________________ प्रस्तावना गाथा उद्धत है। यह गाथा जीवकांड तथा द्रव्यसंग्रह में पाई जाती है / अतः आपाततः यही निष्कर्ष निकल सकता है कि यह गाथा प्रभाचन्द्रने जीवकांड या द्रव्यसंग्रहसे उद्धृत की होगी; परन्तु अन्वेषण करने पर मालूम हुआ कि यह गाथा बहुत प्राचीन है और सर्वार्थसिद्धि (5 / 39) तथा श्लोकवार्तिक (पृ० 366 ) में भी यह उद्धृत की गई है। इसी तरह प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 300 ) में 'विग्गहगइमावण्णा' गाथा उद्धृत की गई है। यह गाथा भी जीवकांड में है / परन्तु यह गाथा भी वस्तुतः प्राचीन है और धवलाटीका तथा उमास्वातिकृत श्रावकप्रज्ञप्तिमें मौजूद है / प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य ओर प्रभाचन्द्र-रविभद्रके शिष्य अनन्तवीर्य प्राचार्य अकलंकके प्रकरणों के ख्यात टीकाकार विद्वान् थे। प्रमेयरत्नमालाके टीकाकार अनन्तवीर्य उनसे पृथक् व्यक्ति हैं; क्योंकि प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रथम अनन्तवीर्यका स्मरण किया है, और द्वितीय अनन्तवीर्य अपनी प्रमेयरत्नमालामें इन्हीं प्रभाचन्द्र का स्मरण करते हैं / वे लिखते हैं कि प्रभाचन्द्रके वचनोंको ही संक्षिप्त करके यह प्रमेयरत्नमाला बनाई जा रही है। प्रो० ए० एन० उपाध्यायने प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यके समयका अनुमान ग्यारहवीं सदी किया है, जो उपयुक्त है / क्योंकि आ० हेमचन्द्र (1088-1173 ई० ) की प्रमाणमीमांसा पर शब्द और अर्थ दोनों दृष्टि से प्रमेयरत्नमालाका पूरा पूरा प्रभाव है। तथा प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका प्रभाव प्रमेयरत्नमाला पर है। आ० हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसाने प्रायः प्रमेयरत्नमालाके द्वारा ही प्रमेयकमलमार्तण्ड को पाया है। देवसेन और प्रभाचन्द्र- देवसेन श्रीविमलसेन गणीके शिष्य थे। इन्होंने धारानगरीके पार्श्वनाथ मन्दिरमें माघ सुदी दशमी विक्रमसंवत् 660 ( ई० 133) में अपना दर्शनसार ग्रन्थ बनाया था। दर्शनसारके बाद इन्होंने भावसंग्रह ग्रन्थकी रचना की थी, क्योंकि उसमें दर्शनसारकी अनेकों गाथाएँ उद्धृत मिलती हैं। इनके अाराधनासार, तत्त्वसार, नयचक्रसंग्रह तथा आलापपद्धति ग्रन्थ भी हैं / आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 300 ) तथा न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 856 ) के कवलाहारवादमें देवसेनके भावसंग्रह (गा० 110 ) की यह गाथा उद्धृत की है "णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो। ओज मणोवि य कमसो आहारो छव्विहो णेयो // " यद्यपि देवसेनसूरिने दर्शनसार ग्रन्थके अन्तमें लिखा है कि"पुव्वायरियकयाई गाहाई संचिऊण एयत्थ / सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण // 1 प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रथम संस्करणके संपादक पं० बंशीधरजी शास्त्री सोलापुरने प्रमेयक० की प्रस्तावनामें यही निष्कर्ष निकाला भी है। 2 "प्रभेन्दुवचनोदारचन्द्रिकाप्रसरे सति / मादृशाः क्व नु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः / / तथापि तद्वचोऽपूर्वरचनारुचिरं सताम् / चेतोहरं भृतं यद्वन्नद्या नवघटे जलम् / / " 3 देखो जैनदर्शन वर्ष 4 अंक 9 / 4 नयचक्रकी प्रस्तावना पृ० 11- /