________________ 28 न्यायकुमुदचन्द्र . इतिहास के लेखकद्वय अन्य कई जैन कवियोंके समय निर्धारणकी भांति धनञ्जयके समयमें भी बड़ी भारी भ्रान्ति कर बैठे हैं / क्योंकि विचार करनेसे धनञ्जयका समय ईसाकी 8 वीं सदीका अन्त और नवींका प्रारम्भिक भाग सिद्ध होता है १जल्हण ( ई० द्वादशशतक ) विरचित सूक्तिमुक्तावलीमें राजशेखरके नामसे धनञ्जयकी प्रशंसामें निम्न लिखित पद्य उद्धृत है"द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनञ्जयः / यया जातं फलं तस्य स तां चक्रे धनञ्जयः // " इस पद्यमें राजशेखरने धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्यका मनोमुग्धकर सरणिसे निर्देश किया है / संस्कृत साहित्यके इतिहासके लेखकद्वय लिखते हैं कि-"यह राजशेखर प्रबन्धकोशका कर्ता जैन राजशेखर है / यह राजशेखर ई० 1348 में विद्यमान था / " आश्चर्य है कि 12 वीं शताब्दीके विद्वान् जल्हणके द्वारा विरचित ग्रन्थमें उल्लिखित होने वाले राजशेखरको लेखकद्वय 14 वीं शताब्दीका जैन राजशेखर बताते हैं ! यह तो मोटी बात है कि 12 वीं शताब्दीके जल्हणने 14 वीं शताब्दीके जैन राजशेखरका उल्लेख न करके 10 वीं शताब्दीके प्रसिद्ध काव्यमीमांसाकार राजशेखरका ही उल्लेख किया है / इस उल्लेखसे धनञ्जयका समय र वीं शताब्दीके अन्तिम भागके बाद तो किसी भी तरह नहीं जाता। ई० 160 में विरचित सोमदेवके यशस्तिलकचम्पमें राजशेखरका उल्लेख होनेसे इनका समय करीब ई०११० ठहरता है। 2 वादिराजसूरि अपने पार्श्वनाथचरित (पृ० 4) में धनञ्जयकी प्रशंसा करते हुए लिखते हैं"अनेकभेदसन्धानाः खनन्तो हृदये मुहुः / बाणा धनञ्जयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रियाः कथम् // " इस श्लिष्ट श्लोकमें 'अनेकभेदसन्धानाः' पदसे धनञ्जयके 'द्विसन्धानकाव्य' का उल्लेख बड़ी कुशलतासे किया गया है / वादिराजसूरिने पार्श्वनाथचरित 147 शक (ई० 1025) में समाप्त किया था / अतः धनञ्जयका समय ई० 10 वीं शताब्दीके बाद तो किसी भी तरह नहीं जा सकता / 3 आ. वीरसेनने अपनी धवलाटीका (अमरावतीकी प्रति पृ०३८७) में धनञ्जयकी अनेकार्थनाममालाका निम्न लिखित श्लोक उद्धृत किया है "हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्यये / प्रादुर्भावे समाप्तौ च इतिशब्दं विदुर्बुधाः // " आ० वीरसेनने धवलाटीकाकी समाप्ति शक 738 (ई०८१६) में की थी। अतः धनञ्जयका समय 8 वीं शताब्दीका उत्तरभाग और नवीं शताब्दीका पूर्वभाग सुनिश्चित होता है / धनञ्जयने अपनी नाममालाके- . "प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् / धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् // " इस श्लोकमें अकलङ्कदेवका नाम लिया है / अकलङ्कदेव ईसाकी 8 वीं सदीके आचार्य हैं अतः धनञ्जयका समय 8 वीं सदीका उत्तरार्ध और नवींका पूर्वार्ध मानना सुसंगत है। आचार्य प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 402 ) में धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्यका उल्लेख किया है। न्यायकुमुदचन्द्रमें इसी स्थल पर द्विसन्धानकी जगह त्रिसन्धान नाम लिया गया है / 1 देखो धवलाटीका प्रथम भागकी प्रस्तावना पृ० 62 /