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________________ 20 न्यायकुमुदचन्द्र बौद्ध ग्रन्थों पर व्याख्याएँ लिखी हैं / जान पड़ता है कि वह उस समय किसी विद्यासम्पन्न बौद्ध विहारमें अध्यापक रहा होगा / वह बौद्ध शास्त्रोंके बारेमें बहुत मार्मिकतासे और प्रमाणरूपसे लिखने वाला है। उसकी उक्त अनुटीका नेपालके ग्रन्थसंग्रहमेंसे कॉपी होकर भिक्षु राहुलजीके द्वारा मुझको मिली है / उसमें दुर्वेक मिश्रने स्पष्ट रूपसे उक्त 45 कारिकाओंके बारेमें लिखा है कि-ये कारिकाएँ अर्चटकी हैं / अब विचारना यह है कि समन्तभद्रकी उक्त दो कारिकाओंका शब्दशः खण्डन धर्मकीर्ति के टीकाकार अर्चटने किया है न कि धर्मकीर्तिने / अगर धर्मकीर्तिके सामने समन्तभद्रकी कोई कृति होती तो उसकी उसके द्वारा समालोचना होनेकी विशेष संभावना थी। परऐसा हुआ जान पड़ता है कि जब समन्तभद्रने प्रमाणवार्तिकमें स्थापित सुगतप्रामाण्यके विरुद्ध आप्तमीमांसामें जैनतीर्थंकरका प्रामाण्य स्थापित किया और बौद्धमतका जोरोंसे निरास किया तब इसका जबाब धर्मकीर्तिके शिष्योंने देना शुरू किया। कर्णकगोमीने भी जो धर्मकीर्तिका टीकाकार है, समन्तभद्रकी कारिका लेकर जैनमतका खण्डन किया है / ठीक इसी तरह अर्चटने भी समन्तभद्रकी उक्त दो कारिकाओंका सविस्तर खण्डन किया है / ऐसी अवस्थामें मैं अभी तो इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि कमसे कम समन्तभद्र धर्मकीर्तिके पूर्वकालीन तो हो ही नहीं सकते। ऐसी हालतमें विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा तथा अष्टसहस्रीवाली उक्तियोंकी ऐतिहासिकतामें किसी भी प्रकारके सन्देहका अवकाश ही नहीं है / __पंडितजीने प्रस्तावना (पृ० 37) में तत्त्वार्थभाष्यके उमास्वातीप्रणीत होनेके बारेमें भी अन्यदीय संदेहका उल्लेख किया है। मैं समझता हूँ कि संदेहका कोई भी आधार नहीं है / ऐतिहासिक सत्यकी गवेषणामें सांप्रदायिक संस्कारके वश होकर अगर संदेह प्रकट करना हो / तो शायद निर्णय किसी भी वस्तुका कभी भी नहीं हो सकेगा, चाहे उसके बलवत्तर कितने ही प्रमाण क्यों न हों / अस्तु / ___ अन्तमें मैं पंडितजीकी प्रस्तुत गवेषणापूर्ण और श्रमसाधित सत्कृतिका सच्चे हृदयसे अभिनन्दन करता हूँ, और साथ ही जैन समाज, खासकर दिगम्बर समाजके विद्वानों और श्रीमानोंसे भी अभिनन्दन करनेका अनुरोध करता हूँ। विद्वान् तो पंडितजीकी सभी कृतियोंका उदारंभावसे अध्ययनअध्यापन करके अभिनन्दन कर सकते हैं और श्रीमान् , पंडितजीकी साहित्यप्रवण शक्तियोंका अपने साहित्योत्कर्ष तथा भण्डारोद्धार आदि कार्योंमें विनियोग कराकर अभिनन्दन कर सकते हैं / ___मैं पंडितजीसे भी एक अपना नम्र विचार कहे देता हूँ। वह यह कि आगे अब वे दार्शनिक प्रमेयोंको, खासकर जैन प्रमेयोंको केन्द्रमें रखकर उनपर तात्त्विक दृष्टि से ऐसा विवेचन करें जो प्रत्येक या मुख्य मुख्य प्रमेयके स्वरूपका निरूपण करनेके साथ ही साथ उसके सम्बधमें सब दृष्टिओंसे प्रकाश डाल सके / -सुखलाल संघवी हिन्दू विश्वविद्यालय [प्रधान जैनदर्शनाध्यापक ओरियण्टल कालेज काशी। हिन्दू विश्वविद्यालय काशी, 25 / 3 / 41 भूतपूर्व दर्शनाध्यापक गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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