SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना 27 पूज्यपादके प्राक्कालीन होते तो वे अपने इस युगप्रधान आचार्य की आप्तमीमांसा जैसी अनूठी कृतिका उल्लेख किए बिना नहीं रहते" विचारणीय है। यद्यपि ऐसे नकारात्मक प्रमाणों से किसी आचार्यके समयका स्वतन्त्र भावसे साधन बाधन नहीं होता फिर भी विचार की एक स्पष्ट कोटि तो उपस्थित हो ही जाती है / समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाके चौथे परिच्छेदमें वर्णित "विरूपकार्यारम्भाय" आदि कारिकाओंके पूर्वपक्षों की समीक्षा करनेसे ज्ञात होता है कि समन्तभद्रके सामने संभवतः दिग्नागके ग्रन्थ भी रहे हैं / बौद्धदर्शन की इतनी स्पष्ट विचारधाराकी सम्भावना दिग्नागसे पहिले नहीं की जा सकती। हेतुबिन्दुके अर्चटकृत विवरणमें समन्तभद्र की आप्तमीमांसाकी "द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः” कारिकाके खंडन करनेवाले 30-35 श्लोक उद्धृत किए गए हैं / ये श्लोक संभवतः धर्मकीर्तिके किसी ग्रन्थके हों। अर्चटका समय वीं सदी है / कुमारिलके मीमांसाश्लोकवार्तिकमें समन्तभद्रकी “घटमौलिसुवर्णार्थी" कारिकाके प्रतिच्छायभूत निम्न श्लोक पाये जाते हैं"वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा / तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः // हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् / न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् // स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता // " [ मी० श्लो० पृ० 616 ] कुमारिलका समय ईसाकी 7 वीं सदी है / अतः समन्तभद्रकी उत्तरावधि तो सातवीं सदी सुनिश्चित है / पूर्वावधिका नियामक प्रमाण दिग्नागका समय होना चाहिए। इस तरह समन्तभद्रका समय इसाकी 5 वीं और सातवीं शताब्दीका मध्यभाग अधिक संभव है। यदि विद्यानन्दके उल्लेखमें ऐतिहासिक दृष्टि भी निविष्ट है तो इनका समय पूज्यपादके बाद होना चाहिए। अन्यथा दिग्नाग (ई० 425 ) के बाद और पूज्यपादसे कुछ पहिले / पूज्यपाद और प्रभाचन्द्र-आ० देवनन्दिका अपर नाम पूज्यपाद था / ये विक्रम की पांचवी और छठी सदीके ख्यात आचार्य थे। आ० प्रभाचन्द्रने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि पर तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण नामकी लघुवृत्ति लिखी है / इसके सिवाय इन्होंने जैनेन्द्रव्याकरण पर शब्दाम्भोजभास्कर नामका न्यास लिखा है। पूज्यपादकी संस्कृत सिद्धभक्तिसे 'सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः ' पद भी न्यायकुमुद चन्द्रमें प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें जहां कहीं भी व्याकरणके सूत्रोंके उद्धरण देनेकी आवश्यकता हुई है वहां प्रायः जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठसे ही सूत्र उद्धृत किए गए हैं। धनञ्जय और प्रभाचन्द्र-'संस्कृतसाहित्यका संक्षिप्त इतिहास' के लेखकद्वयने धनञ्जयका समय ई० 12 वें शतकका मध्य निर्धारित किया है (पृ० 173) / और अपने इस मतकी पुष्टिके लिए के० बी० पाठक महाशयका यह मत भी उद्धृत किया है कि-"धनञ्जयने द्विसन्धान महाकाव्यकी रचना ई० 1123 और 1140 के मध्यमें की है / " डॉ० पाठक और उक्त 1 देखो अनेकान्त वर्ष 1 पृ० 197 / प्रेमी जी सूचित करते हैं कि इसकी प्रति बंबईके ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवनमें मौजूद है।
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy