________________ न्यायकुमुदचन्द्र ___ प्रतिबिम्बवाद नामक प्रकरणमें वादि देवसूरिने अपने रत्नाकर (पृ० 865 ) में न्यायकुमुद चन्द्र (पृ० 455 ) में निर्दिष्ट प्रभाचन्द्रके मतके खंडन करनेका प्रयास किया है / प्रभाचन्द्रका मत है कि-प्रतिबिम्बकी उत्पत्तिमें जल आदि द्रव्य उपादान कारण हैं तथा चन्द्र आदि बिम्ब निमित्तकारण / चन्द्रादि बिम्बोंका निमित्त पाकर जल आदिके परमाणु प्रतिबिम्बाकारसे परिणत हो जाते हैं। वादि देवसूरि कहते हैं कि-मुखादिबिम्बोंसे छायापुद्गल निकलते हैं और वे जाकर दर्पण आदिमें प्रतिबिम्ब उत्पन्न करते हैं। यहाँ छायापुद्गलोंका मुखादि बिम्बोंसे निकलनेका सिद्धान्त देवसूरिने अपने पूर्वाचार्य श्रीहरिभद्रसूरिके धर्मसारप्रकरणका अनुसरण करके लिखा है / वे इस समय यह भूल जाते हैं कि हम अपनेही ग्रन्थमें नैयायिकोंके चनुसे रश्मियोंके निकलनेके सिद्धान्तका खंडन कर चुके हैं। जब हम भासुररूपवाली आंखसे भी रश्मियोंका निकलना युक्ति एवं अनुभवसे विरुद्ध बताते हैं तब मुख आदि मलिन बिम्बोंसे छाया पुद्गलोंके निकलनेका समर्थन किस तरह किया जा सकता है ? मजेदार बात तो यह है कि इस प्रकरण में भी वादि देवसूरि न्यायकुमुदचन्द्रके साथही साथ प्रमेयकमलमार्तण्डका भी शब्दशः अनुसरण करते हैं। और न्यायकुमुदचन्द्रमें निर्दिष्ट प्रभाचन्द्रके मतके खंडनकी धुनमें स्वयं ही प्रमेयकलमार्तण्डके उसी आशयके शब्दोंको सिद्धान्त मान बैठते हैं। वे रत्नाकरमें (पृ० 628) ही प्रमेयकमलमार्तण्ड का शब्दानुसरण करते हुए लिख जाते हैं कि-"स्वच्छताविशेषाद्धि जलदर्पणादयो मुखादित्यादिप्रतिबिम्बाकारविकारधारिणः सम्पद्यन्ते ।”–अर्थात् विशेष स्वच्छताके कारण जल और दर्पण आदि ही मुख और सूर्य आदि बिम्बोंके आकारवाली पर्यायों को धारण करते हैं। कवलाहारके प्रकरणमें इन्होंने प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्डमें दी गई दलीलोंका नामोल्लेख पूर्वक पूर्वपक्षमें निर्देश किया है और उनका अपनी दृष्टि से खंडन भी किया है। इस तरह वादि देवसूरिने जब रत्नाकर लिखना प्रारम्भ किया होगा तब उनकी * आंखोंके सामने प्रभाचन्द्र के ये दोनों ग्रन्थ बराबर नाचते रहे हैं। हेमचन्द्र और प्रभाचन्द्र-विक्रमकी 12 वीं शताब्दीमें श्रा० हेमचन्द्रसे जैनसाहित्यके हेमयुगका प्रारम्भ होता है / हेमचन्द्रने व्याकरण, काव्य, छन्द, योग, न्याय आदि साहित्यके सभी विभागोंपर अपनी प्रौढ़ संग्राहक लेखनी चलाकर भारतीय साहित्यके भंडारको खूब समृद्ध किया है। अपने बहुमुख पाण्डित्यके कारण ये 'कलिकाल सर्वज्ञ' के नामसे भी ख्यात हैं। इनका जन्म समय कार्तिकी पूर्णिमा विक्रमसंवत् 1145 है / वि० सं० 1154 (ई० सन् 1097) में 8 वर्षकी लघुवयमें इन्होंने दीक्षा धारण की थी। विक्रमसंवत् 1166 ( ई० सन् 1110 ) में 21 वर्षकी अवस्थामें ये सूरिपद पर प्रतिष्ठत हुए। ये महाराज जयसिंह सिद्धराज तथा राजर्षि कुमारपालकी राजसभाओंमें सबहुमान लब्धप्रतिष्ठ थे। वि० सं० 1226 ( ई० 1173 ) में 84 वर्षकी आयुमें ये दिवंगत हुए। इनकी न्यायविषयक रचनाप्रमाणमीमांसा जैनन्यायके ग्रन्थोंमें अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है। प्रमाणमीमांसाके निग्रह