________________ // स म्पा द की यम् // सितम्बर सन् 1938 में न्यायकुमुदचन्द्र का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ था। करीब 2 // वर्ष बाद उसका अवशिष्टांश दूसरे भाग के रूप में सम्पादित करके चित्त आनन्द से किसी अनिर्वचनीय उल्लाघता का अनुभव कर रहा है, सो इसलिए कि-इस भाग के सम्पादन का पूरा भार मुझे ही ढोना पड़ा है। इस भाग को प्रथम भाग से भी अधिक परिष्कृत तथा सामग्रीसमृद्ध रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय प्रथमभाग के रसिक विद्वन्मण्डल को ही दिया जाना चाहिए। उन्हीं के सदभिप्रायों में इसके प्रेरणाबीज निहित हैं / इस भाग का सम्पादन-संशोधन ब०, आ० तथा श्र० प्रति के आधार से किया गया है / इनका परिचय प्रथम भाग के सम्पादकीय स्तम्भ में दिया जा चुका है। ओरियण्टल बुक एजेन्सी पूना के अध्यक्ष श्री देसाई ने कृपा करके न्यायकुमुदचन्द्र की एक अधूरी प्रति हमारे पास भेजी थी, उसका भी यथावसर उपयोग किया है / इस भाग के टिप्पणों में प्रथम भाग में उपयुक्त ग्रन्थों के सिवाय प्रमाणवार्तिकखवृत्ति, प्रमाणवार्तिकखवृत्तिटीका, प्रमाणवार्तिकमनोरथनन्दिनीवृत्ति जैसे दुर्लभ ग्रन्थों के प्रूफ तथा हेतुबिडम्बनोपाय, हेतुबिन्दुटीका, सिद्धिविनि श्चयटीका, सत्यशासनपरीक्षा, न्यायविनिश्चयविवरण जैसे अलभ्य लिखित ग्रन्थों का भी उपयोग * किया गया है। अर्थोद्धाटन करने वाले टिप्पण भी पर्याप्त मात्रा में लिखे गये हैं / - टिप्पणों में समस्त दर्शनशास्त्रों के प्रमुख ग्रन्थों से की गयी बहुमुखी तुलना से जिज्ञासु पाठकों को न केवल ग्रन्थ के हार्द को ही समझने में सहायता मिलेगी किन्तु प्रत्येक दार्शनिक मुद्दे के क्रमविकास का सारा इतिवृत्त दृष्टिपट पर अङ्कित हो सकेगा। वीरहिम गल से निकली हुई अर्धमागधीमय स्याद्वाद-वाणी की धारा कितने उच्चावच दर्शनस्थानों से बहकर उन्हें सम बनाती है तथा कितनेक समन्तभद्र सिद्धसेन पूज्यपाद मल्लवादि अकलंक जिनभद्र हरिभद्र विद्यानन्द जैसे तीर्थो पर मिलने वाले सहायकनदीकल्प दार्शनिकवादों के स्वच्छ युक्तिसलिलसंभार से समृद्ध बनती है / आज वह इस विकसित दार्शनिक रूप में एकान्तवाद के कदाग्रह से सन्तप्त जिज्ञासुओं को शीतल, समन्वयकारक, मानसअहिंसा के प्रतिरूप, अनेकान्तवादरूप जीवन से अकथ आप्यायक सुषमा का सहज भाव से अनुभव कराती है। वीर हिमाचल की वह वाग्गंगा प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्र की पूर्ण विकसित ज्योत्स्ना में आज काशी की गंगा की तरह धीर और उदात्तभाव से बह रही है / उसके उदर में कितनी ऐतिहासिक घटनाएँ द्रव्य में पर्याय या उद्दाम जवानी में लोल बालभाव की तरह छिपी पड़ी हैं / उसमें कितने उच्चावच शिलाखण्डकल्प दार्शनिकवाद आज रेत बनकर तदात्म हो रहे हैं। इस सब क्रमविकास की धारा का यत्किश्चित् आभास इन टिप्पणों में की गयी बहुगामी तुलना से