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________________ // प्रस्ताव ना // इस संस्करणमें मुद्रित मूलग्रन्थ लघीयस्त्रय और उसकी व्याख्या न्यायकुमुदचन्द्रका परिचय इसी ग्रन्थके प्रथमभागकी प्रस्तावनामें दिया जा चुका है। यहाँ ग्रन्थकारोंके विषय में ही कुछ लिखना इष्ट है / प्रस्तुतग्रन्थके कर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र हैं। यह न्यायकुमुदचन्द्र अकलङ्कदेवके स्वविवृतियुक्त लघीयस्त्रय प्रकरणकी विस्तृत व्याख्या है। अतः मूलकार अकलङ्कदेव और व्याख्याकार प्रभाचन्द्रके विषयमें लिखना ही यहाँ प्रस्तुत है। न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावनामें सुहृद्वर पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने इन दोनों आचार्योंके समय आदिके विषयमें यथेष्ट ऊहापोह किया है। मैं अकलङ्कदेवके समयविषयक अपने विचार "अकलङ्कग्रन्थत्रय” की प्रस्तावनामें विस्तार के साथ लिख चुका हूँ। जिस "विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि / कालेऽकलङ्कयतिनो बौद्धैर्वादो महानभूत // " कारिकाके 'विक्रमार्कशक' शब्द पर विद्वानों का मतभेद है कि 'अकलङ्कदेव का शास्त्रार्थ विक्रमसंवत् 700 में हुआ है, या शक संवत् 700 में ?' उसके विषयमें इतना और विशेष वक्तव्य है कि-'विक्रमार्कशक' शब्दका प्रयोग अनेक प्राचीन आचार्योंने 'शकसंवत्' के अर्थमें किया है / उदाहरणार्थ धवलाटीकाकी अन्तिम प्रशस्तिकी यह गाथा ही पर्याप्त है "अठतीसम्हि सतसए विक्कमरायंकिए सु-सगणामे / वासे सुतेरसीए भाणुविलग्गे धवलपक्खे // " षट्खंडागम प्रथमभागकी प्रस्तावना (पृ० 25-45) में प्रो० हीरालालजीने बहुमुख ऊहापोहके अनन्तर यह सिद्ध किया है कि उक्त गाथा में वर्णित 'विकमरायंकिए सुसगणामे' पदसे 'शकसंवत्' ही ग्राह्य हो सकता है। इसी प्रस्तावना (पृ. 40) में प्रो० सा० ने अपने मतके समर्थनकेलिए. त्रिलोकसारके (गा० 850) टीकाकार श्रीमाधवचन्द्रत्रैविद्यका यह अवतरण दिया है-"श्रीवीरनाथनिवृतेः सकाशात् पंचोत्तरषदशतवर्षाणि (605) पंचमासयुतानि गत्वा पश्चात् 'विक्रमाङ्कशकराजो' जायते..." इससे अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि शकराजको भी 'विक्रमांकशक' लिखने की प्राचीन परम्परा रही है और इसीलिए 'शकसंवत्' का उल्लेख भी 'विक्रमाङ्कशकसंवत्' पदसे किया जाता था। मैंने "अकलङ्कग्रन्थत्रय” की प्रस्तावनामें अन्य प्रमाणोंके आधारसे विक्रमार्कशकाब्दका शक संवत् 700 अर्थ करके अकलङ्कदेवका समय ई० 720 से 780 सिद्ध किया है / अस्तु /
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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