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________________ प्रस्तावना 41 तर्कटीका, प्रमेयकमलमारीण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रकी तुलनाके लिए देखो-प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रथम अध्यायके टिप्पण तथा न्यायकुमुदचन्द्रके टिप्पणोंमें दिए गए सन्मतिटीका के अवतरण / वादि देवसूरि और प्रभाचन्द्र-देवसूरि श्रीमुनिचन्द्रसूरिके शिष्य थे। प्रभावक चरित्रके लेखानुसार मुनिचन्द्रने शान्तिसूरिसे प्रमाणविद्याका अध्ययन किया था। ये प्राग्वाटवंशके रत्न थे / इन्होंने वि० सं० 1143 में गुर्जर देशको अपने जन्मसे पूत किया था। ये भडोच नगरमें र वर्षकी अल्पवयमें वि० सं० 1152 में दीक्षित हुए थे तथा वि० सं० 1174 में इन्होंने आचार्यपद पाया था। राजर्षि कुमारपालके राज्यकाल में वि० सं० 1226 में इनका स्वर्गवास हुआ। प्रसिद्ध है कि-वि० सं० 1181 वैशाख शुद्ध पूर्णिमाके दिन सिद्धराजकी सभामें इनका दिगम्बरवादी कुमुदचन्द्रसे वाद हुआ था और इसी वादमें विजय पानेके कारण देवसूरि वादि देवसूरि कहे जाने लगे थे। इन्होंने प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार नामक सूत्र ग्रन्थ तथा इसी सूत्रकी स्याद्वादरत्नाकर नामक विस्तृत व्याख्या लिखी है / इनका प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार माणिक्यनन्दिकृत परीक्षामुखसूत्रका अपने ढंगसे किया गया दूसरा संस्करण ही है / इन्होंने परीक्षामुखके 6 परिच्छेदोंका विषय ठीक उसी क्रमसे अपने सूत्रके श्राद्य 6 परिच्छेदोंमें यत्किञ्चित् शब्दभेद तथा अर्थभेदके साथ प्रथित किया है / परीक्षामुखसे अतिरिक्त इसमें नयपरिच्छेद और वादपरिच्छेद नामक दो परिच्छेद और जोड़े गए हैं। माणिक्यनन्दिके सूत्रोंके सिवाय अकलङ्कके स्वविवृलियुक्त लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय तथा विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकका भी पर्याप्त साहाय्य इस सूत्रग्रन्थमें लिया गया है / इस तरह भिन्न भिन्न ग्रन्थोंमें विशकलित जैनपदार्थोका शब्द एवं अर्थदृष्टिसे सुन्दर संकलन इस सूत्रग्रन्थमें हुआ है। * परीक्षामुखसूत्रपर प्रभाचन्द्रकृत प्रमेयकमलमार्तण्ड नामकी विस्तृत व्याख्या है तथा अकलङ्कदेवके लघीयस्त्रयपर इन्हीं प्रभाचन्द्रका न्यायकुमुद चन्द्र नामका बृहत्काय टीकाग्रन्थ है / प्रभाचन्द्रने इन मूल ग्रन्थों की व्याख्याके साथही साथ मूलग्रन्थसे सम्बद्ध विषयोंपर विस्तृत लेख भी लिखे हैं / इन लेखोंमें विविध विकल्पजालोंसे परपक्षका खंडन किया गया है। प्रमेमकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके तीक्ष्ण एवं श्राह्लादक प्रकाशमें जब हम स्याद्वादरत्नाकरको तुलनात्मक दृष्टिसे देखते हैं तब वादिदेवसूरिकी गुणग्राहिणी संग्रहदृष्टिकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते / इनकी संग्राहक बीजबुद्धि प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रसे अर्थ शब्द और भावोंको इतने चेतश्चमत्कारक ढंगसे चुन लेती है कि अकेले स्याद्वादरत्नाकरके पढ़ लेनेसे न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्तण्डका यावद्विषय विशद रीतिसे अवगत हो जाता है / वस्तुतः यह रत्नाकर उक्त दोनों ग्रन्थोंके शब्द-अर्थरत्नोंका सुन्दर आकर ही है। यह रत्नाकर मार्तण्डकी अपेक्षा चन्द्र (न्यायकुमुदचन्द्र ) से ही अधिक उद्वेलित हुआ है / प्रकरणोंके क्रम और पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्षके जमानेकी पद्धतिमें कहीं कहीं तो न्यायकुमुदचन्द्रका इतना अधिक शब्दसादृश्य है कि दोनों ग्रन्थोंकी पाठशुद्धिमें एक दूसरेका मूलप्रतिकी तरह उपयोग किया जा सकता है / 1 देखो जैन साहित्य नो इतिहास पृ० 248 /
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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