SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्यायकुमुदचन्द्र द्यनेकाकारविवर्त्त पश्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम्" ( भिक्ष राहुलजीकी वार्तिकालंकारकी प्रेसकापी पृ० 429 ) इस वचनका खंडन करते हैं, (न्यायमंजरी पृ० 74 ) / भिक्षु राहुलजीने टिबेटियन गुरुपरम्पराके अनुसार धर्मकीर्तिका समय ई० 625, प्रज्ञाकरगुप्तका 700, धर्मोत्तर और रविगुप्तका 725 ईस्वी लिखा है। जयन्तने एक जगह रविगुप्तका भी नाम लिया है। अतः जयन्तकी पूर्वावधि 760 A. D. तथा उत्तरावधि 840 A. D. होनी चाहिए / क्योंकि वाचस्पतिका न्यायसूचीनिबन्ध 841 A. D. में बनाया गया है, इसके पहिले भी वे ब्रह्मसिद्धि, तत्त्वबिन्दु और तात्पर्यटीका लिखचके हैं। संभव है कि वाचस्पतिने अपनी आद्यकृति न्यायकणिका 815 ई० के आसपास लिखी हो। इस न्यायकणिका में जयन्तकी न्यायमंजरीका उल्लेख होनेसे जयन्तकी उत्तरावधि 840 A. D. ही मानना समुचित ज्ञात होता है। यह समय जयन्तके पुत्र अभिनन्द द्वारा दी गई जयन्तकी पूर्वजावलीसे भी संगत बैठता है। अभिनन्द अपने कादम्बरी कथासारमे लिखते हैं कि "भारद्वाज कूलमें शक्ति नामका गौड़ ब्राह्मण था। उसका पुत्र मित्र, मित्रका पुत्र शक्तिस्वामी हुआ। यह शक्तिस्वामी कर्कोटवंशके राजा मुक्तापीड ललितादित्यके मंत्री थे। शक्तिस्वामीके पत्र कल्याणस्वामी, कल्याणस्वामीके पुत्र चन्द्र तथा चन्द्रके पुत्र जयन्त हुए, जो नववृत्तिकारके नामसे मशहर थे / जयन्तके अभिनन्द नामका पुत्र हुआ।" काश्मीरके कर्कोट वंशीय राजा मक्तापीड ललितादित्यका राज्य काल 733 से 768 A. D. . तक रहा है। शक्तिस्वामी के, जो अपनी प्रौढ़ अवस्थामें मन्त्री होंगे, अपने मन्त्रित्वकालके पहिले ही ई०७२० में कल्याणस्वामी उत्पन्न हो चुके होंगे। इसके अनन्तर यदि प्रत्येक पीढीका समय 20 वर्ष भी मान लिया जाय तो कल्याण स्वामीके ईस्वी सन् 740 में चन्द्र, चन्द्र के ई०७६० में जयन्त उत्पन्न हए और उन्होंने ईस्वी 800 तकमे अपनी 'न्यायमंजरी' बनाई होगी। इसलिये वाचस्पतिके समयमें जयन्त वृद्ध होंगे और वाचस्पति इन्हें आदर की दृष्टिसे देखते होंगे / यही कारण है कि उन्होंने अपनी आद्यकृतिमें न्यायमंजरीकारका स्मरण किया है। जयन्तके इस समयका समर्थक एक प्रबल प्रमाण यह है कि-हरिभद्रसूरिने अपने षड्दर्शनसमच्चय (श्लो०२०) में न्यायमंजरी ( विजयानगरं सं० पृ. 129 ) के “गम्भीरगजितारम्भनिभिन्नगिरिगह्वराः / रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः॥ स्वङ्गत्तडिल्लतासङ्गपिशङ्गोत्तुङ्गविग्रहाः / वृष्टि व्यभिचरन्तीह नैवंप्रायाः पयोमुचः // " इन दो श्लोकोंके द्वितीय पादोंको जैसाका तैसा शामिल कर लिया है। प्रसिद्ध इतिवृत्तज्ञ मुनि जिनविजयजीने 'जैन साहित्यसंशोधक' (भाग 1 अंक 1) में अनेक प्रमाणोंसे, खासकर उद्योतनसुरिकी कुवलयमाला कथाम हरिभद्रका गुरुरूपसे उल्लेख होनेके कारण हरिभद्रका समय ई० 700 से 770 तक निर्धारित किया है। कुवलयमाला कथाकी समाप्ति शक 700 (ई०७७८) में हई थी। मेरा इस विषयमें इतना संशोधन है कि उस समयकी आयुःस्थिति देखते हुए हरिभद्रकी निर्धारित आयु स्वल्प मालूम होती है। उनके समयकी उत्तरावधि ई० 810 तक माननेसे वे न्यायमंजरीको देख सकेंगे। हरिभद्र जैसे सैकड़ों प्रकरणोंके रचयिता विद्वानके लिए 100 वर्ष जीना अस्वाभाविक नहीं हो सकता। अतः ई० 710 से 810 तक समयवाले हरिभद्रसूरिके द्वारा न्यायमंजरीके श्लोकोंका अपने ग्रन्थमें शामिल किया जाना जयन्तके 760 से 840 ई० तकके समयका प्रबल साधक प्रमाण है। आ० प्रभाचन्द्रने वात्सायनभाष्य एवं न्यायवार्तिक की अपेक्षा जयन्तकी न्यायमञ्जरी एवं न्यायकलिकाका ही अधिक परिशीलन एवं समुचित उपयोग किया है / षोडशपदार्थके निरूपणमें जयन्तकी न्यायमञ्जरीके ही शब्द अपनी आभा दिखाते हैं / प्रभाचन्द्रको न्यायमंजरी स्वभ्यस्त * देखो, संस्कृतसाहित्यका इतिहास, परिशिष्ट ( ख ) पृ० 15 /
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy