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________________ न्यायकुमुदचन्द्र ऐश्वर्यका वर्णन योगभाष्यसे मिलता जुलता है। न्यायकुमुदचन्द्रमें योगभाष्यसे "चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्" "चिच्छक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसक्रमा” आदि वाक्य उद्धृत किये गये हैं। ईश्वरकृष्ण और प्रभाचन्द्र-ईश्वरकृष्णकी सांख्यसप्तति या सांख्यकारिका प्रसिद्ध है / इनका समय ईसाकी दूसरी शताब्दी समझा जाता है। सांख्यदर्शनके मूलसिद्धान्तोंका सांख्यकारिकामें संक्षिप्त और स्पष्ट विवेचन है। आ० प्रभाचन्द्रने सांख्यदर्शनके पूर्वपक्षमें सर्वत्र सांख्यकारिकाओंका ही विशेष उपयोग किया है / न्यायकुमुदचन्द्रमें सांख्योंके कुछ वाक्य ऐसे भी उद्धत हैं जो उपलब्ध सांख्यग्रन्थोंमें नहीं पाये जाते / यथा-" बुद्धयध्यवसितमर्थं पुरुषश्वेतयते” “आसर्गप्रलयादेका बुद्धिः” “प्रतिनियतदेशा वृत्तिरभिव्यज्येत” “प्रकृतिपरिणामः शुक्लं कृष्णञ्च कर्म" आदि / इससे ज्ञात होता है कि ईश्वरकृष्णकी कारिकाओंके सिवाय कोई अन्य प्राचीन सांख्य ग्रन्थ प्रभाचन्द्रके सामने था जिससे ये वाक्य उद्धृत किये गए हैं / माठराचार्य और प्रभाचन्द्र-सांख्यकारिकाकी पुरातन टीका माठरवृत्ति है। इसके रचयिता माठराचार्य ईसाकी चौथी शताब्दीके विद्वान् समझे जाते हैं। प्रभाचन्द्रने सांख्यदर्शनके पूर्वपक्षमें सांख्यकारिकाओंके साथ ही साथ माठरवृत्तिको भी उद्धृत किया है। जहाँ कहीं सांख्यकारिकाओं की व्याख्याका प्रसङ्ग आया है, माठरवृत्तिके ही आधारसे व्याख्या की गई है / प्रशस्तपाद और प्रभाचन्द्र-कणादसूत्र पर प्रशस्तपाद आचार्यका प्रशस्तपादभाष्य उपलब्ध है / इनका समय ईसाकी पाँचवीं शताब्दी माना जाता है। आ० प्रभाचन्द्रने प्रशस्तपादभाष्यकी “एवं धर्मैर्विना धर्मिणामेव निर्देशः कृतः” इस पंक्तिको प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ०५३१) में 'पदार्थप्रवेशकग्रन्थ' के नामसे उद्धृत किया है। न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड दोनोंकी षट्पदार्थपरीक्षाका यावत् पूर्वपक्ष प्रशस्तपादभाष्य और उसकी पुरातनटीका व्योमवतीसे ही स्पष्ट किया गया है। प्रमेयकमलमार्तड (पृ० 270) के ईश्वरवादके पूर्वपक्षमें 'प्रशस्तमतिना च' लिखकर “सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारो” इत्यादि अनुमान उद्धृत है। यह अनुमान प्रशस्तपादभाष्यमें नहीं है / तत्त्वसंग्रह की पञ्जिका (पृ० 43 ) में भी यह अनुमान प्रशस्तमतिके नामसे उद्धत है / ये प्रशस्तमति, प्रशस्तपादभाष्यकारसे भिन्न मालूम होते हैं, पर इनका कोई ग्रन्थ अद्यावधि उपलब्ध नहीं है। व्योमशिव और प्रभाचन्द्र-प्रशस्तपादभाष्यके पुरातन टीकाकार आ० व्योमशिवकी व्योमवती टीका उपलब्ध है। आ० प्रभाचन्द्रने अपने दोनों ग्रन्थोंमें, न केवल वैशेषिकमतके पूर्वपक्षमें ही व्योमवतीको अपनाया है किन्तु अनेक मतोंके खंडनमें भी इसका पर्याप्त अनुसरण किया है / यह टीका उनके विशिष्ट अध्ययनकी वस्तु थी। इस टीकाके तुलनात्मक अंशोंको न्यायकुमुदचन्द्रकी टिप्पणीमें देखना चाहिए। आ० व्योमशिवके समयके विषयमें विद्वानोंका मतभेद चला आ रहा है / डॉ० कीथ इन्हें नवमशताब्दी का कहते हैं तो डॉ० दासगुप्ता इन्हें छठवीं शताब्दीका / मैं इनके समयका कुछ विस्तार से विचार करता हूँ
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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