________________ न्यायकुमुदचन्द्र चाहिए / इन्होंने अपनी महावृत्ति (लिखित पृ० 221) में भर्तृहरि (ई० 650) की वाक्यपदीयका उल्लेख किया है / पृ० 393 में माघ (ई० 7 वीं सदी) काव्यसे 'सटाच्छटाभिन्न' श्लोक उद्धृत किया है। तथा 3 / 2 / 55 की वृत्तिमें 'तत्त्वार्थवार्तिकमधीयते' प्रयोगसे अकलङ्कदेव (ई० 8 वीं सदी) के तत्त्वार्थराजवार्तिकका उल्लेख किया है / अतः इनका समय 1 वीं शताब्दीसे पहिले तो नहीं ही है / यदि यही अभयनन्दि जैनेन्द्र महावृत्तिके रचयिता हैं तो कहना होगा कि उन्होंने ई० 160 के लगभग अपनी महावृत्ति बनाई होगी। इसी महावृत्ति पर ई० 1060 के लगभग आ० प्रभाचन्द्रने अपना शब्दाम्भोजभास्कर न्यास बनाया है; क्योंकि इसकी रचना न्यायकुमुदचन्द्रके बाद की गई है और न्यायकुमुदचन्द्र जयसिंहदेव ( राज्य 1056 से ) के राज्य के प्रारम्भकाल में बनाया गया है। __ मूलाचारकार और प्रभाचन्द्र-मूलाचार ग्रन्थके कर्ताके विषयमें विद्वान् मतभेद रखते हैं। कोई इसे कुन्दकुन्दकृत कहते हैं तो कोई वट्टकेरिकृत / जो हो, पर इतना निश्चित है कि मूलाचारकी सभी गाथाएँ स्वयं उसके कर्त्ताने नहीं रची हैं / उसमें अनेकों ऐसी प्राचीन गाथाएँ हैं, जो कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें, भगवती आराधनामें तथा आवश्यकनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति और सन्मतितर्क आदि में भी पाई जाती हैं। संभव है कि गोम्मटसार की तरह यह भी एक संग्रह ग्रन्थ हो। ऐसे संग्रहग्रन्थोंमें प्राचीनगाथाओंके साथ कुछ संग्रहकाररचित गाथाएँ भी होती हैं / गोम्मटसारमें बहुभाग स्वरचित है जब कि मूलाचारमें स्वरचित गाथाओंका बहुभाग नहीं मालूम होता / आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 845 ) में “एगो मे सस्सदो" "संजोगमूलं जीवेन" ये दो गाथाएँ उद्धृत की हैं। ये गाथाएँ मूलाचारमें ( 2 / 48,46 ) दर्ज हैं। इनमें पहिली गाथा कुन्दकुन्दके भावपाहुड तथा नियमसारमें भी पाई जाती है / इसी तरह प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 331 ) में "आचेलकुदेसिय" आदि गाथांश दशविध स्थितिकल्पका निर्देश करने के लिए उद्धृत है। यह गाथा मूलाचार ( गाथा नं० 106) में तथा भगवती आराधनामें ( गा० 421 ) विद्यमान है। यहाँ यह बात खास ध्यान देने योग्य है कि प्रभाचन्द्रने इस गाथाको श्वेताम्बर आगममें आचेलक्यके समर्थनका प्रमाण बताने के लिए श्वेताम्बरागमके रूपमें उद्धृत किया है / यह गाथा जीतकल्पभाष्य (गा० 1972 ) में पाई जाती है / गाथाओं की इस संक्रान्त स्थितिको देखते हुए यह सहज ही कहा जा सकता है कि कुछ प्राचीन गाथाएँ परम्परासे चली आई हैं, जिन्हें दिग० श्वेता० दोनों आचार्योने अपने ग्रन्थोंमें स्थान दिया है / .. नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती और प्रभाचन्द्र-आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती वीरसेनापति श्री चामुण्डरायके समकालीन थे। चामुण्डराय गंगवंशीय महाराज मारसिंह द्वितीय ( 175 ई० ) तथा उनके उत्तराधिकारी राजमल्ल द्वितीयके मन्त्री थे। इन्हींके राज्यकालमें चामुण्डरायने गोम्मटेश्वरकी प्रतिष्ठा ( सन् 181 ) कराई थी। आ० नेमिचन्द्रने इन्हीं चामुण्डरायको सिद्धान्त परिज्ञान करानेके लिए गोम्मटसार ग्रन्थ बनाया था। यह ग्रन्थ प्राचीन सिद्धान्तग्रन्थोंका संक्षिप्त संस्करण है। न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 254 ) में 'लोयायासपएसे'