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________________ 28 न्यायकुमुदचन्द्र . हरिभद्र और प्रभाचन्द्र-पा० हरिभद्र श्वे० सम्प्रदायके युगप्रधान प्राचार्योमेंसे हैं। कहा जाता है कि इन्होंने 1400 के करीब ग्रन्थोंकी रचना की थी। मुनि श्री जिनविजय जीने अनेक प्रबल प्रमाणोंसे इनका समय ई० 700 से 770 तक निर्धारित किया है / मेरा इसमें इतना संशोधन है-कि इनके समयकी उत्तरावधि ई० 810 तक होनी चाहिए, क्योंकि जयन्त भट्टकी न्यायमंजरीका 'गम्भीरगर्जितारम्भ' श्लोक षड्दर्शनसमुच्चयमें शामिल हुआ है। मैं विस्तारसे लिख चुका हूँ कि जयन्तने अपनी मंजरी ई० 800 के करीब बनाई है अतः हरिभद्रके समयकी उत्तरावधि कुछ और लम्बानी चाहिए। उस युगमें 100 वर्षकी आयु तो साधारणतया अनेक आचार्यों की देखी गई है। हरिभद्रसूरिके दार्शनिक ग्रन्थोंमें 'षड्दर्शनसमुच्चय' एक विशिष्ट स्थान रखता है। इसका"प्रत्यक्षमनुमानञ्च शब्दश्वोपमया सह / अर्थापत्तिरभावश्च षट् प्रमाणानि जैमिनेः // 72 // " यह श्लोक न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 505) में उद्धृत है / यद्यपि इसी भावका एक श्लोक"प्रत्यक्षमनुमानञ्च शाब्दश्योपमया सह / अर्थापत्तिरभावश्च षडेते साध्यसाधकाः // " इस शब्दावलीके साथ कमलशीलकी तत्त्वसंग्रहपञ्जिका (पृ० 450 ) में मिलता है और उमसे संभावना की जा सकती है कि जैमिनिकी षट्प्रमाणसंख्याका निदर्शक यह श्लोक किसी जैमिनिमतानुयायी आचार्यके ग्रन्थसे लिया गया होगा। यह संभावना हृदयको लगती भी है / परन्तु जबतक इसका प्रसाधक कोई समर्थ प्रमाण नहीं मिलता तबतक उसे हरिभद्रकृत माननेमें ही लाघव है। और बहुत कुछ संभव है कि प्रभाचन्द्रने इसे षड्दर्शनसमुच्चयसे ही उद्धृत किया हो / हरिभद्रने अपने ग्रन्थोंमें पूर्वपक्षके पल्लवन और उत्तरपक्षके पोषणके लिए अन्यग्रन्थकारोंकी कारिकाएँ, पर्याप्त मात्रामें, कहीं उन आचार्योके नामके साथ और कहीं विना नाम लिए ही शामिल की हैं / अतः कारिकाओंके विषयमें यह निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है कि ये कारिकाएँ हरिभद्रकी स्वरचित हैं या अन्यरचित होकर संगृहीत हैं ? इसका एक और उदाहरण यह है कि"विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारो रूपमेव च / समुदेति यतो लोके रागादीनां गणोऽखिलः / / आत्मात्मीयस्वभावाख्यः समुदयः स सम्मतः / क्षणिकाः सर्वसंस्कारा इत्येवं वासना यका / / स मार्ग इति विज्ञेयो निरोधो मोक्ष उच्यते / पञ्चेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषयाः पञ्च मानसम् / / धर्मायतनमेतानि द्वादशायतनानि च..." ये चार श्लोक षड्दर्शनसमुच्चयके बौद्धदर्शनमें मौजूद हैं। इसी आनुपूर्वीसे ये ही श्लोक किञ्चित् शब्दभेदके साथ जिनसेनके आदिपुराण ( पर्व 5 श्लो० 42-45 ) में भी विद्यमान हैं। रचनासे तो ज्ञात होता है कि ये श्लोक किसी बौद्धाचार्यने बनाए होंगे, और उसी बौद्धग्रन्थसे षड्दर्शनसमुच्चय और आदिपुराणमें पहुँचे हों। हरिभद्र और जिनसेन प्रायः समकालीन हैं, अतः यदि ये श्लोक हरिभद्रके होकर आदिपुराणमें आए हैं तो इसे उससमयके असाम्प्रदायिक भावकी महत्वपूर्ण घटना समझनी चाहिए / हरिभद्रने तो शास्त्रवार्तासमुच्चयमें समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाके श्लोक उद्धृत कर अपनी षड्दर्शनसमुच्चायक बुद्धिके प्रेरणा
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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