक्रवृ० पृ० 99 B. | "द्रोविकारों द्रव्यम्, द्रोरवयवो वा द्रव्यम् द्रव्यं च भव्यं भवतीति भव्यम् द्रव्यम्, द्रवतीति द्रव्यम द्रयते वा. द्रवणात गणानां गणसन्द्रावो द्रव्यम् / " -नयचक्रवृ० पृ०४४१ B. / "द्रोष्यत्यदुद्र वत्तास्तांन पर्यायमिति द्रव्यम् ।"-धवलाटी० पृ०८३। "द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायान् द्रूयते गम्यते वा तैः पर्यायरिति वा द्रव्यम् ।"-जयध० अ०१०२६ / आलापप० / (3) "द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्याथिकः ।"-सर्वार्थसि०१६। "पज्जवणिस्सामण्णं वयणं दव्वठ्ठियस्स अत्थित्ति / अवसेसो वयणविही पज्जवभयणा सपडिवक्खो।"-सन्मति० गा० 17 / धवलाटी०५०८३ / "द्रव्येणार्थः द्रव्यार्थः, द्रव्यमर्थो यस्येति वा, अथवा द्रव्याथिकः द्रव्यमेवार्थो यस्य सोऽयं द्रव्यार्थः।"-नयचक्रवृ० पृ० 4 B. / (4) द्वितीये विषयपरिच्छेदे / 1 अद्रवत् ज० वि०। 2-धो सर्व-श्र० / 3 ते निश्ची-ब०। 4-श्च आभ्यामि-ब० / Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 608 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० ____ कारिकां विवृण्वन्नाह-'द्रव्य' इत्यादि / अत्र वस्तुतत्त्वं धर्मि द्रव्यत्वादिविशेष _ विशिष्टमिति साध्यम् / तत्त्वग्रहणं किमर्थमिति चेत् ? आश्रयासिद्धिविवृतिविवरणम्- निषेधार्थम ; तथाहि-न जीवादि भ्रान्तं नापि शून्यं कल्पितं वा किन्तु तत्त्वं परमार्थसत् / प्रसाधितञ्च जीवादिवस्तुनः परमार्थसत्त्वं प्रागेव इत्यलमतिप्रस5 ङ्गेन / अस्त्वेवम् ; तथापि एकान्तरूपं तद् भविष्यतीत्याह-'द्रव्य' इत्यादि / वक्ष्यमाण लक्षणा द्रव्यपर्याया आत्मानो यस्य तत्तथोक्तम् / कुत एतदित्याह-उत्पादव्ययधौव्ययुक्तम् / उत्पादाद्यात्मकं यतः ततस्तथाविधं तत् / एवंविधमपि कुत इत्याह'सत्' इति / सद् अर्थक्रियाकारि यतः / तत्कारित्वं कथं तस्येत्याह-'प्रमेयम्' इति / प्रमेयं यतो जीवादिवस्तु ततोऽर्थक्रियाकारि / नहि सांख्यपरिकल्पितस्य आत्मनः काश्चि10 दर्थक्रियामकुर्वतः प्रमेयत्वं घटते इत्युक्तं प्रागेवै / नन्वेकस्मिन् वस्तुतत्त्वे प्रतीयमाने प्रतिभासभेदासंभवात् कथं प्रतिपत्रभिप्रायाणां नयरूपतोपपद्यते इत्याशङ्क्याह-'तत्रैव' इत्यादि / तत्रैव अनन्तरोक्तस्वरूपे चन्द्रादिवस्तुनि कथञ्चित् सत्त्वधावल्यादिप्रकारेण यत् प्रमाणं यश्च कथञ्चिद् द्वित्वादिप्रकारेण तदाभासः तयोर्भेदात् भेदप्रतीतेः / एतच्च प्रागेव समर्थितत्वात् दृष्टान्ततयोपात्तम् / तस्मादेकस्मिन्नपि वस्तुनि प्रतिपत्ति15 भेदसंभवात् युक्तो विकलादेशविशेषमाश्रित्य ज्ञातुरभिप्रायो नयः। तस्य भेदमाह 'स' इत्यादिना / स नयो द्रव्यार्थिकः, पर्यायार्थिकश्च / तत्र प्रथमं व्याचष्टे'द्रव्य' इति / 'द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवत्' इति वा द्रव्यम्, तदेवार्थः सोऽस्ति यस्य स द्रव्यार्थिकः / कुतः स इत्थम्भूत इत्याह-सोऽभेदाश्रयो यतः / ननु सकलभावानां देशकालाकारैरत्यन्तभेदान्न अभेदो नाम, अंतः कथसौ अभेदाश्रयः स्यात् ? इत्यारेकापनोदार्थमाह जीवाजीवप्रभेदा यदन्तीनाः तदस्ति सत् / एकं यथा स्वनिर्भासिज्ञानम् जीवः स्वपर्ययैः // 31 // (1) विषयपरिच्छदे। (2) परमार्थसत् / (3) पृ० 191 / (4) "अस्ति विद्यते प्रतीयते / तत्किम् ? सत् सत्तासामान्यम् / किविशिष्टम् ? यदित्यादि, यस्मिन्नन्तीना अन्तर्भूताः / के ? जीवाजीवप्रभेदाः, जीवश्चेतनालक्षण: अजीवः पुनस्तद्विपर्ययः पुद्गलादिः प्रभेदाश्च त्रसस्थावराद्यवान्तरविशेषाः, जीवाजीवौ च प्रभेदाश्च ते तथोक्ताः। न खलु द्रव्यं पर्यायो वा सत्त्वव्यतिरिक्तमस्तीति किञ्चिद्व्यवहत्तुं शक्यं स्ववचनविरोधादतिप्रसङ्गाच्च / नन्वेकस्य कथमनेकजीवादिभेदव्यापकत्वमिति चेदत्राह एकमित्यादि / यथा एकं ज्ञानं चित्रपटादिविषयं स्वनि सि स्वे आत्मीया ज्ञानात्मानो निर्भासा नीलाद्याकारा विद्यन्ते अस्येति स्वनिर्भासि / यथा चैको जीव आत्मा स्वपर्ययैः, स्वे चिद्रूपाः पर्ययाः रागादयः परिणामाः तैराक्रान्तः प्रतीतिपदारूढो न विरुध्यते तथा सत्त्वमपि जीवाद्यने कभेदाक्रान्तं न विरुध्यते इत्यर्थः।"-लघी० ता० 10 52 / 1 आत्मा यस्य आ०. ब०। 2 तत्र श्र०। 3-ष्टे द्रवति आ०. ब०। 4-भेदाश्रितो यतः आ० / Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का 0 32] संग्रहनयस्य लक्षणम् 606 10 विवृतिः-यथैव ज्ञानस्य आत्मनिर्भासभेदा नैकत्वं बाधन्ते जीवस्याजीवस्य वा कस्यचित् स्वगुणपर्यायाः तथैव सच्चस्य भेदाः जीवाजीवादयः / तदेवम्जीवश्च अजीवश्च तयोः प्रभेदा अवान्तरविशेषा यदन्तीना यस्य अन्तः प्रविष्टाः तदस्ति विद्यते / किं तदित्याह-'सत्' इति / सत्तासामाकारिकाव्याख्यानम् न्यम् / केन प्रकारेण 'एकम्' इत्यादि / स्वे आत्मीया न ज्ञानान्त- 5 रगता निर्भासा नीलाद्याकाराः ते यस्य सन्ति तद् स्वनि सिज्ञानम् एकं चित्रकज्ञानम्' इत्यर्थः / यथा येन प्रतिभासादिप्रकारेण अस्ति तथा प्रकृतमपि, सौगतापेक्षया इदमुक्तम् / इतरापेक्षयौ तु 'जीवः स्वपर्ययः' इत्याह / जीवग्रहणमुपलक्षणम् सकलाजीवतत्त्वस्य, तेनं जीवादिः स्वपर्ययैर्युक्तो यथा एकोऽस्ति तथा सदेकमिति सिद्धम् / ___ कारिकां विवृण्वन्नाह-'यथैव' इत्यादि / यथैव येनैव अशक्यविवेचनाऽभिन्न ___ योगक्षेमप्रकारेण ज्ञानस्य आत्मनः स्वरूपस्य ये निर्भासभेदा विवृति विवरणम् - ग्राह्यादिनीलाद्याकाराः ते नैकत्वं बाधन्ते, जीवस्य आत्मनः अजीवस्य वा घटादेः कस्यचित सकलजनप्रसिद्धस्य न नैयायिकादिकल्पितस्य तस्य पूर्वं निरस्तत्वात् / स्वगुणपर्याया 'यथैव नैकत्वं बाधन्ते' इति सम्बन्धः / तथैव 15 तेनैव प्रकारेण सत्त्वस्य सत्तासामान्यस्य भेदाः / के इत्याह-जीवाजीवादयः, नैकत्वं बाधन्ते / तस्मिन् सति किंजातमित्याह-'तदेवम्' इति / तस्मिन् सत्त्वे एवम् उक्तप्रकारेण जीवाजीवात्मके स्थिते सति शुद्धं द्रव्यमभिप्रेति संग्रहः तदभेदतः / भेदानां नासदात्मैकोप्यस्ति भेदो विरोधतः // 32 // 20 (1) अशक्यविवेचनं हि एकचित्रज्ञानस्य नीलाद्याकाराणां ज्ञानान्तरे नेतुमशक्यत्वम् / (2) "अलब्धधर्मानुवृत्तिोगः / लब्धधर्मानुवृत्तिः क्षेमः ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 1 / 24 / “योग अप्राप्तविषयस्य परिच्छेदलक्षणा प्राप्तिः, क्षेमः तदर्थक्रियानष्ठानलक्षणं परिपालनम्।" हेतूबि०टी०प०५५ / (3) “अभिप्रेति विषयीकरोति / कः? संग्रहः संग्रहनयः / किम् ? शुद्ध द्रव्यं सत्सामान्यं तस्यान्योपाधिरहितत्वेन शुद्धिसंभवात्, तद्विषयो हि नयः संग्रहः / सजात्यविरोधेन पर्यायानाक्रान्तभेदानकध्यमुपनीय समस्तग्रहणं संग्रह इति निर्वचनात् / कुतः ? तदभेदतः, तस्य सत्सामान्यलक्षणस्य शुद्धद्रव्यस्य अभेदात सर्वेषु जीवाजीवेषु अव्यतिरेकात् / ननु प्रागभावादेः सत्त्वव्यतिरेकात् कथं तदभेद इत्याशङ क्याहभेदानां जीवादीनां सद्विशेषाणां मध्ये एकोऽपि भेदो जीवस्तत्पर्यायोऽन्यो वाऽसदात्मा असत्स्वरूपो नास्ति न विद्यते / विरोधतः यद्यसदात्मा, कथमस्ति ? यद्यस्ति, कथमसदात्मेति ? स्ववचनविरोधादस्य असिद्धेः। ततः प्रागभावादिरन्यो वा कथञ्चित्सदात्मक एवाभ्युपगन्तव्यः प्रतीतिबलात् ।"-लघी० ता०प०५२। (4) तुलना-'संगहिय पिंडिअत्थं संगहवयणं समासओ बिति ।"-अनयोगद्वार० 4 द्वा० / आ० नि० गा० 756 / विशेषा० गा० 2699 / “अर्थानां सर्वैकदेशसंग्रहणं संग्रहः / आह च यत्संगहीतवचनं सामान्ये देशताऽथ च विशेषे / तत्संग्रहनयनियतं ज्ञानं विद्यान्नयविधिज्ञः ॥"-तत्त्वार्था 1 जीवादयः ज० वि०12-ज्ञानमित्यर्थः श्र०13 आस्ते ब०,श्र014-या जीवः आ० / अनेन श्र०। 27 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० विवृतिः-सर्वमेकं सदविशेषात् इति संग्रहः / सताश्च स्वभावानां भावकत्वाऽबाधनात् / नहि कश्चिद् असदात्मा भेदोऽस्ति विप्रतिषेधात् / नहि किश्चिज्ज्ञानं सद्रूपं द्रव्यमनवबुद्ध्य भेदं गृह्णाति नाम / शुद्धं द्रव्यं सत्तालक्षणम् अभिप्रैति विषयीकरोति न सतोऽपि आत्मादि * विशेषान् / कोऽसौ इत्याह-संग्रहः संग्रहनयः। कुत एतदित्याहकारिकाव्याख्यानम् व तदभेदतः तस्य सत्त्वस्य सर्वविशेषेषु अविशेषतः। एतदपि कुतः इत्याह-'भेदानाम्' इत्यादि। भेदानां जीवादिविशेषाणां मध्ये असदात्मा असत्स्वभावः एकोऽपि न केवलम् अनेको नास्ति भेदो विशेषः, किन्तु सदात्मैव. 'अस्ति' इति सम्बन्धः। कुतो नास्तीत्याह-विरोधतः। तथाहि-'यदि असन् 10 कैथमस्ति, अस्ति चेत् कथमसन्' इति / एतेन अभावचतुष्टयं चर्चितम् ; तथाहि यदि तत् अस्तीतिप्रत्ययवेद्यम् कथसदात्मकम् ? स्वरूपेण तैस्यापि सदात्मकत्वात् / अथाऽसदात्मकम् ; न तर्हि तत्प्रत्ययवेद्यमिति कथं तदस्तित्वसिद्धिः ? . .. ____ कारिकां विवृण्वन्नाह-'सर्वम्' इत्यादि। सर्व चेतनाचेतनस्वभावं वस्तु एकम् ___अभिन्नं सदविशेषात् सत्ताऽविशेषमाश्रित्य इति एवं संग्रहः / सदविविवृतिविवरणम् शेषेऽपि सत्त्वात् तद्वतां भेदप्रसिद्धेः सर्वमेकम् इत्याद्ययुक्तमित्याशङ्क्याह-'सताश्च' इत्यादि / सताश्च विद्यमानानां पुनः स्वभावानां भावधर्माणाम् भावकत्वाबाधनात् सत्त्वैकत्वानिराकरणात् / एतदेव समर्थयमानः प्राह-'नहि' इत्यादि / हिर्यस्मात् न असदात्मा असत्तास्वभावः कश्चित् द्रव्यादीनामन्यतमो भेदः विशेषः अस्ति / कुत इत्याह-विप्रतिषेधात् , विरोधात् / इतश्च असदात्मा भेदो 20 नास्तीति दशयन्नाह-'नहि' इत्यादि / किञ्चित् प्रत्यक्षमनुमानं वा ज्ञानं सद्रूपं सत्त्व स्वरूपम् अनवबुद्धय अगृहीत्वा भेदं विशेषं द्रव्यं द्रव्यरूपम् , द्रव्यग्रहणमुपलक्षणं गुणादेः, तत्किमित्याह-'नहि गृह्णाति नाम' इति / ततो निराकृतमेतत् “न द्रव्यादि स्वतः सत् धि० भा० 1135 / तत्त्वार्थहरि०, तत्त्वार्थसिद्ध० 1135 / "स्वजात्यविरोधेनकध्यमुपनीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रहणात् संग्रहः।"-सर्वार्थसि० 1233 / राजवा० 1 // 33 / “विधिव्यतिरिक्तप्रतिषेधानुपलम्भाद्विधिमात्रमेव तत्त्वमित्यध्यवसायः समस्तस्य ग्रहणात् संग्रहः / द्रव्यव्यतिरिक्तपर्यायानुपलम्भात् द्रव्यमेव तत्त्वमित्यध्यवसायो वा संग्रहः ।"-धवलाटी० 1084 / “शुद्ध द्रव्यमभिप्रति सन्मानं संग्रहः परः। स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह।।"-तत्त्वार्थश्लो०पू०७०। नयविव०श्लो०६७। प्रमेयक० पृ० 677 / “शुद्धं द्रव्यं समाश्रित्य संग्रहस्तदशुद्धितः"-सन्मति० टी० पृ० 272, 311 / नयचक्र गा० 34 / तत्त्वार्थसार पृ० 107 / प्रमाणनय० 7.13 / स्या० मं० पृ० 311 / जैनतर्कभा० पृ० 22 / (1) तुलना-"यथा सर्वमेकं सदविशेषात् ।”-तरवार्यभा० 135 / “अहव महासामन्नं संगहियं पिडियत्थमियरं ति / सव्वविसेसानन्नं सामन्नं सव्वहा भणियं ।"-विशेषा० गा० 2701 / “विश्वमेकं सदविशेषात् इति यथा।"-प्रमाणनय०७।१६। (2) अभावचतुष्टयस्यापि / (3) अस्तीतिप्रत्ययग्राह्यम् / (4) अभावचतुष्टयसद्भावसिद्धिः / 1 तस्य सर्व-आ० / कथमसास्ति चेत् आ०, श्र० 13 द्रव्यस्वरूपम् ब०, श्र०। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का० 33] संग्रहनयस्य लक्षणम् नाप्यसत् सत्तासम्बन्धात्सत्' [ ] इति; सद्रूपरहितस्य हि द्रव्यादेः तत्स्वभावशून्यस्य च सद्रूपस्य ग्रहणे सति एतत् स्यात्, न च तद्ग्रहणमस्ति, सर्वदा उभयोः उभयात्मनो वेदनादिति भावः। पूर्वेण परपक्षे विरोधोद्भावनम् , अनेन तु प्रतीतितो भेदस्य सदात्मकत्वसाधनमिति विभागः / अत्राह सौगतः- यदुक्तम्-यथैव ज्ञानस्य आत्मनिर्भासभेदाः नैकत्वं बाधन्ते' 5 इति; तदप्युक्तम् ; निरंशैकज्ञानोपगमात् , सर्वोऽव्ययं विरुद्धधर्माध्यासी स्तम्भादिप्रतिभासो विभ्रमो मरीचिकाचक्रे जलवदिति कथं तन्निदर्शनेन अभिमततत्त्वसिद्धिः स्यात् ? पुरुषाद्वैतवाद्यपि आह-निस्तरङ्गं पुरुषमात्रं तत्त्वम् , जीवाजीवप्रभेदः पुनः उपप्लवः, ततो 'जीवस्य अजीवस्य वा' इत्याद्यप्ययुक्तम् ; इत्याशङ्क्याहप्रत्यक्षं बहिरन्तश्च भेदाज्ञानं सदात्मना / 10 द्रव्यं स्वलक्षणं शंसद्धेदात् सामान्यलक्षणात् // 33 // विवृतिः-स्वार्थभेदानवबोधेऽपि भ्रान्तं ज्ञानं सर्व सद्रूपेण प्रत्यक्षं द्रव्यं स्वलक्षणं विद्यात्, अन्यथा भ्रान्तेरभावप्रसङ्गात् / प्रत्यक्षमुक्तलक्षणम् , कथम्भूतं तदित्याह-भेदाज्ञानम् , भेदस्य निरंशक्षणिक विभ्रमविविक्तविशेषस्य अज्ञानम् अग्रहणम् येन यस्मिन् वा तत्त- 16 काारकाव्याख्यानम् - थोक्तम् / क्वेत्याह-'बहिरन्तश्च' इति, बहिर्घटादौ अन्तः ज्ञानपुरुषस्वरूपे / नहि तत्तत्रं निरंशक्षणिकादिरूपं परपरिकल्पितं विशेषं जातु प्रतिपद्यते . . विभ्रमाभावानुषङ्गात् / यदि तत्तत्र भेदाज्ञानम् , केन तर्हि प्रकारेण प्रत्यक्षमित्याह 'सदात्मना' इति / सगृहणमुपलक्षणं तेन 'सच्चेतननीलाद्यात्मना' इति गृह्यते / तत्किं कुर्यादित्याह-'द्रव्यम्' इत्यादि / द्रव्यमनन्तरोक्तं स्वलक्षणं वस्तु शंसेत् 20 स्तुयात् न परपरिकल्पितं परमाण्वादि / एवमपि पुरुषादिद्रव्यं स्वलक्षणं शंसेदित्याह (1) द्रव्यादिस्वभावरहितस्य / (2) सत्त्व-द्रव्ययोः। (3) सत्त्वस्य द्रव्यादिविशेषसापेक्षतया, द्रव्यस्य च सत्त्वविशेषणापेक्षतया। (4) 'नहि असदात्मा' इत्यादि विवृतिवाक्येन / (5) 'नहि किञ्चिज्ज्ञानम्' इत्याद्यंशेन / (6) चित्रज्ञानदृष्टान्तेन / (7) "शंसेत् स्तुयात् कथयेदित्यर्थः / किम् ? प्रत्यक्षं विशदमिन्द्रियानिन्द्रियज्ञानम् / किविशिष्टम् ? भेदाज्ञानम्, भेदान् परपरिकल्पितान निरंशक्षणान्न जानाति न गृह्णातीति भेदाज्ञानम् / किं शंसेत् ? द्रव्यं शुद्धमशुद्धं वा स्वलक्षणं वस्तुभुतं न कल्पितमित्यर्थः / क्व ? बहिरचेतने घटादौ, अन्तश्चेतने / केन ? सदात्मना सद्रूपेण, न खलु सद्रूपेण भेदः पदार्थेषु प्रत्यक्षतो ज्ञायते येन प्रत्यक्षं द्रव्यं न शंसेत् / कस्मात् ? भेदात् भेदमाश्रित्य / कि विशिष्टात् ? सामान्यलक्षणात्, सामान्यमन्वयो लक्षणं लिंगं यस्यासौ सामान्यलक्षणस्तस्मात् / न हि भेदनिरपेक्षमभेदं प्रत्यक्षमन्यद्वा प्रमाणं साधयति तस्यानुपलब्धेः। ततः प्रत्यक्षमपि द्रव्यसिद्धिनिबन्धनमेवेति कुतः संग्रहनयो मिथ्या स्यात् ?"-लघी० ता० पृ० 53 / (8) प्रत्यक्षम् (9) बहिरन्तः / (10) प्रत्यक्षम् / (11) बहिरन्तश्च / 1-जीवभेदप्रभेदः श्र० / 2-विभ्रमविशे-श्र० / 3 ज्ञाने पुरु-ब० / 4-त् ॥छ / यदि श्र०। 5-ह द्रव्यमन-आ०, श्र० / 6-ह भेदात् विशे-आ० / Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 612 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० 'भेदात्' इत्यादि / भेदात् विशेषात् सामान्यलक्षणं स्वरूपं यस्य, सामान्येन वा लक्ष्यते यः स तथोक्तः तस्मात् तमाश्रित्य इत्यर्थः / यथा च क्षणिकनिरंशपरमाण्वादिरूपं पुरुषाद्वैतरूपं वा तत्त्वं न व्यवतिष्ठते तथा प्रागेव प्रेपश्चत: प्रतिपादितम् / 'भेदान् सामान्यलक्षणान्' इति वा पाठः। तत्र तान् प्रत्यक्षं शंसेत् इत्यर्थः / कारिकां विवृण्वन्नाह-'स्वार्थ' इत्यादि / भ्रान्तं विप्लुतं ज्ञानं सर्व निरवशेष विवृतिविवरणम् लौकिकं शास्त्रीयञ्च, यदि वा सौगतकल्पितं पुरुषायद्वैतवादिकल्पि ' तश्च / कथम्भूतं प्रत्यक्षं विशदमभ्रान्तम् / केन रूपेणेत्याहसद्रूपेण सदादिस्वभावेन / कस्मिन् सत्यपीत्याह-'स्वार्थ' इत्यादि / स्वश्च अर्थश्च तयोर्भेदो विवेकः अर्थस्य परमाणुलक्षणस्य परस्परम्, स्वानस्य विप्लवाकारा [द्] 10 भेदो नावबुध्यते सर्व हि ज्ञानं नात्मानं विमुतं जानाति स्वस्य विप्लुताकारात् तस्य अनवबोधेऽपि / तत्कि कुर्यादित्याह-द्रव्यं स्खलक्षणं विद्यात् / ननु स्यादेतत् यदि तद्भेदानवबोधः स्यात् यावता स्वार्थयोः सद्रूपेणेव भेदरूपेणाप्यवबोधोऽस्तीत्याशङ्-. क्याह-'अन्यथा' इत्यादि। उक्तप्रकाराद् अन्येन प्रकारेण अन्यथा भ्रान्तेरभावप्रसङ्गात् 'तत् तत्कुर्यात्' इति सम्बन्धः। तथाहि-यथा तत् प्रत्यक्षं सद्रूपेण तथा यदि स्वार्थभेद15 रूपेणापि; तर्हि स्थूलाकारों भ्रान्तिः कुतः ? ग्राह्यादिचेतनेतरादिभ्रान्तिा ? नहि यथा वद्रूपेण वस्तुनः प्रतिभासे सी युक्ता ; कदाचिदपि तदनुपरतिप्रसङ्गात् / तथा तद्भेदानवबोधवत् सद्रूपेणापि यदि तैदप्रत्यक्षम्; तदा कस्यचिदपि प्रतिभासाभावात् कुतो भ्रान्ति: ? ननु प्रतिक्षणविलक्षणज्ञानादिक्षणव्यतिरिक्तस्य जीवादिद्रव्यस्यासंभवात् कथं 'द्रव्यं शंसेत्' इत्युक्तं शोभेत इत्याशङ्कयाह सँदसत्स्वार्थनिर्भासः सहक्रमविवर्तिभिः। ___ दृश्यादृश्यैर्विभात्येकं भेदैः स्वयमभेदकैः // 34 // (1) पृ० 375, 150 / (2) बहिरन्तः। (3) भेदान्। (4) 'स्वज्ञानस्य' इत्यादि $ एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठः ब०, श्र० प्रत्योः त्रुटितायां पू० प्रतौ च नास्ति / अर्थानुरोधात्तु 'स्वस्य ताकारात' इत्यंशस्य टिप्पण्यात्मक एव भाति / (5) स्वार्थभेदानवबोधः। (6) प्रत्यक्षम् / (7) स्वलक्षणं द्रव्यं शंसेत् / (8) द्रव्यम् / (9) स्थूलाकारा 'प्रतीतिः कथं भ्रान्तिरूपा स्यात् ? (10) भ्रान्तिः। (11) यथावद्वस्तुप्रतिभास एव हि भ्रान्तिनिवृत्तिकारणम् / यदि च यथावद्वस्तुग्रहणेऽपि भ्रान्तिः न निवर्तेत तदा न कदापि तस्याः निवृत्तिः संभाव्येति भावः। (12) स्वार्थभेदाज्ञानवत् / (१३)द्र व्यम् / (१४)कस्यचिदपि पुरुषस्य सामान्यतो विशेषतो वा प्रतिभासाभावात् न भ्रान्तिः स्यात्, भ्रान्तेः सामान्यप्रतिभासनिबन्धनत्वादिति भावः। (15) सौगतः / (16) "अयमर्थः-यथा सद्भिः ज्ञानगताकारैः असद्भिराकारः नीलादिभिः सहकं ज्ञानं विभाति तव न विरुध्यते, तथा अर्थव्यञ्जनपर्यायैः सहक्रमविवर्तिभिः व्यज्जनपर्यायैः सहकं द्रव्यमपि विभाति न विरुध्यते इति / दृश्याः स्थूला व्यज्जनपर्यायाः अदृश्या सूक्ष्माः केवलागमगम्या अर्थपर्यायाः।"-लघी० ता० पृ०५५। 1 परमार्थोहि रूपं ब०। 2 भेदात् ब०। 3 च श्र०। 4 विप्लवं ज्ञा-आ० / 5-ल्पितं कथं-श्र० / एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति ब०. श्र० / 6 द्रव्यस्वल-आ० / 7 विद्यादेतद्यदि आ०, श्र०। 8 तत्कु-ब०। 9 यथा आ० / 10-क्षणाना आ० / 11-दिलक्षण-श्र०। 20 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का 0 34 ] संग्रहनयस्य लक्षणम् 613 विवृतिः-यथैकं क्षणिकं ज्ञानं सद्भिरसद्भिर्वा प्रतिभासभेदैः स्वयमभेदकैरिष्टं तथा एकं द्रव्यं सहक्रममाविभिः स्वयमभेदकैः भेदैः दृश्यैरदृश्यैश्चानादिनिधनमवगन्तव्यम् / बहिरिव ज्ञानपरमाणुसञ्चये पुनः अन्योन्यानात्मकत्वे सर्वथाऽसक्रमव्यवस्थायाम् एकस्थूलनिर्भासविरोधात् / ___ सन्तश्च असन्तश्च ते च ते स्वस्य अर्थनिर्भासाश्च नीलस्थूलादिप्रति- 5 ___ भासास्तैः, कथम्भूतैः ? खयम् आत्मना अभेदकैः, यथा एकं ज्ञानं कारिकाव्याख्यानम् विशेषेण देशकालनरान्तराबाधितरूपेण भाति भासते / कदा ? सह एकस्मिन् काले तथा क्रमविवर्तिभिः तैः एकं विभाति / कथम्भूतैः इत्याह-दृश्यादृश्यैः। वर्तमानकालापेक्षया दृश्यैः अतीतकालापेक्षया चाऽदृश्यैः / यदि वा सद्भिः स्वनिर्भासैः सदादिभिः असद्भिः अर्थनिर्भासैः एकं यथा, तथा क्रमवि- 10 वार्तिभिः सुखादिभिः एकं विभातीति ग्राह्यम् / ____ कारिकां व्याख्यातुमाह-'यथैकम्' इत्यादि / यथा येन प्रकारेण एकं क्षणिकं _ ज्ञानम्, उपलक्षणमेतत् तेन पुरुषस्यापि ग्रहणम् / सद्भिः विद्यमानैः विवृतिव्याख्यानम्-१ - असद्भिर्वाऽविद्यमानैर्वा / कै: ? प्रतिभासभेदैः। कथम्भूतैः ? स्वयमभेदकैः इष्टम् अङ्गीकृतम्, तथा एकं द्रव्यमभ्युपगन्तव्यम् / कैः ? भेदैः 15 विशेषैः / कथम्भूतैः ? सहक्रमभाविभिः सहभाविभिः गुणैः क्रमभाविभिः पर्यायैः / पुनरपि किंविशिष्टैः ? दृश्यैरदृश्यैश्च / अनेन एकत्वे प्रमाणान्तरवृत्ति दर्शयति / कथम्भूतं तव्यमित्याह-अनादिनिधनम् / प्रसाधितश्च अनादिनिधनत्वं प्रागेवास्य इत्यलं पुनस्तत्प्रसाधनप्रयासेन / ननु ज्ञानमपि तैरेकं नेष्यते "किं स्यात्सा चित्रतैकस्यां न स्यातत्तस्यां मतावैपि' [प्रमाणवा० 2 / 210] इत्यभिधानात् / अत्राह-'बहिरिव' 20 इत्यादि / यथा बहिः परस्परासंसृष्टनिरंशक्षणिकपरमाणुसञ्चयः तथा ताहिणामन्येषां वा ज्ञानपरमाणूनां सञ्चये अङ्गीक्रियमाणे, 'पुनः' इति पक्षान्तरसूचकः / (1) योगाचारैः। (2) द्रष्टव्यम्-न्यायकुमु० पृ० 130 टि० 6 / शास्त्रवा० यशो० पृ० 49 / व्याख्या-“ननु यदि सा चित्रता बुद्धौ एकस्यां स्यात्, तया च चित्रमेकं द्रव्यं व्यवस्थाप्येत तदा किं दूषणं स्यात् ? आह-न स्यात्तस्यां मतावपि / न केवलं द्रव्यं तस्यां मतावपि एकस्यां न स्याच्चित्रता आकारनानात्वलक्षणत्वाद् भेदस्य, नानात्वेऽपि चित्रता कथमने कपुरुषप्रतीतिवत् / कथन्तर्हि प्रतीतिरित्याह-यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् / यदीदम् अताद्रूप्येऽपि ताप्यप्रथनम् अर्थानां भासमानानां नीलादीनां स्वयम् अपरप्रेरणया रोचते, तत्र तथाप्रतिभासे के वयमसहमाना अपि निषेधुम्, अवस्तु च प्रतिभासते चेति व्यक्तमालीक्यम् ।"-प्रमाणवा. मनोरथ० 2 / 210 / (3) सौगतः। “तस्मानार्थेषु न ज्ञाने स्थूलाभासस्तदात्मनः। एकत्र प्रतिषिद्धत्वात् बहुष्वपि न सम्भवः / / तस्मान्नार्थेषु वाह्येषु न ज्ञाने तद्ग्राहके स्थलाभासः स्थूल आकारः सङ्गच्छने / तदात्मनः स्थूलस्वरूपस्यैकत्रावयवे परमाणौ वा प्रतिषिद्धत्वात् / बहुष्वपि तेषु संभवो नास्ति मिलिता अपि हि त एव / ते च प्रत्येक स्थौल्यविकला 1 भाति प्रतिभासते ब०, श्र०। 2 वाद-ब०। 3-सैः एक-श्र० / 4 क्षणिक क्षणिक ज्ञानम् आ०। एकत्वप्रमा-श्र०। 6 पुनस्तत्प्रतिपादन-श्र०। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 लघीयत्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्दे [ 5. नयपरि० अन्योन्यं परस्परम् अनात्मकत्वम् अस्वरूपत्वं तस्मिन् सति, सर्वथा सर्वेण साक्षा- . करणप्रकारेण स्वरूपमिश्रणप्रकारेण वा असङ्क्रमेण असङ्करेण या व्यवस्था अवस्थितिः तस्यां सत्याम् एकस्थूलनिर्भासविरोधात् कारणात् एकं द्रव्यमभ्युपगन्तव्यम् / एतदुक्तं भवति-स्थूलैकप्रतिभासविरुद्धा ज्ञानेतरपरमाणवः, तत्प्रतिभासोपगमे तद्विरोध: नीले पीतविरोधवत् / तथाभ्युपगच्छतश्च अध्यक्षविरोधः निरंशादिरूपतया शैतधा तत्त्वं विचारयतोऽपि स्थूलादिप्रतिभासानिवृत्तेः। ____ एवं प्रतिभासबलेन स्वपरमतविधिप्रतिषेधौ अभिधाय साम्प्रतम् अर्थक्रियाकारित्वबलेन तौ प्रतिपादयितुकामः प्रथमं क्षणिकैकान्ते अर्थक्रियां निराकुर्वन्नाह लक्षणं क्षणिकैकान्ते नार्थस्याऽर्थक्रिया सति / 10 कारणे कार्यभावश्चेत् कार्यकारणलक्षणम् // 35 // विवृतिः-सह क्रमेण वा अर्थक्रियाम् अक्षणिकस्य निराचिकीर्षुः कथञ्चित् क्षणिके अर्थक्रियां साधयेत् अन्यथा तल्लक्षणं सत्त्वं ततो व्यावर्त्तत / न च क्षणिका- .. नामनिश्चयात्मनां भावानां प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनः कार्यकारणभावः सिद्धयेत् विप्रकृष्टाऽर्थान्तरवत् / 'यस्मिन् सत्येव यद्भावः तत् तस्य कार्यम्' इति लक्षणं 15 क्षणभङ्गे न संभवत्येव कार्यकारणयोः सहभावापत्तेः, अन्यथा क्षणभङ्गभङ्गप्रसङ्गात् / .. लक्षणम् अर्थस्य परमार्थसतो वस्तुनः नार्थक्रिया अर्थस्य कार्यस्य क्रिया ___ करणम् / क ? क्षणिकैकान्ते / कुत इत्याह-'सति' इत्यादि / कारिकाव्याख्यानम्- - सति विद्यमाने कारणे हेतौ कार्यभावः कार्योत्पत्तिः चेद यदि - 20 न कार्यकारणलक्षणं कार्यस्य कारणान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वं यल्लक्षणम् कारण स्यं च तज्जनकत्वं यल्लक्षणं तन्न / पूर्वार्द्धगतेन 'न' इत्यनेन सम्बन्धः / क्षणिकैकान्तवादिना कारणाभाव एव कार्योत्पत्त्यभ्युपगमात् / इदमपरं व्याख्यानम् - स्वोत्पत्तिकालवत् इति समुदिता अपि तथैव स्युः / तथा नीलाद्याकारेषु प्रत्येकं चित्रस्य स्थौल्यस्याभावात् समुदायेऽप्यभावः"-प्रमाणवा० मनोरथ० 2 / 211 / (1) स्थूलैकप्रतिभासविरोधः / (2) स्थूलकप्रतिभासस्य असत्त्वं भ्रान्तत्वं वा स्वीकुर्वतः / (3) स्वमतविधिपरमतप्रतिषेधौ / (4) तुलना-“कार्यकारणता नास्ति बहिरन्तः सन्ततिः कुतः / निरन्वयात् कुतस्तेषां सारूप्यमितरार्थवत् // सति क्षणिके कारणे यदि कार्य स्यात् क्षणिकमक्रमं जगन्निःसन्तानि स्यात् / तस्मिन्नसति भवतः कुतः पुनः कारणान्तरोत्पत्तिनियमः ? सदेव कारणं स्वसत्ताकालमेव कार्य प्रसह्य जनयेत् / स्वरसत एव कार्योत्पत्तिकालनियमे स्वतन्त्रस्य कुत एव कार्यत्वम् ? नैरन्तर्यमात्रात्प्रभवनियमे सर्वत्र सर्वेषामविशेषे कुतः प्रभवनियमः ? द्रव्यस्य प्रभवनियमे न किञ्चिदतिप्रसज्यते।" -सिद्धिवि० पृ० 363-64 / (5) "किं पुनरसौ कार्यकारणभाव: अनुपलम्भसहायप्रत्यक्षनिबन्धनः ? इत्याह-तद्भावे भावः तदभावेऽभावश्चेति ?"-हेतुबि० टी०पू०६९। (6) कार्यजनकत्वम् / 1 व्यवस्थितिः श्र० / 2 तदुक्तं श्र०, ब० // 3 शतधात्वं आ०। 4 कारिकेयं मुद्रितलघीयस्त्रये नास्ति / / लक्षणभंगे न ज० वि० / 6 कारणम् आ० / 7 स्य तज्ज-आ० / 8 कारणभाव आ। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का० 35 ] संग्रहनयस्य लक्षणम् कार्योत्पत्तिकालेऽपि सति कारणे कार्यभावश्चेत् कार्यकारणयोः यल्लक्षणं स्वरूपं ग्रहणं वा अत्र प्रमाणभावात् 'घटते' इत्यध्याहारः, किन्तु क्षणभङ्गाय दत्तो जलाञ्जलिः' स्यात् / यस्त्वाह-'नार्थकिया अर्थलक्षणं विचारतस्तदयोगात् / सा हि सती, असती वा तल्लक्षणम् ? न तावदसती; खरविषाणवत् तथाविधायास्तस्याः तल्लक्षणत्वायोगात् / अथ सती; किं स्वतः, परतो वा ? यदि स्वतः; अर्थेन किमपराद्धं येनास्यं 5 स्वतः सत्त्वं नेष्येते ? अथ परत:; तदा अनवस्था' इति / / तं 'सह' इत्यादिना नित्यवादिना समानं व्यववस्थाप्य 'यस्मिन्' इत्यादिना . कारिकार्थं प्रकटयति-सह युगपत् क्रमेण वा परिपाट्या वा अर्थविवृतिविवरणम् क्रिया अक्षणिकस्य नित्यस्य सम्बन्धिनी या तां निराचिकीर्षुः सौगतः कथञ्चित् योगपद्यप्रकारेण क्रमप्रकारेण वा प्रत्यक्षानुमानप्रकारेण वा क्षणि- 10 केऽर्थे अर्थक्रियां साधयेत् , अन्यथा तदसाधनप्रकारेण तल्लक्षणम् अर्थक्रियालक्षणं सत्त्वं ततः क्षणिकात् नित्यादिव व्यावर्तेत / साध्यत एव तत्रं सा इति चेत् ; अत्राह'नच' इत्यादि / नच नैव भावानां कार्यकारणभावः सिद्ध्येत् / कथम्भूतानाम् ? क्षणिकानाम् / पुनरपि कथम्भूतानाम् ? अनिश्चयात्मनाम् न विद्यते निश्चयो निर्णयो यस्य स तथाविध आत्मा स्वभावो येषाम् / तद्भावः कथम्भूतः इत्याह-'प्रत्यक्ष' 15 इत्यादि / प्रत्यक्षानुपलम्भौ साधनं यस्य, प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनत्वादेव च अनिश्चयात्मनां "तेषां तद्भावोन युक्तः / अत्र परप्रसिद्धं निदर्शनमाह-'विप्रकृष्ट' इत्यादि / पूर्वोत्तरकोटिविच्छिन्नादर्थाद् अन्यः त्रिकालानुयायी अर्थः तदन्तरम् तस्य च ग्रहणोपायाभावाद् विप्रकृष्टत्वम् , विप्रकृष्टश्च तद् अर्थान्तरञ्च तस्येव तद्वत् / एतदुक्तं भवतियथैकस्य कालत्रयानुयायिनः कुतश्चित्प्रतिपत्तुमशक्तेः न तंत्र प्रत्यक्षानुपलम्भसाधन: 20 कार्यकारणभावः सिद्धयति तथा प्रतिपरमाणुनियतेन ज्ञानेन क्षणिकभावानामप्रतिपत्तेः न तत्साधनस्तद्भावः सिद्ध्येत् / (1) कार्योत्पत्तिकालेऽपि कारणसद्भावे तस्य द्विक्षणावस्थायित्वं स्यादिति भावः। (2) योगः / तुलना-"अर्थक्रियाकारित्वेन सत्ताभ्युपगमे समानञ्चैतद् दूषणम्-किं सतामर्थकियाकारित्वमथासतामिति ? सतामर्थक्रियाकारित्वे सत्ताभ्युपगमे तथा दुरुत्तरमितरेतराश्रयत्वम् / तथा हि अर्थक्रियाजनकत्वे सत्त्वम्, सतश्चार्थक्रियाजनकत्वमित्येकाप्रसिद्धावितराप्रसिद्धिः / अथ अर्थक्रियामन्तरेण सतोऽर्थक्रियाजनकत्वम् ; तत्राप्ययं विकल्प इत्यनवस्था / असत एवार्थक्रियाजनकत्वे खरविषाणादिष तथाभावः स्यात् / अर्थक्रियायाश्चार्थक्रियान्तरेण सत्त्वेऽनवस्था / अथ स्वरूपेणेति चेत; पदार्थेष तथाभावप्रसङ्गः ।"-प्रश० व्यो० पृ० 127 / प्रश० कन्द० पृ० 12 / (3) असद्भूतायाः। (4) अर्थक्रियायाः। (5) अर्थलक्षणत्वविरोधात् / (6) अर्थस्य / (7) प्रकृतार्थक्रियायाः सत्त्वव्यवस्थापिका अपराऽर्थकिया तस्या अप्यपरा इत्यनवस्था। (८)क्षणिकेऽर्थे / (9) अर्थक्रिया / (10) कार्यकारणभावः। (11) क्षणिकार्थानाम् / (12) कार्यकारणभावः / (13) त्रिकालानुयायिनोऽर्थस्य / (14) नित्यऽर्थे / (15) प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनः। (16) कार्यकारणभावः / 1-योर्लक्ष-ब०, श्र० / 2 अनवस्थितिरिति श्र०। 3 व्यावर्तते श्र। 4 इत्यादि आ० / -धनसदभावः श्र०। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० साम्प्रतं तेषां तत्साधनं तद्भावमभ्युपगम्य तत्र दूषणमाह-'यस्मिन्' इत्यादि / यस्मिन् वस्तुनि सत्येव विद्यमान एव यद्भावो यस्य वस्तुनः भाव आत्मलाभः तद्वस्तु तस्य पूर्वस्य कार्यम् / 'यस्मिन् सत्येव' इत्यनेन यन्निर्दिष्टम् तद्, इतरत् कारणम् इति एवं लक्षणं कार्यकारणयोः क्षणभङ्गे न संभवत्येव / कुत एतत् ? इत्यत्राह। 'कार्य' इत्यादि। अत्रायमभिप्राय:-कारणसत्ताकाल एव कार्यस्य भावे 'यस्मिन् सत्येव' इति घटते, परन्तु कार्यकारणयोः सहभावापत्तेः सन्तानोच्छेदः स्यादिति / ननु स्यादयं दोषः यदि यदैव कारणमुत्पद्यते तदैव स्वकार्य कुर्यात, यावता पूर्वमुत्पद्य पुनः कार्यकाले सत् कार्यमुत्पादयति; इत्यत्राह- 'अन्यथा' इत्यादि / उक्तप्रकारादन्येन प्रकारेण क्षणभङ्गभङ्गप्रसङ्गात् / क्षणभङ्गे कार्यकारणयोः 'लक्षणं न संभवत्येवं' इति सम्बन्धः। ननु 'यस्मिन्' इति सप्तमी कारणभावे कार्यभावं सूचयति, स च पूर्वमेव स्वसत्ताक्षणे कारणे सति उत्तरक्षणे कार्यभावो न विरुध्यते, यथा गोषु दुह्यमानासु गतः दुग्धासु आगतः इति / समसमयभावित्वे चानयोः कार्यकारणभावविरोधात् सव्येतर- . गोविषाणवत् इत्यारेकापनोदार्थमाह कार्योत्पत्तिविरुद्धा चेत् स्वयं कारणसत्तया। युज्येत क्षणिकेऽर्थेऽर्थक्रियाऽसंभवसाधनम् // 36 // विवृतिः-नहि कार्योत्पत्तिः कारणस्याभावं प्रतीक्षते यतः तदर्थक्रिया अक्षणिके विरुद्ध्येत / निष्कारणस्य अन्यानपेक्षया देशकालस्वभावनियमायोगात् सर्वत्र सर्वदा सर्वथैव भावानुषङ्गात् / तदयं भावाऽभावयोः कार्यकारणतां लक्षयेत् सर्वथा भावस्यैव वा / स्वलक्षणस्य क्वचित् प्रत्यक्षानुपलम्भासिद्धेः कुतः कार्यव्य20 तिरेकोपलक्षणं कारणशक्तेः ? (1) क्षणिकानाम् / (2) प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनम्। (3) कार्यकारणभावम्। (4) तुलना"क्षणस्थायि कारणं स्वसत्तायां कार्यं कुर्वदभ्युपगच्छन् क्रमोत्पत्तिमुपरुणद्धि सकलजगदेकक्षणवृत्तित्वप्रसजात"-अष्टश०अष्टसह०पू०९१। 'सत्येव कारणे यदि कार्यं त्रैलोक्यमेकक्षणवति स्यात्, कारणक्षणकाल एव सर्वस्य उत्तरोत्तरक्षणसन्तानस्य भावात् ततः सन्तानाभावात्"-अष्टश०अष्टसह०प०१८७। (5) न हि गोदोहनकाल: गमनकालश्चैकः संभवति। (6) कारणकार्ययोः / (7) चेद् यदि विरुद्धा विप्रतिषिद्धा स्यात, का? कार्योत्पत्तिः, कार्यस्योत्तरपरिणामस्योत्पत्तिः स्वरूपलाभः / कया ? स्वयं कारणसत्तया. स्वयं कारणं विवक्षितकार्यजनक द्रव्यस्वरूपमुपादानं तस्य सत्तया भावेन / तर्हि युज्येत. यक्तं स्यात / किम् ? अर्थक्रियासंभवसाधनम्, अर्थस्य अभिमतप्रयोजनस्य क्रिया निष्पत्तिः तत्संभवसाधनम् नित्ये क्रमयोगपद्यविरहादित्यनुमानम् / क्व? अर्थे / किविशिष्टे ? क्षणिके निरन्वयक्षणनश्वरे। इदमतिपत्तिवचनम / न च सा विरुद्धा कार्यकाले सत एव कारणत्वात. अन्यथा कार्यस्य आकस्मिकत्वप्रसङ्गात्""-लघी० ता० पृ० 56 / तुलना-"कार्योत्पत्तिविरुध्येत न वै कारणसत्तया / यस्मिन सत्येव यद्भावः तत्तस्य कार्यमितरत्कारणमिति क्षणिकत्वे न संभवत्येव सहोत्पत्तिप्रसङ्गात् कुतः सन्तानवृत्तिः ।"-सिद्धिवि०पृ० 160,326 / 1 सदभावो आ012 इत्येवलक्षणं आ01 3 संभावनोच्छेद: ब014-णलक्षण-श्र०1-5-त्येनेति आ०। 6 स्वतो सत्ता-श्र०। 7-क्षणकार्य-आ018 कार्यस्योत्प-ई०वि०। कारणसिद्धेः ई०वि०। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का० 36] संग्रहनयस्य लक्षणम् 617 यानम् कार्यस्य उत्पत्तिः आत्मलाभः विरुद्धा चेत् यदि खयम् आत्मना, कया ? कारणसत्तया / एतदुक्तं भवति-यदि कारणसंत्तया कारिकाव्याख्यानम् या कार्योत्पत्तिर्विरुध्यते तदा युक्तमेतत् पूर्वमेव तद्भावे तद्भाव इति / तथा चेदत्र दूषणमाह-'युज्येत' इत्यादि / युज्येत उपपद्येत अर्थक्रियाऽसंभवसाधनम् / क ? अर्थे / कथम्भूते ? क्षणिके 'विनष्टे कारणे तदैसंभवात्' इति / मन्यते / यदि वा, तया तदुत्पत्तिविरुद्धा यदि तदा युज्येत अर्थे क्षणिके अर्थक्रियाऽसंभवसाधनम्, न च तयाँ सा विरुद्धति प्रतिपादयिष्यते / व्यतिरेकमुखेन कारिकां विवृण्वन्नाह-'नहि' इत्यादि / हिर्यस्मात् न कार्यस्य र उत्पत्तिः कारणस्य अभावं प्रतीक्षते यावत् कारणं निर्मूलन्न नश्यति विवृतिव्याख - तावत् स्वयं नोपपद्यते इति / यतः तदपेक्षणात् तदर्थाकया क्रमयौ- 10 गपद्यार्थक्रिया अक्षणिकत्वे अपि विरुध्येत / 'यतः' इति च आक्षेपे, नैव विरुध्यते / कुत एतदित्याह-'निष्कारणस्य' इत्यादि / इदमत्र तात्पर्यम्-विनष्टे कारणे यदा कार्य जायते तदा तन्निष्कारणं भवति, तस्य च अन्यस्य देशादेः अनपेक्षा अपेक्षाऽभावः तया देशकालस्वभावनियमायोगात् सर्वत्र सर्वदा सर्वथैव भावानुषङ्गात् कारणात् 'नहि तदभावं सा प्रतीक्षते' इति सम्बन्धः / तथा तस्यास्तदंपेक्षणे दूषणान्तर- 15 माह-'तदयम्' इत्यादि / तत् तस्मात् तदपेक्षणात् अयं सौगतः कार्यस्य यो भावः आत्मलाभः यश्च कारणस्य अभावः तयोः यथासंख्येन कार्यकारणतां लक्षयेत / 'यद्धि कार्यम् आत्मलाभे अपेक्षते तत् कारणम्, अपेक्ष्यते च तेने तल्लाभे तदभावः इति मन्यते / इदमपरं व्याख्यानम्-यदा कारणान्न कार्य किन्तु कारणात् तदभावः ततश्च 20 कार्य तत्राह-'तत्' इत्यादि / तत् तस्मान्यायात् अयं भावाभावयोः कारणतन्निवृत्त्योः कार्यकारणतां भावस्य कारणताम् अभावस्य कार्यतां लक्षयेत् / कार्यशब्दस्य परप्रयोगप्रसङ्गेऽपि अल्पान्तरत्वात् पूर्वनिपातः। अथ मतम्-न अभावः प्रख्योपाख्याविहीनत्वात् कस्यचित् कारणं कार्यश्च, इत्यत्राह-सर्वथा भावस्यैव वा सत एव वा (1) कारणसद्भावे / (2) कार्यसद्भावः / (3) अर्थक्रियाऽभावात् / (4) कार्योत्पत्तिकाले उपादानकारणसत्तया। (5) कार्योत्पत्तेः / (6) कारणाभावापेक्षणे / (7) कर्म। (8) कर्तृ / (9) कार्येण। (10) आत्मलाभे। (11) कारणाभावः। (12) कार्येण आत्मलाभे अपेक्ष्यमाणत्वात् कारणाभाव एव कारणं स्यादिति भावः / (13) कारणाभावः (14) "अल्पान्तरम्"-जैनेन्द्र. व्या० १।३।१००।-'द्वन्द्वे से (समासे) अल्पान्तरमेकं पूर्व प्रयुज्यते।"-शब्दार्णव०१२३३११४। (15) 'प्रख्यायते इति प्रख्या विकल्पः, उपाख्यायते इति उपाख्या श्रुतिः ताभ्यां विकल्पशब्दाभ्यां रहित्वात् / 1-सत्ताया श्र० 12-यिष्यति आ० / -कत्वे विरुद्धचते आ०। 4 अन्यदेशादेः ब०, श्र० / यदि का-श्र० / 6 अल्पान्तरत्वात आ०, अल्पस्वरत्वात ब०। 7एव वार्य-आ० / 28 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 ___ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० 'कार्यकारणतां लक्षयेत्' इति सम्बन्धः / कारणवत् कार्यस्याप्यसत्त्वाऽसंभवात् अतः सांख्यमतप्रसङ्गः सौगतस्य इत्यभिप्रायः / ननु मा भूत् क्षणिके प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनः कार्यकारणभाषः, कार्यव्यतिरेकसाधनस्तु इन्द्रियशक्तिवत्स्यात् , इत्यत्राह-'स्वलक्षणस्य' इत्यादि / स्खलक्षणस्य परपरिकल्पितपरमाणुलक्षणस्य क्वचिद् अन्तर्बहिर्वा प्रत्यक्षा6 नुपलम्भासिद्धेः, प्रत्यक्षपूर्वकोऽनुपलम्भः प्रत्यक्षानुपलम्भः तस्य असिद्धेः कारणात् कुतः कार्यस्य व्यतिरे केणोपलक्षणं कारणशक्तेः ? न कुतश्चित् / एतदुक्तं भवति–यदा तस्य तद्रूपं कार्य कुतश्चित् प्रत्यक्षं सत् पुनः इतरकारणसद्भावेऽपि नोपलभ्यते तदा युक्तं तेनोपैलक्षणं तेच्छक्तेः, न चैवमस्तीति / नर्नु यदुक्तम्-'बहिरिव ज्ञानपरमाणुसञ्चय' इत्यादि, 'नहि कार्योत्पत्तिः' इत्यादि च; तैदयुक्तम्; यथाप्रतिभासं चित्रैकज्ञानोपगमात् / “चित्रप्रतिभासाप्येकैव बुद्धिः" [प्रमाणवातिकालं० लि. पृ० 395 / ] इत्यादिवचनात् / तथा कार्यस्य देशवत् कालेऽपि असत एव कारणादेव उदयोपगमात् कथमन्यथा जाग्रद्विज्ञानात् प्रबोधः भाविमरणादेर्वा. अरिष्टादिकम् इत्याशक्य आह यथैकं भिन्नदेशार्थान् कुर्याद् व्यामोति वा सकृत् / तथैकं भिन्नकालार्थान् कुर्याद् व्यामोति वा क्रमात् // 37 // (1) कार्यव्यतिरेकेण कारणव्यतिरेको ज्ञायते, क्षणिके च न कार्यव्यतिरेकः अत: क्षणिकेऽर्थे कार्यकारणभाव: साधनीयः, यथा हि-रूपज्ञानोत्पत्त्यभावेन रूपज्ञानजननशक्त्यभावः व्याप्तः, चक्षुषि , अविकले सति न रूपज्ञानोत्पत्त्यभावः अतस्तत्र रूपज्ञानजननशक्तिः व्यवस्थाप्यते / नहि चक्षषि रूपज्ञानजननशक्तिव्यवस्थापने प्रत्यक्षानुपलम्भौ प्रभवतः, शक्तेरतीन्द्रियत्वात् प्रत्यक्षानुपलम्भाऽगोचरत्वात् / तथैव क्षणिकेऽर्थे प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनः कार्यकारणभावो मासेत्स्यत् कार्यव्यतिरेकेणानमीयमानस्तु सिद्धयत्येव इत्यभिप्रायः / (2) क्षणिकस्य / (3) कार्यव्यतिरेकेण / (4) अनुमानम् / (5) कार्योत्पादनशक्तेः / (६)प्रज्ञाकरगुप्तः / (7) प० 613, 616 / (८):"चित्रप्रतिभासापि बुद्धिरेकैव बाह्यचित्रविलक्षणत्वात् / शक्यविवेचनं चित्रमनेकम्, अशक्यविवेचनाश्च बुद्धेर्नीलादयः ।"-प्रमाणवातिकालं० पृ० 395 / उद्धृतमिदम्-प्रमेयक० पृ०९५ / न्यायकुमु० पृ० 130 / सन्मति० टी० पृ० 241 // न्यायवि० वि० 10101 A. / 'प्रज्ञाकरगुप्तेनाप्युक्तम्-चित्रप्रतिभासा'-सिद्धवि० टी० पृ०५५ A. / (9) यथाहि कार्यस्य देशेऽविद्यमानमपि कारणं कार्योत्पादकम्, तथा कार्यकालेऽविद्यमानमपि कार्योत्पादकं भवतु / (१०)यदि कार्यकाले विद्यमानादपि कारणात् कार्योत्पत्तिः न स्वीक्रियते तदा / (11) प्रज्ञा करगुप्तो हि प्रमाणवार्तिकालङ्कारकारः, स च भाविनं भूतञ्चार्थ कारणमाचक्षते; तथाहि"अविद्यमानस्य करणमिति कोऽर्थः ? तदनन्तरभाविनी तस्य सत्ता, तदेतदानन्तर्यमुभयापेक्षयापि समानम् / यथैव भूतापेक्षया तथा भाव्यपेक्षयापि। न चानन्तर्यमेव निबन्धनम् ; व्यवहितस्यापि कारणत्वात् / गाढसुप्तस्य विज्ञान प्रबोधे पूर्ववेदनात् / जायते व्यवधानेन कालेनेति विनिश्चितम् / / तस्मादन्वयतिरेकानुविधायित्वं निबन्धनम् / कार्यकारणभावस्य तद् भाविन्यपि विद्यते // मृत्यन भविष्यन्न भवेदेवम्भूतमरिष्टमिति ।"-प्रमाणवातिकालं० 10 176 / (12) "यथा येनाविरोध 1-धनवस्तु श्र०।-त्राह स्वलक्षणस्य पर-आ०। -रेकोणोप-आ०1 4 तदुक्तम् आ०। 5 प्रबोधोदयो भा-ब०। 6 तथैवं आ० / Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारिकाव्य नयप्र० का० 37] संग्रहनयस्य लक्षणम 616 विवृतिः-यथा क्षणिकं स्खलक्षणं नानादिग्देशभावीनि कार्याणि स्थानसङ्करव्यतिकरव्यतिरेकेण करोति तत्करणकस्वभावत्वात् / नहि सामग्रीभेदात् कार्यभेदेपि तत्कारणस्वभावभेदः, तथैकमक्षणिकं यद्यदा उत्पित्सु कार्य तत्तदैव करोति तत्करणकस्वभावत्वात् / सर्वदा कार्यकालानतिक्रमण करणसामर्थ्यात् तदात्मकमेकमेव इत्यविरुद्धम् / यथा विज्ञानं स्वनिर्भासभेदान् गुणी गुणान् अवयवी अवयवान् / व्यामोति सकृदपि तदात्मकत्वात् , तथैव द्रव्यं स्वपर्यायभेदान् स्वयमभेदकत्वात्तेषां स्वभावानामिति / एवम्यथा येन योग्यताप्रकारेण एक निरंशं क्षणिकं वस्तु भिन्नो देशो येषाम नाम्, देशग्रहणमुपलक्षणं तेन प्रज्ञाकरगुप्तापेक्षया भिन्नकाल ग्रहणम् , तान् कुर्यात् सकृद एकदैव / तथाहि-प्रदीपक्षणः प्रमा- 10 तरि स्वज्ञानं स्ाल्यां तैलशोषं दशाननदाहञ्च उपरि कजलम् इत्यादि भिन्नदेशं सकृदेवाऽनेकं कार्यं कुर्याद् एवमन्यदपि चिन्त्यम् / तथा यदैवं जाग्रद्विज्ञानं स्वापानन्तरं व्यापारादिकार्यं कुर्यात् तदैव कालान्तरभाविस्वकालनियतं प्रबोधम् , यदैवच भाविराज्यादिकं स्वकालनियतं दर्शनं कुर्यात् तदैव चिरातीतकालं हस्तरेखादिकम् , तथैकं नित्यं भिन्नकालार्थान् / कुतः ? क्रमात्, क्रममाश्रित्य / एकदैकं कृत्वा पुनरन्यं 15 कुर्यात् तत्कालेऽपि तद्भावात् / तथा चेदमयुक्तम्- 'नोऽक्रमात् क्रमिणो भावाः" प्रकरेणैकं सौगताभिमतं क्षणिकस्वलक्षणं सकृदेकक्षणे भिन्नदेशार्थान् भिन्नो विप्रकृष्टो देशो येषां ते भिन्नदेशाः ते च तेऽर्थाश्च कार्याणि तान, स्वसन्तानवतिनमुपादानत्वेन सन्तानान्तरवर्तिनञ्च निमित्तत्वेन जनयेदित्यर्थः / यथा वा एकं ज्ञानं भिन्नदेशार्थान् विप्रकृष्ट नीलाद्याकारान् व्याप्नोति न विरुध्यते तथा एकमभिन्नद्रव्यं क्रमात् कालभेदेन भिन्नकालार्थान् भिन्नः पूर्वापरभूतः कालो येषां ते च तेऽर्थाश्च कार्याणि तान् कुर्यात्, पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिरूपेण परिणमत इत्यर्थः / तानेव व्याप्नोति वा तादात्म्यमनुभवति वा, न विरुध्यते ।"-लघी० ता० पृ०५६ / “तथैवोक्तं भट्टाकलङ्कदेवै:यथैकं भिन्नदेशा।"-सत्यशासनप० पृ० 15 B. I (1) सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः संकरः / (2) परस्परविषयगमनं व्यतिकरः / (3) प्रदीपविषयकं ज्ञानम् / (4) तैलपात्रे / (5) दशा वर्तिका तस्या आननं मुखम् अग्रभागः तस्य दाहम् / (6) न हि स्वापानन्तरभाविव्यापारादीनां प्रबोधस्य च जाग्रद्विज्ञानं विभिन्नकालवति सत् समुत्पादक घटते तस्य एकक्षणमात्रवत्तित्वादित्याशयेनाह-यदैवेति / (7) स्वविषयकं दर्शनं प्रत्यक्षम / (8) अन्यपदार्थोत्पादकालेऽपि / (9) नित्यस्य सद्भावात् / (10) "नाक्रमाक्रमिणो भावो नाप्यपेक्षाऽविशेषिणः / क्रमाद् भवन्ती धीः कायात् क्रम तस्यापि शंसति // नाऽक्रमात् ऋमिणः कार्यस्य भावः, क्रमरहितत्वात कारणस्य तन्निष्पाद्यानि कार्याणि सकृज्जायेरन् / क्रमवतः सहकारिणोऽपेक्ष्य क्रमाज्जनिष्यतीति चेतनाप्यविशेषिणः स्थिरैकरूपस्य परैरनाधेयविशेषस्य परेषां सहकारिणामपेक्षाऽस्ति / तस्मात क्रमाद भवन्ती धीः कायात क्रमन्तस्यापि कायस्य शंसति ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 1145 / उद्धृतोऽयम्-'नाक्रमात् क्रमिणो भावा' 'धीश्चेयं क्रम..'-सिद्धिवि० टी०प० 161 A., 197A. / 'धीयात..'-सन्मति० टी० पृ० 336 / प्रकृतपाठः-प्रमेयक० प० 325 / 1कारण-ज.वि०॥2-त्वात् स्वभा-ई०वि०। 3 एवं आ०। 4-यथा श्र नियतवर्शन श्र। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 620 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० [प्रमाणवा० 1 / 45] इत्यादि / यथा चैकं ज्ञानं क्षणिकं भिन्नदेशार्थान् नानादेशनीलाद्याकारान् व्यामोति तदात्मकं भवति / वाशब्दः पक्षान्तरसूचकः, सकृद् एकदा तथा एकमात्मतत्त्वं भिन्नकालार्थान् सुखादीन् व्याप्नोति चाक्रमात् / ___ कारिकां विवृण्वन्नाह-'यथा' इत्यादि / यथा येन प्रकारेण स्वलक्षणम् , कथम्भूतम् ? क्षणिकम्, करोति कार्याणि / कथम्भूतानि ? नानाविवृतिविवरण पण दिग्देशभावीनि, दिग्ग्रहणमुपलक्षणं तेन नानाकालभावीन्यपि गृह्यन्ते / कथं करोति ? स्थानसङ्करव्यतिकरव्यतिरेकेण / कुत एतदित्याह-तत्करणैकस्वभावत्वात् / तदेव समर्थयते 'नहि' इत्यादिना / हिर्यस्मात् न सामग्रीभेदात् कार्य- . भेदेऽपि कारणस्वभावभेदः, तथा एकमक्षणिकं कारणं यद् यदा उत्पित्सु कार्य तत् 10 तदैव करोति / कुत एतदित्याह-तत्करणैकस्वभावत्वात् / ननु क्रमभावीन्यनेक कार्याणि कुर्वत् कथं तदेकम् तावद्धा भेदप्रसङ्गात् ? इति चेदत्राह-'सर्वदा' इत्यादि / सर्वदा सर्वकालं कार्यकालानतिक्रमण करणसामर्थ्यात् कारणात् तदात्मकं तत्करण-. . सामर्थ्यात्मकम् एकमेवेत्यविरुद्धम् / अस्यैव समर्थनार्थमाह-'यथा' इत्यादि। यथा सौगतस्य विज्ञानं स्वनि सभेदान् आत्मनीलाद्याकारविशेषान् नैयायिकस्य गुणी 15 गुणान् , अवयवी अवयवान् व्यामोति कथश्चित्तदात्मको भवति / कदा ? सकृदपि, न केवलमसकृत् / ननु ज्ञानतन्निर्भासयोः गुणगुणिनोः अवयवावयविनोश्च अत्यन्तभेदान्न युक्तमेतदित्यत्राह-तदात्मकत्वात् , ज्ञानादेः स्वनि सभेद-गुण-अवयवात्मकत्वात् / अन्यथा घटपटवत् तज्ज्ञानवच्च गुणगुण्यादिभावः चित्रज्ञानरूपता च न स्यादित्युक्त विस्तरतः प्रागेव / तथैव द्रव्यं जीवादि स्वपर्यायभेदान् व्यामोति / स्वग्रहणात् सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः / चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रं नाभिधावति ? // " [ प्रमाणवा० 3 / 181 ] (2) प्रतिनियतदेशस्थमेव / (2) चित्रज्ञानम् / (3) आदिपदेन गुणी अवयवी च ग्राह्यौ। (4) घटपटज्ञानवत् / (5) व्याख्या-"सर्वस्योभयरूपत्वम्-उभयग्रहणमनेकत्वोपलक्षणार्थम तस्मिन सति, तद्विशेषस्य 'उष्ट उष्ट्र एव न दधि, दधि दध्येव नोष्ट्रः' इत्येवं लक्षणस्य निराकृतेः, 'दधि खाद' इति चोदितः पुरुषः किमुष्ट खादितुं नाभिधावति ? उष्ट्रोऽपि दध्यभिन्नात् द्रव्यत्वादव्यतिरेकात स्याधि, नापि स एवेति 'उष्ट उष्ट एव' इत्येकान्तवादः, येनान्योऽपि दध्यादिकः (तः) स्यादुष्टः / तथा दध्यपि स्यादुष्ट: उष्ट्राभिन्नेन द्रव्यत्वेन दध्नस्तादात्म्येनाभिसम्बन्धात् / नापि तदेवेति दध्येव दधि, येनान्यदपि उष्ट्रादिकं (तः) स्याद्दधि / एतेन सर्वस्योभयरूपत्वं व्याख्यातम् ।"-प्रमाणवा० स्वव० टी० 12183 / मनोरथ०१११८३ / उद्धृतोऽयम्-अनेकान्तजय० पृ० 18 / 'नोदितो..' -अनेका०प्र० पृ० 7 / अष्टसह० पृ० 92 / सन्मति० टी० पु० 242 / न्यायवि० वि०१० 92 A. I'. निराकृतः / प्रेरितो दधि...'-स्या० 20 पृ० 837 / 1 ज्ञानक्षणिकं आ० / 2-संकरव्यतिरेकेण श्र०। 3 तावद्वा आ०। 4 कार्यकार-आ० / 6-स्मकमेवेत्य-आ०, ब०। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का 0 38] संग्रहनयस्य लक्षणम् इत्येतन्निरस्तम् ; दध्यादेः उष्ट्रादिस्वरूपभूतपर्यायत्वासंभवात् / कुतस्तत् तान् व्याप्नोतीति चेदत्राह-'स्वयम्' इत्यादि / स्वयं स्वरूपेण अभेदकत्वात्तेषाम् / इतिशब्दः द्रव्यसिद्धिप्रघट्टकपरिसमाप्तौ / तदेवं सिद्धे परापरद्रव्ये परापरसंग्रहः प्रवर्त्तते / तत्र परसंग्रहं प्रदर्शयितुमाह संग्रहः सर्वभेदैक्यमभिप्रैति सदात्मना / ब्रह्मवादस्तदाभासः स्वार्थभेदनिराकृतेः // 38 // विवृतिः-नहि कश्चिदसदात्मा भेदोऽस्ति विरोधात् / यद् यदात्मकं तत् तदेव, यथा. स्वनिर्भासभेदात्मकं ज्ञानम् , तस्मात् सदात्मनो भेदाः सन्मात्रमेव नान्यदिति संग्रहः / तत्प्राधान्यात् न तु भेदप्रतिक्षेपात् / स्वपर्यायभेदानपेक्षया तत्प्रतिरूपकत्वं ब्रह्मवादवत् / संग्रहः संग्रहनयः सर्वेषां भेदानां जीवादिविशेषाणाम् ऐक्यमभिप्रैति केन रूपेण ? इत्याह-सदात्मना। ब्रह्मवादेऽपि सदात्मना तेषां कारिकाव्याख्यानम् पा संग्रहः संभवति इति सोऽपि संग्रहनयः स्यादित्याशकापनोदार्थमाहब्रह्मवादस्तदाभास इति / कुत एतत् ? इत्याह-'स्वार्थ' इत्यादि / स्वार्थः सन्मानं तस्य भेदो जीवादिः तस्य निराकृतेः असौ तदाभासः संग्रहाभासः, 15 तन्निराकृतौ सन्मात्रस्यापि निराकृतिसिद्धेः / न खलु निराश्रयं सामान्यं नाम अश्वविषाणादेरपि तत्त्वप्रसङ्गात् / . व्यतिरेकद्वारेण कारिकां विवृण्वन्नाह-'नहि' इत्यादि / हिर्यस्मात् न कश्चित् विवृतिविवरणम् चेतनः इतरो वा भेदो विशेषः असदात्मा अस्ति, कुत एतत् इत्याह विरोधात् / असदात्मनोऽस्तित्वविरोधश्च प्रागेव समर्थितः / ननु- 20 (1) तुलना-"सुगतोऽपि मृगो जातः मृगोऽपि सुगतः स्मृतः / तथापि सुगतो वन्द्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते // तथा वस्तूबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितेः / चोदितोदधि खादेति किमष्टमभिधावति // " -न्यायवि० का० 373-74 / अनेकान्तजय० पृ० 281 / “न ह्यस्माभिर्दध्युष्टयोरेकं तिर्यकसामान्य वस्तुत्वादिकं व्यक्त्यभेदेन व्यवस्थितं तथाभूतप्रतिभासाभावादभ्युपगम्यते / यादग्भूतं तु प्रतिव्यक्ति भिन्नं 'समानाः' इति प्रत्ययविषयभूतमभ्युपगम्यते तथाभूतस्य तस्य शब्देनाभिधाने किमित्यन्यत्र प्रेरितोऽन्यत्र खादनाय धावेत् यद्युन्मत्तो न स्यात् ।"-सन्मति० टी० पृ० 242 / (2) पर्यायाणाम् / (3) तुलना-"निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायणः / तदाभासः समाख्यातः सद्भिर्दष्टेष्टबाधनात् ॥".तस्वार्थश्लो०१० 270 A. | नयविव० श्लो०६८। प्रमेयक० पृ०६७७ / न्यायावता०टी०५०८५ / प्रमाणनय०७.१५, 21 / जैनतर्कभा० 1024 / (4) "स्वस्य ब्रह्मवादस्य अर्थो विषयः सन्मानं तस्य भेदा जीवादिविशेषाः तेषां निराकृतेः प्रतिषेधात् / न खलु सर्वथा सत्त्वे भेदानामवकाशोऽस्ति / भेदरहितं च तत्कथं सामान्यं नाम निराश्रयत्वात् अर्थक्रियाविरहाच्च।"-लघी० ता०प०५८ / (5) सत्त्वप्राधान्यात् / (6) संग्रहाभासत्वम् / (7) सामान्यत्वप्रसङ्गात् / 1 तस्मात्तदात्मानो ई० वि०। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० भवत्वेवम् ; तथापि भेदेभ्यो भिन्नं सत्त्वम् इत्यत्राह-यद् यदेत्यादि / यद् द्रव्यादि यदात्मकं यत् सत्त्वमात्मा यस्य तद् यदात्मकम् तद् द्रव्यादि तैदेव भवति सद्रूपमेव भवति, यथा स्वनिर्भासभेदात्मकं संशयेतरविपर्यासेतरविशेषात्मकं ज्ञानं संशयादि रूपमेव भवति / यत एवं तस्मात् सदात्मनो भेदाः सन्मात्रमेव नान्यत् भावाद्भिन्नं 5 प्रागभावादि इति एवं संग्रहः / कुतः स इत्याह-तत्प्राधान्यात् , सन्मात्रप्राधान्यात् नतु न पुनः भेदप्रतिक्षेपात् / कुत एतदित्याह-स्वपर्यायभेदानपेक्षया, यतः तत्प्रतिरूपकत्वं संग्रहाभासत्वम् / किंवदित्याह-ब्रह्मवादवत् इति / अधुना नैगमतदाभासप्ररूपणार्थमाह अन्योन्यगुणभूतैकभेदाभेदप्ररूपणात् / 10 नैगमोऽर्थान्तर्रत्वोक्तो नैर्गमाभास इष्यते // 39 // विवृतिः-स्खलक्षणभेदाभेदयोः अन्यतरस्य प्ररूपणायाम् इतरो गुणः स्यात् इति नैगमः। यथा जीवस्वरूपनिरूपणायां गुणाः सुखदुःखादयः, तत्प्ररूपणायां (1) "इष्यते मन्यते स्याद्वादिभिः / क: ? नैगमः, निगमो मुख्यगौणकल्पना, तत्र भवो नैगम इति / कूतः ? अन्योन्येत्यादि / गुणभावः अप्रधानभूतः एकश्च प्रधानभूतः, अन्योन्यं परस्परं गुणभूतको तौ च तौ भेदाभेदौ च तयोः प्ररूपणात् ग्रहणात् / तथाहि गुणगुणिनामवयवावयविनां क्रियाकारकाणां जातितद्वताञ्च कथञ्चिद् भेदं गुणीकृत्य अभेदं प्ररूपयति, अभेदं वा गुणीकृत्य भेदं प्ररूपयति / नैगमनयस्यैवंविधत्वात् ,प्रमाणे भेदाभेदयोरनेकान्तग्रहणात् / ननु गुणगुण्यादीनामत्यन्तभेद एवेति चेदत्राह-अर्थत्यादि। अर्थान्तरत्वं गुणगुण्यादीनामत्यन्तभेदः / तस्योक्तौ प्ररूपणायां नैगमाभास इष्यते तस्य प्रमाणबाधितत्वात् ।"-लघी० ता० पृ० 57 / तुलना-"णेगेहि माणेहिं मिणइत्ति णेगमस्स य निरुत्ती / सेसाणंपि नयाणं लक्खणमिणमो सुणह वोच्छं।"-अनुयोगद्वार० 4 द्वा० / आव०नि० गा० 775 / विशेषा० गा० 2682 / “निगमेषु येऽभिहिताः शब्दास्तेषामर्थः शब्दार्थपरिज्ञानं च देशसमग्राही नैगमः / 'आह च -नगमशब्दार्थानामेकानेकार्थनयगमापेक्षः / देशसमग्रमाही व्यवहारी नगमो ज्ञेयः ।"-तत्त्वार्थाधि० भा० 1135 / तत्वार्थहरि०, तत्त्वार्थसिद्ध०१।३५ / "अभिनिर्वृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः।"-सर्वार्थसि० 1133 / राजवा० 1133 / “यदस्ति न तद् द्वयमतिलङध्य वर्तते इति नैकं गमो नयः संग्रहासंग्रहस्वरूपद्रव्याथिको नैगम इति यावत् ।"-पवलाटी० पृ० 84 / जयध० अ०१० 27 / "तंत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः / यद्वा नैकं गमो योऽत्र स सतां नैगमो मतः। धर्मयोः धर्मिणोः वापि विवक्षा धर्मधमिणोः / पर्यायनंगमादिभेदेन नवविधो नैगमः ।"-तत्त्वार्थश्लो०.१०२६९। नयविव०३३,३७। प्रमेयक० पृ०६७६। सन्मति० टी० पू० 310 / नयचक्र गा० 33 / तत्त्वार्थसार पृ० 107 / "नैकर्मानः महासतासामान्यविशेषविशेषविज्ञानः मिमीते मिनोति वा नैकमः / निगमेषु वा अर्थबोधेषु कुशलो भवो वा नैगमः / अथवा नके गमाः पन्थानो यस्य स नैकगमः ।"-स्थानाङ्गसू० टी० पृ० 371 / "धर्मयोः धर्मिणोः धर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगमः"-प्रमाणनय० 77 / स्या० मं पु० 311 / जनतर्कभा०५० 21 / (2) तुलना-"जं सामन्नविसेसे परोप्परं वत्थुओ य सो भिन्नो। मन्नइ अच्चन्तमओ मिच्छद्दिट्ठी कणादोव्व ॥"-विशेषा० गा० 2690 / “तयोरत्यन्तभेदोक्तिरन्योन्यं वाश्रयादपि / ज्ञेयो व्यंजनपर्यायनगमाभो विशेषतः ॥"-तत्त्वार्थश्लो०१० 270 / नयविव०६३ / प्रमेयक० पृ०६७७। न्यायावता० 1082 // प्रमाणनय०७.११॥ जैनतर्कभा०प० 24 / 1-कं द्रव्या-आ० / 2 तदेवमेव श्र०। 3 एव आ० / 4 सवात्मानो आ०, ब० / 5-स्तरतोक्तो ज० वि०,-न्तरत्वोक्तो आ० / Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवृतिविद नयप्र० का 0 36] नैगमनयस्य लक्षणम् 623 च आत्मा / तदर्थान्तरताभिसन्धिः नैगमाभासः / कथम् ? गुणगुणिनाम् अवयवावयविनाम् क्रियाकारकाणां जातितद्वतां च मिथोऽर्थान्तरत्वे सर्वथा वृत्तिविरोधात् / एकमनेकत्र वर्तमानं प्रत्येकं सर्वात्मना यदि स्यात् तद् एकमित्येवं न स्यात् / यदि पुनः एकदेशेन वर्तत तदेकदेशेष्वपि तथैव प्रसंगात् क्व किं वर्तेत ? नैगमः नैगमनयः इष्यते / कुतः इत्याह-'अन्योन्य' इत्यादि / प्रमाण- 5 ___ तो हि द्रव्यपर्यायाणां कथञ्चिद्भेदे अभेदे च व्यवस्थिते सति अन्योन्यं कारिकाव्याख्यानम् - परस्परं गुणभूत अप्रधानभूतः भेदस्य अभेदः, तस्य च भेदः एकः प्रधानभूतो भेदस्य अभेदः तस्य च भेदः तयोः प्ररूपणात् / अर्थान्तरत्वोक्तौ भेदाभेदयोः एकान्तेन नानात्वोक्तौ सत्यां नैगमाभास इष्यते / कारिकां विवृण्वन्नाह-'स्वलक्षण' इत्यादि। स्वलक्षणं पर्यायात्मकं द्रव्यं 10 __ तदात्मकाः पर्यायाश्च, तस्य यौ भेदाभेदौ तयोर्मध्ये अन्यतरस्य - भेदस्य अभेदस्य वा प्ररूपणीयां क्रियमाणायाम् इतरः भेदप्ररूपणायाम् अभेदः तत्प्ररूपणायां वा भेदः गुणः स्यात् इति एवंविधो नैगमो नयः। अत्रार्थे सुस्पष्टप्रतीत्यर्थं 'यथा' इत्यायुदाहरणमाह-यथा येन अनादिनिधनचैतन्यप्रकारेण जीवस्य यत् स्वरूपं गुणपर्यायव्यापकत्वं तस्य निरूपणायां क्रियमाणायां 15 गुणा अप्रधानभूताः, के ? सुखदुःखादयः / ननु 'सुखादयः' इत्येवास्तु किं दुःखग्रहणेन ? इति चेत्, न; अन्योन्यं जीवाच्च भेदप्रतिपत्त्यर्थत्वात् तदुभयग्रहणस्य / तत्प्ररूपणायाश्च सुखदुःखादिप्ररूपणायाञ्च आत्मा जीवस्वभावो 'गुणः' इति सम्बन्धः / नन्वेवं व्याख्यानं कस्मान्न भवति-जीवस्वरूपस्य जीवसत्ताया निरूपणायां गुणाः सुखदुःखादयः, तेषां सत्तैव गुण इति, तत्प्ररूपणायाश्च सुखादिसत्ताप्ररूपणायाश्च 20 आत्मा जीवो गुणः इति चेत् ? संग्रहऋजुसूत्राभ्यामस्य भेदाभांवप्रसङ्गादिति ब्रूमः / जीवसुखादीनामन्योन्यमत्यन्तभेदप्ररूपणायां तु तदाभास इत्याह-'तत्' इत्यादि। तेषां जीवसुखादीनां प्रक्रमाद् एकान्तेन अर्थान्तरताभिसन्धिः नैगमाभासः / 'कथम्' . (1) तुलना-"वृत्तिश्च कृत्स्नाशविकल्पतो न ।"-युक्त्यनुशा० श्लो०५५। “एकस्यानेकवृत्तिर्न भागाभावाद्वहनि वा। भागित्वाद्वास्य नैकत्वं दोषो वृत्तेरनार्हते ॥"-आप्तमी० का०६२। अष्टश०, अष्टसह० पृ० 214 / तस्य तेषु सर्वात्मनाऽन्यथा वा वृत्त्ययोगो बाधकं प्रमाणम् . ।"-वादन्यायटी० 10 30 / "यद्वा सर्वात्मना वृत्तावनेकत्वं प्रसज्यते। एकदेशेन चानिष्टा नैको वा न क्वचिच्च सः // " -तत्त्वम० पृ० 203 / “यदि सर्वेषु कायोऽयमेकदेशेन वर्तते / अंशा अंशेषु वर्त्तन्ते स च कुत्र स्वयं स्थितः // सर्वात्मना चेत् सर्वत्र स्थितः कायः करादिषु / कायास्तावन्त एव स्थर्यावन्तस्ते करादयः // " बोषिचर्याव० पृ० 495 / (2) अभेदस्य। (3) अभेदस्य (4) अभेदनिरूपणे। (5) अप्रधानभूतः / (6) सुखदुःखोभय। (7) नैगमस्य / (8) सत्ताप्राधान्यपक्षे संग्रहेऽन्तर्भावप्रसङ्गः, सुखादिपर्यायप्राधान्ये तु ऋजुसूत्रेऽन्तर्भावप्रसङ्ग इति / 1-यव्यवयवक्रि-ई० वि०। 2-भूतो भेदस्य आ० / 3-णायामितरः आ०। 4 जीवस्य स्वभावो ब०, श्र०।। जीवतो गुण श्र०। 6-रूपणात्तदा-श्र०, ब०।7-षां जीवानां प्र-आ० / Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० इति प्रश्ने उत्तरमाह-गुणगुणिनाम् अवयवावयविनां क्रियाकारकाणां जातितद्वताश्च मिथः परस्परमर्थान्तरत्वे अङ्गीक्रियमाणे,किम् इत्याह-'सर्वथा' इत्यादि / सर्वेण वक्ष्यमाणप्रकारेण सर्वथा वृत्तेः गुणादीनां गुण्यादौ वर्तनस्य विरोधात् 'नैगमाभासः' इति सम्बन्धः / तद्विरोध दर्शयितुमाह-'एकम्' इत्यादि / एकम् अवयव्यादिकम् / 6 अनेकत्र देशकालाकारभिन्ने अवयवादौ वर्तमानं एकमेकं प्रति प्रत्येकं सर्वात्मना साकल्येन यदि स्याद् भवेत् वर्तमानं तदवयव्यादिकम् 'एकम्' इत्येवं न स्यात् , अपि तु यावन्तोऽवयवादयः तावन्त एव अवयव्यादयः स्युः। नहि एकस्य निरंशस्य क्रियातो भिन्नस्य परमाणुवद् युगपद् देशादिभिन्नेष्वाधारेषु वर्त्तनं युक्तम् / परस्य पक्षान्तरमाशङ्कय दूषयन्नाह-'यदि पुनः' इत्यादि / पुनरिति पक्षान्तरसूचकः, 10 एकमनेकत्र प्रत्येकं यद्येकदेशन वर्तेत तर्हि तस्य अनेकदेशाः कल्पनीयाः तेषु चास्य वृत्तिः कल्पनीया, अन्यथा कथं ते 'तस्य' इति व्यपदिश्यन्ते ? तत्कल्पने च दूषणमाह'तद्' इत्यादि / ते च ते एकदेशाश्च तेष्वपि तथैव सर्वात्मनैकदेशप्रकारेणैव प्रसङ्गात् .. दोषादनवस्था स्यात् इत्यभिप्रायः / तथाच क अवयवादौ किम् अवयव्यादि वर्तेत ? निराकृता च अवयवादौ अवयव्यादेवृत्तिः विषयपरिच्छेदे प्रपञ्चत ईत्यलमतिविस्तरेण / एवं गुणगुण्यादीनां भेदैकान्तं निराकृत्य सत्तातद्वतां से निराकर्तुमाह स्वतोऽर्थाः सन्तु सत्तावत् सत्तया किं सदात्मनाम् / असदात्मसु नैषा स्यात् सर्वथातिप्रसङ्गतः // 40 // विवृतिः-यथा सदर्थान्तराणि स्वतः सन्ति तथैव द्रव्यगुणकर्माण्येव सन्तु किं तत्र सत्तासमवायेन ? स्वतः सतां तद्वैयर्थ्यात् असतां चाऽतिप्रसंगात् / तदेवम् अवा (1) अवयविनिष्ठा क्रिया एका निरंशापि सती भिन्नदेशेषु अवयवेषु वर्तेतापि, न तु क्रियातो भिन्नोऽन्यः कश्चिन्निरंशोऽर्यः भिन्नदेशाधारेषु वर्तते इति भावः / (2) अनेकदेशेषु / (3) अनेकदेशाः / (4) अवयविनः / (5) पृ० 224 / (6) भेदैकान्तम् / (7) “योगमते भावानां स्वतः सदात्मनां सतासमवायः, असदात्मनां वेति विकल्पद्वयं मनसिकृत्य प्रथमपक्षे दूषणमाह-स्वतः स्वरूपेण अर्थाः पदार्थाः सन्तु / किंवत् ? सत्तावत्, यथा सत्तान्तराद्विनाऽपि सत्ता परसामान्यं स्वत एवास्ति तथा द्रव्यादीन्यपि स्वत एव सन्तु विद्यन्ताम् / तथा च स्वतः सदात्मनां सत्तया कि साध्यं न किमपीत्यर्थः / विनापि तया तेषां सत्त्वात्। द्वितीयविकल्पं दूषयति-सर्वथाऽसदात्मसु द्रव्यादिषु परा सत्ता न स्यात् न वर्तेत अतिप्रसङ्गात् खरविषाणादावपि सर्वथाऽसति सत्तासमवायप्रसङ्गात् ।"-लघी० ता० पृ० 59 / तुलना"सत्ताजोगादसओ सओ व सत्तं हवेज्ज दव्वस्स / असओ न खपुप्फस्स व सओ व किं सत्तया कज्जं // " -विशेषा० गा० 2694 / "स्वरूपेणासतः सत्त्वसमवाये च खाम्बुजे / स स्यात्किन्न विशेषस्याभावात्तस्य ततोऽञ्जसा // स्वरूपेण सतः सत्त्वसमवायेऽपि सर्वदा / सामान्यादी भवेत्सत्वसमवायोऽविशेषतः ॥"आप्तप० का०६९-७० / उद्धृतेयं कारिका-सूत्रकृतांग शो० पृ० 227 A. 1गणादीनां गुणादौ आ०, ब० / 2 'यदि पुनरित्यादि' इति पाठ: आदर्श लिखित्वापि निष्कासितः। 8 कथं तस्य श्र० / 4 ते च ते तदेकदे-श्र०, ब०।। इत्यलमिति-ब०। 6 निराकुर्वन्नाह-श्र०। 15 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का० 40] संग्रहनयस्य लक्षणम् न्तरजातिष्वपि योज्यम् / गोत्वादेः सर्वगतत्वे तत्प्रत्ययसाङ्कर्यम्, अन्यथा निष्क्रियस्य अर्थोत्पित्सुदेशमव्यामुवतः अनंशस्य अनेकत्र कादाचित्कवर्तनमयुक्तम् / गुणगुण्यादीनाम् अन्योन्यात्मकत्वे न किञ्चिद्विरुद्धमित्यलं प्रसङ्गेन / 'गुणानां वृत्तं चलं सत्त्वरजस्तमसां सुखदुःख (खा) ज्ञानादिकं चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमचलम्' इत्येतदपि ताडगेव, तदर्थान्तरताऽसिद्धेः। अतिप्रसङ्गश्चैवं तदभेदे विरोधाभावात् / 5 गुणानां दृश्यादृश्यात्मकत्वे पुंसामेव तदात्मकत्वं युक्तं कृतं गुणकल्पनया / खतः आत्मनैवं अर्था द्रव्यादयः सन्तु विद्यमाना भवन्तु सत्तावत् सत्ता कारिकाविवरणम्- - _ . परं सामान्यं सेव तद्वत् / सत्ताग्रहणमुपलक्षणं तेन अवान्तरसामान्य - समवाय-विशेषवत् इति च द्रष्टव्यम् / कुत एतदित्याह-सत्तया इत्यादि / इदमत्र तात्पर्यम्-स्वतः सन्तोऽर्थाः सत्तासमवायात् तद्वन्तः, अन्यथाभूता 10 वा स्युः ? प्रथमपक्षे सत् सत्त्वम् आत्मा 'येषां तेषां संदात्मनामर्थानी किम् ? न किश्चित् सत्तया 'क्रियते' इत्यध्याहारः / नहि तेषां तया स्वरूपसत्त्वं क्रियते; स्वत एवास्यं संभवात्, सतश्च करणायोगात्, अन्यथा अनवस्था स्यात् / नापि सदभिधानादि; स्वरूपसत्त्वादेव अस्यापि संभवात् / अथ स्वतोऽसन्तः तत्समवायात् तद्वन्तः अत्रौह-'असद्' इत्यादि / असन् अविद्यमान आत्मा येषां तेषु नैषा 15 परपरिकल्पिता सत्ता स्यात् / कुतः ? अंतिप्रसङ्गतः खरविषाणादावपि अस्याः प्रसङ्गात् / प्रतिव्यूढञ्च प्रपञ्चतः सत्तातः सत्त्वमर्थानां षट्पदाथपरीक्षावसरे इति . . कृतमतिविस्तरेण / कारिकां व्याख्यातुमाह-'यथा' इत्यादि / यथा येन अनवस्थादिदोषभय ____ प्रकारेण सन्ति च तानि अर्थान्तराणि च सामान्यादीनि स्वतः 20 विवृतिव्याख्यानम् आत्मनैवै न सत्तासमवायात् सन्ति सत्तावन्ति तथैव तेनैव (1) "चलञ्च गुणवृत्तमिति क्षिप्रपरिणामि चित्तमुक्तम्-प्रदीपावयवानामिव बुद्धयवयवानां गुणानां वृत्तं क्रिया चञ्चला प्रतिक्षणमन्याऽन्या च भवति, न तु निर्व्यापारा गणास्तिष्ठन्ति.."-योगभा०, योगवा० 2 / 15 / “सांख्यपक्षे पुनर्वस्तु त्रिगुणं चलञ्च गुणवृत्तमिति"-योगभा० 4115 / "गुणवृत्तं चलं नित्यम् . ."-योगका० 3 / 9 / (2) "चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्"-योगभा० पृ० 37 / (3) अवान्तरसामान्यं द्रव्यत्वपृथिवीत्वादिकम् / (4) सदात्मनाम् / (5) सत्तया। (6) स्वरूपसत्वस्य / (7) सतोऽपि करणे कारणव्यापारानुपरमरूपाऽनवस्था। (8) स्वतः सतामपि पदार्थानां सत्तया सदिति शब्दप्रयोगः सदिति ज्ञानं वा क्रियेत; अत आह नापीत्यादि। (9) सदिति शब्दप्रयोगस्य सदिति प्रत्ययस्य वा। (10) सत्तासमवायात् / (11) सत्तायाः / (12) पृ० 285- / (13) "सामान्यादीनां त्रयाणां स्वात्मसत्त्वं-सम्प्रति सामान्यादीनां साधर्म्यमाह सामान्यादीनामिति / स्वात्मैव सत्त्वं स्वरूपं यत्सामान्यादीनां तदेव तेषां सत्त्वं न सत्तायोगः सत्त्वम् / एतेन सामान्यादीनां त्रयाणां सामान्यरहितत्वं साधर्म्यमुक्तमित्यर्थः / कथमेतद? बाधकसभावात् / सामान्ये सत्ता नास्ति अनिष्ट 1 येषां सदा-आ०, श्र। तदात्मना-श्रः। 3-नां न श्र० / 4-त्राहासदि असन् आ० / 5 अतिप्रसंगः श्र०। 6-व सत्ता-श्र० / 29 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० प्रकारेण द्रव्यगुणकर्माण्येव न खरविषाणादीनि स्वतः सन्तु किं तत्र तेषु द्रव्यादिषु सत्तासमवायेन ? कुत एतदित्याह-'स्वतः' इत्यादि / स्वतो हि सतां द्रव्यादीनां सत्तासमवायात् सत्त्वं स्यात्, असतां वा ? तत्राद्यः पक्षोऽनुपपन्नः; स्वतः सतां तदै यात् सत्तासमवायवैयर्थ्यात् / स्वतोऽसताञ्च अतिप्रसङ्गात् खपुष्पादौ तत्समवा5 यात्सत्त्वप्रसङ्गात् / एतदेव दूषणमन्यत्राप्यतिदिशन्नाह-'तदेवम्' इत्यादि / तद् अनन्तरोक्तं दूषणम् एवम् उक्तविधिना योज्यम् / क ? अवान्तरजातिष्वपि द्रव्यत्वादिसामान्येष्वपि / तथाहि-यथा सद्रव्यं सन् गुणः सत् कर्म स्वतः तथा स्वतो द्रव्यं द्रव्यं गुणो गुणः कर्म कर्म खण्डादिौः कर्कादिरश्वः, किं तत्र द्रव्यत्वादिसमवाये न ? स्वतो द्रव्यगुणकर्मणां तेद्वैयर्थ्यात् , अद्रव्यगुणकर्मणाश्चातिप्रसङ्गात् / नहि तैथाऽ10 परिणतमन्यसम्बन्धात् तथा भवति आकाशकुशेशयस्यापि तथात्वप्रसङ्गात् / अत्र दूषणान्तरं दर्शयन्नाह-'गोत्वादेः' इत्यादि / अत्र आदिशब्देन अश्वत्वादिपरिग्रहः, सर्वगतत्वे अङ्गीक्रियमाणे तत्प्रत्ययसाङ्कर्यम् गोत्वादिप्रत्ययसाङ्कर्यम् खण्डादिवत् कर्कादावपि गोप्रत्ययः स्यात् / उपलक्षणमेतत् तेन अभिधानव्यवहारसाङ्कयं गृह्यते / तत्साकर्ये च अवान्तरजातित्वं तस्य अतिदुंरन्वयम् / निराकृता च विशेषतो नित्या 15 सर्वगता जातिः सामान्यपरीक्षावसरे इत्यलमिह विस्तरेणं / अथ असर्वगतत्वपक्षे जातेर्दूषणमुपदर्शयन्नाह-'अन्यथा' इत्यादि / अन्यथा अन्येन असर्वगतत्वप्रकारेण 'निष्क्रियस्य गोत्वादेः, अर्थः उत्पित्सुः यस्मिन् देशे तमव्यामुवतः 'इच्छातो विशेषणविशेष्यभावः' इति अर्थस्य विशेषणत्वमिति न उत्पित्सुशब्दस्य पूर्वनिपातः / अनंशस्य निरवयवस्य अनेकत्र स्वाधारे कादाचित्कं वर्त्तनमयुक्तम् / स्वमते दोषाभावं 20 दर्शयितुमाह-गुणगुण्यादीनामन्योन्यात्मकत्वे न किञ्चिद्विरुद्धमिति / एतच्च अनेकान्तसिद्धिप्रघट्टके सप्रपञ्चं प्रपश्चितम् इत्यलमतिप्रसङ्गेन / . प्रसङ्गात् / विशेषेष्वपि सामान्यसद्भावे संशयस्यापि सम्भवात् निर्णयार्थ विशेषानुसरणेऽप्यनवस्थैव / समवायेऽपि सत्ताभ्युपगमे तद्वृत्त्यर्थं समवायाभ्युपगमादनिष्टापत्तिरेव दूषणम् .."-प्रश० भा०, कन्द. 1019 / "मुख्ये हि अनवस्थादिवाधकोषपत्तेः"-प्रश० व्यो० पृ० 142 / व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वं सङ्करोऽथानवस्थितिः। रूपहानिरसम्बन्धो जातिबाधकसङग्रहः।।"-प्रश० किर० पृ० 33 / (1) सत्तासमवायात् / (2) द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वसमवायवैयर्थ्यात् / (3) "न हि स्वतोऽतथाभूतस्तथात्वसमवायभाक् ।"-आप्तप० का०७२। (4) सत्तासमवायात्सत्त्वप्रसङ्गात् / (5) कर्कादावपि गौौरिति शब्दप्रयोगः गौरिति ज्ञानं वा स्यात् / (6) गोत्वस्य / (7) दुर्जेयम्, यतो हि गोत्वं गोवत् सर्वत्र अश्वादौ स्यात् तथा च तत् महासामान्यमेव स्यान्न त्ववान्तरसामान्यमिति भावः / (8) 10 258-1 (9) तुलना-'तत्र देशान्तरे वस्तुप्रादुर्भावे कथन्नु ते / दृश्यन्ते वृत्तिभाजो वा तस्मिन्निति न गम्यते // न हि तेन सहोत्पन्ना नित्यत्वान्नाप्यवस्थिताः / तत्र प्रागविभुत्वेन नचायान्त्यन्यतोऽक्रियाः॥" -तत्त्वसं का०८०६-७।। ____ 1-ह स्वतो हि आ० / 2-त्रातिदि-आ०, श्र०। 8 द्रव्यादि-ब०। 4-णाञ्चातिप्र-श्र० / 5 गोत्वप्रत्ययः श्र०। 6-ण असर्व-ब०, श्र०। 7 निःक्रियस्य ब०, आ० / 8-ज्यस्यभावः श्र० / 9-चित्कवतन-ब० Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का 0 40] संग्रहनयस्य लक्षणम् 627 - अपरमपि नैगमाभासं दर्शयितुमाह-'गुणानाम्' इत्यादि / गुणानां सत्त्वरजस्तमसां वृत्तं वर्त्तनं चलम् अविर्भावतिरोभाववत् / एतदेव 'सुख' इत्यादिना व्याचष्टेसंत्त्वस्य हि सुखादिलक्षणं वृत्तम्, रजसो दुःखादिलक्षणम् , तमसोऽज्ञानादिकमिति / पुरुषस्य किं स्वरूपमित्याह-'चैतन्यम्' इत्यादि / चैतन्यं दर्शनं पुरुषस्य स्वम् आत्मीयमसाधारणं रूपम् / " न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः” [सांख्यका० 3] इत्यभिधानात् / / कथम्भूतम् ? अचलम् , आविर्भावतिरोभावविकलम् / इतिशब्दः परपक्षसमाप्त्यर्थः / अत्र दूषणमाह-'एतदपि' इत्यादि / एतदपि सांख्यमतमपि न केवलं वैशेषिकमत तादृगेव नैगमाभास एव / कुत एतदित्याह-'तद्' इत्यादि / तयोः सुखादिवृत्तपुरुषयोः अर्थान्तरताम् व ( ताव ) स्त्वन्तरत्वं तस्य असिद्धेः अनिश्चयात् / अत्रैव दोषान्तरमाह-अतिप्रसङ्गश्चैवमिति / सुखादिवृत्तपुरुषयोः परमार्थतोऽभेदेऽपि प्रतीय- 10 माने एवं पैरैः स्वमतदुराग्रहाभिनिवेशप्रकारेण भेदे अभ्युपगभ्यमाने अतिप्रसङ्गः स्यात् 'एकमेव न किञ्चित् स्यात्' इति भावः / च शब्दः पूर्वदोषसमुच्चये, / ननु तैदैभेदविरोधात् सिद्धैव तदर्थान्तरता इत्याह-'तदभेद' इत्यादि / तयोः पुरुषवृत्तयोरभेदे एकत्वे सति विरोधाभावात् सहानवस्थानलक्षणस्य परस्परपरिहारस्थितिस्वरूपस्य प्रमाणबाधारूपस्य वा विरोधस्याभावात् इति भावः / अथ मतम् अचलपुरुषस्वरूपे 15 चलवृत्तानुप्रवेशे द्वयोश्चलत्वमचलत्वं वा रूपं स्यात् अतो विरोधः इत्यत्रांह-गुणानाम् इत्यादि / गुणानां सत्त्वरजस्तमोलक्षणानां दृश्यादृश्यात्मकत्वे व्यक्तापेक्षया दृश्यात्मकत्वे प्रधानापेक्षया अदृश्यात्मकत्वे अङ्गीक्रियमाणे पुंसामेव तदात्मकत्वं दृश्यादृश्यात्मकत्वं युक्तम् उपपन्नम् / प्रसाधितञ्च सुखादिविवर्त्तात्मकत्वमात्मनः प्रागेव प्रबन्धेन इत्यलमतिप्रसङ्गेन / ततः किं जातम् ? इत्याह- कृतम्' इत्यादि / कृतं 20 (1) "प्रीत्यप्रीतिविषादात्मकाः, अत्रायं समासः प्रीतिश्चाप्रीतिश्च विषादश्च ते आत्मा स्वरूपं येषां गुणाना ते भवन्ति प्रीत्यप्रीतिविषादात्मकाः / तेषां लक्षणमुच्यते तत्र प्रीत्यात्मकं सत्त्वम् / आत्मशब्द: स्वभावे वर्तते। कस्मात् ? सुखलक्षणत्वात् / यो हि कश्चित क्वचित प्रीतिं लभते तत्र आर्जवमार्दवसत्यशौचहीबुद्धिक्षमानुकम्पाज्ञानादि च, तत्सत्वं प्रत्येतव्यम् / अप्रीत्वात्मकं रजः। कस्मात् ? दुःखलक्षणत्वात् / यो हि कश्चित् कदाचित् क्वचिदप्रीतिमुपलभते तत्र द्वेषद्रोहमत्सरनिन्दास्तम्भोत्कण्ठानिकृतिवञ्चनाबन्धच्छेदनानि च, तद्रजः प्रत्येतव्यम् / विषादात्मकं तमः / कस्मात् ? मोहलक्षणत्वात् / यो हि कश्चित् कदाचित्क्वचिन्मोहमुपलभते तत्र अज्ञानमदालस्यभयदैन्याकर्मण्यतानास्तिक्यविषादस्वनादि च, तत्तमः प्रत्येतव्यम्।"-सांख्यका० माठर०, जयमं०,का०१२॥ सांख्यसूत्रवि० पृ० 106 / (2) कापिलः / (3) सुखादि-पुरुषयोः / (4) सुखादि / (5) "द्विविधो हि पदार्थानां विरोधः, अविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावेऽभावाद्विरोधगतिः शीतोष्णस्पर्शवत्। परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया वा भाववत् / " -न्यायबि० पृ० 97-98 / (6) पृ० 191 / 1-चष्ट सत्त्वस्य दर्शनं पुरुषस्य आ० / 2-दि वृत्तपुरुषयोः पर-आ० / -तामवलस्त्वन्त-ब०। 4 तदभेदेविरो-श्र०, ब०। 5-प्रवेशद्वयो-आ०। 6-त्राह वश्याद-श्रः। 7-कत्वव्यक्ता-आ० / 8-स्मकं युक्तं आ०। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 628 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० . पर्याप्तं गुणकल्पनया प्रधानकल्पनया, तस्य तदात्मकत्वादित्यभिप्रायः / निरस्तञ्च प्रधानं / प्रपञ्चतः प्रकृतिपरीक्षाप्रघट्टके इत्युपरम्यते / अधुना प्रमाणाभावात् तदाभासतां तयोर्दर्शयितुमाह प्रामाण्यं व्यवहाराद्धि स न स्यात् तत्त्वतस्तयोः / मिथ्यैकान्ते विशेषो वा का स्वपक्षविपक्षयोः // 41 // विवृतिः-शुद्धमशुद्धं वा द्रव्यं पर्यायं समस्तं व्यस्तं वा व्यवस्थापयता तत्साधनं प्रमाणं मृग्यम् अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् / तत्प्रामाण्यश्च व्यवहारेणैव / स च संग्रह भेदाश्रयो मिथ्यैव / ततः सप्र (सःप्र) तिपक्षं कथमतिशयीत सत्येतरस्वरूपवत् ? मिथ्यैकान्ताविशेषेऽपि तद्वयवस्थापनमयुक्तम्; तदुभयोपलब्धेरवितथात्मकत्वात् , 10 अन्यथा स्वमान्तरवत् तद्विसंवादान्न किञ्चित् प्रमाणम् / नैगमेऽपि 'चलं गुणप्रवृत्तं नित्यं चैतन्यम्' इति व्यवहारासिद्धः स्वरुचिविरचितदर्शनप्रदर्शनमात्रम् / नहि "गुणानां परमं रूपं न दृष्टिपथमृच्छति / यत्तु दृष्टिपथप्राप्तं तन्मायैव (येव) सुतुच्छकम् // " [ ] (1) पुरुषस्य / (2) सुखाद्यात्मकत्वात् / (3) पृ० 354 / (4) संग्रहाभासनै गमाभासयोः / (5) व्याख्या-"प्रमाणं स्वेष्टानिष्टसाधनदूषणनिबन्धनं प्रत्यक्षमन्यद्वा सर्वैरभ्युपगन्तव्यमन्यथाऽतिप्रसङ्गात् / तच्च व्यवहारात् / विधिपूर्वकमवहरणं विभजनं भेदकल्पनं व्यवहारस्तस्मात् तमाश्रित्येत्यर्थः / स च तत्त्वतः परमार्थतो न स्यात् / क्व ? तयोः संग्रहाभासनैगमाभासयोः / न खलु निरपेक्षे भावैकान्ते प्रमाणादिभेदव्यवहारोस्ति निराकृतत्वात् भेदैकान्ते वा प्रमाणफलव्यवहारोऽस्ति सम्बन्धाभावात् / : औपचारिकः प्रमाणफलव्यवहारस्तत्रास्तीति चेदत्राह-मिथ्येत्यादि / मिथ्र्यकान्ते प्रमाणफलव्यवहारस्यावास्तवैकान्ते अङ्गीक्रियमाणे विशेषः भेदोऽपि कः ? न कोपीत्यर्थः / कयो: ? स्वपक्षविपक्षयोः. स्वपक्षो ब्रह्मवादो भेदवादो वा, विपक्षः क्षणिकवादोऽद्वैतवादो वा तयोः संकरप्रसंगादित्यर्थः। ततः कथञ्चि यवहारोपि वास्तवोऽङ्गीकर्तव्यः ।"-लघी० ता० 1060 / तुलना-"प्रामाण्यं व्यवहारेण * / " -प्रमाणवा० 117 / (6) "उक्तार्थे शास्त्रं प्रमाणयति-तथा चेति / परमं पारमार्थिकं नित्यमिति यावत् / मायेव लौकिकमायावत् क्षणभङ्गरम्, अत: सुतुच्छकम् अत्यन्ततुच्छमल्पसारं स्थिरांशाभावादिति / अत्र सुशब्देन परिणामितया गुणानामपि तुच्छत्वं सूचितं गुणा एव परिणामितया कूटस्थनित्यापेक्षया तुच्छाः , गुणकार्य तु दृश्यमानं गुणापेक्षयापि तुच्छम्, अत: सुतुच्छमिति . .।"-योगवा० पृ० 414 / “परमं रूपं मूलरूपमव्यक्तावस्था न दृष्टिपथमृच्छति गच्छति, व्यक्तं दृष्टिपथं प्राप्तं यद् गुणरूपं तद् मायेव सुतुच्छकं मायया प्रदर्शितं प्रपञ्चं यथा तुच्छं तथेति ॥"-योगसू० भास्व० पृ० 414 / कारिकेयं निम्नग्रन्थेषु समुद्धताऽस्ति-'तथा च शास्त्रानुशासनम्गुणानां ।'-योगभा० 4 / 13 / षष्ठितन्त्रशास्त्रस्यानुशिष्टि:-गुणानां - -योगभा० तत्त्वव० 4 / 13 / योग० भास्वती, पात० रह० 413 / 'भगवान वार्षगण्यः-गणानां ।'-शां० भा० भामती 10 352 / नयचक्रव० पृ० 43 A. / तत्त्वोपप्लव० पृ० 80 / सांख्यतत्त्वा० पृ०६। 'गुणानां सुमहद्रूपम् / ' -प्रमाणवातिकालं. परि०४, पृ० 33 / सिद्धिवि० टी० पृ०७४ B. / अष्टसह० पृ० 144 / 'दृष्टिपथं प्राप्तं तन्मायावस्तु तुच्छकम्'-जयम० पृ० 63 / 1 गुणपरिक-श्र० / 2-भासयतां श्र०। 3 प्रमाणं ब०। 4-व्यं व्य-ई०वि०। -स्तं व्य-ज० वि० / 6 बलं ई०वि०॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्रे० का० 41] संग्रहनयस्य लक्षणम् . 126 इति प्रमाणमस्ति समवायेन स्वावयवेषु अवयवी वर्तेत / 'शृङ्गे गौः शाखायां वृक्षः' इति लोकव्यवहारमतिवर्तेत विपर्ययात् / स्वयमज्ञस्वभावात्मा ज्ञानसमवाये कथमिव ज्ञः स्यात् ? नहि तथाऽपरिणतस्य तत्त्वम्, समवायस्यापि ज्ञत्वप्रसङ्गात् / न वै ज्ञानसमवायोऽस्ति समवायस्येति चेत् / कथं स्वस्वभावरहितः सोऽस्ति वर्तेत वा समवायान्तराभावात् तदनवस्थानुषङ्गात् / प्रामाण्यं व्यवहारात् व्यवहारमाश्रित्य, हिः अवधारणार्थः / व्यवहारादेवं न ज्ञानाद्यद्वैताद्याश्रित्येत्यर्थः / तत एव तदस्तु को दोषः इति कारिकाव्याख्यानम् चेदत्राह-'स' इत्यादि / स व्यवहारो न स्यात् तत्त्वतः परमाथतः तयोः संग्रहनैगमाभासयोः। ननु यदि तयोर्व्यवहारो वास्तवो नास्ति, मा भूत् अवास्तवस्तु भविष्यति इत्यत्राह-'मिथ्यैकान्त' इत्यादि / अयमभिप्राय:-यत्र 10 व्यवहारो मिथ्या तत्र तदाश्रितं प्रमाणमप्येकान्तेन मिथ्या, तस्मिन् मिथ्यकान्ते अङ्गीक्रियमाणे विशेषो भेदः कः न कश्चित् / कयोः ? स्वपक्षविपक्षयोः / ततः उभयोः सिद्धिरसिद्धिर्वा स्यादिति भावः / वाशब्द अपिशब्दार्थे / कारिको व्याख्यातुमाह-'शुद्धम्' इत्यादि / शुद्ध द्रव्यं पर्यायरहितं ब्रह्मादि, शुद्धं विवृतिव्याख्यानम् _ पर्यायं द्रव्यरहितं क्षणिकनिरंशपरमाणुरूपम् / अशुद्धं द्रव्यं सपर्य- 15 यम् / अशुद्धं पर्यायं सद्रव्यम् / अस्यानन्तरस्य विशेषणमाह'व्यस्तम्' इत्यादि / व्यस्तम् अन्योन्यनिरपेक्षम् , अनेन नैयायिकमतं दर्शितम् / समस्तम अन्योन्यात्मकम् , अनेनापि सांख्यदर्शनं प्रकाशितम् , विकारविकारिणोः सांख्यैस्तादात्म्याभ्युपगमता / 'व्यवस्थापयता' इत्येतत् प्रत्येकमभिसम्बध्यते। तत्साधनं तयोः शुद्धाशुद्धव्यस्तसमस्तद्रव्यपर्याययोः साधनं मृग्यम् अन्वेष्यम् / तच्च नय- 20 त्किञ्चिद् भवितुमर्हति किन्तु प्रमाणम् , प्रत्यक्षादिवस्तुव्यवस्थायामन्यस्याऽनधिकारात् / अन्यथा प्रमाणान्वेषणाभावप्रकारेण तव्यवस्थापने अतिप्रसङ्गात सर्वतः सर्वस्य सर्वार्थसिद्धिप्रसङ्गात् / ननु संग्रहनैगमाभासप्ररूपणप्रस्तावे किमर्थमप्रस्तुतं 'शुद्धं पर्यायम्' इत्येतत् प्रस्तूयते इति च न वाच्यम् ; दृष्टान्तार्थत्वात् / यथैव शुद्धं पर्याय व्यवस्थापयता सौगतेन प्रमाणं मृग्यम् तथा अन्यदपि अन्येनै व्यवस्थापयता तन्मृग्यमिति / 25 यदिवा, उत्तरत्र ऋजुसूत्राभासे इदमवश्यं वक्तव्यम्, 'तदिहैवोक्तम् / मृग्यत एव तर्हि (1) तुलना-"फ्टस्तन्तुष्विवेत्यादिशब्दाश्चेमे स्वयं कृताः / शृङ्ग गवीति लोके स्यात् शृङ्गे गौरित्यलौकिकम् / प्रमाणवा० 3 / 150 / “वृक्षे शाखाः शिलाश्चाग इत्येषा लौकिका मतिः / शिलाख्यपरिशिष्टाङ्गनरन्तर्योपलम्भनात् // तौ पुनस्तास्विति ज्ञानं लोकातिक्रान्तमुच्यते ।"-तत्वसं०१० 267 / (2) शुद्धद्रव्यादि / (3) ब्रह्माद्वैतादिवादिना / (4) प्रमाणम् / 1-तः वर्तेत ई०वि०। 2 प्रमाणं ब०, श्र०। -देवज्ञाना-आ०।. 4 ज्ञानाद्वैता-ब। 5 ततः श्र० / 6 यथा तयोः ब०। 7 अथासवस्तु आ०, अवास्तुसस्तु श्र०। 8 प्रमाणमिथैका-आ० / 9 द्रव्यपर्याय-श्र० / 10 अनेन आ० / 11 तविह चोक्तम् ब० / Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 630 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० प्रमाणमिति चेदत्राह-'तद्' इत्यादि / तस्य तद्व्यवस्थापकस्य प्रामाण्यश्च व्यवहा- . रेणैव न परपरिकल्पितपरमार्थप्रकारेण तत्र तदसिद्धेः / स च व्यवहारः संग्रहे मिथ्यैव लेशतोऽपि सत्यो न भवति इति एवकारार्थः / कुत एतदित्याह-भेदाश्रयो यतः। भवत्वेवम्, को दोषः ? इति चेदत्राह-'ततः' इत्यादि / तस्मात् मिथ्यारूपात् प्रमाणादि5 व्यवहारात् संग्रहः प्रतिपक्षं भेदैकान्तं कथमतिशयीत ? न कथञ्चित् / तत्रापिमिथ्याप्रमाणादिव्यवहारभावात् “प्रामाण्यं व्यवहारेण" [ प्रमाणवा० 17 ] इत्यादिवचनात् / ननु अभेदात्मकः संग्रहः भेदात्मकचा प्रतिपक्षः, तत्कथं स तं नातिशेते ? इत्यत्राह-'सत्य' इत्यादि / सत्यम् अवितथम् इतरंद् वितथम् ते च ते स्वरूपे च ते यस्य स्तः तत् तद्वत् / क्रियाविशेषणमेतत्-सत्यरूपवद् यथा भवति तथा संग्रहोऽ10 तिशयीत, इतरस्वरूपवत् यथा भवति तथा प्रतिपक्षमिति, प्रतिपक्षवत् संग्रहोऽपि मिथ्यैव स्यात् इत्यर्थः / ततः को दोषः इत्यत्राह-'मिथ्या' इत्यादि / मिथ्यैकान्तस्य संग्रहप्रतिपक्षयोः यो विशेषः तस्मिन्नपि न केवलं विशेषे तस्य संग्रहस्य व्यवस्थापनमयुक्तम् / उपसंहारमाह-'तद्' इत्यादि / यत एवं तत् तस्मात् उभयोपलब्धेः संग्रहेतरयोः उपलब्धेः अवितथात्मकत्वात् सत्यस्वभावत्वात् ‘स कथं प्रतिपक्षमति15 शयीत' इति सम्बन्धः / तस्यावितथात्मकत्वे दूषणमाह-'अन्यथा' इत्यादि / अन्यथा अवितथात्मकत्वाभावप्रकारेण स्वमान्तरवत् स्वप्नभेदवत् तस्याः विसंवादान किश्चित् प्रमाणम् / ___एवं संग्रहाभासे प्रमाणाभाव प्रदर्य इदानीं नैगमाभासे तं दर्शयन्नाह-'नैगमेऽपि' इत्यादि / न केवलं संग्रहे अपि तु नैगमेऽपि न किञ्चित् प्रमाणम् / एतदेवाह20 'चलम्' इत्यादि / चलम् आविर्भावतिरोभाववत् / किं तदित्याह-'गुण' इत्यादि / गुणानां सत्त्वादीनां वृत्तं महदादिरूपेण परिणमनं नित्यं चैतन्यम् इति एवं स्वरुचिविरचितदर्शनप्रदर्शनमात्रम् / कुतः ? व्यवहारासिद्धेः / एतदेव दर्शयन्नाह-'नहि' इत्यादि / हिर्यस्मात् न गुणानां सत्त्वरजस्तमसां परमं प्रधानलक्षणं रूपं न दृष्टिप थमृच्छति, यत्तु रूपं महदादि दृष्टिपथप्राप्तं तन्मायेव सुतुच्छकम् इति एवं प्रमाणमस्ति 25 प्रत्यक्षादेरत्राऽनवतारादिति / सांख्यनैगमाभासे प्रमाणाभावं प्रदर्य अधुना नैयायिकतैदाभासे तं दर्शयन्नाह (1) व्यवहारो हि भेदमाश्रित्य प्रवर्तते अतः अभेदग्राहिसंग्रहनयदृष्टया मिथ्यैव / (2) उद्धृतोऽयम्-तत्त्वार्यश्लो० पृ० 173 / सिद्धिवि० टी० पृ० 18 A., 232 B., 294 B.'305 B., 324 520 B. / प्रमेयक०५० 217, 383 / सन्मति० टी० पृ०१११, 497 / न्वायवि०वि० पृ० 38 B. / शास्त्रवा० यशो० पृ० 158 B. / (3) नैगमाभासे / (4) प्रमाणाभावम् / 1-माण्यं व्यव-आ० / 2-रद तद्विथ-श्र०। यो वि-ब०, आ० / 4 तस्य व्यव-आ०। 5 संग्रहेतरोपल-ब०, श्र०। 6 सत्वस्व-श्र०। 7 नित्यचैतन्यं श्र०, नित्यचेतना-ब० / 8 तन्मायैव ब०। 9 इत्यलं प्र-ब०। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्रका० 42 ] व्यवहारनयस्य लक्षणम् 'समवायेन' इत्यादि / समवायेन सम्बन्धेन स्वावयवेषु अवयवी वर्त्तते [ ति ] 'नहि प्रमाणमस्ति' इति सम्बन्धः / ननु 'शृङ्गे गौः शाखायां वृक्षः' इति प्रतीतिः तत्र प्रमाणमस्तीति चेदत्राह-'शृङ्गे इत्यादि। शृङ्गे गौः शाखायां वृक्ष इति एवं यत् प्रमाणं तत् लोकव्यवहारमतिवर्तेत तत्र तथाप्रतीतेरभावात् / कुत एतदित्याह-विपर्ययात् , 'गवि शृङ्ग वृक्षे शाखा' इति लोकव्यवहारे प्रतीतिसद्भावात् / अत्रैव दूषणान्तरमाह- 5 'स्वयम्' इत्यादि / स्वयम् आत्मना अज्ञस्वभावः अचेतनः सन् आत्मा ज्ञानसमवाये सति कथमिव ज्ञः स्यात् चेतनो भवेत् ? नहि तथा ज्ञत्वप्रकारेण अपरिणतस्य तत्वं ज्ञत्वं युक्तम् / कुत एतत् ? समवायस्यापि ज्ञत्वप्रसङ्गात् / 'न' इत्यादिना परमतमाशङ्कते-नैवै नैव ज्ञानेन समवायस्य समवायोऽस्ति तत्कथमस्ये ज्ञत्वप्रसङ्गः इति चेत् तत्राह-'कथम्' इत्यादि / कथं केन प्रकारेण समवायोऽस्ति ? 10 न केनचिद्, व्यवस्थापकप्रमाणानां समवायपरीक्षायां प्रपञ्चतः प्रतिषिद्धत्वात् / इतश्च नास्त्यसौ स्वस्वभावरहितो यतः / तस्य हि स्वभावोऽयुतसिद्धसम्बन्धंत्वम् , तच्च तत्रैवे विस्तरतो निषिद्धम् / कथं च समवायिष्ववर्त्तमानस्य अश्वविषाणस्येव अस्य अयुतसिद्धसम्बन्धत्वं युक्तम् ? अथ वर्तत एवासौ तत्रं; अत्राह-'वर्तेत वा' इत्यादि / अत्रास्य ज्ञत्वलक्षणं दूषणमुक्तमिति मत्त्वा दूषणान्तरमाह-वर्तेत वा कथं समवायान्तराभावात् 15 ऐकत्वात्तस्य / विशेषणीभावाद् वर्त्तते इति चेदत्राह 'तद्' इत्यादि / समवायस्य तदन्तरकल्पने या अनवस्था तस्य अनुषङ्गात् कथमसौ कापि वर्तेत ? अयमभिप्रायःअनवस्थाभयात् समवायस्य समवायान्तरं परेण न कल्प्यते, सा च विशेषणीभावकल्पनेऽप्यविशिष्टा सम्बन्धान्तरकल्पनस्य अत्राप्यविशेषात् / नहि अंसम्बद्धो विशेषणीभावः समवायस्य समवायिषु वृत्तिहेतुः इत्युक्तं समवायनिषेधप्रघट्टके। 20 इदानी व्यवहारनयं दर्शयितुमाह व्यवहाराविसंवादी नयः स्याद् दुर्नयोऽन्यथा / बहिरर्थोस्ति विज्ञप्तिमात्रं शून्यमितीदृशः // 42 // (1) लोकव्यवहारे / (2) समवायस्य / (3) पृ० 297 / (4) "अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां यः सम्बन्ध इहप्रत्ययहेतुः स समवायः / " (प्रश० भा पृ० 14) इत्यभिधानात् / (5) समवायपरीक्षायाम् (पृ० 297) / (6) समवायस्य / (7) समवायिषु / (8) समवायस्य / (9) "तत्त्वं भावेन"-वैशे० सू०७।२।२८ / “तस्माद् भाववत्सर्वत्रैक: समवायः"-प्रश० भा० पृ० 326 / (10) पृ० 303 / (11) व्याख्या-'स्याद् भवेत् / कः ? नयः संग्रहादिः / किंविशिष्टः ; बहिरर्थोस्तीतीदशः / इतिशब्दात् प्रमाणमस्ति साध्यसाधनभावोऽस्तीत्यादि / कथम्भूतः सन् ? व्यवहाराविसंवादी, हेतुफलभावादिव्यवस्था व्यवहारः तस्याविसंवादोऽव्यभिचारः सोऽस्यास्तीति तथोक्तः / 1 वर्तेत नहि ब०, वर्तति नहि श्र०।-हारप्रतीति-ब०, श्र०। न चैतावतैव ज्ञानेन ब०। 4 चेदत्राह श्र०। 5-धवत्वं तत्रैव आ०। 6-वासौ युक्तं तत्र ब० / 7 दूषणमाह ब०। 8 वा समवायान्तरात् एकत्वाभावात् एकत्वात्तस्य श्र०। 9 असम्बन्धो आ० / 10-हारोऽविसं-मु० लघी० / 11-मात्रशन्य-मु० लघी० / Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 632 लघीयत्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० विवृतिः-प्रत्यक्षस्यापि प्रामाण्यं व्यवहारापेक्षम् / स पुनः अर्थाभिधानप्रत्ययात्मकः / कथम् ? उत्पादविगमध्रौव्यलक्षणं सत्, गुणपर्ययवद्रव्यम् जीवश्चैतन्यस्वभावः इति / श्रुतेः प्रमाणान्तराबाधनं पूर्वापराविरोधश्च अविसंवादः। तदपेक्षोऽयं नयः, ततोऽन्यथा दुर्नयः / कथम् ? बहिरपि स्वलक्षणमर्थक्रिया5 समर्थ सद् अंगीकृत्य तत्प्रतिक्षेपेण विज्ञप्तिमात्रमन्तस्तत्वम् इति प्रत्यवस्थाप्य तदपि सूक्ष्मेक्षिकया निरीक्ष्यमाणं न परीक्षाक्षममिति स्वभावनैरात्म्यमसाध्यसाधनमाकुलं प्रलँपन्न क्वचिद् व्यवतिष्ठेत स्वपरविंसवादव्यसनीयेन प्रत्यक्षादिविरोधात् / तदन्यतमस्याभिमतत्वात् पुनरलं शेषप्रलापेन / हेतुफलभावादिव्यवस्था व्यवहारः तदविसंवादी नयः स्यात् / ___ अन्यथा तद्विसंवादप्रकारेण दुर्नयः नयाभासः स्यात् / अत्रोकारिकाव्याख्यानम् दाहरणमाह-'बहिः' इत्यादि / 'बहिरर्थोऽस्ति' इति नयस्य उदाहरणम् , शेषं दुर्नयस्य / बहिरर्थग्रहणमुपलक्षणं तेन प्रमाणमस्ति कार्यकारणभाव्यवहारस्य हि सुनयत्वे तदाश्रया हेतुफलभावादिसिद्धिः स्यात् अन्यथा व्यवहारविसंवादी दुनयः स्यात् / कीदशः ? विज्ञप्तिमात्रम्, विज्ञप्तिविज्ञानमेव तत्त्वं नान्यत् / शन्यम्, समस्तज्ञानज्ञेयोपप्लव एव तत्त्वमितीदृशः / इतिशब्दः प्रकारवाची, सन्मात्रमेव तत्त्वं विभ्रम एव तत्त्वमित्यादिप्रकारान् सूचयति / .." -लघी० ता०प०६१। तुलना-"बच्चइ विणिच्छिअत्थं व्यवहारो सव्वदव्वेसु।"-अनुयोगद्वार० ४.द्वा० / आव०नि० गा० 756 / विशेषा० गा० 2708 / “लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहारः / ""आह च-लोकोपचारनियतं व्यवहारं विस्तृतं विद्यात्।"-तत्त्वार्थाधि० भा० 1135 / तत्त्वार्थ० हरि०, तत्त्वार्थसिद्ध० 135 / “संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः।"-सर्वार्थसि० 1133 / राजवा० 1133 / "व्यवहारपरतन्त्रो व्यवहारनय इत्यर्थः।"-धवलाटी०। तत्त्वार्थश्लो० पृ० 271 / नयविव०७४। प्रमेयक० पृ०६७७। सन्मति० टी० पृ० 310 नयचक्र गा० 35 / तत्त्वार्थसार पृ०२०७। प्रमाणनय० 7 / 23 / स्या० मं० पृ० 311 / जैनतर्कभा० पृ० 22 / (12) "कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् / प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् ॥"-तत्त्वार्थश्लो० पृ०२७१ / नयविव० 76 / प्रमेयक० पृ०६७८ / न्यायावता० टी०पू०८६। प्रमाणनय० 725, 26 // जैनतर्कभा०प० 24 / (1) तुलना-"त्रयः पदार्थाः अर्थाभिधानप्रत्ययभेदात्"-राजवा० पृ० 17 / (2) द्रष्टव्यम्पृ०६०५ टि०७। (3) तुलना-"गुणाणमासओ दव्वं एकदव्वस्सिया गुणा। लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे ॥"-उत्तरा० 2806 / “दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं / गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ।।"-पञ्चास्ति० गा०१०। "गुणपर्ययवद् द्रव्यम्"-तत्त्वार्थसू० 5 / 38 / “तं परियाणहु दब्बु तुहुँ जं गुणपज्जयजुत्तु / सहभुव जाणहि ताँह गुण कमभुव पज्जउ वुत्तु ॥"-परमात्मप्र० गा० 57 / न्यायवि० श्लो० 111 / (4) तुलना-"उवओगलक्खणे जीवे ।"-भगवतीसू० 2 / 10 / उत्तरा० 28 / 10 / "उपयोगो लक्षणम्"-तत्त्वार्थसू० 2 / 8 / (5) "अर्थक्रियासमर्थ यत्तदत्र परमार्थसत् / ' -प्रमाणवा० 2 / 3 / (6) "विज्ञाप्तिमात्रमेवेदमसदर्थावभासनम् / यथा तैमिरिकस्यासत्केशचन्द्रादिदर्शनम् ॥"-विशतिकाविज्ञप्ति० श्लो० 1 / (7) तुलना-"अपि च बाह्यार्थविज्ञानशून्यवादत्रयमितरेतरविरुद्धमुपदिशता सुगतेन स्पष्टीकृतमात्मनोऽसम्बद्धप्रलापित्वं प्रद्वेषो वा प्रजासु विरुद्धार्थप्रतिपत्त्या विमोयरिमा: प्रजा.इति।"-शां० भा० 2 / 2 / 32 / 1 पूर्वापरविरोधश्च विसंवादः ई० वि०। 2 तदतिसू-ज०वि०। -रलं प्र-ई०वि०। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का० 42] व्यवहारनयस्य लक्षणम् म् वादिरस्ति इत्यादिः सर्वो नयः संगृहीतः / 'विज्ञप्तिमात्रं तत्त्वम् , शून्यं तत्त्वम्' इतीहशो दुर्नयः स्यात् / कारिकां विवृण्वन्नाह-'प्रत्यक्षस्थापि' इत्यादि / न केवलमनुमानादेः अपि तु _____ प्रत्यक्षस्यापि प्रामाण्यं व्यवहारापेक्षम् / अतः "प्रेमाणमविवृतिव्याख्या - विसंवादिज्ञानम् इत्यादि व्यवहारेण, आज्ञातार्थप्रकाशो वा इत्येतत्तु / परमार्थेन प्रमाणम्" [ ] इत्ययुक्तम् ; व्यवहारव्यतिरिक्तस्य परमार्थस्याऽसंभवात् / कुत एतदित्याह-'सं' इत्यादि / योऽसौ प्रामाण्येन अपेक्ष्यते स पुनः व्यवहारः अर्थाभिधानप्रत्ययात्मकः, तद्व्यतिरिक्तस्तु अन्यो न कश्चित्संभवति यः परमार्थः स्यादित्यभिप्रायः / अर्थाभिधानयोरर्थत्वेऽपि अत्र अर्थशब्देन विवक्षातः तद्विषयो गृह्यते तदन्यतमापाये व्यवहारानुपपत्तेः। स्वप्ननाऽवि- 10 शेषचोदनायां कुतो नानाविज्ञानसन्तानव्यवस्था विभ्रमव्यवस्था अन्या वा स्यात् इत्युक्तं बाद्यार्थसिद्धिप्रस्तावे। 'कथम्' इति परप्रश्नः / कथं केन प्रकारेण अर्थात्मनो व्यवहारस्य स्वरूपं स्थितमिति ? उत्तरमाह-'उत्पाद' इत्यादि / उत्पादविगमध्रौव्याणि लक्षणं स्वरूपं यस्य तत्तथोक्तम् / किं तदित्याह-'सद्' विद्यमानं घटादि प्रमेयम् / प्रसाधितञ्च उत्पादविनाशात्मकत्वमर्थानां सांख्यं प्रति प्रकृतिपरीक्षा- 1 याम् / कथं बौद्धं प्रति ध्रौव्यं सिद्धमित्याह-'गुण' इत्यादि। संह वो गुणाः सुखज्ञानवीर्यादयः, क्रमभुवः पर्यायाः सुखदुःखादयः, तद्वद्रव्यम् / इदश्च प्रसङ्गसाधनं सौगतं प्रत्येवं व्याख्येयम्-सहभाविनानाधर्मात्मकं चित्तमन्यद्वा चेदङ्गीक्रियते, क्रमभाव्यनेकधर्मात्मकमप्यङ्गीकर्तव्यम् / नो चेत् ; युगपदपि तत्तथा नाङ्गीकर्तव्यमविशेषात् / नैयायिक प्रति पुनरेवम्-इच्छादिगुणसमवायित्वं चेत् कस्यचिदिय॑तेऽप- 20 (1) तुलना-"ततो यदुक्तं प्रमाणमविसंवादिज्ञानमित्यादि व्यवहारेण प्रमाणलक्षणमुक्तम्, अज्ञातार्थप्रकाशो वा इति परमार्थेन, प्रमाणान्तरेणाज्ञातस्य अद्वयप्रतिभासार्थस्य आत्मवेदनस्य एवमभिधानात् ।"-सिद्धिवि० टी० पृ० 9 B. / “सांव्यवहारिकस्येदं प्रमाणस्य लक्षणं प्रमाणमविसंवादिज्ञानमिति ।"-तत्वसं० पं० 10 774 / (2) प्रमाणविषयः, अभिधानप्रत्ययविषयो वा / (3) अर्थाभिधानप्रत्ययेषु एकस्याप्यभावे। (4) योगाचाराः माध्यमिकाश्च अर्थ स्वप्नवत् मिथ्यारूपं वासनाकल्पितं मन्यन्ते तथा चोक्तम्-“फेनपिण्डोपमं रूपं वेदना बुबुदोपमा। मरीचिसदृशी संज्ञा संस्काराः कदलीनिभाः / मायोपमञ्च विज्ञानमुक्तमादित्यबन्धुना।"-मा० 70 पृ०४१ / "मायास्वप्नेन्द्रजालसदृशा द्रष्टव्याः"-नैरात्म्यप० पृ० 18 / न्यायकुम० पृ० 132 टि० 4 / तान् प्रत्याह-स्वप्नेनाविशेषेत्यादि / (5) पृ० 119 / 6) पृ० 354 / (7) तुलना-"अन्वयिनो गुणाः, व्यतिरेकिणः पर्यायाः"सर्वार्थसि० 5 / 38 / गुणपर्ययवद्रव्यं ते सहक्रमवृत्तयः ।"-न्यायवि० श्लो० 111, टि० पृ० 161 / * "सहभुवो हि गुणाः"-धवलाटी० पृ० 174 / (8) चित्तं नानाधर्मात्मकम् / (9) आत्मनः / 1-दि सर्वो आ०, श्र० / 2 स हि इ-श्र० / 3-हारार्थाभि-आ० / 4 तद्विशेषयोःग-श्र० / 5 स्वप्नेऽविशेषचोद-श्र०, स्वप्नेनाविशेषनोद-आ० / 6 कुतो ज्ञानाविज्ञा-आ०। 7-वस्थामव्यवस्था अन्या श्र०। 8 सहमुखो गु-ब० // 9 प्रसाधनं श्र०। 10-ज्यते परा-बं० / 30 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० रापरपर्यायात्मकत्वमेष्टव्यम् / नो चेत् ; तत्सामायित्वन्न स्यात् / ततो यत एव गुणपर्यायवद्रव्यं तत एव उत्पादविगमध्रौव्यलक्षणं सदिति / कस्तत्प्रतिपद्यते ? इति चेदत्राह-'जीव' इति / जीव आत्मा उत्पादादिरूपं सत् घटादिप्रमेयं 'प्रतिपद्यते' इत्यध्याहारः। तस्य अनादिनिधनस्वभावतया तत्प्रतिपत्तौ सामर्थ्यसंभवात् / प्रसा5 धिश्चात्मा तत्त्वान्तरम् अनादिनिधनस्वभावश्च चार्वाकमतपरीक्षायां सन्ताननिषेधाव सरे च / ननु यदि सत्तामात्रेण असौ तत्प्रतिपद्यते तदाऽतिप्रसङ्गः। अथ प्रत्यक्षादिना; तँदा[s]शक्तिरिति चेदत्राह-'चैतन्यस्वभाव' इति / चैतन्यस्वभावः स्वपरग्रहणस्वरूपः इति हेतोः प्रत्यक्षादिपर्यायपरिणतः सन तत्प्रतिपद्यते / तथा च उत्पा दाद्यात्मकार्थलक्षणोऽर्थात्मको व्यवहारः सिद्धः, तत्प्रतिपत्तिलक्षणः प्रत्ययात्मकः, तत्प्र10 रूपकशब्दलक्षणः शब्दात्मक इति / ____ अथ शब्दात्मके व्यवहारे को विसंवादः ? इत्याह-'श्रुतेः' इत्यादि / श्रुतेः अभिधानस्य प्रमाणान्तरेण प्रत्यक्षादिनाऽबाधनम् अविसंवादः / कथमत्यन्तपरोक्षेऽर्थे तंदविसंवादः प्रमाणान्तराबाधनस्य अन्यस्य वा ग्रहीतुमशक्यत्वादित्यत्राह-'पूर्व' इत्यादि / पूर्व यद्वाक्यं यच्च अपरं तयोरतिरोधश्च अविसंवादः, न केवलं प्रमाणान्त16 राबाधनमेव, अस्ति चायं स्याद्वादलाञ्छितागमस्य / अतो "न हिंस्यात् सर्व (सर्वा) भूतानि" ___] "यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा" [ मनुस्मृ० 5 / 39 ] इत्यागमस्य 'गंगाद्वारे कुशावत्तें बिल्वके नीलपर्वते / स्नात्वा कनखले तीर्थे सम्भवेन्न पुनर्भवे // " [ ] "दुष्टमन्तर्गतं “चित्तं तीर्थस्नानान्न शुद्धयति / शतशोऽपि जलैधौंतं सुराभाण्डमिवाशुचि // ' [ जाबाल० 4 / 54 / ] इत्याद्यागमस्य च नाविसंवादः पूर्वापरविरोधेसद्भावात् इत्युक्तं भवति / __ एवं व्यवहार प्रदर्य तदाश्रयं नयं प्रदर्शयन्नाह-'तदपेक्ष' इत्यादि। तस्मिन् (1) पृ० 343 / (2) पृ० 9 / (3) आत्मा। (4) उत्पादादिस्वरूपं प्रमेयम् / (5) सुषुप्ताद्यवस्थास्वपि प्रमेयबोधप्रसङ्गः। (6) यदि प्रत्यक्षादिद्वारेण जानाति तदा स्वयमात्मनः प्रमेयबोधेऽशक्तिः प्राप्ता अत आह चैतन्यस्वभाव इति / त्रटितायां पू० प्रतावपि तदाऽशक्तिः' इत्येव पाठः / (7) आत्मा। (8) प्रमेयम् / (9) श्रुतेरविसंवादः / (10) अर्थक्रियास्थितिरूपस्य वाऽविसंवादस्य / (11) 'यज्ञस्य (श्च) भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः / ' इत्युत्तरार्धम् / उद्धृतोऽयम्यश० उ०पृ० 91, 357 / (12) उद्धृताविमौ-प्रमाणवातिकालं. परि०४ 10 140 / 'चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानैर्न'-जाबाल। (13) 'न हिंस्यात्' इत्यहिंसाविधानं यज्ञे पशुवधेन विरुध्यते गंगाद्वारादितीर्थस्नानविधानञ्च तीर्थस्नानान्न शुद्धयति' इति तीर्थस्नानस्य निरर्थकत्वप्रतिपादनेन विरुध्यते। 1-वायित्वं स्यात् श्र०, वायित्वं तत्स्यात् ब०। 2-पर्ययव-ब०। 3 अत एव श्र०, ब०। 4 कस्तत्र प्र-आ०। 5 स घटा-आ016-पद्यन्ते आ० / 7-भावश्चार्वा-आ018 ननु च यदि श्र०। 9 सन्तानमात्रेण श्र०1 10 'चैतन्य स्वभाव इति' नास्ति आ०।11-ति चैतन्यस्य स्वभावः इति चैतन्यस्वभावः स्वपर -श्र०। 12 सस्तत्प्र-आ०, श्र० / 13 यद्वाच्यं आ० / 14 वित्तं श्र० / 16 प्रदर्शयितुमाह ब०, श्र०। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का० 43 ] ऋजुसूत्रनयस्य लक्षणम् व्यवहारे अपेक्षा यस्यासौ तदपेक्षोऽयं लोकसिद्धो व्यवहाराख्यो नयः। ततोऽन्यथा तदपेक्षाभावप्रकारेण दुर्नयः / ननु तदंपेक्ष एव दुर्नयः अप्रमाणमूलस्य व्यवहारस्यावलम्बनात्, न ततोऽन्यो निरंशक्षणिकपरमार्थाश्रयणात् / एतदेवाह-'कथम्' इति / न कथश्चित् 'ततोऽन्यथा दुर्नयः' इति सम्बन्धः / अत्रोत्तरमाह-'बहिरपि' इत्यादि। न केवलमन्तः किन्तु बहिरपि स्वलक्षणं क्षणिकनिरंशपरमाणुलक्षणम् अर्थक्रियासमर्थं 5 यतः ततः सद् विद्यमानम् अङ्गीकृत्य पुनः तस्य स्खलक्षणस्य प्रतिक्षेपेण निरासेन 'विज्ञप्तिमात्रमन्तस्तत्त्वं नात्मादिकम्' इति एवं प्रत्यवस्थाप्य पुनरवस्थाप्य तदपि विज्ञप्तिमात्रमपि सूक्ष्मेक्षिकया निरीक्ष्यमाणं पालोच्यमानं नित्यादिवन्न परीक्षा क्षमते इति एवं खभावनैरात्म्यं निःस्वभावत्वम् , कथम्भूतम् ? असाध्यसाधनं साध्यसाधनविकलम् आकुलं यथा भवति तथा प्रलपन सौगतो न क्वचिद् अन्तर्बहिः सकलशून्यतायां वा 10 व्यवतिष्ठेत यतः 'तदपेक्ष एव दुर्नयः' इत्युक्तं शोभेत / ननु किमुच्यते स्वभावनैरात्म्यमसाध्यसाधनम् यावत्तत्र साधनं विचार एव इति चेदत्राह-'स्वपर' इत्यादि / स्वः सौगतः परो नैयायिकादिः तयोः विसंवादः तत्त्वाप्रतिपत्तिः व्यसनं संसारसरित्पातार्त्तिः ते अधिकृत्य कृतेन पुनः पश्चाद् अलं पर्याप्तं शेषप्रलापेन असम्बद्धाभिधानेन / कुत एतदित्यत्राह प्रत्यक्षादिविरोधात्, प्रत्यक्षमादिर्यस्य अनुमान-लोकप्रसिद्ध्यादेः 15 तत्तथोक्तं तेन तस्य वा विरोधात् / अथ प्रत्यक्षादेरनभ्युपगमान्न दोषोऽयमत्राह-'तद' इत्यादि / तेषां प्रत्यक्षादीनां मध्ये अन्यतमस्य अभिमतत्वाद् अङ्गीकृतत्वात् सौगतैः, कुतोऽन्यथा तेषां स्वपराभिमतसाधनदूषणमित्यभिप्रायः ? एवं व्यवहारनयं साभासं प्रतिपाद्य इदानीं ऋजुसूत्रनयं साभासं दर्शयन्नाह- 20 ऋजुसूत्रस्य पर्यायः प्रधानं चित्रसंविदः / चेतनाणुसमुहत्वात् स्याङ्गेदानुपलक्षणम् // 43. // (१)सौगतः। (2) प्रमाणाप्रसिद्धकल्पितलोकव्यवहारापेक्षी। (३)अस्मदभिमतः प्रमाणसिद्धक्षणिकार्थापेक्षी। (4) विसंवादव्यसने / (5) प्रत्यक्षाद्यस्वीकारे / (६)सौगतानाम्। (4) व्याख्या-"ऋजं वर्तमानपर्यायलक्षणं प्रगुणं सूत्रयति निरूपयतीति ऋजुसूत्रस्य प्रधानं विषयः स्याद् भवेत् / कः ? पर्यायः वर्तमानविवर्तः / अतीतस्य विनष्टत्वेन भविष्यतश्चासिद्धत्वेन व्यवहारानुपयोगात् व्यवहाराविसंवादी नय इति वचनात् / ननु चित्रज्ञानमेकमनेकाकारं व्यवहारोपयोगि स्यादिति चेदत्राह-चित्रेत्यादि, चित्रा संवित् ज्ञानं तस्याः चेतनाणुसमूहत्वात्, चेतना ज्ञानं तस्याणवः अंशाः अविभागप्रतिच्छेदास्तेषां समूहः / समुदायः तत्त्वात् , न चित्रसविद् ऋजुसूत्रनयस्य विषयः / न खलु समुदायः नीलपीतादिनानारूपः प्रतिनियतव्यवहारोपयोगीति / नन्वेवं तत्र भेदः किमिति नोपलक्ष्यत इति चेदत्राह-भेदानुपलक्षणादिति / सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भादित्यध्याहारः / ततो भेदस्य नानात्वस्यानुपलक्षणमदर्शनं सदृशापराप 1 यस्य तदपे-श्र०। 2 तदपेक्षणं च दु-ब०, तदुपेक्ष एव दु-आ०। 3-मर्थयतः श्र० / 4 स वि-आ०।-क्षायां क्षम-ब०। 6-मसिद्धसाधनं ब०। 7 यावतातत्र ब०. श्र०। 8-तात्ति ते आ०। 9 तस्य चाविरो-ब०. तस्य विरो-आ01 10 प्रतिपाद्येदानी ऋजसूत्रस्य नयस्य तदभि-आ०.बा. Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयत्र्यालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे / 5. नयपरि० विवृतिः-यथा बहिः परमाणवः सन्निविष्टाः स्थवीयांसमेवैकमाकारमभूतं दर्शयन्ति तथैव संवित्परमाणवोऽपि / तन्नैकमनेकरूपं तत्त्वमक्रमम् , यत् सक्रम साधयेत् भेदस्य अभेदविरोधात् / क्वचिन्नानात्वमेव अन्यथा न स्यात् / सापेक्षो नयः / निरपेक्षो दुर्नयः / प्रतिभासभेदात् स्वभावभेदं व्यवस्थापयन् तदभेदादभेदं / प्रतित्तुमर्हत्येव विशेषाभावात् / तदन्यतराभावे अर्थस्यानुपलब्धेः। . ऋजुसूत्रस्य नयस्य तदभिप्रायवतो वा पर्यायः प्रभेदः प्रधानम् , प्रधान शब्दस्य सम्बन्धिशब्दत्वात् द्रव्यं तस्य अप्रधानम् / ननु तस्यापि कारिकार्थः-- चित्रका संविदस्ति तत्कथं पर्यायः प्रधानमित्याह-चित्रसंविदः चेतनाणुसमूहत्वात् 'नैका चित्रा संविदस्ति' इति भावः। अथ मतम्-पर्यायत्वेऽस्यास्तथैवोपलक्षणं स्यादतः प्रतिसमयं भेदानुमानमनर्थकमित्यत्राह-स्यात्' इत्यादि / स्याद् भवेद् भेदस्य नानात्वस्य अनुपलक्षणम् अनिश्चयनं सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भात् मायागोलकवदिति / कारिकां विवृण्वन्नाह-'यथा' इत्यादि। यथा येन दूरस्थितविरलकेशनिदर्शनप्रद . र्शनप्रकारेण बहिः परमाणवः जडपरमाणवः सन्निविष्टाः रचनाविशेषण विवृतिव्याख्यानम्- - - व्यववस्थिताः स्थवीयांसमेव न सूक्ष्मम् , एकमेव नानेकम् आकारम् रोत्पत्त्या विप्रलब्धबुद्धिः स्यादिति व्याख्यायते / अयमर्थ:-यथाऽयोगोलकादौ पर्यायभेदो विद्यमानोऽपि विप्रलब्धबुद्धिना न निश्चीयते तथा चित्रसंविद्यपि तदंशभेदो वसन्नपि नोपलक्ष्यत इति / अथवा स्यात् कथञ्चिद् द्रव्याविनाभाविपर्यायः ऋजुसूत्रस्य प्रधानम् , सर्वथा द्रव्यनिरपेक्षस्य पर्यायस्यावस्तुत्वात् / निरन्वयश्च क्षणिकैकान्त ऋजुसूत्राभास इति व्याख्येयम् ।"-लघी० ता० पृ० 62 / लुलना-"पच्चुप्पन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेअव्वो।"-अनुयोगद्वार० 4 द्वा० / आव० नि० गा० 757 / विशेषा० गा० 2718 / 'सतां साम्प्रतानामर्थानामभिधानपरिज्ञानमृजुसूत्रः।-आहच-साम्प्रतविषयग्राहकमजुसूत्रनयं समासतो विद्यात् ।"-तत्त्वार्थाधि० भा० 1135 / तत्त्वार्थहरि०, तत्त्वार्थसिद्ध० 1135 / "ऋजुं प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयत इति ऋजुसूत्रः ।"-सर्वार्थसि० 1133 / धवला टी० पृ० 86 / "सूत्रपातवद् ऋजुसूत्रः।"-राजवा० 1133 / ऋजुं प्रगुणं सूत्रयति नयत इति ऋजुसूत्रः / सूत्रपातवद् ऋजुसूत्र इति ।"-नयचक्रव० पृ० 354 B. | "ऋजसूत्रं क्षणध्वंसि वस्तुसत्सूत्रयेदृजु / प्राधान्येन गुणीभावाद् द्रव्यस्यानर्पणात् सतः ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 271 / नयवि० 77 / प्रमेयक० पृ० 678 / सन्मति० टी० पृ० 311 / नयचक्रगा०८ / तत्त्वार्थसार पृ० 107 / प्रमाणनय० 7 / 28 / स्या०म० पृ० 312 / जैनतर्कभा० पृ० 22 / (1) परि भेदमेति गच्छतीति पर्यायः ।"-धवलाटी० पृ० 84 / (2) चित्रसंविदः / (3) भेदरूपेणैव / (4) तुलना-"समानज्वालासंभतेर्यथा दीपेन विभ्रमः / नैरन्तर्यस्थितानेकसूक्ष्मवित्तौ तथैकधा // यथा हि दीपादौ नैरन्तर्येण सदृशापरापरज्वालापदार्थसंभवात् सत्यपि भेदे एकत्वविभ्रमो भवति तथा नैरन्तर्येणानेकसूक्ष्मतरपदार्थसंवेदनतोऽयमेकत्वविभ्रमः ।"-तत्वसं०, पं० पृ० 197 / यत्पुनरत्रोक्तं प्रज्ञाकरगुप्तेन-अतथाविधयोस्तथाविधविषयसिद्धिः दूरस्थितविरलकेशेषु अतदात्मसु तथाविधायास्तस्या दर्शनात् ।"-सिद्धिवि० टी० पृ० 100 B. / 1-मित्यत्राह ब०, श्र० / 2 संवेदनः श्र० / 3-गोलव-आ०,-गोलक्षणव-श्र०। 4-निदर्शनप्रकारे दर्शनपरमाणव: आ० / / स्वकीयांशमेव ब०, श्र० / Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयंप्र० का 0 44] शब्दादिनयानां निरूपणम् अभृतम् असन्तं दर्शयन्ति, तथैव तेनैव प्रकारेण संवित्परमाणवोऽपि, बहिःपरमाणुवत् संवित्परमाणूनामपि स्वरूपेणाप्रतिभासनादिति भावः / उपसंहारमाह--'तद्' इत्यादि। यत एवं तत् तस्मात् नैकम् अभिन्नं तत्त्वम् अनेकरूपम् / पुनरपि कथम्भूतम् ? अक्रमम् अक्षणिकम् ‘युक्तम्' इत्यध्याहारः / यत् तथाविधं तत्त्वं सक्रमं साधयेत् जैनः / कुत एतदित्याह-'भेदस्य' इत्यादि / भेदस्य अनेकत्वस्य अभेदविरोधात एकत्वविरोधात् / / कचिद् अन्तर्बहिर्वा नानात्वमेव अनेकत्वमेव, अन्यथा भेदस्य अभेदविरोधाभावप्रकारेण न स्यात् / एवं ऋजुसूत्रस्य सामान्येन स्वरूपं प्रदर्श्य अधुना तद्भेदं प्रदर्शयन्नाह-'सापेक्ष' इत्यादि / स्वविषयादन्यत्र या अपेक्षा तया सह वर्तमानः ऋजुसूत्रनयः, निरपेक्षो दुर्नयः / कुत एतदित्यत्राह-'प्रतिभासभेद' इत्यादि / प्रतिभासभेदात् स्वभावभेदं वस्तुस्वरूपनानात्वं व्यवस्थापयन् नयो वादी वा तदभेदाद् तस्य 10 प्रतिभासस्य अभेदात् अभेदं भावकत्वं प्रतिपत्तुमर्हत्येव / ननु तत्प्रतिभासयोः सत्येतरत्वकृतो विशेषोऽस्ति ततो न भेदप्रतिभासादिव अभेदप्रतिभासादपि तत्त्वसिद्धिरित्यत्राह-'विशेषाभावात्' इति / द्वयोरपि प्रतिभासयोः सत्येतरलक्षणविशेषस्य भेदस्य अभावात, 'उभयोरपि सत्यत्वात्' इत्यर्थः / तदन्यतरप्रतिभासप्रतीत्यपह्नवे दूषणमाह'तद' इत्यादि / तयोः भेदाभेदप्रतिभासयोर्मध्ये अन्यतरस्य अपाये अङ्गीक्रियमाणे 16 अर्थस्य वस्तुनोऽन्यतरप्रतिभासविकलस्य अनुपलब्धेः उपलम्भाभावात् सर्वदा उभयात्मकस्य वोपलब्धेः तं प्रतिपत्तुमर्हत्येव / / ... अधुना शब्दसमभिरूढेत्थम्भूतान्नयान् कथयन्नाह कालकारकलिङ्गानां भेदाच्छब्दोऽर्थभेदकृत् / अभिरूढस्तु पर्यायैः इत्थम्भूतः क्रियाश्रयः // 44 // (1) भेदाभेदप्रतिभासयोः। (2) "शब्दो नाम नयः स्यात् / किं विशिष्ट: ? अर्थभेदकृत् अर्थस्य प्रमेयस्य भेदं नानात्वं करोत्यभिप्रेतीत्यर्थभेदकृत् / कस्माद् ? भेदाद् विशेषात् / केषाम् ? कालकारकलिनानाम्,' उपलक्षणमेतत् ; तेन संख्यासाधनोपग्रहादपीत्यर्थः / " तु पुनः अभिरूढो नाम नयः पर्यायः पर्यायशब्दैः / अर्थभेदकृत् यथा इन्दनादिन्द्रः शकनात् शक्रः पूर्दारणात् पुरन्दर इति / न हि इन्दनादिधर्मभेदाभावे इन्द्रादिशब्दः प्रयोक्तुं शक्य अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् / अभि स्वार्थाभिमुख्येन रूढः प्रसिद्धोऽभिरूढ इति निरुक्तेः / पुनरित्थम्भूतो नाम नयः क्रियाश्रयः विवक्षितक्रियाप्रधानः सन्नर्थभेदकृत यथा यदैवेन्दति तदैवेन्द्रः नाभिषेचको न पूजक इति, अन्यथापि तद्भावे क्रियाशब्दप्रयोगनियमो न स्यात् / ." . -लघी० ता० पृ० 63 / तुलना-"शब्दो लिङ्गादिभेदेन वस्तुभेदं समुद्दिशन् / अभिरूढस्तु पर्यायरित्थम्भूतः क्रियाश्रयः ॥"-प्रमाणसं० पृ० 126 / (3) तुलना-"इच्छइ विसेसियतरं पच्चुप्पणं णओ सहो ।"--अनुयोगद्वार० 4 द्वा० / आव० वि० गा० 757 / विशेषा० गा० 2718 / “यथार्थाभिधानं शब्द: / आहच-विद्याद्यथार्थशब्दं विशेषितपदं तु शब्दनयम् ।"-तत्वार्थाधि० भा०१।३५ / तत्त्वार्थहरि०, तत्त्वार्थसिद्ध० 1 / 35 / "लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दः / "___ 1 'एकत्वविरोधात्' नास्ति आ० / 2 नानात्वमेव अन्यथा श्र० / 8-यन् यो वादी वा ब० / 4-णे अन्यतरस्य अर्थस्य श्र०। 5-नोनन्तरप्रतिभासविकल्पस्य आ० / 6-रूढः स्वप-मु० लघी०। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० विवृतिः-कालभेदात्तावद् अभूत भवति भविष्यति इति / कारकभेदात् करोति क्रियते इत्यादि / लिङ्गभेदात् देवदत्तो देवदत्ता इति / तथा पर्यायभेदात इन्द्र शक्रः पुरन्दर इति / तथैतौ शब्दसमभिरूढौ / क्रियाश्रयः एवम्भूतः / कुर्वत एव कारकत्वम् / यदा न करोति तदा कर्तृत्वस्यायोगात् / तत्कथं पुनः शब्दज्ञानं 6 विवक्षाव्यतिरिक्तं वस्तु प्रत्येति ? कथं च न ? तदप्रतिबन्धात् ; 'नहि बुद्धेरकारणं विषयः' इत्येतत् प्रतिव्यूढं विज्ञानस्य अनागतविषयत्वनिर्णयेन / सर्वार्थसि० 1133 // "शपत्यर्थमायति प्रत्यायतीति शब्दः ।"-राजवा० // 33 // "शब्दपष्ठतोऽर्थग्रहणप्रवणः शब्दनयः, लिङ्गसंख्याकारकपुरुषोपग्रहव्यभिचारनिवृत्तिपरत्वात् ।"-धवलाटी० पृ०८६। “कालादिभेदतोऽर्थस्य भेदं यः प्रतिपादयेत् / सोऽत्र शब्दनयः शब्दप्रधानत्वादुदाहृतः ।"-तत्त्वार्थश्लो०पू०२७२। नयविव० 84 / प्रमेयक० पृ०६७८ / सन्मति० टी० पृ० 312 / नयचक्र गा० 40 / तत्वार्थसार पृ० 107 / “कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः / यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादिः ।"-प्रमाणनय० 7 / 32,33 / स्या० मं० पृ० 313 / जैनतर्कभा० पृ० 22 / (1) तुलना-“वथूत्ओ संकमणं होइ अवत्थूनए समभिरूढे ।"-अनुयोगद्वार०४ द्वा० / आव० . ' नि० गा० 758 / “सत्स्वर्थेष्वसङक्रम: समभिरूढः ।"-तत्त्वार्थाधि० भा० 1135 / तत्त्वार्थहरि०, तत्वार्थसिद्ध० 1135 / "जं जं सणं भासइ तं तं चिय समभिरोहए जम्हा। सण्णंतरत्थविमुहो तओ तओ समभिरूढोत्ति ॥"-विशेषा० गा० 2727 / “नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढः / अथवा यो यत्राभिरूढः स तत्र समेत्याभिमुख्येनारोहणात् समभिरूतः ।"-राजवा० 1133 / धवलाटी० पृ० 89 / 'समभिरूढः एवं मत्त्वकीभावेन आभिमुख्ये एक एव रूपादिरर्थ एवेति या ज्ञानानां (?) समभिरूढः / " नयचक्रव० पृ० 483 / B. "पर्यायशब्दभेदेन भिन्नार्थस्याधिरोहणात् / नयः समभिरूढः स्यात् पूर्ववच्चास्य निश्चयः।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 273 / नयविव० 92 / प्रमेयक० पृ०६८० / सन्मति० टी० 10 313 / नयचक्रगा०४१ / तत्त्वार्थसार पृ० 107 / प्रमाणनय० 7 / 36 / स्या०म० पृ० 314 / जैनतर्कभा० पृ० 22 / (2) तुलना-“वंजण अत्थतदुभयं एवंभूओ विसेसेइ। "-अनुयोगद्वा० 4 द्वा० / आव०नि० गा० 758 / "व्यञ्जनार्थयोरेवम्भूतः ।"-तत्त्वार्थाधि० भा० 1235 / तत्त्वार्थहरि०, तत्त्वार्थसिद्ध० 1135 / "येनात्मनो भूतस्तेनैवाध्यवसाययति इत्येवम्भूतः / अथवा येनात्मना येन ज्ञानेन भूतः परिणत: तेनैवाध्यवसाययति ।"-सर्वार्थसि० 1133 / राजवा० 1133 / “वंजणमत्थेणत्थं च वंजणेणोभयं विसेसेइ / जह घटसई चेट्ठावया तहा तं पि तेणेवं ।"-विशेषा० गा० 2743 / “एवं भेदे भवनादेवम्भूतः / न पदानां समासोऽस्ति भिन्नकालवतिनां भिन्नार्थवर्तिनाञ्चैकत्वविरोधात् / न परस्परव्यपेक्षाप्यस्ति वर्णार्थसंख्याकालादिभिभिन्नानां पदानां भिन्नपदापेक्षायोगात् ततो न नाक्यमप्यस्तीति सिद्धम् / ततः पदमेकमेकार्थस्य वाचकमित्यध्यवसाय एवम्भूतनयः ।"-धवलाटी० पृ० 90 / "एवं भवनादेवम्भूतः अस्मिन्नये न पदानां समासोऽस्ति स्वरूपतः कालभेदेन च भिन्नानामेकत्वविरोधात् / न पदानामेककालवृत्तिः समासः क्रमोत्पन्नानां क्षणक्षयिणां तदनुपपत्तेः / नैकार्थे वृत्तिः समासः भिन्नपदानामेकार्थे वृत्त्यनुपपत्तेः / न वर्णसमासोप्यस्ति तत्रापि पदसमासोक्तदोषप्रसङ्गात् / तत एक एव वर्णः एकार्थवाचक इति पदगतवर्णमात्रार्थः एकार्थ इत्येवंभूताभिप्रायवान् एवम्भूतनयः ।"-जयध० पृ० 29 / “तक्रियापरिणामोऽर्थस्तथैवेति विनिश्चयात् / एवम्भूतेन नीयत क्रियान्तरपराङ्मुखः / " -तत्त्वार्थश्लो० पृ० 274 / नयविव० 14 / प्रमेयक० पृ०६८० / सन्मति० टी० पृ० 314 / नयचक्र गा०४३ / तत्त्वार्थसार पृ० 107 / प्रमाणनय० 740 / स्या० मं० पृ० 315 / जैनतर्कभा० पृ० 23 / 1 कर्तत्वायोगात्-न्यायकु० / Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवतिव्याख्यानम् नयप्र० का 0 44 ] . शब्दादिनयानां निरूपणम् ___ कालादीनां भेदात् शब्दः शब्दनयः अर्थस्य जीवादेः भेदं करोति प्रतिपा दयति इति तद्भेदकृत्। अभिरूढनयः पुनः पर्यायैः पर्यायशब्दैः कारिकार्थः अर्थभेदकृत् / इत्थम्भूतः क्रियाशब्दभेदात् अर्थभेदकृत् इति / .. कारिकां विवृण्वन्नाह 'काल' इत्यादि / तावच्छब्दः क्रमवाची, कालभेदात् _ कालविशेषाद् अर्थभेदस्तावदुदाह्रियते-अभूत् अतीतकालसम्बन्ध्यनु- 5 - भवादिपर्यायात्मना जीवौदिः, भवति वर्तमानकालसम्बन्धिस्मरणादिपर्यायरूपेण जायते / हेतुहेतुमद्भावश्चात्र द्रष्टव्यः-यस्माद् भवति तस्माद् अभूत, परिणाम्युपादानकारणमन्तरेण 'भवति' इत्यस्यायोगात् / भविष्यति अनागतपर्यायस्वभावेन उत्पत्स्यते, अत्रापि यस्माद् भवति तस्माद् भविष्यति अन्यथाभवतोऽभावः कार्याभावादिति मन्यते। इतिशब्दः कालभेदाद् भावभेदपक्षसमाप्त्यर्थः। कारकभेदादर्थ- 10 मुदाहर्तुमाह-'कारक' इत्यादि। कारकाणां कादीनां भेदात् 'शब्दोऽर्थभेदकृत्' इति सम्बन्धः / अत्रोदाहरणम् 'करोति' इत्यादि / यदा हि देवदत्तः स्वतन्त्रो विवक्षितो घटादिकार्ये तदा 'करोति घटं देवदत्तः' इति भवति / यदा तु स एव अन्योपकार्यत्वेन विवक्ष्यते तदा' क्रियते देवदत्त'इति / आदिशब्दात् 'देवदत्ते निधेहि, देवदत्तादपरः' इत्यादि षट्रारकीपरिग्रहः। तथा लिङ्गभेदात् शब्दोऽर्थभेदकृत् यथा 15 'देवदत्तो देवदत्ता' इति / यथा शब्दः कालादिभेदाद् अर्थभेदकृत् तथा अभिरूढः पर्यायभेदात् 'इन्द्रः, शक्रः,पुरन्दरः' इति / तथा प्रागुक्तप्रकारेणैव एतौ अनन्तरोक्तौ शब्दसमभिरूढौ कथितौ। ____इत्थम्भूतः कीदृशः ? इत्याह क्रियाश्रयः एवम्भूत इति / ननु च इत्थम्भूतखरूपप्ररूपणे प्रस्तुते एवम्भूताभिधाने किं केन सङ्गतम् ? इत्यसत्; यस्मात् इत्थम्भू- 20 तस्यैव इदम् ‘एवम्भूतः' इति नामान्तरम्। कस्मादसौ क्रियाश्रय इत्याह कुर्वत एव कारकत्वं यतः इति / एतदपि कुत इत्याह 'यदा' इत्यादि / यदा यस्मिन् काले न करोति कार्यम् इन्दनादि शचीपतिः तदा कर्तृत्वायोगात् न इन्द्रादिव्यपदेशः स्यात् / अत्राह सौगतः-त्रयोऽप्येते नयाः शब्दतोऽर्थं प्रतिपद्यन्ते अतः कालादिभेदादर्थभेदं प्रतिपद्यमानं तत् शब्दज्ञानम् कथं पुनर्विवक्षाव्यतिरिक्तं वस्तु खलक्षणं प्रत्येति ? तमाचार्यः 25 पृच्छति, कथश्च न 'प्रत्येति' इति सम्बन्धः। सं उत्तरमाह तदप्रतिबन्धात् तेन वस्तुनाऽप्रतिबन्धात्, तदात्म्यतदुत्पत्तिप्रतिबन्धाभावात् शब्दज्ञानस्य इति सम्बन्धः / तेदभावेऽपि तत् तत्प्रत्येति इति चेदत्राह-'नहि' इत्यादि / नहि नैव बुद्धेः शब्दज (1) सौगतः / (2) तादात्म्यतदुत्पत्तिसम्बन्धाभावेऽपि / (3) शब्दज्ञानम् / . 1 क्रमभावी का-ब०।2-सम्बन्धानुभ-आ० / 3-दि भव-आ०। 4-वतो भावः ब०, श्र० / 5 इति यथा च आदिशब्दात् आ०, ब०। 6-णवानन्तरो-श्र017-श्रय इत्येवम्भ-आ०। 8-पणप्रस्तु१०। 9-माह तेन वस्तुना आ०। 10 तच्छब्द-श्र०। 11-पि तत्प्र-आ०। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० नितायाः यदकारणं स्खलक्षणरूपं वस्तु तत्तस्या विषयः 'नाननुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणम्, नाकारणं विषयः” [ ] इत्यभिधानात् / इति शब्दः पूर्वपक्षपरिसमाप्तौ। अत्र दूषणमाह- 'एतद्' इत्यादि / एतत् परेणोक्तं प्रतिव्यूढम् निरस्तम् / केन इत्याह-विज्ञानस्य अनागतविषयत्वनिर्णयेन, प्रतिपादितश्चास्य अनागतविषयत्वनिर्णयः 'भविष्यत् प्रतिपद्यत' [लघी० का० 14 ] इत्यादिना / . ननु शब्दाः सङ्केतितमेवार्थं प्राहुः नान्यम् अतिप्रसङ्गात् / सङ्केतश्च न अविषयीकृतानां शब्दार्थानां युक्तः; तन्निर्विषयताप्राप्तेः / तद्विषयीकरणञ्च नाध्यक्षेण; शब्दाध्यक्षस्य अभिधेये तैदध्यक्षस्य वाऽभिधाने अप्रवृत्तेः। नापि स्मृत्या; तस्याः निर्विषयत्वात् इत्याशङ्क्याह अक्षबुद्धिरतीतार्थं वेत्ति चेन्न कुतः स्मृतिः। प्रतिभासभिदैकार्थे दूरासन्नाक्षबुद्धिवत् // 45 // विवृतिः-क्षणिकाक्षज्ञानज्ञेययोः कार्यकारणत्वनियमे निर्विषयं प्रत्यक्षम् तत्का- .. रणस्य अतीतस्य तदनात्मकत्वात् / प्रागभावप्रध्वंसाभावयोः समनन्तरेतरविनाश योश्च अभावाऽविशेषात् , तदुत्पत्तिसारूप्ययोः असंभवात् व्यभिचाराच्च किं कस्य 15 ज्ञानमित्युक्तम् / यदि पुनः अतीतमथं प्रत्यक्षं कथंचिद्वेत्ति; स्मृतिः कथं न संविद्यात् ? साक्षादतदुत्पत्तेरताद्रूप्याच इति वैयात्यम् व्यवहितोत्पत्तावपि तद्रूपानुकृतेर्दर्शनात् दृष्टार्थस्वप्नवत् / प्रत्यक्षस्मृत्योः प्रतिभासभेदात नैकार्थत्वमनैकान्तिकम्। दूरासन्नैकार्थप्रत्यक्षयोः भिन्नप्रतिभासयोरपि तदेकार्थविषयत्वात् / (1) बुद्धेः / (2) उद्धृतमिदम्-आप्तप० पृ० 42 / सिद्धिवि० टी० पृ० 306 A. / सन्मति० टी० पृ० 510 / स्था० र० पृ० 1088 / षड्द० बृह० पृ० 37 / प्रमाणमी० पु० 34 / शास्त्रवा० यशो० पृ० 151 A. / 'नाकारणं विषयः'-अनेकान्तजय०१० 207 / धर्मसं०१० 176 B. / बोधिचर्या० पृ० 398 / तस्वार्थश्लो० पृ० 219 / प्रमेयक० पृ० 355, 502 / स्या० र० पृ० 769 / न्यायवि० वि० पृ० 19 B. / स्या० मं० पृ०२०६। (3) श्रावणप्रत्यक्षस्य / (4) अभिधेयार्थग्राहिचाक्षुषादिप्रत्यक्षस्य / (5) "अक्षर्जनिता बुद्धिर्ज्ञानमतीतार्थं स्वकारणभूतं शब्द वाच्यञ्च, चेद्यदि, वेत्ति जानाति / सौगते मते हि विषयस्य ज्ञानकारणत्वात, कारणञ्च कार्यक्षणात् पूर्वक्षणवर्तीत्युच्यते / तदा कुतः कारणात् स्मृतिरपि अतीतार्थं न वेत्ति अपि तु वेत्त्येवेत्यर्थः / नन्वेवं स्मृतेः कथं प्रामाण्यं गृहीतग्राहित्वादित्याशंक्याह-प्रतीत्यादि। एकोऽभिन्नोऽतीतत्वाविशेषात् साधारणोऽर्थो विषयः शब्दार्थलक्षणस्तस्मिन्नपि स्मृतिः प्रमाणमिति शेषः / कुतः ? प्रतिभासभिदा प्रतिभासस्य अतीताकारपरामर्शस्य भिद् भेदस्तया / प्रत्यक्षेण हि इदमिति यदनुभूयते तदेव कालान्तरे पुनस्तदित्यतीताकारतया स्मृत्या विषयीक्रियत इति / अस्मिन्नर्थे दृष्टान्तमाह-दूरेत्यादि / दूरश्चासावासन्नश्च दूरासन्नस्तस्मिन्नर्थे पादपादौ अक्षबुद्धिवत् / यथा प्रत्यक्षज्ञानानां स्पष्टास्पष्टप्रतिभासभेदात् प्रामाण्यं तथा स्मृतेरपीत्यर्थः ।"-लघी० ता० पृ०६५। (6) तुलना-वागक्षसंविदामेकार्थगोचरत्वेऽपि युज्यते / प्रतिभासभिदा दूरासन्नैकार्थोपलम्भवत्"-सिद्धिवि०, टी० पृ० 470 A. / 1 कारणमित्यभि-श्र० / 2-नस्यागत-श्र० / चाभि-ब०, श्र० / Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का० 45 ] शब्दादिनयानां निरूपणम् दूराक्षार्थज्ञानं भ्रान्तेरप्रत्यक्षम् प्रमाणान्तरं स्यात् / नहि ततोऽर्थ परिच्छिद्य प्रवृत्तौ विसंवादैकान्तः तदप्रमाणं यतः स्यात् / तदयं शब्दार्थौ स्मृत्या सङ्कलय्य सङ्केते पुनः शब्दप्रतिपत्तौ तदर्थं प्रत्येति स्मृतिप्रत्यभिज्ञानादेरपि परमार्थविषयत्वात् / तदर्थाभावेऽपि प्रत्यक्षवत् शब्दार्थज्ञानं वस्तुन्यपि सङ्केतसंभवात्। अक्षाणां चक्षुरादीनां कार्यभूता बुद्धिः अतीतार्थ वेत्ति विषयीकरोति / __ चेद् यदि न कुतः कारणात् स्मृतिः अतीतार्थं वेत्ति ? किन्तु कारिकाव्याख्यानम्- - वेत्ति एव / अथैवं सति अक्षबुद्धिस्मृत्योरभिन्नः प्रतिभासः स्यात् र अभिन्नविषयत्वात् नीलाक्षबुद्धिद्वयवद् इत्युच्यते; तत्राह-'प्रतिभास' इत्यादि / अक्षबुद्धिस्मृत्योः एकार्थे एकार्थत्वे सत्यपि भावप्रधानोऽयं निर्देशः / स्मृतिः प्रतिभासभिदा अस्पष्टप्रतिभासात् इतरप्रतिभासविशेष (पे) णार्थ 'वेत्ति' इति सम्बन्धः। अत्र 10 दृष्टान्तमाह-'दूरासन्न' इत्यादि। सुप्रसिद्धो हि दूरासन्नाक्षबुद्धीनां विषयाभेदेऽपि स्पष्टेतररूपः प्रतिभासभेदः पादपस्यैकस्यैव तथाप्रतिभासनात् / _ कारिकां व्याख्यातुमाह-'क्षणिक' इत्यादि / क्षणिकौ च तौ अक्षज्ञानज्ञेयो च तयोर्यथाक्रम कार्यकारणत्वनियमे अभ्युपगम्यमाने निर्विषयं विवृतिव्याख्यानम् निरालम्बनं प्रत्यक्षं स्यात् / कुत एतदित्याह-'तद्' इत्यादि / तस्य 15 प्रत्यक्षस्य कारणं यद्वस्तु तस्य / कथम्भूतस्य ? अतीतस्य, तदनात्मकत्वात् / स प्रत्यक्षविर्षयोऽनात्मा स्व (त्माऽस्व) भावो यस्य तत्तथोक्तं तस्य भावात् / प्रत्यक्षकाले हि सर्वात्मना अस्य विनष्टस्य स्वरूपाभावतो न तेंद्विषयत्वं घटते। स्वकाले सत्त्वात् तद्विषयत्वम् ; कुतः स्मृतेर्निर्विषयत्वम् ? तदर्थस्यापि स्वकाले सत्त्वाविशेषात् / एतत्तु अक्षज्ञानं प्रति अतीतस्य कारणत्वमभ्युपगम्य दूषणमुक्तम् / इदानीं तदनभ्युपगम्य तद्दर्शयन्नाह- 20 'प्रागभाव' इत्यादि / तस्माद् विषयाभिमताद् उत्पत्तिसारूप्ये तदुत्पत्तिसारूप्ये, "का भीति : ( भीभिः )" [जैनेन्द्रव्या० 1 / 3 / 32 ] इत्यत्र 'का' इति योगविभागात् सविधिः / अथवा, तदिति निपातः 'तस्माद्' इत्यस्यार्थे वर्त्तते / तयोरसंभवात (1) प्रत्यक्षबुद्धितो भिन्नरूपेण / (2) पादपलक्षणविषयस्य एकत्वेऽपि / (3) स्पष्टाऽस्पष्टरूपेण / (4) अर्थस्य / (5) प्रत्यक्षविषयत्वम् / (6) प्रत्यक्षबुद्धिविषयत्वं / (7) स्मृतिविषयभूतस्य अतीतार्थस्यापि / (8) त्रुटितायां पू० प्रतौ 'भीभिः' इति पाठः प्रतिभाति / "का भीभिः // 113 / 32 / / कान्तस्य (पञ्चम्यन्तस्य) सुबन्तस्य भीवाचिभिः सुबन्तै: सह षसः (तत्पुरुषसमासः ) भवति / वृकेभ्यो भीः वृकभीः, वृकभयम, वृकभीतः / केति विभागेन परेभ्यस्त्रायन्ते परत्रा इत्यपि।"-जैनेन्द्रप्र० / (9) योगविभागे सति 'का भीभिः' इति सूत्रस्य अयमर्थः स्यात्-यथा कान्तस्य भयवाचिभिः शब्दः समासो भवति, तथा कान्तस्य अन्यैरपि शब्दैः समासः स्यात् / (10) तत्पुरुषसमासः / सः' इति समासस्य संज्ञा जैनेन्द्रव्याकरणे / ___ 1 विसंवाद्यते सवप्र-ज० वि० / 2 संकल्पय्य ई० वि०।-प्रवृत्तौ ई० वि०। 4 नीलाख्यबुआ० / 5-स्योरेकार्थत्वे श्र०। 6-पस्यैव श्र० / '7-यो नात्मा श्र०, ब०। 8 एतच्चाक्ष-श्र० / 9 प्रतीतस्य श्र०। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० कारणात्, किं प्रत्यक्षमन्यद्वा कस्य प्रत्यक्षाभिमतस्य अन्यस्य वा विषयस्य ज्ञानं 'ग्राहकम्' इत्यध्याहारः, 'सम्बन्धि वा' / कुत एतदित्यत्राह-'प्राग्' इत्यादि। उत्पत्तेः पूर्वमभावः प्रागभावः, लब्धात्मलाभस्य स्वरूपप्रच्युतिः प्रध्वंसाभावः, तयोरभावाविशे षात् अभावत्वाऽभेदात् / अयमभिप्रायः-यदा सति कारणे कार्य न भवति असति च 5 भवति तदा तेंद् औत्मनः कारणाभिमतस्याऽभावं कारमं सूचयति / तथा चाऽनादि भूततत्प्रागभावकालेऽपि तदभावस्याविशेषात् कार्योत्पत्तिः स्यात् / अथ कारणप्रध्वंसाभाव एव कार्योत्पादको न तत्प्रागभावः, अत्राह-समनन्तर' इत्यादि / कार्योत्पत्तेः प्रागनन्तरं जातः कारणप्रध्वंसः समनन्तरः, इतरः अनाद्यतीतकाले चिरजातः तयोः विनाशयोश्चाविशेषात् / अयमभिप्रायः-यदि अभावत्वाविशेषेऽपि प्रध्वंसाभाव एव 10 कार्योत्पादको न प्रागभावः तर्हि अनाद्यनन्तातीतानागताः प्रध्वंसाभावाः कार्योत्पादकाः स्युः तथा च कार्यस्य अनाद्यनन्तताप्रसंक्तिः / अथ कारणप्रध्वंस एव कार्योत्पादको नेतरः; न प्रध्वंसस्यैव कारणत्वाभ्युपगमे अस्य परिहारस्याऽनुपपत्तेः / न च प्रागनन्तर. . एव प्रध्वंसः तजनको नान्य इत्यभिधातव्यम्; देशकालयोरनभ्युपैगमे अस्यापि परिहा रस्य दुर्घटत्वात् / आनन्तर्यं हि देशकालकृता प्रत्यासत्तिरिति / इतश्च किं कस्य ज्ञान15 मिति दर्शयन्नाह–'व्यभिचाराच्च कारणात् किं कस्य ज्ञानमिति ? एतच्च ज्ञानस्य निराकारत्वसिद्धौ प्रपञ्चितमिति नेहोच्यते / ननु नैव प्रत्यक्षस्य अन्यस्य वा अतीतोऽन्यो वा भावतो विषयोऽस्ति भिन्नो यस्तूच्यते स व्यवहारेण इत्याशङ्क्याह-'यदि पुनः' इत्यादि / यदि पुनः अतीतमर्थ - प्रत्यक्षं कथञ्चिद् व्यवहारेण अन्येन वा प्रकारेण वेत्ति विषयीकरोति तदा स्मृतिः 20 कथं न संविद्यात् 'अतीतमर्थम्' इति सम्बन्धः / परैः प्राह-'साक्षात्' इत्यादि / साक्षात् अव्यवधानेन अतदुत्पत्तेः अतीतार्थादुत्पत्तरेभावात् स्मृतेः अतादूप्यत्वाच अतीतार्थन सारूप्यासंभवाच्च नासौ त संविद्यात्' इति सम्बन्धः / अत्रोत्तरम् 'इति' आदि / इति एवं वैयात्यं वियातस्य दुर्विदग्धस्य भावो वैयात्यं परस्य / कुत (1) इत्यध्याहारः इति योज्यम् / (2) कार्यम् / (3) स्वस्य / (4) कारणरूपेण / (5) कारणप्रागभावकाले, कारणासन्निधानावस्थायामित्यर्थः / (6) कारणाभावस्य / (7) कारणप्रागभावः / (8) अव्यवहितपूर्वक्षणे जातः / (9) अभावरूपेण भेदाभावात् / (10) अनाद्यनन्तातीतानागतप्रध्वंसः / (11) कार्योत्पादकः / (12) बौद्धमते हि कारणकार्याभिमतक्षणयोः एकदेशाभावात् एककालाभावाच्च न देशकालकृतमानन्तर्य संभवति / तन्मते हि कारणाभिमतस्य अन्यो देशः कालश्च कार्याभिमतस्य चान्यः, देशकालयोरपि क्षणिकत्वात् / न च तैः आकाशः कालो वा वस्तुभत: स्वीक्रियते; छिद्रस्य आकाशत्वात्, पूर्वापरादिबुद्धेरेव च कालव्यपदेशार्हत्वात् / (13) पृ० 169 / (14) परमार्थतः। (15) बौद्धः / (16) स्मृतिः / (17) अतीतार्थम् / (18) बौद्धस्य / / 1-प्रत्यक्षस्याभि-श्र०। 2 ससम्बन्धि श्र०। -भावलब्धा-आ० / 4 अभावत्वाविशेषात आ० / / तथावानादिभूत-आ० / 6 चिराज्जातः श्र० / 7 अनाद्यनन्तानामसा-आ० / 8 -सक्तेः / 9 भवतो आ० / 10 तत्संवि-ब०। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्रका० 45 ] शब्दादिनयानां निरूपणम् एतदित्याह-'व्यवहित' इत्यादि / व्यवहितोऽन्तरितो योऽर्थोऽनुभवेन तस्मात् परम्परयोत्पत्तिः स्मृतेः तस्यामपि तस्य व्यवहितस्य यद्रूपं तस्य अनुकृतेर्दर्शनात् / अत्र दृष्टान्तमाह-'दृष्टार्थ' इत्यादि। जाग्रहशायां यो दृष्टोऽर्थः स दृष्टः, तस्य स्वमः तत्रेव तद्वदिति / ... स्यान्मतम्-प्रत्यक्षस्मरणे नैकार्थे भिन्नप्रतिभासत्वात् रूपादिज्ञानवदित्यत्राह'प्रत्यक्ष' इत्यादि / प्रत्यक्षशब्दस्य अभ्यर्हितत्वात् पूर्वनिपातः / प्रत्यक्षस्मृत्योः प्रति- 5 भासभेदात् हेतोः एकार्थत्वन्न इति यत् परस्याभिमतं तदनैकान्तिकम्-अनैकान्तिकहेतुविषयत्वादुपचारेण अनैकान्तिकम् / एतदेव 'दूरासन्न' इत्यादिना समर्थयतेदूरासनेच ते एकार्थप्रत्यक्षे च तयोः / कथम्भूतयोः ? भिन्नप्रतिभासयोरपि तदेकार्थविषयत्वात् दूरासन्नैकार्थविषयत्वात् / ननु दुराणामक्षाणाम् अर्थज्ञानमप्रत्यक्षं प्रत्यक्षन्न भवति / कुतः ? भ्रान्तः अस्पष्टस्य दर्शने स्पष्टस्य प्राप्तः इति परः / अत्रोत्त- 10 रमाह 'प्रमाण' इत्यादि / प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् अन्यत् प्रमाणं तज्ज्ञानं स्यात् अस्पष्टत्वाऽलिङ्गजत्वाभ्यां प्रमाणद्वयानन्तर्भूतत्वात् / ननु विसंवादात्तत् प्रमाणमेव न भवति तत्कथं तदन्तरम् ? इति चेदत्राह 'नहि' इत्यादि / नहि नैव तेन दूराक्षार्थज्ञानेन अर्थ वृक्षादि परिच्छिद्य प्रवृत्तौ क्रियमाणायां विसंवादैकान्तः, अस्पष्टाकारतया विसंवादेऽपि वृक्षाद्याकारतया तदभावात् तदप्रमाणं तदूरार्थज्ञानम् एकान्तेनाप्रमाणं यतः स्यात् / 15 ___प्रकृतार्थोपसंहारमाह-'तद्' इत्यादि / यस्माद् उक्तप्रकारेण प्रत्यक्षवत् स्मृतेर्वस्तुविषयत्वं सिद्धम् तत् तस्माद् अयं सौगतो व्यवहारी वा शब्दार्थों पूर्वदर्शनेन विषयीकृतौ स्मृत्या करणभूतया सङ्कलय्य प्रत्यभिज्ञाय सङ्केते ‘एवंविधोऽर्थः एवविधशब्दवाच्यः' इति समये सति पुनः पश्चाद् व्यवहारकाले शब्दप्रतिपत्तौ सत्याम् अर्थं सम्प्रत्येति विषयीकरोति / 'स्मृत्या सङ्कलय्य' इत्येतदत्रापि सम्बन्धनीयम् / ननु स्मृत्या- 20 देरवस्तुविषयत्वाद् अवस्तुनि सङ्केतः तत्प्रतिपत्तिश्च; इत्यत्राह-'स्मृति' इत्यादि / आदिशब्देन तर्कादिपरिग्रहः, तस्यापि न केवलं प्रत्यक्षस्य परमार्थविषयत्वात् / ननु परमार्थविषयत्वे शब्दानां न कचित् तदभावे तज्ज्ञानं स्यादित्यत्राह-'तद्' इत्यादि / तस्य शब्दस्य अर्थः तदर्थः तस्य अभावेऽपि न केवलं भाव एव शब्दार्थज्ञानं शब्दस्य कार्यभूतमर्थज्ञानं 'जगत्प्रपश्चस्य प्रकृतिः कारणम् , ईश्वरः कारणं, ब्रह्म कारणम्' इत्यादि। 25 अत्र दृष्टान्तमाह-'प्रत्यक्षवत्' इति / यथा प्रत्यक्षं द्विचन्द्राद्यर्थाभावेऽपि भवति तथा तैदपीति / कुत एतदिति चेदत्राह-'वस्तुन्यपि' इत्यादि / अपि शब्दाद् अवस्तुन्यपि सङ्केतसम्भवात् / (1) बौद्धस्य / (2) बौद्धः / (3) दूराक्षार्थज्ञानम् / (4) प्रत्यक्षानुमानलक्षण / (5) प्रमाणान्तरम् / (6) विसंवादाभावात् / (7) अर्थाभावे, अतीतानागतादिकालवर्तिन्यर्थे / (8) शब्दज्ञानम् / (9) शब्दज्ञानमपि / 1 प्राप्तिरिति श्र० चब। 3 अर्थ प्रत्येति श्र०। 4-वित्याह ब०। 5 तदपि कृत श्र०। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 644 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० . ननु यदि अर्थाभावेऽपि तज्ज्ञानं स्यात् तर्हि सर्वमेव शाब्दज्ञानमप्रमाणं स्यात् / / प्रयोगः-विवादास्पदीभूतं शब्दार्थज्ञानमप्रमाणं तत्त्वात् प्रकृतज्ञानवत् इत्याशङ्क्याह -- अक्षशब्दार्थविज्ञानमविसंवादतः समम् / अस्पष्टं शब्दविज्ञानं प्रमाणमनुमानवत् // 46 // विवृतिः-तदुत्पत्तिसारूप्यदिलक्षणव्यभिचारेपि आत्मना यदर्थपरिच्छेदलक्षणं ज्ञानं तत्तस्येति सम्बन्धात् / वागर्थज्ञानस्यापिखयमविसंवादात् प्रमाणत्वं समक्षवत् / विवक्षाव्यतिरेकेण वाग् अर्थज्ञानं वस्तुतत्त्वं प्रत्याययति अनुमानवत् सम्बन्धनियमाभावात् / वाच्यवाचकलक्षणस्यापि सम्बन्धस्य बहिरर्थप्रतिपत्तिहेतुतोपलब्धेः। अक्षाणि च शब्दाश्च तेषाम् अर्थज्ञानं समम् / केन इत्याह अविसं10 वादतः, अविसंवादेन यथा अक्षज्ञानमविसंवादकं तथा शब्दार्थज्ञान मपि। अयमभिप्रायः-यथा अक्षज्ञानस्य कस्यचिद्विसंवादिनो दर्शनेऽपि न 'सर्वमक्षज्ञानमप्रमाणं तत्त्वात् द्विचन्द्रादिज्ञानवत्' इत्यभिधातुं शक्यम् , तथा शब्दार्थज्ञानमपि / तर्हि प्रत्यक्षात् कोऽस्य विशेषः ? इति चेदत्राह-अस्पष्टमवि शदं शब्दविज्ञानम्, अक्षज्ञानं तु स्पष्टम् इत्यनयोर्विशेषः / तर्हि तत्प्रमाणं किमि15 वेति चेदत्राह-प्रमाणं शब्दज्ञानम् अनुमानवत्। अत्रापि 'अविसंवादतः' इति सम्बन्धनीयम् / ननु चाक्षज्ञानस्य अर्थोत्पत्तिसारूप्यसंभवात् युक्तमविसंवादकत्वं न शब्दज्ञा ___ नस्य तद्विपर्ययात् अतः 'अक्ष' इत्याद्ययुक्तम् ; इत्यारेकादूषणपुरःविवृतिव्याख्यानम्- सरं कारिकां विवृण्वन्नाह-'तदत्पत्ति' इत्यादि / तस्माद् अथोद् 20 उत्पत्तिश्च सारूप्यश्च आदिर्यस्य तदध्यवसायस्य स तथोक्तः, स एव लक्षणं प्रामाण्यस्य अविसंवादस्य वा तस्य व्यभिचारेऽपि तदुत्पत्तेः चक्षुरादिना, सारूप्यस्य (1) शब्दज्ञानम् / (2) शब्दज्ञानत्वात् / (3) खरविषाणादिशब्दजज्ञानवत् / (4) "समं समानं प्रमाणं भवति / किम् ? अक्षशब्दार्थविज्ञानम्, अक्षमिन्द्रियं शब्दो वर्णपदवाक्यात्मको ध्वनिः ताभ्यां जनितमर्थस्य सामान्यविशेषात्मकवस्तुनो विशिष्टं संशयादिविकलं ज्ञानमवबोधनम् / कूतः ? अविसंवादत: अर्थक्रियायामव्यभिचारात् / यथाऽक्षजनितमर्थज्ञानमविसंवादात् प्रमाणं तथा शब्दजनितमपि / 'नन्वक्षज्ञानं प्रमाणं स्पष्टत्वात् न शाब्दमस्पष्टत्वादित्याशंक्याह-अस्पष्टमिति / अस्पष्टमविशदमपि शब्दजनितं ज्ञानं प्रमाणमभ्युपगन्तव्यमविसंवादादेव / न हि स्पाष्टयमस्पाष्ट्यं वा प्रामाण्येतरनिबन्धनं तयोः संवादेतरनिबन्धनत्वात् / किंवत् ? अनुमानवत्"-लधी० ता० पृ० 66 / (5) तुलना-'तत्सारूप्यतदुत्पत्ती यदि संवेद्यलक्षणम् / संवेद्यं स्यात्समानार्थं विज्ञानं समनन्तरम् ॥"प्रमाणवा० 3 / 323 / अष्टसह पृ० 240 / प्रमाणनय० 4 / 47 / (6) चक्षुरादिम्यः घटज्ञानमुत्पद्यते न च तत् चक्षुरादिग्राहकं भवति / __ 1-ज्ञानं न प्र-आ० / 2 प्रकृततज्ज्ञानवत ब० / 8 अक्षात् शब्दा-ई०, वि० / 4-णं व्यई०, वि०,। 5 तत्तथेति ज०, वि० / 6-पुरस्सरां का-ब०,-पुरस्सर का-आ० / $ एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ० / Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० की०४६] शब्दादिनयानां निरूपणम् समानार्थसमनन्तरज्ञानेन, तदध्यवसायस्य मरीचिकाचक्रे जलदर्शनेन तत्र जलाध्यवसायहेतुना, तस्त्रितयस्य शुक्ले शङ्ख पीतज्ञानप्रभवोत्तरपीतज्ञानेन, न केवलमव्यभिचारे। किं जातमित्याह-'यदर्थ' इत्यादि / उत्तरत्र तच्छब्दद्वयप्रयोगाद् अत्रापि द्वितीयो यच्छब्दो द्रष्टव्यः / ततोऽयमर्थो जातः--यज्ज्ञानं यदर्थपरिच्छेदलक्षणं यदर्थग्रहणस्वरूपं तत् ज्ञानं तस्य अर्थस्य / एतदुक्तं भवति-तत्र यया प्रत्यासत्त्या सत्त्वाविशेषेऽपि 1 किश्चित् / कस्यचित् कारणं न सर्वं सर्वस्य, कारणत्वाविशेषेऽपि च कस्यचित् किश्चिदाकारमात्मसात्करोति, तदविशेषेऽपि च 1 किञ्चिद्व्यवस्यति तया तदुत्पत्त्यादिरहितमपि तत्परिच्छेदवत् इति। एवं तव्यभिचारेऽपि ज्ञानार्थयोः सम्बन्धात् वागर्थज्ञानस्यापि न केवलमन्यस्य स्ययम् आत्मना अविसंवादात् प्रमाणत्वं समक्षवत् प्रत्यक्षवत् / ननु भवतु तत्प्रमाणं किन्तु विवक्षायामेव, इत्यत्राह-विवक्षा' इत्यादि। विवक्षाव्यतिरेकेण 10 यद्बाह्यं वस्तुतत्त्वम् अर्थस्वरूपं तत् प्रत्याययति गमयति। किं तदित्याह-वागर्थज्ञानम् , वचः कार्यभूतमर्थज्ञानम् / किमिव ? इत्याह-अनुमानवत् / यथा अनुमानं विवक्षाव्यतिरिक्तमर्थं गमयति तथा वागर्थज्ञानमपि / कुत एतत् ? इत्याह-सम्बन्धनियमाभावात् / विवक्षायामेव न बहिरर्थे तस्य सम्बन्धः इति यो नियमः तस्याऽसंभवात् / अथवा, तादात्म्यतदुत्पत्तिरूप एव सम्बन्धः नापरः इति यः सम्बन्धनियमः तस्या- 15 ऽभावात् / कुत एतदित्यत्राह-'वाच्य' इत्यादि / न केवलमन्यस्य अपि तु वाच्यवाचकलक्षणस्यापि सम्बन्धस्य बहिरर्थप्रतिपत्तिहेतुतोपलब्धेः। अयमभिप्रायः-अन्योऽपि सम्बन्धस्तत्प्रतीतिं कुर्वन् उपलभ्यमान एव 'अस्ति' इत्युच्यते नान्यथाऽतिप्रसङ्गात् , तथा प्रकृतस्याप्युपलभ्यमानत्वे अस्तित्वम॑स्तु इति / समर्थितञ्चास्याँस्तित्वं 'प्रमाणं श्रुतमर्थेष' [लघी० का० 26 ] इत्यत्र प्रपञ्चतः इत्यलं पुनः प्रसङ्गेन। ननु कालादीनां ग्राहकप्रमाणाभावतोऽभावात्, सतामप्यभेदात्। अन्यतः कालभेदात्तद्भेदे अनवस्था स्यात् / अर्थभेदात्तद्भेदे अन्योन्याश्रयः / ततोऽयुक्तमुक्तम्-'कालकारक' इत्यादि; इत्याशङ्कयाह (1) समानार्थे एकस्मिन्नर्थे तिलादौ यत्प्रथमं ज्ञानं जातं तस्माज्जातं यदनन्तरं द्वितीयं तिलज्ञानं तस्य प्रथमतिलज्ञानेन सह सारूप्यमस्ति, न च द्वितीयज्ञानं प्रथमं गृह्णाति, ज्ञानं ज्ञानस्य न नियामकमिति तत्सिद्धान्तात् / (2) अनुकूलविकल्पोत्पत्तिरध्यवसायः / मरीचिचक्रे जायमानं जलदर्शनमनुकलं जलमिदमित्याकारकं विकल्पमुत्पादयति न च तत्प्रमाणम् / (3) तदुत्पत्तिसारूप्यतदध्यवसायत्रयम् / शुक्ले शंखे जायमानपीतज्ञानात् उत्पन्नस्य अनन्तरपीतज्ञानस्य शंखज्ञानादुत्पन्नस्य तदाकारानकारिणः तदुनुकूलशंखोऽयमित्याकारकविकल्पोत्पादकस्य पूर्वज्ञाने प्रामाण्यप्रसङ्गात् / न चैतदस्ति ज्ञानं ज्ञानस्य न नियामकमिति नियमभङ्गप्रसङ्गात् / (4) अकारानुकारणाऽविशेषेऽपि / (5) तदुत्पत्त्यादिः / (6) वाच्यवाचकसम्बन्धस्य / (7) वाच्यवाचकभावस्य / (8) भेदाभावात् / (9) सिद्धे हि अर्थेष्वतीतादिभेदे तस्मात् कालस्य अतीतादित्वम्, तस्माच्चार्थानामतीतादितेति / 1 यत्र आ० / 2 सत्ताविशे-श्र०। / एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ०। इत्यात्राह ब०, श्र०। 4 तस्यासंभवात् ब०, श्र०। 5-स्याप्रति-आ०। 6-हेतुत्वोप-ब०, श्र०। 7-मस्तीति श्र०। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० कालादिलक्षणं न्यक्षेणान्यत्रेक्ष्यं परीक्षितम् / द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषात्मार्थनिष्ठितम् // 47 // विवृतिः-नोकान्ते वर्तनालक्षणं कालस्य संभवति, भूतभविष्यद्वर्त्तमानप्रभेदो यतः स्यात्, तदर्थक्रियानुपपत्तेः। न च द्रव्यं शक्तिः तदुभयं वेति 5 कॉरकलक्षणं शक्तिशक्तिमतोर्व्यतिरेकैकान्ते सम्बन्धासिद्धिः अनवस्थानुषङ्गात् / तदव्यीतरेकैकान्ते 'शक्तिःशक्तिमत्' इति रिक्ता वाचोयुक्तिः। तन्नैकान्ते षट्रारकी व्यवतिष्ठते / कुतः पुनः स्त्यायत्यस्यां गर्भ इति स्त्री, प्रसूते खान् पर्यायान् इति पुमान् तदुभयात्यये नपुंसकम्' इति शब्दार्थप्रत्ययानामन्यतमस्यापि लिङ्ग व्यवस्था ? तथा एकस्यार्थस्य 'इन्दनादिन्द्रः, शकनात् शक्रः, पुरंदारयतीति 10 पुरन्दरः' इति पर्यायभेदाद् भिन्नार्थता तद्वाचिनां शब्दानां न संभवत्येव व्यति रेकेतरैकान्तयोः तत्र विरोधात् / तत एव क्रियाकारकयोः तत्रासंभवो विज्ञेयः / तदनेकान्तसिद्धिः विधिप्रतिषेधाम्यां तदर्थाभिधानात् / नाभावैकान्तः, कुतः .. तदभिधानलिङ्गाद्यसंभवोपालम्भः स्याद्वादमनुवर्तेत ? ___ काल आदिर्यस्य कारकादेः स तथोक्तः तस्य लक्षणं स्वरूपं प्रमाणं वा कारिकाविवरणम्___ अन्यत्र तत्त्वार्थभाष्यादौ परीक्षितं विचारितम् ईक्ष्यम् अन्वे प्यम् न्यक्षेण आत्मना, 'निश्चितः पूर्वं प्रमाणेन व्यवस्थापितोऽक्षो (1) "ईक्ष्यमवलोकनीयम् / किम् ? कालादिदक्षणम्, काल आदियंषां कारकलिङ्गसंख्यासाधनोपग्रहादीनां ते कालादयः तेषां लक्षणमसाधारणं स्वरूपम् / किं विशिष्टम् ? परीक्षितं विचारित स्वामिसमन्तभद्राद्यैः सूरिभिः / कथम् ? न्यक्षेण विस्तरेण / क्व ? अन्यत्र तत्त्वार्थमहाभाष्यादौ / किविशिष्टम् ? द्रव्येत्यादि / द्रव्यं पूर्वापरपरिणामव्यापकमूर्ध्वतासामान्यम्, पर्यायाः एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविन: परिणामाः, सामान्यं सदृशपरिणामलक्षणं तिर्यक् सामान्यम्, विशेषोऽर्थान्तरगतो व्यतिरेकः, द्रव्यं च पर्यायाश्च सामान्यञ्च विशेषश्च द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषाः ते आत्मा स्वभावो यस्यासौ तथोक्तः। स चासावर्थश्च तस्मिन्निष्ठितं नियतं तदात्मकमिति यावत् / एवंविधस्यैव अर्थक्रियासंभवात् निरपेक्षकान्ते तद्विरोधात् ।"-लघी० ता० पृ०६७। (2) "वत्तनालक्खणो कालो ."-उत्तरा० 28 / 10 / 'कालस्य वट्टणा से""-प्रवचनसा० 2 / 42 / "ववगदपणवण्णरसो ववगददोगंधअट्टफासो य / अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालोत्ति।"-पञ्चा० गा० 24 / द्रव्यसं० गा० 21 / "वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य।"-तत्त्वार्थसू० 5 / 22 / (3) शक्तिकारकवादिनः भर्तृहरिप्रभृतयः; तथाहि"स्वाश्रये समवेतानां तद्वदेवाश्रयान्तरे / क्रियाणामभिनिष्पत्तौ सामर्थ्य साधनं विदुः // क्रियानिवृत्ती द्रव्यस्य शक्तिः साधनं साध्यतेऽनेन क्रियेति भाष्यकारप्रभृतयो विदुः ।"-वाक्यप० तृ० का० पृ० 173 / (4) तुलना-"न च द्रव्यमानं कारकं न च क्रियामात्रम्, कारकशब्दो हि क्रियासाधने क्रियाविशेषयुक्ते प्रवर्तते ।"-ज्यायवा० 106 / “धात्वर्थांशे प्रकारो यः सुबर्थः सोऽत्र कारकम्"-शब्दशका०६७ / (5) "संस्त्यानप्रसवौ लिंगमास्थेयौ स्वकृतान्ततः / ' अधिकरणसाधना लोके स्त्री स्त्यायत्यस्यां गर्भ इति / कर्तृसाधनश्च पुमान् सूते पुमानिति / " संस्त्यानविवक्षायां स्त्री, प्रसवविवक्षायां पुमान, उभयविवक्षायां नपुंसकमिति ।"-पात० महा० 4 / 23 / 1-निश्चितम् ज० वि०। 2 चेति ई०वि०। 8 शक्तिशक्ति-ई०वि०। 4 तदुभयाभावे नपुं-ई० वि०। 5-कान्तरयोः ज० वि० / 6 अन्वेक्ष्यम् आ० / Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का० 47] शब्दादिनयानां निरूपणम् / न्यक्षः' इति व्युत्पत्तेः। न्यक्षेण विस्तरेण इति वा। कथम्भूतं तत् तेनेक्ष्यम् इत्याह'द्रव्य' इत्यादि / द्रव्यम् ऊर्ध्वतासामान्यं तस्य सहक्रमभुवो विवर्ताः पर्यायाः, सदृशपरिणामः सामान्यम्, विसदृशपरिणामो विशेषः ते एव आत्मा यस्यार्थस्य तत्र निष्ठितम् तदात्मकमिति यावत् / ततो निराकृतमेतत्- 'कालादेः स्वयमभेदात् कथं तद्भेदात् कश्चिदर्थभदेकृत्"[ ] इति। सहकार्युपादानसन्तानवद् अन्योन्यं / कालादीनाम् अन्यथाभावविवर्त्ताविरोधात् / यदि चा (वा), अन्यार्थपरिणतिः कालापेक्षा कालपरिणतिस्तु स्वरूपापेक्षा, यथा घटादिप्रकाशः प्रदीपनिबन्धनः प्रदीपप्रकाशस्तु खनिबन्धन इति, अतः अनवस्थाऽन्योन्याश्रयासंभवः / अथवा, तदर्थेन लिङ्गभूतेन निष्ठा स्वरूपव्यवस्थितिख़ता अस्येति तन्निष्ठितं तल्लक्षणम् तत्प्रमाणकम् इत्यर्थः। तथाहि-अयं तदर्थः अस्मात् पूर्व पश्चात् अनेन सह वा भवतीति प्रतीतिः तदर्थव्यतिरिक्तार्थपूर्विका, 10 पूर्वापरादिप्रतीतित्वात्, अयं तदर्थोऽस्मात्पूर्वदेशः अयमपरो देश इत्यादिप्रतीतिवत् / यश्वासौ तत्कारण स काल इति। एवं कारकादावपि योज्यम् / तथाहि-'करोति क्रियते' -- इत्यादिप्रतीतिः विभिन्नशक्तिकार्थनिबन्धना, विलक्षणप्रतीतित्वात् , जलानलप्रतीतिवत् / तथा, 'देवदत्तो देवदत्ता' इत्यादिप्रतीतिः विभिन्नस्वरूपार्थनिबन्धना, विशिष्टप्रतीतित्वात् , घटपटप्रतीतिवत् / कारिकां व्यतिरेकमुखेन व्याचष्टे-'नोकान्त' इत्यादिना / हिर्यस्मात् न __ क्षणिकायेकान्ते वर्तनों स्वयं त्रिकालगोचरैः पर्यायैः वर्तमानान् विवृतिव्याख्यानम् - भावान् प्रति प्रयोजकत्वं लक्षणं कालस्य संभवति यतो लक्षणात् भूतभविष्यद्वर्त्तमानप्रभेदः कालादेः स्यात् / 'यतः' इति आक्षेपे वा, यतः तत्प्रभेदः स्यात् , नैव स्यात् / कुत एतदित्याह-'तदर्थ' इत्यादि / या भूताद्यर्थस्य क्रिया 20 निष्पत्तिः तस्या अनुपपत्तेः 'एकान्ते' इति सम्बन्धः / यथा च एकान्ते कालस्य अतीताद्यर्थक्रियानुपपत्तिः तथा कालपरीक्षावसरे विशेषतश्चिन्तितम् / ___एवं कालस्य एकान्ते लक्षणं वर्तमानान् भावान् प्रति प्रयोजकत्वं निराकृत्य कारकस्य तन्निराकुर्वन्नाह-'नच' इत्यादि / नच नापि कारकलक्षणम् / किंतदित्याह'द्रव्यं शक्तिः तदुभयं वा' इत्येतत् , 'एकान्ते तदर्थक्रियानुपपत्तेः' इत्येतदत्रापि 25 (१)पूर्वापरादिप्रतीतिकारणम् / (2) “सर्वभावानां वर्तना कालाश्रया वृत्तिः / वर्तना उत्पत्तिः स्थितिरथ गतिः प्रथमसमयाश्रयेत्यर्थः ।"-तत्त्वार्थभा० 5 / 22 / "वृतेणिजन्तात्कर्मणि भावे वा युटि 'स्त्रीलिङ्गे वर्तनेति / वय॑ते वर्तनमात्रं वा वर्तनेति / / धर्मादीनां द्रव्याणां स्वपर्यायनिवृत्ति प्रति स्वात्मनैव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना तद्वत्त्यभावात् तत्प्रवर्तनोपलक्षितः काल इति कृत्वा वर्तना कालस्योपकारः ।"-सर्वार्थसि० 5 / 22 / "प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तीतकसमया स्वसत्तानुभूतिर्वर्तना।"-राजवा० 5 / 22 / (3) पृ० 225 / 1-न्य इति आ० / 2-तिर्जाता आ०,व०। 3 भवतीति विभिन्नस्वरूपार्थव्यतिरिक्तार्थपूविका F-कार्यनि-आ०। 5 इत्यादि न हि आ० / 6 लक्षणं निराकृत्य ब०, श्र०। 7 च श्र०। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 648 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० सम्बन्धनीयम् / दूषणान्तरमाह-'शक्ति' इत्यादि / शक्तिशक्तिमतोः व्यतिरेकैकान्ते अङ्गीक्रियमाणे सम्बन्धीसिद्धिः सह्यविन्ध्यवत् / अथ तदेकान्तेऽपि राजपुरुषवद् उपकार्योपकारकभावात् सम्बन्धसिद्धिरिष्यते, अत्राह-अनवस्थानुषङ्गात् इति / अत्रा यमभिप्रायः यथा राजपुरुषयोरन्योन्यमुपकार्योपकारकभावः तथा चेत् शक्तितद्वतो। स्तद्भावः तदा तत्र प्रत्येकम् अपरा शक्तिः कल्पनीया तत्राप्येवं चोद्यमित्यनवस्था / एतेन अनयोः समवायः विशेषणीभावः अन्यो वा भिन्नः सम्बन्धः चिन्तितः / तयोरभेदैकान्तं दूषयन्नाह-'तदव्यतिरेकैकान्ते' इत्यादि / तयोः शक्तिशक्तिमतोः अव्यतिरेकैकान्ते अभेदैकान्ते अङ्गीक्रियमाणे 'शक्तिः शक्तिमत्' इति एवं या परस्य वाचोयुक्तिः / वचनोपपत्तिः सा रिता निरर्थिका / तस्मिन् सति शक्तिरेव स्यात्, न च सौ परस्य निराधारा युक्ता द्रव्यादिकल्पनावैफल्यप्रसङ्गात् / शक्तिमदेव वा स्यात्, तेदपि शक्त्यभावेऽनुपपन्नम् / न च द्रव्यादिकमेव शक्तिरित्यभिधातव्यम्; शक्तिपरीक्षायां तस्याः ततो व्यतिरिक्तायाः प्रसाधितत्वात् / प्रकृतमुपसंहरन्नाह-'तद्' इत्यादि। यतो भेदाभेदैकान्ते शक्तिशक्तिमद्भावो नोपपद्यते 'तत् तस्मात् नैकान्ते द्वार की कादीनां षण्णां कारकाणां समाहारो व्यवतिष्ठत, 15 कारकाभावे तत्समाहाराभावात् इत्यभिप्रायः / तथा अन्यच्च यत्प्राप्तं तदाह-'कुतः' इत्या दिना। कुतः ? न कुतश्चित् / पुनः इति दूषणान्तरसूचनार्थः / लिङ्गव्यवस्था लिङ्गानां स्त्रीत्वादीनां स्थितिः। कस्य सा न ? इत्यत्राह-अन्यतमस्यापि / केषामन्यतमस्य ? इत्याह-शब्दार्थप्रत्ययानाम् / वैयाकरणैर्यथासंभवं तेषामेव त्रयाणां लिङ्गव्यवस्थोपगमात / ननु यदि कारकव्यवस्था नास्ति किमायातं लिङ्गाव्यवस्थाया येन सापि न स्यात् ? इत्याह-'स्त्यायति' इत्यादि / स्त्यायति सङ्घातीभवति अस्यां गर्भ इति स्त्री। प्रतूते जनयति स्वान् आत्मीयान् पर्यायान् इति पुमान् / तदुभयात्यये स्त्यानप्रसवनोभयाभावे नपुंसकमिति / एवं या व्यवस्था, सा कुतः ? लिङ्गव्यवस्थायाः कारकनिबन्धनत्वेन तदभावेऽभावादिति मन्यते / अत्रैव एकान्ते (1) उपकार्योपकारकभावः / (2) शक्तितद्वतोः / (3) शक्तिः / (4) मीमांसकादेः / (5) शक्तिमदपि / (6) पृ० 160 / (7) शक्तेः / (8) द्रव्यादेः / (9) "नित्याः षट्शक्तयोऽन्येषां भेदाभेदसमन्विताः / क्रियासंसिद्धयेऽर्थेषु जातिवत्समवस्थिताः ॥"-वाक्यप० साधनसमु० श्लो०३५ / (10) तुलना-"संस्त्यानप्रसवौ लिङ्गमास्थयौ इति परिभाषितं भाष्ये लिङ्गमुक्तं तथा चाह-संस्त्याने स्त्यायतेर्डट् स्त्री, सूतेस्सप्रसवे पुमानिति / स्त्यानं संहननं प्रसव उपचयो रूपादीनां सत्त्वादिगुणानाम् / स्त्यायति संहननमापद्यतेऽस्यां गर्भ इत्यधिकरणं स्त्री। सूतेर्धातो वे प्रसव उपचये डुम्सुन् प्रत्यये परतस्सकारस्य पकारादेशे कृते पुमानिति / यदाह-सबिति सकारस्य पकारादेश इत्यर्थः / अनेन च प्रकारेण विषये सूत्यर्थे वृत्ति सूचयति / " उभयधर्मसाम्यरूपा स्थितिर्नपुंसकमर्थादुक्तं भवति।"-वाक्यप० लिङ्गसमु०१० 436 / 1-सिद्धेः आ012-सिद्धिरिति इष्य-ब। एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ०। 3 कारणानां श्र०। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का 047] शब्दादिनयानां निरूपणम् 146 दूषणान्तरमाह-'तथा' इत्यादिना / तथा तेन कारकाभावप्रकारेण एकस्य अभिन्नस्य अर्थस्य सुरपतिलक्षणस्य 'इन्दनाद् इन्द्रः' 'शकनात् शक्रः' 'पुरन्दारयति इति पुरन्दरः' इत्येवं पर्यायभेदात इन्दनादिपरिणामभेदात् / अथवा, इन्द्रादिशब्दपर्यायभेदात् सकाशात् तद्भेदञ्चाश्रित्य यासौ परेणाभ्युपगता। का ? इत्याह-भिन्नार्थता नानार्थता / केषाम् ? इत्याह-तद्वाचिनाम् एकार्थवाचिनां शब्दानाम् इन्द्राद्यभिधानानाम् / सा / किम् ? इत्याह-न संभवत्येव, मनागपि तत्संभवो नास्ति इत्येवकारार्थः / कुत एतदित्यत्राह-'व्यतिरेक' इत्यादि / यः सुरपतिलक्षण एकार्थः यश्च शकनादिः तयोः परस्परं व्यतिरेकैकान्तः भेदैकान्तः यश्च इतरैकान्तः अभेदैकान्तः तयोः तत्रैकान्ते विरोधात् / व्यतिरेकैकान्ते हि सम्बन्धासिद्धेरनवस्थानुषङ्गाच्च विरोधः सिद्धः / इतरैकान्ते च इन्दनादेः एकत्वर्सिद्धेः से सिद्ध इति / ननु न द्रव्यं नापि शक्तिस्तदुभयं वा 10 कारकलक्षणम् , किन्तु क्रियाविष्टं द्रव्यं कारकम् ; इति चेदत्राह-'तत एवं' इत्यादि / 'तत एवं' अनन्तरोक्तविरोधादेव क्रियाकारकयोः क्रिया अधिश्रयणादिलक्षणा, कारक कादि, तयोः तत्र मिथ्र्यकान्ते असंभवो विज्ञेयः / ___ उपसंहारमाह-'तद्' इत्यादि / यस्माद् एकान्ते कालकारकलक्षणं नोपपद्यते तत् तस्माद् अनेकान्तसिद्धिः तत्रैव अस्योपपत्तेः / काभ्यां तत्सिद्धिः ? इत्याह-विधि- 15 प्रतिषेधाभ्याम् , स्वपररूपादिचतुष्टयापेक्षसदसत्त्वाभ्याम् / समर्थितञ्चैतद् अनेकान्तसिद्ध्यवसरे इत्यलमतिप्रसङ्गेन / ननु एकान्तव्यतिरिक्तस्य शब्दार्थस्यासंभवात् सर्वत्र लिङ्गाद्यसंभवो भवतः स्यादिति चेदत्राह-'तद्' इत्यादि / तस्य अनेकान्तरूपस्य अर्थस्य अभिधानात् प्रतिपादनात् / अत्रापि "विधिप्रतिषेधाभ्याम्' इति सम्बन्धनीयम् / कुतः ? न कुतश्चित् तदभिधानलिङ्गाद्यसंभवोपालम्भः, तस्य अनेकान्तार्थस्य अभि- 20 धानं प्रतिपादकं वचनं तस्य लिङ्गादिः, आदिशब्दात् वचनादिपरिग्रहः तस्याऽसंभवः, स एव उपालम्भः कुतः न कुतश्चित् स्याद्वादम् अनेकान्तवादम् अनुवर्तेत यायात् / ननु सर्वथा भावानामभावात् तदर्थाभिधानमसिद्धम् इत्यत्राह-नाभावैकान्तः शून्यतैकान्तः / यथा चासौ नास्ति तथा विषयपरिच्छेदे व्यासतश्चिन्तितम् / यता अनेकौन्ते तदुपालम्भाभावः अंत: (1) अभेदैकान्ते / (2) विरोधः / (3) 'क्रियाविष्टं द्रव्यं कारकमिति प्रसिद्धः।"-युक्त्यनु० टो० पृ० 28 / (4) पृ० 366 / (5) पृ० 119 / 1 तदभेदं वाश्रित्य श्र०, ब० / 2-गता केषाम् आ०,-गता केत्याह भिन्नार्थता केषाम् ब० / 3 संभव मनाग-आ०। 4-दित्याह श्र०।-स्पर व्यति-श्र०। 6 विरोधसिद्धः आ०, विरोधसिद्धिः श्र०। 7-द्धः सि-श्र०। 8 कियाविशिष्टं श्र। 9-श्रवणा-ब०। 10 एकान्ते कारक-आ० / 11-रिक्तशब्दा-आ। 12 तस्याकान्त-आ०। 13 तत्रापि आ०। 14 विधिनिषेधा-आ० / 15-लम्भस्यानेका-श्र० / 16-कान्ते न तद्-आ० / 17 'अतः' नास्ति श्र०।। 32 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० एकस्यानेकसामग्रीसन्निपातात् प्रतिक्षणम् / षट्कारकी प्रकल्पेत तथा कालादिभेदतः॥४८॥ विवृतिः-प्रतिक्षणं प्रत्यर्थं च नानासामग्रीसन्निपातात् षट्कारकीसंभवेऽपि यथैकं स्वलक्षणं स्वभावकार्यभेदानां तदभेदकत्वात् तथा कालादिभेदेऽपि / 5 तत्प्रतिक्षेपो दुर्नयः तदपेक्षो नयः, स्वार्थप्राधान्येऽपि तद्गुणत्वात् / तदुभयात्मार्थज्ञानं प्रमाणम् / एकस्य वस्तुनः, अपिशब्दोऽत्र द्रष्टव्यः ततोऽनेकस्यापि प्रकल्पेत। का ? इत्याह-षट्कारकी। कुत इत्याह-अनेकसामग्रीसन्निपातात् कारिकाव्याख्यानम् - अनेका नाना या सामग्री अनेककार्योत्पादककारणसमग्रता तस्याः 10 सन्निपातात् / कथं प्रकल्पेत इत्याह-प्रतिक्षणं, क्षणं क्षणं प्रति प्रतिक्षणं यथाभवति तथा प्रकल्पेत / तथाहि-यदैव चक्रादिसन्निधानात् घटस्य करणाद् देवदत्तः (1) "प्रकल्पेत घटेत / का? षट्कारकी, षण्णां कारकाणां समाहार: षटकारकी। कस्य? एकस्यापि जीवादिवस्तुनः अपिशब्दस्याध्याहारात् / कथम् ? प्रतिक्षणम्, क्षणः समयः क्षणं क्षणं प्रति प्रतिक्षणम् / कस्मात् ? अनेकसामग्रीसन्निपातात्, अनेका बहिरङ्गाऽन्तरङ्गा सामग्री कारणकलापः तस्याः सन्निपातः सन्निधिस्तस्मात् / तथाहि-यदैव चक्रादिसन्निधानात् घटस्य कर्ता देवदत्तः तदेव स्वप्रेक्षकजनसन्निधानात् स एव दश्यते इति कर्म, प्रयोजनापेक्षया देवदत्तेन कारयतीति करणम, दीयमानद्रव्यापेक्षया देवदत्ताय ददातीति सम्प्रदानम्, अपायापेक्षया देवदत्तादपैतीति अपादानम्, तत्र स्थद्रव्यापेक्षया देवदत्ते कुण्डलमित्यधिकरणमित्यविरोधातथाप्रतीतेः। न हि प्रतीयमाने विरोधो नाम / तथा युगपदिव कालादिभेदत: कालदेशाकाराणां भेदः क्रम: तेनापि षट्कारकी प्रकल्पेत / तथाहि अकरोद्देवदत्तः करोति करिष्यतीति प्रतीतिबलायातत्वात् / अथवा तथा एकस्य षट्कारकीप्रकल्पनवत् कालाद्यपि प्रकल्पेत / कुतः? भेदतः कथञ्चिदर्थस्य भेदात। सर्वथाऽभिन्ने सकलकारकादिभेदानपपत्तेः ।"-लघी० ता० पृ०६८ / (2) तुलना-"एवमेते शब्दसमभिरुढेवम्भूता नयाः परस्परापेक्षाः सम्यक् अन्योन्यमनपेक्षास्तु मिथ्येति प्रतिपत्तव्यम्।"-प्रमेयक० 10680 / "अर्थभेदं विना शब्दानामेव नानात्वैकान्तस्तदाभासः ।"-प्रमेयर० 6 / 7 / 4 / “एवं शब्दादयोऽपि सर्वथा शब्दाव्यतिरेकमर्थं समर्थयन्तो दुर्नयाः ।"न्यायावता० टी० पृ० 90 / 'तद्भेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभासः / यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकालाः शब्दा भिन्नमेवार्थमभिदधति भिन्नकालशब्दत्वात्तादृसिद्धान्यशब्दवदित्यादिरिति ।"-प्रमाणनय० 7134,35 / जनतर्कभा० 1024 / “पर्यायनानात्वमन्तरेणापि इन्द्रादिभेदकथनं तदाभासः ।"-प्रमेयर०६।७४ / “पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कक्षीकुर्वाणस्तदाभासः इति / यथेन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादयः शब्दा भिन्नाभिधेया एव भिन्नशब्दत्वात् करिकुरङ्गतुरङ्गमशब्दवदित्यादिरिति ।"-प्रमाणनय०७३८,३९। जैनतर्कभा०प०२४। "क्रियानिरपेक्षत्वेन क्रियावाचकेष काल्पनिको व्यवहारस्तदाभास इति ।"-प्रमेयर० 6174 / "क्रियानाविष्टं वस्तू शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपंस्तु तदाभासः / यथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यं वस्तु न घटशब्दबाच्यं घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाशन्यत्वात् पटादिवदित्यादिरिति ।"-प्रमाणनय०७४४२,४३। जैनतर्कभा०प० 24 / / 1 प्रकल्प्येत श्र०, ब०। 2 यथैकस्व-ज० वि०। 8-थें ज्ञानं ज० वि०। 4 प्रकल्प्येत श्र०, ब०। 5 प्रकल्प्येत ब०, श्र०। 6 प्रतिक्षणं क्षणं प्रति आ०, ब०। 7 'प्रतिक्षणं' नास्ति आ० / 8 प्रकल्प्येत श्र० ब०॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का० 48 ] शब्दादिनयानां निरूपणम् कर्ता तदैव प्रत्यक्षदेशादिसामग्रीसन्निधानात् स एव कर्म, अन्यकर्मापेक्षया करणम् , तस्मै दीयमानद्रव्याद्यपेक्षया सम्प्रदानम् , तस्माद् आकृष्यमाणभावापेक्षया अपादानम् , तत्र स्थाप्यमानार्थापेक्षया अधिकरणमिति ।तथा तेन प्रकारेण कालादिभेदतः काल आदिर्यस्य देशादेः स तथोक्तः तद्भेदतः एकस्य षट्कारकी प्रकल्पेत' इति सम्बन्धः। तद्यथा आसीद् देवदत्तः कादिस्वभावो भवति भविष्यति वा / एवमन्यत्रापि योज्यम् / 5 ___ कारिकार्थं दर्शयन् अत्र सुनयदुर्नयभेदं दर्शयति-'प्रतिक्षणम्' इत्यादिना / क्षणं क्षणं प्रति प्रतिक्षणम् , अर्थमर्थं प्रति प्रत्यर्थश्च नानासामग्रीविवृतिव्याख्यानम् - सन्निपातात् षट्कारकीसंभवेऽपि तत्प्रतिक्षेपः तस्याः षट्कारक्याः प्रतिक्षेपो निरासः दुर्नयः। कथं तत्संभव: ? इत्यत्राह-यथैकं स्वलक्षणम् , यथा एकं स्वलक्षणं व्यवस्थितं तथा यथा भवति तथा तत्संभवेऽपि इति / नन्वेकस्य 10 स्वलक्षणस्य अनेकस्य स्वभावस्य कार्यस्य च संभवे तद्वदन्यत्रापि तत्संभवः स्यात् , नचासावस्ति, तत्संभवे तस्यावश्यं भेदात् इत्यत्राह-'स्वभाव' इत्यादि / स्वभावभेदानां कार्यभेदानाञ्च तदभेदकत्वात् स्वलक्षणाभेदकत्वात् / न खलु सजातीयेतरकार्यभेदे तत्कारणस्वभावभेदे वा स्वलक्षणस्य भेदोऽस्ति / एवं कालादिभेदे षट्कारकीसंभवेऽपि तन्निरासो दुर्नयः इति दर्शयन्नाह-'तथा' इत्यादि / यथा सामग्रीभेदे 15 एकस्य षट्कारकीसम्भवेऽपि तन्निरासो दुर्नयः, तथा कालादिभेदेऽपि 'षट्कारकी संभवेऽपि' इति सम्बन्धः / अत्रापि 'स्वभाव' इत्यादि अपेक्ष्यम्। कस्तर्हि नयः ? * ' इत्यत्राह-'तदपेक्षो नयः' इति / तस्यां षट्कारक्याम् अपेक्षा यस्य असौ नयः / कुतः स नयः ? इत्यत्राह-'स्वार्थ' इत्यादि / स्वः विषयीक्रियमाणो योऽर्थः तस्य प्राधान्येऽपि तद्गुणत्वाद् अविवक्षितधर्माणामप्रतिक्षेपेण गुणीभूतत्वात् / यदि एवं- 20 विधो नयो भवति, प्रमाणं तर्हि कीदृशम् ? इत्याह-'तद्' इत्यादि / तद् अगुणीभूतं विवक्षिताविवक्षितधर्मोभयम् आत्मा यस्य अर्थस्य तस्य ज्ञानं प्रमाणम् / अनेन "प्रमाणनयैरधिगमः'' [ तत्त्वार्थसू० 1 / 6 ] इत्येतत् सगृहीतम् / ननु नयः सर्वोऽपि मानसो विकल्पः, विकल्पश्च निर्विषय एव तत्त्वात् प्रधानदिविकल्पवत् , तत्कथं तेनं कस्यचिदधिगमः स्यात् ? इत्याशक्य 'विकल्पत्वात्' 25 इत्यस्य हेतोः तर्कादिना अनैकान्तिकत्वं दर्शयन्नाह (1) शब्दादिषु / (2) एकम् / (3) येन प्रकारेण। (4) कालादिभेदसंभवेप्येकमेवेत्यर्थः। (5) अनेकस्वभावकार्यसम्भवः / (6) अनेकस्वभावकार्यसंभवे। (7) अर्थस्य / (8) षट्कारकीप्रतिक्षेपः / (9) विकल्पत्वात् / (10) नयेन / 1-व्यापेक्षया श्र। 2 तदभेदतः आ० / 8 प्रकल्प्येत ब०, श्र०। 4 क्षणं प्रतिक्षणम् ब० / 5 तस्याः निरा-श्र० / 6 यथा तथा भवति श्र०। 7 अनेक स्वभा-आ०, ब० / 8 तत्करण-आ० / 9 तदित्यादि श्र०। 10 तद्गुणी-श्र० / 11 अर्थस्य ज्ञानं श्र० / 12 ननु न नयः श्र० / Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयत्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० व्याप्तिं साध्येन हेतोः स्फुटयति न विना चिन्तयैकत्र दृष्टिः, संकल्येनैष तर्कोऽनधिगतविषयः तत्कृतार्थेकदेशे। प्रामाण्ये चानुमायाः स्मरणमधिगतार्थाविसंवादि सर्वम्, संज्ञानश्च प्रमाणं समधिगतिरतः सप्तधाख्यैनयोधैः // 49 // व्याप्तिम् अविनाभावं हेतोः लिङ्गस्य साध्येन लिङ्गिना सह स्फुटयति * प्रकाशयति न, काऽसौ ? दृष्टिः दर्शनम् एकत्र एकस्मिन् देशे, कारिकाव्याख्यानम् " उपलक्षणमेतत् तेन 'एकदा चे या दृष्टिः' इति गृह्यते / सकलदृष्टिरेव स्फुटयति, तत्रं च अनुमानमनर्थकमित्यभिप्रायः / केन विना इत्याह-विना चिन्तया, तया सहिता तु स्फुटयति। अत: सौ प्रमाणान्तरं स्यादिति भावः / कथं तया विना साँ ती न स्फुटयति इत्याह-साकल्येन सामस्त्येन / देशतस्तु यदि स्फुटयति तदा स्फुटयतु, किन्तु तथाऽनुमानानुदयः / कस्तर्हि साकल्येन ती स्फुटयति ? इत्याह-'एषः' इत्यादि / एषः प्रतिप्राणिस्वसंवेदन-प्रत्यक्षप्रसिद्धः तर्कः मानसोऽस्पष्टविकल्पः / कथम्भूतः ? इत्याह-अनधिगतविषयः अनधिगतः प्रमाणान्तरेणाऽपरिच्छिन्नः विषयो यस्य स तथोक्तः / स किम् ? इत्याह-संज्ञानमेव, च शब्दः एवकारार्थः, अत 15 एव प्रमाणम् / यथा चासौं साकल्येन व्याप्तिप्रकाशकः अनधिगतविषयः संज्ञानञ्च (1) "न स्फुटयति न प्रकाशयति / का? एकत्र दृष्टिः एकस्मिन् महानसादौ साध्यसाधनयोः दृष्टिदर्शनं प्रत्यक्षमित्यर्थः / काम् ? व्याप्तिमविनाभावम् / कस्य ? हेतोः साधनस्य धूमादेः / केन सह ? साध्येन अग्न्यादिना सह। केन ? साकल्येन सकलानां देशकालान्तरितसाध्यसाधनव्यक्तीनां भावः साकल्यं तेन / कथम् ? चिन्तया विना ऊहप्रमाणाभाव इत्यर्थः / न हि दृष्टान्तमिणि साध्यसाधनसम्बन्धदर्शनं साकल्येन व्याप्तिप्रतिपत्तौ समर्थमनुमानानर्थक्यप्रसङ्गात् तद्रष्टुरभिज्ञत्वापत्तेश्च / तहि किं प्रमाणं तां स्फुटयतीति चेदुच्यते ? एष तर्कः यः साकल्येन साध्यसाधनयोः व्याप्ति स्फुटयति ज्ञानं स एव च सकलानुमानिकप्रसिद्धस्तर्क इत्युच्यते / ननु गृहीतग्राहित्वादस्याप्रामाण्यमित्याशंक्याहअनधिगतविषयः / किविशिष्ट: ? संज्ञानं सम्यक्ज्ञानमर्थे प्रमाणं भवतीति / तथा स्मरणं स्मृतिश्च प्रमाणम् / किं विशिष्टम् ? अधिगतार्थविसंवादि, अधिगतः प्रत्यक्षेणानुभूतोऽर्थो विषयस्तत्र अविसंवादि विसंवादरहितमिति / एतच्च संज्ञानमिति / कस्मिन् सति ? प्रामाण्य प्रमाणत्वे सति / कस्याः ? अनमायाः अनमानस्य / क्व ? तत्कृतार्थंकदेशे, तेन तर्केण कृतो निश्चित: अर्थोऽविनाभावस्तस्यैकदेशः साध्यं तत्रानुमानप्रामाण्यस्य स्मृतितर्कप्रामाण्याविनाभावित्वादित्यर्थः / अथवा सञ्ज्ञानञ्च प्रत्यभिज्ञानञ्च प्रमाणमविसंवादाविशेषात् / न केवलमेतत् परोक्षमेव विकल्पात्मकं प्रमाणमपि तु सर्वं प्रत्यक्षमपि विकल्पात्मकं प्रमाणं तस्यैव व्यवहारोपयोगित्वात्, निर्विकल्पकस्य क्वचिदप्यनुपयोगात् / अतः कारणातर्कादिवत् विकल्पात्मकैरेव नयोघैः समधिगतिः सम्यगधिगमो जीवादितत्त्वनिर्णयो भवति / किं भूतैः ? सप्तधाख्यः, सप्तधा नैगमादिसप्तप्रकारा आख्या येषां तैरिति ।"-लघी० ता० पृ०७० / (2) सकलदृष्टौ सर्वज्ञतायाम् / (3) दृष्टिः / (4) चिन्तया। (5) दृष्टिः / (6) व्याप्तिम् / (7) एकदेशेन व्याप्तिग्रहणे सति / (8) व्याप्तिम् / (9) तर्कः / 1 वानुमा-ज० वि० / 2-दिसं-मु० लघी०। 3-यो यः आ० / 4 च दृष्टिः आ० / 5 विना तासां न आ० / Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्र० का 0 50 ] शब्दादिनयानां निरूपणम् भवति तथा व्यप्तिज्ञानपरीक्षायां प्रपञ्चतः प्ररूपितमित्यलमतिप्रसङ्गेन / ततः सिद्धम्नयस्य निर्विषयत्वे साध्ये 'विकल्पत्वात्' इत्यस्य हेतोः तर्केण अनैकान्तिकत्वम् / तथा स्मरणेन चे, इत्याह-'स्मरणम्' इत्यादि / स्मरणं सर्व संज्ञानं 'प्रमाणम्' इति सम्बन्धः / कथम्भूतम् ? इत्याह-अधिगताथोविसंवादि, स्वयं स्मरणेन अधिगतो योऽर्थः तदविसंवादि, यदि वा, प्रमाणान्तरेण अधिगतार्थाविसंवादि। 5 कस्मिन् सति ? इत्याह-प्रामाण्ये सति / कस्याः ? अनुमायाः / क ? इत्याह'तत्कृत' इत्यादि / तेन तर्केण कृतो निश्चितोऽर्थः अविनामावलक्षणः तस्य आधारभूते एकदेशेऽपि साध्यस्वरूपे, च शब्दो भिन्न प्रक्रमः अपिशब्दार्थः / ततः किं जातम् ? इत्याह-'समधिगतिः' इत्यादि / अतः अस्मात् नयानां निर्विषयत्वप्रसाधकहेतो: तर्कस्मृत्यनुमानज्ञानैः व्यभिचारित्वलक्षणात् न्यायात् समधिगतिः जीवाद्यर्थानां 10 सप्तधाख्यैः नयाँधैः / तैश्च तेषां समधिगतौ सत्यां यज्जातं तद्दर्शयतिसर्वज्ञाय निरस्तबाधकधिये स्याद्वादिने ते नमस्तात्प्रत्यक्षमलक्षयन् स्वमतमभ्यस्याप्यनेकान्तभाक् / तत्त्वं शक्यपरीक्षणं सकलविन्नैकान्तवादी ततः, प्रेक्षावानकलङ्क याति शरणं त्वामेव वीरं ज॑िनम् // 50 // (1) पृ० 423 / (2) अनैकान्तिकत्वम् / (3) नयैः / (4) जीवाद्यर्थानाम् / (5) 'न स्यात् सकलवित् त्रिकालगोचराशेषद्रव्यपर्यायवेदी न भवेत् / कः ? एकान्तवादी "सुगतादिः / किं कुर्वन् ? अलक्षयन् अजानन् / किम् ? तत्त्वम् किं विशिष्टम् ? अनेकान्तभाक् अनेकान्तं द्रव्यपर्यायात्मतां भजत्यात्मसात्करोति इत्यनेकान्तभाक् / पुनः कथम्भूतम् ? शक्यं परीक्षणं शक्यपरीक्षणं संशयादिव्यवच्छेदेन विवेचनं यस्य तथोक्तं लौकिकगोचरमपीत्यर्थः / कथम् ? प्रत्यक्षम् किं कृत्वा ? अभ्यस्य भावयित्वा। किम? स्वमतम् सर्वथैकान्तदर्शनं निरन्वयविनाशादिभावनावहितचेतसोऽनेकान्ततत्त्वमधिगन्तुमनलमिति कथं सर्ववेदित्वं तेषामित्यर्थः / ततः कारणात्, भो अकलंक ज्ञानावरणादिकलङ्करहित, नमस्करवाणि / कस्मै ? तुभ्यम् / कथम्भूताय ? सर्वज्ञाय ' 'पुनः किं विशिष्टाय ? निरस्तमनेकान्ततत्त्वभावनाबलाद्विश्लेषितं बाधकं दोषावरणद्वयं यस्याः सा निरस्तबाधका तादृशी धीर्यस्य तथोक्तस्तस्मै / भूयः किम्भूताय ? स्याद्वादिने। न केवलमहमेव ते नमस्कारोमि किन्तु प्रेक्षावान परीक्षकः सर्वोपि त्वामेव शरणं याति प्रतिपद्यते, नित्यप्रवृत्तमानविवक्षया एवं वचनात् / किन्नामानम् ? वीरं पश्चिमतीर्थकरं वर्धमानम् / पुनरपि कथम्भूतम् ? जिनम् बहुविधविषमगहनभ्रमणकारणं दुष्कृतं जयतीति जिनस्तम्"-लघी० ता० पृ० 72 / (6) पालीभाषायां तु जिनातेर्धातोः 'जिनातीति जिनः' इति सिद्धयति / (7) एतच्छ्लोकानन्तरं परिच्छेदसमाप्तिं विधाय ज० वि० प्रतौ निम्नश्लोकः समुल्लिखितः, परञ्च सः तात्पर्यवृत्तिकृता अभयचन्द्रेण न्यायकुमुदकृता चाऽव्याख्यातत्वात् अर्थप्रकरणदृष्टयाऽसङ्गतत्वाच्च प्रक्षिप्त एव भाति-"मोहेनैव (नाहं नैव) परोऽपि कर्मभिरिह प्रेत्याभिबन्धः पूनः / भोक्ता कर्मफलस्य जातुचिदिति प्रभ्रष्टदृष्टिर्जनः / कस्माच्चित्रतपोभिरुद्यतमनाश्चैत्यादिकं वन्दते। किं वा तत्र तपोऽस्ति केवलमिमे धूतर्जडा वञ्चिताः // " (अयं श्लोकः यशस्तिल कचम्पूत्तरभागेऽपि पृ० 257) प्रश्रुतिरूपेण निष्टङ्कितः। 1-मिप्रस-आ012 भिन्नक्रमः श्र०।-तिरिति इत्यादि श्र०। 4-कलमेति शरणं ज० वि०। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [5. नयपरि० ततः तस्याः समधिगतेः सकाशात् एकान्तवादी सुगतादिः सकलवित् सर्वज्ञो नेति 'ज्ञायते' इत्यध्याहारः। किं कुर्वन् ? अलक्षयन्, कारिकार्थः ___ अनिश्चिन्वन् / किम् इत्याह-तत्त्वं जीवादि / कथम्भूतम् ? इत्याहअनेकान्तभाक् अनेकान्तात्मकम् / पुनरपि कथम्भूतम् ? इत्याह-शक्यपरी। क्षणम् , अपिशब्दोऽत्र द्रष्टव्यः / शक्यं परीक्षणं संशयादिव्यवच्छेदेन स्वरूप विवेचनं यस्य तत् तथोक्तम् / तदपि पृथग्जनलक्ष्यमपि इत्यर्थः / पुनरपि कथम्भूतम् ? प्रत्यक्षम्, प्रत्यक्षग्राह्यमपि, अत्रापि अपिशब्दो द्रष्टव्यः / किं कृत्वाऽलक्षयन् ? इत्याहअभ्यस्य, किम् इत्याह- स्वमतम्, एकान्तम्, अथवा सुष्ठु अमतमज्ञानं क्षणिक निरंशतत्त्वम् / अनेन जीवादितत्त्वालक्षणे कारणमुक्तम् / ननु तल्लक्षणे किं प्रयोजनम् ? 10 इति चेदत्राह-प्रेक्षावान् इत्यादि / अत्रापि 'ततः' इत्येतदपेक्ष्यम् , ततोऽयमर्थः सिद्धः ततः तज्ज्ञानात् प्रेक्षावान् परीक्षको लोकः अकलङ्कः निर्दोषः अतत्त्वाभ्यासरहितः / त्वामेव याति शरणम् / किंविशिष्टं त्वाम् ? वीरम्, वीरनामानम् अन्तिम तीर्थकरदेवम् / यदि वा, विशिष्टाम् अन्यजनासाधारणाम् ईम् अन्तरङ्गबहि रङ्गलक्षणां श्रियं रातीति वीरः तीर्थकरसमुंदयः तम् / पुनरपि कथम्भूतम् ? जिनम्, 15 संसारसमुद्रावर्त्तपरिभ्रामककर्मचक्रोन्मूलकम् / न केवलं त्वामुक्तविशेषणं शरणमेव यात्ययं प्रेक्षावान जनः, किन्तु नमस्करोति च / केन विशेषणेन ? इत्याह-सर्वज्ञाय सकलविदे / कथम्भूताय ? इत्याह-निरस्तबाधकधिये, निरस्ता बाधकानाम् एकान्तवादिनां धीर्येन / यदि वा, निरस्तं बाधकं यस्याः सा तथाविधा धीर्यस्य, निरस्ता वा बाधिका धीर्यस्य तस्मै / पुनरपि कथम्भूताय ? स्याद्वादिने ते तुभ्यं नमः स्तात् नमस्कारोऽस्तु इति / 'अकलङ्काय वीराय जिनाय' इति विभक्तिपरिणामेन उत्तरं पदत्रयं योज्यमिति / स्याद्वादोअरवेरशेषविषयप्रद्योतिनो देशतः, ___ तद्रूपप्रतिरूपणाय गदिताः सप्तैव ते सन्नयाः / किं भास्वान्निखिलप्रकाशनपटुर्बालाग्रमप्युच्चकैः, शक्तो द्योतयितुं विनोन्नतकरैर्निर्मूल्य बाढं तमः ? // छ / 'इति प्रभाचन्द्रविरचिते न्यायकुमुदचन्द्रे लघीयस्त्रयालङ्कारे पञ्चमः परिच्छेदैः॥ छ / एवं प्रकान्तप्रत्यक्षादिपरिच्छेदपञ्चमो नयप्रवेशो द्वितीयपरिच्छेदः समाप्तः / - - 1-च्छेवे स्व-आ० / 2-पेक्षम् आ० / 3 ततोप्यर्थः आ० / 4 तत ज्ञानात् आ० / 5-कोऽकलश्र०। 6 त्वां वीरनामानं आ०। 7-मतीर्थ-श्र०, ब०। 8-मुदायः श्र० / 9-दिने तुभ्यं आ० / 10 उत्तरपदत्रयं आ० / 11 इति श्रीमत्प्रभाचन्द्रदेववि-ब० / 12-दः समाप्तः ब० / 13 एकान्तं-ब० / Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये प्रवचन प्रवेशे षष्ठः प्रवचनपरिच्छेदः। सत्यस्वच्छजलः सुरत्ननिचयः सज्ज्ञानवीचीचयः, ___ युक्तथावतहतस्वरूपकुमतप्रौढोग्नेक्रक्रमः / स्फारागाधगभीरमूर्तिरसमध्वानो जनानन्दनः, . स्याद्वादोदधिरेष वाञ्छितफलं दद्यात समासेवितः // 1 // अथ प्रमाणनयस्वरूपं निरूप्य इदानीं प्रमाणविशेषस्य आगमस्य स्वरूपं पृथक् / निरूपयितुमुपक्रमते, तत्र अनेकधा विप्रतिपत्तिसद्भावात् / तदादौ च शास्त्रस्य मध्यमङ्गलभूतम् इष्टदेवताविशेषगुणस्तोत्रमाह प्रणिपत्य महावीरं स्याद्वादेक्षणसप्तकम् / प्रमाणनयनिक्षेपानभिधास्ये यथागमम् // 51 // . प्रणिपत्य नत्वा / कैम् ? वीरम् अन्तिमतीर्थकर तीर्थकरसमुदायं वा। 10 किंविशिष्टम् ? स्याद्वादेक्षणसप्तकं। स्यादस्तीत्यादिसप्तभङ्गमयो कारिकार्थः वादः स्याद्वादः ईक्षणसप्तकं यस्य स तथोक्तः तम् / ननु स्याद्वादस्य ईक्षणव्यपदेशः मुख्यतः, उपचारतो वा स्यात् ? न तावत् प्रथमः पक्षः; चक्षुष्येव मुख्यतः तद्व्यपदेशप्रसिद्धेः। द्वितीयपक्षोऽप्यनुपपन्नः; यतो रूपादिप्रतिपत्तेः हेतुभूतं चक्षुः ईक्षणं लोके प्रसिद्धम् / न च भगवतः तत्प्रतिपत्तौ स्याद्वादो हेतुभूतः, 16 तत्कथमस्य उपचारतोऽपि ईक्षणव्यपदेशः ? अथ अपरमनेनासौं बोधयतीति तत्प्रतिपत्तेर्हेतुभूतत्वात् तद्व्यपदेशः; तर्हि परस्यैव तदीक्षणसप्तकं न भगवतः, अन्यदीयात्ततो अन्यस्य प्रतिपत्तेरयोगात् ; तदसमीचीनम् ; अन्यथा व्याख्यानात् / स्याद्वाद एव ईक्षणसप्तकं यस्माद् भव्यानां स तथोक्तस्तम् / यदि वा, ईक्षणसप्तकमिव ईक्षण (1) स्यादस्तीत्यादिसप्तभंगमयो वादः स्याद्वाद: ईक्षणानां सप्तकंम् ईक्षणसप्तकम् स्याद्वाद एवेक्षणसप्तकं यस्माद्विनेयानां भवत्यसो तथोक्तस्तम् / न खलु निरुपकारः प्रेक्षावतां प्रणामा)ऽनिप्र. सङ्गात् ।"-लघी० ता०पू०७४ / (2) ईक्षणव्यपदेश / (3) रूपादिप्रतीतौ। (4) स्याद्वादस्य / (5) स्याद्वादेन / (6) भगवान् / (7) ईक्षणव्यपदेशः / (8) स्याद्वाद / 1-बक्रक्रमः श्र०। 2 तदा सेवितः ब०, श्र० / 3 कं वीरं आ०। 4 अन्तिमतीर्थकरसमुदयं वा आ० / 5-अथ रमनेना-आ०, अथ परमतेना-ब०। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 कारिकार्थ: 656 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० सप्तकं स्याद्वादः तत् सप्तकं यस्यासौ स तथोक्तेः तमिति / किं पुनः तत्सप्तकेन स्याद्वादस्य साधर्म्य येनवमुच्यते इति चेत् ; उपदेशाद्यनपेक्षाऽर्थज्ञानजनकत्वम् / यथैव हि ईक्षणात् परोपदेशलिङ्गान्वयव्यतिरेकनिरपेक्षं रूपादिज्ञानं जायते तथा स्याद्वादाद् भगवतः केवलज्ञानमिति / तमित्थम्भूतम् इष्टदेवताविशेष प्रणिपत्य वक्ष्यमाणलक्षण5 लक्षितान् प्रमाणनयनिक्षेपान् अभिधास्ये। कथम् ? यथागमम् , आगमानतिक्रमेण / अनेन तत्र आत्मनः स्वातन्त्र्यं परिहृतम् / / तत्र प्रमाणादीनां समासतो लक्षणं प्रतिपादयन्नाह ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः उपायो न्यास इष्यते। नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः // 52 // विवृतिः-ज्ञानं प्रमाणं कारणस्याप्यचेतनस्य प्रामाण्यमनुपपन्नम् असनिकृष्टेन्द्रियार्थवत् / विषमोऽयमुपन्यासः असन्निकृष्टस्य तदकारणत्वादिति; नैतत्सारम् / अर्थस्य तदकारणत्वात् तस्येन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वात् अर्थस्य विषयत्वात् / न हि .. तत्परिच्छेद्योऽर्थः तत्कारणतामात्मसात्कुर्यात् प्रदीपस्येव घटादिः। ज्ञानमेव प्रमाणमेव इत्याद्यवधारणं सर्वत्र द्रष्टव्यम् / कस्य तत् / __इत्याह-आत्मादेः। आदिशब्देन पुद्गलादिपरिग्रहः। ननु ज्ञाना थयोः तादात्म्यादिसम्बन्धासंभवात् कथं तत्तस्य इत्युच्यते इति चेत् ; न; तदभावेऽपि विषयविषयिभावलक्षणसम्बन्धसंभवात् / तदभावे 'सोऽपि (1) ईक्षणसप्तकेन। (2) ग्रन्थकर्तुः। (3) "इष्यते अभ्युपगम्यते सकलविप्रतिपत्तीनां प्रागेव निरस्तत्वात् / किम् ? प्रमाणम् / किविशिष्टम् ? ज्ञानं जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिमात्र वा ज्ञानमित्युच्यते, द्रव्यपर्याययोः भेदाभेदविवक्षायां कादिसाधनोपपत्तेः / कस्य? आत्मादे: आत्मा स्वरूपमादिर्यस्य बाह्यार्थस्य स आत्मादिः तस्य स्वार्थस्य ग्राहकमित्यर्थः। अथवा आत्मा चिद्रव्यमादिशब्देन आवरणानां क्षयोपशमः क्षयश्चान्तरङ्गं बहिरङ्गं पुनरिन्द्रियानिन्द्रियं गह्यते, तस्मादुपजायमानमित्यध्याहारः / तथा इष्यते / कः ? नयः। किं रूपः? अभिप्रायः विवक्षा / कस्य ? ज्ञातुः श्रुतजानिनः / तथा इष्यते। कः ? न्यासो निक्षेपः / किंविशिष्ट: ? उपायः अधिगमहेतुः नामादिरूपः / अर्थस्य स्वतः सिद्धत्वात् किमेत: प्रमाणादिभिरित्याशंक्याह-युक्तीत्यादि / युक्तितः प्रमाणनयनिक्षेपैरेवार्थस्य जीवादेः परिग्रहः प्रमितिर्न स्वतः इति ।"-लघी० ता० पृ० 75 / तुलना-"ज्ञानं प्रमाणमित्याहुर्नयो ज्ञातुर्मतं मतः ।"-सिद्धिवि०, टी० पृ० 518 A. प्रमाणसं०१० 127 / उद्धृतोयम्'ज्ञानं प्रमाणमित्याहुः..."-धवलाटी० पृ०१७। (4) तुलना-"ज्ञातृणामभिसन्धयः खलु नयास्ते द्रव्यपर्यायतः, तत्र द्रव्यमनन्तपर्ययपदं भेदात्मकाः पर्यया।"-सिद्धिवि० टी० 517 A. / (5) तुलना"ज्ञानं प्रमाणं नाज्ञानमिन्द्रियार्थसन्निकर्षादि."-प्रमाणवा० मनोरथ० पृ०३ / लघी० टि० पृ० 132 / "ज्ञानमेवेत्यवधारणात् सन्निकर्षादेरसंविदितात्मनो व्युदास: ।"-सिद्धिवि०, टी० पृ०५१८ A. / (6) तुलना-"नार्थालोको कारणं परिच्छद्यत्वात्तमोवत् ।"-परीक्षामु० 2 / 6 / प्रमाणमी० 101 / 25 / (7) ज्ञानम् / (8) अर्थस्य / (9) तादात्म्यादिसम्बन्धाभावे। (10) विषयविषयिभावोऽपि। 1-क्तमिति ब०। 2-केन स्यासा-आ० / 3 अनेन आत्म-श्र०। 4 उच्यते ज० वि० / -च्यतेति ब०। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 52 ] प्रमाणनिरूपणम् कथम् ? इत्यपि वार्तम् ; तादात्म्यतदुत्पत्त्योरभावेऽपि प्रदीपार्थयोः प्रकाश्यप्रकाशकभाववत् ज्ञानार्थयोः विषयविषयिभावस्य समर्थितत्वात् / ननु च आत्मादेरभावान्न किञ्चित्तस्य ज्ञानम् ? इत्यपि श्रद्धामात्रम् ; तस्य विषयपरिच्छेदे प्रबन्धेन प्रसाधितत्वात् / यदि वा, आत्मा स्वरूपम् , आदिशब्देन अर्थपरिग्रहः, तेन स्वार्थयो: इत्ययमर्थः सिद्धो भवति / प्रसाधितञ्च स्वपरव्यवसायात्मकत्वं ज्ञानस्य प्रपञ्चतः स्वसं- 5 वेदनसिद्धौ इत्यलं पुनस्तत्प्रसाधनप्रयासेन / अथ को निक्षेपः ? इत्याह-'उपाय' इत्यादि / उपायः कारणम् आत्मादिज्ञानस्य नामादि न्यासो निक्षेपः इष्यते / नयो ज्ञातुरभिप्रायः, प्रमाणविषयीकृतेऽर्थे एकांशविषयो ज्ञातुः प्रमातुरभिप्रायः। किं फलमेतेषां स्वरूपव्यावर्णने ? इत्याह-युक्तितः प्रमाणादिलक्षणायाः अर्थस्य परिग्रहः स्वीकारः। उपलक्षणमेतत् तेन अनर्थपरिहारोऽपि गृह्यते / 10 कारिकां विवृण्वन्नाह-'ज्ञानं प्रमाणम्' इत्यादि / प्रमाणं धर्मि ज्ञानमिति साध्यम्, _ 'प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेः' इति हेतुरत्र द्रष्टव्यः। ननु सन्निकर्षादिना अयं हेतुर्व्यभिचारी, तस्याऽज्ञानरूपस्यापि अव्यपदेश्याव्यभिचारिव्यवसायात्मकज्ञानजनकत्वेन प्रमाणत्वसंभवात् इत्यत्राह-'कारणस्यापि' इत्यादि / कारणस्यापि यथोक्तज्ञानजनकस्यापि सन्निकर्षादेरचेतनस्य सतः प्रामाण्यमनुपपन्नम् / अत्र 15 दृष्टान्तमाह-असन्निकृष्टेन्द्रियार्थवत् / सन्निकर्षः सन्निकृष्टं तच्च इन्द्रियश्च अर्थश्च सन्निकृष्टेन्द्रियार्थाः, विवक्षितेभ्यस्तेभ्यः अन्ये असन्निकृष्टेन्द्रियार्थाः तेषामिव तद्वत् / यद्वा, असन्निकृष्टौ च तौ इन्द्रियार्थौ च तयोरिव तद्वत् / यद्वा, प्रयोगः-विवादगोचरापन्नं सन्निकर्षादि अप्रमाणम् अचेतनत्वात् अविवक्षितसन्निकर्षादिवत् / यथा च अचेतनस्य सन्निकर्षादेः प्रामाण्यन्नोपपद्यते तथा प्रत्यक्षपरिच्छेदे प्रपञ्चतः प्रतिपादितम् / 20 ___अत्राह पर:-'विषमः' इत्यादि / विषमः दार्शन्तिकेन समानो न भवति उपन्यासो दृष्टान्तरूपः / तदेव वैषम्यं दर्शयति-'असन्निकृष्टस्य' इत्यादिना / असन्निकृष्टस्य इन्द्रियार्थलक्षणस्य वस्तुनः तदकारणत्वात् विवक्षितज्ञानाहेतुत्वात् / एतदुक्तं भवति-यदि नैयायिकादिः चेतनत्वेन कचित् प्रामाण्यमभ्युपगच्छति तर्हि दृष्टान्ते चैतन्याभावे यथा प्रामाण्याभावः तथा दार्टान्तिकेऽपि स्यात् , यावता ज्ञानकारणत्वेन 25 तदभ्युपगतम् / तत्कारणत्वञ्च दृष्टान्ते यद्यपि नास्ति तथापि दार्टान्तिके अस्ति इति (1) आत्मादेः / (2) पृ० 343 / (3) पृ० 176 / (4) तुलना-“एत्थ किमळं णयपरूवणमिदि ? प्रमाणनयनिक्षेपर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते। युक्तञ्चायुक्तवद् भाति तस्यायुक्तञ्च युक्तवत्॥"धवलाटी० पृ०१६। (5) तुलना-"सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेः।"-प्रमाणप० पृ०५१ / प्रमेयक० पृ०७। स्या० र० पृ० 41 / प्रमेयर० 111 / प्रमाणमी० पृ० 2 / (6) तुलना-"न ह्यचेतनोऽर्थः स्वप्रमितौ करणं घटादिवत् ।”-प्रमाणप० पृ० 51 / (7) पृ० 29 / (8) प्रामाण्यं स्वीकृतं न चेतनत्वेन नाप्यचेतनत्वेनेति भावः / ___1-वीनामयं ब०। 2-ज्ञानकस्यापि आ० / 33 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 658 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० सिद्धर्मस्य प्रामाण्यमिति / अत्र दूषणमाह-'नैतत्सारम्' इत्यादि / एतत् ज्ञानकारणत्वेन प्रमाणत्वं न सारम् / कुत एतदित्याह-'अर्थस्य' इत्यादि / अर्थस्य ज्ञानविषयस्य घटादेः तदकारणत्वात स्वग्राहिज्ञानाजनकत्वात् / एतदपि कुतः इत्याह-'तस्य' इत्यादि / तस्य घटादिज्ञानस्य इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वात् / अर्थनिमित्तत्वं कुतो 5 नेति चेदत्राह-अर्थस्य विषयत्वात् परिच्छेद्यत्वात् / ननु 'विषयश्च स्यात् कारणञ्च' इति कोऽनयोर्विरोधः ? इत्यत्राह-'नहि' इत्यादि / हिर्यस्मात् न तस्य ज्ञानस्य परिच्छेद्योऽर्थः तत्कारणतां ज्ञानहेतुताम् आत्मसात्कुर्यात् / अत्र परप्रसिद्धं दृष्टान्तमाहप्रदीपस्येव घटादिरिति / अत्रायमभिप्रायः-यथा प्रदीपप्रकाश्यो घटादिः न प्रदीपकारण तामात्मसात्करोति तथापि प्रदीपेन प्रकाश्यते तथा ज्ञानप्रकाश्योऽप्यसौ तत्कारणतामनात्म10 सात्कुर्वन्नपि तत्प्रकाश्य इति / अनेन परंपरिकल्पितः "नाकारणं विषयः”[ ] इति नियमो निरस्तः; प्रदीपं प्रत्यकारणस्यापि घटादेः तत्प्रकाशनविषयतोपलब्धेः।। किश्च, 'नाकारणं विषयः' इत्यभ्युपगच्छता कि कारणमेव विषय इत्यभिप्रेतम् , कारणं विषय एव इति वा ? प्रथमपक्षे विज्ञानस्वरूपसंवेदनानुपपत्तिः / नहि स्वरूपं स्वस्यैव कारणम् ; स्वात्मनि क्रियाविरोधात् / द्वितीयपक्षे तु चक्षुरादेरपि विषयत्व15 प्रसक्तिः कारणत्वाविशेषात् / किञ्च, अर्थस्य ज्ञान प्रति कारणत्वे सिद्धे अयं नियम: परिकल्प्येत, असिद्धे वा ? न तावदसिद्धे; अतिप्रसङ्गात् / अथ सिद्धे; कुतस्तत्सिद्धिःतत एव ज्ञानात् , अन्यतो वा ? न तावत् तत एव; यतः अयमर्थ इति ज्ञानं विद्यान्नोत्पत्तिमर्थतः / अन्यथा न विवादः स्यात् कुलालादिघटादिवत् // 53 // (1) सन्निकर्षस्य / (2) घटाद्यर्थः / (3) ज्ञानं प्रति हेतुताम् / (4) ज्ञानेन प्रकाश्यो भवतु / (5) सौगत / (6) "कारणीभावो हि विषयीभाव उच्यतेऽस्माभिर्न सम्बन्धः / तथाहि-रूपादिविषयश्चक्षषो विज्ञानोत्पत्तौ सहकारितां प्रतिपद्यमानो विषयीभवतीत्युच्यते / द्विविधश्च सहकारार्थः परस्परोपकारको वा यथा' 'एकार्थक्रिया वा यथोन्मिषितमात्रेण रूपं गृह्णतः / उभयथापि विज्ञानस्य कारणविशेष एव विषय उच्यते ।"-तत्त्वसं पं० पृ० 683 / (7) तुलना-"तथाहि-किं कारणं विषय एव, उत कारणमेव विषयः ? प्रथमपक्षे रूपादिसंविदां चक्षुराद्यपि विषयो भवेत् द्वितीयपक्षे. पि भविष्यति रोहिण्यदयः कृत्तिकोदयादतीतक्षपायामिव इत्यस्यानुमानस्य भावी रोहिण्यदयोऽकारणत्वाद्विषयो न स्यात्"-सन्मति० टी० पृ० 510 / (8) विज्ञानस्वरूपसंवेदनं हि तदा स्याद् यदा विज्ञानस्य स्वरूपं स्वसंवेदनं प्रति कारणं स्यात् / न चैतदस्ति / (9) "विद्यात् जानीयात् / किम् ? ज्ञानम् / कथम् ? अयमर्थ इति / पुनर्न विद्यात्, काम् ? उत्पत्तिम् अहमस्मादुत्पन्नमिति स्वजन्म / कस्मात् ? अर्थतः घटादेः सकाशात् / इदञ्च प्रमेयं प्रतीतिसिद्धमेव, अन्यथा यद्यर्थात् स्वोत्पत्ति ज्ञानं विद्यात् तदा वादिप्रतिवादिनोविवादो ज्ञानमर्यादुत्पन्नं न वेति विप्रतिपत्तिः, किंवत् ? कुलालादिघटादिवत्, यथा कुलालादेः सकाशाद् घटादेर्जन्मनि प्रतीतिसिद्ध कस्यापि न विवादोऽस्ति तथाऽर्थात् ज्ञानजन्मन्यपि विवादो मा भूत, अस्ति चायं विवादः स्याद्वादिना ज्ञानजन्मनीति ।"-लघी० ता०प०७६ / 1-स्याप्रामा-श्र०। 2 न दीप-आ०, श्र०। कारणहेतव विषय श्र०। 4 परिकल्पेत आ०,ब०। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र का० 53 ] अर्थकारणताविचारः 10 विवृतिः -अर्थ परिच्छिन्दद्विज्ञानम् आत्मनः कारणान्तरमपरं सूचयत्येव / नहि ततः खभावलाभं प्रति व्याप्रियमाणस्य तत्परिच्छित्तिः अनुत्पन्नत्वात् / उत्पन्नस्यापि न कारणे व्यापारः करणादिवत् / यदि कारणकार्यभावम् आत्मार्थयोर्विज्ञानं परिच्छिन्द्यात् न कश्चिद् विप्रतिपत्तुमर्हति कर्तृकरणकर्मसु / घटाद्यर्थग्राहकं हि ज्ञानं 'देशकालाकारविशिष्टो घटाद्यर्थोऽयम्' इत्यनेनोल्लेखेन / अर्थमेव विद्यात्, न उत्पत्तिम् आत्मलाभमर्थतो विद्यात् / अथ कारिकार्थः तत्ततः तो वेत्ति इत्युच्यते; अत्राह-'अन्यथा' इत्यादि / अन्यथा अन्येन तत्परिज्ञानप्रकारेण न विवादः स्यात् / यस्य यस्मादुत्पत्तिः प्रत्यक्षतःप्रतीयते न तस्य तदुत्पत्तौ कस्यचिद् विवादः यथा कुलालाद् घटस्य, विवादश्च ज्ञानस्य अर्थादुत्पत्तौ, तस्मात् साँ तस्ये प्रत्यक्षतो न प्रतीयते इति / अर्थं प्रमाणान्तरात्तस्य अर्थकार्यता प्रतीयते-ननु तत्कि प्रत्यक्षरूपम्, अनुमानरूपं वा स्यात् ? यदि प्रत्यक्षरूपम् ; तत्किं ज्ञानविषयम् , अर्थविषयम् , उभयविषयं वा स्यात् ? तत्राद्यविकल्पद्वये तयोः कार्यकारणभावप्रतीतिरनुपपन्ना, एकैकविषयज्ञानग्राह्यत्वात्, ययोः एकैकविषयज्ञानग्राह्यत्वं न तयोः कार्यकारणभावप्रतीतिः यथा रूपरसयोः धूमपावकयोर्वा, एकैकविषयज्ञानग्राह्यत्वश्च अर्थज्ञानयोरिति / अथ उभय- 15 विषयप्रत्यक्षात तत्प्रतीतिः; तन्न; तथाविधप्रत्यक्षस्य अस्मादृशामसम्भवात् / किश्च, तदुभयविषयं प्रत्यक्षं ताभ्यामुत्पन्नं सत् तयोः कार्यकारणभावं प्रत्येति, अनुत्पन्नं वा? न तावदनुत्पन्नम् ; आद्यज्ञानस्यापि अर्थादनुत्पन्नस्य अर्थग्राहकत्वप्रसङ्गात् / अथ उत्पन्नम् ; तर्हि तस्यापि तदुत्पत्तिः अपरस्मात् तत उत्पन्नाज्ज्ञानात् प्रत्येतव्या तस्याप्यन्यस्मादित्यनवस्था / आद्यात् द्वितीयस्य, द्वितीयाच्चाद्यस्य तत्प्रतीतौ अन्योन्या- 20 श्रयः। तन्न प्रत्यक्षरूपात्प्रमाणान्तरात् ज्ञानस्य अर्थकार्यतासिद्धिः / नापि अर्थान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वलक्षणानुमानरूपात्; तस्य अनन्तरकारिकायां निराकरिष्यमाणत्वात् / कारिकां विवृण्वन्नाह-'अर्थम्' इत्यादि / अर्थ घटादिकं परिच्छिन्दद् विज्ञा _ नम् आत्मनः स्वस्य कारणान्तरमपरं परपरिकल्पितादर्थलक्षणकारणाद् विवृतिव्याख्यानम् अपरमेव चक्षुरादिलक्षणं कारणान्तरं सूचयति / कुत एतदित्याह- 25 (1) ज्ञानम् / (2) अर्थात् / (3) उत्पत्तिम् / (4) उत्पत्तिः / (5) ज्ञानस्य / (6) तुलना-"किञ्चार्थकार्यतया ज्ञानं प्रत्यक्षतः प्रतीयते प्रमाणान्तराद्वा? प्रत्यक्षतश्चेत्, किं तत एव प्रत्यक्षान्तराद्वा ? ... अथ प्रमाणान्तरात्तस्यार्थकार्यता प्रतीयते; तत्कि ज्ञानविषयमर्थविषयमभयविषयं वा स्यात् ?"-प्रमेयक० पृ० 232 / (7) ज्ञानार्थयोः। (8) ज्ञानार्थोभयग्राहि। (9) उभयाभ्यां ज्ञानार्थाभ्याम् / (10) ताभ्यामर्थज्ञानाभ्यामुत्पत्तिः / (11) उभयात्। (12) तदुत्पत्तिप्रतीतौ। ___ 1 विन्द्यात् अथ श्र०। 2-स्मात्तस्य श्र०। 3-पाचकयोर्वा आ० / 4-मभावात् श्र० / 5-वात्तदुभय-ब०। 6-ङ्गात्तस्यापि श्र०। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० 'नहि' इत्यादि / न हिर्यस्मात् ततोऽर्थात् स्वभावलाभं प्रति व्याप्रियमाणस्यं स्वरूप- . लाभमर्थयमानस्य तत्परिच्छित्तिः अर्थपरिच्छित्तिः / कुत इत्याह-अनुत्पन्नत्वात् / यदनुत्पन्नं सद् यदा यत आत्मलाभ लभते न तत्तदो तस्य परिच्छेदकम् यथा अलब्धात्मलाभावस्थायां पितुः पुत्रः, अनुत्पन्नं संदर्थादात्मलाभं लभते च उत्पत्तिक्षणे ज्ञानमिति / अथ उत्पन्नस्य सतो ज्ञानस्य अर्थग्रहणे व्यापारो भविष्यति इत्युच्यते; अत्राह-'उत्पन्नस्यापि' 'इत्यादि / न केवलमनुत्पन्नस्य अपि तु उत्पन्नस्यापि ज्ञानस्य कारणे स्वजनके न व्यापारः तद्हणलक्षणः / अत्र दृष्टान्तमाहकरणादिवत् / करणं चक्षुरादि आदिर्यस्य अदृष्टादेः तत्रेव तद्वदिति / प्रयोगः-अर्थो न ज्ञानकारणम्, तेन परिच्छिद्यमानत्वात् , यत्त तत्कारणं न तत्तेन परिच्छिद्यते यथा चक्षुरादि, परिच्छिद्यते च ज्ञानेनार्थः, अतस्तत्कारणन्न भवतीति / न च आलोकेन अनेकान्तः, तत्र ज्ञानकारणत्वस्य निराकरिष्यमाणत्वात् / तर्हि पुत्रेण अनेकान्तः, पितुरुत्पन्नस्याप्यस्य तत्परिच्छेदकत्वात् ; इत्यप्यसत्; पुत्रशरीरस्यैव तेत उत्पत्तेः, न च तत् तत्परिच्छेदकं किन्तु ज्ञानम् , तच्च ततो नोत्पद्यते चक्षुरादित एवास्योत्पत्तेः / कथ मेवं पूर्वप्रयोगे तस्य दृष्टान्ततोपपद्यते ? इत्यप्यचोद्यम् ; शरीरतः तद्विशिष्टज्ञानतो वाऽ16 लब्धात्मलाभस्य परिच्छेदकत्वाभावमात्रापेक्षया तस्य तदुपपत्तेः संभवात् / ननु च अर्थकार्यतया ज्ञानं स्वयमेव आत्मानं प्रतिपद्यते, अतः तद्बाधितकर्मनिर्देशानन्तरं प्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टः परिच्छिद्यमानत्वात्' इति हेतुः; इत्यत्राह'यदि' इत्यादि / यदि कारणकार्यभावम् आत्मार्थयोः, आत्मन: कार्यभावम् अर्थस्य कारणभावं विज्ञानं कर्तृ परिच्छिन्द्यात्, तदा न कश्चिद्विप्रतिपत्तुमर्हति / क ? इत्याह20 कर्तृकरणकर्मसु / अर्थः कर्ता, चक्षुरादि करणम्, ज्ञान कर्म, तेषु इति / यत्र कारण कार्यभावो निर्बाधायां संविदि प्रतिभासते न तत्र कादित्रये कश्चिद् विप्रतिपद्यते यथा कुलालघटयोः, विप्रतिपद्यते च अर्थज्ञानयोः कादौ जैनादिरिति / . 'ननु सर्वत्र अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्य: कार्यकारणभावः, तौ चात्रापि विद्येते-अर्थे (1) ज्ञानं नार्थस्य परिच्छेदकम् अनुत्पन्नं सदलब्धात्मलाभत्वात् / (2) उत्पत्तिक्षणे / (3) पुत्रस्य। (4) पितृपरिच्छेदकत्वात् / (5) पितुः / (6) पुत्रशरीरम्। (7) पितृपरिच्छेदकम् / (8) ज्ञानम्। (9) पितुः / (10) ज्ञानस्य। (11) यदनुत्पन्नं सदित्यादिप्रयोगे / (12) पुत्रस्य / (13) शरीररूपेण। (14) शरीरविशिष्टज्ञानरूपेण वाऽनुत्पन्नस्य। (15) पुत्रस्य / (16) दृष्टान्ततोपपत्तेः, यथा हि शरीररूपेण विशिष्टज्ञानात्मकतया वाऽनिष्पन्नः पुत्रः न पितृपरिच्छेदकः तथैव ज्ञानमनुत्पन्नं सन्नार्थस्य परिच्छेदकम् / (17) स्वसंवेदनप्रत्यक्षबाधितसाध्यप्रयोगानन्तरम् / (18) स्वस्य-ज्ञानस्य। (19) ज्ञानस्योत्पादकत्वादर्थः कर्ता। (20) अर्थाज्जायमानत्वाज्ज्ञानं कर्म / 1 न हि यस्मात् आ०, ब०। 2-स्यरूपला-ब०। 3 यत्त ब० / 4 सदर्थात्मलाभं आ०, श्र०। 5-त्तिलक्षणे श्र०। 6 परिज्ञानस्य ब०। 7-केवलनव्यापा-श्र० / 8च तत्परि-श्र०, ब०। 9 अतस्तदाधि-आ० / 10-नन्तरप्रयु-आ०, ब०।11 परिच्छेद्य-ब०। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 54 ] अर्थकारणताविचारः सत्येव ज्ञानस्योत्पत्तेः तदभावे चाऽनुत्पत्तेः। प्रयोगः यद् यस्यान्वयव्यतिरेकावनुकरोति तत्तस्य कार्यम् यथा अग्नेधूमः, अन्वयव्यतिरेकावनुरोति च ज्ञानमर्थस्य' इत्याशङ्कयाह अन्वयव्यतिरेकाभ्यामर्थश्चेत् कारणं विदः / संशयादि विदुत्पादः कौतस्कुत इतीक्ष्यताम् // 54 // विवृतिः-बुद्धेरेव व्यभिचारो नार्थस्य कथमव्यभिचारिणोऽर्थस्य अन्वय- 5 व्यतिरेकावनुकुर्वती व्यभिचरेनाम ? ततः संशयादिज्ञानमहेतुकं स्यात् / तिमिराशुभ्रमणनौयानसंक्षोभादिहेतुत्वे कमर्थमर्थः पुष्णाति इति मृग्यम् / सत्यज्ञानेऽपि तिमिराद्यभावस्य इन्द्रियमनोगतस्य कारणत्वात् / ततः सुभाषितम्-'इन्द्रियमनसी कारणं विज्ञानस्य अर्थो विषयः' इति / अर्थसद्भावे भावोऽन्वयः तदभावेऽभावो व्यतिरेकः ताभ्यामर्थश्चेद् यदि 10 . कारणं विदो ज्ञानस्य / अत्र दूषणमाह-संशय' इत्यादि। संशयः कारिकार्थः- . आदिर्यस्याः सा चासौ वित् च तस्य उत्पाद आत्मलाभः कौतस्कुत इत्येवमीक्ष्यतां पर्यालोच्यताम् / / ___ कारिकां व्याख्यातुमाह-'बुद्धेः' इत्यादि / बुद्धेरेव व्यभिचारः अन्यदेशादि _ विशिष्टस्यार्थस्य अन्यदेशादिना ग्रहणलक्षणो नार्थस्य, 'व्यभिचारः' 15 विवृतिव्याख्यानम्- इति सम्बन्धः। स हि यथार्थामयथार्थी वा अन्वयव्यतिरेकावनु (1) ज्ञानमर्थकार्यम् अर्थान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् / (2) "चेद्यदि कारणं कथ्यते / कः ? अर्थो विषयः / कस्याः ? विदो ज्ञानस्य / काभ्याम् ? अन्वयव्यतिरेकाभ्याम्, सति भवनमन्वयः असत्यभवनं व्यतिरेकः ताभ्याम् / तथाहि-ज्ञानमर्थकारणकं तदन्वयव्यतिरेकानुविधानादिति / तदा कौतस्कृतः स्यात्, कुतस्कुत आगतः कौतस्कुतः / कः ? संशयादिविदुत्पादः संशयविपर्यासज्ञानोत्पत्तिः इत्येवमीक्ष्यतां तद्वादिभिः स्वमनसि पर्यालोच्यताम् अर्थाभावेऽपि संशयाधुत्पत्तेः / न हि स्थाणुपुरुषात्मक: केशोण्डुकस्वभावो वार्थस्तज्ज्ञानोत्पत्तौ व्याप्रियते, ततो भागासिद्धमर्थान्वव्यतिरेकानुविधानं ज्ञानस्येति।" -लघी० ता० पृ० 76 / (3) अत्रायं पूर्वपक्षः-"अर्थस्य च ज्ञानजनकत्वमन्वयव्यतिरेकाभ्यामवगम्यते। यदा हि देवदत्तार्थी कश्चिद् व्रजति तद्गृहम् / तत्रासन्निहितं चैनं गत्वापि न स पश्यति / क्षणान्तरे स आयान्तं देवदत्तं निरीक्षते / तत्र तत्सदसत्त्वेन तथात्वं वेत्ति तद्धियः / / अनागते देवदत्ते न देवदत्तज्ञानमुदपादि तस्मिन्नागते तदुत्पन्न मिति तद्भावभावित्वात्तज्जन्यत्वं तदवसीयते।"-न्यायमं० 10 544 / (4) "तिमिरमणोविप्लवः, इन्द्रियगतमिदं विभ्रमकारणम् / आशुभ्रमणमलातादेः, मन्दं हि भ्राम्यमाणेऽलातादौ न चक्रभ्रान्तिरुत्पद्यते तदर्थमाशुग्रहणेन विशेष्यते भ्रमणम् / एतच्च विषयगतं विभ्रमकारणम् / नावा गमनं नौयानम् / गच्छन्त्यां नावि स्थितस्य गच्छद्वक्षादिभ्रान्तिरुत्पद्यते इति यानग्रहणम् / एतच्च बाह्याश्रयस्थितं विभ्रमकारणम् / संक्षोभो वातपित्तश्लेष्मणाम् / वातादिषु हि क्षोभं गतेषु ज्वलितस्तम्भादिभ्रान्तिरुत्पद्यते। एतच्चाध्यात्मगतं विभ्रमकारणम् ।"-न्यायबि० टी० पृ० 16 / (5) उद्धृतमिदम्-'इन्द्रियनसी विज्ञानकारणमिति वचनात् ।"-न्यायवि० वि० पृ० 32 A.| "तस्मादिन्द्रियमनसी विज्ञानस्य कारणं नार्थोऽपीत्यकलंकरपि."-तत्त्वार्थश्लो० 10 330 / 1-दिचिदुत्पा-आ० / 2 किमर्थमर्थः ज० वि० / चित् आ० / 4-शिष्टस्यान्यदे-ब० / Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [.. प्रवचनपरि० कारयन् बुद्धि जनयत्येव / “सर्व सालम्बनं ज्ञानम्' [ ] इत्यभ्युपगमात् / केशोण्डुकादिज्ञानस्यापि अक्षिपक्ष्मादिनिबन्धनत्वादिति / पूर्वार्द्ध व्याख्यातम् / उत्तरमुत्तरार्द्ध व्याचक्षाणः प्राह-'कथम्' इत्यादि / कथं केन प्रकारेण अव्यभिचारिणोऽर्थस्य अन्वयव्यतिरेकावनुकुर्वती बुद्धिः अर्थ व्यभिचरेनाम ? नैव व्यभिचरेत् / यथैव हि 5 व्यवस्थितोऽर्थः तथैव गृहीयात् , तत आत्मलाभलक्षणत्वादव्यभिचारस्य / व्यभिचरति च / अतो यथा अन्यदेशादिसम्बद्धस्य धर्मस्यासत एव ग्रहणं तथा धर्मिणोऽप्यसत एव ग्रहणसम्भवान्न विपरीतख्यात्यै(त्ये)कान्त: श्रेयान् , असत्ख्यातेरपि प्रसङ्गात् इत्यभिप्रायः / एतदेव दर्शयन्चाह-'ततः' इत्यादि / ततः तस्माद् बुद्धेय॑भिचारात् संशयादिज्ञानमहेतुकम्, अर्थलक्षणकारणशून्यं स्यात् धर्मवत् धर्मिणोऽपि असत एव प्रतिभाससंभवात् / दृश्यते हि तावद् अक्षिपक्ष्माद्यपायेऽपि तैमिरिकस्य केशोण्डुकादिज्ञानम् / ननु केशोण्डुकादिज्ञानं भ्रान्तत्वाद् अर्थापायेऽपि उत्पद्यते, नान्यद् विपर्ययात् / नचान्यस्य व्यभिचारे अन्यस्य व्यभिचारः अतिप्रसङ्गात् ; इत्यप्यसमीक्षितांभिधानम्; . . परनिरपेक्षतया हि स्वपरप्रकाशात्मकत्वं ज्ञानस्य स्वरूपं न पुनः सत्यत्वमसत्यत्वं वा / तत्र च यथा सत्याभिमतं ज्ञानं स्वपरप्रकाशात्मकं तथा केशोण्डुकादिज्ञानमपि। एतावांस्तु विशेषः-किश्चित् सत्परं प्रकाशयति संवादसंभवात्, "किश्चित्तु असद् "विसंवादात् / न चैतावता जात्यन्तरत्वेन अनयोरन्यत्वं व्यभिचाराभावो वा, अन्यथा 'प्रयत्नानन्तरीयकः शब्दः कृतकत्वाद् घटादिवत्' इत्यादेरपि अप्रयत्नानन्तरीयकैः विद्युद्वनकुसुमा-: (1) “यथा चिरकालीनाध्ययनादिखिन्नस्योत्थितस्य नीललोहितादिगुणविशिष्ट: केशोण्डकाख्यः कश्चिन्नयनाने परिस्फुटति, अथवा करसंमदितलोचनरश्मिष येयं केशपिण्डावस्था स केशोण्डकः ।"शास्त्रदी० युक्ति० पृ० 99 / "केशोण्डुका नाम पक्षिणः ये केशमूलान्युत्पाटयन्ति"-शिक्षासमु० पृ०७०। "तैमिरिकाणामिव केशोण्डुकाद्याभासं विनाप्यर्थसत्त्वादिति ।"-मध्यान्तवि० पृ० 15 / 'केशोण्डुकं यथा मिथ्या गृह्यन्ते तैमिरैर्जनैः ।"-लङ्कावतार० पृ० 274 / (2) तुलना-"कामलाद्युपहतचक्षुषो हि न केशोण्डुकज्ञानेऽर्थः कारणत्वेन व्याप्रियते-तत्र हि केशोण्डुकस्य व्यापारो नयनपक्ष्मादेर्वा कामलादेर्वा गत्यन्तराभावात् ? न तावदाद्यविकल्पः; न खलु तज्ज्ञानं केशोण्डुकलक्षणेऽर्थे सत्येव भवति भ्रमाभावप्रसङ्गात् / नयनपक्ष्मादेस्तत्कारणत्वे तस्यैव प्रतिभासप्रसङ्गात् गगनतलावलम्बितया पुरःस्थतया केशोण्डुकाकारतया च प्रतिभासो न स्यात् / न ह्यन्यदन्यत्रान्यथा प्रत्येतुं शक्यम् / अथ नयनकेशा एव तत्र तथाऽसन्तोऽपि प्रतिभासन्ते तहि तद्रहितस्य कामलिनोऽपि तत्प्रतिभासाभावः ।"-प्रमेयक० पृ० 233 / (3) "स्वपरग्रहणलक्षणं हि ज्ञानम्, तत्र च यथा सत्याभिमतज्ञानं स्वपरग्राहक तथा केशोण्डकादिज्ञानमपि / एतावाँस्तु विशेषः किञ्चित्सत्परं गृह्णाति संवादसद्भावात् , किञ्चिदसद्विसंवादात् ।"प्रमेयक० पृ० 235 / (4) सत्यज्ञानम् / (5) असत्यज्ञानम्। (6) सत्परत्व-असत्परत्वग्रहणमात्रेण / (7) सत्याऽसत्यज्ञानयोः / 1-यत् ब० / 2 'ज्ञानम्' नास्ति श्र०। 3 इत्युप-ब० / 4-पक्षादि-श्र० / 5-सम्बन्धस्य श्र० / 6 दृश्यते हि लोचनपक्ष्माद्यपायेऽपि ब०। 7 नचान्यस्यस्य व्यभिचारोऽति-ब०। 8 स्वरूपपरप्रकाश्रः। 9 विसंवादसंभवात् श्र०। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० का० 55 ] अर्थकारणताविचारः दिभिर्व्यभिचारोन स्यात् , ताल्वादिदण्डादिजनितात् शब्दघटादेः तद्विपरीतस्य विद्युदादेरन्यत्वात्। न चान्यस्य व्यभिचारे अन्यस्य व्यभिचारोऽतिप्रसङ्गात्। तथाप्यत्र व्यभिचारे प्रकृतेऽपि सोऽस्तु विशेषाभावात् / 'तिमिर' इत्यादिना परमतमाशङ्कते-तिमिरादीनां द्वन्द्वः, पुनः आदिशब्देन बहुव्रीहिः / आदिशब्दश्च प्रत्येकमभिसम्बध्यते। तेन एकत्र आदिशब्देन कामलादि- 6 सकलेन्द्रियदोषपरिग्रहः, अन्यत्र दृढप्रहारादिस्वीकारः, इतरत्र अश्वयानाद्युपादानम्, अपरत्र कोद्रवाशुपयोगग्रहणम् / तद्धेतुत्वे अङ्गीक्रियमाणे कमर्थ किं प्रयोजनम् अर्थः पुष्णाति इति एवं मृग्यं ने कञ्चिदित्यर्थः। कुत एतदित्यत्राह- 'सत्यज्ञानेऽपि' इत्यादि / न केवलमसत्यज्ञाने अपितु सत्यज्ञानेऽपि तिमिरायभावस्य, कथम्भूतस्य ? इन्द्रियमनोगतस्य / इन्द्रियगतस्य तिमिराद्यभावस्य, मनोगतस्य सङ्क्षोभाद्यभावस्य, इन्द्रि- 10 यमनोगतस्य आशुभ्रमणाद्यभावस्य कारणत्वात् इन्द्रियादिकमेव च तेद्विविक्तं तदभाव इति मन्यते, भावान्तरस्वभावत्वादभावस्य / यथा च अन्यत एवोत्पन्नं संशयादिज्ञानम् असतोऽकारणस्य अर्थस्य ग्राहक तथा सतः सत्यज्ञानमिति सूरेरभिप्रायः / उपसंहारमाह-'तत' इत्यादि / यस्मादुक्तप्रकारेण अर्थस्य विज्ञानं प्रति कारणत्वं नोपपद्यते ततः सुभाषितम्-इन्द्रियमनसी कारणं विज्ञानस्य अर्थो घटादिविषयः परिच्छेद्य इति / 15 ननु च इन्द्रियार्थयोः सतोरपि सन्निकर्षव्यतिरेकेण बुद्धरनुत्पत्तेः तस्मिन् सत्येव उत्पत्तेः तस्यैव तंत्र साधकतमत्वोपपत्तेः नेन्द्रियमनसी तत्कारणम् इत्याशङ्कापनोदार्थमाह सैन्निधेरिन्द्रियार्थानामन्वयव्यतिरेकयोः। कार्यकारणयोश्चापि बुद्धिरध्यवसायिनी // 55 // 20 विवृतिः-सन्निकर्षादयः कारणान्तरादुत्पन्नया बुद्ध्याऽध्यवसीयन्तेन चतैबुद्धिः प्रागनध्यवसायात् , अन्यथा कैमर्थक्याद् बुद्धरन्वेषणम् ? आत्ममनइन्द्रियार्थानां (1) तिमिरे / (2) आशुभ्रमणे / (3) नौयाने / (4) संक्षोभे / (5) तिमिरादिरहितम् / (6) तिमिराद्यभावः / (7) इन्द्रियादिदोषात् / (8) तुलना-“अनेन (केशोण्डुकज्ञानेन) व्यभिचारात् संशयज्ञानेन च / न हि तदर्थे सत्येव भवति अभ्रान्तत्वानुषङ्गात् , तद्विषयभूतस्य स्थाणुपुरुषलक्षणार्थद्वयस्यकत्र सद्भावासंभवाच्च ।"-प्रमेयक० पृ० 234 / (9) अकलङ्कदेवस्य / (10) सन्निकर्षस्यैव। (11) बुद्धौ। (12) "अध्यवसायिनी निश्चायिका / का? बुद्धिर्ज्ञानमेव / कस्य? सन्निधेरपि सन्निकर्षस्यापि न केवलमर्थस्येत्यपिशब्दार्थः / केषाम् ? इन्द्रियार्थानाम्, इन्द्रियाणि चक्षरादीनि अर्थाश्च रूपादयः तेषाम् / न केवलं सन्निधेरपि तु अन्वयव्यतिरेकयोश्च सन्निकर्षस्य भावाभावयोश्च / तथा कार्यकारणयोश्च / कार्य सन्निकर्षः कारणमिन्द्रियादिः तयोश्च बुद्धिरेवाध्यवसायिनी। ततः सैव प्रमाणं न सन्निकर्षादि तस्य प्रमेयत्वात् ।"-लघी० ता०१०७७ / 1 न किञ्चिवि-आ०, श्र०1 2 साक्षेपाद्यभा-श्र०। 3 अर्थग्राह-श्र०। 4-क्या बुद्ध-ज० वि०। 5 आत्मनो मनसा करणानामतीन्द्रियाणाम् ई० वि०। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० कारणानामतीन्द्रियाणां सन्निकर्षो दुरवबोधः / कथं तस्य विज्ञानोत्पत्तावङ्गीकरणमिति चिन्त्यम् ? प्राविज्ञानोत्पत्तेः अर्थमनवबुद्ध्यमानाः कारणमकारणं वा कथं ब्रूयुः ? उत्पन्नं हि विज्ञानमर्थस्य परिच्छेदकं न तत्कारणतायाः / आलोकोऽपि न कारणं परिच्छेद्यत्वादर्थवत् / कार्यकारणयोश्चापि इत्यपिशब्दः सन्निधेः इत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः, ततो a ऽयमर्थो जायते-न केवलमर्थस्य किन्तु सन्निधेरपि सन्निकर्षस्यापि बुद्धिरकारिकार्थः ___ध्यवसायिनी। केषां तस्य इत्याह-इन्द्रियार्थानाम्। तथा अन्वयव्यतिरेकयोः सन्निधे वाभावयोः बुद्धिः अध्यवसायिनी / न केवलमनयोः अपितु कार्यकारणयोश्च, कार्य सन्निकर्षः कारणम् इन्द्रियादि / यदि वा, कार्य 10 ज्ञानम् , कारणं सन्निकर्षः तयोश्च बुद्धिरध्यवसायिनी / एतदुक्तं भवति-सन्निक र्षादिसद्भावेऽपि यावद् बुद्धिर्नोत्पद्यते तावत्तस्य तद॑न्वयव्यतिरेकयो: तत्कार्यकारणभावस्य अन्यस्य वा न व्यवस्था, बुद्धिकल्पनावैफल्यप्रसङ्गात् / उत्पन्नायां तु ताम् अन्यापेक्षामन्तरेणैव तत्त्वव्यवस्थेति, अतः सैवं साधकतमत्वात् प्रमाणं न सन्निकर्षादि / कारिकां विवृण्वन्नाह-'सन्निकर्ष' इत्यादि / सन्निकर्ष आदिर्येषाम् अन्वयव्यविवृतिव्याख्यानम्___तिरेकादीनां ते तथोक्ताः, कारणान्तरात् इन्द्रियमनोलक्षणाद् उत्पन्न - या बुद्ध्या अध्यवसीयन्ते / न च नैव तैः सन्निकर्षादिभिर्बुद्धिः अध्यवसीयते / कुत एतदित्याह-'प्राग्' इत्यादि / प्राक् बुद्ध्युत्पादात् पूर्वम् अनध्यवसायात सन्निकर्षादीनां बुद्धिविषयव्यवसायरहितत्वात् / तदनभ्युपगमे दूषणमाह 'अन्यथा' इत्यादि। अन्यथा अन्येन प्रागध्यवसायप्रकारेण कैमर्थक्याद् बुद्धेः 20 अन्वेषणम् / बुद्धेरिव अंन्यस्यापि सन्निकर्षादिभ्यः एव सिद्धेः / न चैवम् , अतो बुद्धेरेव सर्वत्र साधकतमत्वात्प्रामाण्यमित्यभिप्रायः / यत्पुनरेतेत्-"आत्मा मनसा युज्यते, (1) तुलना-"आलोकेनापि जन्यत्वे नालम्बनतया भिदः (विदः) / किन्त्विन्द्रियबलाधानमात्रत्वेनानुमन्यते ॥"-तत्त्वार्थश्लो० 50 218 / "नार्थालोको कारणं परिच्छेद्यत्त्वात्तमोवत् / तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावात्केशोण्डुकज्ञानवन्नक्तञ्चरज्ञानवच्च ।"-परीक्षामु० 2 / 6,7 / “नार्थालोको कारणमव्यतिरेकात् ।"-प्रमाणमी० 121225 / (2) सन्निकर्षस्य / (3) सन्निकर्षस्य / (4) सन्निकर्षबुद्धयोरन्वयव्यतिरेकयोः। (5) इन्द्रियसन्निकर्षयोः सन्निकर्षज्ञानयोर्वा कार्यकारणभावस्य। (6) बुद्धौ / (7) बुद्धिः / (8) यदि बुद्धयुत्पादमन्तरेणापि सन्निकर्षादि अर्थपरिच्छेदकं स्यात्तदा। (9) "तच्चेदं प्रत्यक्षं चतुष्टयत्रयद्वयसन्निकर्षात्प्रवर्तते / तत्र बाह्ये रूपादौ विषये चतुष्टयसन्निकर्षाज्ञानमुत्पद्यते आत्मा मनसा संयुज्यते मन इन्द्रियेण इन्द्रियमर्थेनेति / सुखादौ तु त्रयसन्निकर्षाज्ज्ञानमुत्पद्यते तत्र चक्षरादिव्यापाराभावात् / आत्मनि तु योगिनो द्वयोरात्ममनसोरेव संयोगाज्ज्ञानमुपजायते तृतीयस्य ग्राह्यस्य ग्राहकस्य तत्राभावात्।"-न्यायमं पृ०७४ / उद्धृतमिदम्-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 140 / ___ 1 दुरवबोध: प्राग्विज्ञानोत्पत्तेरर्थमनवबुद्धधमना कारणमकारणं वा कथं ब्रूयुः / कथं तस्य विज्ञानोत्पत्तावंगीकरणमिति वित्यासाधिज्ञानोत्पत्तेरथमवबुद्धचमानाः कारणमकारणं वा कथं ब्रूयः? उत्पन्नं ज० वि० / 2 तत्कारणतया ई०वि०।-रव्यवसा-श्र०। 4 अव्यव-श्र015 कार्यः आ०,श्र० / 6 तावन्न तस्य श्र०17 अन्यपि आ० / Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 56 ] आलोककारणताविचारः मन इन्द्रियेण, इन्द्रियमर्थन' न्यायमं० पृ०७४] इति तत्राह-'आत्मन' (त्ममन) इत्यादि / आत्मनो मनसा मनस इन्द्रियैः इन्द्रियाणामर्थेन। कथम्भूतानाम् ? अतीन्द्रियाणाम् इन्द्रियातिक्रान्तानां यः सन्निकर्षः स दुरवबोधः ज्ञातुमशक्यः / अतः कथं केन प्रकारेण तैस्य सन्निकर्षस्य विज्ञानोत्पत्तौ अङ्गीकरणम् ? इति एवं चिन्त्यम् / यत्कुतश्चिज्ज्ञातुन्न शक्यते न तत् ज्ञानोत्पत्तौ कारणत्वेन प्रेक्षावता अङ्गीकर्त्तव्यम् यथा खर- 5 विषाणम् , कुतश्चिदपि प्रमाणात् ज्ञातुन्न शक्यते च सन्निकर्षादिरिति / यथा चासौ कुतश्चिदपि प्रमाणात् ज्ञातुमशक्यः तथा प्रत्यक्षपरिच्छेदे प्रपञ्चतः प्रतिपादितम् / भवत्कल्पितश्च आत्मा मन इन्द्रियमर्थश्च निरंशादिरूपो यथा नोपपद्यते तथा विषयपरिच्छेदे सप्रपञ्चं प्रपञ्चितम् / अतः कस्य केन सन्निकर्षः स्यात् ? एवम् ‘संशयादिविदुत्पादः' इत्यादिना अर्थव्यतिरेके ज्ञानव्यतिरेकाभावं 10 प्रतिपाद्य साम्प्रतम् अर्थान्वयग्रहणाभावं दर्शयितुमाह-'प्राग्' इत्यादि। प्राक् पूर्वं विज्ञानोत्पत्तेः अर्थमनवबुद्ध्यमाना नैयायिकादयः कारणमकारणमेव वार्थं विज्ञानोत्पत्तेः कथम् न कथञ्चिद् ब्रूयुः / एतदुक्तं भवति-यथा अग्निदर्शनानन्तरं धूमदर्शनं तथा यदि अर्थदर्शनानन्तरं ज्ञानदर्शनं स्यात् तदा स्यादर्थकार्य तत्, न चैवमस्ति / ननु तदुत्पत्तेः पूर्वं ग्राहकाभावान्न तत्रै कारणाकारणविभागप्रतिपत्तिः तदुत्पत्तौ तु भविष्यति ; इत्यत्राह-'उत्पन्नम्' 15 इत्यादि / उत्पन्नं लब्धात्मलाभं हि स्फुटं विज्ञानम् अर्थस्य परिच्छेदकं न तत्कारणतायाः। अधुना आलोकस्य ज्ञानकारणतां निराकुर्वन्नाह–'आलोकोऽपि' इत्यादि। न केव''लम् अर्थादिः, किन्तु आलोकोऽपि न कारणम् विज्ञानोत्पत्तः' इति सम्बन्धः। कुत एतदित्याह-परिच्छेद्यत्वात् / प्राक् प्रसाधितं दृष्टान्तमाह-'अर्थवत्' इति। अर्थ इव अर्थवत् / ननु यद्यालोकः तदुत्पत्तेः कारणं न स्यात्तर्हि तदभावेऽपि रूपज्ञानोत्पत्तिः 20 कुतो न स्यादित्याशङ्क्याह तमो निरोधि वीक्षन्ते तमसा नावृतं परम् / कुड्यादिकं न कुड्यादितिरोहितमिवेक्षकाः // 56 // (1) सन्निकर्षादि न ज्ञानोत्पत्तिकारणं कुतश्चिदपि प्रमाणाज्ज्ञातुमशक्यत्वात्। (2) पृ० 20 / (3) नैयायिककल्पितः / (4) ज्ञानम् / (5) अर्थे / (6) ग्राहकभूतज्ञानस्योत्पत्तौ / (7) आलोकका. रणतावादी बौद्धः, तथा च तद्ग्रन्थ:-“यथा इन्द्रियालोकमनस्काराः आत्मेन्द्रियमनस्कारा वा रूपज्ञानमेकं जनयन्ति"-प्रमाणवा० स्वव० 1175 / (8) आलोकाभावेऽपि / (9) "वीक्षन्ते विशेषेण नीलादिरूपतया पश्यन्ति / के ? ईक्षका चक्षुष्मन्तो जनाः / किम् ? तमोऽन्धकारं पुद्गलपर्यायम् / किंविशिष्टम् ? निरोधि प्रमेयान्तरतिरोधायकम / पूनर्न वीक्षन्ते। किम् ? परं घटादिकम् / कथम्भूतम् ? वृतम् आच्छादितम् / केन ? तमसा / ततः कथमालोको ज्ञानकारणं तदभावेऽपि तदुत्पत्तरिति / अस्मिन्नर्थे 'दृष्टान्तमाह-इव यथा कुड्यादिकमीक्षन्ते ईक्षकाः कुड्यादितिरोहितं पुनर्घटादिकं नेक्षन्ते तथा तमो वीक्षन्ते तदावृतं तु परं नेक्षन्ते इति ।"-लघी० ता० पृ० 77 / उद्धृतोऽयम्-सिद्धिवि० टी० 10 187 B. / 'तमोनिरोधे घटादिकं।"-सन्मति० टी०१० 544 / ___1 एतस्य ब०। 2 यः कुत-ब०।-चिदुत्पा-श्र०, ब०। 4 प्राक्साधि-आ०1 5 वीक्ष्यन्ते आ० / 34 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० विवृतिः-नहि तमः चक्षुर्ज्ञानप्रतिषेधकं तमोविज्ञानाभावप्रसङ्गात् / अन्यत्र विज्ञानाभावहेतुरिति चेत्, आलोकोऽपि तमोविज्ञानाभावहेतुत्वात् तमोवदभावहेतुः स्यात् / अर्वाग्भागदर्शिनः परभागपरिच्छेदाभावात् तस्यापि ज्ञाननिरोधित्वं स्यात्तमोवत् / प्रत्यर्थमावरणविच्छेदापेक्षया ज्ञानस्य परिच्छेदकत्वात् / नावरणं 5 तिमिरादि परिच्छेद्यत्वादर्थवत् / तमः अन्धकारं वीक्षन्ते विशेषेण अबाध्यमानतया प्रस्फुटरूपतया वा . ईक्षन्ते पश्यन्ति जनाः। कथम्भूतं तत् ? इत्याह-निरोधि कारिकार्थः प्रच्छादकम् / तथा च आलोकाभावेऽप्युपजायमानं तज्ज्ञानं कथं तत्कार्यं स्यात् ? यदभावेऽपि यदुपजायते न तत् तत्कार्यम् यथा चक्षुषोऽभावेऽप्युपजा10 यमानं रसज्ञानं न तत्कार्यम् , आलोकाभावेऽप्युपजायते च अन्धकाररूपादिज्ञानमिति / अथ मतम्-आलोकस्य तज्ज्ञानाहेतुत्वे तमसि स्थितानां घटादीनां ग्रहणं स्यात् ; तदयुक्तम् ; तस्य तन्निरोधित्वात् / एतदेवाह-'तमसा' इत्यादि / तमसा अन्धकारेण. आवृतं प्रच्छादितं परं घटादिकं न ईक्षन्ते / अत्र दृष्टान्तमाह-'कुड्यादिकम्' इत्यादि / इव शब्दः यथाऽर्थे / यथा कुड्यादिकं नेक्षन्ते ईक्षकाः। कथम्भूतम् ? कुड्यादितिरोहितं परेण कुड्यादिना व्यवहितं तथा प्रकृतमिति / नेनु हानानुत्पर्त्तिव्यतिरेकेण अपरस्य तमसोऽसंभवात् कस्य तन्निरोधित्वं ज्ञानानुत्पत्तिव्यतिरे- स्यात् ? नहि असत् कस्यचिन्निरोधकन्नाम अश्वविषाणादेरपि तत्प्रसकेण नास्ति तमोऽर्था- ङ्गात ? न च तदनुत्पत्तिव्यतिरेकेण अन्यस्यास्य असंभवोऽसिद्धः; न्तरमिति शालिक सालोकेऽपि गर्भगृहादिप्रदेशे बहिर्देशादागतस्य प्रतिपत्तः असत्यनाथस्य, तेजोऽभावरूप एवं तमः इति प्यन्धकारे ज्ञानानुत्पत्तौ तमःप्रतीत्युपलब्धेः। द्रव्यान्तरत्वे त्वस्य योगस्य च पूर्वपक्षः- चक्षुषः तत्प्रकाशने आलोकानपेक्षा न स्यात् / आलोकमेव हि (1) तमोज्ञानम् / (2) आलोककार्यम् / (3) तमोज्ञानं नालोककार्यम् आलोकाभावेप्युपजायमानत्वात् / (4) तमसः। (5) शालिकनाथः / (6) " यः पुननिशि नीलिमेवावलोक्यते नासौ नभसः / कस्य तर्हि ? न कस्यचित् / कथं पुनर्गुणो न कस्यचित् ? सत्यम; गण एवायमप्रसिद्धः / ननु प्रतीतिबलेन सिद्ध एव / सिद्धयेद्यदि प्रसिद्धिरेव सिद्धयेत्, सा तु कारणाभावान्न सिद्धा / ननु चक्षुरेव कारणम् ; न; आलोकोपकारानपेक्षस्य चक्षुषोऽप्रकाशकत्वात् , तेन अप्रतीतावेवायं प्रतीतिभ्रमो मन्दानाम् / अत एव दिवानुपलम्भः, अन्यथा सौरीभिः भाभिरनगृहीतं चक्षुः स्फुटतरं व्योम्नि नीलिमानं प्रकाशयेत् ।'तमसो निष्पत्त्यनवक्लुप्तेः, रूपवत्त्वेन हि तमो द्रव्यं स्यात, तच्चानेकद्रव्यारब्धं सच्चाक्षुषं भवेत् / न च द्रव्याणि सन्ति, सन्ति चेद्दिवाप्यारभेरन् / अन्धानामिव नीलिमाभिमानो नभस एवेत्युक्तम् ।"-प्रक० पं० 10 143 / “तमो नाम द्रव्यान्तरं न भवति, अन्धानामिव केवलं नीलिमाभिमानः ।"-तन्त्ररह० पु० 21 / (7) घटादितिरोधायकत्वम् / (8) ज्ञानानुत्पत्ति / (9) तमसः / (10) तमसः / (11) तमःप्रकाशने। 1-ज्ञाने प्रति-ज० वि० / 2 ज्ञानविरो-ई० वि०। 3 विशेषाबाध्य-श्र०। 4 न तत्का-ब० / 5-ते कुडयादि-श्र० / 6-त्तिपरेण ब० / Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 56 ] तमोद्रव्यवादः चक्षुः आलोकनिरपेक्षं प्रकाशयति न द्रव्यान्तरम् / ननु तमसो [s]द्रव्यान्तरत्वे छायायाश्छत्रादेरर्थान्तरभूतायाः प्रतीतिर्न स्यात् / अस्ति चास्याः तथाभूतायाः प्रतीतिः ततो बीजादकुरवत् ततोऽसौ द्रव्यान्तरं सिद्धा। तथाभूता चासौं सिद्ध्यन्ती तमसो द्रव्यान्तरत्वं साधयतीति; तदसमीचीनम् ; ऑलोकाभावरूपतया अस्या द्रव्यान्तरत्वासंभवेऽपि विभ्रमवशात् तत्र तत्प्रतीतेरुपपत्तेः / तथाहि -येन येन प्रदेशान्तरेण 5 छत्राद्यावारकद्रव्यप्रतिबद्धं तेजो न संयुज्यते तत्र तत्र छाया प्रतीयते, प्रतिबन्धकस्य आतपत्रादेरपाये तु स्वरूपेण आलोकः प्रतीयते, इत्यालोकाभाव एव छायाँ / द्रव्यान्तरत्वे तु तस्यास्तदैपायेऽपि आलोकेन सहावस्थितायाः प्रतीतिः स्यात् / न हि जातु किञ्चिद्रव्यं द्रव्यान्तरेण सहानवस्थायि प्रतीतम् / एतेन 'छाया द्रव्यान्तरं देशादेशान्तरप्राप्तिमत्त्वेन क्रियावत्त्वात्' इत्येतत् प्रत्या- 10 ख्यातम् ; तथाहि-यंत्र यत्र आतपत्राद्यावारकद्रव्येण तेजसः सन्निकर्षः प्रतिषिध्यते (1) त्रुटितायां पू० प्रती 'तमसोऽद्रव्या-' अयमेव पाठो भाति / (2) छायायाः। (3) छत्राद् भिन्नायाः / (4) छत्रात् / (5) छाया। (6) छाया। (7) "यच्चेदमुच्यते छायैव तमः सा चलत्वाचलत्वमहत्त्वामहत्त्वदूरत्वासन्नत्वादिगुणयोगिनी वस्तुभूतेति; तदिदमप्यसारम् ; अनवक्लृप्तेरेव / यच्चलाचलत्वादिकमुपन्यस्तं तदपि स्थूलदर्शितया। तथाहि-आलोकेऽपवारिते छायाप्यपेयते / ततोऽपवारितालोकभूभागादिभावव्यतिरेकिणी न रूपावन्तरवच्छाया दृश्यते / तेन मन्यामहे व्यपवारितालोकभूभागादिकमेव छायेति ।"-प्रक० पं० पृ०१४४। “अपवारितालोकं केवलं भूभागादिकमेव छाया।"-तन्त्ररह० प० 21 / 'आलोकज्ञानाभाव इति प्राभाकरैकदेशिनः।"-सर्वद०१० 229 / (8) छायायाम् / (9) छत्रादर्थान्तरत्वप्रतीतेः / (10) "द्रव्यगुणकर्मनिष्पत्तिवैधादभावस्तमः ।"-वैशे० सू० 5 / 2 / 19 / "उद्भूतरूपवद्यावत्तेजःसंसर्गाभावस्तमः ।"-वैशे० उप० 5 / 2 / 20 / (11) छत्राद्यपायेऽपि। (12) "तेजसो द्रव्यान्तरेणावरणाच्च ।"-वैशे० सू० 5 / 2 / 20 / “द्रव्यं छाया गतिमत्त्वादिति हेतुः साध्येनाविशिष्ट: "साध्यं तावदेतत-किं पुरुषवच्छायापि गच्छति, आहोस्वित् आवारकदव्ये संसर्पति आवरणसन्तानादसन्निधिसन्तानोऽयं तेजसो गृह्यते इति ? सर्पता खलु द्रव्येण यस्तेजोभाग आवियते तस्य तस्यासन्निधिरेवावच्छिन्नो गह्यते इति ।"-न्यायभा० श२८ / “आवारके द्रव्ये प्रसर्पति तेजसोऽसन्निधिविशिष्टं द्रव्यं यदुपलभ्यते तत्तु छायेत्युच्यते ।"-न्यायवा० 1228 / “भासामभावरूपत्वाच्छायायाः।"प्रश० व्यो० पू० 46 / “न तावच्छाया सामान्यविशेषसमवायान्तर्भूता अनित्यत्वात्तस्याः / नापि कर्म; संयोगविभागासमवायिकारणत्वाभावात् / न गुणो द्रव्यासमवायात् / न मनोदिक्कालगुणः; तद्गुणानामप्रत्यक्षत्वात् / नाप्यात्मगुणः, बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् / नापि नभोनभस्वतोः; तद्गुणानामचाक्षुषत्वात् / नापि तेजसः; तद्विरोधित्वात् तत्सहचरितगुणान्तरानुपलब्धेश्च / अत एव न पृथिवीपाथसोरपि। अपि च तद्गुणश्चाक्षुषो नालोकमन्तरेण शक्यग्रहः, छाया तु तमन्तरेण गृह्यते तस्मिंस्तु सति न गृह्यत इति दुर्घटम् / नापि द्रव्यम् ; तद्धि पृथिव्यादीनामन्यतममेव भवेदन्यद्वा दशमम् / न तावदन्यतमम् ; तद् गुणानामनुपलब्धेः / नाप्यन्यद्रूपवदिति युज्यते / तस्याद्रव्यस्य प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः, अस्पर्शवत्त्वादनारम्भकत्वेनानेकद्रव्यत्वाभावात् / तस्मादभाव एव छाया न तु सतीति सिद्धम् ।"-न्यायवा० ता० पृ० 345 / प्रश० किर० पृ०१९ / श्रीधरस्तु आरोपितरूपविशेषात्मकं तमः स्वीकरोति / "तस्माद्रूपविशेषोऽयमत्यन्तं तेजोऽभावे सति सर्वतः समारोपितस्तमः इति प्रतीयते / दिवा चोर्ध्व नयनगोलकस्य नीलिमावभास इति 1 ति तदद्रव्या-श्र०। 2 हि येन प्रवे-ब० / 3 प्रतिषेध्यते आ० / Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 668 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० तत्र तत्र अन्याऽन्या छायोपलभ्यते, न पुनः पूर्वदेशोपलब्धा अन्यत्र देशे, इति आवारकद्रव्यगतं कर्म तत्राध्यारोप्य प्रतिपत्ता 'छाया गच्छति' इति प्रतिपद्यते, यथा अश्वाधारूढः स्वगतं कर्म वृक्षेऽध्यारोप्य 'वृक्षः आगच्छति' इति / देशान्तरप्राप्ति श्वास्याः देशान्तरेण संयोगः, समवायो वा ? यदि संयोगः; अन्योन्याश्रयः-तद्रव्य5 त्वसिद्धौ हि संयोगसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तद्रव्यत्वसिद्धिरिति / अथ समवायः; तदप्यनुपपन्नम् ; एकत्र समवेतस्य द्रव्यस्य अन्यत्र समवायाऽसंभवादिति / " अत्र प्रतिविधीयते। यत्तावदुक्तम्-'ज्ञानानुत्पत्तिव्यतिरेकेण नापरं तमः' इत्यादि। तदसमीक्षिताभिधानम् ; अंतीतिविरोधात् / सुप्रसिद्धा हि आलोकतमश्छाययोः पुद्गल * तमसोः स्वस्वरूपेण अन्योन्यविलक्षणयोः प्रतिप्राणि प्रत्यक्षतो विलद्रव्यत्वसिद्धिः क्षणा प्रतीतिः। न च विषयवैलक्षण्यव्यतिरेकेण प्रतीतेलक्षण्यं युक्तम् ; पुरुषाद्यद्वैतसिद्धिप्रसङ्गतो भेदवादोच्छेदप्रसक्तेः / तमनिच्छता प्रतीतिवैलक्षण्यं विषयवैलक्षण्यपूर्वकं प्रतिपत्तव्यम् / प्रयोगः-तत्प्रतीतिवैलक्षण्यं विषयवैलक्षण्यपूर्वकं तत्त्वात् घटपटादिप्रतीतिवैलक्षण्यवत् / भावाभावरूपविषयवैलक्षण्यपूर्वकत्वेन आलोकतमः प्रतीतेरिष्टत्वात् सिद्धसाध्यता; इत्यप्यविचारितरमणीयम् ; तमसो रूपादिमत्त्वेन आलो15 कवद् अभावरूपत्वानुपत्तेः। तद्रूपत्वे वा रूपादिमत्त्वविरोधात् / 'योऽभावो नासौ रूपादिमान् यथा घटाद्यभावः, आलोकाभावरूपतयेष्टश्च तम इति / न चास्य रूपादिमत्त्वमसिद्धम् ; आलोकवत् तत्रापि तत्सद्भावप्रतीतेः / यथैव हि आलोके भासुरं रूपम् वक्ष्यामः / यदा तु नियतदेशाधिकरणो भासामभावस्तदा तद्देशसमारोपिते नीलिम्नि छायेत्यवगमः। अत एव दीर्घा ह्रस्वा महती अल्पीयसी छायेत्यभिमानः तद्देशव्यापिनः नीलिम्नः प्रतीतेः।"-प्रश० कन्द०५० 9 / “तथाहि-यत्र यत्र वारकद्रव्येण तेजसः सन्त्रिधिनिषिध्यते तत्र तत्र छायेति व्यवहारः। वारकद्रव्यगताञ्च क्रियाम् आतपाभावे समारोप्य प्रतिपद्यते छाया गच्छतीति, अन्यथा वारकद्रव्यगतं क्रियापेक्षित्वं न स्यात् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 47 / “यत्तु तेजःप्रतिरोधि द्रव्यं तद्यथा यथा सञ्चरति तथा तथाऽऽलोकः प्रतिमुच्यते प्रतिरुध्यते चेति चलतीव छाया प्रतिभाति, अन्यथा शरीरेऽपि चलति किमिति छायाऽपि चलेत हेत्वभावात् ।"-प्रक० पं० पृ० 144 / (1) तेजोऽभावे। (2) प्रतिपद्यते इति शेषः। (3) छायायाः। (4) “यच्चेदं देशान्तरप्राप्तिमत्त्वं तत्किं देशान्तरेण संयोगः; तस्यापि साध्यत्वात् / तथाहि-द्रव्यत्वसिद्धौ संयोग: सिद्धयति, संयोगात् द्रव्यत्वमिति इतरेतराश्रयत्वं स्यात् ।"-प्रश० व्यो०पू०४७। (5) “अथ देशान्तरप्राप्तिः समवायः; सोऽप्यसिद्धः / न ह्येकत्र समेवतः अन्यत्र समवैति / छाया त्वेकत्र सम्बद्धोपलब्धा पुनर्देशान्तरेप्युपलभ्यते। न च क्रियावत्त्वं देशान्तरसमवायात सिद्धयति तस्याप्ययुतसिद्धेष्वेव भावादिति ।"प्रश० व्यो० पृ० 47 / (6) पृ० 666 पं०१६। (7) तुलना-“अत एव नालोकज्ञानाभावः; अभावस्य प्रतियोगिग्राहकेन्द्रियग्राह्यत्वनियमेन मानसत्वप्रसङ्गात् ।"-सर्वद० पु० 230 / “न चाप्रतीतावेव प्रतीतिभ्रमः; तद्व्यवहारस्य तत्प्रतीतिमन्तरेणानुपपत्तेः ।"-चित्सु० पृ० 29 / (8) आलोकतमसोः प्रतिभासभेदः / (9) नैयायिकवैशेषिकादयः। (10) कृष्णरूपशीतस्पर्शचलनादिक्रियाशालित्वेन / (11) अभावरूपत्वे वा। (12) तमो न रूपादिमत् अभावरूपत्वात् / (13) तमस्यपि / 1-सोः स्वरू-आ० / 2 पुरुषाद्वैत-ब०। 3 भासुररूपं श्र० / Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनंप्र० का० 56 ] . तमोद्रव्यवादः उष्णस्पर्शश्च लोके प्रसिद्धः तथा छायादितमसि कृष्म रूपं शीतस्पर्श इति / ततो द्रव्यं तमः गुणवत्त्वात् , यद् यद् गुणवत् तत्तद् द्रव्यम् यथा आलोकादि, गुणवच्च तम इति / न केवलं छायादेर्लोक एव गुणवत्त्वं प्रसिद्धम् , अपि तु वैद्यकशास्त्रेऽपि / तदुक्तम् "अातपः कटुको रूक्षः छाया मधुरशीतला / / - कषायमधुरा ज्योत्स्ना सर्वव्याधिहरं (करं ) तमः // " [राजनि०] / (1) जैना हि तमः पुद्गलद्रव्यात्मकं स्वीकुर्वन्ति; तथाहि-गोयमा दिया सुभा पोग्गला सुभे पोग्गलपरिणामे, राति असुभा पोग्गला असुभे पोग्गलपरिणामे ।"-भगवतीसू 5 / 9 / 224 / “सइंधयारउज्जोओ पहा छायातवे इ वा / वण्ण रसगंधफासा पुग्गलाणं तु लक्खणम् ॥"-उत्तरा० 28 / 12 / नवतत्त्व० गा०९।"शब्दबन्धसौम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च।"-तत्त्वार्थस०५।२४। "सद्दो बन्धो सुहृमो थूलो संठाण भेद तम छाया। उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया।"-द्रव्यसं० गा० 16 / वैयाकरणास्तमः अणुरूपं स्वीकुर्वन्ति-"अणवः सर्वशक्तित्वाद् भेदसंसर्गवृत्तयः। छायातपतमःशब्दभावेन परिणामिनः ।"-वाक्यप० 11111 / अन्यान्यपि तमसो द्रव्यरूपतामुररीकुर्वन्ति मतान्तराणि-"तमोदर्शनं तु भूच्छायादर्शनम् / कतमत्पुनर्द्रव्यादीनां तमः ? ननु द्रव्यमेव कालिमगुणशालित्वात् स्पन्दवत्त्वाच्च / तथाहि-कालिमैवास्य रूपमुपलभ्यते अप्तेजसोरिव श्वेतिमा। एवं संख्याप्येकत्वादिका, परिमाणं तच्चतुर्विधं पृथिव्याद्यनामिव तमोऽणूनामप्यनुमानात्, पृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वसंस्काराश्च / पञ्चविधमपि कर्म अध्यक्षमीक्षते / यथाहात्र भवान्वार्तिककार:-ननु नाभावमात्रस्य तमस्त्वं वृद्धसम्मतम् / छायायाः काष्र्ण्यमित्येवं पुराणे भूगुणश्रुतेः // भूगुणस्य कार्ण्यस्य छायायां द्रव्यान्तरश्रुतेरित्यर्थः। दूरासन्नप्रदीपादिदेहचेष्टानुसारिणी / आसन्नदूरदीपादिमहदल्पचलाऽचला। छाया न वस्तुत्वाद्विना भवेत् // इति / न च पृथिव्यादीमनान्यतमम् तस्मात्प्रत्यक्षसिद्धमसति बाधके द्रव्यान्तरमेकादशं तमो नवगुणः चेति सिद्धम् / नादृष्टौ दर्शनं छाया नचाऽभावोऽस्मृतौ गतेः / रूपादुपायसद्भावात् द्रव्यं द्रव्यान्तरानुगम् ।"-विधिवि० टी० पृ० 76-79 / “किमिदं तमो नाम ? द्रव्यगणकर्मनिष्पत्तिवैधाद् भाभावस्तम इति काश्यपीयाः; तथा तु नीलबुद्धिनिनिमित्ता स्यात् अभावस्य नीलिमाभावात् / न चासतो नीलिम्नः किञ्चिद् ग्राहकं स्मारकं वाऽस्ति / आलोकादर्शनमात्रेण तु तभ्रमो भवंस्तच्छ्रन्यभागेऽपि स्यात् , अतो द्रव्यान्तरमिदं वायुवन्नीलिमगुणम् , वायुस्वरूपः स्पर्शवान् इदञ्चाऽस्पर्श रूपवदित्येतावान्विशेषः / अथवा, य एते पार्थिवास्त्रसरेणवो वातायनविवरेषु दृश्यमानाः सर्वतो भ्रमन्ति तेषां ये नीलगुणकाः तद्गतमिदं नीलरूपं गृह्यमाणं गुणान्तराणां द्रव्यान्तराणाञ्च तदन्तरालस्य च अग्रहणाद् व्याप्ताखिल ब्रह्माण्डवच्चकारित / नीलरूपग्रहणे चालोकापेक्षा नास्तीति दर्शनबलादभ्युपगम्यते।"-मी० श्लो० न्यायर०प०७४० / “तमालश्यामलज्ञाने निर्बाधे जाग्रति स्फुटे / द्रव्यान्तरं तमः कस्मादकस्मादपलप्यते॥"-चित्सु० पृ० 28 / “अस्पर्शवत्त्वे सति रूपवत्तमः / तच्च नेत्रेन्द्रियमात्रग्राह्यमालोकाभावप्रकाश्यं कृष्णरूपम् / कलायकोमलच्छायं दर्शनीयं भृशं दृशाम् / तमः कृष्णं विजानीयादागमप्रतिपादितम् ॥"गुणकर्मादिसद्भावादस्तीति प्रतिभासतः / प्रतियोग्यस्मृतेश्चैव भावरूपं ध्रुवं तमः ।"-मानमेयो०१०१५९। (२)"आतपः कटुको रूक्षः स्वेदमूर्छातृषावहः / दाहवैवर्ण्य: जननो नेत्ररोगप्रकोपनः // छाया दाहश्रमस्वेदहरा मधुरशीतला / ज्योत्स्ना कषायमधुरा दाहासपित्तनाशिनी। तमो भयावहं तिक्तं दृष्टितेजोविरोधनम् ।"-राजव० 5 / 22 / "आतपः"त्रिदोषशमनी / ज्योत्स्ना सर्वव्याधिकरं तमः"-राजनिघ / उद्धृतोऽयम्-"आतपः कटुको रूक्षः छाया मधुरशीतला।" -प्रश०व्यो० पृ० 46 / स्या० र० पृ० 855 / "छाया मधुरशीतला"-सन्मति० टी० पृ० 672 / 1 छायादौ लोक आ० / Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 670 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० अथ मतम्-औपचारिकस्तत्र माधुर्यादिगुणो मुख्य बाधकसद्भावात् / तथाहिरसनेन्द्रियव्यापाराद् यथा क्षीरादिषु माधुर्यप्रतिपत्तिः न तथा छायायाम् / तस्मात् 'मधुरादिद्रव्यनिषेवणाद् यौ गुणदोषौ दृष्टौ छायानिषेवणादपि तावेव' इति वैद्यकशास्त्रतात्पर्यम् , अतोऽसिद्धं गुणवत्त्वं छायादेः; इत्यप्यनल्पतमोविलसितम् ; तंत्रास्य अबाधबोधाधिरूढप्रतिभासतया औपचारिकत्वानुपपत्तेः। यद्यत्र अबाधबोधाधिरूढतया प्रतिभासते न तत्तत्रौपचारिकम् यथा तेजसि भासुरत्वादि, अबाधबोधाधिरूढतया प्रतिभासते च छायाद्यन्धकारे शीतलत्वादिगुणसद्भाव इति / तथाविधस्याप्यस्य॑ अत्रौपचारिकत्वे ज्योस्नाऽऽतपयोरपि मुख्यतो गुणसिद्धिर्मा भूत् ; कटुकत्वादिगुणानां तत्राप्यौपचारिकत्वप्रसङ्गात् , प्रागुक्तवैद्यकग्रन्थप्रक्रियायाः तत्रापि कल्पयितुं सुशकत्वात् / 10 ततः प्रतीति प्रमाणयता ज्योत्स्नादिवत् छायाद्यन्धकारेऽपि अनुपचरितगुणसद्भावसिद्धिरभ्युपगन्तव्या, इति सिद्धमस्य गुणवत्त्वाद् द्रव्यत्वम् / - यदप्युक्तम्-'असत्यपि अन्धकारे गर्भगृहादौ ज्ञानानुत्पत्तौ तमः प्रतीयते'. इत्यादि; तत्रापि सर्वथा ज्ञानानुत्पत्तिस्तत्प्रतीतिहेतुः, तदन्तर्वतिपदार्थेषु वा ? प्रथमपक्षे स्ववचनविरोधः 'माता मे वन्ध्या' इत्यादिवत् / न खलु सर्वथा ज्ञानानुत्पत्तिं वदतः तमःप्रतीतिरविरुद्धा, तत्प्रतीतौ वा सर्वथा ज्ञानानुत्पत्तिरिति / द्वितीयपक्षे तु प्रचुरतरालोकोपहतदृष्टिः प्रतिपत्ता तत्रस्थानर्थान् यथावत्प्रतिपत्तुमसमर्थः जलरूपतया मरीचिकाचक्रमिव आलोकमेव तमोरूपतया प्रतिपद्यते / न च मिथ्यातमःप्रतिभासेन अमिध्यातमःप्रतिभासस्य साम्यमापादयितुं युक्तम् ; सत्यजलादिप्रतिभासस्यापि असत्यजलादिप्रतिभासेन साम्यापादनप्रसङ्गतो वस्तुव्यवस्थाभावप्रसङ्गात् / ' (1) 'यच्चेदमागमात् माधुर्य शैत्यं वा छायायाः, तदप्युपचारात् / ये हि मधुरद्रव्यस्य शीतद्रव्यस्य वा गुणाः ते छायासंसेवनाद् भवन्तीति तत्कार्यकर्तृत्वेन तथोक्तः ।"-प्रश० व्यो० पृ० 47 / (2) छायादौ। (3) छायादौ माधुर्यादेः / तुलना-"छायापि शिशिरत्वादाप्यायकत्वाज्जलवातादिवत्।" -तत्त्वार्थभा० व्या० पृ० 363 / "मुख्यार्थबाधायामुपचारप्रवृत्तेः, न चेयमत्रास्ति ।"-स्या० पृ० 856 / (4) छायादौ माधुर्यादि नौपचारिकम् अबाधबोधाधिरूढप्रतिभासत्वात्। (5) अबाधितप्रतिभासविषयत्वेऽपि / (6) माधुर्यादेः / (7) छायादौ / (8) तुलना-"तत्तेजस्यपि समानम् ।"-सन्मति. टी० पृ० 672 / स्या० 20 पृ० 856 / (9) तुलना-'न च तमसः पौद्गलिकत्वमसिद्धम् ; चाक्षुषत्वाऽन्यथानुपपत्तेः प्रदीपालोकवत् ।'रूपवत्त्वाच्च स्पर्शवत्त्वमपि प्रतीयते शीतस्पर्शप्रत्ययजनकत्वात् ।"-स्या० मं० का० 5 / “तमः स्पर्शवत् रूपवत्त्वात् पृथिवीवत् / न च रूपवत्त्वमसिद्धम् ; अन्धकारः कृष्णोऽयमिति कृष्णाकारप्रतिभासात् ।”-रत्नाकराव० पृ० 69 / (10) तमः प्रतीतिकारणम् / (11) तुलना-"किं पुनरन्धकारावस्थायां ज्ञानं नास्ति ? तथा चेत्; कथमन्धकारप्रतीति: तदन्तरेणापि प्रतीतौ अन्यत्रापि ज्ञानकल्पनानर्थक्यम् / प्रतीयते ज्ञानं नास्तीति च स्ववचनविरोधः प्रतीतेरेव ज्ञानत्वात् ।”-प्रमेयक० पृ० 238 / (12) तमःप्रतीतौ / (13) अविरुद्धा इति शेषः / (14) अन्धकान्तर्वतिपटाद्यर्थान् / 1 गुणत्वाद् ब०। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 56 ] समोद्रव्यवादः 671 किञ्च, ज्ञानानुत्पत्तिव्यतिरेकेण अपरस्य तमसोऽनभ्युपगमे विशदज्ञानोत्पत्तिव्यतिरेकेण अन्यस्य आलोकस्यापि अभ्युपगमो मा भूत् / असत्यपि हि आलोके बहलान्धकारनिशीथिनीसमये नक्तञ्चराणाम् अञ्जनाभिसंस्कृतचक्षुषाचे प्रस्फुटज्ञानोत्पत्तौ सप्रकाशं सकलं वस्तु प्रकाशते / लोकप्रतीतिबाधा उभयत्र तुल्या। यथैव हि ‘मध्याह्ने अतितीबालोके बहिर्गन्तुमसमर्थाः' इति लौकिकी प्रतीतिः तथा 'बहलान्धकारायां रात्रौ बहिर्गन्तुं 5 त्रस्ताः' इत्यपि / ततो निर्बाधबोधाधिरूढप्रतिभासत्वेन आलोकद्रव्यस्य वास्तवत्वाभ्युपगमे तमोद्रव्यस्यापि तदभ्युपगन्तव्यं विशेषाभावात् / तथा, द्रव्यं छायाद्यन्धकारः घटाद्यावारकत्वात् काण्डपटादिवत् / गतिमत्त्वाच्चासौ वाणादिवत् द्रव्यम् / न च गतिमत्त्वमसिद्धम् ; 'वेगेन छाया गच्छति' 'शनइछाया गच्छति' इति प्रतिप्राणि प्रसिद्धप्रतीतितः तस्याः तत्प्रसिद्धेः / अनुमानाच्च; 10 तथाहि-गतिमती छाया देशादेशान्तरप्राप्तिमत्त्वात् वाणादिवत् / यदप्यभिहितम्-'देशान्तरप्राप्तिः देशान्तरेण संयोगः समवायो वा' इत्यादि; तत्रं देशान्तरेण अस्याः प्राप्तिः सम्बन्धोऽभिप्रेतः, से च संयोग एव पर्यवस्यति / न चैवमन्योन्याश्रयत्वम् ; अतश्छायाया द्रव्यत्वाऽप्रसाधनात् / देशान्तरप्राप्तितो हि तस्या गतिमत्त्वं प्रसाध्यते, तस्माच्च द्रव्यत्वमिति / न चैवं चक्रकप्रसक्तिरित्यभिधातव्यम् ; तत्प्राप्तेः / प्रत्यक्षत एव प्रसिद्धस्वरूपत्वात् / यदि हि द्रव्यत्वसिद्ध्या तत्प्राप्तिः प्रसाध्येत ततश्च गतिमत्त्वं तदा स्याच्चक्रकम् / कथमन्यथा 'गतिमान् आदित्यो देशान्तरप्ताप्तिमत्त्वात्' इत्यादावपि इतरेतराश्रयादिदोषानुषङ्गो न स्यात् ? (1) "यद्येवमालोकस्याप्यभावः स्यात् विशदज्ञानव्यतिरेकेणान्यस्य अस्याप्यप्रतीतेः / तद्वयवहारस्तु लोके विशदज्ञानोत्पत्तिमात्रः।"-प्रमेयक० प० 238 / (2) पुरुषाणान् / (3) तुलना"तमस्तावत्पुद्गलपरिणामः दृष्टिप्रतिबन्धकारित्वात् कुड्यादिवत्, आवारकत्वात् पटादिवत्।"-तत्वार्थभा० व्या० पृ०३६३। “तमो भावरूपं घटाद्यावारकत्वात् काण्डपटादिवत् / नचास्य घटाद्यावारकत्वमसिद्धम् ; विषयाभिमुखप्रवर्तमाननयनव्यापारनिरोधित्वात्तद्वदेवेत्यतस्तत्सिद्धेः ।"-स्या० र० पृ०८५१॥ (4) "छाया द्रव्यं क्रियावत्त्वात् कुम्भवत् ।"-स्या० र० पृ०८५३। (5) छायायाः। (६)गतिमत्त्व / (7) "अनुमानावसेयमपि; तथाहि-गतिमती छाया देशाद्देशान्तरप्राप्तिमत्त्वान्मैत्रवदिति ।"-स्या० र० पृ० 853 / (8) पृ० 668 पं० 3 / (9) “यतोऽत्र छायाया देशान्तरेण प्राप्तिः संयोगोऽभिधीयते / यत्र वास्पेतरेतराश्रयोदभावनं तदनुसन्धानशून्यतावशात् / न हि देशान्तरप्राप्तिमत्त्वाद् द्रव्यत्वं प्रसाधयितुमुद्यता: स्मः, किन्तु गतिमत्त्वं तस्मात्तु द्रव्यत्वमिति ।"-स्या० र० पृ० 854 / (10) सम्बन्धः / (11) देशान्तरप्राप्तिरूपसंयोगात् / (12) गतिमत्त्वाच्च / (13) "नन्वेवमपि महत्तरे चक्रकसंकटे यूयं पतिताः / तथाहि-देशान्तरसंयोगात् क्रियावत्त्वम्, क्रियावत्वात् द्रव्यत्वम्, द्रव्यत्वात् देशान्तरसंयोगवत्त्वमिति; उत्स्वप्नायितमेतत् ; देशान्तरप्राप्तेः प्रत्यक्ष एव छायायां प्रसिद्धस्वरूपत्वात् / यदि हि द्रव्यत्वसिद्धया देशान्तरप्राप्तिः प्रसाध्येत तदा स्यात्तद्रूषणम् / प्रत्यक्षेणेति सिद्धन देशान्तरप्राप्तिमत्त्वेन सिद्धात् क्रियावत्वात्सिद्धं छायाया द्रव्यत्वम् ।"-स्या० र० पृ० 855 / (14) देशान्तरप्राप्तिः / 1-नादिसंस्कृ-ब०। 2 सकलवस्तु श्र०। 3 द्रव्यमिति ब० / 4 प्रसाध्यते आ० / Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 672 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [.. प्रवचनपरि० ___यच्चान्यदुक्तम्-'आवारकद्रव्यगतं कर्म छायायामध्यारोप्य 'छाया गच्छति' इति प्रतिपद्यते' इत्यादि; तदप्यपेशलम् ; छायाया असत्त्वे तेत्र आवारकद्रव्यगताया गतेरारोपानुपपत्तेः / सत्येव हि वृक्षादौ अश्वाद्यारूढः पुरुषः स्वगतं कर्म तत्र अध्यारोपयति नासति इति, अतः तदँध्यारोपान्यथानुपपत्तेः छायाया वास्तवं सत्त्वं सिद्धम् / प्रयोगः5 छोया परमार्थसती अध्यारोप्यमाणगतित्वात्, यद् अध्यारोप्यमाणगति तत् परमार्थसत् यथा वृक्षादि, अध्यारोप्यमाणगतिश्च छाया इति / तन्न ज्ञानानुत्पत्तिमात्रं तमः / ___ननु सिद्धस्यापि द्रव्यान्तरभूतस्य तमसः चक्षुर्ज्ञानप्रतिबन्धकत्वादयुक्तमुक्तम् 'तमो निरोधि वीक्षन्ते' इत्यादि; तदसाप्रतम् ; यतः तैतिक म्वात्मनि तत्प्रतिबन्धकम, अन्यत्र वा ? तत्राद्यपक्षे-'नहि' इत्यादिना 10 दूषणमाह-नहि नैव तमः चक्षुर्ज्ञानप्रतिषेधकं 'स्वात्मनि' इत्यध्याहारः / कुत एतदि त्याह। तमोविज्ञानाभावप्रसङ्गात्, अस्ति च तज्ज्ञानम् , अतो न तत् तत्प्रतिषेधकम् / प्रयोग:-यद् यज्ज्ञानस्य विषयो न तत् स्वात्मनि तज्ज्ञानस्य प्रतिषधकम् यथा काण्डपटादि, चक्षुर्ज्ञानस्य विषयश्च तम इति / अथ अन्यत्र घटादौ न स्वात्मनि, तत् तद्विज्ञानाभावहेतुरिति चेत् तर्हि आलोकोऽपि तमोविज्ञानाभावहेतुत्वात् तमोव15 दभावहेतुः स्यात् / चक्षुर्विज्ञानस्य अभावः अनुत्पत्तिः उत्पन्नस्य वा प्रध्वंसः, तस्य हेतुः कारणं स्याद् भवेत् / तथी च 'तैजस चतू रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वाद् श्रालोकवत्' इत्यत्र प्रयोगे साँधनविकलो दृष्टान्तः। अथ आलोकः तमोविज्ञानाभावहेतुः स्वरूप-घटादिविषयज्ञानहेतुश्चेष्यते; तर्हि तमोऽपि घटादिविषयज्ञानाऽहेतुः स्वविषय विज्ञानहेतुश्चेष्यतामविशेषात् / अथ आलोके सत्येव केषांश्चिद् रूपज्ञानोत्पत्तेः तदभावे 20 चानुत्पत्तेः अँसौ तद्धेतुः; तर्हि तमसोऽप्यभावे केषाश्चितज्ज्ञानानुत्पत्तेः तस्मिन् सत्येव (1) पृ० 668 पं० 2 / (2) छायायाम् / (3) वृक्षादौ। (4) आवारकद्रव्यगतगत्यारोपान्यथानुपपत्तेः। (5) "भावरूपा छाया अध्यारोप्यमाणगतित्वात् वृक्षवत् ।"-स्या० 20 10 854 / (6) "तमो दृष्टिप्रतिबन्धिकारणं प्रकाशविरोधि।"-सर्वार्थ सि०, राजवा०, तत्वार्थभा० व्या०५।२४ / (7) तमः / (8) ज्ञानप्रतिबन्धकम् / (9) स्वात्मनि ज्ञानप्रतिषेधकम् / (10) तमो न स्वचाक्षुषज्ञानप्रतिरोधकम् चाक्षुषज्ञानविषयत्वात् / (11) तमः / (12) तुलना-"प्रदीपस्य च घटरूपव्यवधायकतमोऽपनेतृत्वे 'तैजसं चक्षु रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात् प्रदीपवदिति साधनविकलत्वात् दृष्टान्तस्य निरस्तं द्रष्टव्यम् ।"-सन्मति० टी० पृ० 544 / (13) न्यायकु० पृ० 76 टि०२। (14) आलोको हि न तमसो रूपस्य प्रकाशक: अत: स: 'रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात्' इति साधनशून्यः। (15) स्वस्य आलोकस्य रूपम् भासुराख्यम् / (16) तमोविषयक / (17) अस्मदादीनाम् / (18) आलोकः / (19) रूपज्ञानहेतुः / (20) तमोज्ञान / (21) तमसि / 1 असत्यत्वे ब०। 2-षः कर्म आ०, ब०। 3-ज्ञानाप्रति-श्र०। 4 आलोकेऽपि श्र० / 5 तमोज्ञाना-आ० / 6 घटादिज्ञानाहेतुः आ०, ब०। 7 केषाञ्चिज्ज्ञा-आ०, ब०। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 57 ] तमोद्रव्यवादः उत्पत्तेः तदपि तद्धेतुः स्यात् / तथा च 'रूपादीनां मध्ये रूपादीनां प्रकाशकत्वात्' इत्ययं हेतुः तमसाऽनैकान्तिकः, तस्याऽतैजसत्वेऽपि रूपप्रकाशकत्वात् / पुनरपि तमसः तज्ज्ञानप्रतिषेधकत्वे दूषणमाह-'अर्वाग्भागदर्शिनः' इत्यादि / अर्वाग्भागं पश्यतीत्येवं शीलस्य तद्दर्शिनः परभागपरिच्छेदाभावात् तस्यापि अर्वाग्भागस्यापि न केवलं तमस एवं ज्ञाननिरोधित्वं स्यात्, प्रक्रमात् 'चक्षुर्ज्ञाननिरोधित्वं / स्यात्' इति मन्यते / अत्र दृष्टान्तमाह-तमोवत् / तमस इव तद्वदिति / तथा च तद्वंद् अर्वाग्भागस्याप्यदर्शनप्रसङ्गाद् असर्वदर्शिनोऽन्धतैव स्यात् / यच्चक्षुर्ज्ञाननिरोधि न तत् तज्ज्ञानग्राह्यम् यथा तमः, चक्षुर्ज्ञाननिरोधी च अर्वाग्भाग इति / / ननु मा भूत् तम आवरणं तिमिरादि तु भविष्यति इत्यत्राह-'प्रत्यर्थम्' इत्यादि / अर्थमर्थं प्रति प्रत्यर्थम् , आवरणस्य ज्ञानावरणीयकर्मणो यो विच्छेद 10 अभावः तदपेक्षया ज्ञानस्य परिच्छेदकत्वात् अर्थप्राहकत्वात् कारणात् नावरणं ज्ञानस्य प्रच्छादकम् / किम् ? इत्याह-तिमिरादि। आदिशब्देन कामलादिपरिग्रहः / ज्ञानावरणीयं कर्मैव हि नियमेन तत्प्रच्छादकम् , तस्मिन् सति ज्ञानस्य अर्थपरिच्छेदकत्वाभावात् , न तिमिरादि तस्मिन् सत्यपि सत्यस्वप्ने रूपदर्शनसद्भावात् / इतश्च न तदावरणमित्याह-परिच्छेद्यत्वात् / अत्र निदर्शनमाह-'अर्थवत्' इति / प्रयोगः- 15 यत्परिच्छेद्यं न तद् आवरणम् यथा अर्थः, परिच्छेद्यश्च तिमिरादि इति / ननु तिमिरादीनामनावरणत्वे "यद्विज्ञानं स्वविषये विपर्यस्तं तत्सावरणम् यथा चक्षुर्विज्ञानं द्विचन्द्रादिगोचरम्, तथाविधश्च मिथ्यादृशां ज्ञानम्' [ ] इत्याचार्टीयं वचः स्वाभ्युपगमविरुद्धं स्यादिति चेत् ; न; अन्यथाभिप्रायात् / तमस्तिमिरादि वा अदृष्टकारणनिरपेक्षमावरणं न भवति, तत्सापेक्षं तु भवत्येव इत्ययमाचार्यस्यामिप्रायः / ननु च आत्मनो ज्ञानस्वभावतया सवत्र सर्वदा सर्वथा सर्वार्थग्रहणस्वभावत्वेन अशेषज्ञत्वप्रसङ्गान्न किञ्चिदावरणकल्पनया इत्याशङ्कापनोदार्थमाह मलविद्धमणिव्यक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः। कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथाऽनेकप्रकारतः॥ 57 // (1) तमोऽपि / (2) रूपज्ञानहेतुः / (3) स्वगतकृष्णरूप / (4) चक्षुर्ज्ञान / (5) परभागवत, तमोवद्वा। (6) अर्वाग्भागो न चक्षुरिन्द्रियग्राह्यः चक्षुर्ज्ञाननिरोधित्वात् / (7) ज्ञानप्रच्छादकम् / (8) ज्ञानावरणकर्मोदये सत्येव / (9) तिमिरादि नावरणं परिच्छेद्यत्वात् / (10) ज्ञानावरणकर्मोदय अदृष्टपदेन ग्राह्यः। (11) "यथा स्यात् / का? मलविद्धमणिव्यक्तिः मल: कालिमरेखादिभिः विद्धः स चासौ मणिश्च पद्मरागादिः तस्य व्यक्तिः तेजःप्रादुर्भावः / कथम् ? अनेकप्रकारतः अनेके बहवः प्रकारा विशदाविशददूरादूरप्रकाश्यप्रकाशनविशेषाः तानाश्रित्य। तथा स्यात् / का? 1 तथा रूपा-श्र०। 2-सः स्वज्ञान-ब०। 3 अवाग्भाग-श्र०। 4 एव विज्ञान-ब०। 5नविरो-आ०। 6 तद्दर्शनग्राह्यं ब०। चक्षुर्ज्ञानं ब०, श्र०। 8 सर्वदा सर्वार्थ-श्र०। 9 सर्वथाग्रहणस्व-ब०। 35 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 674 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० विवृतिः-यथास्वं कर्मक्षयोपशमापेक्षिणी करणमनसी निमित्तं विज्ञानस्य न बहिरादयः / “नाननुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणं नाकारणं विषयः" [ ] इति बालिशगीतम् ; तामसखगकुलानां तमसि सति रूपदर्शनम् आवरणविच्छेदात् , तदविच्छेदात् आलोके सत्यपि संशयादिज्ञानसंभवात् / काचाद्युप6 हतेन्द्रियाणां शंखादौ पीताद्याकारज्ञानोत्पत्तेः। मुमूर्पूणां यथासंभवम् अर्थे सत्यपि विपरीतप्रतिपत्तिसद्भावात् नार्थादयः कारणं ज्ञानस्य इति स्थितम् / मलैर्विद्धः सम्बद्धो यो मणिः तस्य व्यक्तिः आविभावो यथा येन विश्रसोपयोगप्रकारेण अनेकप्रकारतः विशेदतरप्रकारम् एकदेश- . कारिकार्थः साकल्यप्रकारं निकटदूरदेशवर्तिस्वप्रकाश्यप्रकाशनप्रकारम् / अन्य 10 वा विषयापहारादिलक्षणमाश्रित्य, तथा तेन प्रकारेण कर्मभिः ज्ञानावरणीयादिभिः विद्धस्य प्रच्छादितस्य आत्मनो जीवस्य विज्ञप्तिः अर्थप्रकाशकत्वलक्षणा अनेकप्रकारतः इन्द्रियाऽनिन्द्रियाऽतीन्द्रियप्रकारम् सकलविकलसन्निकृष्टविप्रकृष्टार्थप्रकाशन-. प्रकारम् स्वपररूपोद्योतनप्रकारम् प्रत्यक्षतरत्वप्रकार वा आश्रित्य भवति / नेनु पूर्वोत्तरज्ञानक्षणव्यतिरिक्तः, कायाकारपरिणतभूतचतुष्टयव्यतिरिक्तो वा न कश्चिदात्मा15 ऽस्ति तत्कस्य अनेकप्रकारतो विज्ञप्तिः स्यादिति सौगत-चार्वाको; तौ च प्रतिपादित विस्मरणशीलौ; सन्ताननिषेधावसरे हि पूर्वोत्तरज्ञानक्षणव्यतिरिक्तः अनादिनिधनः प्रतिपादितः प्रमाता, चार्वाकमतपरीक्षायाचं कायाकारपरिणतभूतचतुष्टयव्यतिरिक्तः इत्यलमतिप्रसङ्गेन। कारिकां विवृण्वन्नाह-'यथास्वम्' इत्यादि / यस्य ज्ञानस्य यद् आवारकं _ स्वम् आत्मीयं कर्म तस्यानतिक्रमेण यथास्वम् / कर्मक्षयोपशमाविवृतिव्याख्यानम्- इलेवं शीले तटपेक्षिणी करणमनसी इन्द्रियानिन्द्रिये निमित्तं विज्ञानस्य, न बहिरादयः, एतच्चानन्तरमेव प्रपञ्चितम् / दृष्टे च करणमनसी स्वावरणरजोनीहारादिक्षयोपशमापेक्षिणी पादपादिविज्ञानस्य निमित्तम् / कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिः कर्माणि ज्ञानावरणादीनि तैराविद्धः सम्बद्धः स चासावात्मा च तस्य विज्ञप्तिरर्थोपलब्धिः / कथम् ? अनेकप्रकारतः अनेके नानारूपाः प्रत्यक्षतरदूरासन्नार्थप्रतिभासनविशेषाः क्षयोपशमविशेषाश्च तानाश्रित्येत्यर्थः / तदावरणविशेषनिरासे तु सकलार्थविज्ञप्तिरात्मन उपपद्यते एव ज्ञानस्वभावत्वात्तस्येति ।"-लघी० ता० पृ० 78 / उद्धृतोऽयम्-सिद्धिवि० टी० 193 A. / आव०नि० मलय० पृ० 17 / नन्दि० मलय० पृ० 66 / इष्टोप० टी० पृ० 30 / कर्मप्र० टी० पृ० 8 / तुलना-"मलावृतमणेर्व्यक्तिर्यथाऽनेकविधेक्ष्यते / कर्मावृतात्मनस्तद्वद्योग्यता विविधा न किम ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 191 / (1) द्रष्टव्यम्-पृ० 640 टि० 2 / (2) सौगतचार्वाको / (3) पृ० 9 / (4) पृ० 343 / _1-स्वकर्म-ज० वि०। 2 विषमोपयोग-ब०, विश्लेषोपयोग-श्र०। 8 विरुद्धस्य आ० / 4-द्रियायप्रका-श्र०। 5 यथावारकं आ० / 6-यः तच्चा-आ० / Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 58] तजन्मादित्रयनिरासः 675 दृष्टेन च अदृष्टैसिद्धिः / 'नाननुकृत' इत्यादिना परमतमाशङ्कते-कार्येण अननुकृता. वन्वयव्यतिरेको यस्य तत् तथाविधं न कारणम् अपि तु अनुकृतान्वयव्यतिरेकमेव कारणम् / यच्च अकारणं तन्न विषयों ज्ञानस्य, इति शब्दः परमतपरिसमाप्तौ। अत्र दूषणमाह-'बालिशगीतम्' इत्यादि / बालिशस्य अविवेकिनो गीतं भाषितम् / कुत एतदित्याह-तामसखगकुलानां तमसि सति रूपदर्शनम् आवरणविच्छेदात्, नालोकात् / इत्यभिप्रायः। तथा तदविच्छेदात् तस्य आवरणस्य विच्छेदाभावात् हेतोः आलोके सत्यपि संशयादिज्ञानसंभवात् / इतश्च नालोकात् तद्दर्शनम् इत्याह-'काच' इत्यादि / काचः चक्षुषो व्याधिविशेषः आदिर्यस्य तिमिरादेः स तथोक्तः तेन उपहतानि इन्द्रियाणि येषां तेषां शुक्ले शङ्खादौ पीताद्याकारज्ञानोत्पत्तेः 'सत्यपि आलोके बालिशगीतम् इति सम्बन्धः / तथा मुमूर्तृणां प्राणिनां यथासंभवं संभवानतिक्रमेण अर्थे सत्यपि विपरी- 10 तप्रतिपत्तिसद्भावात् कारणात् न अर्थादयः आदिशब्देन आलोकादिपरिग्रहः, कारणं विज्ञानस्य इति स्थितम् / पूर्वं नैयायिकमपेक्ष्योक्तम् , इदं सौगतमिति प्रैविभागः / अत्रैव दूषणान्तरमाह नै तज्जन्म न तादूप्यं न तद्वयवसितिः सह / प्रत्येकं वा भजन्तीह प्रामाण्यं प्रति हेतुताम् // 58 // 15 (1) सौगतमतम् / (2) पृ० 663 / (3) इहज्ञाने / प्रामाण्यं प्रति प्रमाणत्वमुद्दिश्य / हेतुतां निमित्तभावं न भजन्ति / किन्त इत्याह-तज्जन्म तस्मादज्जिन्म उत्पत्तिः, तस्य करणग्रामेण व्यभिचारात / न च ताप्यं तस्यार्थस्य रूपमिव रूपमाकारो यस्य तत्तद्रूपं तस्य भावस्ताद्रप्यम् , तस्य समानार्थसमनन्तरज्ञानेन व्यभिचारात् / नापि तद्वयवसितिः तत्रार्थे व्यवसितिर्व्यवसायो निश्चयः, तस्य द्विचन्द्रादिव्यवसायेन व्यभिचारात्। कथम् ? प्रत्येकम् एकमेकं प्रतिनियतमेकैकमित्यर्थः / सह मिलित्वा वा तानि प्रामाण्यहेतुतां न भजन्ति / तत्त्रितयस्यापि शुक्ले शंखे पीताकारज्ञानजनकेन समनन्तरप्रत्ययेन व्यभिचारात ।"-लघी०ता०प०७९ / तज्जन्मादित्रयस्य प्रामाण्यहेतुतानिरूपका बौद्धग्रन्थाः-"विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते।"-प्रमाणसमु०१।१०। "तस्माच्चक्षुश्च रूपञ्च प्रतीत्योदेति नेत्रधीः / 33190 / भिन्नकालं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां विदुः / हेतुत्वमेव युवतिज्ञास्तदाकारापणक्षमम् / / कार्य ह्यनेकहेतुत्वेऽप्यनुकुर्वदुदेति यत् / तत्तेनाप्यत्र तद्रूपं गृहीतमिति चोच्यते / ( 3 / 247148 / ) अर्थेन घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् / तस्मात्प्रमेयाधिगतेः साधनं मेयरूपता ॥"-प्रमाणवा० 31305 / "तदाकरं हि संवेदनमर्थ व्यवस्थापयति नीलमिति पीतञ्चेति ।"-प्रमाणवात्तिकालं०प० 2 / "किमर्थं तर्हि सारूप्यमिष्यते प्रमाणम् ? क्रियाकर्मव्यवस्थायास्तल्लोके स्यान्निबन्धनम् . "सारूप्यतोऽन्यथा न भवति नीलस्य कर्मणः संवित्तिः पीतस्य वेति क्रियाकर्मप्रतिनियमार्थमिष्यते ।"-प्रमाणवात्तिकालं० पृ० 119 / अनुकूलविकल्पोत्पत्तिरेव अध्यवसायः; तथाहि-"अविकल्पमपि प्रत्यक्षं विकपोत्पत्तिशक्तिमत् / निःशेषव्यवहाराङ्गं तद्वारेण भवत्यतः।"-तत्त्वसं० का० 1306 / / 1-सिद्धेःश्र। 2-यो विज्ञानस्य श्र०, ब013 सत्यालोके श्र०। 4 मुमक्षणां ब०। 5 प्रतिभागः आ०। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 676 लघीयत्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० विवृतिः-नार्थः कारणं विज्ञानस्य कार्यकालमप्राप्य निवृत्तेः अतीततमवत् / . न ज्ञानं तत्कार्य तदभाव एव भावात् तद्भावे चाभावात् भविष्यत्तमवत् / नार्थसारूप्यभृत् विज्ञानम् अमूर्त्तत्वात् / मूर्ता एव हि दर्पणादयः मूर्तमुखादिप्रतिबिम्बधारिणो दृष्टाः, नामूतं मूर्तप्रतिविम्बभृत्, अमूर्त च ज्ञानं मूर्तिधर्माभावात् / नहि ज्ञाने अर्थोऽस्ति तदात्मको वा येन तस्मिन् प्रतिभासमाने प्रतिभासेत शब्दवत् / ततः तदध्यवसायो न स्यात् / कथमेतदविद्यमानं त्रितयं ज्ञानप्रामाण्यं प्रति उपकारकं स्यात् लक्षणत्वेन ? तस्माद् अर्थात् जन्म तज्जन्म न ज्ञानस्य प्रामाण्यं प्रति हेतुतां भज ती(ती)ह लोके, न ताप्यं तस्य अर्थस्य रूपमिव रूपं यस्य तस्य कारिकार्थः भावः ताद्रप्यं न तत्प्रति तो 'भजति' इति सम्बन्धः / न तद्वयवसितिः तस्य अर्थस्य व्यवसितिः निर्णीतिः न तत्प्रति तां भेजतीति, सह युगपत् प्रत्येकंवा एकमेकं वा एकमेकं प्रति प्रत्येकम् , 'वा' इति समुच्चये। तत्र न तावत् प्रत्येकम् ; .. __ (1) तुलना-“कार्यकालमप्राप्नुवतः कारणत्वानुपपत्तेश्चिरतरातीतवत् ।”–अष्टश०, अष्टसह. 10 89 / (2) तुलना-'यथैवाक्षविषयेऽभिधानं नास्ति तथाऽक्षज्ञाने विषयोऽपि नैवास्ति ततस्तत्र प्रतिभासमानेऽपि न प्रतिभासेत ।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० 118 / (3) 70 पू० प्रतौ 'भजतीह' इत्येव पाठः / 'तज्जन्म' इति कर्बनुरोधात् भजतीति पाठ एव समुचितः / (4) प्रामाण्यं प्रति / (5) हेतुताम् / (6) तज्जन्मादयः प्रत्येकं प्रामाण्यं प्रति हेतुतां न भजन्ति / तुलना-"तदर्थवेदनं केन ? ताद्रूप्यात्, व्यभिचारि तत् / तदर्थसारूप्यं व्यभिचारि, द्विचन्द्रकेशोण्डुकज्ञानाद्याकारस्य अर्थमन्तरेणापि भावात् / यच्चार्थसारूप्यमनुभवनिबन्धनमुक्तं तदप्यसम्भवि इति दर्शयन्नाह-सरूपयन्ति तत्केन स्थलाभासञ्च तेऽणवः / / 321 // तन्नार्थरूपता तस्य सत्यार्थाव्यभिचारिणी / तत्संवेदनभावस्य न समर्था प्रसाधने // 322 // तस्मात्तुल्यज्ञानस्य नार्थरूपताऽस्ति / सत्यां वाऽर्थरूपतायां व्यभिचारिणी सा द्विचन्द्रज्ञानादिषु / ततश्च तत्संवेदनभावस्य अर्थसंवेदनत्वस्य प्रसाधनेषु साऽर्थ रूपता न समर्था / न केवलादर्थसारूप्यादर्थसंवेदनत्वं येन व्यभिचारः स्यात् / किं तर्हि ? सारूप्यतदुत्पत्तिभ्यां ते च द्विचन्द्रज्ञानादीनां न स्तः चन्द्रद्वयस्थाभावात् तदुत्पत्तेरयोगात् / एतदेवाह-तत्सारूप्यतदुत्पत्ती यदि संवेद्यलक्षणम् / संवेद्यं स्यात् समानार्थं विज्ञानं समनन्तरम् // 323 / / तेन ग्राह्येण सारूप्यं तस्मादुत्पत्तिः स्वसंवेद्यस्य लक्षणं यदि सम्मतम; तदापि समनन्तरं ज्ञानमुत्तरज्ञानेन समानार्थं समानग्राह्यं संवेद्यं स्यात् तत्सरूपतदुत्पत्त्योः संभवात्।" -प्रमाणवा०, मनोरथ० 2 / 320-23 / "किञ्च यदाकारं यतश्च संवेदनमुत्पद्यते यदि तदालम्बनं तर्हि धारावाहिकविज्ञानानां पूर्वपूर्वमालम्बनमुत्तरोत्तरस्य स्यात् उत्पादकत्वात् सरूपत्वाच्च "-बृहतीपं० पृ० 79 / "तत्पुनः तज्जन्मसारूप्यादिलक्षणं समानार्थनानकसन्तानेषु संभवात् व्यभिचरति तदध्यवसायहेतूत्वञ्च ।"-सिद्धिवि०, टी० पृ० 566 / 'न केवलं विषयबलाद् दृष्टरुत्पत्तिरपि तु चक्षुरादिशक्तेश्च। विषयाकारानुकरणाद्दर्शनस्य तत्र विषयः प्रतिभासते न पुनः करणम् तदाकारानुकरणादिति चेत्तर्हि तदर्थवत्करणमनुकर्तुमर्हति न चार्थं विशेषाभावात्, दर्शनस्य तज्जन्मरूपाविशेषेऽपि तदध्यवसार्यानयमाद् वहिरर्थविषयत्वमित्यसारम्; वर्णादाविव उपादानेऽप्यध्यवसायप्रसङ्गात् ।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० 118 / प्रमेयक० पृ० 108 / सन्मति० टी० पृ० 510 / प्रमेयर० 219 / “अपि च व्यस्ते ____1-कारिणो ई० वि०। 2-मर्तमूर्तप्र-ज० वि०। 3 'अर्थस्य' नास्ति आ०। 4 भजन्तीति श्र०। 5 भजन्तीति श्र० / 6 'एकमेकं वा नास्ति ब०, श्र० / Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 58] तज्जन्मादित्रयनिरास: 677 तज्जन्मनः करणग्रामेण व्यभिचारात्, तादूप्यस्य समानार्थसमनन्तरज्ञानेन, तद्व्यवसितेः द्विचन्द्राध्यवसायेन / नापि सह; शुक्ले शङ्ख पीतभ्रान्तिकारणेन पीतज्ञानेन अनेकान्तात् / एतत्त्रितयमसंभवदोषेण दूषयन् कारिकां व्याचष्टे 'नार्थः' इत्यादिना / सौगतस्य विवृतिव्याख्यानम्. नार्थः कारणं विज्ञानस्य / कुतः इत्याह–'कार्यकालम्' इत्यादि / कार्यस्य स्वज्ञानस्य कालमप्राप्य निवृत्तेः विनाशात् / अत्र दृष्टान्त- 5 माह-'अतीततमवत्' इति।प्रयोगः-अनन्तरातीतोऽर्थः न ज्ञानकारणम् , तत्काले सर्वथाऽविद्यमानत्वात् , यस्य तत्काले सर्वथाऽविद्यमानत्वं नासौ तत्कारणम् यथा अतीततमोऽर्थः, तत्काले सर्वथाऽविद्यमानश्च अनन्तरातीतोऽर्थः इति / एतेन भाविनोऽप्यर्थस्य तत्कारणत्वं प्रत्याख्यातम् / यथा च अर्थो न तज्ज्ञानकारणं तथा न तज्ज्ञानं तत्कार्यम् / कुत एतदित्याह-'तद्' इत्यादि / तस्य परपरिकल्पितस्य अर्थस्य अभावे एव भावात् 10 उत्पत्तेः तज्ज्ञानस्य तद्भावे च अभावाद् अनुत्पत्तेः, अन्यथा सन्तानोच्छेदः स्यात् / अत्र दृष्टान्तमाह-'भविष्यत्तमवत्' इति / निषिद्धा च अर्थकार्यता ज्ञानस्य प्रपञ्चतः प्राग् इत्यलं पुनः प्रसङ्गेन / ___ सारूप्यनिषेधार्थमाह-'नार्थः' इत्यादि / विज्ञानं न अर्थसारूप्यभृत / कुतः ? अमूर्त्तत्वात् / ननु अमूर्त्तश्च स्यात् तद्धृच्च, को विरोधः ? इति चेदत्राह-'मूर्ता एवं' 15 इत्यादि / मूर्ती एव हिर्यस्मात् दर्पणादयो मूर्तमुखादिप्रतिबिम्बधारिणो दृष्टाः / अमूर्तमपि किश्चित् दृष्टम् इति चेदत्राह-'नाऽमूर्त मूर्तप्रतिबिम्बभृद् दृष्टमिति / प्रयोगः-ज्ञानं नार्थप्रतिबिम्बभृत् , अमूर्त्तत्वात् , यत् पुनरर्थप्रतिबिम्बभृत् तन्नामूर्तम् यथा दर्पणादि, अमूर्तञ्च ज्ञानमिति / कुतोऽस्य अमूर्तत्वं सिद्धमिति चेत् ? मूर्तिधर्माभावात / तद्धर्मो हि रूपरसगन्धस्पर्शवत्त्वे सति अचेतनत्वम् , नच ज्ञाने तदस्ति / 20 निराकृतश्चास्य व्यासतः सारूप्यं तन्निराकारत्वसिद्धिप्रघट्टके' इति कृतं प्रयासेन / समस्ते वैते ग्रहणकारणं स्याताम् ? यदि व्यस्ते; तदा कपालाद्यक्षणो घटान्त्यक्षणस्य जलचन्द्रो वा नभश्चन्द्रस्य ग्राहकः प्राप्नोति तदुत्पत्तेस्तदाकारत्वाच्च। अथ समस्ते; तर्हि घटोत्तरक्षणः पूर्वघटक्षणस्य ग्राहकः प्रसजति / ज्ञानरूपत्वे सत्येते ग्रहणकारणमिति चेत् ; तर्हि समानजातीयज्ञानस्य समन्तरपूर्वज्ञानग्राहकत्वं प्रसज्येत ।"-प्रमाणमी० पृ० 20 / प्रमाणनय० 4 / 47 / रत्नाकरा० 4 / 47 / / (1) तज्जन्मादयः सह मिलित्वाऽपि प्रामाण्यं प्रति हेतुतां न भजन्ति / (2) तज्जन्मादित्रयम / (3) यदि कारणभूतस्य अर्यस्य काले एव कार्यभूतं ज्ञानं समुत्पद्येत तदा कार्यकारणयोः समकालत्वापत्त्या कारणभूतस्यार्थस्यापि स्वकारणकालता तस्यापि स्वकारणकालतेत्येवं सकलोत्तरक्षणानामाद्यक्षणवत्तिता द्वितीये च क्षणे नाश इति सकलसन्तानोच्छेदप्रसङ्गः इति भावः / तुलना-“सत्येव कारणे यदि कार्य त्रैलोक्यमेकक्षणवति स्यात्, कारणक्षणकाल एव सर्वस्य उत्तरोत्तरक्षणसन्तानस्य भावात् ततः सन्तानाभावात् ।”-अष्टश, अष्टसह० पृ० 187 / (4) मूर्तिधर्मो हि / (5) पृ० 167 / 1 एव तदुत्पत्तेः श्र० / 2 सज्ज्ञानोच्छे-ब० / 3 मूर्तधर्मा-ब०। 4-कारसिद्धि-आ०। . Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 678 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [.. प्रवचनपरि० तद्व्यवसितिं निराकुर्वन्नाह-'नहि' इत्यादि / हिर्यस्मात् न ज्ञाने अधिकरणभूते अर्थो घटादिः अस्ति, किन्तु बहिः सोऽस्ति, तदात्मको वा ज्ञानस्वभावो वा 'अर्थः' इति सम्बन्धः, सारूप्यनिषेधात्, अन्यत्र तत्प्रतिभासनात् इति मन्यते / येन तत्र सत्त्वेन तदात्मकत्वेन वा तस्मिन् विज्ञाने प्रतिभासमाने प्रतिभासेत, 'अर्थः' इति 5 घटना / क इव सँ तत्रै नास्ति तदात्मको वा न इति चेत्राह-शब्दवत् , शब्द इव तद्वदिति / ततः किं जातम् ? इत्याह-'तत्' इत्यादि / यतो ज्ञानस्वरूपे प्रतिभासमानेऽपि तदाधेय-तदात्मकतया शब्दार्थयोः प्रतिभासो नास्ति ततः तस्यार्थस्य अध्यवसायों न स्यात् / अध्यवसायो हि अभिलापवती प्रतीति :, न चासौ तयोरननुभवे घटते अतिप्रसङ्गात् / विस्तरतश्च अविकल्पकात् तदध्यवसायप्रतिषेधः सविकल्पक10 सिद्धौ” प्ररूपित इत्युपरम्यते / अतः सिद्धं फलं 'कथम्' इत्यादिना दर्शयन्नाह-एतत् परेणोक्तमविद्यमानं त्रितयं तदुत्पत्तिसारूप्याध्यवसायलक्षणं ज्ञानप्रामाण्यं प्रतिकथमुपकारकम् ? न कथञ्चित् / केन रूपेण उपकारकं नैतत् स्यात् ? इत्याहलक्षणत्वेन / असंभविलक्षणमेतत् इत्यभिप्रायः। ननु ज्ञानस्य तदुत्पत्तित्रितयासंभवे कथमर्थग्राहकत्वमतिप्रसङ्गादित्यारेकायामाह स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिच्छेद्यः स्वतो यथा। तथा ज्ञानं खहेतूत्थं परिच्छेदात्मकं स्वतः // 19 // विवृतिः-अर्थज्ञानयोः स्वकारणादात्मलाभमासादयतोरेव परिच्छेद्यपरिच्छेदकभावः नाऽलब्धात्मनोः कर्तृकर्मस्वभाववत् / ततः तदुत्पत्तिमन्तरेणापि ग्राह्यग्राहकभावसिद्धिः स्वभावतः स्यात् , अन्यथा व्यवस्थाभावप्रसङ्गात् / स्वेन आत्मीयेन हेतुना जनितोऽप्यर्थः घटाद्यर्थः परिच्छेद्यः स्वतः - स्वरूपेण तत्स्वभावतयैवाय स्वहेतोरुत्पत्तेः / नहि ज्ञानेन अर्थस्तकारिकार्थः स्वभावो जन्यते; अन्योन्याश्रयानुषङ्गात्-सिद्धे हि ज्ञाने तथाविधार्थ(१) बहिर्देशे भूतलादौ अर्थस्य प्रतिभासनात् / (2) ज्ञाने / (3) ज्ञानात्मकत्वेन वा हेतुना। (4) अर्थः / (5) ज्ञाने। (6) ज्ञानात्मकः। (7) विकल्पः / (8) तुलना-पृ० 46 टि० 2 / (9) शाब्दी प्रतीतिः / (10) शब्दार्थयोः / (11) पृ०४८। (12) “यथा स्यात् / कः ? घटादिः / किं विशिष्ट: स्यात् ? परिच्छेद्यो ज्ञेयः / कथम् ? स्वतः स्वभावादेव न ज्ञानादुत्पत्त्यादेः / किम्भूतोऽपि स्वहेतुजनितोऽपि स्वस्य हेतुर्मंदादिसामग्री तेन जनितोऽपि निष्पादितोऽपि / तथा ज्ञानं परिच्छेदात्मकमर्थग्रहणात्मकं स्यात् / कुतः ? स्वभावादेव नार्थादुत्पत्त्यादेः / किंविशिष्टमपि ? स्वहेतूत्थमपि, स्वस्य हेतुरन्तरङ्गः आवरणक्षयोपशमलक्षणः बहिरङ्गः पुनरिन्द्रियानिन्द्रियरूपः तस्मादुत्था उत्पत्तिर्यस्य तत्तथोक्तं तादृशमपीत्यर्थः ।"-लघी० ता० पृ० 80 / उद्धृतेयं कारिका निम्नग्रन्थेषु--सिद्धि० टी०प०१० B. / न्यायवि०वि० पृ० 33 A. / (13) परिच्छेद्यस्वभावेन / (14) अर्थस्य / 1-दिनादर्शयतो ज्ञान-थ०। 2-यो हि न आ० / 3 योपि अभिलाषवतीतिः न आ०। 4-लापप्रतीतिः ब०। 5 अत्रसि-श्र०। 6 असंभवति लक्ष-श्र०। 7-हेतुत्वं ज०वि०। 8-धात्माकर्तई० वि० / जनितोपि घटा-ब० / 10 अर्थस्वभावो आ०, अर्थः स्वतः स्वभावो ब० / Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 676 नम् प्रवचनप्र० का 0 60] प्रमाणस्य व्यवसायात्मकत्वम् सिद्धिः, तत्सिद्धौ च ज्ञानसिद्धिरिति / यथा येन योग्यताप्रकारेण तथा ज्ञानं स्वहेतुत्थं करणमनोलक्षणस्वकारणप्रभवं परिच्छेदात्मकम् अर्थग्रहणस्वभावं स्वतो न अर्थोत्पत्त्यादेः / . कारिकां व्याख्यातुमाह-'अर्थज्ञानयोः' इत्यादि / स्वकारणात् न परस्परतः _ आत्मलाभमासादयतोरेव यथासङ्ख्येन परिच्छेद्यपरिच्छेदकभावः, 5 न अलब्धात्मनोः सर्वथा नित्ययोः क्षणिकयोर्वा / अत्र दृष्टान्तमाह'कर्तकर्मस्वभाववत्' इति / यथा स्वकारणाद् आत्मलाभमासादयतोरेव अनयोः कर्तृकमस्वभावः नैकान्तेन सतोः नाप्यसतोः, तथा प्रकृतोऽपि इति। उपसंहारार्थमाह'ततः' इत्यादि / यतः स्वकारणादुत्पन्नयोः तयोः तथाभावः सिद्धः ततः तस्मात् अर्थाद् उत्पत्तिमन्तरेणापि अर्थज्ञानयोः ग्राह्यग्राहकभावसिद्धिः स्यात् / कुतः ? स्वभावतः 10 स्वयोग्यतायाः / अन्यथा अन्येन प्रकारेण व्यवस्थाभावप्रसङ्गात् / . ननु सिद्धेऽपि स्वरूपतस्तैद्भावे तत्फलं वक्तव्यम्, तच्च 'अधिगतिमात्रम्' ईत्येके, 'स्वरूपस्यैव अधिगतिः' इत्यन्ये, 'अर्थस्यैव' इत्यपरे इत्याशङ्क्याह व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम् / ग्रहणं निर्णयस्तेन मुख्यं प्रामाण्यमश्नुते // 60 // 15 विवृतिः-अनिर्णीतिफलस्य नाधिगमोऽस्ति विचार्यमाणायोगात् / अविसंवादकत्वञ्च निर्णयायत्तं तदभावेऽभावात्तद्भावे च भावात् / व्यवसायफलं ज्ञानं मुख्यं प्रमाणमिति व्यवस्थितम् / स्वतोऽव्यवसायस्य विकल्पोत्पादनं प्रत्यनङ्गस्वात् / तदुत्पत्तिं प्रत्यङ्गत्वे आमिलापसंसर्गयोग्यता न. प्रतिषेध्या, अन्यथा (1) ज्ञानार्थयोः / 'ज्ञानं घटं जानाति' इत्यत्र ज्ञानस्य कर्तृता घटस्य च कर्मत्वमिति / (2) ग्राह्यग्राहकभावोऽपि / (3) ज्ञानार्थयोः / (4) कर्तृकर्मभावः / (5) ग्राह्यग्राहकभावे / (6) बौद्धाचार्याः / “उभयत्र तदेव ज्ञानं फलमधिगममरूपत्वात् ।"-न्यायप्र० पृ०७। "तदेव च प्रत्यक्षं ज्ञानं प्रमाणफलमर्थप्रतीतिरूपत्वात् ।"-न्यायबि० पृ० 25 / तत्त्वसं० का० 1343 / (7) "स्वसंवित्तिः फलञ्चास्य ।"-प्रमाणस०१।१०। "फलं स्ववित् ।"-प्रमाणवा० 31366 / (8) नैयायिकादयः / "प्रमितिर्द्रव्यादिविषयं ज्ञानम् ।"-प्रश०भा० 10 187 / (9) "मतमिष्टं ज्ञातञ्च / किम् ? ज्ञानम् / किं स्वरूपम् व्यवसायात्मकं विशेषस्य जात्याद्याकारस्य अवसायो निश्चियः स एवात्मा स्वरूपं यस्य तत्तथोक्तम् / अनेन प्रत्यक्षं कल्पनापोढमित्येतन्निरस्तम् / पुनः किंविशिष्टम् ? आत्मार्थग्राहकम्, आत्मस्वरूपमर्थो बाह्यो घटादिस्तौ गृह्णाति निर्णयतीत्यात्मार्थग्राहकम् अनेन ज्ञानमर्थग्राहकमेव न स्वरूपग्राहकम् स्वग्राहकमेव नार्थग्राहकमित्येकान्तद्वयं निराकृतम् / तेन कारणेन अश्नुते भजति किम् ? ग्रहणं ज्ञानं कर्तृ / कि रूपम ? निर्णयः स्वार्थव्यवसायस्तद्रपमित्यर्थः / किं कर्मतापन्नम् ? प्रामाण्यम् प्रमाणभावम् / किविशिष्टम् ? मुख्यमनुमचरितम् ज्ञानकारणत्वादुपचारेणैव इन्द्रियलिङ्गादेः प्रमाणत्वात् ।"-लघी०ता०पृ०८१॥ 1 स्वरूपं हेतुत्थं श्र०। 2 'इति' नास्ति श्र० / मुख्यप्रामा-ज० वि० / 4-फलस्याधिगई० वि०। 5 स्वतोप्यवसा-ई०वि० / Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारिकार्थः 680 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [. प्रवचनपरि० विकल्पोत्पत्यभावप्रसङ्गात् / सति मुख्य निर्णयात्मके ज्ञाने सकलव्यवहारनियामके कथमसंवेद्यमकिञ्चित्करमनुपायमनुपेयं ब्रुवाणः स्वस्थः ? व्यवसायः स्वार्थनिश्चय आत्मा स्वभावो यस्य तत् तदात्मकम् व्यवसा यफलात्मकमित्यर्थः। अनेन 'निर्विकल्पकं विभिन्नाऽधिगतिमात्रफै लप्रसाधकं प्रमाणम्' इति प्रत्याख्यातम् / तथाविधफलात्मकञ्च प्रमाण किम् ? इत्याह-ज्ञानम् / अनेनापि 'चक्षुरादिकमज्ञानं प्रमाणम्' इति प्रतिव्यूढम् ; तस्य तदात्मकत्वविरोधात् / प्रसाधितश्च प्रपञ्चत: प्रमाणात् स्वपरव्यवसायात्मकं फलं कथश्चिदभिन्नम् 'पूर्वपूर्वप्रमाणत्वं फलं स्यादुत्तरोत्तरम्' [लघी० का० 7] इत्यत्र / पुनरपि कथम्भूतं तत् ? इत्याह-आत्मार्थग्राहकम् , स्वपररूपवेदकम् / 10 मतम् स्वसंवेदनाध्यक्षेण ज्ञातम् / समर्थितश्च व्यासतो ज्ञानस्य आत्मग्राहकत्वं स्वसंवे दनसिद्धौ, अर्थग्राहकत्वञ्च बाह्यार्थसिद्धौ” इत्यलमतिविस्तरेण / ततः किं सिद्धम् ? इत्याह-'ग्रहणम्' इत्यादि / येन कारणेन व्यवसायात्मकं ज्ञानम् आत्मा-. र्थग्राहकं तेन कारणेन ग्रहणं स्वार्थाधिगतिः निर्णयो मुख्यमनुपचरितं प्रामा ण्यमश्नुते, न निर्विकल्पकं चक्षुरादि वा / 15 कारिकां व्यतिरेकमुखेन व्याख्यातुमाह-'अनिर्णीतिफलस्य' इत्यादि / अनि __णीतिफलस्य निश्चयफलरहितस्य अविकल्पकस्य इत्यर्थः / नाधिविवृतिव्याख्यानम् - गमोऽस्ति नानुभवोस्ति, कुत एतदित्याह-विचार्यमाणायोगात् , यस्य विचार्यमाणस्यायोगो न तस्यानुभवो यथा अद्वैतशून्यादितत्त्वस्य, विचार्यमाण स्यायोगश्च निर्विकल्पकदर्शनस्य इति / यथा चास्य विचार्यमाणस्याऽयोगः तथा सवि20 कल्पकसिद्धौ प्रपञ्चतः प्रतिपादितम् / अथ अविकल्पकस्य अविसंवादकत्वात् प्रामाण्यं प्रार्थ्यते, अत्राह-'अविसंवाद' इत्यादि / अविसंवादकत्वं गृहीतार्थतथाभावः तदायत्तं निर्णयायत्तम् / कुत एतदित्याह-'तद्' इत्यादि / तस्य निर्णयस्य अभावे क्षणायादिदर्शने मरीचिकादिदर्शने वा संशयकारिणि अभावाद अविसंवादकत्वस्य, तद्भावे च निर्णयसद्भावे च भावाद् अविसंवादकत्वस्य इति / व्यवसायफलं ज्ञानं मुख्य 25 प्रमाणम् इति एवं व्यवस्थितमित्युपसंहारः / माभूनिर्विकल्पकं स्वयमव्यवसायात्मकत्वात् तत्फलं तज्जनकत्वात्तु स्यात् इति (1) चक्षुरादेः / (2) व्यवसायफलात्मकत्व / (3) पृ० 209 / (4) पृ० 176- / (5) पृ० 119- / (6) पृ० 47 / (7) प्रमाणफलम् / (8) व्यवसायात्मकविकल्पोत्पादकत्वात् / पूर्वपक्ष:"तस्मादध्यवसायं कुर्वदेव प्रत्यक्ष प्रमाणं भवति, अकृते त्वध्यवसाये नीलबोधरूपत्वेनाव्यवस्थापितं भवति विज्ञानम् ।"-न्यायबि० टी० पृ० 27 / तत्त्वसं० का० 1306 / तुलना-"अदोषोऽयं प्रत्यक्षस्याध्यवसायहेतृत्वादित्यनिरूपिताभिधानं सौगतस्य; तत्राभिलापाभावात् ।"-अष्टश० अष्टसह० पृ० 118 // ___ 1-निर्णय ब० / 2-फलसाध-ब०, श्र०। -कत्वावि-ब०। 4-णेन यद्ग्रहणं ब० / 5-क्षयादिदर्शने वा संशय-ब०। 6'निर्णयसदभावे च' नास्ति ब० / Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६०] प्रमाणस्य व्यवसायात्मकत्वम् 681 चेदत्राह-'स्वतः' इत्यादि / स्वतोऽव्यवसायस्य स्वयं निर्विकल्पकस्य विकल्पोत्पादनं प्रत्यनङ्गत्वात् / एतच्च सविकल्पकसिद्धौ सप्रपञ्चं प्रपञ्चितमिति नेहोच्यते / तदङ्गत्वे वा दूषणमाह-'तत्' इत्यादि / तस्य विकल्पस्य उत्पत्तिं प्रत्यङ्गत्वे स्वतोऽव्यवसायस्य अभिलापससंगयोग्यता न प्रतिषेध्या। अभिलप्यतेऽनेन अभिलप्यत इति वा अभिलापः शब्दजात्यादी तयोः संसर्गो वाच्यवाचकभावलक्षणः सम्बन्धः / तस्मै योग्यः तस्य भावस्तत्ता न प्रतिषेध्या। यथैवं हि विकल्पस्य अर्थाकारलेशदर्शनाद् देर्शनस्य ताकारताऽनुमीयते तथा तस्य॑ अभिलापसंसर्गयोग्यतादर्शनात् दर्शनस्यापि सोऽनुमीयतामविशेषात् / दर्शनेऽसंभविनी तस्य तद्योग्यता भवति नार्थाकोर इति किंकृतोऽयं विभौग: ? तन्निषेधे 'अन्यथा' इत्यादिना दूषणमाह / अन्यथा तद्योग्यतानिषेधप्रकारेण विकल्पोत्पत्त्यभावप्रसङ्गात, सा 'न निषेध्या' इति सम्बन्धः। 10 ननु विकल्पवासनात एव विकल्पोत्पत्तिः, दर्शनं तु केवलं तत्प्रबोधकम् ततोऽयमदोषः; इत्यत्राह-'सति' इत्यादि / सति विद्यमाने मुख्ये स्वपरव्यवस्थायाम् अन्यनिरपेक्षे निर्णयात्मके ज्ञाने / पुनरपि कथम्भूते इत्याह-'सकल' इत्यादि / अर्थानुभवसंस्कारतत्प्रबोधस्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानप्रवृत्तिलक्षणः सकलो व्यवहारः तनियामके ब्रुवाणः सौगतः कथं स्वस्थः ? किं ब्रुवाण इत्याह-ज्ञानम् / कथम्भूतम् ? अकि- 15 ञ्चित्करं निर्विकल्पकं असंवेद्य 'न संवेद्यते' इत्यसंवेद्यम् , न विद्यते वा संवेद्यं ग्राह्यं यस्य, अत एव अनुपायमनुपेयमिति / (1). पृ० 47 / (2) बौद्धा हि प्रत्यक्ष निर्विकल्पकात्मकमुररीकुर्वन्ति अतस्तैः शब्दसंसर्गयोग्यता प्रत्यक्षस्य निषिध्यते / तथा चोक्तम-"अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासप्रतीतिः कल्पना, तया रहितम् ।"न्यायबि० पृ० 13 / (3) नीलमिदमित्याकारकविकल्पस्य / (4) नीलाकारतादर्शनात् / (5) निर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य / (6 नीलाकारता। (7) निर्विकल्पकं नीलाकारं तत उत्पन्ने विकल्पे नीलाकारत्वाऽन्यथानुपपत्तेः / (8) विकल्पस्य / (9) अभिलापसंसर्गयोग्यता / निर्विकल्पके अभिलापसंसर्गयोग्यताऽस्ति तत उत्पन्ने विकल्पे अभिलापसंसर्गयोग्यताऽन्यथानुपपत्तेः / (10) विकल्पस्य / (11) अभिलापसंसयोग्यता। (12) यदि दर्शनेऽसंभविनी अभिलापसंसर्गयोग्यता विकल्पे घटेत तर्हि दर्शनेऽसंभवन्नपि नीलाकार: विकल्पे स्यात् तथा च नीलविकल्पस्य साक्षानीलस्वलक्षणविषयताप्राप्तेः 'विकल्पोऽवस्तुनिर्भासः' इति सिद्धान्तविरोधः इति भावः / (13) तुलना-"यथैव हि वर्णादावभिलापाभावः तथा प्रत्यक्षेऽपि तस्य अभिलापकल्पनातोऽपोढत्वात् अनभिलापात्मकार्थसामर्थ्यनोत्पत्तेः / प्रत्यक्षस्य तदभावेऽप्यध्यवसायकल्पनायां प्रत्यक्षं किन्नाध्यवस्येत् स्वलक्षणं स्वयमभिलापशून्यमपि / प्रत्यक्षमध्यवसायस्य हेतुर्न पुना रूपादिरिति कथं सुनिरूपिताभिधानम् ? यदि पुनरविकल्पकादपि प्रत्यक्षाद्विकल्पात्मनोऽध्यवसायस्योत्पत्ति: प्रदीपादेः कज्जलादिवत विजातीयादपि कारणात् कार्यस्योत्पत्तिदर्शनादिति मतम् ; तदा तादृशोऽर्याद्विकल्पात्मनः प्रत्यक्षस्योत्पत्तिरस्तु तत एव तद्वदिति / जातिद्रव्यगुणक्रियापरिभाषाकल्पनारहितादर्थात् कथं जात्यादिकल्पनात्मकं प्रत्यक्षं स्यादिति चेत्, प्रत्यक्षात्तद्रहिताद्विकल्पः कथं जात्यादिकल्पनात्मकः स्यादिति सम: पर्यनुयोगः ।"-अष्टश०, अष्टसह० 10 118 // (14) विकल्पवासना। 1 तच्च श्र। 2-त्यादि तयोः श्र० / 3-4 विक-श्र०। 4-नादर्शनस्य श्र०। 5 तथा सत्यभि-श्र०। 6 विकलोत्प-श्र०। 7 अनुमेयमिति ब०। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 682 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्दे [6. प्रवचनपरि० एवं सामान्येन व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाण व्यवस्थाप्य, अधुना तद्भेदं दर्शयन्नाह तत्प्रत्यक्षं परोक्षश्च द्विधैवात्रान्यसंविदाम् / अन्तर्भावान्न युज्यन्ते नियमाः परकल्पिताः॥३१॥ विवृतिः-इन्द्रियार्थज्ञानं स्पष्टं हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ प्रादेशिकं प्रत्यक्षम् 5 अवग्रहेहावायधारणात्मकम् / अनिन्द्रियप्रत्यक्षं स्मृतिसंज्ञाचिन्ताभिनिबोधात्मकम् / अतीन्द्रियप्रत्यक्षं व्यवसायात्मकं स्फुटतरमवितथमतीन्द्रियमव्यवधानं लोकोत्तरमात्मार्थविषयम् / तेदस्ति सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्वात् सुखादिवत् / श्रुतं परोक्षं सकलप्रमाणप्रमेयेयत्तास्वरूपाभिधायि बाधारहितं प्रमाणम् / अत्र अर्थाप त्यनुमानोपमानादीन्यन्तर्भवन्ति / परपरिकल्पितप्रमाणान्तर्भावनिराकरणमन्यत्रो10 क्तमिति नेहोच्यते / यद्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं प्रतिपादितं तत् द्विधैव, नैकविधं नापि च्यादि विधम् इत्येवकारार्थः / कथं तद्विधैव ? इत्याह-प्रत्यक्षं परोक्षश्च / कारिकार्थः इतिशब्दोऽत्र द्रष्टव्यः, इति एवम् , न प्रत्यक्षानुमानप्रकारेण / ननु अनुमानोपमानादेः ततोऽर्थान्तरत्वात् कथं 'द्विधैव' इति नियमः स्यात् ? इत्याह15 'अत्र' इत्यादि / अत्र प्रत्यक्षपरोक्षयोः अन्यासां समीचीनसंविदाम् अन्त र्भावात द्विधैव इति / अन्तर्भावश्च परोक्षपरिच्छेदे चिन्तितः / अतश्च न युज्यन्ते नियमाः परैः सौगतादिभिः कल्पिताः / कारिकां विवृण्वन्नाह–'इन्द्रिय' इत्यादि / इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां कार्यभूतम् विवृतिव्याख्यानम्- अर्थस्य घटादेः ग्राहकं न मरीचिकातोयादेः, ज्ञानं प्रत्यक्षम् / (1) यत्सम्यग्ज्ञानात्मकं प्रमाणं तत् द्विधैव द्विप्रकारमेव / तावेव प्रकारावह-प्रत्यक्ष परोक्ष चेति / नन्वनुमानादिप्रमाणभेदसंख्यापि संभाव्यत इत्याह-अत्रेत्यादि / न युज्यन्ते न संभवन्ति / के ? नियमाः द्वित्र्यादिसंख्याप्रतिज्ञाः / किंविशिष्टाः ? परपरिकल्पिता: परैः सौगतादिभिः कल्पिता रचिताः / कुतो न युज्यन्ते ? अन्तर्भावात् संग्रहात् / कासाम् ? अन्यसंविदाम् अनुमानादिज्ञानानाम् / क्व ? अत्रैव प्रत्यक्षपरोक्षसंग्रह एव"-लघी० ता०पू०८१ / (2) तुलना-'ज्ञाननिबन्धना तु सिद्धिरनुष्ठानम्, हेयस्य हानमनुष्ठानमुपादेयस्य चोपादानम् / ततो हेयोपादेययोः हानोपादानलक्षणा नु सिद्धिरित्युच्येत ।"-न्यायबि० टी० पृ०८ “हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ।"परीक्षामु० 112 / प्रमाणनय० // 3 / (3) सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षम् / तुलना-लघी० टि० पृ० 132 पं० 10 / (4) "लक्षणं समतावान् विशेषोऽशेषगोचरम् / अक्रमं करणातीतमकलक् महीयसाम् // " -न्यायवि० का० 168 / प्रमाणसं० का०९। तुलना-न्यायवि० टि० पृ० 162 पं० 25 / न्यायकुमु० पृ०२५ टि० 2 / (5) तुलना-"अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणत्वात् सुखादिवत् ।"सिद्धिवि०, टी० पृ०४२१ B. / अष्टश०, अष्टसह० पृ० 44 / आप्तप० पृ० 56 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 185 / प्रमाणनि० पृ० 29 / प्रमाणमी० पृ० 14 / षड्द० बृह० पृ० 53 / 1-स्नु यु-ज० वि० / 2 द्विविधैव ब०। 8-चीनविदाम् ब० / 4 ज्ञानं कर्तृ प्रत्यक्षम् ब० / Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६१] प्रमाणस्य भेदाः किंविशिष्टम् ? स्पष्टम विशदम् / निर्विकल्पकं परोक्षं ज्ञानान्तरप्रत्यक्षं वा तों स्यात् इत्यत्राह-'हित' इत्यादि / हितं सुखं तत्साधनञ्च अहितं दुखं तत्कारणञ्च तयोः प्राप्तिपरिहारौ तत्र समर्थ योग्यम् / नच निर्विकल्पकादेः तत्रं सामर्थ्यम् अर्थमात्रग्रहणेऽप्यस्यं सामर्थ्यासंभवात् इत्युक्तम् सविकल्पकादिसिद्धिप्रघट्टके / ननु सविकल्पकप्रत्यक्षेण सर्वात्मना अर्थस्य गृहीतत्वात् तत्र प्रमाणान्तराप्रवृत्तिः स्यात् इत्य- 6 त्राह-प्रादेशिकम् / सर्वमस्मदादिप्रत्यक्षं प्रदेश एव नियतम् / द्विचन्द्रादिदर्शनेऽपि तैमिरिकज्ञानेन एकत्वाद्यदर्शनवत्, नीलादिदर्शनेऽपि क्षणपरिणामादर्शनवद्वा / साम्प्रतमिन्द्रियज्ञानस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षं दर्शयन्नाह-'इन्द्रिय' इत्यादि / इन्द्रियाणां कार्यम् आत्मनः संविदां स्वरूपस्य ज्ञानं स्पष्टं हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ प्रादेशिकं प्रत्यक्षम् इति / तदुभयमपि किं भेदम् ? इत्याह-अवग्रहहावायधारणात्मकम् / व्याख्याता 10 अवग्रहादयः प्रत्यक्षपरिच्छेदे , ते आत्मा यस्य तत् तदात्मकम् / इदानीम् 'अनिन्द्रिय' इत्यादिनाऽनिन्द्रियप्रत्यक्षं दर्शयति-अनिन्द्रियस्य मनसः कार्य ज्ञानम् अनिन्द्रियप्रत्यक्षम् / ननु च इन्द्रियज्ञानमपि अनिन्द्रियस्य भवत्येव कार्य तत्कथमयं प्रविभागः इति चेत् ? प्रधानेतरभावात् / इन्द्रियज्ञाने हि इन्द्रियाणां प्रधानभावः, अत्र तु अनिन्द्रियस्य इति युक्तः प्रविभागः / किं रूपं तद् ? इत्याह- 15 स्मृतिसंज्ञाचिन्ताभिनिबोधात्मकम् / ननु स्मृत्यादीनां परोक्षतया पूर्व प्रतिपादितत्वात् कथमत्र प्रत्यक्षतया प्रतिपादनं युक्तं पूर्वापरविरोधप्रसङ्गात् ; इत्यप्यचर्चिताभिधानम् ; यत्रांशे तेषां स्पष्टत्वं तत्रैव प्रत्यक्षत्वप्रतिपादनात् / स्वरूपे एव हि "तेषां स्पष्टत्वम् अतस्तत्रैव प्रत्यक्षत्वम् 'आत्मज्ञानम्' इत्यभिसम्बन्धात् / बहिरर्थे त्वस्य अस्पष्टत्वात् परोक्षता इति न कश्चिद्दोषः / अत्रापि 'हित' इत्यादि, 'प्रादेशिकम्' इति च 20 सम्बध्यते / स्मृत्यादिग्रहणमुपलक्षणं तेन 'सुखाद्यात्मकम्' इत्यपि गृह्यते / _ अधुना अतीन्द्रियप्रत्यक्षप्ररूपणार्थम् 'अतीन्द्रिय' इत्याद्याह / इन्द्रियेभ्योऽतिक्रान्तम् अतीन्द्रियं प्रत्यक्षम् , कथम्भूतम् ? व्यवसायात्मकम् , अनेन सांख्यसौत्रान्तिककल्पितं निर्विकल्पकं तन्निरस्तम् / स्फुटतरम्, अस्मदादिप्रत्यक्षात् समस्ते खगोचरे अतिशयेन विशदम् / अवितथम, अभ्रान्तम् / अनेन "भिक्षवोऽहमपि मायो- 25 (1) सौगताभिमतम् / (2) मीमांसाकाद्यभिमतम् / (3) नैयायिकाभिमतम् / (4) प्रत्यक्षम्, अर्थग्राहकं वा / (5) हितप्राप्तौ अहितपरिहारे वा / (6) निर्विकल्पादेः / (7) पृ० 47 / (8) अर्थे / (9) 10 116 / (10) तुलना-इन्द्रियप्राधान्यादनिन्द्रियबलाधानादुपजातमिन्द्रियप्रत्यक्षम अनिन्द्रियादेव विशद्धिसव्यपेक्षादुपजायमानमनिन्द्रियप्रत्यक्षम्।"-प्रमेयर० 2 / 4 / प्रमाणमी० पृ० 16 / (11) अनिन्द्रियप्रत्यक्षे। (12) अनिन्द्रियस्यैव इत्यवधारणं द्रष्टव्यम् / (13) 10 403 / (14) स्मृत्यादीनाम् / (15) स्वरूप एव / (16) स्मृत्यादेः / 1-स्वात्तत्प्रमा-श्र०। 2 ज्ञानं स्व-आ०। 3 अवग्रहहादयः ब० / 4 इदानीमनिन्द्रियप्रत्यक्ष वर्श-ब०। प्रतिभागः थः। 6 प्राधान्येतर-श्र। 7-प्रत्यक्षप्रति-आ०। 8 परोशत्वमिति श्र० / Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 684 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० पमः स्वप्नोपमः” [ ] इति प्रत्याख्यातम् / तस्य इन्द्रियातिक्रान्तत्वं समर्थ- ' यमानः 'अतीन्द्रयम्' इत्याद्याह / अतीन्द्रियम् इन्द्रियव्यापाराजन्यम्, कुतः ? अव्यवधानम् देशादिव्यवधानरहितं यतः, यत् स्वगोचरे देशादिव्यवधानरहितं न तद् इन्द्रियव्यापारजन्यम् यथा सत्यस्वप्नज्ञानम् , स्वगोचरे देशादिव्यवधानरहितञ्च अतीन्द्रियप्रत्यक्षमिति। तथा च ""ईश्वरज्ञानम् इन्द्रियार्थसन्निकर्षजं प्रत्यक्षत्वे सति ज्ञानत्वात् इतरज्ञानवत्" [ ] इति निरस्तम् / तज्ञानस्य इन्द्रियप्रभवत्वे प्रत्यक्षपरिच्छेदे असर्वविषयत्वप्रतिपादनात् / लोकोत्तरं सकललोकोत्कृष्टमात्मार्थविषयम् , 'आत्मविषयम्' इत्यनेन अस्वसंविदितमीश्वराध्यक्षं निराकृतम् / तस्य आत्माऽगोचरत्वे अर्थगोचरत्वानुपपत्तिप्रतिपादनात् / 'अर्थविषयम्' इत्यनेन तु “नान्योऽनुभाव्यो (1) तुलना-"मायास्वप्नोपमं जगत्" "मायास्वप्नोपमं लोकम्-"लङ्कावतार०५०३२९,३३४। "मायास्वप्नोपमं सर्वं संस्कारं सर्वदेहिनाम् ।"-नैरात्म्य० पृ० 21 / “न हि तथागताः कदाचिदप्यात्मनः स्कन्धानां वाऽस्तित्वं प्रज्ञपयन्ति / यथोक्तं भगवत्याम्-बुद्धोप्यायुष्मान् सुभूते मायोपमः स्वप्नोपमः, बुद्ध-. धर्मा अप्यायुष्मन् सुभूते मायोपमाः स्वप्नोपमा इति / तथा-धर्मस्वभाव तु शून्यविविक्तो बोधिस्वभाव तु शून्यविविक्तो। यो हि चरेत्स पि शून्यस्वभावो ज्ञानवतो न तु बालजनस्य इति। "यथोक्तं भगवताशन्याः सर्वधर्मा निःस्वभावयोगेन। निनिमित्ताः सर्वधर्मा निनिमित्ततामुपादाय * 'यथोक्तं सूत्रे-मायोपमं जगदिदं भवता नटरङ्गस्वप्नसदृशं विहितं / नात्मा न सत्त्व न च जीवगतो धर्मा मरीचिदकचन्द्रसमाः।" -माध्यमिकवृ० पृ० 442-45 / "तस्मान्मायास्वप्नादिस्वभावाः सर्वधर्मा इति निश्चितमेतत् / स्यादेतत्-यदि सर्वव्यापिनी मायोपमस्वभावता बुद्धोऽपि तर्हि मायोपमः स्वप्नोपमः स्यात् / उक्तञ्चैतत् भगवत्याम्-एवमुक्ते सुभूतिस्तान् देवपुत्रानेतदवोचत्-मायोपमास्ते देवपुत्राः सत्त्वाः स्वप्नोपमास्ते देवपुत्राः सत्त्वा इति हि माया च सत्त्वाश्चाद्वयमेतदद्वैधीकारम् / सर्वधर्मा अपि,देवपुत्रा: मायोपमाः स्वप्नोपमाः / स्रोत आपन्नोऽपि मायोपमः स्वप्नोपमः स्रोत आपत्तिफलमपि मायोपमं स्वप्नोपमम् / एवं सकृदागाम्यपि, सकृदागामिफलमपि / अनागाम्यपि अनागामिफलमपि / अर्हन्नपि अर्हत्त्वमपि मायोपमं स्वप्नोपमय, सम्यक्संबुद्धोऽपि मायोपमः स्वप्नोपमः / सम्यक्संबुद्धत्वमपि मायोपमं स्वप्नोपमं यावनिर्वाणमपि मायोपमं स्वप्नोपमम्, स चेनिर्वाणदपि कश्चिद्धर्मो विशिष्टतरः स्यात्तमप्यहं मायोपमं स्वप्नोपमं वदामि ।"-बोधिचर्या० 10 379 / “आर्यललितविस्तरेप्युक्तम् (पृ० 209-11) संस्कार प्रदीप अचिवत् क्षिप्रमुत्पत्तिनिरोधधर्मका: / अनवस्थितमारुतोपमाः फेनपिण्डेव असारदुर्बलाः / संस्कार निरीहशून्यकाः, कदलीस्कन्धसमा निरीक्षते / मायोपमचित्तमोहना बाल उल्लापनरिक्तमुष्टिवत् // " -बोधिचर्या० पृ० 532 / “मायास्वप्नमरीचिबिम्बसदृशाः प्रोद्भासश्रुत्कोपमाः / विज्ञेयोदकचन्द्रबिम्बसदृशा निर्माणतुल्याः पुनः ।.."-महायानसू० पृ०६२ / उद्धृतमिदम्-सन्मति० टी० पृ० 371, 377 / शास्त्रवा० यशो० 10215 A. / (2) तुलना-"स्वयंप्रभुरलङघनार्हः स्वार्थालोकपरिस्फुटमवभासते सत्यस्वप्नवत् ।"-प्रमाणसं० पृ० 99 / प्रमाणसं० टि० पृ० 172 पं० 23 / (3) ईश्वरज्ञानस्य / (4) पृ० 108 / (5) “नान्योनुभाव्यस्तेनास्ति तस्य नानुभवोऽपरः / तस्यापि तुल्यचोद्यत्वात् स्वयं सैव प्रकाशते // यथा च स्वरूपादन्यो बुद्धया अनुभाव्यो नास्ति तथा तस्य ज्ञानस्य चाऽपरोऽनुभवो नास्ति। तस्य ज्ञानग्रहणस्यापि तुल्यार्थचोद्यत्वात्, स ह्यन्यत्वनिबन्धनो ग्राह्यग्राहकभावः, तच्चानुपपनमित्युक्तम् / तस्मात्तज्ज्ञानमपरोक्षतया उत्पन्नं स्वयं प्रकाशते नान्येन प्रकाश्यते।"-प्रमाणवा० इत्याह ब० / 1 इन्द्रियज्ञानं ब०। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनंप्र० का० 61] प्रमाणस्य भेदाः बुद्धयास्ति" [प्रमाणवा० 2 / 327] इत्येतन्निरस्तम् / तदविषयत्वे बुद्धेः बुद्धिरूपत्वस्यैवानुपपत्तेः स्वपरव्यवसायस्वभावत्वात्तस्याः। प्रसाधितश्च बाह्योऽर्थः प्रपञ्चतो बाह्यार्थसिद्ध्यवसरे / ननु वन्ध्यासुतसौभाग्यव्यावर्णनप्रख्यमेतत् अतीन्द्रियप्रत्यक्षस्य सद्भावावेदकप्रमाणाभावतः खपुष्पवदसत्त्वात् इत्याशङ्कयाह-'तदस्ति' इत्यादि / तद् अतीन्द्रियप्रत्यक्षम् अस्ति सुनिश्चितासंभवद्धाधकप्रमाणत्वात् सुखादिवत् इति / / समर्थितश्चास्य सुनिश्चितासंभवदाधकप्रमाणत्वं प्रबन्धेन सर्वज्ञसिद्धिप्रघट्टके' इत्यलं पुनस्तत्समर्थनप्रयासेन / * परोक्षमिदानी व्याचष्टे 'श्रुतम्' इत्यादिना / श्रुतम् अविस्पष्टतर्कणम् तत्प्रमाणम् / किं सर्वम् ? न, बाधारहितम् / पुनरपि कथम्भूतम् ? इत्याह-'सकल' इत्यादि / सकलं यत् प्रमाणं यच्च प्रमेयं तयोः इयत्तास्वरूपाभिधायि, अनेन च 10 प्रत्यक्षाऽनुमेयाऽन्यन्तपरोक्षलक्षणे स्थानत्रयेऽप्यस्य प्रामा यं दर्शयति / तथा च निराकृतमेतत्-"तृतीयस्थानसक्रान्तौ न्यैय्यः (न्याय्यः) शास्त्रपरिग्रहः / " [प्रमाणवा० 451] इति / नहि प्रमाणानां सापत्न्यन्यायोऽस्ति येन एकविषये द्वितीयस्याप्रवृत्तिः स्यात् / अथ मतम्-अर्थापत्त्यादेः प्रमाणान्तरत्वप्रसिद्धः कथं प्रत्यक्षपरोक्षरूपतया प्रमाणद्वित्वसिद्धिः, यतो 'द्विधैव' इति नियमः सुघटः स्यात् ? इत्यत्राह-'अत्र' इत्यादि / 15 अत्र परोक्षे अर्थापत्त्यनुमानोपमानादीनि, आदिशब्देन अविशदमन्यदपि प्रमाणं गृह्यते, अन्तर्भवन्ति / तेत्र तदन्तर्भावश्च परोक्षपरिच्छेदे प्रपञ्चितः / नन्वेवं सौगतादीनामपि स्वोपकल्पितप्रमाणसंख्यायाम् इतरप्रमाणानामन्तर्भावो भविष्यति, इत्यत्राह'पर' इत्यदि / परैः सौगतादिभिः परिकल्पितस्य प्रमाणान्तर्भावस्य निराकरणम् अन्यत्र परोक्षपरिच्छेदे उक्तमिति नेह प्रघट्टके पुनरुच्यते / 20 मनोरथ० 2 / 327 / उद्धृतोऽयम्-प्रश० व्यो० पृ० 525 / अष्टसह पृ० 110 / सिद्धिवि० टी० पृ० 166 A. / शास्त्रदी० 10 195 / स्या० 20 पृ० 150 / शास्त्रवा० यशो० 50 174 B., 215 B. | न्यायकुमु० पृ० 133 टि० 4 / (1) अर्थाविषयत्वे / (2) बुद्धेः / (3) पृ० 119 / (4) पृ० 89 / (5) श्रुतस्य / तुलना-"स्थानत्रयाऽविसंवादि श्रुतज्ञानं हि वक्ष्यते / तेनाधिगम्यमानत्वं सिद्धं सर्वत्र वस्तुनि // 12 // " -तत्त्वार्थ० श्लो० पु. 13 / (6) "तद्विरोधेन चिन्तायाः तत्सिद्धार्थेष्वयोगतः। तृतीयस्थानसङक्रान्तौ न्याय्यः शास्त्रपरिग्रहः // तस्य शास्त्रस्य विरोधेन तत्सिद्धेष्वर्थेषु लिङ्गादिष्वसिद्धकल्पेषु गमकचिन्ताया अयोगतः। यस्मात् प्रत्यक्षपरोक्षार्थयो गमाधिकारः तस्मात् तृतीयस्थाने अतीन्द्रिये विषये विचारसङक्रान्तेः शास्त्रपरिग्रहो न्याय्यः प्रकारान्तरासंभवात् ।"-प्रमाणवा० मनोरथ०४।५१ / (7) यथा यदैका सपत्नी पतिसमीपे समुपतिष्ठति तदा द्वितीया ईविलिप्ता अनवकाशतया पत्युपकण्ठं नोपसर्पति न तथा प्रमाणानां सापत्न्यभावो इविलिप्तता अनवकाशता वा समस्ति इति भावः / (8) संभवैतिह्यादिकम् / (9) परोक्षे। 1-रूपस्यैवा-श्र० ।-य संस्था-श्र० / न्यायः ब०, श्र०। 4 संघटः श्र। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० श्रुतस्य भेदं दर्शयन्नाह उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ स्याद्वादनयसंज्ञितौ / स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकलसंकथा // 62 // विवृतिः-अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः, यथा जीवः पुद्गलः धर्मोऽधर्मः 5 आकाशं काल इति / तत्र जीवो ज्ञानदर्शनवीर्यसुखैः असाधारणैः अमूर्त्तत्वाऽ संख्यातप्रदेशत्वसूक्ष्मत्वैः साधारणासाधारणैः सत्त्वप्रमेयत्वागुरुलघुत्वधर्मित्वगुणित्वादिभिः साधारणैः अनेकान्तः / तस्य जीवस्यादेशात् प्रमाणं स्याद्वादः / तथा इतरे परमागमतो योज्याः / ज्ञो जीवः सुखदुखादिवेदनात् इत्यादि विकलादेशो नयः / साकल्य॑म् अनन्तधर्मात्मकता / वैकल्यम् एकान्तः धर्मान्तराविवक्षातः / (1) "भवतः / कौ ? उपयोगी व्यापारौ। कस्य ? श्रुतस्य, श्रूयते इति श्रुतमाप्तवचनं वर्णपदवाक्यात्मकं द्रव्यरूपं तस्य, भावश्रुतस्य वा श्रवणं श्रुतमिति निरुक्तेः / कति? द्वौ। किन्नांमानौ ? स्याद्वादनयसंज्ञितौ, स्यात्कथञ्चित् प्रतिपक्षापेक्षया वचनं स्याद्वादः, नयनं वस्तुनो विवक्षितधर्मप्रापणं नयः, स्याद्वादश्च नयश्च स्याद्वादनयौ, इत्थं संज्ञे व्यपदेशौ ययोस्तौ तथोक्तौ / तौ लक्षणतो निर्दिशतिस्याद्वाद उच्यते / कः ? सकलादेशः सकलस्य अनेकधर्मणो वस्तुनः आदेशः कथनम् , यथा जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालाः षडाः / 'पुनर्नयो भवति / का? विकलसंकथा, विकलस्य विवक्षितकधर्मस्य सम्यक प्रतिपक्षापेक्षया कथा प्रतिपादनं यथा जीवो ज्ञातैव द्रष्टव इत्यादि ।"-लघी० ता० पु० 83 / तुलना-"तदुक्तम्-उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ प्रमाणनयभेदतः ।"-सिद्धिवि० टी० पृ०.४ A. / (2) "निर्दिश्यमानधर्मव्यतिरिक्ताऽशेषधर्मान्तरसंसूचकेन स्याता युक्तो वादोऽभिप्रेतधर्मवचनं स्याद्वादः / " -न्यायाव० ता० टी० पृ० 93 / न्यायकु० पृ० 3 टि० 10 / (3) तुलना-"स्यात्पदप्रयोगात्तु ये ज्ञानदर्शनसुखादिरूपा असाधारणा ये चामूर्तत्वासंख्यातप्रदेशसूक्ष्मत्वलक्षणा धर्माधर्माधर्मगगनास्तिकायपूद गलैः साधारणा: येऽपि च सत्त्वप्रमेयत्वमित्वगुणित्वादयः सर्वपदार्थैः साधारणास्तेऽपि च प्रतीयन्ते ।"-आव०नि० मलय० पृ० 170 A. / (4) सकलादेशविकलादेशयोः स्वरूपे प्रायः सर्वेषामैकमत्येऽपि केचिदकलङ्काद्याचार्याः सप्तसु भंगेषु सर्वानपि भङ्गान् एकधर्ममुखेन अशेषधर्मात्मकवस्तुप्रतिपादनकाले सकलादेशरूपान् एकधर्म प्रधानतया अन्यधर्मांश्च गौणतयाऽभिधानसमये विकलादेशात्मकान स्वीकुर्वन्ति / केचिच्च सिद्धसेनगणिप्रभृतयः सदसदवक्तव्यरूपं भङ्गत्रयं सकलादेशत्वेन शिष्टांश्च चतुरो भंगान् विकलादेशरूपेण मन्यन्ते। अकलङ्कादीनां.ग्रन्थाः-"तथा चोक्तम्-सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति।"-सर्वार्थसि० 106 / “यत्र यदा चौगपद्यं तदा "सकलादेशः / / एकगणमुखेनाशेषवस्तुरूपसंग्रहात् सकलादेशः / तत्रादेशवशात् सप्तभंगी प्रतिपदम् / यदा तू क्रम तदा विकलादेशः (पृ० 180) 'निरंशस्यापि गुणभेदादंशकल्पना विकलादेशः / तत्रापि तथा सप्तभंगी।"-राजवा० 10 181 / नयचक्र० पृ० 348 B. / “सकलादेशो हि योगपद्येनाशेषधर्मात्मकं वस्तु कालादिभिरभेदवृत्त्या प्रतिपादयति अभेदोपचारेण वा, तस्य प्रमाणाधीनत्वात् / विकलादेशस्तू क्रमेण भेदोपचारेण भेदप्राधान्येन वा।"-तत्वार्थश्लो० पृ० 136 / प्रमेयक० पृ०६८२ / सप्तभंगित० 1032 प्रमाणनय० 4 / 44,45 / जैनतर्कभा०पू०२०। "इयं सप्तभङ्गी प्रतिभङ्गं सकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा च ।"-प्रमाणनय० 4 / 43 / गुरुतत्त्ववि०प०१५A. / शास्त्रवा० टी० पू० 254 A. | "यदा मध्यस्थभावेनाथित्ववशात किंचिद्धर्म प्रतिपादयिषवः शेषधर्मस्वीकरणनिराकरणविमखया धिया वाचं प्रयुञ्जते तदा तत्त्वचिन्तका अपि लौकिकवत् सम्मुग्धाकारतयाचक्षते-यदुत जीवोऽस्ति Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 62 ] सकल-विकलादेशनिरूपणम् 687 तत्र जीव इत्युक्ते जीवशब्दो योग्यतापेक्षोऽनादिसंकेतः स्वभावभूताऽन्यापोहस्वार्थप्रतिपादनः न्यक्षेण प्रतिपक्षं निरस्य जीवमात्रमेव अभिदध्यात् ततः स्यात्पदप्रयोगात् सर्वथैकान्तत्यागात् स्वरूपादिचतुष्टयविशेषणविशिष्टो जीवः अभिधीयते इति कर्ता प्रमाता भोक्तेत्यादि, अतः सम्पूर्णवस्तूप्रतिपादनाभावात विकलादेशोऽभिधीयते नयमतेन संभवधर्माणां दर्शनमात्रमित्यर्थः / यदा तु प्रमाणव्यापारमविकलं परामश्य प्रतिपादयितुमभिप्रयन्ति तदाङ्गीकृतगुणप्रधानभावा अशेषधर्मसूचककथञ्चित्पर्यायस्याच्छब्दभूषितया सावधारणया वाचा दर्शयन्ति 'स्यादस्त्येव जीवः' इत्यादिकया, अतोऽयं स्याच्छब्दसंसूचिताभ्यन्तरीभूतानन्तधर्मकस्य साक्षादुपन्यस्तजीवशब्दक्रियाभ्या प्रधानीकृतात्मभावस्यावधारणव्यवच्छिन्नतदसंभवस्य वस्तुन: संदर्शकत्वात् सकलादेश इत्युच्यते / प्रमाणप्रतिपन्नसम्पूर्णार्थकथनमिति यावत् / तदुक्तम्-सा ज्ञेयविशेषगतिर्नयप्रमाणात्मिका भवेत्तत्र / सकलग्राहि तु मानं विकलग्राही नयो ज्ञेयः ।"-न्यायावता० टी० पृ० 92 / सिद्धसेनगणिप्रभृतीनां ग्रन्थाः-एवेमेते त्रयः सकलादेशा भाष्येणैव विभाविता: संग्रहव्यवहारानुसारिण आत्मद्रव्ये। सम्प्रति विकलादेशाश्चत्त्वारः पर्यायनयाश्रया वक्तव्यास्तत्प्रतिपादनार्थमाह भाष्यकार:-देशादेशेन विकल्पयितव्यमिति' विवक्षायत्ता च वचसः सकलादेशता विकलादेशता च द्रष्टव्या / द्रव्यार्थजात्यभेदात्तु सर्वद्रव्यार्थभेदानेवैकं द्रव्यार्थ मन्यते, यदा पर्यायजात्यभेदांश्चैकं पर्यायार्थं सर्वपर्यायभेदान् प्रतिपद्यते, तदा त्वविक्षितस्वजातिभेदत्वात् सकलं वस्तु एकद्रव्यार्थाभिन्नम् एकपर्यायार्थाभेदोपचरितं तद्विशेषकाभेदोपचरितं वा तन्मात्रमेकमद्वितीयांशं ब्रुवन् सकलादेशः स्यान्नित्य इत्यादिस्त्रिविधोऽपि नित्यत्वानित्यत्वयगपदभावकत्वरूपैकार्थाभिधायी। यदात् द्रव्यपर्यायसामान्याभ्यां तद्विशेषाभ्यां वा वस्तुनः एकत्वं तदतदात्मकं समुच्चयाश्रयं चतुर्थविकल्पे, स्वांशयुगपद्वृत्तं क्रमवृत्तञ्च पञ्चमषष्ठसप्तमेषूच्यते तथाविवक्षावशात् तदा तु तथा प्रतिपादयन् विकलादेशः ।"-तत्त्वार्थभा० टी०५०४१५। 'तत्र विवक्षाकृतप्रधानभावसदाोकधर्मात्मकस्यापेक्षितापराशेषधर्मक्रोडीकृतस्य वाक्यार्थस्य स्यात्कारपदलाञ्छितवाक्यात प्रतीतेः स्यादस्ति घट: स्यान्नास्ति घट: स्यादवक्तव्यो घट इत्येते त्रयो भङ्गाः सकलादेशाः विवक्षाविरचितद्वित्रिधर्मानुरक्तस्य स्यात्कारपदसंसूचितसकलधर्मस्वभावस्य धर्मिणो वाक्यार्थरूपस्य प्रतिपत्तेः चत्वारो वक्ष्यमाणका विकलादेशा:-स्यादस्ति च नास्ति घट इति प्रथमो विकलादेशः, स्यादस्ति चावक्तव्यश्च घट इति द्वितीयः, स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च घट इति तृतीयः, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च घट इति चतुर्थः ।"-सन्मति० टी० 10 446 / उ० यशोविजयः यद्यपि शास्त्रवा० टी०जैनतर्कभा०-गुरुतत्त्वविनिश्चयादौ सप्तानामपि भङ्गानां अकलङ्कोपज्ञाता सकलविकलादेशोभयरूपता सिद्धान्तीकृता तथापि तैः अष्टसहस्रीविवरणे 'आद्यास्त्रयो भङ्गाः सकलादेशाः शिष्टाश्च चत्वारो विकलादेशाः' इत्यपि तत्त्वार्थभाष्यसंसूचितं सिद्धसेनगणिव्यावणितं कृतान्तीकृतम् / तथाहि-'किन्तु आद्यभङ्गद्वयघटकनिजपररूपयोः शृङ्गग्राहिकया व्यवस्थापन एव नयभेदो मतभेदो वा युज्यते तृतीयभङ्गस्तु अवक्तव्यलक्षणः ताभ्यां युगपदादिष्टाभ्यां तद्भेदादनेकभेदः, इत्येते त्रयो निरवयवद्रव्यविषयत्वात् सकलादेशरूपाः, सदसत्त्व-सदवक्तव्यादयश्चत्त्वारस्तु चरमा: सावयवद्रव्यविषयत्वाद्विकलादेशरूपाः ,देशभेदं विनैकत्र तु क्रमेणापि सदसत्त्वविवक्षा सम्प्रदायविरुद्धत्वान्नोदेति इति न निरवयवद्रव्यविषयत्वमेषामित्यस्मदभिमतोक्तमेव युक्तमिति मन्तव्यम् ।"-अष्टसह० विव० पृ० 208 B. / अयमेव सिद्धान्त: शास्त्रवार्तासमुच्चयटीकायाम् 'केचित्तु' इति कृत्वा निर्दिष्टः। तथाहि-"केचित्तु अनन्तधर्मात्मकवस्तुप्रतिपादकत्वाविशेषेऽपि आद्यास्त्रय एव भंगा निरवयवप्रतिपत्तिद्वारा सकलादेशाः अग्रिमास्तु चत्वारः सावयवप्रतिपत्तिद्वारा विकलादेशाः, इति प्रतिपन्नवन्तः।"-शास्त्रवा० टी०१० 254 B. I 1-पेक्षाऽनादि-ज०वि०। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० स्वेष्टसिद्धिः / नयोऽपि तथैव सम्यगेकान्तः / 'स्याजीव एवं' इत्युक्तेऽनेकान्तविषयः स्याच्छब्दः, 'स्यादस्त्येव जीवः' इत्युक्ते एकान्तविषयः स्याच्छब्दः। . उपयोगी व्यापारी, कतिसंख्यौ ? द्वौ / कस्य ? श्रुतस्य श्रुताख्य प्रमाणस्य / किमाख्यौ ? स्याद्वादनयसंज्ञितो, स्याद्वादसंज्ञितः कारिकार्थः - नयसंज्ञितश्च / कोऽसौ स्याद्वादः कश्च नयः इत्याह-'स्याद्वादः' इत्यादि / स्याद्वादो भवति, कोऽसौ ? सकलादेशः सकलस्य सम्पूर्णस्य वस्तुनः आदेशः कथनम् / नयस्तु विकलसंकथा वस्त्वेकदेशकथनम् / (1) मलयगिर्याचार्याः स्यात्पदप्रयोगं प्रमाणवाक्ये एव उररीकुर्वन्ति / एतन्मतानुसारेण सर्वेषां नयनां मिथ्यारूपत्वात् / अतस्तै: 'स्यात्पदलाञ्छितो नय: सम्यग' इत्यकलङ्गमतस्य समालोचना कता। प्रत्यालोचिता च सा उ. यशोविजयैरिति / तदेवं समन्तभद्रसिद्धसेनदिवाकरादिभिरुपज्ञातम् अकलदेवः विवतमेतं मतं हेमचन्द्रादयः समर्थयन्ति / मलयगिरिकृता समालोचना इत्थम-"नयचिन्तायामपि च ते दिगम्बराः स्यात्पदप्रयोगमिच्छन्ति तथा चाकल ङ्क एव प्राह-'नयोऽपि तथैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात्' इति / अत्र टीकाकारेण व्याख्या कृता-नयोऽपि नयप्रतिपादकमपि वाक्यं न केवलं प्रमाणवाक्यमित्यपिशब्दार्थः, तथैव स्यात्पदप्रयोगप्रकारेणैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात, यथा स्यादस्त्येव जीव इति / स्यात्पदप्रयोगाभावे तु मियकान्तगोचरतया दुर्नय एव स्यादिति / ' तदेतदयुक्तम् ; प्रमाणनयविभागाभावप्रसक्तेः, तथाहि-'स्याज्जीव एव' इति किल प्रमाणवाक्यम् ‘स्यादस्त्येव जीवः' इति नयवाक्यम / एतच्च द्वयमपि लघीयस्त्रय्यलङ्कारे साक्षादकलङ्केनोदाहृतम्, अत्र चोभयत्राप्यविशेषः; तथाहि-स्याज्जीव एवेत्यत्र जीवशब्देन प्राणधारणनिबन्धना जीवशब्दवाच्यताप्रतिपत्तिः, अस्तीत्यनेनो- : दभताकारशब्दप्रयोगादजीवशब्दवाच्यतानिषेधः, स्याच्छब्दप्रयोगतोऽसाधारणसाधारणधर्माक्षेपः / 'स्यादस्त्येव जीवः' इत्यत्र जीवशब्देन जीवशब्दवाच्यताप्रतिपत्तिः, अस्तीत्यनेनोद्भुत विवक्षितास्तित्वावगतिः, एवकारप्रयोगात्तु यदाशंकितं सकलेऽपि जगति जीवस्य नास्तित्वं तद्वयवच्छेदः, स्यात्प्रयोगात साधारणासाधारणप्रतिपत्तिरित्युभयत्राप्यविशेष एव ।"-आव०नि० मलय० पू० 371 A. / उ० यशोविजयः एतन्मलयगिरिकृतम् आकलङ्कमतालोचनं पूर्वपक्षीकृत्य इत्थं समाहितम्-'अत्रेदमवधेयमयो नाम नयो नयान्तरापेक्षः तस्य प्रमाणान्तर्भावे व्यवहारनय: प्रमाणं स्यात् तस्य तपःसंयमप्रवचनग्राहकत्वेन संयमग्राहिनिश्चयविषयकत्वेन तत्सापेक्षत्वात् / शब्दनयानाञ्च निक्षेपचतुष्टयाभ्युपगन्तणां भावाभ्युपगन्तशब्दनयविषयविषयकत्वेन तत्सापेक्षत्वात्प्रमाणत्वापत्तिः / नयान्तरवाक्यसंयोगेन सापेक्षत्वे च ग्राह्ये स्यात्पदप्रयोगेण सप्रतिपक्षनयद्वयविषयावच्छेदकस्यैव लाभात् तेनाऽनन्तधर्मात्मकत्वापरार्शः / न चेदेवं तदाऽनेकान्ते सम्यगेकान्तप्रवेशानुपपत्तिः अवच्छेदकभेदं विना सप्रतिपक्षविषयसमावेशस्य दुर्वचत्वात, इष्यते चायम् / 'स्यात्पदमवच्छेदकभेदप्रदर्शकतयैव विवृतम् / अत एव स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकमेव तान्त्रिकैरुच्यते / सम्यगनेकान्तसाधकस्य अनेकान्ताक्षेपकत्वात् न त्वनन्तधर्मपरामर्शकम, अतो न स्यात्पदप्रयोगमात्राधीनमादेशसाकल्यं येन प्रमाणनयवाक्ययोर्भेदो न स्यात्, किन्तु स्त्रार्थोपस्थित्यनन्तरमशेषधर्माभेदोपस्थापकविधेयपदवृत्त्यधीनम् / सा च विवक्षाधीनेत्यादेशसाकल्यमपि तथेति नयप्रमाणवाक्ययोरित्थं भेद एव / मलयगिरिपादवचनं तु अप्रतिपक्षधर्माभिधानस्थले अवच्छेदकभेदान भिधानानुपयुक्तेन स्यात्पदेन साक्षादनन्तधर्मात्मकत्वाभिधानात्, तत्र प्रमाणनयभेदानभ्युपगन्तर्विदग्धदिगम्बरनिराकरणाभिप्रायेण योजनीयम् ।"-गुरुतत्त्ववि० 10 17 B. / 1 स्वेष्टविसिद्धिः ज० वि० / 2 किसंख्यौ ब०, श्र०। इत्याद्याह ब० Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू प्रवचनप्र० का० 62 ] सकल-विकलादेशनिरूपणम् 186 ___ तत्र स्याद्वादपदं व्याचष्टे 'अनेकान्त' इत्यादिना / अनेकान्तात्मकस्य अने _ कधर्मस्वभावस्य अर्थस्य जीवादेः कथनं स्याद्वादः। अत्रोदाहरणमाह - 'यथा' इत्यादि / यथा इत्युदाहरणप्रदर्शने, जीवः पुद्गलः धर्मोऽधर्म आकाशं काल इति षद्रव्यरूपोऽर्थः, तस्य अनेकान्तात्मकत्वनिरूपणं स्याद्वादः / तत्र जीवे तावदनेकान्तात्मकत्वं 'तत्र' इत्यादिना निरूपयति / तत्र तेषु जीवादिषट्प- 6 दार्थेषु मध्ये जीव आत्मा 'अनेकान्तः' इति सम्बन्धः / कैर्धर्मैः इत्याह-ज्ञानदर्शनवीर्यसुखैः / ननु दर्शनमेव पुरुषस्य स्वरूपं न ज्ञानादयः, तेषां प्रकृतिधर्मत्वात् तत्कथं तैरसौ अनेकान्तः ? इत्यप्ययुक्तम् ; प्रकृतिधर्मतां निराकृत्य तेषां त॑द्धमतायाः प्रत्यक्षपरिच्छेदे प्रतिपादितत्वात् / ततः सूक्तम्-'ज्ञानादिभिः जीवोऽनेकान्तः' इति / कथम्भूतैस्तैः इत्याह-असाधारणैः पुद्गलाद्यसंभविभिः। ननु बुद्ध्यादयो नव आत्म- 10 नोऽसाधारणा गुणाः सन्ति तत्किमर्थमेते चत्वार एव दर्शिताः इति चेत् ? तेषामेव सहभुवां तद्गुणत्वप्रतिपादनार्थम् / इच्छादयो हि क्रमभाविनः पर्यायाः न गुणाः, अन्यथा भयहर्षशोककरुणामर्षोंदासीन्यादीनामपि तद्गुणत्वप्रसक्तेः 'नवैव' इति संख्यानियमो दुर्घटः स्यात् / परैरपि तदनेकान्तं दर्शयितुमाह-'अमूर्तत्व' इत्यादि / रूपादिरहितत्वम् अमूर्त्तत्वम् , न पुनः असर्वगतद्रव्यपरिमाणाभावः, जीवस्य मूर्त्तत्वप्रसङ्गात्। 15 तस्यै असर्वगतत्वेन विषयपरिच्छेदे |साधितत्वात् / असङ्ख्यातप्रदेशत्वम् असंख्यातावयवोपेतत्वम् , सूक्ष्मत्वं शुद्धस्य तस्ये केवलज्ञानादन्यतोऽसाक्षात्करणम् , तैः अनेकान्तो 'जीवः' इति सम्बन्धः। किं विशिष्टैः साधारणासाधारणैः, साधारणैः गगनादावपि भावात्, असाधारणैः पुद्गलेष्वभावात् / पुनरन्यैस्तदनेकान्तं दर्शयन्नाह-'सत्त्व' इत्यादि / सुप्रसिद्धाः सत्त्वप्रमेयत्वाऽगुरुलघुत्वधर्मित्वगुणित्वादयो धर्माः तैः। कथ- 20 म्भूतैः ? साधारणैः पेट्खपि द्रव्येषु भावात् / तस्य एवंविधस्य जीवस्य आदेशात कथनात् प्रमाणं स्याद्वादः तत्र तदविसंवादात् इति भावः / तथा तेन असाधारणोभय (1) सांख्यः / “द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ।"-योगसू० 2 / 20 / (2) "प्रकृतेमहानुत्पद्यते। महान् बुद्धि तिर्ब्रह्मा पूर्तिः ख्यातिरीश्वरो विखर इति पर्यायाः' 'आह-उक्तं प्रधानादुद्धिरुत्पद्यते इति ? तत्र वक्तव्यं किं लक्षणा पुनर्बुद्धिरित्युच्यते-अध्यवसायो बुद्धिर्धर्मो ज्ञानं विराग ऐश्वर्यम् / सात्त्विकमेतद्रूपं तामसमस्माद्विपर्यस्तम् ।।"-सांख्यका० युक्तिदी० पृ० 108 / (3) जीवः / (४)अनेकधर्मात्मकः / (5) ज्ञानादीनाम् / (६)जीवधर्मतायाः / (७)पृ० 1914 (८)वैशेषिकाः / "नवानामात्मगुणानां बुद्धिसुखदुःखेच्छाप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काराणाम् . ."-न्यायम० पृ० 508 / (9) ज्ञानदर्शनवीर्यसुखाख्याः / (१०)आत्मगुणत्व / (११)जीवस्य अनेकधर्मात्मकत्वम् / (12) "इयत्तावच्छिन्नपरिमाणयोगित्वं मूर्त्तत्वं तदभावोऽमूर्त्तत्वम् ।"-सप्तप० पृ० 72 / "असर्वगतद्रव्यपरिमाणं मूर्तिरिति हि पदार्थविदः ।"-तत्त्वबि० पृ० 1580 (13) जीवस्य / (१४)पृ०२६१॥ (15) आत्मनः / __ 1 इत्याधुवा-ब०, श्र०। 2-धारणगुणाः ब० // 3-यान् गुणा ब० / 4-तदेश-श्र० / 6-पि भवात् ब० / 6 पुनरप्यन्यैः श्र०। 7-ह सुप्रसि-श्र०। 8 खट्स्वपि द्रव्येषु आ० / 9 तथा तथा तेन श्र० / Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० साधारणधर्माधिकरणत्वेन अनेकान्तप्रकारेण इतरे पुद्गलादयः पदार्थाः परमागमतः . परमागममाश्रित्य योज्याः। .. ___ इदानीं नयं दर्शयन्नाह-'ज्ञः' इत्यादि / जीव इति धर्मिणो निर्देशः, ज्ञः चेतनास्वभावः इति साध्यस्य, सुखदुःखादिवेदनादिति हेतोः, इति एवं प्रयोगः आदिर्यस्य 5 अनित्यशब्दादेः स तथोक्तः, स चासौ विकलस्य धर्मान्तरनिरपेक्षस्य धर्मस्य आदेशश्च नयः। ननु किमिदं साकल्यं वैकल्यञ्च आदेशस्य यतः 'स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकलसंकथा' इति स्यात् ? इत्यत्राह-'साकल्यम्' इत्यादि / सकलस्य अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो भावः साकल्यम् अनन्तधर्मात्मकता। तत्प्रतिपादक वचनम् एवमुक्तम् , विषय॑स्य विषयिण्युपचारात् / विकलस्य एकदेशस्य भावो वैक10 ल्यम्-एकान्तः, तदादेशः तथोक्तः / कुतः ? इत्याह-'धर्मान्तर' इत्यादि / विवक्षित धर्माद् अन्यो धर्मः तदन्तरं तस्य अविवक्षातः, नान्यथा दुर्नयत्वप्रसङ्गात् / नेनु शब्दस्य अर्थे सम्बन्धाभावतः प्रवृत्तेरेवाऽसंभवात् न सकलविकलादेशप्ररूपणं युक्तम्, इत्यत्राह-'तत्र' इत्यादि / तत्र अनन्तात्मके तत्त्वे स्थिते सति, यदि वा तत्र एवं स्याद्वादनयस्वरूपे निरूपिते सति 'जीव' इत्युक्ते जीवशब्दः अवान्तरविशेषरहितं 15 जीवमात्रमेव अभिदध्यात् / कथम्भूतम् ? इत्याह-'योग्यता' इत्यादि / योग्यतायाम् अपेक्षा यस्य योग्यतां वा अपेक्षते इति योग्यतापेक्षः, अनादिः सङ्केतो यस्य स तथोक्तः / 'योग्यता' इत्यनेन तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणसम्बन्धविरहे नित्यैकरूपसम्बन्धाऽसत्त्वेऽपि च शब्दार्थयोः वाच्यवाचकभावं दर्शयति, योग्यतास्वभावसम्बन्धसंभवात् / एतच्च सप्रपञ्चं प्राक् प्रपश्चितम् / ननु योग्यतातोऽपि शब्दस्य अर्थप्रतिपादकत्वे एकस्माच्छब्दात् युगपदनेकार्थप्रतिपत्तिः स्यात् , सर्वस्य शब्दस्य सर्वत्रार्थे प्रतिपादनयोग्यतासंभवात् ; तदनुपपन्नमिति 'सङ्केत' इत्यनेन दर्शयति-सत्यामपि अनेकार्थप्रतिपादनयोग्यतायी विनियतसङ्केतवशाद् विनियतार्थप्रतीत्युपपत्तेः। एतच्च 'प्रमाणं श्रुतम्' [ लघी० का० 26 ] इत्यत्र प्ररूपितम् / ननु यदा जीवशब्दोऽर्थमभिधत्ते न तदा पूर्वसङ्केतोऽस्ति तत्कथं तैदपेक्षस्यास्य नियतार्थप्रतीतिहेतुत्वमिति चेत् ; न; 'अस्येदं वाच्यम् इदं वाचकम्' इति चित्तस्य सङ्केतत्वात, तस्य च तदापि भावात् / न चेदमवान्तरकल्पितम् इति अनादिपदेन दर्शयति / ननु जीवमात्रमभिदध्यात् इत्ययुक्तम् ; अन्यापोहस्यैव जीतेरेव (1) साकल्यशब्देन / (2) अनन्तधर्मात्मकत्वरूपसाकल्यस्य वाच्यस्य / (3) वाचके स्याद्वादे सकलादेशे। (4) न तु धर्मान्तरस्य प्रतिक्षेपः। (5) सौगतः / (6) सर्वशब्दस्य सर्वार्थप्रतिपादनमनपपन्नम्। (7) अनादिसङ्केतापेक्षस्य जीवशब्दस्य / (8) चित्तस्य / (9) बौद्धाः / (10) मीमांसकाः / / 1-कान्तेन प्रका-ब। 2 इतरेषु पु-श्र०। -कल्यं वादेश-श्र०। 4 अनन्तात्मकत्वे तत्त्वे ब० / -यां नियत-श्र०। 6 पूर्वः संकेतो-ब०, श्र०। 7 चेत्तस्य संकेतस्यात् ब०।। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६३ ] स्यात्कारप्रयोगविचारः अन्योन्यविभिन्नेतद्वयस्यैव वा शब्दार्थत्वात् ; इत्यत्राह-'स्वभाव' इत्यादि।स्वभावभृतः अन्यतः सर्वतोऽपोहः पररूपेण असत्त्वं यस्य स तथोक्त स चासौ स्वार्थश्च स्वाभिधेयः तस्य प्रतिपादनः जीवशब्दः तन्मात्रमभिदध्यात् / किं कृत्वा ? निरस्य / कम् ? प्रतिपक्षम्, प्रत्यनीकं मतम् अपोहादिमात्राभिधायित्वलक्षणम् / कथम् ? न्यक्षेण सामस्त्येन / यथा च अपोहादेः शब्दार्थता न घटते तथा 'प्रमाणं श्रुतमर्थेषु' / [लघी० का० 26 ] इत्यत्र प्रपञ्चतः प्रतिपादितम् / ततः तस्मात् न्यायात् स्यात्पदप्रयोगात् सर्वथैकान्तस्य ‘सन्नेव जीवः, असन्नेव, द्रव्यरूप एव, पर्यायरूप एव वा' इत्येवंरूपस्य त्यागात् निरासात् , स्वरूपादिचतुष्टयविशेषणविशिष्टः स्वद्रव्यक्षेत्रादिविशेषणविशिष्टः जीवः जीवशब्देन अभिधीयते इति स्वेष्टस्य अनेकान्तात्मनो जीवस्य सिद्धिः / __ एवं प्रमाणवाक्यमुपदर्य साम्प्रतं नयवाक्यं दर्शयन्नाह-'नयोऽपि' इत्यादि। 10 नयोऽपि नैयवाक्यमपि न केवलं प्रमाणवाक्यम् , तथैव स्यात्पदप्रयोगप्रकारेणैव सम्यगेकान्तः सम्यगेकान्तविषयः स्यात्, अन्यथा मिथ्यकान्तगोचरः स्यादिति / अधुना एवकारप्रयोगोपयोगं दर्शयन्नाह-'स्यात्' इत्यादि / 'अनेकान्तः' इत्येतदनुवर्त्तमानमिह सम्बध्यते / ततोऽयमर्थः सिद्धः-स्यात् कथञ्चित् जीव एव ज्ञानदर्शनसुखवीर्यैः धर्मैः अनेकान्तः नान्यः इति एवकारार्थः / इत्येवमुक्ते एवं वाक्ये प्रयुक्ते सति नैकान्त- 15 विषयः किन्तु अनेकान्तविषयः स्याद् भवेत् शब्दः 'स्याजीव एव' इतिवाक्यम् अनेकान्तरूपस्य तस्य अभिधानात् / 'स्यादस्त्येव जीवः' इत्युक्ते सति एकान्तविषयः सम्यगेकान्तगोचरः स्याद् भवेत् शब्दः 'स्यादस्त्येव' इति वाक्यम् , प्रधानतः तदस्तित्वैकान्तप्रतिपादनात् / एवमुत्तरभङ्गेष्वपि वक्तव्यम् / ननु न सर्वत्र वाक्ये लौकिकाः स्यात्कारमेवकारश्च प्रयुञ्जते, अन्यथैव तत्प्रयोग- 20 दर्शनात् , अतो न युक्तमेतदित्यारेकापनोदार्थमाह अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र स्यात्कारोऽर्थात् प्रतीयते। विधौ निषेधेऽप्यन्यत्र कुशलश्चेत् प्रयोजकः // 63 // (1) योगाः / (2) स्यात्पदप्रयोगाभावे / (3) जीवस्य / (4) स्यान्नास्त्येवेत्यादिषु / (5) स्यात्पदप्रयोगनियमः। (6) "प्रतीयतेऽधिगम्यते / कः ? स्यात्कारः स्यादिति पदमव्ययम्, क्व? सर्वत्र शास्त्रे लोके वा। कस्मिन् विषये? विधौ सत्त्वादौ साध्ये / न केवलं विधौ किन्तु निषेधेऽपि असत्त्वादावपि साध्ये। अन्यत्रापि अन्यस्मिन् अनुवादातिदेशादावपि / किंविशिष्टोऽपि अप्रयुक्तोऽपि स्यादस्ति जीव इत्यनुक्तोऽपि / तहि कुतः प्रतीयते इति चेदत्राह-अर्थात् सामर्थ्यात् / 'चेद्यदि कुशल: स्यात् व्यवहारे प्रबुद्धः स्यात् / कः ? प्रयोजकः प्रतिपादकः ।..."-लघी० ता० पृ० 86 / उद्धृतोऽयम्"विधौ निषेधेन्यत्रापि आव०नि० मलय पु० 369 B. | गुरुतत्ववि० पु०१६ A. / तुलना"विवक्षातोऽप्रयोगेऽपि सर्वोऽर्थोऽयं प्रतीयते // व्यवच्छेदफलं वाक्यं यथा चैत्रो धनुर्धरः। पार्थो धनुर्धरो ____1-नद्वय-आ०,०। 2 तथो स आ० / 8 'नयोऽपि' नास्ति ब० / 4 'नयवाक्यमपि' नास्ति आ० ।-पदयोग-श्र०16 प्रयुंजते आ०। 7-युक्तेऽपि मु० लघी०। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 662 . लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० विवृतिः क्वचित्स्यात्कारमनिच्छद्भिः सर्वथैकान्तोऽभ्युपगतः स्यात् / अवधारणाभावेऽपि अनेकान्तनिराकरणस्य अवश्यंभावित्वात् अन्यथा प्रमाणनययोरभेदप्रसङ्गः। किं बहुना विधिनिषेधानुवादातिदेशादिवाक्येषु कारकेषु कादिषु स्वार्थादिषु प्रातिपदिकार्थेषु साधनदूषणतदाभासवाक्येषु स्याद्वादमन्तरेण प्रस्तुताऽ5 प्रसिद्धिः इत्याबालप्रसिद्धम् / __ अप्रयुक्तोऽपि न केवलं प्रयुक्तः सर्वत्र वाक्ये स्यात्कारः, उपलक्षणमेतत् तेन एवकारोऽपि प्रतीयते / कुत इत्याह-अर्थात् सामर्थ्यात् / कारिकार्थः र तथाहि-पानीयमानय' इत्युक्ते यदि पानीयस्य अन्यस्य चानयनं . लौकिकानामभिप्रेतं स्यात्तदा पानीयपदोपादानमनर्थकं स्यात् / अथाप्यनानयनमभिप्रेतम् ; 10 आनयनग्रहणं व्यर्थम् / अस्ति च तदुभयग्रहणम् , अतः एवकारप्रतीतिः इति / क ? विधौ निषेधेऽपि, भिन्नप्रक्रमः अपिशब्दः 'अन्यत्र' इत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः / अन्यत्रापि अनुवाद-अतिदेशादावपि / अथ यदि सर्वत्र सः प्रतीयते “अगुल्यग्रे हस्ति-. . यूथशतमास्ते" [ ] इत्यौदावपि प्रतीयेत / तथा च “सर्वस्योभयरूपत्वे" [प्रमाणवा० 3 / 181] इत्यादिदोषानुषङ्गः स्यात् इत्यत्राह-'कुशलः' इत्यादि / यथा 15 योऽर्थः प्रमाणतः प्रतिपन्नः तथैव तस्य प्रतिपादकः प्रयोजकः कुशलो भवेत् नान्यथा, स चेत् यदि प्रयोजकः शब्दानामिति / ___ व्यतिरेकमुखेन कारिकां विवृण्वन्नाह-'क्वचिद्' इत्यादि / क्वचिद् विध्यादिवाक्ये _ स्यात्कारमनिच्छद्भिः एकान्तवादिभिः सर्वथा धर्मापेक्षया इव या धर्मापेक्षयाऽपि, यद्वा यथा धर्म्यपेक्षया तथा धर्मापेक्षयापि एकान्तः सर्वथैकान्तः सोऽभ्युपगतः स्यात् तत्र च प्रमाणविरोधः इत्यभिप्रायः / अतस्तद्विरोधं परिहर्तुमिच्छता सर्वत्र स्यात्कारोऽभ्युपगन्तव्यः / एवं व्यतिरेकमुखेन सर्वत्र स्यात्कारं प्रसाध्य इदानीं तथैव एवकारं प्रसाधयन्नाह-'अवधारण' इत्यादि। अवधारणस्य एवकारस्य अभावेऽपि न केवलं स्यात्काराभावे 'सर्वथैकान्तोऽभ्युपगतः स्यात्' इति सम्बन्धः / कुत एतदित्यत्राह-अनेकान्तनिराकरणस्य अवश्यम्भावित्वादिति / नीलं सरोजमिति वा यथा।"-प्रमाणवा०४।१९१-९२। “सामर्थ्याच्चाप्रयोगेऽर्थो गम्यः स्यादेवकारयोः।" -सिद्धिवि० टी०ए०५०७ B.न्यायवि० का०४५३। “सोप्रयुक्तोपि वा तज्जैः सर्वत्रार्यात प्रतीयते। यथैवकारोऽयोगादिव्यवच्छेदप्रयोजनः ।।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 137 / स्या० रत्ना० पृ०७१८। रत्नाक रावता०प०६१ / सप्तभंगित० पृ० 31 / स्या० मं० 10 279 / नयप्रदीप० 10 96 A. (1) तुलना-"अत्रान्यत्रापि इति-अनुवादातिदेशादिवाक्येषु ।"-आव०नि० मलय०प० 369 B. / (2) पृ० 530 टि० 3 / (3) पृ० 620 टि० 5 / 1-निराकाराभ्युपगमस्यावश्यं-ई० बि० / 2-युक्तो न ब० / 3–णमेतेन एव-ब० / 4 वानयन ब०, श्र०। प्रष्टव्यम् ब०। 6-पेक्षया तथा धर्मापेक्षयाप्येकान्तः श्र०। 7-मुखेण आ० / 8 अभावे न के-ब० / 9-वित्याह ब०। विवृतिव्या Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६३ ] एवकारप्रयोगविचारः तथाहि-'ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणो जीव एव' इति अन्ययोगव्यवच्छेदेन जीवस्यैव ऐतल्लक्षणलक्षितस्य अनेकान्तानभ्युपगमे अजीवोऽपि तैल्लक्षणः स्यादिति बहिरर्थव्यवस्थाविलोपः, तद्विलोपे च सकलप्रमाणप्रमेयादिव्यवहारापहारः। 'तल्लक्षण एव सः' इति अयोगव्यवच्छेदानभ्युपगमे च रूपादिरप्येतल्लक्षणं स्यात् इति जीवेतरविभागाभावः स्यात् / 'भवत्येव' इत्यवधारणाभावे अत्यन्तायोगाव्यवच्छेदः स्यात् / .. ननु साक्षात्प्रयुक्तस्य सामर्थ्यगम्यस्य वा एवकारस्यैव प्रतीतियुक्ता तत्साध्यस्य अयोगादिव्यवच्छेदफलस्य सर्वत्र वाक्ये संभवान्न पुनः स्यात्कारस्य निष्फलत्वात्। उक्तञ्च श्रयोगमपर्योगमत्यन्तायोगमेव च / ___ व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचकः // " [प्रमाणवा० 4 / 190 ] (1) "विशेष्यसङ्गतैवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा पार्थ एव धनुर्धरः / अन्ययोगव्यवच्छेदो नाम विशेष्यभिन्नतादात्म्यादिव्यवच्छेदः / तत्र एवकारेण पार्थान्यतादात्म्याभावो धनुर्धरे बोध्यते / तथा च पार्थान्यतादात्म्याभाववधनुर्धराभिन्नः पार्थ इति बोधः ।"-सप्तभंगि०५० 26 / "तत्र विशेष्यगतैवस्थले पार्थ एव धनुर्धर इत्यादौ अन्यतादात्म्यव्यवच्छेदोऽर्थः / अन्यत्वञ्च समभिव्याहृतपदार्थापेक्षिकम् / तथा च पार्थान्यतादात्म्याभाववद्धनुर्धराभिन्नः पार्थ इति बोधः ।"-वैयाकरणभू द०१० 370 / “यद्वा पार्थान्यस्मिन् प्रशस्तधनुर्धरत्वं व्यवच्छिद्यते।"-वाच० / न्यायको 10 191 / (2) ज्ञानदर्शनोपयोग। (3) एवकाराभावे अजीवोऽपि ज्ञानादिमान् स्यात्तथा च सर्वस्य चेतनात्मकत्वप्राप्त्या बाह्यद्रव्यस्य अचेतनस्य सर्वथाऽभावः स्यादिति भावः / (4) बाह्यार्थापलापे हि प्रमाणादिव्यवस्थाऽभावः, बाह्यार्थापेक्षयैव हि ज्ञाने प्रमाणतदाभास व्यवहारो भवति "बहिः प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभञ्च ते" (आप्तमी० का० 83 ) इत्यभिधानात् / (5) तानि ज्ञानदर्शनादीनि लक्षणानि यस्य जीवस्य असौ तल्लक्षणः / (6) “विशेषणसङ्गतैवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा शङ्ख पाण्डुर एवेति / अयोगव्यवच्छेदो नाम उद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम् / " -सप्तभंगि० पृ० 25 / “विशेषणसङ्गतैवस्थले अयोगव्यवच्छेदः 'शङ्खः पाण्डुर एव' इत्यादौ शङ्खत्वावच्छेदेन पाण्डुरवत्त्वसमवायाभावव्यवच्छेदबोधनात् / " वैयाकरणभू० दे० पृ० 370 / “अत्र शङ्खत्वावच्छेदेन पाण्डुरत्वायोगव्यवच्छेदो बुध्यते / अथवा विशेष्ये शङ्के पाण्डुरत्वायोगव्यवच्छेदो बोध्यते / " -(म०प्र० 1 पृ०७)"-न्यायको पृ० 191 / (7) एतस्य जीवस्य लक्षणं स्यात् / (8) जीवः ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणो भवत्येव / (९)"क्रियासङ्गविकारोऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकः यथा नीलं सरोज भवत्येव ।"-सप्तभंगि० पृ० 26 / वैयाकरणभू० द० पृ० 370 / “सरोजे नीलत्वात्यन्तायोगो व्यवच्छिद्यते ।"-वाच० / न्यायको पृ० 192 / (10) एवकारसाध्यस्य / (11) "अयोगं योगमपरैरत्य"निपात एवकारो व्यतिरेचक: नियामकः क्वचिद् धर्मस्य विशेषणस्य अयोगं व्यवच्छिनत्ति / क्वचिदपरैः विशेष्यादन्यैः योग व्यवच्छिनत्ति क्वचिदत्यन्तायोगं व्यवच्छिनत्ति / ननु निपातो न स्वयं वाचकः किन्तु द्योतकः तदस्य कथमयमर्थप्रभेद इत्याह-विशेषणविशेष्याभ्यां क्रियया च सहोदितः / द्योतकत्वादेव निपातो विशेषणेन सहोदितोऽयोगस्य व्यवच्छेदकः / विशेष्येण सहोक्तोऽन्ययोगस्य, क्रियया च सहोक्तोऽत्यन्तायोगस्येति विशेषणादिपदवाच्य एव अयोगव्यवच्छेदादिः तत्सहोक्तनिपातद्योत्य इत्यर्थः ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 4 / 190 / तुलना-सिद्धिवि०, टी० पृ०५०७A. / “यद्विनिश्चयः -अयोगं योगमपर "-षड्व बह० 10 14 / न्यायाव० टी० टि०१०१७ / “यदुक्तम्-अयोगमन्ययोगञ्च अत्यन्तायोगमेव च / व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य एवकारस्त्रिधा मतः ।।"-काव्यप्र० टी० पृ०८८ / 1-स्यानभ्यु-आ० / 2-क्षणः स्यात् आ० / 8-ध्य योगादि-ब०। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [है. प्रवचनपरि० निपात एवकारः व्यतिरेचकः निवर्तकः / तत्र 'चैत्रो धनुर्धर एव' इत्यत्र अयोगव्यवच्छेदः; तथाहि-परप्रतिपत्तये वाक्यं प्रयुज्यमानं यदेव परेण व्यामोहादाशङ्कितम् तदेव व्यवच्छिनत्ति, चैत्रश्च लोके धनुर्धरो न प्रतीतः, ततश्चैत्रस्य अधनुर्धरत्वशङ्काव्यवच्छेदेन धनुर्धरत्वविधानार्थं 'चैत्रो धनुर्धर एव' इति वाक्यं प्रयुज्यते / 'पार्थ एव धनुर्धरः' इत्यत्र अन्ययोगव्यवच्छेदः। नहि पार्थे अधनुर्धरत्वाशङ्का कस्यचिदस्ति धनुर्धरत्वेन अखिलजनप्रसिद्धत्वात्तस्य / तस्मात् यदतिशयवद्धनुर्धरत्वं तत् पुरुषान्तरसाधारणमाशङ्कितमिति तद्वयवच्छेदाय 'पार्थ एव धनुर्धरः' इति वाक्यं प्रयुज्यते / 'नीलं सरोजं भवत्येव' इत्यत्र तु अत्यन्तायोगव्यवच्छेदः; यदा हि सरोज नीलवर्णवि विक्तं प्रसिद्धमिति नीलत्वमस्य नास्तीति आशङ्कितं भवति तदा तद्वयवच्छेदाय 'नीलं 10 सरोजं भवत्येव' इति वाक्यं प्रयुज्यते इति / तदसमीक्षिताभिधानम् ; स्यात्कारमन्तरेण इष्टानिष्टयोविधिनिषेधानुपपत्तेः; तथाहि - 'पार्थ एव धनुर्धरः' इत्युक्ते सर्वत्र सर्वदा सर्वेषामन्यपुरुषाणां धानुर्धर्याभावः प्रतीयते, तत्र च प्रत्यक्षादिविरोधः / अथ विशिष्टं तदन्यपुरुषेषु प्रतिनियतदेशकाला पेक्षया प्रतिषेधुमिष्टं न धनुर्धरत्वमात्रं ततोऽयमदोषः / ननु अयमर्थः स्यात्कारप्रसा15 दादेव प्रत्येतुं शक्य इति, एतत्प्रयोजनत्वात् कथसौ निष्फलः यतः साक्षात्प्रयुक्तस्य सामर्थ्यगय॑स्य वा अस्य सर्वत्र वाक्ये प्रतीतिन स्यात् ? तथा 'चैत्रो धनुर्धर एवं' (1) “यत्र धमिणि धर्मसद्भावः सन्दिह्यते तत्राऽयोगव्यवच्छेदस्य न्यायप्राप्तत्वात् / अत्र दृष्टान्तो यथा चैत्रो धनुर्धर इति / चैत्रे हि धनुर्धरत्वं सन्दिह्यते किमस्ति नास्तीति / ततश्चैत्रो धनुर्धर इत्युक्ते पक्षान्तरमधनुर्धरत्वं श्रोतुराकाङक्षोपस्थापितं निराकरोति अयोगव्यवच्छेदोऽत्र न्यायप्राप्तः ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 15 / "चैत्रे धनुर्धरत्वसन्देहात् विशेषणेन अयोगमात्रं व्यवच्छिद्यते ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 4 / 192 / (2) “यथा पाणे धनुर्धर इति सामान्यशब्दोऽप्ययं धनुर्धरशब्दः प्रकरणसामर्थ्यादिना प्रकुष्टगुणवृत्तिरिह पार्थे हि धनुर्धरत्वं सिद्धमेवेति नाऽयोगाशङ्का / तादृशन्तु सातिशयं किमन्यत्राप्यस्ति नास्ति इत्यन्ययोगशङ्कायां श्रोतुर्यदा पार्थो धनुर्धर इत्युच्यते तदा सातिशयः पार्थ एव धनुर्धरो नान्य इति प्रतीयते / तेनात्र अन्ययोगव्यवच्छेदो न्यायप्राप्तः।"-प्रमाणवा० स्वव० टी० पृ० 15 / “पार्थे धनुर्धरत्वं प्रसिद्धमेव किन्तु तादशमन्यस्यापि किमस्तीति सन्देहे अन्ययोगव्यवच्छेदफलं विशेषणम् ।"-प्रमाणवा० मनोरथ०४।१९२। (3) अर्जुने / (4) "न खलु सर्वमेव नीलं सरोज येनायोगव्यवच्छेदः स्यात्, नापि सरोजमेव नीलं येन अन्ययोगव्यवच्छेदो भवेत् / किन्तुं 'नीलं सरोजं संभवति न वा' इत्यत्यन्तायोगसन्देहे विशेषणेन स एव व्यवच्छिद्यते ।"-प्रमाणवा० मनोरय० 4 / 192 / (5) यादृशं धनुर्धरत्वं पार्थे न तादृगन्यत्र इति / (6) तुलना-“यत्रापि अन्ययोगव्यवच्छेदोऽभिप्रेतस्तत्रापि योगविशेषो व्यवच्छिद्यते न योगसामान्यम्, यादृग पार्थे धनुर्धरता तादृगन्यत्र नास्तीति।"-तत्त्वार्थभा० व्या० पृ०४०९। (7) स्यात्कारः / 1"निपात एवकारो व्यतिरेचक: नास्ति ब०। 2 इत्यन्ययो-आ० / तदेतवसमी-ब०, श्र०। 4-य॑षय॑स्य श्र०। 5-म्यस्य सर्वत्र ब०। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६३ ] एवकारप्रयोगविचारः 'नीलं सरोजं भवत्येव' इत्यत्र अयोगाऽत्यन्तायोगयोः सर्वथा व्यवच्छेदे चैत्र-धानुर्धर्ययोः नीलसरोजयोश्च अन्यतरदेव स्यात् / अंथ स्वस्वरूपापरित्यागेनैव अनयोः अयोगाऽत्यन्ताऽयोगव्यवच्छेदः नतु अन्योन्यस्वरूपस्वीकारेण अतोऽयमदोषः ; तन्न ; स्यात्कारमन्तरेण अस्यार्थस्य प्रत्येतुमशक्यत्वात् / किश्च, 'चैत्रो धनुर्धरः' इत्यादिवाक्येषु धनुर्धरत्वादिभिः अयोगादिव्यवच्छेदं / कुर्वता एवकारेण अधनुर्धरत्वादीनामशब्दवाच्यानामपि ततोऽन्यत्वानिवृत्तिर्यदि विधीयते; तर्हि शूरत्वोदारत्वादिधर्माणामपि विधीयतां शब्दवाच्येभ्यो धनुर्धरत्वादिभ्योऽन्यत्वाविशेषात् / अथ यो धर्मो यत्र नियम्यते तद्विरोधिन एव तत्र निवृत्तिः चैत्रे च धनुर्धरत्वनियमे अधनुर्धरत्वं विरुद्धम् , पार्थे च असाधारणधनुर्धरत्वविधौ सकलजगत्साधारणं तेद् विरुद्धम् , सरोजे च नीलत्वसंभवविधौ तदसंभवमानं विरुद्धम् , अतः तस्यै- 10 वाऽतो निवृत्तिः नतु शूरत्वादिधर्माणाम् तेषां तदन्यत्वेऽप्यविरुद्धत्वात् इति; तदेतदन्धसर्पविलप्रवेशन्यायमनुसरति, एवंविधप्रविभागस्य स्याद्वादानभ्युपगमे अनुपपत्तेः / ननु तदभ्युपगमेऽपि शब्दानभिधेयत्वाविशेषे कथं विरोधिन एव निवृत्तिः नतु सर्वस्य इति चेत् ; तथा सामर्थ्यात् / स्वार्थप्रतिपादनाय हि शब्दप्रयोगो न व्यसनितया। स्वार्थश्च भावाभावात्मकः प्रत्यक्षवत् शब्देऽपि प्रतिभासते। भावाभावव्यवहारश्च स्वरूपप्रतियो- 15 ग्यपेक्षानिबन्धनः / नच अविरुद्धस्य प्रतियोगित्वं युक्तम् , अतः कथं सर्वस्य निवृत्तेः शङ्कापि इति ? ततः स्थितम् 'अवधारण' इत्यादि / (१)तुलना-"अयोगव्यवच्छेदेन हि अस्तिना योग इष्यते। स च योगः किं सामान्यरूपेण अस्तिना प्रत्याय्यतेऽथ विशेषरूपेण उतोभयरूपेणेति सर्वथा प्राक्तनदोषप्रसङ्गः / व्यवच्छेदोऽपि अस्तित्वसामान्यायोगस्य वा अस्तित्वविशेषायोगस्य वा उभयायोगस्य वा ?"-तत्त्वार्थभा० व्या० पृ. 409 / "चैत्रस्य धनुषा अयोगे व्यवच्छिन्ने योगः प्रतिपादितो भवेत् इतरथा चैत्रो धनुर्धर एवेति प्रयोगानुपपत्तिः / सैव सर्वथा कथञ्चिद्वा स्यात् ? आद्ये पद्ये चैत्रस्य धनुषाऽयोगे व्यवच्छिन्ने सति न चैत्रता सिद्धयेत् धनुर्भावः सिद्धयेत् / केषामित्याह-स्याद्वादविद्विषाम् एकान्तवादिनामित्यर्थः।"-सिद्धिवि० टी० 10508 B. / (2) "अत्यन्तायोगव्यवच्छेदेऽपि अत्यन्तमयोगो नास्ति योग एव सर्वथा, अथवा कदाचिदस्ति कदाचिन्नास्तीत्येवं च विकल्पद्वयेऽपि प्राच्य एव प्रसङ्गो योज्यः ।"-तत्त्वार्थभा० व्या० पृ०४०९ / “यच्चान्यदुक्तं क्रियया सहोदितोऽत्यन्तायोगमेव च व्यच्छिनत्ति निपातो व्यतिरेचकः इति; तत्र दूषणमाह-प्राप्तमित्यादि / नीलं सरोजं भवत्येवेति चेत् यदि तहि समन्तात् नित्यं सर्वदा नीलं सरोजैकरूपं व्यक्तं यथा भवति तथेदं जगत् प्राप्तम् / अयमभिप्राय:-सर्वथा कथञ्चिद्वा नीलं सरोजं भवत्येव ? प्रथमपक्षेऽयं दोषः, अन्यत्र अनेकान्त इति ।"-सिद्धिवि० टी० पृ० 510 A. / (3) धनुर्धरत्वात् / (4) निवृत्तिविधीयताम् / (5) धनुर्धरत्वम् / (6) नीलत्वासंभवमात्रम् / (7) एवकारात् / (8) धनुर्धरत्वाभिन्नत्वेऽपि / (9) धनुर्धरोऽपि स्यात् शूरश्च उदारश्च इति न कोऽपि विरोधः / (10) स्वरूपस्य प्रतियोगिनश्चापेक्षा, स्वरूपापेक्षो भावव्यवहारः प्रतियोग्यपेक्षोऽभावव्यवहार:-आ० टि। __ 1 व्यवच्छेदाच्चैत्र-ब०। 2 अथ स्वरूपा-ब०। 3 विधीयेत श्र०। 4-यस्यते आ०।-वृत्तः श्र०। 6 ननु आ० / 7 स्वार्थस्वभावात्मक: ब०। 8-त्मकं प्र-श्र०। 9 निवृत्ते शंकापि आ० / Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० ननु 'जीवोऽस्ति' इत्युक्ते तत्र अस्तित्वम् , 'नास्ति' इत्युक्ते नास्तित्वम्, उभयवचनेन उभयं प्रतीयते अतो न युक्तम् 'अवधारण' इत्यादि; इत्यत्राह-'अन्यथा' इत्यादि। अनेकान्तनिरासस्य अवश्यंभावित्वाभावप्रकारेण अन्यथा प्रमाणनययोरभेदप्रसङ्गात् कारणात् 'सर्वथैकान्तोऽभ्युपगतः स्यात्' इति सम्बन्धः। अवधारणाभावे धर्मिवत् 6 धर्मेऽपि अनेकान्तप्रसङ्गात् / अपरमपि स्याद्वादमन्तरेण नश्यति इति दर्शयन्नाह-'किं बहुना' इत्यादि / किम् ? न किश्चित् बहुना 'उक्तेन' इत्यध्याहारः। विधिनिषेधानुवादातिदेशादिवाक्येषु, आदिशब्देन नियमादिवाक्यपरिग्रहः, कारकेषु कादिषु, वार्थादिषु आदिशब्देन लिङ्गादिपरिग्रहः, प्रातिपदिकार्थेषु साधनदूषणतदाभास वाक्येषु, चशब्दः अत्र समुच्चायार्थो द्रष्टव्यः / स्याद्वादमन्तरेण 'प्रस्तुताऽप्रसिद्धिः' 10 इति सम्बन्धः / इति एवम् आबालप्रसिद्धम् नै स्वेच्छया कल्पितमिति यावत् / नैनु शब्दः सर्वोऽपि विवक्षाप्रतिबद्धत्वात् तामेव गमयति नार्थम्, अतोऽयुक्तमुक्तम्-'तत्र जीव इत्युक्ते' इत्याद्याशङ्क्याह वर्णाः पदानि वाक्यानि प्राहुरर्थानवाञ्छितान् / वाञ्छितांश्च क्वचिन्नेति प्रसिद्धिरियमीदृशी // 14 // स्वेच्छया तामतिक्रम्य वदतामेव युज्यते / वेक्त्रभिप्रेतमात्रस्य सूचकं वचनं त्विति // 65 // विवृतिः-वर्णपदवाक्यानां वाचकत्वं यथास्वम् आगमात् प्रतिपत्तव्यम् / वक्त्रभिप्रायान् भिन्नस्यार्थस्य वाचकाः शब्दाः सत्यानृतव्यवस्थाऽन्यथानुपपत्तेः / अयं च प्रसंगोऽन्यत्र विस्तरेणोक्तः इति नेह प्रतन्यते / शब्दानामर्थव्यभिचारित्वे (1) अनेकान्तनिरासोऽवश्यं भवतीति न-आ० टि० / (2) स्याज्जीवः सन्नेवेति हि नयवाक्यम्, अत्र चेदवधारणं न क्रियते तदा यथा धर्मिणि जीवे अवधारणरहिते अनेकान्तोऽस्ति तथा धर्मेऽपि अस्तित्वाख्ये स प्राप्नोति, नयरूपञ्चेदम्, धर्मिण्यनेकान्तः धर्मे एकान्तः -आ० टि०। (3) बौद्धः / (4) "प्राहुरभिदधति / के ? वर्णाः अक्षराणि गकारादीनि / तथा पदानि गवादीनि तथा वाक्यानि च गामानयेत्यादीनि / कान् ? अर्थान् अभिधेयान् / किं विशिष्टान् ? अवाञ्छितान्, अविवक्षितान् भम्यादीन, वाञ्छितांश्च विवक्षितानपि सास्नादिमदादीन् / क्वचित् मन्दबुद्धिषु प्रतिपाद्येषु न प्राहुः तेषां ततोऽर्थाधिगमाभावात् इत्येवं प्रकारा सर्वजनप्रतीता प्रसिद्धिः रूढिः / ईदृशी विचित्रा व्ववहारिभिरभ्युपगन्तब्या तथैवार्थक्रियोपपत्तेः / ... तां प्रसिद्धिमतिक्रम्यैव उल्लंघ्यैव / स्वेच्छया स्वैरभावेन वदतां कथयतां सौगतानां युज्यते युक्तं भवतीति, अधिक्षेपवचनम् / कथम् ? शब्दः सूचकं वाचकम् / कस्य ? वक्त्रभिप्रेतमात्रस्य वक्तुः प्रयोजकस्याभिप्रेतमभिप्रायो विवक्षा तावन्मात्रस्यैव न बहिरर्थस्येति / नः अहो आश्चर्यमित्याक्षेपो गम्यते, सामान्यविशेषात्मनो बहिरर्थस्य शब्दप्रयोगात्प्रतीतेस्तस्यैव तदर्थत्वात अभिप्रायस्य ततः स्वप्नेप्यप्रतीतेः ।"-लघी० ता० पृ 87 / (५)तुलना-"तदुक्तम्-विवक्षाप्रभवा हि शब्दास्तामेव संसूचयेयुः।"-तत्त्वोप० पृ० 120 / 1 'नास्तीत्युक्ते नास्ति आ०। 2 नत्वेच्छया ब० / विति आ०, मु. लघी०। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] शब्दनित्यत्ववादः 667 अभिप्रेतव्यभिचारित्वं कुतोऽपनीयते सुषुप्तादौ वाग्वृत्तेर्दर्शनात् / अनिच्छतामपि अपशब्दादिभाषणसद्भावात् वाञ्छतामपि मन्दबुद्धीनां शास्त्रवक्तृत्वाभावात् / उभयत्र व्यभिचारान कस्यचिद्वाचकाः शब्दा इति अलौकिकप्रतिभानम् / लोको हि अर्थस्याप्त्यनाप्तिषु सत्यानृतव्यवस्थामातिष्ठेत शब्दस्य नाभिप्रायमात्रे तत्र शब्दव्यवहारबाहुल्याभावात् / अबाधितां तत्प्रतीतिमतिक्रम्य खेच्छया प्रमाणप्रमेय- 6 खरूपमातिष्ठमानानां युक्तम्-अभिप्रेतमात्रसूचकत्वं शब्दानाम् / वर्णपदवाक्यानि प्राहुः, कान् ? अर्थान् घटादीन् / किंविशिष्टान् ? कारिकार्थः . अवाञ्छितान् वाञ्छयाऽविषयीकृतान् वाञ्छितांश्च तद्विषयी कृतांश्च शास्त्रव्याख्यानाद्यर्थान् कचित् मन्दबुद्धिप्राणिषु न प्राहुः इति एवं प्रसिद्धिः लोकप्रतीतिरियं सकलजनसाक्षिकी। ईदृशी विचित्रा / तदन- 10 भ्युपगमे दूषणमाह-'स्वेच्छया' इत्यादि / स्वेच्छया स्वाभिप्रेतप्रक्रियामात्रेण तां प्रसिद्धिमतिक्रम्यैव वदतां सौगतानां युज्यते। किं तद् ? इत्याह-वक्त्रभिप्रेतमात्रस्य सूचकं वचनं त्विति / ___ननु वर्णादयोऽर्थानवाञ्छितान् किमनित्याः सन्तः प्रतिपादयन्ति, नित्या वा ? / तत्राद्यः पक्षोऽनुपपन्नः; अनित्यत्वे तेषाम् उत्पन्नमात्रप्रध्वंसित्वेन 15 शब्दनित्यत्ववादिना - मीमांसकानां पूर्वपक्षः सङ्केतव्यवहारकालाननुयायित्वतः तत्प्रतिपादकत्वानुपपत्तेः / द्वितीय ___ पक्षस्तु उपपन्नः; नित्यानां तेषां तदनुयायित्वेन तत्प्रतिपादकत्वोपपत्तेः। . ' प्रमाणतः तन्नित्यत्वस्यैव प्रसिद्धेश्व। तथाहि-'स एवाऽयं गकारः' इत्यादि प्रत्यभिज्ञा (1) तुलना-"विवक्षामन्तरेणापि वाग्वृत्तिर्जातु वीक्ष्यते / वाञ्छन्तो वा न वक्तारः शास्त्राणां मन्दबुद्धयः ॥"-न्यायवि. का. 354 / "विज्ञानगुणदोषाभ्यां वाग्वत्तेर्गणदोषता / वाञ्छन्तो वा न वक्तारः शास्त्राणां मन्दबुद्धयः ।"-प्रमाणसं० का० 16 / प्रमाणसं० टि० पृ० 173 पं० 23 / (2) तुलना-"बुद्धिशब्दप्रमाणत्वं बाह्यार्थे सति नासति / सत्यानृतव्यवस्थेवं युज्यतेऽर्थाप्त्यनाप्तिषु // " -आप्तमी० का०८७। (3) अर्थप्रतिपादकत्वाऽनुपपत्तेः / “यदा हि क्षणिकः शब्दो न शक्तोऽर्थावधारणे / न हि क्षणिकस्य सम्बन्धग्रहणं संभवति..."-मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 3, न्यायर०। (4) कुमारिलमते हि शब्दो नित्यः द्रव्यरूपश्च / "श्रोत्रमात्रेन्द्रियग्राह्यः शब्दः शब्दत्वजातिमान् / द्रव्यं सर्वगतो नित्यः कुमारिलमते मतः ॥"-मानमेयो०१० 218. प्रभाकरमते च शब्दो नित्योऽपि आकाशस्य गुणो न तु स्वतन्त्रं द्रव्यम् / द्रष्टव्यम्-"आकाशश्च शब्दवानिति, स एव श्रोत्रं तद्गुणश्च शब्द:.."-प्रक० पं० न्यायशुद्धिप्रकरणम / (5) सङ्कतव्यवहारकालव्यापकतया। (6) "वयं तावत्प्रत्यभिजातीमो न नः करणदौर्बल्यम्, एवमन्येऽपि प्रत्यभिजानन्ति, स एवायमिति प्रत्यभिजानानाः प्रत्यभिजानन्ति चेद्वयमिवान्येऽपि नान्य इति वक्तुमर्हन्ति ।"-शाबरभा० शश२० / “प्रत्यभिज्ञयैव कालान्तरावस्थायिता सिद्धचति, कालान्तरावस्थितिश्च सप्रत्यभिज्ञप्रत्यक्षगम्येत्यक्तम।"-बहती०१।१।१८। "शब्दोऽपि 1 कुतोऽप्रतीयते ज०वि०। 2 अर्थस्यानाप्ति-ज०वि०। 3 तत्र शब्दव्यवहारस्थितिमप्रतिक्रम्य स्वेच्छ-ई०वि०। 4 अबाधितमतिक्रम्य ज०वि०। 5-वं सिद्धिः श्र०। 6 न्विति आ० / 7-त्याः प्रति-ब०। 8 'वा' नास्ति श्र०। 38 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 668 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [. प्रवचनपरि० ख्यप्रत्यक्षत एव तावच्छब्दानां नित्यत्वं प्रतीयते / न चास्य अज्ञानलक्षणमप्रामाण्यम् प्रतिप्राणि संवेद्यमानत्वात् / नापि संशयरूपम् ; एकांशावलम्बित्वात् / उभयांशावलम्बी हि प्रत्ययः संशयः, न चेदं तथा / नापि मिथ्यास्व(त्व) रूपम् ; अबाध्यमानत्वात् / यदेव हि ज्ञानं बाध्यते तदेव मिथ्या प्रसिद्धं यथा शुक्तिकायां रजतज्ञानम् , न चेदं देशकालनरान्तरेष्वपि बाध्यते / न च दुष्टकारणप्रभवत्वादस्याप्रामाण्यम् ; तत्कारणानां दुष्टत्वानिश्चयात् / नापि अधिगताधिगन्तृत्वात् ; स्मर्यमाणानुभूयमानविशेषणावच्छिन्नस्य गकारादेः पूर्वसंवेदनाविषयत्वात् / तदुक्तम् "पूर्वावगतोऽशोऽत्र स न नाम प्रतीयते / इदानीन्तनमस्तित्वं न हि पूर्वधिया गतम् // ". [ मी० श्लो० प्रत्यक्ष० श्लो० 233-34 ] इति / प्रत्यक्षत्वश्चास्यं श्रोत्रेन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् सुप्रसिद्धम् / न च स्मृतिपूर्वकत्वादस्य अप्रत्यक्षत्वं युक्तम् ; तत्पूर्वकत्वेऽप्यस्य सैसँम्प्रयोगजत्वेन प्रत्यक्षत्वोपपत्तेः / उक्तश्चप्रत्यभिज्ञानात् प्रागस्तीत्यवगम्यते।"-मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 33 / भाट्टचि० पृ० 26 // "एतदुक्तं भवति-प्रत्यभिज्ञाख्यविशेषप्रत्ययबलेन ह्यस्तनाद्यतनगकारयोरेकत्वावगमान्नित्यत्वमाश्रीयते ... अतो गत्वादिसामान्यनिबन्धनेयं प्रत्यभिज्ञा सिद्धयति / एवं सति व्यक्तिभेदे सामान्यं तदभावात्तु नास्ति सामान्यमित्येव वक्तव्यम् , अतः सिद्धं प्रत्यभिज्ञया शब्दस्य नित्यत्वम्।"-शास्त्रदी० 50 540,568 / तन्त्ररह० पृ० 26 / (1) प्रत्यभिज्ञानस्य। (2) प्रत्यभिज्ञानस्य मिथ्यात्वरूपमप्रामाण्यम् / (3) प्रत्यभिज्ञानम् / (4) प्रत्यभिज्ञानकारणानामिन्द्रियादीनाम् / “प्रमाणं प्रत्यभिज्ञानं दृढेन्द्रियतयोच्यते ।"-मी० श्लो. शब्दनि० श्लो० 372 / (5) स एवापम्-आ० टि०। (6) पूर्वप्रत्यक्ष / (7) "ननु गृहीतमपि गृह्यते इति कथं प्रामाण्यमत आह य इति / तस्मिन्नं मा भूत्प्रामाण्यम् अगृहीतकालान्तरसम्बन्धापेक्षमेव तु प्रामाण्य मिति ।"-न्यायर० / "ननु न केवलमधिकं गम्यते किन्तु प्रागवगतमपि इति कथं प्रामाण्यमत आह यः पूर्वेति / सविकल्पके हि शब्दार्थस्वरूपसम्बन्धकालसम्बन्धाः प्रथन्ते तत्र शब्दादिरंशोऽस्मृतिविषय इति मा नाम प्रमाणविषयो भवतु इदानीन्तनी तु वस्तुसत्ता न पूर्वमवधृतेत्यस्ति तत्र प्रमाणावसर इति स्थितं प्रामाण्यम् / इन्द्रियव्यापारानुविधानाच्च प्रत्यक्षत्वमिति / एकञ्चेदं पूर्वविज्ञानजनितसंस्कारप्रत्युत्पन्नेन्द्रियादिकारणकं वेदितव्यम् ।"-काशिका / 'पूर्वमवगतोऽशः स न नाम'प्रमेयक० पृ० 339 / 'पूर्वमवगतो नांशः स च नाम'-सन्मति० टी० 319 / 'यः पूर्वावगतोऽशोऽत्र स नो नाम'-स्या०र० पृ० 675 / उत्तरार्धम्-तत्त्वोप० पृ० 27 / प्रमाणवा० स्व० टी० पृ० 77 / तत्त्वसं० पृ० 159 / (8) स एवायं शब्द इति प्रत्यभिज्ञानस्य / (9) प्रत्यभिज्ञानस्य / "तत्र शब्दार्थसम्बन्धं प्रमातुः स्मरतोऽपि या / बुद्धिः पूर्वगृहीतार्थसन्धानादुपजायते // चक्षुषा सनिकृष्टेऽर्थे नाऽप्र. त्यक्षमसौ भवेत् ॥"-मी० श्लो० प्रत्यक्ष० श्लो० 229-30 / (10) संश्चासौ सम्प्रयोगश्चेति कर्मधारयः तथा च इन्द्रियाणामर्थेन सार्क सम्बन्धे विद्यमाने सतीत्यर्थः / तुलना-"किं पुनरिदं प्रत्यभिज्ञाख्यं प्रमाणम् ? प्रत्यक्षमिति ब्रूमः / पूर्वानुभवजनितसंस्कारसध्रीचीनेन्द्रियजन्यत्वात् ग्रहणस्मरणरूपमिदमेकं ज्ञानम् ।"-शास्त्रदी० पृ० 568 / 1 सत्संयोग-श्र०। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनंप्र० का०६५] शब्दनित्यत्ववादः "नैहि स्मरणतो यत् प्राक् तत्प्रत्यक्षमितीदृशम् / वचमं राजकीयं वा लौकिकं वापि विद्यते // 1 // न चापि स्मरणात् पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्त्तनम् / वार्यते केनचिन्नापि तत्तदानी प्रदुष्यति // 2 // तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धात् पागूर्ध्वञ्चापि यत्स्मृतेः / विज्ञानं जायते सर्व प्रत्यक्षमिति गम्यताम् // 3 // " [मी० श्लो० प्रत्यक्ष० श्लो० 234-37 ] इति / एवमतः शब्दस्य नित्यत्वे सिद्धे इदानीमिव अन्यदापि यच्छब्दस्योच्चारणं न / तत्तस्य जनकं किन्तु अभिव्यञ्जकम् / अत इदमुच्यते-अन्यदापि यत् शब्दस्य उच्चारणं तदस्याभिव्यञ्जकम् उच्चारणत्वात् , यद् यद् उच्चारणं तत्तदभिव्यञ्जकम् यथा एतत्कालोपलक्षितमुच्चारणम् , तथा च प्रेकृतम् , तस्मादिदमपि तथा / तथा, विवादाध्यासितो वा कालः गादिसम्बद्धः कालत्वात् प्रतिपादितशब्दसम्बद्धकालवत् / अतः सिद्धमस्य अनुमानतोऽपि नित्यत्वम् / इतोऽप्यनुमानात् 10 तत्सिद्धम्-नित्यः शब्दः, श्रावणत्वात् , यद् यदेवं तत्तथा यथा शब्दत्वम् , तथा चाऽयम् , तस्मादयमपि तथा / तथा, देशकालादिभिन्ना गोशब्दव्यक्तिबुद्धयः एकगोशब्दविषया (1) 'नन्विदं भवत्यधिकविषयं स्मरणोत्तरकाले भवत् कथं प्रत्यक्षम् ? न हि निर्विकल्पकस्य प्रत्यक्षस्यैष धर्मो दृष्ट अतः आह-नहीति। न हि स्मरणात् प्राग्भाविता प्रत्यक्षलक्षणम्, अपि तहि इन्द्रियजत्वम्, तच्चात्राप्यविशिष्टमिति भावः / यदि स्मरणेनेन्द्रियप्रवृत्तिरेव वार्यते तदा दूष्यते, ततस्तदुत्तरकालं जायमानं सविकल्पकं प्रत्यक्षं भवेदपि, न त्वेतदस्ति इत्याह न चेति / यतः स्मृत्या नेन्द्रियं विरुध्यते न वा दूष्यते, तेन प्रागवं वा स्मृतेर्यदिन्द्रियार्थसम्बन्धाद् ज्ञानं जायते सर्वं तत्प्रत्यक्षमभ्युपगन्तव्यमित्याह-तेनेति ।"-काशिका / (2) अर्थात् यच्च स्मरणादूध्वं तदप्रत्यक्षम्-आ० टि० / (3) 'राजकीयं वा वैदिकं वापि'-मी० इलो० / 'राजकीयं वा लौकिकं नापि'-सन्मति० टी० ए० 319 / उद्धृता इमे-प्रमेयक० पृ० 339 / सन्मति० टी० पृ० 319 / स्या० र० 499 / (4) प्रत्यभिज्ञानात् / (5) शब्दस्य / (6) "यदि विस्पष्टेन हेतुना शब्दस्य नित्यत्वं वक्तुं शक्ष्यामः ततो नित्यप्रत्ययसामर्थ्यात् प्रयत्नेनाभिव्यज्यते इति भविष्यतीति ।"-शाबरभा० 111 / 12 / "शब्दस्य प्रयत्न एव कारणतया संभावितः। स च प्रत्यभिज्ञाबलेन द्वितीयादिदर्शनेष्वभिव्यञ्जकतामापादित इति प्रथमदर्शनेप्यसौ अभिव्यञ्जक एव अतः कारणरहितत्वेन सत्त्वान्नित्यः शब्द: गगनादेरिव नास्याऽनित्यतेति ।"-प्रक० पं० 10 170 / भाट्टचि० पृ० 26 / “एवञ्चोच्चारणं शब्दस्य न कारणं किन्तु अभिव्यञ्जकमिति सिद्धम् / न चोच्चारणादन्यत्कारणं संभवतीत्यकार्यत्वम्, अत एवाविनाशान्नित्यत्वसिद्धिः ।"शास्त्रदी० पृ० 590 / "शब्दः प्रयत्नाभिव्यङ्यः यथा तदनुत्पाद्यत्वे सति तदनन्तरमुपलब्धः, यो यदनुत्पाद्यत्वे सति यदनन्तरमुपलभ्यते स तदभिव्यङ्ग्यः यथा प्रदीपानन्तरमुपलभ्यमानो घट: ।"तन्त्ररह० पृ० 26 / मानमेयो० पृ० 221 / (7) "श्रौत्रता चेयं हेतुः शब्दत्ववत्कृतः / यद्वा श्रोत्रप्रत्यक्षत्वमत्र हेतुः, तद्धि शब्दत्वदृष्टान्तेन शक्नोति नित्यत्वं साधयितुमित्याह श्रौत्रेति।"-मी०श्लो०, न्यायर० शब्दनि० श्लो० 393 / 'प्रयोगश्चैवं भवति नित्यः शब्दः श्रावणत्वाच्छब्दत्ववत् ।"-शस्त्रदी० पृ० 585 / (8) "देशकालादिभिन्ना वा समस्ता गोत्वबुद्धयः / एकगोशब्दजन्याः स्युर्गोधीत्वादेकबुद्धिवत् // गोशब्दबद्धयोऽप्येवमेकगोशब्दगोचराः।। गोशब्दविषयत्वेन कल्प्यतामेकबधिवत ॥...."गोशब्दबद्धया ह्यस्तन्या गोशब्दोऽयं प्रकाशितः / गोशब्दविषयत्वेन यथैवाद्यप्रसूतया / इयं वा तं विजानाति तद्धेतोः पूर्वबुद्धिवत् / उभे वाप्येकविषये भवेतामेकबुद्धिवत् ।"-मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 418-21 / 1 प्रागवापि आ० / 2-पि शब्दस्य श्र० / 3 प्रकतत्वं त-श्र०। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 700 . लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० न चानेकार्थगोचरा गौरित्युत्पद्यमानत्वात् सम्प्रत्युत्पन्नगोशब्दबुद्धिवत् / 'गोशब्दव्य- . क्तिबुद्धयः' इत्युच्यमाने सिद्धसाध्यता स्यात् , एकगोशब्दव्यक्तिबुद्धेः एकविषयत्वाभ्युपगमात् , तन्निवृत्त्यर्थं बहुवचनम् / तथा 'सामान्ये गोशब्दनिबन्धनाः समाना एव धियः प्रभवन्ति' इति तन्निरासार्थ व्यक्तिग्रहणम् / एकस्मिन् देशे काले वा बहूनां प्रमातृणां गोशब्दज्ञानानि एकगोशब्दव्यक्तिगोचराणि इति सिद्धसाध्यताप्रसङ्गव्यवच्छेदार्थ 'देशकालादिभिन्नाः' इत्युक्तम् / ह्यस्तनो वा गोशब्दः अद्याप्यनुवर्तते गौरिति ज्ञायमानत्वात् अद्योच्चारितगोशब्दवत् / अद्यतनो वा गोशब्दः ह्योऽपि आसीत् गौरिति ज्ञायमानत्वात् ह्य उच्चारितगोशब्दवत् / "शब्दो वा वाचकः दीर्घकालावस्थायी सम्बन्धबलेन अर्थमतिजनकत्वात् धूमसामान्यवत् / यस्तु अस्थिरः स सम्बन्धबलेन 10 नार्थं बोधयति तादात्विकनिमित्तत्वात् प्रदीपविद्युत्प्रकाशवत् / तदेवम् तुलना-"देशकालादिभिन्नाश्च गोशब्दव्यक्तिबुद्धयः / समानविषयाः सर्वा न वा नानार्थगोचराः // गौरित्युत्पद्यमानत्वात् सम्प्रत्युत्पन्नबुद्धिवत् / गोशब्दव्यक्तिषु या बुद्धयो देशकालद्रुतमध्यबिलम्बितादिप्रति: . भेदभासभिन्नास्ता एकार्थविषया: नानार्थविषया न वा भवन्ति गौरित्याकारोपग्रहेणोत्पद्यमानत्वात् सम्प्रत्युत्पन्नगोबुद्धिवत् / अथवा या या गोशब्दविषया बुद्धिः साऽद्यतनगोशब्दविषया गोशब्दविषयत्वात् अद्यप्रसूतगोशब्दबुद्धिवत् / गोशब्दविषया च ह्यस्तनी गोशब्दबुद्धिरिति स्वभावहेतुः / अथवा अह्यस्तनी गोशब्दबुद्धिर्धर्मिणी ह्यस्तनगोशब्दविषयत्वं साध्यधर्मः गोशब्दविषयत्वादिति हेतुः ह्यस्तनी गोशब्दबुद्धिदृष्टान्त: ." अथवा, उभे ह्यस्तन्यद्यतन्यौ बुद्धी एकविषये गोशब्दविषयत्वादेकगोशब्दबुद्धिवत्। अथवा, समस्ता गोत्वबुद्धयः देशादिभेदभिन्ना एकगोशब्दजन्या गोधीत्वादेकगोबुद्धिवत्। पूर्वं गोशब्दविषया बुद्धयः धर्मिण्यः एकविषयत्वञ्च साध्यम्, इदानीञ्च गोत्वजातिविषया बुद्धयो धर्मिण्यः एकगोशब्दजन्यत्वं साध्यमिति विशेषः।"-तत्त्वसं० 50 पृ० 592 / स्या०र० पृ० 676 / (1) "नित्ये तु सति गोशब्दे बहुकृत्व उच्चरितः श्रुतपूर्वश्चान्यासु गोव्यक्तिषु अन्वयव्यतिरेकाभ्यामाकृतिवचनमवगमयिष्यति, तस्मादपि नित्यः ।"-शाबरभा०१।१।१९। “ह्यस्तनोच्चारितस्तस्माद्गोशब्दोऽद्यापि विद्यते / गोशब्दज्ञानगम्यत्वाद्यथोक्तोऽद्यैष गौरिति ॥"-मी०श्लो०शब्दनि०इलो० 416 / (2) "ह्यो वाऽऽसीदेष गौशब्द: पूर्वोक्तेनैव हेतुना / यद्वा गोत्वाभिधायित्वं वाच्यो हेतुयोरपि ॥"मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 417 / तुलना-"गौरिति श्रूयमाणोऽद्य ह्योऽपि शब्दो मया श्रुतः। हेतोः पूर्वोदितादेव ह्य उच्चारितशब्दवत् ॥"-तत्त्वसं० पृ० 592 / स्या० र० पू० 676 / (3) "अत्रोच्यते स्थिरः शब्दो धूमगोत्वादिजातिवत् / सम्बन्धानुभवापेक्षसामान्यार्थावबोधनात् // " -मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 311 / तुलना-"शब्दो वा वाचको यावान् स्थिरोऽसौ दीर्घकालभाक् / सम्बन्धानुभवापेक्षज्ञेयज्ञानप्रवर्तनात् / य ईदृक् स स्थिरो दृष्ट: धूमसामान्यभागवत् ॥"-तरवसं० पृ० 592 / स्या० र० पृ० 676 / (4) वाच्यवाचकभावेन-आ० टि० / (5) तुलना-"अस्थिरस्तु न सम्बन्धज्ञानापेक्षोऽवबोधकः / तादात्विकनिमित्तत्वाद् दीपविद्युत्प्रकाशवत् ॥"-तत्त्वसं० पृ० 592 / स्या० र० पु०६७६ / (6) न हि प्रदीपादिप्रकाशस्य नियतेन घटादिना सम्बन्धोऽस्ति, तादात्विकनिमित्तत्वात्, यत्र यत्र याति तत्र तत्र प्रकाशयति / सम्बन्धे हि स्मृत्यपेक्षा भवति, न च घटप्रदीपादयस्तथा -आ०टि० / "तादात्विकं तावत्कालिकं व्यवहारकालानुयायि निमित्तं सम्बन्धो यस्य स तथोक्तः तद्भावस्तत्त्वम् ।"-तत्त्वसं० पं० पृ० 593 / स्या० 2010 676 / 1 ह्यापि ब०। 2 गोशब्दो वा श्र०। 3 चोदयति श्र। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनंप्र० का०६५ ] शब्दनित्यत्ववादः "कञ्चित् कालं स्थिरः शब्दः सर्वकालमपि स्थिरः / विनाशहेतुशून्यत्वात् सामान्याकाशकालवत् // " [ ] तथा, विवादाध्यासितः कालः गादिशब्दशून्यो न भवति कालत्वात् इदानीन्तनकालवत् / तथा, अर्थापत्तितोप्यस्य नित्यत्वं सिद्धम् ; तथाहि-नित्यः शब्दः ततोऽर्थप्रतिपत्यन्यथानुपपत्तेः / न चेय अन्यथापि अन्यथैव वा उपपद्यते; शब्दस्यानित्यत्वे सर्व- 5 थानुपपद्यमानत्वात् / प्रतिपन्नप्रतिबन्धाद्धि शब्दादर्थप्रतिपत्तिः स्यात्, नान्यथा अतिप्रसङ्गात् / न चाऽनित्यत्वे शब्दस्य प्रतिपन्नप्रतिबन्धस्य उत्तरकालमनुवृत्तिः संभवति; तस्य तदैव विनाशात् / तदुक्तम्"र्थापत्तिरियं चोक्ता पक्षधर्मादिवर्जिता। यदि नाशिनिनित्ये वा विनाशिन्येव वा भवेत् // 1 // (1) 'अनपेक्षत्वात् 1 / 1 / 21 / येषामनवगतोत्पत्तीनां द्रव्याणां भाव एव लक्ष्यते तेषामपि केषाञ्चिदनित्यता गम्यते येषां विनाशकारणमुपलभ्यते, यथा अभिनवं पटं दृष्ट्वा / न चैनं क्रियमाणमुपलब्धवान् अथ चानित्यत्वमवगच्छति रूपमेव दृष्ट्वा / तन्तुव्यतिषङ्गजनितोऽयं तन्तुव्यतिषङ्गविनाशात्तन्तुविनाशाद्वा विनश्यतीत्यवगच्छति / नैवं शब्दस्य किञ्चित्कारणमवगम्यते यद्विनाशाद्विनक्ष्यति इत्यवगम्यते ।"-जैमिनिसू०, शाबरभा० 11121 / “एवं स्थितस्य शब्दस्य श्रुतिकालात्क्षणान्तरे। संभाव्यते विनाशित्वं न भूयोऽन्येन हेतुना // यथा शस्त्रादिभिर्भेदाज्जरया वा पटादयः / नङ क्ष्यतीत्यवगम्यन्ते नैवं शब्देऽस्ति कारणम् ।।"-मी० श्लो० शब्दनि० श्लो. 442-43 / उद्धृतोऽयम्-स्या० र० पृ० 676 / “अस्यार्थः- शब्दः सर्वकालं स्थिरः विनाशहेतुशून्यत्वात् / विनाशहेतुशून्यत्वञ्च कञ्चित्कालं स्थिरत्वात्सिद्धम् / स हि सम्बन्धकरणकालं यावदनुपद्रुतः पश्चादपि केनापनीयतामिति ।"-स्या०र० पृ०६७६ / (2) तुलना-स्या० र० पृ० 676 / (3) "नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्। नित्यः शब्दो भवितुमर्हति। कुतः ? दर्शनस्य परार्थत्वात् / दर्शनमुच्चारणं तत्परार्थं परमर्थ प्रत्याययितुम् / उच्चरितमात्रे हि विनष्ट शब्दे नचाऽन्योऽन्यानर्थ प्रत्याययितुं शक्नयात अतो न परार्थमुच्चार्येत / अथ न विनष्टस्ततो बहश उपलब्धत्वादर्थावगम इति युक्तम् ।"-जैमिनिसू०, शाबरभा० 21 / 18 / “अर्थप्रतिपत्त्यन्थानुपपत्त्या तु नित्यत्वमेव युक्तम् / न हि प्रत्युच्चारणमन्यस्यान्यस्य क्रियमाणस्यार्थप्रत्यायकत्वं संभवति सम्बन्धग्रहणासंभवात्, अगृहीतसम्बधिस्य चाऽप्रत्यायकत्वात् / न चान्यस्मिन् गृहीतसम्बन्धेऽन्यस्य प्रत्यायकत्वं संभवति / न हि गोशब्दे गृहीतसम्बन्धेऽश्वशब्दः प्रत्याययति ।"-शास्त्रदी० पृ० 559 / "शब्दो नित्यः परार्थदर्शनसम्बन्धित्वात् धूमादिवदिति ।"-नयवि० पृ० 242 / (4) अर्थप्रतिपत्तिः / (5) नित्ये च अनित्ये [च-आ० टि०। (6) अनित्ये एव-आ० टि०। (7) अनित्यशब्दस्य / (8) शब्दो नित्यः दर्शनस्य परार्थत्वाऽन्यथानुपपत्तेः, परार्थवाक्योच्चारणान्यथानुपपत्तेः, अर्थप्रतीत्यन्यथानुपपत्तेर्वा / (9) अनुमानत्वाद्यभावः-आ० टि०। (10) "अर्थापत्तौ हि द्वावेव दोषौ अन्यथाप्युपपत्तिरन्यथैवोपपत्तिश्च / तदिहापि यद्यनित्यत्वेऽप्यर्थप्रत्यायकत्वमुपपद्येत अनित्यत्व एव वा ततो दूषणं स्यात् नतु तदस्तीत्याह यदीति ।"-ज्यायर० 10790 / “यदि शब्दे नाशिनि नित्ये वा वाचकसामर्थ्यमित्यनेन संशय उक्तः विनाशिन्येव वा शब्दे वाचकसामर्थ्यमित्यनेन तु विपर्यय उपदर्शितः तदा दूषणमुच्यतामिति / यदैव शब्दे वाचकसामर्थ्य सन्दिग्धं विपर्यस्तञ्च स्यात्तदा दूषणावसरः एतच्चात्रोभयमपि नास्तीति भावः।" -स्या०र०ए०६७८। (11) नाशिनि नित्ये वेति निरवधारणत्वात् मिलितमेव 'अन्यथापि' इत्यस्य व्याख्यानम, विनाशिन्येव इति तु 'अन्यथैव' इत्यस्य-आ० टि०। 1-त्वं तथा-श्र०। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 702 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० शब्दे वाचकसामर्थ्य तैदा दूषणमुच्यताम् / फैलवद्वयवहाराङ्गभूतार्थप्रत्ययाङ्गता // 2 // . निष्फलत्वेन शब्दस्य योग्यत्वादवगम्यते / परीक्ष्यमाणस्तेनास्यं युक्त्या नित्य-विनाशयोः॥३॥ स धर्मोभ्युपगन्तव्यो यः प्रेधानं न बाधते / नहि अङ्गाङ्ग-यनुरोधेन प्रधानफलबाधनम् // 4 // युज्यते, नाशिपक्षे च तदेकान्तात् प्रसज्यते / नहि अदृष्टार्थसम्बन्धः शब्दो भवति वाचकः // 5 // 5 तथा च स्यादपूर्वोऽपि सर्वः सर्व प्रकाशयेत् / सम्बन्धदर्शनश्चास्य नाऽनित्यस्योपपद्यते // 6 // सम्बन्धज्ञानसिद्धिश्चेद् ध्रुवं कालान्तरस्थितिः।अन्यस्मिन् ज्ञातसम्बन्धे न चान्यो वाचको भवेत् // 7 // गोशब्दे ज्ञातसम्बन्धे नाश्वशब्दो हि वाचकः।" [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 237-44] इति / अथ सदृशतया शब्दस्य अर्थप्रतिपत्तिहेतुत्वोपपत्तेः नापत्तितोऽस्य नित्यत्वसिद्धिः; तदयुक्तम् ; तत्सादृश्यस्य विचार्यमाणस्यानुपंपत्तितः तथा तस्य तद्धेतुत्वा10 नुपपत्तेः / उक्तञ्च - (1) "ननु माभूदर्थप्रत्यायनं तथापि किमित्यनित्यता न भवति ? अत आह-फलवदिति / फलवतो गवानयनादिव्यापारस्य अङ्गभूतोऽर्थप्रत्ययः तत्फलत्वेनैव फलवान्, शब्दस्योच्चारणसंस्कारभाजः' स्वयमफलस्य फलवत्प्रत्ययाङ्गताऽवगम्यत इति / ततः किमित्याह-परीक्षमाण इति / अर्थप्रत्ययाङ्गस्य शब्दस्य स एव धर्मः स्वाङ्गत्वेन ग्रहीतव्यो यश्च प्रधानमर्थप्रत्ययं न बाधत इति / कारणाह-नहीति / अर्थप्रत्ययाङ्गभूतस्य शब्दस्य यदङ्गमनित्यत्वं तदनुरोधेन यत्तत्प्रधान शब्दः तत्फलस्य अर्थप्रत्ययस्य बाधनमयुक्तमिति / तथापि कथं नानित्यत्वमत्राह-नाशीति / कथमित्याह-नहीति / किमित्यवाचकः ? अत आह-तथा चेदिति / सम्बन्धज्ञानञ्च न क्षणिकस्य संभवतीत्याह-सम्बन्धेति / " -न्यायर० पृ० 790 / (2) अर्थप्रत्ययाकरत्वे-आ० टि०। (3) 'दवधार्यते'-मी० इलो०। / (4) शब्दस्य / (5) प्रधानं व्यवहाराख्यं फलम्-आ० टि०। (6) 'अङ्गाङ्गानुरोधेन' -मी० श्लो० / अर्थप्रत्ययः-आ० टि०। (7) शब्द:-आ० टि०। (8) व्यवहारः-आ० टि०। (9) "ननु कियन्तं चित्कालमवतिष्ठन्तां शब्दाः, यावत्सम्बन्धदर्शनं तस्य व्यवहारश्च संभवति, नैतावता नित्यत्वसिद्धिरत आह-सम्बन्धेति / नन्वन्यस्यैव गोशब्दस्य सम्बन्धं गृहीत्वा अन्यस्मादर्थं प्रत्येष्यामो नावश्यमेकस्यैव स्थायित्वमत आह-अन्यस्मिन्निति, एवं ह्यव्यवस्था स्यादिति ।"-न्यायर० पृ० 791 / (10) यस्य हि सम्बन्धो ज्ञातः सोऽन्यः यश्च वाचकः सोऽन्यः विनाशित्वात्-आ० टि०। (11) उद्धृता इमे-प्रमेयक० पृ०४०५-६। द्वितीयतुतीयचतुर्थश्लोकान् विना-स्या० र०प० 678 / पञ्चमषष्ठसप्तमश्लोकाः किञ्चित्पाठभेदेन-तत्त्वसं० पृ० 617 / (12) "अर्थत्वसादृश्यादर्थावगम इति चेत्, न कश्चिदर्थवान सर्वेषां नवत्वात् / कस्यचित्पूर्वस्य कृत्रिमसम्बन्धो भविष्यतीति चेत् ; तदुक्तम्, सदृश इति चावगते व्यामोहात्प्रत्ययो व्यावर्तेत शालाशब्दान्मालाप्रत्यय इव।"-शाबरभा० 21118 / 'ननु तत्तुल्योपादानमभेदमुपादाय सिध्यति पारायं दर्शनस्य; सत्यम् ; सिध्यति, किन्तु नेत्थम्भूतत्वे प्रमाणमस्ति / न कस्यचिदप्यासंसारं जन्तोः पूर्वोक्तसदृशमुच्चारयामि तत्सदृश एवायमिमिति ज्ञानोत्पादो दृष्टः / अत एव चाविपरीतं प्रतिपद्यन्ते / अन्यथा मालाशब्दप्रत्ययस्येव शालाशब्दसंवेदनादविपर्ययः स्यात् ।"-बृहती० 111 / 18 / शास्त्रदी० पू० 560 / नयनि०१० 24 / (13) सादृश्यद्वारेण / (14) शब्दस्य / (15) अर्थापत्ति (अर्थप्रतीति) हेतुत्वानुपपत्ते:-आ० टि०। __ 1 ततो दू-ब०। 2 निःफल-थ०, ब०। 3 असदशतया श्र०। 4-त्वोपपन्नाप-श्र० / 5-पत्तेस्तथा ब०। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] शब्दनित्यत्ववादः 703 "संदृशत्वात्प्रतीतिश्चेत् तद्द्वौरेणाप्यवाचकः। कस्य चैकस्य सादृश्यात् कल्प्यतां वाचकोऽपरः // अदृष्टसङ्गतित्वेन सर्वेषां तुल्यता यदा / अर्थवान् पूर्वदृष्टैंश्चेत् तस्य तावान् क्षणः कुतः // दिस्तावानुपलब्धो हि अर्थवान् सम्प्रतीयते / " [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 244-50] "तथा भिन्नमभिन्नं वा सादृश्यं व्यक्तितो भवेत् / एवमेकमनेकं वा नित्यं वाऽनित्यमेव वा // मिन्ने चैकत्वनित्यत्वे जातिरेव प्रकल्पिता / व्यक्तयनन्यदथैकं च सादृश्यं नित्यमिष्यते // / व्यक्तिनित्यत्वमापन्नं तथा सत्यस्मदीहितम।" [ मी०श्लो०शब्दनि०श्लो०२७१-७३ ] इति ॥छ।। अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'स एवायं गकारः' इत्यादि; तदसमीक्षितातत्प्रतिविधान परस्सा भिधानम् ; अस्य प्रत्यभिज्ञानस्य सादृश्यनिबन्धनतया एकत्वाऽप्रसाशब्दस्य अनित्यत्व- धकत्वात् प्रदीपादिप्रत्यभिज्ञानवत् / न खलु ‘स एवायं प्रदीपः, प्रसाधनम्- अङ्गहारः, लूनपुनर्जातनखकेशादिर्वा' इत्यादि प्रत्यभिज्ञानं प्रदीपादी- 10 नामेकत्वं प्रसाधयति / अथाऽत्र एकत्वाभावात्तस्य तदप्रसाधकत्वं तदन्यत्रापि समानम्। (1) "शब्दस्तु न तथा बालानामपि प्रतीतिप्रसङ्गादित्यर्थवत्सादृश्यादर्थावगम इति भाष्यम, तस्यार्थमाह-सदशत्वादिति / शब्दान्तरे गृहीतसम्बन्धेऽर्थवति शब्दान्तरं तत्सादृश्यात् तत्त्वेन भ्रान्त्यवगतं तदर्थं प्रत्याययतीति / परिहरति तद्द्वारेणेति / कारणमाह-कस्येति / च शब्दो हेतौ / इदञ्च न हि कश्चिदर्थवानित्यनेन भाष्येणोक्तमिति एतदेवोपपादयति-अदृष्टेति / शङ्कते-अर्थवानिति / निराकरोति तस्येति / अवसराभावमेव दर्शयति-द्विस्त्रिरिति ।"-न्यायर० 10 793 / (2) सादश्येनआदि। (3) किन्तु वैसदृश्यम्-आ० टि०। (4) वाचक:-आ० टि०। (5) वाच्योपलम्भकालं यावत-आ० टि० / 'तावान् कुतः क्षणः'-मी० श्लो० / (6) “द्विस्त्रिर्वाऽनुपलब्धो हि नार्थवान सम्प्रतीयते।"-मी० श्लो। तत्त्वसं० पृ० 619 / (7) उद्धता इमे-प्रमेयक० प० 410 / तत्त्वसं० पृ० 619 / (8) "भिन्नत्वैकत्वनित्यत्वे जातिरेव प्रकल्प्यते / अभेदाऽनित्यनानात्वे पूर्वोक्तेनैव तल्यता।" -मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 272 / (9) 'व्यक्त्यनन्यत्तथैकञ्च'-मी० श्लो। (10) उद्धता इमे-प्रमेयक० पृ० 411 / (11) पृ०६९७ पं०१८ (12) तुलना-"किमिदं प्रत्यभिज्ञानम? तत्प्रत्ययविषयत्वम् ? तत्प्रत्ययविषयत्वमन्यत्वेपीत्यनेकान्त:...."-ज्यायवा० 2 / 2 / 33 / 'अनित्यत्वेऽपि सादृश्यवशात्प्रत्यभिज्ञानमुत्पद्यत एवेति / विवादगोचरापन्नः शब्दोऽभिव्यक्तः प्रत्यभिज्ञानकालं यावनावतिष्ठते शब्दप्रत्ययविषयत्वात् पूर्वानुभूतशब्दवत् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 647 / “नृत्ताभिनयचेष्टादिप्रत्यभिज्ञानतो वयम् / विशेषं प्रत्यभिज्ञाने न पश्यामो मनागपि . उच्यते प्रत्यभिज्ञानमन्यथाप्यपपद्यते। गत्वादिजातिविषयं यद्वा सादृश्यहेतूकम् ॥"-न्यायम०प० 223-24 / तथा दान त्येऽपि प्रदीपादौ प्रत्यभिज्ञानं दृष्टं तस्मादनकान्तिकमेतत् , यथा क्षणिकेऽपि कर्मणि प्रयोगे दश्यते"प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 379 / “सादृश्यान्नैकरूपत्वात्स एवायमिति स्थितिः // यदि चैवंविधो नित्यो नित्यास्ते विद्युदादयः / प्रत्यभिज्ञाप्रमाणं स्याद् युगपद् भिन्नदेशयोः।"-न्यायवि० का०४२५-२६॥ "सादृशापरग्रहणेनापि तत्त्वसंभवात् क्षणिकेष्वपि करणाङ्गहारादिषु प्रत्यभिज्ञानाद्विरुद्धो हेतुः / तत्क्रियैकत्वेपि किमिदानीमनेकं स्यात् ।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० 106 / तत्त्वार्थश्लो० 105 / "गायेकत्वग्राहिकाया लूनपुनर्जातकेशनखादिष्विव तस्या भ्रान्तत्वात् ।"-सन्मति० टी० पृ० 34 / स्या० र० पृ० 680 / रत्नाकराव० 4 / 9 / शास्त्रवा० टी० पृ० 376 A. / (13) नृत्यक्रियाविशेषः, वृश्चिकगमनादिभेदेन द्वाविंशतिविधः / (14) प्रदीपादौ / (15) प्रत्यभिज्ञानस्य / (16) एकत्वाप्रसाधकत्वम् / 1-यं गौर इत्या-श्र०। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 704 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० ननु तैलादिकारणस्य उत्तरत्र क्षयोपलम्भतः प्रदीपादेः प्रतिक्षणमन्यत्वप्रसिद्धेः युक्तमेकत्वासत्त्वं न शब्दस्य विपर्ययात् ; इत्यप्यनुपपन्नम् ; अस्यापि ताल्वादिसंयोगविभागलक्षणकारणस्य उत्तरत्र प्रक्षयप्रतीतितः प्रतिसमयमन्यत्वसिद्धेः एकत्वासत्त्वोपपत्तेः / तत्सं योगविभागयोः तैदभिव्यञ्जकवायूत्पादे कारणत्वं न शब्दे इत्यभ्युपगमे वर्तिकामुखतै5 लानलसंयोगादेरपि प्रदीपाद्यभिव्यञ्जकवायूत्पादे कारणत्वं न तदुत्पादे इत्यप्यभ्युपगम्यतामविशेषात् / प्रतीतिविरोधः अन्यत्रापि न काकैर्भक्षितः / / यदपि प्रत्यभिज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वमुक्तम् ; तदप्ययुक्तम् ; प्रत्यक्षपरिच्छेदे विशदस्वभावस्यैव ज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वप्रतिपादनात् / न चेदं तत्स्वभावम् , अतः कथमस्य प्रत्यक्ष ताशङ्कापि ? अक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात्तस्य तद्रूपता; इत्यप्यसत् , तस्य तदन्वयव्य10 तिरेकानुविधायित्वाभावात् , दर्शनस्मरणान्वयव्यतिरेकानुविधायितया तस्य प्रत्यभिज्ञा परीक्षाप्रघट्टके प्ररूपितत्वात् / प्रत्यक्षत्वे चास्य अतीतकालपरिगतत्वेन शब्दग्राहकत्वानुपपत्तिः, सम्बद्धवर्तमानार्थगोचरचारित्वात्तस्य / तद्राहकत्वे वा कर्थ योगिप्रत्यक्षस्य प्रतिक्षेपः प्रत्यक्षत्वेऽप्यस्य तद्वद् अतीताद्यर्थग्राहकत्वाविरोधात् ? .. अस्तु वा यथाकथञ्चित् तत्प्रत्यक्षम् ; तथापि न तत् शब्दस्यैकत्वप्रसाधकम् , तदु16 त्पादविनाशग्राहिणा प्रमाणान्तरेण बाध्यमानत्वात् , यत् प्रमाणान्तरेण बाध्यते न तत् स्वविषयव्यवस्थापकम् यथा शुक्तिशकले रजतग्राहिप्रत्यक्षं शुक्तिस्वरूपग्राहिप्रत्यक्षान्तरेण, बाध्यते च तदुत्पादविनाशग्राहिणा तेन तदेकत्वग्राहिप्रत्यभिज्ञानमिति / न चेदमसिद्धम् ; प्रत्यक्षस्यैवं तावत् तदुत्पादविनाशग्राहकत्वेन तद्बाधकत्वसंभवात् / तथाहि-'उत्पन्नः शब्दः विनष्टः' इति प्रतीतिः इन्द्रियव्यापारानन्तरं प्रतिप्राणि संवेद्यमानोपजायते / न (1) तुलना-"शब्दस्य ताल्वादिसंयोगविभागलक्षणकदम्बकस्य उत्तरत्र क्षयप्रतीतित: प्रतिक्षणमन्यत्वसिद्धेरेकत्वासत्त्वोपपत्तेः ।"-स्या०र० पृ०६८१ / (2) ताल्वादि-आ० टि०। (3) शब्दाभिजक / (४)प्रदीप-आ० टि० / (५)पृ०६९८५०११। (6 प्रत्यभिज्ञानम् / तुलना-"एवम्मन्यते -प्रथमे क्षणे शब्दग्रहणं द्वितीयक्षणे पूर्वगृहीतशब्दाहितसंस्कारप्रबोधः ततोऽन्यस्मिन् क्षणे शब्दस्मरणम् , ततश्चतुर्थे क्षणे तिरोहिते तस्मिन् स एवायं घटशब्द इति प्रत्यभिज्ञानं कथं प्रत्यक्षं स्यादसन्निहितविषयत्वात् ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 378 / (7) प्रत्यभिज्ञानस्य / (8) प्रत्यभिज्ञानस्य (9) पृ० 415 / (10) प्रत्यभिज्ञानस्य / (11) 'सः' इति-आ०टि०। (12) प्रत्यक्षस्य / तुलना“पूर्वकालसम्बन्धित्वस्येदानीमसन्निहितत्वेनाऽग्रहणात् / ग्रहणे वा श्रोत्रज्ञानवत् स्पष्टप्रतिभासः स्यात् ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 352 / (13) अतीतग्राहकत्वे-आ० टि०। (14) प्रतिक्षिपन्ति हि मीमांसकाः सर्वज्ञम् आ० टि०। (15) योगिप्रत्यक्षस्य / (16) प्रत्यभिज्ञानवत्-आ० टि०। (17) प्रत्यभिज्ञानम् / (18) तुलना-"शब्दे विनाशविज्ञानात्तु न सा नित्यत्वसाधिका।"न्यायमं० पृ० 224 / (19) प्रत्यक्षेण-आ० टि०। (20) शब्दोत्पादविनाश / (21) स एवायं शब्द इति प्रत्यभिज्ञानबाधकत्वसंभवात् / 1-क्षयोपलंभः प्र-श्र०। 2-लानिल-आ013-व्यवस्थाग्राहकम् आ०। 4-व तावदुत्पाव-ब०, -वतदुत्पाद-श्र०। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 65] शब्दनित्यत्ववादः 705 चेयं मिथ्या; देशकालनरान्तरेषु अबाध्यमानत्वात् 'उत्पन्नो घटः विनष्टो घटः' इति प्रतीतिवत् / अथ प्रत्यभिज्ञानेनैव इयं कस्मान्न बाध्यते ? तन्न; अस्य सादृश्यनिबन्धनतया तन्नित्यत्वाप्रसाधकत्वात्। ननु एकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्भात् क्वचिद् घटाद्यभावप्रतीतिर्युक्ता, नतु शब्दाभावप्रतीतिः, तत्रैकज्ञानसंसर्गिणः कस्यचिदप्यसंभवात् ; इत्यप्यचोद्यम् ; विवक्षित- 5 शब्दाभावप्रतीतौ शब्दान्तरस्यैव एकज्ञानसंसर्गिणः संभवात् / निःशब्दप्रदेशे सर्वशब्दाभावप्रतीतौ तर्हि तदसंभव इति चेत्, न; तत्रापि आत्मस्वरूपसंवेदनस्य तदेकज्ञानसंसर्गिणः संभवात् / यथैव हि घटभूदेशादीनाम् एकत्र ज्ञाने संसर्गः तथा स्वपररूपयोरपि, अखिलज्ञानानां स्वपररूपावभासिस्वभावत्वात् / न चैवं शब्दाभाववत् रूपाद्यभावोऽपि अतोऽनुषज्यते; तेषां प्रतिनियतेन्द्रियग्राह्यतया तदभावस्यापि प्रतिनियतादेव इंन्द्रि- 10 यात् प्रसिद्धः। यो हि यदिन्द्रियग्राह्यः तदभावोऽपि तदिन्द्रियादेव व्यवस्थाप्यते / यदिन्द्रियोपयुक्तो ह्यात्मा यत्र यदा यद्विषयमुपलब्धिलक्षणप्राप्तं नोपलभते तत्र तदा - तस्याभावमधिगच्छतीति / / नित्यत्वे च शब्दस्य प्रागुच्चारणादनुपलम्भः कुतः स्यात्-इन्द्रियाभावात् , शब्दस्यासन्निहितत्वात् , आवृतत्वाद्वा ? न तावदिन्द्रियाभावात्; उच्चारणानन्तरं शब्दो- 15 (1) उत्पन्नः शब्दः विनष्ट: शब्द इति प्रतीतिः / तुलना-"प्रत्यभिज्ञा हि सापेक्षा निरपेक्षा त्वभावधीः / तेनैवमादौ विषये प्रत्यभिज्ञैव बाध्यते // शब्दाभावस्य ग्रहणात् प्रत्यभिज्ञायाश्च पूर्वानुसन्धानादिसव्यपेक्षत्वात् / अपि च प्रत्यभिज्ञा व्यभिचरति कर्मादिषु गृह्यते। तेनास्यां शब्देप्यभावप्रत्ययोपहतवपुषि कः समाश्वासः ? न चैवं प्रत्यक्षेप्यनकान्तिकत्वोद्भावनमपि तु विनाशप्रत्ययप्रतिहतप्रभावा प्रत्यभिज्ञा नित्यत्वं कर्मादिष्विव शब्देऽपि न साधयितुं प्रभवति..."-न्यायमं० पृ० 224 / स्या० र०पू०६८१ / (2) भ्रान्तिवशाद्भवतः स एवायं शब्द इति प्रत्यभिज्ञानस्य / (3) भूतलआ० टि०। (4) भूतलादौ / (5) शब्दाभावप्रत्यये / (6) तुलना-"विवक्षितशब्दाभावप्रतीतौ शब्दान्तरस्यैकज्ञानसंसर्गिणः संभवात् ।"-स्या०र०प०६८२। (7) तुलना-"तत्राप्यात्मस्वरूपस्य तदेकज्ञान- संसर्गिणः सम्भवात् / स्वपररूपावभासकस्वभावस्य ह्यात्मनः परस्मिन् योग्यदेशावस्थिते वस्तुनि न केवलमात्मस्वरूपसंवेदनं भवेत् यावन्ति खलु वस्तूनि प्रतिषेध्यत्वसम्मतवस्तुना साकं योग्यदेशावस्थितानि सन्त्यवश्यं प्रतिभासन्ते, तानि सर्वाण्येकज्ञानसंसर्गीणि / तत्र कुम्भादौ प्रतिषेध्यो भूतलादिः आत्मस्वरूपञ्चकज्ञानसंसगि / शब्दे तु प्रतिषेध्ये सशब्दके प्रदेशे शब्दान्तरमात्मस्वरूपञ्च, निःशब्दके तु केवलमात्मस्वरूपम् / अथवा मा भवत्वेकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरं प्रमाणान्तरगृहीतं तु भविष्यति / यथा स्मृतिगोचरे चैत्यकुलादौ क्वचिदभावप्रमाणेन भवतामभावग्रहणे चैत्यकुलादि ।"-स्या० र० पृ. 682 / (8) परत्वाविशेषात् यथा शब्दाभावो ज्ञातः तथा रूपाभावोऽपि ज्ञायतामित्यर्थ:-आ० टि। स्वपररूपग्राहिणः कस्माच्चिदपि ज्ञानात् / (9) रूपादीनाम् / (10) यद्ग्रहे यदपेक्षं चक्षुः तदभावग्रहेऽपि तदंपेक्षते इति किरणावलीवचनात् यद्भावो यावत्या सामग्र्या गृह्यते तदभावोऽपि तावत्यैव -आ० टि०। (11) येनेन्द्रियेण यद्गृह्यते तेन तन्निष्ठा जातिस्तदभावश्च गृह्यते इति नियमात् / ___1-भूप्रदेशादीनाम् ब०, श्र०।। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 704 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [.. प्रवचनपरि० पलम्भात् / न च प्रागसतः तदैव इन्द्रियस्य प्रादुर्भावः, प्रतीतिविरोधात् / नापि शब्दस्यासन्निहितत्वात् ; नित्यव्यापितया सर्वत्र सर्वदा तस्य सन्निहितत्वात् / नाप्यावृतत्वात्; नित्यैकस्वभावत्वेन तस्य आवृतत्वानुपपत्तेः / न खलु दृश्यस्वभावपरित्यागेन अदृश्यस्वरू पाऽस्वीकारे शब्दस्य आवृतत्वं घटते अतिप्रसङ्गात् / यद् यदा यत्स्वरूपं न परित्यजति 5 न तस्य तदा तत्प्रत्यनीकस्वरूपसंभवः यथा अनावृतावस्थायां दृश्यस्वरूपमपरित्यजतो नादृश्यस्वरूपसंभवः, न परित्यजति च आवृतावस्थायां दृश्यस्वरूपं शब्द इति / तदा तत्स्वरूपपरित्यागे वा सिद्धमस्य अनित्यत्वम् , स्वरूपभेदस्वभावत्वात्तस्य / ननु घटादीनां स्वरूपाभेदेऽपि अन्धकारादिना आवृतत्वं दृश्यते; इत्यप्ययुक्तम् ; तत्रापि स्वरूपभेदे सत्येव आवृतत्वोपपत्तेः / स्वरूपमखण्डयतः कस्यचिदावरणत्वानुपपत्तेः। . (1) उच्चारणात् प्राक् तद्ग्राहकं श्रोत्रमिन्द्रियं नासीत् उच्चारणकाल एव शब्देन सहोत्पद्यते इत्युक्ते सत्याह न चेति / (2) नित्यतया व्यापितया च-आ० टि / (3) शब्दस्य.। (4) शब्दस्य आवृतावस्थायां न अदृश्यस्वरूपसंभवः अपरित्यक्तपूर्वस्वरूपत्वात् / तुलना-"यद्यदा यत्स्वरूपं न परित्यजति..."-स्या० र० पृ० 682 / (5) आवृतावस्थायां दृश्यस्वरूपत्यागे। तुलना-"तदयं ताल्वादिव्यापारजनितश्रावणस्वभावं परित्यज्य विपरीतस्वभावमासादयन्नपि नित्यश्चेन्न किञ्चिदनित्यम्।" -अष्टश०, अष्टसह० पृ० 107 / (6) अनित्यत्वस्य / (7) स्वरूपभेदाभावेऽपि / तुलना"स्यान्मतं यथा घटादेरात्मानमखण्डयत्तमस्तस्यावरणं तथा शब्दस्यापीति; तदसत्; तस्यापि तेन आत्मखण्डनोपगमात्, दृश्यस्वभावस्य खण्डनात् तमसस्तदावरणत्वसिद्धेः सर्वस्य परिणामित्वसाधनात् / तमसाऽपि घटादेरखण्डने पूर्ववदुपलब्धिः किन्न भवितुमर्हति, तस्य तेन उपलभ्यतयाऽप्यखण्डनात् ।"-अष्टश०, अस्टसह० पृ० 105 / प्रमेयक० पृ० 421 / स्या० र० पृ० 682 / स्तिमितेन वायनावरणान्नित्यं नोपलभ्यत इति चेदाह-नापीत्यादि / तस्य बाह्यस्य उपलभ्यात्मनो दृश्यस्य किञ्चिदुपलम्भावरणं सम्भवति / तत्सिद्धौ प्रमाणाभावात् / सतोऽपि वा विद्यमानस्यापि चावरणस्य तदात्मानमखण्डयतो नित्यशब्दात्मानमप्रच्यावयतः सामर्थ्यतिरस्कारायोगात् ज्ञानजननशक्त्यभिभवायोगात् / यस्मान्न हि तत्र शब्दात्मन्यतिशयमनुत्पादयन्नावरणाभिमतः किञ्चित्करो नाम / अकिञ्चित्करश्चार्थः कः कस्यावरणं ज्ञानविबन्धकमन्यद्वेति प्रकारान्तरेणोपघातकं नैवेति यावत् / अकिञ्चित्करस्य आवरणत्वं दृष्टमिति कथयन्नाह पर:-कुड्यादय इत्यादि। कुड्यादयो घटादीनां कमतिशयमुत्पादयन्ति कम्वा सामर्थ्यातिशयं खण्डयन्ति येनावरणमिष्यन्ते / तस्माद यथा तेऽतिशयमनत्पादयन्तो घटादीनामावरणमिष्यन्ते तथा नित्यस्यापि शब्दस्य किञ्चिदावरणं भविष्यतीत्यभिप्रायः। न ब्रूमः इत्यादिना परिहरति। ते कुड्यादयः किञ्चिद् घटादिकमतिशाययन्ति विशिष्टं स्वभावं कुर्वन्तीति न ब्रूमः / कथन्तावरणमुच्यन्त इत्याह-अपि तु न सर्व इत्यादि / न सर्वघटक्षणाः सर्वस्य पुरुषस्य इन्द्रियज्ञानहेतवः किन्तहि परस्परसहितास्तु विषयेन्द्रियालोकाः परस्परतो विशिष्टक्षणान्तरोत्पादात कारणाद् विज्ञानहेतवःते च विषयेन्द्रियादयः तेन प्रतिघातिना कूड़यादिनाऽव्यवहिता यदा भवन्ति तदाऽन्योन्यस्योपकारिणः सति च व्यवधायके कुड्ये अन्यस्योत्पित्सोः समर्थस्य क्षणस्य यथोक्तकारणाभावेनानुत्पत्तेनिकारणवैकल्यमतः कारणवैकल्यात् घटादिषु कुड्यादिव्यवहितेषु ज्ञानानुत्पत्तिरिति कृत्वा कुड्यादय आवरणमुच्यते न पुनः प्राग्विज्ञानजननयोग्यस्य घटादेः प्रतिबन्धात् . ."-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 361.62 / (8) उपलम्भानुपलम्भरूपेण / 1-वत्वे तस्य ब०। 2 आवृतत्वावस्थायां आ०, ब० / 8 इत्ययु-श्र०, ब० / Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 65] शब्दनित्यत्ववादः 707 किञ्च, व्यञ्जकव्यापारात् पूर्व शब्दस्य कुतश्चित् प्रमाणात् सिद्धे सद्भावे आवरणं सिद्ध्येत्, स्पार्शनप्रत्यक्षप्रतिपन्ने घटे अन्धकारादिवत्, न चासौ सिद्धः / 'प्रत्यभिज्ञानात्तसिद्धिः' इत्यपि मनोरथमात्रम् ; तस्य एकत्वाप्रसाधकत्वप्रतिपादनात् / . अस्तु वा यथाकथञ्चित्तेषामावरणम् ; तथापि तत् दृश्यम् , अदृश्यम् , नित्यम् , अनित्यम् , व्यापकम् , अव्यापकम् , एकम् , अनेकं वा स्यात् ? न तावद् दृश्यम् ; प्रत्यक्ष- 5 प्रमाणतः तत्प्रतीत्यभावात् / ततस्तत्प्रतीतौ वा विप्रतिपत्त्यभावः / नहि नीले नीलतया प्रतीयमाने कश्चिद्विप्रतिपद्यते। अथादृश्यम् ; कथं तदस्ति अतिप्रसङ्गात् ? ननु नित्यस्य सतः शब्दस्य उच्चारणात् प्रागनुपलब्धौ निमित्तान्तरासंभवात् तन्निमित्तमदृश्यमप्यावरणं कल्प्यते; इत्यप्यसाधीयः; अन्योन्याश्रयानुषङ्गात्-सिद्धे हि शब्दस्य आवरणे नित्यस्य सतोऽस्य उच्चारणात् प्रागनुपलब्धिसिद्धिः, तस्याञ्च सत्यां तदावरणसिद्धिरिति / ननु 10 प्रत्यभिज्ञानात् शब्दस्य नित्यत्वसिद्धेः उच्चारणात् प्राक् तदनुपलब्धौ नावरणादन्यन्निमित्तम् ; इत्यपि श्रद्धामात्रम् ; प्रत्यभिज्ञानस्य तन्नित्यत्वप्रसाधकत्वप्रतिषेधात् / नित्यत्वे च आवरणस्य सदा शब्दस्यानुपलब्धिः स्यात् / अनित्यत्वे त्वस्य प्रध्वस्तस्य पुनरुत्पादे कारणाभावात् सर्वदा सर्वस्य उपलम्भप्रसङ्गः / नहि प्रतिनियतावरणोत्पादे प्रतिनियतं किश्चित्कारणमुपलभ्यते / 16 व्यापकत्वश्चास्य अतीव दुर्घटम् ; बाधकप्रमाणसद्भावात् / तथाहि-आवरणत्वेनाभिमतो वायुरव्यापकः स्पर्शवद्रव्यत्वात् लोष्टवत् / व्यापकत्वे चास्यै उभयोरपि आवार्यावारकयोः सर्वगतत्वात् किं कस्य आवारकं स्यात् ? न हि आकाशमात्मादी (1) तुलना-"स्वज्ञानेनान्यधीहेतुः सिद्धेऽर्थे व्यञ्जको मतः / यथा दीपोऽन्यथा वापि को विशेषोऽस्य कारकात् // स्वप्रतिपत्तिद्वारेण अन्यप्रतिपत्तिहेतुलॊके व्यञ्जक: सिद्धो दीपादिवत्. स चेत्प्राकसिद्धः स्यात् / समानजातीयोपादानलक्षणसिद्धेन तस्यैवातिशयस्य ज्ञानहेतोः तस्य तत्सामग्रीत्वात् / ये पूनः असिदोपलम्भनाः कारका एव कुलालादिवद् घटादौ / स्वज्ञानेन कारणेन अन्यधीहेतुरर्थो व्यञ्जको मतः / कदा? सिद्धेऽर्थे / यद्यसौ व्यङ्ग्यः प्रागसिद्धः स्यात्तदा को विशेषोऽस्य व्यञ्जकस्य कारकाद्धेतोः ।"प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 2264 / “यतः प्रमाणान्तरेण शब्दसद्भावे सिद्धे तस्यावरणं सिद्धयेत् स्पार्शनप्रत्यक्षप्रतिपन्ने घटेऽन्धकारादिवत् ।"--प्रमेयक० पृ०४२१ / (2) सद्भाव:-आ० टि०। (3) शब्दानाम्-आ० टि०। (4) तुलना-"तथापि तदावरणं दृश्यदृश्यं वा नित्यमनित्यं वा व्यापकमव्यापकं वा एकमनेकं वेत्यष्टौ विकल्पाः ।"-स्या० र० पृ० 683 / (5) आवरणप्रतीत्यभावात् / (6) प्रत्यक्षतः / (7) आवरणम् / (8) अनुपलब्धि-आ० टि० / (9) शब्दस्य / (10) आवरणस्य / (11) एकैकवर्णस्य एकैकमावरणम्-आ० टि० / (12) तुलना-"आवरणत्वेनाभिमतः 'प्रभञ्जनः न व्यापक: स्पर्शवद्रव्यत्वादुपलशकलवत् ।"-स्या० र० पृ० 683 / (13) आवरणस्य / तुलना-"तद्वत्तदावारकमपि सर्वगतमिति चेत्, न तावारकम्, न ह्याकाशमात्मादीनामावारकम् ।"-प्रमेयक० पृ० 421 / स्या० 20 पृ० 683 / (14) शब्दस्तिमितवाय्वोः / (15) पराभिसन्धिना-आ० टि। 1 वा कर्याञ्च-श्र०।-त्यसंभवात् श्र०। 3 नीलतायाः प्र-श्र०। 4 शब्दनित्य-आ०, थ०।-वा शब्दस्य ब०,श्र०। 6-णभावात् आ०।। स्पर्शनद्रव्य-श्र। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 708 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० नामावारकं प्रतीतम् / अव्यापकत्वे त्वस्य नितरां तेने शब्दस्य आवार्यत्वानुपपत्तिः, तन्मध्ये तद्देशे पार्वे च विद्यमानत्वात्, प्रत्युत शब्द एवास्य आवारकः स्यात्, अन्यथा सर्षपोऽपि घटस्य आवारको भवेत् / ननु भूम्यादिना आकाशस्य तथाविधस्यापि आबि यमाणत्वोपलम्भाददोषोऽयम् ; इत्यप्यसत्; तत्प्रदेशस्यैव तेने आत्रियमाणत्वाभ्युपगमात् / 5 शब्दप्रदेशस्यापि वायुना आब्रियमाणत्वाभ्युपगमे शब्दस्य सावयवत्वमनित्यत्वञ्च स्यात् / तथा निखिलशब्दानां यदि एकमेवावरणं कल्प्यते; तदा एकोपलम्भे सर्वेषामुपल• म्भप्रसङ्गः, तैदावरणापगमे तद्वत् सर्वेषामनावृतत्वात् / तदनुपलम्भे वा विवक्षितशब्दस्यापि तदनुपलम्भः स्यादविशेषात् / अथ विभिन्नम् ; तन्न; सर्वशब्दानांव्यापितया (1) वायोः-आ० टि० / (2) वायुना-आ० टि० / (3) आवरणात्मकवायुमध्ये / (4) व्यापित्वेन-आ० टि०। (5) वायो:-आ० टि०। (6) यद्यल्पपरिमाणमपि वस्तु महतः आवारकं स्यात् तदा। (7) व्यापिनोऽपि-आ० टि०। (8) आकाशप्रदेशस्यैव / (9) भूमिना / (10) जैनैः आकाशस्य अनन्तप्रदेशित्वप्रतिज्ञानात् / (11) आवरणापाये कस्यचिदेकस्य शब्दस्य उपलब्धिकाले / तुलना-"यथा जवनिकापायप्राप्तप्रसरमीक्षणम् / रङ्गभूमिषु तद्देशमशेष वस्तु पश्यति / / तथा प्रसरसंरोधिसमीरोत्सारणे सति / श्रोत्रं तद्देशनिःशेषशब्दग्राहि भविष्यति ।"-न्यायमं० 10 221 / "क्वचिच्छब्दस्याभिव्यक्तौ तस्य व्यापकतया सर्वदेशावस्थितपुरुषाणामुपलम्भः स्यात् निरावरणस्य व्यापकत्वाविशेषात् ।”-प्रश० व्यो० पृ०६८४ / (12) शब्दानाम् / (13) विवक्षितशब्दस्य आवरणस्य विनाशे / (14) एकशब्दवत्-आ०टि० (15) सर्वशब्दानुपलब्धौ। (16) सर्वशब्दवत् / (17) अनावृतत्वाविशेषात् / (18) तुलना-"नियमश्च न स्यात्, यदि चानेके शब्दाः युगपदाकाशे वर्तन्ते इति, एवञ्च यत्किञ्चिद् व्यञ्जकमुपात्तं समानदेशान् सर्वानभिव्यनक्तीति यदा वीणा वाद्यते तदा रासभध्वनिरपि श्रूयेत / न हि समानेन्द्रियग्राह्याणां समानदेशानां व्यञ्जकेषु नियमो दृष्ट: / यद्यस्य व्यञ्जकं तेन तस्य व्यक्तिरिति चेत् तन्न; अदृष्टत्वात् / अथ मन्यसे अनेकशब्दसन्निपाते सति व्यञ्जकानि भिद्यन्ते व्यञ्जकभेदानुविधायिन्योव्यक्तयः प्रतिशब्दमुपजायन्त इति; तन्न ; अदृष्टत्वात् / न हि प्रदीप एकेन्द्रियग्राह्यमनेकमर्थं युगपत्सन्निपतितं न प्रकाशयति ।"-न्यायवा० पृ०२८८ / न्यायवा० ता० 10 446 / “न च गोशब्दाभिव्यक्त्यर्थं प्रेरितो वायु श्वशब्दं व्यनक्तीति वाच्यम् ; व्यञ्जकेषु नियमानुपलब्धेः / यथा घटाभिव्यक्त्यर्थमुत्पादितः प्रदीपः समानेन्द्रियग्राह्यसमानदेशावस्थितपदार्थव्य जक इति / तथाहि-न श्रोत्रं प्रतिनियतसंस्कारकसंस्कार्य समानेन्द्रियग्राह्यसमानदेशावस्थितवस्तुप्रकाशकत्वात् चक्षुर्वत ।"शब्दा वा विवादविषया प्रतिनियतव्यञ्जकव्यंग्या न भवन्ति समानेन्द्रियग्राह्यसमानदेशावस्थितत्वात् घटादिवत्।"-प्रश० व्यो० पृ 648 / “न च समानकरणानां समानेन्द्रियग्राह्याणाञ्च भावानां प्रतिनियतव्यञ्जकव्यंग्यत्वमुपलब्धम् / गृहे दधिघटीं द्रष्टुमानीतो गृहमेधिना। अपूपानपि तद्देशान प्रकाशयति दीपकः ॥"-न्यायमं० पृ० 212 / "श्रोत्रं तावत्समानेन्द्रियग्राह्यसमानदेशसमानधर्मापन्नार्थानां ग्रहणाय प्रतिनियतसंस्कारकसंस्कार्यं न भवति इन्द्रियत्वाच्चक्षुर्वत् / शब्दा वा प्रतिनियतसंस्कारकसंस्कार्या न भवन्ति समानेन्द्रियग्राह्यसमानधर्मापन्नत्वे सति युगपदिन्द्रियसम्बद्धत्वात् घटादिवत् ।"-न्यायसा० पृ० 30 / “ननु नियतव्यञ्जककृता नियतश्रुतिरित्यत्राह-नहीत्यादि / न हिर्यस्मात् समानदेशानाम् समानाक्षविषयाणामेतत् नियतव्यञ्जकत्वं न्याय्यम् ।"-सिद्धिवि०, टी० पृ० 554B. / "समानकरणानां तादृशामभिव्यक्तिनियमायोगात् सर्वत्र सर्वदा सर्वेषां संकुला श्रुतिः स्यात् ।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० 105 / प्रमेयक० पृ० 423 / सन्मति० टी० पृ० 36 / स्या० र० पृ० 683 / प्रमेयर० 3.100 / शास्त्रवा टी० पु० 378A. / 1 कल्प्येत ब०, श्र०। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] शब्दनित्यत्ववादः 706 समानदेशत्वे समानेन्द्रियग्राह्यत्वे च आवरणभेदस्य व्यञ्जकभेदस्य चानुपपत्तेः। तथाहिशब्दाः प्रतिनियतावरणावार्याः प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्ग्या वा न भवन्ति, अभिन्नदेशत्वे सति एकेन्द्रियग्राह्यत्वात् , यदित्थं तत्तथा यथा एकघटवृत्तिसामान्य-संख्या-रूप-परिमाणकर्मादि, तथा चैते शब्दाः, तस्मात्तथेति / 'अभिन्नदेशत्वात्' इत्युच्यमाने रूपरसादिभिय॑भिचारः, तेषामेकद्रव्यवृत्तित्वेऽपि प्रतिनियतव्यञ्जकप्रतीतेः, अत: 'एकेन्द्रियग्राह्यत्वात्' / इत्युक्तम् / तस्मिंश्चोच्यमाने भिन्नदेशव्यवस्थितघटादिनिष्ठैः सामान्यादिभिः अनेकान्तः, तन्निवृत्त्यर्थम् 'अभिन्नदेशत्वात्' इत्यभिहितम् / तदतोऽनुमानात् शब्दानां प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्ग्यत्वाऽव्यवस्थिते: अयुक्तमुक्तम्"अन्यार्थ प्रेरितो वायुः यथान्यं न करोति वैः। तथान्यवर्णसंस्कारशक्तो नान्यं करिष्यति॥१॥" [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 80 / ] इत्यादि / 10 यदि च ताल्वादयो ध्वनयो वा शब्दानां व्यञ्जकाः; तर्हि तद्वयापारे नियमेन उपलब्धिर्न स्यात् / कारकव्यापारो ह्येषः-स्वसन्निधाने नियमेन कार्यसन्निधापनं नाम, न व्यञ्जकव्यापारः। न खलु यत्र यत्र व्यञ्जकः प्रदीपादिः तत्र तत्र व्यङ्ग्यस्य घटादेः सन्निधानमुपलब्धिर्वा नियमतोऽस्ति कारक-व्यञ्जकयोरविशेषप्रसङ्गात्, चक्रादिव्यापारवैयर्थ्यानुषङ्गाच्च / अथ घटादेरसर्वगतत्वान्न व्यञ्जकसन्निधाने नियमतः सन्निधान- 15 (1) “अन्यार्थमिति अन्यवर्णनिष्पत्त्यर्थम् / अन्यवर्णसंस्कारशक्त इति अन्यवर्णप्रतीत्यर्थः संस्कारो यः श्रोत्रस्य सोऽन्यवर्णसंस्कारशब्देनोक्तः न तु वर्णसंस्कार एव श्रोत्रसंस्कारस्य प्रकृतत्वात् / नान्यं करिष्यति इति नान्यं वर्ण श्रोत्रसंस्कारद्वारेण संस्करिष्यतीत्यर्थः।"-तत्वसं० 50 10608 / (2) 'करोति च'-स्या० र० पृ० 684 / 'करोति सः'-तत्त्वसं० पृ० 608 / प्रकृतपाठः-प्रमेयक० 10423 / सन्मति० टी० 1036 / (3) भो जैना:-आ० टि०। (4) एकोपलम्भ सर्वषामुपलम्भप्रसङ्गः' इत्युपालम्भस्य समाधानमिदं मीमांसकेन प्रोक्तम्-आ० टि०। (5) तुलना-"कारणानां समग्राणां व्यापारादूपलब्धितः / नियमेन च कार्यत्वं व्यञ्जके तदसम्भवात् / नहि कदाचिद् व्यापतेषु करणेषु शब्दानुपलब्धिः, न चावश्यं व्यञ्जकव्यापारोऽर्थमुपलम्भयति क्वचित् प्रकाशेऽपि घटानुपलब्धेः / सेयं नियमेनोपलब्धिः तद्वयापाराच्छब्दस्य तदुद्भवे स्यात् / अकर्तुर्व्यापारेऽपि तत्सिद्धययोगात् / किञ्च करणानां समग्राणां व्यापारात् परिस्पन्दादिलक्षणात् नियमेन शब्दस्य उपलब्धित: कारणात् कार्यत्वं प्राप्तम् / किं कारणम् ? व्यञ्जके हेतौ तदसम्भवात् नियमेन व्यङग्यस्योपलम्भासंभवात् ।”-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 11265 / “व्यञ्जकव्यापृतौ न स्याद् व्यङग्यस्य नियमाद् गतिः नावश्यम्भावनियमः स्याच्छु तेरुच्चारणात्ततः।"-सिद्धिवि०, टी० पृ० 555A. / "न कश्चिद्विशेषहेतुः ताल्वादयो व्यञ्जका न पुनश्चक्रादयोऽपि इति / ते वा घटादेः कारकाः न पुनः शब्दस्य ताल्वादयोऽपीति / न हि व्यञ्जकव्यापतिनियमेन व्यङ्ग्यं सन्निधापयति / सन्निधापयति च ताल्वादिव्यापतिनियमेन शब्दं ततो नासौ ताल्वादीनां व्यङ्ग्यः चक्रादीनां घटादिवत् ।"-अष्टश०, अष्टसह० 10 103 / “यदि च ताल्वादयो ध्वनयो वास्य"-प्रमेयक० पृ 415 / स्या० र०पू० 684 / (6) वायव:-आ० टि०। (7) "प्राक् सतः स्वरूपसंस्कारकं हि व्यञ्जकम, असतः स्वरूपनिर्वर्तकं कारकम् ।"-प्रमेयक० पृ० 116 / (8) घटाद्युत्पादने / (9) प्रदीपादिनैव साध्यसिद्धेः-आ० टि० / 1-णस्य भेवस्य ब०। 2-व्यंजनव्य-आ०। कारकस्य व्या-श्र०। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ همی लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० मुपलम्भो वा, शब्दस्य तु भवति विपर्ययात् / तदप्यचर्चिताभिधानम् ; तत्सर्वगतत्वासिद्धेः / तथाहि-शब्दः सर्वगतो न भवति सामान्यविशेषवत्त्वे सति बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् घटादिवत् / ततो घटादिभ्यः शब्दस्य विशेषाभावाद् उभयोः कार्यत्वं व्यङ्ग्यत्वं वाऽविशेषतोऽभ्युपगन्तव्यम् / ____किञ्च, ऐते ध्वनयः कुतः प्रतिपन्नाः येन तदधीना शब्दश्रुतिः स्यात्-प्रत्यक्षेण, अनुमानेन, अर्थापत्त्या वा ? प्रत्यक्षेण चेत् किं श्रौत्रेण, स्पार्शनेन वा ? न तावत् श्रौत्रेण; तथा प्रतीत्यभावात् / नहि शब्दवत् श्रोत्रे ध्वनयः प्रतिभासन्ते; विप्रतिपत्त्यभावप्रसङ्गात् / तत्र तत्प्रतिभासाभ्युपगमे च अपरशब्दकल्पनावैयर्थ्यम् , ध्वनीना मेव श्रावणस्वभावतया शब्दत्वप्रसङ्गात् / अथ स्पार्शनप्रत्यक्षेण ध्वनयः प्रतीयन्ते, 10 स्वकरपिहितवदनो हि वदन स्वकरसंस्पर्शनेन तान् प्रतिपद्यते; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; वायुंवत् ताल्वादिव्यापारानन्तरं विप्रुषामुपलम्भतः शब्दाभिव्यञ्जकत्वप्रसङ्गात् / वक्तृमुखप्रदेश एव तासों प्रक्षयतः श्रोतृश्रोत्रप्रदेशे गमनाभावान्न तद् इत्यन्यत्रापि समानम् / न खलु वायवोऽपि तत्र गच्छन्तः प्रत्यक्षतः प्रतीयन्ते / शब्दप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या तु प्रतीतिः उभयत्र तुल्या / यथा च स्तिमितभाषिणो न विपुषामुपलम्भः तथा वायूपलम्भोपि नास्ति / (1) तुलना-"व्यापिनः शब्दा नित्याश्च, ततो व्यापिनित्यत्वाच्छब्दानां व्यञ्जकस्य करणस्य व्यापारात् सर्वत्रोपलब्धिः घटादयस्तु न व्यापिन: नापि नित्याः तेन ते व्यञ्जकव्यापारेण नावश्यमपलभ्यन्त इति; यद्येवं क इदानीं घटादिषु समाश्वासः निश्चयः, यथा ते न नित्या नापि व्यापिन इति यावता तेऽपि नित्या व्यापिनश्च भवन्तु ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 385 / "नैष दोषः सर्वगत- . त्वाद्वर्णानामित्यपि वार्तम् प्रमाणबलायातत्वाभावात् अन्यत्रापि तथाभावानुषङ्गात् ।"-अष्टश, अष्टसह० पृ० 103 / स्या० र० पृ० 684 / (2) सामान्यनिरासार्थं विशेषणमुक्तम् आ०टि० / तुलना"तदुक्तं न च सर्वगताऽमूर्तनित्यैकात्माऽत्र युज्यते / वर्णो बाह्येन्द्रियग्राह्यस्वभावत्वाद् घटादिवत् // " -पत्रप०१० 11 // "न सर्वगतः शब्द: सामान्यविशेषवत्त्वे सति बा_केन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् घटादिवत् / " -प्रमेयक० पू०४१५ / “सामान्यविशेषवत्त्वे सति बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् ।"-स्या०र० पृ०६८४। (3) तुलना-प्रमेयक० पृ०४१८ / स्या०र० पृ०६८४। (4) श्रोत्रे / (५)तुलना-"ध्वनय एव हि विशिष्टा वर्णरूपा वाचकाः / तेभ्यो भिन्नोऽर्थान्तरं वाचकं शब्दरूपमस्तीत्येतत्सत्ताग्राहकप्रमाणाभावात् अतिबह्वियं श्रद्धेयम् / किं कारणम् ? यतो न वयमवाचकं ध्वनि शब्दञ्च वाचकं पृथग्रूपमिति ध्वनिभ्यो भिन्नस्वभावमुपलक्षयामः तस्मात् ध्वनिविशेष एवाकारादिरूपेण स्थितः वर्णाख्यः..."-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पु०३६८ / “यतो ध्वनिविशेष एव वर्ण उच्यते। तेन द्रुतोच्चारितो ध्वनिविशेषः द्रुता गव्यक्तिरुच्यते. मध्योच्चारितो मध्यगव्यक्तिः, बिलम्बितोच्चारिता ध्वनिविशेषो बिलम्बिता गव्यक्तिः न तु व्यञ्जकेभ्यो ध्वनिभ्योऽन्यो गकारः प्रतिभासते..."-प्रमाणवा०स्ववृ०टी०१०३८२ / (6) ध्वनीन् / (7) तुलना'वायुवत्ताल्वादिव्यापारानन्तरं कफांशानामप्युपलम्भेन शब्दाभिव्यञ्जकत्वप्रसङ्गात् ।"-प्रमेयक० पृ० 418 / स्या०र० पृ० 684 / (8) यद्यत्ताल्वादिव्यापारानन्तरमुपलभ्यते तत्तच्छदाभिव्यञ्जकं यथा वायुः तथा च विपुष इति -आ० टि०। (9) विपुषाम् कफकणानाम् / (10) शब्दाभिव्यजकत्वम् / (11) ध्वनावपि / (12) श्रोतृश्रोत्रप्रदेशे। (13) वायुवत् कफांशेष्वपि समाना। 1 'घटादिवत् नास्ति आ०। 2 श्रोत्रेण श्र०, ब०। 3 स्पर्शनेन श्र०। 4 शब्दवत्तत्र ध्वनयः श्र०, ब०।। विषाणामु-आ० / 6 तेषां आ०। प्रत्यक्षता प्रक्षयतः ब०। 8 विग्रुषोपलम्भः आ० / Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५ ] शब्दनित्यत्ववादः یا و स्तिमितस्य कल्पनमुभयत्र तुल्यम् ! एतेन वदतो मुखाग्रस्थिततूलादेः प्रेरणोपलम्भात् अनुमानतो ध्वनीन प्रतिपद्यते; इत्यपि प्रत्युक्तम् ; तद्वद् विद्युषामपि अतैः प्रतिपत्तिप्रसङ्गात् / ___ अथ अर्थापत्त्या ध्वनयः प्रतीयन्ते; तथाहि-शब्दस्तावत् नित्यत्वात् नोत्पद्यते, संस्कृतिरेव तु क्रियते, सा च विशिष्टा नोपपद्येत यदि ध्वनयो न स्युः / उक्तञ्च"शब्दोत्पत्तर्निषिद्धत्वात् अन्यथानुपपत्तितः / विशिष्टसंस्कृतेर्जन्म ध्वनिभ्योऽध्यवसीयते // " 5 .. [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 126-27 / ] इति / तदप्यचारु; यतः केयं विशिष्टा संस्कृति म-ब्दिसंस्कारः, श्रोत्रसंस्कारः, उभयसंस्कारो वा ? त्रिविधो हि संस्कारो मीमांसकैरिष्टः।। "स्याँच्छब्दस्य हि संस्कारादिन्द्रियस्योभयस्य वा।" [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 52 / ] 10 स्थिरवाय्वपनीत्या च संस्कारोऽस्य भवन् भवेत् / " [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 62 / ] इत्यभिधानात् / तत्राद्यपक्षे कोऽयं शब्दसंस्कारो नाम-शब्दस्योपलब्धिः, आत्मभूतः कश्चिद (1) वायून्-आ० 'टि० / (2) 'मुखाद्विप्रुषो निःसरन्ति मुखाग्रस्थितवस्त्रे आर्द्रतादर्शनात्' इत्यनुमानात् / (3) विप्रुषो हि मुखाग्रस्थवस्त्रादौ दृश्यन्ते-आ० टि०। (4) ध्वनयः सन्ति विशिष्टसंस्कृत्यन्यथानुपत्तेः / “तथा हि सन्ति शब्दव्यञ्जका ध्वनय: शब्दप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्तेः।"-स्या र० प०६०५। (5) "नन्वेवमविशेष किमिति संस्कारविशेषोत्पत्तिरेवाङ्गीक्रियते न शब्दविशेषोत्पत्ति. . रत आह-शब्देति / प्रागनुपजातपश्चादुपजातशब्दोपलम्भानुपपत्त्याऽवश्यं कल्पनीये कस्मिंश्चित् प्रत्यक्षतया शब्दोत्पत्तेनिषेधात् संस्कारकल्पनैव युक्तेति ।"-न्यायर। 'ध्वनिभ्यो व्यवसीयते'-प्रमेयक० पृ० 418 / प्रकृतपाठः-तत्त्वसं० पृ० 611 / (6) "इन्द्रियस्यैव संस्कार: शब्दस्यैवोभयस्य वा / क्रियते ध्वनिभिर्वादास्त्रयोऽभिव्यक्तिवादिनाम् ॥"-वाक्यप० 1179 / (7) 'सा हि स्याच्छब्द -मी० श्लो० / तत्वसं० 50 598 / अनेनैव रूपेण उद्धृतोऽयम-प्रमेयक प०४१९ / "साऽभिव्यक्तिः शब्दस्य भवन्ती वायवीयः संयोगविभागैः शब्दसंस्काराद्वा भवेत् इन्द्रियसंस्काराद्वा उभयस्य वा शब्दस्येन्द्रियस्य च संस्कारात् ।"-तत्त्वसं० 50 50 599 / (8) "द्विविधो हि वायुः स्थिरोऽस्थिरश्च / तत्र यः स्थिरः सघनान्धकारवत् शब्दमावृत्यास्ते तस्य च वक्तृप्रयत्नसमुत्थेन वायुना संयोगविभागा उत्पद्यन्ते / तैश्च संयोगविभागः तस्य स्थिरस्य वायोरपनयः क्रियते स एव च शब्दस्य संस्कारो नान्यः स्वलक्षणपुष्टयादिः तस्य नित्यत्वेनैकरूपत्वात् ।"-तत्त्वसं०. पं० 10601 / (9) तुलना-"भवन्ती वा कारणेभ्योऽतिशयवत्ता वा शब्दस्य व्यक्तिः आवरणविगमो विज्ञानं वा गत्यन्तराभावात् / यत एवन्तस्मात् न व्यक्तिः शब्दस्य कारणेभ्यः किन्तत्पत्तिरेव / भवन्ती वा कारणेभ्यः सकाशाद् व्यक्तिस्त्रिधा भवेत्-पूर्वावस्थापरित्यागेन अतिशयवत्ता वा शब्दस्य व्यक्तिर्भवेत्, उपलम्भावरणविगमो वा, शब्दालम्बनं विज्ञानं वा व्यक्तिः, प्रकारत्रयव्यतिरेकेण गत्यन्तराभावात् ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 386 / इमे सर्वे विकल्पा:-प्रमेयक० 10419 / “क एष शब्दसंस्कार:-किमतिशयाधानमनतिशयव्यावर्तनमावरणापगमो वा"-स्या०र० 10685 / रत्नाकराव० 4 / 9 / 1 स्तिमितकल्प-आ० / 2 विषाणामपि आ०। -भ्योऽवसी-श्र०। 4 एतदप्य-आ० / 5 संस्कार इन्द्रि-श्र०। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 712 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० तिशयः, अनतिशयव्यावृत्तिः, स्वरूपपरिपोषः, व्यक्तिसमवायः, तद्ग्रहणापेक्षग्रहणता, व्यञ्जकसन्निधिमात्रम्, आवरणविगमो वा ? यदि शब्दस्य उपलब्धिः; कथमसौ ध्वनीनां गमिका शब्दश्रोत्रमात्रभावित्वात्तस्याः ? तथाप्यन्यनिमित्तकल्पने हेतूनाम नवस्थितिः / आत्मभूतः कश्चिदतिशयः अनतिशयव्यावृत्तिर्वा; इत्यत्रापि अतिशय:5 दृश्यस्वभाव एव, अनतिशयव्यावृत्तिश्च अदृश्यस्वभावखण्डनमेव / ते च ततो भिन्ने, अभिन्ने वा विधीयेते ? यदि भिन्ने; तदा तत्करणे शब्दस्य न किञ्चित्कृतमिति तदवस्था अस्य अश्रुतिः स्यात् / अथ अभिन्ने; तर्हि शब्दस्यापि तद्वत् कार्यतानुषङ्गादनित्यत्वप्रसक्तिः / 'यो हि यस्मादभिन्नस्वभावः तत्करणे तस्यापि करणम् यथा अतिशयानतिशयव्यावृत्तिस्वरूपस्य, ताभ्यामभिन्नस्वभावश्च शब्द इति / किश्च, श्रोत्रप्रदेश एंव अस्य ध्वनिभिः संस्कारः क्रियेत, सर्वत्रापि वा ? प्रथमपक्षे तावन्मात्रक एव शब्दः स्यात् न सर्वगतः। तस्यैव अन्यत्र तद्विपर्ययरूपतया अवस्थाने दृश्यादृश्यत्वप्रसङ्गान्निरंशताव्याघातः / दृश्येतररूपता चैकस्य ब्रह्मवादं समर्थयते, चेतनेतररूपतयापि एकस्य तद्वदवस्थित्यविरोधात् / घटादेरपि चैवं सर्वगतत्वानुषङ्गः, सोऽपि हि दृश्यप्रदेशे दृश्यः अन्यत्र चादृश्य इति वदतो न वक्त्रं वक्रीभवेत् / सर्वत्र 15 चास्यं संस्कारे सर्वत्र सर्वदा उपलब्धिः स्यात् , न वा कचित् कदाचिदै विशेषात् / स्वरूपपरिपोषोऽप्यनुपपन्नः; नित्यस्य स्वभावाऽन्यथाकरणासंभवात् / करणे वा (1) शब्दोपलब्धः। (2) शब्दश्रोत्रव्यतिरिक्त-आ० टि०। (3) तुलना-"तत्र नातिशयोत्पत्तिः अनित्यताप्रसङ्गात् तस्याः पूर्वापररूपहान्युपजननलक्षणत्वात् ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० 11265 / "विशेषाधानमप्यस्य नाभिव्यक्तिविभाव्यते / नित्यस्यातिशयोत्पत्तिविरोधात्स्वात्मनाशवत् ।।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 238 / (4) "अतिशयो दृश्यस्वभाव एव अनतिशयव्यावृत्तिस्त्वदृश्यस्वभावखण्डनमेव, ते चेत्ततोऽन्ये; तत्करणेऽपि शब्दस्य न किञ्चित्कृतमिति तदवस्थाऽस्याऽश्रुतिः / अथानन्ये; तदा शब्दस्यापि कार्यतया अनित्यत्वानुषङ्गः।"-प्रमेयक० पृ० 419 / स्या० र० पृ० 685 / (5) अदृश्यः सन् अतिशये जाते दृश्यो जात:-आ० टि०। (6) अतिशय-अनतिशयव्यावृत्ती / (7) शब्दात -आ० दि० / तुलना-"विशिष्टसंस्कृतिः सा हि न शब्दव्यतिरेकिणी। शब्दस्याज्ञेयताप्राप्तेः ततः शब्दोऽपि जायते ॥"-तत्त्वसं० का० 2570 / (8) अतिशयोत्पादने अनतिशयव्यावृत्तौ वा। (9) शब्दस्य-आ० टि०। (10) अतिशय-अनतिशयव्यावृत्तिवत् / (11) शब्द: कार्यः कार्यरूपाभ्यामतिशय-अनतिशयव्यावृत्तिभ्यामभिन्नस्वभावत्वात् / (12) शब्दस्य। (13) “श्रोत्रप्रदेश एव चास्य संस्कारे तावन्मात्रक एव शब्दः न सर्वगतः स्यात् ।"-प्रमेयक० पृ० 419 / (14) शब्दस्य / (15) श्रोत्रदेशादन्यत्र (16) अदृश्यरूपतया अशब्दरूपतया वा। (17) शब्दस्य दृश्यादृश्यत्ववत् / (18) शब्दस्य / (19) तुलना-'सर्वेषामुपलम्भः स्याद् युगपद्व्यापिता यदि // संस्कृतस्योपलम्भे च कः संस्कर्ताऽविकारिणः।"-प्रमाणवा० 3.153-54 / 1-वृत्तिस्तु ब०, श्र०। 2-तौ च ततो भिन्नो अभिन्नी वा आ०। 8 भिन्नौ आ० / 4 अभिन्नौ आ०। 5-क्तेःश्र०। 6 तत्कारणे श्र०। 7 एवध्व-श्र०। 8 क्रियते आ०। 9-तः स्यात द-श्र०। 10 दृष्टप्र-श्र०। 11-चित स्वरूप-श्र०। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवनचप्र० का 0 65 ] शब्दनित्यत्ववादः 713 अतिशयपक्षभाविदोषानुषङ्गः। नापि व्यक्तिसमवायः; अनभ्युपगमात् , अन्यथा शब्दस्य सामान्यादिरूपताप्रसङ्गः। अत एव न तहणापेक्षग्रहणता / नापि व्यञ्जकसन्निधिमात्रम् ; सर्वत्र सर्वदा सर्वप्रतिपत्तृभिः सर्वशब्दानां ग्रहणप्रसङ्गात् / आवरणविगमरूपे तु तत्संस्कारे युगपन्निखिलशब्दानामुपलब्धिः स्यात् / प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्ग्यत्वादयमदोषः; इत्यपि मनोरथमात्रम् ; तेषां तद्व्यङ्ग्यत्वस्यापास्तत्वात् / ___ मा भूत्तर्हि शब्दसंस्कारोऽभिव्यक्तिः, इन्द्रियसंस्कारस्तु भविष्यति / तदुक्तम्"अापीन्द्रियसंस्कारः सोप्यधिष्ठानदेशतः / शब्दं न श्रोष्यति श्रोत्रं तेनासंस्कृतशष्कुलि // 1 // अप्राप्तकर्णदेशत्वात् ध्वनेर्न श्रोत्रसंस्किया / अतोऽधिष्ठानभेदेन संस्कारनियमः स्थितः॥२॥" मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 69-71 ] इति; तदप्यविचारितरमणीयम् ; 'इन्द्रियसंस्कारपक्षेऽपि सकृत् संस्कृतस्य श्रोत्रस्य युगपन्निखिल- 10 शब्दप्रकाशकत्वप्रसङ्गात् / नहि अञ्जनादिना संस्कृतं चक्षुः सन्निहितं स्वविषयं नीलधवलादिकं कश्चित् पश्यति कश्चिन्नेति, बलौतलादिना संस्कृतं श्रोत्रं वा कांश्चेिदव गकारादिवर्णान् शृणोति कांश्चिन्नेति नियमो दृष्टः, येनात्रापि तथा कल्पना स्यात्। ततोऽयुक्तमेतत् (1) शब्दोऽपि व्यक्तिषु समवैति-आ० टि० / (2) यदि शब्द: व्यक्तिषु समवेयात् तदा। (3) सामान्यं हि व्यक्तिषु समवैति-आ० टि०। (4) आदिपदेन संयोगादयोऽनेकस्थाः पदार्था ग्राह्याः / (5) सामान्यरूपादिप्रसङ्गादेव-आ० टि०। (6) व्यक्तिग्रहणापेक्षया स्वज्ञानजनकता। (7) शब्दसंस्कारे / तुलना-'तद्रूपावरंणानाञ्च व्यक्तिस्ते विगमो यदि। अभावे करणग्रामसामर्थ्य किन्न तदभवेत॥"-प्रमाणवा० 11266 / (8) "अधिष्ठानम्-कर्णशष्कूली। तत्संस्कारद्वारेण श्रोत्रस्य संस्कारो न केवलस्य। तेनासंस्कृताधिष्ठानत्वाच्च विदरस्थान्यचित्तसूप्तमच्छितानां श्रोत्रं न शृणोति / असंस्कृता कर्णशष्कूली यस्य तत्तथोक्तम् / अधिष्ठानदेशतः इति सप्तम्यर्थे तसिः / यद्यप्यधिष्ठानसंस्कारकारिणो नादास्तद्देशेन्द्रियसंस्कारका वा, तथापि प्राप्ता एव सन्तः संस्कारभाजि पदार्थे संस्कारं कुर्वन्ति नाप्राप्ता इत्यतो न सर्वपुरुषाधिष्ठानादिसंस्कार::..."-तत्त्वसं० पं० पृ० 606 / (9) सप्तमी-आ० टि० / सप्तम्यर्थे पञ्चमीविभक्तिरित्यर्थः। (10) 'अतो न श्रोष्यति'-स्या०र०प०६८५। (11) यस्यैव कर्णदेशं ध्वनिः प्राप्तः तस्यैव श्रोत्रसंस्कार:-आ० टि० / 'अप्राप्तकर्णदेशत्वात् ध्वनिना श्रोत्रसंस्क्रिया' -स्या० र० पू० 686 / (12) 'संस्कारनियमस्थितिः'-मी० श्लो०। प्रमेयक० पृ० 424 / 'संस्कारनियमः स्थितः'-तत्त्वसं० पृ० 606 / स्या० र०पृ० 686 / (13) तुलना-"इन्द्रियस्य स्यात्संस्कारः शणयानिखिलञ्च तत् / संस्कारभेदभिन्नत्वादेकार्थनियमो यदि // अनेकशब्दसंघाते श्रुतिः कलकले कथम् ।"-प्रमाणवा० 3 / 255-56 / "तेषामपि श्रोत्रस्यावारकापनयन संस्कारः शब्दग्रहणयोग्यतोत्पत्तिर्वा ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ०५। "इन्द्रियसंस्कारस्योन्मीलनालोकादेः सकृदिन्द्रियसम्बन्धयोग्यसर्थोपलब्ध्यनकलसंस्कारजनकत्वं दृष्टं तद्वद्वायुरपि सकृदेव सर्वशब्दोपलब्ध्यनकलं श्रोत्रे संस्कारमादध्यात् तथा च सर्वशब्दोपलब्धिः स्यात् ।"-तत्त्वचि० शब्द०१० 405 / "नन्वेवमपि अशेषशब्दोपलम्भप्रसङ्गः, संस्कृते हि श्रोत्रे सर्वेषां सान्निध्यात्।"-प्रश० व्यो० पृ० 648 / (14) "बलातैलादिना संस्कृतं श्रोत्रं वा कांश्चिदेव गकारादीन् शृणोति कांश्चिन्नेति नियमो दृष्टः।"प्रमेयक० पृ० 424 / सन्मति० टी० पृ०३६ / स्या० 2010 686 / शास्त्रवा० टी० पृ० 377B. / ___ 1-रो भक्तिः श्र०। 2 शणोतीति नियमो आ०, ब०। 40 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 714 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [. प्रवचनपरि० "यथा घटादेर्दीपादिरभिव्यञ्जक इष्यते / चक्षुषोऽनुग्रहादेवं ध्वनिः स्यात् श्रोत्रसंस्कृतेः // न च पर्यनुयोगोऽत्र केनाकारेण संस्कृतिः / उत्पत्तावपि तुल्यत्वात् शक्तिस्तत्राप्यतीन्द्रिया // " __ [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 42-43 7 इति; प्रदीपाद्यनुगृहीतचक्षुषा युगपद् घटाद्यनेकार्थग्रहणवत् ध्वन्यनुगृहीतश्रोत्रेण एकदा अनेक5 शब्दग्रहणप्रसङ्गात् / प्रयोगः-श्रोत्रम् एकेन्द्रियग्राह्याऽभिन्नदेशस्थितार्थग्रहणाय प्रतिनियतसंस्कारकसंस्कार्यं न भवति इन्द्रियत्वात् चक्षुर्वत् / तन्न श्रोत्रसंस्कारोऽप्यभिव्यक्तिर्घटते / अस्तु तर्हि उभयसंस्कारोऽभिव्यक्तिः, तत्र उक्तदोषासंभवात् / तदुक्तम्"द्वयसंस्कारपक्षे तु वृथा दोषद्वये वचः / येनान्यंतरवैकल्यात् सर्वैः सर्वो न गृह्यते // " [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 86-87 / ] इति; 10 तदप्ययुक्तम् ; उक्तदोषानुषङ्गादेव; तथाहि-यदा एकवर्णग्राहकत्वेन संस्कृतं श्रोत्रं संस्कृतं वर्णं प्रतिपद्यते तदा तर्ऋत्यसर्ववर्णानपि प्रतिपद्येत, संस्कृतश्च वर्णं सर्वत्र सर्वदा स्थित. त्वेन, अन्यथा तत्प्रतीतिरेव न स्यात् तदात्मकत्वात्तस्य / __ततो नित्यैकरूपत्वे शब्दस्य आवार्यावारकभावस्य व्यङ्ग्यव्यञ्जकभावस्य वाऽनुपपत्तेः नावरणकृता प्रागुच्चारणादस्याऽनुपलब्धिः। अतः ताल्वादिव्यापारान (1) “कीदृशं पुनर्व्वनीनामभिव्यञ्जकत्वम् ? तदर्शयति यथेति / तेजसश्चाक्षुषस्य आप्यायनानुग्रहं कुर्वन् प्रदीपो यथा चाक्षुषाणां घटादीनां व्यञ्जको भवति तथा ध्वनयोऽपि श्रोत्रसंस्कारं कुर्वन्तः शब्दस्याभिव्यञ्जका भविष्यन्तीति ।"-न्यायर० / उद्धृताविमौ-प्रमेयक० पृ० 424 / तत्त्वसं० पू० 602 / (2) श्रोत्रसंस्कृतेरनुग्रहाद् ध्वनिः शब्दस्य व्यञ्जक:-आ० टि०। (3) द्रष्टव्यम्-१०७०८ टि० 18 / (4) "श्रोत्रसंस्कारवैकल्यान्न सर्वैः पुरुषः श्रूयते, शब्दसंस्कारवैकल्याच्च न सर्वः शब्दः, समुच्चितयोयोः कारणत्वात् / प्रत्येककारणत्वे हि दोषद्वयं स्यादिति ।"-न्यायर / "संस्कारद्वयपक्षे तु वृथा दोषद्वयं हि तत्। येनान्यतरवैकल्यात् सर्वैः शब्दो न गम्यते / 'अन्यतरस्य श्रोत्रसंस्कारस्य अर्थसंस्कारस्य वा वैकल्यात् न शब्दो गम्यते / तथाहि-सत्यपि शब्दसंस्कारे बधिरस्य श्रोत्रसंस्कारवैकल्यान्न शब्दग्रहणम्, अबधिरस्याप्यनभिव्यक्तेः शब्दस्याग्रहणम् / क्वचित्पाठो मृषा दोषद्वये वच इति।"-तत्त्वसं० पं० पृ० 612 / (5) 'मृषा दोषद्वये वचः'-मी० श्लो० / स्या० र०पू० 687 / प्रकृतपाठ:-तत्त्वसं० पू० 611 / प्रमेयक० पृ०४२४। (6) शब्दसंस्कारः श्रोत्रसंस्कार:-आ० टि० / (७)तुलना-"तथाहि संस्कृता श्रोत्रवर्णा यद्व्यञ्जकैः पुरा। न नष्टास्ते च्युतिप्राप्तेः सर्वैः सर्वश्रुतिस्तत:।" -तत्त्वसं० का० 2573 / “यदैकवर्ण ग्राहकत्वेन संस्कृतं श्रोत्रं संस्कृतं वर्ण प्रतिपद्यते तदा तत्रत्यसर्ववर्णान प्रतिपद्येत।"-प्रमेयक० पृ०४२५। स्था० 20 पू०६८७। (8) तदाकाशदेशे सर्वेषामपि वर्णानां व्यापितया नित्यतया च विद्यमानत्वात् / (9) यदि संस्कृतं वर्ण सर्वत्र सर्वदाऽवस्थितत्वेन न जानाति तदा। (10) नित्यव्यापिरूपत्वात / (11) तुलना-"प्रागुच्चारणादनुपलब्धेरावरणाद्यनुपलब्धेश्च / / प्रागच्चारणान्नास्ति शब्दः / कस्मात् ? अनुपलब्धेः / सतोऽनुपलब्धिरावरणादिभ्यः / एतन्नोपपद्यते, कस्माद् ? आवरणादीनामनुपलब्धिकारणानामग्रहणात् / अनेन आवृतः शब्दो नोपलभ्यते असन्निकृष्टेन्द्रियव्यवधानादित्येवमादि अनुपलब्धिकारणं न गृह्यते इति सोऽयमनुच्चारितो नास्तीति / ' तस्मान्न व्यञ्जकाभावादग्रहणमपि त्वभावादेवेति / सोऽयमुच्चार्यमाणः श्रूयते श्रूयमाणश्चाऽभूत्वा 1 सर्वदाच स्थि-श्र12चान-ब०, श्र०। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 65] शब्दनित्यत्ववादः 715 न्तरमस्योपलम्भात् तदभावे चानुपलम्भात् तत्कार्यत्वमेव अभ्युपगन्तव्यम् / ननुखननाद्यनन्तरं व्योम उपलभ्यते तदभावे च नोपलभ्यते, नेच तत्तत्कौर्यम् , अतोऽनैकान्तिकत्वमस्य / उक्तञ्च'अनैकान्तिकता तावाद्धेतूनामिह कथ्यते / प्रयत्नानन्तरं दृष्टिनित्येऽपि न विरुद्धयते // " [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 19] 5 "अाकाशमपि नित्यं सद् यदा भूमिजलावृतम् / व्यज्यते तदपोहेन खननोत्सेचनादिभिः // प्रयत्नानन्तरं ज्ञानं तदा तत्रापि विद्युते / तेनाऽनैकान्तिको हेतुर्यदुक्तं तत्र देर्शनम् / / अथ स्थगितमप्येतदस्त्येवेत्यनुमीयते / शब्दोऽपि प्रत्यभिज्ञानात् श्रीगस्तीत्यवगम्यते // " [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 30-33 ] इति; तदप्यसुन्दरम् ; एकस्वभावत्वस्य आकाशेऽप्यसिद्धत्वात् / 'तँद्धि तत्स्वभावं सत् स्ववि- 10 षयज्ञानजननैकस्वरूपम् , तद्विपरीतं वा स्यात् ? यदि तज्जननैकस्वरूपम् ; तदा तस्य न खननाद्यनन्तरमेव उपलब्धिः , किन्तु पूर्वमपि स्यात् / तद्विपरीतस्वरूपत्वे तु न कदाचनाप्युपलब्धिः स्याद्विशेषाभावात् / “विशेषे वा तदेकरूपताव्याघातः / प्रत्यभिज्ञानाच्छब्दे प्राक्सत्त्वसिद्धिश्च लूनपुनर्जातनखकेशादावपि सामाना। कथश्चैवं ध्वनीनामपि प्राक्सत्त्वसिद्धिर्न स्यात् ? य एव पूर्वमकारस्य व्यञ्जको ध्वनिः स एव पश्चादपि 15 इति प्रतीतेः / तथा च व्यङ्ग्यवद् व्यञ्जकस्यापि सर्वत्र सद्भावसिद्धेः तोल्वादिव्यापारवैयर्थ्यम् , सर्वत्र सर्वदा व्यङ्ग्यप्रतीतिश्च स्यात् / ... एतेनेदमपि प्रत्युक्तम्-'अन्यदापि यत् शब्दस्योच्चारणं तदस्याभिव्यञ्जकम् उच्चाभवतीत्यनुमीयते / ऊर्ध्वञ्चोच्चारणान्न श्रूयते स भूत्वा न भवति अभावान्न श्रूयते इति / कथम् ? आवरणाद्यनुपलब्धेरित्युक्तम् / तस्मादुत्पत्तितिरोभावधर्मकः शब्द इति ।"-न्यायभा० 2 / 2 / 18 / (1) ताल्वादिव्यापाररूपोच्चारणकार्यत्वम् / शब्दः अनित्यः ताल्वादिव्यापाररूप्रयत्नानन्तरीयकत्वादिति / (2) व्योम / (3) खननकार्यम् / (4) प्रयत्नानन्तरीयकत्वादित्यस्य हेतोः / (5) "तावच्छब्देनासिद्धतापि वक्ष्यत इति प्रयत्नानन्तरदर्शनादित्यस्य तावदनैकान्तिकत्वं दर्शयति-प्रयत्नेति / दर्शनं हि तत्र सत्तां गमयति न कालान्तरे निषेधति, तेन विपक्षेऽपि कालान्तरे सत्त्वसंभवात्तत्र दर्शनमनैकान्तिकमिति ।"-न्यायर०। (6) 'प्रयत्नानन्तरा दृष्टिः'-मी० श्लो०। (7) उपलब्धि:-आ० टि०। (8) व्योमज्ञानम्-आ० टि० / (9) 'दृश्यते'-मी० श्लो०। (10) "दर्शनम्-प्रयत्नानन्तरज्ञानम्"-तत्त्वसं० पं० पृ० 640 / 'दर्शनात्'-मी० श्लो०, तत्त्वसं० / (11) भूम्याद्यावृतमपि आकाशम् / (12) उच्चारणात् प्राक् / (13) उद्धृता इमे श्लोकाः-प्रमेयक० पृ० 422 / स्या० र० पृ० 689 / द्वितीयतृतीयौ-तत्त्वसं० पू० 640 / (14) तुलना-"एकरूपता चाकाशस्याप्यसिद्धा"प्रमेयक० पृ० 422 / स्या० र० पृ० 689 / (15) आकाशं नित्यैकस्वभावम् / (16) खननात् प्रागनुपलब्धिसमये स्वविषयज्ञानाऽजननस्वभावत्वे खननान्तरञ्च स्वविषयज्ञानजननात्मकत्वे / (17) आकाशस्य नित्यकरूपता न स्यादिति भावः / (18) शब्दवत् / (19) ध्वन्युत्पत्तावेव ताल्वादीनामुपयोगः ते च सर्वदा सन्तीति / 1 न च तत्का-ब० / 2-भावस्य आका-श्र०। 3 प्राच्यत्वसि-ब०। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ هم می लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० रणत्वात्' इत्यादि; ध्वनावप्यस्य समानत्वात् / तथाहि-अन्यदापि यद् ध्वनेरुच्चारणं तत्तस्याभिव्यञ्जकम् उच्चारणत्वात् इदानीं तदुच्चारणवत् / / एतेन "तावत्कालं स्थिरश्चनं कः पश्चान्नाशयिष्यति।" [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 366] इत्येतदपि प्रत्युक्तम् ; ध्वनेरपि प्रत्यभिज्ञानात् पूर्वोत्तरकालद्वयावस्थायिनः प्रसिद्धस्य 5 पश्चात् केनचिन्नाशानुपपत्तेः / यदप्यभिहितम्-'विवादाध्यासितः कालो गादिसम्बद्धः कालत्वात्' इत्यादि; तदप्यभिधानमात्रम् ; गादेः उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य कालान्तरेऽनुपलम्भतोऽभावसिद्धेः, तत्र तत्सद्भावावेदकानुमानस्य बाधितपक्षतया कालात्ययापदिष्टहेतुतया च अगमकत्वात् / विद्युदादेरपि चैवं नित्यत्वं स्यात् ; तथाहि-विवादाध्यासित: कालो विद्युदादिसम्बद्धः कालत्वात् विद्युदादिसम्बद्धकालवत् / प्रतीतिविरोधोऽन्यंत्राप्यविशिष्टः / अत एव 'नित्यः शब्दः श्रावणत्वात्' इत्याद्यप्ययुक्तम् ; उदात्तादिभिर्ध्वनिधर्मैः अनैकान्तिकत्वाच्च, तेहि श्रावणत्वेऽपि अनित्या भवद्भिः प्रतिज्ञाताः। "तेषामश्रावणत्वे श्रोत्रेण शब्दगतधर्मतया उपलम्भो न स्यात् , यदश्रावणस्वरूपं न तस्य शब्दधर्मतया श्रोत्रेणोपलम्भः यथा नीलत्वादेः, अश्रावणस्वरूपाश्चै उदात्तादयो ध्वनिधर्मा इति / तथा वीणादिशब्दैश्च 15 अनैकान्तिकत्वम् ; तेषामप्यनित्यत्वेऽपि श्रावणत्वात् / यच्चान्यदुक्तम्-'देशकालादिभिन्ना गोशब्दव्यक्तिबुद्धयः' इत्यादि; तदपि न साधीयः; गोशब्दलिपिबुद्ध्या हेतोरनैकान्तिकत्वात् , सा हि 'गौः' इत्युत्पद्यते न च सम्प्रत्युत्पन्नगोशब्दबुद्ध्येकॅविषया इति / नचैवं विषयभेदः कापि प्रसिद्ध्यति; संकलबुद्धीनामभिन्नविषयत्वप्रसङ्गात् / तथाहि-देशकालभिन्नवस्तुबुद्धयः एकविषया नवाऽनेकविषया (1) पृ० 699 50 5 / (2) ध्वनेरभिव्यञ्जकम् / (3) उद्धृतोऽयम्-न्यायवा० ता०पू० 254 / (4) तुलना-तत्त्वसं० पृ० 955 / तत्त्वचि० पृ० 379 / (5) पृ० 699 50 9 / (6) तुलना-“गादेरुच्चारणादनन्तरं विनाशस्य प्रत्यक्षप्रतिपन्नत्वेन प्रतिपादनात्"-स्या० र० पृ० 689 / (7) कालान्तरे उच्चारणानन्तरम् / (8) शब्देऽपि / (9) पृ०.६९९ पं०११। (10) तुलना-"उदात्तादिभिर्धर्मेरनैकान्तिकत्वात् / ते हि श्रवणग्राह्यत्वेऽपि न नित्या भवद्भिरङ्गीकृताः। तेषामश्रावणत्वे तु नीलादीनामिव श्रोत्रेणोपलम्भो न भवेत् / वीणादिशब्दैश्चानकान्तिकत्वम्, तेषां श्रावणत्वेऽप्यनित्यत्वात्।" -स्या० र० पृ० 690 / (11) चशब्देन प्रतीतिविरोधः समुच्चीयते / (12) उदात्तादीनाम् / (13) भवन्मते-आ० टि०। (14) पृ० 699 पं० 12 / (15) तुलना-"गोशब्दलिपिबुद्धचा हेतोरनैकान्तिकत्वात् / सा हि गौरित्युल्लेखेनोत्पद्यते न चैकगोशब्दविषया देशकालादिभिन्नत्वाद् गोशब्दलिपीनाम्।"-स्या० र० पृ० 690 / (16) अन्या हि लिपिबुद्धिः अन्या हि गोशब्दबुद्धिः-आ० टि० / (17) तुलना-"अन्यथा सर्वबद्धीनामेकालम्बनता भवेत / क्रमभावविरोधश्च शक्तकारणसन्निधेः ॥"तत्त्वसं० का० 2466 / स्या०र० पृ० 690 / 1 तदनुच्चा-ब० / 2-तयो श्रावणोप-ब०, तयोपलम्भो आ० / 3 गोरित्यु-ब०। 4-भिन्ना वस्तु-श्र० / 5 नचानेक-श्र०। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] शब्दनित्यत्ववादः و میا वस्तुबुद्धित्वात् सम्प्रत्युत्पन्नघटबुद्धिवत् / ततश्च अखिलवस्तुबुद्धीनाम् एकघटलक्षणवस्तुविषयत्वे घटबुद्धित्वमेव स्यात् न गोशब्दबुद्धित्वम् / अतः कथं देशादिभिन्नगोशब्दव्यक्तिबुद्धीनां धर्मित्वम् , कथं वा गोशब्दबुद्धित्वं हेतुः, सम्प्रत्युत्पन्नगोशब्दबुद्धिवदिति दृष्टान्तो वा सिद्ध्येत् यतोऽनुमानं स्यात् ? अथ गवाश्वादिवस्तुभेदस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् तबुद्धीनामेकघटविषयत्वे साध्ये 'वस्तुबुद्धित्वात्' इत्यस्य कालात्ययापदिष्ट- 6 त्वम् अग्नेरनुष्णत्वे द्रव्यत्ववदित्युच्यते ; यद्येवम् , उदात्तादिधर्मभेदेन गोशब्दव्यक्तिभेदस्यापि प्रत्यक्षसिद्धत्वात् तबुद्धीनामपि एकविषयत्वे साध्ये गोरित्युत्पद्यमानत्वात्' इत्यस्यापि कालात्ययापदिष्टत्वं स्यात् / यदप्यभिहितम्-'ह्यस्तनो गोशब्दोऽद्याप्यनुवर्तते' इत्यादि; तदप्यभिधानमात्रम् ; ह्येस्तनाऽद्यतनगोशब्दयोर्भेदस्य प्रत्यक्षप्रसिद्धत्वेन तदभेदप्रसाधनस्य कालात्ययापदिष्ट- 10 त्वात् / कथमन्यथा ह्यस्तनाऽद्यतनविद्युत्प्रकाशयोरपि एकत्वन्न स्यात् / शक्यं हि वक्तुं ह्यस्तनो विद्युत्प्रकाशोऽद्याप्यनुवर्तते विद्युत्प्रकाशत्वात् अद्यतनविद्युत्प्रकाशवदिति / अथ तीव्रा विद्युत् तीव्रतरा तीव्रतमेति प्रत्यक्षतः तीव्रादिधर्मात्मकतया विद्युत्प्रकाशस्य विभिअस्वभावस्य प्रतीतेः न तदैक्यप्रसाधकमनुमानं गमकम् ; तदन्यत्रापि समानम्-गोशब्दस्यापि तीव्रादिधर्मोपेतस्य श्रोत्रप्रत्यक्षे प्रतिभासनात् / तद्धर्मस्य अत्रौपाधिकत्वे 15 विद्युत्यपि अस्र्यं तदस्तु विशेषाभावात् / अथ शुद्धायाः विद्युतः कदाचिदप्यसंवेदनात् न तत्राँस्यौपाधिकत्वम् / तदेतत् शब्देऽप्यविशिष्टम् , नहि तेद्धर्मशून्यः 'सोपि स्वप्नेऽपि प्रतिभासते / एतेन 'अद्यतनो वा गोशब्दः ह्योऽप्यासीत्' इत्यादि प्रतिव्यूढम् ; न्यायस्य समानत्वात् / - यदप्युक्तम्-'शब्दो वाचको दीर्घकालावस्थायी' इत्यादि; तदपि चेष्टयाँ अनैका- 20 न्तिकम् , तस्याः सम्बन्धबलेन अर्थमतिहेतुत्वेऽपि दीर्घकालावस्थायित्वाभावात् / एतेन 'यस्त्वस्थिरः स सम्बन्धबलेन नार्थ बोधयति' इत्यादि प्रत्याख्यातम् ; (1) पृ० 700 506 / (2) तुलना-"ह्यस्तनाद्यतनाः सर्वे गोशब्दप्रत्यया इमे। नैकार्थाः क्रमसम्भूते रूपगन्धादिबुद्धिवत् ॥"-तत्त्वसं० का० 2465 / स्या०र० पृ० 690 / (3) तुलना"स्वाभाविकत्वावधारणन्यायस्य यत्र तत्र प्रसिद्धस्य अत्रापि तुल्यत्वात् / न हि पयसि शैत्यद्रवत्वे तेजसि वा भास्वरत्वोष्णत्वे स्वाभाविके इत्यत्रान्यत्प्रमाणं प्रत्यक्षात् "-स्या० र० पृ० 690 / (4) उदात्तादिधर्मस्य / (5) शब्दे / (6) तीव्रतीव्रतरादिधर्मस्य / (7) तीव्रतीव्रतरादिसर्वधर्मशून्यायाः। (8) विद्युति / (9) उदात्तानुदात्तादिधर्म रहितः शुद्धः / (10) शब्दोऽपि / (11) पृ० 700 पं०७। (12) पृ० 700 पं० 8 / (13) आह्वानादौ अङ गुल्यादिकृतया-आ० टि० / तुलना-"चेष्टयाऽनकान्तिकत्वात्"-स्या० र० पृ० 692 / (14) पृ० 700 पं०९। 1 यदेवम् श्र०। 2-क्षसि-श्र०, ब०। 3 विद्युत्तीव्रतमेति श्र०। 4 श्रोत्रप्रत्यक्षप्र-श्र०. श्रोत्रप्रत्यक्षेण प्र-ब०। 5-न्यः स्वापे स्वप्नेपि श्र०। 6 चोदयति ब०। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 718 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० चेष्टायाः सम्बन्धबलेन अर्थबोधकत्वेऽपि तादात्विकनिमित्तत्वसंभवात् / ततोऽयुक्तमेतत् "कञ्चित्कालं स्थिरः शब्दः सर्वकालमपि स्थिरः / विनाशहेतुशून्यत्वात् सामान्याकाशकालवत् // ' [ ] इति; यतः कश्चित्कालावस्थायित्वं किम् उपलम्भकालावस्थायित्वमभिप्रेतम् , अतीतवर्तमान5 कालावस्थायित्वं वा ? प्रथमपक्षे चेष्टाया विद्युदादेश्च सर्वकालमपि स्थायित्वप्रसङ्गः, तथाविधकियत्कालस्थिरत्वस्य तत्राप्यविशेषात् / अतीतवर्तमानकालावस्थायित्वश्चास्य न कुतश्चित् सिद्ध्यति इत्युक्तं प्रागेव / हेतुश्चात्रासिद्धः; शब्दस्य कादाचित्कतया विनाशहेतुशून्यत्वानुपपत्तेः। यत् कादाचित्कं न तत् विनाशहेतुशून्यम् यथा विद्युदादि, कादाचित्कश्च शब्द इति / यदपि-विवादाध्यासितः कालो गादिशब्दशून्यो न भवति' इत्याद्युक्तम् ; तदपि विद्युदादौ समानत्वादयुक्तम् / तथाहि-विवादाध्यासितः कालो विद्युदादिशून्यो न भवति कालत्वात् तत्सत्त्वोपेतकालवत् / प्रत्यक्षबाधनम् उभयत्र तुल्यम् / .. यदप्युक्तम्-'नित्यः शब्दः ततोऽर्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्तेः' इत्यादि; तदप्यविचारितरमणीयम्; धूमादिवदनित्यस्याप्यस्य सादृश्यतोऽर्थप्रतिपादकत्वोपपत्तेः। न खलु 'य एव सङ्केतकाले दृष्टः तेनैव अर्थप्रतीतिः कर्त्तव्या' इति नियमोऽस्ति, महानसदृष्टधूमसदृशादपि पर्वतधूमाद् वह्निप्रतिपत्तिप्रतीतेः / न च पर्वतमहानसप्रदेशवर्तिन्योः धूमव्यक्त्योरैक्यं संभवति; प्रतीतिविरोधात्, सर्वस्य सर्वगतत्वानुषङ्गाच्च / अथ धूमसामान्यस्य अत्र गमकत्वम् ; शब्दसामान्यस्य अन्यत्र वाचकत्वं किन्नं स्यात् ? ननु शब्दसामान्यस्य वाचकत्वे शब्दस्य किमायातम् ? तर्हि धूमसामान्यस्याप्यनुमापकत्वे 20 धूमस्य किमायातम् ? अथ धूमात्तस्याऽभेदात् तदनुमापकत्वे धूमस्याप्यनुमापकत्वम् ; तर्हि शब्दात् तत्सामान्यस्याप्यभेदात् तद्वाचकत्वे तस्यापि वाचकत्वमस्तु अविशेषात् / अथ शब्दे सामान्यमेव नास्ति तत्कथमस्य वाचकत्वमुच्यते; धूमेऽपि तर्हि तन्नास्ति तत्कस्य (१)उच्चारणानन्तरं यदुपलभ्यते स उपलम्भकाल:-आ० टि० / (2) शब्दस्य। (3) तुलना"कादाचित्कत्वाच्च शब्दे तदसिद्धम्"-स्या० र० पृ० 692 / (4) पृ० 701 पं० 3 / (5) तुलना"तदपि विद्यदादौ तुल्यत्वादयुक्तम"-स्या० र०प० 692 / (6) शब्दे विद्यदादौ च। (7) 10 701 पं०४। (8) तुलना-"अनित्यत्वेऽपि सादृश्योपादाने सत्यर्थप्रतिपत्तेर्भावात् / तत्र यत्र गकारौकारविसर्जनीयानामित्थम्भूतानपूर्वीमुपलभसे तत्र तत्र गोत्वविशिष्टोऽर्थः प्रतिपत्तव्यः प्रतिपादयितव्यश्चेति सङ्केतग्रहे सति तथाविधं शब्दमुपलभमानः तमर्थं प्रतिपद्यते प्रतिपादयति चेति ।"-प्रश० व्यो० पृ०६४९ / “धूमादिवदनित्यस्यापि शब्दस्य अवगतसम्बन्धस्य सादृश्यतोऽर्थप्रतिपादकत्वसंभवात् ।"प्रमेयक०पू०४०९ / सन्मति०टी०पृ०३३ / स्या० र० पृ० 692 / प्रमेयर०३।१००। (9) यदि महानसोपलब्धैव धूमव्यक्तिः पर्वतेऽपि स्यात्तदा / (10) धूमसामान्यस्य / (11) शब्दसामान्यस्य शब्दत्वस्य / 1 पूर्वकाल-श्र०। 2 इत्युक्तं ब०,श्र० / 3 शब्दसामा-आ। 4 धूमोऽपि श्र०। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 065 ] शब्दनित्यत्ववादः 716 गमकत्वमुच्येत ? अथ तद्भेदस्य प्रमाणसिद्धत्वात् 'धूमो धूमः' इत्यसन्दिग्धाऽबाध्यमानाऽनुगतप्रतीतिदर्शनात् अस्ति तत्र तत् ; तदेतदन्यत्रापि समानम्। ननु शब्दव्यक्तीनां प्रत्यक्षतो भेदप्रसिद्धेः तत्र इष्टमेव शब्दत्वसामान्यम् , गादीनां तु एकैकव्यक्तिकत्वेन भेदाभावान्न तत्र गत्वादिसामान्यं संभवतीति तैत्र तस्य वाचकत्वाभावः; तदप्यसाम्प्रतम् ; तेषामपि उदात्तादिभेदतो नानाव्यक्तिकत्वसंभवाद् गत्वादिसामान्यसद्भावोपपत्तेः। 5 'ध्वनिधर्मा एव उदात्तादयः' इति च मनोरथमात्रम् ; तेषों तद्धर्मत्वस्य प्रागेव कृतोत्तरत्वात् / ततोऽनित्यपक्षेऽपि इत्थं शब्दादर्थप्रतिपत्तेरुपपत्तेः नार्थापत्तितोऽपि तन्नित्यत्वसिद्धिः / अतोऽयुक्तमुक्तम्-“अर्थापत्तिरियं चोक्ता' [ मी० श्लो०] इत्यादि / प्रसाधितश्च नित्यसम्बन्धपरीक्षावसरे अनित्यत्व एव शब्दस्य वाचकत्वमित्यलमतिप्रसङ्गेन। ___यच्चान्यदुक्तम्-'सादृश्यस्य विचार्यमाणस्यानुपपत्तेः' इत्यादि; तदप्यनल्पतमो- 10 विलसितम् ; तस्य आबालमबाधप्रतीतिगोचरचारितया अपह्रोतुमशक्यत्वात् / एकस्य हि स्वसामग्रीतो यादृशः परिणामः तादृश एवापरस्य सादृश्यं यमलकवत्। तच्च व्यक्तिभ्यो भिन्नमभिन्नञ्च सामान्यपरीक्षाप्रघट्ट के सप्रपञ्चं प्रपञ्चितमिति कृतं पुनः प्रसङ्गेन / ततो यद् यद्रूपतया कुतश्चिदपि प्रमाणान्न प्रतीयते न तत्तद्रूपतयाऽभ्युपगन्तव्यम् यथा * जगद् अद्वैतरूपतया, सर्वथा नित्यस्वभावतया न प्रतीयते च कुंतश्चित्प्रमाणात् शब्द 15 इति / तदनित्यस्वभावतायां तु प्रमाणसद्भावात् तद्रूपतयाऽसौ अभ्युपगन्तव्यः / तच्च प्रमाणम्-अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्, यत्कृतकं तदनित्यं दृष्टं यथा घटः, कृतकश्चायमिति / न चेदमसिद्धम् ; तथाहि-कृतकः शब्दः, कारणान्वयव्यतिरेकानु (1) महानसीयपर्वतीयादिभेदेन धूमव्यक्तीनामनेकत्वादस्ति तत्रानुगतं धूमत्वाख्यं सामान्यम्, गादिशब्दस्तु एकः अतः कथं तत्र शब्दत्वम् व्यक्तेरभेदस्य जातिबाधकत्वादित्याशयेन शङ्कते अथेति / (2) धूमत्वाख्यं सामान्यम् / (3) गत्वादौ। (4) गादीव्यक्तीनामपि / (5) उदात्तादीनाम् / (6) 10 70259 / (7) तुलना-“स्वहेतोरेकस्य हि यादृशः परिणामः तादृश एवापरस्य सादृश्यं न तु स एव / स च व्यक्तिभ्यो भिन्नोऽभिन्नश्च ।”-प्रमेयक० पृ० 411 / (8) पृ० 289 / (9) तुलना-"नित्यत्वेऽपि शब्दानां सर्वेषां स्यात् सकृच्छ्र तिः / समाक्षग्रहयोग्यत्वात् व्यापिनां समवस्थितेः॥ तत्कृतमुपकारमात्मसात्कुर्वतः तद्देशवृत्तिनियमात् कूटस्थस्य न संभवति / सर्वगतत्वेऽपि विवक्षितैकशब्दश्रुतिर्न स्यात् ।"सिद्धिवि०प०५५४ / “स्वतन्त्रत्वे तु शब्दानां प्रयासोऽनर्थको भवेत् / व्यक्तयावरणविच्छेदसंस्कारादिविरोधतः // वंशादिस्वरधारायां संकुलं प्रतिपत्तितः / क्रमेणाशुग्रहेऽयुक्तः सकृद्ग्रहणविभूमः / ताल्वादिसन्निधानेन शब्दोऽयं यदि जायते। को दोषो येन नित्यत्वं कुतश्चिदवकल्प्यते ॥"-न्यायवि०का०४२२२४। (१०)तुलना-"अनित्य: शब्दः इत्युत्तरम् / कथम् ? 'आदिमत्त्वादैन्द्रियकत्वात् कृतकवदुपचाराच्च / / आदियोंनिः कारणम् आदीयते अस्मादिति / कारणवदनित्यं दृष्टम्। संयोगविभागजश्च शब्दः कारणवत्वादनित्य इति / का पुनरियमर्थदेशना कारणवत्त्वादिति ? उत्पत्तिधर्मकत्वादनित्यः शब्दः इति, भत्वा न भवति विनाशधर्मक इति / सांशयिकमेतत्-किमुत्पत्तिकारणं संयोगविभागौ शब्दस्य आहोस्विदभिव्य _1 भेदसिद्धेः श्र० / 2-कत्वे भेदा-आ०। 3 यथा च जगद् श्र०। 4 नित्यत्वस्व-श्र०। 5 कुतश्चेतिप्रमा-श्र०। 6-त्यं यथा ब०। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 720 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० विधायित्वात् , यदित्थं तदित्थं यथा घटः, तथा च शब्दः, तस्मात्तथेति / नचेदमप्यसिद्धम् ; ताल्वादिकारणव्यापारे सत्येव अस्यात्मलाभोपलम्भात् तदभावे चानुपलम्भात् मृद्दण्डादिकारणव्यापारभावाभावयोः घटस्य आत्मलाभाऽलाभोपलम्भवत् / न च तव्या पारे तदभिव्यक्तेरेव आत्मलाभो न शब्दस्य इत्यभिधातव्यम् ; तस्याः प्रागेव प्रपञ्चतोऽ5 पास्तत्वादिति ॥छ। तदेवं वर्णानां पौरुषेयत्वप्रसिद्धौ पदवाक्यानामनायासतः तत्प्रसिद्ध्यति तदात्मकत्वात्तेषाम्। नन्वस्तु लौकिकानां तेषां तैत्सिद्धिः न वैदिकानामिति चेत् ; न; तदत्यन्तवैलक्षण्याप्रतीतेः। “य एव हि लौकिका: शब्दाः त एव वैदिकाः"[शाबरभा०१॥३॥३०] इत्यभ्युपगमव्याघातप्रसङ्गाच्च / तदपौरुषेयत्वप्रसाधकप्रमाणाभावाच्च; न च तदभावोऽ10 सिद्धः; यतः तत्प्रसाधकं प्रमाणं प्रत्यक्षम् , अन्यद्वा भवेत् ? न तावत्प्रत्यक्षम् ; तस्य शब्दस्वरूपमात्रग्रहणे चरितार्थत्वेन तत्पौरुषेयत्वाऽपौरुषेयत्वग्राहकत्वाऽसंभवात् / क्तिकारणमित्यत आह-ऐन्द्रियकत्वात् इन्द्रियप्रत्यासत्तिग्राह्य ऐन्द्रियकः / किमयं व्यज्जकेन समानदेशोडभिव्यज्यते रूपादिवत्, अथ संयोगजाच्छब्दाच्छब्दसन्ताने सति श्रोत्रप्रत्यासन्नो गृह्यत इति ? संयोगनिवृत्तौ शब्दग्रहणान्न व्यञ्जकेन समानदेशस्य ग्रहणम् / दारुवश्चने दारुपरशुसंयोगनिवृत्तौ दूरस्थेन शब्दो गृह्यते, न च व्यञ्जकाभावे व्यङ् ग्यग्रहणं भवति तस्मान्न व्यञ्जक: संयोगः 'इतश्च शब्द उत्पद्यते नाभिव्यज्यते कृतकवदुपचारात् / तीव्र मन्दमिति कृतकमुपचर्यते तीव्र सुखं मन्दं सुखं तीव्र दुःखं मन्दं दुःखमिति, उपचर्यते च तीव्रः शब्दो मन्दः शब्दः इति ।"-न्यायसू०, भा० 2 / 2 / 13 / “अनित्यः शब्दः तीव्रमन्दविषयत्वात् दुःखवदिति कृतकवदुपचारादित्यनेन सूत्रेण सर्वानित्यत्वसाधनवर्गसंग्रहः / कृतकत्वग्रहणस्य उदाहरणार्थत्वात् / यथा सामान्यविशेषवतोऽस्मदादिबाह्यकरणप्रत्यक्षत्वात्, उपलभ्यस्य अनुपलब्धिकारणाभावे सत्यनुपलब्धेः, गुणस्य सतोऽस्मदादिबाह्यकरणप्रत्यक्षत्वात् इत्येवमादि ।"-न्यायवा० पृ० 290 / “तदेवन्तीवादिभेदभिन्नत्वात्सुखादिवदनित्यत्वं शब्दानाम् / व्यञ्जकानुपलब्धी चाभूत्वा भवनस्योपलब्धेः कार्यत्वादनित्यत्वं घटादिवत् / तथा परमात्मगुणान्यत्वे सति व्यापकविशेषगुणत्वात् सुखादिवत् ।"-प्रश० व्यो० पृ०६४९ / "अतो यत्नजनितवर्णाद्यात्मा श्रवणमध्यस्वभावः प्राक् पश्चादपि पुद्गलानां नास्तीति तावानेव ध्वनिपरिणामः।"-अष्टश०, अष्टसह. प०१०८। “परिणामी शब्द: वस्तुत्वान्यथानुपपत्तेः।"-तत्त्वार्थश्लो० 106 / “अनित्यः शब्द: तीवमन्दतादिधर्मोपेतत्वात् सुखदुःखादिवत्"-रत्नाकराव० 4 / 9 / "तस्माद्वर्णो न नित्योऽनित्यो वा सत्त्वे सत्युत्पत्तिमत्त्वात्, अस्मदादिबहिरिन्द्रियग्राह्यत्वे सति जातिमत्त्वात्, अस्मदादिप्रत्यक्षगुणत्वाद्वा, आत्मैकत्वप्रत्यक्षत्वपक्षे प्रत्यक्षविशेषगुणत्वात्, व्यापकसमवेतप्रत्यक्षविशेषगुणत्वात्, अनात्मप्रत्यक्षगुणत्वात्, अव्याप्यवृत्तित्वात्, "बहिरिन्द्रियव्यवस्थाहेतुगुणत्वात्, भूतप्रत्यक्षगुणत्वात्, उत्कर्षापकर्षशब्दप्रवृत्तिनिमित्तजातिमत्त्वाद्वेत्यादि।"-तत्वचि० शब्द०१० 460 / (1) शब्दस्य / (2) ताल्वादिव्यापारे / (3) वर्णात्मकत्वात्पदवाक्यानाम् / तुलना-“यदा च वर्णा एव न नित्यास्तदा कैव कथा पुरुषविवक्षाधीनानुपूर्वादिविशिष्टवर्णसमूहरूपाणां पदानां कुतस्तराञ्च तत्समूहरूपस्य वाक्यस्य कुतस्तमाञ्च तत्समूहस्य वेदस्येति"-तत्त्वचि० शब्द० पृ०४६४। (4) पदवाक्यानाम् / (5) पौरुषेयत्वसिद्धिः / (6) तयोः लौकिकवैदिकपदवाक्ययोः / (7) उद्धृतमिदम्-सन्मति० टी० पृ० 39 / तौतातित० पृ० 134 / भादृचि० पृ० 41 / 1 तथा शब्दः श्र०। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] वेदापौरुषेयत्वविचारः 721 किञ्च, अनादिसत्त्वस्वरूपमपौरुषेयत्वम्, तत्कथम् अक्षप्रभवप्रत्यक्षपरिच्छेद्यम् ? अक्षाणां प्रतिनियतरूपादिगोचरचारितया अनादिकालेनाऽसम्बन्धात् तत्कालसम्बद्धसत्त्वेनाप्यसम्बन्धतः तैज्ज्ञानाऽहेतुत्वात् / ननु मा भूत् प्रत्यक्षतस्तदपौरुषेयत्वसिद्धिः, अनुमानात्तु सा भविष्यति / तच्चावेदस्य अपौरुषेयत्व- नुमानम्-अपौरुषेयो वेदः कर्तुः स्मरणयोग्यत्वे सति अस्मर्यमाण- 5 मुररीकुर्वतां मीमांस- कर्तृकत्वाद् व्योमवत्। न चायमसिद्धः; वेदकर्तुः कदाचित् केनचित् कानां पूर्वपक्षः- स्मरणाभावात् / सतश्चास्य तदर्थानुष्टानसमये अनुष्ठातृणामनिश्चितप्रामाण्यानां तत्प्रामाण्यप्रसिद्धये स्मरणं स्यात् / ये हि यदर्थानुष्ठाने प्रवर्त्तन्ते ते अवश्य (1) तुलना-"अनादिसत्त्वरूपञ्च अपौरुषेयत्वं कथमक्षप्रभवप्रत्यक्षपरिच्छेद्यम् .."-प्रमेयक० 103913 (2) अनादिकाल / (3) अनादिसत्त्वरूपाऽपौरुषेयत्वज्ञानाकारणत्वात् / (4) "अपौरुषेयत्वात् सम्बन्धस्य सिद्धमिति। कथं पुनरिदमवगम्यत अपौरुषेय एव सम्बन्ध इति ? पुरुषस्य सम्बन्धरभावात / कथं सम्बन्धा नास्ति ? प्रत्यक्षस्य प्रमाणस्याभावात् तत्पूर्वकत्वाच्चेतरेषाम् / नन चिरवृत्तत्वात्प्रत्यक्षस्याविषयो भवेदिदानीन्तनानाम् / न हि चिरवृत्तः सन्न स्मर्येत / न च हिमवदादिषु कूपारामादिवदस्मरणं भवितुमर्हति, पुरुषवियोगो हि तेषु भवति देशोत्सादेन कुलोत्सादेन वा / न च शब्दार्थवियोगः पुरुषाणामस्ति / स्यादेतत्-सम्बन्धमात्रव्यवहारिणो निष्प्रयोजनं कर्तृस्मरणमनाद्रियमाणा विस्मरेयुरिति; तन्न; यदि हि पुरुषः कृत्वा सम्बन्धं व्यवहारयेत् व्यवहारकाले अवश्यं स्मर्तव्यो भवति / संप्रतिपत्तौ हि कर्तृव्यवहोरर्थः सिद्धयति न विप्रतिपत्तौ। न हि वृद्धिशब्देन अपाणिने~वहरत: आदैच: प्रतीयेरन् पाणिनिकृतिमननुमन्यमानस्य वा। तथा मकारेण अपिङ्गलस्य न सर्वगुरुस्त्रिक: प्रतीयेत पिङ्गलकृतिमननुमन्यमानस्य वा। तेन कर्तृव्यवहारौ सम्प्रतिपद्यते / तेन वेदे व्यवहरद्भिरवश्यं स्मरणीयः सम्बन्धस्य कर्ता स्यात् व्यवहारस्य च / " तस्मात् कारणादवगच्छामो न कृत्वा सम्बन्धं व्यवहारार्थ केनचिद्वेदाः प्रणीता इति / ..."तस्मादपौरुषेयः शब्दस्य अर्थेन सम्बन्धः।" -शाबरभा०२१।५। पृ० 53 / बहती० 10 177 / “यदा चाप्तप्रणीतत्वाच्छब्दोऽयं प्रतिपादयेत् / न स्वशक्त्या तदाप्तत्वं मितौ न स्मर्यते कथम् // यदा हि कश्चित् पदपदार्थसम्बन्धं कृत्वा धर्माधर्मप्रतिपादनाय वेदवाक्यानि कृतवान तदाऽवश्यमसौ सम्बन्धस्य कर्ता. स एव च तैः पदैः वेदवाक्यरचनात्मक व्यवहारं करोतीति समयव्यवहारयोरेककर्तत्वं प्रतिपतृभिः स्मर्तव्यम्, तथा च वाक्यादर्थ प्रतिपद्यमानानामवश्यं वाक्यकर्तराप्तत्वं प्रतिपतभिः स्मतर्व्यम्, तदधीनत्वादर्थनिश्चयस्य, न वेदादर्थं प्रतिपद्यमानाः समयकर्तारं तेन सह वेदकर्तुरेकत्वं तस्य चाप्तत्वं स्मरन्तो दृश्यन्त इति / "दृष्टे भवतु मा वाभूत् कर्तृसंप्रतिपन्नता। वैदिको व्यवहारस्तु न कर्तृस्मरणादृते // एवं गामानयेत्येवमादिषु मा नाम समयकर्तुः व्यवहारकर्तुश्च संप्रतिपत्तिर्भूत, वेदेऽपि प्रतिपत्तिमात्रं विनाऽपि संप्रतिपत्त्या सिद्धयतु नाम / व्यवहारस्त योऽग्निहोत्राद्यनष्ठानात्मकः सोऽदष्टार्थो वाक्यकप्रमाणको नाऽसति वाक्यकाराप्तस्मरणे सिद्धयेत्, तदवश्यंस्मर्तव्यस्य वेदानां सम्बन्धानाञ्च कर्तुरस्मरणात् योग्यानुपलम्भनादभावेऽवधारिते सिद्धं वेदानां सम्बन्धानाञ्च नित्यत्वमित्याह-दष्ट इति ।"-मी० श्लो० न्यायर०, सम्बन्धा० श्लो० 123, 130 / "कथं पुनरपौरुषेयत्वं वेदानाम् ? पुरुषस्य कर्तुरस्मणात् ।"-प्रक० पं० पृ० 140 / "कर्तुरस्मरणाच्चापौरुषेयत्वम्"-भाद्रवी०प० 33 / नयवि०५० 279 / "स्मर्तव्यत्वे सत्यस्मरणाद् योग्यानुपलब्धिनिरस्तस्य कर्तरनमानासंभवात समाख्यायाश्च प्रवचननिमित्तत्वादपौरुषेया वेदा इति ।"-शास्त्रधी० ए० 69,616 / (5) वेदकर्तुः। (6) अग्निष्टोमादियज्ञानुष्ठानकाले / 1 तत्र ज्ञाना-आ०, ब०। 2 कदाचित्कत्वेन चित् श्र० / 41 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 722 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० तच्छास्त्रकर्तारमनुस्मरन्ति यथा अष्टकाद्यर्थानुष्ठानार्थिनः तत्प्रणेतारं मनुम्, वेदविहितार्थानुष्ठाने बहुवित्तव्ययायाससाध्याऽग्निष्टोमादिकर्मलक्षणे प्रवर्त्तन्ते च प्रेक्षापूर्वकारिणः, अतस्तेषां महती तत्कर्तृस्मरणापेक्षा / तेहि अदृष्टफलेषु कर्मसु एवं निःसंशयाः प्रवर्ते रन् यदि तेषां तद्विषयः सत्यतानिश्चयः स्यात् / न चासौ तदुपदेष्टुः स्मरणाभावे घटते 5 पित्राद्युपदेशवत् / यथैव हि पित्रादिकमुपदेष्टारं स्मृत्वा स्वयमदृष्टफलेष्वषि कर्मसु तदुप देशात् 'पित्रादिभिरेतदुपदिष्टं तेनाऽनुष्ठीयते' इति, एवं वैदिकेष्वपि कर्मसु अनुष्ठीयमानेषु कर्तुः स्मरणं स्यात् / न चाभियुक्तानामपि वेदार्थानुष्ठातृणां त्रैवर्णिकानां तत्स्मरणमस्ति, अतोऽसौ तत्र नास्तीति निश्चीयते / छिन्नमूलत्वाच्च तंत्र कर्तृस्मरणाभावः / स्मरणस्य हि अनुभवो मूलम् , न चासो 10 वेदे कर्तृविषयत्वेन विद्यते तत्कथं तत्स्मरणसंभावनाशङ्काऽपि ? न च रचनावत्त्वेन अत्र भारतादिवत् कर्तृसद्भावप्रसिद्धर्नास्य छिन्नमूलत्वमित्यभिधातव्यम् ; वेदरचनायाः कर्तृपूर्वकरचनाविलक्षणत्वात् / न च रचनामात्रस्यात्रोपलम्भात् कर्बनुमानं युक्तम् ; जगतो बुद्धिमद्धेतुकत्वानुमानानुषङ्गतोऽनिष्टसिद्धिप्रसङ्गात् / अतो यादृशी रचना कन्वयव्यतिरेकानुविधायिनी प्रतिपन्ना तादृश्येव परिदृश्यमाना कर्तारमनुमापयति इत्यभ्युपगन्तव्यम् / तत्कथं वेदे ततः कनुमानशङ्काऽपि संभाव्यते ? अतो वैदिकी रचना अपौरुषेयी दृष्टकर्तृकरचनाविलक्षणत्वात् आकाशवदिति / तथा "वेदाध्येयनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकम् / वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाऽध्ययनं यथा // "[ मी० श्लो० वाक्याधि० श्लो० 366 ] (1) कर्तारः / आग्रहायण्या ऊर्ध्वं कृष्णाष्टमीषु तिसृषु क्रियमाणः पितृश्राद्धविशेषः / तथा च मनुवचनम्-''पितंश्चैवाष्टकास्वर्चेत्"-मनुस्मति०४।१५०। (2) अनुभवः। (3) “विप्लवते खल्वपि कश्चित्पुरुषकृताद्वचनात्प्रत्ययः, न तु वेदवचनस्य मिथ्यात्वे किञ्चन प्रमाणमस्ति। ननु सामान्यतो दृष्टं पौरुषं वचनं वितथमुपलभ्य वचनसाम्यादिदमपि वितथमवगम्यते; न; अन्यत्वात्। न ह्यन्यस्य वितथभावे अन्यस्य वैतथ्यं भवितुमर्हति अन्यत्वादेव / न हि देवदत्तस्य श्यामत्वे यज्ञदत्तस्यापि श्यामत्वं भवितुमर्हति।" -शाबरभा० 13122 / “वाक्यत्वात् पौरुषेयत्वं दृश्यादर्शनबाधितम् / प्रतिहेतुविरुद्धश्च हेतुः तस्मादकत्रिमाः ॥"-शास्त्रदी०१०६१५। "प्रकृष्टं हि वचनं कस्यचिदेव कुत्रचिदेव तावत्संघात्मकत्वं न पौरुषेयतामनुमापयितुमलम् वेदार्थविषयवाक्यरचनासामर्थ्यानुपपत्तेः “य एव हि पदसंघाताः पौरुषेयैः विरचयितुं शक्यन्ते तत्रैव पौरुषेयत्वं दृष्टमित्य शक्यविरचनेषु पौरुषेयत्वानुमानं न क्रमते। न च पौरुषेयत्वं विना पदसंघातात्मकतैव नोपपद्यते; उच्चारणवशेन हि पदानि संहततामापद्यन्ते।"-प्रक० पं० पृ० 98-99 / तन्त्ररह० पृ० 43 / (4) रचनामात्रात् / (5) "उक्तं तु शब्दपूर्वत्वम् / उक्तमस्माभिः शब्दपूर्वत्वमध्येतृणाम् ।"-जैमिनिसू०, शाबरभा० 111330 / "वेदस्य कर्तुरस्मरणम्, वेदार्थस्यातीन्द्रियत्वमित्येवमादिहेतुभिरध्येतृणामनादिप्रवृत्तानां शब्दपूर्व उच्चारणान्तरपूर्वो वेदो न केनचिच्चिन्तयित्वा प्रवर्तित इति अकृतकत्वहेतोरुक्तत्वात्"-मीमांसाभा०प०१०७८ / “सप्रतिसाधनश्च वाक्यत्वात् इति / विवादाध्यासितं वेदाध्ययनं गर्वध्ययनपूर्वकं वेदाध्ययनत्वादद्यतनाध्ययनवदिति / तदिदमाह सूत्र कार:-'उक्तं तु शब्दपूर्व 1 तत्कर्तः स्मरणा-ब०। 2-सत्कर्बन-श्र०। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 प्रवचनप्र० का०६५ ] वेदापौरुषेयत्वविचारः 723 "अतीतानागतौ कालौ वेदकारविवर्जितौ / कालत्वात्तद्यथा कालो वर्तमानः समीक्ष (क्ष्य) ते // " [ ] इत्यतोप्यस्य अपौरुषेयत्वसिद्धिः / नन्वाप्तप्रणीतत्वाभावे कथमस्ये प्रामाण्यं स्यादिति चेत् ? 'अपौरुषेयत्वादेव' इति ब्रूमः / वचनस्य पुरुषदोषानुप्रवेशेनैव अप्रामाण्यप्रसिद्धेः / तदुक्तम्"शब्दे दोषोद्भवस्तावद् वक्त्रधीन ईति स्थितम् / तदभावः क्वचित्तावद् गुणवद्वतृकत्वतः॥ तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसंभवात् / यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः // " __[ मी० श्लो० चोदना० श्लो० 26, 63] न च आप्तगुणसंक्रान्त्यैव शब्दस्य प्रामाण्यम् , वेदे च आप्तप्रणीतत्वाभावत: तत्संक्रान्त्यसंभवान्न प्रामाण्यमित्यभिधातव्यम् ; यतो नात्रे आप्तगुणसंक्रान्त्या प्रामाण्यम् 10 शब्दोच्चारणमात्रे तस्य व्यापारात् , शब्दस्तु स्वमहिम्नैव अवितथामर्थप्रतिपत्ति कुर्वाणः प्रमाणम् / न चैवमनाप्तस्यापि तदुच्चारणमात्रे व्यापारात् शब्दः स्वमहिम्नैवासत्यप्रतीति कुर्वाणः अप्रमाणमित्यभिधातव्यम् ; अनाप्तप्रणीतत्वादिदोषाणाम् अप्रामाण्योत्पादनादन्यप्रयोजनाभावात् , आप्तप्रणीतत्वादिगुणानां तु दोषापसारणे व्यापारात स्वतः प्रामाण्यं त्वम्' इति / शब्दशब्देनात्र शब्दजन्यमध्ययनम् / तदयमर्थ:-सर्वपुंसामध्ययनमध्ययनान्तरपूर्वकम, सर्वे हि यथैव गुरुणाऽधीतं तथैवाधिजिगांसन्ते न पुनः स्वातन्त्र्येण कश्चिदपि प्रथमोऽध्येता वेदानामस्ति यः कर्ता स्यात् तस्मादपौरुषेया वेदाः।"-शास्त्रदी० ए० 617 / “विमतं वेदाध्ययनं परतन्त्राध्यतकं ... वेदाध्ययनत्वात् सम्प्रतिपन्नाध्ययनवत्, आत्मत्वं वेदकर्तृव्यक्तिसमवेतं न भवति जातित्वात् गोत्व वदिति प्रतिहेतुविरुद्धञ्च वाक्यत्वम् ।"-मानमेयो० पृ० 173 / उद्धृतोऽयम्-प्रमाणवा० स्वव० टी० पृ० 338 / न्यायमं० पृ० 233 / 'तदध्ययनपूर्वकम्'-अष्टसह० पृ०.२३७ / तत्त्वसं० पृ० 643 / प्रमेयक० पृ० 396 / सन्मति० टी० पृ० 137 / स्या० र० पृ० 627 / विश्वतत्त्वप्र० पृ० 33 / 'तदध्ययनपूर्वकम्'-प्रमेयर० 399 / रत्नाकराव० 4 / 9 / (1) "वेदकारवियोगिनौ / कालत्वात्तद्यथा'-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 338 / तत्त्वसं० पृ० 643 / 'वेदकारविवजितौ'-प्रमेयक पृ० 398 / सन्मति० टी०प० 31 / स्या० 2050 627 / विश्वतत्वप्र०पू० 34 / प्रमेयर० 3 / 99 / रत्नाकराव०४।९। (2) वेदस्य। (3) "विप्लवते हि खल्वपि कश्चित्पुरुषकृताद्वचनात् प्रत्ययः, न तु वेदवचनस्य मिथ्यात्वे किञ्चन प्रमाणमस्ति ।"