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________________ प्रस्तावना विविध व्याख्याएँ भी प्रमेयकमलमार्तण्डमें खंडित हुई हैं / वार्तिककारकृत साधकतमत्वका "भावाभावयोस्तद्वत्ता” यह लक्षण प्रमेयकमलमार्तण्डमें प्रमाणरूपसे उद्धृत है / भट्ट जयन्त और प्रभाचन्द्र-भट्टजयन्त जरनैयायिकके नामसे प्रसिद्ध थे। इन्होंने न्यायसूत्रोंके आधारसे न्यायकलिका, और न्यायमञ्जरी ग्रन्थ लिखे हैं / न्यायमञ्जरी तो कतिपय न्यायसूत्रोंकी विशद व्याख्या है। अब हम भट्टजयन्तके समयका विचार करते हैं जयन्तकी न्यायमञ्जरीका प्रथम संस्करण विजयनगरं सीरीजम सन् 1895 में प्रकाशित हुआ है। इसके संपादक म०म० गंगाधर शास्त्री मानवल्ली हैं। उन्होंने भूमिकामें लिखा है कि-"जयन्तभट्टका गंगेशोपाध्यायने उपमानचिन्तामणि (10 61) में जरनैयायिक शब्दसे उल्लेख किया है, तथा जयन्त भट्टने न्यायमंजरी (पृ० 312) में वाचस्पति मिश्रकी तात्पर्य-टीकासे "जातं च सम्बद्धं चेत्येकः कालः" यह वाक्य 'आचार्ये:' करके उद्धत किया है। अतः जयन्तका समय वाचस्पति (841 A. D.) से उत्तर तथा गंगेश (1175 A. D.) से पूर्व होना चाहिये।" इन्हींका अनुसरण करके न्यायमञ्जरीके द्वितीय संस्करणके सम्पादक पं० सूर्यनारायणजी शुक्लने, तथा 'संस्कृतसाहित्यका संक्षिप्त इतिहास'के लेखकोंने भी जयन्तको वाचस्पतिका परवर्ती लिखा है। स्व० डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण भी उक्त वाक्यके आधार पर इनका समय 9 वींसे 11 वीं शताब्दी तक मानते थे। अत: जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन माननेकी परम्पराका आधार म०म० गंगाधर शास्त्री-द्वारा "जातं च सम्बद्धं चेत्येकः कालः" इस वाक्यको वाचस्पति मिश्रका लिख देना ही मालूम होता है। वाचस्पति मिश्रने अपना समय 'न्यायसूचीनिबन्ध' के अन्तमें स्वयं दिया है / यथा - "न्यायसूचीनिबन्धोऽयमकारि सुधियां मुदे / श्रीवाचस्पतिमिश्रेण वस्वंकवसुवत्सरे।" इस श्लोकमें 898 वत्सर लिखा है / म० म० विन्ध्येश्वरीप्रसादजीने 'वत्सर' शब्दसे शकसंवत् लिया है।। डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण विक्रम संवत् लेते हैं। म०म० गोपीनाथ कविराज लिखते हैं कि 'तात्पर्यटीकाकी परिशुद्धिटीका बनानेवाले आचार्य उदयनने अपनी 'लक्षणावली' शक सं० 906 (984 A. D.) में समाप्तकी है। यदि वाचस्पतिका समय शक सं० 898 माना जाता है तो इतनी जल्दी उस पर परिशुद्धि-जैसी टीका बन जाना संभव मालूम नहीं होता। ____ अतः वाचस्पति मिश्रका समय विक्रम संवत् 898 (841 A. D.) प्रायः सर्वसम्मत है / वाचस्पति मिश्रने वैशेषिक दर्शनको छोड़कर प्रायः सभी दर्शनों पर टीकाएं लिखीं हैं। सर्वप्रथम इन्होंने मंडनमिश्रके विधिविवेक पर न्यायकणिका' नामकी टीका लिखी है। क्योंकि इनके दूसरे ग्रन्थोंमें प्रायः इसका निर्देश हैं। उसके बाद मंडनमिश्रकी ब्रह्मसिद्धिकी व्याख्या 'ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा' तथा 'तत्त्वबिन्दु'; इन दोनों ग्रन्थोंका निर्देश तात्पर्य-टीकामे मिलता है, अतः उनके गद 'तात्पर्य-टीका' लिखी गई / तात्पर्य टीकाके साथही 'न्यायसूची-निबन्ध' लिखा होगा; क्योंकि न्यायसूत्रोंका निर्णय तात्पर्य-टीकामे अत्यन्त अपेक्षित है। 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' में तात्पर्य टीका उद्धृत है, अतः तात्पर्यटीकाके बाद 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' की रचना हई। योगभाष्यकी तत्त्ववैशारदी टीकामें 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' का निर्देश है, अतः निर्दिष्ट कौमुदीके बाद 'तत्त्ववैशारदी' रची गई। और इन सभी ग्रन्थोंका 'भामती' टीका निर्देश होनेसे 'भामती' टीका सबके अन्तमें लिखी गई है। * हिस्टी ऑफ दि इण्डियन लाजिक, पृ० 146 / + न्यायवात्तिक-भूमिका, पृ० 145 / + हिस्टी ऑफ दि इण्डियन लाजिक, पृ० 133 / हिस्टो एंड बिब्लोग्राफी ऑफ दि न्याय-वैशेषिक Vol. III, पृ० 101 /
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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