________________ प्राक्कथन 18 संप्रदायको ब्यौरेके बारेमें साक्षात्कर्ता-द्रष्टा साबित करना टेढ़ी खीर है / अतएव बहुत हुआ तो उक्त मूल प्रमेयोंमें दर्शनका साक्षात्कार अर्थ मान लेनेके बाद ब्यौरेके बारेमें दर्शनका कुछ और ही अर्थ करना पड़ेगा। - विचार करनेसे जान पड़ता है, कि दर्शनका दूसरा अर्थ 'सबलप्रतीति' ही करना ठीक है। शब्दके अर्थों के भी जुदे जुदे स्तर होते हैं / दर्शनके अर्थका यह दूसरा स्तर है। हम वाचक उमास्वातिके "तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" इस सूत्रमें तथा इसकी व्याख्याओंमें वह दूसरा स्तर स्पष्ट पाते हैं / वाचकश्रीने साफ कहा है कि प्रमेयोंकी श्रद्धा ही दर्शन है। यहाँ यह कभी न भूलना चाहिए कि श्रद्धाके माने है बलवती प्रतीति या विश्वास, न कि साक्षात्कार। श्रद्धा या विश्वास, साक्षात्कारको संप्रदायमें जीवित रखनेकी एक भूमिका-विशेष है, जिसे मैंने दर्शनका दूसरा स्तर कहा है। यों तो संप्रदाय हर एक देशके चिन्तकोंमें देखा जाता है / यूरोपके तत्त्वचिन्तनकी आद्य भूमि-ग्रीसके चिन्तकोंमें भी परस्पर विरोधी अनेक संप्रदाय रहे हैं, पर भारतीय तत्त्वचिन्तकों के संप्रदायकी कथा कुछ निराली ही है / इस देशके संप्रदाय मूलमें धर्मप्राण और धर्मजीवी रहे हैं / सभी संप्रदायोंने तत्त्वचिन्तनको आश्रय ही नहीं दिया बल्कि उसके विकास और विस्तार में भी बहुत कुछ किया है। एक तरहसे भारतीय तत्त्वचिन्तनका चमत्कारपूर्ण बौद्धिकप्रदेश जुदे जुदे संप्रदायोंके प्रयत्नका ही परिणाम है / पर हमें जो सोचना है वह तो यह है कि हर एक संप्रदाय अपने जिन मन्तव्यों पर सबल विश्वास रखता है और जिन मन्तव्योंको दूसरा विरोधी संप्रदाय कतई माननेको तैयार नहीं है वे मन्तव्य सांप्रदायिक विश्वास या सांप्रदायिक भावनाके ही विषय माने जा सकते हैं साक्षात्कारके विषय नहीं। इस तरह साक्षात्कारका सामान्य स्रोत संप्रदायोंकी भूमि पर ब्यौरेके विशेष प्रवाहोंमें विभाजित होते ही विश्वास और प्रतीतिका रूप धारण करने लगता है। जब साक्षात्कार विश्वास रूपमें परिणत हुआ तब उस विश्वासको स्थापित रखने और उसका समर्थन करनेके लिए सभी संप्रदायोंको कल्पनाओंका-दलीलोंका तथा तर्कोका सहारा लेना पड़ा। सभी सांप्रदायिक तत्त्वचिन्तक अपने अपने विश्वासकी पुष्टिके लिए कल्पनाओंका सहारा पूरे तौरसे लेते रहे फिर भी यह मानते रहे कि हम और हमारा संप्रदाय जो कुछ मानते हैं वह सब कल्पना नहीं किन्तु साक्षात्कार है। इस तरह कल्पनाओंका तथा सत्य असत्य और अर्धसत्य तर्कोका समावेश भी दर्शनके अर्थमें हो गया। एकतरफसे जहाँ सम्प्रदायने मूलदर्शन यानी साक्षात्कारकी रक्षाकी और जहाँ उसे स्पष्ट करने के लिए अनेक प्रकारके चिन्तनको चालू रखा तथा उसे व्यक्त करनेकी अनेक मनोरम कल्पनाएँकीं, वहाँ दूसरी तरफसे संप्रदापकी बाड़ पर बढ़ने तथा फूलने-फलनेवाली तत्त्वचिन्तनकी बेल इतनी पराश्रित हो गई कि उसे संप्रदायोंके सिवाय दूसरा कोई सहारा ही न रहा / फलतः पर्देबन्द पमिनियोंकी तरह तत्त्वचिन्तनकी बेल भी कोमल और संकुचितदृष्टिवाली बन गई।