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________________ प्राक्कथन 19 इस मंगलपद्यके द्वारा दिग्नागप्रतिपादित बुद्धप्रामाण्यको खण्डित किया। इसके जवाब में धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिकके प्रथम परिच्छेदमें बुद्धका प्रामाण्य अन्ययोगव्यवच्छेदरूपसे अपने ढंगसे सविस्तर स्थापित किया। जान पड़ता है इसी सरणीका अनुसरण प्रबलप्रज्ञ समन्तभद्रने किया। पूज्यपादका 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाला सुप्रसन्न पद्य उन्हें मिला फिर तो उनकी प्रतिभा और जग उठी / प्रमाणवार्तिकके सुगतप्रामाण्यके स्थानमें समन्तभद्रने अपनी नई सप्तभंगी सरणीके द्वारा अन्ययोगव्यवच्छेदरूपसे ही अर्हत्-जिन को ही आप्तप्रमाण स्थापित किया। यह तो विचारसरणीका साम्य हुआ। पर शब्दका सादृश्य भी बड़े मार्के का है। धर्मकीर्तिने सुगतको'युक्तयागमाभ्यां विमृशन्' ( प्रमाणवा० 1 / 135 ) "वैफल्याद् वक्ति नानृतम्” (प्र० वा० 1 / 147) कह कर अविरुद्धभाषी कहा है। समन्तभद्रने भी "युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्" ( आप्तमी० का० 6 ) कह कर जैन तीर्थंकर को सर्वज्ञ स्थापित किया है / धर्मकीर्तिने चतुरार्यसत्यके उपदेशकरूपसे ही बुद्रुको सुगत-ययार्थरूप साबित किया है, स्वामी समन्तभद्रने चतुरार्यसत्यके स्थानमें स्याद्वादन्याय या अनेकान्तके उपदेशक रूपसे ही जैन तीर्थंकरको यथार्थरूप सिद्ध किया है। समन्तभद्रने स्याद्वादन्यायकी यथार्थता स्थापित करनेकी दृष्टि से उसके विषयरूपसे अनेक दार्शनिक मुद्दोंको लेकर चर्चा की है, सिद्धसेनने भी सन्मतिके तीसरे काण्डमें अनेकान्तके विषयरूपसे उन्हीं मुद्दों पर चर्चा की है / सिद्धसेन और समन्तभद्रकी चर्चामें मुख्य अन्तर यह है कि सिद्धसेन. प्रत्येक मुद्देकी चर्चा में जब केवल अनेकान्तदृष्टिकी स्थापना करते हैं तब स्वामी समन्तभद्र प्रत्येक मुद्दे पर सयुक्तिक सप्तभंगी प्रणालीके द्वारा अनेकान्त दृष्टिका स्थापन करते हैं। इस तरह धर्मकीर्ति, समन्तभद्र और सिद्धसेनके बीचका साम्य-वैषम्य एक खास अभ्यासकी वस्तु है। ____ खामी समन्तभद्रको धर्मकीर्ति-समकालीन या उनसे अनन्तरोत्तरकालीन होनेकी जो मेरी धारणा हुई है, उसकी पोषक एक और भी दलील विचारार्थ उपस्थित करता हूँ। समन्तभद्रके "द्रव्यपर्याययोरैक्यम्" तथा "संज्ञासंख्याविशेषाच्च" (आप्तमी० 71, 72) इन दो पद्योंके और प्रत्येक शब्दका खण्डन धर्मकीर्तिके टीकाकार अर्चटने किया है, जिसे पं० महेन्द्रकुमारजीने नववीं शताब्दीका लिखा है। अर्चटने हेतुबिन्दु टीका में प्रथम समन्तभद्रोक्त कारिकाके अंशोंको लेकर गद्यमें खण्डन किया है और फिर 'आह च' कहकर खण्डनपरक 45 कारिकाएँ दी हैं / पंडित महेन्द्रकुमारजीने अपनी सुविस्तृत प्रस्तावनामें ( पृ० 27 ) यह संभावना की है कि अर्चटोद्धृत हेतुबिन्दुटीकागत कारिकाएँ धर्मकीतिकृत होंगी। पण्डितजीका अभिप्राय यह है कि धर्मकीर्तिने ही अपने किसी ग्रन्थमें समन्तभद्रकी कारिकाओंका खण्डन पद्यमें किया होगा जिसका अवतरण धर्मकीर्तिका टीकाकार अर्चट कर रहा है। पर इस विषयमें निर्णायक प्रकाश डालनेवाला एक ग्रन्थ और प्राप्त हुआ है जो अर्चटीय हेतुबिन्दु टीकाकी अनुटीका है / इस अनुटीकाका प्रणेता है दुर्वेक मिश्र, जो 11 वीं शताब्दीके आसपासका ब्राह्मण विद्वान् है / दुर्वेकमिश्र बौद्ध शास्त्रों का, खासकर धर्मकीर्तिके ग्रन्थोंका, तथा उसके टीकाकारोंका गहरा अभ्यासी था। उसने अनेक
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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