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________________ न्यायकुमुदचन्द्र में आए हुए अवतरणों के मूलस्थल निर्दिष्ट करने में जिन ग्रन्थों का उपयोग किया है उन ग्रन्थों के संस्करण आदि का परिचय, संकेत विवरण तथा न्यायकुमुद के जिन पृष्ठों पर उनका उपयोग किया है उन पृष्ठों की सूची / शुद्धिपत्र-प्रूफ देखने में पर्याप्त सावधानी रखने पर भी दृष्टिदोष, यन्त्रपरिचालन आदि के कारण होने वाली स्थूल अशुद्धियों का निर्देश ही इस पत्रक में किया है। आभार-आदरणीय प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल जी ने अपनी सहज विद्यारसिकता से यथावसर सत्परामर्श दिये हैं तथा सिद्धिविनिश्चयटीका, हेतुबिन्दुटीका एवं तत्त्वोपप्लवसिंह आदि लिखित ग्रन्थों के उपयोग करने की पूरी पूरी सुविधा दी है। ग्रन्थमाला के प्राण, निर्व्याज साहित्योपासक यथार्थोपनामक पं० नाथूराम जी प्रेमी ने प्रभाचन्द्र के समय में उपयुक्त होने वाली प्रशस्तियाँ, श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र नामक लेख की कच्ची नकल तथा अन्य आवश्यक सामग्री को बड़ी तत्परता एवं निरुत्सेक सहज भाव से जुटाया है। सच पूंछो तो प्रेमीजी जैसे सवृत्त मन्त्री की सदाशयता से ही इस ग्रन्थ का इस रूप में सम्पादन, मुद्रण श्रादि हो सका है। .. त्रिपिटिकाचार्य महापंडित राहुलसांकृत्यायन ने प्रमाणवार्तिक स्ववृत्ति, स्ववृत्तिटीका के दुर्लभ प्रूफ तथा प्रमाणवार्तिकालङ्कार की सर्वथा अलभ्य प्रेस कापी से यथेष्ट नोट्स लेने दिये हैं / सुहृद्वर पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के सहयोग से ही प्रथम भाग की प्रेस कापी के समय इस भाग में मुद्रित अंश का प्रथमवाचन हुआ था और ब० प्रति के पाठान्तर लिए गये थे। पं० परमानन्दजी वीर सेवा मन्दिर सरसावा ने प्राकृतपंचसंग्रह की गाथाओं के स्थल खोज कर भेजे / ओरियंटल बुक् एजेन्सी पूना के अध्यक्ष श्री देसाई ने न्यायकुमुदचन्द्र की एक त्रटित प्रति भेजी। भाण्डारकर प्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिर के अध्यक्ष ने हेतुबिडम्बनोपाय तथा जैनसिद्धान्तभवन आरा के पुस्तकाध्यक्ष श्री के० भुजबली शास्त्री ने सत्यशासनपरीक्षा ग्रन्थ के उपयोग करने का अवसर दिया तथा पत्रोत्तर दिए / श्रीमान् प्रो० हीरालाल जी, प्रो. ए० एन० उपाध्ये, पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार, पं० चैनसुखदास जी, पं० लोकनाथ जी शास्त्री, पं० वर्धमान शास्त्री, सा० र० पं० हीरालाल शास्त्री, पं० नाथूलाल जी आदि विद्वन्मण्डल ने यथासमय प्रशस्ति आदि के बाबत ज्ञातव्य प्रश्नों के उत्तर दिये / पश्चाचार्य पं० भूपनारायण जी झा ने प्रशस्ति श्लोकों की रचना करके सहायता की। श्री विजयमूर्ति जी एम० ए०, शास्त्री ने पाठान्तर लेने में तथा प्रियशिष्य गुलाबचन्द्र जी न्याय-सांख्यतीर्थ और उदयचन्द्रजी ने परिशिष्ट बनाने में पूरी पूरी मदद की है। मैं उक्त सभी महाशयों का हार्दिक आभार मानता हूँ। पौष शुक्ल पूर्णिमा मकरसंक्रान्ति वो०नि० 2467 सम्पादकन्यायाचार्य महेन्द्रकुमार स्या० वि० काशी।
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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