शाबरभा० पृ० 17 / (4) 'इति स्थितिः'-मी० श्लो०। स्या० र० पृ० 627 / रत्नाकराव० 4 / 9 / प्रकृतपाठः-न्यायमं० पृ० 167 / प्रमाणप० पृ० 78 / सिद्धिवि० टी० पृ० 406A. / प्रमेयक० पृ० 3977 सन्मति० टी० पृ० 19 / प्रमेयर० 3 / 99 / (5) शाब्दे प्रत्यये / (6) आप्तस्य / , (7) "तस्माद् गुणेभ्यो दोषाणामभावस्तदभावतः / अप्रामाण्यद्वयासत्त्वं तेनोत्सर्गोऽनपोदितः / / "तत्रापवादनिर्मुक्तिर्वक्त्रभावाल्लघीयसी। वेदे तेनाप्रमाणत्वं नाशङ्कामपि गच्छति / अतो वक्त्रनधीनत्वात्प्रामाण्ये तदुपासनम् / न युक्तम्, अप्रमाणत्वे कल्प्ये तत्प्रार्थना भवेत् / ततश्चाप्ताऽप्रणीतत्वं न दोषायात्र जायते ।"-मी० श्लो० चोदना० श्लो० 65-70 / 1-स्वा यथा आ०, श्र० 12-त्वमिति नन्त्रा-ब०। एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ०13 न चाप्तप्रणीतत्कालाभावे-ब०। 4 शब्दो आ01 5-क्तृतत्वतःश्र०। 6 शब्दसंक्रा-श्र० / 7 नाप्तगुण-ब०। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 724 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० वेदे आप्तानाप्तप्रणीतत्वाभावान्न प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा; इत्यप्यसुन्दरम् ; यंत्र हि पुरुषकृता पदानुपूर्वी तत्र तदपेक्षं प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा स्यात्, वेदानुपूर्यास्तु नित्यत्वात् स्वसामर्थेनैवार्थावबोधकत्वात् तन्निरपेक्षं प्रामाण्यम् / नहि तादृशीमानुपूर्वी कश्चित् कत्तुं क्षमः अन्यत्राऽभिव्यक्तेः / पूर्वसिद्धानुऽपूर्वीतोऽपूर्वानुपूर्वीकरणे च कस्यचित् स्वातन्त्र्यासंभवात् / कुर्वाणो वा ती तदध्येतृभिः अन्यैर्वा निवार्येत / उक्तश्च"अन्यथाकरणे चास्य बहुभ्यः स्यानिवारणा / " [मी० श्लो० चोदनासू० श्लो० 150] इति / अत्र प्रतिविधीयते। यत्तावदुक्तम्-'कर्तुः स्मरणयोग्यत्वे सति अस्मर्यमाणकर्तृकत्वात्' वेदाऽपौरुषयेत्वस्य इत्यादि; तदसमीचीनम् ; यतः किमिदम् अस्मर्यमाणकर्तृकत्वन्नाम प्रतिविधानम्- किं कर्तृस्मरणाभावः, अकर्तृकत्वं वा ? प्रथमपक्षे व्यधिकरणासिद्धो 10 हेतुः; कर्तृस्मरणाभावो हि आत्मनि वर्त्तते अपौरुषेयत्वं तु वेदे इति / अज्ञातासिद्धश्च; तद्ग्राहकप्रमाणावात् / नहि प्रत्यक्षं तद्ग्राहकम् ; प्रतिनियतरूपादिगोचरचारितया अभावे तस्य प्रवृत्त्यसंभवात् / संभवे वा अभावप्रमाणकल्पनाऽनर्थक्यम् तत्साध्यस्य अध्यक्षादित एव प्रसिद्धेः। अभावप्रमाणात्तत्सिद्धौ तु तत्र तदुत्पत्तौ कारणं वाच्यम् , 'निष्कारणस्य कार्यस्योदयानुपपत्तेः।। “हीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् / मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया // ' [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० 27 ] इति तत्कारणमस्तीति चेत् ; ननु अतः प्रादुर्भूतमभावप्रमाणं तदभावं निराश्रयम्, साश्रयं वा प्रसाधयेत् ? न तावन्निराश्रयम् ; 'गृहीत्वा वस्तुसद्भावम्' इत्यभिधानात् / अनेन हि निषेध्याधारवस्तुग्रहणमभिदधता भट्टेन 'निषेध्याभावाश्रयः सूचित एव, अन्यथा प्रति20 नियतवृत्तितया कर्तृस्मरणाभावसिद्धिः ततोऽतिदुर्लभा। यन्निराश्रयं न तत् प्रतिनियतवृत्ति यथा आकाशम् , निराश्रयश्च भवद्भिरभिप्रेतोऽभावप्रमाणात्प्रसिद्ध्यन् कर्त्तस्मरणाभाव इति / (1) “पौरुषेये तु वचने प्रमाणान्तरमूलता / तदभावे हि तद् दुष्येदितरन्न कदाचन ॥"-मी० श्लो० चोदना० श्लो०७१ / (2) पुरुषगुणनिरपेक्षम्। (3) पूर्वानुपूर्वीतो विलक्षणा आनुपूर्वी। (4) विलक्षणां शब्दानुपूर्वीम् / (5) 'निवारणम्'-मी० श्लो० / प्रकृतपाठः-स्या० र० पृ० 628 / (6) पृ०७२१५०५। (7) तुलना-"किमिदं कर्तृरस्मरणं नाम कर्तृस्मरणाभावः अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं वा?" -प्रमेयक० पृ०३९२। (8) "अपौरुषेयो वेदः कञस्मरणात् इत्येवं प्रयोगे हेतोळधिकरणत्वदोषात् / " -सन्मति० टी० पृ० 41 / (9) "तत्रास्मर्यमाणकर्तृकत्वमसिद्धम् ; तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् ।"स्या० र० पृ० 629 / (10) अभावप्रमाणेन क्रियमाणस्य अभावज्ञानस्य / (11) कर्तृस्मरणाभावसिद्धौ / (12) अभावप्रमाणोत्पत्तौ। (13) द्रष्टव्यम्-पृ०४६४टि०१। (14) कर्तृस्मरणाभावम् / "नन्वतःप्रादुर्भूतमभावप्रमाणं तदभावं साश्रयमेव प्रसाधयेत् गृहीत्वा वस्तुसद्भावमित्यभिधानात् ।"स्या० 20 पु० 629 / (15) गृहीत्वा वस्तुसद्भावमिति श्लोकांशेन। (16) निषेध्यस्य यः अभावः तस्य आश्रयः। (17) अभावप्रमाणात् / 1-नवावबोध-ब०। 2-त्वान्निरपे-ब०। 3-त्रापि व्यक्तेः आ० / 4 पूर्व सि-ब०। 5 अन्यनिवा-आ। 6 बहुभिः श्र०। निःका-आ०। 8 निषेध्याश्रयः ब०। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] वेदापौरुषेयत्वविचारः 725 15 अथ साश्रयोऽसौ प्रसाध्यते; ननु कोऽस्य आश्रयः-स्वात्मा, सर्वप्रमातारो वा ? यदि स्वात्मा 'अमुष्मिन्मदीय आत्मनि वेदकर्तृस्मरणं नास्ति' इति; किमेतावता सिद्धम् ? पदार्थजातस्य अनेकस्य अत्रै स्मरणं नास्ति, न चैतावता तस्याभावः सिद्ध्यति / ममानुष्ठातुरवश्यं स्मर्त्तव्योऽसौं, यदा स्मृतिपथप्रस्थायी न भवति तदाऽसन् ; इत्यप्यसारम्; भवत्स्मरणाभावमात्रेण अर्थाभावाऽसिद्धेः / तस्य॑ स्वयं निहितेऽवश्यं स्मर्त्तव्ये कचिद् / द्रव्यादौ विद्यमानेऽपि सद्भावेन अनेकान्तात् / तथा व्याधितेन उपयुज्यमानमौषधं स्वयं धृतं महत्यामप्यर्थितायां न स्मर्यते, नचैतावता तस्याऽभावः इत्यनेन चाऽनेकान्तः / अथ सर्वप्रमातारः; ननु त्रैलोक्योदरवर्तिनः प्रमातारो वेदकर्तारं न स्मरन्ति' इत्यसर्वविदो वेदनानुपपत्तिः / उपपत्तौ वा सर्ववेदित्वप्रसङ्गः / किच, सर्वप्रमातृदेशान् गत्वा तांश्च पृष्ट्वा तत्र स्मरणाभावः प्रतीयेत, अन्यथा 10 वा ? न तावदन्यथा; “गता गत्वा तु तान् देशान्' [मी० श्लो० अर्था० श्लो० 38] इत्यस्य विरोधानुषङ्गात् / गत्वा चेत् ; ननु तंत्र तेषु पृष्टेषु 'न स्मरामः' इति प्रतिवचनश्च ब्रुवाणेष्वपि कः समाश्वासः पुरुषवचसामप्रामाण्येन अर्थतथाभावानुपपत्तेः ? न च सर्वेषामाप्तताप्रतिपत्तिरस्ति, यतः तद्गुणसंक्रान्त्या तंत्र प्रामाण्यं स्यात् ; तत्प्रतिपत्तेरेव असर्वविदो युगपत्क्रमेण वाऽसंभवात् / . किञ्च, अभावप्रमाणस्य तत्र प्रवृत्तिः यत्र वस्तुसत्तावबोधकं प्रमाणपश्चकं न प्रवर्तते। "प्रमाणपश्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते / . . . वस्तुसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता // " [मी० श्लो० अभाव० श्लो०१] (1) कर्तस्मरणाभावस्य / “अपि च किमशेषजनस्मरणनिवृत्तिरिह हेतुत्वेन विवक्षिता, आहोस्वित् कतिपयपुरुषस्मरणविनिवृत्तिः। तद्यदि सकलजनस्मरणविनिवृत्तिः; तदाऽसिद्धा; अवधारयितुमशक्यत्वाच्चाग्भिागविभिः / अवधारणे वा त एव सर्वज्ञाः स्युः अग्भिागविदो न भवेयुः / अथ कतिपयपुरुषापेक्षया; तदाऽनकान्तिको हेतुः, विद्यमानकर्तृकेष्वपि कर्ता न स्मर्यते कैश्चित्।"-तत्त्वोप० पृ० 117 / “आश्रयश्चास्य स्वात्मा सर्वेप्रमातारो वा"-स्या० र० पृ० 629 / (2) मदीय आत्मनि / (3) “ममानुष्ठाने स्मर्तव्योऽसौ"-स्या० र० पृ० 629 / (4) वेदकर्ता / (5) “एवं तहि पितामहस्य पितरं मातामहीमातरम्, तन्मातापितरौ च न स्मरति तत्तेषामभावो भवेत् ।"-स्या० 2010 629 / (6) भवत्स्मरणाभावस्य (7) स्वयं धृतौषधादिद्र व्यस्य / (8) ननु इति निश्चयार्थे / तुलना"सर्वे पुमांसः कर्तारं वेदस्य न स्मरन्ति इति कथं जानाति भवान् / न हि तव सकललोकहृदयानि प्रत्यक्षाणि सर्वज्ञत्वप्रसङ्गात् / न च यत् त्वं न जानाति तदन्योऽपि न जानातीति युक्तमतिप्रसङ्गात् / " -न्यायमं० पु० 237 / स्था० र० पृ० 630 / (9) तुलना-'अपि च सर्वप्रमातृदेशान् गत्वा तांश्च पृष्ट्वा तत्र कर्तस्मरणाभावः प्रतीयेतान्यथा वा ?"-स्या०र०पृ०६३० / (10) सर्वप्रमातृन् / (11) “गत्वा गत्वा तु तान्देशान् यद्यर्थो नोपलभ्यते / ततोऽन्यकारणाभावादसन्नित्यवगम्यते ।।"-मी० श्लो० / उद्धृतोऽयम्-प्रमेयक० पृ० 22 / सन्मति० टी० पृ० 23,321 / (12) देशान्तरे / (13) सर्वप्रमातष / (14) तैरुक्ते 'न स्मरामः' इति प्रतिवचने / (15) द्रष्टव्यम्-पृ० 464 टि०४। 1 वाने-आ०। 2 सर्वत्रप्रमा-श्र०। 3 तत्र स्मरं न स्मरन्तीत्यसर्वविदो वेदनानु गत्वा गत्वा आ०। 4 प्रतीयते ब०। 5 सद्भाव-ब०। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 724 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० इत्यभिधानात् / वेदे च आत्मनः कर्तृसद्भावावेदके सति कथं तत्प्रवृत्तिः ? “स हि रुद्रं वेदकर्तारम् / " [ ] 'यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्व वेदांश्च प्रहिणोति / " [ श्वेताश्व० 6 / 18] "तथा प्रजापतिः सोमं राजानमन्वसृजत , ततः त्रयो वेदाः अन्वसृज्यन्त।" [ ] 1. इत्यादिको वेदः कर्त्तसद्भावावेदकः अनेकधा श्रूयते / स्वरूपासिद्धश्चायं हेतुः; पौराणिका हि वेदस्य ब्रह्मकर्तृत्वं स्मरन्ति “प्रतिमन्वन्तरश्चैव श्रुतिरन्या विधीयते / " [ मत्स्यपु० 145 / 58] "अनन्तरं तु वक्त्रेम्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः / ' [ इत्यभिधानात् / यौगा रुद्रकर्तृकत्वम् , जैनाः कालासुरकर्तृकत्वम् / 10 स्मृतिपुराणादिवच्च ऋषिनामाङ्किताः काण्व-माध्यन्दिन-तैत्तिरीयादयः शाखाभेदाः कथमस्मर्थमाणकर्तृकाः ? तथाहि-एताः तत्कृतत्वात् तन्नामभिरङ्किताः, तदृष्टत्वात् , तत्प्रकाशितत्वाद्वा ? तत्राद्यपक्षे कथमासामपौरुषेयत्वम् अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं वा स्यात् ? उत्तरपक्षद्वये यदि तावदुत्सन्ना शाखा कण्वादिना दृष्टा प्रकाशिता वा तदा कथमस्याः सम्प्रदायाविच्छेदः अतीन्द्रियार्थदर्शिनः प्रतिक्षेपश्च स्यात् ? अथ अनवच्छिन्नैव सा (1) स्वयमेव वेदस्य / (2) अभावप्रमाणप्रवृत्तिः। (3) उद्धृतोऽयम्-स्या० र० पृ० 630 / रत्नाकराव०४।९। (4) “अपौरुषेयतापीष्टा कर्तृणामस्मृतेः किल / सन्त्यस्याप्यनुवक्तार इति धिग् व्यापकं तमः / / यस्मादिदं साधनमसिद्धमनैकान्तिकञ्च तत्रासिद्धमधिकृत्याह-तथाहीत्यादि / स्मरन्ति सौगता वेदस्य कर्तनष्टकादीन्, आदिशब्दाद् वामकवामदेवविश्वामित्रप्रभृतीन् / हिरण्यगर्भ ब्रह्माणं वेदस्य कर्तारं स्मरन्ति काणादा वैशेषिकाः ततश्चासिद्धं कर्तुरस्मरणम् ।"-प्रमाणवा० स्वव० टी० 11269 / मनोरथ० 33269 / “असिद्धोप्ययं हेतुः यस्मात्स्मरन्ति एव कर्तारं काणादाः / तथा लौकिका अपि बहुलं वक्तारो भवन्ति ब्रह्मणा वेदाः प्रणीता इति ।"-तत्त्वोप० पृ० 117 / "नवं सर्वनणां कर्तुः स्मृतेरप्रसिद्धितः / तत्कारणं हि काणादाः स्मरन्ति चतुराननम् / जैनाः कालासुरं बौद्धास्त्वष्टकान् सकलाः सदा ॥"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 238 / अष्टसह० पु० 237 / प्रमेयक० पृ० 393 / सन्मति० टी० पृ०४० / स्या० र० पृ० 630 / “यच्चेदमस्मर्यमाणकर्तृकत्वादिति तदसिद्धम् ; प्रजापतिर्वा इदमेक आसीन्नाहरासीन्न रात्रिरासीत् स तपोऽतप्यत तस्मात्तपसश्चत्वारो वेदा अजायन्त इत्याम्नायेनैव कर्तृस्मरणात्, जीर्णकूपादिभिर्व्यभिचाराच्च ।"-प्रश० कन्द० पृ० 216 / "कपिल. कणादगौतमैतच्छिष्यैश्चाद्यपर्यन्तं वेदे सकर्तृकत्वस्मरणस्य प्रतीयमानत्वात् ।"-तत्त्वचि० शब्द० प० 371 / (5) उद्धृतोऽयम्-न्यायमं० पृ० 236 / प्रेमयक० पृ०३९२। स्या० र० पृ० 630 / न्यायपरि० पृ० 383 // तत्त्वचि० शब्द० पृ० 373 / (6) तुलना-"सजन्ममरणर्षिगोत्रचरणादिनामश्रुतेरनेकपदसंहतिप्रतिनियमसन्दर्शनात् / फलार्थिपुरुषप्रवृत्तिविनिवृत्तिहेत्वात्मनाम्, श्रुतेश्च मनुसूत्रवत्पुरुषकर्तृकैव श्रुतिः॥"-पात्रके० श्लो०१४। प्रमेयक०पृ०३९२ / स्या० र० पृ० 630 / प्रमेयर० 3199 / (7) काण्वमाध्यन्दिनतैत्तिरीयादयः शाखाः / तुलना-"एतास्तत्कृतत्वात्तन्नामभिरङ्कितास्तदृष्टत्वात् तत्प्रकाशितत्वाद्वा।"-प्रमेयक० पृ० 392 / स्या० र० पृ० 630 / रत्नाकराव० 4 / 9 / (8) विशीर्णा विस्मता वा। (9) शाखायाः / 1 कर्तृत्वम-ब०, श्र० / 2-कर्तृत्वम् ब०,१०। 3-वच्छिन्ना आ० / Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] वेदापौरुषेयत्वविचारः 727 सम्प्रदायेन दृष्टा प्रकाशिता वा; तर्हि यावद्भिपाध्यायैः सा दृष्टा प्रकाशिता वा तावतां नामभिः तस्याः किन्नाङ्कितत्वं स्यादविशेषात् ? अथोच्यते-अस्ति यौगादीनां वेदे कर्त्तस्मरणं किन्तु सैविगानं तत्कर्तृविशेषे विप्रतिपत्तेः अतोऽप्रमाणमिति; तदप्युक्तिमात्रम् ; येतः कर्तृविशेषे विप्रतिपत्तेः तद्विशेषस्मरणमेवाप्रमाणं स्यान्न कर्तृमात्रस्मरणम्, अन्यथा कादम्बर्यादीनामपि कर्तृविशेषे 5 विप्रतिपत्तेः कर्त्तमात्रस्मरणस्याप्रमाणत्वेन अस्मर्यमाणकर्तृक त्वस्य तदापि (तत्रापि ) गतत्वादनेकान्तः / अर्थं वेदे कः विशेषे विप्रतिपत्तिवत् कर्तृमात्रेऽपि विप्रतिपत्तेः तन्मात्रस्मरणमप्यप्रमाणे कादम्बर्यादीनां तु कर्तृविशेषे एव विप्रतिपत्तेः तत्प्रमाणमित्यतो नानेकान्तः; नेनु वेदे सौगतादयः कर्तारं स्मरन्ति न मीमांसकाः इत्येवं कर्तृमात्रे विप्रतिपत्तेः यदि तदप्रमाणम् , तर्हि तद्वत् तदस्मरणमप्यप्रमाणं किन्न स्यात् विप्रतिपत्तेरविषेशात् / 10 तथा चायमसिद्धो हेतुः। विरुद्धश्च; स्मर्यमाणकर्तृकत्वाऽस्मर्यमाणकर्तृकत्वयोः कार्यधर्मतया विक्ष एव वर्तमानत्वात् / कार्यमेव हि किश्चित् स्मर्यमाणकर्तृकं दृष्टं घटादि, किञ्चिदस्मर्यमाणकर्तृकं जीर्णकूपादि / ततश्च कृतको वेदः अस्मर्यमाणकर्तृकत्वात् जीर्णकूपादिवत् / 'नेहि नित्यं (1) “समाख्यापि च शाखानां नाद्यप्रवचनादृते / . . . . . 'काठकं कालापकमित्यादयो हि समाख्याविशेषाः शाखाविशेषाणामनुस्मर्यन्ते / ते च न प्रवचनमात्रनिबन्धनाः प्रवक्तृणामनन्तत्वात् / नापि प्रकृष्टवचननिमित्ताः; उपाध्यायेभ्योपि प्रकर्षे प्रत्युतान्यथाकरणदोषात्, तत्पाठानुकरणे च प्रकर्षाभावात् / कति चानादौ संसारे प्रकृष्टाः प्रवक्तार इति को नियामक इति ।"-न्यायकूस० 5 / 17 / (2) "येऽपि हि पौरुषेयतां मन्यन्ते तेऽपि नैव परम्परया तत्र कर्तविशेषस्मरणं शक्नवन्ति वदितुम्, सामान्यतोदृष्टेन कर्तारमनुमाय स्वाभिमतं कर्तारं तत्र निक्षिपन्ति-केचिदीश्वरम, अन्ये हिरण्यगर्भम्, अपरे प्रजापतिम् / न चायं नानाविधो विवादः परम्परया कर्तरि मन्वादिवत् स्मर्यमाणे कथञ्चिदवकल्पते / नहि मानवे भारते शाक्यग्रन्थे वा कर्तृविशेष प्रति कश्चिद्विवदते / तस्मात स्मर्तव्यत्वे सत्यस्मरणाद् दृश्यादर्शनबाधितं सामान्यतोदृष्टं न शक्नोति कर्तारमवसाययितुम् / " -शास्त्रदी० पृ० 617 / (3) सविवादम्। (4) रुद्रे-आ० टि०। (5) तुलना-"नन्वेवं कर्तविशेषे विप्रतिपत्तेस्तद्विशेषस्मरणमेवाप्रमाणं स्यात् न कर्तुमात्रस्मरणम्।"-प्रमेयक० पृ० 393 / सन्मति० टी० पृ० 42 / स्या० र० पृ० 630 / शास्त्रवा० यशो० पृ० 384 A. / (6) कादम्ब-दावपि / (7) तुलना-"अथ वेदे कर्तृविशेषे विप्रतिपत्तिवत् कर्तृमात्रेऽपि विप्रतिपत्तेस्तत्स्मरणमप्यप्रमाणम्"."-प्रमेयक० पृ० 393 / सन्मति० टी० 1042 / स्या०र०पू०६३० / (8) कर्तृमात्रस्मरणम् / (9) तुलना-'ननु वेदे सौगतादयः कर्तमानं स्मरन्ति न मीमांसकाः इत्येवं कर्तृमात्रेऽपि विप्रतिपत्तेः यदि कर्तस्मरणं मिथ्या तदा कर्तृस्मरणत् अस्मर्यमाणकर्तृकत्वमपि असत्यं स्याद्विप्रतिपत्तेरविशेषात् तथा च पुनरप्यसिद्धो हेतुः ।"-सन्मति० टी० पृ० 42 / प्रमेयक० पृ० 393 / स्या० र० पृ० 631 / (10) कर्तृमात्रस्मरणम् / (11) कर्तृस्मरणवत् / (12) कञस्मरण / (13) अस्मर्यमाणकर्तकत्वात् / (14) पौरुषेये अनित्ये। (15) तूलना-"नित्यं हि वस्तु न स्मर्यमाणकर्तृक नाप्यस्मर्यमाणकर्तृकं प्रतिपन्नं किन्त्वकर्तृकमेव ।"-प्रमेयक० 50 392 / 1-नां कर्त-ब०। 2-पि विप्र-श्र०। एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति श्र०। एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ० / अथ कर्तृविशेषे विप्रतिपत्ति कर्तमात्रमपि विप्रतिपत्तेः ब० / 4-णमतो ब०। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 728 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० वस्तु स्मर्यमाणकर्तृकमस्मर्यमाणकर्तृकं वा प्रतिपन्नम् , किन्तु अकर्तृकमेव / कालात्ययापदिष्टश्च; श्रुतिस्मृतिबाधितपक्षनिर्देशानन्तरं प्रयुक्तत्वात् / तन्न कर्तृस्मरणाभावलक्षणमस्मर्यमाणकर्तृकत्वं घटते / / नापि अकर्तृकत्वलक्षणम् ; अशब्दार्थत्वात् / नहि अस्मर्यमाणकर्तृत्वशब्दस्य 5 अकर्तृकत्वमर्थो लोके शास्त्रे वा प्रसिद्धः / प्रसिद्धौ वा साध्याविशिष्टत्वम् / अस्तु वाऽवि चारितमणीयमस्मर्यमाणकर्तृकत्वम् ; तथापि तद् वादिनः, प्रतिवादिनः, सर्वस्य वा सम्बन्धि हेतुः स्यात् ? यदि वादिनः ; तदनैकान्तिकम् , “वटे वटे वैश्रवणः” [ ] इत्यादिषु विद्यमानकर्तृकेष्वपि प्रयोजनाभावात् मीमांसकैरस्मर्यमाणकर्तृकेषु अस्य सद्भावात्। ननु वेदे कर्बभावपूर्वकमस्मर्यमाणकर्तृत्वं हेतुः, तच्चाā नास्ति कर्चनुपलम्भमात्रपूर्वकत्वात्तत्र तस्य तत्कथमनैकान्तिकत्वम् ? इत्यपि मनोरथमात्रम् ; यतः कुतोऽत्र कञभावसिद्धिः-प्रमाणान्तरात् , अत एव वा ? यदि प्रमाणान्तरात् ; तदाऽस्य आनर्थक्यम् / अत एव चेत् ; अन्योन्याश्रयः-अतो हि अनुमानात् तँदभावसिद्धौ तत्पूर्वकमस्मर्यमाणकर्तृकत्वं सिद्ध्यति, तैत्सिद्धौ च अतोऽनुमानात्तदभावसिद्धिरिति / अथ प्रतिवादिनः सम्बन्धि तत् हेतुत्वेन विवक्षितम् ; तदसिद्धम् ; तत्र हि प्रतिवादी स्मरत्येव कर्तारम् / 15 एतेन सर्वस्याऽस्मरणं प्रत्याख्यातम् ; सर्वात्मज्ञानविज्ञानरहितो वा कथं सर्वस्य तंत्र कर्ब स्मरणमवैति ? अतोऽस्य अज्ञातासिद्धत्वम् , सतोऽप्यस्य असर्वविदा ज्ञातुमशक्यत्वात् / (1) साध्यं हि अपौरुषेयत्वं तदेव च अकर्तकत्वमिति, साध्यावशिष्टत्वाद् असिद्धो हेत्वाभासो लक्ष्यते साध्यस्य असिद्धत्वादिति / (2) तुलना-"किञ्च अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं वादिनः प्रतिवा. दिनः सर्वस्य वा स्यात् ।”-प्रमेयक० पृ० 395 / सन्मति० टी० पृ० 30 / स्या० र० पृ० 631 / प्रमेयर० 3399 / “अपि च किमशेषजनस्मरणविनिवृत्तिरिह हेतुत्वेन विवक्षिता, आहोस्वित् कतिपयपुरुषस्मरणविनिवृत्तिः।"-तत्त्वोप० पृ० 117 / (3) तुलना-'अनैकान्तिंकत्वमप्याह-दृश्यन्ते चेत्यादि। उपदेशपारम्पर्य सम्प्रदायः, विछिन्नः क्रियासम्प्रदायः पुरुषकृतत्वसम्प्रदायो येषां वटे वटे वैश्रवणादिशब्दानां ते तथा / अनेन अस्मर्यमाणकर्तृत्वमाह / कृतकाश्च पौरुषेयाश्च। ततः पौरुषेयेऽपि वाक्ये कर्तुरस्मरणं वर्तत इत्यनकान्तिको हेतुः ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० 12242 / स्या० र० पृ० 631 // "वादिनश्चेत्तदनैकान्तिकम् ; सा ते भवतु सुप्रीतेत्यादौ विद्यमानकर्तृकेप्यस्य भावात् ।"-प्रमेयक० पृ० 395 / (4) 'वटे बटे श्रवणः' इत्यादिवाक्येषु / (5) अस्मर्यमाणकर्तृकत्वस्य / (6) वेदे / तुलना-“यतः कुतोऽत्र कर्बभावसिद्धिः प्रमाणान्तरादत एव वा" ? -स्या० र० पृ० 631 / (7) अस्मर्यमाणकर्तृकत्वस्य हेतोः / (8) वेदे कञभावसिद्धौ। (9) अस्मर्यमाणकर्तृकत्वसिद्धौ च / (10) अस्मर्यमाणकर्तृकत्वम् / (11) तुलना-"तद्यदि सकलजनस्मरणनिवृत्तिः तदाऽसिद्धा अवधारयितुमशक्यत्वाच्च अर्वाग्भागविद्भिः / अवधारणे वा त एव सर्वज्ञाः स्युः अर्वाग्भागविदो न भवेयुः ।"तत्त्वोप० पृ० 117 / न्यायमं० पृ० 237 / प्रमेयक० पृ० 395 / स्या० र० पृ० 631 / (12) वेदविषये / (13) सर्वसम्बन्धिकञस्मरणस्य / 1-णकत्र्तकत्वं शब्दस्य ब०,-णकर्तृत्वं शब्दस्य आ०। 2 कर्तृत्वभाव-श्र०। 3-त्वात्तस्य ब०। 4 अज्ञानासि-श्र०। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५ ] वेदापौरुषेयत्वविचारः 726 ___यदप्युक्तम्-'ये हि यदर्थानुष्ठाने प्रवर्त्तन्ते तेऽवश्यं तच्छास्त्रकर्तारमनुस्मरन्ति' इत्यादि; तदप्यनल्पतमोविलसितम् ; नियमाभावात् / न हि 'यो धर्मशीलः' [ ] इत्यादिवाक्येभ्यः तदर्थानुष्ठाने प्रवर्त्तमानानामनुष्ठातृणां तत्कर्तृस्मरणमस्ति, तदन्तरेणापि धर्मशीलताद्यर्थानुष्ठाने महापुरुषार्थोपयोगिन्यैहिकपारटिकभयाऽभावहेतौ प्रवृत्तिप्रतीतेः / ___ यच्चान्यदुक्तम्-'छिन्नमूलत्वाच्च' इत्यादि; तदप्यसुन्दरम् ; यतः अँध्यक्षेणानु- 6 भावाभावात् तत्रं तच्छिन्नमूलम् , प्रमाणान्तरेण वा ? अध्यक्षेण चेत् ; किं भंवत्सम्बन्धिना, सर्वसम्बन्धिना वा ? यदि भवत्सम्बन्धिना; तर्हि आगमान्तरेऽपि कर्तृसद्भावग्राहकत्वेन भवत्प्रत्यक्षस्याऽप्रवृत्तेः तत्कर्तृस्मरणस्य छिन्नमूलत्वेन अस्मर्यमाणकर्तृकत्वस्य भावाद् व्यभिचारी हेतुः / अथ तत्रं तद्ब्राहकत्वेन अस्मत्प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तावपि परैः कर्तृसद्भावाभ्युपगमान्न व्यभिचारः; तन्न; परकीयाभ्युपगमस्य भवतोऽप्रमाणत्वात् , 10 अन्यथा वेदेऽपि परैस्तत्सद्भावाभ्युपगमात् अस्मर्यमाणकर्तृकत्वादित्यसिद्धो हेतुः स्यात् / सर्वसम्बन्धिना चेत् ; सोऽसिद्धः; अर्वाग्दृशा तस्यावसातुमशक्यत्वात् / अथ प्रमाणान्तरेण अनुभवाभावः; तन्न; आर्गेमस्य तत्र कर्तृसद्भावावेदकस्य प्रतिपादितत्वात् ।रचनावत्त्वाद्यनुमानस्य च तत्प्रसाधकस्य सद्भावात् / तथाहि- पौरुषेयो वेदः रचनावत्त्वात् भारतादिवत्, पर्दैवाक्यात्मकत्वाद्वा तद्वत् / तथा प्रमाणान्तरविषयभाञ्जि वैदिकानि वाक्यानि 15 (1) पं०७२१ पं०८। (2) “न चायं नियमोऽनुष्ठानसमये तत्कर्तारमनुस्मृत्यैव प्रवर्तन्ते"प्रमेयक० पृ०३९५ / सन्मति० टी०१० 43 / शास्त्रवा० यशो० 10 284 B.I "न हि यो धर्मशील इत्यादिवाक्येभ्यस्तदर्थानष्ठाने प्रवर्तमानानामनष्ठातणां तत्कर्तस्मरणमस्ति / तदन्तरेणापि धर्मशीलताद्यर्थानुष्ठाने महापुरुषार्थोपयोगिन्यैहिकपारत्रिकभयाभावहेतौ प्रवृत्तिप्रतीतेः ।"-स्या० र० पृ० 631 / (3) पृ० 722 पं० 9 / (4) “यतोऽध्यक्षेण तदनुभवाभावात्तत्र तच्छिन्नमूलं प्रमाणान्तरेण वा।" -प्रमेयक० पृ० 393 / सन्मति० टी० पृ० 42 / स्या० र० पृ० 631 / (5) वेदे / (6) कर्तृस्मरणम् / (7) तुलना-"सर्वादृष्टिश्च सन्दिग्धा स्वादृष्टिर्व्यभिचारिणी। विन्ध्याद्रि रन्धुदूर्वादेरदष्टावपि सत्त्वतः ॥"-तत्त्वसं० 10 65 / न्यायवि० टि० 10 167 पं० 3 / न्यायली० पृ० 22 / (8) आगमान्तरकर्तृस्मरणस्य / (9) आगमान्तरे / (10) मीमांसकस्य / (11) जैनादिभिः / (12) कर्तृसद्भाव / (13) वेदस्मृतिरूपस्य / (14) तुलना-"बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिदे-वाक्यकृतिक्यिरचना सा बुद्धिपूर्वा वक्तृयथार्थवाक्यार्थज्ञानपूर्वा वाक्यरचनात्वात्, नदीतीरे पञ्च फलानि सन्तीत्यस्मदादिवाक्यरचनावत् ।"-वैशे० सू०, उप० 6 / 11 / 'बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिक्यिरचना वेदे तद्रचनात्वात् उभयाभिमतवाक्यरचनावत् ।"-प्रश० व्यो० 50 581 प्रश० कन्द० पृ० 217 / "तथा च वैदिक्यो रचना: कर्तपविकाः रचनात्वाल्लौकिकरचनावत्।"-न्यायमं० 10 232 / स्या०र० पृ० 632 / "ततो ये नररचितवचनरचनाऽविशिष्टास्ते पौरुषेयाः यथाऽभिनवकूपप्रासादादिरचनाऽविशिष्टा जीर्णकूपप्रासादादयः, नररचितवचनरचनाऽविशिष्टञ्च वैदिकं वचनमिति ।"-प्रमेयक० पृ०४०२। सन्मति० टी०प०३९ / . (15) तुलना-"इतश्च वर्णवत्त्वात्, वर्णवन्ति लौकिकवाक्यानि अनित्यानि तथा च वेदवाक्यानि, तस्मात्तान्यप्यनित्यानि / इतश्च सामान्यविशेषवत्त्वे सति श्रोत्रग्राह्यत्वात् लौकिकवाक्यवत् / इतश्च 1-णमिति ब०। 2-त्रिकमयाद्वारहेतौ ब० ।-त्रिकतयाभावहेतौ आ०। 8 तत्रकर्त-ब० / 4 अथतना-ब०। 42 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 730 - लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० आप्तोक्तानि, वाक्यत्वे सति प्रमाणत्वात् , यदित्थं तत्तथा यथा पित्रादिवाक्यम् , तथा चामूनि, तस्मात्तथेति / ___ यदप्यभिहितम्- 'वेदरचनायाः कर्तृपूर्वकरचनाविलक्षणत्वात्' इत्यादि; तत्र किमिदं तस्याः तद्वैलक्षण्यं नाम-दुर्भणत्वम् , दुःश्रवणत्वम् , लोकव्याकरणप्रसिद्धशब्दवैलक्षण्येन शब्दविनिवेशः, अपूर्वछन्दोनिबद्धत्वम् , अतीन्द्रियार्थप्रतिपादकत्वम् , महाप्रभावोपेतमन्त्रयुक्तत्वं वा ? सर्वमेतत् पुरुषाणां न दुष्करम् , विज्ञानकरणपाटवाधीनत्वाद् वाचोवृत्तेः। मन्त्राणाञ्च महाप्रभावोपेतत्वं पुरुषप्रणीतत्वेनैवोपपन्नम् , निरतिशयप्रभाववता हि पुरुषेण पदवत्त्वात् लौकिकवाक्यवत् ।"-ज्यायवा० पृ० 272 / “अनित्यानि वेदवाक्यानि वाक्यत्वादुभयाभिमतवाक्यवत् ।"-प्रश० व्यो० 581 // "न चाक्षरराशेरपौरुषेयत्वं येन स्वतः प्रमाणं वेद: स्यात्, शास्त्रान्तरस्यापि तदनुषङ्गात् विशेषाभावाच्च ।"-सिद्धिवि०, टी० पृ० 406 B. | "वेदपदवाक्यानि पौरुषेयाणि पदवाक्यत्वाद् भारतादिपदवाक्यवत ।"-प्रमेयक० 50 391 / "श्रतिः पौरुषेयी वर्णाद्यात्मकत्वात् कुमारसंभवादिवत् ।”-रत्नाकराव० 4 / 9 / (1) पृ० 722 पं० 11 // (2) तुलना-"दुर्भणत्वानुदात्तत्वक्लिष्टत्वाऽश्रव्यतादयः / वेदधर्मा हि दृश्यन्ते नास्तिकादिवचस्स्वपि // विषापगमभूत्यादि यच्च किञ्चित्समीक्ष्यते। सत्यं तद्वैनतेयादिमन्त्रवादेऽपि दृश्यते / दुर्भणत्वं दुरभिधानम्, अनुदात्तत्वं मनोज्ञत्वम् क्लिष्टं व्यवहितम्, . . . . . . अश्रव्यता श्रुतिदुभंगता। आदिशब्देन पदविच्छेदप्लुतोदात्तादिपरिग्रहः / विषापगमे भूति: सामर्थ्य प्रभाव इति यावत् / अथवा विषापगमश्च भूतिश्चेति समासः, भतिविभतिरैश्वर्यमिति यावत / आदिशब्देन भूतग्रहाद्यावेशवशीकरणाभिचारादयो गृह्यन्ते। सत्यमिति अविसंवादि / वैनतेयादीत्यादिशब्देन बौद्धादिमन्त्रवादपरिग्रहः ।"-तत्वसं०. पं० पृ० 739 / “सर्वेषां दुर्भणत्वादीनां मन्त्रादिसामर्थ्यानाञ्च साधारणत्वात् ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 3 / 242 // "दुर्भणनदुःश्रवणादीनामस्मदाद्युपलभ्यानां तदतिशयान्तराणां शक्यक्रियत्वादितरत्रापि।"-अष्टश०, अष्टसह०१०,२३७ / स्या०र०पू० 632 // रत्नाकराव० 4 / 9 / (3) तुलना-"अपि चेदं मन्त्रा अपौरुषेयाश्चेति व्याहतं पश्यामः / तथाहि -"समयत्वे हि मन्त्राणां कस्यचित् कार्यसाधनम् / युक्तं यद्येते मन्त्राः कस्यचित्समयो यथा मत्प्रणीतमेतदभिमतार्थोपनिबन्धनं वाक्यमेवं नियुञ्जानमनेनार्थेन योजयामीति; परार्थपरतानुरोधेन अन्यतो वा कुतश्चिद्धेतोः स्यात् तदा मन्त्रप्रयोगात् कदाचिदर्थनिष्पत्तिर्युक्ता कविसमयादिव पाठकानाम्।" -प्रमाणवा० स्ववृ० 11294 / “अपि च न मन्त्रो नामान्यदेव किञ्चित् / किं तहि ? सत्येत्यादि / यथाभताख्यानं सत्यम्, इन्द्रियमनसोर्दमनं तपः तयोः प्रभावो विषस्तम्भनादिसामर्थ्यं स विद्यते येषां पुंसां ते तथा तेषां सत्यतपःप्रभाववतां पुंसां समीहितार्थस्य साधनं तदेव मन्त्रः / तद्वचनं मन्त्रलक्षणमद्यत्वेऽपि पुरुषेषु दृश्यत एव / किं कारणम् ? यथास्वं सत्याधिष्ठानबलाद् विषदहनादेः स्तम्भनस्य सामोपघातस्य दर्शनात् / तथा शबराणां केषाञ्चित् स्वनियमस्थानामद्यापि विषापनयनशक्तियुक्तस्य कारणात् शक्नुवन्त्येव पुरुषाः मन्त्रान् कर्तुम् / अवैदिकानाञ्च-वेदादन्येषां बौद्धादीनामिति, आदिशब्दाद् आर्हतगारुडमाहेश्वरादीनां मन्त्रकल्पानां मन्त्राणां मन्त्रकल्पानाञ्च दर्शनात् / विद्याक्षराणि मन्त्राः, तत्साधनविधानोपदेशाः मन्त्रकल्पाः तेषाञ्च बौद्धादीनाम्मन्त्रकल्पानां पुरुषकृतेः पुरुषः करणात्।" -प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 342 / 'येऽपि मन्त्रविदः केचिन्मन्त्रान् कांश्चन कुर्वते / प्रभोः प्रभावस्तेषां स तदुक्तन्यायवृत्तितः / / कृतकाः पौरुषेयाश्च मन्त्राः वाच्याः फलेप्सुना। अशक्तिसाधनं पुंसामनेनैव निराकृतम् ।"-प्रमाणवा० 3 / 309-10 / “परोक्षाया मन्त्रशक्तेरपि दर्शनात् / न ह्याथर्वणानामेव मन्त्राणां शक्तिरुपलभ्यते न पुनः सौगतादिमन्त्राणामिति शक्यं वक्तुं प्रयाणबाधनात् / " -अष्टश० अष्टसह० पृ० 237 / स्या०र०पू०६३३। “मन्त्रादीनाञ्च सामर्थ्य शाबरणामपि स्फटम / Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवनचप्र० का 0 65] वेदापौरुषेयत्वविचारः 'अमुष्मान्मन्त्रादस्येदं फलं भवतु' इत्यनुसन्धाय यदा यया कयाचित् भाषया प्रयुज्यन्ते मन्त्राः तदा तेषां तत्कर्तृप्रभावादेव तथाविधार्थक्रियाकरणसामर्थ्य संभाव्यते / दृश्यते हि साम्प्रतमपि महाप्रभाववतो मन्त्रवादिन आज्ञाप्रदानात् ज्वराद्युच्चाटनं निर्विषीकरणादि च। - किश्च, अंत्र विशिष्टा रचना दृश्यमाना तत्करणासमर्थमेव कर्तारं प्रतिक्षिपति नंतु कर्तृमात्रम् / न हि जीर्णकूपप्रासादादौ विशिष्टा रचनोपलभ्यमाना तन्मात्रं प्रति- 5 क्षिपन्ती प्रतीता; तत्करणासमर्थस्यैव शिल्पिनः तया प्रतिक्षेपात् / नहि कन्वयव्यतिरेकानुविधायिनो धर्माः कर्तारमन्तरेण उपपद्यन्ते। अतः वैदिकी रचनाऽपौरुषेयी' इत्याद्यनुमानमनुपपन्नम् ; दृष्टकर्तृकरचनाविलक्षणत्वस्य उक्तप्रकारेण तत्रोऽसंभवात् / संभवे वा कर्तृमात्रानिषेधकत्वात् / ततोऽयुक्तमुक्तम्-'रचनामात्रात्कर्चनुमाने जगतो बुद्धिमद्धेतुकत्वानुमानानुषङ्गः' इत्यादि; वेदरचनायाः कर्तृपूर्वकरचनाविलक्षणत्वाव्यवस्थितेः, 10 जगद्रचनायास्तु तँस्थितेः / तत्स्थितिश्च ईश्वरनिराकरणप्रघट्टके सप्रपञ्चं प्रपञ्चिता / यदप्युक्तम्- 'वेदाध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकम्' इत्यादि; तत्र निर्विशेषणमध्ययनशब्दवाच्यत्वम् अपौरुषेयत्वं प्रतिपादयेत्, सविशेषणं वा ? तत्र आद्यविकल्पेऽनैकान्तिकत्वम् ; निश्चितकर्तृकेषु भारतादिष्वप्यस्य भावात् / द्वितीयपक्षे तु किं तस्य / विशेषणम् ? वेदश्चेत् ; ननु वेदविशिष्टमप्यध्ययनं किं तावन्मात्रेण हेतुः, अपरविशेषणवि- 15 प्रतीतं सर्वलोकेऽपि न चाप्यव्यभिचारि तत् ॥"-शास्त्रवा० 10 // 44 // (1) संकृतरूपया प्राकृतस्वरूपया पालिरूपया वा भाषया। (2) वेदे / तुलना-"अपि च यद्विलक्षणेयं रचना तद्विलक्षण एव कर्ता अनुमीयतां न पुनस्तदपलापो युक्त इत्यप्युक्तम् / " -न्यायमं० पू० 236 / “अपि चात्र विशिष्टा रचना दृश्यमाना तत्करणासमर्थमेव करि निराकरते न पूनः कर्तमात्रमपि ।"-स्या० 20 प० 634 / (3) कर्तमात्रम्। (4) विशिष्टरचनया। (5) वेदे / (6) पृ० 722 पं० 12 / (7) कर्तृपूर्वकरचनाविलक्षणत्वस्थितेः, यतो हि विद्यमानकर्तृकेषु अक्रियादर्शिनोऽपि कृतबुद्धिरुपजायते नतु क्षित्यादौ / (8) पृ० 102 / (9) पृ० 722 पं०१७। (10) तुलना-"किञ्चात्र निविशेषणमध्ययनशब्दवाच्यत्वमपौरुषेयत्वं प्रतिपादयेत् कञस्मरणविशिष्टं वा ?"-प्रमेयक० पृ०३६९। सन्मति० टी० पृ०४१स्या० र०पू०६३४। (11) तुलना-“यत एवन्तस्मादध्ययनमध्ययनान्तरवद् अध्ययनान्तरपूर्वकमिति साध्ये अध्ययनादिति लिङ्गं व्यभिचारि, भारताद्यध्ययने पौरुषेयत्वाध्ययनत्वस्य भावात् ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी०ए० 345 / "न हि तच्छब्दवाच्यत्वकृतमनादित्वमुपपद्यते। अनैकान्तिकश्चायं हेतुः, भारतेप्येवमभिधातुं शक्यत्वात् / भारताध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकं भारताध्ययनवाच्यत्वादिदानीन्तनभारताध्ययनवदिति।"-न्यायमं० पृ० 233 / प्रमेयक० पृ०३६९ / सन्मति० टी० पृ० 41 / स्या० र० पृ० 634 / "पिटकत्रयादावपि तत एव वक्त्रभावप्रसङ्गात् / वेदाध्ययनवदितरस्यापि सर्वदाध्ययनपूर्वाध्ययनत्वप्रक्लप्तौ न वक्त्रं वक्रीभवति, यतो विद्यमानवक्तकेऽपि भावादध्ययनवाच्यत्वस्यानकान्तिकत्वं न स्यात् ।"-अष्टश० अष्टसह० पृ० 237 / “भारताध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम् / तदध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा // " -प्रमेयर० 399 / (12) अध्ययनशब्दवाच्यत्वादिति हेतोः / ___1 भवति ब०। 2 'तदा' नास्ति आ० / -मानतत्करण-श्र०। 4 ननु आ०। 5 तथा आ०। 6-द्धेतुत्वानु-आ017 भारतेष्वप्यस्य ब०। 8 सद्भावात् ब०, श्र० / 9 वेदश्चेन्नतुनु श्र० / Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 732 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० शिष्टत्वेन वा ? यदि तावन्मात्रेण; तदाऽनैकान्तिकम् ; विपक्षेऽप्यस्य अविरुद्धतया सद्भावसंभवात् / विपक्षण विरुद्धं हि विशेषणं ततो हेतुं व्यावर्त्तयति नान्यद् अतिप्रसङ्गात् / नच वेदविशेषणं कर्तृपूर्वकत्वलक्षणविपक्षेण विरुद्धम् भारताध्ययनवद् वेदाध्ययनस्यापि सकर्तृकत्वेऽप्यविरोधात् / किञ्च, यथाभूतानां पुरुषाणामध्ययनम् अँध्ययनपूर्वकं दृष्टं तथाभूतानामेव तत्तथा साध्यते, अन्यथाभूतानां वा ? यदि तथाभूतानाम् ; तदा सिद्धसाधनम् / अथ अन्यथाभूतानाम् ; तर्हि जगतो बुद्धिमद्धेतुकत्वे सन्निवेशादिवदप्रयोजको हेतुः। अथ तथीभूतानामेव तत्तौँ साध्यते, नच सिद्धसाधनम् , सर्वपुरुषाणामतीन्द्रियार्थदर्शनशक्तिवैकल्येन अतीन्द्रियार्थप्रतिपादकप्रेरणाप्रणेतृत्वाऽसामर्थ्येन ईदृशत्वात् ; तदप्यसुन्दरम् ; प्रेरणायाः (1) तुलना-"वेदेन विशेषणाददोषः, अध्ययनमात्रस्य हि व्यभिचारो न वेदेन विशिष्टस्याध्ययनस्येत्यभिप्रायः / कः पुनरित्यादि सिद्धान्तवादी। कोऽतिशयो वेदाध्ययनस्य येन तद्वेदाध्ययनमन्यथेति स्वयं कृत्वाऽध्येतुं न शक्यते / नैव कश्चिदतिशयः / ततो वेदाध्ययनञ्च स्यान्न च अध्ययनपूर्वकमिति विरोधाभावात् स एव व्यभिचारः / यस्मान्नहि विशेषणं वेदत्वम् अविरुद्धं विपक्षण अनध्ययनान्तरपूर्वकत्वेन सह, अस्माद् विपक्षाद् हेतुं निवर्तयति / किं कारणम् ? अविरुद्धयोः वेदत्व-अध्ययनान्तरपूर्वकत्वयोरेकत्र वेदवाक्ये सम्भवात् / को ह्यत्र विरोधो यद् वेदाध्ययनञ्च स्यान्न च अध्ययनान्तरपूर्वकमिति / तस्माद्वेदत्वं विशेषणमध्ययनस्य हेतोरतिशयभाग् न भवति विशेषाधायकन्न भवति, विपक्षविरोधाभावेन विपक्षादव्यावर्तनात् उपात्तमपि विशेषणमनुपात्तसमम् ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ०३४५। प्रमेयक० 10397 / स्था० पृ० 634 / (2) अनध्ययनपूर्वकाध्ययने सकर्तके (३)वेदविशेष- - णस्य अध्ययनशब्दवाच्यत्वस्य / (4) विपक्षात् / (5) अस्मदादीनाम् अर्वाग्दृशाम् / तुलना-"किञ्च यथाभूतानां पुरुषाणामध्ययनमध्ययनपूर्वकं दृष्टं तथाभूतानामेव अध्ययनशब्दवाच्यत्वमध्ययनपूर्वकत्वं साधयत्यन्यथाभूतानां वा ?"-प्रमेयक० पृ०३९८। सन्मति० टी० पृ० 41 // स्या०र० पृ० 634 / (6) गुर्वध्ययनपूर्वकम् / (7) वेदाध्ययनम् / (8) वेदाध्ययनपूर्वकम् / (9) अतीन्द्रियार्थदर्शनशालिनां पुरुषाणां वा / (10) अस्मदादीनाम् / तुलना-"यादृशं त्वध्ययनं स्वयकर्तुमशक्तस्य तन्निमित्तम् अध्ययनान्तरनिमित्तं दृष्टं तत्तथेति अध्ययनान्तरपूर्वकमेवेति स्यात् "तन्निमित्ततया शक्तिनिमित्ततया दृष्टेऽवगते विशेषे स्वयं कृत्वाऽध्ययनलक्षणे तत्यागेन तस्य विशेषस्य त्यागेन वेदाध्ययनत्वसामान्यस्य ग्रहणं शक्तस्याशक्तस्य वा सर्वं वेदाध्ययनमध्ययनान्तरपूर्वकं वेदाध्ययनत्वसामान्यादिति क्रियमाणं व्यभिचार्येव / किमिव ? हुताशनसिद्धौ अग्निसिद्धौ पाण्डुद्रव्यत्ववत्"."-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 346 / (11) यादृशं सन्निवेशादि घटादिषु यदक्रियादर्शिनोऽपि कृतबुद्धयुत्पादकं दृष्टं तादृशमेव जीर्णकूपादौ बुद्धिमद्धेतुकन्वमनुमापयति नतु तद्विलक्षणम्-अक्रियादर्शिनः कृतबुद्धयनुत्पादकमिति स्थितिः; तथापि सन्निवेशसामान्यात् पृथिव्यादावपि बुद्धिमतुकत्वानुमाने मृद्विकारत्वहेतुना बल्मीकस्यापि कुम्भकारकृतत्वं स्यात. ततो यथा जगतो बुद्धिमद्धेतुके सन्निवेशादिसामान्यमकिञ्चित्करं तथैव यादृशानाम स्मदादिपुरुषाणामध्ययनमध्यनान्तरपूर्वकं दृष्टं तादृशानामेव देशान्तरादौ अध्ययनपूर्वकत्वं साधयितुमुचितं न तु अन्यादृशानामतीन्द्रियार्थद्रष्ट्रणाम्, तत्र अध्ययनशब्दवाच्यत्वस्य अप्रयोजकत्वादिति भावः / (12) अस्मदादीनामर्वाग्दृशाम् / (13) अध्ययनम् / (14) अध्ययनपूर्वकम् / (15) अन्यथाभूताऽतीन्द्रियपुरुषासंभावनया। (16) अस्मदादिवदेव अग्दिर्शित्वात् / (17) वेदस्य / . 1कर्तृत्वलक्षण-ब०। 2-त्वविलक्ष-श्र०। 3-पूर्व दृष्टं आ०, ब० / Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५ ] वेदापौरुषेयत्वविचारः तथाभूतार्थप्रतिपादने प्रामाण्याप्रसिद्धेः। तदप्रसिद्धिश्च गुणवतो वक्तुरभावे तेंद्गुणैरनिराकृतैर्दोषैः तस्यापोहित्वात् सुप्रसिद्धा। तथाभूताश्च प्रेरणामतीन्द्रियार्थदर्शनशक्तिविरहिणोऽपि कर्तुं समर्था इति कुतः तथाभूतप्रेरणाप्रणेतृत्वाऽसामर्थ्येन अशेषपुरुषाणामीदृशत्वसिद्धिर्यतः सिद्धसाधनं न स्यात् / अथ न गुणवद्वक्तृकत्वेनैव शब्देऽप्रामाण्यनिवृत्तिः अपौरुषेयत्वेनाप्यस्याः संभवात् ततोऽयमदोषः; तदप्यसाम्प्रतम् ; यतोऽ- 5 पौरुषेयत्वमस्याः किमन्यतः प्रमाणात् प्रसिद्धम् , अत एव वा ? यदि अन्यतः; तदा अस्य वैयर्थ्यम् / अत एव चेत् ; अन्योन्याश्रयः-अतो हि अनुमानादपौरुषेयत्वसिद्धौ प्रेरणायाः प्रामाण्यसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तथाभूतप्रेरणाप्रणेतृत्वासामर्थेन सर्वपुरुषाणामीइंशत्वसिद्धिरिति / तन्न वेदाध्ययनमात्रं हेतुः / अथ अपरविशेषणविशिष्टम् ; किं पुनस्तत्र विशेषणम्-कर्बस्मरणम् , सम्प्रदाया- 10 व्यवच्छेदो वा ? न तावत् कर्बस्मरणम् ; तस्य असिद्धाद्यनेकदोषदुष्टत्वप्रतिपादनात् / सम्प्रदायाव्यवच्छेदोऽपि आत्मगतः, सर्वलोकगतो वा ? न तावदात्मगतः; भारतादिवत् पौरुषेयत्वेऽप्यस्य सम्भवात् / नापि सर्वलोकगतः; असर्वविदा तस्य सतोऽपि ज्ञातुमशक्यत्वात् , 'वटे वटे वैश्रवणः”[ ] इत्यादिवत् पौरुषेयत्वेऽप्यस्याऽविरोधाच्च / किश्च, प्रमाणादर्थव्यवस्था भवति / सम्प्रदायाव्यवच्छेदश्च किं स्वतन्त्रं प्रमाणम्, 15 प्रत्यक्षाद्यन्यतमत् , तदन्तर्भूतं वा ? न तावत् स्वतन्त्रम् ; षट्प्रमाणसंख्याव्याघातप्रसङ्गात्। नापि प्रत्यक्षाद्यन्यतमत्; तस्य तत्सामग्रीतो विलक्षणसामग्रीप्रभवत्वात् , आज्ञापारम्पर्यवत् / अत एव न तदन्तर्भूतम् / ततो वटे यक्षपारम्पर्यवत् संशयजनकमेवैतत् नार्थतत्त्वव्यस्थापनप्रवणम् / अव्यवच्छेदश्चास्य श्रद्धामात्रगम्यः; नैपथ्यव्यव (1) अतीन्द्रियार्थ। (2) तुलना-"गिरां सत्यत्वहेतूनां गुणानां पुरुषाश्रयात् / अपौरुषेयं मिथ्यार्थं किन्नत्यन्ये प्रचक्षते // " -प्रमाणवा० 3 / 225 / "यावता गुणवद्वक्त्रभावे तद्गुणैरनिराकृतैर्दोषैरपोहितत्वात् तत्र सापवादं प्रामाण्यम् ।"-प्रमेयक० पृ० 397 / सन्मति० टी०१०४१। स्या० र० पृ० 634 / (3) वक्तृगुणैः। (4) प्रामाण्यस्य निराकृतत्वात् / (5) अप्रमाणभूताम् / (6) अप्रामाण्यनिवृत्तेः। (7) चोदनायाः / 'यतोऽपौरुषेयत्वमस्याः किमन्यत: प्रमाणात् प्रतिपन्नमत एव वा ?"-प्रमेयक० पृ० 397 / सन्मति० टी० पृ० 41 / स्या० 20 पृ० 635 / (8) अस्मदादिवदग्दिर्शित्वसिद्धिः / (9) वेदाध्ययनवाच्यत्वाख्ये हेतौ / "किं तत्र विशेषणम्-कर्चस्मरणं सम्प्रदायाव्यवच्छेदो वा ?"-स्या० र० पृ० 635 / (10) 'सम्प्रदायाव्यवच्छेदोऽपि आत्मगतः, सर्वलोकगतो वा ?"-स्या० र०पू० 635 / (11) सम्प्रदायाव्यवच्छेदस्य / (12) सम्प्रदायाव्यवच्छेदस्य / (13) विलक्षणसामग्रीप्रभवत्वादेव / (14) प्रत्यक्षाद्यन्तर्गतम् / (15) सम्प्रदायाव्यवच्छेदात्मकं प्रमाणम् / (16) वेदस्य / तुलना-"अपि च आदिमतोऽपि शास्त्रग्रामस्य सम्प्रदायव्यवच्छेदोऽस्ति वेदस्य पुनरनादेरसौ नास्तीति कः श्राद्धिको भवतोऽपरः प्रतिपद्येत ।"-स्या०र० पृ० 635 / 1-पोदित-आ०। 2-पादित-श्र०। 2 सर्वगतोः ब०, श्र०। ततो दृष्टयकृपारम्पर्यवत् संशयज्ञवक्तुमेवेतदर्थत्वव्यवस्था भवति सम्प्रदायाध्ययनप्रवणम् ब०। 4-जननमेव तनार्थ-आ० / Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० हारबालक्रीडादीनाम् आदिमतामपि निर्मूलोच्छेदोपलम्भन अनादौ वेदे अव्यवच्छेदस्य श्रद्धामात्रादन्यतः संभावयितुमशक्यत्वात् / ___यदप्युक्तम्-'अतीतानागतौ कालौ' इत्यादि; तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; आगमा नरेऽप्यस्याविशेषात् / किञ्चै, इदानीं यथाभूतो 'वेदकरणाऽसमर्थपुरुषयुक्तः तत्कर्तृ5 पुरुषरहितो वा कालः प्रतीतः अतीतोऽनागतो वा तांभूतः कालत्वात् साध्येत, अन्य थाभूतो वा ? यदि तथाभूतः; तदा सिद्धंसाधनम् / अथ अन्याभूतः; तदा सन्निवेशादिवदप्रयोजको हेतुः / अथ तथा तस्यैव तस्य तद्रहितत्वं साध्यते, नच सिद्धसाधनम् अन्यथाभूतस्य कालस्यैवाऽसंभवात् ; नर्नु 'अन्यथाभूतः कालो नास्ति' इत्येतत् कुतः प्रमाणात् प्रतिपन्नम्-अत एव, अन्यतो वा ? यदि अंत एव; इतरेतराश्रयः-अन्यथाभूतका10 लाभावंसिद्धौ हि अतोऽनुमानात्तं;हितत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च अन्यथाभूतकालाभावसिद्धिरिति। अन्यतः तत्सिद्धौ चास्यानर्थक्यम् अपौरुषेयत्वस्यापि तत एव प्रसिद्धेः। ततो वेदे अपौरुषेयत्वप्रसाधकस्य कस्यचिदपि प्रमाणस्यासंभवात् कथमसौ अपौरुषेयः स्यात् / / ____ अस्तु वा, तथाप्यसौ व्याख्यातः, अव्याख्यातो वा स्वार्थे प्रतीति कुर्यात् ? न तावदव्याख्यातः; अतिप्रसङ्गात् / अथ व्याख्यातः; कुतस्तद्व्याख्यानम्-स्वतः, पुरुषाद्वा 15 न तावत् स्वत एव; 'अयमेव मदीयपदवाक्यानामर्थः नायम्' इति स्वयं वेदेनाऽप्रतिपा (1) पृ०७२३ पं० 1 / (2) तुलना-"कालत्वपुरुषत्वादौ सन्दिग्धव्यतिरेकिता / पूर्ववत्करणाशक्तेः नराणामप्रसाधनात् ॥"-तत्वसं० का० 2799 / (3) तुलना-"किञ्चेदानीं यथाभूतो वेदाकरणसमर्थपुरुषयुक्तः तत्कर्तृपुरुषरहितो वा काल: प्रतीतः, अतीतानागतो वा तथाभूतः कालत्वात्साध्येत अन्यथाभूतो वा ?"-प्रमेयक० पृ० 399 / सन्मति० टी० पृ० 31 // स्या० र० पृ० 635 / (4) वेदकर्तृपुरुषरहितः / (5) हेतोः वेदकारविवर्जितः इति शेषः / (6) वेदकर्तृपुरुषसहितः / (7) वेदकर्तपुरुषरहितकालस्य वेदकारविजितत्वमिष्टमेव / (8) वेदकरणसमर्थपुरुषयुक्तः तत्कर्तृपुरुष सहितो वा / (9) वेदकर्तपुरुषरहितस्यैव / (10) कालस्य। (11) वेदकाररहितत्वम। (12) वेदकर्तृपुरुषसहितकालसम्भावनया। (13) वेदकर्तृपुरुषसहितस्य / (14) तुलना-'नन्वन्यथाभूतः कालो नास्तीत्येत्कुतः प्रमाणात् प्रतिपन्नम् ?"-प्रमेयक० पृ०३९९ ।सन्मति० टी० पृ० 31 / स्या० र० पृ० 635 / (15) कालत्वात् हेतोः / (16) वेदकर्तृसहित / (17) वेदकारविवर्जितत्व / (28) अन्यथाभूतकालाभावसिद्धौ। (19) कालत्वादिति हेतोः। (20) तुलना-"सहि वेद: केनचिद् व्याख्यातः धर्मस्य प्रतिपादक: स्यादव्याख्यातो वा ?"-आप्तप० का० 110 / प्रमेयक० पृ० 400 / स्प० 2010 636 / प्रमेयर० 3 / 99 / (21) तुलना-"न हि तावत्स्थितोप्येष ज्ञानं वेदः करोति न / यावन्न पुरुषैरेव दीपभूतैः प्रकाशितः // ततश्चापौरुषेयत्वं भूतार्थज्ञानकारणम् / न कल्प्यं ज्ञानमेतद्धि पुंव्याख्यानात्प्रवर्तते // सत्यप्येषा निरर्थातो वेदस्यापौरुषेयता / यदिष्टं फलमस्या हि ज्ञानं तत्पुरुषाश्रितम् // स्वतन्त्राः पुरुषाश्चेह वेदे व्याख्यां यथारुचि / कुर्वाणाः प्रतिबद्धं ते शक्यन्ते नैव केनचित् // मोहमानादिभिर्दोषैरतोऽमी विप्लुताः श्रुतेः / विपरीतामपि व्याख्यां कुर्युरित्यभिशङ्कयते // " -तत्त्वसं० का० 2366-71 / (22) तुलना-“अर्थोऽयं नायमर्थ इति शब्दाः वदन्ति न / कल्प्यो . 1 अधिमता-श्र०। 2 वेदाकरणसमर्थ-ब। 3 तदृष्टपुरु-ब०। 'तत्कर्तपुरुषरहितो' इति नास्ति आ०। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५ ] वेदापौरुषेयत्वविचारः 735 दनात्, अन्यथा व्याख्याभेदो न स्यात् / पुरुषाच्चेत् ; कथं तद्व्याख्यानात् पौरुषेयादर्थप्रतिपत्तौ दोषाशङ्कानिवृत्तिः स्यात् ? पुरुषा हि रागादिमन्तो विपरीतमप्यर्थं व्याचक्षाणा दृश्यन्ते। संवादेन प्रामाण्याभ्युपगमे च अपौरुषेयत्वकल्पनानर्थक्यम् , पौरुषेयत्वेऽपि वेदस्य संवादादेव प्रामाण्योपपत्तेः / नच व्याख्यानानां संवादोऽस्ति, परस्परविरुद्धभावनानियोगादिव्याख्यानानामन्योन्यं विसंवादोपलम्भात् / किञ्च, असौ तद्व्याख्याता अतीन्द्रियार्थद्रष्टा, तद्विपरीतो वा ? प्रथमपक्षे अतीन्द्रियार्थदर्शिनः प्रतिषेधविरोधः / धर्मादौ च अस्य प्रामाण्योपपत्तेः " धर्मे चोदनैव प्रमाणम्' [ . ] इत्यवधारणानुपपत्तिश्च / अथ तद्विपरीतः; कथं तर्हि तद्व्याख्यानाद् यथार्थप्रतिपत्तिः, अयथार्थाभिधानाशङ्कया तनुपपत्तेः ? ऽयमर्थः पुरुषैः ते च रागादिसंयुताः ॥"-प्रमाणवा० 31312 / "वेदो नरं निराशंसो ब्रूतेऽर्थ न सदा स्वतः / अन्धात्तमष्टितुल्यां तु व्याख्यां समपेक्षते // स तया कृष्यमाणश्च कुवमन्यपि सम्पतेत् / ततो नालोकवद्वेदश्चक्ष तश्च युज्यते।"-तत्त्वसं० का० 2374-75 / प्रमेयक० पृ० 400 / स्या० र० पृ० 636 / प्रमेयर० 3 / 99 / “अथवा न तावदयं वेदः स्वस्यार्थ स्वयमाचष्टे सर्वेषामपि तदवगमप्रसङ्गात् ।"-धवलाटी० पृ० 195 / (1) तुलना-"व्याख्याप्यपौरुषेय्यस्य मानाभावान्न सङ्गता। मिथो विरुद्धभावाच्च तत्साधत्वाद्यनिश्चितेः ॥"-शास्त्रवा० 10 // 31 / (2) तुलना-"अथान्ये व्याचक्षते; तेषां तदर्थविषयपरिज्ञानमस्ति वा न वा / प्रथमविकल्पेऽसौ सर्वज्ञो वा स्यादसर्वज्ञो वा ?"-धवलाटी० 50 159 / “व्याख्याता रागादिमान विरागो वा ?"-आप्तप० का० 110 / तत्त्वार्थश्लो० 108 / प्रमेयक० पृ० 401 / स्या० 2010 636 / प्रमेयर० 3 / 99 / (3) तुलना-"यद्यत्यन्तपरोक्षेऽर्थेऽनागमज्ञानसंभवः / अतीन्द्रियार्थवित् कश्चिदस्तीत्यभिमतं भवेत् // यद्यत्यन्तपरोक्षेऽर्थे स्वर्गसम्बन्धादौ जैमिन्यादेरनागमस्य आगमनिरपेक्षस्य ज्ञानस्य संभवः तदा अतीन्द्रियार्थदर्शी कश्चिदस्तीत्यभिमतं भवेत् ततस्तत्प्रतिक्षेपो न यक्तः / यदि तू न कश्चिदतीन्द्रियार्थदर्शी तदा-स्वयं रागादिमानार्थं वेत्ति वेदस्य नान्यतः / न वेदयति वेदोऽपि वेदार्थस्य कुतो गतिः ॥"-प्रमाणवा०, मनोरथ० 3 / 316-17 / (4) अतीन्द्रियार्थद्रष्टुः / (5) "चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः ।"-जैमिनिसू० 11112 / “चोदनैव प्रमाणञ्चेत्येतद् धर्मेऽवधारितम् / " -मी० श्लो० चोदना० श्लो० 4 / 'यो धर्मः स चोदनालक्षणः, चोदनव तस्य लक्षणम् ।"-शास्त्रदी० 1 / 1 / 2 / उद्धृतमिदम्-आप्तप० पृ० 57 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 12 / प्रमेयक० पृ० 401 / स्या० र० 10 636 / (6) यथार्थप्रतीत्यनुपपत्तेः। तुलना-"अपि च वेदस्तद्व्याख्यानं वा पुरुषेण पुरुषायोपदिश्यमानमनष्टसम्प्रदायमेवानुवर्तते इत्यत्रापि शपथः शरणम् / आगमभ्रंशकारिणामाहोपुरुषिकया तद्दर्शनविद्वेषेण वा तत्प्रतिपन्नखलीकरणाय धूर्तव्यसनेन अन्यतो वा कुतश्चित् कारणादन्यथारचनासंभवात् / अपि चात्र भवान् स्वमेव मुखवणं स्ववादानुरागान्ननं विस्मृतवान् 'पुरुषो रागादिभिरुपप्लुतोऽन्तमपि ब्रुयादिति नास्य वचनं प्रमाणम्' इति / तदिहापि किन्न प्रत्यवेक्ष्यते संभवति न वेति / स एवोपदिशनुपप्लवात् वेदवेदार्थं वाऽन्यथाप्युपदिशेदिति / श्रूयन्ते हि कैश्चित् पुरुषैरुत्सन्नोद्धृतानि शाखान्तराणि इदानीमपि कानिचिद विरलाध्येतकाणि / तद्वत प्रचराध्येतकाणामपि कस्मिंश्चित्काले कथञ्चित्संहारसंभवात् / पुनः संभावितपुरुषप्रत्ययात् प्रचुरतोपगमनसंभावनासंभवाच्च / तेषाञ्च पुनः प्रतानयितणां पुरुषाणां कदाचिदधीतविस्मृताध्ययनानामन्येषां संभावनाभ्रंशभयादिनाऽन्यथोपदेशसंभवात् / तत्प्रत्ययाच्च 1-न्योन्यवि-आ०। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [. प्रवचनपरि० नच मन्वादीनां सातिशयप्रज्ञत्वात् तद्व्याख्यानाद् यथार्थप्रतिपत्तिः; तेषां सातिशयप्रज्ञत्वासिद्धेः / तेषां हि प्रज्ञातिशयः स्वतः, वेदार्थाभ्यासात् , अदृष्टात्, ब्रह्मणो वा स्यात् ? स्वतश्चेत् ; सर्वस्य स्यादविशेषात् / वेदार्थाभ्यासाच्चेत् ; ननु वेदार्थस्य ज्ञातस्य, अज्ञातस्य वा अभ्यासः स्यात् ? न तावदज्ञातस्य; अतिप्रसङ्गात् / अथ ज्ञातस्य; कुतस्तज्झप्तिः-स्वतः, अन्यतो वा ? स्वतश्चेत् ; अन्योन्याश्रयः-सति हि वेदार्थाभ्यासे स्वतस्तत्परिज्ञानम् , तस्मिंश्च सति तदर्थाभ्यास इति / अथ अन्यतः; तर्हि तस्यापि तत्परिज्ञानमन्यतः इति अतीन्द्रियार्थदर्शिनोऽनभ्युपगमे अन्धपरम्परातो यथार्थनिर्णयानुपपत्तिः / अदृष्टमपि न प्रज्ञातिशयप्रसाधकम् ; तस्य आत्मान्तरेऽपि सद्भावात् / न तथाविधमदृष्टमन्यत्र मन्वादावेव अस्य संभवादिति चेत् ; कुतस्तत्रैवास्य संभवः ? 10 वेदार्थानुष्ठानविशेषाच्चेत् ; सँ तर्हि ज्ञातस्य अज्ञातस्य वा वेदार्थस्य अनुष्ठाता स्यात् ? अज्ञातस्य चेद् ; अतिप्रसङ्गः। ज्ञातस्य चेत् ; चक्रकप्रसङ्गः-सिद्धे हि वेदार्थज्ञानातिशये तदर्थानुष्ठानविशेषसिद्धिः, तत्सिद्धौ च अदृष्टविशेषसिद्धिः, ततस्तज्ज्ञानातिशयसिद्धि- . . रिति / ब्रह्मणोऽपि वेदार्थज्ञाने सिद्धे सति अतो मन्वादेस्तदर्थपरिज्ञानातिशयः सिद्ध्येत् / तच्चास्य कुतः सिद्धम् ? धर्मविशेषाच्चेत् ; स एव चक्रकप्रसङ्गः-सिद्धे हि वेदार्थपरिज्ञानातिशये तत्पूर्वकानुष्ठानविशेषः सिद्ध्येत् , ततः तज्जनितधर्मविशेषः सिद्ध्येत् , तैत्सिद्धौ च वेदार्थपरिज्ञानातिशयः सिद्धयेदिति / ततोऽतीन्द्रियार्थदर्शिनोऽनभ्युपगमे वेदार्थप्रतिपत्तेरनुपपत्तिरेव / ननु व्याकरणाद्यभ्यासात् लौकिकपदवाक्यार्थप्रतिपत्तौ तदविशिष्टवैदिकपदवातदभक्तानामविचारेण प्रतिपत्तेः बहष्वप्यध्येतष संभावितात पुरुषाद बहलं प्रतिपत्तिदर्शनात / ततोऽपि कथञ्चिद् विप्रलम्भसंभवात् / किञ्च, परिमितव्याख्यातृपुरुषपरम्परामेव चात्र भवतामपि शृणुमः / तत्र कश्चिद् द्विष्टाज्ञधूर्तानामन्यतमः स्यादपीति अनाश्वासः ।"-प्रमाणवा० स्वव० 11322 // (1) तु०-"कुतस्तस्य तादृशः प्रज्ञातिशयः ? श्रुत्यर्थस्मृत्यतिशयादिति चेत् ; सोऽपि कुतः ? पूर्वजन्मनि श्रुत्यभ्यासादिति चेत्; स तस्य स्वतोऽन्यतो वा ? स्वतश्चेत्; सर्वस्य स्यात् / तस्यादृष्टवशाद वेदाभ्यास: स्वतो युक्तो न सर्वस्य तदभावादिति चेत्, कुतस्तस्यैव अदृष्टविशेषः तादग? वेदार्थानुष्ठानाच्चेत् ; तहि स वेदार्थस्य स्वयं ज्ञातस्यानुष्ठाता स्यादज्ञातस्य वापि ? न तावदुत्तरः पक्षः, अतिप्रङ्गात् / स्वयं ज्ञातस्य चेत् ; परस्पराश्रयः / 'मन्वादेर्वेदाभ्यासोऽन्यत एवेति चेत् ; स कोऽन्यः ? ब्रह्मेति चेत् तस्य कुतो वेदार्थज्ञानम् ? धर्मविशेषादिति चेत्; स एवान्योन्याश्रयः ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 9 / प्रमेयक० पृ० 401 / स्या०र० पृ० 636 / (2) तुलना-“यस्मादेकोऽपि तन्मध्ये नैवातीन्द्रियदृङ्मतः। अनादि: कल्पितायेषा तस्मादन्धपरम्परा // अन्धेनान्धः समाकृष्ट: सम्यग्वर्त्म प्रपद्यते / ध्रुवं नैव तथाप्यस्या विफलाऽनादिकल्पना।"-तत्वसं० का० 2379-80 / "अविरोधेऽपि नित्यस्य भवेदन्धपरम्परा। तदर्थदर्शिनोऽभावान्म्लेच्छादिव्यवहारवत् ।"-न्यायवि० का० 417 / अष्टश०, अष्टसह० पृ० 239 / प्रमेयक० पृ० 401 / स्या०र० पृ० 637 / तत्त्वचि० शब्द० पृ० 369 / (3) प्रज्ञातिशयप्रयोजकस्य अदृष्टस्य / (4) मन्वादिः / (5) ब्रह्मणः / (6) ब्रह्मणः / (7) धर्मविशेषसिद्धौ। 1 अदृष्टत्वात् श्र० / 2-प्तिः स्वतश्चेदन्यो-आ० / Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] वाक्यलक्षणविचारः 737 क्यार्थप्रतिपत्तेरपि प्रसिद्धिः अश्रुतकाव्यादिवत् , अतो न वेदार्थप्रतिपत्तौ अतीन्द्रियार्थदर्शिना किञ्चित् प्रयोजनम् ; इत्यप्यपेशलम् ; लौकिकवैदिकपदानामेकत्वेऽपि अनेकार्थत्वव्यवस्थितेः अन्यपरिहारेण व्याचिख्यासितार्थस्य नियमयितुमशक्तेः। न च प्रकरणादिभ्यस्तैन्नियमः; तेषानमप्यनेकधा प्रवृत्तेः त्रिसन्धानादिवत्। यदि च लौकिकेन अग्न्यादिशब्देन अविशिष्टत्वाद् वैदिकस्य अग्न्यादिशब्दस्य अर्थप्रतिपत्तिः; तर्हि पौरुषेयेणापि 5 तेनं अविशिष्टत्वात् पौरुषेयोऽप्यसौ कथन्न स्यात् ? लौकिकस्य हि अग्न्यादिशब्दस्य अर्थवत्त्वं पौरुषेयत्वेन व्याप्तम् , तत्र अयं वैदिकोऽग्न्यादिशब्दः कथं पौरुषेयत्वं परित्यज्य तदर्थमेव ग्रहीतुं शक्नोति ? उँभयमपि गृह्णीयात् जह्याद्वा / न च लौकिकवैदिकशंब्दयोः स्वरूपाऽविशेषे सङ्केतग्रहणसव्यपेक्षत्वेन अर्थप्रतिपादकत्वे अनुच्चार्यमाणयोश्च पुरुषेणाश्रवणे समाने अन्यो विशेषोऽस्ति, यतो वैदिका अपौरुषेयाः शब्दा लौकिकास्तु 10 पौरुषेयाः स्युः / ततो ये नररचितरचनाऽविशिष्टाः ते पौरुषेयाः यथा अभिनवकूपप्रासादादिरचनाऽविशिष्टाः जीर्णकूपप्रासादादयः, नररचितवचनरचनाऽविशिष्टश्च वैदिकं पदवाक्यादिकमिति ॥छ॥ किं पुनः पदं वाक्यश्च इति चेत् ? उच्यते-वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षः पदवाक्ययोर्लक्षणम्- समुदायः पदम् / पदानां तु परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो 15 (1) तुलना-"उत्पादिता प्रसिद्धयैव शङ्का शब्दार्थनिश्चये / यस्मान्नानार्थवृत्तित्वं शब्दानां तत्र दृश्यते // अन्यथासंभवाभावान्नानाशक्तेः स्वयं ध्वनेः / अवश्यं शङ्या भाव्यं नियामकमपश्यताम् // सर्वत्र योग्यस्यैकार्थद्योतने नियमः कुतः। ज्ञाता वाऽतीन्द्रियाः केन विवक्षावचनादृते ॥"प्रमाणवा० 3 / 323,24,26 / प्रमेयक० पृ० 402 / स्या० र० पृ० 637 / (2) आदिपदेन संसर्गादयो गाह्याः / तथा चोक्तम्-"संसर्गो विप्रयोगश्च साहचर्यं विरोधिता। अर्थः प्रकरणं लिङ्ग शब्दस्यान्यस्य सन्निधिः // सामर्थ्य मौचिती देश: कालो व्यक्तिः स्वरादयः / शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः ।"-वाक्यप० 21317-18 / (3) इष्टार्थनियमः। (4) प्रकरणादीनामपि / तुलना-"तेषामप्यनेकधा प्रवृत्तेः द्विसन्धानादिवत् ।"-प्रमेयक० पृ०४०२। "तेषामप्यनेकताप्रवृत्तेस्त्रिसन्धानादिवत।"-स्या० र० पृ०६३७। (5) पौरुषेयत्वदृष्टयापि / (6) लौकिकशब्देन / (7) वैदिकशब्दः / (8) तात्पर्यम् पौरुषेयत्वञ्च। (9) "अथ स्यादस्त्येव तयोः स्वभावभेद इत्याह-न चात्रेत्यादि / अत्र जगति लौकिकवैदिकयोर्वाक्ययोः स्वभावनानात्वं [नच पश्यामः। असति तस्मिन् स्यरूपभेदे तयोः लौकिकवैदिकवाक्ययोः सामान्यस्यैव तुल्यरूपस्यैव वर्णानुक्रमलक्षणस्य दर्शनाद् एकस्य लौकिकवैदिकस्य कंचिद् धर्म विवेचयन् पौरुषेयत्वमपौरुषेयत्वं वा विभागेन व्यवस्थापयन् पुरुषः आशंक्यव्यभिचारवादः क्रियते ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 341 // "नच लौकिकवैदिकशब्दयो: शब्दरूपाविशेषे संकेतग्रहणसव्यपेक्षत्वेनार्थप्रतिपादकत्वे अनुच्चार्यमाणयोश्च पुरुषेणाश्रवणे समाने अन्यो विशेषो विद्यते यतो वैदिका अपौरुषेयाः स्युः।"-प्रमेयक० पृ० 402 / सन्मति० टी० पू० 39 / स्या० र० पृ० 637 / (10) दृष्टव्यम्-पृ० 729 टि०१४। (11) तुलना-“सुप्तिङन्तं पदम्"-पाणिनिव्या० 1 / 4 / 14 / "ते विभक्त्यन्ताः पदम्"-न्यायसू० 2 / 2 / 59 / नाटयशा० 14 / 39 / “पदं पुनर्वर्ण ____1-ते: आ०। 2 पौरुषेयत्वस्यापि ततोऽवशि-ब० / 8 न लौकि-आ०, ब० / 4-काश्च पौरु-ब०। 6-तरचना-आ०, ब०। '43 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 738 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [. प्रवचनपरि० वाक्यमिति / नन्वेवं कथमिदं साधनवाक्यं घटते-'यत् सत् तत्सर्वं परिणामि यथा घटः संश्च शब्दः' इति, 'तस्मात्परिणामि' इत्याकाङ्क्षणात् , साकाङ्क्षस्य वाक्यत्वानिष्टेः ? इत्यचोद्यम् ; कस्यचित् प्रतिपत्तुः तदनाकाङ्कत्वोपपत्तेः / यस्य हि प्रतिपत्तुः 'तस्मात् परिणामि' इत्यत्र आकाङ्काक्षयः तदपेक्षया तद् वाक्यं भवति उक्तवाक्यलक्षणसद्भावात् नान्यापेक्षया / निराकाङ्कत्वं हि प्रतिपतृधर्मः वाक्येष्वध्यारोप्यते, न पुन: शब्दधर्मः तस्याऽचेतनत्वात् / स चेत् प्रतिपत्ता तावता अर्थ प्रत्येति किमित्यपरमाकाङ्केत् ? पक्षधर्मोपैसंहारपर्यन्तसाधनवाक्यादर्थप्रतिपत्तावपि निगमनवचनापेक्षायां निगमनान्तपञ्चावयववाक्यादप्यर्थप्रतिपत्तौ परापेक्षाप्रसङ्गात् न कचिन्निराकाङ्क्षत्वसिद्धिः स्यात् / तथा च वाक्याभावात् न कचिद् वाक्यार्थप्रतिपत्तिः कस्यचित् स्यात् / तामिच्छता यस्य समूहः"-ज्यायवा० 101 / न्यायमं० पृ० 367 / "शक्तं पदम् ।"-मुक्ता० का०८१ / "वर्णाः पदं प्रयोगानिन्वितकार्थबोधका:"-सा० द० 2 / 5 / "व्याकरणस्मृतिनिर्णीत: शब्द: निरुक्तनिघण्टवा दिभिः निर्दिष्टस्तदभिधेयोऽर्थः तौ पदम् ।"-काव्यमी० पृ० 21 / "वर्णानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायः पदम्।"-प्रमेयक 10458 / "वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षा संहतिः पदम, पदानां तू वाक्यमिति ।"-प्रमाणनय०.४।१०। (1) तुलना-"आख्यातं साव्ययं सकारकं सकारकविशेषणं वाक्यसंज्ञं भवतीति वक्तव्यम्-अपर आह-आख्यातं सविशेषणमित्येव / सर्वाणि ह्येतानि विशेषणानि / “एकतिङ, एकतिङ वाक्यसंज्ञं भवतीति वक्तव्यम् ।"-पात० महाभा० 2 / 11 / “तिसुबन्तचयो वाक्यम् क्रिया वा कारकान्विता।"-अमरको। “पूर्वपदस्मृत्यपेक्षः अन्त्यपदप्रत्ययः स्मृत्यनुग्रहेण प्रतिसन्धीयमानः विशेषप्रतिपत्तिहेतुर्वाक्यम् ।"-न्यायवा० पृ० 16 / "यावद्भिः पदैरर्थपरिसमाप्तिः तदेकं वाक्यम्।" -वादन्याय पृ० 108 / "पदसमूहो वाक्यमिति ।"-न्यायमं० पृ० 637 / न्यायवा० ता० ए० 434 / “अथात्र प्रसङ्गान्मीमांसकवाक्यलक्षणमर्थद्वारेण प्रदर्शयितुमाह-साकाङ्क्षावयवं भेदे परानाकाङ्क्षशब्दकम् / कर्मप्रधानं गुणवदेकार्थ वाक्यमिष्यते ॥"-वाक्यप० 2 / 4 / "पदानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यम् ।"-अष्टश०, अष्टसहपृ० 285 / प्रमेयक० पृ० 458 / प्रमाणनय० 4 / 10 / “मिथः साकाङ्क्षशब्दस्य व्यूहो वाक्यं चतुर्विधम् / सुप्तिङन्तचयो नैवमतिव्याप्त्यादिदोषतः // यादृशशब्दानां यादृशार्थविषयताकान्वयबोधं प्रत्यनुकूला परस्पराकाङक्षा तादृशशब्दस्तोम एव तथाविधार्थे वाक्यम् ।"-शब्दश० श्लो०१३ / 'वाक्यं स्याद्योग्यताकाङ क्षासत्तियुक्तः पदोच्चयः / -सा० द० 2 / 1 / "पदानामभिधित्सितार्थग्रन्थनाकारः सन्दर्भो वाक्यम् ।"-काव्यमी० पृ० 22 / “वाक्यं विशिष्टपदसमुदायः / यदाह-पदानां संहतिर्वाक्यं सापेक्षाणां परस्परम् / साख्याता: कल्पनास्तत्र पश्चात्सन्तु यथायथम् ।"-न्यायाव० टी० टि० 108 / (2) "ननु यदि निराकाङक्षः परस्परा. पेक्षपदसमुदायो वाक्यं न तर्हि तदानीमिदं भवति, यथा यत्सत्तत्सर्व परिणामि यथा घट: संश्च शब्द इति साधनवाक्यम् ; तस्मात्परिणामीत्याकाङ्क्षणात्, साकाङ्क्षस्य वाक्यत्वानिष्टेरिति न शङ्कनीयम्; कस्यचित्प्रतिपत्तुस्तदनाकाङ्क्षत्वोपपत्तेः , निराकाङ्क्षत्वं हि नाम प्रतिपत्तुर्धर्मोऽयं वाक्येष्वध्यारोप्यते न पुनः शब्दस्य धर्मः तस्यावेतनत्वात् / स चेत्प्रतिपत्ता तावताऽथं प्रत्येति किमिति शेषमाकाङ क्षति?" -अष्टश०, अष्टसह० पृ० 85 / प्रमेयक० पृ० 458 / स्या० र० पृ. 641 / (3) सौगतस्य / (4) सौगतापेक्षया। (5) पञ्चावयववादिनैयायिकापेक्षया। (6) उपनय। (7) षष्ठावयवापेक्षा / (8) क्वचिदाकाङक्षापरिसमाप्त्यभावे न वाक्यपरिनिष्ठितिः। 1-पत्तधर्मःश्र०। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्रका० 65] वाक्यलक्षणविचारः 736 प्रतिपत्तुर्यावत्सु परस्परापेक्षेषु पदेषु समुदितेषु निराकाङ्क्षत्वं तस्य तावत्सु वाक्यत्वसिद्धिः प्रतिपत्तव्या। एतेन प्रकरणादिगम्यपदान्तरसापेक्षश्रूयमाणपदसमुदायस्य निराकास्य सत्यभामादिपदवत् वाक्यत्वं प्रतिपादितं प्रतिपत्तव्यम् / . एतेन यत्कैश्चित् वाक्यस्य लक्षणान्तरमुक्तम्"श्राख्यातशब्दः सङ्घातो जातिः सङ्घातवत्तिनी / एकोऽनवयवः शब्दः क्रमो बुद्धयनुसंहृती(तिः)॥ पदमाद्यं पदञ्चान्त्यं पदं सापेक्षमित्यपि / वाक्यं प्रति मतिर्भिन्ना बहुधा न्यायवेदिनाम् // " 1 [वाक्यप० 2 / 1-2 ] इति; तत्प्रत्याख्यातम् ;. यस्मादाख्यातशब्दः पदान्तरनिरपेक्षः, सापेक्षो वा वाक्यं स्यात् ? तत्राद्यपक्षोऽनुपपन्नः; पदान्तरनिरपेक्षस्यास्य पदत्वेन वाक्यत्वानुपपत्तेः, अन्यथा आख्यातपदाभावः स्यात् / द्वितीयपक्षेऽपि कचित् निरपेक्षोऽसौ, न वा ? प्रथमपक्षे अस्म- 10 न्मतसिद्धिः, अस्मदुक्तस्यैव वाक्यलक्षणस्य इत्थमभ्युपगात् / द्वितीयपक्षस्त्वयुक्तः; पदान्तरसापेक्षस्याप्यस्य कचिन्निरपेक्षत्वाभावे प्रकृतार्थापरिसमाप्त्या वाक्यत्वायोगाद् अर्द्धवाक्यवत् / (1) "प्रकरणादिना वाक्यकल्पेनाप्यर्थप्रतिपत्तौ न वा प्राथमकल्पिकवाक्यलक्षणपरिहारः, प्रकरणादिगम्यपदान्तरसापेक्षश्रूयमाणपदसमुदायस्य निराकाङ्क्षस्य सत्यभामादिपद् वाक्यत्वसिद्धेः।"अष्टश० अष्टसह पृ० 285 / प्रमेयक० पृ० 458 / स्या०र० पृ० 642 / (2) वैयाकरणैः भर्तृहरिप्रभृतिभिः / (3) व्याख्या-"एतेऽष्टौ वाक्यविकल्पा आचार्याणाम् / तत्राखण्डपक्षे जातिः संघातवतिन्येकोऽनवयवः शब्दो बुद्धयनुसंहृतिरिति त्रीणि लक्षणानि / खण्डपक्षे तु आख्यातशब्द: क्रमः संघातः पदमाद्यं पृथक् सर्वपदं साकाङ्क्षमिति पञ्च लक्षणानि / अत्रापि संघातः क्रमः इत्याभिहितान्वयपक्षे लक्षणद्वयम् / आख्यातशब्दः पदमाद्यं पृथक्सर्वपदं साकाङ्क्षमित्यन्विताभिधानपक्षे लक्षणत्रयम् इति विभागः:"इत्थमष्टावेव वाक्यविकल्पाः। मतभेदेन सम्पद्यन्त इति बोद्धव्यम्।"-वाक्यप० टी०२।१२। 'आख्यातं शब्दसंघातों-मी० श्लो० न्यायर०पू०८६० / (4) 'बुद्धयनुसंहतिः-वाक्यप०, मी०श्लो० न्यायर० पृ० 860 / स्या० र० पृ० 647 / प्रकृतपाठः-अष्टसह पृ० 284 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 427 / प्रमेयक पृ० 459 / नयच०३०प० 168 A. / (5) 'पदमाद्यं पृथक्सर्वपदं साकाङ्क्ष मित्यपि'-वाक्यप० / 'पदमाचं पृथक्सर्वपदं सापेक्षमित्यपि'-मी० श्लो० न्यायर० ए० 860 / स्या० र० पृ० 647 / प्रकृतपाठः-अष्टसह० पृ० 284 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 427 / प्रमेयक० पू० 459 / (6) 'न्यायवादिनाम'-वाक्यप० / 'न्यायदर्शिनाम्'-मी० श्लो० न्यायर०, स्या०र० / 'न्यायवेदिनाम्'अष्टसह०, तत्त्वार्यश्लो०, प्रमेयक०। (7) आख्यातात्मकवाक्यस्य स्वरूपम्-'आख्यातशब्दे नियतं साधनं यत्र गम्यते / तदप्येकं समासाथ वाक्यमित्यभिधीयते // यथा वर्षतीत्युक्ते देवो जलमिति कर्तृकर्माक्षेपात परिपूर्थित्वे वर्षति देवो जलमिति यथा वाक्यमेवं तदप्येक पदं समासाथ परिपूर्णार्थ वाक्यमेवाभिधीयते ।"-वाश्यप० टी० 2 / 317 / "तस्य पदान्तरनिरपेक्षस्य पदत्वाद् अन्यथा आख्यातपदाभावप्रसङ्गात् / पदान्तरसापेक्षस्यापि क्वचिनिरपेक्षत्वाभावे वाक्यत्वविरोधात् प्रकृतार्थापरिसमाप्तेः / निराकाङ्क्षस्य तु वाक्यलक्षणयोगादुपपन्नं वाक्यत्वम् ।"-अष्टसह पृ० 285 / प्रमेयक० पृ० 459 / (8) जैनमत / (9) आख्यातपदस्य / . 1 तद्वाक्यत्वं ब०। 2 'प्रतिपादित' नास्ति आ० / 8 वाक्यलक्षणा-श्र० / Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० 'सङ्घातो वाक्यम्' इत्यत्रापि वर्णानाम् , पदानां वा सङ्घातो वाक्यं स्यात् ? प्रथमपक्षे पदाय दत्तो जलाञ्जलिः / द्वितीयपक्षे तु देशकृतः, कालकृतो वा पदानां सङ्घातः स्यात् ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः; क्रमोत्पन्नप्रध्वंसिनां तेषामेकस्मिन् देशे सकृदवस्थित्यभावतो देश कृतसंघा[ता]संभवात् / द्वितीयपक्षे तु पदेभ्योऽसौ भिन्नः, अभिन्नो वा ? न तावद्भिन्नोऽ5 नंशः; तथाविधस्यास्याप्रतीतेः, वर्णान्तरवत् सङ्घातविरोधाच्च / अथ तेभ्योऽभिन्नोऽसौ; किं सर्वथा, कथञ्चिद्वा ? यदि सर्वथा; कथमसौ सङ्घातः सङ्घातिस्वरूपवत् ? अन्यथा प्रतिपदं सङ्घातप्रसङ्गः / न चैकं पदं सङ्घातो नाम अतिप्रसङ्गात् / अथ कथञ्चित् ; तदा जैनमतप्रसङ्गः, परस्परापेक्षाऽनाकाङ्क्षपदसमूहरूपतामापन्नवर्णानां कालप्रत्यासत्तिरूप सङ्घातस्य कथञ्चिद्वर्णेभ्यो भिन्नस्य जैनोक्तवाक्यलक्षणानतिक्रमात् / साकाङ्क्षाऽन्योन्यान10 पेक्षाणां तु तेषां वाक्यत्वे प्राक्प्रतिपादितदोषांनुषङ्गः।। एतेन 'जातिः सङ्घातवर्तिनी वाक्यम्' इत्यपि नोत्सृष्टम् ; निराकाङ्क्षाऽन्योन्या (1) संघातस्य स्वरूपम्-"केवलेन पदेनार्थो यावानेवाभिधीयते / वाक्यस्थं तावतोऽर्थस्य तदाहुरभिधायकम् // सम्बन्धे सति यत्त्वन्यदाधिक्यमुपजायते / वाक्यार्थमेव तं प्राहुरने कपदसंश्रयम् / / केवलं पदं यस्यैवार्थस्य वाचकम् वाक्यस्थमपि तमेवाभिदधाति / ततः समुदये पदानां परस्परान्वये पदार्थवशाद् यदाधिक्यं संसर्गः स वाक्यार्थः। उक्तञ्च-यदत्राधिक्यं वाक्यार्थः स इति / अनेकपदसंश्रयमित्यनेन संघातो वाक्यमिति दर्शितम् ।"-वाक्यप० टी० 2142 / "यथा सावयवा वर्णा विना वाच्येन केनचित्। अर्थवन्तः समुदिताः वाक्यमप्येवमिष्यते ॥"-वाक्यप० 2155 / (2) तुलना"संघातो वाक्यमित्यत्रापि परस्परापेक्षाणां पदानामनपेक्षाणां वा ? प्रथमपक्षे निराकाङ्क्षत्वे अस्मत्पक्षसिद्धि: साकाङ्क्षत्वे वाक्यत्वविरोधः / द्वितीयविकल्पे अतिप्रसङ्गः।"-अष्टसह० पृ० 285 / स्या० र० पृ० 644 / (3) "देशकृतः कालकृतो वा वर्णानां संघातः स्यात् ।"-प्रमेयक० पृ० 459 / (4) पदानाम् / (5) "न वर्णेभ्यो भिन्न: संघातोऽनंशः प्रतीतिमार्गावतारी संघातत्वविरोधाद् वर्णान्तरवत् / नापि ततोऽनर्थान्तरमेव संघातः; प्रतिवर्णसंघातप्रसङ्गात् / न चैको वर्णः संघातो भवेत् -तत्त्वार्थश्लो० पृ० 426 / प्रमेयक पृ० 459 / (6) पदानाम् / (7) पदान्तरसाकाङ क्षत्वे वाक्यापरिसमाप्तिः, अन्योऽन्यानपेक्षत्वे तु पदत्वमेव स्यान्न वाक्यत्वमिति / (8) “अथ जातिः संघातवर्तिनीत्युद्दिष्टस्य जातिस्फोटस्यापि दृष्टान्तप्रदर्शनद्वारेण स्फुटीकरणायाह-यथा (क्षेपविशेषेऽपि कर्मभेदो न गृह्यते / आवृत्तौ व्यज्यते जातिः कर्मभिर्धमणादिभिः // वर्णवाक्यपदेष्वेवं तुल्योपव्यञ्जना श्रुतिः / अत्यन्तभेदे तत्त्वस्य सरूपेव प्रतीयते // इह भ्रमणलक्षणा कर्मजातिर्यथा विशिष्टप्रयत्नजनितेन क्षेपविशेषेणाभिव्यक्ता प्रत्येकपरिसमाप्तत्वात् / न च पावस्थेन सा विज्ञायते। भ्रमणानामावृत्तौ तु भ्रमणं भ्रमणं प्रति प्रतिपत्रा सा गृह्यते / एवं वर्णपदवाक्येषु श्रुतिरभिव्यञ्जको ध्वनिरत्यन्तभेदे तत्त्वस्य वर्णपदवाक्यस्फोटलक्षणस्य साऽभिव्यञ्जिका सरूपेव प्रतीयते, परमार्थतो भिन्नापि सती / कीदृशी? तुल्योपव्यञ्जनेति। तुल्यः सदृश उपव्यञ्जनः स्थानकरणाभिघातलक्षणो यस्याः सा तथेति / तेन भिन्नप्रयत्नोदीरितध्यन्यभिव्यक्तोऽयं जातिस्फोटो विलक्षण एवेति बोद्धव्यम् / युक्तञ्चतत् / यया निरंशस्यास्य स्फोटस्य पूर्वापरभाव उपाधिकृतो न स्वतो नित्यत्वादिति।"-वाक्यप०, टी० 2 / 20, 21 / (9) तुलना-"निराकाङ्क्षपरस्परापेक्षपदसंघातवर्तिन्याः सदशपरिणामलक्षणाया जातेर्वाक्यत्वघटनात् ।"-अष्टसह० पृ० 285 / प्रमेयक० पृ० 460 / 1-कृतक्रमासंभ-आ०, ब०। 2-धस्याप्रती-आ० / 3 कथञ्चिद्धर्मेभ्यो ब०। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० का०६५ ] वाक्यलक्षणविचारः 741 पेक्षपदंसङ्घातवर्तिन्याः सदृशपरिणामलक्षणायाः कथञ्चित्ततोऽभिन्नायाः जातेर्वाक्यत्वघटनात् , अन्यथा सङ्घातवाक्यपक्षोक्ताऽशेषदोषानुषङ्गः / ‘एकोऽनैवयवः शब्दो वाक्यम्' इत्यपि मनोरथमात्रम् ; तस्य अप्रमाणकत्वात् / तदप्रमाणकत्वञ्च शब्दस्फोटग्राहकप्रमाणानां निषेत्स्यमानत्वात् सुप्रसिद्धम् / 'मो वाक्यम्' इत्येतत्तु सङ्घातवाक्यपक्षान्नातिशेते इति तद्दोषेणैव दुष्टं द्रष्टव्यम् / / 'बुर्द्धिर्वाक्यम्' इत्यत्रापि भाववाक्यम् , द्रव्यवाक्यं वा सा स्यात् ? प्रथमकल्पनायां (1) संघातात् / (2) "स्फोटश्च द्विविध:-बाह्य आभ्यन्तरश्चेति / बाह्योऽपि जातिव्यक्तिभेदेन द्विविधः / तत्र जातिलक्षणस्य जातिः संघातवर्तिनीति, व्यक्तिलक्षणस्यैकोऽनवयवः शब्द इति / आभ्यन्तरस्य तु बुद्धयंनुसंहृतिरित्यनेनोद्देशः।"-वाक्यप० टी० 22 / “टीकाकारश्चामुमेव पक्षं सूत्रकाराभिप्रायसमाश्रयणेन युक्तियुक्तं मन्यमानो बहीरूप आन्तरो वा निविभागः शब्दार्थमयो बोधस्वभावः शब्दः स्फोटलक्षण एव वाक्यमिति क्रमेण व्याजिहीर्षुः चित्रज्ञानचित्ररूपदृष्टान्तप्रदर्शनं पूर्वमुपक्रमते / तत्र चित्रबुद्धिदृष्टान्तप्रदर्शनार्थमह-यथैक एव सर्वार्थप्रत्ययः प्रविभज्यते / दृश्यभेदानुकारेण वाक्यार्थानुगमस्तथा / / चित्रस्यैकस्वरूपस्य यथा भेदनिदर्शनैः / नीलादिभिः समाख्यानं क्रियते भिन्नलक्षणैः / तथैवैकस्य वाक्यस्य निराकाङक्षस्य सर्वतः / शब्दान्तरः समाख्यानं साकाङक्षरनगम्यते ।।.."शब्दस्य न विभागोऽस्ति कुतोऽ. र्थस्य भविष्यति / विभागैः प्रक्रियाभेदमविद्वान् प्रतिपद्यते ॥"-वाक्यप० 27-9,13 / “नित्यत्वे समुदायानां जाते; परिकल्पने। एकस्यैवार्थतामाहुः वाक्यस्याव्यभिचारिणीम् ॥"-वाक्यप० 257 / (3) "श्रोत्रबुद्धौ तदप्रतिभासनात् तत्प्रतिबद्धलिंगाभावात्"-अष्टसह० पृ० 285 / (4) "क्रमपक्षं व्याख्यातुमाह-सन्त एव विशेषा ये पदार्थेषु व्यवस्थिताः। ते क्रमादनुगम्यते न वाक्यमभिधायकम् / / "क्रमव्यतिरे. केण न शब्दात्मकं न वाक्यमभिधायकमस्तीत्युच्यते / शब्दानां क्रममात्रे च नान्यः शब्दोऽस्ति वाचकः। क्रमो हि धर्मः कालस्य तेन वाक्यं न विद्यते // वर्णानां च पदानाञ्च क्रममावनिवेशिनी। पदाख्या वाक्यसंज्ञा च शब्दत्वं नेष्यते तयोः // अनर्थकान्युपायत्वात्पदार्थनार्थवन्ति वा। क्रमेणोच्चारितान्याहुवियार्थ भिन्नलक्षणम् ॥"-वाक्यप० 2250-52,56 / (5) तुलना-"वार्यः पदक्रमो वाक्यं यथा वर्णक्रमः पदम् ।"-मी० श्लो० वाक्या० श्लो०५३ / 'वर्णमात्र क्रमस्य वाक्यत्वप्रसङ्गात् पदरूपतामापन्नानां वर्णविशेषाणां क्रमो वाक्यमिति चेत्; स यदि परस्परापेक्षाणां निराकाङ्क्षस्तदा समुदाय एव, क्रमभुवां कालप्रत्यासत्तेरेव समुदायत्वात्, सहभुवामेव देशप्रत्यासत्तेः समुदायत्वव्यवस्थितेः / अथ साकाङ्क्षः; तदा न वाक्यमर्धवाक्यवत् / परस्परनिरपेक्षाणां तु क्रमस्य वाक्यत्वेऽतिप्रसङ्ग एव।"-अष्टसह० पृ० 285 / प्रमेयक० पृ० 460 / स्या० 20 10 644 / (6) "इदानीमन्तरे वाऽनवयवं बोधस्वभावं शब्दार्थमयं निविभागं शब्दतत्वमिति यद्गीतं तदेव नादैर्बहिः प्रकाशितं वाक्यमाहुराचार्या इत्यनतरं बुद्धचनसंहतिरित्यहिष्टं व्याख्यातुमाह-यदन्तः शब्दतत्त्वं तु नादैरेकं प्रकाशितम्। तदाहुरपरे शब्दं तस्य वाक्ये तथैकता / / अर्थभागैस्तथा तेषामान्तरोऽर्थः प्रकाश्यते / एकस्यैवात्मनो भेदौ शब्दार्थावपृथक्स्थितौ // प्रकाशकप्रकाश्यत्वं कार्यकारणरूपता। अन्तर्मात्रात्मनस्तस्य शब्दतत्त्वस्य सर्वदा ॥"-वाक्यप० 2 / 30-32 / (7) तुलना-"बुद्धया न चोपसंहर्तुं क्रमो निष्कृष्य शक्यते। पदान्येव हि तद्वन्ति वर्तन्ते श्रोत्रबुद्धिवत् / तावत्स्वेव पदेष्वन्यः क्रमोऽन्यश्च प्रतीयते / तत्र यावत्क्रमं भेदो वाक्यार्थस्य प्रसज्यते। किञ्च, वर्णक्रमस्य पदत्वं युज्येतापि, स ह्यर्थप्रतीत्यौपयिकः क्रमान्तरे अर्थप्रतीत्यभावात् / पदक्रमस्य तु वाक्यार्थप्रत्ययानौपयिकस्य कथं वाक्यत्वम् ? औपयिकत्वे वा क्रमभेदे वाक्यार्थभेदः स्यादित्याह तावत्सु इति / " -मी० श्लो० न्यायर वाक्या० श्लो०५३-५५ / "बुद्धिर्वाक्यमित्यत्रापि भाववाक्यं द्रव्यवाक्यं वा?" '-अष्टसह० पृ० 285 / प्रमेयक० पृ० 460 / 1 तदुष्टं श्र०, ब०। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 742 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [.. प्रवचनपरि० सिद्धसाध्यता; पूर्वपूर्ववर्णज्ञानाहितसंस्कारस्यात्मनो वाक्यार्थग्रहणपरिणतस्य अन्त्यवर्णश्रवणानन्तरं वाक्यार्थावबोधहेतोबुद्ध्यात्मनो भाववाक्यस्य अस्माभिरपीष्ठत्वात् / द्रव्यवाक्यरूपतां तु बुद्धेः कः सुधीः श्रद्दधीत प्रतीतिविरोधात् ? एतेन 'अनुसंहृतिर्वाक्यम्' इत्यपि चिन्तितम् ; यथोक्तपदानुसंहृतिरूपस्य चेतसि 5 परिस्फुरतो भाववाक्यस्य परामर्शात्मनोऽभीष्टत्वात् / 'आद्यं पदमन्त्यमन्यद्वा पदान्तरापेक्षं वाक्यम्' इत्यपि नोक्तवाक्याद् भिद्यते; परस्परापेक्षपदसमुदायस्य निराकाङ्क्षस्य वाक्यत्वप्रसिद्धः, अन्यथा पैदस्य वार्ताप्युच्छिंद्येत / "येऽपि मन्यन्ते-पदान्येव पदार्थप्रतिपादनपूर्वकं वाक्यार्थावबोधं विदधानानि वाक्यव्यपदेशं प्रतिपद्यन्ते (1) "संहृतसकलक्रमस्यैकस्यादेशप्रदेशत्वेऽप्यन्तरात्माऽन्तर्यामीत्येवमाख्यायमानस्य प्रतिप्राणिवृत्तेः शब्दतत्त्वस्याक्षरचिह्नादिभिरिवाऽतथाभूतैः क्रमवद्भि गर्योऽयं बुद्धेरनुसंहारः क्रमशः पूर्वपूर्वभागग्राहिणीभिः बुद्धिभिजनितो य संस्कारस्त उपन्नस्य स्मरणस्य बलादन्त्यवर्णभागग्रहणतुल्यकाल: स वाक्यमिति ।"-स्या० र० पृ० 646 / (2) तुलना-"भाववाक्यस्य यथोक्तपदानुसंहृतिरूपस्य चेतसि परिस्फुरतोऽभीष्टत्वात् ।"-अष्टसह पृ० 285 / प्रमेयक० पृ० 460 / (3) “नियतं साधने साध्य क्रिया नियतसाधना। स सन्निधानमात्रेण नियमः सन् प्रकाशते ॥-साधनं साध्यञ्च परस्परं नियतमेव, केवलमाकाङ्क्षादिवशादितरपदार्थसन्निधाने सति नियमः सन्नेव प्रकाशते इत्याक्षिप्तपदान्तराणि पदान्येव वाक्यम्, पदार्थाश्च वाक्यार्थ इति अव्यतिरिक्तः संघातपक्षोऽयम् / ... गुणभावेन साकाङ्क्षं तत्र नाम प्रवर्तते। साध्यत्वेन निमित्तानि कियापदमपेक्षते ॥"-वाक्यप० 214849 / (4) तुलना-"एवमाद्यन्तसर्वेषां पृथक् संघातकल्पने / अन्योऽन्यानुग्रहाभावात पदानां नास्ति वाक्यता // आद्यं यदि पदं सर्वैः संस्क्रियेत विशेषतः / ततस्तदेव वाक्यं स्यादन्यश्च द्योतको गुणः // एवमन्त्येषु सर्वेषु पृथग्भूतेष्वस्थितम् / स्वतन्त्रेषु हि वाक्यत्वं कथञ्चिन्नोपलक्षितम् ॥"-मी० श्लो० वाक्या० श्लो० 49-51 / "इत्यपि नाकलङ्कोक्तवाक्याद् भिद्यते, तथा परस्परापेक्षपदसमुदायस्य निराकाङक्षस्य वाक्यत्वसिद्धेः ।"-अष्टसह० पृ० 385 / प्रमेयक० पृ. 460 / स्या० र० पृ० 646 / (5) मीमांसकाः / "नानपेक्ष्य पदार्थान् पार्थगर्थ्येन वाक्यमर्थान्तरप्रसिद्धम् / कुतः ? प्रमाणाभावात् / न च किंचन प्रमाणमस्ति येन प्रमिमीमहे / न ह्यनपेक्षितपदार्थस्य वाक्यान्त्यवर्णस्य पूर्ववर्णजनितसंस्काररहितस्य शक्तिरस्ति पदार्थेभ्योर्थान्तरे वर्तितुमिति / पदानि हि स्वं स्वं पदार्थमभिधाय निवृत्तव्यापाराणि / अथेदानी पदार्था अवगताः सन्तः वाक्यार्थं गमयन्ति / कथम् ? यत्र हि शुक्ल इति वा कृष्ण इति गुणः प्रतीतो भवति, भवति खल्वसावलं गुणवति प्रत्ययमाधातुम् / तेन गुणवति प्रत्ययमिच्छन्तः केवलं गुणवचनमुच्चारयन्ति / सम्पत्स्यत एषां यथा संकल्पितोऽभिप्रायः, भवष्यति विशिष्टार्थसंप्रत्ययः / विशिष्टार्थसंप्रत्ययश्च वाक्यार्थः ।"-शाबरभा० 121225 / "साक्षाद्यद्यपि कुर्वन्ति पदार्थप्रतिपादनम् / वर्णास्तथापि नैतस्मिन् पर्यवस्यन्ति निष्फले // वाक्यार्थमितये तेषां प्रवृत्ती नान्तरीयकम् / पाके ज्वालेव काष्ठानां पदार्थप्रतिपादनम् ॥"-मी० श्लो० वाक्या० श्लो० 342-43 / “तस्मात्पदाभिहितः पदार्थः लक्षणया वाक्यार्थः प्रतिपाद्यते ।"-शास्त्रदी० पृ० 604 / “तस्मान्न वाक्यं न पदानि साक्षात् वाक्यार्थबद्धि जनयन्ति किन्तु / पदस्वरूपाभिहितैः पदार्थः संल्लक्ष्यतेऽसाविति सिद्धमेतत् ॥"न्याय० मा० पृ० 102 / / 1-धीति विरो-ब012 चैतस्य परि-श्र० पदवार्ता-श्र014-द्यते आ०। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] वाक्यलक्षणविचारः 743 __ "पदार्थानां तु मूलत्वमिष्टं तैद्भावभावतः।" [मी० श्लो० वाक्या० श्लो० 111] “पदार्थपूर्वकस्तस्माद् वाक्यार्थोऽयमवस्थितः / " [ मी० श्लो० वाक्या० श्लो० 336 ] इत्यभिधानात्; तैरपि विवक्षितपदानामन्योन्यापेक्षाणां प्रदान्तरानाकाङ्क्षाणां वाक्यार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वमुच्यते, तद्विपरीतानां वा ? तत्र उत्तरपक्षे अतिप्रसङ्गः। प्रथमपक्षे तु अन्धसर्पबिलप्रवेशन्यायेन अस्मदुक्तवाक्यलक्षणानुसरणमेव / / ___ किश्च, वाक्यार्थः पदार्थादन्यः, अनन्यो वा ? यदि अनन्यः; तदा पदार्थ एवासौ म वाक्यार्थः। तत्रैव 'वाक्यार्थः' इति नामकरणे बँकम्बलस्य 'कूलिका' इति नामकृतं स्यात् / अान्योऽसौ क्रियाकारकसंसर्गरूपः; ननु तथाभूतोऽसौ किं नित्यः, अनित्यो वा ? यद्यनित्यः; किं विवक्षितपदार्थैर्जन्यते, पदार्थान्तरैर्वा ? पदार्थान्तरोत्पाद्यत्वे स्वसिद्धान्तविरोधः। विवक्षितपदार्थोत्पाद्यत्वे त एव उत्पादकाः त एव ज्ञापकाः स्युः, 10 तत्र च किं पूर्व ज्ञापयन्ति पश्चादुत्पादयन्ति, किं वा पूर्वमुत्पादयन्ति तदनु ज्ञापयन्ति ? प्रथमकल्पनायाम् असति वाक्यार्थे मेये के ते ज्ञानमुत्पादयेयुः ? उत्पादयतां वा, तेषां न तज्ज्ञानं प्रमाणम् अविद्यमानविषयत्वात् केशोण्डुकादिज्ञानवत् / अथ असन्तमपि तं कर्त्तव्यतया ते प्रतिपादयन्ति तेनायमदोषः; ननु 'किंस्वरूपेयं तत्कर्त्तव्यता नार्म-भावरूपा, अभावरूपा, उभयरूपा, अनुभयरूपा व ? यदि भावरूपा; तदा विद्य- 15 (1) "सिद्धान्तमाह-अत्राभिधीयते यद्यप्यस्ति मूलान्तरं न नः / पदार्थानां तु मूलत्वं दृष्टं तद्भावभावतः। सत्यं न वाचकं वाक्यं वाक्यार्थस्योपपद्यते // यद्यपि प्रत्येकं पदं संहतानि वा साक्षान्न मलं तथा जातिः सम्बन्धज्ञानं सावयवनिरवयवाक्यानि तथापि पदार्थाः पदैः प्रत्याथिताः प्रत्यासत्त्यपेक्षया योग्यत्वसनाथा मूलं भविष्यन्ति, तद्भावे वाक्यार्थप्रत्ययस्य भावादिति ।"-मी० श्लो० न्यायर० वाक्या० श्लो. 110-11 / उद्धृतोऽयम्-सन्मति० टी० पृ०७४३ / 'तद्भावनावतः'-प्रमेयक० पृ० 461 / (2) अन्योन्यानपेक्षत्वे पदत्वमेव स्यान्न वाक्यत्वम्, पदान्तराकाङ क्षत्वे वाक्याऽपरिसमाप्तिः। (3) 'तेप्यन्धसर्पबिलप्रवेश'-प्रमेयक पृ० 461 / (4) तुलना-"यद्यसौ पदार्थादभिन्नः तदा पदार्थ एव स्यान्न वाक्यार्थः तथा च कुतः पदार्थगम्यता? अथ क्रियाकारकसंसर्गरूप: पदार्थादर्थान्तरं वाक्यार्थः, नन्वसावपि यद्यनित्यः तदा कारकसंपाद्यः, पदार्थसंपाद्यो वा ?"-सन्मति० टी० पृ० 742 / (5) "स्वकम्बलस्य कर्दालिकेति नामान्तरकरणमात्रं स्यात् ।"-अष्टसह०प०९। (6) "पदार्थोत्पाद्यत्वेऽपि य एव पदार्थास्तस्योत्पादकास्त एव यदि ज्ञापकाः, तदा पूर्व कि ज्ञापकाः उत उत्पादका इति वक्तव्यम्।"-सन्मति० टी० पृ०७४२ / (7) विवक्षितपदार्थाः / (8) क्रियाकारकसंसर्गम् / “भावनव हि वाक्यार्थः सर्वत्राख्यातवतया। अनेकगुणजात्यादिकारकार्थानुरञ्जिता। पदार्थाहितसंस्कारचित्रपिण्डप्रसूतया। पदार्थपदबुद्धीनां संसर्गस्तदपेक्षया ॥"-मी० श्लो० वाक्य० श्लो० 330-33 / (9) "कर्तव्यतया ते तं ज्ञापयन्तीति चेन्न; तस्यामपि भावाभावोभयानुभयविकल्पानतिक्रमात् ।"-सन्मतिः टी० पृ०७४२। (10) "आद्यविकल्पे तत्कर्तव्यताया भावस्वभावतया विद्यमानवाक्यार्थविषया चोदना स्यात. तथा च विद्यनोपलम्भनत्व-सत्सम्प्रयोगजत्वोपपत्तेः अध्यक्षवन्न भावना अर्थविषया स्यात।"सन्मति० टी० पृ० 742 / 1 तद्भावतः श्र०12 कृते श्र० / 3-किंरूपेयं ब०, श्र०। 4 तदा विद्यमानार्थ-श्र०, तथा विद्यमानार्थ-ब०। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 744 ___ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० मानरूपार्थगोचरा चोदना प्राप्ता। न च तत्रास्याः प्रामाण्यमिष्टम् ; अनिष्टसिद्धिप्रसङ्गात् / विद्यमानस्य कर्त्तव्यता च स्ववचनविरुद्धा। अभावरूपतायामपि एतदेव दूषणम् , अस्यापि स्वरूपेणाविद्यमानत्वात् / तद्रूपस्य खरविषाणवत् कर्त्तव्यताविरोधात् / अभावे चोदनायाः प्रामाण्यानभ्युपगमाच्च / उभयरूपतापि अनेनैव प्रत्युक्ता / अनुभ__ यरूपतायां तु चोदनायां निर्विषयत्वादप्रामाण्यमेव स्यात् / न च अनुभयरूपता एकस्यै कदोपपन्ना; विधिप्रतिषेधधर्मयोरेकतरप्रतिषेधे अन्यतरविधेरवश्यंभावित्वात् / अथ पूर्वमुत्पादयन्ति तदनु ज्ञापयन्ति ; तर्हि विद्यमानविषयत्वात् तत्रास्याः प्रामाण्यानुपपत्तिः / एतेन नित्यवाक्यार्थपक्षः प्रत्युक्तः; विद्यमानार्थविषयतया अप्रामाण्यानुषङ्गाविशेषात् / किञ्च, प्रसिद्ध पदे वाक्ये वा पदार्थैवाक्यार्थाभिव्यक्तिर्वक्तुं युक्ता, नच तत् 10 प्रसिद्धम् / तद्धि वर्णेम्यो भिन्नम् , अभिन्नं वा स्यात् ? यद्यभिन्नम् ; तदा वर्णा एव, पदवाक्यद्वयमेव वा / भेदेऽपि तद् दृश्यम् , अदृश्यं वा ? अदृश्यत्वे ततोऽर्थप्रतीतिर्न स्यात् / अज्ञाताज्ञा ( ताज्ज्ञा ) पकादर्थप्रतीतावतिप्रसङ्गात्, प्रतीत्यनुपरमानुषङ्गाच्च / नापि दृश्यम् ; वर्णव्यतिरिक्तस्य तस्यानुपलम्भात् / नहि देवदत्तादिवर्णेषु तद्व्यतिरिक्त निरंशमेकं पंदं वाक्यं वोपलभामहे / किञ्च, तत् पदं वाक्यं वा स्वातन्त्र्येण प्रतीयते,वर्णद्वारेण वा ? न तावत् स्वातन्त्र्येण; वर्णाऽश्राविणोऽपि पदवाक्यप्रतीतिप्रसङ्गात् / वर्णद्वारेणापि सावयवस्यास्र्यं प्रतीतिः स्यात् , निरवयवस्य वा ? सावयवत्वे प्रागुक्तमेव पदवाक्यलक्षणमङ्गीकृतं स्यात् , अन्योन्यापेक्षाणां वर्ण-पदान्तरानपेक्षणां कालप्रत्यासत्तिलक्षणस्य समूहस्यैव सावयवपद वाक्यरूपतोपपत्तेः / अथ निरवयवम् ; तत्किं समस्तेम्यो वर्णपदेभ्यः प्रतीयते, व्यस्ते20 भ्यो वा ? न तावत्समस्तेभ्यः, उच्चरितप्रध्वंसिनां "तेषां सामस्त्यासंभवात् / नापि व्यस्तेभ्यः; प्रथमवर्णपदश्रवणकालेपि सकलपदवाक्यप्रतीतिप्रसङ्गतः शेषवर्णपदोच्चा (1) विद्यमानार्थे / (2) चोदनायाः। (3) विद्यमानोपलम्भनत्वेन सत्सम्प्रयोगजत्वापत्त्या प्रत्यक्षत्वमेव स्यात् / (4) “अभावस्य तुच्छतया कर्तुमशक्तेः अतुच्छत्वेऽपि स्वेन रूपेण विद्यमानत्वात् कर्तव्यताऽसंभवात् / नचाभावविषयं चोदनाया: परैः प्रामाण्यमभ्युपगम्यते, अभावप्रमाणविषयत्वाच्च अभावस्य, तद्विषयत्वे चोदनाया अनुवादकत्वात् अप्रामाण्यप्रसङ्गश्च ।"-सन्मति० टी० पृ०७४२। (5) अभावस्यापि / (6) अविद्यमानस्य / (7) विद्यमानार्थविषयत्वेन चोदनाया: प्रत्यक्षाद्यवगतार्थगोचरत्वात् अप्रामाण्यप्रसक्तेः।"-सन्मति० टी० पृ०७४२ / (8) "अथ नित्यो वाक्यार्थः पदार्थः प्रतिपाद्यते; नन्वेवं विद्यमानार्थगोचरत्वं चोदनायाः स्यात्, तथा च त्रिकालशून्यकार्यरूपार्थविषयविज्ञानोत्पादिका चोदनेत्यभ्युपगमव्याघातः ।"-सन्मति० टी० पृ०७४२ / (9) प्रत्यक्षाद्यन्तर्गतत्वात् अपूर्वार्थबोधकत्वाभावतः प्रामाण्यानुपपत्तिरिति भावः / (10) पदम् / (11) अज्ञातपदस्य सुप्तमूच्छितादेश्चार्थप्रतीतिः स्यात् / (12) अज्ञातज्ञापकादर्थप्रतीतौ हि सत्यामपि एकपदार्थप्रतीतो अन्यस्मादज्ञातपदात् पुनरर्थप्रतीतिप्रसङ्ग इति प्रतीत्यनुपरमः / (13) पदस्य। (14) पदस्य वाक्यस्य वा / (15) वर्णानाम् / 1 अतान्यातान ज्ञापका-आ०, अज्ञावापका-श्र०12-दर्थे प्र-ब०।-तावप्यतिप्रं-ब०, श्र०। 4 पवाक्यं श्र०।। चोपलंभा-ब०. वोपलंभा-श्र०। 6-तीयेत ब०। / Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५ ] स्फोटवादः 745 रणवैयर्थ्यप्रसक्तेः / अथ सकलवर्णसंकारवत्या अन्त्यवर्णबुद्ध्या वाक्यावधारणमिष्यते; नन्वसौ बुद्धिः किं स्मरणम् , उत अध्यक्षम् ? न तावत् स्मरणम् ; अंगृहीताऽन्त्यवर्णग्राहकत्वात् / नापि प्रत्यक्षम् ; अविद्यमानपूर्ववर्णविषयत्वात् / अथ पूर्ववर्णस्मरणअन्त्यवर्णग्रहणाभ्यामेकं विकल्पज्ञानं जन्यते, तेनीवधारणम् ; नन्वेतत् प्रमाणम्, न वा? प्रमाणश्चेत् ; किं प्रत्यक्षाद्यन्यतमत्, प्रमाणान्तरं वा ? न तावत् तदन्तरम् ; प्रमाणसंख्या- 5 व्याघातप्रसङ्गात् / नापि प्रत्यक्षाद्यन्यतैमत्; तत्रे तदन्यतमरूपतायाः प्रत्यभिज्ञानविचारावसरे प्रतिव्यूढत्वात् / अथ कल्पनाज्ञानमेवेदं न प्रमाणम् ; कथमतस्तत्त्वसिद्धिः अतिप्रसङ्गात् ? वाक्यस्य वा काल्पनिकत्वानुषङ्गाद् वास्तवत्वानुपपत्तिः। ततो यथोक्तलक्षणमेव पदं वाक्यं वा अभ्युपगन्तव्यम् तस्यैव प्रसाधितप्रामाण्ये प्रत्यभिज्ञाने प्रतिभासनादिति / 10 ननु वर्णपदवाक्यानामर्थप्रतिपादकत्वाभावात् तल्लक्षणप्रणयनमनुपपन्नम् ; स्फोट स्फोट एवार्थप्रतिपाद- एव हि अर्थप्रतिपादको न वर्णाः। "ते हि समस्ताः, व्यस्ता वा को न तु वर्णाः इति तत्प्रतिपादकाः स्युः ? यदि व्यस्ताः; तदा एकेनापि वर्णेन गवाद्यर्थवैयाकरणादीनां पूर्व- प्रतिपत्तेः उत्पादितत्वात् द्वितीयादिवर्णोच्चारणानर्थक्यम् / अथ पक्षः समस्ताः; तन्न; क्रमोत्पन्नप्रध्वंसिनां तेषां सामस्त्यासंभवात् / न च 15 . (1) पूर्ववर्णबुद्धयगृहीतस्य अन्त्यवर्णस्य ग्राहकत्वान्नास्य स्मृतिरूपता, पूर्वानुभवानुसारित्वास्मृतेः। (2) प्रत्यक्षस्य च विद्यमानार्थग्राहकत्वात् / (3) प्रत्यक्ष / (4) विकल्पज्ञानेन। (5) प्रत्यक्षस्मरणजनितविकल्पज्ञाने प्रत्यभिज्ञानरूपे / (6) प्रत्यक्षाद्यन्यतरूपतायाः। (7) 10 416 / (8) पूर्ववर्णस्मरण अन्त्यवर्णप्रत्यक्षजनिते। (9) “पदं पुनर्नादानुसंहारबुद्धिनिर्ग्राह्यमिति, वर्णा एकसमयासंभवित्वात्परस्परनिरनुग्रहात्मानः ते पदमसंस्पृश्यानवस्थाप्य आविर्भूतास्तिरोभूताश्चेति प्रत्येकमपदस्वरूपा उच्यन्ते / वर्ण: पुनरकैक: पदात्मा सर्वाभिधानशक्तिप्रचित: सहकारिवर्णान्तरप्रतियोगित्वाद् वैश्वरूप्यमिवापन्नः पूर्वश्चोत्तरेण उत्तरश्च पूर्वेण विशेषेऽवस्थापित इत्येवं बहवो वर्णाः क्रमानुरोधिनोऽर्थसङ्केतेनावच्छिन्ना इयन्त एते सर्वाभिधानशक्तिपरिवृत्ता गकारीगारविसर्जनीयाः सास्नादिमन्तमथं द्योतयन्तीति, तदेतेषामर्थसङ्कतेनावच्छिन्नानामुपसंहृतध्वनिक्रमाणां य एको बुद्धिनिर्भासः तत्पदं वाचकं वाच्यस्य संकेत्यते / तदेकं पदमेकबुद्धिविषय एकप्रयत्नाक्षिप्तमभागमक्रममवर्ण बौद्धमन्त्यवर्णप्रत्ययव्यापारोपस्थापितं परत्र प्रतिपिपादयिषया वर्ण रेवाभिधीयमानः श्रूयमाणैश्च श्रोतृभिरनादिवाग्व्यवहारवासनानुविद्धया लोकबुद्धचा सिद्धवत्संप्रतिपत्त्या प्रतीयते ।"-योगभा०३।१७ / तत्त्वव०, भास्वती, योगवा० 3 / 17 / 'नानेकावयवं वाक्यं पदं वा स्फोटवादिनाम् / निरस्तभेदं पदतत्वमेतत् ।"-स्फोटसि० का० 29, 36 / “एकाकारधिया तावद्वर्णेभ्योऽभ्यधिकं पदम् ।"-स्फोट० भा० पृ० 1 / गौरित्यादिषु विज्ञानमेकं पदमिति स्फुटम् ।"-स्फोट० न्या० पृ०१ / “तत्त्वतस्तु वाक्यमेवाखण्डमयूराण्डकललवदविभागं भिन्नार्थप्रतीतिहेतुभूतं स्फोटाख्यमभ्युपगन्तव्यम् ।"-स्फोटप्र० / "इत्यनवयवः प्रत्यस्तमितवर्णपदविभागो वाक्यस्फोट एव श्रेयान् ।"-स्फोटतत्त्वम्। "तस्मादेकवर्णात्मकोऽखण्डवाक्यस्फोटो वाचक इति सिद्धम् ।"-स्फोटच० / "वर्णातिरिक्तो वर्णाभिव्यङग्योऽर्थप्रत्यायको नित्यः शब्दः स्फोट इति तद्विदो वदन्ति / अत एव स्फुटयते व्यज्यते वर्णरिति स्फोटो वर्णाभिव्यङ ग्यः, स्फटति 1 अन्त्यबुद्धचा आ० / 2-तमं प्र-ब०।-तमं तत्र ब० / 4-वेदमप्र-श्र०। 5-वाल्लक्ष-ब०। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 746 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० युगपदुत्पन्नानां तेषां समुदायकल्पना युक्ता; एकपुरुषापेक्षया युगपत्तदुत्पत्तेरेवाऽसंभवात् , प्रतिनियतस्थानकरणप्रयत्नप्रभवत्वात्तेषाम्। न च विभिन्नपुरुषप्रयुक्तगकारौकारविसर्जनीयानां समुदायेऽपि अर्थप्रतिपादकत्वं प्रतीयते; प्रतिनियतवर्णक्रमप्रतिपत्त्युत्तरकालभावित्वेन शाब्दप्रतिपत्तेः प्रतिभासनात् / न च अन्त्यो वर्णः पूर्ववर्णानुगृहीतो वर्णानां क्रमोत्पादे सति अर्थप्रतिपादकः; पूर्ववर्णानाम् अन्त्यवर्णं प्रति अनुग्राहकत्वानुपपत्तेः / तद्धि अन्त्यवर्णं प्रति जनकत्वं तेषां स्यात् , अर्थज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वं वा ? न तावज्जनकत्वम् ; वर्णाद् वर्णोत्पत्तेरभावात् प्रतिनियतस्थानकरणादिसाध्यत्वात्तस्याः, वर्माभावेऽपि आद्यवर्णोत्पत्तिप्रतीतेश्च / नापि अर्थज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वं तेषामन्त्यवर्णानुग्राहकत्वम् ; असतां सहकारित्वस्यैवासंभ10 वात् / यथा च अन्त्यवर्णं प्रति पूर्ववर्णाः सहकारित्वं न प्रतिपद्यन्ते तथा तज्जनित स्फुटीभवत्यस्मादर्थ इति स्फोटोऽर्थप्रत्यायक इति स्फोटशब्दार्थमुभयथा निराहुः ।"-सर्वद० पृ० 300 / "वाक्यस्फोटोऽतिनिष्कर्षे तिष्ठतीति मतस्थितिः / यद्यपि वर्णस्फोट: पदस्फोट: वाक्यस्फोटः अखण्डपदवाक्यस्फोटौ वर्णपदवाक्यभेदेन त्रयो जातिस्फोटाः इत्यष्टौ पक्षाः सिद्धान्तसिद्धा इति वाक्यग्रहणमनर्थकं दुरर्थकञ्च, तथापि वाक्यस्फोटातिरिक्तानामन्येषामप्यवास्तत्वबोधनाय तदुपादनमत एवाहअतिनिष्कर्ष इति ।"-वैयाकरणभू० पृ० 294 / परमलघु० 102 / "तादृशमध्यमानादव्यङग्यः शब्द: स्फोटात्मको ब्रह्मरूपः नित्यश्च ।"-परमलघु० 1028 / (10) "प्रत्येकमप्रत्यायकत्वात् साहित्याभावात् नियतक्रमवर्तिनामयोगपद्येन सम्भूयकारित्वानुपपत्तेः, नानावक्तृप्रयुक्तेभ्यश्च प्रत्यया. दर्शनात् क्रमविपर्यये यौगपद्ये च / तस्माद् वर्णव्यतिरेकी वर्णेभ्योऽसम्भवन्नर्थप्रत्ययः स्वनिमित्तमुपकल्पयति ।"-स्फोटसि० पृ० 28 / "ते खल्वमी वर्णाः प्रत्येकं वाच्यविषयां धियमादधीरन् नागदन्तका इव शिक्यावलम्बनम्, संहता वा ग्रावाण इव पिठरधारणम् ? न तावत्प्रथमः कल्पः; एकस्मादर्थप्रतीतेरनुत्पत्तेः उत्पत्तौ वा द्वितीयादीनामनुच्चारणप्रसङ्गः / वर्णानां तु योगपद्याभावोऽतः परस्परमनुग्राह्यानुग्राहकत्वायोगात् संभूयापि नार्थधियमादधते।"-योगभा० तत्त्ववै० 1117 / “वर्णानां प्रत्येक वाचकत्वे द्वितीयादिवर्णोच्चारणानर्थक्यप्रसङ्गात् / आनर्थक्ये तु प्रत्येकमुत्पत्तिपक्षे यौगपद्येनोत्पत्त्यभावात् / अभिव्यक्तिपक्षे तु क्रमेणौवाभिव्यक्त्या समुदायाभावात् एकस्मृत्युपारूढानां वाचकत्वे सरो रस इत्यादौ अर्थप्रतिपत्त्यविशेषप्रसङ्गात् तद्वयतिरिक्तः स्फोटो नादाभिव्यङग्यो वाचकः ।"-महाभा० प्र० पृ० 16 / "तत्र तावद् गकारादेरेकैकस्मान्न वाच्यधीः। उदेति यदि चेदस्ति प्रथमेनैव गादिना // वर्णेनोच्चरितेनेह गवाद्यर्थाभिधानतः / उच्चारणं द्वितीयादिवर्णानां स्यान्निरर्थकम् // तदुच्चारणसामर्थ्य नैकैकस्मात्ततोऽर्थधीः। समुदायोऽपि वर्णेषु क्रमज्ञातेष्वसम्भवी। नानावक्तृप्रयुक्तेभ्यो नच सा दश्यतेऽर्थधीः / यौगपद्येऽपि वर्णेभ्यो नापि क्रमविपर्यये।"-स्फोट० न्या० पृ० 2 / सर्वद०प० 299 / (1) वर्णानाम् / (2) अनुग्राहकत्वम्। (3) पूर्ववर्णानाम् / (4) वर्णोत्पत्तेः / (5) पूर्ववर्णा नाम / (6) 'क्व पूनरियं सहायता, यदा न विसर्जनीयसमये वर्णान्तरोपलब्धिरस्ति ? कार्ये खलु व्यापारतः सहायता; न चासतस्तदानीं व्यापृतिरस्ति / स्वकालेऽपि च व्यापारस्तदानीमेव प्रध्वंसान्नेदानीन्तनकार्योपजनननिमित्तम् ।"-स्फोटसि०प० 33 / "असतां पूर्ववर्णानां तदानीं व्यापृतिः कथम् / असतामपि साहाय्यं वर्णानां यदि विद्यते॥ केवलान्त्यप्रयोगेऽपि भवेदेवाभिधेयधीः।"-स्फोट० न्या० पृ० 4 / (7) पूर्ववर्णजनितज्ञानानि / 1 शब्दप्रति-ब०। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 747 प्रवचनप्र० का० 65 ] . स्फोटवादः संवेदनान्यपि तत्प्रभवसंस्काराश्च; तेषामपि तत्कालेऽसत्त्वाऽविशेषात् / किश्च, संवेदनप्रभवसंस्काराः स्वोत्पादकसंवेदनविषये स्मृतिहेतवः न तु अर्थान्तरे ज्ञानमुत्पादयितुं समर्थाः। न खलु घटज्ञानप्रभवः संस्कारः पटे स्मृति विदधत् दृष्टः / न च तत्संस्कारप्रभवस्मृतीनां तत्सहायता युक्ता; तासां युगपदुत्पत्त्यभावात् , अयुगपदुत्पन्नानाञ्च अवस्थित्यसंभवात् / न च अखिलसंस्कारप्रभवैका स्मृतिः संभवति; 5 अन्योन्यविरुद्धानेकार्थानुभवप्रभवसंस्काराणामपि एकस्मृतिजनकत्वप्रसङ्गात् / न च अन्यवर्णानपेक्ष एव 'गौः' इत्यत्र अन्त्यो वर्णः अर्थप्रतिपादकः; पूर्ववर्णोच्चारणवैय ानुषङ्गात् , * घंटशब्दान्त्यव्यवस्थितस्याप्यस्य ककुदादिमर्थप्रतिपादकत्वप्रसङ्गाच्च / तन्न वर्णाः समस्ता व्यस्ता वा अर्थप्रतिपादकाः संभवन्ति / अस्ति च गवादिशब्देभ्योऽर्थप्रतीतिः, अतस्तदन्यथानुपपत्त्या वर्णव्यतिरिक्तः अर्थप्रतीतिहेतुः स्फोटोऽभ्युप- 10 (1) पूर्ववर्णजनितसंवेदनप्रभवसंस्काराः। "अर्थधीकृन्न संस्कारो न तच्छक्तिर्न तज्जधीः / न तस्यापूर्वकल्पस्य कल्पकं जनकं फलम् ॥"-स्फोटसि० भा० पृ० 18 / (2) पूर्ववर्णजनितज्ञानानां तत्प्रभवसंस्काराणाञ्च / (3) अन्त्यवर्णकाले / (4) "संस्काराः खलु यद्वस्तुरूपप्रख्याप्रभाविताः / विज्ञानहेतवस्तत्र ततोऽर्थे धीन कल्प्यते // संस्कारा खलु यद्वस्तूपलम्भसंभावितात्मानः तत्रैव नियतनिमित्तलब्धप्रतिबोधा धियमाविर्भावयन्ति नार्थान्तरे / न हि जातु गवावग्रहप्रत्ययप्रभावितः संस्कारोऽश्वस्मरणमुपकल्पयति ।"-स्फोटसि० पृ० 44 / "स्मृतिफलप्रसवानुमितस्तु संस्कारः स्वकारणानुभवविषयनियतो न विषयान्तरे प्रत्ययमाधातमत्सहते, अन्यथा यत्किञ्चिदेवैकमनुभूय सर्वः सर्व जानीयादिति ।"-योगसू० तत्त्ववै०३।१७ / “पूर्ववर्णग्रहणजसंस्कारसंहितादन्त्यवर्णात्तदर्थधीरिति चेत्; तदपि न; वस्त्वन्तरग्रहणजस्य संस्कारस्य वस्त्वन्तरज्ञानजनकत्वादर्शनात् ।"-स्फोटसि० भा० 1016 / (5) 'नचैकस्मृत्युपारोहात् समुदायस्य संभवः / वर्णेषु क्रमबुद्धेषु युगपत्स्मृत्यसंभवात् / संभवेऽपि च तेष्वेव विपरीतक्रमेष्वपि गकारादिषु विज्ञानं गौरित्येकं प्रसज्यते ।"-स्फोट० न्या०.०१ / “अन्यैस्तु सकलवर्णोपलब्धिनिबन्धननिखिलभावनाबीजजन्मा युगपदखिलवर्णरूपपरामर्शी चरमवर्णप्रत्यक्षोपलब्धिसमनन्तरः स्मरणकरूपः सङ्गीर्यते; क्रमसमधिगतात्मसु न युगपदनुस्मरणमित्यपि मिथ्या।"-स्फोटसि० पृ० 61 / (6) "न च प्रत्येकवर्णानुभवजनितसंस्कारपिण्डलब्धजन्मस्मृतिदर्पणसमारोहिणो वर्णाः समधिगतसहभावा वाचका इति साम्प्रतम् ; क्रमाक्रमविपरीतक्रमानुभूतानां तत्राविशेषेणार्थधीजननप्रसङ्गात् ।”योगसू० तत्त्ववै० पू० 322 / “पूर्वोपलब्धिभेदेऽपि भवेदर्थस्य दर्शनम् / एकोपलब्धौ नैतेषां भेदः कश्चन लक्ष्यते // पूर्वोपलब्धयो हि क्रमविशेषवत्यः परिगृहीताभिमतविपरीतानुपूर्गा अक्रमाश्चैकवक्तृप्रयुक्तवर्णविषया विपरीताश्च न पश्चाद् भाविन्यां समस्तवर्णावभासिन्यामुपलब्धावनुविपरिवर्तमानान् वर्णात्मनो भिन्दन्ति ।"-स्फोटसि०ए०६५। "एवं तर्हि सर्वसंस्कारजा सकलवर्णग्राहिण्यका स्मतिरर्थधीहेतु:; तदपि न; क्रमप्रत्यस्तमयेन जराराजेत्यादावर्थाविशेषप्रसङ्गात् ।"-स्फोटसि० भा०प०१८॥ "तुल्यत्वाद् यौगपद्यस्य तदा नार्थधियो भिदा। सरोरसनदीदीनजराराजादिषु स्फुरेत् ॥"-स्फोट. न्या० पृ० 10 / (7) "न चान्त्यवर्णमात्रस्य पुरःसम्बन्धवेदनम् / अक्षवातिवृत्तत्वात् संस्कारस्य न तद्वतः // विदितसङ्गतयो हि शब्दा यथास्वमर्थान् प्रकाशयन्ति / नचान्त्यवर्णमात्रमर्थसम्बन्धितया प्रतिपद्यन्ते पुरस्तात् ।"-स्फोटसि० पृ० 105 / (8) "गौरश्व इति वा केवलोच्चारणे वा को विसर्जनीयस्य भेदः यत्कृतोऽर्थभेदः प्रत्ययभावाभावौ च ।"-स्फोटसि०ए०३३ / (9) विसर्जनीयस्य / 1 तेषां तत्का-आ०। 2 घटप्रभवः श्र०। 3-नानां वा स्थित्य-श्र०। 4-नुभवसंस्का-ब। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 748 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० गन्तव्यः, प्रत्यक्षतः तस्यैव अवभासमानत्वात् / विभिन्नतनुषु हि वर्णेषु अभिन्नाकारं श्रोत्रान्वयव्यतिरेकानुविधाय्यध्यक्षं स्फोटसद्भावमेव अवभासयति / नहि तद् वर्णविषयम् ; वर्णानामन्योन्यव्यावृत्तरूपतया अभिन्नाकारावभासिप्रत्यक्षोत्पादनसामर्थ्यासंभ वात् / नापि सामान्यविषयम् ; गकारौकारविसर्जनीयेषु वर्णत्वव्यतिरेकेण अपरसामा5 न्यस्याऽसंभवात् / वर्णत्वस्य च प्रतिनियतककुदादिमदर्थप्रतिपादकत्वानुपपत्तेः / न चेदं भ्रान्तम् ; अबाध्यमानत्वात् / न चाबाध्यमानप्रत्ययगोचरस्यापि स्फोटस्य असत्त्वं युक्तम् ; अवयविद्रव्यादेरपि असत्त्वप्रसङ्गात् / नित्यश्चासौ अभ्युपगन्तव्यः / अनित्यत्वे सङ्केतकालानुभूतस्य तदैव ध्वस्तत्वात् कालान्तरे देशान्तरे च गोशब्दश्रवणात् ककुदादिमदर्थप्रतीतिर्न स्यात् / असङ्के10 तिताच्छब्दात् अर्थप्रतीतरेसंभवात् / संभवे वा द्वीपान्तरादागतस्य गोशब्दाद् गवार्थ प्रतिपत्तिप्रसङ्गात् सङ्केतकरणवैयेयं स्यात् / ननु 'देवदत्त गामभ्याज' इत्यादि वाक्यस्फोट अन्तरालेष्वपि शब्दप्रतिपत्तयः संवेद्यन्ते अतस्तत्रापि तावद्दा (द्धा) स्फोटः कल्पनीयः तथा च स्वमतव्याघातः, तस्याऽखण्डस्यैकस्य तत्र प्रसिद्धेः; इत्यप्यचोद्यम् ; अन्तरालप्रत्ययानां स्फोटाभिव्यक्तिहेतुतया विभिन्नस्फोटायोग्यत्वात् / यथैव हि पुनः पुन (1) “तत्र प्रत्यक्षं तावत्प्रसिद्धमेव, गौरित्युच्चारणे सत्येकमेवेदं पदमित्येकाकारविज्ञानोदयात् / न चेदं वर्णमात्रविषयं भवितुमर्हति ; तेषां भिन्नानामभ्रान्तकाकारज्ञानविषयत्वायोगात् / न चेदं भ्रान्तम् ; भ्रान्तिनिमित्ताभावात् ।"-स्फोटसि० भा० पृ०१। "प्रत्यक्षज्ञाननियता व्यक्ताव्यक्तावभासिता / मानान्तरेषु ग्रहणमथवा नैव हि ग्रहः // इन्द्रियं हि व्यक्तावभासिनोऽव्यक्तावभासिनश्च प्रत्ययस्य हेतुः यथा दूराद् ग्रहणे सूक्ष्मार्थनिरूपणायाञ्च / लिङ्गशब्दादयस्तु निश्चितात्मानं प्रत्ययमुपजनयन्त्येकरूपं नैव वा तत्र व्यक्ताव्यक्तग्रहणबुद्धिभेदः / अर्थश्च शाब्दप्रत्ययावसेयः, स्फोटात्मा तु प्रत्यक्षवेदनीय इति निरवद्यम् ।"-स्फोटसि० पृ० 169 / (2) "न च समुच्चयज्ञानोपारोहिवर्णनिबन्धनार्थबोधाभिप्रायं 'शब्दादर्थं प्रतिपद्यामहे' इति,नापि शब्दजात्यभिप्रायम् / तथाहि-नेक्षिता जातिशब्दानां समुदायानुपातिता। जातिमाचक्षते ते हि व्यक्तिर्वा जातिसङ्गता // न तावदिदं शब्दजात्यभिप्रायम् / न शब्दजातितोऽर्थप्रतीतिः; गवाश्वादिपदेषु तदविशेषादभिधेयाविशेषप्रसङ्गात् / "नापि शब्दव्यक्त्यभिप्रायम्; तद्भेदात् गोशब्दादित्येकवचनानुपपत्तेः ।"-स्फोटसि० पृ०७३ / (3) "अनादिनिधनं शब्दब्रह्मतत्त्वं यदक्षरम् ।"-वाक्यप० 121 / (4) "यतः प्रत्येकमपि तेऽविकलं स्फोटात्मानमभिव्यञ्ज. यन्ति / न चेतरनादवैयर्थ्यम्; अभिव्यक्तिभेदात् / तथाहि-पूर्वे ध्वनयः अनुपजातभावनाविशेषमनसः प्रतिपत्तुः अव्यक्तरूपोपग्राहिणीः उत्तरव्यक्तपरिच्छेदोत्पादानुगुणभावनाबीजवापिनीः प्रख्याः प्रादुर्भावयन्ति, पश्चिमस्तु पुरस्तनध्वनिनिबन्धनाव्यक्तपरिच्छेदप्रभावितसकलभावनाबीजसहकारि स्फुटतरविनिविष्टस्फोटबिम्बमिव प्रत्ययमतिव्यक्ततरमुद्भावयन्ति / यथा रत्नपरीक्षिणः परीक्षमाणस्य प्रथमसमयाधिगमानुपाख्यातमनुपाख्येयरूपप्रत्ययोपाहितसंस्काररूपाहितविशेषायां बुद्धौ क्रमेण चरमे चेतसि चकास्ति रत्नतत्त्वम्।"-स्फोटसि० पृ० 129 / स्फोट० न्या० पृ० 20 / स्फोटसि० भा० पृ० 21 / “अभिव्यजकोऽपि प्रथमो ध्वनिः स्फोटमस्फुटमभिव्यनक्ति, उत्तरोत्तराभिव्यञ्जकक्रमेण स्फुटं स्फुटतरं स्फुटतमम् / यथा स्वाध्यायः सकृत् पठ्यमानो नावधार्यते, अभ्यासेन तु स्फुटावसायः, यथा वा रत्नतत्त्वं प्रथमप्रतीतौ स्फुटं न चकास्ति चरमे चेतसि यथावदभिव्यज्यते ।"-सर्वद० पु० 303 / . 1-यर्थ्यञ्च स्यात् श्र०। 2 तावद्वास्फो-श्र०, तावस्फो-आ० / Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवनचप्र० का 0 65] स्फोटवादः 746 रुच्चार्यमाणोऽनुवाकग्रन्थः श्लोको वा आवृत्या सुखेनैव अवधारयितुं शक्यते न तु सकृदुच्चरितः प्रतिगताऽऽवृत्तिः, तथैवायं स्फोटलक्षणः शब्दः अन्तरालप्रत्ययैः सत्यप्रतिभासकल्पैः तद्ग्रहणानुगुणोपायभूतैः अभिव्यज्यते / अन्त्येन हि ध्वनिना सह पूर्वभाविभि दै: आहितसंस्कारायां बुद्धौ अयं स्फुरन्नेव अवधार्यते / उक्तञ्च“यथाऽनुवाकः श्लोको वा सोढत्वमुपगच्छति / श्रावृत्त्या नैतु स ग्रन्थः प्रत्यावृत्तिनिरूप्यते // 5 पैंत्ययैरनुपाख्येयैर्ग्रहेणानुगुणैस्तथा / ध्वनिप्रकाशिते शब्दे स्वरूपमवधार्यते / नादेनाहितबीजायामन्त्येन ध्वनिना सह / आवृत्ति(त्त परिपाकायां बुद्धौ शब्दोऽवभासते॥" [वाक्यय० 1183-85 ] इति ॥छ॥ (1) ऋग्यजुःसामसमूहः-इत्यमरः / "वेदविशेष इति सूभूतिः"-शब्दकल्पद्रुमः / (2) व्याख्या-"सोढत्वमेकबुद्धिविषयत्वम्, एवं वर्णपदवाक्यविषयाः प्रयत्नविशेषसाध्या ध्वनयो वर्णपदवाक्याख्यान स्फोटान पुनः पुनराविर्भावयन्तो बुद्धिष्वध्यारोपयन्ति "नत्वेतावता आनन्त्यं स्फोटानाम्,यथावृत्तौ न श्लोकाद्यानन्त्यम् / तदेवाह-न तु प्रत्यावृत्त्या स ग्रन्थः श्लोकसमुदायात्मको भेदेन निरूप्यत इत्यर्थः / तत्रान्त्यया ध्वनिना सम्यग्बुद्धौ निवेशः / यच्चानुपगृहीतविशेष बुद्धावसन्निविष्टं तावदनुपलब्धमेव / नहि तेन कश्चिदपि व्यवहारः प्रकल्प्यते।"-वाक्यप० पु० टी० / वाक्यप०.७० / 'अनुवाक इति वैदिकं वाक्यम्, सोढत्वमिति सोढुं शक्यत्वं बुद्ध्याक्रमणीयता स्वीकार्यत्वम्, येन स्वेच्छयाऽसौ पठनीयो भवति / आवृत्येति जातावेकवचनम्, आवृत्तिरेकैकापि उपयुज्यते उत्तरोत्तरविशेषाधानाय, अन्यथा एकावृत्त्यैव सोढता स्यादिति / "यथा ह्यनुवाक: श्लोको वा पुनः पुनरावृत्त्या सुखेनावधारयितुं शक्यते / न च प्रत्यावृत्तिस्तत्र ईदृशी बुद्धिरुपजायते यथेदं गृहीतमिदं नेति / अथ चानेकावृत्तौ श्लोकाद्यवभासः स्पष्टः संवेद्यते तथैवायमपि शब्दात्मा पुनः पुनरभिव्यक्तस्फोटरूपोऽवधार्यते, न च प्रत्यभिव्यक्तिस्तत्रेदशी बुद्धिरुपजायते इदं गृहीतमिदं नेति / अथवाऽनेकाभिव्यक्तौ स्फोटावभासः स्पष्ट: संवेद्यते ।"-स्या० 20 पृ० 650 / “अनुवाको वैदिकः श्लोकस्तु लौकिकः, सोढत्वं जितत्वं वशतामिति यावत्"-स्फोटसि० टी० पृ० 132 / (3) 'प्रत्यावृत्त्या'-वाक्यप०, 'प्रत्यावृत्ति नि'वाक्यप० ब्र, स्फोटसि० / प्रकृतपाठ:-स्या०र० / न्यायवि०वि०५० 576 B. 'प्रत्यावृत्तिनिरुच्यते'-प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 359 / (4) "यथा श्लोक एकदा प्रकाशितोऽनवधारितोऽन्यदा प्रकाशने त्ववधारणसहो भवति पुनः पुनः प्रकाशने त्ववधार्यते / तथा वाक्यं पूर्वध्वनिभावानभिव्यक्तमपि नावधारितम्, तेन पूर्वपूर्ववाक्याभिव्यक्त्याहितैस्तु संस्कारक्यावधारणं प्रति प्रत्ययभूतैरन्त्यवर्णश्रवणकाले तदवधार्यते, तस्माद्वर्णेनानुक्रमवताऽक्रमस्य वाक्यव्यक्तियुज्यत एव ।"-प्रमाणवा० स्वत टो० पृ० 359 / “व्यक्तरूपग्रहणानुगुणा अनुपाख्येयाकाराः (इदं तदिति तस्य बुद्धयारूढस्याख्यातुमशक्यत्वात् ) बहवः उपायभूताः प्रत्ययाः ध्वनिभिः प्रकाश्यमाने शब्दे समुत्पद्यमानाः शब्दस्वरूपावग्रहहेतवो भवन्ति ।"-वाक्यप० वृ०। (5) 'ग्रहणानुग्रहैः'-ध्वन्या० टी० 1316 / प्रकृतपाठः-स्फोटसि०, प्रमाणवा०स्व०टी०. स्या०र०, न्यायवि०वि०। (6) "नादैः शब्दात्मानमवद्योतयभिः यथोत्तरोत्कर्षेणाधीयन्ते व्यक्तपरिच्छेदानुगुणसंस्कारभावनाबीजानि, ततश्चान्त्यो ध्वनिविशेषः परिच्छेदसंस्कारभावनाबीजवृत्तिलाभप्राप्तयोग्यतापरिपाकायां बुद्धौ उपग्रहेण शब्दस्वरूपाकारं सन्निवेशयति ।"-वाक्यप०००। वाक्यप० पु० टी०। 'नादैराहित'-वाक्यप०, स्फोटसि०, प्रमाणवा० स्ववृ० टी०, स्या०र०, न्यायवि० वि०, सर्वद० / प्रकृतपाठः-तत्वसं० पृ०७२२, पं० पृ० 636 / प्रमेयक० पृ० 456 / (7) "आवृत्तः 1-वादकन-आ० / 2 शक्योच्यते श्र०। 3 अन्येन ब०, श्र० / 4 स्फोटत्व-आ०, ब०, श्र० / 5 ननु आ०, ब०। 6 इति नाहित-श्र० / Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 750 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'स्फोट एव' इत्यादि; तदसमीक्षिताभिधानम् ; स्फोटनिरसनपुरस्सरं पूर्ववर्णध्वंसविशिष्टाद् अन्त्यवर्णादर्थप्रतिपत्तेरुपपत्तितः स्फोटस्य अर्थवर्णानामेव अर्थप्रति- प्रतिपादकत्वानुपपत्तेः / न च अभावस्य सहकारित्वं न दृष्टम् ; पादकत्वप्रतिपादनम्- वृन्तफलसंयोगाभावस्य अप्रतिबद्धगुरुत्वफलप्रपातक्रियाजनने तदैर्शनात् , तथा प्राक्तनसंयोगाभावविशिष्टं कर्म उत्तरसंयोगं कुर्वत् प्रतीतम् , परमाण्वग्निसंयोगश्च परमाणौ तद्रूतपूर्वरूपप्रध्वंससहकृतो रक्ततामुत्पादयन् दृष्टः / यद्वा पूर्ववर्णविज्ञानाभावविशिष्टः तज्ज्ञानजनितसंस्कारसव्यपेक्षो वा अन्त्यो वर्णः अर्थप्रतीत्युत्पादकः / परिपाको यस्या इति, परिपाक: कार्योत्पादन प्रति विशिष्ट आत्मलाभः"-वाक्यप० वृ० टी०। "आवृत्तोऽभ्यस्त: परिपाको यस्याः सा तथोक्ता, प्रथमेन ध्वनिना किञ्चिद्भावनाबीजमाहितम्, तेन च कश्चित्परिपाक: कार्यजननशक्तिविशेषः एवं द्वितीयेनेति / यद्यपि परिपाका भिन्नाः तथापि जातिमाश्रित्यावृत्तवाचोयुक्तिः अष्टकृत्वो ब्राह्मणा भुक्तवन्त इतिवत् / आवृत्तेत्यस्यान्या व्याख्या-आवृत्तेन वावृत्त्या कषायपरिपाको यस्यामिति / क्वचित्तु आवृत्तीति पाठः / बुद्धावन्तःकरणे . शब्दोऽवधार्यते अन्त्येन ध्वनिना सह, यदा अन्त्यो ध्वनिरवधार्यते तदा गौरित्येवं शब्दोऽप्यवधार्यत इत्यर्थः ।"-स्फोटसि० टी० पृ० 132 / 'आवृत्तपरि'-वाक्यप०, स्फोटसि०, प्रमाणवा० स्ववृ० टी०, तत्त्वसं० पृ० 722 / सन्मति० टी० पृ० 435 / स्फोटत०१०९। 'आवृत्तिपरि-तत्त्वसं० पं० पु० 636 / प्रमेयक० पृ० 456 / स्या० र० पृ० 650 / न्यायवि० वि०पू० 576 B. I (8) 'शब्दोऽवधार्यते'-वाक्यप० / स्फोटसि० / प्रमाणवा० स्ववृ० टी०। तत्त्वसं०५०। स्या० 20 / सर्वद०। प्रकृतपाठः-तत्त्वसं० 10722 / प्रमेयक० / सन्मति० टी० / न्यायवि०वि०। (1) पृ०७४५ पं० 11 // (2) तुलना-“अन्ये तु पूर्ववर्णानां तज्ज्ञानानाञ्च अतीतानामप्यन्त्यवर्णसहकारित्वमन्वयव्यतिरेकोपपत्तेः / तथाहि-वर्तमानस्य कारणत्वमन्वयव्यतिरेकाभ्यां विज्ञातम् एवमतीतस्यापि / यदि वा पूर्ववर्णविनाशास्तज्ज्ञानप्रध्वंसाश्च समीपवर्तिनोऽन्त्यवर्णसहकारिण:।"-प्रश० व्यो० पृ०५९५। प्रमेयक० पृ०४५३। “तत्र पूर्वे वर्णाः अतीता अप्युपकरिष्यन्ति, चरमवर्णस्तु वर्तमान इतीदृश एवायं काल्पनिकः क्रियाक्षणसमूह इव वर्णसमूहोऽर्थप्रत्यायकः।"-न्यायमं० पू० 376 / 'अर्थप्र तिपत्तिस्तु उपलभ्यमानात् पूर्ववर्णध्वंसविशिष्टादन्त्यवर्णात् / न चाभावस्य सहकारित्वं विरुद्धम्। वृन्तफलसंयोगाभावस्येवाप्रतिबद्धगुरुत्वफलप्रपातक्रियाजनने, दृष्टञ्चोत्तरसंयोगं विदधत् प्राक्तनसंयोगाभावविशष्टं कर्म, परमाण्वग्निसंयोगश्च परमाणौ तद्गतपूर्वरूपप्रध्वंसविशिष्टो रक्ततामुत्पादयन् / " -सन्मति० टी० पृ० 433 / (3) सहकारित्व / (4) परमाणुगतश्यामरूप / (5) “यद्वा उपलभ्यमानोऽन्त्यवर्णः पूर्ववर्णविज्ञानाभावविशिष्ट: पदरूपतामासादयन् पदार्थे प्रतिपत्ति जनयति ।"सन्मति० टी० पृ० 433 / प्रमेयक० पृ० 453 / (6) “पूर्ववर्णजनितसंस्कारसहितोऽन्त्यो वर्णः प्रत्यायकः।"-शाबरभा० 11115 / "वाक्यस्थेषु खलु वर्णेषूच्चरत्सु प्रतिवर्णं तावच्छ्रवणं भवति, श्रुतं वर्णमेकमनेकं वा पदभावेन प्रतिसन्धत्ते, प्रतिसन्धाय पदं व्यवस्याति / पदव्यवसायेन स्मृत्या पदार्थ प्रतिपद्यते, पदसमूहप्रतिसन्धानाच्च वाक्यं व्यवस्यति, सम्बद्धांश्च पदार्थान् गृहीत्वा वाक्यार्थं प्रतिपद्यते ।"-न्यायभा० 3 / 2060 / “अन्त्यवर्णप्रत्ययात् पूर्ववर्णप्रतिसन्धानप्रत्ययापेक्षादर्थप्रत्ययः ।"न्यायवा०प० 310-16 / 'पूर्ववर्णानुगृहीतस्यान्त्यवर्णस्य स्वानुभवसहकारिणोऽर्थप्रतिपादकत्वात् ।"प्रश० व्यो० पृ० 595 / "यद्वा पूर्ववर्णसंस्कारस्मरणयोरन्यतरसापेक्षोऽन्त्यो वर्णः प्रत्यायकः ।"-प्रश० कन्द० पृ० 270 / प्रमेयक०पू०४५३ / “प्राक्तनवर्णसंवित्प्रभवसंस्कारसव्यपेक्षो वा"-सन्मति० टी० पृ० 433 / “तत्तद्वर्णसंस्कारसहितचरमवर्णोपलम्भेन तद्वयञ्जकेनैवोपपत्तेरिति ।"-मुक्ता० शब्दख० / Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५ ] स्फोटवादः 751 ननु संस्कारस्य कथं विषयान्तरे ज्ञानजनकत्वम् ? इत्यप्यचोद्यम् ; इत्थमेव वाक्यार्थप्रतीतेरुपलब्धेः / पूर्ववर्णविज्ञानप्रभवसंस्कारश्च प्रेणालिकया अन्त्यवर्णसहायतां प्रतिपद्यते; तथाहि-प्रथमवर्णे तावद्विज्ञानम् , तेन च संस्कारो जन्यते, ततो द्वितीयवर्णविज्ञानम् , तेन च पूर्ववर्णज्ञानाहितसंस्कारसहितेन विशिष्टः संस्कारो जन्यते, एवं तृतीयादावपि योजनीयम् , यौवदन्त्यः संस्कारः अर्थप्रतीतिजनकान्त्यवर्णसहायः / / अथवा, शैब्दार्थोपलब्धिनिमित्तादृष्टप्रतिनियमाद् अविनष्टा एव पूर्वसंविदः तत्संस्काराश्च अन्त्यवर्णसंस्कारं विदधति / तथाभूतसंस्कारप्रभवस्मृतिसव्यपेक्षो वा अन्त्यो (1) अर्थप्रतीतो। यद्विषयको हि संस्कारः तद्विषयामेव स्मृति विदधातीति नियमात / शब्दविषयकश्च संस्कारः शब्दस्मृतिमेव विदधीत नतु अर्थप्रतीतिमिति भावः। तुलना-'यद्यपि स्मृतिहेतुत्वं संस्कारस्य व्यवस्थितम् / कार्यान्तरेषु सामर्थ्य न तस्य प्रतिषिध्यते // ननु हेतोः कथं कार्यान्तरे सामर्थ्यमत आह-यद्यपि इति। संभवति टकस्याप्यनेकत्र सामर्थ्य कर्मवत्संयोगविभागयोरिति ।"-मी० श्लो० न्यायर० पृ० 536 / “यतः पदार्थे प्रतीत्यनुगुणतया प्रत्येकमनुभवैराधीयमाना वर्णविषयाः संस्काराः स्मृतिहेतुसंस्कारविलक्षणशक्तय एवाधीयन्ते, तथाभूतानामेव तेषां कार्येणाधिगमात्"-प्रश० कन्द०१० 271 / (2) तुलना-"तथा चैकस्मिन् वर्णे ज्ञाते तेन क्रियते संस्कारः, पुद्वितीयवर्ण ज्ञानम्, तेनापि पूर्ववर्णसंस्कारसहकारिणा संस्कार इति क्रमेणान्त्यवर्णज्ञानम्, तस्मात् पूर्वसंस्काराभिव्यक्तावशेषवर्णा• नुस्मरणे सत्यन्त्यवर्णादर्थप्रतिपत्तिः ।"-प्रश० व्यो० पृ० 595 / प्रमेयक० पृ० 453 / सन्मति०टी० 10433 / “स्मृत्यारूढान्येव सर्वपदानि वाक्यार्थमवगमयिष्यन्ति / तत्र चेयं कल्पना वर्णक्रमेण तावत् प्रथमपदज्ञानं ततः संकेतस्मरणं संस्कारश्च युगपद् भवतः / ज्ञानयोहि यौगपद्यं शास्त्रे प्रतिषिद्धं न संस्कारज्ञानयोः। ततः पदार्थज्ञानं तेनापि संस्कारः, पुनर्वर्णक्रमेण द्वितीयपदज्ञानं ततः संकेतस्मरणं पूर्वसंस्कारसहितेन च तेन पटुतरः संस्कारः पुनः पूर्ववर्णक्रमेण तृतीयपदज्ञानं संकेतस्मरणं पूर्वसंस्कारापेक्षः पटुतरः संस्कारः, पुनः पूर्ववर्णक्रमेण तृतीयपदज्ञानं संकेतस्मरणं पूर्वसंस्कारापेक्ष: पटुतरः संस्कारः इत्येवं पदज्ञानजनिते पीवरे संस्कारे पदार्थज्ञानजनिते च तादृशि संस्कारे स्थिते अन्त्यपदार्थज्ञानानन्तरं पदसंस्कारात् सर्वपदविषयस्मृतिः, पदार्थसंस्काराच्च पदार्थविषया स्मृतिरिति संस्कारक्रमात् क्रमेण द्वे स्मृती भवतः / तत्रैकस्यां स्मृतावुपारूढ: पदसमूहो वाक्यमितरस्यामुपारूढः पदार्थसमूहो वाक्यार्थः / अथवा कृतं स्मरणकल्पनया अन्त्यपदार्थज्ञानानन्तरं सकलपदपदार्थविषयो मानसोऽनुव्यवसायः शतादिप्रत्ययस्थानीयो भविष्यति। तदुपारूढानि पदानि वाक्यं तदुपारूढश्च पदार्थो वाक्यार्थः ।"-न्यायमं०१० 394-95 / (3) तुलना-"अन्ये तु शब्दार्थोपभोगप्रापकादृष्टनियमिताः पूर्ववर्णानुभवजनितसंस्काराः पूर्ववर्णेष्वेकं स्मरणमारभन्ते तत्सहकारी चान्त्यो वर्णः पदम् / यदि वा संस्कारमेकं विचित्रमारभन्ते तस्माच्च पूर्ववर्णेष्वेकं स्मरणमिति ।"-प्रश० व्यो० पृ० 595 / प्रमेयक० पृ० 453 / सन्मति० टी० 10 433 / (4) तुलना-"यद्वा प्रत्यक्षतः पूर्व क्रमज्ञातेषु यत्परम् / समस्तवर्णविज्ञानं तदर्थज्ञानकारणम् / अन्त्यवर्णेऽपि विज्ञाते पूर्वसंस्कारकारितम् / स्मरणं योगपद्येन सर्वेष्वन्ये प्रचक्षते // सर्वेष चैवमर्थेषु मानसं सर्ववादिनाम् / इष्टं समुच्चयज्ञानं क्रमज्ञानेषु सत्स्वपि // न चेत्तदाऽभ्युपेयेत क्रमदृष्टेषु नैव हि / शतादिरूपं जायेत तत्समुच्चयदर्शनम् // तेन श्रोत्रमनोभ्यां स्यात् क्रमाद्वर्णेषु यद्यपि / पूर्वज्ञानं परस्तात्तु युगपत्स्मरणं भवेत् // तदारूढास्ततो वर्णा न दूरेऽर्थावबोधनात् / शब्दादर्थमतिस्तेन लौकिकरभिधीयते ।"-मी० श्लो० स्फो० श्लो० 109,112-116 / तत्त्वसं० का० 2720-25 / 1-ब्धेः ज्ञानाहितसंस्कारश्च आ०। 2-वर्णेन ता-आ०। 8 तेन च पूर्ववर्णविज्ञानं तेन विशिष्ट: संस्कारो ब०। 4 यावदन्त्यसंस्का-आ०। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 752 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० वर्णः पदार्थप्रतिपत्तिहेतुः। वाक्यार्थप्रतिपत्तावपि अयमेव न्यायो द्रष्टव्यः / वर्णाद् वर्णोत्पत्त्यभावप्रतिपादनञ्च सिद्धसाधनमेव / तदेवं यथोक्तसहकारिकारणसव्यपेक्षादन्त्यवर्णाद् अर्थप्रतिपत्तेः अन्वयव्यतिरेकाभ्यां निश्चयात् स्फोटपरिकल्पनाऽनर्थिकैव, तदभावेऽपि अर्थप्रतिपत्तेः उक्तप्रकारेण संभवे अन्यथानुपपत्तेः प्रक्षयात् / न खलु 5 दृष्टादेव कारणात् कार्योत्पत्तौ अदृष्टतदन्तरपरिकल्पना युक्तिसङ्गता अतिप्रसङ्गात् / किञ्च, यदि उपलभ्यमाना वर्णा व्यस्ताः समस्ता वा नार्थप्रतिप्रत्तिजननसमर्थाः, तैदा स्फोटाभिव्यक्तावपि न समर्थाः स्युः / तथाहि-न समस्तास्ते स्फोटमभिव्यञ्जयन्ति उक्तप्रकारेण तेषां सामस्त्यासंभवात् / नापि व्यस्ताः; वणान्तरोच्चारणानर्थक्यप्रसङ्गात्, एकेनैव वर्णेन स्फोटाभिव्यक्तेः कृतत्वात् / न च पदार्थान्तरप्रतिपत्तिव्यवच्छेदार्थ 10 तदुच्चारणम् इत्यभिधातव्यम् ; तेदुच्चारणेऽपि तत्प्रतिपत्तिप्रसक्तेरवश्यम्भावित्वात् / "तथाभूतसंस्कारप्रभवस्मृतिसव्यपेक्षो वाऽन्त्यो वर्णः पदार्थप्रतिपत्तिहेतुः ।"-प्रमेयक. 10.454 / "तस्मात्पूर्ववर्णेषु स्मृतिरुपजाता अन्त्यवर्णेनोपलम्यमानेन सहार्थप्रतिपत्तिमत्पादयति ।"-सन्मति० टी० / पृ० 433 / द्रष्टव्यम्-पु. 750 टि०६ / (1) "क्रमोपलब्धेष्वपि वर्णेषु मानसमनुव्यवसायरूपमखिलवर्णविषयं सङ्कलनाज्ञानं यदुपजायते तदर्थप्रत्ययनाङ्गं भविष्यति ।"-न्यायमं० पृ० 376 / “सत्यपि समस्तवर्णप्रत्यवमर्शे यथा क्रमानुरोधिन्य एव पिपीलिकाः पङक्तिबुद्धिमारोहन्ति एवं क्रमानुरोधिन एव वर्णाः पदबुद्धिमारोक्ष्यन्ति / तत्र वर्णानांमविशेषेऽपि क्रमविशेषकृता पदविशेष प्रतिपत्तिन विरुध्यते / वृद्धव्यवहारे चेमे वर्णाः क्रमाद्यनुगृहीता गृहीतार्थविशेषसम्बन्धाः सन्तः स्वव्यवहारेऽप्येकैकवर्णग्रहणानन्तरं समस्तप्रत्यवमशिन्यां बुद्धौ तादृशा एव प्रत्यवभासमानास्तं तमर्थमव्यभिचारेण प्रत्याययिष्यन्तीति वर्णवादिनो लघीयसी कल्पना।"ब्रह्म शां० भा० 103 / 28 / "ते हि पूर्वमनुभूताः प्रत्येकमनुभूतताक्रमोपसृष्टाः एकबुद्धिसमारोहिण: शक्नुवन्त्यर्थधियमाधातुम्।"-न्यायवा० ता० पृ० 470 / (2) तुलना-"वर्णाद्वर्णोत्पत्त्यभावप्रतिपादनञ्च सिद्धसाधनमेव / तदेवं यथोक्तसहकारिकारणसव्यपेक्षादन्त्याद्वर्णादर्थप्रतिपत्ति: अन्वयव्यतिरेकाभ्यामपजायमानत्वेन निश्चीयमाना स्फोटपरिकल्पनां निरस्यति तदभावेऽप्यर्थप्रतिपत्तेरुक्तप्रकारेण संभवेऽन्यथानुपपत्तेः प्रक्षयात् / नहि दृष्टादेव कारणात् कार्योत्पत्तावदृष्टतदन्तरपरिकल्पना युक्तिसङ्गता अतिप्रसङ्गात्।"-सन्मति० टी० पु० 433 / प्रमेयक० पृ० 454 / (3) 'यस्यानवयवः स्फोटो व्यज्यते वर्णबुद्धिभिः। सोऽपि पर्यनुयोगेन नैवैतेन विमुच्यते // तत्रापि प्रतिवर्णं पदस्फोटो न गम्यते / नचावयवशो व्यक्तिस्तदभावान्न चात्र धीः // प्रत्येकञ्चाप्यशक्तानां समुदायेप्यशक्तता।"-मी० श्लो. स्फो० श्लो०९१-९३ / “न समस्तैरभिव्यज्यते; समुदायानभ्युपगमात् / न व्यस्तैः; एकेनैवाभिव्यक्तौ शेषोच्चारणवैयर्थ्यप्रसङ्गात् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 595 / “पदस्फोटो नित्यो निरंशः सर्वगतोऽमर्तः किमनभिव्यक्त एवार्थप्रतिपत्तिहेतुरभिव्यक्तो वा ? प्रथमपक्षे वर्णोच्चारणानर्थक्यम्। द्वितीयपक्षे तु पदस्फोटोऽभिव्यज्यमानः प्रत्येक वर्णेनाभिव्यज्यते वर्णसमूहेन वा ?"-युक्त्यनु० टी० ए० 96 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 426 / प्रमेयक० पृ० 454 / सन्मति० टी० पृ० 433 / (4) वर्णानाम् / (5) "वर्णान्तरोच्चारणादपि पदार्थान्तरप्रतिपत्तेरेवानुषङ्गात् / यथाहि गौरिति पदस्यार्थो गकारोच्चारणात् प्रतीयत तथा औकारोच्चारणाद् औशनस इति पदस्थार्थः प्रतिपद्येत / आद्येन गकारेण गौरिति पदस्येव प्रथमौकारेण औशनस इति पदस्य स्फोटस्य अभिव्यक्तेः / तथा च गौरिति पदादेव गौरौशनस इति वाक्यार्थप्रतिपत्तिः प्रसज्येत / संशयो वा स्यात्"-युक्त्यनु० टी०१० 96 / प्रमेयक पृ० 454 / 1 बुद्धिः संगता ब०, युक्तिः संगता आ० / 2 तथा आ०, ब०। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५ ] स्फोटवादः 753 यथाहि गौरिति पदस्यार्थो गकारोच्चारणात् प्रतीयते तथा औकारोच्चारणाद् औशनस इति पदार्थोऽपि, तथा च गौरिति पदादेव 'गौः' 'औशनसः' इत्यर्थद्वयं प्रतीयेत / संशयो वा स्यात्-'किं पदान्तरस्फोटव्यवच्छेदेन एकपद स्फोटाभिव्यक्तये गवाद्यनेकवर्णोच्चारणम् , किंवा अनेकपदस्फोटाभिव्यक्तये अनेकाद्यवोच्चारणम्' इति / नच पूर्ववर्णैः स्फोटस्य संस्कारे अन्त्यो वर्णस्तस्य व्यञ्जकः इति न वर्णान्तरोच्चारणवैयर्थ्यमित्य- 6 भिधातव्यम् ; अभिव्यक्तिव्यतिरिक्तस्य संस्कारस्यैव तत्रानुपपत्तेः / न खलु वेगाख्यः तंत्र तैः संस्कारो विधीयते; मूर्तेष्वेव अस्य संभवात् / नापि वासनारूपः; अँचेतनत्वात् / स्फोटस्य तच्चैतन्याभ्युपगमे वा स्वशास्त्रविरोधः / नापि स्थितस्थापकरूपः; अस्यापि मूर्त्तद्रव्यवृत्तित्वात् , स्फोटस्य च अमूर्त्तत्वाभ्युपगमात् / . किश्च, असौ संस्कारः स्फोट एव, तद्धर्मो वा ? तत्र आद्यविकल्पोऽयुक्तः; स्फोटस्य 10 वर्णोत्पाद्यत्वानुषङ्गात् / द्वितीयविकल्पोऽप्यसंभाव्यः; व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्तविकल्पानुपपत्तेः / स्फोटाद्धि तस्य अव्यतिरेके तत्करणे स्फोट एव कृतो भवेत् , तथा चास्य अनित्यत्वानुषङ्गात् स्वाभ्युपगमक्षतिः / व्यतिरेके तु सँम्बन्धानुपपत्तिः अनुपकारकत्वात् , तस्य तदुपकारकत्वे वा तदुपकारस्यापि ततोव्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तविकल्पप्रसङ्गः, तत्रापि पूर्वोक्तदोषोऽनवस्थाकारी प्रसज्येत / नच व्यतिरिक्तधर्मसद्भावेऽपि स्फोटस्य अनभिव्यक्त- 15 स्वरूपापरित्यागे पूर्ववदर्थप्रतिपत्तिहेतुत्वं घटते अतिप्रसङ्गात, तत्त्यागे वाऽनित्यत्वप्रसक्तिः / किञ्च, वर्णैः संस्कारः स्फोटस्य क्रियमाणः किमेकदेशेन क्रियेत, सर्वात्मना वा ? यदि एकदेशेन; तदा तद्देशानामपि अतोऽर्थान्तरानान्तरपक्षयोः पूर्वोक्तदोषानुषङ्गः। सर्वात्मना संस्कारे तु सर्वत्र सर्वदा सर्वेषां ततोऽर्थप्रतीतिः स्यात् / किञ्च, स्फोटसंस्कारः स्फोटविषयसंवेदनम्, आवरणापनयनं वा ? यदि आवर- 20 (1) तुलना-"अभिव्यक्तिव्यतिरिक्तसंस्कारस्वरूपानधारणात् / तथाहि न तावत्तत्र तैर्वेगाख्यः संस्कारो निर्वय॑ते तस्य मूर्तेष्वेव भावात् / नापि वासनारूपः; अचेतनत्वात् "-सन्मति० टी० 10 433 / प्रमेयक० पू० 454 / (2) स्फोटे / (3) वर्णेः / (4) स्फोटस्य अचेतनत्वात् / (5) "किञ्चासौ संस्कारः स्फोटस्वरूपस्तद्धर्मो वा ?"-प्रमेयक० पृ० 455 / सन्मति० टी०पू० 434 / (6) संस्कारस्य / तुलना-"अपि च साऽभिव्यक्तिः स्फोटादव्यतिरिक्ता व्यतिरिक्ता वा ध्वनिभिः क्रियेत ?"-स्या० र० पृ० 662 / (7) स्फोटस्य। (8) स्फोटस्यायं संस्कार इति / (9) संस्कारस्य। (10) स्फोटोपकारकत्वे। (11) संस्कारकृतोपकारस्यापि। (12) स्फोटात् / (13) अनभिव्यक्तस्वरूपपरित्यागे। (14) तुलना-"किञ्च, आद्यो वर्णध्वनि: शब्दात्मा सकलस्य वा व्यञ्जकः स्यादेकदेशस्य वा? यदि सकलस्य; इतरेषां ध्वनीनामानर्थक्यं स्यात् / अथैकदेशस्य; निरवयवत्वमस्य हीयते ।"-राजवा० 5 / 24 / प्रमेयक० पृ० 455 / सन्मति० टी० पृ० 434 / (15) स्फोटात् / (16) "किञ्च, स्फोटसंस्कारः स्फोटविषयसंवेदनोत्पादनम्, आवरणापनयनं वा?"-प्रमेयक० पृ० 455 / सन्मति० टी० पृ० 434 / 1यथा गौ-श्र०। तदा श्र०। प्रतीयते आ०। एतदन्तर्गत: पाठो नास्ति आ० / 4 धर्मो वा श्र०। 5 स्फोटाद्वैतस्य ब.। 6-दोषानवस्था-श्र०। 7 वानि-ब। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० णापनयनम् ; तदा एकत्रैकदा आवरणापगमे सर्वदेशावस्थितैः सर्वदोपलभ्येत नित्यत्वव्यापित्वाभ्यामपगतावरणस्यास्य सर्वत्र सर्वदोपलभ्यस्वभावत्वात् / अनुपलभ्यस्वभावत्वे वा न कचित् कदाचित् केनचिदुपलभ्येत / अथ एकदेशेन आवरणापगमः क्रियते; नन्वेवम् आवृतानावृतत्वेनास्य सावयवत्वसंभवात् कार्यत्वाऽनित्यत्वे स्याताम् / अथ 5 अविनिर्भागत्वेन एकत्राऽनावृतोऽसौ सर्वत्राऽनावृतोऽभ्युपगभ्यते; तर्हि तदवस्थः अशेषदेशावस्थितैरुपलब्धिप्रसङ्गः। यथा च निरवयवत्वात् एकत्राऽनावृतः सर्वत्राऽनावृतः, तथा एकत्र आवृतः सर्वत्राप्यावृत इति मनागपि नोपलभ्येत / अथ स्फोटविषयसंवेदनोत्पादस्तत्संस्कारः; सोऽप्ययुक्तः; वर्णानामर्थप्रतिपत्तिजननवत् स्फोटप्रतिपत्ति. जननेऽपि सामर्थ्यासंभवात् , न्यायस्य समानत्वात् / अथ मतम्-पूर्ववर्णश्रवणज्ञानाहितसंस्कारस्य आत्मनः अन्त्यवर्णश्रवणज्ञानानन्तरं पदादिस्फोटस्य अभिव्यक्तेरयमदोषः; तदप्यपेशलम् ; पैदार्थप्रतिपत्तेरप्येवं प्रसिद्धेः रैफोटकल्पनानर्थक्यात् / चिदात्मव्यतिरेकेण तत्त्वान्तरस्यास्य अर्थप्रकाशनसामर्थ्यासंभवाच्च / स एव हि चिदात्मा विशिष्टशक्तिः स्फोटोऽस्तु, स्फुटति प्रकटीभवति अर्थोऽस्मिन्निति स्फोटः चिदात्मा। पदार्थज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशिष्टः पदस्फोटः, वाक्यार्थ15 ज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशिष्टस्तु वाक्यफोटः, इति भावतः श्रुतज्ञानपरिणतस्य आत्मनस्ताभिधानाविरोधात् / ___'वायवः स्फोटाभिव्यञ्जकाः' इत्यप्यसुन्दरम् ; शब्दाभिव्यक्तिवत् स्फोटाभिव्यक्तेः तेभ्योऽनुपपत्तेः / तेषां तद्व्यञ्जकत्वे च वर्णकल्पनावैफल्यम् , स्फोटाभिव्यक्तौ अर्थप्रति पत्तौ च अमीषामनुपयोगात् / 20 एतेन 'नादेनाहितबीजायाम्' इत्यादि प्रत्याख्यातम् ; नित्यत्वमन्तरेणापि च (1) स्फोटस्य / (2) स्फोटः / (3) "तथैव पदार्थप्रतिपत्तिसिद्धेः स्फोटपरिकल्पनानर्थक्यात् / चिदात्मव्यतिरेकेण तत्त्वान्तरस्य स्फोटस्यार्थप्रकाशनसामर्थ्यानुपपत्तेः। स एव चिदात्मा विशिष्टशक्तिः स्फोटोऽस्तु / स्फोटति प्रकटीभवत्यर्थोऽस्मिन्निति स्फोटश्चिदात्मा। पदार्थज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशिष्ट: पदस्फोट:, वाक्यार्थज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशिष्टो वाक्यस्फोट इति / प्रकरणाह्निकाध्यायशास्त्रादिरङ्गप्रविष्टाङ्गबाह्यविकल्पः स्फोट: प्रसिद्धो भवति, भावश्रुतज्ञानपरिणतस्यात्मनस्तथाभिधानाविरोधात्।"-युक्त्यनु० टी० पु० 97 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 427 / प्रमेयक० 10 456 / (4) तुलना-"स्फोटवादिनस्तु दृष्टहानिरदृष्टकल्पना च। वर्णाश्चेमे क्रमेण गृह्यमाणाः स्फोटं व्यञ्जयन्ति, स स्फोटोऽर्थ व्यनक्तीति गरीयसी कल्पना स्यात् ।"-ब्रह्म शां० भा० 1 / 3 / 28 / (5) 'स्फुटत्यर्थोऽस्मिन् प्रकाशते इति स्फोट:"-तत्त्वार्थश्लो० पृ०४२६। (6) पदवाक्यादिस्फोटरूपेण / (7) "वायनाञ्च व्यञ्जकत्वपरिकल्पने वर्णवैफल्यप्रसक्तिः ।"-सन्मति० टी०पू०४३४। प्रमेयक० पू०४४६। न च स्फोटमभिव्यञ्जन्ति ध्वनयः अचाक्षुषप्रत्यक्षत्वात् गन्धवत्।"-तत्त्वार्थभा० व्या०५।२४। (8) वर्णानाम् / (9) पृ० 749 पं०७। (10) तुलना-"समस्तवर्णसंस्कारवत्याऽन्त्यया बुद्धघा वाक्यावधारणमित्यपि 1 'कदाचित' नास्ति आ०,श्र०। 2 नत्वे आ०, ब०। 3 अन्यवर्ण-श्र०। 4 स्फोटति श्र०। $ एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ०। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 65 ] स्फोटवादः 755 अर्थप्रतिपत्तिर्यथा भवति तथा प्रतिपादितमेव / किञ्च, सिद्धे वर्णोत्पादात् वायूत्पादाद्वा पूर्व स्फोटसद्भावे वर्णानां वायूनां वा तद्व्यञ्जकत्वं युक्तम् , न चास्य सद्भावः कुतश्चित् प्रमाणात् सिद्धः / / यदप्युक्तम् -'प्रत्यक्षतः तस्यैवावभासमानत्वात्' इत्यादि; तदपि श्रद्धामात्रम् ; घंटादिशब्देषु परस्परव्यावृत्तकालप्रत्यासत्तिविशिष्टवर्णव्यतिरेकेण स्फोटात्मनोऽर्थप्रकाश- 5 कस्य अध्यक्षगोचरचारितया [5] प्रतीतेः। न चाभिन्नप्रतिभासमात्रादर्थव्यवस्था युक्ता; अन्यथा दूरान्निविडतरुनिकरे अभेदप्रतिभासादेकत्वव्यवस्था स्यात् / अथास्य बाध्यमानत्वान्नैकत्वव्यवस्थापकत्वम् ; तदन्यत्रापि समानम्, स्फोटप्रतिभासेऽपि अनेकधा बाधकप्रदर्शनात् / यच्चान्यदुक्तम्-'यथानुवाकः श्लोको वा' इत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम् ; दृष्टान्तदा - 10 न्तिकयोः वैषम्यात् / अनुवाक् (क) ग्रन्थादौ हि प्रत्यक्षतः प्रतीतिः, पुनः पुनरुच्चार्यमाणे चास्मिन् आवृत्या अप्रयासेनैवाऽवधारणमनुभूयते,अतस्तत्र तथा तत्कल्पनं युक्तम् ,स्फोटस्तु स्वप्नेऽपि न प्रतीयते, अतः कथं तस्य अन्तरालप्रत्ययैर्व्यङ्ग्यत्वकल्पना ज्यायसी। मिथ्या; तस्यावर्णरूपसंस्पर्शिनः कस्यचित्कदाचिदप्रतिपत्तेः / वर्णानाञ्चाक्रमेणाप्रतिपत्तेः कुतोऽक्रममेकबुद्धिग्राह्यं नाम / नचान्त्यवर्णप्रतिपत्तेरूर्वमन्यमशकलं शब्दात्मानमुपलक्षयामः ।"प्रमाणवा० स्ववृ० 10253 / / (1) "स्थिते च स्फोटस्य वर्णोच्चारणात् प्राक् सद्भावे वर्णानां वायूनां वा व्यञ्जकत्वं परिकल्प्येत / नच तत्सद्भावः कुतश्चित्प्रमाणादवगतः ।"-सन्मति० टी० पृ० 434 / प्रमेयक० पृ० 456 / . (2) पृ०.७४८ पं० 1 / (3) "घटादिशब्देषु परस्परव्यावृत्तानेकवर्णव्यतिरिक्तस्य स्फोटात्मनोऽर्थप्रत्यायकस्यैकस्य अध्यक्षप्रतिपत्तिविषयत्वेनाप्रतिभासनात् .."-सन्मति० टी० पृ० 435 / प्रमेयक० 10 457 / (4) तुलना-"दूरदेशावस्थितस्य हि विरलपदार्थस्य घनरूपताप्रतीतिः उत्तरकालभाविबलिष्ठविरलरूपताप्रत्ययेन बाध्यत इति तत्र घनत्वप्रतीतिवशाद् व्यवस्थाप्यमानं घनत्वमस्त्ववास्तवं कः किमाह / वर्णाद्यवयवाभासस्य तु नोत्तरकालिकं बाधकं किञ्चिच्चेतयामः / " स्या० र० पृ० 658 / (5) पृ० 749 पं०५। (6) तुलना-'यतोऽनुवाकश्लोकी सावयवौ वा स्यातां निरवयवौ वा ? प्रथमपक्षे वैषम्यम् / अनुवाकादौ हि सावयवत्वात् स्फुटोऽस्फुटश्चावभासो युज्यते स्फोटे तु निरवयवत्वान्न तौ संभवतः इति। अपसिद्धान्तप्रसङ्गश्चास्मिन् पक्षे वैषम्यम्-श्लोकानुवाकयोरपि स्फोटरूपत्वेनाभ्युपगतयोर्भवच्छास्त्रे निरवयवत्वेनाभ्युपगतत्वात् / द्वितीयविकल्पे तु देवदत्त गामभ्याजेति वाक्यस्फोटवत् एतावपि पूर्वपूर्वध्वनिजनिताभिव्यक्तिकृतसंस्कारविशेषावन्त्यध्वनिबुद्धौ प्रथमावृत्तावपि स्फुटरं प्रतिभासेयाताम् ।"-स्या०र०पृ०६६० / “योऽपि द्वितीयो दृष्टान्त उदाहारि-यथानुवाकः श्लोको वा प्रथमसंस्थया गृहीतोऽपि संस्थानान्तराभ्यासैः स्फुटतरपरिच्छिन्नो भवति तथा स्फोटोऽपि प्रथमवर्णव्यक्तो वर्णान्तरैरतिशयिताभिव्यक्तिर्भविष्यतीति; सोऽपि न सदृशो दृष्टान्तः श्लोकानुवाकयोरनंशत्वानुपपत्तेः। केचिदवयवा वर्णात्मानः पदात्मानो वा प्रथमायां बुद्धावपरिस्फुरन्तः संस्थाभ्यासलब्धातिशयायां तस्यां प्रकटीभवन्ति, स्फोटस्तु एकवर्ण इव निरंशः इति तत्र को बुद्धेरतिशययोगः तस्मादयमपि न सङ्गतो दृष्टान्तः।"-न्यायम०प०३०९। (7) स्फुटतरतमादिरूपेणाभिव्यक्तिकल्पनम् / 1 पूर्वस्फोट-आ०,ब० / 2 'पुनः' नास्ति आ०। तथावत्कल्प-आ०, तदात्मनत्कल्प-श्र० / 4 प्रतीतोतः ब०, श्र०। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 756 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० किञ्च, वर्णैः तद्बुद्धिभिर्वा व्यङ्ग्यो यदि शब्दस्फोटोऽभ्युपगम्यते; तदा प्रदीपादिना तबुद्ध्या वा व्यङ्ग्यः प्रदीपादिस्फोटोऽप्यभ्युपगम्यतामविशेषात् / प्रत्यक्षादिविरोधात् तदनभ्युपगमे शब्दस्फोटोऽप्यत एव नाभ्युपगन्तव्यः / बाधकानुमानस द्भावाच्च; तथाहि-नं वर्णाः स्फोटं व्यञ्जयन्ति व्यञ्जकत्वात् / अर्थबुद्धिर्वा वर्णपदवाक्य5 प्रभवा तद्भावभावित्वात् धूमादेपूंमध्वजबुद्धिवत् / ____ यदि च अर्थप्रतीत्यर्थो वर्णादिव्यतिरिक्तः शब्दस्फोटोऽभ्युपगम्यते तर्हि गन्धादिस्फोटोऽप्यभ्युपगन्तव्यः। यथैव हि शब्दः कृतसङ्केतस्य क्वचिदर्थे प्रतिपत्तिहेतुः तथा गन्धादिरपि, ‘एवंविधं गन्धमाघ्राय स्पर्शश्च संस्पृश्य रसञ्चास्वाद्य रूपञ्चावलोक्य त्वया एवंविधो ऽर्थः प्रतिपत्तव्यः' इति समयग्राहिणां पुनः कचित्तादृशगन्धाधुपलम्भात् तथाविधार्थप्रति10 पत्तिप्रसिद्धेः गन्धादि विशेषव्यङ्ग्यः गन्धादिस्फोटोऽस्तु वर्णविशेषव्यङ्ग्यपदादिस्फोटवत् / __ एतेन हस्त-पाद-करण-मात्रि(तृका)-अङ्गाहारादिस्फोटोऽपि आपादितो द्रष्टव्यः / नच पदादिस्फोट एव, नतु स्वावयवक्रियाविशेषव्यङ्ग्यो हंसपक्ष्मादिः हस्तस्फोटः, : विकुट्टितादिलक्षणः पादस्फोटः, हस्तपादसमायोगलक्षणः करणस्फोटः, करणद्वयरूपः मात्रि(तृ)कास्फोटः; मात्रि(तृ)कासमूहलक्षणः अङ्गहारस्फोटो वा इति वक्तुं युक्तम् ; तस्यापि (1) “वर्णा वा ध्वनयो वापि स्फोटं न पदवाक्ययोः / व्यञ्जन्ति व्यञ्जकत्वेन यथा दीपप्रभादयः / / सत्त्वात् घटादिवच्चेति साधनानि यथारुचि। लौकिकव्यतिरेकेण कल्पितेऽर्थे भवन्ति हि॥ नार्थस्य वाचकः स्फोट: वर्णेभ्यो व्यतिरेकतः / घटादिवत्, न दृष्टेन विरोधो धर्म्यसिद्धितः ॥"-मी० श्लो० स्फो. इलो० 131-33 / (2) "वर्णोत्था वाऽर्थधीरेषा तज्ज्ञानानन्तरोद्भवा / येदृशी सा तदुत्था हि धूमादेरिव वह्निधीः॥"-मी०श्लो०स्फो०श्लो०१३५॥ तत्त्वसं०का०२७३१॥ (३)“गन्धादिस्फोटस्य तथाभ्युपगमाईत्वात् / यथैव शब्दः वक्तृसंकेतस्य क्वचिदर्थप्रतिपत्तिहेतुः तथा गन्धादिरपि विशेषाभावात् / एवंविधमेव गन्धं समाघाय इत्थमेवंविधोऽर्थः प्रतिपत्तव्यः स्पर्श स्पृश्य रसं वास्वाद्य रूपं वालोक्येत्थम्भूतमीदृशो भावः प्रत्येतव्य इति समयग्राहिणां पुनः क्वचित्तादृशगन्धाधुपलम्भात् तथाविधार्थनिर्णयप्रसिद्धेः गन्धादिज्ञानाहितसंस्कारस्यात्मनः तद्वाक्यार्थप्रतिपत्तिहेतोः गन्धादिपदस्फोटतोपपत्तेः पूर्वगन्धादिविशेषज्ञानाहितसं. स्कारस्यात्मनः अन्त्यगन्धादिविशेषोपलम्भानन्तरं गन्धादिविशेषसमुदायगम्यार्थप्रतिपत्तिहेतोर्गन्धादिवाक्यस्फोटत्वघटनात् ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 427 / प्रमेयक० पृ० 457 / (4) हस्तपादसमायोगो नृत्यस्य करणं भवेत् ।"-नाट्यशा० 4 / 30 / (5) 'द्वे नृत्तकरणे चैव भवतो नृत्तमातृका / नृतस्य अङ्गहारस्यात्मनो मातृका उत्पत्तिकारणम ।"-नाटयशा०४।३१। (6) "अङ्गानां देशान्तरे समुचिते प्रापणप्रकारोऽङ्गहारः हरस्य चायं हारः प्रयोगः, अङ्गनिर्वयों हारः अङ्गहारः। स्थिरहस्तादिभेदेन द्वात्रिशद्विधः / द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिर्वाप्यङ्गहारस्तु मातृभिः // त्रिभिः कलापकं चैव चतुभिर्मण्डकं भवेत् // पञ्चैव'करणानि स्युः सङघातक इति स्मृतः // षड्भिर्वा सप्तभिर्वापि अष्टभिः नवभिस्तथा / करणैरिह संयुक्ता अङ्गहाराः प्रकीर्तिताः॥"-नाटयशा०४।३१.३३ / (7) "पदादिस्फोट एव घटते न पुनः स्वावयवक्रियाविशेषाभिव्यङग्यः हंसपक्ष्मादिर्हस्तस्फोट: स्वाभिधेयार्थप्रतिपत्तिहेतुरिति स्वल्पमतिसन्दर्शनमात्रम् / एतेन वित्कुट्टितादिः पादस्फोट: हस्तपादसमायोगलक्षणः करणस्फोटः करणद्वयरूमात्रिकासहस्रलक्षणः अङ्गहारादिस्फोटश्च न घटते इति वदन्ननभिधेयवचनः प्रतिपादितो बोद्धव्यः, तस्यापि स्वस्वावयवाभिव्यङग्यस्य स्वाभिधेयार्थप्रतिपत्तिहेतोरशक्यनिराकरणात्।"-तस्वार्थश्लो०१४२७ 1-स्फोटोऽभ्यु-ब०।2-ञ्चालोक्य ब०, श्र०। 3-पक्षाविःश्र०। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] अपभ्रंशादीनां वाचकत्वविचारः 757 स्वस्वावयवाभिव्यङ्गयस्य स्वाभिनेयार्थप्रतीतिहेतोरशक्यनिराकरणत्वात् / * तन्निराकरणे वा शब्दस्फोटाग्रहाभिनिवेशो दूरतः परित्याज्यः, आक्षेपसमाधानानामुभयत्र समानत्वात्। ततः स्फोटस्वरूपस्य विचार्यमाणस्य अनुपपद्यमानत्वात् नासौ पदार्थप्रतिपत्तिनिबन्धनं प्रेक्षादक्षैः प्रतिपत्तव्यः, किन्तु गवादिशब्दास्तन्निबन्धनं प्रतिपत्तव्या इति / नवस्तु तेषां तन्निबन्धनत्वम् ; किन्तु संस्कृतानामेव न प्राकृतानाम्, तेषामसासंस्कृतशब्दा एव धुत्वात् / व्याकरणसिद्धा एव हि गवादयः शब्दाः साधवः, अतसाधवोऽर्थवाचकाश्च स्तेषामेव अर्थवाचकत्वमुपपन्नं न पुनः गव्यादीना॑म् , तेषां तदभावात् / न तु अपभ्रंशादयः वृद्धव्यवहारे हि अनन्यथासिद्धाभ्यामन्वयव्यतिरेकाभ्यां वाच्यवारणादीनां पूर्वपक्षः- चकभावोऽवधार्यते, तौ च यदि एकस्य गोशब्दस्य एकत्र गोत्वलक्ष (1) "अथ पुनरेकमेवानवयवं वाक्यम्; तत्र-एकत्वेऽपि ह्यभिन्नस्म क्रमशो गत्यसम्भवात् / कालभेद एव न युज्यते / न टेकस्य क्रमेण प्रतिपत्तियुक्ता; गृहीतागृहीतयोरभेदात् / क्रमेण च वाक्यप्रतिपत्तिदृष्टा, सर्ववाक्याध्याहारश्रवणस्मरणकालस्यानेकक्षणनिमेषानुक्रमपरिसमाप्तेः वर्णरूपासंस्पर्शिनश्चैकबुद्धिप्रतिभासिनः शब्दात्मनोऽप्रतिभासनात् वर्णानुक्रमप्रतीतेः / तदविशेषेप्यनुक्रमकृतत्वाद्वाक्यस्य अनुक्रमवती वाक्यप्रतीतिः; वर्णानुक्रमोपकारानपेक्षणे तैर्यथाकथञ्चित्प्रयुक्तैरपि यत्किञ्चिद्वाक्यं प्रतीयेत विनापि वा वर्णेः / तैरनुक्रमवद्भिरक्रमस्योपकारायोगात् / अक्रमेण च व्यवहर्तुमशक्यत्वात् / गत्यन्तराभावाच्च ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० 10253 / (2) 'एकः शब्द: सम्यग्ज्ञातः शास्त्रान्वितः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुग्भवति ।"-पात महाभा० 6 / 1184 / "तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छितवै नापभाषितवै, म्लेच्छो ह वा एष अपशब्दः ।"-पात. महाभा० पस्पशा० / (3) "यदि तावच्छब्दोपदेशः क्रियते, गौरित्येतस्मिन्नुपदिष्टे गम्यत एतद् गाव्यादयोऽपशब्दा इति ।"-पात० महा० पस्पशा०। "तस्माद यमभियक्ता उपदिशन्त्येष एव साधुरिति साधुरित्यवगन्तव्यः ।"-शाबरभा० 123 / 27 / “शिष्टेभ्य आगमात्सिद्धाः साधवो धर्मसाधनम् / अर्थप्रत्यायनाभेदे विपरीतास्त्वसाधवः ।"-वाक्यप० 1027 / "शब्दस्य तत्त्वमवैकल्यमनपगतसंस्कारं साधुस्वरूम् / अन्ये तु तत्प्रयुयुक्षया प्रयुज्यमाना विकलाः स्युरपभ्रंशाः ।"-वाक्यप० स्वव० 113 / “स साधुर्यस्य व्याकरणावगतः संस्कारोऽविकल: / ताद्विकलास्त्वपभ्रंशा इति ।"-वाक्यप० पु० टी० 1313 / 'तस्मान्न लोकवेदाभ्यां कश्चिद् व्याकरणादृते / वाचकाननपभ्रष्टान् यथावज्ज्ञातुमर्हति ।"-तन्त्रवा० पृ० 278 / “तथा व्याकरणाख्येन साधुरूपं नियम्यते / अविशेषेण सिद्धिः स्याद्विना व्याकरणस्मृतेः ॥"-तन्त्रवा० 10 287 / "व्याकरणलक्षणानुगमविशेषित्वं वाचकत्वं साधुत्वम् ।"-न्यायमं० पृ० 423 / “अभियुक्ततमैरिन्द्रपाणिनिप्रभृतिभिः साधुत्वेनाविगानतः स्मर्यते स साधुरितरोऽसाधुरिति निश्चीयते ।"-न्यायवा० पु० 714 / “साधुत्वं नाम क्वचिदर्थविशेषे स्वाभाविकप्रतिपादनशक्तियोगिनः शब्दस्य विलक्षणं रूपम् / तञ्च प्रकृतिप्रत्ययादिद्वारेण व्याकरणस्मृत्या यस्य प्रतिपाद्यते तस्यैव व्याकरणस्मतिसहकृतेन श्रोत्रप्रत्येक्षण असाधुशब्दव्यावृत्तं साधुत्वरूपं स्फुटतरमद्यतनस्तावत्प्रतीयत एव ।"-तौता० 10 128 / "गवादय एव साधवो न गाव्यादय इति साधुस्वरूपनियमः ।"-शास्त्रदी० 23 / 27 / “साधनेव प्रयुञ्जीत गवाद्या एव साधवः / इत्यस्ति नियमः पूर्वपूर्वव्याकृतिमूलतः ॥"-जैमिनिन्या० श३।२७ / "इत्थञ्च संस्कृते एव शक्तिसिद्धौ शक्यसम्बन्धरूपवृत्तेरपि तत्रैव भावात्तत्त्वं साधुत्वम् / वस्तुतो वृत्तिमत्त्वं न साधुत्वम् / 'किन्तु व्याकरणनिष्पाद्यत्वम् / यत्र यः शब्दो व्याकरणे व्युत्पादितः स तत्र साधुः ।"-वैयाकरणभू०१० 249 / "अनपभ्रष्टतानादिर्यद्वाऽभ्युदययोग्यता / व्याक्रिया व्यञ्जनीया 1 खल्वावयवाभि-ब०, स्वसावयवाभि-आ०। 2 गव्यादी-आ०, ब०। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 758 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० णेऽर्थे शक्ति कल्पयित्वा उपपन्नौ तदा न द्वितीयस्य गावीशब्दस्य तत्रार्थे तौ शक्ति कल्पयतः। अनुपपत्त्या हि तयोः कल्पकत्वम् ; यश्च येन विना आत्मानं न लभते स तेन विनाऽनुपपन्नः स्वोपपत्तये तं कल्पयति, यत्पुनः येन विनाप्युपपद्यते न तत् तं कल्पयति अनुपपत्तेः कल्पिकायाः क्षीणत्वात् / न च गावीशब्दादपि अन्वयव्यतिरेकाभ्यामर्थप्रतीतिसंभवात् कथन्न वाचकत्वमित्यभिधातव्यम् ; अन्वयव्यतिरेकयोस्तैत्र अन्यथासिद्धत्वात् / अवाचकस्यापि हि गावीशब्दस्य वाचकगोशब्दस्मृतिद्वारेण अर्थप्रतिपत्तौ अन्वयव्यतिरेको घटेते / दृश्यते च असाधुशब्दप्रयोगे साधुशब्दस्मरणादर्थप्रतिपत्तिः, यथा आमन्त्रणे 'अम्ब' वा जातिः कापीह साधुतेति ।"-शब्दकौ० पृ० 25 / (4) “गौरित्यस्य शब्दस्य गावीगोणीगोतागोपोतलिकेत्येवमादयः अपभ्रंशाः ।"-पात० महा० पस्पशा (1) “सामर्थ्यं सर्वभावानामपित्त्यावगम्यते। एकसामर्थ्य सिद्धेऽर्थे नानेकं तच्च लभ्यते // नाम च व्यवहारार्थमर्थस्याभ्युपगम्यते / तेनैकेनैव सिद्धेऽर्थे द्वितीयादि च निष्फलम् ।।"-तन्त्रवा० पृ० 113 / 26 / "किंच, वाचकशक्तिर्नाम सूक्ष्मा परमार्थापत्तिमात्रशरणावगमा न तन्मन्दतायामन्यतः कुतश्चिदवगन्तुं पार्यते / सा चेयमन्यथाप्युपपद्यमाना गवादिभ्योऽर्थप्रत्ययादिव्यवहारे मन्दीभवति तेषु शक्तिकल्पनायामापत्तिः एवं गवादय एव वाचकशक्तेराश्रयः न गाव्यादयः ।"-न्यायमं० पृ० 421 / / "अत्र च संस्कृतस्य सर्वदेशे एकत्वात्तत्रैव शक्तिः, भाषाणाञ्च प्रतिदेशं भिन्नत्वात् संस्कृतैः सह पर्याय-. तापत्तेश्च न शक्तिः ।"-वैयाकरणभू०५० 248 / “एकत्र शक्तचाप्यन्यत्र तदारोपात्तदर्थप्रतीत्युपपतावेकत्रैव शक्तिलाघवात् , अनन्यलभ्यस्यैव शब्दार्थत्वात् / सा च शक्तिः संस्कृत एव सर्वदेशे तस्यैकत्वात्।"-तत्त्वचि० शब्द० पृ०६४१ / (2) अन्वयव्यतिरेको / (3) गावीशब्दे / (4) “अथ यदुक्तम्अर्योऽवगम्यते गाव्यादिभ्यः, अत एषामप्यनादिरर्थेन सम्बन्ध इति / तदशक्तिरेषां गम्यते / गोशब्दमच्चारयितुकामेन केनचिदशक्तया गावीत्युच्चारितम्, अपरेण ज्ञातं सास्नादिमानस्य विवक्षितस्तदर्थ गौरित्युच्चारयितुकामो गावीत्युच्चारयति / ततः शिक्षित्वाऽपरेऽपि सास्नादिमति विवक्षिते गावीत्युच्चारयन्ति / तेन गाव्यादिभ्यः सास्नादिमानवगम्यते। अनुरूपो हि गाव्यादिर्गोशब्दस्य ।"एवं गाव्यादिदर्शनाद् गोशब्दस्मरणं तत: सास्नादिमानवगम्यते ।"-शाबरभा० 113028-29 / “यथा गौरित्यस्य पदस्यार्थे गावीति प्रयुज्यमानं पदं ककूदादिमन्तथं प्रतिपादयतीति / न च शब्दान्वाख्यानं व्यर्थम् ; अनेन शब्देन गोशब्दमेवादौ प्रतिपद्यते गोशब्दात् ककुदादिमन्तमर्थम् ।"-न्यायवा० पृ० 556 / "ते तु वर्णसारूप्यच्छायया गवादिशब्दस्मृतिमादधानाः तदर्थप्रतिपत्तिहेतुतामुपगच्छन्ति ।"-न्यायमं० पृ० 421 / न्यायवा० ता० पृ० 714 / तत्त्वचि० शब्द०पृ० 643 / "न चापभ्रंशानामचाचकतया कथमर्थावबोध इति वाच्यम् ; शक्तिभ्रमवतां बाधकाभावात् / विशेषदर्शिनस्तु द्विविधाः-तत्तद्वाचकसंस्कृतविशेषज्ञानवन्तः तद्विकलाश्च / तत्र आद्यानां साधुस्मरणद्वारा अर्थबोधः / द्वितीयानां तु बोध्यार्थसम्बद्धार्थान्तरवाचकस्य स्मृतौ सत्यां ततो लक्षणया बोधः / सर्वनामस्मृतेर्वा, तदर्थज्ञापकत्वेन रूपेण साधुस्मृतेर्वा, अर्थाध्याहारपक्षाश्रयणाद्वा यथायथं बोध्यम् ।"