________________ प्रस्तावना खंडनका प्रधान लक्ष्य बनाया है / न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 869 ) के पूर्वपक्षमें शाकटायनके स्त्रीमुक्ति प्रकरणकी यह कारिका भी प्रमाण रूपसे उद्धृत की गई है "गार्हस्थ्येऽपि सुसत्त्वाः विख्याताः शीलवत्तया जगति / .. सीतादयः कथं तास्तपसि विशीला विसत्त्वाश्च // " [ स्त्रीमु० श्लो० 31 ] अभयनन्दि और प्रभाचन्द्र-जैनेन्द्रव्याकरणपर आ० अभयनन्दिकृत महावृत्ति उपलब्ध है। इसी महावृत्तिके आधारसे प्रभाचन्द्रने 'शब्दाम्भोजभास्कर' नामका जैनेन्द्रव्याकरणका महान्यास बनाया है / पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैनेन्द्रव्याकरण और आचार्य देवनन्दी' नामक लेखेमें जैनेन्द्रव्याकरणके प्रचलित दो सूत्र पाठोंमेंसे अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठको ही प्राचीन और पूज्यपादकृत सिद्ध किया है / इसी पुरातनसूत्रपाठ पर प्रभाचन्द्रने अपना न्यास बनाया है। प्रेमीजीने अपने उक्त गवेषणापूर्ण लेखमें महावृत्तिकार अभयनन्दिको चन्द्रप्रभचरित्रकार वीरनन्दिका गुरु बताया है और उनका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीका पूर्वभाग निर्धारित किया है। आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु भी यही अभयनन्दि थे। गोम्मटसार कर्मकाण्ड ( गा० 436 ) की निम्नलिखित गाथासे भी यही बात पुष्ट होती है "जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो / वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं // " ___ इस गाथासे तथा कर्मकाण्डकी गाथा नं० 784, 866 तथा लब्धिसार गा० 648 से यह सुनिश्चित हो जाता है कि वीरनन्दिके गुरु अभयनन्दि ही नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु थे / पा० नेमिचन्द्रने तो वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और इन्द्रनन्दिके शिष्य कनकनन्दि तकका गुरुरूपसे स्मरण किया है। इन सब उल्लेखों से ज्ञात होता है कि अभयनन्दि, उनके शिष्य वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि, तथा इन्द्रनन्दिके शिष्य कनकनन्दि सभी प्रायः नेमिचन्द्रके समकालीन वृद्ध थे। वादिराजसूरिने अपने पार्श्वचरितमें चन्द्रप्रभचरित्रकार वीरनन्दिका स्मरण किया है / पार्श्वचरित शकसंवत् 147, ई० 1025 में पूर्ण हुआ था। अतः वीरनन्दिकी उत्तरावधि ई० 1025 तो सुनिश्चित है / नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने गोम्मटसार ग्रन्थ चामुण्डरायके सम्बोधनार्थ बनाया था / चामुण्डराय गंगवंशीयमहाराज मारसिंह द्वितीय ( 175 ई० ) तथा उनके उत्तराधिकारी राजमल्ल द्वितीयके मन्त्री थे। चामुण्डरायने श्रवणवेल्गुलस्थ बाहुवलि गोम्मटेश्वरकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा ई० 681 में कराई थी, तथा अपना चामुण्डपुराण ई० 178 में समाप्त किया था। अतः आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका समय ई० 180 के आसपास सुनिश्चित किया जा सकता है। और लगभग यही समय आचार्य अभयनन्दि आदिका होना 1 इसका परिचय 'प्रभाचन्द्र के ग्रन्थ' शीर्षक स्तम्भमें देखना चाहिए। 2 जैन साहित्यसंशोधक भाग 1 अंक 2 / 3 देखो त्रिलोकसार की प्रस्तावना /