________________ प्रस्तावना व्योमवती टीकाका उल्लेख करनेवाले परवर्ती ग्रन्थकारोंमें शान्तरक्षित, विद्यानन्द, जयन्त, वाचस्पति, सिद्धर्षि, श्रीधर, उदयन, प्रभाचन्द्र, वादिराज, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र तथा गुणरत्न, विशेषरूपसे उल्लेखनीय हैं। शान्तरक्षितने वैशेषिक-सम्मत षटपदार्थों की परीक्षा की है। उसमें वे प्रशस्तपादके साथ ही साथ शंकरस्वामी नामक नैयायिकका मत भी पूर्वपक्षरूपसे उपस्थित करते हैं। परंतु जब हम ध्यानसे देखते हैं तो उनके पूर्वपक्षमे प्रशस्तपादव्योमवतीके शब्द स्पष्टतया अपनी छाप मारते हुए नजर पाते हैं। (तुलनातत्त्वसंग्रह पृ० 206 तथा व्योमवती पृ० 343 / ) तत्त्वसंग्रहकी पंजिका (पृ० 206) में व्योमवती (पृ० 129) के स्वकारणसमवाय तथा सत्तासमवायरूप उत्पत्तिके लक्षणका उल्लेख है। शान्तरक्षित तथा उनके शिष्य कमलशीलका समय ई० की आठवीं शताब्दिका पूर्वार्द्ध है। (देखो, तत्त्वसंग्रहकी भूमिका पृ. xevi) विद्यानन्द प्राचार्यने अपनी आप्तपरीक्षा (पृ. 26) में व्योमवती टीका (प०१०७) से समवायके लक्षणकी समस्त पदकृत्य उद्धृत की है। 'द्रव्यत्वोपलक्षित समवाय द्रव्यका लक्षण है' व्योमवती (पृ० 149) के इस मन्तव्यकी समालोचना भी प्राप्तपरीक्षा (पृ० 6) में की गई है। विद्यानन्द ईसाकी नवमशताब्दीके पूर्वार्द्धवर्ती हैं। जयन्तकी न्यायमंजरी (10 23) में व्योमवती (पृ० 621) के अनर्थजत्वात् स्मृतिको अप्रमाण माननेके सिद्धान्तका समर्थन किया है, साथही प० 65 पर व्योमवती (पृ० 556) के फलविशेषणपक्षको स्वीकारकर कारकसामग्रीको प्रमाणमाननेके सिद्धान्तका अनुसरण किया है। जयन्तका समय हम आगे ईसाकी 9 वीं शताब्दीका पूर्वभाग सिद्ध करेंगे। . वाचस्पति मिश्र अपनी तात्पर्यटीकामे (10 108) प्रत्यक्षलक्षणसूत्रमें 'यतः' पदका अध्याहार करते हैं तथा (पृ० 102) लिंगपरामर्श ज्ञानको उपादानबुद्धि कहते हैं। व्योमवतीटीकामे (पृ० 556) 'यतः' पदका प्रयोग प्रत्यक्षलक्षणमें किया है तथा (पृ० 561) लिगपरामर्श ज्ञानको उपादानबुद्धि भी कहा है। वाचस्पति मिश्रका समय 841 A.D. है। - प्रभाचन्द्र आचार्यने मोक्षनिरूपण (प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० 307 ) आत्मस्वरूपनिरूपण (न्यायकुमुदचन्द्र पृ० 349, प्रमेयकमलमा० पृ० 110) समवायलक्षण (न्यायकुमु० पृ० 295, प्रमेयकमलमा० पृ० 604) आदिमें व्योमवती (पृ० 20, 393, 107 ) का पर्याप्त सहारा लिया है। स्वसंवेदनसिद्धिमें व्योमवतीके ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादका खंडन भी किया है। .. श्रीधर तथा उदयनाचार्यने अपनी कन्दली (पृ० 4) तथा किरणावलीमें व्योमवती (पृ०२० क) के "नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते सन्तानत्वात् ... 'यथा प्रदीपसन्तानः।" इस अनुमानको 'ताकिकाः' तथा 'आचार्याः' शब्दके साथ उद्धृत किया है। कन्दली (पृ० 20) में व्योमवती (पृ० 149) के 'द्रव्यत्वोपलक्षितः समवायः द्रव्यत्वेन योगः' इस मतकी आलोचना की गई है। इसी तरह कन्दली (पृ० 18) में व्योमवती (पृ० 129) के 'अनित्यत्वं तु प्रागभावप्रध्वंसाभावोपलक्षिता वस्तुसत्ता।' इस अनित्यत्वके लक्षणका खण्डन किया है। कन्दली (पृ० 200) में व्योमवती (पृ० 593) के 'अनुमान-लक्षणमें विद्याके सामान्यलक्षणकी अनुवृत्ति करके संशयादिका व्यवच्छेद करना तथा स्मरणके व्यवच्छेदके लिये 'द्रव्यादिषु उत्पद्यते' इस पदका अनुवर्तन करना' इन दो मतोंका समालोचन किया है। कन्दलीकार श्रीधरका समय कन्दलीके अन्तमें दिए गए "यधिकदशोत्तरनवशतशकाब्दे" पदके अनुसार 913 शक अर्थात् 991 ई० है। और उदयनाचार्यका समय 984 ई० हैं। वादिराज अपने न्यायविनिश्चिय-विवरण (लिखित पृ० 111 B. तथा 111 A.) में व्योमवतीसे पूर्वपक्ष करते हैं। वादिदेवसूरि अपने स्याद्वादरत्नाकर (10 318 तथा 418) में पूर्वपक्षरूपसे व्योमवतीका उद्धरण देते हैं। . सिद्धर्षि न्यायावतारवृत्ति (109) में, हेमचन्द्र प्रमाणमीमांसा (पृ० 7) में तथा गुणरत्न अपनी षड्दर्शनसमुच्चयकी वृत्ति (पृ. 114 A.) में व्योमवतीके प्रत्यक्ष अनुमान तथा आगम रूप