________________ प्रस्तावना 63. प्रभाचन्द्र के ग्रन्थ ___ आ० प्रभाचन्द्रके जितने ग्रन्थोंका अभी तक अन्वेषण किया गया है उनमें कुछ स्वतन्त्र प्रन्थ हैं तथा कुछ व्याख्यात्मक / उनके प्रमेयकमलमार्तण्ड (परीक्षामुखव्याख्या), न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रय व्याख्या ), तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण ( सर्वार्थसिद्धि व्याख्या ), और शाकटायनन्यास (शाकटायनव्याकरणव्याख्या ) इन चार ग्रन्थोंका परिचय इसी ग्रन्थके प्रथमभागकी प्रस्तावनामें दिया जा चुका है / यहाँ उनके शब्दाम्भोजभास्कर ( जैनेन्द्रव्याकरण महान्यास ) और प्रवचनसारसरोजभास्कर (प्रवचनसारटीका ) का परिचय दिया जाता है / गद्यकथाकोश, महापुराण टिप्पण आदि भी इन्हींके ग्रन्थ हैं / इस परिचयके पहिले हम 'शाकटायनन्यास' के कर्तृत्व पर विचार करते हैं __ भाई पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने शिलालेख तथा किंवदन्तियोंके आधारसे शाकटायनन्यासको प्रभाचन्द्रकृत लिखा है / शिमोगा जिलेके नगरताल्लुकेके शिलालेख नं० 46 (एपि० कर्ना० पु. 8 भा० 2 पृ० 266-273 ) में प्रभाचन्द्रकी प्रशंसापरक ये दो श्लोक हैं "माणिक्यनन्दिजिनराजवाणीप्राणाधिनाथः परवादिमर्दी / चित्रं प्रभाचन्द्र इह क्षमायां मार्तण्डवृद्धौ नितरां व्यदीपित // *सुखि..."न्यायकुमुदचन्द्रोदयकृते नमः / शाकटायनकृत्सूत्रन्यासकर्ने व्रतीन्दवे // " जैनसिद्धान्तभवन आरामें वर्धमानमुनिकृत दशभक्त्यादिमहाशास्त्र है / उसमें भी ये श्लोक हैं। उनमें 'मुखि...' की जगह 'सुखीशे' तथा 'व्रतीन्दवे' के स्थानमें 'प्रभेन्दवे' पाठ है / गाथा धवलाटीका ( रचनाकाल ई० 816 ) में उद्धृत है और उमास्वातिकृत श्रावकप्रज्ञप्तिमे भी पाई जाती है। दूसरी गाथा पूज्यपाद (ई० 6 वीं) कृत सर्वार्थसिद्धि में उद्धृत है / अतः इन प्राचीन गाथाओंको नेमिचन्द्रकृत नहीं माना जा सकता। अवश्य ही इन्हें नेमिचन्द्रने जीवकाण्ड और द्रव्यसंग्रहमें संग्रहीत किया है। अतः इन गाथाओंका उद्धृत होना ही प्रभाचन्द्रके समयको 11 वीं सदी नहीं साध सकता। 6 न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना पृ० 125 / * इस शिलालेखके अनुवादमें राइस सा० ने आ० पूज्यपादको ही न्यायकुमुदचन्द्रोदय और शाकटायनन्यासका कर्ता लिख दिया है। यह गलती आपसे इसलिये हुई कि इस श्लोकके बाद ही पूज्यपादकी प्रशंसा करनेवाला एक श्लोक है, उसका अन्वय आपने भूलसे "सुखि” इत्यादि श्लोकके साथ कर दिया है। वह श्लोक यह है "न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूयोन्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा / यस्तत्त्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह तां भात्यसौ पूज्यपाद स्वामी भूपालवन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्बोधवृत्तः // " थोड़ी सी सावधानीसे विचार करने पर यह स्पष्ट मालूम होता जाता है कि 'सुखि' इत्यादि श्लोकके चतुर्थ्यन्त पदोंका 'न्यास' वाले लोकसे कोई भी सम्बन्ध नहीं है / ब्र० शीतलप्रसादजीने 'मद्रास और मैसूरप्रान्तके स्मारक' में तथा प्रो० हीरालालजीने 'जनशिलालेख संग्रह' की भूमिका (पृ० 141) में भी राइस सा० का अनुसरण करके इसी गलतीको दुहराया है।