-शब्दकौ० पृ० 32 / (5) “अस्वगोण्यादयः शब्दा: साधवो विषयान्तरे / निमित्तभेदात्सर्वत्र साधुत्वञ्च व्यवस्थितम् // ते साधुष्वनुमानेन प्रत्ययोत्पत्तिहेतवः / तादात्म्यमुपगम्येव शब्दार्थस्य प्रकाशकः // न शिष्टैरनुगम्यन्ते पर्याया इव साधवः / ते यतः स्मृतिशास्त्रेण तस्मात्साक्षादवाचकः // अम्बाम्बेति यथा बाल: शिक्षमाणः प्रभाषते। अव्यक्तं तद्विदां तेन व्यक्ते भवति निश्चयः // एवं साधौ प्रयोक्तव्ये योऽपभ्रंशः प्रयुज्यते / तेन साधुव्यवहितः कश्चिदर्थोऽभिधीयते // " 1 अनुपपन्ना हि ब०। एतदन्तर्गत: पाठो नास्ति आ०12 विनोपप-ब०।। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५ ] अपभ्रंशादीनां वाचकत्वविचारः इति विवक्षायां स्थानकरणप्रयत्नवैकल्यात् प्रमादाद्वा तमुच्चारयितुमसमर्थः अम्बिति बालोऽपभाषते / अम्बा च तच्छब्दश्रवणानन्तरं प्रवर्त्तमाना एवं मन्यते-अनेन बालेन 'अम्ब' इति शब्दविवक्षायाम् अम्बिति तत्स्थाने समुच्चारितमिति अम्बितिशब्दादसाधुभूताद् ‘अम्ब' इति मूलशब्दं साधुभूतं स्मृत्वा प्रवर्तते / तथा, खण्ड (षण्ढ) शब्दे समुच्चारयितव्ये विवक्षिते प्राच्यानां संढशब्दोच्चारणं दृश्यते / व्यवह" तद्वाक्यश्रव- 5 णानन्तरं प्रवर्तमानः अनेन मूलशब्दोच्चिचारयिषया अशक्त्या प्रमादेन वा अयं संढशब्दः समुच्चारितः इति संढशब्दात् षंढशब्दं स्मृत्वा ततोऽर्थं प्रतिपद्य प्रवर्त्तते / एवं गावीशब्दादसाधुरूपात् मूलभूतं साधुरूपं गोशब्दं स्मृत्वा व्यवहर्ता ततोऽथ प्रतिपद्यते इति, अन्वयव्यतिरेकयोरत्र अन्यथासिद्धत्वात् न वाचकत्वावधारणक्षमत्वम् / यत्रैव हि निश्चितौ तौ तत्रैव वाचकत्वनियममवबोधयतः / न च गावीशब्दस्य उक्त- 10 प्रकारेण तो निश्चितौ, अतो न तन्नियममवबोधयतः / गोशब्दस्य तु उभयवादिसम्प्रतिपन्नत्वेन तौ निश्चितौ, अतोऽस्यैव गोत्वप्रतिपत्तौ वाचकत्वनियमोऽवकल्प्यते / सर्वदेशकालपुरुषपुराणवेदादिषु गोशब्दस्य एकरूपतया व्यवहारकारकत्वेन प्रतीयमानत्वाच्च अस्यैव व्याकरणस्मृत्यनुगृहीतस्य वाचकत्वनियमो युक्तः न तु गावीशब्दस्य, अस्य नियतदेशादावेव व्यवहारहेतुतया प्रतीयमानत्वात् / न खलु ये देशान्तरादिप्रभवा 15 गाव्यादिशब्देष्वगृहीतसम्बन्धा तेषां ते व्यवहारं प्रसाधयन्ति / अतः अवगतप्रमाणभावेन व्याकरणेन ये अनुशिष्टा गवादयः शब्दाः त एव साधवः सिद्धा नै तु गीच्यादयः। - 'तत्रैव वाचकत्वनियमावगतेश्च गवादिशब्दानामेव साधुत्वम् ; तथाहि'गामानय' इत्युक्ते सास्नादिमत्त्वविशिष्टार्थानयनप्रतिपत्तिर्भवतिः / तत्र च यथा 'गोशब्दस्य सास्नादिमानर्थो वाच्यः' इत्यवधार्यते, तथा 'गोशब्दस्यैव अयमर्थः' इति 20 नियमोऽप्यवधार्यते / अवगतश्च नियमः अन्यस्य वाचकत्वं बाधते / अस्तु वा नाम गवादीनामेव वाचकत्वावधारणम् ; तथापि वृद्धव्यवहारादेव तेषां तद् भविष्यति, अतस्तत्साधुत्वसमर्थनाय व्याकरणारम्भो व्यर्थः; इत्यसमीचीनम् ; व्याकरणनिरपेक्षाद् वृद्धव्यवहारादेव सकलशब्दानां वाचकत्वस्य अवधारयितुमशक्यत्वात् / अनन्तो हि शब्दराशिः, तस्य अनन्तेनापि कालेन प्रतिपदं वृद्धव्यवहाराद् 25 वाक्यप० 13149-53 / “गाव्यादिशब्दानां पुनरुच्चारणासामर्थ्यतो मूलशब्दादपभ्रंशानां विवक्षितेषु ' मूलशब्दानुसारेणार्थप्रतिपादकत्वम्, अविवक्षितेषु तु वाचकभ्रान्त्यैवेति ।"-तौता०प०१३० / भाट्टचि० पृ० 95 / (1) सर्वे देशान्तरे / “सर्वे खलु एते शब्दाः देशान्तरेषु प्रयुज्यन्ते ।"-पात० महा० पस्पशा० / (2) पुरुषाणाम् / (3) गाव्यादयः शब्दाः / (4) वाचकत्वावधारणम् / 1 अन्विति आ० / 2 तत्र स्थाने ब० / 3 गोशब्दत्वप्रति-श्र० / 4-ल्पते आ०, ब० / 5 ना तु आ० / 6 गव्या-ब०। 7-तीति तत्र श्र०। 8 अस्तु नाम ब०, श्र० / 9-निरपेक्षे व-श्रः / Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 760 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० 5 वाचकत्वं गृहीतुमशक्यम् / व्याकरणेन तु सामान्यविशेषवता लक्षणेन उपलक्षितानां स्वल्पप्रयत्नेन सर्वेषामपि शब्दानां वाचकत्वमवबोद्धं शक्यमेव / अतो व्याकरणादेव तेषां साधुत्वावगमः। तथाहि-“कर्मण्यण" [पाणिनि० 3 / 2 / 1] इत्येकेनैव सूत्रेण कुम्भकार-काण्डलाव-वेदाध्यायादयः शब्दाः बहवः साधुत्वेन लक्ष्यन्ते / अतो व्याकरणानुगृहीतलोकव्यवहारात् सुखेनैव साधुत्वमवधारयितुं शक्यते इत्यस्ति व्याकरणस्योपयोगः। ननु चास्याप्रमाणत्वात् कथं ततः केषाश्चिच्छब्दानां साधुत्वमवधारयितुमुचितम् ; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; तदप्रामाण्ये कर्मकादिकारकाणां सम्लवप्रसङ्गात् / न खलु व्याकरणमन्तरेण प्रकृति-प्रत्ययविभागद्वारेण कर्मकादिकारकाणां नैयत्येन प्रति पत्तिर्घटते, तन्नैयत्यहेतोरन्यस्याऽसंभवात् / अतस्तन्नैयत्यमुपलभ्यमानं स्वव्यवस्थानि10 मित्तं व्याकरणमेव व्यवस्थापयति / तथा व्याकरणाप्रामाण्ये लोकशास्त्रविरोधः / तत्र लोकविरोधस्तावत्-संकलशिष्टानां तत्प्रामाण्यस्य अभीष्टत्वात् / शास्त्रविरोधोऽपि तदप्रामाण्ये सकलशास्रोच्छेद- . प्रसङ्गात् / सकलान्यपि हि शास्त्राणि नियतभाषात्मकानि, नियमस्य च व्याकरणाधीन त्वात् कथं तदप्रामाण्ये तदुपपत्तिः ? शास्त्रप्रामाण्यमनभ्युपगच्छताऽपि परप्रत्यायनाय 15 साधनदूषणप्रयोगः तत्प्रामाण्यप्रसाधनोऽवश्याभ्युपगन्तव्यः। तदनभ्युपगमे स्वपरपक्षसाधनदूषणप्रपञ्चप्रत्यस्तमयप्रसङ्गात् , केवलैमनोविकल्पैः अङ्गसंज्ञाभिर्वा परप्रत्यायनानुपपत्तेः / तस्मादुक्तदोषं परिजिहीर्षता न व्याकरणप्रामाण्यमपह्नवनीयम् , इति सिद्धं तत्साधुत्वप्रसाधनायास्य प्रामाण्यम् / ननु साधुत्वस्य शब्दानां कुतश्चित् प्रमाणादप्रसिद्धेः कथं तत्प्रसाधनाय व्याक (1) "रक्षोहागमलध्वसन्देहाः प्रयोजनम्"लघ्वथं चाध्येयं व्याकरणम् ब्राह्मणेनावश्यं शब्दा ज्ञेयाः इति / न चान्तरेण व्याकरणं लघुनोपायेन शब्दाः शक्या ज्ञातुम् ।"किञ्चित्सामान्यविशेषवल्लक्षणं प्रवर्त्यम्, येनाल्पेन प्रयत्नेन महतो महतः शब्दौघान् प्रतिपद्येरन् / किं पुनस्तत् ? उत्सर्गापवादौ / कश्चिदत्सर्गः कर्त्तव्यः कश्चिदपवादः / सामान्येनोत्सर्गः कर्त्तव्यः तद्यथा कर्मण्यण् / तस्य विशेषेणापवादः तद्यथा आतोऽनपसर्गे कः ।"-पात० महा० पस्पशा०। "प्रकृत्यादिविभागकल्पनया सामान्यविशेषवता लक्षणेन ॥"-काशिका० पृ० 1 / “तत्र सामान्यवता लक्षणेन प्रकृत्यादिविभागपरिकल्पनया कुम्भकारः काण्डलावः शरलाव इत्येवमादिकं महान्तं शब्दोघं प्रतिपद्यते / विशेषवता तु पार्णित्रो गोदः कम्बलद इत्येवमादिकम् ।"-न्यास० पृ०६। सर्वद० पाणिनि०। (2) "लोकव्याकरणाभ्यां हि मिश्राभ्यामविप्लतवाचकसिद्धिरिति ।"-तन्त्रवा० 113 / 27 / (3) व्याकरणस्य। (4) "नचान्तरेण व्याकरणं कृतस्तद्धिता वा शक्या विज्ञातुम् ।"-पात० महा० पस्पशा० / 'तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणादते।"-वाक्यप० 213 / (5) "सर्वपार्षदत्वाच्च शब्दानुशासनस्य ।"-हमश०बह०पू०२। (6) “साधुत्वज्ञानविषया सैषा व्याकरणस्मृतिः। अविच्छेदेन शिष्टानामिदं स्मृतिनिबन्धनम् ॥"वाक्यप० 11143 / 1-ध्याय इत्यादयः श्र० / 2 शब्दबहुगाधुत्वेन श्र०।-लविशिष्टानां श्र०।। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५ ] अपभ्रंशादीनां वाचकत्वविचारः 761 रणस्य प्रामाण्यम् ? इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; प्रत्यक्षत एव तत्साधुत्वप्रसिद्धः / तथाहि-व्याकरणसंस्कृतमतेः 'श्रौत्रप्रत्यक्षे वर्णस्वरूपवत् तत्साधुत्वमवभासते, व्याकरणानुशिष्टेषु शब्देषु उच्चार्यमाणेषु 'साधुभिरयं भाषते' इति प्रतीतिसद्भावात् , अन्यथा चोच्चार्यमाणेषु 'असाधुभिरयं भाषते पापः अपशब्दान् करोति' इति प्रत्ययप्रतीतेः प्रत्यक्षत एव साधुत्वासाधुत्वविभागोऽवसीयते / अथोच्यते-यदि वर्णस्वरूपातिरिक्तं / साधुत्वं स्यात् तर्हि व्याकरणसंस्कारात्पूर्व वर्णस्वरूपवत् तदपि प्रतिभासेत, तत्प्रतिभासकारणस्य श्रोत्रसम्बन्धस्य प्रागपि सद्भावात् ; तदप्युक्तिमात्रम् ; व्याकरणसंस्कारापेक्षस्य श्रोत्रस्य पूर्वमभावात् , कारणाभावे च कार्याभावस्य उपपन्नत्वात् / वर्णस्वरूपग्रहणे हि श्रोत्रस्य केवलस्यापि सामर्थ्यम्, साधुत्वग्रहणे तु व्याकरणसहकृतस्यैव। यथा रत्नादिभेदानां तच्छास्त्रसंस्कारसहायं चक्षुः ग्रहणे समर्थम् न तद्रहितम् / 10 ननु शब्दराशेरपर्यन्ततया प्रत्यक्षागोचरत्वात् कथं ततः तत्साधुत्वसिद्धिः ? इत्यप्यसुन्दरम् ; तैदगोचरस्यास्य अनुमानात् साधुत्वंप्रसिद्धेः; तथाहि-अदृश्यमानप्रयोगाः शब्दाः साधवः व्याकरणानुशिष्टत्वात् परिदृश्यमानगवादिशब्दवत् / तथा 'साधुभिर्भाषितव्यम्' [ ] तस्मादेषा संस्कृता वागुद्यते' [ तैत्ति० 6 / 47 (?) ] इत्येवमादिना आगमेनापि साधुत्वं प्रसाध्यते / तथा उपमानेनापि साधुत्वमवगम्यते; तथाहि- 15 सूत्रकार-भाष्यकार-वार्तिककारादिभिः प्रयुक्ता यथा साधवः शब्दाः तथा तत्प्रायैरन्यैरपि प्रयुक्ताः साधव एवेति / तथा अर्थापत्त्यापि; अनाद्यनन्ताऽनन्यथासिद्धान्वयव्यति· रेकतोऽर्थप्रतीतिसाधनत्वान्यथानुपपत्तिलक्षणया शब्दानां साधुत्वमवसीयते इति ॥छ।। (1) "साधुत्वमिन्द्रियग्राह्य लिङ्गमस्य च विद्यते / शास्त्रस्य विषयोऽप्येष प्रयोगोऽप्यस्त्यसंकरः // "वैयाकरणोपदेशसाहाय्यकोपकृतश्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्वाभ्युपगमात् / यथा ब्राह्मणत्वादिजातिरुपदेशसव्यपेक्षचक्षरिन्द्रियग्राह्यापि न प्रत्यक्षगम्यतामपोज्झति / 'व्याकरणकोविदोपदेशसचिवश्रवणेन्द्रियग्राह्ये अपि साधत्वासाधुत्वे न प्रत्यक्षतामतिवर्तते।"-न्यायमं० पृ० 422 / तौता० पृ० 128 / (2) "यथा च पारागादीन् काचस्फटिकमिश्रितान् / परीक्षका विजानन्ति साधुत्वमपरे तथा / यथा रत्नपरीक्षायां साध्वसाधुत्वलक्षणम् / तथा व्याकरणात्सिद्धं साधुशब्दनिरूपणम् ॥"-तन्त्रवा० 113 / 27 / (3) प्रत्यक्षागोचरस्यापि शब्दराशेः। (4) “विशिष्टशब्दश्रवणोत्तरकालप्रवृत्तव्यवहारावगतार्थप्रतिपत्तिसहितं शब्दानुशासनशास्त्रोपदिष्टप्रकृतिप्रत्ययविकरणवर्णलोपागमादेशादिलिङ्गमव्यभिचारि तत्स्वरूपावधारणे कारणं भविष्यति ।-"न्यायमं० पृ० 423 / तन्त्रवा० 123 / 27 / (5) उद्धृतोऽयम्-न्यायमं पु०४२३ / न्यायवा० ता०प०७१४ / वैयाकरणभू०पू० 252 / तत्त्वचि० शब्द० पृ० 640 / “साधूनां साधुभिस्तस्माद्वाच्यमभ्युदयार्थिभिः ।"-वाक्यप० 1 / 141 / (6) 'तस्मादेषा व्याकृता'-तन्त्रवा० 1 / 3 / 27 / भाट्टचि० पृ० 98 / (7) "तथा लौकिकार्थप्रत्ययोत्थापितवाचकत्वार्थापत्तिलभ्यस्तावदेकः साधुत्वनिश्चयः ।"-तन्त्रवा० 1 / 3 / 27 / 1 श्रौत्रप्र-आ०, ब० / 2-वत्साधु-ब०, आ०। 8-शिष्टेषुच्चार्य-आ०,-शिष्टेषु शब्दोच्चार्य -ब० / 4-ब्दानुकरोति आ० / 5 पूर्व भावा-आ०, पूर्वसभा-ब०। 6-रस्यानु-आ० / 7-त्वसिद्धेः आ०। 8 सूत्रकारवात्तिक-श्र०। 46 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 762 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [.. प्रवचनपरि० अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-‘गवादयः शब्दा एव साधवः, तेषामेव वाचकअपशपाकतानि त्वोपपत्तेः' इत्यादि; तदविचारितरमणीयम् ; यतो लोकव्यवहारभाषाशब्दानां साधु- समधिगम्यो हि वाच्यवाचकभावः / लोकश्च गाव्यादिशब्दैरेव त्वसमर्थनेन वाच- व्यवहरन् प्रतीयते / संस्कृतवेदिनो हि संस्कृतान् शब्दान् परित्यज्य कत्वप्रसाधनम्- व्यवहारकाले गाव्यादिशब्दैरेव व्यवहरन्तः प्रतीयन्ते / अतः संस्कृतेतरवेदिनां व्यवहारस्य गाव्यादिशब्दैरेव दृष्टत्वात्तेषामेव अन्वयव्यतिरेकाभ्यां वाचकत्वमवधार्यते। नच गाव्यादिशब्दानां गवादिस्मृतिसापेक्षमर्थावबोधकत्वं स्वप्नेऽपि प्रतीतं येन अर्थप्रतिपत्तेरन्यथाप्युपपद्यमानत्वात् तेषामवाचकत्वं स्यात् / न खलु प्राकृतशब्देभ्यः ‘प्रथमं संस्कृतशब्दस्मरणं ततोऽर्थप्रतीतिः' इति व्यवधानेन अर्थप्रत्ययोऽनुभूयते, संस्कृतशब्दवत् तेभ्योऽपि साक्षादेव अर्थप्रत्ययप्रतीतेः, अन्यथा यत्र संस्कृतज्ञा न सन्ति तत्र भाषाशब्देभ्योऽर्थप्रत्ययो न स्यात् / ततो गवादिशब्दवत् शब्दान्तरस्मृतिनिरपेक्ष्तयैव सदा तेषामर्थावबोधकत्वप्रतीतेः वाचकत्वमेवोपपन्नम् / यथैवं हि गवादिशब्दस्य अन्वयव्यतिरेकाभ्यां गाव्यादिशब्दस्मृतिनिरपेक्षं गोत्वाद्यर्था भिधायकत्वं प्रतीयते तथा गवादिशब्दस्मृतिनिरपेक्षं गाव्यादीनामपि / एवश्च अन्वय15 व्यतिरेकाभ्यां तुल्येऽर्थप्रतिपादकत्वे यद्येकस्यैव वाचकत्वं कल्प्यते तद्वरं गाव्यादिशब्दस्यैव कल्प्यताम्., निखिलजनानां व्यवहारस्य तँवारेणैव प्रतीतेः / ___किश्च, स्मरणं मूलानुभवे सति प्रमाणं भवति अनुभवानुसारित्वात्तस्य / न च : गवादिशब्दानां गोव्यवहारे प्रथमत एव स्वरसवृत्त्या वाचकत्वमनुभूतम् ; गाव्यादि शब्दानामेव तदा तदँनुभवात् / अतो येषां वाचकत्वमनुभूतपूर्वं तन्निबन्धने व्यवहारे' 20 अननुभूतवाचकत्वाः स्मर्यन्ते इति महन्न्यायकौशलम् ! / . (1) पृ० 757 50 6 / (2) "वृद्धि (ख) प्रसिद्धितस्त्वेष व्यवहारः प्रवर्तते / संस्कृतैरिति सर्वापि शब्दैः भाषास्वनैरिव।"-तत्त्वार्थ श्लो० पु० 290 / (3) गाव्यादिशब्दानामेव / (4) प्राकृतशब्देभ्योऽपि / तुलना-"व्युत्क्रमादर्थनिर्णीतिरपशब्दादिवेत्यपि / वक्तुं शक्तेस्तथा दृष्टे: सर्वथाप्यविशेषतः॥" -तत्त्वार्थश्लो० पृ० 290 / प्रमेयक० पृ०६६८। (5) तुलना-"स्त्रीशूद्राणामुभयप्रतीतेरभावात् / यः खलुभयं वेत्ति शब्दमपशब्दञ्च स एवं प्रतिपद्यते। यस्तु नक्कमुक्कशब्दमेव वा वेत्ति न नासाशब्दं स कथमपशब्दाच्छब्दं प्रतिपद्येत ततोऽथं प्रतिपद्येत ? दृष्टा चानुभयवेदिनोऽपि प्रतीतिरिति।"-वादन्या० पृ० 103 / म्लेच्छादीनां साधुशब्दपरिज्ञानाभावात्कथं तद्विषया स्मृतिः / तदभावे न गोऽर्थप्रतिपत्तिः स्यात् ।"-तत्त्वो० पृ० 124 // (6) गाव्यादिशब्दद्वारेणैव / तुलना-"विपर्ययदर्शनाच्च / शब्दादर्थमप्रतिपद्यमाना अपशब्दैरेव ज्ञानं व्युत्पद्यमाना लोके दृश्यन्ते इति व्यर्थ शब्दानुशासनम् / तथाहि वृक्षोऽग्निरुत्पलमित्युक्तेऽव्युत्पन्नधियो बाला: प्रश्नोपक्रम सन्तिष्ठन्ते कोऽयं वृक्ष इत्यादिना / ते चान्यस्य व्युत्पादनोपायस्याभावादपशब्दैरेव व्युत्पाद्यन्ते रुक्ख अग्गी उप्पलमिति। तदेवमत्रासाधव एब वाचका न साधवः सन्तोऽपि इति विपर्ययो दृश्यते ।"-वादन्या०, टी० 10 105 / (7) वाचकत्वानुभवात् (8) गाव्यादीनाम् / (9) गवादयः शब्दाः / 1 असंस्कृते-आ० / 2-थोपपद्य-ब०। 3 प्रथमसं-श्र०। 4-व गवादि-ब० / तुल्यार्थप्रति-ब०। 6-प्रथमं त एव स्वरस्य वृत्तावा-आ०। 7-रे न खलु वाचकत्वाः ब० / Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का अपभ्रंशादीनां वाचकत्वविचारः 763 10 यदप्युक्तम् -'गोशब्दे समुच्चारयितव्ये अशक्तया प्रमादेन वा बालेन गावीशब्दः समुच्चारितः' इति; तदप्यसाम्प्रतम्; यतो यदि गोशब्दसमुच्चिचारयिषया बाल: अशक्तिप्रमादाभ्यां गावीशब्दं समुच्चारयेत्, तर्हि परित्यक्तबालभावः प्रबुद्धः सन् 'मया अशक्त्या प्रमादेन वाऽयं प्रयुक्तः' इति ज्ञात्वा तं परित्यज्य गोशब्देनैव व्यवहारं कुर्यात् / न च पटुकरणोऽपि गावीशब्दं परित्यज्य गोशब्देनैव व्यवहरति / ननु च असंस्कृत- / मतिभिः सह संस्कृतशब्देन गवादिना व्यवहारः कर्तुं न शक्यते, लक्षणपरिज्ञानाभावतस्तेषों संस्कृतशब्दपरिज्ञानानुपपत्तेः, अत: बहुत्वादसंस्कृतमतीनाम् अशक्तिप्रमादप्रभवोऽपि अपभ्रष्टव्यवहारः परां रूढिमागतः, येन शक्तो विज्ञातशब्दस्वरूपोऽपि जनः तेनैव व्यवहरति; इत्यप्येतेनैव प्रत्याख्यातम् ; प्रमादाऽशक्तिप्रभवत्वे गाव्यादिशब्दव्यवहारस्य उक्तदोषानुषङ्गात् / अपभ्रष्टत्वश्चास्य पुरुषार्थाऽप्रसाधकत्वात् , व्याकरणस्मृत्यनुगृहीतस्य सर्वत्र सर्वदाऽनवच्छिन्नस्य एकत्वेन प्रतीत्यभावात् , सङ्केतेन अर्थाभिधायित्वाद्वा स्यात् ? तत्र आद्यः पक्षोऽनुपपन्नः; सकलस्य धर्मार्थादेः पुरुषार्थस्य प्राकृतशब्दव्यवहारादेव प्रसिद्धेः / नहि कश्चित्तादृशः पुरुषार्थोऽस्ति यत्र साक्षात् परम्परया वा तद्व्यवहारो न स्यात् / तत्प्रतिपिपादयिषया प्रयुक्तानामपि संस्कृतशब्दानामर्थः सुस्पष्टः प्राकृत- 15 शब्दैरेव प्रदर्यते इति कथं तद्व्यवहारस्य पुरुषार्थाऽप्रसांधकत्वं यतोऽपभ्रष्टत्वं स्यात् ? द्वितीयपक्षे तु ठकागमस्य “सधनं ब्राह्मणं हन्याद् भूतिकामः" [ इत्यादेः साधुत्वप्रसङ्गः, व्याकरणस्मृत्यनुगृहीतस्य सर्वत्र सर्वदानवच्छिन्नस्यैकत्वेन अस्यापि प्रतीत्यविशेषात् / शिष्टैरस्वीकृतत्वात् तत्रास्य विच्छेदः पशुवधाद्यागमेऽपि समानः। नहि “श्वेतमजमालभेत" [ ] इत्यागमः परीक्षाप्रधानैः कृपा- 20 द्रीकृतचेतोवृत्तिर्भिः आद्रियते / तृतीयपक्षोप्ययुक्तः, प्राकृतशब्दवत् संस्कृतशब्दानामपि सङ्केतसहायानामेव अर्थप्रतिपादनसामर्थ्यसंभवात् / असङ्केतिताऽनभि(ताभिधाने अतिप्रसङ्गात् / तदेवं संस्कृतेतरशब्दानां विशेषासंभवात् उभयेषां साधुत्वमसाधुत्वं वा अविशेषत: प्रतिपत्तव्यम् / किश्च, स्वरूपतः प्रसिद्धे साधुत्वे क्वचिद् विधानं निषेधो वा युक्तः / न च 25 स्वरूपतः तत् प्रसिद्धम् / तत्स्वरूपं हि वाचकत्वम् , अनादिप्रयोगिता, धर्मसाधनत्वम् , विशिष्टपुरुषप्रणीतत्वम् , विशिष्टार्थाभिधायित्वम् , बाधारहितत्वम् , प्रमाणान्तराचेंगृहीतत्वम् , अनुपहतेन्द्रियग्राह्यत्वम् , अनावृतत्वम् , व्याकरणसिद्धस्वरूपत्वं (1) पृ० 75960 6 / (2) व्याकरणसूत्र / (3) असंस्कृतमतीनाम् / (4) प्राकृतादि. भाषाशब्दव्यवहारः / (5) पुरुषार्थबोधनाय। (6) जैनबौद्धवैष्णवादिभिः। (7) साधुत्वम् / ____ 1 इत्यादि तद-श्र०,ब० // 2 चायं श्र०। 3-नवस्थितस्य ब० / 4 तद्वयापारव्यवहारो न आ०, श्र०। 5-ष्टव्यत्वं श्र०। 6-नुगृहीतमनु-आ०. ब०।-रूपं वा ब०। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 764 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० वा स्यात् ? यदि वाचकत्वम् ; तद् गवादिशब्दवत् गाव्यादिशब्दानामस्त्येव, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां तद्वत् तेषामप्यर्थप्रतिपादकत्वप्रतिपादनात् / __अनादिप्रयोगितापि प्रवाहापेक्षया, नित्यत्वापेक्षया वा उच्येत ? प्रथमपक्षे गोगावीशब्दयोरविशेषः, द्वयोरपि अनादिप्रयोगितायाः तथा संभवाद् उभयोरपि साधु5 त्वमसाधुत्वं वाऽविशेषतः स्यात् / अनादिप्रयोगितयां च साधुत्वे प्राकृतस्यैव गाव्यादेः साधुत्वं स्यात्, तस्यैव तत्संभवात् / प्रकृतिरेव हि प्राकृतम्, प्रकृतिश्च स्वभावः, अतः प्रकृतिभूतस्य अर्थस्वरूपावेदकस्य अनादिप्रयोगार्हस्य गाव्यादेरेव साधुत्वं युक्तं न तु संस्कृतस्य गवादेः, तस्य अनादिप्रयोगितानुपपत्तेः। सतो हि वस्तुनो गुणान्तरारोपः संस्कारः, स च आदिमानेव, अत: संस्कृतव्यपदेशादेव संस्कारात् पूर्व विद्यमानं 10 प्रकृतिभूतमन्यत्किञ्चिदस्तीत्यवसीयते। तच्च प्राकृतमेव, इत्यस्यैव अनादिप्रयोगितया साधुत्वमायातम् / अथोच्यते-न प्रकृतिरेव प्राकृतम् , किं तर्हि ? प्रकृतेर्भवम् / ननु केयं प्रकृति र्नाम-यतो भवं प्राकृतम् इत्युच्येत ? किं स्वभावः, धातुगणः, संस्कृतशब्दस्वरूपं वा ? प्रथमविकल्पे 'प्रकृतिरेव प्राकृतम्' इत्ययमेव पक्षोऽङ्गीकृतः स्यात्, प्रकृतेः स्वभावात् 16 लब्धात्मलाभैाव्यादिशब्दैः निखिललोकानां व्यवहारप्रसिद्धेः। द्वितीयविकल्पे तु गवादि शब्दानामपि प्राकृतत्वप्रसङ्गः, धातुगणात् तत्स्वरूपसिद्धरविशेषात्, इति संस्कृतव्यवहाराय दत्तो जलाञ्जलिः स्यात् / संस्कृतशब्दस्वरूपस्य तु प्रकृतित्वमनुपपन्नम् , विकारत्वात्। सतो हि वस्तुनो गुणान्तराधानं संस्कारः स विकाररूपतया कथं प्रकृतित्वं प्रतिपद्येत ? किञ्च, पूर्वापरकालभावित्वे सति प्रकृति-विकृतिभावो दृष्टः / न चात्रं तदस्ति, 20 वैपरीत्यप्रतीते:-'आदिमद्धि संस्कृतम् अनादिमच्च प्राकृतम्' इति / (1) "अथ गावीशब्दस्य वाचकत्वं नोपपद्यते; तदयुक्तम् ; गावीशब्देन बहुलं व्याहरन्ति प्रमातारः।"-तत्त्वो० पृ० 124 / (2) अनादिप्रयोगितासंभवात्। (3) "प्राकृतेति-सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् / 'आरिसवयणे सिद्धं देवाणं अद्धमग्गहा वाणी' इत्यादि वचनाद्वा प्राक् पूर्वं कृतं प्राक्कृतं बालमहिलादिसकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते। मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कारकरणाच्च समासादितविशेषं सत् संस्कृताधुत्तरविभेदानाप्नोति / अत एव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनु संस्कृतादीनि। पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते।"-काव्या० रुद्र० नमि० 2 / 12 / (4) तुलना-"प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् ।"-हेम० प्राकृ०, प्राकृतसर्व०, प्राकृतच०, वाग्भट्टा० टी० 2 / 2 / "एतदेव विपर्यस्तं संस्कारगुणवर्जितम् / विज्ञेयं प्राकृतं पाठचं नानावस्थान्तरात्मकम् ॥"-नाटयशा० 1712 / "प्रकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता।"-षड्भा० / "प्राकृ तस्य तु सर्वमेव संस्कृतं योनिः ।"-प्राकृतसं० / "प्रकृतेः संस्कृतात् साध्यमानात्सिद्धाच्च यद्भवेत् / प्राकृतस्यास्य लक्ष्यानुरोधि लक्ष्म प्रचक्ष्महे ॥"-त्रि० प्रा०प०१। (5) संस्कृतप्राकृतयोः। 1-तया साधु-श्र० / न च श्र०। 3 प्रकृतौ भवम् आ० / 4 इत्युच्यते ब०। 5 धातुगणोक्तरूपसिद्धः ब० / 6 विकारित्वात् श्र / Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] अपभ्रंशादीनां वाचकत्वविचारः 765 अथ मतम्-न गुणान्तराधानं संस्कारः, किं तर्हि ? अभिन्नस्वरूपस्य शब्दस्य सम्यगनधिगतार्थस्य प्रकृति-प्रत्ययादिविभागद्वारेण तदन्तर्गतोऽर्थः प्रकाश्यते इत्येवं रूपः शब्दस्य संस्कार इति; तदप्यसङ्गतम् ; प्रकृतिप्रत्ययादिविभागद्वारेण अर्थकथनस्य व्याख्यानरूपतया संस्कारत्वानुपपत्तेः। नहि वस्त्रादौ तथाविधः संस्कारः कदाचिद् दृष्टः / किं तर्हि ? गुणान्तराधानलक्षणः / तथाप्यस्य संस्कारत्वाभिधाने स्वकम्बलस्य / 'कूलिका' इति नाम कृतं स्यात् / ___एतेन व्यवहर्तृशक्तिद्वारेण अपभ्रश्यतः शब्दस्य रक्षाद्वारेण अविचलितस्वरूपस्यैवावस्थापनं संस्कारः' इति मतान्तरमपि अपास्तम् ; अविचलितरूपतयावस्थापनस्यापि संस्कारत्वेन कचिदप्यप्रतीतेः / अविचलितरूपतया अवस्थापनश्च शब्दानां सादृश्यापेक्षया, नित्यैकरूपापेक्षया वा स्यात् ? यदि सादृश्यापेक्षया; तर्हि गाव्यादि- 10 शब्दस्यापि संस्कृतत्वप्रसङ्गः तदविशेषात् / अथ नित्यैकरूपापेक्षया; तदयुक्तम् / शब्दानां नित्यैकरूपतायाः प्राक् प्रबन्धेन प्रतिषेधात् / तन्न प्रवाहापेक्षया अनादिप्रयोगितातः शब्दानां साधुत्वं सिद्ध्यति / तया तत्साधुत्वाभ्युपैगमे च 'पितरि स्वर्ग गते ज्येष्ठेन पुत्रेण माता वोढव्या' इत्यादिम्लेच्छव्यवहाराणामपि साधुत्वप्रसक्तिः; प्रवाहेण अनादिप्रयोगितायाः तत्राप्यविशेषात् / अथ नित्यत्वापेक्षया अनादिप्रयोगितातः तत्सा- 16 धुत्वसिद्धिः इत्युच्यते; तदप्युक्तिमात्रम् ; शब्दानां नित्यत्वस्य प्रमाणानुपन्नत्वात् / तदनुपपन्नत्वञ्चैषां शब्दानित्यत्वसिद्धौ प्रपञ्चतः प्ररूपितमित्यलमतिप्रसङ्गेन / तन्न अनादिप्रयोगितापि तत्साधुत्वलक्षणम् / नापि धर्मसाधनत्वम् ; तद्धि तेषां साक्षात् ; परम्परया वा स्यात् ? न तावत् साक्षात् ; व्रतानुष्ठानादेः तदर्थस्य आनर्थक्यानुषङ्गात्। परम्परया तत्साधनत्वं तु संस्कृत- 20 (1) "नन्वेवं वयं गुणातिशयमपश्यन्तः संस्कारं केषाञ्चिच्छब्दानामनुमन्यामहे..."वादन्या० पु. 107 / (2) "रक्षार्थ वेदानामध्येयं व्याकरणम् / लोपागमवर्णविकारज्ञो हि सम्यग् वेदान् परिपालयिष्यतीति ।"-पात. महा० पस्पशा०। (3) 10703 / (4) अनादिप्रयोगितया। (5) तुलना-"म्लेच्छव्यवहारा अपि केचित् मातृविवाहादयो मदनोत्सवादयश्चानादयः नास्तिक्यवचांसि च अपूर्वपरलोकाद्यपवादीनि ।"-प्रमाणवा० स्ववृ० 11247 / (6) “लोकतोऽर्थप्रयुक्ते शब्दप्रयोगे शास्त्रेण धर्मनियमः / शब्देनैवार्थोऽभिधेयो नापशन्देनेति / एवं क्रियमाणमभ्युदयस्तत्तुल्यं वेदशब्देन ।"-पात महा० पस्पशा० / 'साधवो धर्मसाधनम्"-वाक्यप० 1127 / (7) तुलना"न धर्मसाधनता; मिथ्यावृत्तिचोदनेभ्योप्यधर्मोत्पत्तिः, अन्येभ्योऽपि विपर्यये धर्मोत्पत्तेः। शब्दस्य सुप्रयोगादेव स्वर्गमोदनघोषणा वचनमात्रम् / नचैवंविधानागमानाद्रियन्ते युक्तिज्ञाः / नच दानादिधर्मसाधनचोदनाशून्यकेवलशब्दसुप्रयोगान्नगपात इति ब्रुवाणस्य कस्यचिन्मुखं वक्रीभवति ।"-वावन्या० . पृ० 106 / "तथा च संस्कृताच्छब्दात्सत्याद् धर्मस्तथाऽन्यतः। स्यादसत्यं यदा ( सत्याद्यदाऽ) धर्मः कः नियमः पुण्यपापयोः।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 290 / प्रमेयक० पृ० 668 / (8) शब्दादनुष्ठेयार्थ 1-चिद्वृष्टम् श्र०। 2 व्यवहारातश-श्र०। 3-लितस्वरूप-ब०, श्र०। 4-रूपतापेक्षया ब०, श्र०। 5-प्रसंगतस्तद-ब०। 6-पगमेपि च श्र०। 7-पेक्षस्यनादि-ब। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 761 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० शब्दवत् प्राकृतशब्दानामप्यविशिष्टम् / विशिष्टपुरुषप्रणीतत्वं विशिष्टार्थाभिधायित्वं बाधारहितत्वं प्रमाणान्तरानुगृहीतत्वम् अनुपहतेन्द्रियग्राह्यत्वञ्च उभयत्राप्यविशिष्टमेव / अनावृतत्वमपि आवृतत्वपूर्वक न शब्दे संगच्छते; स्थायित्वाभावात् / स्थायिन एव हि पदार्थस्य आवृतत्वानावृतत्वे 5 घटेते / शब्दे च स्थायित्वं प्रागेव प्रतिषिद्धम् / / व्याकरणसिद्धस्वरूपत्वञ्च संस्कृतशब्दवत् प्राकृतशब्दानामप्यस्त्येव / यथैव हि संस्कृतव्याकरणेन प्रकृतिप्रत्ययविभागेन शब्दा व्युत्पाद्यन्ते तथा प्राकृतेनापि / अस्याऽव्याकरणत्वे अन्यत्र कः सामाश्वासः ? यच्चान्यदुक्तम्-'संस्कृता वागुद्यते' इत्यादि; तत्राप्यसौ कदा वक्तव्या-कर्मकाले', अध्ययनकाले वा ? अध्ययनकाले चेत् ; कस्य अध्ययनकाले प्राकृतस्य, संस्कृतस्य वा ? न तावत् प्राकृतस्य; ती संस्कृतवाचोऽनभिधानात् , अन्यथा तदध्ययनानुपपत्तिः। अथ संस्कृतस्य; कथं तदध्ययनकाले अंनधीयमानत्वात् प्राकृतवाचोऽसाधुत्वम् ? अन्यस्याध्ययनकाले अन्यस्याऽप्रयोगादसाधुत्वे' तुपुराणाध्ययनकाले वेदवाचामप्यप्रयोगादसाधुत्वं स्यात् / अथ कर्मकाले; कुतस्तदा प्राकृता न वक्तव्याः-अर्थाप्रतिपादकत्वात्, अपशब्द16 त्वात्, अधर्महेतुत्वाद्वा ? तत्राद्यपक्षोऽयुक्तः; गाव्यादिशब्देभ्यः संस्कृतेतरवेदिनां सुस्पष्टाथेप्रतिपत्तिप्रतीतेः। __अपशब्दत्वञ्च गाव्यादिशब्दानां स्वरूपमात्रात्, व्याकरणादनिष्पत्तर्वा ? यदि स्वरूपमात्रात्; तर्हि गोशब्दस्यापि अपशब्दत्वप्रसङ्गः तदविशेषात् / व्याकरणादनि प्पत्तिरपि संस्कृतात्, प्राकृताद्वा स्यात् ? न तावत् प्राकृतात् ; तत्रै तेषां स्वरूपनिष्प20 त्तिप्रतीतेः / संस्कृतव्याकरणतोऽपि गावीशब्दस्य स्वरूपमात्रेणाऽनिष्पत्तिः, अर्थविशेषे वा ? न तावत् स्वरूपमात्रेण; “यत्त्ये तदादि गुं:' [जैनेन्द्र० 1 / 2 / 114] इति गुसज्ञायां सत्यां गोरियं गावी प्रक्रिया इति स्वरूपमात्रेण तनिष्पत्तिप्रसिद्धेः / अथ अर्थविशेषे गोत्वलक्षणे गावीशब्दस्व अतोऽनिष्पत्तेः अपशब्दत्वमुच्यते; तदप्यसुन्दरम् ;तत्रं तस्याऽव्युत्पादकत्वात् / प्राकृतव्याकरणमेव हि गोत्वलक्षणेऽर्थे गावीशब्दं व्युत्पादयति नान्यत् / बोधस्ततोऽनुष्ठानं ततो धर्मोत्पत्तिरिति / (1) तुलना-"न ह्येषां प्रज्ञाबाहुश्रुत्यादिकं संस्कारं पश्यामो नाप्येषामेकान्तेन श्रव्यता / नाप्यर्थप्रत्यायने कश्चिदतिशयः / ""शिष्टप्रयोगः संस्कार इति चेत्; के शिष्टा? ये वेद्यतादिगुणयुक्ताः / कः पुनरेषां गुणोत्कर्षानपेक्षोऽलीकनिर्बन्धो यत्तेऽमूनेव शब्दान् प्रयुञ्जते नापरान्.."-वादन्या० पू० 107 (2) प्राकृतव्याकरणस्य / 3) पृ०७६१५० 14 / (4) प्राकृताध्ययनकाले / (५)प्राकृतव्याकरणे / (6) “यस्य त्यः यत्यः तस्मिन् परतः तदादि शब्दरूपं गुसंज्ञं भवति ।"-शब्दार्ण / (7) 'ग' इति संज्ञा 'अंग'संज्ञास्थानीया। (8) गोत्वलक्षणेऽर्थे / (9) संस्कृतव्याकरणस्य / ____1-ष्टाभिधा-ब० / 2-नावृतत्वं घटते ब०। 3-मस्त्येव ब० / 4 वागुत्पद्यते आ० / 5-ले वा अध्य-। 6 अनभिधीय-श्र। 7-वे प्राकृ-आ। 8 प्राकृताऽसौ न श्र०। 9 सस्पष्टार्थ -श्र०। 10-प्रतिप्रतीतेः आ०, ब० / 11 त्येतदा-श्र० / Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] ब्राह्मणत्वजातिविचारः 767 अव्युत्पादकादनिष्पत्तेश्चास्य अपशब्दत्वे गोशब्दस्याप्यपशब्दत्वप्रसङ्गः, प्राकृतव्याकरणातस्याप्यनिष्पत्तेरविशेषात् / अतः संस्कृतेतरव्याकरणप्रसिद्धयोः गोगावीशब्दयोः गोत्वलक्षणार्थाभिधायित्वेन प्रवृत्तेः कुतोऽयं नियमः 'गोशब्द एव गोत्वस्य वाचको न गावीशब्दः शब्दः तथा' / यथैवं हि तुल्यप्रमाणावधारितवाचकत्वा वृक्षतरुपादपादयः पर्यायश ब्दाः तथा गोगाव्यादयोऽपि। तथाहि-मो-गावी-गौणी-गोपोतलिकेत्यादयः शब्दाः गोत्वस्य / वाचकाः वृद्धस्तत्र अविगानेन प्रयुज्यमानत्वात् गौः उश्रा(स्रा)इत्यादिवत् / तथा, गाव्यादयः शब्दाः गोत्वे अनादिप्रयोगाः अनवगम्यमानाऽवधित्वात् 'गौरुश्रा(स्रा)इत्यादिवत् / ____ अथ अधर्महेतुत्वादसाधुत्वमस्याः; ननु कदा तस्या अधर्महेतुत्वम्-सर्वदा, यागादिकर्मकाले वा ? यदि सर्वदा; न कदाचिद् धर्मस्यावसरः स्यात् , नित्य-नैमित्तिकानुष्ठानसमयेऽपि प्राकृतशब्दानां घृतसमिदाद्यभिधायिनां गोभूम्यादिदानाभिधायिनाश्च 10 प्रयुक्तानामधर्मस्यैव हेतुत्वप्रसङ्गात् / अथ यागादिकर्मकाले; महत् तत्कर्मणो माहात्म्यं येनान्यदा अधर्मस्याजनकमपि आत्मसत्ताकाले[s]धर्मजनकं करोति इति / किञ्च, प्राकृतवचसामधर्महेतुत्वनियमः तदा सिद्ध्येत् यदा संस्कृतानां तेषां धर्महेतुत्वनियमः स्यात् / तन्नियमाभ्युपगमे च नटभटवरुटचर्मकारादीनां संस्कृतवेदवचोऽभिधायिनां प्राकृतवक्तुमासोपवासिन्यादिभ्यः अतीवाधिकधर्मोत्पत्तिः स्यात् / 15 अथ ब्राह्मणस्यैव तदभिधायिनो धर्मः नान्यस्येति चेत्, न; ब्राह्मण्यस्य कुतश्चिदपि प्रमाणादप्रतीतेः ॥छ।। ननु प्रत्यक्षेणैव ब्राह्मण्यं प्रतीयते; विस्फारिताक्षस्य पुरोव्यवस्थितेषु क्षत्रियादिसनियनिकलावि चेषु तद्वैलक्षण्येन 'ब्राह्मणोऽयं ब्राह्मणोऽयम्' इत्यनुगतैकाकारप्रत्ययमोपेता योनिनिबन्धना विषयतया ब्राह्मणसङ्घ मनुष्यत्वाद्यतिरिक्तस्य अनुगतैकाकारस्य ब्राह्मण- 20 ब्राह्मण्यजातिरिति मीमां- (ण्य)स्य प्रतिभासप्रतीतेः / न चायं प्रत्ययः सन्दिग्धः; उभयकोसकादीनां पूर्वपक्षः- टिसंस्पर्शित्वाभावात् / नापि विपर्यस्तः; दोषरहितैः कारणैरारब्धत्वात् . बाधकप्रत्ययरहितत्वाच्च / यदि च ब्राह्मण्यं प्रत्यक्ष न स्यात् तदा 'ब्राह्मणोऽयं पुरुषः' इति विशिष्टप्रतिभासो न स्यात् / अत्र हि ब्राह्मणत्वानुरागविशिष्टः पुरुषः प्रतिभासते, न पुनः (1) गावीशब्दस्य / (2) तुलना-"तस्मात्पर्यायशब्दत्वात् गाव्यादेत्तरुवृक्षवत् / आचारेण प्रयोज्यत्वं न शास्त्रस्थैर्निवारितम् ॥"-तन्त्रवा० 1324 / (3) तुलना-"गावीगोण्यादयः शब्दाः सर्वे गोत्वस्य वाचकाः / वृद्धस्तत्र प्रयुक्तत्वाद् गोरुस्रेत्येवमादिवत् ॥"-तन्त्रवा० 1 / 3 / 24 / (4) म्लेच्छजातिविशेषः / “पुलिन्दा नाहलाः निष्टया शवरा वरुटा भटाः / माला भिल्ला: किराताश्च सर्वेऽपि .म्लेच्छजातयः ।।"-हैमः / (5) ब्राह्मणोऽयं ब्राह्मणोऽयमित्यनुगतप्रत्ययः / 1-भिधायकत्वेन ब०, श्र०। 2-त्वात् वृक्ष-ब०। 3-गौणातलि-श्र० / 4 गोरूपत्वेत्याब०, गोरुक्षेत्या-श्र०। 5 गोरूपत्वेत्या-ब०।-चरुट-आ०. ब.17 यदि ब्राह्म-आ०। एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ० / 8-1 पुनः पुरुषमात्रं श्र०। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 768 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० प्रतिभासते तच्छून्यं पुरुषमात्रम् / तत्प्रतिभासे हि 'पुरुषोऽयम्' इति प्रतिभासः स्यांत नतु 'ब्राह्मणोऽयम्' 8 इति, पुरुषातिरेकित्वाद् ब्राह्मण्यस्य / न च अप्रतिपन्ने विशेषणे विशिष्टः प्रत्ययो युक्तः ; अतिप्रसङ्गात् / न च तथाभूतस्य ब्राह्मण्यस्य अर्थेषु संभवे प्रथ मदर्शनेऽपि प्रतिभासप्रसङ्गः; यतः स्वविशेषव्यङ्ग्या जातिः, विशेषाश्च ईतरजातिपरिहा। रेण अवभासमाना जात्यन्तरपरिहारेण स्वजातीय॑ञ्जयन्ति यथा गवाश्वादयः, अतः तत्रै प्रतिभाताऽपि जातिः व्यञ्जकभेदाग्रहणान्नोल्लिखति / व्यञ्जकभेदाग्रहणश्च अत्यन्तसुसहशावयवत्वादुपपन्नम् अत्यन्तसुसदृशगोगवयवत् / दृश्यते च द्रव्यपरीक्षकाणां कूटाकूटविवेके मणिपरीक्षकाणाञ्च मणिकाचादिविवेके अवधानवतां नैसर्गिकाभ्यासिकप्रतिभाससामग्रीसद्भाव एव कूटाकूटविवेको मणिकाचादिविवेकश्व, एवमत्रापि 'अविप्लुतेन ब्राह्मणेन अविप्लुतायां ब्राह्मण्यामुत्पन्नः ब्राह्मणः' इत्याद्यौपदेशिकमातापितृब्राह्मण्यज्ञानलक्षणसामग्रीसद्भाव एव 'ब्राह्मणोऽयम्' इति विवेकेन प्रतिभासाविर्भावो भवति / यदि वा, तद्ब्राह्मण्यज्ञाननिरपेक्षः 'ब्राह्मणोऽयम्' इत्युपदेशसहकृतेन इन्द्रियेण 'ब्राह्मणोऽयम्' इति ब्राह्मण्यजातिग्राही प्रत्ययो जन्यते / न च सामध्यभावात् यन्न प्रतिभासते तन्नास्तीति वक्तुं युक्तम् ; अतिप्रसङ्गात् / अविप्लुतत्वञ्ज मातापित्रोः पंवादाभावान्निश्चीयते / व्यभिचारो (1) ब्राह्मणत्वरहितम् / (2) ब्राह्मणत्वशून्यपुरुषमात्रप्रतिभासे। (3) पुरुषेषु / (4) "ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जातो ब्राह्मणः स्यान्न संशयः / क्षत्रियायां तथैव स्याद् वैश्यायामपि चैव हि // " -महाभा० अनु० 47 / 28 / "सुवर्ण व्यज्यते रूपात्तामत्वादेरसंशयम् / तैलाद घतं विलीनञ्च , गन्धेन च रसेन च // भस्मप्रच्छादितो वह्निः स्पर्शनेनोपलभ्यते। अश्वत्वादौ च दूरस्थे निश्चयो जायते स्वनः। संस्थानेन घटत्वादि ब्राह्मणत्वादि योनितः / क्वचिदाचारतश्चापि. सम्यग्राजानुपालितात् ॥"-मी० श्लो० वन० श्लो० 27-29 / “कथं पुनरिदं लोकस्य प्रसिद्धम् ? प्रत्यक्षेणेति ब्रूमः / कस्मात्पुनः मातापितसम्बन्धानभिज्ञाः चक्षुःसन्निकृष्टेषु मनुष्येष्वनाख्यातं न प्रतिपद्यन्ते ? शक्त्यभावात् यथा वृक्षत्वं प्रागभिधानव्युत्पत्तेः / तेन यथैवालोकेन्द्रियानेकपिण्डानुस्यूतिशब्दस्मरणव्यक्तिमहत्त्वसनिकर्षाकारविशेषादयोऽन्यजातिग्रहणे कारणं तथैवात्र उत्पादकजातिस्मरणम् / अयञ्चोत्पाद्योत्पादकसम्बन्धो मातुरेव प्रत्यक्षोऽन्येषां तु अनुमानाप्तोपदेशावगतः कारणम् / नच तप आदीनां समुदायो ब्राह्मण्यम्, न तज्जनितः संस्कारः, न तदभिव्यङग्या जातिः। किं तर्हि ? मातापितृजातिज्ञानाभिव्यङ ग्या प्रत्यक्षसमधिगम्या ।"-तन्त्रवा० 1 / 2 / 2 / “तस्मात्समानाकारेष्वपि पिण्डेषु विलक्षणब्राह्मणप्रत्ययवेद्यब्राह्मण्यादिजाति पह्नोतुं शक्यते ।."-तन्त्रवा० न्यायसु० पृ० 10-15 / “यथा ब्राह्मणत्वादिजातिरुपदेशसव्यपेक्षचक्षुरिन्द्रियग्राह्यापि न प्रत्यक्षगम्यतामपोज्झति यथा च ब्राह्मणत्वादिजातिप्रतीतौ कारणान्तरमुक्तं क्वचिदाचारतश्चापि सम्यग्राजानुपालितादिति मन्वादिदर्शितानवद्यवानुसरणनिपुणनरपतिपरिपाल्यमानवर्णाश्रमाणां शङ्कितकपटकृतकार्यवेशदृष्टशूद्रव्यभिचारे देशे विशिष्टाचारगम्यापि ब्राह्मणत्वादिजातिर्भवति ।"-न्यायमं०१० 422 / (5) मातापितृब्राह्मण्यज्ञान / (6) "स्त्र्यपराधात्तु दुर्ज्ञानोऽयं सम्बन्ध इति स्वयमेव वक्ष्यति / न च तावन्मात्रेण प्रत्यक्षता हीयते / न हि यगिरिशृङ्गमारुह्य गृह्यते तदप्रत्यक्षम। न च स्त्रीणां क्वचिद् व्यभिचारदर्शनात् सर्वत्रैव कल्पना युक्ता। लोकविरुद्धानमानासंभवात्। विशिष्टेन हि प्रयत्नेन महाकुलीनाः परिरक्षन्त्यात्मानम्, अनेनैव हेतुना राजभिाह्मणैश्च स्वपितृपितामहा ____ 1 ब्राह्मणस्य ब०, श्र०। 2 ब्राह्मणस्य ब०,०। 8 इतरज्ञाति-आ०। 4 प्रतिज्ञातापि आ०, श्र० / 5-सामण्यासभा-ब० / 6 इत्यौपदेशि-ब०, इत्यापदे-श्र० / Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५ ] ब्राह्मणत्वजातिविचारः 766 हि प्रवादेन व्याप्तः, अतः प्रवादो निवर्तमानः व्यभिचारं निवर्त्तयति, व्यापकनिवृत्तौ व्याप्यस्याऽनिवृत्तिविरोधात् / यदि च ब्राह्मणशब्दस्य ब्राह्मण्यजातिरर्थो न स्यात् तदाऽयमनर्थकः स्यात् , न चैतद् युक्तम् , एतदुच्चारणानन्तरभाविनोऽर्थप्रत्ययस्य उपलभ्यमानत्वात् / तन्निबन्धनव्यवहारस्य च 'ब्राह्मणं भोजय' इत्यादिरूपस्य असन्दिग्धाबाधितस्य सुप्रतीतत्वात्। पाशुपता- 5 दिलिङ्गिनामपि ब्राह्मणत्वादिजात्यनुरूपो नामचिह्नाचारोपदेशादिव्यवहारो दृश्यते, अतः सुदृढव्यवहारदर्शनाद् व्यक्तिभ्योऽर्थान्तरभूता प्रत्यक्षतः प्रसिद्धा ब्राह्मण्यजातिः / ___ तथा अनुमानतोऽपि; तथाहि-असति प्रतिबन्धके यो यदाकारः प्रत्ययः स तदाकारविषयनिमित्तकः यथा नीलादिप्रत्ययः, असति प्रतिबन्धके भवति च 'ब्राह्मणोऽयं ब्राह्मणोऽयम्' इत्यनुगतैकाकारः प्रत्ययः, तस्मात् पिण्डव्यतिरिक्त-अनुगतैकाकारब्राह्म- 10 ण्यनिमित्तक इति। यदाकारो हि प्रत्ययः विषयेणापि तदाकारेणैव भवितव्यम् , अन्यथा नीलादिप्रत्ययस्य अनीलादिविषयत्वप्रसङ्गात् प्रतिनियतवस्तुव्यवस्थाविलोपानुषङ्गः। तथा, ब्राह्मणपदं व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताऽभिधेयसम्बद्धम् पदत्वात् पटादिपदवत् / न चायमसिद्धो हेतुः; धर्मिणि विद्यमानत्वात् / नापि विरुद्धः; विपक्ष एवाऽवृत्तेः। नाप्यनैकान्तिकः ; पक्षसपक्षवद् विपक्षेऽप्यप्रवृत्तेः। नापि साधनविकलो दृष्टान्तः ; पटा- 15 दिपदेषु पदत्वस्य विद्यमानत्वात् / नापि साध्यविकल: ; ते व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेयसम्बद्धत्वाभावे व्यक्तीनामानन्त्येन अनन्तेनापि कालेन सम्बन्धग्रहणानुपपत्तेः / तथा वर्णविशेषाध्ययनाचारयज्ञोपवीतादिव्यतिरिक्तनिमित्तनिबन्धनं 'ब्राह्मण' इति ज्ञानं तन्निमित्तबुद्धिविलक्षणत्वात् गवाश्वादिज्ञानवदिति / दिपारम्पविस्मरणार्थ समूहलेख्यानि प्रवर्तितानि / तथा च प्रतिकूलगुणदोषस्मरणात्तदनुरूपा: प्रवृत्तिनिवृत्तयो दृश्यन्ते ।"-तन्त्रवा० 12 / 2 / “स्त्रीत्वस्य व्यभिचाराप्रयोजकत्वसूचनार्थोऽनुमाने कल्पनाशब्दः / न च निर्मूलकत्वेन लोकस्याप्रामाण्यम्; प्रयत्नेन रक्षणे योग्यान त्वसंभवादिति दर्शयितुमाह-विशिष्टेन हीति / महाकुलीनानां पुरुषाणां स्त्रीरक्षणमेव आत्मरक्षणम्, जायायां रक्ष्यमाणायामात्मा भवति रक्षित इति स्मरणात / यद्वा दुष्कूलप्रसूतत्वं व्यभिचारशीलत्वे प्रयोजकं न स्त्रीत्वमिति दर्शयितुं महाकुलीनत्वं स्त्रीणामुक्तम् / व्यभिचाराभावनिश्चयमेव अभियुक्तवृद्धव्यवहारेण द्रढयति अनेनैवेति। व्यभिचाराभावानिश्चये हि निर्मलत्वात पितृपितामहादिपरम्परालेखनात्मकसमूहलेख्यं व्यर्थं स्यादिति भावः / कुलपरीक्षापूर्वकेदानीन्तनपुरुषगतविवाहादिव्यवहारेणापि तमेव द्रढयति तथा चेति ।"-तन्त्रवा० न्यायसु० पृ०१२। “यत्र यावदूपलब्धिसामग्री तावत्यां सत्यामपि यासां व्यभिचारो न दृश्यते तासां नास्त्येव व्यभिचार इति लोकप्रमाणकमेतत् / अपि च अप्रमत्तः स्त्रियो रक्षणीयाः, तासू नास्त्येव व्यभिचारसंभावनावकाशो यासु त्वस्ति मा भूत तदपत्येष तत्सन्ततिप्रभवत्वनिश्चयः / न चैतावता यत्रापि निश्चयः शक्यस्तत्रापि अनिश्चय इति युक्तमिति ।"-प्रक० 50 50 31 / (1) ब्राह्मणशब्दप्रयोगः / (2) शैवादिभेदानाम् / (3) ब्राह्मणोऽयमिति प्रत्ययः पिण्डव्यतिरिक्तब्राह्मण्यनिबन्धनः असति प्रतिबन्धके ब्राह्मणोऽयमित्याकरतया समुत्पद्यमानत्वात् / (4) पटादिपदेषु / (5) पटव्यक्तितो व्यतरिक्तमेकं निमित्तं पटत्वाख्यम् / ____1-चारं विनि-ब०। 2-तस्य प्रती-ब० / 3 सुदृढं व्यव-श्र० / Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 770 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० तथा 'ब्राह्मणेन यष्टव्यं ब्राह्मणो भोजयितव्यः" / ] इत्याद्यागमादपि ब्राह्मण्यजातिः प्रसिद्धा / तथा 'वेदेतिहासपुराणप्रसिद्धा चासौ "श्रादौ ब्रह्मा मुखतो ब्राह्मणं ससर्ज, बाहुभ्यां क्षत्रियम्, उरुभ्यां वैश्यम् पद्भ्यां शूद्रम्" [ ] इत्यादि वचसां भूयसां तत्र तत्प्रतिपादकानां श्रवणादिति / अत्र प्रतिविधीयते। यत्तावदुक्तम्-'प्रत्यक्षेणैव ब्राह्मण्यं प्रतीते' इत्यादि; तदसमीसदृशपरिणाम चीनम् ; यतः किं केवलेन्द्रियजनितेन तेन तत्प्रतीयेत, अन्यसहकृतेन्द्रियब्राह्मण्यम् , नतु जनितेन वा? प्रथमपक्षे किं निर्विकल्पकेन, सविकल्पकेन वा तजनियोनिनिबन्धनमिति तेन तेन तत्प्रतीयेत ? न तावन्निर्विकल्पकेन; तत्रे जात्यादिप्रतिभासासमर्थनम्- भावात् , भावे वा निर्विकल्पकत्वविरोधः कथमन्यथेदं शोभेत10 “अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम् / बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् // ततः परं पुनर्वस्तुधमैर्जात्यादिभिर्यया / बुद्धयावसीयते सापि प्रत्यक्षत्वेन सम्मता // " मी० श्लो० प्रत्यक्ष० श्लो० 112, 120] इति / नापि सविकल्पकेन; अस्य निर्विकल्पकाविषये प्रवृत्त्यनुपपत्तेः / उपपत्तौ वाऽतिप्रसक्तेः / न च विस्फारिताक्षस्य पुरोवर्त्तिखण्डमुण्डकर्कादिव्यक्तिषु गवाश्वादिजातिवत् (1) ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाह राजन्यः कृतः / ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत॥"ऋग्० पुरुष० 12 / “अस्य प्रजापतेः ब्राह्मणत्वजातिविशिष्ट: पुरुषः मुखमासीत् मुखादुत्पन्न इत्यर्थः / योऽयं राजन्यः क्षत्रियत्वजातिविशिष्ट: स बाह कृतो बाहुत्वेन निष्पादितो बाहुभ्यामुत्पादित इत्यर्थः / तत्तदानीमस्य प्रजापतेर्यद्यावूरू तद्रूपो वैश्यः सम्पन्नः ऊरुभ्यामुत्पादित इत्यर्थः / तथास्य पद्भ्यां पादाभ्यां शूद्रः शुद्रत्वजातिमान् पुरुषोऽजायत। इयञ्च मुखादिभ्यो ब्राह्मणादीनामुत्पत्तिर्यजुःसंहितायां (31 / 11) सप्तमकाण्डे 'स मुखतस्त्रिवतं निरमिमीत' इत्यादौ विस्पष्टमाम्नाता।"-सायणभा०। (2) 10768 पं०१८ / (3) तुलना-"तत्र कि निर्विकल्पकात विकल्पकाद्वा ततस्तत्प्रतिपत्तिः स्यात्।"-प्रमेयक०प० 482 / स्या०र० प्र० 958 / (4) इन्द्रियजनितेन प्रत्यक्षेण / (5) निविकल्पके। (6) व्याख्या"यस्त्वपिशब्दमसहमानः सर्वमेव ज्ञानं शब्दानुविद्धत्वात् सविकल्पकमेव न किञ्चिन्निविकल्पकमस्तीति मन्यते तं प्रत्याह-अस्तीति। बालानामिव अव्युत्पन्नानामस्माकमपि चक्षुःसन्निपातानन्तरं सविकल्पकात प्रथममस्ति निर्विकल्पकं प्रतीतिसिद्धमालोचनविज्ञानं शुद्धवस्तुविषयम, तदभावे हि निनिमित्तं शब्दस्मरणं स्यात् / अस्मृतशब्दस्य च (न) शब्दानुविद्धो विकल्पः संभवतीति / शुद्धवस्तुजमित्येतद्विवृणोति-न विशेषो न सामान्यं तदानीमनुभूयते / तयोराधारभूता तु व्यक्तिरेवावसीयते / महासामान्यमन्यैस्तु द्रव्यं सदिति चोच्यते ।"-मी० श्लो० न्यायर० / उद्धृतोऽयम्-'ज्ञानमाद्यं चेन्निर्विकल्पकम्'-तत्त्वसं० 10 385 / प्रमेयक० पृ० 482 / प्रमेयर० पृ०७४ / स्या० र० पृ० 958 / स्या० मं० श्लो० 13 / 'ह्यालोचनं ज्ञानं'-षड्द० बृह० पृ० 11 / (7) ततो निर्विकल्पकादुत्तरकालं जात्यादिभिर्विकल्प्य वस्तु यया बुद्धया गृहते साऽपि प्रत्यक्षमेवेति ।"-मी० श्लो० न्यायर० / उद्धृतोऽयम्-तत्त्वसं० पृ० 385 / प्रमेयक० पृ०४८२। स्या० र० 958 / (8) मनोराज्यादिविकल्पादपि वस्तुसिद्धिप्रसङ्गात् / (9) तुलना-"विस्फारिताक्षस्य पुरोवर्तिखण्डमुण्डकर्कादिव्यक्तिषु गवाश्वादिजातिवत् मनुष्यव्यक्तिषु मनुष्यत्वपुंस्त्वाद्यतिरिक्तब्राह्मणस्य कस्यचिदप्रतिभासात् ।"-स्या० र० पृ० 958 / . 1 इति वचसांब०। 2 वचसां तत्र श्र० ।-वा तत्प्र-ब०। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] ब्राह्मणत्वजातिविचारः مقای शुक्लत्वादिगुणवद्वा मनुष्यव्यक्तिषु मैनुष्यत्वपुंस्त्वाद्यतिरिक्तस्य ब्राह्मण्यस्यैकस्य अखिलस्वव्यक्तिष्वनुगतस्य प्रतिभासोऽस्ति / कथमेवं क्वचिद् ब्राह्मणत्वानुरक्तोऽनुगतप्रत्ययः स्यादिति चेत् ? सङ्केतवशात् , यथैव हि परस्परविलक्षणेषु गोवादिषु एकगोत्वरूपसामान्याभावेऽपि गौः गौः' इत्यनुगताकारैकप्रत्ययः तथा अन्योन्यविलक्षणेष्वपि मनुष्यव्यंक्तिविशेषेषु 'ब्राह्मणोऽयं ब्राह्मणोऽयम्' इत्यनुगताकारैकप्रत्ययो भविष्यति। वस्तुसामर्थ्य- 5 प्रभवत्वे तु अगृहीतसङ्केतास्वपि व्यक्तिषु तन्मात्रोपलम्भेनैव अव्यभिचारिगोप्रत्ययवत् से स्यात् , न चैवम् / न खलु यथा महिषादिस गवां गोजातिः वैलक्षण्येन प्रतिभासते खसङ्घ च गुणः क्रिया वा, तथा ब्राह्मण्यमपि / नहि हस्तपादाद्याकारव्यङ्ग्यमनुष्यत्वाद् व्यतिरिच्यमानपुंस्त्वादिसामान्यवत् ब्राह्मणत्वं वैविक्तधेन जातु प्रतिभासते / अन्यसहकृतेन्द्रियजनितेनापि तेनें निर्विकल्पकेन, सविकल्पकेन वा तत् प्रतीयेत ? 10 उभयत्र उक्तदोषानुषङ्गः / किञ्च, इन्द्रियाणां तद्विषयं प्रत्यक्षमुपजनयतां किं तदन्यत् सहकारित्वेन अभिप्रेतम्-ब्राह्मणभूतपितॄजन्यत्वम् , पित्रोरविप्लुतत्वोपदेशः, आचारविशेषः, संस्कारविशेषः, वेदाध्ययनम् , यज्ञोपवीतादिकम् , ब्रह्मप्रभवत्वं वा ? तंत्राद्यः पक्षोऽनुपपन्नः; यतः पित्रोर्ब्राह्मण्ये सिद्धे तजन्यत्वेन पुत्रस्य ब्राह्मण्यं सिद्ध्येत् , तँच्चानयोः ब्राह्मणभूतपितृ- 15 जन्यत्वात् सिद्ध्येत् , तथाभूतपुत्रजनकत्वाद्वा ? प्रथमपक्षे अनवस्था। बीजाङ्कुरवदनादित्वात् तत्कार्यकारणप्रवाहस्य अतो नानवस्था दोषाय; इत्यप्ययुक्तम् ; यतो बीजाङ्कुरयोः कार्यकारणभावः पूर्वबीजाकुरकार्यकारणभावग्रहणनिरपेक्षः प्रमाणतः प्रतीयते, अत्र तु पूर्वपूर्वब्राह्मण्यप्रतिपत्त्यभावे परापरब्राह्मण्यप्रतिपत्तेः कर्तुमशक्यत्वान्न दृष्टान्त-दार्टीन्तिकयोः मनागपि साम्यम् / द्वितीयपक्षे तु अन्योन्याश्रयः-सिद्धे हि पितृब्राह्मण्ये ब्राह्मण- 20 भूतपितृजन्यत्वेन पुत्रब्राह्मण्यसिद्धिः; तत्सिद्धौ च ब्राह्मणभूतपुत्रजनकत्वात् पितृब्राह्मण्यसिद्धिरिति / (1) वस्तुमात्रोपलभ्भेनैव / (2) ब्राह्मणोऽयं ब्राह्मणोऽयमिति प्रत्ययः / (3) मनुष्यत्वं हि स्त्रीषु पुरुषेषु च व्याप्तम् , पुरुषत्वं तु पुरुषमात्र एव / (4) प्रत्यक्षेण / (5) ब्राह्मण्यम् / (6) "ननु किमिदमिन्द्रियसहकारित्वेनावेष्टम्-ब्राह्मणभूतस्वपितृजन्यत्वम्, पितृगोचरोऽविप्लुतत्वोपदेशः, आचारविशेषः, संस्कारविशेषः, वेदाध्ययनम् , यज्ञोपवीतादिकम् , ब्रह्मप्रभवत्वं वा ?"-स्या०र० पृ० 958 (7) तुलना-"यतः पित्रादिब्राह्मण्यज्ञानं प्रमाणमप्रमाणं वा ?"-प्रमेयक० पृ०४८३ / (8) * "तच्चानयोः ब्राह्मणभूतपितृजन्यत्वात् सिद्धयेत् तथाभूतपुत्रजनकत्वाद्वा ?"-स्या० र० पृ० 159 / 1 मनुष्यपुंस्त्वा-आ०, ब०। 2-स्त्वाद् व्यति-श्र०। 3 ब्राह्मणस्य-आ०,श्र० / 4-गत: * प्रत्य-ब०। 5-व्यक्तिषु मनुष्यत्वपुंस्त्वाव्यतिरिक्तस्य ब्राह्मणोऽयं श्र०। 6-चारी गोप्रत्य-आ०,ब०। 7महिष्यादि-श्र० / 8 स्वस्वसंघ ब०। 9-स्वाद्यतिरि-ब०, आ०। 10 जातिः प्रति-श्र० / 11-जन्मत्वं ब०। 12 तत्राद्यप-ब०। 18 ब्राह्मण्यभूत-श्र०। 14-ह्मण्यभावेपरा-श्र। 15 पुत्र. ब्राह्मण्यसिद्धिः तत्सिद्धौ च ब्राह्मण्यसिद्धिः तत्सिद्धौ च ब्राह्मण-आ०। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 772 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० . 'अविप्लुतेन ब्राह्मणेन अविप्लुतायां ब्राह्मण्यामुत्पन्नो ब्राह्मणः' इत्यविप्लुतमातापित्रुपदेशस्तत्सहकारी; इत्यपि श्रद्धामात्रम् ; प्रमाणतोऽप्रतिपन्नेऽर्थे वास्तवोपदेशासंभवात् / यन्न कुतश्चित् प्रमाणात् प्रतीयते न तत्रोपदेशो वास्तवः यथा सकलशून्यतायाम् , कुतश्चि दपि प्रमाणान्न प्रतीयते च भवत्कल्पितं ब्राह्मण्यमिति / अथ प्रत्यक्षत एव ब्राह्मण्यं प्रतीत्य 6 यथोक्तोपदेशो विधीयते; तदसत्; परस्पराश्रयप्रसङ्गात्-सिद्धे हि ब्राह्मण्यप्रत्यक्षत्वे प्रमाणभूतयथोक्तोपदेशसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तथाभूतोपदेशसहकृतेन इन्द्रियेण ब्राह्मण्यप्रत्यक्षतासिद्धिरिति / अविप्लुतत्वञ्च विवक्षितपित्रपेक्षया, अनादिकालपितृप्रवाहापेक्षया वा अभिप्रेतम् ? यदि विवक्षितपित्रपेक्षया; तत्रापि अनयोः तजन्मनि अविप्लुतत्वमभिप्रेतम् , अनादि10 काले वा ? तज्जन्मनि चेत् ; केन तत्तत्र तयोः प्रतीयेत-पुत्रेण, अन्यैर्वा ? न तावत् पुत्रेण; स्वजन्मकालेऽपि तस्य तद्विवेचनासामर्थ्यात् / नाप्यन्यैः; तद्धि तैः प्रत्यक्षतः प्रतीयेत, अनुमानात् , आगमाद्वा ? न तावत् प्रत्यक्षतः; 'अयमेतस्मादेव एतस्यामुत्पन्नः'. इत्येवंरूपस्यार्थस्य अर्वाग्दृशा प्रत्यक्षीकर्तुमशक्यत्वात् / नाप्यनुमानात् ; प्रत्यक्षाविषये भवता अनुमानाऽनभ्युपगमात् / लिङ्गाच्च अनुमानमुदयमासादयति / न च पित्रविप्लु15 तत्वे किञ्चिल्लिङ्गमस्ति / तत्र हि लिङ्गम्- पित्रोः संवृताकारादिविशेषः, अपत्येष्वविल क्षणता वा ? तत्राद्यपक्षोऽयुक्तः, दुश्चारिणाम् अतीव संवृताकारदर्शनात् / द्वितीयपक्षोऽप्यपेशल:; यतो यदि विप्लुतेतरपितृप्रभवाऽपत्येषु विलक्षणाकारता सिद्ध्येत् तदा अवि (1) तुलना-"न खल द्विजादिभावः प्रमाणगोचरचारी। स हि जातियोगलक्षण: गोत्रलक्षण: क्रियासामर्थ्यातिशययोगो वा ? * 'परोपदेशप्रामाण्यं प्रत्यक्षार्थे न यक्तिमत् / उपदेशो हि लोकानामन्यथापि प्रवर्तते।"-प्रमाणवातिकालं०१० 22 // "नचोपदेशसहायाध्यक्षगम्यं तत्; अध्यक्षविषये उपदेशापेक्षायोगात् / तद्योगे वा उपदेशस्यैव केवलस्य व्यापार इति उपदेशमात्रव्यङ्ग्यतैव ।"-सन्मति० टी० पू० 697 / (2) ब्राह्मण्ये नोपदेशो वास्तवः प्रमाणतोऽप्रतीयमानत्वात्। (3) "किञ्च, ब्राह्मण्यजाते. प्रत्यक्षतासिद्धौ यथोक्तोपदेशस्य प्रत्यक्षहेतुतासिद्धिः, तत्सिद्धौ च तत्प्रत्यक्षतासिद्धिरित्यन्योन्याश्रयः ।"-प्रमेयक० ए० 483 / स्या० र० पृ० 959 / (4) तुलना-"शुद्धिवंशद्वयीशुद्धौ पित्रो पित्रोर्यदेकशः / तदानन्तकुलादोषाददोषा जातिरस्ति का। कामिनीवर्गसंसगर्न कः सङ्क्रान्तपातकः।" -नैषध० 17440-41 / "अविप्लुतत्वञ्च विवक्षितपित्रपेक्षया अनादिकालपितृप्रवाहापेक्षया वाडभिप्रेतम् ? यदि विवक्षितपित्रपेक्षया; तत्राप्यनयोस्तज्जन्मन्यविप्लुतत्वमभिमतमनादिकाले वा ? तज्जन्मनि चेत्; तर्हि केन तत्र तयोः प्रतीयेत पुत्रेण अन्यैर्वा ?"-स्या० र० पृ० 959 / (5) विवक्षितपित्रपेक्षया तज्जन्म-यविप्लुतत्वम्। (6) "नच पित्रोरविप्लुतत्वे किञ्चिल्लिङ्गमस्ति, तद्वि (द्धि) संवताकारादिविशेषः अपत्येष्वविलक्षणता वा ?"-स्या० 2010 959 / (7) तुलना"नच विप्लुतेतरपित्रपत्येषु वैलक्षण्यं लक्ष्यते / न खलु वडवायां गर्दभाश्वप्रभवापत्येष्विव - ब्राह्मण्यां ब्राह्मणशूद्रप्रभवापत्येष्वपि वैलक्षण्यं लक्ष्यते ।"-प्रमेयक० पु० 483 // स्या० र० पृ० 959 / “न च जात्यन्तरस्थेन पुरुषेण स्त्रियां क्वचित् / क्रियते गर्भसंभूतिविप्रादीनां तु जायते // अश्वायां रासभेनास्ति संभवोऽस्यति चेन्न सः। नितान्तमन्यजातिस्थः शफादितनुसाम्यतः // यदि वा 1 तज्जन्यविप्लुत-श्र०। 2 पितृविप्ल-आ०, ब०। 3-पितृभवा-ब० / Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५ ] ब्राह्मणत्वजातिविचारः 773 10 लक्षणाकाराऽपत्योपलम्भात् पित्रोरविप्लुतत्वं निश्चीयते, न चासौं सिद्धा / न खलु वडवायां गर्दभाश्वप्रभवाऽपत्येष्विव ब्राह्मण्यां ब्राह्मणशूद्रप्रभवापत्येष्वपि वैलक्षण्यं स्वप्नेऽपि प्रतीयते / आगमतोऽपि अपौरुषेयात्, पौरुषेयाद्वा तयोरविप्लुतत्वप्रतिपत्तिः स्यात् ? न तावदपौरुषेयात्; तत्प्रतिपादकस्य अपौरुषेयस्य आगमस्यैवाऽसंभवात् / पौरुषेयोप्यागमः तत्प्रणेत्रा प्रमाणान्तरेणानयोरविप्लुतत्वे प्रतिपन्ने सति प्रवर्त्तमानः प्रमाणतां / भजते, 'न तत्प्रतिपत्तिः कुतश्चिदस्ति' इत्युक्तम् / तन्न तज्जन्मनि अनयोरविप्लुतत्वं कुतश्चित् प्रत्येतुं शक्यम् / एतेन अनादिकाले तैयोस्तत्प्रतिपत्तिः प्रत्याख्याता; ययोर्हि तज्जन्मन्यप्यविप्लुतत्वं प्रत्येतुं न शक्यते तयोः अनादिकाले तत् प्रतीयते इति महच्चित्रम् ! एतेन अनादिकालपितृप्रवाहापेक्षया अविप्लुतत्वप्रतिज्ञा प्रतिव्यूढा / किञ्च, सदैव अबलानां कामातुरतया इह जन्मन्यपि व्यभिचारोपलम्भात् अनादौ काले ताः कदा किं कुर्वन्तीति ब्रह्मणापि ज्ञातुमशक्यम् / तथा च 'व्यभिचारो हि प्रवादेन व्याप्तः' इत्याद्ययुक्तम् ; अत्यन्तप्रच्छन्नकामुकानां प्रवादाभावेऽपि व्यभिचारसंभवतः तस्य तेन व्याप्त्यनुपपत्तेः / अतः पित्रोरविप्लुतत्वस्य कुतश्चिदप्रसिद्धेः न तदुपदेशो ब्राह्मण्यप्रत्यक्षताप्रादुर्भावे चक्षुषः सहकारित्वं प्रतिपद्यते / 16 __नापि आचारविशेषः; स हि ब्राह्मणस्याऽसाधारणो याजनाऽध्यापनप्रतिग्रहतद्वदेव स्याद् द्वयोधिसदृशः सुतः / नात्र दृष्टं तथा तस्माद्गुणैर्वर्णव्यवस्थितिः ।।"-पद्मपु० 11196-981 "वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेस्मिन्न च दर्शनात् / ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गर्भाधानप्रवर्तनात् ॥नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् / आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ॥"-उत्तरपु० 74 / 491-92 / (1) विप्लुतेतरप्रभवापत्येषु विलक्षणाकारता। (2) तुलना-" न च वेदवचः किञ्चित् द्विजातित्वप्रसाधकम् / व्यक्तेः सामान्यवचनमनुक्तसममेव तत् ॥"-प्रमाणवातिकालं० पृ० 25 / (3) आगमप्रतिपादकेन / (4) अविप्लुतत्वप्रतिपत्तिः। (5) पित्रोरविप्लुतत्वप्रतीतिः / (6) तुलना"यदाहुः-अनादाविह संसारे दुर्वारे मकरध्वजे / कुले च कामिनीमूले का जातिपरिकल्पना ॥"-नैषध० टी० 17140 / “अनादिगोत्रपद्धत्यामस्यां न स्खलनं स्त्रियाः। इति ज्ञानं कथन्नाम कामार्ता हि सदा स्त्रियः // ब्राह्मणत्वे स्थिते पूर्वं तद्गोत्रत्वस्य संभवः / तदाऽस्थितेः कथं गोत्रं सेयमन्धपरम्परा // " -प्रमाणवातिकालं० पृ० 25 / 'अतीतश्च महान कालो योषिताञ्चातिचापलम् / तद् भवत्यपि निश्चेतुं ब्राह्मणत्वं न शक्यते / / अतीन्द्रियपदार्थज्ञो न हि कश्चित् समस्ति वः / त्वदन्वयविशद्धिञ्च नित्यो वेदोऽपि नोक्तवान् ॥"-तत्त्वसं० का० 3579-80 / "प्रायेण प्रमादानां कामातुरतया इहजन्मन्यपि व्यभिचारोपलम्भात्कुतो योनिनिबन्धनो बाह्मण्यनिश्चयः ।"-प्रमेयक० ए०४८२। "अनादिगोत्रपद्धतौ च कामार्तत्वात् सर्वदा प्रमदानां कस्याश्चिद् व्यभिचारसंभवात् कुतो योनिनिबन्धनब्राह्मण्यनिश्चयात् संस्कारस्य अध्ययनादेश्च अविपर्यस्तत्वनिश्चयः ।"-सन्मति० टी० पृ० 698 / स्या० 2010 960 / "न विप्राविप्रयोरस्ति सर्वदा शुद्धशीलता। कालेनानादिना गोत्रे स्खलनं क्व न जायते ॥"-धर्मप० 1728 (7) "अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा / दानं प्रतिग्रहञ्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥"-मनुस्मृ० 11880 1-द्वानयोः ब०। 2 भजते तन्न श्र० / 3 व्याप्य इ-श्र०। 4-प्रवृत्तकाप्रकाशाना ब० / Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 774 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० ग्रहादिः, स च तत्प्रत्यक्षतानिमित्तं न भवति अव्याप्तेरतिव्याप्तेश्चानुषङ्गात्; याजनादिरहितेषु हि ब्राह्मणेष्वपि तद्व्यवहाराभावप्रसङ्गादव्याप्तिः, शूद्रेष्वपि अखिलस्य याजनाद्याचारस्योपलब्धितो ब्राह्मण्यानुषङ्गाच्चातिव्याप्तिः / अथ मिथ्याऽसौ आचारविशेष स्तत्रै; अन्यत्र कुतः सत्यः ? ब्राह्मण्यसिद्धेश्चेत् ; अन्योन्याश्रयः-सिद्धे हि आचारसत्यत्वे 6 ब्राह्मण्यसिद्धिः, तत्सिद्धौ च आचारसत्यत्वसिद्धिरिति / किञ्च, आचाराद् ब्राह्मण्यसिद्ध्यभ्युपगमे व्रतबन्धात् पूर्वमब्राह्मण्यप्रसङ्गः / तन्न आचारोऽपि तत्प्रत्यक्षतां प्रत्यङ्गम् / एते. संस्कारविशेषस्यापि तदङ्गता प्रत्याख्याता; अव्याप्त्यतिव्याप्त्योरत्राप्यविशेषात् / तत्र अव्याप्तिः-संस्कारविशेषात् पूर्वं ब्राह्मणस्यापि अब्राह्मण्यप्रसक्तेः 10 स्यात् / अतिव्याप्तिः पुनः अब्राह्मणस्यापि तथाविधसंस्कृतस्य ब्राह्मणत्वांपत्तेः स्यादिति। एतेन वेदाध्ययनस्य यज्ञोपवीतादेश्च तदङ्गता प्रतिव्यूढा / ब्रह्मप्रभवत्वस्य च तदङ्गत्वे अतिप्रंसङ्ग एव, सकलप्राणिनां तत्पुभवतया ब्राह्मण्यप्रसङ्गात् / - किश्च, ब्रह्मणो ब्राह्मण्यमस्ति, न वा ? यदि नास्ति; कर्थमतो ब्राह्मणोत्पत्तिः ? न हि अमनुष्यात् मनुष्योत्पतिः प्रतीता। अथ अस्ति; किं सर्वत्र, मुखप्रदेशे एव 15 वा ? यदि सर्वत्र; स एव प्राणिनां भेदाभावानुषङ्गः। अथ मुखप्रदेश एव; तदाऽ-. न्यत्रास्य शूद्रत्वानुषङ्गात् न विप्राणां तत्पादादयो वन्द्याः स्युः / (1) तुलना-"अथाध्ययनादिना क्रियाविशेषेण ज्ञायते नोपदेशमात्रात; तदप्यसत; द्विजातित्वे क्रिया साध्या न क्रियातो द्विजातिता। वचनादपि नैवास्याः प्रतीतिरविरोधिनी ॥"-प्रमाणवातिकालं०५० 23 // "जातकर्मादयो ये च प्रसिद्धास्ते तदन्यवत् / आचाराः सांवतास्ते हि कृत्रिमेष्वपि भाविनः ॥"-तत्त्वसं० का० 3578 / “अत एवाध्ययनं क्रियाविशेषो वा तत्सहायतां न प्रतिपद्यते। दृश्यते हि शूद्रोऽपि स्वजातिविलोपाद्देशान्तरे ब्राह्मणो भूत्वा वेदाध्ययनं तत्प्रणीताञ्च क्रियां कुर्वाणः ।"-प्रमेयक० पृ०४८५। "अव्याप्तेरतिव्याप्तेश्चानुषङ्गात्"-स्या० र० पृ० 960 / (2) शूद्रादिषु। (3) ब्राह्मण्यप्रत्यक्षताम् / (4) तुलना-"एतेन संस्कारविशेषस्य वेदाध्ययनस्य यज्ञोपवीतादेश्च चक्षुःसहकारिता प्रत्युक्ता; अव्याप्त्यतिव्याप्त्योरत्राप्यविशेषात् ।"-स्या० र० पृ० 9610 (5) ब्राह्मण्यप्रत्यक्षतानिबन्धनत्वे / (6) तुलना-"ब्रह्मणोऽपत्यतामात्रात ब्राह्मण्येति प्रसज्यते / न कश्चिदब्रह्मतनोरुत्पन्नः क्वचिदिष्यते / अन्तरा जातिभेदश्चेनिनिमित्तः कथं भवेत् / अन्तराले क्रियाभेदात् गोत्रेणार्थो न कस्यचित् // अथ द्विजादिगोत्राणामनादिर्भद इष्यते / ज्ञायतां स कथनाम प्रमाणस्याप्रवृत्तितः // क्रिया तदपरिज्ञानादक्रियेव प्रसज्यते। अविच्छेदश्च गोत्रस्य प्रत्येतुं शक्यते न च / / सूतमागधचाण्डालाः कथं संभविनोऽन्यथा। ज्ञायन्त एव ते तज्जैरिति चेन्नियमो न हि ॥"प्रमाणवातिकालं० पृ० 24 / (7) ब्रह्मप्रभवतया / (8) तुलना-"किञ्च, ब्रह्मणो ब्राह्मण्यमस्ति वा न वा? नास्ति चेत् ; कथमतो ब्राह्मणोत्पत्तिः ? * * अस्ति चेत् किं सर्वत्र मुखप्रदेश एव वा ?"-प्रमे. यक० पृ० 484 / स्या० र० 961 / (9) अब्राह्मणाद् ब्रह्मणः / (10) सर्वत्र शरीरावयवेषु मुखादिपादान्तेषु / (11) पादादिषु / (12) ब्रह्मणः / 1 आचारस्तत्र ब०, आ० / 2-च्याप्त्योस्तत्रा-श्र० / 8-त्वानुपपत्तेः श्र०। 4-वत्त्वसाधनत्वं गत्वे ब०। 5 -त्तिः प्रतीयते ब०,-त्तिता प्रतीता श्र० / Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] ब्राह्मणत्वजातिविचारः 775 किञ्च, ब्राह्मण एव तन्मुखाज्जायते, तन्मुखादेव वासौ जायते ? विकल्पद्वयेपि अन्योन्याश्रयः-सिद्धे हि ब्राह्मणत्वे तस्यैवं तन्मुखाजन्मसिद्धिः,तत्सिद्धौ च ब्राह्मणत्वसिद्धिरिति। न च ब्रह्मप्रभवत्वं विशेषणं ब्राह्मण्यप्रत्यक्षताकाले केनचित् प्रतीयते / न च अप्रतिपन्नं विशेषणं विशेष्ये प्रतिपत्तिमाधातुं समर्थमतिप्रसङ्गात्। यद् विशेषणं तत् प्रतिपन्नमेव विशेष्ये प्रतिपत्तिमाधत्ते यथा दण्डादि, विशेषणञ्च ब्राह्मण्यप्रतिपत्तौ ब्रह्मप्रभवत्वमिति / एतेन 'असति प्रतिबन्धके यो यदाकारः प्रत्ययः' इत्याद्यनुमानं ब्राह्मण्यसद्भावप्रसाधकं प्रत्याख्यातम् ; अनेकधा प्रतिबन्धकसद्भावप्रतिपादनात् / यदपि-'ब्राह्मणपदम्' इत्याद्यनुमानमुक्त ; तदप्ययुक्तम् ; पेक्षस्य अध्यक्षबाधितत्वात्, कठकलापादिब्राह्मणव्यक्तिषु हि ब्राह्मणपदं व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेयसम्बन्धशून्यमेव अध्यक्षतः प्रतीयते अश्रावणत्वविविक्तशब्दवत् / अप्रसिद्धविशेषणश्च 10 पक्षः; न खलु व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेयसम्बद्धत्वं मीमांसकस्य अस्माकं वा क्वापि प्रसिद्धम् व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्तस्यै सामान्यस्योभाभ्यामभ्युपगमात् / हेतुश्चानैकान्तिकः; सत्ताऽऽकाशकालपदे अद्वैतादिपदे वा व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेयसम्बद्धत्वाभावेऽपि पदत्वस्य भावात् / अत्रापि तत्सम्बद्धत्वकल्पनायां सामान्यस्य निःसामान्यत्वमनेकव्यक्तिवृत्तित्वञ्च व्याहन्येत / अद्वैताखिलशून्यत्वादेश्च सामान्यवत्त्वेन परमार्थसत्त्वानु- 15 षङ्गात् कुतोऽप्रतिपक्षा पक्षसिद्धिश्च स्यात् ? दृष्टान्तोऽपि साध्यविकलः; पटादिपदे व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्तत्वासिद्धेः। नित्यैकरूपसामान्यमन्तरेणापि अनन्तानां वाच्यवाचकव्यक्तीनां सम्बन्धो यथा सिद्ध्यति तथा नित्यसम्बन्धनिषेधावसरे प्ररूपितम् / एतेन वर्णविशेषेत्याद्यनुमान प्रत्युक्तम् ; उक्तदोषाणामत्राप्यविशेषात् / नगरा (1) तुलना-"किञ्च, ब्राह्मण एव तन्मुखाज्जायते तन्मुखादेवासौ जायेत ?"-प्रमेयक० पृ०४८४। (2) ब्राह्मणस्यैव / (3) पृ०७६९ पं०८ / (4) पृ० 769 पं० 13 / (५)तुलना-“यतो यदि व्यक्तयादिभ्यो व्यतिरिक्तं निमित्तमात्रमस्य ज्ञानस्य विषयत्वेन साध्यते तदा सिद्धसाध्यता, तत्समुदायस्य समुदायिभ्यः कथञ्चिदव्यतिरिक्तस्य तद्विषयत्वेन स्वीकारात् / अथ प्रतिव्यक्ति परिसमाप्तमेकान्तव्यतिरिक्तमभिधीयते; तदा पक्षस्य प्रतिपक्षबाधितत्वम् , कठकलापादिब्राह्मणव्यक्तिष हि ब्राह्मणज्ञानं व्यक्तयादिव्यतिरिक्तसामान्यनिमित्तरहितमेवाध्यक्षतः प्रतीयते अश्रावणत्वविविक्तशब्दवत् ।"-स्या०र० पृ० 961 / प्रमेयक० पृ० 4185 / (6) जैनानाम् / (7) व्यक्तिभ्यो कथञ्चिद भिन्नाभिन्नस्य / (8) मीमांसकजनाभ्याम् / (9) व्यक्तिभ्यो भिन्नानां सत्तात्त्व-आकाशत्व-कालत्वअद्वैतत्वादीनां सम्बन्धस्वीकारे। (10) अद्वैतस्य सकलशून्यतायाश्च सिद्धिप्रसङ्गात् / (11) पृ० 546 / (12) पृ०७६९ पं०१८। (13) तुलना-"नगरादिज्ञानवत् व्यतिरिक्तनिबन्धनाभावेऽपि तथाभूतज्ञानस्य कथञ्चिदुपपत्तेः / न हि नगरादिज्ञानेऽपि व्यतिरिक्तं द्रव्यान्तरमस्ति यदेकाकारज्ञाननिबन्धनं भवेत्, काष्ठादीनामेव प्रत्यासत्त्या कयाचित् प्रासादादिव्यवहारनिबन्धनानां नगरादिव्यवहारनिबन्धनत्वोपपत्तेः, अन्यथा षण्णगरीत्यादिष्वपि वस्त्वन्तरकल्पनाप्रसक्तेः ।"-सन्मति० टी० पृ० 697 / प्रमेयक पृ० 485 / स्था०र० पृ० 961 / / 1-देव चासौ आ०, ब०। 2-सिद्धेः श्र०। 3 अथप्रसिद्ध-श्र० / 4 व्यतिरिक्तस्य सामान्यस्योभामभ्यु-आ० / 5-भाभ्याम्युप-श्र० / 6 सामान्यनिः सा-आ० / Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 776 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० दिज्ञानेन अनेकान्ताच्च, तत्र व्यक्तिव्यतिरिक्तनिमित्तनिबन्धनत्वाभावेऽपि वर्णविशेषादिनिमित्तबुद्धिविलक्षणत्वस्योपलम्भात् / न खलु 'नगरं सेना वनम्' इत्यादिज्ञाने व्यक्तिव्यतिरिक्तम् अनुवृत्तप्रत्ययनिबन्धनं किश्चिदस्ति / तद्धि द्रव्यम् , सत्ता, प्रत्यासत्तिविशेषो वा स्यात् ? प्रथमपक्षे नगरादिकमेव तत्र द्रव्यम् , अन्यद्वा ? न तावत् नगरादिकमेव; 5 तस्य द्रव्यत्वाऽसंभवात् / नहि नगरं सेनादिकं वा द्रव्यं संभवति; गृहादिभिरसंयुक्तैः विजातीयैश्च तस्य आरम्भाऽसंभवात् / कतिपयगृहाणामस्ति संयोग इति चेत् ; न; तेषां स्वयं संयोगरूपतया संयोगानाश्रयत्वात् / गुणरूपतया च तेषों द्रव्यानारम्भकत्वम् , गुणैर्द्रव्यारम्भाऽसंभवात् / 'सत्ता नगरादिकम्' इत्यत्रापि अंसौ गृहादिविशेषिता, केवला वा तत्प्रत्ययमु10 त्पादयेत् ? न तावत् केवला; गृहादिविविक्तेऽपि प्रदेशे ततः तत्प्रत्ययप्रसङ्गात् / अथ गृहादिविशेषिता; न; कूटस्थनित्याया विशेष्यत्वासंभवात् , अकिञ्चित्करस्य अविशेषणत्वाच्च / किश्चित्करत्वे वा तत्कूटस्थताक्षतिः। कथञ्चैवं 'षण्णगरी' इत्यत्र समुदायोपपत्तिः सत्ताया एकरूपतया समुदायतानुपपत्तेः ? प्रत्यासत्तिविशेषोऽपि कस्य केन सह नगरादिव्यपदेशमर्हेत् ? गृहादीनां गृहा15 द्यन्तरैः इति चेत् ; कः पुनरसौ-तेषां तै: सह समवायः, संयोगो वा ? न तावत्समवायः; "तेषां युतसिद्धतया अनाधार्याधारभूततया च तदसंभवात् / नापि संयोगः; गृहादीनां संयोगरूपतया संयोगानाश्रयत्वात् / न च नगरादिशब्दात् 'संयुक्तसंयोगाल्पीयस्त्वलक्षणे प्रत्यासत्तिविशेषे एकस्मिन् कस्यचित् प्रतिपत्ति-प्रवृत्ति-प्राप्तयोऽनुभूयन्ते, किन्तु गृहादा वनेकत्र / नगरशब्दाद्धि गृहादौ, सेनाशब्दाद् अश्वादौ, वनशब्दाच्च धवादावनेकत्रार्थे 20 ताः प्रतीयन्ते इति। यत्र हि शब्दादुच्चरितात् प्रतिपत्त्यादयः प्रतीयन्ते स शब्द स्यार्थः तथा वृद्धव्यवहारात्। 'देशादिप्रत्यासत्तिविशिष्टा गृहादयो नगरांदिव्यपदेशभाजः' इत्यप्यनेनाऽपास्तम्; देशादौ हि प्रत्यासत्तिः तेषां समवायः, संयोगो वा ? तत्र च (1) गृहाणाम् / (2) संयोगस्य गुणत्वेन द्रव्याश्रितत्वात्। (3) गृहाणाम् / (4) "द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते गुणाश्च गुणान्तरम्" ( वैशे० सू० 1 / 1 / 10 ) इति नियमात् / (5) सत्ता / (6) नगरमिति प्रत्ययम् / (7) सत्तातः / (8) सत्तायाः / (9) गृहादेः। (10) यदि गृहादयः सत्तायां कञ्चिदतिशयमुत्पादयन्ति तदा। (११)सत्तायाः नित्यकरूपताव्याघातः। (12) गृहादीनाम् / (13) एकेन गृहेण संयुक्तमपरं गृहं तेन चापरमिति संयुक्तसंयोगाद् यदल्पीयस्त्वम् अल्पदेशावगाहित्वं तत्र। (14) पुरुषस्य / (१५)प्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्राप्तयः / (16) तुलना-'सेनाशब्दादनेकत्र हस्त्याद्यर्थे प्रतीतिप्रवृत्तिप्राप्तिसिद्धेः, वनशब्दाच्च धवखदिरपलाशादावनेकत्रार्थे। यत्र हि शब्दात् प्रतीतिप्रवृत्तिप्राप्तयः समधिगम्यन्ते स शब्दस्यार्थः प्रसिद्धस्तथा वृद्धव्यवहारात् / न च सेनावनादिशब्दात् प्रत्यासत्तिविशेषे प्रतीतिप्रवृत्तिप्राप्तयोऽनभयन्ते येन स तस्यार्थः स्यात् ।"-आप्तप० का०४। 1-निबन्धनाभावेपि आ०, श्र०। -त्वात कि-ब०। 8-णप्रत्यासत्ति-ब०। 4-तात्त. प्रतिपत्त्या-आ०। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] ब्राह्मणवजातिविचारः उक्तदोषोऽविशिष्टः / भवतामपि कथमेवं नगरादिव्यपदेशः स्यात् ? इत्यष्यचोद्यम् ; देशप्रत्यासत्तिविशिष्टे प्रासादादौ तेव्यपदेशस्य अस्माभिरभ्युपगमात् / देशप्रत्यासत्तिश्चात्र संयोगलक्षणा प्रतिपत्तव्या, प्रासादादेरवयवित्वेन अस्माकमिष्टत्वात् / विजातीयैः काष्ठेष्टिकादिभिः तस्य आरम्भासंभवात् कथमवयवित्वम् ? इत्यप्यनुपपन्नम् ; विजातीयैरपि पृथिव्यादिभिः शरीराद्यवयविनः आरम्मोपलम्भात् / सजातीयानाम् आरम्भ- 5 नियमस्य षट्पदार्थपरीक्षायों पृथिव्यादीनां तत्त्वान्तरत्वनिषेधावसरे निषिद्धत्वात् / ततो भवन्मते नगरादिज्ञाने व्यक्तिव्यतिरिक्तनिमित्तनिबन्धनत्वाभावात्, सिद्धमनेनानैकान्तिकत्वम् / न चान्यत् किञ्चिद् ब्राह्मण्ये लिङ्गमस्ति यतः तत्सिद्धिः स्यात् / ___ अस्तु वा किश्चित्तत्रै लिङ्गम् , तथापि अगृहीतप्रतिबन्धं तत् न तत्प्रतिपत्तेरङ्गम् , अतिप्रसङ्गात्। प्रतिबन्धग्रहश्च अप्रतिपन्ने ब्राह्मण्ये न संभवति, अतिप्रसङ्गात्। तत्प्रतिप- 10 त्तिश्च प्रत्यक्षतः प्रतिषिद्धा / अनुमानतः तत्प्रतिपत्तौ चक्रकप्रसङ्ग:-सिद्धे हि अनुमानतो ब्राह्मण्ये तेन लिङ्गस्य प्रतिबन्धसिद्धिः, तत्सिद्धौ च अनुमानसिद्धिः, ततश्च ब्राह्मण्यसिद्धिरिति / आर्गमतोपि अपौरुषेयात् , पौरुषेयाद्वा तत्प्रतिपत्तिः स्यात् ? न तावदपौरुषेयात; तस्य कार्ये एवार्थे प्रामाण्यात् , ब्राह्मणत्वस्य च नित्यतयेष्टितोऽकार्यत्वात् / 15 नापि पौरुषेयात् ततः तत्प्रतिपत्तिः; तस्य प्रमाणान्तरसापेक्षत्वात , तस्य चात्राऽसंभवात् / नाप्युपमानात् तत्प्रतिपत्तिः; तस्य सादृश्यालम्बनत्वात् / अप्रतिपन्ने च प्रमाणान्तरेण ब्राह्मण्ये कथं तेन सादृश्यं कस्यचित् प्रतीयेत यतः तदर्शनाद् ब्राह्मण्यं प्रतीयेत ? नाप्यर्थापत्तेस्तत्प्रतिपत्तिः; ब्राह्मण्यजातिव्यतिरेकेणानुपपद्यमानस्य प्रमाणषट्कविज्ञातस्य कस्यचिदप्यर्थस्य अप्रतीयमानत्वात् / अतः सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चक- 20 गोचरातिक्रान्ततया अभावप्रमाणकवलीकृतत्वात् नभोऽम्भोजवत् नास्ति ब्राह्मण्यम् / अतो ब्राह्मण्यजातेः सत्त्वस्यैवाऽसंभवात् 'प्रथमदर्शने प्रतिभातापि जातिः व्यञ्जकभेदाग्रहणान्नोल्लिखति' इत्यादि प्रत्याख्यातम् / (1) जनानाम् / (2) नगरादिव्यपदेशस्य / “प्रासादतोरणपुरुषादीनां समुदायो नगरम् / " -प्रमाणवा०स्ववृ० टी० पृ० 127 / (3) जैनानाम् / (4) अवयविद्रव्यस्य / (५)पृ०२३९ / (6) नैयायिकादिमते / (7) ब्राह्मण्ये / (८)लिङ्गम् / (9) ब्राह्मण्यप्रतीतिः। (10) "नाप्यागमतः; यतोऽसौ पौरुषेयो वा स्यादपौरुषेयः"-स्या० 2010 962 / सन्मति० टी०पू० 698 / (11) ''आम्नायस्य क्रियार्थत्वात्-क्रिया कथमनुष्ठेयेति तां वदितुं समाम्नातारो वाक्यानि समामनन्ति / " -जैमिनिसू०, शाबरभा०१२।१। (12) आगमात् / (13) वक्तुः प्रतिपाद्यविषयज्ञानस्य प्रमाणत्वे सिद्ध एव तत्प्रणीतागमस्य प्रामाण्यम् / (14) ब्राह्मण्यसदृशवस्तुदर्शनात् / (15) पृ०७६८ पं० 6 / 1-विशिष्टप्रासा-श्र०। 2-क्तनिबन्ध-आ० / 3 'तस्य चात्रासंभवात्' नास्ति आ० / 48 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० __यदप्युक्तम्-'द्रव्यपरीक्षकाणाम्' इत्यादि; तदप्यसाम्प्रतम् ; येतो न पीततामात्रं सुवर्णम् , विचित्ररेखारचितपरिणतिमात्रं वा द्रव्यम् ; वृत्तसंस्थानमात्रं वा मणिः; अतिप्रसङ्गात् / किं तर्हि ? तद्विशेषः / स च न प्रत्यक्षः, दाहच्छेदादेः तुषाम्बुसंप्रक्षालनादेः परप्रश्नादेश्च वैयर्थप्रसङ्गात् / तस्यापि तत्प्रतिपत्तौ सहायत्वे तज्जातौ किञ्चित्तथाविधं सहायं वाच्यम् / तच्चे ब्राह्मणभूतपितृजन्यत्वादिकम् , आकारविशेषो वा स्यात् ? सर्वमेतत् प्रागेव कृतोत्तरत्वान्न तत्प्रतिपत्तौ सहायतां प्रतिपद्यते / अतोऽयुक्तमुक्तम्-'न च सामग्र्यभावाद् यन्न प्रतिभासते तन्नास्ति' इत्यादि; तत्प्रतिभाससामग्र्याः प्रागेव अशेषविशेषतो निरस्तत्वात् / ननु ब्राह्मणत्वादिसामान्यानभ्युपगमे कथं भवतां वर्णाश्रमव्यवस्था तन्निबन्धनो 10 वा तपोदानादिव्यवहारः स्यात् ? इत्यप्यचोद्यम् ; कियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिह्नोपलक्षिते व्यक्तिविशेषे तद्व्यवस्थायाः तद्व्यवहारस्य च उपपत्तेः / तन्न भवत्कल्पितं नित्यादिस्वभावं ब्राह्मण्यं कुतश्चिदपि प्रमाणात् प्रसिद्ध्यतीति क्रियाविशेषनिबन्धन एवायं ब्राह्म (1) पृ० 768 पं०७। (2) तुलना-“काञ्चनाद्युपदेशस्य हि यदाऽसत्यताश ङ्का तदा प्रत्यक्षदर्शनादसौ निवर्तते नैवं जात्यायुपदेशस्यासत्यताशंकायां प्रत्यक्षात् सत्यता जातिस्वरूपग्रहणाकारात / सुवर्णादौ हि रूपविशेषसद्भावात् एवम्भूतमेव सुवर्णं भवतीति व्यवहारस्य परिसमाप्ते. र्दष्टस्य न काचित्क्षतिः, अत्र तु पुनरेवंविधमेव ब्राह्मण्यमिति न पादप्रसारणमात्र त्राणम् ।"-प्रमाणवातिकालं०५० 22 / “यतो न पीततामात्रं सुवर्णम्"."-प्रमेयक० पृ० 484 / (3) दाहच्छेदतुषाम्बप्रक्षालनादेः। (4) सुवर्णादिप्रतिपत्तौ। (5) “तच्चाकारविशेषो वा स्यादध्यनादिकं वा ?" -प्रमेयक० पृ० 485 / (6) ब्राह्मण्यप्रतिपत्तौ। (7) पृ० 768 पं०१३। (8) जैनानाम् / (9) तुलना-"न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो / यम्हि सच्चञ्च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो // न चाहं ब्राह्मणं ब्रूमि योनिजं मत्तिसंभवं / 'भो वादि' नाम सो होति स वे होति सकिञ्चनो। अकिञ्चनं अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥"-धम्मप० गा० 393,396 / 'कम्मणा बंभणो होइ कम्मणा होइ खत्तिओ। वईसो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मणा ॥"-उत्तरा० 25 / 33 / "तस्माद गणवर्णव्यवस्थितिः। 'ऋषिशृंगादिकानां च मानवानां प्रकीर्त्यते / ब्राह्मण्यं गुणयोगेन न तु तद्योनिसंभवात् // ' 'चातुर्वण्यं यथान्यच्च चाण्डालादिविशेषणम् / सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतम् / / -पद्मपु०११।१९८-२०५। “मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा / वृत्तिभेदाहिताद् भेदाच्चार्विध्यमिहाश्नुते // ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् / वणिजोऽर्थार्जनाच्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥"-आदिपु० 38 / 45-46 / "आचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकल्पनम् / न जातिळह्मणीयास्ति नियता क्वापि तात्त्विकी // ब्राह्मणक्षत्रियादीनां चतुर्णामपि तत्त्वतः / एकैव मानुषी जातिराचारेण विभिद्यते ।"गुणैः सम्पद्यते जातिगुणध्वंसाद्विपद्यते ।"-धर्मप० 17 / 24-32 / महाभाष्येऽपि 'गुणवाचिनः ब्राह्मणादिशब्दाः' इति पक्षोप्युपन्यस्तः / तथाहि-"अथवा सर्व एते शब्दा: गुणसमुदायेषु वर्तन्ते ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्र इति ।"-पात० महाभा०२।२।६ / "क्रियाविशेषय. ज्ञोपवीतादिचिह्नोपलक्षिते व्यक्तिविशेषे तद्वयवस्थायास्तद्वयवहारस्य चोपपत्तेः / ततः क्रियाविशेषादिनिबन्धन एवायं ब्राह्मणादिव्यवहारः ।"-प्रमेयक० पृ० 486 / स्या० र० पू० 962 / 1 तुषटुसप्रक्षा-आ०, तुषबुसप्रक्षा-श्र०। 2 परपक्षादेश्च ब०। 3 अशेषतो ब० / 4 भगवतां श्र०। 5 तन्न तवकल्पि-ब०। 6 क्रियानिबन्धन ब० / Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 65 ] ब्राह्मणत्वजातिविचारः 776 णादिव्यवहारो युक्तः / कथमन्यथा वेश्यापाटकादिप्रविष्टानां ब्राह्मणीनां ब्राह्मण्याभावो निन्दा च स्यात् , जातियतः पवित्रता हेतुः ? सा च भन्मतेन नित्यैकरूपतया तदवस्थैव, अन्यथा गोत्वजातेरपि ब्राह्मण्यं निकृष्टं स्यात् / गवादीनां हि चाण्डालादिगृहे चिरोषितानामपि इष्टं शिष्टैरादानं न तु ब्राह्मणीनाम् / अथ क्रियाभ्रंशात्तासां निन्द्यता अनादानश्चेष्यते; तर्हि किमनेन अन्तर्गडुना ब्राह्मण्येन कल्पितेन ? कल्पयित्वापि तत् / क्रियाविशेषवशादेव वन्द्यताया ब्राह्मणव्यवहारस्य चाभ्युपगमनीयत्वात् / किञ्च, क्रियानिवृत्तौ ब्राह्मण्यजातेर्निवृत्तिः स्यात् , यदि सा तस्याः कारणं व्यापकं वा स्यात् ,. नान्यथा अतिप्रसङ्गात् / न चास्याः कारणं व्यापकं वा किश्चिदिष्टम् / नापि क्रियाभ्रंशात् तस्या विकारोऽस्ति “भिन्नेष्वभिन्ना नित्या निरवयवा च औतिः" [ ] इत्यभिधानात् / न चाऽविकृतायाः निवृत्तिः संभवति 10 अतिप्रसङ्गादिति / तदेवं भवत्कल्पितब्राह्मण्यस्य आकाशकुशेशयवदप्रसिद्धस्वरूपत्वान्न ब्राह्मणस्यैव संस्कृतशब्दप्रयोगात् धर्मो युक्तः, किन्तु सर्वेषामविशेषेणैव अतोऽ"सौ स्यात्, न चैवम् / अतोऽवितथार्थाभिधायित्वमेव शब्दस्य साधुत्वमभ्युपगन्तव्यम् नान्यत् , उक्तदोषानुषङ्गात् / तथाविधञ्च तत् संस्कृतशब्दस्येव प्राकृतशब्दस्याप्यविशिष्टम् , अतो द्वयोरप्यनयोः साधुत्वम्। ततः साधूक्तम्-'वर्णाः पदानि वाक्यानि 15 प्राहुरर्थानवाञ्छितान्' इत्यादि / . कारिकाद्वयं विवृण्वन्नाह-'वर्ण' इत्यादि / वर्णपदवाक्यानां वाचकत्वम् अर्थ ___ प्रतिपादकत्वम् , यथास्वं स्वस्यार्थस्य अनतिक्रमेण आगमात् प्रतिविवृतिव्याख्यानम् - पत्तव्यम् / तत्रास्य प्रत्येकं प्रपञ्चतः प्ररूपितत्वात् / कुतः पुनः विवक्षातोऽन्यस्य वाचकाः शब्दाः ? इत्याह-'वक्त्रभिप्रायात्' इत्यादि / वक्त्रभिप्रा- 20 याद् भिन्नस्य बहिर्भूतस्य अर्थस्य घटादेः वाचकाः शब्दाः / कुत एतत् ? इत्याहसत्यानृतव्यवस्थान्यथानुपपत्तेः / यत्र सत्यानृतव्यवस्था तद् वक्त्रभिप्रायाद् भिन्नार्थविषयं यथा प्रत्यक्षादि, सत्यानृतव्यवस्था च शब्देष्विति / अयश्च प्रसङ्गः बहिरर्थ (1) तुलना-"ततः संव्यवहारमात्रप्रसिद्धं ब्राह्मण्यम् ।”-प्रमाणवातिकालं पृ०२६ / (2) यदि क्रियाविशेषनिबन्धनों ब्राह्मण्यादिव्यवहारो न स्यात्तदा / तुलना-"कथमन्यथा वेश्यापाटकादिप्रविष्टानां ब्राह्मणीनां ब्राह्मण्याभावो भवेत्""-स्या० 20 पृ० 962 / प्रमेयक० पृ० 486 / (3) जातिः / (4) मीमांसकनैयायिकमतेन / (5) "अन्यथा गोत्वादपि ब्राह्मण्यं निकृष्टं स्यात् ।"-प्रमेयक० पृ० 486 / (6) ब्राह्मणीनाम् / (7) "घटामस्तकयोरन्तरालवी मांसपिपडोऽन्तर्गडुः"-प्रमाणवा० स्व० टी० पृ० 168 / (8) ब्राह्मण्यम् / (9) तुलना-"किञ्च क्रियानिवृत्तौ .."-प्रमेयक० पृ० 487 / (10) क्रिया। (11) ब्राह्मण्यजातेः / (12) ब्राह्मण्यजातेः / (13) उद्धृतमिदम्-प्रमेयक०१०४८७। (14) संस्कृतशब्दोच्चारणात् / (15) धर्मः। (16) अवितथार्थाभिधायित्वलक्षणं साधुत्वम् / 1 ब्राह्मणानां ब० / 2 चाण्डालादीनां गृहे श्र० / ब्राह्मण्यव्य-आ०, श्र० / 4 इति आ० / 5 'शब्दाः' नास्ति आ० / Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 780 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० विषयतामन्तरेण सत्यानृतव्यवस्थानुपपत्तिलक्षणः अन्यत्र 'प्रमाणं श्रुतमर्थेषु' [लघी० का० 26 ] इत्यादौ विस्तरेणोक्तः इति नेह प्रघट्टके पुनः प्रतन्यते / नन्वर्थाभावेपि शब्दानां प्रवृत्तिदर्शनात् कथं तद्वाचकत्वम् इत्यत्राह-'शब्दानाम्' इत्यादि / शब्दानाम् अर्थव्यभिचारित्वेऽभ्युपगम्यमाने अभिप्रेतव्यभिचारित्वं कुतः प्रमाणात् 5 न कुतश्चित् अपनीयते निराक्रियते / कुत एतत् ? इत्यत्राह-'सुषुप्तादौ' इत्यादि, आदिशब्देन मत्तादिपरिग्रहः वाग्वृत्तेर्दर्शनात् / ननु विवक्षाप्रभवाच्छब्दादन्य एव शब्दः, यः तदभावे तत्र जायते / न चान्यस्य व्यभिचारे अन्यस्य व्यभिचारोऽतिप्रसङ्गात् / 'सुविवेचितं हि कार्य कारणं न व्यभिचरति' इति, तदेतदत् अर्थविशेषसद्भावासद्भावप्रतिबद्धात्मलाभेष्वपि शब्देषु समानम् / साम्येऽपि तेषां विवक्षेतरप्रभवाः शब्दाः वैलक्षण्येनाऽवसीयन्ते नतु अर्थविशेषसद्भावाऽसद्भावप्रतिबद्धात्मलाभा इति स्वदर्शनानुरागमात्रम् / विवक्षामात्रगोचरत्वे च अमीषां बहिरर्थे प्रवृत्त्यादिहेतुत्वानुपपत्तिः, तेदविषयत्वाद्, यद् यद्विषयं न भवति न तत् तत्र प्रवृत्त्यादिहेतुः यथा रूपज्ञानं रसाविषयं न रसे, न भवन्ति च बहिरर्थविषया भवन्मते शब्दा इति / नचैतद् युक्तम् प्रतीतिविरोधात् / सुप्रसिद्धा हि 15 शब्देभ्यो बहिरर्थे प्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्राप्तिप्रतीति: आबालं प्रत्यक्षवत् / अतः तद्विषयत्वमेव अमीषां युक्तम् / यद् यत्र प्रवृत्यादिहेतुः तत्तद्विषयम् यथा रसज्ञानं रसे प्रवृत्त्यादिहेतू रसविषयम् , बहिरर्थे प्रवृत्त्यादिहेतवश्व शब्दा इति / नचायमसिद्धो हेतुः; प्रत्यक्षवत् शब्देभ्यः तत्र प्रवृत्त्यादिप्रतीतेः / यथैव हि प्रत्यक्षात् प्रतिपत्तृप्रणिधानादिसामग्री सापेक्षात् प्रत्यक्षार्थे प्रतिपत्त्यादिप्रतीतिः सकलजनप्रसिद्धा, तथा सङ्केतादिसामग्रीसा20 पेक्षात् शब्दात् शब्दार्थेऽपि इति / न च अर्थे अर्थिनोऽर्थित्वादेव प्रवृत्तेः शब्दोऽप्रवर्तक इत्यभिधातव्यम् ; प्रत्यक्षादेरप्येवमप्रवर्तकत्वप्रसङ्गात्, तदर्थेऽपि अर्थित्वादेव प्रवृत्तिप्रतीतेः / परम्परयाऽत्र प्रवर्तकत्वे शब्देऽपि तथा तदस्तु अविशेषात् / को चेयं विवक्षा नाम-शब्दोच्चारणेच्छामात्रम् , अनेन शब्देन अमुमथं प्रति (1) विवक्षाभावे / (2) बहिराविषयत्वात् / (3) शब्दो बहिरर्थविषयः बहिरर्थे प्रवृत्त्यादिहेतुत्वात् / (4) तुलना-"प्रत्यक्षादिव शब्दाद् बहिरर्थप्रतीतिसिद्धेः। यथैव हि प्रत्यक्षात् प्रतिपत्तृप्रणिधानसामग्रीसव्यपेक्षात् प्रत्यक्षार्थप्रतिपत्तिः तथा सङ्कतसामग्रीसापेक्षादेव शब्दाच्छब्दार्थप्रतिपत्तिः सकलजनप्रसिद्धा, अन्यथा ततो बहिरर्थे प्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्राप्त्ययोगात्। न चार्थवेदनादेव अर्थ पुरुषस्यार्थिनः स्वयमेव प्रवृत्तेः शब्दोऽप्रवर्तक इत्येव वक्तुं युक्तम् ; प्रत्यक्षादेरप्येवमप्रवर्तकत्वप्रसङ्गात, तदर्थेऽपि सर्वस्याभिलाषादेव प्रवृत्तेः ।"-अष्टसह० पृ० 21 / प्रमेयक० पु० 449 / (5) प्रत्यक्षविषयीभतेऽप्यर्थे / (6) प्रत्यक्षे। (7) प्रवर्तकत्वव्यपदेशे। (8) परम्परया प्रवर्तकत्वम् / (9) "का चेयं विवक्षा नाम-किं शब्दोच्चारणेच्छामात्रम् ..."-प्रमेयक० पृ० 450 / 1 तद्वाचकमि-श्र० / 2 इत्याह ब०। 3 सुषप्तादीनामि-श्र०, सुषुप्त्यादौ इ-ब० / 4 अपरस्य ब०। 5-त्मलाभ इति आ०, ब०। 6-तुस्तद्वि-आ० / Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६५] विवृतिविवरणम् 781 पादयामि इत्यभिप्रायो वा ? प्रथमपक्षे वक्तृश्रोत्रोः शास्त्रश्रवणप्रणयनादौ प्रवृत्तिन प्राप्नोति / न खलु कश्चिदनुन्मत्तः शब्दनिमित्तेच्छामात्रप्रतिपत्त्यर्थं शास्त्रं वाक्यान्तरं वा प्रणेतुं श्रोतुं वा प्रवर्तते / दशदाडिमादिवाक्यैः सह सर्ववाक्यानामविशेषप्रसङ्गश्च, सर्वेषां स्वप्रभवेच्छामात्रानुमापकत्वाऽविशेषात् / अथ अनेन शब्देनामुमर्थं प्रतिपादयामीत्यभिप्रायो विवक्षा, तत्सूचकत्वेन अखिलशब्दानां विवक्षानुमापकत्वम् ; तदप्यनुप- 6 पन्नम् ; व्यभिचारात् / नहि शुकशारिकोन्मत्तादयः तथाभिप्रायेण वाक्यमुच्चारयन्ति / किश्च, समयानपेक्षः शब्दः तादृशमभिप्रायं गमयेत् , तत्सापेक्षो वा ? आद्यविकल्पे न कश्चित् क्वचिद्भाषानभिज्ञः स्यात् , सर्वेषामविशेषतः शब्दार्थप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् / समयापेक्षस्तु शब्दः अर्थमेव किन्न गमयेत् ? नह्ययम् अर्थाद् बिभेति येन तत्र साक्षान्न वर्तेत / अशक्यसमयत्वान्न शब्दोऽथं गमयति; इत्यप्यसमीक्षिताभिधा- 10 नम्; अभिप्रायेऽपि तदगमकत्वानुषङ्गात्, तत्रापि तस्य अशक्यसमयत्वाविशेषात् / असिद्धश्चास्य अशक्यसमयत्वम् ; 'प्रमाणं श्रुतमर्थेषु' [ लघी० का० 26 ] इत्यत्र तच्छक्यसमयत्वस्य प्रपञ्चतः प्रतिपादितत्वात् / ____ न केवलं सुषुप्तादौ वाग्वृत्तेर्दर्शनादभिप्रेतव्यभिचारित्वं कुतोऽपनीयते इति, अपि तु इतश्च / कुतस्तदपनीयते इत्याह-'अनिच्छताम्' इत्यादि / आनिच्छतामपि 15 अपशब्दाद्युच्चारणविवक्षाविकलानामपि अपशब्दादिभाषणसद्भावात् , आदिशब्देन श्रुतिदुष्टादिपरिग्रहः। तथा वाञ्छतामपि मन्दबुद्धीनां शास्त्रवक्तृत्वाभावात् तत्कुतोऽपनीयते ? अत्राह पर:-'उभयत्र' इत्यादि / उभयत्र अर्थेऽभिप्राये च व्यभिचारात शब्दानाम् न कस्यचिदर्थस्य अभिप्रायस्य वा वाचकाः शब्दाः, इतिशब्दः परमतसमाप्त्यर्थः / अत्र दूषणमाह-'अलौकिकं प्रतिभानमिति' प्रतिभोत्तरप्रतीतिः इत्यर्थः, 20 अलौकिकश्च तत् प्रतिभानञ्च, लोकबाधितम् इत्यर्थः / कुत एतत् ? इत्यत्राह'लोको हि' इत्यादि / हिर्यस्मात् लोकः अर्थाप्त्यनाप्तिषु सत्यानृतव्यवस्थाम आतिष्ठेत / कस्य ? शब्दस्य / यदि हि न कस्यचिद्वाचकाः शब्दाः स्युः तर्हि तेभ्यो घटाद्यर्थस्य स्वप्नेऽप्यप्रतीतेः न तत्प्राप्त्या केषाञ्चिच्छब्दानां सत्यत्वम् अन्येषां तु अनृतत्वं विपर्ययात् इत्येवं लोको वचसां तद्व्यवस्थामातिष्ठेत इत्यभिप्रायः / ननु अभिप्राय- 25 मात्रप्रतिपादनेऽपि तद्व्यवस्थामास्थास्यत इत्यत्राह-'न' इत्यादि / अभिप्रायमात्रे शब्दार्थे 'न लोकः तद्वयवस्थामातिष्ठेत' इति सम्बन्धः / कुत एतत् ? इत्यत्राह'तत्र' इत्यादि / 'तत्र' तन्मात्रे शब्दव्यवहारबाहुल्याभावात्, कचित् तत्र तद्व्यव (1) तुलना-"किञ्च, समयानपेक्षं वाक्यं तादृशमभिप्रायं गमयेत् तत्सापेक्षं वा ?" -प्रमेयक० पृ० 450 / (2) अभिप्रायमात्रे / 1-श्रवणयनादी आ० / 2 सुषुप्त्यादौ ब० / -पनीत ब० / 4 अशब्दाधुच्चा-श्र० / न त अभि-आ०, ब०। 6 इत्याह तत्र तन्मात्रे ब०, इत्यत्राह तत्र तन्मात्रे आ० / 7 चित्तत्तत्र श्र० / Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 782 ___ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [. प्रवचनपरि० हारेपि बहुलं बहिः तद्व्यवहारोपलम्भात् इति भावः / / ____ननु प्रतीयते शब्दादर्थः स तु विचार्यमाणो न सङ्गच्छते; तत्र तस्य सम्बन्धाभावतः प्रत्यायकत्वायोगात् ; इत्यत्राह-'अबाधिताम्' इत्यादि / अत्रायमभिप्रायः-यौदृशेऽर्थे सङ्केतितः यादृशः शब्दः देशान्तरे कालान्तरे च योग्यतालक्षणसम्बन्धवशात् तादृशस्य तादृशो वाचकः, न तत्र किञ्चिद्वाधकम् इत्युक्तम्-'योग्यतापेक्षानादिसङ्केतः'। लघी० स्ववृ० का० 62 ] इत्यत्र / अतः अबाधितां शब्दादुपजायमानां सामान्यविशेषात्मकार्थविषयां तत्प्रतीतिमतिक्रम्य स्वेच्छया प्रतीत्यनाश्रयणेन प्रमाणस्वरूपम्-'प्रत्यक्षानुमानलक्षणमेव प्रमाणं नागमादि' इति, प्रमेयस्वरूपम् प्रत्यक्षस्य पूर्वापरकोटिविच्छिन्नं स्वलक्षणमेव प्रमेयम् अनुमानस्य तु अन्यव्यावृत्तिमात्रम्' इत्यातिष्ठमानानां सौगतानां युक्तम् 10 उपपन्नम् किं तत् ? अभिप्रेतमात्रसूचकत्वम् / केषाम् ? शब्दानाम् इति / व्याख्यातं मूलकारिकायाम् 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्येतत् / साम्प्रतं 'नयो ज्ञातुरभिप्रायः' इत्येतद्व्याख्यातुकाम आह श्रुतभेदा नयाः सप्त नैगमादिप्रभेदतः।। द्रव्यपर्यायमूलास्ते द्रव्यमेकान्वयानुगम् // 66 // निश्चयात्मकमन्योऽपि व्यतिरेकपृथक्त्वगः। निश्चयव्यवहारौ तु द्रव्यपर्यायमाश्रिती // 67 // (1) बहिरर्थे / (2) शब्दस्य / (3) व्याख्या-"ते प्रागुक्तलक्षणा नया भवन्ति / के ? ते / श्रुतस्य सकलादेशस्य आगमस्य भेदा विकल्पा विकलादेशाः। कति ? सप्त। कुतः नैगमादिप्रभेदतः ? किं विशिष्टा: ? द्रव्यपर्यायमूलाः। तत्र द्रव्यस्य स्वरूपमाह-द्रव्यं सामान्य भवति / किं विशिष्टम् ? एकान्वयानुगम् , एकञ्चान्वयश्च एकान्वयौ तावनुगच्छति व्याप्नोतीत्येकान्वयानुगम् / तत्रैकानुगम् अर्थता (ऊर्ध्वता ) सामान्यं पूर्वापरव्यापकम् , सदृशपरिणामलक्षणं तिर्यक्सामान्यमन्वयानुगम् / पुनः किं विशिष्टम् ? निश्चयात्मकम् , निर्गतश्चयः पर्यायान्तरसंकरो यस्मादसौ निश्चयः पर्यायः स आत्मा यस्य तत्तथोक्तम् / अपि पुनरन्यः पर्यायो विशेषो भवति / किं विशिष्ट:? व्यतिरेकपृथक्त्वगः, व्यतिरेकश्च पृथक्त्वञ्च ते गच्छति तादात्म्येन परिणमतीति स तथोक्तः / तत्र व्यतिरेक: एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविपर्यायः / पृथक्त्वगः पुनरर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामः / "तु पुननिश्चयव्यवहारौ मूलनयौ आश्रितौ आलम्बितवन्तौ। किम् ? द्रव्यपर्यायम् ।"द्रव्यं श्रितो निश्चयनय: द्रव्याथिक इत्यर्थः / पर्यायाश्रितो व्यवहारनयः पर्यायाथिक इत्यर्थः ।"-लघी० ता. पृ० 88 / (4) तुलना-"सत्त मूलणया पण्णत्ता। तं जहा णेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुए, सद्दे, समभिरूढे, एवंभूए।"स्था० 7.19 / अनुयोग० 136 / नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढेवम्भूताः नयाः।"-तत्त्वार्थ० 1334 / “नेगमसंगहववहारुज्जुसुए होइ बोधव्वे / सद्दे य सममिरूढे एवंभूए य मूलनया।"-आव० नि० गा० 754 / "नैगमसंग्रव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः। आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ।"-तत्त्वार्थाधि० 234, 35 / सिद्धसेनदिवाकरास्तु षड् नयान् स्वीकुर्वन्ति, तन्मतानुसारेण नैगमस्य संग्रहव्यवहारयोरन्तर्भावात् / द्रष्टव्यम्-सन्मति०११४,५।। ____ 1 बहिश्छमस्थव्य-ब० / 2 यादृशोऽर्थे संकेतितः तादृशः शब्दः आ०। 8 'कालान्तरे च' नास्ति ब०, थ०। 4-क्षोऽनादि-ब० // 5-रेकापृथ-मु० लघी० / Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवनचप्र० का०६७] नयनिरूपणम् 783 विवृतिः-नहि मतिभेदा नयाः त्रिकालगोचरानेकद्रव्यपर्यायविषयत्वात् , मतेः साम्प्रतिकार्थग्राहित्वात् / मनोमतेरपिस्मृतिप्रत्यभिज्ञानचिन्ताभिनिबोधात्मिकायाः कारणमंतिपरिच्छिन्नार्थविषयत्वात् / तत्र मूलनयौ द्रव्यपर्यायार्थिको / द्रव्यम् एकान्वयात्मकम् / एकत्वं तदतत्परिणामित्वात् , सदृशपरिणामलक्षणसामान्यात्मकत्वाद् अन्वयि / पुरुषत्वादेरपेक्षातः सत्यपि समानेतरपरिणामातिशये नानकसन्तानात्मनां / तथाभावसंकरव्यतिकरव्यतिरेकाद् अन्वयिनोरस्खलत्समानैकप्रत्ययविषयत्वमनुमिमीमहे / तथाहि-स्कन्धः स्वगुणपर्यायाणामेकत्वं न समानपरिणामः पुरुषश्च / समानपरिणामोऽपि सकलपदार्थगोऽनेकत्वम् / निश्चयनयादेको जीवः कर्मनिर्मुक्तः व्यवहारनयात् सकर्मकः। पर्यायः पृथक्त्वम् व्यतिरेकश्च / पृथक्त्वम् एकत्र द्रव्ये गुणकर्मसामान्यविशेषाणाम् / व्यतिरेकः सन्तानान्तरगतो विसदृशप- 10 रिणामः / व्यवहारपर्यायाः क्रोधादयः जीवस्य संसारिणः, निश्चयपर्यायाः शुद्धस्य ज्ञानादयः प्रतिक्षणम् आत्मसात्कृतानन्तभेदाः / निश्चयनयात् पुद्गलद्रव्यमेकम् , पृथिव्यादिभेदेऽपि रूपरसगन्धस्पर्शवत्वम् आविर्भूतानाविर्भूतस्वरूपमजहत् स्कन्धपरमाणुपर्यायभेदेपि रूपादिमत्त्वमपरिजहत् / नहि अवस्थादेशकालसंस्काराः मूर्तत्वमत्यन्तं भिन्दन्ति अमूर्तभेदप्रसङ्गात् , सत्ताभेदाश्च जीवादयः सत्ताम् 15 इत्युक्तप्रायं नेहोच्यते / भेदवादिनोऽपि ज्ञानमेकम् एकस्मिन् क्षणे स्वयमनेकाकारमात्मसात्कुर्वत् कथं निराकुयुः 1 ततः तीर्थकरवचनसंग्रहविशेषप्रस्तावमूलव्याकारिणौ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको निश्चेतव्यौ। नहि तृतीयं प्रकारान्तरमस्ति; तस्य प्रमाण एवाऽन्तर्भावात् / न नैगमस्य प्रमाण [ता] तादात्म्यविवक्षाभावात् / श्रुतस्य आगमस्य भेदाः विशेषाः न पुनर्मतिज्ञानस्य / के ? नयाः, प्रतिपत्र- 20 भिप्रायाः, कियन्तः ? सप्त / कुतः 1 नैगमादिप्रभेदतः। किंकारिकार्थः - मूलास्ते ? इत्याह-'द्रव्य' इत्यादि / द्रव्यपर्यायौ मूलम् आश्रयो येषां ते तथोक्ताः / किं स्वरूपं द्रव्यम् ? इत्याह-'द्रव्यम्' इत्यादि / एकशब्दोऽयं भावप्रधानः, एकत्वञ्च अन्वयश्च सदृशपरिणामः ताभ्यां यथासंख्येन स्वपर्यायान (1) तुलना-उत्पन्नाविनष्टार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं तु त्रिकालविषयम् उत्पन्नविनष्टानुत्पन्नार्थग्राहकम् ।"-तत्त्वार्थाधि० भा० 1120 / (2) तुलना-"अर्थान्तरगतो विसदशपरिणामो व्यतिरेक: गोमहिषादिवत ।"-परीक्षाम० 4 / 9 / (3) तुलना-"तित्थयरवयणसंगह विसेसपत्थारमलवागरणी। दव्वट्रिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पासि ॥"-सन्मति०१।३। (4) तुलना"प्रमाणात्मक एवायमुभयग्राहकत्वतः / इत्ययुक्तमिह ज्ञप्तेः प्रधानगुणभावतः // प्राधान्येनोभयात्मानमर्थं गृह्णद्धि वेदनम् / प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपञ्चेन निवेदितम् ॥"-तत्त्वार्थश्लो० पृ. 269 / 1-मतिभिन्नार्थवि- ई० वि०। 2-मूत्तित्व- ज० वि० / -वक्त्रभि-ब० श्र० / Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 784 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० विवतिव्याख्यानम् द्रव्यान्तराणि च अनुगच्छति अनुयाति इति तदनुगम् / 'एकत्वानुगम्' इत्यनेन भेदैकान्तनिषेधः, 'अन्वयानुगम्' इत्यनेन तु सर्वद्रव्यैकत्वनिरासः। तदेवंविधं द्रव्यं प्रमाणापरिच्छेद्यं भविष्यति इत्यत्राह-'निश्चयात्मकम्' इति / संशयादिव्यवच्छेदलक्षणा प्रमेयस्था गृहीतिक्रिया निश्चयः, स आत्मा स्वभावो यस्य तत् तथोक्तम् / न केवलं 5 द्रव्यमेव निश्चयात्मकम् , किन्तु अन्योऽपि पर्यायोऽपि, निश्चयात्मकः इति लिङ्गपरि णामेन सम्बन्धः। पुनरपि कथम्भूतः ? इत्याह-व्यतिरेकपृथक्त्वगः। स्वद्रव्यपर्यायान्तरापेक्षया व्यतिरेकं परस्परव्यावृत्तिम् एकद्रव्यापरित्यागेन गच्छतीति व्यतिरेकगः, द्रव्यान्तरपर्यायापेक्षया पृथक्त्वं पृथग्द्रव्यवृत्तित्वं गच्छतीति पृथक्त्वगः। ननु यदि नैगमादयो नयाः द्रव्यपर्यायमूलाः तर्हि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकलक्षणौ मूलनयौ 10 किम्मूलौ ? इत्याह-'निश्चय' इत्यादि / चेतनस्य अचेतनस्य वा यः सन् स्वभावः न कदाचिद्विनश्यति तदवलम्बी नयो निश्चयः द्रव्यार्थिकनयः इत्यर्थः / यो विनश्यति खभावःतदवलम्बी व्यवहारः पर्यायार्थिक इति यावत् तौ / तु शब्दः अपिशब्दार्थ, द्रव्यपर्यायमाश्रितो। वक्ष्यति च 'तत्र मलनयो द्रव्यपर्यायार्थिको' इत्यादि / तत्र प्रथमकारिकायाः प्रथमभागं व्यतिरेकमुखेन विवृण्वन्नाह-'नहि' इत्यादि / नहि नैव मतिभेदाः किन्तु श्रुतभेदाः, के ते ? नयाः। कुत ___ एतत् ? इत्याह-'त्रिकाल' इत्यादि / त्रयः काला गोचरो येषाम् अनेकद्रव्यपर्यायाणां ते विषयो येषां तेषां भावात् तत्त्वात् / 'नयानाम्' इति विभक्तिपरिणामेन सम्बन्धः। मतिरपि तथा भविष्यति ? इत्यत्राह-'मतेः' इत्यादि / मतेः इन्द्रियजनितायाः साम्प्रतिकार्थग्राहित्वात् वर्तमानकालगोचरद्रव्यपर्यायात्मकार्थग्राहकत्वात् 'न मतिभेदा नयाः' इति सम्बन्धः / अनिन्द्रियजनितायास्तस्याः ते तर्हि भेदाः भवन्तु तस्याः त्रिकालगोचरद्रव्यादिविषयत्वात् इत्यत्राह-'मनोमतेः' इत्यादि / न केवलम् इन्द्रियमतेः अपि तु मनोमतेरपि 'नहि भेदाः नयाः' इति सम्बन्धः। किंविशिष्टायाः ? इत्याह-स्मृतिप्रत्यभिज्ञानचिन्ताभिनिबोधात्मिकायाः। कुत एतत् ? इत्यत्राह 'कारण' इत्यादि / विशदाऽवितथा मैतिः मनोमतेः कारणत्वात् 'कारणमतिः' इत्यु25 च्यते, तया परिच्छिन्नो योऽर्थः तद्विषयत्वान्मनोमतेः। तस्यैव कथञ्चिदधितया तया ग्रहणात् एवमुक्तम् / नयभेदं दर्शयन्नाह-तत्र' इत्यादि / तत्रैवं श्रुतभेदत्वे नयानां व्यवस्थिते मूलनयौ कारणनयौ नैगमादीनाम् / कौ ? इत्याह-द्रव्यपर्यायार्थिको, द्रव्यञ्च पर्यायश्च ___ (1) मतेः। (2) इन्द्रियजनिता मतिः / (3) इन्द्रियमतिविषयभूतस्य अर्थस्यैव / (4) अर्थादर्थान्तरानुगमरूपेण, विचारात्मकत्वान्मनोमतेः। (5) मनोमत्या। 1-त्मकं पृथग्द्रव्यमेय निश्चयात्मकं किन्तु श्र०। 2 इत्याह-ब०। / तत्रैव श्रुतभेदत्वेन व्यव-ब०। 20 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६७] नयनिरूपणम् 785 तावेव अर्थी तौ यथासंख्येन विद्यते ययोः तौ तथोक्तौ। तत्र द्रव्यपदं व्याचष्टे 'द्रव्यम्' इत्यादिना / एकत्वान्वयौ व्याख्यातो, तौ आत्मा यस्य तत् तदात्मकम् / एतदेव समर्थयमानः प्राह-'एकत्वम्' इत्यादि / 'द्रव्यम्' इत्यनुवर्तते / तस्य एकत्वं कुतः ? इत्याह-'तद्' इत्यादि / स च विवक्षित: असश्च अविवक्षित: तदतौ, तौ च तौ परिणामौ च तौ यस्य स्तः तत् तदतत्परिणामि, यदि वा, तयोः परिणमत / इत्येवं शीलं तदतत्परिणामि, तस्य भावात् तत्त्वात् / साम्प्रतम् 'अन्वयात्मकं तत्' इत्येतत् समर्थयते-अन्वयि द्रव्यान्तरेण अनुगमवद् 'द्रव्यम्' इति सम्बन्धः। कुतः ? इत्याह-'तद्' इत्यादि / सदृशपरिणामलक्षणसामान्यात्मकत्वात् / अत्राह सौगतः-असमानानपेक्ष्य समानपरिणामाः अनुपादानोपादेयानपेक्ष्य एकपरिणामाः केचन भावाः कल्प्यन्ते न परमार्थतः, अपेक्षाकृतस्य धर्मस्याऽतात्त्विकत्वात् ; 10 इत्यत्राह-'पुरुष' इत्यादि / अस्यायमर्थः-नानकसन्तानात्मनाम् नानासन्तानस्वभावानाम् एकसन्तानस्वभावानांश्च युगपत्क्रमभाविनां क्षणानाम् इत्यर्थः / तेषां यदपेक्षातः यथोक्तायाः अपेक्षायाः सकाशात् कल्पितं पुरुषत्वं तिर्यक्सामान्यम् , आदिशब्देन द्रव्यविशेषपरिग्रहः, तस्मात् सत्यपि विद्यमानेऽपि समानेतरपरिणामातिशये समानपरिणामातिशये तत्प्रकर्षे इतरपरिणामातिशये एकत्वपरिणामप्रकर्षे / ननु इतरशब्दस्य उक्तविपरी- 15 तार्थाभिधायित्वात् समानपरिणामाद् इतरो विसदृशपरिणाम एव लभ्यते, न एकत्वपरिणामातिशय इति चेत् ; एवमेतत्, तथापि-इह समानैकत्वपरिणामातिशययोः प्रकृतत्वात् समानपरिणामात् इतरः एकत्वपरिणाम एव उच्यते / तस्मिन् सत्यपि एकत्वं तदतत्परिणामित्वात् / सदृशपरिणामलक्षणसामान्यात्मकत्वाद् 'अन्वाय' इति सम्बन्धः। नहि तथाऽपरिणतम् अपेक्षात: तद् भवति विप्रतिषेधात् , अन्यथा स्वयममूर्तमपि ज्ञानं 20 ज्ञानान्तरात् अमूर्त्तात् व्यवर्तमानं मूर्त स्यात् / ननु च विचार्यमाणस्य तदतत्परिणामिनः सदृशपरिणामलक्षणसामान्यस्य चानुपपत्तेः अभिमतरूपवद् अनभिमतरूपेणापि प्रसङ्गाच्च अयुक्तम्-एकत्वमित्यादि; इति चेदत्राह-'तथा' इत्यादि / तथा तदतिशयप्रकारेण यो सङ्कर-व्यतिकरौ तयोः व्यतिरेकाद् अभावाद् अन्वयिनोः तदतत्परिणामिसामान्ययोः अस्खलत्समानैकप्रत्ययविषयत्वम् साकल्येन नानकसन्तानात्मस्व- 25 भावम् अनुमिमीमहे अनुमानेन प्रतिपद्यामहे 'अनुमाननिमित्तस्य उक्ततर्कस्य प्रविजृम्भणात्' इत्यभिप्रायः। (1) न हि अग्नित्वेनापरिणतं अपेक्षातः अनग्निव्यावृत्त्यपेक्षया अग्निर्भवति, जलादावपि * अनग्निव्यावृत्त्या अग्नित्वप्रसङ्गस्य दुरित्वात् इति भावः। 1 द्रव्यमित्यादि द्रव्यमित्यनुवर्तते ब०, द्रव्यमित्यादि इत्यनुवर्तते श्र०। 2-ह सदश-आ०, ब० / 3-पेक्ष एक-ब०। 4-ञ्च यगपत्क्रमभाविनाञ्च यगपत्क्रमभाविनां क्ष-आ०। 5 'समानपरिणामातिशय' नास्ति श्र०, समानपरिणामप्रकर्षे ब०। 6-रूपेणातिप्र-श्र०।। 49 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 786 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० यदि वा वैशेषिकादिराह-पुरुषत्वमपेक्ष्य समानपरिणामातिशयो नानात्मसु, बुद्ध्यादिगुणसमवायित्वमपेक्ष्य एकात्मनि एकत्वपरिणामातिशयो न परमार्थतः इति; तत्राह-'पुरुषत्वादेः' इत्यादि / पुरुषत्वम् आदिर्यस्य बुद्ध्यादिसमवायित्व-त्रिगुणसंयो गित्वादेः स तथोक्तः तस्य या अपेक्षा ततः सत्यपि समानेतरपरिणामातिशये / 5 केषाम् ? इत्याह-नानकसन्तानात्मनाम् / नाना एकसन्तानाश्च ते आत्मानश्च तेषाम् इति, शेषं पूर्ववत् / न भवतु आत्मना समानैकत्वपरिणामः न घटादीनां तत्र समानपरिणामस्यैव संभवात् इत्याशङ्क्याह-'तथाहि' इत्यादि / तथाहि तेन अस्खलत्समानैकप्रत्ययविषयत्वप्रकारेण च स्कन्धो घटाद्यवयवी, स किम् ? इत्याह-एकत्वम्। केषाम् ? इत्याह-'ख' इत्यादि / स्वशब्देन स्कन्धः परामृश्यते तस्य ये गुणा रूपादयः 10 ये च पर्याया नवपुराणादयः तेषाम् एकत्वम् न समानपरिणाम: 'अस्खलदेकप्रत्य यविषयत्वात्' इति भावः / ननु भिन्नसन्तानात्मनामिव एकसन्तानात्मनामपि समानपरिणाम एवास्तु इति सौगतः / तत्राह-'पुरुषश्च' इति / न केवलं स्कन्धः किन्तु पुरुषोऽपि 'स्वगुणपर्यायाणामेकत्वम्' इति सम्बन्धः। नेनु यथा क्रमभाविनां सुखा दीनामेकत्वं पुरुषः तथा युगपद्भाविनामात्मनाम् एकत्वं सोऽस्तु इति चेदत्राह-'समान' 15 इत्यादि / अपिशब्द एवकारार्थः। समानपरिणाम एव सकलपदार्थगः नैकत्वं सकलपदार्थगम् 'पुरुषस्य' इति विभक्तिपरिणामेन सम्बन्धः। अनेन 'तथाभाव' इत्यादि समर्थितम् , द्रव्यमेकान्वयानुगम्' इति कारिकापादश्च व्याख्यातः / निश्चयनयाद् द्रव्यार्थिकनयाद् एकः अभिन्नः जीवः सर्वोऽपि सर्वसाधारणचेतनापरिणा मापेक्षया / स एव द्विविधो व्यहारनयात् इति दर्शयन्नाह-'कर्म' इत्यादि / कर्मणा 20 ज्ञानावरणीयादिना निर्मुक्तोरहितो जीवः, सकर्मकश्च। कुतः? व्यवहारनयात् पर्याया र्थिकनयात् / एवमेकेन्द्रियादिभेदोऽपि चिन्त्यः। अनेन द्वितीयकारिकाया उत्तरार्द्ध व्याख्यातम् / पर्यायं कथयन्नाह-'पर्यायः' इत्यादि / पर्यायः कः ? इत्याह-पृथक्त्वं व्यतिरेकश्च / तत्र पृथक्त्वपदं व्याचष्टे-पृथक्त्वम् , एकत्र एकस्मिन् द्रव्ये गुणक25 मंसामान्यविशेषाणां परस्परपरिहारेण कथञ्चित् अवस्थानम् इत्यर्थः / व्यतिरेकपदं विवृणोति-व्यतिरेको व्यावृत्तिः। कः ? इत्याह-सन्तानान्तरगतो विसदृशपरिणामः गोमहिष्यादिपरिणामः / तत्र जीवगतपर्यायान् दर्शयन्नाह-'व्यवहार' इत्यादि / व्यवहारपर्यायाः पर्यायार्थिकनयपर्यायाः इत्यर्थः / के ? क्रोधादयः कादाचित्कत्वात् / (1) सौगतः / (2) अद्वैतवादी। (3) पुरुषः ब्रह्मरूपो भवतु / 1 बुद्धयादिसम-आ०। 2 'नानकसन्तानात्मनाम्' नास्ति श्रः। 3 तथा च तेन ब०, तथा तेन आ० / 4-सन्तानानामपि ब० // 5-गः अनेकत्वं आ०, श्र०। 6 तद्रव्यमे-श्र०17 निश्चयाद् आ०, ब० / 8-केन्द्रियभेदोपि ब० / 9 पर्याया क इ-ब०। 10-वनवस्था-श्र०। 11 गोमहिषादि-श्र०ब० / Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 67] नयनिरूपणम् 787 किंविशिष्टस्य जीवस्य ते पर्यायाः ? इत्याह-संसारिणः। मुक्तस्य के पर्यायाः ? इत्याह-'निश्चय' इत्यादि / निश्चयपर्यायाः द्रव्यार्थिकगोचराः पर्यायाः शुद्धस्य 'जीवस्य' इति सम्बन्धः / के ते ? ज्ञानादयः अकादाचित्कत्वात् / कथम्भूतास्ते ? 'ते च' इत्याह (इत्याह ते च) प्रतिक्षणम् आत्मसात्कृतानन्तभेदाः। न केवलं द्रव्यार्थिकनयाज्जीवस्यैव अभेदः अपि तु पुद्गलद्रव्यस्यापि इत्याह-'निश्चय' इत्यादि / निश्चय- 5 नयात् द्रव्यार्थिकनयात् पुद्गलद्रव्यम् एकम् अभिन्नम् / कस्मिन् सत्यपि ? इत्याहपृथिव्यादिभेदेऽपि। किं कुर्वत्तदेकम् ? इत्याह-'रूप' इत्यादि। अजहत् अपरित्यजत् , किम् ? इत्याह-रूपरसगन्धस्पर्शवत्वम् “रूपरसगन्धस्पर्शवन्तः पुद्गलाः” [ तत्त्वार्थसू० 5 / 23 ] इत्यभिधानात् / कथम्भूतं तत् ? इत्याह-आविर्भूतानाविर्भूतस्वरूपम् / पृथिव्यां तदै आविर्भूतस्वरूपं जलादौ अनाविर्भूतस्वरूपम् , जले गन्धस्य अनले गन्धरसयोः 10 अनिले रूपरसगन्धानामनाविर्भावात् / ननु जलादौ गन्धादिसद्भावे प्रमाणतः सिद्धे अनाविर्भावो युक्तः, अन्यथा सर्वस्य सर्वत्राऽनाविर्भावप्रसङ्गात् सांख्यदर्शनप्रतिप्रसङ्गः स्यात् इति चेत् ; उच्यते-जैलादयो गन्धादिमन्तः, स्पर्शवत्त्वात्, यदित्थं तदित्थं यथा पृथिवी, स्पर्शादिमन्तश्चैते, तस्माद्गन्धादिमन्त इति / यत् पुनः गन्धादिमन्न भवति न तत् स्पर्शवत् यथा आत्मादि, 15 इत्यादि षट्पदार्थपरीक्षायां पृथिव्यादीनामतत्त्वान्तरभावसमर्थनावसैरे प्रपञ्चतः प्ररूपितमिहावगन्तव्यम् / पुनरपि किं कुर्वत् ? इत्यत्राह-'स्कन्ध' इत्यादि / स्कन्धाश्च घटादयः परमाणवः अत्यन्तसूक्ष्माः पुद्गलाः त एव पर्यायाः परस्परतः प्रादुर्भावात् , परमाणुभ्यो हि स्कन्धाः प्रादुर्भवन्ति तेभ्यश्च परमाणव इति, तेषां भेदेपि रूपादिमत्त्वमपरित्यजदेकं / दृष्टान्तार्थमेतत् ; ततो यथा तत् परमाणुरूपं स्कन्धीभवत् स्कन्धस्वभावं 20 वा परमाणुरूपतामादधत् रूपादिमत्त्वमपरित्यजत् एकं तथा प्रकृतमपि इति / एतदेव . दर्शयन्नाह-'नहि' इत्यादि / हिर्यस्मात् न अवस्था च देशश्च कालश्च संस्कारश्च ते मूर्त्तत्वं रूपादिमत्त्वम् “रूपादिमयी मूर्तिः” [ ] इत्यभिधानात् / अत्यन्तं सुष्ठु भिन्दन्ति 'पृथिव्यादिभेदस्य स्कन्धपरमाणुपर्यायभेदस्य चे' इति सम्बन्धः। कुत एतत् ? इत्याह-'अमूर्त' इत्यादि / अमूर्तो रूपादिरहितो यो भेदः व्यक्तिविशेषः तस्य 25 प्रसङ्गात् / यथा च अवस्थादयो न रूपादिमत्त्वमत्यन्तं भिन्दन्ति, तथा सत्ताभेदाश्च (1) "स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः।"-तत्त्वार्थसू०। (2) रूपरसगन्धादि / (३)वैशेषिकः। (4) तुलना-पृ० 238 टि० 4 / (5) पृ० 238 / (6) तुलना-"रूपं मूर्तिरित्यर्थ: / मूर्तिः ? रूपादिसंस्थानपरिणामो मूर्तिः ।"-सर्वार्थसि० राजवा० 5 / 5 / 1 प्रतिप्रसवः स्यात् आ०, श्र०। 2 वा श्र० / Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 788 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० जीवादयः सत्ताम् 'अत्यन्तं न भिन्दन्ति' इति सम्बन्धः / असद्भेदप्रसङ्गात् इत्युक्तप्रायं 'जीवाजीवप्रभेदा यदन्तीनाः' [लघी० का० 31] इत्यत्र, नेह पुनरुच्यते / नर्नु जीवादिद्रव्यस्य सत्तादिसामान्यस्य वा कस्यचिदसंभवात् 'निश्चयनया देको जीवः' इत्याद्ययुक्तम् , तत्संभवे च अवस्थादिभेदेन विरुद्धधर्माध्यासतः प्रतिक्षणं 5 भेदप्रसङ्गान्न तदेकत्वम् इत्याशङ्क्याह-'भेद' इत्यादि। ये विरुद्धधर्माध्यासतः सर्वथा वस्तुनो भेदं वदन्ति सौगताः तेऽपि कथं नैव निराकुर्युः ? किं तत् ? ज्ञानम् , कथम्भूतम् ? एकम् / किं कुर्वत् ? स्वयम् आत्मनोऽनेकाकारं नीलपीतादिविचित्राकारं ग्राह्य ग्राहकाकारविविक्तेतररूपतया प्रत्यक्षपरोक्षाकारं वा आत्मसात्कुर्वत् / कदा 1 एकस्मिन् क्षणे / तन्निराकरणे सकलशून्यता स्यात् / सा च प्रत्यक्षपरिच्छेदे प्रपञ्चतः प्रतिक्षिप्ता 10 इत्यलं पुनः प्रसङ्गेन / ततो यथा विरुद्धधर्माध्यासेऽपि एकमेकदा ज्ञानमविरुद्धं तथा क्रमेण जीवादिद्रव्यमपि इति / ___ उतार्थोपसंहारमाह-'तत' इत्यादि / यत उक्तप्रकारेण जीवादि सुखादिपर्यायात्मकं व्यवस्थितं ततः तीर्थकरस्य भवावतोऽर्हतो वचनं स्याद्वादप्रवचनं तस्य विषय भूताः, श्रुतभेदत्वात् नयानाम् , ये सङ्ग्रहविशेषाः सङ्ग्रहश्च विशेषाश्च व्यवहारादिनय15 भेदाः तेषा प्रस्तारस्य प्रपञ्चप्ररूपणस्य मूलव्याकारिणौ आद्यौ उत्पादकौ निश्चेतव्यौ / कौ ? इत्याह-द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिको / अन्यः कुतो नेति चेत् ? अत्राह-'नहि' इत्यादि / हिर्यस्मात् न तृतीयं प्रकारान्तरं नयान्तरमस्ति / कुत एतत् ? इत्यत्राह'तस्य' इत्यादि / तस्य तदन्तरस्य प्रमाणे एव न नये अन्तर्भावात् 'न तदस्ति' इति सम्बन्धः / प्रधानभूतान्योन्यात्मकसामान्यविशेषविषयाभिसन्धेः प्रमाणत्वात् / 20 नैगमोऽपि तर्हि प्रमाणं स्यात् इति चेदत्राह-'न' इत्यादि / न प्रमाणता, कस्य ? नैगमस्य / कुत एतत् ? इत्याह-'तादात्म्य' इत्यादि / तादात्म्येन प्रमाणस्वभावत्वेन विवक्षायाः अभावात् , नयत्वेन विवक्षासद्भावात् इत्यर्थः / एतदपि कुतः इत्यत्राह गुणप्रधानभावेन धर्मयोरेकधर्मिणि।। विवक्षा नैगमोऽत्यन्तभेदोक्तिः स्यात्तदाकृतिः // 8 // (1) असंश्चासौ भेदः विशेषः तस्य प्रसङ्गात् असद्रूपत्वप्रसङ्गादित्यर्थः / (2) सौगतः / (3) चित्रज्ञानम्, ग्राह्यग्राहकाद्यनेकाकारं संवेदनम् ग्राह्याद्याकारराहित्य-संवेदनापेक्षया प्रत्यक्षपरोक्षात्मक संवेदनं वा। (4) सकलशून्यता। (5) पृ० 133 / (6) सुखाद्यनेकाकारम् / (7) अभिप्रायवतो ज्ञानस्य। (8) व्याख्या-"स्यात् / कः ? नैगमो नयः / का ? विवक्षा अभिप्रायः / कयोः ? घर्मयोः एकत्वानेकत्वयोः / केन? गुणप्रधानभावेन / क्व? एकमणि एकोऽभिन्नो धर्मी द्रव्यं तस्मिन् / तदाकृतिः तस्य नैगमस्य आकृतिराभास: स्यात् / का? अत्यन्तभेदोक्तिः अत्यन्तो निरपेक्षः भेदो नानात्वं तस्योक्तिर्वचनं नैयायिकाद्यभिप्रायो नैगमाभास इत्यर्थः।"-लघी० ता०प०९०। . 1 तत्संभवे वानस्था-श्र० / 2 स्याद्वादवचनं आ० / 3 प्रसारस्य श्र०। 4 प्रकारभूता-श्र० / 6-भिसम्बन्धेः प्र-आ०, श्र० / Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०६८] नैगमनयनिरूपणम् 786 विवृतिः-जीवः सन्नमूर्तः कर्ता सूक्ष्मो ज्ञाता द्रष्टाऽसंख्यातप्रदेशो भोक्ता परिणामी नित्यः पृथिव्यादिभूतविलक्षणः इति प्रधानवृत्त्या जीवस्वत्तत्त्वनिरूपणायां गुणीभूताः सुखादयः / सुखादिस्वरूपनिरूपणायां वा आत्मा। तदत्यन्तभेदाभिसन्धिः नैगमाभासः / गुणगुणिनाम् अवयव्यवयवानां क्रियाकारकाणां जातितद्वतां चेत्यादि तादात्म्यमविवक्षित्वा गुणगुणिनोः धर्मिधर्मयोर्वा गुणप्रधान- 5 भावेन विवक्षा नैगमे, संग्रहादौ एकविवक्षेति भेदः। गुणप्रधानभावेन मुख्यामुख्यरूपना धर्मयोः एकस्मिन् धर्मिणि विवक्षा कारिकाव्याख्या____ * प्रतिपत्तुरभिसन्धिः नैगमः स कथं प्रधानभूतोभयधर्मस्वभावधर्मि विषयप्रमाणरूपतां प्रतिपद्येत ? तदाभासमाह-अत्यन्तभेदोक्तिः 'धर्मयोः एकधर्मिणि' इति सम्बन्धः, स्यात् तदाकृतिः नैगमाभासो भवेत् / 10 कारिकां विवृण्वन्नाह-जीवः सन्नमूर्तः सूक्ष्मो ज्ञाता द्रष्टा कर्ताऽसंख्यातप्रदेशी विवृतिव्याख्यानम्___. भोक्ता परिणामी नित्यः पृथिव्यादिभूतविलक्षणः एवं प्रधानवृत्त्या - जीवस्वतत्त्वनिरूपणायां जीवस्वरूपप्ररूपणायां क्रियमाणायां गुणीभूताः सुखादयो धर्माः / ओह्रादनाकारं सुखं तद्विपरीतस्वरूपं दुःखं स्वार्थग्रहणस्वभावं ज्ञानम् इत्येवं मुख्यतः सुखादिस्वरूपनिरूपणायां वा आत्मा ‘गुणीभूतः' इति 15 सम्बन्धः / नैगमाभासं प्ररूपयन्नाह-'तद्' इत्यादि / तयोः सुखाद्यात्मनोः अत्यन्तभेदाभिसन्धिः नैगमाभासः। उदाहरणमाह-गुणगुणिनाम् अवयवावयविनां जातितद्वतां चेत्यादि / “अत्यन्तभेदाभिसन्धि गमाभासः' इति सम्बन्धः / अनेन कापिलीयोऽपि चैतन्यसुखाद्योरत्यन्तभेदाभिसन्धिः चिन्तितः। कुतोऽसौ नैगमाभासः ? इत्यत्राह-'तादात्म्यम्' इत्यादि / यतोऽसौ धर्मधर्मिणोस्तदात्म्यं सदपि अविवक्षित्वा 20 स्वदुरागमवासनाविपर्यासितमतेः प्रतिपत्तुः प्रवर्तते ततोऽसौ नैगमाभासः इति / धर्मर्मिणोः इत्युपलक्षणार्थमेतत् , तेन अवयवावय विनोः क्रियाकारकयोः जातितद्वतोश्च ग्रहणम् / धर्मयोर्वा गुणप्रधानभावेन विवक्षा नैगमे यतः ततोऽत्यन्तभेदविवक्षा तदाभास इत्यभिप्रायः / संग्रहादेरतः कुतो भेदः ? इत्यत्राह-'संग्रह' इत्यादि / संग्रहः आदिर्यस्य व्यवहारादेः स तथोक्तः तत्र एकस्य गुणादेः गुण्यादेर्वा विवक्षा इति 25 हेतोः भेदः नैगमात् संग्रहादेः इति / तत्र संग्रहस्वरूपं सप्रतिपक्षं दर्शयन्नाह (1) विषयं यत्प्रमाणं तद्रूपताम् / (2) 'सुखमालादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम्"-न्यायवि० / द्रष्टव्यम्-अकलङ्कप्र० परि० पृ० 58 / ___1-णामं ज० वि० / 2-भतावि-ज० वि०। 3 निगमे ज० वि०। 4-भिसम्बन्धिः आ० / 5-पद्यते आ०, श्र०। 6 चात्मा ब०। 7-सम्बन्धिः श्रः। 8 वेत्यादि आ० / 9 नैगमो यतः ब०, श्र०। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 760 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० सदभेदात् समस्तैक्यसंग्रहात् संग्रहो नयः। दुर्नयो ब्रह्मवादः स्यात् तत्स्वरूपानवाप्तितः // 69 // विवृतिः -सर्वमेकं सदविशेषात् इति संग्रहो नयः। तदाभासो ब्रह्मवादः तदभ्युपगमोपायाभावात् / नापि तस्योपेयत्वं खरविषाणवत् / समस्तस्य जीवाजीवविशेषप्रपञ्चस्य ऐक्येन संग्रहात् कारणात् संग्रहो नयः 'प्रवर्त्तते' इत्युपस्कारः। कुतः समस्तैक्यसंग्रहः इत्याह-सदभेकारिकार्थः दात् / ब्रह्मवादोऽपि सदभेदमाश्रित्य समस्तैक्यं संगृह्णाति इति सोऽपि संग्रहः स्यादित्यत्राह-'दुर्नय' इत्यादि / दुर्नयः संग्रहाभासो ब्रह्मवादः स्यात् / कुत एतत् ? इत्यत्राह-'तद्' इत्यादि / तस्य ब्रह्मणः यत्स्वरूपं 10 निराकृतसकलभेदप्रपञ्चं सत्तामात्रं तस्य अनवाप्तितः प्राप्तेरभावात् / / ___ कारिकां विवृण्वन्नाह-'सर्वम्' इत्यादि सर्व चेतनाचेतनरूपं वस्तुजातम् एकं विवृतिव्याख्यानम् ___ सदविशेषात् इति एवं संग्रहनयः प्रवर्त्तते / तदाभासः संग्रहाभासः - ब्रह्मवादः। कुत एतत् ? इत्यात्राह-'तत्' इत्यादि / तदभ्युपगमस्य ब्रह्मवादस्वीकारस्य उपायाभावात् प्रमाणाभावात् / प्रमाणमूलो हि अभ्युपगमः सत्यः is इत्यभिप्रायः / दोषान्तरमाह-'नापि' इत्यादि / नापि तस्य ब्रह्मणः उपेयत्वं स्वीकरणीयत्वम् 'उपायाभावात्' इत्यभिसम्बन्धः / यस्य उपायामावो न तदुपेयम् यथा खरविषाणम्, उपायाभावश्च ब्रह्मणः इति / यथा चास्य न कश्चिदुपायो घटते तथा ब्रह्माद्वैतनिषेधावसरे व्यासतः चिन्तितम् / व्यवहारनयं दर्शयन्नाहव्यवहारानुकूल्यात्तु प्रमाणानां प्रमाणता। नान्यथा बाध्यमानानां ज्ञानानां तत्प्रसङ्गतः // 7 // विवृतिः-प्रमाणानां प्रामाण्यं व्यवहाराविसंवादात् इति आकुमारं प्रसिद्धम् , (1) व्याख्या-"..."समस्तस्य जीवाजीवविशेषस्य ऐक्येन ऐकत्वेन संग्रहात् संक्षिप्य ग्रहणात् / कथमनेकस्य संक्षेपणमित्याशङ क्याह-सदभेदात्, सत् सत्वसामान्यं सच्चासावभेदश्च तमाश्रित्य / नहि सत्त्वात् किञ्चिद् भिन्नमस्तीति वक्तुं युक्तं विरोधात् / दुर्नयः संग्रहाभासः स्यात् / कः ? ब्रह्मवादः सत्ताद्वैतम् / कूतः? तत्स्वरूपानवाप्तितः, तस्य परपरिकल्पितब्रह्मणः स्वरूपं भेदप्रपञ्चशन्यं सन्मानं तस्यानवाप्तिः प्रमाणादप्राप्तिस्ततः, न खलु तत् प्रत्यक्षादिप्रमाणात् प्राप्यते तथाप्रतीतेः।"-लघी० ता० पृ० 90 / (2) पृ० 150 / (3) "व्यवहारानुकूल्यात्तु, संग्रहभेदको व्यवहारः तस्यानुकूल्यमविसंवादः तस्मादेव / बाध्यमानानां संशयादीनां विसंवादिनां ज्ञानानाम् / तत्र प्रमाणेतरव्यवस्थानिबन्धनत्वात् व्यवहारो नयः, अन्यथा तदाभास इत्यर्थः।"-लघी० ता० पृ० 91 / उद्धृतोऽयम्-"व्यवहारानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता। नान्यथा बाध्यमानानां तेषाञ्च तत्प्रसङ्गतः।"-तत्त्वार्थश्लो०१०२७१। तुलना"प्रामाण्यं व्यवहारेण"."-प्रमाणवा० 3 / 5 / 1 तस्यौपेयत्वं ज० वि० 12 एकेन आ०, ब०। 8-वित्याह श्र०। 20 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 प्रवचनप्र० का० 70] व्यवहारनयनिरूपणम् 761 अन्यथा संशयविपर्यासस्वमज्ञानादीनामपि प्रामाण्यमनिवार्य स्यात् / प्रत्यक्षं सविकल्पकं प्रमाण व्यवहाराविसंवादात् / उत्पादविगमध्रौव्यलणं सत् गुणपर्ययवद्रव्यम् जीवश्चैतन्यस्वभावः इत्यादि श्रुतज्ञानस्य प्रमाणान्तराबाधन-पूर्वापराविरोधलक्षणसंवादसंभवात् प्रामाण्यम् , अर्थाभिधानप्रत्ययात्मकव्यवहारानुकूल्याच्च / बहिरर्थविज्ञप्तिमात्रशून्यवचसा व्यवहारविरोधित्वात् दुर्नयत्वम् / / प्रमाणानाम् अध्यक्षादीनां या प्रमाणता सौगतादिभिरिष्यते सा व्यव हारानुकूल्यादेव उपपन्ना नान्यथा, अन्यथा व्यवहारप्रातिकारिकार्थः * कूल्यप्रकारेण न, कुत एतत् ? इत्यत्राह-'बाध्यमान' इत्यादि / बाध्यमानानां व्यवहारानधिरूढप्रातीतिकद्विचन्द्रसकलशून्यताद्यर्थविषयज्ञानानां तत्प्रसङ्गतः प्रमाणताप्रसङ्गतः। कारिका व्याख्यातुमाह-'प्रमाणानाम्' इत्यादि / प्रमाणानां प्रत्यक्षादीनां विवृतिव्याख्यानम् _ प्रामाण्यम् अमिथ्यात्वम् इष्टानिष्टप्राप्तिपरिहारलक्षणव्यवहारावि संवादात् , इत्येतत् आकुमारम् आबालं प्रसिद्धम् / अन्यथा व्यवहाराविसंवादाभावप्रकारेण तत्प्रामाण्ये संशयविपर्यासस्वप्नज्ञानादीनामपि प्रामाण्यमनिवार्य स्यात् / तेदविसंवादाच्च तत्प्रामाण्ये यत् परेषा निर्विकल्पकं प्रत्यक्षं तद- 15 प्रमाणं व्यवहाराविसंवादाभावात् इति मन्यमानः प्राह:-'प्रत्यक्षम्' इत्यादि / प्रत्यक्ष सविकल्पकम् प्रमाणं 'स्यात्' इत्यनेन सम्बन्धः / कुत एतत् ? इत्यत्राह-व्यवहाराविसंवादात् / न पुनः निर्विकल्पकं तद्विपर्ययात् इति भावः / साम्प्रतं श्रुतस्य तत एव प्रामाण्यं दर्शयन्नाह-'उत्पाद' इत्यादि / उत्पादविगमध्रौव्याणि लक्षणं स्वरूपं यस्य तदेतल्लक्षणं जीवादिवस्तु सद् भवति, गुणपर्ययवद्रव्यं जीवश्चैतन्यस्वभावः 20 इत्येवमादिश्रुतज्ञानस्य अस्पष्टतर्कणस्य 'प्रामाण्यं स्यात्' इति गतेन सम्बन्धः / कुत एतत् ? इत्यत्राह-'प्रमाणान्तर' इत्यादि / श्रुतात् अन्यत् प्रत्यक्षादि प्रमाणान्तर तेन अबाधनञ्च पूर्वापरयोः श्रुतवाक्ययोः अविरोधश्च लक्षणं यस्य संवादस्य तस्य तत्र संभवात् / अत्रैवार्थे हेत्वन्तरमाह-'अर्थ' इत्यादि / अर्थो जीवादिः अभिधानं जीवादिशब्दः प्रत्ययः तद्विषयो ज्ञानं ते आत्मा यस्य व्यवहारस्य तस्यानुकूल्याच्च 25 (1) तुलना-"त्रयः पदार्थाः अर्थाभिधानप्रत्ययभेदात्"-राजवा०पृ०१७ / अष्टसह०प०२५१ / (2) व्यवहाराविसंवादात्। (3) सौगतानाम् / (4) द्रष्टव्यम्-पृ० 605 टि०७। (5) तुलना"गुणाणमासओ दव्वं एकदव्वस्सिआ गुणा / लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिआ भवे ॥"-उत्तरा० 28 / 6 / "दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादब्वयधुवत्तसंजुत्तं / गुगपज्जयासयं वा जं तं भण्णन्ति सव्वण्हू ॥"पंचास्तिगा०१०। “गुणपर्ययवद्रव्यम्"-तत्त्वार्थसू०५।३८न्यायवि० का०१११। "तं परियाण हु दब्बु तुहुँ जं गुणपज्जयजुत्तु / सहभुव जाणहि ताहँ गुण कमभुव पज्जउ उत्तु ॥"-परमात्मप्र गा०५७। 1 श्रतज्ञानेन ज० वि०। 2-मात्रे शून्य-ज० वि०। 3 'अन्यथा' नास्ति आ०, ब० / 4-मारबालं श्र० / 5 इत्याह ब०, श्र०। 6 संवादस्य तत्र आ०, व०। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 762 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० हेतोः श्रुतज्ञानस्य 'प्रामाण्यम्' इति सम्बन्धः। व्यवहारदुनयं दर्शयन्नाह-'बहिरर्थ' इत्यादि / बहिरर्थश्च विज्ञप्तिमात्रश्च ताभ्यां शून्यं तत्प्रतिपादकवचसां दुर्नयत्वम् / बहिरर्थशून्यवचसां विज्ञप्तिमात्राद्यद्वैतप्रतिपादकवचसां तन्मात्रशून्यवचसां सकल शून्यताप्रतिपादकवचसामिति / कुतः तेषां दुर्नयत्वम् ? इत्यत्राह-'व्यवहारविरोधि5 त्वात्' इति / नहि तद्वचस्सु इष्टानिष्टप्राप्तिपरिहारादिलक्षणव्यवहारस्य अविरोधो युक्तः प्रमाणप्रमेयसद्भावे सत्येव अस्याऽविरोधात् / ऋजुसूत्रनयं दर्शयन्नाह 'भेदं प्राधान्यतोऽन्विच्छन् ऋजुसूत्रनयो मतः। सर्वथैकत्वविक्षेपी तदाभासस्त्वलौकिकः // 71 // विवृतिः-बहिरणवः संचिताः स्थूलमेकाकारप्रत्ययमभृतं यथा दर्शयन्ति 10 तद्वत् संवित्परमाणवोऽपि चित्राकारमेकम् / ततो नैकमनेकरूपं तत्त्वमक्रमं यत् सक्रमं साधयेत् भेदस्याभेदविरोधात् , अन्यथा क्वचिन्नानात्मेव न स्यात् / सापेक्षो नयः निरपेक्षो दुनयः / प्रतिभासभेदात् स्वभावभेदं व्यवस्थापयन् तदभेदादभेदं प्रतिपद्यत एव विशेषाभावात् , तदन्यतरापाये अर्थस्याऽनुपपत्तेः / __ सर्वस्य सर्वतो भेदं प्राधान्यतोऽन्विच्छन् ऋजु प्राञ्जलं वर्तमानपर्याय____ मात्रं सूत्रयति प्ररूपयति इति ऋजुसूत्रः नयो मतः। प्रधान शब्दस्य च सम्बन्धिशब्दत्वात् द्रव्यं तस्य अप्रधानम् / तदाभासमाह'सर्वथा' इत्यादि / सर्वथा गुणप्रधानभावाभावप्रकारेण एकत्वविक्षेपी एकत्वनिराकारकः तदाभासः ऋजुसूत्राभासः / तुः यस्मादर्थे, यस्मादलौकिकः लोक व्यवहारातिक्रान्तोऽयमीदृशो भेदाभ्युपगमः / न खलु सर्वथैकत्वप्रतिक्षेपेण स्थासकोश20 कुशूलादौ बालकुमारादौ वा भेदव्यवहारो लोके प्रसिद्धः / / कारिकां विवृण्वन्नाह–'बहिः' इत्यादि। बहिरणवः दर्शयन्ति जनयन्ति स्थूलमे काकारप्रत्ययम्, किंविशिष्टम् ? अभूतम् अपरमार्थविषयम् / कथम्भू - तास्ते ? सञ्चिताः पुञ्जीभूताः। एवंविधास्ते यथा येन प्रकारेण तथा . (1) व्यवहारस्य / (2) "प्राधान्यतः मुख्यत्वेन, अनेन गौणत्वेन द्रव्यमप्यपेक्षत इत्यर्थः / तु पुनस्तदाभासो भवति / किं विशिष्ट: ? एकत्वविक्षेपी, एकत्वं द्रव्यं विक्षिपति निराकरोत्येवंशील एकत्वविक्षेपी। कथम् ? सर्वथा प्राधान्यतोऽप्राधान्यतश्च, पुन: किं विशिष्ट: ? अलौकिकः लोको व्यवहारस्तत्प्रयोजनो लौकिक: तद्विपर्ययोऽलौकिक: अलौकिकादित्यर्थः / न हि परस्परं सजातीयविजातीयव्यावृत्ताः प्रतिक्षणविशरारवः परमाणवो व्यवह्रियन्ते परीक्षकः यतस्तिद्वषयो नयाभासो न स्यात् ।"-लघी० ता० पृ० 91 / (3) सौगतमते पुजीभूता: परमाणव एव स्थूलाकारप्रत्यहेतवः; तथाहि-"अर्थान्तराभिसम्बन्धाज्जायन्ते येऽणवोऽपरे। उक्तास्ते सञ्चितास्ते हि निमित्तं ज्ञानजन्मनः॥" -प्रमाणवा० 3.195 / (4) "ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयत इति ऋजुसूत्रः ।"-सर्वार्थसि०, राजवा० 1133 / (5) सर्वथा क्षणिकत्वस्वीकारः / 1-स्य सम्ब-आ० / 2 'जनयन्ति' नास्ति श्र० / कारिकार्थः Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 72 ] अर्थ-शब्दनयनिरूपणम् 763 विधं प्रत्ययं दर्शयन्ति तद्वत संवित्परमाणवोऽपि, कथम्भूतम् ? चित्राकारम, नीलादिग्राह्याद्यनेकाकारमेकम् अत एव अभूतम् / उपसंहारमाह-'ततः' इत्यादि / यस्मादेकाकारप्रत्ययस्य अपरमार्थविषयत्वं ततो नैकमभिन्नस्वभावं तत्वं जीवादिवस्तु अक्रम युगपद् अनेकरूपम् 'युक्तम्' इत्युपस्कारः। यत् सक्रम क्रमवत् सुखादिभेदभिन्नम् आत्मानं साधयेत् / 'यत्' इत्याक्षेपे वा नैव साधयेत् / कुत एतत् ? इत्यत्राह-'भेदस्य' / इत्यादि। भेदस्य नानात्वस्य अभेदेन एकत्वेन विरोधात्। विपक्षे बाधकमाह-'अन्यथा' इत्यादि / अन्यथा अन्येन तदविरोधप्रकारेण क्वचिद् घटपटादौ नानात्वमेव न स्यात् इति / अस्याभिसन्धेर्नयत्वं दुर्नयत्वञ्च दर्शयन्नाह-'सापेक्ष' इत्यादि / सह प्रत्यनीकधर्मापेक्षया वर्त्तते इति सापेक्षः नयः। अपेक्षातो निष्क्रान्तः निरस्ता वा अपेक्षा येनासौ निरपेक्षः दुर्नयः। ननु प्रमाणाभावेन अभेदस्य कचिदनुपपत्तेः कथं 10 तदपेक्षो नयः स्यात् ? इत्यत्राह-'प्रतिभास' इत्यादि / प्रतिभासस्य प्रत्यक्षादिसंवेदनाकारस्य भेदात स्वभावभेदं चेतनेतरस्वरूपनानात्वं व्यवस्थापयन् सौगतः तदभेदात् प्रतिभासाभेदात् अभेदं प्रतिपद्यत एव विशेषाभावात्। एतच्च 'अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः' [लघी० का०८] इत्यत्र सप्रपञ्चं प्रपश्चितम्। अत्रैवार्थे समर्थनान्तरमाह-'तद्' इत्यादि / तयोःभेदाभेदयोर्मध्ये अन्यतरस्य भेदस्य अभेदस्य वा अपाये 15 अर्थस्य उत्तरकार्यस्य संवेदनस्यं वाऽनुपपत्तेः, सापेक्षो नयः निरपेक्षो दुर्नय इति / अथ सप्तनयेषु मध्ये के अर्थप्रधानाः के च शब्दप्रधानाः ? इत्याह.... चत्वारोऽर्थनया ह्येते जीवाद्यर्थव्यपाश्रयात् / त्रयः शब्दनयाः सत्यपदविद्यां समाश्रिताः // 72 // विवृतिः-कालकारकलिङ्गभेदात् शब्दः अर्थभेदकृत् अभूत् भवति भवि- 20 (1) व्याख्या-"एते / के ? नैगमादयः प्रागुक्ताः चत्वारोऽर्थनयाः अर्थप्रधाना नयाः / कुतः ? जीवाद्यर्थव्यपाश्रयात्, जीवाजीवादीनामर्थानां व्यपाश्रयाद् आलम्बनात्। त्रयः शेषाः शब्दसमभिरूढवम्भताः शब्दनयाः शब्दप्रधाना नयाः। कि विशिष्टा:? सत्यपदविद्यां समाश्रिताः, सत्यानि प्रमाणान्तराबाधितानि पदानि कालकारकादिभेदवाचीनि तेषां विद्या व्याकरणशास्त्रं तामाश्रिता आलंबिताः व्याकरणाश्रितत्वादित्यर्थः ।"-लघी० ता०पू०९२। तुलना-"चत्वारोऽर्थाश्रयाः शेषास्त्रयं शब्दतः।" -सिद्धिवि०, टी० पृ० 517 B. / "तत्र संग्रहव्यवहारर्जुसूत्राः अर्थनयाः शेषाः शब्दनयाः"-राजवा० पृ० 186 / “अत्थप्पवरं सद्दोवसज्जणं वत्थुमुज्जुसुत्तंता। सहप्पहाणमत्थोवसज्जणं सेसया विति ।"विशेषा० गा० 2753 / “तत्रर्जुसूत्रपर्यन्ताश्चत्त्वारोऽर्थनया मताः। त्रयः शब्दनयाः शेषाः शब्दवाच्यार्थगोचराः॥"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 274 / नयविव० पृ० 262 / “एषु चत्वारः प्रथमेऽर्थनिरूपणप्रवणत्वादर्थनयाः शेषास्तु त्रयः शब्दवाच्यगोचरतया शब्दनयाः।"-प्रमाणनय०७४४.४५। जैनतर्कभा० प. 23 / नयप्रदीप पृ०१०४ B. / उद्धृतोऽयम्-'जीवाद्यर्थविनिश्चयात् ।"-आव०नि० मलय०५० 381 B. / सूत्रकृतांग० टी० पृ० 426 A. / 1-विधप्रत्य-श्र०. ब० / 2 भेदनात श्र० / 3 व्यवस्थापयेत् सौ--आ। 4 'प्रतिभासाभेदात' नास्ति श्र० / 5-स्य चानुप-आ० / 6-विन्यासमाधि-ज० वि० / Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 764 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० प्यति, करोति क्रियते, देवदत्तो देवदत्ता इति / पर्यायभेदाद् अभिरूढोऽर्थभेदकृत इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इति / क्रियाश्रयः एवम्भूतः / कुवेत एव कारकत्वम् / यदा न करोति तदा कर्तृत्वस्य अयोगात् इति / कथं पुनः शब्दज्ञानं विवक्षाव्यतिरिक्तमर्थ प्रत्येति ? कथं च न ? तदप्रतिबन्धात् / 'नहि बुद्धेरकारणं विषयः' इत्येतत् प्रतिव्यूढमः विज्ञानस्य अनागतनिर्णयात् / कृत्तिकोदयदर्शने शकटोदयो भविष्यति बुद्धिरविसंवादिनी, आदित्यः श्व उदेता, सूर्याचन्द्रमसोः ग्रहणं भविष्यति, तन्तवः पटो भविष्यन्ति, मृत्पिण्डो घटो भविष्यति, तन्दुला भविष्यन्त्योदनम्, ब्रीहयः तन्दुला भविष्यन्ति, इत्याद्यनागतविषयाणाम् अविसंवादिनाम् आनन्त्यात् / ततः शब्दज्ञानमपि विवक्षाव्यतिरिक्तार्थग्राहि सिद्धं प्रतिबन्धमन्तरेणापि तत्प्रति10 पादनस्वाभाव्यात् विज्ञानवदिति / वर्तनालक्षणः कालः, क्रियाविष्टं द्रव्यं कारकम्, स्त्यान-प्रसव-तदुभयाभावसामान्यलक्षणं लिङ्गम्, कथञ्चिद् वस्तुस्वभावभेदकं तथाप्रतीतेः। पर्यायोऽपि अर्थभेदकृत् / क्रियाभेदात् एकोऽपि शब्दः क्रियानिमित्तकव्युत्पत्तिः तदभावात् तदर्थ नाचष्टे इति परमैश्वर्यमनुभवन्नेव इन्द्रः नान्यदा, ततः सिद्धः क्रियाभेदः पाचकपाठकादिवत् / नहि वर्णपदवाक्यानां व्युत्पादकं शास्त्रं 15 वितथम् परमार्थशब्दप्राप्त्युपायकृत् ज्ञातुरभिप्रायात्मकनयवत् / व्यावहारिकप्रकृ त्यादिप्रक्रियाप्रविभागेन यथा पारमार्थिकादनेकान्तात्मकादादपोद्धृत्य तदंशमेकान्तं व्यावहारिकं तत्प्रतिपच्युपायं प्रकाशयन् नयः न मिथ्यात्वमनुभवेत्, निरपेक्षस्यैव मिथ्यात्वात् / अनेकान्तनिराकृतेः निरपेक्षत्वम् तदनिराकृतेः सापेक्षत्वं नान्यथा नयानां सम्यक्त्वमिथ्यात्वे इति स्थितम् / / _ चत्वार एते नैगम-संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्राख्या व्याख्यातस्वरूपा हि स्फुटम् अर्थनया एव अर्थप्रधाननया अर्थनयाः। कुतः ? इत्याहकारिकार्थ: या जीवाद्यर्थव्यपाश्रयात् जीवाद्यर्थसमाश्रयणात् / त्रयः शब्दसमभिरूढवम्भूताः शब्दनयाः शब्दप्रधाना नयाः शब्दनयाः। कुतस्ते तथाविधाः ? इत्याह-'सत्य' इत्यादि / सत्यानि अवितथानि अपशब्दस्वरूपरहितानि यानि 25 पदानि कालकारकादिभेदवाचीनि तेषां विद्या व्याकरणं यत्र तानि व्युत्पाद्यन्ते तां समाश्रिताः यतः ततः ते शब्दप्रधानाः / . कारिकापूर्वार्द्धस्य अनन्तरमेव व्याख्यातत्वात् उत्तरार्द्धं विवृण्वन्नाह-'काल' _इत्यादि / शब्दः शब्दनयः अर्थभेदकृत् / कुतः ? कालकारकविवृतिव्याख्यानम् या लिङ्गभेदात् / 'यथा' इत्यादिना एतदेव दर्शयति / तत्र कालभेदाद् 30 अभूत् भवति भविष्यति / कारकभेदात् करोति क्रियते / लिङ्गभेदात् देवदत्तो देवदत्ता इति / पर्यायभेदादभिरूढोऽर्थभेदकृत इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इति.। क्रिया 1-प्रतिभागेन ज० वि० / 2 'जीवाद्यर्थसमाश्रयणात्' नास्ति थ018 'शब्दनया' नास्ति आ०। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 72 ] अर्थ-शब्दनयनिरूपणम् 765 श्रयः एवम्भूतः / कुत एतत् ? इत्याह-'कुर्वतः' इत्यादि / शचीपतेः इन्दनादि क्रियां कुर्वत एव कारकत्वम् , यदा न करोति तदा कर्तृत्वस्याऽयोगात् इति / परः प्राह'कथम्' इत्यादि। कथम् ? न कथञ्चित् , 'पुनः' इत्याक्षेपे, शब्दज्ञानं शब्दस्य कार्य यदर्थज्ञानं तत् विवक्षाव्यतिरिक्तमर्थं बहिःस्खलक्षणं प्रत्येति विषयीकरोति / सूरिः परं पृच्छति-'कथञ्च न' इति। स पृष्टः प्राह-तदप्रतिबन्धात् / तस्मिन् अर्थे अप्रति- 5 बन्धात् तादात्म्यत्तदुत्पत्तिलक्षणसम्बन्धासंभवात् शब्दज्ञानस्य / तदप्रतिबन्धेऽपि तत् तैमवे(वै)ति इति चेदत्राह-'नहि' इत्यादि। हिर्यस्मात् न बुद्धेः अकारणं किन्तु कारणं विषयः इत्येतत् प्रतिव्यूढम् / कुत एतत् ? इत्यत्राह-विज्ञानस्य अनागतनिर्णयात् / अनागतस्य अलब्धात्मलाभतया अकारणभूतस्य अर्थस्य निर्णयात निर्णयसंभवात् / तथाहि-कृत्तिकोदयदर्शने शकटोदयो भविष्यति बुद्धिरविसंवादिनी, एवम् आदित्यः 10 श्व उदेता, सूर्याचन्द्रमसोग्रहणं भविष्यति, तन्तवः पटो भविष्यन्ति, मृत्पिण्डो घटो भविष्यति, तन्दुलाः भविष्यन्त्योदनः, ब्रीहयः तन्दुला भविष्यन्ति इत्याद्यनागतविषयाणामविसंवादिनां ज्ञानानामानन्त्यात / 'ततः' इत्यादिना प्रकृतमर्थमुपसंहरन्नाह-यतः अनागतविषयत्वं ज्ञानस्य सिद्धं ततः शब्दज्ञानमपि न केवलं प्रत्यक्षानुमानज्ञानम् विवक्षाव्यतिरिक्तार्थग्राहि सिद्धम् / ननु शब्दस्य अर्थप्रतिबन्धाभावात् 18 कथं तज्ज्ञानम् अर्थग्राहि ? इत्यत्राह-'प्रतिबन्ध' इत्यादि / प्रतिबन्धमन्तरेणापि तादात्म्यतदुत्पत्तिसम्बन्धं विनापि तस्य शब्दस्य यत् प्रतिपादकं स्वाभाव्यं योग्यतालक्षणं स्वरूपं तस्मात् तत् तद्राहि सिद्धम् / अत्र दृष्टान्तमाह-'विज्ञानवत्' इति / शब्दज्ञानस्य दान्तिकत्वात् इह विज्ञानग्रहणेन यत् प्राग् अर्थाजन्यतया समर्थितं प्रत्यक्षं तदेव गृह्यते, तदिव तद्वदिति / ननु कालादिभेदात् शब्दनयस्य अर्थभेदकत्वं प्रतिपादितम् , कालादीनां तु लक्षणं नोक्तम् , नचालक्षितरूपाणाम् अर्थभेदप्रतीतिहेतुत्वं युक्तम् अतिप्रसङ्गात् इत्याशङ्कय तेषां लक्षणं प्ररूपयन्नाह-'वर्तना' इत्यादि / सकलपदार्थानां वृत्तिहेतुत्वं वर्तना सा लक्षणं यस्य असौ तल्लक्षणः कालः / क्रियया आविष्टं युक्तं द्रव्यं कारकम् , क्रियां कुर्व व्यं कारकमित्यर्थः। लिङ्ग त्रिविधम् स्त्रीपुंनपुंसकभेदात् / तत्र स्त्यान- 25 सामान्यलक्षणं स्त्रीलिङ्गम् / प्रसवसामान्यलक्षणम् अपत्यजनकत्वमात्रलक्षणं पुल्लिंगम् / तभयाभावसामान्यलक्षणं स्त्यानप्रसवोभयाभावमात्रलक्षणं नपुंसकलिङ्गमिति। तदे (1) सौगतः / (2) शब्दज्ञानम् / (3) अर्थम् / (4) शब्दज्ञानम् / (5) शब्दज्ञानम् / 1 तत्तत्त्वमवेति ब०, तत्तत्रमद्येवेति श्र०12 "किन्तु कारणं' नास्ति श्र०। 3 शकटोवये भविआ०, शकटोदये च भवि-श्र०। 4 अर्थे प्रति-ब०, श्र०। 'प्रत्यक्ष' नास्ति श्र०। 6 न चालक्षणलक्षितरूपा-ब०। 7 अर्थे भद-ब०। 8 क्रियाया अविशिष्टं श्र० / 9-क्षणं स्त्यानप्रसवोभयाभाव• सामान्यलक्षणं स्त्यानप्रस-आ०। - 20 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 766 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [6. प्रवचनपरि० तदुक्तलक्षण कालादि कथञ्चिद् वस्तुस्वभावभेदकम् तथाप्रतीतेः प्रतिपत्तव्यम् / ननु 'पर्यायभेदादभिरूढोऽर्थभेदकृत्' इत्ययुक्तमुक्तम् ; पर्यायस्यार्थाऽभेदकत्वात् इत्याशङ्क्याह-'पर्याय' इत्यादि / न केवलं कालादयः किन्तु पर्यायोऽपि 'इन्द्रः, शक्रः, पुरन्दरः' इत्यादिरूपः अर्थस्य शचीपत्यादेः भेदकः कथञ्चिद् वैलक्षण्यापादकः 'तथाप्रतीतेः' इत्यनन्तरेणाभिसम्बन्धात् / यदपि 'क्रियाश्रय एवम्भूतः' इत्युक्तम् ; तत्रापि कुतोऽस्य एकत्रापि पर्याये क्रियाभेदाद् भेदहेतुत्वम् ? इत्यत्राह-'क्रिया' इत्यादि। क्रियाभेदाद् इन्दनादिभेदात् एकोऽपि शब्दः इन्द्रादिपर्यायरूपः क्रियानिमित्तकव्युत्पत्तिः तदभावात् तन्निमित्तकव्युत्पत्तेरभावात् तदर्थम् इन्द्राद्यर्थं नाचष्टे इति हेतोः परमैश्वर्यम् इन्दनक्रियां अनुभवन्नेव इन्द्रः नान्यदा अभिषेचनादिकाले / एवं शकन10 काल एव शक्रः पूरणसमय एव पुरन्दरः नान्यदा 'तथाप्रतीतेः' इति गतेन सम्बन्धः। यतो यक्रियापरिणतः पदार्थः तक्रियानिमत्तव्युत्पत्तिकैः शब्दैः तत्काल एवाभिधीयते नान्यदा / ततः सिद्धः क्रियाभेदो भेदको भावानां पाचकपाठकादिवत् / .. ___ननु क्रियामाश्रित्य शब्दा व्याकरणेन व्युत्पाद्यन्ते, तञ्च मिथ्या इत्येके, वर्णा एव पदमेव वाक्यमेव वा सत्यमित्यन्ये, तन्मतमपाकर्तुमाह-'नहि' इत्यादि / नहि न 15 खलु वर्णपदवाक्यानां व्युत्पादकं शास्त्रं व्याकरणलक्षणं वितथम् परमार्थशब्दप्राप्त्यु पायत्वात् / नहि व्याकरणासत्यत्वे अपशब्दव्युदासेन सम्यक्शब्दप्रतीत्युपायः कश्चित् संभवति / ननु वृद्धव्यवहारपरम्परात एव शब्दाऽपशब्दविवेको भविष्यति अतस्तदर्थं व्याकरणसमाश्रयणमयुक्तम् ; इत्यप्यविचारितरमणीयम् ; व्याकरणानपेक्षाद् वृद्धव्यवहारादेव आनन्येनाऽखिलशब्दानां प्रतिपदं तद्विवेकस्य कर्तुमशक्यत्वात् / व्याकरणाश्रयणेन तु 20 सामान्यविशेषवता लक्षणेन उपलक्षितानां स्वल्पप्रयत्नेनापि तेषां तद्विवेकः कर्तुं सुशकः / तथाहि-“कर्मण्यण" [पाणिनि० 3 / 2 / 1] इत्येकेनैव सूत्रेण कुम्भकार-काण्डलाव-शास्त्राध्यायादयो बहवः शब्दाः संल्लक्ष्यन्ते, अंतः व्याकरणानुगृहीतात् लोकव्यवहारात् सुखेनैव शब्दापशब्दविभागस्य कर्तुं शक्यत्वात् अस्ति व्याकरणस्योपयोगः / न चास्याऽप्रमाणत्वात् तद्विभागे नोपयोगः इत्यभिधातव्यम् ; तदप्रामाण्ये कर्नादिकारकप्रपञ्चस्य सम्प्लवप्रसङ्गात् / न च तत्सम्प्लवः अस्ति। अतः अयमेव तदैसम्प्लवः स्वसिद्धये व्याकरणं प्रमाणयति, अन्यतः तद्व्यवस्थानुपपत्तेः / व्याकरणत एव हि प्रकृतिप्रत्ययविभागद्वारेण अन्योन्यविभक्तस्य कर्मकादिकारकप्रपञ्चस्य प्रतिपत्तियुक्ता नान्यतः, तथाप्रतिपत्तिहेतोस्ततोऽन्यस्याऽसंभवात् / ननु वर्णपदवाक्यानां निरंशत्वात् किं ते प्रकृत्यादि (1) शब्दापशब्दविवेकार्थम् / (2) द्रष्टव्यम्-पृ० 760 टि० 1 / (3) कर्नादिकारकनैयत्यम् / (4) व्याकरणशास्त्रेण / 1व्याचष्टे आ०। 2 नान्यथा श्र०। 3 पावकपाचकपाठकादि-आ०, पावकपाठकादि-ब०। 4-पाठादि-श्र०।-परम्परया त एव श्र०। 6 प्रतिपादं श्र०। 7-विशेषवल्लक्ष-आ०। 8-शास्त्रध्याया-श्र०। 9 ततः श्र०। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 72 ] . अर्थ-शब्दनयविचारः 767 प्रविभागमाश्रित्य व्युत्पाद्येत ? निरंशानामपि तेषां तत्प्रविभागं परिकल्प्य व्युत्पादने तच्छास्त्रं वितथमेव स्यात् तेत्स्वरूपाऽसंस्पर्शित्वात् इत्यत्राह-'व्यावहारिक' इत्यादि / व्यवहारे व्यवहारनयभेदप्ररूपके वैयाकरणव्यवहारे वा भवा या प्रकृत्यादिप्रक्रिया तस्याः प्रविभागो भेदः तेन परमार्थः वास्तवो यः शब्दः वर्णपदवाक्यरूपः / वर्णो हि उदात्तादिभेदेन भिन्नः व्यवहारे वास्तवः प्रसिद्धः, पदं तु सुप्तिङन्तभेदेन, वाक्यमपि / अन्योन्यापेक्षाणां पदानां निरपेक्षः समुदायः इत्यादिभेदेन इति / यथा च नित्यनिरंशादिरूपाणां वर्णपदवाक्यानामनुपपत्तिः तथा 'वर्णाः पदानि वाक्यानि प्राहुरानवाञ्छितान्' [लघी० का० 64 ] इत्यत्र प्रपश्चतः प्ररूपितम् / तस्य प्राप्त्युपायत्वात् स्वरूपावगतिहेतुत्वात् / 'नहि तद्वयुत्पादकं शास्त्रं वितथम्' इति सम्बन्धः / प्रयोगः-यः परमार्थभूतस्य प्राप्त्युपायो नासौ वितथः यथा ज्ञातुरभिप्रायात्मको नयः, 10 परमार्थभूतस्य शब्दस्य प्राप्त्युपायश्च वर्णपदवाक्यानां व्युत्पादक शास्त्रमिति / तत्र 'ज्ञातुरभिप्रायात्मकनयवत्' इत्यमुं दृष्टान्तं 'यथा' इत्यादिना व्याचष्टे-यथा येन प्रकारेण न मिथ्यात्वमनुभवेत्, कोऽसौ ? नयः ज्ञातुराभिप्रायः / किं कुर्वन् ? प्रकाशयन् , 'किं तत् ? एकान्तम् / कथम्भूतम् ? तदंशम् अनेकान्तात्मकाथैकदेशम् / पुनरपि कथम्भूतम् ? व्यावहारिकम् व्यवहारप्रयोजनम् / पुनरपि किंविशिष्टम् ? 15 तत्प्राप्त्युपायं तस्य अनेकान्तात्मकार्थस्य प्राप्तिः तस्या उपायः सा वा उपायो यस्य / कथं तं प्रकाशयन् ? अपोद्धृत्य पृथक्कृत्य / कस्मात् ? अर्थात् / कथम्भूतात् ? अनेकान्तात्मकात् / किं कल्पनातः तथाविधात्तस्मात् ? इत्यत्राह-पारमार्थिकात् / परमार्थोऽकल्पितं रूपं तेन 'संभवात् / कुतोऽयमित्थम्भूतो न मिथ्यात्वमनुभवेत् ? इत्याह- 'निरपेक्षस्य' इत्यादि / प्रत्यनीकधर्मे निष्क्रान्ता अपेक्षा यस्यासौ निरपेक्षः 20 तस्यैव नोक्तप्रकारस्य मिथ्यात्वात / अथ कस्य निरपेक्षत्वं कस्य च सापेक्षत्वम् ? इत्याह-अनेकान्तनिराकृतेः निरपेक्षत्वं तदनिराकृतेः सापेक्षत्वम् / एवंविधसापेक्षानपेक्षत्वप्रकारेणैव नयानां सम्यक्त्व-मिथ्यात्वे नान्यथा इति स्थितम् / युक्तिस्वच्छजलं सुबोधकमलं सद्भङ्गवीचीचयम् , गम्भीरं निखिलार्थपौलिकलितं सत्साधुहंसाकुलम् / 25 प्रज्ञाधीशपटिष्ठपाठकखगध्वानप्रतानान्वितम् , जीयाद् दुर्गतितीपतृड्विहननं जैनागमाख्यं सरः ॥छ॥ इति प्रभाचन्द्रविरचिते न्यायकुमुदचन्द्रे लघीयस्त्रयालङ्कारे षष्ठः परिच्छेदः समाप्तः॥छ। (1) वर्णपदवाक्यानाम् / (2) वर्णपदवाक्यस्वरूपानवगाहनात् / (3) सापेक्षस्य / 1-पते ब०,-येत आ०। 2-रूपत्वासं-श्र०। 3 व्यवहा-श्र० / 4 शब्दप्रा-आ०, 'शब्दस्य' नास्ति श्र०15 "किं तत्' नास्ति श्र० / 6 'कथंभूतं नास्ति श्र०। 7 व्यवहा-श्र018-पायत्वं त-श्र०। 9 'पृषककृत्य नास्ति श्र०, ब०। 10 भावात् श्र०। 11-धर्मो नि-श्र। 12-त्वम् ब०, श्र०। 18 पारिकलि-आ० / 14 तापवृद्धिहननं श्र०,०। 15 इति श्रीमत्प्रभाचन्द्राचार्यवि-ब016 षष्ठमः ब०। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये प्रवचनप्रवेशे सप्तमः निक्षेपपरिच्छेदः। . प्रादुर्भूतं निखिलविषयोद्योतिसंवित्सरस्याम् , शास्त्राम्भोजं सकलविषयप्रौढपत्रप्रपञ्चम् / लक्ष्मीक्षेत्रं प्रमितिनयसत्कर्णिकाकेसराख्यम् , निक्षेपोरुप्रवरमकरन्दाप्तये सेव्यती भोः ॥छ॥ अथेदानीं शास्त्रंविधानाध्ययनपर्यवसितफलप्ररूपणपुरस्सरं निक्षेपस्वरूपं प्ररूपयन्नाह श्रुतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसन्धिभिः। परीक्ष्यतांस्तान्तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान् / / 73 // नयानुगतनिक्षेपैरुपायैर्भेदवेदने / विरचय्यार्थवाक्प्रत्ययात्मभेदान् श्रुतार्पितान् // 74 // (1) व्याख्या-" पुनरपि कथंभूतः ? तपोनिर्जीर्णकर्मा, तपसा यथाख्यातचारित्रलक्षणेन व्युपरतक्रियानिवृत्तिशुक्लध्यानेन निर्जीर्णानि निर्मूलितानि कर्माणि ज्ञानावरणादीनि द्रव्यभावरूपाणि येनासौ तथोक्तः / अनेन चारित्रतपस्याराधनाद्वयं सूचितम् / भूयः किंभूतः ? जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानतत्त्ववित् अनेन ज्ञानाराधना ज्ञापिता। पुनः किंविशिष्ट: ? विवृद्धाभिनिवेशनः, विशेषेण वृद्धं क्षायिकस्वरूपेण परिणतमभिनिवेशनं सम्यग्दर्शनं यस्यासौ तथोक्तः / अनेन दर्शनाराधना निरूपिता। एवमाराधनाचतुष्टयस्यैव मोक्षमार्गत्वोपपत्तेः / किं कृत्वा विवृद्धाभिनिवेशन: संजात इत्याशंक्याहअनुयज्य पृष्ट्वा / कानि? द्रव्याणि / किंविशिष्टानि ? जीवादीनि / कैः ? अनुयोगैश्च प्रश्नरेव / कि विशिष्टः? निर्देशादिभिदां गतः। तत्र किमित्यनुयोगे वस्तुस्वरूपकथनं निर्देशः यथा चेतनालक्षणो जीव इति / कस्येत्यनुयोगे स्वस्येत्याधिपत्यकथनं स्वामित्वम् / केनेति प्रश्ने स्वेनेति करणनिरूपणं साधनम् / कस्मिन्नित्यनुयोगे स्वस्मिन्नित्याधारप्रतिपादनमधिकरणम् / कियच्चिरमिति प्रश्ने अनन्त कालमिति कालप्ररूपणं स्थितिः। कतिविध इत्यनुयोगे चैतन्यसामान्यादेकविध इति प्रकारकथनं विधानम / पर्व कृत्वा विरचय्य न्यस्य / कान ? अर्थवाकप्रत्ययात्मभेदान, अर्थश्च वाक च प्रत्ययश्च ते आत्मानः स्वभावा येषां ते च ते भेदाश्च व्यवहारास्तान् / तत्र अर्थात्मानौ भेदौ द्रव्यभावी तयोरर्थधर्मत्वात् / वागात्मको नामव्यवहारः / प्रत्ययात्मकश्च स्थापनाव्यवहार: तस्य संकल्परूपत्वात् / किंविशिष्टांस्तान् ? श्रुतापितान् श्रुतेन अनेकान्तेन विकल्पितान् / कैः? नयानुगतनिक्षेपैः, नयान् द्रव्यपर्यायविषयाननुगता अनुवृत्ता निक्षेपा न्यासास्तैः। किंरूपः ? उपायैः कारणः। क्व ? भेदवेदने मुख्यामुख्यविशेषनिर्णये कारणभेदैरित्यर्थः। आदौ किं कृत्वा? परीक्ष्य विचार्य / कैः परीक्ष्य ? अभिसंधिभिः ज्ञातुरभिप्रायः नयरित्यर्थः। पूर्व किं कृत्वा? अधिगम्य ज्ञात्वा / कमर्थम् ? जीवादिप्रमेयम् / किविशिष्टम् ? अनेकान्तात्मकम् / कस्मात् ? श्रुतात् स्याद्वादात्।"