SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ // प्राकथन। न्यायकुमुदचन्द्र के प्रथम भागमें मैं अपना प्राक्कथन लिख चुका हूँ। फिर भी इस दूसरे भागकी प्रस्तावना जब मैं सुन गया तब प्राक्कथन रूपसे कुछ भी लिखनेके संपादकीय अनुरोधको टाल न सका। इसीलिए कुछ लिखने को प्रवृत्त हुआ हूँ। न्यायकुमुदचन्द्र यह दर्शनका ग्रन्थ है सो भी संप्रदायविशेषका, अतएव सर्वोपयोगिताकी दृष्टिसे यह विचार करना उचित होगा कि दर्शनका मतलब क्या समझा जाता है और वस्तुत: उसका मतलब क्या होना चाहिए। इसी तरह यह भी विचारना समुचित होगा कि संप्रदाय क्या वस्तु है और उसके साथ दर्शन का सबन्ध कैसा रहा है तथा उस सांप्रदायिक सम्बन्धके फल स्वरूप दर्शनमें क्या गुण-दोष आए हैं इत्यादि / सब कोई सामान्यरूपसे यही समझते और मानते आए हैं कि दर्शनका मतलब है तत्त्वसाक्षात्कार / सभी दार्शनिक अपने अपने सांप्रदायिक दर्शनको साक्षात्काररूप ही मानते आए हैं। यहाँ सवाल यह है कि साक्षात्कार किसे कहना ? इसका जवाब एक ही हो सकता है कि साक्षात्कार वह है जिसमें भ्रम या संदेहको अवकाश न हो और साक्षात्कार किए गए तत्त्वमें फिर मतभेद या विरोध न हो। अगर दर्शनकी उक्त साक्षात्कारात्मक व्याख्या सबको मान्य है तो दूसरा प्रश्न यह होता है कि अनेक संप्रदायाश्रित विविध दर्शनोंमें एक ही तत्त्वके विषयमें इतने नाना मतभेद कैसे ? और उनमें असमाधेय समझा जानेवाला परस्पर विरोध कैसा ? इस शंकाका जबाब देने के लिए हमारे पास एक ही रास्ता है कि हम दर्शन शब्दका कुछ और अर्थ समझें। उसका जो साक्षात्कार अर्थ समझा जाता है और जो चिरकालसे शास्त्रोंमें भी लिखा मिलता है, वह अर्थ अगर यथार्थ है, तो मेरी रायमें वह समग्र दर्शनों द्वारा निर्विवाद और असंदिग्धरूपसे सम्मत निम्नलिखित आध्यात्मिक प्रमेयोंमें ही घट सकता है. १-पुनर्जन्म, २-उसका कारण, ३-पुनर्जन्मग्राही कोई तत्त्व, ४-साधनविशेषद्वारा पुनर्जन्मके कारणोंका उच्छेद / ये प्रमेय साक्षात्कारके विषय माने जा सकते हैं / कभी न कभी किसी तपस्वी द्रष्टा या द्रष्टाओंको उक्त तत्त्वोंका साक्षात्कार हुआ होगा ऐसा कहा जा सकता है; क्योंकि आज तक किसी आध्यात्मिक दर्शनमें इन तथा ऐसे तत्त्वोंके बारेमें न तो मतभेद प्रकट हुआ है और न उनमें किसीका विरोध ही रहा है / पर उक्त मूल आध्यात्मिक प्रमेयोंके विशेष विशेष स्वरूपके विषयमें तथा उनके ब्यौरेवार विचारमें सभी प्रधान प्रधान दर्शनोंका, और कभी कभी तो एक ही दर्शनकी अनेक शाखाओंका इतना अधिक मतभेद और विरोध शास्त्रोंमें देखा जाता है कि जिसे देखकर तटस्थ समालोचक यह कभी नहीं मान सकता कि किसी एक या सभी संप्रदायके ब्यौरेवार मन्तव्य साक्षात्कारके विषय हुए हों। अगर वे मन्तव्य साक्षात्कृत हों तो किस संप्रदायके ? किसी एक
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy