________________ प्रस्तावना 17 थी। वे कहीं कहीं मंजरीके ही शब्दोंको तथा चाह भाष्यकारः' लिखकर उद्धत करते हैं / भूतचैतन्यवादके पूर्वपक्षमें न्यायमञ्जरी में 'अपि च' करके उद्धृत की गई 17 कारिकाएँ न्यायकुमुदचन्द्रमें भी ज्योंकी त्यों उद्धृत की गई हैं। जयन्तके कारकसाकल्यका सर्वप्रथम खण्डन प्रभाचन्द्रने ही किया है / न्यायमञ्जरीकी निम्नलिखित तीन कारिकाएँ भी न्यायकुमुदचन्द्रमें उद्धृत की गई हैं। (न्यायकुमुद० पृ० 336) "ज्ञातं सम्यगसम्यग्वा यन्मोक्षाय भवाय वा। तत्प्रमेयमिहाभीष्टं न प्रमाणार्थमात्रकम् // " [न्यायमं० पृ० 447) (न्यायकुमुद० पृ० 461) “भूयोऽवयवसमान्ययोगो यद्यपि मन्यते / सादृश्यं तस्य तुज्ञप्तिः गृहीते प्रतियोगिनि॥" [न्यायमं० पृ०१४६) (न्यायकुमुद० पृ० 511) "नन्वस्त्येव गृहद्वारवर्तिनः संगतिग्रहः। ___ भावेनाभावसिद्धौ तु कथमेतद्भविष्यति // " [न्यायमं० पृ० 38] इस तरह न्यायकुमुदचन्द्रके आधारभूत ग्रन्थोंमें न्यायमंजरीका नाम लिखा जा सकता है। वाचस्पति और प्रभाचन्द्र-षड्दर्शनटीकाकार वाचस्पतिने अपना न्यायसूचीनिबन्ध ई० 841 में समाप्त किया था। इनने अपनी तात्पर्यटीका ( पृ० 165 ) में सांख्यों के अनुमान के मात्रामात्रिक आदि सात भेद गिनाए हैं और उनका खंडन किया है / न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 462 ) में भी सांख्योंके अनुमानके इन्हीं सात भेदोंके नाम निर्दिष्ट हैं / वाचस्पतिने शांकरभाष्यकी भामती टीकामें अविद्यासे अविद्याके उच्छेद करने के लिए “यथा पयः पयोऽन्तरं जरयति स्वयं च जीर्यति, विषं विषान्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति, यथा वा कतकरजो रजोऽन्तराविले पाथसि प्रक्षिप्तं रजोन्तराणि भिन्दत् स्वयमपि भिद्यमानमनाविलं पाथः करोति..." इत्यादि दृष्टान्त दिए हैं। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 66 ) में इन्हीं दृष्टान्तों को पूर्वपक्ष में उपस्थित किया है। न्यायकुमुदचन्द्रक विधिवादके पूर्वपक्षमें विधिविवेक के साथही साथ उसकी वाचस्पतिकृत न्यायकणिका टीकाका भी पर्याप्त सादृश्य पाया जाता है / वाचस्पतिके उक्त ई० 841 समयका साधक एक प्रमाण यह भी है कि इन्होंने तात्पर्यटीका (पृ० 217) में शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रह (श्लो० 200) से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है"नर्तकीभ्रूलताक्षेपो न ह्येकः पारमार्थिकः / अनेकाणुसमूहत्वात् एकत्वं तस्य कल्पितम् // " शान्तरक्षितका समय ई० 762 है / __ शबर ऋषि और प्रभाचन्द्र-जैमिनिसूत्र पर शाबरभाष्य लिखने वाले महर्षि शबरका समय ईसाकी तीसरी सदी तक समझा जाता है। शाबरभाष्यके ऊपर ही कुमारिल और प्रभाकर ने व्याख्याएँ लिखी हैं / आ० प्रभाचन्द्रने शब्दनित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद आदिमें कुमारिल के श्लोकवार्तिकके साथ ही साथ शाबरभाष्य की दलीलों को भी पूर्वपक्षमें रखा है / शाबरभाष्य से ही “गौरित्यत्र कः शब्दः ? गकारौकारविसर्जनीया इति भगवानुपवर्षः" यह उपवर्ष ऋषि का मत प्रमेयकमलमाण्ड ( पृ० 464 ) में उद्धृत किया गया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 276 ) में शब्दको वायवीय माननेवाले शिक्षाकार मीमांसकांका मत भी शबरभाष्यसे ही