-लघी० ता० पृ० 95-97 / 1-प्रौढमेयप्र-ब। 2-तां नो ब०,-तां भो श्र०। 3-मभिग-ब० / 4-वेदनों आ०, ब० / 5 विचार्यायवाक-थः। 6-भेदाच्छुता-ब०। " Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 766 प्रवचनप्र० का० 75-76 ] निक्षेपनिरूपणम् अनुयुज्यानुयोगैश्च निर्देशादिभिदां गतैः / द्रव्याणि जीवादीन्यात्मा विवृद्धाभिनिवेशनः // 7 // जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानतत्त्ववित् / तपोनिबर्णकर्माऽयं विमुक्तः सुखमृच्छति // 76 // इति / विवृतिः श्रुतमनादि सन्तानापेक्षया, साधनं प्रति सादि। प्रमाणम्त्रिकालगोचरसर्वजीवादिपदार्थनिरूपणम् , तदर्थांशपरीक्षाप्रवणोऽभिसन्धिर्नयः / ताभ्यामधिगमः परमार्थव्यावहारिकार्थानाम् / तदधिगतानां वाच्यतामापनानां वाचकेषु भेदोपन्यासः न्यासः। सोऽवरतः चर्तुओं नामस्थापनाद्रव्यभावतः / तत्र निमित्तान्तरानपेक्षं संज्ञाकर्म नाम / तच्च जातिद्रव्यगुणक्रियालक्षणनिमितानपेक्षसंज्ञाकर्मणोऽनेकत्वात् अनेकधा / आहितनामकस्य द्रव्यस्य सदसद्भा- 10 वात्मना व्यवस्थापना स्थापना। अनागतपरिणामविशेष प्रति गृहीताभिमुख्यं ... (1) उद्धृता इमे-"तथा चाहुट्टाकलङ्कदेवाः-"श्रुतादर्थ "विवृद्धाभिनिवेशतः"-अनागारध० पृ० 169 / (2) तुलना-"द्रव्यादिसामान्यार्पणात् श्रुतमनादिनिधनमिष्यते / न हि केनचित्पुरुषेण क्वचिकदाचित्कथञ्चिदुत्प्रेक्षितमिति / तेषामेव विशेषापेक्षया आदिरन्तश्च संभवतीति मतिपूर्वमित्यच्यते यथाऽङ्कुरो बीजपूर्वकः स च सन्तानापेक्षया अनादिनिधन इति ।"-सर्वार्थसि० 1 / 20 / (3) तुलना"विस्तरेण लक्षणतो विधानतश्चाधिगमार्थो न्यासो निक्षेपः ।"-तत्त्वार्थभा० 15 / "णिच्छए णिण्णए खिवदित्ति णिक्खेवो / सोवि छव्विहो णामठ्ठवणादव्वखेत्तभावमंगलमिदि।"-धवलाटी०प०१०। “य इह गुणाक्षेपः स्यादुपचरितः केवलं स निक्षेपः ।"-पञ्चाध्या० श्लो०७४१। "प्रकरणादिवशेनाप्रतिपत्त्यादिव्यवच्छेदकयथास्थानविनियोगाय शब्दार्थरचनाविशेषा निःक्षेपा।"-जैनतर्कभा०५० 25 / (4) तुलना-"जत्थ य जं जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं / जत्थवि अन जाणेज्जा चउक्कगं निक्खिवे तत्थ / / आवस्सयं चउन्विहं पण्णते। तं जहा-नामावस्सयं ठवणावस्सयं दव्वावस्सयं भावावस्सयं ।"-अनु० सू०८। "नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ।"-तत्त्वार्थस० 114 / “निक्षेपोऽनन्तकल्पश्चतुरवरविधः प्रस्तुतव्याक्रियार्थः / तत्त्वार्थज्ञानहेतुः नयद्वयविषयः संशयच्छेदकारी॥"-सिद्धिवि० परि० 12 / मूलाचारे षडावश्यकाधिकारे (गा० 17) सामायिकस्य निक्षेप: नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावैः षडविध उक्तः / आवश्यकनिर्यक्तौ (गा० 121) नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालवचनभावविकल्पात् सप्तविधो निक्षेपः प्ररूपितः। (5) "नाम संज्ञा कर्म इत्यनानन्तरम् -"-तत्त्वार्थाधिक भा० 115 / अतद्गुणे वस्तुनि संव्यवहारार्थं पुरुषाकारान्नियुज्यमानं संज्ञाकर्म नाम ।"-सर्वार्थसि० 115 / राजवा० पृ० 20 / तत्त्वार्थश्लो० पृ०१८ / पञ्चाध्या० श्लो० 743 / “यस्य कस्यचिदनिर्दिष्टविशेषस्य निमित्तान्तरानपेक्षं संज्ञाकर्म नाम।"-सिद्धिवि० टी० ए० 574 A. "पज्जायाणभिधेयं ठिअमण्णत्थे तयत्थनिरवेक्खं / जाइच्छिअंच नामं जावदव्वं च पाएणं ॥"-विशेषागा०२५ / जैनतर्क: भा० पृ० 25 / 'अत्ताभिप्पायकया सन्ना चेयणमचेयणे वा बि। ठवणादीनिरविक्खा केवल सन्ना उ नामिदो ॥"-बृहत्कल्पभा० गा० 12 // "तत्थ णाममंगलं णामणिमित्तंतरणिरवेक्खा मंगलसण्णा / तत्थ णिमित्तं चउन्विहं जाइ दव्व गुण किरिया चेदि ।"-धवलाटी० ए०१७। (6) "यः काष्ठपुस्तचित्र .. 1-भिदागतैः आ०, मु० लघी / 2-वेशतः ज० वि०, आ०, ब० / 3-परीक्षप्रव-ज० वि० / 4-पेक्षं-कर्म ज०वि०। . . Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 800 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० द्रव्यम् / तच्च आगम-नोआगमविकल्पाद् द्वेधा / तथोपयोगलक्षणो भावनिक्षेपः / अप्रस्तुतार्थापाकरणात् प्रस्तुतार्थव्याकरणाच्च निक्षेपः फलवान् / तेन च निक्षिप्ताः पदार्थाः निर्देशादिभिः सदादिभिश्चानुयोगैः अनुयुज्यन्ते / अनुयुक्ताः प्रयुक्ताः कर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते जीव इति स्थापना जीवः देवताप्रतिकृतिवद् इन्द्रो रुद्रः स्कन्दो विष्णुरिति।" -तत्त्वार्थाधि० भा० 115 / "काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयमिति स्थाप्यमाना स्थापना।"सर्वार्थसि०, राजवा० 115 / पञ्चाध्या० श्लो० 743 / “जं पुण तयत्थसुन्नं तयभिप्पारण तारिसागारं। कीरह व निरागारं इत्तरमियरं व सा ठवणा ।"-विशेषा० गा० 26 / “सब्भावमसम्भावे ठवणा पुण इंदके उमाईया। इत्तरमणित्तरा वा ठवणा नामं तु आवकहं ॥"-बृहत्कल्पभा० गा०१३। ' "सद्भावस्थापनया नियमः, असद्भावेन वाऽतद्रूपेति स्थूणेन्द्रवत् ।"-नयचक्रव० पृ० 381A. / सिद्धिवि० टी०ए० 474 B. / जनतर्कभा० पृ० 25 / “अहिदणामस्स अण्णस्स सोयमिदिट्ठवणं ठवणा णाम / सा दुविहा सब्भावासब्भावट्ठवणा चेदि ।"-धवलाटो० पृ० 19 / “वस्तुनः कृतसंज्ञस्य प्रतिष्ठा स्थापना मता। सद्भावेतरभेदेन द्विधा तत्त्वाविरोधतः ।"-तत्त्वार्थश्लो० 10 111 / / (1) "द्रव्यजीव इति गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितोऽनादिपारिणामिकभावयुक्तो जीव . उच्यते।"-तत्त्वार्थाधि० भा० 115 / "गुणः द्रोष्यते गुणान् द्रोष्यतीति वा द्रव्यम् ।"-सर्वार्थसि० 125 / "अनागतपरिणामविशेष प्रति गृहीताभिमुख्यं द्रव्यम् / अतद्भवं वा ।"-राजवा० पृ० 20 / सिद्धिवि० पृ० 474 / धवलाटी०पू०२०। तत्त्वार्यश्लो० पृ० 111 / पच्चाध्या० श्लो० 744 / "दव्वे पुण तल्लद्धी जस्सातीता भविस्सते वा वि। जो वा वि अणुवजुत्तो इंदस्स गुणे परिकहेई॥"-बृहत्कल्पभा० गा०१४। "दनए दुथए दोरवयवो विगारो गुणाण संदावो। दव्वं भव्वं भावस्स भअभावं च जं जोग्गं ॥"-विशेषा० गा० 28 / जैनतर्कभा० पृ० 25 / 'भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके / तद्रव्यं तत्त्वज्ञः सचेतनाचेतनं कथितम ॥"-आव०नि०मलय०५० 6 B. / (2) "वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावः ।"-सर्वार्थसि० 115 / राजवा० प्र०२१। सिद्धिवि० पृ० 474 / धवलाटी० पृ० 29 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 113 / पञ्चाध्या० श्लो० 745 / "जो पूण जहत्थजुत्तो सुद्धनयाणं तु एस भाविदो। इंदस्स वि अहिगारं वियाणमाणो तवउत्तो।" -बहत्कल्पभा० गा० 15 / "भावो विवक्षितक्रियानुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः / सर्वरिन्द्रादिवदिहेन्दनादिक्रियानुभवात् ॥"-आवनि० मलय० पृ० 9 A. / (3) तुलना-'स किमर्थः ? अप्रकृतनिराकरणाय प्रकृतनिरूपणाय च ।"-सर्वार्थसि० 115 / तत्त्वार्थश्लो० 10 98 / “अथ किमति निक्षेपः क्रियते इति चेत् ? उच्यते-त्रिविधाः श्रोतारः अव्युत्पन्नः अवगताशेषविवक्षितपदार्थः एकदेशतोऽवगतविवक्षितपदार्थ इति / तत्र प्रथमोऽव्युत्पन्नत्वान्नाध्यवस्यतीति विवक्षितपदस्यार्थम् / द्वितीयः संशेते कोऽर्थोऽस्य पदस्याधिकृत इति, प्रकृतादर्थादन्यमर्थमादाय विपर्यस्यति वा। द्वितीयवत्तृतीयोऽपि संशेते विपर्यस्यति वा / तत्र यद्यव्युत्पन्नः पर्यायाथिको भवेनिक्षेपः अव्युत्पन्नव्युत्पादनमुखेन अप्रकृतनिराक. रणाय / अथ द्रव्यार्थिकः; तद्वारेण प्रकृतप्ररूपणायाशेषनिक्षेपा उच्यन्ते, व्यतिरेकधर्मनिर्णयमन्तरेण विधिनिर्णयानुपपत्तेः / द्वितीयतृतीययोः संशयविनाशायाशेषनिक्षेपकथनम् / तयोरेव विपर्यस्यतोः प्रकृतार्थावधारणार्थ निक्षेपः क्रियते / उक्तं हि-अवगयणिवारणह्र पयदस्स परूवणाणिमित्तं च / संसयविणासणळं तच्चत्थवधारणठं च ।"-धवलाटी० पृ० 30 / उद्धृतमिदं वाक्यम्-जैनतर्कभा० 10 25 / (4) "निद्देसे पुरिसे कारण कहिं केसु कालं कइविहं ।"-अनु० स० 151 / “निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ।"-तत्त्वार्थसु० 117 / “केण कस्य कत्थवि केवचिरं कदिविधी य भावो य। छहिं अणिओगद्दारे..."-मूलाचा० 8 / 15 / (5) "संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहगाणगमो चेदि ।"-छक्लंग Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 76 ] निक्षेपनिरूपणम् सर्वे पदार्थाः, तथापि जीवपदार्थविषयविशेषप्ररूपकाणि जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानानि / एवं प्रमाणनयनिक्षेपानुयोगैः सर्वान् पदार्थानधिगम्य पुरुषतत्त्वं जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानः दृढतरमवबुद्ध्य प्रवृद्धाभिनिवेशात्मकसम्यग्दर्शनः तपसा निर्जीर्णकर्मा सर्वकर्मविनिर्मुक्तः बाधारहितमव्यवच्छिन्नमनन्तमतीन्द्रियं सुखमृच्छति आत्मा / नेहि गुणविनाशात् जडः गुणगुणिविनाशात् / शून्यः, भोग्यविरहात्तदभोक्ता, तथाधिगमाभावात् तद्धाधासंभवाच / शरीरादिकं धर्मि ज्ञानावरणादिस्वरूपं न भवति साध्यताऽस्य तत्सत्यपि ज्ञानोदयसंभवात् / ___ अयं शास्त्रस्य कर्ताऽध्येता वा आत्मा सुखमृच्छति सुखमयो भवति / किं विशिष्टः सन् ? इत्याह-'विमुक्तः' इति / विशेषेण मुक्तः सकलकारिकार्थ: ाथः- कर्मविवर्जितः। विमुक्तोऽपि कथम्भूतः सन्नसौ स्यात् इत्याह- 10 तपोनिर्जीर्णकर्मा इति / तपसा यथाख्यातचारित्रलक्षणेन निर्जीर्णानि निर्मूलोन्मीलितानि कर्माणि येनासौ तथोक्तः / पुनरपि कथम्भूतः सन्नसौ विमुक्तः स्यात् इत्याह-'जीवस्थान' इत्यादि / प्रत्येकं चतुर्दशभिः जीवस्थानैः गुणस्थानः मार्गणास्थानैश्च तत्त्ववित् जीवादिस्वरूपवित् / पुनरपि किंविशिष्टः सन्नसौ विमुक्तः स्यात् ? इत्याह-'विवृद्ध' इत्यादि / विशेषेण वृद्धं क्षायिकरूपतया परम- 15 प्रकर्ष प्राप्तम् अभिनिवेशनं सम्यग्दर्शनं यस्य स तथोक्तः / 'विवृद्धाभिनिवेसू०७ / “से किं तं अणुगमे ? नवविहे पण्णत्ते / तं जहा-संतपय परूवणया, दव्वपमाणं च, खित्त, फसणा य, कालोय, अंतरं, भाग, भाव, अप्पाबहुं चेव ।"-अनु० सू०८० / 'सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ।"-तत्त्वार्थसू० 128 (1) "सुहमा बादरकाया ते खलु पज्जत्तया अपज्जत्ता / एईदिया दु जीवा जिणेहि कहिया चदवियप्या // पज्जत्तापज्जत्ता विय होति विगलिंदिया दु छब्भेया। पज्जत्तापज्जत्ता सण्णि असण्णी य सेसा दू।"-मला. पर्या० गा०१५२-५३। गो० जी० गा० 72 / कर्मग्र० 4 / 2 / (2) मिच्छादिटठी सासादणो य मिस्सो असंजदो चेव / देसविरदो पमत्तो अपमत्तो तह य णायब्वो॥ एत्तो अपुव्वकरणो अणियटटी सहमसंपराओ य। उवसंतखीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी य ॥"-मला० पर्या. गा० 154-55 / छक्खंडा० सू०९-२३ / गो० जी० गा० 9-10 / कर्मग्र० / / (3) 'गड इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि ।"छक्खंडा० स०४। “गइ इंदिये च काये जोगे वेदे कसाय णाणे य / संजम दंसण लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे॥"-मूलाचारपर्या० गा० 156 / गो० जी० गा० 141 / कर्मग्र०४।९। (4) "अव्वावाहमणिंदियमणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं / पूणरागमणविरहियं णिच्चं अचलं अणालम्बं॥" -नियम० गा० 177 / “शिवमजरमरुजमक्षयमव्याबाधं विशोकभयशंकम् / काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमलं भजन्ति दर्शनपूताः ॥"-रत्नक० श्लो० 40 / सर्वार्थसि० 101 / तत्त्वानु० श्लो० 242 / (5) तूलना-"आत्मलाभं विदुर्मोक्षं जीवस्यान्तर्मलक्षयात् / नाभावं नाप्यचैतन्यं न चैत्यन्यमनर्थकम॥" -सिद्धिवि०, टी० पृ० 384 / यश० उ० पृ० 280 / "स्वरूपावस्थितिः पुंसस्तदा प्रक्षीणकर्मणः / नाभावो नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् ॥"-तत्त्वानु० श्लो० 234 / 1-शाद् गुणगुणि-ज०वि०। 2 अस्य शा-ब०। मुक्तोऽपि श्र०14 निर्जीणानिर्मलो-आ० / 5-कर्षप्राप्तं श्र०। 51 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 802 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० शतः' इति क्वचित् पाठः। तत्रायमर्थः-विवृद्धाऽभिनिवेशतोऽयमात्मा जीवादितत्त्ववित् तपोनिर्जीर्णकर्मा च भवति सम्यग्दर्शनपूर्वकत्वात् सम्यग्ज्ञानचारित्रयोरिति / अनेन च ग्रन्थेन विमुक्तेः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मिका सामग्री प्ररूपिता भवति, तदन्यतमस्याप्यपाये तस्या अनुपपद्यमानत्वात् / तदनुपपद्यमानत्वञ्च 5 अत्रैव अनन्तरं प्रतिपादयिष्यते / किं कृत्त्वाऽसौ विवृद्धाभिनिवेशनः तत्त्वविच्च इत्याह-'अनुयुज्य' इत्यादि / अनुयोगशब्दः प्रश्ने प्रतिवचने चे प्रवर्त्तते; तद्यथा 'कृतानुयोगोऽपि भवान्न किश्चिद् ब्रवीति तूष्णीमादाय स्थितः' इत्यत्र अनुयोगशब्दः प्रश्ने प्रसिद्धः। 'दत्तानुयोगोऽपि भवान् पुनः पुनः पृच्छति' इत्यत्र तु पृष्टप्रतिवचने इति / तेनायमर्थः स्थितो भवति-अनुयुज्य जीवद्रव्यादेः स्वरूपादि तज्जिज्ञासया पृष्ट्वा / 10 कैः ? अनुयोगैश्च। अनुयोगैरेव, चकार एवकारार्थे। किंविशिष्टैः ? इत्याह 'निर्देश' इत्यादि / निर्देश आदिर्येषां स्वामित्वादिसदादीनां तद्भिदां गतैः निर्देशादिभेदरूपैः इत्यर्थः। निर्देशादौ च प्रश्न प्रति द्वयी गतिः-नामनि निर्जीते लक्षणनिर्णयार्थः प्रश्नो भवति लक्षणे वा निर्माते नामनिर्ज्ञानार्थ इति / तत्र पूर्वस्मिन् पक्षे 'किं लक्षणं जीवादि16 द्रव्यम्' इति प्रश्नः, 'उपयोगादिलक्षणम्' इति प्रतिवचनम् / अपरस्मिन् पक्षे 'उपयोगादिलक्षणः किन्नामा पदार्थः' इति प्रश्नः; 'जीवादिनामा' इत्युत्तरम् / के पुननिर्देशादयः इति चेत् ? उच्यते-'किम्' इत्यनुयोगे वस्तुस्वरूषकथनं निर्देशः / 'कस्य' इत्यधिपतित्वख्यापनं स्वामित्वम् / "केन' इति करणप्रकाशनं साधनम् / 'कस्मिन्' इत्याधाराभिधानम् अधिकरणम् / ‘कियच्चिरम्' इति कालकृतावस्थाव्यवस्थापन 20 स्थितिः / 'कतिविधम्' इतिप्रकारकथनं विधानम् / अत्र किम्, कस्य, केन, कस्मिन् , कियच्चिरम्, कतिविधम्' इति प्रश्नरूपः अनुयोगः / 'वस्तुस्वरूपकथनम् , अधिपतित्वख्यापनम्' इत्यादिकस्तु प्रतिवचनरूप इति / अधिगता निर्देशादयः / सदादयो निरूप्यन्तामिति चेदुच्यते-सकलपदार्थाधिगतिमूलं द्रव्यपर्यायगुणसामान्यविशेषविषयं 'सत्' इत्यभिधानं सत् / सकलादेश (1) विमुक्तेः / (2) "प्रश्नोऽनुयोगः पृच्छा च" इत्यमरः। (3) “निर्देशः स्वरूपाभिधानम्, स्वामित्वमाधिपत्यम्, साधनमुत्पत्तिनिमित्तम्, अधिकरणमधिष्ठानम्, स्थिति: कालपरिच्छेदः, विधानं प्रकारः ।"-सर्वार्थसि०१७। (4) उत्तररूप अनुयोग इति / (5) “सदित्यस्तित्वनिर्देशः / संख्या भेदगणना। क्षेत्रं निवासो वर्तमानकालविषयः। तदेव स्पर्शनं त्रिकालगोचरम् / कालो द्विविधः मुख्यो व्यावहारिकश्च / अन्तरं विरहकालः। भाव औपशमिकादिलक्षणः / अल्पबहुत्वमन्योन्यापेक्षया विशेषप्रतिपत्तिः।"-सर्वार्थसि० 138 / ___1 च वर्तते ब० // 2 'पुनः' नास्ति आ० / 3-द्रव्यादिः स्व-आ० / 4 पृष्टाः श्र० / / निर्जाते श्र०। 6-लक्षणं कि-ब०। 7 प्रश्न जीवादीनामित्यु-ब०। 8-स्वव्याख्याप-श्र०। 9 किमिति ब०। 10-प्यताम् श्र०। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76 ] निक्षेपनिरूपणम् 803 त्वात् संग्रहनिमित्तम् , व्यवहारनिमित्तं वा विकलादेशत्वात् / भेदगणनं संख्या। वर्तमाननिवाससामान्य क्षेत्रम् / तदेव त्रिकालगोचरं स्पर्शनम् / कालो वर्तमानादिलक्षणः। कस्यचित् सन्तानेन वर्तमानस्य कुतश्चिदन्तरो विरहकालः अन्तरम् / औपशमिकादिः भावः। संख्याताद्यन्यतमनिश्चयेऽपि परस्परं विशेषप्रतिपत्तिनिमित्तमल्पबहुत्वम् इति / एवमुक्तप्रकारनिर्देशादिरूपैरनुयोगैः किं कृत्वा जीवादिद्रव्याण्यनुयुङ्- 6 क्तेऽयमात्मा ? इत्याह-'विरचय्य' इति / विशेषेण रचयित्वा विधाय, कान् ? इत्याह'अर्थ' इत्यादि / अर्थश्च वाक् च प्रत्ययश्च तदात्मकभेदान् / अर्थात्मको हि भेदः-द्रव्यभावरूपः, वागात्मकः नामरूपः, प्रत्ययात्मकश्च स्थापनारूपः इति / किंविशिष्टांस्तान् ? इत्याह-'श्रुतापितान्' इति / श्रुतेन अर्पितान् विवक्षितान् / कैः कृत्वा तान् विरचय्य ? इत्याह-'नय' इत्यादि / नयेषु वस्त्वंशप्ररूपकेषु प्रवृत्तेषु 10 सत्सु अनु पश्चाद् गताः प्रवृत्ता ये निक्षेपाः तैः / किंविशिष्टैः ? उपायैः कारणभूतैः। क ? भेदवेदने। नामस्थापनादिस्वभावभिन्नजीवादिद्रव्यवेदने। कुतः पुनरेषां नयानुगतत्वं सिद्धमिति चेत् ? नयनिरूपिते वस्त्वंशे प्रवृत्तेः। एतदेव दर्शयन्नाह'परीक्ष्य' इत्यादि / परीक्ष्य विचार्य तांस्तान् द्रव्यपर्यायादीन , तद्धर्मान् अनेकान्तात्मकाऽर्थांशान्। कथम्भूतान् ? अनेकान् / पुनरपि किंविशिष्टान् ? व्याव- 15 हारिकान् व्यवहारप्रयोजनप्रसाधकान् / कैः परीक्ष्य ? इत्याह-'अभिसन्धिभिः' इति / अभिसन्धिभिः ज्ञातुरभिप्रायैः / किं कृत्वा ? अधिगम्य / कम् ? * 'अर्थम्। किंविशिष्टम् ? अनेकान्तम् / कस्मादधिगम्य ? इत्याह-'श्रुतात्' इति / कारिकाचतुष्टयं यथोद्देशं विवृण्वन्नाह-'श्रुतम्' इत्यादि / श्रुतम् आप्तवचनम् __ तत्कथम्भूतम् ? अनादि / कया ? सन्तानापेक्षया ,व्यापेक्षया। 20 विवृतिव्याख्यानम् या कथं पुनर्द्रव्यं सन्तानशब्दवाच्यमिति चेत् ? 'समीचीनः त्रिकालप्रवृत्तनिखिलपर्यायानुयायी तानः विस्तारो यस्य' इति व्युत्पत्तेः / कथं तर्हि तत् सादि ? इत्याह-'साधनम्' इत्यादि / साध्यते निवर्त्यते इति साधनो वर्णपदादिपर्यायः, साध्यते प्रतिपाद्यतेऽनेन इति वा, तं प्रति सादि 'श्रुतम्' इति सम्बन्धः। अनेन सर्वथा नित्यमनित्यं वा तत् इति प्रत्याख्यातम् / प्रपश्चितश्चैतत् प्रागेव इत्यलं पुनः प्रसङ्गेन / 25 तदेवंविधं श्रुतं प्रमाणम्, कुतः इत्याह-'त्रिकाल' इत्यादि / त्रिकालगोचराश्च ते सर्वपर्यायाच जीवादिपदार्थाश्च तेषां निरूपणम् यथावस्थितस्वरूपोद्योतनं तत्र प्रवर्ण दक्षम् / यत एवंविधं ततस्तत्प्रमाणम् / प्रयोगः-यत् त्रिकालगोचरसर्वपर्यायजीवा. (१)श्रुतम् / (२)श्रुतम् / (3) श्रुतं प्रमाणं त्रिकालगोचरसर्वपर्यायजीवादिपदार्थनिरूपणप्रवणत्वात् / 1 संग्रहव्यवहा-श्र० / सन्तानो न ब०। 3-श्चयोपि श्र०। 4 वाक्प्र-श्र०। 5 नयानुगत्वं श्र०। 'द्रव्यापेक्षया' नास्ति श्र० / 7-प्रवृत्तिनि-आ० / 8 , स्यावित्याह ब० / 9 अनित्यं नित्यं वा ब०. श्र०। 10-३च ते जीवा-ब. श्र०। 11-पर्यायवज्जीवा-ब०। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 804 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० दिपदार्थनिरूपणप्रवणं तत् प्रमाणम् यथा सर्ववित्प्रत्यक्षम् , तथाभूतञ्चोक्तप्रकारं श्रुतमिति। नयः कीदृशः ? इत्याह-'तदर्थाश' इत्यादि / नयो भवति / कौऽसौ ? अभिसन्धिः ज्ञात्रभिप्रायः। किंविशिष्टः ? तदर्थांशपरीक्षाप्रवणः, तस्य श्रुतस्य अर्थो विषयः उक्तप्रकारो जीवादिः तस्य अंशो धर्मः नित्यत्वादिः तस्य परीक्षायां प्रवणो 5 दक्षः / ताभ्यां श्रुतनयाभ्याम् अधिगमः निश्चयः / केषाम् ? इत्याह-परमार्थव्यावहारिकार्थानाम् द्रव्यपर्यायाणाम् इत्यर्थः / अथेदानीं 'तदधिगत' इत्यादिना नयानुगतत्वं निक्षेपस्य प्रदर्य तत्स्वरूपं व्याचष्टे-तदधिगतानां श्रुतनयाधिगतानां द्रव्यपर्यायरूपाणां जीवादीनां वाच्यतामा पन्नानां साधारणस्वरूपाणाम् , न हि असाधाणस्वरूपा अर्थपर्याया वाच्यतामापद्यन्ते / 10 वाचकेषु जीवादिशब्देषु भेदेन सङ्करव्यतिकरव्यतिरेकेण उपन्यासः जीवाद्यर्थानां प्ररूपणं न्यासः निक्षेप इति यावत्। स कति प्रकारो भवति ? इत्याह-'सः' इत्यादि। सः प्ररूपितस्वरूपो न्यासः अवरतः सङ्केपतः चतुर्धा / कथम् ? इत्याह-'नाम' इत्यादि / . . नाम-स्थापना-द्रव्य-भावैः प्रकारैः निक्षेपः चतुर्धा भिद्यते। 'तत्र' इत्यादिना तान् व्या चष्टे-तत्र तेषु निक्षेपप्रकारेषु नामादिषु मध्ये किन्नाम ? इत्याह-'निमित्त' इत्यादि। किं 15 पुनः नाम्नो निमित्तं किं वा निमित्तान्तरमिति चेत् ? 'वक्तुरभिप्रायोऽस्य निमित्तम् , जात्यादिकं तु निमित्तान्तरम्' इति ब्रूमः। तदनपेक्षं यत् संज्ञाकर्म संज्ञाकरणम् इच्छावशात् तन्नाम / तस्य इयत्ताव्यवच्छेदार्थमाह-'तच' इत्यादि / तच्च उक्तस्वरूपं नाम अनेकधा अनेकप्रकारं भवति / तथाहि-किञ्चिद् एकजीवनाम यथा डित्थ इति / (1) सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः सङ्करः, परस्परविषयगमनं व्यतिकरः, ताभ्यां व्यतिरेकेण प्रतिनियतस्वस्वरूपस्थितत्वेनेति भावः / (2) तुलना-"निमित्तान्तरं पुनर्जातिद्रव्यगुणक्रिया: ।"सिद्धिवि०, टी० पृ० 474A. "नाम्नो वक्तुरभिप्रायो निमित्तं कथितं समम् / तस्मादन्यत्तु जात्यादि निमित्तान्तरमिष्यते ॥"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 99 / (3) “जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा..."-अनु०सू०९। 'व्यस्तसमस्तैकानेकजीवाजीवविषयतोपपत्तेः-तथा [ व्यस्त ] जीवविषयतोपपत्तेः अयं मांसपिण्डो देवदत्तोऽयं देवदत्त इत्यादिवत् / समस्तजीवविषयतोपपत्तेः एते सर्वे गर्गादय इत्यादिवत् / एकजीवविषयतोपपत्तेः नाभेयः पुरुदेव इत्यादिवत् / अनेकजीवविषतोपपत्तेः अयं डित्थः अयं डवित्थः अयं जिनदत्त इति चत्वारो जीवभेदाः। तथा व्यस्ताजीवविषयतोपपत्तेः स नु त्य क्य च इत्यादि / समस्ताजीवविषयतोपपत्तेः भूवादयो धुरित्यादिवत् / एकाजीवविषयतोपपत्तेः आकाशं काल: धर्मः अधर्म इत्यादिवत् / अनेकाजीवविषयतोपपत्तेः तौ सदिव ।"-सिद्धिवि० टी०प० 474A. / "तस्स मंगलस्स आधारो अठ्ठविहो। तं जहा, जीवो वा, जीवा वा. अजीवो वा, अजीवा वा, जीवो य अजीवो य, जीवा य अजीवो य, जीवो य अजीवा य, जीवा य अजीवा व।"-धवलाटी० पृ० 19 / "किञ्चिद्धि प्रतीतमेकजीवनाम यथा डित्थ इति / किञ्चिदनेकजीवनाम यथा युथ इति / किञ्चिदेकाजीवनाम यथा घट इति / किञ्चिदनेकाजीवनाम यथा प्रासाद इति / किञ्चिदेकजीवैकाजीवनाम यथा प्रतीहार इति / किञ्जिदेकजीवानेकाजीवनाम ___ 1 'श्रुतनयाधिगतानां नास्ति श्र०। 2-वन् स कति यावत् स कतिप्रका-आ० / 'नामादिषु' नास्ति आ०। 4 तदनपेक्ष्य यत् ब०। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 76 ] निक्षेपनिरूपणम् / 805 किञ्चिदनेकजीवनाम यथा यूथ इति / किञ्चिदेकाऽजीवनाम यथा घटः इति। किञ्चिदनेकाजीवनाम यथा प्रासाद इति। किञ्चिदेकजीव-एकाजीवनाम यथा प्रतीहार इति / किञ्चिदेकजीव-अनेकाजीवनाम यथा कोहार इति / किश्चिद् अनेकजीवाऽजीवनाम यथा नगरमिति / इत्याद्यनेकप्रकारं तत् प्रतिपत्तव्यम् / कस्मात् तदनियतप्रकारम् ? इत्याह-जातिद्रव्यगुणक्रियालक्षणनिमित्तानपेक्षसंज्ञाकर्मणोऽनेकत्वात् अनियत- 5 त्वात् , जात्यादिनियतनिमित्तापेक्षाणामेव शब्दानां नियतत्वोपपत्तेः / जातिद्वारेण हि ये शब्दाः द्रव्यादिषु प्रवर्त्तन्ते ते जातिशब्दाः यथा गौः अश्वः इत्यादयः / द्रव्यद्वारेण तु ये वर्त्तन्ते ते द्रव्यशब्दाः / ते च द्विविधाः-संयोगिद्रव्यशब्दाः, समवायिद्रव्यशब्दाश्च / तत्र संयोगिद्रव्यशब्दाः कुण्डली इत्यादयः, समवायिद्रव्यशब्दाः विषाणी इत्यादयः / गुण-कर्मद्वारेण तु ये द्रव्ये वर्त्तन्ते ते गुणशब्दाः कर्मशब्दाश्च प्रतिपत्तव्याः, 10 यथा 'शुक्लो नीलः' इत्यादयः, 'गच्छत्यागच्छति' इत्यादयश्च / ___अथ का स्थापना ? इत्याह-'आहित' इत्यादि। स्थाप्यते इति स्थापना प्रतिकृतिः, सा च आहितनामकस्य अध्यारोपितनामकस्य द्रव्यस्य इन्द्रादेः 'सोऽयम्' इत्यभिसन्धानेन व्यवस्थापना / केनात्मना व्यवस्थापना ? इत्याह-'सद्भाव' इत्यादि / तत्र अध्यारोप्यमाणेन मुख्येन्द्रादिना समाना सद्भावस्थापना। मुख्याका- 15 रशून्या पुनः असद्भावस्थापना। यथा काहार इति / किञ्चिदेकाजीवानेकजीवनाम यथा मंदुरेति। किञ्चिदनेकजीवाजीवनाम यथा नगरमिति ।"-तत्त्वार्थश्लो०१०९८।। (1) दण्डधारको द्वारपालः, तत्र एकोऽजीवः दण्ड: जीवश्च द्वारपाल इति / (२)एको जीवः धीवरः, अनेकाश्च अजीवाः जलाहरणाय उपयुज्यमानाः घटादयः। (3) तुलना-"यदृच्छाशब्देषु नाम्ना विशिप्टोऽर्थ उच्यते डित्थ इति / जातिशब्देषु जात्या गौरयमिति / गुणशब्देषु गुणेन शुक्ल इति। क्रियाशब्देन क्रियया पाचक इति। द्रव्यशब्देषु द्रव्येण दण्डी विषाणीति ।"-प्रमाणस० टी०पृ० 12 / "तत्थ जाइणिमित्तं णाम गोमणुस्सघडपडत्थंभवेत्तादि / संजोगदव्वणिमित्तं णाम दंडी छत्ती मौली इच्चेवमादि / समवायणिमित्तं णाम गलगंडो काणो कुंडो इच्चेवमाइ। गुणणिमित्तं णाम किण्हो रुहिरो इच्चेवमाइ। किरियाणिमित्तं णाम गायणो णच्चणो इच्चेवमाइ।"-धवलाटी०ए०१८। 'जातिद्वारेण शब्दो हि द्रव्यादिषु वर्तते। जातिहेतुः स विज्ञेयः गौरश्व इति शब्दवत् // 3 // गुणप्राधान्यतो वृत्तो द्रव्ये गुणनिमित्तकः / शुक्ल: पाटल इत्यादिशब्दवत्सम्प्रतीयते॥६।। कर्मप्राधान्यतस्तत्र कर्महेतुर्निबुध्यते / चरति प्लवते यद्वत्कश्चिदित्यतिनिश्चितम् // 7 / / संयोगिद्रव्यशब्दः स्यात्कुण्डलीत्यादिशब्दवत्। समवायिद्रव्यशब्दो विषाणीत्यादिरास्थितः ॥९॥"-तत्त्वार्थलो० पृ० 99 / (4) "स्थाप्यत इति स्थापना प्रतिकृतिः / सा चाहितनामकस्य इन्द्रादेर्वास्तवस्य तत्त्वाध्यारोपात प्रतिष्ठा सोत्यमित्यभिसम्बन्धेनान्यस्य व्यवस्थापना स्थापनामात्र स्थापनेति वचनात् ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 111 / (5) तुलना"जण्णं कठकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगो वा सब्भावट्ठवणा वा असब्भावट्ठवणा वा आवस्सएत्ति ठवणा ठविज्जइ से तं ठवणावस्सयं ।"-अनु० सू०१०। “तत्थ आगारवंतए वत्थुम्मि सब्भावट्ठवणा, 1 यथाहार आ० / 2-युवत-आ०, ब०। 3 संयोगिशब्दा-श्र०। 4 इत्यभिधानेन आ०। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 806 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० अथ किंलक्षणं द्रव्यम् ? इत्याह-'अनागत' इत्यादि / ननु 'अनागतपरिणामविशेष प्रति गृहीताभिमुख्यं द्रव्यम्' इति द्रव्यलक्षणमयुक्तम् , “गुणपर्ययवद्रव्यम्' [तत्वार्थसू० 5 / 38] इत्यागमविरोधादिति कश्चित् ; सोऽपि सूत्रकाराभिप्रायानभिज्ञः; 'गुणपैर्ययवद्रव्यम्' इति हि सूत्रकारेण वदता त्रिकालगोचरानन्तक्रमभाविपरिणामाश्रयं द्रव्यमुक्तम् / तच्च यदा अनागतपरिणामविशेषं प्रत्यभिमुखं तदा वर्तमानपर्यायाक्रान्तं परित्यक्तपूर्वपर्यायञ्च निश्चीयते, अन्यथा अनागतपरिणामाभिमुख्यानुपपत्तेः खरविषाणवत् / केवलं द्रव्यार्थप्रधानत्वेन वचने अनागतपरिणामाभिमुखम् अतीतपरिणामानुयायिद्रव्यमिति निक्षेपकरणे तथा द्रव्यलक्षणमुक्तम्। सूत्रकारेण तु परमतव्यवच्छेदेन प्रमाणार्पणात् 'गुणपर्ययवद्रव्यम्' इति सूत्रितम् , क्रमाऽक्रमानेकान्तस्य तथा व्यव10 स्थितेः / तच्चैवंविधलक्षणलक्षितं द्रव्यं द्विधौ भिद्यते आगम-नोआगमविकल्पात् / तत्र आत्मा यो जीवादिप्राभृतं तत्त्वतो जानाति परन्तु चिन्तन-परप्रतिपादनलक्षणोपयोगाऽनुपयुक्तः स आगमद्रव्यम् / नोआगमः त्रेधा भिद्यते-ज्ञातृशरीर-भावि-तद्व्यति तविवरीया असन्भावढवणा।"-धवलाटी० पृ०२०। “काष्ठपुस्तचित्रकर्मादयो ये सद्भावस्थापनारूपा: तथाऽक्षनिक्षेपादयोऽसद्भावस्थापनारूपाः""-तत्त्वार्थभा० व्या० 115 / "तत्राध्यारोप्यमाणेन भावेन्द्रादिना समाना प्रतिमा सद्भावस्थापना, मुख्यदर्शिनः स्वयं तस्यास्तबुद्धिसंभवात् कथञ्चित्सादश्यसद्भावात् / मुख्याकारशून्या वस्तुमात्रा पुनरसद्भावस्थापना परोपदेशादेव तत्र सोऽयमिति संप्रत्ययात् ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 111 / (1) सूत्रकारः उमास्वाम्याचार्यः / तुलना-"सोऽपि सूत्रार्थानभिज्ञः; गुणपर्ययवद्रव्यमिति हि सूत्रकारेण वदता त्रिकालगोचरानन्तक्रमभाविपरिणामाश्रयं द्रव्यमुक्तम्। तच्च यदाऽनागतपरिणामविशेष प्रत्यभिमुखं तदा वर्तमानपर्यायाक्रान्तं परित्यक्तपूर्वपर्यायञ्च निश्चीयते, अन्यथा अनागतपरिणामाभिमुख्यानुपपत्तेः खरविषाणादिवत् ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 112 / (2) क्रमभाविपर्यायापेक्षया क्रमाऽनेकान्त: सहभाविगुणापेक्षया तु अक्रमानेकान्तः / (3) “से किं तं दवावस्सयं? दुविहं पण्णत्तं तं जहा आगमओ अ नोआगमओ अ।"-अनु० सू० 12 / सर्वार्थसि०, राजवा० 115 / धवलाटी० पृ० 20 / (4) "जस्स णं आवस्सएत्ति पदं सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरंसे णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परिअट्टणाए धम्मकहाए नो अणुप्पेहाए, कम्हा ? अणुवओगो दव्वमिति कटु ।-अनु० सू० 13 / “जीवप्राभृतज्ञायी मनुष्यजीवप्राभृतज्ञायी वा अनुपयुक्त आत्मा आगमद्रव्यजीवः ।"-सर्वार्थसि०, राजवा० 115 / “आगमओऽणुवउत्तो मंगल. सद्दाणुवासिओ वत्ता। तन्नाणलद्धिसहिओऽवि नोवउत्तोत्ति तो दव्वं ॥"-विशेषा० गा० 29 / "तत्थ आममओ दव्वमंगलं णाम मंगलपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो, मंगलपाहुडसद्दरयणा वा, तस्सत्थट्ठवणक्खररयमा वा।"-धवलाटी०पृ० 21 / (5) “से कि तं नो आगमओ दवावस्सयं? तिविहं पण्णत्तं, तं जहा-जाणयसरीरंद व्वावस्सयं भविअसरीरदव्वावस्सयं जाणयसरीरभविअसरीरवतिरित्तं दवावस्सयं।" -अनु० सू०१५ / “नो आगमद्रव्यजीवस्त्रेधा व्यवतिष्ठते-ज्ञायकशरीर-भावि-तद्वयतिरिक्तभेदात् / तत्र ज्ञातुर्यच्छरीरं त्रिकालगोचरं तज्ज्ञायकशरीरम् / सामान्यापेक्षया नोआगमभाविजीवो नास्ति जीव 1-पर्यायव-आ०, श्रः। 2-पर्यायव-आ०, श्र०। 8-प्रकारेण तथा ब०। 4-पर्यायवआ०, श्र०। 5-श्रुतं न जाना-श्र० / 6-नानुयुक्तं स आ०,-गोवानुपयुक्तः स ब०। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76 ] निक्षेपनिरूपणम् 807 रिक्तविकल्पात्। तत्र ज्ञशरीरलक्षणं नोआगमद्रव्यमपि त्रिकालगोचरं त्रिविधम्-भाविवर्तमान-परित्यक्तभेदात् / गत्यन्तरे स्थितो मनुष्यभवप्राप्तिं प्रत्यभिमुखो भाविजीवः / स एव यदा जीवादिप्राभृतं न जानाति केवलमग्रे ज्ञास्यति तदा भाविनोआगमः / तंव्यतिरिक्तं नोआगमद्रव्यं कर्मनोकर्मभेदात्मकम् / तत्र ज्ञानावरणाद्यष्टप्रकारं कर्म, शरीरपर्याप्तियोग्यपुद्गलादानं नोकर्म / अथ को भावः ? इत्याह-'तथा' इत्यादि / तथा, किम् ? विवक्षितप्रकारेण उपयोगो व्यापारः / यदि वा, तथा आगमनोआगमरूपतया उपयोगो जीवस्य उपयुक्तत्वं मावः / अतश्च द्रव्यवद् भावोऽपि आगमनोआगमविकल्पाद् द्विविधः प्रतिपत्तव्यः / तत्र जीवादिप्राभृतविषयोपयोगाविष्ट आत्मा आगमभावः / जीवादिपर्यायाविष्टो नोआगमः / एवं प्ररूपितनामादिचतुःप्रकारो निक्षेपः सिद्धः। स किमर्थं प्ररूप्यते 10 निष्फलत्वात्, इत्याशङ्क्याह-'अप्रस्तुत' इत्यादि / अप्रस्तुतार्थस्य मुख्यस्य इन्द्रादेः अपाकरणात् निराकरणात् , प्रस्तुतस्य नामस्थापनेन्द्रादेः व्याकरणाद् व्युत्पादनाच्च हेतोः निक्षेपः फलवान् सार्थकः / तेन च इत्थम्भूतेन निक्षेपेण निक्षिप्ता उक्तप्रकारेण प्ररूपिताः पदार्थाः जीवादयः अनुयुज्यन्ते अनु पश्चात् युज्यन्ते जीवद्रव्यादेः स्वरूपादीनि तजिज्ञासया पृच्छयन्ते / कैः कृत्वा ? अनुयोगैः। किंविशिष्टैः ? 15 निर्देशादिभिः निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानलक्षणैः, न केवलमेतैरेव अपि तु सदादिभिश्च, सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वलक्षणैश्च। एवंविधैश्च अनुयोगैः अनुयुक्ता यद्यपि सर्वे पदार्थाः तथापि जीवपदार्थविषयो यो विशेषः इतरपदार्थेभ्यः स्वरूपातिशयः तस्य प्ररूपकाणि जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानानि प्रत्येक नसामान्यस्य सदापि विद्यमानत्वात् / विशेषापेक्षया त्वस्ति-गत्यन्तरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभवप्राप्ति प्रत्यभिमुखः मनुष्यभाविजीवः / तद्वयतिरिक्तः कर्मनोकर्मविकल्पः।"-सर्वार्थसि० 105 / धवलाटी० प०२१ / “मंगलपयत्थजाणयदेहो भब्वस्स वा स जीवोऽवि / नो आगमओ दव्वं आगमरहिओत्ति जं भणि॥ अहवा नो देसम्मि नो आगमओ तदेगदेसाओ। भूयस्स भाविणो वा जस्स जं कारणं देहो // जाणयभव्वसरीराइरित्तमिह दव्वमंगलं होइ। जा मंगल्ला किरिया तं कुणमाणो अणवउत्ती॥"विशेषा० गा० 44-46 / / (१)"से किं तं भावावस्सयं? दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-आगमतो अ, नो आगमतो अ।"-अनु० सू० 22 / सर्वार्थसि०१५। धवलाटी० पृ० 29 / (2) “जाणए उवउत्ते, सेतं आगमतो भावावस्सयं / " -अन० स०२३। "तत्र जीवप्राभतविषयोपयोगाविष्टो मनुष्यजीवप्राभूतविषयोपयोगयुक्तो वा आत्मा आगमभावजीवः ।"-सर्वार्थसि० 115 / "मंगलसुयउवउत्तो आगमओ भावमंगलं होइ।"-विशेषा० गा० 49 / “आगमः सिद्धान्तः, आगमदो मंगलपाहुडजाणओ उवजुत्तो।"-धवलाटी० पृ० 29 / (3) "जीवनपर्यायेण मनुष्यजीवनपर्यायेण वा समाविष्ट आत्मा नो आगमभावजीवः ।"-सर्वार्थसि०, राजवा०, तत्वार्थश्लो० 115 / "णो आगमदो भावमंगलं दुविहं उपयुक्तस्तत्परिणत इति। आगममन्तरेण अर्थोपयुक्त उपयुक्तः / मंगलपर्यायपरिणतस्तत्परिणत इति ।"-धवलाटी० पृ० 29 / 1-पः प्रसिद्धः श्र० 12 अनुयुज्जन्ते श्र०। 3 युज्जन्ते श्र०। 4 जीव इत्यादेः श्र०। / Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 808 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० चतुर्दश भवन्ति / तैः प्ररूपितस्वरूपातिशये जीवद्रव्ये यथावज्ज्ञाते मुमुक्षूणां मुक्त्यङ्गं परिपूर्ण रत्नत्रयं भवति नान्यथा / एतदेवाह-'एवम्' इत्यादि / एवम् उक्तप्रकारेण प्रमाणनयनिक्षेपानुयोगैः पदार्थप्रतिपत्त्युपायैः सर्वान् पदार्थानधिगम्य पुरुषतत्त्वं पुनः जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानः दृढतरमवबुद्ध्य, इत्यनेन मुमुक्षोः सम्यग्ज्ञानं 5 मुक्तथङ्गं प्ररूपितम् / प्रवृद्धाभिनिवेशात्मकसम्यग्दर्शनः इत्यनेन सम्यग्दर्शनम् , 'तपसा निर्जीर्णकर्मा' इत्यनेन तु सम्यक्चारित्रमिति / तेन च सम्यग्दर्शनादित्रयेण निर्जीर्णकर्मा सर्वकर्मविनिर्मुक्तः सन् अयमात्मा सुखमृच्छति सुखमयो भवति / किंविशिष्टं तत्सुखम् ? बाधारहितं विगतबाधम् , अव्यवच्छिन्नं शाश्वतम् , अनन्तम् इयत्तावधारणवर्जितम् , अतीन्द्रियम् विशुद्धात्ममात्रोत्थम् / ननु आत्मनो मुक्तौ बुद्ध्याद्यशेषविशेषगुणोच्छेदात् कथं सुखमयत्वमिति वैशेषिकाः / अत्यन्तचित्तसन्तानोच्छेदतः तस्यैवाऽसंभवादिति सौगताः। अभोक्तृत्वादिति सांख्याः / अत्राह-नहि इत्यादि / नहि नैव गुणविनाशाद् बुद्ध्यादिगुणोच्छेदात् जडः पाषाणकल्पः मुक्तौ आत्मा भवति, गुणगुणिविनाशात शून्यः 'नहि' इति सम्बन्धः / गुणाः ज्ञानादयः गुणी चित्तसन्तानः तेषां विनाशाद् अत्यन्तोच्छेदात् आत्मा शून्यः सकलस्वरूपविविक्तो भवति 'नहि' इति सम्बन्धः / भोग्यविरहात् तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानाद् अभोक्ता आत्मा सुखादेः 'नहि' इति सम्बन्धः / कुत एतत् ? इत्यत्राह-तथाधिगमाभावात् तद्बाधासंभवाच्च / यथा च मुक्तौ तथाविधस्य आत्मस्वरूपस्य कुतश्चिदपि प्रमाणादधिगमासंभवः तत्र च बाधासंभवः तथा अग्रे प्रपञ्चतः प्ररूपयिष्यते / ___ ननु ज्ञानावरणादिकर्मणः सद्भावप्रसिद्धौं 'तपोनिर्जीर्णकर्मा' इत्यभिधातुं 20 श्रावरणस्वरूपविषये युक्तम् / नच तत्सद्भावः प्रसिद्धः / तद्धि शरीरम् , रागादि, देशकाइतरेषां पूर्वपक्षः- लादिकं वा भवेत् ? तत्र आद्यविकल्पद्वयमयुक्तम् ; शरीरे रागादौ च सत्यपि अर्थज्ञानोदयसंभवात् / यस्मिन् सत्यपि ज्ञानोदयसंभवः न तस्य ज्ञानावरणादिस्वरूपता यथा चक्षुरादेः, अर्थज्ञानोदयसंभवश्च शरीरादौ सत्यपि, तस्मान्न तस्य ज्ञानावरणादिस्वरूपता इति / तस्य तत्स्वरूपतायां वा काण्डपटादिवन्न तत्सद्भावे 25 तेंदुपलम्भसंभवो भवेत् / तर्हि देशकालादेस्तत्स्वभावताऽस्तु, सुप्रसिद्धा हि मेर्वादौ दूरदेश ताया आवरणता रावणादौ दूरकालतायाः परमाण्वादौ सूक्ष्मस्वभावतायाः, मूलंकीलो (1) आत्मन एव / (2) सुखादिव्यतिरिक्तस्य शून्यस्य अभोक्तृत्वरूपस्य वा। (3) तुलना"तद्धि शरीरं रागादयो देशकालादिकं वा स्यात् ।"-प्रमेयक० पू० 241 / स्या०र०पू० 356 / (4) शरीरं रागादिकं वा नावरणस्वरूपम् तत्सद्भावेऽपि ज्ञानोदयात् / (5) शरीरादेः / (6) शरीरादिसद्भावे। (7) ज्ञानोग्लम्भसंभवः / (8) आवरणस्वभावता। (9) भूम्यन्तर्गतस्य वृक्षमूलस्य कीलस्य उदकादेर्वा / .1-रेण नयनि-आ०। 2-ष्टं सुखं श्र० / 3 अवच्छिन्नं श्र०। 4 'आत्मा' नास्ति आ० / 5 इत्याह-ब०। 6-द्धौनिर्जीर्ण-श्र०। 7 तदभावः ब०। 8 तस्मानास्य ब०। 9'तस्य'नास्ति श्र० / Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76 ] आवरणस्वरूपविचारः 806 दकादौ च भूम्यादेः; इत्यप्यसमीचीनम् ; तदभावस्य योगिनोऽप्यशक्यक्रियत्वात् / न खलु सातिशयर्द्धिमताऽपि योगिना देशाद्यभावो विधातुं शक्यः / नचान्यत् किश्चिदावरणं प्रतीयते / अस्तु वा तत् ; तथापि-अविद्यारूपं तद् भविष्यति न पौद्गलिकम् , मूर्तिमताऽनेनै अमूर्तस्य ज्ञानादेरावरणानुपपत्तेः, अन्यथा शरीरादेरप्यावरणत्वप्रसङ्गः / आत्मगुणत्वात् कर्मणो न पौद्गलिकत्वमिय॑न्ये / भवतु पौद्गलिकत्वम् / अन्यथाभूतत्वं वाऽस्य; तथापि न साकल्येन क्वचिन्निर्जरासंभवः कार्यकारणप्रवाहेण प्रवर्त्तमानस्यास्य अनादित्वात्, अनादेश्च आत्मादिवद् विनाशासंभवादित्यपरे। अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'ज्ञानावरणादिकर्मणः सद्भावप्रसिद्धौ' कर्मणः पौगलिकत्व- इत्यादि; तत्र किं कर्ममात्रसद्भावे भवतां विप्रतिपत्तिः, ज्ञानावरणादिकर्मप्रसाधनं संवरनि- विशेषे वा ? तत्राद्यविकल्पोऽनुपपन्नः; शरीरादिव्यतिरिक्तस्य कर्म- 10 र्जरयोः सिद्धिश्च- . मात्रस्य अनुमानतः सद्भावप्रसिद्धेः / तथाहि-स्वपरप्रमेयबोधैकस्वभावस्य आत्मनो हीनगर्भस्थानशरीरविषयादिषु विशिष्टाभिरतिः आत्मतव्यतिरिक्तकारणपूर्विका, तत्त्वात् , कुत्सितपरपुरुषे कमनीयकुलकामिन्याः तन्त्राद्युपयोगप्रभवविशिष्टाभिरतिवत् / द्वितीयविकल्पोऽप्ययुक्तः; ज्ञानावरणादिकर्मविशेषस्यापि तद्व्यतिरिक्तस्य (1) दूरदेशताया दूरकालताया सूक्ष्मस्वभावताया भूम्यादेर्वा अभावस्य / (2) वेदान्तिनः / "अत एवावरणस्य अनिर्वाच्याविद्यास्वरूपत्वमङ्गीकर्तव्यम् / न तु दुनिरूपत्वमात्रेण तदपलापो युक्तः अनुमानसिद्धत्वात्। तथाहि-अस्ति तावन्मुढानामेवं व्यवहारः 'अशनायाद्यतीतं विवेकिप्रसिद्धमात्मतत्त्वं नास्ति न प्रकाशते च' इति योऽयं व्यवहारः आत्मनि भावरूपावरणनिमित्तो भवितुमर्हति, 'अस्ति प्रकाशते' इत्यादिव्यवहारपुष्कलकारणे सति तद्विपरीतव्यवहारत्वात्, यन्नैवं तन्नैवं यथास्ति प्रकाशते घट इति व्यवहारः / न च कारणपौष्कल्यमसिद्धम् ; नित्यसिद्धस्वप्रकाशचंतन्यातिरेकेणात्रान्यापेक्षाभावात् / न चान्यथासिद्धिः; इतोऽतिरिक्तावरणस्य मूर्तद्रव्यस्य आत्मनि निरवयवे सर्वगते दुःसंपादत्वात् ।'-विवरणप्र० पृ० 21 / (3) पौद्गलिककर्मणा। (4) यौगाः / द्रष्टव्यम्-पृ० 3 टि० 5 / (5) अविद्यादिरूपत्वम् / (6) कर्मणः / (7) जयन्तभट्टादयः / तुलना-“अन्ये तु मिथ्याज्ञानजनितसंस्कारस्य सहकारिणोऽभावात् विद्यमानान्यपि कर्माणि न जन्मान्तरे शरीरारम्भकाणीति मन्यन्ते।" -प्रश० व्यो० पृ० 20 ख / “सहकारिवैकल्यात् कुसूलावस्थितबीजवत् कर्मणामनारभ्भकत्वे सति न कश्चिद्दोषः / एष एव च तेषां दाहो यत्कार्यानारम्भकत्वम् / नन्वविनष्टस्वरूपाणि कुसूलबीजवदेव कदाचिदारप्स्यन्ते कार्य तस्माद्वरमच्छिद्यन्तामेव; किमिदानी नित्यमात्मानमप्युच्छेत्तुं यतामहे ?"न्यायमं० पृ०५२३ / (8) पृ०८०८५०१९ / (9) तुलना-"चेतनस्य सतः सम्बन्ध्यन्तरं मोहोदयकारणं मदिरादिवत् / तत्कृतः सिद्धम् / विवादाध्यासितो जीवस्य मोहोदयः सम्बन्ध्यन्तरकारणकः मोहोदयत्वात् मदिराकारणकमोहोदयवदित्यनुमानात् ।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० 49 / “संसारी बन्धवान परतन्त्रत्वादालानस्तम्भागतहस्तिवत् / परतन्त्रोऽसौ हीनस्थानपरिग्रहवत्त्वात् कामोद्रेकपरतन्त्रहीनस्थानपरिग्रहवच्छोत्रियब्राह्मणवत् ।"-आप्तप० पृ० 1 / प्रमेयक० पृ० 242 / (10) शरीरादिव्यतिरिक्त / (11) शरीरादिभिन्नस्य / . 1-तु वा पौ-ब०। 52 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 810 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० अनुमानादेव प्रसिद्धेः। तथाहि-यत् सत् तत्सर्वमनेकान्तात्मकमित्यादि व्याप्तिज्ञानं सावरणम् , स्वविषयेऽस्पष्टत्वात् , यत् स्वविषयेऽस्पष्टं तत्सावरणम् यथा रजोनीहाराद्यन्तरिततरुनिकरादिज्ञानम् , स्वविषयेऽस्पष्टश्चेदं ज्ञानमिति / मियादृशां सर्वत्र अनेकान्तस्वभावे भावे विपरीतज्ञानं सावरणम्, मिथ्याज्ञानत्वात्, धत्तुरकाद्युपयोगिनो मृच्छकले काञ्चनज्ञानवदिति / यदप्युक्तम्-'अविद्यारूपं तद् भविष्यति न पौद्गलिकम्' इत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम् ; अमूर्तस्य अमूर्तेनैव आवरणनियमाऽसंभवात् , मूर्तेनापि मदिरादिना अमूर्तस्य ज्ञानादेरावरणदर्शनात् / कथमेवं शरीरादेर्न तदावरणत्वं स्यादिति चेत् ? 'तदविरुद्ध त्वात्' इति ब्रूमः / मूर्त्तत्वाविशेषेऽपि हि यदेव ज्ञानेन विरुद्धं तदेव तस्य आवरणं 10 युक्तं नान्यत् , अन्यथा अमूर्त्तत्वाविशेषात् अविद्यावत् आकाशादेर्शानान्तरस्य च आवर णत्वमनुषज्येत / तस्य॑ ते विरोधश्च मदिरादिवत् पौगलिककर्मोदये प्रबन्धेन प्रवर्त्तमानस्य ज्ञानस्य निरोधान्निश्चीयते। तथाहि-आत्मनो मिथ्याज्ञानादिः पुद्गलविशेष-. . सम्बन्धनिबन्धनः , तत्स्वरूपान्यथाभावस्वभावत्वात् , उन्मत्तकादिजनितोन्मादादिवत् / न च मिथ्याज्ञानजनितापरमिथ्याज्ञानेन अनेकान्तः; तस्यापि अपरापरपौद्गलिककर्मोदये 15 सत्येव संभवात् अपरापरोन्मत्तकादिरंससद्भावे तत्कृतोन्मादादिसन्तानवत् / एतेन 'आत्मगुणत्वात् कर्मणां न पौद्गलिकत्वम्' इत्यपि प्रत्युक्तम् ; तेषीमात्मगुणत्वे तत्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वानुपपत्तितः सदैव आत्मनो मुक्तिप्रसङ्गात् / यो यस्य गुणः स तस्य पारतन्त्र्यनिमित्तं न भवति यथा पृथिव्यादेः रूपादिः, गुणश्च धर्माधर्मसंज्ञकं * कर्म 'परैरिष्टम् इति। न चैतत् युक्तम् , आत्मनः परतन्त्रतया प्रमाणतः प्रतीतेः। तथाहि20 परतन्त्रोऽयमात्मा, हीनस्थानपरिग्रहवत्त्वात् , मद्योद्रेकपरतन्त्राऽशुचिस्थानपरिग्रहवद्वि (1) "अशेषज्ञेयज्ञानस्वभावस्यात्मनः स्वविषयेऽप्रवृत्तिः विशिष्टद्रव्यसम्बन्धनिमित्ता पीतहृत्पूरपुरुषस्वविषयज्ञानाप्रवृत्तिवत् / यच्च ज्ञानस्य स्वविषयप्रतिबन्धकं द्रव्यं तद् ज्ञानावरणादि वस्तुसत् पुद्गलरूपं कर्म ।"-सन्मति० टी० पृ० 736 / “यदप्रवृत्तिमत्स्वविषये तत्सावरणं यथा तैमिरिकस्य लोचनविज्ञानमेकचन्द्रमसि, अप्रवृत्तिमच्च स्वविषये समस्तार्थलक्षणेऽस्मदादिज्ञानमिति ।"-स्या० र० पृ० 357 / “ज्ञानं सावरणं विशदतया स्वविषयानवबोधकत्वात् ।"-प्रमेयक० पृ० 240 / (2) "तथा मिथ्यात्वपटलविलुप्तविवेकदृशां यदेतत्सर्वस्मिन्ननेकान्तात्मके वस्तुनि विपर्ययज्ञानं तत्सावरणं मिथ्याज्ञानत्वात् ।"-स्या० र० पृ 357 / प्रमेयक० पृ० 242 / (3) पृ० 809503 / (4) "सुराभिभवदर्शनात्"-राजवा० पृ०८१। प्रमेयक० पृ०२४३। प्रमेयर० पृ०५६। (5) ज्ञानस्य / (6) पौद्गलिकस्य ज्ञानावरणादिकर्मणः / (7) ज्ञानेन / (8) "आत्मनो मिथ्याज्ञानादि: ... "-प्रमेयक० पृ० 243 / (9) 10809 पं०५। (10) "तेनात्मगुणोऽदृष्टो निराकृतो भवति; तस्य संसारहेतुत्वानुपपत्तेः ।"सर्वार्थसि० 8 / 2 / “कर्मणामात्मगुणत्वे तत्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वायोगात् सर्वदाऽऽत्मनो बन्धानुपपत्तेर्मुक्तिप्रसङ्गात् ।"-आप्तप० का० 113 / प्रमेयक० पृ० 243 / स्या० 20 पृ० 1101 / (11) योगैः / 1 गजो-श्र०। 2-निकारादि-श्र० / 3 'तस्य' नास्ति आ०। 4-स्य तिरोधानान्निश्ची-श्र०, -स्य तिरोधाग्निश्ची-ब०। 5-थाभावत्वात् उ-श्र०। 6-रसद्भावे ब०। 7-तन्त्रानुचितस्था-ब०। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] आवरणस्वरूपविचारः م = शिष्टपुरुषवत् / हीनस्थानं हि शरीरम् , आत्मनो दुःखहेतुत्वात् , कारागारवत् , तत्परिग्रहवांश्च संसारी सर्वेषां सुप्रसिद्ध एव / नच देवशरीरे तदभावात् पक्षाव्याप्तिः; तस्यापि मरणे दुःखहेतुत्वप्रसिद्धेः / यत्परतन्त्रश्चासौ तच्च कर्म, इति सिद्धमस्यै अनात्मगुणत्वम् , अतः पौगलिकत्वमेवास्योपपन्नम् / प्रयोगः-पौद्गलिक कर्म, आत्मनः पारतन्त्र्यनिमित्तत्वात् , निगलादिवत् / नच क्रोधादिभिर्व्यभिचारः; तेषाम् आत्मपरिणामानां पार- 5 तन्त्र्यस्वभावत्वात् / क्रोधादिपरिणामो हि जीवस्य पारतन्त्र्यं न पुनः पारतन्त्र्यनिमित्तम् / यच्चान्यदुक्तम्-'न साकल्येन कचिन्निर्जरासंभवः' इत्यादि; तदप्यनल्पतमोविलसितम् ; कर्मणां सन्तानपरम्परयाऽनादित्वेपि क्वचिद् विपक्षपरमप्रकर्षसद्भावे साकल्येन प्रक्षयोपपत्तेः / यस्य क्वचिद् विपक्षपरमप्रकर्षसद्भावः तस्य तत्र साकल्येन प्रक्षयः यथा शीतस्पर्शस्य, सम्यग्दर्शनादिलक्षणतद्विपक्षपरमप्रकर्षसद्भावश्च कचिदात्मनि इति / 10 नचायं साध्यविकलो दृष्टान्तः; नहि अनादिसन्ततिरपि शीतस्पर्शो विपक्षभूतस्योष्णस्पशस्य प्रकर्षसद्भावे निर्मूलतलं प्रलयमुप॑व्रजन्न प्रतीतः, कार्यकारणप्रवाहेण बीजाङ्करादिसन्तानो वाऽनादिः प्रतिपक्षभूतदहननिर्दग्धबीजो निर्दग्धाङ्कुरो वा न प्रतीयते इति / प्रतिपक्षपरमप्रकर्षसद्भावश्च अनुमानतः प्रसिद्धः; तथाहि-ज्ञानोदयः क्वचित् परमप्रकर्ष प्रतिपद्यन्ते, प्रकृष्यमाणत्वात् , परिमाणवत् / इत्थं वा साकल्येन कर्मप्रक्षये प्रयोगः 15 (1) तुलना-"मिथ्याज्ञानतदुद्भूततर्षसञ्चेतनावशात्। हीनस्थानगतिर्जन्म"-प्रमाणवा० . 12263 / “हीनस्थानं शरीरमात्मनो दुःखहेतुत्वात् कस्यचित्कारागृहवत्"-आप्तप० पृ० 1 // प्रमेयक० पृ०२४३॥ स्या० र० पृ० 1101 / (2) दुःखहेतुत्वाभावात् / (3) कर्मणः / (4) "तानि च पुद्गलपरिणामात्मकानि जीवस्य पारतन्त्र्यनिमित्तत्वान्निगडादिवत् ।"-आप्तप० पु०६१ / प्रमेयक०पू०२४३। (5) 10809506 / (6) तुलना-'सर्वेषां सविपक्षत्वान्निह्रासातिशयं श्रितः / सात्मीभावात्तदभ्यासात् / हीयेरन्नास्रवाः क्वचित् ॥"-प्रमाणवा० 3 / 220 / "ये चापचयधर्माणः प्रतिपक्षस्य सन्निधौ / अत्यन्तापचयस्तेषां कलधौतमलादिवत्।"-तत्त्वसं० का० 3416 / “सात्मीभावाद्विपक्षस्य सतो दोषस्य सङक्षये। कर्माऽश्लेषः प्रवृत्तानां निवृत्ति: फलदायिनाम् ।"-न्यायवि० का० 443 / (7) "स कर्मभूभृतां भेत्ता तद्विपक्षप्रकर्षतः / यथा शीतस्य भत्तेह कश्चिदुष्णप्रकर्षतः ॥"-आप्तप० का० 110 / अष्टसह० 10 54 / “यदुत्कर्षतारतम्यात् यस्यापचयतारतम्यं तत्प्रकर्षनिष्ठागमने भवति तस्य आत्यन्तिकः क्षयः, यथा उष्णस्पर्शतारतम्यात् शीतस्पर्शस्य, भवति च ज्ञानवैराग्यादेरुत्कर्षतारतम्यात् अज्ञानरागादेरपचयतारतम्यमिति ।"-सन्मति० टी० पृ० 737 / (8) "विपक्षप्रकर्षगमनात् कर्मणां सन्तानरूपतयाऽनादित्वेऽपि प्रक्षयप्रसिद्धः / न ह्यनादिसन्ततिरपि शीतस्पर्श:"-आप्तप० का० 110 / प्रमेयक० पृ० 245 / स्या० 20 10357 (9) "प्रतिपक्षभूतदहनान्निर्दग्धबीजो."-आप्तप०५०५९ / "प्रतिपक्षभूतदहनेन निर्दग्धबीजो. -प्रमेयक० 10245 / (10) तुलना-"अस्ति काष्ठाप्रप्तिः सर्वज्ञबीजस्य सातिशयत्वात् परिमाणवत।" -योगभा०१।२५। "तत्प्रकर्षः पुनः सिद्धः परमः परमात्मनि / तारतम्यप्रकर्षस्य सिद्धरुष्णप्रकर्षवत्॥"आप्तप० का० 112 / अष्टसह पृ० 55 / प्रमेयक० पृ० 245 / स्या०र० पृ० 358 / 'शुद्धिः प्रकर्षमायाति परमं क्वचिदात्मनि / प्रकृष्यमाणवृद्धित्वात् कनकादिविशुद्धिवत् ।।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ०३१५ / 1-वस्तत्र तस्य श्र० 12-मुपावज-श्र० / Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 812 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे: [7. निक्षेपपरि० कर्तव्यः-ज्ञानावरणादिहानिः कचित्पुरुषविशेषे परमप्रकर्षमायाति, प्रकृष्यमाणत्वात् , नभसि परिमाणवत् / न चात्राऽसिद्धं साधनम् ; तथाहि-प्रकृष्यमाणा आवरणहानिः, आवरणहानित्वात् , माणिक्याद्यावरणहानिवत् / यद्वा, ज्ञानावरणादिकर्म कचिदामूलं प्रक्षीयते, समग्रक्षयहेतूपेतत्वात्, लोचने तिमिरादिवत् / तत्कर्मप्रक्षयस्य हि हेतू संवरनिर्जरे, तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात्, यो यस्यान्वयव्यतिरेकानुविधायी स तद्धेतुः यथा धूमोऽग्नेः, अन्वयव्यतिरेकावनुविधत्ते च तत्प्रक्षयः संवरनिर्जरयोरिति / सति संवरे भाविकर्म नोत्पद्यते "अपूर्वकर्मणामास्रवनिरोधः संवरः” [तत्त्वार्थसू० 9 / 1] इत्यभिधानात् / सश्चितं पुनः तन्निर्जरातः प्रलीयते-"उपात्तकर्मणां निर्हरणं निर्जरी' [ ] इति वचनात् / सा च निर्जरा द्विविधा-औपक्रमिक-इतरभेदात् / तत्र औपक्रमिकी 10 तपसा द्वादशविधेनं साध्या, अनौपक्रमिकी तु यथाकालं संसारिणः स्यादिति / ... अत्र सांख्या ब्रुवते-सत्यम् ; अनात्मगुणोऽदृष्टं प्रकृतिपरिणामत्वात्तस्य “प्रकृतिअदृष्ट-कर्मबन्धादि- परिणामः शुक्लंकृष्णश्च कर्म" [ ] इत्यभिधानात् / प्रकृत्या विषये सांख्यानां पूर्वपक्षः- हि कर्म क्रियते अतस्तत् तत्परिणामो नात्मनः तस्याऽकर्तृत्वात् / (1) "दोषावरणयोनिः निःशेषास्त्यतिशायनात् / क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः // " आप्तमी० का०४ / प्रमेयक० पृ०२४५ / (2) "प्रकृष्यमाणा आवरणहानि: आवरणहानित्वात् माणिक्याद्यावरणहानिवत्।"-प्रमेयक०पू०२४६ / स्या०र०पृ० 359 / (3) "क्षीयते क्वचिदामूलं ज्ञानस्य प्रतिबन्धकम्। समग्रक्षयहेतुत्वाल्लोचने तिमिरादिवत् ॥"-तत्वार्थश्लो०५०१५। (4) "तेषामागमिनां / तावद्विपक्षः संवरो भतः। तपसा सञ्चितानां तु निर्जरा कर्मभूभृताम् ।।"-आप्तप० का० 111 / तत्त्वार्थश्लो० पृ०१६। (5) "आस्रवनिरोधः संवरः"-तत्त्वार्थसू०९।१। उद्धृतमिदम्-प्रमेयक प०२४५। (6) "एकदेशकर्मसंक्षयलणा निर्जरा।"-सर्वार्थसि०१४। "उपात्तस्य कर्मणस्तपोविशेषसन्निधाने सत्येकदेशसंक्षयलक्षणा निर्जरा।"-राजवा०२४। "कर्मणां तु विपाकात्तपसा वा यः शाटः सा निर्जरा"-तत्त्वार्थभा० व्या०. तत्त्वार्थहरि०२४। "पोपार्जितकर्मपरित्यागो निर्जरा"तत्त्वार्थश्लो० पृ० 483 / (7) “सा द्विप्रकारा-विपाकजेतरा च / तत्र चतूर्गतावनेकजातिविशेषावर्णिते संसारमहार्णवे चिरं परिभ्रमतः शुभाशुभस्य कर्मणः क्रमेण परिपाककालप्राप्तस्य अनुभवोदयावलिस्रोतोऽनुप्रविष्टस्य आरब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा। यत्कर्म अप्राप्तविपाककालम् औपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यादनुदीणं बलादीर्ण बलादीर्योदयावलि प्रवेश्य वेद्यते आमपनसादिपाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा।"-सर्वार्थसि०, राजवा०, तत्त्वार्थभा० व्या० 8 / 23 / "सा द्विविधा-अनुपक्रमोपक्रमिकी च / तत्र पूर्वा यथाकालं संसारिणः स्यात्, उपक्रमिकी तु तपसा द्वादशविधेन साध्यते ।"-आप्तप० का० 111 / प्रमेयक० पु० 244 / स्या० र० पृ० 357 / “सोपक्रम निरुपक्रम च कर्म-आयुर्विपाकं कर्म द्विविधम्-सोपक्रम निरुपक्रमञ्च। तत्र यथावस्त्रं वितानितं लघीयसा कालेन शुष्येत् तथा सोपक्रमम्, यथा च तदेव सपिण्डितं चिरेण शुष्यदेवं निरुपक्रमम् / यथा यथा चाग्नि: शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेत्तथा सोपक्रमम्, यथा वा स एवाग्निः तृणराशौ क्रमतोऽवयवेषु न्यस्तश्चिरेण दहेत्तथा निरुपक्रमम् ।"-योगसू० व्यासभा०३।२२। (8) द्रष्टव्यम्-पृ० ३टि०७। “तत्कार्य धर्मादिः"-सांख्यसू० 2 / 14 / (9) तुलना-"नतुष्पात् खल्वियं कर्मजातिः-कृष्णा, शुक्लकृष्णा, शुक्ला, अशुक्लाकृष्णा चेति ।"-योगभा० 47 / “अशुक्लाकृष्णकर्म 1-दि क्वचि-श्र०। 2-अयंहेतू-ब०,-क्षयेहेतू-आ० / Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 76 ] अदृष्टस्य प्रकृतिविवर्तत्वनिरासः 813 साक्षित्वादिकमेव हि स्वरूपमात्मनो न कर्तृत्वादि / तदुक्तम् "तेस्माच्च विपर्यासात् सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य / कैवल्यं माध्यस्थ्यं द्रष्टुत्वमकैर्तृभावश्च // " [सांख्यका० 19 ] तस्माच्च तस्मादेव त्रिगुणविपर्यासात् सिद्धमात्मनः साक्षित्वादिस्वरूपम्; तथाहिसाक्षित्वं तावदात्मनः गुणप्रवृत्तेरधिष्ठातृत्वम् स्वयमस्यं नैर्गुण्यात्, सुखादिभ्यो हि / यतोऽयमर्थान्तरभूतः तस्मात् तत्प्रवृत्तौ साक्षी। तथा कैवल्यमप्यस्य सिद्धम् ततो विविक्तत्वात् / यतः खल्वयं गुणेभ्यः पृथग्भूतः तस्मादेव केवलः, न तैः सह संसर्गेण वर्त्तते / तथा माध्यस्थ्यमप्यस्य विषयित्वात् सिद्धम् / विषयाणां हि तुल्यबलत्वात न्यूनाधिकतोपपत्तेश्च अन्योन्यं बाधानुग्रही उपपन्नौ, विषयी चायम्, तस्मान्नास्य न्यूनतादि, अत एव ईतरयोरनुपपत्तिः / तथा द्रष्टत्वमप्यस्य चैतन्यस्वरूपत्वात्सिद्धम् / 10 स्यान्मुमुक्षोर्योगिनो यतेः / कृष्णं शुक्लं तथा मिश्रं कर्मान्येषां त्रिधा भवेत् ॥"-योगका० 4 / 12 / उद्धृतमिदम्-"प्रधानविवर्तः शुक्लं कृष्णञ्च कर्म ।"-आप्तप० पृ०६१। "प्रधानपरिणामः शुक्लं कृष्णञ्च कर्म ।"-प्रमेयक० पृ० 244, 285 / (10) "प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणः कर्माणि सर्वशः / अहङ्कारविमुढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥"-भगवद्गी० 3 / 27 / (1) “साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च"-श्वेताश्व० 6 / 11 / "पुरि शयनात् प्रमाणात् पूरणात् पुरुवृत्तिता। स चानादिः सर्वगतश्चेतनो निर्गुणोऽपरः / / द्रष्टा भोक्ता क्षेत्रविदमलोऽप्रसवधर्मकः / सूक्ष्मो नित्यो ह्यनादिस्त्वमध्यनिधनोऽपि सः ॥"-सांख्यतत्त्ववि० पृ०१०। (2) "तस्माच्च यथोक्तत्रगुण्यविपर्यासाद् विपर्ययात् / निर्गुणः पुरुषो विवेकी भोक्तेत्यादिगुणानां पुरुषस्य यो विपर्यास उक्तः तस्मात् सत्त्वरजस्तमःसु कर्तभूतेषु साक्षित्वं सिद्धं पुरुषस्येति / योऽयमधिकृतो बहुत्वं प्रति, गुणा एव कर्तारः प्रवर्तन्ते साक्षी न प्रवर्तते नापि निवर्तत एव / किञ्चान्यत्, कैवल्यम्-केवलभावः कैवल्यमन्यत्वमित्यर्थः त्रिगुणेभ्यः केवलोऽन्यः / माध्यस्थ्यभावः, परिव्राजकवन्मध्यस्थः पुरुषः / यथा कश्चित् परिव्राजको ग्रामीणेषु कर्षणार्थेषु प्रवृत्तेषु केवलो मध्यस्थः, पुरुषोऽप्येवं गुणेषु प्रवर्तमानेषु न प्रवर्तते तस्मात् द्रष्टुत्वमकतभावश्च / यस्मान्मध्यस्थः तस्माद् द्रष्टा तस्मादकर्ता पुरुषः तेषां कर्मणामिति / सत्त्वरजस्तमांसि त्रयो गुणाः कर्मकर्तृभावेन प्रवर्तन्ते न पुरुषः। एवं पुरुषस्यास्तित्वञ्च सिद्धम् ।"-गौडपा० भा०, माठरवृ०, साख्यतत्त्वको०, जयमंग, का० 19 / उद्धृतोऽयम्-न्यायवि० वि० पृ० 546 A. / विश्वतत्त्वप्र० पृ० 140 A. / (3) “अकर्तृभावश्चेत्यनेन सप्तविधमकर्तृभावमाश्रयति-न ह्ययं विषयेषु स्वस्यान्तःकरणसान्निध्येऽध्यवसायं कुरुते। न च सत्त्वादीनां प्रकाशप्रवृत्तिनियमलक्षणैर्धमः इतरेतरोपकारेणाप्रवर्तमानानां स्वेन चैतन्यलक्षणेन धर्मण अङ्गभावं प्रतिपद्यते नाङ्गिभावम् / एवं सह गुणः कार्य न कुरुते स्त्रीकुमारवत् / स्थितप्रयोगं न कुरुते रथशकटयन्त्रप्रेरकवत्, न स्वात्मनो मृत्पिण्डवत्, न परतः कुम्भकारवत्, नाप्यादेशात् मायाकारवत्, नोभयतो मातृपितृवत् ।"-युक्तिदी० 10 100 / (4) "तत्र साक्षित्वमित्यनेन गुणानां प्रवृत्तौ अस्वातन्त्र्यं ख्यापयति प्रधानस्य तदर्थनिबन्धनत्वात् प्रवृत्तेः।"-युक्तिवी० पृ० 100 / (५)गुणानां सत्त्वरजस्तमसां प्रवृत्तेः, गुणस्य वा प्रधानस्य प्रवृत्तेः / (६)पुरुषस्य / (7) गणात / "कैवल्यमित्यनेन संसारिधर्मत्वमात्मनो निवर्तयति / न यथा सत्त्वादीनां परस्परेण प्रकाशादिधमर्मापेक्षाणां संसर्गः एवं पुरुषस्य तैर्भवति ।"-युक्तिदी० पृ० 100 / (8) “माध्यस्थ्यमित्यनेन अतिशयनिह्रासानुपपत्तेः, पुरुषस्य गुणैः सह बाधानग्रहानुपपत्तिः स्वकार्यप्रवृत्तौ चापक्षपातं दर्शयति ।"-युक्तिदी। (9) बाधानुग्रहयोः। 1-विरूपं श्र०। 2 पृथग्गतः ब०। उपपत्तौ ब०। 4-न्यरूप-श्र०, ब० / Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 814 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे . [7. निक्षेपपरि० 5 प्रकृतिविकारभूता हि सत्त्वादयः, अतस्तेभ्यश्चैतन्यमपोद्धृत्य पुरुष एव स्थाप्यते, तस्मात् पुरुष एव चैतन्यस्वरूपत्वात् द्रष्टा / उक्तञ्च-"चैतन्यं स्वरूपं पुरुषस्य" [योगभा० 119] इति। अत्राऽभेदे षष्ठी। चितिरेव हि पुरुषः, रूपशब्दः स्वभाववचनः / एतदेव हि आत्मनः स्वम् आत्मीयं रूपं स्वभावः यत् चैतन्यं नाम, तस्य व्यक्ताव्यक्तयोरसभंवात् / तथाऽकर्तृभावोऽपि अप्रसवधर्मित्वादस्य सिद्धः, यस्मात् प्रस्पन्दनपरिणामौ प्रसवार्थों नात्मनि विद्येते तस्मादक" इति / ननु सत्त्वादीनां कर्तृत्वे 'पुरुषः पुण्यं करोति' इत्यात्मनि कर्त्तत्वप्रतीतिः कथमुपपन्नेति चेत् ? उपचारात्, यथैव हि स्वयमचेननापि बुद्धिः चेतनासंसर्गात् चेतना उपचर्यते, तथा कर्तृप्रधानसंसर्गात् स्वयमकर्त्ताप्यात्मा कर्त्तव उपचर्यते / तदुक्तम् "तस्मात्तत्संसर्गादचेतनं चेतनावदिह (व) लिङ्गम् / गुणकतत्वेऽपि तथा कर्तव भवत्युदासीनः // " [सांख्यका० 20 ] इति / ततः चिच्छक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसंक्रमा दर्शितविषया शुद्धा चानन्ता चाऽभ्युप (1) "चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमिति / यदा चितिरेव पुरुषस्तदा किमत्र केन व्यपदिश्यते ? भवति च व्यपदेशे वृत्तिर्यथा चैत्रस्य गौरिति।"-योगभा० 109 / उद्धतमिदम्-सर्वार्थसि० पृ०१। न्यायवि० वि० पृ० 547 A. I (2) "तावेतौ भोगापवौ बुद्धिकृतौ बुद्धावेव वर्तमानौ / कथं पुरुषे व्यपदिश्यते इति ? यथा विजयः पराजयो वा योद्धषु वर्तमानः स्वामिनि व्यपदिश्यते, स हि तस्य फलस्य भोक्तेति, एवं बन्धमोक्षौ बुद्धावेव वर्तमानौ पुरुषे व्यपदिश्यते / स हि तत्फलस्य भोक्तेति / बुद्धेरेव पुरुषार्थापरिसमाप्तिर्बन्धः तदर्थावसायो मोक्ष इति / एतेन ग्रहणधारणोहापोहतत्त्वज्ञानाभिनिवेशा: बुद्धौ वर्तमानाः पुरुषेऽध्यारोपितसद्भावाः, स हि तत्फलस्य भोक्तेति ।"-योगभा० 2 / 18 / (3) "तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम्" यस्माच्चेतनस्वभावः पुरुषः तस्मात् तत्संयोगादचेतनं महदादिलिङ्गम् अध्यवसायाभिमानसङ्कल्पालोचनादिषु वृत्तिषु चेतनावत् प्रवर्तते / को दृष्टान्तः ? तद्यथा अनुष्णाशीतो घटः शीताभिरद्भिः संस्पृष्ट: शीतो भवति अग्निना संयुक्त उष्णो भवति, एवं महदादि लिङ्गमचेतनमपि भूत्वा चेतनावद् भवति / तस्मात् अध्यवसायं कुर्वन्ति गुणाः कार्यादिषु / ... तद्यथाऽसौ अचौरः तत्संसर्गदोषेण चौरतया प्रतीतस्तैः तथा सत्त्वादयो गुणा: कर्तारः तैः संयुक्तः पुरुषोऽपि अकर्ताऽपि कर्ता भवति, कर्तसंसर्गात कर्तेव, परं परमार्थतया अकर्ता पुरुषः / " -माठरवृ०, गौडपा०, सांख्यतत्त्वको०, जयमङ्ग० का० 20 / "तस्मात् कारणस्य ग्रहणरूपता पुरुषस्य च कर्तृरूपता सम्बन्ध्यन्तरसम्पर्कात् अन्यगताऽन्यत्रोपलभ्यमाना भक्त्याऽध्यवसातव्या न परमार्थतः / उक्तञ्च-चेतनाधिष्ठिता बुद्धिश्चेतनव विभाव्यते / कर्तृष्ववस्थितश्चात्मा भोक्ता कर्तव लक्ष्यते ॥"-युक्तिदी० पृ० 104 / उद्धृतोऽयम्-न्यायमं० पृ०४८९ / 'चेतनावदिह'-अष्टसह० पृ० 67 / न्यायवि०वि०प०५९ A. / स्या० 2050234 / (4) "चितिशक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसङक्रमा दर्शितविषया शुद्धा चानन्ता च, सुखदुःखमोहात्मकत्वमशुद्धिः सुखमोहावपि विवेकिनं दुःखाकुरुतोऽतो दुःखवद् हेयौ। तथा चातिसुन्दरमपि अन्तवद् दुनोति तेन तदपि हेयमेव विवेकिनः / सेयमशुद्धिरन्तश्च चितिशक्तौ पुरुषे न स्तः इत्यत उक्तं शुद्धा चानन्ता चेति / ननु सुखदुःखमोहात्मकशब्दादीनियं चेतयमाना तदाकारापन्ना कथं विशुद्धा ? तदाकारपरिग्रह-परिवर्जने च कुर्वती कथमनन्तेत्यत उक्तम्-दर्शितविषया इति / दर्शितो विषयः शब्दादिर्यस्य सा तथोक्ता। भेवदेतदेवं यदि 1-ज्यरूप-श्र०, ब०। 2-न्य रूपं श्र० / तथात्र प्रधा-श्र०। 4-चेतना चेतना-आ० / Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 7 ] अदृष्टस्य प्रकृतिविवर्तत्वनिरासः 815 गन्तव्या / न च प्रधानस्य कर्तृत्वादिधर्मसद्भावाभ्युपगमे पुरुषकल्पनानर्थक्यमित्यभिधातव्यम् ; द्रष्टुत्वात्तस्य / न च द्रष्टारमन्तरेण दृश्यमुपपद्यते पंग्वन्धयोरिवानयो: अन्योन्यापेक्षत्वात् / यथैव हि अन्धो दर्शनशक्तिविकलः तच्छक्तियुक्तपङ्गपदेशमन्तरेण नेष्टप्रदेशमुपसर्पति, पङ्गुरपि क्रियाशक्तिशून्यः तच्छक्तियुक्ताऽन्धसंसर्गाद्विना इति, तथा प्रधानं नान्तरेण पुरुषं कृतमपि कार्य द्रष्टुं क्षमम्, पुरुषोऽपि सत्यपि चैतन्ये प्रधानं / विनो दृश्याभावान्न द्रष्टा स्यात् / / ननु चिद्रूपत्वात् पुरुषः कथं संसारप्रबन्धप्रवृत्तिहेतौ प्रधाने स्थितं फलमुपभुङ्क्ते ? इत्यप्यचोद्यम्; चिद्रूप॑स्याप्यस्य अज्ञानतमश्छन्नतया प्रकृतिस्थमपि सुखादिफलम् आत्मस्थं मन्यमानस्य तदुपभोक्तृत्वोपपत्तेः, यदा तु ज्ञानमस्य आविर्भवति 'दुःखहेतु बुद्धिवच्चितिशक्तिर्विषयाकारतामापद्येत, किन्तु बुद्धिरेव विषयाकारेण परिणता सती, अतदाकारायै चितिशक्त्यै विषयमादर्शयति, ततः पुरुषश्चेतयत इत्युच्यते / ननु विषयाकारां बुद्धिमनारूढायाश्चितिशक्तेः कथं विषयवेदनम् ? विषयारोहे वा कथन्न तदाकारापत्तिरित्यत उक्तम्-अप्रतिसङक्रमेति / प्रतिसङक्रमः सञ्चारः, स विते स्ति इत्यर्थः। स एव कुतोऽस्या नास्तीत्यत उक्तम्-अपरिणामिनी इति / न चितेस्त्रिविधोऽपि धर्मलक्षणावस्थालक्षणः परिणामोऽस्ति येन क्रियारूपेण परिणता सती बुद्धिसंयोगेन परिणमेत चितिशक्तिः ।"-योगभा०, तत्व, भास्व०१२। “यतोऽपरिणामिनी अत एव चितिशक्तिरप्रतिसङक्रमा असञ्चारा / यथा बुद्धिविषयं गच्छति तद्ग्रहणार्थं नैवं चितिरक्रियत्वात् / अथवा नास्ति प्रतिसङ क्रमः सङ्गो विषयेषु यस्याः इत्यप्रतिसङक्रमा निर्लेपेति यावत् / ननु अपरिणामित्वे चात्मनो विषयाकारत्वाभावात् कथं विषयस्फुरणम्? तत्राह-दर्शितविषया, दर्शितो बुद्धया निवेदितो विषयो यस्याः इति विग्रहः, विषयः सह बुद्धिवृत्तिश्चितौ प्रतिबिम्बिता सती भासत इति भाव."यतोऽ परिणामिनी अत एव शुद्धा अनन्ता च।"-योगवा०, पातञ्जलरह० 112 / तुलना-"तथा चोक्तं (पञ्चशिखेन-तत्त्ववै०) अपरिणामिनी हि भोक्तशक्तिरप्रतिसङक्रमा च परिणामिन्यर्थे प्रतिसङ कान्तेव तवृत्तिमनुपतति"-"-योगभा० 220 / ___ (1) "द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ।"-योगसू० 2 / 20 / (2) "पुरुषस्य दर्शनार्थ कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य / पङ ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः। तद्वत् पङ ग्वन्धवत् प्रधानपुरुषौ द्रष्टव्यौ / पङ गुवत् पुरुषो द्रष्टव्यः अन्धवत् प्रधानम् / पुरुषस्य दृक्शक्तिः, प्रधानस्य क्रियासामर्थ्यम् ।"-सांख्यका० माठर० 21 / “पङ् ग्वन्धदृष्टान्तस्तु नान्तरीयकप्रदर्शनार्थम् / यथा पङ गुर्नान्तरेणान्धं दृकशक्त्या विशिष्टेनार्थेन अर्थवान् भवति, अन्धश्च नान्तरेण पङ गुं विशिष्टेनार्थेन / एवं प्रधानं नान्तरेण पुरुषं कृतमपि कार्य द्रष्टुं शक्तमनवधिकञ्च प्रवर्तमानं विशेषाभावान्नैव निवर्तते / तथा पुरुषः सत्यपि चेतनत्वे नान्तरेण प्रधानम् उपलभ्याभावाद् उपलब्धा भवेदिति प्रधानमपेक्षते।"-युक्तिवी० पृ० 107 / (3) द्रष्टदृश्यभूतयोः पुरुषप्रधानयोः। (4) "पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान् गणान / कारणं गणसङ्गोऽस्य तदसद्योनिजन्मसु ॥"-भगवद्गी० 13 / 21 / “यस्तु प्रत्यकचेतनस्य स्वबुद्धिसंयोगः, तस्य हेतुरविद्या"-योगद० 2 / 24 / "तथा चैतदत्रोक्तम् (पञ्चशिखेन) व्यक्तमव्यक्तं वा सत्त्वमात्मत्वेनाभिप्रतीत्य तस्य सम्पदमनुनन्दति आत्मसम्पदं मन्वानः तस्य व्यापदमनुशोचत्यात्मव्यापदं मन्यमानः स सर्वोऽप्रतिबुद्धः ।"-योगभा० 2 / 5 / . | 1-ना कृत्याभा-श्र०।2-भोक्तृतोप-श्र०। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० रियम् न मम अनया सह संसर्गो युक्तः' इति, तदा विवेकख्यातेर्न तत्सम्पादितं कर्मफलमुपभुङ्क्ते, सौपि च 'विज्ञातविरूपाऽहं न मदीयं कर्मफलमनेन भोक्तव्यम्' इति मत्त्वा न तत्सम्पादनाय तं प्रति प्रवर्तते कुष्टिनीस्त्रीवद् दूरादपसर्पति / अतो गुण पुरुषान्तरदर्शनाद् अपवर्गप्राप्तिः / अन्ये गुणाः सत्त्वादयोऽचेतनाः परार्थाः प्रकृति। विकारभूताः, अन्योऽहम् “ने प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः" [सांख्यका० 3] इति भेदप्रत्ययः गुणपुरुषान्तरदर्शनम् , तस्मात् तत्प्राप्तिरिति / अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'प्रकृतिपरिणाम' इत्यादि; तदसमीक्षितातत्प्रतिविधानपरस्सरं भिधानम् ; यतः सिद्धे धर्मिणि धर्मचिन्ता उपपद्यते / नच प्रकृतिः कर्मणः पौगलिकत्व- धर्मिणी कुतश्चित्प्रमाणात् सिद्धा, तत्प्रसाधकप्रमाणानां प्रकृतिपरीक्षा10 प्रसाधनम्- प्रघट्टके प्रपञ्चतः प्रतिक्षिप्तत्वात् / अतः कथं तत्परिणामतया कर्मणां व्यावर्णनमुपपन्नम् ? अस्तु वाऽसौं; तथापि-पुरुषस्थं निमित्तमपेक्ष्य तथा परिणमेत्, अनपेक्ष्य वा ? न तावदनपेक्ष्य; मुक्तात्मन्यपि शरीरादिसम्पादनाय तस्याः तथा . (1) प्रकृतिः। (2) "विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः विवेकख्यातिः ।"-योगद०, व्यासभा० 2 / 26 / “एवं तत्त्वाभ्यासानास्मिन् मे नाहमित्यपरिशेषम् // अभ्यासेनैव तत्त्वदर्शनं तस्मादभ्यासात् पुरुषस्य बुद्धिरुत्पद्यते-नास्मि तत्त्वानि, न मे तत्त्वानि, नाहं तत्त्वानाम् किन्तु प्रधानकान्येतानि / तस्माज्ज्ञानमत्पद्यते एवमादि / अपरिशेषं निरवशेषमित्यर्थः। किं ज्ञानम् ? गुणपूरुषान्तरोपलब्धिरूपमित्यर्थः / अत्राह तेन ज्ञानेन पुरुषः किं करोति ? अत्रोच्यते-तेन निवृत्तप्रसवामर्थवशात् सप्तरूपविनिवृत्ताम् / प्रकृति पश्यति पुरुषः प्रेक्षकवदवस्थितः स्वस्थ: ॥"-सांख्यका० माठर० 63-64 / (3) प्रकृतिरपि / “प्रकृते: सुकुमारतरं न किञ्चिदस्तीति मे मतिर्भवति। या दृष्टास्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य // यथा काचित् कुलस्त्री साध्वी स्वगृहद्वारि स्थिता पुरुषेण सहसैवागतेन दृष्टा सहसैवं ब्रीडमाना त्वरितं गृहं प्रविष्टा। सा एवं मत्वा ‘दृष्टाऽहमनेन' इति न पुनदर्शनमुपैति पुरुषस्य / तस्याञ्च विनिवृत्तायां पुरुषो मोक्षं गच्छति ।"-सांख्यका० माठर० 61 / तत्त्वमी० पृ० 194 / सांस्यतत्त्वप्र० पृ० 177 / सांख्यप्र० 3 / 69,70 / “दृष्टा मयेत्युपेक्षक एको दृष्टाहमित्युपरताऽन्या। सति संयोगेऽपि तयोः प्रयोजनं नास्ति सर्गस्य // यथेमा रङ्गगतां नर्तकी सर्वास्ववस्थासु वर्तमानां दृष्ट्वा विग्मति रङ्गात प्रेक्षकः दृष्टा मयेत्युपेक्षक एकः केवल: शुद्धः पुरुषः तथा प्रकृतिरपि अनेन अहं दृष्टेति निवृत्ता / एका त्रैलोक्यस्यापि प्रधानकारणभूता न द्वितीया प्रकृतिरस्ति। नर्तक्यपि अहमनेन दृष्टेत्युपरमते नृत्यात् एवं पुरुषोऽपि दृष्टा मयेयं ज्ञानचक्षुषा प्रकृतिः इति प्रेक्षकवदपरमते मोक्षं गच्छतीत्यर्थः ।"-सांख्यका० माठर०६६। तदुक्तं नारदीये-सविकारापि मौढयेन चिरं भक्ता गुणात्मना। प्रकृतितिदोषेयं लज्जयव निवर्तते।"-सांत्यप्र.श.१० 111 / (4) भोगसम्पादनाय / (5) "पुरुषस्तु पुनर्न प्रकृतिरनुत्पादकत्वात् न च विकृतिरनुत्पन्नत्वात् / नवासी कारणं न च कार्यमित्यर्थः ।"-माठर०७०। (6) पृ० 812 पं० 11 / (7) प० 354 / (8) प्रकृतिः / (9) कर्मरूपतया / (10) तुलना-"यदि प्रधानं पुरुषम्थं निमित्तमनपेक्ष्य प्रवर्तते, मक्तात्मन्यपि शरीरादिसम्पादनाय प्रवर्तेत अविशेषात् ।"-प्रश० व्यो० पू० 20 घ० / प्रमेयक० पृ० 316 / प्रमेयर० 4 / 1 / (11) प्रकृतेः / / 1 विज्ञानवि-ब० / कुष्टिनी-आ०, ब०। 8-स्मात्प्राप्ति-आ०। 4-णामेत् अं० / Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76 ] अदृष्टस्य प्रकृतिविवर्तत्वनिरास: परिणमनप्रसङ्गात् / अथ अपेक्ष्य; किं तदपेक्ष्यम्-विवेकानुपलम्भः, अदृष्टं वा ? ने तावद् विवेकानुपलम्भः; तस्य विवेकोपलम्भाभावरूपतया मुक्तात्मन्यपि संभवात् / नच तदनुत्पत्ति-प्रध्वंसयोः कश्चिद्विशेषः संभवति; अभावस्वभावत्वाविशेषात् / अदृष्टापेक्षायास्तु तस्याः तथापरिणामे अन्योन्याश्रयः-सिद्धे हि अदृष्टे तदपेक्षायाः प्रकृतेः शुक्लकृष्णकर्मपरिणामसिद्धिः, तत्सिद्धौ च अदृष्टसिद्धिरिति / अनादित्वात् तत्प्रवाहस्य / अयमदोषः-पूर्व हि अदृष्टमपेक्ष्य अपर: तस्यास्तत्परिणामो भवति ततश्च अपर: इति; तदप्यनुपपन्नम् ; मुक्तात्मन्यपि एवमस्याः शरीरादिसम्पादनाय तथा परिणामप्रसक्तेः / तत्रास्याः निवृत्ताधिकारत्वान्न तत्प्रसक्तिः; इत्यापि वार्तम् ; अमुक्तात्मन्यपि अस्याः तत्सम्पादनाय तथापरिणामाऽभावानुषङ्गात् / तत्र प्रवृत्ताधिकारत्वान्न दोषोऽयम् ; इत्यपि श्रद्धामात्रम् ; सर्वथैकस्याऽनंशस्य प्रधानस्य प्रवृत्त-निवृत्ताधिकारत्वधर्मयोर्युगपद्वि- 10 रोधात्, तदविरोधे वा सर्वथास्य एकत्वाऽनंशस्यानुपपत्तिः / - किञ्चदेम् अमुक्तात्मन्यस्य प्रवृत्ताधिकारत्वन्नाम-तत्र सम्बद्धत्वम् , शरीरसुखादिसम्पादकत्वं वा ? न तावत् सम्बद्धत्वम् ; मुक्तात्मन्यस्य गतत्वात्, प्रधानात्मनोः नित्यसर्वगतत्वेन सर्वत्र सर्वदा संभवात् / अथ शरीरसुखादिसम्पादकत्वम् ; तर्हि इतरेतराश्रयः-सिद्धे ह्यमुक्तात्मानं प्रति प्रवृत्ताधिकारत्वे तं प्रत्येव तत्सम्पादकत्वसिद्धिः, // तत्सिद्धौ च तं प्रति प्रवृत्ताधिकारत्वसिद्धिरिति / . किञ्च, शरीरादिना तत्सम्पादितन अस्य कश्चिदुपकारः क्रियते, न वा ? यदि (1) तुलना--"अथादर्शनापेक्षमिति चेत्, यस्य हि गुणपुरुषान्तरविवेकदर्शनानुपपत्तिः तं प्रति प्रधानं प्रवर्त्तते, न चासौ मुक्तात्मनीति; तन्न; मुक्तात्मन्यपि विवेकदर्शनस्य विनाशेन प्रवृत्तिप्रङ्गात / न चानुत्पत्तिविनाशयोः अदर्शनत्वेन विशेषं पश्यामः।"-प्रश० व्यो० 10 2050 / प्रमेयक० पृ० 316 / (२)संसारावस्थायां विवेकस्यानुत्पत्तिः मुक्तदशायां च समुत्पन्नस्यापि विवेकस्य विनाश इति न अभावत्वेन कश्चिद् भेदः / (3) प्रकृतेः / (4) कर्मरूपतया परिणतौ। (5) प्रकृतेः शुक्लकृष्णादिकर्मपरिणामः / (6) तुलना-'अथादृष्टापेक्षं प्रवर्तत इति चेत् तदसत्; तस्यापि प्रधाने शक्तिरूपतया व्यवस्थितस्य उभयत्राविशेषात् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 20 घ०। प्रमेयक० पृ० 316 / (7) शक्लकृष्णादिकर्मरूपेण / (8) "कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् ।-कृतार्थमेकं पूरुषं प्रति दृश्यं नष्टमपि नाशं प्राप्तमपि अनष्टं तदन्यपुरुषसाधारणत्वात् / कुशलं पुरुषं प्रति नाशं प्राप्तमपि अकुशलान् पुरुषान् प्रति अकृतार्थमिति तेषां दृशेः कर्मविषयतामापन्नं लभत एव पररूपेण आत्मरूपमिति ।"-योगसू०भा० 2 / 22 / (9) शरीरादिसम्पादनाय कर्मरूपपरिणामप्रसङ्गः। (10) संसार्यात्मनि। (11) तुलना-"न ह्येकमेव निवृत्ताधिकारत्व-प्रवृत्ताधिकारत्वयोर्युगपदधिकरणं युक्तं नष्टत्वानष्टत्वयोरिव विरोधात् ।"-आप्तप० पृ०८३। (12) प्रधानस्य / (13) अमुक्तात्मानं प्रत्येव / (14) प्रधानसम्पादितेन। तुलना- "सहि प्रधानस्य विकारो महदादिः पुरुषार्थो भवतु (वन) पुरुषस्य कञ्चिदुपकारं करोति न वा ? यदि करोति, पुरुषादर्थान्तरमनन्तरं वा ?"-युक्तचनु० टी० पृ० 29 / (15) संसार्यात्मनः / 1 अदृष्टापेक्षयास्तु आ०। 2 तस्य तत्परि-ब०। 3 प्रवृद्धविनिवृत्ता-श्र० 14 सम्बन्धत्वं ब०, श्र० / / नित्यं सर्व-ब०। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 818 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० न क्रियते; कथं तत् 'तस्य' इति व्यपदिश्येत ? मुक्तात्मनोऽपि तद्व्यपदेशप्रसङ्गात् / अथ क्रियते; किं ततो भिन्नः, अभिन्नो वा ? यदि अभिन्नः; तदा तत्करणे पुंसोऽपि कार्यत्वानुषङ्गात् नित्यत्वक्षतिः / अथ भिन्नः; तदा पुंसो न किश्चित्कृतं स्यात् , तस्येतिव्यपदेशश्च न प्राप्नोति तेन तस्याऽसम्बन्धात्, तेनाप्युपकारान्तरकरणे अनवस्था / ततः प्रधानस्य स्वरूपेण असत्त्वात्, सतोऽपि वा कर्मपरिणामानुपपत्तेः, द्रव्यरूपस्य कर्मणः पुद्गलपरिणामत्वं भावरूपस्य तु आत्मपरिणामत्वमभ्युपगन्तव्यम् / पुद्गलात्मनोः सद्भावस्य विचित्रपरिणामाधारत्वस्य च प्राक् प्रसाधितत्वात् / न च कर्मणोऽनित्यत्वादात्मनस्तत्परिणामोपगमे अनित्यत्वापत्तिर्दोषाय; कथञ्चित्तदनित्यत्वस्येष्ठत्वात् / सकलभावानां कथञ्चिन्नित्यानित्यात्मकतया अनेकान्तसिद्धौ प्रसाधितत्वात् / प्रधान10 स्यापि च तत्परिणामोपगमे अनित्यत्वापत्तिः समाना / यदप्युक्तम्-'साक्षित्वं तावत् आत्मनो गुणप्रवृत्तेरधिष्ठातृत्वम्' इत्यादि; तदपि मनोरथमात्रम् ; सत्त्वरजस्तमोलक्षणगुणानां प्रवृत्तेः प्रकृतिपरीक्षायां प्रतिक्षिप्तत्वात् , सर्वथा नित्यव्यापित्वादिस्वभावस्य चात्मनः स्वदेहप्रमितौ प्रतिव्यूढत्वात् , अतः किं कस्य अधिष्ठातृ स्यात् ? यदपि 'अकर्तृभावोऽपि अप्रसवधर्मित्वात्' इत्याद्युक्तम् ; तदप्यविचारितरमणीयम् ; सर्वथाऽकार्यकारणभूतत्वाभ्युपगमे पुंसोऽवस्तुत्वापत्तिप्रसङ्गात् / प्रयोगः-भवत्कल्पितः पुरुषो वस्तु न भवति, सर्वथाऽकार्यकारणभूतत्वात् , गगनेन्दीवरवत् / यदपि 'यस्मात् प्रस्पन्दनपरिणामौ प्रसवार्थौ नात्मनि विद्येते तस्मादकर्ता' इत्यभिहितम् ; तदप्यपेशलम् ; स्वदेहप्रमितौ आत्मनः प्रस्पन्दनपरिणामयोः प्रसाधितत्वात् / 20 अकर्त्तत्वे च आत्मनो भोक्तृत्वविरोधः, यदयं भुजिक्रियां कुर्वन् भोक्ता इत्युच्यते यथा गमिक्रियां कुर्वन् गन्ता इति / नहि तथाऽपरिणतं तद्व्यपदेशमर्हति अतिप्रङ्गात् / तथा च कर्तरि हूँचोऽनुत्पत्तेः 'भोक्ता' इत्यात्मनो व्यपदेशो दुर्लभः / ननु भोक्तेति तृचो (1) संसारिणः / (2) शरीरादिना पुंसोऽभिन्नोपकारकरणे / (3) उपकारेण / (4) पुंसः। (5) शरीरादिकृतोपकारेणापि / (6) तत् कर्म परिणामः यस्य / (7) अनित्यकर्मपर्यायात्मकत्वस्वीकारे। (8) 10 813 पं०५ / (9) पृ० 354- / (10) पृ० 266- / (11) 10 814 पं०६। (12) पृ०८१४ पं०६। (13) तुलना-"अत: पुरुषस्य कर्तुत्वे युक्तं वास्तवं भोक्तृत्वम् / अन्यथा हि भोगक्रियामकुर्वतः कथमुदासीनस्य भोक्तृत्वं स्यात्, भोगस्य सुखदुःखवेदनारूपत्वात् , तदाधारता तु भोक्तृत्वम् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 523 / भोक्तात्मा चेत्स एवास्तु कर्ता तदविरोधतः / विरोधे तु तयोर्भोक्तुः स्याद् भुजौ कर्तृता कथम् ॥"-आप्तप० का० 81 / "कर्ता आत्मा स्वकर्मफलभोक्तृत्वात् / सांख्यकल्पितः पुरुषो वस्तु न भवति अकर्तृत्वात् खपुष्पवत् / किंच, आत्मा भोक्ता अङ्गीक्रियते, स च भुजक्रियां करोति न वा ? यदि करोति तदाऽपराभिः क्रियाभिः किमपराद्धम् ? अथ भुजिक्रियामपि न करोति; तर्हि कथं भोक्तेति नित्यम् ।"-षड्द० बृह० श्लो० 49 / (14) तृच्प्रत्ययस्य। 1 यदर्थ भुजि-आ०। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] अहष्टस्य प्रकृतिविवर्तत्वनिरासः 816 दर्शनात् न वास्तवं कर्तृत्वं सिद्धयति शब्दज्ञानानुपातिनः कर्तृत्वविकल्पस्य वस्तुशून्यत्वात् ; इत्यप्यसुन्दरम् ; भोक्तृत्वादिधर्माणामप्यात्मनोऽवास्तवत्वोपपत्तेः / तथोपगमे च चेतयते इति चेतनः पुरुषः परमार्थतो न सिद्ध्येत् चेतनशब्दज्ञानानुपातिनोऽपि विकल्पस्य वस्तुशून्यत्वाविशेषात्। अथ एतद्दोषभयाद् भुजौ कर्ता इष्यते; तर्हि अकर्तृत्वविरोधः। क्रियान्तरस्य प्रधानसाध्यस्याऽप्रसाधकत्वादकर्तृत्वे प्रधानस्याप्यकर्तृत्वानुषङ्गः पुरुषसा- 5 ध्यस्य भुजिलक्षणक्रियान्तरस्य तेनाप्यप्रसाधनात् / ततः पुंसोऽकर्तृत्वे भोक्तृत्वाभाव एंव। प्रयोगः-संसार्यात्मा सुखाद्युपभोक्ता न भवति, धर्मादीनामकर्तृत्वात्, मुक्तात्मवत् / ___अकर्तुर्भोक्तृत्वाभ्युपगमे च कृतनाशाऽकृताभ्यागमदोषप्रसङ्गः, प्रकृत्या हि कृतं कर्म न च तस्याः फलेनाभिसम्वन्ध इति कृतनाशः, पुरुषेण च तन्न कृतम् अथ च तत्फलेन तस्याभिसम्बन्ध इति अकृताभ्यागमः / अकर्तुः फलाभिसम्बन्धे च मुक्तात्म- 10 नोऽपि तत्प्रसङ्गः। चेतनत्वादात्मनः अकर्तृत्वेपि तदभिसम्बन्धः ईत्यप्यनेन प्रत्युक्तम् ; मुक्तात्मनोऽपि अत एव तदभिसम्बन्धानुषङ्गात्, संसार्यात्मनोऽपि वा तद्वदसौ न स्यादविशेषात् / प्रयोगः-संसार्यात्मा फलाभिसम्बन्धवान् न भवति, चेतनत्वात्, मुक्तात्मवत्। तथा प्रेधानं कर्मणां तत्फलस्य च कर्तृ न भवति, अभोक्तृत्वात् , मुक्तात्मवत् / ... यञ्चोक्तम्-'यथैव हि स्वयमचेतनापि बुद्धिः चेतनासंसर्गात्' इत्यादि; तदप्यु- 16 क्तिमात्रम् : बुद्धिचेतनयोर्भदाऽसंभवात् , विज्ञानस्यैव हिं 'बुद्धिः, चेतना, अध्यवसायः' इति पर्यायाः। तदसंभवश्च साख्यं प्रति स्वसंवेदनसिद्धौ प्रपञ्चितः। अतः कथं तदृष्टान्तावष्टम्भेन उपचारादात्मनः कर्तृत्वं स्यात् ? ततः पुरुषः 'पुण्यं करोति, ध्यानं करोति' इत्याद्यबाध्यमानप्रतीतिसिद्धं कर्तृत्वमस्य अनुपचरितमेवाभ्युपगन्तव्यम् / (1) "शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ।-शब्दजनितं ज्ञानं शब्दज्ञानं तदनु पतितं शीलं यस्य स शब्दज्ञानानुपाती, वस्तुनस्तथात्वमनपेक्षमाणो योऽध्यवसायः स विकल्प इत्युच्यते ।"योगसू० भोजवृ० 29 / (2) तुलना-"भोक्तृत्वादिधर्माणामपि पुरुषस्याऽवास्तवत्वापत्तेः, तथोपगमे चेतयत इति चेतनः पुरुषो न वस्तुत: सिद्धयेत् चेतनशब्दज्ञानानुपातिनो विकल्पस्य वस्तुशून्यत्वात् कर्तृत्वभोक्तृत्वादिशब्दज्ञानानुपातिविकल्पवत् ।"-आप्तप० का० 81. / (3) प्रधानेनापि। (4) तुलना-"संसार्यात्मा भोक्ता न भवति अकर्तत्वात् मुक्तात्मवत् ।"-षड्व० बृह० श्लो० 48 / (5) तुलना-"प्रधानस्य बन्धमोक्षौ पुरुषस्तत्फलमनुभवतीति कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गात् / प्रधानेन हि कृती बन्धमोक्षौ न च तस्य फलानुभवनमिति कृतनाशः, पुरुषेण तु तौ न कृतौ तत्फलानुभवनञ्च तस्येत्यकृताभ्यागमः कथं परिहर्तुं शक्यः ?"-आप्तप० का० 114 / षड्व० बृह० श्लो० 48,52 / (6) “मुक्तात्मनोऽपि प्रधानकृतकर्मफलानुभवनानुषङ्गात्।"-आप्तप०का०११४ / (7) चेतनत्वादेव। (8) मुक्तवत् कर्मफलाभिसम्बन्धः / (9) तुलना-“कर्तुं नाम विजानन्ति गृहादीन् सर्वथा गुणाः / भोक्तुं च न विजानन्ति किमयुक्तमतः परम् ॥"-चतुःश० 10 / 16 / "कर्तुं नाम प्रजांनाति प्रधान व्यञ्जनादिकम् / भोक्तुञ्च न विजानाति किमयुक्तमतः परम् ॥"-तत्त्वसं० श्लो० 300 / (10) पृ० 814 पं० 8 / (11) द्रष्टव्यम्-पृ०१९३टि० 2 / (12) पृ० 193-1 (13) बुद्धिदृष्टान्तबलेन / 1कर्तवि-आ०, श्र० / 2 'एव' नास्ति श्र। 3 अकर्तभोक्त-आ014 इत्यनेन आ० / Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 820 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० एतेन 'चिच्छक्तिरपरिणामिनी' इत्यादि प्रत्याख्यातम् ; अपरिणामिनः कस्यचिद्वस्तुत्वानुपपत्तेः खपुष्पवत् / ननु मुक्तस्यात्मनः शुद्धस्याऽपरिणामित्वेऽपि वस्तुत्वं भवद्भिरिष्टम् ; इत्यप्यनल्पतमोविलसितम् ; तस्यापि प्रतिसमयं परिणामित्वप्रतिज्ञानात् प्रतिसमयं दृश्यस्य परिणामित्वे द्रष्टुरपरिणामित्वानुपपत्तेः / न च दृश्यं वस्तु (वस्त्व) 5 परिणाम्येव इत्यभिधातव्यम् ; सांख्यैस्तस्य परिणामित्वाऽभ्युपगमात् / अथ चिच्छक्तिः अप्रतिसक्रमत्वादपरिणामिनीत्युच्यते; तन्न; अस्याः प्रतिविषयं दर्शितविषयत्वे प्रतिसङ्क्रमोपपत्तेः। बुद्धेरेव तथा प्रतिसक्रमो न चिच्छक्तेः; इत्यप्ययुक्तम् ; बुद्धेरप्येवम् अप्रतिसक्रमप्रसङ्गात्, "विषयस्यैव प्रतिसक्रमप्रसङ्गात् / बुद्ध्याध्यवसीयमानस्य विषयस्य प्रतिसक्रमसंभवे बुद्धेः कथं तदसंभव इति चेत् ? तर्हि बुद्धेः विषयप्रद10 शिकायाः प्रतिसक्रमे तद्विषयं पश्यन्त्याश्चिच्छक्तेरपि कथमप्रतिसक्रमः ? यथैव हि प्रतिनियतं विषयं चिच्छक्तये दर्शयन्ती बुद्धिः सङ्क्रामति तथा क्रमेण चिच्छक्तिरपि *तं पश्यन्ती विशेषाभावात् / कथमन्यथा क्रमेण दर्शितविषयाऽसौ स्यात् ? . ___किश्च, यदा बुद्ध्या विषयः तस्यै प्रदर्श्यते तदा प्राचीनम् अदर्शितस्वरूपमसौ त्यजति न वा ? न त्यजति चेत् ; कथं प्रागवत्तदाप्यसौ दर्शितविषया स्यात् ? अथ 15 त्यजति; कथमपरिणामिनी, अदर्शितविषयत्वत्यागेन दर्शितविषयत्वोपादानस्य परिणा मित्वाविनाभाबित्वात् ? अथ मतम्-चिच्छक्तेः एक एवाऽभिन्नः स्वभावस्तादृशो येन यो यत्र यदा यथा अर्थो बुद्ध्याऽध्यवसीयते तं तत्र तदा तथा पश्यतीत्यतो दर्शितविषयत्वेऽपि अस्याः न प्रतिविषयं स्वभावभेदः यतः परिणामित्वं स्यादिति; तदृप्यसमीचीनम् ; बुद्धेरप्येवमेकस्वभावत्वप्रसङ्गात् / शक्यं हि वक्तुम्-बुद्धेरेक एव क्रमभाव्यनेकविषया (1) पृ० 814 पं० 12 / (2) “अदशितविषयत्वत्यागेन दर्शितविषयत्वोपादानादवस्थितायाः एव तस्याः परिणामित्वसिद्धेः ।"-युक्तधनु० टी० पृ० 30 / (3) मुक्तात्मनोऽपि / “स हि सर्वज्ञः पूर्वोत्तरस्वभावत्यागोपादानाभ्यामवस्थितस्वभावः परिणाम्येव सर्वार्थान् पश्यति नान्यथा, प्रतिसमयं दृश्यस्य परिणामित्वे द्रष्टुरपरिणामानुपपत्तेः / न चायं दृश्यमर्थमपरिणामिनं वक्तुं समर्थः; स्वयं तस्य परिणामित्वोपगमात् सिद्धान्तपरित्यागानुषङ्गात् ।"-युक्तचनु० टी० पृ० 30 / (4) दृश्यस्य / (5) “प्रतिविषयं दर्शितविषयत्वे संक्रमात् / तथा बुद्धेरेव प्रतिसक्रमो न तु चिच्छक्तेरिति चेत्, न; बुद्धेरप्यप्रतिसङ्क्रमप्रसङ्गात् विषयस्यैव प्रतिसक्रमप्रसङ्गात् ।"-युक्तचनु० टी० पृ० 30 / (6) "यथैव हि विषयं प्रतिनियतं दर्शयन्ती बुद्धिश्चितिशक्तये संक्रामति तथा क्रमेण चितिशक्तिरपि पश्यन्ती विशेषाभावात् / कथमन्यथा क्रमेण दर्शितविषया स्यात् ।"-युक्तचनु० टी०पू० 31 / (7) विषयम्। (8) 'संक्रामति' इति वाक्यशेषः। (9) चिच्छक्तिः / (10) चिच्छक्तेः। (11) "तथा बुद्धेरप्यकस्वभावत्वप्रसङ्गात् / शक्यं हि वक्तुं बुद्धेरेक एव क्रमभाव्यनेकविषयव्यवसायस्वभावो येन यथाकालं यथादेशं यथाप्रकारञ्च विषयमध्यवस्यतीति न किञ्चिदनेकस्वभावं सिद्धयेत् ।"-युक्त्यनु० टी० पृ० 32 / 1 तेन श्र० / 2-मित्वंप्रति-आ० / परिणामैव श्र०। 4 इत्येतदप्ययु-ब०। 5 'विषयस्यैव प्रतिसंक्रमप्रसंगात्' इति नास्ति ब०। 6 प्रतिसंक्रमे ब-श्र०। 7 प्रतिनियमविषयं ब० / स्वस्थ ब०। 9 अवशिनस्वरू-ब० / Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] अदृष्टस्य प्रकृतिविवर्तत्वनिरासः 821 ध्यवसायस्वभावो येन यो यत्र यदा यथाऽवस्थितोऽर्थः तं तत्र तदा तथा अध्यवस्यतीति। तथा इन्द्रियमनोऽहङ्कारादीनामपि विषयाऽऽलोचनसङ्कल्पनाऽभिमननाघेकस्वभावत्वप्रसङ्गात् न कचित् स्वभावभेदः सिद्ध्येत् / __ यदपि-चिच्छक्तेरप्रतिसक्रमसिद्धौ शुद्धत्वादिति साधनमुच्यते; तदप्यसाधु; यतः शुद्धात्मनोऽशुद्धपरिणामसङ्क्रम एव विरुध्यते न पुनः शुद्धपरिणामसक्रमः / ननु / शुद्धपरिणामेनापि चिच्छक्तिरप्रतिसङ्क्रमा अनन्तत्वात; इत्यप्यचारु; प्रकृत्या अनेकान्तात्, अनन्तत्वेऽपि हि तस्याः महदादिपरिणामसङ्क्रमः सांख्यैरभ्युपगम्यते / यदप्युक्तमै-'पग्वन्धयोरिव' इत्यादि; तदतीवाऽसङ्गतम् ; दृष्टान्त-दार्टान्तिकयोवैषम्यात्, पङ्ग्वन्धयोर्हि चेतनत्वात् ईदमित्थमेव अस्मदिष्टं कार्य सेत्स्यतीति सम्प्रधार्य अन्योन्यापेक्षयोः प्रवृत्तियुक्ता, नतु प्रकृतिपुरुषयोः विपर्ययात् / 10 यत्पुनरुक्तम्-चिद्रूपस्यापि अस्य अज्ञानतमश्छन्नतया' इत्यादितत्रं किम् अज्ञानमेव तमः, उत अज्ञानश्च तमश्च इति ? प्रथमपक्षे मुक्तात्मापि प्रकृतिस्थमपि सुखादिफलं किन आत्मस्थं मन्येत, तदुपभोक्ता च किन स्यात् , तस्यापि ज्ञानाभावतोऽज्ञानतमश्छन्नत्वाऽविशेषात् ? द्वितीयपक्षे तु किमिदम् अज्ञानादन्यत् तमो नाम ? रागादिकमिति चेत् ; न ; तस्य आत्मनोऽत्यन्तार्थान्तरभूतप्रकृतिधर्मतया आत्माच्छाद- 15 कत्वानुपपत्तेः / तथाभूतेनापि तेन तदाच्छादने मुक्तात्मनोऽप्याच्छादनं स्यादविशेषात् / अथ अधिकारिण एव तद् आच्छादकम् नै मुक्तात्मा(त्म)नः; ननु किमिदमधिकारित्वं नाम ? यं प्रति प्रधानं प्रवृत्ताधिकारि सोऽधिकारीति चेत् ; न; प्रधाने प्रवृत्ताधिकारित्वस्य प्रागेव कृतोत्तरत्वात् / यदप्युक्तम्-'विवेकख्यातेः' इत्यादि; तंत्र केयं विवेकख्याति म ? प्रकृतिपुरु- 20 षयोः स्वेन स्वेन रूपेणावस्थितयोः भेदेन प्रतिभासनमिति चेत् ; सा कस्य-प्रकृतेः, (1) "शुद्धात्मनोऽपि स्वशुद्धपरिणामप्रतिसंक्रमाविरोधात् तत्राशुद्धपरिणामसंक्रमस्यैवासंभवात् ।"-युक्त्यनु० टी० पृ० 31 / (2) "प्रकृत्या व्यभिचारात् / सापि ह्यनन्ता। सान्तत्वेऽपि नित्यत्वविरोधात् ।"-युक्त्यनु० टी० पृ० 31 / (3) पृ० 815 पं० 2 / (4) तुलना-"अचेतने हि निरङकुशे प्रधाने बन्धरि सुतरामनिर्मोक्षः स्यात् / तत्त्वविदमपि पुमांसं न बध्नाति प्रकृतिरिति कोऽस्या नियन्ता ? पङ् ग्वन्धन्यायेन संयोगस्य तुल्यत्वात् ।"-न्यायमं० पृ० 491 / (5) पृ० 815 पं० 8 / (6) 'यतः किमज्ञानमेव तमः उत अज्ञानञ्च तमश्चेति ।"-षड्द० बृह० श्लो० 52 / (7) मुक्तात्मनोऽपि / (8) मुक्तिदशायां ज्ञानं विनश्यति अतः तेषामपि ज्ञानप्रध्वंसात्मकमज्ञानमस्त्येव / (9) अत्यन्तभिन्नप्रकृतिधर्मात्मकेनापि रागादिना। (10) रागादिकम्। (11) पृ०८१६६०१। (12) "तत्र केयं ख्यातिर्नाम-प्रकृतिपूरुषयोः स्वेन स्वेन रूपेणावस्थितयोः भेदेन प्रतिभासनमिति चेत् ; सा कस्य-प्रकृतेः, पुरुषस्य वा ?"-षड्द० बृह० श्लो० 52 / 1 इदमिच्छमेव आ०, ब012 विपर्ययःस्यात् ब०। अधिकारि एव ब०। 4'न मुक्तात्मानः' नास्ति आ०,०। 5-धिकारी चेत् आ०, श्र०। 6 केषां वि-ब० / Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नि / 822 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० पुरुषस्य, तद्व्यतिरिक्तस्य वा कस्यचित् ? न तावत्तद्व्यतिरिक्तस्य; प्रकृति-पुरुषव्यतिरेकेण अन्यस्य कस्यचिदपि सांख्यैरनभ्युपगमात् / नापि प्रकृतेः; तस्याः असंवेद्यपर्वणि स्थितत्वात् , अचिद्रूपत्वात् , अनभ्युपगमाच्च / नापि पुरुषस्य; तस्याप्यसंवेद्यपर्वणि स्थितत्वात् / अतः प्रकृतिपुरुषयोः असंवेद्यपर्वणि स्थितयोः स्वरूपमात्रस्याप्रतिभासे विवेकेन ख्याति अतिदुर्घटा / घटपटादौ हि स्वस्वरूपेण संवेद्यपर्वणि स्थिते कुतश्चिद्विभ्रमनिमित्तात् विवेकेनाऽप्रतीतेः यथावस्थितवस्तुप्रतिभासिप्रमाणवशाद् विवेकेन ख्यातिदृष्टा, न चात्र एतदति / किञ्च, विवेकेन ख्याति: तन्निश्चयः, सा च बुद्धिधर्मत्वाद् भवन्मते पुरुषे न संभवति / संभवे वा सा ततो भिन्ना, अभिन्ना वा स्यात् ? यद्यभिन्ना; तदा आत्मवत्तत्रापि नित्यत्वानुषङ्गात् न कदाचिदमुक्तप्रसङ्गः। भिन्ना चेत् ; अस्तु, तथापि-असौ नित्या, अनित्या वा ? यदि नित्या; किं सम्बद्धा, असम्बद्धा वा ? असम्बद्धा चेत् ; कथं तस्येति व्यपदिश्येत ? असम्बद्धाया अपि तस्याः तेनं व्यपदेशे सर्वेण सह व्यपदेशप्रसङ्गात् न कस्यचिदपि संसारः स्यात् / अथ सम्बद्धा; न; नित्ययोस्तयोः अन्योन्यमनु पकारकयोः कस्यचिदपि सम्बन्धस्यानुपपत्तेः / उपपत्तौ वा तस्यापि नित्यत्वात् सदात्मनो 15 मुक्तिप्रसङ्गः। अथ अनित्या विवेकख्यातिः; नन्वनित्या सती असौ जन्या, अजन्या वा ? तत्र अनित्यायास्तस्याः घटादिवदजन्यत्वानुपपत्तिः / जन्यत्वेऽप्यस्याः किम् आत्मना, प्रकृत्या, तद्व्यतिरिक्तेन वा केनचिदसौ जन्येत ? न तावत् तद्व्यतिरिक्तेन; प्रकृति-पुरुषव्यतिरिक्तस्य कस्यचिदपि तज्जनकस्याऽनभ्युपगमात् / नाप्यात्मना; तस्य जनकत्वानभ्यु पगमात् / अभ्युपगमे वा प्रकृतिवियुक्तेन, तत्सहितेन वा तेनासौ जन्येत ? प्रथमपक्षे 20 चक्रकप्रसङ्गः-सिद्धे "हि विवेकख्यातेर्जन्यत्वे प्रकृतिपुरुषयोर्वियुक्तत्वसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तद्वियुक्तेन आत्मना विवेकख्यातेर्जन्यत्वसिद्धिरिति। तत्सहिंतात्मजन्यत्वे तु सर्वत्र सर्वदा सर्वेषां मोक्षः स्यात् , तथा सर्वत्र सर्वदाऽविशेषतः तदुत्पत्तिप्रसङ्गात् / / यदपि-विज्ञातविरूपाहम्' इत्याद्यभिहितम् ; तदप्यचर्चिताभिधानम् ; प्रकृते (1) प्रकृतेः / (2) अज्ञेयकोटौ / "तस्या असंसवेद्यपर्वणि स्थितत्वादचेतनत्वादनभ्युपगमाच्च।"-षड्द० बृह० श्लो० 52 / (3) ज्ञेयकोटौ। (4) विवेकख्यातावपि / (5) विवेकख्यातेः / (6) पुरुषस्येति व्यपदेशे। (7) सम्बन्धस्यापि / (8) आत्मनः / (9) विवेकख्यातिः। (10) पृ० 816 पं० 2 / (11) तुलना-"अचेतनत्वात्, तथाहि-अचेतनतया प्रधानस्य अहमनेन दृष्ट (दुष्ट) तया विज्ञातमिति विज्ञानाभावे पूर्ववत् प्रवृत्तिरविशिष्टेत्यलमतिप्रसङ्गेन ।"-प्रश० व्यो० प्र० 2010 / "दृष्टास्मीति विरमतीति चेत् ; मैवम् ; न ह्यसौ एकपत्नीव्रतदुर्ग्रहगृहीता निःसंख्यपुरुषोपभो 1-तिरितिदुर्घटा आ० / 2-तीतः य-आ० / / विवेकस्य ख्यातिः आ०। 4 तावद्वयतिरिब०। 5-ना जनक-ब०, -नास्याजनक-श्र०। 6 च आ०। 7 'हि' नास्ति आ०। 8. सर्वदा ब०, श्र०। 9 विज्ञानविरू-आ० / Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76 ] मुक्तिस्वरूपविचारः 823 र्जडतया इत्थं विज्ञानानुपपत्तेः। न खलु जडस्वरूपो घटादिः विरूपतकतयाऽहमनेन ज्ञातोऽतो नैतस्मै फलं सम्पादयामि' इति स्वयं संवेदयमानो दृष्टः जडाजडयोः स्वरूपसङ्करप्रसङ्गात् / स्वरूपप्रतिपत्तौ हि परमुखप्रेक्षित्वं जडस्य स्वरूपम् तन्निरपेक्षत्वं तु अजडस्य तदित्थं सङ्कीर्येत / किञ्च, विज्ञातापि प्रकृतिः संसारदशावत् मोक्षदशायामपि आत्मनो भोगसम्पाद- 5 नाय स्वभावतो वायुवत् प्रवर्त्तताम् तत्स्वभावस्य नित्यतया तदापि सत्त्वात् / नहि प्रवृत्तिस्वभावो वायुः विरूपकतया येन ज्ञातः तं प्रति तत्स्वभावादुपरमते, अत: कुतो मोक्षः स्यात् ? तदा तदसत्त्वे वा प्रकृतेर्नित्यैकरूपतानुपपत्तिः, पूर्वस्वभावत्यागेन उत्तरस्वभावोपादानस्य तत्र विरोधात्, परिणामिनित्ये एव तदविरोधात् / प्रकृतेश्च परिणामिनित्यत्वाभ्युपगमे आत्मनोऽपि तदभ्युपगन्तव्यम्, तस्यापि प्राक्तनसुखाद्युपभोक्तुस्वभावपरिहारेण तदभो- 10 क्तृस्वभावस्वीकारांत् , अमुक्तादिस्वभावत्यागेन मुक्तादिस्वभावोपादानाच्च / सिद्धे चास्य परिणामिनित्यत्वे सुखादिपरिणामैरपि परिणामित्वमस्याऽभ्युपगन्तव्यम्, इति सिद्धःमोक्षेऽप्यात्मा विशुद्धज्ञानादिस्वभाव इति / / छ / .... ननु मोक्षे विशुद्धज्ञानादिस्वभावताऽऽत्मनोऽनुपपन्ना बुद्ध्यादिविशेषगुणोच्छेदविशेषगणोच्छेदरूपा * रूपत्वात्तस्य / प्रत्यक्षादिप्रमाणेन हि आत्मस्वरूपे प्रतिपन्ने मनःप्रणिधा- 15 मुक्तिरिति योगस्य नपूर्विकायां भावनायां प्रर्कषप्राप्तायां परिपाकं प्राप्ते तत्त्वज्ञाने नवानापूर्वपक्षः- . मात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छेदे स्वस्वरूपेण आत्मनोऽवस्थानं मोक्षः / गसौभाग्या पण्यव नितेव नासौ नियमेन व्यवहर्तुमर्हतीत्यास्तामेतत् ।"-न्यायमं० पृ० 492 / "प्रकृतेजडतयेत्थं विज्ञानानुपपत्तेः।"-षड्द० बृह० श्लो० 52 / (1) घटादेरपि स्वयं विवेकेन प्रवृत्तौ। (2) तुलना-"अस्या अचेतनतया विमृश्यकारित्वाभावात / यथेयं कृतेऽपि शब्दाधुपलभ्भे पुनस्तदर्थ प्रवर्तते तथा विवेकख्यातौ कृतायामपि पुनस्तदर्थ प्रतिष्यते स्वभावस्यानपायित्वात् ।"-प्रश० कन्द० पृ०४॥ षड्व० बृह० श्लो० 52 / (3) प्रवर्तकस्वभावात / (4) "सिद्धे चास्य परिणामिनित्यत्वे सुखादिपरिणामैरपि परिणामित्वमस्याभ्युपगन्तव्यमन्यथा मोक्षाभावप्रसङ्गः।"-षड्द० बृह० श्लो०५२। (5) "नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्षः।"-प्रश० व्यो० पृ० 638 / "आत्यन्तिकी दुःखव्यावृत्तिरपवर्गो न सावधिका, द्विविधदुःखावमशिना सर्वनाम्ना सर्वेषामात्मगुणानां दुःखावमर्शाद् अत्यन्तग्रहणेन च सर्वात्मना तद्वियोगाभिधानात् नवानामात्मगणानां बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काराणां निर्मलोच्छेदोऽपवर्ग इत्यक्तं भवति / यावदात्मगुणाः सर्वे नोच्छिन्ना वासनादयः / तावदात्यन्तिकी दुःखव्यावृत्ति वकल्पते ॥"न्यायमं०१० 508 / (6) "नन तस्यामवस्थायां कीदगात्मावशिष्यते ? स्वरूपैकप्रतिष्ठान: परित्यक्तोऽखिलर्गणः ॥"-न्यायमं०५०५०८ "समस्तात्मविशेषगणोच्छेदोपलक्षिता स्वरूपस्थितिरेव ।"-प्रश० 'कन्द० पृ० 287 / “निःश्रेयसं पुनर्दखनिवृत्तिरात्यन्तिकी"-प्रश० किर० पृ० 6 / “तत्सिद्धमेतत् नित्यसंवेद्यम्, अनेन सुखेन विशिष्टा आत्यन्तिकी दुःखनिवृत्तिः पुरुषस्य मोक्ष इति ।"-न्यायसा०पू० 41 / 1 जडत्वरूपो ब०। 2-तस्यै फलं ब०। स्वयं वेदय-श्र०। 4 संकीर्त्यते ब०। / विरूपतया आ०, श्र० / 6-क्तृत्वस्वभा-श्र०। 7-च्छेदस्वरूप-ब० // Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 824 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० तदुच्छेदे च प्रमाणम्-नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, सन्तानत्वात् , प्रेदीपादिसन्तानवत् / नचायमसिद्धो हेतुः; पक्षे प्रवर्त्तमानत्वात् / नापि विरुद्धः; सपक्षे प्रदीपादौ सत्त्वात् / नाप्यनैकान्तिकः; पक्षसपक्षद् विपक्षे परमाण्वादावप्रवृत्तेः / नापि कालात्ययापदिष्टः; विपरीतार्थोपस्थापकयोः प्रत्यक्षागमयोरत्राऽसंभवात् / नापि 5 सत्प्रतिपक्षः; प्रतिपक्षप्रसाधकानुमानासंभवात् / . ___ ननु सन्तानोच्छेदरूपेऽपि मोक्षे कश्चिद्धेतुर्वक्तव्यः निर्हेतुकविनाशाऽनभ्युपगमात् इति च नै शङ्कनीयम् ; तत्त्वज्ञानस्यैव तद्धेतुत्वात् / तत्खलु विपर्ययज्ञानव्यच्छेदक्रमेण निःश्रेयसहेतुः / दृष्टञ्च सम्यग्ज्ञानस्य मिथ्याज्ञानोच्छेदे शुक्तिकादौ सामर्थ्यम् / निवृत्ते च मिथ्याज्ञाने तन्मूला रागादयो निवर्तन्ते कारणाभावे किार्यानुत्पादात् / रागाद्यभावे 10 च तत्कार्या मनोवाकायप्रवृत्तिः व्यावर्तते / तद्व्यावृत्तौ च धर्माधर्मयोरर्नुत्पत्तिः / आरब्धशरीरेन्द्रियविषय+कार्ययोस्तु सुखादिफलोपभोगात् प्रक्षयः, अनारब्धतत्कार्ययोरप्यवस्थितयोः तत्फलोपभोगादेव प्रक्षयः / तथा चागमः"नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि" [ ..] इति / (1) "नवानामात्मगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, सन्तानत्वात्, यो यः सन्तानः स सोऽत्यन्तमुच्छिद्यमानो दृष्टः यथा प्रदीपसन्तानः, तथा चायं सन्तानः, तस्मात् अत्यन्तमुच्छिद्यते।"-प्रश० व्यो० 1020 क० / “दुःखसन्ततिरत्यन्तमच्छिद्यते सन्ततित्वात् प्रदीपसन्ततिवदित्याचार्याः ।"-प्रश० किर० पृ० 9 / (2) "ज्ञानपूर्वकात्तु कृतादसंकल्पितफलाद् विशुद्धे कुले जातस्य दुःखविगमोपायजिज्ञासोराचार्यमुपसङ्गम्य उत्पन्नषट्पदार्थतत्त्वज्ञानस्य अज्ञाननिवृत्तौ विरक्तस्य रागद्वेषाद्यभावात् तज्जयोधर्माधर्मयोरनुत्पत्तौ पूर्वसञ्चितयोश्चोपभोगाग्निरोधे सन्तोषसुखं शरीरपरिच्छेदञ्च उत्पाद्य रागादिनिवृत्तौ निवृत्तिलक्षणः केवलो धर्मः परमार्थदर्शन सुखं कृत्वा निवर्तते / तदा निरोधानिर्बीजस्य आत्मनः शरीरादिनिवृत्तिः, पुनः शरीराद्यनुत्पत्तौ दग्धेन्धनानलवदुपशमो मोक्ष इति ।"-प्रश० भा० पृ० 644 / "द्रव्यगणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां षण्णां पदार्थानां साधर्म्यवैधाभ्यां तत्त्वज्ञानं निःश्रेयसहेतुः ।"प्रश० भा० पृ० 20 ज०। 'तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगमः"-न्यायसू० 111 / 1 / (3) "दुखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः।"-न्यायसू०१।१।२। “ते इमे मिथ्याज्ञानादयो दुःखान्ता धर्मा अविच्छेदेनैव प्रवर्तमानाः संसार इति / यदा तु तत्त्वज्ञानात् मिथ्याज्ञानमपति तदा मिथ्याज्ञानापाये दोषा अपयान्ति दोषापाये प्रवृत्तिरपति. प्रवृत्त्यपाये जन्मापति, जन्मापाये दुःखमपति, दुःखापाये चात्यन्तिकोऽपवर्गो निश्रेयसमिति / " न्यायभा० 11212 / "तथा युपलब्धं सम्यग्ज्ञानस्य मिथ्याज्ञाननिवृत्तौ सामर्थ्यं शुक्तिकादाविति "-प्रश० व्यो० 1020 क०। (4) "निवृत्ते च मिथ्याज्ञाने तन्मूलत्वाद्रागादयो नश्यन्ति कारणाभावे कार्यस्यानुत्पादादिति / रागाद्यभावे च तत्कार्या प्रवृत्तिावर्तते, तदभावे च धर्माधर्मयोरनुत्पत्तिः / आरब्धकार्ययोश्चोपभोगात् प्रक्षयः ।"-प्रश० व्यो० पृ० 20 क० / (5) उद्धृतोऽयम्-"यथोक्तम्-नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरति / अवश्यमनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥"-प्रश० व्यो० पृ०२० ख० / धर्मसं०५०प० 225 / प्रमेयक० पृ० 308 / सन्मति० टी० पू० 105 / चित्सु०पृ० 351 / "अवश्यमेव भोक्त...."-धर्मवि० टी० पृ० 13 / 1 पटाविस-ब० / 2 ननु तत्सन्ता-ब०, श्र० / निर्हेतुविना-आ। 4 न राकनीयम् तत्र ज्ञान-आ०।एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ० / 5-नुपपत्तिः श्र०, ब०। 6 'इति' नास्ति श्र०। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 76] मुक्तिस्वरूपविचारः 825 अत्रैवार्थे अनुमानम्-पूर्वकर्माणि उपभोगादेव क्षीयन्ते कर्मत्वात् प्रारब्धशरीरादिकर्मवत्। नच उपभोगात् तत्प्रक्षये कर्मान्तरस्यावश्यम्भावात् संसारानुच्छेदः; समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्य अवगतकर्मसामोत्पादितयुगपदशेषशरीरद्वाराऽवाप्ताशेषभोगस्य उपात्तकर्मप्रक्षयात् भाविकर्मोत्पत्तिनिमित्तमिथ्याज्ञानजनिताऽनुसन्धानविकलत्वाच्च संसारोच्छेदोपपत्तेः / अनुसन्धानं हि रागद्वेषौ, 'अनुसन्धीयते गतं चित्तमाभ्याम्' इति व्युत्पत्तेः। 5 ____ अथ मिथ्याज्ञानभावे तत्त्वज्ञानिनः तदुपभोक्तुमभिलाषस्यैवाऽसंभवात् तदुपभोगानुपपत्तिः; तन्न; तदुपभोगं विना कर्मणां प्रक्षयानुपपत्तितः तत्त्वज्ञानिनः तदुपभोक्तुमभिलाषाभावेऽपि कर्मक्षयार्थितया तत्र प्रवृत्त्युपपत्तेः वैद्योपदेशेन आतुरवदौषधाचरणे / यथैव हि आतुरस्य अनभिलषितेऽपि औषधाचरणे व्याधिप्रक्षयार्थ प्रवृत्तिः तद्व्यतिरेकेण तत्प्रक्षयानुपपत्तेः, एवमत्रापि / 'विवादापन्नः शरीरादिनिवृत्तौ आत्मा सर्ववैषयि- 10 कसुखदुःखशून्यः, समस्तधर्माधर्मशून्यत्वात् , यस्तु वैषयिकसुखदुःखवान्नासौ समस्तधर्माधर्मशून्यः यथा संसार्यात्मा, समस्तधर्माधर्मशून्यश्च मुक्तात्मा, तस्मात् सर्ववैषयिकसुखदुःखशून्यः' इत्यनुमानात् , “न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" [ छान्दो० 8 / 12 / 1] इत्यागमाच्चासौ तदा तच्छून्यः सिद्ध इति ॥छ।। अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'सन्तानत्वात्' इत्यादि; तदसमीचीनम् ; 15 तत्प्रतिविधानपरस्सरं यस्माद् आत्मनः सर्वथा भिन्नानां बुद्ध्यादिविशेषगुणानां सन्तानस्य मोक्षस्य ज्ञानाद्यात्म- उच्छेदः प्रसाध्यते, अथ अभिन्नानाम् , कथञ्चिद्भिन्नानां वा ? तत्राकत्वप्रसाधनम्- द्यपक्षे आश्रयासिद्धो हेतुः; आत्मनोऽत्यन्तभिन्नानां तद्विशेषगुणानां (1) "पूर्वकर्माण्युपभोगादेव क्षीयन्ते, कर्मत्वात्, यद्यत्कर्म तत्तदुपभोगादेव क्षीयते यथाऽऽरब्धशरीरं कर्म, तथा चामनि कर्माणि, तस्मादुपभोगादेव क्षीयन्ते ।"-प्रश० व्यो० पृ० 20 ख०। (2) "समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानो हि कर्मणाञ्च साध्यमर्थं विदित्वा युगपच्छरीराणि निर्मायोपभोग..."प्रश० व्यो० पृ०२० ख० / (3) “जानन्नपि हि तर्थितया प्रवर्तत एव वैद्योपदेशादातुरवदौषधाचरणे" -प्रश० व्यो० पृ० 20 ख० / (4) "तस्य च न ह वै सशरीरस्य सत: प्रियाप्रिययोः बाह्यविषयसंयोगवियोगनिमित्तयोः बाह्यविषयसंयोगवियोगौ ममेति मन्यमानस्य अपहतिविनाश उच्छेदः सन्ततिरूपयोनास्तीति / तं पुनर्देहाभिमानादशरीरस्वरूपविज्ञानेन निवर्तिताऽविवेकज्ञानमशरीरं सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः / स्पृशिः प्रत्येकं सम्बध्यत इति प्रियं न स्पृशति अप्रियं न स्पृशतीति वाक्यद्वयं भवति "धर्माधर्मकायें हिते, अशरीरता तु स्वरूपमिति तत्र धर्माधर्मयोरसम्भवात्तत्कार्यभावो दूरत एवेत्यतो न प्रियाप्रिये स्पृशत: ।"-छान्दो० शां० भा०। उद्धृतोऽयम्-न्यायमं० पृ०५०९। ब्रह्म शां० भा० 12114 / यश० उ० पृ० 254 / स्या० र० पृ० 1110 / षड्व० बृह० श्लो० 52 / स्या० मं० पृ० 72 / न्यायसारटी० पृ० 283 / चित्सु० पृ० 353 / (5) अशरीरावस्थायाम् / (6) वैषयिकसुखदुःखप्रयोजकधर्माधर्मशून्यः। (7) पृ० 824 पं० 1 / (8) तुलना-"यत आत्मनः सर्वथा भिन्नानां बद्धयादिगणानां सन्तानस्योच्छेदः साध्यते, अभिन्नानां वा, कथञ्चिद् भिन्नानां वा ?"-षड्द० बह० श्लो० 52 / प्रमेयक० पृ० 317 / 1-वशेषभोगस्योपात्त-श्र०। 2 सर्वदा भि-श्र०। 54 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 826 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० प्रागेव असत्त्वप्रतिपादनतस्तत्सन्तानस्य धर्मिणोऽसिद्धेः / तथा तेषी भवता अस्वसंविदितत्वोपगमात् , ज्ञानान्तरवेद्यत्वे च अनवस्थादिदोषानुषङ्गात् , अज्ञातानाञ्च सत्त्वाऽसंभवादितोऽप्याश्रयासिद्धत्वम् / आत्मनः सर्वथाऽभिन्नानां तु तेषां तत्साधने तद्वत्तस्याप्यत्यन्तोच्छेदप्रसङ्गात् कस्यासौ मोक्षः स्यात् ? कथञ्चित्तदभेदस्तु परैर्नाभ्युपगम्यते अपसिद्धान्तप्रसङ्गात् / तथापि तदभ्युपगमे सर्वथा तदुच्छेदासिद्धिः कथश्चित्तदनुच्छेदस्याप्यवं प्रसिद्धेः / सन्तानत्वञ्च साधनं सामान्यरूपम्, विशेषरूपं वा ? यदि सामान्यरूपम् ; तदा स्वरूपासिद्धो हेतुः; व्यक्तिभ्यः सर्वथा भिन्नस्यास्य सामान्यपरीक्षायां प्रतिक्षिप्त त्वात् / अस्तु वा तद्रूपं तत् ; तथापि परसामान्यरूपम् , अपरसामान्यरूपं वा स्यात् ? 10 प्रथमपक्षे गगनादिनाऽनेकान्तः, अत्यन्तोच्छेदाभावेऽपि अत्र सत्तापरपर्यायस्य सन्तान त्वहेतोः सद्भावात् / अथ अपरसामान्यरूपम् , विशेषगुणाश्रिता हि जातिः सन्तानत्वम् ; तर्हि द्रव्यविशेषे प्रदीपे तस्यासंभवात् साधनविकलो दृष्टान्तः / __ अथ विशेषरूपम् ; तत्रापि उपादानोपादेयभूतबुद्ध्यादिक्षणलक्षणविशेषरूपम् , पूर्वापरसमानजातीयक्षणप्रवाहमात्ररूपं वा ? प्रथमपक्षे सन्तानत्वस्य असाधारणाऽनैका15 न्तिकत्वम् , तल्लक्षणस्यास्य अन्यत्र क्वचिदप्यप्रवृत्तेः / अभ्युपर्गमविरोधश्च, बुद्ध्यादि क्षणानाम् उपादानोपादेयभावस्य यौगैरनभ्युपगमात् , अन्यथा तत्सन्तानस्य अत्यन्तोच्छेदो न स्यात् मुक्तावस्थायामपि पूर्वपूर्वबुद्ध्याद्युपादानक्षणाद् उत्तरोत्तरोपादेयबुद्ध्यादिक्षणोत्पत्तिप्रसङ्गात् / द्वितीयपक्षे तु पीकजपरमाणुरूपादिना अनेकान्तः; तथाविध (1) बुद्धयादिगुणानाम् / तुलना-“तथा बुद्धयादीनां विशेषगुणानां परेण स्वसंविदितत्वेनानभ्यपगमात ज्ञानान्तरग्राह्यत्वे वाऽनवस्थादिदोषप्रसक्तेरवेद्यत्वमित्यज्ञातस्य सत्त्वासिद्धेः पुनरप्याश्रयासिद्धः सन्तानत्वादिति हेतुः ।"-सन्मति० टी० पृ० 156 / प्रमेयक० पृ० 317 / (2) वैशेषिकेण / (3) विशेषगुणवदात्मनोपि / (4) कथञ्चिद्भेदप्रकारेण / (5) "सन्तानत्वं हेतुत्वेनोपादीयमानं यदि सामा यमभिप्रेतं तदा बुद्धयादिविशेषगुणेष प्रदीपे च तेजोद्रव्ये सत्तासामान्यव्यतिरेकेण अपरसामान्यस्यासंभवात् स्वरूपासिद्धः। सत्तासामान्यरूपत्वे वा सन्तानत्वस्य सत्सदिति प्रत्ययहेतुत्वमेव न पुनः सन्तानप्रत्ययहेतुत्वम्"-सन्मति० टी० पृ० 156 / प्रमेयक० पृ० 3171 (6) पृ०२८७। (7) तुलना"किमुपादानोपादेयभावप्रबन्धेन प्रवर्तमानत्वम, कार्यकारणभावप्रबन्धेन प्रवृत्तिः, अपरापरपदार्थोत्पत्तिमात्रं वा ?"-रत्नाकराव० 757 / प्रमेयक० पृ० 317 / "ननु किमिदं सन्तानत्वम्-स्वतन्त्रम, अपरापरपदार्थोत्पत्तिमात्रं वा, एकाश्रयापरापरोत्पत्तिर्वा ?"-स्या० म०प०८३ / "कि कार्यकारणभावेन प्रवृत्तिः, एकाधारापरोत्पत्तिर्वा ?"-न्यायसारटी० पृ० 287 / (8) “सर्वसपक्षविपक्षव्यावत्तिरसाधारणः ।"-तर्कसं० अनु० / “नन्वेवं तस्य तथाभूतस्यान्यत्राननुवृत्तेरसाधारणानकान्तिकत्वम अभ्युपगमविरोधश्च ।"-सन्मति० टी० 10 157 / प्रमेयक० पू० 318 / (9) सपक्षे। (10) तुलना-"पार्थिवपरमाणुरूपादिसन्तानेन व्यभिचारात् ।"-प्रश० कन्द० पृ० 4 / “अनैकान्तिकश्च 1 अशुभानाञ्च ब०। 2 तत्तद्रूपं तथापि ब०। 3 अत्र सत्ताभावेप्यत्र सत्तापर-आ० / 4-णस्यान्यत्र श्र० / 6-गमधर्मविरो-श्र० / 6 उत्तरोपादेयबु-श्र० / Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] मुक्तिस्वरूपविचारः 827 सन्तानत्वस्यात्र सद्भावेऽपि अत्यन्तोच्छेदासंभवात् / विरुद्धश्चायं हेतुः; कार्यकारणक्षणप्रवाहलक्षणसन्तानत्वस्य नित्यानित्यैकान्तयोरसंभवात् , अर्थक्रियाकारित्वस्य अनेकान्त एव प्रतिपादितत्वात् / साँध्यविकलश्च दृष्टान्तः, प्रदीपादेरत्यन्तोच्छेदासंभवात् , तस्य स्वरूपान्तरेण अवस्थानात् / न च ध्वस्तस्यापि प्रदीपादे रूपान्तरेणावस्थानोपगमे प्रत्यक्षबाधा; वारिस्थिते तेजसि भासुररूपोपगमेऽपि / तत्प्रसङ्गात् / अथ उष्णस्पर्शस्य भासुररूपाधिकरणतेजोद्रव्याभावेऽसंभवात् तत्र अनुभूतस्यास्य परिकल्पनम् ; तर्हि प्रदीपादेरपि अनुपादानोत्पत्तेरिव अन्त्यावस्थातोऽपरापरपरिणामाधारत्वमन्तरेण सत्त्वकृतकत्वादेरनुपपत्तेः अत्यन्तसन्तत्यनुच्छेदोऽपि परिकल्प्यतामविशेषात् / प्रयोग:-पूर्वापरस्वभावपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामवान् प्रदीपादिः सत्त्वादिभ्यः पटादिवत् / सत्प्रतिपक्षश्चायं हेतुः; तथाहि-बुद्ध्यादिसन्तानो 10 नात्यन्तोच्छेदवान , अखिलप्रमाणानुपलभ्यमानतथोच्छेदत्वात्, य एवंविधः स न तत्त्वेनोपादेयः यथा पाकजपरमाणुरूपादिसन्तानः, तथा चायम् , तस्मान्नात्यन्तोच्छेदवानिति / नच प्रस्तुतानुमानादेव सन्तानोच्छेदोपलब्धेः सर्वप्रमाणानुपलभ्यमानतथोच्छेदत्वमसिद्धमित्यभिधातव्यम् ; अस्य अनेकदोषदुष्टतयाऽननुमानत्वप्रतिपादनात् / किंञ्च, अतोऽनुमानात् इन्द्रियजानां बुद्ध्यादिविशेषगुणानामत्यन्तोच्छेदः साध्येत, 15 अतीन्द्रियाणां वा ? तत्राद्यविकल्पे सिद्धंसाधनम् ; अस्माभिरपि तत्र तदुच्छेदाभ्युपगमात्। द्वितीयविकल्पस्त्वनुपपन्नः; अतीन्द्रियाणां तेषामत्यन्तोच्छेदे मुक्तौ कस्यचिदपि प्रवृत्त्यनुपाकजपरमाणुरूपादिभिः, तथाविधसन्तानत्वस्य तत्र सद्भावेऽपि अत्यन्तोच्छेदाभावात् ।"-सन्मति० टी०१० 157 / प्रमेयक० पृ० 318 / रत्नाकराव० 7.57 / स्या० म०पू० 84 / न्यायसारटी० पृ० 287 / चित्सु० पृ० 357 / / (1) "विरुद्धश्चायं हेतुः, शब्दबुद्धिप्रदीपादिषु अत्यन्तानुच्छेदवत्स्वेव सन्तानत्वस्य भावात् / " -सन्मति० टी० पृ० 157 / प्रमेयक० पृ० 318 / रत्नाकराव० 7 / 57 / षड्द० बृह० श्लो० 52 / (2) पृ० 372 / (3) “साधनविकलश्च दृष्टान्तः; प्रदीपादेरत्यन्तोच्छेदासंभवात्, तैजसपरमाणूनां भास्वररूपपरित्यागेन अन्धकाररूपतयाऽवस्थानात् ।"-षड्द० बृह० श्लो० 52 / न्यायसारंटी० पृ० 287 / रत्नाकराव०७।५७ / (4) उष्णजलस्थिते तेजोद्रव्ये / (5) भासुररूपस्य / (6) तुलना-"तर्हि प्रदीपादेरप्यनुपादानोत्पत्तिवन्न सन्ततिविपत्त्यभावमन्तरेण विपत्ति: संभवतीत्यनुमानतः किन्न कल्प्यते तत्सन्तत्यनुच्छेदः ।"-सन्मति० टी० पृ० १५७।प्रमेयक० पृ० 318 / (7) "पूर्वापरस्वभावपरिहाराङ्गीकारस्थितिलक्षणपरिणामवान् प्रदीपः सत्त्वात् घटादिवत्।"-षड्द० बृह० श्लो०५२। (8) "न चासप्रतिपक्षत्वमप्यस्य / तथाहि-बुद्धयादिसन्तानो नात्यन्तोच्छेदवान् सर्वप्रमाणानुपलभ्यमानतथोच्छेदत्वात्" -सन्मति० टी० पू०१५८। प्रमेयक० पू० 318 / (9) 'किञ्चेन्द्रियजानां बुद्धयादिगुणानामुच्छेद: साध्यमानोऽस्ति उत अतीन्द्रियाणाम् ?"-षड्द० बृह० श्लो० 52 / (10) "तेप्यदृष्टहेतुकानां बुद्धयादीनामात्मान्तःकरणसंयोगजानां च मुक्तौ निवृत्ति ब्रुवाणा न निवार्यन्ते, कर्मक्षयहेतुकयोस्तु प्रशमसुखानन्सज्ञानयोर्निवृत्तिमाचक्षाणास्ते न स्वस्थाः प्रमाणविरोधात्। ततः कथञ्चिद् बुद्धयादिविशेषगुणानां निवत्तिः कथञ्चिदनिवृत्तिर्मुक्तौ व्यवतिष्ठते।"-अष्टसह० पृ०६८। षड़द बह० श्लो० 52 / 1-पादेःस्वरूपा-ब०, श्र०। 2-त्पत्तेरेवान्त्या-ब०। 3 पदादिवत् आ० / Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 828 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० पपत्तेः / मोक्षार्थी हि सर्वो निरतिशयसुखज्ञानादिप्राप्त्यभिलाषेणैव प्रवर्त्तते न पुनः सकलबुद्ध्यादिविशेषगुणोच्छेदाभिलाषेण, अस्य केनचिदप्यनभिलषणीयत्वात् / न हि कश्चित् प्रेक्षावान् आत्मनः सद्गुणोच्छेदाय यतते तदुत्कर्षणार्थमेवास्य प्रयत्नप्रतीतेः / यदि हि मोक्षावस्थायां शिलाशकलकल्पः अपगतसुखसंवेदनलेशः पुरुषः सम्पद्यते तदा कृतं 5 मोक्षेण ! संसार एव वरमस्तु यत्र सान्तरापि सुखलेशप्रतिपत्तिरस्ति / तच्चिन्त्यतामिदम् 'किम् अल्पसुखानुभवो भद्रकः, किं वा सकलसुखोच्छेदः' इति ? अतो न वैशेषिकोपकल्पिते निखिलगुणोच्छेदलक्षणे पाषाणकल्पे मोक्षे कस्यचिद् गन्तुमिच्छाप्युपपन्ना। उक्तञ्च"वरं वृन्दावने रम्ये शृगालत्वं प्रपद्यते / . ] इति / 10 किञ्च, मुक्तौ बुद्ध्यादिविशेषगुणानामभावः कारणाभावात् , निष्प्रयोजनत्वात् , विरुद्धत्वाद्वा स्यात् ? तत्राद्यपक्षे कस्य कारणस्य तत्राऽभावः-चक्षुरादेः, तत्प्रतिबन्धकापायस्य वा ? चक्षुरादेश्चेत् ; तर्हि तजन्यस्यैव ज्ञानादेः तंत्राभावः स्यात् नान्यस्य, अतः सिद्धसाध्यता / ननु सर्वस्य ज्ञानादेः धर्माधर्मशरीरेन्द्रियादिकारणकलापाधीनज न्मत्वात् तदभावे ज्ञानादेरेवाऽसंभवात् कथं सिद्धसाध्यता ? इत्यप्यसाधीयः; महेश्वरज्ञा15 नाद्यभावानुषङ्गात् / नित्यत्वात् तज्ज्ञानादेरदोषोयम् ; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; तन्नित्य त्वस्य ईश्वरनिराकरणप्रघट्टके प्रतिव्यूढत्वात् / ततः चक्षुराद्यपायेऽपि ईश्वरस्य प्रतिबन्धकापायप्रभवं ज्ञानाद्यभ्युपगन्तव्यम् , तद्वद् अन्यमुक्तात्मनामपि तेषां तत्स्वभावत्वात्। नच स्वभावापाये तद्वतोऽवस्थानं युक्तमतिप्रसङ्गात् / अथ मुक्तस्य कृतकृत्यतया ज्ञानादिना प्रयोजनाभावात् मुक्तौ तदभावः; तन्न प्रतिबन्धकापायोपेतस्य आत्मस्वरूपस्यैव एंवंवि20 धत्वेन निष्प्रयोजनत्वासिद्धेः। अनन्तज्ञानादिलक्षणविशिष्टगुणावाप्तिरेव च आत्मनः कृतकृत्यता न पुनः निखिलगुणोच्छेदः, गुणोत्कर्षे एव लोकेऽपि कृतकृत्यशब्दप्रयोगप्रतीतेः / एतेन विरुद्धत्वपक्षोऽपि प्रत्युक्तः; स्वरूपेण कस्यचिद्विरोधाऽसंभवात् / मुक्तौ तेषां विरोधाम्युपगमे चै महेश्वरेप्येषों विरोधतोऽभावानुषङ्गात् लाभमिच्छतो मूलोच्छेदः स्यात्। किञ्च, बुद्ध्यादिविशेषगुणानामात्यन्तिकोच्छेदस्य मोक्षरूपतायां संसारस्वरूपं 25 वक्तव्यम्-तत्खलु तद्विशेषगुणानुच्छेदः, भवान्तरावाप्तिर्वा स्यात् ? प्रथमपक्षे महेश्वरस्य संसारित्वप्रसङ्गः। ततोऽन्येषामेव तदनुच्छेदः तल्लक्षणम् अतो नास्य॑ संसारित्वानुषङ्गः, इत्यपि श्रद्धामात्रम् ; अर्धजरतीयन्यायानुसरणप्रसङ्गात् / असाधारणं हि स्वरूपं भावस्य (1) "अपि वृन्दावने शून्ये शृगालत्वं स इच्छति / न तु निविषयं मोक्षं कदाचिदपि गौतम।" -सम्बन्धवा० श्लो० 423 / विवरणप्र०प० 137 / “वरं वृन्दावने वासः शगालैश्च सहोषितम .." -षड्द० बृह० श्लो० 52 / “वरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्टत्वमभिवाञ्छितम्"-स्या० म०पृ० 86 / (2) मुक्तौ / (3) पृ० 108 / (4) अनन्तज्ञानादिविशिष्टत्वेन / (5) ज्ञानादीनाम् / (6) महेश्वरातिरिक्तप्राणिनाम्। (7) संसारलक्षणम् / (8) महेश्वरस्य / (9) द्रष्टव्यम्-पृ० 168 टि० 11 / 1 केनचवनभिल-आ०।इत्यप्यप्रसा-ब० / 3 'च' नास्ति श्र०। 4 अतोस्य आ० / Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 76] मुक्तिस्वरूपविचारः 826 लक्षणम् / तद्यदि तदनुच्छेदः संसारलक्षणम् , तर्हि यत्रासौ अस्ति तंत्र सर्वत्र संसारित्वप्रसङ्गः मुक्तस्वरूपेणास्य विरोधात् / द्वितीयपक्षे तु अस्मन्मतसिद्धिः, 'स्वोपात्तकर्मवशाद् भवाद् भवान्तरावाप्तिः संसौरः' इत्यस्माभिरभ्युपगमात् / / __ किञ्च, अत्यन्तं बुद्ध्यादिगुणोच्छेदस्य मोक्षत्वे प्रदीपनिर्वाणवादिनः भवेतः को विशेषः स्यात् ? तंत्र हि स्वरूपेण आत्मनोऽसत्त्वम् , भवन्मते तु सतोऽप्यस्य सर्वथा / तद्विकलस्य ग्राहकप्रमाणाभावात् / तथाभूतं हि तत्स्वरूपं प्रत्यक्षतः, अनुमानतो वा प्रतीयेत ? न तावत् प्रत्यक्षतः; मोक्षावस्थायां तस्यैवाऽसंभवात् / नाप्यनुमानतः; प्रत्यक्षाभावे भवन्मते अनुमानानुदयात् , प्रत्यक्षपूर्वकत्वेन तस्याभ्युपगमात् / ____ यदपि-तत्त्वज्ञानस्य विपर्ययज्ञानव्यवच्छेदक्रमेण निःश्रेयसहेतुत्वमुक्तम् ; तदुपपनम् ; सिकलबुद्ध्यादिसन्तानोच्छेदहेतुत्वं तु तस्यानुपपन्नम् ; स्विविरुद्धमिथ्याज्ञानसन्तानो- 10 च्छेदहेतुत्वस्यैव तत्रोपपत्तेः शुक्तिकादौ तथादर्शनात् / ननु मिथ्याज्ञाननिवृत्तौ रागाद्यनुत्पत्तेः तत्पूर्वकधर्माप्रादुर्भावतः शरीराद्यसंभवे सिद्ध एव मोक्षदशायां सकलबुद्ध्यादिसन्तानोच्छेदः; इत्यप्यपेशलम् ; शरीरादेरभावेपि अनन्तातीन्द्रियाऽखिलपदार्थविषयसम्यग्ज्ञानसुखादिसन्तानस्य उच्छेदासिद्धेः, इन्द्रियजज्ञानादिसन्तानस्यैव तैर्दैभावेऽभावप्रसिद्धेः, तत्रच सिद्धसाधनम् इत्युक्तम् / अतीन्द्रियज्ञानादिसद्भावश्च सर्वज्ञसिद्धिप्रस्तावे प्रसार्धितः। 18 यत्तूक्तम्-'आरब्ध' इत्यादि; तदपि न सूक्तम् ; उपभोगात् कर्मणामात्यन्तिकप्रक्षयानुपपत्तेः / तदुपभोगसमये हि अपरकर्मोत्पत्तिकारणस्य अभिलाषपूर्वकमनोवाकायव्यापारादेः संभवात् अविकलकारणस्य प्रचुरतरकर्मणो भवतः कथमात्यन्तिकप्रक्षयः ? ____ यदपि 'समाधिबलात्' इत्याद्युक्तम् ; तदप्ययुक्तम् ; अभिलाषरूपरागाद्यभावे साति (1) ज्ञानाद्यनुच्छेदः / (2) ज्ञानाद्यनुच्छेदस्य / (3) “कर्मविपाकवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः"-सर्वार्थसि० 97 / "आत्मोपचितकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः ।"-राजवा० 2 / 10 / "यदवष्टम्भेनात्मनः संसरणमितश्चेतश्च गमनं भवति स संसारः, अथवा बलवतो मोहस्याख्या संसारः, नारकाद्यवस्था वा संसार ।"-तत्त्वार्थभा० व्या० 2010 / (4) बौद्धात् / "यस्मिन्न जातिर्न जरा न मृत्युन व्याधयो नाप्रियसंप्रयोगः / नेच्छाविपन्नप्रियविप्रयोगः क्षेमं पदं नैष्ठिकमच्यतं तत / दीपो यथा निवृतिमभ्युपेतः नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् / दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् / एवं कृती निर्वतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् / दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥"-सौन्दरनन्द०१६।२७-२९ / (5) वैशेषिकस्य / (6) बौद्धमते / (7) वैशेषिकसिद्धान्ते / (8) 'असत्त्वम्' इति शेषः। (9) सकलबुद्धयादिगुणशून्यम् / (10) प्रत्यक्षस्यैव / (11) "तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानम्"-न्यायसू० 11115 / (12) पृ० 824 पं०७। (13) तत्त्वज्ञानस्य / (14) शरीराभावे / (15) पृ० 89- / (16) पृ० 824 पं० 11 / (17) "उपभोगात् कर्मणः प्रक्षये तदुपभोगसमये"- प्रमेयक० पृ० 319 / सन्मति० टी० पृ० 159 / (18) समुद्भवतः। (19) पृ० 825 पं० 2 / (20) 'अभिलाषरूपरागाद्यभावे . 1 तत्र संसा-ब०। 2 अत्यन्तबुद्धचा-श्र० / 3 भवता को आ० / एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ०, ब० / 4-अनुपपत्तेः आ० / / उच्छेदसिद्धेः आ० / तवभावाभावप्र-ब०। 7-समयो हि श्र०। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 830 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० शयर्द्धिमतो भवदभिप्रायेण योगिनोऽपि तत्त्वज्ञानादवगतकर्मसामर्थ्यस्य नानाशरीराणि विधाय अङ्गनाद्युपभोगाऽसंभवात् / तत्संभवे वा अवश्यम्भावी नृपत्यादेरिव अतिभोगिनो योगिनोऽपि प्रचुरतरकर्मसंभवः / ___यदपि-'वैद्योपदेशेन' इत्याद्यभिहितम् / तदप्यभिधानमात्रम् ; आतुरस्यापि 6 नीरुग्भावाभिलाषेणैव औषध्याद्याचरणे प्रवृत्युपपत्तेः, अतः कथं तद्दृष्टान्तात् निरभि लाषस्यापि तत्त्वज्ञानिनः तत्त्वज्ञानमात्रात् कर्मक्षयार्थितया अङ्गनाद्युपभोगः साधयितुं शक्यः, दृष्टान्त-दार्टान्तिकयोर्वैषम्यात् ? तन्न अशेषशरीरद्वाराऽवाप्ताशेषभोगस्य कर्मान्तरानुत्पत्तिः / किं तर्हि ? परिपूर्णसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्य इत्यलं विवादेन, जीवन्मुक्तेरिव परममुक्तेरपि त्रितयात्मकादेव कारणादुत्पत्तेः / संसारकारणं हि मिथ्यादर्शनादित्रयात्मकम् अतः तन्निवर्त्तकेनापि 'त्रितयात्मकेनैव भवितव्यम्, एकरूपेण सम्यरज्ञानादिमात्रेण अस्य निवर्त्तयितुमशक्तेः / सम्यग्ज्ञानं हि विपरीताभिनिवेशविविक्ताऽऽत्मस्वरूपस्वभावसम्यग्दर्शनोपचितं बाह्याभ्यन्तरक्रियानिवृत्तिलक्षणचारित्रोपबृंहितं त्रितयात्मकमेव आगामिकर्मानुत्पत्तौ सश्चितकर्मक्षये च समर्थम्, उष्णस्पर्शस्य भाविशीतस्पर्शानुत्पत्तौ प्रवृत्ततत्स्पर्शप्रध्वंसे च सामर्थ्यवत् / यदैपि-विवादापन्नः शरीरादिनिवृत्तावात्मा' इत्याद्यनुमानम् 'न ह वै' इत्याद्यागमश्च आत्मनः सर्ववैषयिकसुखादिशून्यतायां प्रमाणम्' इत्युक्तम् / तदप्ययुक्तमेव; सिद्धसाधनात्, शरीरादिनिवृत्तौ हि संमस्तधर्मादिनिवृत्तेः तत्प्रभवमेव सुखादि मुक्तात्मनो निवर्तेत न स्वात्मोत्थम् / यद्धि यत्कार्य तत् तदभावे न भवति. नान्यदति प्रसङ्गात् / धर्माद्यभावे कुतस्तस्तदुत्पत्तिः इति चेत् ? 'प्रतिबन्धापायात्' इत्यसकृदा20 वेदितम् / अतः परमकाष्ठाप्राप्तं सम्यग्दर्शनादित्रयं परमप्रकर्षप्राप्तज्ञानादिस्वरूपं मोक्षं प्रसाधयतीति प्रेक्षादक्षैः प्रतिपत्तव्यमिति ॥छ / स्त्र्याधुपभोगासंभवात् ।"-सन्मति० टी० पृ० 159 / प्रमेयक० पृ० 139 / (1) स्त्र्यादिभोगे क्रियमाणे तु / (2) पृ० 825 पं० 8 / (3) "वैद्योपदेशप्रवर्तमानातुरदृष्टान्तोऽप्यसंगतः...."-सन्मति० पू०१६० / प्रमेयक० पृ० 319 / (4) योगिनः। (5) "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।"-तत्वार्थसू०१।१। “नादंसणिस्स नाणं नाणेण विना न हुन्ति चरणगुणा / अगुणिस्स णत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥"-उत्तरा० 28 / 30 / (6) संसारस्य / (7) पृ०८२५ पं०१०,१३। (8) तुलना-"शुभाशुभादृष्टपरिपाकप्रभवेन भवसंभविनी हि प्रियाप्रिये परस्परानुषक्ते अपेक्ष्यायं व्यवस्थितः, सकलादृष्टक्षयकारणकं पुनरैकान्तिकात्यान्तिकरूपं केवलमेव प्रियं निःश्रेयसदशायामिष्यते तत्कुतः प्रतिषिध्यते ?"-रत्नाकराव०.७५७ / स्या० मं० पृ० 85 / षड्द० वृह० श्लो० 52 / (9) स्वात्मोत्थसुखादिसमुत्पत्तिः / 1 औषधाद्या-ब०, श्र० 12-नुपपत्तिः आ०, ब018-दर्शनचारित्र-श्र० / 4 कारणादुत्पत्तिः ब०, कारणानुत्पत्तेः आ० / / त्रयात्मकेनैव ब० / 6-रूपस्यभावसमा-आ० / / समस्तकावि-ब०। 8 प्रतिबन्धकापा-श्र०। 9 परमंप्रकर्ष-आ० / 10-तव्यम् आ० / Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 76 ] मुक्तिस्वरूपविचारः 831 ननु परमप्रकर्षप्राप्तसुखस्वभावतैव आत्मनो मोक्षः न तु ज्ञानादिस्वभावता, आनन्दरूपो मोक्ष तत्र प्रमाणाभावात् / सुखस्वभावतायां तु तत्सद्भावादसौ युक्ता / इति वेदान्तिनां तथाहि-आत्मा सुखस्वभावः, अत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वात् , अनन्य पूर्वपदः परतयोपादीयमानत्वाच्च, यद् यदेवंविधं तैत्तत्सुखस्वभावम् यथा वैषयिकं सुखम् , तथा चात्मा, तस्मात्सुखस्वभाव इति / तथा, आत्मा सुखस्वभावः, 5 वस्तुत्वे सति मुख्यप्रेयोबुद्धिविषयत्वात्, निरुपचरितप्रेयःशब्दवाच्यत्वाद्वा, रागिणां वैषयिकसुखवदिति / इष्टार्थो मुमुक्षुप्रयत्नः, प्रेक्षापूर्वकारिप्रयत्नत्वात् , कृष्यादिप्रयत्नवत् इति / परमातिशयप्राप्तता च तत्सुखस्य अतोऽनुमानात्प्रसिद्धा-सुखतारतम्यं कचिद् विश्राम्यति, तारतम्यशब्दवाच्यत्वात् , परिमाणतारतम्यवदिति / तथा आगमोऽपि आत्मनो मोक्षे तत्स्वभावतायां प्रमाणम् 10 "श्रीनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते / " [ ] 'यदा दृष्ट्वा परं ब्रह्म सर्व त्यजति बन्धनम् / / / तदा तन्नित्यमानन्दं मुक्तः स्वात्मनि विन्दति // ' [ ] इति श्रुतिसद्भावात् / ननु नित्यानन्दस्य आत्मनि सर्वदा सद्भावाम्युपगमे संसारदशायामप्युपलम्भप्रस- 15 ___ (1) “एष एव ह्यानन्दयति" "आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्न बिभेति कदाचन"-तैत्ति० 2 / 74,9 / "आनन्दो ब्रोति व्यजानात्"-तैत्ति०३७। "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म"-बहदा० 3 / 9 / 28 / 'आनन्दमयो'ऽभ्यासात्"-ब्रह्मसू० 1 / 1 / 12 / “तस्मादानन्दमयः पर एवात्मा"-शा० भा० / "ब्रह्मण्यानन्दशब्दोऽयं प्रयुक्तः सुखवाचकः / संवेद्ये च सुखे लोके आनन्दाख्या प्रयुज्यते ॥"-बृहदा० वा० 3 / 9 / 166 / विव० प्र० 10216 / "इत्यनवच्छिन्नानन्दप्राप्तिरेव स्वतः पुरुषार्थ इत्याहुः ।"-सिद्धान्तले० पृ० 509 / (2) "तदेतत्प्रेयः पुत्रात्प्रेयः अन्यस्मात्सर्वस्मादन्तरतरं यदयमात्मा' 'आत्मानमेव प्रियमुपासीत ॥"बृहदा० 11418 / 'आत्मनः सुखरूपत्वात् आनन्दत्वं स्वलक्षणम् / परप्रेमास्पदत्वेन सुखरूपत्वमात्मनः // सूखहेतूष सर्वेषां प्रीतिः सावधिरीक्ष्यते / कदापि नावधि: प्रीतेः स्वात्मनि प्राणिनां क्वचित् / / आत्माऽतः . परमप्रेमास्पदः सर्वशरीरिणाम् / यस्य शेषतया सर्वमुपादेयत्वमृच्छति // एष एव प्रियतमः पुत्रादपि धनादपि / अन्यस्मादपि सर्वस्मादात्मायं परमान्तरः ॥"-सर्ववेदान्तसि० श्लो० 623-27 / “आत्मा सुखाभिन्नः सुखलक्षणवत्त्वाद् बैषयिकसुखवत् आत्मा सुखम् अनौपाधिकप्रेमगोचरत्वात्"-संक्षेपशा० टी० पृ० 30-31 / “परमप्रेमास्पदत्वानुपपत्तिरप्यात्मनः सुखरूपत्वे प्रमाणम् ।"-चित्सु० पृ० 358 / सिद्धान्तवि० पृ० 445 / (3) वित्तस्त्रीपुत्रादयो हि आत्मार्थमुपादीयन्ते, परञ्चात्मन उपादानं तु नान्यार्थम्, स्वयमात्मा आत्मार्थमेवोपादीयते इत्यर्थः। (4) "प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च यच्च यावच्च चेष्टितम् / आत्मार्थमेव नान्यार्थं नातः प्रियतमं परः ।"-सर्ववेदान्तसि० श्लो० 630 / (5) सुखस्वभावतायाम् / (6) 'मोक्षेऽभिपद्यते'-प्रश० व्यो० पृ० 20 ख०। "आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षे प्रतिष्ठितम् ।"-वेदान्तसि० पृ० 151 / तुलना-"नित्यं सुखमात्मनो महत्त्ववन्मोक्षेऽभिव्यज्यते / " -न्यायभा० 111122 / न्यायमं० पृ० 509 / प्रकृतपाठः-सन्मति० टी० पृ० 151 / षडद० बृह. श्लो० 52 / (7) उद्धृतोऽयम्-षड्द० बृह० श्लो० 52 / 1 तत्सुख-श्र०। 2-शब्दवाचित्वाद्वा आ० ।-मानात्सिद्धा श्र० / Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 832 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० ङ्गात् मुक्तेतरावस्थयोरविशेषप्रसङ्गः इति च न वाच्यम् ; नित्यानन्दस्य नित्यात्मनि सदा सद्भावेपि संसारदशायामावृतत्वेन अनभिव्यक्तितोऽनुपलम्भसंभवाऽविरोधात्, योगाभ्यासादावरणप्रक्षये मोक्षावस्थायां तदभिव्यक्तरुपलम्भः इति // छ // अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'आत्मा सुखस्वभावः' इत्यादि; तत्र किमिदं मोक्षावस्थायां कथ- सुखस्वभावत्वं नाम-सुखत्वजातिसम्बन्धित्वम् , सुखाधिकरणत्वं वा ? श्चिन्नित्यज्ञानादि- न तावत् सुखत्वजातिसम्बन्धित्वम् ; गुणे एव अस्य सद्भावात् / नहि प्रसाधनम्- एका काचिजातिः द्रव्यगुणयोः आत्मसुखयोः साधारणा उपलभ्यते / नापि सुखाधिकरणत्वम् ; नित्याऽनित्यविकल्पाऽनतिक्रमात्-यस्य हि सुखस्य अधिकर णमात्मा तत्सुखं किं नित्यम् , अनित्यं वा ? न तावदनित्यम् ; आत्मनोऽपि तेत्स्वभा10 वतयाऽनित्यत्वप्रसङ्गात् / न खलु स्वभावाभावे तद्वतोऽवस्थानं युक्तम् अतिप्रसङ्गात् / अथ नित्यम् ; किं कथञ्चित् ; सर्वथा वा ? यदि कथञ्चित् ; जैनमतसिद्धिः, द्रव्यतो नित्यस्य पर्यायतश्च अनित्यस्य कथञ्चिदाविर्भावतिरोभाववतः सुखपर्यायस्य आत्मनि ज्ञानादिपर्यायवत् स्याद्वादिभिरभ्युपगमात् / / ननु मुक्तौ सुखादिपर्यायस्य अपरापरस्य आविर्भावाभ्युपगमे तत्कारणं वक्तव्यम् , 15 अकारणकस्य तत्पर्यायस्य आविर्भावानुपपत्तेः इति च न चेतसि निधेयम् ; आत्मन एव तत्प्रतिबन्धकापायोपेतस्य तत्र तत्कारणत्वेन प्राक् प्ररूपितत्वात् / सौख्यादिप्रतिबन्धकमोहादिकर्मापायोपेतो हि आत्मैव मोक्षावस्थायां तथाभूतसुखज्ञानादिकारणम् घटाद्यावरणापायोपेतप्रदीपक्षणवत् स्वपरप्रकाशकाऽपरप्रदीपक्षणोत्पत्तौ / , किमपेक्षोऽसौ तदा तेजनयतीति चेत् ? 'तत्प्रतिबन्धकापायापेक्ष एव' इति ब्रूमः / तथाभूतस्यास्य 20 तदुत्पादनस्वभावतया तैदाऽन्यापेक्षाऽनुपपत्तेः, यद् यदा यदुत्पादनस्वभावं न तत्तदा तदुत्पादने अन्यापेक्षम् यथा अन्त्यावस्थायाम् अन्त्या कारणसामग्री स्वकार्योत्पादने, तदुत्पादनस्वभावश्च मोक्षावस्थायाम् अतीन्द्रियसुखाद्युत्पत्तौ प्रतिबन्धकापायोपेत आत्मा (1) "तस्मादनतिशयानन्दस्वभावस्यात्मनोऽविद्यातिरोधानमेव बन्धः, विद्यानिमित्तस्तदस्तमयो मोक्ष इति सिद्धम ।"-चित्सु० 10 361 / “प्रत्यगेव परांनन्दस्तिरोभूतः स्वमोहतः / स्वकण्ठचामीकरवत् प्राप्तप्राप्यः स्वविद्यया ॥"-वे० सि० सू० 4 / 10 / "यद्यपि संसारदशायामविद्यावतस्वरूपत्वादात्मा परमानन्दरूपतया न प्रथते तथापि तत्त्वविद्ययाऽविद्यानिवृत्तौ स्वप्रकाशतया स्वयमेव परमानन्दस्वरूपतया प्रकाशते"-सिद्धान्तबि० पृ० 450 / (2) पृ० 831 पं० 5 / (3) "तत्र यदि सुखस्वभावत्वं सुखत्वजातिसम्बन्धित्वम् ; तन्न आत्मनि सभाव्यते गणे एवास्योपलम्भात् / न ह्येकाहङ्कारादिवदपरा जातिः द्रव्यगुणयोः साधारणोपलब्धेति / अथ सुखाधिकरणत्वम् ; तन्नास्ति; नित्यानित्यविकल्पानुपपत्तेः ।"-प्रश० व्यो० पृ० 20 ग०। (4) सुखत्वजातिसम्बन्धित्वस्य / (5) अनित्यसुखस्वभावतया। (6) मोक्षे / (7) सुखादिपर्यायाविर्भाक्कारणत्वेन / (8) मोक्षावस्थायाम् / (9) सुखम् / (10) आत्मनः / / 1 सदास्यभावेऽपि आ० / एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ०, श्र०। 2 स्याद्वा दिभिः ब० / 8 तथान्या-श्र०। 4-वं तत्तदा तदुत्पादनेऽन्यापेक्षम् आ०। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] मुक्तिस्वरूपविचारः इति / दृश्यते हि-संसारावस्थायामपि वासीचन्दनकल्पानां सर्वत्र समवृत्तीनां विशिष्टध्यानादिव्यवस्थितानां सेन्द्रियशरीरादिव्यापाराजन्यः परमाहादरूपोऽनुभवः / स एव उत्तरोत्तरभावनाविशेषवंशादुत्तरोत्तरामवस्थामासादयन् परमकाष्ठां प्रतिपद्यते इति सर्वं / सुस्थम् / ततः तद्दशायामपि तत्पर्यायस्य कथञ्चिदाविर्भावनिमित्तसद्भावात् कथञ्चिदेवानित्यः सुखादिपर्यायोऽभ्युपगन्तव्यः / / सर्वथा तन्नित्यत्वग्राहिणः कस्यचिदपि प्रमाणस्याऽसंभवाच्च / तस्य हि ग्राहक प्रमाणं प्रत्यक्षम् , अनुमानम् , आगमो वा स्यात् ? प्रत्यक्षश्चेत् ; किमैन्द्रियम् , मानसम् , स्वसंवेदनं वा ? तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः; इन्द्रियाणां प्रतिनियतरूपादिगोचरचारितया तत्प्रभवप्रत्यक्षस्य ततोऽन्यत्र प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। द्वितीयविकल्पोऽप्यनुपपन्नः ; बाह्येन्द्रियनिरपेक्षस्य मनसः क्वचिदपि प्रवृत्त्यसंभवात् / “अस्वतन्त्र बहिर्मनः" [ : 10 इत्यभिधानात् / . बहिरेव अस्य तैन्निरपेक्षस्याप्रवृत्तिः नान्तः इति चेत् ; न; तत्रापि सम्बद्धस्य असम्बद्धस्य वा तस्य स्वसंवेदनसिद्धौं तत्र ज्ञानजनकत्वप्रतिषेधात् / तृतीयविकल्पोऽप्यसुन्दरः; तथा प्रतीत्यभावात् / नहि स्वसंवेदनप्रत्यक्षे अनवच्छिन्नदेशकालकलाकलापः त्रिकालानुयायी नित्यनिरंशः सुखस्वभावोऽनुभूयते. प्रतीतिविरोधात् / तन्न प्रत्यक्षं सर्वथा नित्यसुखग्राहकम् / नाप्यनुमानम् ; सर्वथा तन्नित्यत्वाविनाभाविनः कस्य- 15 चिल्लिङ्गस्याऽसंभवात् / नाप्यागमः; सर्वथा सुखनित्यत्वप्रतिपादकस्य तस्याप्यप्रतीतेः / ____ अस्तु वा कुतश्चित्तन्नित्यत्वप्रतीतिः : तथापि यतस्तत्प्रतीतिः तत् नित्यम् , अनित्यं वा ? न तावदनित्यम् ; तथाविधात्ततो नित्यं तत्प्रतीतिविरोधात् / कुतश्चास्य उत्पत्तिः (1) तुलना-उपलभ्यते च वासीचन्दनकल्पस्य मुमुक्षोः सर्वत्र समवृत्तेविशिष्टध्यानादिव्यवस्थितस्य सेन्द्रियशरीरव्यापाराजन्यः परमाह्लादरूपोऽनुभवः, तस्यैव भावनावशादुत्तरोत्तरामवस्थामासादयतः परमकाष्ठागतिरपि संभाव्यते..."-सन्मति० टी०प०१६१ / (2) तुलना-"आत्मनो नित्यसुखसत्तायां प्रमाणाभावात् / प्रत्यक्षं तावदस्मदादीनामन्येषां वा केषाञ्चिदस्मिन्नर्थे न प्रभवतीति केयं कथा। अनुमानमपि न संभवति ; लिङ्गलेशानवलोकनादिति ।"-न्यायमं० पृ० 509 / “तस्य ग्राहक प्रत्यक्षमनुमानमागमो वा स्यात् ?"-स्या० र० पृ० 1115 / (3) द्रष्टव्यम्-पृ० 432 टि०। (4) मनसः / (5) बाह्येन्द्रियनिरपेक्षस्य / (6) अन्तः सुखादावपि। (7) मनसः। (८).पृ० 185 / (9) यस्मात्संवेदनात् तन्नित्यसुखानुभवः तत्संवेदनम् / तुलना-"तदनन्तं सुखं मुक्तौ पुंसः संवेद्यस्वभावमसंवेद्यस्वभावं वा? संवेद्यञ्चेत; तत्संवेदनस्य अनन्तस्य सिद्धिः, अन्यथा अनन्तस्य सुखस्य स्वयं संवेद्यत्वविरोधात् / यदि पुमरसंवेद्यमेव तत्; तदा कथं सुखं नाम ? सातसंवेदनस्य सुखत्वप्रतीतेः / " -अष्टसह० पृ०६९ / “स किमानन्दो मुक्तावनुभयते न वा ? यदि नानुभूयते; स्थितोऽप्यस्थितान्न विशिष्यते अनुपभोग्यत्वात् / अनुभूयते चेत्, अनुभवस्य कारणं वाच्यम्"-प्रश० कन्द० पृ० 286 / "नित्यं सुखमभिव्यज्यते इति कोऽभिव्यक्त्यर्थः ? ज्ञानमिति चेत् ; नित्यमनित्यं वेति कल्पनानुपपत्तिः / " -न्यायवा० पृ० 85 / "अस्तु वा यत्किञ्चित्तद्ग्राहकं तथापि तन्नित्यमनित्यं वा ?"-स्या० र० प. 1116 / (10) अनित्यसंवेदनात् / ____1-व्यापारजन्यः ब० / 2 उत्तरभावना-ब० // 3-वशात्तदुत्तरोत्त-श्र० / 4 ततस्तच्छब्दशाया -आ015-कालकलाप:ब०। 6 नित्यत्वप्रतीति-ब०। ...... . . Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534 - लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० स्यात् , अनित्यस्य अनुत्पत्तिधर्मकत्वानुपपत्तेः ? इन्द्रियादिभ्यश्च तेंदुत्पत्त्यभ्युपगमे सुखविषयत्वं न प्राप्नोति इत्युक्तमनन्तरमेव / अथ योगजधर्मापेक्ष आत्ममनःसंयोग एव तजनकः; ननु योगजधर्मस्य मुक्तावसंभवात् कथमसौ तत्संयोगेन अपेक्षेत यतस्तत्रे ततस्तद्दुत्पत्तिः स्यात् ? अर्थं आद्यं योगजधर्मापेक्षः तत्संयोगः ज्ञानं जनयति, तच्चा5 पेक्ष्य उत्तरोत्तरं ज्ञानमसौ जनयति इति; तदप्यसाम्प्रतम् ; अपसिद्धान्तप्रसङ्गात् / नहि शरीरसम्बन्धानपेक्षं ज्ञानं तत्संयोगस्य ज्ञानोत्पत्तौ सहकारिकारणमिति भवतां राद्धान्तः, तैदपेक्षस्यैव तस्य तदुत्पत्तौ कृतान्ते तत्सहकारिकरणत्वोपवर्णनात् / अथ नित्यम्; तँदा मुक्तेतरावस्थयोरविशेषप्रसङ्गः, सुखतत्संवेदनयोः नित्यत्वेन उभयत्र सद्भावाऽविशेषात् / इन्द्रियजसुखेन चास्य संसारावस्थायां साहचर्यानु10 भवप्रसङ्गात् सुखद्वयोपलम्भः स्यात् / प्रतिबद्धत्वात्ती तस्याऽनुपलम्भ इति चेत्; केनास्य प्रतिबद्धत्वम्-शरीरेण, अविद्यया, वैषयिकसुखाद्यनुभवेन, बाह्यविषयव्यासङ्गेन वा ? न तावत् शरीरेण; अस्य सुखसाधंकत्वेन तत्प्रतिबन्धकत्वायोगात् / नहि यद् यदर्थ (1) "अनित्यत्वे हेतुवचनम्"-न्यायभा० 21222 / (२)संवेदनोत्पत्तिस्वीकरणे। (३)तुलना"आत्ममनःसंयोगस्य निमित्तान्तरसहितस्य हेतुत्वम् / धर्मस्य कारणवचनम्-यदि धर्मो निमित्तान्तरम् , तस्य हेतुर्वाच्यो यत उत्पद्यत इति ? योगसमाधिजस्य कार्यावसायविरोधात् प्रक्षये संवेदननिवृत्तिः-यदि योगसमाधिजो धर्मो हेतुः; तस्य कार्यावसायविरोधात् प्रक्षये संवेदनमत्यन्तं निवर्तेतेति ।"-न्यायभा० शश२२ / न्यायवा० पू० 85 / न्यायवा० ता० पृ० 240 / (4) आत्ममनःसंयोगेन / (5) मुक्तौ / (6) योगजधर्मापेक्षादात्ममनःसंयोगात् / (7) ज्ञानोत्पत्तिः / (8) तुलना-"अथाद्यसंयोगजधर्मादुपजातं विज्ञानमपेक्ष्य उत्तरं विज्ञानं तस्माच्चोत्तरमिति सन्तानम् ; तन्न; प्रमाणाभावात् / तथा च शरीरसम्बन्धानपेक्षं विज्ञानमेव आत्मान्तःकरणसंयोगस्य अपेक्षाकारणमिति न दृष्टम् ।"-प्रश० व्यो० पू० 20 ग०। "अथ आद्यं ज्ञानं योगजधर्मापेक्षस्तत्संयोगो जनयति"-स्या० र० 10 1116 / (9) ज्ञानम् कर्मभूतम् / (10) आत्ममनःसंयोगः / (11) आद्यज्ञानम् / (12). आत्ममनःसयोगः / (13) आत्ममनःसंयोगस्य / (14) शरीरसम्बन्धापेक्षस्यैव / (15) आत्ममनःसंयोगस्य / (16) तुलना"सुखवन्नित्यमिति चेत्; संसारस्थस्य मुक्तेनाविशेषः, अभ्यनुज्ञाने च धर्माधर्मफलेन साहचर्य यौगपद्यं गृह्येत-यदिदमुत्पत्तिस्थानेषु धर्माधर्मफलं सुखं दुःखं वा संवेद्यते पर्यायेण, तस्य च नित्यसंवेदनस्य च सहभावः योगपद्यं गृह्येत / न सुखाभावः नानभिव्यक्तिरस्ति, उभयस्य नित्यत्वात् ।"-न्यायभा०, वा० शश२२। "ततश्च धर्माधर्मफलाभ्यां सुखदुःखाभ्यामस्य नित्यस्य सुखस्य साहचर्यमनुभूयेत।"-न्यायमं० पृ० 510 / स्या० र० पृ० 1116 / (17) नित्यसुखस्य / (18) संसारावस्थायाम् / (19) "केनास्य प्रतिबद्धत्वम्-शरीरेण, अविद्यया, वैषयिकसुखाद्यनुभवेन, बाह्यविषयव्यासङ्गेन वा?"-स्या० र० पृ० 1116 / (20) शरीरस्य / तुलना-"शरीरादिसम्बन्धः प्रतिबन्धहेतुरिति चेत् ; न; शरीरादीनामुपभोगार्थत्वात्, विपर्ययस्य चाननुमानात्। स्थान्मतम्-संसारावस्थस्य शरीरादिसम्बन्धो नित्यसुखसंवेदनहेतोः प्रतिबन्धकः तेनाविशेषो नास्तीति; एतच्चायुक्तम्, शरीरादय उपभोगार्थाः ते भोगप्रतिबन्धं करिष्यन्तीत्यनुपपन्नम् / न चास्त्यनुमानम्-अशरीरस्य आत्मनो भोगः कश्चिदस्तीति।"न्यायभा० 1 / 122 / न्यायवा० पृ० 86 / न्यायवा० ता० पृ० 240 / न्यायमं० पृ० 510 / 1 आद्ययोग-श्र० / 2-सम्बन्धापेक्षं ज्ञानं आ०,-सम्बन्धोऽन्यपेक्षज्ञानं / Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] मुक्तिस्वरूपविचारः 835 तत् तस्यैव प्रतिबन्धकम् अतिप्रसङ्गात् / प्रतिबन्धकं हि कार्यविघातकमुच्यते / न च शरीरं सुखस्य विघातकम् तस्मिन् सति तस्य आत्मलाभात् / यस्मिन् सति यस्यास्मलाभः न तत् तस्य प्रतिबन्धकम् यथा बीजमङ्कुरस्य, शरीरे सति आत्मलाभश्च सुखस्येति / तस्य तत्प्रतिबन्धकत्वे च तदपहन्तुहिँसाफलं न स्यात् , प्रतिबन्धविघातकस्य उपकारकत्वेन लोके प्रसिद्धः / नापि अविद्यया; तस्याः तुच्छरूपतया तत्प्रतिबन्धलक्ष- 5 णार्थक्रियाकारित्वाऽसंभवात् / यत् तुच्छरूपं न तदर्थक्रियाकारि यथा मृगतृष्णिकाजलम् , तुच्छरूपा च अविद्या भवद्भिरिष्टा इति / प्रतिषिद्धश्च अविद्यायाः प्रतिबन्धकत्वं ब्रह्माद्वैतप्रघट्टके प्रपञ्चेन इत्यलं पुनः प्रसङ्गेन / नापि वैषयिकसुखाद्यनुभवेन; तेन हि नित्यसुखस्य तदनुभवस्य वा प्रतिबन्धः अनुत्पत्तिलक्षणो विनाशलक्षणो वा न युक्तः; द्वयोरपि नित्यत्वाभ्युपगमात् / नापि बाह्यविषयव्यासङ्गेन; तेन हि प्रमातुः, 10 इन्द्रियादेर्वा सम्बन्धिना तत्प्रतिबन्धः क्रियते ? पक्षद्वयमप्येतदयुक्तम् ; आत्मनो हि प्रमातुळसङ्गः रूपादौ विषये ज्ञानोत्पत्तौ विषयान्तरे ज्ञानानुत्पत्तिः, इन्द्रियस्यापि एकस्मिन् विषये ज्ञानजनकत्वेन प्रवृत्तस्य विषयान्तरे ज्ञानाऽजनकत्वम् / स चात्र असम्भाव्यः; सुखवत तज्ज्ञानस्यापि सदा सत्त्वात् / ... किञ्च, यथाँ मुक्तयवस्थायाम् अनित्यं सुखं ज्ञानश्चाऽतिक्रम्य नित्यं तत्परिक- 15 ल्प्यते तथा नित्यत्वधर्माधिकरणं देहेन्द्रियादिकमपि परिकल्प्यतामविशेषात् / अथ धर्मादेः कार्यो देहः कथं तदभावे तत्र भवेत् प्रतीतिविरोधात् ? तदन्यत्रापि समानम् / अथ संसार(रि)सुखविलक्षणं तत्सुखम् तेनायमदोषः; तर्हि देहोऽपि संसारिदेहाद् विलक्षणः तत्र अस्यास्तु विशेषाभावात् / __ किञ्च, सुखवत् ज्ञानस्य मुक्तावभ्युपगमे तच्छक्तेः विपरीताभिनिवेशनिवृत्तिल- 20 (1) "प्रतिबन्धकं कार्यव्याघातकृदुच्यते, न च नित्यसुखस्य अनुत्पत्तिः संभवति ।"-प्रश० व्यो० 1020 ग०। (2) शरीरस्य / “प्रतिबन्धकत्वेन तदपहन्तुहिंसाफलं न स्यात् / तथा हि प्रतिबन्धविघातक उपकारक एवेति दृष्टम् / न हि नित्यसुखसंवेदनस्य प्रतिबन्धकस्य शरीरादेरपहन्तुहिंसाफलस्य अभाव इत्यलम् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 20 ग०। स्या०र० पृ० 1117 / (3) “प्रकाशस्य तुच्छेनावरीतुमशक्यत्वात्"मेघा अपि रवेरन्ये स्वरूपेण च वास्तवाः / तत्त्वान्यत्वाद्य चिन्त्या तु नाविद्यावरणक्षमा ॥"-न्यायमं०१० 5101 (4) पृ० 143 / (5) नित्यसुख-तत्संवेदनयोः / (6) “नित्यसूखे हि अनुभवस्यापि नित्यत्वाद् व्यासङ्गानुपपत्तिः / तथा हि आत्मनो रूपादिविषयकज्ञानोत्पत्तौ विषयान्तरे ज्ञानानुत्पत्तिासङ्गः / एवमिन्द्रियस्यापि एकस्मिन् विषये ज्ञानजनकत्वेन प्रवृत्तस्य विषयान्तरे ज्ञानाजनकत्वं व्यासङ्गः। न चैवमात्मनो रूपादिविषयकज्ञानोत्पत्तौ नित्यसुखे ज्ञानानुत्पत्तिः तज्ज्ञानस्यापि नित्यत्वात् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 20 ग०। (7) तुलना-"दृष्टातिक्रमश्च देहादिषु तुल्यः। यथा दृष्टमनित्यं सुखं परित्यज्य नित्यसुखं कामयते, एवं देहेन्द्रियबुद्धीरनित्या दृष्टा अतिक्रम्य मुक्तस्य नित्या देहेन्द्रियबद्धयः कल्पयितव्याः।"-न्यायभा०, वा०. ता० टी०१।१।२२ / “सुखवज्ज्ञानवच्चास्य कामं देहेन्द्रियाद्यपि / नित्यं प्रकल्प्ययतामित्थं मोक्षो रम्यतरो भवेत् ।"-न्यायमं० पृ० 510 / (8) अनन्तज्ञानधारणाय उपयुज्यमानायाः अनन्तशक्तेः / 1 सम्बन्धेन तत्प्र-ब०।2-करणदेहेन्द्रि-ब०। 3 तदभावे तत्र आ०, तदभावे तत प्रसवे तत्र ब०। