________________ प्रस्तावना 37 सम्मत सूत्रपाठ प्रचलित है। उमाखातिके स्वोपज्ञभाष्यके कर्तृत्वके विषयमें आज कल विवाद चल रहा है। मुख्तारसा० श्रादि कुछ विद्वान् भाष्यकी उमास्वातिकर्तृकताके विषयमें सन्दिग्ध हैं। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें दिगम्बरसूत्रपाठसे ही सूत्र उद्धृत किए हैं। उन्होंने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 856 ) के स्त्रीमुक्तिवादके पूर्वपक्षमें तत्त्वार्थभाष्यकी सम्बन्धकारिकाओंमेंसे "श्रूयन्ते चानन्ताः सामायिकमात्रससिद्धाः” कारिकांश उद्धृत किया है / तत्त्वार्थराजवार्तिक ( पृ० 10 ) में भी "अनन्ताः सामायिकमात्रसिद्धाः" वाक्य उद्धृत मिलता है / इसी तरह तत्त्वार्थभाष्यके अन्तमें पाई जाने वाली 32 कारिकाएँ राजवार्तिकके अन्तमें 'उक्तश्च' लिखकर उद्धृत हैं। पृ० 361 में भाष्यकी 'दग्धे बीजे' कारिका उद्धृतकी गई है / इत्यादि प्रमाणोंके आधारसे यह निःसङ्कोच कहा जा सकता है कि प्रस्तुत भाष्य अकलङ्कदेवके सामने भी था। उनने इसके कुछ मन्तब्योंकी समीक्षा भी की है / सिद्धसेन और प्रभाचन्द्र-आ० सिद्धसेनके सन्मतितर्क, न्यायावतार, द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशतिका ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं / इनके सन्मतितर्क पर अभयदेवसूरिने विस्तृत व्याख्या लिखी है / डॉ जैकोवी न्यायावतारके प्रत्यक्ष लक्षणमें अभ्रान्त पद देखकर इनको धर्मकीर्तिका समकालीन, अर्थात् ईसाकी 7 वीं शताब्दीका विद्वान् मानते हैं / पं० सुखलाल जी इन्हें विक्रमकी पांचवीं सदीका विद्वान् सिद्ध करते थे। पर अब उनका विश्वास है कि "सिद्धसेन ईसाकी छठी या सातवीं सदीमें हुए हों और उन्होंने संभवतः धर्मकीर्तिके ग्रन्थोंको देखा हो / " न्यायावतारकी रचनामें न्यायप्रवेशके साथ ही साथ न्यायबिन्दु भी अपना यत्किश्चित् स्थान रखता ही है / आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 437 ) में पक्षप्रयोगका समर्थन करते समय 'धानुष्क' का दृष्टान्त दिया है। इसकी तुलना न्यायावतारके श्लोक 14-16 से भलीभांति की जा सकती है। न केवल मूलश्लोकसे ही, किन्तु इन श्लोकोंकी सिद्धर्षिकृत व्याख्या भी न्यायकुमुदचन्द्रकी शब्दरचनासे तुलनीय है। धर्मदासगणि और प्रभाचन्द्र-श्वे० आचार्य धर्मदासगणिका उपदेशमाला ग्रन्थ प्राकृतगाथानिबद्ध है / प्रसिद्धि तो यह रही है कि ये महावीरस्वामीके दीक्षित शिष्य थे। पर यह इतिहासविरुद्ध है; क्योंकि इन्होंने अपनी उपदेशमालामें वज्रसूरि आदिके नाम लिए हैं / अस्तु / उपदेशमाला. पर सिद्धर्षिसूरिकृत प्राचीन टीका उपलब्ध है। सिद्धर्षिने उपमितिभवप्रपञ्चाकथा वि सं० 162 ज्येष्ठ शुद्ध पंचमीके दिन समाप्त की थी। अतः धर्मदासगणिकी उत्तरावधि विक्रम की र वीं शताब्दी माननेमें कोई बाधा नहीं है। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 330) में उपदेशमाला (गा० 15) की 'वरिससयदिक्खयाए अजाए अन्ज दिक्खिओ साहू' इत्यादि गाथा प्रमाणरूपसे उद्धृत की है। 1 देखो गुजराती सन्मतितर्क पृ० 40 / 2 इंग्लिश सन्मतितर्क की प्रस्तावना / 3 जैनसाहित्यनो इतिहास पृ० 186 /