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 836 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० क्षणदर्शनस्य च सामर्थ्यसिद्धत्वात् अनन्तचतुष्टयस्वरूपलाभलक्षणमोक्षप्रसिद्धेः जैनमतसिद्धिः स्यात् , 'अानन्दं ब्रह्मणो रूपम्' इत्येकान्तत्यागात् / तन्न सुखस्वभावत्वलक्षणं साध्यं विचार्यमाणं भवन्मते घटते / साधनञ्च अत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वम् अनन्यपरतयोपादीयमानत्वश्च अनैकान्तिकत्वादसाधनम् ; दुःखाभावेऽपि भावात् / अनन्यपरतयोपादीयमानत्वञ्चासिद्धम् ; नहि आत्मा अन्यार्थं नोपादीयते, सुखाद्यर्थमस्योपादनात् / अत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वमप्यसिद्धम् ; दुःखितायामप्रियबुद्धेरपि भावात् / / यदपि 'आत्मा सुखस्वभावः वस्तुत्वे सति मुख्यप्रेयोबुद्धिविषयत्वात्' इत्युक्तम् / तदप्येतेन प्रत्युक्तम् ; सुखस्वभावत्वे प्रागुक्ताशेषदोषानुषङ्गात् / प्रेयोबुद्धिविषयत्वं 10 निरुपचरितप्रेयःशब्दवाच्यत्वश्चाऽसिद्धम् ; कदाचिद् दुःखितायां तैदभावात् / अन्य थासिद्धञ्च; आत्मनो हि आत्यन्तिको दुःखाभावो मोक्षे स्यात् इति तत्र तत् साधनद्वयं न पुनः सुखस्वभाव इति / विरुद्धश्च, सुखस्वभावताविपरीतस्य दुःखाभावस्वभावत्वस्यैव अतः प्रसिद्धः। तथाहि-दुःखाभावरूपोऽयमात्मा, वस्तुत्वे सति मुख्यप्रेयोबुद्धिविषयत्वात्, निरुपचरितप्रेयःशब्दवाच्यत्वाद्वा, रागिणां वैषयिकदुःखाभाववदिति / यदप्युक्तम् -'इष्टार्थो मुमुक्षूणां प्रयत्नः' इत्यादि; तदप्यसुन्दरम् ; हेतोरनेकान्तात् / नहि इष्टार्थसाधनायैव प्रेक्षावतां प्रयत्नो भवति, व्याधिविशेषखिन्नानां तेषाम् अनिष्टोपरमार्थमपि प्रयत्नप्रतीतेः। किञ्च, इष्टशब्देनात्र किं सुखमभिधीयते, अभिप्रेतप्रयोजनमात्रं वा ? यदि अभिप्रेतप्रयोजनमात्रम् ; कथमतः पुंसः सुखस्वभावता सिद्ध्येत् ? परस्परविरुद्धानेका20 पवर्गसंसिद्धिप्रसङ्गश्च, कपिलादिमतानुसारिणामपि मुमुक्षूणां प्रयत्नस्य तदिष्टापवर्ग लक्षणप्रयोजनप्रसाधकत्वप्रसक्तेः / प्रयत्नस्य प्रेक्षावत्त्वविशेषणात् न अनेकविरुद्धापवर्गसंसिद्धिरिति चेत् ; न; तद्विवेकस्य कर्तुमशक्यत्वात् / नहि भवन्मतानुसारिणः प्रेक्षावन्त न कपिलादिमतानुसारिणः इति विवेकः कर्तुं शक्यः, प्रमाणप्रबाधितसर्वथानित्यादि (1) "दु:खाभावेऽपि भावात् / अनन्यपरतयोपादीयमानत्वञ्चासिद्धम् ; सुखार्थमुपादानात् / अत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वमप्यसिद्धम्। दुःखितायामप्रियबुद्धेरपि भावात् ।"-प्रश० व्यो० पृ० 20 ग० / (2) पृ० 831 पं०६। (3) प्रेयस्त्वाभावात् / (4) पृ० 831 पं०७। (5) तुलना"इष्टाधिगमार्था प्रवृत्तिरिति चेत्, न; अनिष्टोपरमार्थत्वात् ।"-न्यायभा०, वा० 111122 / "नानि. ष्टोपरमार्थत्वादनिष्टस्यापि शान्तये / सन्तः प्रयतमाना हि दृश्यन्ते व्याधिखेदिताः // अतिदुर्वहश्चायं संसारदुःखभार इति तदुपशमाय व्यवस्यन्तः सन्तो न निष्प्रयोजनप्रयत्ना भवन्तीत्यनकान्तिको हेतुः / " -न्यायमं० पृ० 509 / / 1-कान्तपरित्यागात् श्र०। 2-चिदुचितायां ब०। 3 सुखस्वभावविप-आ० / 4-भावावादिति आ०, -भावादिति ब०। 5-क्तमिमुमक्ष-आ०,-क्तमिष्टार्थ मुमुक्ष-ब०। 6-लादिमनुसारि-आ० / 7-प्रमाणबाधि-श्र० / Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] मुक्तिस्वरूपविचारः 837 10 स्वभावतत्त्वाङ्गीकारेण अशेषाणामप्यप्रेक्षावत्त्वप्रसिद्धेः / अथ सुखम् इष्टशब्देन उच्यते; तदा साध्यविकलता दृष्टान्तस्य / न खलु कृषीवलादीनां कृष्यादिप्रयत्नः साक्षात्सुखार्थों भवति, कृष्यादिफलनिष्पत्त्यर्थत्वात्तस्य / परम्परया तस्य तदर्थत्वे मुमुक्षुप्रयत्नस्यापि तथा तदर्थत्वमस्तु / ननु मुमुक्षवो यदि साक्षात्सुखार्थप्रयत्ना न भवन्ति तदा ते निष्प्रयोजनप्रयत्ना एव स्युः प्रयोजनान्तरस्य तत्प्रसाध्यस्याऽसंभवात्; तदप्यपेशलम् ; 6 संसारदुःखोच्छेदलक्षणप्रयोजनस्य तत्प्रयत्नप्रसाध्यस्य सद्भावात् / दुस्सहो हि संसारदुःखभारोऽयम् अतः तदुच्छित्तये प्रयतमानास्ते न निष्प्रयोजनप्रयत्ना भवितुमर्हन्ति / यत्पुनः 'सुखतारतम्यं क्वचिद्विश्राम्यति' इत्याद्यभिहितम्; तदप्यभिधानमात्रम् ; परत्वादिना अनेकान्तात् / परापरादिबुद्धिप्रकर्षसमधिगतो हि परत्वादिप्रकर्षः तारतम्यशब्दवाच्यो नै च कचिद्विश्रान्तः / ___ किञ्च, दुःखेप्येवं परमप्रकर्षप्रसङ्गः-दुःखतारतम्यं क्वचिद्विश्राम्यति तारतम्यशब्दवाच्यत्वात् परिमाणतारतम्यवत् इति / न च दुःखपरमप्रकर्षो भवद्भिरिष्टः इत्यनेनापि अनेकान्तः। यदपि-'श्रानन्दं ब्रह्मणो रूपम्' इत्याद्यागमः मोक्षे सुखस्वभावतायायात्मनः प्रमाणम्' इत्याद्युक्तम् ; तदतीवाऽसङ्गतम् ; तस्य प्रामाण्यासंभवात् / गुणवक्तृकत्वेन 15 हि वचनस्य प्रामाण्यम् / न च वेदे भवद्भिः तदिष्टम् / अपौरुषेयत्वेनास्य प्रामाण्यम् ; इत्यपि श्रद्धामात्रम् ; तदपौरुषेयत्वस्य प्रागेव प्रतिव्यूढत्वात् / अस्तु वा तस्य तथा * 'प्रामाण्यम् , तथापि यथासौ मुक्तौ आनन्दरूपताम् आत्मनः प्रतिपादयति तथा तदभाव मपि “न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः।” [छान्दो० 8 / 12 / 1 ] इत्यादिवचनात् / अतः कास्य प्रामाण्यम् इति 20 व्याघ्रतटीन्यायो भवतः समायातः / अथ इदमागमवचेनम् अन्यथा व्याख्यायते'सशरीरस्य' इति प्रक्रमात् सांसारिके सुखदुःखे अनुकूलेतरविषयोपलम्भसंभवे मोक्षे / (1) परम्परया / (2) मुमुक्षुप्रयत्न। (3) पृ० 831 60 8 / (4) दुःखपरमप्रकर्षण / (5) पृ० 83150 11 / (6) पृ० 724-1 (7) "स्यादेतदेवं यद्येतदेव केवलमागमवचनमश्रोष्यत, वचनान्तरमपि तु श्रूयते-न हवै। ननु भवत्पठितमागमवचनमन्यथापि व्याख्यातुं शक्यते-सशरीरस्येति प्रक्रमात् सांसारिके सुखदुःखे अनुकूलेतरविषयोपलम्भसंभवे तदानीमशरीरमात्मानं न स्पृशत इत्यर्थः / हन्त तहि त्वदधीतमपि वेदवचनमानन्दं ब्रह्मेति संसारदुःखपरिहारक्रमप्रकरणादेव तदुःखापायविषयं व्याख्यास्यते। न खलु व्याख्यानस्य भगवतः काचिदभूमिरस्ति / दृष्टाश्च दुखोपशमे सुखशब्दप्रयोगाः / चिरज्वरशिरोऽर्त्यादिव्याधिदुःखेन खेदिताः। सुखिनो वयमद्येति तदपाये प्रयुञ्जते ॥"-न्यायमं० पृ०५०९। (8) "कुटुम्बमपि मे प्रेयान् प्रेयांस्त्वमपि हे सखे / किं करोमि द्विधा चित्त इतो व्याघ्र इतस्तटी॥"-परिशि०३।१६६। लौकिकन्या० त० भा०। "इतस्तटमितो व्याघ्रः केनास्तू प्राणिनो गतिः।"-यश० उ० पृ० 138 / (9) 'न हवै' इत्यादि वचनम् / 1 तस्यास्त-ब०। 2 तदा तद-ब०, श्र०। 3 न क्वचि-आ० / 4 दुःखे तारतम्यं आ० / 5-क्तृत्वेन हि आ०, श्र० / 6-रपपातिरस्ति श्र०। 'समायातः' नास्ति श्र० / Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 838 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० अशरीरमात्मानं न स्पृशतः' इति; तदपि मनोरथमात्रम् ; 'पानन्दं ब्रह्म' इत्यस्यापि अन्यथा व्याख्यातुं सुशकत्वात् , आत्यन्तिकसंसारदुःखाभावविषयो हि अत्र आनन्दशब्दः न पुनः सुखविषयः / दृष्टश्च दुःखाभावे सुखशब्दप्रयोगः यथा भराक्रान्तस्य चिरं ज्वरशिरोर्त्यादिव्याधिदुःखितस्य वा तदपाये 'चिरं तदुःखेन खिन्नाः सुखिनो वयमद्य' 6 इति तदात्मनां प्रतिभासप्रतीतेः / यच्चोक्तम् -'नित्यानन्दस्य संसारदशायाम् आवृतत्वेनाऽनभिव्यक्तितोऽनुपलम्भः' इत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम् ; अविद्यादेः तदावारकत्वप्रतिषेधात्, नित्यैकस्वभावस्य स्वप्रकाशात्मन आब्रियमाणत्वायोगाञ्च, परिणामिन एव हि वस्तुनः केनचिदावरणं युक्तम् कथञ्चिदनावृतरूपपरित्यागेन आवृतरूपस्वीकारात् / अतः कथञ्चिदेव नित्यज्ञान10 खादिस्वभावो मुक्तौ आत्मा प्रतिपत्तव्य इति // छ / ननु कार्यकारणभूतज्ञानक्षणप्रवाहव्यतिरेकेण अपरस्य आत्मनोऽसंभवात् कस्य नैरात्म्यभावनातो ज्ञानादिस्वभावता मुक्तौ प्रसाध्येत ? मुक्तिश्च आत्मदर्शिनो दूरोत्साविशुद्धज्ञानोत्पत्तिरूपो रिता / यो हि पश्यति आत्मानं स्थिरादिरूपं तस्य आत्मनि स्थैर्या मोक्षः इति बौद्धस्य दिगुणदर्शननिमित्तः स्नेहोऽवश्यम्भावी, आत्मस्नेहाच्च आत्मसुखेषु 15 पूर्वपक्षः- परिर्तृष्यन् सुखेषु तत्साधनेषु च दोषास्तिरस्कृत्य गुणानारोपयति, गुणदर्शी च परिदृष्यन् ममेति सुखसाधनान्युपादत्ते, ततो यावद् आत्मदर्शनं तावत्संसार एव / तदुक्तम्“य: पश्यत्यात्मानं तत्रास्याहमिति शाश्वत: स्नेहः। स्नेहात्सुखेषु दृष्यति तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते॥ (1) "आत्यन्तिके च संसारदुखाभावे सुखवचनाद् आगमेऽपि सत्यविरोधः / यद्यपि कश्चिदागमः स्याद् मुक्तस्यात्यन्तिकं सुखमिति। सुखशब्द आत्यन्तिके दुःखाभावे प्रयुक्त इत्येवमुपपद्यते / 'दृष्टो हि दुःखाभावे सुखशब्दप्रयोगो बहुलं लोके ।"-न्यायभा०, वा० 12122 / "मुख्य हि बाधकोपपत्तेः गौण इति / तथाहि दुःखाभावेऽयमानन्दशब्दः प्रयुक्तो दृष्ट: / सुखशब्दो दुःखाभावे यथा भाराक्रान्तस्य बाहिकस्य तदपाये इति ।"-प्रश० व्यो०५०२० ग० / (2) 10832502 / (3) “यः पश्यात्मानं तत्रात्मनि अस्य द्रष्टु: अहमिति शाश्वतः अनपायिस्नेहो भवति / स्नेहात् सुखेषु तृष्यति तष्णावान भवति, तृष्णा च सुखसाधनत्वेनाध्यवसितानां वस्तूनां दोषानशुचित्वादीन तिरस्कुरुते प्रच्छादयति / दोषतिरस्करणात् गुणदर्शी शुचित्वेष्टत्वगुणान् पश्यन् परितृष्यन् ममेति ममेदं सुखमिति गर्द्धमानः तस्य सुखस्य साधनानि गर्भगमनादीन्युपादत्ते / तेन आत्मदर्शनमूलत्वेन जन्मादेरात्माभिनिवेशो यावत्तावत् स आत्मदर्शी संसार एव / न केवलं जन्मप्रबन्धस्तस्य दोषा अपि समस्ताः सन्तीत्याह / आत्मनि सति ततोऽन्यस्मिन् परसंज्ञा परबुद्धिर्भवति, स्वपरयोर्यथाक्रमं परिग्रहोऽभिष्वङ्गः द्वेषः परित्यागः तौ भवतः / अनयोः अनुनयप्रतिषेधयोः संप्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः रागमात्सर्येादयः प्रजायन्ते ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० / उद्धृता इमे-बोधिचर्या पं० पृ० 492 / अनेकान्तजय० पृ०२८। यश० उ० पृ० 252 / न्यायवि० वि० पृ० 581 A. / षड्द० बृह० श्लो० 52 / ज्ञानबि० पु०१४७ A. / "यः पश्यत्यात्मानं तस्यात्मनि भवति"-सिद्धिवि० टी० पृ० 55 B. / 'आत्मनि सति'-अभि० आलोक० 1067 / प्रश० कन्द पु० 279 / 1 चिरंदुःखेन ब०, श्र० / 2-स्वभावतयास्य प्रकाशा-ब०। 3 युक्तौ श्र० / 4-कारक भूतआ० / 5-तृप्यन् आ०, ब०। 6-तृप्यन् आ०, ब०। तिप्यति आ० / Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 76 ] मुक्तिस्वरूपविचारः गुणदर्शी परितृष्यन् ममेति सुखसाधनान्युपादत्ते / तेनात्मभिनिवेशो यावत्तावत् स संसारः // अात्मनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात्परिग्रहद्वेषौ / अनयोः सम्प्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते॥" [प्रमाणवा० 11219-21] इति / ततो मुक्तिमिच्छता स्वरूपं पुत्रकलत्रादिकश्च अनात्मकमनित्यमशुचि दुःखमिति श्रुतमय्या चिन्तामय्या च भावनया भावयितव्यम् , एवं भावयतः तत्र अभि- 8 ध्वङ्गाभावात् अभ्यासविशेषतो. वैराग्यमुपजायते, अतः सास्रवचित्तसन्तानलक्षणसंसारनिवृत्तिरूपा मॅक्तिरुपपद्यते / निरन्वयविनश्वरेषु हिँ चित्तक्षणेषु एकत्वाध्यारोपेण आत्माभिनिवेशात् आत्मप्रेमागतः प्राण्यभिधानः स्कन्धसन्तानः सांसारिकसुखसाधनेषु प्रवर्त्तमानः सास्रवचित्तसन्तानं सन्तनोति / ततोऽस्य व्यलीकाभिनिवेशस्य अपोहार्थं यत्नः 'नैरात्म्याभ्यासादिलक्षण असत्यपि आत्मनि नित्यनिरंशादिस्वभावे मोक्तरि इति / उक्तश्च- 10 (1) तत्र श्रुतमयी श्रूयमाणेभ्य: परर्थानुमानवाक्येभ्यः समुत्पद्यमानेन श्रुतशब्दवाच्यतामास्कन्दता निवृत्ती परं प्रकर्ष प्रतिपद्यमाना स्वार्थानुमानलक्षणया चिन्तया निर्वृत्तां चिन्तमयीं भावनामारभते।"-आप्तप० का० 83 / (2) अभिष्वङ्गो रागः / (3) "कार्यकारणभताश्च तत्राविद्यादयो मताः / बन्धस्तद्विगमादिष्टो मुक्तिनिमलता धियः / / ... यथोक्तम्-चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् / तदेव तैविनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ।"-तत्त्वसं०, पं० पृ० 184 / (4) "तस्मादनादिसन्तानतुल्यजातीयबीजिकाम् / उत्खातमूलां कुरुत सत्त्वदृष्टि मुमुक्षवः॥"-प्रमाणवा० 21256 / किं पुनरिदं नैरात्म्यं नाम यदसत्सु नोपदेष्टव्यं सत्सु चोपदेष्टव्यमित्याह-अद्वितीयं शिवद्वारं कुदृष्टीनां भयङ्करम् / विषयः सर्वबुद्धानामिति नैरात्म्यमुच्यते ।-तत्रात्मा नाम योऽपरायत्तस्वरूपः स्वभावः, तदभावो नैरात्म्यम् / तच्च धर्मपुद्गलभेदात् द्वैतं प्रतिपद्यते / धर्मनैरात्म्यं पुद्गलनैरात्म्यञ्च / तत्र पुद्गलो नाम य: स्कन्धानुपादाय प्रज्ञप्यते / स च स्कन्धेषु पञ्चधा मुग्यमाणो न संभवति। धर्मास्तु स्कन्धायतनधातुसंशब्दिताः पदार्थाः तदेतेषां धर्माणां पुद्गलस्य च यथास्वं हेतुप्रत्ययाधीनजन्मत्वादुपादाय प्रज्ञप्यमानत्वाच्च स्वायत्तमपरात्तं निजमकृतकं रूपं नास्तीति पुद्गलस्य धर्माणाञ्च नःस्वाभाव्यं व्यवस्थाप्यते / यस्य चार्थस्य स्वरूपसिद्धिर्नास्ति तस्य केनान्येनात्मनास्तु सिद्धिरिति / तस्मात्सर्वथाऽसिद्धलक्षणा एव पदार्था मूर्खजनस्य विसंवादकेनात्मना प्रतीत्य वोपादाय वा वर्तमाना मढधियां सङ्गास्पदं भवन्ति / यथास्वभावं तु सम्यग्दर्शनैः प्रतिभाव्यमाना धर्मपदलयोः सङ्गपरिक्षयवाहकाः भवन्ति / सङ्गपरिक्षयश्च निर्वाणप्राप्तिकारणम् / विदितनैरात्म्यस्य हि सर्वेष परिक्षीणसङ्गस्य न क्वचित्काचित्प्रार्थना कुतो वा निमित्तोपलम्भ इत्यद्वितीयमेव शिवद्वारमेतरात्म्यम / (10151) तत्त्वतो नैरात्म्यमिति यस्यैवं वर्तते मतिः / तस्य भावात्कृतः प्रीतिरभावेन कुतो भयम् ॥"-चतुःशत० पृ० 151, 156 / तत्त्वसं० पृ०८६६ / “यतस्ततो वास्तु भयं यद्यहं नाम किंचन / अहमेव न किञ्चिच्चेत् भयं कस्य भविष्यति ॥"-बोषिच०९।५७ / “वरं नैरात्म्यभावना नैरात्म्यस्य पुद्गलादिविरहस्य भावना अभ्यासः वरमुत्तमम्, आत्मदर्शनप्रवृत्ताहङ्कारनिवृत्तिहेतुत्वात् / तथाहि तावद् भावनाप्रकर्षपर्यन्तगमनात् साक्षान्नैरात्म्यदर्शनात् विरोधिनः सत्कायदर्शनं निवर्तते / तन्निवृत्तौ चैकस्यानुगामिनो दर्शनाभावात् पूर्वापररूपविकलस्य क्षणमात्रस्य दर्शनम् / ततः पूर्वापरसमारोपाभावान्नानागतसुखसाधनं किंचिदात्मनः पश्यति, ततो न तस्य क्वचिद्विषये रागो जायते नापि तत्प्रतिविरोधिनि द्वेष: आसङ्गाभावादेव / नाप्यपकारिणं प्रति अपकारस्थानं पश्यति, येन यस्मिन कृतो 1-तृप्यन श्र०। 2 चित्तलक्षणेषु श्र० / -नुगमः प्रा-ब०। 4 प्रामाण्यभि-श्र० / / यतोने -ब०। 6-विकलक्षणः श्र० / Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 840 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० “मिथ्याध्यारोपहानार्थ यत्नोऽसत्यपि मोक्तरि" [प्रमाणवा० 11194 ] इति / नैरात्म्याभ्यासादिलक्षणंयत्नाभावे तु आत्माभिनिवेशाऽनिवृत्तः इन्द्रियादिषु उपभोगाश्रयत्वेन गृहीतेषु आत्मीयबुद्धेर्निवारयितुमशक्यत्वतो वैराग्यासंभवात् मोक्षाय दत्तो जलाञ्जलिः / तदुक्तम् "उपभोगाश्रयत्वेन गृहीतेष्विन्द्रियादिषु / स्वत्वधीः केन वार्येत वैराग्यं तत्र तत्कुतः // " [प्रमाणवा० 1 / 229] इति / अथोच्यते-नेन्द्रियादिषु उपभोगाश्रयत्वबुद्धिनिबन्धनस्वत्वबुद्धिप्रभवोऽयम् आत्मीयस्नेहः येनायं दोषः स्यात् किन्तु गुणदर्शननिबन्धनः, अतः तद्विरुद्धदोषदर्शने तन्निवृत्तितो वैराग्योपपत्तेः मुक्तिरुपपन्नेति; तंदयुक्तम् ; तैनिबन्धनस्वत्वबुद्धेरेव अस्याविर्भावात् , स्वचक्षुरादिषु गुणदोषपरीक्षाविकलानामपि बालपशुप्रभृतीनाम् उपभोगाश्रयत्वबुद्धिनिबन्धनायाः स्वत्वबुद्धेः तत्र स्नेहस्याविर्भावात् / आत्मीयेष्वपि च पिञ्चटकाणकुण्टादिदोषदर्शनेऽपि अस्य भावात, परकीयेषु गुणदर्शनेऽप्यभावात् / आत्मीयेध्वपि अतीतेषु स्वदेहच्युतेषु च अङ्गावयवेषु गुणदर्शनेऽपि आत्मीयबुद्धित्यागे स्नेहस्या भावात् तेन्निबन्धनस्वत्वबुद्धिप्रभव एवासौं अभ्युपगन्तव्यः / अतः युक्तः तद्वयवच्छे15 दाय नैरात्म्यादिभावनाभ्यास: 1 ऽपकारः तयोर्द्वयोरपि द्वितीयक्षणांभावत् / न चान्येन कृतेऽपकारे प्रेक्षावतोऽन्यत्र वैरनिर्यातनमचितम, नापि यस्य कृतस्तेनापि / एवं रागादिनिवृत्तौ अन्येपि तत्प्रभवा: क्लेशोपक्लेशा नोत्पद्यन्ते। नापि वस्तुतः कश्चित् कस्यचिदपकारकारी। इदं प्रतीत्येदमुत्पद्यते इति प्रतीत्यसमुत्वाददर्शनाद्वा / एवं हि पुद्गलशून्यतायां सत्कायदर्शननिवृत्तौ छिन्नमूलत्वात् क्लेशा न समुदाचरन्ति / यथोक्तमार्यतथागतगह्यसूत्रे-तद्यथापि नाम शान्तमते वृक्षस्य मूलच्छिन्नस्य सर्वशाखापत्रपलाशं शुष्यति / एवमेव शान्तमते सत्कायष्टिप्रशमात् सर्वक्लेशा उपशाम्यन्तीति / तस्माद्वरं नैरात्म्यभावना।"-बोधिचर्या पं०५० 492-93 / नैरात्म्यपरि० पृ० 12 / . (1) "मिथ्याध्यारोपस्य संसारित्वाध्यवसायस्य हानार्थ यत्नोऽसत्यपि कस्मिश्चिदात्मादौ मोक्तरि / न हि यथावस्त्वेव व्यवहारः किन्तु यथावसायञ्च / तथाहि रज्जुरपि साध्यवसायविषयत्वात् परिहारविषयः / एवमहमेव बद्धोऽहमेव मोक्ष्यामीत्यध्यारोपान्मुक्त्यर्थ व्यायामः ।"-प्रमाणवा० मनोरथः / उद्धृतोऽयम्-तत्त्वसं० पं० पृ० 183 / प्रमेयक पृ० 321 / सन्मति० टी० पृ० 162, 418 / (2) "आत्मीयबुद्धिहान्यात्र त्यागो न तु विपर्यये। उयभोगाश्रयत्वेन "आत्मीयबुद्धिहान्या तत्राहिदष्टाङ्गे त्यागो न तु विपर्यये आत्मीयबुद्धिसत्तायाम् / यस्माद् उपभोगस्य आश्रयत्वेन कारणत्वेन गृहीतेष्विन्द्रियादिषु स्वत्वे धी आत्मीयत्वबुद्धिः केन हेतुना वार्येत ? क केनचित् / तत्कुतस्तत्र उपभोगसाधने स्वीयावववे वैराग्यं येन त्यज्यते। ततो यत्त्यज्यते आत्मीयबुद्धिहान्या एव / न चैवं स्नेहादिष्वात्मीयबुद्धिहानिरस्ति येनैषां त्यागः स्यात्।"-प्रमाणवा० मनोरथ० / उद्धृतोऽयम्-न्यायवि० वि०पू०५८१ B. / (3) भोगसाधनत्वनिबन्धन / (4) स्नेहस्य / (5) उपभोगाश्रयत्वनिबन्धन / (6) स्नेहः / 1-ध्यानोप-श्र०। 2-णप्रयत्ना-श्र० / 3 आनीयबद्ध-आ० / 4 खल्वधी: ब०। 5 'इति' नास्ति ब० / 6-निबन्धनसत्त्वबु-व०।7 चेदयुक्तम् ब०। 8 अस्याभावात् आ० / 9-श्रयबुद्धि-ब०। 10-वर्शनप्पस्याभा-ध० / Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 प्रवचनप्र० का 0 76 ] मुक्तिस्वरूपविचारः 841 अथ तद्भावनाभावेऽपि कायक्लेशलक्षणात्तपसः सकलकर्मप्रक्षयान्मोक्षो भविष्यति; तन्न; कायक्लेशस्य कर्मफलतया नारकादिकायसन्तापवत् तपस्त्वायोगात् / विचित्रशक्तिकञ्च कर्म विचित्रफलदानाऽन्यथानुपपत्तेः, तच्च कथं कायसन्तापमात्रात् क्षीयेत अतिप्रसङ्गात् / अथ तपः कर्मशक्तीनां सङ्करेण क्षयकरणशीलमिति कृत्वा एकरूपादपि तपसः चित्रशक्तिकस्य कर्मणः क्षयः; नन्वेवं स्वल्पक्लेशेन एकोपवासादिनाऽपि अशेषस्य / कर्मणः क्षयापत्तिः शक्तिसाङ्कर्यान्यथानुपपत्तेः / उक्तश्च "कर्मक्षयाद्विमोक्षः स च तपसः तच्च कायसन्तापः / * कर्मफलत्वान्नारकदुःखमिव कथं तपस्तत्स्यात् // अन्यदपि चैकरूपं तच्चित्रक्षयनिबन्धनं न स्यात् / तच्छक्तिसङ्करक्षया(य)कारीत्यपि - वचनमात्रं तु / / अक्लेशास्तोकेऽपि क्षीणे सर्वक्षयप्रसङ्गो येत् / " [ ] इति // छ / .. अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'कार्यकारण' इत्यादि; तदसमीक्षिताभिसान्वयशुद्धचित्तस- धानम् ; कार्यकारणभूतज्ञानक्षणप्रवाहव्यतिरिक्तस्य आत्मनः सन्तान्ततिरूपस्य मोक्षस्य समर्थनम्- ननिषेधावसरे व्यासतः समर्थितत्वात् / यत्पुनरुक्तम्-'यः पश्यत्यात्मानं स्थिरादिरूपम्' इत्यादि; तत्सूक्तमेव; किन्तु 15 . (1) "तपसा निर्जरा च"-तत्त्वार्थसू० 9 / 3 / (2) “फलवैचित्र्यदृष्टश्च शक्तिभेदोऽनुमीयते / कर्मणां तापसंक्लेशात् नैकरूपात्ततः क्षयः ॥-कर्मणां फलवैचित्र्यस्य नानागत्युपभोग्यानेकविधोपकरणसाध्यविविधसुखदुःखोपभोगप्रकारस्य दृष्टेश्च शक्तिभेदः सामर्थ्यानानात्वमनुमीयते, अतो नानाप्रकारफलजननसामर्थ्यात् कारणादेकरूपात् फलात् तापसंक्लेशान कर्मणां क्षयः ।"-प्रमाणवा०१२२७७। (3) “अथापि तपसः शक्त्या शक्तिसंकरसंक्षयः / क्लेशात्कुतश्चित् हीयेताशेषमक्लेशलेशतः॥-अथापि तपसः शक्त्या शक्तिसंकरेण तापक्लेशमात्रफलेन तानि हीयन्ते / तपःशक्त्या कर्मणां संक्षयेण वा जन्मा. भावः / यच्च किञ्चिदविशिष्टं तत् क्लेशात्कुतश्चित् केशोल्लञ्चनादेः क्षीयते। कर्मक्षयाच्च मुक्तिः अत्राह-हीयेताशेषमक्लेशलेशतः / यदि तपसा कर्मक्षयोऽशेषं कर्म हीयेत, अक्लेशतो विनैव केशोल्लुञ्चनादिदुःखात् कर्मणः क्षीणत्वात् / यथा नारकादिदुःखं न भवति तथा अल्पीयोपि न स्यात् / शक्तिसांकर्येपि लेशतः सन्तापक्लेशात् केवलात् कर्म हीयेत, न दुःखान्तरानुबन्धी संसारप्रबन्धः तपस्विनः स्यात् / यदीष्टमपरं क्लेशात् तत्तपः क्लेश एव चेत् / तत्कर्मफलमित्यस्मान्न शक्तेः संकरादिकम् // तपसः शक्त्या शक्तिसंकरसंक्षयश्च तदा वक्तुं शक्यो यदि क्लेशादिष्टं क्लेशादपरमन्यत्तपो नान्यथा / क्लेश एव चेत्ततपः, तत्क्लेशरूपं तपः कर्मफलमित्यस्मात् कर्मफलभूतात्तपसः शक्तिसंकरादिकं न युक्तम् / आदिशब्दात् संक्षयश्च ।"-प्रमाणवा० मनोरथ० 1278-79 / (4) ".."क्षयनिमित्तमिह न स्यात् / तच्छक्तिसंकरः क्षयकरीत्यपि . . . ."-षड्द० बृह० श्लो० 52 / ...तच्छक्तिसंकरक्षयकारीत्यपि...' -स्या० र० पृ० 1118 / (5) पृ० 838 पं० 11 / (6) पृ० 9 / (7) पृ० ८३८पं०१८। (8) तुलना-“तत्सूक्तमेव, किन्त्वज्ञो जनो दुःखानुषक्तं सुखसाधनं पश्यन्नात्मस्नेहात् सांसारिकेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्तते अपथ्यादौ च मूर्खातुरवत् ।"-षड्द० बृह० श्लो०५२ / स्या० र० पृ० 1118 // . 1 अथैतद्भाव-श्र०। 2-कर्मक्षया-ब०। 3 संकरणे क्षय-श्र०। 4 तच्चित्रं क्षय-आ०. ब०। 5 वत श्र०। 6-ज्ञानलक्षणप्रवा-श्र० / Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 842 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० अज्ञो जनः दुःखाननुषक्तसुखसाधनमपश्यन् आत्मस्नेहात् सांसारिकेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्त्तते / हिताहितविवेकज्ञस्तु तादात्विकसुखसाधनं स्त्र्यादिकं परित्यज्य आत्मस्नेहात् आत्यन्तिकसुखसाधने मुक्तिमार्गे प्रवर्त्तते / यथा पथ्यापथ्यविवेकमजान नातुरः तादात्विकसुखसाधनं व्याधिविवृद्धिनिमित्तं दध्यादिकमुपादत्ते, पथ्यापथ्यविवे5 कज्ञस्तु तत्परित्यज्य पेयादौ आरोग्यसाधने प्रवर्त्तते / उक्तश्च "तदात्वसुखसंज्ञेषु भावेष्वज्ञोऽनुरज्यते / हितमेवानुरुद्धयन्ते प्रपरीक्ष्य परीक्षकाः // " [ ] इति / यदप्युक्तम्-'ततो मुक्तिमिच्छता स्वरूपं पुत्रकलत्रादिकञ्च' इत्यादि; तदप्येतेन प्रत्युक्तम् ; सर्वथाऽनित्याऽनात्मकत्वादिभावनाया निर्विषयत्वेन मिथ्यारूपत्वात् सर्वथा 10 नित्यादिभावनावन्मुक्तिहेतुत्वानुपपत्तेः / तन्निविर्विषयत्वञ्च आत्मसिद्धेः क्षणभङ्गभङ्गस्य च प्रसाधितत्वात् प्रसिद्धम् / न च कालान्तरावस्थाय्येकानुसन्धातृव्यतिरेकेण भावनाप्युपपद्यते इत्युक्तं सन्ताननिषेधप्रघट्टके / यो हि निगडादिभिर्बद्धः तस्यैव तन्मुक्तिकारणपरिज्ञानानुष्ठानाभिसन्धिव्यापारे सति मोक्षः इति एकाधिकरण्ये सत्येव बन्धमोक्ष व्यवस्था लोके प्रसिद्धा, इह तु अन्यः क्षणो बद्धः अन्यस्य च तन्मुक्तिकारणपरिज्ञानम् 15 अन्यस्य च अनुष्ठानाभिसन्धिः व्यापारश्चेति वैयधिकरण्यात् सर्वमनुपपन्नम् / किञ्च, सर्वो बुद्धिपूर्व प्रवर्त्तमानः 'किश्चिदिदमतो मम स्यात्' इत्यनुसन्धानेन प्रवर्तते। इह च कस्तथाविधो मार्गाभ्यासे प्रवर्त्तमानः 'मोक्षो मम स्यात्' इत्यनुसन्दध्यात्-क्षणः, सन्तानो वा ? न तावत् क्षणः; तस्य एकक्षणस्थायितया निर्विकल्प कतया च एतावतो व्यापारान् कर्तुमसमर्थत्वात् / नापि सन्तानः; तस्य सन्तानिव्य20 तिरिक्तस्य सौगतैरनभ्युपगमात्, सन्ताननिषेधे निषिद्धत्वाच्च / यच्चान्यदुक्तम्-'निरन्वयविनश्वरेषु' इत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम् ; आत्मनोऽन (1) उद्धृतोऽयम्-न्यायवि० वि० पृ० 581 / स्या० 20 पृ० 1119 / (2) 10839 6041 (3) तुलना-"क्षणिकादिभावनाया मिथ्यारूपत्वात्, नच मिथ्याज्ञानस्य निःश्रेयसकारणत्वमतिप्रसङ्गात् ।"-प्रश व्यो० पृ० 2010 / "भावनाया विकल्पात्मिकायाः श्रुतमय्याश्चिन्तामय्याश्चावस्तुविषयाया वस्तुविषयस्य योगिज्ञानस्य जन्मविरोधात् / कुतश्चिदतत्त्वविषयाद् विकल्पज्ञानात्तत्त्वविषयस्य ज्ञानस्यानुपलब्धेः ।"-आप्तप० का० 83 / तत्त्वार्थश्लो० पृ० 21 / षड्द० बृह० श्लो० 52 / (4) "न बन्धमोक्षौ क्षणिकैकसंस्थौ-क्षणिकमेकं यच्चित्तं तत्संस्थौ बन्धमोक्षौ न स्याताम् / यस्य चित्तस्य बन्धः तस्य निरन्वयप्रणाशादुत्तरचित्तस्याबद्धस्यैव मोक्षप्रसङ्गात् / यस्यैव बन्धः तस्यैव मोक्ष इति एकचित्तसंस्थौ बन्धमोक्षौ"-युक्त्यनु०, टी०प०४१। (5) क्षणिकैकान्तपक्षे। (6) तुलना"किंच. सर्वो बुद्धिपूर्व प्रयतमानः किंचिदिदमतो मम स्यादित्यनुसन्धानेन प्रवर्तते।"-षड्व० बह० श्लो० 52 / (7) 50 839 पं०७ / 1-साधनं पश्यन् आ० / 2-विवेकस्तु आ० ।-विवेकस्तु आ० / 4-नित्यादिभावन्मु-आ० / 5 अन्यत्रानुष्ठा-ब०। 6-सन्धेर्व्यापा-आ० / 7-पूर्व वर्तमानः ब० / 8 सन्ताननिषिद्ध-श्र०। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] मुक्तिस्वरूपविचारः 843 भ्युपगमे तथाभूतचित्तक्षणेषु एकत्वाध्यारोपानुपपत्तेः / तदनुपपत्तिश्च सन्तानभङ्गप्रघट्टके प्रपश्चिता / निरन्वयविनश्वरत्वे च संस्काराणां मोक्षार्थः प्रयासो व्यर्थः / रागाद्युपरमो हि भवन्मते मोक्षः, तदुपरमश्च विनाशः, तस्य च निर्हेतुकतया अयत्नसिद्धत्वात् तदर्थानुष्ठानादिप्रयासो निष्फल एव / तेने हि प्राक्तनस्य रागादिचित्तक्षणस्य नाशः क्रियेत, भाविनो वाऽनुत्पादः, तदुत्पादकशक्तेर्वा क्षयः, सन्तानस्य वोच्छेदः अनुत्पादो / वा, निराश्र(स्र)वचित्तसन्तत्युत्पादो वा ? तत्राद्यः पक्षोऽनुपपन्नः; विनाशस्य निर्हे तुकतया भैवन्मते कुतश्चिदुत्पत्तिविरोधात् / द्वितीयपक्षोऽप्यत एव अनुपपन्नः; * उत्पादाभावो हि अनुत्पादः, सोऽभावरूपत्वात् कथं कुतश्विर्दुत्पद्येत अप॑सिद्धान्तप्रस ङ्गात् ? तच्छक्तिक्षयार्थोऽपि तत्प्रयासोऽसङ्गतः, तत्क्षयस्याप्यभावरूपतया कुतश्चिदात्मलाभासंभवात् / 'सन्तानस्योच्छेदार्थोऽनुत्पादार्थो वा तत्प्रयासः' इत्यप्येतेन प्रत्युक्तम् ; 10 क्षणोच्छेदानुत्पादवत् तदुच्छेदानुत्पादयोरभावरूपतया कुतश्चिदुत्पत्त्यनुपपत्तेः। किञ्च, सिद्धे वास्तवे सन्ताने तदुच्छेदार्थोऽनुत्पादार्थो वा तत्प्रयासो युक्तः; न चासौ तथाभूतः सिद्धः; क्षणातिरिक्तस्य तस्य वास्तवस्य भवतानभ्युपगमात्, सन्ताननिषेधे निषिद्धत्वाच्च / किञ्च, अन्त्यज्ञानस्य ज्ञानान्तराकर्तृत्वे सन्तानोच्छेदो भविष्यति / तच्च कुतो 15 न करोति सत्त्वात् तदुत्पादे शक्तत्वाच्च ? शक्कमपि सहकारिकारणाभावात् नोत्पादयति; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; तदभावस्य अप्रतिबन्धकत्वात् / तेन हि प्रतिबन्धो भावस्योत्पत्तेः, उत्पादकत्वस्य वा ? तत्राद्यविकल्पोऽनुपपन्नः; शौक्यपक्षे हि कारणान्तराभावः अभावरूपतया सकलशक्तिविरहस्वभावो भावस्य नोत्पत्तिप्रतिबन्धं कर्तुमर्हति / यत् सकलशक्तिविरहस्वभावं न तत् कस्यचिदुत्पत्तिप्रतिबन्धकम् यथा शशविषाणम् , 20 (1) तुलना-"अहेतुकत्वान्नाशस्य हिंसाहेतुर्न हिंसकः / चित्तसन्ततिनाशश्च मोक्षो नाष्टाङ्गहेतुकः॥"-आप्तमी०का०५२। "आकस्मिकेऽर्थे प्रलयस्वभावे मार्गो न युक्तो बधकश्च न स्यात् ।।तथा च सकलास्रवनिरोधलक्षणमोक्षस्य चित्तसन्ततिनाशरूपस्य वा शान्तनिर्वाणस्य मार्गों हेतुः नैरात्म्यभावनालक्षणो न युक्तः स्यात् नाशकस्य कस्यचिद्विरोधात् ।"-युक्त्यनु० टी० पृ० 40 / “निर्हेतुकतया विनाशस्य उपायवैयर्थ्यम्, अयत्नसाध्यत्वात् ।"-प्रश०व्यो० 1020 ङ। (2) तपोऽनुष्ठानादिना। "किंच. तेन मोक्षार्थानुष्ठानेन प्राक्तनस्य रागादिक्षणस्य नाशः क्रियते, भाविनो वाऽनुत्पादः, तदुत्पादकशक्तेर्वा क्षयः, सन्तानस्योच्छेदोऽनुत्पादो वा, निराश्रयचित्तसन्तत्युत्पादो वा ?"-षड द० बृह० श्लो० .52 / (3) सौगतमते / (4) निर्हेतुकाऽभाववादः विशीर्यत इत्यर्थः / (5) सन्तानोच्छेदानुत्पादयोः / (6) तुलना-"किंच वास्तवस्य सन्तानस्यानभ्युपगमात् किं तदुच्छेदादिप्रयासेन ? नहि मृतस्य मारणं क्वापि दृष्टम् ।”-पड द० बृह० श्लो०५२।(७) सहकारिकारणाभावस्य / (8) सहकारिकारणाभावेन / 1-रोपानुपपत्तिश्च सन्ता-ब० / 2 संसारिणाम ब०,१० / 3 चोच्छेदः ब० / 4 निराश्रयचित्तआ० / 5-दुत्पद्यते आ० / 6 कुतश्चिदात्मलाभासंभवात् सन्तानस्योच्छेवार्थोऽनुत्पादार्थों वा तत्प्रया सो युक्तो न चासो ब० / 7-स्पद्यनुप-श्र० / 8-तराकर्तृकत्वे ब० / 9 सत्त्वादुत्पादे आ० / 10 तद्भावस्य ब०। 11 साध्यपक्षे ब०। 12-राभावाभावरूपतया ब०। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 844 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० तथाभूतश्च शाक्यमते सहकारिकारणाभाव इति / द्वितीयविकल्पोऽप्येतेन प्रतिव्यूढः; उत्पादकत्वस्य हि प्रतिबन्धः कार्योत्पादकपदार्थसत्ताऽपहारः, स च अश्वविषाणप्रख्ये तंदभावे दुर्घटः। किश्च, अन्त्यचित्तक्षणस्य अनर्थक्रियाकारित्वे अवस्तुत्वं स्यात्, ततः तज्जैनकस्य 5 इति, एवमायातमशेषस्य चित्तसन्तानस्य अवस्तुत्वम् / अथ स्वसन्तानवर्तिनो ज्ञान क्षणस्य अजनकत्वेऽपि सन्तानान्तरवर्तिनो योगिॉनस्य जननात् नाऽशेषस्य तत्सन्तानस्याऽवस्तुत्वम् ; तदयुक्तम् ;रसादेरेककालस्य रूपादे: अव्यभिचार्यनुमानाऽभावानुषङ्गात् , अन्त्यक्षणवत् रूपादेविजातीयकार्यजनकत्वेऽपि संजातीयाजनकत्वसंभवात् / एक सामग्र्यधीनत्वेन रूपरसयोर्नियमेन कार्यद्वयारम्भकत्वे अन्यत्रापि कार्यद्वयारम्भकत्वं 10 स्यात् , योगिज्ञान-अन्त्यक्षणयोरपि एकसामग्र्यधीनत्वाऽविशेषात् / अथ स्वसन्तान वर्तिकार्यजननसामर्थ्यवद् भिन्नसन्तानकार्यजननसामर्थ्यम् अन्त्यक्षणस्य नेष्यते; तर्हि सर्वथा अर्थक्रियासामर्थ्यरहितत्वेन अस्य आकाशकुशेशयवदवस्तुत्वं स्यात् / तथाविधस्यापि वस्तुत्वे सर्वथाऽर्थक्रियारहितस्य अक्षणिकस्यापि वस्तुत्वं स्यात्, तथा च सत्त्वादयः क्षणिकत्वन्न साधयेयुः अनैकान्तिकत्वात् / तन्न सन्तानोच्छेदलक्षणा मुक्तिः तत्कारणानुष्ठानप्रयासेन प्रसाध्या इति पक्षः क्षेमङ्करः / निराश्र(स्र)वचित्तसन्तत्युत्पत्तिलक्षणा सा तत्प्रयासप्रसाध्या इति पक्षस्तु ज्यायान् / केवलं 'सा चित्तसन्तति: सान्वया, निरन्वया वा' इति वक्तव्यम् ? तत्र अस्याः सान्वय (1) सहकारिकारणाभावे / (2) अर्थक्रियाकारित्वाभावे। तुलना-"चरमक्षणस्याकिञ्चिकरत्वेन अवस्तुत्वापत्तितः पूर्वपूर्वक्षणानामप्यवस्तुत्वापत्तेः सकलसन्तानाभावप्रसङ्गः / विद्युदादेः सजातीयाकरणेऽपि योगिज्ञानस्य करणान्नावस्तुत्वमिति चेत्, न; आस्वाद्यमानरससमानकालरूपोपादानस्य रूपाकरणेऽपि रससहकारित्वप्रसङ्गात्, ततो रसाद्रूपानुमानं न स्यात् ।"-सन्मति० टी० ए० 161 / स्या०र० पृ० 1121 / प्रमेयक० पृ० 497 / (3) अन्त्यक्षणोत्पादकस्य उपान्त्यक्षणस्य / (4) यदा हि कचिश्त्सर्वज्ञो योगी तम् अन्त्यक्षणं जानाति तदा सोऽन्त्यःक्षणः योगिज्ञानस्य सहकारितया समुत्पादको भवति नाकारणं विषयः इति सिद्धान्तात् / अतः सजातीयक्षणानुत्पादकोऽपि अन्त्यक्षणः योगिज्ञानस्य सहकारितया जनकत्वात् अर्थक्रियाकारी भवत्येव। (5) बौद्धमते हि द्वितीयक्षणतिनो रसस्य प्रथमक्षणवर्ती रस उपादानम् प्रथमक्षणवर्तिरूपञ्च सहकारि भवति / प्रथमक्षणतिरूपं हि सजातीयं द्वितीयक्षणवतिनं रूपं जनयित्वैव विजातीये द्वितीयक्षणवर्तिरसे सहकारि भवति / यदि हि अन्त्यो ज्ञानक्षण: सजातीयं ज्ञानक्षणान्तरमनुत्पाद्यापि विजातीये सन्तानान्तरवर्तिनि योगिज्ञाने आलम्बनतया सहकारि स्यात् तदा पूर्वक्षणवर्तिरूपमपि द्वितीयक्षणवतिसजातीयं रूपक्षणान्तरमजनयित्वैव विजातीये द्वितीयक्षणवतिनि रसे सहकारि स्यात् / तथा च द्वितीयक्षणतिरसात रूपानुमानं न स्यात् इति भावः / (6) रसोत्पादकत्वेऽपि / (7) रूपक्षणान्तरानुत्पादकत्वसंभवात् / (8) योगिज्ञान / (9) अन्त्यक्षणस्य / (10) चित्तसन्ततेः / 1 साध्यमते ब०। 2 व्युत्पादकस्य हि श्र०, उत्पादकत्वे हि ब०। 3-मशेषचित्त-आ० / 4 अन्तक्ष-आ० / 5 सजातीयजनकत्वासंभ-ब०। 6 तत्कारणेऽनुष्ठान-आ०, स्वकारणानुष्ठानब० / 7 निराश्रयचि-आ०। 8-या चेति श्र० / Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] मुक्तिस्वरूपविचारः पक्ष एव युक्तः; तथाभूते एव चित्तसन्ताने मोक्षोपपत्तेः, बद्धो हि मुच्यते नाऽबद्धः / न च निरन्वये चित्तसन्ताने बद्धस्य मुक्तिः संभवति, तत्र हि अन्यो बद्धः अन्यश्च मुच्यते / सन्तानक्याद् बद्धस्यैव मुक्तिरत्रापि इति चेत् ; ननु सन्तानार्थः परमार्थसन् , संवृतिसन् वा स्यात् ? यदि परमार्थसन् ; तदा आत्मैव नामान्तरेण उक्तः स्यात् ? अथ संवृतिसन् ; तदा एकस्य परमार्थसतोऽसत्त्वाद् 'अन्यो बद्धः अन्यश्च मुच्यते' इत्याया- 6 तम् , तथा च बद्धस्य मुक्तयर्थं प्रवृत्तिर्न स्यात् / / __अथ अत्यन्तनानात्वेऽपि क्षणानां दृढतररूपतया एकत्वाध्यवसायात् 'बद्धमात्मानं मोचयिष्यामि' इत्यभिसन्धाय प्रवर्तते; कथमेवं नैरात्म्यदर्शनम् ? यतस्तद्भावनाभ्यासान्मुक्तिः स्यात् / अथ शास्त्रसंस्कारप्रभवं तद्दर्शनमस्ति; न तर्हि एकत्वाध्यवसायः अस्सखलद्रूपः, ईत्येकं सन्धित्सोरन्यत्प्रच्यवते। अतः कुतो बद्धस्य मुक्तथर्थं प्रवृत्तिः स्यात् 10 यतो "मिथ्याध्यारोपहानार्थ यत्नोऽसत्यपि मोक्तरि" [प्रमाणवा० 11194] इत्युक्तं शोभेत ? ___ यत्पुनरुक्तम्-'उपभोगाश्रयत्वेन' इत्यादि; तदप्यविचारितरमणीयम् ; हेयोपादेयत्त्वज्ञो हि आत्यन्तिकसुखसाधनम् उपभोगाश्रयमात्मीयञ्चाभिमन्यते न तादात्विकसुखसाधनम् ; तथाहि - "ऍगो मे सस्सदो अप्पा नाणदंसणलक्खणो / ____16 सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा // [भावपाहु० गा० 59] संजोगमूलं जीवेण पत्ता दुक्खपरंपरा / तम्हा संजोगसंबंध सव्वं तिविहेण वोसरे // " [मूलाचार० 2 / 48-49] (1) “चित्तानां तत्त्वतोऽन्वितत्वसाधनात् सन्तानोच्छेदानुपपत्तेश्च"-अष्टसह० पृ० 69 / प्रमेयक० पृ. 320 / सन्मति० टी० पृ० 162 / "केवलं सा चित्तसन्ततिः सान्वया निरन्वया वेति वक्तव्यम् / आये सिद्धसाधनं तथाभूत एव चित्तसन्ताने मोक्षोपपत्तेः ।"-षड्द० बृह० श्लो० 52 / (2) निरन्वयक्षणिकपक्षेऽपि / (3) “सन्तानस्याप्यवस्तुत्वादन्यथात्मा तथोच्यताम् / कथञ्चिद्रव्यतादात्म्याद्विना सन्तत्यसंभवात् ।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० 23 / "यदि सन्तानार्थः परमार्थसंस्तदा आत्मैव सन्तानशब्देनोक्तः स्यात् / अथ संवृतिसन् ; तदा एकस्य परमार्थसतोऽसत्त्वादन्यो बद्धोऽन्यश्च मुच्यत इति बद्धस्य मुक्त्यर्थं न प्रवृत्तिः स्यात् ।"-सन्मति० टी० पृ० 162 / प्रमेयक० पु० 321 / (4) "तर्हि न नैरात्म्यदर्शनमिति कुतस्तन्नि बन्धना मुक्तिः ?"-सन्मति० टी० पृ० 162 / प्रमेयक० पू० 321 / (5) नैरात्म्यभावनायामस्खलपायां हि 'बद्धमेव आत्मानं मोचयिष्यामि' इत्येकत्वाध्यवसायस्य संभावनैव नास्ति / (6) नैरात्म्यदर्शनस्य समर्थने क्रियमाणे। (7) एकत्वाध्यवसाय: / (8) पृ० 840 50 5 / (9) "हेयोपादेयत्त्वज्ञा हि आत्यन्तिकसुखसाधनमुपभोगाश्रयमात्मीयञ्चाभिमन्यन्ते न तादात्विकसुखसाधनम् ।"-स्या० र० पृ० 1119 / (10) "एको मे सासदो अप्पा..."-नियमसा० गा० 102 / एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः। शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः / संयोगमूला जीवेन प्राप्ता दुःखपरम्परा। तस्मात्संयोसम्बन्धं सर्वं त्रिविधेन व्युत्सृजामि / 1 बद्धात्मानं ब० / 2 यदप्युक्त-ब०। 3 उपयोगाश्र-आ। 4-गाशयमा-ब०। 5 हि उक्तञ्च प्राकृतश्लोक एगो ब०। 6 संसबो श्र० 17 संयोग-आ०। 8 संयोग-आ० / Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 846 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० "दाराः परिभवकाराः बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः। काय (कोऽयं) जनस्य मोहः ये रिपवस्तेषु मुहृदाशा // " [ ] इत्येवं भावयतो विवेकिनः संयोगसम्बन्धिषु दुःखहेतुषु भावेषु सुखलेशसाधनत्वस्य सद्भावेऽपि अन्यदा आत्यन्तिकसुखसाधनं रत्नत्रयं पश्यतः कुतस्तेषु आत्मीय6 बुद्धिः यतस्ततो निवृत्तिर्न स्यात् 1 ननु आत्मीयबुद्धेः ततः स्यानिवृत्तिः यदि एकान्तेन तेषां दुःखहेतुत्वमेव स्यात् , न चैवम् , लेशतः सुखहेतुत्वस्याप्यत्र संभवात् , तेन दुःखहेतुत्वेऽपि आत्मीयस्नेहात् येनाकारेण सुखहेतुता तावतांशेन स्वस्योपकारकान् इन्द्रियादीन् मन्यमानः तेषु नात्मीयबुद्धिं जहातीति; तदप्यसाम्प्रतम् ; तेषां सुखलेशसाधन त्वेऽपि अन्यस्य आत्यन्तिकसुखसाधनस्य सद्भावेन "निर्विषान्नस्य सद्भावेन सविषा10 नस्येव त्यागसंभवात् / / ___ यदप्यभिहितम्-'पिच्चटकाणकुण्टादिदोषदर्शनेऽपि' इत्यादि; तदप्यभिधानमात्रम् ; यतो न सौरूप्यादिगुणदर्शनात् स्नेहो भवतीत्यस्माभिरिष्यते, किन्तु उपभोगाश्रयत्वाख्यगुणदर्शनात्। विवेकिनश्च संयोगसम्बन्धिषु भावेषु जातिजरामरणप्रबन्धलक्षणसंसार दुःखहेतुत्वाख्यम् आत्यन्तिकदोषं पश्यतो न उपभोगाश्रयत्वाख्यस्य गुणस्य दर्शनमस्तीति 15 तन्निबन्धनस्नेहस्य व्यावृत्तेः कथं दोषदर्शनं स्नेहस्य बाधकन्न स्यात् / ननु तदोषं पश्यतो यद्यपि तत्कालेऽनुरागिणी मतिश्चलिँता, तथापि तत्रासौ नैव अत्यन्तं विरक्तो द्रष्टव्यः, पुनस्तद्गुणलेदर्शनादनुरागसंभवात् ; इत्यप्यसुन्दरम् ; अज्ञो हि तादात्विकदुःखहेतुत्वाख्यस्य तादात्विकदोषस्य दर्शनाद् विरक्तः तादात्विकसुखहेतुत्वाख्यस्य तादात्विकगुणस्य दर्शनात् पुनरनुरज्यते इति युक्तम् , हेयोपादेयतत्त्वज्ञस्तु जातिजरामरणप्रबन्धलक्षणदुःखहेतुत्वाख्यस्य आत्यन्तिकदोषस्य दर्शनाद्विरक्तो न तादात्विकसुखहेतुत्वाख्यस्य तादात्विकगुणस्य दर्शनात् पुनरनुरज्यते, किन्तु आत्यन्तिकसुखहेतुत्वाख्यगुणदर्शनात् / न च संयोगसम्बन्धिषु तदर्शनमस्ति इति साकल्येनासौ तंत्र उपेक्षालक्षणं वैराग्यमात्मसात्करोति / ननु यदि तत्प्रबन्धलक्षणदुःखहेतुत्वेन (1) संगृहीतोऽयं श्लोकः सुभाषितरत्नभाण्डागारे। (2) “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:"-तत्त्वार्थसू० 111 / तुलना-"तत्र प्रथमं तावत् त्रीणि रत्नानि तद्यथा-बुद्धो धर्मः संघश्चेति / " -धर्मसं०१०१। (3) तात्कालिकसुखसाधनेषु स्त्र्यादिषु / (4) तादात्विकसुखसाधनस्त्र्यादीनाम् / (5) रत्नत्रयस्य / (6) पृ०८४०५० 11 / (7) "यद्यप्येकत्र दोषेण तत्क्षणं चलिता मतिः / विरक्तो नैव तत्रापि कामीव वनितान्तरे।"-प्रमाणवा० 12241-42 / (8) विरागवती जाता। (9) तत्त्वज्ञः। (10) संयोगसम्बन्धिषु स्त्र्यादिषु / 1-जना ब-ब०। 2-सम्बन्धेषु श्र०। 3 दुःखाहेतुषु ब०, आ०। 4-त्र भावान् ब०। 5त्वेऽस्यात्मीय-श्र०। 6-स्यासद्भा--ब०। 7 निविशेषात्तस्य सद्भावेन ब०। 8-मस्यैव त्यागे संभवात श्र०। 9 सारूप्यादि-श्र०। 10-सम्बन्धाभावेषु श्र०। 11 गुणदर्शनमस्तीति ब०, आ० / 12स्नेहव्याव-बं०। 18 स्नेहबाध-ब० / 14 इत्यसु-ब०। 15 अन्यो हि आ० / 16-हेतुत्वाख्यगुणवर्शनात् ब०, श्र०।17 अपेक्षा-श्र०। 20 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 847 प्रवचनप्र० का 0 76 ] सुषुप्त्यादौ ज्ञानसद्भावसिद्धिः तत्रासौ विरज्यते तदा आत्मन्यपि विरज्यताम् तथाविधदुःखहेतुत्वस्य तत्राप्यविशेषात् , तत्राविरागे वा अन्यत्रापि न विरज्येत विशेषाभावादिति; अत्र अज्ञमात्मानभिप्रेत्य एवमुच्यते, तद्विपरीतं वा ? यदि अज्ञम् ; तदा सिद्धसाधनम् , हेयोपादेयतत्त्वज्ञानरहिते तथाविधदुःखहेतौ आत्मनि वैराग्याऽभ्युपगमात् / हेयोपादेयतत्त्वज्ञानवति तु तस्मिन् तथाविधदुःहेतुत्वाभावान्न वैराग्यम् / यच्चोक्तम्-'कायक्लेशस्यं कर्मफलत्वात्' इत्यादि; तदप्यनल्पतमोविलसितम् ; हिंसादिविरतिलक्षणवृतोपबृंहकस्य कायक्लेशस्य कर्मफलत्वेऽपि तपस्त्वाविरोधात् / व्रताविरोधी हि कायक्लेशः कर्मनिर्जराहेतुत्वात् तपोऽभिधीयते / न चैवं नारकादिकायक्लेशस्यापि तपस्त्वानुषङ्गः, तस्य हिंसाद्यावेशप्रधानतया तँदविरोधित्वासंभवात् / अतः कथं प्रेक्षावतां तेन समानता मुमुक्षुकायक्लेशस्य आपादयितुं युक्ता ? . 10 ___यदपि शक्तिसङ्करपक्षे 'स्वल्पेनैव' इत्याद्युक्तम् / तत्सूक्तम् ; "विचित्रफलदानसमर्थानां कर्मणां शक्तिसङ्करे सति क्षीणमोहान्त्यसमये अयोगिचरमसमये चे अक्लेशतः स्वल्पेनैव परमशुक्लध्यानरूपेण तपसा प्रक्षयाभ्युपगमात् , जीवन्मुक्तेः परममुक्तेश्चान्यथानुपपत्तेः। स तु तच्छक्तिसङ्करः बहुतरक्लेशसाध्यः इति युक्तः तदर्थोऽनेकविधोपवासादिदुश्वरकायक्लेशाद्यनुष्ठानप्रयासः, तमन्तरेण तत्सङ्कराऽप्रसिद्धेः / अतः कथञ्चिदनवच्छिन्नो 15 ज्ञानसन्तानोऽनेकविधदुर्धरतपोऽनुष्ठानात् मुच्यते इति प्रेक्षादक्षैःप्रतिपत्तव्यम् // छ। ननु 'अनवच्छिन्नो ज्ञानसन्तानः' इत्ययुक्तम् ; सुषुप्ताद्यवस्थायामपि तदवच्छेदप्रसषप्ताद्यवस्थायां नास्ति तीतेः / किञ्चिदपि अपरिच्छिन्दन्नेव हि 'सुषुप्तः' इत्युच्यते, तत्र ज्ञानमिति वैशषिका- ज्ञानसद्भावे तदपरिच्छेदानुपपत्तेः / यदि च तत्र ज्ञानसद्भावः स्यात् दीनां पूर्वपक्षः- तदा जाग्रत्सुषुप्तावस्थयो/दो न स्यात्, उभयत्र स्वपरावभासिज्ञान- 20 सद्भावाऽविशेषात् / तत्र तत्सद्भावेऽपि निद्रयाऽभिभवात् , जाग्रदवस्थायाश्च तदभावात् (१)जन्मजरामरणादिप्रबन्धकारणत्वस्य। (२)स्त्र्यादिष्वपि / (३)तुलना-"यादृशो दुखहेतु: स्तादृशो हेय एव, सोपाधिश्च तथा। निरुपाधिरपि हीयतामिति चेत् ;न; अशक्यत्वान्निष्प्रयोजनत्वाच्च।" -आत्मत० 10 106 / (4) आत्मनि। (5) पृ०८४१ पं०२। (6) “हिंसाविरतिरूपवतोपबहकस्य कायक्लेशस्य कर्मत्वेपि तपस्त्वाविरोधात् ।"-षड्द० बृह० श्लो० 52 / (7) व्रताविरोधित्वाभावात् / (8) नारकादिक्लेशेन / (9) पृ० 841 पं० 5 / (10) 'विचित्रफलदानसमर्थानां कर्मणां शक्तिसंकरे सति"-षड्द० बृह० श्लो० 52 / (11) "सुषुप्तिकाले त्वचं त्यक्त्वा पुरीतति वर्तमानेन मनसा ज्ञानाजननमिति ।"-मुक्ता० का०५६ / (12) "सुषुप्तावस्थायां ज्ञानसद्भावे जाग्रदवस्थातो न विशेषः स्यात्, उभयत्रापि स्वसंवेद्यज्ञानस्य सद्भावाविशेषात् ।"-प्रश० व्यो०१० २०ङ। (13) "सुषप्तौ निद्रयाभिभूतत्वं विशेष इति चेत् ; असदेतत्; तद्धर्मतया तस्यापि तादात्म्येन अभिभावकत्वासंभवात् / व्यतिरेके तु रूपादिपदार्थानामेव सत्त्वात् तत्स्वरूपं निरूप्यम् / अभिवश्च यदि 1-लक्षणं वृ-ब०। 2 'तत्सूक्तम्' नास्ति श्र: / 3 वाक्लेशतः श्र०। 4-दुःकरकाय-श्र० / 5-सन्तानो नेकविध-ब० 16-वेच तदपरि-ब० / Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 848 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० नानयोरविशेष इति चेत् ; ननु कोऽयं तया ज्ञानस्याऽमिभवो नाम-नाशः, तिरोभावो वा? यदि नाशः; कथं तत्र तत्सद्भावः तस्य तैद्विरोधित्वात् / अथ तिरोभावः; तन्न; स्वपर- . प्रकाशरूपज्ञानाभ्युपगमे तस्याप्यनुपपत्तेः / अतः सुषुप्ताद्यवस्थायाम् उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य ज्ञानस्यानुपलब्धेः अभाव एव ज्यायानिति ॥छ।। अत्र प्रतिविधीयते। यत्तावदुक्तम्-'किञ्चिदप्यपरिच्छिन्दन्नेव हि' इत्यादि; तदसुषुप्ताद्यवस्थास्वपि समीचीनम् ; सुषुप्ताद्यवस्थायां स्वापादिसंवेदनस्य तत्सुखसंवेदनस्य च ज्ञानसद्भावप्रसाधनम् सद्भावात् / तत्र हि ज्ञानानभ्युपगमे 'सुखमहमस्खाप्सम्' इति सुप्तो- त्थितस्य स्वापसुखस्मरणस्य 'एतावत्कालं निरन्तरं सुप्तोऽहम् एतावत्कालञ्च सान्तरम्' इति खार्पस्मरणस्य चाभावानुषङ्गात् , तस्य ज्ञातवस्तुविषयत्वेन स्वविषयज्ञानान्तराविनाभावि10 त्वात् / यत् स्मरणं तत् स्वविषयज्ञानान्तर विनाभावि यथा घटादिस्मरणम् , स्मरणश्च सुप्तोस्थितस्य स्वापसुखादिसंवेदनमिति / अस्य स्वविषयानान्तरमन्तरेणाप्याविर्भावे घटादिस्मरणस्यापि तदन्तरेणाविर्भावः स्यात्, अतः कुतस्तदनुभवादिरपि सिद्ध्येत् ? ततः सुषुप्ताद्यवस्थायां येनानुभवेन स्वापसुखादिस्मरणमाविर्भाव्यते स तद्विषयोऽभ्युपगन्तव्यः / ___ एतेन मत्तमूर्च्छिताद्यवस्थायामपि ज्ञानसद्भावः प्रसाधितः; तदेवस्थायाः प्रच्यु15 तस्य तदा मया न किञ्चिदनुभूतम्' इति स्मरणनिबन्धनेन येनानुभवेन सता आत्मा निखिलानुभवविकलोऽनुभूयते तस्यामवस्थायां सोऽनुभवोऽभ्युपगन्तव्यः, तमन्तरेण तत्स्मरणानुपपत्तेः / नंच सुषुप्ताद्यवस्थायां स्वापसुखस्य तत्संवेदनस्य वा 'इदमित्थम्' विनाशः; न विज्ञानस्य सत्त्वं विनाशस्य वा निर्हेतुकत्वम् / अथ तिरोभावः; न; विज्ञानस्य सत्त्वेन तत्सत्तैव संवेदनमित्यभ्युपगमे तस्यानुपपत्तेः / "- प्रश० व्यो० पु० 20 / (1) निद्रया। (2) नाशस्य / (3) सद्भावविरोधित्वात् / (4) पु० 847 पं० 18 / (5) "तश्च सुषुप्तावनुभूत आनन्द आत्मा भावरूपाज्ञानञ्चेति त्रयमप्युत्थितेन परामृश्यते सुखमहमस्वाप्स न किञ्चिदवेदिषमिति ।"-विवरणप्र० पृ०६०। (6) “अस्ति चात्र स्वापलक्षणार्थनिरूपणम-एतावकालं निरन्तरसुप्तोऽहमेतावत्कालं सान्तरमित्यनुस्मरणप्रतीतेः।"-प्रमेयक पृ० 323 / (7) स्मरणस्य / (8) अनुभवात्मक / (9) तुलना-"सुप्तमूर्छाद्यवस्थासु चेतो नेति च ते कुतः। निश्चयो वेदनाभावादिति चेत्स कुतो गतः / यदीत्थं भवतस्तासु निश्चयः संप्रवर्तते / न वेद्मि चित्तमित्येवं सति सिद्धा सचित्तता। यदि च तासु मर्छाद्यवस्थासु न वेदम्यहं चित्तमित्येवं निश्चयः प्रवर्तते भवतः, तदा तेनैव तथा प्रवृत्तेन निश्चयेन सचित्तता सिद्धा ।"-तत्त्वसं०, 50 50 540 / प्रमेयक० पृ० 323 / "स्वप्नमर्छाद्यवस्थासु चित्तं च यदि नेष्यते / मृतिः स्यात्तत्र चौत्पत्ती मरणाभाव एव वा ।"-तत्त्वसं० प०५४१ / (10) निखिलानुभवविकलस्य आत्मनः स्मरणानुपपत्तेः। (11) तुलना-"स्यान्मतं यदि विज्ञानं दशास्वास्वस्ति तत्कथम् / न स्मृतिः प्रतिबुद्धादे: तदाकारा भवेदिति // तदकारणमत्यर्थं पाटवादेरसम्भवात् / स्मरणं न प्रवर्तेत सद्योजातादिचित्तवत् ।।-यदि ह्यनभूत इत्येतावन्मात्रेणैव स्मरणं स्यात्स्यादेतत्, यावता सत्यप्यनुभवे पाटवाभ्यासाथित्वादिवैकल्यात् स्मरणं न भवति, यथा सद्योजाताद्यवस्थायामनुभूतस्यापि चित्तस्य ।"-तत्त्वसं०, पं० 50 540 / प्रमेयक० 10 325 / ___ 1 स्वप्नादिसं-श्र०। 2 तत्सुखसंवेदनस्य' नास्ति श्र०। 3 तत्र विज्ञाना-श्र०। 4-मस्वापम् ब०। 5 यत स्वसंस्मरणं ब०। 6-निबन्धनो येना-आ०, ब०। 7 नन सुषुप्ता-श्र०, न च सुप्ता-आ० / Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र०. का० 76] सुषुप्त्यादौ ज्ञानसद्भावसिद्धिः 846 इति निरूपणाभावादभावः इत्यभिधातव्यम् / तदहर्जातबालकस्य मुखप्रक्षिप्तस्तन्यजनितसुखेन तत्संवेदनेन चाऽनेकान्तात् / न खलु तैत्तेन 'इदमित्थम्' इति निरूप्यते, अथ च अस्ति / नच दुःखाभावात् सुखशब्दप्रयोगोऽत्र गौणः; अभावस्य प्रतियोगिभावान्तरस्वभावतया अभावविचारावसरे व्यवस्थापितत्वात् / यदप्युक्तम्-'तत्रज्ञानसद्भावे' इत्यादि; तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; तत्र ज्ञानस- 5 द्भावेऽपि जाग्रत्सुषुप्तावस्थयोर्भदोपपत्तेः। यत्र हि अनभिभूतं बाह्याध्यात्मिकाऽर्थविचारचतुरं ज्ञानं सा जामदवस्था, यत्र तु निद्राद्यभिभववशात्तद्विपरीतं सा सुषुप्ताद्यवस्था / यदपि-'कोऽयं निद्रादिना ज्ञानस्याभिभवः' इत्याद्युक्त ; तत्रास्य तद्वशाद् बाह्याध्यात्मिकार्थविचारविधुरत्वमेवाऽभिभवः / स्वपरप्रकाशस्वभावत्वात्तस्य कथं तद्विधुरत्वम् ? इत्यप्यनुपपन्नम् ; गच्छत्तृणस्पर्शसंवेदनेन व्यभिचारात्, तस्य तत्स्वभावत्वेऽपि 10 तन्निरूपणासामर्थ्यप्रतीतेः। नहि तत्स्वभावत्वमात्रेणैव ज्ञानस्य तन्निरूपणसामर्थ्यम् ; सर्वत्राऽनभिभूतस्यैवास्य तन्निरूपणसामर्थ्यसंभवात्। यथा च गच्छत्तृणस्पर्शसंवेदनम् अन्यमनस्कतयाऽभिभूतम् तथा स्वप्नादिसंवेदनं निद्रादिना इति युक्तमुत्पश्यामः / कथञ्चैववादिनो मणिमन्त्रादिना अग्न्यादेः शरावादिना च प्रदीपादेः प्रतिबन्धः सिद्ध्येत् ? नहि 'तेने तस्य नाशः प्रतिबन्धः संभवति; प्रत्यक्षविरोधात् / नापि तिरोभावः; स्वकार्य- 15 जननसमर्थस्यास्य तिरोभावस्याप्यसंभवात् / प्रतीत्यनतिक्रमेणात्र स्वरूपसामर्थ्यप्रतिबन्धाभ्युपगमः अन्यत्रापि समानः / - किश्च; सुषुप्ताद्यवस्थायां ज्ञानाभावं स एवात्मा प्रतिपद्यते, पार्श्वस्थो वा ? यदि स एव; किं तत एव ज्ञानात् , तदभावात्, तदनुपलम्भात्, जाग्रत्प्रबोधदशाभाविज्ञानान्तराद्वा ? न तावत्तत एव; अस्याऽसत्त्वात् / यदसन्न तत् कस्यचित्प्रतिपत्तिहेतुः 20 (1) प्रतियोगिनः सकाशात् यद्भिन्नं भावान्तरं भूतलादि तत्स्वभावतया। (2) पृ० 847 पं० 19(3) "मिद्धादिसामग्रीविशेषाद्, विशिष्टं सुषुप्ताद्यवस्थायां गच्छत्तणस्पर्शज्ञानतुल्यं बाह्याध्यात्मिकपदार्थानेकधर्मग्रहणविमुखं ज्ञानमस्ति अन्यथा जाग्रत्प्रबुद्धज्ञानप्रवाहयोरप्यभावप्रसक्तिरिति ।"-सन्मति. टी० पृ० 163 / प्रमेयक० पृ० 323 / (4) पृ०८४० पं० 1 / (५)ज्ञानस्य / (6) स्वपरप्रकाशनस्वभावत्वमात्रेण (7) ज्ञानस्य / (8) तुलना-"मणिमन्त्रादिना अग्न्यादिप्रतिबन्धे शरावादिना प्रदीपादिप्रतिबन्धेऽपि च समानत्वात् ।"-प्रमेयक पृ० 322 / (9) मन्त्रादिना शरावादिना वा। (10) अग्न्यादेः प्रदीपस्य वा। (11) निद्रया ज्ञानस्याभिभवेऽपि / (12) तूलना-"तदवस्थायां विज्ञानाभावग्राहकप्रमाणासंभवात् / तथाहि-न तावत्सुप्त एव तदवस्थायां विज्ञानाभावं वेत्ति; तदा विज्ञानानभ्युपगमात् / तदवगमे च तस्यैव ज्ञानत्वात् न तदवस्थायां तदभावः / नापि पावस्थितोऽन्यस्तदभावं वेत्ति; कारणव्यापकस्वभावानुपलब्धीनां विरुद्धविधेर्वाऽत्र विषयेऽव्यापारात्, अन्यस्य तदभावावभासकत्वायोगात् ।"-सन्मति० टी० पृ० 90 / प्रमेयक० पृ० 323 / 1 तत्र तेन श्र०। 2 सुषप्तादिसंवेदनं श्र०। वेदनतस्य श्र०। 4 नाशः संभ-ब० / 5 स्वकायजनन-ब०। 1 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 850 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० यथा वन्ध्यास्तन्धयः, असच्च सुषुप्ताद्यवस्थायामभिप्रेतं भवद्भिः ज्ञानमिति। नापि तदभावात् ; परिच्छेदकत्वस्य ज्ञानधर्मतया तदभावे संभवाभावात्, अन्यथा ज्ञानस्यैव 'अभाव' इति नामकृतं स्यात् / / तदनुपलम्भतोऽपि तत्कालभाविनः, अन्यकालभाविनो वा तेत्र तैदभावप्रतिपत्तिः स्यात् ? प्रथमपक्षे कथं तत्र सर्वथा ज्ञानाभावः ? तदभावग्राहिणोऽनुपलम्भज्ञानस्य तत्र विद्यमानत्वात् / नापि अन्यकालभाविनः; तस्य तत्प्रतिपत्तिहेतुत्वायोगात् / नहि अन्यकालोऽनुपलम्भोऽन्यकालस्याभावस्य प्रतिपत्तिहेतुः अतिप्रसङ्गात् / अनुपलम्भश्च उपलम्भाभावः, अभावश्च आश्रयग्रहण-प्रतियोगिस्मरणसापेक्षः ग्रहीतुं शक्यः, तत्परतन्त्र तया तद्ग्रहणस्मरणाभावे ग्रहीतुमशक्यत्वात् / अतः अनुपलम्भं तत्रेच्छता तदाश्रय10 तया तत्र प्रथममात्मा परिच्छेत्तव्यः प्रतियोगी च स्मर्त्तव्यः, अतः कथं सुषुप्ताद्यवस्थायां सर्वथा ज्ञानाभावः सिद्ध्येत् ? तन्न अनुपलम्भतोऽपि तत्र तदभावसिद्धिः / ___ नापि जाग्रत्प्रबोधदशाभाविज्ञानान्तरात् ; तदपेक्षया सुषुप्तादिज्ञानस्य उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वासंभवात् , तद्दशाभाविनः तदभावग्राहिणः कस्यचिज्ज्ञानान्तरस्याऽप्रतीतेश्च / 'निर्भरसुप्तेन मया न किञ्चिज्ज्ञातम्' इति प्रबोधदशाभाविज्ञानं तदभावग्राहकत्वेन 15 प्रतीयते एव; इत्यप्यपेशलम् ; एतस्मात् तदा तत्सद्भावस्यैव प्रतीतेः / स्मृतिरूपं हि इदम , 'स्मृतिश्च तेदशायां तदभावनाहिज्ञानान्तरमन्तरेण नोपपद्यते' इत्युक्तमनन्तरमेव, तन्न सुषुप्ताद्यवस्थायां स एवात्मा ज्ञानाभावं प्रतिपत्तुं समर्थः / नापि पार्श्वस्थः; कारणस्वभावव्यापकानुपलब्धेः विरुद्धविधेर्वा तदभावाऽविनाभाविनो लिङ्गस्य अत्रासंभवात् / न च तत्र तत्सद्भावाऽविनाभाविनोऽप्यस्याँऽसंभवः समान 20 इत्यभिधातव्यम् ; स्वात्मनि तंदविनाभावित्वेनाऽवधारितस्य प्राणापानशरीरोष्णताकार विशेषादेः तत्सद्भावाऽविनाभाविनो लिङ्गस्य अत्रोपलब्धेः, जाग्रहशायामपि अन्यचेतोवृत्तेः तद्वयतिरेकेण अन्यतोऽप्रतिपत्तेः / ननु द्विविधोऽत्र प्राणादि:-चैतन्यप्रभवः, प्राणादिप्रभवश्च / तत्र चैतन्यप्रभवो (1) ज्ञानाभावे। (2) सुषुप्ताद्यवस्थायाम् / (3) ज्ञानाभाव / (4) आश्रयभूतस्य आत्मनो ज्ञानमथ च ज्ञानाभावस्य प्रतियोगिनो ज्ञानस्य स्मरणमस्त्येवेति भावः। (5) सुषुप्तिदशायाम् / (6) ज्ञानाभाव। (7) लिङ्गस्य। (8) तुलना-"स्वात्मनि स्वसंविदितविज्ञानाविनाभूतत्वेन निश्चितस्य प्राणापानशरीरोष्णताकारविशेषादेः तदवस्थायामुपलभ्यमानलिङ्गस्य सद्भावेन अनुमानप्रतीत्युत्पत्तेः।"-सन्मति० टी० 1090 / प्रमेयक०प०३२४ / (9) ज्ञानाविनाभावित्वेन / (10) प्राणापानशरीरोष्णतादिभ्य एव ज्ञानं प्रतीयत इत्यर्थः। (11) 'ननु द्विविधोऽत्र प्राणादि: चैतन्यप्रभवो जाग्रद्दशायाम्, प्राणादिप्रभवश्च सुषुप्ताद्यवस्थायामिति ।"-प्रमेयक पु० 324 / 1 ताप्रतिहेतुत्वा-आ०, ब०। 2-कालस्य भावस्य आ० / 3 निर्भरस्वप्नेन मया न कि-ब०, आ०। 4 मया किञ्चिज्ज्ञानम् श्र० 15 तद्भावस्यैव श्र०। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76 ] सुषुप्त यादौ ज्ञानसभावसिद्धिः 851 जाग्रहशायाम् प्राणादिप्रभवश्व सुषुप्ताद्यवस्थायामिति / तत्र चैतन्यप्रभवप्राणादेर्जाग्रहशायां चैतन्यानुमान युक्तम् न पुनः प्राणादिप्राणादेः। न खलु गोपालघटिकादौ धूमप्रभवधूमादग्न्यनुमानं दृष्टम् अग्निप्रभवधूमादेव तदर्शनात्; इत्यप्यचारु; सुषुप्तेतरावस्थयोः प्राणादेर्विशेषाऽप्रतीतेः / यथैव हि सुषुप्तः प्राणिति तथैव इतरोऽपि, अन्यथा 'किमयं सुषुप्तः किं वा जागर्ति' इति सन्देहो न स्यात् / यदि चैते सुषुप्तस्य चैतन्यप्रभवाः न / स्युः तर्हि जाग्रतः परवञ्चनाभिप्रायेण सुषुप्तव्याजेनाऽवस्थितस्य तादृशामेव तेषां संभवो न स्यात् / नहि अग्नेर्जायमानो धूमः प्रयत्नशतैरपि धूमादन्यतो वा जायते, धूमप्रभवो वाऽग्नेः इति / दृश्यन्ते च यादृशा एंव सुषुप्तस्य प्राणादयः तादृशा एव अस्यापि / तन्नैते भिन्न कारणप्रभवाः / चैतन्येतरप्रभवांश्च प्राणादीन विवेचयन् वीतरागेतरप्रभवान् व्यापारादीनपि 'विवेचयतु / तथा च “सरागा अपि वीतरागवच्चेष्टन्ते वीतरागाश्च 10 सरागवत् अतो कीतरागेतरविभागो निश्चेतुमशक्यः" [ ] इति विप्लवते / सुषुप्तादौ च प्रथमः प्राणादिः कुतो जायताम् ? जाग्रद्विज्ञानसहकारिणो जाग्रप्राणादेः इति चेत् ; न; ऎकस्माज्जाग्रद्विज्ञानात् अनन्तरभावी प्राणादिः कालान्तरभावि च प्रबोधज्ञानम् इत्यस्याऽसम्भाव्यमानत्वात् / नहि एकस्मात् सामग्रीविशेषात् क्रमभाविकार्यद्वयसंभवो युक्तः; अन्यथा नित्यादप्यक्रमात् क्रमवत्कार्यद्वयोत्पत्तिः स्यात् / 15 तथा च “नाक्रमात् क्रमिणो भावाः" [प्रमाणवा० 1 / 45] इत्यस्य विरोधः। तस्मात् सुषुप्तावस्थाभाविन एव ज्ञानात् तत्कालभाविप्राणादिप्रभवोऽभ्युपगन्तव्यः, अतः कथं तत्र ज्ञानामावर्सिद्धिः 1 ततो ज्ञानस्य कदाचिदपि व्यवच्छेदासंभवात् सिद्धोऽनवच्छिन्नो ज्ञानसन्तानः, तस्य च मुक्तिकारणानुष्ठानात् प्रतिबन्धककर्मप्रक्षये अनन्तचतुष्टयस्वरूपलाभो मोक्ष इति / तथा च घातिकर्मप्रक्षये समुत्पन्न केवलज्ञानादेर्भगवतो मुक्तियैरभिप्रेता तैः जीवन्मुक्तये दत्तो जलाञ्जलिः अनन्तचतुष्टयासंभवात् / कवलाहारो हि क्षुद्वेदनोदये गृह्यते, तदुदये च क्षुद्दुःखसंभवात् भगवतः कथमनन्तं सौख्यम् ? यतोऽनन्तचतुष्टयस्वरूपलाभलक्षणा जीवन्मुक्तिः स्यात् / न च तत्र भुक्तयावेदकं किञ्चित्प्रमाणमस्ति ॥छ। (1) “यथैव हि सुषुप्तः प्राणिति तथेतरोऽपि, अन्यथा 'किमयं सुषुप्तः किंवा जागति' इति सन्देहो न स्यात्। यदि चैते सुषुप्तस्य चैतन्यप्रभवा न स्युः किन्तु प्राणादिप्रभवाः; तहि जाग्रतः परवञ्चनाभिप्रायेण सुषुप्तव्याजेनावस्थितस्य तादृशामेव तेषां भावो न स्यात् ।"-प्रमेयक० पृ० 324 / (2) प्राणप्रभवाणामेव प्राणादीनाम् / (3) द्रष्टव्यम्-१०६०३ टि० 1 // (4) "एकस्माज्जाग्रद्विज्ञानादनन्तरभावी प्राणादिः कालान्तरभावि च प्रबोधज्ञानमित्यस्यासंभाव्यमानत्वात्।"-प्रमेयक०प०३२५॥ (5) द्रष्टव्यम्-पृ० 619 टि० 10 / (6) श्वेताम्बरः यापनीयैश्च / (7) केवलिनि / 1 सुप्तः आ० / 2 एव सुप्तस्य ब० / 8 विवेचयेत् श्र० / 4 सुप्तादौ च आ०। 5-भाविप्राणादेः का-श्र०। 6-दयस्य संभ-ब०। 7-सिद्धेः श्र०। कथमनन्तसौख्यं आ० / 9-कं कञ्चित् ब० / 20 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 852 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० नन्विदमस्ति-यदा भुक्तिः अविकलकारणा तदाऽसौ भवत्येव यथा छद्मस्थाव ___ स्थायाम् , तथाभूता चासौ सैयोगिकेवल्यवस्थायामिति / 'द्विविधं 'केवलिनः कवलाहारिणः इति ताव हि भुक्तः कारणम् -बाह्यम् आभ्यन्तरश्च / तत्र बाह्यम्-आहारादि, राणां यापनीयशाकटा- तत्तावदविकलमास्ते न तत्र विप्रतिपत्तिः / आभ्यन्तरमपि पर्याप्ति5 यनस्य च पूर्वपक्षः- वेद्य-तैजस-दीर्घायुष्कोदयलक्षणं भगवति अविकलमेव / यतो हि शरीरेन्द्रियादिनिष्पत्तिः सा पर्याप्तिः / वेद्यं सुखदुःखसाधकं कर्म / तैजसम् अन्तस्तेजः शरीरोष्मा, यतो भुक्ताऽन्नादिपाको भवति इति / दीर्घमायुः चिरजीवनकारणं कर्म / एतदुदयात् क्षुद्वेदना उपजायते, अस्ति च तदुदयो भगवति अतो भुक्तिसिद्धिः। तदनभ्युपगमे वा तत्र क्षुदभावः प्रमाणात् प्रतिपत्तव्यः / तच्च प्रमाणम्-आगमः, 10 अन्यद्वा स्यात् ? न तावदागमः; सिद्धवत् सयोगकेवलिनि क्षुदभावप्रतिपादकस्य आगमस्याऽसंभवात् / प्रमाणान्तराच्च निषेधः स्वभावानुपलम्भात्, अन्यतो वा स्यात् ? न तावत् स्वभावानुपलम्भात् ; केवलिनो विप्रकृष्टस्वभावत्वात् / नच विप्रकृष्टस्वभावे भावे स्वभावानुपलम्भो युक्तः; एकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्भलक्षणत्वात्तस्य / अन्यतोऽपि 15 विधीयमानात् , निषिध्यमानाद्वा तन्निषेधः स्यात् ? यदि विधीयमानात् ; तदा तेन विरो धिना भवितव्यम् , अविरुद्धविधेरभावाऽसाधकत्वात् / न च क्षुद्विरोधि केवलिनि किञ्चित् प्रतीयते / न च ज्ञानादिगुणा एव तत्र तद्विरोधिनः इत्यभिधातव्यम् / यतो ज्ञानादिमात्रस्य क्षुधा विरोधः, तद्विशेषस्य वा ? यदि ज्ञानादिमात्रस्य; तर्हि यथा यथा तद्गुणा विवर्द्धन्ते तथा तथा क्षुधो हानितारतम्येन भवितव्यम् प्रकाशविवृद्धाविव तमसः, 20 न चैवमस्ति / नहि बालादौ ज्ञानाद्यपचये क्षुदुपचयः, ततः प्रभृति च ज्ञानाद्युपचये तारतम्येन क्षुदपचयो लक्ष्यते / तन्न ज्ञानादिमात्रस्य क्षुधा विरोधः / अथ ये (1) "अस्ति च केवलिभुक्तिः समग्रहेतुर्यथा पुरा भुक्तेः / पर्याप्तिवेद्यतैजसदीर्घायुष्कोदयो हेतुः // नष्टानि न कर्माणि क्षुधो निमित्तं विरोधिनो न गुणाः / ज्ञानादयो जिने किं सा संसारस्थितिर्नास्ति ।"-केवलिभु० श्लो० 1-2 / सन्मति० टी० पृ० 612 / स्या० र० पृ० 474 / आध्यात्मिक० पृ०६३ B. / “अस्ति केवलिनो भुक्तिः समग्रसामग्रीकत्वात् पूर्वभुक्तिवत् / सामग्री चेयं प्रक्षेपाहारस्य, तद्यथा पर्याप्तत्वं वेदनीयोदयः आहारपक्तिनिमित्तं तैजसशरीरं दीर्घायुष्कत्वं चेति ।"-सूत्रकृ० शी० पृ० 345 / युक्तिप्र० पृ० 153 / (2) “यतः कवलाहारभुवतेद्विधा कारणं बाह्यमाभ्यन्तरं च / तत्र बाह्यमशनादि, तत्तावदस्त्यैव न तत्र कस्यापि विवाद: / आभ्यन्तरं पर्याप्तिवेद्यतैजसदीर्घायुष्ट्वोदयलक्षणम् ।"-स्या० र० पृ. 475 / (3) "तम इव भासो वृद्धौ ज्ञानादीनां न तारतम्येन / क्षुध् हीयतेऽत्र न च तज्ज्ञानादीनां विरोधगतिः // अविकलकारणभावे तदन्यभावे भवेदभावेन / इदमस्य विरोधीति ज्ञाने न तदस्ति केवलिनि।"-केवलिभु० श्लो० 3-4 / स्या० र० पृ० 473 / “न कवला. हारवत्त्वेन तस्यासर्वज्ञत्वं कवलाहारसर्वज्ञत्वयोरविरोधात् ।"-प्रमाणनय० 2 / 27 / 1 सयोगिकैव-ब० / एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति आ०। 2 'भावे नास्ति श्र०। 3-तव्यमविधेरभा-आ० / 4 ज्ञानापचये ब०। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76 ] केवलिकवलाहारविचारः 853 केवलिगता ज्ञानादयः प्रकर्षपर्यन्तप्राप्ताः तेषामेव क्षुधा विरोधः; तन्न; तथाप्रतिपतुमशक्तेः / नहि केवलिज्ञानादयः क्षुधं विरुन्धन्ति इति अर्वाग्दृशा प्रतिपत्तुं शक्यम् ; अतीन्द्रियत्वात्तेषाम् / किञ्च, अविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावेऽभावात् विरोधगतिर्भवति शीतस्पर्शस्येव अग्निसन्निधौ। एतच्चात्र दुर्घटम्-केवलिगुणानामतीन्द्रियतया 'एतत्सन्निधौ क्षुन्न भवति' / इति प्रतीतेरनुपपत्तेः / तन्न विधीयमानात् कुतश्चित् तत्र क्षुधोऽभावसिद्धिः। निषिध्यमानश्च भावः तस्याः कार्यम् , कारणम् , व्यापको वा स्यात् ? यदि कार्यम् ; तदात्मनिर्वर्त्तनसमर्थाऽविकलकारणस्यैव तत् निवृत्तिमवगमयेत् न कारणमात्रस्य, अस्य कार्याभावेऽपि भावाविरोधात् / कारणमपि निवर्तमानं कार्यं निवर्त्तयति यथा वह्निधूमम् , व्यापकं वा निवर्तमानं व्याप्यम् यथा वृक्षः शिंशापाम् / न चात्र 10 क्षुधः कारणस्य. व्यापकस्य वा कस्यचिन्निवृत्तिरस्ति / नच मोहनीयादिकर्मचतुष्टयाऽभावात् क्षुधोऽभावः; तस्याः तत्कार्यत्वस्य तत्स्वभावत्वस्य वाऽसंभवात् / नहि क्षुत् तत्कर्मचतुष्टयकार्या; प्राक्प्रतिपादितबाह्याभ्यन्तरकारणप्रभवत्वात्तस्याः। प्रतिपक्षभावनाऽनिवर्त्यत्वेन मोहस्वभावत्वाऽसंभवाच्च; यो हि मोहस्वभावः स प्रतिपक्षभावनया निवर्त्यते यथा क्षमादिभावनया क्रोधादिः, मोहस्वभावा च क्षुद् भवद्भिरिष्टा इति / तथा च क्षुद्वेदनाप्रतीकारार्थं शास्त्रे प्रतिपक्षभावनैव उपदिश्येत न क्लेशभूयिष्ठध्यानाध्ययनविघातकारिणी पिण्डैषणा। शीतोष्णबाधातुल्यत्वाच्च क्षुधो न मोहस्वभावत्वम् , अन्यथा तद्वा (1) "अविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावेऽभावाद्विरोधगतिः ।"-न्यायबि० पृ० 96 / (2) विरोधज्ञानम् / (3) “निषिद्धमानश्च भावस्तस्याः कार्य कारणं व्यापको वा स्यात् ।"-स्या० र० पृ० 473 / "किमेवं सति कवलाहारस्य व्यापकं कारणं कायं सहचरादि वा सार्वश्येन विरोधमधिवसेत।"रत्नाकराव० 2 / 27 / आध्यात्मिक० श्लो० 5 / (4) क्षुधः / (5) “यदि कार्यम् ; तदा तन्निवर्तमानम् आत्मनिर्वर्तनसमर्थाया एव क्षुधो निवृत्तिमवगमयेन्न तु सर्वथा, कारणमात्रस्य कार्याभावेऽपि भावाविरोधात् ।"-स्या० 20 पृ० 473 / (6) कारणमात्रस्य अनुकूलात्मनः / (7) "ज्ञानावरणीयादेानावरणादिकर्मणः कार्यम् / क्षुत् तद्विलक्षणास्यां न तस्य सहकारिभावोऽपि ॥"-केवलिभु० श्लो. 10 / “न हि क्षुन्मोहनीयकार्या वेदनीवप्रभवत्वात् ।"-स्या० र० पृ० 473 / (8) "न क्षुद विमोहपाको यत्प्रतिसंख्यानभावननिवा। न भवति, विमोहपाक: सर्वोऽपि हि तेन विनिवर्त्यः ॥"-केवलिभु० श्लो० 7 / स्या० र० पृ० 474 / शास्त्रवा० टी० पृ० 393 B. / आध्यात्मिक० पृ० 59 B. | "यतो मोहविपाका क्षुन्न भवति तद्विपाकस्य प्रतिपक्षभावनया प्रतिसंख्यानेन निवर्त्यमानत्वात् / तथाहि कषायाः प्रतिकूलभावनया निवर्तन्ते "क्षुद्वेदनीयं तु रोगशीतोष्मादिवत् जीवपुद्गलविपाकितया न प्रतीपवासनामात्रेण निवर्तते अतोन मोहविपाकस्वभावा क्षुदिति"-सूत्रकृ० शी० पु०३४६ A. / युक्तिप्र० पृ० 150 / (9) "शीतोष्णवाततुल्या क्षुत्तत् तत्प्रतिविधानकाङ्क्षा तु। मूढस्य भवति मोहात् तथा भृशं बाध्यमानस्य। शीतोष्णक्षुदुदन्यादयो हि ननु वेदनीय इति ।"-केवलिभु० श्लो. 8,13 / स्या० र० 10 474 / 1-यत्वात्सन्निधौ ब०। 2 भगवतीति आ०। तदात्मनिवर्तनसमर्थाविकल-श्र०। ' 4-भावे भावा-ब०। 5 निर्वय॑ते ब० / Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० 10 धाया अपि मोहखभावत्वं स्यादविशेषात् / ननु भगवतः क्षुदभ्युपगमे अशेषज्ञत्वादिविरोधः, क्षुदुदये अस्मदादिवत्तत्र ज्ञानदर्शनचेष्टादेः प्रक्षयात् ; तदसमीचीनम् ; ज्ञानावरणादिप्रक्षये जातायामपि क्षुधि ज्ञानादिक्षयाऽयोगात्, तत्क्षयो हि ज्ञानावरणादिकर्मोदयनिबन्धनः / अतः अस्मदादौ 5 तेदुदयातिशयोत् तत्क्षयातिशयो युक्तः भगवति तु तदावरणादेरशेषस्यापगमात् सत्यामपि क्षुधि न ज्ञानादिक्षयः / नहि अग्न्यभावे सत्यपीन्धने धूमो भवति / तत्कर्मचतुष्टयप्रभवत्वे च क्षुधः “एकादश जिने क्षुत्पिपासादयः परीषहाः वेदनीयप्रभाः"[ ] इत्यागमविरोधः / नच उत्कर्षेण देशोनपूर्वकोटि विहरतः सयोगकेवलिनः तावत्कालं कायस्थितिः भुक्तिं विना घटते / अथ अनन्तवीर्यत्वात् ती विनाप्यस्य तत्स्थितिः; तर्हि आयुष्कर्मणापि विना तत्स्थितिप्रसङ्गात् न कदाचित् शरीराद्यपायः स्यात् इति मोक्षाय दत्तो जलाञ्जलिः। तत्स्थितेः आयुष्कर्मापेक्षणे वा आहारापेक्षणमप्यस्तु उभयस्यापि तत्कारणत्वाऽविशेषात् / किंञ्च, प्रदीपज्वालाजलधारासमानं शरीरम् , तत्र च यथा तैलक्षये न प्रदीपज्वालाऽवतिष्ठते जलागमनमन्तरेण वा जलधारा तथा शरीरमपि भुक्तथभावे न स्थितिमास्तिघ्नुते। . अंथ भुक्तिर्दोषः, यदुपवासादिप्रत्याख्यानं क्रियते, निर्दोषे च केवलिनि दोषो विरुद्धः; तर्हि निषद्या गमनश्च अर्हति न प्राप्नोति स्थानयोगादिना निषद्यादेः प्रत्याख्यानात् , वचनश्च न प्राप्नोति मौनव्रतिकोपलम्भात् / अथ मतम्-अंशेषज्ञस्य मांसादिकं पश्यतः कथं भुक्तिः अन्तरायोपपत्तेः? तद (1) "अनन्तं च सुखं भर्तुः ज्ञानादिगुणसंगतम् / क्षुधादयो न बाधन्ते पूर्ण त्वस्ति महोदये // " -द्वात्रि० 30 / 11 / जैनतर्कभा० पृ०८। (2) ज्ञानावरणोदयात्। (3) ज्ञानक्षयातिशयः / (4) "निरस्तघातिकर्मचतुष्टये जिने वेदनीयसभावात्तदाश्रया एकादश परीषहाः सन्ति अथवा एकादश जिने न सन्तीति वाक्यशेषः कल्पनीयः ।"-सर्वार्थसि०९।११। (5) "देशोनपूर्वकोटीविहरणमेवं सतीह केवलिनः / सूत्रोक्तमुपापादि न मुक्तिश्च न नियतकाला स्यात् ।"-केवलिभु० श्लो० 24 / सन्मति० टी०पू०६१३ / सूत्रकृ० शी० पृ० 346 B. / स्या०र० पृ०४८० / शास्त्रवा० टी०पू० 395 A. / (6) भुक्तिम् / (7) "आयुरिवाभ्यवहारो जीवनहेतुविनाभ्यवहृतेः / चेत्तिष्ठत्वनन्तवीर्ये विनायुषा कालमपि तिष्ठेत् // न ज्ञानवदुपयोगो वीर्ये कर्मक्षयेण लब्धिस्तु / तत्रायुरिवाहारोऽपेक्ष्येत न तत्र बाधास्ति ॥"-केवलिभु० श्लो०२०-२१ / स्या० र०पू० 480 / (8) "तैलक्षये न दीपो न जलागममन्तेरण जलधारा। तिष्ठति यथा तनोः स्थितिरपि न विनाहारयोगेन ॥"-केवलिभ० श्लो० 31 // स्या०र० पृ० 480 / (9) "भुक्तिर्दोषो यदुपोष्यते न दोषश्च भवति निर्दोषैः / इति निगदितो निषद्यार्हति न स्थानयोगादेः ॥"-केवलिभु० श्लो० 28 / स्या० र० पृ० 480 / (10) "परमावधेर्युक्तस्य छद्मस्थस्येव नान्तरायोऽपि / सर्वार्थदर्शनेऽपि स्यान्न चान्यथा पूर्वमपि भुक्तिः ॥"-केवलिभु० श्लो० 32 // स्था० र० पृ० 480 / 1-यान्नक्षयाति-ब०। 2-वति तदा-श्र। 3 कर्मचतु-ब। 4 इत्याद्यागम-ब० / 5-पर्वकोटिविह-ब०16 घटेत ब०।। तत्र यथा आ० 18 भक्ताभावे आ०19-मास्तिष्ठते ब०। 10 भुक्तिदोषा यदु-आ०। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] केवलिकवलाहारविचारः सङ्गतम् ; अवधिज्ञानिभिः परमर्षिभिरनेकान्तात् , ते हि सकलं त्रैलोक्यं पश्यन्ति अथ च भुञ्जते, एवं केवल्यपि / इन्द्रियविषये एव हि अन्तरायो नान्यत्र, अन्यथा छद्मस्थावस्थायामप्यन्तरायः स्यात् , भगवता तदापि अवधिज्ञानेन अशेषवस्तुसाक्षात्करणात् / न च भुक्तौ जिह्वारसप्राप्तेः केवलिनो मतिज्ञानानुषङ्गः; यतो न इन्द्रियविषयसम्बन्धमात्रेण मतिज्ञानं भवति / किं तर्हि ? तत्सम्बन्धे मतिज्ञानावरणक्षयोपशमे च / सति / एतच्च प्रक्षीणाशेषावरणे केवलिनि नास्ति इति न तज्ज्ञानानुषङ्गः, अन्यथा श्रोत्रादीन्द्रियाणां दिव्यतूर्यादिरवेण गणधरदेवादिरूपेण सुगन्धिकुसुमधूंपवासादिगन्धेन मरुत्सिंहासनस्पर्शेन सम्बन्धेऽपि मतिज्ञानमनुषज्येत / ___सं च भगवान् पूर्वाहे अपराह्ने च पादोनप्रहरं धर्मोपदेशनाकाल एव सिंहासनाधिरूढ आस्ते, शेषदिनं तु दिव्यस्थाने देवच्छन्दकाभिधाने गणधरदेवान्विहाय अन्य- 10 मनुष्यतिरश्चामगोचरे ईशानदिशायां समवशरणीयद्वितीयप्राकाराभ्यन्तरवर्त्तिनि गत्वा पल्यके आसने वा यथा सुखमास्ते / तत्र च गणधरदेवैरानीतमाहारं सकलदोषशुद्धं ज्ञात्वा क्षुद्वेदनोदये गृह्णाति / ते च 'आहारं तदीयहस्ते निक्षिप्तं पश्यन्ति, कथमसौ भुङ्क्ते' इत्येतत्तु न पश्यन्ति, मनुष्यतिरश्चां सर्वज्ञाहारनी(नि)हाराणामगोचरत्वात् इति॥छ।। अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्-'आहारवेद्यादिकर्मोदयलक्षणबाह्याभ्यान्तर- 15 कवलाहारनिरसनपुर- कारणसद्भावात् क्षुदुदये सति अविकलकारणा भगवतो भुक्तिर्भस्सरं केवलिनः नोंक- वत्येव' इत्यादि; तदसमीचीनम् ; येतः तत्सद्भावात्तदुदये केवलिनि मीहारप्रसाधनमू- आहारमात्रं प्रसाध्येत कवलाहारो वा ? प्रथमपक्षे सिद्धसाधनम् ; (1) "इन्द्रिय विषयप्राप्तौ यदभिनिबोधप्रसञ्जनं भुक्तौ। तच्छब्दगन्धरूपस्पर्शप्राप्त्या प्रतिव्यढम ।।"-केवलिभ० श्लो० 33 / स्या० र०पू० 480 / "रासनं च मतिज्ञानमाहारेण भवेद्यदि / घ्राणीयं स्यात्तदा पुष्पघाणतर्पणयोगतः ॥"-द्वात्रिं० 30 / 21 / (२)"पूर्वद्वारेण समवसरणे प्रविशत्यथ। प्रदक्षिणीकृत्य पूर्वसिंहासने निषीदति / पादपीठन्यस्तपादः कृततीर्थनमस्कृतिः। विधत्तं देशनां स्वामी गम्भीरमधुरध्वनिः ।"-काललोक० 30 / 31-32 / (3) "प्राकारस्य द्वितीयस्यान्तरे चोत्तरपूर्वतः / देवच्छन्दं विचक्रस्ते स्वामिविश्रामहेतवे ॥"-त्रिषष्ठि०१।३।४४४, 679 / 'इत्थं बलिविधौ पुणे जिना: प्रथमवप्रतः। अवतीर्य द्वितीयस्य वप्रस्यैशानकोणके। देवच्छंदमागत्य सुखं तिष्ठन्ति नाकिभिः।"काललोक० 3068-69 / "तथाहि स भगवान् पूर्वाह्ने अपराले च पादोनप्रहरं यावत् धर्मोपदेशकाल एव सिंहासनाधिरूढ आस्ते, शेषं तु दिनं देवच्छन्दकनाम्नि दिव्यस्थाने यथासुखं गमयति / तत्र च गणधरदेवैरानीतमाहारं निखिलदोषविशुद्धं विज्ञाय क्षुद्वेदनोदये गृह्णाति / आहारं च तदीयपाणिपल्लवन्यस्तं मांसचक्षुषः पश्यन्ति, कथमसौ भुङ्क्ते इत्येतत्तु न पश्यन्ति,सर्वज्ञाहारनिहारयोर्मासचक्षुषामगोचरत्वात्।" -स्या० 2010 469 / (4) 10852 पं०१। (5) "अत्र किमाहारमात्रं प्रसाध्यते कवलाहारो वा?"-रत्नक० टी० पृ० 5 / प्रमेयक० पृ० 300 / लोक० 30 आस्ते, विज्ञान 1 परममहर्षिभिरमहर्षिभिर-ब० / 2-धूमवासादि-ब०। 8 पूर्वाह्न च पादोन-आ०, ब० / 4 अस्ति ब०। / तत्र गणधर-आ०। 6 तद्भावात्त-ब० / Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 856 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० "श्रासयोगकेवलिनो जीवा आहारिणः” [ ] इत्यभ्युपगमात् / षड्विधो हि आहारः प्रवचने प्रसिद्धः "नोकैम्म-कम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो / उज्ज मणो वि य कमसो आहारो छव्विहो णेयो // ' [ भावसं० गा० 110 ] 5 इत्यभिधानात् / तत्र च कवैलाहाराभावेऽपि अन्यस्य कर्म-नोकर्माऽऽदानलक्षणस्य आहारस्य भावात् न आहारित्वं भगवतो विरुद्धम् / न च कवलाहारेणैव आहारित्वं जीवानामित्यभ्युपगमो युक्तः; एकेन्द्रियाण्डजत्रिदशानाम् अभुञ्जानतिर्यङ्मनुष्याणाश्च अनाहारित्वप्रसङ्गात् / द्वितीयपक्षे तु त्रिदेशादिभिर्व्यभिचारः; तेषां वेद्यादि कर्मोदयात् क्षुदुदये सत्यपि कवलाहाराभावात् / अथात्र तदुदयः तमसाधयन्नपि केव10 लिनि प्रसाधयति; तदेतत् केवलिनो महन्माहात्म्यम्-यद्विषयविषमग्रहाभिभूतप्राणिषु (1) “आहारा एइंदियप्पहुडि जाव सजोगकेवलित्ति-अत्र कवललेपोष्ममनःकर्माहारान् परित्यज्य नोकर्माहारो ग्राह्यः ।"-छक्खं, टी० पृ० 409 / “आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टयादीनि सयोगकेवल्यन्तानि ।"-सर्वार्थसि० 1 / 8 / “थावरकायप्पहुदी सजोगिचरमोत्ति होदि आहारी।"-जीवका० गा०६९७। (2) "णोकम्म कम्महारो कवलाहारो य लेप्पहारो य / उज्ज मणो वि य कमसो आहारो छविहोणेओ॥ णोकम्मकम्महारो जीवाणं होइ चउग्गइगयाणं / कवलाहारो णरपसू रुक्खे य लेप्पमाहारो // पक्खीणुज्जाहारो अंडयमझेसु वट्टमाणाणं / देवेसु मणाहारो चउम्विहो णत्थि केवलिणो। णोकम्मकम्महारो उवयारेण तस्स आयमे भणिओ। ण हु णिच्छएण सो वि ह स वीयराओ परो जम्हा ।।"-भावसं० गा० 110-113 / भावसं० श्लो० 226 / उद्धृतेयम्-प्रमेयक० 50 300 / / प्रवचनसा० टी० पृ० 28 / रत्नक० टी० टि० पृ० 5 / श्वेताम्बरागमेषु त्रिविध आहारः प्ररूपितः"भावाहारो तिविहो ओए लोमे य पक्खेवे / सरीरेणोयाहारो तयाय फासेण लोमआहारो। पक्खेवाहारो पूण कावलियो होइ नायब्वो। ओयाहारा जीवा सव्वे अपज्जत्तगा मुणेयव्वा / पज्जत्तगा य लोमे पक्खेवे होइ नायव्वा / / एबिंदियदेवाणं नेरइयाणं च नत्थि पक्खेवो। सेसाणं पक्खेवो संसारत्थाण जीवाणं ॥"-सूत्रकृ. नि० गा० 170-73 / बौद्धधर्मसंग्रहे पंचधा आहारा: प्ररूपिता:-"पंचाहाराः ध्यानाहाराः कवलीकाहाराः प्रत्याहाराः स्पर्शाहाराः संचेतनिकाहाराश्चेति।"-धर्मसं० 10 15 / (3) "जरवाहिदुक्खरहियं अहारणिहारवज्जियं विमलं / सिंहाण खेलसेओ णत्थि दुगंछा य दो सो य ।"बोधपा० गा० 37 / 'पडिसमयं दिव्वतमं जोगी णोकम्मदेहपडिबद्धं / समयपबद्धं बंधदि गलिदवसेसाउमेत्तठिदी ॥"-लब्धिसा० गा० 614 / “लाभान्तरायस्याशेषस्य निरासात् परित्यक्तकवलाहारक्रियाणां केवलिनां यतः शरीरबलाधानहेतवोऽन्यमनुजाऽसाधारणाः परमशुभाः सूक्ष्मा अनन्ताः प्रतिसमयं पुद्गलाः सन्बन्धमुपयान्ति स क्षायिको लाभः।"-सर्वार्थसि० 2 / 4 / “नोकर्मकर्मनामानमाहारं गृह्णतोऽहतः / देहस्थितिर्भवत्येतदस्माकमपि सम्मतम् ॥"-भावसं० श्लो० २२८"प्रथमपक्षे सिद्धसाधनता; आसयोगकेवलिन आहारिणो जीवा इत्यभ्युपगमात्।"-रत्नक० टी० पृ० 5 / प्रमेयक० पृ० 300 / "ततो नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वम् ।"-प्रव० टी० पृ० 29 / (4) “एकेन्द्रियेषु जीवेषु लेपाहारः प्रजायते / आहारो मानसो देवसमूहेष्वखिलेष्वपि / इति हेतोर्जिनेन्द्रस्य कवलाहारपूर्विका / देहस्थितिर्न वक्तव्या."-भावसं० श्लो० 230-31 / प्रमेयक पृ० 300 / (5) 'देवदेहस्थित्या व्यभिचारः"-रत्नक० टी० 105 / (6) देवादिषु / (7) कवलाहारम् / 1 नोकर्मकर्महारो श्र० / 2 न कव-आ० / 3 यवुदये आ०, ब० / 4 यद्विषये विषम-आ० / Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 857 प्रवचनप्र० का० 76 ] केवलिकवलाहारविचारः कवलाहारप्रसाधनाऽसमर्थोऽपि तदुदयः तत्र समर्थो भवतीति ! किञ्च, 'तत्र तदुदयः तत्साधनसमर्थः' इत्येतत् कुतः प्रतिपन्नम्-अभ्युपगममात्रात् , प्रमाणतो वा ? यदि अभ्युपगममात्रात्; अतिप्रसङ्गः, सर्वस्य स्वेष्टतत्त्वसिद्धिप्रसङ्गात् / अथ प्रमाणतः; किमत्र प्रमाणम्-प्रत्यक्षम्, अनुमानम्, आगमो वा ? प्रत्यक्षश्चेत् ; किम् ऐन्द्रियम् , अतीन्द्रियं वा ? न तावदैन्द्रियम् ; तस्य अशेषज्ञाहार- 6 निहाराऽगोचरत्वाभ्युपगमात्, अन्यथा "अाहारा य निहारा केवलिणो पच्छन्ना" [ ] इत्यागमविरोधः / 'अतीन्द्रियं तु तत्तत्र प्रवर्त्तते' इत्यत्र कोशपानं विधेयम् / अथानुमानम् ; किमत्र लिङ्गम्-तदुदय एव, मनुष्यत्वम् , देहस्थितित्वं वा ? न तावत्तदुदय एव; अस्य त्रिदशादिभिर्व्यभिचारप्ररूपणात् / नापि मनुष्यत्वम् ; अयोगकेवलिना अनेकान्तात् / अथास्य मनुष्यप्रकृत्यतिक्रान्तत्वात् नोऽनेन अनेकान्तः; 10 तर्हि असिद्धो हेतुः, सयोगकेवलिनोऽपि तद्वत्तदतिक्रान्तत्वात् / तदुक्तम्"मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः // " [बृहत्स्व० अनन्त० श्लो० 75 ] इति / नापि देहस्थितित्वम् ; तथाहि-'भगवतो देहस्थितिः आहारपूर्विका देहस्थितित्वात् अस्मदादिदेहस्थितिवत्' इत्यत्र प्रयोगे किम् आहारमात्रपूर्वकत्वं तत्स्थितेः प्रसाध्येत, 15 कवलाहारपूर्वकत्वं वा ? प्रथमपक्षे 'सिद्धसाध्यता' इत्युक्तम् / द्वितीयविकल्पे तु त्रिदशादिभिर्व्यभिचारः, तेषां कवलाहाराभावेऽपि देहस्थितिसंभवात् / अथ 'औदारिकैशरीरस्थितित्वात्' इति विशिष्य उच्यते ततो न व्यमिचार:; तन्न; तदीयौदारिकशरीरस्थितेः परमौदारिकशरीरस्थितिरूपतया अस्मदाद्यौदारिकशरीरस्थितिविलक्षणत्वात् / तस्याश्च केवल्यवस्थायां केशादिविवृद्धभाववत् तद्भुक्तथभावोऽविरुद्ध एव। 20 अथ तेंवृद्ध्यभावो 'देवोपनीतः न घातिकर्मक्षयजः येन तद्वत् केवल्यवस्थायां तद्भुक्त्यभावोऽप्यापायेत, बालोत्पाटनानन्तरं हि इन्द्रो वजं नखकेशेषु भगवतो भ्रामयति अतस्तवृद्ध्यभाव इति; तदयुक्तम् ; वज्रप्रभावतः तेषां मूलतोऽप्युत्थानाभावप्रसङ्गात्, सर्वतीर्थकृतामेकादृशकेशादिप्रतीतिप्रसङ्गाच्च, न चैवम् , ऋषभादितीर्थ (1) वेद्यादिकर्मोदयः / (2) केवलिनि कवलाहारसाधनसमर्थः / (3) कवलाहारसाधनसमर्थः / (4) "पच्छन्ने आहारनीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा।"-समवा० सू० 34 / (5) प्रत्यक्षं अशेषज्ञाहारसाक्षात्करणे / (6) अयोगिवन्मनुष्यप्रकृत्यतिक्रान्तत्वात्। (7) "एरिसगुणेहिं सव्वं अइसयवंतं सुपरिमलामोयं / ओरालियं च कायं णायव्वं अरहपुरिसस्स ॥"-बोधप्रा० गा० 39 / “तद् भगवतः शरीरमौदारिकं न भवति किन्तु परमौदारिकम्-शुद्धस्फटिकसंकाशं तेजोमूर्तिमयं वपुः / जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम्।"-प्रव० टी० पृ० 28 / (8) परमौदारिकशरीरस्थितेः / (9) केशादिवृद्धयभावः / “अवट्ठिए केसमंसुरोमनहे"-समवा० सू० 34 / 1तुन प्रवर्तते ब०। 2 नानेकान्तः ब०, न तेनानेकान्तः श्र०। -कस्थितित्वात श्र० / 4 केशादिवृद्धघ-श्र०,ब015 दोषापनीतःब०। 6 घातिक्षयजःब०.१०। 7 बालोत्पादानन्तरं आ०,श्र०। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 858 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० कृतां केशकलापस्य गुरुलघुभावेन विलक्षणस्य उपलब्धेः / ततो घातिकर्मक्षयावस्थायां यस्य यावन्तो नखकेशाः तस्य तावन्त एवाऽवतिष्ठन्ते इति / केवल्यवस्थायां घातिक्षयजो यथा तच्छरीरस्थितौ केशादिवृद्ध्यभावलक्षणोऽतिशयोऽस्ति तथा तद्भुक्त्यभावल क्षणोऽप्यस्तु अविशेषात्। छद्मस्थावस्थावच्चास्य भुक्त्यभ्युपगमे अक्षिपक्ष्मनिवेशः (मेषः) 5 नखकेशवृद्ध्यादिश्चाभ्युपगम्यताम् / तदभावातिशयाभ्युपगमे वा भुक्त्यभावातिशयोऽप्य भ्युपगन्तव्यो विशेषाभावात् / तपोमाहात्म्यात् चतुरास्यत्वादिवच्च अभुक्तिपूर्वकत्वेऽपि शरीरस्थितेर्न कश्चिद्विरोधः। दृश्यते हि पञ्चकृत्वो भुञ्जानस्य यादृशी शरीरस्थितिः तादृश्येव प्रतिपक्षभावनोपेतस्य चतुस्त्रिव्येकभोजनस्यापि, तथा प्रतिदिन भुञ्जानस्य यादृशी सा तादृश्येव एकद्व्यादिदिनान्तरितंभोजिनोऽपि / श्रूयते च / बाहुवलिप्रभृतीनां संवत्सरप्रमिताहारवैकल्येऽपि विशिष्टा शरीरस्थितिः / आयुःकर्मैव हि प्रधानं तत्स्थितेनिमित्तम् , भुक्त्यादिकं तु सहायमात्रम् / तच्छरीरोपचयोऽपि लाभान्तरायप्रक्षयात् प्रतिसमयं तदुपचयनिमित्तभूतानां दिव्यपरमाणूनां लौभाद् घटते / ननु मासं वर्ष वा तदभावे तत्स्थितावपि नाकालं तत्स्थितिः पुनः तदाहारे प्रवृत्तिप्रतीतेरिति चेत् ; कुतः तस्थितेः आकालमप्रतीतिः-प्रत्यक्षतः, अनुमानाद्वा ? यदि 15 प्रत्यक्षतः; सर्वज्ञवीतरागाय दत्तो जलाञ्जलिः तद्वत् ततः तदप्रतीतेरप्यविशेषात् / अनुमा नात् तत्सिद्धिरन्यत्राप्यविशिष्टा / यथैव हि 'ज्ञानप्रकर्षः दोषावरणापकर्षश्च कचित् परमप्रकर्षमापद्यते प्रकृष्यमाणत्वात् परिमाणवत्' इत्युच्यते; तथा 'एकड्यादिदिनान्तरितभोजिनाम् अमुक्तिपूर्वको देहस्थितिप्रकर्षः कचित् परमकाष्ठामापद्यते तत्त्वात् तद्वदेव' (1) केवलिनः / (2) "तपोमाहात्म्याच्चतुरास्यत्वादिवच्चास्याभुक्तिपूर्वकत्वे तस्याः को विरोधः ?"-प्रमेयक० पृ०३०२। (3) द्रष्टव्यम्-पृ० 856 टि० 3 / "लाभान्तरायस्याशेषनिरासात परित्यक्तकवलाहारक्रियाणां केवलिनां यतः शरीरबलाधानहेतवोऽन्यमनुजासाधारणाः परमशुभाः सूक्ष्माः अनन्ताः प्रतिसमयं पुद्गलाः सम्बन्धमुपयान्ति स क्षायिको लाभः / तस्मादौदारिकशरीरस्य किञ्चिन्त्यनपूर्वकोटिवर्षस्थिति: कवलाहारमन्तरेण कथं संभवतीति यद्वननं तदशिक्षितकृतं विज्ञायते।" -राजवा०२।४। “लाभान्तरायक्षयाल्लाभः परमशुभपुद्गलादानलक्षणः परमौदारिकशरीरस्थितिहेतुः।" -तत्त्वार्थश्लो०१० 314 / प्रमेयक० ए० 302 / (4) "मासं वर्ष वापि च तानि शरीराणि तेन भुक्तेन / तिष्ठन्ति न चाकालं नान्यथा पूर्वमपि भुक्तिः ॥"-केवलिभु० श्लो० 22 / स्या० र० पृ० 480 / (5) "विपक्षभावनावशाद् रागादीनां हान्यतिशयदर्शनात् केवलिनि तत्परमप्रकर्षसिद्धेः वीतरागतासंभवे भोजनाभावपरमप्रकर्षोऽपि तत्र किन्न स्यात् ? तद्भावनातो भोजनादावपि हान्यतिशयदर्शनाविशेषात् / तथाहि एकस्मिन् दिने योऽनेकवारान् भुङ्क्ते कदाचित् विपक्षभावनावशात् पुनरेकवारं भुक्ते, कश्चित्पुनरेकदिनाद्यन्तरितभोजनः, अन्यः पुनः पक्षमाससंवत्सराद्यन्तरितभोजन इति ।"-रत्नक० टी० पृ० 6 / प्रमेयक० पृ० 302 // 1 केवलाव-ब०,१०। 2-णातिश-श्र०। 3 भुक्त्युपगमे ब०। 4-तिशयोऽभ्युप-आ०। 5-दिनं भोजनं भुजा-ब०। 6-भोजनोऽपि श्र। 7-तेः श्र०। 8 कुतस्तत्रस्थि-आ। 9 ततः तत्प्रती-आ०। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] केवलिकवलाहारविचारः 856 इत्युच्यतामविशेषात् / तन्न शरीरस्थितेरपि भगवतो वेद्याद्युदयात् क्षुदुदयः कवलाहारप्रसाधनसमर्थः प्रत्येतुं शक्यः / __ असिद्धश्च अविकलकारणत्वं भुक्तेः, मोहनीयसहायं हि वेद्यादिकर्म क्षुदादिकार्यकरणेऽविकलसामर्थ्य भवति, नान्यथा अतिप्रसङ्गात् / यथैव हि पतिते सैन्यनायके असामर्थ्य सैन्यस्य, तथा मोहनीये विनष्टे अघातिकर्मणामिति। यथा च निर्विषीकृत्य मन्त्रिणा 5 उपयुज्यमानमपि विषं न दाहमूर्छादि कत्तुं समर्थम् तथा शुक्लध्यानानलनिर्दग्धमोहोदयं वेद्यादि क्षुधादिकमिति / प्रयोगः-भगवति बुभुक्षा नास्ति, तत्कारणमोहाभावात्, यत्र यत्कारणाभावो न तत्र तत्कार्यम् यथा अनग्निप्रदेशे धूमः, नास्ति च अर्हति मोह इति / किञ्च, कर्मणामुदयो यद्यनपेक्षः कार्यमुत्पादयेत्, तर्हि त्रिवेदानां कषायाणां वा प्रमत्तादिषु उदयोऽस्ति इति मैथुनं भ्रफुट्यादि कञ्च स्यात् , ततश्च मनसः सङ्कोभात् कथं 10 शुक्लध्यानावाप्तिः क्षेपकश्रेण्यारोहणं वा यतः कर्मक्षपणा स्यात् ? नन्वेवं नामाादयोऽपि तत्र स्वकार्यकारी न स्यात् ; इत्ययुक्तम् ; शुभप्रकृतीनां तत्र अप्रतिबद्धत्वेन स्वकार्यकारित्वोपपत्तेः / यथैव हि बलवता राज्ञा स्वमार्गानुसारिणा लब्धे देशे दुष्टा जीवन्तोऽपि न स्वदुष्टाचरणविधातारः सैंजनास्तु अप्रतिहततया स्वकार्यस्य विधातारः, तथा प्रकृतमपि। कथं पुनरशुभप्रकृतीनामेव अर्हति प्रतिबद्धं सामर्थ्य न पुनः शुभप्रकृतीनामिति चेत् ? 15 उच्यते-अशुभप्रकृतीनामर्हन् अनुभाग घातयति न तु शुभप्रकृतीनाम् , यतो गुणघातिनां दण्डो नाऽदोषाणाम् / यदि च प्रतिबद्धसामर्थ्यमप्यसातावेदनीयं स्वकार्यकारि स्यात् तर्हि दण्डकपाटादिविधानं भगवतो व्यर्थम् / तद्धि यदा न्यूनमायुः वेदनीयादिकमधिकस्थितिकं भवति तदा तेन कर्मणां समस्थित्यर्थं विधीयते / नच अधिकस्थितिकत्वेन फलदानसमर्थं कर्म 20 उपायशतेनापि अन्यथा कत्तुं शक्यमिति न कश्चिन्मुक्तः स्यात् / अथ तपोमाहात्म्यात् (1) "धादि व वेयणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीवं ।"-गो० कर्मका० गा० 19 / “मोहनीयकर्मसहायस्यैव वेदनीयस्य बुभुक्षोत्पादने सामर्थ्यात् ।"-रत्नक० टी० पू०६। प्रमेयक० पू० 303 / "यथैव ब्रीह्यादिबीजं जलसहकारिकारणसहितमङ्करादिकार्य जनयति तथैवासद्वेद्यकर्म मोहनीयसहकारिकारणसहितं क्षुधादिकार्यमुत्पादयति ।"-प्रव० टी० पृ०२८। (2) “यदि मोहाभावेऽपि क्षुधादिपरीषहं जनयति तर्हि वधरोगादिपरीषहमपि जनयतु, न च तथा ।"-प्रव० टी० पृ० 280 प्रमेयक० 10 303 / (3) “शुभप्रकृतीनां तत्राप्रतिबद्धत्वेन .. "-प्रमेयक० पृ० 303 / (4) "हन्तेर्गमिक्रियत्वात् संभूयात्मप्रदेशानां च बहिरुद्गमनं समुद्धातः / .. वेदनीयस्य बहुत्वादल्पत्वाच्चायुषोनाभोगपूर्वकमायुःसमीकरणार्थ द्रव्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुबुदाविर्भावोपशमनवद्देहस्थात्मप्रदेशानां बहिः समुद्धातनं केवलिसमुद्धातः ।"-राजवा० पृ० 53 / "मूलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीवपिडस्स / णिग्गमणं देहादो होदि समुग्धादणामं तु।"-जीवका० गा० 667 / / 1-ष्टे घातिकर्म-ब०, आ012 उपभुज्यमा-ब०।-मोहसहायं आ०, श्र०। 4 च श्र०। 5 क्षपणश्रे-आ016-त्वेन कार्य-ब017 सुजना अप्र-ब018-बद्धसाम-ब०19 दण्डप्रतरादिवि-ब०,०॥ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 860 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० 'निर्जीर्णम् अधिकस्थितिकत्वेन फलदानाऽसमर्थम् आयुःकर्मसमानं कर्म क्रियते, तथा वेद्यमपि तदानासमर्थं क्रियतामविशेषात् / नच कारणमस्ति इत्येतावतैव कार्योत्पत्तिः, अन्यथा इन्द्रियादिकार्यस्याप्यनुषङ्गात् भगवतो मतिज्ञानस्य रागादीनाश्च प्रसङ्गः / अथ आवरणक्षयोपशमस्य मोहनीयकर्मणश्च सहकारिणो विरहात् नेन्द्रियादि स्वकार्यं कुर्यात् ; / अत एव वेदनीयमप्यविशेषात् / न चेयं बुभुक्षा मोहनीयानपेक्षस्य वेदनीयस्यैव कार्यम् येन अत्यन्तप्रक्षीणमोहेऽपि स्यात् ; तथाहि-बुभुक्षा मोहनीयानपेक्षस्य वेदनीयस्य कार्यन्न भवति इच्छात्वात् रिरंसावत्। भोक्तुमिच्छा हि बुभुक्षा, सा कथं वेदनीयस्यैव कार्यम् ? अन्यथा योन्यादिषु रन्तुमि च्छा रिरंसापि तत्कार्यं स्यात्, तथा च कवलाहारवत् स्न्यादावपि तत्प्रसङ्गात् नेश्वरा10 दस्य विशेषः / यथा च रिसंसा प्रतिपक्षभावनातो निवर्त्तते तथा बुभुक्षापि / प्रयोगः भोजनाकाङ्क्षा प्रतिपक्षभावनातो निवर्तते आकाङ्क्षात्वात् स्त्र्याद्याकाशावत् / नन्वस्तु तद्भावनाकाले तन्निवृत्तिः तदभावे तु प्रवृत्तिः पुनः स्यात् ; इत्येतत् स्याद्याकाङ्क्षायामपि समानम् / यथा चास्याः चेतसः प्रतिपक्षभावनामयत्वात् अत्यन्तनिवृत्तिः तथा भोजना काङ्क्षाया अपि, यथा च निर्मोहत्वेन स्च्याद्याकाङ्का विरुद्धा तथा बुभुक्षापि / तथा 15 च प्रयोगः-न बुभुक्षावान् केवली, तद्विरोधिनिर्मोहस्वभावोपेतत्वात्, यो यद्विरोधिस्व भावोपेतः नासौ तद्वान् यथा उष्णस्पर्शस्वभावोपेतः कश्चित् प्रदेशः न शीतस्पर्शवान , क्षुद्विरोधिनिर्मोहस्वभावोपेतश्च केवलीति / ___ एतेन इदमपि प्रत्युक्तम्-'प्रतिपक्षभावनातः क्षुधो निवृत्तौ क्षुद्वेदनाप्रतीकारार्थं शास्त्रे सैव उपदिश्येत न पिण्डैषणा' इत्यादि; चेतसो हि प्रतिपक्षभावनामयत्वसिद्धेः 20 प्राक् पिण्डैषणोपदेशात् , तन्मयत्वसिद्धौ तु कामवेदनानिवृत्तिवत् निःशेषक्षुद्वेदनानिवृ त्तिसिद्धेः न किञ्चित् तद्वेदनाप्रतीकारार्थं द्रव्यान्तरैषणया ? अथ आकाङ्क्षारूपा क्षुन्न भवति तेन वीतमोहेपि अस्याः संभवः; कथमेवं रिरंसाया अपि अॅनाकाङ्क्षारूपायाः तंत्र संभवो न स्यात् ? अथ अनाकाङ्क्षारूपताऽस्याः प्रतीतिविरुद्धा; तदेतद् बुभुक्षायामपि समानम् / अस्तु वाऽनाकाङ्क्षारूपत्वमस्याः; तथापि दुःखरूपत्वात् अनन्तसुखे भगवत्य25 संभवः, यद् दुःखरूपं न तत्तत्र संभवति यथा कामपीडादि, दुःखरूपा च क्षुदिति / (1) "भोक्तुमिच्छा हि बुभुक्षा, सा मोहनीयकार्यत्वात् कथं प्रक्षीणमोहे भगवति स्यात् अन्यथा रिरंसाया अपि तत्र प्रसंगात् ।"-रत्नक० टी० पृ० 6 / प्रमेयक० पृ०३०४। (2) पृ०८५३ पं०१५। (3) आकाङक्षारूपत्वाभावात् / (4) केवलिनि / (5) रिरंसायाः। (6) 'क्षुत्पीडासंभवे चास्य कथमनन्तसौख्यं स्यात् यतोऽनन्तचतुष्टयस्वामिताऽस्य ।”-रत्नक० टी० पृ० 6 / 'यदि क्षुधा बाधास्ति तहि क्षुधा क्षीणशक्तेरनन्तवीर्य नास्ति, तथैव क्षुघा दुःखितस्य अनन्तसुखमपि नास्ति ।"प्रव० टी० पृ० 28 / प्रमेयक० पृ० 299 / 1-निर्जीणस्थितिक-आ012 आय:कर्म क्रियते श्र०13 तत एव श्र०14 मोहनीयनिरपेक्ष-ब। तथाहि चाबुभ-श्र०। 6 प्रवृत्तिः स्यात् श्र०17 अथ कांक्षारूपा आ०। 8 अस्यासंभवः श्र०, ब०। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76 ] केवलिकवलाहारविचारः 861 यत्र हि अनन्तसुखं न तत्र दुःखलेशोऽप्यस्ति यथा सिद्धेषु, अनन्तसुखश्च अर्हति इति / ननु सकलबाधानिवृत्त्यात्मकं यंदनन्तं सुखं तत्राभिप्रेतं तदसिद्धम् , क्षुद्वाधाभ्युपगमात्, सकलकर्मविप्रमुक्तानां सिद्धानामेव हि तथाविधं तदस्ति नाऽर्हताम् तत्र वेदनीयोदयसंभवादिति; तदसत्; तदुदयस्य तत्र तद्बाधाहेतुत्वाभावप्रतिपादनात् / किश्च, अर्हति अनन्तं सुखं सर्वप्रदेशव्यापि अव्याहतमास्ते अप्रादेशिकत्वात्तस्य, / सुखदुःखयोरेकत्रैकदा विरोधतोऽसंभवाच्च, तत्कथं क्षुद्दुःखलेशोऽपि तत्र संभाव्यः ? अन्यथा अस्मदादिसुखवत् प्रादेशिकमेव तत्सुखं स्यात् / अतः तथाविधं सुखं भगवति सन्निधीयमानं स्वविरुद्धं दुःखं निवर्त्तयति यथा अग्निः शीतम् / तन्निवृत्तौ च तद्व्याप्यायाः क्षुधो निवृत्तिः, व्यापकनिवृत्तौ व्याप्यस्यावश्यं निवृत्तेः वृक्षनिवृत्तौ शिंशपावत् / प्रयोगः-यत्रै यद्विरोधि बलवदस्ति न तत्र अभ्युदितकारणमपि तद् भवति यथा अत्यु- 10 ष्णप्रदेशे शीतम्, अस्ति च क्षुदुःखविरोधि बलवत् केवलिनि अनन्तसुखमिति / तथा, यत्कार्यविरोध्यनिवर्त्य यत्रास्ति तत्र तदविकलमपि स्वकार्य न करोति यथा श्लेष्मादिविरुद्धाऽनिवर्त्य-पित्तविकाराक्रान्ते पुरुषे न दध्यादि इलेष्मादि करोति, वेद्यफलविरुद्धाऽनिवर्त्यसुखश्च भगवति इति / ततो निराकृतमेतत्-'नहि बालादौ ज्ञानाद्यपचये क्षुदुपचयः' इत्यादि; अनन्तसुखसहभाविनामेव ज्ञानादीनां क्षुद्विरोधित्वव्यवस्थितेः। 15 ___ यदप्युक्तम्-'नहि केवलिज्ञानादयः क्षुधं विरुन्धन्ति इत्यर्वाग्दृशा प्रतिपत्तुं शक्यमतीन्द्रियत्वात्तेषाम्' इत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम् ; अतीन्द्रियत्वात्तेषां तद्विरोधित्वाऽप्रतिपत्तौ सर्वार्थसाक्षात्कारित्वादेरपि अप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् / यथैव हि तेषामतीन्द्रियत्वात् 'एतत्सन्निधौ क्षुन्न भवति' इत्यर्वाग्दृशा प्रत्येतुं न शक्यते तथा 'एते सर्वसाक्षात्कारिणः' इत्यपि / अथ अनुमानात्तेषां तत्साक्षात्कारित्वं प्रतीयते; तद्विरोधित्वेन किमपराद्धं येन 20 एषामनुमानात् तन्न प्रतीयेत ? प्रतिपादितञ्च टुंद्विरोधित्वानुमानं प्राक् इत्यलमतिप्रसङ्गेन / सर्वज्ञत्वाच्च भगवतः क्षुदभावः, क्षुदभ्युपगमे हि तद्बाधया सर्वज्ञता हीयेत निःशक्तिकत्वञ्च स्यात् / अस्मदादौ हि क्षुत्प्रभवपीडाक्रान्ते ज्ञानादेरभावः सुप्रतीतः 'क्षुत्पीडितोऽहं न किञ्चिज्जानामि,न किञ्चित्पश्यामि, उत्थातुमपि न शक्नोमि' इति प्रतीतेः। यदप्युक्तम्-'ज्ञानावरणादिकर्मोदयनिबन्धनः तत्क्षयः' इत्यादि; तदप्यसाम्प्रतम् ; 25 (1) वेदनीयोदयस्य / (2) सर्वप्रदेशव्यापि अनन्तसुखम् / (3) नास्ति केवलिनि क्षुदुःखं तबलवद्विरोध्यनन्तसुखसद्भावात् / “यत्र यद्विरोधि” :-प्रमेयक० पृ० 305 / (4) केवलिनि वेदनीयं स्वकार्य क्षददुःखं न करोति तत्कार्यविरोध्यनिवर्त्य-अनन्तसुखसद्भावात् / (5) 10852 पं० 20 / (6) पृ० 853 पं० 2 / (7) केवलज्ञानादीनाम् / (8) क्षुद्विरोधित्वम् / (9) पृ० 854 पं०४।। 1 सिद्धेऽनन्त-श्र०। 2 यदत्यन्तं सुखं श्र०, यद्यनन्तं आ०। 3-गमात्कर्मवि-ब०। 4-शिकमिव आ०। 5 तथाविधसुखं ब०। 6 यथा आ०, ब०। 7 प्रतीयते ब०। 8 क्षुदविरो-आ०, क्षुद्वित्त्वानुमा-ब०। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 862 . लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० प्रक्षीणाशेषावरणस्य भगवतो ज्ञानादिक्षयाभाववत् प्रक्षीणाशेषमोहस्य क्षुत्पीडालेशस्याप्यमुपपत्तेः। मोहनीयसहायं वेदनीयं क्षुत्करणे प्रभुः' इति प्राक् प्रपञ्चतः समर्थितत्वात् / “एकादश जिने' [ तत्त्वार्थसू० 9 / 11 ] इत्यागमोऽपि क्षुधाोकादशपरीषहप्रतिषेधपरः प्रतिपत्तव्यः, 'एकेन अधिका न दश एकादश' इति व्युत्पत्तेः / मोहनीयसहायस्य 5 वेदनीयस्य कार्यभूताः क्षुधायेकादशपरीषहाः, तत्सहायस्य च अर्हति अत्यन्तप्रक्षयात् न वेदनीयोदयोदयमात्रात् तत्र ते सन्ति, अन्यथा रोगादिपरीषहाणामपि तत्र सत्त्वप्रसङ्गात् , अस्मदादौ तेंदुदये क्षुत्पिपासावद् रोगादीनामप्युपलम्भात् / छद्मस्थजिनेषु भोगभूमिजादिषु च तदुदयेऽपि रोगादीनामभावाद् व्यभिचारे कवलाहारस्यापि व्यभिचारोऽस्तु, देवादिषु तदुदयेऽपि तदभावात् / यच्चान्यदुक्तम्-'उत्कर्षेण देशोनपूर्वकोटिं विहरतः' इत्यादि; तदप्यचारु; शरीरस्थितेः आयुःकर्मण एव नियतनिमित्तप्रतिपादनात् , भुक्ति विनापि आकालं तस्थितेः समर्थितत्वाच्च / यदप्यभिहित 'भुक्तेर्दोषरूपतया भगवत्यसंभवे वचनादेरप्यसंभवः स्यात्' इत्यादि; तदप्यभिधानमात्रम् ; वचनादेः तीर्थकरत्वकर्मोदयापादितत्वात् दोषरूपत्वा15 संभगच्च, नहि अष्टादशदोषेषु मध्ये क्षुधादिवद् वचनमपि पठ्यते / भुक्तेरपि वेदनीयो दयापादितत्वात् तत्र सत्त्वमस्तु; इत्यप्यसङ्गतम् ; मोहसद्भावसहायस्यैवास्य तत्सम्पादने सामर्थ्यप्रतिपादनात् / यथैव हि मोहप्रक्षयसहायं तीर्थकरत्वं विशिष्टवचनादिविधाने समर्थं तथा मोहसद्भावसहायं वेद्यं भुक्तथादिविधाने इति / यदप्युक्तम्-'अवधिज्ञानिवत् सकलज्ञस्य सकलं जगत्पश्यतोऽपि अन्तरायासंभवः' (1) "अथवा 'एकादश जिने न सन्ति' इति वाक्यशेषः कल्पनीयः सोपस्कारत्वात्सूत्राणाम् ।"सर्वार्थ सि०९।११॥ "अथवा नायं वाक्यशेषः 'एकादश जिने कैश्चित्कल्प्यन्ते' इति; कि तर्हि ? एकादश सन्तीति / कथम् ? उपचारात्; यथा निरवशेषनिरस्तज्ञानावरणे परिपूर्णज्ञाने एकाग्रचिन्तानिरोधाभावेऽपि कर्मरजोविधूननफलसंभवात् ध्यानोपचारः तथा क्षुधादिवेदना-भावपरीषहाभावेऽपि वेदनीयकर्मोदय-द्रव्यपरीषहसद्भावात् एकादश जिने सन्तीत्युपचारो युक्तः।"-राजवा० 9 / 11 / "शक्तित एव केवलिन्येकादश परीषहाः सन्ति न पुनर्व्यक्तितः, केवलाद् वेदनीयाद् व्यक्तक्षुधाद्यसंभवादित्युपचारतस्ते तत्र परिज्ञातव्याः ।"-तत्वार्थश्लो० पृ० 492 / "तेण असादणिमित्ता परीसहा जिणवरे णत्थि ।"कर्मका० गा० 275 / "क्षत्पिपासादयो यस्मान्न समर्था मोहसंक्षये। द्रव्यकर्माश्रयात्तेषामस्तित्वमुपचारतः।"-भावसं० श्लो० 234 / “यच्चोपचारतोप्यस्यैकादश परीषहा न संभाव्यन्ते तत्र तनिषेधपरत्वात् सूत्रस्य, 'एकेनाधिका न दश परीषहा जिने एकादश जिने' इति व्युत्पत्तेः ।"-प्रमेयक० 10 307 / (2) वेदनीयोदये। (3) पृ० 854 पं०८। (4) पृ० 854 पं० 15 / (5) "क्षुत्पिपासाजरात जन्मान्तकभयस्मयाः / न रागद्वेषमोहाश्च' 'चशब्दात् चिन्ताऽरतिनिद्राविस्मयमदस्वेदखेदा गृह्यन्ते / एते अष्टादश दोषाः.."-रत्नक०, टी० 116 / (6) पू० 855 पं० 1 / 1 तत्र न सन्ति श्र०। 2 भक्तेरपि वेदनीयोदयापावितत्वात् तत्र गत्त्वमस्तु इत्यप्यसंभवाच्च नहि अष्टादश-आ० / 3 दोषोदयत्वा-ब० / 4 वेदनीयोपादि-आ०। 5 मोहसहा-ब०, श्र०। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 76 ] केवलिकवलाहारविचारः इत्यादि; तदप्यनुपपन्नम् ; तज्ज्ञानस्य सोपयोगतया तत्काल एव स्वविषयाऽशेषार्थसाक्षाकरणसंभवात् / यदैव हि अवधिज्ञानोपयोगमवधिज्ञानी करोति तदैवासौ तद्विषयभूतमशेषं वस्तु पश्यति नान्यदेति, भोजनकाले यद्यसौ उपयोगं करोति तदाऽन्तरायो भवत्येव, नचायं प्रकारः केवलज्ञाने संभवति तस्य सदा उपयुक्तत्वात् / ____ यदप्युक्तम्-'नेन्द्रियार्थसम्बन्धमात्रेण मतिज्ञानं भवति' इत्यादि; तदप्यसुन्दरम् ; / विषयविषयिसम्बन्धे समुपजायमानस्य ज्ञानस्य अमतिज्ञानत्वे मतिज्ञानवातॊच्छेदप्रसङ्गात् / अथ मतिज्ञानावरणक्षयोपशमस्य सहकारिणोऽभावात् नेन्द्रियाणि स्वविषयसम्बन्धेऽपि स्वकार्यमाविर्भावयन्ति; तर्हि मोहनीयस्यापि सहकारिणोऽभावात् वेद्यमपि स्वकार्य न कुर्यात् इत्युक्तम् / / किञ्च, किमर्थमसौ भुङ्क्ते-शरीरोपचयार्थम् , ज्ञानदर्शनवीर्यादिक्षयनिवृत्त्यर्थम् , 10 क्षुद्वेदनाप्रतीकारार्थम्, आयुषोऽसाधितमुक्तिकस्यापवर्त्तननिवृत्त्यर्थम् , रसगृद्ध्युपशमार्थम्, लोकानुग्रहार्थं वा ? न तावत् शरीरोपचयार्थम् ; लाभान्तरायप्रक्षयात् प्रतिसमयं विशिष्टपरमाणुलाभादेव तत्सिद्धेः / तदर्थं तद्ग्रहणे च कथमसौ निर्ग्रन्थः स्यात् शरीरसम्मू संभवात् प्राकृतपुरुषवत् / नापि ज्ञानादिक्षयनिवृत्त्यर्थम् ; तत्क्षयनिबन्धनाभावादेव तदक्षयप्रसिद्धेः / ज्ञानादिक्षयस्य हि निबन्धनं ज्ञानावरणादिक्षयोपशमः, तस्मिन् सति 15 भोजनाद्यभावे तत्क्षयप्रतीतेः / स च प्रक्षीणाशेषावरणे भगवति नास्ति इति कथं तत्प्रक्षयाशङ्काऽपि यतो भुक्तिः स्यात् ? नापि क्षुद्वेदनाप्रतीकारार्थम् ; अनन्तसुखवीर्ये भगवति अस्याः संभवाभावस्य उक्तत्वात्। नापि आयुषोऽसाधितमुक्तिकस्य अपवर्तननिवृत्त्यर्थम; चरमोत्तमदेहानामनपवर्त्यायुष्कत्वादेव तथाविधस्यास्य अपवर्तनानुपपत्तेः / नापि रसगृद्धथुपशमार्थम् ; वीतमोहस्य रसगृद्धेरेवानुपपत्तेः। नापि लोकानुग्रहार्थम् ; अनन्त- 20 वीर्यस्य वीर्यक्षयनिबन्धनाभावतो भुक्तिमन्तरेणापि लोकमनुग्रहीतुं समर्थत्वात् / __ यच्चोक्तम्-‘देवच्छन्दके गत्वा यथासुखमास्ते' इत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम् ; यतः (1) अवधिज्ञानस्य / (2) उपयोगसमये / (3) केवलज्ञानस्य / (4) पृ० 855 पं०४ / (5) तुलना-"ण बलाउसाहणठें ण सरीरस्स य चय? तेज / णाणटुं संजमठ्ठ झाण8 चेव भुंजंति ।"-मूलाचा० 6 / 62 // प्रव० टी० पृ० 29 / प्रमेयक० पृ० 306 / (6) शरीरोपचयार्थम् / (7) ज्ञानावरणीयकर्मणोऽभावादेव / (8) "औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः।" -तत्त्वार्थसू० 2153 / "चरम उत्तमो देहो येषां ते चरमोत्तमदेहाः विपरीतसंसाराः तज्जन्मनिर्वाणाऱ्या इत्यर्थः ।"-सर्वार्थसि०। "चरमदेहा अन्त्यदेहा इत्यर्थः ये तेनैव शरीरेण सिद्धयन्ति, उत्तमपुरुषाः तीर्थकरचक्रवर्त्यर्धचक्रवर्तिनः"-तत्त्वार्थाधि० / “देवा नेरइयावि य असंखवासाउया य तिरमणुआ। उत्तमपूरिसा य तहा चरमसरीरा य निरुवकमा ॥"-ठाणांगवि०। (9) 'बाह्यप्रत्ययवशादायषो ह्रासोऽपवर्तः ।"-राजवा० 2 / 53 / (10) पृ० 558 पं० 10 / / 1 सदोषयुक्त-श्र०। 2 आयुषोऽनुदितमुक्ति-श्र० / शरीरमूसिं -श्र० / 4 अपवर्त्तनिवृ -ब०, अपवर्तनं निव-आ०। 5 मुक्तिम-श्र० / Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 864 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० समवशरणं विहाय भगवान् किमर्थ तत्र गच्छति-मनोविक्षेपपरिहारेण ध्यानसिद्ध्यर्थम्, निरोधाक्षमत्वतो यथासुखमवस्थानार्थम् , रहस्यकार्यानुष्ठानार्थं वा ? तत्रौद्यः पक्षोऽयुक्तः; अमनस्कतया भगवतो मनोविक्षेपाऽसंभवात् , योगनिरोधसद्भावेन उपचारतः तत्र ध्यानाभिधानाच्च। द्वितीयपक्षोऽप्यनुपपन्नः; अनन्तवीर्यस्य निरोधाऽक्षमत्वानुपपत्तेः। अनन्तसुखस्य दुःखलेशस्याप्यभावतो 'यथासुखम्' इत्यस्यापि दुर्घटत्वात् / रहस्यकार्यश्च निन्द्यम् , अनिन्धं वा ? न तावन्निन्द्यम् ; प्रक्षीणाशेषदोषस्य निन्द्यकार्यानुष्ठानविरोधात् / अथ अनिन्द्यम् ; तत्किं भोजनम् , कर्मक्षपणं वा ? न तावद्भोजनम् ; तस्य अमोहे भगवति प्रतिषिद्धत्वात् / अप्रतिषेधे वा कस्मादसौ एकान्ते गत्वा भुङ्क्ते-दृष्टि दोष]भयात् , याचकभयात्, अनुचितानुष्ठानत्वाद्वा ? तत्राद्यविकल्पोऽनुपपन्नः; भगवतो दृष्टिदोषागोचरत्वात्। यदीयेन हि नाम्ना अन्येषां दृष्टिदोषादेरुपशमो भवति स कथं तदोषगोचरः स्यात् ? द्वितीयविकल्पे तु भगवतो महद्दीनत्वं प्रख्यापितम्। न खलु महासत्त्वस्य पृष्ठतो लग्नान् बुभुक्षापीडितशिष्यान् विहाय पितुरिव पुत्रम् एकान्ते गत्वा भोजनं युक्तम् / अनुचितानुष्ठानत्वे तु न तत्र तत्परिकल्पना श्रेयसी स्त्र्यादिसेवनपरिकल्पनावत् / कर्मणामपि क्षपणं पूर्वोपार्जितानाम् ,भुक्तिकालोपार्जितानां वा तत्रै अर्हता विधीयते ? 15 पूर्वोपार्जितानाञ्चेत् ; घातिनाम् , अघातिनां वा ? न तावत् घातिनाम् ; तेषां पूर्वमेव क्षपितत्वात् / नाप्यघातिनाम् ; तेषां यथाकालं क्षपयिष्यमाणत्वात् , सततं शुक्लध्यानानलतः कर्मेन्धननिचयनिर्दहनसमर्थत्वाच्चास्य / नहि 'भगवतः शुक्लध्यानानलो देवच्छन्दके एव प्रैज्वलति न तु समवशरणादौं' इत्यभ्युपगमो युक्तः, तंत्रस्थस्यास्य ध्यानान्तरप्रसङ्गात् / ___ भुक्तिकालोपार्जितकर्मणां तु कथं क्षपणम् ? प्रतिक्रमणतश्चेत् ; अस्तु, परन्तु भगवतो 20 निर्दोषता दुर्लभा / यः प्रतिक्रमणं करोति नासौ निर्दोषः यथा अस्मदादिः, प्रतिक्रमणं करोति च भगवानिति / कृतदोषनिराकरणं हि प्रतिक्रमणम् , तत्कुर्वतः कथमस्य निर्दोषता स्यात् ? अथ तां ('तं) न करोति; कथं भुंजिक्रियातः समुत्पन्नदोषं निराकुर्यात् ? आहारकथामात्रेणापि हि अप्रमत्तोऽपि सन् साधुः प्रमत्तो भवति नाहन भुञ्जानोऽपि इति महच्चित्रम् ! दोषवत्त्वे चास्य श्रेणीत: पतितत्वान्न केवलभाक्त्वं स्यात् / (1) “निरवशेषनिरस्तज्ञानावरणे युगपत्सकलपदार्थावभासिकेवलज्ञानातिशये चिन्तानिरोधाभावेऽपि तत्फलकर्मनिर्हरणफलापेक्षया ध्यानोपचारवत् ।"-सर्वार्थसि० 9 / 11 / (2) एकासने शरीरा. वस्थितेः तत्परिस्पन्दस्य निरोधः / (३)एकान्ते / (4) समवशरणस्थितस्य भगवतः / (5) तुलना"किं चासौ भक्त्वा प्रतिक्रमणादिकं करोति न वा?"-प्रमेयक० पृ० 306 / (6) "मिथ्या दुष्कृताभिधानादभिव्यक्तप्रतिक्रियं प्रतिक्रमणम् ।"-सर्वार्थसि० 9 / 22 / (7) प्रतिक्रमणम् / (8) “अप्रमत्तो हि साधुराहारकथामात्रेणापि प्रमत्तो भवति नाहन्भुजानोऽपीति महच्चित्रम् ।"-रत्नक० टी०पू० 864 / प्रमेयक० पृ० 306 / 1 तत्राद्यपक्षो-ब०। 2 वंचकभ-श्र०। प्रज्वलितः श्र०, ज्वलति आ०। 4 परं च भग-ब०। 5 कस्य ब०। 6 भक्तिक्रि-श्र०। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन१० का० 76 ] स्त्रीमुक्तिवादः 865 ____ यदप्युक्तम्- 'भुञ्जानोऽसौ गणधरदेवैरपि न दृश्यते' इत्यदि; तत्रादर्शने किं कारणम्बहलतमःपैटलाच्छादितत्वम् , काण्डपटाद्यावृतत्वम् , विद्याविशेषेण स्वस्य तिरोधानम् , अन्यजनातिशायी माहात्म्यविशेषो वा ? तत्राद्यपक्षोऽनुपपन्नः; तदेहदीप्त्या तमःपटलस्य निर्मूलोन्मूलितत्वात् / काण्डपटाद्यावृताय च तस्मै कथं भिक्षा दीयेत ? विद्याविशेषाभ्युपगमे चास्य विद्याधरादिवत् निम्रन्थताविरोधः / अथ अन्यजनातिशायी माहात्म्य- 6 विशेषः कश्चित्तस्येष्यते येन भुञ्जानो नाऽवलोक्यते इति; ननु अन्यजनातिशायी भोजनामावलक्षण एवाऽतिशयः अस्य इष्यताम् तस्यैव प्रमाणोपपन्नत्वात् / ततो भगवतोऽनन्तचतुष्टयलाभलक्षणां जीवन्मुक्तिमिच्छता अनन्तसौख्यमेष्टव्यम् / तदिष्टौ च च भुक्तथभावोऽभ्युपगन्तव्यः तमन्तरेणास्य अनन्तसौख्यानुपपत्तेः प्रतिपादितत्वात् इति // छ / तल्लक्षणा च मुक्तिः पुंस एव न स्त्रियाः; तस्याः नपुंसकवत्तदयोग्यत्वात् , तन्मुक्तिप्रसाधकप्रमाणासंभवाच्च / . नन्विदमस्ति तत्प्रसाधकं प्रमाणम्-अस्ति स्त्रीणां निर्वाणम् अँविकलकारणत्वात् स्लीनिर्वाणवादे सितप- पुंवत् / निर्वाणस्य हि कारणं रत्नत्रयम् , “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि टानां शाकटायनस्य मोक्षमार्गः'' [तत्त्वार्थसू० 1 / 1] इत्यभिधानात् / तच्च स्त्रीषु विद्यते; 15 च पूर्वपक्षः- तथाहि-सर्वज्ञोक्तार्थानाम् ‘इदमित्थमेव' इति श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् , यथावदवगमः सम्यग्ज्ञानम् , तदुक्तव्रतस्य यथावदनुष्ठानं सम्यक्चारित्रम् , एतद्रत्नत्रयम् / एतच्च स्त्रीषु सिद्ध्यत् सर्वकर्मविप्रमोक्षलक्षणं मोक्षं साधयति / नहि स्त्रीषु रत्नत्रयस्य केनचिद्विरोधोऽस्ति यतोऽविकलकारणत्वासिद्धिः स्यात् / (1) 10 855 पं० 13 / (2) "तत्रादर्शनेऽयुक्तसेवित्वादेकान्तमाश्रित्य भुङ क्ते इति कारणम्, बहलान्धकारस्थितभोजनं वा, विद्याविशेषेण स्वस्य तिरोधानं वा?"-प्रमेयक० 10 307 / "तत्र तु प्रच्छन्नभुक्तौ मायास्थानं दैन्यवृत्तिः अन्येऽपि पिण्डशुद्धिकथिताः बहवो दोषाः ।"-प्रव० टी० प०२९। (3) "तहि परमौदारिकशरीरत्वाद भक्तिरेव नास्त्ययमेवातिशयः किन्न भवति ।"-प्रव० टो० पृ० 29 / (4) "अस्ति स्त्रीनिर्वाणं पुंवत् यदविकलहेतुकं स्त्रीषु / न विरुध्यति हि रत्नत्रयसंपद् निर्वृतेर्हेतुः ।।"-स्त्रीमु० श्लो०२ / सन्मति० टी० पृ०७५२ / एतदर्थम् उत्तराध्ययनस्य पाइयटीकापि विलोकनीया / "इत्थीलिङ्गसिद्धा-सम्यग्दर्शनादीनि पुरुषाणामिव स्त्रीणामप्यविकलानि दृश्यन्ते तथाहि....."-प्रज्ञा० मलय० पृ. 20 A. / नन्दि० मलय०१० 131 B. / रत्नाकराव०७५७ / षड्द० बह० इलो० 52 / “यथोक्तं यापनीयतन्त्रे-णो खलु इत्थी अजीवो, ण यावि.अभब्वा, ण यावि दंसणविरोहिणी, णो अमाणुसा, णो अणारिउप्पत्ती, णो असंखेज्जाउया, णो अइकूरमई, णो ण उवसन्तमोहा, णो ण सुद्धाचारा, णो असुद्धबोंदी, णो ववसायवज्जिया, णो अपुव्वकरणविरोहिणी, णो णवगुणठाणरहिया, णो अजोगा लद्धीए, णो अकल्लाणभायणं ति कहं न उत्तमधम्मसाहिगत्ति।"-ललितवि० पृ०५७ B. / शास्त्रवा० यशो० पृ० 429 B. / . 1-पटलसंछादितत्वम् श्र०। 2 दीयते ब० / -षाभ्युपगमाच्चास्य ब०। 4 यथार्थावगमः ब०। 5 तदुक्तस्य यथावद-आ०, तदुक्तं व्रतस्य ब०। 6-विप्रमोक्षणं मोक्षं आ० / Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० अथोच्यते-स्त्रियो रत्नत्रयविरुद्धाः पुंसोऽन्यत्वात् देवादिवत् / सुप्रसिद्धो हि देवनारकतिर्यग्भोगभूमिजानां पुंसोऽन्येषां देवादित्वेन रत्नत्रयस्य विरोधः, एवं स्त्रीणां स्त्रीत्वेनैव अस्य विरोधः सिद्ध इति; तदसमीक्षिताभिधानम् ; यतोऽविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावेऽभावात् विरोधगतिर्भवति / स्त्रीत्वसद्भावे च रत्नत्रयाभावः प्रत्यक्षतः, 6 अनुमानात्, आगमाद्वा प्रतीयेत? न तावत् प्रत्यक्षतः; रत्नत्रयस्य अतीन्द्रियत्वात् / नाप्यनुमानतः; तदभावाऽविनाभाविनो लिङ्गस्य कस्यचिदभावात् / नाप्यागमात् ; तत्र तदभावावेदिनः तस्याप्यसंभवात् / नहि सुरनारकादिवत् तत्र तदभावप्रतिपादकं किश्चित् प्रवचनवचनं संभवति / नन्वस्तु रत्नत्रयमात्रं तत्र न तदस्माभिर्निषिध्यते तस्य मोक्षाऽप्रसाधकत्वात् , यत्तु मोक्षप्रसाधकं प्रकर्षपर्यन्तप्राप्तम् तस्य तत्राभावात् मोक्षाभावः 10 इति; तद्युक्तम् ; अदृष्टे विरोधप्रतिपत्तेरनुपपत्तेः / न खलु प्रकर्षपर्यन्तं प्राप्तं रत्नत्रयम् अस्माकं दृश्यम् , न चादृश्यस्य विरोधः प्रतिपत्तुं शक्यः अतिप्रसङ्गात् / न चाप्रतिपन्नविरोधस्य तस्य तत्राभावो ग्रहीतुं शक्यः अतिप्रसक्तेरेव / अथ मतम्-अनुमानतः स्त्रीणां निर्वाणाभावप्रतीतेर्न तत्र तत्सद्भावाभ्युपगमो युक्तः; तथाहि-नास्ति स्त्रीणां निर्वाणम् सप्तमपृथिवीगमनाभावात् सम्मूछिमादिवत् इति; 15 तदसङ्गतम् ; विपर्ययव्याप्तेरसिद्धितः तद्गमनाभावस्य निर्वाणाभावेनाऽव्याप्तेः / इह यद् यत्र नियम्यते तद्विपर्ययेण तद्विपक्षस्य व्याप्तौ नियमो दृष्टः, यथा अग्निना धूमस्य व्याप्तौ धूमाभावेन अग्न्यभावस्य, शिंशपात्वस्य च वृक्षत्वेन व्याप्ती वृक्षत्वाभावस्य शिंशपात्वाभावेन व्याप्तिः। न चैवमत्र विपर्ययव्याप्तिरस्ति; तदभावश्च सप्तमपृथिवीगम नादेः निर्वाणं प्रत्यकारणत्वात् अव्यापकत्वाच्च सिद्धः / नहि सप्तमपृथिवीगमनं निर्वा20 णस्य रत्नत्रयवत् कारणं सिद्धम् गुणाष्टकवद्वा व्यापकम् येन तदभावे निर्वाणाभावः (1) "रत्नत्रयं विरुद्धं स्त्रीत्वेन यथामरादिभावेन / इति वाङमात्रं नात्र प्रमाणमाप्तागमोडन्यद्वा // जानीते जिनवचनं श्रद्धत्ते चरति चायिका शबलम् / नास्यास्त्यसंभवोऽस्यां नादृष्टविरोधगतिरस्ति ।"-स्त्रीमु० श्लो० 3-4 / “अथ स्त्रीत्वादेव न तासां तत्परिक्षयसामर्थ्यम् ; न; स्त्रीत्वस्य तत्परिक्षयसामर्थ्येन विरोधासिद्धेः / नहि अविकलकारणस्य तत्परिक्षयसामर्थ्यस्य स्त्रीत्वसद्भावादभावः क्वचिदपि निश्चितो येन अग्निशीतयोरिव सहानवस्थानविरोधः तयोः सिद्धो भवेत् ।"-सन्मति० टी० पु०७५२ / प्रज्ञा० मलय० पृ० 20 A. / नन्दि० मलय० पृ० 132 B. (2) रत्नत्रयस्य / (3) स्त्रीषु / (4) रत्नत्रयस्य / (5) "सप्तमपृथिवीगमनाद्यभावमव्याप्तमेव मन्यन्ते / निर्वाणाभावेनापश्चिमतनवो न तां यान्ति ॥"-स्त्रीमु० श्लो० 5 / सन्मति० टी० पृ०७५३ / प्रज्ञा० मलय० प० 20 B. / नन्दि० मलय० 10 132 B. / रत्नाकराव० 757 / षड्द० बृह० श्लो० 52 / शास्त्रवा० यशो० पृ० 428 A. / यक्तिप्र० पृ० 115 / 1 सोऽन्यत्वं तेषां श्र० 2 प्रतीयते श्र०। 3-मात्र तन्त्रम न ब०, मात्र तंत्र न थ०। 4 मोक्षप्रसा-श्र०। 5 यत्तु प्रमाणकृतप्रसा-ब०। 6-युक्तं न दृष्टे विरो-ब०। 7 चादृश्ये वि-श्र०। 8-व्याप्तेरिति इह श्र०। 9 गुणाष्टकवदव्याप-श्र० / Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का०७६ स्त्रीमुक्तिवादः 867 स्यात् / नचाकारणाऽव्यापकस्य निवृत्तौ अकार्यव्याप्यस्य निवृत्तिः अतिप्रसङ्गात् , अतः सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकमिदं साधनम् / चरमदेहैः निश्चितव्यभिचारश्च; ते हि तेनैव जन्मना मुक्तिभाजो न सप्तमपृथिवीं गच्छन्ति अथ च मुच्यन्ते / किञ्च, विषमगतयोप्यधस्तात् उपरिष्टात्तुल्यमासहस्रारं गच्छन्ति च तिर्यश्चः तदधोगत्यूनताऽहेतुः / नहि अधोगतौ स्त्रीपुंसयोरंतुल्यं सामर्थ्यमिति सुगतावपि अतु- 5 ल्यत्वं युक्तम् ; अशुभपरिणामस्य शुभपरिणामं प्रत्यहेतुत्वात् / तथाहि- जगखगचतुप्पात्सर्पजलचराणां विषमाऽधोगतिः-भुजगानां सं(नामसं)ज्ञिनां प्रथमायाम् , खगानां तृतीयायाम् ; चतुष्पदा पञ्चम्याम् , सर्पाणां षष्ठ्याम् , जलचराणां सप्तम्यामधोभूमौ उत्पादात् , शुभगतिस्तु समा सर्वेषामेवैषां सहस्रारान्तस्योपरि उत्पादस्य संभवात् / न च वादादिलब्ध्यभावात्तासां मोक्षाभावः; 'इत्थमेव मोक्षः' इति नियमा- 10 (1) विषमगतयोप्यधस्तादुपरिष्टात्तुल्यमासहस्रारम् / गच्छन्ति च तिर्यञ्चस्तदधोगत्यूनताऽहतुः ॥"-स्त्रीमु० श्लो० 6 / “अपि च भुजपरिसर्पाः द्वितीयामेव पृथिवीं यावद् गच्छन्ति न परतः परपृथिवींगमनहेतुतथारूपमनोवीर्यपरिणत्यभावात्, तृतीयां यावत् पक्षिणः, चतुर्थी चतुष्पदाः, पञ्चमीमुरगाः, अथ च सर्वेप्यूर्ध्वमुत्कर्षतः सहस्रारं यावद् गच्छन्ति / तत्राधोगतिविषये मनोवीर्यपरिगतिवैषम्यदर्शनादूर्ध्वगतावपि च न तद्वैषम्यम् ।"-प्रज्ञा० मलय० पृ० 21 A. / नन्दि० मलय०. पृ० 133 A. / षड्द० बृह० श्लो०५२। शास्त्रवा० यशो० 10 428 B. युक्तिप्र० पृ० 115 / (2) "प्रथमायामसंज्ञिन उत्पद्यन्ते प्रथमद्वितीययोः सरीसृपाः तिसृषु पक्षिणः चतसृषूरगाः पंचसु सिंहाः षट्सु स्त्रियाः सप्तसु मत्स्यमनुष्याः"-राजवा० पृ० 118 / “अमण-सरिसपविहंगम-फणि-सिंहित्थीण-मच्छमणुवाणं / पढमादिषु उप्पत्ती अडवारादो दु दोण्णि वारोत्ति ॥"-त्रिलोकसा० गा० 205 / “असन्नी खलु पढम, दुच्चं च सरीसवा तइय पक्खी। सीहा जंति चउत्थिं उरगा पुण पंचमि पुढवि / छठ्ठि च इत्थिआओ मच्छा मणुया य सत्तमि पुढवि / एसो परमुववाओ बोधव्वो नरयपुढवीसु ॥"-बृहत्स० गा० 284-85 / त्रैलोक्यदी० गा० 253 / (3) "तैर्यग्योनेषु असंज्ञिनः पर्याप्ताः पंचेन्द्रियाः संख्येयवर्षायुषः अल्पशुभपरिणामवशेन पुण्यबन्धमनुभूय भवनवासिषु व्यन्तरेषु चोत्पद्यन्ते / त एव संज्ञिनो मिथ्यादृष्टयः सासादनसम्यग्दृष्टयश्चासहस्रारादूत्पद्यन्ते त एव सम्यग्द ष्टयः सौधर्मादिषु अच्युतान्तेषु जायन्ते ।"-राजवा० पृ० 169 / “पंचिदियतिरियाणं उववाओक्कोसओ सहस्सारे"-बृहत्सं० गा० 164 / (4) “वादादिविकुर्वणत्वादिलब्धिविरहे श्रुते कनीयसि च / . जिनकल्पमनःपर्यवविरहेऽपि न सिद्धिविरहोस्ति // वादादिलब्ध्यभाववदभविष्यद् यदि च सिद्धयभावोऽपि / तासामवारयिष्यद् यथैव जम्बूयुगादारात् ।”-स्त्रीमु० श्लो० 7-8 / प्रज्ञा० मलय० पृ० 21 A. | रत्नाकराव० 7 / 57 / “नापि वादादिलब्धिरहितत्वेन; मूककेवलिभिर्व्यभिचारात् / ". -बड़द० बृह० श्लो० 52 / "माषतुषादीनां लब्धिविशेषहेतुसंयमाभावेऽपि मोक्षहेतुतच्छवणात, क्षायोपशमिकलब्धिविरहेऽपि क्षायिकलब्धेरप्रतिघातात् ।"-शास्त्रवा० यशो० पृ० 427 B. / 1-व्याप्यनिवृ-ब० / 2-गति न ता हेतुः ब०,-तिन्यूनताऽहेतुः श्र०। 3-रतुल्यसाम-आ० / 4 शुभगतावपि ब०, श्र० / 5 भुजगानां प्रथमायां आ०, श्र०, भुजगानां संज्ञिनां प्रथमायां ब०, पू० 10 / 6 प्रथमायां संजिनां द्वितीयायां खगानां तृतीयायाम् भुजगानां चतुर्थ्यां चतुष्पदानां पञ्चम्याम स्त्रीणां षष्ठयां जलचराणां ब०, प्रथमायां खगानां तृतीयायां चतुष्पदानां पंचभ्यां सर्पाणां षष्ठयाम्, जलचराणां त्रुटितायां पू० प्रतौ। 7 उपपावस्य श्र०। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० भावात् / "श्रूयन्ते हि अनन्ताः सामायिकमात्रसंसिद्धाः” [तत्त्वार्थभा० सम्बन्ध का० 27(?) ] यदि च स्त्रीणां यथा वादाद्यतिशयाः तपोविभवजन्मानो नै संभवन्ति तथा मोक्षोपि न स्यात् ; तदा आगमे तदतिशयाभाववत् मोक्षाभावोऽध्युच्येत / न ह्यस्य परिशेषणे किञ्चिन्निबन्धनं पश्यामः / अथ स्त्रीणां वैषलक्षणपरिग्रहसद्भावान्न मोक्षः; तर्हि मोक्षार्थित्वात् किन्न तत् ताभिः परित्यज्यते ? न खलु वस्त्रं प्राणाः, तेऽपि हि मुक्त्यर्थिना परित्यज्यन्ते किं पुनर्न वस्त्रम् ? अथ “नो कैप्पइ णिग्गथीए अचेलाए होतए' [कल्पसू० 5 / 20 ] इत्यागमविरोधः तस्याः तत्परित्यागे; तर्हि प्रतिलेखनवत् मुक्त्यङ्गमेव तत्स्यात् / यथैव हि सर्वज्ञैः मोक्षमार्गप्रणायकैः उपदिष्टं प्रतिलेखनं मुक्त्यङ्गं भवति न पुनः परिग्रहः तथा वस्त्रम10 प्यविशेषात् / यदि च धर्मसाधनानां सूत्रविहितानां परिग्रहत्वं स्यात् तदा पिण्डौषधि शय्यादीनामपि वस्त्रवत् परिग्रहत्वं स्यात् तथा च तदुपायिनां मोक्षाभावः स्यात् / सत्यपि वस्त्रे मोक्षाभ्युपगमे गृहिणां कुतो न मोक्षः इति चेत् ? ममत्वसद्भावात् / नहि गृही वस्त्रे ममत्वरहितः / ममत्वमेव च परिग्रहः / सति हि ममत्वे नग्नोऽपि परिग्रहवान् भवति / आर्यिकायाश्च ममत्वाभावाद् उपसर्गाद्यासक्तमिव अम्बरमपरिग्रहः / नहि यतेरपि 15 ग्रामं गृहं वा प्रविशत: कर्म नोकर्म च आददानस्य अपरिग्रहत्वे अममत्वादन्यत् शरणमस्ति / ___ अथ वस्त्रे जन्तूत्पत्तेः हिंसासद्भावतः चारित्रस्यैवाऽसंभवात् कथं मोक्षप्राप्तिः ? तन्न; प्रमादाभावे हिंसाऽनुपपत्तेः / प्रमादो हि हिंसा / “प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" [तत्त्वार्थसू० 7 / 63] इत्यभिधानात् / अन्यथा पिण्डौषधिशय्यादौ यतेरपि हिंसकत्वं स्यात् / अहंदुक्तेन यत्नेन सञ्चरतोऽस्य प्रमादाभावादहिंसकत्वे आर्यिकाया (1) "श्रूयन्ते चानन्ताः सामायिकमात्रपदसिद्धाः"-तत्त्वार्थभा० / “अनन्ताः सामायिकमात्रसिद्धा इति वचनात्"-राजवा० पृ० 10 / (2) “यदि वस्त्रादविमुक्तिः; त्यजेत्तद्, अथ न कल्पते हातुम् / उत्सङ्गप्रतिलेखनवदन्यथा देशको दृष्येत। त्यागे सर्वत्यागो ग्रहणेऽल्पो दोष इत्युपादेशि / वस्त्रं गुरुणाऽऽर्याणां परिग्रहोऽपीति चुत्यादौ / यत्संयमोपकाराय वर्तते प्रोक्तमेतदुपकरणम् / / धर्मस्य हि तत्साधनमतोऽन्यदधिकरणमाहाहन ॥"-स्त्रीमु० श्लो०१०-१२। रत्नाकराव० 757 / षड्द० बृह० श्लो० 52 / (3) वस्त्रम्। (4) प्राणा अपि। (5) “नो कप्पइ निग्गन्थीए अचेलियाए होत्तए"-कल्पसू। न कल्प्यते निर्ग्रन्थ्या अचेलया भवितुम् / (6) "विहियं सुए च्चिय जओ धरेज्ज तिहि कारणेहिं वत्थं ति / तेणं चिय तदवस्सं निरतिसएणं धरे अव्वं // जिणकप्पाजोग्गाणं हीकच्छुपरीसहाजओऽवस्सं / हीलज्ज त्ति व सो संजमो तदत्थं विसेसेणं॥" -विशेषा० गा० 2602-3 / सन्मति० टी० पृ० 748 / (7) 'मूर्छा परिग्रहः"-तत्त्वार्थसू० 7.17 // "मुच्छा परिग्गहो वुत्तो"-दश० 6 / 21 / (8) “संसक्तौ सत्यापि चोदितयत्नेन परिहरत्यार्या / हिंसावती पुमानिव न जन्तुमालाकुले लोके ॥"-स्त्रीमु० श्लो० 15 / “प्राणातिपातपरिणामाभावात्" -शास्त्रवा० यशो० पृ० 427 B. 1 श्रूयते हि ब०, श्र० / 2 सामयिकमात्र-आ०। 8 न सन्ति आ०, ब०। 4-णां च वस्त्रश्र०।। पुनर्नच वस्त्रं श्र०। 6 कंपदि ब०, श्र०।ा होताए ब०, श्र०। एतदन्तर्गत: पाठो नास्ति श्र०। 8 अम्बरमविग्रहः आ019-था हि पि-श्र०1 10 अहंदक्तयत्नेन श्र०। 11 आर्यिकायामपि आ०। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] स्त्रीमुक्तिवादः 69 अपि अहिंसकत्वं स्यादविशेषात् / तदुक्तम् "जियदु य मरुदु अ जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा / पयदस्स णत्थि बैन्धो हिंसामेत्तेण समिदस्स // " [प्रवचनसा० 3 / 17 ] न च पुरुषैरवन्द्यत्वात् स्त्रीणां मोक्षाभावः; गणधरादिभिर्व्यभिचारात्, ते हि नाहदादिभिर्वन्द्यन्ते अथ च मुच्यन्ते। ततो रत्नत्रयमेव तत्कारणं न वन्द्यत्वमवन्द्यत्वं वा। / न च मायाबाहुल्यात्तासां निर्वाणाभावः; पुंसामपि तद्बाहुल्यसद्भावात्। मोहोदयो हि तत्कारणम् , स च उभयोरप्यविशिष्टः / न च ही सत्त्वाः स्त्रियः ततो न निर्वान्ति इत्यभिधातव्यम् / यतः सत्त्वं तपःशीलसाधारणम् इह एष्टव्यम् नान्यत्, तस्य निर्वाणं प्रत्यनङ्गत्वात् / तच्च आर्यासु सुप्रसिद्धमेव / उक्तञ्च 10 “गार्हस्थ्येऽपि सुसत्त्वा विख्याताः शीलवत्तया जगति / सीतादयः कथं तास्तपसि विशीला विसत्ताश्च // " [स्त्रीमु० श्लो० 31] तथा- "अबै(४)सयमेगसमये पुरुसाणं णिव्वुदी समक्खादा / थीलिंगेण य वीसं सेसा दसक त्ति बोधव्वा // " [ ] (1) “मरदु व जियदु जीवो"-प्रव० / उद्धृतोऽयम्-सर्वार्थसि० 7 // 13 // मियतां वा जीवतु वा जीवो अयताचारस्य निश्चिता हिंसा। प्रयतस्य नास्ति बंधो हिंसामात्रेण समितस्य / (2) "अप्रतिवन्द्यत्वाच्चेत्संयतवर्गेण नार्यिकासिद्धिः / वन्दतां ता यदि ते नोनत्वं कल्प्यते तासाम् // सन्त्यूना: पुरुषेभ्यस्ताः स्मारणचारणादिकारिभ्यः / तीर्थकराऽऽकारिभ्यो न च जिनकल्पादिरिति गणधरादीनाम् / अर्हन् न वन्दते न तावताऽसिद्धिरंगगतेः / प्राप्तान्यथा विमुक्तिः स्थानं स्त्रीपुंसयोस्तुल्यम् ॥"-स्त्रीमु० श्लो० 24-26 / “अथ महाव्रतस्थपुरुषावन्द्यत्वात् न तासां मुक्त्यवाप्तिः, तर्हि गणधरादेरपि अर्हदवन्द्यत्वात् न मुक्त्यवाप्तिः स्यात् ।"-सन्मति० टी० पृ० 754 / रत्नाकराव० 757 // षड्द० बृह० श्लो० 52 / शास्त्रवा० यशो० पु० 429 A. / युक्तिप्र० पृ० 114 / (3) "मायादिः पुरुषाणामपि द्वेषादिप्रसिद्धभावश्च / षण्णां संस्थानानां तुल्यो वर्णत्रयस्यापि ॥"-स्त्रीमु० श्लो० 28 / रत्नाकराव० 757 / षड्द० बृह० श्लो० 52 / "चरमशरीरिणामपि नारदादीनां मायादिप्रकर्षवत्त्वश्रवणात् ।"-शास्त्रवा० यशो० पृ० 427A. / (4) “स्त्री नाम मन्दसत्त्वा उत्सङ्गसमग्रता न तेनात्र / तत्कथमनल्पवृत्तयः सन्ति हि शीलाम्बुधेर्वेलाः / / ब्राह्मीसुन्दर्यार्या राजीमती चन्दना गणधरान्या। अपि देवमनुजमहिताः विख्याताः शीलसत्त्वाभ्याम् ।।"-स्त्रीम० श्लो० 29.30 / षड्द० बह० श्लो०५२। (5) तपःशीलव्यतिरिक्तस्य / (6) ...."शीलवतितमा जगति ।तपसि विसत्त्वा विशीलाश्च ।"-स्त्रीम०। (7) "अत्रैवार्थे विशेषान्तरप्रतिपादिकाः प्रक्षेपगाथा:-विसित्थिगाउ पूरिसा अट्ठसयं एगसमयओ सिज्झे। दस चेव नपुंसा तह उवरिं समएण पडिसेहो। एकस्मिन् समये उत्कर्षतः स्त्रियो विंशतिः सिध्यन्ति / पुरुषा अष्टशतमष्टाधिकं शतम्। तथा समयेनकेन नपुसका दर्शव सिध्यन्ति / उक्तसंख्याया उपरि सर्वत्रापि प्रतिषेधः ।"-बृहत्सं०, मलय० गा०३४७ / "अष्टशतमेकसमये पुरुषाणामादिरागमः ( माहुरागमे) सिद्धिः ( सिद्धम् ) / स्त्रीणां न मनुष्ययोगे गौणार्थो मुख्यहानिर्वा।"-स्त्रीमु० श्लो० 35 / 1 बोसो ब०। 2-मित्तेण ब०। 3 अथ मुच्य-श्र०। 4 आर्यासु सिद्धमेव ब.। 5 अठसमय-श्र०, अद्वसय-ब० / 6 समदा ब०, समखादा आ० / 7-कंति श्र० / Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 870 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० इत्याद्यागमश्च स्त्रीनिर्वाणे प्रमाणम् / ____ अथ अत्र स्त्रीशब्देन स्त्रीवेदो गृह्यते; कथमेवमपि स्त्रीणां निर्वाणनिषेधः ? यथैव हि स्त्रीवेदेन पुंसः सिद्धिः तथा स्त्रीणामपि स्यात्, भावो हि सिद्धेः कारणम् / किञ्च, द्रव्यतः पुरुषः भावतः स्त्रीरूपो भूत्वा यथा निर्वाति तथा द्रव्यतः 5 स्यपि भावतः पुरुषो भूत्वा किन्न निर्वाति अविशेषात् ? न च सिद्धयतो वेदः संभवति, अनिवृत्तिबादरसाम्पराये एव अस्य परिक्षयात् / अथ भूतपूर्वगत्या क्षपकश्रेण्यारोहणं येन वेदेन करोति तेनासौ मुक्तः इत्युच्यते; ननु किमनेन उपचारेण स्त्रिया एव स्तनप्रजननधर्मादिमत्या निर्वाणमस्तु इति // छ / अत्र प्रतिविधीयते / यत्तावदुक्तम्- 'अविकलकारणत्वात्' इत्यादि; तत्र अविकल10 द्रव्यस्त्रीणां तद्भवनि- कारणत्वमसिद्धम् ; तत्कारणं हि रत्नत्रयम् , तत्किं परमप्रकर्षप्राप्त र्वाणप्राप्तिनिरसनम्- सत् तत्कारणं स्यात् , तन्मानं वा ? यदि तन्मात्रम् ; तैदा गृहिणामपि निर्वाणप्रसङ्गः। अथ परमप्रकर्षप्राप्तम् ; तन्न; तत्र तस्य परमप्रकर्षप्राप्तत्वाऽनुपपत्तेः। तथाहि-निर्वाणकारणज्ञानादिपरमप्रकर्षः स्त्रीषु नास्ति, परमप्रकर्षत्वात् , सप्तमपृथिवीग मनकारणाऽपुण्यपरमप्रकर्षवत् / तथा चेदमयुक्तम्-'अदृष्टे विरोधप्रतिपत्तेरनुपपत्तेः' 15 इत्यादि / प्रत्यक्षतो हि अदृश्यस्यार्थस्य विरोधःप्रतिपत्तुमशक्यो न तु अनुमानादितोऽपि, अन्यथा कथं सप्तमपृथिवीगमनकारणाऽपुण्यपरमप्रकर्षस्यापि तत्र विरोधप्रतिपत्तिः स्यात् ? यदप्युक्तम्-'सप्तमपृथिवीगमनाभावस्य निर्वाणाभावेनाऽव्याप्तेः' इत्यादि; तदप्ययुक्तम् ; अकार्यकारणस्यापि कृत्तिकोदयात् शकटोदयादेः प्रतिपत्तिदर्शनात् / अविना भावो हि गम्यगमकभावे निबन्धनं न कार्यकारणत्वादि, सं चात्र अस्त्येव / न खलु 20 तादात्म्यतदुत्पत्त्योरेव अविनाभावो नियतः; कृत्तिकोदयादेः शकटोदयादिकं प्रत्यगम कत्वप्रसङ्गात् इति / एतच्च सौगतोपकल्पितव्याप्तिविचारावसरे संप्रपञ्चं प्रपश्चितम् / अतश्च 'सप्तमपृथिवीगमनादेः निर्वाणं प्रत्यकारणत्वादव्यापकत्वाच्च' इत्यादि प्रत्युक्तम् / कथञ्चैववादिनो अर्वाग्भागाभावात् परभागाभावो निश्चीयेत, अनयोः तादाम्यतदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धासंभवात् ? अथात्र एकार्थसमवायः सम्बन्धोऽस्ति तस्मा (1) "न च पुदेहे स्त्रीवेदोदयभावे प्रमाणमङ्गञ्च / भावः सिद्धौ पुवत् पुमां अपि (पुसोऽपि) न सिद्धयतो वेदः // क्षपकश्रेण्यारोहे वेदेनोच्येत पूर्ववेदेन / स्त्रीति नितराममुख्ये मुख्येऽर्थे युज्यते नेतराम् ॥"-स्त्रीमु० श्लो० 39-40 / (2) वेदस्य। (3) पृ० 8655013 / (4) स्त्रीषु / (5) 'मोक्षहेतुज्ञानादिपरमप्रकर्षः..."-प्रमेयक० पृ० 328 / (6) पृ०८६६ पं०१०। (7) पृ०८६६ पं०१५ / (8) अविनाभावः। (9) पृ० 446 / (10) अग्भिागाभावपरभागाभावयोः / (11) एकस्मिन्नेव भित्त्याख्ये अवयविनि अर्वाग्भागपरभागाख्ययोः अवयवयोः समवायात् तयोः परस्परमेकार्थसमवायः समस्त्येव / 1 इत्यागम-श्र० / 2 -बादरसंपराय-आ०। 3 'तदा' नास्ति आ०, श्र०। 4 :-प्रतिपत्तेरित्यादि आ०। 5 अदृश्यार्थस्य ब०। Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का 0 76 ] स्त्रीमुक्तिवादः 871 देव अनयोः गम्यगमकभावो भविष्यति, ननु नैयायिकस्य मतमेतन्न सिताम्बरस्य / न खलु समवायासिद्धौ तस्य एकार्थसमवायसिद्धिरुपपद्यते तत्सिद्धिपूर्वकत्वात्तस्यौः / अस्तु वा तत्सिद्धिः; तथापि-अंतस्तयोर्गम्यगमकभावे प्रकृतयोरपि सोऽस्तु तत्राप्येकार्थसमवायसद्भावात् , यत्रैव हि आत्मनि सप्तमपृथिवीगमनयोग्यता समेवता तत्रैव मुक्तिगमनयोग्यतापि / न च सप्तमपृथिवीगमनाभावात् स्त्रीणां निर्वाणनिषेधः साध- / यितुमिष्टः येनोक्तदोषानुषङ्गः स्यात् , किं तर्हि ? परमप्रकर्षत्वाद्धेतोः दृष्टान्ते सिद्धसाध्यव्याप्तिकात् निर्वाणकारणाभावः तत्र साधयितुमिष्टः। तदभावाच्च निर्वाणाभावः स्वयमेव तत्र सेत्स्यति / न खलु निहतुका कार्यस्योत्पत्तिः अतिप्रसङ्गात् / ततोऽयुक्तमुक्तम्-'सप्तमपृथिवीगमनं न निर्वाणस्य रत्नत्रयवत् कारणम्' इत्यादि / यदपि-'चरमदेहैः निश्चितव्यभिचारम्' इत्याद्युक्तम् ; तदप्ययुक्तम् ; यतः सप्तम- 10 पृथिवीगमनाभावः तन्निवर्त्तनसमर्थकर्मार्जनसामर्थ्याभावः। स च स्त्रीष्वेवास्ति न चरमशरीरिषु / श्रूयते हि भरतप्रभृतिचक्रवर्त्तिनां चरमशरीराणामपि प्रयाणकसमये सप्तमपृथिव्यां गमनयोग्यकर्मार्जना, देवार्चनसमये तु सर्वार्थसिद्धाविति / उत्कृष्टो हि शुभोऽशुभश्च परिणामः यथाक्रमम् उत्कृष्टायाः शुभगतेः अशुभगतेर्वा हेतुभूतं कर्म आरभते, तत्परिणामप्रारम्भे च पुरुषस्यैव सामर्थ्यं न स्त्रियाः / यथैव हि तस्याः तीव्रतराशुभ- 15 परिणामे सामर्थ्याभावः तथा उत्कृष्टशुभपरिणामेऽपि / उत्कृष्टशुभपरिणामेन च मुक्तिः / एतेन 'विषमगतयोऽप्यधस्तात्' इत्याद्यपि" प्रतिव्यूढम् ; प्रकृष्टगतिप्रारम्भहेतुभूतकर्मोपार्जनसमर्थस्यैव मुक्तियोग्यतोपपत्तेः न तद्विपरीतस्य / श्रूयते हि प्रतिनियताऽवान्तरगतिप्रारम्भककर्मवशात् प्रतिनियतोत्पादस्थानानामपि नारकाणां क्षपितकर्मणां तिर्यग्लोके सर्वेषामपि नियमतः 'संज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु तिर्यक्षु मनुष्येषु चोत्पादः, देवानाञ्च 20 तथाविधकर्मवशात् प्रतिनियतोपपादस्थानोत्पन्नानां तिर्यग्लोक एव तेषु एकेन्द्रियेषु च (1) तन्मते हि अवयवायविनोः कथञ्चित्तादात्म्याभ्युपगमात् / (2) श्वेताम्बरस्य / (3) एकार्थसमवायसिद्धेः / (4) एकार्थसमवायात्। (5) सप्तमपृथिवीगमनसामर्थ्य-मक्तिगमनसामर्थ्ययोश्च / (6) स्त्रीषु। (7) निर्वाणकारणाभावाच्च / (8) पृ० 866 पं० 20 / (9) पृ० 867 पं० 2 / (10) दिग्विजययात्रासमये / (11) पृ० 867 पं० 4 / (12) णिरयादो निस्सरिदो णरतिरिए कम्मसण्णिपज्जत्ते / गब्भभवे उप्पज्जदि सत्तमपुढवीदु तिरिए व ॥"-त्रिलोकसा० गा० 203 / "णेरयियाणं गमणं सण्णीपज्जत्तकम्मतिरियणरे / चरमचऊ तित्थूणे तेरिच्छे चेव सत्तमिया ॥"-कर्मका० गा०५३८। (13) संज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु तिर्यक्षु मनुष्येषु च / “आहारगा दु देवे देवाणं सण्णिकम्मतिरियणरे। पत्तेयपुढविआऊबादरपज्जत्तगे गमणं // भवणतियाणं एवं तित्थूणणरेसु चेव उप्पत्ती। . ईसाणंताणेगे सदरदुगंताणसणीसु ॥"-कर्मका० गा० 542-43 / 1 समवेता न तत्रैव मुक्तिगमनायोग्यतापि ब०। 2 निर्हेतुककार्य-श्र० / 8 ततो युक्तमुक्तम् ब०। 4-शरीरेषु ब०, श्र०। 6-णामप्राप्ते च ब०। 6 यथाविध-आ० / -नियतस्थानो-आ०, नियतोत्पादस्थानो-ब० / Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 872 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० नियमेनोत्पाद इति / न च तथाविधकर्मोपार्जनसामर्थन मुक्तियोग्यता संभवति इति न मुक्तियोग्यताविचारावसरे किञ्चिदनेन प्रयोजनम् / यस्य तु उपरिष्टात् प्रकृष्टशुभगतिप्रसाधने सामर्थ्यम् तस्य अधस्तात् प्रकृष्टाशुभगेतिप्रसाधनेऽपि तदस्ति यथा पुंस इति स्त्रीणां प्रकृष्टायां शुभगतौ सामर्थ्यभ्युपगच्छता अशुभगतावपि तथाविधायां तदभ्युपगन्तव्यम् / तथा च "इत्थी छठ्ठीश्रो अहो न उप्पजंति” [ ] इत्यादि भवदीयागमविरोधः। यच्चान्यदुक्तम्-'न च वादादिलब्ध्यभावात्तासां मोक्षाभावः' इत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम् ; यतो यत्र ऐहिकवादविक्रियाचारणादिलब्धीनामपि हेतुः संयमविशेषो नास्ति तत्र मोक्षहेतुरसौ भविष्यतीति कः सुधीः श्रद्दधीत ? वादलब्धिः खलु इन्द्राद्यास्था10 नेषु बृहस्पत्यादिष्वपि प्रतिबन्धकेषु सत्सु छलजात्यादिपरिहारेण स्वतत्त्वप्रतिपादनसामर्थ्यम्। विक्रियालब्धिः इन्द्रादिरूपोपादानशक्तिः। चारणलब्धिः गगनगमनसामर्थ्यम्। आदिशब्दात् अक्षीणमहानसादिलब्धिपरिग्रहः / तद्धेतुश्च संयमविशेषो न स्त्रीणां प्रवचने प्रतिपाद्यते / ___ यदप्यभिहितम्-'आगमे वादादिलब्ध्यतिशयाभाववत् मोक्षाभावोऽप्युच्येत' 15 इत्यादि; तदप्यभिधानमात्रम् ; संयमविशेषनिषेधादेव आगमे तासां मोक्षाभावप्रतिपा दनप्रसिद्धः। सुप्रसिद्धो हि आगमे पुंसां मोक्षहेतोः आचेलक्यादिसंयमविशेषस्य विधिः, स्त्रीणां तु निषेधः। न च कारणाभावे कार्योत्पत्तिः अतिप्रसङ्गात् / संयममात्रं तु सदपि आसां न,मोक्षहेतुः तिर्यग्गृहस्थादिसंयमवत् / तथा, नास्ति, स्त्रीणां मोक्षः परिग्रहवत्त्वात् गृहस्थवत् / यदप्युक्तम्-'प्रतिलेखनवत् मुक्त्यङ्गमेव वस्त्रम्' इत्यादि; तदप्यचारु; यतः प्रति (1) पृ० 867 पं०१० / (2) "स्त्रीणां संयमो न मोक्षहेतुः नियमेद्धिविशेषाहेतुत्वान्यथानुपपत्तेः ।"-प्रमेयक० पृ० 330 / (3) संयमः / (4) "शक्रादिष्वपि प्रतिबन्धिषु सत्सु अप्रतिहततया निरुत्तराभिधानं पररन्ध्रापेक्षणञ्च वादित्वम्।"-राजवा० पृ० 144 / (5) “लाभान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षप्राप्तेभ्यो यतिभ्यो यतो भिक्षा दीयते ततो भाजनाच्चक्रधरस्कन्धावारोऽपि यदि भुञ्जीत तदिवसे नान्नं क्षीयते ते अक्षीणमहानसाः।"-राजवा० पृ०१४५ / (6) पृ०८६८५० 3 / (7) "लिंगं इच्छीण हवे भुंजइ पिंडं सू एयकालम्मि। अज्जियवि एकवत्था वत्थावरणेण भुजेइ। णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमरगो सेसा उम्मग्गया सवे // लिंगम्मि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु / भणिओ सुहमो काओ तासं कह होइ पव्वज्जा॥ जइ दसणेण सूद्धा उत्ता मग्गेण सापि संजुत्ता। घोरं चरिय चरित्तं इत्थीसु न पावया भणिया // चित्तासोहि ण तेसि ढिल्लं भावं तहा सहावेण / विज्जदि मासा तेसिं इत्थीसु णऽसंकया झाणं ॥"-सूत्रप्रा० गा० 23-26 / “णिच्छयदो इत्थीणं सिद्धी ण हि तेण जम्मणा दिट्ठा / तम्हा तप्पडिरूवं वियप्पियं लिंगमित्थीणं / निर्ग्रन्थलिङ्गात् पृथक्त्वेन विकल्पितं कथितं लिंगं प्रावरणसहितं चिह्न स्त्रीणामिति ।"प्रव०टी० पू०३०२ / (8) पृ०८६८५०८। 1-तिसाधने-आ०। 2 इत्थीऊ छट्ठीदो अहो ण उ-ब०। 3 'यतो' नास्ति ब० श्र०। 4-स्थादिवत् आ०, ब०। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76 ] स्त्रीमुक्तिवादः 873 16 लेखनं तावत् संयमप्रतिपालनार्थं भगवतोपदिष्टम् , वस्त्रं तु किमर्थमुपदिष्टमिति ? तदपि तत्प्रतिपालनार्थमिति चेत् ; तथाहि-अभिभूयन्ते प्रायेण विवृताङ्गोपाङ्गसन्दर्शनजनितचित्तभेदैः पुरुषैः अङ्गना अकृतप्रावरणाः घोटिकेव घोटकैरिति; तत्र कुतस्ताः तैरभिभूयन्ते न पुनस्ते' ताभिः अकृतप्रावरणत्वाविशेषेऽपि इति वक्तव्यम् ? तासामल्पसत्त्वोपेततया अभिभाव्यत्वाच्चेत्, सुप्रसिद्धो ह्ययं विभागः गवाश्वादौ स्त्रीप्रकृतिर- 5 भिंभाव्या पुरुषप्रकृतिरभिभाविका इति; तदेतन्महामोहविजृम्भितम् ; यासामतितुच्छसत्त्वानां प्राणिमात्रेणाप्यभिभवः ताः सकलत्रैलोक्याभिभावककर्म शिप्रक्षयलक्षणं मोक्षं महासत्त्वप्रसाध्यं प्रसाधयन्तीति ! ___ यदप्युक्तम्-'यदि धर्मसाधनानां परिग्रहत्वं स्यात्' इत्यादि; तत्र कोऽयं धर्मः यत्साधनत्यं वस्त्रस्य स्यात्-पुण्यविशेषः, संयमविशेषो वा ? प्रथमपक्षे कथं तन्मुक्ति- 10 हेतुः ? आगमविहितविधिना गृह्यमाणस्यास्य गृहस्थवत् पुण्यस्यैव हेतुत्वात् / पुण्यहेतोश्च मुक्तिहेतुत्वे दानादेरपि तद्धेतुत्वप्रसङ्गः। संयमविशेषहेतुत्वं तु तस्य दुरुपपादम् , बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यागो हि संयमः, स च याचेंनसीवनप्रक्षालनशोषणनिक्षेपादानचौरहरणादिमनःसङ्कोभकारिणि वस्त्रे गृहीते कथं स्यात् ? प्रत्युत संयमोपघातकमेवैतत् बाह्याभ्यन्तरनैर्ग्रन्थ्यप्रतिपन्थित्वात् / नन्वेवं पिण्डौषध्यादीनामपि परिग्रहत्वप्रसङ्गात् कथं तदादायिनामपि मोक्षः स्यात् ? इत्यप्यसारम् ; तेषाम् उद्गमादिदोषपरिहारेण उपादीयमानानां रत्नत्रयोपबृंहणहेतुत्वात् / न हि ते सिद्धान्तविहितविधिना उपादीयमाना मोक्षहेतोरपकर्तारः / तदनहणे च अपूर्णेऽपि काले विपत्तेरापत्तेः आत्मघातित्वं स्यात् , वस्त्राऽग्रहे तु नाऽयं दोषः / षष्ठाऽष्टमादिक्रमेण च मुमुक्षुभिः पिण्डादिकमपि त्यज्यते, परमनैर्ग्रन्थ्यभाग्भिः तैः / प्रतिलेखनश्च, न तु स्त्रीभिः कदाचिद्वस्त्रम् / नच गृहीतेऽपि वस्त्रे ममेदंभावस्य आसामसंभवादपरिग्रहत्वं वाच्यम् ; विरोधात्, बुद्धिपूर्वं हि पतितं वस्त्रं हस्तेनादाय परिदधानाया मूर्छारहितत्वानुपपत्तेः, यद् बुद्धिपूर्वं पतितमप्यादीयते न तत्र मूर्छाभावः यथा सुवर्णादौ, तथा आदीयते च स्त्रीभिर्वस्त्रमिति / / (1) स्त्रियः। (2) पुरुषाः। (3) पृ०८६८ पं० 10 / (4) वस्त्रस्य / (5) “गेहदि व चेलखंडं भायणमत्थित्ति भणिदमिह सुत्ते / जदि सो चत्तालंबो हवदि कहं वा अणारम्भो॥ वत्थक्खंडं दुद्दियभायणमण्णं च गेण्हदि णियदं। विज्जदि पाणारंभो विक्खेभो तस्स चित्तम्मि / गेण्हइ विधुणइ धोवइ सोसेइ जदं तु आदवे खित्ता। पत्थं च चेलखंडं बिभेदि परदो य पालयदि // किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो व असंजमो तस्स। तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि ॥"प्रव०, टी० पृ० 297 / प्रमेयक० पृ० 331 / (6) “बुद्धिपूर्वकं हि हस्तेन पतितं वस्त्रमादाय.." -प्रमेयक० पृ० 333 / 1-विशेषणेति वक्त-ब०। 2-भाव्यं पुरुष-श्र०। 3-राशिक्षय-श्र०, राशिप्रक्षयलणं आ० / 4 संयमाशेष-आ० / 5-पूर्वकं हि श्र०। 60 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 874 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० एतेन 'उपसर्गाद्यासक्तमिव अम्बरमपरिग्रहः' इत्यादि प्रत्याख्यातम् ; उपसर्गाद्यासक्ते वस्त्रे पतिते बुद्धिपूर्वग्रहणासंभवात् / ___अथोच्यते-स्त्रीणां वस्त्रत्यागाभ्युपगमे कुलस्त्रीणां लज्जाभूयिष्ठत्वात् दीक्षाग्रहणमेव न स्यात् , वस्त्रे तु सति तत्परिग्रहमानं दोषः सकलशीलपरिपालनं तु गुणः इति त्यागोपादानयोः गुणदोषाल्पबहुत्वनिरूपणेन भगवता वस्त्रमुपदिष्टं तासामिति; तदेतदस्माकमभीष्टमेव, नहि अंत्रार्थे वयं विप्रतिपद्यामहे, मोक्षे एव अस्माकं विप्रतिपत्तेः। नच तच्छीलं मोक्षप्रसाधनाय प्रभवति परिग्रहवदाश्रितत्वात् गृहस्थशीलवत् / नहि गृहस्थशीलं त्यागोपादानयोः गुणदोषाल्पबहुत्वनिरूपणेन भगवतोपदिष्टमपि मोक्षप्रसाधनाय प्रभवति एवं प्रकृतमपि / अथ तैच्छीलं हिंसाशबलितत्वात् न तत्प्रसाधनाय प्रभवति; 10 तदन्यत्रापि समानम् / न खलु स्त्रीसम्बन्धि शीलं हिंसाशबलं न भवति; यूंकालिक्षा द्यनेकजन्तुसम्मूर्च्छनाधिकरणवस्त्रसमन्वितत्वात् गृहस्थशीलवत् / तत्सम्मूर्च्छनाधिकरणस्य च वस्त्रस्य हिंसानङ्गत्वे मूर्द्धजानामपनयनानर्थक्यं स्यात् / ___ यदप्यभिहितम-'प्रमादाभावे तासां हिंसानुपपत्तेः' इत्यादि; तदप्यपेशलम् ; लोभकषायपरिणतौ तासामप्रमत्तत्वानुपपत्तेः, तत्परिणतेरेव प्रमादत्वात् / तदुक्तम्15 “विकॅहा तहा कसाया इंदिय णिद्दा य तह य पणगो (यो) य / ___ चदु चदु पण एंगेगे हुंति पमादा हु पण्णरस // " [पंचसं० 1 / 15 ] इति / लोभकषायपरिणतिश्च स्त्रीणां बुद्धिपूर्व वस्त्रस्वीकारात् अस्तीत्यवसीयते / अथ वीतरागत्वेऽप्यासां लज्जापनोदार्थ तत्स्वीकारसंभवात् नातस्तासां तत्परिणतिसिद्धिः; नन्वेवं कार्मपीडापनोदार्थ कामुकादिस्वीकारोप्यासां किन्न स्यादविशेषात् ? अथ तत्पीडासद्भावे वीतरागत्वं तासां विरुद्ध्यते, तदेतत् लज्जासद्भावेऽपि समानम् / न खलु वीतरागस्य लज्जा उपपद्यते, सति रागे बीभत्सावयवप्रच्छादनेच्छारूपत्वात्तस्याः / यो वीतरागो नासौ लज्जावान , यथा शिशुः, वीतरागा च भवद्भिरभिप्रेता आर्यिका इति / (1) "अर्शोभगन्दरादिषु गृहीतचीरो यतिन मुच्येत / उपसर्गे वा चीरे ग्दादि संन्यस्यते चात्ते // " -स्त्रीमु० श्लो० 17 / (2) गृहस्थशीलम् / (3) पृ० 868 पं० 27 / (4) “पइडी पमादमइया एदासि वित्ति भासिया पमदा / तम्हा ताओ पमदा पमादबहुला त्ति णिद्दिट्ठा // संति धुर्व पमदाणं मोहपदोसा भयं दुगुंछा य / चित्ते चित्ता माया तम्हा तासि ण णिव्वाणं ॥"-प्रव० टी० पृ० 302 / "मायापमायपउरा पडिमासं तेसु होइ पक्खलणं। णिच्च जोणिस्सावो दारड्ढं णत्थि चित्तस्स ॥"भावसं० गा० 93 / (5) विकथास्तथा कषाया इन्द्रियनिन्द्रातथैव प्रणयश्च / चतुश्चतुःपञ्चकैकं भवन्ति प्रमादा: खलु पञ्चदश // गाथेयं जीवकाण्डेऽपि (34) वर्तते। उद्धृतेयम्-धवलाटी०पू० 178 / (6) "ह्रीशीतात्तिनिवृत्त्यर्थं वस्त्रादि यदि गृह्यते। कामिन्यादिस्तथा किन्न कामपीडादिशान्तये ।"-प्रमेयक० पृ०३३१ / (7) कामपीडा। (8) लज्जायाः / 1-सर्गाद व्यासक्त-आ०1 2 अत्रार्थेऽवद्यं विप्र-ब०।-प्रसाधाय ब०। 4-नाय भवत्येव प्रकृतब015 जकालि-ब०। 6-णामे तासा-ब०।7 एगेकं श्र०18 बुद्धिपूर्ववस्त्र-आ०, बुद्धिपूर्वकवस्त्र-श्र०। 9 कान्तादि-श्र०। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76] स्त्रीमुक्तिवादः 875 यदि च पुंसाम् अचेलः संयमो मुक्तेर्हेतुः स्त्रीणां तु सचेलः; तदा कारणभेदात् मुक्तरप्यवश्यमनुषज्येत भेदः / योऽत्यन्तभिन्नः संयमः सोऽत्यन्तभिन्नकार्यारम्भकः यथा यतिगृहिसंयमोऽत्यन्तभिन्नस्वर्गाद्यारम्भकः, अत्यन्तभिन्नश्च सचेलाऽचेलरूपो मुक्तिहेतुतयाऽभिप्रेतः आर्य-अर्यिकासंयमः इति / न चानयोः मुक्तिभेदोऽस्ति; सकलकर्मक्षयलक्षणाया मुक्तेः उभयोर्भवद्भिस्तुल्यतयाऽभ्युपगमात् / किञ्च, सचेलसंयमस्य मुक्तिहेतुत्वे मुक्तयर्थिनां न वस्त्रादेत्यागः कर्त्तव्यतया उपदिश्येत , उपदिश्यते चासौ तेषां तथा, अतो वस्त्रादेर्मुक्त्यङ्गतानुपपत्तिः। प्रयोगःवस्त्रं मुक्तेरङ्गं न भवति, मुक्त्यर्थिनां तत्त्यागस्य कर्त्तव्यतयोपदिश्यमानत्वात् , यत्त्यागो मुक्त्यर्थिनां कर्तव्यतयोपदिश्यते - न तत् मुक्तेरङ्गम् यथा मिथ्यादर्शनादि, कर्त्तव्यतयोपदिश्यते च तेषां वस्त्रत्याग इति / यत्पुनः मुक्तेरङ्गं न तत्त्यागस्तदर्थिनां कर्त्त- 10 व्यतया उपदिश्यते यथा सम्यग्दर्शनादेरिति / ___ यच्चान्यदुक्तम्-'पुरुषैरवन्द्यत्वस्य गणधरैर्व्यभिचारः' इत्यादि; तदप्यसाम्प्रतम् ; यतोऽर्हतां तीर्थकरत्वनामपुण्यातिशयवशात् परममहत्त्वपदप्राप्तत्वेन अखिलजनैर्वन्द्यत्वमेव न वन्दकत्वम् / नहि कश्चित् तत्पदादधिकपदार्हो जगत्यस्ति यस्य ते वैन्दका भविष्यन्ति, गणधराणां तु तथाविधपुण्याऽभावात् तत्पदप्राप्तेरभावान्न तद्वद्वन्द्यत्वम् / 15 मुक्तिसामग्री तु तीर्थकरेतरेषां सिद्ध्यतां न विशिष्यते / आर्यिकायास्तु सा विशिष्यते, तद्धेतुरत्नत्रयाभावात् / तथा, स्त्रीणां न निर्वाणपदप्राप्तिः, यतिगृहिदेववन्द्यपदाऽनर्हत्वात् , नपुंसकादिवत् / यतीनां हि वन्धं पदं द्विविधम्-परम् , अपरश्च / तत्र परम्-तीर्थकरत्वलक्षणम् / अपरम्-आचार्यादिलक्षणम् / तदुभयमपि पुंसामेव उपदिश्यते न स्त्रीणाम् / तथा गृहिणां देवानाञ्च वन्द्यं पदं द्विविधम्-पराऽपरभेदात् / तत्र 20 तेषां वन्द्यं परं पदम्-चक्रवर्तित्वम् इन्द्रत्वञ्च / अपरम्-महाम(मा)ण्डलिकादि सामानिकादि च / तदपि पुंसामेव श्रूयते न स्त्रीणाम् / प्रतिगृहश्च प्रभुत्वं पुंसामेव न स्त्रीणाम् / तथा पितरि सत्यसति च पुत्रस्यैव लघोः विरूपकस्यापि सर्वत्र कार्येधिकारो न पुत्रीणां महतीनां सुरूपाणामपि / अतो यासां सांसारिकलक्ष्म्यामपि अधिकारो नास्ति तासां मोक्षलक्ष्म्यामधिकारो भविष्यति इति किमपि महाद्भुतम् ! 25 ननु यदि महत्याः श्रियोऽनर्हत्वात्तासाममुक्तिः तदा गणधरादीनामप्यमुक्तिः (1) "तहि कारणभेदान्मुक्तेरप्यनुषज्येत भेदः स्वर्गादिवत् ।"-प्रमेयक० पृ० 330 / (2) आर्य-आयिकयोः। (3) वस्त्रत्यागः मुक्त्यर्थिनां कर्त्तव्यतया। (4) पृ० 869 50 4 / (5) तीर्थकराः। (6) परममहत्त्वपदप्राप्तेः। (7) तीर्थकरवत् सकलजगद्वन्द्यत्वम् / 1 वन्दका च भवि-श्र०। 2-पुण्यानुभावतस्तत्प-आ०,-पुण्यभावतस्तत्पद-ब०। 3-भावस्तत्पद-श्र० / 4 तद्वन्द्यत्वम् ब०, श्र०। 5-करे तेषां श्र०। 6 आयिकासु सा ब० / 7 वन्द्यपदं ब० / 8 चक्रवादित्वं ब०। 9 विपक्षकस्यापि ब०। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 876 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० स्यात् महत्याः तीर्थकरत्वश्रियः तेषामप्यनर्हत्वाविशेषात् ; इत्यप्यसुन्दरम् ; व्यक्तिभेदस्यात्र विधिनिषेधयोरनङ्गत्वात् / पुरुषवर्गो हि महत्यां श्रियामधिकृतो न स्त्रीवर्गः अतस्तत्परिहारेण तस्यैव मुक्तिरभ्युपगन्तव्या, न पुनः कचिद्व्यक्तौ तथाविधश्रियोऽ संभवेऽपि मुक्त्युपलम्भाद् व्यभिचारमुद्भाव्य मुक्ति प्रति स्त्रीणां तत्समानताऽऽपादयितुं 5 युक्ता / न खलु एकस्य राजपुत्रस्य राज्यप्राप्तौ अन्यतत्पुत्राणां तैदप्राप्तितः ततो हीन त्वेऽपि पुत्र्या समत्वं युक्तम् ; पुत्रवर्गात् पुत्रीवर्गस्य सकलव्यवहारेषु लोके अत्यन्तविलक्षणतया .प्रसिद्धेः / ततः स्त्रीणां न मोक्षः पुरुषेभ्यो हीनत्वात् नपुंसकादिवत् / न च तेभ्यो हीनत्वमासामसिद्धम् ; अनन्तरमेव अस्य समर्थितत्वात् / इतश्च तत्सिद्धम् यतः सारणवारणपरिचोदनादीनि स्त्रीणां पुरुषाः कुर्वन्ति न 10 स्त्रियः पुरुषाणाम् , तीर्थकराकारधराश्च पुरुषा न स्त्रियः / उक्तञ्च “सारणवारणपरिचोयणाइ पुरिसा करेई णहु इत्थी' [ ] ननु न हीनत्वमधिकत्वं वा मुक्तेरङ्गम् , किन्तु रत्नत्रयं शिष्याचार्यवत् , तथाहि- . शिष्या आचार्येभ्यो हीनाः ते तु तेभ्योऽधिकाः अथ च उभयेषां मुक्तिः, तद्वद् आर्याणाम् आर्यिकाणाञ्च सा भविष्यति; इति च श्रद्धामात्रम् ; यतः शिष्याचार्यवत् हीनाधिकत्वेऽपि स्त्रीपुरुषयोर्मुक्तिः अविशेषतः स्यात् यदि तद्वत् तयोरपि मुक्तिहेतुभूतं रत्नत्रयमविशेषतः स्यात् , न च स्त्रीषु तदस्ति, तद्धेतुभूतस्यास्य प्रपञ्चतः तासु प्रागेव प्रतिषिद्धत्वात् / रत्नत्रयमानं तु तत्र सदपि न तद्धेतुः; गृहस्थादेरपि मुक्तिप्रसङ्गात्। नहि प्रचण्डमार्तण्डप्रसाध्ये कार्ये प्रदीपस्य स्वप्नेऽपि सामर्थ्य प्रतीयते / . यदप्युक्तम्-'गार्हस्थ्येऽपि सुसत्त्वाः ' इत्यादि; तदप्यविचारितरमणीयम् ; नहि 20 यथा अनेकदुर्धरपरीषहसहत्वेन अखिलकर्मनिर्मूलनसमर्थं महासत्त्वं पुसां प्रसिद्धम् तथाविधं स्वप्नेऽपि स्त्रीणामस्ति / स्त्रीवर्गापेक्षयैव सीतादीनां सत्त्वप्रकर्षसंभवात् 'महासत्त्वाः' इत्युच्यन्ते / नहि तासां पुंसामिव सत्त्वाधिक्यमस्ति कापि कार्ये / तथाविधसत्त्वविकलानाञ्च तासां कथं महासत्त्वसाध्यमुक्तिहेतुरत्नत्रयसमग्रता स्यात् / तथाहि-न स्त्रीशरीरं मुक्तिहेतुरत्नत्रयसमग्रतोपेताऽऽत्माश्रयः महता पापेन निर्वर्त्तित25 त्वात् नारकादिशरीरवत् / किञ्च, अखिलकर्मक्षपणाप्रारम्भहेतोस्तस्र्यं तदाश्रयतोपपद्यते / न च स्त्रीशरी- . (1) स्त्रीवर्गपरिहारेण / (2) तीर्थकरत्वश्रियः / (3) 'सारणा हिते प्रवर्तनलक्षणा कृत्यस्मारणलक्षणा वा, उपलक्षणत्वाद् वारणा अहितान्निवारणलक्षणा, चोयणा संयमयोगेषु स्खलितः सन्नयुक्तमेतद् भवादशां विधातुमित्यादिवचनेन प्रेरणा, प्रतिचोदना तथैव पूनः पुनः प्रेरणा।"-च्छा. वृ० गा० 17 / ओघनि० टी० गा० 448 / (4) शिष्याचार्यवत् आर्य-आयिकयोरपि। (5) पृ०८६९ पं०११। (6) शरीरस्य। (7) मुक्तिहेतुरत्नत्रयसमग्रतोपेतात्माश्रयता / 1 व्यक्तिभेदः स्यात विधि-आ012 तत्प्राप्तितः ब० / सारणचारण-आ०14 सारणचारण -आ। इछी आ016 आचार्याणामापि-श्र०। 7-धिक्यमपि क्वापि आ० / 8 नच शरीरस्य आo। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनप्र० का० 76 ] स्त्रीमुक्तिवादः 877 रस्य तत्प्रारम्भहेतुतोपपद्यते / तथाहि-न स्त्रीशरीरं सकलकर्मक्षपणाप्रारम्भहेतुः महता पापेन मिथ्यात्वसहायेन उपार्जितत्वात् नारकादिशरीरवत् / स्त्रीनिवर्तकं हि कर्म महत्पापम् न मिथ्यादृष्टेरन्येन उपाय॑ते / यद्यपि सासादनसम्यग्दृष्टिरपि तदुपार्जयति तथाप्यसौ सम्यग्दर्शनमवसादयन् मिथ्यादृष्टिरेव, मिथ्यादर्शनाभिमुखस्यास्य मिथ्यादर्शनेनैव व्यपदेशात्। सम्यमिथ्यादृष्टिरपि हि तत्तावत् नार्जयति, किमङ्ग पुनः / सम्यग्दृष्टिः ? स्त्रीत्वेन उत्पद्यमानोऽपि जीवो मिथ्यात्वपरिणत एव उत्पद्यते / तदुक्तम् "सु हेडिमासु पुढविसु जोइस-वण-भवण-सव्वइत्थीसु / / वारेस (वारस) मिच्छुवादे सम्माइट्ठी ण उप्पयदि // " [पंचसं० 11193 (?) ] यासाश्च उत्कृष्टस्थितिकदेवपदप्राप्तिरपि नास्ति ताः मोक्षपदं प्राप्स्यन्ति इति महन्न्यायकौशलम् ! 10 यदप्युक्तम्-'अदृसमयेगसमये' इत्याद्यागमश्च स्त्रीनिर्वाणे प्रमाणम्' इत्यादि तदप्यनल्पतमोविलसितम्; अस्य आगमस्य अस्मत्प्रत्यप्रमाणत्वात् , तदप्रमाणत्वश्च प्रमाणबाधितार्थप्रतिपादकत्वात् सुप्रसिद्धम् / यथा च स्त्रीनिर्वाणलक्षणोऽर्थः प्रमाण . (1) “चित्तस्सावो तासिं सिथिल्लं अत्तवं च पक्खलणं। विजदि सहसा तासु अ उप्पादो सुहममणुआणं।"-प्रव० टी०पू० 303 / "सुहमापज्जत्ताणं मणुआणं जोणिणाहिकक्खेसु / उप्पत्ती होइ सया अण्णेसुय तणुपएसेसु // णहु अत्थि तेण तेसि इत्थीणं दुविहसंजमोद्धरणं / संजमधरणेण विणा ण हु मोक्खो तेण जम्मेण ॥"-भावसं० गा० 94-95 / “सदैवाशुद्धता योनौ गलन्मलाश्रयत्वतः / रजः स्खलनमतासां मासं प्रति प्रजायते / / उत्पद्यन्ते सदा स्त्रीणां योनौ कक्षादिसन्धिसु / सूक्ष्मापर्याप्तका .. मस्तिदेहस्य स्वभावतः // स्वभावः कुत्सितस्तासां लिंगञ्चात्यन्तकुत्सितम् / तस्मान्न प्राप्यते साक्षाद द्वेधा संयमभावना // उत्कृष्टसंयम मुक्त्वा शुक्लध्याने न योग्यता। नो मुक्तिस्तद्विना तस्मात्तासां मोक्षोऽतिदूरगः // सप्तमं नरकं गन्तु शक्तिर्यासां न विद्यते। आद्यसंहननाभावान्मुक्तिस्तासां कूतस्तनी // योषित्स्वरूपतीर्थेशां तल्लिगस्तनभूषिताः / अर्चाः प्रतिष्ठिताः क्वापि विद्यन्ते चेत्प्रकथ्यताम् / न सन्ति चेन्मताभावः सन्ति चेद् भण्डिमास्पदम् / एवं दोषद्वयासंगान्मोक्षो न घटते स्त्रियः ॥"भावसं० श्लो० 244-50 / (2) " सम्मत्तरयणपन्वयसिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो। णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्वो ॥"-जीवका० गा० 20 / “विपरीताभिनिवेशतोऽसदृष्टित्वात् / तर्हि मिथ्यादष्टिर्भवत्वयं नास्य सासादनव्यपदेश इति चेत् ; न; सम्यग्दर्शनचारित्रप्रतिबन्ध्यनन्तानुबन्ध्यदयोत्पादितविपरीताभिनिवेशस्य तत्र सत्त्वाद् भवति मिथ्यादृष्टिरपि तु मिथ्यात्वकर्मोदयजनितविपरीताभिनिवेशाभावान्न तस्य मिथ्यादृष्टिव्यपदेशः किन्तु सासादन इति व्यपदिश्यते ।"-धवलाटी० पू० 164 / (3) "....." वारसमिच्छोवादे सम्माइट्ठिस्स णस्थि उववादो"-पंचसं०। णेदेसु समुप्पज्जइ सम्माइट्ठी दु जो जीवो"-वलाटी० पु०२०९ / "हेट्ठिमछप्पुढवीणं जोइसि वण भवण सव्व इत्थीणं / पूण्णिदरे णहि सम्मो ण सासणो णारयापुण्णे ॥"-जीवका० गा०१२७ / अधस्तनषट्नरकेषु ज्योतिर्व्यन्तरभवनवासिष तिर्यमनुष्यदेवस्त्रीषु द्वादशसु मिथ्यात्वोपपादस्थानेषु सम्यग्दष्टयन समुत्पद्यन्ते इत्यर्थः / * (4) पृ० 869 पं० 13 / __1-वसावयेत् मि-आ०। 2-रपि हेतु तावत् श्र०। 3 किंपुनः श्र०। 4-णत्यवोल्प-ब० / 5 वारसतिमिच्छववावे आ०, श्र०। 6-वादेसम्या इत्थि न उप-श्र०। 7 अद्धसय-आ० / 8 अस्मान् प्रत्यप्र-श्र० / Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 878 लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० बाधितः तथा प्रपश्चतः प्राक् प्रतिपादितमेव / ननु-"पुंवेदं वेदंता जे पुरिसा खवगसेढिमारूढा / ___सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्ता य ते दु सिझर्ति // " [प्रा० सिद्धभ० गा०६] इत्यादेरपि प्रमाणभूतागमस्य तन्निर्वाणप्रतिपादकस्य. सद्भावात् कथं प्राक्तनागमस्य 5 प्रमाणबाधितार्थप्रतिपादकत्वम्, आगमात् स्त्रीनिर्वाणोऽसिद्धिर्वा ? इत्यपि मनोरथमात्रम् ; तस्यै तन्निर्वाणावेदकत्वाऽसंभवात् , स हि पुंवेदोदयवत् शेषवेदोदयेनापि पुंसामेव अपवर्गावेदकः, उभयत्र 'पुरुषाः' इत्यभिसम्बन्धात् / वेद इति हि मोहनीयोदयजन्मा चित्तविकारोऽभिलाषरूपोऽभिधीयते, उदयश्च भावस्यैव न द्रव्यस्य / ___यदप्युक्तम्-'द्रव्यतः पुरुषाः' इत्यादि; तदप्यचर्चिताभिधानम् ; द्रव्यतः स्त्री10 वेदस्य मोक्षप्रसाधनसामर्थ्याभावस्य प्रतिपादितत्वात् कथं द्रव्यतः स्यपि भावतः पुरुषो भूत्वा निर्वास्यति ? यद् द्रव्यतो मोक्षप्रसाधने असमर्थं तद् भावतोऽपि तत्प्रसाधनेऽसमर्थमेव यथा तिर्यगादि, द्रव्यतो मोक्षप्रसाधने असमर्था च स्त्री इति / अतो द्रव्यतः पुरुषस्यैव भावतो वेदे यत्र कुत्रचिदारूढस्य निःशेषतो निखिलकर्मारातिनिर्ज यनसामर्थ्यमभ्युपगन्तव्यम् लोकवत् / यथैव हि लोके पुरुषो महासत्त्वोपेतो गजतुर15 गादौ यत्रकुत्रचिदारूढः किञ्चिद्दिव्यमस्त्रमादाय रणरङ्गे निखिलशत्रुवर्गमुन्मूलयन् परमैश्वर्यमनुभवति इति आबालं प्रसिद्धम् न पुनः यथार्थनामा अंबला, तथा द्रव्यतः पुरुष एव भावतो वेदत्रयान्यतमवेदाधिरूढः शुक्लध्यानानुपमास्त्रमादाय कारातिवर्गमुन्मूलयन् परमैश्वर्यमनुभवति इति / यदप्यभिहितम्-'न च सिद्ध्यतो वेदः' इत्यादि; तत्सत्यमेव; नहि अस्माभिर्वे20 दात् मुक्तिरभ्युपगम्यते, कर्मनिचयनिर्दहनसमर्थतीव्रतरशुक्लध्यानानलात् परापरमुक्तेरभ्युपगमादिति // छ / इदानीं शास्त्रकारः शास्त्राध्ययनस्य प्रयोजनं प्ररूपयन्नाह भव्यः पञ्चगुरूंस्तपोभिरमलैराराध्य बुध्वागमम् , तेभ्योऽभ्यस्य तदर्थमर्थविषयाच्छब्दादपभ्रंशतः। (1) "भावपुवेदमनुभवन्तो ये पुरुषाः क्षपकश्रेणीमारूढाः, न केवलं भाववेदेनैव अपि तु सेसोदयेण वि तहा-अभिलाषरूपभावस्त्रीनपुंसकवेदोदयेनापि तथा क्षपकश्रेण्यारूढप्रकारेण झाणुवजुत्ता य शुक्लध्यानोपयुक्ताश्च ते द्रव्यपुंवेदास्तु सिज्झति सिद्धयन्ति ।"-सिद्ध भ० टी०। (2) "पुवेदं वेदंता' इत्यागमस्य। (3) "अवेदत्वेन, त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतः न द्रव्यतः, द्रव्यतः पुल्लिलेनैव ।"-सर्वार्थसि०१०१९। “अतीतगोचरनयापेक्षया अविशेषेण त्रिभ्यो वेदभ्यः सिद्धिर्भवति भावं प्रति, न तु द्रव्यं प्रति / द्रव्यापेक्षया तु पुल्लिंगेनैव सिद्धिः ।"-राजवा० पृ० 366 / “पुल्लिंगेनैव तु साक्षाद् द्रव्यतो"."-तत्त्वार्थ-इलो० 10 / 9 / (4) पृ०८७० पं०३ (5) पृ० 870 50 5 / 1-णसिद्धि.त्यपि थ०,-णासिद्धिरित्यपि-ब०। 2- तन्निर्वाणा-ब०,-त्रं स्त्रीनिर्वाणा-श्र०। 8-विकारो ह्यभिधी-ब० 4 मोक्षसाधन-ब०। 5-तोऽखिल-ब०। 6 लोकेषु पुरुषो आ017 बाला श्रा Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 876 प्रवचनप्र० का० 77-78] शास्त्राध्ययनस्य प्रयोजनम् दूरीभूततरात्मकादधिगतो बोद्धाऽकलकं पदम् , लोकालोककलावलोकनबलप्रज्ञो जिनः स्यात् स्वयम् // 77 // प्रवचनपदान्यभ्यस्य अस्तंतः परिनिष्ठितान् , असकृदबबुद्धयेद्धाद्वोधाडधो हतसंशयः।। भगवदकलङ्कानां स्थानं सुखेन समाश्रितः, कथयतु शिवं पन्थानं वः पदस्य महात्मनाम् // 78 // विवृतिः-लक्षण-संख्या-विषय-फलोपेतप्रमाण-नय-निक्षेपखरूपप्ररूपके हि हेतुवादरूपे आगमे गुरूपदेशपरम्परातो यथावदधिगते परमप्रकर्षण अभ्यस्ते सति आत्मनो जिनेश्वरपदप्राप्तिलक्षणस्वार्थसम्पत्तिर्भवति / तत्संपत्तौ च मुमुक्षुजनमोक्षमार्गोपदेशद्वारेण परार्थसम्पत्तये असौ चेष्टते इति // छ / इति श्री भट्टाकलङ्कशशाङ्कानुस्मृतप्रवचनप्रवेशः समाप्तः // छ / 10 (1) "स्याद् भवेत् / कः भव्यः मोक्षहेतुरत्नत्रयरूपेण भविष्यति परिणंस्यतीति भव्यः अभव्यस्य मुक्तावनधिकारात् / किविशिष्ट: स्यात् ? जिनः स्यात् / पुनः कथम्भूतः ? लोकालोककलावलोकनबलप्रज्ञः, षद्रव्यसमवायो लोकः ततो बहिरलोकः केवलाकाशरूपः तयोः कला विभागः / अथवा लोकश्च अलोकश्च कलाश्च जीवादयः पदार्थाः तासामवलोकनं तत्र बलं शक्ति: प्रज्ञा प्रकृष्टं ज्ञानं च विद्यते यस्य स तथोक्तः कथं स्वयं स्वेनात्मना नेन्द्रियादिसाहाय्येन इत्यर्थः / पूनरपि किंविशिष्ट: ? अधिगतः। किम् ? पदम् स्थानम् / किंविशिष्टम् ? आकलङ्कम् अकलङ्कानामिदम् आर्हन्त्यमित्यर्थः / बोद्धा / किंकृत्वा ? अभ्यस्य पुनः पुनर्भावयित्वा। कम् ? तदर्थम्, तस्यागमस्य अर्थो जीवादिवस्तु तम् / आदी कृत्वा ? बुध्वा अधीत्य ज्ञात्वा च / कम् ? आगमं श्रुतम् / केभ्यः ? तेभ्यः पंचगुरुभ्यः सकाशात् / कस्मादवधिभूताद् ? शब्दात् / किंविशिष्टात् ? अर्थविषयात् / पुनः किंविशिष्टात् ? अपभ्रंशतः भ्रंशो लक्षणदोषः तस्मादपगतः अपभ्रंशः तस्मात् / ततः पूर्वं किं कृत्वा ? आराध्य गुरून अर्हदादीन् / कति ? पंच / कैः गुणः ? तपोभिः बाह्याभ्यन्तरः इच्छानिरोधैः / अमलै: मिथ्यात्वादिमलरहितः"-लघी० ता० पृ० 100 / (2) "कथयतु प्रतिपादयतु / कः? बुध: ज्ञानी। कम् ? पन्थानं मार्गप्राप्त्युपायम् / किं विशिष्टम् ? शिवम् / कस्य ? पदस्य स्थानस्य / केषाम् ? महात्मनाम् / केभ्यः कथयतु ? वः युष्मभ्यं विनेयेभ्यः। केन ? सुखेन ताल्वोष्ठपुटव्यापारक्लेशाभावेन / किंविशिष्ट: सन् ? समाश्रितः प्राप्तः / किम् ? स्थानम् अवस्थानम् न क्षणभंगं तत्रोपदेशाभावात् / किंविशिष्टम् ? भगवत् त्रिलोकपूजाहम् / केषां स्थानम् ? अकलंकानाम् / अर्हतामित्यर्थः / किविशिष्टः सन् ? हतसंशयः। किं कृत्वा ? अवबुद्धय निश्चित्य / कथम् ? असकृत् पुनः पुनात्वा / कान् ? अर्थात् जीवादितत्त्वानि / किंविशिष्टान् ? परिनिष्ठितान् व्यवस्थितान् / क्व ततः ? तेषु प्रवचनपदेषु / कस्मात् ? बोधात् / किविशिष्टात् ? इद्धात् उज्वलात् संकरव्यतिकरव्यतिरेकात् अहमहमिकया प्रकाशमानादित्यर्थः / किंकृत्वा / अभ्यस्य परिचिन्त्य। पुनः पुनरुपयुज्यत्यर्थः / कानि ? प्रवचनपदानि। परमागमाभ्यासात् परिणतश्रुतज्ञानः शुक्लध्यानानलनिर्दग्धद्रव्यभावकलङ्कः सार्वश्यमापन्नो मोक्षमार्गोपदेशाय परार्थाय चेष्टतामिति भावो देवानाम्।"-लघी ता० पृ० 101 / 1-निश्चिता-ब०। 2-स्वरूपके हि श्र०। 3 परार्थसम्प-श्र०। 4 चेष्ट इति आ० / 5 इति ग्रन्थः समाप्तः ब०। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयालङ्कारे न्यायकुमुदचन्द्रे [7. निक्षेपपरि० बोधो मे' न तथाविधोऽस्ति न सरस्वत्या प्रदत्तो वरः, साहाय्यश्च न कस्यचिद्वचनतोप्यस्ति प्रबन्धोदये / यत्पुण्यं जिननाथभक्तिजनितं तेनायैमत्यद्भुतः, सञ्जातो . निखिलार्थबोधनिलयः साधुप्रसादात्परः // 1 // कल्याणावसथः सुवर्णरचितः विद्याधरैः सेवितः, तुङ्गाङ्गो विबुधप्रियो बहुविधश्रीको गिरीन्द्रोपैमः / भ्राम्यद्भिर्न बृहस्पतिप्रभृतिभिः प्राप्तं यदीयं पदम् , न्यायाम्भोधिनिमन्थनः चिरमसौ स्थयात् प्रबन्धः परः॥२॥ मूलं यस्य समस्तवस्तुविषयं ज्ञानं परं निर्मलम् , बुध्नं संव्यवहारसिद्धमखिलं संवादि मानं महत् / शाखाः सर्वनयाः प्रपत्रनिवहो निक्षेपमालामला, जीयाजैनमतांऽघ्रिपोऽत्र फलितः स्वर्गादिभिः सत्फलैः // 3 // भव्याम्भोजदिवाकरो गुणनिधिः योऽभूजगभूषणः, सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्रजलधिः श्रीपद्मनन्दिप्रभुः / तच्छिष्यादकलङ्कमार्गनिरतात् संन्यायमार्गोऽखिलः, सुव्यक्तोऽनुपमप्रमेयरचितो जातः प्रभाचन्द्रतः // 4 // अभिभूय निजविपक्षं निखिलमतोद्योतनो गुणाम्भोधिः। , सविता जयतु जिनेन्द्रः शुभप्रबन्धः प्रभाचन्द्रः // 5 // इति प्रभाचन्द्रविरचिते न्यायकुमुदचन्द्रे लघीयस्त्रयालङ्कारे सप्तमः परिच्छेदः समाप्तः ।।छ।। (1) प्रभाचन्द्रस्य / (2) न्यायकुमुदचन्द्रविरचने / (3) न्यायकुमुदचन्द्रः / (4) न्यायकुमुदचन्द्रः / 1-दयः श्र०। 2-यमः ब० / न्यायाम्भोधिनिबद्धनः आ०, न्यायाम्भोनिधिमन्थनः श्र०। 4 तश्याय-श्र०। 5 समाप्तः। इति श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिप्रणामोपाजितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलंकेन श्रीमत्प्रमाचन्द्रपण्डितेन न्यायकुमुवचन्द्रो लघीयस्त्रयालंकारः कृत इति मंगलम् / श्रीचन्द्रनाथाय नमः। श्रीविजयकीर्तिमनये नमः / श्र० / Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तिः .. . 881 श्रीनन्दिसंघकुलमन्दिररत्नदीप(पः),सिद्धान्तिमूर्ध्व (4)तिलको 'नन्दिनामा। चूडामणिप्रभृतिसर्वनिमित्तवेदी चूडामणिर्भवनिमित्तविदा बभूव // 1 // शिष्यस्तस्य तपोनिधिः शमनिधिर्वि [द्यानिधि ] (निधिः / शीलानन्दितभव्यलोकहृदयः सौख्यैकनन्दीत्यभूत् // आरुह्य प (प्र) तिभागुणप्रवहणं सदोधिरत्नो [द्वहं] / [सत्सिद्धान्तमहोदधेरनवधेः पारं परं दृष्टवान् // 2 // अन्तेवासी समजनि मुनेस्तस्य यो देवनन्दी, दीप्तोत्तप्तप्रभृतितपसा [ सां धाम यो ] देवनन्दी। चातुर्वर्ण्यश्रमणगणिभिर्देववद्वंर (द ) नीयो, देवश्वासावजनि परमानन्दयोगाच्च नन्दी // 3 // एतस्मादुदयाचलाद्वि [धिवशा] ली [लो] दयेनाभितः / श्रीमद्भास्करण(न)न्दिना दशदिशस्तेजोभिरुद्योतिताः // विद्वत्तारकचक्रवालमखिलं मिथ्यातमोभे [दिभिरर्थोद्भा] सवचोमरीचिनिचयैराच्छादितं सर्वतः // छ // 4 // त्यक्ता वादकथापि वादिनिवहैर्नाल्पोऽपि जल्पः कृतः / जल्पाकै [स्त्रपया च नो] निगदितं पाखण्डिवैतण्डिकैः // षट्तर्कोपनिषन्निशाणनिशितप्रज्ञस्य तैः सेव्यते / श्रीमद्भास्करण(न)न्दिपण्डितपतेः [पादारविन्दद्व] यी // छ / इति न्यायकुमुदचन्द्रवृत्तितर्कः समाप्तःमि (प्त इ) ति // छ / - -- ग्रन्थाग्रं 16000 // 1520 // छ / शुभं भवतु // छ / श्री। समाप्तोऽयं ग्रन्थः 1 प्रशस्तिरियम् आ० प्रतावेव उपलभ्यते। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 882 सम्पादकप्रशस्तिः न्यायकुमुदचन्द्रसम्पादकप्रशस्तिः। भजति सागरमण्डलमुद्धरे सुकृतिभिः 'खुरई विकसत्पुरे / सुपरवार जबाहरलालतः' समजनिष्ट 'महेन्द्रकुमारकः' // 1 // कवीनाश्रितबीनाख्यनगरे 'धर्मदासतः'। नाभिनन्दनसद्विद्यालये संस्कृतशिक्षणम् // 2 // प्रारम्भिकमुपादाय विशेषाधिजिगांसया / विद्वत्सुन्दरमिन्दरविद्यालयमवाप्तवान् // 3 // 'बंशीधरात्'धर्ममधीत्य 'जीवन्धराच' तर्क श्रमतः सतर्कम् / स्थाद्वादविद्यालयमेत्य तस्मिन्नश्रान्तमश्राम्यमहं चिराय // 4 // न्यायमध्यापयन्नन्तेवासिनोऽपि निरन्तरम / अभूवमुत्तमश्रेण्यां न्यायाचार्यस्ततः परम् // 5 // गवेषणापूर्णधियेह टिप्पणीतिहाससम्यक्तुलना मया श्रमात् / विलिख्य तत्रानवधानदृषणं सुधीजनः शोधयितेत्युपेक्ष्यते // 6 // रसरसयुंगनेत्रे वीरनिर्वाणवर्षे, प्रथमदलनवम्यां भौमवारान्वितायाम् / कृतिरियमगमन्मे पूर्णतां मासि भाद्रे, गुरुचरणकृपौधेनान्तरेणान्तरायम् // 7 // . اعلامی۔ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्रस्य // परि शिष्टा नि॥ [ INDEXES.] -- - Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् / जीयाज्जैनेन्द्रचन्द्रस्य शासनं जिनशासनम् // " -अकलङ्कदेवः "पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु / . युक्किमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः // " -हरिभद्रः "परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् / सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् // " --अमृतचन्द्रः Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 1. लघीयस्त्रयस्य कारिकार्धानामकाराद्यनुक्रमः। 529 640 793 450 397 635 115 462 485 529 799 608 403 74 799 682 658 623 678 618 462 213 799 37 658 502 682 372 488 426 कारिकार्धम् अक्षधीस्मृतिसंज्ञाभिअक्षबुद्धिरतीतार्थं अक्षशब्दार्थविज्ञानअक्षार्थयोगे सत्ताअदृश्यपरचित्तादेअनशं बहिरन्तश्चाअनाश्वासं न कुर्वीरन् अनुमानाद्यतिरेकेण अनुयुज्यानुयोगैश्च अन्तर्भावान्न युज्यन्ते .. अन्यथा न विवादः अन्योन्यगुणभूतकअन्वयव्यतिरेकाभ्यां अप्रयुक्तोपि सर्वत्र अभिरूढस्तु पर्यायैअयमर्थ इति ज्ञानं अर्थक्रिया न युज्येत अवग्रहो विशेषाकाँक्षेअविकल्पधिया लिंग असदात्मसु नैषा अस्पष्टं शब्दविज्ञानं आप्तोक्तेहेतुवादाच्च इदमल्पं महद्दूरमासउपमानं प्रसिद्धार्थउपयोगी श्रुतस्य द्वौ ऋजुसूत्रस्य पर्यायः ऋषभादिमहावीराएकस्याने कसामग्रीएकं यथा स्वनि सिकस्तत्स्वभावो हेतुः कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिः कारणे कार्यभावश्चेत् कार्य दृष्टं विजातीया.. कार्यकारणयोश्चापि कार्योत्पत्तिविरुद्धा चेत् कालकारकलिंगाना कालादिलक्षणं न्यक्षेणाकुडधादिकं न कुडयादिक्रमाक्रमाभ्यां भावानां गुणप्रधानभावेन ग्रहणं निर्णयस्तेन 624 कारिकार्धम् चत्वारोऽर्थनया ह्येते चन्द्रादेः जलचन्द्रादिचित्तं सदसदात्मक चेतनाणुसमूहत्वात् जीवस्थानगुणस्थानजीवाजीवप्रभेदा यद- . ज्ञानमाद्यं मतिः संज्ञा ज्ञानं प्रमाणमात्मादेतथा ज्ञानं स्वहेतृत्थं तथैकं भिन्नकालान् तदाकारविकारादेतद्रव्यपर्यायात्माऽर्थों तपोनिर्जीर्णकर्माऽयं तमो निरोधि वीक्षन्ते तत्प्रमाणं न चेत्सर्व तत्प्रत्यक्ष परोक्षं च तद्वैधात् प्रमाणं तद्वैशचं मतं बुद्धेत्रयः शब्दनया: सत्यदुर्नयो ब्रह्मवाद: दुश्यादृश्यविभात्येक द्रव्यं स्वलक्षणं शंसेत द्रव्यपर्यायमूलास्ते द्रव्यपर्यायसामान्यद्रव्याणि जीवादीन्यात्मा धर्मतीर्थकरेभ्योस्तु धारणा स्मृतिहेतुधीविकल्पाविकल्पात्मा न तज्जन्म न ताद्रूप्यं नयानुगतनिक्षेपैनयो ज्ञातुरभिप्रायो नानुमानादसिद्धत्वात् नाभेदेऽपि विरुद्धचेत नान्यथा बाध्यमानानां निश्चयव्यवहारौतु निश्चयात्मकमन्योऽपिनिश्चयात्मा स्वतः नैगमोऽर्थान्तरत्वोक्तौ परीक्ष्य तांस्तान् तद्धर्मानपरोक्षं शेषविज्ञानं पुंसश्चित्राभिसन्धेश्चेद् 74 793 790 612 600 503 488 782 646 799 635 172 650 487 608 485 675 798 673 614 426 602 396 663 ك 637 646 782 782 487 622 798 20 372 788 679 602 Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 884 न्यायकुमुदचन्द्रे पु० 173 655 696 F96 640 527 502 798 788 521 483 503 20 527 675 529 652 609. 529 879 403 628 598 782 798 कारिकाधम् पूर्वपूर्वप्रमाणत्वं फलं प्रणिपत्य महावीर प्रतिभासभिदैकार्थे प्रतिसंविदितोत्पत्तिप्रत्यक्षार्थान्तरापेक्षा प्रत्यक्षाभं कथञ्चित्स्यात् प्रत्यक्षं बहिरन्तश्चाप्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं प्रत्यक्षेषु न लक्ष्येरन् प्रत्येकं वा भजन्तीह प्रमाणनयनिक्षेपानभिप्रमाणं श्रुतमर्थेषु प्रवचनपदान्यभ्यस्य प्राङनामयोजनाच्छेषं प्रामाण्यं व्यवहाराद्धि प्रायः श्रुतेविसंवादात् बहिरर्थोस्ति विज्ञप्तिबह्वाद्यवग्रहाद्यष्टचत्वाब्रह्मवादस्तदाभासः भविष्यत्प्रतिपद्यत भव्यः पंच गुरून् भेदानां नासदात्मैकोभेदाभेदात्मके ज्ञेये भेदं प्राधान्यतोऽन्विमलविद्धर्माणव्यक्तिमिथ्येतरात्मकं दृश्यादृश्यमिथ्यकान्ते विशेषो वा यथैकं भिन्नदेशार्थान यद्यथैवाविसंवादि यज्येत क्षणिकेऽर्थेये तेपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्षणं क्षणिकैकान्ते लिंगात साध्याविनाभावलिंगिधीरनुमानं वक्त्रभिप्रेतमात्रस्य कारिकार्धम् वर्णाः पदानि वाक्यानि वाञ्छितांश्च क्वचिन्नेति विधौ निषेधेऽप्यन्यत्र विरचय्यार्थवाक्प्रत्ययाविवक्षा नैगमोऽत्यन्तवीक्ष्याणुपारिमाण्डल्यव्यपेक्षातः समक्षेऽर्थे व्यवसायात्मकं ज्ञानं व्यवहारानुकूल्यात्तु व्यवहाराविसंवादस्तदाव्यवहाराविसंवादी नयः व्याप्ति साध्यन हेतोः शुद्धं द्रव्यमभिप्रेति श्रुतभेदा: नयाः सप्त श्रुतादर्थमनेकान्तमश्व आदित्य उदेतेति षट्कारकी प्रकल्प्येत संग्रहः सर्वभेदैक्यमभिसंशयादिविदुत्पादः संहृताशेषचिन्तायां सदभेदात् समस्तैक्यसदसत्स्वार्थनिसिः सत्येतरव्यवस्था का सन्तानेषु निरन्वयक्षणिकसन्निधेरिन्द्रियार्थानां सर्वज्ञाय निरस्तबाधकधिये सर्वथैकत्वविक्षेपी सर्वत्र चेदनाश्वासः स्याद्वादः सकलादेशो स्वतोऽर्थाः सन्तु सत्तावत् स्वसंविद्विषयाकारस्वसंवेद्यं विकल्पानां स्वहेतुजनितोप्यर्थः स्वेच्छया तामतिक्रम्य 459 650 173 621 661 621 459 878 525 790 612 605 792 673 628 618 521 653 792 598 686 624 463 605 614 434 434 2. सविवृतिलघीयस्त्रयगतानि अवतरणानि / . . 10 638 अवतरणम् इन्द्रियमनसी कारणं विज्ञानस्य गुणानां परमं रूपं न दृष्टिगुणानां वृत्तं चलं तन्नाप्रत्यक्षमनुमानव्यतिरिक्तं नहि तत्त्वज्ञानमित्येव 628 625 427 अवतरणम् नहि बुद्धेरकारणं विषयः नाननुकृतान्वयव्यतिरेकं 674,794 वक्तुरभिप्रेतं तु वाचः सूचयन्ति वक्त्रभिप्रेतमात्रस्य सूचकं वचनं न्विति 696 600 Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888 न्यायकुमुदचन्द्रे निश्चयनय 783.8. निश्चयपर्याय 783.11. निश्चयव्यवहारौ 782. 16.' नैगम 622. 10; 788. 24. नैगम 622. 12; 628. 10; 783. 19; क तज्जन्म 675.14. तथाभावसंकरव्यतिकरव्यतिरेक 783.6. तदत्यन्तभेदाभिसन्धि 789. 3. तदाकृति (नगमाभास) 788.24. तदाभास (संग्रहाभास) 621. 6, 79.. 3. तदाभास (ऋजुसूत्राभास) 792. 8. तदुत्पत्ति 678. 18; 679. 19. तदुत्पत्तिसारूप्य 640.14. तदुत्पत्तिसारूप्यादिलक्षणव्यभिचार 644. 5. तद्व्यवसिति तमस् 665, 22; 666. 1, 2. तादात्म्यतदुत्पत्ती 435.1,602.11. तामसखगकुल 674. 3. ताद्रूप्य 675.14. तिमिराद्युपप्लवज्ञान 522. 1. तिमिराशुभ्रमणनौयानसंक्षोभादिहेतुत्व 661. 6. तीर्थकरवचनसंग्रहप्रस्तावमूलव्याकारिन् 783. 17. त्रयः (शब्दनय) 783.19. दुर्नय 636. 4; 650. 5, 792.12. दुर्नय 631. 22; 632. 4; 790.2, 791. 5. दूरासन्नैकार्थप्रत्यक्ष 640. 18. दृश्यादृश्यभेदेतरात्मक 367.21. द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवत् 607. 1. द्रव्य 607. 1; 782. 14; 783.3. द्रव्य (निक्षेप) 800.1. द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषात्मार्थनिष्ठित 646. 2. द्रव्यपर्यायात्मा 213.7. द्रव्यपर्यायार्थिक 783. 3, 18. द्रव्यभावेन्द्रिय 115. 17. द्रव्यार्थिक 606.1, 607. 2. द्रव्येन्द्रिय 115.17. द्विधैव (प्रमाण) * 682.2. द्वे एव प्रमाणे 504.4. धर्मतीर्थकर 2. 12. धारणा 172. 21, 22, 404, 1. 646.8. नय 606.1, 636.4; 650.5, 656.9; 686. 3; 688. 1, 792. 12; 799. 6. नय 631. 22, 632. 4; 782. 13; 783. 1,794.17. नयदुर्नय 605.7. नहि दृष्टऽनुपपन्नं 599. 2. नाकारणं 674. 2. नाम. (निक्षेप) नामस्थापनाद्रव्यभावत: 799. 8. निक्षेप 800.2. निर्देशादि - 799. 1, 800. 3. निरपेक्ष 636.4,792.12. निरपेक्षत्व 794.18. नगमाभास 622. 10; 789. 4. न्यास 656.8; 799. 8. पंचगुरु 878. 23. परमागम 686.8. परिच्छेद्यपरिच्छेदकभाव 678.17. परिमण्डलादि 483. 9.. परोक्ष 20.14; 602. 2, 8. परोक्षेऽन्तर्भाव पर्याय 635. 21; 637. 20; 78.3. 9; 794.12. पर्यायाथिक पाचकपाठकादिवत् . . 794. 14. पुमान् / 646. 8. पुरन्दर 638. 3, 646. 10, 794. 2. पूर्वपूर्वप्रमाणत्वे 173.17. पूर्वापराविरोधलक्षणसंवाद - .791.3. पृथक्त्व 783.9. प्रतिसंविदितोत्पत्तिव्यय 527.16. प्रतिसंहारव्युत्थितचित्त 525. 6. प्रतिसंहारैकान्त 528. 2. . प्रत्यक्ष 20.13. प्रत्यक्ष 427. 1; 611. 10; 644.12,15: 682. 2, 4. प्रत्यक्षानुपलम्भसाधन 485.16, 614. 13. , . प्रत्यक्षाभ 521. 19; 525. 7. प्रभव 485. 16. प्रमाण 650.6, 656.8,10, 799. 6. प्रमाणनयनिक्षेपानुयोग 801.2. प्रमाणफल 174. 11. प्रमाणफलव्यवस्था 173.18. प्रवचनपद 879.3. प्रसिद्धार्थसाधर्म्य 488. 22; 489. 1, 4. प्रस्तुतार्थव्याकरण 800. 2. प्राङ्नामयोजन 403. 7. प्रादेशिकप्रत्यक्ष 682. 4. बहिरर्थविज्ञप्तिमात्रशून्यवचसां 791.5. बहुबहुविधक्षिप्रानिसृतानुक्तध्रुवेतरविकल्प 174.7 बह्वाद्यवग्रहाद्यष्टचत्वारिंशत् 173. 16.. . बालिशगीत 674. 3. नपुंसक ब्रह्मवाद 621. 6,10, 790.2, 3, भट्टाकलंकशशांकानुस्मृतप्रवचनप्रवेश 879.11. भावनिक्षेप .. 800.1. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888 न्यायकुमुदचन्द्रे तज्जन्म 675.14. तथाभावसंकरव्यतिकरव्यतिरेक तदत्यन्तभेदाभिसन्धि 789. 3. तदाकृति (नंगमाभास) 788. 24. तदाभास (संग्रहाभास) 621.6; 790. 3. तदाभास (ऋजुसूत्राभास) 792.8. तदुत्पत्ति 678. 18; 679. 19. तदुत्पत्तिसारूप्य 640. 14. तदुत्पत्तिसारूप्यादिलक्षणव्यभिचार 644. 5. तद्व्यवसिति 675. 14. तमस् 665. 22; 666. 1, 2. तादात्म्यतदुत्पत्ती 435.1, 602. 11. तामसखगकुल 674. 3. ताद्रूप्य 675. 14. तिमिराद्युपप्लवज्ञान 522. 1. तिमिराशुभ्रमणनौयानसंक्षोभादिहेतुत्व 661.6. तीर्थकरवचनसंग्रहप्रस्तावमूलव्याकारिन् 783. 17. त्रयः (शब्दनय) - 783. 19. दुर्नय 636. 4, 650. 5, 792. 12. दुर्नय 631.22, 632.4; 790.2, 791. 5. दूरासन्नकार्थप्रत्यक्ष 640. 18. दृश्यादृश्यभेदेतरात्मक 367.21. द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवत् 607. 1. द्रव्य 607. 1; 782. 14; 783.3. द्रव्य (निक्षेप) 800.1. द्रव्यपर्यायसामान्य विशेषात्मार्थनिष्ठित 646.2. द्रव्यपर्यायात्मा 213.7. द्रव्यपर्यायार्थिक 783. 3, 18. द्रव्यभावेन्द्रिय 115.17. द्रव्याथिक 606. 1; 607. 2. द्रव्येन्द्रिय 115.17. द्विधैव (प्रमाण) * 682.2. द्वे एव प्रमाणे 504,4. धर्मतीर्थकर 2. 12. धारणा 172. 21, 22, 404, 1. नपुंसक 646. 8. नय 606.1, 636.4; 650.5, 656.9; 686.3; 688. 1, 792. 12; 799. 6. नय 631. 22, 632. 4; 782. 13; 783. 1, 794. 17. नयदुर्नय 605. 7. नहि दृष्टऽनुपपन्नं नाकारणं 674.2. नाम.(निक्षेप) 799. 9. नामस्थापनाद्रव्यभावतः 799. 8. निक्षेप 800.2. निर्देशादि 799. 1,800. 3. 636.4, 792. 12. निरपेक्षत्व 794. 18. निश्चयनय 783. 8. निश्चयपर्याय 783. 11. निश्चयव्यवहारौ 782.16. नैगम / 622. 10, 788. 24. नैगम 622. 12; 628. 10; 783. 19; 789. 6. नगमाभास 622. 10; 789. 4. न्यास 656.8; 799. 8. पंचगुरु 878. 23. परमागम 686.8. परिच्छेद्यपरिच्छेदकभाव . 678.17. परिमण्डलादि 483.9. परोक्ष 20., 14; 602. 2, 8. परोक्षेऽन्तर्भाव - 504. 4. पर्याय 635. 21, 637. 20% 783. 9; 794. 12. पर्यायाथिक . 606. 1. पाचकपाठकादिवत् 794. 14.. पुमान् 646.8. पुरन्दर 638. 3; 646. 110; 794. 2. पूर्वपूर्वप्रमाणत्वे 173.17. पूर्वापराविरोधलक्षणसंवाद -791.3. पृथक्त्व 783.9. प्रतिसंविदितोत्पत्तिव्यय प्रतिसंहारव्युत्थितचित्त प्रतिसंहारैकान्त 5206. 2. : प्रत्यक्ष 20.193. प्रत्यक्ष 427.1, 611.10; 644.12,158 .682. 2, 4. प्रत्यक्षानुपलम्भसाधन 485. 16; 614. 13. प्रत्यक्षाभ 521. 19; 525. 7. प्रभव 485. 16. प्रमाण 650. 6; 656. 8, 10, 799. 6. प्रमाणनयनिक्षेपानुयोग 801. 2. प्रमाणफल 174.11. प्रमाणफलव्यवस्था . 173. 18. प्रवचनपद 879. 3. प्रसिद्धार्थसाधर्म्य 488. 22; 489. 1, 4. प्रस्तुतार्थव्याकरण 800.2. प्राङ्नामयोजन 403. 7. प्रादेशिकप्रत्यक्ष 682. 4. बहिरर्थविज्ञप्तिमात्रशून्यवचसां 791.5. बहुबहुविधक्षिप्रानिसृतानुक्त ध्रुवेतरविकल्प 174.7 बह्वाद्यवग्रहाद्यष्टचत्वारिंशत् 173. 16.. बालिशगीत 674. 3. बुद्ध ब्रह्मवाद 621. 6,10, 790.2, 3, भट्टाकलंकशशांकानुस्मृतप्रवचनप्रवेश 879:11. भावनिक्षेप निरपेक्ष ... 800.1. Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवृतिलघीयस्त्रयस्य नामसूचिः 881 माया / श्रुति भावेन्द्रिय 115. 18. | मण्यादिसामग्रीप्रभव 602. 14. मतिज्ञान 172. 21; 783. 1. मनोमति 783. 2. म हा.वी र 655. 8. 628. 13. मिथ्यकान्त 628. 5. मुख्य (प्रत्यक्ष) मुख्यसंव्यवहारतः 20.13. मृतप्रतिबिम्बभृत् 676. 4. मलनय -783.3. यस्मिन् सत्येव यद्भावः 614.14. यावज्ज्ञेयव्यापिज्ञानरहितसकलपुरुषपरिषत् परिज्ञान 74.7. योग्यतापेक्षानादिसङ्केत 687. 1. रथ्यापुरुष 74. 10. रिक्ता वाचोयुक्तिः लताचूलादि 602.13 लब्धि 115.18 लिंग 794.11. लोकव्यवहार 629. 2. वक्त्रभिप्राय 530. 1; 696. 16, 18. वर्णपदवाक्यव्युत्पादकशास्त्र 794. 14. वर्त्तनालक्षण 646. 3,794.10. वागर्थव्यभिचारैकान्त 600. 14. वाच्यवानकलक्षणसम्बन्ध 644. 8. विकलसंकथा. 686. 3. विक्रिया .. 396. 23. विज्ञप्तिमात्र 631. 23. विधिनिषेधानुवादातिदेशादिवाक्य 692.3. विप्रकृष्टार्थान्तरवत् 614. 14. विषमोऽयमुपन्यासः . 656.11. विषय 115.16. विषयिन् 115.17. वीर जिन 653.16. वैकल्य 686.9. वैशद्य 74. 5. व्यतिरेक - 783.10. व्यवहार 628.5. व्यवहारनय 783, 9. व्यवहारपर्याय 783. 11. व्याप्ति 427. 4, 652.1. शकट 459. 12; 598. 18. शकटोदय 794. 5. शब्द (नय) 837. 19; 793. 20 शब्दनय 793. 19. शब्दयोजन 404. 3. शब्दसमभिरूढौ 638.3. शब्दानुयोजन 403. 7. 62 शृङ्गे गौः श्रुत 403. 7; 529. 24, 686. 2; 798. 6,9, 799. 5. श्रुतज्ञान 404. 3, 530. 1; 602. 17. 791. 3. श्रुतज्ञानतदाभासव्यवस्था 529. 9. श्रुतभेद 782. 13. 598.15,602.10, 632.3. श्रुतिकल्पनादुष्टादि षट्कारकी 646.6, 650.2. षट्कारकीसंभव 650.3. संग्रह 609.19; 610.1; 621.5; 790.1,3 संज्ञाकर्म 799. 9. संज्ञासंज्ञिसंप्रतिपत्तिसाधन 502.12. संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्ति 489.2. संवृति 173. 19; 174. 1. संव्यवहारानुपयोगिन् 21. 2. संशयकान्त 462.16. संहृताशेषचिन्ता 525. 3. सकलवित् 653. 15. सकलादेश 686.3. सत्तासमवाय 624. 19. सत्त्वपुरुषत्ववक्तृत्वादेः सत्वप्रमेयत्वागुरुलघुत्वमित्वगुणित्वादि 686.6. सत्यपदविद्या 783. 19. सत्यानृतव्यवस्था 697.4. सत्यानृतव्यवस्थान्यथानुपपत्ति 696. 18. सत्येतरव्यवस्था 600. 13. सदादि (अनुयोग) 800. 3. सदशपरिणामलक्षणसामान्यात्मकत्व 783. 3. सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भ 528. 1. सन्तान 4. 18. सन्निकर्ष 664. 1. सन्निकर्षादि 21.1, 663. 21. सन्निहितविषयबलोत्पत्ति 427.2. सन्मात्रदर्शन सप्त (नय) 782.13 सप्तधाख्यनयोघ 652.4. समवाय 629. 1,3, 4. समारोपव्यवच्छेदाकांक्षण 522. 3. सम्बन्धप्रतिपत् 502.7. सम्यगेकान्त 688.1. सहक्रमभाविन् 613. 2. सहक्रमवित्तिन् 612. 20. सांव्यवहारिक 74. 6. साकल्य 686. 9. साधकतम 21. 4. साधनदूषणतदाभासवाक्य 692.4. साधनासाधनाङ्गव्यवस्था 600. 16. Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 860 न्यायकुमुदचन्द्रे : सापेक्ष 636.3, 792.11. स्यादस्त्येव जीवः . 688.2. सापेक्षत्व 794. 18.. स्याद्वाद 686.3,4. सु ग ते तर 600.15. स्याद्वाद 646.13, 686.7, 692. 4. सुतुच्छक 628.13. स्याद्वादिन् 653. 13. सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाण 74.7 682.7. स्याद्वादेक्षणसप्तक .655.8. सूर्याचन्द्रमसोर्ग्रहण 459. 13; 794. 6. स्वपरविसंवादव्यसनीयेन 632.7. स्कन्ध 783. 7. स्वभावनैरात्म्य स्त्यानप्रसवतदुभयाभावसामान्यलक्षण 794.11. स्वभावभूतान्यापोहस्वार्थप्रतिपादन 687. 1. स्त्यायत्यस्यां गर्भ इति स्त्री . 646. 7. स्वभावहेतु 485. 14. स्थापना स्वभूतिमात्र 372.15. स्पष्ट 682.4. स्वरुचिविरचितदर्शनप्रदर्शनमात्र 628. 11. स्मृति 404.1; 640. 10, 15. स्वार्थसंपत्ति 879. 9. स्यात्कार 691. 22; 692. 1. हानोपादानोपेक्षाप्रतिपत्तफल 489. 6. स्याच्छब्द 688.2. हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ 682. 4. स्याज्जीव एवं 688. 1. हेतुवाद 600.12. स्यात्पदप्रयोग - 687. 2. / हेतुवादरूप 879.8. $ 4. अन्याचार्यैः स्वग्रन्थेषु समुद्धृताना लघीयस्त्रयकारिकाणां विवृत्यंशानाञ्च तुलना। 1 वीरसेन लघी० का० 52 पवलाटीका पृ०१७ . 2 रविभद्रशिष्य-अनन्तवीर्य लघी सिद्धिविनिश्चय टीका का०७ पृ० 184 A. का०७ प्रमाणफलयो:... पृ० 99 B. का० 56 पृ० 187 B. का०५७ पृ० 193 A. का० 59 पृ० 10 B. का० 62 पृ० 4 A. आप्तपरीक्षा का० 4 तदस्ति सुनिश्चिता.. पृ० 56 सत्यशासनपरीक्षा का० 37 पृ० 15 B. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक का०४ तदस्ति सुनिश्चता पृ० 185 का०७ - पृ०४२४ का०१० 10.239 का० 32 पृ० 270 का० 54 इन्द्रियमनसी... पृ० 330 का०७० पु० 271 नयविवरण का० 32 श्लो०६७ 3 विद्यानन्द 4 प्रभाचन्द्र लघी० प्रमेयकमलमार्तण्ड का० 3 तन्नाज्ञानं प्रमाणं.. पु० 25 लघी० का०३ का०३ का०२२ तिमिराद्युपप्लव' प्रमाणपरीक्षा प०६९ अष्टसहस्री पृ० 134 पृ० 277 पत्रपरीक्षा प०५ 5 अनन्तवीर्य लघी० का० 19-20 प्रमेयरत्नमाला 315 का०३ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयस्त्रयकारिकाणां तुलना लघी० पृ० 35 6 वादिराज 11 रनप्रभ न्यायविनिश्चयविवरण लघी० रत्नाकरावतारिका का०३ . पृ०४८ A. का०१९/२० 33 का०५ पृ० 32 A. का, 5 विषयविषयि.. पृ० 32 A. का०१४ पृ०५२७ A. 12 हेमचन्द्र का० 52 पृ० 32 A लघी० प्रमाणमीमांसा का० 59 पृ० 33 A. का० 4 तदस्ति सुनिश्चिता... प्रमाणनिर्णय प०१४ का० 4 यावज्ज्ञेयव्यापि... का० 4 तदस्ति सुनिश्चिता'' पृ. 29 पृ० 14 का० 4 अत्रानुपलम्भं. पृ०१४ का०५ विषयस्तावत् पु० 21 ७भाशाधर का० 5 कथञ्चिदभेदेऽपि... पृ० 22 का०६ धारणा 02 / 19 लघी० अनगारधर्मामृतटीका | का०७ 121139 का०७३-७६ . पृ० 169 का०८ पृ० 14 इष्टोपदेशटीका का० 19-20 का०५७ पृ० 30 8 शीलाझाचार्य 13 मलयगिरि लघी० . आव०नि० मलयगिरिटीका लपी० सूत्रकृताङ्गटीका का० 30 पृ० 370 B. : : का०४ पृ० 227 A. का० 57 पृ०१७ का०७२ पृ० 326 A. का०६३ 10 369 B. का०६३ क्वचित्स्यात्कार.. पृ० 369 B. अभयदेव पृ० 381 B. लबी० सन्मतितकंटीका नन्दिसूत्रटीका का०५ विषयस्तावत् पृ० 553 - पृ० 66 B. का०५ कथञ्चिदभेदेऽपि. पृ० 553 का०.१० अविसंवादस्मृतेः पृ० 553 का०२२ पृ०५९५ 14 देवेन्द्रसूरि का०२२ तिमिराद्युपप्लव' पु० 595 प्रथमकर्मग्रन्थटीका का०३२ पु० 272 का० 57 पृ०८ का०५६ पृ० 544 लघी० 10 वादि देवरि 15 यशोविजय लघी० प्र माणनयतत्वालोकालडार लघी० जैनतर्कभाषा का० 3 सन्निकर्षादरज्ञानस्य" 114 का०७६ अप्रस्तुतार्थापाकरणात् पृ० 25 का०४ अनुमानाद्यतिरेकेण.. 13 शास्त्रवार्ताटीका का०५कथञ्चिदभेदेऽपि.. 2 / 12 / का०४ पृ० 310B स्याद्वावरत्नाकर गुरुतत्त्वविनिश्चय का०४ पृ० 316 का 30 पृ० 16 B. का०१९ पृ० 498 का० 63 पृ० 16 A. Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65. न्यायकुमुदचन्द्रगतान्यवतरणानि / 70 अकर्ता निर्गुणः शुद्धः 1 112 | अन्यार्थ प्ररितो वायर्यथान्यं [ मी० श्लो० शब्दनि० अकर्म कर्म 1304 इलो०८०] 709 अकुर्वन् विहितं कर्म [ मनु 1575 | अन्ये तु चोदयन्त्यत्र प्रतिबिम्बो-मी०श्लो० शब्बनि० अक्लेशात्स्तोकेऽपि ] 841 श्लो० 183] 452 अग्निष्टोमेन यजेत [ ] 586, 594 अपरस्मिन् परं युगपदयुगप-विशे० सू० 2 / 2 / 6] 251 अङगुल्यग्रे हस्तियूथ ] 692 | अपरीक्षिताभ्युपगमात्तद्विशेष-[ न्यायसू० 13131 ] अट्ठसयमेगसमये / 869 अत इदमिति यतः [ वैशे० सू० 2 / 2 / 10] 257 | अपूर्वकर्मणामास्रवनिरोधः संवरः [तत्त्वार्थस० अत एवानुमानानामपश्यन्तः / ___9 / 1(?) ] 812 अतीतानागतो कालो 723 अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तु क्षणभङ्गाध्यायः(2)] अतीतैककालानां गतिर्ना-[प्रमाणवा० स्ववृ० 1612] 551,557 . | अप्त्वाभिसा न्धादापः[ प्रश०भा० 1035] 214 . अथ स्थगितमप्येतदस्त्येवे-[ मी० श्लो० शब्दनि० अप्रत्यक्षा नो बुद्धिः प्रत्यक्षोऽर्थः [शाबरभा०१।११५] इलो० 32-33] 715 176 अथापीन्द्रियसंस्कारः [ मी० इलो० शब्दनि० श्लो० अप्राप्तकर्णदेशत्वात् ध्वनेर्न [ मो० श्लो० शब्दनि. 69-70].713 इलो० 70-71] 713 अदृष्टसङ्गतित्वेन सर्वेषां [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० अप्सु गन्धो रसश्चाग्नौ [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० 249] 703 6] 468 अधिष्ठानानजुत्वाच्च [ मी० श्लो० शब्दनि इलो० अप्सर्यदर्शिनां नित्यं [ मी० श्लो० शब्दनि श्लो. 187 ] 453 186] 452 अनग्निश्च कियान् सर्वं [ अभिधाभावनामाहरन्यामेव [तन्त्रवाए 21111] 576 अनन्तरं तु वक्त्रेभ्यो / 726 अभिलापवती प्रतीतिः [न्यायबि०१० 11 (?)] 46 अनवच्छिन्नपूर्णत्वस्पर्शो [ | 597 अयोगमपर्योगमत्यन्ता-[प्रमाणवा०४।१९०] 693 अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थाना-न्यायर अर्थग्रहणं बुद्धिश्चेतना [न्यायभा० 3 / 2 / 46 182 अनिबद्धकरूपत्वाद्वीचीबुबुद-[ 141 अर्थापत्तितः प्रतिपक्षसिद्धेः [न्यायसू०५।११२१] 327 अनुमानविरोधो वा 70 अर्थापत्तिरियं चोक्ता [मी० श्लो० शब्दनि इलो. अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः [बहत्स्व० श्लो० 103] 368 237 ] 701, 719 अनकान्तिकः सव्यभिचारः [न्यायसू० 112 / 5] 319 / अर्थापत्त्यावगम्यव [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो०६] अनैकान्तिकता तावद्धत- मी० लो० शब्दनि० श्लो० 508 19] 715 अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन [न्यायसू० 5 / 2 / 15] 333 अन्धादयं महानन्धः [ आत्मानु० श्लो० 35] 393 अर्थेन घटयत्येनां न हि [ प्रमाणवा० 3 / 305 ] अन्यथाकरणे चास्य [ मी० श्लो० चोदना० श्लो. 166,167 150] 724 अर्थो ह्यथं गमयति [ ] 533 अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः [प्रश० भा० पृ० 16 ] 302 | अवयवविपर्यासवचन-[ न्यायसू० 5 / 2 / 11 / ] 333 अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्रा-[ ] 15 अवस्थादेशकालादिभेदाद् [वाक्यप० 232] 68 अन्यथानुपपत्त्या तु वेत्ति [मी० श्लो० सम्बन्धा० श्लो. अविज्ञातञ्चाज्ञानम् [ न्यायसू० 5 / 2 / 17 ] 334 141] 545,550 अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितः [न्यायसू०१।१।४०] अन्यथैवाग्निसम्बन्धा-[ वाक्यप० 21425 ] 553 315 अन्यदपि चैकरूपं तच्चित्र "] 841 | अविद्याऽस्मितारागद्वेषा- [ योगसू० 2 / 3 ] 109 अन्यदेवेन्द्रियग्राह्य-[ ] 553,565 | अविभागोऽपि बुद्धयात्मा [ प्रमाणवा० 31354 ] अन्या तावदियमर्थक्रिया यदुत [ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरणसूचिः 863 अविशेषाभिहितेऽर्थे वक्तुरभि-[न्यायसू०१।२।१२] | एकः प्रतिषेधहेतु: [न्यायवि० पृ० 39] 120 321 एकद्रव्यमगुणं संयोग-[वैशे० सू० 2017 ] 279 अविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्धे [न्यायसू० 5 / 2 / 6] 331 | एकधर्मोपपत्तेरविशेषे [न्यायसू० 5 / 1123 ] 327 अशक्तं सर्वम् ] 396 | एकसामग्र्यधीनत्वाद्रूपादे [प्रमाणवा० 1110] 236 असदकरणादुपादानग्रहणात् [ सांख्यका०९] 352 | एकस्मिन्नपि दृष्टेऽर्थे [मी० श्लो० उपमान• इलो० अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं [मी० श्लो० प्रत्यक्ष 46] 492 ___श्लो० 112 ] 770 एकस्यार्थस्वभावस्य [प्रमाणवा० 3 / 42] 524 अस्येदं कारणं कार्य संयोगि [ बैशे० सू० 9 / 2 / 3 ] एकात्मसमवेतानन्तरज्ञानग्राह्य-[ . 460 एकादश जिने [तत्वार्थसू० 9111] 862 अस्वतन्त्र बहिर्मनः [ ] 431, 833 | एकादश जिने क्षुत्पिपासादयः [ ]854 आकाशमपि नित्यं सद् [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० एगो मे सस्सदो अप्पा [भावपाहु० गा० 59, 30-31 ] 715 मूलाचा० गा० 2 / 48] 845 आख्यातशब्दः संघातो [वाक्यप० 21 1739 एवं धर्मविना धर्मिणामेव [प्रश० भा० पृ० 15] आतपः कटुको रूक्षः [ राजनिघ०] 669 आत्मत्वाभिसम्बन्धादात्मा [ प्रश० भा० पृ० 69] | एवं प्राग्नतया वृत्त्या [ मी० श्लो० शब्दनि 215 श्लो० 190 ] 454 आत्मनि सति परसंज्ञा [प्रमाणवा० 2219] 839 / कञ्चित् कालं स्थिरः शब्दः [ ] 701, 718 आत्मलाभे हि भावानां [ मी० श्लो० सू० 2 श्लो० | कर्मक्षयाद्विमोक्षः [ ] 841 48] 195, 199 | कर्मण्यण् [पाणिनि० 3 / 2 / 1] 760, 796 आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमन:- [न्यायसू० 111 / 9] कल्पनापोढमभ्रान्तम् [न्यायबि० 124] 523 309 कस्यचित्तु यदीष्येत [ मीमांसाश्लो० स० 2 इलो० आत्मा मनसा युज्यते मन [ न्यायमं०१०७४] 665 आदौ ब्रह्मा मुखतो ब्राह्मणं ससर्ज [ काभीतिः ( भीभिः ) [जैनेन्द्रव्या० 123 / 32] आनन्दं ब्रह्म [बृहदा० 3 / 9 / 28 ] 838 आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च [ ] 831, 837 | कामी यत्रैव यः कश्चिन्नि-[ प्रमाणवातिकालं० पृ० आरामं तस्य पश्यन्ति [बृहदा० 4 / 3 / 14] 147 30] 584 आसयोगकेवलिनो जीवा कार्यव्यासङ्गात् कथा- [न्यायसू० 5 / 2 / 19 ] 334 आसर्गप्रलयादेका बुद्धिः ] 189 | कालात्ययापदिष्ट: [न्यायसू० 112 / 9] 320 आहारा या निहारा कालादेः स्वयमभेदात् s exie 647 आहुविधातृ प्रत्यक्षं [ब्रह्मसि० तर्कपाद श्लो० 1] | किं स्यात् सा चित्रतैकस्याम् [प्रमाणवा० 3 / 210] 149 130, 613 इत्यो छट्ठीओ अहो / 872 क्रियायाः प्रवर्तकं वचनम् [शाबरभा० 202] इत्यमिश्राः स्वयं भावाः [सम्बन्ध 574 इन्द्रियार्थसमनन्तरप्रत्यय- [ ] 47 कियावद् गुणवत् समवायि-[वैशे० सू० 11315] इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नम-न्यायसू० 1114] 523 214 इयं त्वन्यैव सर्वार्था [तन्त्रवा० 2111] 579 क्रियाविष्टं द्रव्यं कारकम् लघी०स्वव०का०७२] 42 ईश्वरज्ञानमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजं [ | क्लेशकर्मविपाकाशयरप- [ योगसू०.११२४ ] 109 उत्क्षेपणमपक्षणमाकुञ्चनं [वैशे० सू० 11117] 279 | क्षणिका हि सा [शाबरभा० 215 (?)] 44 उत्तरस्याप्रतिपत्तिः [न्यायसू० 5 / 2 / 18] 334 | क्षीरे दधि भवेदेवम् [ मी० इलो० अभाव० उदाहरणसाधात्साध्य-न्यायसू० 10234] 314 श्लो०५] 468 उदाहरणापेक्षस्तथेत्युपसंहारो [ न्यायसू० 131338] | गंगाद्वारे कुशावर्ते [ 634 | गत्वा गत्वा तु तान् देशान् यद्यर्थो [ मी० श्लो० उपात्तकर्मणा निर्हरणं [ ] 812 ___ अर्था० श्लो० 8 ] 725 उपभोगाश्रयत्वेन गृहीते-प्रमाणवा० 11229] 840 गत्वा गत्वापि तान् देशान् नास्य [न्यायम० पृ० उपलब्धिसाधनानि [न्यायभा० पृ० 18] 28 38] 512 उभयकारणोपपत्तेरुप-[ न्यायसू० 5 / 1 / 25] 328 गन्धः पृथिव्यामेव [ 238 उभयसाधर्म्यात्प्रक्रिया-[ न्यायसू० 5 / 1 / 16 ] 327 | गन्धो घाणग्राह्यः [प्रश० भा० 10 105 ] 273 ऊर्ध्ववृत्तितदेकत्वाद-[ मी० श्लो० शब्दनि श्लो० गवयश्चाप्यसम्बन्धान्न [ मी० श्लो० उप० इलो० 189] 453 | 45] 492 JJY Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 864 न्यायकुमुदचन्द्रे 141 1342 . गवये गृह्यमाणञ्च न [मी० श्लो० उप० श्लो० | तथा भिन्नमभिन्नं वा [ मी० श्लो० शब्दनि श्लो. 44] 492 271] 703 गवयोपमिताया गोस्तज्ज्ञान- [ मी० श्लो० अर्था० तथा वैधात् [न्यायसू०१२३५] 314 लो०४] 508 | तथेदममलं ब्रह्म [बृहदा० भा० वा० 3 / 5 / 44] गार्हस्थ्येऽपि सुसत्त्वा [ स्त्रीमु० श्लो० 31] 869 गुणदर्शी परितृप्यन् ममेति [प्रमाणवा. 1220 ] तदतपिणो भावाः [प्रमाणवा० 3 / 251] 126 | तदनुपलब्धैरनुपलम्भा-[न्यायसू० 5.1129] 328 गुणपर्ययवद्रव्यम् [तत्वार्थस०.५।३८] 8.6 तदात्वसुखसंज्ञेसु [ . 842 गुणेभ्यो दोषाणामभावः [ मी० श्लो० सू०२ श्लो० तदेतन्नूनमायातम् [प्रमाणवा० 320 65] 198 | तदेवं नियमाभावात् [ ] 70 गोशब्दे ज्ञातसम्बन्धे [ मी. इलो० शब्दनि श्लो० तदेव च स्यान्न तदेव [ बृहत्स्वयं० श्लो० 42 | 369 244] 702 तया शून्यं भवेत् पुंसाम् [ ]597 गृहीत्वा वस्तुसद्भावम् [ मी० श्लो० अभा० इलो० तामभावोत्थितामन्या-मी० श्लो० अर्था० श्लो०९] 27 ] 464, 724 508 चक्षुःश्रोत्रमनसामप्राप्तार्थ- [ ] 83 | तावत्कालं स्थिरञ्चनम् | मी० श्लो० शब्दनि श्लो. चिच्छक्तिरपरिणामिन्यप्रति-[ योगभा० पृ० 15 ] 114 तेजस्त्वाभिसम्बन्धात् [प्रश० भा० पृ० 38] 214 चित्रप्रतिभासाप्येकव [प्रमाणदातिकालं० लि. पृ० तेन प्रवर्तकं वाक्यम् [ मी० श्लो० चोदना० श्लो० 395 ] 126, 618 3] 575 चैतन्यं स्वरूपं पुरुषस्य [योगभा० 19614 तेनाऽग्निहोत्रं जुयात् [ प्रमाणवा० 3 / 318] 548 चैतन्याऽनभिव्यक्तिघटा- / 1343 | तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धात् [ मी० श्लो० प्रत्य० श्लो० छसु हेट्ठिमासु पुढविसु [पंचसं० 1 / 193(?)]877 237 ] 699 जलबुबुदवज्जीवाः [ तेभ्यश्चैतन्यम् / ] 342 जियदु य मरदु अ [प्रवचनसार 3317 ] 869 | तौ च भावौ तदन्यश्च [सम्बन्धप० (?) ] 306 ज्ञातसम्बन्धस्यैकदेश- [शाबरभा० 111 / 5] 43 तृतीयस्थानसंक्रान्ती [प्रमाणवा० 4151] 685 ज्ञानं (तं) सम्यगसम्यग्वा न्यायम० पृ० 447] 336 | त्यक्ताऽत्यक्तात्मरूपं [ ज्ञापनीयेन धर्मेण [न्यायभा० 121133 j314 त्रिगुणमविवेकि विषयः [सांख्यका० 11] 353 ततः परं पुनर्वस्तु [मी०श्लो०प्रत्य०श्लो०१२०] 770 | त्रिषु पदार्थेषु सत्करी [ |399 तत् त्रिविधं वाक्छलम् [न्यायसू० 112 / 11] 321 | त्रैकाल्यानुत्पत्तेः न्यायसू० 5 1118] 327 तत्र प्रत्यक्षतो ज्ञाताद्दाहाद् [मी० श्लो० अर्था० श्लो. | दर्शनस्य परार्थत्वादित्य-[ मी० श्लो० अर्था० श्लो० 3] 508 7] 508 तत्र रूपं चक्षुर्ग्राह्यम् [प्रश० भा० पृ० 104 ] 273 | दर्शनाऽदर्शनाभ्यां तु [ तत्रानुभवमात्रेण [प्रमाणवा० 3 / 302 166 | दाराः परिभवकाराः। ] 846 तत्रैव बोधयेदर्थम् [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो०१८६] | द्विस्तावानुपलब्धो हि मी० श्लो० शब्दनि इलो० 452 250] 703 तत्त्वं भावेन [वैशे० सू० 7 / 2 / 28 ] 303 दुष्टमन्तर्गतं चित्तं [जाबाल० 4 / 54 ] 624 तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थ न्यायसू० 4 / 2 / 50] 319 देशकालदशाभेद 69 तद्गुणैरपकृष्टानाम् मी० श्लो० चोदना०श्लो०६३] दृश्यते मेचकादौ हि [ ] 369 723 दृश्यमानाद् यदन्यत्र [ 493 तद्विपर्ययाद्विपरीतम् [ न्यायसू० 111137 ] 314 दृष्टत्वान्न विरोधोऽपि तन्त्राधिकरणाऽभ्युपगम- न्यायसू०२१।२६ 312 दृष्टान्तस्य कारणाऽनप- [न्यायसू० 5 / 1 / 9] 325 तस्माच्च विपर्णसात् [सांख्यका० 19 ] 813 | द्रव्याणि द्रव्यान्तरमा-[वैश० सू० 111110] 268 तस्मात्तत्संसर्गाद- [सांख्यका० 20] 814, 190 द्रव्यात् स्वस्मादभितस्मादेषा संस्कृता [तैत्ति० 6 / 47 (1)] 761 द्रव्याश्रय्यगुणवान् [वैशे० सू० 111116] 272 तस्माद्यत्स्मर्यते तत्स्यात् मी० श्लो० उप० श्लो०३७] द्रष्टव्यो रेयमात्मा [बृहदा० 4 / 5 / 6] 597 द्वयसंस्कारपक्षे तु [मी० इलो० शब्दनि० श्लो. तथा च स्पादपूर्वोऽपि [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो. 86] 714 242] 702 द्वयोरेकाभिसम्बन्धात् / [सम्बन्धप०] 306 तथा प्रजापतिः सोमम् [ ]726 | धर्मविकल्पनिर्देशे . [न्यायसू० 112 / 14322 HTTH! لالالالالالالالالا 370 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरणसूचिः 865 270 0 धर्माऽधर्मो स्वाश्रयसंयुक्ते / 1 247 | नादेनाहितबीजाया- वाक्यप०१८५१७४९, 754 धर्मिणोऽनेकरूपत्वम् | नाऽभावो विद्यते सतः [ भगवद् गी० 2 / 16 1 358 धर्मिणो ह्यनन्तरूपत्वम् 371 | नास्तिता पयसो दध्नि [मी० श्लो० अभाव० श्लो० धर्मे चोदनैव प्रमाणम् ] 735 धियोऽनीलादिरूपत्वे [प्रमाणवा० 3 / 433 ] 124 निग्रहप्राप्तस्यानिग्रहः [न्यायसू० 5 / 2 / 21 334 धत्तूरकपुष्पवद् आदौ / नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या प्रश० भा० पू० 13292 न च पर्यनुगोऽत्र [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० 43] नित्यमनित्यभावादनित्ये न्यायसू०५।१२३५] 329 714 नित्याः शब्दार्थसम्बन्धाः [वाक्यप० 123) 550 न च स्याद्वयवहारोऽयम् [मी० इलो० अभा० श्लो॰] नियमश्चानुमाङ्गत्वं [ निरूपणानुस्मरणविकल्पे-[अभिध० 1133395 न चापि स्मरणात् पश्चादि- [मी० श्लो० प्रत्य० निर्दिष्टकारणाभावेऽप्यु- [न्यायसू०५।१।२७] 328 इलो० 236] 699 निर्वाणेऽपि परे प्राप्ते / न चाप्यष्टिमात्रेण . [ ]70 निष्फलत्वेन शब्दस्य मी० श्लो० शब्द नि० श्लो. न चावस्तुनः एते स्युः [ मी० श्लो० अभा० श्लो. 239] 702 8] 467 नीलसुखादिविचित्रप्रतिभासाप्येकैव [ प्रमाणवातिन चैतस्यानुमानत्वं [ मी० श्लो० उपमान० लो. कालं०] 130 43 ] 491 नीलादिश्चित्रविज्ञानज्ञानो- [प्रमाणवा० 33220] न तस्य किञ्चिद् भवति न भवत्येव [प्रमाणवा० 125 12281 ] 388 | नेह नानास्ति किञ्चन [बृहदा० ४।४।१९,कठोप० न तावदिन्द्रियेणेषा . [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० 4 / 111147 18] 463 | नो कप्पइ निग्गन्थीए [ कल्पसू० 5 / 201868 न द्रव्यादि स्वतः सत् नैसर्गिक वैनयिकञ्चा- न्यायभा०११११२५] 312 न नरः सिंहरूपत्वात् / नोकम्मकम्महारो [ भावसं० गा० 110 ] 856 नन्वस्त्येव गहद्वारवर्तिनः [न्यायम०प० 381511 पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञार्था-[ न्यासू० 52 / 5 ] 331 न प्रकृति विकृतिः पुरुषः [सांख्यका० 31 627, पदमाद्यं पदञ्चान्त्यं [वाक्यप० 2 / 2] 731 पदार्थपूर्वकस्तस्मात् [मी०श्लो० वाक्या० श्लो० न प्रत्यक्षीकृता याव 69 336 ] 743 न नरो नर एवेति / | पदार्थानां तु मूलत्वमिष्टं [ मी० इलो० वाक्या० नरान् दृष्ट्वा त्वसर्वज्ञान् / श्लो० 111] 743 न विकल्पानुविद्धस्य प्रमाणवा० 2 / 283 ] 525 | परमार्थेकतानत्वे. [प्रमाणवा० 3 / 206 1 554 न सोऽस्ति प्रत्ययो [ वाक्यप० 1124 ] 140, परलोकिनोऽभावात्परलोका-[ ] 343 परस्परविषयगमनं व्यतिकरः / 1360 न स्वतो नापि परतः [ माध्यमिकका० प्रत्यय० का० परस्पराविनाभूतं द्वय-[प्रमाणवातिकाल०प०३०] 1] 132 न ह वै सशरीरस्य प्रिया- | छान्दो०८।१२।१। परापेक्षा हि सम्बन्धः सम्बन्धप०] 306, 309 825, 830,837 | परिषत्प्रतिवादिभ्यां [ न्यायस० 5 / 2 / 9 ] 332 न हिंस्यात् सर्वाभूतानि [कूर्मपु० अ० 16 पृ० | पारतन्त्र्यं हि सम्बन्धः [सम्बन्धप० ] 305 553 ] 634 | पीनो दिवा न भुङ क्ते [मी०श्लो०अर्था० इलो० न हि स्मरणतो यत्प्राक् [ मी० श्लो० प्रत्यक्ष० श्लो० 51] 508 234 ] 699 पुंवेदं वेदंता जे पुरिसा [प्रा० सिद्धभ० गा० 6 ] न ह्यर्थे शब्दाः सन्ति 878 नाकारणं विषयः ] 658 पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात् [प्रश०भा० पृ०२०] 214 नाक्रमात्क्रमिणो [प्रमाणवा० 1145] 620.851 | पृथिव्यप्तेजोवायुरिति तत्त्वानि [ 341 नागृहीतविशेषणा पृथिव्यप्तेजोवायनां घाण- [ नाज्ञातं ज्ञापकं नाम पौर्वापर्यायोगादप्रतिसम्ब- न्यायसू०५।२।१०३३२ नाननुकृतान्वयव्यतिरेक 640 प्रकृतादादप्रतिसम्ब-[ न्यायसू० 5 / 27 ] 332 नाभुक्तं क्षीयते कर्म प्रकृतिपरिणामः शुक्लं कृष्णञ्च [ 1812 नान्योनुभाव्यो [प्रमाणवा० 3327 ] 133,684 | प्रकृतेर्महान् ततोऽहङ्कारः [सांख्यका० 22] 189 नायं वस्तु न चावस्तु [ तत्त्वार्थश्लो० पृ० 118] 364 351, 355 सपनाकृता याव 145 584 156 J824 Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 866 न्यायकुमुदचन्द्रे 584 173 प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे न्यायसू० 5 / 2 / 3] 330 प्रेरणा हि विना कार्य प्रमाणवातिकालं. 50 30] प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरं न्यायसू० 5 / 2 / 1] 330 प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमना-न्यायसू०१३१३३२] | प्रेरणव नियोगोऽत्र [प्रमाणवातिकालं० पृ० 29] 314 प्रतिज्ञाहेत्वोविरोधः न्यायसू० 5 / 2 / 4] 331 प्रेर्यते पुरुषो नैव प्रमाणवातिकालं. पृ० 30] 583 प्रतिदृष्टान्तधर्मानुज्ञा न्यायसू० 5 / 2 / 2] 330 बहुकृत्वोऽपि वस्त्वात्मा [ प्रतिनियतदेशा वृत्तिरभि बाधनालक्षणं दुःखम् [ न्यायसू० 1021] 310 प्रतिमन्वन्तरञ्चैव श्रुति- [मत्स्यपु०१४५।५८]७२६ बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्न- [" प्रत्वक्षमनुमानञ्च शाब्दञ्चो-[षड्द० समु० श्लो० | बुद्धघध्यवसितमर्थ 72 (?)] 505 ब्राह्मणेन यष्टव्यं 770 प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभान्त-[न्यायबि० पू०११] 46 भवन्नप्यविनाभावः प्रत्यक्ष कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव [प्रमाणवा० 2 / 123] | भादौ वोक्तपुंस्कं पुंवत् [जैनेन्द्रव्या० 5 / 1153 ] 525 प्रत्यक्षमेव प्रमाणमगौणत्वादिति [ 170 भावाभावयोस्तद्वत्ता. न्यायवा० पृ० 6 ] 29 प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणा- [ मी० श्लो० अभाव० | भावा येन निरूप्यन्ते [प्रमाणवा० 3360] 132 श्लो० 11] 464 भिक्षवोऽहमपि मायोपमः / प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः [न्यायस० 123] 309 | भिन्नकालं कथं ग्राह्य-[प्रमाणवा० 3 / 247 ] 165, प्रत्यक्षेण हि प्रतिपन्ने प्रतिबन्धे [. 514 167,409. प्रत्यक्षेणावबुद्धेऽपि सादृश्ये मी० श्लो० उपमान० भिन्नविशेषणं मुख्यमभिन्न- [ श्लो०३८] 490 भिन्ने चैकत्वनित्यत्वे [मी० श्लो० शब्दनि इलो० प्रत्यक्षेऽपि यथा देशे [ मी० श्लो० उपमान० श्लो० 272] 703 39] 490 भिन्नेष्वभिन्ना नित्या प्रत्ययार्थो नियोगश्च [प्रमाणवातिकालं० 10 29] भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजं [न्यायवि० पृ० 20] 47 583 भूयोदर्शनगम्यापि न प्रत्ययरनुपाख्येयैर्ग्रहणा- [ वाक्यप० 1984 ] 749 भूयोदृष्ट्या च धूमो | प्रमत्तयोगात् प्राणव्यप-तत्त्वार्थसू० 7.13 1 868 भूयोऽवयवसामान्ययोगो न्यायमं० 10 146] 499 प्रमाजनकं प्रमाणम् [ 28 भैदानां परिमाणात् [सांख्यका० 15] 350,354 प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः [न्यायसू० 112 / 1] 316, | मणिवत्पाचकवद्वोपाधि-[प्रश० भा०पू० 64 (?)] 252 प्रमाणनयैरधिगमः [तत्त्वार्थसू० 116] 651 मतिपूर्व श्रुतम् . [तत्त्वार्थसू० 1120] 405 प्रमाणपञ्चकं यत्र [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० 1] / | मदशक्तिवद्विज्ञानम् [ ] 342, 348 466,725 मध्यमा प्रतिपत्सव प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजन-न्यायसू० 11111] 309 मनस्त्वाभिसम्बन्धान्मनः [प्रश० भा० 1086] प्रमाणमविसंवादिज्ञान- [प्रमाणवा० 113 / 633 215 प्रमाणषट्कविज्ञातो [मी० श्लो० अर्था० श्लो० 1] मन्त्राद्यपप्लुताक्षाणां [प्रमाणवा० 31355] 133 505 ममेदं कार्यमित्येवं ज्ञातं [प्रमाणवातिकालं० पृ० 30] प्रमाणाभावनिर्णीतचैत्रा- [मी० श्लो० अर्था० श्लो 583 8] 508 ममेदं कार्यमित्येवं मन्यते [प्रमाणवतिकालं० पृ० 30] प्रयत्नकार्यानेकत्वात् [न्यायसू० 5 / 1137] 329 584 प्रयत्नानन्तरं ज्ञानं मी० श्लो० शब्दनि० श्लो. ममेदं भोग्यमित्येवं [प्रमाणवातिकालं० पृ० 30] 31.32] 715 प्रागुत्पत्तेः कारणाभावा-न्यायसू० 5 / 1 / 12 326 महत्यनेकद्रव्यत्वाद्रूप- वैशे० सू० 4.16] 30 प्राग्भागो यः सुराष्ट्राणां न्यायम० पृ० 141 (?)] मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीत-[बृहत्स्व० श्लो० 75 ]857 259 | मिथ्याध्यारोपहानार्थ [प्रमाणवा० 11194] 840, प्राप्तिपूर्विकाऽप्राप्तिविभागः [प्रश० भा०पृ० 151] 277 मिथ्योत्तरं जातिः [न्यायवि० का० 371 ] 339 प्रामाण्यं व्यवहारेण प्रमाणवा० 2 / 5] 48, 167, मुखे हि शब्द उपलभ्यते [ शाबरभा० 21151535 450, 630 - मूलप्रकृतिरविकृति- [सांख्यका०.३] 356 प्रेरणाविषयः कार्य प्रमाणवातिकालं ०पू०३०] 584 मृतस्य जीवतो दूरे न्यायमं पृ० 43 ] 516 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरणसूचिः 87 141 मृद्दण्डचक्रसूत्रादि घटो [ ] 196 / लौकिकपरीक्षकाणाम् न्यायसू०१।१०२५] 312 यः पश्यत्यात्मानं [प्रमाणवा० 11219] 838 | वचनविघातोऽर्थविकल्पो-न्यायसू० 122 // 10] 321 यः पूर्वावगतोंऽशोत्र मी० श्लो० प्रत्यक्ष० श्लो० वटे वटे वैश्रवणः [ ] 728, 733 233] 698 वरं वृन्दावने रम्ये [ ]828 य एव लौकिकाः शब्दाः [शाबरभा० 1 // 3 // 30] 593, | वर्णक्रमनिर्देशवत् न्यायसू० 5 / 2 / 8] 332 720 वस्तुत्वाद् द्विविधस्यात्र [मी० श्लो सू०२ श्लो. यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः [मनु० 5 / 39] 634 यत्ये तदादि गुः [जैनेन्द्रव्या० 112 / 114] 766 वस्त्वसंकरसिद्धिश्च मी० श्लो० अभाव० श्लो० यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः वाक्यप० 1134] 68 2] 467 यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य [ ]27, 66, वाग्रूपता चेदुत्क्रामेद् वाक्यप० 11125] 140 206 वायुत्वाभिसम्बन्धात् प्रश० भा० 1044] 214 यत्सिद्धी अन्यप्रकरण- न्यायसू० 111130] 313 | विकल्पयोनयः शब्दा ] 537 यथा घटादेर्दीपादिरभि- [मी० श्लो० शब्दनि० विकहा तहा कसाया पिंचसं०१ 15] 874 श्लो० 42] 714 विजातीयानामनारम्भ- [ ] 268 यथानुवाकः श्लोको वा [वाक्यप० 1183 ] 749, | विज्ञातस्य परिषदा न्यायसू० 5 / 2 / 16] 333 755 विधेर्लक्षणमेतावदप्रवृत्त- [ ] 573, यथा माया यथा स्वप्नो [ माध्यमिक० संस्कृतप०का० विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्तिप्रकारस्य [ ] 339 34] 132 विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च न्यायसू० 102 / 19] 329 यथा विशुद्धमाकाशम् [बृहदा० भा० वा० 3 / 5 / 43] | विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्या- न्यायसू० 131141] 316. यथैव प्रथमं ज्ञानम् [ ] 196 विशिष्टसाधनाव्यवच्छिन्न- [विधिवि० पृ० 246] यथैवाऽऽहारकालादेः [प्रमाणवा० 3 / 3 / 69] 166 यथोक्तोपपन्नः छलजाति-न्यायसू० 1 / 2 / 2] 318, विशेषेऽनुगमाऽभावात् ] 69 338 | विशेष्यं नाभिधा गच्छेत् / ] 567 यद् यत्र उपलब्धिलक्षण 1 484 | वेदाध्ययनं सर्वं मी० श्लो० वाक्याधि० श्लो. यदा दृष्ट्वा परं ब्रह्म / 831 366] 722 यदेवार्थक्रियाकारि [ ] 382, 396 | व्यक्तिनित्यत्वमापन्नं मी० श्लो० शब्दनि० यद्वाऽनु वृत्तिव्यावृत्ति-मी० श्लो० अभाव० इलो०६] श्लो० 273] 703 467 व्यावृत्त्योलिङ्गलिङ्गित्वम् न्यायमं०१०११७] 448 यद्विज्ञानं स्वविषये [ ] 673 | शक्तिः करणं कार्यम् यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते न्यायसू० श१०२४] 312 | शब्दवृद्धाभिधेयानि [मी० श्लो० सम्बन्ध० 140] यस्मात् प्रकरणचिन्ता न्यायसू० 1 / 2 / 27] 319 यस्य गुणस्य हि भावात् पात० महाभा० 5.11119) शब्दब्रह्मणि निष्णातः [ब्रह्मबिन्दूप० 22] 139 275 शब्दार्थयोः पुनर्वचनं न्यायसू०.५।२।१४] 333 युगपज्ज्ञानाऽनुत्पत्तिर्मन- न्यायसू० 11116] 185 शब्दे दोषोद्भवस्तावद् मी० श्लो० चोदना० युज्यते नाशिपक्षे च [मी० श्लो० अभाव० श्लो० श्लो०६३] 723 241] 702 शब्दे वाचकसामर्थ्यम् [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो ये तु प्रत्यक्षतो विश्वं 238] 702 यो धर्मशील: 1 729 | शब्दे वाचकसामर्थ्यात् [मा० श्लो० अर्था० श्लोक यो ब्रह्माणं विदधाति श्वेताश्व० 6 / 18 726 5] 508 रसो रसनेन्द्रियग्राह्यः [प्रश० भा०पू०१०५] 273 | शब्दोत्पत्तेनिषिद्धत्वात् [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो. रूपरसगन्धस्पर्शवन्तः तत्वार्थसू० 5 / 23) 787 __226] 711 रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्या [वैशे० सं० 2116] 273 शिरशोऽवयवा निम्ना [मो०श्लोअभाव०श्लो० 4) रूपश्लेषो हि सम्बन्धः सम्बन्धपरी०(?)] 306 468 रूपादिमयी मत्तिः श्रुतमविस्पष्टतर्कणम् [तत्त्वार्थश्लो० पृ० 237 ] लक्षणहेत्वोः क्रियायाः [जैनेन्द्रव्या० 2 / 2 / 104] 449 404 लिङ लोट्तव्यप्रत्यय- [. श्रूयन्ते हि अनन्ता: [तत्त्वार्थभा०सम्बन्धका०२७] लोयायासपदेसे द्रव्यसं० गा० 22, जीवकां० गा० | 868 588 (?)]| श्वेतमजमालभेत Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 818 न्यायकुमुदचन्द्रे [70 ] 69 षडेव धर्मिणः / 1364 | साध्यदृष्टान्तयोः धर्म- [न्यायसू० 5 / 114] 324 षण्णामनन्तरातीतम् अभिध०२१७] 395 साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा [न्यायस० 111130314 षण्णामाश्रितत्वम् [प्रश० भा० पृ०१६] 302 | साध्यरूपतया येन ममेदमिति [ प्रमाणवातिकालं. 10 संजोगमूलं जीवेन मूलाचार०२१४९] 845 30] 584 संयोगाद्विभागात् शब्दाच्च वैशे० सू० 2 / 2 / 31]246 साध्यसाधात्तद्धर्मभावी [न्यायसू० 11236] संवादस्याथ पूर्वेण [ 314 सत्यपि आनन्त्ये न्यायमं० पृ० 622349 साध्याविशिष्ट: [न्यायसू० श२८] 320 सत्सम्प्रयोगे जैमिनिसू० 11104 523 | समानानेकधर्मोपपत्ते-[ न्यायसू० शश२३३१० सदृशत्वात्प्रतीति-[मी० श्लो०शब्दनि० श्लो०२४८] | सामान्यदृष्टान्तयोरैन्द्रिय-[न्यायसू०५।१।१४]३२६ 703 सामान्यद्वारकोऽप्यस्ति सधनं ब्राह्मणं हन्यात् [ ] 763 सामान्यवच्च सादृश्यमेककत्र [ मी० श्लो० उपमान स धर्मोऽभ्युपगन्तव्यो [मी० श्लो० शब्दनि०लो. श्लो० 35] 493 240] 702 सारणवारणपरिचोयणाइ [ 876 सन्निकर्षः अर्थोपलब्धि- [ ]28 साहचर्ये च सम्बन्धे स प्रतिपक्षस्थापना-[न्यायसू० 22 // 3] 319,338 | सिद्धमेकं यतो ब्रह्म [प्रमाणवातिकालं. पृ०३० समयः प्रतिम वा [मी० इलो० सम्बन्ध० श्लो. 13] 553 | सिद्धरूपं हि यद्भोग्य प्रमाणवातिकालं० पृ० 30] समानतन्त्रप्रसिद्धः न्यायसू० 131129] 313 .. 584 सम्बद्धं वर्तमानञ्च गृह्यते [मी० श्लो० सू०४ श्लो० | सिद्धान्तमभ्युपेत्य अनिय-न्यायसू०५।२।२३] 335 84] 53 | सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्वि- [न्यायसू० 102 / 6] 319 सम्बन्धज्ञानसिद्धिश्चेद् [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० | सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः [सं० सिद्धभ० श्लो०१४ 243] 702 सुखमालादनाकारम् / [ ] 129 सम्बन्धस्त्रिप्रमाणक: [मी० श्लो० पृ०६८०] 550 सुविवेचितं कार्य कारणं [ 604 सम्भवतोऽर्थस्य अतिसामान्य- [न्यायसू० 122 / 13] स्थिरवाय्वपनीत्या च [मी० श्लो० शब्दनि श्लो० 322 62] 711 सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि [तत्त्वार्थसू० 131] 865 स्पर्शः त्वगिन्द्रियग्राह्यः [प्रश० भा० पृ० 106] सरागा अपि वीतरागवच्चेष्टन्ते [ ]603,851 273 सवं खल्विदं ब्रह्म [छान्दोग्यो० 3 / 14 / 1] 147 स्याच्छब्दस्य हि संस्कारा- [मी० श्लो० शब्दनि० सवं सालम्बनं ज्ञानम् [. श्लो० 52.] 711 सर्वचित्तचत्तानामात्म- न्यायबि० पृ० 19] 47 स्वत: सर्वप्रमाणानां [मी० श्लो० स० 2 श्लो० सर्वतन्त्रप्रतितन्त्र- [न्यायसू० 111127] 312 47] 195 सर्वतन्त्राऽविरुद्धः तन्त्र [ न्यायसू० शश२८] 312 स्वपक्षे दोषाऽभ्युपगमात् [न्यायसू० 5 / 2 / 20] 334 सर्वस्योभयरूपत्वे प्रमाणवा० 3 / 181] 620 स्वपरावभासमेकं ज्ञानं सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः सङ करः [ |360 | स्वविषयानन्तरविषय- न्यायबि० पृ० 20 47 सवितर्कविचारा हि [अभिध० 113] 395 स्वाभिधेयाविनाभूत- [तन्त्रवा० 24123] 568 सव्यभिचारविरुद्ध- न्यायसू स्वामित्वेनाभिमानो हि [प्रमाणवातिकालं० पृ० 30] स हि रुद्रं वेदकर्तारम् / 726 584 साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यव- [न्यायसू० 102 / 18] | हिरण्यगर्भ प्रकृत्य 187 322 | हिरण्यगर्भः सर्वज्ञः साधर्म्यवैधाभ्यामुपसंहारे [न्यायसू० 5 / 1 / 2] हीनमन्यतमेनापि न्यायसू० 5 / 2 / 12] 333,436 323 हेतुमदनित्यमव्यापि [सांख्यका०१०३५३ साधर्म्यवैधम्र्योत्कर्षापकर्ष-[ न्यायसू० 5 / 11323 हेतूदाहरणाधिक- [न्यायसू० 5 / 2 / 13] 333 साधर्म्यात्तुल्यधर्मो- [न्यायसू० 5 / 1132] 328 | हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु [प्रमाणवा० 3.14) 439 साधुभिर्भाषितव्यं ] 761 | हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञायाः न्यायसू० 121139] 315 साध्यत्वे हेतुव्यापारः 1 579 | हेत्वाभासाश्च यथोक्ताः [न्यायसू०५।२।२४] 335 -entre-- Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. न्यायकुमुदचन्द्रनिर्दिष्टा न्यायाः। अन्धसर्पबिलप्रवेशन्याय 248 / 27 | लाभमिच्छतो मूलोच्छेद: 309 / 2 अन्नं वै प्राणाः 35 / 6 वीचीतरङ्गन्याय 245 / 6; 246 / 12, 249 / 12 अर्धजरतीयन्याय 168020 सरागा अपि वीतरागवच्चेष्टन्ते 851110 इतो व्याघ्र इतस्तटी 837 / 21 सलिलसमीरणन्याय 5867 गौर्वाहीक: 559 / 17; 5601 सापल्यन्याय 685 / 13 न हि दृष्टेऽनुपपत्तिर्नाम - 1910 हस्तिप्रतिहस्तिन्याय नहि सुशिक्षितोऽपि खड्गः आत्मानं छिनत्ति, सुशिक्षितोऽपि वा वटुः स्वस्कन्धमारोहति 182 / 15 | 17. न्यायकुमुदचन्द्रगतानाम् ऐतिहासिक-भौगोलिकनाम्नां सूचिः। ऋषभादि कालासुर कौशाम्बी नन्दिसंघ नालिकेरद्वीप . प्रजापति बाहुबलिप्रभृति 857 / 27 | मालव 726 / 9 मेदि . 512 / 5 रावणशङ्खचक्रवर्त्यादि 88121 रावणादि 179 / 1, 410 / 12 726 / 4 | वीर 858 / 10 वृन्दावन 5 / 8,12 सत्यभामा 871 / 12 सीता 49 / 14 | सुराष्ट्र 259 / 3 80825 535 / 6 808 / 26 726 / 2,9 653 / 16, 654312 8288 739 / 3 869 / 12; 87621 259 / 3 भरतप्रभृतिचक्रबतिन् महावीर 8. न्यायकुमुदचन्द्रनिर्दिष्टा ग्रन्था ग्रन्थकृतश्च / अकलक 112, 21, 402 / 8; 521111; | कपिलादिवचन 605 / 2653116654|11,88015 | काण्वमाध्यन्दिनतैत्तिरीयादिशाखाभेद अकलकूदेव 604117 | कादम्बर्यादि अक्षपाद 309 / 13 कुमारिल अनन्तवीर्य 122, 605 / 3 | कुमुदेन्दु अभिनवनैयायिक 497 / 14 गौतम आचार्य 2 / 10, 673120 जरनैयायिक आचार्गीयं वचः 673118 जैमिनि उपनिषद्वाक्य 14716 जैमिन्यादि कणाद 309 / 12 | ठकशास्त्र कण्वादि 726 / 13 | तत्त्वार्थभाष्यादि कपिलमहर्षिप्रभृति 111 / 12 | तत्त्वोपप्लववादिन् 60123 72610 72715,8 505 / 12 604115 8289 337 / 1 505 / 11 9412,3 - 59411 646 / 15 - 339/4. Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 600 न्यायकुमुदचन्द्रे मनु त्रयो वेदाः 726 / 4 | भास्करनन्दिन् 881112,18 त्रिसन्धानादि 73744 722 / 1 दिङनागादि 66 / 18, 19 मन्वादि 352 / 9, 736 / 1,9,13 देवनन्दिन् 88117,8 माणिक्यनन्दिन् 17 धर्मकीर्त्यादि 602 / 5 वातिककार 198413, 31018 न्यायभाष्य 156 / 3 वृद्धनैयायिक 49719, 500 / 14 पदार्थप्रवेशकग्रन्थ 36415 वेदेतिहासपुराण 77012 पद्मनन्दिप्रभु 880114 वैद्यकतन्त्र 275 / 19 परमानन्दनन्दिन् 881410 वैद्यकशास्त्र 669 / 3 पौराणिक 7266 शिक्षाकार मीमांसक 279 / 11 प्रज्ञाकरगुप्त 6199 सूत्र 272 / 20; 273 / 4; 309 / 16:314 / 1; प्रभाकर 42 / 15; 52 / 13; 505 / 12; 587 / 13 316 // 3,7; 31814; 319 / 4; 32111; प्रभाचन्द्र 880 / 16, 18 322 / 12,550 / 19,76013 15 सूत्रकार 31018; 312 / 9,31969; 3234 प्रमेयकमलमार्तण्ड 339 / 6, 3401 33015, 806 / 3,4,8 बृहस्पत्यादि 872 / 10 / सूत्रकारभाष्यकारवात्तिककारादि 76116 724 / 19 663313, 795 / 4 . भारतादि 722 / 11; 729 / 14; 731114; | सौख्यनन्दिन् 88114 732 / 3, 733 / 12 स्मृतिपुराणादि 72610 भाष्य 550 / 19 स्वप्नाध्याय 135 / 14 भाष्यकार 289; 311 / 9; 339 / 14; 340 / 1 / B0019.. प्रभेन्द्र भट्ट सूरि s6. न्यायकुमुदचन्द्रान्तर्गतानां लाक्षणिकशब्दानां सूचिः। 332 329 209 110 333 802 लाक्षणिकशब्दाः अज्ञान अज्ञाननिवृत्ति अणिमा अधिक अधिकरण अधिकरणसिद्धान्त अध्यवसाय अध्यषण अननुभाषण अनुत्पत्तिसम अनुपलब्धिसम 392 333 325 198 313 A. 192 अपार्थक अप्रतिपत्ति अप्रतिभा अप्रतिसंख्या निरोध अप्राप्तकाल अप्राप्तिसम अप्रामाण्य अभ्यनुज्ञा अभ्युपगमसिद्धान्त अमूर्तत्व अर्थान्तर अर्थापत्ति अर्थापतिसम अल्पबहुत्व 588 678 588 313 689 332 326 328 518 505 327 803 अनोपकामका - - AI WW.U NUDE . 8 TOO 10 Nirur m .MMS ain r" .vi अपकपतना अपक्षेपण अपवर्ग अपसिद्धान्त 310 अविशेषसम 5 / अविसंवाद 335 410 Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाक्षणिकशब्दसूचिः 601 310 312 (8 WWKK 11715, 21413 391 804 असत्त्व असमवायिकारण अहेतुसम आकाश (बौद्ध) आकुञ्चन. आगमद्रव्य आगमभाव . आत्मा इन्द्रिय ईशित्व उत्कर्षसमा उत्क्षेपण उदाहरण 315 329 329 218 111 22nrmms 332 812 उद्देश 21 316 802 315 Mr.v9moremur rr2" uroor 784 623 13 489 उपचारछल उपनय उपपत्तिसम उपमान : उपलब्धिसम उपादान एकदेश औपक्रमिकी करणत्व कर्तृता कर्म कर्मत्व . कार्यसम 807 67 / 17,438 / 2, 4 12 754 301 21 - 10 . 137 217 दृष्टान्त 327 दोष 391 द्रव्य 280 नामरूम 12 निक्षेप 807 निगमन 309 निग्रहस्थान नित्यसम निमित्तकारण 324 निरनुयोज्यानुयोग 279 निरर्थक 314 निर्जरा निर्णय 322 निर्देश निश्चय 328 नैगमनय नैगमाभास 328 नोआगमभाव 392 न्यून 224 पक्ष पक्षप्रतिपक्ष पदस्फोट परिशेष परीक्षा पर्यनुयोज्योपेक्षण 329 पर्याप्ति 803 पर्याय पारतन्त्र्य पुनरुक्त 803 प्रकरण प्रकरणसम 280 प्रतिक्रमण 872 प्रतिज्ञा प्रतिज्ञान्तर 321 प्रतिज्ञाविरोध 119 प्रतिज्ञासल्यास 348 प्रतिज्ञाहानि 392 प्रतितन्त्र सिद्धान्त 318 प्रतिदृष्टान्तसम 849 प्रतिबन्ध 322 / 12; 39217 प्रतिबन्धक 865 प्रतिभा 78915 प्रतिसंख्यानिरोध 31519, 418 / 14 प्रत्यक्ष 364 प्रत्यभिज्ञा 392 प्रत्यवमर्श प्रमाण 110 प्रमेय 7 प्रयोजन काल 320 कालात्ययापदिष्ट कृत्स्न क्षेत्र 224 852 - 117 306 / 21, 23 333 320 319 / 16, 32711 864 314 गन्ध 273 गमन चारणलब्धि चेतन 20 331 छल जडत्व जन्म जरामरण GK00 MMAuror morm जल्प 313 326 835 835 जाग्रदवस्था जाति जीवन्मुक्ति ज्ञान 392 24 411 411 7 तादात्म्य तृष्णा तेजस दक्षिणबन्ध दीर्घमायुः 852 . 309 309 852 312 Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602 न्यायकुमुदचन्द्रे 329 319 292 635 878 392 rap. rom प्रवृति प्रसङ्गसम प्रसारण प्राकाम्य प्राकृतबन्ध प्राप्ति प्राप्तिसम प्रेत्यभाव प्रेषणा फल बुद्धि भव भाव भाववाक्य भाविजीव भाविनोआगम 2MMAuror aro 310 852 309 4GK 110 324 360 319 418 / 14; 422 / 9 309 24 4044 भूत 61015; 62011 621115, 7908 873 13. 812 मतानुज्ञा मन महिमा मुक्ति मुख्यप्रत्यक्ष मूर्तत्व यत्रकामावसायिता योग्यता रस 52 787 310 2] विप्रतिपत्ति 326 | विभाग 280 विरुद्ध 111 विशेष 110 विसंवाद 111 वेद (लिङ्ग) 325 वेदना वेद्य 588 वैकारिक 310 | वैधर्म्यसम व्यतिकर 392 व्यभिचार 803 व्याप्ति 742 शरीर 807 श्रुत संख्या 391 संग्रह 334 12 संग्रहन य .310 / 17 / 3959 संग्रहाभास संयम 839 संवर 25 संव्यवहार 23 संव्यवहार प्रत्यक्ष संशय 31218, 18416, 538 / 13 संशयसम 273 संसार . संस्कार सङ्कर 391 सङ्केत सत् 568 समवाय समवायिकारण समारोप 325 सम्यक्चारित्र 111 सम्यज्ञान सम्यग्दर्शन 738 सर्वतन्त्रसिद्धान्त 754 सव्यभिचार सादृश्य 872 साधन 325 साधर्म्यसमः J साध्यसम 334. .. 8 साध्यसमा 129 / 15; 39124 सामात्यछल सिद्धान्त 255 52 / 6, 3107 रूप 273 * س س ه س 21 सत्त्व 13 रूपश्लेष रूपस्कन्ध लक्षण लक्षणा लघिमा लज्जा वये वर्ण्यसमा वशित्व वाक् छल वाक्य वाक्यस्फोट 110 874 324 *4...................... 829 3 391 360 . 539. 3 802 24 364 215 / 9, 294118 217 524 865 865 865 312 319 719 802 323 320 325 322 3128 129 / 15, 789 / 14 पसमा """""22200 321 वाद ध 11 वादलब्धि विकल्पसमा विक्रियालब्धि विक्षेप विज्ञान वितण्डा विद्या विधान विधि विपर्यय 802 . सुषुप्त 573 11. सुषप्ताद्यवस्था 527. स्थिति 849 - 802 . 7 20 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टशब्दसूचिः स्पर्श 802 - 18 868 स्पर्शन स्मृति 27338 39216 | स्वामित्व 803 हिंसा 406 195 हेत्वन्तर 174 25 | हेत्वाभास 17 हेतु स्वतः 314 331 319 स्वसंवेदन 10. न्यायकुमुदचन्द्रान्तर्गताः केचिद्विशिष्टाः शब्दाः। अक्षीणमहानसादिलब्धि 872 / 12 | असंवेद्यपर्व 192 / 12, 82222 अग्निष्टोमादि 576 / 4 | असत्कार्यवाद 56 / 14 अग्निहोत्र 548 / 4 आकाशकुशेशयवत् 844 / 12 अङगुलिशिखराधिकरणकरेणुशतवचस् 54312 | आर्यिका 868114; 874 / 22 अङ गुल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते 531 / 10 / 536:11, इन्द्र 857 / 22 14, 537412,692 / 12 | इन्द्राधास्थान 872 / 9 अञ्जनतिलकमन्त्रादि 8214; 263 / 26 ईश्वर 32 / 21, 163322,172 / 7,13 अत्यन्तोपकारकभृत्य 349 / 8 ईश्वरकपिलब्रह्मवत् 5 / 9,11 अद्वैतवादिन् 57 / 24 उत्तम्भकमणि 162 / 22 अनपवायुष्कत्व 863119 उत्पलपत्रशतच्छेदवत् 1827 अनिवृत्तिबादरसाम्पराय 87016 उत्पलपत्रशतव्यतिभेदवत् 72 / 2, 8218 अनुग्रहेच्छापराभिभवाभिलाषपूजाख्यात्यादि उद्गमादिदोष 873 / 17 33625 उद्देहिका 104110 अनुमानानुमेयभावो वा कल्पनाशिल्पिकल्पितः उन्मत्तवाक्यवत् 2016 ૪૮૭ારે उमेश्वरत्व 36949 .. अनेकभावाभावोपाधिखचित 478 / 4 ऊर्णनाभ 148 / 13; 15316 अन्तरायोपपत्ति 855 / 18 एकादश (परिषह) 862 / 3 अपक्वजम्बूफलादि 425 / 13 औपपादिक 352 / 11 अपवर्तना 863 / 19 अप्रतिसंख्यानिरोध औशनस् 75332 39.12 अभिनवनैयायिक कञ्चुकप्रख्य 39117 417 / 14 अभिन्नयोगक्षेमप्रत्यासत्ति कटुतैलादि 208 / 3 425412 अयःशलाकाकल्पाः परमाणवः क्रपिलादिमतानुसारिन् 83620,23 231220 अयोगकेवलिन् 'कल्पमहाकल्पादि 111112 857 / 10 कवलाहार अयोगिचरमसमय 847112 851122 अयोगोलकवह्निविवेकवत् काककाादिवत् 44016 491 / 10 19019 अरिष्टादिक 618 / 13 काकदन्तपरीक्षावत् 2018 अर्द्धपञ्चमाकार (अपोह) 555 / 3 काचकामलादिदोष 200 / 10, 540 / 9 अलातचक्रवत् 528 / 14 काचपच्यप्रसङ्ग 373 / 9 अवधिज्ञानिन् 855 / 186332 कापिलीय 789 / 19 अशक्यविवेचनत्वप्रत्यासत्ति 208 / 2 कार्माणशरीर 39419 अश्वविषाणप्रख्य 4762 | कुष्ठिनीस्त्रीवत् 8163 अश्विन्युदय 471 / 10. कुटद्रम 202 / 12 अष्टकाद्यर्थानुष्ठानार्थिन् 722 / 1 कृत्तिकोदय 42015, 440 / 4; 46127; अष्टद्रव्यकपरमाणु 394119 462 / 10, 870 / 18 अष्टविध (ऐश्वर्य) 110111 कृत्तिकोदयशकटोदय 4483 अष्टादशदोष 862110 केकायित 1015 / Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 523 / 4 104 न्यायकुमुदचन्द्रे केशोण्डुकादिज्ञान 165 / 21; 662 / 2,10; | तमिर 743 / 13 | तैमिरिकोपलब्धि २३श२२ कोशपान 183 / 10 तोयशीतस्पर्शव्यञ्जकवाय्ववयविवत् 1571 क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिह्नोपलक्षित 778/10 त्रयोदशविध (करण) 350 / 13 क्षपकश्रेणी 878 / 2 त्रिकटकादि 425 / 12 क्षपकश्रेण्यारोहण 859 / 11; 87016 त्रिदण्डदर्शन 462 / 9 क्षीणमोहान्त्यसमय 847 / 12 त्रिधा (व्युत्पाद्य) 2017 क्षुरमोदकशब्दोच्चारण 536 / 10 त्रिप्रकारा (वेदना) 391111 क्षुरादिपाषाणादिशब्दश्रवण 144 / 15 विविध (अप्रमाण) 196 / 17 खरकद्रम 202 / 18 त्रिविध (कारण) 217116 गणधरदेवादिरूप 8557 | त्रिविध (संस्कार) 275 / 3;278 / 22;71138 गणधरादि 869 / 4 त्रिविध (फल) 318 / 2 गणभृत् 2 / 3 त्रिविध (छल) 32115 गुणाष्टकवत् 866 / 20 / त्रिविध (लिङ्ग) 795 / 25 गोपालघटिकादि 425 / 1; 85112 दण्डकवाटादिविधान 859 / 18 गौरुस्रा इत्यादिवत् 7677 | दर्शपौर्णमासयज्ञ 578 / 6 घोटिकेव घोटकैः 873 / 3 | दशविध (कार्य) 350 / 12 चतुरार्यसत्य 39317 | दशाननदाह * 619 / 11 चतुर्विशति (गुण) 215 / 6 दिव्यतर्यादिरव 8557' चन्द्रकान्ताद्यन्तर्भूतजलादि 239 / 25 दिव्यपरमाणुलाभ 858 / 12 चन्द्रोदय-समुद्रवृद्धयोः 448 / 4 | दीर्घशष्कुलीभक्षणादि 270 / 22,27117 13 चरमदेह 867 / 2 / दूरस्थविरलकेशदर्शन 636 / 13 चरमशरीरिन् 871 / 11 | दूरासन्नार्थोपनिबद्धदृष्टिप्रेक्षकजनवत् 565 / 8 चरमोत्तमदेह 863 / 19 | दृष्टिदोषभय 864 / 9 चार्वाक 194 / 22; 341 / 15 | देवच्छन्दक 855 / 10,864 / 17 चकमत 173 / 12; 341 / 17 | देवनारकतिर्यग्भोगभूमिज . 866 / 2 चिच्छायाच्छुरितबुद्धिवृत्ति 192 / 16 | देशोनपूर्वकोटि 85418 चित्रपट्यादि 415 / 15 | द्वादश (मिथ्योपपाद) 87758 चित्रपट्यादिसामग्री 414 / 16 / द्विप्रकार (निरोध) 392 / 1 चौरशब्द 54712 | द्विविध (उपदेश) 882 जलकल्लोलवत् 370 / 6 द्विविध (स्वप्न) 135 / 12 जलबुद्बुदवत् 342111:34818 द्विविध (ब्रह्म) 139 / 17 जिन 521111 / द्विविध (शक्ति) 158 / 16 जिनपति 2 / 4 द्विविध (प्रमाणफल) 209 / 14 जिनपतिमतानुसारिन् 308 / 20,371 / 17 | द्विविध (सामान्य) 2157 जिनेन्द्रपद 2 / 3 | द्विविध (अनेकान्त) 372 / 1 जैन 71 / 19,77 / 10;279 / 10,307 / 1,484 / / द्विविध (अभाव) 4687 15:726 / 9 द्विविध (पर्यंदास अपोह) 555 / 7 जैनमत 348 / 19;740185832 / 11 द्विविध (प्राणादि) 850 // 23 // ज्ञानावरणादिकर्म 808 / 19 द्विविध (मुक्तिकारण) 852 / 2 ज्योत्स्ना 669 / 5 | द्विविध (यतिवन्द्यपद) 875 / 18 ज्वराधुच्चाटन 73113 / द्विविध (गृहि-देववन्द्यपद) 875 / 20 तथागतादि 587 / 13 | धत्तूरककोद्रवादि 34816 तदहर्जातबालक 347116 धतूरकपुष्पवत् 270 / 20 तरङ्गिणीतीरे फलानि सन्ति 542 / 11 | धत्तूरकाधुपयोगिन् 81014 तिमिराद्युपप्लवज्ञान 523 / 13 धनुर्वेदपरिज्ञानार्थिन् 4113 तीर्थकरत्वकर्मोदय 8627 धानुष्कवत् 437 / 10 तीर्थकरत्वनामपुण्यातिशय 875 / 13 धूपदहनादि 225116362 / 25 तीर्थकराकारधर 876 / 10 न कदाचिदनीदृशं जगत् 102 / 27 तीर्थस्नान 634 / 19 | नद्यास्तीरे फलनि सन्ति 54118. Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टशब्दसूचिः 105 6 / 2 नटभटवरुटचर्मकारादि 767 / 14 | प्रतिलेखन 868 / 8; 873 / 11 नरसिंह 369 / 9,19 प्रतिसंख्यानिरोध 392 / 1 नर्तकी 225 / 10 प्रतिसंहारकान्त 528 / 20,24 नव (द्रव्य) 2147 प्रतीत्यसमुत्पाद 39011 नागणिकाविमर्दककरतलादिवत् 15666 प्रत्यक्षानुपलम्भपञ्चक 444 / 16; 445 / 9 नारक 871 / 19 | प्रत्यक्षानुपलम्भपञ्चकसाधन 12 / 3 नारकादिकायसन्तापवत् 8412 प्रत्यक्षानुपलम्भसाधन 618 / 2 निखिलगुणोच्छेदलक्षणे पाषाणकल्पे मोक्षे 828 / 27 | प्रदीपज्वालाजलधारासमानशरीर 854 / 13 निरंशैकपरमब्रह्मसिद्धि प्रदीपनिर्वाणवादिन् 829 / 4 निविषीकरणादि 731 / 3 / प्रमाणान्तरसम्प्लव 505 / 2 निषद्या 854 / 16 / प्रमेयानुप्रवेश 509 / 8; 516 / 11 निस्तरङ्गमहोदधिप्रख्य 35017 प्रयाणकसमय 871 / 12 निहार 85746 प्रसुप्तिकादिरोग 346 / 18 निहितमन्त्रिताधीतादि 409 / 11 प्राकृतपुरुषवत् 863 / 14 नैयायिक 184 / 9,4963,499 / 12; 620114; प्राकृतवैकारिकदक्षिणलक्षणबन्धत्रयसद्भाव 629 / 17;630 / 26,633 / 20; 675 / 12,87111 109 / 14 नैयायिकादि , 436 / 15; 635 / 13; 657 / 24; | प्राकृतशब्दवत् 763 / 21 665 / 12 बन्ध्यासुतसौभाग्यादिव्यावर्णनप्रख्य 32 / 14 नैरात्म्यवाद 1666 बलातैलादि 713 / 12 नैरात्म्यादिभावनाभ्यास 840 / 15 बुद्धादिवत् नोकर्म 8075 | ब्रह्मन् 1213, 143 / 11,14 पङग्वन्धवत् 815 / 282119 ब्रह्मवाद 127 / 16; 712 / 12 पञ्च (कर्म) 2757 ब्रह्माद्वैत 62 / 14; 35014, 357 / 17, 585 / 12 पञ्च (बुद्धीन्द्रिय) 352 / 1 ब्रह्माद्वैतवादिन् 139 / 15 पञ्च (कर्मेन्द्रिय) 35222 ब्रह्माद्वैतवादिसांख्यपरिकल्पित .358 / 21 पञ्च (हेतु) 460 / 19 बौद्ध 12 / 4; 135 / 18 186 / 21, 35012; पञ्चधा (अनुमान) 460 / 16 633316 पद्मनालतन्तुवत् 26801 | बौद्धकल्पितनिरंशबुद्धि 483 / 16 परमनैर्ग्रन्थ्यभाक् 873 / 20 / बौद्धराद्धान्त 279 / 1 परमब्रह्मन् 38.16; 147 / 3,6 | बौद्धादि 582 / 2 परमशक्लध्यान 847 / 13 ब्राह्मणं भोजय / 769 / 5 परमौदारिकशरीर 857 / 19 ब्राह्मण्यजाति 767118, 77111 परिमण्डल 484118 भारताध्ययनवत् 732 / 3 परीषह 85417 भुजगखगचतुष्पदसर्पजलचराणाम् 867 / 6 पशोरिव रज्वा नियन्त्रितस्योपढौकनम् 65 / 12 भूतग्रहव्याधिपरिग्रह 46302 पारिमाण्डल्यादि 293 / 4 | भूतसृष्टि 35216,355 / 6 पिण्डखजूरादिशब्द 535 / 2 भूतसृष्टिप्रक्रियावत् 358 / 17 पिण्डषणा .. 853317 भूभवनवद्धितोत्थित 538 / 19 पिण्डौषधिशय्यादि 868 / 10 मणिप्रभायां मणिबुद्धिः 202 / 12 पिष्टपेषगानुषङ्ग 375 / 24 मणिमन्त्रादि. 849 / 14 पिष्टोदकगुडधातक्यादिपरिणतत्ववत् 343 / 11 मत्तमूच्छिताद्यवस्था 848 / 14 पुरुषाद्यद्वैत 399 / 8; 668 / 11 मदशक्तिवद् विज्ञानम् 3427 पुरुषाद्वैत 207 / 21; 396 / 14; 412 / 12 मधुप 499 / 13 पुरुषाद्वैतवादिन् 61118; 612 / 6 मध्यमङ्गलभूत 655 / 6 प्रख्योपाख्याविरहित 60.20 मन्त्रवादिन् 7303 प्रख्योपाख्याविहीनत्व 617 / 23 मन्त्राद्युपप्लवसामर्थ्य 132 / 20 प्रजापति 726 / 4 मरीचिकातोयनिदर्शन प्रतिबन्धकमण्यादि 162 / 24 मरुत्सिंहासनस्पर्श 855 / 8 प्रतिबिम्बोदयवादिन् 451119 महाप्रलय 55014 प्रतिभासाद्वैतवादिन् 5 / 11,13 | महामोहाक्रान्तान्तःकरणात् सौगतात् 49 / 14 484115 64 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकुमुदचन्द्रे महेश्वर 188 / 2 | वात्यादि 425 / 11. मातृविवाहोपदेशवत् 209 वादविक्रियाचारणादिलब्धि 872 / 8 मायागोलकवत् 63612 वादाद्यतिशय 868 / 2 मायाबाहुल्य 869 / 6 / / वासीचन्दनकल्प 344 / 13; 83331 मायोपम 683 / 25 वाहकेलि 315 / 11 मिथ्यादर्शनादित्रयात्मक 8309 विचित्र रेखानिकरकरम्बितामिव . 14102 मीमांसक 102 / 28,279 / 11,32019,502 / विज्ञानाद्वैत 62 / 14,11906 2,505 / 671118727 / 9,72818,775 / 11 | विद्याधरादिवत् 865 / 5 मीमांसककृतान्त 27948 विपुष् 710 / 11 मीमांसकनैयायिक 502 / 17 | विभाषा 39011 मीमांसकमत 18419,53219 विशदस्थिरखरपिच्छलत्वादि 275 / 19 मूलकीलकादि 311113 विशिष्टाञ्जनादि 54018 मूलकीलोदकादि 808 / 26 विश्वजिदादियज्ञ 576 / 3 मेचकादि 369 / 14 विषमच्छद 50011 मेयरूपता 166 / 15 वीचीतरङ्गबुद्बद्नादि 141 / 10 / 14817 यज्ञार्थम् 634 / 16 वीचीतरङ्गादि .24711 यथाख्यातचारित्र 801111 वृत्तिविकल्पादिदूषण 22712 यथार्थनामा अबला 878 / 16 / वेश्यापाटकादिप्रविष्ट 779 / 1 यमलकवत् 719 / 12 वैभाषिक 389 / 24; 390 / 1395 / 12.. याचनसीवनप्रक्षालनशोषणनिक्षेपादानचौरहरणादि- वैयाकरण 275 / 17,279 / 12,648318 मनःसंक्षोभकारिणि वस्त्रे 873 / 13 वैयाकरणव्यवहार 79713 यूकालिक्षाद्यनेकजन्तुसम्मूर्च्छनाधिकरणवस्त्रस- वैशेषिक 236 / 24, 309 / 11,62717,808 / 10 मन्वितत्व 874 / 10 वैशेषिकशास्त्र 287 / 20 योगाचार 119 / 10,165 / 14,397 / 19 वैशेषिकादि 7861 योगाचारमाध्यमिकमत 389 / 23 वैशेषिकी मुक्ति 828 / 9 यौग 109 / 7,11218,220111, 221114, 229 / व्याकरण 76011796126 86235 / 25, 358 / 22,399 / 1;4283;432 / व्याकरणप्रामाण्य 760117 14;72619,82616 व्याघ्रादिनेत्रचूर्णाजन 198417 योगसौगत 485 / 3 शब्दपरमब्रह्मविकल्प 139 / 17 योगादि 727 / 3 शब्दब्रह्म 142 / 6 यौगाभिमत 112 / 2 | शब्दविधिवादिन 574 / 6 यौगोपकल्पितेश्वर 109 / 4 शब्दव्यापारविधिवादिन् . 5767 रत्नत्रय 84604865 / 14 शब्दस्य उत्पत्तिप्रक्रिया 242 / 4 रविकिरणसंस्पृष्टनीहारनिकरवत् 13317 शाक्य 5597,8441 रिरंसा 86019 शाक्यपक्ष 843118 रोगादिपरीषह 862 / 6 शिशुमारवसाञ्जन 198 / 18 रोहिण्युदय 42015 शिष्याचार्यवत् 876 / 12 लकुटचपेटादि 338 / 24 शुक्लध्यानानल 859 / 6,864 / 16 लताबदर्यादि 603 / 17 शुक्लध्यानावाप्ति 859 / 11 लाभान्तरायप्रक्षय 858 / 12 शून्यवादिन् 2331 लालावत् 15618 श्रेणी 864 / 24 लूनपुनर्जातनखकेशादिवत् 245 / 20,41812; श्वमांस 54845 703 / 10,715 / 14 | श्वो मे भ्राता आगन्ता 5969 लोकपालपरिगृहीतदिकप्रदेश 258 / 4 षट्पदार्थ 21411 लोभकषायपरिणति 874 / 14 षट्पदार्थलक्षण 213119 लोकायतिक 108 षट्प्रकार (सन्निकर्ष) 28 / 20 वज़ 857/22 षट्प्रकार (अर्थापत्ति) 506 / 3 वटे वटे वैश्रवणः 7287,733 / 14 षडायतन 39017 वर्णाश्रमव्यवस्था 778 / 9 षड्विध (आहार) षडावध जा 8561 वलिपलितादिक 251 / 10 | षड्विध. (शब्द) 245 / 23 Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टशब्दसूचिः 107 सुगतादि षोडशक गण 355 / 22 | सुगतज्ञान 127 / 14; 3099 षोडशपदार्थलक्षण . 213 / 20 सुगतत्व 127116 षोढा सम्बन्धवादित्व 304 / 14 सुगतमतावलम्बिन् 476 / 10 संवरनिर्जरा 812 / 4 सुगतवचन 60102,4 संविद्रूपस्यैकस्य हर्षविषादाद्यात्मकत्वम् 1938 65411 संवृति 7 / 4 सुगतेश्वरकपिलब्रह्मन् 4115 संस्कृतशब्दवत् 762 / 10 सुगन्धिकुसुमधूपवासादिगन्ध 8557 सचेलसंयम 87511 सुरनारकादि 8667 सत्कार्यदर्शनसमाश्रयण 195 / 17 सुराभाण्डमिवाशुचि 634/20 सत्कार्यवाद 357 / 18 सूर्यतारिकातडिदादि 425 / 10 सदृश-अपरापरोत्पपत्तिनिबन्धन 245 / 20 सूर्यादिदशिन् 45218 सदृश-अपरोत्पत्तिप्रिलम्भ 636 / 11 सृष्टि 55014 सद्भावस्थापना 805 / 15 / सृष्टिक्रमकथन 151111 सप्तधा (अनुमिति) सेनावनप्रत्ययवत् 235 / 1 सप्तधातु 395 / 8 | सौगत 11212,38 / 13,5015, 71119, 81416 सप्तमपृथिवीगमन / 866 / 19 '2057,207 / 24,245 / 22, 25,266 / 10 सप्तमपृथिवीगमनकारणापुण्यप्रकर्ष 870113 35820379 / 4 / 395 / 14,396 / 1,409 / सप्तमपृथिवीगमनयोग्यता 87114 15.41335,427.12,43114,44419%3 समग्रोपाध्युपकार्यत्व 230 / 14 448 / 12,460115,482 / 17; 488 / 19; समवशरणादि 864 / 18 524 / 19,528 / 16,532 / 9,534 / 4,538 / समवशरणीयद्वितीयप्राकाराभ्यन्तरवति 855 / 11 9, 58711, 59849, 59976115 सम्यकचारित्र 808 / 6 61216617 / 16; 61812; 620 / 14; सम्यग्ज्ञान 830 / 11 629 / 25, 633 / 18,635 / 10,13,17,639 / सम्यग्दर्शन 8085 24, 643 / 17, 675 / 12, 677 / 3, 6811 सम्यग्दर्शनादित्रय 830120 15, 685 / 17, 697 / 12, 782 / 9, 785 / सम्यङमिथ्यावृष्टि 87705 9,786 / 12, 788 / 6, 79116, 793 / 12, सम्प्रज्ञातयोग 358 / 13 808 / 11,842 / 20 'सम्बन्धाभिधेयशक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनवन्ति 2014 | सौगतयोग 427 / 13 सम्मूच्छिमादिवत् 866 / 14 सौगतादि ' 685 / 19,72749 सयोगकेवलिन् 857 / 11 | सौत्रान्तिक 165 / 11, 279 / 12,389 / 22; सर्वज्ञाहारनिहार 855 / 14 397 / 19 सर्वज्वरहरतक्षकचूडारत्नालंकारोपदेशवत् 20 / 10 | स्त्रीनिर्वाण 865 / 13,870 / 11 सर्वार्थसिद्धि 871113 | स्त्रीलिङ्ग 869 / 14 . सहस्रारान्त 86719 स्त्रीवेद 87012 सांख्य 401849 / 15,109 / 5,113 / 16157 / स्थानत्रय 685 / 11 20; 189 / 10; 239 / 28; 265 / 11, 275 / | स्याद्वादलाञ्छितागम 634115 19279 / 8,12; 31313,3507; 394 / | स्याद्वादिन् 211 / 17,414 / 11,832 / 13 20,61802, 62717; 629 / 18, 633 / 15 / स्रग्वनितादि 163020 787 / 13; 808 / 11; 812 / 11; 819 / 17 स्वकम्बलस्य कूर्दालिकेति नामकृतम् 74317 82015;82117, 82212 | स्वप्नेन्द्रजालगन्धर्वनगर 1187 सांख्यनेगमाभास 630126 स्वप्नेन्द्रजालादिप्रत्यक्षवत् 13116 सांख्यसौत्रान्तिक 683 / 23 स्वप्नोपम 68411 सामायिकमात्रसंसिद्ध 8681 स्वात्मनि क्रियाविरोधात् 182 / 14; 1877 सारणवारणपरिचोदनादि 876 / 9 हरितालकाञ्चनादि 425 / 9 सासादनसम्यग्दृष्टि 87713 हस्तरेखादि 619 / 14 सिंताम्बर 871 / 1 / हिरण्यगर्भ 87 / 3,95 / 15 सुगत 168 / 13; 386 / 18 Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 11. न्यायकुमुदचन्द्रान्तर्गतदार्शनिकनामसूचिः / अंशशब्द 308 / 14 | अनेकाजीवनाम 805 / 2 अकारणगुणपूर्वकत्व 24138 / अन्तर्व्याप्ति 44111 अकृष्टप्रभवस्थावरादि 104 / 16 अन्तव्याप्त्यन्वय 44106 अक्रमानेकान्त 372 / 2 अन्त्यवर्णबुद्धि 745 / 1 अक्षणिकत्व 376 / 21 अन्त्यविशेष 215 / 8, 292 / 10 अक्षिपक्ष्म 858 / 4 अन्यथानुपपत्ति 423313 अख्याति 6014 अन्यथानुपपत्तिरूपव्यतिरेकवत् 44116 अङ्गहार 225 / 10,362 / 15/703 / 10 अन्ययोगव्यवच्छेद 69415 अङ्गहारस्फोट 756 / 14 अन्यवस्तुविज्ञानपक्ष 47614 अचेल 8687 अन्यापोह 5565 अचेलसंयम 875 / 1 अन्यापोहमात्राभिधायकत्व 55128 अतिदेशवाक्य 489 / 15 अन्योन्यव्यवच्छेद 69331. अतिप्रसङ्गवैयर्थ्यलक्षणबाधप्रसक्ति 4003 अन्योन्याभाव 467 / 11 अतिसामान्य 322 / 2 अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्य 34331 अतीन्द्रियज्ञान 86 / 15 अपर '283 / 22 अतीन्द्रियशक्ति 158 / 10 अपरत्व 274 / 16 अत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्व 831 / 3 / अपूर्वानपूर्वीकरण 72414 अत्यन्ताभाव 46801 अपेक्षाबुद्धि 2767 अत्यन्तायोगव्यवच्छेद 69335, 694 / 8 अपोद्धारव्यवहार 2778 अदृष्टादि 163321 अपोह 55119555 / 7,556 / 2; 557 / 5 अद्वयज्ञानकल्पना 207 / 17 अपोह्मभेद 562 / 5 अद्वैतरूपता 719 / 15 अपौरुषेयत्व 72111,5 अद्वैतवादिमतसिद्धि 54 / 11 अप्रतिपत्ति 360116 अधिगति 205 / 11 अबाधितविषयत्व 44227 अधिष्ठानाऽनृजुत्व 452 / 9 अभावदोष 37120 अनन्यपरतयोपादीयमानत्व .83113 अभावपूर्विकार्थापत्ति 5167 अनपवायुष्कत्व 863 / 19 / अभावप्रमाण * 46307 अनभ्यासावस्था 201119 अभावार्थापत्ति 508 / 12 अनाद्यविद्योपप्लव 62 / 15 अभिज्ञाक्षण 382 / 9 अनाधेयाप्रहेयातिशय 14328 अभिधा 567 / 12; 577 / 1 अनिर्वचनीयार्थख्याति 6317 अभिधात्रीशक्ति 508 / 3 अनुत्पाद्योत्पादकत्व 269 / 9 अभूत्वाभावित्व 220113; 221218 अनुपलब्धि 446 / 1,4657 अभेद 365 / 19 38018 अनुमानपूर्विकाशंपत्ति 5065 अयुतसिद्ध 294 / 24 अनुमानोपमानपूर्विकार्थापत्तिद्वय 515 / 11 | अयुतसिद्धत्व 297 / 20 अनुमितानुमान 4501 अयुतसिद्धि 299 / 9 अनुयोगशब्द 802 / 6 अयोगव्यवच्छेद 69334; 6941 अनुवाकग्रन्थ 749 / 1755 / 11 अर्थकार्यता ज्ञानस्य 659 / 11 अनुसंहृति .742 / 4 अर्थक्रियाकारित्व 37538 अनुस्मरण 395 / 5 अर्थक्रियाज्ञान 20215 अनेकजीवनाम 805 / 1 अर्थप्रधाननय 793 / 17 अनेकजीवाजीवनाम 805 / 3 अर्थप्राकट्य 20111 अनेकाकारचित्रज्ञान 19318 | अर्थभावना 579 / 11,582 / 14 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकनामसूचिः 106 64.1 अर्थात्मको व्यवहारः 634 / 9 / आस्रव 391117 अर्थात्मिका भावना 579 / 10 आहङ्कारिकत्व 157120 अर्थापत्ति 505 / 14 आहार 8576 अर्थापत्तिरनुमानमेव 513 / 10 आहारकथामात्र 864123 अर्थापत्तिपूर्विकार्थापत्ति 507 / 10:515 / 13 || आह्लादनाकारत्व 129 / 13 अर्धपञ्चमाकार (अपोह) 555 / 3 इच्छा 57415 अर्हदुक्तयत्न 868 / 19 | इच्छाप्रयत्नप्रभृतयो विधिप्रकारा: 59801 अलौकिकार्थख्याति इन्द्रियदोष 196119 अल्पान्तरत्व 617423 | इन्द्रियप्रत्यक्ष 47412 अवधिज्ञानिन 855 / 1,863 / 2 | इन्द्रियवृत्ति 4012.5 अवयविन् 23116 इन्द्रियसंस्कार 71336 अविद्या 14311 इष्टविघातकृत् 69 / 4;73 / 18 अविद्यातिमिरोपहत 14134 इष्टानिष्टप्राप्तिपरिहारादिलक्षणव्यवहार 79215 अविद्यारूप 809 / 3 उपदेश 574 / 4594 / 4 अविप्लुतत्व 772 / 8 उपदेशो विधिः 59412 अविवेकि 353 / 27 उपभोगाश्रय 845 / 13 अशक्यविवेचनत्व 125 / 19,127 / 11 उपमान 489 / 9,49749 असत्कार्यवाद .. 356 / 14 उपमानपविकाऽर्थापत्ति 5066 असत्ख्याति 60.15 उपमानस्य प्रत्यभिज्ञानस्वभावत्वम् 494 / 18 असत्प्रतिपक्षत्व 44339 उपलब्धिलक्षणप्राप्तप्रतिषेध्यार्थान पलब्धि-भूतलाद्याअसद्भावस्थापना 805416 श्रयोपलब्धि-प्रतिषेध्यघटादिस्मरणलक्षणसामग्रीअसाधुशब्दप्रयोग 75858 विशेष 464 / 1 असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः 439 / 2 उपसर्गाद्यासक्त 868 / 14,8741 अस्मर्यमाणकर्तृकत्व 72418 उपादान 39111 अहङ्कार 351115 उभयदोष 360111 आकाश 242 / 2 उभयसंस्कार 71117,71417 आकाशप्रदेशश्रेणी 258 / 13,18 | ऊर्ध्वतासामान्य 6472 आख्यातशब्द 7398 ऊवधिःस्थितवंशादि 3058 आगमनोआगमरूपता 8077 ऊहज्ञान 444115 आगमनोआगमविकल्प 806 / 10 एकजीव-अनेकाजीवनाम 805 / 3 आचेलक्यादिसंयमविशेष 872 / 16 | एकजीव-एकाजीवनाम 805 / 2 आतप 669 / 4 | एकजीवनाम 804118 आत्मख्याति 62 / 1 / एकत्वाध्यवसाय 49 / 17,289 / 11 आत्मगत 19723. एकद्रव्यत्व 204 / 11 आत्मदर्शिन् 838 / 12 | एकलोलीभाव 309 / 8 आत्मनोऽप्राप्तक्रियासम्बन्धावगम 574 / 3 | एकसामग्रयधीन 2367 आत्मन 259 / 23 | एकाऽजीवनाम 805 / 1 आत्माद्वैत 239 / 21 | एकात्मसमवेतानन्तरज्ञान 18215 आदर्शादि 451115 | एकात्मसमवेतानन्तरज्ञानग्राह्य 18806 आदित्यादिक्रिया 255 / 11 | एकार्थसमवाय 870 / 24 आनन्द 831111 एकोऽनवयवः शब्दः 7423 आनन्दशब्द 838 / 2 / एकोपाध्युपकार्यत्व 230 / 14 'आप्तोक्तत्वेनैव .53631 एवकार 69411 आयतन 39214 5477 आरूप्यधातु 392 / 10 कण्टकशाखावरणवत् 319 / 2 आवरण 70806 | कथञ्चित् विज्ञानाभिन्नहेतुजत्व 129 / 13 आवरणत्व 7069 करण 225 / 10362 / 15 आशय 109 / 11 | करणस्फोट 756 / 13 आशुभमणादिज्ञान कर्तव्यताप्रतिपत्ति 574|4 आसर्गप्रलयस्थायिन् 189 / 16 | कर्तृत्वसामग्री ओदन 523 / 4 994 Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 910 न्यायकुमुदचन्द्रे कर्म चोदना छाया 109 / 10, 574 / 3; 807 / 4 / गौणत्व 7101 कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्व 175 / 2 ग्राह्यग्राहकवैधुर्य 133 / 10 कर्मनोकर्म 868 / 15 घटाद्यभाव 444 / 14 कर्मनोकर्मादानलक्षण आहार 8565 चक्रादिव्यापारवैयर्थ्यानुषङ्ग 709 / 14 कर्मपदार्थ 279 / 13 चक्षुरादिगत 197 / 21 कर्मशब्द 805 / 10 चिच्छक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसंक्रमा 814 / 12 कर्मैव अभिप्रेतार्थप्रसाधकत्वाद् विधिः 591 / 21 | चिच्छायासङक्रान्ति 19215 कल्पना .47115 चित्र .124 / 10 कवलाहार 851022 चित्रज्ञान 19856 / 26,130121,38212 कामधातु 39229 415 / 15 कामपीडापनोदार्थं कामुकादिस्वीकार 874 / 19 चित्रज्ञानरूपता 620118 कारक 42 / 2 चित्रज्ञानादि 415 / 6 कारकव्यापर 709 / 12 चित्रप्रतिभासा 1261 कारकसाकल्य 33 / 10 चित्ररूपप्रतिपत्ति 229 / 14 कारणानुमान चित्राकारकज्ञान 414 / 16 कार्यत्व 362 / 26 चित्राकारकसंवेदनवत् 307 / 22 कार्यप्रेरणयोः सम्बन्धः 584 / 4 चित्राद्वैतसिद्धि 126 / 13 कार्यसहिताप्रेरणा 583310 चित्रकज्ञान 618 / 10 कार्यानुपलम्भ 91218 चिन्तामयी 839 / 5 कालक्रम 151 / 21,23 चतन्यप्रभव 850123 कालद्रव्य 25131 55113 कालाकाशादि 44014 667 / 10 / 669 / 4; 672 / 6 कालाणु 25415 छिन्नमूलत्व 722 / 9; 729 / 8 कृतकत्व 3764 जरामरण 39112 कृतकृत्यता 828 / 21 जलधारणाद्यर्थक्रियाकारिन् 233 / 17 कृतनाश-अकृताभ्यागमदोष जाग्रत्सुषुप्तावस्था 847/20 कृतमिति प्रत्ययविषयत्व 1015 जाग्रद्विज्ञान 618 / 12 केवलव्यतिरेक्यनुमान 214/10 जाति 339 / 18,39121 केशादिविवृद्धयभाववत् 857 / 20 जातिशब्द 805/7 15220; 445 / 15) जातिः सङघातवर्तिनी 740 / 11 क्रमयोगपद्य 35748, 38018 ! जात्यन्तरत्व 369 / 3 क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्व 83 जिज्ञासा 33711 क्रमाक्रमानेकान्त 806 / 9 जिन 521111 क्रमानेकान्त 37222 जीर्ण कूपप्रासादादिवत् 10017;73115,137 / 12 क्रमो वाक्यम् 7415 ज्ञातृत्वविशिष्टस्यार्थस्य 178 / 26 क्रियाविशेषनिबन्धन ब्राह्मणत्व 778 / 12 ज्ञातृव्यापार 42221 क्षणक्षयस्वर्गप्रापणसामर्थ्यादि 88412 ज्ञातृस्थ (निग्रह) . 31215 गन्धादिस्फोट 756 / 6, 10 ज्ञान 189 / 14 गवादयः शब्दाः साधवः ७५७६शानानुत्ताराम ज्ञानानुत्पत्तिव्यतिरेक 666 / 16 गाव्यादि 7577 ज्ञानान्तरवेद्यत्व 18215,16 गाव्यादिशब्द 762 / 3 ज्ञापक 54123 गुण 27332 ज्ञेयस्थ (निग्रह) 31214 गुणपदार्थ 272 / 17 तज्जन्म -6771 गुणपुरुषान्तरदर्शन 8163 | तत्कारणविरुद्धविधि 92 / 15 गुणवान् शब्दः 24316 तत्त्रितय 645 / 2 गुणशब्द 805 / 10 | तत्त्वज्ञानसंरक्षण 318/15 गुरुत्व 274 / 17;27803 तत्त्वसृष्टि 352 / 635538 गो-गावी-गौणी-गोपोतलिकेत्यादयः 7675 तत्त्वसृष्टिप्रक्रिया 358117 गोशब्दलिपिबुद्धि 716 / 17 | तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्व 338 / 22 गौण 399 / 13 | तत्पुरुषबहुव्रीहिद्वन्द्वसमास 359 / 16 क्रम Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकनामसूचिः 611 4072 तर्क तत्समुदायो नियोगः 58417 | नटभटचरुटचर्मकारादि 767 / 14 तथागतादि 587413 नररचितरचनावशिष्ट 737 / 11 तथोपपत्ति 423 / 13 नानासमवाय 302 / 13 तदतद्रूपहेतुज 126 / 18 नामरूप 3907 तदध्यवसाय 645 / 1 / निक्षेपमाला 88011 तदाकारार्पणक्षम 165 / 18 निग्रहबुद्धि 3171123384 तदित्युल्लेखित्व नित्यशब्द 70114 तदुत्पत्ति 644 / 11 नित्यसम्बन्ध 54714549 / 11 तद्धितोत्पत्ति 364115 निमित्तकारणक्रियानुविधान 459 / 1 तद्वयवसिति 6771 | निमित्तान्तर 804 / 16 तद्वथापकविरुद्ध 92 / 10 नियोग 574 / 1,582 / 17 तद्विरुद्धकार्यविधि 92 / 19 निराकाङक्षत्व 7385 तद्विरोध्यन्तरानुमान 462 / 4 निरास्रवचित्तसन्तत्यपत्तिलक्षणा 844 / 16 तपस् 84718 निरूपण 395 / 5,7 तमस् 627 / 3;669 / 5, 672 / 6 निर्विकल्पक 45 / 23;46 / 1 | निर्विकल्पेतराकारकविकल्पवत 414 / 17 तात्पर्यशक्ति 508 / 3 निवारणबुद्धि 317 / 13 तादात्म्य 359419,4467 निश्चय-आरोपमनसोः 205 / 21 तादात्म्यतदुत्पत्ति 444 / 10 निश्चितत्वस्यापि रूपान्तरस्य 441114 तादात्विकनिमित्तत्व 1000 / 10 नैपुण्याधुपालम्भ 148 / 13 तादात्विकसुखसाधन . 842 / 2 | नैयायिकानुमान 460 / 20 ताप्य 677 / 1 नैरात्म्यदर्शन 84558 ताप-शोष-उपष्टम्भ-उद्वेगादि 350 / 22 नैरात्म्याभ्यासादिलक्षण 839 / 10,84012 तिरस्कृततदुपाधिप्रवर्तनमात्र 574.2 पक्ष 43549 तृतीयस्थानसंक्रान्ति. 685 / 12 | पक्षधर्मत्वसहिता 518 / 13 तृष्णा 39111 पक्षधर्मत्वादिलक्षणत्रयान्वितत्व 438/12 त्रिगुणत्व . 353 / 26 पक्षप्रतिपक्ष 3165 त्रित्वादिसंख्याज्ञान . 504 / 17 पञ्चरूपत्व त्रैरूप्यमात्र. 44012 पटाद्यवयविन् 2262 त्र्यंशपरिपूर्ण 57815 79715 त्वगस्थिपिशितशोणितादिपरिणाम विशेष 343 / 14 पदादिस्फोट 754111 दाक्षिण्य 5477 पर 283 / 20 दिक 257 / 19 परतन्त्र 353 / 22 दिगद्रव्य 257/24 परत्व 274 / 16 दुःश्रवणत्व 73014 परत्वापरत्व 277 / 20 दुर्भणत्व 73014 | परमाणुरूप 215 / 11 दूरतिमिर 54018 परमात्मस्वभावो नियोगः 584 / 10 देशक्रम 151 / 21, 22 | पररागादिवेदन 168 / 10 देशद्रव्य 25949 परलोकाभाव 343316 देशादिविप्रकृष्टार्थसम्बन्ध्यभाव 47118 परस्परपरिहारस्थिति देशाद्यविप्रकृष्टार्थसम्बन्ध्यभाव 47116 परस्परविरुद्धभावनानियोगादिव्याख्यान 735 / 4 द्रवत्व 274 / 18, 278 / 15 परस्परासंसृष्टकपालोत्पाद 48019 द्रव्यत: पुरुषवेद 87014; 878 / 13 परापर 25116 द्रव्यशब्द 8058 परापरयोगपद्यायौगपद्यचिरक्षिप्रप्रत्यय 25115 धर्म 331 परापरव्यतिरेक 252 / 18 धर्माधर्म 279 / 7 परापेक्षास्वरूप 305 / 12 धर्माधर्मद्रव्य 34014 - परिमाण 274 / 1 धारावाहिकप्रत्यक्ष 405 / 17 पर्युदासरूपोऽपोहः 556 / 13 71015 | पाटनपूरणप्रसङ्ग 536 / 10 नअर्थसंवित्तिफल 466 / 14 | पादस्फोट 756 / 13 44211 पद 37015 ध्वनि Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 612 न्यायकुमुदचन्द्रे 2611 पृथक्त्व प्रेरणा पारतन्त्र्यलक्षण 305 / 12 , प्रवर्तना 589 / 9 पंवेदं वेदन्ता 878 / 2 प्रवर्तनामात्र 588 / 11 पुवेदोदय 87816 | प्रवृत्त-निवृत्ताधिकारत्वधर्म 81710 पुरुष एव नियोगः 584122 प्रवृत्ताधिकारत्व 817 / 12 पुरुषेभ्यो हीनत्वात् 8767 प्रवृत्तिनिवृत्तिसद्भाव पूर्ववर्णध्वंसविशिष्टान्यवर्ण 7502 प्रयत्नादिसामग्री 472 / 2 पूर्ववर्णविज्ञानाभावविशिष्ट 75016 प्रसङ्गविपर्यय 177116 274 / 12 प्रसङ्गसाधन 224 / 11 पृथग्गतिमत्व 298 / 4 प्रसज्यरूप *556 / 14 प्रकाशगत 197122 प्रसाद-लाघव-उद्धर्ष-प्रीत्यादि 350 / 22 प्रकृष्यमाणत्व 236 // 15, 811315, 812 / 1; | प्रसिद्धार्थख्याति 61112 858 / 17 प्राकटय 1974 प्रतिकर्मव्यवस्था 166 / 11 प्राकृत 764 / 6 प्रतिज्ञाप्रयोग 436 / 9 प्राकृतशब्दवत् 763 / 21 प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वप्रसङ्ग 49118 प्रागभाव 467 / 10 प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्गय .709 / 2 प्रागभावाद्यवान्तरभेद 482 / 6 प्रतिनियतावरणावार्य 709 / 2 प्राङ्मुख 452 / 2 प्रतिपक्षभावनानिवर्त्यत्व 853 / 13 प्राणादिप्राण 85111 प्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्राप्तिप्रतीति 78015 प्राप्यकारि 75 / 12 प्रतिबन्ध 163 / 26 प्रामाण्य 195 / 13 प्रतिबिम्ब 45112,45413,9 प्राशस्त्याभिधान 578 / 1 प्रतिभा 574 / 5:595 / 14 58315 प्रतियोगिग्रहणसव्यपेक्ष 424115 प्रेरणासहितं कार्यम् 58317 प्रतियोगिता 4767 प्रेषणाध्यषणाभ्यनुज्ञालक्षण 588 / 3 प्रतीत्यसमुत्पाद 39011 प्रैषादि 574 / 1,588 / 10 प्रत्यक्षपूर्विका अर्थापत्ति 506 / 4, 514 / 10 फल 574 / 25899 प्रत्यक्षानुपलम्भ 426 / 1 फलकाङ्कादि 4606 प्रत्यक्षाभ 524 / 24 फलाभिलाष * 574 / 3,591 / 14 प्रत्यभिज्ञा 8128 बहिर्व्याप्ति 4402 प्रत्ययात्मक 63409 बह्वादिभिः द्वादशप्रभेदैः '174 / 14 प्रत्यवमर्शिनी 14012 बाधितविषयत्व 44215 प्रत्यवस्थापन 323 / 1 बाह्याभ्यन्तरनर्ग्रन्थ्यप्रतिपन्थिन् 873 / 15 प्रत्यासत्ति 306 / 24 बिम्बरूप 451113 प्रत्यासन्नतिमिर 5408 बीजप्ररोहणसंरक्षण 319 / 2 प्रदीपादिस्फोट 756/2 बुद्धिमत्कर्तृपूर्वक .97116 प्रधान 3508 बुद्धिर्वाक्यम् 74116 प्रधान-ईश्वरादिकारकनिरपेक्ष 39014 बुद्धयध्यवसित 19016 प्रधानपरिणाम 189 / 13 बुद्धयादिविशेषगुणोच्छेदरूपत्व . 823119 प्रध्वंसाभावलक्षण 467 / 10 बुद्धधारूढ 586.19 प्रबोध 618 / 12 बुभुक्षा 86016 प्रमत्तादि 859 / 10 ब्राह्मण्यजाति 767 / 18; 77101 प्रमाण 48.10 भक्ति 574 / 5, 59713 प्रमाणत्रयसम्पाद्य 545 / 4 / भव 39111 प्रमाणफलव्यवस्था 19516 भवितव्यताप्रत्ययरूपता 116 / 12 प्रमातदोष भांवतः वेदत्रयान्यतमवेदाधिरूढ 878 / 17 प्रमोष 59/9 भावना 574 / 1 प्रयत्न 574 / 5 -भावनाख्यसंस्कार 2755 प्रयाजादिब्यापार 5787 भावनाद्यर्थभेद 548 / 2 प्रयोजकसन्देहव्युदासार्थ 429 / 3 / भावनारूप 279 / 3 प्रयोजन 337 / 2 / भाविमरणादि 618 / 12 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकनामसूचिः मुक्ति 55014 852 / 1 | रूपधातु 39219 भूतकोटि 131111 रूपसंश्लेषस्वभाव 305 / 12 भूयोदर्शनावगता यव्यतिरेकसहकृतेन्द्रिय रूपालोकाद्यनेककारणकलाप 384114 प्रभवंवा प्रत्यक्षम् 4288 लक्षणा 568 / 1 भेद 365 / 183808 लक्षितलक्षणा 5685 भेदव्यवहार 15415 लक्ष्यनिर्देश 437 / 10 भेदाग्रह लक्ष्यवेधप्रवीणलक्षण 43717 भोग्यरूपो नियोगः 584116 353 / 20,42746 मध्यक्षणस्वभाव 130 / 22 लिडलोट्तव्यप्रत्ययान्त 574 / 14 मध्यमाप्रतिपत् 131010 | वक्तृत्वादि 9331 मध्यमाप्रतिपत्ति 13148 वध्यघातानुमान 46217 मध्यादिज्ञानपरिग्रह 504 / 16 वस्त्वंश 364124 मनस 352 / 3 वस्त्वसंकरसिद्धि 467 / 10 मनःप्रत्यक्ष 47113 वाक्य 7975 मनोगतदोष 197022 वागरूपता 14012 मनोदोष 19619 वाच्यवाचकभाव 295/3 मनोद्रव्य 268 / 18 वाच्यसंवित्त्यपेक्षण 498 / 17 मनोवृत्ति 4016 वास्यवासकभावासंभव 18 / 3 महान् विकल्पमात्राधीनजन्म 537115 महासत्त्वसाध्यमुक्तिहेतुरत्नत्रयसमग्रता 876 / 23 | विकल्पानुविद्ध 525 / 12 मातृकास्फोट 756 / 14 विकारित्व 10116 मातृपितृज 352 / 11 / विचार 39524 मात्रामात्रिक-कार्य-विरोधि-सहचारि-स्वस्वामि- विजातीयव्यावृत्ति 289/5 वध्यघातकादि-सप्तविधानुमान 462 / 1 विज्ञान 39016 मात्रामात्रिकानुमान 462 / 2 विज्ञानाभिन्नहेतुज 1269 माध्यमिक 12748; 206 / 16 वितर्क मार्ग 39117 विधि 573 / 20, 595 / 14 मीमांसकाभिमतार्थापत्ति 505 / 2 641223 मीमांसकाभ्युपगतमुपमानम् 4963 विधूतकल्पनाजालता 168 / 15 मीमांसकोपवणितोपमान 497116 विपक्षबाधकप्रमाण मुख्य 399 / 13 विपरीतख्याति 64117 मुख्यकाल 253125 विपर्ययानध्यवसाययोः 336 / 24 मख्यत्व 399 / 12 विभाग 274 / 14, 277 / 14 मेयरूपता 166 / 15 विभिन्नकर्तृकत्व 22329 मोक्ष 823317 विभिन्नपरिमाणत्व 223 / 12 यतिगृहिदेववन्द्यपदानह 875 / 17 विभिन्नशक्तिकत्व 223 / 11 यन्त्रारूढनियोगाभिधान 585 / 14 विरुद्धधर्माध्यास 22317 यन्त्रारूढो नियोगः 584113 विरुद्धविधि 92 / 4 याजनाध्यापनप्रतिग्रहग्रहादि 773 / 16 विरुद्धाव्यभिचारिन 69 / 5 युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिलिङ्ग 269 / 6 | विरोध 36018369 / 3; 37013 युगपनिखिलद्रव्यावगाहकार्य 2501 विरोधगति 8564 योगिप्रत्यक्ष 47:14,432 / 16 विवक्षा 531110,535 / 15,780123 योग्यता 31120 विवेकख्याति 81631, 821020 योग्यतालक्षणसम्बन्ध 121224;5387 विवेकाख्याति 52013 योगपद्य 220111 | विवेकानुपलम्भ 81711 रक्तारक्तत्वलक्षणविरुद्धधर्माध्यास 228.18 विशिष्टदण्ड्यादिप्रत्यय 431312 62743 विशिष्टदण्डयादिप्रत्ययवत् 42958 रज्जयन्थ्यादि 36317 / विशिष्टा संस्कृतिः 71117 राजा 499 / 13 | विशेषणभाव 304 / 1 रिरंसा ... 8609 विशषणविशेष्यभाव 30115 विधि Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 न्यायकुमुदचन्द्रे - 19664 विशेषपदार्थ 292 / 1 ] श्रुतज्ञान . . 529 / 22 / विशेषविरुद्धानुमान 296 / 12 | श्रुतमयी 8395 विषमगतयः 867 / 4 श्रुतार्थापत्ति 507712,515 / 15 , विषय 353328 श्रेयःसाधनता 593 / 11. विषयगतदोष 197 / 21 श्रेयःसाधनत्वाख्यधर्म 574 / 4 विषयदोष 196 / 20 श्रेयःसाधनत्वाख्यधर्मावगम 5936 विषयविषयिभाव 29514 श्रोत्र 248 / 26 विषयाकारविवेक 48411 श्रोत्रसंस्कार 71117 विषयान्ध 393325 श्रोत्रस्याप्राप्यकारित्वम् 85 / 16 विषयालोचनसङ्कल्पनाभिमननाद्यनेकस्वभाववत्त्व षट् ( पदार्थ ) 214 / 1 8212 षट्प्रकार ( सन्निकर्ष ) 28/20 विषाददैन्यवीभत्सगौरव-आवरणादि 35121 षडंशापत्ति 233313 वीतराग 318 / 15 संख्या 273 / 12 वृद्धव्यवहार 75738 संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्ति 50002 वेग गुण 275/3,279 / 2 संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिफल 49610 वेदना 39017 | संयुक्तविशेषणभाव 463317 वेदाध्ययन .722017 | संयुक्तसंयोगाल्पीयस्त्वलक्षण 776 / 17 वैराग्य 846 / 23 | संयोग 274 / 14, 277 / 12 व्यक्त 353310 संयोगिद्रव्य .80538. व्यतिकर 360 / 14 | संयोगिसमवायिलिङ्ग - 461114 व्यतिरेक 25116 संवादकज्ञान व्यधिकरणासिद्ध 49110 | संशय 337723607,368020 व्यवहार 63338 संशयव्युदास 33742 व्यवहारकाल 253 / 25 | संशयादिदोषोपनिपात 36006 व्याकरणप्रामाण्य 760 / 17 संस्कार 39016 व्यापक 42315 | सकलशून्यता 13118398 / 16 व्यापकानुपलम्भ 91121 260112 व्याप्य 42335 सङ्कलन 4945 व्यामोह 21110 सङ्कत 54742 व्युत्पत्तिनिमित्त 262 | सघात 7401 शक्ति 350 / 14,5068 सदयवहारानुदय 479 / 10,4801 शक्तिसंकरपक्ष ... 847111 सन्तानशब्द 6 / 15,803 / 21 शक्यप्राप्ति 33742 सन्तानोच्छेद 61666 शक्यविवेचन 126 / 1,2 | सपक्षविपक्षव्यवस्था 43805 शब्द 573123 समवायपदार्थ 294116 शब्दनित्यत्व 69851 समवायिद्रव्य 8058 शब्दप्रधान 793317 391116 शब्दभावना 579 / 2 समुद्रांश 364 / 25 शब्दसंस्कार 7117,13 | समुद्रैकदेश 364123 शब्दस्वभावब्रह्मसद्भाव 139 / 19 : सम्पूर्णचेतनालाभ 202 / 18 शब्दाकारानुस्यूत 141018 सम्बन्ध 305 / 10 शब्दात्मक 634110 सम्बन्धसम्बन्ध 432 / 9,10 शब्दानुविद्ध 14018 सर्वग्रहणप्रसङ्ग 230 / 13 शब्दार्थसम्बन्ध 550118 | सर्वधर्मनिरात्मता 13148,10 शरीरपरिमाणत्व 26116 | सर्वात्मविज्ञानाहित 728 / 15 शास्त्रेऽनियतकथायां वा 43818 | सर्वात्मभाषात्मक 214 शुद्धपरिणामसङक्रम 82115 | सर्वज्ञाविनाभत 86 / 22 शुद्धकार्य (नियोग) 58363 | सर्वात्मसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्य 93 / 15; 442110 श्रावणत्व 44011 सविकल्पक 45 / 23,4631 529 / 21,53016 | सत्यदक्षिणविपर्यास 457111 समुदय . श्रुत 7 Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंन्धसङ्केतविवरणम् 615 सहकारिशक्ति 1591 | स्नेह 2752 सहचरानुमान ... 46215 स्नेहगुण 278.19 सहानवस्थालक्षण 37015 स्पर्श 3907 सहोपलम्भनियम 118 / 1612331 स्फोट 745 / 11, 754 / 13 साकल्य 301 स्मृति 405 / 10 साक्षित्वादि . 813 / 4 स्मृतिप्रमोष 5416, 12 सादृश्यविशिष्टस्य गोपिण्डस्य 4909 / स्मृत्याभास 41016 सादृश्यव्यवहार 493 / 17 स्याच्छब्द / 328 साधकतम .29 / 10 स्यात्कार' 694 / 11 साधनवाक्य 738 / 1 स्वकारणसत्तासमवाय 10115, 220112 सानतन्त्र 55019 | स्वपरिणामादल्पपरिमाणकारणारब्धत्वनियम सामग्री 3338 215 / 17 सामानाधिकरण्य 564 / 3 स्वदर्शनात् स्वामिनोऽनुमानम् 462 / 6 सामान्य . 283317 स्वभावहेतुद्वय 4459 सामान्यमाने सङ्केतः . 56718 स्वभ्यस्ते विषये 201117 सामान्य विशेष 36948 स्वरूपप्रयुक्तस्याव्यभिचारस्य / 422 / 9 सारूप्य 169 / 1,205 / 10,644021 स्वरूपशक्ति 15911 सावयव 353322 स्वसंवेदन 47110 सावयवत्व 10215 स्वात्मनि क्रियाविरोधात् 18211418717 सास्रवचित्तसंतान 839 / 9 499 / 13 सास्रवचित्तसंतानलक्षणसंसारनिवृत्तिरूपमोक्ष 839 / 6 / हस्तसंज्ञादि 54226 सुनिश्चितासंभवाधकप्रमाण 898 हस्तस्फोट 756 / 12 सुषुप्ताद्यवस्था 847117,84816,17 हिंसा 593313 सोमराजा 72614 हीनगर्भस्थानशरीरविषयादि 809 / 12 स्त्रीनिर्वाण - 865 / 13,87011 / हीनसत्त्व 86958 स्थासकोशकुशूलादि 792 / 19 / हीनस्थानपरिग्रहवत्त्व 810120 स्थितिस्थापक 2757; 279 / 4 / हेतुमत् 353310 स्निग्धरूक्षत्वलक्षणप्रकारान्तर 233 / 11 | हंस 112. मूल-टिप्पण्युपयुक्ग्रन्थसङ्केतविवरणम् / प्रकलङ्कम०परि०-अकल ग्रन्थत्रयपरिशिष्टम् सिंघी अनेकान्तजय० / अनेकान्तजयपताका| यशोविजयजैन सीरिज कलकत्ता 789. अनेकान्त०प० ग्रन्थमाला काशी ] 51, 140, अवयवज्रसं०-अद्वयवजसंग्रहः [ गायकबाड सीरिज़ 526, 534,536, 537, ५४०,५४१,५५३बड़ोदा ] 409. 555,559,560,564,620,621,640,838. अद्वयवज्रसं० तत्त्वरत्ना०-अद्वयवजसंग्रहतत्त्वरत्नावली | अन्ययो०-अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशतिका स्याद्वाद.. [गायकबाड सीरिज बड़ोदा 1125. मञ्जर्यन्तर्गता [रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बई ] अनागारषा-अनागारधर्मामृतम् [ माणिकचन्द्र जैन | ग्रन्थ० बम्बई ] 799. | अपोहसि०-अपोहसिद्धिः [ एशियाटिक सोसाइटी अनुयोगद्वा०) अनुयोगद्वारसूत्रम् [आगमोदयसमिति | कलकत्ता ] 554. अनु० सू० / सूरत 242,605,609,622,632, अभि. आलोक०-अमिसमयालोकालङ्कारः [ गायक 636-638,782, 799-801,804-807. बाड सीरिज़ बड़ोदा ] 5, 124, 126, 382, अनेकान्तवाव०) अनेकान्तवाद प्रवेशः [ हेमचन्द्राचार्य 384, 524, 838. अनेकान्तप्र० ग्रन्थावली पाटन] 537, 620. अभि० कोश / अभिधर्मकोशः [ ज्ञानमण्डल प्रेस अनेकान्तवावप्र० टि-अनेकान्तवादप्रवेशटिप्पणम् | अभिष० / काशी] 83, 120,272, 391, [ हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थावली पाटन ] 369. . 392, 395, 602. Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्यावकुमुदचन्द्र 607. अधिषक व्या०-अभिधर्मकोशस्य नालन्दाख्या व्याख्या 119, 124, 133, 152, 182, 187, 188, [ज्ञानमंडल प्रेस काशी] 392, 394, 395. 190,191,237, 295,297, 298, 302, अमरको०-अमरकोशः [ निर्णयसागर प्रेस बम्बई ] 364, 365, 490, 624, 626, 640, 682, 199, 202, 738, 802. 734,735, 776,809-813, 817-819, प्रलं. चि०-अलङ्कारचिन्तामणिः [जनेन्द्र प्रेस 839,842. कोल्हापुर] 1, 596. माप्तमी०-आप्तमीमांसा [जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी प्रवर्यावनिरा०-अवयविनिराकरणम् [ एशियाटिक संस्था कलकत्ता] 15, 16, 22, 23, 124, सोसाइटी कलकत्ता ] 228, 231. 139,155, 209, 236, 305, 357, 366, अर्थसं०-अर्थसंग्रहः [ निर्णयसागर प्रेस बम्बई 1 87, 374, 375, 382,401,522, 600, 605, 573, 577-579. 606, 623, 697,812,843.. अष्टश०-अष्टशती अष्टसहस्यां मद्रिता [निर्णयसागर प्रावश्यकनि०-आवश्यकनियुक्तिः आगमोदय समिति प्रेस बम्बई] 6, 10, 18, 23, 49, 89, सूरत] 82, 115, 173, 609,622, 632, 105, 106, 109, 115, 119, 123, 124, 636, 638,782,799. . 136, 139, 155, 233, 243, 366, 367, प्राव. नि० मलयग०-आवश्यकनियुक्तिमलयगिरि३७१, 374, 381, 388, 427, 438,454, ____टीका [ आगमोदय समिति सूरत ] 605, 606, 462, 480,487,503, 504, 522, 565, 674, 686, 688, 691, 793, 800. 568,601, 602,604, 605, 616, 676, प्राव. नि.हरि०-आवश्यकनियुक्तिहरिभद्रीयटीका 677, 680-682,703, 706, 708,710, [आगमोदय समिति सूरत ] 173. 720, 730, 731, 736, 738, 739,809. आ० वि०-आदर्शपुस्तकान्तर्गता त्रुटिता विवृतिः 637. अष्दसह-अष्टसहस्री [ निर्णयसागर प्रेस बम्बई]| आर्यरत्नावली-माध्यमिकवृत्तौ निर्दिष्टा / 484. 6, 10, 11, 17, 18, 19, 22, 23, 29, आलापपद्धति:-देवसेनकृता नयचक्रसंग्रहान्तर्गता 46, 49, 53, 74, 89, 97, 105, 106, [ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई ] 23, 606, 109, 115,119, 123, 1.4, 126, 127, 129-134,136, 138, 139, 141, 147, इष्टोप० टी०-इष्टोपदेशटीका [ माणिकचन्द्र ग्रन्थ१५१, 155, 216, 225, 230, 233, 236, माला बम्बई ] 674. 243, 303, 305, 307, 357, 366, 367, उत्तरपृ०-उत्तरपुराणम् [जेनसिद्धान्त प्रकाशिनी . 371, 374, 375, 381, 382, 388, 391, ___ संस्था कलकत्ता] 773. 398,400,402, 417, 427, 429, 438, उत्तरा०-उत्तराध्ययनसूत्रम् [आयमोदय समिति 454,462, 480,487,503, 504, 522, सूरत ] 632, 646, 669, 778, 791, 534, 540,551, 554,565, 568,577, 830. 579, 582, 583, 584, 585-587,601- उत्तराध्यय० पाइयटोका-उत्तराध्ययनसूत्रस्य शान्त्या६०५, 616, 620, 623, 628, 640, 676, चार्यविरचिता टीका [आगमोदय समिति सूरत ] 677, 680-682, 685, 703,706,708- 865. 710,720, 723, 726, 730, 731, 736, | उपायहृदय-उपायहृदयम् [गायकबाड सीरिज़ बड़ौदा 738-743, 780,791,809,811, 814, 312, 321-326, 329. 827,833,845. ऋग्० पुरुष०-ऋग्वेदस्य पुरुषसूक्तम् [ आनन्दाश्रम अष्टसह यशो०) अष्टसहस्रीविवरणं यशोविजय- सीरिज पूना ] 770. अष्टसह विव० कृतम् [ जैनग्रन्थप्रकाशक सभा | प्रोघनि० टी०-ओघनियुक्तिटीका [आयमोदय राजनगर] 583, 584, 687. समिति सूरत ] 876. मात्मत. आत्मतत्त्वविवेकः[जीवानन्द विद्या- | कठोप०-कठोपनिषत [ निर्णयसागर प्रेस बम्बई] 147. प्रात्मतत्त्ववि० सागर कलकत्ता] 443, 847. कर्मग्र०-कर्मग्रन्थाः आत्मानन्दसभा भावनगर 801. मात्मानु०-यात्मानुशासनम् प्रथमगुच्छकान्तर्गतम् | कर्मग्र०टी०-कर्मग्रन्थटीका [ आत्मानन्दसभा भाव [प्र. पन्नालाल जैन भदैनी काशी] 393. नगर] 674. . आदिपु०-आदिपुराणम् जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कल्पसू०-कल्पसूत्रम् | जैन साहित्यसंशोधक ग्रन्थमाला कलकत्ता] 778. अहमदाबाद ] 868. आध्यात्मिक०-आध्यात्मिकमतपरीक्षा यशोविजय-कशर०-कशरोपनिषत निर्णयसागर प्रेस बम्बई]१४९. ग्रन्थमालान्तर्गता [जैनधर्मप्रसारक सभा भाव- कात्यायनचातिक-कात्यायनप्रणीतं वार्तिकम् 6. नगर] 852,853. कादम्बरी-[ निर्णयसागर प्रेस बम्बई ] 113. प्राप्तप०-प्राप्तपरीक्षा | जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था काललोक-काललोकप्रकाशः [देवचन्द्र लालभाई कलकत्ता] 4, 5, 19, 89, 94, 97, 109, / फंड सूरत ] 855. Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थसङ्केतविवरणम واف काव्याम्बई ] २,५६७.सनम् [निर्णय काव्यमी०-काव्यमीमांसा [गायकवाड सीरिज बड़ौदा | छक्खंडा-छक्खंडागमः [जैनसाहित्योद्धारक फंड 738. अमरावती ] 800,801,856. काव्यप्र०-काव्यप्रकाशः [ बम्बई युनि० सीरिज़ ] | छन्दोमं०-छन्दोमञ्जरी [ जीवानन्द विद्यासागर 567,568,600. | कलकत्ता ] 278. . काव्यप्र०टी०-काव्यप्रकाशटीका [बम्बई यनि० | छान्दोग्यो०-छान्दोग्योपनिषत् [निर्णयसागर प्रेस .. सीरिज़ ] 693. बम्बई ] 147, 825, 830, 837. काव्यानुशा०-काव्यानुशासनम् [निर्णयसागर प्रेस छान्दो० शा० भा०-छान्दोग्योपनिषत्-शाङ्करभाष्यम् [गीता प्रेस गोरखपुर] 825. काव्या० रुद्र० नमि०-रुद्रटकृतकाव्यालङ्कारस्य नमि | जयध०-जयधवलाटीका, धवलाटीकायाः प्रस्तावना साधुविरचिता टीका [निर्णयसागर प्रेस बम्बई] टिप्पणयोः समुद्धृता 607, 622, 638. 764. जयमं०-सांख्यकारिकायाः जयमङ्गलाटीका [कलकत्ता] काशिका-मीमांसाश्लोकवार्तिकस्य सुचरितमिश्रवि- | 627, 628, 813, 814. रचिता कोशिका टीका [ त्रिवेन्द्रम ] 698, | जाबाल०-जाबालोपनिषत् [निर्णयसागर बम्बई ] 699, 760. . 634. कूर्मपु०-कूर्मपुराणम् 634. जैनतर्कभा० ) जैनतर्कभाषा [ सिंघी जैन सीरिज केवलिभु०-केवलिभुक्तिप्रकरणम् [ जैनसाहित्य संशो- जैनतर्कपरि० कलकत्ता] 23, 74, 116, 158, धकपत्रे मुद्रितम् ] 852-855, 858. | जैतर्कप० ) 407, 410, 411, 418, 422, को ब्रा०-कौशीतकिब्राह्मणम् 148. 435, 440, 445, 459, 490,492. 500, क्षणभङ्गाध्यायः-ज्ञानश्रीकृतः भिक्षुराहुलसांकृत्यायन- | 610, 621, 622, 632, 636, 638,650, - सत्क: 552. 686, 687, 793, 799, 800, 854. क्षण सि०-क्षणभङ्गसिद्धिः [एशियाटिक सो० | जैनतर्कवा०-जैनतर्कवातिकम् | लाजरस कं० काशी] कलकत्ता] 9,445, 476. . 20, 23-25, 74, 126, 464, 489, खंडनखंड०-खण्डनखण्डखाद्यम् [लाजरस कं० काशी] | 513, 543. 237, 412. जैनतर्कवा००-जैनतर्कवात्तिकवत्तिः [ लाजरस के० गच्छा० ३०-गच्छाचारप्रकीर्णक __ काशी] 369, 407, 408, 440, 472. समिति सूरत ] 876. जैनेन्द्रव्या०-जैनेन्द्रव्याकरणम् [जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी गुरुतत्ववि०-गरुतत्त्वविनिश्चयः [ आत्मानन्द सभा संस्था कलकत्ता 449,604,617,641,766. भावनगर] 605, 686-688, 691. जैनेन्द्रप्र०-जैनेन्द्रप्रक्रिया पं० बंशीधरकृता सोलापुर गुह्यसत्र-गुह्यसूत्रम्,बोधिचर्यावतारपञ्जिकायामुद्धतम् 641. 840 मिनि-जैमिनिसूत्रम् 523, 545, 551, 566, गो० कर्मका०-गोम्मटसारकर्मकाण्डम् [ रायचन्द्र 701, 722, 735, 777. शास्त्रमाला बम्बई ] 859,862,871. जैमिनिन्यायमाला-[ चौखम्बासीरिज़ काशी] 576, गो० जीव०-गोम्मटसारजीवकाण्डम् [रायचन्द्रशास्त्र- 578. 579, 582, 757. माला बम्बई] 801, 856, 859, 874, ज्ञानवि०-ज्ञानबिन्दुः यशोविजयग्रन्थमालान्तर्गत: 877. | [जैनधर्मप्रसारकसभा भावनगर] 838. गौडपावभा०-सांख्यकारिकागौडपादभाष्यम [चौखम्बा | ज्ञानसि०-ज्ञानसिद्धिः वालिद्वीपग्रन्थान्तर्गता [ गायक' सीरिज काशी 189,190,813,814. बाड सीरिज़ बड़ौदा ] 547.. चतु० श०-चतुःशतकम् [विश्वभारती ग्रन्थमाला | ठाणांगवि०-ठाणांगवित्ती आगमोदय समिति सूरत] शान्तिनिकेतन] 16,81,82,86,819,839. | 863. . चतुशतकवृ०-चतुःशतकवृत्तिः [ विश्वभारती ग्रन्थ- | तत्त्वचि०-तत्त्वचिन्तामणिः [ एशियाटिक सोसाइटी माला शान्तिनिकेतन ] 79. कलकत्ता] 716. चन्द्रप्रभच०-चन्द्रप्रभचरितम् [निर्णयसागर प्रेस | तत्त्वचि० अनु०-तत्त्वचिन्तामणि-अनुमानग्रन्थः / बम्बई ] 186. | [एशियाटिक सोसाइटी कलकत्ता] 428, 539. चरकसं०-चरकसंहिता [ निर्णयसागर प्रेस बम्बई]| तत्वचि० अव०-तत्त्वचिन्तामणि-अवयवग्रन्थः [एशि 25, 309, 310, 312-314, 316, 318- याटिक सोसाइटी कलकत्ता] 2. ___ 321 325-327, 330-333, 337, 503. | तत्त्वचि० व्या०-तत्त्वचिन्तामणिव्याप्तिग्रन्थः 419. चित्सुखी-तत्वप्रदीपिका चित्सुखी [ निर्णयसागर प्रेस | तत्त्वचि० शब्द०-तत्त्वचिन्तामणि-शब्दग्रन्थः 713. बम्बई ] 63, 237, 285, 292, 415, 720, 26, 736, 758, 761. 420, 429, 466, 537, 570, 668, 669, | तत्त्वषि-तत्त्वबिन्दुः [अन्नमलय यूनि० सीरिज़ ] 824,825, 827, 831, 832. Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 618 न्यायकुसुदचन्द्रे तत्त्वमी०-तत्त्वमीमांसा सांख्यसंग्रहान्तर्गता [चौखम्बा | तत्वार्थराजवा०)-तत्त्वार्थराजवार्तिकम् [जैनसिद्धा__ सीरिज़ काशी] 816. राजवा० / न्तप्रकाशिनी संस्था कलकत्ता] तत्वयाथा०-तत्त्वयाथार्थ्यदीपनम् सांख्यसंग्रहान्तर्गतम् 4, 14, 21-23, 25-27, 46, 51, 78, . [चौखम्बा सीरिज काशी 110. 81-83, 86, 110, 115, 116, 158, तस्वसं०-तत्त्वसंग्रहः [ गायकवाड सीरिज बड़ौदा ] 165, 173, 236, 247,255, 258,303, 7-10, 20, 23, 25, 46, 48, 68-70, 341,350, 368, 369, 391,395,457, 73, 86, 87-90, 94, 97, 98, 107- 606, 607, 610, 622, 632, 636, 638, 109, 112, 113, 117,118,122, 125, 647, 672, 686, 753,787,791,793, 142, 146, 147, 103,155,166, 168, 799,800, 806, 807, 810,812,829, 193-196, 198,201-203, 205, 208, 858, 859,862, 8 3,867,868,872, 223-228, 231, 242, 251, 254, 258, 878. 275-277, 279-281, 283, 284, 287- | तत्त्वार्थ० श्लो०) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् [ निर्णय. 289, 292-294, 300, 301, 342, 343, तत्त्वा० श्लो०) सागर प्रेस बम्बई ] 4-6, 11, 346, 350, 354, 358,360, 369, 373, 14, 17-20, 22, 23, 25, 27,29,40, 374, 376-378,380, 398,407,434, 47, 48, 50, 51, 66, 67, 74, 78-83, 436,439,442, 444,445, 452,453, 86, 87, 97, 104, 106, 109, 115, 464, 466-468, 480, 489,490,492, 116, 124, 127, 130, 132, 133, 493, 499, 504,505,508,515,516, 137-140, 142, 147, 155, 158, , 531,536, 543, 544, 549, 552,554, 171-173, 176, 177, 185-187,189, 557,563, 601, 623, 626, 629,636, 190.198, 201, 205, 209, 210, 216, 675, 679, 680, 698,700,702,703, 239, 242, 246, 247, 250, 254, 302, 709,711, 712-717, 723, 729, 730, 303, 305-308,329, 338-341,343734-736, 749, 750,751,756,.770, 345, 349, 364, 371, 374, 375, 384, 773, 774,811,819,839, 848. 395, 398, 404,408, 410,418,431, तत्त्वसं पं०-तत्त्वसंग्रहपञ्जिका [ गायकबाड सीरिज़ 432, 434, 435, 439, 440, 441, 443, बड़ौदा] 6, 7, 23, 26, 46, 82, 83, 448,450, 468, 499, 502, 504,505, .86-92, 94, 96, 98, 104, 107, 113, 513, 522, 524,525,559, 560,568, 122, 123, 131, 140-143, 145,146, 570, 577, 579,582-587,593, 603, 150, 153, 189, 201-203, 217, 226, 606, 610,621, 622, 630, 632, 636, 229, 236,276, 284, 288, 341, 342, 638, 640, 661, 664, 674, 682, 685, 344, 346, 347, 355-357, 364,377, 686, 692,703,712,713,720,726, 378, 382, 383, 390, 392,410, 413, 735, 736, 739, 740,752,754,756, 444,451-453, 464,466-468, 475, 762, 765,783,790, 793,799,800, 495,502,505,543-545, 547,551- 804-807, 811,812, 842,845, 858, 557, 596, 633, 636, 658,700, 709, 862, 863, 878. 711,713-715,730, 749,750,839, | तत्त्वार्थसार:-प्रथमगुच्छकान्तर्गतः [ प्र० पन्नालालजी 840,848. __चौधरी भदैनी काशी] 23, 25, 32, 158, तत्वानु०-तत्त्वानुशासनम् [ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला 165, 606, 610, 622, 632, 636, बम्बई ] 801. 63/. तत्वार्थभा०-तत्वार्थाधिगमभाष्यम् [आहे त्प्रभाकर- | तत्त्वा० सू०-तत्त्वार्थसूत्रम्- सर्वार्थसिद्धिसम्मतसूत्रपा कार्यालय पूना] 3, 23, 115, 116, 165, ठान्वितम् / 3, 20, 24, 155, 158, 173, 172, 250, 254, 504, 606, 609, 610, 216, 250, 254, 340, 403, 405,605, 622, 632, 636-638, 647, 783, 799, 632, 646, 651,669,782, 787, 791, 800,863, 868. ... 799, 800, 801, 806, 812, 830, 841, तत्त्वार्थभा० टी० ) तत्त्वार्थभाष्यस्य सिद्धसेनीय- | 846, 862, 863, 865, 868. तत्त्वार्थभा० व्या व्याख्या [देवचन्द्रलालभाई | तत्त्वार्थहरि०-तत्वार्थाधिगमभाष्यहरिभद्रीया वृत्तिः तत्त्वार्थसिद्ध० ) फंड सरत ] 83,254-256, [ आत्मानन्दसभा भावनगर ] 606, 607, 369,407,411,418,457, 606, 607, 610, 622, 632, 636-638, 812. 610,622, 632, 636-638, 670-672, तत्त्वार्थाधि० सू०-तत्त्वार्थाधिगममूत्रम्, भाष्यसम्मत६८७,६९४,६९५,७५४,८०६,८१२,८२९,८६८./ सूत्रपाठान्वितम् / 173, 254, 782. Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थसङ्केतविवरणम् 616 तत्त्वोप०-तत्त्वोपप्लवसिंहः [गायकवाड़ सीरिज़ | धर्मसारप्रकरणम्-स्याद्वादरत्नाकरे उद्धृतम् / 455. बड़ौदा] 8,40, 58, 69, 126, 219, 300, धर्मसं०-धर्मसंग्रहणी [ आगमोदय समिति सूरत ] 341, 360, 369, 372, 377, 420, 525, 254, 640, 824. 628, 696, 698, 725, 726,728, 762, धर्मसं०-धर्मसंग्रहः [ ऑक्सफोर्ड युनि० सीरिज] 764. 602, 846, 856. तन्त्रवा०-तन्त्रवार्तिकम् | आनन्दाश्रम सीरिज पूना] धर्मसं० ३०-धर्मसंग्रहणीवत्तिः [ आगमोदय समिति 407,566-568,576, 577,579, 580, सूरत ] 553. 757,758, 760,761,767-769. धवला टी० धवलाटीका जैन साहित्योद्धारकफंड तन्त्रवा० न्यायसुकतन्त्रवार्तिकस्य न्यायसुधाव्याख्या छक्खंड० टी० अमरावती] 599, 606, 607, न्यायसु० [चौखम्बा सीरिज काशी] 622, 632, 633, 636, 638, 656, 657, 574, 577, 579, 582, 588, 592,768, 735, 7:9,800,802, 803, 806,807, 769. 856,874, 877. तन्त्ररह-तन्त्ररहस्यम् [गायकबाडसीरिज बड़ौदा] धवला० टी० वेदनाखं०-धवलाटीकायाः वेदनाखंड: 406, 408, 479, 489, 506, 577, 579, मुद्रितधवलाटीकायाः प्रस्तावनायामुल्लिखित: 582, 583, 593,666,667, 698 699, 722. ध्वन्या० टी०-ध्वन्यालोकस्य लोचनटीका [ निर्गयतर्कभा०-तर्कभाषा केशवमिश्रकृता 21, 24, 25. सागर प्रेस बम्बई ] 749. तर्कभा० मो०-तर्कभाषा मोक्षाकरगुप्तकृता [मुनि- नन्दि० मलय०-नन्दिसूत्रमलयगिरिटीका [आगमोदय पुण्यविजयसत्का लिखिता 412, 423, 443, / समिति सूरत 466, 548,674,865-867. 551, 601. नयचक्र / नयचक्रसंग्रहः [ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला तर्कसं० अनु०-तर्कसंग्रहः अनुमानखण्डम् 826. नयचक्रसं० बम्बई ] 23, 606, 610, 622, तर्कसं०.दी०-तर्कसंग्रहदीपिका टीका 21.496. 632, 636, 638, 686. तर्कशा०-तर्कशास्त्रम् प्रीदिङनागबद्धिष्टलॉजिकान्त- नयचक्रव०-नयचक्रवृत्तिः लिखिता [ श्वे० मन्दिर - र्गतम् गायकबाड सीरिज़ बड़ौदा 323-335. रामघाट काशी ] 369, 371, 454, 462, ता०प०-तात्पर्यटीकायाः परिशुद्धिटीका [ एशिया- 537, 553, 606, 607. 628, 636, 638, टिक सोसाइटी कलकत्ता ] 419,428.. 739,800. तैत्ति०-तैत्तिर्युपनिषत् [निर्णयसागर बम्बई] 151, नयप्रदीप:-यशोविजयग्रन्थमालान्तर्गतः [ जैनधर्म८३१. प्रसारक सभा भावनगर ] 606,692, 793. तैत्ति०-तैत्तिरिसंहिता। 761. नयरहस्यम्-यशोयिजयग्रन्थमालान्तर्गतम् 606. तोता०-तौतातितमततिलकम् [सरस्वती भवन काशी] मवतत्त्व०-नवतत्त्वगाथा 669. 568,593,720,757,759,761. नयविव०) नयविवरणम् प्रथमगुच्छकान्तर्गतम् [प्र० त्रि० प्रा०-त्रिविक्रमकृतं प्राकृतव्याकरणम् [ चौखम्बा | नयवि० / पन्नालाल चौधरी भदैनी काशी ] सीरिज़ काशी] 764. 479, 489, 506, 606, 610, 621, त्रिलोकसा०-त्रिलोकसारः [ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला 622, 632, 636, 638, 701-703, बम्बई ] 867,871. 721, 793. त्रिषष्ठि०-त्रिशष्ठिशलाकापुरुषचरित्रम् [जैनधर्म- | नयोप० ७०-नयोपदेशवृत्तिः यशोविजयग्रन्थमालान्तप्रसारकसभा भावनगर] 855. गता 140, 141. लोक्यदी-त्रैलोक्यदीपकम् 867. नाटघशा०-नाट्यशास्त्रम् [गायकवाड सीरिज वश०-दशवकालिकसूत्रम् [आगमोदय समिति र बड़ौदा ] 737, 756, 764. 868. नियम-निययसारः [जैनग्रन्थरत्नाकर बम्बई ] द्रव्यसं०-द्रव्यसंग्रहः [रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बई ] 801, 845. नैरात्म्यप०-नैरात्म्यपरिपृच्छा | विश्वभारती शान्तिधम्मप०-धम्पपदम् महाबोधि सो० सारनाथ] 778. निकेतन] 633,684,840. वात्रि-द्वात्रिंशद्वात्रिंशतिका यशोविजयकृता [ जैन- | नैषध०-नैषधीयं नरितम् [ वेङ्कटेश्वर प्रेस बंबई | धर्मप्रसारकसभा भावनगर ] 854, 855. 772. . द्रव्यानुयोगत०-द्रव्यानुयोगतर्कणा [ रायचन्द्रशास्त्र- | षष० टी०-नैषधीयचरितटीका [ वेङ्कटेश्वर प्रेस माला बम्बई ] 254, बम्बई ] 773. धर्मप०-धर्मपरीक्षा अमितगतिकृता 773.778. | न्यायकलि०-न्यायकलिका [ सरस्वतीभवन काशी] धर्मबि० टी०-धर्मबिन्दुटीका [एशियाटिक सो० 157, 310, 312-316,318-332, 335, कलकत्ता] 824. | 419,431,442,443, 496.. Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 820 न्यायकुमुदचन्द्रे न्यायकु०-न्यायकुसुमाञ्जलि: [चौखम्बा सीरिज | ___347, 349, 357, 376, 380,381, 384 काशी] 24, 98, 102, 159, 205,407, 386, 388, 401, 408,411, 416, 419, 444, 445, 489,496,497,513,516, 422, 431, 438, 442, 446-448,464, 518,536, 577, 579,580,588, 605, 467-472, 477,478, 481, 482,491672, 686,727. 493, 495-499, 509-512,514-520, न्यायकु० प्रका०-न्यायकुसुमाञ्जलिप्रकाशः [चौखम्बा 531-535, 537, 539-542, 544-548, सीरिज काशी] 2. 550, 553,561-564, 569, 570,573, न्यायकुमु०-न्यायकुमुदचन्द्रः प्रस्तुत ग्रन्थः 420,613, 574, 577,581, 583, 589, 593, 596, 633, 682, 685. 598, 661, 664, 689, 703-705, 708, न्यायको०-न्यायकोशः [ बम्बई युनि० सीरिज़ ] 723, 725,728,729, 731, 738,750282, 693. 752, 755, 757, 758, 761, 768, 809, न्यायदी०-न्यायदीपिका [ जैनसिद्धान्त प्र० संस्था 814,820, 823, 825, 831, 833-837. कलकत्ता] 25, 417,418, 435, 440. | न्याय० मा० न्यायरत्नमाला [चौखम्बा सीरिज न्यायपरि०-न्यायपरिशुद्धिः [चौखम्बा सीरिज़ काशी] | न्यायरत्नमा०, काशी] 419,423, 428, 31, 582, 726. 577,578, 593, 698,701-703,711, न्यायप्र०-न्यायप्रवेशः [ गायकवाड सीरिज़ बड़ौदा ] 714, 715, 742. 46, 69,434, 435, 588, 601, 679, न्यायमुखप्रकरणम्-तत्त्वसंग्रहपञ्जिकायामुद्धृतम् 435. न्यायप्र० ३०-न्यायप्रवेशवृत्तिः. 46, 333, 438, न्यायलीला०-न्यायलीलावती [ निर्णयसागर बम्बई ] 2, 60, 97, 109, 214, 228, 240, 278, न्यायप्र० वृत्तिपं०-न्यायप्रवेशवृत्तिपञ्जिका 2, 6, | 419, 443, 501, 512, 531, 729. .. 534, 536. न्यायली०कण्ठा०-न्यायलीलावतीकण्ठाभरणम् [चौखम्बा न्यायवि०-न्यायबिन्दुः [ चौखम्बा सीरिज़ काशी ] सीरिज काशी ] 282. 23, 24, 46, 47, 51, 69, 120, 166, | न्यायली प्रकाश-न्यायलीलावतीप्रकाशः [चौखम्बा 205, 370, 382, 435, 439, 444, 450, सीरिज़ काशी ] 241. " 462, 523, 528, 598,599, 627, 679, | न्यायवा०-न्यायवार्तिकम् [ चौखम्बा काशी] 16, 681, 853. 18, 21-23, 25, 28, 29, 34, 75-77, न्यायबि० टी०-न्यायबिन्दूटीका [चौखम्बा काशी] 79,82, 98, 99, 107, 109, 139, 156, 20, 23, 25, 26, 48, 50, 406, 419, 158, 194, 208, 224, 229, 269, 284, 436,438,487,523, 661, 680, 682. 295, 310-325, 328, 330-334, 340, न्यायबि० टी० टि-न्यायबिन्दुटीकाटिप्पणी [ बिब्लो- 357, 387, 406, 411, 428, 434, 462, थिका बुद्धिका रशिया ] 46, 140 525. 468, 496,512, 535, 536,559, 561, न्यायबो०-तर्कसंग्रहस्य न्यायबोधिनी टीका [ निर्णय- 562,564,569, 588,646, 667,703, सागर बम्बई ] 25. 708, 720,730, 738, 750, 757, 758, न्यायभा०-न्यायभाष्यम् [ गुजराती प्रेस बम्बई ] 833-836,838 2. 3, 9, 16, 18, 19-23, 25, 27, 28, न्यायवा० ता० / -न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका 42,76, 79, 85, 97, 109, 127, 139, न्यायवा० ता० टी० [चौखम्बा सीरिज काणी 150, 156, 182, 193, 194,208, 220, 6, 20, 27, 29, 40, 46, 51, 54,56, 224, 234, 309-335, 337, 347, 348, 60-63, 75-77, 82, 98, 99, 107, 411, 496,503, 512,535, 536,539, 109, 129, 139, 156, 158,193, 194, 569,588, 6.1, 667,715, 720,750, 205, 224, 228, 229, 236, 295, 310, 824, 831, 834-836, 838. 313, 318-320, 323, 380, 408,409, न्यायम०-न्यायमञ्जरी [विजयानगरं सीरिज काशी] 414,419, 427, 428,438,442, 446, न्यायमं०६,७,१५,१६,१८,२०,२१,२४,२८-३०, 448, 450,461, 462, 496,516,518, 32-38, 41-55, 51, 54, 60-73, 77, | 519, 526, 534, 540, 559,560, 667, 79,82, 86, 18,107, 109, 125, 126, 708, 716, 738, 752, 758,761, 834, 129, 133, 139, 140, 147, 149, 153, 835. 155, 156, 158,159,166, 172, 177, न्यायवि०-न्यायविनिश्चयः अकलङ्गग्रन्थ त्रयान्तर्गतः 193-196, 201, 205, 208, 224, 240, [ सिंघी सीरिज कलकत्ता] 17, 40, 73, 259, 288-290, 310,312-315, 317- 93, 123, 129, 139, 166, 168, 171, 332, 334-337, 339, 340, 342, 346, 178, 185, 186, 189, 209, 227, 228,